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अभय रत्तसार।
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अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वामपासेणं ॥ कुक्कुड पाय पसारण, अन्तरं तु पमजए भूमि ॥ ॥२॥ संकोइय संमासं, उवट्टतेय काय पडिलेहा ॥ दवाई उवओगं, ऊसासनिरुम्भणालोयं ॥ ३॥ जइ मे हुज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए ॥ आहार मुवहि देहं, सव्वं तिविहेण वोरिरियं ॥ ४ ॥ आसव कसाय बन्धण, कलहा भक्खाण परपरीवाओ, इरइ रई पेसुन्नं, माया मोसं च मिच्छत्तं ॥५॥ वोसिरिसु इमाइंमु,क्खमग संसग्ग विग्घ भूआई ॥ डग्गइनिबधणाइं, अट्ठारस पावट्ठणाई ॥६॥ एगो हं नत्त्थिमे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सवि ॥ एवं अदीण मणसो, अप्पाण मणुसासए॥७॥ एगो मे सासो अप्पा, नाणदंसणसंजुओ ॥ सेसा मे बाहिरा भावा, सब्बे संजोगलक्खणा ॥ ८॥ संजोग मूला जीवेगण, पत्ता हुक्खपरंपरा ॥ तम्हा संजोग संबन्धं, सव्वं तिविहेण वोसिरे ॥ ६ ॥ अरिहंतो मह
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