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अभय रत्नसार । ४१३ देवानी नकी, गो० ॥ पाणीवलि पिण ढील हो। गो० ॥ वा०॥६॥ तें कीधी तिम तूं करै, गो० राखी चिहुं मांहे लाज हो ॥ गो० ॥ वलि अवसर संभारज्यो, गो० ॥ इम जपै जिनराज हो॥ गो० ॥ वा० ॥७॥
॥पांचवां पद ॥ अरज सुणीजै अंतरजामी, पास जिनेसर स्वामी रे ॥ अश्वसेन वामाजीके नंदन, त्रिभुवन जन विसरामी रे ॥ अ०॥१॥ गुण गिरवा गोडीचा स्वामी, नाथ निरंजन नामी रे ॥ अ०॥ भव अटवी वन घन विच भमतां, पुण्ये सेवा पामी रे ॥ १०॥२॥ दीनदयाल दया कर दीजै, अनुभव गुण अभिरामी रे ॥ अ० ॥ चरण कमल सेवा चित चाहत, सुगण सदा हितकामो रे ॥ अ०॥॥
॥छठा पद ॥ प्यारी पासकी, देखी सूरत मो मन भाय ॥
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