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अभय रत्नसार। ५१३ संकइ वेसेण दिक्खिोमि अहं ॥ उम्मग्गेण पड़तं, रक्खइ राया जणवउ य ॥ २१ ॥ अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्रिओ अप्पसक्खिो धम्मो ॥ अप्पा करेइ तं नह, जह अप्पसुहावहं होई ॥२२॥ जंजौं समयं जोवा, आविस्सइ जेण जेण भावण ॥ सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥ ॥२३॥ धम्मो मएण हुँतो, तो नवि सोउन्ह वायविज्झदिना ॥ संवच्छरमणसीओ, बाहुबली तह किलिस्संता ॥ २४ ॥ नियगमइ विगप्पिय चिं, तिएण सच्छंदबुद्धिचरिएण॥ कत्तोपारत्तियं,कीरइ गुरु अणुवएसेणं ॥२५॥ अद्धो निगेवयारी, अविणीओ गब्धिा निरवणामो॥ साहुजणस्स गरहिआ, जणेवि वयणिज्जयं लहइ ॥२६॥ थोवण वि सप्पुरिसा, सणंकुमारूवक ई बुझति ॥ देहे खणपरिहाणी, जकिर देवेहिंसे कहियं ॥ २७ ॥ जइता लवसत्तम सुर,विमाण वासीवि परिवडंति सुरा ॥ चिंतिज तं सेसं, संसारे सोसयं कयरं॥
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