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अभय रत्नसार। ३१७ अंगुल जोगै कवल तणी पर, जे बूझ रे ॥प्रा०॥ ५१ ॥ आग्रह आणो कोइ एकने, एहमां दियै बड़ाई ॥ पिण सेना मिल सकल रणंगण, जीते सुभट लड़ाई रे॥ प्रा० ॥५२॥ तंतु स्वभावे पट उपजावै, काल क्रमें वणाई ॥ भवितव्यता होय ते नोपजे, नही तो विघन घणाई रे ॥प्रा०॥५३॥ तंतुवाय उद्यम भोक्तादिक, भाग्य सबल सहकारी ॥ ए पांचे मिल सकल पदारथ, उत्तपत जोवो विचारी रे ॥ प्रा० ५४ ॥ नियत वसे हलु कम थईने, निगोदथकी नीकलियो ॥ पुण्ये मनुज भवादिक पांमी, सदगुरुने जइ मिलियो रे ॥०॥ ५५ ॥ भवथितनो परपाक थयो तब, पंडित वीर्य उल्लसियो॥ भव्य स्वभावै शिवगति गांमी, शिवपुर जइनें वसियो रे ॥प्रा०॥ ५६ ॥ वद्धमान जिन इण पर वीनवै, शासन नायक गावो ॥ संघ सकल सुखदाई छेहथी, स्याद्वाद रस पावो रे ॥प्रा०॥ ५७॥
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