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अभय रत्नसार। ३२३ भाव थिररूप निवृत्ति न जांणियै ॥ क्रोध मांन ने माया संजलणा हणे, उदै नही जिहां वेद अवेदपणो तिणें ॥ २५ ॥ जिहां रहै सुखम लोभ कांद्रक शिव अभिलखै, ते सूखम संपराय दसम पंडित अखे ॥ संत मोह इण नांम इग्यारम गुण कहै, मोह प्रकृति जिण ठांम सहू उपशम लहै ॥ २६ ॥ श्रेणि चढयो जो काल करै किणही पर, तो थायै अहमिंद्र अवर गति नादरै ॥ च्यार वार समश्रेणि करै संसारमें, एक भवे दोय श्रेण अधिक न हुवे किमें ॥ २७॥ चढि इग्यारम सीम समीप पहिले पड़े, मोह उदय उत्कृष्ट अरध पुदगल रडै ॥ आपकश्रेणि इग्यारम गुणठाणो नही, दशमथकी बारम्म चढे ध्यांने रही ॥२८॥ ॥ ढाल ।। ६ ॥ एक दिन कोइ मागध आयो पुरंदर पास ॥ ए देशी ॥ ___खीणमोह नामे गुणठाणो बारस जाण, मोह खपायो नेडो आयो केवलज्ञान ॥ प्रगटपणे जिहां चरित अमल यथा आख्यात, हिव आगे
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