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अभय रत्नसार। ४४६ वाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी॥१०॥ कुसुमवृष्टि अरचे तिहां देवा, चउसठ इन्द्रज मांगे सेवा ॥ चामर छत्र सिरोवरि सोहे, रूवहि जिनवर जग महु मोहे ॥ ११॥ उपसम रसभर वरवरसंता, जोजनवाणि वखाण करता ॥ जाणवि वर्द्धमान जिण पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया ॥ १२ ॥ कंत समोहियजलहलकंता, गयण विमाणहि रणरणकंता ॥ पेखवि इन्द्रभूइ मन चिंते, सुर आवे अमयज्ञ हुवंते ॥ १३ ॥ तीरतरं डक जिम ते वहिता, समवसरण पुहता गहगहिता ॥ तो अभिमाने गोयम जंप, इण अवसर कोपें तणु कंपे ॥ १४ ॥ मूढा कोक अजाण्यु बोले, सुर जाणंता इम कांइ डोले ॥ मो आगल कोइ जाण भणीजें, मेरु अवर किम उपमा दीजें ॥ १५ ॥ वस्तु ॥ वीर जिणवर विर जिणवर ना ण संपन्न पावापुर सुरमहिय, पत्तनाह संसारता रण ॥ तिहिं देवइ निम्महिय, समवसरण बहू
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