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अभय रत्नसार।
२६.१ पण प्रभु लग पहुंचीजें तेह नही पग दोड़ ॥३॥
आडा डूंगर अति घणा विच वहे नदिया पूर, किम मुझथी अवराये प्रभुजी एटली दूर ॥ आंखडली उलझो करे जोयवा मुख जिनराज, पांख डली पाई नही ते विन किम सरे काज ॥४॥ वाटली वहतो कोई न मिले. सेंगू साथ, कागलियो लिख आपूजिम तेहने हाथ ॥ जाणुं शशहर साथें कहुं संदेशा जेह, पण अलगो थई ऊपरि वाडे निकले तेह ॥ ५ ॥ जो कोई रीतें प्रभुजी तुमथी एथ अवाय, तो इण भरतना वासी भविजन पावन थाय ॥ साहिबनी तो सुन जर सघले सरखी होय, पण पोतानी प्राप्ति सारू फल प्रति जोय.॥ ६॥ अलगो छ पण माइरे तुम शुसाची प्रीत, गुण गुणवंतना आवे हियडे खिण-खिण चित्त ॥ हुछू सेवक तुछे माहरो आतमराम, नहिंय विसारू जीवं ज्यां लगि ताहरु नाम ॥ ७॥ साचे दिलथी मुझशुधरजो
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