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अभय रत्नसार । अलमहव अचिन्ताणन्त-सामथो सिं फलिहइ लहु सव्वं वंछिअंणिच्छिअं मे ॥३॥ सयलजय हिआणं नाम-मित्तेण जाणं, विहडइ लहू दुट्ठानिट-दोघट्ट-थटुं। नमिर-सुर-किरोडुग्घिट्ठ-पायारविन्दे, सययमजिअ-सन्ती ते जिणन्देभिवन्दे ॥४॥ पसरइ वर कित्ती वड्ढए देहदित्तो, विलसइ भुवि मित्तो जायए सुप्पवित्ती। फुरइ परम-तित्ती होइ संसार-छित्ती, जिणजुअ-पय-भत्ती हीअ-चिंतोरु-सत्ती ॥५॥ ललिअ-पय-पायारं भूरि-दिव्वंग-हारं, फुड-घण-रसभावोदार-सिंगार-सारं। अणिमिस-रमणिज्ज डंसण-च्छेअ-भीया, इव पुण मणिबंधाकासनहोवयारं ॥६॥ थुणह अजिअ-संती ते कयासेस-संती, कणय-रय-पसंगा छज्जए जाणि मुत्ती। सरभस-परिरंभारंभि-निव्वाण-लच्छी, घण-थण-घुसिणिक्कुप्पंक पिंगीकयव्व ॥७॥ बहुविह-नय-भंगं वत्थु णिच्च अणिञ्च, सदस
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