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जयतिहुअण स्तोत्र। ३१
३८-जयतिहुश्रण स्तोत्र। जय तिहुअण-वर-कप्परुक्ख, जय जिण धन्नंतरि । जय तिहुअण-कल्लाण-कोस, दुरिअकरि-केसरि ॥ तिहुअणजण-अविलंधिप्राण, भुवण-त्तय-सामित्र। कुणसु सुहाइं जिणेस पास, थंभणयपुर-ट्टिअ ॥१॥ तइ समरंत लहंति झत्ति, वर-पुत्त-कलत्तइ । धण्ण-सुवरणहिरण्ण-पुराण, जण भुंजइ रज्जइ ॥ पिक्खइ मुक्ख असंख-सुक्ख, तुह पास पसाइण । इस तिहुअण वर-कप्प-रुक्ख, सुक्खइ कुण मह जिण ॥ २॥ जर-जज्जर परिजुण्ण-कएण, नटुट्ठ सुकुट्टिण । चक्खु-क्खीण खएण खुण्ण, नर सलिय सूलिण।। तुह जिण सरण-रसायणेण, लहु हु ति पुणगणव। जय-धन्नंतरि पास महवि, तुह रोग-हरो भव ॥ ३॥ विज्जा-जोइस-मंत तंत-सिद्धीउ अपयत्तिण। भुवणऽन्भुन अट्टविह सिद्धि,
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