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श्रीगौडीपार्श्वजिन-वृद्धस्तवनं। १३१ तुरक. आपै जी। पास जिनेसर केरी प्रतिमा, सेवक तुझो संताप जी (गु.) ॥६॥ प्रह ऊठीने परगट करज, मेघा गोठीने देजे जी । अधिक म लेजे ओछो म लेजे, टक्का पांचसै लेजे जी ( गु०) ॥७॥ नहिं आपिस तो मारीस मुरडीस, मोर बंध बंधास्ये जी। पुत्र कलत्र धन
ह्य हाथी तुझ, लाछि घणी घर जास्यै जी ( गु० ) ॥८॥ मारग पहिलो तुझनें मिलस्य, सारथवाह जे गोठी जी। निलक्ट टीलो चोखा चेढ्या, वस्तु वहै तसु पोठी जी ( गु० ) ॥६॥ (दृहा )॥ मनसु बोहनो तुरकडो, माने वचन प्रमाण । बीबी ने सुहणा तणो, संभलावै सहिनाण ॥ १०॥ बीबी बोले तुरकने, बडा देव है कोय । अवस ताव परगट करो, नहीतर मारै सोय ॥११॥ पाछली रात परोडीयै, पहली बांधै पाज । सुहणा माहे सेठने, संभलावै जक्ष-राज ॥ १२ ॥ ( ढाल ) एम कही जक्ष आयो राते,
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