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भूििदवी जैन ग्रन्थमाला : संस्कृत ग्रन्थाक
श्रीमद्-भट्टाकलङ्कदेव-प्रणीतस्य न्यायविनिश्चयस्य विवरणभूतं
श्रीमद्-वादिराजसूरि-विरचितं न्यायविनिश्चयविवरणम्
प्रथमो भागः [ प्रत्यक्षप्रस्तावः]
सम्पादन प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य
भारतीय ज्ञानपीठ
द्वितीय संस्करण : 2000
मूल्य: 200 रु.
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Moortidevi Juin Granthamria : Sonskrit Grantha No.3
NYAYAVINISCAYA-VIVARANA
of ŚRI VĀDIRĀJA SŪRI the Sanskrit Commentary on BHATTA AKALANKADEVA'S
NYAYAVINIŚCAYA
Vol. I
(PRATYAŞA-PRASTĀVA)
Edited by Prof. Mahendra Kumar Jain, Nyayacharya
BHARATIYA JNANPITH
Second Edition : 2000 J Price : R$. 200
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अनुक्रम
सम्पादकीय
पृ०६-८ । प्रत्यक्ष लक्षण प्रस्तावना ग्रन्थ विभाग
शाम का भात्मवेदिद
परोक्ष ज्ञामवादका खण्डन दर्शन
शामकी साकारता
४२५४३ दर्शन की परिभाषा
बोराभिमत साझारवादकी मीमांसा लेम दर्शन की देन
ज्ञान अर्धको जानता है
बाह्य अर्थका सहावस्पात् शाम का अर्थ
अर्थ सामान्यविक्षेपारसक और दरप्रोपलदेव उपाध्याय के मत की आलोचमा १८
पर्याधात्मक है • देवराज के मत की समीक्षा
२०
युद्धके शून्य निर्माणका साक्षा ४६.४७ महारंदित राहुल सांकृत्यायन के मत की
जैनदर्शमकी पक्षार्थ व्यवस्था
४९-५३ समालोचना
मुण और धर्म व और संजय
विशदज्ञान प्रस्यक्ष
५३-५४ सप्तभंगी.
परपरिकविपत प्रत्यक्षलक्षणनिसय श्री सम्पूर्णानन्द के.मत की समीक्षा
मानस प्रत्यक्ष निराकरण अनेकान्त दर्शन का सांस्कृतिक भाधार
स्वसंवेदन प्रत्यक्ष साउन सर राधा कृष्ण के मत की समीक्षा
शैसम्मत चिसाप लक्षणका निगम्य मो. हनुमन्तराध के मत की आलोचना
सांस्य और नैयायिक प्रत्यन लभपका निरास ५६ विषय-परिचय
प्रत्यक्ष भेर प्रन्थ का नाम
परमा प्रत्यक्ष न्यायविनिवप की श्रका का सा
अन्धकार विभाग अन्धगतप्रमेय
अकसके समयके सम्बन्ध कारिका संख्या
३३ | वादिराजसूरि (प्रेमीजी द्वारा सिलिम).. ५८.६२ न्यायविनिश्यविवरण का परिचय ३४.३३ अन्यकी विषय सूची प्रत्यक्ष परिच्छेद का विषय
२६ । मूलग्रन्थ प्रमाण के भेद
३७ शुद्धिपष
५६
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सम्पादकीय (प्रथम संस्करण, EYE से)
सन् १९३३ से ही जब मैंने 'न्यायकुमुदचन्द्र' का सम्पादन आरम्भ किया था, वह संकल्प था कि अकलकदेव के ग्रन्थों का शुद्ध सम्पादन किया जाय । इस संकल्प के अनुसार अकलङ्कग्रन्थत्रय में 'न्यायविनिश्चय' की मूल कारिकाएँ भी उत्थान वाक्यों के साथ प्रकाशित की जा चुकी हैं। इन कारिकाओं को छाँटते समय 'न्यायविनिश्चयविवरण' की उत्तरप्रान्तीय कतिपय प्रतियाँ देखी गयी थीं। ये प्रतियाँ अशुद्धिबहुल तो थीं हीं, पर इनमें एक-एक दो-दो पत्र तक के पास रात्र तत्र छुटे हुए थे। उस समय पथिट्री के वीरवाणी विलास भवन से ताडपत्रीय प्रति भी मंगायी थी। उसके देखने से यह आशा हो गयी थी कि इसका भी शद्ध सम्पादन हो सकता है। प्रमाणवार्तिकालधार जैसे पूर्वपक्षीय बौद्ध ग्रन्थों की प्रतियाँ प्राप्त हो जाने से यह कार्य असाध्य नहीं रहा।
सन् १६४४ में दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जी ने ज्ञानपीठ की स्थापना की। इसमें स्व. मातेश्वरी मूर्तिदेवी के स्मरणार्थ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्रारम्भ की गयी। संस्कृत विभाग में न्यायविनिश्चयविचरण' का सम्पादन लगातार वलता रहा है। इसके संशोधनार्य बनारस, आरा, सोलापुर, सरसाया, मूढविद्री और थारंग के मठसे चार कागज की तथा दो ताइपत्र की प्रतियाँ एकत्रित की गयीं।
बनारस की प्रति स्याद्वाद जैन विद्यालय के 'अकला सरस्वती भवन' की है। इसकी संज्ञा ब. रखी गयी है। अशुद्ध पर सुवाच्य है।
आरा की प्रति 'जैन सिद्धान्त भवन' की है। इसकी संज्ञा आ. रखी है। यह बनारस की प्रति की तरह ही अशुद्ध है। बनारस की प्रति इसी प्रति से लिखी गयी है।
सोलापुर से ब्र. सुमति बाई शाह ने जो प्रति भिजवायी थी वह बम्बई में ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन की प्रति थी। यह भी अशुद्धप्राय है। इसकी संज्ञा स. है।।
सरसावा से पं. परमानन्द जी शास्त्री ने वीर सेवा मन्दिर की प्रति भिजवायी थी। यह पूर्वोक्त प्रतियों से कुछ शुद्ध है। इसकी संज्ञा प, है। ये प्रतियाँ कागज पर लिखी गयी हैं तथा इनमें पंक्तियाँ तो अनेक स्थानों पर छूटी ही हैं, एक-एक दो-दो पत्र तक के पाठ छूटे हैं।
वीरवाणी विलास मकन, मूडबिद्री से जो ताडपत्रीय प्रति कनड़ी लिपि में प्राप्त हुई थी, उसे हमने आदर्श प्रति माना है। इसमें २७७ पत्र, एक पत्र में 8-10 पंक्तियाँ तथा प्रति पंक्ति १५३-१४४.अक्षर
यह प्रति प्रायः पूर्ण और शुद्ध है। मूल कारिकाओं के उत्थान वाक्य के आगे * इस प्रकार का कारिका घेदक चिहन बना हुआ है। इस प्रति में कहीं-कहीं टिप्पण भी हैं, जिन्हें इस संस्करण में 'ता. टि.' इस संकेत के साथ टिप्पण में दे दिया है।
जहाँ इस प्रति में बिलकुल ही अशद्ध पाठ रहा है वहीं इसका पाठ पाठान्तर टिप्पण में देकर अन्य प्रतियों का पाठ ऊपर दिया है। सभी प्रतियों में जहाँ अशुद्ध पाठ है तथा सम्पादक को शुद्ध पाठ सूझा है, ऐसे स्थान में ताडपत्रीय प्रति का अशुद्ध पार ही मूल में रखा है तथा सम्पादक द्वारा किया गया संशोधन गोल ब्रेकिट ( )में दिया है या सन्देहात्मक चिह्न (?) दे दिया है। हमने स्वसंशोपित पाठ
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(७)
मूल में शामिल करके नयी प्रति को जन्म नहीं दिया है। ऐसे स्थान में ताइपत्रीय प्रति के सिवाय अन्च प्रतियों के पाठ टिप्पण में दे दिये हैं।
एक ताडपत्रीय प्रति वारंग के मठ की भी हमें प्राप्त हुई थी। इसका उपयोग भी सन्दिग्ध पाठों के निर्णय के लिए दरातर किया गया है। यह प्रति प्रायः अशुद्ध है।
टिप्पण-इस ग्रन्य में भी 'न्यायकमदचन्द्र' जैसे तुलनात्मक टिप्पण देने का विचार था। वैसी शक्यता थीथी और सामग्री भोर पर यह कार्य बहुत समय और शक्ति ले लेता। अतः मध्यम मार्ग का अवलम्बन लेकर टिप्पण संक्षिप्त कर दिये हैं। इनमें महत्व के पाठभेद तथा पूर्वपक्ष का तात्पर्य उद्घाटन करने के लिए तत्तत्पूर्वपक्षीय ग्रन्थों के पाठ, उसकी टीका तथा अर्थबोधक टिप्पण ही विशेषरूप से लिखे हैं। ग्रन्थ को समझने में इनसे पर्याप्त सहायता मिलेगी। .
प्रस्तावना-प्रस्तावना में ग्रन्थ और ग्रन्थकार से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ खास मुद्दों पर संक्षेप में विचार किया है। कुछ प्रमेयों को नये दृष्टिकोण से देखने का भी लघुपयल हुआ है। स्थावाद और सप्तभंगी के विषय में प्रचलित अनेक भ्रान्तमतों की समीक्षा की गयी है। ग्रन्थकार अलकत्र के समय के सम्बन्ध में विस्तार से लिखने का विचार था पर अपेक्षित सामग्री को पूर्णता न होने से कुछ काल के लिए यह कार्य स्थगित कर दिया है। ज्ञानपीठ मूर्तिदवी ग्रन्थमशाला में आगे न्यायविनिश्वयविवरण' का द्वितीय भाग, 'तस्वार्थवार्तिक' और 'सिद्धिविनिश्चय-टीका' ये अकलङ्कीय ग्रन्थ प्रकाशित होनेवाले हैं। इनमें 'न्यायविनिश्वयविवरण' द्वितीय भाग आधा छप भी गया है। 'तरवार्थवार्तिक' तीन ताडपत्रीय तथा अनेक कागज पर लिखी गयी प्राचीन प्रतियों से शुद्धतम रूप में सम्पादित हो चुका है तथा सिद्धिविनिश्चयटीका पर भी पर्याप्त श्रम किया जा चुका है। आशा है, यह समस्त अकरावाङ्मय शीघ्र ही प्रकाश में आएगा। तब तक अकलङ्क के समय आदि की साधिका सामग्री पर्याप्त मात्रा में प्रकाश में आ जाएगी।
__ज्ञानपीठ के अनुसन्धान विभाग में अप्रकाशित अकलङ्कीय वाङ्मय का प्रकाशन तथा अशुद्ध प्रकाशित का शुद्ध प्रकाशन और तस्वार्थसूत्र की अप्रकाशित टीकाओं का प्रकाशन यही कार्य मुख्यतया मेरे कार्यक्रम में है। विविध विषय के संस्कृत, प्राकत और अपभ्रंश भाषा के दसों ग्रन्थ अधिकारी विद्वानों द्वारा सम्पादित हो चुके हैं, जो छपाई की सुविधा होते ही प्रकाशित होंगे। संस्कृतिसेवकों, जिनवाणीभक्तों और साहित्यानुरागियों को ज्ञानपीठ के साहित्य का प्रसार करके उसके इस सांस्कृतिक अनुष्ठान में सहयोग देना चाहिए।
आभार-दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जी तथा उनकी समरूपा धर्मपत्नी सौजन्यमूर्ति स्माली ने सांस्कृतिक साहित्योद्धार और नव-साहित्य-निर्माण को पुनीत भावना से भारतीय ज्ञानपीठ का संस्थापन किया है और इसमें धर्मप्राणा स्व, मातेश्वरी मूर्तिदेवी की भव्य भावना को मूर्तरूप देने के लिए ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला का संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में प्रकाशन किया है। इनकी यह संस्कृतिसेवा भारत के गौरवमय इतिहास का आलोकमय पृष्ठ बनेगी। इस भर दम्पती से ऐसे ही अनेक सांस्कृतिक कार्य होने की आशा है।
श्रद्धेय ज्ञाननयन पं. सुखलाल जी की शुभ भावनाएँ तथा उपलब्ध सामग्री का यथेष्ट उपयोग करने की सुविधाएँ और विचारोत्तेजन आदि मेरे पानस विकास के सम्बल हैं। श्रीमान् पं. नाथूरामजी प्रेमी का किन शब्दों में स्मरण किया साथ, वे चतुर माली के समान ज्ञानांकुरों को पल्लवित और पुष्पित करने में अपनी शक्ति का लेश भी नहीं छिपाते । आपका यादिराज सूरि वाला निबन्ध ग्रन्थकार भाग में उद्धृत किया गया है। सुहद्धर महापाड़ित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी कठिन तिब्बत-यात्रा में प्राप्त प्रज्ञाकर-गुप्तकृत 'प्रवाणवालिकालकार' की प्रति देकर तो इस ग्रन्थ के शुद्ध सम्पादन का द्वार ही खोल दिया है। मैं इन सब ज्ञानपथगामिवों का पुनः पुनः स्मरण करता हूँ।
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श्री पं. देवरभट्ट शर्मा न्यायाचार्य ने ताडपत्रीय कन्नड़ प्रति का आधन्त वाचन ही कहीं किया, अपितु सम्पादन में भी अपने दुश्य से पूरा पूरा सहयोग दिया है। पं. यहादेवीजी चतुर्वेदी, पं. लोकनाथजी शास्त्री मुनिद्री ने ताडपत्रीय प्रतियों को भेजा है। श्री पं. नेमीचन्द्रजी आरा, पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार सरसावा आदि महानुभायों ने अपने अपने ग्रन्थ-भण्डार की प्रतियाँ सम्पादनार्थ दी। मैं इन सबका आभार मानता हूँ।
ज्ञानपीट का अन्य कार्य देखते हुए इन चार वर्षों का समय जितनी भी निराकुलता से इस ज्ञानयज्ञ में लग सका है उसका बहुत कुछ श्रेय ज्ञानपीठ के कर्भमना मन्त्री श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीग को है। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को संभाल कर यो कार्य में मुझे सदा उन्मुख रखा है। प्रत्येक कार्य रामग्री से होता है। मैं उस सामग्री का एक अंग हैं, इससे अधिक कुछ नहीं।
- महेन्द्रकुमार जैन मार्गशीर्ष शुक्ल १५ दीर संवत २४७५
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प्रस्तावना
१ ग्रन्थ विभाग
दर्शन-संसार के यावत् । अपर प्राणियों में मनुष्य की चेतना सविशेष बिन्द्रसित है। उसका जीवन अन्य प्राणियों की तरह केवल आहार निया रक्षा और प्रजनन में ही नहीं बीसता किन्तु वह अपने स्वरूप, मरणोत्तर जोक्न, जड़ जगत , उससे अपने सम्बन्ध आदि के विषय में सहज गति से मनन-विचार करने का अभ्यासी है। सामान्यतः उसके प्रश्नों का दार्शनिक रूप इस प्रकार है-श्रामा क्या है? परलोक है या नहीं? यह जड़ जगत् क्या है। इससे आत्मा का क्या सम्पन्ध है। यह जपत् वयं सिद्ध है या किसी चेतन शक्ति से समुत्पन है। इसकी गतिविधि किसी शेतन से नियन्त्रित है या माकृतिक साधारण नियमो से आरयू? क्या भरात से सत् उत्पन हुआ? क्या किसी सत् का विनाश हो सकता है इत्यादि प्रश्न मानव जाति के आदिकाल से बराबर उत्पन्न होते रहे हैं और प्रत्येक दार्शनिक मानस इसके समाधान का प्रयास करता रहा है। राम्वेद तथा उपनिषत् कालीन प्रश्नों का अध्ययन इस बात का साक्षी है। दर्शनशास्त्र ऐसे ही प्रश्नों के सम्बन्ध में ऊहापोह करता आया है। प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ की म्यास्या में मसभेव हो सकता है पर स्वरूप उसका विवाद से परे है किन्तु परोक्ष पदार्थ की पारा और स्वरूप दोनों ही विवाद के विषय है। यह लीक है कि दर्शन का क्षेत्र इन्दियगम्य और इन्द्रियाप्तीस दोनों प्रकार के पदार्थ हैपर मुख्य विचार यह है कि दर्शन को परिभाषा क्या है? उसका वास्तविक अर्थ क्या है? वैस साधारणतया दर्शन का मुख्य अर्थाNRI करना है। वस्तु का पक्ष ज्ञान ही दर्शन का मुख्य अभिधेय है। यदि दर्शन का यही मुख्य अर्थ हो तो दर्शनों में भेद कैसा? किसी भी पदार्थ का भास्तविक पूर्ण प्रत्प्रक्ष दो प्रकार का नहीं हो सकता। अग्नि का प्रत्यक्ष गरम और टण्डे के रूप में दो तरह से न अनुभवाम्म है और न विभासयोग्य ही। फिर दर्शनों में तो पग-पग पर परसर विरोध विद्यमान है। ऐसी दशा में किसी भी जिज्ञासु को यह सन्देह स्वभावतः होता है कि सभी दर्शन-प्रणेता ऋषियों ने तस्व का साक्षादर्शन करके निरूपण किया है तो उनसे इसमा मतभेद क्यों है? या तो दर्शन समय का साक्षात्कार अर्थ नहीं है या यदि यही अर्थ है सो पस्त के पूर्ण स्वरूप का यह दर्शन नहीं है या पास्तु के पूर्ण स्वरूप का दाम भी हुआ हो सो उसके प्रतिपादन की प्रक्रिया में अन्तर है? दर्शन के परस्पर विरोध का कोई न कोई ऐसा ही हेनु होना चाहिये। पूरन आइये, सर्वतः समिकर आत्मा के स्वरूप पर ही दर्शनकारों के साक्षात्कार पर विचार कीजिये-सांख्य आरमा को कूटस्पनिय मानते है। इनके मत से आत्मा का स्वरूप अनादि अनन्त अविकारी सिाय है। चौर इसके विपरीत प्रतिक्षण परिवर्तित झानक्षणरूप ही आत्मा मानते हैं। नैया या वैशेषिक परिवर्तन हो मानते है, पर यह पुर्ण तक ही सीमित है। मीमांसको आत्मा मैं अवस्थाभेदकृत परिवर्तन स्वीकार करके भी दूध्य निस्य स्वीकार किया है। योगवन का भी यही अभिप्राय है। जैनों ने अवस्थामेरकृत परिवर्तन के मूल आधार स्य में परिवर्समकाल में किसी भी अपरिवर्तिणु अंश को स्वीकार नहीं किया कि अविछिन पयांवपरम्परा के चालू रहने को ही स्पस्वरूप माना है। शांक इन सब पक्षों से मिक भूतपतुष्टयरूप ही आला मानता मानता है। उसे आत्मा के स्वतन्त्र इष्प के रूप में दर्शन नहीं हुए। यह वो हारमा स्वरूप की बात । उसकी आकृति पर विचार कीजिये तो ऐसे ही अनेक दर्शन मिलते हैं। भारमा अमः । है या मुर्त होकर भी इतना सूक्ष्म है कि वह हमारे धर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई दे सकता इसमें किसी को विवाद नहीं है। इसलिए अतीन्द्रियी कुछ अषियों ने अपने पर्शन से बताया कि मा सग्यापक। दूसरे पियों को दिखा कि आत्मा अगुरूप है . टीज के समान अति सक्ष्म है। कुछ को दिशा कि
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न्यायविनिश्चयविवरण
देहरूप ही आत्मा है तो किन्हीं में छोटे बड़े शरीर प्रमाण संकोच-विकासशील आत्मा का प्रकार बताया। विचार जिज्ञासु अनेक पपडण्ड़ियों वाले इस शतराहे पर खड़ा होकर दिग्नाम्त हुआ था सो दर्शन शन्न के अर्थ पर ही शंका करता है या फिर दर्शम की पूर्णता में ही अविश्वास करने को उसका मन होता है। प्रत्येक वर्शनकार यही दावा करता है कि उसका दर्शन पूर्ण और यथार्थ है। एक ओर भाभव की मनमशक्तिमूलक तर्क को जगाया जाता है और जब तर्क अपने यौवन पर आता है तभी रोक दिया आता है और 'सको प्रतिहा' 'तकांप्रतिधमात्' जैसे बन्धनों से उसे बकद दिया जाता है। तर्क से कुछ होने जानेवाला नहीं है। इस प्रकार के तमिराश्यवाद का प्रचार किया जाता है। आचार्य हरिमा रुपने लोकतावनिर्णय में स्पष्ट रूप से अतीन्द्रिय पदार्थों में वर्क की निरर्थकता बताते है
"हायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः। कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्थनिर्णया"
अर्थात- यदि तर्कवाद से अतीन्द्रिय पदार्थो के स्वरूप निर्णय की समस्या हल हो सकती होती, वो इस समय बीत गया, बड़े बने तवाली तककेशरी हुए, आज तक उसमे हमका निर्णय कर दिया होता। पर अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूपाम की पहली पहिले से अधिक उलझी हुई है। जय हो उस विज्ञान की लिसने मौतिक तत्वों के स्वरूपनिर्णय की दिशा में पर्याप्त प्रकाश दिया है।
दूसरी और यह घोषणा की जाती है कि
"तापात् छेदा निकषात् सुपर्णमिव पण्डितः। परीक्ष्य भिक्षयो ग्राह्य मनुचो न स्वादात् ॥"
अर्धा-जैसे सोने को तपाकर, काटकर, सौदी पर फसकर उसके सोडे-खरे का निश्चय किया जाता है उसी तरह हमारे वचनों को भग्छी तरह कसौटी पर कसकर उनका विश्लेषण कर उन्हें समाति में सपाकर ही स्वीकार करना केवल अपनर से नहीं। अन्धी श्रद्धा जितनी सस्ती है उतनी शोध प्रतिपाहिनी भी।
तप दर्शन शब्द का अर्थ क्या हो सकता है। इस प्रश्न के उसर में पहिले ये विचार आवश्यक है कि-झान' यस्तु के पूर्णरूप को जान सकता है या नहीं? यदि जान सकता है सो इन दर्शन-प्रमेताओं को पूर्ण ज्ञान था या नहीं? यदि पूर्ण ज्ञान था तो ससभेव का कारण क्या है?
शाम-जीव चैतन्य जिवाल्म है। यह वैतन्यशकि बष गाय वस्तु के स्वरूपको जानती है सब झान कह असी है। इसीलिए शास्त्र में शाम को साकार बताया है। जर चैतन्यशकि ष को न जान कर स्वदन्याकार रहती है तब उस निराकार अवस्था में दर्शन कहलाती है। अर्मात् चैतन्यशक्ति के दो आकार हुए एक शेयाकार और दूसरा चैतन्माकार । शेयाकार दशाका नान शाम और बैतन्याकार दक्षाका नाम दर्शन है। चैतन्यशकि कांच के समाम स्वच्छ भार निर्विकार है। अब उस कांच को पोछ पारेकी कलई करके इस योग्य बना दिया जाता है कि उसमें प्रतिविम्य पद स सब उसे दर्पण कहने लगते हैं। अब तक काँचो कलई लगी हुई है तब तक उसमें किसी न किसी पदार्थ के प्रतिबिम्ब सम्भावना है। यषि प्रतिबिम्बाकार परिणमन काय का ही हुआ है पर वह परिणमन उसका निमित्तमय है। उसी तरह निर्विकार चितिशकि का शलाकार परिणमन जिसे हम ज्ञान कहते हैं मन वारीर इन्द्रिय आदि निमित्तों के आधीन है या यो कहिये कि जब तक उसकी बादशादै वब तक का निमित्तों के अनुसार उसकायाकार परिणामम होता रहता है। अब शारीरी सिद्ध भस्था में जीव पहुँच जाता है व सकल उपाधियों से प्रत्य होने के कारण उसका शेयाकार परिणमन न होकर शुख चिदाकार परिणयन रहता है। इस विवेन्दन का संक्षिप्त तात्पर्य यह है
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प्रस्तावना
११
संसार के समस्त पदार्थ ज्ञेय अर्थात् शान के विषय होमे योग्य है तश शान पर्याय में ज्ञेय के जानने की योग्यता है, प्रतिबन्धक शामावरण कर्म जब हट जाता है तब वस्तु के पूर्ण स्वरूप का भाग
१ शुद्ध कांच
मुकजीव का चैतन्य, शुद्ध घिन्मान २ फलाई लपा हुआ कांच दर्पण (प्रतिबिम्ब रहित) शरीरी रंग काय, नाग
न्य, पर्शवावस्था मिनाकार ३ ससिरिय दर्पण
३ शैयाकार, साकार, शानावस्था इस तरह चैतन्य के दो परिगमन-एक वितिकार अबद्ध अनन्त शुद्ध बैतन्यरूप मोक्षावस्थाभावी और दूसरा शरीर कर्म आदि से बसविकारी सोपाधिक ससारारस्थाभावी। संडारावस्थाभावी चैतन्यके दो परिणमन एक सप्रतिविम्य दर्पण की तरह झेयाकार और दूसरा निस्पतिविम्ब दर्पप की तरह मिसकार । संगाकार परिणमन का नाम शाम तथा निराकार परिणमन का नाम दर्शन | तत्त्वार्थ राजवार्तिक में-जीबसा लक्षण उपयोग किया है और उपयोग का लक्षण इस प्रकार दिया है
पायाभ्यन्तरतुद्वयसानिधाने यथासंभवमुपलन्धुरचैतन्यातुविधायी परिणाम उपयोगः" (ता . २) अर्थात्-उपलब्धा को (जिस चैवम्य में पदार्थों के उपलब्ध अर्थात् शान करने की योग्यता हो) दो प्रकार के साथ तथा दो प्रकार के अन्यन्तर हेतुओं के मिलने पर जो चैतन्य का अनुविधान करनेवामा परिशमन होता है उसे उपबोस कहते हैं । इस लक्षण में भार हुए. 'उपलधुः' और 'पैतन्यानुविधायी ये दो पद विशेष ध्यान देने योग्य है । चैतन्या सुविधायी पद यह सूचना दे रहा है कि जो सान और दर्शन परिणमम बायाभवन्तर हेतुओं के निमित्त से हो रहे हैं वे स्वभावभूव वन्य का अनुविधान करनेवाले हैं श्राद् बैतन्य एक अनुवियता बोश है और उसके ये मायाभ्यन्तर विधान परिणमन है। चैतन्य इनसे भी परे शुद्ध अवस्थामें शुE परिणामन करनेवाला है। 'उपलक्युः' पद चैतन्यकी उस दशाको सूचित करता है अब चैतन्यमें बाह्याभ्यान्टर तुओंसे निराकार या साकार होनेको योग्यता होती है और यह अवस्था श्रमावि कालसे कबद्ध होने के कारण अनादिस ही है । तासर्य यह कि अमादिसे कर्मबद्ध होने के कारण चैतन्य को वह कई लती है जिससे पह दर्पण मना है इसमें बालाभ्याकार हेतुओंके अधीन निराकार और साकार परिणमम होते रहते जिन्हें अमपा: दर्सम और शान कहते हैं। पर अन्तमें मुक अवस्थामें जब सारी कलई धुर आती है विशुद्ध निर्विकार निर्विकल्प अमन्त अखण्ड चैतम्बमात्र रह जाता है तब उसका शुब चिप ही परिणमन होता है। ज्ञान और दर्पन परिणमन पायाधीन है। ससमें शान और दर्शनका विभाग. ही विलीन हो जाता है।
तस्वार्थ राजधार्विक (१६) में घटके खपाचतुष्टयका विचार करते हुए अन्तमें घटशारक्त संथाकारको पटका स्वास्मा बताया है और निष्प्रतिक्षित नाकारको पराश्मा । यथा
"चैतन्यशको खाकारी भानाकारी क्षेयाकारश्व । अनुपयुक्त प्रतिबिम्बाशायदावलयदशामाकार, प्रतिविम्याकारपरिणतादर्शतलपत् मेयाकार।" इस उद्धरणसे सष्ट है कि चैतन्यशस्निके दो परिणमन होते - साकार और झानाकार राजवासिकमें से याकार परिणमन उसका साकार परिणमन है तथा सानाकार परिषमम मिराकार । जब तक याकार परिणमन है तब तक कद वास्तविक अर्थ भानपर्यायको धारण करता है और नियाकार दशा में दसम पर्यायको । धवला टीका (पु.१पृ.४८) और मूहद्रव्यसंग्रह (१.८१-८१) में सौशान्तिक दृष्टिसे को दर्शनकी भ्य ख्या की है उसका सपर्य भी यही है कि-विषय और विषयोके सन्निपात पहिले जी चैतन्यकी निराकार परिणति या स्वाकार परिणति है उसे दान कहते हैं। राजवातिकमें चैतन्यशक्तिके जिस ज्ञानाकर की सरना है वह यास्तविक दर्शन दी है। इस विवेचनसे इतमा ती स्पष्ट श्वत हो जाता है कि-नैतन्यकी एक धारा है जिसमें प्रतिक्षण उत्पाद म्यग धौम्यातक परिणमन होता रहता है और जो अनादि-अनन्तकाल तक प्रवाहित रहने वाली है। इस घारामें कर्मापन शरीर सम्बन्ध मन इन्दिय आदि के सम्भिधानी ऐसी कलई लग गई है जिसके कारण इसका भाकार अर्थात् पदायर जालने का परिणामम होता है । इसका शमनावरण कर्मक क्षयापेशमानुधार विकास होता है। सामान्यतः शरीर सम्पर्क
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१२
Preferrश्चयविदरभ
ज्ञान पर्याय के द्वारा अवश्यम्भावी है। ज्ञान पर्याय की उत्पत्ति का जो क्रम टिप्पणी में दिया है उसके भनु सार भी जिस किसी वस्तु के पूर्णरूप तक शमपर्याय पहुँच सकती है यह निर्विवाद है जब ज्ञान के अनन्तधर्मात्मकविरा स्वरूप का वथार्थ ज्ञान कर सकता है और यह भी असम्भव नहीं है कि किन्ही भाषा ऐसी ज्ञान पर्याय का विकास हो सकता है वस्तु के पूर्णरूप के साक्षात्कारविपद प्रथम का समाधान हो ही जाता है अर्थात् विशुद्ध शाब में वस्तु के विराट् स्वरूप की झांकी जा सकती है और देखा दि ज्ञानों का रहा होगा। परन्तु वस्तु का जो स्वरूप ज्ञान में झलकता है उस सब का
से कथन करना असम्भव है क्योंकि शब्दों में वह शक्ति नहीं है जो अनुभव को अपने द्वारा जता सके।
सामान्यतया यह तो निति है कि वस्तु का स्वरूप ज्ञान का शेप तो है जो भिन्न भि शाओं के द्वारा जाना जा सकता है वह एक ज्ञाता के द्वारा भी निर्मल ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है। तापर्य यद कि वस्तु काण्ड विराट्रूप रूप से ज्ञान का विषय जो मन जाता है और वह भाचियों से अपने मानसज्ञान और दोविज्ञान से उसे जाना भी होगा। परन्तु द की साम इतनी है कि जाये हुए वस्तु के धर्मो में भगत बहुभाग तो अनभव है अर्थात् शब्द से बड़े ही नहीं जा सकते को कहे जा सकते है उनका अनन्तक भाग ही मापनीय अ
दूसरों के लिए सहायक होता है । जितना प्रज्ञापनीय है इसका होता है। अतः कदाचित् दर्शनमा ऋषियों ने
भाग शब्द श्रुतनिय
को अपने निर्मल शान से अण्डरूर जाना भी हो तो भी एक ही वस्तु के जानने के भी दृष्टिकोण जुटे जुये हो सकते हैं। एक ही एक को वैज्ञानिक साहित्यिक, आयुर्वेदिक तथा जनसाधारण भाखों से समग्र भावसे देखते हैं पर वैज्ञानिक उसके सो पर मुग्ध न होकर उसके रासायनिक संयोग पर ही विचार करता है। कषि को उसके रासायनिक मिश्रण की कोई चिन्ता नहीं, कल्पना भी नहीं, यह तो केवल उसके सौन्दर्य पर मुग्ध है और पद किसी क कामिनी के उपमाकार में गूंधने की कोमल से आधित हो उस्ता है। जबकि उसके तुदोषों के निधन में अपने मन को कर देते हैं पर सामान्य जन उसकी रोमी रोमी मोहक पास से वासित होकर ही अपने पुष्पज्ञान को परिसगाडि कर देता है सार यह कि वस्तु के अन धर्मादिस्वरूप का अभाव सेशन के द्वारा प्रवास होने पर भी उसके विवेचक अभिप्राय
I
के
साथ ही इस चैम्बराफिक कई कां की तरह दर्पण परिणमन हो गया है। इस परिणमनबसने समय तक वह चैतन्य दर्पण लेता है अर्थाद उसे जानता है तब तक उसकी वह साकार दशा ज्ञान कहलाती है और जितने समय उसकी निराकार दशा रहती है वह दर्शन कही जाती है। इस परिणामी चैतन्यका सांय के चैतन्यसे भेद है। चैतन्यदा अधिकारी परिणमनशून्य नौर कूetr free t we fa जैनका चैतन्य परिणमन करनेवाला परिणामी निल सायके यहाँ प्रकृतिका धर्म है कि जेम्यान चैतन्यकी ही पर्याय हैं का चै संसार दशा में भी गाकार परिछेद नहीं करता अब कि जैम चैतन्य उपाधि होता है उन्हें जमता है। स्थूल मेद तो यह है कि इन जैनके यहाँ चैतन्यकी पर्याय है
1
वाकार परिगत
अम कि सांय
के यहाँ प्रकृतिकी। इस तरह ज्ञान चैतन्यको भौधिक पर्याय है और यह संसार दशाने बराबर भा होती और जब पर्याय होती होती है तब दर्शन पर्यायीको होमादि हरये आत करते हैं और इनके अनुसार इनका पूर्ण और पूर्ण विकास होता है। संखारावस्थामें जम शानावर एका पूर्णक्षम हो जाता है उम चैतन्यशर पर्यायान अपने पूर्ण रूपमें विश्वासको शप्त होती है।
मदन] अवस्था होती है तब म भरस्था नहीं उर्वाय नहीं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म इन् पाम और
नवनिमा भाषा अभागी मेल
पण
ड
भवभायो सुनिन३३ ।
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प्रस्तावना
यतिमेव से अनन्त हो सकते है। फिर अपने अपने अभिपात्र से वस्तुनिषेचन करनेवाले शब्द भी ममन्त्र है। एक वैज्ञानिक अपने रटिकोण को दी पूर्ण सत्य मानकर कचिया पेन के रष्टिकोण या अभिमाय को पस्तुलस्त्र का अग्राहक या असत्य ठहराता है तो वह यथार्थदष्ट नहीं है, क्योंकि पुष्प तो अखण्ड भाव से सभी के दर्शन का विषय हो रहा है और उस पुष्प में भनन्त अभिमायों या रधिकोणों से देखे जाने की योग्यता है पर दृष्टिकोण और सरयुक्त अन्य तो अखे जुद है और वे आपस में टकरा भी सकते हैं। इसी स्कराहट से दर्शनभेन उत्पन्न हुआ है। सब दर्शन शब्द का क्या अर्थ फलित होता है जिसे हरएक दर्शनशादियों ने अपने मत के साथ जोड़ा और जिसके नाम पर अपने अभिप्रायों को एक दूसरे से टकराकर उसके नाम को कलंकित किया। एक बाद अब लोक में प्रसिद्धि पा लेता है तो उसका लेबिल तदामासमिष्पा वस्तुओं पर भी लोग समाकर उसके माग से स्वार्य साधने का प्रयास करते हैं। जब जनता को ठगने के लिए खोली गई दुकान भी राष्ट्रीय-भण्डार और अमता-पहर का नाम धारण कर सकती है और गान्धीछाप शराब साया है।तो दर्शन के नाम पर यदि पुराने जमाने में तयामास चल पड़े हाँसो कोई आक्ष की मात नहीं। सभी दार्शनिकों ने यह दावा किया है कि उनके ऋषि ने दर्शन करके नत्य का प्रतिपादन किया है। ठीक है, किया होगा?
दर्शन का एक अर्थ है-मायायलोसम । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क के बाद जो एक बार ही वस्तु के पूर्ण रूप का अखण्ड या सामान्य भाव से प्रतिमास होता है उसे शास्त्रकारों ने निकालय दर्शन मामा है। इस सामान्य दर्शन के अनम्तर समस्त शगों का मूल विकल्प आता है जो उस सामान्य प्रतिभास को अपनी कल्पना के अनुसार चित्रित करता है।
धर्मकीर्ति आचार्य प्रमाणवार्तिक (३५४) में लिखा है कि
"तस्माद्रस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः ।
भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं सम्प्रवर्तते ॥" अर्थात वर्शन के बारा प्रष्ट पदार्थ के सभी गुण दृष्ट हो जाते हैं, उनका सामान्यावलोकम हो जाता है। पर श्रान्ति के कारण उनका निक्रय नहीं हो पाता इसलिए साधनों का प्रयोग करके वरमों का निर्णय किया जाना है।
यह कि-दीन एक ही बार में वस्तु के असपड स्वरूप का अवलोकन कर लेता है और इसी अर्थ में यदिदर्शनशास्त्र के दर्शन शब्द का प्रयोग है तो मतभेद की गुंजाइश रह सकती है क्योकि यह सामान्यावलोकन प्रतिनियत अर्थक्रिया का साधक नहीं होता। अर्धकिया के लिए सो सदशों के निश्चय की आवश्यकता है। अतः असली कार्यकारी सो दर्शन के बाद होनेवाले शब्दप्रयोगवाले विकराए हैं। जिन विकल्पों को दर्शन का पृष्ठवल प्राक्ष है ये प्रमाण है सपा जिन्हें दर्शन का पुटवल प्रास नहीं है अर्यात् जो दान के विमा मात्र कल्पमागसूत है वे अममाण हैं। अतः यदि दर्शन सबद को आत्मा आदि पदार्थों के सामायावलोकम अर्थ में लिया जाता है तो भी मतभेद की गुंजाइश कम है। भतभेद सो उस सामाग्यावलोकन की वाया और निरूपण करने में है। एक सुन्दर सी का सूच शरि देखकर विरागी मिक्ष को संसार की असार मा की भाममा होती है। कामी पुरुष उसे देखकर सोचता है कि कदाचित यह जीवित होती... सो कुता अपना भक्ष्य समझकर प्रसक होता है। यद्यपि दर्शन तीनों को हुआ है पर व्याख्याएँ जुदी जुदी है। हातक वस्तु के दर्शन की बात है यह विवाद से परे है। पाद सो सम्वों से शुरू होता है। पयपि दर्शन घस्तु के बिना नहीं होता और वही दर्शन प्रमाण माना जा सकता है जिसे अर्थका बह प्राह हो अर्थात् जो पदार्थ से उत्पस हुआ हो। पर यहाँ भी कही विवाद उपस्थित होता है कि कौम । दर्शन पवाध की सप्ता का अजिनाभावी है तथा मौन कार्य के बिना नोवल काल्पनिक है। प्रत्येक यही कहता है कि हमारे दर्शन ने आत्मा को उसी प्रकार देखा है जैसा हम कहते हैं, तब यह निर्णय से हो कि यह दर्शन यास्तविक असमुदत है और यह दर्शन मात्र कपोलकलित ? निर्विकल्पक चांव को
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न्यायविनित्रयविवरण
प्रमाण मानने वालों ने भी उसी निर्विरूपक को प्रमाण मामा है जिसकी उत्पत्ति मार्थ से हुई है। अतः प्रश्न ज्यों का स्वों है कि वर्णन मन का वास्तविक क्या अर्थहो सकता है।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि अनन्तधर्मपाले पदार्थ को ज्ञान करने के रिकोणों को शय के दास कहने में कार अनन्त होने की हिाँ जाती है सथा अन्य वस्तुस्सी टियों का ससादर करती है वे सत्योन्मुख हैं। जिनमें यह मामह है कि मेरे वास देखा गया ही वस्तुसन्ध सवा और अन्य मिथ्या वेबस्सुखरूप से पराहुल होने के कारण विसंवादिनी हो जाती है। इस तरह कस्तु के स्वरूप के आधार से वर्शन शव के अर्थ को बैठाने का प्रयास कथमपि सार्थक हो जाता है। जब वस्तु स्वयं नित्य अनित्य, एक-अनेक, भाव-भाव, आदि विरोधी द्वन्द्वों का विरोधी कीवास्थल है, उसमें उद सद को मिटकर रहने में कोई विरोध नहीं है, सब इन देखनेवालों (एिकोणों) को क्यों खुराफात सुक्षता है जो उन्हें एक साथ नहीं रहने देते ! प्रत्येक पर्शग के अषि अपनी अपनी दृष्टि के अनुसार वस्तु स्वरूप को देखकर उसका चिन्तन करते है और उसी आधार से विश्वव्ययत्या बैठाने का प्रयास करते है उनको मनम-पिम्समधारा इतनी तीन होती है कि उहे भावनावश उस वस्तु का साक्षात्कार जैसा होने लगता है। और इस भावनात्मक साक्षात्कार को ही दर्शन संज्ञा मिल जाती है।
सम्यम्दर्शन में भी एक दर्शन पाब्द है। जिसका लक्षण हरवासूत्र में सत्यार्थधद्धान किया गया है। यहाँ दर्शन शब्द के अर्थ स्पश्वमा श्रद्धारही है। अर्थात् तत्वों में श्रद्धा या श्रद्धानका होना सम्पदर्शन कहलाता है। इस अर्थ से जिसकी जिसपर ड श्रद्धा अर्थत् सोध विश्वास है वही उसका दर्शन है। और यह अर्थ जी को क्षमता भी है कि अमुक अमुक दर्शनप्रणेता ऋषिों को अपने द्वारा प्रणीत सरव पर विश्वास या । विश्वास की भूमिकाएँ सो हुदी लड़ी होती है। अतः जब वन विश्वास की भूमिका पर आकर प्रतिष्ठित हुआ तब उसमें मतभेद का होना स्वाभाविक बात है। और एसी मतभेद के कारण मुण्डे मुण्डे मतिर्णिमा के डीविस 6प में अनेक दर्शनों की सटि हुई और सभी दर्शनों ने विश्वास की भूमि में उत्पन्न होकर भी अपने में पूर्णश और साक्षात्कार का स्वांग भरा और अनेक अपरिहार्य मतमेत्रों की सृष्टि की। जिनके समर्थन के लिए शास्त्रार्थ हुए, संघर्ष हुए और दर्शनशास्त्र के इतिहास के पृष्ट रक्तरंजित किए गए।
सभी शर्शन विभास की भूमि में पनपकर भी अपने प्रणेताओं में साक्षात्कार और पूर्ण झा की भावना को फैलाते रहे फलतः जिज्ञासु सन्देह के चौराहे पर पहुँच कर दिग्भ्रान्त होता गया। इस चरह वर्धनों ने अपने अपने विश्वास के अनुसार जिज्ञासु को सत्य साक्षात्कार या तत्व साक्षात्कार का पूरा भरोसा सो दिया पर तत्वज्ञान के स्थान में संशय ही उसके पल्ले पदा।
अगदर्शन ने इस दिशा में उल्लेख योग्य मार्ग प्रदर्शन किया है। उसने श्रद्धा की भूमिका परम लेकर भी वह वस्तुस्वरूपस्सी बियार प्रस्तुत किया है जिससे वह थक्षा की भूमिका से निकस कर सत्वसाक्षात्कार के मंच पर आ पहुंचा है। उसने बताया कि जगत का प्रत्येक पदार्थ मूलतः एक रूप में सत् है। प्रत्येक सत् पर्यायष्टि से उत्पन्न विमा होकर भी दव्य की अनाघनन्त धारा में प्रवाहित दमा अर्थात् सब कुटस्थनिय है न सातिशय नित्य न अभिरय किन्तु परिणामीनिष्य है। जगत् के किसी सत् का दिमाश नहीं हो सकता और न किसी असत् की उत्पचि। इस तरह स्वरूपया पदार्थ उत्पाद व्यय और धौन्यात्मक है। प्रत्येक पदार्थ नित्य-अनिस्प, एक-अनेक, सत्-असत् जैसे अनेक विरोधी इन्द्रों पर अविरोधी भाधार है। यह अमनस शक्तियों का अखण्ड मौलिक है। उसका. परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है पर उसकी मूलधारा का प्रवाह ही कहीं सूखता है और किसी दूसरी धारा में विलीन ही होता है। जगत् में मनव चेतन दम्य अनन्त अचेतव इष्य एक धर्मदर एक अधर्मद्रव्य एक भाकायर प्य, और असंख्यकाल दम्य अपनी अपनी स्वस्त्र बता रखते हैं। ये कभी एक दूसरे में किलीय नहीं हो सकते और अपना मूलवण्यष नहीं छोड़ सकते । प्रत्येक प्रतिक्षण परिणामी है। उसका परिणमन सरश भी होता है विसास भी। इम्यान्सासक्रान्ति इनमें कवापि महीं हो सकती। इस सरह प्रत्येक वेतन
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पदार्थको
प्रस्तावना
या अडी मौलिक तत्व है। इसी भनेका प्रत्येकानिक ने अपने अपने दृष्टिकोण से देखने का किया है।
कोई
वस्तु की सीमा को भी अपनी कपनष्टि से खां गए हैं। यथा वेवास दर्शन में एक ही सत्य का अस्तित्व मानता है उसके मत से अनेक सत् भातिभासिक हैं। एक का चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त निति सक्रिय जादि विध्द रूप से माया प्रति
होता रहता है। इसी प्रकार विज्ञानवाद या बाद में बापट पादपक्षयों का छोप
करके उनके प्रतिभा को बताया है जहाँ तक जैन दार्शनिकों ने जगत् का लोक किया है वस्तुको स्थितिको अमेवाधर्मात्मक पाया और इसीलिए अनेकान्तात्मकता का उसने निरूपण किया। वस्तुकं पूर्वरूपको अनिर्वचनीय या मानसरोवर या अन्य सभी दार्शनि कहा है। इसी वस्तुरूपको विभिन्न दृष्टिकोणोंसे जानने और कपन करने का प्रयास भित्र दार्शनिकों ने किया है। जैन दर्शने वस्तुमान को परिणामनि स्वीकार किया। कोई भी सत् पर्या रुपरी उप और बिनट होकर भी अहैि. नसता रखता है ।
सांख्य दर्शन में यह परिणामिनित्यता प्रकृति तक ही सीमित है। पुरुष इनके मत में कूटस्थ है। उसका विश्व व्यवस्था में कोई हाथ नहीं है। प्रकृति परिणामिनी होकर भी एक है। एक ही प्रकृतिका घटादिर्त रूप में और आकाशादि अमूर्तरूप में परिणमन होता है। यहीं प्रकृति दि द्वार जैसे मेलन भाव से परिणत होती है और यही प्रकृति रूपरसगन्ध आदि जमाव रूप में परन्तु इस प्रकार के विपरिणम एक ही साथ एक ही में कैसे सम्न है? यह तो हो सकता है कि संसार में जितने चेतन पदार्थ हूँ ये एक जाति के ही पर एक तो नहीं हो सकते। मेदाम्ली ने ज चैतभित्र कोई दूसरा तत्व स्वीकार न करके एक सद् का वेतन और अचेतन, मूर्त-अमूर्त, निष्क्रिय-सक्रिय, आन्सर-श आदि अनेक प्रतिमास माना और दृश्य जगत् की परमार्था न मानकर प्रतिभासाही स्वीकार की यपेनर को अनेक स्वतन्त्रता मानकर भी प्रकृति को एक स्वीकार करता है और उसमें परम की स्थिति मानना चाहता है। वेदी की विद प्रतिभासाली बात कदाचित् समझ में आ भी आप पर सोय की विपरिणमनों की वास्तविक स्थिति
है।
'भद्वैतव में बह और गुरु चैतन्य जुदा खुश कैसे हो सकते हैं? एक ही
वेश की इस असद्धति का परिहार को सांय ने अनेक वेतन और गति मानकर किया कि तत्व बेसन और जब इन पनों का आधार कैसे बन सकता है ?" अनेक चेतन मानने से कोई बद्ध और कोई मुक्त रहता है। वह प्रति मानने से मक परिणमन पद्धति के हो सकते हैं ? रन्तु एफ खा प्रकृति अमूर्त भी बन जाय और सूची बनाकार भी बने और रूपरस भी मर्ग को भी परमार्थ, यह महा विरोधा अपरिहार्य है। एक सेवन के बड़े को फोनकर आधा आधा सेर के दो जनवर ठोस रुके किये आते है जो अपनी पृथक ठोस सत्ता रखते हैं । यह विभाजन एक सत्ता में है। संसार के जहाँ में जम नती युगों का अन्य देखकर एकजातीयता तो मानी जा सकती हैं एकता नहीं। इस तरह सांख्यकी मिम्यवस्था में अपरिहार्य असंगत बनी रहती है।
म्यापर्वेशेपिकों ने जवृतस्य का पृथक विभाजन किया। मूर्ता माने अमूर्त जुदा । पृथिवी आदि के अवत परमाणु स्वीकार किए पर ये इतने मेर पर उतरे कि किस सामान्य आदि परिणाम को भी पतंगु किया सामान्य आदि की उपलब्धि नहीं होती और न ही वैशेषिक को संप्रत्ययोपाध्याय कहा है। इसकी प्रकृति है जिसने प्राय हो उतने पदार्थ स्वीकार कर लेना 'गुणः प्रत्यय हुआ तो गुण पदार्थ मामडिया 'कर्मकर्म' प्रत्यय हुआ एकत्र कर्म पदार्थ माना गया। फिर इन पदार्थों का हृदय के साथ सम्बन्ध स्थापित
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न्यायविनिश्चयविवरण
करने से लिए समवाय नाम का स्वतन्त्र पार्थं मानना पड़ा। अ में गन्ध की अग्नि में रस की और वायु में रूप की अनुभूति देखकर प्रथ प्रथमाने पर वस्तुतः वैशेषिक का प्रत्यय सेवाली गलत है। प्रत्यय के आधार से उसके विभूत धर्म तो जुदा जुदा किसी तरह माने जा सकते हैं, पर स्वतन्त्र पदार्थ मानना किसी तरह नहीं है सर एक ओर दी या सोने फमशः जगत में और प्रकृति में अभेद की कल्पना की वहाँ वैशेषिक ने किभेत्र को अपने दर्शन कर आधार बनाया। उपनिषत् में यहाँ मस्तु के कूट को स्वीकार किया गया है यहाँ अति केशकम्बल जैसे उच्छेदवादी भी विद्यमान थे। द ने या के मरषोत्तर जीवन और शरीर से उसके दाद को करणीय काया है। युद्ध को कर था कि यदि हम आम के अस्तित्व को मानते हैं तो है और यदि मा का कहते हैं तो उच्छेदवाद की भाति आती है। अतः उनमें इन दोनों वादों के डर से उसे अस्त्रकरणी कहा है। अन्यथा उनका सारा उपदेश भूतवाद के विरुद्ध आत्मबाद की
का
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परि
पर है ही। जैन यास्तव बहुस्ववादी है वह अनन्त चेतनतय अनन्त द्रव्य-परमानुरूप, एक एक अय, एक आकाशज्य और असं काय इस प्रकार वास्तविक मीि को स्वीकार करता है। अन्य सद्वरूप है चाहे वह चेतन हो या चेतनेतर है। उसका रूप से परिणमन प्रतिक्षण होता ही रहता है। यह परिणमन कहलाता है। असर भी होती है और सभी युद्ध इम्पों की अपर्याय सहा एफसी सपा होती है, पर होती है अवश्य धर्म यादव दीव इनक परिवाद होता है। पुल का परिणमनट भी होता है सभी औऔर इन दोनों में वैमासिक है और इस बात के कारण इनका विपरि मन भी होता है जीव हो जाता है तब परिणयन नहीं होता। इस वैभाषिक शक्ति का स्वाभाविक ही परिणाम होता है । सापर्य यह कि प्रत्येक सत् उत्पाद व्यथ बैब्यशाली होने से परिणामनित्य है। हो स्वतन्त्र सन् में रहनेवाला एक कोई सामान्य पदार्थ नहीं है। अनेक जीवों की नायक सारश्य से संग्रह करके उसमें एक जीववहार कर दिया आता है। इसी तरह चेतन और अ
दो भातीय द्वयों में 'सक' नाम का कोई स्वतन्त्र सप्ताक पदार्थ नहीं है । परन्तु सभी न्यों में परिनित्य नाम की सता के कारण सन् स यह व्यवहार कर दिया जाता है। अनेक इच्यों में रहने घरला कोई स्वतन्त्र सत् नाम का कोई वस्तुभूत तत्र नहीं है। ज्ञान, रूपादि गुण, उत्क्षेपण आदि क्रियाएँ सामान्य विशेष आदि सभी द्रव्य की अवस्थाएँ हैं पृथक् सत्ताक पदार्थ नहीं। यदि बुद्ध इस वस्तुस्थिति पर गहराई से विचार करते से इस नियम में न उन्हें का भय होता और नाबाद प्रकार उसने आधार के क्षेत्र में मध्यमप्रतिपक्ष को उपादेयता है उसी तरह वे इस वस्तु के निरूपण को भी परिणामिनिस्यता में डाल देते
स्याद्वाद-जैनदर्शन में इस तरह सामान्यरूप से यसको परिणाम
का वीर
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माना है। प्रत्येक का निरूप से कथन करने
है उसका पूर्णवों के अगोचर है। अनेक
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बाली भाषा साहाद रूप होती है उसमें जिस धर्म का मिपा होता है उसके साथ 'स्वा इसलिए लगा दिया जाता है जिससे पूरी वस्तु उसी धर्म रूप न समझ ली जाय। अविवक्षित शेषधर्मो का भी उसमें है यह प्रतिराग 'स्पा' शब्द से होता है।
स्वाहा का अर्थ है- स्वाद-अमुक निति अपेक्षा से अमुक नित अपेक्षा से घट अति ही है भीर अमुक नियत अपेक्षा से घट नास्ति ही है। स्वाद का अर्थ न तो शायद है न संभवतः मीर न कदाचित् ही 'स्याद' शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोण का प्रतीक है। इस शब्द के अर्थ को पुराने बरी मानदारी से समझने का प्रयास तो नहीं ही किया था किन्तु आज भी वैज्ञानिक दृष्टि की दुहाई देने वाले दर्शनलेखक उसी भ्रान्त परम्परा का पोषण करते आते हैं।
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प्रस्तावना
स्थादग्द--सुनय का निरूपण करनेवाली मापा पति है। भ्यान्' शब्द कह मिश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इस धर्मशाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक भी धर्म विद्यमान है। नाश्पर्म यह कि---अधिरक्षित शेप धमों का प्रतिनिधित्व स्पात शब्द करता है। 'रूपवान् घटः' यह वाक्प भी अपने भीतर 'स्यात्' शब्द को छिपाये हुए है। इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपयान् घटः' अर्थात चक्षु इन्द्रिप के द्वारा ग्रास होने से या रूप गुज की ससा होने से घड़ा रूपवान है. स रूपवान् ही नहीं है उसमें रस ग स्पर्श आदि अनेक गुण, छोटा बहर आदि अनेक धर्म विद्यमान है। इन अधि. वक्षित गुणधमी के अस्तित्व की रक्षा करनेवाला स्वात्' शब्द है। 'स्थान का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किनु निश्चय है। अर्थात् पट्टे में 6 के अस्तित्र की सूचना प्लो हपवान् शानदेही रहा है पर उन उपेक्षित शेष धमों के अस्तित्र की भूचना 'स्मात्' शब्द से होती है। सारांश यह कि 'स्यात् शब्द रूपवान् के साथ नहीं जुटता है, किन्तु अविवक्षित धमों के साथ। ब्रह 'रूपवान को पूरी वा पर अधिकार जमाने से रोकता है और कह देता है कि वस्तु बहुन बड़ी है उसमें रूप भी एक है। ऐसे असन्त गुणधर्म वस्तु में लहरा रहे हैं। अभी रूप की विवश या दृष्टि होने से वह सामने है या शब्द से उबरित हो रहा है सो वह मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है। दूसरे क्षण में रसकी मुरुपक्षा होने पर सा गौण हो जायगा और वह अविवक्षित शेष धमों की राशि में कामिल हो जायगा।
पात' शब्द एक प्रहरी है, जो उसवरित धर्म को इधर उधर नहीं जाने देता। वह उन अविवक्षित धौं का संरता है। इसलिए 'रूपक स्पाल कामाय पर मोमोगशो में रूप की भी स्थिति को स्यात् का शायद या संभावना अर्थ करके संदिग्ध बमामा चाहते हैं ये भ्रममैं हैं। इसी तरह 'स्वास्ति घटा दाय में 'घटः अस्ति यह अस्तित्व अंश घट में सुनिश्चित रूप से विद्यमान है। स्यात् शम उस अस्तिल की स्थिति कमजोर नहीं बनाता किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थिति की सूचना देकर भन्न नास्ति आदि धर्मों के सहाब का प्रतिनिधित्व करता है। सारांश यह कि 'स्यात्। पद एक स्वसन्त पन है जो कस्सु के शेश का प्रतिनिधित्व करता है। उसे हर है कि कहीं अस्ति' मास का धर्म जिसे सन्द से उरित होने के कारण प्रमुखता मिली है पूरी वस्तु को नहप जार, अपने अन्य नास्ति
आदि सहयोगियों के स्थान को समाप्त न कर जाय। इसलिए यह प्रति वाक्य में चेतावनी देता रहता है कि है भाई अस्ति, तुम वस्तु के एक अंश ही तुम अपने अन्य नास्ति आदि भाइयों के हक को हवपने की या नहीं करना । इस भय का कारण है-निन्झ ही है, अनित्य ही हूँ आदि अंशवायों में अपना पूर्ण अधिकार प्रस्तु पर समा कर अधिकार चेंग की है और जगत में अनेक तरह से वितण्डा और संघर्ष उत्पा किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है. पर इस पाद-प्रतिवाद ने अनेक मनवादी की भूपि करके अहंकार हिस्सा संवर्ष अनुशारसा परमतासहिष्णुना आदि से विश्व को अशान्त और आकुलतामय बना दिया है। स्यात्' शब्द काप के इस जहर को निकाल देता है जिससे अहंकार का सर्जन होता है और वस्तु के अन्य धर्मों के अस्तिस्य से इमकार करके पदार्थ के साथ अन्याय होता है।
___ स्यात्' शब्द एक निश्चित अपेक्षा को होसम का जहाँ अस्तित्वा धर्म की स्थिति मुरक सहेतुक नाता है वहाँ कर उसकी उस सहरा प्रवृत्ति को भी ना करना है जिससे वह पूरी यस्तु का मालिक यनना चाहता है । यह व्यायाधीश की सरह मुरम्त कह देता है कि---, अस्ति, तुम अपने अधिकार की सीमा को समझो । मध्य क्षेत्र-काल-भाय की दृष्टि से जिस प्रकार तुम घट में रहते हो उसी सरह पर
यादि की अपेक्षा 'मास्ति' नाम का तुम्हारा भाई भी उसी घर में है। इसी प्रकार घट का परिकार एस बड़ा है। अभी तुम्हास नाम लेकर पुकारा गया है इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय सुमसे काम हैं तुम्हारा प्रयोजन है तुम्हारी विवक्षा है। अतः इस समय तुम मुख्य हो । पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है जो तुम अपने समानाधिकारी भाइयों के साथ को भी गध करने का दुस्मयास करो वारसधिक यात सो
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न्यायविनिश्वयविवरण
ナ
यह है कि यदि पर की अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस पदे में तुम रहते ही वह महा यदा ही रहेगा कपड़ा आणि पररूप हो जायगा अतः जैसी तुम्हारी स्थिति है देही पर रूप की अपेश 'नास्ति' धर्म की भी स्थिति है तुम उनकी हिंसा न कर सकी इसके लिए हिंसा का प्रतीक 'स्था शब्द तुमसे पहले ही पाक्य में लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह तुम्हारा शेष नहीं है। तुम सो रायर अपने नारिंग आदि अन् भाइको वस्तु में रहने देते होरसे सबके सब अनन् को क्या कहा था। इनकी दिए है। ये शब्द के द्वारा तुममें से किसी एक 'अस्ति आदि को मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी अहङ्कार पूर्ण कर देना ते हैं जिससे 'अस्ति' अन्य का निराकरण करने लगा जाय। यस हि शब्द एक भजन है जो नहीं होने देता और उसे निर्मक तथा पूर्ण बनाता है। इस अतिसंरक्षक, भावना के प्रतीक जीता
भाई रहते हो, पर इनकी
पारीको सहरी
रूप, सुमिश्रित अपेक्षाद्योतक 'स्पा' शब्द के स्वरूप के साथ हमारे दार्शनिकों ने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूप का 'शायय, संभव है, कदाचित् जैसे अक्ष पर्यायों से विकृत करने का ट अपन अवश्य किया है तथा किया जा रहा है।
सब से धोतर्क ो यह दिया जाता है कि घड़ा बस्ति है तो
हो सकता है,
एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष विरोध है पर विचार तो करो ar ar
ही है, पता नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, घोदा नहीं, तात्पर्य यह कि वह घरभित्र मन्त नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों होता है कि 'बड़ा अपने से अस्त है. पररूप से भारत है। इसमें परों की अपेक्षा 'नास्तित्य' धर्म है, नहीं सो दुनिया में कोई शक्ति घड़े को कपड़ा आदि बनने से नहीं रोक सकती। यह 'नास्ति' धर्म ही घने को घड़े रूप में फायम रखने का हेतु है। इसी भास्ति धर्म की सूचना 'अ' के प्रयोग के समय 'स्वात् शब्द दे देता है। इसका भारी
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आदि अनन्त शक्तियों की असे अनेकरूप में दिखाई देता है या नहीं ! यह आप स्वयं बतायें। यदि अनेक रूप में दिखाई देता है श्री भापको यह कहने में क्यों होता है कि एक है, पर अपने गुणधर्म शक्ति आदि की दृष्टि से अनेक हैकर सोचिए कि वस्तु में जब अनेक विरोधी का हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मों का अविरोधी दार है तब हमें उसके स्वरूप को विकृत रूप में देखने को दुईटि तो नहीं करनी चाहिए। जो 'स्पा' शब्द वस्तु के इस पूर्ण रूप दर्शन की याद दिलाता है उसे ही हम विरोध जैसी गालियों से दुरदुराते हैं किमाश्रमसः परम् । यहाँ धर्मकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यान में आ जाता है कि
'यदीयं स्वयमयी रोचते तथ के वयम्।'
अर्था-यदि वह अनेक धर्महर वस्तु को स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है वो इस में जीने का एक एक कम इस कार है। हमें अपनी ि रिबनाने की आया है। वस्तु में कोई विरोध नहीं है। विरोध हमारी दृष्टि में है। और इस इष्टिविरोध की अमृतध 'स्वाद' शब्द है, जो रोगी को इसके यम यर उतर भी नहीं सकता।
कटु वो जरूर मालूम होती है पर
काम
लिखा हुए है
बलदेव उपाध्याय ने भारतीय दर्शन (१० १५५) कि- " स्थात् (शाक्य, सम्भवतः ) शब्द अस् धातु के eिs के रूप का सिन् प्रतिरूपक अव्यव माना जाता है। घड़े के विषय में हमारा परामर्श 'स्यादस्ति = संभवतः यह विद्यमान है इसी रूप में होना चाहिए ।" यहाँ 'स्यान्' शब्द को शायr ar rajaerat aa उपाध्याraat स्वीकार नहीं करना को में फिर भी आयोग का समर्थन करते हैं।
इसीलिए वे
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प्रस्तावना
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वैदिक शाखाओं में शंकराचार्य में प्रकरमाध्य में स्थानां को संरूप लिखा है इसका संस्कार भी कुछ विद्वानों के माथे में पड़ा हुआ है और में
है।
जब यह स्पष्ट रूप से अवधारण करके कहा जाता है कि 'घटः स्यादस्ति अर्थात् षड़ा अपने स्वरूप से है ही । घः स्यास्ति-पद स्वभिन्न स्वरूप से नहीं ही है सम संशय को स्थान कहाँ है ? स्पन्द जिस धर्म का प्रतिशन किया जा रहा है उससे मन अन्य धर्मो के सद्भाव को सूचित करता है। यह प्रति समय श्रोता को यह सूचना देना चाहता है कि बता के शब्दों से वस्तु के जिस स्वरूप का निरूपण हो रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है उसमें अन्य धर्म भी विद्यमान हैं, जबकि संसद और शायर में एक मी नहीं होता। जैन के अनेकान्त में अनन्त धर्म निश्रित है, उनके दृष्टिकोणमिति है सच संशय और शाब्द की उस भ्रान्त परम्परा को आज भी अपने को तटस्थ माननेवाले विद्वान भी चलाए जाते हैं यह विवाद का ही हाय है।
धर्म
इसी संस्कारवशी बलदेवजी स्वात्
पयाजियों में शायद शब्द को सितंबर (१०१०२)
जैन की समीक्षा करते समय शंकराचार्य की वकालत इन शब्दों में करते हैं कि "यह निश्चित ही है कि इसी समय से वह पत्रों के विभिष्ठ रूपों का समीकरण कear are aो समग्र विश्व में अनुस्यूत परम तत्व तक sare ही पहुँच जाता। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर शंकराचार्य ने इस 'स्वाद' का मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाग्य (२२, ३३ ) में युक्तियों के सहारे किया है " पर उपाध्याय जी, जब आप स्यात् का अर्थ निश्चित रूप से 'संशय नहीं मामते तत्र शंकराचार्य के खण्डन State क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व० महामहोपाध्याय दा० गंगानाथ झा के इन क्यों करे देखें-"जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त कान पड़ा है, तब से मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसे पेस के भाषायों ने नहीं" श्री पाणिभूषण अधिकारी हो और पत्र लिखते हैं कि धर्म के स्वाद्वाद सिद्धान्तको जिल्लागत समझा गया है उतना किसी अभ्यसिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अवाद किया है। यह बात स्वरूपों के लिए क्षय होती थी किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान विद्वान के लिए तो यही कहूँ यह यद्यपि मैं इस महर्षि को आदर की दृष्टि से देखता हूँ ऐसा जान पड़ता है उन्होंने इस धर्म के वर्तमान के मुह ग्रन्थों के अध्ययन की परवाह नहीं की
अनेक स्वतन्त्र वत् व्यवहार के लिए सहूई से एक कहे जायें पर सकता? यह कैसे सम्भव है कि वेतन और अचेतन दोनों ही एक सद
और दर्शन स्वाद्वाद सिद्धान्त के अनुसार वस्तुस्थिति के आधार से समन्वय करता है जो वस्तु में विद्यमान हैं उन्हीं का समन्वय हो सकता है । जैमदर्शन को आप वास्तव बहुत्ववादी दिल आये है। काल्पनिक एक वस्तु नही हो के प्रातिभासिक विवर्त । सिल्पनिक समन्वय की ओर उपाध्याय जी संकेत करते हैं उस ओर भी जैन दार्शनिकों प्रारम्भ से ही टिपाद किया है। परम संग्रह नय की टि से सदूप से यावत् चेतन अचेतन द्रव्यों का संग्रह करके 'एके सत् इस शब्दव्यवहार के होने में जैद दार्शनिकों को कोई आपत्ति नहीं है। कह विहार होते हैं, पर इससे मौलिक ध्वन्यवस्था नहीं की जा सकती ? एक देश या एक राष्ट्र अपने में क्या वस्तु है ? समय समय पर होने वाली गित दैनिक एकता के सिवाय एफद्देश या एक राष्ट्र का स्वतन्त्र ही क्या है? दाण्डों का अपना है। उसमें व्यवहार की सुि के लिए और देश संक्षा जैसे कानिक है यवहारसत्य हैं उसी तरह एक सत् या एक काल्पनिक होकर व्यवहारसत्य न सका है और कल्पना की दौड़ का चरम विन्दु भी हो सकत है पर उसका पाप होना नितान्त आज विज्ञान एटम तक का विश्लेषण कर हुआ है और सब मौलिक अशुओं की पृथक पता वीकार करता है। उनमें अभेद मीर इतना यहा अभेद जिसमें चेतन अमूर्त अभू आदि सभी हीन हो जय नासाम्राज्य की अन्तिम कोटि है ।
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न्यायविनिश्चयविवरण और इस कल्पनाकोटि को परमार्थ सत् न मानने के कारण यदि जैनदर्शन का स्वादान्द लिनान्स आपको मूलभूत तत्य के रूप खममाने में नितान्त असमर्थ अमीर होता है मो हो, पर वह वस्तुमीमा का अवलंघन नहीं कर सकता और न कम्पनालोक की लाश्री दाद ही ला सकता है।
स्मात् सन्द को उपाध्यायी संशय का पर्यायवाची नहीं मानते मर तो प्रायः निधि क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं(१७३)कि...यह. अनेकान्मवाद संशपबाट का रूपान्तर नहीं है। पर आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते हैं। परन्तु म्यान का अर्थ 'संमत करना भी न्यायसंगत नहीं है क्योंकि संसाधना संशय में जो कोरियाँ उपस्थित होनी है उनकी अनिश्चितता की भीर संकेन मान है, निश्चय उससे भिक ही है। उपाध्यायी समावाद को संशयवाद और निश्चयवाद के बीच संभा पनामाद की जगह रखना चाहते हैं वो एक अनध्यवसापात्मक अनिश्चय के समान है। परन्तु अब स्थाबाद स्पष्ट रूप से डंके की चोट यह कह रहा है कि-बड़ा स्यादस्ति अधीन अपने स्वरूप, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस पचतुष्टय की अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण है । घना स्से मित्र याधन पर पदार्थों की टि से नहीं ही है यह भी निश्चित अवधारण है। इस तरह जब दोनों धर्मों का भयमें अपने रष्टिकोण से घड़ा अविरोधी अाधान है तब घई को हम उभय रष्टि से अस्ति-नास्ति रूप भी निश्चित ही कहते है। पर मारत में यह सामर्थ्य महीं है कि घट के पूर्णरूप कोशिसमें अस्ति नासिरा जैसे एक-अनेक नित्य-अनित्य आदि अनेको युगम-चम लहरा रहे है-कह सके अतः समप्रभाव से घटा अबस्य है। इस एकार जब स्याहार सुनिश्चित दृष्टिकोगों से तत्तत् धमों के वास्तषिक मिश्रय की घोषणा करना है तब इसे सम्भावनापार में कैसे रखा जा सकता है ? स्यात् शब्द के साथ ही एयकार भी लगा रहा जो निर्दिष्ट धर्म का अवधारथ सूचित करता है तथा स्पान शब्द उस मिन्दिष्ट धर्म से अतिरिक्त अन्य धर्मों की मिश्रित स्थिति की सूचमा देता है। जिससे श्रोमा यह न समझ ले कि पस्तु इस्री धर्मरूप है। वह स्याद्वाद कल्पित धर्मों तक व्यवहार के लिए भले ही पहुँच आय पर वस्तुस्यवस्था के लिए वस्तु की मीमा को नहीं लापता । अतःन यह मान नाम कारदा भपेजरप्रयुक्त निश्चमवाद है।
इसी तरह रोंदेवराज जी का पूर्वी और पश्चिमी दर्शन (पृष्ट ६५) में किया गया स्यात, शब्द का कदाचित' अनुबाव भी श्रामक है। कदाचित् सन्द कालापेक्ष है। इसका सा अर्थ है किसी समय ।
और प्रचलित अर्थ में यह संशय की ओर ही झुकाता है। स्याप्त का प्राचीन अर्थ है करिन-अर्धा किसी निश्चित प्रकार से, स्पष्ट शब्दों में अमुक निश्चिम रष्टिकोण से। इस प्रकार अपेक्षामधुक निश्चयकार ही स्थान का अधास्त वाच्यार्थ है।
महापंसित राहुल सांकृत्यायन ने तथा इतः पूर्व पी. कोबी आदि में स्थावाष की उत्पति को संजय बेलाडिपुत के मत से बताने का प्रयन किया है। राहुलजी के दर्शन दिग्दर्शन (४० ४५६) में लिखा है कि
आधुनिक जैनदर्शन का आधार स्थाद्वार है। जो मालूम होता है संजय बेलद्विपुत्त के चार अंग चासे अवकासपाद को लेकर उसे साप्त अंगभला किया गया है। संजय ने सत्वों (परलोक देवता) के बारे में कुछ मी निश्वारमक रूप से कहने से इन्कार करते हुए उस इन्कार को चार प्रकार कहा है---
है? नहीं कह सकता । २ नहीं है ? नहीं कर सकता । ३ भी और नहीं भी नहीं कह सकता। ४ न है और में नहीं है ? नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिये जैनों के सात प्रकार के द्वार से.....
है? हो सकता है (स्थादस्ति) ३ नहीं है। नहीं भी हो सकता है (स्पावास्ति) ३ई भी भौर नहीं भी भी और नहीं भी हो सकता (मालिक नास्तिक)
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प्रस्तावना
उक्त शीनी उत्तर क्या कहे जा सका है ( व्य है) इसका उत्तर जन न देते हैं.... ४ स्याद् ( हो सकता है) स्थाएट कहा जा सकता (वनस्य) नहीं, स्याद् अन्नमय है। ५ 'स्पादस्ति' क्या यह समस्या है? नहीं, 'स्माष्ट्र अस्ति अवतन्य है। ६ 'स्था नास्ति' क्या मह तय है ? नहीं, 'स्वाद नास्ति' अबक्तव्य है। ७ 'स्पाय भस्ति च भास्ति च *या यह दव्य है ? नहीं 'स्यादस्ति च नास्ति व अन्धकम्य है।
गनों के मिदाने से मालूम होमा कि सैनों ने संजय के पहिलेकाले नीन पायो दिन और उत्तर धोनी) को मना करके अपने सादाद की ग्रह भंगियाँ बनाई है और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है को जोरकर 'स्थादर भी प्रवक्तव्य है, यह माना भंग तैयार कर अपनी सहभगी पूरी की।......
र निसा(1) नाम करना जो कि संजय का वाद था, उसी को संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनों में अपना लिया और उसकी चतुर्भगीय को सप्तभंगी में परिणत कर दिया।
राहुल जी ने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और पादाद के स्वरूप को न समझाकर केवल साम्य से एक नये मत की मृष्टि की है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि शोर से "कमा मुम अमुक इनह गये थे? यह पूछने पर वष्ट कर कि मैं नहीं कह सकता किया था" और जज शम्य प्रमाण मे यह सिद्ध कर है कि चोर अमुक जगह गया था। नन साम्य देवकर यह कहना कि मन का फैसला चार के स्थान से निकला हैं।
संजयलहि पुत्र के दर्शन का विवेचन स्वयं सहखी ने (पृ. ४९१) इन पानी में किया है"यदि आप पू.-'क्या परकोका है ? तो यदि मैं समझता हो कि परलोक है तो आपको थकला कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं फहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरफ से भी नहीं कहना 1 मैं यह भी मही कहता कि वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कहा कि वह नहीं नहीं है । परलोक नहीं है । परलोक नहीं नहीं है। परलोक है भी और नहीं भी है। परलोक नई और न नहीं है।
संजय के परलोक, देवना, कर्मफस और मुधि के सम्बन्ध के ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवाद के हैं। वह स्पष्ट कहता है कि "यदि मैं जानता हो सो बसा। मंजय को परलोक मुनि आदि के स्वरूप का कुछ भी मिश्चय नहीं था इसलिए उसका गर्भन वकाल राष्ट्रल जी के मानय की सहजचुदि को भ्रम में नहीं रखना चाहता और म कुछ निश्चय कर प्रान्त धारणा की पुष्टि करना नाहना है। जापर्य यह कि संजय शेर अनिश्रयवादी था ।
बस और संजय-बुद्ध ने "लोक नित्य है, अनित्य है, मिस्य-अभिन्न है, न निस्य न अनित्य है। लोक अम्तवान् है। नहीं है, नहीं है, है ननहीं निर्वाण के याद तथागत होते हैं, नहीं होस', होते नहीं होते, न होतेन नहीं होते; जीप कार से भिन्न है, बीव शरीर से मिल नहीं है। (माध्यमिक वृति पृ. ५४६) हन चौदह वस्तुओं को अन्याकृत कहा है। मनिममनिकाय ( २१२१३) में इनकी संख्या देश है। इसमें आदि के डो प्रश्नों में तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया है। इनके अध्याकृत होने का कारण अद ने मनाया है कि इसके बारे में कहमा सार्यक नहीं, भिक्षुचर्या के लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद गिरोध शान्ति या परमज्ञान निर्माण के लिए आवशक है। तात्पर्य यह कि बुद्ध की रधि में इनका सामना मुमुक्षु के लिए आवश्यक नहीं था । दूसरे शब्दों में भी संजय की वरह इसके बारे में कुछ कहकर मानव की सहा बुद्धि को श्रम में मही खासमा थाहने थे औरजभ्रान्त धारणाओं को पुष्ट ही करना चाहते थे। हाँ, संजय जब अपनी शामता श अनिश्चय को साफ साक आम्चों में कह देखा है कि यदि मैं जानता हो सो अता, सम श्रुह अपने ज्ञानने न जानने का उल्लेख न करके उस रहस्य को शिष्यों के लिए अनुपयोगी कमाकर अपमा पीछा चुना लेते हैं। किसी भी शामिक का पक्ष अभी तक असमाहित ही रह जाता है कि इस अध्याक्तता और मंत्रम के अनिश्चयवाद में
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२२
न्यायविनिश्चयविवरण क्या अन्तर है? सिवाय इसके कि संक्य फकद की तरह खरी खरी सात कह देता है और बुद्ध बड़े आदमियों की सालीनता का निर्वाह करते हैं।
बुद्ध और संजय ही क्या, उस समय के वातावरण में आत्मा लोक परलोक और मुक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में-है (सत्), नहीं (अस), है नहीं (सदसत् उभय),न हैन नहीं है (अमात्य था अनुभय)।' थे चार कोटियाँ गूंज रही थीं। कोई भी प्रानिक किसी भी तीर्थकर या आचार्य से विना किसी संकोच के अपने प्रभ को एक साँस में ही उक्त चार कोलियों में विभाजित करके ही पूलता था। जिस प्रकार आज कोई भी प्रभ मजदूर और पूंजीपति शोषक और शरेय के हवं की अथा में भी सामने आता है, उसी प्रकार उस समय आमा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभय-अनिर्वचनीय इस धनुरकोटि में आवेष्टित रहते थे। उपनिषद या ऋगवेद में इस चतुष्कोदि के दर्शम होते हैं। विष्य के स्वरूप के सम्बन्ध में असत् से सत् हुआ? या स्तू से सत् शुधा? या सदसत् दोनों रूप से अनिर्वचनीय है ? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् और वेद में बराबर उपलब्ध होते हैं। ऐसी दशा में राहुल जी का स्थानाद के विषय में यह फतवा दे देना कि संजय के प्रभों के शब्दों से या उसकी चतुर्भजी को तोड़मरोड़ कर सहभही घनी--कहाँ तक उचित है यह वे स्वयं विशएँ। बुद्ध के समकालीन सो छह तार्थिक थे उनमें महावीर निगाठ नाथपुत्रकी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में प्रसिद्धि थी। वे सर्वज्ञ और सर्वद घे या नहीं रह इस समय की रमा का विषय नहीं है, पर वे विभिध तवविचारक थे और किसी भी प्रश्न को संजय की तरह अनिश्रय फोरि या विशेष कोटि में या युद्ध की सरह अव्याकर कोटि में पलने वाले नहीं थे और न शिष्यों की सहज जिज्ञासा को अनुपयोगिता के भयप्रद कर 'में खुम्चा देना शहते थे। उनका विश्वास था कि संघ के पंचमेल कि जब तक वस्तुसरन का ठीक निर्णय नहीं कर लेते तब तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसपल नहीं आ सकता । रेल भरने समानदरीत अन्य संध के भिक्षुओं के सामने अपनी बौद्धिक वीनसा के कारण हत्तप्रभ
र ARR EE ON आधार पर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्यों को पवन्द पनियों की तरह जनत के स्वरूप विचार की बाळ हवा से अपरिचित नहीं रखना चाहते थे, किन्तु वाहते थे कि प्रत्येक प्राणी अपनी सहज जिज्ञासा और मनमशक्ति का वस्तु के यथार्थ स्वरूप के विचार फी और साधे। न उन्हें बुद्ध की तरह यह भय पामं घा कि यदि आत्मा के सम्बन्ध में हैं। कहते हैं तो साक्षताद अचात् उपनिषद्वादियों की तरह लोग नित्यत्व की ओर झुक जायेंगे और नहीं कहने से उपवाद अर्थद चावांक की तरह नास्तिर का प्रसंग पास होगा । अत: इस प्रक्ष को अव्याकृत रखना ही श्रेष्ट है। वे चाहते थे कि मौजून तकों का और संगायों का समाधाम वस्तुस्थिति के आधार से होना ही चाहिये । अतः उन्होंने वस्तुस्वरूप का अनुभव कर यह बताया कि जगत् का प्रत्येक सत् प्राई वाह क्षेतमजातव्य हो या अधेतनजातीय परिवर्तनशील है। वह निसर्गतः प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। उसकी पर्याय बबलती रहती है। उसका परिणमन कभी सरश भी होता है कभी विसष्टा भी। पर परिणामनसामान्य के प्रभाव से कोई भी अछूता नहीं रहता। यह एक मौलिक नियम है कि किसी भी सन का विश्व से सर्वथा उच्छेद नहीं हो सकता, यह परिवातत होकर भी अपनी मौलिकसा या सत्ता को नहीं खो सकता । एफ परमाणु है वह हालोजन बम जाय, अस वन जाय, भाप बन जाय, फिर पानी हो जाय, पृथियी बन जाय, और अनन्त आकृतियों या पयायों को धारण कर ले, पर अपने प्रयत्व मा मौलिकरक को नहीं सो सकता। किसी की ताकत नहीं जो उस परमाशु की इस्ती या अस्तित्व को मिटा सके। तात्पर्य यह कि जगत् में जितने 'सत्' हैं उतने बने रहने । उममें से एक भी कम नहीं हो सकता, एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'सत्' उत्पम हो सकता है। जितने है उसका ही आपसी
खाते और
प्रो. धर्मानन्द कोसी ने संजय के बाद को निक्षेपवाद संज्ञा दी है। देखो भारतीय अहिसा पु.४५
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२.३
संयोग-वियोगों के आधार से ग्रह विश्व जगत ( गच्छति जगत् अर्थात् माना रूपों का प्राप्त होना) बनता रहता है।
मस्ताना
न
t
यह विश्व में जितने सद हैं उनमें से कोन एक सकता है। अनन्त जड़ परमाणु अन आत्माएँ, एक धर्मद्रव्य, एक एक आकाश और इतने सद है। इनमें धर्म अधर्म आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूप में सदा विद्यमान रहते हैं उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि ये स्थ नित्य हैं किन्तु इनका प्रति जो परिणमन होता है। वह स्वाभाविक परिणमन ही होता है। आत्मा और पुट्ट ये दो द्रव्य एक घूसरे को प्रभावित करते हैं। जिस समय आरमा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने प्रतिक्षणमा स्वाभाव का हो वा रहता है, उसमें विक्षण परिणति नहीं होती। जब तक भावना शुद्ध हैं तब तक ही इसके परिणाम पर जातीय जीवान्तर का और विजातीय एक का प्रभार आने से आती है इसकी प प्रत्येक को स्वानुभवसिद्ध है। जनही एक ऐसा शिक्षण द्रव्य है जो से भी प्रभावित होता है और विजातीय चेतन से भी इसी पुल द्रव्य को चमत्कार आज विज्ञान के द्वारा हम सब के सामने प्रस्तुत हैं। इसी के होनाधिक संयोग-वियोगों के फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं । बिद्युत् शब्द आदि इसी के रूपान्थर है, इसी की शक्तियाँ है । जीव की अशुद्ध दशा इसी के संपर्क से होती है। मदि से जीवरसंगको पचान्तरने पर भी जीव इसके संयोग से मुख नहीं हो पाता और उसमें विभाव परिणमन व मोड अनरूप होती रहती हैं यह जीव अपनी वारिसाधना द्वारा इतना सस और स्वरूपप्रतिक हो जाता है कि उस पर बाह्य का कोई भी प्रभाव न पड़ सकें तो वह सुरु हो जाता है और अपने अनन्त चैतन्य में स्थिर हो जाता है। यह मुक्त जीव अपने प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्य में लीन रहता है। फिर उसमें अशुद्ध रक्षा नहीं होती। अतः परमाणु ही ऐसे हैं जिनमें शुद्ध वा भार किसी भी दशा में दूसरे संयोग के आधार से नाना आकृतियाँ और अनेक परिणमन संभव है सर होते रहते हैं। इस जगत् व्यवस्था मैं किसी एक ईश्वर जैसे निया का कोई स्थान नहीं है; यह तो अपने अपने संयोग-वियोगों से परियममी है। प्रत्येक पदार्थ का अपना परिणमन पालू है। यदि कोई दूसरा संयोग या पदा और उस हम्य में इसके प्रभाव की आत्मसात् किया तो परिणयन सभाति हो जायगा, अन्यथा वह अपनी गति बदलता चला जायगा। हाइड्रोजन का एक अणु अपनी गति से प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूप में मुल रहा हैं। यदि आसीजन का अणु उसमें आ जा तो दोनों का रूप परिणमन हो जायगा । ये एक विश्नु रूप से सन संयुक्त परिणाम कर लेंगे। यदि किसी वैज्ञानिक के वियोग का मिला तो दोनों फिर भी होते हैं का संयोग मिल गया भाफ बन जायेंगे यदि सांप के मुख का संयोग मिल्यो तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतका पुल और के निमिक्त सिम्का for are है। परिणमनाक पर प्रत्येक द्रव्य चड़ा हुआ है। वह अपनी अनन्त श्रय्यताओं के अनुसार अगस्त परिणों को कमशः धारण करता है । समस्त 'सह' के समुदाय का नाम लोक श्री विश्व है। इस
विन
विचारिए---
न्यों की संख्या की दृष्टि से, अर्थात् जिवने
उनमें किसी मये सत् की वृद्धि ह कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जो
दृष्टि से अब आप लीफ के नव और शाश्वत या प्रश्न को (१) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, खोफ भाव है स इसमें हैं उनमें का एक भी सत् क्रम नहीं हो सकता और हो सकती हैं। न एक सर दूसरे में विलीन ही हो सकता है। इसके अंगभूती का हो जाय या साल हो पायें (२) या लोक अशा हॉट की से अर्थात् जिससे सत् हैं ये प्रशिक्षण सहा या विसदृश परिणमन करते रहते हैं। इसमें दो
है
क्षिण भाषी परिणाम
।
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न्यायविनियत्रिय सक उपनवासा का परिणमन नहीं है। जो हमें अनेक क्षण रहनंबाला परिणमन दिखाई ता है ग्रह प्रतिक्षणभावी सहा परिणमन का स्थूम टि अबलोकनमान है। इस तरह सनत रक्तमाल संयोग-वियोगों की दृष्टि से विचार कीजिये हो लोक मशाल है. अनि-य है, प्रतिक्षा परिवर्तित हैं।
(३) क्या लोक शाश्वत और अशाश्चप्त दोन रूप है ? हो, क्रमशः उपर्युक बोना या स विचार कीजिन को लोक शाइनन भी है (द्रव्य दृष्टि से) अशाश्वान भी है (यय रष्टि से)। दोनों दृष्टिक.मी को कमशः प्रयुक्त करने पर और उन ओनं पर मल इष्टि से विचार करने पर जान उभयरूप ही प्रतिभारिस्त होता है।
(1) क्या कोकशाश्वत मनी रूप नहीं है । आखिर उपका पूर्ण रूप क्या है ? हो, लोक का पूर्णरूप अवकन्य है, नहीं कहा जा सकता। कोई शब्द एसा नहीं जो एक साथ शाश्वन और अशाश्वत हत होनों सरूप को नया उसमें विद्यमान अन्य अनन्न दमा को युगपत कह सके। अतः पद की असामर्ष के कारण जगत् का पूर्णरूप अबकम्य है, अनुभव है, वचनात है।
इस मिरूप में आप देखो कि यस्तु का पूर्णरूप बननों के अयोधर है अभिबंधनीय या अवतम्य है। यह चौथा उत्तर अशु के पूर्ण रूप को युगपत कहने की दृष्टि से है। पर यही जगत् शावत कहा जाता है दृम्बपि से, असाश्चम कहा जाता है पर्यायष्टि से । इस तरह मूलतः चीया, पहिला और तमरा ये तीन डॉ प्रश्न मौलिक है। तीसरा उभयरूपता का प्रश्न तो प्रश्रम और द्वितीय के संयोग हा है। अब आप विचार कि संजय ने अब लोक के पासत और असावत आदि के बारे में स्पष्ट कह दिया कि मैं जानता हो तो बना और बुद्ध ने कह दिया कि इनके चकर में पी, इसका जानना उपयोगी नहीं सत्र महाार ने उन प्रश्नों का वस्तु स्थिति के अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और मित्रों की जिज्ञासा का समाधान कर उनको बौद्रिक नीनता से प्राण दिया । इन प्रश्नों का स्वरूप इस प्रकार हैसंजय
महावीर 1 या लोकत है? मैं जानता होऊँगो इसका जानना अनुः हाँ. लोक जून्य दष्टि से
अगा, (अनिश्य, पयोगी है (अन्धाकृत शाश्वत हैं, इसके किसी भी विशेष) अकथनीय) यत् का ससंथा नाश नहीं
हो सकता। २ क्या लोक असाचन?
हाँ लोक अपन प्रतिक्षण भावी परिवर्तनों की टि से
शाश्वत हैं, कोई भी
पदार्थ दो क्षणस्थानी नहीं। है क्या साफ शान और अक्षा
हाँ, दोनों दृष्टिकोणों से क्रमशः विचार करने पर लोक को शाश्वत भी कहते हैं
और अशाश्वत भी। क्या लोक दोनों का नहीं है ,
हाँ, ऐसा कोई शक नहीं को अनुमय है।
लीक के परिपूर्ण स्वरूप को एक साथ समन भाव से कह सके। उसमें शाबत अशा श्रत के सिवाय भी अनन्त रूप विद्यमान है अतः समय भाव से वस्तु अनुभव है, अवकन्य, अनिर्वचनीय है।
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प्रस्तावना
संजय और युद्ध जिन प्रमों का समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अध्यात कह कर अपना पिण्ड हुदा लेते है, महावीर उन्हीं का वास्तविक युक्ति संगत समाधान करते हैं। इस पर भी राहुलजी,
और मानन्द फोसबी कादि यह कहने का साहस करते है कि संजय के अनुयायियों के खुए हो जाने पर संजय के राष्ट्र को ही जैनियों ने अपना लिया। यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि भारत में रही परतम्यता की ही परतनाविधायक अंग्रेजो के अछे जाने पर भारतीयों में उसे अपरसरता (स्वतन्यसा) रूप से अपना लिया है, क्योंकि अपस्तन्यता में भी परता ' ये पांच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसा की हद और महावीर ने उसके अनुयायियों के लुस होने पर अहसारूप से अपना लिया है क्योंकि सिंसा
में भी सयेशी अक्षर है ही। यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि----आप (पू०४८५) अनिलिलावादियों की सूची में संजय के साथ निग्य नाथपुत्र (महावीर)का नाम भी लिख जाते है, तथा (पृ.११) संजय को अनेकानावी। क्या इसे धर्मफोर्स के वादों में विन व्यापकं तमः नहीं कहा जा सकता
'स्मात शब्द प्रयोग से साधारणतया लोगों को संशय अनिश्रय या संभावना का भ्रम होसा है। पर यह तो भाषा की पुरानी शैली है उस असा की, जहाँ एक पाद का स्थापन नहीं होता । एकाधिक भेद या विकल्प.की सूचना जहाँ करनी होती है यहाँ 'स्था' पद का प्रयोग भाषा की शैली का एक रूप रहा है जैसा कि मनिझमनिकाय के महाराहुलोवाद सुल के निम्नलिखित भवतरण खे ज्ञात होता है-- 'कतमा च राहुल तेजाचातुजोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा अर्थात् सेजो धातु स्थात् माध्यामिक है, स्थास् बार है। यहाँ सिया (स्थात् ) शब्द का प्रयोग तेजो धातु के निश्चित भेदों की शुरक्षा देता है न कि उन भेदों का संशय अनिश्रय या सम्भावना बताया है। आप्यारिसफ भैय के साध प्रयुक होनेवाला स्यार शब्द इस बात का घोचन करता है कि जो धासु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे अतिरिक्त बाह्य भी है। इसी तरह स्वास्ति' में अस्ति के साथ लगा हुआ रथात शरद सूचित करता है कि अस्ति से भिन्न धर्म भी अस्तु में है. फेबल अस्ति धर्म रूप ही वस्तु महीं है। इस तरह 'स्था शारदम शायर कार अनिय का और न सम्भावना का सूचक है किन्तु निधि धर्म के सिवाय आप अशेष थी की सूचना देता है जिससे श्रोसा वस्तु को निर्दिष्ट धर्ममात्र रूप ही न समझ बैठे।
सप्तभंगी--प्रस्तु मूलतः अगम्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न धियों से विभिन्न विषक्षाओं से अनन्त धर्म है। प्रत्येक धर्म का विरोधी धर्म भी टिभेद से वस्तु में सम्भव है। जैसे 'घटः स्थास्सि में घट है ही अपने पुण्य क्षेत्र काल भाव की मचर से। जिस प्रकार घर में स्वचतुएम की अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उसी तरह घटस्पतिरिक्त अन्य पदाधों का नास्तिस्य भी घर में है। यदि घटभिन्न पदार्थों का नास्तित्व घट में न पाया जाय तो घर और अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जायेंगे। अंत घट स्यादस्ति और स्थानास्ति रूप है। इसी तरह वस्तु में द्रष्यष्टि से नित्यत्व पर्यायष्टि से अनिस्पक्ष आदि अनेकों विरोधी धर्मयुगल रहते है। एक वस्तु में अमन्त ससमा चनते है। जब हम घर के अस्तित्व का विचार करते है तो अस्तित्वाविषयक सात भङ्ग हो सकते है। जैसे संजय के प्रश्नोत्तर या कुत्रके अप्याकृत प्रश्नोत्तर में हम चार कोटि तो निश्चित रूप से देखते हैं-सत् । असत् , अभय और अमुभय । उसी तरह गणित के हिसाब ले सीम मूर भंगी को मिलासे पर अधिक से अधिक सात अपुमरुक्त भंग हो सकते हैं। जैसे घड़े के अस्तित्व का विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तिस्य धर्म,सरा तविरोधी नास्तिस्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तु के पूर्ण रूप की सूचना देता है कि वस्तु पूर्ण सा से पचन के भयोचर है। उसके विराट रूपको शब्दही छू सकते । अवमध्य धर्म इस अपेक्षा से हैं कि दोनों धमों को पुगपत् कहनेवाला शब्द संसार में नहीं है अतः मस्तु यथार्थतः घममासीत है. अवमय है। इस तरह मूल में तीन माहैस्थादरिस पर २ स्थानास्ति स्ट
३ स्थादवचम्मी घर: ' अवरहस्य के साथ स्यात् पद खाने का भी अर्थ है कि वस्तु भुगपत् पूर्ण रूप में पदि अषसध्य है सो नमशः अपने अपूर्ण रूप में वक्तव्य भी है और वह अस्ति मास्ति आदि रूप से यथयों का विषय
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२६.
न्यायविनिश्यविवरण भी होती है। अतः वस्तु स्मार वक्तव्य है। जप मुख मा तीन है सब इनके द्विसं योगी भंग भी तीन हंगी स्था वियोगी भंग एक होगा। जिस तरह मसुष्कोटि में सत् और असा को मिलाकर प्रभ होता है कि "या सत् होकर भी वस्तु असा है। उसी तरह ये भी प्रभ हो सकते हैं कि--- क्या सत होकर भी पस्तु अवकज्य है? २ क्या असर होकर भी वस्तु अवक्तव्य है। ३. क्या सल-असन् होकर भी वस्तु अवतम्य है।म तीनों प्रश्नों का समाधान संयोमझ चार भंगों में है। अर्थात्
(७) अस्ति नास्ति उभय रूप वस्ल है-स्वतुष्य और परमतुष्टय र क्रमशः दृष्टि रखने पर और धोनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर।
(५) अस्ति अवक्तव्य वस्तु है---प्रथम समय में स्वचतुष्टय और द्वितीय समय में युगपत स्व. पर चतुष्टय पर क्रमशः पशि रखने पर और दोनों की सामूहिक क्यिक्षा रहने पर।
(१) भास्ति अषकन्य वस्तु है--प्रथम समय में पर चतुष्टय और द्वितीय समय में युगपत् स्व. पर चतुष्टय को क्रमशः इष्टि रखने पर और दोनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर।
(७) अस्ति मास्ति भवन्य वस्तु है---प्रथम समय में स्वचसुष्टय द्वितीय समय में पर चतुष्टय तथा तृतीय समय में युगपत् स्व-पर चतुष्टय पर क्रमशः दृष्टि रखने पर और सीनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर।
जय अस्ति और नास्ति की तरह अबसण्य भी वस्तु का धर्म है तब बैसे अस्ति और मास्ति को मिलाकर चौथा भंग यन जाता है वैसे ही भक्ताय के साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्ति नास्ति मिलकर पाँच छठवें और सातवें मंग की कृष्टि हो जाती है।
इस सरह गणित के सिमान्त के अनुसार शान मूल वस्तुओं के अधिक से अधिक अपुनरूस साप्त ही भंग हो सकते है। सास्पर्य यह कि वस्तु के प्रत्येक धर्म को लेकर सात प्रकार की जिज्ञासा हो सकती है, सास प्रकार के प्रम हो सकते है अतः उनके उदर भी सात प्रकार के ही होते हैं।
मदिग्दर्शन में श्री राहुली में पाँचव छठवें और सात मंग को जिस भ्रष्ट तरीके से तोड़ामरोषा है यह उनकी अपनी मिरी अस्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शन को व्यापक मई और वैज्ञानिक दृष्टि से देखना चाहते हैं तो किसी भी दर्शन की समीक्षा उसके स्वरूप को हीक समझ कर ही करनी चाहिए। दे अवकम्य नामक धर्म फो जो कि सर के साथ स्वतन्त्रभाव से दिसंयोगी हुआ है, तोड़कर अबक्तध्य करके संजय के 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और संसब के घोर अनित्रयवान को ही अनेकान्तवाद कह देते है! किमायमतः परम् ?
श्री सम्पूर्णानन्दजी जैनधर्म पुस्तक की प्रस्तावना (पृ. ३) में भन्देमन्तवाद की प्रशता स्वीकार करके भी सप्तभकी पाव को बालकी खाल निकालने के समान आवश्यकता से अधिक बारीकी में जाना समझते हैं। पर ससमझी को आज से अटाई हजार वर्ष पहिले के वातावरण में देखने पर वे स्वयं उसे समय की मांग कहे विमा महीं रह सकते । अाई हयार पाई पहिले आबाल गोपाल प्रत्येक प्रक्ष को सहब तरीके से 'सत् असत् उभय और अनुभगा इन चार कोरियों में गूंथ कर ही उपस्थित करसे में और उस समय के भारतीय आश्चर्य उत्तर भी चतुष्कोटि का ही, हाँ या ना में ऐसे थे तर जैन सीथंकर महायोर ने मूल तीन भने के गणित के नियमानुसार अधिक से अधिक सात प्रभ बनाकर उसका समाधान सप्तमी द्वारा किया जो निशितरूप से वस्तु की सीमा के भीतर ही रही है। अनेकांतवाद मे मात के वास्तविक अनेक सत् का अपलाप नहीं किया और न बष्ट केवल कापना के क्षेत्र में विचरा है।
. जैन कथाप्रन्थों में महावीर के बालजीवन की एक घटना का वर्णन आता है कि-'संजय और विजय नाम के दो साधुओं का संशय महावीर को देखते ही हो गया था, इसलिए इसका नाम सन्मति रखा गया यशा' सम्भव है यह संजय विजय से बयवेलाट्ट पुत्त ही हों और इसके संशय या अभिश्चय का नाश महादौर के सप्तभंसी न्याय से हुआ हो और वेलट्रिपुत्त विशेषण हो भ्रष्ट होकर विजय नाम का दूसरा साधु पर गया हो।
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प्रस्तावना
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मेरा उनसे निवेदन है कि भारतीय परम्परा में खाप की भारा है उसे 'दम' लिखते समय भी artम रखें और समीक्षा का स्वम्म तो बहुत सावधानी और उतरदायित्व के साथ लिखने की कृपा करें जिससे न केवल विवाद और भ्रान्त परम्पराओं का अजायबघर न बने। वह जीवन मैं संवाददाता ने सफे इस तरह दर्शन में दर्शन की कार से निकल कर वस्तु सीमा पर खड़े की और वात की दृष्टि दी जिसकी उपासना से दिल अपने वास्तविक रूप को समझ कर निरमंड से बचकर सथा संपादी बन सकता है।
अनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार
ग्य पाप और मोल जैसे प्रतिष्ठित द
में
भारतीय विचार परम्परा में स्पष्टतः दो धाराएँ हैं। एक धारा वेद को मान मानने वाले वैदिक दर्शों की है और दूसरी वेद को प्रमाण न मानकर पुरुषानुभव या पुरुषसाक्षात्कार को प्रमाण माननेवाले. भ्रमण सकी। यद्यपि दर्शनको प्रमाण नहीं मानता किन्तु उसने आत्मा का मस्ति जसे मरण ही कार है। परलोक को तथा संशोधक पारिभादि की उपयोगिता को नहीं किया है अतः अवैदिक होकर भी यह में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। धारा वैदिक परम्परा को न मानकर भी आमा, अभित्र शान सदान, पुष्पा परलोक निर्माण आदि विश्वास रखती है, अतः पाणिनिक परिभाषा के अनुसार अस्तिक है। वेद को या ईश्वर की जग मानने के कारण को क कहना उचित नहीं है। क्योंकि अपनी अमुक परम्परा को न मानने के कारण या श्रमण नास्तिक कई आते हैं तो श्रम को न मानने के कारण वैदिक भी आदि विशेषणों से पुकारे गये हैं। का सारा ज्ञान या विस्तार जीवन शोधन या चारिष वृद्धि के लिए हुआ था । वैदिक परम्परा में तवज्ञान को मुक्ति का साधन माना है, न कि धारा में चारित्र को । वैदिकपरम्परा वैराग्य आदि सेशन को पुट करती है, विकारमुद्धि करके मोक्ष मान लेती है जबकि परम्परा कहती है कि उस ज्ञान या विचार का कोई मूल्य नहीं जो जीवन में न उतरे। जिसकी सुवास से जीवनशोधन न हो वह ज्ञान या विचार मस्तिष्क के व्यायाम से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखते। परम्परा में सत्र का सूत्र है- “सम्यग्दर्शनज्ञानमारिषाणि मोक्षमार्गः” (तत्त्वार्थसूत्र 11१ ) अर्थात् सम्यग्दर्शनसम्मान पीर सम्मवार की आयपरिनसि मोक्ष का मार्ग है वहाँ मोक्षका साक्षात्कार हैरान तो उसके परिपोषक है। बौद्ध परम्परा का अष्टांग मार्ग भी चारित्र का ही विस्तार है। तपर्य यह कि श्रमारा में ज्ञान की अपेक्षा पारित्र का ही अन्तिममय रहा है और प्रत्येक विचार और शाम का उपयोग चारित्र अर्थात्मशोधन या जीवन मैं समरूप पापित करने के लिए किया गया है। श्रमण सन्तों ने तप और साधना के द्वारा श्रीसरागता की उलट ज्योति की कि में प्रचारित करने के
"
की और उसी परमपरागत समता या for fasanear साक्षात्कार किया। इनका साक्ष्म विचार निया शाखार्थ नहीं जीवनद्धि और संसाद या (चाहे वह स्वर पर जंगम हो या
देशीयहोवा विदेशी) देश, काल, शरीरावर के आवरणों से परे होकर स्वरूप से चैतन्य शक्ति का अखण्ड शाश्वत आधार है। वह फर्म या पशु और मनुष्य आरेि शरीरों को धारण करता है, पर होता वहापादि के द्वारा विकृत
कीदा-मकोड़ा, एक भी अंश उसका नष्ट नहीं अपने देश का आदि निमियों कर्म के अनुसार, क्रिय
हो जाता है।
गोरे या किसी भी शरीर को पार किए हो, अपनी वृष्टि या वैश्य और शुभ किसी भी श्रेणी में उसकी गणना व्यवहारस की जाती हो, किसी भी देश में उत्पन्न हुआ
नहीं आधार था, ज्ञान नहीं चारि था, अहिंसा का अन्तिम अर्थ है-जीवमान में हो प्रिय हो या छह गोरा हो या रा दर्शन येक जीव
वासनाओं के कारण
का
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न्यायविनिश्चयविवरण हो, किसी भी सन्त का उपासक हो, यह दन व्यावहारिक निमितों से ऊँघ यानीच नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेष में उत्पन्न होने के कारण ही वह धर्म का ठेकेदार नहीं बन सकता । मानवमान के मूलतः समाम अधिकार है, इतना ही नहीं किम्यु पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, वृक्ष आदि प्राणियों के भी । अमुक प्रकार की जािित्रका या व्यापार के कारण कोई भी मनुष्य किसी मानवाधिकार से वंचित नहीं हो सकता। यह मानवसमत्व, भावना, माणिमात्र में समता और उत्कृष्ट सरस्वमैत्री अहिंसा के विकसित रूप। श्रमजसन्सी मे यही कहा है कि मनुष्य किसी भूख पर या अन्य भौतिक साधनों पर अधिकार कर लेने के कारण जगत् में महान् बनकर दूसरों के निलम का जन्मसिद्ध अधिकारी नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेष में उत्पन्न होने के कारण दूसरों का वासक या धर्म का ठेकेदार नहीं हो सकता । भौतिक साधनों की प्रतिष्ठा बाह्य में कदाचित हो भी पर धर्मक्षेत्र में प्राणिमान्न को एक ही भूमि पर बैठना होगा। हर एक प्राणी को धर्म की शीतल छाया में समानभाव से सन्सोप की साँस स्टेने का सुअवसर है। आत्मसमत्व, वीतरागत्व मा अहिंसा के विकास से ही कोई महान हो सकता है न कि जगत् में विषमता फैलानेवाले हिंसफ परिग्रह के संग्रह से भादर्श स्याम है न कि संग्रह। इस प्रकार जाति, वर्ण, रज, देश, जाकार, परिप्रहसंग्रह आदि विश्मता और संपर्क के कारणों से परे होकर प्राणिमात्र को समत्य, अहिंसा और वीतरामता का पावन सन्देषा इन अमगसन्तरे ने उस समय दिया अप यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड एक विशेष की आधिका के साधन बने हुए थे, कुछ गाय, सोना और विरों की दक्षिणा में स्वर्ग के डिकिट पास हो साप्ते थे, धर्म के नाम पर गोमेघ अज्ञामेध कचि नरमेध तक का खुला मामार या, जातिगत उम्दव नीचव का विध समाजशरीर को दम कर रहा था, अनेक प्रकार से सता को थियाने के पष्टयन चालू थे। उस बर युग में मानवसमत्व और प्राणिनेत्री का उदारतम सन्देश इस युगधर्मी सन्तों ने मास्तिकता का मिथ्या लांछन सहते हुए भी रिका और नाम नता को सभी समाजाचना का मजम बताया।
पर, यह अनुभवसिद्धवार । ईसा का स्थापी मनःशुद्धि और वचमान्हि के बिना नहीं हो सकती। हम भले ही शरीर से दूसरे प्राणियों की हिंसा में करें पर यदि बच्चन व्यवहार और पित्तगत-विचार विथम और विसंवादी हैं सो कात्यिक अहिंसा पल ही नहीं सकती। अपने मन के विचार.अशांत मत को पुष्ट करने के लिए व नीच शब्द बोले जायेंगे और फलतः हाथापाई का अवसर भाए बिना व रहेगा । भारतीय शाखाधों का इतिहास अनेक हिंसा काण्ड के रक्तरक्षित पकों से भरा हुआ है। अतः यह आवश्यक छ कि हिंसा की खानीय प्रतिमा के लिए विश्व या तवज्ञान हो और विचार शुद्धिभूलक वचनशुद्धि की जीवन व्यबहार में प्रतिष्ठा हो। यह सम्भव ही नहीं है कि एक ही वस्तु के विषय में परस्पर विरोधी मतवाद चलते रहें, अपने पक्ष के समर्थन के लिए उचित अनुचित शास्त्रार्थ होते रहे, पक्ष प्रतिपक्षों का संगठन हो, शास्त्रार्थ में हारमे वाले को तैल की जलती कहाही में जीवित तल देने जैसी हिंसक होड़ेंसी लगें, फिर भी परस्पर हिंसा बनी रहे !
भगवान् महावीर एक परम अहिंसक सन्त थे। उनमे देखा कि आज का सारा राजकारण, धर्म और मसवादियों के हाथ में है। जब शक इन मतवाओं का वस्तु स्थिति के भाव से समन्वय र होगा सब तक हिंसा की जय नहीं कर सकती। उनने विश्व के तत्वों का साक्षात्कार किया और बताया कि वित्र का प्रत्येक घेतम और जह हस्त्र अनन्त धर्मों का भण्डार है। उसके विराट स्वरूप को साधारण मानव परिपूर्ण रूप में नहीं जान सकता । उसका क्षुद ज्ञान वस्तु के एक एक अंश को जानकर अपने में पूर्णता का दुरमिमान कर अंश है। विकार वस्तु में नहीं है। विवाद को देखने वालों की दृषि में है। फाश, ये वस्तु के विराट् अनन्त-धारमक या अनेकात्मक स्वरूप की झाँकी पा सकें। उनमे इस अनेकान्तास्मक तत्वज्ञान की और मलयादियों का ध्यान खींचा और बताया कि देखो, प्रत्येक वस्तु अनस्स गुष्प पर्याय और वों का अखण्ड पिण्ड है। यह अपनी अनायनन्त सम्मान स्थिति की दृष्टि से नित्य है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता अब विश्व के रंगमन्च से एक का भी समूल विनाश हो अथ । साथ ही प्रतिश्रण उसकी पर्या, बदल रही है, उसके गुण-धमाँ में भी सदा या विसावा परिवर्तन हो रहा है, अता
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प्रस्तावना
यह भनिएप भी हैं। इसी तरह अनन्न कुष, शनि, पर्याय और धर्म प्रयक वस्तु की निजी सम्पत्ति है। इनमें से हमारा स्वरुप ज्ञानलाम्य एक एक अंश को विश्य करके क्षुद मनवानों की सृष्टि कर रहा है। आत्मा को निस्य सिद्ध करने वालों का पक्ष अपनी सारी शक्ति आत्मा को श्रमियसि फरणे नालों की उबाड़ फझर में लगा रहा है तो अनिष्यवादियों का गुट नियवादियों को भा रा कह रहा है।
सहावीर को इन मतरादिपर की बुद्धि और प्रवृति पर नरस आता 1 नुद्ध की तरह आत्मनियत्व और अनित्याच, परलोक भीर निर्वाभादि को जल्याकृत (कन कार fex सय की मधि महीं करना चाहते थे। उनने इन सभी तस्दी का यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्य को हाल में लाकर उन् मानस समता का समभूमि पर ला दिया। उनने वाया कि वस्तु को नम जिय दृष्टिकोण से देख रहे हो वस्तु रतनी ही नहीं, उलको ऐसे अनन्म दृष्टिकोणले देने जाने की क्षमता है, उसका विराट् स्वरूप अनन्त धर्मान्मक है। नई जो इरिकोश विरोधी मालूम होता है उसका ईमानदारी से विचार करी, वह भी वस्तु में विद्यमान है । विर में पक्षपान की दुरभिम्बन्धि निकालो और दूसरे के दृषिको को भी उतनी ही प्रामाणिकता से वस्तु में ग्योतो यह वहीं न्याय रहा है। हाँ, वरनु की सीमर और सादा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। नुम साहो कि जर मनत्य सजा जाय या पेहन में जदल, तो नहीं मिल सकता क्योंकि प्रत्येक पदार्थ के अपने अपने किसी धर्म निति है। मैं प्रश्यक वस्तु को अनन्त धर्मात्मा कह रहा हूँ, सर्वधर्मात्मा नहीं। अनन्त धर्मों में चेला के मम्भव शमन धर्म तम में मिलेंगे तथा अचेतन गत सम्भन धर्म अचेतन में पेतन के गम-धर्म अच्छेनन में नहीं पाये जा सकते और न अपेतन के चेनन में। हाँ. कल ऐसे सामःम्प धर्म भी है जो वेतन और अचेतन दोनों में माधारण रूप से पाए जाते है । तात्पर्य यह कि परत में बहुत साइश वह इतनी विराट है जो हमारे तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोकों से देखी और जानी जा सकती है। एक क्षुद-दृष्टि का रह करके इमो का निरम्हार करना या अपनी दृष्टि का ईकार करा तस्तु के कवरूप को नासमझी का परिणाम है। हरिभवसरि ने लिना , कि--
आग्रही यत मिनीपति गुक्ति तत्र यत्र मतिरस्य मिविया पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरति नियेशम् ॥"-लोकतत्त्वनिर्णय]
अा--आग्रही म्गकि अब मनोवा के लिए युक्तियाँ ना है, युकियों को अपने मस की और ले जाता है, पर पक्षपातरहित मध्यस्थ व्यक्ति युकिमिव बातम्यरूप को स्वीकार करने में अपनी मनि की सफलता मानता है।
अनेकान्त दर्शन भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वसुस्वरूप की ओर अपने मन को लगाओं हकि अपने निश्चित मत की ओर यस्तु और युक्ति की खींचातानी करके उन्हें बिगाचने का दुषयरस करो,
और न कल्पना की उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तु की सीमा को ही लांघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमता के लिए यह वस्तुस्थितिमूलक अलेकान्स नवज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस मरतमधारी को ज्ञात हो सकेगा कि पह किनने पानी में है, उसका झम कितना स्वरूप है। और वह किस हुरभिमान से हिंसक मतवाद का सर्जन करके मानवसमा का अहित कर रखा है। इस मानस अहिंसात्मक
अनेकान्त दर्शन से विचारी मैं या दृष्टिकोनी में कामचलाउ समन्वय या दोलादाठा समझीना नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूप के आधार से यथार्थ नवज्ञानमूलक समन्बम तुष्टि प्राप्त होती है।
___डॉ. सर राधाकृष्यमान इण्डियम फिलासफी (जिन्द १० ३०५-) में स्थाबाद के उपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि इससे हमें केवल आशिक अथवा अर्धसत्य का ही ज्ञान हो सकता है, स्थादाद से हम पूर्ण सत्य को नहीं जान सकते। दूसरे शब्दों में-स्थाहाद में अर्धसत्वों के पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निक्षित अमिश्रित अर्थसत्यों को मिलाकर एक साथ रख देने से बंध पूर्वसत्य नहीं कहा जा कसा " आदि।
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न्यायविनिश्चयविवरण
क्या सर कृष्ण
की कृपा करेंगे कि स्वाहाद मे निथित अनिश्चितयों को पूर्ण सत्य मानने की प्रेरणा कैसे की ? हाँ, वह वेदाश्त की तरह वेतन और अचेतन के काल्पनिक क्षेत्र की दीदी में शामिल नहीं हुआ मीर नही कि समय करने की rs
1
देता है जिसकी उपेक्षा की गई हो।
या
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पूर्वन्यरूप से वह कानिक अद घेत अमूर्त मूर्त सभी काल्पबिक रीति से समा जाते हैं। वे स्वाद की के पास लाकर पटना समझते हैं, पर न प्रत्येक वस्तु स्वरूपता अग स्तविक नतीजे पर पहुँचने की असर कैसे कह सकते हैं ? हो, स्वाद्वाद उस विरुद्धका अनेद की ओर वस्तुस्थिति से नहीं जा सकता। वैसे संग्रह की एक satter कमी की है और उस परम संग्रहतय की अभेद दृष्टि से बताया है। कि-'सर्वमेकं सविशेप' अर्थात् एक है, सब से और न में कोई भेद नहीं है। पर यह एक कल्पना है, एक सत् नहीं है मौन्य में अनुगतरता हो। अतः यह सर राधाकृष्णन को चरम अभेद की ही देनी हो तो वे परमसंनय के दृष्टिकोण में देख सकते है, पर यह केवल नाही होनी वस्तुस्थिति नहीं पूर्ण तो वस्तु का अनेकात्मक रूप से दर्शन हैं न कि कामपनिक अगेद का दर्शन |
इसी तरह प्रो० बलदेष उपाध्याय इस स्वान से प्रभावित होकर भी सरका अनुसरण कर स्वाद्वार को मूलभूततश्व ( एक बर १ ) के स्वरूप के समझने में नितान्त असमर्थ बताने का साहस करते हैं। इसने वो वहाँ तक कि विष है कि इस यह व्यवहार तथा परमार्थ चोचीच सत्त्रविचार को विपक्ष के लिए freम्भ तथा विराम देने वाले विश्रामगृह से बढ़कर अधिक महत्व नहीं रखता " ( भारतीय दर्शन पृ० १७३ ) । आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शन की उस कामसमेत पहुँचना चाहिए पर स्वाद्वाद जब वसुवियार कर रहा है तब वह परमार्थ सत् वस्तु की मानव युतिसिद्ध ही है पर आज के विज्ञान से उसके करण का कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता मानने तक का विश्लेषण किया है और प्रत्येक की अपनी तन्त्र सत्ता स्वीकार की है। अतः यदि स्वाद वस्तु की अनेकान्तात्मक समा पर पहुँचाकर बुद्धि को विराम देखा है तो यह उसका भूषन ही है। दिन की उपेक्षा करना मनोरञ्जन से अधिक महत्व की बात नहीं हो सकती ।
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अभेद ने
स्थिति
इ है जि को
इसी तरह श्रीयुत हनुमन्तराय एम. ए. ने अपने "Jain Instrumental heory of Knowledge" नामक में लिखा है किसी का उपस्थित करता है,
पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता । भाषि। ये सब एक ही प्रकार के विचार है जो स्याहार के स्वरूप की न समझने के या प्रस्तुस्थिति की उपेक्षा करने के परिणाम हैं। मैं पहले लिखा है कि--महावीर ने देखा कि स्तुती अपने स्थान पर अपने विराट् रूप में प्रतिक्षित है, उसमें नर्म जो हमें परस्पर विरोधी मान होते है, असे भान है पर हमारी दृष्टि में विशेष होने से हम उसकी स्थिति को नहीं पा रहे हैं। जैन दर्शन बार बहुधा है। यह दो पृथक् स कोहार के लिए कल्पना से अभिन्न कह भी थे, पर वस्तु की निजी मर्यादा का चाहता। जैन दर्शन एकक अपने
वस्तुओं नहीं करना
में कि अनेद को नहीं मानता परिधि कोन कर उसकी सीमा में विश्वकर बरतु की ओर देखने को दर्शन की सरकार दर्शन एक व्यक्ति का एक
पास्तविक अमेो मानता है, पर दो व्यक्तियों इस दर्शन की पट्टी विशेषता है, जो यह परमार्थ सत्य की ही विचार करता है और मनुष्यों को ना की उड़ान से करता है। जिस परम अबेद तक न पहुँचने के कारण अनेका का मुहते हैं उस चरम नमेद को भी मानता है वह उन भेदों को कहता है कि हे अने तो उसका एक धर्म है दृष्टि को और उदार तथा विशाल करके वस्तु के
वस्तु इससे भी बड़ी
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पूर्व रूप की देखो,
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ग्रस्तावना उलमे अभेद एक कोने में पढ़ा होगा और अभेद के अनम्सों भाई-बन्धु उसमें तालाब हो रहे होंगे। अतः इस झामकधारियों को उदारदष्टि देनेवाले तमा वस्तु मी सौंको दिखानेवाले अनेकारखदर्शन ने वास्तविक विचार की अम्तिम रेतर खींची है, और यह सब हुआ है मानस समतामूलक तत्वज्ञान की खोज से। अब इस प्रकार वस्तुस्थिति ही अनेकाश्यमयी या अनन्त धर्मास्मिका है तब सहल ही मनुष्य यह सोचने लगता है कि दूसरा चादी को कर रहा है उसकी सहानुभूति से समीक्षा होनी चाहिये और वस्तुस्थिति मसक समीकरण होना चाहिये। इस स्वीयस्वल्पता और वस्तु अनन्तधर्मता के वातावरण से निरर्थक कल्पनाथों का माल टूटेगा और अहंकार का विनाश होकर मानससमता की पुष्टि होगी। जो कि अहिंसा का संजीवन चीज है। इस तरह मानस समता के लिए अनेकान्त दर्शन ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है। जब अनेकान्त दर्शन से विचारशुद्धि हो जाती है तब स्वभावतः वाणी में मम्रपा और परसमन्वय की दृक्ति उत्पत्र हो जाता है। वह वस्तुस्थिति को उल्लंघन करनेवाले शब्द का प्रयोग ही नहीं कर सकता। इसीलिए जैनापायों ने परख की अनेकधामकता का शोसन करने के लिए स्याद' शब्द के प्रयोग की आवश्यकता बताई है। पशब्दों में यह सामर्थ नहीं जो कि घस्तु के पूर्णरूप को धुगपत कह सके । यह एक समय में एक कको म
स्य वस्तु में विद्यमान शेप धमाँ को सता का सूचन करने के किए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है । 'स्यात्' का 'सुनिश्चित दृष्टिकोग' या निर्णीत अपेक्षा हो अर्थ है 'शाश्य, सम्भवः कदाधिल आदि नः । स्वास्ति' का वाच्यार्थ है-खरूपादि की अपेक्षा से पस्त है ही' न कि 'सायद है', 'सम्भव है', 'कदाचित् है। श्रादि। संक्षेपता जहाँ अनेकान्त दर्शन बिस में समता, मध्वस्थभाय, वीतरागतानिष्पक्षता का उदय करता है वहाँ स्वादाद वाणी में निपता आने का पूरा अवसर देता है।
इस प्रकार अहिंसा की परिपूर्णता और स्थाथित्व की प्रेरणा ने मानस शुद्धि के लिए अनेकान्सदर्शन और वचन शुद्धि के लिए स्पावाद जैसी निधियों को भारतीय संस्कृति के कोषागार में दिया है। बोलते समय वक्ता को सदा यह ध्यान रहना चाहिए कि वह को बोल रहा है उतनी ही वस्तु नहीं है, किन्तु बहुत बड़ी है, उसके पूर्ण रूप तक शब्द नहीं पहुँच सकते। इसी भाव को बताने के लिए यह सादर पार का प्रयोग करता है। 'स्पात बद विधिलिक में निपन होता है, जो अपने वक्तव्य को निश्चित रूप में उपस्थित करता है कि संभव रूप में जैन तीर्थकर ने इस सरह सणि अहिंसा की साधना का वैयक्तिक और सामाजिक होमों प्रकार का प्रत्यक्षानुभूत मार्ग बताश है। उनने पदाधों के स्वरूप का यथार्थ निरूपण सो किषा ही, साथ ही पदार्थों के देखने का, उनके शान करने का और उनके स्वरूप को बचा से कहने का नयर वस्तुस्सी मार्ग बताया। इस अहिंसक दृष्ट से यदि भारतीय दर्शनकार्स ने वस्तु का निरीक्षण किया होता तो भारतीय जलपकथा का इतिहास रक्तरंजित न हुआ होता और धर्म सधा हर्मन के नाम पर मानवता का निर्वहन नहीं होता। पर अहंकार और शासन भावभा मानव को वानव बना देती है। उस पर भी धर्म और मत का अहम्' तो अति दुनिवार होता है। परन्तु युग युग में ऐसे ही दानवों को मान बनाने के लिए अहिंसक सन्त इसी समम्बय दृष्टि, इसी समता भाव और एसी सर्वाङ्गीण अहिंसा का सन्देश देते भाए हैं। यह जैन दर्शन की ही विशेषता है जो बह हिंसा की तह तक पहुँचने के लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा अपि तु वास्तविक स्थिति के आधार से बार्शनिक युक्तियों को सुलझाने की मौलिक दृष्टि भी खोज सका। न केवल दिही किन्तु मन वचन और काय इन तीनों द्वारों से होनेवाली हिंसा को रोकने का प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित कर सका।
आज डॉ. भगवान्यास जैसे मनीयी समन्वय और सब धर्मों की मौलिक एकता की आज बुलन्द कर रहे है। वे सरों से कह रहे है कि समन्वय रष्टि प्राप्त हुए बिना स्वराज्य स्थायी नहीं हो एकता, मानव मानव नहीं रह सकता । उन्होंने अपने 'समन्वयः और 'दर्शन का प्रयोजन' आदि ग्रन्थों में इसी समन्वय तत्व का भूरि भूरि प्रतिपादन किया है। जैन ऋषियों ने इस समन्वन्त्र (याद्वाद) सिद्धान्त पर ही संख्यावर ग्रन्थ लिखे है। इसका विश्वास है कि अब तक रधि में समीचीनता महीं आयी तब तक
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न्यायविनिश्वयविवरण
ममेद और संघर्ष नही रहेगा। नोण से वस्तु स्थिति तक पहुँचना ही विसंवाद से इटार जीवको सकता है। जैन दर्शन की भारतीय संस्कृति को यहीं है। भाव में जो स्वप के दर्शन हुए हैं वह इसी फल है। कोई यदि विश्व में भारत का मस्तक ऊँचा रस पड़ता है तो यह जाति, था देश आदि की उपाधियों से रहि भावमा ही हैं।
का
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इस प्रकार सामान्यतः
न
न शब्द का अर्थ और उनकी सीमा तथा जैनदर्शन को भारतीय वर्णन करने के बाद इस आस में आए हुए प्रथमत प्रमेय का वर्णन संक्षेप में
को किया जाता है---
fare परिचय
ग्रन्थ का बाह्यखरूप
सार में
1
यह अभ्यद्यपद्यमय रहा है यस्य
नाम आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जैन न्याय का अवतार करने वाला न्यायावतार अभ्थ लिखा अनुमान और दीनों का विश्न किया गया है। भरुदेव न्याय में भी प्रत्यक्ष अनुमान और धन कमा रहे हैं। धर्मकीर्ति के पार्तिक में और परानीवन है। परार्थानुमान और सन्द प्रमाण की प्रक्रिया लगभग एक है का एक प्रमागविनय भी है। स्नाकर (२०२३) में धर्मकीर्तिरपि स्याविनिश्र विवि के तीन परिच्छेदों में कमशः प्रत्यक्ष स्वार्थानुमान है। यदि पर्वतका समविनय के अतिरिक्त न्यायविनिषद जाम का नाम की पसन्दगी में इसका उपयोग कर लिया होगा। अभी के न्यायविनिश्वय ग्रन्थ का तो पता नहीं चला है। हो सकता है कि देवसूरिने प्राणविभव का ही न्यायविनिश्वम के नाम ले उल्लेख कर दिया हो क्योंकि उसके प्रत्यक्ष स्वार्थानुमान और परार्वानुमान परिच्छेदभेदों के विवेचक है। अतः क की तरह प्रभागविधि नाम की ही अधिक सम्भावना है। देव ने याद को दोष से न हुआ देखकर उसके ािर्थ न्यायवतार और माननिय के आद्यन्त पदों से ग्रन्थ का न्यायमिa नामकरण क्रिया होगा |
और पान का भी कोई रा है तक के अनुसन्धान से धर्म
न्यायविनिश्चय को
करके लिखा है कि
अपने ग्रन्थों में कहीं न कहीं 'अ' मास का प्रयोग अवश्य करते हैं। यह योग कहीं जिनेन्द्र के विशेषण के रूप में, कहीं प्रन्थ के रूप में जीर कहीं के रूप में टीचर होता है यानि २०६) में
1
रनियापोविनिश्चीयते इस सरिसेस के द्वारा
,
विज्ञानन्द का
परीक्षा (२०४९) गत
दोनों की हृदयहारिणी रीति से सूचना दे दी है यादिराज की सिदिविनिमय टीका (४० २०८) का ' कह कर की गई विनय की दासादि आदि कारिका, स्वाम काकार धर्मपति द्वारा '' भगवद्विन्यायविधिये' लिखकर 'स्यलक्षणं मातु" इस तीसरी कारिका का उधृत किया जाना इस ग्रन्थ की कता के प्र पोषक प्रमाण है । ग्रन्थगत प्रमेयस्यायविनि में है प्रस्तावों में स्थूल रूप से निम्नलिखित विषयों पर प्रकाश डाला गया है-
२ वचन इन
प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्ष का लक्षण, इन्द्रिय प्रत्यक्ष का लक्षण, प्रमाणस्तव सूचन राफा व्यवसायात्मक विकल्प के अभिलाप आदि लक्षणों का खण्डन शान को परोक्ष
के
कारिका २० और न्यायजि
के वफा शक्य, अमन्स
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प्रस्थापना
मानने का दिराकरण, शाद के स्वसंवेदन की सिद्धि ज्ञानान्तरवेदज्ञाननिरास साकारशाननस, अचेतनज्ञानविरास, निराकारज्ञानसिद्धि, संवेदनाद्वैदनिरास, विभ्रमणादनिरास, बहिरर्थमिति, विज्ञान खण्डन, परमाणुरूप रहिरथं का निराकरण, अवयवों से भिन्न अयत्री का खण्डन, दृष्य का लक्षण, गुण और का स्वरूप सामान्य का निरास, व्यक्ति से सामान्य कान्दन धर्मकोर्तिसम्म प्रक्षण का खण्डन स्वयं देव-योगि-मानसस्यक्षनिरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षण का खण्डम, नैयायिक के अध्यक्ष का समालोचन, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का भादियों का विवेचन किया गया है।
पि
द्वितीय अनुमान 'साध्यसाध्याभास के
अनुमान का सक्षण, प्रत्यक्ष की वरद अनुमान की पहिरविवा पदादि नों में साध्यामयोग की असम्भयता, शब्द का अर्थवादकार, भूतचैतन्यवाद का निराकरण, गुण्ययुर्णिभेद का निराकरण, साध्यसाधनाभास के लक्षण, मदेतु की अनेकान्तसाधकता, सत्य की परिणामांधता पणन अन्यचासुपपतिसमर्थच रुर्क की प्रमाणता, अनुपमन हेतु का समर्थन, पूर्वच उत्तरवर और सहचर देतु का समर्थन, विरुद्ध अनैकान्डिक जोर करों का विवेचन दूपणाभा
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३३.
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लक्ष जयवस्था टान्तासिविचार, धाद का लक्षण निमहस्यानलक्षण, पादाभासलक्ष आदि अनुमान से सम्बन्ध रखने वाले विषयों का वर्णन है ।
तीय जन प्रस्ताव में--प्रवचन का स्वरूप, सुगत के आधत्व का निरास, सुगत के करुणावस्त्र तथा चतुरा सत्य यतिपादक का परिहास, अगम के अपयत्च का खण्डन सर्वज्ञानसमर्थन, ज्योतिनो सत्यमा साईक्षणिकादि विद्या के द्वारा सर्वशत्यविधि, शब्दरास मीयादिप राय भावना की रिता मोक्ष का स्वरूप, सहमंत्री निरुपण स्वाहादने दिये जानेवाले संशयादि दोषों का परिहार, स्मरण प्रत्यविज्ञान आदि का सामान्य प्रमाण का फल आदि forest पर विवेचन है ।
प्रस्तुत न्यायविभिश्वय में तीन प्रकार के का संग्रह है- (१) कार्तिक (२) अन्तरोक (२) संग्रह इस भाग में 'क्षमा' आदि है क्योंकि आगे इसी
पदों का विस्तृत विवेचन है वृद्धि के मध्य में व सत्र मेवाले अन्तरोक हैं तथा कृषि के
इस
(१०२२९)
मूलार्तिक के अर्थ का संग्रह करानेवाले संग्रहष्टोक है। वादि स्वयं "मिराकारेत्यादयः अन्तरश्लोकाः वृत्तिमध्यवर्तिव्यात" विमुखेत्यादि वार्तिकव्याख्यानवृत्तिमन्यमध्यवर्तिनः सत्व लोकाः ..... संमोकास्पतिरम कार्तिका पहरा इति विशेषः " इन शब्दों मैं अन्तर भीर की विशेषता है
१
की व्यस्य ववभाग पर तो नहीं ही
है । पयो में भी सम्भवतः कुछ पद्म अध्यायात छू गए हैं। चिनिय की मूलकारिक पृथक
कारिका
रूप से शिखी हुई नहीं मिलतीं।
इन उद्वार विवरण्यात कारिकांशों को जोड़कर किया गया है। अतः जहाँ ये कारिकाएँ पूरी नहीं free उद्धत अंश को [. [] इस किट में दे दिया है। कम्याय में न्यायनिव मूल प्रकाशित हो चुका है। उसमें प्रथम प्रस्ताव में १३९ कारिकाएँ मुक्ति हैं परन्तु इस सब की कारिकाओं को अन्यत्र न्यायविनिश्चय में 'हिताहितासि' (कारिका मं० ४ ) कारिका मूल की समझकर छापी गई है, पर अब यह कारिका वादिराज की कृत ज्ञात होती है। न्यायपनि विवरण (४०१५) लिखा है कि- "करण्यते हि सदान इत्यादिना इन्द्रिय प्रत्यक्षस्य, परोक्षज्ञान प्रस्थादिना अनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य लक्षणं सममित्यादिना वाशीन्द्रियप्रत्यक्ष समर्थनम्" इस उल्लेख से शाप्त होता है कि तीनों पक्षों का प्रकारान्तर से समर्थन कारिकाओं किया है लक्षण नहीं। मूहकारिताओं में न सो मद्रिय प्रत्यक्ष का लक्षण है और
का तब केवल विकास क्यों किया होगा ? दूसरे पक्ष में इस शो की माज्या
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ARE
न्यायविनिश्वयविवरण
(१०१०५, ११)विधामापूद है और काम में ही उक्त हमारे पहले मुल का माना भाहो सकता है कि पादिराज ने स्वकृत श्लोक का ही सरपर्योदान किया हो। अधदा पृत्ति में ही गध में उक्त लक्षण हो और धादिराब ने उसे पायल कर दिया हो। जैसा कि सधीयलय स्थवृत्ति (पृ. २७) में “इन्द्रियार्थज्ञान स्पष्ट लिसाहितमाप्तिपरिहारसमर्थ प्रादेशिक प्रत्यक्षम्। यह इन्द्रियप्रत्यक्ष का सक्षण मिलता है । अथवा इसे ही वादिराज मे पवस्व कर दिया हो। फलतः हमने इस श्लोक को इस विवरण में वादिराजकृत ही मानकर कोटे टाइप में छापा है। अकराष्ट्रमन्यत्रय की प्रस्तावा में इस श्लोक के सम्बन्ध में मैंने पं० कैलाशचन्दजी के सत की परश की थी। अनुसन्धान से उनका मत इस समय उचित मालूम होता है।
अलमन्थनय में मुद्रित कारिका नं. ३८ का 'ग्राह्यभेदोन संपत्ति भिनस्थाकारमयपि" यह उत्तरार्थ मूल का नहीं है। कारिका नं. १२९ के पूर्वाध के बाद तथा सुनिश्चितस्तैस्तु सवतो विप्रशंसप्त" यह उसराध मूल का होना चाहिए। इस तरह इस परिच्छेद को कारिकार्यों की संख्या १९८३ रह जाती है। प्रस्तुत विवरण में छापते समय कारिकाओं के नम्बर देने में गाड़ी हो गई है।
ताडपत्रीय प्रति में प्रायः मूल श्लोकों के पहिले म इस प्रकार का निह बना हुआ है, जहाँ पूरे इजोक आए हैं। कारिका 40 पर पह चिह्न नहीं बना है। अकलङ्कमन्यत्रय में मुदित मथम परिप्लेष की कारिका में निम्नलिखित संशोधन होना चाहिएकारिका नं० १६
-शक्दो
-शको। कारिका नं. २५
-बन्यो
-वन्य-1 करिका . ३,
न विहाना
महि ज्ञाना-1 कारिका म० .
-मेष निश्चयः -मेप विनिश्चयः। कारिका ८
कथन त कारिका नं १०२
दुमेश्व
प्रवेध्य-। कारिका २०१४.
अतदारम्भ
अत्तदाभदिसीय और तृतीय परियोद में मुद्रित कारिकाओं में निम्नलिखित कारिकापरिवर्तनादि हैकारिका नं० १९४ की रस्मा--"अतहेतुफलापोहः सामान्य चेदपोहिनाम् । सन्दर्यते यथा धुण्या न तथाऽप्रतिपतितः।" इस प्रकार होनी चाहिए।
कारिका नं. २८३ के पूर्वाध के बाद "चित्रवैतविचित्रामरटभङ्गप्रसङ्गतः कः सर्वथा इलेषात् नानेको भेदरूपतः।" यह सारिका और होनी चाहिए। कारिका नं.३७२ का " प विशाय दृषकोऽपि विदूषकः" यह उत्तरावं मूल का नहीं है। कारिका नं. केपार "तत: दार्थयोनास्ति सम्बन्धोऽपौरुषेयकः" एह कारिकाध और होमा चाहिए। कारिका मं०१७ के बाद "प्रमा प्रमितिहेतुरवात् प्रामाण्यमुपगम्यते" यह कारिका और होना चाहिए। अन: अकलप्रन्धत्रयगत त्यावधिनित्रय के अङ्क अनुसार संपूर्ण ग्रन्थमे १८०३ कारिकाएँ फलित होती है।
न्यायधिनिश्चय विवरण-न्यायविनिश्चय के पय भाग पर प्रबलतार्किक स्थादायविद्यापति सारिराजमूरित तारायं वियोतिनी व्याख्यानरत्नमाला उपलब्ध है। जिसका नाम भ्यायधिभिश्चय विवरण है। जैसा कि शदिराकृत इस रलोक से प्रकट है--
१ परम्मरायत प्रसिद्धि के अनुसार इसका नाम न्यायकुमुदचन्द्र के न्यायमुदचन्द्रोदय की राह न्यायधिनिश्यालर हद हो गया है। परन्तु वस्तुतः वादिराज के उक्त श्लोक गत उल्लेखानुसार इसका मुख्य माधान न्यायविनिक्षयांवरण है। दूसरे शब्दों में इस तश्पर्यावयोतिमी व्याख्यामररनमाला भी कह सकते हैं। पर मायविनिश्श्यालबार नाम का समर्थन किसी भी प्रमाण से नहीं होता। ए.परमानन्दजी शाखो सस्थाबा ने
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प्रस्तावना
३५
"प्रणिपत्य स्थिरमाया गुरुन एरामप्युक्षरयुद्धिगुणान् । न्यायधिनिश्चयविवरणभिरमणीयं मया क्रियते ॥"
ख्यायलय की तरह न्यायविनिश्रयविवरण (प्रथमभाग ०२२९) में आए हुए 'वृत्तिमध्यवर्तिस्वात', 'वृत्तिपूर्णानां तु विस्तारभयानास्माभिर्व्याख्यानमुपदश्यते' इग अवतरणों से स्प है कि न्यायविनिश्चय पर अफालदेव की स्वन्ति अवश्य रही है। वृत्ति के मध्य में भी लोक ये जो अन्सरश्लोक के साम से प्रसिद्ध थे। इसके सिवाय कृत्ति के द्वारा प्रदर्शित मूलबार्तिक के अर्थ को संग्रह करनेवाले संग्रहलोक भी थे। चादिराजसूरि में जिन १८०३ श्लोकों का व्याख्यान विवरण में किया है उनमें असरलोक और संग्रहश्लोक भी शामिल हैं । कितने संग्रहश्लोक है और कितने अन्साश्लोक इसका ठीक निर्णय द्वितीयभाग के प्रकासन के समय हो सकेगा। पर वादिराजपूरि ने वृत्ति या पूर्णिगत सभी श्लोकों का व्याख्यान नहीं पिया ... ६ तथा : पूजी देवस्थ बचनम्' इस प्रस्थान याक्य के साथ "समारोपच्यवदेवात' आदि ठीक उरत है। यदि वादिराजसूरि न्यायधिनिश्व की स्ववृत्ति को ही चूर्णिशब्द से कहते है तो कहना होगा कि आपने पति या चूर्णिगत सभी श्लोकों का व्याख्यान नहीं किया, क्योंकि 'समारोपयवच्छेचात योफ भूल में शामिल नहीं किया गया है।
इस तरह' वृति के यावत् गधभाग की तो व्याश्या की ही नहीं गई, सम्भवतः कुछ पन भी छूट गए है । जैसा कि सिद्धिविनियटीका (पृ. ११. A) के निम्नलिखित उल्लेखो से स्पष्ट है:
तदुक्तंन्यायविनिश्चये- चैतद बहिरेव । किं । यहिहिरिव प्रतिभासते। कुत एतत् ? भ्रान्सेः । तदन्यत्र समानम् । इति"
सिद्विविनियटीका (पृ० १९ A.) में ही न्यायविनिश्चय के नाम से 'सुखमाबहादमाहा श्लोक उद्धत है.-"कथमन्यथा न्यायविनिश्वये सहभुवो गुणा इत्यस्य
सुखमाहादनाकार विज्ञान मेयबोधनम् ।।
शक्तिः क्रियानुमेया स्यादयना कान्तासमागमे ॥ इति निदर्शनं स्यात् ।"
यह श्लोक सिसिविनिश्चयटीका के उल्लेखानुसार न्यायविनिश्चय स्वधुप्ति का होना चाहिए। क्योंकि यह गुणपर्यववव्यं ते सहमवृतयः (लो० )के गुण शब्द की वृत्ति में उदाहरणरूप से दिया गया होगा। यह भी सम्भय है कि अकलक्ष ने स्वयं इस श्लोक को तृप्ति में उद्धत किया हो रोमि वादिराज इसे स्थाद्वादमहार्णव अन्य का बताते हैं। यह भी चिप्स को लगता है कि न्याययिभिश्चय की उक्त वृत्ति हो सम्भवतः स्वाहादनहाव के नाम से प्रख्यात रही हो। जो हो, पर अभी यह सब साधक प्रमाणों का अभाव होने से सम्भावनाकोटि में ही हैं।
न्यायचिनिश्चयविवरण की रचना अत्यन्त प्रसन्न तथा मौलिक है। तसात् पूर्वपक्षों को समृद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए भगणित प्रन्या के प्रमाण उद्धत किये गये है। जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है वादिराजसूरि के ऊपर किरी भी वार्शनिक आचार्य का सीधा प्रभान नहीं है। ये हरएक विषय को
इसका न्यायविनिश्चयालहार माम भी मानकर इसके प्रमाणतिर्षय से पहिसे रचे जाने के सम्बन्ध में प्रमाणनिर्णय (पृ. १६) गत यह अवतरण एकीभावस्तोत्र को प्रस्तावना (पृ. १५) में उपस्थित किया है--
"अस एव परामस्मिक साश्मेव मानसप्रवक्षस्य प्रतिपादितमलकारे-दिमित्यादि मज्जानमभ्यासात् पुरतः स्थिते । साक्षारकर इतस्तन्त्र प्रत्यक्ष मानसं मतम् ॥"
परन्तु इस अवतरण में उपलङ्कार शब्द से न्यायविनिश्चयालकार इस नहीं है क्योंकि यह इलीक कादिराजसूरि के न्यायविनिश्चयदिवरण का नहीं है किन्तु प्रशाकरणाकृत प्रमाणशर्तिकानपुर (मिश्रित . ४) . का है, और इसे वादिसन ने न्यायविनश्यविवरण (पृ. ११९) में पूर्वपक्षप से उधृत क्या है। वादिराज मे स्वयं न्यायविनिश्वयविवरण में कोसों जगह प्रमाणबादिकारभार का बलकार' नाम से उल्लेख किया है। अतः न्यायविनिश्चयविवरण का न्यायविनिश्चयाल र नाम निर्मूल है और मात्र थुतिमाधुनिमित्त ही प्रचलित हो गया है।
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न्यायविनिश्चयविवरण स्वयं आत्मसात् करके ही व्यवस्थित ग से युक्तियों का जाल बिझते है जिससे प्रसिधाक्षी को निकलने का अवसर ही नहीं मिल पाता।
साक्ष्य के पूर्वपक्ष में (पृ. २३१) योगभाष्य का उल्लेख "विन्ध्यवासिनी भाष्यम्' शब्द से किया है। सांख्यकारिका के एक प्राचीन नियन्ध से (१०२३४भोग की परिभाषा उद्धत की है।
यौचमतसमीक्षा में धर्मकीर्ति के प्रमाणपासिंक और प्रज्ञाकर के वासिकालकार की इतनी गहरी और विस्तृत अालोचना अन्यय देखने में नहीं आई । बार्तिकाष्ठहार का तो आधा सा भाग इसमें आजदेरित धोतरादाय सामगुरु बारम्बार इनकी तीखी आलोचना से नहीं छूटे है।
मीमांसादर्शन की समालोचना में वायर उम्बेक प्रभाकर मण्डल कुमारिल आदि का गम्भीर पोलोचन है। इसी तरह न्यायधिक मत में व्योमशिध, आत्रेय, भासर्वज्ञ, विश्वरूप आदि प्राचीन माचार्योंके मत उनके प्रन्थों से उदएस कर के आलोभित हुए हैं। उपनिषदों का येवमस्तक शब्द से उल्लेख किया गया है। इस सरह जितना परपक्षसमीक्षण का भाग है वह उन उन मसी के प्राचीनतम अग्धों से लेकर ही पूर्वपक्ष में स्थापित करके आलोचित किया गया है।
स्वपक्षसंस्थापन में समराभट्टादि आत्रयों के प्रमाणवाक्यों से पक्ष का समर्थन परिपुष्ट रीति से किया है। जब वादिराज कारिकाओं का व्याख्यान करते हैं तो उनकी अपूर्व बयाकरणाचुन्बुता चिसको विस्मित कर देसी है। किसी किप्ती कारिका के पांच पांच अर्थ तक इन्होंमे किए हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकानी के टिगोचर होते हैं। कादपछटा और साहित्यसकता तो इनकी पद पद पर अपनी आभा से ज्यायभारती को समुज्ज्यल बनाती हुई सहदयों के हृदय को आहादिस करती है। सारे विवरण में करीब २००५-२५.० पय स्वयं कादिराज के ही द्वारा रचे गए हैं जो इनकी काव्य चातुरी को प्रत्येक पृष्ठ पर मूर्त किए हुए हैं। इनकी तणाशक्ति अपनी मौलिक है। क्या पूर्वपक्ष और मया उत्तर पक्ष बोनों का वधान प्रसाद ओज और माधुर्य से समलकप्त होकर तप्रवणता का एच अविधान है। इस श्लोक में कितमे ओज के साथ यमक मैं मद का उपहास किया है
___ "अर्थतवादक, तदस्मादुपरम दुस्तरूपक्षयलवलनात् ।
स्राबादामनविस्मयुन स्वास्ति नबधः । (पृ. ४५९) इस तरह समन ग्रन्थ का कोई भी पृष्ठ वादिसज की साहित्यमयणता सदनिष्णावता और दायभिकता की युगपत् प्रतीति करा सकता है। एकीभावस्तोत्र के अन्त में पाया आनेवाला यह पन पादिराज का भूतगुणोद्धायक मात्र स्तुतिपरक नहीं
"यादिराजमनु शाब्द्धिकलोको वादिराजननु साकिकासहः।
वादिराजमनु काम्पकृतस्ते धादिराजमनु मध्यसहायः ॥" बादिराज का एकीभावस्तोत्र उस निष्ठावान और भक्ति विभोरमानस का परिस्पदन है। जिसकी साधना से मध्य अपना परम लक्ष्य पा सकता है। इस तरह वादिराज ताकिक होकर भी भक्त थे, वैयाकरणखणफ होकर भी काध्यकला के हृदयालादक लीलाधाम थे और थे अ न्याय के सफल ध्याहयाकार । जैन दर्शन के अभ्यागार में वादिरान का न्यायविनिश्चयविवरपा अपनी मौलिकता गम्भीरता अरिष्टता युक्तिप्रवणता प्रमाणसंग्रहका आदि का अद्वितीय उदाहरण है। इसके प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव का संक्षिप्त विषयपरिचय इस प्रकार है
प्रत्यक्ष परिच्छेद यावविनिश्चय ग्रम्य के सीम पपिच्छेद है-मस्पक्ष २ अनुमान मौर ३ प्रवचन । इस अन्ध में अकष ने न्याय के विनिश्चय करने की प्रतिज्ञा की है। न्याय अर्थात् स्वाहामुद्रांकित जैन मात्राय को कलिकाल दोष से गुणद्वेपी व्यक्षियों शरा मलिन किया हुआ देखकर विचलित हो उठते है और भव्य
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प्रस्तावमा
पुरुषों की हिसकाममा से सम्बशिग्न-वन रूपी जल से उस न्याय पर आए हुए मल को दूर करके उसको निर्मल बनाने के लिए कृतसकल्प होते हैं । जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप का निर्णय किया आय उसे न्याय कहते है । अर्थात् न्याय उन उपार्योको कहते हैं कि मस्तु तस्म का नियम हो गत साथी (1) में प्रमाण और नए दो ही निर्दिष्ट है । आत्मा के अवगत गुणों में उपयोग ही एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा आरमा को लक्षित किया जा सकता है। उपयोग अर्थात चित्तियति। उपयोग हो मकार का है एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग । एक ही उपयोग जब परपदायों के मानने के कारण साकार समता है तब ज्ञान कहलाता है वही उपयोग जन यापदार्थों में उपयुक्त र रहकर मात्र दैतम्यरूप रहता है तब निराकार अवस्था में दर्शन कमाता है । यद्यपि दार्शनिकक्षेत्र में दर्शन की प्यावा बदली है और वह पैतन्याकार की परिधि को लाँधकर पदार्थों के सामान्यावलोकन तक जा पहुंची। परन्तु सिद्धान्त अन्यों में दर्शन का अनुपयुक बाद तावत् ही वर्णन है। सिद्धान्त ग्रन्थों में स्पष्टतया विषय
और विषपी के सखिपात के पहिले दर्शन का काम बताया है। जब तक आरमा एकपदार्थविषयकशानोपयोग से पुत होकर दूसरे पदार्थविषयक उपयोग में प्रवृत्त नहीं हुआ तब तक बीच की निराकार अवस्था दर्शन कही जाती है। इस अवस्था में चैतन्य निराकार या मैतम्याहार रहता है । दार्शनिक प्रयो में दर्शन विषपषिययी के सत्रिपात के अनन्सर वस्तु के सामान्यावलोकन रूप में वर्णित है । और बाहर चौलसम्मत निर्विकल्पकशान और नैयायिकादिसम्मय निर्विकल्पक शाम को प्रमाणता का निराकरण करने के लिए इसका यही तात्पर्य है कि बौद्धादि जिस निर्विकल्पक को प्रमाण मानते हैं जैन उसे निकोटि में गिनते हैं और यह प्रमाण की सीमा से बहिर्भूत है। अस्तु,
___उपायतव में ज्ञान ही भाता है। जब ज्ञान वस्तु के पूर्ण रूप को जानता है तब प्रमाण कहा जाता है तथा जब एक देश को जानता है तब नय । प्रमाण का लक्षण साशरणतया प्रमाकरणं प्रमाण यह सर्व स्वीकृत है। विवाद यह है कि करण कौन हो? मैयायिक सन्निकर्ष और ज्ञान बोनी का करण रूप से निर्देश करते हैं। परन्तु जैन परम्परा में अज्ञान निवृति रूप ममिति का करण ज्ञान को मानते है। आचार्य समन्तभार और सिन्द्रसैन में प्रमाण के लक्षण में 'स्वपराषभासका पतु का समावेश किया है। इस पद का तात्पर्य है कि प्रमाज को 'स्व' और 'पर' दोनों का जिक्रय करानेवाला होना चाहिए । यद्यपि
देख और माणिक्यनन्दी ने प्रमाण के लक्षण में 'अमधिगताप्राही और अवार्थव्यवसायात्मक पदी निवेश किया है, पर यह सर्वस्वीकृत नहीं हुआ। प्राचार्य हेमचन्द्र ने तो 'शषभास' पद भी प्रमाण के लक्षण में अनावश्यक सममा है। उनका कहना है कि स्वावभासकाष ज्ञानसामाग्य का धर्म है। झन चाहे प्रमाण हो या अश्माण, वह संवेदी होगा ही। तात्पर्य यह है कि बैन परम्परा में ऐसा स्वसंवेदी ज्ञान प्रमाण होगा जो पर पदार्थ निर्णय करनेवाला हो।प्रमाण सकलदेशी होता है एक गुण के द्वारा भी पूरी वस्तु को विषय करता है।नय विकलादेशी होता है क्योंकि वह जिस धर्म का स्पर्श करता है उसे ही मुख्य भाव से विषय करता है।
प्रमाण के मे-सामान्यतया प्राचीन काल से जैन परम्परा में प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद निर्विवाद रूप से स्वीकृत चले आ रहे है। आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है तथा जिस शान में इन्द्रिम सन प्रकाश आदि परसाधनों की अपेक्षा हो वह शान परोक्ष कहा जाता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष की या परिभाषा जैन परम्परा को अपनी है। जैन परम्परा में प्रत्येक वस्तु अपने परिणमन में स्वयं उपा. दान होती है। जिलने परनिमितक परिणमन हैं ये सब व्यवहार मूलक है। जिसरे मात्र स्वनिमित्तक परिणामन थे परमार्थ है, मिश्चयगय के विषय है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण में भी वही स्थाभिमल अधिकार्य कर रही है। और उसके निवांट के लिए अक्ष पाग्य का अर्थ (अक्ष्योति व्याप्नोति जानासीत्पक्ष श्रामा) आत्मा किया गया । प्रत्यक्ष के लोकपसिव अप के निर्वाह के लिए हनिमय शाम को सांचपहारिक संज्ञा दी। पयपि शास्त्रीय परमा ध्याख्या के अनुसार इधियजन्य ज्ञान परसापेक्ष होने से परोक्ष है किन्तु लोकम्यवहार में इनकी प्रत्यक्षरूप से प्रसिद्धि होने के कारण इन्हें संभावहार प्रत्यक्ष कह
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न्यायविनिश्वयविवरण
दिया जाता है। जैमष्टि में उपदानयोग्यता पर ही विशेष मार दिया गया है, निमित्त से यद्यपि उपदोन विकसित होती है पर निर्मिताधीन परियाद नहीं
जाते
प्रत्यक्ष जैसे कृष्टा में इन और मन जैसे किसानों की अपेक्षा भी स्वोर नहीं की गई। अध्यक्ष व्यवहार का कारण भी आयात की गई है और परोध व्यवहार के लिए इन्द्रियमन आदि पदार्थों की कक्षा रखना। यह तो जैन का अपना आध्यात्मिक नियम परिव
अर्थात्
को विषय का मुद्दे विचारकोटि के
"प्रत्यक्षलक्षणं स्पष्ट साकारमा । द्रव्यसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥”
परमार्थ
ही साकार हो
हो और मामवेदी हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इसमें करते हैं-
ज्ञान आदी होता है।
और सामान्यविशेषात्मक अ निम्न
1
२ ज्ञान साकार होता है।
३. ज्ञान अर्थ को जानता है।
४ अर्व सामान्य
है।
अर्थ
है।
६
वह ज्ञान प्रत्यक्ष होगा जो परमार्थतः स्पष्ट हो ।
ज्ञान का आरवेदिश्व' रन आत्मा का गुण है या नहीं यह प्रश्न भी दर्शकों की का विषय रहा है। शाम को पृथ्वी आदि भूतों का ही धर्म मानता है भूतों का धर्म स्वीकार करके सूक्ष्म और भूत के ि अस्थायि की शान कहता है। सांय चैतन्य को पुरुषधर्म स्वीकार करके भीमाद्धिको कृतिका धर्म भागता है से चैतन्य और शान इस स है। पुरुषात बापदा को नहीं खदानों को जिसे भी मत काही परि है। यह बुद्धि उभयतः प्रतिविन्धी दर्पण के समान है। इसमें एक और पुरुष है और दूसरी ओर पदार्थों के आकार इस बुद्धि मध्यम के द्वारा ही पुरुष को यह मिया द्वार होने लगता है।
चैतम्य प्रतिफलित होता
1
"मैं घट को जानता हूँ"
यादशेषिक ज्ञान को आत्मा का गुमानी
है, पर इनके मत में आत्मा इन्धपदार्थ पृथक है तथा ज्ञान युगपदार्थ जुदा । यह जारा का थाभावी अर्थात् अब तक आमा है तब तक उसमें अवश्य रहनेवाला नहीं है किन्तु लोग सेविशेष ध है। अब तक
मिलेंगे
आदि कारणों से मन होगा। हो जाती है।
उत्पन होगा, अवस्था में मन इन्द्रिय आदि का सम्बन्ध में रहने के कारण ज्ञान की धारा इस अवस्था में धारणा रहता है। तात्पर्य यह कि बुद्धि सुखदुःखादि विशेष गुण श्रीवाधिक है, स्वभावतः आरमा ज्ञावशून्य है। ईश्वर नाम को एक आत्मा ऐसी है जो अनन्त नित्यज्ञानवाणी है । परमात्मा के सिवाय अन्य सभी जीवात्माएँ स्वभावतः ज्ञानसूत्र हैं ।
दाग और चैतन्य को ख़ुदा जुदा मानकर चैतन्य का आश्रय ब्रह्म को वथा ज्ञान का आश्रय अन्तःकरण को मानते हैं। शुद्ध में विषयपरिक ज्ञान का कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता ।
मीमोलक ज्ञान को आत्मा का ही गुण मानते हैं। इनके यहाँ ज्ञान और आत्मा में सदस्य
माना गया है।
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प्रस्तावना
बौद्ध परम्परा में ज्ञान नाम या चित्तरूप है। मुक्त अवस्था में चित्तसन्तनि निसवय हो पाती है। इस अवस्था में यह चित्तसन्तति घटपटादि वापदार्थों को नहीं जानती।
जैमपरम्पस शाम को अनासनम्त स्वाभाविक गुण मानती है जो मोक्ष दशा में अपनी पूर्ण अवस्था में रहता है।
संसार वृशा में शान आत्मगत धर्म है इस विषय में वार्वाक और सांण्य के सिवाय प्राय: सभी वादी एकमत हैं। पर विचारणीय बात यह है कि जन झान उत्पन्न होता है तब वह दीपक की सरह स्वपरप्रकाशी उपन्न होता है या नहीं। इस सम्बन्ध में अनेक मत -मीमांस्त झान को परोक्ष कहता है। उसका कहमा है कि ज्ञान परोक्ष ही उत्पन्न होता है। अब उसके द्वारा पदार्थ का बोध हो जाता है तब अनुमान से ज्ञान को जाना जाता है-चूँकि पदार्थ का बोध हुआ है और क्रिश बिना करण के हो नहीं सकती अतः करणभूत शाम होना चाहिए। मीमांसक को ज्ञान को परोक्ष मानने का यही कारण है कि इसने अतीन्द्रिय पार्थ का शान वेद के द्वारा ही माना है। धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष किसी व्यक्ति विशेष को मही हो सकता। उसका ज्ञान दे के द्वारा ही हो सकता है। फलतः शान जब अतीन्द्रिय है तब उसे परोक्ष होना ही चाहिए ।
दूसरा मत मैयायिकों का है। इनके मत से भी शाम परोक्ष ही उत्पन होता है और उसका शान द्वितीय शान से होता है और द्वितीय का नृतीय से। अनवस्या दूषण का परिहार अब ज्ञान विषया. हर को जानने लगता है तब इस शान की धारा रुक जाने के कारण हो जाता है। इनका मत भानान्तरदेवज्ञानवाद के नाम से प्रसिद्ध है। नैयायिक के मस से ज्ञान का प्रत्यक्ष संयुक्तसमवायसनिकर्ष से होना है। मन आत्मा से संयुक्त होता है और भारमा में ज्ञान का समयाय होता है। इस प्रकार शान के उत्पन्न होनेपर समिकजन्य द्वितीय मानसज्ञान प्रथम नाम का प्राध्यक्ष करता है।
सांधने पुरुष को बसचेतक मीकार किया है। इसके मत में हरिया ज्ञान प्रकार का विकार है। इसे महताब कहते हैं। यह स्वयं अचेतन है। बुद्धि उभयमुख प्रतिविधी दर्पण के समान है इसमें एक और पुरुष प्रतिफलित होता है तथा दूसरी भोर पदार्थ। इस चुद्धि प्रतिथिस्थित पुरुष के द्वारा ही बुनि का प्रवक्ष होता है खयं नहीं।
वेदाम्ती के मन में अक्षा खप्रकार है अतः स्वभावतः ग्राम का निवर्स शान स्वप्रकाशी होदा ही अहिए।
प्रभाकर के मत में संविति स्वप्रकाशिनी है यह संचित रूप से स्वयं जानी जाती है। इस तरह ज्ञान को अनामवेदी या अस्वसंवेदी मानने वाले मुख्यतया मामांसक और नैयायिक
अकलवायेव ने इसकी मीमांसा करते हुए लिखा है कि- यदि शान स्वयं अप्रत्यक्ष हो अर्थात अपने स्वरूप को न जानसा हो तो उसके द्वारा पदार्थ का ज्ञान हमें नहीं हो सकता। देवदत्त अपने ज्ञान के द्वारा ही पदार्थों को क्यों जानता है ,यज्ञदत्त के ज्ञान के इस स्यों नहीं जानता या प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान के द्वारा ही अर्थ परिझान करते हैं बाबान्तर के ज्ञान से नहीं । इसका सीधा और सष्ट कारण यही है कि देवदर का ज्ञान स्वयं अपने सो जानता है और इसलिचे सद्भिन्न देवदत्त की आत्मा को ज्ञात है कि अमुक ज्ञान मुन्नमें उत्प उभा है यज्ञदत्त में ज्ञान उपन हो जाय पर देवदत्त को उसका पता ही नहीं चलता। अतः वशदत्त के ज्ञान के द्वास देवदत्त अयोध नहीं कर पाता। यदि जैसे यज्ञदन का शान उत्पन्न होने पर भी देवदत्त को परोक्ष रहता है, उसी प्रकार देवपक्ष को स्वयं अपना ज्ञान परोक्ष हो अर्थात् उत्पक होने पर भी स्वयं अपना परिज्ञान न करता हो तो देवदस के लिए अपना ज्ञान यज्ञदत्त के ज्ञान की तरह ही पराया हो गया और उससे अर्थबोध नहीं होना चाहिये। वह ज्ञान हमारे आत्मा से सम्बन्ध रखता है इसने । मात्र से हम उसके द्वारा पदार्थबोध के अधिकारी नहीं हो सकते जब तक कि वह स्वयं हमारे प्रत्यक्ष भर्थात स्वयं अपने ही प्रत्यक्ष नही हो जाता । अपने ही द्विसीय ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष माजा इससे
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अर्थ बोध करने की कल्पना इसलिए उचित नहीं है कि कोई भी योगी अपने योगज प्रत्यक्ष के द्वारा हमारे शाद को प्रत्यक्ष कर सकता है जैसे कि हम स्वयं अपने द्वितीय शाम के द्वार प्रथम शाम का, पर इतने मात्र से वह योनी हमारे ज्ञान से पदार्थों का मोध नहीं कर सेता। उसे सो जो भी रोध होगा स्वयं अपने ही ज्ञानद्वारा होगा। तारपर्य यह कि-हमारे ज्ञान में यही स्वकीयत्व है जो वह स्वयं अपना बोध करता है और अपने आधारभूत आस्मा से सादाल्प रखता है। यह संभव ही नहीं है कि झार उप हो जाय अर्थात अपनी उपयोग दशा में आ जाय और आत्मा को या स्वर्ण उसे ज्ञान का ही पता न चले । वह तो दीपक या पूर्व की तरह स्वयंप्रकाशी ही उत्पन्न होता है। वह पवार्थ के पोध के साथ ही साथ अपना संवेदन स्वयं करता है। इसमें न तो क्षण मे है और न परोक्षता ही। ज्ञान के एकप्रकाशी होने में यह बाधा भी कि-ह पदादि पदावों की तरह ज्ञेय हो जायगा नहीं हो सकती पोकि ज्ञान घट को शेयत्वेन जानता है तथा अपने स्वरूप को ज्ञानरूप से। अतः उसमें शेयक रूपता का प्रसङ्ग नहीं आ सकता। इसके लिए दीपक से बढ़कर समदान्त दुसरा नहीं हो सकता । दीपक के देखने के लिए इस दीपक की
ही पड़े ही धागा को मन्द या अस्पष्ट दिखावे पर अपने रूप को तो जैसे का तैसा प्रकाशित करता ही है। ज्ञान चाहे संशयरूप हो. या विषयं यरूप श अननसायरमक स्वयं अपने ज्ञानरूप का प्रकाशक होता ही है। शान में संशयरूपता विषयरूपता या प्रमाणात का निश्चय बाह्यपदार्थ के यथार्थप्रकाशकत्व और अयथार्थप्रकासकरव के अधीन है पर झामरूपता या प्रकाशरूपता का मित्राय सो उसका स्वाधीन ही है उसमें झानान्तर की नावश्यकता नहीं होती और वह मशास रह सकता है। तात्पर्य यह कि कोई भी ज्ञान जब उपयोग भवस्था में आता है तब अज्ञात हो कर नहीं रह सकता। हाँ, लरिष या शक्ति रूप में पद शासन हो गह जुदी बात है क्योंकि शक्तिका परिज्ञान करना विशिष्वज्ञान का कार्य है। पर यहाँ सो प्रश्न उपयोसात्मक शान का है। कोई भी उपयोगात्मक शान भज्ञात नहीं रह सकता, यह तो मात्रा हुला ही उत्पा होता है उसे अपना शान करने के लिए किसी सामान्सर की अपेक्षा नहीं है।
यदि ज्ञान को परोक्ष मामा माय लो उसका सहाब सिद्ध करना कठिन हो जायगा । अर्थप्रकाश रूप हेनु से उसकी सिद्धि करने में निकालिस्थित बाधा है-पहिले लो अर्थत्रमश स्वयं ज्ञान है अतः जब तक अर्थप्रकाश अज्ञात है तब तक उसके द्वारा मूलज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती। यह एक सर्वमान्य सिहास है कि-"अनस्योपशम्भस्य मालिन्द्रिः प्रसिध्यति अर्यात् अप्रत्यक्ष-अशाच शान के द्वारा असिजि नहीं होती । "नाजातं ज्ञापक दाम"--स्वयं अशात दूसरे का शापक नहीं हो सकता । यह भी सर्वसम्मत न्याय है। फलतः यह आवश्यक है कि पहिले अर्घप्रकाश का ज्ञान हो जाय । यदि अर्धप्रकाश के शाम के लिये अन्यज्ञान अपेक्षित हो तो उस अन्यज्ञान के लिए सदम्पशान इस सरह अमवस्या नाम का दूषण रहा है और इस अनन्तज्ञानपरम्परा की कल्पना करते रहने में आद्यज्ञान अज्ञात ही बना रहेगा। यदि क्षयंकान स्ववेदी सो प्रथमज्ञान को खदेवी मानने में क्या साधा है! स्ववेदी अर्यप्रकाश से ही अर्थबोध हो जाने पर मृल ज्ञान की कल्पना ही निरपंक हो जाती है। दूसरी बात यह है कि जब सक ज्ञान और अर्यप्रकाश का अधिनाभाव सम्बन्ध गृहीत नहीं होगा तब तक उससे ज्ञान का अनुमान नहीं किया जा सकता। यह भविनाभावग्रहण अपनी आमा में तो इसलिए नहीं बन सकता कि अभी तक शाम ही अशात है तथा अन्य आत्मा के शाह का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। अतः अश्मिाभाव का प्रहण न होने के फारण अनुमान से भी ज्ञान की सभा सिद्ध नहीं की जा सकती। इसी तरह पदार्थ, इन्द्रियाँ, मानसिक उपयोग आदि से भी मूलझान का अनुमान नहीं हो सकता। कारण-इमका शन के साथ कोई मदिनाभाव नहीं है। पदार्थ आदि रहते है पर कभी कभी शान नहीं होता। कवरचित् अविनाभात्र हो भी तो उसका प्रहण नहीं हो सकता ।
आसिग्दनाफार परिणत ज्ञान को ही सुख कहते हैं । सम्ससंबेदम को सुख और असाससषेदन को दुस सभी नादियों ने माना है। यदि शाम को स्वसंवेदी नहीं मानकर परोक्ष मानते हैं तो परोक्ष सुख
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दुःख से प्रात्मा को एवं विकादादि नहीं होना चाहिए । यदि अपने सुखको अनुमानधन या झामान्तरग्रान मामा आग और उससे मारमा में विपादादि की सम्भावना की जाय तो अन्य मुखी आत्मा के सुख का अनुमान करके बो हप होना चाहिए । अश्रवः केवड़ी को, जिसरे सभी आधों के सुखदुःस्त्रादि का प्रत्यक्ष 'झान हो रहा है, हमारे सुखदुःख से विवाद उत्पत्र होने चाहिए । दूं कि हमारे सुखनुःख से हमें ही हर्षविधादादि होते है अन्य किसी अनुमान करनेकाले या प्रत्यक्ष कानेवाले आत्मान्तर को नहीं, अतः यह माना ही होगा कि वे हमारे स्वयं प्रत्यक्ष है अार. ये स्वप्रकाशी है।
यदि ज्ञान को परोक्ष माना जाता है तो आत्मासर की बुद्धि का अनुमान नहीं किया जा सकता। पहिले हन स्वयं अरनी आरमा में ही जर तक बुन्द्रि और यमनार व्यापारों का अत्रिनाभाव प्रहण नहीं कोंगे तब तक वचनादि देशों से अन्य बुद्धि का अनुमान कैसे कर सकते है और अपनी ारमा में जय तक बुद्धि का स्वयं साक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक अविनाभाव का ग्रह असम्भव दी है। अन्य
आत्माओं में तो बुद्धि अभी असिह ही है। आत्मास्तर में बुन्हि का अनुमान नहीं होने पर समस्त गुरुशिष्य देनलेन आदि व्यवस्थाओं का लोप हो जायगा ।
यदि अशात या अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अर्थ बोध माना जाता है तो सर्वश के शाम के द्वारा हमें सधिशाम होना चाहिए। हमें ही क्यों, सपको सबके ज्ञान के द्वारा अर्धबोध हो जाना चाहिये । अतः शान को स्वसंवेदी माने बिना ज्ञान का सवार तथा उसके द्वारा प्रसिनियत अर्थबोध नहीं हो सकता। अता यह आवश्यक है कि उसमें अनुभवसिद्ध भारमसंदिस्य स्वीकार किया जाय।
नैयाधिक का ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य मामना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनास्था नामका महान पण आता है । मबतक एक भी झान स्वसंवेदी नहीं माना जाता तब तक पूर्व पूर्व ज्ञान का बोध करने के लिये उतर उसर ज्ञानों की कल्पना करनी ही होगी। क्योंकि वे भी ज्ञानव्यक्ति, अज्ञात रहेगी यह स्थपूर्व ज्ञान व्यक्ति की येदिका नहीं हो सकती। और इस तरह प्रथम ज्ञान के अज्ञात रहने पर उसके द्वरा पदार्थ का पोध नहीं हो सकेगा। एक ज्ञान के जानने के लिए ही जब इस तरह अनन्त ज्ञानववार, चलेगा तथ अम्ब पदायों का ज्ञान कय उत्पन्न होगा? थक करके या अरुणि से था अन्य पदार्थ के सम्पर्क से पहिली शानशर को अपूरी छोड़कर अमवस्था का वारण करना इसलिये बुधियुक्त नहीं है कि-ओ दशा प्रथम ज्ञान की हुई है और जैसे बढ़ बीच में ही अज्ञात दशा में लटक रहा है वही दशा अन्य ज्ञानी की भी होगी। ईश्वर का ज्ञान यदि अश्यसंवेदी मारा जाता है. तो उसमें सशसा सिद्ध नहीं हो सकेगी, क्योंकि एक तो उसने अपने स्वरूप को ही स्वयं नहीं जाना दूसरे अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा बाजार का परिज्ञान नहीं कर सकता। ईश्वर के दो निध्य ज्ञान इसलिए मानना कि-एक से वह जान को जानेना तथा दूसरे से ज्ञान को-निरर्थक है, क्योंकि दो ज्ञान एक साथ उपयशेम दशा में नहीं रह सकते। दूसरे यदि वह शान को जानने वाला द्वितीय ज्ञान स्वयं अपने स्वरूप का प्रत्यक्ष नहीं करता तो उससे प्रथम अज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। यदि उसका प्रत्यक्ष किसी नृतीय शान सं माना जाय तो निवस्था दूपण होगा। यदि द्वितीय ज्ञान को स्वसंवेदी मानते हैं तो प्रथम ज्ञान को ही स्वसंवेदी मानने में क्या काया है।
सांप के मत में यदि शान प्रकृति का विकार होने से अचेतन है, वह अपने स्वरूप को नहीं जामता, उसका अनुभव शुरूप के संचेतन के द्वारा होता है तो ऐसे अचेतन ज्ञान की कक्षपना का क्या प्रयोजन है? जो पुरुष का संचेतन ज्ञान के स्वरूप का संवेदन करता है यट्टी पदाधों को भी जान सकता है। पुरुष का संखेतन अपि स्वसंवेदी नहीं है तो इस अकिरिकर ज्ञान की सच्चा भी किससे सिर की जायगी ? असः स्वार्थसंवेदक पुरूपानुभव से भिन किसी प्रकृतिविकारात्मक अचेतन ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । करण या मा-श्रम के लिए इन्दिरों और मन मौजूद है। वस्तुतः ज्ञान और पुरुषगतसंचेतम ये दी शुदा है ही नहीं। पुरुप, जिसे सांरूप कूटस्थ निरय मामला है,स्वयं परिणामी है पूर्व पाय को छोड़कर उत्तर पर्याय को धारण करता है। संचेतना ऐसे परिणभिनित्य पुरुष का ही धर्म हो सकती है।
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इससे पृथक् किसी अचेतन ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं है। अतः झानमाल स्वसंवेदी है। वह अपने जानने के लिए किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता ।
नाम की साकारता-ज्ञान को साकारता का साधारण अर्थ यह समझ हिया जाता है कि जैसे दर्पण में घर पर आदि पदार्थों का प्रसिम्रिन्थ आता है और दया का अमुर. भाग घzायाकान्त हो जाता है उसी तरह शान भी वाकार हो जाता है अर्थात् घट का प्रतिबिम्ब ज्ञान में पहुँच जाता है। पर पास्तास ऐसी नहीं है । घर और दर्पण दोनों मूर्त और जद पदार्थ हैं, उनमें एक का प्रतिविम्व दूसरे में पर सकता है, किन्तु चेतन और अमूर्त ज्ञान में मूतं जट्ट पदार्थ का प्रतिबिम्ब नहीं आ सकता और न अन्य चेतनान्तर का दी। ज्ञान के घटाकार होने का अर्थ है-शान का क्ट को जानने के लिए उपयुक्त होमा अर्थात् उसका निश्चय करमा । शवार्थबाहिक (१६)में घर के स्वचतुष्टय का विचार करते हुए लिखा है कि-घर शब्द सुनने के बाद उत्पन्न होनेवाले घट ज्ञान में जो घटविण्श्यक उपयोगाकार है वह घर का स्वास्मा है और बाह्यघटाकर पराष्मा । यहाँ जो उपयोगाकार है उसका अर्थ पद की ओर ज्ञान के व्यापार का होना है म किं ज्ञान का घट जैसा सम्बा चौड़ा या वजनदार होना । आगे फिर लिखा है कि"चैतन्यशशिकारी शनाकारो सँयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकरगदर्शतलय शानकारः, प्रतिदि. म्याकारपरिणतादर्शतल्या शेश मयाबर. स्व:म अांद राम्रो आकार होते हैं एक शानाकार और दूसरा शेषाकार । ज्ञानाकार प्रतिनियन्य शुरु दर्पण के समान पदार्थविषयया व्यापार से रहित होता है । ज्ञेयाकार सप्रतिविम्य दर्पण की तरह पदार्यविषयक व्यापार से सहित होता है । साकारता के सम्बन्ध में जो दर्पण का हशत दिवा जाता है उसी से ग्रह भ्रम हो जाता है फि...ज्ञान में दर्पण के समाम लम्बा चौटा काला प्रतिविम्य पदार्थ का आता है और इसी कारण शान साकार कहलाता है। रक्षान्त जिस अंश को समझाने के लिए दिया जाता है उसको उसी अंश के लिए लागू करना चाहिए। यहाँ दर्पण शन्त का इतना ही प्रयोजन है कि चैतन्यधारा ज्ञेय को जानने के समय शेयाकार होती है, शेष समय में शानाकार।
धषला (प्र.पु.पू. ३८०) तथा जयधवला ( पु० पू० ३३७) में दर्शन और शाम में निराकारता और साकारता प्रयुक्त भेद बताते हुए स्पष्ट लिखा है कि-माहाँ शान से पृथक् वस्तु कर्म अर्थात् विषय हो वह साकार है और वहाँ अन्तरन वस्तु अर्थात् चैतन्य स्वयं चैतन्य रूप ही हो वह निराकार । मिराकार दर्शन, इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क के पहिले होता है जबकि साकार ज्ञान इनिमार्थसन्निपात के बाद । आन्तरगविषयक अर्थात् स्वायभासी उपयोग को अमाकार तमा वावमाप्ती अर्थात् स्य से भिक अर्थ को विपश्च करमेनाला उपयोग साकार कहलाता है। उपयोग की मानसंज्ञा यहाँ से भारम्भ होती है जहाँ से वह स्वव्यतिरिक्त अन्य पदार्थ को विषय करता है। जब तक वह मात्र स्वाकाश निमा है तब तक यह वर्शन-निराकार कहलाता है । इसीलिए हान में हो सम्बकरन और मिथ्यात्व प्रापरव और अप्रमाणत्व ये छो विभाग होते हैं। जो ज्ञाम पदार्थ की प्रथा उपलब्धि कराता है वह प्रमाण है अभ्य अप्रमाण । पर दर्शम सदा एकविध रहता है उसमें कोई पनि प्रमाण और कोई दर्शन अप्रमाण ऐसा मातिभेद नहीं होगा । चक्षुदर्शन सुदर्शन आदि भेद तो आने होनेवाली ससद् शनपर्यायों की अपेक्षा है । बरूप की अपेक्षा उनमें इतना ही भेद है कि एक उपयोग करने चाक्षुपज्ञानोत्पादकशक्तिरूप स्वरूप में मग्न है तो दूसरा मन्य' स्पर्शन आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान के जनक स्वरूप में कौन है, तो अन्य अवधिज्ञानोत्पादक स्वरूप में और अन्य केवल ज्ञानसहभावी स्वरूप में मिमा है। वारपर्य पर कि-उपयोग का स्व से भिन्न किसी भी पदार्थ कोविश्य करना ही खाकार होना है, न कि वर्षण शी तरह प्रतिविम्याकार होना ।
निराकार और साकार या शान और दर्शन का यह सैजान्तिक स्वरूपविश्लेपण दार्शनिक युग में अपनी उस सीमा को लौंधकर 'बामपदा के सामान्यावलोकन का नाम दर्शन और विशेष परिक्षान
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प्रस्तावना
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'का नाम शान इस माद्यपरिधि में आ गया। इस सीमोल्लंघन का दार्शनिक प्रयोजन पौवादिसम्मत
निर्विकल्पक श्री प्रमाणता निराकरण करना ही है। . . अफलवने विशव शान फो प्रत्यक्ष बताते हुए ओ मान का साकार विशेषण दिया है यह उपर्युक्त मर्म को पोतन करने के हो लिए।
बौद्ध क्षणिक परमाणु रूप चित्त या जड़ क्षणों को स्वलक्षण मानते हैं। यही उनफे गत में परमार्थसत् है, पही वासायिक अर्थ है। यह स्वलक्षण शवशून्य है, शब्द के अयोथर है। शब्द का पाष्य . इनके मत से बुद्धिगत मभेदांश ही होता है। इन्द्रिय और पदाध के सम्बन्ध के अनन्तर निर्विकल्पक
दर्शन उत्पन्न होता है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसके अनम्सर शब्दसलेत और विकल्पवासना आदि का • सहकार पाकर शब्दसंसर्गी सविकल्पक ज्ञान उत्पन होता है। शव्यसंसर्स होने पर भी शब्दसंसर्ग
की योग्यता जिस शाद में आ जाय उसे विक्रम्प कहते हैं। किसी भी पदार्थ को देखने के शद पूर्वरष्ट सत्सा पदार्थ का स्मरण होता है, तपनन्तर सहाचक शब्द का स्मरण, फिर उस शब्द के साथ वस्तु का भोजन, तब यह घट है इत्यादि शब्द का प्रयोग । वस्तु दर्शन के बाद होनेवाले-पूर्व स्मरण आदि सभी व्यापार विकसक की सीमा में आते हैं। तात्पर्य यह कि-निर्विकल्पक दर्शन घस्तु के मथार्य स्वरूप का अदमासक होने से प्रमाण है।
सविक्कएक शाम शयनासना से उत्पन्न होनेके कारण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को स्पर्श नहीं करता, अंत एव अप्रमाण है। इस निर्विकल्पक के द्वारा वस्तु के समप्ररूप का दर्शन हो जाता है, परन्तु निक्षय पथासम्भव सविकल्पक ज्ञान और अनुमान के हारा ही होता है।
, अकलंकदेष इसका खान करते हुए लिखते हैं कि किसी भी ऐसे निर्विकल्पक ज्ञान का अनुभव नहीं होता जो निश्यामक न हो।
सौत्रान्तिक बाझार्थवादी है। इसका कहना है कि यदि ज्ञान पदार्थ के आकार न हो तो प्रशिकीभ्यवस्था अर्थात् घट झान का विपत्र घट ही होता है पर नहीं-नहीं हो सकेगी। सभी पदार्थ एक ज्ञान के विषय मा सभी शान सभी पदार्थों को विपण करनेवाले हो जायेंगे। अत: ज्ञान को साकार मानना आवस्यक है। यति साकारता नहीं मानी जाती यो विषयशाम और विषयज्ञानज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा। इसमें यही भेष है कि एफ मात्रविषय के आकार है तथा दूसरा विषय और विषयज्ञान वी के भाकार है । विपत्र की सत्ता सिद्ध करने के लिए शान को साकार मानना मितान्त आवश्यक है।
.. अकलंकदेव मे, साकारता के इस प्रयोजन का मण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि विषय प्रतिनियम शाम की अपनी शक्ति था-क्षयोपशम के अनुसार होता है। जिस ज्ञान में पदार्थ को जानने की जैसी योग्यता है वह उसके अनुसार पृष्ठाय को मानता है। सदाकारता मानने पर भी यह भ ज्यों का स्यों वह रहता है कि हान अमुक पदार्थ के ही आकार को क्या प्रहप करता है । अन्य पदार्थों के साकार को क्यों नहीं । अन्त में ज्ञान गत शकिसी विषय प्रतिनियम करा सकती है तवादारता आदि नहीं।
जो ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पा हुआ है वह उसके आकार होता है। इस प्रकार तनुत्पत्ति से मी आकारमियम नहीं बन सकता ; योकि झन जिस प्रकार पदार्थ से उत्पन्न होगा। इसी तरह प्रकाश और इत्रियों से भी। यदि लघुस्पति से स्वकारता आती है तो जिस प्रकार मान पटाकार होता है उसी प्रकार उसे इन्दिय तथा प्रकाश के आकार भी होना चाहिये । अपने उपाझमभूत पूर्वज्ञान के आकार को तो उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये। जिस प्रकार भान पर के पटाकार को धारण करता है उसी प्रकार पह उसकी जपता को श्यों नहीं पार करता? यदि घट के आकार को धारण करने पर भी जाता अगृहीत रहती है तो घट और उसके अहत्व में भेव हो जामगा। यदि पद की अडता असदाकार शान से जानी जाती है तो उसी प्रकार पर भी अतदाकार जान से मामा माय। वरतुमात्र को निरंश माननेवाले बौर के मत में वस्तु का खण्डशः भाग तो नहीं ही होना चाहिये। समानकालीन पदार्थ कदाचित ज्ञान
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न्यायविनिश्चयविवरण
में अपमा आकार अर्पिस भी करने पर अतीन और. अनागन आदि अविद्यमान अर्थ ज्ञान में अपना आकार कैसे दे सकते हैं?
विषयज्ञान और विपयशानज्ञान में भी अन्तर ज्ञान की अपनी योग्यता से ही हो सकता है। आकार दानने पर भी अन्ततः वयोग्यता स्वीकार करनी ही पड़ती है। अतः शैवपरिकस्थित साकारता अनेक दुषों से दूषित होने के कारण ज्ञान का धर्म नहीं हो सकती। ज्ञान की साकारता का अर्थ है ज्ञान का उस पार्थ का निश्चय करना या उस पदार्थ की ओर उपयुक्त होना। निर्विकल्पक अर्थात् शब्दसंसर्ग की योग्यता से भी रहित कोई ज्ञान हो सकता है यह अनुभवसिव नहीं है।
बाल अर्थ को जानता है.--मुख्यतया भी विचारधाराएँ इस सम्बन्ध में है । एक यह कि-ज्ञान अपने से भिन्न सचा रखनेवाले जड़ और चेतन पदाधों को जानता है। इस विचारधारा के अनुसार मति में
न पश्यों को स्वतन्त्र सत्ता है। दूसरी विचारधारा वाया जल्द पवायों की पारमार्षिक सत्ता नहीं मानती, किन्तु उसका मातिमासिक अस्तित्व स्वीकार करती है। इनका मत है कि घटपटादि वाद्य पदार्थ अनामिकालीन विचित्र वासनाधी के कारण या माथा अविद्या आदि के कारण विचित्र रूप में प्रतिभासित होते हैं। जिस प्रकार स्वपन या इन्द्रजाल में वाह पदार्थों का अभिस्व म होने पर भी अनेकविध प्रक्रियाकारी पदार्थों का सत्ययत प्रतिभास होता है उसी तरह अघिद्या बासना के कारण नानाविध दिचिन्न अयों का प्रतिनासहोचाता है। इनके मत से मात्र चेतमतत्व की ही पारमार्थिक ससा है। इसमें भी अनेक मतभेद हैं। वेदान्ती एक नित्य व्यापक प्रम का ही पारमार्थिक अलिक स्वीकार करते हैं। यही अशा नानाविध जीवाश्माओं और अनेक प्रकार के घटयवादिरूप पाय बों के रूप में प्रतिभासित होता है। संवेदना तबादी क्षणिक परमाणुरूप अनेक शानक्षणों का पारमार्थिक अस्तित्व मानते हैं । इनके मत से अनेक ज्ञानसरताने पृथक पृथक पारमार्थिक अस्तित्व रखती हैं। अपनी अपनी पासनाओं के अनुसार नक्षय नामा पपायों के रूप में भासित होता है। पहिली विचारधारा को अनेकविध विस्तार स्पाययशेषिजा, सांख्ययोग, जैन, सौतिक सैन् आदि दर्शनों में देखा जाता है।
बाहादोष की दूसरी विचारधारा का आशर यह मालूम होता है किस्मेक म्यक्ति अपनी कल्पना के भनुसार पदार्थों में संकेत करके भयहार करता है । जैसे एक पुस्तक को देखकर उस धर्म का अनुयायी उसे धर्मग्रन्थ समझकर पूज्य मानता है। पुस्तकालयाध्यक्ष उसे अन्य पुस्तकों की तरह सामान्य पुस्तक समझता है, तो दुकानदार उसे रक्षा के भाव खरीद कर पुदिया बोधता है। भगी उसे कूचा-कचरा मानकर झाड़ सकता है। गाय भैस आदि पशुमात्र उसे पुनली का पुंज समझकर घास की तरह खा सकते हैं तो दीमक आदि की को उसमें पुस्तक यह कल्पमा ही नहीं होगी। अब आप विचार कीजिए कि पुस्तक में, धर्मग्रन्थ, पुनका रही कचरा, घास की तरह साय आदि संज्ञाएँ तशव्यक्तियों के ज्ञान से ही आई है अर्थात् धर्मनन्ध पुन्सक आदि का सद्भाव उन व्यक्तियों के ज्ञान में है, बाहिर नहीं। इस तरह धर्मग्रन्थ पुस्तक आदि की व्यवहारसता है परमार्थसत्ता नहीं। यदि थमन्त्रस्य पुस्तक अदि की परमार्थ सत्ता होती तो यह प्राधिमा-गाय, भैंस को भी धर्मग्रन्थ या पुस्तक दिखनी चाहिये थी। अतः जगत केवल कल्पनामा है. उसका वास्तविक अस्तित्व नहीं ।
इसी तरह बट एक है या अनेक । परमाणुओं का संयोग कदेश से होता है या सर्वदेश से। यदि एकटेश से तो परमामुभी से संयोग करने वाले मन परमाणु में छह अंश मानने पमे । यदि दो परमामुओं का सर्वदेश से संयोग होता है तो अणुओं का पिंड अगुमात्र हो जायगा। इस सरह जैसे - जैसे या पयार्थों का विचार करते है वैसे वैसे उनका असितत्व सिद्ध नहीं होता। बाह्य पदार्थों का
भनित्य तदाकार भाग से सिखा किया जाता है। यदि नीलाकार ज्ञान है तो नील गाम के पास पदार्थ की क्या आवश्यकसा दि मीणाकार शान नहीं तो नील की ससा की कैसे सिद्ध की जा सकती है? अत: ज्ञान ही बाद और आतर माझ और ग्राहक रूप में स्वयं प्रकाशमान है कोई घासाय माहीं। पदार्थ और शाद का सहोपसम्म नियम है लसः दोनों अभिन्न है।
RANI
Nindiyomantinoinine
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प्रस्तावना
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अलाव मे इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि---- अट्य तत्व स्वतः प्रतिभासित होता है या परतः? यदि स्वतः; तो किसी को विवाद नहीं होना चाहिए। विश्य अवानी की तरह क्षणिक विज्ञानमादी भी अपने ताप का स्वतः प्रतिभास कहते हैं। इनमें कौन सत्य समझा ना ? परतः प्रतिभास पर के बिना नहीं हो सकता । पर को स्वीकार करने पर अद्वैत तत्त्व नहीं रह सकता । विज्ञानवादी इन्बकाल या स्वप्न का मारत देकर राक्ष पदार्थ का लोप करना चाहते हैं। किन्तु इन्द्रमाक्षप्रतिभासिस पर और बायसत् घट में अन्तर तो स्त्री वाल सोपाल आदि भी करते है। घट पद आवाक्षपदा में अपनी इस अर्थक्रिया के द्वारा आकोक्षाओं को पास कर सन्तोष का अनुभव करते हैं जब कि इब्रजाल का मायानुष्ट पदार्थों से म तो अर्थक्रिया ही होती है और न हज्जन्य सन्तोयानुसार हो । उनका कास्वनिकपमा तो प्रतिभास काल में हो ज्ञात हो जाता है। धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी आदि संज्ञार मनुष्यकृत और काल्पनिक हो सकता है पर मिल बजमनाले रूपरसगन्धस्पर्श वाले स्कूल पदार्थ में ये संशा की जाती है वह सो काल्पनिक नहीं है। यह तो ठोस, वजनवार, सप्रतिध, स्पस्मादिगुणों का आधार परमार्थसर पदार्थ है। उस पदार्थ को अपने अपने संकेत के अमुसार कोई धर्मग्रन्थ कहें, कोई पुस्तक, कोई कुक, कोई किताम या अन्य काछ कहे। ये संकेत व्यवहार के लिए अपनी परम्परा और वासनाओं के अनुसार होते हैं उसमें कोई आपति नहीं है। हिमष्टि का अर्थ भी यही है कि-सामने रखे हुए परमार्थसन, ठोस पदार्थ में अपनी रष्टि के अनुसार जगत् व्यवहार करता है। उसकी श्वहारसंज्ञाएँ प्रतिभाविक हो सकती है पर वह पदार्थ जिसमें ये संज्ञा की जाती है, पछा या विज्ञान की सरह ही परमार्थसत है। नीलाकार ज्ञान से सो कपड़ा नहीं रंगा उस सकता ! कपड़ा रंगमे के लिए होस परमार्थ सत् ज नील चाहिए जो ऐसे ही कपड़े के स्येकतन्तु को नीला मनायगा । यदि कोई परमास नील अर्थ न हो तो नीलाकार बरसना कहाँ से उत्पन्न हुई ? वासना तो पूर्वानुभव की उसर दस है। यदि जगत में नील अर्थ नहीं है तो ज्ञान में नीलाकार कहाँ से आया? वासना भीकाफार कैसे बन गई ? तापर्य ग्रह कि प्यपहार के लिए की जानेवाली संहार.
-अनिष्ट, सुग्घर असुन्दर, आदि कल्पना भले ही विकासपकल्पित हो और टिमष्टि की सीमा में हाँ पर जिस आशर पर ये सब कानाएँ कल्पित होती है वह आशर ठोस और सत्य है। विप के ज्ञान से मरण नहीं हो सकता । विपका खावाला वियोनो ही परमार्थसत् है तथा घिष के संयोग से होनेवाले शरीरपल रासायनिक परिणमन भी। पर्वत मकान मदी आदि पवा यदि ज्ञानात्मक ही हैं सो उनमें मतद स्थूलत्व सरतिवरब आदि धर्म करे अ सकते हैं। ज्ञानस्वरूप नबी में स्नान या ज्ञानावरक जल से नास शान्ति अधवा झानात्मक पधर से सिर तो नहीं फूट सकमा १.यदि अद्वरमान ही है तो शास्रोपदे it निरीक हो जायेंगे। परप्रतिपत्ति के लिए ज्ञान से अतिरिक्त वचन की सम्रा आवश्यक है। अयशान में प्रतिपत्ता, प्रमाण, विचार आदि प्रतिभास की सामग्री तं मानना ही पड़ेगी अन्यथा प्रतिभास कैसे होगा। अयज्ञान में अर्थ अनर्थ, सत्व-अस्तव जादि की व्यवस्था न होने से तमाही झानों में प्रमाणसा या अपमाणता का निश्चय कैसे किया जा सकेगा ? शाकात की सिद्धि के लिए अनुमान के भूत साध्य साधन दृष्टान्त आदि तो स्वीकार करने ही होंगे अन्यथा अनुमान कैसे हो सकेगा? सहीपलम्भ-एक साथ उपला होना----से अमेन सिद्ध नहीं किया जा सकता; कारण दो मिनासताक पदार्थों में ही एक साथ उपलध होना कहा आ सकता है। ज्ञान अन्तरंग में बेसन रूप से तया अर्थ दहिरन में जपरूप से अनुभव में भाता है अतः इनका सहोषसम्म असिन भी है। अर्थशुन्य ज्ञान स्शकारतया तथा शामस्म अर्थ अपने अर्थरूप में अस्तिष्य रलसे ही है भले ही हमें वे अज्ञात हो । यदिहल बाह्यपदाथों का इदमित्यरूप निरूपण था निर्वचन नहीं कर सफले सो इसका यह सारस्य नहीं है कि उन पाधों' का अस्तित्व ही नहीं है। अनवधर्मामक पनार्थ का पूर्ण निरूपम तो सम्भव ही नहीं है। सद या शान की असक्ति के कार पायों का लोप नहीं किया जा सकता । नीलाकारहान रहने पर भी कपड़ा रंगने को नीलपदार्थ की निशाम्त आवश्यकता है। ज्ञान में नीलाकार भी विना नील के नहीं आ सकता। अनेक परमाणुओं से जो स्कन्ध छमता है उस स्कन्ध का कोई स्या अस्तित्व नहीं है उन्ही परमाणु का कथविचाक्षय सम्बन्ध
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अर्थात् रासायनिक मिश्रण होने पर परम्पर बध हो जाता है और वह स्कन्ध स्थूल और इन्द्रिय होता है। यही अनुभवसिद्ध है। सो उसका एकदेश मे सम्बन्ध होता है और म सर्पदेश से किन्तु जद पदार्थों का स्निग्ध और रूक्षता के कारण कियाकाल स्थायी विलक्षणन्ध हो जाता है। जिस प्रकार एक ज्ञान स्वयं झानाकार शेयाकार और शाक्षिस्वरूप अनुभव में आता है उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ अनेक धों का आधार होता है इसमें विरोध आदि दूपणा का कोई प्रसङ्ग नहीं है। इस सरह अन्तरमजान से पृथक , स्वतन्त्र साता रखने वाटे बाघ जट पदार्थ हैं। इन्हीं जयों को ज्ञान जानता है। अतः अकसदेव ने प्रत्यक्ष के स्वरूपनिरूपण में शान का अर्थवेदन दिनेषण दिया है जो शाम को आत्मवेदी के साथ ही साम अर्धवेदी सिद्ध करना है। इस तरह
से स्टाचा!
अर्थ सामान्यविशेषात्मक और द्रव्यपर्यायामक है--
ज्ञान को विश्य करता है यद दिवेचन हो चुकने पर विचारणीय मुहा यह है कि अर्थ का क्या स्वरूप है ? जैन दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ अमन्त धर्मात्मक है या संक्षेप में सामान्यविशेषात्मक है। यस्सु में छो प्रकार के अस्तित्व है-एक स्वरूपासिल्व और दूसरा सादृश्यास्तित्व । एक द्रव्य को अन्य सजासीय या विवातीय किसी भी दृश्य से असतीर्ण रखनेवाला स्वरूपारितत्व है । इसके कारण एक न्य की पर्या दूसरे सजातीय या चिजातीय इय्य से असीर्ण पृथक अन्तित्व रखती है। यह स्वरूपास्तिस्य जहाँ इतरव्यों से ज्यावृति कराता है वह अपनी पयायों में अनुमत भी रहता है। उसः इस स्वरूपासिरक से अपनी पत्रों में अनुगत प्रत्यय उपस होता है और इतरद्रयों से ग्यास प्रत्यय । इस स्वरूपामित्व को अता सामान्य कहसे हैं । इसे ही द्रव्य कहते हैं। क्योंकि यही अपनी ऋमिक पर्यायी में द्रवित होता है, कमशः प्राश होता है। इसस सामास्तिरव है जो विभिन्न अनेक द्रव्यों में गो गो हस्यादि प्रकार का अनुगत व्यवहार करता है। इसे नियंतसामान्य शहते है। सात्पर्य यह कि अपनी दो पर्यायों में अमुगत व्यवहार करानेवाला स्वरूपानिल्द होता है। इसे ही अर्थशासामान्य और इष्ण कहते हैं। समा विभिम दो अस्यों में अनुगत ध्यवहार करानेवासा सारश्यास्तित्य होता है। इसे तिर्यसामान्य या सारसामान्य कहने हैं। इसी तरह दो च्यों में श्यावृत्त प्रत्यय करावाका स्पतिरेक जाति का विशेष होता है तथा अपनी हीदी पर्यानों में विलक्षण प्रत्यय करानेवाला पर्याय नाम का विशेष होता है। मिटकर यह कि एकदरप की पारी में अनुगत प्रत्यय उसासामान्य या अन्य से होता है नया च्या वृत्तप्रत्यय पर्याय-विशेष से होता है। यह विभिनवृत्या में अनुमतप्रत्यय सारश्यसम्मास्य का निर्मकसामान्य से होता है और म्यावृक्षप्रत्यय अतिरेकथिशेष से होता है। इस तरह प्रत्येक पदार्थ सामाम्यदिशेपासमय और द्रव्यपर्यायामक होता है।
यद्यपि सामान्यधिशेषात्मक कहने से प्रत्यपर्याथात्मय का बोध हो जाता पर द्रव्यपर्यायात्मक के पथ फहने का प्रयोजन यह है फि पदार्थ न केवल व्यरूप है और न पर्यायरूप। किन्तु प्रत्येक सत् उत्पाद-व्यय-धीपत्राला है। इनमें उत्पाद और व्यय पर्याय का प्रतिनिधित्व करते है तथा प्रोग्य द्रव्य का। पदार्थ सामन्यविशेषारमा तो उत्पादस्यवधीच्यात्मक सत् न होकर भी हो सकता है, अतः उसके निज स्वरूप का पृथक् मान करने के लिए द्रव्यपर्यामारमा विशेष दिया है।
सामान्यविशेषात्मक विदोषण धर्मरूप है, जो अनुमतप्रत्यय और घ्यावृतप्रत्यय का विषय होता है। डायपर्यायामक विशेषण परिणमम से सम्बन्ध रखता है। प्रत्येक वस्तु अगी पर्यायधारा में परिणत होती हुई अतीत से वर्तमान और धसमान से भविष्य क्षय को प्राप्त करनी है। वह वर्तमान को अतीत
और भविष्य को वर्तमान बनाती रहती है। प्रसिक्षण परिणमन करने पर भी अतीत के यापत् संस्कारयुज इसके वर्तमान को प्रभावित करते हैं या यों कहिए कि इसका वर्तमान जतातसंस्कारगुज का कार्य है और वर्तमान कारण के अनुसार भविष्य प्रभावित होता है। इस तरह यद्यपि परिणमम करने पर कोई अपरिथर्मित या शूटस्थ नित्य अंश वस्तु में शेष नहीं रहता जो निकालावस्थायी हो पर इतना विच्छिन्न परिणमन
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भी नहीं होता कि अतीत पक्षमान और भविष्य दिलकुल असम्बयु और अतिविछिन हो । वर्तमान के प्रति अतीत का उपावन कारण होना और वर्तमान का भविष्य के प्रति, यह सिद्ध करता है कि तीनो क्षणों की अविचित कार्यकारणपरम्परा है। न तो वरनु का स्वरूप सदा स्थायी नित्य ही है और न इतना विलक्षण परिणमल करनेवाला जिससे पूर्व और उत्तर मिक्रसमसाम की सरह अतिविछिन हो।
भवन्त नागसेन से मिलिन्द प्रबन में जो कम और पुनर्जन्म का विवेचन किया है (दर्शनदिग्दर्शन १०५५१) उसका तास्पर्य यही है कि पूर्वक्षण को प्रतीय अर्थत उपाशन कारण बनाकर उत्तरक्षण का समुत्पाद का अस्थिमगिक रिसाद सिमे पर यह होता है, सो इस आशय का पापय है उसका स्पष्ट अर्थ यही हो सकता है कि क्षणसन्तति प्रवाहित है उसमें पूर्व क्षया उसरक्षण यमता जाता है जैसे वर्तमान अतीतसंस्कार पुंज का फल है वैसे ही भविष्यारण का कारण भी।
श्री राहुल सांकृत्यायनले दर्शन-दिग्दर्शन (पृ० ५१२) में प्रतीत्यसमुत्पाद का विवेचन करते हुए लिखा है कि-"प्रतीत्यसमुत्पाद कार्यकारण नियम को अविच्छिन्न नहीं विच्छिन्न प्रवाह बतलाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद के इसी विकिय प्रवाह को लेकर आगे नागार्जुन ने अपने शून्यदाद को विकसित किया" इमके मत से प्रतीत्यसमुत्पाद विच्छिन्न प्रयाहरूप और पूर्वक्षण का उत्तरक्षण से कोई सम्बन्ध नहीं है। पर ये प्रतीत्य वारुद के हेतु करवा' अर्थात् पूर्वक्षण को कारण बनाकर इस सहज अर्थ को भूल जाते हैं। पूर्वक्षण को देतु बनाए घिमा यदि उत्तर का नया ही उत्पाद होता है तो भदन्त नामसैन की कर्म और पुनर्जन्म की सारी व्याख्या आधारशूम्य हो जाती है। क्या द्वादशान प्रतीत्यसमुत्पाद में विच्छिा प्रवाह युक्तिसिद्ध है? यदि अधिया के कारण संस्कार वापस होता है और संस्कार के कारन विज्ञान भादि तो पूर्व और उहर का रवाह विच्छिा कहाँ हुमा एक चित्तक्षण की अविद्या उसी चिसक्षण में ही संस्कार उत्पन करती है अन्य चित्तक्षम में नहीं, इसका नियामक वही प्रतीस्य है। जिसको प्रतीत्य जिसका समुत्पाद हुआ है उन दोनों में अतिपिच्छेद कहाँ मुआ?
राहुलजी यहीं (पृ०५९२) भनित्मवाद की “पुर का मित्यवाद भी 'दूसरा ही उत्पन्न होता है। दूसरा मट होता है। के कहे अनुसार किसी एक मौलिक हरव का बाहरी परिवर्तन मात्र नहीं बल्कि एक का बिलकुल नाम और दूसरे का बिलकुल नया उत्सद है। बुद्ध कार्यकारण की निरन्तर या अविच्छिन सन्तति को नहीं मानते। इन शब्दों में प्यावया करते हैं। राहुलजी यहाँ भी केवल समुत्पाद को ही ध्यान में रखते हैं, उसके मूलरूप प्रतीत्य को सर्वया भुला देते है। कर्म और गुमजन्म की सिद्धि के लिए प्रयुक्त "महाराज, यदि फिर भी अन्म नहीं प्राइव करे तो मुक्त हो गया; किन्तु चूंकि बह फिर भी जन्म प्रहण करता है इसलिए (मुक) नहीं हुआ।" इस सन्दर्भ में यह फिर भी शक्ट क्या अविछिन प्रवाह को सिद्ध नहीं कर रहे हैं । योद्धदर्शन का 'अमौक्तिक अनामयादी' नामकरण केवल भौतिकवादी चाक और आत्मनित्यवादी औपनिषदे के निराकरण के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिये, पर वस्तुतः धुद क्षपिचिरावादी थे। क्षणिकचिस को भी अविच्छिा सन्तति सानते थे न कि विषिछाप्रवाइ। आचार्य कमलशील ने तत्वसंग्रहपंजिका (पृ. १८१) में कर्तृकर्मसम्बन्धपरीक्षा करते हुए इस प्राचीन शोक के माद को उत किया है
"यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना।
फलं तत्रैव उन्धत्ते कार्यासे रक्तता यथा।" अर्थात्-जिस सन्तान में कर्मवासना प्राप्त हुई है उसका फल भी उसी सन्ताम में होता है। जी. लाल के रस से रंगा गया है उसी कपास बीज से उत्पन्न होनेवाली सई लाल होती है अन्ध नहीं। राहुलली इस परम्परा का विचार करें और फिर दुद्ध को विक्षिप्रवाही बताने का प्रयास करें ! हाँ, यह अवश्य था कि वे अनन्त क्षणों में शश्वत ससा रखनेवाला कूटस्थ निस्य पदार्म स्वीकार नहीं करते थे। पर वर्तमान क्षण अमन्स अतीत के संस्कारों का परिवर्तित पुंज स्वगर्भ में लिए है और उपादेव भविष्यक्षण
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उससे प्रभावित होता है, इस प्रकार के कालिक सम्बन्ध को वे मानसे थे। यह बात बद्ध दर्सग के कार्यकारणभाव के अभ्यासी को सहज ही समझ में आ सकती है।
निर्वाण के सम्बन्ध में राहुलजी सर राधाकृमान की आलोचना करते समय (१.५२९) बड़े आत्मविश्वास के साथ लिख जाते हैं कि-"किन्तु बौद्ध-निर्वाण को अभावात्मक व भावात्मक माना ही नहीं जा सकता। " कृपाकर वे भाशर्ष कमलशील के द्वारा वसंग्रह पंजिका ( १०) में उन्धत इस प्राचीनश्लोक कायन :--
"चित्तमेव हि संसारो रामदिक्लेशवासितम्।
तदेव तैर्विनिमुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थान--चित्त जय शादिदीप और क्लश संस्कार से संयुक्त रहता है तब संसार कहा जाता है और और जय तदेव--वही थित रामालिकलेश वासनाओं से रहित होकर निरासश्चित्त बन जाता है तब उसे भधाम्स अर्थात् निर्माण कहते हैं। शामतरक्षित तो (तत्वसं. १८४) बहुत स्पष्ट लिखते है कि
मुक्तिनिर्मलता धियः' अर्थात्-चित्त की निर्मलता को मुक्ति कहते है। इस लोक में किस मिर्पण की सूपमा है। वहीं चित्त संगादिप्रवाह से वासित रहकर संसार बनर और यही रागादि से शून्य होकर मौन श्न गया । राहुलजी माध्यमिक्रवृत्ति (पृ० ५१९) गत इस सिर्वाण के पूर्वपक्ष को भी ध्यान से देखें
___ "इह हि उधितयाचयाणा सभागसशासनप्रतिपन्नानां धर्मानुधर्मप्रतिपरिशयुक्तानां पुद्गलाको विविधनिर्वाणम्पवर्णितम्-लोपविर्शयं निरुपधिप । रात्र निरवशेषस्य अविशारामाविमस्य हशगणस्य प्रहाणात् सोवधिशेष लिवाणमिप्यते । तत्र 'उपधीयते अस्मिन् आत्मस्नेह इत्युपधिः । उपधिशब्देन आरमयज्ञप्तिमिमिसाः पन्चीपादानस्कन्धा उच्यन्ते। शिष्यते इति शेषः, उपधिरेष शेषः उपविशेष-सह उपविशेषेण वर्तत इति सोपधिशेषम् । कि तत् ? निर्वाणम् । तच्च स्कन्धमाकमेव केवलं सत्कायरयादिक्लेशतस्कररहितमवशिष्यते निहताशेपचौरगणनाममात्राबस्थागसाधये ग, तत् सोपविशेष निर्माणम् । यन्न निर्वाणे कन्धमायकमपि मास्ति ततिरुपधिशेष निर्माणम् । निर्गव उपधिशेषोऽस्मिमिति कृत्वा । सिताशेपचौरगणार नाममात्रसापि विनाशसामग्येण ।"
अर्थात् भिवांग दो प्रकार का है-सोपधिशेष निरुपविशेष सोधिमेष में रागादि का नाश होकर जिन्हें आत्मा कहते है ऐसे पाँचरकन्ध निरास दशा में रहते हैं। दूसरे निरुपधिशेष निर्माण में स्कन्ध भी नष्ट हो जाते हैं।
बौद्ध परम्परा में इस सोपधिशेष मिण को भानात्मक स्वीकार किया हो गया है। यह जीवन्मुक दशा का वर्णन नही है किन्तु निर्वाणावस्था का।
आखिर गौडदर्शन में ये चो परम्पराएँ निर्वाण के सम्बन्ध में क्यों प्रचलित हुई। इसका उपर हमें बुद्ध की अव्याकृत सूची से मिल जाता है। बुद्ध ने निर्माण के बाद की अवस्था सम्बन्धी इन चार प्रश्नों को अप्राकरणीय अर्थात् उत्तर देने के अयोग्य बताया। क्या मरने के बाद तथागस (चुर) होते हैं। क्या मरने के बाद सथामत नहीं होते? या मरने के बाद सथागत होते भी है नहीं भी होसे हैं। मरने के बाद तथामत नहोसे हैन नहीं होते हैं." माधुक्य पुत्र के प्रश्न पर दुख में कहा कि इनका जानना सार्य नहीं है क्योंकि इनके बारे में कहना भिक्षुचां निवेश या परमजान के लिए उपयोगी नहीं है। अदि बुद्ध स्वयं भिवान के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना सुनिश्चित मत्त रखते होसे सो वे अन्य सैकड़ों लौकिक अलौकिक प्रश्नों की तरह इस प्रश्न यो अन्याकृत कोटि में न सालते । और यही भारत है जो मिाण के विषय में दो धारा बौद्ध दर्शन में प्रचलित हो गई हैं।
इसी तरह बुद्ध ने जीव और शरीर को भिन्नता और अभिवता को अव्याकृत कोटि में डालकर श्री राहुलजी को भी दर्शन के 'अभौसिक अनात्मवाद जैसे उभयप्रतिषेधक नामकरण का अवसर दिया । बुद्ध अपने जीवन में बेह' और आत्मा के जुदापन और निवाणोत्तर जीवन प्रादि अतीन्द्रिय पदार्थों के वासराई
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प्रस्तावना
पर अपने शिष्य को खाकर लक्ष्यच्युत नहीं करना चाहते थे। इसलिए लोक क्या है ? भारसा क्या है?
और मिर्वागासर ओवन कैसा है ? इन जीवन्त प्रश्नों को भी उनने अव्याकरणीय करार दिया । उनकी विचारधारा और साधना का केन्द्रविन्दु धर्तमान दु:ख के निवृत्ति ही रहा है। राहुलजी एक ओर तो विच्छिन्न प्रथाह मानते हैं और दूसरी ओर पुनर्जन्म । वे इतनी बड़ी असङ्गति को जैसे ही जात है कि यदि पूर्व और उत्तर क्षण विभिन्न है तो पुनर्जन्म कैसा और किसका ? क्या बुधाक्यों की ऐसी हा असंगत व्याख्या को सम्हालने का प्रपन, कान्तरक्षित और कमलशील जैसे दार्शनिकों ने किया है, जो एक अविच्छित कार्यफारण प्रवाह मामले हैं। अविधि का अर्थ है कार्यकारणभाववाली ।
जैन दर्शन कोरधि में प्रत्येक सत् परिणामी है और यह परिगमन प्रतिक्षणमाकी स्थाभाविक है। उसमें किसी अन्य हेतु की आवश्यकता नहीं है। बद्रि अन्य कारा मिले तो वे उस परिगमन को प्रभावित कर सकते हैं पर उपादान कारण तो पूर्वपर्याय ही होगी और उसमें जो कुछ है स्व रूप ही है। प्रतः द्वितीय क्षम में बह अखण्ड फा अखण्ड उत्तरपर्याय बन जाता है। चूंकि पुसमा क्षण ही वर्त मान बना है और भविष्य को अपमे में शक्ति या उपादान रूप से छिपाय है अतः स्मरण प्रयभिज्ञान आदि म्यवहार सोपपतिक और समूल बन जाते हैं। परिणामी का अर्थ है उत्पाद और व्यय होते हुए भी पौध रहना। आपाततः यह मालूम होता है कि जो उत्पादविनाशवाला है वह ध्रुव कैसे रह सकता है ! पर धौग्य का मर्थ सदा स्थायी कूटस्थ निस्य नहीं है और न यह विवक्षित है कि वस्तु के कुछ अंश उत्पाद विनाशके कारण परिवर्तित होते हैं सभा कुछ अंपा उस परिवर्तन से अछूते ध्रुव बने रहते हैं और न परिवर्तन का यह स्थूल अर्थ ही है कि को प्रथमक्षण में है दूसरे क्षया में वह बिलकुल बदल जाता है या विलक्षण हो जाता है। परिधर्सन सरश भी होता है विसत भी । शुद्ध घेतलदम्य मुक्त अवस्था में प्रतिक्षा परिवर्तित रहने पर भी कभी विलक्षण परिवर्तन नहीं करता उसका सदा सदशा परिवर्तन ही होता रहता है। इसी तरह भाका, फाह, धर्म और अधर्मद्रय सदा स्वभाबपरिणमन करते हैं । उनी परिवर्तन करते रहने पर भी कहने लायक कोई विलक्षणता नहीं प्राप्ती । यो समझाने के लिए परदथ्यों के परिवर्तन के अनुसार इनमें भी परप्रत्यय विलक्षणता दिखाई जा सकता है पर न तो इनमें देशभेद होता है न आकारभेद और न स्वरूपविलझशता दी । इसका स्वाभाविक परिणमन तो अगुरुगधुगुष्पकृत की है । रह जाता है पहलवल्य, जिसका शुद्ध परिणमन कोई निश्चित नहीं है। कारण यह है कि शुद्ध जीव को न सो जावान्तर का सम्पर्क विकारी बना सकता है और व किसी पुद्गलवण्य का संयोग ही, पर पुल में तो पुद्गल और जीव धोनी के निमिस से विकृति उत्पन्न होती है। लोक में ऐसा कोई प्रदेश भी नहीं है जहाँ भन्य पुष्पस मा जी के सम्पर्क से पिकक्षित लागु अछूता रह सकता हो। अतः कदाधिद पुनर अपनी शुद्ध-अनु अवस्था में भी पहन बाय पर उसके गुण और धर्म शुद्ध होंगे या हितामक्षा में शुद्ध रह सकते हैं इसका कोई नियामक नहीं है। अवेक पुत्रलद्रव्य मिलकर फस्य शामें एक संयुक्त बद्ध पर्याय भी बनाते हैं पर अनेक जीप मिलकर एक संयुक्तपाय नहीं बना सकते । सबका परिणमन अपना जुदा जुदा है। स्कन्धगस परमाणुओं में भी प्रत्येकशः अपणा सरश या विसरश परिणमन होता रहता है और उन सब परिणमनों की औसत से ही स्कन्ध का वजन, साप, रस, गन्ध और स्पई व्यवहार में आता है। स्कन्धयत परमाण में क्षेत्रकृत और आकारकृत सदश्य होने पर भी उनका मौलिकस्य सुरक्षित रहता है। लोक से एक भी परमाणु अनन्स परिवर्तन करने पर भी निःसत्व-सत्ताम्य अर्थात् असत् नहीं हो सकता। अतः परिणमन में विलक्षणता अनुभूत्र म होने पर भी स्वभावभूत परिवर्तन पतिक्षण होता ही रहता है।
वय एक नदी के समाम अहीत वर्तमान और भविष्य पर्याय का सिपत बाद नहीं है। क्योंकि मदी विभिखसप्ताफ जलकणों का एकत्र समुदाय हैं जो क्षेत्रभेद मार के आगे बढ़ता जाता है। किन्तु अतीत पर्याय एक एक क्षण में फमा वर्तमान होस हुई इस समय एकक्षणवर्ती पर्तमान के रूप में है। अतांत पर्यायों का कोई पर्याय-अस्तित्व नहीं है पर जो वर्तमान है वह असाल फा कार्य है, और यही भविष्य का कारण है। सत्ता एक समयमात्र पर्तमानपर्याय की है । भविष्य और अतीत क्रमशः अभुत्पन्न और विनय
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न्यायविनिमयविवरण
हैं। अतन्तः प्रौष इतना ही है कि एक बन्य को पूर्वपर्याय दुरुपान्तर को उत्तर-पर्याय नहीं अमती और न वहीं समास होती है। इस तरह ध्यान्सर से असायं का नियामक ही ध्रौव्य है । इसके कारण प्रत्येक प्रव्य की अएमी स्वरात्र सत्ता रही है और नियत कारणकार्य परम्परा पालू रहती है। वह नविच्छिा होती है और न संकर ही यह भी असिसुमिश्चित है कि किसी भी नये द्रव्य का उत्पाद नहीं होता और न मौजूद का भल्यम्त निवाश हो । केवल परिवर्तन, सो भी प्रतिक्षा निरामा गति से।
इस प्रकार प्रत्येक दुव्य अपनी स्वतन्त्र. ससा रखता है। यह अनन्त मुण और अनन्त शक्तियों का धनी है ।। पर्यापानुसार कुछ शक्तियाँ आविर्भूत होता है कुछ तिरोभूत । जैनदर्शन में सत् का एक लक्षण तो है "उत्पावध्ययनौच्यभुक्तं सत्दूसरा है "सद् द्रव्यलक्षणम्"। इन दोनों लक्षणों का मधितार्थ वही है कि द्रव्य को सत् करना चाहिए और यह इम्य प्रतिक्षण उत्पाद व्यय के साथ ही साथ अपने अविभिनाता रूप धौम्य को धारण करता है। व्य का लक्षण है--गुगपर्ययषट् अस्यम् । अर्थात् गुण और पर्यायवाला दम्य होता है। गुण सहभाषी और अनेक शक्तियों के प्रतिरूप होते हैं जब कि श्याय कमभावी और एक होती है। दव्य का प्रतिक्षण परिणमा एक होता है। उस परिषमान को हम उन उन गुणों के द्वारा अनेक रूप से वर्णन कर सकते है । एक दशाणु द्वितीय समय में परिवर्तित हुआ तो उस एक परिणमन का विभिन्न रूपरसादि गुणों के द्वारा अनेक रूप में वर्णन हो सकता है। विभिन्न गुणों की वृध्य में स्वतन्त्र सत्ता न होने से स्वतन्त्र परिणमन महीं माने जा सकते। अकसरदेव ने प्रत्यक्ष के प्राय अर्थ का वर्णन करते समय दन्य-पर्याय-सामान्य-विशेष इस प्रकार जो घार विशेषण दिए हैं वे पदार्थ की उपक स्थिति को सूचित करने के लिए ही हैं। इन्म और पर्याय पदार्थ की परिणति को सूधित करते है तथा सामान्य और विशेष अनुगत और व्यावृत्त व्यवहार के विषयभूत धमों की सूचना देते हैं।
मैथायिक वैशेषिक-प्रत्यय के अनुसार वहा की व्यवस्था करते हैं। इन्होंने जितने प्रकार के ज्ञान और पद 4 हो है
भाव से उसने पदार्थ मानने का प्रथम किया है। इसलिए इन्हें 'संप्रत्योपाध्याय का झाता है। पर प्रस्णय अधांत ज्ञान और शब्द उपयहार इतने अपरिपू और हवर हूँ कि इन पर पूरा पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। ये सो इस्तु स्वरूप की ओर इशारा मात्र ही कर सकते हैं। 'तम्यम् अध्यम्। गेसा प्रत्यय हुआ एक द्रय पदार्थ मान लिया । 'शुभ गुण' प्रत्यर हुआ गुण पदार्थ मान लिया । 'कर्म कर्म' या प्रत्यय हुमा कर्म पदार्थ मान लिया । इस तरह इनके सात पदार्थों की स्थिति प्रत्यय के आधाम है । परन्तु प्रत्यय से मौलिक पदार्थ की स्थिति स्वीकार नहीं की जा सकत । पदार्थ सो अपना अखण्ड ठोस स्वतन्त्र अस्तित्व रखसा है, वह अपने परिजमान के अनुसार अनेक प्रत्ययों का विषय हो सकता है। गुण क्रिया सम्बन्ध आदि स्वतन्त्र पार्थ नहीं है, ये तो दन्य की अवस्था के विभिश्व व्यवहार है। इसी तरह सामान्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है जो नित्य और एक होकर अनेक स्वतन्त्र सत्ताक व्यक्तियों में मोतियों में सूत का स्वरह पिरोया गया हो। पदार्थों के परिगमन कुछ सदश भी होते हैं और कुछ विसदृश भी। दो दिभिः सत्ताक व्यकियों में भूयःसाम्म देखकर अमुनस प्रहार होने लगता है। अनेक आत्माएँ अपने विभिन्न शरीरों में वर्तमान हूँ पर जिनकी अवयवरपना अमुक प्रकार की सवा है उनमें मनुष्य मनुष्यः ऐसा सामान्य व्यवहार किया जाता है तथा जिनकी घोड़ों जैसी उनमें अश्यः अश्वः' यह व्यवहार । जिन श्राधमाओं में सादृश्य के अधार से मनुष्य म्यवहार हुभा है उममें मनुदयत्व नाम का कोई सामान्य पदार्थ, जो कि अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है, कर सभवायगायक सम्बन्ध पदार्थ से रहता है यह कल्पना पहायस्थिति के विरुद्ध है। 'सर सद' दिव्यम् द्रव्यम्' इत्यादि प्रकार के सभी अनुगल व्यवहार सारश्य फे श्राशर से ही होते हैं। साक्ष्य भी उभयभिष्ट कोई स्वतन्त्र पार्थ नहीं हैं। किन्तु यह बहुत अवयवों की समानता रूप ही है। तत्तद् अश्यय इह उन, व्यक्तियों में रहते ही हैं। उनमें समानता देखकर प्रथा उस रूप से अनुमत व्यवहार करने लगता है। वह सामान्य निय एक और निरंश होकर यदि सर्वगत है तो उसे विभिन्न देशस्थ स्वम्यक्तियों में खराश रहना होगा क्योंकि एक वा एक साथ भित्र देश में पूर्णरूप से नहीं रह सकती। नित्य निरश सामान्य जिस
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प्रस्तावना
समय एक व्यकि मैं प्रकट होता है उसी समय उसे सर्वप्र-जयनियों के असराक में भी प्रकट होना चाहिए। अन्यमा कत्तित् व्यक्त और कृचित अध्यक्त रूप से स्वरूपभेद होने पर अभियस्व और सांसव का प्रसा प्राप्त होगा। यदि सामान्य पदार्थ अन्य किसी ससासम्बन के अभाव में भी वह सत् है तो उसी तरह ज्य गण क्षादि पदार्थ भी स्वतःसत् ही क्यों न माने जायें अतः सामान्य स्वतन्त्र पार्थ न होकर बन्यो माश परिषनरूपही है।
पैशेषिक तुस्थ आकृति तुल्य गुण वाले सम परमाणुओं में परस्पर भेद प्रत्यय कराने के निमित्त स्वतो विभिन्न विशेष पदार्म की ससा मानते हैं। वे मुक्त आत्माओं में मुक आत्मा के मनों में विशेष प्रत्यय के निमित विशेष पदार्य मानना आवश्यक समझते हैं। परन्तु प्रत्यय के आधार से पदार्थ व्यवस्था मानने का सिद्धान्त ही गलत है। जितने प्रकार के प्रत्यय होते जायें उतने स्वतन्त्र पदार्थ यदि माने जाये तो पदारयों की कोई सीमा ही नहीं रहेगी। जिस प्रकार विशेष पदार्थ स्वतः परस्पर निक हो सकते हैं उसी पह परमाण आदि भी स्वस्वरूप से ही परस्पर भिन्न हो सकते हैं। इसके लिए किसी स्वतन्त्र विशेष पदार्थ की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्तिपर स्वयं ही बिकाप है। प्रभाग का कार्य है स्वस सिस पदार्थ की भर्स कर ध्याख्या करना।
बौद्ध सशपरिणमवरूप समानधर्म स्वीकार में फर के सामान्य को अन्यापोह रूप मानते है। उनका अभिप्राय है कि-परस्पर भिक्ष वस्तुओं को देखने के मार जो बुद्धि में अभेदभान होता है उस घुद्धिप्रतिक्षित अभेद को ही सामान्य कहते हैं। यह अभेद भी विश्यात्मक न होकर अतघ्यावृत्तिरूप है। सभी पदार्थ किसी न किसी कारण से उत्पन्न होते हैं तथा कोई न कोई कार्य उत्पख भी करते हैं तो जिन पदार्थों में अतरकारमध्यावृति और अस्मार्यध्यावृत्ति पाई प्राती है उनमें अनुगत व्यवहार कर दिया जाता है। जैसे जो व्यक्तियाँ मनुष्यरूप कारण से उत्पन्न हुई है और आगे मनुष्यरूप कार्य उत्पन करेंगी उनमें श्रम मुल्पकारण-कार्यपावृति को निमित्त लेकर मनुष्य मनुष्य' ऐसा अनुगरा व्यवहार कर दिया जाता हैं । कोई धारतविक मनुष्यत्य विध्यात्मक नहीं है। जिस प्रकार चा आलोक और रूप आदि परस्पर अत्यन्त भिन्न पदार्थ मी अस्पज्ञानजननव्यावृत्ति के कारण 'रूपज्ञानजनक' व्यपदेश को प्राक्ष करते हैं उसी प्रकार सर्वत्र अतप्रायसि से ही समानाकार प्रत्यय हो सकता है। ये शब्द का वाच्य इसी अयोहरूप सामान को ही स्वीकार करते हैं। विकध्यझान का विषय भी यही अपोहरूप सामान्य है।
___अक्कलदेव ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि-सारश्य माने बिना अमुक व्यक्तियों में ही अमरोह का मियम कैसे बन सकता है ? यदि शायलेय पोयति. बाहुलेय गौव्यक्ति से उतनी ही मिल जितनी कि किसी अश्वादिष्यक्ति से, तो क्या कारण है कि शायलेय और घाजुलेय में ही अतधाति मानी काय अश्व में नहीं । पदि अप से कुछ कम विलक्षपाता है तो यह अर्थाद ही मानना होगा कि उनमें ऐसी समानता है जो अहन्द्र के साथ नहीं है। अतः सारश्य ही व्यवहार का सीधा नियामक हो सकता है। यह तो प्रायक्षसिद्ध है कि वस्तु समान और असमान उभयषि धमों का आधार होती है। समानधमों के आधार से अनुमत व्यवहार किया जाता है और असमान धर्म के आधार से व्याप्त व्यवहार अन्य नहीं, 'अतध्यावृति यही एक समान धर्म तत्तव्यक्तियों में स्वीकार करना होगा। शैद्ध जब स्वयं अपरापर क्षणों में सादृश्य के कारण एकत्रमान तथा सीप में साएश्य के ही कारण रजतभ्रम स्वीकार करते हैं तब अनुगत पवार के लिए सारश्य को सीकार करने में उन्हें क्या थाधा है ? असहझ्यावृति और बुद्धिगत अभेद प्रतिविम्य का निर्वाह भी साप के बिना नहीं हो सकता। अतः सहसा परिणामरूप ही सामान्य मागना चाहिए । शब्द और विकल्पशाच भी सामान्यविशेपारमक वस्तु को ही विषय करसे हैं, केवल सामान्यामक को और न केवल विशेपारमक को ही।
___सामान्यतया पनामों का लक्ष्य द्विमुखी होता है-एक तो अभेद की और दूसरा भेद की ओर । जगत् में अभेद की ओर चरम कल्पमा वेदान्त दर्शन में की है। यह इतना अभेद की ओर बड़ा किंवास्तविक तिथति को लाँधकर कल्पनालोक में ही जा पहुंचा। मेरान अपरेसन का स्थूल भेद मी मायारूप बन गया ।
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न्यायविनिश्चयविवरण
एक ही तस्व का प्रतिमास चेतन और असेतन रूप में माना गया। इस सरह देश काल और स्वरूप, हर प्रकार से करम अमेव की कोटि वेदान्त दर्शन है। सैवदर्शन प्रत्येक चित् अचित् स्त्रशक्षणों की वास्तव स्वतन्त्र सत्ता मानकर ही चुप नहीं रहता। वा उनमें कालिक भर भी क्षणपर्याय तरु स्वीकार करसर है। यहाँ तक तो उसका पारमायिक भेद है। जो प्रथमक्षा में है वह वितीय में नहीं, ओ जहाँ जिस समय से है वह वहीं उसी समय वैसे ही है, द्वितीयक्षपद मैं नहीं' 1 दो देशों में रहनेवाली दो क्षणों में रहनेवाली कोई वस्तु नहीं है। इस तरह देश काल और स्वरूप की पधि से अन्तिम भेद मौदर्शन का लक्ष्य है। पर अभेद की तरफ वेदान्त दर्शन और भेद की ओर अखदर्शन वास्तववाद से काल्पनिकता या अवास्तव
मारे गहुँगा । निजाती निभानादी शून्यथा समी काल्पनिक भेद के उपासक हैं। उनमे बावजगत् का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया । किसी ने उसे सावृत कहा तो किसी ने उसे अविद्यानिर्मित कहा तो किसी ने उसे प्रत्ययमात्र ।
जैन दर्शन ने भेद और अभेद का अन्तिम विचार तो किया पर वास्तवसीमा को साँधा नहीं है। उसने दो प्रकार के अभेदप्रयोजक सामान्य धर्म माने तथा दो प्रकार के विशेष, जो भेष कल्पना के विषय होते हैं। दो विभिल सत्ताक च्या में अमेत्र व्यवहार सारश्य से ही हो सकता है एकदम से नहीं। इसलिए परम संग्रहना यद्यपि वेदान्त की परसत्ता को विक्य करता है और कद मेशा है कि 'सदूपेश देतनाचेतनानां भेदाभाछन् अाम् सप से शेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं है। पर यह व्यवाहारनय के विपरभूत वास्तव मेंर का लोप नहीं करता। यह स्पष्ट धारणा करता है कि वेतन और अवेतन में सात साष्टश्य रूप से अनुगतप्पवहार हो सकता है पर कोई ऐसा एक सत् नहीं जो दोनों में वास्तव अनुगत सत्ता रखता हो, सिवाय इसके कि दोनों में 'सत् सत्' ऐसा समान प्रत्यय होसा है और 'सत् मात्' ऐल्स शब्द प्रयोग होता है। एक दव्य की कालक्रम से होने वाली पर्यायों में को अनुगसम्यवहार होता है वह परमार्थसत् एकम्यमूलक है। पापि द्वितीक्षण में अयिभनय अखण्ड का श्रखण्ड बदलता है-परिवर्तित होता है पर उस सत् का के परिवर्तित हुआ है अस्तित्व दुनिया से नष्ट नहीं किया जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता। जी वर्तमानक्षण में अमुक दशा में है वहीं नक्षत का अखण्ड पूर्वक्षण में अतीतदशा में था, वहीं बदलकर आगे के क्षण में तीसरा रूप लेगा, पर अपने स्वरूपसस्त्र को नहीं रोक सकता, सर्वथा महाविनाश के गर्स में प्रतीम सही हो सकता । इसका यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि उसमें कोई शाश्वत कूटस्थ अंश है, किन्तु बदलने पर भी उसका सन्तामप्रवाह चालू रहता है कभी भी उपिछत्र नहीं होता और नसूसरे में विलीन होता है । असः एक मुख्य की अपनी पयों में होनेवाला अनुगस व्यवहार जनतासामान्य या दृष्पमूलक है। यह अपने में यस्तुसत् है। पूर्व पर्याय का अखण्ड निवोद उसरपर्याय है और उत्तरपर्याय अपने निचोड़भूत आगे की पर्याय को जन्म देती है। इस सरह जैसे अतीत और वर्तमान का उपादानोपादेय सम्बन्ध है उसी तरह वर्तमान और भविष्य का मी । परन्तु सत्ता वर्तमान क्षणमात्र की है। पर यह वर्तमान परम्परा से अनन्त भत्तीसों का उत्साधिकारी है और परम्परा से अनन्त भविष्य का उपादान भी बनेगा । इसी दृष्टि से द्रव्य को कालत्रमयी कहते है । शम्य इतने रूचर होते हैं कि वस्तु के शतप्रतिशत स्वरूप को अभ्रान्त रूप से उपस्थित करने में सर्वत्र समर्थ नहीं होते। यदि वर्तमान का अतीत से दिलकुल सम्बन्ध न हो सभी मिरम्बय क्षणिकस्त्र का प्रपन हो सकता है, परन्तु जब वर्तमान अतीस का ही परिवर्तित रूप है तम यह एक.ष्टि से साग्वय ही दुखा। वह फेवल पंक्ति और सेना की सरहस्यवहारा किया जानेकाला संत नहीं है किन्तु कार्यकारणभूत और खासकर उपादानोपादेयमूलक तत्व है। वर्तमान जलबिन्दु एक ऑविसजन और एक हाजत के परमाणुओं का परिवर्तन मात्र है, अर्थात्
ऑक्सिजन को निमित्त पाकर हाइड्रोजन परमाणु और हाइवोजन को निमित्त पाकर ऑक्सिजन परमाणु दोनों ने ही जल पर्याय प्राप्त कर ली है। इस पिरमाणुक अलविनु के प्रत्येक जलाशु का विश्लेषण कीथिए सो शत होगा कि जो एटम ऑक्सिजन अवस्था को धारण किए था वह समूचा बदलकर जत बन गया है। उसका और पूर्व ऑक्सिजन का यही सम्बन्ध है कि यह उसका परिणाम है। वह जिस समय जल नहीं बनता
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प्रस्तावना
और ऑक्सिान का ऑक्सिजन ही रहता है उस समय भी प्रतिक्षण परिवर्तन सजातीय रूप होना ही रहता है। यही विश्व के समस्त बसम अचेतन द्रव्यों की स्थिति है। इस तरह एक धारा की पर्यावों में असुगत व्यवहार का कारण साहस सगाग्रत होकर अर्थतासामान्य प्राध्य सन्तान या दृष्य होता है। इसी तरह चिमिनयों में भेदका प्रयोजक व्यतिरेक विशेष होता है जो तद्व्यकिय रूप है। एक द्रव्य को सो पर्यायों में मेव व्यवहार कराने वाला पर्याय नामक विशेष है।
जैन दर्शनने उन सभी कल्पना के ग्राहक नय तो बता जो वस्तुसीमा को मटौचकर अशरतधाव की और जाती हैं। पर साथ ही सए कह दिया है कि ये सय वक्ता के अभिमान है, उसके संकल्प के प्रकार है। वस्तुस्थिति के ग्राहक नहीं हैं।
गुड़ और धर्म-स्तु में गुण भी हाने हैं और धार भी। गुण स्वभावभूत हैं और इसकी प्रतीति परमिरपेक्ष होती है। अमौकी प्रतीति परसापेक्ष होती है और व्यवहारार्थ इनकी अभिव्यक्ति, वस्तु की योग्यता के अनुसार होसी रहती है। धर्म अनन्त होते हैं। गुण गिने हुए हैं। यभा-जीव के असाधारण गुण-ज्ञान, दर्शन, मुख, क्रीय आदि हैं। साधारण गुण वस्तुःव ममेयव सत्य आदि। दल के रूप रस गन्ध सर्श आदि असाधारण गुण हैं। धर्मव्य का गतिनुष्य, श्रमद्रव्य का स्थितिनुत्व, आकाश का अवगाहननिःमेय और कालका वर्तनातुत्व असाधारण गुण । साधारण मुण वस्तुल सत्व अमिधेयत्व प्रमेयत्व आदि । जीध में जानादि गुणों की सत्ता और प्रतीति निरपेक्ष है, स्वाभाविक है । पर कोश पड़ा, पितृस्व पुत्रल्य, गुल्य सिम्बन्ध आदि धर्म सापेक्ष हैं। यद्यपि इनकी योग्यता और में है पर सानादि के समान से स्वरलतः गुग नहीं है। इसी तरह युगल में रूप रस सम्ध और स्पर्श ये तो स्वाभाविक परनिरपेक्ष गुण परन्तु छोटा पकाएक दो तीन भादि संस्था, संफेत्र के अनुसार होनेवाली घान्यता आदि ऐसे धर्म है जिनकी अभेम्परिक हवाई होती है। मुझ परनिरपेक्ष स्वतः प्रतीत होते हैं लश धर्म परापेक्ष होकर । वस्तु में योग्पता दोनों की है। सामान्यतिरक्षा से सभी वस्तु के भाव माने जाते हैं। सप्तमनी में धर्मा की कल्पना वक्ता प्रश्नों के अनुसार की जाती है । एक धर्म को केन्द्र में मानने पर उसका प्रतिपक्षी धर्म आ जाता है | फिर दामो रुप हो एकमाथ शर से कहने का प्रयत्न संभव नहीं है अतः बस्तु का मिजरूप अवक्तव्य उपस्थित हो जाता है । इस तरह सन् जसत् और अवकप इस तन धर्मों को टकर अधिक से अधिक सात ही प्रहल हो सकते हैं। अतः सप्तभनी का निरूपम अधिक से अधिक सात प्रश्नों की संभारमा का असर है। प्रश्न खास हो सकते है इसका कारण सात प्रकार की जिज्ञासा का होना है। मिजारा का सात प्रकार का होना सात प्रकार के संशयों के अधीन है। तथा संशय सान इसलिए होसे कि यस्तो धर्म ही सात प्रकार के हैं।
विशवास प्रत्यक्ष-इस तरह हान वपर्यायामक और सामान्यविशेषात्मक अर्थ को रिपय करता। केवल सामान्चारमक याविशेफारमक कोई पदार्थ नहीं है और न केवल प्रध्यात्मक या पापात्मक ही। इसीलिए अकादेवने प्रत्यक्ष का लक्षण करते समय कार्तिक में प्रत्य पर्याय सामाम्म और विशेष ये भार विशेषज बर्थ के दिए हैं। इनकी सार्थकता उपर्युक्त विवेचन से सर हो जाती है। ज्ञान के लिए उनने लिखा है कि उ हो साकार और स्वसंवेदी होना चाहिए । यहाँ तक साकार स्वसंधेवी और गमपर्यायसामान्यविशेषादी भाग का निरूपण हुआ। ऐसा शान जच अंजसा स्पष्ट जाम् परमार्थतः विशद हो तब उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । साधारणतया दर्शनाम्सरी में तथा लोकबहार में इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया है। तया इन्द्रिय के परे रहनेवाले पदार्थ का घोष परोक्ष कहा जाता है। पर जैन दर्शन का प्रत्यक्ष और परोक्ष का अपना स्प ज्ञ विचार है। वह इन्द्रिय आदि पर पदावों की अपेक्षा रखने वाले झान को परोक्ष अर्थात् परतन्त्र ज्ञान मानता है, तथा इन्द्रियादि निरपेक्ष आरममावोस्थ ज्ञान को प्रत्यक्ष ! यह प्रत्यक्ष का कारणमूलक विवेचन है। पर स्वरूप में जो ज्ञान विशद हो वह प्रत्यक्ष करलाता है। यह विश्वना पबहार में अंशतः इन्द्रियजन्य ज्ञान में भी पाई जाती है अतः इन्द्रियजम्य ज्ञान को संयपहार प्रत्यक्ष कहते हैं। यदि आगमों में इन्द्रियजन्य मति को परोक्ष कहा है और यह आगमिक परिभाषा
Mammomantimate
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न्यायविनिश्चयविवरण
में उचित भी हैं पर लोक व्यवहार के निवाहार्थ वैशांश का सद्भाव होमे से उसे संध्यवहार प्रत्यक्ष भी कहा गया है। पेशद्य का लक्षण अमलदेव ने स्वयं लधीयरपथ (कारिका..)में यह किया है
"अनुमानाप्रतिरकेपा विशेषप्रतिभासनम् ।
तद्वैशथं मते बुद्धरवैशयमतः परम्" अर्धा-अनुमान आदिक से अधिक, नियत देश काल और आकार रूप से प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासन को वैशय कहते हैं। दूसरे पाब्दों में जिस ज्ञान में अन्य किसी शान की सहायता अपेक्षिस न हो वह जान विशद कहलाता है। जिस सरस अनुमान आदि शान अपनी उत्पत्ति में लिमज्ञान आदिज्ञानान्तर को अपेक्षा करते हैं उस तरह प्रत्यक्ष अपनी इत्यत्ति में किसी भी झान की आवश्यकता नहीं रखता । यही अनुमानादि से प्रत्यक्ष में अतिरेक अधिकता है । यद्यपि आगमिक दृष्टि से इम्लिय आलोक या झामान्तर किसी भी कारण की अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान परोक्ष है और आत्ममायसापेक्ष ही ज्ञान प्रत्यक्ष, पर दार्शनिक क्षेत्र में अकलदेव के सामने प्रमाणविभाग की समस्या थी जिसे उन्होंने बड़ी म्यवस्थित रीति से सुलझाया है। तत्त्वार्थसूत्र में प्रति और धत हन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है और वहीं मसि स्मृति संज्ञा चिम्सा और अभिनिबोध को अनातर बनाया है। अनन्तर कान का तात्पर्य इतना ही है कि ये सब मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होगे हैं। मति में इन्द्रिय और मन से अपक्ष होनेवाले भवनह ईहा अवाय और धारणा जान सम्मिलित है। कलङ्कव ने मसि को सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर लोकप्रसिद्ध इन्द्रियशन की प्रत्यक्षता का निर्वाह किंस और स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और अति इन सब को परोक्ष प्रमाण रूप से परिगणित किया । बागम में मति और अत परोक्ष थे ही । स्मृति आदि मतिज्ञानाधरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण मासेशान थे ही इसलिए इनका परोक्षय भी सिद्ध था। मात्र इद्रिय और मनोवस्थ मति को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष दना देने से समस्त प्रमाण व्यवस्था जम गई और लोक प्रसिद्धि का निर्वाह भी हो गया । यपि अकालदेव ने लघीयखय में स्मृति प्ररपभिज्ञान तर्क और अनुमान को भी मनोमति कहा है और सम्मयशः वे इन्हें भी प्रादेशिक प्रत्यक्षकोटि में खाना चाहते थे पर यह प्रयाल आगे के भावार्यो के द्वारा समर्थित नहीं हुआ।
इस तरह कमरेव ने विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर श्रीसिद्धसेन दिवाकर के 'अपरोक्ष प्राहक प्रत्यक्ष इस प्रत्यक्ष लक्षण की कमी को दूर कर दिया। उत्तर कालीन समस्त समाचार्यों ने प्रकलोपन इस लक्षण और प्रमाणस्यवस्था को स्वीकार किया है।
यद्यपि बौद्ध भी विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है फिर भी प्रत्यक्ष के लक्षण में अकलाङ्गदेन के द्वारा विशद पद के साथ ही प्रयुक्त साकार और संजला पद खास महत्व रखते हैं। बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है । यह निर्विकल्पक झान जैनदार्शनिक परम्परा में प्रसिद्ध विधाविषयीसन्निपात के बाद होनेवाले सामान्यानभाती अनाकार दर्शन के समान है । अकाल देष की दृष्टि में जन निर्विकल्पक दर्शन प्रमाणकोटि से ही चाहिyस है सब उसे प्रत्यक्ष त र ही नहीं जा सकता था। इसी बात की सूचना के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष के लक्षण में साकार पद दिया है। निराकार दर्शन तथा बौद्धसम्मत निर्विकल्पकप्रत्यक्ष का निराकरण कर निश्चयामा विशदज्ञान को ही प्रयक्षकोटि में रखता है। बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के बाद होने वाले 'नीशमिदम्' इत्यादि प्रत्यक्षत विकल्पों को भी संव्यवहार से प्रमाण मान लेसे हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष के विषयमूर्त दृश्य स्थलक्षणा में विक्रया के विषयभूस विकल्प्य सामाम्प का एकत्यावसाय करके प्रवृत्ति करने पर स्वलक्षण ही प्राप्त होता है, असा विकल्प ज्ञान भी संव्यवहार से प्रमाण यन जाता है। इस विकल में निर्विकल्पक काही विशदता आती है। इस करण निर्षिक और सविकल्पक फा अतिशीघ्र उत्पन होना या एक साथ होमा । तात्पर्य यह कि और के मत से सविरुष्पक में न तो अपना पैशा है और च प्रमाण । इसका मिरास करने के for अकलाक्षेत्र में अंजसा विशेषण दिया है और सूचित किरा कि बिकल्पनाम अंजरा निशद है संव्यवहार में नहीं।
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प्रस्ताचना
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परपरिकल्पित भाव सि ---
बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। कल्पनापोठ और अनाम्तहान उन्हें प्रत्यक्ष इष्ट है। शम्बसस्ट शान विकल्प कहलाता है। निर्विकल्पक शब्दसंसर्ग से शून्य होता है। निर्विकल्पक परमार्थसत् स्वलक्षश अर्थ से उत्पन होता है। इसके चार भेद होते हैं-इन्द्रियात्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंकेदमप्रत्यक्ष और घोषिप्रत्यक्ष । निर्विकल्पक स्वयं व्यवहारसाचक नहीं होता, व्यवहार मिविकल्पकजन्य सथि. कल्पक से होता है। सविकल्पक ज्ञान निर्मल नहीं होता । विकल्प ज्ञान की विदादाता सविकल्प में झलकती है। झात होता है कि वेद की प्रमाणता का सहन करने के विचार से बौद्धों ने शब्द का अर्थ के साथ वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं माना और यावत् पादसंस्मी शाम को जिनका समर्थन निर्विकल्पक से नहीं होता अश्माण घोषित कर दिया है। इनने उन्हीं जाने को प्रमाण मामा जो साक्षास् या परम्परा से अर्धसामथ्र्षजन्य है। निर्विकल्पक अस्पक्ष के द्वार यद्यपि अर्थ में रहनेवाले क्षणिक्षस्व आदि सभी धर्मों का अनुभव हो जाता है पर उनका निश्चय यथासंभव विकलकज्ञान और अनुमान से ही होता है। मल निर्विक. स्पक नीलांस का भारमिदम्। इस विकापशान द्वारा निश्चय करता है और उपहारसाधक होता है तथा क्षणिकांश का 'सर्व क्षणिकं सत्यात्' इस अनुमान के द्वारा कि निर्विकल्पक नीसमिदम् आदि विकरयों का उत्पादक और अर्धस्यलक्षण से उत्पण हुभा है अतः प्रमाण है। विकल्पहान अस्प है क्योंकि यह परमार्थसत् स्वलक्षण से उत्पन्न नहीं हुआ है। सर्वप्रथम अर्थ से निर्विकल्पक ही उत्पन्न होता है। उस निर्विकल्यावस्था में किसी विकल्पक का अनुभव नहीं होता। विझल्प कालपरसामान्य को विषय करने के कारण त निर्विकल्पक के द्वारा गृति अर्थ को प्राण करने के कारण प्रत्यक्षाभास है। .
अकल देव इसकी मालोचमा इस प्रकार करते हैं-अर्थक्रिया पुरुष प्रमाण का अन्वेषण करते है। जय पवहार में साक्षात् अर्थक्रियासापकमा सबिकल्पक में ही है सब क्यों न उसे ही प्रमाण माना जाय ! निस्पिक में प्रमाणता लाने को भागिर आपको सविकल्पक ज्ञान तो मानना ही पड़ता है। रवि निर्विकल्प के द्वारा गृहीत नीलाश को विषय करने से विकल्प ज्ञान अप्रमाण है, तब तो अनुमान भी प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत क्षणिकत्वादि को विषय करने के कारण प्रभास भहीं हो रस्केगा। निर्विकल्प से शिस प्रकार मालासों में नीलनियम्' इत्यादि विकल्प अस्पन होते हैं उसी प्रकार क्षणिकदादि अशॉ में भी 'क्षणिकमिदम् इत्यादि विकरूपशाम उत्पन्न होना चाहिये । अतः व्यवहारसायक सधिफलपमान ही प्रत्यक्ष कहा जाने योग्य है। विकल्पकान ही विशदरूप से प्रत्येक प्राणी के अनुभव में भाता है, जबकि निर्विकल्पज्ञात लुभवसिद्ध नहीं है। प्रक्ष से सो स्थिर स्थूल अर्थ ही अनुभव में आते हैं, अतः क्षणिक परमाणु का प्रतिभास कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है। निधिकल्पक को स्पष्ट होने से तथा सकिया को अस्प होने से विषयभेद भी मानका बक नहीं है, स्योंकि एक ही वृक्ष दूरवर्ती पुरुष को अस्पष्ट तथा समर्मावर्ती को स्पट चीखता है। आद्य-प्रत्यक्षकाल में भी कल्पनाएँ बराबर उत्पन्न सधा बिनष्ट सो होसी ही रहती है, भले ही वे अनुपलक्षित रहें। निर्विकल्प से अधिकष्प की उत्पत्ति मानमा भी ठीक नहीं है। क्योंकि यनि अशन्द निर्विकल्पक से सशब्द विकल्पज्ञान उत्पन्न हो सकता है तो शदशून्य अर्थ से ही विकलपक की उत्पत्ति मानने में क्या बाधा है? मत: मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्मादि यावद्विकल्यज्ञान संबाद होने से प्रमाण है। हाँ ये विसं कादी हो वहीं इन्हें अप्रमाण कह सकते हैं । मिर्दिकएपक प्रत्यक्ष में अभियास्थिति अथोस् अर्थक्रियासाधक रूप अदिसंवाद का लक्षण भी नहीं पाया जाता, अतः उसे प्रमाण कैसे कर सकते हैं. शब्दस सृष्ट शाम को विकल्प मानकर अप्रमाण कहने से शामोपदेश से क्षतिकस्यादि की सिद्धि नहीं हो सकेगी।
मानस प्रत्यक्ष निरास-ौद इलियान के अन्तर उत्पन्न होनेवाले विशदशान को, जो कि उसी इन्द्रियज्ञान के द्वारा ग्राह्य अर्थ के अनन्तरभावी विसीयक्षण को जानता है, मानस प्रत्यक्ष कहते हैं। , भकलङ्ग देव कहते हैं कि-एक ही निश्चयात्मक अर्थसाक्षात्कारी शान अनुभव में आता है। आपकं द्वारा बताये गये मानस प्रत्यक्ष का तो प्रतिभास ही नहीं होता। 'मलमिदम् मह विकल्प शान भी मानस
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न्यायविनिश्चयविवरण
प्रत्यक्ष का असाधक है, क्योंकि ऐसा निकाय ज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ही उत्पन्न हो सकता है, इसके लिये मानल प्रत्यक्ष मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। बड़ी और गरम जलेबी खासे समय जितनी इन्द्रियधुद्धियाँ उत्पन्न होती है उसने ही सदनन्तरभावी अर्थको विषय करमेवाले मानस प्रत्यक्ष मानना हांगे; क्योंकि शाद में उसने ही प्रकार के विकल्पमान उत्पन्न होते हैं। इस तरह अनेक मानस प्रत्यक्ष मानने पर सन्तानभेद हो जाने के कारण 'जो मैं गाने वाला हूँ यही मैं सूंघ रहा हूँ। यह प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। यदि समा रूपादि को निफ्य करने वाला एक ही मानस प्रत्यक्ष मानस जाय; तब तो उसी से रूपाधि का परिज्ञान भी हो ही धावपा, फिर इन्दियबुद्धियाँ किस लिये स्वीकार की जाये ? धर्मातर में मनस प्रत्यक्ष को आमसिन कहा है। अकलक देव में उसकी भी आलोचना की है कि जब वह माय भागमसिह ही है, तब उसके लक्षण का परीक्षण ही निरर्थक है।
स्वसंधेदन प्रत्यक्ष खण्डम-यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है सो निर तथा मदि अवस्थाओं में ऐसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को मारने में स्पा बाधा है। सुपुल आदि अवस्थाओं में अनुभवसिद्ध शान का निरेष लो किया ही नहीं जा सकता। यदि उक अवस्थाओं में ज्ञान का अभाव हो तो उस समय योगियों को चनु सत्यविश्वक भावनाओं का भी मिलोट गाना पड़ेगा। .
घौद्धसम्मत विकल्प के लक्षण कर निराम-ौच 'लभिशापयत्ती प्रतीतिः कपना' अर्थात् को ज्ञान शब्दसंसर्ग के योग्य हो उस भान फो कल्पना या विकल्प शान कहते हैं। सफलङ्गदेव ने उनके इस लक्षण का पान करते हुए लिखा है कि...यदि शब्द के द्वारा कहे जाने लायक शाम का नाम कल्पना है तथा बिना शब्दसंजय के कोई भी विकास उत्पन्न ही नहीं हो सकता तव शब्द तथा शब्दांशी के स्मरणात्मक विकल्प के लिये ताधक भन्म शब्दों का प्रयोग मानमा होगा, उन अन्य शब्दों के सारण के लिए भी साधक अम्य शब्द स्वीकार करना होंगे, इस सरह दूसरे दूसरे शब्दों की सपना करने से अवस्था नाम का पण आता है। अतः जब विकल्पज्ञान ही सिद्ध नहीं हो पासा सब विकरपानरूप सावक के अभाव में विधिकल्पक भी सिद्ध ही रह जायगा और विचिंकल्पक तथा.. सविकल्पकरूप प्रमाणद्वय अभाव में साधक प्रमाणन होने से सकाल प्रमेय का भी अभात्र ही प्राप्त होगा। यदि शब्द तथा शांशी का स्मरणात्मक चिकल्य वाचक शमयोग के बिना ही होता है तो विकल्प का अभिलापवाय लक्षण अध्याय हो अयता और जिस तरह शब्द तथा साध्यांशों का मरणात्मक विकल्प सहायक अभ्य शब्द के प्रयोग के बिना ही हो जाता है उसी तरह 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प भी शब्दप्रयोग की योग्यता के बिना ही हो जाँथगे, सथा चक्षुरादियुधियाँ शब्द प्रयोग के बिना ही नीलपीतादि पाधा का निश्य करने के कारण स्वतः असायत्मिक सिद्ध हो जायगी। अराः विकल्प का अभिलापत्र लक्षण दृपित है। विकल्प का मिपि लक्षण है--समारोपविरोधी मारण या निश्चयात्मकाव।
माय श्रोत्रादि इमियों की वृत्तियों को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। अफटदेव कहते हैं कि-धोनादि इन्द्रियों की वृत्तियों तो नैमिरिक रोगी को होने वाले द्विचनवज्ञाम तथा अन्य संशयादिशानी में भी प्रयोजक होती हैं, पर वे सभी ज्ञान प्रमाण तो नहीं हैं।
मैयायिक इन्द्रियों और अर्थ के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। इसे मी अकलंकदेव है सत्र के ज्ञान में अध्याप्त बताते हुये लिखा है कि-विकास-निलोफावर्ती यावत् पदार्थों को विश्य करने पाला सर्व का ज्ञान प्रतिमयत शनिवाली इन्द्रियों से सो उत्पात महीं हो सस्ता, पर प्रत्यक्ष सो अवश्य हैं। अतः सनिक अध्याप्त है । चक्षु के द्वारा रूप का प्रत्यक्ष समिकर्ष के बिना ही हो जाता है। चाक्षुप प्रत्यक्ष मेसनिक की आवश्यकता नहीं है। काँच आदि से व्ययहित पदार्थ का शान सश्विक की अमावश्यकता सिद्ध कर हो देता है।
प्रत्यक्ष के भेद-अफलक देव ने भत्यक्ष के सीन भेद किये है- इन्दिा प्रत्यक्ष २ अमिन्द्रिय प्रत्यक्ष ३ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । पशु आदि इन्द्रियों से रूपादिक का स्पष्ट झान इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। मनके द्वारा सुख आदि की अनुभूति मानस प्रत्यक्ष है। अकला देव ने लधीयस्त्रयस्थवृति में स्मृति संज्ञा शिता
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प्रस्तावना
और अभिनियोध को प्रतिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है। इसका अभिप्राय इतना ही है कि मति स्पति संचिता और अभिनिशेध ये सर मतिज्ञाम है, मतिनामायण के अयोपशम में इनकी उत्पत्ति होती है। मतिज्ञान इन्दिर और मन से उत्पन्न होता वन्य मतिज्ञान को जब सत्यवहार में प्रश्न रूप से प्रसिद्धि होने के कारण इन्द्रियप्रयच मान लिया तव उरी तरह मनामति रूप स्मरण प्रत्यभिकान के और अनुसन को भी प्रत्यक्ष ही कहना चाहिये । परम्प मंध्यत्रक्षर इन्द्रियजन्य मति को तो प्रवन मानना है पर स्मरण भादि नहीं। अमः स म आईट को अनिन्द्रिय प्रक्ष मानने को व्यास्था उही तक समित रही। ये शरयोजना के पहिले स्मरण आदि की मलिशान धीर शब्दयोजना के पार इन्हीं का श्रुतज्ञान भी कहने है। पर उत्तरकाल में असं की भाषा विभाग के लिए--'इन्द्रिय और मनोमान्त सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति आदि परोश, अन परोक्ष और अबधि मनपर्पलथा केवलज्ञान ये तीन ज्ञान परमार्थप्रत्यक्ष यही व्ययस्य सर्वस्वीकृत हुई।
परमा ममाय से उत्पन्न होता है। अवधि और ममःपय शान सीमित विषयवाले है तथा बलान सूक्ष्म स्पन्नहित विमका आदि समस्त पदाधों को जानता है। परमार्थस्यक्ष की सिद्धि के लिए अल देव का निकालिन्धित युनियाद अनितम है
"स्थायराविरछेदे शेयं किमयशिष्यते।
अप्राध्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थानबलोकसे।।" ध्यायधिक श्लो०४६५-६६1 अर्थान----इसभाय आत्मा के ज्ञानावरण कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने पर कोई 'ज्ञेय शेष नही रह जाता जो उस जान का विषय न हो सके। कि ज्ञान स्वभावतः अप्राध्यकारी है अतः उसे पदार्थ के पास 'या पदयों को ज्ञान के पास आने की भी आवश्यकता नहीं है। अतः से निरादरण अप्रायकारी पूर्ण ज्ञान से समस्त पदार्थों का दोध होता ही पाहिए । सरसे पटी बाधा झानाचरण की थी सो जब वह यगुल न हो गया तो गिरावरण ज्ञान स्वर को जानेगा ही।
इस तरह इस पक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्ष का सङ्गोपाङ्ग वर्मन किया गया है।
२ ग्रन्धकार न्यायथिमिश्यन मूलबन्ध के प्रणेता अनन्यायालय के अमर प्रतिष्टाएक, उमटवादी, जमशासन के चिरस्मरणीय प्रभावक, अनेकान्तवाद के उपस्तोता प्राचार्यश्वर भट्टाकलदेव है। जिनके पुण्यगुणों का स्मस्म, जिन स्पाय को पूतगाथा आज भी जायन में प्रेरणा और स्मृति ली है । फारे श कंबल जैन सम्प्रदाय केही अमररत्न थे किन्तु भारतमाता का मुकुट जिन इनेगिने नररतों से आलोकित है उनमें अग्रणी थे। थे भारती के माल की शोमा थे। शास्त्राथों में जिन्हें दोश्रल भी परारन नहीं कर सकता था। उन शब्द-अर्थ के धनी पर अकिन्चन *कलकत्रात के मुख्य ग्रन्थ न्यायविनिश्चय का तदनुरूप व्याख्याकार शादिराजभि के विवरण के साथ प्रथमवार प्रकाशन किया औरहा है। अन्य के प्रत्यक्ष प्रस्ताव का संलिस निपपपरिचय पहिले लिखा जा चुका है। प्रथकारी के पिय में स्वासकर उनके समय आदि का झाल परिचय कसना अबसरमास है।
अफलादेव के समय भादि के विषय में मैं 'अल सन्धया की प्रस्तावना में विस्तार से हिस्स युका। उसमें मैंने ग्रन्थों के आन्तर परीक्षण के आधार से इनका समय सन् ०२० से ७८० तक निश्चित किया था। धर्मकीर्ति तथा उनके शिष्यपरिवार के समय की अवधि के जो चमक निश्चित किए गए हैं, श्री राहुल सांकृत्यायन की सूचनानुसार उनमें संशोधन की मुंजाइश है। निशीथचूर्णि में दर्शनप्रभावक प्रथा में जो सिद्धिविनिरहण का उल्लेख पाया जाता है यह सिद्धिधिनिश्चय नियमतः अकसंस्कृत ही है और निशीचूमि के कत्तों ये ही जिगदासायणि महत्तर है जिनने शकसं ० ५९८ अर्थात् सन् ६०१ में मद्रीचूर्णि
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न्यायविनिश्वयविवरण
की रचना की थी। ऐसी दशा में सन् ६७६ के आसपास रखी गई म में अकल के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख एक ऐसा मूल प्रमाण व लकता है जिसके आधार से न केवल अकल का ही समय निश्चित किया जाता है अपितु इस युग के अनेक बौद्धावाद और वैदिक भाषाओं के समय पर भी मौलिक प्रकाश डाला जा सकता है। मैं इसी अन्य के द्वितीय भाग की प्रस्ताव में या राजार्तिक ग्रभ्य को प्रस्तावना में इसकी साधार चानयन करना चाहता हूँ। अभी तक जो सामग्री प्राप्त हुई है उसके आधार से उपसूचना देकर विराम लेता हूँ। यदि का समय सुनिश्चित है ३ कोथा ये उस समय
नाम
उनने अपना ९४० सिंहदेव की राजधानी में निवास करते थे। उनके इस समय की पुष्टि अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से भी होती है। अतः सन् १०३५ के आसपास ही इस अन्य की रचना हुई होगी। जैन समाज के सुप्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ पं० नाथूरामजी प्रेमी ने अपने 'जंग साहित्य और इतिहास ग्रन्थ में जिन व विपालकों की जानकारी के fer साभार उट
दरार पर किया जाता है।
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वादिराजरि
परिचय शीर कीर्तनदिर में से बड़े बड़े है। व्याचन्द्र के कर्ता उन्ही समान भट्टाक देव के एक न्याय-अन्य के टीकाकार भी ।
होकर भी और इससे उनका योगदेव सेक सकती है जिनकी बुद्धिरूप से जीवनभर शुक रूप वास कर कान्यदुग्ध से सहयजनों को तृप्त किया था।
चादिराज मिल या दविण संध के थे। शाखा के ये आचार्य थे। अगल किसी स्थान था कहलाती थी ।
हुए हैं, कादिराज उन्हीं मचन्द्राचार्य के समकालीन और
इस संघ में भी एक नन्दिसंघ था, जिसकी अगल आम का नाम था, जहाँ की सुमिपरम्परा अरु माम्ब
पति और जगाद उनकी उपाधियों अर्थ है कि सारे शाब्दिक (वैयाकरण )
एकीमतो के हाद
अन्त में एक
किंक और
से पीछे है जी बराबरी कोई नहीं कर सकते एक लेख में कहा है कि सभा में मे अल-देव (जैन), धर्मद्रहस्पति (क) और (मेधाविक केतु है और इस तरह से इन जुदा ख़ुदा धर्मगुरुओं के एकीभूत प्रतिनिधि से जान पड़ते हैं। में उनकी और भी और aft प्रकट किया गया है।
की गई है और उन्हें महाबारी वित
१ देखी 'संघ में भी मन्दिर १- परत पमुख स्याद्वाद विद्यापतिगल जगदेकमल्लकादि -140
[ रा सम्पादित नगर के इनं० ३६ । ३- मादिराजः।
५४ एनिसिद श्रीवादिराजदेवरुम् ।
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दिजननु कान्तस्ते वादिराजम मध्यसहायः ॥ एकीभाषांत्र | कोने पुरोधाद
इति सतिनिधिरिव देशराज यदि ३९
यह शक्ति श ० १०५० ( ० ० ११८५ की हुई है।
क्योकि दादादिद्रादिरागतः ॥४०॥
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प्रस्तावना
श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतियाग के शिम और रूपासिन्दि (शाकटायन याकरण की टीका) के फर्ता नयापाल मुनि के ससी या गुराभाई थे। बानिराज यह तरह की पाया या विशेषण है, जो काधिक प्रचलित होने के कारण्य नाम ही बन गया आन परता परन्तु वास्तष माम कुछ और ही होगा, जिस तरह वावीमासह का असल नाम अजितसेन था।
समकालीन राजा-चौलुपयनरंग जयसिंहदेव की राजसमा में इनका बस समान धा और ये प्रख्यात वादी गिने जाते थे। मलिलण-प्रशस्ति के अनुसार जपान आरा मे पूजित भी थे-'सिंहसमयपीरविभवः'।
जयसिंह (प्रथम) दक्षिण के सोलशी बंश के प्रसिद्ध महाराजा थे। पृथ्वीबाडम, महाराजाधिराज, परमेश्वर, चालुक्यच के श्वर, परमभक्षारक, सगकमल आदि उनकी उपाधियों धी। इनके राज्यकाल के तीस से ऊपर शिलालेख दानपत्र आदि मिल चुके हैं जिनमें पहला लेख १० सं० १३८ का है और अन्तिम श०सं०.९६४ का है। अतएक कम से कम १३८ से १६३ सक तो उनका सय-काल निर्षिशाद है। उनके पोपपदी द्विसीश श०सं० ९५५ के एक लेख में उन्हें भोवरूप कमन के लिये चन, राजेन्द्र चोल (परकेसरी घर्मा) रूप हाधी के लिये सिंह, माश्ये फी सम्मिलित सेना को पराजित करने वाला और घर-चोल राजाओं को दण्ड देनेयाला लिसा है।
मालिका ने अपन मिहनार पक्रयी जयसिंह देव की राजधानी
श्राद्धाम्रमिन्दुबिम्परचितोसुक्य सदा यश-- इस चमरीजराजिवषयोऽभवणं च यत्कर्ण योः । सैन्यः सिंहसमीपीठविभवः सर्वपवादिप्रजा
एसोचवकारसरमहिमा श्रोषादराजो विदाम् । यदीवगुणगीय वनाविलासपसरः कवीनाम्
श्रीमचौलुमचकंदवरजयकटके वाधूिमम्मभूमी निष्काण्ड डिण्डिमः पर्षदति पदरटो वादिसजस्य मिनीः । शाचताग्दो जहिद्दि गरकता पर्वभूमा जहादि, ध्याहारयों नहीहि स्फुट-मृदु-मपुर-धमकायापलेपः ॥४२॥ पासाले ज्यालरात्री वसति सुधिदिन स्व जिलासहसं निर्यन्ता स्वर्गसोऽसीन भवति विषयो वनद्यस्वणिः । जीवेताम्तयदेतौ निलयबलशावादिनः नान्ये, गई निर्मुन्य सर्व अधिमिन सभे नादिराज ननन्ति ॥४॥ वाग्देवमुचिरप्रयोगामुस्वमालमत्यादरादादसे मम पार्थतोऽयमधुना धीवादिराको मुनिः । भी भी पश्यत पश्यतेष यमिना कि धर्म इश्बुधःग्वाम्यपराः पुरातनमुनेत्तयः पान्तु ॥४॥ --हिरी षेण यस्व रूपामुदाताचा निवा हितकपलिदिः ।
बन्यो दयापालमुनिः स वाया सिद्धस्मतामूमि में प्रभावै॥३॥ म०प्र० । २- सकलभुदनपालानन मूविपद्धस्फुरिसमुकुटचूदायादारथिन्दा ।
मददखिलवादभन्द्रकम्मरभेदी गाणभूजितसेना भाति वादी मसिहा ॥५७
३-पादिराज की एक पदवी 'जगदेकमल्ल-वादि' है। क्या श्राश्चर्य जो उसका अर्थ जगदेकरल्क (स्यसिंह) का बादि ही हो।
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भ्यायविनिश्चययिधरण
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में ही निवास करते हुए श० ० ९५७ की कार्तिक मुभी ३ को बनाया था। यह जयनिह का ही राज्यकाल है। यह राजधानी लक्ष्मी का निवास भी और सरस्वती देवी (गाय) की अन्समि थी।
परधरपरित के तंगपरे वर्ग के अन्तिम वय' में और चौथे मर्ग के उपाय में कवि ने चातुराई से महाराजा जयसिंह का उल्लेख किया है। इससे सम्म होता है कि यशोधरयरिख की रखना भी जयसिह के समय में हुई है।
राजधानी-मालय जयसिद की राजधानी कहाँ थी, इसका अभी तक ठीक ठीक पता नहीं लगा है। परन्तु पाश्यगाथचरित की प्रशस्ति के इस से ऐस मालूम होता है कि वह 'कहोशः नामक स्थान में होगी जो इस समय मदास सदन मरा देखने की गद्य-होरगी शाखा पर एक साधारण सा गाँव है और जो बदामी से १२ माल उसर की भोर है। यह पुराना सार है और इसके चारों और अन भी पादर-पनाह के चिन्ह मौजूद है। उक श्लोक का पूर्वान्दू मुदित प्रति में इस प्रकार का है
लक्ष्मीयासे वलति कटके कट्टपातीरभृमौ
पामावासियमदसुभगे सिंहचकेश्वरस्य।। इसमें सिंहचक स्वर अाम् जयसिंहदेवर्की राजधानी ( कटक.) का वर्णन है. जहाँ रहते हुए बन्धकर्ता ने पाश्नायवरित की रचना की थी। इसमें राजधानी का नाम अवश्य होना चाहिये। परन्तु उता. सट से उसका पता नहीं चलता सिर्फ इतना मालूम होता है कि वहाँ लक्ष्मी का निवास आ, और यह कहगा नदी के तीर की भूमि पर थी। हमारा अनुमान है कि अब पाठ गरीति भूभौ होगा, जो उत्तर भारत के अड, खका की कुपः सं कगातारभूमीवर भया है। उन्६ +या पसा कि कहगेरी' जैसा अरब नाम भी क्रिमी राजधानी का हो सकता है।
जयसिंह के युव सोमेश्वर या आहबमार ने 'कल्याण मामा मगरी थसाई और वहाँ अपनी राजधानी स्थापित की। इसका उस्लेख चिहण ने अपने विक्रमांक देवरित में किया है। कल्याण का नाम इसके पहले के किसी भी शिलालेग्य या नात्यापन में उपलब्ध नहीं हुआ है, अतएव इसके पहले चालुक्यों की राजधानी मेरी में ही रही होगी। इस स्थान में पालुक्य विक्रमानि- (.) का.स. १
नीशिलारेख भी मिला है जिससे इसका पालुक्य-पान के अन्तर्गत होना स्पध होता है। कट्टया ना को कोई नदी उस तरफ नहीं है।
___ मष्टाधीश-पाननाथचरित की प्रशस्ति में शदिराजसूरि ने अपने दादागुरु श्रीपालदेव को 'सिंहपुरकमुख्य लिया है और न्यायधिनिश्चयविवरण की प्रशस्ति में अपने आप को भी 'सिंहपुरेश्वर' लिखा है। इन दोनों शब्द का अर्थ यही मालूम होता है कि ये सिंहपुर मामक स्थान के स्वामी, अर्थात सिंहपुर उन्हें जागार में मिला हुआ था और शायद यहीं पर उनका मत था।
श्रवणबेलगोल के ४९३ नम्बर के शिलालेख मैं-जो सं० १०४ का उत्कीर्म क्रिया शुआ हैयादिराज की हो शिष्यपरम्परा के श्रीपाल विद्यदेव को होयसलनरेश.विशुवदन पोरसलदेव के द्वारा जिनमन्दिरी के जीणोद्वार और ऋषियों को आहार-धाम के हेतु शल्प नामक गाँव को दानस्वरूप देने का प्रर्वज है और १९५ नम्बर के शिलालेख में--प्रोपा. सं. ११३२ के लगभय का उत्कीर्ण किया हुआ है-- लिखा है कि पड्दर्शन के अध्येता पालदेव के स्वगंधास होने पर उसके शिष्य वादिराज (सीय) ने
Ammoniummmmmmm
१-यातन्वजय सिंहको रणमुरी बोयी धारिणीम् । २-मुग्वजयसिंहो राज्यलक्ष्मी भार ।। ३--सर्गर ली
४-इस मुनि परम्परा में वादिराज और श्रीवालदेव नामके कई आचार्य हो गये हैं। ये यादिराज पसरे हैं। ये गंगनरेश सन्दमन्द चतुर्भ या सायनाक्य के गुरु थे।
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प्रस्तावना
'पग्विामिल जिनालग नाम का मनिर निर्माण कराया और उसके पूजन तथा मुनियों के आहार-चाम के लिये कुछ भूमिका दान किया ।
हम सब बातों से साफ समय में भाता है कि वादिराज की गुरुशिष्पपरम्परा मजाधीशों को परम्परा थी, जिसमें मान लिया भी जाता । और दिया मी कसा था। वे स्वयं जैनन्दिर बनवाने थे, उनका बीणोद्वार कराते थे और अन्य मुनियों के आहार दान की भी व्यवस्था करते थे। उनका 'भष्पसहाय विशेषण भी इसी दानरूव सहायता को ओर संकेत करता है। इसके सिवान वे राजाभों के चारों में उपस्थित होते थे और नहाँ वाद-विवाद करके वादियों पर विजय प्राप्त करते थे।
देवसेनपुरि के दर्शनसार के अनुसार प्राविसंघ के मुनि कच्छ, खेत, धमनि (मंदिर) और वामिज्य फरके जीविका करते थे और भीतल जल से स्वान करते थे। मन्दिर बनाने की बात तो ऊपर आ चुकी है, रही खेली-वारी, सो जब सामोरी थी तब यह होती ही होगी और आनुपतिक रूप से शाणिज्य भी। इस लिये शायद दर्शनार में द्राविसंघ को जैनाभास कहा गया है।
कुष्ठ रोग की कथा-वाधिराजसूर के विषय में एक चमत्कारिणी कथा प्रचलित है कि उन्हें कुष्ठरोग हो गया था। एक बार राजा के प्रचार में इसकी चर्चा हुई तो उनके एक अमन्य भर ने अपने गुरु के अपवाद के भय से चल ही कह दिया कि उन्हें कोई रोक नहीं है। इसपर बहस छिद गई और आखिर राजा ने कहा कि मैं स्वयं इसकी जाँच करूँगर भा घबताश हुआ गुरुजी के पास गस और रोला 'मेरी का अब आपके ही हाथ है, मैं हो कह आया । इसपर गुरुजी ने दिलासा दी और कहा, 'धर्म के प्रसाद से सब ठीक होगा, चिन्ता मत करी । इसके बाद उन्होंने पीमावस्तोत्र की रचना की और उसके प्रभाव से उनका कुष्प दूर हो गया।
एकोमान की कीर्ति भहारककृत संस्कृत शा में यह पूरी फवा तो नहीं दी है परन्तु श्लोक की टीका करते हुए लिखा है कि "मेरे अन्तःकरण में प्रतिक्षित है
कुष्टरीमाकान्त पारीर यदि सुवर्ण हो जाय तो भया आश्चर्य है?"अांत पन्द्रकी तिची उक्त कथा से परिधिम थे। परन्तु जहाँ तक हम जानते हैं, यह कया बहुर रानी नहीं है और उन लोगों द्वारा नहीं गई है जोसे चमकारों से ही आचार्यों और भद्दारकों को प्रतिष्ठा का माप किया करते थे। अमावस के दिन गनो के चन्द्रमा का उदय कर देना, चवालीस या अड़तालीस वैदियों को तोड़कर कैद में से बाहर निकल आना, साँप के काटे हुन पुत्र का जीवित हो जाना आदि, इस तरह की और भी अनेक कारपूर्ण कथायें पिछले भट्टारकों की गन्दी हुई प्रकलित है जो असंभव और अप्राकृतिक सो है ही, जैनमुनियों के करत्र को और उनके वास्तविक महत्व को भी मीचे गिरती हैं।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि सच्चे मुनि अपने भक के भी मिपाभाषण का समर्थन नहीं करते और न अपने रोग को छुपाने की कोशिश करसे है।
अदि यह घटना सत्य होती तो भरिलपेण प्रशस्ति (पा० सं०1०५०) तथा दूसरे शिलालेखों में जिनमें पादिराजसूरि की बेहद प्रशंसा की गई है, इसका उल्लेख अषत्र्य होता। परन्तु जान पड़ता है तब तक इस कथा का आविर्भाव ही न हुभा चा।
इसके सिवाय एकीभाव के जिस चौथे पर कर आश्रय लेकर यह क्या गदी गई है, उसमें ऐसी कोई आत ही नहीं है जिससे उस घटना की कहाना की जाय। उसमें कहा है कि अय स्वर्ग सोक से माता के गर्भ में आने के पहले ही आपने पृथ्वीमंडल को सुवर्णनद कर दिया था, तभयान के द्वारा मेरे अन्तर में प्रवेश करके यदि आ मेरे इस शरीर को सुवर्णमय कर दें तो कोई आश्चर्य नहीं है। यह एक भक्त कति की सुन्दर और अनूटी जस्प्रेक्षा है, जिसमें वह अपने को कौ की मलिनता से रहित सुवर्ण या उजव मामा ।
-- --- -- ----- १-हेजिन, मम स्थान्तरोई ममान्त:करणमन्दिर त्वं प्रतियः सर यत इदं मदीयं कुष्टरोगाकाल वपुः शरीर सुमीकरोमि तस्कि चित्र तरिकमाय न किमपि नायर्यमित्यर्थः।
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न्यायविनिशंयविवरण
चाहना है। आगे , ६, ७ तं पर्यों में भी इसी तरह के भाव है-जब आप मेरी रित्तारया पर विश्राम करेंगे, लो मेरे कशी को कैसे गरम करेंगे ? आपकी स्प्रादाद-दापिका में स्नान करमे से मेरे दुःख-सन्ताप क्यों न दूर होगमय शापके घरण रखने ये सामी लोक पवित्र हो जाते है सब सोंग मा से आपको स्पर्श करने वाला मेरा मन यो दशगभागी न होगा ? आदि।
हमाद हर्षवर्धन के समय के मधूर कवि के विषय में भी सो महाफवि वाश के ससुर और सूर्यसानक नाम र के का है एक ऐसी ही कथा प्रसिद्ध है। मम्मत काय प्रकाश के साकार जयराम ने लिखा है कि मयूर कवि सौ इलोकों से सूर्य का स्तवन करके हुए रोग से मुक्त हो गया। मुधासागर नाम के दूसरे काकार ने लिखा है कि मथर फदि यह निश्चय करके कि या तो कट से मुक्त हो जाऊँगा या प्राण ही छोड़ नूगा हरद्वार गया और गंगातट के एक बहुन ऊँचे झाड की शाखा पर सो रस्सियों वाले छीके में बैठ गया और सूर्य देव की मुक्ति करने लगा। एक एक पा को कहकर बह छींके की एक एक रस्सी काटता जाता था। इस तरह करते करते सूर्यदेव सन्तुए हाए और उन्होंने उसका शरीर उसी समय मौरीन
और मुन्दर कर दिया। काथ्यटकाश के नौसरे टीकाकार जगनाथ ने भी लगभग यही बात कही है। हमारा अनुमान है कि इसी सूर्यशतकमजन की कथा के अनुकरण पर प्राविराजपूरि के एकीभाद ममोन की कृपा पदी गई है।
हिन्दुओं के देवता तो 'फत 'मक मन्याकन स्म होते हैं, इसरिये उनके विषय में इस तरह की कथायें कुछ अर्थ भी रखती हैं परन्तु जिनभगवान न नो हिका से प्रसन्न होते है और न उनमें यह पामध्य है कि किसी भयंकर रोग को यास को वश में दूर कर दे। अतएव जैन धर्म के विश्वासों के साथ इस सराह की कार का कोई हलासम्जस्य नहीं बैटता।
प्रन्ध रचना-चादिराजमूरि के अभी तक नीचे लिखे पाँच अन्य उपलब्ध हुए है
१नायनाथमरिस-यह एक १२ सर्ग का महाकाव्य है और "माणिकचन जैन-धमाल में प्रकाशित हो चुका है। इसकी बहुत ही गुन्दर सरल और पीक रचना है। 'पाश्चमार्थकाफुस्थतरित नाम से भी इसका उहलेन किया गश है।
२-यशोधरबस्ति--यह एक चार सर्ग का छोटाला खण्डकाव्य है जिसमें सब मिलाकर २९६ परा है। इसे संऔर के स्व० टी० एस० करपूस्वामी शास्त्री ने बहुत समय पहले प्रकाशित किया या सो अथ अनुपलभ्य है। इसकी रचना पाश्र्वनाथचरित के आद हुई घौ । क्योंकि इसमें उन्होंने अपने को पारवनायचरिम झा का बतलाया है।
३-पकीमावस्तोत्र-यह एक छोटा सा २५ पर्यों का अतिशय सन्दर स्तोत्र है और 'मुकीमाचं थत इव मया' से प्रारम्भ होने के कारण एकीभाव नाम से प्रसिद्ध है।
१-"मयूरनामा कविः सतलोकन दिल स्तुरवा कुलानिस्तीर्णः इति प्रसिद्धिः।
-पुरा किल मयूर शर्मा ठो कविः वशमसहिy: सूर्यप्रसादेन कुष्ठानिसभि प्राणावा त्यामि इति निश्चित्य हरिद्वारं गत्वा गंगटे अत्युच्च शाखावलम्बि सतरशिक्यमशिलतः सूर्यमस्तीपोत् । अकरोच्दैकपद्यान्ते एकैकरमवधि गोदाम् । एवं मिलमा काश्चतुष्टो रविः स एव निरोगी रमणीयां च तत्तनुमकश्वौत् । प्रसिई तन्मयूरक्षप्त सूचनायरपर्यामिति ।"
३-श्री मन्मयूरभः पूर्वजन्मदुधदेतकगलिसकजुटी......इत्यादि । ४- श्रीपानाधास्ववरित येन कीर्तितम् ।
म श्रीषादिराजेन इन्चा याशोधरी कथा ।। ५--शोधस्थरित, पर्ष पहले मैंने मूल 'श्री पार्श्वनायकारस्थचरित' पद से पदमश्चरित और काकुत्स्थचरित नाम के दो अन्य समक्ष लिये थे। मेरी इस मूल को मेरे बाद के लेखकों ने भी दुइया है । परन्तु ये दो अन्म होते तो द्विवचनान्तपथं होना चाहिए था, जो नहीं है । 'कारस्थ' पाश्वनाथ के नैश का परिचायक है।
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४-न्यायविनिश्चयविवरण-पर महाकलंकदेव के पायविनिश्चय' का भाप है और मैंग्याय के प्रसिद्ध अन्धेरे में इसकी गणना है। इसको लोक संख्या २०,०००है।
-प्रमाणानिर्णय-प्रमाणशास्त्र कर यह छोटा सा स्त्रनं मन्य है जिसमें प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष और भाग नाम बार अयाय है। माणिकचन्द्र-जैन-मन्थमाला में प्रकाशित हो चुका है।
__अध्यात्माएक-यह भी एक छोटा सा आठ पत्यका प्रन्य है और माणिकयन्द्र-मन्धमालामें प्रकाशित हो चुका है। पर यह निषपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इसके कत्ता ये हो वादिराज है।
त्रैलोक्यदीपिका नाम का अन्ध भी धादिराज सूस्किा होना हालिये जिसका संकेत ऊपर टिप्पणी में उन्धत किये हुा. 'लोक्पदीपिका वर्मा आदि पद में मिलता है। स्व. सेमाणिकञ्चनजी ने अपने यहां के ग्रन्थ-संग्रह की प्रशस्तियों का जो रजिस्टर बनाया था उसे सलूम होता है कि उक संग्रह में 'बैलोक्यदीपिका' नाम का एक अपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें आदि दस और अम्त के ५८ दैन से भाने के पत्र नहीं है। सम्भव है, यह धादिराजसूरेि की हो रचना हो। इसे करणानुयोग का ग्रन्थ लिखा है।
হয়নাগুলি কী শা
श्रीगसारस्वतण्यतीर्थनित्याक्याहामलवुडिसश्वैः । प्रसिद्धपाणी मुनिपुणवेन्द्रः श्रीनन्दिसंघोऽस्ति नियहितां ॥ समिसभूतसंयमधीस्विद्यविद्याधरमीत कीर्तिः । सूरिः स्वयं सिंहपुरैकमुख्यः श्रीपालदेवो नयवर्मशाली ॥२॥ तस्याभवतव्यसरी रुहाणां तमोक्हो नित्यमष्ठोदयश्री। जिपंधदुर्भागनयप्रभाषः शिष्योसमः श्रीमसिसागराण्यः ॥३॥ तत्पादनभ्रतरण भूना निश्रेयसौरविलोलपेन। श्रीवादराजेन कथा निबद्धा जैनी स्वबुद्धेयमनिर्दयापि
शाकान्द गवाधिरन्ध्रगणने संवत्सरे कोधने मासे कार्तिकमामिन बुद्धिमहिते शुद्ध तृतीयादिने । सिंह पति जयादि वसुमती जैनी कथेयं मया निष्पत्ति गमिता सती भवतु वः कल्याणप्तिपत्तये ॥५॥ लक्ष्मीचासे वसतिकटके कगातीरभको कामापातिप्रमवसुभरे सिंहमकेश्वरस्य । निष्पन्नोऽयं नवरससुधास्यन्दसिन्धुप्रबन्धो जीयाच्चैर्जिनपतिभधग्रक्रमकान्तपुण्यः ॥६॥ अभ्यश्रीजिनदेवजम्मविभरम्यारर्णमाहारिणः श्रोता या प्रसरत्यमोदसुभगो व्यारानकारो च यः । सोऽयं मुक्तिबधूनिसर्गसुभगो जायेत किं कशः सर्गातेऽप्युपयाति वाळायलसलुक्ष्मीपदश्रीपदम् ॥
सातमिदं पार्श्वनायचरितम् ।
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न्यायविनिश्चयविवरण
#ভিধৰিঘৰত ঋী মন श्रीमन्यायविनिश्चयस्सनुभृतां चेतोगुनिलः सम्मा प्रतियोधयापि च तान्ति श्रेयसापणम् । येमायं जगदेकवासलधिया लोकोसरं निर्मितो देवस्ताकिलोकमतकमणिभूयारस वः श्रेयसे ३३१३३ विद्यानन्दमनन्तवीर्यसुसद श्रीपूज्यपाद दया-- पालं सन्मतिसागरं कनकसेनाध्यमभ्युद्यमी। शुद्धधन्नीसिनरेन्द्रसेनमकलंकवादिय सदा, श्रीरलवामिसमन्तभद्मनुले बन्दे जिनेन्द्र मुत्रा २॥ भूयो भेदनयावयाइगहनं देवस्य यद्वाजय कतद्विस्तरतो विविच्य वनितुं मन्दप्रभुमशः। स्थूलः कोऽपि नयस्तदुक्तिरियो व्यक्तीकृतोऽयं मया स्थेयाम्चेतसि धीमता मतिमलरक्षालनकक्षमः ॥३॥ व्याख्यानरत्नमाले प्रस्फुरनपदीधितिः। क्रियता हदि विदिस्तुरती मानसं तमः ॥४॥ श्रीमरिसहमहीप: परिपाद प्रख्यातवादोशतिस्तन्यायतमोपहोदयगिरिः सारस्यतः श्रीनिनिः। शिष्यः श्रीमतिसागरस्य विदुर्ग परयुस्तपाश्रीभुतां भ:सिहपुरेश्वरो विजयते स्थाहादविद्यापतिः ॥५॥
इति स्याद्वादविद्यापतिविरचितम्या न्यायचिनिश्चयतात्पर्याचद्योसिम्या
व्याख्यानरमाया तृतीयः प्रायः समाप्तः।
इस तरह अन्य और प्रकार के सम्बन्ध में ऋछ खास तारुण्य मुद्दों का निर्देश करके इस प्रस्तावना को यहीं समझ किया जाता है। लहू की जगन्याय को देन, अलङ्क का समय तया म्यायविनिश्यप्रिवरण के अनुमान और प्रवचन प्रस्ताव का विषर-परिचय इसी प्रन्थ के द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना में रचित होंगे।
भारतीय ज्ञानपीठ भी।
मार्गशीर्ष कृष्ण ३. वीर सं० २४७५
-~-महेन्द्रकुमार जैन
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विषयसूची
५२-१८
पिपरणकर्तुमहल
संशयान-आदर्शमुखज्ञानदाताभ्यां अन्वयमङ्गलभायोजनप्रतिपादनम्
| व्यतिरेकवास्तुविषयत्वप्रतिपादनम् मूलग्रन्थकृतो मङ्गलम्
विसम्पत्वस्य विविधमुखेन खण्डनम् १३२ भगवसी शान न स्वाभविश्यम् अपितु देनरे- 'पारदसंसर्ग शून्यन्य विकल्पकरवम् अस्मिन् पादेयतत्त्वविषयमेघौत दौडूमतस्प निरा
पक्ष अप्रमाणप्रमेयस्वदोषः करणम्
२-२ | म योजना पारमार्थिकीति प्रज्ञाकरमतस्य न्यायविनिश्चयकरणहेतुप्रतिपादनार्थ
समालोचनम् द्वितीयकारिका
२७ मधूलाकारस्थ असता प्रतिभासः मपि तु स्वत एप वेदस्य अप्रतिवादस्वमिशि मामा
परमार्थसतो बहिरर्भस्य . . सामसस्य प्रत्याख्यानम्
२८-३२ | क्रमण परापरफ्यायातिप्वगभावसभावस्य संवेदनाहतस्य आसोचनम्
अय्यस्त्र प्रलिभासनम् शून्यावपराकरणम्
४. प्रत्यक्षेत्र गुणव्यतिरिक्तस्य दृष्यस्य साक्षवचसामधवसिपायकवसमर्थमम्
कारः अपितु जालान्तरस्थ आदिवाक्यप्रयोगनविचार
गतिरिक्तस्य तथ्यस्य साक्षारकार इति प्रत्यक्षलक्षणनिरूपणभरा
योगमतस्प निरास: तृतीयशरिका
५७न प्रत्यक्षे शमविशरारुपर्यायप्तिमासा करणम्वरूपविमर्श
? स्वसंवेदनप्रत्यक्षषिधेचनम् कारकसाकस्य प्रमाणत्वनिषेधः
| परोक्षभानपावनिरासः अर्धपदेन शुक्तिकारजतज्ञानस्य ग्यबादः ६. स्वसंवेदनमपि व्यवसायस्वभावमेव न तु स्मृतिमा निराकरणम्
७. निर्विकल्पफम् विचारः प्रमाणन त्यादि विचार:
अर्थज्ञान स्वसंवेदनात्मकमिति समर्थनम् . २. ज्ञानस्य स्वसंवेदनलिखिः
सुखादयः स्वसंविदिता एवं साक्षादिम्लरिणः । २.. प्रषास्थ लक्षणम्
सुखादेप्रत्यक्षरदे भोगानुपपत्तिः स्परत्वस्य निवेचनम्
बुद्धर प्रत्यक्षत्वे सत्स्वरूपसिद्धिपि दुरंभा २.०८ 'सन्निहितारिदात स्पष्ट प्रत्यक्षम्' इत्यत्र शामान्सरवेयज्ञानवादिनी नैयापिकस्य मतसनिहितस्वस्थ विचारः
विदलनम्
21. भवैशधविधारः
| स्वात्मविनोधकवाभावेऽपि ानस्प परबोधप्रत्यक्षस्य वैविध्यप्रतिवादनम्
त्वमिमि भासघंझीयमतस्त्रन्दनम् २१५ বুঝিঙ্গলে ।
. स्वारगरन क्रियाविरोधात जानं स्वप्रकाशमणिप्रभामनिज्ञानस्य न प्रत्यक्षनवम् १. कमिति पक्षस्य मिराकरणम् भनिन्द्रियप्रत्यक्षस्वरूपनिराकरणम् 111सत्यस्तोनिरासः सोण्यकल्पितज्ञानस्वरूपनिरासः १३ श्यरस्य भान यमायुपगसारम् , नदधातिएकसिमपि प्रमेये प्रमाणसम्प्लनसमर्थनपरा: रेण या सर्वझवन् , अनित्यत्वे सति चतुर्थकारिका
इत्ति धा हनुविशेषणं देवमिति भाससामान्यविधीयदृष्टान्तन प्रत्यक्षस्य यावृत्त्या
वंशमननिराकरणम्
२२२ सुगमात्मकानिबावकत्वसमर्थनम्
साकारज्ञाने अपि न पतिकर्मण्यवस्था
२०.
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२९०
d
धम् अचेतनमानदादिनः सांध्यस्थ अभिशा विवाहापादस्य नियः
३८३ फरणम्
२२९ | भत्तपाये कथं सुगतस्यापि पृषक सरगम विन्ध्यवास्यमिमतभोगस्यरूपस्म निससः २३ः | पुनरपि विज्ञामवादनिरासः स्वयं धिस्तित्वेऽपि ज्ञानरूप न यहि विषयत्व- क्षणिकपरमाशुरूपनाहगाईस्प गानाविकल्प मिति शोचावारस्य मत्तनिरसनम्, मा
निराकरणम् कारदादरामा
२४० | न निस्पमिरेशकादविमोऽपि प्रत्यक्षविषपापम् ०९ मानस्य प्रतिकर्मव्यवस्था प्रकाशनियमोक्षा
इयत्ययलिङ्गस्य समापस्य निराकरणम् ४२० योग्यतात एव म प्रतिबिम्बलः २६३ पुनरपि प्रसमसो नित्यनिरंभीकानयाधमो प्रसङ्गतो निशानवादनिरासः
२६८ __ मिरासः
५२३ ज्ञानस्य तदाकारम्बनिराकरणम्
देव्यस्थ गुणपर्ययवश्वशक्षणसमर्थनन् . ४२८ निराकारमय ज्ञानं शक्तिप्रनिमिषमात प्रतिनियतार्थपरिस्टकम्
गणपद्वध्यम्' इति दृश्यस्य लमणान्तर
नियणम् 'अभेद व नावं न भेदः, भेदस्य जलचन्द्र
द्रुध्यस्थ उत्पादम्ययायात्मकत्वसमर्थनम् ४१० बन कारम्पनिकत्वालइमि मण्डनस्य मम
कुण्डलाविपु सर्पदिति रान्से उत्पादादि
यात्मफरषप्रतिपादनम् . ४४५ सवादपालोचनम् विभ्रमवादमिराम
४४६ | अपात्मके वस्तुनि अटोकदोषाणामुबारः
३.९ स्वांशमानावलम्मिभिः विकल्पर्म पर्वतादि
अस्त्र सामान्यविशेशस्यत्वसमर्थनम् ४५० व्यवस्था
प्रसामो ब्रह्मवादस्य विस्तरतो निराकरणम् विमान बहिरविषयरधसमर्थनम्
सदभावः परिणाम इति परिणामलक्षणासमारोपण्यवच्लेदोऽपि न साध्यः सविकल्पर्कः ३३३ ।
नुगमनप्रदर्शनम् गुनरपि विकल्पाना यहिरविषयत्वालमर्थनम ३३ प्रसनतः सायाभिसतप्रधानस्वरूपस्य विनतराकारमघरमवत् मानेकाम्न
समालोचनम् समर्थनम्
३४१ । पुनरपि यतः उत्पारम्पयधाग्यात्मकनविज्ञप्तिमाघ्रथानिरासः
निरूपमा भेदस्थ वस्तुधर्मस्वसमर्थनम्
प्रसतो निरनिरंकनाझणत्वमासिनिरासः मुहिसादाबपि झानसजायनिरूपणम्
वैशेषिकाभिसनिकालेका गतसामान्धआरमनानात्वसमधमम्
३.५०
पदार्थनिरास: ग्राहाबादनिरासा
३५१ अमेकाम्यात्मकस्य वस्सुन उपसंहारः पुपरपि संवेदनाद्वैतनिरासः, 'सहोपलम्भ- बौद्धाभिमनिर्विकल्पकप्रलक्षस्म निरासः ५२० मियभात्' इत्यादि हेतु मानप
सौगावाभिमतमानसनस्पक्षलक्षणस्य निससः निरंकारयविवादस्य निरकरणम्
धोत्तरोतागमसिदमावसभत्यक्ष निरासः ५३. तत्र भावतानावृतात-रकारसत्व-धकारल- स्वसंधेदनमत्यक्षलक्षणभसिविधामम् ५३१ ___स्वादिदोरापादनम्
सौगतोफयोगि प्रत्यक्षलक्षणखपठनम् भवयचिमि देशादियसिदोपनिरूपणम्
सायाभिमप्रत्यक्षलक्षणसमालोचनम् भारचियत्वस्य भनेरुविकल्पमिरा- नैयायिको प्रत्यक्षलक्षणमिरासः
५३५ करणम् ३७९ | अतोम्ब्रियमस्वक्षस्य लक्षणम्
५५५
२५०
५०५
2 -rror
.
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न्यायविनिश्चयविवरणम्
[ प्रत्यक्ष प्रस्तावः ]
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"श्रीमद्भट्टाकलास पातु पुल्या सरस्वती। ' अनेकान्तमरुन्मागें चन्द्रलेखायितं यया ॥"
-शुमचन्द्रः ।
"वादिराजमनु शान्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भन्यसहायः ॥"
--एकीमावस्तोत्रे।
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श्रीमद्देवविरचितः
न्यायविनिश्वयः
स्याद्वादविद्यापति श्रीमद्वादिराजाचायरश्चित-न्यायविनिश्वयविवरणसहितः
[ प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः ]
जगत्
कुर्वन् सर्वतन्नक्षणसखैर्विश्वं वधोरश्मिभिः । saraar भुवि भव्यलोकनलिनीषण्डेयखण्डश्रियम्,
श्रेयः शाश्वतमातनोतु भवतां देवो जिनाहपतिः ॥ १ ॥ चिस्तीर्णदुर्जय मयप्रबलान्धकार
दुर्योurvaf वस्तु हितावबम ।
व्यक्तीकृतं भवतु नः सुचिरं समन्तात्
सीमन्मच शुद्ध रत्नदीपैः ॥ २ ॥ गूढमर्थमैकलङ्कवाङ्प्रयागाथ भूमिनिहितं तदर्थिनाम् । व्यञ्जयत्यलमनन्तवीर्यधाग्दीपवर्तिरनिशं पदे पदे ॥ ३ ॥ यस्सारसलिलस्नपनेन सन्तः
erred tear विशोधयन्ति ।
न व गभीरमन्यैः
ani gray विसरतीर्थमुख्याः ॥ ४ ॥ प्रणिपत्य स्थिरभस्था गुरून् परानप्युदारबुद्धिगुणाम् । न्यायविनिश्रवयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ॥ ५ ॥ ference efferः सन्त्येव मार्गाः परे,
ते गम्भीरपदप्रयोगविषया मन्याः परं तादृशैः । tort मा खोचितपदम्यासक्रमचिन्त्यते
मार्गोऽयं सुकुमारवृतिकतया श्रीला माम्बेषिणाम् ॥ ६ ॥
१ समन्तभद्राचार्ययेति षचमविशेषणम्, पक्षे समन्तात् मकारति । २ शकाचार्यमेति वायविशेषणम् प कलरहितेति । ३ अनन्तवीर्थाचार्य सम्बन्धीति वा विशेषणम्, पक्षे अमन्तसामर्थ्याविशिष्टेति । ४यायविनिश्वयविवर णर्वादिराजस्य गुरोद वादिराजेन ।
Re
१५
२०
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न्यायधिनिश्चय विवरणे
अभ्यस्त एवं बदशोऽपि मयैष पन्या,
जानामि निर्गममनेकमनन्यदृश्यम् । तन्मामिहादरवशेन कृतप्रचार
__ के नाम दूषणशरैः परिपन्धयन्ति ॥ ७ ॥
अधवा, येषामस्ति गुणेषु सत्गृहमतिय वस्तुसारं विदुः
तेषामन पातः पाविष्टमसक्नु पर्ग गालि ! ये वस्तुव्यवसायशून्यमनसो दोषाभिदित्सापराः
विश्नन्तोऽपि हिसेन दोषकणिकामप्यत्र वक्तुं क्षमाः ॥ ८॥
१०
अपि प.
यस्य यमलमस्ति लोचनं वस्तुवेदि सुजनः स मद्यति ।
मत्सरेण परमाते परो विद्यया तु परया न माते ॥ ९॥ . तदारता प्रस्तुसमुच्यतेजयति सकलविद्यादेवतारलपीठं
हृदयममुपलेप यस्य दीर्घ स देका । जयति दनु शास्त्र तस्य यत्सर्वमिथ्या
समयतिमिरघाति ज्योतिरेक नराणाम् ॥ १०॥ शालस्यादौ अद्भुतमहिमोदयाधिष्वानभगवदईत्परमेष्ठिनिरुपमगुणस्तवनं कुतः कुर्वन्ति. शास्त्रकारा इति चेत् । तस्य परममङ्गलत्वेन शास्त्रोपयोगित्वात् । भगवगुणस्तयनं खलु २० पैरमसङ्गलम् ; मलस्य पापस्य गालनात् , महस्य सुकृतविशेषस्य च कार्यस्वेन लाना । सत्ति
पतकृते मलाभावे सुकृतविशे च शास्त्र निर्विघ्नपारगमनं वीरपुरुषमायुधमरपुरुषं च भवतीति मलहरण-सुकृतविशेषकरणाभ्यामुपपन्नं शास्त्रोपयोगित्वं मालस्य । संघाचारपरिपालनमपि मङ्गलस्य प्रयोजनमिति चेत् । न तस्य शालोपयोगित्वाभावात् । अक्ततत्परिपालनस्याधोत्पत्तेः
शानमेव विहन्यात इति धेन् । अधर्मनिवारणादेव तर्हि तस्य सदुपयोगित्वम् , तई मालादेव २५ सिद्धमिति किं तदर्थे, सस्परिपालनेन ?
फ्यैव ब०,०, सा, अर०। २ पमते ब०, परिमयते प० । परः दुर्जनः परं केवलं मत्सरेण अद्यते व्याकुतीक्रियते इत्यर्थः । ३ -पूति-म०, स.। ४ सुलगा-"महना बहुभयगय पाणावरणाविवाभावमलमेवा। ताई गालेह पुस्जदो तवी मंगवं भणिन्द ।। अहरा मंग सोक्ख लादि हुण्हेदि मंगलं तम्हार एदेश कज्वसिद्धि मंगल गायोदि पथकतारी सिसय मा ५। ५-२ था-सा । । “मलादीनि हि सामाणि प्रयन्ते पौरपुरुषाणि च भवन्त्यायुष्मत्पुरुषाणि" -मा. म.१11111कुशय अभि. २८ सदाचारपरिपालनस्य शालोपयोमित्वम् । १ अधर्मनिवारणाच। तदर्थे सन परि--१०,०, सर, मा ! अधर्मनिधार मान।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
मङ्गलादेच यस्सिद्धमधर्मप्रतिरोधनम् । सर्थ न सदाचारपरिपालनमर्थवन् ॥११॥ न ऐकेन कृत कार्य हेतावन्यन्त्र सस्यहम् । सिद्धस्य निरोक्षवादनवस्थितिरन्यथा ॥१२॥ सिद्धे पापप्रतियंसे सदाचारभुपालनात् । मालस्यैव चेयय किन स्यादित्यसम्मतम् ॥१३॥ संपभावे संदाचारपालनत्याप्यसम्भवात् । उत्प्रयोजनभावेन तस्येष्टत्वात् स्वयं परः ॥१५॥ नास्तिकत्वसमाधान मनलादिति चेत् । ततः । कः शास्त्रस्योपयोगः स्यात् ? आइयत्वं भवेदिः ॥१५॥ भादेयं युक्तिसामर्यायुफ्त्यर्थं यदि तद् भवेत् ।
गापितकालनि धेऽपि नादेयं तद्युक्तिकम् ॥१६॥
शासनिर्वहणानामपि सवापारपरिपालनादिक मङ्गलस्य प्रयोजनमुक्तं तस्यापि ततः सम्भवात् । न हि शास्त्रानमेव तत्प्रयोजन वक्तव्यमिति नियमः सम्भवसोऽन्य (-अति, अन्य-) स्थापि बचने पोषाभावादिति चेत् । न ; अग्रस्तुताभिधानस्यैव घोषस्यात् । अपि च,
सदाचाराभिरक्षादि यद्वन्मलतो मतम् । निर्विषीकरणाचन्यत्तद्वदाम्नायसे न किम् ॥१७॥ सप्तस्तदपि यकव्यं शास्त्रादौ सत्प्रयोजनम् । परी प्रयोजनेयत्ता कथमेषं नियम्यते ? ॥१८॥ स्तुतिप्रयोजन सुस्माद्वक्तव्यं प्रसुतोचितम् । अतिप्रसासम्बद्धप्रवादी भक्तोऽन्यथा ॥१५॥ सदसरायविध्यससुकृतोत्पादनात्मना । विदुः शास्त्रोपयोगित्वं गङ्गलस्य मनीषिणः ॥२०॥
स्थात्मतम्- निर्विघ्ननिर्बणादिकं न मलान सत्यपि तस्मिन् कंचित्तदभावात , २५ असत्यपि "कचित्तापात् । न हि यस्य "भाषेऽपि यन्न भवति अभावेऽपि भवति तत्तस्य कार्यम् , अन्वयव्यतिरेकानुविधानाधीनत्वाद्धेतुहेतुमद्रायस्य, अन्यथा कुम्भादेरपि कुविन्दादि
मलाभाये। २ सदाचार । ३. मन्नलस्य । ५ मुलना-"परमारमानुध्यानाद् अन्धकारस्य नास्तिक , तापरिहारसिद्धिः तद्दनस्यास्तिरावरणीयररेम सर्वत्र च्यात्युपपत्तेसदाचान ससिद्धिनिबन्धननित्यपरे, पदप्यारम् । धेयोमार्गसमर्थनादेव रचनास्तिकतापरिहार भटनात् ।" -स० श्लो पृ० ।। ५ नास्तिकनपरिहारात् । ६ सम्मम् । • साक्षानमालप्रयोजनस्य सदाचारपरिपालनादेः । ८ निर्विप्नीक-०। ९ अदमनाचार्यकृतकिरपावल्यादौ । १. चार्वाकप्रन्थेषु । ११ भावे यन्न ५०
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ध्यायविनिश्चयविवरण
फार्यत्वप्रसङ्गादिति ; तदसन् ; समस्यैव हेतुत्वान् । असमयस्य व्यभिचारेऽपि दोपाभावात् , अन्यथा न पावकस्यापि धूमहेतुस्वम् , आन्धनादिविकलर धूमञ्यभिचारात् । तस्मान्
आईन्धनादिसहकारिसमानताया
यद्वत्करोति नियमादिद्द धूमग्निः । वद्विशुद्धयातिशयादिसमप्रतायां
निविघ्ननादि लिलधानि जिनसतोऽपि ॥२१॥ नाप्यसति तस्मिन् वैद्भाव ; तस्य निबद्धस्याऽभावेऽध्यनिश्रद्धस्य तस्य परमगुरुगुणानुस्मरणात्मनो मजालस्यावश्यम्भावात् , तदस्तित्वस्य च संस्कार्यादेवानुमानार घूमादेः प्रदेशादि
ध्यवहितपावकानुमानयत् । मङ्गलसाविकल्यस्य च चित्कार्यस्य वैकल्यादेवानुमानात १० धूमाभावात्तदुत्पादनसमर्थदहनाभावानुमानषत् । यदि परमगुरुगुगामुस्मरणमपि मङ्गल सहि
तत एव समाहितसिद्धः किमन्येन वाधिकेन कायिकेन वा ? ससोऽपि तस्यान्सरजसहितस्यैव सममत्वात् अन्तरङ्गस्य तु केवलस्यापि माङ्गलिकप्रयोजनसमर्थत्वादिति चेत् ; इदमनुमतमेवास्माकम् , "आभ्यन्तरं केवलमप्यल ते" [हस्थ ० श्लो० ५९ ] इत्याम्नायान् । म प तानसा बाचिकाईयध्यम् ; सस्य सामग्थन्तरत्वात् । एकस्मिन् कार्ये किं सामप्यन्तरेणेति येन् ? न ; पहनकार्ये काष्टादिषन्मण्यावेरपि सामध्यन्तरस्योफ्लम्भात् । अन्यदेव दहनकार्य मण्यादेयत्कायादेर्न भवतीति चेत् ; मनाउकार्यमध्यन्यदेव परमगुरुगुणानुस्मरणाम् याचिका भवतीति समानभुत्पश्यामः । येवं भगवगुणस्तवनादियन् मिथ्यातीर्थकरगुणस्तवनादिकमपि सामध्यतरं भवेत् ततोऽपि मङ्गलकार्योपलम्भादिति चेत् ; कस्तद्गुणो नाम ? यदि सर्वज्ञपरम
वीतरामस्वादिः । स ताई भगवद्गुण एव, “तदपरस्य तद्गुणत्वं नास्तीति यथास्थानं निवेदनात् । १० अतः सर्वत्र तद्गुणस्तवनमेष मङ्गलं तस एय तत्प्रयोजनभाषानापरम् ।
किं पुनस्तत् ? इत्यत्राह
प्रसिद्धाशेषतत्त्वार्थप्रतिबुद्धैकमूर्तये ।
नमः श्रीवर्धमानाय भव्याम्बुरुह भानवे ॥ १।१ मस्यायमर्थ:-"श्रीवर्धमाना यस्माद्विनेयान स श्रीवर्तमानो भगवत समूहस्तस्मै 'नमस्क२५ रोमि' इत्युपस्कारः। ननु यदि श्रीवर्धमानाय' इत्युक्तेऽपि सर्वेषामेव भगवता प्रति
पतिस्ताहि 'श्रीजिननाथाय' इति वक्तव्यम् , एवं दि लम्धी प्रतिपत्तिः अस्य सामान्यकाचित्वात्
।
निर्विघ्ननिर्वहनाघिसद्भावः । २ निवस्व मावेष्यनिषसस्य तस्याभावैषि परम-१०, का अन्धाभूतस्य । ३-स्य तस्याभावेषि परम सं० । प्रधामन्तर्गतस्य मनोवाकायापाररूपस्यमालकार्वात विविप्नपरिसमाप्स्यादेव। ५ असमाप्रथादौ । वाधिकस्य कायिकस्य दा। परमगुरुगुणस्मरणास्मकस्य । ८ अन्तरवस्य केवलस्य मालिक प्रयोजनसमर्थले । ९ वदैवं ब०, ५०, आ. १. सर्वज्ञवीतरामस्वातिशिसस्य । 11 श्रीवर्धमाना अस्मादिगामा सहश्री मा०,०,०।
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प्रथम प्रस्थक्षप्रस्ताव छन्दसोऽप्यनुपहलवान , श्रीवर्धमानसदस्य तु भगवति पत्रिमतीर्थकर एव ढस्वात् ततो सटिसि तस्यैव प्रतीसिन सर्वेषाम् । भवतु वस्येवाय स्वतः प्रधानत्वात् , तदुपदिष्टमिवानीन्तन. मिएं खलु धर्मतीर्थम् , अतश्च शासकारस्य निःश्रेयसमार्गसिर्णय इत्युपकार प्रति प्रयासमात्न
प्रधानत्वात् स पद स्तोतभ्यो न सर्वेऽपीति चेत् ; न.; सर्वेषामपि स्तुतिविषयबुद्धिपरिगृही५ तानामिदानीमेव पापमपायोपकारित्वेन प्रस्यासनस्वाविशेषात् सवपाये निःश्रेयसमार्गनिर्णय
"त्याच्याश्यम्भावात् , कथं वा "वन्दित्वा परमहतो समुदयम्" [ अष्टश० ० २] इति शानान्तरे सर्वेषामपि स्तमनमुपरचितम् ? कचिस्सर्वेषामपि प्राधान्यं क्वचिस्पश्चिमस्यैव विवक्षास इति चेत् ; स्वेच्छापरवशास्तईि शासकारो न गुणपरवश इति यत्किश्चिदेतत् । व्युत्पत्तिवान्
अंत पर सर्वप्रतिपत्तौ प्रतिपत्तिगौरवमिति खेन । न ; कोद्यसमाधानार्थत्वात् एवंषघनस्य । १० भवति छत्र पोयम्
कुतः स्तवस्य सामध्ये तारशं यत्करोत्ययम् । निर्विरसादिकं कार्य समर्थ हि कारणम् ॥२२॥ स्वकारणवलात्तस्य यदि शक्तिभवेदियम् । श्रीवर्द्धमानस्तस्थासी विषयः किमुवीयते॥२३॥ स्तुतिनिर्विषया नास्तीत्ययं तद्विपमा केवः।
इति चेम्नियमा कस्मात् १ था" कश्चन विधीयताम् ॥२४॥ अत्रेदमाह--'श्रीव मानाय' इति । श्रीमङ्गलस्य महापाहरणादिशक्तिरेव मालाथि. मिरभिलषितत्वात् तलक्षणत्याच श्रियः, मा वर्धमामा वृद्धि "ब्रजम्धी यस्मासी श्रीवर्द्धमानो भगवत्समूह इति । सः
प्रसिपसेर्गुरुत्येपि कृस्वा पानिमीलनम् ।
कुता श्रीवर्द्धसानोकिरस्यार्थस्य प्रसिद्धये ॥२५॥ स्यान्मतान्न भामतः साभिप्रायास् मङ्गलस्य तहसक्तिः सर्वोपेक्षापरस्यात् , न रापेक्षापरत्व इदमित्य करोमि इत्यभिप्रायः सम्भवति, "उपेक्षापरबहाने । अपि निरभिप्रायात् ।
निरभिप्रायप्रवृरदर्शनादिति । तत्र ; पश्नविकासकरणे "भानोनिरभिप्रायस्यापि प्रतिदर्शनात २५ सितोहि कारणस्य कारणत्वं नाभिप्रायात् ।
अभिप्रायेण हेतुस्वे, भानुः पद्मविकासने ।
ने हेतु: स्याम् , सशक्तश्चेत् । भगवतस्तद्वदिष्यताम् ॥२६॥ एतदेवाइ-भिव्याम्बुरुहमान' इति । भन्य मशाल भक्तेमकलार्थत्वात् । तथा य पन्ति
मनुष्टुभः। २ महावीरे। ३ -घामव स्तु- 8 , ५०, स०। ४ -स्थावश्य-प०। ५ 'परमाईताम्' -अश। श्रीपर्धमावायेति पदादेय । - सवस्य । “ श्रीवर्धमानः । ९ कुत: श्रा, २०, ५० स०। १० वीर्यफरः । अन्धि य -आ०, २०, ५०,०1१३ उपेक्षापरवाहावेः बा ., . १०, स.। १३ तुलना-"तासाभापादेव प्रकापति भास्करी यया लोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकर एषम् "त. का.१०।
२०
meanine
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म्यागविनिश्चयविवरण "सत्तायां पङ्गले वृद्धी निवासे व्याप्तिकर्मणि।
गती चापि समाख्यातं पडथं भवसि विदुः ॥” इति । भन्यमेवाम्बुरहबदम्बुरुहं भगवदस्यर्चनाङ्गस्यासस्य भानुरिव भानुर्भगवान स्वास्तितस्वच्छक्तिविकासकारित्वात् ।
स्वभावत एव मङ्गलाय तेच्छक्तिः शब्दशस्तित्वात् अर्थप्रत्यायनशक्तिवदिति चेत् ; न; ५ स्वार्थप्रत्यायनशक्तरपि पुरुषायसत्वात् , निदर्शनस्य साध्यवैकल्यात् । न हि चक्षुरादिदेव स्वभावतः शब्दस्य स्वार्थावधोतमसामयम् असमितम्यापि प्रसङ्गवास् , 'उपान्यायवैयापत्तेः । समितस्येति घेत् । समयासदि तस्य तच्छक्तिर्न स्वभावात् धुरुपयशवर्तित्वाभावप्रसङ्गात् । अनुधावन्ति ५ पुरुपेच्छामपि शब्दाः पुरुषेण यथाकामं प्रसिद्धार्थादर्थान्तरेऽपि प्रयुज्यमानानां तेषां तदवोतनं प्रत्याभिनुस्यस्यैव प्ररिपदेन चैमुख्यस्य 1 स्वशतित एव तंत्रामि तदाभिमुख्य न सदिच्छार २० इति चेत् ; ; इच्छाविरहेऽपि तत्मसनात् । सत्यामेव तस्यां तेषां तच्छतिरिति चेत् । तत्कृतव नदि सा तेषामिति न शब्दस्य स्वार्थावबोधनशक्तिः स्वभावात् अपि तु समयात् , स च पुरुशादिति पुरुष्ायव तच्छक्तिः तदाह-- श्रीवर्द्धमानाय । श्रीशनस्यार्थ"प्रत्यायनशक्तिः बर्द्धमाना शिष्यपशिष्यपरम्परया वृद्धिं गच्छन्ती यस्मादिति व्युत्पत्तिः ।
कुतः पुनरत्यन्तकृतार्थत्वेन निरीहस्य भगवतः शब्दशक्तिकरणब्यापार इति चेत् ? १५ न; तथाविषयस्य स्वभावनियमस्य" भावात भानोः पदाधिकासनवत । "सदाह- भच्याम्बुसहभानवे । मिश्रेियसतत्कारणपर्यायेण भवन्तीति भव्याः सेवाम्बुरुहमिवाम्बुरुह प्रवचन सकलतत्यतिवेदनश्रीनिवासस्यात् , सस्य भानुरिव भानुभंगा , अनभिसन्धेरपि स्वभावत"लच्छक्तिविकासकारिस्वात् । मन्येयं प्रवचनमेव भगवत्कृतमुक्तं भवति शक्तिवद्वतारभेदात् , तथा चाप्रमाणमेव प्रवचन ग्राम, अभिसन्धाय प्रवृत्तित्वात् धालोन्मवादिवाक्यवदिति चेत् । अत्राह- 'प्रसिद्ध' इत्यादि । निःश्रेयसाथिमिय॑मानस्दादा अनम्राज्ञानशक्त्यादयो गुमशः, सस्वेन न "संवृत्या अर्थास्तस्वार्थाः, अशेप, अत्रिकलास्तत्त्वार्थास्तेषां प्रतियुद्धं प्रत्युद्वोधन प्रतिबन्धविगमे समुन्मालम् 'भाने क्तप्रत्ययविधाना' अशेषत स्वार्थप्रतिबुद्धम् , प्रसिद्धं प्रमाणनिश्चित तव तदशेषतस्वार्थप्रतियुद्धं च तत्सयोक्तम् , सैव एका प्रधानभूता खसतां प्रति अनन्यापेक्षवेनासाया वा मूर्तिः स्वभावो यस्य स सथोक्तस्तस्मा इति । अनन्तज्ञानशक्स्यादिप्रसिबोधप्रसिद्धता प्रमोश्च तत्स्वभावत्वं पश्चात दिध्यते ॥२७॥ अनन्तज्ञानसाम्राज्यप्रतिबाधे सति प्रभो । शासनं तविषितार्थ मप्रमाणं कुतो भवेत् । ॥२८॥
। मलापणादिशतिः । २ अहीलस सत्यापि । समयाथात-o,व०,५०, सासवान् । ४ शवदस्य । ५ यदि खभावात् शब्दस्य अर्थ प्रत्यायनशक्तिः स्वातहि पुरुषाचीनत्यं न स्मादिति भावः। अप्रसिजऽयपि । ७ पुरुषेच्छायाम्। ८ अप्रसिदार्थापोतदशतिः । ९ पुषेक कृतैद । १. प्रत्ययनश-आर, छ., . १०, स -शमावा०, प०१३ -तथाई आ०,२०,५०१ 12 अभिसन्देशोऽपि प., आ01 अमिप्रारपितस्यापि । 1४ प्रवाशक्ति। १५ कल्पमया ।
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प्रथमः प्रत्यक्षपस्तापः इदमन्यस् व्याख्यानम्- - श्री. देवागम-नभीयान-सुरपुष्पवृष्टि-हरिविधिलक्षणा निरतिशयपुण्यपरमवैराग्याविहृतवाल्वादिकरणसिस्वादिला ' वा वर्धमाना प्रतिदिवसमभिवृद्धिं वजन्ती यस्य भगवता समूहस्य सम्मसेर्वा तस्मै श्रीवर्द्धमानाय नमः। प्रसिद्धानि प्रमाणनिश्चितानि अशेषाण्यविकलानि सत्वानि जीवादीनि तान्येवार्थो विषयो यस्याः सा प्रसिद्धाशेषतत्त्वार्था, प्रतियुद्धा स्थावरणसम्बन्धनिद्राव्यपगमे सति प्रतिव्यक्त्युवा, एका ५ अविछिना असहाया वा मूर्तिनिदर्शनाविरूपा यस्य तस्मै 'प्रसिद्धाशेषतस्वार्थप्रतिबुद्धकमूर्तये' इति ।
"किमर्थमन्त्र प्रसिद्धग्रहणम् ? भगवतः सुमतादिभ्यो व्यवच्छेदार्थम् तेषां प्रसिद्धसत्त्वार्थाया गोधमूरभावात् प्रतिभासाद्वैतादेवद्वोधविषयस्थाप्रमाणत्वादिति चेत् ; उच्यतेप्रतिभासाद्वैतादिकं सत्त्वम्, अतवं वा ? तत्त्वमपि ज्ञातम् , अज्ञात वा ? यज्ञातम् ; १० कथं तस्वम्' इत्युक्ति ? ज्ञाते एष ठदुपपतेः। ज्ञातं चेत् । कथमप्रमापत्वम् । संस्य तस्वरूपसया क्षातत्वेन सरमाणत्वस्यैवोपपत्तेः । सातमप्यतस्वमेव तदिति चेत; तथाऽपि सस्थरइनवातत्त्वकियों भगवतस्तत्वविदो व्यपच्छेदात किं प्रसिद्धपदेन कर्तव्यम् ? पराभ्युपगमेन तत्त्वमेव तदिति चेत् ; सवाऽपि न प्रसिद्धपदमर्थवर प्रसिद्धतयाऽपि परेश तस्याभ्युपगमात् । अभ्युपगमनिवन्धना प्रसिद्धिरप्रसिद्धिरेवेति चेत., "तम्निबन्धनं तस्वमप्यतत्त्वमेवेति, १५ ध्ययं प्रसिद्धपदमिति चेस; न व्यर्थम; परोपन्यस्तस्य "साधनस्यासितोद्भावनार्थस्वास । अत्र हि परमतम्-“यस्तावदसर्वज्ञ एव सर्थझो भवति तस्य परोक्षार्थपरिझाने को हेतुः१ न खल्बीदृशं किमपि कारणमुपलक्षितं यदनुष्ठानात् सर्ववेदनं सम्भवति । पन्नतश्रादयस्तु प्रायशः सकलसमयसम्भविनः" [प्र. वार्तिकाल. ११२९] इति ; तत्रेदमुख्यतेप्रसिद्धः कारणामावः । प्रसिद्धपदसूक्तिस्य प्रमाणस्यैवाशेषतस्यगोचरस्य सर्वज्ञत्वनिमितत्वात २० किं पुनस्तादृशं प्रमाण छद्मस्थस्य सम्भषत्ति बाढम् , कथमन्यथा पट्नमाणकृवसर्वज्ञत्वाङ्गीकरण मीमांसकस्य १ तथाहि..
यदि प्रमाणमेकं न पटप्रमाणार्थगोचरम् ।
"यदि पद्भिः प्रमाणः स्यास' इत्यादि कथमुच्यते ? ॥२९॥
मोकेन प्रमाणेन प्रत्यक्षादिप्रमाणयटक सद्विषयं च समनुपसलयम् इदमनेनाय २५ जानाति' इत्यङ्गीकर्तुनई सि स्क्यमप्रतिपम्नस्थानीकारायोगात् । प्रतिपद्यत एक, परं नैफेन, फिन्तु षभिरेव प्रमाणैर्यथास्य "तानि तद्विषयांश्च पृथगेवावंगच्छतीति चेत; न ; प्रत्य
। प्रतिहत । २. 4-१०, ०।-मा -300 । ३ महावीरस्य पश्चिमतीर्थकरस्य । ३ "- । जीवावधसंवरनिरामोक्ष स्वरयम्"- सू. १५-पत्यशोधा आक., स. प. आदिशग्मेण अगन्तवीय-अनन्तसुखपरिमः । किमर्थ प्रसि-ता.1 प्रतिभासदेला १९ मुगादिभ्यः। 10 सार्थकम् ।
अभ्युपगर्मनिमम्यनम् । १२ साभानस्यासिसियो-१०, २०, मा। १३ मी० एलो. २०१५। १४ मीमांसकः । १५-प्रत्यक्षादिप्रमाणानि। १६१श्ययेन प्रमावश्कतद्विषवाणानुसन्धानाभाधे ।
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भ्शयनिधियरणे योपसलनाभाये षड्भिरेष नैन' इत्यपि कुमशक्यत्वात् । तथाहिन्न हि यस्यक प्रमाणं प्रमाणषटकतद्गोपरार्थविषयमस्ति, न च प्रत्यक्षाधीनि स्वविषयपरिच्छेदमात्रोपक्षीयानि अपरप्रमाणतविषयान्धपि स्म्स , तत्कश्चमसौं प्रमाणपटक तविपर्य का जानीयाश , नैवमुध्यते
"यदि षभिः प्रयाणैः स्थास्पर्वज्ञः केन वार्यते ।। इति । भवत्येवेवमुपसङ्कलन ५ प्रमाणं तु व भवति अपूर्वार्थत्वाभाराव , यथास्वं प्रमानिर्णीतस्यैव प्रत्याविप्रमाणतद्विषय
कलापस्य स्मरणेन सकलनात् अपूर्वार्थ च प्रमाण न हीतमाहीति चेत् । न; विषयिविषयसन्दोहस्य 'प्रागसिद्धः प्रत्यक्षादेरेकैकस्य "तस्सन्दोहाविषयत्वात , तस्सदोहाविषयं व सङ्कलनस्य गृहीतग्राहित्वं तसन्दोहासिद्धौ न सिरिति। ततस्तरसन्दोहे वदपूर्वार्थत्वाल, प्रमाणमिति कयमप्रमाणम् ? अपि च,
गृहीतममात् मानतदेयाकलनं यदि ।
मानं मानभेकत्वात्यभिज्ञा कथं भवेस..? ॥३०॥ पूर्वोत्तरावरोधाभ्यामेकत्वस्याग्रहो यदि ।
मानवेद्यसमूहोऽपि किमन्यस्यैष गोचर ? ॥३१॥
यथैव हि पूर्वोत्तरहानाभ्यां स्वकालनियतपर्यायमात्रपरिच्छेदिभ्यामेकत्वस्याग्रहणात् १५ अपूर्वार्थमे सत्यप्रत्यभिज्ञान तथैव प्रत्यक्षायवतमापरिच्छिन्नविषयिविषयसन्दोहगोचरनपि सङ्क
लनहानमपूर्वार्थमनुमन्तव्यम् । तत्र प्रमाणम् , इस्यस्ति दात सकलजीवादिविषयमप्यागमिक" सस्य प्रमाण यवनुष्ठानाम् सर्ववस्तुसाझाकरणं. भगवत इति न युक्तमेतत् - 'कारणाभाषासारित कस्यचित् सर्वशत्वम्' इति ।
स्थादाकूतम्- अस्ति मिरवशेषवस्तुविषयं सङ्कलनम् , तु न सफलविषयकप्रमाण२० सामात "तदभावात , अपि त्यात्मसामात् । आत्मा हि स्वपरप्रकाशादिरूपः परिस्फुरन्
सकलप्रमाणतद्वेधसन्दोह सकलयति, 'तैस्सामर्थ्यप्रयुक्त घेदं 'यदि' इत्यादिवचन नैकप्रमाणसायंश्युक्तम् ।
न यात्मनः प्रमाणत्वं प्रमातृत्वेन निश्चयात् । प्रमाणस्ये" हि तस्यापि प्रमाताऽन्या प्रकल्यताम् ॥ ३२ ॥ तस्यापि स्वफ्रकस्य प्रशणत्योपकल्पने। प्रमाताऽन्यः प्रकल्प्यः स्यदेष स्पाइनवस्थितिः ॥ ३३ ॥
।
..-माणेनि-२०१०,०:२ "सर्वशानुपलमयेऽमें प्रामाण्य स्मृतिरन्यश"मी-पो ] इत्युकत्वात् । ३ षिविषणिस-80०, २०,१०, सा. सलभारपूर्व केनापि शानेनामहणातू । ५ दिषयिविषयसमुदायाविषमल्दात् । तत्सन्देहावि-10, H०, मा०। ६ स्वतन हान । ७ प्रमाष्यम् । ८ स्मरणानुभवाभ्याम् । ५-विषयवियिस-८०, मा०, २०, स. १० शुतज्ञानात्मकम् । १ सकलविषयमा भावात् । । परिस्फुरस्तु स-सा I ५ सामसामध्य। -जवेन त-8० ।
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२१)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव म विना व प्रसातारं प्रमाणस्योपपन्नता । न हि कनिराशसं करणं यवलोक्यते ॥ ३४ ॥ समान सार्थ सारथम,
'प्रसिद्ध(द्वि:)सर्वतत्त्वानां प्रसिद्धेत्याविनोच्यते ।। ३५ ।। इतिः
सदसङ्गतम् ; यस्मादात्मन एव सर्वप्रमाणतवेद्यासन्दोहमालयतः स्वविषयाव्यभिधारे ५ प्रामाण्यात , तब्यभिवारे तदलात्सुनिश्चितस्य 'यदि' इत्यादिवचनस्यानुपपत्तेः । आत्मनः प्रामाण्ये प्रमामृत्यं न स्याविति चेत ; न; विरोधाभावात । विषयपरिच्छिन्ति प्रति स्वतन्यशक्रयपेक्षया प्रमातृत्वात् साधकतमशक्तश्पेक्षया च तस्यैव प्रमाणत्वान् , एकत्र च शक्तिनानात्वस्य 'आत्मनाऽनेकरूपेण' इत्यादिना निवेदनान । तन्न प्रमाणात् प्रमातुरन्तरत्वं प्रमितेरपि 'तस्य तत्प्रसङ्गात । न चैतत्पध्यं भवताम् , विषयप्रमितिवत् स्वामितेरपि तस्मादर्थान्तरत्वे १० स्वसंविदितात्मवादाभानप्रसङ्गात् । क्रियाकर्तस्वभावत्वमेकस्य शक्तिभेदप्रयुतम वि (क्तमवि) रुद्धमिति ने ; वहि “तत घव ककरणस्वभावत्वस्याप्याविरोधात नात्मनः प्रमाणत्ये प्रमानन्तरपरिकल्पनं यतोऽनवस्थानं भवेत् ।
तस्मादात्मैव सार्थक्दी स्याद्वादशासनात्। .
प्रमाणे भावना तस्य सर्वदर्शित्वमायहेत् ।। ३६ ।। सतः स्थित प्रसिद्धप्रहणं परसाधनस्यासिङ्कतोद्भावनार्थमिति ।
यत्पुनरिदं बौद्धस्त्र मतम्-भवतु किश्विाप्रमाणे यदभ्यासातस्यवशित्वं भगवतः तत्तु न सर्पविषयं तदसम्भवात् । न हि संसारिगस्तदस्ति ; सर्पस्य सर्वपर्शिवप्रसन्नात् । "सम्भवेऽपि तदभ्यासस्य वैफल्यात । कस्यचित्तदभ्यासमिबन्धनसकलादर्शनसाधने निःोय. सार्थिनां प्रयोजनामावाच्च । "ते खल सोपायहेयोपादेयगोचरमेव कस्यचिज्ञानमन्विच्छन्ति २० स्वयं सदाम्नाया , सोपायहेयोपादेयतस्वपरिक्षाने हेयस्य हानादुपादेयस्य चोपादानात निःश्रेयसायाश्या. पुरुषार्थपरिसमाप्तः, सकलार्थज्ञानं तु "कस्यचिदवस्करकुटीरकोटरान्तर्गतकीटकगणनादिगोचरं विद्यमानमपि नारमदादिभिरन्वेषणीयं पुरुषार्थोपयोगाभावात् । तदुक्तम्
"तस्मादनुष्ठेप्रगत" ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोययुज्यते ? ॥" [प्रमाणा० ११३३] इसि; २५
१ प्रतिवत्स-सा..२ आत्मप्रामाण्यवलात् । ३ न्यायवि. का. १११ प्रमातुः । ५ बर्यान्तरवासात् । ६ स्यप्रतीतेरपि आ०, ३०, स०, प० । " प्रमातुरात्मनः । ८ शक्तिभेदप्रयुकादेव कारमात् । ५ सकलपदार्थविषकप्रमाणासम्भवात् । १. सकलविषयकप्रमाणसम्मवे तु। १५ निःश्रेयसाधिनः। १२ "इयोपादेवतस्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमालमसाविष्टोन सस्य वेषकः । तस्मादेशतत्वस्य दुःखसत्वस्य साभ्युपायस्य समुदयसश्यान्धिसत्य उपादेयतस्वस्य निरोधसत्यस्य सामुपायस्क मार्गसत्यसहितस्य प्रमाणपरिशुद्धस्य से वेदकः ' स प्रमाणमिष्टो म तु सर्वस्य यस्य कस्यविदिकः । न खलु सकलानादार्यसत्स्चतुष्टयदेशमा अपि तु तपाइनरवान् शानुपदेष्ट तयैव च प्रामाण्यमिक्ष्यते ॥"-:. का. म. ११३। १३ कस्यथिदकरमरकु-ता० । विष्ठास्थानसमुत्पश्कीटसंष्याविषिषषम् । १४ संसारदुःसप्रशमोपायम् । १५ प्रमाणपुरुषस्य ।
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न्यायविमिश्श्यविवरणे
अत्रेदमुच्यते- किं तत्प्रमाणं यदभ्यासादनुष्ठेयवस्तुसाक्षारकरण तथागतस्य ? प्रत्यक्षमिति चेत् ; न; अनुष्टानधर्यप्रसङ्गात् । अनुष्ठान हि प्रमाणविषयसाक्षात्मरणार्थम् , प्रत्यक्षस्यैव च 'सत्साक्षारकरणरूपत्वे किं सदनुष्ठानेन ? न घाऽसाक्षात्करणरूपं प्रत्यक्षम्; अनुमानाद्यविशेषप्रसङ्गात् । साक्षात्करणतारतम्याददोष इति चेत्, पादाकूतम्-प्रत्यक्षमपि किञ्चिस्साक्षात्कारि तवन्यात् साक्षात्कारितरं तदन्या साक्षात्कारितममिति सातिशायनमेक, वन प्रथमाभ्यासाहितीयस्य तदभ्यासात्तृतीयस्य तदभ्यासादपि तत उत्कृष्टस्याध्यक्षस्य सम्भवानानुष्ठानवैयर्यदोष इति; तम; विषयविशेषाभावे प्रत्यक्षविशेषानुपपत्ते । तथा हि-न साक्षास्करणसारतम्बमभ्यक्षस्य स्वलक्षणविपयम् । तस्यैकरूपत्वात् । यदि "तस्य विशदविशदतरादिशानवेचं
नानारूपं भवेत्, भवेदपि तद्विषयमध्यक्षस्य साक्षास्करणतारतम्य फलयत् । न वैयम् , तस्य १. "निरंशत्लेन नानारूपस्वस्यासम्भयात् । सम्भवे वा प्रथमप्रत्यक्षत एव तथावभासनात
तदवस्थमनुष्ठानचयय॑म् , असमवप्रतिभासस्य स्वयमनभ्युपगमात् । "तस्मात् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः" [१० या० ३।४५ ] इति वचनान !
प्रत्यक्षस्य भिधा किं स्यादेकरूपे स्खलक्षणे ।। 'नानारूपं न तत्कस्मादायऽध्यक्षेऽवभासते १३७॥ यदनुष्ठानचेयस्य न स्यात् । नायवभासनम् । असमग्रस्य भावस्य सौगरनुमन्यते ॥३८॥ सम्न स्वलक्षणेयेप विझेपोऽध्यक्षगोचरः । 'अन्यत्र चेन ; तथाप्यस्य कैमर्थक्येन कल्पनम् १ ॥३९॥ तस्मस्वलक्षणं यस्मादिना तेनापि गृह्यते । "विशेषणोत्तरति नानुवानस्थ तरफलम् ॥४०॥
सन "प्रमाणे प्रत्यक्ष यदनुष्ठानासत्वदर्शिलम् । अनुमानमिति चेत् । न तस्य प्रतिबन्धग्रहणमन्तरेणासम्भवात् । तहणन न योपिप्रत्यक्षान् ; अस्मदादी उवभावान् । अस्मदादिप्रत्यक्षादेवेति चेत् ; तवष्यन्वयविषयम्; व्यतिरेकविषयं वा स्यात् १ अन्वयविषयमपि
अनयवस्तु । २ इदं बौद्धस्य कृतमभिप्रायः सात् । ३ "तन बदकिपासम सदेव वस्तु स्वलक्षणमिति ।"-प्रमाणसमस पू. ५। “यस्वार्थस्य समिधामासनिधाभ्यां ज्ञानप्रतिभासदः सत्वलक्षणम् । तदेव परमार्थसत् 1"-न्यायदि०11121 "स्वमसाधारण लक्षर्य तत्त्वं स्वलक्षणम्।"-न्यायवि० टी. पू. २२१ "सक्रियासमर्थ यस परमार्थसत् । अभ्यन् संवृतिमी ते स्वसामान्यलक्षणे" -प्र.वा. ३।३। एतन्मते स्पक्षण क्षणिकं हिरंशं परमाणुरूप च। स्वलक्षणस्य । ५ "एकस्वार्भस्वभावस्य प्रत्यक्षास्य सतः स्वयम् । कोऽन्यो म यो भागः स्याद्यः प्रमाणैः परीक्ष्यते ।।-सर्व एष यो निरंशवाद्भायरय । एकोहि अर्थात्मा निरंशः । स तायतू प्रत्यक्षोऽभ्युपगन्तब्धः।" - वा० स्व. टी. पृ. 101 सिधा म०, प., म. 1 ७ स्पलक्षष परमार्थत एकरूपम् , यदि नानारूपं स्यात् तथापि की समानारूप प्रथमप्रत्यक्ष एवं नायभासते ! यतः साक्षारक रमविशेषार्थ नियमाणमनुष्टानं घ्यर्थ न स्यात् । अपि नु स्मादेवेत. भावः ८ स्वलक्षणभिले। अध्यक्षगोचरविशेषस्थावलक्षणमिने कल्पितेच। 11श्माण-श्रा०प०,१०। ९भविनाभावसम्बन्धी
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Kanhan
श
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः सकलष्यक्तिविषयम् , प्रतिनियतव्यक्तिविषयं वा स्थात ? 'न सकलव्यक्तिगोचरम; ततः सर्वज्ञत्वापत्तेः । प्रतिनियतव्यक्तिमोचन चेत; तर्हि तद्वत्यैव प्रसिबन्धस्य तेन ग्रहण भवन निरखशेपव्यक्तिगतस्य । न हि या व्यक्तयो न तदोपरा तनिष्टस्य प्रतिबन्धस्यान्यस्य या धर्मस्य तेन प्रतिपत्तिः सम्भवति, "आधेचप्रतिपत्तेराधारप्रतिपत्तिमान्तरीयकत्वात् । एकत्र राहणमेवान्यप्रापि तहणमिति चेन् । अन्यत्र तदग्रहणमेकत्रापि तदग्रहणं किन्न स्यात् ? पकन्न तहणं ५ प्रत्यक्षत एवानुभूयत इति चेत् ; अन्यत्र तदग्रहणमपि तत एवानुभूयते 'वदन्यविषयपरामुखत्वेन तस्य स्वयमनुभवात् । "अत: "अन्यत्र साभ्याभावेऽपि साधनं सम्भाव्येष्ठ, "तयार कथमपूर्वधूमादिदर्शनात निश्चिता पावकादिप्रतिपचिर्भवेत् ? तन्न अन्वयविषयात्प्रत्यक्षात्प्रतिबन्धप्रतिपत्तिा। यतिरेक विषयादेवान्योपलम्भरूपादिति चेत्, "तस्पच साध्याभावप्रयुक्त साधनाभावनियमाधिकरणभावाभिमलकतिपयविपक्षगोचरत्वे स एष दोषः "तनिष्ठस्यैव तथाविधतदभाव - १० नियम तेन मम निरपापियोंच 15 हो यस्याविषय:- ततस्य कस्यचि
सदसस्वसिपत्ती समर्थ मेरुशिखरे मोदकसदसरवप्रसिपत्तिवत् । सकलविपक्षणहणे चोक्कम'तहसः सर्वज्ञस्वापत्तिः' इति । तथा च "दुःखसत्यस्य "अत्, अनित्यत्वे कदाचिदुपलभ्यस्यं दुःखत्वे हेतुपरवशत्वं शून्यत्वे चोत्यासमायमानिर्मितस्वम् अनात्मत्वे चानात्मकार्यकारित्वंसाधनमुक्त तत्साकल्यव्यतिरेकनिश्यविरहात विपश्शेपि संभाव्यमानं कथमुक्तसाथ्यप्रत्यायनसामर्यमुद्हेत् यतः १५ तुयकारस्य दुःखसत्यस्य निर्णयः स्यात् ! एवमन्यत्रापि । सन्न परस्यानुमान यदभ्यासादमुष्ठेयवस्तुलाक्षात्करणम् ।
स्थामतम-न सकल विपक्षग्रहणात् व्यतिरेकनिर्णयो येनार्य दोषः स्थान अपि तुसादात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धसामर्थ्यात् । तथा हि दुःखसत्यस्य कदाचिदुपलभ्यस्थमनित्यत्वस्वभावं तदभावेन भवत्येव । नित्यत्वे हि नित्योपलभ्यस्वभावस्यैव प्रसङ्गात् । तदुक्तमा २०
न तत्सक-१०।२ प्रतिबद्धस्य म०,मार,प,स.। १ स हि ता. अस्मादिप्रत्यक्षविषयाः । ५ वस्तुगतः सम्बन्धीडयो वा धर्मः। ६ प्रत्यक्षगोचरन्मक्तदै 1 प्रत्यक्षागोवरे यकी। 4 सदसहपमेबैकावि वग्रहमे आ०,०, प., स. 1 सम्बन्माप्रहण । ९ स्वविषयालिसिविषम्परामुखत्वेन । १. उतः प्रत्यक्ष प्रसिनियतविषयम् अनः । तस्वगोबरध्यत्तर । १२ वानीचरभ्यतो सन्क्यव्यभिचारे खति । १३. विपक्षोपलभरूपातू । १४ विपक्षोपल मरूपस्य व्यतिरेकविषयक प्रत्यक्षस्य । १५ व्यतिरेकनियम । १६ कतिष विपक्षनिष्ठस्यैव सान्या मावश्युम्हसाचनमापतिरकनियमस्य 10 -मायानि -ताः । 14-यस्ततस्तन कस्य-सा । १९ सद शानम् सस्य स्वादिषमीभूतपदार्थनिष्ठस्य कस्यचित् धर्मस्य । २. दुःससश्वस्य आ-, , प., स०। २५ "दुःखं संसाविणाः स्कन्धाः"-40 वा. १४९ । 'यत् इस्यस्म साधनमित्यमेनादयः । २१ "दु:खस नित्यतो दुःखतः शून्यतोऽमारमराश्वेति चतुराकारमाख्यातुमाह-कदाचिदुपलम्भात् तदधुर्व दोषनिधयात् । दुःसंतुषसत्याच . म चारमा नावधिहितम, कदाचिदुपलम्भार दुःसमभुवम् अमियम्. दोषमिश्रवार समादिन्द्रोगप्रयेशीयस हेतुयशत्वाच सर्व पक्ष दुसमिति न्यायाद रखें तत् । न यात्माध्यम् अनामन REEविलक्षणत्वाम् , बाप्यधिभितम् अधिष्ठातरामनोऽभावात, अनेन सन्यत इत्याख्यातम् ।"-५० मा १११७०,७९ । २३ "तत्र दुःखसत्ये घरवार आकाराः। तपथा अनित्यती दुःखतः अभ्यतोऽनारमतइति ।"-धर्मस०प०२३१२४ "सच प्रतिबन्धः सध्येऽर्थे लिहस्व वस्तुतसादात्म्याप्त साध्यार्थासुत्पत्तेत्र "-ग्यायवि०१०४१1 दि.०० ५५ स्वभावहेती तादात्म्यसम्बन्धः, कार्यहतौ च तदुत्पतिसम्बन्धः। २५ दुःखसल्लस्वस्य श्रा०,२०,२०,०।२१ मनित्यत्वाभावे । २७नित्यत्वोपल-भा०प०,५०,०
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स्यायविनिश्चयविधरयो "न हि नित्यस्य नित्यमुपलभ्यस्वभावस्थ कदाचिदुपलम्भो युक्तः उपलभ्येतरस्वभावयोः परस्परपरिहारस्थितत्वेन विरोधात् , उपलभ्यत एंव सचेति (स इति) प्रतिपादनात् । न च "सर्वदा सर्वपलब्धुं शक्यं क्रमोपलभ्यस्यानित्यस्यात् । न च क्रम ऐकावे सम्भवति; क्रमरत एकस्यनाप्रतिभासनात् . प्रत्यक्षस्थाप्रवृत्तेः अनुमानस सदभावे अभावात् ५ प्रत्यक्षपूर्वकस्वादनुमानस्य, अनुमानपूर्वकरवे अन्धपरम्पराप्रसङ्गात् ।" [ प्र०वार्तिकाल. १।१७८ ] इति ।
एवमन्यत्रापि स्वभावहेती वक्तव्यम् । राम तरस्त्रमावस्यान्यस्यभायरषं तत्स्वभावस्यैवाभावप्रसङ्गात् । नाप्यमित्यहेतुकस्य दुःखसत्यस्य अहेतुकत्यं नित्यहेतुफत्वं पा सम्भाषयितुं शक्यम् ; अहेतुकत्ये नित्यत्वस्य नित्यहेतुकस्वे चानिवर्तनस्य प्रसङ्गात् कारणवैकल्याभावे कार्यनिवृत्तेरयोगात् । ततो निवर्तमान कार्य कारणस्य निवृत्तिमेष गमयति नानिवृत्तिम्, तत्र स्वयमप्यनिवृत्चत्वप्रसमात् । न शानिवृत्तिरुपमेव दुःखसत्यम्: "तस्य "कदापिदुपलभ्यत्वेनानित्यस्वस्थ साबनान् । सढुक्तम्
"अहेतोनित्यतैवाऽस्तु नित्यहेतो पायः कुत्तः । "हेतुवैकल्यमप्राप्य कथं भावो निवसते ? ॥ यस्थ हेतुकृत्तो भावस्त दभावान तद्भवेत् । "सदभावेऽपि भावश्चेदभावोऽस्य कुतो भवेत् ? ।। अनित्यहेतुको भाको हेत्वभावाभिवर्तते ।
"नित्यहेतोरभावोऽस्ति न हेलोन निवर्तते ॥"[प्रशार्तिकाल ० १३१३५] इति । पवमन्यत्रापि कार्यहेतौ यक्तव्यम् । तन्न तत्कार्यमहतुकमन्यहेतुक वा युक्तमितिः अत्रे२० वमुच्यते- यत् यत्स्वभाव यत्कार्य वा सर्वत्र सर्वदा सन् तत्स्वभावमेव नान्यस्वभावम् , तत्का
यमेव नाकार्य नान्यकार्य येति । 'महि' इत्यादिना 'अहेतोः' इत्यादिना चोच्यमानः करय पुनः प्रमाणस्यैतावान् व्यापारः १ प्रत्यक्षस्यैवेति चेत; न; तस्य सन्निहिते तात्कालिकमरतुमात्रगोचरतया निरवशेषसयक्षविपक्षाभिमतव्यक्तिनिकर निरीक्षणशक्तिविकलत्वेन इयतो व्यापारस्याऽसम्भ
वात् । प्रदेशतरताशात्म्यवकार्यत्वग्रहणमेव देशकालव्यापित्वेनापि रुद्हणमिति देत; ध्याहत२५ मेतर-यदि प्रदेशतस्तद्रहण कथं तव्यापित्वेन तहणम् ! तच्चेत्, कथं प्रदेशतस्तद्ब्रहणम् ?
'प्रदेशतश्च, सद्व्यापित्वेन ष' इसि स्पष्टो ध्याधातः । कथमन्यया स्तम्भस्यापि प्रदेशनियत त्वेन ग्रहणमेव "तब्यापित्येन ग्रहणं न स्यात् ? थत इदं सूक्तं स्यात्
कश्चिदु-मा०, २०, ५०, सः । २-हार स्थितिरदेन आ०, २०, ५०, १० । ३ इस सरोति "उपलभ्यतयैव स इति"-10 वार्तिकाह। सर्वथा आव०,५०,स। ५मित्यरवे। प्रत्यक्षाभाये। त्वादनुमानपून - 1 6 तुलना-'न आहेतुब वे नित्यहेतु करने का निवर्तनाय घ्यापारः सफला" - वार्तिकास १०.३५ । ५ यदि निवर्तमान कार्य कारणस्यानिति मयत दया कारणास्यानिवृत्तौ स्वयं कार्यस्यापि न निस्तिः स्यादिति भाषः । १० दुःखसल्यस्य । ११ कदाचिदप्युर-बा०,१०,५०, .। १२ हेतावकम्य- ०१३ हेखभावात् । ११ कप्तणाभाषेऽपि यदि कार्यसस्वं स्यात् सदा अस्य-कार्यस्य ममाः कुतः कारणात् स्याम् ! तर मतः निस्कारमहत्यार्यस्य अभादो नास्ति अब सहेतोर्न दिवसंत । १६ स्वॉपसंहारेण । १७ सकलदेशकालव्यापिलेन ।
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१९१९ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
"यो यत्रैव स वै यो यदैव तदैव सः । देशकालतिर्भावानामिह विद्यते ॥" [
१३
] इति ।
सत्र प्रत्यक्षस्यायं व्यापारः, तस्यान्चयविपयस्य व्यतिरेकपित्थ बेयतो व्यापारस्याgava | darfareपस्येति चेत् कः पुनरसो विकल्प ? अनुमानमेवेति चेत ; अनुमानाच व्याप्तिग्रहणम्, तदपि न सम्यक 'तेनैव तह परस्पराश्रयप्रसङ्गाम् । ५ अन् अनुमान पूर्यकत्वमनुमानस्योक्तं स्यात् । मयतु को दोष इति चेत्; किं "विमानमेव भवनं भवतैव विस्मृतम् 'अनुमानस्यानुमानपूर्वकत्वे अन्धपरम्पराप्रेसज्ञात्' इति १ अनुमानपूर्वकमेवानुमानं तथैव व्यवहारात न च व्यवहारो त्रिचारमर्हति तस्याविचारणीयत्वात् तद्विचारे सकलभेदव्यवहारविरहप्रसङ्गादिश्यपि न अन्धुरम अनित्याधनुमान वशिल्यावनुमानस्याप्यङ्गीकारप्रसङ्गात । नित्यादित्येनाहंयमाने दुःखसत्यादौ कथं १० धानुमानमिति चेत् ? स्यादेतदेव यदि दर्शनपूर्वकमनुमानं स्यात् न चैवम् तस्यानुमानपूर्वकत्वेनोपगमात् अन्धपरम्पराप्रसङ्गस्य चाविचारिसंरमणी कव्यवहारपद्धति मुग्धवारवनिताधारवश्येनैष निवारणात 1 व्यवहारादपि नित्याद्यनुमानमसिद्धमेव तत्र तस्यानुपयोंगाविति चेत्; न; व्यवहारे तस्यैवोपयोगात् प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिव्यवहारस्य नित्यत्वादिनिमित्तत्वेन व्यवहारिणां प्रसिद्धस्यात् । न हि निरंशश्रत्रिकादिरूपतया वस्तु किश्चिनिश्चितं विपश्चित १५ व्यवहारकारणम् । कथमन्यथा अभ्यासावस्थायां "प्रत्यक्षविषयतयाऽध्यारोपितं दृश्य प्राप्यैकत्वमेव यवहारका भव
"तो "भाव्यविषयं विषयान्तरगोचरम् । प्राणपध्यारोपेण' "व्यवहारावरोधकृत् ॥" [ प्र० वार्तिकाल० १११ |
इति ता निरूपितम् ? " तदनुमानाङ्गीकरणे च न दुःखसन्त्यस्यानित्यत्वं वन्नित्यत्वस्यानुमानेन २० साधनात् । नापि तस्यानात्माश्रितत्वम् अनुमानसिद्धगित्यादिरूपस्थात्मनः तदाश्रयत्वोपपत्तेः ।
५ प्रत्यक्षाविनः । २ प्रकृतानुमानेनेव स्वीयाहि । न्यप्तिप्रहणे सति अनुनायेस्थानम् सति चानुमान व्याप्तिग्रहणमिति । ४ द्वितीयानुमानेन प्रथमानुमानभित्र ५ पुनरिदानी ३० । ६ नित्यादित्वेन । - रमणीयकम-आ०, ब०, प०, स० । ८ सत्र व्यवहारे तस नित्यादिवस्तुनः । तस्मादुष-प० १०- हरेगा हारे-आ०, ब० स० १.१ "अन्यो हि दर्शनकालः अन्य प्रतिकालः, किन्तु यत्काणं परिच्छिन्नं तदेव तेन प्रापणीयम्। अमेदाध्यवसायाच सन्तानवतमेकरवं भ्यमिति ।" - स्याचि० डी० पृ० ७ । १२ वनविभूतः क्षणः दश्यः प्रत्यनन्तरं प्राप्तित्रिंपवीभूसः क्षणः प्राप्यः श्रद्वानां मते सर्वस्यात् श्रम्यत हाम् प्राप्यच अन्यत् स्यात् तच विसंवादात अप्रामा व्यवरविशदश्च प्राप्तः तत्परिहारार्थं तैः 'यद देव प्रम्' इति विभिन्न क्षमतसन्तानारण कम प्यारोपितमेकर स्वीयते । ततश्व शानप्रामाण्यं उपहारथ निबंदति । १३ प्राप्यपेक्षया । १४ दर्शन | पेचया अतीतगो परम् । १५ सन्तानात्मकत्वारोपेण । १६ “वहारापश्रेोषकृत्" ० वार्तिकाल० १७ नियायनुमान स्वीकारे । १८ यात्माधि-आ०, ब०, प०, स० । दुःसत्यस्य
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न्यायचिनिश्चयमियरमे
[ ११ कारणमे किश्चित्कस्यचिदाश्रयत्वेनाधिनायकम् अनुपकारिणस्तदयोगान् । न च नित्यस्यात्मनोऽभ्यस्य वा कारणत्या ? सत्कथं लेन दुःखसत्यस्याधिष्ठानम् ? तटुकम्-"नाकारणमधिष्ठाता नित्यं श कारणं कथम् ?" प्र. बा० १३१७९ ] इति चेत : ठसयते
नविदं कारणत्वं च संवृत्यैव न तस्यत्तः यदुक्तं कीसिनवेदं “संवृत्यास्तु यथा तथा" [प्र. पा० २१४ । ।। ४१ ॥ लोकाभिप्राय एवार्य संवृत्यर्थोऽपि नापरः । संघ नित्यस्य हेतुत्वमविवाद प्रकल्पयेत् ।। १२ ।। तत्रै बस्य सद्भावात् क्षणिकादौ विपर्ययात् । इति अपवतः पश्चायथास्थानं वविध्यते ॥ ४३ ।। हेतुत्वादेव दुःखस्य तेनारमा स्यादुपाश्रयः ।
तत्कथं दुःखलत्यस्य चतुराकारतोयसे ? ॥ ४४ 11
सतो मिराकृतनेतन्- "चतुराकारं "दुःख सत्यमनित्यतो दुःखतः "शून्यतोऽनात्मत" [प्र. वार्तिकाल ११७८ ] इति । तन्नायं "व्यानि विकल्पोऽनुमानास् ! मा
भूतथापि योग्यस्यैव साध्यमाधमाविनाभावसर्वस्कोचरः कश्चिदपर एवायं विकल्प इसि चेत् । १५ अस्ति तर्हि निरवशेषवस्तुविषयं भस्थस्यापि किकिचलप्रमाणमिति सदभ्यास एव सकलार्थ
दर्शनार्थिना कर्तव्यो न नियतविषयागुमानाभ्यास:, तदभ्यासे सकलार्थदर्शनासम्भवाम् । नाहि नियतविषयप्रमाणाभ्यासाद् अशेषविष दर्शनमुपपन्नम् अतिप्रसङ्गात् । तस्मादशेपदर्शनस्याशेषविषयमेव प्रमाणं कारणं नापरमिति प्रतिपादनार्थम् ' अशेपग्रहणम् ।
वनरेतत्-भवतु भगवदर्शनमशेषविषयम्, तथापि कि सस्य परीक्षया पुरुषार्थानुप२० योग्छन् ? यत्पुनस्तदर्शनं 'चतुरार्यसत्यगोचरं तदेव परीक्षितयं पुरुषार्थोपयोगित्वात् नापर
विषर्य विपर्ययादिति; तदमुच्यते- तत्सत्यव्यतिरिक्त "यदि किञ्चिलास्ति तहि तावदेव
अर्थ कियारहितस्य । २ नित्यस्य क्रमयोगपयाभ्यामर्थक्रियाविरहात्। ६ कल्पनध। । "इयमेव खल संतिरुच्यते येय विचार्गमाणः विहार्यते ।" "माणमन्तरेण प्रतीत्यमिमाममात्र संधिः" अनिरूपिततत्वा हि प्रतीति। संपतिर्मत " -प्रथातिकाल २४ । "संत्रियत आवियते स्वाभवपरिजानं स्वभावावरणादावृत्तप्रकाशनाचानौति संसिः । अविद्या मोहो विपर्यास हात पर्यायाः । अविद्या सत्पदार्थस्वरूपारोधिका स्वभावदर्शनावरणवामिका च सती संपतिरुपपद्यते । ममियोपदर्शितं च प्रतीतसमुत्पर्ण वस्तुरू संत्रतिरुच्यते । उदेव लोकसंपत्तिसत्यमित्यभिधीयते ।" -बोधिच०५० ० ३५२ । ५ लोकाभिप्रायात्मकः संवृत्यर्थः । ६ निस्य एष। ७ तस्यासदावा-आ०, २०, ५०, स.1 हेतुत्वस्य ८ येनारमा १० । क्तामा स नत्मा २० स० सेन नित्यस्य हेतुलमानेन। ९ धर्मसंग्रहप्रमागतालिकादौ निर्दिम् । पश्यतु पृ.११टि०३३० दुःखस्य सत्य-भाव,प०,५०स०१ शून्यवती-मा०, २०,२०,२० । १२ व्यासिविकल्पोऽनात्मा महा! १३ अल्पज्ञस्य । १४ तदैव प. सकलसाच्यसाधनगोचरच्यामिविकल्पाभ्यासः । १५ मियतविषयानुमानाभ्यासे । १६-र्शनाभावात् आ०,०,१०,५०1१७ प्रसिखायेषतस्वार्थत्वष । १४ तदशेषविषययस्य १९ सत्यान्युक्तानि चत्वारि दु: समुदयस्तपा । निरोधो मार्ग एतेषा यथाभितमय क्रमः ॥" अभिधर्मको बार धर्मसं० पृ०५१ २. यस्कि-आ०, २०, प.स.१२९ सस्थचतुष्टयपरिमितम् ।
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१११ }
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
जगति कथन तद्दर्शनस्योपविषयत्वम् ? कथं वा न पुरुपार्योपयोगित्वं यतस्तत्परीक्षणम्पेक्ष्यते ? न हि सर्वविपयस्यैवाऽसर्वविषयत्वं पुरुषार्थहेतोर्वा वदहेतुत्यमुपपन्नम् विरोधात् । ततः सत्यवयवेदित्येन कस्यचित्प्रामाण्यमभ्युपगच्छेन् अशेषैवेदित्वेनैव अभ्युपगच्छतीति व्याइतमेतत्
i
१५
"हेयोपादेयतस्यस्य सरभ्युपापस्य वेदकः ।
५
यः प्रमाणविशे न तु सर्वस्य वेदकः ॥ " [अ० वा० ११३४ ] इति । भवतु तर्हितुः सत्यव्यतिरिक्तं किमपि वैश्विषयं सुगतदर्शनमपुरुषार्थोपयोगीति चेत् ; कस्य न तत् पुरुषार्थोपयोगि सुगहस्य, विनेयानां वा ? [न] तावत्सुगतस्य; तस्य निरवशेषचतुःसत्य-तद्व्यतिरिक्त शिद्वयदर्शने तद्गतसत्त्वक्षणिकत्वादिसकलसाध्यसाधनधर्मव्याप्तिप्रतिपत्तौ सुनिश्रितस्य स्वार्थानुमानलक्षणस्य पुरुषार्थस्य सम्भवात् अन्यथा तदयोगात् । न हि १० व्याप्तिमनिरपेक्षस्य प्रादेशिक सहसापेक्षये वाऽनुमानस्य सम्भव:; अतिप्रसङ्गात्। अत एवोकमलङ्कारकारेण -
" सहभावस्तु यो व्यासौ न तस्मादनुमोदयः ।
Raftaar at सर्वत्रास्त्वनुमाऽथवा ॥" [० वा० ११४ ] इति
स्थान्मसम् न सुगमस्थानुमानमा पुरुषार्थो यतस्तदुपयोगित्वेनाशेपदर्शनस्य विचाराहुत्वम्, अपि तु "प्रत्यक्षादेव (भास्मैव ) " सस्य च न व्याप्तिग्रहणसापेक्षत्वं यतस्तत्राशेषदर्शनस्योपयोग इति तसारम् अनुमानस्यैव सर्वाकारगोचरस्थ सौगतप्रत्यक्षत्वेन परैरभ्युमगशान् । यस्मादुक्तम्
१५
"सर्वाकारानुमान" पदध्यक्षात्तन्न भियते ।
२०
नेन्द्रियेणापि संयोगस्ततोऽधिकविशेषकृत् ॥” [ १० वा० १।१३८ ] इति धनुमानमेव प्रत्यक्ष व 'प्रत्यक्षात् व्याप्तिप्रहणम्' इति 'अनुमानाद्रहणम्' इत्युक्तं भवति, न चैतन्न्याय्यम् सव एवानुमानात्तग्रहणे" परस्पराश्रयप्रसङ्गात्, अन्यतस्तद्रणे सत्राप्यन्यतस्तद्ब्रह्णमित्यनवस्थापत्तेः प्रस्तुतार्थप्रतिपत्त्यभावप्रसङ्गात् । उक्तञ्च प्रज्ञाकरे
९- विषमस्या सर्व-आ०, ब०, प०, स० । २ सरसत्य-आ०, ब०, प०, स० । २- छतीति आ०, ५०, प०, स० । * सवष्ठयतिरिक्तस्य जगतोऽभावात् सत्यचतुष्टय वेदश्वमेव असेदार्थत्वम् । ५० ९टि०१२ ६ यद्विषयासह -आ०, ५०, १०१७ अनुनायोगात् । ८ व्यक्तिविशेषेाि ग्रहणादॆश्वस्य । ९-स्यैवानु प०० प्रमाणवार्तिकालङ्कारकृता पाकर मेन “सहगावस्तयोन्यथा न प्र० वार्तिका १४ । ११ सहभावस्य । १२ यदि कादाचिसमायेनानुमानं स्यात् तदा वहिन्यपि धूमानुमानं स्यात् कादाचित्कसहभावस्थाविशेषात् १३ प्रत्यक्षा व भा०, ६०, स० प्रा० १३४ अक्षात्मकः गुरुषार्थस्य । १५ "स्खलु सर्वाकार पार्धस्वरूपवेदनं तदेवाश्यक्षम् । साक्षात्करणाओं हि प्रत्यक्षार्थ प्र० पार्तिकाक० ११३८ १६ सर्वाकारानुमानात्मकप्रत्य सापेक्षया । १७ इति कथमेन । १८ स्वीय सह
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न्यायविनिश्चयविवरणे
"अनुमानान्तराक्षेपादन व स्थावतारतः ।
सदभा
प्रकृताऽप्रतिपत्तिः स्यात्तस्य तस्येत्यपेक्षणात् ॥ " [प्र० वार्तिकाल० ११४ ] इति चेत: अस्तु सौगतस्यैवायं दोषो यस्माद्वयवहारमानादेव प्रसिद्धमनुमानम्, प्रवृत्त्यादिव्यवहारविरधप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षस्याप्यनुमानपूर्वकस्यैव व्यवहारकारित्यात्, अनुमानमेव ५ खस्वत्यन्ताभ्यासपाटत्र परिकलितशरीरमनुस्मृतसाध्यसाधनसम्बन्धयोपजायमानम् अकरमाद्रूपदर्शनाद्वहि संवेदनवत् अध्यक्षत्रयपदेशमनुभवत् प्रवृस्यादिव्यवहारमारचयति नापरम् । सत्र यदि अम्धपरम्पराप्रसङ्गपादनावनुमानमवसाच्येत व्यवहार एकापसारितः स्यात् । उत्र योसा
.
[११
परितोषस्तदा न किञ्चित्कर्तव्यमिति मुक्तिरेव संसारात् तस्यात्यन्तमसम्भवात् । अथ व्यवहारप्रसिद्धः संसारः; सर्हि सिद्धमेवानुमानं व्यवहारस्य तन्नान्तरीयकत्वात् । अतस्तैद्दीत१० व्याप्तिसामर्थ्यात् सर्वाकार गोचरमनुमानं सुगतस्योपजायमानमनवद्यमेवेति चेत्, आस्यां तावदेतत् 'तत्त्वतात्पय्र्यचिन्तायां विचारणात् । तत्रानुमानात्तस्य सर्वाकारानुमानं दर्शनादेखें तदुपपतेः। यदि "दर्शनमनुमानं कथमनुमानात्मकं तत्प्रत्यक्ष मुक्तमिति चेत् ? न; एवमपि परस्यैव दोषात् । तन सुगतस्य निरवशेषदर्शनमपुरुषार्थंकरम्, तदभावे तत्पुरुषार्थस्य स्वानुमानस्य -
भावप्रसङ्गात् ।
५
एतेन 'विनेयानामपि तत् पुरुषार्थंकरं नं' इति चिन्तितम् । तदभावे स्वार्थानुनिम्नस्य परार्थानुमानस्यापि विनेयपुरुषार्थतयाऽभिमतस्याभावप्रसङ्गात् । साध्यप्रसिद्धलिङ्गोपदर्शनपरं हि यचनं परार्थानुमानम्, तेनैव"" सुगतोपदिष्टेन विनेयान स्वप्रतिपत्तेः, न वचनमात्रेण " तस्य वस्तुनि "प्रामाण्यानभ्युपगमात् प्रमाणसङ्ख्पाव्याघातप्रसङ्गात्" । न पासति स्वार्थानुमाने तदुपदर्शनपरं वचनम् । न च निरषशेषदर्शनमन्तरे २० स्वार्थानुमानमिति स्वपरार्थसिद्धिमूलनिबन्धनत्वादखिलवस्तु साक्षात्करणस्य कथन्नाम विचारभूमिranded ?
मानवत्
अपि च, परमपीडं "प पर्यनुयुज्यते यत्तचतुः सत्यव्यतिरिक्तं तत् चेतनम् अचेतनम्, का न्तराभावात् । तमेव कीटसङ्ख्यादिलक्षणमिति चेत् अत्रापि सङ्ख्यातः सङ्ख्याया का
३ 'अस्य१ प्रकृताप्रकृता वा स्था-५० प्रकृत् प्रकृता स्व-स०२ - परिकार - न्ताभ्यासतस्तस्य कठिश्यैव तदर्थवित्। अकस्माद्भूत प्रतीतिर देहिनाम् ॥१-प्र० वार्तिकाल० १११३८ । ४] [वहारापसारणेन । सुखना- "सत्रावा परितोषदा न किचित्कर्तव्यमिति शुद्धिरेव प्र० कर्तिकाल० १५५ न्यत्रद्वाररूपस्य संखारस्थ ६ अनुमानाविनाभावित्वात् । ७ चतुःस्त्र सद्वयतिरिक्त राशिगृह प्रसिद्धाशेपतत्वापति इततस्वनदविचारायसरे ९मानं तद्दर्श-आ०, ब०, प०, स० १० राशियदर्शनादेव । ११ प्रत्यक्षम् । ११ - नमनुमा आ०, २०, ५०, स० । १३ सुक्तस्वार्थानुमान, निबन्धनस्य । १७ “त्रिरूपाख्यानं परानुमानम् न्यायवि० पृ० ३१ "त परार्थानुमानं सर्वप्रका शनमित्याचार्यायलक्षणम्"~४० वा० ० ४ १ १ १५ साध्य प्रतिबद्धपदर्शककोवैव । १६ पचन । १७ "दवस प्रतियन्थो वा को चाण्यपि वस्तृषु । प्रतिपादयतो तानि येनैषां स्यात्प्रमाता ॥ तत्व० ० १५१३ । १८ यतो हि बोदः प्रत्यक्षमनुमानप्रेति प्रमाणद्वयमेवानुमन्यते । १९ सौगतम् ।
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१५)
प्रेमा प्रत्यक्षप्रस्ताव दर्शनमपुरुषार्यकरम् ! न तावत्सलावता; तखि निरवशेषदेशकालाधिष्ठान कीटनिफुरुम्यकमेव, न य सदर्शनाभाये तदधिकरणाचतुःसत्यसवेदनं सम्भवति । न हि चतुःसत्यं नाम विविधरस्वतन्त्रमस्ति, दुःखसमुदयावेतनसन्तानाधिकरणस्यैव तत्त्वात् । चेतनसन्तानस्य
मारकतिर्यनरसुरभेवभिन्नस्य प्रत्येकमनेकधा भेदमनुभवतः प्रतिव्यक्ति देनाचिरहे तदधिकरणनिरवशेषचतु:सत्यसाक्षात्करणासम्भवान् कथम सदर्शनस्य पुरुषार्थोपयोगिरवम् ? ५ सामान्यरूपतयैव सकलवदुःसस्यवेदनान प्रसिव्यक्तिनिरपशेवचेतनसन्सानदर्शनमर्भवदिति चेत् ; न; सकिरतु:सत्वदनविरोधी । न हि सामान्येन गृहीतं सर्वाकारेण गृहीतं नाम । सर्वाकारग्रहणं चाभिमतं भवताम् "सर्वाकारानुमानं यत्" [प्र. वार्विकाल० १११३८] इत्यादि पथनात् । भवतु सुगतस्य प्रतिव्यक्तिरप्तदर्शनेनैव सकलचेसनसन्तानसाक्षात्करणम् अस्माकं तु तदर्थवान भवति, अस्मद असुःसत्योपदेशे तन्मात्रगोचरस्यैव सुगतानस्योपयो- १० गात् , अत एवामदारेशेन नसा सामानिर्दिशति
__ "कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते" [५० का० ११३३ ] इति । ततस्तन्मावगोचरमेव मानं सुगतस्य परीक्षिसल्यम्-'किं तस्य "तदस्ति वा न पा' इति, वदभाने "तपतुःसत्योपदेशासम्भवाम् , न सर्वघेतलसन्तानविषयं तदभावेऽपि "तरसम्भवादिति चेत् । न ; दत्तोसरवार, सकलतनसन्मानादर्शने तन्निधत्वेन चतु:सत्योपदेशासम्भवान् । १५ न हि कूपमपश्यतः 'कूप जलम्' इत्युपदेशः सम्भयदि । "चनियेन तदुपदेशो नार्थवानिति चेत : कतहि तदुपदेशोऽर्थवान् ? अतमिवस्येनेति चेत् । न ;"तशिष्टतया ज्ञातस्याऽतनिष्ठत्वेनोपदेशे वाचकत्वेनोपदेष्टुरप्रमाणत्यापतेः ।
एतेन कतिपयतव्यक्तिनिष्ठत्वेनेति प्रत्युक्तम् ; न्याय स्य समानत्वात् ।
स्याम्पतम्-दिनेयानुरोषाधेव भगवतो देशना, विनेयाश्च सु(स्योगतमेव चतुःसत्यमुपदेशा- २० दवनोखुमिछन्ति तस्यैवानुष्यत्वात् न सर्वगतं विपर्ययात् , ततः सर्षदेसन्नाधिकरणत्वेनाधिगतमपि विनेयाभिप्रायवशात् प्रतिनियततषतिगतत्वेनैव चतुःसत्यमुपदिशति नान्यथेति प्रतिनियतबेसनव्यक्तिज्ञानमेव तस्य परीक्षायोग्यं न सर्वचेतनव्यक्तिवानमिति; तन्न: विनयनियमाभावात् । तस्वयमस्सावन्तो हि विनेयाः, सेचन मनुष्या एक, सरीसपदीनामपि तत्वभुसावस्ये "तदविरोधात् । तेषां तत्त्वबुनुल्सावत्वमेव मास्तीति चेत् ; मानवानां कुसस्तद्वयम् संसार- २५ दुःखपरिपीडनोहोधितात कुतश्विासनाविशेषादिति चेत् ; म सरीसृपादीमामपि सदविरोधात् ।
चतुः सत्यव्यतिरिक्त संरूपावचेतन खलु। २ कालत्रयश्रिलोकवतिकोटसमूह एव । ५ कोइसमूहाधिकारक । ४-समुदायादे-भाग, प.प.,80 1 समुदेति अस्यामिति समुदयः दुःखकारणं तृष्णेति यावत् । ५-दर्शनविरहितेत सा। ६ सयावाकीवादिदर्शनस्य । -दादेख्पदेशेन व सामामि-त्रा०, प.प., स.। अस्मतशब्दस्थाने आदेशीभूतम 'नः कोपयुज्यवे' इत्युस इति पदेन । 4 "दरमानुछेवगतं मानमस्य विचार्यताम्" इति पूर्वा ९ अस्मदीय चतुःसरपमात्रगोचरमेव 11. अस्मदीयचतुःसत्यगोचरज्ञापम् । अस्मदीयचतुःसत्योपदेश। १२ अस्मदादिवतुःसस्मोपदेश । १३ सालचेतनसन्तामनिवस्या चतुःसरयोपदेशः 1 १४ सकलारेननसन्ताननियतया । .१५ सुपतस्य । १६ दिनयत्याविरोधात् ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे सुगवानुग्रहादिति चेत् न तस्यापि सर्ववेतनसाधारणत्वात् , अन्यथा सुगतस्य अंगद्धितेषित्वानुपपत्तेः । न हि खण्डशो जमदनगृहतः संग सद्धितैपित्वमुपपन्नम् । सम्पादीनां तत्वबुभुस्सायत्त्येषि न विनेयत्वं तस्त्रज्ञानामृतोपदेशभाजनस्वाभावात् , व्यक्तथा बाचा पामयकोधयितुमशक्यत्वादिति चेत् ; मा भूत् व्यक्तया तदवबोधनम् , अभ्यतया तु तद्वद्यया स्यात् । न ५ तादृशी सुमतस्य वागस्तीति चेत् ; अन्यारी कुतः ? तदभ्यासादिति चेत् ; सापि तत एवास्तु ।
तेदभ्यासोऽपि तस्य नास्तीति चेत् ; इतरवामभ्यासः कुतः ? हद्वागुपदेशादिति चेत् ; अन्यक्तवागुपदेशोऽपि नास्तीति कुतोऽवसितम् ? अनुपलम्भादिति चेत् ; न; सर्वविव्यापारस्थानुपलब्धस्थापि सम्भवात् , कथमन्यथा वाग्वैगुण्यलक्षणस्य शेषस्य भावानिशेष दुःखहेतुप्रहाणं सुगतस्य स्यात् , यसरे निःशेषार्थमुंपसर्गस्योक्तं सूतं स्यात् ?
ततः कश्चित्सर्वेषां विनेयत्वोपपत्तितः । प्राणिनां तत्परिज्ञानं तंत्र किन परीक्ष्यताम् ? ॥४८ ।। "अजानन हि "तास्तेषामुपदेष्टा तथागतः । "तथा घेत ; बुद्धिधैगुण्य कथमस्य निवर्ससाम् ॥ ४५ ॥ . असुलीमायोजिम वेनास्ति यः फलम् । युध्यसोधेन कीटामामपि नेति सर्भ न किम् ॥५०॥ ततो यथेद कोटाम्प्रत्युच्यते धर्मकीसिन । 'कीटसङ्ख्या रिझानं तस्य नः कोपयुज्यते' ।। ५१ ॥ तथेच कीटकरेतइतव्यमितरान् प्रति । भिक्षुसङ्ग्यापरिज्ञानं सस्य नः कोपयुज्यते ॥ ५२ ॥ इति ।
तन्न सञ्झ्यादिवतः कीटादिवेतनवर्गस्य झानमपुरुषार्थकरम् , तदभावे सफलचेतनवर्गाश्रितनिरक्शेपानुप्रेयतत्त्वोपदेशानुपपत्तेः । नापि तत्सखायाः; तस्यास्तव्यतिरेकेणाभावे तज्ज्ञानस्यैवासम्भवात्। सम्भवतो हि ज्ञानत्यानुपयोमिस्वेनोपेक्षणीयत्वं वक्तव्य माऽसम्भवतः तत्परीक्षायाः परैरप्यनभ्युपगमात् । न चाधिपतिपत्तिविषय एच विषादः तदनुपरमप्रसमात् ।
अथ यस्य सङ्ख्या विद्यते स्याद्वादिनः तस्यापि तविषयं तदापानमपुरुषार्थकरमित्ये२५ तदम्पर्य्यम् ; इदमपि न सुन्दरम; कीटसत्यागोयरस्याप्पज्ञानस्य "प्रायश्चित्तविभागायुपदेशहेतुल्वेन
२०
"प्रमाणभूताय जगदितपिणे नमोस्तु तस्मै सुभताय नायिने ।।"-40 समु. ११। २ सयपादिवेधा सव्यका वाक् । ३ जगतवान्यासोऽपि ४ अनुपलवस्यापि अध्यकशगुपदेशस्थामनीकारे । ५ अध्यकवायुपदेशासामर्थ्य । ६ "देतोः प्रहावं त्रिगुणं सुगतत्वम्-हेतोः समुदयस्य पहाणे निरोधः भुगतरकम् । तश्च त्रिगुणं गुणत्रयदुतम् । सुशब्दस्य त्रिविशेऽर्थः-प्रशस्तता नुरूपचन् , अपुनरागृत्तिः सुनसरवन , निःशेषता च सुपूर्णवरपक्ष" -प्रा . म. 5111011 ॥ सुगतपटकमशब्दस्य। ८ सकचरानइन्सानमतचतुःसत्यापरिश्शनम् । १ सुगते ।
१० अज्ञानं न हि शा है-0,49,401 अशानं ने हिंसान ते-स।" सर्वणिः । १२ पर्यप्राणिमोजा.. भन्नपि यदि उपदेष्य स्यात् । १३ युधपार्क भिक्षमाम् । १४ प्रमाणषार्तिक १३३) १५ मिथुन प्रस्ति । संख्या. पदर्थभिमस्या । १७ असम्भववर्थपरीक्षायाः १४ विभिनकोटहिसाबन्यतासमन्दादिपायपरिहारकविविधताबक्षित।
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tk]
१९
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
पुरुषार्थोपनिबन्धनत्वात्, उपनाकीट वर्गपरिसयापरिज्ञानस्यैव हि द्विश्यादितद्व्यापादनोपनीतविदोषपरिहारणोपायभूतस्य प्रायश्चितविभागस्योपदेष्टृत्वं भगवतो न तद्विपरीतस्य । तन्न चतुः सत्यव्यतिरिकस्य वेतनत्वम् । अचेतनत्वं तर्हि भवतु तदपि मूर्तम्, अमूर्त या ? मूर्त वेम् प्रथिव्यादिकमेव । त संस्वेदजाविचेतनवर्गाधिकरणमेवेति भवतानाकृतम्
न स कवित्पृथिव्यादेरंशो पत्र न जन्तवः ।
संस्वेदजाधा जायन्ते सर्व "बीजात्मकं ततः ।" [१०वा० ११३९ ] इर्ति चाकं प्रति धर्मवचनात् । तारास्यै च सस्य परिज्ञानं कथन्न पुरुषार्थ कारणम् ? परिज्ञाने किरणवेतनवर्गस्य तेनानवचोथे च द्रोवरचतुराय निरवशेष सत्यस्यानवगमेनोपदेशानुपपत्तेः । तन्न मूर्त्तम् । तत्सूर्तमेव गगनाविकमिति चेत्; न; तस्य स्वयमनभ्युपगमेनासंस्यात् । पराभ्युपगमात्सत्वे पुरुषार्थहेतुत्वमपि तस्य तदभ्युपगमादेवास्तु | तन्त्र जगति १० किश्चिदपुरुषार्थसाधनं यत्परिज्ञानं सर्वज्ञस्या परीक्ष्यं भवेत् । ततो "निराकृतमेतत्- 'पुरुषार्थज्ञतामात्रात् सम्पूर्ण शासनं मतम् " [ १० वार्तिकाल - १।१३८ ] इति : मात्रशब्दस्य व्यषच्छेदाभावेन "वैयर्थ्यात् तैदभाव सर्वज्ञानस्यापि पुरुषार्थज्ञानत्वात्, तदपि साक्षात्पारम्पर्येण या सर्वस्यै" यत्परिज्ञानं पुरुषार्थहेतुत्वात् । अत एवोकमतकारकृता - "न च कार्यकारणभावप्रतिवच्य परस्परं सकलं जगज्जायते " [ ४० वार्तिकाल० १११३८ ] इति । तदयम् एवं- १५ वचनात् सर्वज्ञानस्य पुरुषार्थज्ञानत्वमुररीकुर्वन्नेव अपुरुषार्थज्ञानमपि किखिन्चेतसि कृत्वा तभ्यषच्छेदार्थं मात्रशब्दमप्युपादत्त इति प्रज्ञाकरव्यपदेशमात्मनि अन्धे सुलोचनव्यवहार सहशमादयति ।
यत्पुनरेतत्
" तु सर्वस्य वेदको न निषिध्यते ।
२०
नास्माभिः शक्यते ज्ञातुमिति सन्तोष इष्यते ।" [प्र० धार्सिकाल० ११३३] इति ; तत्र चतुः सत्यवेदनं सर्वविदः कुतोऽवसितम् ? प्रमाणसंवादिनस्तत्सत्योपदेशादिति चेत्; ader समय सातव्यं तस्य 'तंत्रान्तरीयकत्वादित्युक्तत्वात् । ततः सूक्तम्- 'सर्ववेदनश्य समय नत्वात् सुज्ञानत्वाच तदर्थमशेष विपयमेव प्रमाणमभ्यसितव्यं न नियतविषयमनुमानमिति ।
१ परिक्षानं यस्य तस्यैव २ चैत- आ०, ब०, प०, स० ३ भगवसा- आ०, ब०, प०, स० ४:--देशो आ०, ब०, प०, स० । ५ बीवात्म-आ०, ३०, स० । ६ "न स कश्चित् चित्र्यादेशः प्रदेशी यत्र जस्तमः संस्वेदजाय आज शब्द जरायुजाण्डजप्रभृतयो न जायन्ते ततः सर्वभूतपरिणतिजातं प्राणादिजनने भोजरमकमिति नास्ति बीजभावतः कस्यचित्" -प्र० दा० म० १३९ चेतनवर्षाधिकरणस्व पृथिव्यादेः ८ गतेन । थिव्यायधिकरण चेतन समूहनिष्ठ । १० द्रष्टव्यम् - सच्च० लो० १२७- । ११ निराकूत-आ०, २०, प०, स० । १२' सद-आ०, ब०, स० १ १६ व्यवच्छेदाभाव । १४ सर्दज्ञानस्य पुरुषार्थज्ञानत्वमपि । १५ सर्वस्व प्राभिः भत्किश्चियपि परिज्ञानं भवति तरखर्थमपि साक्षात् परम्परया या पुरुषार्थहेतुर्भवत्येवेत्यर्थः । १६ प्रकरः । १७ चै म तल ४०, ४०, प०, स० १८. अर्थिवादिचतुःसत्योपदेशादेव | १९ सर्ववेदनाविनाभावित्वात् । २० वाचत अ०, प०, [स० ३
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न्यायधिभिक्षयविवरणे
[११ कथं वाऽनुमानाभ्यासान् कस्यचित्तत्त्वदर्शन मियाज्ञानत्वात् ? मिथ्याशानं स्वत्वनुमानम् अवस्तुसामान्यावभासिल्वात् । तदभ्यासावपि तत्त्वदर्शने स्यादतिप्रसङ्गी-नित्यायनुमानाभ्यासादपि संत्रसबारा । ननु न 'मिध्याज्ञानम्' इत्येष सर्व समान प्रतिबन्धभावाभावाभ्यां विशेषात् । तत्वप्रतिबद्धं हि चतुःसत्यायनुभान हरप्रतिकारकार्यान्द स्वमाययातदुपये, । अत एवं प्रमाणे प्रत्याभवन् । न हि प्रत्यक्षमपि प्राप्ये सवमासनात् प्रमाण' शस्य सन्निहित. वर्तमानवस्तुस्वलक्षणावभासिश्वेन प्राप्यावभासित्वासम्भवात् , अपि तु तवभावे तदभावनियमेन तर्न प्रतिबन्धात् । प्राप्यविषयमेव च प्रत्यक्षप्रामाण्यमर्थवत् तस्यैव प्रवृत्तिविषयल्कात् न वर्तमानविपचम् , तस्यानुभूयमानत्वेनाप्रवृत्तिविषयत्वात् । विषयानुभावार्थी हि प्राणिना
प्रवृत्तिः, सति च विषयानुभये किं तया ? तदनुपरमप्रसङ्गात" । प्रतिबन्धसामर्थ्याच्च प्रत्यक्ष१० ग्रामाण्यमनुमानप्रामाण्यमवकल्पयति तस्यापि सदविशेषादित्यविशेष एवं प्रत्यक्षानुमानयोः ।
तदुक्सम् -
"अर्थस्थासम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता ।
प्रतिबन्ध(बद्ध)स्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् ।।" [इति] । न चैवं नित्यादिप्रतिबद्धं किञ्जिलिङ्गमस्ति तत्वभावस्य तत्कायम्य च कस्यचिद् (५) १५ दर्शनान् । न हि नित्यस्वभाव किञ्चित्प्रत्यक्षवेधम्। तत्र सदनवभासनस्य यक्ष्यमाणत्वात् । "
एक न तत्कार्यम् । न च लिशान्तरम् । तस्कर्थ तदनुमानस्य वस्तुपतिवन्धत्यं यतः प्रामाण्यम् । ततो मिथ्याज्ञानत्वेपि चतु:सत्याद्यनुमानाभ्यासानेव तस्वदर्शनं तस्य तत्त्वप्रतिबन्धान नित्यानुमानाभ्यासात् तस्य विपर्ययात् तस्कथमतिप्रसङ्ग इति चेत् ? उच्यते- यानुमानस्य यस्तुप्रति
रम्भाद् वस्तुदर्शनं सर्वजण्य सदस्तुसामान्यदर्शनमपि स्यात् 'तत्सामान्येऽपि तस्य प्रतिबन्धात्, २० वस्तुपतिबन्धापेक्षया तत्सामान्यप्रतिबन्धस्य प्रत्यासन्नवाच । तदुत्पत्तिलक्षणो हि वस्तुन्य
"नुमानस्य प्रतिवन्धः,सच "भित्राधिकरणस्वाद्विपकष्टः तत्सामान्यप्रतिबन्धस्तु"तादात्म्यमभिशाधिकरणमिति प्रत्यासन्नः । अतो यस्तुदर्शनात् प्रागेव सर्वदिनस्तदर्शनेन भवितव्यम् । तथा
1. मिथ्वाजामाभ्यासादपि । १ सस्वदर्शनप्रसधात । ३ अविनाभावसम्बन्धसयामासद्भावाभ्याम् । १ प्रविचनात् मा०, ०,१०, 201 तस्वप्रतिबद्धात् । ५ यतः प्राय वस्तु मावि, वर्तमानेऽयभासते । ६ चणिकपरमाणुमिरंशरूपं वस्तु स्थलहणम् । स्वरक्षणवस्वभावे प्रत्यक्षस्थानुभत्तिमियमेन। ८ स्वलक्षणे वस्तुनि तदुत्पत्त्या सम्बन्धात् । ९ वर्तमान विषयस्य। १. अनुभवा अनुभावः इति इयमप्येकार्थकम् ।
विषयानुभवकास एवं यदि प्रतिः स्यात् सदा विषयवत् सारपनुभूयत एवेति तदर्थ प्रास्यन्तरापेक्षा स्थात्, प्रवृत्यन्तरस्य च रुदैवानुभूयमामरखे तदर्थमपि प्रवृश्यन्सरमपेक्षणीयमिति प्रयुपरमाभावादनवस्था । ११ अनुमानस्यापि प्रतिबन्धस्वमर्शजन्यस्वाविशेषात् 1 12 "अत वाह-अर्थस्यासम्मले...पसिबस्विमानस्य सतुरसे मर्म
यो ।" -प्र० कार्तिकास ४११७ । १५ तादात्म्येन तदुत्पस्या का असम्बद्धरुवरूपच लिस्य अनुमानहेसुत्थे । १५ प्रत्यक्षे। १६ निल्यस्य शमयोपपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्याभावात् इति भावः । ७ निस्वादानुमानस्व ।।
6 सणवस्तुदर्शनवत् । १५ अवस्तुभूत सरसामान्यम् । २० अरस्तुभूरासामान्येऽपि । २१-नुमानप्रतिभा०, २०, ५०, स.। २२ यतो हि अपने मो जायते धूमाद धूपदर्शन ततश्च सन्मनुमानम् , अत: अस्मिय. लक्षणेन तदुत्पत्तित्सम्बन्धी धूमस्वलक्षणस्य न स्वयम्यनुमानस्य इति मित्राधिकरणकम् । २३ अरस्तुभूतं यत् समान रोष्यमाणमनिसामान्यम् । २४ विपक्षकारस्वानस्य विषयविषविणोस्तादारभ्यम् । २५ अवस्तुभूतसामान्यदर्शनेन ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
चेत.; सामान्यविश्यत्वात् सविकल्पफमेव तदिति कथभिवमुक्तम- योगिनां प्रत्यक्ष विधूतकल्पनाजालम्"[
] इति । प्रतिबन्धस्य सद्भावानुमानस्य वस्तुनि । सदभ्यासेन वेदस्तुदर्शनं सर्ववेदिनः ॥ ५३ ॥ अवस्तुरूपसामान्ये तद्वत्किन्न दशीम (रशिर्भ) वेत् । अनुमानस्य तत्रापि प्रतिषन्धो पदस्त्ययम् ।। ५४ ॥ भिन्ने वस्तुनि सम्बन्धात्- सामान्ये यदभेदिनि । प्रत्यासनश्च सम्बन्धोऽनुमानस्यावलोक्यते ।। ५५।। सामान्यदर्शने तस्य सर्वक्षस्य कथं भवेत् । 'विभूतकल्पनाजालं प्रत्यक्ष कीर्तिकीर्तितम् ? ॥ ५६ ।। सामान्याकारतादात्म्यमनुमानस्य नास्ति घेत; कथं तेदवभासित्वं त्वया तस्योपवयेते ! ॥ ५७ ।। सदुपत्र्यदि व्यक्तं यस्तु सामाग्यमागतम् । उत्पत्तिरतुमानस्य न युक्ता यदवस्तुनः ।। ५८ ॥ अर्थक्रियासमर्थ ष यद्यस्विमुच्यते । स्वलक्षणं च तस्यापि नान्यद्वस्तुत्वलक्षणम् ।। ५९ ॥ उत्पन्नमपि तत् 'तस्मातत्स्वरूपं न चेत्कथम् । 'नैवेदि ? "यदि तद्वेदि; नष्टं साहकवर्णनम् ॥ ६॥ तत्सारूप्ये तु सामान्यतावात्म्यं पुनरागतम् । अनुमाने, तदभ्यासासष्टश्च विकल्पनम् ॥ ६१ ॥ 'सतोऽपि यदि तन्निं सारूप्यादनुमानकम् । कथं तदवभासित्वमित्यादि पुनरायजेत् ।। ६२ ।। "अनयस्थोत्तरेणादश्चककेणोपसर्पता । जिलार्य कीलितं "बौद्ध भवतः स्पन्दते कथम् ?। ६३ ।।
सर्दरिदर्शनम् । "प्रगुतं योगिना ज्ञान सेवा तनावनामयम् । विधूतकसपनाजा स्पष्ट मेवावभासते." -4. पा. २०२८१ । निर्विकपकम् । अस्तुभूनसामान्यविषयत्वम् । ५ अनुमानस्ल । ६ सामान्यस्य वस्तुत्वं स्यात् इत्यर्थः । ७ अयस्तुभूतात् सामान्यात् । ८ सामान्यम् । १ स्वतक्षामपि अक्रियासममिति लस्थापि अवस्तुकप्रसङ्गः, यतो हि अर्थक्रियासामर्थ्यव्यतिरिसमन्यत् वस्तुत्वलमग मास्ति। 1. अनुभमम् । ११ सामान्यात् । १२ सामान्याकारम् । १३ सामान्यविषयकम् । १४ अतक्षाकारमप्यनुमानं यदि सामान्यविषयम् । १५ सामान्याकारत्वे । । अनुमामाभ्यासात सामान्यदर्शन प्राप्नं सर्ववेदिनः सतब तदर्शनस्य विकल्पकत्वं स्यात् ।
समान्याकारमप्पडमान यदि सामान्याद् मिनन् । 14 अमवस्था उत्तरे अन्ते रस्व ।१९ बाद आ०,०,५००
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म्याधविरिश्चयश्चिर
सामान्यप्रतिभासित्वं यदि योग्यतया भवेतन अनुमानस्य सम्बन्धनियमस्वे विहन्यते 11६४॥ संदभ्यासेन समापि तत्सामान्यस्य दर्शने । निर्विकल्पकमध्यन्नं न सिद्धिपधमृच्छति ।। ६५ ।। अथ तत्प्रतिभासित्वं नानुमानस्य ते मतम् । विलक्षणस्य यत्त स्वरूपस्थावभासनम् ॥६६॥ अध्यक्षमेष तत्मानम् नानुमान तथा सति । कस्याभ्यासाविदानी स्यात्तस्वदशी तथागत:॥६७। अध्यक्षाभ्यासचिन्ता तु प्रारोव विनिवारिता ।
सत्र सामान्यभासिवमन्तरेणानुसास्ति यः ॥ ६८ ॥
स्यान्मतम्-न सामान्य नाम अनुमानादिविकल्पावत्यस्ति प्रमाणाभावात् , तत्प्रतिविम्यमेव केवलमव्यतिरिक्षमा मनन्वितमपि व्यतिरिक्तमिव बाझभियान्वितमिव बानादिवासनासामादध्यदसीयते, तोऽभ्यासपाटवे सति सकलविप्लवव्यपगमावश्यतिरिक्तादिरूपस्यैव
तस्य दर्शनात् कुतस्तदर्शनस्य सविकल्पकत्वमिति ? सन्न सारम् ; व्यतिरिक्तादिरूपतया १५ गृहीतस्याभ्यासादपि तथैव दर्शनोपपत्तेः। न हि सदूपत्ताऽभ्यस्तमम् यथा द्रष्टुं शक्यातिप्रसङ्गात् ।
अभ्यासोऽपि सस्वान्यधैवेति" चेत ; न वथा गृहीतस्यैव सरसम्भपात, अन्यथा विद्यमानतया गृहीतस्य कामिन्यादेरन्यथाभ्यासात् तदर्शनमप्यन्यथै स्यादिति निरस्समेतस्--"पश्यति (न्ति) पुरतोऽवस्थितानि"[x०१०] इति ; पुरतोऽस्विसस्यस्य अविद्यमानतया दर्शनस्य च विरो
धात् । अव कदाचिरिचमानतयापि कामिन्यादरम्याससम्भवात् चदर्शन पुरोऽयस्थिसत्येन पठ्यते; २० ताई सामान्यस्यापि व्यतिरिकाविरूपतया कदाचिदभ्याससम्भवात् सविकल्पकमपि तदर्शन
पठ्यतामविशेषात् । न पूर्वमपि सामान्यस्य "व्यतिरिक्तादिरूपानुमानावगतमस्ति यतस्तदभ्यासादर्शनमपि तस्य तथैव स्यादिति चेम् । कुतस्तहि "तस्य तद्रूपमरगतम् ? वासनाबलावलम्बिनी विकल्पान्तरादिति चेत् ; म; तेनापि स्वतस्तस्य "तथाऽवगभे अनुमानेनापि स्यादविशेषात्। तत्रापि विकल्पासरादेय सदाकारस्य व्यतिरिक्ताविरूपापगमो न स्वत इति चेत् ; ; तत्रापि"
तदाकारण दिनापि । २ तदुत्पत्ति-सादाम्यान्यतरलक्षासम्बन्धनियमः । ३ अनुमानाभ्यासेन । * अनुमाने । ५ "तरस्वभावधिकल्या धीखद वामनधिका । विकल्पिकारात्काभेदमिन प्रजायते ॥ तस्यां सरमामात बावर्गकमिवान्चतः । व्यावृत्तमिव निस्तर परीक्षा भावतः अर्था ज्ञानविष्यास्स एवं ध्वायुत्तरूपमाः । अभिमा इस बाभान्ति न्यावृताः पुमरगतः ॥"-प्र. वा० ३०५, ७६,७६ विकल्प प्रतिविम्तिमेव । ७ विकल्पकारभूतस्य समान्थय । ८ व्यतिरिक्तादिरूपेगैष । ५ व्यतिरिक्तादिरूपल्या । 1. wध्याप्तादिरूपेणैव । 11 अन्यथा नहीतस्य अन्यान्यासेन भन्यथा दर्शनसम्भये । १२ अविधमानतया अस्सा अविधमानलेनैव "कामशीकमयोमादचौरस्वभाधुपयरता। भभूतानपि पश्यन्ति पुरतोचस्थितानिव"-प्रा . २८२ १५ -स्य विद्यमाच- ताग १६ सुमतयर्शनम् । १७-व्यतिरिचासादिभा, ब०, ५०, स.114 सामान्यस्य । ११ व्यतिरिक्ताबिच । २० सामान्यस्य । २॥ व्यतिरिक्तादिरूपेण । २२.विकल्पान्तरेऽपि । २१ सामान्याकारस्पा २४ अनन्वरोजविकल्पान्तरेऽपि।
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११]
प्रथमः प्रत्यक्षात 'तेनापि' इत्यादेरावृत्तेचककादनवस्थानाच । ततो 'निराकृतमेतत्-"त सर्वत्र बुद्धिरूपमस्यारोप्यते ततः 'सामान्यमन्यापोहोऽयस्त्वंशश्च" [२० वार्तिकाल० २.१७१ ] इति ; तदध्यारोपरयोक्तप्रकारेणावगातुमशक्यत्वात् ।
ततोऽनुमानमन्यं का विकरूपं परिकल्पयन् । तत एव सदाफारमहणं बतुमईसि ।।६९।। तत्र सिद्धं तदभ्यासात् स्पष्ट सामान्यदर्शनम् । सविकल्पं सतश्चेदं प्रतिषिद्धं सयो (त्वयो)दितम् ॥७॥ "तस्माद्भूतमभूतं था यधदेवातिभाव्यते । भावनापरिनिष्पसौ तत्स्फुटाकल्पधीफलम्"१७११ "स्फुटकल्पधियोऽप्येवं तत्फलस्योपवर्णनात् । विकल्पानभ्युपाये च नानुमानस्य सम्भवः ॥ ७२|| तत्कथं वदनुवानात्तत्त्वदशौं तथागतः । यतस्तस्य प्रमाणत्वं भवता परिकल्प्यताम् ॥७३॥ ततोऽनुमानार यस्तारसर्वविसत्वरम् यदि ।
सामान्यर्दश सम्प्राप्नो विकल्पोपहतश्च सः ॥७४॥
किश, वस्तुन्यनुमानवद्रूपादौ सादरपि प्रतिबन्धात् सर्दभ्यासतो रूपादिदर्शनमपि भवेत् । रूपावभासित्वं च रसादेरिति चेत् । यस्त्यवभासित्वमपि भानुमानस्येति समानम् , अन्यथा" प्रत्यक्षाविशेषप्रसन्नात् । लेशतस्तदवमासिव तस्यास्त्येवेति चेत् । न ; निरंशत्वेन यस्तुनो लेशाभावार । कल्पितो लेश इति चेत् । न तर्हि तस्य लेशतोऽपि वस्त्वमासित्वम् , कस्पितस्यावस्तुरूपत्वात् । 'ऐकस्वाभ्यवसायाद्वस्तुरूपत्वमिति चेत् । न; एकत्वस्यापि कल्पितत्वे- २० नावस्तुरूपत्वात् । तस्याप्येकत्वाध्यवसायावस्तुरूपत्वमिति चेत् ; न; 'एकत्वस्यापि' इत्यादरावृत्तियौनःपुन्येन चक्रकस्यानवस्यानस्य च प्रसङ्गात् । तन्न लेशतोऽपि तस्य वस्त्ववभासित्वम् । तथापि तदभ्यासाद्वस्तुदर्शने रसाद्यभ्यासापादिदर्शनमपि स्यात प्रतिवन्धाविशेषात् रूपादीनामेकसामान्यधीनत्वात् , तथा च कंधमधादिश्यवहारः ?
अन्धो न सोऽस्ति लोके यो रसायभ्यासयजितः । अभ्यासोऽपि स नो यस्मान सम्बधार्थदर्शनम् ॥४५॥ ततोऽस्यापि रूपे स्यादपश्यं 'दैर्शनं ततः। तथा चान्धव्यवस्थेयं विनष्टा सावलौकिकी ।।७६॥
अनन्धोऽप्यन्धकारस्थो रसमास्वादयन् जनः । १निराकूतमे-माब०,१०, २ "सामान्यमन्याचीही स्वंशवेति"-प्रशासिकारून ३ त्योदि-य। प्रमाणवातिके (१२८५)। ५ सधिक पयुद्धेः। ६-दशिसम्प्राप्ती ०, २०, ५०।७-मानादिवआ०, बा, प०, २०। ८ रसन्दरप्यनुय- ०,१०,५०, ९ रसायभ्यास्त: 11. स्ववक्षणवस्त्वभासिखेऽनुमानस्य । ११ वरत्वभासियम् । १२ अनुमामस्म । १३ कहिपतनिस्व वस्तुना एकत्याध्यवरायान् । " एकरवस्यादि। १५ अनुमानस्य । १६ वरननरभाखित्वेपि। १७ पर्शनात्ततः ०,०, २०, स.
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[११
रुपाबध्यक्षतः पश्यम् अनुमान किमिछति ? |||| एकसामान्यधीनस्य मूत्यादि तन सुभाषितम् । अभ्यासादर्थदृष्टौ च साफल्यं नाइसंहः ॥७८५ प्राम्बोधिमादिभ्यासादर्शनं चेन देहिनाम् । भौविन्धभ्यासतोऽध्यक्षं कथमुक्तं प्रवृत्तिकृत् ॥७॥ अविचार्य तदुक्तं चेत् व्यवहारप्रसिद्धये। सहसद्, व्यवहारस्थाऽप्यन्यथैव प्रसाधनात् ॥८॥ वृत्त्यादिव्यवहारश्चेदन्यया यन्न सम्भवेत् । सदभ्यासजमध्यक्षं सब स्याद्राषियोचरम् ।। ८१॥ न चैवम् ; वर्तमानार्थ नातवं सम्भवान् । ध्यावर्णयिष्यते चैतत्पश्चादेव सविस्तरम् ॥ ८२॥ व्यवहारप्रसिखं चेदान्यध्यक्षं सदयसत् । तदस्ति व्यवहारस्य व्यवहारिष्वदर्शनात् ।। ८३॥ पश्यति व्यवहारी चेलानपानादि मान्यपि । "वृत्तिप्रयोजनं सिद्धं वृत्तिस्तस्य किर्थिका ॥८॥ नहि साक्षामियातोऽन्यदस्ति वृत्तिप्रयोजनम् । सास्सिद्धौ र प्रवृतिश्चेन प्रवृत्तेने व्यवस्थितिः ।।८।। भाविद च पृष्टः सन् 'रस: कीरशा' इत्ययम् । किं पक्ति नोचरं स्वादुर्लवणो येत्यसंशयम् ।। ८६॥ व्यवहारमतिक्रम्य भाठयध्यक्षस्य कल्पने ।
अन्धस्य रूपदर्शित्वं किमेवं नावकल्प्यते ! ॥८॥
तन अनुमानाभ्यासात्कस्यचिसत्यदर्शनम् , रसायभ्यासादन्यस्यापि रूपदर्शनाते: प्रतिबन्धाविशेषान् ।
यत्पुनरुक्तम्-'न नित्यप्रतिपद्धं किञ्चिलिक मास्ति' इति; कुत एतात नित्यस्यैव कस्यचिद २५ (निदव)र्शनादिति, सत्समान निरंशस्वलक्षणेऽपि । न हि तदपि तथाविध पश्यामो यथा
व्यावयेते परैः,बहिः स्पष्टवानसनिवेशिनः स्थूलस्यैकस्य अन्त हविषायाचनेकाकारदिवस्य वस्तुनः" प्रत्यवभासनास् । तरपहधे सोपट्यान्न किनिवडूवेत , तत्कथं स्पलक्षणप्रतिबद्धमपि किञ्चिल्लिन यलोऽनुमानम् !
"एकसामध्यधीनस्य रूपादे रसतो गतिः । हेनुपर्मानमानेन धूमैन्धनविकारयन् ।।" -३० वा. २" भाषिगतिस्तत्रानुमान मानमिष्यते। र्शमानेतिमात्रेण वृत्तापध्यक्षमावता ।। -यत्रात्यस्ताभ्यासावविकतबतोपि प्रवर्तमं तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणम् 1" -प्रातिकास. २०५६। ३ स्वादिन्यवहारः । ४ व्यवहारस्य । ५ प्रवृत्तित्रयोजनम् । ६ अमवस्था स्यापित्यर्थः । ७ -वादभ्यास- मा, ०, २०, स.। सम्बन्धविधीपात । ९ १० १० पं० १४ । 1. बारदयविनः । १. प्रारमनः। १३ दिः स्थूलस्यैकस्य अन्य अस्मनोऽपह।
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श१]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
"अनशं पहिरन्तश्चाऽप्रत्यक्षं तदभासनात् ।
कस्तत्स्वभावो हेतुः स्याम्कि तत्कार्य यतोऽनुमा ॥"[लपी० श्लो० १७] इति ।
कल्पितं 'लि सत्प्रतिबन्धश्च नित्यादावपि, तदनुमानव्यवहारस्यापि प्रसिद्धः । ततोऽनुमानाभ्यासा
सुगतस्तत्त्वदर्शी चेत्कणादोऽपि न किं भवेत् ? सस्वा सोऽपि चेत् , मानं किम कः सोऽपि बुद्धवम् ।।८।। अभूतोसने घेत् । सापि तत्त्वक्वे कथं भवेत् । ताष्टक पाभूतवादी चेत्येतदन्योऽन्यबाधितम् ।। ८९।। कथं वा भूववादित्वं सुतस्यावगम्यक्षाम् । प्रासंवादभावाचेन निरंशे से नित्यवत् ॥९॥ संयादः कल्पनातश्चेत् ; कणादवचने ने किम् ।
कणादे सस्यपि स्तोत्रं सुगतस्यैव यद्भवेत् ॥९१३॥ ततो न युस्तमेतत्.--"भगवानेव प्रमाणं नापरः" [ ] इति ।
न परमार्थतः कणादस्य तस्वदर्शित्वं तदभिमतस्यात्मादेरप्रमाणसिद्धत्येनातत्त्वरूप- १५ स्वान् । नापि संकृत्या, यौगानां तदभ्युपगमाभावादिति चेत् ; मा भूयोगानो दभ्युपगमः, भवतस्तु न्यायनिपुणचूडामणिम्मन्यस्य "सांवृतन्याय-तन्याय-) बलायाते कणादसस्मदर्शित्वे करदनभ्युपगमाः, यतस्तदुपदेशोपनीतं नित्यादिकमेव दत्वं नानुमन्येथाः १ तसादयुक्तमेतत्"तो न परमार्थोऽसावीश्वरो नापि "सांकृतः।" [प्र. वार्विकाल० ११९] इति ; "तस्यापि संकृत्या सुगतंवत्"तत्वदर्शित्वस्योपपादनात् । तस्मादन्ययोगव्यवच्छेदेन सुगतस्यैव तस्यदर्शिरवे १० तदर्शनोत्पत्तिनिवन्धनमभ्यासेनाधिष्ठीयमान प्रमाणमपि सत्रविषयमेवानुमन्तव्यं नापरम् , उसादसिमसङ्गादित्येतत् "तत्त्य'पदेन दर्शयति । "तस्यापि तत्त्वविषयत्वे प्रत्यक्षतरयोः को विशेष इति चेत् ? 'साक्षात्करणाऽसाक्षात्करणरूप:' इति धूमः । तथा चोक्तम्-"भेदः साक्षादसाझाच" [ आतमी० श्लो० १०५ ] इति ।
खि च प्रतिक मा, म0, प०, स० नियाग्रनुमान । ३ प्रमाणम् । ४ असत्योपदेशात् । ५राध वाहम्याभूत-80, ब०, ५०, प्रमासंवादः। तत्रमार्ण भगवानभूतविनिवृत्तये। भूवोलि सपनापेक्षा ततो सुका प्रमष्णसर.."यतस्तच भगवतो भूतौतिस्ततः स एव सर्वशी नापरलाथा च प्रमाणम्"मार्तिकाल १०९। संवृतिस्वीकारः । ९-मणिमन्यमानस्य मार, १०, १०, .. सौमसाभिमदसतिरूपेण कमावतपदर्शित्वमा सिखौ।.१ "संहतिः"-4. धासिंहामा १२ कलवस्थापि । १३ तरवदक्षिरोप---,,पास। १ "विशेष्ासातवहारोऽन्योन्यवहछेदबोधकः, यथा पार्थ एक मुर्धरः। अन्ययोगम्यमाटोदो नाम विशेष्यमिततादात्म्यादिव्यवच्छेदः । तत्र एक्कारेण पार्यान्यतामयाभावी धनुपरे बोध्या तथा च पार्थाश्यतादात्म्यामावयदनुर्धरामिक कार्य इति श्रोधः।" -सप्तपशि०२६ । वैयाकरण मु.१० पु.३१५ मुगतदर्शन। १३ अभ्यस्यमानं प्रमाणमगुमानम् । १७ प्रसिद्धाशेषेहस्वाति परवपदेन । 14 अनुमानस्यापि ।
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म्यायविनिम्बयषियरणे
असाक्षात्कारिता चास्य तत्वज्ञानस्य कारणात् ।
भक्तीधिः यादेष्यामः यदिश्रयसअषम् ॥१२॥
नोपवर्णितप्रमाणाभ्यासात् भगवतो निरमशेषतत्त्वज्ञानम्, अपि तु सैदावरणविगमादिति चेत् । न तस्य तदव्यतिरेकात् । सकलावरणविगमो हि न सकलझानादन्यः, तज्ञान५ 'कैवल्यरूपत्वात् तदावरणवैकल्यस्य, नीरूपस्याभावस्थानभ्युपगमात् । न च तदेव सस्य कारणम; सदसरसमयविकल्पानुपपत्तेः । तथा हि
यक्षाऽस्ति सकलझानं तदा किं तेन हेतुना ? । सिद्धं न हेतुसापेक्ष सिद्धमेयान्यथा न तत् ॥१३॥ यदापि नास्ति तज्ज्ञानं तदा कस्य के हेतुता ।
न सत् वरशृङ्गादि स्वरूपेऽन्यत्र या क्षमम् ।।९४॥ इति ।
स्थामतम्-सकलज्ञानप्रथमपर्याय एवं तदावरणविश्लेषात्मा तत्समय एव तत्पूर्वकालभाविनिरवशेषावरणप्रध्वंसनाद् अन्धकारविश्लेषात्मकप्रदीपप्रधभपर्यायवान, उत्तरस्तु पर्यायो न तद्विश्लेषात्मा सत्तः पूर्वावरणस्यैवाभावात् । न विद्यमाने कविद्विश्लिष्टमुपश्लिष्ट देसि
ध्यपदेशमर्हति वस्तुसगोचरत्वात् तव्यपदेशस्य, अरस्तुत्ये सति तदयोगात् । “स तु तद्विश्ले. १५५ पात्मनः प्रथमतत्पर्यायादेव अन्धकारविरहारमप्रदीपपर्यायातदुत्तरपर्यायत्रम " तस्यैव तपेण
परिणामाद्धवसि ततस्तदावरणविगमस्य तरफारणवमुच्यते । न घेदभत्र मन्तव्यम् सदुचरोतरस्य तर्हि सत्पर्यायस्य तद्विश्लेषहेतुकत्वं न स्यात् पूर्वपूर्यस्य तत्कारणपर्यायस्यावरणप्रध्यसाधिकरणत्वाभावाविप्ति; तस्यापि "तहिश्लेषप्रश्वपर्यायवंश्यत्वेन 'तशतुकत्याविरोधादिति; सदापि
न सम्यमतम् ; तद्विश्लेषकारणावचनान् । प्रथमस्य हि निरवशेषावरणविश्लेषस्य हेतुर्वक्तव्यः, २० लदहेतुकत्यासम्भवात् । तत्पूर्वभादी विश्लेप एष त सुरिति चेन् । न; 'तस्यापि तद्धतुरखे
अनादितविश्लेषस्यानिष्ट[स्त्र] प्रसङ्गात् । आपरणोपश्लेपनिया (दानभूमिथ्याज्ञानविरोधी सम्यग्ज्ञानाभ्यासस्तचतुरिति चेत् ; अनुकूलमाचरसि, तदभ्यासस्यैव प्रमाणाभ्यासत्वात् ।
नयादावरणविश्लेषो म "क्दभ्यासादिति चेत् ; न तस्यैव रनत्रयस्यात् । आदरोपहीवस्य तत्त्वज्ञानपरिमलनस्य तदभ्यासव्यपदेशाम् , प्रशब्देन च प्रकर्षवाविना तस्याप्यभिशनात् । कुतः २५ पुनरावरणोपश्लेषविरामकारणत्वं प्रमाणाभ्यासस्यावगत मिति चेत् ? 'आवरणोपश्लेपनिदानकिरो.
. अनुमानरय । २ शनावरण । ३ आवरणविषयमस्य । ४ कैवल्य प्रति बोम्यसृष्टत्यम्, प्रकृते व आवरणरहितत्वम् । ५ शुरछस्य । ६ सदसत्वमदि-सा०, २०, ५०,सका तसि कार भवस कार्यकाले वा स्यात् , कार्याभावकाले ! यस्दन्योम-80००, प्रथमपर्वायकाल एव । ५ सफलज्ञामावः। १० उत्सरः सफलज्ञानपर्यायः। प्रथमपर्यायस्यैर उत्तरपर्यायहपेण । परम्परया । १५ द्वितीयपर्याय । १७ आवरणविश्लेष: देतुत्य । तत्वादि-आ०,०,, स. १५कारमधनात् मा०,०,१०,
सा६ आवरणविश्वः । १० तत्पूर्वभाषिको विश्लेपत्यापि स्वपूभ्यविविश्लेषहेतुकखे जमादितविश्लेषकल्पनायामनवस्थेति माधः। १४-पवि. धान-सा० । १९ आवरणविश्लेषतः । २० सम्भदर्शन झनचारिमानित रत्नत्रयम् । २७ सम्यक्षानाम्यावत् । २२-परिमलनसभा, १०, १०,
स दाभ्यासस्य । २३ सम्यगशामाभ्यास । २४ प्रसिद्धाशेषेति प्रशब्देन ।
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१]
प्रथमः प्रत्यक्षग्रस्तम्यः
fuarत्' इति नृमः । तथाहि यत् यत्कारणविरुद्धं ततस्याभाव कारणम् यथा शीतस्पर्शविरोधी दहनः तत्स्पर्शत्य रोमहर्षादिः, आवरणोपत्रलेवकारणमिध्याज्ञानाभिनिवेशविरोधी व सस्यज्ञानाभ्यास इति कारणविरुद्ध पदे अन्यथानुपपत्तिनियम निश्चयवत्याः सुनिश्चित एव प्रमाणाभ्यासस्यावरण त्रिश्लेपं प्रति कारणभाव इवि ।
Terrari Tea fमध्याज्ञानं च कारणम् ।
तथा तृतीये पक्ष्यामः सा हि तद्विस्तरेक्षितिः ॥९५॥ retaratit reपादेन भगवतः स्वार्थसम्पत्कारणमुक्तम् ।
29
१०
स्यान्मतम् - निःशेषवस्तु विषयज्ञानजनितं भगवद्वचनं निःशेषार्थमेव स्थान नियतार्थम्, नियतार्थ ज्ञानजनितं हि वचनं नियतार्थं स्याम् न च भगवतो नियतार्थं वेदनमस्ति । forareness श्रवनेषु दृश्यते । न खलु सर्व सवनं सर्वार्थमेव प्रतीतिवाधनाम्, चैनान्तरवैयध्यैन "प्रबन्धविलोपप्रसङ्गाच्चेति; तन सर्वविषयत्वेऽपि तज्जनानस्य प्रदेशतो नियतविषयत्वस्यापि भावात् । सप्रदेशं हि तज्ञानम् "आत्मनाऽनेकरूपेण" [ न्याय वि० श्लो० ९] इति वा । सप्रदेशयोगपद्ये तन्निमित्तसकलवचनयोगपथमिति चेत्; न; प्रतिपित्सु प्रश्नसहायस्यैव तत्प्रदेशस्य चचनकारणत्वात् । न च प्रतिपत्युः सर्वमेव पृच्छति । ततस्तप्रदेशनिमित्तस्य वचनसन्दर्भस्य नियतार्थत्वमित्येतत् प्रतिबुद्धग्रहणेन प्रतिव्यक्ति नियत भगवत्प्र - १५ बोधप्रदेशवादिना कथयति । ततो नेदमन्त्र दूषणं प्रज्ञाकरस्य
"सर्वार्थदर्शनायातः शब्दः सर्वार्थवाचका ।" [० वार्तिकाल० ११९ ] इति । एकग्रहणेन तु सकलप्रदेशालष्कृतनिखिख्वस्तु गोचर भगवा बोधप्रदेशवाचिना तन्निfree dearer सर्वार्थत्वं दर्शयति । 'सर्वार्थ' इत्यादि पुनरस्मिन् पक्षे अनुकूलत्वादेष न दूषणम् । अत एवोक्तम्
२०
“स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्वप्रकाशने ।” [ आप्तमी० श्लो० १०५ ] इति । सूर्त्तिमहणं तु ज्ञानतदभेदवणोधार्थम्", अन्यथा " ज्ञत्यायोगस्य वक्ष्यमाणत्वात् । तदdr द्वितीयपादेन स्वार्थसम्पत्रिवेदिता ।
श्रीवर्द्धमानशन्देन तु "निरविशयापदानकर्मपरमवैराग्यादिसम्पद्वाचिना भगवदाम्नायस्य प्रामाण्यमावेदयता परार्थसम्पत्कारणमभिहितम् । परमवीतरागस्योपदेश एक कस्मात् १ २५ निमहबुद्धिवदनुग्रबुद्धेरपि "तस्याऽसम्भषात्, अवीतरागत्यप्रसङ्गादित्यत्रेदमाह-भव्याम्बुरुहमानवे । भन्यानामम्बुरुहत्वेन रूपणं विकासयोग्यतासाधर्म्यात्, भानुश्खेन भगवतो रूपणं तत्प्रवृत्तिस्वाभाव्यसाधर्म्यात् । स्वभाव एव स्वयं तस्य यrade वीतरागोऽपि
अन्यथा साध्याभावे अनुपपत्तिरभावः साधनस्य, अविनाभावनियम इत्यर्थः २ रक्षतिः भ०, ५०, १०, स० [ विवरणस्थानम् । दे, क्यनोसर - भ० च०, प०, स० ४ उपदेशपारम्पर्य ५ प्रदेश-प्र०, प०, १०, ख० : सांशम् । ६ युगपत् । तार्थनि-आ०, ब०, प, स० । ८ प्रतिमूर्तय इति प्रतिपदेन । ९ प्रशाकरमस्य वचनम् । १०- मेदावरोधार्थम् आ० :-भेदर्थम् ब०, प०, स० ११ ज्ञात्वायो-आ०, ब०, प० । १२ अतिप्रस्वकर्म । १३ स्तरमानि-१०१ १४ परमवीतरागस्य भगवतः निरूप-आ०, ब०, प०, स०१
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२८ म्यायचिनिश्वयविवरण
[ १२ भव्योपदेशे व्याप्रियसे । न हि स्वभावाः यर्यनुयोगमहन्ति भावानां मिरवभावतापः । स र वत्स्वभावः तत्कायर्यानाम्नायादेवावगम्यते, तस्यापौरुषेयस्य निषेधात् । अवेन च परार्थसम्पत्स्वरूपं निरूपितम् । ततः सूक्तमेतदर्थवो देवत्यै
को विशेषपदार्थतत्त्वविषयज्ञानाभियोगादभूत् ,
प्रत्यर्थस्फुरितप्रदेशविशदज्ञानकमसिर्जिनः । वैराग्यातिशयायचिन्त्यविश्वात्सत्योधवादी च या,
___स्मै भव्यसरोजतिग्मरुचये भत्या नमस्कुर्महे ॥" [ ] इति ।
अथ यदि भगतो भव्याम्युभहभानुत्वं सत्तहि वाडायमयूखसापेक्षमेव नान्यथा । नहि तत्सन्निधानादनुपदेशमेव भन्यानां तत्वज्ञानमिति सौगतवत् स्याहादिनामभिनिवेशोऽस्ति, १० ततस्सद्वानयादेवः तस्वशासिद्धर्वाङ्मयमिहमपार्थकम् । न ह्येकवायसाये शन्सरमुरयोगवत् । तत्रापि तदपरापरवाायोपयोगपरिकल्पनायाम् अमथस्थाप्रसङ्गादिति । सदमाह
बालानां हिसकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितः,
- माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिषलात्मायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते,
सम्यग्ज्ञानजलैचोभिरमलं सत्रानुकम्पापरैः ॥२२॥ इति । इदमन तात्पर्यम्-भवति भगवद्वाङ्मयाक्षेत्र मध्यानां तत्त्वज्ञानम् । यदि तव्याप्य(Aधाय-) मलिनीकृत्तमेव स्थितम् । म चैधम् । १ घ मलिनीकृवस्य "भव्यजनमनसि तस्वावोत्तनसामान्य सम्भवति, परिशोधितमलस्यैत सस्य निरवविद्यानिवन्धनत्वात् । अतस्तमलपरिशोधनार्थमिदपरं याङ्मयमारभ्यमाणं नापार्थकत्वदोषमुहति प्रयोजनविशेषसम्भवात् ।
"यस्य तु "शकास्यरूपं स्वार्थ यथावस्थितमवद्योतयति सस्य भवत्येव तत्र शाखस्यान्यस्य वानुपयोगिलं प्रयोजनयिशेपधुर्यात् । तथा हि
शब्दवेदात्मनस्सस्पं स्वरवर्णक्रमादिभिः । योतयेत् स्वमहिम्नैव प्राप्तं ठयाकरणं वृथा ॥१६॥ यतो वेदस्य नित्यस्य स्वत एवावबोधिते । स्वरूपेन भवन्त्येव मिथ्यात्वाज्ञानसंशयाः ||१७|| तदभाये न तस्यास्ति प्रत्यवायस्तसः कुतः। क्रियते वेदरक्षाय कैश्चिच्छन्दानुशासनम् ॥१८॥
५
१ उपदेशाम्नाया । २ आम्नास्स सारखोपदेशस्थ । ३ अकलदेवस्य । ५ वाल्मयूख मा.व., स. ५ सम्भारावेधतस्तस्स ऍसश्चिन्तामरिक । निःसरति चाकाम करूयादिभ्योपि देशनाः ॥"-सरवस. श्लो. ३६०८।६ भगवदुपदेशादेव । ७ एतद्धनात्मकम् । 4 दि भगवामय यात् निर्मलमेव स्यात् । ९ भवदाम्रायस्य।. भव्यंजनस्व म-आ०,०,१०, स. भावात्रायस्य ११ एतस्यात्मकम् । १३ मीमांसकस्य । १४ देवः । १५-तमेय द्योतयति श्रा०, १०, १६ "रक्षार्थ चैदावामध्येच व्याकरणम्"-पा: मा पस्प!
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१२]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
स्वतो हि निर्मलवाने जावे तत्र प्रदीपयत्। नाज्ञानादिमलं तस्मिन हेत्वन्सरशनादपि ॥१९॥ एतेन म्याक्षकारतस्मिन् वेदे ज्या निरूपिताः । स्वतो हि वस्याभिव्यक्तनै व्यजकैः कि प्रयोजन ? ॥१०॥
आवारकप्रतिसो ज्यआदि वर्ण्यते । स्वतस्तद्व्यक्तिशतिश्चेत् ; कुर्वन्यावारकाच किम् ।।१०१॥ शक्तिध्वंसे स्वनित्यत्वं वेदस्य स्यात्तदात्मनः । शक्तिभिनव तस्माचेत् स्वतोऽसौ बोधकः कथम् । ॥१०२॥ शहेरेब यदि ज्ञानं वेदस्य व्यर्थसा भवेत् । ग्राह्यस्यायेन वैययम् ; अहेसो प्राह्मता कथम् ? ॥२०३॥ वेदोऽपि शक्तिसम्बन्धाद्धेतुश्चेद्बोधजन्मनि । तत्सम्बन्धोऽपि वैदिनस्योपकाराहते कथम् ! ॥१०४॥
अंशतस्योपकर्तत्रे पूर्वशक्तियया भवेत् । 'शक्तिररित विभिन्ना सैव स्यादपकारिणी ॥१५॥ वेदोऽपि शक्तिसम्बन्धादुपकारी यदीष्यते । प्रसनः पूर्व एव स्पादनवस्थाभयप्रदः ॥१०६॥ तस्मादभिन्ना तक्तिनित्य सा च व्यक्ति तम् । तत्तदात्यभिव्यकी मान्यतो युक्तिमृच्छतः ।।१०७॥ न चान्यथाकृतिस्वस्य "तारशस्योपपद्यते । "अनाधेयाविरूपस्यात् कूटस्थस्य विशेषतः ॥१०८॥ अमानन्दसामर्थ्य "भट्टस्तविदमन्नवीन् । "अन्यथाक्ररणे चास्य बहुभ्यः स्यानिवारणम्''[मी० श्लो. शशा२।१५०]इति। अन्यथाकरणस्यैवासम्भवादुक्तनीतितः । नाप्रामस्य निषेधोऽयं निषेधा प्राप्तिपूर्वकः ॥११०॥
अन्यथाकरणं चैतत्स्वरूपमनुधापति ।
तत्पौरुषेयमेव स्यात्पुरुषेणान्यथाकतेः ॥११॥
तस्मिन् वेदे अभिव्यविषाक्तिः । २ सयात्मनः। ३. सतोऽसी मार, २०, ५०, स... शानानुत्पा. एकस्य । ५ शक्तिभिन्नस्य । यतः भिमयोः सपायोपकारकभाई विना सम्पन्धासम्मवाद । ६ यदि वेदोऽकाकोऽपि शास्तमुपारं कुर्यात् तद्वत ज्ञानेश्यत्तिमपि विदयादिन्ति ज्ञानोपादिकायाः पूर्वशतवध्य स्यात् । - थैदे पूर्वायुपकारिका या शक्तिर्षिाले परं सा मिना। 4 पूर्ववत्युपकारकशक्तिसम्बन्धात् । ९ वेदः किमशकः सन फ्युपकार करिष्यति शक्त्या ? शक्त्या पेत् । स सती मिना, ततस्तत्सम्बन्धाश्रमम्या शक्तिः परिकल्पनायित्यनवस्था । १० अन्ययाकरणम् । ११ निस्वात्य । १२ नदि नित्ये करियप्पविशमः आधीयते नापि तस्मात् ककन प्रहारते, अनायाग्रहेयाविशयरूपत्वामित्वस्य । १६ भा०, २०, ५०, स. !
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२]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
तो हि निर्मलाने जाते तत्र प्रदीपवत् । नाज्ञानादिमल तस्मिम् हेत्वन्तरशतादपि ॥९९॥ decoratमन् वेदे व्यर्था निरूपिताः ।
tadi fatafat व्यजः किं प्रयोजनम् १ ॥१००॥ आवारकप्रति व्यकैर्यदि धते ।
ॐ
स्वतस्तद्व्यक्तिशक्तिश्चेत् कुर्वन्ध्याचा काळ किम् ॥ १०१ ॥ शक्ति त्वनित्यत्वं वेदस्य स्यात्तदात्मनः ।
शक्तिभिचैव तस्मात् स्वतोऽसौ योधकः कथम् ? ॥१०२॥ शक्तरेव यदि ज्ञानं वेदस्य व्यर्थता भवेत् ।
महत्वाचे वैयर्थ्यम्; अहेतो:' ग्राह्यता कथम् ? ॥ १०३ ॥ वेदोऽपि शक्तिसम्बन्धातुश्चेद्रोधजन्मनि । तरसम्बन्धोऽस्योपकाराहते कथम् १ ॥ १०४॥ अशकस्योपकत्वं पूर्वशक्तिर्वृथा भवेत् । "शक्तिरस्ति विभिन्ना चेत्सैव स्यादुपकारिणी ॥१०५॥ वेदोऽपि 'शक्तिसम्बन्धादुपकारी चवीष्यते । "प्रसङ्ग: पूर्व एव स्यादनवस्थाभयप्रदः ॥ १०६॥ तस्मादभित्रा तच्छतिर्नित्यं सा च व्यनकि तमू तत्तदात्यभिव्यक्ती नान्यतो युक्तिमृच्छतः ॥ १०७॥ "पायथाकृतिस्तस्य तादृशस्योपपद्यते ।
"अनाधेयादिरूपत्वात् कूटस्थस्य विशेषतः ॥ १०८ ॥
अजानन्वेदसामध्ये "भट्टस्तदिदमत्रवीत् ।
“अन्यथाकरणे चास्य बहुभ्यः स्यानिवारणम्” [मी-स्लो० १११।२।१५० ]ति ।
अन्यथाकरणस्यैवासम्भवादुक्तनीतितः ।
armints frषेषोऽयं निषेधः प्रातिपूर्वकः ॥ ११० ॥
किन,
२९
अन्यथाकरणं चैतत्स्वरूपमनुधावति ।
पौरुषेयमेव स्यात्पुरुषेणान्यथाकृतेः ॥ १११ ॥
मानानुत्पा
१ तमिन्दे अभिव्यक्तिशः २ शतात्मनः । सोऽसौ आ०, ब०, प०, स० दक्षस्य । ५ शतिभिन्नस्य । यतः भियोः उपकार्योपकारका दिन सम्बन्धासम्भवात् । ६ यदि वेदोऽशतोऽपि शक्त्युपकारं कुर्यात् सस हनेशिमपि विदध्यादिति शानोलादिकायाः पूर्ववैयर्थं स्यात् पूर्वशर कारिका जन्या शतिर्विद्यते परं सा भिक्षा ८ पूर्वशतयुपकारक सम्बन्धात्। ९ वेदः मिशः सन् स्युपकारं करिष्यति सवस्या के ! क्या चेत् था तो मित्रा, ततस्तत्सम्बन्धार्थंमन्या शक्ति: परिकल्पना १० अन्यथाकरणम् | ११ नित्यस्य । १२ नहि नित्ये कचिदप्यतिशयः आधीयते नापि तस्मात् कथन हीयते मायायासियरूपत्वात्स्वि १३ मा आ०, ब०, प०, स० १
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न्यायविनिश्वयविपरणे
[ ११२
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यथग्यथाकरणं वेदस्वरूपमनुधावति। ततहिं पौरुषेयमेव स्यात् पुरुपेणान्यथाक्रियमाणत्वात् कादिवत् । अथ नानुभावति पुरुपकृतस्यान्यथाभावस्य वेदादन्यस्वादिति चेत ; ai aft कथितम्' 'अन्यधाकरणे चास्य' इति ? न हि तस्मादर्थान्तरं तस्येति भावे व्यैपदेशमर्हति । न सम्यन्वास तत्तस्येति व्यपदेशः अपि तु पुरुषाभिप्रायादेव, निवारणस्यापि ५ बहुभिस्त करणादिति चेत्; कुतस्तेभ्यस्तन्निवारणम् ? तेषां वेदेत्थम्मापपरिज्ञानादिति चेत्; तदपि न प्रत्यक्षात् ; तत्र वेदेवरसाधारणस्यैव वर्णपादेः प्रतिभासनात् । सम्प्रदायाशेत्; कुतस्तस्यैव सत्यस्वं नानित्यम्भाव सम्प्रदायस्यापि । वेदस्थ सधै सत्यत्वाच्चेत् तदपि कुतः ? तत्सम्प्रदायस्य सत्यत्वा चेत् न परस्परीभगात् । अनादित्वादित्यंसम्प्रदाय एवं सत्यो नान्य इति चेत् तदपि कुतोऽवसितम् ? अनादिः काल इत्थं सम्प्रदायवान् कालत्वात् अथकालवदिति १० चेत्; न; अन्यत्रापि साम्यात्- अनादिः कालः अन्यथा सम्प्रदायवान् कालस्थास अग्रकालवदिति । साध्यविक निदर्शनम् अकालस्यान्यथासम्प्रदाययस्त्रादर्शनादिति चेत्; कस्य तर्हि निवारणम् ? देनोच्यते- 'अन्यथाकरणे चास्य बहुभ्यः स्थानिवारणम्' इति । न धन्यधासम्प्रदायादम्यद् अन्यथाकरणं नाम । तस्मादनादित्वाद् इत्यंसम्प्रदायवद् अभ्यथा सम्प्रदायस्यापि सत्यत्वादनिवारणमेव स्यात् । परित्यवायम् १५ अत एव 'अभ्यस्त निवारणम्' उच्चव इषि चेतू; नः म्लेच्छादीनां धर्मसम्प्रदायस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् उक्तनीत्या तस्याप्यनादित्याद्भूयोजनपरिमहाच" भूयांसो हि म्लेच्छादयः तेषां याशिकापेक्षयातिशयेन बहुस्थात्, तत्कथं जीवति तत्सम्प्रदाये चोदनायt er धर्मे प्रामाण्यम् ? पौरुषेयत्वादप्रमाणमेव स इति चेत् न रथम्भात्र सम्प्रदायस्यापि पौरुषेयत्वाविशेषात् । गुणवत्कृतोऽयमिति चेत्; कः पुनश्त्र " सम्प्रदातुर्गुणः ? वेदसत्वज्ञानमेव अन्यस्यानुपयोगदिति २० चेत् कुतस्तस्य तज्ज्ञानम् ? सम्प्रदायान्तराध्चेत्; न; धर्मतस्वज्ञानस्यापि म्लेच्छा दिए तथाभावात् "तेषामपि गुणवत्त्वापतेः । तश सम्प्रदायादधिवेन्दनम् अन्यधाऽपि तत्सम्प्रदायात् । तस्माद्वेदस्य स्वभावत्वादेव विवेचनं नान्यथा । न च तान्यथाकरणं कुतश्चिदपीति व्यर्थं सनिवारणार्थ मन्यापेक्षणम् । तथा
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१२
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३०
स्वभावादेव वेदस्य स्वार्थावद्योतकारिणः ।
किं परापेक्षा कार्य व्याख्यानादि यदिष्यते ॥ ११२ ॥ व्याख्यानादिसहायाद्वेदात् स्वार्थे मविर्भवेत् ।
नियतो यदि तस्यार्थो व्याख्याभेदः कथं तथा ? ॥११३॥
१ कुमारिलम | २--र्यान्तरस्येति आ०, ३०, प०, स० । ३ तस्येदमिति व्यपदेशम् । ४ भिप्राय एव । ५ वेदेऽर्थभावनापरि-आ००, प०, स०१६ वैवेत्यपरिज्ञानसादि ७ इत्थम्भारसम्प्रदायस्यैव ८ इत्य म्भूतत्वेनैव । ९ खसि हिं सम्प्रदायस्य वेदस्य सम्भूत्येन स्वत्यश्वसिद्धिः सति चयन सम्प्रदाय विद्धिरिति । १० अनित्यम्यागसम्प्रदायः । ११-परिगृहीत्वा भा०, ब०, प०, स० १२ प्रायः १३ नैत्यम्भावख प्रदामः । सम्प्रदायप्रवर्तक सम्प्रदायकानामपि । १७ मित्यवेदस्वरूपे ।
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११२]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव अस्ति चाय बदरयेको' धर्म द्रव्यगुणादिकम् । वेदवादी पये धर्मसपूर्वाख्यं यदस्यलम् ॥११४॥ श्येनस्यानपत्याधर्मत्वं प्रपद्यते । भाग्यकारस्तदुम्को नैवमित्यवगच्छति ।।११५॥ वयस्य विहितस्यापि साफ्ल्याचा दुखहेतुताम् । श्रेयस्करत्वमन्ये तु मन्यन्ते चेदयविनः ॥११६॥ एवमादिः परोप्यस्ति तव्यास्याभेदविस्तरः । सत्र न झायते किं तव्याल्यानं वस्तुगोचरम् ।।११।। न चाविदिततत्त्वार्थव्याख्यानसहकारिणः । वेदात्त्वं प्रपद्यम्से प्रेक्षावन्तो विचक्षणाः ॥११८॥ वेदस्य नियतार्थत्यानदिनावियोधनः । न.प सर्वोऽपि तदेतत्त्रार्थ इति युध्यते ॥११९॥ तस्वार्थ यदि मन्येथाः व्याख्यानं युक्तिसहतम् । वेदात्मा यदि सा युक्तिी सर्व तथुक्तिसङ्गतम् ॥ १२०॥ सर्वश्याख्यानुकूल्येन सं समर्थ बदत्ययम् । येषो न ह्येष तदेदे कापि दृष्टः पराशुखः ॥१२१॥ युक्तिरन्यैव वेदासाऽपि वेदार्थडग्यदि । तड़ा धर्म प्रमाणत्वं घेवस्यैवेति नश्यति ॥१२२॥ अवेदार्थैव युक्तिश्चेत् ग्याल्या सत्सङ्गमात्कथम् । तत्त्वार्था काचिदन्यासां सर्वासां सस्पसबसः ।।१२३॥ अथ "वेदान्तरं युक्तिस्तरसङ्गायुक्तिसङ्गमः । "तव्याल्यायुक्तिसाङ्गत्ये ताई वेदान्तरं भवेत् ।।१२४॥
कुमारिलमः | "यो हि पुरुषप्रीतिः सा द्रव्यगुणकर्मभिः । बोदनालक्षण: सध्या तस्मात वेव धर्मता ॥"-मी. की 1211५। २ अमाकरः। "चोदनत्यपूर्व झूमः"-नावरभा. १५ 1 "तस्म खपूर्वरूपत्वं वेदवाश्यानुसारतः । -प्रक०प०पृ. ११५1 ३ स्वामी "कोनः ! प्रत्यक्षायाम इनो परित्वमादिः । सत्रानों धर्म उक्तो मा भूत इत्यर्थ प्रहप्पम् । कथं पुनरसारमयः ! हिसाहि सा, सा च प्रतिषियति । कथं पुनरनार्यः कसंधतयोपदिश्यते ? उच्यते । नैव इवेमादयः करीब्यतया विशाधन्ते। यो दि हिस्तुिमिच्छेन, तस्यायमभ्यः इति हि तेषामुपदेश:--'एयनेमाभिचरन् यजेत' इति हि समामनस्ति न अभिचरितव्यमिति ।"-शायरमा HR | ४ सश्यम्भदौमां तु न साक्षायुपञ्चरेण नापि सत्फलस्यामत्वमिति तस्मानर्थत्वप्रतिपादनपरम्-'येनो वन रघुः इत्येवमादि भाध्यमुपेक्षणीयम् ।" मी० एलो. 8.०१.०५ " श्रौती हेतुः सविशुद्धः पशुस्विरमकवात् ।"-सामाठर का३ । "ज्योतिष्ट्रोमार दिजन्मनः प्रधानापूर्वस्य पशुहिंसादिव-मनाउनहेतुमापूर्वेण स -सtvaraको का०२६ मीमांसकाः। ७ व्याख्याभेदः1 ८ वेदार्थदशा पदयाल्यानं कृतं तसत्यमिति । ५ तथा धर्म --बाय, प०, मा . वेदारक्षी नरस्यापि प्रामाण्य स्थादिति भावः। ७ प्रतिवेदव्याख्यासमर्थनाश्च गदि बेथान्तरमपेक्ष्यते। ११ वेदान्तरल्यालया।
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भ्यायविनिश्चयधिच
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ligiduniciandinidiomahmana
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ताप्येवं प्रसङ्ग स्यादनवस्था महीयसी । तन्न व्याख्यानसम्यक सुगम युक्तिसङ्गमान् ॥१२॥ सर्वव्याख्यासमत्वे च सन्दिग्धा नियतार्थता । वेदस्य कुरुते सूर्णमप्रामाण्यभराचरम् ।। १२६।।
चानियः पार्थो भवन्य दिनुष मतः । तत्तव्याख्यानभेदेन तत्तदर्थगतिस्ततः ।।१२७|| सर्वसम्प्रविपतिः स्यात्सायेंषु तथा सति । कश्चिदर्थः कथं नाम केनचित्प्रतिषिध्यते ॥१२८॥ अनर्थेतररूपत्वं शबरोम्बेकसम्मतम् । श्येनस्य यस वेदार्थो विरुद्धोऽपि भवेन्न किम् ? ॥१२९॥ अर्थानर्थत्वरूपेण त्यागोपादानवर्जितः । इयनोऽपि यदि वेदार्थः सुस्थितः प्रेरको विधिः । ॥१३॥ अग्निहोत्रादिचारयाद्यन् सव्याख्यानारपतीयते । 'श्वमांसभक्षणं तस्य वेदार्थव कथन्न बा ? ॥१३१॥ असव्याख्यानमेतब्येत् सध्याख्यानं किमुच्यताम् । यत्र बेदानुफूल्य देतदपि रश्यते ॥१३२॥ ततो व्याख्यासाहायाच्चेद्वेदादर्थोऽवसीयते । सर्वव्याल्यार्थतादयेमसमाजसभापतेस् ॥ १३३॥ नित्यं तद्रोधशक्तस्य नापेक्षेति च वक्ष्यते । अशकस्यापि काऽपेक्षा मापेक्षा शतकारिणी ॥१३॥ तस्माद्वेद [:] स्वतस्त्वं च स्वार्थ चान्यनिराश्रयः । व्यक्तं वक्तीति वक्तव्यं स्वतःप्रामाण्यवादिमिः ॥१३५॥ म चेदृशः स्व[-शस्व-भायस्य स्वरूपस्वार्थयोयोः । सम्भवेन्मलिनीभावो नश्यावशतादपि ॥१३६ ॥ न हीदमेष मे रूपमयमेवार्थ इत्यपि । जानुपास वदन वेदः शक्यपच्छादनः परैः ॥१३॥ तस्यतो निश्चिते वेदे वेदार्थे च सदर्थकम् । यव्याकरणमीमांसातत्सर्वमनर्थकम् ।।१३८॥
सतः स्थितमेतत्- असम्भवन्मलिनीकारस्यैव बनान्तरवैफल्यं नापरस्य । सम्भव ३० मलिनीकारश्च भगवदाम्नाय स्वरूपतोऽर्थतश्च छैप्रस्थान समाज्ञानाविमलसायात इति विसं
तात्पर्य यत्तस्य ।
"तेनाग्निहोत्रं जुवात स्वर्गछाम इति भुसी। सादेच्मासमित्येव नार्थ इस्पत्र का प्रमा॥"-.. 1101 वैदस्य मीमांसक। नित्यस्वभावस्य वेदस्व । ५ अल्पशामाम् ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव अधुना पुगरवयवव्याख्यान क्रियते-न्यायोऽत्र स्याहादामाघलाञ्छनो भगवदाम्नायोऽभिमसः । न चैवमशब्दार्थत्वम् । तस्यापि न्यायत्वात् । सामान्यवाधिना न्यायशब्देन कुत्तो विशेषप्रतिपतिरिति चेत् ? 'भव्याम्बुसहभानवे इत्युका पुनरस्य वचनान् । भगवसो हि भव्यकमलाकरविकासकारिणा मरीचिनिकरण भवितव्यं तदभावे तत्करणायोगात । 'सपन भगवानरूपो युक्तः । ततो भत्र्यानां तस्वप्रतिपत्तिविकासासम्भवान, प्रतिपुरुषं ज्ञानकल्पना- ५ वैयाम् , सर्वस्य सर्वदर्शित्वापः, प्रतिपातपतिपादकभाषाभावासाश्च । माऽपि विनेयकामरूपस्तन्निकरः; सबसट्रिकल्पायोगात् । न झसतस्तस्य तनिकरणम् ; खरवस्यापि प्रसङ्गान् । नापि सका प्रयोजनाभावात् । भव्यकमलविकास: प्रयोजनमिति चेत् ; न ; सदस्यतिरेकात् । सत्त्वप्रतिपत्तिरूपो हि तद्विकासः कथं तत्वज्ञानाद्भिद्येत यतस्ततः स स्यास् ? भेदे स्वमतविरोधात् । कुतो या तस्य संस्थम् । विनेयभारिन एव कुत्तश्विद्धतोरिति चेत् ; निष्फलस्तहि भग.. वव्यापार इति बासौ तस्वजिज्ञासावद्धिम्वेषणीय; स्यात् । भगवड्यापारीदिति चेत् ; सा कोऽपरोऽन्यत्रास्गायान इत्याम्नाय एंव न्यायप्रोन गृह्यते । यद्येवमाम्नाय इति वक्तव्यं स्पष्टस्वाम् ईन्दोभास्वाध्यभावादिति चेत् ;न; आम्नायस्यापि तत्त्वप्रतिपत्तिहेतुत्वेन न्यायस्पत्यो. पवर्णनार्थत्वादेववचनस्य । निश्चितं च निर्वाध च वस्तुप्तस्थम्" ईयसेऽनेनेति न्याय' इति व्युत्पत्तेः । तदुपवर्णनश्च प्रमाणभेकमेव वे एवेति नियमच्याघातोपदर्शनार्थम् । कुतः पुनाय. १५ रूपस्वमाम्नायस्येति चेत् । आस्तां तावत्तृतीये तद्विस्तरात् ।।
का पुनरसौ ? इत्याह-अयं प्रतीयमालो वर्णपदाधारमको न प्रमाणागोचरः स्फोटाविरिति । स किम् ? इत्याह नेनीयते। कः पुनरत्र यर्थः सुखाशुभावसौष्ठवलक्षण इति वूमः । सुनेन नीयते नेनीयते इति । सुखं पुनरिह मथनोपायानां सुगमत्वय, सुगमैरुपायैयित इति । अत एवाशुभावस्यापि परिग्रहः सुममोपायस्योपेयस्य आशुभानोपपत्तेः । सुष्टु नयनाद्वारा नेनीयते । सौष्टयं तु नयनस्याविवलितयुस्तिगोपरत्वम् । अविचलिताभिर्युतिभिनीयसे बेनीयत इति । पौनःपुन्य भृशाधों चा"यर्थः । पुनः पुनर्नीयते नीयमानः क्रियते नेनीयत इति । कि नेनीयले १ इत्याह-अमलम् ! मलाभावम् अर्धाभावेऽव्ययीभायात्, अबदा"सत्यमिति यायन् ।
स्यान्मतम् -"एकदा यावदातत्वं नीतो न्यायः किं पुनीयते नयनप्रयोजनस्यावदा- १५ सत्वमाः प्रागेम सिद्धत्वाद् अशक्यत्वास । तथा वि-तदेव, अन्यद्वा पुन यो न्यायः ? ने धावत्तदेव ; यत्तस्तस्य प्राप्तत्वात् । न हि प्राप्त प्रति नयनं सम्भवति, अप्रामस्य नयनविषयस्वात् । अन्यरोष वहिं पुनीयत इति चेत् । न तस्यानाऽनिर्देशात् , एकस्यैवामलार्थस्योपात्तस्वास् । सन पौन:पुन्यमत्रं यदर्थ उपपन्न इति; समसुमतम् ; विषयभेदस्यान भावात् ।
मरीचिनिकरः । २ भगवज्ञानात् । ३ विनयशानस्य । ५ षत्वम् २०,२०१५-यस्वात् आ०, ब०, ५०, म । ६ विमे प्रज्ञानसत्यम् । ७ एवं न्या- सा । ८ 'सान्नायो मलिनोकता' इति हो सति । ९-रूपोपबार, ०,१०, स -स्य अनि-- आ०, २०, २०, स. ११-
स नी - भा०,०, प. १२ पीना पुन्यं भृशाश्च नियरसममिहार तस्मिन् द्यौत्य अन् स्वात"-सि. कौ. शार१३ चिर्मलस्वम् । १५ एकमा ०। १५ सुपमम् भाग,०,०, सा।
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३४
न्यायविनिश्चयविधरणे नवदातत्वमेकमेवात्र विषया, अबदालतरत्यादरम्यस्यापि भायाम् । अप्रतिपादितस्य कथं प्रतिपत्ति रिति चेत् ? न ; अभलशब्देनैवे एतत्प्रतिपादनात तस्य सामान्यशब्दयात् । भवति हि सामान्यशब्दाविशेषगतिः नीलशब्दात् नीलनीलादिविशोषव्यवसायदर्शनात् , शववापि अमलशध्दे.
नैव अमल तररमादेः प्रतिपत्तिः । ततोऽमलत्वं नीतो न्यायः पुनरमतररप युनरमलतमत्वं ततोऽपि ५ सातिशयममलतमत्वं नीचत इति न शास्त्रस्यावृत्तिवैकल्यं बालक्रीडादोषो वा विशेषप्रतिलम्मान !
आम्नायस्य हि नमल्यं नान तज्ज्ञानस्य नैर्मल्यमेव । तचास्मान्यायास्नादाविर्भवत् पुनरान्ति। सहायात सविशेषम् , सतोऽपि सथापिधास् सविशेषसरं सविशेषतम भवति । दृश्यते । शोमस्य अभ्यासाधिष्तिस्य स्वविषये झानावशेषकारिभाते नात्र विद्वज्जनस्य विवादः ।
कैस्य पुनरभ्यासेम शास्त्रस्याधिमाधम् ! आचार्यस्येति चेत् ; न ; प्रयोजनाभावात् । तविषय१० ज्ञामविशेषः प्रयोजनमिति चेत् ; न ; तस्थ प्रागेव सिद्धत्वात् , अन्यथा शास्त्रकरणस्यैवाऽसम्भ.
वात् अस्मदादिवदिति चेत् ; सत्यम् ; स्वयं प्रयोजनामावः शास्त्रकारस्य, प्रतिपाद्यत्यैव तु तदभ्यासासद्विषयज्ञानविशेषोत्पत्तशास्त्रकारो हि शास्त्रमावर्तयन् प्रतिपाद्यस्व शाहाज्ञान सातिशयमुपजनयति रार्थत्वात्तत्प्रवत्तेः । सन्न प्रयोजनामावस्तदभ्यासस्य । अत एव भूशास्यापि य
थस्योपपत्तिः, भृशं नीयते नेनीयत इति, फलातिशयरूपस्य भृशार्थस्य सम्भवान् । तदनेन पुस१५ रातिनिग्रहस्थान प्रत्युक्तम् ; सातिशयज्ञानस्य वत्साभ्यत्वात् । न हि सप्रयोजनादेव पच..
नात निग्रहावाप्तिः अतिप्रसङ्गा, तत्त्वजिज्ञासावन्तं प्रत्येव तद्वचन सप्रयोजनलेनैव ततः सातिशयानस्याभीयत्वास न विजिगीभवन्त पनि, न बसौ ततस्तत्त्वज्ञानमिच्छति, तत्तिचि. कीर्षयैव तस्य प्रवृत्तेः, अतस्तं प्रति पुनर्वचनस्य निरर्यकत्वान्निप्रहाधिकरणत्वमिति चेत् । न ;
प्रथमवयनस्यापि तत्वप्रसन्नात् , बतोऽपि तस्य तत्त्वज्ञान प्रत्यनादरस्य वत्तिरस्कारपरत्वस्थ २० पाविशेषात् , तसस्तचनमपि निग्रहस्थानेषु गणयिहन्यम् । तदभाये याद एय न भवेदिति चेत् ;
मा भूत् , को दोषः १ वादिनी जयलाभावभान इति चेत् ; न ; "तद्धनेजप सदभावस्थ सम्स्वास् । नदि निरर्थकालाथमववनादपि तल्लाभायि; द्वितीयादपि प्रसङ्गात् । "सार्थकत्वसमर्थन पुनर्यचनेऽपि सगानम् । निरूपयिष्यते चैतद्यथाक्सरमिति नेह प्रसन्यते | तस्मादुपपद्यत एव
सुखादियर्थः प (प) रिग्रहः । पौन:पुन्यभृशार्धयोरेव "शब्दविद्यायां राडर्थत्वमनुश्रूयते न सुखास दीनामिति पेन् ; न ; वेषामपि कश्चित्तदर्थत्वानुस्मरणान् । तथा च पठ्यत्ते--
“यौनःपुन्यं भृशार्थो वा दाभ्याससुखानि च।।
आशु सुष्टु बहुवञ्च यङर्थाः परिकीर्तिताः ॥" [ ] इति ।
पौनापुभ्यशार्थमात्रयङर्थवादिभिस्तु भूशार्थ एव दूराभ्यासादीनामतर्भावान पृथगुपादानं कृतमिति न कश्चित् व्याधातः।
१-जैव प्रति-मा, ०,१०, सन २-खं तसो आ4०, ५०, स. १ते स्वरस्य सा । -लिसाहायवात् भा०,०, २०, स. ५ शाखाभ्यासा-वा -याकारल्य-ता। 'शास्त्राभ्यासका कः स्यात्' इति श्वार्थः। शास्त्र
का नाम निप्रस्थानम् । १०निग्रहाधिकरणम। " प्रयवयनमपि । ११ प्रथमवचनेऽपि । १३ प्रथमवधने पनि सार्थवाल समर्था । १७ सि. कौ ॥२२॥
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१२)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः कीशो न्यायः ? इत्याह-मलिनीकृतः विप्रतिपत्तिमलीमसः तः इति, निर्मलस्य निर्मलखानयने प्रयोजनाभायात् । किं कृत्वा ? इत्यवाह--प्रक्षाल्य मलिनीकृत न्यायं परिशोध्य । कैः । सम्परज्ञानजलैः निर्मलत्वान्मलशोधनस्वाच अलसाधान सम्यमानानि जलश्न निरूपितानि । ज्ञानग्रहणम् अज्ञातोपदेशनिषेधार्थम् । तथाहि-यापदेष्टव्यः न स्वयं जानाति कथमुपदिशेत, उपदिशम्या कथं प्रमाणमुल्मत्तयत् । नम्वेवं सुगतस्याप्रमाण- ५ त्वमेव स्यात् अज्ञातस्यैव वैहिर्भावहेतुफलभावादेस्तेनोपदेशात् । परित्रात एव लोबुद्ध्या अहिर्भावहेतुफलमावादिरिति चेत्, का पुनरियं लोकवुद्धिः ? ग्राह्यलाहकभावोपप्टवाधिधिता वितथाकार विज्ञप्तिरिति चेत् ; सा यदि विनेयसम्वन्धिनी; कथं तया युद्धस्य बहिर्भावादिपारेशानं स्वास्तेनापरिज्ञानात् ? तामपि लोकयुद्धवन्तराजानीत इति चेत् ; न ; अनवस्थानान् । आरमसम्बन्धिन्येव लोकबुद्धिरिति चेत् ; न; अतत्त्वर्शिवप्रसहाात् । तथा हि- १०
विश्था हि विज्ञप्तिलोकमुद्धिनिगद्यते । सद्वतस्तस्ववित्त्वं चेन्; अहवश क उच्यताम् ? ॥१३९।। अविधापरिहाणिश्च कथं तस्यैवमुच्यताम् ? अविद्याप्रभवा होषा विज्ञप्तिर्वितथाकृतिः ।। १४०॥ 'यथास्त्र प्रत्ययापेक्षादविद्योपप्लुतात्मनाम् । विज्ञप्तिर्वितथाकारा जायते तिमिरादिवत् ॥' [प्र. वा० २।२१७ ] इति 'कीर्तिवयोभावात् , अविद्या चेत्परीक्षिता । .
नास्त्येय तर्हि बुद्धस्य लोकधुद्धिर्ययोदित्ता ।।१४२॥ "असत्यपि सुरातत्याविद्योपप्लवधिकलतया तशायां मिथ्याझाने प्रास्यतज्ज्ञानमनितात् संस्कारादुपपयत एक बहि वायुपदेशः । तदुक्तम्-"पूर्वावधेन देशनासम्भाचक्रभ्रमणवत्" [प्र. २० धार्तिकाल० २।२१९ ] इति चेत् ; मन्त्र ; “यस्मात्तदावेधस्याहानत्वं चेन; सिद्धमझातोपदेशित्वम् । तस्य ज्ञानत्वेऽपि मिथ्याशानत्वं चेत् ; न तदशायां तदभावात् । पूर्वमालीदिति चेत् ;न; तस्येदानी क्वचिदनुपयोगादात्मदर्शनषत् । यदि युनरपक्रान्तस्यापि मिथ्याज्ञानस्थेदानीमुपदेशहेतुत्वम् आत्मदर्शनस्यापि "चियपक्रान्तस्य पुनरावृत्तिनियन्धनवं भवेदिति सुगतस्य पुनर्जननमात्मस्वेहादयश्च दोषा भवेयुः पुनराष्ट्रप्तस्तद्रूपस्वास्, "पुनरावृत्तिरित्युक्तौ जन्मदोपसमुद्भयौ' २५ [प्र० का० १११४२] इति वचनात् । तया च दुर्याहृतमेतत्-"आत्मदर्शनीजस्य
पस्तु । ३ --तस्व- आग, ब०, ५०,स। ३ बायपदार्थनिएकाकारमाया: । " "वर्स सोसायुज्य माचिस्ता प्रापते" -प्रथा- २१२१९ । ५-कार विभाग, ब०, ५०६ पिनेय सम्बन्धिया विज्ञानः । सुगतस्य । “अनः पविद्योपलतामनामप्रीमग्निशमनानां पु स्थास्वं यस्य भ्रमस्य व आत्मीया यपास्वं प्रत्यय स्तस्यातक्षगमपेक्षः। सस्तावितथौ प्रायशाहकाकारी स्वाः सा ताशी विसर्जाियते । तिमिदिवत. तिगिरावाविय, वितथाकार चन्द्रादिविक्षतिः।" -प्र. वा. म. ९३२१७५धर्मक्रोति। असत्यस्यापि आ०,५०,१०, ११ पूर्वावदेन श्रा०प०,लका पूर्वसंस्कारेण । १२ यस्मासदावेदस्य ०,०प०स०) १३ पूर्वकारस्य समतावस्यायाम् । १५चिरोपका-प्रा०, ब०, ५०, स.।
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भ्यायविनिश्ववियरणे हानादपुनरागमः" [५० या १११.४३ ] इति । प्रागज्यात्मदर्शने न सुगतस्येत्ति चोर; न वर्हि तस्य कदाचिदपि संसारः कारणाभावात् । आत्मदर्शनं हि संसारस्थ मूलकारण सृष्णाया अपि संसारहेतोस्तत्प्रभवत्वात् । सदमाचे चानादिरेव संसारविरहः प्रसज्येत
कारणामाचे कार्याभावस्थ नियमात् । न यवम् , पायाभियोगनिवन्धनस्य तद्विरहस्याभ्युपगमात् । ५ ग पासतो विरहः संसारस्य खरगायत् । ससोऽपि न विगत्मदर्शनेन सम्भवः, तदन्यहेतुकत्वस्य बाहेनुकत्वस्य च स्वयमनभ्युपर्गमादित्यस्त्येव संस्थापक्रान्तमात्मदर्शनम्, ततश्च मिथ्याज्ञानातकायामर कथमिवाना पुनस्यसपरियति वेत् ; "अपुनरावृपया गतः सुगतः” ? इत्यस्य विरोधात् । किन्न
आत्मदर्शनमुच्छिन्नमपि कार्य करोति चेत् । ध्यमेव मुमुक्षणां तदुच्छेदाय चेष्टितम् ।।१४३॥ मिथ्याशानादपकान्तामियाज्ञानं न तस्य किम् । ज्पदेशस्ततो भावी न तदित्येष विस्मयः ।।१४४॥ मिथ्याज्ञानमलेनैवं परितः परिवेष्टिता !
विधूतकल्पनाजाला मूर्तिस्ताथागती कथम् ।।१४५॥ १५ यत्पुनरत्र परस्य समाधानम्
"निरुपद्रवभूतार्थस्वभावस्य विपर्ययैः ।
न बाधा यत्रयस्येपि युद्धस्तत्पक्षपाततः ॥ न हि स्वभावो यहरहितेन निवर्तयितुं शक्यः । यलश्च दोपदार्शनो गुणेषु अयर्सते
दोपेषु च गुणदर्शिनः । न च सात्पीभूतनैरात्म्यदर्शनस्य दोषेषु गुणदर्शनं न गुणेषु २० दोषदर्शनमदर्शनं या गुणेषु, नैरारम्यदर्शनस्य निरुपद्रवत्वात् ।
ततः स्वभावो भूतात्मा निरुपद्रव एव च । कथयस्य परित्यागः शक्यः कतु सचेनसा ॥ पक्षपातश्च पित्तस न दोषेषु प्रवत्तते ।
ततस्तस्य न दोषाय यतः कश्चित्प्रवर्तते ॥" [५० वासिकाल० ११२१२] इसि; २५ तन्न समीचीनमः मिथ्याज्ञानवम् मिल्योपदेशस्याप्यभावप्रसमान , तस्याभ्यभूसार्थविषयस्य सोपह
1 "यः पश्यस्मात्मानं सत्रास्माइमिति सानता स्नेहः । स्नेहात सुखेषु नृभ्यति तृष्णा दोषातिरस्युदते । भुगदी परितृप्यन ममेति तरसाधनान्युपादत्त। तेनामाभिविदेशी यावत् नापन् स संसारे"-प्र.का. १९१९-२२१॥ २ प्रागप्यमामाभाये । ३ नैरास्यदर्शनाभ्याससाधनस्य । म्यम्-प्र.पा. स्व. ०३६-२७।५ सुगतस्य अपुनरावृत्त्या गम युगतत्वम् .."-प्रका०म० १९४२ . सुमत 1 ८ मिथ्याशामयुसुमतान् । ९ "विधूतकल्पनाजलगम्भीरोदारमूर्तये"(प्रधा ) इत्यादिना स्तूयमाना। .. "दोपरागद्वेजकस्य प्रहाणेन मिहपदम प्रमाणसंवादिस्वेन भुतार्यस्थ सत्यार्चस्यानारोपितत्वेन स्वभावत्व प्रसनै राम्वस्याभिरचितविध. यस्य विपर्ययेवात्मायाकारेवन्यासे सोपवत्वाविना प्रयत्न एवं लावन्न सम्मति प्रेक्षस्य । सम्भधेवि वा विपर्यय माया नैसश्म्यस्य सात्मीभूतस्य मावस्यास्ति सुस्तत्र दोषप्रतिपक्ष गुरुयति मा, पक्षपाताह ।"-प्र.वा.
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२
प्रथमः प्रत्यक्षस्तावा
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rear career, sोपतया च निश्चिते तस्य प्रयन्नासम्भवात् । प्रयोजनवादपेऽपि प्रयन इति चेत्; न; पक्षपाताभावे तदसम्भवात् । नै च दोघे पक्षपात: "पक्षपातश्व चित्तस्य" इत्यादि विरोधात् । क्षेत्र एवार्थ' ने भवति प्रयोजनवत्वेन गुणत्वादिति चेत्; न; गुण एवायं न भवति भूतार्थत्वेन दोषत्वात् । प्रयोजनवत्वं गुणो दृश्यत इति चेत्; न; अभूतार्थत्वस्य दोपस्यापि दर्शनात् । तथा च
I
!
गुरात पक्षपातोऽस्मि दोषत्वात्तद्विपर्ययः । युगपत्प्राप्नुयातां ते धर्मावन्योन्य शक्तिौ ॥ १४६॥ पक्षपाताद्विधेयत्वमविधेयत्वमन्यतः ।
उपदेशस्य पच्यंशे
॥९४७॥
श्रदस्मात्समावेशा निर्मुच्येत तथागतः ।
नामेति तो नः कृपया परिपक्ष्यते ॥ १४८ ॥
१०
वस्तुभूतेप्यभूतार्थतया दोषत्ये राजनिमीलनं कृत्वा गुणत्वस्यैव प्रयोजनवत्स्वलक्षणस्याभिसन्धानाम् पक्षपात एर्वे न तत्र विपर्यय इति चेत् किं तत्प्रयोजनं यत्पक्षपातंनियम्धनं भवेत् 1 मार्गात विनेयानामिति चेत् कः पुनरसौ मार्गः ? पहिरर्थादिज्ञानमेवेति चेत्; seerat मार्गः ? पुरुषार्थस्य प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिलक्षणस्येति चेत्; न; वस्तुतस्तदभावात् स्वयं १५ 'भ्युपगमात् । अवस्तुसतच दोषत्वेनापक्षपातविषयत्वात् कथं तयर्थोऽयं कारणान्खपण प्रयत्नतथागतस्य ? दोषे दोषतया निर्णीते तदसम्भवाद, अन्यथा " यत्तश्च दोपेषु गुणदर्शिनः" इत्यस्य विरोधात् । प्रवृत्त्यादेरपि प्रयोजनवत्न गुणत्वात् पक्षपातविषयत्वमेव अभूतार्थखेन तु दोषस्त्रे सत्यपि राजनिमीलनविधानादिति चेत्; न; " तत्प्रयोजनस्याप्यपरप्रवृत्त्यादिरूपत्वेन 'वस्तुतस्तदभावासू' इत्यादेरावृत्या चक्रकानवस्वयोः प्रसङ्गात्। तदन्यरूपत्वे च समाधानस्याभिघास्यमानत्वात् । तत्र प्रवृत्त्यादिः पुरुषार्थः । निःश्रेयसमेव स्वाभिमतं पुरुषार्थं इति चेत्; न; तत्र बहिरर्घादिज्ञानस्यामार्गश्चात् सकलधर्मनैरात्म्यदर्शनस्यैव सन्मार्गत्वेनोपगमात् । "मुक्तिस्तु शून्यताये : " [प्र०वा० ११२५५ ] इति वचनात् । तत्र वहिरर्थादिज्ञानं मार्गः । सम्यग्ज्ञानsafe feeti aार्ग इति चेत्; न; तत्र तस्योपदेशस्यैव हेतुत्वात् । न हि तस्योपदेशकार्यमतत्वोपदेशाद् अनग्नेर्धूमवत् । अतत्त्वोपदेशश्वायमुपदेशो बहिरर्थादेस्तद्विषयस्य वस्तु- २५ वृत्तेनाभावात् मिथ्योपदेशादपि तस्वतानं चेत्; न; मिथ्याज्ञानारपि प्रसङ्गात् । तस्यसिद्धिनिराशास्यमेव तस्य न स्यादिति चेत् न उपदेशस्याप्यते एका मिध्यात्वप्रसFa] a teacानं नैरात्म्यज्ञानं या तदुपदेशस्य प्रयोजनं यवस्तत्र पक्षपात्रो
२०
मोघे, ब०, प०, स० । २ मिथ्योपदेशः । न स०अ०, प०, स० ४ मिच्यो८ प्रवृत्तिलक्षपदेशे । ५ एव त्र सा० ६ उपदेशे पक्षपाताभाषः । भवतारतो खा व ५० आ०, ब०, प०, स० । १ । १० तस्यप्रयो-आ०, ब०, प० । ११ - रात्म्यस्यैव भा०, ब०, प० । सिद्धिनिबन्धनावादेव !
१२
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[१२ भवोत् । अमयोऽपि व 'पूर्वावधान भवति तदुपदेशः । न हि प्रयनादेव सर्व कार्यम् अपयशानाश्तरीयकस्य विद्य दादेरभावप्रसङ्गादिति चेत् । उक्तमत्र-'सुगतस्य मिध्याज्ञानमपि भवेत् तत्कारपास्यापि तदावेघस्य भावात् इति । देन राप्रयत्नसिनैये तस्वज्ञानवाधेन सम्भवादसम्बतमेतत्'निरुपद्रव' इत्यादि । सतोऽपि मियाज्ञानस्य तत्वज्ञानावाधकत्ये प्रगपि न स्यात् । सत्य५ मेतम् , मिथ्याज्ञानस्यैव वस्तुतः कस्यचिदभावात् , असतो हि विषयस्य ग्रहणे मिथ्यात्वम् , सच बहिर्भावादिरेव, न चास्य करित्यारापि प्रत्यवभासन स्वरूपमाश्वस्तुविषयत्वात् सर्वसंवे. दनानाम् , केवलं भौवमुद्रामात्रकमेवैतन् यत्तदैवभासकल्पनम् । ततो न प्रागपि श्रुतचिन्ताफाले सम्यग्ज्ञानं या नया)धनसामर्थ्य मिथ्याज्ञानमलानां किं पुनर्विधूतसकलविप्लवे सुगतभावे
प्रभारचित्तमयत्वास नवा भगवतः १ तदुत्तम्१० प्रभारपद चिन पायो मा
तस्प्रागप्यसमर्थाना पश्चाच्छक्तिः क तन्मयें ।।" [प्र. वा० १२१०] इति चेत् ; न; उत्तोत्तरत्वात् । असति वस्तुयुस्त्या मिध्याने न यनियन्धनो रगादिरित्यनादिशुद्धिः सुगतस्य स्यात् । अविद्यापरिकस्पिकमरस्येवं तदिति चेत् ;न ; समोऽपि तस्य गगापरपन्यत्र "पासामर्थ्यात् । अपि च,
मिथ्याज्ञानमश शससंविसिाधने।
मिथ्योपदेशसामर्थ्य कथं वस्यावाप्यताम् ! ॥१४९॥ ___ यदि सनिहितमपि मिथ्याशानं दरवज्ञानयाधनाय न समर्थम् अविद्यानिर्मितस्य तस्यैव विधारसहत्त्वादिति हन्तवं कथं "तारशस्यैप तस्य चिरापकान्तस्य मिध्योपदेशसामर्थ्य
यसो बहिरदिदेशना बुखस्य भवेत् । ततो मासामध्यात्तस्य तवयाधनम् अपि स्वसत्या, २० सदपि चिरातीतस्याहेतुत्वानेव, तहन्मिध्योपदेशोऽपि चिरापकान्तास्मिथ्याशानाम्न सम्भवति ।
तापि तात्कालिकान् : सुगतावस्थायां तदभावात् । सन लोकधुदयो मिथ्याविकल्परूपया पहिरर्थादिचिन्ताप्रतननं बुद्धानाम् । यत इदं सूकम्
"तपेक्षिततचाथैः कृत्वा गजनिधीलनम् । केवलं लोकबुद्धथैव बाह्यचिन्ता प्रसन्यते ।।" प्र. वा० २।२१९] इति ।
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पूचिदात् मा०, २०, ५०, सका पूर्वसंस्कारात् । २ सदावेवस्य मा० ब०, १०,०। पूर्वमिध्याझानसंस्कारस्व । मिष्वासानेन। । प्रयत्नं विना केवले स्कारसमुद्भतेनेव। ५ संसार्यवस्थायामपि। हिर. विमास । - "सत्र श्रुतमयी श्रूयमापोभ्यः परार्थानुमानास्येभ्या समुत्पथमानेन श्रुतवादाच्यतामाकन्दता निर्वतावर प्रकर्ष प्रतिपद्यमाना स्वार्धानुमानलघणया बिन्धमा निर्धत्ता दिन्तामयों भाश्नामारमते ।"-आयए.
0410"प्रभास्वमिदं चित्त नित्यलविरहितस्यैव तेन प्रहमदागन्सनी भलाः, असक्तसमारोपस्वामूलकरखेंग मौतमुदामात्रकत्वातन परमार्यतो नित्यत्वं फचित्प्रतिभाति ।"-. धार्तिकाल २१०।१सोस-मा० २०,०,०11 मिध्यानम् सामथ्या-०, २०, ५० स० चिरापमान्तमिथ्याशाना १३ अविवापि तस्यैव 11 मियाज्ञानस्य । ५ तत्वज्ञानाचामाका । १६-साथ लो-आ०,००, १७-रूपसबा भाव., स.।
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१२]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव माऽपि तत्त्वज्ञानात्तत्प्रतनलम्'; बहिरोपेरबस्तुस्येन तस्वशानस्य सदविषयत्यादू अन्यथा मिध्याज्ञानस्वासलात् । विधिपरत्वेनैव तद्विषयत्वे मिथ्याज्ञानत्वं न निषेधपरत्वेन, तसो निषेधविषयोपदर्शनार्थ तवज्ञानेनेच बहिराउनुमादेऽपि न दोष इति चेत् । न ; तद्वन्नित्येश्वरादेरप्यनुवादनसशात , तस्यापि निधेविषयल्याभ्यनुज्ञानात् ! तथा घ बहिरादिवत्तस्यामि संवृतिसत्यत्वोपपत्तेर्न किञ्चिदसौगत मतं भयम् । पूर्वपक्षस्वेमानूक्तिस्य कथं सस्यत्वमिति चेत् १५ कथं बहिरादेरिति समानम् ? मा भुत्तस्यापि वैदिति बेत् ; समस्तर्हि संवृतिसत्यव्यवहारो अहिरादिव्यतिरेण तवसम्भवात् । तन सत्वज्ञानादपि तत्प्रतमनमिति सिद्धमज्ञातोपदेशित्वं बुद्धस्य, वतश्चानाप्तरयम् अनवधेयवचनस्यात् । न ह्यज्ञस्य वचनं प्रेक्षाधसामवधेयमिति चेत् ; साधु पोदक, साधीयस्तष चोयम् , अनुमतमेवेसस्माकम् । न हि चोद्यमित्येव समाधातव्यम् , न्यायोपपन्नत्यानुमतिविषयत्यात् ।
सम्यग्ग्रहणं तु संशयितस्य विपर्यस्तस्य चोपदेशनिवृत्त्वर्थम् , तदुपदेशेऽप्युपवेष्टुरनकधेयवचनस्नानासत्यप्रसङ्गात् । सत्र
सन्दिग्धं संविदद्वैतम् , तद्धिता (2) प्रतिभासतः । सिद्धपति, प्रतिभासस्य बहिर्मा" विभावनात् ॥१५॥ न तस्य प्रतिभासश्ये अद्वैतस्य कथं भवेत ? अपहवे हि राष्टस्यादृष्टस्य नितरामयम्" ।। ५५१।। वहिरोऽपि यद्यस्ति तदद्वैतं कथं भवेत् ? न हि ज्ञानार्थयोर्भावे द्वयोरकैतसङ्गतिः ।। १५२।। माध्यत्वात्प्रतिमातोऽपि "नास्त्यसाहित्य सङ्गतम् । बाध्यायफभावस्य स्वयं बौद्धनिराकृतेः ।।१५३॥ संवृत्या बाधनेऽर्थस्य बस्तुसस्तदनिहवात् । अद्वैतं "सांवृतं प्राप्त प्राप्त वाहतु-वस्तुलत् ॥१५४|| तस्मानिभासतो वस्तुसदसत्तानुधाविनः । सन्दिग्धं संश्चिद्वैत वन वाध्य मनीषिणाम् ! १५५।। एवं यत्कल्पितं सः सर्वथैकान्तवादिभिः ।
सस्प्रमाणविपर्यस्तमनातोपज्ञमुच्यते ॥१५॥
'सम्यग्ज्ञानजलै' इति बहुवचन बदहुत्वस्य वक्ष्यमापात्वात् । श्वमपि बहुभिरेष मक्षालय नैकेन नापि द्वाभ्यामिति प्राममिति चेत् आह-'कथमपि' इति । एकादीनां मध्ये
Te
मानिन्ताविस्तारः । २ वायार्थाः सन्तति विधिपतया । बाराीभाव इति निषेधरूपल्या । । नित्येश्यरादेरपि।-गतं भ-प्रा०,५०,१०,101 ६ हिरादेरपि । ७ सत्यत्वम् । ८ भन्यः कश्चिदुपहरति । ५ थे सा-०, म .स १० जनानाम् 191-वेऽपि भाव-ता० । अस्मिन् पाठे अपिशब्दः एवार्थको सवा १२ बहिर्भावस्य । १३ संस्दनासस्य । १४ सहनः स्पाम् । १५ नास्ति बहिरः। मध्य-प्र. बार्तिकस्य पुर । साम्प्रतम् बाब, पक, स.'
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भ्यायविनिश्चयधिधरणे
[१२ केनापि प्रकारेणेति एफेन तत्प्रक्षालने किं तत्र दाभ्यां बदभिर्वा वैयादिति चेत् ? न; ततोऽपि तदतिशयस्य सम्भवाम् . सम्यग्ज्ञानानां सापल्यस्याभावाचेति निवेदनात् । कथं तर्हि बहुवचने यादिलिपसिसि को १ म; बहुषु धादरम्तमान संसस्तत्प्रतिपत्तेरविरोधात् । कैनेंनीयते ? इत्याह बमोमिः । न्यायविनिश्चयवशनैरिति । 'प्रत्यक्षलक्षणम्' इत्येवमादीनि हि तदू५ पनानि, वैश्व प्रत्यक्षादिकमेव निर्मलत्वं नीयते नाम्नायस्सत्कथं तैः स सन्नीयत इत्युच्यत इति
चेत् ; म; तृतीये तैरेवाम्नायस्यापि तन्नयनात् । प्रत्यक्षादेस्तहि तन्मयनं किमर्थम् अप्रस्तुताभिधानदोषादिति चेत् ? न ; तस्याप्याम्नायपरिशोधनार्थत्यात् । प्रत्यक्षादौ हि निर्मलतां नीते निर्मलतत्प्रमाणपरिशुद्धद्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मकजीवाविपदार्थगोचरसया सुपरिशुद्धमाम्ना
यज्ञानप्रामाण्यं भवति । अत एव प्रत्यक्षादिकं परिशोध्य पश्चादाम्नाया परिशोधितः, निश्चित१० प्रामाण्यप्रत्यक्षादविरोधेन निष्प्रतिपक्षस्थानावप्रामाण्यस्य व्यवस्थापनार्थम् । यदृश्यत्ति
"सकलागार्थविषयज्ञानाविरोधं बुधाः प्रेक्षन्ते" [ न्यायवि० श्लो० ३८५ ] इति । लोकप्रसिद्धक्षेष परिशुलं प्रत्यक्षादिक कि सत्परिशोधनेन ! परिशुद्धशोधने अतिप्रसादिति चेत्न; तस्याप्याम्नायवन्मलिनीकृतत्वात् । न हि कस्यचिदपि परिशोधनम् उपायाभावात् ,
सर्वप्रमाणमलिमीभावे हि क इवोपायः परिशोधनस्य स्थात्, प्रमाणस्यैव परिशोधनोपायचात्, १५ तस्य च मलिनीभावात् , अप्रमाणस्य तदुपायत्वे प्रमाणकल्पनादेयय॑म्, प्रमाणपत्प्रमेयस्यापि अप्रमाणदेव परिशोधोपपत्तेः ।
यदि सर्वप्रमाणानामुच्यते मलिनीकृतिः । उपायाभावतस्तेषां परिशुद्धिक्रिया कथम् ? ॥१५७|| प्रमाणस्यैव क्तया परिशुद्धावुपायता । न च सन्मलिनीभूतमुपायत्वाय कल्पते ॥१५८॥ मलीमसनुपायश्चेत् । मलप्रक्षालनं वृथा । अप्राणमुपायश्चेत् : प्रमाणान्वेषणं युथा ॥१५॥ प्रमेयपरिशुद्धिश्न प्रमाणपरिशुद्धिवत् । अप्रमाणादुपायात् यत्प्रसिद्धिपदमृच्छति ॥१६॥ इति चेत् ; असदेतत् , यह हि सर्व मलीमसम् । प्रमाणम्, परिशुद्धस्य सम्भवात्तस्य कस्यचित् ।।१६१॥ तेने पापरिशुद्धस्य परिशोधनसम्भवान् । उपायामावतो नास्ति शुद्धिरित्यसमञ्जसम् ॥१६२|| सर्वशून्यप्रवादे हि शून्थज्ञानमकल्मषम् । सकहमपान तज्ञामान्यत्वं यत्प्रसिद्धपति ॥१६॥
हुवनमात् । २ वमयारिभरूपाणि ३ : बचोभिः सानायः तत् अमलत्वं भैमीयते। प्रश्नप्रस्तावे। ५ अपात् । -कतिस्परिशुरशोधनेम आ.ब.प.स .परिशुद्धप्रमाणेन । सविसंपादि प्रमाण स्वकर्तव्यम् ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
अधन्यवेदन तेन नीयते निर्मला दशाम् । यगशून्यं न क्रिश्चित्स्याछ्न्यज्ञान कथं भवेत् ? ।। १६४॥ शम्यशानं भरतच्च स्वसत्ता प्रत्यनाकुलम । "भारसंचित्तिनैर्मल्य"स्वतोऽवद्योतयत्यलम् ॥१६५।। अंतवेदनेनैव निर्मलेन मलीमसम् । बिघूतमलसम्बद्ध भवेद् द्वैतवेदनम् ।।१६६।। अयाधिसोपलम्भश्चेद्वैतमवकल्पयेत् । धृत कम से फाय-यक पयितु क्षमः ॥१६७॥ अस्ति च द्वैतसंवित्तिरस्ति चास्यामवाधनम् । इति निर्णेष्यते 'पश्चादलमत्राप्रहेण ते ॥ १६८॥ स्वरूपवेदनं यस्य संविदों परिशुद्धिमत् । तस्य तेन घहिवस्तुवुद्धिः शुद्धिपथं व्रजेत् ॥१६५।। बहिर्वस्तुपरिच्छेदि न किश्चियदि वेदनम् । "संवेदनबहुत्वं तु प्रति ति कुतस्तत्र ॥१७०|| अनासादितअधत्वानिमलं चेत्स्ववेदनम् । अर्थवेदनमध्यस्तु ततोऽर्थोस्तु निराकुलः ॥१७१।। स्यसंवेदननैर्मल्यमर्थनिर्समवेदनात् । सिद्धमेसेन बोथ्यमन्यथा तदसम्भवात् ॥ १७२।।
कान्तवेदन यञ्च परिशुद्धं परैर्मतम् । बुद्धिस्तेनाप्यनेकान्तगोबरा" परिशुद्भवति ॥१७३॥ एवमादि यथान्यायं सूरिबिस्तारयिष्यति ।
सरप्रयासैः किमस्माकं "ग्रन्थविस्तरकारिभिः ।। १७४।
सस्मादाम्नायपरिशोधनोपारत्वादुपपन्नमध्यक्षादिपरिशोधनम् । तलरिशोधनोपायस्थापि परिशोधनादनवस्थानमिति बेस् ; म; अपरिशुद्धस्यैव परिशोधनात्, प्रसिद्धपरिशुद्धिकस्य "ARRIचात् तेनैवापरपरिशोधनान,"तत्सद्धावस्य धानन्तरमेव निवेदनादिति न किञ्चिदयधम्। ततःसूक्तम्-२५
१ स शून्यम्' इति वेदनं यदि सकरम तथा सर्वस्य अशन्यवमेय स्वादिति भावः । र यदि सबैशुन्यता- पक्ष प्रभागमपि अशून्य म स्यात् तदा कथं सर्वसन्धमप्रतिपतिः ३ अशून्यमय चालिसंवादि। यथा शुम्यहाममशून्यं तथा हास्यार्थज्ञानमयशुन्य स्वदिति भावः । ५ स्वतो बन्यो-स०, २० । स्वती विद्या...। ६ शुभचादेशमानेन । ७ बाह्यार्यशानम 1 ८ तषियकाऽनाधितोपलम्भः । ९ दैत-आ०,५०, १०, स.10 पश्चादमात्र प्रहेणा--०५०,०स ० पर दिविषयमेवात् संवेदनबारसम् । १२ अर्थसंवेदनममन्यामाद संवेदननस्यमपि न स्थादिति भावः । अम्बद। मा०, २०,१०, स.।।५ सर्वथा क्षणिकत्वादिप्राइमम् ।
"यमिष्टेन रूपेण सदात्मकम् तदन्यरूपेण असदात्मकमिति सदसदारमयसमाहिणी बुद्धिः स्यात् । १५ प्रन्यविस्तार-ब.। १६ परिशोधनाभायात। १७ प्रसिद्धपरिशुद्धिकस्य शानस्य ।
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४२
म्यायविनिश्वयचिचरणे
[ १२
'भः' इति । अमेन म्यायनैर्मल्यनयनस्यानन्योपायत्वं दर्शयति, अन्योपायत्वे तद्वचनासम्भयात् । वचसमप्रमाणत्वात् कथं 'वैः स तन्नेनीयत इति चेत् ? न तत्प्रामाण्यस्य वक्ष्यमाणत्वात् । यस्तु तेषामवस्तुविषयत्वात् प्रामाण्यमनभिमतम्, तस्य निष्प्रयोजनमेव शाखं तेन कस्यचिदप्यर्थस्यानिवेदनात् तन्मतोपजीविनो वादिनश्च निमहावामिः साधनाङ्गवचनात् । ५] देवस्वं वचनम् "समस्तो वा वाक्वराशिरनर्थकः" [ ] इर्ति । न वचनमात्रस्यानर्थकत्वं प्रमाणानुपपत्रवस्तुवाचिनो बेदादिवचनस्यैवानर्थकत्वात् निरवद्यप्रमाणयः परिषेकपरिशुद्धस्य तु त्रिरूपस्य हिमस्य तत्साध्यसम्बन्धस्य च प्रतिपावकं वचनं प्रमाणमेव तस्य परार्थानुमानन सोमतेरीकरणात् । न व शास्त्रस्य निष्षयोजनत्वम् वितत्साध्यसम्म परार्थानुमानत्वात् । न च सन्मतोपजीविवादि लिङ्गाः साधनाङ्गस्यैव तेनाभिधानादिति चेत्; न; वचसाम१० घचर्नस्थाऽसाधनाङ्गवचनत्त्रम्, वस्तुविषयत्वाभावप्रसङ्गात् । तथा हि- तेषामवस्तुविषयत्वं प्रसज्यप्रतिषेधेन वा स्यात् " वस्तुविषयत्वं वचसां नास्ति' इति," पर्युदासेन वा स्यात् 'वस्तुनोऽन्यदयस्तु तद्विषयत्वं वचसामू' इति ? न सावदा विकल्पः; लिङ्गस्य तत्साध्यसम्बन्वस्य च वस्तुन: "तद्विषयत्वात् । तदूव्यतिरिक्त वस्तु न श्रद्विषय इति चेत् कुत एतत् ? व्यभिचारात्, व्यभिचरन्ति हि शब्दा घटादिकं वस्तु १५ भावेऽपि तत्प्रवृतेरिति चेत्; अत एष लिङ्गादिविषयत्वमपि न स्थात्, शब्वाद चाक्षुषत्याद्यभाषेऽपि तां प्रवृतिदर्शनाम, अन्यथा तदसिद्धत्याशुद्धावनाभावप्रसङ्गासन अनभिहितस्य दोषोधनमुपपन्नम् अतिप्रसङ्गाम् । शव्दान्यश्वमन्यत्रापि समानम् ।
+
स्यान्मतम् - अन्य एंव स शब्दो यश्चाक्षुपत्यादौ सत्येव भवति, सोऽप्यन्य एव यस्तदभावे । न चान्यस्य दोषेणान्यस्य दोषवत्त्वं चौरयोषेण साधोरपि तद्वत्वप्रसङ्गादिति तम; अन्य श्रपि समानत्वात् । अन्येषामपि हि शब्दानां स्वविषयभावभावनां तद्विपरीतानाच परस्परतो विशेषात् । विशेषानषभासनस्य च "निशब्देष्वपि समानत्वात्" ।
१५
२०
एतेन पर्युदासोऽपि प्रत्युक्तः लिङ्गशब्दधवितरेषामपि वस्तुगोचरत्वेन अवस्तु"विषयत्वानुपपतेः । शब्दानामत्यवस्तुविपयत्यमेव लिङ्गस्यानन्तुरूपत्वाम् स्वलक्षणं हि वस्तूच्यते तस्यैवार्थक्रिया सामर्थ्यात् न च सत्यमन्वयात् सायेनान्वित पि, स्वलक्षणस्य च न धर्मिणि सदन्वयः " शक्यनिर्णयः साध्यस्याचाऽप्यनध्यव सायात् । न चानध्यवसिते साध्ये "मन्वयः सुकराऽध्यवसाय: ; अतिप्रसङ्गात्। सपने
1
२५
नैः न्यायः अमल आय २ बौद्धस्व १ "कृव्यापारविषयी थोऽर्यो वुञ्ज प्रकाशते प्रामाण्यं तत्र शब्दस्य नार्थतस्वनिबन्धनम् ॥ प्र०१० १३४ । ३ श्रण। ७ पचस्व्यिमद्रभूत वेदस्व आ ब०, प०, स० । ६ इति वच-आ०, ब०, प०, स० ७ ० ८ "त्रिरूपलिकावानं परार्थमानम् । श्रीणि रूपाण्यन्त्र यष्यतिरेकपक्षधर्मत्वसंशकानि यस्य तत् त्रिरूपम् त्रिरूपं तच तस्याख्यानम् " यायच० पू० ६१-स्सा मा० ४० १० १० १०६वस्तु आ०, ३०, प०, स० १५ - ति विपर्यु -आ०, ब०, प०, स० । १२ त्रिरूपलिन । १३ तासाध्यसम्पन्यविरितम् । १४ अमित्यः शब्दः वाक्षुषत्वादित्यादीनाम्। १५ घटपटादिशब्दानाम् १९ घटपटादिदन्येषु इमे शयः स्वविषयावे इमे तदभा इति भैयानवमा समम् । १७ शब्दे 1८-लादिति ना, २०, ५० १९- विषयलेनानुप-आ०, १०, १०, ४०। २० यवावय-आ०, ब०, प० । २१ स्वयः ।
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११२
प्रथमः प्रत्यक्षपस्ताव तान्बयाभ्यवसाय इति चेत् : न: धर्मिगतस्य हेरास्वलक्षणस्यायनासम्भयात् । तत्रैवो. पलम्भात् । संयाविधस्यायन्यन्त्र भावे न फिरियादेशिकं स्यात् । सामान्यरूपेण तदेवान्यत्रोति चेत्, न; तपस्य व्यतिरिक्तस्याव्यतिरिक्तस्य वा स्पप्रतिभासेनापरिच्छेदात् । प्रत्यभिज्ञानेन तत्परिच्छेद इति चेत् ; ने ; तदर्शनाभावे तदनुत्पत्तेः । वासनायलान्तरात्तो कामिन्यादिक्षान्नवदवस्तुविषयं प्रत्यभिज्ञानं भवेन् । अवस्तुविषयमेव तेदस्तु सामान्यस्य सद्विषयस्या- ५ वरसुस्वादिति चेत् ; सिद्ध तर्हि लिङ्गस्थावस्तुत्वं तस्य सामान्यरूपत्वात् । तन्नेन तरसाध्यसम्बन्धस्थायषस्तुत्वं निवेदितम् । न हि सम्बन्धिनः सामान्यस्यावस्तुत्वे सत्सम्बन्धस्य वस्तुत्वमुपपनम् ; पन्ध्यास्तनन्धयावस्तुस्खे सस्सौन्दर्यबस्तुत्वासलात् । तम्न लिलादिशब्दानामपि वस्तुगोचरत्वं यतस्तद्वदन्येषामपि तदोपरस्य संम्भाव्येत इति चेत् ; उच्यते
अवस्तु यदि लिकं स्यारसर्वशक्तिविवर्जितम् । कथं सद्विषयो वितेविषयः कारणं हि वैः ।।१७५।।
यद्यवस्तुरूपमेव लिङ्ग ते सहि सकलशक्तिवैकल्यस्वभावं कथं तम् कस्यचिद्विज्ञानस्य विषयः स्यात् । विज्ञान प्रति कारणस्यैष तद्विषयत्वात् , "नाकारण विषया" [ . ] इति वचनान् । न थावस्तुनः कारणत्वम् ; वस्तुत्यप्रसङ्गान, अर्थक्रियासामर्थ्यस्य प्रस्तुत लक्षणत्वेनाभ्यनुज्ञानात्" । सकारमत्वेऽप्यवस्तुमहणे वस्तुग्रहणमपि स्मादिस्यसदेवत्-'नाकारण २५ विषयः" इति ।
यस्तुनो यदि देवत्वमनिमितस्य "कस्यचित् । "सर्वस्यैफेन संवित्तिः "सधैरेफस्य वा भवेत् ॥ १७६।। सर्वस्य सर्वयेदिखानुपाचं तसो भवेत् । प्रतिपाद्याविभायस्य कथयाऽपि कवं गतिः ॥१७॥ अवस्तुवेदि(द)नेप्येतरूपणं एश्यते समम् । ततस्तस्यापि वेधत्वमहेसोरेवमुच्यताम् ।।१७८
ययकारणस्यैव कस्पचिवस्तुनो ग्रहणम् ; सदा सर्वस्यकेन प्रहणम् अकारणत्याविशेमादित्युपायाभ्यासरहितमेव सर्वस्य सर्वदर्शित्वं भवेत् ।- वादिप्रतिएनस्यैव च प्रसिधादिन्ना प्राश्निकैइव नियमेन प्रतिपत्तौ न वार्तयापि प्रतियायप्रतिपादकभाषः प्रतिलम्धुं शक्यते । म हि २५ "प्रतिपन्नतद्भाव एवं परः प्रतिपादयितव्यः, प्रतिपादकस्यापि प्रतिपाद्यत्वेनानजस्थानप्रसङ्गादि." त्यर्थ पर्यनुयोगः परस्य स्वमतं प्रत्यनुरागमयमाध्यमादयति । न परीक्षिसं परीक्षालोचन: स्व.
पर्मिमानोपलवस्यापि सपशे साये । २ अध्यायत्ति । । वौदिष्टया अन्यापोहात्मकस्य सामान्यस्य । “प्रत्यभिज्ञानानुत्पत्तेः। ५प्रत्यभिज्ञानम् । ६-4 सा-आ० ब०, २०, स.। सभाम्यते मा०,०, सकार बौद्यानाम् । बौदस्य तसई-बा प., स.। 1. "मर्षभित्र्यासामर्थलक्षणस्वावस्तुमः ।" -सन्यायमि पृ०२३।१७ कस्य नेत् भा०,००, स.१२ बर्षस्य । १३ शानैः । १४ वस्तुनोऽपि । १५शासार्थः। 4-स्थानमादि-आ०, २०,०,०।१७-चनस्व-आ०, २०, ५०
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४४ न्यायचिनिश्चयविवरणे
[११२ पक्षधाविनमेन दोर्ष पारने विभिनि । मान! दिल्यावं पर्यनुयोगः 'परस्यापि । अवस्तुनोऽप्य कारणस्यैध ग्रहणे सर्वसर्वहत्त्वस्थ प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाषाभावस्य च समानत्वात् । न हि निया मकामाघे तत्रापि विज्ञानानां विषप्रतिनियमः सम्भवति । विज्ञानासोनियामत्वं वस्तुमहणेऽपि समानम् । ततो वस्तुषवस्तुनोऽपि नाकारणस्य संवित्तिरिति सर्वहेतूनां सुशुद्धमझातासिद्धत्व५ मयबुध्यते । किंच, लिङ्गम्, अवस्तु च' इति व्याइतम् । लीनमर्थं गमयतीति हि लिनम,
लीनार्थम्मनश्च नापरं सजानकरणात ,, न चावस्तुनस्सस्करणम; वस्तुत्वप्रसङ्गादित्युक्तस्वास् । तत्कथं चनस्यासाधनाझ बचनत्यान्निग्रहस्थानत्वं न भवेत ! यस्त्वेकत्वाभ्यवसायात परस्धेष लिङ्गम् , वातुना हि धूमादिस्खलक्षणेन धूमत्वादिसामान्यमेकत्वेनाध्यवसितं वत्केर ततो न तस्याशक्तियनामहणमलिङ्गत्व ति चेत् । न सारमेतत् ; यस्मात्--
अयस्तुनोऽपि शक्तिइन्द्वरत्वेकरवन निर्णयात् । अंधत्वभेदनिर्मातरशतिर्वस्तुनो न किम् ॥१७॥ विशेषस्याप्यशसत्वे सामान्यवदयस्थिते । कुतोऽनुमेयसंवितिं लभन्ते हन्त : सौगताः ।।१८०॥ . एकत्वाध्यवसायेऽपि बलवत्वेन वस्तुनः । अपस्तुनि भदेच्छति शक्तिस्तुनीति चेत; ॥१८॥ अनन्वितत्वमध्येवं वस्तुधर्मः कथक ते । शचियत्प्रविशल्लिने वस्यकत्वेन निविते ।।१८।। सामान्यस्यैव सिक्षवमन्वयार्थ तच्छतः । असाधारणतास्यै प्राप्तेयं व्यभिचारकृत ।।१८३॥ सामान्य पुनरम्यधेपन्ययानोपमृग्यते ।
यस्त्वभेदनयाभाथे कथं तस्यापि लिहता ॥१८४!! सदभेदमये तस्य प्राक्यवस्थादनम्बयः । पुनः सामान्यक्लनिस्तु जमवेदनयरिंथतिम् ॥ १८५॥ एतेनाभ्यासभोंमे" यत्प्रत्यक्षमुपथर्णितम् ।
अविसंवादशून्यत्वं वस्याप्युक्तमनन्ययास ॥१८६।। अभ्यासावस्थायां हि दृश्यशाप्ययोरेकत्वमभ्यारोप्य तरसामयादथ्यहरयाविसंवादकरले
। बौद्धस्थापि । २ दशस्य ५८ एव विषयः न तु पटः हत्याकारकः । ३-नकार-मा०, २०, २० । ४- मस्सत्कारणरषं व-बा०, ब०, प०,स। ५ सौगतमतीपजीवियादियचनस्य । ६ अवस्सुना सह एकरनाध्यय. सायात पस्तुनः अशकिः मित्र स्थान ? ७ यथा धूमस्वलक्षणमता शक्ति: एककस्यवसायकलात् धूमसामन्ये उपसकामति तथा धुमस्वतक्षणगतमनन्धिसत्वमपि धूमसामान्ये अपसझामेन तथा व अनन्वयात न हेतुत्वमिति भाषः। ८ भदेवतः पा०, ५०, १०, स१ सामान्यस्यैन । १० वस्तुना सब एकरवाव्यवसायाभावे । १. अभ्यासबहुर ।-सभूमौ य-शा०, २०,०स० । १२ कार्तिकारखारे (१२)। -स्यापि संवादकाद
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११२
प्रथमा प्रत्ययप्रस्ताघः
मनुमन्यते परैः यदेव रष्टं तदेव प्राप्तम' इत्यभिप्रायनिवेदनात ; नवेकत्वस्याप्यवस्तुस्वभावस्य वस्तुस्वलक्षणाभेदाभ्यबसाये वातुस्वभावभूतानन्यधर्मानुपातिश्वेत खान्वयस्वभावपरित्यागात् कथमविसंवादकारिय स्वलक्षणवत्पुनरप्यविसंचादनिमित्तमेकत्वान्तरपरिकल्पनायो तदवसमलयरखाना
___ स्यान्मतम्-न सर्पस्य बस्तुधर्मस्य बलवत्त्वं व्यवहारोपयोगिग एव तस्य बलवत्वात् , तदुपयोगित्वच शक्तरेव मान्य (नानम्ब) यस्य, ततः शक्तिरेक अवरशुन्यथ्यारोप्यते नॉनम्वया, सेंद- ५ ध्यारोपे हि न प्रस्त्याने संत्रादाभाशात् । न हि तस्यादनियतवस्तुविषयत्वे संवादित्वं नाम अतिप्रसङ्गमम् । नाप्यनुमानम् ; लिङ्गामावान , अनन्वितस्य लिलावायोगादिति प्रत्यादिव्याहारः सर्व एचोच्छेयेत, वस्य प्रत्यक्षादिनिबन्धनस्य तदभावे गत्यात्तराभावात् । न च व्यवहारमुपजीवता संदभावायोपक्रमः श्रेयान् । तदनुपजीने तु प्रत्यक्षादिनिराकरणमभिगतमेव ताथागतानाम् , सकलव्यवहारपरिस्पन्दामाचे निरवशेषविकल्पनिष्क्रान्तस्य संवेदनपरमार्थपर्यवसितस्य १० सर्वश मुक्तत्वेन प्रत्यक्षादिचिन्तया प्रयोजनाभावात् । तदुक्तम
"ययद्वैते म पोलोस्ति सुत मारिया
वर्तते व्यवहारश्चेत् प्रत्यक्षाद्यपि चिन्त्यताम्।"[प्रयासिकालः १।३६) इति । ततः प्रयोजनक्शाएछक्तिरेषाच्यारोप्यते नानाधय इति ; सदसमीचीनम् ; अगम्ययागारोपे शरप्यनारोपप्रसङ्गात् तस्यास्तत्स्वभावात् । न हि सा तस्वभावा "सतो निष्कृष्याध्या. १५ रोपायतुं शक्यते, स्वरुपत एवं निष्कर्षणासम्भवात् स्वरूपाभावप्रसङ्गान । कल्पना निष्कर्षणमिति चेत् ; R; अनिकृष्टस्वभावायाः ततोऽपि तदसम्भवान् । न हि कल्पनाण्यभेदिनी भिनत्ति “तमानीनेच तदभेदाभाषप्रसङ्गात् । अन्यया भिमतीति चेस ; न ; सदा शतरेलाभावान् । न हायिकामाना भेत्तु' शक्यते, ""पदापि तनावे क्षणक्षायवाभावापत्तिः । सत्यम , न कल्पनया भिद्यते शक्ति, केवलमभिन्नापि भिव सस्था "प्रत्यव- २० भासत इति चेत् । कल्पनागतैव तर्हि शतिरष्यवसितम्या, न वस्तुगता। न सरपथ्यं भवताम, तरछतरप्यवस्तुरूपत्वात् । न चावस्तुतस्तथाविधादेव सामार्थक्रियाकारित्वं कर्मरोमसामाध्यासाद् वध्यासुतस्यापि सुप्तप्रयोजनकारिस्मतसङ्गात् । कस्तुभूतैव "कल्पनाशक्ति वस्तुशक्तस्तत्राध्यासादिति चेस ; न; अनन्विताया एघाध्यासप्रसङ्गा तत्स्वभावत्वात् अनन्ययनिष्कधाया असम्भवात् । कल्पनया सम्भव इति चेत् : न; 'कल्पनागतेब' सहि' इत्यादेरावृत्त्या ३५ ..--.-.
- - -.--. -. .-..."ततोपबहार प्रसिद्भगवयदिन एकत्वं समाधिस्य यदेव दृष्ट लदेव प्राप्तमिति व्यवसायमा प्रमाणतावहारः सय वराध्य देशकालाद्यमैदान।"-प्रघातिकाल. १५ १२-वस्वानुस्व-आ०,०प० । ३ वाक्यआ.,40, 40, कानावकMTO,,प,स०) ५ वस्तुगतस्य शमन्तिस्य अभ्यारोपे।६- प्रसंवाषामा०प०५० स० 1 प्रमात्मक भवेदिति भावः । ७ मत्य सस्य । ८ स्यहासमादाय । संवेदनस्य पर-आ०, २०, ५०, स
र स्य" "याहते शेषोऽति अपवहारहतेपरजोकोऽपि चिन्त्यताम्।"-40 कार्तिकास११३६ । 'न दोषोऽरिस्मिन्, पाठे 'पद्यत निदोषम्' इत्यय प्रायः । १२ नान्यः मा०,५०, ५०, स. १३ धर्मधर्मिणीरभेदात् सोरपि यस्तयत् समन्वयस्वभावस्यात् । १४ अनन्वयतः । १५ कल्पमातोऽपि । १६ शस्तिम् !-प्यासेदेन भिनं-५०१० उत्पतिक्षा एव। १८ मणिकस्वात्तस्याः । १५ उत्तरकालेऽपि । १.कल्पनायाम् । २१ कल्पनाको प्रतिभासिता शक्तिः । २२ गत इब त-पा.२०,०,१०।
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४६ न्यायविनिश्चयविवरणे
[१२ चक्रकप्रसादनवस्थानापत्तेश्व। सन अयस्तुनि रस्त्वध्यासः सम्भवति, यतोऽभ्यासावस्थायां श्थ प्रारययोरेकत्वस्य अघिसंवादकारित्वं रिङ्गस्य वा स्वरूपसाध्यसंवित्तिहेतुत्वमिति दुष्परिहारमहावासिसस्वं सर्वलिङ्गानाम् , तेषामवस्तुसामान्यरूपता स्वज्ञानाहेतुत्यरत् । अत एक साध्यसंविधिकरणाभायात् 'तद्वधनानामसाधनावदनवाच ।
परत्वेष यदि सामान्य ज्ञानरूपत्तयोश्यते । 'लिलप्ताऽर्थस्य हन्तवमसामान्यात्मनः कथम् ? ॥१८७|| अर्थादेव च धूमादेष्यवहाराय सौगताः । पावकाद्यनुमानेन प्रवृत्ति कल्पयन्त्यमी ।।१८८|| अभ्यासाझा (साक्षा) नधर्मस्य यधर्थस्यापि लिना। अध्यरत ननु सामान्यमवस्त्वेषति भाषितम् ॥१८९॥ ज्ञानात्मनापि सामान्य वस्तु यचन्वयात्मना । अर्थात्मनाऽपि किन्न स्वास्तु सामान्यमन्वितमू ? ॥१९॥ अनायाह यादानेऽपिनमायो ! ततोऽमिधेय यस्त्वेव बहिः सामान्यमागतम् ॥१९॥ नषैतदभ्यनुज्ञान सौगतानां हितावहम् ।
तदवस्त्वभिधेयत्वात्" इति कीर्तिवचःश्तेः ॥ १९२॥ वालहण्येन सामान्य वस्तु ज्ञानगोचरम् । व्याजोक्या किम् ? न सामान्य सर्वशास्तीति कथ्यताम् ।।१५३।।
स्वउभारूपतयैव ज्ञानगतस्यापि सामान्यस्य वातुत्वे यहिरन्तश्च स्खलक्षणमेडास्ति २० वस्तुतो न सामान्यमिति स्पष्टमभिधातव्यं किमनया 'ज्ञानात्मना वस्त्वेव सामान्यम्' इति
ज्याजोत्या १ म प सामान्याभावे वचनन्यवहारोऽपि विषयामाचात् स्खलक्षणस्याद्विषयत्वात् । झानस्वलक्षणमेवाबाहामपि पाहातया अनन्वितमप्यन्धिततयाऽभ्यवसीयमान सामान्यमिति चेत् ; कुतस्तस्यै तथाऽभ्यवसाय: । स्वत एवेति चेत् ; म; स्वलक्षणतयैव स्वतस्तस्य वेदनसम्भवासत्व
भावत्वात् न सामान्यरूपेण विपर्ययात् । तदपि तस्य स्वभाव इति चेत्, न; वस्तुत एवं २५ सामान्यसिद्धरुतत्वात् । अस्वरूपमपि वासनाशेषातेन" तद्गात इति चेत् ; न, प्रतिबन्धाभावात्।
में हि ततस्तस्योत्पत्रिः; सस्थावस्तुल्वेनाहेतृत्त्वात् प्रतिबन्धान्तरस्य चामभ्युपगमात् । कारणत्वमेव व ग्राह्यत्वम् , "ग्राह्यतां विदुईतत्त्वमेव" [प्र०मा०२।२४७] इसि वचन्धन” । अकारणस्यापि तस्य स्वयोग्यतयैव संदर्भ माइकमिति चेत् । न स्वमतव्याघातेन ध्यानध्य
हेतुप्रातारासान् । २ लितोऽर्थ-प्रा०, ०, ५०,०।३ ज्ञानात्मना भासमानमपि सामाभ्यम् । ५ "न सस्यभिधैयत्वान-तत् सामन्यं न दस्तुरूपादिस्वभापम् अभिधेयरवात, "-1 वा०म० २११। धर्मकीर्ति। ५ भानवलक्षणरूपतया । ६ कथ्यते मा०, २०, ५०, स.. शब्दाचश्चात । ८० वा २३५-७. श्व्यम्-पृ. २२रि०५।१ अबस्वलक्षणस्य, १० सामान्यरूपमपि । 11 वैन रखनस्वलक्षणवेम तत् सामान्यम् । ततः सानान्थात् तस्य ज्ञानस्वलक्षणस्य । १३ कार्यकारणभावातिरिक्तस्य । १४ "मिसचल कथं प्रायमिति चेत् । ग्राह्यतां विदुः । हेतुत्वमेव युति शनाकारार्पणक्षमम् ॥"- का। १५ सामान्यस्य । १६ न घरच्य-प्रा०, २०, २०,801
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४७
१२]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव प्रसङ्गात् । अपि च, अकस्तुतोऽप सामान्यस्यैव संधिसिविषयत्वं स्यादस्यितरूपत्याविशेषात् । वक्ष्यले चैतत
"प्रमाणमर्थसम्बन्धात्प्रमेयमसदित्यपि ।
केवलं ध्याध्यमेवैतलिम सन्तं समीक्ष्यते ।।" [न्यस्यकि०का०२८५] इति। तास्वरूपस्थ ग्रहणम् । ततो न बहिरन्तर्वा सामान्य वस्तुभूतमिवाचस्तुभूतमपि सम्भ. ५ पति यहि भवत् शब्दवाच्यं भवेत् ।
वदनेन लिङ्गसाध्यसम्बन्धस्य तद्वाच्यत्वं प्रयुक्तम् ; लिङ्गामा तत्साध्यसम्बन्ध स्थायोगात् । ततो यदुतम्-"लिङ्गस्य सत्साध्यसम्बन्धस्य वा प्रतिपादक सूचनं परार्थमनुमानम्" [ ] इति ; सत्प्रतिविहितम् । न लिङ्गेऽपि पचमभव्यभिचारितया प्रत्ययकर सत्यपि सस्मिन् प्राक्प्रवृत्तप्रतिबन्धविषयमाणपर्यालोचनादेव लिङ्गप्रतिपत्तेः २० वचनमात्रासदभावात् । वरनं तु केवलं तत्प्रमाणानुस्मरणमेवोपस्थापयतीसि सत्रैव तत्प्रमाणं न बहिरर्थे । तदुक्तम्... "अर्थे हि वचनपत्रमा प्रमाणे तु प्रमाणमिति न किञ्चिरतीयते" [ ] इति चेत् ; न प्रमाणेऽपि तस्य स्वयोग्यतयैव प्रमाणावे तृतीयं सत्प्रमाणं भवेत् । शाब्दज्ञानस्य विकल्पत्वेन प्रत्यक्षानन्तर्भाषात् लिङ्गनिरपेक्षवेन शननुमानत्वात् । ततः प्रमाणसंख्यानियम एव क्षीयत इति कथमुक्तम्-'न किञ्चित्क्षीयते' इति । भवतु वहि वचन- १५ मनुमानमेव प्रमाणे तस्य सेन प्रतिवद्धत्वेन रिजरवोपपत्तरिति चेत् ; कस्य तत्प्रमार्ण यत् वननादनुमाप्तध्यम् ? प्रतिपादकस्येति चेत् ; उपपन्नमेतत् ; बचनस्य "तत्रैव भायात् । लिङ्ग वि यत्र स्वयमवस्थितं तद्गतमेव साध्यं गमयति नान्यगतम्, पर्वतधूमात् "महोदधौ पायमानुमानप्रसङ्गात् , किन्तु तेनानुमितेनापि प्रतिपाद्यस्य किं फलमिति वक्तव्यम् ? सम्बन्धहणमिति चेत् ;न; अन्यत्रमाणेनान्यस्य तद्हणायोगास प्रतिपुरुष प्रमाणभेदकल्पनायापत्तेः एकीयप्रमाणेनैव २० सर्वस्य तद्विषयपरिच्छेवसम्भवात् । तन्न प्रतिपादकस्य सत्रमाणम् ।
प्रतिरायत्येति चेत् । न ; वचनस्य तत्राभावातू प्रतिपादकवचनाच न "तदनु. मानम् । प्रतिबन्धाभावात् । न हि प्रतिपाचप्रमाणोद्वं प्रतिपादकवचनम् । सन्तानान्तयसिद्धिप्रसङ्गात् , सन्तानान्तरभाविनो थाहायदेः स्थबोधादेवोत्पत्तिप्रसङ्गात् । तन्नातीयापुत्पन्नं ततोऽयुत्परमेवेति चेत् ; स्यान्मतम्-प्रतिपाद्यप्रमाणसातीय हि प्रतिपादक- २५ प्रमाणम् , उदु यचनं प्रतिपाद्यप्रमाणादयुत्पन्नमेव ततस्तदनुमानम् । न चातापक्षधर्मत्वम, तत्समातीयपश्वधर्मरखेनैव सत्पक्षधर्मश्वस्यापि छाभादिति सदसारम् । स्वसस्पन्धिमा व्याहारादेर्मुताभिमतशरीरे चैतन्यानुमानप्रसङ्गात् , तस्यापि सरसजातीयकार्यत्वा
लिदास्यत्वम् । २ श्यने । ३ अविवाभावमाहिप्रत्यक्ष भाविविकत्वज्ञान | ३ प्रमाणानुस्मरणे। ५ बचनस्य 1 -मी -प्रा०प०, ५०, स. ७ व्यामिश्राहित्रमाणे । ८ श्यनस्य । २ प्रमाणे । तत्प्रतिचम्क-मा०,१०, प। सा प्रतिबन्ध-110 प्रतिपादक एवं 11 महानसादौ पाकामु-आ, व., प०, स.। १२ प्रतिशतमापनुमानम् । १३ प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोसेकसम्तानलं स्यादिति माः । पक्षमादेः १५-हि -०, २०, ५०, स. अतिपादकामामोद्भवम् ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे विशेषात् । तत्र चैतन्यमेव नास्ति कर्थ सत्यजातीयत्यमात्मचैतन्यस्येति चेत् ? प्रतिपायेऽपि लहि प्रमाणमस्तीति पुतः यतस्तत्मनातीयत्व प्रतिपायकपमाणस्य स्यात् १ अल एवानुमानादिति चेत् ; न : . भक्त्र 'साम्यात् । अनुमानान्तसिद्धी तत्सजातीयत्वं स्वचैतन्वस्थ, सतोऽपि वचनस्य तस्सजातीयकार्यत्वम् , अस मृतशरीरे चैतन्य सिद्धयति, इति चक्रेकापादनस्य च ५ प्रतिपाद्यप्रमाणानुमानेडायनिवारणात ततो मृतव्यवस्वाश्रीचने इति;अापीदं वक्तव्यम्-'कथमुत्तम
न क्रिश्चित्क्षीयते' इति । तन्न प्रमाणेऽपि वचनस्य प्रामाण्य अहिरर्थवत् । सत्यमेतन् , नहि यवनात्प्रमाणप्रतिपत्तिः स्वसंवेदनापत्र तत्प्रतिपसेः, वचनं तु केवलमनुवारकमेवेति चेन, किमि दमनुवादकत्वं नाम । प्रतीक्षप्रत्यायनमिति चेन् ; न : वचनात् तस्यतीत्यभावात् । न हि वारशंस्य
स्वसंवेदनात्प्रतिपत्तिः प्रमाणस्य ताशस्य वचनादस्ति प्रतिपत्तिः । तस्य स्वलक्षणाकासविषयत्वात् । १० आकारान्तरविषयत्वे तु न तेने प्रमाणमन्यते । न ह्यन्यविषयेणान्यवनूदित भवति, अतिप्रसङ्गान् ।
संविषयसामान्याकारस्य प्रमाणस्थलक्षाफल्बाध्यवसायात ते सदभूद्यत एथेति येत; मतदाफारस्य सदेकत्वाध्ययसायस्य च चिन्तितस्त्रान् । ततो क्यनमकिम्पिकरमेधेति म सेन शास्त्रमन्यता कर्तव्यम् । परस्य कुर्वतश्च सत् वन्सुतो बस्तुगोचरं तृतीयमेव प्रमाणमझीकर्तव्यम् , अन्नया "तत्कृतस्य शास्त्रादेरकृतकल्पत्यप्रसङ्गादित्येसद् 'पचोभिः' इत्यनेन निवेदयति ।
वरला विशेषणमाइ--'तम्रानुकम्पापरैः इति । सांस्रायते सांसारिकधोरदुःस्वगापतपरिपासात परिपालयतीति तत्रा, सा यासावनुकम्पा कृपा च सैध अपरा. आदिभूता हेतुत्वेन येषां तैरिति । परशध्यस्थोसरार्थत्वात् तत्प्रतिपक्षवाचिनश्च अपरशब्दस्य आद्यार्थत्योपपये एवं व्याख्यानम् । तदभेन "परपरिरक्षणपरायणया कृपया वयसां प्रवृत्ति दर्शचम् शास्त्रस्य पाराचं
दर्शयति । के पुनस्तच्छन्देन परामृश्यन्ते ? येषामय न्यायो मलिनीकुत शति श्रूमः । केषां मलि. २० नीकृत इत्याह--यालानाम् इति । हिनेतरवियेकविकलर अलास्तेपामिति ।।
____ यहोवं न ते प्रज्ञावलविकलवादेव सुभाषितार्थिनो भवन्ति, बलवत्प्रश्नानां हि महा. स्मनामेष धर्मो न पुनरप्रतिबलप्रज्ञानां बालानाम् । तेहि सहजास् "आहाच मात्सर्यबलान केवलमनादरमेव सूक्कालापिषु कुर्वन्ति प्रत्युत 'द्वेषमप्यारचगन्ति सतो न परोपकारचिन्तया
शाखपायाभनुबद्धस्पूहं मनः कर्तव्यम् , अपि तु सूक्तमोयरसुचिराभियोगविवद्धिसभ्यसमया २५ वित्तवृत्यथेति । तदुकम्
"प्रायः प्राकृतशक्तिरप्रतिचलप्रज्ञो जनः केवलं "नानयेव सुभाषितैः परिगतो विवेष्ट्यपीमिलैः ।
मृतशागरे । २ प्रतिपाचरातप्रमाणे मृतसरीलगतचन्थे च । ३ सामान्मात् श्रा०,०प०1 परशारीरे चैतन्यासिौ। ५षसादेवानुमानास्त प्रतिपाचगतप्रमाणसिद्धी सत्सयातायार्थ प्रतिपादकप्रमाणस्य, ततोऽपिचचनस्य तत्सजातीवकार्यवमतश्च प्रतिपाय प्रमाणसिसिरिति प्रकम् । स्वसंवैवनानुभूतप्रमाणप्रतीश्यभावात् । --शस्थ संवे-80०,१०८ क्यनस्य । बनेन । थचनविषय 1 अपनेर । १२ घौडरय सादिकं कर्दतः १३ वचनम् । १४ रहतशा-आ-, २०, प० । १५ परिर-स०, २०, ५०१ १६ मारोपिलान् । १७ प्रवेय. मेवाचस्यन्ति भा०, १०,००मामा-श्रा०,००
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मार्गदर्शी
प्रथमः यक्षप्रस्ताव तेनायं न परोकार इति नश्चिन्ताप चेतविरं
सूक्ताभ्यासविर्द्धितव्यसनमिस्यत्रानुबद्धस्यहम् ॥" [प्र. बा० ११२ ] इसि पेत् ; अत्राह-हितकामिनाम् । हितानि न्यायविनिश्चयवचनानि हितस्य परमागमस्य है: नैर्मत्यनयनात् । परमागमस्य च हिसत्वं हितस्य निःश्रेयसस्य तत्कारणस्य च यथावदन्वास्यानाम् । तानि कामयन्ते प्रतिग्रहीतुमिच्छन्तीति हितकामिनस्तेषामिति ।।
कुतः पुनः बालानां हितकामित्वम् ? म हिते हितमिदमिति जानन्सि पास्यविरो. धात् , अजामन्तश्च कथं नाम तस्कश्मयन्ताम् , परिझातविषयत्वात्कामनाया इति चेत् ? म ; अव्युत्पन्न सन्दिग्धयोः स्वयं तत्परिज्ञानाभावेऽन्यालायकवनातदुपपत्ते, आचार्य तयोयाधुद्धिसम्भवात् , असम्भवदा बुद्धिकयोरभव्ययोरप्रतिपादनेऽप्यदोषान्, “क्रिया हि ट्रैव्यं विनयति नाद्रध्यम्" [ ] इति न्यायान् । विपर्यासोपहतस्य तु यपि न तत्र हितबुद्धिस्तथा- १० ऽप्यसौ पूर्वपक्षबुझ्या तत्कामयश एवं अपरिहास्तपूर्वपक्षस्य स्वपक्षनिर्णयासम्भवात् “विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः" [ न्यायसू० १।११४१] इति वचनात् । न दि धर्मकीर्तेरपि 'सूसाभ्यास' इत्यादि षषनाल सुसमाहित्वं प्रकारान्तरान्न सम्भवति ।' नहि तस्यापि स्वत एवं सूक्तपरिज्ञानम्, अन्यथा सद्वदन्येषामपि तत्सम्भवात् 'अप्रतिवलाज्ञो जना इत्यसतं स्यात् । अव येषां तदसम्भवः, ताप्रति सङ्गतमेवेदमिति चेत् ; न तर्हि सर्वथा १५ शाखस्थापरार्थत्वम् असम्भवतल्परिज्ञानान प्रति अपरार्थत्वेऽपि वैद्विपरीताम् प्रति तस्वोपपसेः । तथा चेमपर्यास्त्रोधितवचन्म 'तेनाऽयं न परोपकारः' इत्यादि । स्वयं च शालान्तरस्य "कृपया तभीतिरुयोत्यते' [ ] इति कृपापदोपादानात् पायर्यमभ्यनुजाननेच बार्तिकस्य तत्प्रत्याचष्ट इति कथमनुन्मत्तो नाम ? न हि शामस्यैक कस्यचित्पारार्थ्यम् अपारायंमपरस्यानुन्मसः प्रतियतुमर्हति । ततोऽनुकम्पावतां पारायेनेच शास्त्रकरण न व्यसनितया । २०
नन्यनुकम्प्यतामयुत्पन्नः सन्दिग्धश्च, विपरीतस्तु.कर्थ प्रतिकूलत्वात् ? म हि स्त्रमतप्रतिकूलमेव कश्चिदनुफम्पितुमईतीति पेत् ; न ; महापुरुषव्यापारस्यैवविधत्यात्, महान्चो हि प्रतिकूलेऽप्यनुकम्पामेवोपनयन्ति । न प संत्रासौ निश्कलैय; तत्वप्रतिपादनस्य सरफलस्य भावात्। प्रतिपाद्यमानोऽप्यसौ मत्सरित्याग्न प्रतिपद्यते प्रत्युत तत्प्रत्याख्यानायैव प्रवर्तते ततो विक्लव तत्रानुकम्पति थे ; किमिदं प्रतिपायमानत्वं नाम ! प्रतिपत्तिकारणोपसमर्पणमिति" चेत् न २५ सहि सदप्रतिपत्तिः अविकलकारणसमर्पणे शनिच्छतोऽपि तत्प्रतिपत्तिरवश्यम्भाविनी सन्निहितप्रदीपस्यानभिमतरूपदर्शनवत् । प्रतिपद्यमानोऽपि तरङ्गीकारं न समर्पयति मात्सर्यादिति चेत् ; म नपपत्तिमद्वस्तुप्रतिपत्तो मात्सर्यपरित्यागत्यापि सम्भवात् । विजिगीषुतरस प्रवृत्तस्य तेजस्पिनो
तस्ततः"-वार-ज्ञानवि--04.40 1 यं भव्यम्। धर्मवीरपि । ५ सम्मपरिशन्धन शिष्यान् । प्रमाणकार्तिकस्य । . पारार्थम् । ८-तब क-आपसप० । ९ विपरीते अनुकम्पा । १.विपरीषः । १-पसर्पमिति-भाग , प.।१२विपरीतस्य अप्रतिपत्तिः ।
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म्यायषिमिळायचेवर
[ १२
नवत्परित्यागसम्भव इसि चेत्; न; स्वयं सदपरित्यागेऽपि प्राशिनकैः तस्प्रत्युक्तेन वैरिपइन वा परित्यागस्य प्रयोजनात् । मत्सरिणोऽप्यनुकम्पनीयले निमाहात्वं न स्यात् 'अनु. कम्प्यसे निगृह्यते ' इति विरोधादिति चेत्; सत्यमेतत् वस्तुतो निमहाभावात् । न हि तत्त्वज्ञानस्य निःश्रेयसावा मिनिबन्धनस्य पात्रतामुपनीयमान एवं निगृह्यते, तदुपनयनस्यानुग्रह५ त्वात्। कथं तर्हि कथितम् स्वपक्षसिद्धिकस्य निगोऽन्यस्य वादिना"
;
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इति चेत् ? न ; निमाहशब्देन मिध्यामिनिवेशनिवर्त्तनस्याभिधानात् । स्वपक्षसिद्धिस्तेनाभिधीयत इति चेत्; न; तत्सिद्धेरपि निवृत्तिरूपस्यात् । न च तन्निवर्त्तनस्य वस्तुतो निग्रहस्वानत्यम्; अनन्तसंसारसरिस्पास निबन्धनतदभिनिवेशनिवर्तनस्य सुतरारामनुप्रहस्थान स्थात्, निग्रहस्थानशव्देनाभिधानं तु प्राश्निकाभिप्रायवशात् । प्राश्निकाः स्खलु तस्य निवर्तनादी१०. वस्तुनिर्वाहशक्तिवैकल्यमाकलय्य पराजयमुद्धोपयन्ति, स्वयं व यादी सेवस्थितया स्वरखिद्यते इति तदभिसन्धिवशात्सन्निवर्त्तनं विप्रहस्थानमुक्तं न वस्तुतः । नन्वेवमपि तस्यास्त्येव परितापः, न चानुकम्पाविषयः परितापयोग्य इति चेत् भवतु कियानपि परिताप न चैताचा तदनुकम्पा दुष्यति, दुरन्तदुःसहसंसारदुःखकारणस्य ततस्तयाऽपसारितस्वात् । हि महतो व्यावैरपसारकारणमातुरस्य तदास्त्रकटुकमपि "विव्यौषधं दोषमुद्धति ।
भवत्वियं वत्र वार्ता यस्यैवमभिप्रायः 'प्रतिवादिवचनेनोपपत्तिमूपितेनोद्भादियों” मम निरवद्यनिःश्रेयसप्रासादशित्यधिरोहणद्वारकाटो विघटिताधोगतितालप्रवेशमार्गः चिराय मे कृतार्थत्वं भवितव्यताबलेनोपस्थापितम्' इति भूयतः परितापस्याप्यभावात्, यस्य तु सभ्यसाक्षिकं स्वषुद्धिप्रत्ययञ्च पराजितस्यापि नैवमभिप्रायः कुतश्रियान्तराद्दोषात् केवल पराजयपीडैव महसी, तत्र कथमनुकम्पा न दुष्यतीति चेत् । उच्यते - यदि तस्य परिपीडाभयात्पराजयो २० न कर्तव्यः वहिं तस्य वचनप्रामाण्यात् बहवोऽप्युन्मार्गमनुपतन्तस्वार्थ महान्तमन सदुःखनिंगन्धनमशुभास्त्रवमापादयेयुः, पराजितस्य तु वस्य वचनविश्वासाभावात् न "तेषां तदनुप्रासस्ततो नायं प्रसङ्ग इति तात्कालिकखेदहेतुत्वेऽपि अशुभाषनिरोष रूप महोपकारकारणत्वात् “तत्राप्यतुकम्पा न दुष्यत्येव । यस्य तु प्रतिपाद्यमानस्याप्यप्रतिपत्तिः "अन्तरङ्गवैकल्यात् नापि स्वमतानुरागप्रयुक्तात् "काकवासितादुपरतिं (विः) न तत्रानुकम्पनम् - "" अविनेये माध्यस्थ्यम्" १५ [ ] इत्यागमात् | नापि तस्य वस्तुवादेऽधिकारः प्रारिनकैस्तनिवारणम् । न हि
शक्तिविकता ऽभ्यवसितमपि वादेऽधिकारयन्ति “समर्थवचनं वादः " [प्रमाणस० ६/५१] इति तलक्षणापरिज्ञानप्रसङ्गात्, काकवासितस्य च तेजस्विना नरपतिना निवारणासः । तदुपपन्नं विपरीतोऽप्यनुकम्प्यत इति ।
१५
५०
: मात्सर्वपरिस्याम २ परिषद्ले आ० वा० । 'सभ्येन ३ मात्सर्य परित्यागस्य : ४ मिध्यामिमि वेशनिवृति । ५ मिध्याभिनिवेशनिवर्त्तनात् । प मियते श्रा०, ५०, प० । प्रामिकाभिप्राय ८ चैत् भ०, प० । ९ ततः नादितः तथा अनुकम्पया १० दिव्यतमौ भा०, ५०, प० । ११-मोभूषितो . आ०, ब०, प० १२ मानयादिरूपात् । १३ उत्पभाषिय विपरीतवादिनः १५ श्रोतॄणाम् १५ विपरी वादिन्यपि । १६ बोधशक्स्यभावात । १७ पाकशन्दवजिरात्। १८ "मैत्रीप्रमोद कारुण्य मध्यस्यामि व परगुणाधिकलिश्यमानादिषु ।” १० सू० ७३१ ।
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२२]
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव को पुनस्तेषां न्यायो मलिनीकृत इत्याइ-'अतिमहापापैः' इति । मलोपलेपस्य पापकार्यत्याभिनिवेदनेमाहेतुकत्यं प्रत्याचक्षणः तस्याशक्यप्रक्षालनत्वामा निवेदयति, हेतुमतः स्वभावस्यापि तोतुविएशोषस्थानेन शस्यनिदर्शनस्वात् , तन्निराकृवमेतन्
"वृष्यमाणोऽपि नाशार: शुलतामेति जातुचित् । निजस्वभावसम्पर्कः केनचिन्न निवार्यते ॥"
[३० वार्तिकाल० १:२३४ ] इति । पापानामतिमहत्वप्रतिपादनं तु मलस्य सन्माननिबन्धनत्वाभावात् अन्यथाऽतिप्रसङ्गः शुद्धन्यायविक्षामपि तन्मात्रसादापाविरोधास् । कुतस्तेषां तानि पापानि ? मलिनीकृतान्यायाचेत् ; 'सोऽपि कै ? तैरेयेति चेत् ; न ; परस्पराश्यप्रसङ्गादित्यत्राह-'पुरोपार्जितैः' इति । अन्नदमैदम्पर्यम्- नहि य व न्यायस्तैरधुना मलिनीक्रियते तत एव तानि येनायं दोषः किन्तु १० प्रागदोपार्जितानि, तदुपार्जने चापरस्वत्पुरोपार्जिसो मलिनीकृतो म्यायो हेतुः सोऽपि तदपरपापनिवन्धन इत्यनादिरय तस्मबन्ध इति । अनेन सहजो मलसम्बन्धो दर्शितः ।
तं पुनराहाय्यं दर्शयति-'स्वयं गुणद्वेषिभिः' इति । न्यायो मलिनीकृतः' इवि पतसे । गुणद्वेषिणश्चैकान्तवादिनः तः परमगमन्यायगुणस्य अपपन्नजीवादिपदार्थप्रकाशनरूपस्थ द्वेषात् । स एव कुत इत्याइ-'कलिषस्लात् कलिकालशक्तः। तेस्य साधारणत्यान् सर्वेषामपि १५ सद्वेषः स्यादित्यत्राइ-प्रायः प्राचुर्येण । तदपि कुत इत्याह-माहात्म्यात्तमसः । भविद्याधकारसामर्याम् । न केवलं काल एक गुणद्वेषकारणमपि त्वविद्यासामध्यमपि । न च "तत्सर्वेषामिति भावः । निवृतो घृतस्याश्ययार्थः ।
समुदायार्थस्तु सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनलक्षणः। तत्र न्याय एवाभिधेयम् । तेन च शास्त्रस्य वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः। स सामोक्तः । न हि तेन" न्यायमनुवाणेन स २० नैर्मल्यं नेतुं शक्यते । प्रचोजनं तु शास्त्रस्य न्यायमल्यनयनम् , तेन सम्बन्धी हेतुहेतुमद्भावः, शालस्य तशेतुत्वात् , तस्य २ तत्कार्यवान् । स च कण्ठोक्त एव 'वचोभिनेनीयते' इति वचनात् ।
किं पुनः शाक्षादौ सम्पन्धाभिधानस्य प्रयोजनमिति चेत् ? "विवाह:-ओमृजनप्रवर्सनम् । सति हि सम्बन्धाभिधाने समिहितप्रयोजन प्रति आशापरवशीकृतश्वसः प्रोट- २५ जनस्व शास्त्रश्रवदभ्यासादौ भवति प्रवृत्ति सति । तदुक्तम्
"सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो चापे कस्यचित् । यावस्प्रयोजनं नोक्तं तावरकेन गृखते ? ।
sada
१-मावालि-भा०,१०,१०,स. रत्वान्निरा-सा पापल्यायमलिनीकारः तसाच पापोद्धव इति । पापानि। भा-आ., 40111 शास्त्रम । १२ म्यायः । १५ मीमांसका।
पापलेश। पाश । ५ म्यायमलिभीकारः ।
षः। ९ फलिबलत्या सर्वेषामपि
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ग्यायविनिश्चयविवरणे
[ २२ सिदार्थ हा श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते । शास्त्रादौ सेन बक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥"
[मी मो० १३१६१ श्लो० १२, १७ ] इति ; संदिवमनुपपन्नम् ; प्रेक्षावतो वबनमात्रात् क्वचित्प्रवृशेरयोगात् । निरवाप्रमाणव्यापारप्रदीपालोकपर्यवलोकिते हि वस्तुनि प्रवर्त्तमानः प्रेक्षायानित्युस्यसे । स कथमनाकलितवस्तुसत्यागनमात्रात् प्रवर्तेत प्रेक्षाधस्तारिलोपप्रसङ्गात् । वयनमपि प्रमाणत्वादाकलितवस्तुतत्त्वमेवेति चेत् । कुतस्तस्यै प्रामाण्यं वस्तुनि प्रतिबन्धाभावात् । न प्रतिबन्धात्तस्य प्रामाण्यमपि तु योग्यतये कृत्तिकोदयवच्छकटोदय , न हि संत्रापि सादालयं तदुत्पत्ति
प्रतिबन्धः सम्भवति , तदभावस्य यथावसर निवेदनादिति चेत् ; किमिदं कृक्तिकोदयस्य योग्य१० त्वम् ? अन्यथाऽनुपपन्नत्वमिति चेत् ; न तर्हि तत् वचनस्य स्वार्थापेक्षया सम्भवति,
सस्यापि लिस्वप्रसङ्गात् । अन्यथानुपपत्रस्याप्यलिङ्गवे न लिनं नाम किश्चित् तलक्षामन्तराभावात् । समान्यथानुपपनत्वम् । अन्यदेव तदिति चेत् । न ; कृत्तिकोदये "तस्यासम्भवात् निदर्शनस्य साधनवैकल्यापत्तेः। अथ मतम-कस्यचित्किवियोन्यत्वम् , अन्यथानुपपनत्वं
कृक्तिकोदयस्य अन्यश्च वचनस्य, म. चैधं "साधनस्याऽसिद्धत्वं तद्विकटता वा निदर्शनस्य ; १५ योग्यतासामान्यस्य हेतुरवात , तस्य चोभयोरपि साध्यान्तमिणो वादिति ; सन्न मन्थ
स्यापि स्वाभाविकस्याभावात् , बचनस्य "समयानुपालनप्रयासयैफल्यग्रसङ्गात् । स एव सस्य "सहकारीति थे ; म; "तस्य मिल्याप्रत्ययहेसोरपि दर्शनान् । आरोपनीतस्य न सहेतुत्वमिति चेत् ; सत्यमेवर, आरस्य यथार्थवेदितया 'दोषविकटतया च मिथ्यावादासम्भवात् । तदेव तु
माप्तत्वमथापि शास्त्रकारस्य निश्चितमित्यस्माकमस्ति खेदः। माकारि खेदः। तदाप्तभावस्य सुप्रसि२. दत्वादिति चेम् : किं तहि प्रयोजनवचनेन विनापि ते निश्चिततधामभावस्य तद्वचनमात्रा
देव प्रवृत्तिसम्भवात् । न हि 'इदं त्यवा श्रोतव्यम्' इत्याप्तेनाशात: 'तद्वचनं प्रयोजनबदन्यथा वा' इति सन्दिग्धुमईति, तथा सन्दिहानत्य तत्रायु रेषाभावप्रसङ्घात् । न ह्याप्तस्य निष्प्रयोजमवचनसम्भवः तस्य परहितोपनियशुद्धचित्ततया सर्वव्यापाराणां साफल्यनियमात । सत्यम,
अस्त्येवाप्तवचनस्य प्रयोजनम्, तत्तु प्रतिपावस्याभिवाञ्छितमन्यदत्यनु पदर्शने , ज्ञायत इति २२५ चेत् ; न; उपदर्शनेऽपि समानत्वात् । न चुपदर्शितमित्येव अभिवासितं भवति अनमिवाञ्छित
स्थाप्युपदर्शनसम्भयात् । "अनमिवाग्छिसेऽपि प्रवृत्तिरनुपदर्शिते प्रयोजने स्यात् आमवचनस्यासुलझनीयत्वादिति चेत् ; अस्तु, न कश्चिदोषः, तत्प्रवृत्तेः पुरुषार्थहेतुत्वात् । तदेय वस्याः कय
१ सदिदमुप- आ०,वा०प०,१० । २ धावत्यनि-आर, चा, १०, स० । ३ वचमस्य ।। "उदेचति शकटं कृत्तिकोदयात्' इत्यनुमाने । ५ शकटोदयकृत्तिकोदश्योः । ६ अन्यथानुपपत्थम् । ७ पचनस्यायिक अर्याऽभावे अनुयशस्वादिययनस्याऽलिले। ५ योग्यस्वम् । १. अन्यथामतपसत्यव्यतिरिक्तस्य।" साधनस्यापिसिभा0,40,101 १२वीयतासामान्यस्य । १३ बन्यथानुरपश्चत्वातिरिकास्म । १५ सके तग्रहण । १५ साल एक 1 १६ कस्य ता.1 चमत्य । १७ सकालीति भा०२०प०, सः। 16 पचनस्थ । १९ दोषविकल्यतया आ०,०,५०.स.। २० प्रयोजनवचनेन । २७ जमस्य । १२ अभिवा--ता०।२५ प्रवृत्तः।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताया
मिति चेत् १ 'बालकपाठप्रवृत्तिवस्' इति भूमः । यदि चायं निर्जन्यः प्रथममभिहितसम्बन्धादिकमेव शास्त्रमादेयमिति
एवं तदिवास्यस्याप्यादेवस्वनिमन्धनम् । सम्पन्धादिषषः पूर्व वाच्यमन्यत्मसन्यते ।।१९४॥ ताऽप्यन्यत्ततः पूर्व सतः पूर्व ततः परम् । आदिवाक्यप्रबन्धे स्यादेवं सत्यनवस्थितिः ॥१९५॥ अल्पत्पादादिवाक्यस्य संम्बन्धाधुतितो विना । प्रवृत्तिविषयत्वं चेत्कृतश्चिदवकल्प्यते ॥ १९६१ प्रत्येक सर्वशक्यानामल्पत्वं ननु दृश्यते । सम्भवेसम्महत्त्वं चेदायिवाक्येऽपि तत्समम् ।। १९७१ प्रत्येकं वाक्यवृत्तेश्य शात्रवृत्तिर्न चापरा । 'सा चाल्पविषयस्यान्न सभ्यन्धायुक्तिमाहा ॥१९८६ अलौकिकच मागोऽयं यत्प्रागुरुप्रयोजनम् । वास्यमल्पं महापि ब्रजयादेयतामिति ॥१९९।। सम्नास्य मानरूपस्यात् "स्वार्थनिर्णयनिर्मिस: { से)।
श्रोसप्रतिहेतुत्वमादिवाक्यस्य सह-तम् ॥२०॥
'अन्यस्त्वाह-नेई सुनिश्चितप्रमाणतया सम्बन्धादिविशेषनिर्णयनिधन्धनत्वात् प्रवृतिकारणम्, अपि तु तद्विषयसंशयकरणान् । असति होतस्मिन् किमिदं शास्त्रं सम्बन्धादिरहितमेव थालोन्मत्तादिवाक्यत्रत, तत्साहितमपि किमनमिमतप्रयोजनसेव माबिषाविधिकमव्याख्यानवत, अभिमतप्रयोजनमपि किमशक्यप्रयोजनमेष ज्वरोपशमक्कारणपणिपतिचूडामणि- २० गुणत्र्यावर्णनचत् ?' इत्यनेकधा संशयधिकल्पः प्रादुर्भवन् प्रेक्षावा प्रवृत्तिमेव शास्त्रे प्रतिरन्ध्यात्, उपदर्शिते पुनः सम्बन्धादिविशेषे प्रागुपदर्शितानर्थसंशयव्यवच्छेदेन तद्विषयस्यैवार्थसंशयंस्य प्रादुर्भावात् भवत्येव तेषां सत्र प्रकृतिः । न यार्थसंशयात् प्रवसौ प्रेक्षायसापरिक्षतिः
सम्बम्पशनमन्तरेण । २ धावप्रवृत्तेश्च आ०,०। वाक्प्रवृत्तः प० । ३ वाप्रवृत्तिः । ४ शास्त्रस्य । ५स्वार्थनिर्णयस्वरूपत्वात्। द सिरः । ७ तद्विषयस्य -मान, ब, १०, स.। "अनुषु तु प्रतिपत्तमिनियोजनममि सम्मावास्य प्रकरणस्म काकदस्तपरीक्षा या इव, अश्ययामुनानं का परहरप्तचकचूडारनालकारीपदेशवन, अनभिमने वा प्रयोजन मावियाक्रमोपदेशन, अली का प्रकरणातर उपाय: प्रयोजनस्य, भनुपाय एव या प्रकरणा सम्मास्येवर एतरसु चामर्थसम्भावनास्पेकस्यामध्यनर्थसम्भावनायां न प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्ते । अभिधेयादिसम्भावनाअनर्थसमयमा विहीत्ययो । तया तु छावन्तः प्रवक्षन्ते । इति प्रेक्षावता प्रपश्यमर्थसम्भावना क सम्बन्मादीन्यभिधीयत इति स्थितम् ।" -न्याय विवटीपू ५। ८ सम्बयादिविशेधे । ९-यस्यैव -आ०, २०, ५०,०1 ३. संशयेनापि प्रतिदर्शनात् । यथा कृषीवलादीवाम् । स्थादे. तपद्यपि अष्पक्लादीविमि फले संशतथापि वफलसाधनमस्तेषां विचत एव । तेन निश्वयपूर्विकैन देषां प्रवृत्तिरिति सदसम्यक् , यदर्ष वि यस्य प्रतिः सा तत्संशयेऽपि तस्य भवतीत्येतादिह प्रकृतम् । न कुधीवालदयः साधनार्थ तेषु प्रवर्तन्ते चैन साधनवित्रयनिश्चयसायानिश्चयपूधिका प्रसिरेदमुपवयते। तर्हि ? फला हे प्रवर्तन्ते । तत्र च फले प्रतिवन्धादिसम्भवान्न निश्चयोस्तीत्वतः वंशवपूर्विय तेयं प्रतिः।" सब संप००३।
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न्यायधिनिश्चयषियरणे
[२२
कृष्यादौ कृषीवलादीनां तत्कृतप्रवृत्तिकस्वेऽपि तत्परिक्षतेरभाषात् । अथ सेवामधुराबुपेये संशयेऽपि तदुपाये कृध्यादौ निर्णय एय, वतो निर्णातोगयतया प्रवृत्तत्वादुपपन्नं हावत्त्वम्, शास्त्रे तु यथोपेये संशयस्तथा वस्य तदुपायभावेऽपि सः केवलादेव संशयात्प्रयचो कदन्न तैपरिक्षय इति चेत् ? न सारमेतत् ; अङ्करायुपेयनिर्णयाभावे कृयादितदुपरायभावस्यापि दुष्करानर्णयत्वास, उपयसापेक्षं हि कस्यचिदुपायस्य तरकथं तदनिश्चये शक्यनिश्चयमिति सन्दिग्धोपाय. श्यैयोभयत्रापि प्रयुपिरिति न कृष्यादेः शास्त्राकिमरि लक्षण्यमुप्रेक्ष्यत इति ; सोऽपि न युक्तकारी विचारविफलत्वात् ; तथा हि-यद्येतदातवधनं कथमस्मासंशयः १ निपचनस्य नियमेन निर्णयनिबन्धनत्यात् . निर्दोषताया एवानिरवात ।
नन्विदमेवामस्थामस्वं यत्स्वप्रतिमासानतिक्रमेण वचनम्, स्वप्रतिभासमतिक्रम्य वदत एय १० यवकत्वेनानालस्वादिति चेत् ; किमिदानी शास्त्रकारस्यापि सम्बन्धादिकं सन्दिग्धमेव ? तथा
खेत : सुस्थितं तस्य शास्त्रकारणम् । न च स्वप्रतिभासानतिमतो वचनमेवाप्तस्वाम पालोन्मतादेरपि तत्मसकादिति प्रमाणपरिशुद्धवचनमेवाप्नत्यम् । न च तद्वचनादर्थसंशयः; अर्थनिर्णयस्यैवोपपत्तेः । न च धर्मोत्तरेण शालकारस्यारत्वमनभिप्रेतमेव; "व्याख्यासारो हि
क्रीडादर्थ विपरीताभिधायिनोऽपि सम्भाव्यन्ते न प्रणेतार।" इति "तद्वचनात् । १५ न धाविपरीताभिधानादन्यदन्यस्याप्तवं नाम | शब्दस्यैवैध स्वभावः यदाप्रभाषितोऽपि संशय.
मेवोपजनयतीति चेत् ; न ; अनर्थसंश्यस्यापि जननप्रसार , तथा च "अर्थसंशयमेव प्रवृत्त्यङ्ग कर्तुपादायभिधेयादिकमाई"[ ] इत्यपेशल स्यात् । यदि च स्वाभाध्यावस्या संशयहेतुत्वं कुतस्तर्हि तत्संशयस्य व्यवच्छेदः ? "शास्त्रादेवाधिगतादिति चेत् । न ; तस्याप्यादिवाक्यवत् शब्दारमकत्वेन संशयहेतुत्वात् , तत्संशप्रस्यापि शास्त्रान्तरात् व्यवच्छित्तिकल्पनायाम् अनवस्थामात् । प्रमाणातू संशयव्ययच्छेच इति चेत् तद्यदि प्रमाण शाखादन्यत एवाधिगतम: शास्त्रमनधक प्रयोजनान्तराभावात् । शास्त्रादेवेति चेत् ;न; त्रापि "ततः संशयस्यैव भावात् , शब्दस्य तत्करणस्वभावत्वात् । सत्संशयस्यापि प्रमाणावरान् व्यवच्छेदश्रेत् ;न; तथादि' इत्यादेः प्रसदस्य पुनरावृत्तेरनवस्थाप्रसङ्गात् ।
अर्थसंशयकृत । २ तदुपायो भावेऽपि आ०,०, पर, ल । प्रेक्षावत्तापरिक्षयः । ४ उपेवानिर्णये। ध्यादौ शालेच । ६ "आमेमोरिहदोषेण"-रलक१५:"आगमो स्वासवाचनमा हौवक्षयादिधुः । श्रीमदोषोऽनृतं वाक्यं न यावेत्वसम्भया"-सायका माठर• पृ. १३ । • पत्त-आ०, २०, ५०, स. ।
एवज्ञ सस्पे-मा०, 4., प०, स। १ "ला: खल साचालतधर्मा यथादृष्टस्यायल्य विख्यापविषया प्रयुक्त सपदेश:"-न्यायमा १0 1 "वो यत्राभिसंचादक स तत्राप्तः परोऽनासः । तस्वप्रतिपादनमविधायः तदर्थत. नात् ।"-अश, मसह.पू. २१५"व्यासपातृष्ण द्दि नवनं बडनयर्थमन्यथापि सम्मान्यते शासक्ता तु प्रकरणप्रारम्भ ३ विपरीताभिधेयाधमिधाने प्रयोजनमुत्पश्यामी मापि प्रवृत्तिम् ।"-न्यायवि० ० पृ. । " "असंशयोऽपि हि प्रकृत्या प्रेक्षावताम् । अनर्थसंशयो निवृत्यशम् । अत एद भासकारेणेव पूर्व सन्ध्यदीनि युज्यन्ते रखुम्" ल्यायविक ही पृ० १ १२ शब्दस्य । सशाखादेवाग-आ०,०, प., स.। ४ासाहेनुकसंशयस्यापि। १५ सयरमकात् शाशास्।
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12 j
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
ततो दूरं गतेनापि वाक्यमाप्ताभिजल्पितम् । अर्थनिर्णयकृद्वाच्यमादिवार्क्स तथा न किम् १ ॥ २०१ ॥ अङ्गीकारस्तवात्रापि न युक्तः परिदृश्यते ।
afeपक्षे वैफल्यं वाक्यस्यास्य हि दर्शितम् ॥ २०२ ॥ यं श्रोतुः प्रवृस्य श्रद्धायुत्पादनं बुधैः । ध्यावर्णितमसन्दिग्धमादिवाक्यप्रयोजनम् ॥२०३॥ रायसेन यदा भवेत् । Marata श्राः सम्भवादादिवाक्यवत् ॥ २०४ ॥ अन्यथा क्षादिवाक्वेऽपि श्रद्धाद्युत्पत्तिकारणम् । वाक्यान्तरं प्रतीक्ष्यं स्यादनवस्थानदुःखदम् ॥२०५॥ recasts बालोन्मत्तादिवाक्यवत् । श्रद्धाकुतूहलोत्पत्तिरतः सम्भाव्यते कथम् १ ॥ २०६॥
;
५५
१०
१५
यत्पुनरेतत्-- ध्यावकानुरलब्ध्या प्रत्यवतिष्ठमानस्य सदसिद्धतोद्भावनमा दिवाक्यस्य प्रयोजनम् । अत्र हि 'नारूर्धेव्यं न श्रोतव्यमिदं शास्त्र सम्बन्धादिरहितत्वात् उम्मतयच नचत् इति कस्यचित् औरम्भश्रवणादिव्यापकसम्बन्धाद्यभावोपदर्शनेन आरम्भादिनिवारणार्थं प्रत्ययस्थाने तत्सम्बन्धाद्युपदर्शनेन तदनुपलम्भस्यासिद्धत्वमनेनोद्रव्यते, अन्यथा शास्त्रारम्भादौ प्रेक्षा कलामप्रवृत्तिप्रसङ्गादिति ; सदपि न चतुरस्रम् ; बँधनमात्रात् सुनिश्चित सम्बन्धाद्युपदर्शना सम्भघेर्न सदसिद्ध सद्भावनस्य दुर्विधानत्वाम् । न हि 'व्यापकोपलम्भमवितथमनुपस्थापयत् तदनुपलम्भप्रत्याख्यानाय वचनमेतत्समर्थम् । तयुपलम्भस्यैव तदनुपलम्भनिषेधित्वात् । केवलस्य तदुप्रदर्शनसामर्थ्यवैफल्येऽपि सकलशास्त्रश्रवण सहितस्य तत्सामर्थ्यमस्येव, अधिगतशास्त्रस्य सम्ब वादी निर्णयोपपत्तेरिति चेत्; न; ध्यापकानुपलम्भे जीवति तच्छ्रयणस्यैवासम्भवात् अन्यथा वदसिद्धवोद्भावनयैयर्थ्यात् । उपसृते तदनुपलम्भ इति चेत् कुतस्तदुपमर्दनम् ? सम्बन्धादिनिर्णयात् । सोऽपि कस्मात् ? " तच्छ्रमणात् । तदपि कुतः ? सदुपमर्दनादिति चेत्; न;
२०
चक्रक
“श्रद्धा कुतूहलरपादनार्थे तदित्येके ।" ० इको० पृ० ४
“साश्यादभिपादौ श्रद्वाकुतुहन्येत्पादः
ततः प्रवृत्तिरिति केचित् स्वयूथ्याः ।" सिद्धिवि० ० १०५ २ शभा श्राद्युत्पस्यभावे । ३ "तस्मात 'यद प्रयोजनरहितं वाक्यम्, तदर्थों वा न तत् क्षावतारयते कर्तुं प्रतिपादयितुं वा तथथा दरादाविमादिदन्ता च मिष्प्रयोजनं चेदं प्रकरणं तदर्थो वा' इति व्यापकानुपलच्या प्रत्यवतिष्ठमानस्य सदसिद्धतज्ञानार्थमादी मोनोपन्यासः " हेतु वि०टी० १०२ । न्या० १० पृ० पृ० १ । "त निषेव्यस्थ भव्यापक सस्यानुपलब्धिः व्यापकानुपलब्धिरुच्यते । तथा हि सत्र आरम्भपीयत्वं निषेध्यम्, तस्य व्यापकं सप्रयोजनत्वम्, तस्यामुपलब्धिः "न्यायप्र० ० ० ० ३९४
व्यमितिदम्
०, ब०, प०, स० । ५ शास्त्रारम्भश्रवण । ६ सम्मन्यायमुपलम्भस्य ७ साधारणत्रधनात् ८ वे तद० ० ० ९ सम्बन्धादि १० कलशाखार्थ श्रवण । ११ - पदर्शनम् आ०, ४०, प०, स० । १२ शास्त्रश्श्रवणात् १ १३ सति शास्त्र सम्बन्धादिनिर्णयः, सति च तस्मिन् व्यापकानुपलम्भोपन, ि शिकवणमिति ।
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न्यायविनिश्वयविवरणे
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दोषस्य सुव्यक्तात् । आप्तवचनत्वेन प्रमाणत्वाद् अन्यनिरपेक्षमेवेदं सम्बन्धागुपदर्शनसमर्थम् ; इत्यप्यसारम् ; उदीरितोत्तरत्वात् अन्तरेणापि वचनमप्तायैव सम्बन्धादिसिद्ध व्यापकानुपलम्भस्यासिद्धत्वं (त्व) निर्णयात् आदिवाक्यवत्, अन्यथा तत्रापि तदनुपलम्भनिषेधाय वचनान्सरकपनायायनवस्थानात् । उम्मेदमपि विवेकवतुरचेतसां देतसि प्रीतिकरम् ।
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प्रतिज्ञायचणमेतत् इत्यपि तारमेव । वचनमात्रात् प्रतिज्ञार्थासिद्धेः सर्वत्र हेतुवैफल्यप्रसङ्गात् । वक्ष्यमाणः * शाखार्थो हेतुरिति चेत्; न; प्रत्यक्ष परोक्षरूपस्य प्रमाणस्यैव शास्त्रार्थत्वात् । तस्य च स्वरूपादिविषयचतुर्विधविप्रतिपत्तिनिराकरण मुखेन यथास्थानमुपवर्ण्यमानैरुपपत्तिविशेषनिर्णय ( ये ) शास्त्रार्थ परिज्ञानस्य परिपूर्णस्वात् किमपरसंवशिष्यते यत्र प्रतिज्ञायमानं शास्त्रार्थज्ञानसाध्य' भवेत् ? नेदमपि तत्प्रयोजनम् पूर्वोपन्यस्त प्रयोजनवत विवारासहत्वात् ।
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किस (किम्परमिमिति
अयमेव च शीकारस्याप्यभिप्रायः सर्वस्याप्यस्यादिवाक्यप्रयोजनस्य चूर्णी निराकरणात् । न च तदीयमेव शास्त्र व्यावक्षीणैस्तदनभिस्तमेवादिवाक्यप्रयोजनमभिधातुं युम् । १ भारीरतिपादनपरम् इति भूमः । तथा हि-'शेभिनैनीयते' इति सव्यापारं शब्दशरीरमुपदर्शितम् । 'न्यायः' इत्यभिधेयशरीरम् । इतररसर्व यथासम्भरनुभयन्त्र विशेषणम् । किम्प्रयोजनं क्षेषेण तदुप६५ दर्शनस्येति चेत् ? विनेयत्र्युस्वदनमेव, विस्तरेण तदुपदर्शनवत् । नन्विमपि शाखकारस्यानमः खशरीरोपदर्शनस्यादि चूर्णो प्रषिक्षेपात्; "सत्यम्: शन्देगडुमात्रापेक्षया तत्प्रतिक्षेपः, वामात्रेण निश्रयायोगात् " [ ] इति वै" दचनात् । न चेदं
मात्रमादिवाक्यम् आप्तोपनीतत्वेन वाग्विशेयत्वात् । आप्तत्यमेव शास्त्रकारस्य न निश्चितमिति चेत्; न; कुतश्वित्" चिरसंवासादेस्तनिश्चयसम्भवात् । अनिश्चिततदासभावस्य २० तदुपदर्शनमिति चेत्; न; प्रत्यक्षादावपि समानस्यात् । न हि तद्यनिश्चितदव्यभिचारादिविशेषस्य स्वविषयोपदर्शनमम् । न च सङ्क्षेपावगमे विस्तरवैयर्थ्यम् ; प्रतिपत्तिविशेषस्य दधीनत्वात् । स्वमेवाप्तवचनत्वादस्य कस्मान्न भवतीति चेत् ? न ; बचनमम्सरेणापि ताज्ञचैन" सम्मवादित्युक्तत्वात् । संशयादिकारणत्वं तु निशरिवमेव । न किचिद परिहास्यमस्तीति पर्याप्तं प्रसङ्गेन ।
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कस्यचित्र चोद्यम् - " प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथाऽतिप्रसङ्गतः ।" [ प्रमाणप० पृ० ६३] इति वचनात व्यायमलप्रक्षालनस्यापीष्टत्वात् । तदपि " प्रमाणादिति वक्तयं न सम्यमवानादिति । न च सम्यग्रहान सेव प्रमाणम् अज्ञानस्यासम्यग्ज्ञानस्य च तस्य" भाषात् । न च
७
१ शाखम् २ भाषाशया सम्बन्धादिसियामा ३ आदियेऽपि वा भा० ०, प०, स। ५ "घि चात्र विप्रतिपतिः सपलक्षयगोचरफलविषया । "याप० टी० ० ९६ अ शrt न्यायविनिश्वयाख्यम् ८ - सदभि आ०, ब०, प० क्षणैस्तदमि-- 1 ९ युक्तम्यनिरर्थक शब्दापेक्षा १० चूर्णो । ११ चिरसहबासादेः । १२ आदिवाक्यस्य । १३ --झायैव व्या; ब स० । - राययैव प० । १४ श्रादिवाक्यस्य विशेषतः चर्चा विम्नप्रभ्थेषु प्रष्टष्याम्यायम० ० ३ सम्मति०टी० पृ०१७० | संख १०२ २०० पृ०४ । स्था० २००१४ | १५ न्यायप्रचालनमपि । १६ प्रमाणस्व ।
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श)
प्रथमः प्रत्यक्षमस्वाथ: शब्दलिलादेरशानस्य लोके प्रामाण्य न प्रसिद्ध युक्तियुक्तं वेति शक्यं वक्तुम् ; उभयस्याप्युपपत्तेः। लेकस्तापत् 'दीपेन म्या कक्षुपागत धूमेन प्रतिपन्नं शब्दानिश्चितम्' इति व्यवहरति । म चौपचारिक सेवा प्रामाध्यमिति युक्त वक्तुम् । यतो यस्य मितिक्रियायो साधकतमता तस्य प्रामाण्यमिति प्रसिद्धिः, प्रमाणपक्षाच्योक्तस्यैवार्थस्यावगमः । तथा शाखान्तरेफि अश्यभिधारादिविशेषणविशिष्ट्येपलब्धिजनकस्य श्रोधस्याबोधस्य वा सामान्येन प्रमाणत्वप्रसिधिः । यथा ५ सोतम्-"लिखितं सातियो मुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्' [ ] लोकेऽपि तथाभूतस्यैव प्रमाणत्ययवहारो यथाऽऽ:-अस्मिनित्रयोऽस्माकमयं पुरुषः प्रमाणम् । युक्तियुक्तं चैतस् , यतः प्रमाणपत्रं करणत्वाभिधायक प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । फरणविशेषस्य विशिष्ट कार्यजनकरदेन प्रमाणत्वात् , कार्यविशेषश्च कार्यान्तरेभ्यः प्रमाणत्वेनाथ्यभिचारादिस्वरूपत्वेन या सन्न सम्यग्ज्ञानमेय प्रमाणम् अन्यस्यापि भावात् । ततो न सिम्यग्ज्ञानजलैः' इत्युपपन्नम् ; १० निरवशेषप्रमाणसंमहाभावात् । सम्यग्ज्ञानारमनैव प्रमाणेन न्यायमलप्रक्षालनान् किमितरप्रमाणपरिग्रहेणेति चेत् ? न सदेतत् , एवं प्रमाणसम्लस्यानभीष्टिप्रसङ्गात् । अभीष्टश्च कश्चित्प्रमाणसम्प्लयः स्याद्वादिनामिति । तदेतत्वो.निराचिकीर्षया सम्यग्झानात्मकरयमेव 'प्रमाणस्य व्यवस्थापयन्नाह
प्रत्यक्षलक्षण प्राहुः स्पष्टं साकारमजसा ।
द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मवेदनम् ॥३॥ इति ।
म्यायः' इत्यनुवर्तमानमर्थवशाद्विभक्तिपरिणामेन द्वितीयान्तभिह सम्बध्यते । सतो. ऽयमर्थः-न्याय पाहुः स्वामिसमन्तभद्रादयः । किं प्रशश्न आहुरिषि पर्याप्तस्वादिति चेत् ? २; 'प्रबन्धेन आचार्योपदेशपारम्पर्येण आगतमाहुः प्राहुः' इति व्याख्यानात्यात् । तदनेनामादिरयं शानप्रबन्धः, केयल तत्सवादिविधायेव शास्त्र काराणामाधिपस्यमिति दर्शयति । २० स्यायं किं प्राहुः ? वेदनम् ज्ञानम् । कथं प्राहुः ? स्पष्टम् शवताहितत्त्वेन (१) परिस्फुटं प्रथा भवति "तत्त्वज्ञानं प्रमाणम्"[आप्तमी० श्लो. १०१]इत्यादिना तथैव प्रवचनात् । अनेनावेदनारमकत्वं न्यायस्य व्यवच्छिनत्ति, सदचवच्छेदे वदनात्मकत्वविधानानुपपत्तेः। न हि शब्दस्य नित्यत्वमव्यवच्छिन्दन्ननित्यत्वं विधातुमर्हति । कयं वचनभाताचव्यवच्छेद इति चेन् । न; सोपपतिकवादस्य वचनस्य । तथा च प्रयोगः-ग्यायो वेदनात्मा, न्यायस्वान्यथानुपपत्तेः । १० कथं धनैव हेतुरिति चेत् ? में ; तस्थापि हेतुत्वाविरोधस्य यक्ष्यमाणत्वात् ।
शलिशादीनाम् । २."अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामापलब्धि विदधती बोधायोधखभा सामनः प्रमाधाम"-न्यायमा पृ०११३ ३ योरूम् आ०,व०,१०,स.। "प्रमाणं लिखित भुरितः सानिमश्चेति कोसिसम् " -वाशास२२ । - आ०, छ.,५०,०.५ एकस्मिन् प्रमेये बहना प्रमाणाना प्रतिः प्रमाणसम्लयः । ६ "उपयोगविपस्याभादै प्रमाणसमावस्णानन्युफ्णमाम् । सतिहि प्रतिपतुरुपयोगविशेषे देशाविविशेपसमयमादानमात् प्रतिपक्षमपि हिरण्यरेत स पुनरनुमामात् प्रतिपिरसते तत्प्रतिषरधूमादिसायाकरणान् प्रतिपतिविशेषघटनात् । पुनस्तमेव प्रत्यक्षतो बुभुतते सत्करणसम्बासद्विशेषप्रतिभाससिः ।"-अस. पृ.! प्रमेयक.०५१ । -मि-भर०प०, प०, स०।८द्वितीयश्लोकात् ।
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म्यायविनिश्चययिधरणे असिद्धमन्वयाऽनुपपनत्यम् अचेतनास्यापीन्द्रियादेयत्वाविरोधात् , नीयतेऽनेनेति हि नीतिकियाकरणं न्याय उच्यते, वचाचेनिमपि नानुपपन्नं प्रसिद्धियुक्तिभ्यां तस्य समर्थितत्वादिति चेन्; अन्न प्रतिविधानम् ; अचेतनस्व सामग्येकदेशस्य, सामनीरूपस्य का प्रमाणत्वं भवेत् प्रका
सन्तरासम्भवात् । न तावत्सरमय्येकदेशस्य ; साधकसमस्यासम्भवान् । प्रमितिक्रिया प्रति करणत्वे हि ५ तस्य प्रामाण्यं भवेत् करणवच साधकतमत्वमेव साधकतम करणम्"[पा०व्या १४.४२]इति वचनात् । सामध्येकदेशस्य च नयनप्रदीपादेयेदि हेतुल्यमेव साधकतमत्वम् ; तदा सर्वतद्धेतूनामपि साधकतमत्येन प्रामाण्यान्न कश्चित्प्रमाता नापि किश्चित्प्रमेयमित्यतिमहदसमजसं प्राप्यं करणस्यैव कर्तृत्वादिविरोधात् । हेतुत्वाविशेषेऽपि सर्वेषां किञ्चिदेव करणं तत्रैव करणत्वस्व विवक्षित
त्वात् 'विवक्षातः कारकाणिभवन्ति"[जैने महा०१।४।४१] इति न्यायात् ; इत्यायसङ्गतम् । १० प्रमात्रादेरपि विवक्षया करमत्वमसङ्गात विवक्षाया विषयनियमाभावात् । कथं या पुरुषेच्छानिवन्धत
कस्यचित्रमाणस्वं वस्तुप्रतिपत्ताबुपयुज्येत १ 'साइतस्यैव प्रमाणप्रमेयसरफलभावस्त्र प्रसगात् । कारणस्यैवातिशयः साधकतमत्वमिति चेस् ; न ; तदपरिज्ञानात् । अन्त्यक्षणेप्राप्तिरतिशय इति वेस् ; न; प्रमाणाभिमतप्रदीपरिवत् कदाचित् प्रमेयस्य पटादेरन्यायाप्राप्तिभावा । एतेन समिपत्यका
रित्वमतिशय इति प्रत्युक्तम्: प्रमेयस्यापि सन्निपत्यकारित्वसम्भात् । स खलु सन्निपत्यकारीत्यु१५ च्यते यस्मिन्सति नियमेन कार्यस्य भावः, सम्भवति चायं प्रमेयापेक्षयाऽपि प्रकार:, कदाचिनदी
पादिकरणान्त रसाकल्येऽपि प्रमेयसनिधिविरहविधुरीकृतप्रादुर्भावस्य घटादिसंवेदनस्य तत्सन्निपाते नियमेनोपचिदर्शनात् । न केवल विषयस्यैव सग्निपत्यजनकत्वम्, प्रमातुरपि "तत्वात् । "न हि सदसन्निधानेऽपि" अनवधानकृने मूर्छादिनिबन्धने वा विषयज्ञाननिष्पत्तिः तदनवधानाध्यगम एव
नियमेन तनिष्पत्तेः । अतः प्रमातुरपि सन्निपत्यजनकत्वात् साधकतमत्वं भवेस् विश्वरूपस्यैवं दव२० नाच । तन्नाथमध्यतिशयः साधकतमत्यव्यवस्थाहेतु; अतिव्यामिदुष्यत्वात् । निरपेक्षकारित्वमतिशय
इति चेत् ; न ; असिद्धरकात, सामध्येकदेशानामन्योन्यसहकारित्वेन कार्यकारित्यात् । सामन्यन्तस्तदेकदेशनिरपेक्षत्वं तु न प्रदीपादेरेच, प्रमात्रादेरपि भावात् । एवं चेतनस्यापि संशयाविज्ञानस्य सामन्येकदेशस्य प्रामाण्ये साधकतमत्वं निरूपयितव्यम् । तन्न सामथ्येकदेशस्य प्रदीपादेः प्रमि
तिक्रियाकरणत्वम् असाधकतमत्वात् अमात्रादिवत् । २० अत्राह विश्वरूप:-"सत्यमेतत, सामठ्येकदशस्य न प्रामाण्यं मयापि विचार्य
तत्परित्यागात" [ ] इति; सोऽपि न सम्यग्वादी; योधमानलक्षणप्रमाणवादिन प्रति प्रदीपादिभिस्तदेकदेश:"अव्याप्तिदोषस्यानुद्भावनप्रसङ्गान् । यदि हि तेपा प्रामाण्यम् , न च
भास्मादीमामपि । २ हैम० ० ०७४२२। "म चानेशकारकजन्यरोऽपि कार्यस्य विवक्षात: करकाणि भवन्तीति म्यायात् साधक्तमत्व विक्षात इति अक्षम्य , पुरुषेच्छानिवन्धनत्वेन वस्तु व्यवस्थितेश्योमात् ।"-सम्मति टी० पृ. ४४१ । ३ कल्पितस्यैष । ४ अतिशयत्यनाभावात् । ५ का व्यवहित प्राक्ष.. वृत्तित्वम् । ६ तस्यापि प्रमश्यात्वं स्यात् । - "मनपस्य जनकत्वमतिशमः इति श..."-यायम.१०२। ८-त् सदस-आर०,५०,०स० । ९ कार्यस्याभावः भा०, २०,५०,स। १०-स्ततत्माता ! १५ प्रमेवसमिधाने । १२ सनिपल्सजनकत्वात् । १३न तदस-आ०,१०,५०,80 । दष्टव्यम्-सम्मति टी०.४४१३ १५ सन्निधाने सत्यपि । १५ विषयज्ञानोत्पः । १६ जैनादिक प्रति । १० सामग्येनदेशैः। १८ दीपादीनाम् ।
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SATANIRMAisalientistindiatima
१४३]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव तत्र तल्लक्षणं सदा स्थादच्याप्तिः, अप्रमाणे तु प्रमाणलक्षणभावो न दोषाय असिख्याध्यमावस्य गुणत्वान् । लोकप्रसिद्ध्या 'तप्रमाणत्वमकीकृत्य तैरव्याप्तिद्भाव्यते न वस्तुवृत्या । अत एवोक्तम्--'लोकवस्तावदीपेन मया दृष्टमित्यादि व्यवहरति' इति पर्यन्तमिति चेत् ; वस्तुवृत्स्या तर्हि बोधप्रमाणलक्षणमध्यातिदोपरहितमेवेति कथं तत्र तदुद्धापन निरनुयोज्यानुयोमामिमह. स्थान न भवेत् ? वस्तुतश्च तेपामप्रामाण्ये फथमिदमुक्तम्-'युक्तियुक्तं चैतम्' इत्यादि; अवस्तु- ५ भूतसा युक्तियुक्तस्वानुपपत्तेः।
किच, तेषां प्रामाण्ये युक्ति, प्रमितिक्रियाकरणत्वमेव । यदुतम्-'प्रमाणपदं करणस्वाभिधायक प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् ।' इति, तस्यै च साधकतमस्वभावस्यामा स्वयं प्रतिपदयमान एव कथमिदं वक्सुमर्हति 'युक्तियुक्तं चैतम्' इति ? यथाज्ञानमेव परार्थप्रवृत्तानां वचनक्रमोपपत्तेः, अन्यथालातस्यान्यथावधने हि कत्वान्न परार्थफारी स्यात् । अस्तु यहि १० वस्तुस एप सेषां प्रामाणीति ने ; न ; परिसरमा । भूसालसमभ्येकदेशतया तेषां दिति चेत्, नन्वेषमुपचार एवं स्यात् , प्रमाणैकदेशसया तेषां प्रामाण्यात् । न सत्यध्यं भवताम् 'न चौपचारिफं तेषां प्रामाण्यम्' इत्यस्य विरोधात् । “सामग्रीवद्वतोरध्यतिरेकात् सामग्रीप्रामाण्यवत् वलप्रामाण्यमपि वास्तवमेव गौपचारिकमिति चेत् ।
कथमेकक्रियावां स्यादनेक कारणं पृथक । "धास्पादिभेदे यानेदश्छिदेरप्युपलभ्यते ॥२०७॥ प्रमितेरपि भेदश्चेत्, न; "सकृत्सदसम्भवाम् । ज्ञानान सूरापजन्म न यदः शइसने मतम ॥२०॥ क्रमेण तस्य भावश्चेन्अक्रमातक्रमः कथम् ?
कारणादक्रमान्नो यस् कार्य क्रमवदीयते ।।२०९॥
तन्नेदं युक्तम्-'"प्रदीपादिवत् प्रभागादेरपि वस्तुतस्तत्मसङ्गाव । तस्यापि तद्वत्तदेकदेशत्वात् तत्र प्राप्तमपि प्रामाम्यं विशेषविधिना प्रमाहत्यादिना बाध्यत इति चेत् कः पुनरयं तस्य"बाधो नाम ? सामप्रीतादात्म्यनिषेध इति चेन्; न; "दभावात् । अन्यथा प्रमातृत्वादेरप्यभावप्रसङ्गात् । न हि सामग्रीवहिर्गतस्य "तत्त्वम् ; अतिप्रसङ्गात् । तदन्तर्गतस्यापि" प्रामाण्यमेन निषिध्यत इति चेत् ; ; तदन्तर्गमव्यतिरेकेष नेत्रादीनामप्यपरस्य प्रामाण्यस्याभावात् । २५ वतो 'यगतर्गमो न प्रामाण्यनिषेधः, "स चेन ; नान्सर्गमः' इति महानय व्यायासः परस्य । कीशेन वा "तेन "तस्य आधनम् ? गौणेनेति चेत् ; न; तदवस्थायां प्रामाण्यस्याप्रसक्त: . अलक्ष्ये लसपनभावस्य । २ प्रदीपादि प्रामाण्यम् । ३ “अनिप्रहस्थाने निग्रहामाभियोगो निरमुयोज्याजुयोगः।"-न्यायसू. ५५२२२२ । पृ०५७ ५.७।५ प्रदीपाली सामयिकदेशानाम् । पृ०५७ ५.८॥
सामायकदेवस्य ८सामध्येकदेशानां प्रवीपादीमाम् । ९प्रामाध्यमू। १० सामप्रीतदेकदेवायो। ११रपदे कियाभेद एवोपलभ्यते न स्वभेदः २ युगपत् । १३ शानजन्मनः। १४ क्रयरहिसात् सामग्रीरूपकरणात् । १५ प्रदीपादेरित प्र-मा०प०, १०, स०१६ यव देक-मा०, २०,40,110 प्रमात्रादौ १८ बोधो नाम मा०,२० १० स०।१९ सामग्रीलादारम्बनिषेधाभावात । २७ अमात्रादिषम् । २.मात्रादेः। २२ प्रामाण्यनिषेधः । १३. प्रमावृत्याविना । १५ प्रामाण्यस्म । २५ गौरवसायाम् ।
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[
३
व्यायविनिश्चयविधरणे 'सनिमित्ताभावात् । न चाप्रकस्य याधनम्, 'तस्य प्राप्तिपूर्वकरयाम् । मुख्येनेति चेत् ; किमाय तस्य मुख्यत्वम् ? कारकसाकल्यायत्तमित्ति चेत् : मनु प्रामाण्यमपि तस्य तदायत्तमेव, तत्कथ. मेकायत्तयोः एकस्यान्यद्वाधक स्यास् ? समावेशस्तु स्यात् , पाध्यवाधकयोरेकायतत्यासम्भवात् ।
नेत्रादीनामपि प्रभातृस्वप्रसङ्गः, कारकसाकल्यस्य तत्प्रयोजकस्य तत्रापि भावाविति चेत् ; सत्यम्; ५ "अयमस्यैव नैयायिकम्मन्यस्य दोषः स एवं बदप्ति । न तदायत्तं प्रभातृत्वादिकं तस्यान्याधीनत्वादिने चेत् ; कथं सहीदमुक्त भवतैव-प्रमाप्रमेययोः सत्त्वेऽपि कथञ्चित्कारकबैकल्ये गौणता निमित्तान्तरात्तु तत्साकल्ये अभिमतप्रमाख्यकार्यनिष्पादनादगौणः प्रमातृप्रमेय भावः"[ इति ।
किस तदन्यस, स्वायत्त प्रमानस्वादिकं स्यात् ? ज्ञानसमयायिकारणत्यं ज्ञानविषय१० वञ्चेति चेत् । न तस्यैव प्रमादित्यात् । नहि तदेव तदायत्तम , सद्भावस्य भेदगोचरत्वात् ।
तन्न तझावस्यान्यायत्तत्वमिति न मुख्येनापि तेन "तस्य बाधनम् । तत्तो सामध्येकदेशत्वेन नयनादीन प्रामाण्यम्, आत्मादावपि प्रसङ्गात । नाध्युपधारेण ; अनभ्युपगमात् , अप्रमाणत्वे घा कथं "योधमात्रप्रमाणलक्षस्य अध्यापकत्वोद्धापनमिति परस्यैषा समन्ततः पाशारज्जुः, तदलमेकदेशविचारेण ।
कारकसाकल्यमेव तर्हि प्रमाणमस्तु साधकतमत्वादिति चेत् ; ननु साधकाद्यपेक्षया साधकतमं भवति, अतिशायनस्यैवरूपस्यात् , तदर्थत्वाई तमप्रत्ययस्य, सत्तिमिदानी साधकादिकं या अपेक्ष्यं स्यात् १ ददेकदेश एव दीपादिरिति चेत् । तस्य "तत्त्वं गोगम् , मुख्यं या स्यात् न तावद्रोणम् सकलावस्थायां तदभावात् , अनभ्युपगमात् । विकलदशायामेव
"वदस्विति चेन् ; सद्यदि क्रियान्तरविषयम् ; न तदपेक्षया तत्साकल्याय साधकतमत्वम् , एक२० क्रियाविषयमेव कश्चिदमकृष्ट हेतुमपेक्ष्य तदपरस्य प्रष्टस्य साधक्तमत्वव्यवहारात । एक.. कियाविषयमेवेति चेन्; ने तर्हि साधक-साधकतमयोरन्योन्यसहकारित्वं सिन्नकालत्वात् । "सहशम्दस्य योगपचार्थत्वात् भिन्नकालयोश्च तदसम्भवान् सत्सहफारिवानिष्टौं" चान्यदा कर्मादिकम् अन्यदा च करणमिति दृष्टविपरीतमापोत । तन्न गौणे तधिति युक्तम् ।
मुख्यमेवेति "चेस् ; नम्कव्यय हितक्रियाकारित्वमेव मुख्यत्वम्, 'तंञ्च वस्य कारकसाक२५ स्यावतमेव "मुख्यगौणभावस्य कारकसाकल्यभावाभावायत्तत्वात्" [ ] इति भवत
एक वषनात् । तदायचयन "तस्मादुत्पन्नत्यान् , तन पवावा स्यात् ? उत्पनत्वमपि साधकतमस्वभावात् , सद्विपरीसाधी न तावसत्स्वभावान् ; अपेक्ष्यस्य पूर्वमभावेन तदसम्भवान् । अपेक्ष्यनिष्पसौ तत्सम्भव इति चेतनः तत्सम्भवात्तनिष्पत्तिः, ततश्च तत्सम्मका' इति मुख्यतरवात
प्रामाण्यानिमित्तस्य मुख्घरकस्यामापात् । २ साधनस्य । ३ प्रमातृत्वादः। ४ प्रमातावादिप्रयोजकस्य । ५ अस्वैध श्रा०,०, प०,०।६-पः एवं भवत्येव भा०,१०, १०, स. ८ तदायत्तत्वस्य। ९.प्रमात्रादित्वेन। १. प्रामाण्याय नयनादिभिः १२ अतिशयार्थवाच ।। साधकाधिवम् । १४ गौणत्वाभाषात् । १५ गौणं साधकादित्वम् । १६ सहकारित्वक्टकसहशदाय 10 योयुगपत्कार्यकर्षवामा । १८ देव म्यव-श्रा०,५०,५०,०९ मुक्यं साधनावित्वं दीपादः। ९. कारक्साकल्यायत्तत्वच । २१ कारकताकल्पात् ।
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१३]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावर
i
परस्पराश्रयस्य । तेष्ठिपरीतादुत्पतौ न तत्साकल्यस्य प्रामाण्यम् असाधकतमत्वात् । पाभावतस्यैव प्रामाण्यं स्यात् अव्यवहितक्रियत्वात् न तत्साकल्यस्य विपर्ययात् । पञ्चाद्धाव्यव्यस साकव तत्त्ततत्वम् तेंदुपत्त्याक्षेत्; न; तैस्य साधकतमरूपत्वे ताम्रायात्तदेकदेशानामपि साधकतमत्वमेव न साधकत्वादिकम्, तदभावे न च साधकम् अपेक्ष्यभावादिति न फारकताकल्यस्यापि सात- ५ मत्वम् । कादाचित्कतत्साकस्याज्ये तदेकदेशानामपि कादाचित्कस्कोपपत्तेरात्मादेरनित्यत्वप्रसन इति किलोद्भाव्यते ? इति चेत्; वत्स, "भवत्प्रतिबोधनार्थं तदुद्भावनम्, स्वयमेव चेन्द्रवाम प्रतिबुद्ध्यते किमस्माकं तदुद्भावनप्रयासेन ? "अतादूत्यस्यापि भाषामैकान्तेन तदनित्यत्वम् । तदुक्तम्- "साकल्यं हि " तेषामेव धर्मपात्रं नैकान्तेन वस्त्वन्तरम्" [ ] इति चेत ;
न; एवमपि तमित्यानित्यात्मकत्वोपपतेः स्याद्वादशनुगमनप्रसङ्गात्। ततो न तरसास्वमपि १० प्रमाणम् दद्येतनप्रामाण्याभावात् ।
नासिद्धमन्यथानुपपन्नत्वम्; चेतनत्व एव "न्यायत्वस्योपपत्तेः नीतिक्रियासाधकतमत्वस्य तत्रैव भावात् । परनिरपेक्षं हि "कारणत्वं साधकतमत्वम्, सनिपत्नकत्वस्थापि तत्वात् तार्थनिर्णये ज्ञानस्यैव तस्यै ततोऽनर्थान्तरत्वास नं नेत्रदिर्विपर्ययात्, तस्यायि त साधकतम समर्थान्तरत्वस्यावश्यम्भावात् कथमचेतनत्वं चेतनादने यन्तरस्य तत्त्वायोगात् ? अनर्था- ६५ न्तरत्वे कथं क्रियाकारणभावः ? भेद एव छिदि-कुठारयोः तद्भावप्रतिपत्तेरिति चेत्; का त छिदिः ? server द्वैीभाव इति चेत्; न; त्र कास्य "तस्परिणामसामर्थ्यस्यैय साधकत्वान्, यसति तस्मिन् सत्यपि कुठारव्यापारे वज्रादौ तदभायान् । सामर्थ्यादेव छिद किं कुठारेणेति चेत् ? न ; तत्क्रियायां तत्सामर्थ्याभिमुख्ये "तस्य व्यापारात् । याचत्तत्र वस्य" व्यापारस्तामेव कस्मान्न भवतीति चेत् ? न बज्रादावपि प्रसङ्गात् तदाभि- २० मुख्ये यदि तव्यापारः सत्क्रियायामपि स्यात् तस्य "सतोऽनर्थान्तरत्वादिति चेत्; भवत्वेवम्, तथापि न तत्र तस्य साधकतमत्वं तत्सामध्ये सव्यपेक्षत्वात् साधकत्वमेव तु raf andrer reयोपपत्तेः सामर्थ्यस्य तु तदभिमुखस्य न किचिदपेक्ष्यम्, “अंशः
33,
६१
१ असाधकतमात् साधकादिगतमुत्पत्ती | २ साधकतम भाव ३ साधकतमखमाषः शाकत्यस्वरूपत्वात् ५ कारकसाकल्यरूपस्य । ६ प्रदीपादीनाम् साधकादित्यामाये ८ समयस्य कवियपेक्ष्य मात् । ९ कारकसाल्यात मत्वस्य अनित्यत्वे १० सबैप्रति म०, ५०, प०, स० । ११ आरमादी मातृत्वादेः साधकस्यापि भावात् । १२ फारकोशाम्) १३ आत्मादीनां कादाचित्कसाधकतमखरूपापेक्षा अनित्यत्वम्, अप्याच नित्यत्वमिति । १४ कारकसाकल्यान्तर्गतायतनानाम् । १५ न्यायस्यो-आ०, ब०, प०, ० प्रमाणत्वस्य । १६ चैवन एव । १७ कारकरणम् आ०, ब०, प०, स० । १४ ज्ञानस्य । १९ अर्थनिर्णयाद् । २० नेत्रा २१ अर्थनिर्णये ।२२ दर्थान्स-आ०, ब०, प०, स० १३. अचेतनस्वाचोत् । २४ क्रिया करणभाव। २५. भावपरिगमनशव ३.२६ समये २७ छेदः किं भ० ४०, प०, स० १ २८ का शतद्वैधीभावपरिणमनशतिप्राकये । २९ कुठारस्य । ३० सामर्थ्याभिमुख्ये । ३१ कुठाय । ३२ शिंदे क्रियायानेवा ३३ आभिमुपन्यस्य । ३४ क्रियातः । ३५ द्विदौ । ३६ कुठारस्य । ३७ शक्ति ३८ साभस्त्वोपपतेः । ३९ तदभिमुख्यस्य भा०, व प० 1 कियामिमुतस्य । ४० कुतः आ०, ब०, प० ।
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न्यायविनिश्वयविपरणे
[ १२१३.
I
साधकतमत्वाम् । एवमन्यदपि व्यतिरिक्तं कारणं सर्वत्र वस्तुपरिगतौ साधकमेव 'योग्यत्वव्य पेक्षत्वात्, asecana] 'तदभिमुखं तत्र साधकमेव निरपेक्षरधात् प्रतिपत्तव्यम् । नन्वेवं तदाभिमुख्यपर्यायोऽपि सामर्थ्यस्य प्राच्यादेव तच्छतिपर्यायात् तस्यापि तदाभिमुख्यपर्यायः प्रायादेव तपर्यायादिति किं व्यतिरिक्तेन खङ्गादिनेति चेत् ? न सर्वथा तदाभिमुख्यस्य ५ पे तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्याभावप्रसङ्गात् । अस्ति चैतत् अतस्तस्यापि त "कारणत्वं वक्तव्यम् । अत एवोक्तम्
3
J
६२
"विशेषं कुरुते तुखिसा परिणामिनाम् । सुइरा दिर्घटादीनामन्वयव्यतिरेकवान् ॥” [
] इति ।
तस्मात् सर्वत्र वस्तुपरितौ भिन्नस्य तच्छक्त्याभिमुख्यमात्रे व्यापारः । भवतु तदभिमुखस्य १० तत्सामर्थ्यस्यैव साधकतमस्वम् तस्त्रियानर्थान्तरत्वं तु कथं तस्येति चेत् ? न काम् इति क्रिया सामानाधिकरण्येन 'तत्प्रतिपतेः । 'ततः कस्यैव 'नर्थान्तरत्वं न वत्सामर्थस्येति चेस; न; तस्यापि तदव्यतिरेकात् व्यतिरेके सामर्थ्यतद्वद्भावानुपपत्तेर्थथास्थानं विचारणात् । तन्न द्विधाभावः छिविक्रिया । कुठारव्यापार एवोत्पात निपातादिश्छिदिरिति चेत्; सत्यम्; कुठारस्य साधकत्वं तस्य सत्क्रियापरिणामसामर्थ्यरूपत्वात्, न तु तस्य तकियातोऽर्थान्तरत्वम् १५ ' निपतत्युत्क्वति वा कुठारः' इति "तत्सामानाधिकरण्येन तत्प्रतिपचेः । समयायादेवं प्रतिपत्तिन्तरत्वादिति चेत्; न; समायनि मिसत्ये "तस्यैव प्रतिभासप्रसङ्गात् । न चैवमभेदस्यैव प्रतिभासनात् । न "तस्यापि प्रतिभासनं सामानाधिकरण्यस्यैवावभासनादिति चेत्; न अस्यैवात् । समवायस्यैव तस्वं कस्मात्रेति चेत् ? न 'सामान्यमेव विशेषः सामान्यविशेष:' इत्यादाय भेदस्यैव तत्वेन परस्यापि सुप्रसिद्धत्वात् समवायस्य च निषेत्स्यमानत्वात् । कुतः पुनः परिणामसामध्ये भावस्येति चेत् ? तदास्तां तावत् तदुपपत्तिसाम्राज्यस्यैव सविस्तरमुत्तरत्र निरूपणात् । तन्न किञ्चिरिकयाव्यतिरिक्तं "करणम् । वसो नयनादेव नीतिक्रियाकरणत्वं तद्व्यतिरेके स्यादिति तदचेतनत्वं विरुध्येत । तस्य च घेतनत्ये निष्प्रयोअनमेव तदपरज्ञानकल्पनम्, अनेनैवाभिप्रायेण भाष्यकारैरण्याविष्टम् - " न ह्यचेतनेन किञ्चित्" atra atreपना फल्यप्रसङ्गात्" [ 1] इति । तदनेन संशयादिज्ञानस्यापि प्रामाण्यं निरस्तम्; तस्यापि नीतिकरणत्वे उदनर्थान्तरत्वनियमान्न संशयादित्वं स्यात् । न हि
२०
२५
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• वस्तुसामर्थ्य । २ विाभिमुखम् । ३ तमिर-आ०, ब०, प०, स० ४ तत्पूर्ववर्तिनः ५ पूर्वसा मर्थ्यस्यापि । ६ खङ्गादिनिरपेक्ष खङ्गादेरपि । ८ छिदिकियाथम् ९ कारकत्वं आ०, ब०, प०, स० १० सामर्थ्यस्य । ११ चेत् ०४०, प०, स० । १२ अनर्थान्तरस्वती । १३ किमिति प्रतीतितः । १४ तदर्था-आ०, ब०, प०, स०१५ सामर्थ्यस्यापि । १६ कुठारतयागारे १० सक्रियार्या--आ०, ४०, प० । कुठारकिंवातः १८ क्रियासासामानाधिकरण्येव । १९ समवायस्यैव २० प्रतीतो । २ अभेदस्वापि । २२ सामानाधिकरण्यात् । २३ इलामे आ०, ब०, प०, स० । २४ " तथा सामान्यमेव द्रव्यन्यावृत्तिहेतुत्वाद्विशेषम्यमादिः । प्रश० ० ५० १२७ । २५ कारणम् आ०, ४०, १० सं० २६ नयनादे २७ - तू कियते आ०, २०००, स० ।
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१३]
प्रथमः प्रत्यक्षमस्तावः
नीतितादाम्ये 'तस्य तत्त्वम् ; सीसेनिर्णयरूपत्वात् । देहि निर्णय एवं संशयाविः, विरोधात् । निर्णयारिमका च नीतिनिरूपविष्यते । ततो न नयनादेः संशयादेां नीतिसाधकतमत्वं तदमर्धान्तरस्य वेदनस्यैव तस्यात् तस्य त्र परनिरपेक्षत्वात् । न हि स्वयं ततिक्रयासामर्थ्य (समर्थ) स्वान्यापेक्षणम्। असिद्धं परनिरपेक्षत्वम ; इन्द्रियमनसोरपेक्षणास् "इन्द्रियमनसी विज्ञानकारणम्" [ ] इति बपनादिति चेत; न ; ज्ञानस्योत्पत्ताव तैदपेक्षणात, उत्पन्नस्य तु तस्यै ५ स्वत एव विषयनिणीतिर्नान्यतः । न चं नयनादेः सयादेवी स्वतस्तनिणीतिः ; अचेतनत्वसंशयादित्वविरोधात् । निर्विकल्पकदर्शनमपि न स्वतस्तग्निर्णयसमर्थम् ; शत्पृष्ठभाविविकल्प. कल्पनावैफल्यग्रसङ्गादिति न तस्यापि मुख्य प्रामाण्यम् । निर्णयज्ञानहेतुत्वेन तु नेत्रादीनो प्रामाण्यमौपचारिकमेव न मुख्यम् । उक्त
"सिद्धं यन्न परापेक्ष सिद्धौ स्वपररूपयोः ।
तत्प्रमाणं ततो नान्यदविकल्पमचेतनम् ॥” [सिद्धिवि० प्र०परि०] इति । अंत्र अविकल्पमहणेल तस्वनिर्णयस्वभाषिकलयात् दर्शनस्य संशयादेश्व परिग्रहो नयनाः अचेतमहणेन ।
घेदन तत्फलाभिन्नं कथं तस्करणं यदि ? कुठारस्सरफलाभिन्नः कथं तस्करणं भवेत् ? ॥२१॥ प्रश्नस्तत्रापि "तुल्यश्चेत्क ने तस्य" प्रवर्तनम् । व्यतिरिक्त पलायचे ( 2 ) नाभिन्नस्यैव दर्शनाम् ॥२१॥ विश्वाराव्यतिरिक्तं चेदभिन्नस्यापि दर्शने । दर्शनास्किमसौ” ज्यायान किंरूपो वा स कथ्यताम् ? ॥२१२।। साध्यरूपं फलं तस्मादभिन्नं साधनं कथम् । साध्यमेव हि "सधुक्तमभेदः कथमन्यथा ? ॥२१३।। सिद्धं च साधनं तस्मादभिन्न" साध्यते कथम् ?" "स्वात्सिवस्यापि साध्यत्वे साध्यत्वापरिनिष्ठितिः ॥२१४|| साध्यसाधनभावश्च वेदनार्थावसाययोः । अभेदश्चेति बागेपा पूर्वापरविरोधिनी ॥२१५॥ भेदोपाधिहि "तद्धाको नाभेदं क्षमते भवन् । अभेदश्च न “भेदम् , "तवयमेकत्र दुर्धरम् ।।२१६॥
संशयावे। २ सदान्त-आ०,०, ५०, स.। नीतिक्रियातोऽभिषस्व । ३ साधकतमराव । ४ नीतिक्रियावाम् । ५ "ततः सुभाषितम्-इन्द्रियमनसी कारणं विज्ञानस्य अधों विषय इति"-ली. स्वा. का० ५४।६इन्दियमनसोरपेक्षपात । कहानस्य 1 रोके । ९ कुठास्वतीस्पतरनिपतचव्यापाररूपा हिदिक्रिया। १. तुल्यवेत् आ०, ०,१०, स. ११ आ०, २०, ५०१ १२ प्रश्नस्य । १३ विचारः।१४ साघमम् । १५ सिद्धात्साधनाइमिनस्य फलस्यापि सिमलात का साध्यस्पमिति भावः। १६ कश्चित् । 10 साध्यसाधनामारः। १८ भेदश्च दूर-आ०, २०, ५० स०। क्षमते इति पूर्वेषान्वयः । १९ भेदाभेदी।
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भ्यायांवनिश्चयविवरण
[१३
M
KAAMVAS
पुति चेत्सत्यमेकान्ताभेदे दूपणमीरशम् ।
नैवं स्यावादिनामिष्टिः स्यादभेदस्य पाञ्छनात् ॥२१॥ तथा हि-दमर्थनिर्णयरूपमेव वेदनम् ; स्वनिर्णरूपस्वाभावासलान् ! जब नास्त्येव तस्य साद्रूप्यम् ; युक्तितस्तस्थ व्यवस्थापनान् । मापि स्वनिर्णयरूपमेव अर्थनिर्णयरूपत्वाभाप्रसङ्गात् । ५ न च नास्त्वेव तस्य ताप्यम् ; युक्तितस्तस्यापि व्यवस्थापनास' । च तदुभयव्यतिरिक्तमेक,
वस्थासंवेदनात् निर्णयघेदनयोः संसर्गवशाविषेकावभासनं न वस्तुत एवाविवेकभावादिति चेत् ;न; विवेकनियमस्य निषेत्स्यमानत्वात् । ततो निर्णववेदनयोः कश्चित् व्यतिरेकस्थापि भाषानायुक्त क्रियाकारकभावः । एतदर्थ च कारिफायाम् अर्थात्मग्रहणम् । विषयभेदेन
निर्णयमेदेऽपि तत्साधनज्ञानस्याभिमानस्य अन्वयष्यतिरेकाम्या कधचित् व्यतिरेकस्य नो. १० वर्शनास । सत्यपि व्यतिरेके विधसमसमयस्य वेदनस्व कथं तत्करणत्वमिति चेन्न अन्न
नैयायिकस्याविप्रतिपत्तेः, कार्यसमकालस्य नित्यस्य अन्यथा हेतुत्मामावप्रसङ्गान् । निर्णयसहजन्मनस्तस्य कथं" तरकारित्वमिति चेत् १ न; एकान्तेन तत्साहजन्माभावात् , क्षणभङ्गस्य नित्स्यमानत्वात् । इन्द्रियमदिना तर्हि "किमुत्पाद्यते ? ने निर्णयः, तस्य वेदनकार्यवात् । नापि
बेदनम् : तस्यागिकत्वेन "तथापारान् प्रागप्ति भावादिति चेत् ; नः निर्णयसमधस्म "तस्य १५ तदुस्साघरवात् । पूर्व तहि तदनिर्णयसमर्थमिति चेत् ; न तवापि विषयान्तरनिर्णयसमर्थत्वात् ।
"तस्य चाल्यत इन्द्रियादेर्भावात् । स्वार्थनिर्णयधिकलस्य तु न तस्य प्रामाण्यं सुपुप्तज्ञानयत् । निरुपयिष्यते चैवत् । सामर्यस्य साधकतमत्वे स्वसंवेदनव्याधातः "तस्याप्रत्यक्षत्वात् क्रियानुमेयत्वेनोपामात् शक्तिः क्रियानुमेया' [ ] इचि वचनात् , स्वसंविदितच प्रमाणमिति
सिद्धान्त इति चेत् ; अस्तु "शक्तिरूपेण सद्व्याघातो न कश्चिदोषः, "शक्तेलब्धिसंक्षित२. भावेन्द्रियस्वभावराया अप्रत्यक्षतोपगमात् । तत एव सुमतिदेवेरुकम्-"शक्तिः परोति चेन्न
काचित्क्षतिः [ ] इति । स्वसंविदिसत्वं सूक्तं" स्वरूपापपेक्षनिर्णय क्रियातादास्यात् । "तरिकयाया अपि परोक्षशसितादात्म्यात् परोसत्वप्रसङ्ग इति चेत् ; अभिमतमेवैतत परोक्षेतरस्वभावतया सर्वस्यापि वस्तुनोऽभ्यनुज्ञानात् । श्यति च
"प्रत्यक्षं बहिरन्तश्च परोक्षं स्वप्रदेशतः" [ न्यायवि० श्लोक १२८ } इति । । ततो बेदनस्यैवार्थात्मविषयस्य प्रामाण्यादुश्पन्न मेतत्-'न्यायो वेदनात्मैव भ्यायत्वान्यथानु
NA
- एका-०, २०, स० २ स्वमिमहारत्वम् । ३ अनियरूपत्वम् । ५ अभेदावभासनम् । ५ अभेवात् । ६ अर्थात्महणेन । निर्णयसाधक्षमस्वम् । 4-स्थानि- प्रा०, २०, ५०, ०। ९ वेदनस्य । 1.- सहका- आ०, ५०, १०, स१५ किसुत्पर-१०, २०, ५०, स. १२ इन्द्रियादिव्यापारात् । १३ वेदनस्य । विषयान्तरनिर्णयसमार्थस्य बेदनस्य । १५ सामयस्व । १६ "कधमम्मथा न्यायविनिश्वये सहभुवो मुण्यः' इत्यस्य 'सुखमाहादसाकारं विज्ञान भेयशेधनम् । इतिः मियानुमेशा स्यामः कन्सासमागमे।' इति निदर्शनं स्थान -सिविवि० टी०पू० ६९ | १७ निरूपण त-श्रा०, ब०, ५०,स। 14 "ong पयोगी भायेन्द्रियम् । अर्थबहाशचिलब्धिः। उपयोगः पुनरगहन्याधारः।" धी. स्व. स. ५॥ १. समस्या निर्णयपश्यिा । १५ निर्णयक्रियायाः। २ अभिमत मेतल-०,०, प, स०।
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२३ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
६५
i
नम्र घटादेः आत्मनश्च बोधस्वभावत्य वेदनमेव कथम् अशतस्य तदसम्भवात् । नस्य सम्यग्युद्धिविषयत्वम् योग्यस्यैव तदुपपतेः । शतस्यैव तस्य वेदनमिति चेत्; न; एकान्तेन व्यपत्ये पर्यायस्वभावत्वे सामान्यात्मकत्वे विशेषाकारत्वे च तस्यार्थक्रियासामर्थ्यस्य शास्त्रकारेणैव निषेधात् । न च द्रच्याये रूपान्तरमस्ति यतस्तस्याऽनिषिद्धसामर्थ्यस्य किञ्चिदनं स्यातदसम्भयात् । साध्यरूपेयं प्रतिशेति चेत्, अत्राह 'द्रव्य' इत्यादि । ५वात्पर्यपत्र प्येकास नित्यादिरूप नो शक्तिकल्यम् अर्थक्रिया विरहात् कथविन्नित्यादिस्वभावत्वे तु नायं दोषः तत्रार्थकिया सामर्थ्यस्य निरूपणाद्वेदनविषयतोपपत्तेः निरवय प्रतिज्ञाया इति ।
एकान्तो निरयमनित्यमेवं समानमन्यच न वस्तु किचित् । अर्थक्रियायां तदशक्तिभावात् तथाविधस्याप्रतिवेदनाञ्च ॥२१८॥ ramari saaf सन्तस्तदनं नाम कथं प्रमाणम् । वस्तुसंस्पर्शितया सतोऽपि को नाम मानव्यवहारयोगः ॥ २१९ ॥ ततोsस्तु आस्यन्तरमेष रूपमन्तर्बहिर्वस्तुषु वस्तुवृत्त्या । तस्यार्यशक्तेः प्रतिवेदनाथ व्योमारविन्दप्रतिमं तदन्यत् ॥ २२०॥ तथोदितं स्वामिसमन्तभद्वैरे कान्दनी विसीकुठारैः ।
१०
१५
अभेदभेदात्मकमर्थं तव स्वतान्यतरत्खपुष्पम् ॥” [युक्तयनु० लो०७ ] तदर्न तन्निरयचरूपं प्रमाणतस्वेत निरूप्यमाणम् ।
अयुक्तिमन्नेति वदत्युदारं द्रव्यादिशब्दग्रहणेन देवः ॥ २२२ ॥
7
स्यान्मतम् - आगमार्थ एष प्रमाणार्थो वक्तव्यः आगमनै मैल्वस्य नोपायतया तेंदुपरप्रमाणपरिचिन्तनात् एकविषयत्वे च संवाद सामर्थ्यात् तस्य तदुपायत्वं न भिन्नविषयत्वे २० तस्सामर्थ्याभावात् । हेयोपादेयतस्वमेव व सोपायमागमार्थो न द्रव्यादिरूपार्थात्मानौ तत्कथं तयोः प्रमाणार्थत्वमुक्तं न यादितत्त्वस्य सोमावस्येति ? तन्न सारम् अर्थात्मनोरेव सोपायहेयादिरूपत्वात्, "व्यादिस्वभावकथनं तु सदभावे देयादिरूपस्यैवा सम्मवप्रतिपादनार्थम् "तथैव यथावसरं निरूपणात् । ततश्व "प्रत्यागमानां द्रव्यादिरूपवस्तुवादविमुखत्वेन वस्तुभूतया दितस्वप्रतिपादकत्वाभावादप्रामाण्यम्, परमागमस्त्र धान्ययोमव्ययच्छेदेन तद्वैपरीत्या हेयादिविषयं २५ प्रामाण्यमवस्थापितं भवति । ततो निरययं यथोक्तविषयस्य वेदनस्यैव न्यायत्वं तदन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयात्। अनिश्चितान्त्रयस्य कथं हेतुत्वमिति चेत् ? न; अन्यधानुपपश्चैव निश्चितया अन्ययस्यापि निश्वयात् तस्यास्तद्रूपत्वात् । साधर्म्यष्टान्तानुपदर्शने कथं तनिश्चय इति चेत् ? म पक्ष
.
व्यपर्यायसामान्यविशेषातिरितम् । २ असिया । ३ विशेष भैदनिरेपक्षः, अमेदनिरपेक्षण भेदः, केवलं भेदः अभेदल न सश्वमिति भाषः ५ कारिकायां द्रव्यपर्यायेत्यादिपपादानेन । ६ अदेवः । ● आगमभित्र प्रत्यक्षादिप्रमाण ८ आगमभिप्रमाणस्य ९ खेना-आ०, ब०, प०, स० १० नोपाधी पानीसहितम् । ११ द्रव्यादे - ०, ० ० ० १२०, ब०, प०, स० । १२ चैत् गामाम् । १४ अन्वयनिश्चयः ।
९
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भ्यायामिवविध एव सन्निश्चयोपपत्तः विपक्षे बाधकसामात्, तस्य चोक्तत्वात् । निरूपयिष्यते चैतत्सविस्तरमिति नातीय निर्याध्यते । यथोक्तस्य वेदनस्यैव प्रामाण्ये शैम्पलिङ्गयोस्तन्न स्यान् शब्दस्याघेदनत्वात् लिङ्गस्यावेदमस्यापि भावात्, तथा म निरूपणमप्रस्तुताभिधानम्, प्रमाणभेष हि
शास्त्रे निरूपयिसव्यं नापरमिति चेत् । अत्राह-'अञ्जसा' इति । तात्पर्थमन्त्र-- ५ यथोक्तमेव संवेदनं मुख्यतः प्रमाणम्, सद्धेतुत्वेन तूपररितं प्रामाण्यमचेतनस्यापि शब्दलिङ्गा
देरनिवारितमिति । कथं शब्दादेस्तद्धेतुत्यमिन्द्रियादेरेख सद्धेतुत्वात् "इन्द्रियमनसी विज्ञानकारणम्" [ ] इति वचनादिति चेत् । न; इन्द्रियप्रत्यक्षापेक्षया तन्नियनाभिधानातू, अन्यथा स्वमतव्याघातापतेः।
दर्शनस्य प्रामाण्यप्रसङ्गः, सेनाप्यात्मनोरेव सत्तारूपेण प्रमात् "सामान्धग्रहण १० दर्शनम्" [ ] इति वचनात् । इत्यत्राह-साकारम् इति । घटः पट इति
वा जीवः पुद्गल इति था सो योऽयमतदूपपरावृत्तो भावस्वभाव; साकारः, सेन विषयेण सह वर्तत इति साकारम् । अर्थात्मवेदनम्' इत्यनेन ज्ञानस्यैव प्रामाण्यमुपदर्शयति तस्यैव साकारत्वात् “साधारणा" [ इसि वचनात् । अर्थात्मग्रहणे व वेदनस्य
साकारत्वमुक्तं भेदनिर्देशात्,सन्मात्रापेक्षायां तदनुपपत्तेति चेत् ; न सन्मात्रस्यापि तद्र पत्या५१ वुपपसेः । अर्थात्मरूपमेव हि वस्तु प्रथमलोचनादिप्रणिधानयेलायाम् अपरामृष्टभेदतया
उनुभूयमानं सन्माचमुच्यते नापरम् । अदो दर्शनापेक्षया "भेदनिर्देशो न तन्त्रम् , ज्ञानरपेक्षयैध तस्य तस्यादित्यस्ति "संशयावकाशस्ततो न पौनरुवार्य साकारहणस्य । पर्शनस्यापि किन्न प्रामाण्यं यतः साकारमहणेन सन्नित्यंत इति पेन् ! म; "ज्ञान प्रमाणमित्याहु" [सिद्धिवि० परि० १०] 'इत्यागमविरोधापत्तेः । आगमोऽपि करमान्न तत्प्रामाण्यमिच्छतीति चेत् ? २० न ; अनिश्चयरूपत्वात् । न चानिश्चयरूपः प्रमाणार्थः 'प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदलक्षणेन
मीयते वस्तुसच्चं येन वत्प्रमाणम्' इति तदर्थोपादासन्', "निर्णयात्मकत्वमन्तरेण तथ्यपच्छेदायोगान् । "दर्शनमपि निर्णयरूपमेयेति चेत् ; न ; विषवेन्द्रियसन्निपातानन्तरमवग्रहस्यैव निर्णयात्मनोऽनुभवात् । “विषयविपथिसन्निपातानन्तरमायं ग्रहाचग्रहा" [लपी० स्व० श्लो, ५] इसि यचनाच । दर्शनेन त्वायत्रधानमनुमानत एव न निर्णयात् ।
विध्यते सा.व., आ.स.1२लिजशब्दयोः १०,०प० स०।३शदलिनिरूपणम् । । इन्द्रियममसौर्थिशामकारणत्वनियम । ५ " सफ्णपाहणं देसमेग'-सम्मति २१ । इप्पसगा० ४३ ।
"मापदौ पुधभूवं फम्ममाचारो"-जए. ३३१ ! ७ "सामारे से गाणे भवति, अशागारे से दसणे भवति ।" प्रज्ञाप. प. ३. सू० ३१४। "साकार शानमनाकारं दर्शन मिति ।" सर्विसि. स। ८ अर्थात्मेति विशेष निर्देशानुपपत्तेः । ९ अर्थात्महत्वाद् विशेषनिदेशोपरत्तेः । १० मिति विशिष्य ग्रहणम् । ११ दर्शनस्य प्रामाण्ड नत्याचारक | Ranet elदि पानिपल्या. कधी-एलो.५ प्रमाणसं. इलो०४३।१३ म्मायकुमु.१०४८५०१011 निर्णयकत्वम-आ०,०००। १५ संन्यादिन्यवछेदायोगात् । १६ दर्शनरूपमपि aro, R०, ५०, स. १७ इष्टव्यम्--सथिसि. ११५१० टि.पू. १२ । 16 दर्शने तु-मा०,००,801 १९ यतः पूर्वकालभाविदर्शनमेघ अनु पश्चात् मानम् अवाहामक भवति, नसु सत् क्षयमर्थनिमेयात्मकम् ।
JECTION
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मथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव एतच "अक्षार्थयोगे सत्तालोकः" [लपी०इलो०-५] इत्यादिव्याचक्षार्गर्भाध्यकारे निरूपितम्। प्रगरणमेव तत् निर्विकल्पफप्रत्यक्षत्वादिति ब्रह्मविनः ददास्ताम् यथावसरं निरूपणात् ।
शुक्तिकारजतज्ञामस्य साकारत्वात् प्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेत् ; म ; अर्थग्रहणेन सनिवर्समात् । न हि तद्रजप्तमः, नगदी त प्राप्तः । गधर भाणदेशी सस्य प्रतिवेदनात्, ततो नार्थपदेन तनिवर्तनम् , अतो बाधयिवलितम्' इति वक्तव्यम् , अर्थज्ञानस्यापि ५ बायमानस्याप्रामाण्यप्रतिपादनार्थमिति चेन् ; कथमज्ञानस्यैव' बाधनम् अतिप्रसङ्गात् । सनिहितदेशवादेरसत एव महणादिति चेत्, न तस्याप्यन्यदेशादी सत एव ग्रहणात् । तस्यापि सनिहितदेर्शत्वादिकमतहेव गृह्यत इति चेत; न तत्रापि तस्यैवोत्तरत्वात् । तन दूरमनुसरतोऽपि किश्चिदसवेदनमस्ति यत्प्रामाण्यव्यवच्छेदेन बाधविवर्जितपदमर्थवद्भवेत् । असत एव कस्यचिदन्ने वा रजतस्यैवासनो बेदनमस्तु विशेषाभावात् । असतः कथं वेदनमिति चेत् । सन्निहितदेशस्वादेः १० कथम् ? अहमेव तत्रापि चोदक इलि चेन्; "स्वतस्तहिं कथं बेदनम् ! योग्यत्वाच्चेत् क तस्य योग्यत्वम् १ वेदनोत्पत्ताविति चेत् ; कुतस्तदवातिः १ तत एव वेदनादिति चेत् ; तन्न; यस्मात
यदि तवेदनेनैव तस्यार्थाजन्म वेद्यते । तोस्तित्वसन्देही फस्यचित्कथमुचेत् ११॥२२३।। জানৰ কৰ্ম্ম বনানীখামগুরুষ। स एवास्ति न वेत्येवं विकल्पाय प्रकल्पते ।।२२४॥ दृश्यते चात्मसंवित्तौ सत्यामप्यर्थसंशयात् । अर्थिनामपि तद्वयेष्यप्रवृत्तिस्तनूभृताम् ॥२२५॥ अनिश्चयात्मकत्वास सज्ञानात्वंशयोद्धवः । अविशेषात्तवाऽप्येष किन्न स्थावात्मसंशयः ॥२२६॥ तथा सत्यर्थविज्ञानमर्थकार्यत्वमात्मनः । तदेव प्रतिवेत्तीति संशयानः कथं वदेत् ॥२२॥ तनं तेनैव तथुक्तिः, यदि तद्युक्तिरन्यतः" । अनर्थसम्भव"तच्चेत्, कथं स्यादर्थवेदनम् ॥२२८।। यद्विधादर्थकार्यत्वं 'पीच्यज्ञानस्य तत्वतः । तस्यापि विषयोत्पत्तिरन्यथा तु वृथा भवेत् ॥२२९॥ 'तदप्योदवं चेन तद्गतिः पूर्ववत्स्वतः।
तदन्यज्ञानक्लनिस्तु · विदध्यायनवस्थितिम् ॥२३०॥ १ शकसहदेवैः । तदनन्तरभूत सन्माषदर्शन सरिषषव्यवस्थापनविकल्पमसरपरिमं प्रतिपद्यतेऽवप्रहः।" -कधी . तो ५ . दर्शनम्। ३ शुसिकाशं मासमान रजतम्। ४ सर्जि -मास०, स। ५ संशयादेरेन । ६ बरसादसह सा. ५ अचिहितदेशत्वादेरपि । ८-देशकत्वादिक-ता।" अभिहितवेशवाद:१०सतः भा०,१०,१०, १ स्वस्य । १२ वाता०1१३ स्वस्य अर्थाजन्मावपतिः। 1४ ज्ञानात्। १५ बन्यज्ञानम् । १६प्राप्यशा-आ.,च, ए.1 प्राप्तज्ञान्स.११७ अन्पज्ञानम् ।
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न्यायविनिश्चयवितरणे
[२३ साक रोगस्य नाध्यक्षं विषयस्य तत् । नानुमेयमलिकत्वात्, लिङ्गं यद्यस्ति भ्यताम् ? ॥२३॥ संवित्तिनियमो लिङ्गम् ; अशक्तस्य हि वेदने । तोच सकलं प्राप्त तथा तमियमः कथम् १ ॥२३२।। इति पेन; स्वशक्त्यैव संक्तिनियतार्थता । तच्छक्तिरपि ते सोरर्थशक्त्या. तु किं फलम् ? ॥२३३॥ ज्ञानमदिनुभूतं न चेन्नियतगोचरम् । अर्थो ज्ञानानुभूतो घेथः स्थानियतः कथम् ! ॥२३४॥ अन्योन्यहेतुकत्वञ्च न सबन्योन्यसंश्रयात् । अवयवेदकामावाद भावनराम्यमागतम् १६२३५॥ अज्ञानजस्थाप्यर्थस्य स्वशक्तिशतो यदि । नियतस्यैव वेद्यत्वं यथादर्शनमुच्यते ॥२३६॥ ज्ञानमेवमनर्योत्थं निर्यतार्थ न किं मतम् । स्वयमेवेदमन्यत्र देवः स्पष्टं न्यवेदयत् ।।२३७॥ "स्वहेतजनितोऽप्यर्थः परिच्छेधः स्वतो यथा ।
तथा ज्ञान स्वहेतूत्य परिच्छेदात्मक स्वतः ॥"लघी० बलले ०५९] इति । सन्न धेदनोत्पत्तापर्यस्य योग्यत्वम् । विषयभावपरिणाम इति थे ; ननित्यक्षणिकयोरविषयस्वनसतात, तत्परिणामाभावास् । परिणामिनो भावस्य विषयत्वमिति चेत् ;. सत्यम् ; तथापि
नार्थसामध्यकृतं येदनं सत्परिणामस्यैव तत्कृतत्वात् । न च सं एष घेदनम् ; अर्थशानयो२० रमेवप्रसङ्गात् । स्वहेतुमनितस्यापि वेदनस्यार्थाभिमुख्यमर्थसामोदिति चेत् । न ; "तस्यापि
स्वरूपाभिमुख्ययात् स्वशक्तित एव भावात् । किमिदानी तत्परिणामेनेति चेत् । यद्येवं जानादि निर्मुच्यतां सत्र निर्बन्धः । सतो यदुक्तं धर्मकीसिना
"नित्यं प्रमाण नैवास्ति प्रामाण्याद्वस्तुसद्तेः।।
झेयानित्यतया तस्य अधौन्धात्..." [३० वा० १११० ] इति । २५ तनिरस्तम् ; शेयकार्यत्वे हि ज्ञानस्य तदनित्यतया स्थानित्यत्वम् , म चैवम् ,सत्कार्यत्वस्थान
स्तरमेव निषेधात् । मा भूत्तत्कार्थत्वं तथापि वस्तुसदतिस्वातस्य प्रामाण्यम् । वस्तुसतित्वम वस्तुनि सति व्यापारात न च यस्तु सर्वदास्ति यतस्तद्व्यापारस्य सर्वदास्तित्वम्, अतो वस्तुसदनिस्यतया तत्र ब्याटतं शानमप्यनित्यमेव, सद्व्यापारमातोरभेदात् । व्यापारोऽज्यव्यापारास भिद्यत इति चेन्; म ; शेयस्य झातेवरावस्योरविशेषप्रसाशात् सर्वमझमेव सर्वज्ञमेव वा
1-कार्ययो-श्रा०, ब.,प.स. ३ - नि-t०,२०,५०,०। ३ संवितिकारष्यत् ।। अयस्वम् । ५ यथाप्रतीति। नियता आ०, १०,५०,०। ७ सपोयनाये। ८ तयोरस्रवाह विषयमावपरिणामामावात् । अर्थगाविषयमापरिणामस्व. अर्थसामर्थ्यकृतत्याद । १. विषयभावपरिणामः ।
" अर्थाभिमुरूस्थापि।१२ यानित्यतया । झामस्या . .
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प्रथमः प्रत्यक्षास्तायः जगत्प्रारम् । न चवम् , अतो वस्तुनि सस्येव तब शामस्य व्यापारी न पूर्व नापि पश्चादित्युपप शेयानित्यतया वस्तुसदलेरंगीन्यमिति चेत् : कुतः पुनरिदं शेयानिस्यत्पमयागतं येनैवमुच्यते? तद्विषयादेव ज्ञानादिति चेत् । न तस्य नित्यस्वाभावात् "नित्यं प्रमाणं नैशस्ति' इत्यस्य विरोधान् । अनित्यात्ततस्तदनगम इति चेत्, अनित्यत्वेन तदझाने कथम् 'अभियात् इति वचनम् । न "ज्ञानस्याशात रूपम् ; स्वसंवेदनरूपत्वात्तस्य । न च खण्डशस्तद्वदनम् “तस्माद् दृष्टस्य ५ भावस्थ" ० ० ३१४४ इत्यावे "विलोपप्रसङ्गात्। अस्त्येव तस्य तस्येन झासमिति घेत् । कुतस्तज्ञानम् ? अन्यत एव कुतश्चिदिति चेत् ; न ; 'यानित्यवया' इश्वस्य वैयर्यप्रसान् । ज्ञेयामित्यवादेवेति चेत् । तदपि कुतः ? तज्ज्ञानस्यानित्यत्वादिति चेत् ; न ; परस्य. श्रयान-शेयस्यानित्यत्वेन सज्ञानस्यानित्यत्वम, तसश्च तदनित्यत्वमिति। तन्न यानिस्यत्वं सज्ञानादेव शक्यावसायम् । भाप्यतज्ञानात् ; अप्रतिपन्ने धर्मिणि तसर्मप्रतिपत्तेरयोगात् । १० सरहेन यानित्यत्वं ज्ञानानित्यत्वस्य कारकं ज्ञापक येति न किश्चिदेवत् । ततो वेदनस्य सद्विषयत्वमपि स्वशतित एव तद्वादसविषयत्वमपि स्यात् ।
यद्यसदेव रजतं कुतस्तस्य देशादिनियमेन बेदनम् अससो देशादिनियमस्यासम्भयात् , वस्तुधर्मस्वात्तन्नियमस्येति चेत् ? न ; वेदनस्यैव तथा सामोत् । तदपि" यदि "स्वो. पादानप्रकृतेरेव, सर्वस्यापि वेदनात्यासद्विषयत्वप्रसङ्गः, तत्सामर्थ्यहेतोः खोपादानप्रकृतेरविशेषादिति चेत् ; न ; अवरणोदवान् सरसामर्थ्यभायात् । न च तदुदयस्य सर्वनाविशेषः ; खहेतुनियमेन तमियमा ; आवरणसहायस्य प निवेदनात् । सर्वमसात् किन वेद्यत इत्यत्यनेनाऽपास्ता , आवरणशक्तिनियमात् निस्तस्यैव घेदनोल्पसः। ततो रजतवेदनस्यानर्थवेदनरयन अर्धपदेनेत्र तव्यवच्छेदात न तदर्थ पाधवर्जितपदमार्थवत् । रलतानमप्यर्थानमेव अर्थस्यैव शुतः रजतरूपतया वेदनादिति चेन् कुतस्तस्य तद्पत्या वेदनम् ? 'टेदनहेतुत्याश्चेत् । न ; भानस्यार्थकार्यत्यनिषेधात् । अनिषेधेऽपि कथं मुक्तिकार्य ज्ञान रजसप्रतिभासं भवेत् अतिप्रसतात ? कारणदोषादायकार्यस्यापि तेदवभासित्यम् , न चातिप्रसङ्गः तदोपशक्तिनियमेन “नियतज्ञानभानादिति चेत् ; न; तणादेव अनितस्यापि तद्विषयत्वोपपत्तेः, सर्वत्र विषयकार्यशानकल्पनावैफल्यासात्। ने चाकारणार्थवेदने सर्वतवेदनप्रसनः तणशक्तिनियमेन तनियमोपपतेः। वन तज्ज्ञानहेतुत्वामस्य । तद्रूपतया वेदनम् । स्वयं "तुदूपत्वादिति चेन्; न: शुक्तिरूपत्वाभावप्रसङ्गात् । न हि रजतमेव "चद्रूपं भिन्न प्रयोजनस्यात् । अरजतरूपापि "शुक्की रचतरूपस्येनारभासते कारणदोपामिति चेत् ।
प्रमाणस्य ।२ ज्ञानस्य । ३ सपनात् । १ शानाशाने । ५शानस्याज्ञानतमा स्व-प्रा०,०,१०,स.1 .".""दृष्ट एदाखिलो गुमः" इति शेषःविलोपायसिप-भा०,१०,१०,801 4 शानस्य । अनित्यत्वेम । १० छैदनगतम् अस्तो देशादिनिधनवेदनसामर्थ्यम् । 11 अमानस्स उपादानभूत तत्पूर्वानम् ।।२ -सात्तरमा -80,२०,०।१३ सावरणोदनियमाव । १४ शुतिरूपार्थस्य । १५ रजतजाम । १६ रजतावमासिस्यम् । १७ यदि मुक्तिनमपि रजतज्ञामं रजतप्रतिभासं तत् पदादिप्रतिभास कुतो न भवति ? 16 नियतज्ञानामा-सा १९ मारणगुणाव । २. याजमितस्यापि । म च कार-ता ! २२ अतिरूणार्थस्य । २३ रजतकपरवान् । १४ चरिकरूपम् । २५ शकिरज-भा, य०, प, स
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न्यायधिभिश्चयविवरणे
वस्तुसता', तद्विपरीतेन चा? बस्तुसता पोत् । न; रजतज्ञानस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् । नहि वस्तुसज्ज्ञानमेवाप्रमाणम् ; प्रमाणविलोपप्रसङ्गात् । बाधनाप्रमाणमिति चेत् ; न; तदेवं प्रस्तुसज्ज्ञानस्य कथम् ? स्वतस्तद्विषवस्य वस्तुसत्त्वेऽपि शुकिरूपत्वेनाभावादिति चेत् ; यदि तन्नै प्रतिभासते कथं चायनं स्वरूपनियत्तस्यैव प्रतिभासनाम् ? प्रतिभासते चेत् ; 'कथमसात् , ५ असतः प्रतिभासानभ्युपगमात् । अन्यथा रजतस्यापि तदसत एवं प्रतिभाससम्भवान तवस्तुसत्त्वं भवेत् । सविपरीतेन घेत ; सिद्धं तहि तज्ज्ञानस्थावस्तुविषयत्वाद् अर्थपदेनैव निवसनम् । अथ रुद्र पं" खयमयस्तुसदपि वस्तुसच्छुक्तितादात्म्याद वस्तुसदेव तसो नार्थपदनिषय॑त्वं "वज्ञानस्य; म तर्हि तस्य बाधनमपि स्यार "तुम माना गयोगात् । सामापियका .
वस्तुसत्वातस्य "तदुपपत्ती अर्थपदनियय॑त्वमपि स्यादविशेषात् । न च सर्व एव असदाकारो १५ वस्तुवादात्म्येनेवावभासते यतस्तत्प्रयुक्तं तस्य वस्तुत्वं भवेत्, स्वतन्त्रस्यापि गन्धर्वनगरदे प्रतिभा
सनात् । तस्यापि भानुमन्मरीचित्रसरादिभावान्तरतादात्म्येनैव प्रतिभासनमिति चेत् ; ततादात्म्यस्य वहि कथमसतः स्वतन्त्रस्य प्रतिभासनम् ? तदपि “राचावात्म्यादेवेति चेत् ; न; तत्र "तव्यापारस्याभाधादनवस्थापत्तेः। न च तस्यै स्वतन्त्रापभासिनो वस्तुत्वम् अवस्तुधर्मत्वात् । तस्मात्स्व
वन्त्रमेव तत् "अनस्तुभूतकचावभासत इति न्याय्यम् । तद्वव गन्धर्वनगराविरप्यसदाकारः प्रतिभा१५ तीति किं तत्र भावतादात्म्यपरिकल्पनेन अदृष्टफल्पनादोषप्रसङ्गात् ।
. असतः स्वतन्त्रस्य प्रतिभा ससम्भवे कथमुक्त' "शास्त्रकारेण धान्तिलक्षणम्अतस्मिन् तद्रहो भ्रान्ति" [सिद्धिवि० परि०२] इति ? अनेन हि शुमायादिता. हात्म्येनैव रजतादिप्रतिभासनमभिधीयते न स्वातन्त्र्येण । अतस्मिन् शुत्यादौ तवहो रजतादिग्रह
इति व्यास्थानादिति चेत्, न; 'अवस्मिन् इत्यसदाकारपरत्वान्निर्देशस्य, अतस्मिन् 'असति २० सस्मिन्' इति तदर्थत्वासू, न पुनः तस्मादन्यस्मिन् सस्मिन् इति । एवं हि, यत्रैवान्यरूपस्येना
सदवमासन तत्रैवेचं लक्षणं भवेन्नान्यत्र, तदस्तित्वस्य च निवेदनात् । अभिप्रेतम शासकारस्वा. नम्बरूपत्वेनावमासनम् । “यथैवात्यायमाकारमभूतमबलम्बते" [न्यायवि० श्लो० ३५ ] इति वचनात् । भूततादात्म्यनियमेगावभासने हि कथम्-'अभूतमसम्बते इति वचनात्'
इति ब्रूयात ? परमप्यत्र यथास्थान चिन्तयिष्यसे । तस्मादसत्प्रतिभासनमेष रजतज्ञानमिति २५ अर्थपवेनैव तव्यवच्छेनान तदर्थं प्रयत्नान्तरमास्यम् ।
*"अम्यस्य मतम्-न किविदसहिषय ज्ञानमस्ति यदर्थपदस्य व्यच्छे ' स्यात् । शुक्ति
१ रजसरूपलेन । २ भाधनमपि । ३ रजतरूपरवस्य । शुक्तिस्यत्वम् । ५ रजतरूपत्वविशिष्टस्पैर ६ कयमसतः प्रतिभासोऽजन्युप-भा०, ब, प., स.1 शुतिरूपतंवत् । ८ प्रतिमासने मधेन सदसू-ता। ९ अषस्तुसता । १० रखतषम् 11 सदज्ञानस्य तहि आ०, २०, प०, सब रजतनश्य। १२ बस्तु तरक्षा -सा, 4०, १०, १॥ बाधनायोगात् । ११ रजतरूपस्य । १५ रजतमानस्य । १६ साधनोपपत्तो। १७ भावान्तरतादाम्यस्य | 10 भावान्तरतादात्म्यादैछ । १९ भावान्तरसादात्म्यन्यायारश्य । २७ भावान्तरतपदासम्बस्य । २१ वस्तुभूतमत-श्रा०,०, प.,स। २२ अक्लहवेवेन । २३ - भत-आ०,०,40स । 'अतमिसन' इस्यत्र पर्युदारूपे नजथे तस्मादम्वस्मिन् तस्सिन इत्येवाः स्यात् , पर्युवासः सदृशमाहीति नियमात् । २४ प्रभाकरस्य ।
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(१३]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताचा
शकलादो 'इदं रजतम्' इति शानभसद्विषयमिति चेत् । न ; संत्रापि 'इदम्' इत्यस्य प्रत्यक्षत्वात् 'रजतम्' इत्यस्य स्मरणस्वात् । न च प्रत्यक्षस्मरणयोरसद्विपयत्यम् । अनभ्युपगमात् । न चापरं तत्रासद्विपयं संवेदनम् अननुभवादिति रावसङ्गतम् ; रजसज्ञानस्य स्मरगरूपतथा अननुभवात, पुरोवर्तिरजसम्वभासित्वेनानुभवस्वभावस्यैव तस्य प्रतिवेदनात् । स्मरणरूपले स्वतीराविषयतया सदनुभवप्रसङ्गात् । न चैवम् । तेन तस्य. स्मरणत्वम् । अतद्रूपावभासिनोऽपि तद्रूपत्वे मीलस्य ५ निरबशेषजगदूपत्वं भवेत् प्रतीतिविरोधस्योभयत्र सान्यात् । स्मरणमेव सद्वस्तुतः अमुषितस्वान स्वरूपेण वेयत इति चेत्, न; प्रमोपापरिज्ञानात् । अस्वसंवेदनं प्रमोष इति चेत् : न; प्रश्नस्यैवोत्तरत्वात् 'किन्न स्मरणं तत्त्वेन संवेदाते' इति प्रश्नः, तत्कथम् 'अस्वसंवेदनाम्' इति स एवोत्तरीभवति ? प्रश्नसमाधानयोरविशेषप्रसङ्गात् । न चास्वसंवेदनं संक्तेिः स्वमतव्याघासात् । 'संवित्तिरपरोक्षा' इति स्मतत्वात् । अनुभवस्वरूपत्वेन प्रहणं प्रमोष इति चेत; म; १० सेत्र तपस्याभायात् । असमश्य प्रणानम्वुपगमात् । अभ्युपगमे का सिद्धमसद्विपथ ज्ञानमिति कथं तदूव्यवच्छेदार्थमर्थपदं न भवेत् ?
किन्वैवम् इदम्प्रतिभासस्थापि स्मरणत्वासङ्गो रजतप्रतिभासादभेदात् । न हि स्मरणादभिन्नस्यास्मरणत्यम् । अभेदाचाभेदप्रतिभासात् । बियेक एव "तयोर्न प्रतिभासते नाभेद इति येन; तर्हि रजतमपि न प्रतिभासते तदेयाप्रतिभासनस्यैत्र भावात् । रजतप्रतिभा- १५ सममेव तदन्याप्रतिभासनमितिः चेत् : अभेदप्रतिभासनमेव विकाप्रतिभासनमपि स्यात् । अभेदप्रतिभासनादन्यदेव "तदिति चेत् ; रजतप्रतिभासनाद अन्यरेच अन्याप्रतिभासनमपि स्यात् । को दोष इति चेत् । न ; सफलप्रतिमासचिरहनसशास् । स एव स्मृतिप्रमोष इति चेत् ; न ; गादभू देस्तत्त्वप्रसङ्गार' । 'ईदग्प्रतिभासाभावान्नेति चेत् ; न ; 'सस्यापि अनिदम्प्रतिभासनियुसिमानत्येन तत्रापि भावात् । यदि च इदम्प्रतिभासोपाधिकप्रति- २० भासविरह एक 'लामोष ; सकलं अगसत्प्रमोष एव स्याद् इव प्रतिभासस्यैव सर्वत्र भावात् । कथं घटादिप्रतिभास इति चेत् ? न ; सस्याघटादिप्रतिभासनिवृत्तिमात्रत्वात्। "तत्प्रतिभासत्वेनानुभूयमानः कथं तदन्यप्रतिभासनिवृत्तिरेव स्यात् ? रजतप्रतिभाप्तममपि "तत्त्वेनानुभूयमानं कथं तन्निवृत्तिरेव स्यात् १ बाधनादिति चेन् ; न ; तत्प्रतिभासाभावे घाधनस्यैवासम्भवात् । प्राप्ते हि तस्मिन बाधनं नाप्ने निर्विधयत्वासनात! प्रामौ का सस्य न तदन्यप्रतिभासनिवृत्तित्यमेय, २५
"रजतमिदमिति नैकशानं किन्तु वे एते विहाने । तत्र रजतमिति सारणम् , तस्याननुभयरूपदाच प्रामाण्यप्रसनः । इदमित्यपि विज्ञानमनुभवहम प्रमाणमिष्यत एक 1"-प्रक. .३०४४। यूह. ९० पृ. ३५॥ २ "मरामीति बारशून्यानि स्मृतिज्ञामान्येतानि"वह १.७२ | "अवन्तरञ्च रजते स्मृति वा तयाऽपि । मनोदोषास्तदिसंशपरामर्शविवर्जितम् ॥"-प्रक०१० पृ. ३४ । ३ प्रश्न एवं 1 1 "किन्तु संविदः प्रत्यत्तस्वात्"
वृहपृ.७६ । "RAPA मो युद्धिरित्येतदुरा भवति प्रत्यक्षा च 1: संविद"-ह-पृ.७७ । “स्वयंप्रकाशैव मिति:"-04००५-१५ स्मरणे अनुभवरूपस्य । प्रत्यक्षमारण्योः । “ग्रहणसरो मे दिनेका मममासिनी 1" -प्र.प.पू. २४ । ८ प्रतिभासत इस्पन्दः । रजसभिन्नस्थाप्रतिभासनात् । १. विवेकाप्रतिमासनम् । ११ सकलप्रतिभाताभावः । १२ मामूपर्मदा इदमिति प्रतिमासाभान्नान । प्रतिभासपापि । १४ गाहमयी वायपि । १५ मातिभासमात्रम् । १६ स्मृतिप्रमौषः । १७ घटप्रतिभासरवन । १८ रजसत्वेन ।
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ज्यायविनिश्चयपियरणे रजतप्रतिभासत्यवानुभवात् । तदपढवे घटादिप्रतिभासोऽपि न कश्चिदिति सर्वत्र इदम्प्रतिभासस्थैव सकलभेदप्रतिभासविकलस्य भावाद' विजयी 'परमात्मवादः स्यात् । अथवा, शून्यवाद 'एव इदम्प्रतिभासस्याप्यपढ़वामिशेषात् । अशक्यापहवत्वे का इस्य सदेव रजतप्रतिभासस्य
इदम्मतिभासात् तदभेदप्रतिभासस्य चासक्यापहवत्वात् सिद्धम् इदम्प्रसिमासस्यापि स्मरण५ ६५वं रजतमासात पादभेदरन् । स्वप्रतिमालत्वान्नैवमिति ; समान रजतप्रतिभासेऽपि ।
तन्नैष स्मृतिप्रमोपशदो न्याययः । तस्मादसदाकारप्रतिभास पवायम् , तद्व्यवच्छेदार्थमर्थपदब्ध इति व्यवस्थितमर्थवेदनस्यैव प्रामाण्यम् ।
अतः पुनरर्थवेदनस्य तत्त्वावगमः १ प्रत्यक्षादिति चेत् । तदपि तदेव, तदर्थान्तरं था भवेत् १ तदर्थान्तरमिति चेत् ; नैकविषय पूर्वस्मादविशेषात् । न हि तदविशिष्टमेन १. सत्प्रामाण्यमवगमयति तत एव तदरगमप्रसङ्गात् । अत एव न 'समातीयविषयम् , मिथ्या.
हानप्रामाण्यप्रसङ्गार मरीचिकासोयज्ञानेऽयुत्तरतरजातीयज्ञानभावात् । संवादप्रत्यय एवं केवलम् अर्थक्रियाधिगमारमा प्रत्याभमवशिष्यते । न च "तेनान्यविश्वेण साधनझानस्यातीतस्य प्रामाण्यं शक्यमवगन्तुम् अध्यनस्यातीतविषयत्वामावात् । तन्नार्थान्तरात् प्रत्यक्षात् तस्यामाण्यावगमः । सत एवेति चेत् । न : सन्देहात् । तत्पनेऽपि हि जलझाने भवति सन्देहः किमिदं सल्य तोयम् अन्यथा वा' इति । ततो न "तता स्वधिपयत्यार्थक्रियासाधनत्वावगमः सम्भवति महि सन्दिग्धादेव प्रत्ययात्तरवप्रतिपत्तिः असिप्रसङ्गात् । अर्थज्ञानस्थ बोधात्मकत्वमेव प्रामाण्यम् , तश्च तत एव तत्स्य सिद्धयतीति चेत् ; म; बोधात्मकत्वस्य तैमिरज्ञानेऽपि भावात् तस्यापि प्रामाण्यप्रसङ्गात् । बाधाविधुरं बोधात्मकत्वमेव प्रामाण्यभिति चेत् ; न, बाधाधुर्यस्थाप्युस्पस्य
वस्थायामप्रवेदनात् । प्रवेदने पा न सतः प्रवर्तमानोपि ( नोथि) प्रलभ्येव । नवगतप्रामाण्यादेव २० बोधारप्रवर्धमानस्य विप्रलम्भो न्यायः, तपसमस्यैवाभावप्रसङ्गात् ।।
एलेन मिथ्यानानस्य स्वतो आधितत्वपरिझानं प्रत्याख्यानम् । स्स्तो हि तत्परिक्षाने न सतः "कस्यचित्तद्विषयार्थिशया प्रवृत्तिः । न हि निविषयत्वं परिमाननेव तस्य तत्युतां प्रवृतिमनुसरवि तत्परिज्ञानस्यैवाभावापत्तेः । वन प्रथमं याधविरइसिद्धिः । अर्थक्रियाधिगमसाये पश्चादेव
तसिद्धिः, स्नानाद्यर्थक्रियाधिहमे हिजलस्य तत्साघनत्वं प्रतिपद्यमान सदननिधित्वसध्यव. १ स्यतीति छन् ; नैव तत्सारम् ; एवमर्थक्रियाधिगमस्यैवात्तम्भवात् । तदधिगमो हि प्रवृत्तिपूर्वक :, प्रवृत्तिश्च तोयस्यार्थकारिस्वनिर्णयात् । न मानवगतप्रामाण्यात् सानासद्विनिश्चयः" सम्भवति । यदि अर्थक्रियाधिगमात् प्रागेव कुसश्चिचोयदेवनस्य प्रामाश्यमवगतं भवति तदा वोयस्यार्थक्रियासम्वावगमा प्रवर्त्तमानस्यार्थक्रियाधिगमादुपपन्नं सवर्थकारितोयसंवेदनप्रामाण्यनिश्चयनम् ।
बिजयिष-बा०,५०,१०१२ववाद 1३ इदम्पतिमासस्य । ५ रजतप्रतिमासाभेदस्य। ५ स्मरणक्षपान विपर्ययः । प्रमाणत्वावगमः । ८ लादेव स्वप्रामाश्यामप्रसात् । १ प्रथमानसजातीय । १० संवादप्रत्ययेन । खादेव । १२ बाधिसत्वरिशाने। १३ स्थमिति मा०प०,०११- अ0.40,
१० स०,१५-तद्विषयनि-आ०,१०,१०,१० । तीयस्य अर्थफारित्तनिश्चयः । १६ बर्थक्रियाकारितोय-श्रा, १०,५०, स।
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१३]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः न चैत्र (क) तनिश्चयेन किश्चित् , प्रागेच 'तस्य निश्चितत्वात् । अर्थक्रियासम्बन्धाच प्रामाण्ये मिथ्याज्ञानस्यापि प्रामाण्यप्रसङ्गः, तदधिगसादपि स्वप्नसुरतादे रेतोनिर्गमाद्यर्थ क्रियादर्शनात् । सेत्स्टा वा तनिक्रया प्रालि हा स्मानिन्म रिकि नेत; अन्यतोऽपि न भवेत् । ततोऽपि कदाधिनातेः । यत्र समाप्तिरसन्दिग्धा संप्रमाणमिति चेत्, न; प्रतिभासाभेदे सन्देहस्यैवानिवृत्तेः ! अभिन्नप्रतिभास हि सत्यतोयज्ञानं सहिपरीतात् , सत्कधं तस एव मालिसन्देहवि - ५ निवृत्तिः ? विलक्षण प्रतिभासान्तनिवृत्तिरिति चेत् ; न ; तस्य तदानीमनुपलक्षणात् । पयादेकाभ्यासात्तदुपलक्षणमिति चेत् ; न ; परस्पराश्रयप्रसङ्गा-आकारविशेषावधारणात्प्रामाण्यनिर्णये तज्ञानाभ्यासः, ततश्च तथा तमिर्णय इति । सन सतोऽन्यतो या प्रत्यक्षात्तत्प्रामाण्यावगमः । प्रतिपादितं चैतार्तिकालकारे
"संवादः प्रत्ययः सोज्यविषये यदि वर्तते । तेन पूर्वस्य मानवमतीतस्येच्यते कथम् ? ।। साधनप्रत्ययस्यापि सन्देहविषयस्वतः ।। साधनवं कथं तस्य प्रमाणवायतीतितः ।। बोधात्मकत्वान्मानं चेत्प्रसता "सर्वमानता। अवाधितार्थबोधोऽपि प्रधर्म न प्रसिद्ध्यति ॥ अथार्थकारितां ज्ञात्वा तदर्थस्य प्रमात्यक्न् ि । प्रमाणं प्रागसिद्धं यत् तस्य वितिः कथं ततः ? ". यदि प्रमाण प्राक् सिद्धं क्रियया तस्य "योगवित् । अर्थक्रियातस्तज्ज्ञानं प्रमाणमिति सृह्यते ॥ यत्रैवार्थक्रिया तत्र प्रमाणपथ घेन्मतम् । अर्थक्रियोदयो दृष्टः "सोऽप्रमाणातादपि ॥
तो नार्थक्रिया सा चेत् ; अन्यतोऽपि कथं मता । 'ततः कदाचिदप्राप्तिः साऽन्यत्रापि" समीक्ष्यते ।। यतो न प्राप्तिसन्देहस्तत्प्रमाणं मतं यदि । सन्देहस्य निवृत्तिहि समानाकारतः कुतः ।। अभ्यासालक्ष्यते पश्चादाकारः स पिलक्षणः । ततःप्राप्त्यविनामावः एष सोऽन्योज्यसंश्रयः॥"
[प्र० कातिकाल० ११४ ] इति ।
।
सोयवेदनप्रामाम्यस्य । २ सुपसुर--HT०, २०, २०, स.। ३-माद-80०, २०.१० ॥ मिथ्याशासाधिगतस्वप्नसुरतादिकता। ५ सत्यशानाधिगलादपि । सभागाध्यमि-मा०,०, २०, स.. '.-हनिए- ०, ५०, सः । विलक्षणप्रतिभासासमवनम् । ९-वमिति तस्ये--स. .-मनमानसा मा०,००, स. "सक्रियासम्बन्धशानम् ! " "सोऽप्रमाणान्मतादपि"-4. पार्तिक-1 १३ प्रमाणात १४ अप्रमाणशास्तात् । १५ प्रमायासेपि ।
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न्यायविनिश्चयधिधरयो
[११३ मा भूत्मत्यक्षातस्प्रामाण्यावगतिः अनुमानादवेस् , तथा हि-स्नानपानादिसमर्धतोय. दर्शनाहितसंस्कारस्य तोयान्तरदर्शने पूर्वतोयानुस्मरणास् इदमपि तोयं स्नानादिप्रयोजनकरम् ईटशाकारत्वात् पूर्वतोयवस्' इति तोयार्थक्रियासम्बन्धविषयमनुमानमुपजायते । तदेव च
सोयवेदनप्रामाण्यमानम्, अर्थक्रियासम्बन्धादम्यस्य प्रामाण्यस्याभावात् अबाधितत्वादेरपि ५ तदायसवादिति चेत् ; असारमेतत् ; साध्यसाधनसम्बन्धाप्रतिपत्तौ अनुमानानुदयात् । तत्पतिपत्तिय न प्रत्यक्षात् ; सरप्रामाण्यानिश्श्याम् ।
अनुमानातैनिश्चयश्चेत् । न ; परस्पराश्रयप्रसङ्गातू--अगुमानेन प्रत्यक्षामाण्यनिश्चये ततः सम्बन्धज्ञानम् , ततश्चानुमामिति । कथं वा प्रत्यक्षेण प्रागपि सोयतत्प्रयोजनयो। पूर्वापर
समयभाविनोः सम्बन्धयेदनम् ? कथञ्च न स्यात् ? इतरेतरविषयपरिहारेणावस्थानान् । तोयप्रत्यक्ष १० हि वोयमात्रगोचरं न तत्प्रयोजनविषयम्, अपरिच्छिन्नतत्प्रयोजना कथं तयतुले स्वविषयस्य
जानीयात्। तत्प्रयोजनप्रत्यक्षच स्नानादिमात्रपर्यवसितं त पूर्वतोयमधिगच्छति, अनधिगततपश्च कथं तत्कार्यत्र स्वविषयस्य गृहीयात् । न च तत्समुदायन सम्बन्धवेदनम् , क्रमभाविनोस्तभावात् । नाप्येकमुभयसमयव्यापि प्रत्यक्षम् ; शपिकत्वात् सर्वभावानाम् ।
भवदपि सम्बन्धप्रयं प्रत्यक्षाद्यदि व्याप्त्या भवति तदा भक्त्यनुमान व्यभिचार१५ परिशद्धनाभावात् । न हि सफलदेशकालभाविनस्तोयकापस्य स्नानपानादिप्रतिबन्धनिर्धारणे
सयभिचारसम्भावनं सम्भवति, निर्धारणसम्भावनयोर्विरोधात् । अपि तु नास्मवादिप्रत्यक्षस्ये व्यापिसम्बन्धग्रहले सामर्थ्यमस्ति ; सर्वस्य सर्वदर्शित्वासान् । साहचर्यमात्रस्य तु व्याप्लिविकलस्य न सम्बन्धस्त्रम् । न च तत्परिज्ञानादनुमानम् ; व्यभिचारसम्भवात् ।
सम्भवब्यभिधायदप्यनुमाने तत्पुत्रत्वादेरपि स्यात् । समादू व्याप्त्या सम्बन्धमानमङ्गीकर्त। १० व्यम् । न च तत्र प्रत्यक्षस्य सामर्थ्यम्, तेन हि पुरोवर्तिन एव तोयस्य तदर्थक्रियासम्बन्धः
परिगृह्यते न देशकालान्तरमाविनः सस्य तेनाप्रहणात् , महणे वा सदधिकरणस्य देशादेरपि सर्वस्य तेन ग्रहणं स्यात् , अन्यथा दूतसकलतोयव्यक्तिग्रहणाभावेन व्याप्स्पा सम्बन्धज्ञानस्यासम्भवादनुमानाभाव एव स्यात् । सम्बन्धज्ञाननिरपेक्षमेवानुमानमिति चेन्न ; प्रतिपादकवात् प्रतिराद्यस्थरपि स्वत एवं तत्प्रसङ्गात् , तवा गहमिदानीं शिश्योपाध्यायादिव्यवहारेण : सन्न युक्तिसहमेतत् साहसातिरेकत्वात् । सन"दृष्टान्तसोयतत्प्रयोजनसम्बन्धस्यापि प्रत्यक्षाप्रतिपत्ति:अनुमानात्तत्प्रतिपसौ तत्राप्यररो 'दृष्टान्तः, तस्यापि स्वप्रयोजनसम्बन्धोऽनुमानान्तरादवगन्तव्यः सत्राप्येवनित्यपरापरानुमानप्रतीक्षायामनयस्थानान्न प्रकृततोयज्ञानप्रामाण्यलिखिः स्यात् । ततो
-पासत्पूर्वभाग, बा, प. सा . अर्थकियानभायत्तत्वात् । ३ अविनामकमिश्चयः । 1 समुदायासम्मदात् । सर्वोपसंहारेण । ५ किन्तु । ६ अविनाभाषशून्यस्य । - 'गर्भस्थ: मैग्नतनयः श्यामो भवितुमर्हति सत्पुत्रत्वादितरपुअवस्' इस्यादेः । ८ व्याप्तौ स-सा0, 40, प., स.। ९ सकलदेशगत ! 1. उधाहरणीकृततोय । ११ स्यन्तस्थापि मा०, २०, प.स.
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
७५
म प्रत्यक्षात् नातुमानात् प्रामाण्याबममा, न चापरं प्रमाणमस्ति यतस्तदवगम: स्यातू । तत्कथं प्रभाणसिद्धिः यतस्तलमणप्रणयनमिति ? पत्तदपि त्रैव प्रतिपादितम्
"तदृष्टावेव दृष्टेषु संविस्सामर्थ्य भाविनः । सरणाद् व्यवहारवेदनुपानं तथा सति ।। तवानुमानमध्यक्षाध्यक्षमनुमानतः ।।
अन्योन्यसंश्रयादेवं नास्त्यन्यतरसंस्थितिः ॥ स्वरूपस्याफ्लम्बनाकारपरिच्छेदि हि प्रत्यक्ष न हि तृणस्यापि कुब्जीकरणे समर्थम् ।
न पूर्वापरयोस्तेन सम्बन्धः परिगृह्यते । देशकालान्तरच्याप्त्या सङ्गतिर्योग उच्यते ॥ देशकालान्तरध्याप्रध्यक्षं ग्रहणे आमम् । यदि सर्वस्य सर्वार्थदर्शितैव प्रसज्यते ॥ सहमावस्तु 'यो [s]च्याप्त्या न तस्मादनुमोदयः । कादाचित्कतया तस्यं सर्वत्रास्त्वनुमाऽधया ॥ इदानीमेवपाकारमेतदस्तीति वेद्यताम् ! अध्यक्षतः, न देशाधन्तरस्थग्रहणः ततः ।। अगृहीरोह देवादी लपवासिलो स्यम् ।। तेंदग्रहेऽनुमानं चेदेतदत्यन्तसाइसम् ।। अनुमानान्तराक्षेपादनवस्थावतारतः । प्रकृताप्रतिपत्तिः स्यात्तस्य तस्थेत्यपेक्षणात् ॥ न प्रत्यक्षानुपानाम्यामपरं मानमिष्यते ।"
[प्र. वार्तिकाल० ११५] इति चेत् । अत्राइ-'प्रत्यक्षलक्षणम्' इति । प्रतिपक्षमक्षणोतीति प्रत्यक्षम् , परस्यानन्तरं विनारज्ञानम् , तेन प्रमाणप्रतिपक्षस्य संदभावस्य स्वविषयत्वेन छ्यापनात् , तव लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् , प्रत्यक्ष लक्षणं यस्य वसथोक्तम् अर्थवेदनम् । कथं पुनः परविचारेणार्थज्ञानस्य सत्यमय गम्यत इति चेत्? उच्यते-यद्ययं विचारः प्रमाणे न भवति, कथमतः प्रमाणाभाषसिद्धिः २५ तद्भावसिद्धियत् । न येवं कस्यचित् कचित्पराजयः ; प्रमाणनिरपेक्षायाः स्वार्थसिद्धः सर्वत्र
सुलभत्यरत् ! नापि विषयः ; वस्य पराजयसापेक्षयात् , 'तस्प चाभावादित्यभाव एव वाइव्य- बहारस्य "प्राः । तस्मात्परपक्षज्युदासेन स्वपक्षसिलिमन्विच्छसा प्रमाणमूलैब तसिद्धिरजीकर्तव्या नान्यथा अतिप्रसलान् ।
प्रमाणवार्तिकाला एव। २-करणसम-० . प्रत्यक्षेण ५मध्यापया अविमाभावमम्तरेण । ३ सहभाषस्य। ७ व्यारिमाणमन्तरेण मनम्।.पराजयस्य ।प्राप्तिस्व-T०, २०,.,स।
पा-आ०म०,१०,१. प्रामाभ्याभावस्म । ९अप्रमा
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न्यायविनिश्चयधिधरणे
[१३ __ भवतु विचार: प्रमाणमिति चेत् ; सांवृतम् , पारमार्थिक वा ? सातत्वे न सतः पारमार्थिकी प्रमाणाभाथसिद्विः, उपायस्य सांवृत्तत्वे तदद्योगातू, अन्यथा तत एव तादृशी ताव. सिबिरपि स्थावित्यपार्थकत्वमेव प्रमाणनिराकरणप्रयासस्य आRE | संद्धावसिद्धौ सांकृतमपि
प्रमाणं नास्तीति चेत् ; किमिदानी मनोराज्येऽपि दारिद्रयमस्ति ? विचारमा प्रतिभासमान हि ५ संवृदिः, सा च यथायथं प्रमेयेषु बिंधत एक प्रवादिनाम् । विचारात्मिका न विद्यत इति चेत् ; न; तस्या अपि "प्रशणमात्मसात्कुर्वन्" न्यायरि० श्ले० ४५] इत्यादिरूयायाः प्राचुर्येण भावान् । सांपृतास्त्रमाणात प्रमाणाभावसिद्धिरपि सातवेति चेत् । न ; तथापि तत्प्रयासयय॑स्य सदवस्थत्वात् , सावृतस्य तवभावस्यास्माभिरप्यङ्गीकाराद् वास्तवस्यैव तस्यानभ्युपगमात् । तन सांवृतरवन विचार प्रमाणम् ।
पारमार्थिकत्वेनेति चेत् ; म ; तोऽप्यपरिक्षावात् स्वार्थसिद्धेस्योगात् । स्वतः प्रामाण्यनिराकरण भावप्रसवात् । नापि परिमातात् ; स्वतः परत तस्परिज्ञानामावस्य स्वयमेव प्रतिपादनान् । अस्त्येष तत्परिज्ञानमभ्यासात् , अप्रामाणासम्भदिनः प्रतिभासविशेपस्याभ्यासबलेनाधरणात् । तत्प्रमाण्यपरिज्ञाने भूयस्तदभ्यासः, तस्माच सत्परिज्ञानम्' इति
परस्पराश्रय इति चेत् ; स्यादेवं यदि सत्कृतादेवाभ्यासात सपरिज्ञानम् , न चैवम् , पूर्वा २५ भ्यासस्य तपरिज्ञानहेतुत्वात् , समापि तथाविधतत्पूर्वज्ञानाभ्यासतो भावात् , इत्यनादिरय
मभ्यासप्रबन्धः, तत्र पूर्वपूर्वस्मादवकृतविशेपस्येच उत्तयेसज्ञानस्योपसः न विचारप्रामाण्यपरिज्ञानमिति चेत् ; अनुफूलमाचरसि ; प्रत्यक्षादेरप्येवं प्रामाण्यपरिज्ञानस्यानपवादस्य प्रसङ्गात् , सत्राप्यभ्यासमलेनैव प्रमाणप्रत्यनीकपदार्थासम्भविनः प्रतिभासविशेषस्य "अप्रवृत्तेनैवाव
धारणात् प्रामाण्यपरिज्ञानस्योपपत्तेः, अभ्यासानादित्वेनैव परस्पराश्रयस्यापि परिहारात् । न २० चाभ्यासादेव "तद्विशेषावधारणात् । तदभावेऽपि क्षयोपशमापरनाभधेयाष्टसामावप्रवृत्तस्यैत्र
तवधारणसम्भवात् । ततो निराकृवमेतत्-"यतो न प्राप्तिसन्देह प्रवातिकाल. ११५] इत्यादिः 'समानाकारतः' इत्यस्यासिद्धत्वात् विशेषावधारणस्यैव भावास्। दृश्यते च वालाबलादीनामपि 'घुरोवर्तिभावप्रतिभासेच्य [रष्टाद] भ्यासमो वा प्रवृत्तेः प्रागेव 'सत्यार्थोऽयम् अन्यथैव चायम् इति धेशकालनरान्तरापेक्षयाऽप्यसम्भवरपरिस्खलनस्य विशेषस्यावारणम् । अत 'ऍस पक्ष्यते
"इन्द्रजलादिषु भ्रान्तमीरयन्ति न चापरम् । अपि चाण्डालगोपालबाललोलविलोचना ।। तत्र शौद्धोदनेरेव कथं प्रमाऽपराधिनी । बभूवेति क्यं ताबहुविस्यमास्महे !" यायवि० श्लो० ५१,५२] इति ।
पारमार्थिकी। २ प्रमाणसवायखिकी।३ व्यम्-पृ.१.दि.१।४ यथा वथा प्र-आ.ब.प., स०। ५-तीस्था-मा०प०प०,०। (ये पि-स०।-रणमाप-ता०1८ स्थावितदेवं स.९ पदार्थसंभ-मा०,०प०स०१० पुरुषेण, प्रहत्तोः प्रीष । ११ प्रसिभासविशेषावभारण। १२इत्यस्यापि सिधिभा.प.,सका इस्पस्मारि सिद्ध-१०।१३-य भाषा--01 १४ पुरोवर्तिप्रतिमास्वष्टभ्यासतो या भा००.प. पुरोवर्तिप्रतिभासष्ठस्यासती चा स.1 १५ एवं व-मा, २०, ५०,स.। १६-यन्ते ना , २०,१०,
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१३ ]
प्रथमः प्रत्यप्रस्तावा
i
अपरिस्वतिप्रत्ययवेद्योऽपि स विशेषो न तारिक इति चेत्; व्याहतमेतत्"प्रत्यय न परिस्वति, स च तात्त्विको न भवति' इति विषयताविकत्वनिबन्धनरकात् परस्य । बासनादानिबन्धनमेव तदपरिस्वलनं न तद्विभावनममिति चेत्; न; अत्रापि प्रत्यया परिस्खलनस्यैवोपायत्वात् तस्य चायथार्थत्ये' ततोऽस्याप्यर्थस्यासियो । अयमप्यभाव पवार्थ इति चेत् कुत एतत् ? तथैव प्रत्ययापरिवलनादिति ५ चेत्; न; सस्यायथार्थत्वेन यथार्थतदभाविकत्वसिद्धावनुपयोगात् । तदभाविकत्वमप्ययथार्थ मेवेति 'बेसन 'कुत एतत्' इत्यादेरनुवृत्तेरनवस्थाप्रसङ्गात् । यदि च यासनादादहेतुकत्वस्याभावार्थमेव भवकमेव तर्हि तत्प्राप्तम् अभाविकत्वार्थत्वे भाविकत्वस्यावश्यमत्र ( भव) स्थानात् । तस्यापि न परिज्ञानोपायः प्रत्ययापरिस्खलनस्यायथा प्रतिपादनात् । अथेदं वासनादार्थहेतुकत्वप्रत्ययस्यापरिस्वलनं न बासनादाद् अपि तु वद्धेतु- १० arrafort भारत एव भावात् किमेवं प्रत्यक्षादिप्रामाण्यप्रस्वस्याप्यपरिस्खलनं सत्प्रामाण्यलक्षणद्विपयवद्भावादेव न भवति यतो वासनावार्धनिमित्तत्वेन tareenaसिद्धिर्न भवेत् । अवइयं चैतदेवमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथाऽनन्तरविचारस्यादि श्रीमाण्यासिद्धिप्रसङ्गात् । न हि तत्प्रामाण्यमपि तद्विषयप्रत्ययापरिवलनादन्यतः सिख्यति, "तस्मान
'
सद्भावप्रयुकादेव " तत्सिद्धिर्न बासनादायुक्तात् । न चासिद्धप्रमाण्या विचारात् १५ प्रादीनामप्रामाण्यं सिद्धयतीत्युक्तम् ।
७७
अथ न विचारः 'प्रमाणम् अन्यथा " ' इति विचारचितव्यः । स खलु परस्य परीक्षाद्देतुरेव न स्वयं परीक्षाभूमिः अनवस्थाप्रसङ्गात् । वररीक्षायां हि विचारान्तरमवश्यम्भावि fear तेन परीक्षाsयोगात्, तत्परीक्षायामिति पुनर्विचारान्तरमिति परापरविचारपरीक्षायामेव
संसारं व्यापारान प्रकृतप्रत्यक्षादिप्रामाण्यपरीक्षायां व्यापारः स्यात् । ततः सुदूरं गत्वापि २० अविचारितादेय कुतधिद्विचाराम् तत्परपरीक्षायाम् आधादपि तथाविधादेव विचारात्प्रत्यक्षादिमायं परीक्ष्य परित्यज्यत इति चेत्; ननु तत्परित्यागमे नामाप्रामाण्यमेव प्रत्यक्षादीनाम्, तत्कथम् अकृत विचाराद्विचारप्रामाण्यात् सिद्धयति १ प्रामाण्यमेव वा "तेषां ततः किन्न सिद्धयति ?
सिद्धयति न परं (-ति परं) तत्सुन पारमार्थिकं व्यावहारिकस्थात्। इदमेव हितस्य व्यात्रहारिकत्वं यदपरीक्षापरिशुद्धप्रमाणसिद्धत्वम् । न हि तथाविधस्य पारमार्थिकश्यम्; परीक्षापरिशुद्ध २५ स्वात् । चभिमतमेव बौद्धस्य "प्रामाण्यं व्यवहारेण" [प्र०वा० ११७ ] इति वचनादिति चेत् कथमिदानीं विचारश्रमाण्यस्य पारमार्थिकत्वम् ? तस्याप्य परीक्षा शुद्धत्वाम् ।
१- स्पेन रातोप्यर्थसिद्धेः आ०, ब०, प० । २ अस्वलरप्रत्ययात् ५ प्रत्ययारिस्खलनं वासनावार्धनिमित्तं न सद्विषय भावनिमितमित्यस्य ४ अभावः । ५ भावरूपमेव । ६ वस्थाप-आ००, ४०, ०७ प्रत्य यापरिस्खलनात् श्रामायसिस०, प०, स० । ९-प्रत्ययपरि सा । ९० प्रापविस्वसनात 111 विश्वारप्रामाण्यसिद्धिः । १२ थान वैति भा०, ब०, प०, स० । १२ विशरः । १४ व्यविचारितादेव १५ मचादीनाम् । १६ अविचारितद्विवारात । १७ पारमार्थिकत्वात् ।
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न्यायविनिश्वयविवरणे
[३
ray को दोष इति चेत्; न; ततः प्रत्यक्षादीनामप्रामाण्यस्य परारमार्थिकस्यासिद्धिप्रसङ्गात् । न पारमार्थिकादुपाया पारमार्थिकस्य कस्यचित्सिद्धिः अन्यथा तथाविधादेव प्रत्यक्षादिप्रामाण्यात् बहिरर्थादेरचे पारमार्थिकस्ये सिद्धिः स्यादिति स्यर्थं प्रामाण्यस्य व्यावहारिकत्त्रोपवर्णनं प्रयोजनाभावात् । तद्धि बहिरर्थादेः पारमार्थिकस्य निराकरणार्थं परैरभ्यनुशातम्, 4 इदानों पुर्नस्तथाविधादेच तस्मात् पारमार्थिकबहिरर्थादिसिद्धौ कथन्न प्रयासमात्रमेव तद्व्याव हाfore भवेत् सद्विषयपारमार्थिकवनिराकरणस्याभिमतस्यासिद्धेः ? विषयपरमार्थत्ये ferent serverम्' इत्यपि न पर्यनुयोग, विचारप्रामाण्येऽपि साम्यात् । अप्रामाण्यमप्यपारमार्थिकमेव प्रादीनामिति चेत्; न; प्रयासवैफल्य अविप्रतिपत्तेः । न ह्यपारमार्थिके तदप्रामाण्ये कस्यचिद्विप्रतिपतिरस्ति येन तत्साधनायास [:] साफल्यमुद्वहेत् । अपारमार्थिकत्वे १० चाप्रामाण्यस्य प्रामाण्यमेव तेषां पारमार्थिकं भवेत् । तदपि अपारमार्थिकमिति चेत्; न; परस्परपरिहार स्थितिस्वभावयोरेकस्य पारमार्थिकस्व एवान्यस्यापारमार्थिकत्योपलम्भात् नित्यत्यांsनित्यत्ववत् । सत्येव नित्यत्वस्य पारमार्थिकर नित्यत्वस्यापारमार्थिकत्वं परस्यापि प्रसिद्धम्, तस्कथमुभयापारमार्थिकत्वम् ? ततो यदि प्रामाण्यमपारमार्थिकमेत्र अप्रामाण्येन तद्विपरीतेन भक्तिव्यमिति कथनोको दोष:- 'परिशोषितप्रामाण्याद्विचारात्प्रामाण्यवतदपि १५ सिद्धपति इति ?
1
२०
७८
२५
'कासत्यत्वमन्योऽन्यपरिहारस्वभावयोः ।
"विनाऽयतरसत्यत्वं नास्ति नित्येतरत्वक् ॥ २३८॥ तोभयोरसत्यत्वं क्वचिन्मानेतरत्वयोः ।
मानत्वं वेदसत्यं स्यात्; सत्यमावश्यकात्स्रम् ॥२३९॥ तत्र दोषः ऋusोतो विचारादपरीक्षितात् ।
प्रामाण्यस्येव तस्यापि न सिद्धिस्ताचिकीति यः ॥ २४० ॥ न विचारावं येनैवं प्रतिपाद्यते ।
प्रादेः प्रमाणत्वं किन्तु दुर्योधमुच्यते ॥ २४९॥
इति चेत्; अपरिज्ञातं 'दस्ति यदि तत्त्वतः ।
aircrafters arनश्या निषेधात् ||२४२||
art a nerve "स्वरूपस्य स्वतो गतिः ।" [ प्र० वा० ११६ ] "प्रमाणादिरर्थादेरपि यहतिरक्षताः ॥२४३॥
न
४ अपार
ल्यादपि
१] परमार्थादेव । २ यासि आ०, ब०, प०, स० ३ भीगते विज्ञानवादिभिः । मार्थिकादेव - साप्रया - २०, ब०, प०, स०१६ विषयपारमार्थिकाने आव २०, प०, स० । अति-आ०, ब०, प०, स० । ८ नाशमाण्यमेव च । ९ प्रत्यक्षादीनासू । १० प्रामाण्यमनि । ११ पारमार्थि कैन । १२ एकसय १० १३ दिनान्यतरास-आ०, ब०, स० ० ६४ प्रत्यक्षादीनामाज्यम् १५
"
श्रामाण्याद्द्--१० १ १६ निर्दुष्ट
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३]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
मानाच्चेदपरिज्ञाताद्विषयो नाधिगम्यते ।
;
G
मानमेव कथं तत्स्याद्विषयाधिगमात्रम् ॥ २४४॥ अथ नास्स्येव नास्तित्वं तर्हि तस्य प्रतीयताम् । दुर्बोधत्वं कथं तस्य विचारात्परिकल्प्यते ॥२४५॥ अस्त्वेवमिति चेत् ; तस्याभावः कीदृश उच्यताम् । तुच्छत् स कुतः सिद्धः १ विचाराच्चेधयोदितरत् ॥ २४६॥ प्रतिपाहते तस्येतस्मात्सिद्धिः कथं भवेत् ? | माहामारकभावो यत्प्रतिबन्धे परैर्मतः ॥ २४७ ॥ तादात्म्यं चेद्विरस्याभावेनें; अभाव एव सः । तस्यापि सिद्धिरन्यस्माद्विचारात्तारगात्मनः ||२४|| तस्यायन्त इत्येवमनस्थानमुद्भवत् । श्रामाण्याभावसंसिद्धिं प्रतिवन्नाति तावकीम् ॥ २४९ ॥ नाप्यभावात्समुत्पतिर्विचारस्यास्त्यशक्तिकात् ।
नासकं खरशृङ्गादि दृष्टमर्थकियात्मम् ॥२५०वी विचारादपि यथेषः परमार्थेन सिद्ध्यति । विचारस्य प्रमाणत्वं न स्यात्पारमार्थिकम् ॥ २५१॥ प्रत्यक्षादेरपि स्वार्थे तथा किं तंत्र सिद्ध्यति ।
ते तो दिव्यकुलो भवेत् ॥ २५२॥ विचारात्सांवृतस्यैव "सस्य सिद्धिर्यदीष्यते " । सिद्धसानमेवं स्यात् स्यात्प्रयासो वृथैव ते ॥ २५३॥ तन्न तुच्छः प्रमाभावो विचाराव सिद्ध्यति । भावान्तरस्वभाषयेत्; सोऽपि कः परिकल्प्यताम् ! ॥२५४॥ प्रमाणभावनिर्मुको ज्ञानवर्गः स चेत्; असत् ।
अन्यानन्यविकल्पाभ्यां तस्य तस्याव्यवस्थितेः ॥२५५॥
७९
१०
१
स्था-आ०, ब०, प०, स० । २ प्रमाणाभावस्य । ३ विचारात् । ४ प्रमाभावेन । ५ विकारः । ६ श्रभावात्मनः । ७- प०, स०८ प्रमाणाभावः । ९ प्रमाणस्वम् १० प्रमाणाभावस्य २ ११विष्य१२ माण्यस्य मायात् । १३ शानमा आ०, ब०, प० । ९४ - विरुद्धत्वाम् आ०, प्रा-१० :- प्रा-आ०, ब०, स०
००, प०, स० । ६०, १०, स० । १५
१५
२०
तथाहि-- शो ज्ञानवर्गो विचाराव्यतिरिक्तो वा स्यात् व्यतिरिक्तो वा गत्यन्तराभावात् २५ अन्ययिरिसोत्; विचारस्यैव तर्हि स्यादप्रामाण्यं तत्स्वभावाञ्चानर्वर्गादव्यतिरेकास् । न क्षप्रमाणाव्यतिरिक्त [म] प्रमाणं न भवति, अव्यतिरेकस्यैवंविथत्वात् । तदेवत्त्वधाय कृत्यास्थापनं प्रशाकरस्य परपरिकल्पितप्रमाणनिराकरणोपक्रमेण स्वाभिमतभिचारस्यैवाप्रामाण्योपपादनास
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पनि चिश्ते
[१३ प्रसिद्धञ्चैतत् प्रभाणयादिनामिति न साध्यपक्षे निक्षेपमहति । व्यतिरिक्तश्चेत् । तत्रापि तद्वर्ग विचारस्य यदि व्यभिचारः कथं तंततस्तसिद्धिः प्रामाण्यसिद्धिवन् । अव्यिभिचारवेत् । अविचलितं तेत्प्रामाण्यं भवेत् तस्य तल्लक्षणस्यात् । अत्र चोकम्-"प्रत्यक्षादेरपि स्वविषयाव्यभिचारलक्षण तद्वदेव तदप्रतिषिद्धम्" [ ] इति । अत उक्तम्-प्रत्यक्ष५ लक्षणमर्थवेदन मिति ।
ननु भवनपि परस्पास्मिन् विषये विचार: किमाम प्रमाणम् --प्रत्यक्षम्, अनुमानम् , अन्यद्वा भवेत् । प्रत्यक्षमिति चेत् ; न. ; 'प्रत्यक्षमश्मिारकम्' इति स्वमतव्याघातात् । भवदपि तत् सर्वस्माक्षानाव्यतिरिक्त यदिः स पर महि यथास्त्रमप्रामाण्यं प्रतिपात
इति प्राप्तम् , न चैतदुपपन्नम् ; सद्वर्गस्य स्वया कुतश्चिदविषयीकरणात् । न हविषयीकृतः १० सकलदेशकालगोपरपुरुषाधिष्ठानस्तर्गः स्वासमप्रामाण्यमेव प्रतिपयते नापरमिति सम्भवति
निर्णयः । एतदपि तद्वर्गणैव प्रतीयत इति चेत् ; न ; अवापि तस्यैवोसरवान् ! अविषयीकृते तस्मिम् 'तेनैवेदं प्रतीयसे' इति दुरवबोधमेतदिति । पुनरपि तथा समाधाने सदेवोसरमिस्यनवस्थानं भवेत् । यदि च ज्ञानवर्गस्य सर्वस्यापि स्वत श्वाप्रामाण्यप्रविपत्तिः, न तर्हि तत्र
कस्यचिदपि विप्रतिपत्तिरिति सौगतमेव सकलं अगस्यात् । अप्रमाणेऽपि तस्मिन् प्रमाणव१५ समारोपाद्विप्रतिपत्तिरिसि' चेन् । कुतस्तत्समारोपः ? तत एक शानवर्गादिति चेत् । न ; तस्य
स्वतोऽप्रपाण्यप्रतिपत्तेरभ्युपगमात् । न झप्रामाण्यं प्रतियद्यमानस्य स्वतः प्रामाण्यारोपणभूपपन्नम् ; तत्वप्रसिपत्ति मिथ्यारोपयोरेकज्ञानेन विरोधात् । अविरोधे वा" न कुवश्चित्तवारोपनिवृत्तिः, तत्त्वज्ञानस्य "तदप्रत्यनीकत्वात् , अपरस्य तस्मत्यनीकस्याभावादित्यमुक्तिरेव संसारात् ।
आरोपात्मकत्वे व तद्वर्गस्य न प्रत्यक्षत्वम् , प्रत्यक्षस्य कल्पनापोहस्वास् , आरपस्य व कल्पनास्मकत्वात् । अशब्दसंसर्गादपिकल्पत्यमेव सैमिरिकस्य द्विवन्द्रमहणवदिति चेत; तथापि न प्रत्यक्षतम् प्रत्यक्षस्याभ्रान्तत्यान् 'प्रत्यक्षमश्रान्तम्" ] इति वचनात् । आरोपस्य च "स्वप्रतिभासिनि प्रामाण्ये यद्यन्नामाण्यं न स्यतः प्रतीयो "सर्वस्याग्रामाण्य स्वतः प्रत्येयम्' इति प्रकृतपरित्यागः । प्रतीयते चेत् । तदवस्थो विप्रतिपत्त्यभावः । हिस्साप्रामाण्यवेदिन एवं
ज्ञानात् तविषयसभायावष्टम्भेन विप्रतिपद्यन्ते विद्वांसः। तत्रापि पुन: प्रामाण्यायपाद्विप्रति। पद्यन्त एवेति चेत् ; न ; 'कुतस्तत्समारोपः' इत्यादेः पुनरावृस्था पक्कानप्रस्थाप्रसङ्गात् ।
एतेन परतवत्समारोपः' इत्यपि प्रत्युक्तम् । तत्समारोपस्यापि "स्वाप्रामाण्यायेदित्वेप्रकतप्रतिज्ञापरित्यागस्य, तदित्वे विप्रतिपत्त्यनस्वस्थ, तत्राप्यपरतत्समारोपकल्पनायाम् 'कुतस्तस
प्रमाणभावनितज्ञानवरूप प्रमामा । २ विधारतः। ३ प्रमाऽमावमितिः। विचारप्रामाण्यम् । ५प्रामाण्यस्य "कृल्पनापोटमधाम प्रत्यक्षमू-भ्यायधिक पृ००।७ यथामा--मा, १० । यातमत्रा -40 गयासपा-ता०1८ सगतमा-भा०, १०, ५०,स.11 झामवर्ग। १० वाजु कु-१०111 तदवियद्धावात् । र ज्ञानवर्गस्य ! १६ "तत्र कल्पनापीठमभ्रान्त प्रत्यक्षम् ।"-यायवि पृ."। "प्रत्यक्षं कल्पना मोढमत्रान्तम।"-प्र० वार्तिकाल. 11२३१५ख्यते । 14 सर्वस्वपि प्रामाण्यं सतः भा.प.सा. ११-याविन आग , प०, स. 11 साप्रामाम्बवे-१० | १८-तस्वस-स
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प्ररमा प्रत्यक्षप्रस्तायः
मारोपः' इत्यारावाविशेषान् । नन नारदज्यतिरिक्तम् । नाऽपि व्यतिरिक्तम् । उक्तदोपत्यान् । तत्र प्रत्यक्ष विचारः ।
नाप्यनुमानम् ; प्रत्यक्षाभावे तदभायात् ; तस्य सत्पूर्वकस्यात् । अप्रामाण्यप्रतिवन्धे हि निनस्य प्रत्यक्षसिड़े स्यादनमानमान धारामाण्य प्रत्यक्षसिमिति कथं तत्सम्बन्धः प्रत्यक्षवेद्यः स्यात् ? सम्पन्घाधिकरणप्रतिपत्तिमन्तरेण सम्बन्धप्रतिपत्तेरनुपपत्तेः । सत्यपि प्रत्यक्षादप्रामाण्य- ५ परिझाने में तत्सम्बन्धस्य प्रत्यक्षश्रेयत्वा , स्वरूपस्वावलम्मनाकारपरिच्छेपि हि प्रत्यक्षम्' इत्यादेः एतदत्यन्तसादसम्' इत्यन्तस्य दोपस्य परपक्षोत्तस्यै अवापि प्रसङ्गात् । नापि अनुमानवेधत्वम् ; 'अनुभावान्तरापात्' इत्यादिप्रसङ्गार । नानुमानमपि विचारः ।
प्रमाणान्तरमित्यपि न युक्तम् , “न प्रत्यक्षानुमानाभ्यामपरं मानमिष्यते" [प्र. वार्तिकाल० १।५] इति स्वमतव्याघातप्रसाविति चेत् ; भवतु सौगतस्याथै पर्यनुयोगः तेनै- १० वास्थ विचारस्याप्रामाण्यप्रतिपस्यर्थमनोकारान्न जैनस्य विपर्ययात् । जैनेन तु केवलम् 'अप्रमाणाद्विधारादितरज्ञानवर्गस्याफामाण्यं तत्मामाण्ययदशक्यप्रतिपत्तिकमिति प्रमाणयितव्यो विचारः, तद्वश्व चार्थझामस्यापि प्रामाण्यमशक्यप्रविषेधम्' इत्येतावदुच्यते ।
स्यान्मतम्-न सौगतस्थाप्ययं प्रमाणम् । न बनेन फिद्धिद्विधीयते नापि प्रतिपिथ्यते, केवलमर्थ शामप्रामाण्ये संशय पंथापाथते न च संशयापादक प्रमाण विरोधादिति ; १५ सत्सङ्गतम् ; अर्थनिषेधनियमनिर्णयामाचे "स्वरूपस्य स्क्तो गतिः" । प्र०या० १२६] इवि विरोधान् । न हि सन्दिग्धेऽर्थे स्वरूपस्थैय न पररूपस्य गॅसिरिति नियमो न्याय्यः । किन,
विचारित चेत्सन्दिग्धम् असन्दिग्धं किमुन्थ्यताम् ? संवेदनस्वरूपं चेन् । विचारसत्र नास्ति किम् ॥२५६॥ नास्ति चेत् । अविकल्पत्वक्षणिकत्वादिकं तव । तंत्र भाभात्कृतः सिद्धयेत् ? स्वसंवेदनतो यदि १२५७।। मुतस्तदपि संसिद्धयेत् ? विचारेण विना कृतम् ? प्रसिद्धत्वाविचारेन किं तस्यपि दुर्भतम् ।।२५८॥ मीमांसकादयस्त यत्प्रसिद्धिं ने मन्यते । विना विधारतस्तत्वं प्रतिवोध्याः कथं त्वया ॥२५९॥ अपि च त्वं स्वसंचिती विचारविरई ब्रुयन् । स्वशास्त्रज्ञानशून्यत्वमात्मनः कथयस्थलम् ॥२६॥
1 अप्रामाण्यामकसाध्येन सह लिनस्य अविमाभावे । २ पृ० ७५। ३विचारेग। ४ एवापद्यते भार, १०,५०,०। ५ यतिनि-मा०, २०,०,०६ किभिदुष्य-आ०, २०, ५०, ०1 . स्वसंवेवक्षस्यरूपे। ८ स्वरांयेदने । समचते आ०, ब०, १०, स. १.रिध्या इति शेषः।
११
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३
न्यायविनिश्चयविवरणे "अप्रत्यक्षस्योफ्लम्भस्य नार्थष्टिः प्रसिद्धयति ।" ] 'इत्यादेहुलं सत्र तद्विचारस्य दर्शनात् ॥२६१॥ अस्तु पत्र विचारवंतच सन्दिग्धमस्तु वः । तद्विचारस्य सम्यक्त्वानिश्चितं चत्तबुच्यते ॥२६२।। मानमेव स सम्यक्त्ये वस्य तहलक्षणत्वसः । न चैवम् , मानसंशतिः स्वयमेव निरूपणात् ॥२६३॥ सन्दिग्धमानवेत्थादर्थवसत्स्यवेदनम् । त्याज्यमस्तु, उमर्थत्यागश्चोपायेन विना कथम् १२६४॥ अस्ति कश्चिदुपायश्चेत् ; द्वयत्यागः कथं भवेत् ? तत्याने कोऽवशिष्येत यस्योपायत्यकल्पनम् ॥२६५।। तस्मास्यवेवनं याह्यानाप्रामाण्यमेव वा । विचारादन्यतो वाऽपि प्रमाणादेव सिद्धयति ।।२६६॥ सददेव प्रमाणस्वार्थज्ञानस्य किन्न तत् । ।
'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः' इति सूक्तं सतो बुधैः ॥२६७॥ .
अधया 'आत्मवेदनम्' इत्ययुक्तम् ; अर्थज्ञानस्य स्वतो वेदनायोगात् , स्वात्मनि क्रियाविरोधात् छिदिनियावत् । न तिनिशितोऽपि करपाल आत्मानमेष छिमसीत्यत्रेदमाह-- 'प्रत्यक्षरक्षणमात्मवेदनम् इति । आत्मवेदनप्रतिपक्षस्य स्वभावस्यै स्वविषयेरनाक्षणास् प्रत्यक्षं तदभावनानं तदेव लक्षणं यस्यात्मवेदनस्य पत्तथोक्तम् । तथा हि
स्वसंवेदनवैकल्यं सर्वप्रत्ययगोचरम् । स्वतश्चेद्धगम्येत प्रतिज्ञा भज्यते तव ॥२६८ अन्यतश्चेत् । तदन्यस्य यदि "संवेद्यते स्वतः । प्रतिज्ञाभङ्गदोपस्ते पुनरप्यनुषष्यते ॥२६९॥ तत्रापि तस्य संविसिरन्यतो यदि कल्प्यते । तत्राप्यन्यत इत्येवमनवखा कथं ॥२७॥
१५
“अप्रसिद्धोपलभस्य नार्थ वितिः प्रसिधपति ।"-सास. का. २०७४ । २ अर्थ-स्वसंवेदनोभय -भय ख्या-मा०, २०, ५०1-मयस्त्या-स.1 ३ वेदनात् स्वासTO ०,१०, १ "स्वात्मनि परिसविरोधात् ; मह सदेव अमूल्यमं तेनैव अनुल्योग स्पृश्यसे, सेवाविधारा तयैदासिधारया छिद्यते ।"कुमार्य अभिधः . 101 "म विनति वधारमानसिधास तथा मनः । यथा सुतीक्ष्मप्यसिबास मायारा सदस्यबदारमान स्वकीयं ने शिनति ने विपश्यति सामान किया विरोधात तथा मना, अखि पारचित्तमपि स्मात्मा न पश्यवासि योज्यम् ।"-भौधिमा १०३१५।५-य विश्रा40, प.स.1
भारमवेदमाभावश्चमम् । ७ स्वसंवेदनवैकल्यं संवेद्यते । ८ स्वसंवेदनकस्यस्य । ९ वास।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव फारमणस्य निवृत्तश्चेत् । काक्षणीयं किमुच्यताम् । ससंशानस्वसंवित्तिवैकल्पज्ञानमेव च १२७११ तहि सस्मिन्ननिष्पन्ने कथं कामानिवर्तनम् ? काक्षितार्थप्रक्तृप्तिहि काझाट्यासिकारणम् ॥२७॥ मनसोऽन्यत्र गमनादित्यप्यनुचितं वचः । कारक्षितार्थ परित्यज्य तंत्र तद्गत्यसम्भवात् ।।२७३॥ अष्टादन्यतो बापि तत्र तगतिसम्म । सा स भूवनयस्थान प्रकृतं तु न सिलति ।।२७४।। सकरवेन स्वसविचिरेकल्यस्याप्रवेदनान् । तस्मात्तद्विषर्य किशिज्ञानमस्तु स्वत्तो गैतम् ॥२७५।। तदेव बाविज्ञानस्यात्मवेदनलक्षणम् । प्रत्यक्षलक्षणं देषः प्राह तेनात्मवेदना ॥२७६॥ न स्वसंवेदने कश्चिद्विरोधोऽप्यस्ति वस्तुतः । निर्भाधं वस्य दृष्टत्वात् दृष्टे कानुपपन्नता ॥२७७।। छिदिक्रिया विरुद्धास्तु तस्याः स्वात्मन्यदर्शनात् । न स्वसंवेदनं सस्य दर्शनादर्थवित्तियत् ।।२७८॥ अन्यथास्मिसंषिस्योविरोधेनोपडनात् ।
निद्रायित अगस्थानमस्वसंवित्तियादिनाम् ॥२७९॥
सफलशानानां हि स्वसंवेदनबैकल्यं यदि स्वत एष प्रत्येवव्यम् । तदा ठदेव तेको स्वसंवेदनमिति सवैकल्यप्रतिज्ञाध्यायातः कथन भवेत् । अन्यतोऽवगम्यत इति. चेत् । न तस्यापि स्वसस्तवैकल्यवेदने प्रतिज्ञाव्याघातस्य तपस्थत्वात् । अन्यतस्तद्वेदचे सस्यापि तदन्यतस्तद्धवनमित्यनवस्थाप्रसङ्गात् । निवृत्ताकाथस्य न सप्रसङ्ग इति चेत्, नवियभाकाला साकल्येन तवैकल्यारिज्ञानगोधरा कथं वल्परिज्ञानापरिसमाप्तौ निधिमती स्यात् ? आकाहि प्रयोजनपरि समामिरेष शाकाहानिवृत्तिनिवन्धनं नापर किचित् । अन्यत्र गत्तमनसस्य न प्रसङ्ग इत्यप्यनुचितमेव वपनम् ; आकाडाविषयव्यतिक्रमण सम्पन्न गमनासम्भवान् । अष्टसामध्येन ईश्वरचोदनया-या तरसम्भपश्चेत् ; भवतु निवृत्तमनवस्थानम् , प्रस्तुतसिलिस्तु नास्त्येव सफलमान गतस्य स्वसंधेदनकस्थस्यैवममवेदनात् । ततस्तद्विषयं स्वसंविदिसमेष किञ्चिद्विज्ञानमकीकर्स- व्यम्, अन्यथा सदसिद्धो, तदेव ष सकलस्यार्थयेषनस्यापि स्वसथिदितत्वमवस्थापयति । सत इबमुरूमू-'प्रत्यक्षलक्षणमात्मवेदनम'इति । म चार्थज्ञानानां स्वसंविदितत्वे कश्चिदपि
.
स्याप्यवे-शा,.,.स.
1-बापतिका-मा०,०,10,81 अन्यत्री ममोगति ५गतिः 8.1 अन्यथात्मासा -सटा-भा, ,५०।
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न्यायविनिश्चयविवरजे विरोधः तस्य निर्वाधमनुभूयमानत्वान् । न नानुभवातिकाम्दखद्गस्वरूपगोचरछिदिक्रियानिदर्शनेन
अनुभवाधिरूढस्य स्वसंधेदनस्यापि विरोधपरिकल्पनमुपपनम्, अर्थ वेदनस्यापि तत्प्रसङ्गात् । ततो न स्वरूपस्य नार्यस्य वेदनमिति सकलं जगन्निद्रामुद्रितमेव अस्वसंवेदनज्ञानवादिना प्रारम् । सस्मादनुभवोपस्थापितशरीरस्याद् अर्थवेदनययप्रतिक्षेपार्हमेव आत्मघेदनमपि, साकल्यतः द्विपक्षा५ वेदनान्यधानुपपत्तेवा प्रामाण्यवत् ।
__ भवतु प्रामाण्यमप्रतिकोपाईम् , अन्यथा सद्विचारस्यापि तत्प्रसिक्षेपे साकस्येन तसरतस्पतिक्षेपायोगात् । तस्य तु कुतः प्रतिपत्तिः ? "वद्विचारप्रामाण्यस्य कुत इति चेत्, नेदमुत्तरम् । अव्युत्पन्न प्रश्नस्य तत्रानि समानस्यादिति चेत् ; न ; क्वचिरस्वतः कचित्परतश्च तन्निश्वरसम्भवात। 'पैरतस्तनिश्चयेऽनवस्थानमिति घेन्; न ; पर्यन्ते कस्यचित्स्यवःसिद्धप्रामाण्यस्यापि सम्भवात् । १. यथा चैतत्सुबद्ध तथोतरा निरूपयिष्यामः । एतदेवाह-'प्रत्यक्षलक्षणम् इति । स्वसंवे
वनस्त्र प्रत्यक्षम् , तदेव लक्षणं गमकं यस्य न्यायस्य सं प्राहुः इति । प्रत्यक्षप्रहणामुपलक्षणम्, सेन पैरलक्षणमयि तं प्राहुरिति प्रतिपस्तव्यम् । वदेवममिहित प्रमाणस्य सामान्यलक्षणम् ।
अधुना पुनरभिहितलक्षणस्य तसामान्यस्य विभागो लयितव्य इत्यनसेंध कारिफया श्रावृत्तिम्यावेन प्रत्यक्षस्य लक्षणं दर्शयति तस्य तद्विभागत्वात् । परोक्षमपि 'द्विभाग एष तस्व १५ फरमान लक्षणमुपदश्यते ? "शास्त्रान्तरे तस्य तदुपदर्शन मिति चेत् ; म ; प्रत्यक्षस्थापि तब
सदुपदर्शनात् । इहापि तृतीये परोक्षस्य तदुपदर्यत एव "प्रत्यक्षमजसा स्पष्टमन्यच्छुतम्" [न्यायवि० श्लो० ४६९ ] इत्यनेनेति चेत् ; न सईि. प्रत्यक्षमा यन्न लक्षयितव्यं तस्यापि तत्रैष तदुपदर्शनात् । तस्य सोपसंहारत्वादत्रैष तस्य सदुपदर्शनीयम् , अनुक्तस्योपसंहारा.
योगात् ; इत्यप्यसमाधानम् ; पयेक्षेऽपि समानत्वात् । द्वितीयेनानुमानस्थ · तृतीयेन २० शाब्दस्य च परोक्षविभागस्य लक्षणोपदर्शनात् परोक्षमपि लक्षितं भवत्येवेति चेन् । ग;
विभागलपास्य सामान्यानुपातिस्वाभावात् , इतरथा प्रमाणमपि न सामान्येन लक्षयितव्यं प्रत्यक्षाविसद्विभागलक्षणावेश तलक्षणोपपत्तेरिति चेत्"; नेहमशक्यपरिहारम् ; अय परोक्ष. स्यापि सामध्येन लक्षणात् , तस्य प्रत्यक्षविसशत्वान् । प्रत्यक्षे च सम्' इति लक्षिवे
तद्विसदशवाय अस्पष्टम् परोक्षम् इति भवत्यर्थात्मविपतिः । तस्य सद्विसदृशत्वमेय कुत इति १५ चेत् । परोक्षत्वादेव, अन्यथा तदपि प्रत्यक्षमेव स्यात् । न हि प्रत्यक्षसजातीयमप्रत्यक्षमुप
पमम् । न प प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् ; परोक्षरत्याप्युपपत्तिबलेन व्यवस्थापनात् । उपसंहारे व परि
1-वादितिस-200, 40, ५०, स. २-य तरन-आ०, २०, २०, ०१ ३ आत्मवनाभाव। सद्विपक्षवेदनामा साकल्यता प्रामाण्यप्रतिक्षेये । ५ प्रमाध्यप्रतिक्षेपविचारध्यापि । ६ प्रामाण्यामाचे । •विचारतः । ८ प्रामाण्यप्रतिक्षेप । १ प्रामाण्यस्य । १. प्रामाण्य प्रतिक्षेपविचारप्रामाण्यस्य । आमाध्य. निश्चय १२ परतश्च तषि-आ०, 40, प.। १३ प्रश्यशभितः परोक्षः परः। १-क्षलश-०, , प०१५ प्रत्यक्षस्व । १३ प्रमाजसामान्य विभागः। सपन्यत्रयादी। १८ प्रायजस्थ । १९-दशक्यप भार, 40, ए.स.१२० जायते - । लभते मा०, २९ ।
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१।३]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव सुटमेव प्रत्यक्षवैसेटश्यं परोक्षस्य प्रतिपादितम् 'अन्यच्छ्त म इति । तत्र 'अन्यत्' इत्यनेत प्रत्यक्षविजातीयत्वस्य प्रतिपादनात् । प्रत्यक्षमेव परोक्षलक्षणवलेन किन्न लक्ष्यत इति चेत् । न ; विशेषाभावात् । कः पुनरत्र विशेष यत्प्रत्यक्षलझणयलेन परोक्षं तलक्षणवलेन का प्रत्यक्षं लक्ष्यत इति १ प्रत्युत प्रत्यक्षमेप प्रथम लक्षयितव्यं तत्पूर्व करथेन परोक्षस्यैव पाञ्चालक्षणोपपञ्चेः । अत इदमुच्चले 'प्रत्यक्षलक्षणम्' इत्यादि । लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणाम् , प्रत्यक्षस्य लक्षणं प्रत्यक्ष] ५ लक्षणं तन प्रत्यक्षस्यैव स्वरूपम् , असाधारणेन स्वरूपेणैव भावानां लक्षणसम्भवात् । अत एव सेषु स्खलक्षणप्रसिद्धिः । वन माहुः । कीदृशम् ? 'स्पष्टम्' इति ।
किं पुनरिदं स्त्वं नाम ? साक्षात्करणमिति चेत् । तदपि दुरवबोधम् । आलोकपरि. कलितवन प्रहणमिति चोन् : ने; अतिव्यापकत्वात् , पाबकानुमानेऽपि भाषात् , आलोकालिसितस्य पर्वते पाय फस्यानुमानाप्रतिपसेः १ अन्यापकत्याच रसादिप्रत्यरेषु, अन्धकारान्तरितरूप- १० गोबरमतरादिप्रत्यध्वपि अविद्यासनत्वात् ।
'अव्यवहितग्रहणम्' इत्यपि तादृशमेव ; काचादिव्यवहितरूपदर्शनदशायामभावात् । व्यवधायकमेव काचादिकं न भवति वस्तुपहणप्रतिवन्धाभावात् , तत्प्रतिबन्धेन हि व्यवधायफस्दै नान्यथेति चेत् ; किमिदानी व्यवधानोपाधिक घस्तुपणमेव नास्ति दिया ; पण साक्षात्करणमिति वक्तव्यं किमध्यवहितविशेषणेन व्यवच्छेवाभावात् ? म चितम् ; १५ अनन्तरमेव निरूपणात् । ज्यवधानोपाधिकवस्तुग्रहणसम्भवे तु सिद्धं काबादेरपि व्यवधायऋत्वमिति कथं नाव्यापकत्वं साक्षात्करणलक्षणस्य ? कालाधन्तरितवस्तुमणस्य 'प्रत्यक्षत्रेऽप्यञ्यवहितपणस्याभावात् । प्रत्यक्षमपि तन भयति व्यवहितग्राहगरवादिति चेत्, न; सर्वझ. विज्ञानस्वापि काचाधन्तरितवस्तुप्राहिणः प्रत्यक्त्वाभावप्रसङ्गात् , तदमाहित्येन सर्वज्ञत्वाभावा. पत्तेः । सत्यप्यन्तर्धाने घस्सुस्वरूपस्य प्रणात् प्रत्यक्षमेव तदिति चेत् ; सिद्धमत्मदादिज्ञानस्यापि. २०. प्रत्यक्षत्वम्, सत्रापि कारभाण्टेपर्यवगुण्ठितखण्डशर्करापिण्यस्वरूपप्रहणस्यानुभवादिति सिद्धमव्यापकत्वं तल्लक्षणस्य ।
___भवतु तर्हि वस्तुस्वरूपग्रहणमेव साक्षात्करणमिति चेत् ; न ; अनुमानादापि प्रसङ्गान् तस्यापि वस्तुस्वरूपमा हिरवेन स्यावादिनः प्रसिद्धत्वात् , "चौद्धस्य प्रसाधयिष्यमाणत्वात् । सामान्यरूपेणैव तस्य तद्वाहित्वं न विशेषरूपेणेति चेत् । न शब्दाधुपाधिसम्बन्धेनैवानित्यत्वादेः तेन ग्रहणान् । न "सालोपाधिकसम्बन्धेनेति थे । द; प्रसिद्धप्रत्यक्षेणापि तदभायात् ,
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यसाय मा०, २०, २०, स.। ३ इति --आ०, २०, प., स. ३ परोक्षरलेन मा०, ५०, १०,०। ४ प्रत्यक्षपूर्वकरवेन । ५ लक्षणं प्रत्यक्षस्पैच भा०,.,., स.1 रन पजैव श्रा, व०, ५० पायवानुमा--भा०, २०,९०, स.10 -स्ववि-भा०, २०, ५०, स. ९-अन्वभा-सर० । १०-प्रत्याशान्यदेवि स०।-त्यामाग्यथेति आ०, २०,०।११ वसुग्रहणमेव । १२ प्रत्यक्ष व्य५-आ०, २०,२०, अन्तरितवस्तुण्यहि सर्वशविज्ञानम् । १५-पर्थवगुणित-8101 १५ बौवस्थ प्रसाद इम-800, २०० १२.मानस्थ । ५० वसुस्वरूपाहत्वम् । 14-पाधिस-आ०,०, प० ।
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न्यायधिनिश्चयधिकरणे
[१३ ताणोदिदहनविशेषप्रतिस्तावपि प्रतिक्षणपरिणामादेस्तद्विशेषस्याग्रहणात्, अन्यथा वद्विषयप्रमाणान्चरत्र्यापारधेफल्यापत्तेः।
___संशयरहितं गणमेव साक्षात्करणम्' इत्यध्यनु स्पनम् ; अनुमानादिनाऽतिव्याप्तेरेव । संशयगेवानुमानादिकम् 'ताओं का पहनः पार्णो वा इति सत्र तदुपलम्भादिति चेत् । न ; तस्वं ५ वात्मकत्ताभावात् । प्रमाणस्न तदात्मकल्वे दस्वातिपसिविलमखिलं जातयेत् , अनुपायत्यात्, संशयोपार्यत्वे चाविप्रसङ्गात् । अन्यतने संशय इति चेत् ; न ; गायमिते एवंदे पावकादायभायात् । ताोदी दहिशेष इति चेत् ; न ; तस्यान्नुमेयत्वात् विशेषल्याप्रमहणात् । विषयविशेवैसंशये बानुमानस्य दोपे प्रसिद्धप्रत्यक्षात्यापि स्यात् 'मधुरं क्षार या जलम् प्रति
तद्विषयविशेषेऽपि संशयदर्शनात् । 'विशेषानाीश्यां न वदर्शनम्' इत्यप्यसङ्गतम् ; अनुमानादापि १. साम्यात् । तन्नेमपि साक्षात्करणम् ।
कस्तहिं साक्षात्करणार्थ इति चेत् १ 'अर्थज्ञानस्यैव प्रसिभासविशेषः क्षयोपशमादिनिबन्धनः' इति ब्रूमः । यद्वक्ष्यति
"प्रत्यक्षमासा स्पष्ट विप्रकृष्टे विरुध्यते । न स्वप्नेक्षणिकादीनां ज्ञानायुविविवेकतः ॥"
न्यायवि० ० ४.७] इति । ततो निलंधतिभासत्व स्पष्टत्वम् । स्थानुभास र सर्वस्यापि परीक्षकस्येति नालीच "निर्वाध्यते ।
ततो यवुक भासर्यशेन-"स्पष्टत्वं नाम सामान्यविशेष [ ] इति । तनु. मतमेष जैनस्य यदि सहशपरिणामः से' उच्यते । परस्तु ( परस्य तु) नित्यव्यापिगोत्याविरपि २० तद्विशेषो न सम्भवति कि स्पष्टत्यमिति करिष्यत एक प्रवन्धः ।
प्रत्यक्ष सविकल्पकमेव जैनस्या, बदाइ 'साकारम्' इति । सविकल्पकत्व नामजात्यादिविषयत्वम्, न तद्वस्तुतः सम्मति निशितविचारवयनिपातरक्षमत्वात् , फेवलमध्यहरोपसिद्धम् ! न बाध्यारोक्तिविषयस्य विज्ञानस्य परिस्फुटरवम् ; स्वप्नेन्द्रबालादिविकल्पेष्वदर्शनात् । स्थूलतीलादिविकरूपे रश्यत एवेति चेन्; न; तस्यापि भोपाधिकत्वाम् । २५ निरंशपरमाणुस्वलक्षणदर्शसंगत "पष्टवं कुतंचित्प्रत्यासत्तिविशेषात् सद्विकल्पपति
। अनुमानादः। ९ संशयात्मकत्वाभावात् । ३ संशयात्मकत्वे । ५ संशयस्य तत्वप्रतिपयुारूपत्वे । ५ अनुमानादी ६ पर्वत पा-मा०, १०, १०,०। -विशेष संस--00, 40, ० ०।-या तत्ताभा०,००,०-लभासिव-स01 उतमिदम् । “विसब स्मादविद्यापतिना -पायदी०पू०९। 1.निध्यो श्रा, . , was " स्यमान्यविशेषः । १२-यवान् न - 40, 40,80 "अर कल्पना २ री दाह-मजात्वादियोजना-पहच्छाशब्देषु नाम्दा पिवोडोऽर्थ उच्यते हित्य इति । आजिशन्देर आत्या गौरवमिति । गुणशब्वेषु गुणेन शुरु इति । क्रियाशब्दषु क्रियया पाचक इति । व्यथाम्देवु अपेण दण्डो विषादि "-प्रमाप्त डी.पृ.११। विकल्पो नामसंश्रमः।". वा. २०१३ निश्चित. कि-बा०, ५०, ५०,०। -पितद्विषयस्य था, १०, प० स० १५ स्फुटल ०,०,०,R.
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव सकान्तं प्रत्यवभासते त्पित्तिकमिति चेन्; अबाह-'अअसा' इति तत्त्वत इत्यर्थः । तात्पर्यमत्र-म दर्शन लविकल्पादन्यत् ; अनुपलम्भास् । असतश्च न पैशवम् , सत्कर्ष तस्यान्यन्त्र प्रतिसक्रमकल्पनम् । न हि व्योमकुसुमसौरभप्रप्तिसक्रमकल्पनं सहकुसुमेषु प्रीतिपदं (प्रतीतिपद) प्रेक्षावताम् ।
भवदपि तत्तः प्रतिसझान्तं कुतः प्रतिशताम् ? सत एव विकल्पादिति चेत् ; ५ न; तस्य स्वरूप एव व्यापायत् । तस्य च वैशविविक्तत्वात , अविविक्तत्वे तलप्रतिसडकमायोगात् । न च तद्वियितवेदनमेय सवेदनम् , पीतविवितशतवेदनस्यैर पासवेवनवप्रसाविति । सर्ववेदनविभ्रमत्वापत्तिः । तद्विवेकस्तस्य न स्वसंवेद्य इति चेन् ; अस्वसंवेद्य एष दहिं विकल्पः, तद्विवेकव्यतिरिक्तस्य तद्रूपस्याभावात् । “सच्चेतमादिकमस्तीति चेत् ; न ; सस्थापि "तद्विवेकादव्यतिरेकात् । महासविदितावन्यतिरिक्त संविदितं नाम!"व्यतिरेकेवा वेशद्याव्यदि- १० रेका स्यात् , तद्विवेकव्यतिरेकस्य तव्यतिरेकस्वभावत्वात् । तथा च
वदपि प्रतिसहकान्त *सचैतन्यादिकं तव । प्रतिसक्रान्तपैशद्याव्यतिरेकाचदात्मवत् ।।२८०॥ सरसस्क्रामोऽप्यधिष्टानमेवमन्यापेक्षते । तस्यापि तदभेदे त्यासधुझान्तत्वमसंशयम् ॥२८॥ सत्राप्येवमविष्ठामपारम्पर्यप्रकल्पनाम् । अनवस्थाभुजङ्गी यामासंसारं न मुञ्चति ॥२८२॥
तस्मादृष्यतिरिक्तं च स्पाय सकान्तिमत्कथम् ? ।
वैशवाव्यतिरेके हि सधैतन्यादिक्रमपि सक्रान्तमे भवन् ! हि प्रतिसध्यान्ताव्यतिरिक्तम् अप्रतिसक्रान्तमुपफ्नम्। तत्प्रतिसक्रमे या अविष्क्षनान्तरमझीकर्तव्य निधिष्ठा- २० नप्रतिसक्रमाभावात्। सदधिष्ठानस्यापि तत्प्रतिसक्रमाव्यतिरेके प्रतिसझमत्यापते। तदपराधि. श्वानपरिकल्पनं तत्राप्येवमित्यनवस्था यौःस्थ्यमतिदुस्तरमासंसारमनुसरवासव्येत । तदासनासश्च विस्यमा सच्चेतमादिक तात्विकम्मरकर्सव्यम् । तदव्यतिरिक्तमय वैशर्थ कथं तदपि प्रतिसाचनातम् ? असो वास्तवमेव विकल्पस्य वैशद्यम् । तन तत एव विकल्पचित्प्रतिपत्तिः ।
अन्यत इति चेत् । न तेनाऽपि सद्विकस्पस्य स्वरूपमात्रविषयत्वेनामहात्, २५ सदग्रहले च न "तत्पतिपत्तिः, "अनधिगताधिष्ठानस्य 'वैद्गतप्रतिसक्रमप्रतिपनेरसम्भवान् ।
-पद-मा०,40,40,.२ प्रतिपदं भा०, २०, २०, 80 + ३-पि तत्र , य०, १०, सका ४ सह निर्विकल्पकस्यत्र तत्र विकल्पै । ५ विकल्पस्य । ६ स्वरूपस्य । देशभित्रत्वम् । वैशय. विवेक । ९-स्थाप्यभा-सार, ०१०, स. सदेवमादि-आ०,०,, साशयविकात् । १२ वाचविवेक मिझो। १३ वैशासादरम्यमेव स्थान् । १५ सचेतन्या-स०,ला। १५ त -म०प १७-६पते मा०,१०,५०,स०1 104 यम-त्रा०व०प०1१०-स्थानदी-श्रा०,३२,५०,स.। १९ तवा- । संगलेच भा०,०प०,स.१२० पैशासकान्तिप्रसिपतिः । २॥ तोऽपि भा०,०,५०,०। २२ विकल्पाग्रहणे । २३ वैश्मशान्तिप्रतिपत्तिः । २५ अनादिगता-मा०,०प०स० । २५ तहतत्य प्रतिताः ।
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न्यायधिनिश्चयधिवरण
अप्रतिपन्नशुस्यविष्ठानोऽपि तत्र रजतप्रतिसक्रम प्रतिपदात एवंति चेत् ;न; रजतस्यापतिसाक्रमरूपत्वाद, अनधिष्ठानसयैत्र प्रतिपत्तः । किं तर्हि शुक्तिशकलेन कर्तव्यमिति चेत् ? न किञ्चित् । तदभावेऽपि कुतो न रजतप्रतिभासनर्मिसिं चेम् । भवत्येव यदि 'तत्कारण
सन्निधानम् । विद्याशस्किविरचितस्याशुकिशकलस्यैव तस्यावलोकनात् । न हि तत्र किञ्चि५ दधिष्ठानम् , अप्रतीले कथं तहिं. 'शक्तिशालमेव रूप्यरूपलेवा प्रतिभातम्' इति पश्चात्त्यभिशा
नमिति चेन् ; कः पुनस्तन्छकोलस्य रूपयनविभासेन सम्बन्धी येनैवमुच्यते ? प्रात्यमिति वेत् । न ; स्वरूपेण तदभावात् । पररूपेण तु परस्यैव पाहात्वं न सस्य अतिप्रसङ्घात् । कारणल्यूमिति चेत् । तस्यैव सहि तेन ग्रहणं न "रूप्यस्य । अन्यकृतेनाप्यन्यग्रहणे चक्षुरादिकृतेनैध
"तणमस्तु, पर्याप्तं तच्छकलस्य "सत्कारणत्यकल्पनया । नापि चक्षुरादिना सर्वदा तत्प्रतिमास१० चोदनम् । तच्छकऽपि समानत्वात् । "तस्य विशिष्टत्यैव वढेतुत्वं न तन्मात्रस्येति चेत् ;न; चक्षुरादेरपि कामलाचुरतिपरिप्रहपरीतत्यैव राद्धेनुत्यैन अतिप्रसङ्गपरिहारस्य सुकरस्यात् ।
প্রমু নবমী , অশ্বথা বিলাহান্তিষ্টিৰিবৰ লৰাইহসবিয়ান, तत्र तद्धतोः कस्यचिदधिष्ठानस्याभावात्। विद्याशक्तिरेखाधिशन मिति देत् ;नआकाशे समभाया,
आकाशगतस्य च तदा रजतस्य प्रतिभासन म तन विद्याशक्तिस्तस्या बोधरूपत्वेन पुरमाविष्ठान१५ स्वात्। मन्त्र एव तन्छक्तिः तस्य च त सम्भव एवेति चेत; न ; उस्यापि गुप्रभाषितस्य मुख
विकरमानपर्यवसितत्वेन याहाकाशमतत्वासम्भवात् , अन्यैरपि सन्निहितैस्त छूषणप्रसास , अमोचरस्य सम्भव तस्य शरत्वम्, शब्दस्य श्रोत्रमहालक्षात्वात् । आकाशसेवालोकपरिकलितमधिष्ठानमित्यपि नोपपत्तिपूरितम् । उपरतरूप्यप्रतिभासस्य तथा प्रत्यभिशान
प्रसङ्गात् । न चैवम्, ततो न पराधिष्ठानस्य रजतस्य येन तद्वननधिगदाधिष्ठानस्य विमरपवैशथ२० स्याप्यध्यक्साय: स्यात् । कथं तईि 'शुक्तिशकलमेव रजतरूपतया प्रस्थभासिष्टइति प्रत्यभिज्ञा.
नमिति चेत् ! नसेनापि स्वहेतुदोषोपजनितविभ्रमात्मना ताप्यस्यासत एवं प्रविवेवनान, तविभ्रमस्य च विचारादवगतः । सन्म "निर्विकल्पवेशद्यस्य विकल्प प्रविसडकमा ।
नाऽपि विकल्पधर्मस्य निभयस्याविकरले; तत्प्रतिक्षेपन्यायस्य समानत्वात्। न योरितरतराधिधामप्रतिसक्रमः: स्वाधिष्टानसत्वेनैव तत्प्रतिमासस्य परेशाभ्युपगमाल, सत्कथमे. २५ वाशति पेत् ? किं पुनरेतवनात्मजल्पितम्
__ "मनसोयुगपट्टत्तेः सपिकल्पाविकम्पयोः ।
विमूडो "लघुत्ते तयोरैक्य व्यवस्थति ।।" [अ० वा. २११३३] इति ।
रजतप्रतिभासदेवसानिध्यम् । ३ इन्द्रजालदिविद्या । ३ रजतत्वेन । किशकलाय.। .५ शुक्तिकोण। रनतरूपेण । शुशिकलस्व। 4 रखतप्रतिमासेन । १ प्रणाश आ०, ब०, प., स.. १. सास्थ ता०1११ रजतपदा । १२ रजतप्रतिभासकारणत्य! १३ शुकिशकलस्य । १४ श्राकाशे । शब्दस्य भामाशगुणत्वात् । १५-वै म च तस्य आ०, २०, २०, स. १६ सदनादिपता-श्रा, ५०, १०.स.। १.-स्याप्यन्यबलमा०,०,१०, स.१८ सोऽपि रायप.स १९ -निर्विकल्पका ... प.स.२.निर्विकल्पविकरुपयर्मयो। २१ -विकल्पनि । २२.-सीधपुर।
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- स
रकारमा
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव नन्वनेनापि न तथा तत्प्रतिसक्रमः प्रतिपाद्यते, निर्विकल्येप्तरैकत्वव्यवहारमात्रस्य प्रतिपादनादिति चेत्, का पुनरयं तद्व्यवहारो नाम ? तव्यवसाय इति चोद कथन तथा प्रतिसक्रमो व्यवसीयमानस्य तदेकत्यस्यैव प्रतिसडकमार्थत्वात् । तद्वयनमिति चेत् ; म; 'व्यवस्थति' इति विरोधात् । न च व्यवस्यतीति वक्तीत्यर्थः, शाब्दिकसमयत्यैवमभावात् ।
कुतरे वा तयोरेकत्यत्र्यवहारः ? योगपयादिति चेत् ; नियमचतः, नियमरहिताचा ? ५ नियमवतम्चेत् ; सहोपलम्भनियमात् वास्तवमेव तदेकत्वं नीलतज्ज्ञानवत् , कथं तस्य व्यवहारमात्रसिद्धरत्र सहोफ्लम्भनियमस्यामैकान्तिकरवप्रसङ्गात् ? नियमरहिताश्चेत् ; न; नीलधवलयोरपि प्रसङ्गात् । एकार्थकारित्यादिति चेत् ; क: "पुनरेफोऽर्थः १ प्रवर्त्तनमेव, तथा ए प्रज्ञाकर:-प्रयत्तनस्यैकस्य कार्यस्य भावात्" [प्र० कार्तिकाल० २११३३ ] इति ; तदपि न निरूपितम् ; 'रूपादायपि एसका रदकाहरणाटेरेकम्य कार्यम् तत्रापि भावान ! १० अस्त्येय साधारणशक्तिप्रयुक्तः "तत्राप्येकघटव्यवहार इति चेत् ; विशेषशकिप्रयुक्त एष रूपे रस इति रसे या रूपमिति किन्न भपति सब्बबहार: ? तच्छचोरन्योन्यमभावादिति चेत् । विकल्पाविकल्पयोरपि ताई कथं "विशदनिश्चयव्यवहार: तस्यापि विशेषशक्तिप्रयुकत्वात् ,
तस्याश्च परस्परमसम्भवान् । सम्भवे या न विशेषशक्तिः, तत्प्रयुकस्य "समाहारस्योभयत्राध्यनुपचरिसत्वं भवेत् ।
फुत, पुनर्विकल्येतरयोर्योगपथम् , अयोगपचे सहकारित्वाभाधेनैकप्रवृत्तिकारित्यानुपपरिसि ? अत्र परस्य वचनाम् “युगपद्विषयसन्निधानादेव" [प्र. बार्तिकाल० २११३३] इति । तदेवनातीय चतुरस्रम् ; विकल्पस्यापि वस्तुतः एष स्पष्टत्यप्रसङ्गात् सन्निहितविषय. स्वान , दर्शनस्यापि तत एव स्वाथ्यात् । अत एव "देवस्य वचनम्-"स्पष्टं सन्निहितार्थत्वात्" । [प्रमाणसं० श्लोक ४] इति । नास्त्येव विकल्पस्य विषय इति चेत् । न ; २० 'युगपत्' इत्यादिस्ववचनस्य व्याधातप्रसङ्गात् । न झसतो “युगपदन्यथा वा सत्रिधान सम्भवति । कल्पितोऽस्त्येव "सविपयो न यस्तुयलागत इति चेत्, केन तत्कल्पनम् । तेनैव विकरूपेनेति चेत् । तस्यैव दुतः सम्भवः ततोरभावात ? तद्विषय सन्निधानं वहेतुश्चेत् ; वदपि कुतः १ तस्मादेव बिकल्पादिति चेत् ; न ; परस्पराश्यदोषस्य "सुव्यक्तस्थान । अन्येन
सकल्पनं चेत् ; तेनापि दर्शनविषयेण समसमयस्यैव तस्य कल्पने न युगपद्विषयसविधानम् । २५ सत्समसमयस्य कल्पने न तस्यापि दर्शनयोगपयम् । युगपतिपयसग्निधानादचतु को दोष इति
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तवा सत्प्र-त्रा०, २०, ५०,२०१२ निर्विकल्पतरैकत्वस्यैव । ३ निर्विकोतस्योः । १ चेन नियममा०, २०,०,801 ५ एकत्रस्य । ६ -मात्रासि श्रा०,०,५०,...पुमरेकार्थः स०। ८-नैकस्य स५ रूपरसादायपि । १. रूपाझवधि । " विकल्यै विशदश्यपहारः निर्विकले निश्चयव्यवहार इति । १२ विरोधाः । ५ विकल्पे विशदन्यवहतस्य निर्विकली च निश्चय प्रवहारस्य मुख्यत्वमेव स्यानारोपित्वमिति भावः । १४ प्रशाकरगुतस १५ भिहितविषमलादेव । ११ अकलकस्य । १७ -बनव्या-- श्रा०,०,५०,०। १८ युगपद्यथा क मा०,०,५०,801 ११ विकल्पविषयः । २० अति विपक्सभिधाने विकल्पोत्पत्तिा, सति च विकल्प तहिषयसविधानमिति 1 २१ विकल्पनियकल्पनम् । २२ विकल्पविषयस्य ।
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३
म्यापविभिश्चयधिधरणे चेत् । 'तस्यैव कुतः सम्भवः' इत्यादगुबन्धादन्योन्यसंश्रयस्य अत्रापि सुपरिटस्वात् । पुनरल्येन तत्कल्पनायामनयस्थापत्तिः ।
सन्धिदमेव सस्य फल्पनं नाम यचनिर्भासितया विकल्पोत्पाद इस येत्; कुतस्तदुत्पादः ? वासनानलाञ्चेतू ; कुतस्तस्य' दर्शनयोगपद्यम् ! 'तत एदेति चेत् ; न; ५ पुनरपि 'युपत्' इत्यादिस्ववचनविरोधात् ।
किच, कः पुनर्विकल्पः, को वा सस्य विषयः ? गौरिति परामरे विकल्पः, सस्य "गकारादिपिय इति चेन् ; न ; 'तस्य समस्तस्यैकविकल्पवेदात्वायोगात् , क्रमभाषित्वात् । विकल्पोऽपि क्रममाव्येक एवेति चेत् ; न; क्रमबत्वे विषयवदेकत्वायोगात्, अन्यथा
झयानित्यतया लढयरनित्यरथव्यवस्थापन परस्याप्रेक्षायत्त्वमुपक्षिपति । व्यस्त एव से तद्विषय १० इति चेत् ; ब; प्रतिवर्ण विकल्पमेवप्रसङ्गान् । अस्त्येव तथा तझेदः, तथा च परस्य वचनम्
"गकारादिवर्णविकल्यानामपि ऋणोदयमासादयतामेकस्वाभावः” [प्र. कार्तिकाल. २११३३ ] इति; तदिदमसम्यहम् ; एकत्वाच्यवसायस्यैवसभावप्रसङ्गात्"., सदधिष्ठानस्य गौरत्येकस्य विकल्पस्याभायान् । अ (गः) इस्यरतोति पेत् ; न;"अयं गः' इति तदध्यवसाय.
स्थानसिखो व्यवहारप्रसिद्धस्य च तस्येदमुपायपरिचिन्तनम् । नच गई इत्यप्येऋविकल्प१५ सम्भवः, गकारस्याप्यमा त्रिकस्यानेकाक्षणक्रमभाषिन एकस्वानुपपत्तौ तोचर विफल्पानेकत्वरापि सुप्रसिद्धस्यात् । न च निरंशतद्भागविकल्पः शक्यनिरूपणः । एवमौकारादावपीरयभाव एवं विकल्पस्यापतितः । सोऽयं अभमिच्छतो मूलकछेद:-सतो विकल्पस्य पर्शनेकपाध्यवसायमुपपादयितुमुपकान्तेन तदभावस्यैवोपपादनात् । गकारभागेष्वेक एव विकल्प इति चेत्;
गफारादिवर्णेश्वप्येक एव स्यादिति दुाहसमेतत्-"गकारादिवर्थविकल्यानामपि" इत्यादि वस्तु२० वृत्तिपालोचन्या “तदुक्तं संवृत्या तु स एवामित्येकत्वकल्पनया सदेवत्वं न निधार्यते इति
चेत् ; मनु वस्तुस्तिपालोचनाया त एव "विकल्या न सम्भस्तीति प्रतिपादितम्, तत्कथं तेष "क्रमेणोश्ययत्वमान्यदा सम्भवति ? सम्भयतामपि "तेषां स्वसंविदितत्वात् परिस्फुटे भेदवेदने तदैव कथं वकत्वप्रायभिज्ञानविनमः ? तत्वसंवेदनस्यानिर्णयरूपत्वेन "तद्गृहीतस्यापि तद्भ दस्याऽगृहीतकल्पत्वादिति चेत; न; "नहि दृश्यस्य भेदेन तदै वैकस्यविभ्रमः" [प्र. वार्तिकाल० २२५४ ] इति स्ववचनोपद्रवापत्तेः ।
"अनेन दर्शनविषय एका (क) निश्चिते भेदे सदैवस्वविभ्रमस्य प्रतिक्षेपात्
विकल्पविषयलास्किल्पस्य । विकल्पादन ४ गती हि निस्किरपेतरयोरैकय न युगपद्विषमसमिधामल किन्तु विकल्पालकम् । ५ गहरादेवि-श,२०, ५०,०। ६ मकरादेः। यानित्यतया
स्याऽधौमत्..."- 10311014 सौगलस्य। ९ मकारादिः १० प्रतिवणम् । 11-माधि-मो.०, ५०,०। १२ एकत्वाध्यवसावाधारभूतस्य । १३यादिस्वस्ती-मा,ब०,२०,स.1 ११ अयमिति भाव। १५ च इत्य-ता। श्यध्यनिकरुपमा०, २०, ५०, ०१ १५-मात्रेक-80०, ०, ५०,०16 गकार दिवधिकरूपानामिरमादि वाक्य फपित्तम् । ११ विकल्पमा नमा, १०,१०,स.1 २० कमेकादयत्व-म०, च०, १०, ०।२१ विकल्पानाम् । २२ स्वसनदनगृहीतस्वापि । २३ विकल्पभेदस्व । २१ वचनैन ।
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११३]
ग्राम
प्रस्तावः
अतत्परमेव' एतचनम् , न हि सर्वमेव पचनं स्वप्रसिपाद्यवस्तुवत्परमेव, अतत्परस्यापि अतिवादि चिक्तव्याकुलीकरणबुद्धया प्रयोगसम्भवादिति चेत् ; नैतन्न्याव्यम् ; विकल्पम विकल्पान्तरादिवत् निर्विकल्पादपि भवस्यागृहीतकल्पत्यप्रसङ्गात् , तद्भेदस्याप्यमिलापानमिलायवत्व. लक्षणाय स्वसंवेदनादेवानिर्णयस्वभावात्प्रतिपसिप्रतिज्ञानात् । अभिमतमेवेदं परस्य तंबाकाय. विभ्रमस्याभ्यनुज्ञानादिति चेत् । कमिदानीम्
"प्रत्यक्ष कल्पनापोह प्रत्यक्षेणय सिद्ध्यति ।
प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकन्पो नामसंश्रयः॥” [प्र. वा० २।१२३ ] इत्येतदनवसर नभयेन हि यदीतमगृहीतकल्पमेव वदेव परप्रतिपत्त्यस्येन प्रेक्षावद्भिरुपक्षिप्यते। तन्नेदमभिहितार्थसत्परं न भवति वचनम अतिप्रसङ्गात् । स्वसंवेदमसिद्धस्यापि विकस्पेसरभेदस्य (स्था) सिद्धल्वे कथं तत्रैकत्वाध्यवसाय: निर्विवादस्य सिद्धत्वात् , वन च तदनुपपत्तरिति १० प्लेस ; अयमपरः परस्यैव दोषोऽस्तु, पौपिय॑मनालोच्य वचनात् ।
अपि च, गकारादिविकल्पानाम् एकत्यप्रत्यभिज्ञानमपि 'य एवं गकार विकल्पः स एवौकारादिविकल्पः' इत्युदयमासादयदपरापरपरामर्शरूपरवान् न नानात्वेन निर्मुच्यते, तत्कथं तदन्यव्यवस्थितैकत्वस्वभावं गकारादिविकल्पानामेकायमध्यारोपयितुमर्हति १ तथापि प्रत्यभिज्ञानादन्यस्मात् एकस्वाध्यारोपपरिकल्पनायाम् अनवस्थाप्रसङ्गात् । तन्न गौरित्ययभेको १५ विकल्पः, कथमस्य दर्शनकत्याध्यबसाया, स्वयमविद्यमानस्य तदयोगा !
सत्यम्; न वस्तुवृपया विकल्पसम्भवः, संवृत्यैव तरसम्भवात् । न च तस्य विचारसूचीमुखनिपातेन निर्लोपनमुपपन्नम्। सकलल्यवहार क्लिोपप्रसङ्गात् , विकल्पाधीनत्वात्सर्वस्थापि लोकलयवहारस्य । तस्मादविचारितरम्यसमाव एव विकल्प इति चेन्; ; दर्शनात्तद्व्यतिरेकस्यापि तेधावप्रसङ्गात् । न हि धर्मिणो विकल्पस्याविचारक्षमत्वे तद्धर्मस्य दर्शनव्यति-.. रेक स्थ विचारक्षमत्वम् । मा भूदिति चेत् ; कथमिदानी" भावतो" दर्शनस्य निर्विकल्पकस्थम् ? तदप्यविचारक्षममेवेति चेत् । सविकल्पस्वं सहि वस्य भाविकं भवेत् । तदप्यभाविकमेव दर्शनात्तव्यतिरेकस्यापि सद्व्यतिरेकवदभाविकत्वादिति चेत् ; ""विकल्पेतरविभागविनिर्मुक्त तर्हि भावतः प्रत्यक्षमिति तथैव दलक्षणमभिघासस्यम्, तत्कदमुक्तम् "प्रत्यक्ष कल्पनाशेदम् [प्रवा. २।१२३ ] इति । स्वत एव प्रत्यक्षस्याविकरूपत्वं न विकल्पव्यतिरेका । न हि स्वत. एका विद्यमान "तव्यतिरेकाहपति, विकल्पासरस्यापि प्रसङ्गादिति चेत् ;न समीचीनमेतत् ;यस्मात्
सविकरूपत्वमप्येवं स्वतः कस्मान कल्प्यते ।
वस्यापि "यस्थतोऽसत्त्वे परतोऽपि न सम्भवः ॥२८३॥
-पखाद-श्रा, 40, 4, सार-वियतम्या-आर,प.स. ३ तदमेश्मा-ता० । मिर्थिकरतांवकल्पमेदस्या "सर्वचित्तत्तानामात्मसंधेषमस्व प्रत्यक्षाचा"-वार्तिकाल०२।२४५५निर्विकासनिकल्यायो। 1-पाये लि-बा०,१०,१०, स०। ७ इत्याचयमा-आ०, म,०, स.। ८ समृलविकल्पस्य । ९विशराक्षमत्वसशात् ।५-ऋविचार-. "-नीमभाव-आ०,२०,०स० । १२ वस्तुतः । १३. सविकल्पकत्वं मा०, 40,10,8011४ विकल्पवमपि। १५विकल्पे तरभाग-१०।१६-सत्वन्य-भा०,१०,५०,स.. १७ विकल्पम्यतिरेकात् । यत्सतोऽस्य वा०, प.प., स.1
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भ्यायविनिश्चयचिवरणे
११३ न तथा तत्प्रतीतिश्यन्वथा सा कुचो भयेन् ? । खत एवेति चेत् चैवम्; विवादस्यायलोकनात् ।।२८४॥ स्वत्त एवाषिकरूपत्वं यदि वैस्य प्रसिद्धयति । विवदन्ते कथं तस्मिन्यथास्यं तीथिकाः परे ॥२८५|| प्रसिद्धेऽपि विवादश्यत् स चुतस्वहि लुप्यताम् । प्रसिद्धत्वाम् ; न तस्यान्यदस्ति निलुप्तिकारणम् १२८६।। अन्यतश्चेदकल्पं तादि तन्त्र विवादतः । तदेवासिद्धमन्यस्य कथं सिद्धिनिबन्धनम् ।।२८७॥ तस्यापि सिद्धिरन्यस्मादि कल्प्येत ताशात् । भनन्तमानवस्थाख्या न मुम्बेदमङ्गला ॥२८८॥ अन्यद्विकल्प चेन्न; सुश्वतस्तदसम्भवात् । कल्पितात्तु कथं तस्मात्कस्यचित्सिद्धिराजसी ॥२८९॥ अन्यथा कल्पनासिद्धपावकान्माणवादपि । करमादोषमणकादिस्वस्थतो न भवत्वयम् ॥२९॥ कल्पितोऽपि विकल्पश्चेत्तत्वसविसये तदा । प्रत्यक्षे सविकल्पयंसितिः किन्न ततो भयेन ॥२९१।। सोऽपि तत्र न घेदस्ति; कस्य न ? व्यवहारिणः । तन; 'मूढस्तयोरैक्य व्यवस्यति' अयं बाधनात् ।।२९२॥ व्याख्यातुनास्ति नेसू ; कमान ? कल्पनादोपनिहवात् ।
अविकल्पत्वमप्येवं स" कुतः प्रतियुश्यसाम् ? ॥२९३॥
यदि प्रत्यक्षस्याक्किल्पत्वं स्वत एव; सविकल्पत्वमपि स्यात् । न हि सदपि स्वत एवाविद्यमानम् अन्यतः फुतश्चित्सम्भवति "व्यवसायात्मकं ज्ञान प्रत्यक्ष स्वत एव न" [ ] इति वचनाच । सविकल्पकत्वं न कुतश्चिदपि प्रतीयत इति चेत् ; निर्विकल्प
स्वस्य कुतः प्रतीतिः । स्वत एवेति घेन्; न; अन्यत्रापि समत्वात्, विवादावलोकनाच्च | यदि २५ प्रत्यक्षस्य खत एघाविकरूपत्वं प्रतियन्ति प्रतिपत्तारः, कुतस्तहि तत्र विषादमारयन्ति ? नहि. ...
प्रतिपत्तिविषय एष विप्रतिपत्तिभूमिा; विरोधात् । अस्ति च त्रिप्रतिपति:--"केचित्प्रत्यक्ष निर्वकरएकनिति । अपर सविकल्पकमिति । अन्ये सर्वविकल्पव्यपेतमिति । न व प्रसिद्ध एव विमादे। विवानिवृत्तिः सम्भवतिः प्रसिद्धिव्यतिरेकेण सन्नित्तिष्टेतोरभावात् । तन स्वतस्तत्प्रतिपतिः ।
प्रत्यक्षस्य । ३ विचारश्वेत् आ०, २०, ५०, स.। तदेव सि-तर -दिस्ततो भा०, ब०, ५०,स। ५ - श्वेत्तरस्वसदि--80०,१०,५०,०-वं सि-पा०, २०, ५०, स. । ७ सत्र 16 प्र.का. २०३३। ९ व्याख्यातुंना-०, २०, १०,०।1. व्यायासा । प्रतिभा, २०, १०, १२ सैद्धाः । १३ शब्दवादिनः । १४ झवादिनः । १५ प्रत्यक्षस्य विकल्पत्वप्रतिषतिः।
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१३ ]
प्रथमः प्रत्यक्षस्ताक
२३
1
अन्यतश्चेत्; न; तस्यापि निर्विकल्पत्ये विवादास्परत्वेन स्वयमेवासिद्धत्वात् । नरसिद्धमन्यसिद्धिनिबन्धनम् ; अतिप्रसङ्गात् । तस्यापि सिविरम्यस्मा निर्विकरूपादिति चेत्; भक्तो दुस्थानच निपातप्रसङ्गात् । अन्यतो विकल्पादेव उत्सिद्धिरिति ये न वस्तुवृत्त्या तदभावात् । कल्पितातु न संतस्तान्त्रिकस्याविकल्पत्वस्य सिद्धिः । न ग्रुपप्लुतादुपायाद अनुपलुमफलावाप्तिः, अन्यथा कल्पितादपि माणवकपावकात्तात्त्विकमेवादन- ५ पाकादिकं भवेत् । सविकल्पत्वमपि प्रत्यक्षस्यै तात्त्विकं तत एव सिद्धयेत् । नास्त्येव वाशोऽपि विकल्पस्तत्रेति चेत्; कस्यासौ नास्ति ? व्यवहारिण इति चेत्; न; "विमूढेो लघुवृतेर्वा तयोरैक्यं व्यवस्यति" [ १० वा० २।१३३] इत्यस्य विरोत् । अनेन प्रत्यक्ष स कल्पत्वाध्यवसायस्य व्यवहारिषु प्रदर्शनात । व्याख्यातुरिति चेत्; युत एतत् ? तस्यासकल्पनाव्यापारोप प्रत्यस्त्यमयादिति चेत्; सर्हि स कुतः प्रत्यक्षस्य निर्विकल्पत्वमपि प्रतिपद्येत इति १० महानयं परस्य विपविचारगर्त्तानपातः । तन स्वत एव प्रत्यक्षस्याविकल्पत्वम्, अपि तु विक ल्पव्यतिरेकादेव । न धावस्तुसतो विकल्पात् वस्तुसव्यतिरेकः, ततो वस्तुसम्मेव विकल्पः । बोक्या नीत्या न सम्भवतीति कस्य दर्शनैकत्वपरिकल्पनं परैः प्रतन्यताम् ? तारिकल्पन हेतोरेकप्रवर्तन कार्यकारित्वस्य भागाश्रयासिद्धत्वात् । कथं भागाश्रयासिद्धत्वं स्याद्वाद सिद्धस्यैयाभिधानात् ईश्वरनिरपेक्षतया व्यवसायात्मनो विकरूपस्य एकप्रवृत्तिकार्यकारित्वादिति चेत् ? न : १५ तथापि " "तदसिद्धत्वस्याविचलनात् तद्विकल्पादम्यस्य "दर्शनश्याभावात् पुरोवर्तिनैकाकारस्तम्भादिप्रतिभासो हि उद्विकल्पः न च तस्मादपरं दर्शनं प्रतीतिपथोपस्थितमस्ति निरंशपरमास्वलक्षणाकारस्य पराभिमतस्य तस्य स्वप्नेऽपि परिस्फुटप्रत्ययविषयत्वानवलोकनात् ।
भागतः स्वरूपासिद्धचार्य हेतु तथा हि कदा पुनर्विकल्पस्य प्रवर्त्तकम् ? अभ्यासे इति चेत्; न; वक्ष दर्शनस्यैव "तदङ्गीकाराम्, “विकल्पमन्यरेणापि त्वभ्यासात्प्रवर्त्तते” २० [प्र० वार्तिकाल ११४ ] इति वचनात् । अपिशब्दात् 'विकल्पादपि प्रवर्तते इत्यस्य समुचय इति चेत्; न; तस्यैव मैदम्पर्याभावात् ततो "हेघोरादेव विषये धीरेव पूर्विका प्रवर्त्तनात्प्रमाणम्” [ प्र० वार्तिकाल० ११४ ] इत्युत्तरफ किकाविरोधात् तथा दर्शन एव प्रवर्त्तकत्वस्यावधारणात् । अत एवैवकारस्य व्यावमाह, "न विकल्पादयः " [ प्र० वार्ति० ११४ ] इति । अनभ्यास इति वेन्; न; तदानीमनुमानस्यैव प्रवर्त्तकत्वात् । विकल्पा"सतोऽपि तत्रैवान्तर्भावाभ्यनुज्ञानात्, "यत्र तु नाभ्यासस्तत्रानुमानमेव प्रत्यभिशादय:" [ प्र० वार्तिकाल० ११४ ] इति वचनात् । अनुमानस्यैव वा दर्शनेन सहैकप्रम
न्तरस्य
1विका । २ - स्याता--आ०, ब०, प०, स०
पत्रिकल्पादेव १४ रुपि । - हारेषु आ०, ब०, प०, स० । ६ किया आ०, ब०, प०, स० ७ भावाश्रय-आ०, ब० स० विकल्पेसरोरेकत्वम् एकप्रवर्तन कार्यकारिका इत्यत्र विकल्पस्यासिद्धस्वरूपकात् भागाNयासिद्धम् । ८ इतरमिरपेक्षितयाध्यव--आ० अ०, प०, स०स्यैव प्रभु आ०, ब०, प०, स० १० स्थानादिसिद्धविकल्पस्व एकप्रकार्यकारिनपि ११ भागाश्रयासिद्धत्वस्य । १२ निर्विकल्पस्य । १३ दर्शनस्य । १४ प्रवर्तकत्वस्वीकारात् । १५ अपि ज्याभ्यासात् प्र०धाविंकाळ० । १६ उत्तरकक्षिकया। १७ ततोऽपि ० १८ अनभ्यासे ।
२५
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ज्यायधिनिश्चयविवरण
[१३ नकार्यकारियमिति : २: निम्य वेद प्रवर्तकल्यानभीष्टः पिनियत , अनुमानवैफल्यप्रसमात । केवलमप्रतात. दर्शनभनुमानसष्टितं ? प्रयतीकामति येत; म; माणसम्भषस्यासग्मतत्वान । नन्न एकावर्तनकार्यकारि हतुः; अमित्यात । तदय प्रदेशान्तरे विकल्पस्य प्रवर्नत्यं प्रनिषिश्य पुनरत्यत्रा युगच्छम् स्वयाचैत्र खचरितं विडम्बयनीति कथमनुस्मत्त , प्रज्ञाकर: ? तन्नेदं विकम्पे बैशामुपचरितं तनिबन्धनाभाशत् ।
कि वहि ? यस्तुभूतमेव । कुन्त एतन् ! अनुपचरितस्वे सति वेद्यमानत्वात् सबन्यखपवन । अन्नसायदेमानुपचरितत्वमुक्तम, पेश्वभागस्यं तु केनेति चेत् ? न ; आत्मवेदनपदेन तस्याप्युनस्यात् । तस्यमत्र प्रयोगः-तारिवकं सविकल्पकप्रत्यक्षस्य वैशयाम् , 'उपचारकिरहे सति
स्वानुभवगोचरत्वात् , तदपराकारवदिति । न चेदमाश्रयासिद्धं, साधनमः । प्रत्यक्ष वैशवस्य स्वसंवे१० दनप्रत्यक्षसिदत्वात् । अत एव न स्वरूपासिद्धम् । नापि विरुद्धम ; अंसति उपपरिते च बैशने
यथोकस्य साधनम्यासम्भवान् । अत एव च व्यभिचारवत । तस्मादसिद्धत्याविमलविकलत्याद भवत्येत्र अनन्तत्प्रत्यक्षम्य तात्त्विकी वैशामिद्धिः ।
अथ द इजद स्वररनेटमयेसिप्रतिपत्तेः । न मनमानादन्यात शक्यनिवननेति तदेव वक्तव्यम । तरुचेदमेव-विशदमेव प्रत्यक्ष प्रमाणद्वितवान्यथाऽनुपपत्तेः । प्रत्यक्ष परोक्षमिति १५ हि प्रमाणद्वितयं प्रमागोपपन्नतया प्रत्याय्यमानमनुपपन्नमेव भवति यदि प्रत्यक्षमप्यविश्वमेव,
परोक्षस्यैव प्रमाणस्य व्यवस्थितेः अौशयस्य सालझणत्याम् ; म दैवम् , सप्तो विशदमेव प्रत्यारमिति सत्रे विचार्यने- प्रमाणस्वरूपठयतिरिक्त तन्नित्यम् असम्प्रतिपसेः प्रमाणस्य च स्वरूप प्रत्यवत्वपरोधस्थे । तयो यदि प्रत्येक तत्साधनत्वम् , उमयोपादानमपार्थकमिति कथमकिद्धि
करत्वं नाम म साधनदोषः ? समुदितयोस्तत्साधनवे प्रत्यक्षमेवेंक प्रमाणे प्रार्म तहक्षणस्यैव २० त्रैमास्य तत्समुगायेन साधनात्, न परोक्षं तल्लणसाधनोपायाभावादिति बिरुद्धो हेतुः, -
विरुद्धसाधनात् । इष्ट हि प्रमाणद्विरवं तद्विरुद्धं चैकप्रमाणत्वम् , सत्साधने च सष्टमेवेष्टविरुद्धसाधनत्यं तस्य । परोक्षप्रमाणावैशधसाधनेऽप्वग्रमेय हेतुरिति चेत् ; कथमेचे प्रत्यक्षवैशासाधने परोक्षाशचन तत्साधने व "चरपरेण व्यभिचारवत्त्व हेतो भवेत् ? अथ वैशमवैशवं का
न प्रत्येक सत्समुदायलाध्यम् , अपितु समुक्तिमेव वदयमदोष इति चेत् । तदत्येकाधिकरणम् , २५ भिन्नाविकरण वा स्यात् ? एकाधिकरणं चेन तदात्मकमेकमेव प्रमाणमिति न प्रमाणद्वयसिद्धि",
अतो हेतुविद्धप्रतिज्ञार्थ: स्वान् । मिनाधिकरणमिति चेत् । किं कस्याधिकरणम् । प्रत्यक्षमेव
अनौ । २ नाशिरभ्या-मा०,०, प०, सइ एकस्मिन् प्रमेये बना प्रमाणाना प्रवृत्तिा प्रमाणसम्ब रमते हि " प्रवक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्वस्य सम्भवः । तस्मात् प्रमेयद्वित्वेन प्रमाणद्विष्वमिण्यते॥" [प्र.पा. २१६३ इतकाचा प्रमाणज्यमस्वैन न दु सम्प्लदः । सणिकत्वास पदार्थानां नैकत्राथै बहुप्रमाणामां व्यापारः । अान्यम्- धार्मिका २१११२३ ४ हेतोसम-सा0। ५ विकर पकायक्ष १ असदुप-- अायुप-अ,०, स। विप्रतिपतिः। 6-याद्वितीक्षा-
भाच०, १०, ०1 ९ लापरीक्षप्रमाणशय -भा, व १०.स. प्रत्यक्षपानि । 11-सिद्धरतो हेतुविरुद्धार्थ: आ०,१०, प.स."
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१३]
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव वैशयस्य परोक्षमेव यार. त्येति मेद, सविस्ययः इस मजति वा भिन्नाधिकरणत्वाविरोधात् । लोकव्यवहाराद्विपर्ययनियुत्तिा, लोको हि प्रत्यक्षादिकमेव वैशद्यावेरधिकरण प्रत्येति न परोक्षादिकम् , लोकप्रसिद्धस्य चेदं प्रत्यक्षादेर्षिप्रतिपतिव्यवच्छेदाय लक्षणकयनमिति चेत् ; लोकस्यापि कुतोऽधिकरणनियमप्रतिपत्तिः । प्रत्यक्षादिति चेत् ; अलमनुमानेन वैशयधर्मस्यापि तर्ते एक प्रतिपत्तेः । न अप्रतिपन्नवधर्म प्रत्यक्षं तदपेनमधिकरणनियम प्रत्येतुमर्हति । तेनिय. ५ मप्रतिपसिरनुमानान्तरादित्यप्यनेन प्रत्युक्तम् । सन्नदम्मुमानं प्रत्यक्षवेशवप्रत्यक्वोधनसमर्थम् ।
इदं हि तर्हि स्यातू प्रत्यक्षं विशदज्ञानात्मकम् , प्रत्यक्षत्वात्, यद्विशदज्ञानात्मकं न भवति न तत्प्रत्यक्षम् क्था अनुमानादिज्ञानम्, प्रत्यक्षं च विवादास्पदीभूतम् , सस्माद्विशदज्ञानात्मकमिति चेन्; अत्रापि किमिदं प्रत्यक्षत्वं नाम यत्साधनखेनोपन्यस्तम् ? प्रत्यक्षशब्दस्य व्युत्पत्सिनिमितमिति चेत् ; तप किम् ? इन्द्रियानिसत्वमेव, अक्षाणीन्द्रियाणि १० तादि प्रतिगतं तत्कार्यस्येन तदाश्रितं प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तिविधानादिति चेन् ; न, हेत्तोर्मागासिद्धवप्रसङ्गात्, अनिन्द्रियप्रत्यक्षे अतीन्द्रियप्रत्यक्षे चाऽभावात्, तदुभयप्रत्यक्षसझायस्थ ५ प्रतिपादनात् ।
__ आत्माश्रितत्वं प्रत्यक्षरयम , अश्नुते स्वं परं च विषयत्वेन ब्याप्नोत्तीत्यक्ष आत्मा तं प्रतिगतं प्रत्यक्षमिति ध्युत्पादनादिति चेत् ; न ; स्मरणादेरपि प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् आत्मा- १५ श्रितत्वाविशेषषत् । तथा च तस्यापि वैशधम् , अन्यथा हेतोरनेकान्तिकस्यप्रसङ्गादिति नेदानी वैधष्टान्तो यतः केवलयतिरेकि साधनस्य प्रत्यक्षवैशयव्यवस्थापनपरस्य सम्भवः। अक्षमेव प्रतिगतं प्रत्यक्षं न स्मरणादिकं तथाविधम् , अन्यस्यापि संस्कारप्रबोधकादेरपेक्षणात् , ततः परापेक्षप्पात्परोक्षमेव तदिति चेत् । न तहीन्द्रिवज्ञानम् "अचमहादिधारणापर्यन्तं प्रत्यक्षम् , आत्मध्यतिरेकिणः श्रोत्रादेरपि नापेक्षणात् । श्रोत्रादेरपि आवरणक्षयोपशमविशेषाकान्तजीय- १० प्रदेशविशेषत्वान्न तदपेक्षणपरापेक्षणमिति चेत् ; नसत्स्वभावभायेन्द्रियध द्रव्येन्द्रियस्थापि निर्वृत्त्युपकरणरूपस्यापेक्षणात् तस्य चारमपरत्वेन प्रसिद्धत्वात् । आवेन्द्रियस्थैव साक्षाएपेक्षणं न द्रव्येन्द्रियस्य, सत्यपि ससिम अन्तरङ्गशक्तिवैकल्ये "शब्दादिसंवेदनाभावात् , तदवैकल्ये पुनरसत्यपि तद्व्यापारे स्वानादी सत्यशब्दादिसंवेदनसम्भवात् । केवलम् उपकरणप्रदेशपर्यवसितत्वाद् भावेन्द्रियस्य साक्षात्तदपेक्षात् , तदपेक्षमपीन्द्रियज्ञानमुपकरणापेक्षमिय लक्ष्यमाणं प्रत्या- २५ ससिनिबद्धोपचार परोक्षव्यपदेशमासादयति । अत एष गवाक्षसमानत्वप्रसिद्धिरिन्द्रियाणामिति चेत् ; भवतु कथमपि परापेक्षणात् परोक्षत्वम् , तथापि साबधारणस्यामप्रतिगमनस्य विघटना
-..------- - - विवऽमि 1 समादि मिला, ब०, ५०, स०।२-स्येदं आ०,०, प०१३-तिः अप्र-आग, २०, ५०,०। ४ प्रबहादेव । ५ अधिकरणनियम। ६-वै-०, २०,१०, स० । ७ "विगतमाश्रितमक्षम्"."-न्यायधिवटी पु.। मोति व्याग्नोति जानाति भक्ष आत्मक्षयोपशमः प्रणरणो बर, तमेष प्रतिनिरनं प्रत्यक्षमिति ।" राजवा. १११३ ५ को साथ-REO, १०, स. १. अर. गणादि-सा ११ आमदासन निति गोलकादिः, उपकरणच अक्षिपरमादि। १३ व्यन्दियस्था जलस्पस्य । १५ भास्वमिनादेन । १५ शब्दादे सं-सा .,२०,०11९ उपकरणापेक्षयात् । १७ स्थिन्धोप-आ, ०.५०, स।
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न्यायविनिश्चय विवरणे दसिद्धमेयेन्द्रियझानस्य प्रत्यक्षल्यम् , अन्यथा स्मरणादीनामपि न सविघटन भवेत् । तैरप्यन्तरणशक्तिसाकस्यस्यैव साक्षादपेक्षमा बहिरङ्गापेक्षणस्योक्तन्यायेनोपचरितत्वोपपसे । भवतु परोक्षमेवावग्रहादिकमिति चेत् ; ने ; तस्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वकथनविरोधात् । औपचारिफ तस्य प्रत्यक्ष
त्वमिति चेत् ; किमुपचार निबन्धनम ? वैश्यामिति थेन ; सदपि कसः १ प्रत्यक्षत्वाचेत् ; म; ५ परस्पराश्रयान-वैशयास्प्रत्यक्षस्थम् , ततोऽपि वैशामिति । तद्वैशयं ससंवेदनासिमिति चेम् ; पर्याप्तमनुमानेन, तस्यापि "सस्साशनार्थत्वात् , सिद्धस्य च साधनासम्भवात् । अवध्यादिज्ञानवैशद्यसाधनामनुमानम् इन्द्रियज्ञानवैभवस्य स्वसंवेदनादेव सिद्धत्वादिति चेत् । न ; अस्यहेसो रचयित्यस्यापि प्रसङ्गात् , इन्द्रियुज्ञाने वैशद्यान्वितस्य प्रत्यक्षत्वस्व प्रतीतेः, तथा च कथ
मयं केवलयतिरेकी हेतुरक्तः ? न 'याध्यादिक्षान_शोऽपि अनुमानमर्थवत् ; सस्यापि स्वसं. १. वेदनसिद्धत्वाविशेषात् । तन्न व्युत्पतिविमित्तं प्रत्यक्षत्वम् ।।
अथ व्युत्पत्तिनिमिसेनैकार्थसमवेतमन्यदेष प्रतिनिमितं प्रत्यक्षत्वम् , तच सर्वप्रत्यक्षव्यक्तिसाधारणमिति न भाग्यसिद्धत्वं साधनस्येति ; किं सस्य सतो रूपं न वक्तव्यम् ?
आवरणविगमविशेष इति चेन् ; म ; तस्य नीरूपस्याभावात् । नीलादिप्रतिभासविशेष एव स
इति चेत् ; ; वैशवस्यैव तद्रूपत्वात् , सदन्यस्य विचारासहत्वात् । तदेव भवस्विति १५ चेत् न, साध्यस्यैव हेतुत्यप्रसङ्गात् प्रत्यक्षस्वदेशद्यशब्दयोरेकार्थत्वात् । 'प्रत्यक्षत्वात्
विशदत्वेन प्रविभासनात् , विशदज्ञानात्मकम् तदात्मक व्यवहसम्यम्' इति हेतुप्रतिक्षथोरर्थ इति चेत् ; सिद्धं नः समीहितम् ,"अस्मत्प्रयोगस्यैवानया भल्या प्रसिपादनात् । म पात्रापि केवलव्यतिरेकिवं हेतोः ; नीलादेस्तत्वेनावभासमानस्य सद्व्यवहारविषयत्वेन प्रसिद्धस्य
साधर्म्यदृष्टान्तवान् । ननु यदि वैशयमेन प्रत्यक्षत्वम्, वस्येन्द्रियज्ञानेऽपि तत्त्वत एवं भावात् मुख्य२० मेव तस्पापि प्रत्यक्षस्वं तरकथं तस्य सांव्यहारिकत्वम ? यत इदं शास्त्रकारस्य वचनं शोभेत
"प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारत" [लपी० श्लो. ३]
इति चेस् ; न; 'सूत्रकारमतत्य व्यवहारस्य चानुसरणेम सधा धमनात् । तथा हिसूत्रकारस्य यत्परिस्फुटमात्ममात्रापेक्षं च तदेव प्रत्यक्षम्, इदं तु पुनरिन्द्रिवज्ञान परिस्फुटमपि मात्ममात्रापेक्षं तदन्यस्येन्द्रियस्याप्यपेक्षणात् । अत एकाहनिकलतया परोक्षमेवेति मतम् । ततस्तन्मतानुसरणेन अवध्यादिज्ञानस्य समयलक्षणतया प्रत्यक्षस्वप्रतिपादनार्थ मुख्यमहणम् । इन्द्रियज्ञानमपि व्यवहारे" वैशयमात्रेण प्रत्यक्षं प्रसिद्धम् , अतस्तदनुसारेण तत्प्रत्याभवन मुख्यत इति झापनार्धं संध्यवहारपदोपादानम् । मुख्यतया हि तत्प्रत्यक्षत्ववर्णने सूत्रविरोधः स्यात् तत्र तस्य यरोक्षत्यकथनात्, तबरे न किश्चिदश्यम् ।
स्मरणदिभिरपि । ३-गुम्बायोपचारितत्वो--०३ अपग्रहादः। अनुभागस्यापि १५ वैशद्य. साधनाया ! ६ अवेद्यादि-आ०, ५०,५०।तोरनन्दयित्व-आ, य०, ११, स. ८ -जाम-सा। . यावेकावि-आ०,०, २०, स. प्रतिपत्तिनि मा०, २०, ५०। अस्मा प्रतियोग-00, 40, प.स. १ प्रतिसाचनार आ०, घ, प० स० ३त्र के 80,40,५०,स. 10 इन्दियानस्व । १५ "आये परीक्षा" [. सू. 9128) इति सूचगवान् इन्द्रियशनत्य परोक्षत्वे सूत्रकारसते । १६-से-ता। १७ इन्द्रियज्ञानस्य प्रत्यक्षतम् । १८ १० सू० ।
२५
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१३]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः यरपुनरेतत् सवं प्रत्यक्षं सन्निहितार्थत्वात् , परामिमतदर्शनबदिति; तत्र किमिदमर्थस्य सन्निहितत्यम् ? स्वज्ञानजननसामयमिति चेस् ;न; सस्व निषेधात् । योग्यदेशाधवस्थानमिति चेन्; क्व देशादेर्योग्यस्थम् ? अर्थशामजनन इति चेत्, न; तस्यापि तज्ज्ञामविषयल्ये तदयोगात् । अविषय पचासौ चक्षुरादिवदाधिपस्यमात्रेण प्रवृत्तरिति चेत् ; न; अत्रापि "इन्द्रियमनसी विज्ञानकारणम्" लघी० श्लो० ५४] इत्यस्य विरोधात् । न हीन्द्रियमनोभ्याभन्यस्यापि देशादेस्तद्धेतुत्वे तदु- ५ भयमेष तविमानकारणमित्युपपन्नम् । अर्थस्य ग्राह्यस्यसम्पादने देशादेर्योग्यत्वमिति चेत्, न; तस्य शानशकित एवं भावात्, अन्यथा तत्कल्पनावैयात् । तच्छक्तितः सर्वत्र करमान्न तदिति चेत् ; देशादिशक्तितोऽपि करमाश भयति । प्रतिनियतत्वात्तस्या इति चेत् ; ज्ञानशक्तेरपि समान: प्रमिनियमः । यस्य तु न प्रतिनियतशक्तिकत्वं ज्ञानस्य तच्छस्तितो भवत्येव सर्वस्य ग्राह्यत्वम् । तभ योग्यदेशाद्यवस्थानमर्थस्य सन्निहितत्वम् ।
नैकटयमिति चेत् । तदपि न देशकृतम्, दूरतारकादिप्रत्यक्षेष्वसस्वात् । मापि कालकूवम् विरभाविवस्तुविषयसत्य-त्वमादिप्रत्यक्षेश्वविद्यमानत्वात्। एतेम तदुभयकृत प्रत्युक्तम् तदुभक्दूरस्यापि सत्यस्वप्नसधंदनविषयत्वात् । तदर्थ सिद्धो हेतुः, पक्षीकृतेष्वपि दूरतार• कादिप्रस्थक्षेष्यनियमानत्वात् । अथ र सेवा पलीकरणम् ; कुतस्तहि तशयसिद्धिः अन्यत इति येस्तदेवासप्रशादिप्रत्यक्षेऽपि वक्तव्य ज्यानेायात् किमनेन ? दूरासन्नादिप्रत्यक्षसाधारण १५ किक्षित्साधनमिति चेन्; न; यद्यथा निर्वाधमवभासते तस्यैवास्ति यथा नीलं नीलतया, निधिसयभासते १ स्पष्टतया प्रत्यक्षमित्यादेर्भावात् ।
___ग्रहणशकात्वमपि न तस्य सन्निहितत्वम् ; असिद्धः, माह्यत्वस्य ज्ञानवलादेव द्विचन्द्रवद्भावात् । अनैकास्तिकत्वाच-स्मरणार्थस्य ग्रहणशक्यत्वेऽपित शद्याभाषाम् , तदर्थविषयत्वस्य च निरूपयिष्यमाणत्वात् । सप्रेदमपि तस्य सनिहितत्वम् ।
यथेब कवमुक्तं शास्त्रकारेण-"स्पष्टं सन्निहितार्थस्वान्" [ प्रमाणसं० श्लो० ४ ] इति चेत् ;न; परमतानुज्ञामात्रेण तद्वचनात् । न हि शास्त्रकारस्येदं स्वतन्यवैशासाधनम्, उक्तदोषापामशक्यपरिहारत्वात् , अपि तु योऽसौ मन्यते सौगत:-"निर्विकल्पक दर्शनं सन्निहितार्थस्वाद्विशदम् [ ] इति; तं प्रत्यनेकान्तगोचरस्याध्यक्षज्ञानस्य पैशय तेनैव तत्प्रसिद्धन हेतुना प्रतिपाद्यते सौकर्यार्थम् । परो हि सत्प्रसिद्धेनैव हेतुमा प्रतिपाद्यमानः प्रतिपत्तिसौंकय २१ प्राप्नोति । न चात्र ठस्य दोषोद्धावनमपि सम्भवति निर्दोषतया अस्तित्वात्, अन्यथा दतो निर्विकल्प वैशबसाधनायोगात् । किं सर्हि शास्त्रकारस्य स्वतन्वं वैशासाधनमित्ति चेत् ! उक्त
- 1-संवि -आ०, २०, ५०, सन ९ योग्यत्वस्यापि महानिद-t०, ५०, १०, सका।
वेन तवु-भा०,०,०००।५नशजितः । ६ सर्वशत्याशयमि-श्रा०, २०, ५०,०16-यस्य सत्य-मा, ९, १०, स... अर्थस्य । 1. स्मरणादिषु वैशाभावात् । स्मरणादीनाम् अर्थविषयवस्थ
२ सतन्त्र चै-80, ५०, १०,०स्वसिद्धान्तसम्मतवैश्य । "मंदवमोचरी पथ विक्षदतिमाया, विप्रष्ट पार्थ अस्पप्रतिभासिता"-30 यासिकाल. सा. ४-कश-आ०, प. प.स.। १५ स्वतन्त्र]-भार,०,०स.
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न्यायविनिश्चयविवरफ न्यायेग प्रत्यक्षमेवेति अमः । तत्र या प्रसिद्धमपि तन्न तथा व्यवहरति स तेनैवाध्यक्षप्रतिसिद्ध(प्रसिद्ध) तत्प्रतिभासेन हेतुमा तद्व्यवहारः कार्यते यथाविधापरब्यवहारविषयनिदर्शनोपदर्शना । सदुर सिद्धिविनिश्चये
"परयन्स्यलक्षणान्येक स्थूलपक्षणिक स्फुटम् ।
यव्ययस्पति वैशय वद्विद्धि सशस्मृतेः ।।" [सिद्धि वि०प्र० परि०] इति । सूत्रम् -परवक्षसक्षम स्पष्टमअसाइति ।
तदेयं तवचनसामर्थ्यात परोशष्टम सेति निषेदितं भवति प्रत्यक्षप्रतियोगित्वात् परोक्षस्य । तत्प्रतियोगित्वं च तद्विरद्धधर्माध्यासादेव । न हि उद्धर्माकान्तस्वैव तत्प्रतियोगित्वम्
अतत्प्रतियोगिन एक कस्यचिदभावापसे । तत्प्रतियोगित्यमेव तस्य कस्मात् ? अवैशद्यात् । तददि१० कुतः ? तत्प्रतियोगित्वात् । परस्पराश्य इति चेत् ; नेदमिवानी प्रयत्नसाध्यं प्रसिद्धत्यात् । तरप्रति
योनिरस्य हि तद्विजातीयत्वम्, तच्च लोकत एव प्रसिद्धम् । केवलं प्रत्यक्षे वैशयेन लभिते परोक्षमवैशयन लक्षितव्यम् , अन्यथा तद्विजातीयवायोगादित्येतदेवान्न प्रतिपतत्र्यम् । योयं क.. प्रत्यक्षप्रस्तावस्वमस्येति चेत् ? ; प्रत्यक्षस्यैव प्राचुर्यात् । भवति हि प्राचुर्येण व्यपदेशो यथा
माफन्दधामिति । न हि तत्र माकन्वा एवं, स्तोको वृक्षान्तराणामपि सम्भवात् , एवं सामर्यात्परो१५ झलक्षणनिवेदनेऽपि प्रत्यक्षस्यैव प्राचुर्यात् , तेनैवायमानः प्रस्ताको व्यपदिश्यते नापरेण विपर्ययात् । प्रत्यक्षमार्यच तभेदस्येन्द्रिवादिप्रत्यक्षस्य सविस्तर निरूपणास् ।
किं पुनरिक्षमवेशी नाम ? व्यरहितवस्तुविषयत्वमिति चेत् ; न; देशकालव्यवायेऽपि क्वधिवैशद्योपलम्मात् । स्वभावव्ययहिसस्य तु ग्रहणमेव नास्ति । न चामहामेषावैशम् ; त्याद्वादिमत्तस्या
नेविधत्वात्, अतिप्रसङ्गारच नीलदर्शनस्यापि तदापत्तेः, तस्यापि नीलठयतिरिक्तनिरनशेषपदायों१० सरपरिच्छेवपराङ्मुखत्वात् , अविषयमावल्यनिबन्धनाच्य अवैशबमाधुर्यादविशदमेव का सकलं लनस्थसंवेदनं प्राणम्, विषयस्तोकनिबन्धनस्थ वैशलेशस्य सतोऽज्यसत्कल्पत्वात् ।
येदनान्तरसापेक्षत्वमवैशयमिति चेन्; उत्पनौ, ज्ञप्ती आ तदपेक्षणम् ! उत्पत्ताविति चेत् ; म; अतिप्रसङ्गार , सर्वस्यापि वेदनस्य पूर्वपूर्ववेदनसापेक्षतयैकोत्पत्तेः । विधयक्षता तु सपेक्षणे प्रामाण्यमेव न स्यात, स्वपरपरिच्छेदं प्रत्यनन्यसापेक्षस्यैव तत्त्वप्रतिझाना--"सिद्धं या पराक्षम्। ५ [सिद्धिवि०प्र० परि०] इत्याविवचनात् । प्रसारणस्थ चेदमवैशद्यचिन्तनम् । ततो यदि 'ईशमवे.
शदा न प्रामाण्यम, तच्चेत् नेवशमवैशम् इत्येक सन्धिस्सोरन्यत्प्रध्ययेत । तन्नेदमध्यवैद्ययम् । ध्यामलितप्रतिभासित्वमिति चेत् ; उच्यते--
मध्यामलावभासित्त्वमप्यतामा जसम् । रूपदर्शन एवं यन शब्दादिषेदिने ।।१९४॥
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प्रत्यचसिद्धमपि । २ प्रतिनिध-प० । ३ तस्विद्धसान-40 | ४ तस्मात् भा, प०प०, स ५ एकास्तोकमा, य, १०, स.१६-स्य सह-त्रा०,०प०, स. वैदनान्तरापेक्षणे। ८-स्ये. दमन-आ०, २०, २०, स..
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११३
प्रथमः प्रत्यक्ष स्वाय नप सोदनं सत्र स्पष्टमेयेति युक्तिमत् । शम्दादिगोचरस्यापि स्मरणादेः प्रसिद्धितः ॥२९५।। किञ्च ध्यामलितस्य वेदधर्माऽभिमन्यते । ज्ञानस्य तेनावैशर्थ कथं नामोपपत्तिमन् ? ॥२९६६ अन्यधार्थस्य नीलस्वान्नीलं तदनं न किम् । शानधर्मो मतं तच्चेन्; चाक्षुषं तत्कथं भवेत् ? ॥२९७ अन्धकारप्रतिच्छायं गृाठे तद्धि चक्षुषा । म ज्ञान पाक्षुष चक्षुरमूर्ती यन्न वसते ७२९८॥ तस्यानुभमधर्मत्वे तल्कि यदि न किंचन । कथं भाति ? विभात्येव मृगतृष्णाम्बुवद्यदि ॥२९॥ कथं तेनाप्यवैशा वेदने परिकरुप्यताम् ।
साकारमानवादस्थ कयं प्रच्युतिरन्यथा ॥३०॥
भ्यामलितविभासित्वमवेशद्यमित्यनुपपन्नम् , अव्यापकत्वात् ,रूपज्ञान एव तस्य भावातू शब्दादिवेवनेषु विपर्ययात् । न च शब्दादिज्ञानं समपि स्पष्टमेवेत्युपपश्चम् ; सद्विषयस्यापि क्षणा पवमानस्य सुरिसरमा ।
अपि च, इदं ध्यामलितत्वमर्थधर्मश्चेत् । कथं तेन ज्ञानमविशदव्यपदेश प्रतिलभेत ! विषयधर्मस्य विषयिण्युपचाराचेत् ; परमार्थतस्ताई सकलामपि ज्ञान विशवमेयेति प्राप्तम् । म चैतदुचितम् , अनभ्युपगमात् । अर्थस्यै च ध्यामस्लिसत्यापनागस्यापि तस्ये नीलममपि तस्य स्यात् तदर्थस्य नीलत्यात् । मायमर्थधर्मः।
नापि झानधर्मः ; चाक्षुर्विषयत्वात् । न हि चक्षुषो झानगोचरत्नम्; सस्य मूर्तिमापदार्थ. २० विषयत्वेन प्रसिद्धरवात् , ज्ञानस्य पामूर्तिमत्त्वात् । न च ध्यामलिताकारस्य चक्षुर्विस्यत्वमसिद्धम् ; अन्धकारप्रतिकचुकत्य तस्य चक्षुर्येवतयैव प्रतीतेः । अनुभयधर्म एवायमिति चेत् ; न; ज्ञानार्थव्यतिरेकिणस्मृतीयस्य यझेरभावरम् । नीरूप मेवेदमिति येत् ; ताशस्य कुतः प्रतिभासनम् ? कारणदोषसामान्मृगतृष्णिकाजलवदिति चेत् ; भवत्वेवम् , तथापि कथं तेन शनस्यावशद्यमी तदाकारत्वादिति चेत् ; न ; साकारसंवेशनवादप्रतिक्षेपाभावग्रसङ्गात् । तन्नेश्मवैशयम् ।
'अबस्तुसामान्याकारत्वं तत्' इत्यध्वसमजसम् ; साकारयादनिषेधेन तनिषेधात् । तस्मादज्ञानस्यैव प्रतिबन्धकादृष्टविगमविशेषनिवन्धनपरिणतिविशेष एव "कश्चित्तदित्यनवदाम् ।
तदेव प्रत्यक्ष सहलक्षणसामर्थ्यात्परोक्षं च वैशद्याऽवैशधाभ्यो लक्षितम् । वचोभयं निर्चिकल्पकमे देवि कश्चित, सत्राह-'साकारम् इति। करोतिः अत्र निश्चयार्थः । "कृतेनाकतवी
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शयादिवेदनम् । २ भ्यामलितत्वम् ।। -स्व व्यश-आग, ५०.१०,
सामाईप पातर भा०, १०,०,सामालिसले । मपि स्या-आ०, ०,१०, स.10-व्यतिरेण त-मा०,५०,०।
कभन्न शा-०,०, १०, स -समपरिणतिविशेष का०,०,५०, स. १. अवैशयम् । "ति कृतषि-०, प. प., स.१२ -ति तत्र नि-०,०, ५०, स।
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न्यायविनिश्वयविवरणे
{ श
क्षणाद" [ ] इत्यत्र 'निधितेनानिचितदर्शनात्' इत्यर्थयहणात् । औ अभिव्याप्ती, अभिव्याप्तिश्व शत्तयपेक्षया ससो यस्य यावती शक्ति तावत्येव विषचे सा वेदितव्या । तदयमर्थःआ समन्तात् करणमाकार: शक्यविपयाभिव्यापी निश्वयः तेन सह वर्त्तत इति साकारं प्रत्यक्षलक्षण सामर्थ्यरक्षितं व परोक्षमिति ।
मनु निश्चय नानामिज मासः ।
संवेदनस्य स्वरूपे वा स्यात्, अर्थरूपे या १ तास्वरूपे तस्य अशक्यसमत्वात् । अभिजल्पसमो हि क्रियमाणः 'इदस्य वाचकं वाचा' इति क्रियते । न च क्षणमात्रपर्यवसितं तत्स्वरूपमन्या किञ्चिदस्येत्यनुवदितुं शक्यम्, क्षणादूच्यं तदभाषाम् असतानुवादायोगात् । न च तत्सताक्षण एवानुवाद::स्यानुविवदिषित वस्तुस्वरूपसंवेदन पूर्व कत्येन समभयत्तनुपपत्तेः । श्रतीतस्यावि १० मरणोपनीतस्यानुवाद इतेि चेत्; किमिदं तेन तस्योपनयनं नाम ? स्वस्वरूपवेदनमिति चेत्; न; अतस्तद्योगात् । न इस स्वरूपे घेविषु शक्यम्: सत्यप्रसङ्गात् । न हि स्वरूपप्रतिभासनाद् अन्यदन्यस्यापि सत्त्वम् । असतोऽपि सरवेनाध्यारोप इति चेत्; अध्यारोपितस्यैव तर्हि तदाकारस्य शैक्याभिजल्पलमयत्वं न संवेदनत्वरूपस्य तस्य पूर्वापरीभावविथुरशरीरस्वनाशकथानुवादात् । न चातनयस्याभिजल्पस्य तंत्र योजनम् : सर्वस्य सर्वत्र योजनप्रसङ्गात्, १५ इत्यनभिजल्पानुषङ्गमेव सर्वस्यापि ज्ञानस्य स्वरूपवेदनम् - उत्पद्यमानमेव हि तत् संवित्तिविषयभावं विभर्त्ति तद्व्यतिरेकेण तत्संवित्तेरभावात् सदा च न पूर्वापरभाषो नाप्यभिजल्पयोजनं यतः सविकल्पकत्वं भवेत् । तस्माचत्क्षण एवं जातस्य साक्षाद्भेदने निर्विकल्पकत्वमेव । सहजाfrain सविकल्पकत्वमेवेति चेत्; न; सहजेस्य अभिलापस्याभावात् । भाषेऽपि स्वतस्तद्विविकत्वात् संवेदनस्य न "सत्संसृष्टत्येव वेदनम् । समसमयत्येन वेदनमेव संसर्ग इति २० चेत्; न; वस्येतरेतराच्या सरूपत्वात् तस्य च वाच्यवाचकभावनेित्रन्धतत्वात् । तद्भाव स्वाभावादेव, सर्वस्यापि तत्यविपत्तिप्रसङ्गात् समयचैयर्थ्यापतेश्च । समयादिति चेत्; न; 'शक्यत्वस्य निरूपितत्वात् । भयति चात्र परस्य वनम् - ""तदैव चोदितस्यास्य साक्षाद्वित्तौ न कल्पना । afraid संसर्गादिति चेनाभिलाप (पिता ज्ञानस्य तद्विविक्तत्वे कथं संसर्गसम्भवः ।
,
समानकालविन्मात्रान्नैव संसर्ग उच्यते ॥” [प्र० कार्तिकाल० २।२४९] इति । न संवेदनस्याभिजल्प' स्वरूपे सम्भवति ।
२१
१ आभावोऽभि-आ०, ब०, प०स० २ अभिव्याप्तिः । ३ "विकल्पी नामसंश्रयः "-.२०वा० २।१२३ | ४ अनुवादस्य ५ शक्राभि-आ०, ब०, प०, स० सत्वम् । ६ तत्प्री-आ०, ब०, प०, स० ७ - त्र प्रयोज ० ० ०, स० ८ तेन नि-आ०, ब०, प०, स० ९ स्याप्यमि-आ०, ब०, प०, स० १ १० अभिअपसंसृष्टस्तेन । ११ यत्ये वेद-आ०, ब० । १२ - इच न तरहक - आ०, ब०, प० : १३ सोप- झा०, ६०, स०१ १४ सतावस्य । १५ तदेव चौ-आ०, २०, ५०, स० । “तदेव चविते तस्यअभिलापस्व संसर्गादिति चेन्नाभिपिता सुखस्तकले 'समानामाश्रान्नैष... -२० वार्तिका०] १६-नपलं आ०, ब०, प०, स० १
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१३)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव अर्थरूपे तत्सम्भव इति श् ; न ; तस्यापि यदि प्रणम् ; तदा तनिर्विकल्पकमेव, तद्विपयस्थास्यतिसूक्ष्मसमयमात्रमग्नशरीरस्य अशक्यसमयत्वेनाभितल्पवत्यायोगात् , परिस्कुटप्रतिभासत्वाच । यदि तस्य प्रहणम् ; तथापि न तत्र विकल्पसम्भयः । ने
ग्रहणमेष विकल्पः, अतिप्रसङ्काल-सर्वसंवेदनानामन्योन्यविषयापेक्षया तक्ष्मणात्मकस्वाविशेषान् । अध्यारोपितार्थापेक्षया तर्हि विकल्पसम्भव इति चेत् ; नं; अध्याये. ५ पार्थापरिज्ञानात् । अर्थग्रहणमध्यारोप इति चेत् ; न; कथितोत्तरत्वात् । तदमहर्ण से इत्यपि तादृशमेव । न चापरमध्यारोपस्व रूपं पोलोच्यमानं सम्भवति । यत्र तईि ग्रहणमध्यारोपञ्च तत्र तत्सम्भव इति चेत् ; ननु यदि ग्रहणारोपयोर्ने भेदः किमुभयोपादानेन पौनरुत्यदोषान् ? ग्रहणमित्येव वा आरोप इत्येव वा वक्तव्यम्, तत्र च प्रागेव दूधर्ण प्रतिपादितमिति न पुनः प्रतिपाद्यते । यदि पुनर्भेद एव तयोस्तथापि विज्ञानस्यमेवेककाले प्रसक्तम्-यद्हणात्मकं १० तनिर्विकल्पर्क यहारोपात्मक तत् सविकल्पकमिति तदिदमप्यसमञ्जसम् : आरोपस्य प्रणामहणाभ्यां विचारितवान् । भवति चात्र परस्य पवनम्
"यदि ग्रहणमर्थस्य विकल्पः कथमत्र सः । अथाग्रहास्य दिपमा सः । अधार्थारोपतस्तत्र विकल्पत्वं निरुच्यते । ग्रहणाग्रहणे मुक्त्वा तत्राप्यर्थोऽस्ति नारः || अहणारोपसनाचे विकल्प इति चेन्मतिः । ग्रहपारोपयोरैक्ये द्वयोः सम्भव इत्यसत् ।। सत्रै कपक्षनिक्षिप्तो दोषः प्रागेव वर्णितः । अथ भेदस्तयोरस्ति द्वयमेव प्रसज्यते ॥
निर्विकल्पसंविधिः सविकल्पा तदैव च ।" [५०वार्विकाल० २।२४९) इति । सम्म स्वरूपेऽर्थरूपे का निर्णयसम्भवः, तस्मादयुक्तं साकारमहणमिति चेत् ; भेदमसिनिर्बन्ध प्रतिविधेयम् अतिगुग्धभाषितस्वात् । तथाहि-योऽयं तदैव योदितस्य' इत्यादिवचनमः स यदि निष्प्रयोजन एव ; कथं तत्र प्रमाने प्रेक्षावतामादरो यतोऽयं शास्त्रोपनिन्धः क्रियते ? कथ वा तत्प्रक्रमोपन्यासकारिणो निग्रहाधिकरणत्वं न भवेत् असाधनाङ्गवचनस्यात् । सप्रयोजनत्वे २५ यदि सत्प्रयोजनं सकलसंवेदननिर्विकल्पकत्वसाधनादन्यदेवः स एव दोषः तद्वादिनो निप्रहाधि
करणास्वमिति प्रस्तुतानुपयोगिनस्तस्यक्रमस्यासाधनाङ्गवचनस्यात् । तनिर्विकल्पत्वसाधनमेव सरर- योजनमिति चेत् । तदपि तरप्रक्रमस्य स्वयं तत्परिच्छेदरूपत्वात् , तत्परिच्छेवहेतुत्वावा भवेत् ?
स्वयं तत्परिच्छेदरूपत्ये सिद्धमभिजल्पवस्वं तत्प्रतिभासस्य स्वभावभूतस्यैवाभिजल्पस्य संत्र
1-मात्रामन्न--6, ०, स.। २ अध्यारोपः। महणारोपयोः ४"सविकल्पसमितिः अपिकल्पा तदेव च।"- यातिमाळ । ५ पत्तदैव प्रा०, २०, ५०, स. ६ भिजल्पपरिच्छेद । ५ तारभावा-मा००,५०।
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१०२ भ्यायविनिश्चयषियरणे
[ १३ भावान्हा अभिजल्प एवासौ केवलं न प्रतिभास इति चेन्न; स्वयं तत्परिच्छेदसंपत्वाभावप्रसङ्गामा न हपतिभासः परिच्छेदो नाम | भवतु स एव एक अविभासोऽभिजल्पवासापर इति चेत: ना सर्वसंवेदननिर्विकल्पस्थप्रतिशाव्याधानात्, तहदम्यस्याप्यभिजस्पर्वस्वसम्भवाच्च । तथा हि
विषादाध्यासितः सः प्रतिभासोऽभिजल्पवान् । सस्वासशिर्विकल्पत्वसाधनप्रतिभासवत् ।। ३.१ ॥ स्वतोऽमिजल्पभून्वाना प्रत्ययानां प्रवेदनात् । प्रत्यशेणास्य पक्षस्य साधनं यदि कथ्यते ।। ३०२।। अनिश्चितस्वभाव देत्तत्स्वसंवेदनम् । तदा । असिद्धमेव तरच कस्यचिदाधकं कथम् ॥ ३०३ ।। अनिश्चयेऽपि तरिसद्धी हेतुसिद्धिः कथन यः । तथा पासिद्धिविच्छिन्त्य हेतौ निर्णयवर्णनम् ।। ३०४ ॥ यत्कृतं कीर्सिना तत्स्याइपोलोच्य भाषितम् । स्ववेदनस्य तसिद्धिनिश्चयादेव हेतुवन् । ३०५ ।। निश्चयो नामिजल्येन विना यः सम्भवत्ययम् । तसिद्धाः प्रत्ययाः सर्वे साभिजल्पस्ववेदनाः ॥ ३०६ ॥
या व फरवावा समित्यादिमा ।
"न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शन्दानुगमारते" ।। ३०७ ।। इति; तन्न तस्य स्वयं "तत्परिच्छेदरूपत्वात् ततायोजनवस्वम् ।
सपरिस्छेदहेतुत्वादिति चेत; न; अकृतसमयस्य "वदयोगात । वास्थमकतसम्यमेव स्वार्थपरिच्छेदनिमित्तम्, अनभ्यस्ताखव्याख्यानस्यापि दर्शनान, अन्यथा तदयोगादिति येत् ; ; एवमपि वैतस्तदर्थज्ञानस्य "ददनुविद्वत्या सविकल्पकस्यैव भावात् सर्वस्यापि ततस्तदर्थप्रतिपत्तिप्रसाच्च।
न केवलस्यैव वाक्यस्त्र "तत्परिज्ञानकारणत्वमपि तु पदतदर्थसम्बन्धपरिज्ञानसहितस्या, तस्य च सर्वमायान्नातिप्रसङ्ग इति चेन्; कथं नातिप्रसङ्गः "तत्सम्बन्धपरिज्ञानस्थापि समयनिरपेक्षवे-'सर्वत्र कस्मान भावः' इसि परिधोदनस्य तदवस्थत्वात् । समयसापेक्षमेव समिति चेतन अशक्यसमयत्वप्रतिज्ञाव्याघातान् । तानस्य चाभिशल्पवस्वेन सविकल्पकत्वात्,
स
-वस्थासम्म-म, 40, RI २ सर्वप्रति-प्रा०, ०,१०, ०1 तथा आ०,५०,५०,
वत्सिदो भा०,१०.80 ५ देतीनिणे-श्रा०,००, स..."हटोरिवपि रूपेषु निश्पयरसन यर्मितः । निविपरीतार्थज्यभिचारिविपशतः ।" (H००३1) इस्यनेव हेसो सिमादिदोषपरिक्षाराय निरूपत्वावं धर्मकीसिना। सहि जल्पेश प्रा०,०, ५०, १०८ पाश्यप- ११२४।९५चनप्रसमस्थ । १० भिजल्पपरिच्छेद । ११ निर्विकल्परचनाधनरूपप्रयोजनयस्थम । १२ शब्दपरिच्छेदहेतुत्यायोगान् । १२ वाक्याद । शम्नानुस्यूतत्वेन । १५ असतापि वाक्यात् । १७ तदर्थपरिजन । १८ पदतदसम्बन्ध । १९ अनस्य।
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अचमा प्रत्यक्षप्रस्तावः
१०३
सर्वसंवेदननिर्विकल्परबध्यावर्णनं प्रेक्षायत्त्य परस्य प्रतिक्षिपति । पदस्य च शस्यसमयत्वे वाक्यस्यापि सदवश्यम्भाषि, पदपर्यायविन्यासव्यतिरेकेण यास्यस्यैवाभावात्. तदभावस्य भोसरन निरूपणादिति सिद्धभिजल्पवत्वं वाच्यार्थपरिखानस्येति कथमिक सर्वथा विकरूपाभावप्रवादः शोभेत 2. उत्पनिको र गायिका निसिद्धिप्रसङ्गास् ।
विकल्पास्तित्वसमायेपन्यवच्छेद एवानेने क्रियते न तैपरिच्छेद इति चेत् : न; ५ समारोपार्थापरिहानात् । सेंदस्तित्वप्रहणं तदर्थ इति चेत् ; ननु तदेव नास्ति सर्वसंवेदननिर्विकल्पकलप्रतिज्ञानात् । कथमसतो अहणं प? ग्रहण छि तस्य स्वरूपप्रतिभासनमेष, न पाससः स्वरूपम्; विरोधात् । ग्रहणमपि तस्य समारोपादिति चेत्, न; 'समारोपाईपरि. शानात्' इत्यादेः प्रसङ्गादनवस्थापत्तेश्च । तंदमहणं तदर्थ इति चेत्, तहानच्छेदस्तहि तद्रहणं प्रामम् , तदिदं शान्तिविधानेन वेतालोत्थापन्नम्, विकल्पसद्रायव्याधिविध्वंसनार्थ बसमारोपव्यवच्छेदं कुर्वता तदस्तित्वप्रणस्यैव स्वचित्तपरितापकरस्योत्थापितत्वात् । प्रत्याख्यात चाग्रहणस्थ समारोफ्त्वम् । ग्रहणाग्रहणाभ्यामन्य एव वहि तदर्थ इति चेत् ; न; "ग्रहमाग्रणे मुक्त्वा समाप्यर्थोऽस्ति नापर" [प्र. मार्तिकाल० २१२४९] इति स्ववचनव्याधाप्तापत्तेः । कर्थ कास्य तव्यवच्छेदकरत्वम् ? विरोधादिति चेत् । चनिश्चयस्यैष समारोपविरोधात्, अस्य च वचनप्रामस्याचेसनत्येनानिश्चयरूपत्त्यात् । विरोधिनिश्चयनिमित्तत्वेन अस्यापि १५ तद्वियधिस्वमिति चेत् ; न ; सनिमितत्वे विकल्पस्यानिषेधात् । ततः स्थितम्-विकल्पानभ्युपगमे अतिनिष्प्रयोजन पचार्य वचनप्रक्रम इति । ___भवतु वर्हि विकल्प: कल्पनया" न परमार्थतः, सर्वस्यापि संवेदनस्य स्वाह्यविषये शब्दसम्बन्धर्जितस्यैव प्रवृत्तेः । तथा चोक्तम्
"असाक्षात्करणाकारे यत्र स्यास्कम्पमान्त। व्यवहार स एवात्र विकल्पो लोकसम्मतः ॥ दर्शनाभिमतियंत्र तज्ज्ञानमविकल्पकम् । "सानात्कृत्यविधि मोक्षाच प्रत्यक्षमिति गीयते ।। परमार्थतस्तु विज्ञानं सर्वमेवाविकल्पकम् ।।
स्वग्राह्यविषये सर्वस्याधिकल्पेन इतितः ।। {प्र. वार्तिकाल, २।२४९] २५
इति येस् ; अत्राह-अजसा परमार्थत एष साकारं न कस्मनयेसि । सथा हिअस्ति वस्तुभूतो विकल्पः, संकल्पनान्यथानुपपत्तेः । अस्पध्रप्रतिभासे हि प्रत्यये परेण विकल्पत्य.
क्रमविन्यास । सदैव चैदिवस्यास्य' इति यसप्रक्रमेण । ३ "सकलसंधेदरनिर्विकल्पमापरि छेदः"-सा. दिकविकल्मास्तिस्य । ५ विकल्पास्तित्वमेव । ६ विकल्पस्य । विकल्पामगं समारोपा ८ विकल्पमह. सम् । ९ समारोपार्थः । "वषमप्रकास। अस्य बन- पा०, स. १२. समारोपविरोधि । ३ बचनप्रवनस्य ! १४ मनिषेधप्रसार । १५-सा परम्प-10,०,१०, १६ सायश्मिोन्मा, प. "साक्षातस्यापिमोहा"-प्र. मासिकाल ।
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१०४ न्यायविनिश्चयविवरणे
[२॥३ परिकल्पनमभ्यनुज्ञायते । तंत्र में सावत्स एष तस्य विकस्पत्वं कल्पयति ; स्वरमकस्पनात्मकरवात् । 'परमार्थतस्तु विज्ञानम्' इत्याधि वचनात् । न शकल्पनात्मनस्तकल्पनम्; प्रत्यक्षेऽपि तत्प्रसङ्गात् । कल्पनात्मापि तस्यास्वाति पेत् : किमपरतत्कल्पनेने यात् । तदात्माभि यदि वस्तुत एव, सिद्ध नः समीहितम् , पारमार्थिकस्यैव विकल्पस्य व्यवस्थापनात् । ५ सोऽपि कल्पित एवेति चेत् ; ; तत्रापि न तावत्स एय' इत्यादेषात् पक्रसङ्गात् , अन
वस्थापत्तेश्च । परतस्तन तत्कल्पनामिति चेत् ; न ; परेणापि स्वयमविकल्पात्मन्स सत्कल्पना. ऽयोगात् । विकल्पात्मापि तस्येति चेत् ;न; वस्य परमार्थत्वे परमतसिद्धिप्रसङ्गात् । कल्पितत्वेऽपि न स्वतस्तकल्पनम् ; उक्तदोषरयात् । परतस्तत्कस्पनं येत् ; न ; 'परेणापि' इत्यादिप्रसङ्गीना
पुन्येन चक्रकानवस्थयोरप्रसिहसप्रसरस्थात् । ततो दुर्भाषितमेतत्-'यन्त्र स्यात्कल्पनान्तरैर्व्यव१० हारः' इति , परमार्थतः "कल्पनया च कल्पनान्तरणामेषासम्भवात् ।
भवतु तर्हि "परमार्थत एव कश्चितिकरूपः, तथापि किमायात प्रत्यक्षस्य येन तदपि सविकल्पकमुच्यते इति चेत् ? अभिमतस्यापि कुतः सविकल्पकत्वम् ! तत्प्रतिभासस्याभिजल्पवत्त्वादिति चेत्, न; अकृतसमयेनामिजस्पेन तस्य तवरवायोगात् अति
प्रसङ्गात् । नापि कृतसमयेन ; विस्मृतेनापि तत्प्रसन्नात् । अनुस्मृतेनेति चेत् ; न; १५ तदनुस्मरणस्य निर्विकल्पत्त्रे तद्विषयस्यान्यन योजनाऽसम्भवात, क्षणक्षयादिवत् । सविकल्पकत्वे
तस्याप्यभिजल्पयत्त्वम् अनुस्मृतेनैवामिजल्पेन, तदनुस्मरणस्यापि सदस्य तदपरानुस्मृतामिजल्पेनेस्यमवस्थामाम्न प्रकृतविकल्पनिष्पतिर्भवेत् । सन्माभिजल्पवस्वातस्य सविकल्पकत्वम् ।
"अभिजल्पयोग्यविषयत्यादिति चेत् ; कोऽसौ सद्विषयः अनुवराज्यावृत्तादिस्वभाषो मात्र एष, सदपरस्य तद्योग्यस्यासम्भवादिति चेत् । सदियमस्मादस्माकं महानिधिप्राप्तिः प्रत्यक्षस्यापि २० 'तत एव सविकल्पकत्वोपपत्तेः, इदमेवाह 'द्रव्य' इत्यादि । द्रव्यं चान्वयरूपं सुवर्णषत् ,
पर्यायाश्च व्यावृत्तिधर्माणः फटककुण्डलादिवत् , सामान्य च सष्टशपरिणामस्वभावं कुण्डलयुगलयत्, विशेषश्च विसरशपरिणामलक्षणः केयूरहारबत , द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषास्त एवात्मानौ योस्तदूपत्वात सयोर्वेदन प्रत्यक्षमअसच साफारमिति ।
तदेवलक्षणं प्रत्यक्षं विविधं भवति । कथं पुनः कारिकायामनुक्त' विध्यमवगम्यते ? २५ "प्रत्यई विशद ज्ञानं त्रिधा" [प्रमाणसं० श्लो० २] इति शास्त्रान्तरे प्रतिपादनादिति 'चेत् । न; सामाग्यलक्षणस्यापि तत्रैव प्रतिपादनादिहावयमप्रसङ्गात् । इहापि शिकारेण
विथ्यमुकमेवेति चेत् ; सोऽपि कथं फारिकायामकथितं कधयेत् , कारिकाविवरणस्यैवं वृत्तित्यार, अनुक्तव्याख्यानस्थ विपर्थयादिति चेत् ? ; अत्रापि पृथक् पृथक् तत्समर्थनेन
----------...-.utar
त्रिसव सावत् भा०,40, प.स. १अस्पष्टप्रतिभासः। स्वस्थ मल्पनास्वरूपमपि । ५ अस्पष्टपतिमास्य । -परं तरक-श्रा०, २०, प., स.। कल्पनास्वरूपमपि। ८ अस्पष्टप्रतिमासे। १ विकल्पत्य । १० रूपनाया था०,०, ५. परमार्थ एव तर. १२ तबतायी-मार,०,१०,१०। १३ निर्विकल्पवेषित-मा०,०,५०, स। - यत्प्रयौन-माग,०,१०, १५ आमिनल्प-म, २० अनुसण्यावृत्ताविस्वभावभावविषयकादेव -विचारस्यैव श०,०,०स..
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२३
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
१०५
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अधियावान् । करिष्यते हि सज्ञान ईस्मा इन्द्रियप्रत्यक्षस्य 'परोक्षज्ञान' इत्यादिनाऽनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य, 'लक्षणं समम्' इत्यादिना चातीन्द्रियप्रत्यक्षस्य समर्थनम् । अत इन्द्रिचप्रत्यक्षादिभेदेन त्रिविषमेव तदिति भवत्येव निर्णयः । तत्र
हिताहितामिनिमुक्तिअममिन्द्रियनिर्मितम् ।
यदेशतोऽर्थज्ञान सदिन्द्रियाध्यक्षभुत्त्यते ॥३०८॥
इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि सैनिर्मितं तहेतुकं यदर्थस्य बहिर्षदादेः हानं तदिन्द्रियप्रत्यक्षं परिस्फुटत्वेन सलक्षणयोगात् । कुतः पुनश्चक्षुरादीन्द्रियकार्यत्वं घटादिप्रत्यक्षस्याकाम्यत इति चेत् ? कुतोऽयं प्रश्न: ? सर्वत्र कार्यकारणभावस्यैवासम्भवादिति चेत् ; न ; स्ववचनव्याघातार-प्रस्तुत हि प्रभवचन परस्य स्ववचनम् , क्वेर व्याहत्येत । यदि न सर्वत्र तेझावसम्भवः, तस्याहेतुकस्यासम्भवात् व्योमकुसुमवत् 1 सम्भवेऽपि देशकालादिनियमानुषपोः । हेतुनिबन्धनो हि भावानां १. नियमः कार्य तदभावे भवेत् १ तथा चैं वादिवत् प्रतिवादिप्रालिकादेरपि तत्रभवचनप्रसझान कस्यचिदुसरवादित्वं न परीक्षकत्वं नापि नियामकत्वमिति प्रामम् , प्रश्नकृत एव वेदनुपपत्तेः । वादिन एक तत्पश्मवयनं तस्यैव "हेतुहेतुमदावनिश्चयाभावान्न प्रतिवादशदेविपर्ययादिति चेत् ; "तन्निम्बयपूर्वक तहि तद्वयनमानीकर्सव्यं तन्नान्तरीरकत्वात् , तथा च कर सर्वत्र कार्यकारणभावाभावः ?"सद्वदन्यत्रापि "व्याभिव्यतिरेकयो: "सद्भायोपपत्तेः । तदेयं तनिश्चयतत्पर्यनुयोगक्चनयोः ५ कार्यकारणभाव स्वयमेवोपदर्शयति सर्वत्र तदभावम्व कथयति इति कथं स्ववचनव्याघात्याशबन्धान्निर्मुध्येत ? सन्न सदमाव(ताच त्यासम्भवानपर्यनुयोगवरनम्", सम्भदेऽपि तस्य दुरवबोधयात्" । "दुरपबोर्ष खल्विदं यत्किविस्फस्यचित्कार्य कारणं चेति, सद्धावस्य पूर्वापरभावाधिकत्वात् , "तत्र च प्रत्यक्षस्य सन्निहितविषयमात्रपरिच्छेदस्वभावत्वेनाप्रवृत्तः । सवप्रवृत्तौ तत्पूर्वकत्वेनानुमानस्यानुत्पत्तेरिति चेत् ; वरप्यसमीचीनम् ; सदनवबोधतत्पर्य योग- २० पचनयोरपि बाबपरिझानाभावापोः । भवावति चेत् । न तहदिमुपपन्नम्--'तदनका बोमात् सत्पथैनुयोगः' इति । तदनयोहे तुफलभावपरिखाने "सत्येय एवंयचनोपपसेर्नान्यथा रध्यापुरंपवत् । कथं हि तद्धावपरिझानम् ! परस्यापि कथमिति चेत् १ भवतु परस्यापीद योधं न "सावतेध स्वपक्षे समाहितं भवतीति चेत् ; आस्वा सावदेसत् , क्षेतुफलभावपरिवानस्य यथावसरमुत्तरत्र निरूपणान् । तस्मादुपपनम् इन्द्रियकार्य यसदिन्द्रियप्रत्यक्षमिति ।
प्रायविका० ५। २ म्यायवि. का. १३ स्थायवि. १५८ है-इन्यते मा० म०, ५०, स. ५ कार्यकारणभार । ६ प्रश्नवन - देशालादिनियमः। ८ चारादिवत् आ०, १०,०, स.। देशकालादिनियमाभाये। उसरवादित्वायनुपपरो! १-प्रावाभावनि-सा हेसुहेतुमावनिश्ननपूर्वकम् ।।२ प्रस्तुतप्रश्नपचनम्। १३ प्रस्तुतप्रवचनयत् । १५ अन्वयअतिरेकरः। ५ तापीता। १६वलिश्च आ०, १०, प.। १७ हेतुहेतुमद्भावनिश्चय । १८ कार्यकारणभावस्य । १९ 'कुत्तः पुनश्चनुरादीन्द्रियकार्यस्य घटादिप्रत्यक्षस्य अरगम्यते ?' इति धर्यतुयोग्ययनम् । १. कार्यकारणभावस्य । ११ -तु करित खल्विदं आस, प०, प० । २२ दुरोध कल्पित य--१०। २३ पूर्वाचरमाने । २४ कार्यकारणभाशमवयोम। २५ कार्यकारणभाव । २६ हेतुईतुगमायनिश्श्यगर्भ वचनम् । २० वदनबमोघतापर्यनुयोगयो। १८ सरयेवं व-कव०, प०, स । २९ सद्भाव-भा०, ५०, ५०, स.। . तारने श्रा०, २०, सन
गया सम्मान
ASNA
११
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१०६ न्यायधिनिश्चययिषरणे
[२३ वत्प्रत्यक्षस्य निर्णयात्मकरदात् , तेन च स्थविषयस्य सर्वाकारण ग्रहणान्न तद्विषये ज्ञानान्तरस्य शब्दान्तरस्थ वा व्यापार:, सिद्धोपस्थायित्वेन वैया, समारोपयरच्छेदस्य चाऽभावात् निश्चिते समारोपानुत्पत्तरिति चेत् । न तस्य प्रादेशिकत्वात् । तत्प्रत्यक्षं हि
स्वविषयस्य प्रदेशत एव ग्रहणे स्वशक्तिमयुक्तनियोगाधिष्ठित न साकारण, तथैव तस्य निर्या५ घमबयोधात् तस्मादयमप्रसङ्ग एक निष्प्रदेशमेव सकलं वस्तु कथं तस्य प्रदेशतो प्रहर्ण 'तद्रहणम् ? ग्रहणस्य विभ्रमरूपत्वप्रसङ्गादिति धेन ; आस्तामिदम् , अनन्तरमेव निरूपणात् ।
भवत्येवं तयापि कथमिन्द्रियप्रत्यक्षस्य प्रामाण्यम् ? कथं च न स्यात् ? अप्रवर्तकस्यादिति चेत् । किं प्रवर्तकत्वेन प्रामाण्यं व्यानम् ? ने चेत् ; वदभावे तदभावानुपपत्तिः, अतिप्रस
मात् । व्यामेवेति चेत् । न ; स्वसंवेदमयोगिप्रत्यक्षयोरपानाण्यप्रसङ्गात् । न हि स्वसंवेदन १० स्वरूपेऽन्यन्न वा प्रवर्तकम् ; स्वरूपस्यानुभूतत्वात् , अन्यस्य चाविषयत्वात् । नापि योगी सत्य
स्यक्षास् क्वचित्प्रवर्तते कृतार्थवान् । वस्तुयाथात्म्यविषयवारप्रामाण्यम् इन्द्रियप्रत्यक्षेऽपि समानम् । प्रवन्तः प्राक् उद्विषयत्वमेव कदमवान्तव्यम् , प्रतिभासस्य सत्येतरविषयसाधारणत्वादिति चेत् ? न ; स्वसंवेदनादावपि प्रसङ्गात् । स्वहेसूर्पनिबद्धात् कुसश्चित्सामर्थ्यात् प्रति
निरपेक्षमेव स्वप्रामाण्यं तेवगच्छत्तीति चेत् ; इन्द्रियप्रत्यक्षमपि किमेव न भवेत् ? संशयादि१५ दर्शनादिति चेत् ; नि:संशयादेरेव तस्मामाण्यनिर्णयस्थावलोकनात् । न हि "सुचिराभ्यासपरिकलित
पुरोवर्तिनीरनिकरनिर्भासवतः प्रत्यक्षस्याकृतप्रवृत्तिकस्यैव न प्रामाण्यपरिज्ञानम् , नापि सन्देहाथनास्याक्तिविषयत्वम् । यत्रापि न स्वतस्तत्परिज्ञानं तद्धेतुशक्तिवैकल्या, तत्रापि कुतश्विद् वर्दुरासवादेर्लियात् विषयतथात्ववेवने सत्परिज्ञानोपपत्तेरनुपयोगिन्येव प्रवृत्तिः । अथ प्रवृत्तिकामस्थ
यपि तन्न प्रवर्सके कि तेन प्रमाणेनापीति चेन ?; क एवमाह--'तस्य न प्रयर्चकम् इति ? २० प्रतिविषयोपदर्शकस्य प्रवर्तकत्वोपपत्तेः । में पर्वमानस्य प्रवृसिविषयत्वं तस्यानुभवात् प्रवृत्तेश्वातु
भवार्थत्वात् । तरफलसिद्धावपि प्रवृत्ती तदनुपरमप्रसङ्गात् । अनुभवान्तरार्था पुनः प्रधृत्तिरिति खेत् ;न;"तदन्तरकाले प्राचीन विषयानवस्थानात, निर्विषयस्य चानुमवस्याभावात् । भाषी तु भवतु प्रयुत्तिविषयः, प्रवृत्तिकामस्य सत्राभिलाषान् । किन्तु न तस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणम, इन्द्रिय व्यापारस्य वर्तमानपुरोवर्तिपर्यायमात्रपर्यवसायिस्वेन भाविभागोचरत्वे सदुपनिवजन्मनः प्रत्यक्षस्यापि चनाव्यापारान् ।
श्वृत्तिविषयत्वं न वर्तमानस्य दर्शनात् । अघुसिदेर्शन्सव दर्शने सति किं तया ॥३०॥ निष्फलाऽपि प्रवृत्तिवेत्तस्या" सुपरमः कथम् ।
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1-सि-आ०,०, १०,०।३-स्य भाका-भाग, पास इमिंदरप्रत्यक्षस्या तस्य तरत्रा-आ,००,स.1 तहमिति पदं निरय प्रतिभाति । ५ यदि व्याप्त म स्यात् । प्रव
कादाभावे प्रामाण्यामायो न स्यात् । - स्वसंवेदनयोगिप्रत्यक्षयोः। 4 -तूपनिबन्धात् ०, २०, २०, ९ स्वसंवेदनवामिन नक्षम् । १. स्वचिरा-अर०, २०, २०,
स
म त-१०, २०, ५०, स. ११ नमुभवाम्सरसमये। १३ भाविमि । तत्रापि ब्या-80,..,प०स०१४-पैरकाया t०, २०, ५०, स.।
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१३]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावा
ने दर्शनानन्तरार्थापि तत्काले विषयास्थितः ॥३१०॥ भाविरुवाकाढितत्वेन प्रवृत्तिविषयोऽपि सन् । मेन्द्रियोपनिबढेन प्रत्यक्षेणोपलभ्यते ॥३११।। वर्तमानपुरोवर्शिव्यायवादिन्द्रियात्कथम । भावे भाविन्यतारशे प्रत्यक्षमुपजायताम् ! ॥३१२॥ अष्टेजप प्रवृत्तिश्चेत् भविम्यभ्युपगम्यते ।
अतिप्रसङ्गदोपेण कथमेवं न लिप्यसे ? ॥३१३।। इति चेत् ; अत्र प्रचाकरस्य निर्वाह :-'अभ्यासदायों वर्तमान एक जनादिरूपे भाविनस्तद्रूपस्योपादानत्वेन सरसहभाविनश्च स्पर्शादेः तदेकसामायधीनसया तरसहकारित्वेनाध्यारोपाद् दृश्यदर्शनमेव भाविनि प्रवर्तकम् । न चैवमतिप्रसङ्गिनी प्रवृत्तिः, अध्यारोपविषय एषु तदुपा. १० भात् । २ सध्यारोपस्याप्यतिप्रसातित्वम् ; सत्येय सम्बन्धे तद्भावात् । अनभ्यासे तु तद. ध्यारोपाभारास्, भाग्यधिनाभावितोयाथाकारविशेषलिमादर्शनोपनिबद्धावनुमानात्प्रवृत्तिः' इति तन्त्रेदमुच्यते-कोऽयं तदध्यारोपो नाम १ दृश्यप्राप्ययोरेकत्वग्रहणमिति चेत् । न नहाँवं प्रत्यसतः सम्भवति; तेस्य क्षणपर्यवसितवस्तुविषयत्वेनाभ्यनुज्ञानाम् । पारमार्थिकस्यैव तस्य तद्व. स्तुविषयत्वम् , सांव्यवहारिकस्य तु तदेकत्वग्रहणमविरुद्धमेव । यदाह-"साव्यवहारिकप्रत्य- १५ सापेक्षया तु कत्यस्य प्रतीतिरित्युच्यते" [ ] इति । तात्पर्यमत्र- कर्तवं हि क्रियायां स्यातन्त्र्यम् , क्रिया च पूर्वापरामिका । न तत्र वास्तवस्य प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिः, अतः सांव्यवहारिकस्यैव तस्य सत्र व्यवहार इति । तदिदमसम्बद्धमेव ; क्षणमात्रपर्यवसितयस्तुविषयस्यैव प्रत्यक्षस्य साध्यवहारिकत्वात् । न हि पारमार्थिकस्थ सस्य संविषयत्वम् ; सकलविकल्पानीहसंकेदनपरमार्थविषयत्वेन "तदङ्गीकारान् । तदर्य स्खमसमपर्यालोययझेव यथावान्छितं कचिदम्याsपि २. कथयतीति कथमनुन्मयः ? "विकल्पेन हि तदेकत्वं वेद्यत इति चेत् । न वय वैद्व्यतिरिकस्य "तेनाप्रतिवेदनान , विकल्पस्य अहिर्विषयत्वानभ्युपगमात् । अव्यतिरिक्तस्य वेदनमिति चेत् ; कथं "ततो भाविनि प्रवृत्तिः १ घहिरियादपि जलादिदर्शना "त"सामनिच्छन् बहि:स्पर्शगन्धमप्यनाइदा (धा) नाद्विकल्पादिछतीति कथं स्वस्थः ? 'तदर्शनादेव तद्विकल्पसहा
1 तदर्शनान्तरास्थापि सः । दर्शनास्तरास्थापि आ०,१०,५०१ २ “दा माविस्वरूपे इत्कारपनेनेकतारोषः। पत्र तु सादौ तदेकसाश्वधीनस्लोति न विशेष:"-5. धार्मिकर
नल्ले सरसहआ०, २०, ५०१ ४ --सहादिनित्ति-आ. व., प., स. ५ तस्य लक्षण-बा०, २०, ६०, सा।
प्रत्यक्षस्य । इणपर्यवसिलवस्तु । ८ "नच प्रत्यन्ततः कायमपि पूर्व प्रतिपन्नम् , पौर्वापर्ये प्रत्यक्षरवावृत्तः । सांव्यवहारिकप्रत्यवापेक्षषा तु प्रतीतिरितुय्यते।"-प्र. वार्तिकाल. १२ ९क्षणमापर्यवसितवस्तुविषयलम् । . "इदं च पुनर्वासार्थम्मभिव्य प्रतापाइकभावनाभ्युपगम्य उच्यते । परमार्थतस्तु सकलमेव स्वसंवपनमा नेन्द्रियादिप्रत्ययप्रविभायोऽस्ति ।"-प्र. वार्तिकाल. २१२५०० विकल्पत्येन मा..., ५०, स. १२ एकरवस्य । १६ पिकल्पश्यतिरिक्तस्य । १४ विकल्पैन । १५ विकल्या । बहिषिषये । "प्रसिम् । १८ -प्यमादर्शनाद्वि-ता.। १९ व्यवहारतः बहिषिषयकप्रत्यक्षादेय।
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न्यायविनिश्चयवियर प
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याक्तत्र' प्रवृतिरिति बेस्; कथं 'स्वयमवगोचर मसगोचरसहायमपि तत्र प्रवर्तकम् ? न न्धस्य तदन्तरसाचिव्येऽपि रूपदर्शनसामर्थ्यम् । अथ बहिर्गीवर एव विकल्पः, तदव्यतिरि star agers astरूपत्वेनाध्यवसायादिति चेस्; न; सहीरूपत्वस्यापि व्यतिरिक्तस्वेनाप्रवेदनात् । अव्यतिरेकेण वेदनमिति चेत्; न; 'कथं ततो भाविति प्रवृत्ति:' इयायनुवृत्तंत्र५ क्रकोपक्रमात् अनवस्थानदःरध्यान कथं वा प्रवृत्तिकार्ये दर्शनसहायत्वं विकरूपस्य मिनविषयनीलज्ञानवत् पीतदर्शनस्य । तदेकत्वाध्यवसायात्; न; दर्शनस्य निर्विकल्पकत्वेन ततस्तदसम्भवात् । विकल्पात्तत्सम्भव इति चेत्; न; तेनापि तद्व्यतिरिक्तस्य तदेकत्वस्यामध्यव सायात् । अव्यदिरितस्याध्यवसायेऽपि स्वरूपमेवाध्यवसितं न तदेकत्वम् । पुनरपि तस्य तदेकसास व प्रसङ्गः 'न दर्शनस्य' इत्यादिर नवस्था च । नतु एयं व्यवहारी न विक्रेच. १० यदि प्रवृत्तिविरोधित्वात् । न हि प्रवृत्तिकामस्य तद्विरोधिनि विचारे सादरत्वं तत्कामत्यविरोधात् । arrana ज्ञानं veकामस्य पक्षतः १ तथा चेत्; अनर्थकं तहि तं प्रति प्रमाणलक्षणप्रणयनम् । व्याख्यातारं प्रति नानर्थकम् "" व्याख्याताः खन्वेवं विवेघयन्ति" [प्र० स० स्व० १।७२ ] इति वचनादिति चेत्; न; तस्यापि प्रवृत्तिकामलाविशेषात् आहारा प्रवृत्तिदर्शनात् । न हि प्रसृस्युपायस्य विवारभीरुतां विवेचयन्नेव सत्कृतां १५ प्रवृतिमुपजीवितुमर्हति। विवेनापि सहजेन व्यामोहेन तामुपजीवतीति चेत् न, विवेकन्यामोहयोः तमःप्रकाशवविरोधात् । अन्य एव विवेक आहार्यस्य अन्य एव न सहजव्यामोहस्य विरोधी, तंत्र शास्त्रोपनीतेन विवेकेनाहार्यस्य निवृत्तावपि को विरोधी सहजस्य तस्यावस्थानं तत्कृतञ्च प्रवृस्युपजीवनं न भवेदिति चेत् ? उच्यते
२०
२५
आर्येण frialsस्य वियेकस्य कुतो मतः ।
विरुद्धविपयत्वाचेत्; सहनेनापि तन्न किम् ? ॥ ३९४ ॥ अविरुद्धार्थतायां तु विवेको मोहतां प्रजेत् ।
"आहार्योऽपि ततो मोहसम्मोहात् नाशवान् कथम् ॥ ३१५ ॥ मोहो मोहाविरोधाल मोहध्वंसाय करपते ।
न मशालनं लोके समलैवोपलभ्यते ॥ ३१६ ॥
ततः सस्य वैयर्थ्यमागतं सौगते म ।
तनेदमिह साधूक्तम्- "शास्त्रं पोहनिवर्सनम् ॥३१७॥ [ श्र० वा० १७ ]
बहिर । २ परमार्थतः दर्शन बहिरर्थोगोचरं सत् वहिरयगोचरविकल्पदायादपि कथं हि प्रवर्तक स्यादिति भावः स्वगोचरखायमपि आ०, ब०, प०, स० ३०षि व्यवसा-आ०, ब०, प०, स० ४ दर्शमा एकाभ्यवसायासम्भवात् । ५ तस्प्रति-आ०, ब०, ९०, स० । व्यवहारिणं प्रति । ६ "व्यारूपवारः एवं विवेचयन्ति न तु व्यवहर्तारः, सेतु स्वालम्बनमेव अर्थकिनाययं मन्यमानाः विकल्यार्यावेकीकृत्य प्रवर्तन्ते ।" प्र० पा० स्व० १।७२ | * व्याख्यातुरपि । ८ आरोपितस्य व्यामोहस्य । १ व्यामोहस्य | १० नं मला०, ब०, प०, स० 1 विरुद्धविषयकम् । २ आहार्येऽपि आ०, ब०, प०, स० | १३: विषेष सहजन्यामदादविषयः अतः स्वयं मोहरूपः सम्प्राप्तः सघा कथं तेन आहार्यमीहस्य नाशः इति भावः ।
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[३]
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
तद्विवेकाविरुद्धार्थी मोहो वा सहजस्तव । विषेक एव संवृत्तो व्याख्यातुरिह धीमतः ॥३१८॥ आहार्येतररूपाभ्यां व्याख्याता रहितस्तप्तः । क्यचित्कथं प्रवत कुत्तश्चिद्वा निवर्तताम् ।।३१९॥ पुनर्मोहान्हरं तस्त्र सहजं यदि फलप्यते ।
पूर्वसर्वप्रसङ्ग स्यात् सानवस्थानचक्रकम् ।।३२०॥
शाखोपनिषद्धजन्मनो विवेकस्याहायेगापि मोहेन उद्विरुद्धविषयत्वादेष विरोधो नान्यथा। मोहस्य हि दृश्यपाप्ययोरेकत्वं तद्विवेकस्य तु तन्नानास्वं विषय इवि ; यवं सहजेनापि सस्य विरोधः स्यात् तस्यारि तदेकत्वविषयत्याविशेषात् । अविरोधे तु सहसमोहवतद्विवेकस्यापि तदेकत्वगोपरत्वेन तस्यापि मोहरूपत्वम् , आरोपितविष्यत्वात् , तथाच कथमाहार्यस्यापि मोहस्य १० तस्मादपवर्तनम् ? । न हि मोहादेव मोहान्तरमपसरति तस्य दवविरोधिरूपत्वात् । न हि समस एव तमाप्रक्षालनं क्वचिदप्युपलब्धम् । तथा च मोहप्रसरहेतुरेव शास्त्र में मोहधिध्वंसकरमिनि साधु मानिमेवा- 'शा मोहनियतनम् । ५० पा० ११७ ] इति । मोहस्य षा सहजस्य विवेककार्थत्वेन विवेकरूपतापतौ न व्याख्यातुराहार्यः सइजो का मोह इति कथं तस्य क्वपित्रावर्चनं निवर्तनं या कुत्तश्चित् ? पुनरपि सहजमोहान्तरपरिकल्पनावदोष १५ इति चेत् ; न; पूर्वनिरयशेषप्रसङ्गपौनःपुन्यादनवस्थादौःस्थ्यावहस्य चक्रकस्य प्रसन्नात् । तन्न अविचारितरम्ये संवेदनप्रामाण्ये शासप्रणयनमर्थवत्, विचारपरिशुद्धं तमामाण्यमिति । व्यामोहनिषेधार्थत्वात् न हि सस्यानर्थकामिति चेत् ; न ; तनिषेधस्य प्रवृत्तिकामैस्लेविरोधिके. मानभ्युपगमात् । कस्यचित्कचित्प्रवृत्तिरपि मास्त्येष पूर्वापरीभावस्यादर्शनशास्त्वादिति" चेन्न; भेदमावत्यैवमतिपत्तिप्रसङ्गान् । भवतु सर्वभेदविनिर्मुक्तं संविन्मात्रं तस्वम्-"स्वरूपस्य स्वतो २० गति:" [प्र. ० ११६ ] इति वचनादिति चेत् ; भारतां तावदेतत्-'स्वतस्तत्वम् "इत्यादी विचारात् । वन्न अभ्यासदशायामेकत्वाध्यायेपास्यमस्य भात्रिविषयत्वोपपः भाविनि प्रवर्शकत्वम् ।
___ नाप्यमभ्यासदशायाम् अनुमानस्य ; लिङ्गानावेन तस्यैवाभावात् । दृश्यमेव जलादि लिममिति चेत् ; न ; तस्य प्राप्यैकत्वेनाध्यवसितत्वात् । न हि साध्यमेव साधनम् ; अति. २५ प्रसङ्गात् , स्वभावहेतोरपि व्यवसितसाध्यव्यतिरेकस्यैष लिहत्वात् । दृश्यमपि व्यवसितप्राप्यव्यतिरेकमेयेति चेत्न; बव्यवसायस्वाभ्यासनिवन्धनत्वेन वदभारे अनुपपरोः क्षणविवेकज्यवसायवत् , अन्यथा सैदूव्यवसायस्याप्यतभ्यास एव सम्भवात् यदुक्तम्-"अभ्यासपाटवाद्य
वासदजसका ., ०,१०० । २-पनिबन्ध --मा०, २०, ५०, स वियेफर 10 साजम्यामोहस्यापि । ५ विवेकस्यापिविवेकात् । . तदेय मोई-श्रा, ०,१०,१०८ शासप्रययनस्य।
प्रवृत्तिविरोधिरवेन । १. प्रत्यक्षाविषयत्वात् । म्यायवि.लो. ५६ । १२-तू अदृश्य-श्रा०,१०,५०,०। १३ साध्यनिषतंया. पतस्य । १४. झणविवेकव्यवसावस्यापि ।
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ग्यायरिनिश्चयविवरणे
[१३ भावान तणदिवेकव्यवसाया" [ ] इति वदपालोचितवचनं भवेत् , क्षणविवेकानुमानस्य च वैफल्यात् । निश्चिते समारोपाभावात् तद्व्यवच्छेदकलस्वानुपपत्तेः । तनयमभ्यासदशायां दृश्यप्राप्यविवेकव्यवसायप्रसवोचितायरमपि तदेकलाध्यषसायमेवाभिदधानः पुनरनभ्यास. समये तदनुचितेऽपि तद्विवेकव्यवसायमावेदयतीति सत्यं तथागतप्रज्ञ सद ताथास्तः। किन
लिनलिनिविभागेन दृश्यप्राप्यार्थनिश्चयात् । अभ्यासप्तम मालमनुमा यो चम् ।।६।। अन्यदा तु प्रमाणत्वमध्यक्षस्योपपत्तिमन् । तकत्वावसायस्य निरभ्यासेन सम्भवात् ॥३२२॥ तैकमन्यायमुल्लध्य कुर्वतस्तव्यतिकमम् । तष प्रशाकरस्यापि कुतः प्रज्ञाविपर्ययः ? १३२३॥ यदि चाभ्यासतोऽध्यक्ष दृश्यप्राप्याविवेकटक् ! पश्येत्सौगतमध्यक्षं क्षणानामन्वयं तथा ॥३२४॥ अभ्यासातिशयोद्भुतं तद्यसो भवतो मतम् । तत्सर्व क्षणिक यात्कयं नाम महामुनिः ॥३२५॥ अन्यथा वस्तु पश्यंश्चदन्यथोपदिशेदयम् । कथनाम प्रमाणं स्यादविसंवादयनात् ११३२६॥
अभ्यासोऽपि सुगतस्य क्षणिकतयैव भावेषु तथैवानुमानादिति चेत् ; व्यवहतुंरपि तथैय स्यात्तथैव दर्शनात् , अन्यथा--"पश्यनर्थ क्षणिकमेव पश्यति" [ ] इत्यस्य विरोधात् ।
सन्न प्रज्ञाकरस्यैवमेकत्वाध्यवसारतः ।
माविप्रवृत्तिचिन्तायामुपपचिमती मतिः ॥३२७॥
कथं वर्हि भाविनि प्रवृत्तिरिति चेन् ! तस्य साक्षादेव दर्शनादिति अमः । यदि दर्शनं कि प्रवृत्या ! तस्या दर्शनार्थत्वात् , तस्य च सिद्धत्वात् , न हि सिद्धप्रयोजनहेतवः प्रयोजनार्थ
मिरभ्यय॑न्त इति चेत् ; न; प्रवृत्तदर्शनगोचरभाविरूपसहभाविस्पर्शादिप्राप्स्यर्थत्वात् । स्पर्शा२५ देरपि यदि दर्शनं न |धृत्तिा, वैफल्यान , नाध्यदर्शने अतिप्रसङ्गादिति चेत् । न ; तस्य दृश्यमान
रूपतादात्म्येन कथनिदर्शनस्यापि भावात् । सर्वात्मना दर्शनादर्शनयोरेव प्रवृत्तिवैफल्यातिप्रसतदोषोपनिपातात् ।
एतेनेन्द्रियान्सरवैफल्य प्रत्युसम् ; सशंदेविशेषत इन्द्रियान्तरादुपलव्धेः। रूपस्थापि कथं भाविनो दर्शनम्, अनभविषकरवात् , कथं वा तस्य स्पर्शायकस्य विरुद्धधर्माध्यासादिति ३० चेत् ! आतां साक्देतन् यथास्थान निवेदनात् ।
पुनरभ्या-बा०, १०, १०,०।२ सवागनः मा०,१०, २०, स. अभ्यथा तु मा०, ५०, प-1 तस्कमन्याय्यमु-
सास५ साकाक्षाचेव था०, २०, ५०, I सिद्धिश्योअवहे-जा, प., २० प्रति-भा०,०,१०, स०१८ रूपसहभाघिस्पर्धादेः । ९- तेने-सा ।
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मार्गक
१३]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
१११
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ननु यदि भाविन्यपि प्रत्यक्षं प्रवर्त्तकं कथं तर्हि भाष्यकारैर्तमान एव तस्यै तमु मिति चेत्; न; वर्त्तमानप्रवृत्तित एव भाविप्रयोजनावाप्तेः न तदर्थमेकत्वाध्यवसायेन प्रत्यक्षस्य भावविषयत्वं प्रति सौगतेन प्रयवितव्यमिति निवेदनार्थत्वात् तथा बचतस्य । यथा च ततस्तवास्ता तैरेव सविस्तरं निरूपितम् । यत्पुनः " अभ्यासेऽपि भाविज्ञानमनुमानम्" ] वि वचनम् यवसाय प्रयमसाधितमपि प्रत्यक्षं न प्रत्यक्ष मिति निवेदनार्थम् । कथन्न प्रत्यक्षमिति चेत् ? आरोपितविषयत्वात् । आरोपितं हि दृश्ये तत्कारणत्वेन भाविरूपं तज्ज्ञानस्य विषयः, सादृशस्य च सविकल्पकत्वान प्रत्यक्षत्वम्, कल्पनापोढस्य तस्यात् । हारी नैवं मन्यत इति चेत् किं पुनर्व्यवहारादन्यत्र कल्पनापोढत्वं प्रत्यक्षलक्षणमुक्तम् १ तथा चेत् न प्रमाणम्, "ग्रामाण्यं व्यवहारेण" [ ० वा० ११७ ] इति वचनात् | न चाप्रमाणं प्रत्यक्षम् ; प्रमाणविशेषस्य तस्वात् । ततो व्यवहारादेव कल्पनाविरहस्य प्रत्यक्षलक्षण- १० स्वात् नारोपितविश्वस्य प्रत्यक्षत्वं विकल्पकत्वात् । एतेन कुञ्चिकाविवरमणिप्रभा मजिज्ञानस्यापि प्रत्यक्षत्वं प्रत्युक्तम् आरोपितविषयत्वेन विकल्पकत्वाविशेषात् । तहिं विकल्पकं तदिति वक्तव्यं किमनुमानं तदित्युक्तमिति चेत् ? न; परत्य निर्देशनाभावनिवेदनार्थत्वात् परस्य हि वचनम् -“अभ्यासे भाविज्ञानवत् प्रभामविज्ञानवच आरोपितविषयमपि प्रमाणमनुमानम् अर्थाविसंवादाद” [ ] इति । वत्रेदमुध्यते - निर्देर्शनज्ञानं किनाम प्रमाणम् १ १५ न प्रत्यक्षम् ; विकल्पकत्वात् । न च तेन्मार्क प्रमाणम् प्रमाणद्वयनियमव्यापतेः । तस्मादनुमानमेव तत् । न च तस्य निदर्शनत्यम्, अनुमानान्तरवत् विवादविषयत्वात् विवादे किं निमित्तमिति वे; अनुमानान्तरे किम् ? आरोपितविषयत्वमिति चेत् न प्रकृतेऽपि सद्भाषात्, अन्यथा तस्य स्वलक्षणविषयत्वेनाध्यक्षाविशेषप्रसङ्गात् । ततो न किञ्चिनिवर्शनं यदनुमानप्रामाण्यसाधनं प्रत्युपयुज्यत इति निवेदनार्थं भाविज्ञानस्यानुमानत्यवचनम् । ततः समञ्जसं प्रत्यक्षस्य भावि - २० विषयत्वेन तत्र प्रवर्तकत्वम् इति सूतम्-हिताहितप्राप्ति परिहारक्षममिन्द्रियप्रत्यचम्। हितस्यानुकूलत्रेदनीयतत्कारणरूपस्य अहितस्य च प्रतिकूलवेदनीयतत्कारणरूपस्य यथासंख्येन प्राप्तौ परिहारे च तस्य शक्तिसम्भवादिति सुविवेचितमिन्द्रियप्रत्यक्षम् ।
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अनिन्द्रियप्रत्यक्षं तु सर्वचेतसां स्वसंवेदनम् तस्य योपशमविशेषापरनामधेयाद् अनिन्द्रियादुत्पत्तेः द्विशेषव्यतिरिक्तस्य त्वनिन्द्रियस्य "सतोऽपि स्वसंवेदनं प्रत्यनुपयोगात् २५ तथा च भाष्ये सविस्तरं निर्णीतम् । कथं पुनः संवेदनानामात्मवेदनमिति चेत् ? कथमर्थवेदनम् ? निर्वानुभवादिति चेत् समानमात्मवेदनेऽपि । स्वरूपपरिच्छेदपरावृत्त तथा बहिरङ्गोपग्रहमात्रव्यावृयानां” तेषामनुभवात्, "अर्थग्रहणं बुद्धि:" [ न्यायभा० ३।२।४६ ] इति
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· अक्लदेवैः । २ प्रत्यक्षस्य ३ प्रगर्तकत्वम् । ४ प्रश्वत्वात् । ५ " तस्मात् मणिायामपि मणिशानं प्रत्यक्षमैव " - २० वार्तिका० २५७ । ३ भीदेन दि अनुमानप्रामाण्यसाधनाय मणिप्रभावित पन्यस्तम् (प्र० बा० १५७ ) सब मत्प्रभामणिज्ञानस्य अनुमानत्वापादनेन विपटत इति भाषः ॥ ७ परस्यापि वच-आ०, ब०, प०, स०८ मणिप्रमामभिज्ञानम् ९ विकल्पमानम् । १० स्वतोऽपि स० १ व्यायुक्तानाम् आ०, ब०, प०, स० ।
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न्यायधिनिश्चयविवरणे
[ १३ वचनान्न सेवामात्मवेदन मिति चेत् । न ; वचनमात्रात् अपरिस्खलिसप्रतीतिव्यापारोपदर्शितस्य तस्य प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् , अन्यथा अर्थवेदनस्यापि प्रत्याख्यामप्रसङ्गास् , "स्वरूपस्य स्वतो गतिः [प्रवा० १:६] इति तत्प्रत्याख्यानपरस्यापि वचनस्य भावात् ! 'ज्ञानान्तरवेद्यमर्थज्ञानं
वेश्त्वान् कलशवत्' इत्यनुमानानुवहार पूर्वमेव वचनमुपपत्तिमत्, नापरमिति चोत्, न; 'स्वसंवेद्य५ मेव ज्ञान वेद्यस्वात् सुखादिवत् इत्यनुमानानुग्रहस्य परवथनेऽपि भावात् । फुतः पुनः सुखादेरपि
स्वसंवेद्यत्वमिसि चेन् ? कलशादेः अन्यवेत्यवत् प्रतीतेरेव । कथमेवमपि तत्त्वसंवेदनस्वभाव. मियमस्यानुमानविषयस्ये न प्रतिज्ञाध्यायातः ? न हार्थान्सरभूतानुमानविषयतामावहत एवं नियमेन स्वानुभवस्वभावत्वम् । अतद्विषयत्वे तु कथमतद्विषयमनुमान तत्प्रतिपादनपरस्य स्वरूप. स्व' इत्यादिवचनस्यानुप्राहकं यत्तदेयोपपत्तिमद्भवेदिति चेत् ; उच्यते
संविदामन्यवेधत्वस्थानुमान स्ववियदि । सदत्यवेधनियमात ज्यते ।।३२८) स्वयमज्ञातसत्त्वं त् अस्वसंवेदने कथम् । अर्थग्रहणमित्याचसोऽनुग्रहममम् ॥३२९॥ अननुबाहकस्वेनाप्येवं तत्किन्न कल्प्यते। इत्यमेवान्पक्ष नेति नादृष्टं शक्यकल्पनम् ।। ३३०॥ अन्यतो वेदनं तस्याप्यनुमानस्य चेन्मतम् । न तदानी तत् , अन्यस्य वेदनस्याप्रवेदनान, १३३९॥ पश्चादेव तदस्तिस्ये पश्चादपि न जायते। यदा तदा कधं नाम तदित्यम्भाषवेदनम् ॥३३२॥ विषये सति सज्ज्ञानं स्यादेव नियमादादि। सायाध्यक्षातसत्त्वस्य "सद्वित्वं कथमुच्यताम् ।।३३३॥ तस्यापि वेदनावित्तिरन्यालश्वेतप्रकल्प्यते। न तदारी तदन्यस्येत्यादि पूर्वप्रसञ्जनात् ॥३३४॥ चक्रक भवतः प्राप्तमनवस्वाभयप्रदम् । सतोऽनुमान स्वाभासस्वभावममिवर्यताम् ॥३३॥ ततः प्रतिसाव्याधायः समाधातुं न शक्यते। सतो नातिशयः कश्चिद्योगसौगतयोमिधः ॥ ३३६३॥ उस्मात्प्रतीत्युपाध्यायैर्यथा वास्तु (वस्तु) प्रतीयते । तथैवाभ्युपगन्तव्यं निर्मुच्यानहनैशसम् ॥३३॥
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२५
१ जानवेशनस्य । २ "सस्मात् समान्तरसंयेय संवेदन देयत्वात् घटादिवा"-प्रशः यो . २१२९ । विधिविन्याय ०.२६१३ अर्धग्रही बुद्धिरिति वचनम् । ५ स्वरूपस्य स्वतो गतिरिति वचनेऽपि । ५ अनु. मामाविषयत्वे तु स्वस्चदन्यत्मकं यदि । ७ खनुमानम् । सम्पत्ती वेदना १९ अन्दवेदनास्ति । तदित्वम् ।
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११३]
মথঃ মখমখে अर्थवेदनवत्तस्मात्प्रतीत स्वप्रषेदनम् ।
अशक्यमेवापतोतुमितरस्याप्यपस्वात् ।।३३८॥
संवेदनानामन्यवेद्यस्यनियमानुमानं यदि स्यसंवेदनस्वभावम; कथन्न सनियमप्रतिज्ञाम्याघातः १ न चेत् तत्स्वभावम्; सहि तदेवासिद्धसत्ताकं वयम् "अर्थग्रहणम्" न्यायभा०] इत्यादेवनस्यानुप्राहक परिकल्प्यताम् ? सदननग्राहकस्वस्थापि परिकल्पनाप्रसङ्गात् । न अनुपल- ५ म्भगोपरीकृतं किञ्चिद् 'इत्यमेव नान्यथा' इति शक्यमवस्थापयितुम् , भावेषु वदतद्भालन्यवस्थावर उपलम्भनिवन्धनत्वात् । अन्यथा अपलम्भस्यैव आमर्थक्यावतिप्रसाच । स्वत एव वदघेवनमन्यतस्तु वेदनं वियत एवेति चेत; म; अनुमानसमसमन्यस्य तस्यावेदनात् । युगपवेदनोस्पत्तेरनभ्युपगमाच्च । पयादेव तघेदनमिति चेत् ; न पश्चादपि यदा तन्न जायते तदा कथसनुमानस्य इत्यम्भाध्यवसाय: स्यात् । स्थादेवाथम्, सति विषये तस्संवेदनस्यावश्यम्भाषा-१० दिति मेहन; तस्याप्यविदितस्य अनुमानस्वरूपेत्थम्भाषणोपरत्वानयरामास्। तस्याप्यन्यतो घेदनं घेत् ; न; अनुमानसमेत्यादेरनुगमेन चक्रकोपनियतात् । पुनस्न्यतस्तस्थापि बेदनपरिकल्पनायाम् अनवस्थापनश्च : ततोऽनुमानस विषयनियम व्यवस्थापयिसुकामेन स्वाभासस्वभार्य सदभ्युपगम्सन्यानिति कथन भवतोऽपि प्रतिज्ञाव्याघाल: ? यदिमौ अन्यवेद्यानन्यवेधनियमवादिनी न परस्परमतिशयावें । तस्मानिरखद्यप्रत्ययोपाध्यासोपार्शिसे यमनि प्रदर्शमानः प्रेक्षावद्भिः १५ स्वपक्षानुरामपरिमहपरिहारेण यथाप्रतीति भावसयमभ्यनुज्ञातव्यम् । प्रतीयते चार्यसंवेदनयन् संवेदनानामात्मसंवेदनमपि सत्कथं शक्यापलापम् ? अर्थचेदनस्याप्यफ्लापेन झानवोदासङ्गात् । स्वपरपरिच्छेदविकालस्य ज्ञानस्यायोगात् मृदादिवत् । न च ज्ञानाभाचे शेयमरि किञ्चित् : तदधीनत्वात्तव्यवस्थायाः इति विजयेरन् सकलपरसुधर्मनैरात्म्यवादिनः । तदुक्तम्-'ज्ञानाभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम् ।" [ आप्तमी० का० ३. ] इसि।
२० एवेन परीक्षा बुद्धिरित्ति प्रत्युतम् । अर्थस्यापि परोक्षकप्रसङ्गात् । अनुभवोपारूढत्वानैमिति चेत्, तदुक्तम् .. स हि बहिर्देशसम्बद्धः प्रत्यक्षमनुभूयते" [शावरमा० १६१०५) इति; तदसत; अन्तर्देशसम्बद्धतया बुद्धरपि प्रत्यक्षत एवानुभवात् । तदनुभवरपलाऐ चार्थानुभवस्याप्यपलापान ज्ञानं नापि किकिचक्शेयमिति दुष्परिहर शून्यवादगावपासो मीमांसकस्य । नशानानुभवाभावेऽर्थानुभवसिसिरिति करिष्यत एथान प्रबन्धः । तस्मादवेदनान्यथानुपपत्त्या २५ विज्ञानस्य स्वछनप्रसिद्धिः।
एतेन कापिलानामपि झान व्याख्यासम्; तस्यापि 'स्ववेदनशून्यस्य अर्थवेदनत्यानुप. पत्तेः । प्रतीतमर्थभेदमिति चेत् ; न; स्वसंवेदनस्यापि प्रतीतः । सस्यम् । तस्यापि प्रवीतिन हु
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अर्यवेदमस्यापि। २-नएमयरय आ यप.स.। ३ अन्मवेदनस्य । वाचवस मा, *०, ए, स. १५-२ मत -श्रा०, २०, प, सः। ज्ञवस्थायाः । * अर्थविषया हि प्रायशयुदिन सुधन्तरविषयान शाखदेय कश्चिद्युद्धिमुपलभते, शासे स्वनुमानाइक्रशि।''तस्मादप्रत्यक्षा पुखि।" -शामा० ५.1८ दुष्परिहार -आ०, २०, ५०,०।९ स्वचिद-भाभ.प.स.
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[ २३
वास्तवस्य, ज्ञानस्य प्राकृतत्वेनाचेतनस्य वस्तुतः स्ववेदनाभावात्, वेतनोपाधिसामर्थ्यात्तु चेतनायमानस्य तस्य स्ववेदनपाधिकमेव न वास्तवमिति वेदः उच्यते--- चैतन्यं तत्कार्याय कथं क्षमम् ? ।
उपाधि
न मुखं मुखकार्या दर्पणप्रतिबिम्वितम् ॥ ३३९ ॥ तत्कार्य करणे वा तदवस्तु कथमुच्यताम् 7: वस्तु कार्यक्षमं यस्मात्कथ्यते वस्तुवेदिभिः ॥ ३४० ॥ कुर्वन्नपि भयं सैत्यं रज्जुसर्पो न वस्तु घेत् । नैरात्सारम्ः भयाभ्यासादेव तस्य समुद्भवात् ॥ ३४१ ॥ सर्पज्ञानाद् भयाभ्यासेऽभिव्यते हि भयं भवेत् ! भयाभ्यासविहीनस्य ज्ञानेऽपि तदत्ययात् ॥ ३४२ ॥ सस्थानुपयोश्चेतिज्ञानमपश्यते । इति चेद् भयसंस्कारव्यक्तौ तच्छक्तिदर्शनात् || ३४३॥ व्यक्तिरपि सर्पाच्चेत्; न; अवस्तुत्वादशधितः 'पाकनिर्णयात् ॥ ३४४॥
तस्माद्बुद्धसंस्कारकार्थत्वेन विनिश्चितम् । न सत्यं नापि तज्ञानादुपजायते ॥ ३४५॥ संस्कारस्य च वस्तुत्वमस्खलक्ष्ययार्पितम् । न शक्यमेवापोतुं त्रिदिवाधिपतेरपि ॥३४६ ॥ कार्यक्षi fiferarतु 'चदुपायात् । tara ज्ञानचेदम्यमर्थविस्यै प्रकल्प्यते ॥ २४७ ॥ किन केनैष मन्यो "ज्ञाने चैतन्यसन्निधिः । न चैतन्येन तस्यात्मसंविश्यैव व्यवस्थितः ॥ ३४८ ॥ न च ज्ञानेन चैतन्यस्यात्मनो वाऽपि वेदनम् । जस्थान, "उभयाज्ञाने ज्ञेयस्तत्सन्निधिः" कथम् ॥ ३४९ ॥ तस्मास्वनिविज्ञाने चिच्छा यदि वेद्यते । ज्ञानस्यापि तथा वित्तिः स्वरूपस्यैव कथ्यताम् ॥ ३५० ॥ ae aferfar as प्रतिबेदनात् ।
निष्प्रयोजनमेव स्यात्तदन्यज्ञानकल्पनम् ॥ ३५१ ॥
स०
१ स्वसंवेद-०, ब०, प०, २-० । ३. सवं आ०, ब०, प०, स० । ४ । मिस ० ० स ६ सर्पज्ञानम् । सर्पज्ञानशक्ति ८ सर्पास्तुवम् संदुरा- १५४०, ५०, प०, स० 1 दुष्टात् १० ज्ञानचेट-आ०, ब०, प०, स० १९ उमयज्ञाने आ०, प०, प०, स० १२ ज्ञाने चैतन्यनिधिः ।
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प्रधमा प्रत्यक्षमस्तावः
वहिरर्धग्रहेतस्या ज्ञानं येत्साधनं मतम् । ज्ञानप्राहे पर शान साधनं परिका ३५२॥ भानामामनवस्थैवं कापिलानां प्रसज्यो । झानबहे विना ज्ञानादेवमर्थग्रहो न किम ? ||३५३१॥ तन्न चैतन्यसंवेदो ज्ञाने चैतन्यसमिधिः। ज्वानषेधः से चेज्ज्ञाने स्वसंवेदनमिप्यताम् ॥३५॥ अन्यथा ज्ञानचैतन्यद्वयस्थाप्रतिवेदनात.। तेन तव्यस्रानिध्यं दुर्बोधं हि निवेदितम् ॥३५५।। यदि तद्व्वयसान्निध्यमान्यज्ञानेन उद्यते । म तरयापि अष्टत्वेन तद्विौ शैत्यसम्भवात् ।। ३५६॥ वस्या िचितिसान्निध्याश्चिद्रूपत्वोपकल्पने । वेधं तदपि सान्निध्य चोधास्थैवापरस्य यः ॥३५७॥ तत्राप्येवं विषारे. स्यादनवस्थानदेशसम । विलिसनिधिज्ञानं निर्मूल यनिकृन्तति ॥३५८॥ खतविलनिधिज्ञानमनुपाधि स्ववेदनम् ।
सानत्वात्तद्वदन्या सर्व विज्ञानमुच्यताम् ॥३५९॥
ददिदं वचनं वस्तुस्वरूपमैपि विश्का काफ्लैिः ( मचिदिच्य कापिलैः ) कथितम्"तस्मासत्संसर्गादपेवनं चेतनादिह लिङ्गम् [सांख्यका० २०Jइति । ससः सिद्धमनिन्द्रियप्रत्यक्ष सस्य स्ववेपनरूपत्वात् । तस्य धोक्तन्यायेन सर्थसंचेदनेषु साधितवान् ।
अतीन्द्रियं तु प्रत्यक्षमवितथमस्याबाध लोकोचरं कालत्रयत्रिलोकाधिकरणनिरवशेष- २० पदार्थतत्वसाक्षात्करणदशमतिरपष्टसुत्कृष्टं ज्योतिः। तत्सद्भावे च प्रमाणं 'लक्षणम्' इत्यादी, "अन्यत्र च यथावसरं निरूपयिष्यते ।
तदेखत् विविधमपि प्रत्यभं द्रव्यादिस्वभावबस्तुगोपरमित्ति साधूकम्-'द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थास्मवेदनम्' इति ।
प्रत्यक्षं निषिधं देव दीप्यतामुपपादितम् । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेशाल्मवेदनम् ॥३६॥
विवाह-यदि साकार निश्चयात्मक प्रत्यक्षं तत एष निरवशेषोपाधिगर्भस्य भावस्थ नियात कि प्रमामान्तरेण अपूर्वार्थाधिरामस्य तत्फलस्याभावार, समारोपव्यवच्छेदस्य च निश्चिते समायेपामावेनासम्भवादिति
विछ । २ चैतन्यरधिा । ३ शक्यसं-०,००, स.। -पि चेति आ०,००,स. ५-मपि विच्छिकाकापि-मा०, २०, ५.1-मपि विविधताकापिन्स०। ६ समावे माः, ०, २०, स.
वायवि को.१६८ प्रमाणसं . श्लो ८विष्यताम् भाग,०,०, स. देवैः उपपादितं विविध पक्ष दीप्यताम् इत्यन्वयः ।
maida
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पनिधयापित सदसज्ज्ञानसंवादविसंवादविवेकतः ।
सविकल्पाविनाभावी समक्षेतरसम्प्लव: ॥४॥ इति ।
अस्त्रायमर्थ :- सङ्गतम् इन्द्रियं कारणत्वेन यस्मिन् वत् समक्षम् इन्द्रियप्रत्यादी तश्च इतरश प्रमाणान्तरमनुमानादि तयोः सम्पूय एफविषयत्वेनोपसर्पणं समक्षेतरसम्लया, उपपद्यते' इति ५ शेषः । कुत एसन् ? दृष्टत्यात् । न हि दृष्टमनुफ्पत्तिपयनुयोगस्य भूमिः, अतिप्रसङ्गान् । सत्यम्, प्रत्यक्षविषय एवं प्रमाणान्तरसनारे दृश्यते स त्वंपूर्वार्थाधिगभस्य समारोपव्यवच्छेदस्य म ततायोजनस्याभावात् निष्प्रयोजनः पर्यनुयुज्यत इति चोन ; अनाह-सविकल्पाविना. भावी' इति । विकल्पो गृहोतेतरत्वेन निश्चितेत्तरत्वेन चार्थस्य कथञ्चिझेवः तदविनाभावी तनान्तरीयकस्तलिवन्धनः स प्रस्तुतः वत्सम्सव इति ।
गृहीतश्चागृहीतर यदि प्रत्यक्षगोचर।। अपूर्वाधिगमस्तस्मिन् किन मानान्तपत्फलम् ॥३६१॥ निश्चितश्चेतरश्चैवमर्थवेदनोचरः ।
तत्रापेपोपपरोस्तङ्ग्यवच्छेदैः प्रमान्तरात् ॥३६२॥
नसल्वस्गदादिप्रत्यक्ष निरर्चशेषाभावोपाधिप्रतिपसी समर्थम् ; विकलोपाधिविषयतयैष १५ तस्यानुभवात् । ततस्तद्गृहीताबशिष्टस्य भावभागस्य भावात् तदुपग्रहप्रदुतस्य प्रमाणान्तरस्य
अपूर्वार्थाधिगमान निष्प्रयोजनम्या शक्यः पर्यनुयोगः । न च निश्चयात्मकत्वेऽपि प्रत्यक्षस्य ततः सर्वतद्विषयोपाधीनां निश्चयः; कचिनिश्वयरूपस्यान्यनानिमयात्मनश्च परिच्छेदस्य ततः सम्भवात् । निश्चयात्मनः प्रत्यक्षात् कथमनिश्चयात्मा परिच्छेद इति चेत् । न; एकान्तेन तस्य बैदा
मकवाभावात् । कथं तर्हि व्यवसायात्मक माने प्रत्यक्षमित्युमिति देत् ? न; अमिायापरि२० शानाम् । न बनेन प्रत्यक्षाभिमतज्ञानस्य अनिश्चयरूपस्वभावान्तरप्रतिक्षेपः क्रियते, सत्यपि
रूपान्तरे व्यवसायरूपापेक्षयैव तस्य प्रत्यक्षवं नेतरभागापेक्षयेति एवम्परत्वात्तवचनस्य । सतो निश्ययावशेषितस्यापि भावोपार्भावान तविषयस्य प्रमाणान्तरस्य नष्फल्यपर्यनुयोगः सुलभायफाश इति ।
स्याचाकूतम् -पववेव विप्रतिपत्तिस्थानं यदेकस्य गृहीतेतरत्वेन निश्चित्तेतरत्वेन च २५ विकल्प इति, तत्कय तन्निबन्धनः समक्षेतरसम्व इति । तन्न; निश्चितस्य धिप्रतिपसिस्थान
त्यायोगात् , निश्चित पत्र तद्विकल्पो जैनक्तू सौगतस्यापि । वदाइ-'सबसज्ज्ञान'इत्यादि । सद विद्यमानम् असत् अविद्यमानं च झानं ययोस्खयोविवेको निश्चयः सौगतस्यापि सदसजान
-जमतीन्द्रिय-पा०, २०, ५०, २-जनं पर्य--10,00 0 - --दर-मार, २०, ५०,० -वशेषोपाधि-मा०,०, प०, सा५ प्रत्यक्षग्रहीत । ३ प्रत्यक्षान् । निश्चयात्मकत्वाभावात् । ८ संघीय का. ६० । "इदमनन्तारोह स्पष्ट विशदं व्यवसायात्मकं हानम् । कसम्भूतम् ! स्वार्थसजिंघालान्धयन्यतिरेकानुविधायि प्रतिसंख्यानिध्यदिसंवादकं प्रत्यर्श प्रमाण युक्तम् ।"-सिलिधि टी.प.९६ ।
निधितावशिष्टस्य, अनिश्चितस्येत्यर्थः । निश्चयाविशेषि-आ०,०, प., स.1
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१५४)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव विवेकः तस्मादस्ति वस्तुपु गृहीतेतरत्वेन रियारप इति भावः। तंत्र परमाणूना नीलधाकारः सहानः तस्य प्रत्या परिनानात , असमानस्तु तेषामेव परस्परतो विवेकः तस्य सतोऽपि प्रत्यक्षेणावेदनात, अन्यथा स्थूलाकारप्रतिवेदनाभावासङ्गात् ।
विवेकः परमाणून प्रत्यक्षे यदि भासते ! स्थूलैकाकारनिर्भामामात्र एव प्रसज्यते ॥ ३६३॥ न च नास्ति स निर्भासो निर्भयात् स्वप्रवेदनात् । तदभाये न किञ्चित्स्यावणुज्ञानामवेदनात् ।।३६४॥ शून्यवादापवादच ननु पश्चान्द्रविष्यति । तेनालमुत्सुकायित्वास प्रस्तुते दीयता पनि १६५६ सतोऽपि स्थूलनिर्भासस्येन्द्रियस्त्रं न चेदसत् । तस्यैवेन्द्रियजत्वं यद्यक्ति प्रज्ञाकरः स्फुटम् ॥३६६।।
"को वा विरोधः" [प्र. या० २१२२३] इत्यादि कारिकाव्याख्याने खलु अलेकारकारेण-"यथैव केशा दवीयसि देशेऽसंसक्ता अपि धनसन्निवेशस्वभासिनः परमावोऽपि तथेति न विरोध" [अ० चार्तिकाल० २:२२३ ] इति मुबाणेन परिस्फुटमेव परमाणुषु धनसभिवेशप्रतिमासस्य इन्द्रियजत्वमुक्तम् । विकल्परूपत्वे हि सस्थाग्यदेव किञ्चिदिन्द्रियगानम् , १५ वर व परमाणवः परिमण्डलावभासिन एवेति कथं घमसभिवेशायभासिनो यत: 'परमाणोऽपि' इत्यादि कानमुपपन्नं भवेत् । विकल्पज्ञान एव ते धनसनिषेशावभासिन न इन्द्रियज्ञान इति चेत् । न तस्य तेंद्रो (तदनो) स्वरत्वात् , अन्यर्थी तंत्रापि विनेकस्यावभासने "इड्नुपपत्तेः। अनत्रभासने स्विन्द्रियज्ञानेऽपि अनवभासितविवेका एव ते धनसनिवेशप्रतिभासिनो भवेयुरविशेषान् । तस्मादिन्द्रियज एव सन्निीसः तत एवं दूरविरलकेसघनसनिपेशप्रतिभासस्य २० तथाविधस्यैव निदर्शनत्वमुक्तम् , न केवलं विरलवस्तुनिबन्धनत्वेन निदर्शनसादृश्यं वत्रि सस्य, अपि तु इन्द्रियजत्वेनापीत्ययद्योतनार्थम् । ततो न परमाणूनो विवेकस्याध्यक्षेण ग्रहणं घनसन्निवेशस्यैव ग्रहणात् । तदग्रहणे तस्व्यतिरिको नीलायाकारः कथं गृथत इति चेत् ? न; दर्शनारभ्युप्माच्च । "हेतुभावारते नान्या ग्राह्यता नाम काचन" [प्र०वा० २।२२४] इत्यादि व्याख्यानं कुर्वता हि "परेणोक्तम्-"परमामनामियं नीलाकारखा" [२० कार्ति- २५ काल २।२२४] इसि । ततोऽवगम्यते "वत्प्रत्यक्षत्वं तेनाभ्युपगतम्, अन्यथा 'इयम्' इति प्रत्यक्षनिर्देशानुपपत्तेः । गृहीतोऽपि "ददाकाये भ्रान्त एक स्थूलाकारादिवदिति चेत् ;न 'परमाणानाम्
तत्र प्रमाणामाम् १०।२ भेदः । ३ -यसप्रवे-पा०,२०,८०, स० प्रमाणकार्तिकालकारकृता । ५-वेऽपि तस्य था, ब०, १०, स०। ६ विकल्पस्व। . परमपविषयत्वात् । विकल्पस्य परमाणु विषयत्वे । ५ विकल्पज्ञानेऽपि । 1. धनसभिषेशप्रतिभासानुपएसः। ११ परमाणुविरस्यत्वे परमाणुभेदापरभासने । १२ -सत एव श्रा०, दर, प०, ०। १३ निदर्शनमुभम् श्रा०, २०, ५०, स.। १४ परमायग्रहले। १५ प्रश्नकरेग । नवकारताप्रत्यास्वम् । १७ दीलाद्याकारः ।
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म्यायविनिश्चयविवरणे इति वचनात् । न हि स्खलनणस्वभावस्थ भ्रान्तत्वम् । धेहिरर्थवादाभावप्रसङ्गमत् । न चार्य व्यायाम , द्वाद एव स्थित्वा "परमाणनाम्इत्यादिवचनात् । सतः सिद्धम्-परमाणुधु नीलल्याकारस्य सत एव ग्रहणम्, अग्रहणं च विवेकस्येति सहसमानत्यं तयोः ।
स्यान्मतम्-न विवेकामहणं धर्मकीरभिप्रेतं सफलोपाधिषेदनस्यैव तदभिमतत्वात् । ५ "वसाद् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवासिलो गुणा" [५० वा० ३।४४] इति वचनात । ने
च सस्थानभिप्रेतं सौगतसिद्धान्ततया प्रत्येतध्यम, सवनमूलत्वात् तत्सिद्धान्तपरिज्ञानस्य । निक धनकारस्यं तु सदपि विवेकापरिज्ञानयवतमान्सदेयमेव तस्मात् दृष्टस्य' इत्यादि प्रल्पनीकत्वात् । न हि तस्यैव शास्त्र व्याचक्षाणात्य सम्मतविरुद्धं वचनमुश्पन्न मिति; तदसत्; "नप
ते बुद्धिगोपरा [ ] इति धर्मशीतिनैव प्रतिपादनास्। अनेन हि विवेकरूपसयैव पर१० माणूनामबुद्धिमोचरत्वमुच्यते न नीलादिरूपतया; प्रतीतिशधप्रसङ्गात् । कथं तर्हि तस्मादित्यादिक
तस्य यमनमिति चेत् भवत्वयं तस्य दोषः, परपरविरुवाभिधानात् । न तावता विवकाग्रहण सँस्यानभितम्' इत्यवसीयते । ततः सिद्ध एव सौगतस्यापि गृहीतेतररूपतया भावभेदः निश्चितानिश्चितरूपतया च । तदाह-संवादविवादविवेकसः' इति । संवादो निर्णय
एष "नाता परो विसंवाद: 8 ] इति वचनात् । तदभावो विसंवादः तयोरपि १५ क्विक पावरवियत्या निरय यत् सागस्यापि Ni । तथा हि
भीलवरक्षणभङ्गादेर्मनोऽध्यमादधेड़ने । "एकस्यार्थस्वभावस्थ" इत्यादि सूक्तं वचः कथम् ? ॥३६॥ वेदने तु ततस्तस्यै निश्चयो यदि भीलवत् । सवानुमानवैफल्य सदेष कथं न यः ॥३६॥ न गृहीतिगहीतत्वामिश्चितत्वाम निश्चयः । तस्यानुमानादन्यतु फलं वस्य किमुच्यताम् ? ॥३६९।। निश्चित प समारोपी विरोधाश्नोपजायते । फलं यतोऽनुमानस्य सिद्विच्छदः प्रकरुप्यताम् ॥३०॥ समारोपव्यवच्छेदमनुमानाचविच्छता । पक्तध्या क्षणभङ्गादेनोऽध्यक्षान निश्चयः ।।३७१७ "वस्येव यदि नौलादेरपि तस्मान्न निश्चयः । मानसं कथमध्यक्षं निश्चित निश्चयात्मकम् ॥३७२॥
हिरवदभाव- ०,१०,स.1 महिरवाये । ३जीलाद्याफार-विवेकयोः। म तस्याभिप्रेत भाग,०१, ५ –स्वारसस्सिा०, २०, ५०,। ६ प्रभाकरस्य । ७ तस्मात् सहस्प भायस्पेत्यादि । . ८ धर्नकोतेः । ९ -योऽपि विसं-मा०,०,१०, स.100. 1 क्षामभादः। १२ समारीपम्यवच्छेदः । तस्यैव मा०, ५०, १०, साक्षणमादेरिव ।
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१४ }
प्रथमः प्रत्यक्षस्तायः
हि किचिदनिचिन्न युज्यते निश्चयात्मकम् । स्वापोऽपि समात्॥२७३. नाप्येतनिर्णयात्मत्वं मानसस्याप्रसिद्धिमत् ।
४८ .."
११९
यतः प्रज्ञाकरस्येव वचः स्थितम् ॥ ३७४ ॥
इदमित्यादि ज्ञानमयासात्पुरतः स्थिते ।
साक्षात्करणतस्तत्र प्रत्यक्षं मानसं मतम् ॥ [ प्र० वार्तिकाल०२/२४३] इति इत्येवमुखान्नान्योऽन्यत्रापि निर्णयः ।
वेदस्ति मनोsध्यक्ष सिद्धं तन्निर्णयात्मकम् ॥ ३७६॥
तस्येव तदात्मकत्वं नीलादावेव न क्षणक्षयादौ उक्तदोपत्यात् । ततो गृहीतावशेपितस्य निश्चितावशेषितस्य च भावभागस्यें भाषातद्रहणाय वनिश्रयाय च प्रवर्तमानस्य प्रमाणान्तरस्य न वैफल्यमिति साधूतम् - 'सदसज्ज्ञान' इत्यादि ।
१०
यदि वा यदुक्तमैन्यैः - 'द्रव्यपर्याय' इत्याययुक्तम्, विरोधात् । अन्ययो हि द्रव्यस्य स्वभावः व्यतिरेकच पर्यायस्व, तयोश्च लक्षणतो विरोधात् कथमेकत्वम् ? सामान्यविशेपयोजन, तयोरपि साध्यरूपया लक्षणो विरोधस्य सुप्रसिद्धत्वात् । तत्कथं द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मकस्त्रमर्धधानयोर्यदस्तद्वेदनं प्रत्यक्षम्' इति । तत्रेदमाह-'सदसज्ज्ञान' इत्यादिसम्यक् सङ्करादिपरिहारेण अक्ष्णोति व्याप्नोति स्त्रपर्यायानिति समक्षं द्रव्यम्, इतरे व्याप ययात् पर्यायाः । अथवा, समरूपतया अक्षयते गम्यत इति समक्षं 'तिर्यक् सामान्यम् । इतरे
परीत्या विशेषास्तेषां समझेवराणां सम्प्लवः । समित्ययमुपसर्गः एकत्वे, 'समर्थः' इत्यादी दर्शयत् व संवेदनम्, गत्यर्धस्य धातोर्ज्ञानार्थस्यात् । तदयमर्थः समक्षेतराणां द्रव्यपर्यायां सामान्यविशेषाणां चैकत्वेन वेदनम् । केनेति चेत् ? प्रत्यक्षलक्षणेन । पूर्वश्लोकादनुवर्तमानस्य २० वृत्तीयपरिणामेन सम्बन्धात् । इदमत्र पेदम्पर्यम्--न द्रव्यादीनामप्रतिपचैौ तत्रैकत्वप्रतिषेधनमुपअप्रतिपन्नप्रदेशे मशकप्रतिषेधस्याऽप्रवेदनात् । प्रदिपत्रा एव द्रव्यादय इति चेत्; कुलप्रतिपत्तिः ? प्रत्यक्षादिति चेत्; ततस्तर्हि -
पन्नम्
अम्वतानम्ति यथा भेषोऽवगम्यते । पर्यायस्तद्वदभेदोऽव्यवसीयते ॥ ३७७ ॥ प्रत्यक्षेणोपलब्धोऽपि यद्यभेदो विरुध्यते । farida
stafद्वशेषानवेक्षणात् ॥ ३७८ ॥
ततश्च भावनैरात्म्यप्रवादो दुस्त्यजो भवेत् । तत्रापत्येदमे वदिष्यते ॥ ३७५३॥
यात्मकत्वम् । तदात्मत्वं रास० स०
• निश्रयात्मकत्वसद्भावस्य प्रसज्ञात्। सत्वस्यापि प्रसार, ब०, प०, स० । २ मनोऽध्यवस्य । २ निर्ण
भ० ब०, प० । हेतु ० ० ९८६ - आ०, ब०, प०, स० ० परिणामस्तिर्यक् ण्डमुण्डादि गोष' - परीक्षासु० ४३४ ।
यदः। कब० ४० ११८ वैस-आ०, ब०, प०, स० ।
१५
२५
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[ १४
}
कुतः पुनरेतदवगम्' द्रव्यपर्यायतादात्म्यं प्रत्यक्षतोऽवगम्यते' इति ? चत्रादfoseपाविनाभावी । स तत्सम्पूवो विशेषेण संशयाकियुदासेन कल्पने समर्थनं विकल्पो निर्णय इति यावत् तदविनाभावी उम्नान्तरीयकः तदात्मकत्वात् । एतदुक्तं भवति - प्रत्य कोहि निर्णयस्वभावः ततस्तस्यं तचादात्ल्यायगमरूपत्वं स्वत एव निश्चित५ सिति किं तलिया प्रमाणान्तरेणेति ? कथमेवं तत्र विप्रतिपति: ? न हि प्रत्यक्षत एव तैसादरम्यावगमे तत एव च तस्यै सद्विषयत्वनिर्णये तत्र कस्यचिद्विप्रतिपत्तिर्भवितुमर्हति निर्णय विप्रतिपतिप्रत्यनीकत्वात् । दृश्यसे च तत्रानेकधा विप्रतिपत्तिः प्रवादिनामिति चेत्; न; शाखातरस्कार विकानां तदभावात् । न हि कुण्डलितस्य प्रसारितस्य च पन्नगपतेरेकत्वे द्विप्रत्यक्षस्य देषों विप्रतिपत्तिः सर्वेषां सचैकवाक्यत्योपलम्भात् । तर्हि वान्प्रति शास्त्र१० मदर्थकमेष, स्वत एव विप्रतिपत्यभावे तन्निवर्तनस्य शास्त्रफलस्याभावादिति चेत्; न; वान्प्रत्यन्यपरत्वाच्छास्त्रस्य । ते हि कुतश्चित्प्रत्युत्पन्नशरीरेन्द्रियविषयनिर्वेधा मुमुक्षुतया मोश. मार्गप्रश्नेन विदिततन्मार्गत्तत्त्वं देवं सप्रश्रयमुपपन्नास्तेन च सम्यग्ज्ञानं तन्मार्गमुक्ताः पृच्छेयुः 'किं तत् सम्यग्ज्ञानम्' इति ? तत्र सम्यग्ज्ञानव्यवहारविषयोपदर्शनाय तत्प्रसिद्धमेष द्रव्यपर्यायभागपदार्थगोचरं प्रत्यक्षादिज्ञानं शास्त्रेणानूयत इति कथमनर्थकत्वं तस्य ! तत एष १५ कैश्चिदुक्तम्- "प्रमाणानुवादः" [ इति । प्रषादिनां तु विद्यन्त एव विप्रतिपत्तयः । न चैवा चिपय निर्णयस्वभावरहितमेव प्रत्यक्षम् निर्णीतेऽपि विषये कुतर्काभियोगबलात् अन्तरादपि दोषात् मन्दाज्ञानां विप्रतिपचिविधानोपपत्तेः अन्यथा सकलप्रतिपनिश्चयाधिष्ठाने बहिर्विषादी विप्रतिपचिविरहाद विज्ञानवादादिविकलं सकलं नगरप्राप्नोति । तासां च विप्रतिपतीनां कहि मायापत्तिविकलेषु an es वचनमाओ२० सूचिता निर्णयात्मनः प्रत्यक्षानिवृतिरिति मन्वानेनेदमभिहितम्- 'सविकल्पाविनाभावी' इति । येषां तु बलवती स्वमवपक्षपातिनी मतिः तेषामपि तस एक प्रेत्यस्य विकल्पाविनाभाकिवात् यथाविहितयस्तुनिर्णयःषभावापरव्यपदेशाद्र अनुमानव्यवस्थापिताद् विप्रतिपतिव्यावृत्तिः, न च निर्णयरूपत्वाविशेषात् अध्यक्ष निर्णयवत् अनुमाननिर्णयस्यापि विप्रतिपत्तिविषयत्वेन तदपरानुमानव्यवस्थायामतवस्थानम् स्वप्रसिद्ध निदर्शनबलोपनीतरवेनानुमाननिर्णयस्य अशक्य२५ विप्रतिपत्तिम लोपलेपत्वात् । तच्चेदमनुमानम्--विवादाध्यासितं प्रत्यक्षम् अन्वयव्यतिरेकवद्वस्तुनिश्चयरूपं प्रत्यक्षत्वात् । किमत्र पर प्रसिद्धमुदाहरणम् ? सदसज्ज्ञानरत्यक्षम् । तदाह-'सदसज्ज्ञानविवेकतः' इति । सं गृहम् असच्च तद्विशेषणं शेषवत्तादिवैकल्यं तयोर्ज्ञानं तस्य विवेकः प्रत्यक्षेण निर्णयः । रातस्तमुदाहरणत्वेनाश्रित्य सविकल्पाविनाभाषीति । एकं हि प्रत्यक्षज्ञानं देवदत्ताभाषतद्विशिष्टगृहविषयमुपजायमानं विशेषणप्रतिभासा३० द्विशेष्यप्रतिभासस्य तस्प्रतिभासाथ विशेषणप्रतिभासस्य नीलपीस प्रतिभासद् अर्थान्तरत्वादुः १ प्रत्यस्य । २ ययतादात्म्य । ३ स्वस्थ । विवादाभावात् । ५ प्रवादिनाम् । ६ - सावस्य व्यव०, ६०, प०, स० । ७ न्यादौ प्रति भा० ३०, १०, स० । ८ - सम-भ०, ब०, प०, स० । १. "प्रस्यादिति पाठ: "ता टि० । १ देवदत्ताभावद गृहम्' इत्र
1
१२०
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[#]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
भयाकारं परस्यापि प्रसिद्धम् । तथा च विश्वरूपस्य वचनम् - "ततोऽपि विशेषणविशेष्यत्वेन
प्रतिभासादभाव गृहयो रे कज्ञानावलम्बनत्त्वम्” [ ] इति । तच तदुभयप्रतिभासक्षणाकारापेक्षया सव्यतिरेकम्, तदाकाराधिष्ठानसंवेदनापेक्षया तु सान्वयम् इत्यन्वयव्यतिरेकरूपमिति सिद्धं वद्विषयस्य स्वसंवेदनस्यान्यस्य वा प्रत्यक्षस्यान्वयञ्यतिरेकवहस्तु निर्णयरूपत्वमिति' साध्यावैकल्यमुदाहरणस्य ।
१२१
५
अथवा सामान्यविशेपज्ञानमत्र उदाहरणम् । तदाद- 'सदसज्ज्ञानविवेकतः ' इति । सीदति स्वविशेषव्यापकत्येन गच्छतीति सत्, न सीदति विजातीयविशेषव्यापकत्वेन न गच्छतीत्यसम् । सञ्चासारसच्च सदसत् सामान्यविशेष इत्यर्थः । प्रसिद्धशयमर्थः परस्य । तथा च "सामान्यं विशेष इति बुद्ध्यपेक्षम् " [वैशे० सू० ११२३३] इति । अत्र भाष्यम्"रात्रैकं गोस्वं बुद्धिवशात्सामान्यं विशेष इति चोच्यते, अनुबुतबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यं १० व्यावृतबुद्धिहेतुत्वाद्विशेषः ।" [ ] इति । तस्य ज्ञानं सत्प्रत्यक्षं सदसञ्ज्ञानं तस्य fret यः । तस्मादुदाहरणान् सविकस्पाविनाभावीति । तथा हि
Referrafoशेषस्य व्यावृत्यनुगमात्मनः ।
faraमध्य काणादस्य प्रसिद्धिमत् ॥ ३८ना तदुदाहरणादम्यदपि प्रत्यक्षमञ्जसा ।
१५
व्यावृत्त्यनुममात्मार्थनिश्चयानिषुध्यताम् ॥ ३८२॥
1
स्यान्मतम्-गोत्वस्यान्यस्य वा सामान्यरूपमेव वस्तुसन न विशेषरूप हत्तु परमुपचारात् ततो न वस्तुसन्धावृत्त्यनुगमात्मनिर्णयरूपत्वं तत्प्रत्यक्षस्य सतः साध्यवैकस्यमुदाहरणस्य तथा च " द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वञ्च सामान्यानि विशेषाय" [ वैशे० सू० ११२५ ] इति । अत्र भाष्यम् - "तत्र द्रव्यत्वमनेकवृत्तित्वादञ्जसा सामान्यं २० सत् व्यावृचप्रत्ययहेतुत्वादौपचारिकी विशेषाख्यामपि लभते" [ ] इति । तदमुच्यते - कः पुनरसौ विशेषो द्रव्यरये यस्योपचारः क्रियते ? गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तत्वमिति बेत्; न; तस्य मुख्यस्यैव भावात्, अन्यथा दुव्यावृचप्रत्ययस्यैवानुदयप्रसङ्गात् तस्य द्विशेषनिबन्धनत्वात् । उपचारसिद्धात्तद्विशेषात्तत्प्रत्यय इति वेत्; न; सस्प्रत्ययाभावे तपचारस्यैवायोगात् । तदयं परस्पराश्रयः व्यावृत्तप्रत्ययाद्विशेषोपचारः, तदुपचाराच्च तत्प्रत्यय २५ इषि । यदि च द्रव्यत्वस्य गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तत्वमौपचारिकम्, तदनुष्टत्वं तहिं पारमार्थिकमिति गुणकर्मणामपि द्रयत्वोपपत्तेः सुव्यवस्थितो द्रव्यादिभेदः स्यात् । पृथिव्यादिष्वनुवृत्तिरेष
1 देवदाभाववद्राहमिति शनम् २-सि न साध्यादिदै आ०, ब०, प०, स०१६ पृथिवीवारिक मियर्थः । * "ari] द्रव्यत्वगुणस्वकर्मकादि अनुसिव्यावृत्तिहेतुत्वात् सामान्य विशेवश्च भवति । एवं पृथिव भरवगोत्व पटत्यपटरवादीनामपि प्राध्यप्राणिगतानामनुतिष्यावृत्तिहेतुत्वात् सामान्यविशेषभावः सिद्धः "प्रश०मा० पू० १९५५ बोधते आ०, ब०, प०, स० । " एसानि सु द्रव्यश्वादीनि प्रभूतविषयत्वात् प्राधान्येन सामान्यानि स्वाश्रयविशेषकरवावमा विशेषाख्यानीति ।" - प्रश० भा००१६६६६ गुणकर्मभ्यो मध्यं व्यासमिति प्रत्ययस्य । ● गुणकर्मन्यात् ८ गुणकर्मानु
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न्यायधिनिश्चयविवरणे
[१४ सत्य शुष्कर्मभ्यो ब्यात्तिापरेति धेन् ; गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तिरेव तस्य पृथिव्यादिष्वनुवृत्ति
परेभ्यपि फरमान स्वात् ? अमृतप्रत्ययेन पृथगेदानुवृत्तेऽयवस्थापनादिति चेत् ; न ; व्यासप्रत्ययेनापि यगेव व्यावृत्तेर्व्यवस्थापनप्रसङ्गात् । ज्यादृशप्रत्ययोऽपि नापरोऽनुयत.
प्रत्ययान् । तथा च भाष्यम्-"क: पुनद्रव्यत्वनिमितो द्रव्यस्यानुवृत्तप्रत्ययः ? 'द्रव्यं ५ द्रापर' इति । मामा योनि में एवं" [ ] इति । तत्कथमसिद्धादेव
व्यावृत्तप्रत्ययान पृथग्व्याधुर्व्यवस्थापनमिति सेत् ; म ; अचनमात्रात् सत्प्रत्ययापलपपस्य दुरुपपादत्वान्, अनुवृत्तप्रत्ययस्यास्यपलापस्य प्रसङ्गात शक्यं हि वक्त-कः पुनः व्यत्वनिभिसः पूथिन्यादिषु व्यावृत्तप्रत्ययः ? रूपागुरक्षेपणादिविलक्षणाः पृथिव्यादय इति, द्रव्यमित्यनुवृत्त
प्रत्ययोऽपि स एव, इति । पृथगेवानवृत्तप्रत्ययोऽनुभूवत इति चेत् ; म ; व्याहतप्रत्ययस्यापि १० पूयगेवानुभवात् । व्याहतवैतन-अनुवृप्तप्रत्ययस्यैव ध्यावृत्तप्रत्ययत्वमिति, नीलप्रत्ययस्यै
तपरसकलपदार्थप्रत्ययत्यप्रसङ्गात् , एवञ्च सर्वस्य सर्ववेदिस्थ पायाभियोगनिरपेक्षमेव भवेत् । नीलात् तदपरसफलपदार्थजासस्य अर्थान्तरमानाथमतिप्रसङ्ग इति चेत् । अनुगमायावृत्तेरनर्थान्तरत्वं कमात् १ अनुगमप्रत्ययस्यैव व्यावृतमययत्वादिति चेत् । तदृषि कस्मात् १
अनुगमायावृत्तरेनामतरत्यादिति चेत् ; सुन्यक्तत्वात्परस्पराश्रयस्य । २ प विषयवशात् १५ प्रतीसिव्यवस्था ; प्रतीतेः प्राक विषयस्यैवासिद्धः । प्रतीतिश्चानुवृत्तप्रतिभासक्ती व्यावृत्तपति
भासघसी व भिन्नाकारैवेप्ति कधन तसस्तद्विषयभेदसिसिः । युगपद् युधियं न प्रतिगासस इति घेल, नीलपीतयोरपि युगपद्रहणे. दुद्धिद्वयं न प्रतिभासने एव । मा भूत् युधिद्वयगिति चेत् ; किं तर्हि स्वात् ? एकैव बुद्धिरिति चेत् सा यदि नीलविषयैव कुप्तः पासप्रतिभासनम् ।
में कुतश्चिदिति चेत् ; न ; नीलेऽप्यपरापरावयवानामेकावयपाहणेनाप्रहणप्रसङ्गात् अखण्ड २० कावयवाहणमेवावशिष्येत । न च तस्योपलब्धिरिति प्रतिविषयक्षानभेदयादिना निशेषप्रतीति
विलोप एव स्यात् । अषयविप्रतीते: नैवमिति चेत् ; म अख्ययाप्रतीतो तवप्रतीतः । प्रतिबहलान्धकारयेलायामस्तोतायकावयविप्रतीपिरिति चेत् ;; तदापि मध्यपादिमागेंप्रतिपत्ते रखश्यम्भाषात्, अन्यथा पशुमनुष्यादिविभागापरिक्षाचप्रसनात। अस्ति च सदवस्थायां
तत्परिमानम । सन्न अवयवप्रतिपत्तिविकला कवियदयविप्रतिपत्तिरिसि दुरपवाद एव सकल२२ प्रतीतिविलोपः प्रत्यर्थनियतमानवादिनाम् ।
___ अस्तु सहि नौलघुद्धिरेव पीतविषयेति चेत् ;न; नौलीमिमुखेनैव रूपेण तस्यास्तद्विष. यत्वविरोधात, तदपरनिरयशेषपदार्थविषयस्वातिप्रसङ्गस्याभिहिताम् ।
श्तेन तारानिक्कुरम्बत्यकाशानवेशत्य प्रत्युक्तम् ; एकज्ञानस्यैकताराभिमुखेनैव रूपेण तारास्ताविषयत्वानुपपत्तेः । तथा च सदसहर्गः कस्यचिदेवदानालस्थलम् अनेकत्वात् तारानि३० कुरम्बयदिति न निदर्शनम् , साध्यविकलयात् । अस्त्येव तर्हि पोलाभिमुखमपि रूपं तब्बुद्ध
मनायासम् । २ अनुगमप्रत्ययस्येव यातप्रत्यय अनुगमा प्यारानान्तरन्थन्, म अनुमान प्रत्ययस्व न्वायतमययत्यमिति। ३ पटकावयनRI वाम-मा०,०, १०, ११, ५-गाप्रतीतेर4,०, २०, सा -यादिपरि-मा०, ब . स७ नोवदिमुख-मा०,०, २०, स.।
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१४] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
१२३ रिति चेत् ; सिद्धं नहि द्रव्यत्यादिसामान्यपत्ययस्यापि अनुवृत्तरूपाभिमुखादन्यरेव व्यावृत्तरूपाभिमुखं रूपम् , अन्यथा तस्य तद्विषयत्वायोगादिति न सर्वथा अनुयुतप्रत्ययादमर्यान्तरमेव व्यावृत्तप्रत्यया, संथात्वे था "गोत्वमनुशबुद्धिहेतुत्थान सामान्यम्" इत्येतदेव भाध्यमर्धचत् सामान्यस्य तद्युद्धेश्य सद्विषयस्य भावात् , "व्यावृत्तयुद्धिहेतुत्वाद्विशेषः" इति तु नार्थवत विशेषस्य तबुद्धेश्च तद्विपयस्याभावात् । अनुवृत्तादिभाष्यस्यैव ठ्यावृत्तादि- ५ भाष्येण व्याख्यानमिति चेन ; न ; अवाचकत्वात् । न हनुयस्ततत्प्रत्ययपदार्थयोः व्यावृत्ततत्प्रत्ययपधे वाचके । २ पानाचकेन व्याख्यानम् । तस्य ज्यामोहनत्वात् , ततः प्रत्ययभेद एष भाम्योरपतिरिया । इदम् मधुद्धिमाहिद मध्येण अनुवृश्वव्यावृत्तप्रत्यययो दमाचक्षाण एR 'कः पुनः' इत्यादिना तयोरभेदमेवाचष्ट इति कथमनुस्मत: आत्रेयः ? तन्न व्यावृत्तरूपस्य विशेषस्योपचार। एकवृत्तित्व विशेषो द्रश्यत्वस्योपचर्यते "एकवृत्ति- १०. विशेषः" [ ] इति सुलक्षणादिति चेत् ; न; तस्यापि मुख्यस्यैव भावात् । अनेकवृत्तिनि कदमेकवृतित्वमिति चेत् । न ; वस्य प्रेवे फुटववत् अनेकवृत्तिनि सम्भवप्रमाणसिद्धत्वात् अवधृतस्यासिद्धिरेव, न खानेकवृतिन 'एकवृत्तित्वमेव' इत्यवतमेकवृत्तित्वं सिद्धमिति चेत् ; क. पुनरवधारणार्थः ? व्यावृत्तिरन्यत इति चेत् । सैय तईि विशेष नैकवृतित्वमात्रम्, सौ चैत्रवृत्तिवनेकवृत्तिन्यपि भवन्ती विशेषः कस्मान्न भवेदविशेषात् । १५ एकत्तित्मोपाधिरेव ‘सा विशेषव्यपदेशाय कल्प्यसे नानेकवुलियोपाधिकेवि चेन ; कुत एतत् ? सत्तासामान्य सत्यामपि संस्था विशेषव्यपदेशादर्शनादिति चेत् । २. द्रव्यरवादिपु विशेषव्यपदेशस्य तत एव दर्शनाद् । संतो न विशेषरेपपारस्थ किञ्चित्पयोजनं मुख्यत एव विशेषास्तकलतत्प्रत्ययानां निष्पसेः । वस्मान्मुख्यत श्व द्रव्यत्वे अनुवृत्तव्यावृत्ताकारविसयोपपसौ वस्प्रत्यक्षस्य अन्वयव्यतिरेकवद्वस्तुनिश्चयरूपत्वेन साध्यवैकल्यानुपपः सपपन्नमेतत् २० 'मन्वयव्यतिरेकवद्वस्तुनिश्चयस्वरूपं प्रत्यक्ष प्रत्यक्षत्वात, व्यवसामान्यविशेषप्रत्यक्षवत्' इति । न चेदानुमन्सुय्यम अप्रसिद्धमशाहरणम इत्यत्वस्याप्रत्याविषयत्वात. अन्यथा अनुमानेन समयवस्थापनावैफल्यादिति; "प्रत्यक्षत्वेऽपि तस्य निर्णयार्थमनुमानमिति परैरभ्युपगमात् । तथा च भाष्यम्-"भवतु वा द्रव्यत्वं प्रत्यक्षं तथाप्यनुमानोपन्यासः दायार्थ इत्यदोप"
] इति । __ अथवा , संशयप्रत्यक्षम् अत्रोदाहरणम्, तदाह-संवादविसंवादविवेकता' इति । संवादविषयत्वात् संवादो परेधस्वभावः विसंवादो विरोधः, तद्विषयत्वाचवौं संवादविसंवादी अवधारणानवधारणस्श्भाशे, संवादषिसंधादौ बोधनिष्टौ निर्णयानिर्णय धर्मों 'तयोविवेकः तरप्रत्यक्षेण निश्चयः तस्मात् सक्किल्पाविनाभावीति । तथा च प्रयोगः-प्रत्यक्षम्
२५
।न्यावृत्तप्रत्ययस्य अनुप्रसप्रत्ययादभिनवे अनुक्सप्रत्यये एक अचरिष्यमापे। २-यप्रथमाद्विवर्ष पदे मा०,०, ००.३ "प्रवभाद्विवचनम्"-सारिएकत्तित्यरूपविशेषमपि । ५ प्रस्थे बलमपदेनेक
मा०,०, ५०, स: । ६ अन्ती शक्तिः । ७ भवन्ति वि-810, ब०,०,801 6 अन्य भ्यातिः । ९ अभ्यतो भ्यागृती १० प्रत्यक्षेऽपि भा०, ५०, ५०,०।१-यो थौं आग, घ०,५०,०।
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[१४
१२४
न्यायचिनिश्चय विवरण अन्वयव्यतिरेकवद्वस्तुनिर्भयरूपं प्रत्यक्षत्वान संशयप्रत्यक्षवात् । अन्वयवस्यश्च संशयवस्तुनडे बोधरूपेण सस्य व्यतिरेकस्वभावग्यापित्यात, व्यतिरेकबरवन निर्णयानिर्णयरूपाभ्यां तयोः परस्परतो व्यावृतेः । प्रसिद्ध चैतत्परस्थापि । तथा च संशयलक्षणसूत्रे भाष्यम्-'वायमुर्द्धतासामान्यविशिष्टस्य धर्मिणोऽवधार निर्णयः स्थाणुर्वा पुरुषो वेति विशेषानवधार संशयः, एक एव प्रत्ययः ।" [ ] एकस्यापधारणानवधारणात्मकत्वानुपपपिरिति चेन्; स्वादप्रतिषेधः । ष्वमिदम्-एकं ज्ञानं सामान्यविशिष्टस्य वस्तुनोऽवधारण सद्विशेषानवधारणात्मकं यथा स्थाणुवर्ष पुरुषो येति । दृष्टस्य चापलवो न युक्त इति । तन्न संशय. प्रत्यक्षस्य साध्यविकलत्यम् ।
आदानपझन् दोषाहणम् अनेनैव प्रतिपादितं . पतिपत्तव्यम् । तत्रापि १० संवादनविषये मुखझाने परस्परप्रत्यनीकतया विसंवादविषययोः सम्यमिथ्याप्रतिभासयोः तत्प्रत्य
क्षेण निश्चयतः साध्यबैकल्यदोषानघकाशात् । प्रयोगश्चात्र- 'प्रत्यक्षम् अनुगमध्यतिरेकात्मक वस्तुनिर्णयस्वभाव प्रत्यक्षत्वात् आदर्शमुखज्ञानप्रत्यक्षवत्' इति । 'आदर्शमुखज्ञानमनुगमव्याहत्तरूपम' इत्यविप्रतिपत्तिस्थानमेय वैशेषिकस्य । सभ्यअिध्याप्रतिभासयोः परस्पर
व्यावृत्तयोशेधात्मना तेन व्याप्तः स्वशासप्रसिद्धत्वात् । क्या , "आत्मेन्द्रियार्थसनि१५ कत्"ि इत्यादौ भाध्यम-"तंत्रादर्शादिषु मुखम् 'अभिमुख मुखम्' इति व भान्सा प्रत्ययो
मुखमित्येवारसा सम्यक इति । ततः स्थितम् अनन्तरोतपदनुमानात् परप्रसिद्धनिदर्शनबलोपटहितात् प्रत्यक्षस्थ विकल्पाविनाभारित्वनिश्यये तदेवोपचतिस्वभावं समक्षेवरसम्वमवस्थापर्यंत प्रवादिनां विप्रतिपत्तिमलं प्रक्षालयितुं क्षमस इति । तन्न प्रत्यक्षस्य निश्चयात्म
करत्रेऽपि प्रमाणान्सरशब्दान्तरवैफल्यम् , भावस्य सोशत्वेन प्रत्यक्षापरिच्छिमस्यापि तद्भागस्य २० तविषयवोपपतेः, प्रत्युत निरंशवस्तुवादिनामेव तद्वैफल्यं विषयाभावात् प्रत्यक्षेणेव सर्वात्मना
भावस्य परिच्छेदात् । न भावपरिच्छेदात् प्रमाणान्तरस्यानुमानस्व सदस्य का साफल्यम् अपि तु समारोफ्ठ्यपच्छेदादिति चेत् ; कोऽयं समारोपो नाम ? अत्तस्मिन् तदश्यवसायी विकल्प इति चेत् । ननु न तस्य निर्विकल्पकमेव रूपम् "अभिलापसंसर्ग' न्यायषि पृ०१३)
इत्यादिवचनस्थ निविषयत्वप्रसङ्गात । नापि विकल्पकमेव; "सर्वचित्तवेतानाम्न्यायनिक २५ पृ० १९) इत्यादिवचनल्यापसे । उभयरूपत्वे च त देन तदात्मनो ज्ञानस्य भेदो वा स्यात् ,
अभेदो या? यद्यभेदः; तदानीम् अक्रमवत् क्रोणापि सत्यपि विरुद्धधर्माध्यासे भावस्य कथालि. देकत्वमविरुष्टुं भवेन् । वक्ष्यते चैतत्-"विरुद्धधर्माध्यासेन स्याद्विरुडून सर्वथा।" इति ।
"सामान्यप्रसाद विशेषाप्रत्यक्षाविशेषस्मृतेश्च संचयः 1" -वैशे. सू. २०१०। र अपवतम् । यात्मप्रियार्थसनिकीत् यभिष्पधते तदम्पर" -शे- सू० ३३११८ । . लादर्शनादि-- भा०,०, ५०, स.। ५ मुखमिदं च श्रा--आ०, २०, ५०, स! ६ “यन -भा०, ५०, ५०, सा . प्रमालासरशब्दान्तरविपवतोपत्तेः । तविषमोध-मा, २०, ५० | ८ "अभिलासंसर्मयोग्यप्रतिमासप्रतीतिः कल्पना"--यावि•• १३ । ९-मि चिर्षिक श्रा,२०,५०,०। 10 " सानावरमाथिदनम् (स्वर्सधेदनम् )" यायवि० पृ. १९११ न्यायविक श्लोक १२६ ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
तथा च सदेकरवज्ञानम् अविपरीतार्थविषयवान् कथमध्यारोपः ? यसोऽनुमानातव्यदच्छेदः, सदभावे च कथं तत्य प्रामाण्यम् ?
विरुद्धधर्माभ्यासेऽपि निर्विकल्पेतरात्मना | तदात्मनश्चेबोधस्याभेद एवं प्रतीतितः ॥३८२|| उद्देव क्रमेणापि प्रतीतेरनुपद्रवात् । । विरुद्धधर्माचासेऽपि भावकत्वं न दुष्यति ॥ ३८३।। एकत्वज्ञानमेवं चाविपरीतार्थगोचरम् । अध्यायेफः कथं यस्य व्यवच्छेदोऽनुमामलास् ॥३८४॥ माध्यारोफव्यवच्छेदानापि वस्तुग्रहादतः ।
प्रामाण्यमनुमानस्य स्यावादन्यायविधिपाम् ॥३८५१ एतदेवाह 'एकत्र' इत्यादिना[एकत्र निर्णयेऽनन्तकार्यकारणक्षणे ।
अतद्धेतुफलापोहे कुतस्तन्त्र विपर्ययः ॥ ५॥
एकत्र एकत्ले "युद्धः' इति शेषः । भावप्रधानश्च निर्देशः । तस्मिन् किम् ? इत्याह-अनन्तकार्यकारणतः । फार प्रमाणमित्यर्थः । "हेतुरपदेशो लिङ्ग निमित्त १५ प्रमाणं कारणमित्यनान्तरम्" { वैशे सू० ९।२।४ ] इति वैशेषिकाणां सूत्रदर्शनात् । कारणस्य भावः कारणता, प्रामाण्यामिति यावत् । तत्प्रतिधेधोऽकारणता प्रामाण्याभाव इत्यर्थः । कस्य १ अनन्तकारिणः। अन्तो विनाशा, प्रक्रमवशात् समायेपस्थेति गम्यते, तं करोतीति शीले तत्कारिन तत्कारि अनन्तकारि तस्य अनुमानस्येत्यर्थः। अनुमानप्रामाण्याभारसाधने साधनमेतत् द्रष्टव्यम् । तद्यमों भवति- समारोपव्यक्छेदेन प्रामाण्यमनुमानस्य तत्र तस्यासाधक्तमत्वात् । तदेव कस्मादिति चेन् ? व्यवच्छेद्यस्य समारोपस्यैवाभावात् । इदसेवाह-कुतस्तत्र विपर्ययः । तत्र बहिरन्तश्च भावेषु कुतः प्रत्ययात् विपर्वयः समारोपः, न कुतश्चित, एकत्वप्रत्ययस्य विपर्ययत्वेनाभिप्रेतस्य सम्यग्ज्ञानत्वादिति भाषः । कदा न विपर्ययः ! इत्याह-निर्णये निश्चये । फस्येत्यपेक्षायां समक्षेत्यादिकमिह पष्टयन्तमभिसम्बन्धनीयम् । तदयम:-समक्षेतरसम्वस्य समक्षस्य द्रष्यस्य इतरेषु पर्यायेषु समित्ये. २५ कत्वेन च स्वस्य ज्ञानस्य निर्णय इति विकल्पाधिकस्पायक्रमपर्यायकत्वज्ञानवर क्रमभाविसुखदुःखादिनानापर्यात्रैकरवज्ञानस्यापि तत्वज्ञानतया निश्चये नासो समारोप: सदभावाम सळ्यवच्छे. दैकत्वेनानुमानस्य प्रामाण्यमिति समुपायार्थः । तम द्वितीयो विकल्प बपपन्नः ।
१ अनुमानस्य । ३ एकत्र निर्णयेऽमन्तकार्यकारणतेक्षणे : पततुफलाहे अतस्तन विपर्धपः ॥ इति दार्तिकन" al: दि. ३ बुद्धिरिति मार, छ.,पस...दादेव
कादरूपत्वेन भावाप..।
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गांगादिनिभावनिए भवतु हहिं प्रथम एष विकल्पो बोधाकारभेदे बोधभेदस्यावश्यम्भावित्वादिति चेत्; तत्रापि न निर्विकल्पकभागस्य समारोपत्वं तस्य यथावस्थितस्वरूपसंवेदनस्वभावत्वेन तत्वज्ञानत्वात् । तदभावे च कथं तद्व्ययच्छेदकत्येनानुमानस्य प्रामाण्यम् ? एतदेवाह-ईक्षणे निर्षि
कल्पकज्ञानभागे । किम् १ अगन्तकार्यकारणतासमारोपव्यवच्छेदविकलस्यानुमानस्य न प्रामाण्यम् । ५ कुत इति येन् ? कुतस्तत्र विपर्ययः विपर्ययाभाचो यत इत्यर्थः । भवतु विकल्प भाप एन
समारोप इति चेत् ; कुतस्तस्य प्रतिपत्तिः १ अप्रतिपरस्य भावे अतिप्रसङ्गात् , ज्ञानवानभ्युपगमाश्च । स्वसंवेदनादिति चेत् ; सदपि न निर्विकल्पकम् । तस्य तस्मात्पृथकतत्त्वात् । न हि पृथ. कृतं वेद स्वसंवेदनं नाम, अन्यवेदनाभावप्रसङ्गात् । अन्यत एव सस्य वेदनभिति वेहन ;
अन्यदेवत्वनियमे जलत्यप्रसङ्गात् , समसमयस्य अकारणत्वेनाविर्षयत्वा । वेदनान् आफयसमय १० एव विकल्पमाम इति चेत् । तदा सहि परिज्ञानशून्यस्य कथं बोधत्वम् १ स्वसंवेदनादिति
घेत् ; न ; "सुदपि न निर्विफस्पकम्' इत्याई! 'कथं योषत्वम् इति पर्यन्तस्य प्रसङ्गात् । पुनरपि स्वसंवेदनाद्बोधस्वमिति चेत् ; न ; अनवस्याबाहिनश्यककत्व प्रसङ्गात् । कारणत्वेऽपि अलदाकारेण न • तस्य वेदनम्, ; साकारज्ञानवादस्य अनवसरत्वप्रसङ्गात् । अाकारवत्वे
वोदनस्य पुनरपि विकल्पेसररूपत्वमेकस्य विज्ञानस्य प्राप्तम्, न चैतदुपपन्नम् उपदोषत्वात् । २५ पुनस्तदुभयरकारपृथकाराभ्यनुज्ञाने तत्रापि न निर्विकल्पफभागस्य इत्यादिकम् 'उक्तदोषत्वात
इतिपर्यन्तमावर्तमानम् अनवस्थातरङ्गिणीमाकर्षतचनकस्योपनिपातकं भवेत् । तन्न स्वतस्तद्वेदनं निर्विकल्पकं यतस्तरप्रतिपत्तिा, अप्रतिपन्नस्य समायेपस्यासत्त्वात् कथं सद्व्यवच्छेदकत्येनानुमानस्य प्रामाण्यम् ? एतदेवाह-अतद्धेतु। सत् स्वसंवेदननिर्विकल्पकं धत्ते आत्मनि
धारयतीति तद्धः तस्मादन्यः अतः स्वसंवेदनप्रत्यक्षरहितो विकल्पभाग इत्यर्थः, २० तस्मिन् । तुशब्दः अपिशब्दार्थी, न केवलं दर्शनभागे किन्तु अतोऽपि विकल्पभाये । किम् ?
अनन्तकार्यकारणतासमारोपण्यवच्छेदविकलस्थानुमानस्य न प्रामाण्यम् । कुत एतदिति 'येत् । कुतस्तन विपर्ययः। विपरीतारोपो न कुसश्चिदप्यवगम्यत यत इत्यर्थ । विकल्पकमेष तर्हि तस्य स्वतो वेदनमिति चेत ; न तर्हि तलप्रत्यक्षम् , कल्पनायोढस्य तत्त्वात् , अन्यथा लक्षणस्याध्याप्तिदोषापत्तेः । नाप्यनुमानम् ; विषयभेद एव तद्भावात् । न चाप्रमाणात् प्रसिपत्रस्य प्रविपनत्वं प्रमाणकल्पनायथ्यात् । अपि च , विकल्पभागले नामाभिजल्पयोग्य आकारा, सस्य व सामान्यरूपत्वेनावरतुत्वात् फर्थ खविसिफलकम् ? अवस्तुनो निष्फलत्वात् । फलबरवे वस्तुत्वापत्तेः । ततो न विकल्पकमपि तस्य स्वतो बेवनम् । अविदितस्य च असमारोपत्वात् कथं तदृष्यवच्छेदेनानुमानस्य प्रामाण्यम् । एतदेवाह-फलापोहे। फलमपोछते असम्बन्धित्वेन
स्थाप्यते तस्मादिति कलापोहः सामान्याकारो विकल्पभागः तस्मिम् । किम् ? अनन्तकार्यका३० रणतासमारोपव्यवच्छेदरहितस्य न प्रामाण्यम् ? कुत इति चेत् ? कुतस्तत्र विपर्ययो
ईचणे इति निर्विकल्पकतने शान-०, य०, ५०, २ शानाविषयत्वात् । । सधा तहि आ०, ब०, प० । कत्वस्य वि-मा०,२०,५०, ५-पितनिर्वि-6, व.प. स. प्रत्ययस्यात् । -दोषोपपत्ते ब०, १०।-स्य तथा आ०,०,१०।
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ን ያ
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
१२७
विपरीवारोपो न कुतश्चिनिश्चीयते यह इत्यर्थः । सत्यम् विकल्पेतराफार यो वस्तुसेने नानात्वं विकल्पान्तरोपनीतं सु तदभेदमाश्रित्य समारोपास्तित्वमास्वीयत इति चेत्; न; विकल्पान्तरस्यापि प्राध्यादोवादसम्भवान् । तस्यापि विकल्पान्तरोपनीतत्वकल्पनायामनवस्थापत्तेः । तस्मात् समारोपयवच्छेदकारित्वेनानुमानं प्रमाणयता गृहीतेतरादिरूपेण वस्तु सांशमभ्युपगन्त. व्यम्, अन्यथा समारोपासम्भवेन तस्य यद्व्यवच्छेद का रिस्वानुपपत्तेरिति 'एकत्र' इत्यादि ५ धार्तिकतात्पर्यम् ।
अपि च, समारोपव्यवच्छेदो नाम वनिवृत्तिमात्रम् भागान्तरस्वभावो वा स्यात् ? निवृत्तिमात्रं विच्छेदो यदि वैस्योपकस्यते ।
सदा संस्करणान्मानमनुमानं कथं भवेत् ? ॥ ३८६ ॥ अन्यथा स्वापमूर्च्छादेर्मानत्यं केन वार्यते । तोsपि यत्समारोपनिसिर्न विशिष्यते ॥ २८७ ॥ सदाप्यारोपसद्भावाभ्यनुज्ञाने कथं भवेत् । चैतन्यशून्यस्यापादिप्रयावस्त्र तात्त्विकः || ३८८१३ तत्तृतीयं प्रमाणं ते भवेत्स्वापादिसहितम् । चेतनत्वात्
॥१८॥
प्रमाणसङ्ख्याव्याघातव्यात्रादेवमनुतात् ।
'कुर्वीथाः दुर्विदग्धस्त्वं कथमात्माभिरक्षणम् ? ॥३९० ॥ मावान्तरं समारोपयवच्छेदो यदीध्यते ।
तदप्यज्ञानरूपं चेत् किन्न स्वापप्रमाणतः ॥३९१॥ स्वापादपि यदज्ञानं किञ्चिद्वस्तुपजायते । अज्ञानकरणाद्भेदन स्वापानुमानयोः ॥३९२॥ "तत्त्वज्ञानस्वभावश्चेत्तत्रापि द्वैतकल्पनम् । तज्ज्ञानमनुमानं तत्, यद्वा तस्मात्परं भवेत् ? ॥ ३९३॥ अनुमानमेव तत्त्वज्ञानमिति चेत्; अत्राह -
एक निर्णयेऽनन्तकार्यकारणक्षणे । अतद्धेतुफलापोहे कुतस्तत्र विपर्ययः ||५|| इति ।
कुतः ? कस्मात् । तत्र तेषु भावेषु । विपर्ययो दिपरीवारोपः १ न कुतश्चित् । स न referपयः सम्भवति । कदा न सम्भवति ? इत्याह- 'अनन्त' इत्यादि ।
१] श्वीयत -आ०, ब०, प०, स० २ अनुमानस्म ३ समारोपस्य सत्कारणारमा - ० ब०, प०, स० १५ तदास्याशेप-आ०, ४०, १० स्वापाद्यवस्थानाम् । १"दस्य विज्ञानं प्रभवं पूर्ववेदनात् । जायते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्वितम् ॥ ८० वार्तिका इ० ११४९ । ७ बौद्धस्थ । ८ कुबर्ता दुर्विदग्धस्तं आ०, ३०,१०० । नकारणा-आ०, ब०, प०, स० । १० समारोपाच्छेदात्मकं भावान्तरं तानपत्रेव सदा विपयं भवति ।
१५
२०
२५
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१२८
न्यायचिनिधयविवरणे अन्तशब्दोऽत्रावधिवाची, स च द्विधा-पूर्वान्तः परान्तश्चेति । न विद्यते असो ययोरते अनन्से, काय 4 कारणे च कार्यकारणे, पुनरस्य अनन्तशब्देन कर्मधारयः-परान्तरहितत्वात् अनन्त कार्यम् , पूर्वान्तरहितत्वायनन्तं कारणम् , तयोर्भावोऽनन्तकार्यकारणता, अनादेः
कारणप्रयन्धरचे अनन्सस्पं च कार्यप्रवाहस्य भाव इति यावत् । तस्या ईक्षणमनुमानम् , तस्या. ५ प्युकायायेन यस्तुविषयत्वात् ईक्षणव्यपदेशविषयत्वोपपत्तेः । यद्येवमीक्षणस्य विकल्पाविरोधात
भवत्येव सत्यपि तस्मिन् विपर्यय इति चेत् ; अत्राह-निर्णये मिश्चयात्मनि तदीक्षणे न निर्विकल्पे अनुमानस्य निर्विकल्पवाभावात् । प्रतिसमारोपं तद्वयवच्छेदकानुमानभेदाभ्युपगमेन यदि 'कुतस्तत्र विपर्ययः' इत्युच्यते, तदा सिद्धसाधनमिति चेत् ; अाह-एकत्र
एकस्मिस्तदीक्षण इति। तदयमर्थः-यया तवहातप्रथमदित्तगोचरं कुतश्चिद् व्याहारादिविशेषालिका१. दुपजायमानमनुमान सञ्चित्तस्वरूपस्य सनत्वस्य निभ्याम् तद्तमचेतनत्वसमारोपं व्यवञ्छि
नत्ति तथा खण्डशस्तन्निश्चयानङ्गीकापदन्यस्यापि तत्स्वरूपस्य हेतुमत्त्वसजातीयहेतुकच शरीराद्यनुपादानवाप्स्तेनैव निश्चयात् अहेतुकत्यविजातीयहेतुकत्वशरीराघुपादानत्यादिसमारोपामामपि सते एव व्यवच्छेदोपपत्तेः, ययुक्तम्-"आय चित्तमहेतुकं न भवति कादाचिरकत्वात्
घटवदिति । तथा पश्चिम प्राक्तनचितप्रभवं चित्तत्वात अक्लग्नमित्तददिति, तथा १५ यसिनविकृतेऽपि यद्विक्रियते न तत्तदुपादानं यथा मन्यविकतेऽपि विक्रियमाणो मदयो
मोपासा, चिकियो पापियारोऽपि शरीरादौ चित्तम्' [ ] इति, तद्वदन्यपि तथाविधमनुमानं तत्सर्व व्यवच्छेवाभावेन व्यवच्छित्तिफलविफलत्यादेनर्थकमेष । तथा तेन तस्य हेतुमास्त्वं निश्भिवता यदपेक्षमस्य हेतुमत्त्वं तदपि प्राक्तन विस' निश्चेतव्यम् । "तनिश्चयाभावे तदपेक्षस्य सद्धेनुमत्वस्य निश्चयायोगात् । तथा च स्वयमुक्तम्
"द्विष्टसम्बन्धसंविचिर्नेकरूपप्रवेदनात्।
द्वयस्वरूपग्रहणे सति सम्बन्धबेदनम् ॥" [प्र. वार्तिकाल० १३१] इति ।
तदपि निश्चीयमानं हेतुमदेव निश्चीयते इति तद्धेतुभूतमपि प्राक्तन पित्त तेने निश्चेतव्यम् । एवं तापद्वक्तव्यं " याववनादिस्तद्वेतुप्रबन्धस्तेनैव निश्चितो भवति, तथा चादि
मत्संसारसमायेपव्यवच्छेदस्यापि तत एव भावात् न तदर्थमनुमानान्तरे प्रयतितव्यमिति । एतत् २७ अपूर्वान्सकारणेक्षणग्रहणेन दर्शयति ।
१. स्यानवसान ०,१०,०,०। २ अनुमानस्यापि । ३ विसनिश्चय | अनुमानेन । ५ अमु. मानादेव । ६ टम्यम्-म० वा० ३।३। . "तस्मात्तत्रादिविज्ञान स्वीपादानबलोदकम् । विज्ञानस्वादिहेतुभ्य इदामोन्तमनित्तवत् ।" -सरात श्लो. १८९७ । ८ "गदिस्य हि यस्तु या पदार्थों विकार्यते । उपादानं तस्य युक गौगवयादिवत् ॥"-प्र. वा. १६. "पुनर्वस्वधिकस्यैव यतिकार्यत म तसद्धपादानं यथा गवयमविकृत्य भौर्विकार्थमाणः । भविश्वस्य च शरीरं मनोमतेर निधचरणादिना दुर्मनस्सादिलक्षणस्य विकारस्योपादान कियते ।"-तस्वस०.०५२८ । १-दनमेव स. .. आयचित्तस्य ! प्रानचित्तनिश्चयाभावे । १२ तेनैव नि-स.] ३यानदना दिसतु-१०,२०,०,०।
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प्रथमः प्रत्यक्षरस्ताव
१२१
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तथा मरणचित्तस्य कुतश्चिदनुमान यथा तच्चैतन्यं निश्चिन्यत् तदसमस्यसमारोपं व्ययछिनत्ति, तदुक्तेन न्यायेन तदपरस्वरूपस्यापि माविचित्तप्रतिसन्यायित्वादेस्तेचैव निश्चयान् तदप्रतिसन्धानादिसमारोपस्यापि तेत एवं व्यवच्छेदोपपत्ते तदर्थमन्स्यचित्तलक्षणसमयकारण. लिकोपनिषद्धप्रसवं भाविचित्तानुमान स्वभावानुमानतमा परैरभ्युपगम्यमानमर्थयसा प्रविलभते, चित्तान्तरप्रतिसन्धायित्वमपि तेन तस्य निश्चिन्यता तदपि चित्तान्तरं निश्चेतव्यम् , निश्चयमन्त- ५ रेण तलप्रतिसन्धायित्वनिश्चयायोगात् , नदी किनानं सपत्रिते भाथ्य निर्वायत इति तलप्रतिसन्यमपि चित्तं तेनैव निश्वेतव्यम् , एवं तावदभिधातव्यं याबदनन्तस्य प्रतिसन्धेयत्तिप्रवन्धरय तेनैव निश्चयः कृतो भवति । तथा च संसारपर्यवसायसमारोपस्य तत एव ध्यवच्छेदन सदर्थमनुमानान्तरमास्थातव्यम, इत्येतत् परान्सरहितका शाहणेम दर्शयति ।
ननु कारणासभप्रादेव कार्य न तद्विपरीतान, ततः सम्भवत्यनि कार्यविन्धस्व पर्यव. १० सायः, तत्कथमपरान्तरहितत्वं तस्येति चेत् । न तस्य पर्ववसायित्वे सन्तानावस्तुत्यस्य वन्यमाणत्वात् । तन्नैकस्मिन् विलसन्ताने साफल्यमनुभामभेदस्य, तद्गतसकलसमारोपव्यवच्छेदस्यै. कस्मादेव सिद्धत्वात् । सन्तानान्तरेषु साफल्यं तद्भेस्येति चेत् ; अवाइ-अतद्धेतुफलापोहे । हेतषश्च फलानि च हेतुफलानि, तानि त्रियमितानि हेतुफानि येषां से तद्धेतुफला एकसन्तानक्षणाः । तदन्ये पुनः अतद्धेतुफला; तेषामोडः, अपोहन्ते से येन सोऽपोहो निर्णयः १५ तदपोहस्तस्मिन् सति । कुतो न कुराश्चिन् नत्र देषु सन्तामा तनेषु विपर्ययो विपरीतारोमो यता तश्यवच्छेदार्थभनुमानबहुस्वमिति । तात्पर्यमत्र-एको हि पित्तसन्तानः कुतश्चिदनुमानाग्निश्वीयमानः तदपरभावापोहस्सत एव निश्चेतव्यः वस्य "तापत्यास् अपोहनियस्य शायोनिश्चयाविनामावात् एकानुमाननिश्वेयत्वं सर्वभावान न्यायालायातमित्येकानुमाननिश्चयादेव निरवशेषस्थापि "तत्तहागतारोपनिफुरम्यस्य व्यवच्छेदान दिरं पर्यालोक्यन्तोऽप्यनुमानभेदस्य साकल्य. २० मुत्पश्यामः । वन वदेवानुमानं तस्वज्ञानं यत्समारोपन्यवच्छेदशब्दवाच्यं भवेन् । मनु अनुमानस्य समारोपव्यवच्छेदं प्रति कारणस्यात् "तस्मादन्तिरत्वमेवय तत्कथं तद्वाऽनुमानं तद्वयबच्छेचः' इति विकल्पोत्थापनम् , तदभेद एवास्योत्थापनोपपत्तेरिसि चेन ? न कियाकारकयोः प्रदीप-तमोऽपहारयोरिय अनर्थान्तरस्त्रस्य परं प्रत्यपि प्रसिद्धत्येनादोपात् ।
___ योषम् 'अन्यद्वा तत्वज्ञान तत्ययच्छेदः' इति विकल्पानुपपत्तिः, अन्यत्वे क्रियाका- २२५ रफभावस्थानुपपत्तेरिति चेत् ; मा भूत् क्रियाकारकभावापेक्षया वद्विकल्पोस्थापनम्, कार्यकारणभावापेक्षया वस्योस्थापितत्वात् , तद्भावस्य च भेद एवं परं प्रति प्रसिद्धत्यात् ।
निश्चितत्मान् आ०,०.१०,०।२भनुमागात् । ३ बौद्धेः 1 "मरणक्षणविस स्वोपादेयोदयक्षमम् । रागिणो होमसनत्वात् पूर्वविज्ञानवत्तथा ॥"-सरंक्स- स्लो. १८९९१४ मरणचिसय ५ कोत्यादसतरयस्य । ६-तानसाफ-आ०,०,५०,801 - अनुमानभेदस्य । ८-सामि रिक-स०। ९-नि वि-आo,व०,५०,सा १. विवचितचित्तसन्तानस्य 11 परमावापोहरूयत्वात् । १२-स्थापो-आ०,२०,५०,स. 1 १२-निश्चयस्थम् स.।१४-नो शानबा--000०,।१५-धगतस्वाबो-आ०,१०,५०,स018 समारोफव्यवस्छेदात् । १० शैवं प्रति। "कियाकरणयोरक्यविशेष इति न्येदयन् । धर्मभेदाभ्युपगसहस्त्यभिनमितीप्यते"-०वा ०२१३१४॥
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न्यायविमिश्रयविवरणे
[ १४५
eg as earnव तद्व्यवच्छेद इति चेत् सत्रुप्यनुमानान्तरम्, प्रत्यक्षं वा स्यात् ? अनुमानान्तरमिति चेत्; न; प्रथमानुमानापेक्षया तस्य विशेषाभावात् । इदमे वाह 'कुस्तत्र विपर्ययः' इति । तत्र द्वितीयेऽनुमाने कुत: ? न कुतश्चित् प्रथमानुमानापेक्षया वैपरीत्यम्, तस्मादविशेष इति यावत् । निर्णयो विशेष इति चेत्; न; तस्य प्रथमानुमा ५ नेsपि भावात् । सदाह- 'एकच निर्णये' इति । एकत्र प्रथमानुमाने, गणनकाले प्रथमस्यैवैक
शब्देन व्यपवेशदर्शनात् । निर्णये निश्वये सति 'कुतः' इत्यादि सम्बन्धनीयम् । समारोपन्यarsat fasser नः तस्यापि प्रथमानुमानेऽपि भावात् । तदाह- 'अतद्धेतुफलापोहे' । अतद्धेतुफलशब्देन अध्यारोपितमाकारमाह-तस्यैव स्वलक्षणं प्रसहेतुत्वादल्ल्याच तपोहस्तव्यव च्छेदः समिध एकत्र सति 'कुतः' इत्याद्यभिसम्बन्धनीयम् ।
१०
१३०
regnate fद्वतीये चेदपेक्षणम् ।
fest पतीये स्यापेक्षणम् ॥ ३९४॥
जो एकत्वमस्य च ।
स्वस्थानं कथमेव निवृतिमत् १ ||३९५ ॥
'
इदमेवाह- अनन्त कार्यकारणतेक्षणे कुतस्तत्र विपर्ययः' इति । अनन्तस्य १५ अनवसानस्य अनुमानप्रवन्धस्य कार्यकारणचा अपेक्ष्यापेक्षकता । सामान्यस्यापि प्रस्तावशाद्विशेषेऽपि वृत्तेः । तस्या ईक्षणमुक्तेन स्यायेन दर्शनम्, तस्मिन् सति, कुतस्तन परमतेऽनस्थानस्य प्रस्तुतत्वात् त्रिणिः विपर्ययः । तेन अनुमानान्तरमपि तत्वज्ञानं यत्समारोपव्यवच्छेदशब्दवाच्यं भवेत् । प्रत्यक्षमेव तर्हि ज्ञानमिति चेत् सदस्यभ्यस्तात्, अनभ्यस्ताद्वानुमानात् भवेत् ? २० अनभ्यस्तादित्ति बेस् न एकानुमान प्रससमय एव व्याधूतसमारोपनिरंक्षक्षणिक वस्तुदर्शने सति सकलप्रवृत्यादिव्यवहारविव्यप्रसङ्गात् व्यवहारस्याध्यारोपनिबन्धनात् । तदाह'एक' इत्यादि । एकत्र एकस्मिन् निर्णयेऽनुमाने सति तत्कार्यं यत् अनन्तकार्यकारणक्षणम् । अन्योऽध्यारोपित आकारः । अम्यते व्याप्यत्वेन गम्यते क्षणप्रत्रऽनेनेति व्युत्पत्तेः अनन्तं तद्रहितम् तच तत्कार्यकारणत योपादानोपादेयतयोपलक्षितक्षणं तस्मिन् कुतस्तत्र विवक्षिते विषये विविधं परि समन्तादयनं गमनं विपर्ययः सर्वः संसारव्यवहार इत्यर्थः कः ? इत्याह- अमहेतुकलापोहे । तस्माद्वित्रक्षिफलं तस्याप्तिरायः संस्योहोऽभिनिवेशस्वभावोऽवखेतुफला पोहः तस्मिन् सति । तात्पर्यमत्र
२५
!
१ निर्णय २ सदा हो ० ० ० ० ३ कथमेव वि-आ०, प०, स० ४ सयानु आ -३०, १० स० । ५ -वस्तुसद-आ०, ब०, प०, स०पडांबे-आ०, ब०, प०, स० ।
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१३५ ]
प्रथमः प्रत्ययस्तस्या
क्षणिकत्वानुमानाच्वेद यासरहितादपि । .एकस्यारोप निर्मुक्तदर्शनप्रसवो भवेत् ॥ ३९६ ॥ आत्मष्टेस्तंश नाशानात्मस्नेहात (स्नेहस्त ) दाश्रयः । arera gafter a भवेत्तन्निबन्धनम् ॥ ३९७ ॥ अतीक्षितसुखः कस्मादिदमस्मात् भवेत् । इष्टमित्यभिसन्धन्त यतस्तत्र प्रवर्त्तताम् || ३९८ ॥ आय एव ततो मार्गे निर्वाणगमनं भवेत् । सकलवलेशनिर्मुकशानरूपं हि तत् मतम् ॥ ३९९ ॥
१३१
;
ax अभ्यास रहदादनुमानाद् व्याधूतविपरीतौरोपं प्रत्यक्षमुपपन्नम् । अभ्यासयत पति चेत् तदयस्मदादीनाम्, आत्मविशिष्टानां वा स्यात् ? अस्मदादीनामिति चेत्; न; १० अस्मदादिपु क्षणिकस्वलक्षणदर्शनानुपलक्षणात् । तदपि कस्मादिति चेत् ? अन्तहि यावज्जीवमेकत्वस्यैव निर्णयात् । तदाह- 'एक निर्णये कुतस्तत्र विपर्ययः' इति । एकन्नेति भावप्रधानं च । एकत्वस्थ वहिरन्तश्च निर्णये सति कुतस्तत्र भावेषु विपर्ययो विक्षणपरिज्ञानम् ?
क्षिपरिज्ञानमेकत्वे निश्चिते कथम् । न हि नीलपरिज्ञानं निश्चिते पीतवस्तुनि ॥४००१ अन्यथा सर्वविज्ञानं सर्वत्रैयं प्रसज्यते ।
सर्वेसर्वज्ञतां तच निराबाधं प्रकल्पयेत् ॥ ४०२ ॥
१५
..
1
मा भूदस्मदादीनां तद्भ्यासजं स्वलक्षणप्रत्यक्षम् अस्मद्विशिष्टानां तदस्त्येव वेषामनुमानाभ्यासप्रकर्षभाविनो निर्मूलसमारोपसंस्कारस्य सर्वाकार वस्तु दर्शनस्यानुपषादिति चेत्; २० अत्राह - अनन्यकार्यकारणक्षणे अम्तको मृत्यु: अर्यः स्वामी यस्य तत् अन्तकार्यम् च्छेदवत् तदन्यत् अनन्तकार्यम् अनुच्छेदलन्तानम् अस्मद्विशिष्टानां वस्तुदर्शनम् तस्य कारणमनुमानं येणे पर्यालोचने । तत्रोकरम् 'असत्' इति । तदनन्तरोक दीक्षणं नेत्यर्थः । सज्यप्रतिषेधे समासः कथम् असामर्थ्यादिति चेत् ? न; 'अश्राद्ध भोजयत्' अविरोधात् । कुत एतदिति चेत् ? आहहेतुकलापः हेतोः कारणात् फलस्य प्रयोजनस्य आपः २५ निष्यत्तिः नान्यस्मात् तन्न तस्मिन् हेतुफला न्याय्ये सति विपर्ययः अहेतोरनुमानाभ्यासात् सर्वाकारदर्शनापो भवन्मतः कुतो न कुति हेराग्यः सम्बोधने । यथा च अनुमानाभ्यासः सर्वाकारवस्तुदर्शनस्य न कारणं तथा निवेदितं प्रथमकारिकाच्चाख्याने, निवेदयिष्यते व तृतीये*। सत्र निरंशवस्तुवादिनां समारोपव्यवच्छेदादपि प्रामाण्यमनुमानस्यो
t
१ दर्शनका । २ आत्मदर्शननिमितः आत्मस्नेहमूलकम् ४ निर्वाणम् । “तथा चोकम्चितयेय हि संसारो रत्नादिक्लेशवासितम्। तदेव तैर्विनिर्मुकः इति कथ्यते ॥ ५- पाया०, ब०, प०, स०६ सम्यतस्तत्र आ०, ब०, प०, स० १७ प्रसा
तवस०प०१० १८४ |
1:
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१३२ म्यायविनिश्चयविधरणे
[ १५ पपन्नमिति साधुक्तम्- 'एकत्र' इत्यादि । तस्मादलुभानस्य प्रामाण्य यस्तुग्गोचरत्वादेव, दक्ष सांशत्व एव भावानामुपपनम् , अतो न निश्चयरूपत्वेऽपि प्रत्यक्षस्य प्रमाणान्तरस्य शब्दान्तरस्थ वा वैफल्यमिति स्थितम् ।
स्वामिदम्-निश्चयो मार विकल्पविशेषत्वात् सत्येव विकल्पे भवति, न प विकल्पक ५ प्रत्यक्ष त्र निर्षिकल्पकत्यस्यैव प्रमागोपपनत्वात् , सत्कथं तस्य निश्चयात्मकत्वमिति ; सत्र किमिदं विकल्पकत्वं नाम ? पाचकशब्दविशिष्टसयार्थप्राहकत्वमिति चेत् ; का पुनर्वाचका शब्दः सलक्षणरूपः, सामान्यरूपो या ? स्यलक्षणरूपश्चेत् । तस्यापि घाइकरवं स्वहेतुरला. यातम्, साकेतिक वा ? स्यहेतुनलायातमिति चेत् ; न ; प्रथमभवण एक तायकत्वप्रतिपत्ति
प्रसङ्गात् । सङ्कतादेव तवाचकत्यप्रतिपत्तिरिति चेत्, न; स्वलक्षणे सदेतासम्भवात् । अन्बविनो १० हि शक्यसमवत्वं तत्र स्वयमुपलम्भस्य परं प्रत्युपदर्शनस्य च सम्भवात् । स्वयमुपलको वि
पुनः परं प्रत्युपदर्शिते भवति 'अयमस्य थानकः' इति सरूतः ? सवैतितस् च व्यवहारोपयोगिस्थम् । स्वयमुपलभादिश्च सत्येदात्यये ( यान्वये )। न च स्वलक्षणस्यान्वयः ; क्षण. क्षीणत्नाभ्युपगमात् । वन्न शब्दस्वलक्षणस्य हेतुबलप्रवृत्तं वारकत्वं सतादयगम्यत इति
युक्तम् । एतेन सातिकमपि तस्य वारकरी प्रत्युक्तम्: सतासम्भषे सदसम्भवात् । स्वतः १५ स्वलक्षणस्ये अयाचकत्येऽपि यावकाशवसामान्यैकत्वेनाव्यवसायावाचकत्यम् , अत एव इन्द्रियजाने
"न छर्थे शब्दाः सन्ति तदात्मानो या येन तस्मिन् प्रतिभासमाने तेऽपि प्रतिमासेरन्" [ ] इति "सदाकारस्वमेव निषिध्यते तन्निर्विकल्पकतासाधनार्थम् । कचिदबाचकन्वे" तु तस्य किं तो सपाकारस्वनिषेधेन ? सत्यपि 'सत्र 'स्वलक्षणाकारस्थे विकल्पापन्तिमयाभावात् । अन्यथा रूपादिस्वलक्षणाकारत्वस्यापि निषेधप्रसङ्गात् ।
इन्द्रियज्ञानवावमुस्तन्ना सौगते मते ।
रूपायाकारनिर्मुक्तो यन्न वस्यास्ति सम्भवः ।। ४०२५ तपय लाभमिच्छतो मूलयिनाशा, इन्द्रियज्ञानस्य निर्विकल्पकत्वं साधयितुमुपकान्तेन तस्यैषो. न्मूलीकरणान् । *तत्सामान्याकारत्वस्चैव तत्र निषेध इति चेत् ; कथं तर्हि धोतरेण कथि
सम्-इह च यतो व्यवहारो दृश्यविकल्प्यावर्थावेकीकृत्य शब्दखलक्षणमेव वाचकम२५ ध्ययस्यन्ति तस्मात्खलक्षणमेव वाचकमणीकृत्य तदाकारशून्यस्थानिर्विकल्पक प्रत्यसम्" [ ] इति ?
किच" शब्दसामान्याकारबद् अर्थसामान्याकारस्यापि तत्र निषेधः फर्सव्यः, सति
प्रत्यक्षस्य । २-कमि-स. । ३न्तानये स.। स्थलगत्य । -स्प बार-बाप०, ५०.स.। अरमानों का संचदाः । म 1 ८ प्रभास-मा०,०, ए., स.। इति वाक्येम । उवृत्तमिदम्-श्या००४.३५.१. शब्दाकारत्यमेव । ११-कत्वासाre, E, प००।१२ सत्ययेकरमभ्यवस्मये यदि स्खलक्षणस्य अवाचकलमेव = कथमपि वाचक तदा । ३ खलक्षणस्य । १४ इन्द्रियशाने । १५ शहाकारत्व । १६ इन्द्रियाने अवस्वलाकार। 14वाचकमन्दगतसामाभ्या कारख।19 कि शु-मा०, २०, ५०, R.1 १० इन्दियशाने ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
१३३ तस्मिन्नर्थस्य याच्यत्वेन प्रतिभासनात् तत्प्रतिभासस्य सधिकल्पकत्वापसे । अर्थसामान्याकायेऽपि "वदनिर्देश्यस्य वेदकम्" इसनेनै निषिध्यत इति चेत् ; न, शब्द सामान्याकारस्यापि तेनैव निषेधास् 'नयर्थे शब्दाः' इत्यादेय पोः । अनेन हि शब्दसामान्याकारे निषिद्धेऽपि "शब्देनाव्याताक्षस्य" [ ] इत्यारिफमर्थसामान्याकारनिषेधायारश्य वक्तव्यम् , तेनैव च शब्दसामान्याकारस्यापि निदेश्यत्वेन निषेधे सिद्ध "न ५ बर्थे शब्दा" इत्यादेनं किञ्चित्फलमुत्पश्यामः, सन सामान्याकारस्थानेन निषेधः किन्तु स्यलक्षणाकारस्यैव वाचकसामान्यैकत्वमाध्यवसित्तस्य, सतो याचकस्वलक्षणसद्धतया प्रकृणमेष विकल्पानां विकल्पत्वमिति कश्चित् ; सोऽपि न विपश्चित् । श्रोत्रज्ञानस्यैवं सविकल्पफल्शपत्तेः । तस्य वाचकवलक्षणविषयत्वात् ।
अब म तन्मात्रविपयत्वमेव विकल्पकत्वम् अपि तु द्विशिष्ट्रवाध्यमहणम् , १० न च श्रोत्रज्ञानं वद्विशिष्टयाच्यविषयमिति धेन् ; न; बायकग्रहणस्यैव सद्विशिष्टवान्यग्रहणत्वात , वाच्यरूपानवसाये पाचकत्वस्यैवानवसायात् , वाच्यवाचकचोरेकज्ञानस्या. म्यतरप्रतिपत्तिनान्दरीयकत्वात् । वाचकत्वमपि । श्रोत्रज्ञानवेधम् ; "शब्दस्य पूर्वापरीभावे "तप्रवृत्तः, सात्कालिकवस्तुगोचरण्यापाराद्धि श्रोत्रेन्द्रियान् तद्विषयस्यैव ज्ञानस्यो. त्पत्तेः । पूर्वापरीभूतस्य च शब्दस्य वाचकत्वं तत्रैव सङ्केतकरणादेः सम्भवादिति चेत् । १५ कथं तर्हि "तदपरेन्द्रियज्ञानान वाचकविषयत्वम् ? तेषामपि सन्नास्ति' पूर्षापर्यभावे तेषामध्यप्रवृतेरिति चेत् ; व्यर्ध वर्हि तत्र शब्दलणाकारनिराकरणम्, सत्यपि सदाकाररवे धायकस्वभाषाग्रहणादेव विकस्यापत्तिभयप्रसङ्गस्य प्रविक्षेपात् । सति तदाकारत्वे वायकरूप". मेय तदाकारमध्यनस्यन्तो व्यवहारः प्रत्यक्षस्य "तद्विषयत्वमेघ प्रतिपरिन् , अतस्तदभिप्रायनिषेधेन निर्विकल्पकत्वसाधनार्थम् इसरेन्द्रियज्ञानेषु शब्दस्वलक्षणाकारप्रतिक्षेपः, इत्यपि न चतुरम् ; २० भोत्रहानेऽपि तदाकारप्रतिक्षेपप्रसङ्गान , तत्रापि सति सदाकारे व्यवहर्सजनस्य 'वाचक एव तदाकारसविषयमेव च प्रत्यक्षम्' इत्यभिसन्धानस्यावश्यम्भावात् । अप्रतिक्षिोऽपि तदाकारे तर "सदभिसन्धानमेव प्रकारान्तरेण प्रतिपिध्यत इति चेत्, न; अन्यत्रापि तत एव सनिषेधासअात् । किं या तत्प्रकारान्तरम् । प्रत्यक्षमिति चेत् तत्र वाचकविषयत्नस्यैव व्यवहार
अर्थसामान्याकारे। -भासनस्य मा०, ब०, प० । ३ वापथैन । ४-सरकाशस्थ मा०, ०, प०,१० । उद्धृतोऽयम्-"ययकालमू-शब्देनाव्याहतारयस्य युद्धाकप्रतिमासनात् । अस्य इष्टचिवैति ।" --असि .पृ.६."."अर्थप सशविर तमिदंशस्य थेदकम् ।"-सम्मसिटी .पू०२६.:".."दृष्ट्याधिक तष्ठन्याः कल्पितगोषसः ||"-हेतुविष्टी०१. १०१। ५२ वर्षे शब्दाः सन्तीति सक्येन । ६ सम्बन्धमा । घt०, ०,१०, सा। -पवम् मा०, २०, १०, स. ८ वाचकविशिषाध्य 1 ९-रीवात् मा००,०, स. .शयपूर्व-1101 ११ धोत्रज्ञानाम: १२ पाषादीनाम् । १३ इन्द्रियश्चने । १५-पि निराका-भा०, ०,१०, स! " यानकरूपस्वमेव प्रा००,१०,१०। १६ शमविषयत्वमेव । " तदपि सन्धा-पा०, ब, १०, स.। १ अनुरादीन्द्रियज्ञाने। १९ प्रकारान्तरादेव। २. 'वेष तस्य अवहारि प्रत्याभदत्वात न राखिद्धमसिद्धस्य व्यवहारम् भाग०, १०, स.।
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भ्यायचिनिश्चयांचवरण
{ १६ प्रति प्रसिद्धत्वात् । न हि तद्विषयादेव सद्विषयत्वप्रतिक्षेपः । सत्यम् ; अभिनिवेशमात्रातस्य द्विपयत्वं वस्तुयुत्तमभ्यथेति थे ; अन्यथा वस्तुवृत्तसित्यपि कुतः ? सत पर प्रत्यक्षादिति चेत्, न; प्रतिपादिवाभिनिवेशाघ्रातात् तदसिद्ध । अन्यथाभूतादिति चेत् ; न; तस्य व्यवहारि प्रत्यसिद्धत्वात् । न चासिसूमसिहस्य साधनम् ; स्वर सिद्धस्य अपरमसिद्ध प्रति साधनत्वो५ पपत्तेः । सकलविकल्पोपसंहारवेलायां सिद्धमेव तस्य सविति चेत् ; 'न; तलाया विचारयिष्यमाणत्वात् । तन्न प्रत्यक्ष प्रकाराम्सरम् । नाप्यनुमानम् ; तस्यापि प्रत्यक्षव्यापारानुसारिणः तविषये प्रवृत्त्यसम्मवान् । सद्व्यापारनिरपेक्षत्वे तु तस्य स्वयमेवासम्भवान् व्याग्निपरि. झानस्य प्रत्यक्षाधीनस्याम् । अनुमानाधीनखे अनयस्थादोषस्य पश्यमाणत्वात् । ततो यद्यपरे।
न्द्रियज्ञानेषु शब्दस्वलक्षामाकारे सत्रैव व्यवहत्तुंचकरूपाभिनिवेशस्यावश्यम्भावात् 'सदाकार१० वतां तु हानानाम् अवश्यम्भाविनी विकल्पापतिः' इति भयात् “वदाकारनिषेधे प्रयासः,
नहिं थोत्रज्ञानेऽपि तत्प्रयासो विधातव्या, तथा च विषयाभावे तदेव ज्ञानं न भवेत् । ततो म वारकरूपाध्यवसायाधिप्रितशब्दस्वलक्षणचिशिनविषयपरिच्छेदो विकल्पलक्षणम् ; श्रोत्रज्ञानेन अचिव्यापित्वात् । तन्न शब्दस्यलक्षणस्य स्वभाषतोऽन्यतो वा वाचकत्यं सम्भवति ।
मा भूसत्स्वलक्षणस्य वाचकस्वं सत्सामान्यस्यैव तदभ्युपगमात् , "तस्य देशकालभिम१५ व्यसपनुगमरूपत्वेन सत्र सङ्केतकरणादेयवहारविनियोगस्य च सम्भषादिति चेत् ; ; सामा
न्यस्य वस्तुभूतस्यानभ्युपगमात् । अपोहरूपमवस्तुभूतमभ्युपगम्यत एवेति येस् ; कथमवस्तुनो वाचकशक्तिः यतस्तदधिच्छिन्नविषयाहणं विकल्प: स्यात् , तन्छक्तिभाषे तदवस्तुत्वानुपपत्तेः । स्वलक्षणशस्तरारोपान् शसिमानेवाऽपोह इति चेत् ; न ; स्थलक्षणस्यापि वाचकशक्तरमा
वास, हदुस्तदोषप्रसङ्गान् । शवन्तरस्यारोपेऽपि तत्प्रयोजनमेवारोहस्य स्थान विषयप्रतिपादनम् । २० अपिथ, आरोपस्य विकल्पत्वेनावातुगोचरत्वात् , तनायेषितापि शक्तिरवस्तुरूपैवेति कथ
तशादयोहस्य बाचकत्वम् ? आरोपितायामपि शक्तः स्खलक्षणशक्तगरोपादिति चेन् ; म; 'स्खलक्षणस्यापि इत्यादेखभ्यासाकापोरनवस्थानोपस्थानाश्च । पन्नापोहस्यापि पाचकस्वम् । ततः कथं वायकविशिष्टविषयत्रहणं विकल्पलक्षण बाचकस्यैवासम्भवास? एतदेवाह
अभिलापसदंशानाममिलापविवेकतः ।
अप्रमाणप्रमेयत्वमवश्यमनुषज्यते ॥ ६ ॥ इति ।
अभिलप्यतेऽनेनेत्यभिलापः शब्दसामान्य तस्यैव साक्षाद्वाचकत्वेन परैरभ्युपगमात् । अंशा इवांशा विशेषाः । किं पुनरंशसारश्य विशेषाणामिति चेत् ? अधिकरणत्वमेव, अंशिन "प्रत्यंशानमिव सामान्य प्रति विशेषाणामध्ये धिकरणत्वप्रसिद्ध । तस्याशास्तदंशाः अभिलपश्च
प्रयक्षस्य पाकविषयरवम् ।३ व्यवहारिणः । अन्यषाभूतम् अभिनिदेवाशुन्म प्रत्यक्षम् । प्रत्यधाविषये । भनुमानस्य-स्था आ ए-१८ सदस्वलाकार । श्रीशानमेव । १०शब्दस्खमास्यस्प। 11-एएस्प स्यात् धाo,०प०,.1१२ वायसचिसद्भावे.१३अपोइस सिामानिति व्यपदेशमात्रमेष स्यात् । १४-प्रकोप-आप.१०स०९५ प्रत्यंगाना--आ०,२०,९०, स. १६ विशेषणामधि-आ०,०,५०स।
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प्रथम प्रत्यक्षप्रस्ताव
ठदशाश्च अभिलापतदंशास्तेषां शब्दसामान्यतस्वलक्षणानाम् । अभिलापविवेकताअभिलपनमभिधेयप्रतिपादनम् अभिलापः, रास्योक्तम्यायेन विषित (विधेको) विरह तस्मात् । ततो 'म विकल्पसम्भवः' इत्यध्याहारः ।
मा भूद्विकल्पः । तदुक्तम्
"परमार्थतस्तु सकलं विज्ञानमविकल्पकम् ।
तद्राविषये सर्वस्यायिकल्पेन वर्मनात् ।।" [प्र० पालिकाल० २।२४९ ] इति चेत् । तदसारम् ; यस्मात
विकल्पयिरहे न स्यादनुमान तदात्मकम् । तेदत्यये तु नाध्यक्षं यथाकामं प्रसिद्धपति ॥४०३॥ प्रत्यक्षं कल्पनापोडसर्थसामर्थसम्भवात् । इत्यादिनानुमानेन साधनात्तव्यवस्थितः ॥४०४।। स्वत याविकस्यं चेत्प्रत्यक्षं सिद्धिमृच्छवि । भूतोपादानमध्यक्षं तदकिन्न प्रसिध्यति ।।४०५|| तदुपादानभावेन तस्य नावभासनम् । निरंशैकस्वभावस्य किं तस्यास्त्यवमासनम् ? ॥४०६॥ चित्रकामानवादस्तु बादिनः श्रेयसे नवः । वाच्यवाचकसंसिद्धेस्तत्राने प्रतिवेदनात् ॥४०॥ कथं सषसिद्धिः स्यादध्यक्षे धानपस्थिते ।
प्रमाणपरिशुभया हि प्रमेयस्य व्यवस्थितिः ॥४०८॥ इदमेवाह--'अपमाणप्रमेयस्यमनुषज्यते' इति । प्रमाणमत्र प्रत्यक्षरमेव अनुमानाभावस्य २० विकल्पाभाववादिना परेणैवाभ्युपगमात् । प्रमेयमपि तद्वेध स्वरक्षणमेष । प्रमाणन प्रमेयश्च प्रमाणप्रमेये तयोर्भावः प्रमाणप्रमेयत्वम् , सदभायः अप्रमाणप्रमेयत्यम् , अनुपज्यते विकल्पाभावमन्यागच्छति प्रतिपादितेन भ्यायेनेति भावः ।
भवतु तईि सर्वस्यापि प्रमाणप्रमेयविभागस्याभायः सर्वभावनैरास्यस्यापि सौगतैरङ्गीकाराविति चेत् ।
कथं स्यात्सर्वरात्म्य प्रमाणं यदि सत्र का?" कथं स्यात्सर्वनैरारम्य प्रमाण चेन्न तत्र कः १ ॥४०९॥ प्रमाणमन्तरेणापि सिद्ध यदि घुश्यते। भावनगरम्यबादासद्भावः किन सिद्धिमान् ? ॥४१॥
विकल्पामकम् । २ अनुमानसमाये । ३ "अविसंपादश्च अदुत्पराग्यभिचारत:":-R• धार्तिकाळ. २0१४ घरवषास्य । ५-त: 04, प०,
स स म्यम् । ७-पस्वभाव था .
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न्यायविनिश्रयविवरणे
एतशः अवश्यज्यते
अपूर्व भारतयेोगतानामनेकारवशवर्त्तित्वात
अवश्यं प्रमाणादिभात्त्वं विपर्ययात्, तदपि प्रमाणसिद्धिरिवेशमेव सिद्धयतीति यावत् । इदमन्य व्याख्यानम् - यदि अभिलापसम्वन्धविशिष्टा एवार्थ विज्ञानैर्व्यय सीयेरन तदा न तावसद्विशिष्टत्यर्थानामोत्पतिकम् प्रथमदर्शन व तद्विशिष्टव्यय सायप्रसङ्ग स ५. ययपत्तेः । सङ्केतका लगृहीतस्याभिलापस्यामुस्मृत्य योजनात् विषयस्य तद्विशित्वमिति चेत्; अत्राह-- 'अभिलाप' इत्यादि । अमस्यार्थः--अभिलम्यते या स्वार्थः परार्धश्च स अमिलापस्तेन विवेकः असम्बन्धः कस्य ? अभिलापस्य तद्वाचकस्य शब्दस्य । तथा हि स्वार्थविशेषे निर्णीते शब्दविशेषे स्मृतिः स्वात् नानिगते, अन्यथा दानादिचेतसां स्वर्गप्रापणसाम
निर्णीतेऽपि तद्विशेपस्मृत्या संयोजनं स्यात् । न चैवम् अविवादप्राप्तेः । अस्याञ्च तत्र १० उद्योजनायां स्वार्थ विशेष निर्णय इत्यन्योन्यसंश्रयः । तन्न अभिलापस्य अभिलापेन सम्बन्धः । तथा अभिप्यते अनेनेत्यभिलापः शब्दः तेन विवेकः । केपाम् ? देशानां घकारादीनाम् । तथा हि-'या विशेषणविशिष्टार्थविशेषणस्मृतौ नान्यथा तथा तदेशविशिष्ाभिलापस्मरणं "केवलस्थावाचकत्वात् । तदेशस्मरणपूर्वकम्, तत्स्मरणमप्यभिलापविशेषस्मरणपूर्वकम्' इत्यन्योन्यसंश्रय द्वितीयः " । तदेवम् अभिलापतर्दशानामभिलापविवेकतो विकल्पाभाव एव प्रातः, तद्भ्यु१५ " च निर्विकल्पस्याकिनिस्करत्यात्र प्रमाणम्, अत पत्र न प्रमेयम् इति अप्रमाणप्रमेयत्वं तद्वितः अवश्य मनुषज्यते ।
दर्पि"
इयानम् - यदि अभिलापविशिवार्थ व्यवसायस्तदभिलापमरणात् सतस्मरणं केवलस्य तस्याऽवाचकत्वात् “तरंशविशिष्टत्यैव तदंशानां च स्मृतानामेव सद्विशेषणतयावसाय इति । अभिलाषस्मरणं वयंशस्मरणव अपराभिलायतदेशस्मरणद्वये सति २० भवति । तदपि पराभिलापतवंशस्मरणे भवति सत्राप्येवमिति अनेकोऽनवस्थानदोषः प्रसज्यते । तस्मात् अभिलापतर्दशानामभिलापविवेकतो वाक्कन्नविरहात्तयवस्थ एक 'प्रमाण' इत्यादि इति ।
श६
स्यान्मतम् भवतु परस्पराश्रयः अनवस्थानं तु न सम्भवति, स्मर्यमाणस्य शब्दस्य शब्दान्तरस्मरणनिरपेक्षत्वात् । स्वयमवाचकस्य हि वाचकविशिष्टतया निर्णये व्यतिरिक्तवाचक२५ स्मरणमपेक्षणीयम्, शब्दस्य स्वर्थप्रतिपादनवत् स्वप्रतिपादनेऽपि व्यापारान उत्तरणे वाचका
1-से इति पा०, ब०, प०, प० । २- वक्म् ०१०१०, २०१ कारणजन्यम् । नुसत्य ४०, ब०, प०, स० जना वि-ता ६-मि- मा०, २०, ५०, स० । कस्यापि लाभस्य भा०, ४०, प०, स० ८ शब्दविशेष । ९ शब्दयोजन स्वात्तथा च दानवितं स्वर्गप्रापणसमर्थम् इति विश्वः समुपये १० स्वार्थ निशब्दविशेष स्मृतिः, अश्याश्च शब्दविशेषरतेच रात्र खार्थविशेषे योजनायाम् शब्दयोजनायाम् स्वार्थविशेषनिर्णय इत्यन्योन्याश्रवः। ११ अभिश्रध्यस्य, अभियया इति न्युयः १२ अंशविरहितस्य । वलय या आ०, ब०, प०, स० | १३ चकाराद्यशसारणमपि । १४ – यतः भ० ० ० ० १५ विकल्पाभावे भिश्रक्रमः 'स्मरणम्' आ०, ब०, प०, स० ।
स्वीक्रियमाणे । १६ अभिलाषविवेकतः । ३० श्रमिश्रापदिशेषार्थ स० । १८ अपिशब्दो इत्यस्यानन्तरमभिराम्बन्धनीयम् तदभिलापस्मरणमपि । १९ अभिलाषांश १० स्थादयः
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श६ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
न्तरसारणमर्थचत् तत्कथमनवस्थानमिति ? रादत्यसदेव सम शब्दस्य स्वप्रतिपादनस्याभाव्याभावात् । तद्भावे वा श्रोत्रज्ञानेऽपि खबावकत्वेनैव तस्यावभासनात् स्मरणवत्कथं तस्यापि निर्वि कल्पकस्वम् ? तंत्र संस्य न थामासनमिति चेत्; किं तर्हि स्यात् । अप्रविभासनमिति चेत्; न तज्ज्ञानस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गात् न च विषयाचं विज्ञानमिति श्रोत्रज्ञानव्यवहार विध्वंसनमेव प्राप्तम् । अन्यथाऽयमासनमिति चेत्; न; तस्याभ्रान्तत्वेन प्रत्याभावापत्तेः । यन्त्र शब्दस्य ५ स्वप्रतिपादन स्वाभाव्यम् । तथा चेत् स्मरणेऽपि कथं तस्येव प्रतिभासनम् ? अथ स्मरणमतद्रूपमपि तमिव अद्योतयति । कुत एतत ? तस्य विकल्पत्वेनैव स्वाभाव्यादिति चेत्; तदपि कुतः ? वाचकरूपविद्योतनादिति चेत्; न; परस्पराश्रयात् विकल्पत्वाद्वाचकरूपावद्योत नम्, ततश्च विकल्पत्वमिति । अन्यदेव तस्य विकल्पत्वनिबन्धनं वाथकरूपाद्योतननिति चेत्; न; तस्याऽभावान् । भावे तदपि यदि तत्परिकल्पितं स एव दोषः तदोवनात्तस्य १० चिकल्पत्यम्, ततश्च तदवद्योतनमिति । पुनस्तद्विकल्पत्यनिबन्धनस्या परतद्वद्योतनस्य परिकल्पना यां Centre १
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अपि च, "स्वाभिलापसम्बद्धा एवार्था विज्ञानैर्व्यवसीयन्ने" [ 'इसि बाणेन स एव तदभिलापो वक्तव्यः । पदं वाक्यं वेति चेत् नतु वाक्यं नाम पदसन्दोह कल्पितं नाखण्डैकरूपं तस्य निषेतत्यमानत्वात् ततः पयोजनया "तद्वक्लृप्तिः कर्त्तव्या पदानां चातुस्मर- १५ * गोपस्थापितानामेव योजनम् । न च पदमपि किञ्चिदखण्डैकरूपं तस्यापि विपत्स्यमानत्वात् । वर्णयोजनया तु "तस्क्लुप्तिर्विधातव्या । वर्णानां च स्मरणोपस्थापितानामेव योजनम् । न च वर्णा निर्भागाः; दीर्घादिव्यवहाराभावप्रसङ्गात् । भ्रान्तस्तय्यवहारे" इति वेग आस्तां तावदेतत् तृतीये" विचारणात् । ततो वर्णप्रक्लृप्तिरपि स्मरणोपनीततागयोजनयैव सम्पादयितव्या arat प्रक्रिया यावत्पर्यन्ते निभोगाः शब्दपरमाणवः तेपां वाक्यसङ्केतत्वेन अनमित्य - २० सम्बन्धादस्मरणम्, तदस्मरणे च तद्विशिष्टदया "तदवयविनो न स्मरणं तस्मिन उद्विशिष्टतया
1
वयविन इति वक्तव्यं यावद्वाक्यानुस्मरणं न भवति । " तत्र च कथं स्वाभिलाप सम्पत्रतया अर्थव्यवसायः १ नाननुस्मृताभिलापस्य तत्सम्बद्धतया सम्भवति तद्व्यवसायः, प्रथमदर्शनेऽपि प्रसन्नात् । तन्नाभिलापकत्वं विकल्पलक्षणम् असम्भवादिति । एतदेवाह- 'अभिला'इत्यादि । अभिला बुद्धिः, अभिलायते भिगृते विषयोऽनयेत्यमिति व्युत्पत्तेः । तस्याम् २५ अपतन्तो विषयत्वेनाप्रविशन्तोऽशा भागा येषां ते अभिलापतदंशा" अनगृहीताः
१ शब्दस्य श्रीशने । ३ शब्दस्य स्ववाचकत्वेन तदाव- १०, प०, स०५ शब्दस्य । ६ वाचकविशियामिवासी भा०, ब०, प०, स०८ रणस्य विपतम्। १० स्थानं न स-आ०, ब०, प०, स० ६१ "स्वाभिधानविशेषापेक्षा एवार्या निश्चयैfeet - तस्य... "मएसह० पृ० १२० | १२ वाक्यरचना १३- पोपनीतलद्वागस्थापि आ०, ब० ए०, स०
तु
४ पदरचना। ९५ वर्णेषु दीर्घादिव्यवहारः । १६ तावदि अभिलापसम्बन्धाभावात्। १९ वर्णस्य । २० पदस्य १११ २३ अभि + अस्तत् + मंशाः ।
०, ब०, प०, स० । १७ प्रत्यषे . १८ १२ सम्बन्धता आ,
पं०, स०
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न्यायविनिश्चयविवरणे परमाणव इत्यर्थः । तेषाम् अभिलापविवेकतः वाचकशब्दविरहाद अपश्यं नियमनअनुषज्यते अप्रमाणप्रमेयत्वम् । माणः शब्दा, मणे शब्दार्थस्य पनि एवरूपत्वान ,प्रकृष्टो माणः प्रमाणः, शब्दपरमापेक्षया तदवयची तत्कलापापेक्षया पुनस्सायनी, तापदेवं यावदश्च
राणि, सदपेक्षया पदम् , पदापेक्षया वाक्यम् , वस्य प्रमेयत्र स्मरणकृतम् , सदभावः अपमाण५ अमेयत्वम् । सदवश्यम्भावनापद्यते तत्पतिपत्तिनिवन्धनस्य पूर्वपूर्वतद्भागानुस्मरणस्याभावात् , सोऽपि सत्पयन्तवार्तशब्दपरमाणूनामननुस्मरणात् । तन्न परस्यामिलापसम्भवः तदभाषात् कथमुकम्-अभिलापप्रतिद्धतयैवार्था व्यवसीयन्ते' इति ।
भवतु वा कश्चिदभिलाएः, तथापि तस्मरणस्यापरामिलापप्रतिबन्धे अनवस्थानमुरुम् । वदप्रतिबन्ध यदि तैनिर्विकल्पक न तद्विषयस्य शब्दस्यान्यन योजनं स्वलक्षणत्यादिति गत्तमर्थ१. व्यवसायवार्तया । सविकल्प चेत् ; कथमव्यापकं विकल्पलक्षणं न भवेत् ? अनभिलापर
तोऽपि उत्स्मरमस्य सविकल्पकस्यात्। साक्षादनभिलापवत्त्वेऽपि उपचारादमिलापवदेववस्मरणम् । न हि साक्षादमिलापसम्बन्धादेवामिलापवत्त्वं प्रतीतेः, अपि तु अभिलापसम्बन्धयोग्याकारणापरत्वादपि । तयोग्यश्चाकारः साधारणाकार एष वन्न शब्दसोतादेः शक्यविधानत्वात् । अत
एवोतम्-'अभिलापसम्बन्धयोग्यप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना न्यायधि० पृ० १३]इति । १५ ततः शब्दस्मरणस्यापि शब्दसामान्मयोपरत्वेनोपचाराद् अभिलपवस्वोपपत्तेरुपपन्न विकल्पत्वमिति
घेत ; अनोटयवे-स सामान्याकारः कल्पितः, पारमाथिको या भवेत् ? कल्पितश्चेत् । कथं तस्याभिलायसंसर्ग प्रति योग्यस्वम् ? योग्यत्वं हि सामर्थ्यगेच | न हि तन् कल्पितस्योपपन्नम् ।
कल्पिसश्चेत्कथं योग्यः १ योग्यश्चेत्कल्पितः कथम् । योग्यश्च कल्पितयेति मिथरे निष्पीडितं वचः ॥ ४११ ।। कल्पितश्चेल्समर्थोऽपि कस्पितं स्यास्वलक्षणम् । सौगतानां उसः प्राप्तं न किञ्चित्परमार्थसत् ।। ४१२ ।। कल्पनासमन्त्रवादस्तु पश्चात्प्रतिषिधास्यते ।
कल्पितोऽपि समर्थश्चेत् : मरीच्यम्भोऽपि पीयताम् !! ४१३ ॥
योग्यत्वमपि संस्य कस्पितमिति चेत् ; तहिं तेनाप्यभिलापसंसर्गयोग्येन भक्ति२५ म्यम्, अन्यथा सत्प्रतिभासवत्याः प्रतीतेर्विकल्पकत्वानुपपत्तेः । सदपि तस्य तदोग्यत्वं यदि
पारमार्थिकम् । स द असम स्पित्तश्चेत्यादि । कल्पितब्येत् ने; तर्हि 'सेनापि इत्यादेः प्रसङ्ग स्थानुबन्धादनवस्थापचेश्च ।
मनरेतत्-विलक्षणमेव सामान्य तस्यैव दृष्टसाधारणरूपेण प्रतीस्थुपस्थापितस्थ सामा
PO
स्थामापात् आ०, २०,स- । २.अन्धस्यवाऽप्यवसीयते इति 10,40,40,01 अभिलास्मरणम् । भमिलापस्मरणस्य। ५-परवापतेः आ प..! शब्दसामान्याकारस्य..-तमपि वैत ०,१०,५०,०1८-पत्वानु-भा,२०,९०, स.। तुलना यदा साझामनामजनम प्रति धसत्वेन प्रतीयदै सासी स्वेन रूपेण लक्ष्यमाणत्वात् स्वलक्षणम् । पक्षहुपारम्पकता तस्य प्रतीयते तदा सामान्याण समिति ससमामलक्षणम्'- कार्तिकालः २१२ ।
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प्रथमः प्रत्यक्षमस्वाक
१३९ न्यन्यपदेशात, ततो वास्तवमेव तस्यामिलापसम्बन्धसामर्थ्यमिति ; तोच्यते यदि साधारण रुयं स्वलक्षणस्थास्ति न किञ्चिम् संयुतिसत् । तदपरस्य तस्याभावास। नास्ति चेम्: कर्थ तेनावमासनम् ? मरीचिकातोयवदिति चेत् ; उच्यते
स्वलक्षणस्य शैत श्वेतपस्य प्रवेक्नम् । सर्वदा तत्प्रवृत्तिः स्वासच्छतरविलोपनात् ॥ ४१४ ॥ अलुमशक्तिमत्वेऽपि सदा तच्छन्न वेदयेत् । असाधारणरूपस्याप्थप्रवेदनमागतम् ।। ४१५ ॥ शक्तिमत्त्वं विहायान्यन्न सत्रापि निवन्धनम् । संतः स्वलक्षणस्यैव वार्ताऽपि विलयं गता ।। ४१६ ॥ सचिवाभावतो नो चेत्सर्थदा सत्प्रवेदनम् । तपदर्शनी शक्तिस्तदा तहि कथं भवेत् ? ॥ ४१७ ।। भागेशनाला शिका | सर्वकार्येषु सामथ्र्य सर्वेषामन्यथा भवेत् ।। ४१८ ।। साऽपि नास्ति तदानीं चेत् । प्राप्लेऽपि समिरे कथम् ।। यत्साधारणरूपस्य तद्भाये स्यात्प्रवेदनम् ॥ ४१९ ॥ सचिवात्सनिधिप्राप्तरत् न सा तस्योपजायते । समकालतया हेतुहेतुमत्याव्यवस्थितः ।। ४२० ॥ "प्रागशक्तस्य पश्चाध्येतस्य शाकिस्ततो भवेत् ।
क्षयद्वयस्चित्तौ तस्य क्षणभनि जगस्कथम् ! ।। ४२१ ॥
तम स्वलक्षणबलात्तदाकारप्रवेदनम् । विज्ञानवलादेवेति स तदपि कथाम् अविद्यमाने २० मुपदर्शयेन् , कारणस्य विषयरयोगमास् ! न चासतः कारणत्वम् । अर्थज्ञान एवायं नियम इति प्लेन, "तत्राप्यकारणस्य विषयत्वे को दोषः ? सर्ववेयनमेव प्रतिबन्धाभावाऽविशेषादिति थेस् ; म; असवेदनेऽपि समानत्वात् ।
मरीच्यां जलवरसर्वस्पासतः किन वेदनम् । प्रतिबन्धो न तत्रापि यदस्ति नियमक्षमः ॥ ४२२ ॥ सर्वस्थाप्यसतो वित्तावेकस्मादेव वेदनात् । अपरं तत्र विज्ञानं सर्वमेव वृथा भवेत् ॥ ४२३ ।। सर्वसोदनेऽप्येवं नैप दोषोऽन्यथा भवेत् । इत्यनिधासङ्गोऽयं कथनाम निवार्यताम् ।। ४२४ ॥
24
-राम सा०।२-क्तिश्रे-मा०,००,०। ३ वेदने । ४ सयजामा-०१०प०,81 सहकारिविरहास् । ५ सहकारविरहाक्लायाम् । ६ शक्तिः । अगशकाच ०, ५०,०। ८ सहकारिसकासात । ९ बस्तु। १० अर्थशानेऽपि ।
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न्यायविनिश्चयविवरले
मिथ्याज्ञानं तथा शक्तनिश्माकं यदि ।
अर्थज्ञानं तथा शक्तेर्नियतग्राहकं भवेत् ॥ ४२५ || ततस्तस्यार्थ कार्यत्वकल्पना युक्तिवर्जनात् ।
'अकारणं न विषयः' इत्येतद्वभावितम् ॥ ४२६ ॥
५. दरमा सदाकारस्याकारणत्वेन ग्रहणाभावान्न साधारणाकार ग्रहणमपि विकल्पलक्षणम् ।
भवतु वा द्रम्, तथापि तेंहणशक्या ज्ञानस्वरूपग्रहणे तदाकारवत् तत्स्वरूपस्वापि मिध्यात्वं भवेत् । न सदाकार ग्रहणाभिमुखेन स्वभावेन गृहीतमन्यथा भवति, नीलाfreereaप पीतत्वप्रसङ्गात् । न च ज्ञानस्वरूपस्य मिध्यात्वम् ; अनभ्युपगमात्
प्रतिपत्तिप्रसङ्गाच । न हि मिध्यारूपादेव मिथ्यात्वम् अमिध्यात्ववच्छक्यप्रतिपत्तिकम् । १० गतेभ्यशक्तिसाधारणत्यं विज्ञानस्य प्राप्तम् । भवतु को दोष इति चेत्; न; साधारणस्यापि freeteen | पुनरपि तत्सादारणाकारकरूपने अनवस्थापत्तेः अहमेव सामान्याकारस्य । तन्नेदमपि विकल्पलक्षणम् असम्भवात् । एतदेवाह -
[ १२७
पदार्थज्ञानभाग पदान्या
तथैव व्यवसायः स्याचक्षुरादिधियामपि ॥ ॥ इति ।
१५
अर्थोऽभिधेयः पदस्यार्थः पदार्थः सामान्यम्, तत्रैव शब्दस तस्य सम्भवात् । तस्य ज्ञानं तस्य भागाः परापरसामान्यरूपा अंशास्तेषां व्यवसायः स्यात् । अव सायोऽधिगमस्वभावो यवसाय विशदस्याभावार्थत्वात् "विमलादिवत् सः स्थाद्भवेत् अन थस्थानादिति भावः । कुतः सम्भवता तेषां व्यवसाय इत्याह--पद सामान्यनामतः । पद्यन्ते आयन्तेऽनेनेति पदं ज्ञानमेत्र तत्र सामान्यानामपरापरात्मनाम्, सद्विषयत्वेन नमनम् - २० प्रकारेणोपसर्पण तस्मादिति । वर्हि मा भूज्ज्ञानस्यात्मनि सामान्याकार इति चेत्; न; शक्तिata ज्ञानात् । तथा हि-न सामान्यग्रहणं उद्ग्रहणस्य स्वसंवेदनशक्तिव्यतिरेकात्, असंच बहिर्विषयत्वानभ्युपगमात् । पुनरप्यपरस्य संवेदनशक्तिकल्पनायां स एव प्रम :शक्तिभेद इत्यादिरसवस्था च । ततः सुदूरमपि सत्या शरिद्वयाधिष्ठानमेकं संवेदनमभ्यु पगन्तयम् । ततो यदुकम्-- ''हीरूपतयैव सामान्यं न ज्ञानरूपतया " [ 1 २५ तनिषिचम् ज्ञानरूपतयापि सामान्यस्योपदर्शितत्वात् । सदपि सामान्य ज्ञानरूपतयाऽर्थं एवं; इत्यपि न शोभनम् ; साधारणाकारस्य अर्थत्वानभ्युपगमात् | Heart तत्प्रतिपतेरम्भवास न साधारणकारणं विकरूपलक्षणमिति साधूकम्- 'पदार्थ' इत्यादि ।
१] तयाशचिर्निय-मा०, ब०, प० । १ अर्थज्ञानस्य । ३ साधारणयकारग्रहणम् । सदमणप०, स० । ५ खपल्प प्र-आ०, ब०, प०, स० ज्ञानस्वरूपस्यादि ७ सिमारवाि
स्वपणे । ब०, प०, स० ० ० ०
साधारण कारग्रहणशकिः स्वरूपणविरिति अविचारपत्यम् १० तू यव-आ०, ११ विकला आा, ब०, २०१२-०३०, प०, स० । १३ पंणासा० १ १४ उथापि न ता० १५० ४०, प०, स०
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
भवन्तु सहि निर्विकल्या एव युद्धयो विकल्पबुद्धिव्यवस्थानोपायाभावादिति चेत् । अत्राह-'चक्षुरादिघियामपि' इति । सक्षुरादिर्थेषां श्रोत्रादीनां तेषां कार्यभूता धियः सासामपि न केवलं मानसीनामित्यपि शनार्थः । किम् ? व्यवसायः अधिगमाभावः । कथम् ! तथैव तेनैव प्रकारेण । तथा हि--
विकल्पबुद्धयो यल्लोकरूढा अपि स्फुटम् । क्षोदक्षमत्वाभावेन विनश्यन्ति भवन्मते ॥ ४२७ ॥ निर्विकल्पधियोऽप्ये पारादीन्द्रियोद्भवाः । विचारज्वलनालीढा विमुश्चन्त्येक जीवितम् ॥ ४२८ ।।
यत:
म तासागपि सामान्य विषयत्वेन सम्मतम् । उत्ताश्च बोधो निःशेषस्तत्राप्येषः प्रसज्यते ॥ ४२९ ॥ निरंशं वस्तु तद्वेचं केवलं परवाया। न जातुन कचित्तार पश्यामा प्रतिसासनम् ।। ४३०॥ अभारे सर्वबुद्धीनां योद्धव्यस्यानवस्थितः । भावनैरात्म्यवावस्य साम्राज्यमधुनाऽऽगसम् ।।४३१॥ तस्यापिन व्यवस्थेति प्रागेये नियदितम् । कल्पितं तन्न सामान्य बौद्धानामवतिष्ठते ।। ४३२ ।। वस्तुभूतं तु तत्तेषां नास्त्येवानभ्युपायतः । ततो न तन्त्र निर्वधं शानकारः करोत्ययम् ॥ ४३३ ।।
भवतु या किमपि सामान्यम्, तथापि शब्दसारयवक्षुरादिबुद्धीनामपि व्ययसाया-२० स्मैकत्वमनिवार्यमेव । उदाह-'पदार्थ' इत्यादि । पदमभिधानं तदेशों विषयो येषां झानानां स्मरमरूपाणां तेषां भामा बहिपिया अंशाः, भात्मविषयाः तेषामव्यवसायस्वभावत्वात् , तेषा व्यवसायो निश्रयस्वभावः । कुतस्तेषां सः ? इत्याह-'पदसामान्यनामतः' इति । पदस्य स्मर्यमाणशब्दस्य सामान्य तत्र नमनात् सदाहकत्येनोपनिपातान् । ततः किम् । इलाह-तथे (तथैव इ) त्यादि । तथैयति अक्गात् यथैवेति लभ्यते-मयोनित्यसम्बन्धात् । ततोऽयमर्थः यथैव शब्दस्मरणभाना स्वविषयसामान्यगोचरत्न व्यवसायस्वभावत्वं तथैई धारादियुद्धीनामपि। न हि तासामपि पर्युदस्ससामान्यवस्तुवेदित्वम् अनुभवपथोपस्थापितमस्तीति भावः।
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चिोऽस्त्वं भाब.१.स.। निशष-सा।बौद्धोक्या। प्रणोपायाभावात् । ५-मवरव-श्रा, ब०५०।६ -ति लम्पसे स -स्थान सम्म-10.१०,०1८३ चक्षु --, ०, ५०, सर ९ अनुभवपथोषमालित्यप्रतीतेः । न चैकसमयपर्यवसिततचापार जन्मनः तज्ज्ञानस्वा परापरसमयवाद सर्वस्व सकारवस्तुदसिवायसः । तदाह-पोयदेशस्थिलेऽक्षाणां कृत्तिर्नातीतभाविनि। तदाश्रितं च विज्ञानं च कालान्तरभाविनीति। न वापरापरसमयस्सपितमस्त्रीति-मा, पप-स.1 अनुभव" स्थापितमस्मीति सा.
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१५२ न्यायधिनिम्बयविधरणे
[१७ ___स्थानमतम- सामान्य चरसदिक्षानस्य विषयः सम्भवति । तधि कल्पितम् , प्रस्तुभूत वा भवेन् ? म सायकल्पितम् । तस्यावस्तुस्पेन तद्विषयस्य तज्ज्ञानस्यावस्तुविषयत्वोपपत्तेः । न चैतमाय्यम . तस्याऽप्रत्यक्षवप्रसननन् । न हावस्तुविषयं प्रत्यक्ष नाम, असिप्रसङ्गास् , अञ्जसा' पदयैयन्यांपत्तेश्च मियाभावात् । अस्तु वस्तुभूतभेत्र सामान्यमिति चेत् । तदपि तद्भवसामा५ म्यम् , सारश्यसामान्य वा भवेत् ? न तावत् तदयसागाम्यम् ; तैखि कालत्रययापिरूपम,
तदपि कस्यविद्विशेषात्मकस्य, तन्नतिरिक्तस्य वा भवेन् ? विशेषात्मकस्य चेत् । तस्यापि तद्रूपं प्रतिक्षणभेदिनचक्षुरादिप्रत्यक्षस्य वेद्यम् , कालान्तरव्यापिनो वा ?। तावदायस्य ; तस्य वर्तमानसमयपर्यवसिते पक्षुरादिव्यापारे तदायसौत्पत्तिकस्थेन तत्समय पर पर्यवसानात् । न
चैकसमयपणेवसिततव्यापारजन्मतः तमानस्य अपरापरसमयगोवरत्वम् ; सर्पस्य सर्वाकार१० वस्तुदर्शित्वायत्तः । तदाह
"योग्यदेशस्थितेऽक्षाणां पृत्तिर्नातीतभाविनि ।
सदाश्रितश्च विज्ञान में कालान्तरभाविनि " [५० वार्तिकाल० २।१२६] न चापरापरसमयप्रतिपत्तिमन्तरेण तव्यापित्वं कस्यचित्सुखावोधम् । व्यापकप्रतिपत्तेायप्रति
पसिनासरी यकस्बात, , पफेन च प्रत्यक्षेप तबाहले व्यर्थ एवापरापरश्चक्षुरादिव्यापार, स्वास् ! १५ अंपरापरतत्प्रत्यक्षार्थत्याग्न दोष इति चेत् । न ; तस्य प्रयोजनाभावात् । कालान्तरव्याप्ति
प्रहणं प्रयोजनमिति चेत् ; न ; सस्य प्रथमप्रत्यक्षादेव भावात । नैकेन तद्ग्रहणम् । अपरापरेणैव तेन सद्हणाभ्युपगमादिति चेत् । न ;. पस्थापि परापरसमयाननुस धायिस्येन स्वकालपर्यघसित एव विशेष व्यापारात् । सन्न क्षणी प्रत्यक्षमेकमने या कालान्तर'व्यापिभावनिरीक्षणे दक्षवां कक्षाकरोति । मा भूतस्य निरीक्षणक्षत्वं कालान्तरच्यापि२० नस्तु भवत्येवेति चेत् । न तस्यापि प्रधभचक्षुरादिव्यापारात्पन्नस्यैव तत्र प्रवृत्ती अपरापरत
व्यापारपैकल्यप्रसमात "तद्व्यापारादपि "तस्थोत्पत्तिरिति चेत् । न ; उत्पन्नस्योत्पत्त्ययोगात् , एस्पंत्रस्यापराधीनस्वभावत्वात् , उत्पन्नस्यापि कालान्तरव्याप्तिः अपरापरतव्यापारादिति चेत् । न; 'प्रागेव कालान्तरन्यापितयोत्स्नात्तात् ; "पागतव्यापितयोत्पन्नस्य पश्चात्तव्यापित्यं तडापारादिति चेत् । न; प्राच्यातळाविरूपपरिक्षयाभावे हेतुस्तेनापि पुनस्तयापिरूपकरणासम्भवान २५ "विरोधात् । तत्परिक्षयभावे पुनस्तदन्यदेव तब्यापारसम्पादित भयेत् । सन्न तस्य" कालान्तर
व्याप्तिः अपरापरतद्व्यापायत् । सत: कालान्तरल्यासिमन्ति दर्शनाम्येष परापराण्युपजायत इति
...........--.
सनविष-० .प. स. । ३ सद्भावसा-अर०, ५०, १०, स३ तस्य हि are है-व्याप्तिरूपम् आ००,५०। ५ चित्तस्यापि मा,40,4.स.। पर्यवसात ने तबापारस्य पूर्णपरसमयमाधिवप्रतीक्षेः स बैंक-ना, मन, पा, १ . अपरापरचक्षुरादिव्यापाराणाम् । विशेषग्या -आ., ब०, १०,स०। ९न्यायिनिरी-मा० २०, ए... १० प्रत्यक्षस्य । " परमपरतरादि. व्यापारादपि । १२ प्रथमप्रत्यक्षस्य ।। प्रामिष स०। प्रागद त-मा०,०,५०,०। १५ अपरापरचक्षुरादिव्यापाराच । १६ विरोधात् तत्परिच्छेदात्किमेवं भा०, २०, ५०, स०। १७ प्रत्यक्षस्व ।
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१९७] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
५४३ चेत् ; न ; योजना | मायेपमिते व कालान्तरव्यापिना प्रत्याशेण भावसामान्यस्य परिच्छेदात् सिमेवं भावान प्रेक्षावस्थमस्ति यत्सति प्रयोजने भवन्ति नासतीति ! स्वहेतुसामध्यर्यायत्तजन्यानो हि ते संत्यससि च प्रयोजने भवन्त्येव नियमेनेति चेत् । सत्यमेवैतत् । यदि तपादर्शनं तेषाम् , इष्टे यानुफ्पत्तिपर्यनुयोगस्यासम्भवात् । न चैवम् । न बादर्शनपथप्रस्थायिनि वस्तुनि एवमुत्तरमुदितम् , अतिप्रसङ्गान् । तन्न कालान्तरध्यापि- ५ नापि प्रत्यक्षेण कस्यचिल्कालान्तरध्यापिरूपं सूपप्रहम् । तत्र विशेषात्मनः कालान्तरव्यापिरूपं सम्भवति; असम्प्रसिपतः । सदुक्तम्
"एकत्र दृष्टो भेदो हि कचिनान्यत्र दृश्यते ।" [x० ० २।१२६]इति | नापि विशेषव्यतिरिकस्य सामान्यस्य संथापित्यम् ; तव्यतिरेकस्याप्रतिपत्तेः विशेषबुद्धरेषो. पलम्मात् । यदि हि विशेषवत्सामान्यमपि स्यात् झुद्धिरण्युपलब्धैय स्यात्, न चैवम् । न १० चानुपलब्धस्यास्तित्वं व्योगकुसुमवन् । वदप्युक्तम्
___ “न तमाद्भिनमस्त्यन्यत्सामान्य बुद्ध्यभेदतः ।।" [प्र०या० २।१२६]इसि ।
एतेन सादृश्यसामान्यमपि प्रत्युक्तम् । तस्यापि विशेषव्यतिरिक्तस्यानुपलम्भात् , विशेपाणां चानन्ययात् । तत्र सामान्यविषयत्वमझज्ञानस्य यचो व्यवसायस्वभावत्वमिति ।
तत्रैवमुझ्यते-प्रथमस्तावद्विकल्पोऽनुपपन्न एक; क्षीणस्य प्रत्यक्षस्यान्च्यविषय- १५ स्वाभाये "निर्विषयत्वासनात् । स्वरूपविश्यवान्नेति चेत्, न तहीन्द्रियंप्रलक्षत्वम् , स्वरूपे तद्ध्यापाराभावान् । क्षणिकहिस्सुविषयस्यात् सत्प्रत्यक्षत्वमिति चेत् । तस्य तद्विषयत्वं कुत्तोऽवसीयते ? "योग्यदेशस्थितेऽज्ञाणाम्" इत्यादिकाद्विचारादिति चेत् ; स विचारः किमाम प्रमाणं भवेत् । प्रत्यक्षमिति चेत् । न ; तस्य निर्विकल्पत्वेन एवंविधारकत्वायोगात् । विचारकस्यापि प्रत्यक्षत्वे तस्य समयत्रयगोचरत्वनुररीकर्तव्यम् , अन्यथा मध्यसमयपर्यवसितेन्द्रिय- . व्यापारोपलब्धसत्ताकस्य कथमतिकान्तेऽनागते व प्रत्ययस्य प्रवृसिरिति ? अस्य तद्यापारस्थानुपपतेः । यदि हि तत्प्रत्यक्षं मध्यमसमयवन पूर्यापरावरि समयौ पश्येसदा मध्ये इन्द्रियव्यापारस्य तत्प्रत्यक्षस्य च सायं पूर्वापरयोश्च तदभावं पश्येत् नान्यथा। न हि भूतलमपतियत्रस्वाक्षं तत्र कस्यचिद् भाश्मभावं वा प्रत्येतुमर्हति ! भवतु तय समययगोपरत्वमिति चेत् । कथमुक्तम्-"न पूर्व परत्र न परं पूर्वत्र प्रत्यक्षम्" [प्र०वार्तिकाल. २६१२६] इति । प्रस्तुत- २५ प्रत्यक्षवदपरस्यापि प्रत्यक्षस्थ पूर्वापरसमयविषयसोपपसेस्तकृतस्य विशेषान्वयपणस्याप्यनिवारणात् । ततो निराकसमेतत्--"स्यक्तीनां भावो न तासामन्वयः" [प्र. वार्तिकाल. २। १२६ ] इति । यदि पुनरिइमपि प्रत्यक्षं न पूर्वापरक्षणः पश्यति कथं "तनेन्द्रियव्यापारत
-जम्ममी मा०, 40, 40, सत्यसतीच । ३ कालान्तरख्यापित्वम्। सामाम्यबुद्धिरपि । ५ निर्विकल्पकत्व प्र-आ०, २०,०।६ प्रत्यक्षं स्व-आ.,१०,१०, स। प्रत्यक्षस्य । ८ भवेप्रत्यच्च तन कस्यचि-आ.,प००१ मध्यसमध्यापारीपश्चप्रत्यसस्व । १. प्रत्य तस्य । १. पूर्वीपरक्षणयो।
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સમ
स्यायविनिश्चय विचरणे
ध्यक्षयोरभावं पश्येत् ? । पश्यतु को दोष इति चेत्; न; 'अपरमपि प्राक्षं पूर्वापरणाक्षयदेव तत्र कस्यचित्रत्वयं पश्यतु न केशिदोष:' इत्यपि प्रसङ्गात् । ततो 'न पूर्व परत्र' इत्याद्यपि परस्य प्रयासमात्रमेव, तथापि कस्यचिदनिष्टस्याऽभावात् । तन्नार्थ विचारः प्रत्यक्षम् । अनुमानमिति चेत्; न; हिङ्गामायात् । इन्द्रियव्यापाराश्रितत्वमेत्र लिन न ५ तदध्यक्षस्य क्षणपर्यवसानसाधनादिति चेत् क पुनस्तस्य स्वसाध्याविनाभावप्रतिपत्तिः ? संहतसकल विकल्पावस्थायामिति चेत्; न; तस्था एवापरिज्ञानात् अनुपजातधिकरूपकस्माषा निरंशक्षणक्षीणस्त्रपर विषयदर्शनप्रबन्धरूपा सेति चेत् नन्त्रियं श्रूयत एव भवद्वचनात् । न कदाचिदप्यतुभवमुपसर्पति अन्तरिश्वान्वयितो नानावयवसाधारणस्यैव चेतनस्येतरस्य च प्रतिपत्तिदर्शनात् । तस्माद् दुरन्तसंसारदुःखदायादभीरुभिः । कलिवियेयं लोकविप्लवकारिणी ॥ ४३४ ॥
१०
Bf fava मयान्तरप्रवृत्तिलक्षणे बाधकवलादविनाभावप्रतिपत्तिरिति चेत्; न; विरोधाभावे areeread: । अस्तु क्षणमात्रपर्यवसितेन्द्रियव्यापारकृतं प्रत्यक्ष न च तन्मात्रपर्यवसितम, free feat ? निवतासीतादिविषयत्वमेव । नीतादिविषयत्वसम्भवे प्रत्यक्षस्य नियततद्विषयत्वं शक्यमुपपादवितुम् जीतादिविशेष शोकाचारों १५ स्यात् । न चैवम्, अतीते स्मरणस्य अनागते व सम्भवानुमानस्य वैयर्थ्यापतेः । अतो विरोधबोपनीतस्यालिङ्गयैव हेgarreta free areवात् कथं तद्बलेनाविनाभावप्रतिपत्ति भवतीति चेत् ? न वर्त्तमानविषयत्वेऽपि दोषात् । तथा हि
२०
२५
[ १+७
arat प्रत्यक्षेणावगच्छतः ।
सर्वस्य वर्त्तमानस्य तेनैव प्रहणं भवेत् || ४३५ ॥ प्रत्यक्षान्तरमन्यत्र तथैवोपकल्पितम् । गृहीतणाोषात्परस्य सारणादिवत् ११४३६॥ प्रत्यक्षं वर्त्तमानस्य यस्यैवाकारमुद्वहेत् । atre] तेन न सर्वस्येति चेन्मतम् ॥४३७॥ सर्वस्य वर्तमानत्वाविशेषाररवेष्टवस्तुषत् । ats fred कस्मादाकारोद्वहनं भषेत् ॥१४३८ ॥ . 'योग्य तस्यैवाकारमुग्रहेन् । गृहाति च सदेव' इति प्रत्यवस्थान सम्भवे ॥१४३९॥ अतीतादिप्रहेऽप्येवं नियमः किन्न मन्यते ।
प्रत्यक्षस्य तत्रापि सामर्थ्य नियमान्वितम् ॥४४॥
१ - यदेव प्रा०, ब०, प०, स० । २ कथविशेषः २०, ४०, प०, स०३ विद्याभा भा०, १०, प०, स० ४ संतसकलकिल्यावस्था । ५ क्षणान्तर ६ मात्र ७ तद्वैावक-आ०, ब०, प०, स० [८] सम्भवेत् आ०, ब०, प० ।
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१७ }
थम: अयतान:
'सामध्ये नतु भावानां वेद्यते कार्यदर्शनान् । सामर्थ्यात्काक्लृपि न युक्तान्योन्यसंश्रयात् ॥४४१॥ इत्यपि प्रत्ययस्थानं तमोवायसम्भवम् । aardranscri दोषवादा निषेधनात् ॥४४२॥ आकार नियमः सिद्धः प्रत्यक्षात, 'स तु किंकृतः । इत्यत्राध्यक्षसामर्थ्यस्योत्तरत्वेन वर्णनात् ॥ ४४३ ॥ नान्योन्याश्रदोषश्चेत् गृहीतनियमेऽध्ययम् । समाधिः किन्न येन त्वं तत्रैवासि परामुखः ||४४४ ॥ अपि व
इन्द्रियस्यास्मात्वं दध्यक्ष भवेद्यदि । कारस्यापदेशत्वं कार्य कोषच्छति ॥४४५॥ तथा सत्यल्पकाइने महाधूमसम्भवः । बीजाप्यणुनो न स्यात् स्थूलनालाङ्कुरोदयः ॥४४६ ॥ प्रीति बाधनामैवमिति चेदमिप्यते ।
कार्येऽपि विशेः प्रतीतिः किन विद्यते ॥ ४४७ ॥ देशव्याप्तिरणुत्वा मावस्येत्यपि दुर्बदः ।
अवयस्यादिसं सिद्धेर्यथास्थानं निरूपणात् ॥ ४४८ ॥ न चापि देशव्यापित्वमवासीय प्रसक्तिमत् । योग्यतानिय मुक्त्वा नान्यदस्ति च कारणम् ॥ ४४९ ॥
resent a steer से समानस्ततः कथम् । अतिप्रसङ्गो येनास्य बाधनं परिकल्प्यते ॥४५०॥
१४५
२०
९ त्रैवापि प-आ०, ब०, प० २ इन्द्रियत् । ३ कालाती०, २०, ५०० । ४ चम्यतानियमः । कात्र्याः ६. प्रतिपक्षानुपाक्ष - ० ० ७ अनुमानाभ्युपगमात् । शब्दविदधुसर परिणामस्यापि
१९
१५
२०
वाकवलादप्यस्याविनाभावनिश्चयः । न चानिचिताविनाभावस्य गमकत्वम् अतिप्रसङ्गात् । प्रयोजको हेतुः असिद्धश्च इन्द्रियव्यापारस्य क्षणमात्र नियमभाषप्रसिपले रुपायाभावात्, अती. तस्य स्मरणेन भाविनश्च समयस्यानुमानेनास्मान्न तत्रेन्द्रिययापारः । न हि स्मरणानुमान व्यापार एवेन्द्रियव्यापाः रात्रियन्धनस्यापि विषयपरिच्छेदस्याध्यक्षत्वप्रसङ्गादिति चेत् न २५ अध्यक्ष योग्ये अती भाविनि च स्मरणानुमानप्रवृत्तेरभावात् । स्मरणं हि नाना समयव्यवहित एवोपलब्धपूर्वे प्रवृत्तिमत् न च तस्याधुनिक प्रत्यक्ष विषयस्वम् । अनुमानस्य अनन्वरसमययोचरत्वमपि न प्रत्यक्षविपयापेक्षम् अप्रत्यक्षविषय एव सब्दविवाद्युत्तरपरिणामात्र तेंदभ्युपगमात् । आनन्वर्याविशेषात्तत्परिणामस्यापि कस्मान्नेन्द्रियविषयत्वमिति चेत् ? न; योग्यता नियमेव विषय
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[१६७ व्यवस्थाया नियेदिरात्वात् । ततो नामानुपायादिन्त्रियव्यापारस्य क्षणनियमप्रतिपत्तिः । तयापारजनितस्य प्रत्यक्षस्थ क्षणनियमात् तद्व्यापारस्यापि सन्नियमप्रतिपत्तिरिति चेत् । तत्प्रत्यक्षस्य
शिवम व्यासस्य तनियमादिति चेन्न; परस्पराश्रयास-इन्द्रियवृत्तः क्षणनियत तत्प्रत्यक्षं आणनियतं स्यात् , सत्यभक्षणनियतत्वादिन्द्रियत्तिः क्षणनियता स्यादिति । स्वत प्रवेन्द्रियवृत्तेस्तनियमः प्रतीयत इति चेत् । न तद्वत्तेरचेतनत्यान् । चेतनैव तवृतिः सदृसित्वात् स्वप्नोपलब्धतवृत्तिवदिति चेत् ; न ; तच्चेतनत्वस्य "विप्लुताक्ष" "इत्यादौ निराकरजान । तन्न कुतश्चिदपि तदापारस्य वत्रियमस्य सिद्धिः।
सिद्धस्यापि न गमकाङ्गत्वं व्यभिचारान् । दृश्यते हि समयपर्यवसितादपि तव्यापाराद् अलासक्षणेवन्वयदर्शनम् अन्यथा चक्रप्रान्तरभावप्रसङ्गात् तस्यास्तदन्यज्ञानरूपत्वाल , तज्ज्ञानस्य पेन्द्रियजत्वात् । उपघातबादल्पसमयादपि तव्यापाराचज्ञानमविरुद्धमिति चेत्र ; न ; स्तम्भक्षणेष्वपि तत एकान्वयहानरयाविरोधप्रसङ्गात् । कुतस्तत्रोपधात इति चेत् ? अलातक्षणेषु कुतः १ तेषामेव शीघ्रवृत्तितिरोहितभेदान्धयादिति चेत् । न; स्तम्भक्षणमपि शीघ्रवृत्तित्वाविशेषास् , अन्यथा विलम्ब्य प्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । उषघातजदे अलातचक्रज्ञानवत् तदन्वयज्ञा. नस्यापि विभ्रमः स्यादिति चेत् ; न; तथापि व्यभिचारस्यापरिहारात् । अपि च, यदि "सदविभ्रमेण प्रयोजन मा भूदुपधातनिबन्धनं सदन्षयज्ञानम् , अनुपहनिबन्धन तु स्यात् , विषयक्षणाम्ययेन वस्तुभूतेनैव तदिन्द्रियस्थानुमहात् । विपस्याकारणत्वात् कथं तदन्वयस्यामुपाहकरयमिति योन् उपचासकरवं कथम् ! सौगते मते विषयस्य" कारणल्यादिति चेत् । अनुप्राहकत्वमपि तत एषास्तु "वं प्रत्येक तवन्धयस्य वस्तुभावोपपावनात् , तद्वस्तुभावस्यापरिस्वलितासज्ञानादेव प्रतिपत्तेः । न चैषम् अलातचक्राकारस्यापि वस्तुभाषः; करण्यापारफतशी
प्रपरिषर्तनाभावेऽपि तत्प्रतिपत्तिप्रसद्वान्, वस्तुप्रतिपत्ती तपरिवर्तनात्याकिश्चित्करत्वात् । तदेव तत्र सामग्रीति चेत् ; गतमिदानी विभ्रममार्सया, काचादेरपि रजनीकर याकारप्रतिपत्तो सामग्रीरूपस्त्रोपपत्तेः", "तद्याकारस्यापि वस्तुत्वप्रसङ्गात् । बाधकप्रत्ययोपनिपातस्य चक्राकारेऽपि भावात् । सम्मापरिस्खलितप्रत्ययवेद्यत्वं "तहाकारस्य यतो वस्तुभावः स्यात् । स्वम्भायन्वयज्ञानमपि परिस्खलितमेय "मनोविकल्पत्यात् मरीचिकातीयविकल्पबस् । क्षणक्षीणानि हि स्तम्भस्वल. क्षमानि प्रत्यक्षतो येद्यन्से, तदनन्तरकालभावी तुमनोविकल्प: तदन्वयमविचमानमेवोपदर्शयतीति येस् , न; तस्येन्द्रियव्यापारान्वयव्यतिरेकानुपिधायिनो मनोविकल्पत्वानुपपशेः अलातबक्रवि. भ्रमस्थापि सद्विकल्पवासमात् । क्या प ध्याहसमेतन्
इन्दियापार । २ क्षणचिवमप्रतिपतिः । ३ इन्द्रियव्यापारस्व । ४ वत्तत्वा-10२०,९०,०1 ५न्यायविश्लोक ४८ । इन्द्रियन्वापारत। ज्ञानविरो-भागब.,१०, जनवरात-आ.ब.प. स. ९ तदापि आ०,०प० अन्वयज्ञायस्य सत्यस्वेन । -स्याकार-श्राम०प०811 सौगतम् । १३-घ्रपरिक्र्सना-आ.०,१०,स011 करण्यापार-401 करमधाधार-4011५-पत्वा प0124 अवागाकार अलस्तकाकारस्थ.१८ मनोविकलारा मा०,०प०,स"परस्परविमिंतागुप्रथम. प्रतिभासनम् । विकल्पकात विज्ञानात् पनामारावमासिता ।।"-प्रवासिंडास. १९९३ । १९ मीविकल्पल ।।
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दर्शक
[12]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
"श्रीधरखानादेरन्वयप्रतिपातिनी । तेन दशां घटनेन सा ॥
१४७
चक्रन्ति
००२१४० ] इति । विभासत्वात् न चक्रसंवेदस्य मनोविकल्पलम् । न हि वकिल्पाः स्वपत्रमासिनो भवन्ति । "नं विकल्पानुविद्धस्व स्पष्टार्थप्रतिभासिता ।" [ प्र०वा० २।२८३ ] इति नादिति चेत्; न; स्तम्भावन्मयज्ञानेऽपि स्पष्टप्रतिभासाविशेषात् । दर्शनसानिष्यकृतः त ५ तेंव्यतिभास इंवि चेत् न चक्रसंवेदनेऽपि "सत एव तदापत्तेः । तत्र तदन्ययज्ञानस्य मनोविकल्पत्रम् |
're इन्द्रियापारस्य अनुदानहेतुले थापादेव तदुत्पतेः अपरापरतचापारेण किं कर्त्तव्यम् ! परापरं ज्ञानमेवेति चेत् ; नः तस्यैव प्रयोजनात चारशान् । अन्ययग्रहणस्य प्रथमज्ञानादेव भावात् । इत्यपि अलाउचत्राने समानः पर्यनुयोग:-प्रथमे - १० न्द्रियव्यापारादेवोपयातवशात् तज्ज्ञानोत्पत्तेरपरापरत व्यापारस्य तत्कृतस्य चापरापरशानस्य वैयर्थ्याविशेषात् । अपरज्ञानेनैव यत्राकारभित्तौ अन्वयप्रतिपत्तिरपि तथैवास्तु । तथा च व्याहतमेतत्" तथा सति परापरदर्शनानां विच्छेदात् एकेनापि न तत्कालान्तरस्थानग्रहः" [ "] इति । तक्षणयेवसितस्येन्द्रियव्यापारस्य गगकाङ्गत्वं व्यभिचारात् । ततो नानुमानत्वमपि विचारस्य । अस्संस्पर्शी विकल्प एवायं कचि प्रमाणमिति चेत् कथमतः प्रत्यक्षस्व क्षण नियमप्रति- १५ पयप्रतिपत्तेरपि तत एव प्रसङ्गात् । तादृशाद् त्रिकल्पापराभिमत सिद्धिं निवारयन् तत एव स्वाभिमतमवस्थापयतीति किमतः परं परस्य साहसमुद्भावयामः । तथा च वक्ष्यति
पत्तिः ?
"सर्वथा वितथार्थत्वं सर्वेषामभिला पिनाम् ।
ततो बेद्यव्यवस्थानं प्रत्यक्षस्येति साहसम् ||" [ न्यायवि० ० १५६ ] इति । विचारलात्प्रत्यक्षस्य क्षणविषयत्वागमः । स्वषेति चेत ; न ; तिपतेः । एतदेवाह-
वास्त्र
२०
आत्मनाऽनेकरूपेण हिरर्थस्य तादृशः ।
विचित्रं ग्रहणं व्यक्तं विशेषणविशेष्यभाक् ॥८॥ इति । 'चक्षुरादित्रियाम्' इत्यनुवर्त्तते । तदयमर्थः- चक्षुरादिज्ञानानाम् आत्मना स्वभावेन बहिरर्थस्य स्तम्भावेद ग्रहणं संवेदनं तद् व्यक्तम् उपहसनपरमेतद् अत्र्यके व्यक्तोपादा- २५ नातू अव्यकमित्यर्थः । फीदृशेन तेन कीदृशस्य तस्य प्रहणं व्यक्तमिति चेत् ? अनेकरूपेण । न विद्यते एकमन्वितं रूपं यस्य तेन क्षणिकेनेति यावत् । तादृशः अनेकरूपस्य क्षणिकस्थेति यावत् ।
१२० १०, स० २" विकरूपानुषद्धस्य प्र० पार्तिकाल० | "न विमान पवस्वास्ति स्फुटार्थावभासिता ॥ प्र० वा०म० २ स्तम्भायन्वयने ४ स्पप्रतिभासः । ५ दर्शनसान्निध्यादेव ६ अन्वयज्ञाममेव ! ७ कथमतय-आ०, ब०, प० खत आ०, प०,००
·
I
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१५८ न्यायविनिश्चयविवरणे
[१८ अध्यभानाक्षणक्षीणात् क्षणिकस्यैव वेदनम् । तव्यक्त समाचष्टे सूरिनिविवर्जमात ॥४५१॥ विचारस्य प्रमाणस्य तत्र पूर्व निवारितग।
शाखकारस्तदेवाह 'विशेषगविशेषयमान ॥४५२॥ इति ।
विशेषणंभुरादिव्यापारस्य भणनियम व विशिष्मानहेतुत्वात् , सच्च विशेष्यं चे तस्कर प्रत्यक्षस्य भणविषयत्वम् , ते स्वविषयत्वेन मजत इति विशेषणविशेष्यमा । विषाररूपं सदपि ध्यसम् , अप्राप्युपहसनं तस्याप्रमाणत्वेन निझपणान् , अश्मागोपाश्रयणेन कस्यचिदप्यसिद्धेरिति भावः । स्वसंधेदनमेव तहिं तंत्र प्रमाणमिति पेत् ; अत्राह-विचित्रम्'
इति । विदिति चिच्छक्तिरनुभव इत्यर्थः, सैच त्राणं वा परिरक्षणं यस्त्र तचित्रम् , तद्विपरीत १० विचित्रं-अध्यक्षयविषयत्वं प्रत्यक्षस्य । अनुभवप्रसिद्धं सस्वनुभवपरिरक्षितं भवति । न
घेदं तत्प्रसिद्धम् । म दिप्रत्यक्षं किश्चिदपि क्षणविषयत्वेनात्मानमवेदयटुपसभ्यते । न चानु. पलब्धस्य कल्पनम् अतिप्रसङ्गात् । तन्न क्षणविषयं प्रत्यनम् । न च तस्वं निर्विश्वस्य सम्भव ईत्यसम्भवे असम्भव्येय प्रथमो विकल्पः ।
"द्वितीयन्तु निरुपद्रव इति तमुपाश्रित्य प्रत्यक्षस्व सामान्यत्रिययत्वनिवेदनेन ध्यय१५ सायास्महत्वं व्यवस्थापयामाह-'आत्मना' इत्यादि । आत्मना बारादियोवस्वमायेन ग्रहणं साक्षात्करण बाहिरर्थस्य घटादेः व्यक्तं सर्यजनप्रसिद्भमिति । अनेन
अशक्यप्रतिपेपत्य बहिरर्थस्य दर्शयन् ।
विज्ञानमात्रधादादेवरित स्वेच्छानियताम् ।।४५३॥
कथं पुनर्बहिरर्थस्य प्रणम् ? ऋथमच न स्यात् ? एकरूपत्वे तदयोगास्। ययेकमन्तभोव२० पाहणप्रवृत्तमेष प्रत्यक्षस्य रूपम् ; फथं तेन बहिर्भावस्य ग्रहणम् , बहिर्भावस्याध्यतर्भावत्व
प्रसङ्गात् ? न हि अन्तर्भावग्रहण करूपेण गृक्षमाणस्य यहिर्भावत्वम् ; अन्सारस्यापि तद्भावाभावप्रसङ्गात् । बहिर्भावग्रहणप्रवृतमेव तर्हि तस्य रूपमिति चेत् ; न; अन्तर्भावस्याननुभव. प्रसान् न चानुभधानामातस्य बहिर्भावगोचरत्वम् ; 'परोक्ष' इत्यादिगा" तन्निराकरणात् ।
तत्कथं बहिर्भावप्रहणं सुप्रसिद्धम् , असम्भवदर्यस्य सुप्रसिद्धत्वायोगादिति चेत् ? अत्राह२५ 'अनेकरूपेण' इति । अमेकम् आत्ममि व्यापृवमन्यन् अन्यथाथै रूपं यस्य तत अनेकरूपम् , तेनेति ।
अनेकरूपं प्रत्यक्षमात्मार्थग्रहणक्षमम् । एकस्वभावपक्षोक्तदोषेणालिप्यसे कथम् ॥४५४||
विशेषेण वि-आ०,०, प० स०२ चैस्कृतम् श्रा०, २०, ५०, स.।३ सलमा आ.व., १०,R.1 ४ पीमितं आ०, २०, ५०। ५ प्रत्यक्षस्य । ६ प्रवक्षस्थाऽसम्भवे। विशेषात्मकतद्भबसामान्यस्वरूप प्रतिसप्पभेदिनः चक्षुरादिप्रत्यक्षस्य वाम् इत्याकारकः । द्रष्टव्यम्-पृ. १४२ पं. ५. ८ 'कामन्तरय्याथिको वा' इत्याकारकः । ६ अन्तर्भावाभाव । १० प्रत्यक्षस्थ । भ्यायविक लो।। १२ यात्मनि म्यात आO, ५० । सामन्यातम् २० ।
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१८]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव वेषभेकस्वभावेन पंतभेदनेककम् । संस्य मानास्वभावत्यमेवं सति सुदुर्घटम् ।।४५५।। एकरुपमहाविष्टस्वभावस्यैव चत्परम् । विषयीभावमापनं कथं तस्मातृथक् भयो ? ।।४५३॥ वेगं नानास्वभायेन संचेत्स्यादनयस्थितिः ।
अस्यापि सारण परेशैव महोना इति थे ; अत्र प्रविविधानम्
अनेकरूपज्ञानं हि नान्यस्वे दनात् । किं तमानेकरूपस्य परस्य परिकल्पनम् ॥४५८।। अनवस्थामद स्थित्यं यत्सामर्यादुपस्थितम् ।
बहिरर्थपरिधान निरुणद्धि प्रसिद्धिमान् ॥४५९||
न हि प्रत्यभवेदनादन्यदेव अनेकरूपयेदनम । समच तन्छक्तिरूपा पपन्नमेक,ससः किं तत्रापरानेकरूपपरिकल्पनेन ? यतोऽयमनवस्थानदोधो अहिरर्थपरिच्छेदप्रसिद्धिविध्वंसकारी निराअधत्तिः प्रवर्सतः । साई प्राव्यतिरिक्तमेशनेकरूपं सपरिज्ञान विषयत्वात् तद्रूपवत् , तथा धान्येन रूपेणार्थवेदनम् अन्येन च स्वधेदनमिति स्वराद्धान्तो विरुध्यत इति चेत् । न सर्वथा १५ तश्यतिरेनस्याशक्यसाधनस्यात् । सर्वथा हि प्रत्यक्षादमेफरूपस्याच्यतिरेके तदेव प्रत्यक्ष निर्भागमयशिष्येत । न प निर्भागं प्रत्यक्षमन्यद्वा वासु किब्धिसम्भवति निरक्यप्रमाणसंवेवासयादिति करिष्यत एवात्र प्ररन्थः । कथयिष्यतिरेकसाधनं तु सिद्धसाधनमेव, रूपसद्वतररगन्तव्यतिरेकस्यानभ्युपगमान । नन्वेवमपि वेनात्मना प्रत्यक्षातव्यतिरिक्त तेन तत्परिज्ञानमेव "तस्यापि परिज्ञानमरतु, येन तु "तद् व्यतिरिक्त सेनान्यदेव तद्वेदनाद्' अनेकरूपवेदनमिति २० तशिबन्धनमायदेव शरिरूपं" परिकल्पयितव्यम् , सद्रूपवेदनमप्यन्यस्मादेव शतिरूपादिति तदवस्थमनवस्थानमिति छन् । अन्यदेव सदनमिति कुतः ? तथैवानुभरादिति चेन् ; न;"रूपतद्विषयस्य वेदनद्वयस्थाननुभवात् । अनुभवे बा कथमानवस्थानं संस्थानुर्भ अप्रतिकूलत्वात् , दिद. मन्थोन्यव्याहतम्-'अनुभवश्वावस्थानं च इति । यदि भिन्न वदनं नास्ति; कथं ततः प्रत्यक्षस वेदनम ? अबेदनविषयस्य शक्तिरूपस्य वदमानत्वात्, अन्यथा प्रत्यक्षत्याध्यथिदिसस्यैष २५ अर्थवेदननियन्धनत्वापसेरिति चेत ; फस्तस्यावेदनमा ? प्रत्यक्षसादात्म्येन तद्वेचनस्याभिहित
प्रत्यक्षस्य । २ प्रत्यत्तस्व अनेकरूपम् । ३ दुपनतमेव साकादिनिरा-MO, बा, प०,०। ५ -मादिग्ध-आव०, प०, सः । ६ विराज्यात श्रा, प. प. म . मातहतो । ८ सन् अनेकरूपम् । प्रत्यक्षपरिझानमेव । १. अनेकरूपस्यापि ।.३१ अनेकरूपम् । प्रत्यक्षवेदयात् । १३ रूपं करप-प्रा०, 40, 4. स. १४ रूपरहि-मा०,० ०,०। समारतीवरस्य ।५३५. रिक-वा. अनेकरूपवेदनम् ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[१६८ त्वात् । अपरिहातेन रूपेण कश्चं तस्य प्रत्यापरिक्षानानात्वमिति चेन् ? म; सर्वात्मना परिज्ञातस्यैव तस्य तदात्यगित्यमभ्युपगमात् । तदभेदस्यापरिक्षाने कथमस्तित्वमिति चेत् ? न; कार्यभवादेव तद्देदस्य सुपरिवावस्यात् । भिन्न हि सत्कार्यमर्थवेदन स्वसंवेदनं च । महि तदेकरूपस्ने सत्युपपन्नम् , उक्तत्वात् न्यावस्य । न चैकान्तिकस्त देदः । कार्यभेदस्याप्पैकान्ति५ कस्वाभावात् । महि स्वसंवेदनादर्थवेदनं सतो का स्वसंवेदनमकान्ततो भिन्नम् ; अभेवस्थापि
कथञ्चिदुपटम्भात् । नन्वेवं पहिरपि नानानीलपीतादिविपश्यत्वे कथमिवत्संवेदनभेदः तन्निअन्धन रूपभेदः प्राप्नोतीति चेत् ; सत्यमेतत् ; न्यायोपपन्नत्वात् । अनेकरूपत्वमपि तस्य योकरूपनिषद्धमेव, अनेकसंवेदनत्वमेव तस्य तैग्निषद्धमस्तु किमनेकरूपत्वकल्पनया ? तदपि ।
वदपरानेकरूपनिबद्धमेवेति चेतन : तस्यापि सदपगलेकरूपनिबद्धत्वकल्पनायामनजस्थापते. 1 रितिवेत : ३ : पूर्वपूर्वानेकरूपनियस्य उत्सरोसरस्य तपस्योपपत्तेः अव्यवस्थितदोपाभावात
अनादिस्खेनोपादानोपादेयभावस्य प्रकल्पनात् ।। + भवतु बहिरर्थस्य ग्रहणम् , अन्वितस्य तु कथं ग्रहणम् । प्रत्यक्षस्य क्षधापर्यवसायित्वेन सम्पयाधिपूर्वापर मनमो ३२.३ नादिवि का , २ , "स्य तत्पर्यवसायित्वाभावात् ,
कालान्तरावस्थायित्वेन प्रथमलोचनादिव्यापारादुत्पत्तेः । अपरापरस्साई तद्व्यापारः कैमर्थ: १५ क्यात् । प्रथमप्रत्यक्षादेव यहि वान्वयस्य प्रतिपत्तेः प्रत्यक्षान्तरस्यानपेक्षणादिति चेत् ; न; तेने' "तयारपरस्यरतिशयस्य साधनात् । तथा हि
अक्षव्यापारतः प्राच्यादुत्पन्नस्य रगात्मनः । "अन्यतोऽवप्रहात्मत्वमीहनात्मत्वमन्यतः ॥४६॥ अभ्यतोऽवायरूपत्वं धारणामत्वमान्यतः ।
तथ्यापारासतो नास्ति वैफल्य "तस्य सास्विकम् ।।४६१।। तदेवाह- अनेकरूपेण ।' अनेकम् अपरापरलोचनादिव्यापारोपनीतमादुर्भायोपग्रहम् अवग हादिविशेषामिख्य रूपं यस्य तेनेति । ततो निराकृतमेतत्-"ग्रहणस्य तु कालान्तरस्थानवचे सकृदेव तथा ग्रहणामिति । सदेव चतुरनुवर्चनं वृथेति प्रासम्' [ ] इति । '
स्यान्मतम्-प्रत्यक्षान" तमिशेषस्यानन्तरत्वे तद्वत् प्रथमचक्षुरादिव्यापारादेवोत्पनत्वात्त. २५ किं पुनस्तब्यापारानुवर्शयेन ; अर्थान्तरत्वे तु कथं तस्येति व्यपदेशः सम्बन्धाभाषास् ?
तद्विशेषाप्रत्यक्षस्योपकारः सम्बन्ध इति चेत् ; न; "तस्थापि तस्मादनान्तरस्वे पूर्ववोषात् , अर्थान्तरस्येऽपि सम्बन्धासन व्यपदेशानुपपत्तेः । उपकारादप्युपकारान्तरसम्बन्धपरिकल्प.
---.-.... . ..- -........ . ....---.
-:- ... ... ... ..
अनेकरूपस्य । २ --तस्य तस्यैतद-प्रा०,५०,०, । ३ स्वपरि- ,प,स कार्यभेदस्यैका-१०, २०, ५०,801 ५ प्रत्यक्षम तभिवन्धनम् 80,40, प०, स । एकाएनिबद्धमस्तु । प्रत्यक्षस्य। क्षणपर्यवसायित्वाभावात् । ५ अपरापरल्यापारेण | " प्रत्यक्ष एवं । तत्रैवापरापरति-बा०, २०, ५०,०1 1 स्यापारात् । १२ अयरापरब्यापारम्य । १३ अप्रहाशास्त्रकस्य अतिश्यप। १३ प्रत्यकवत् । ३५ उपकारस्यापि ११६ प्रत्यक्षात् ।
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१८]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावा नायामनवस्थाप्रसङ्गादितिः सदपि न सम्यक् : एकान्तभेदाभेष्टयोः एवं दोषेऽपि कश्चित्पक्षस्यरप्रविक्षेपात् । 'कश्चित्' इति. अन्धपदमात्रमेतत् , तदर्थस्य जात्यन्तरस्याप्रसिद्धरिति चेत् । न; तस्यानुभवोपरुद्धत्यात निखद्यानुमानगोचररवेन च सुप्रसिद्धत्वात् । तच्चेदमनुमानम्-क्रमप्रवृसानेकरूपः चक्षुरादिबोधारमा बोधत्वात् विचारवत् । को पुनर्विचारः इति चेत् ?
"एकत्र दृष्टो भेदो हि कचिनान्यत्र दृश्यते ।
न समाद्भिश्रमस्त्यन्यसामान्यं बुद्ध्यभेदतः !" [प्रा० २।१२६] इत्ययमेव । कथमस्य निदर्शनस्य चक्षुरादिज्ञानात्मनः क्रमानेकरूपत्वे स्यादिति चेस् ? उच्यते-- अस्य स्खलु क्रमप्रवृत्ता बहत्व उल्लेखर 'एकत्र' इति 'दृष्ट' इति 'भेद' इति 'कचित्' इति 'नान्यत्र' इति एवमुत्तरेऽपि । नेपालन्य निरन्धयविछिन्नानां विचारत्वम, अन्धितैकज्ञानाधिष्ठानमन वा? निरन्ययविच्छिमानामपि प्रत्येक विचारत्वे
प्रथमोल्लेखनाव सामान्याभावनिर्णयात् । तदुत्तरोसोल्लेवो भवेयुर्नियोजनाः ॥४६२३॥ तत्सस्यनिश्श्येऽप्याँदिचक्षुर्व्यापारतोऽन्यया । तदुत्तरोत्तरश्चक्षुापारो व्यर्थकः कथम्,४६३॥ सम्भूयैव विचारस्वं सेवामित्यप्यसङ्गतम् ।
मिणां सम्भवाभावात् अणक्षीणारमना मिथः ।।४६४॥ में हि सम्भूय तेषां विचारत्वम् ; क्रमभावित्वे सम्भवाभावात् । नापि प्रत्येकम् ; एकत पव सामान्याभावनिहानात् उस्लेखान्तरवैयापत्तेः, अपि तु सर्वेषामेव तेषां विचारस्यम् । कालान्तरानुसन्धानशून्यानामपि तेषामेका सन्निाने व्यापारादिति चेत् । न; कालप्रत्यासनस्यैव तत्र व्यापारा() "सम्भवात् , व्यवहितानां तु पूर्वपूर्चा साना उदयोगाप, अन्यथा सामान्य- २० ज्ञानेऽपि क्षणिकक्रमभावियक्षुरादिव्यापारण कारणवोपपरी तत्पविक्षेपः" प्रक्षाकरस्य प्रेक्षावश्वमकुर्यान।
अपि च, 'सर्वेषाम्' इत्युक्तम् , तत्र कः सर्वशब्दार्थः ? निरयशेषसमुच्य इति चेत..; . अयमपि कस्य व्यापारः ? कस्यविद्रिकल्पस्येति चेत् । तस्यापि तर्हि विचारोल्लेखाम् एकोति प्रथम उल्लेखो दृष्न इति द्वितीयो भेद इत्यादिस्कृतीयादिः' इत्युल्लिख्योहिल्य समुचिन्यतो २५ विचारखग्रहब एबोल्लेपरः प्रामाः, तेषामपि क्षणध्वंसिनो र प्रत्येक समुच्चयकरस्व' पूर्वक्युल्लेखान्वरयापत्तेः। नापि सम्भयोपाधीनाम् : कमभावित्वेन तदभावात् । तेषामपि सर्वेपामेव
कश्चित्प्रवन-आ०,०,१०,801 "कयमिदित्यन्धपदमेतत्"-हेतुविकटी.यु. ९४।३-दोषा-०,५०,५०,१०। ४ एकति शब्दादेव । ५ दृष्टो भेद सादिक ६ अन्यथा उत्तरोत्तरोलेरखाना सार्च. करखे आदिचक्षुयापारसः तत्सवभिश्चयेऽपि तदुत्तरोत्तरवापार यं व्यर्थः इति । -यादिय-मा०,०,५०, स.। ८ प्रमाणम् सान समय
सामधारासम्म-श्रा०,व०प०, अर ताडर त्रुडितम् । ""सामान्यस्म इन्द्रियामाखातू..."-प्रजातिकाल. २०१२६ । १२-युल्लेशसभु-बा०, २०, ५०, सक।
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१५२ न्यायविनिमयविवरण
[१८ समुश्चयप्रयोजननिवन्धनत्वमिति घेत; म; तत्रापि 'अपि च' इत्यादेः प्रसङ्गस्यानिधर्तनात् यककापस: अनवस्थोपनिपाताच्य । तेन विकल्पात् विधारोल्लेखानां सम्भवति समुनयः । सम्साना सम्भवतीति चेत् ; ; तत्रापि विकल्पबहोपात् । अपि च,
; कलमासन्तानश्वेतवस्तुसन् । सस एवान्यथा प्राप्तमन्यदप्यर्थ वेदनम् ॥ ४६५॥ तत्पूर्वत्वात्पुमर्थस्य व्युत्पाद्यः स्यान स एव वः । निष्प्रयोजनमेवातः सम्यरज्ञान विचारणम् ।।४६६॥ संस्थ वस्तुस्वमारोपादित्यप्येतेन चिन्तितम् । किचारेपेण बस्तुत्वभवस्तुत्वान भिद्यते ॥४६७॥ अन्यथा माश्योऽप्यग्निरभ्यारोपण कल्पितः । सुपसिद्धाग्निवस्फुर्यान किन्न पाकप्रयोजनम् ? ॥४६८।। घरसुसमाधि सन्सानो भिद्यते चेत्प्रतिक्षणम् । विसरोल्लेखभाशेक्तरेष दोपैन मुच्यते ॥४६९॥ न चेद्रियेत भिधेत क्षणभनिजगकथा ! अचित्त्यावम्वितोऽप्येषः समुञ्चयकरः कथम् १६४७०॥ "विस्वेऽप्येकस्वभावरखे सन्सानान्न समुख्यः । सस्मिन्य चायं चेति व्यापारस्याप्यसम्भवात् ।।४७१॥ 'चित्पर्ययस्वभावत्वे मतान्तरगतिर्भवेत् । सन्न सन्तानको युरर्क सर्वशब्दार्थकल्पनम् ।।४७२॥ अनेनैव पथाऽऽत्मापि यौगोक्तः प्रतिवर्णितः । सस्थाप्यचेतनत्येनाधिकायत्समुपये १४७३।। चेतनेन स्वनिष्ठेन समुध्येता स चेन्मतः । प्रत्युल्लेखमतं तद्वा यकोल्लेखगोचरम् ? ॥४७॥ एकोल्लेखगनासो चेतनेन कथं युमा । अन्योल्लेखानविज्ञातान् समुच्चयपथं नयेस् ? ॥४७॥ अतिप्रसङ्गाष्टोऽयमविज्ञाससमुच्चयः । एवं हि घेतन न स्यादेकोलेस्पेन सार्थकम् ।।४७६॥ परयुलेखासत्वे तु तस्यापि क्रमभाविनः । उल्लेखा बहवस्तेषामपि क्षणविनाशिनाम् ॥४७॥
-२५
स्वदप्र-आ, , ५०,स। सन्नियिक-१०। म एवात: -RE, ... ५... सन्सावस्य । ५ ते चित्प्र-श्री०, ५०, प., रकथाम् भाग, ५०, चिय-मा... पास चित्पर्याय-W0,0०, स.1
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१८
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव न तत्समुच्याङ्गत्यं प्रत्येक प्राच्यदूषणात् । नापि सम्भूय; सम्भूतः क्रमाविष्वसम्भवात् १४७८।। समुच्चितास्तदङ्ग चेन का समुच्चयकृत् ? पुमरन् । म र मेस्यादेदारस्यावामियोमः ४७९॥ सचक्रकानवस्थानदूषणस्यानिवारणात् । समान थपिएकोल्लेखैः सवैरपि समुभवयः ॥४८॥ कलिग्नित्यरुपैस्तैः समुच्येता पुमान्यति । वैनित्यत्वे पुमानन्यो निक्षल: परिकल्प्यते ॥४८॥ स्मृतिप्रत्यवमर्शादेखत्मकार्यस्य सर्वथा। सत्रैवान्धितविज्ञाने सर्वस्यापि समाहितः १४८२॥ सुरिणः स्वयमेवेई यथास्थान पदिश्यते । वनारमापि स्वनिष्ठेन चेतनेन समुच्चयों ॥४८३}}
आल्मा चेतनसम्बन्धाच्चेतनश्चेषाधिनम् । तसैतन्यम्, कथं तेन चेतनस्तत्वतः पुभाम् ? ॥४८४॥ अतत्वेऽ] सनशासौ चेतनार्थक्षमः कथम् ।। मणेसपाधितो रक्तान हि रक्तमयोजनम् ।।४८५।। अन्यथा तदिशेनैव सन्तानेन समुच्चयात् । आत्मकरूपनयिय॑मनिवार्य प्रसज्यते ॥४८६॥ तस्मादचेतनोऽतस्वदेसनो वा नरोऽधमः । न क्षमश्चेतनार्थाय सन्तानक्दयुस्तितः ॥१८॥ साम्पन्धिकस्य चिर्पस सास्तिकत्येऽपि यदि। मरादर्थान्तर; तेन नरः स्याच्चेसनः कथम् ! ॥४८८॥ आकाशस्यापि सेनैव चेतनत्वानुषजन्नात् । पुंस्येव तस्य सम्बधान्नेति चेल असदुतरम् ।।४८९॥ . साम्पन्धिकं पुनश्चित्तमेवं सत्यन्यवागतम् । तेनाप्यर्थान्तरेणात्मा चिच्चेत् ; व्योम न कि तशं ॥४९०॥ पुनः साम्बन्धि विस्वम्हत्मन्येदेखि कल्पने । प्रायदोशनुवृत्तिः "स्वादनवस्थानवेशसम् ॥४९१॥ भराव्यतिरिक्त चेचिस्वमौपाधिकं तदा
-भाषीटर-श्रा, बा, ५०, स . रूपस्तैः भाग, बस खोलनी निस्यत्वे । -भान्वयमेवेदं भार, ०,१०० भात्म-आ०,०, ०५-तने थे-भा०, २०, ५०, सा। अतरवभूतेनैव ! वित्तस्य भब., १०० कथा आ.व., ५०, स. .-मनैवेति आ०, ब..स ."-सि स्वा-मा०,२०,०,स. १२ तथा आ.,.,.,
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म्यायविनिश्चयविधरणे
[१८ अनित्यत्वं नरस्थापि दुधार चित्त्वष वेस् ॥४९२॥ निरन्वयस्यानित्यस्य न यात्मत्वं सयुक्तिकम् । स्मृतिप्रत्यवमादिकायें तस्याक्षमस्वतः ॥४९३१॥ निस्थानियस्वभावरष यदि तस्योपवर्यते । स्थाहादानुप्रवेशोऽयं महान दोषस्तवापतेत् ॥४९४!! तन्न पुंसश्चिदात्मर कथविदपि युज्यते । विचारोल्लेखभागानो समुच्येता यतो भवेत् ।।४९५॥
सन्न विचारोहखानां कुतश्चिदपि सम्भवति समुच्चयो यतः सर्वेषां विचारत्वमुपपद्यते। तन्न प्रथमो विकल्प उपपत्तिमान् । १० भवतु तर्हि द्वितीय एय विकल्पः अन्वितज्ञानाधिष्टानानामुल्लेखाना विचारस्वोपगमा
दिति चेत् ; सिद्धं तर्हि विचारस्य क्रमानेकामरूपत्वमिसि निरनय तस्य निदर्शनत्वम् । ननु संश्यादिदोषादनेकान्तः कथं तदात्मनि परमार्थ इति चेत् ? कई विचारे १ वत्रापि मा भूदिति घेत ; नास्त्येष तर्हि थिचारः । तथा चेत् । न संशयाधुवाधनं तस्य विचारनिबन्धसत्वात् ।
अथ सत्र संशयादिरेव नास्ति मिरवधास्तीतिविषयस्वादिति ; समानमेतत् सदासन्यपि, तदने१५ कान्तस्यापि स्वतोऽनन्तरानुमानारच निरवद्यादेव प्रतीतेः । ततो विधारवाशानात्मनि उपपन्नमने
कान्तास्मकत्वम् । एतदेवाह-अनेकरूपेण । अनेकश्चासौ क्रमभौविनामोल्लेखत्थात् रूपश्चासौ निरूपणत्वान इत्यनेफरूपः, सेन दृष्टान्सेन यः सिद्ध क्रमानेकरूपश्चक्षुरादिशामात्मा नेति ।
___ मन्येक एघ 'अनेकरूपेण' इति शब्दः, तेन यदि साध्यमभिधीयते निदर्शनमनभिधान प्राप्तम् , समिधाने साथ्यमवचनमेवापन्नम्, एकेन युगपदनेका निवेदनायोगादिति चेत् ;न २० आवृत्त्या साध्यप्रचनादेव निदर्शनस्यापि प्रतिपत्तेः। भवत्येवम् अर्थशानस्य सक्रमवत्
क्रमेणाम्यनेकरूपत्वं न्यायोपपन्नत्यान् , न पुनर्बहिरर्थस्य तस्य निरंशत्वात् क्षणक्षीणत्वाच्चेति चेत् । अत्राह तादृशः। मारग अक्षज्ञानारमा सम्भवक्रमाभ्यामनेकरूपा साहशः तत्सहास्य बहिरर्थस्य प्रवर्ण तस्यापि संम्भवक्रमाभ्यामकरूपत्वे न्यायसहावास्, युगपमानासबारमविज्ञानवन् नानानीलायाकारस्य बर्भािवस्य प्रत्यक्षेणैक बेदनात् । प्रत्यक्षस्य च नमानेकरूपत्वे२५ "ऽवस्थिते अवस्थितमेव बहिरर्थस्थापि ताप्यम्, तत्त्यैव तहणोपायत्वात् । न हि निरवधे तहणोपाये तदनवस्थानमुपपन्नम् ।।
यत्पुनरेतस्-अर्थज्ञानस्योपपन्नमेव विचित्रैकरूपत्वम् अशक्यविवेपनत्वास न पहिरर्थस्य सदभावादिति; वास्ताम् , उत्तरत्र विचारात् । तस्मादवस्थितम्-अन्तहिन तद्भवसामान्यविषयखमक्षज्ञानस्य । विशेषव्यतिरिकस्य तु सामान्यस्य निराकरणमभिप्रेतमेवेति च प्रत्यबस्थीयते ।
-सनाकृत-मा०, ब०,५०, भाविनीरले-भा०, ०, १०, सा. ३-नमभिधामा०, २०,०, +14 संभवमामा-80०, २०, ५०, स.। क्रमयागपचाभ्याम् । ५-पस्थापितेऽ३-400, बर, १०, स! ६ चित्राभासामि मुद्धिरकैव समाधिविलक्षणात्यात शक्यविदेखनं चित्रमनेकम् , अवयविनबनाय धुमालादः।"प्र.पालिकाक० २१२२.।
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१०]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः तदेतेन सादृश्यसामान्यविषयत्वमप्यमानत्य निवेविषमवगन्तव्यम् , अन्वितव्यावृत्तरूपवत् समानासमानरूपवारपि भावेषु भावत एष भावात् । तदाह-आत्मनानेकरूपेण समानासमानरूपेण मशः समानासमानरूपवया उत्सद्देशस्य बहिरर्यस्य ग्रहणमिति ।
___ यदि पुनस्य निर्बन्धो यस्तुपु वातुभूत साश्य नास्तीति । तदा कथनाम भावक्ष्योध्वेकबाध्यबसायी विकल्पो यारच्छेदाद् अनुमानप्रामाण्यमवकल्प्येत ! विलक्षणश्वलक्षण- ५ दर्शनादेव तद्विकल्प इति चेत् । न ; घटकालक्षणदर्शनादपि तत्प्रसङ्गात् । तथा च "अन्हे क्षयदर्शनादादावपि तयः" [ ] इत्यनक्सरं भवेत् , आदिवदन्तेऽपि समारोपतिरोहितस्य क्ष्यदर्शनस्य झयव्यवस्थापकत्वायोगात् , अन्यथा समारोपव्यवच्छितिकल्पनावैफल्यापतेः । तन्न विलक्षणस्वकारणदर्शनावकस्वविकल्पः ।
भवतु सघशाकारदर्शनीदेवासी,तत्तु सादृवयं न वस्तुभूतम् ; असाव्यावृत्त्या करिस्पत- १० स्वादिति चेत् ; कथं साई कथितम्-"साधर्म्यदर्शनालोके भ्रान्ति मोपजायते ।" [५० मा० २२३६१ ] इति ? दर्शनस्य कल्पिताकारगोचरत्वे सविकल्पकत्यप्रसङ्गात् । दर्शनशब्देनापि विकल्पकमेव किश्चिशिशानमुख्यते न. प्रत्यक्षमिति चेत् । न ; पश्चादेकस्वविकल्पाभावप्रसङ्गात् । न हि सरशविकल्पविषये एवैकत्वविकल्पस्य सम्भवः; क्षणक्षयविकल्पविषयेऽपि निश्यषिकल्पप्रसङ्गात् कथं मणभानुमानस्य समारोपनिधारकत्वं यतः प्रामाण्य स्थाईदसि सई १५ एष मण्डूकेन भक्षितः।
किन, तस्यापि सशविकल्पस्य कुत उत्पत्तिः १ सदृशापरापरदर्शनादिति चोन् । न ; सारश्यस्यावस्तुस्वेन दर्शनविषयत्वायोगात् । दर्शनशब्देन विकल्प १९ फश्चिदुध्यत इति चेत् ; तस्यापि कुत उत्पतिः ? तद्विकल्पादेव पूर्षस्मात् , न चैवमनवस्थानम् अनादित्वात्तत्प्रवाहस्वेदि चेत् ; न ; अनादिवासम्भवात् । न हि घटपर्यायविषया एव सर्वदा सहक्किस्याः, पटादि. २० पदार्यान्तरविषयाणामपि या पूर्व भावात् । हशा पानुत्पत्तिरेवास्य घटपर्यायसविकल्पस्य प्राश पूर्व तारशंपिकल्पाभावात् , अन्याशाय ताशस्थानुत्पत्तेः । अथ पूर्वमपि पटपर्यायागोचरसरशविकल्पवासना विद्यत एव तर्हि सैदापि अस्मादिकल्पानुत्पत्तिः ? वासनाप्रपोधकस्याभावादिति चेत् ; पश्चात् कस्य उत्पबोधकत्वम् ? घटपर्यायगोचरस्थ दर्शनस्यैवेति पो ; प्रागपि घटपोयमोचरस्य तस्य तत्प्रबोधकत्वं कस्मान-स्यात् । तस्य घटपर्यायविलक्षणविषयत्यानेवि २५ येत् ; घटपर्यायदर्शनस्यापि तदविशेषात् , तत्पर्यायाणामपि मियो विलक्षणत्वास्। विलक्षणत्वेऽपि तेषामस्ति काचित्प्रत्यासत्तिः, अवस्तदर्शनस्यैष सत्प्रबोधकारित्वमिति चेस् , का परा तत्पत्यासचिरन्यत्र समानपरिमामात् ।
दाबह-श्रा०,०, ५०,३यव्यवस्थापकाचे एकत्वाध्ययसायात्मकः समारोप एवम सात् तथा व कस्य व्यवच्छेदः इति मायः ३-नादिवासी भा०, २०, ५०,०। १ -ये रु-बारा , प, सापूर्वममा-आर,०,२०। ६अघट-10, ., प... सवापि मा०,०, प०, स.
वर्शनस्य
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१५६ न्यायविनिश्चय विवरण
{१८ पपि, पनगमाय बिगालपाणिवाल, यति सशविकल्पादेव सद्विकल्पः । तर्हि सर्वस्यापि मनोविभ्रमस्यान्तरूपप्लयजत्तयेवापतितम् , तथा भेदभेव वराज्यम्--
"अस्तीयमपि या त्वन्तरूपप्लक्समुद्भया" [अ० वा० २।३६२ भान्तिः ' इति, न "साधर्म्यदर्शनाल्लोके भ्रान्तिः" इति, तस्यार्थान्तराभावात् । न कधचनप्रतिपन्नेऽथे ५ वचनान्तरमर्थवत् ; अतिप्रसङ्गात् । ततो न दर्शनशब्दस्य विकल्पार्थत्वम्, प्रत्यक्षार्थस्वस्यैकोपपतेः । प्रत्यक्षे च दर्शने न साटश्यस्यावस्तुत्यम् ; दर्शनविषयस्य तदयोमात् । दर्शनस्यापि भ्रान्तत्वान्न तद्विष्यस्वेन वस्तुत्वं सारश्यस्येति चेत् । न ; सर्वदा सैरशस्यैव विषयस्य दर्शने विभासनात । सथा हि
धूमान्तरसमस्यैव धूमस्येह प्रवेदनम् । निराकारेऽपि विनाने नात्यन्ताय विधर्मणः ॥४९६॥ धूमश्चायमिति झेचं प्रत्यभिज्ञानमन्यथा । कथं नास्य लिहत्त्वं पर्वताग्निप्रसाधने ॥४९॥ पश्यतोऽप्यविध प्रत्यभिज्ञा दीरशी पाषाणाग्रुपलम्भेऽपि किमेवं नोपजायते १ ॥४९८॥ स्था र सति सर्वत्र सर्वस्मादविशेषतः
हुताशनानुमान स्याद् वस्तुसारश्यषिद्विषाम् १४९९॥ धूमवासनाप्रभोधयत्येव धूमप्रत्यभिज्ञानम्, न च पाषाणादायस्ति तस्बोधवत्वं संस्म धूमस्वलक्षपासिविलक्षणत्वेन तत्प्रबोधं प्रत्यनुपयोगास् तत्कथं तत्र तत्प्रत्यभिज्ञानं यतः पावकानुमाने
स्विमिति चेत् ।न; धूमान्वरस्यापि घूमस्थलक्षणादसिविलक्षणस्यात् । तत्कार्यकारित्वान्नातिविलक्षण२० त्वमिति चेत् ; न; असिमूत्वास् , ऍकधूमकार्य एव धूमान्तरव्यापारस्थाप्रेतीते, तत्सदृश पव"
तदन्तरस्य व्यापारोपलम्मात् । अस्तु सदृशकार्यकारित्वादेषावैलक्षण्यमिति चेत् ; कुठः कार्ययोरपि सादृश्यम् ? साहशापरकार्यद्वयजननादिति चेत ; न तद्द्वयस्यापि सारश्यं सुदपरसएश"तद्वयजननादित्यनवस्थामापतेः । स्वत एव कार्यसादृश्ये धूमसादृश्यमपि स्वत एवास्तु कि
"तत्र कार्यसाटश्यपरिकल्पनया ? कारणसादृश्यात् सरसादइयमित्यप्येतेन प्रत्युसम्; न्यायस्य २५ समानत्वात् । ततो वस्तुत पद "साश्यस्य भावात् कयमन्तष्ठिय तद्विषयं तदर्शनं न मवेत् ?
भन्योन्यस शोरेव घेदन स्वार्थयोरिति । अनुस्कसिमेवेदं साकारज्ञानवादिनः ।।५००।
-कायस्पो-प्रा०, २०, ५०, स.1 २ सदसदर्भाने । २ सादास्यैव स०, धूमस्य प्रतिवे-1०, प. प., स. ५-स्तैद धूम-30,400,
स पाषाणस्य। धूमकार्य ।। ८ एक. धूम-मा०, २०, ५०, स! १-प्रतिषसखरम-81०, २०, २०११. एष दावा , २०, ५०, स०। 11-वैद्रयदर्शनादि-बा०,५०,५०,०। १२ तासा-०२.०, १३ सादृश्याभावातरकचमन्तनहिष रहिषयदर्शवम् प्रा. प . स .
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སྐྱ
शट
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
दर्शनार्थसारूप्यं यदि वत्तं भवेत् ।
कल्पनाविरद्दाभावात् प्रत्यक्षं तत्कथं भवेत् १ ११५०१ ॥ सविकल्पकमेवेदं प्रत्यक्षं यदि करूप्यते ।
प्रत्यक्ष कल्पनापोढं भव्यापि लक्षणम् ॥१५०२ ॥ परमार्थेन साध्यस्याभावादवेदने । कल्पनाविरहस्तस्मिन्नस्त्येवेति यदोच्यते ॥ ५०३ ॥ अतद्रूपस्य तस्यार्थविषयत्वं तदा कथम् ।
सर्वसाधारणस्यास्ये नियेमोऽपि कचित्कुतः ? ५०४ ॥ स्वतस्तदर्थं विन्नियतार्थं कम् ।
तरपनियेवं सारूप्यं वर्हि निष्फलम् ||५०५॥३ न पार्थदर्शनं नास्ति तस्य पूर्व समर्थशत । अर्थदर्शनमध्य तद्वाणैः परिस्फुटम् ॥१५०६ ॥ अकल्पनाकृतं वाच्यं सारूयमहितम् । सत्यदर्शनं सच्चेद्धान्तिरेवार्थमयोः ||५०७॥ अन्यथादर्शनाभावान्नाभ्रान्तपदमर्थवत् ।
१५७
१०
१५
तस्माद्वस्तुसदेव
पर्यायात्मकत्ववत् स
उशि
प्रत्यक्षस्येति सूतम्-- 'आत्मनानेकरूपेण after area: । व्यकं ग्रहणम्' इति ।
शिनष्टि fafe शमलं सामान्यस्य विशेषात्मकं विशेषस्य सामान्यात्मकमिति । aa यदि विशेषात्मकमित्यत्रानधारणम् शवलमिति व्याख्यानमनुपपन्नम, विशेषैकात्मनः पल- २० स्वायोगात् । एतेन सामन्यात्मकमित्यपि विचारितम् । नोभयत्रव्यवधारणम्, विशेषात्मनि सामान्यात्मनः, draft free विद्यमानत्वादिति चेन उपपन्नमेवं शवलमिति व्याख्यानम् विपदं तु पुनरुक्तं भवेन ग्रहणशावल्यस्य 'अनेकरूपेण' इत्यनेन गतत्वात् । प्रत्यक्षशास्यमेव तेन गतं नार्थप्रहणशास्यमिति चेत्; न; प्रत्यक्षात्तदर्थग्रहणस्याव्यतिरेकात् । तन्मे orrentaferrer व्याख्यायते-
१ दर्शमस्य । १ विषयप्रतिनियमः । ३ मित्येवं प० । प्रत्यक्षसम् । ५ तत् सारूप्यदर्शनं प्रति
रे येत् अर्थः अन्ययादर्शनात् इत्याद्यन्वयः ।
+
अनेकरूपेणैति वैन
पर आ०, ब०,
ब० स० । ८ अनेकरूपेणेति पदेन । ९ मिचित्रपदेन ।
२५
विचित्र स्पष्ट परादिप्रतिभासभेदेन नानाप्रकारमिति । नन्विमपि वैचित्र्यम् । अनेकेत्यादिनैव गतं तत्कथं पौनस्वस्यैपरिहार इति चेत ; ส i egeta "तेन तदभिधानम् अनेन तु नानासन्तान हणगतस्य प्रतिभासभेदस्याभिधानमिति taraar | कस्वविद्धि प्रत्यासन्नस्य स्पर्धग्रहणम् अन्यस्य प्रत्यासन्नतरस्य
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1
I
1
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[१८ स्पष्टसरम् अपरस्य प्रत्यासन्नतमस्य सतममिति 'दृष्ट एवार्य विभागा। तथा च "यवसा. दिनप्रतिभास न तत्तेनैकविषयं यथा रसज्ञान रूपज्ञानेन, प्रत्यक्षाद् भिमप्रतिभासं सानुमानम्" [ ] इत्यत्र भिन्नप्रतिमासलं समभिचारीति निवेदितं भवति, स्पष्टशानात् स्पष्टतयपिवानस्य मिन्नप्रतिभासत्वेऽप्येक विषयत्वोपलम्भात् । करिच्यते मात्र द्वितीये विस्तर इति मेहासीच निर्वध्यते ।
पुनरपि प्रहणविशेषण 'विशेष' इत्यादि । विशेषणं च जात्यादि व्यवच्छेदकत्वात, विशेष्यश्च तद्वत् व्यवच्छेद्यत्वान् , विशेषणविशेष्ये विषयत्वेन भजतीति 'विशेषणविशेष्य. भाक' इति । अनेनार्थग्रहणस्य विकल्पकत्वमुक्तम् । तथा हि-यत् सविशेषणमहर्ण तत्सवि. कल्पकं यथा दण्डीति ग्रहणम् । सविशेषणग्रहणञ्च जात्यादिमदर्थग्रहणमिति ।
स्यामलम-विशेष विशेष्यमिति च सत्येव योजने भवति तदभावे तदप्रतीते। 'योजनश्च सत्थेव भेटे । न च जात्यादि-ततामस्ति परस्परतो भेदः, तदनयभासनात् । संसगचिदनकभासमिति चेत् ; सति भेदे संसर्ग एवं करमान् ? समानदेशकालत्वादिति चेत् । न; समानदेशालानामपि स्वरूपस्य भेदात् । मिनरेशकालानामपि स्वरूपभेदानेच तेथाप्रतिमासो
म देशकालभेदात् । यदि हि वत्र म सपनेदो देशदिनोऽपि न भासनम् । देखा १५ भेवेऽपि परेषां वर्णसंस्थानयोरनभासत एव भेदो वातातपयरेश्च इति म धेशाधभेदावरभासभेदो
हीयते । अथ समदाबसम्बन्धबलादेकलोलीभावेन प्रतिभासनम् ; तथा सति सर्वत्र संपाव कल्पनाप्रससा सर्व एषाभेदप्रतिभासो नाभेदसाधनं भवेत् । ततोऽनवभासनानास्येव जात्यादि-तद्वतां भेद इति न तदायत्तं तन्न योजनम् , अयोजने च न विशेषादिकमिति रु
वदाक्त्वं प्रत्याभस्य यतो विकल्पकत्यं तस्येति । तपि न साधु मतम् ; ऐकान्तिकस्य भेद२० प्रतिभासस्थाभावेऽपि जात्यादि-तद्वता कश्चश्चित्तत्प्रतिभासस्य प्रागेध प्रतिपादितत्त्वान् । सति घ तस्मिन् कथञ्चिभेदात्मनो योजनस्थापि भाषात् । अवश्यं चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् ऐकान्तिके भेदप्रतिभासे तदभेदप्रतिभासद् योजनस्यैवाभापत्तेः ।
मन्वयमिष्टे स्वाने दृष्टिलाभस्तथागतानां योजमाभावस्य सभ्युपगमात् । तथा व पचन प्रज्ञाकरस्य
"अभिन्न प्रतिमासस्य योजनं कस्य केन का ? विभिनप्रतिभासस्य योज॑नं न प्रतिभाति (प्रीतिभाक) ॥
इत्यभिन्न प्रतिभासं हि तत् एकमेव कस्तत्र योजनार्थः उभयापेक्षत्वायोजनाया। अथ भिन्न प्रतिभासदयं तदा परस्परचियेकेन प्रतिभासनाम्निस्तराम् अयोजनेत्यसम्भत्र एव
१ स्पष्ट मा०, ०, स. २-प्रश्ववभासन नमार, ०,१०, सात -ma., प०, स० । । मोज मा , ५०, ५०, सय ५ भिनप्रतिभासः । तथाकसपना-भा०, 40, ,सा। ७ कर्थभेदभेदारमनी स. कदाभेदात्मनो प-14-1न प्रतिभासति । "योजन प्रतीतिभाव"-प्र. पातिककारक
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१८]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः योजनाया । तन्न पारमार्थिकी योजना ।"[प्र०वार्तिकाल० २६१४६] इति चेत् कथं तर्हि तेनैकोचम्-"संयोज्यग्रहवं हि कल्पना" धार्सिकाल० २.१४६ पति ? योजनाभाचे तत्यूकस्य ग्रहणस्यासम्भवान । तदयं योजनमनिच्छन्नेव तत्पूर्वकं ग्रहणमिष्यतीति कर्थ स्वस्थः १ संकृत्या वदिष्टेरदोष इति चेत् ; न ; 'संवृत्व परिज्ञानात् । असत्यपि योजने सदाभासं झानं संदर्थ इति चेत् ; नन्निमपि ज्ञानं नेन्द्रियजम , सत्र योजनप्रतिभासस्थानभ्युपगमात् । कल्पनैवेति चेत् । ५ न; योजनाभाये तदसम्भवात् । तत्सम्भषेन योजनमिति चेत् । न; अन्योन्याश्रयस्य सुल्यत्तत्वात् । न योजनं पुरोधाय कल्पना येनैवं प्रसङ्गः किन्तु तदामिव सोपजायत इति चेत् ; म; 'संयोज्य ग्रहणं हि कल्पना' इत्यत्र योजनस्य ग्रहणपूर्वकालत्वाभिधानविरोधात् । न विरोध एककालत्येऽपि ज्यादाय स्वपिति' इत्यादिवत् औपसंख्यानिकस्य कस्याप्रत्ययस्य भावादिति चेत् ; म; भेदप्रतिभासयोजनयोरप्येवमेककालत्वप्रसवात् । तथा च तदुक्तं परेण- १०
"योजनात्पूर्व प्रत्येकदर्शनपूर्विका कल्पना" [५० वार्तिकाल० २६१४६] इति ; तत्प्रतिविहितम् ।
भागि , किंदिल लायोजन जमामिला मन्योत्पा" न तावरहि विषयम् ; 'कल्प. नाया निर्विपयरषात् । अन्तर्विषयमिति चेत् ;न; तत्रापि भेदप्रतिभासाभावे सदसम्भवात् "अमिस्वप्रतिभासस्य' इत्यादि वचनात् । तत्प्रतिभासेऽपि नितरां तदनुपपत्तेः "विभिन्न प्रतिभासस्य" १५ इत्याधभिधानात् । न चानुपदर्शितविषयं योजनं नाम ; अयोजनमेव तत्स्यात् । सत्यमयोजनमेव तत् , संवृस्था सु तस्य योजनत्यभिष्यते इति चेत् । न ; 'संत्यापरिज्ञानान्' इत्यादिकस्य 'अयोजनमेय तत्स्यादिति' पर्यन्तस्यावर्तनाद, पुनरपि 'सत्यम्' इत्यादिवचने तस्यैवावर्तनात् चक्रकस्यानवस्थाचाहिनः प्रसन्नात् । तन्न परमार्थत इस संधूत्यापि परस्य योजनमिति न स्पन्न नाम 1 मा भूदिति चेत् ; कुतस्वदभारे योजनाभायस्थायगतिः १ 'अभिन्नप्रतिभा- २० सस्थ' इत्यादिकाद्वचनादिति चेत् ; न ; शव्दगडुमात्रात् , कस्यचिदवगमविरोधात् , ज्ञानकल्यमापरिश्रमवैफल्यापत्तेः । सदुपजनिसज्ञानादेवेति चेत् ; , सतोऽपि तुरुछामावस्यावगतिः असम्बन्धात् । नापि भावान्तरस्वभावस्य ; विशेषात्मनः शाब्दज्ञानाविषयत्वात् । सामान्यात्मनोऽपि कचिदयोजितस्याप्रतिभासनात् । योजितप्रतिभासने तु कथं सर्वात्मना कल्पनाभावः ?
प्रतिमासस्यैव कल्पनात्वात् । "संयोज्य" इत्यादिवचनापारमार्थिी घेयम्, संतिका १५ अनवरयादोषस्योक्तत्वात् । ततो दुरुस्तमेसन् “न पारमार्थिकी योजना" {प्र• बार्तिकाल. २११४६] इति ।
किश्च, मा भूतभेदैकान्ते योजनं तस्योभयापेक्षत्वात् , तत्र चोभयरूपाभावात्, भेदैकान्ते तु कथन योजनं तत्र सद्भावात् ? अमिनस्येम प्रतिभासनादिति चेत् ; किं पुनर्मिश्रणमेव
१ सत्यापिरि--भा०,२०,२०, स.1 २ संवर्धः योजनारिमकैद RARE १ योमनापूर्व प्रभा०प०,40,801 "योजनापूर्व प्रायेक-."-प्र. वानिककाल-५ कल्पना मा मा०, ५०प०.स.। शब्दागममात्रात् आ०,०,०,.10 उमवरूपसनावात् ।
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१६०
न्यायविनिश्वयविवरणे
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योजनम् ? तथा चेत्; न; दण्डदेवदत्तयोरप्यमिश्रप्रतिभासत्वेन तदभावे वण्डीति विकल्पानुस्पतिप्रसङ्गाव् । मा भूपति चेत न यणं प्रति निदेर्शनप्रदर्शनविरोधात् । परप्रसि तत्प्रदर्शन मिति चेत् कथं परोऽप्यभिक्षं प्रतिपद्यमान एक मित्र प्रतिपथेत ? प्रतिपद्यमानो दृश्यत इति चेत ; तत्प्रतिपत्तिरेव तहिं विरोधोद्भावनेन निवारयितव्या । अपि [ ] स्वलोकव्यवहारस्यैवैविधत्वात्कुतः स्वयं तदभ्युपगमः क्रियते ? प्रयोजनादिति चेत् किं प्रयोजनम् ? विकल्पस्य संयोग्य हणत्वसाधनम् तथा हि-यद्विकल्पर्क arasave as दण्डीति विकल्पकम् विकल्पैकञ्च विवादास्पदमिति चेत्; न; निदर्शनस्य वस्तुतः साध्यविकत्वात् । परोपगमात्तर विकलत्यमिति चेत् न; उपगममात्रसिद्धस्याऽवस्तुरूपत्वात् । न चावस्तुरूपनिदर्शनवलोपनीतस्य साध्यस्यापि वस्तु१० रूपत्वम् । अवस्तुरूपमेव तदपि सर्वस्वापि संयोज्ययहणस्य सांवृतत्वादिति चेत् तर्हि कि सरसाधनप्रयासेन प्रयोजनाभावात् ? प्रयोजनवत्त्वे वस्तुरूपत्वापतेः । मा भूत्साध्यस्य प्रयोजनयत्त्वं तत्साधनं तु सप्रयोजनमेव, प्रत्यक्षे तद्रूपकल्पना निषेधनस्य सत्प्रयोजनत्वात् "अनिafarerrer faषेध्यस्य क्वविनिवेधायोगात् । स चार्य तनिषेधप्रयोगः-यन भेदप्रतिभासं तन संयोज्य यथा औरवारिज्ञानमतद्वेदिनः न भेदावभासच्च जातिजातिमदादिरूपेण १५ प्रत्यक्षम् यश्च न संयोज्यग्रहणं न सद्विकल्पकं यथा aa aaiरवारिषेदन मतद्वेदिनः न संयोज्यग्रहण प्रत्यक्षम् ततो निर्विकल्पकमिति चेत्; न; तत्रावस्तुरूपकल्पनाविरहस्य परं प्रत्यर्पि प्रसिद्धस्थेन तत्साधने सिद्धसाधनदोपपत्तेः । अवस्तुभूतायामपि कल्पनायां परस्य
i
वाभिनिवेशात् प्रत्यक्षे "तत्सद्भाव एव प्रसिद्धो न तद्विरहस्तत्कथं सिसाधनत्वमिति चेत् ? rances भूताया एव कल्पनाया निषेधात्, "वस्तुभूतया कल्पनया सविकल्पकमेत्र २० प्रत्यक्षं तम् । वस्तुभूता कल्पनैव नास्तीति चेत्; न; सद्भावे कल्पित कल्पनाया अध्यभाषापतेः । उभयकल्पनाविलोपस्य च कल्पनामन्तरेण दुरबोधत्वादित्यावेदितत्वात् । कस्पश्यैव कल्पनाविलोपप्रति सौ च विशेषणविशेष्यतयोजनमतिभासवती वस्तुत ' एवासौ" वत्र्या सद
यस्यापि प्रतिभासवत्त्वोपपत्तौ कथन वास्तव तत्र कल्पना ! ततो ययवस्तु कल्पनाविरहस्त साध्यते यस्तु कल्पनया विकल्पमेव संदापन्नम् । ततः प्रयासमात्रमेवैतत् धर्मकी:
२५
J
"विशेषणं विशेष्यच्च सम्यन्धं तौफिक स्थितिम् । गृहीत्वा य्यैतत्तथा प्रत्येति नान्यथा ॥
यथा दण्डन जात्यादेर्विवेकेना निरूपणात्
ear बोलना नास्ति कल्पनाऽप्यत्र नास्त्यतः ||" [प्र०वा० २।१४५ ] इति ।
१ योजनाभावे । २ दर्शनवि-आ०, ३०, प०, स० "प्रत्येकञ्च विणादीनां महणमन्तरेण न संयोज
यथा दीति प्रतीती" प्र० कार्तिक ०२१४६ । ३ चैत-आ०, ब०, प०, स०१४ अपि तु कस०
अपि चोक- ० प्र०, प० । ५ कल्प- अ० नं०, प०, स०१८वस्तुभूतायाः कल्पनायाः
स्यैव सिद्धत्वात् आ०, ब०, प०, स० । ६ अनविक भ० ज०, प०, स० १७ सि भा०, ब०, प०, स०१९-पि विक - ४१०, ब०, प०, स० १०कलनासा -आ०, ब०, प०, स० १२ का ११ विशेषणविशेष्यत्तयोजनप्रतिभास 1
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१८) प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
१६१ वस्तुकल्पनाविरहस्य विप्रतिपत्तिस्थानस्यानेनासाधनात्। तत्कल्पनाबिरह एघानेन साध्यत इति क्षेत्र ; न ; तलक्षणापरिज्ञानात् । इदमेव विशेषणविशेष्यप्रत्येकदर्शनपूर्वकं संयोज्यमहर्ण नलमणमिति चेत् ; क पुनरिद बल्लभगल्येन प्रतिपन्नम् ? दण्डीति विकल्प इति चेत् ; न; तत्र योजनस्य-मिश्रणस्य वस्तुतोऽसस्थान अवस्तुविकल्पलक्षणत्यायोगात् । भवतु या किमपि योजनम् , तथापि दण्डदेवदत्तयोः प्रत्येकदर्शनं विकल्पकम् , अविकल्पकं का? विकल्पका चेत्५ सहि तत्रापि दण्डस्य विशेष्यस्य तवयवानाच विशेषणानां प्रत्येक दर्शनं योजनम्यापेक्षणीयम् । तदषयवानाच दर्शनस्य विकल्पकरवे तत्रापि तेषां तानाना प्रत्येकं दर्शनं योजनं चापेशिसव्यं तावदेवं यावदन्ते परमाणवः, तेषाञ्च न दर्शनम्, तस्मिंश्च न तद्विशिष्टस्य तवयपिनो दर्शनम् , तत्र च न सद्विशेषणस्योत्तरावयविनो दर्शनम्, तावदेवं यावन्न दण्डदर्शनम् । देवदत्तदर्शननिषेवेऽध्ययमेव न्याय इति प्रत्येकदर्शनाभावान संयोज्यग्रहणं दण्डस्य देवदत्तेनेति १० कर्थ नामोनि म निकालAIम्येत ? तन्न संयोदर्शने विकल्पकम् ! अषिफस्पकमेव सदिति चेत; तत्र कस्य प्रतिभासः ? अषयविन इति चेत् ; न तस्य निरवववस्य तमनुपलम्भान् "परस्यानभ्युपगमाघ । सावयवस्थेति चेत् ; ; तदर्शनस्य विशिष्तविषयत्वेनाविकल्पकत्वाभावप्रसङ्गान् । निरंशक्षणिकस्य स्वलक्षणस्य तत्र प्रतिभासनमिति बेन ; भवत्येव निर्विकल्पकत्यं तदर्शनस्य यदि तलवचिदुपलधु" शक्येत । नापि तद्विषयस्य क्षचियोजनमिसि १५ सुव्यवस्थितो दण्डीति विकल्पः ।
___स्यान्मतम् -संवेदनाकारयोरेव दण्ठदेवदत्तयोः प्रत्येकदर्शनं योजनाच न बहिराकारयोः, विकल्पस्य वस्तुदृस्या निर्विषयत्वात् , सन्नायं प्रसङ्ग इति; तदपि न समीचीनम् तसंवेदनस्यामधगमात् । दण्डिज्ञानात् पूर्व देण्डप्रतिभास देवदत्तप्रतिभासम्च् विकल्पवयं तदिति पेत् । सम्भवस्थत्र प्रत्येक दर्शनं न पुनयोजन क्षणिकत्वेन पश्चात्तदभावात् द्वयस्यैकीकरणायो १० गाच! नन्यिदमेव पुनर्योजनं यसवयन उभयप्रसिभासमेकं पण्डिज्ञानमुपजन्यत इति चेन्न सद्यस्य युगपदसम्भवात् , अनभ्युपगमात् । क्रममावे च समिहितस्यैव कारणत्वं नेतरस्येति कथं तवयजन्यस्य दण्डिविकस्पस्य ? सन्निहितस्थापि व्यवहितविकल्पसंस्कार प्रबोधगर्भस्यैत्र कारणत्यादेवमिति चेत् । अस्ति सहि कथञ्चित्प्राच्यविकल्पस्याप्युभयप्रतिभासवत्यम् । भवतु को दोष इति चेन् ? कुतस्तस्याप्युत्पत्तिः । तादृशादेव प्राच्यविकल्पादिति चेत् ; क्य तर्हि प्रत्येक , दर्शनमुपयोगवा" ? यतस्तद्वयनमपालोचित न भवेत् । वम प्रत्येकदर्शनपुरस्सरं योजन वस्तुतो विकल्पलक्षग, उभयावभासित्वे सत्येकज्ञानत्वस्यैव तल्लक्षणत्वेनावस्थानान् । तथा
1-स्व प्रति-आ०,५०,५०,स। २ वस्तुकल्पनाविरद्द 1 ३'मित्र' इति पद यो समस्' इति पदल टिप्पणभूत मूले प्रारमिति माति। -सस्वाद वस्तुविता प्रत्येकद-०२०प० । ६ दण्डावयबामाम् । ७ परमादर्शनाभा 1 4 -मै तापय-०,०,१०,ल। ९ द०४देयवस्तयो।। १. अश्यविनः ।" निरंशस्य । १२ बौद्धस्य । १३ -लब्ध शारे-आ०,१०,१०,स.1 विकल्प सभ 1५ ण्डिप्रति--भा०, १०,००१६ --रावस्कीकरणा--आ०, ५०, ५०, R12. दण्डप्रतिमासेन देवदत्तप्रतिभासेन च । १५ भोत्तरस्य श०,०,५०,०१९-बदत:४०,५०,००-मानसरस्थानात्-सानादस्थानात्-80०,५०,१०)
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न्यायविनिश्वयविवरणे
१६२
[
छात्र देवस्य वचनम् - " विविधाविधानस्य विकल्पनान्तरीयकत्वात् ।" [प्रमाणसं ० ० लो० ४] इवि । तर्हि तल्लक्षणे एव विकल्पः प्रत्यक्ष प्रतिषिध्यते इति चेत्; केन सत्प्रतिषेधः १ 'जात्यादेर्विवेकेन” इत्यादिना न्यायेनेति खेत्; न; सेन प्रत्येक दर्शनपुरस्सरश्येजनारकस्यैव तस्य निषेधात्, “विशेषणम्" इत्याद्युक्वा तदभिधानात, वक्षणस्य च ५ विकल्पस्योपकारेणासम्भवात् । न चाऽसम्बघतो निषेवैः स्वतः सिद्धेः" रामवर्तिकशुकानाम् । अम्यतस्तनिषेधइति चेत् किं तदन्यत् ? प्रत्यक्षमेय; तस्यैकानेक प्रतिभासविकल्प विकलस्यानुभ
"प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति” [ प्र० वा० २।१२१ ] इत्यभिधानादिति चेत्; न; तस्यै तद्विकल्पात्मन एव 'आत्मनाऽनेकरूपेण' इति निवेदितत्वात् । संशयादिदोषापादनेन जात्यन्तर निराकरणात्तत्र तेन्निषेध इति चेत्; न; तथा दण्ड्यादिविकल्पेऽपि तन्नि१० वेधापतेः । कल्पित एव सोsपि न वास्तव इति चेत्; न; वस्तुभूतविकल्पाभा के तत्कल्पनापपत्तेर्निवेदितत्वात् । ततो यदि "स्पे आत्यन्तरस्य न संशयादिना पीडनं प्रत्यक्षेऽपि न स्यादविशेषात् ।
fare किमिदं संशयाद्यावदतं प्रमाणम् ? अप्रमाणापादितस्य दोषस्यादोषस्यात् । प्रत्यक्षमिति चेम्; न; तस्याविचारकत्वात् । अनुमानमिति चेत्; न; तस्य निर्विकल्पकस्या१५ भावास, अनभ्युपगमात् । विकल्पकत्वेऽपि स्वयमनमगसस्य अदोषापादनत्यात् । अवगतमेष कथमेवं विकल्पविकल्पात्मना "उमयात्मानमनुपद्रवं प्रतिपद्यमानमेव तत् प्रत्यक्षस्य जात्यन्तरे संशयादिकमापादयेत् "स्वरूपानमित्यप्रसङ्गात् ? सत्र सात्त्विकस्य विकल्पस्य प्रत्यक्ष कुतश्चिदपि निषेध इति सिद्धं सविकल्पकं प्रत्यक्षम् |
स्वसंवेदनाप्यक्षेण " तदिति
53
ननु व विशेषणविशेष्यभावेन तस्य सविकल्पकत्वमुक्तं न जात्यन्तरप्रतिभासत्वेन २० तत्कथमि तत्प्रयोजकमुच्यते ? जात्यन्तरप्रतिभासादन्यस्य तद्भाक्त्वस्याभावादिति चेत् ; न तहिं 'विशेषणविशेष्यभाकू' इति पृथगभिधातव्यम् जात्यन्तरप्रतिभासस्यै' ''आत्मना ' इत्यादिना प्रतिपादनादिति चेत्; न; उभयथा विकल्पावेदनार्थत्वादेवचनस्य । तथा हि-यदि निरंशविषयत्वं निर्विकल्पकत्वम् ; न तर्हि प्रत्यक्षं निर्विकल्पम्, तस्यानेकरूपस्य परावभासित्वेन विकल्पकत्वोपपतेः इत्यावेदनार्थमिदमिहितम्- 'अनेकरूपेण तादृशो ग्रहणम्' इति । तथा यदि अकृतयोजनं महामविकल्पकल्पम् तर्हि प्रत्यक्षमपि यदेव तथाविधं तदेवाविकरूपकम् कृतयोजनं तु विकल्पकमेवेति प्रतिपादयितुं 'विशेषणविशेष्यभाक्' इत्युक्तम् ।
२५
1
·
भिवादनस्य विकल्यास
म०, प०, स० १ २ उभयावभासिने सत्येकज्ञानलक्षणः । ३] अपि इस भर० ४० १० ० ४ः समः खतः सिद्धः भ० ३०, प० । ५ स्वतः सित्यादित्यर्थः । ६ प्रत्यचस्य श्याम बानेक-आ०, ब०, प०, स० १८ । ९ विकत्वनिषेधः । १० दयादिमिक राष्ट्रिकल्यजा- भ०, ४०, प०, स० १ ११ निर्विकल्पम् अव विकल्पकमिति । १२ अनुमानम् । १४ अनुमानस्य antratorteenनभिज्ञत्वं स्वाविति भावः । १५ सनस्य भ० य०, , ब०, प०, स०१७ अकृतयोजनम्
अनुमानम् । १२ स्वारी स्यन्तरत्वापत्तिवात विकल्प प०, स० १६ प -
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धमा प्रत्यक्षपस्ताव __ मनु च जात्यादितबद्भावेन भेदे सति तादात्म्यमेव योजनम् , सच सर्वत्र प्रत्यक्षे विधत इसि कपल सर्वस्य तस्य विशेषणादिविषयत्वमिति चेत् ? न ; गुणप्रधानभादोषाधिकस्यैव तस्य योजनस्थात् , तद्भावस्य च सर्वत्राभावान् । भवतु विवानियमेन तद्भावनियम तस्य विधशानिबन्धनत्वान्, “विवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था" [ बृहस्प. श्लो. २५ ] इति वचनात् । प्रत्यक्षस्य तु कथं तद्विषयत्वं तस्य विवक्षारूपस्वाभावाविति चेत् । तथापि विवक्षया ५ अनितसंस्कारप्रबोधगर्भस्य तस्य न विरुभ्यत एव विशेषणादिविषयषम् , कथमन्यथा 'बहवः' इति 'एक' इति बहुविधम्' इति 'एकविधम्' इति ५ विशेषणादिरूपेण प्रहणं यतो बलादिवेयभेदेन अग्रहादिभेदकथनमान्नीयप्रसिद्धमुपपनीपोत ? ततः स्थितम्-संयोजनमेव प्रत्यक्ष सविकल्प नापरमिति । सर्व संयोजनमेव सविकरुपकमेव' इत्यनुझाने तु यद्वक्ष्यति-"सकलाकार वस्तु निर्विकल्पकम"[ ] इति तद्विरुध्येत । निरंशप्रसिभातरूपनिर्विकल्पकत्यप्रत्य- १० नीकभावापेक्षया तु सकलमपि प्रत्यक्षं सविकल्पकमेव, तस्य जात्यन्तरगोचरत्वेन सांशयस्तुविषयत्योपपरिसि सर्व निरवधम् ।
ननु तदिदं भवतां सारयन्तरं यत्पुरोवर्तितया प्रतिभाति नीलादिस्थूलरूपम् , तस्य च दूरविरलकेशादाविष अविश्वमानस्यैव प्रतिभासलात्कथं तहरो बहिरर्थः पारमार्थिको यतस्तद्विषयत्य प्रत्यक्षस्थेति चेत् । अवाह
अर्थज्ञानेऽसतोऽयुक्तः प्रतिभासोऽभिलापवत् । इति ।
'अर्थस्य इत्यनुवर्तते । तदयमर्थः-अर्थस्य विषयस्य ग्राहकत्वेन सन्यन्भिनि सति । कस्मिन् ? अर्थज्ञाने, अर्य्यत इत्यों विषयस्तरमाज्ञानम्, पञ्चमीति योगविभागात्समासः, तस्मिन् ? किम् ? असतोऽषिधमानस्य स्थूलपकारस्य प्रतिभासो वेदनविषयत्वम् अयुक्तः समतो न भवति । तथा हि
अर्थकार्य यदि ज्ञानमधस्थ प्राहकं मतम् । असतः स्थूलरूपस्य प्रतिभासस्तदा कथम् ? ॥५०८।। असतो न हि विज्ञानमन्यवेहोपनायसे । जायते घेदसत्ता सतः कार्य हि लक्षणम् ।।५०९॥ चन्द्रद्वित्वादिकस्यैवमहेतुत्वादवेदने ।
ध्यावाभावतो न स्यादभ्रान्तपदमर्थवत् ॥५१०॥ -
--....-- - तादरम्यस्य । २ गुणप्रधानभावस्य । ३ गुगप्रधानभावनियमः । विशेषणादिषिपवम् । ५ "बहुपरविक्षिप्रामिःएलानुरुधवा सेप्तराणाम् । अर्थम"-सस्वार्थसू. 112014-मुश्पत १०. सर्वसंयो -प्रा०, २०, ५०, स. ८ जात्यन्तरत्वेन भा०,०प०,स। ५ "पवेष केशा दबीयसि देसे असंसका अपि धनसनिवेशावभासिनः परमाचोऽपि तथेति म विरोधः।"-20 मालिकाल१२२३। 10 -मानस्थूला-भा, 10 .स.!" पनापोदमत्रान्तमिति प्रत्यक्षलक्षणमतमभ्रान्तएवम् ।
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न्यायविनिश्चयविधरणे
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अहेतोरपि विनिश्चेत्तद्वित्वादेः, तदा कथम् । 'कारणस्यैर वेधत्तम्' इत्ययं नियमो भवेत ? ॥५११॥ अहंतावता यक्ति नियम बस्ति चेशम ।
केन धान्या (घ्यन्धा यितो हन्त जगद्विजयधीरयम्' ॥५१२॥ ____ अपि च, यासतोऽपि स्वलक्षणेषु स्थूलाकारस्य दर्शनम् ; शब्दस्य किन्न स्यात् स्थूलप्रतिभासो दृश्यले न शब्दप्रतिभास इति चेन : म; 'घटोऽयं पटोऽयम्' इत्यत्र शब्दप्रतिभासस्थापि दर्शनात् । विकल्पप्रतिभास एवायंग प्रत्यक्ष प्रतिभास इति चेन् ; न; अस्यैव भानसभागक्षस्नेन प्रज्ञा. करेण कथनात् । शम्मप्रतिभासबरवे कयमस्य प्रत्यारत्वं निर्विकल्पकत्वाभावादिति चेन ? नैन्वय
तत्रैव दोषस्तकिमत्र प्रश्नेन ? स्वफीपीनविवरणस्थाप्रतियुद्धव्यवहारस्यात् ।। १. नाय दोपः, शब्दप्रतिभासवत्वेऽपि पूर्वापरपगमर्शित्वाभावेनाविकल्पकत्यादिति चेत;
उच्यते-यदि तत्परामर्शित्वादेत्र विकल्पकल्न तर्हि प्रत्यक्षे सर्वत्र तदेव निराकर्त्तव्यम् , विकल्पप्रसङ्गमयस्य सत्प्रयुक्तत्वान् न शब्दप्रतिभासवरचम, सत्यधि तरिमस्तत्प्रससमयाभावात् । तदिदं व्याघभयपरिहाराय साधुल्यापादन ताथापतस्य । तस्परामर्शस्यापि शब्दप्रतिभासमूलवास
एव तत्र प्रतिषिध्यत इति चेत् ; न मानसप्रलाभेऽपि तत्प्रतिषेधप्रसङ्गात् । अस्त्येष वस्तुतस्त. १५ त्रापि सनिषेधः केवल सत्प्रतिभासिना विकल्पेन एकत्राध्यासात् आभिमानिकं तदपि तत्प्रतिभा
समुध्यत इति येत ; फस्तहि यस्तुत इन्द्रियज्ञानात्तस्य भेदः ? न अदिति चेन : नारत्येक तहिं "तदिति = "प्रत्यक्षचतुष्टयवादः साधीयान् ।।
अत्पुनरेतत्-आगमप्रसिद्ध तदभिप्रेत्य नीलमिदम्' इत्यादिविकल्पप्रादुर्भावान्यानुपपत्या चानुमिहं तदङ्गीकृत्य तवतुष्यबाद इति । तदास्तां तात्र प्रस्साषान्ते निरूपणात् । २० ततस्तस्येन्द्रियज्ञानाद् भेदं ब्रुयता वात्विक एवं "तत्र शब्दप्रतिभासो वक्तव्यः सतः "कथन
तत्परामर्शित्वं यतो विकल्पकत्वं न भवेत् ? सत्यपि तत्प्रतिभासे "नत्र तत्ययमाभावे साक्षुरादिमानेऽपि न भवेदिति "चत्र “सातिभासनिषेधनं प्रयासमात्रमेव की । अतस्तन्निरा. फरणादवगम्यते सति "तस्मिन्नवदयभावी "सत्परामर्श इति फथन्न विकल्पकं मानस
प्रत्यक्षम् १ तथा सति प्रत्यक्षान्तरस्यारि तत्त्वमनिवार्यम ! सथा हि-इन्द्रियादिप्रत्यानं २५ विकल्पकं प्रत्यक्षत्वान् मानसप्रत्यक्षवत् । शब्दप्रतिभासाभावाति येत् ; न ; तस्याप्यनु
सीगतः। २"इदमिस्यादि बज्ज्ञानमभ्यासात्पुरतः स्विती । साक्षत्करस्वतु प्रत्यक्ष मानसं मतम् ।"प्र. वालिकाल० २१२४३ । ३ नश्श्यं न चैव दो--०,१०,१०,१० पूर्वीपरपरामर्शस्त्रमेव । ५ अथागतस्य आ०,०,१०,.६ शब्दप्रतिभास एव । ७ न स प्रत्य-०,०,१०,स. ८ शब्दपतिमासनिषेधः । ९ शब्दप्रतिभासिना । मानसमक्षस्य । ११ मानसप्रत्यक्षम् । १२ इन्द्रियमनोयोगितसंवेदनप्रत्यक्षमतुष्टय । १३ "एलव सिधान्तप्रसिद्ध मान प्रत्यक्षम् ।"पायनिक-पृ.१।। सभा १.९१४ मानसस्पक्षे । १५ कथं सत्य-मा०, ०,१०, स. १६ शब्दप्रतिभासे। 10 मानसप्रत्यक्षे। १८ पूर्वापरपरामर्शाभावे । १५ नुरादिने । २० शनाप्रतिभाष । रासदप्रतिमासे । २९ पूर्वापरपरामर्शः ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव मानात्-इन्द्रियादिप्रत्यक्षं शब्दप्रतिभासवत्, तस्त्रात मानसाध्यदस्यदिति । स्वलक्षणेष्वसतः कथं शलदस्य सत्र प्रतिभासममिति चेत् ! स्थूलाकारवदिति शूमः । तदाह-अभिलापवत् । श्रमिलापः शब्दो विद्यतेऽस्मिन्निविभिलापवत् 'अर्थज्ञानम्' इति विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धः । तदपि इन्द्रियों 'विकल्पकम् इति भावः । ततो यथा नासतः स्वलक्षणे सवस्यावभासन तथा स्थूलाकारस्यापि न स्यात् , तदस्ति च । यस्मात्सपावमिति कधन तदात्मन्नो बहिरर्थस्य ५ परमार्थत्वम् ?
अपि च, विरलकेशाधिष्ठानस्यापि प्रनाकारस्यासस्य कुतोऽवसितम् ? सत्प्रतिभासात् इन्द्रियहरमा चेतन; जानिमार दानतियारम्भतिरोधात् । अन्यथा--
नीलादेषरंतुजातस्य यदेव प्रतिभासनम् । तदेव तदसत्त्वस्याप्यवभासनमापतेत् ॥५१३॥ तश्नाकारवत्प्राप्तं नीलागखिलमप्यसत् । अहिरर्थप्रधादाय दीयता सलिलाञ्जलिः ॥५१४|| असत्त्वोपाधिकत्वेन धन एषावभासते । मनीलादिवो नास्ति दोषोऽयमिति चेन्न तत् ।।५१५॥ घनसारस्य मिथ्यात्वं कथमेवं प्रकल्प्यताम ? नह्मसन्तमसम्वेन चुभ्यमानं मृघोचितम् ॥५१॥ वस्यापि धनयोधस्य सम्यग्ज्ञानस्वमेष चेस । निवर्तनीयमभ्रान्तपदसौवं हि किं भवेत् १ ॥५१७॥ चन्द्रद्वित्वावभासं चेज्ज्ञानं तदपि दुर्घटम् । असस्योपाधिकस्यैव तद्वित्वस्यापि भासनात् १५१८१ न तथा प्रतिपत्तिश्चेदनाकारेऽपि तत्समम् ।
तन्न सत्यतिमासेन तदसास्वावबोधनम् ||५१९॥
सवाह-'अर्थ' इत्यादि । अर्थस्य घनाकारस्व अर्यत इति ज्युस्पः , मान तस्मिन् असतः असस्वस्थ तदाकारसम्बन्धिन एवं प्रत्यासत्तेः प्रतिभासोऽन्यता व्यक्तम इत्यनुवर्तमानेन लिङ्गपरिणामेन उपहसनपरेण च सम्बन्धान 'अव्यक्तः' इति लभ्यते । निदर्शन. २५ माहे-'अभिलापयत्' इति । अभिलापशब्देन तजनितं ज्ञानं गृह्यते, अभिलाए इवामिलाप पदिति-अयमों यथामिलापज विज्ञान न स्वयमेव स्थविषयस्यामा गमयति तथा धनाकार. ज्ञानमपीति । भवतु तहि बाधकप्रत्ययात्तदभावावसाय इति चेत् । कस्तप्रत्ययः १. विरलकेशविषय प्रति चेत् । कीरशास्ते केशा यदधिष्ठान विरलचम् । स्थूलरूपर इति चेन्न
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प्रत्यक्त्यन् । २ विकल्पमिति सः। कुतोऽवस्थितस्तत्प्रतिभासी हीन्दिय--मा०, २०, ५०, स.। -अस्येत्या ७,०,५०,०। ५-माह अमिलापनदेन भाग, ०,०, ६यनत्यं विर-आ०,१०,५०, सः।
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१६६
[ ११९.
स्थूलाकारस्यास
5
तदधिप्रानविरलभावस्याप्यसद्रूपत्वेन तज्ज्ञानस्य मिथ्याज्ञानत्वाम् । नहि मिथ्याज्ञानमेत्र वनाकारप्रत्ययस्य बाधकम् अन्यत्रैयमदर्शनात् । व्यवहारतः सन्नेव विरलकेशसारस्यापि व्यवहारतः सरजाविशेषात् । व्यावहारकमप्रतिषिद्धमेव त्वं पारमार्थतत्सस्यस्यैव निषेधादिति चेत् कुतस्तनिषेधः ? विरल५. केशचनाकार निदर्शनादिति चेत्; तदाकारस्यापि परमार्थसत्त्वाभावात निदर्शनत्यम्, व्यव हारसत्वाभावावा ? परमार्थसरवाभावादिति चेस कुतस्तस्य तदभावः ? तत्प्रत्ययस्य स्खलनःदिति चेत् : तदपि कुतः ? बाधनाद्विरकेशप्रत्ययेनेति चेत् स्यादेतदेवं यदि तस्य परमार्थविषयत्वम् तreate तत्प्रत्यनीकविषयस्यै बाधोपपत्तेः । न चैवाद्, तस्य संवृतिसिद्धस्थूलfareकेशविपयत्वेन अनन्तरं प्रतिपादनात् । न च तादृशेन कचित् परमार्थसत्यस्यै धन१० सुपपन्नम् संवृतिसिद्धसिंहज्ञानेन माणवके मनुष्यज्ञानस्य वा प्रसङ्गात् । तन्न परमार्थसत्वायायाताकारस्य निदर्शनत्वम् । व्यवहारसत्वाभावातु निदर्शनस्वे* ततो व्यवहारसाभार एव खम्भादिस्थूलाकारस्य शक्यापादनो न परमार्थत्वाभावः ।
↑
न्यायविनिश्चयविवरणे
१
भवतु तर्हि परमार्थविषय एव स्थूलविरलकेशप्रत्ययोऽपीति चेत् कुतं एतस ? चाधकप्रत्य योपनिपातपरिपीडारहितत्वादिति चेत् सानो वृष्टिः पतिता, स्तम्भादिस्थूलाकारप्रत्ययस्थापि १५etrata परमार्थं सद्विपयत्वोपपत्तेः । तन्न स्थूलास्मानस्तत्केशाः । परमाण्वात्मान इति चेतः नः परमाणूनामप्रतिभासनास्, सर्व स्थूलाकारस्यैव वहिटोकना ।
स्यान्मवित्वमेव स्थूलत्वम् तच परमाणुपरस्परप्रत्यासतिरूपमेव नारखण्डाषविरूपं कचिदप्यवलोकनात् । अतः स्थूलप्रतिभास एव परमाणुप्रतिभासः, तत्कर्थ तदप्रतिभास इति ? तत्र एवं बौध्याभावप्रसङ्गात् । केशवनाकारप्रत्ययो "बाप्य इति चेत्; न; २० एवं तस्यापि केशपरस्परप्रत्यासत्तिरूपचनाकार गोथरत्वेन यथार्थत्वात् तादृशस्य च बाध्यश्वातुपपत्तेः । जयचिविषय एव धनाकारप्रत्ययः तेन वाध्यत्वमिति चेत्; न; केशप्रत्ययस्थापि स्वतः सत्प्रतिभासत्वापत्त्या परमाणुप्रतिभासनाभावस्यापरिहारात् । अपि च परमाणूनां care यदि तस्याप्रतिरोधः कथं तदात्मकं चैतत्यम्, विभिन्नेषु स्तम्भादिषु "सददर्शनासी
親
भेदप्रतिभासस्य तथा प्रतिरोध इति चेम्; न; भेदाव्यतिरेकात् परमाणून 'तस्प्रतिभासस्यापि तैया
२५ तथा च 'तत्प्रत्यासतिर्वैतत्यम् इति रिका वाचोयुक्तिः अनधिगतविषयत्वात् ॥ नीलादियानभासन्त एत्र परमाणव इति वेत; तथापि कथं विखताः ? प्रत्यासतिकृताद् भेदान
४० ।
स्यात्तदेव भा० ०, प०,
४ परमार्थविषयेव । ५ स्वाघ
- त्रैव दर्श-आ०, ब०, प०, स० । २ स्वच्मादिस्थूलाकार सरवम् २०, प०, स० ६ स्वाशन ला ३०, प०, स० । ७ वे सहाद-आ०, ब०, प०, स० । ८ निर्वाचन ९. शध्यभाव भ० च०, प०, स० । १० अध्यत इति आ०, ब०, प०, स० ११य इति चैन तरप्रति ० ० ० ० । तदर्शना-आ० ब०, प०, स० १ १३ प्रत्यास्था। १४ परमाणुप्रविगास्यापि । १५ प्रत्यासस्या १६ प्रि
१३
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१९]
प्रयमा प्रत्यक्षपस्तावा नवभासनादिति चेत् ; कोऽसौ 'सदनषभासः ? तुरुयोऽवभालप्रतिषेध इति चेत् ; म; तुच्छश्य स्थूलश्चेति व्यायामात । अभेवप्रतिभासस्तदनवभास इति चेत् ; न; अभेदस्याभावात् । असन्तेयासों प्रतिभासत इति चेत् ; न; वत्प्रसिभामस्थ विभ्रमप्रसङ्गान । को दोष इति चेन : कर्थ सतो नीलादिसिद्धिः तत्राविदिति चेम् ; फर्थ विभ्रयाविभ्रमरूपत्वमेकस्य ज्ञानस्य ? विरोधात् । अविरोधे षा स्थूलसूक्ष्मरूपत्वमप्येकस्य यरसुनस्ताविकमेवेति नैकान्तेन स्थूलाकारस्यापर- ५ मार्थसत्त्वम् ।
यत्पुनरस्मिन्नवसरे-'कथं भवद्भी रथ्यासु विप्रकीर्णः केशकलापः पलालपिण्डोऽन्यो का स्थूलः शक्यते व्यवस्थापयितुम् ? न हि इमेऽवयविनो भवद्भिरभ्यनुज्ञायन्ते, अन्यावयवित्वेन फ्लालादिध्यक्तीनां द्रव्यान्सरबारम्भात' इति सौगतस्य घोघे त्रिलोचनम्य वचनाम्-- "नैष दोषः पृथक्त्वाग्रहणनियन्धनस्य यनप्रत्ययपदस्थापि स्थूलप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वात्" १०
] इति; तदप्येतेन चिन्तितम् ; तय हिपिण्डे पलालबोधस्य विभ्रमो बांधनानि । पलाले सहि संस्थास्तु निर्याधस्वादविभ्रमः ।।५२० तयोरन्योन्यतो हे विभ्र मेतररूपयोः । भिन्नतस्पतादात्म्याद बोधस्यापि भिश भवेत् ।। ५२१॥ बोधेविसयमय र सजन्म युगएस्कथम् ? ज्ञानानां युगपज्जम यन्न योगैरभीप्सितम् ॥५२२॥ क्रमतश्चेत्तदुत्पत्ति दृश्यते युगपत्कथम् १ ॥
आशुभावनिमित्त विनमतादेशो मतः ।।५२३॥ विभ्रमत्य कुतो योगपये १ बाधनतो यदि । योधयोस्तर्हि तस्यास्तु निर्वाधस्यादविभ्रमः ।।५२४॥ अत्रापि पूर्वन्यायेन योधनस्य कल्पने । तस्यापि युगपजन्म कथं न्यायविदो भवेत् १ १५२५।। तजन्मक्रममावे व प्रसङ्गः पूर्यबद्भवम् । सचक्रकानवस्थानदुस्सहक्लेशमावत् ॥५२६।। एकरवं बेस्कवकिलस्वाद्विभ्रमेतरयोमिथः । भागानां भागिनश्चैवं तावात्म्यं किन्न मन्यते ? १५२७॥
--- -- -- भेशनमासमभेदः । ३ पलालोधस्य । ४ पलापिण्डोऽयम्' इति बोधगतवीः विश्रमे-- तररूपयोः । ५ रोचद्वितीय-E0, 4...स.। ६ युगपद्भानरूपः । पूर्वयन्या-भा०प०, ५० सा८-द्रवेत् भाग,०, १०, स.।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[१९ प्रतीतिरपि तादात्म्यविषथैवान लीक्रिकी । तन्तवो यत्पटीभूता इति लोकोऽवगच्छति ॥५२८॥ जात्यन्तरमपाकृत्य प्ररितं भागभागिनोः । अन्यथा कल्पयलोकमतिकामति केवलम् ॥५२९॥ भेदभेटायला मदत हताम् । एतदेव स्वयं देवरुक्तं सिद्धिविनिश्चये ५३० प्रत्यासच्या यवैक्यं स्वाभ्रान्तिप्रेत्यङ्गयोस्तथा । भागतद्वदभेदोऽपि ततस्तस्त्र द्वयात्मकम् ॥
[सिद्धिवि० परि० ६ ] इति । तन परमाणुनी विवेकानवभासने गोलादितयाप्यवभासनमुपपत्रम् उहयोपात् । अविद्यमामश्च परमाणुरूपकेशविरलाकारप्रतिभासः कथं धनाकारप्रतिभासस्य बाधक इत्यनिश्चितमेव तस्यातदर्थविस्यत्वम् , पतदेवाह-युक्तः' इति । युक्तिः बाधोपपतिः, युक्तस्यायुक्तः प्रतिभासः, 'अव्यक्ताः' इति पूर्वयदुपहासः । कस्य ? असतः असत्त्वस्य बनाकारसम्बन्धिन
इति । निदर्शनमाह-अभिलापयत् । अभिलापादित्रं अभिलपवदिति । यथा 'मारित १५ घनाफारस' इति वचनमानान तस्यावभासः तथा धोरपतेरपि तस्या एवाभावादिति भावः। तन्न फेशचनाकारप्रतिभासनिदर्शनेन सम्भादिस्थूलाकारतिभासस्थासदत्वनिश्चयः साधीयान् ।
गुस्युनरेतत्-असपर्थविषयः स्थूलप्रतिभासो मानसत्वात् मरीचिकातोयप्रतिभासवदिति तन्न; तस्येन्द्रियभावाभावानुविधायिनो मानसत्यायोगात् । अन्यस्यैव स्वलक्षणदर्शनस्य तानु
विधायित्व स्थूलप्रतिभासे सु सस्सान्निध्यात् सैदाभिमानिकगेव न आस्तवमिति चेत् ; न; तदन्य. २०.स्याप्रतिवेदनात नयनोन्मीलनानन्तरं झटिति स्थूलप्रतिभासस्यैव प्रत्यलोकनान् । अप्रतिविदि.
तस्यापि भावे ततोऽप्यन्यस्यैव तदनुविधायित्वं पुनरपि हतोऽप्यन्यस्वैवेति न यचिदवस्थितिभवेत् । एकस्वाध्यवसायालयप्रतिवेदन नाभावादित्ति घेत ; किं पुनस्लदध्यवसायस्तस्यै स्थूल प्रतिभासात्पुथरावं प्रतिरुणद्धि, स्वसंवेदनं पा! तथा वे ; सियो नः सिद्धान्तः 'स्थूलपतिभा.
सान्नापरमस्ति' इति । अथ न प्रतिरुणद्धि; कुतो न भेदप्रतिवेदनम्! विद्यत एव सत् , केवल २५ व्यवहार एव तदनुरूपो न भवतीति चेत् । प्रतिवेदन चेतत्रं समर्थ सोऽपि करमान्न भवति ?
एकस्वाध्यवसायेन प्रतिरोधादिति चेत् ; न ; सति समर्थे कारणे तदयोगात् । 'सामर्थ्यमेव सेन प्रतिरुध्यत इति चेत् ; म; प्रत्यक्षस्यैत्र 'तत्प्रसङ्गात् । तरतस्याव्यतिरेकात् । अत्र
स
-मकं रुद्वत--आ०,०, २०, स.। २ प्रत्यक्योस्त्रमा सा० । ३ "नात्मकम्"--सिद्धिविध। -रूप-मान, २०, ५०, 8० ५ आ. ०, प०,०। ६ असमर्थविषयस्थू-भा०,०, ५०,
दनुविधाविस्वम् । तथाभि-पा०,०1८ स्वलक्षणदर्शनस्य । १ - नामामा-आ०,१०,१०,804 १. स्वलक्षणदर्शनस्य । " 'वा'शब्दः समुत्रमार्थकः । १२ व्यवहारे । १३ भेदप्रतिवेदनमतं व्यवहारसामर्थ्य । १४ एकस्वारसायन । १५ प्रतिरोधप्रसाए । । सामर्यात् ।
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प्रथमः प्रत्यचप्रस्ताव
१६९
वोक्तम्- 'सिद्ध इत्यादि । असमर्थं चेत् न दवस सचेतनादावपि तदभावप्रसङ्गात् । न चैवमेकत्वाध्यवसायेन किञ्चित् । अथ सन्निहितत्वात्तदध्यवसाय एव लोकं व्यवहारयति न "भेदप्रतिवेदनं "तस्यासन्निहितत्वात, जयमेव च तदध्यवसायेन भेदव्यवहारस्य प्रतिरोध इति चेन त्यतिवेदनमपि यदा सन्निहितम् ; तदा तद्व्यवहारस्यापि प्रसङ्गात् । rera saहारप्रतिरोधात् मतोऽपि भेदप्रतिवेदनस्यानुपलक्षणं किन्स्वभावादेव इति न ५ स्थूलप्रतिभासस्याभिमानिकमिन्द्रियभावाभावानुविधायिश्वम् वस्तुत पक्ष तदुपपत्तेः ।
करवाध्य
अपि च, यदि प्रतिभासो मानस एव प्रतिसस्यानतो निवर्तेत "शक्षन्ते हि कल्पनाः प्रतिसङ्ख्यानवलेन निवर्तयितुम्" [ ] इति स्वयमभिधानात् । न चैषण, निरंशं विकल्पयतोऽपि स्थूळप्रतिमासानिवृत्तेः तस्मान्न 'सम्भादिस्थूलप्रतिभासो मानसः प्रतिसस्यानेनानिवर्त्तनात् गोरूपस्थूलप्रतिभासवत् । ननु च न गोरूपोऽपि स्थूलाकार: परमार्थ- १० समस्ति परमार्थतो रूपादिवर माणूनामेव भावात्, घटायषयविव्यवहारस्यापि तदिधानत्वात् । "यदि तर्हि area of तु रूपास्य एव तदा न 'घटस्य रूपादयः' इवि भवेत् । न हि भवति 'रूपादीनां रूपं "रूपादयः घटस्य घटः' इति पर्यालोचनं परस्याशक्य पकीर्चिरा
"रूपादिशक्तिभेदानामनाक्षेपेण वर्त्तते । तत्समानफलाहेतुव्यवच्छेदे वटश्रुतिः ॥ अतो न रूपं पट इत्वेकाधिकरणा श्रुतिः । erreat जातिसमुदायाभिधानयोः ॥ रूपादयो घटस्येति तत्सामान्योपसर्जनाः ।
१५
तिभेदाः ख्यायन्ते वाच्योऽन्योऽप्यनया दिशा ।।" [ श्र ०वा० १।१०२-१०४ ] इति । २०
अत्र प्रज्ञाकरस्य व्याख्यानम् - "रूपादीनां "प्रतिनियतशक्तिभेदमनाक्षिप्य तेषु समानोदकधारणशक्त्याक्षेपेण घटश्रुतिः प्रवर्त्तते ततो 'न रूपादयो घटः' इति समानाकिरणता । अत एव समुदायशक्तिविवक्षायाम् अयं समुदायशब्दः, जातिशब्दस्तु प्रत्येकमेकफलत्वे यथा वनं यथा वृक्ष इति । कथं तर्हि 'रूपादयो घटस्य' इति व्ययदेश: ? उदाहरणसाधारणरूपादिप्रत्ययजननसमर्थाः प्रत्येकमित्यर्थः । अथ यथा २५
भेद
१ सिद्ध इत्यन्यासम-आर ४०, प०, स० 'सिद्धो न सिद्धान्तः' इत्यादि । प्रतिवेदनं भेदव्यपहारे अर्थ तथा ३ व्यवहारामाचात् भेदनप्रति भा० ० ० ० ५ तस्यानीतथा-० ० ० तस्यानीला स०९ मेदप्रतिवेदनम्। स्थूलप्रतिभासः । ८. "शुभायानामादिशिवंशभूता प्रा प्रतिसस्थानम्" - तरबस० पं० १० ५४७ । ९ तुलना--" न चैतद् व्यवस्वयाश्रमं प्रत्यच्तं मानसं मतम् । प्रतिसङ्ख्या निरोध्यावादर्थमनिप्यवेक्षणात् ।”-सिद्धिवि० यक्षपरि० । १० "दि सहि नायवी रसाक्ष्य एवं तदा न रूपादकः इति भवेत् । न हि भवति रूपादीनां रूपम्, नापि मरस्य वा पद इति पर्यालोचनं परस्यापवादम० वार्तिकाल० २०० १३ 'रूपादयः' इति पमधिकं भाति । १२ प्रतिनियतशकिरे यवमना-म० प०, प०, २०१३ उकापूरण ० है .
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७०
न्यायचिनियषिवरो
[१९ "वृक्षाणां वनं ग्रंक्षा धनम्' इति तथा 'घटो रूपादीनां रूपादयो घटः' इति कमान भवति ? भवत्पेष यदि शाखान्तरसंस्कारो न भवति | लोकस्तु प्राधशस्तसंस्कारानु. सारी, ततो न भवति । यस्तु सम्यगक्योधयुक्तः तस्य भवत्येव से प्रत्ययः 'रूपादय एव
केधित घटः कार्यविशेषसमर्थाः, उदकाचाहरणं च कार्यविशेषः, सनिवेशविशेषेण वा ५ व्ययस्थिताः, यतः सनिवेशविशेषादुदकधारणविशेषः । 'रूयं घटः' इति तुं न भवति
सामानाधिकरण्यम् अवयवावयविभेदेन परस्परव्याप्त्यभावात् ।" [वार्तिकाल ०] इति । तवः कल्पितत्वात् योरूपस्य मानस एव तत्प्रतिभास इनि कथग्न साध्यबैकल्यमुदाहरणस्येति चेत् १ फयमेवमिन्द्रियज्ञानस्य प्रतिसङ्ख्यानबलादनिवार्यत्वम् (य॑त्वे ) भर्वता तत्र गोदर्शनं निदर्शनमुक्तम् ? सामग्रीसाकल्ये अनियों गोबुद्धिः अश्यं विकल्पचतोऽपि गोदर्शनादिति १० तस्यापि मानसत्वे "प्रतिसङ्ख्यान निवर्त्यत्वान् सदनियत्वं प्रति साध्यविकलवनोदाहरण
त्यायोगात् । तदया मिन्द्रियज्ञानविषयत्वं गोरूपस्य प्रतिपद्यमान एवं तस्य विकल्पितत्वमप्याचष्ट इति कथमनन्गचो धर्मकीर्तिः ? भारवहनाचेकप्रयोजनसाधनसाधारणरूपादिशक्तिरूपत्वात् अकस्पित एव गवार्थः । यथाई-"तेषु समानोदकधारणशक्त्याचेपेन घटश्रुति [• बार्तिकाल.
इति चेत्र ; न ; शकेर प्रत्यक्षत्वेन दर्शनविषयत्वानुपपत्तेः । प्रत्यक्षल्येऽपि यधेका चाव्यतिरिक्ता १५ च रूपादिभ्यस्तच्छविरभ्यनुज्ञायते; सिद्धस्तईि "परमार्थत एव स्पो गौरक्यनीति "कथमुक्तम्
"अवयया एव नावयवी विद्यते" [प्र. वार्तिकाल० १३९९ ] इति ? व्यतिरिक्ताऽबरव्यभिप्रायेण समनमिति चेत्, न; अगसिरेकेऽपि अवयंनित्यायोगात्। कथाश्चिव्यतिरेके योग इसि घेता न स्यावाविमतानुप्रवेशप्रसङ्गात् । तन्नका शक्तिः।।
प्रतिरूपादिव्यक्ति भिन्नैवेति चेन्; कथमेवम् एकात्रप्रत्ययविषयत्वमेकस्यैव ?"अतरफल२० हेतुव्यवच्छेदस्य 'तासु भावादिति चेत् ; तव्यवच्छेदस्तहि गोऽक्यवी ? सत्यम् ; यदाह -
_ "तत्समानफलाहेतुव्यवच्छेदे" घटश्रुतिः" इति । इति चेत् ; न तहिं सस्य दर्शनविषयत्वं नीरूपत्वेनाप्रतिबन्धात्", सत्कथमश्वं विकल्पयतो गोदर्शनादिति निदर्शनोपन्यासः ! तत्यवच्छेदस्य च गोऽक्यवित्वे 'वयवच्छेदो गौः' इति प्रत्ययेन भवितव्यं न 'रूपादयो गौः'
इति । ततो यदुकम्-'यस्तु सम्यगवरोधयुक्तस्तस्य' इत्यादि 'घटः' इति पर्यन्तम् ; २५ तसभ्यगषोधविमृम्भितभेष मकरस्योत्पश्यामः । तव्ययम्छेदस्य शक्तिरूपेभ्यो रूपादिभ्योऽव्य
वन-मा०,५०,०,०६२ सम्प्रत्यया-मा०,०,१०,स.प्र.कातिकाल । ३ यासभिवेमा०प०, स. चवस्तरसधिवे-प। ४ भवतात्र भा०, २०, ५०, स। ५-वय गोधुद्धिमएवं विकल्पयती गोवर्शनादिति तस्यारि समामधे प्रतिसंख्यामनिवपत्वं सदनि-आर, ०, स.। ६ गोवर्शनस्थापि। ५ प्रतिसंगवानमिवयस्क प्रतिपः। एतस्य मा.., १०, सः । ९ या आ०, ५०, १०, स० । 1. परमार्थ एष प्रा., म., ५०, ११ वर्ष युवा०,२०, पस. १२ तद्योग्य -6,०, परस... भवयक्त्वियोगः । ।३ मतस्वधर्यकारणथ्यावृत्तेः । १५ मिनशक्षित । १५-दे घट इति चेन ,००
६ हुशास्वभावत्वेन सम्बयामाबाद । १७-महेदा यौ-मा० ब०, ५०11 प्रजावरस्यो-शा०।११ अतफलम्यवच्छेदस्य।
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प्रथमः प्रत्यक्षरस्ता
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तिरेकात् त एव गौरित्यपि प्रत्ययो न दुष्यतीति चेत् ; न ; तस्य प्रविशक्त्यभिन्नस्य वेदव्यतिरेके तास्विकस्यैवाक्यविनः सिद्धिप्रसङ्गात् । तुच्छस्थ भावल्छेदस्य सत्साधारणस्य कल्पने 'तथ्यक्यछेदस्तहि' इत्यादेः 'तत्कथम्' इत्यादिपर्यन्तस्य प्रसङ्गस्य पुनः पुनरनुबन्धादामिचक्रमापत।
___ स्यान्मतम्-न तपच्छेवस्यैकस्यादेकरवप्रत्ययविषयल्यम् , अपि तु सनिवेशविशे-५ पात् । यदाह-सन्निवेशविशेपेण दा व्यवस्थिताः"० वार्विकाल० १११००-२०२] इति; वत्र, अत्रापि समानत्वात्तत्प्रसङ्गस्य । तथा हि--
रूपादिभ्यो विभिन्नश्चेत्सग्निवेश: स एवं गौः । न तु रूपादयस्तस्मात्ते' गौरिति मतिः कथम् १ ॥५११॥ अविविधः स वेत्तेभ्यो' याखण्ड कम्प्यते । धास्तयोऽवयवी सियोत् स्यावादिभिरभिष्टुतः १६५३२॥ तेभ्योदविधिक्तः सः प्रतिरूपादि भेदवाम् । सद्वत्तस्यापि नावात्वान्मतिरेकगवे कथम् ॥५३३॥ सनिवेशविशेषस्य पुनरन्यस्य कल्पने । पूर्व एवं प्रसङ्ग स्यादन्यबाभयप्रभा !!५३४!! सत्र शक्तिव्यवच्छेदः सनिवेशेषु कश्चन 1
गवार्थस्सास्विको यस्य दर्शनं निर्विकल्पफम् ।।५३५।।
स्थान्मतम्-अतकलहेतुव्यवच्छेदः सन्निवेशविशेषो का न कश्चिदेकरूपो गौरस्ति, शफीनामेव बलीनां तस्यात्, एकत्वव्ययहारस्तु तत्रैकार्थक्रियानिबन्धन इति; तमसरसमान' इत्यादिकस्यै 'सन्निवेशविशेषेण' इत्याधिकस्य पाचनप्रसङ्गात् । एकार्थक्रियानिबन्धन एकत्त्व. २० भ्यवहारो २ तावदर्शनसमकाल: ; सत: पूर्व सक्रियाया अभावा तव्यवहारस्यासम्भयात् । दर्शनमेव दक्रियेवि चेत् ; न; सत्कार्यतम्यवाहारस्य "तत्समकालत्यायोग्मत् । दर्शनोतरकालस्तब्यवहार इति चेत् ; दर्शने तहि गोव्यपदेशमासः परमामयो विरलास्मान एवं प्रत्यवभासेरन् । एषमिति चेत् ; कुत एतत्प्रतिपक्तव्यं न चेकोशपानं न चेद्वा बलवरपालशासनम् । अनुभवबलं तु न साइनगुत्पश्यामो यतस्तान्प्रतिपोमछि । ततः कस्यचिदध्यययक्त्वेिनानवस्था- २५ ना कथं तदुपसर्जनरूपादिशतिभेदाः प्रतिपायरन वादे रूपादयः इति । सन्न केवलम् 'अश्वं विकल्पयतः' इत्यादिकमेव, अपि तु 'रूपादयो घटस्य' इत्यादिकमपि दुर्भाषितमेध । ततो गोदर्शनं निर्विकल्पकमवयम्युपसर्जनञ्च रूपादिशक्तिविशेषज्यपदेशं विधातुमिच्छता ---- -
व्य दस्य । १ रूपादया । ३ चितेभ्यः भा०, प., पर, रूपादिभ्यः । ५ सधिवेशः। ६-पनम् मा०,१०,५०,सका गोत्वात् । ८ धर्मकोर्युकस्य । ९ प्रक्षाकरोजम १०दर्शचसमकालवारोगात् । 11-राण-आ०० ०,०। १२- गोचर उपायः भा०,२०,५०, स.1
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न्यायविभिचयविवरणे
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तात्विक एव गवादिश्वयवो वक्तव्यः । तत् तस्य कुतो नावयष विवेकेनोपलम्भ इति चेत् ? ; विवेकस्यापि भावात् कथं पुनः लूक्ष्माविवेकित्वं स्थूलस्य विरोधादिति वेत् ? कथं शक्तिसामान्यविवेकित्वं शक्तिविशेषस्य विधेयाविशेषात ? शक्तिविशेष एव रूपादीनां न तत्सामान्यमिति चेत् न 'तेषु समान' इत्यादिवचनविरोधात् । कल्पितं तेषु कल्पित स्थान५ तत्सामान्यमिति चेत्; न; अतो गौरिति या घट इसि वा प्रत्ययस्यायोगात्, करत्वात्, अन्यथा नित्यादिप्रद्वेषस्य निर्निबन्धनत्वापतेः । कल्पितादपि तम्मात्कथं द्विशेविको विरोधपरिहाराभावात् ? विवेक एवास्त्विति वेत्; न; 'मवादे रूपादयः' इषि व्यपदेशाभावप्रसङ्गात् सम्बन्धाभावात् । सम्बन्यस्ता व्यपदेश इति चेत्; 'रूपreat act' इत्यादेर्विशेधात् । कल्पितद्विशेष इति चेत्; न; ततोsपि 'रूपमिति रस १० इति च प्रत्ययायोगात् कल्पितस्यानर्थकरत्वात् ।
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अन्यथा नित्यविद्वेषो निन्नतां व्रजेत् । तस्यापि शक्तिसङ्कल्पादर्धकारित्वसम्भवात् ॥ ५३६॥ forat saffesसौ शक्तिसामान्यतो यदि । कल्पिताकल्पितात्मत्वं विरोधाभ्यते कथम् विविक्त एव तस्मात्तस्येति कथमुख्यताम् ? : सम्बन्धेन विना सोऽपि कल्पितो यदि कथ्यते ॥ ५३८ ॥ तस्मादभिन्नं तदयं यदि । पिताकल्पितात्मत्वं विरुद्धं पुनरापयेत् ||५३९ ॥ ततोऽपि सद्विवेकश्चेत्सम्बन्धाभावतः कथम् । स तस्येति वचवृत्तिः सौगतस्योपपद्यते । ॥ ५४० ॥ पुनः सम्बन्धक्लृप्तौ तु आक्प्रसङ्गानुवर्त्तनात् । treस्थाear व्योमताव्यापिनी भवेत् ॥५४१॥ सततच्छतिसामान्यं तद्विशेष इति द्वयम् । arrest faserdtवयन्तव्यमार्तम् ॥ ५४२॥
भवतु तात्विकमेव द्वियम् वसु परस्परं भिन्नमेवेति चेत्; न; दत्तोत्तरत्वात् । सम्बन्धाभावेन 'गाये सावयः' इति व्यपदेशायोगात् कल्पिते च सम्बन्धेऽश्वानदोषास । ghours afteयोरेकसमयत्वाभावप्रसङ्गादिति । परस्पर मेवेऽप्येकेन रूपादिना सादायाव्यपदेश इति चेत् एवमपि न काचित् क्षतिः, स्थूलेतराकारयोरप्येवमन्योन्यभेदे सत्य odore तादात्म्योपपत्तेरवयविनो जैनाभिमतस्य सुव्यवस्थानात् । ततस्तान्रियकरवाद्
;
१- देकोपला०, ४०, ५०, स० २० मान्यविवे- ना० २०, प०, स० । ३ प्रज्ञाकरगुवचन ४ शक्तिसामान्यात् । ५ शक्तिविशेषः । ६ परमार्थसत् । परस्परमभि- ना० २०, प०, स० १
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[R]
प्रथमः प्रत्यक्षस्तानः
गोऽवयविनो, नः सत्प्रतिभासस्य मानसत्वम्, अंतोन साध्यचैकल्यमुदाहरणस्यः । नामि साधत वैकल्यस्यतिभा प्रतिसयान निवर्त्यत्वं यत्तिः परस्याविवादास्य कविदोष: 1नापि हेतो: : असिद्धत्वाद्दोष एवेति चेत प्रतिसङ्ख्यानेनानि स्वस्य घटादिन स्थूलप्रतिभासे धर्मिणि समर्थितत्वात् । अनैकान्तिकत्वादिति चेत विपक्षे सर्पादिविषयमानसप्रतिभासे" तदभावात् तत्रः प्रति सङ्ख्यानान्निवृत्तेरेव दर्शनातू । विरुत्वादिति श् निश्चित विपशव्यावृत्तिकस्यचित्वायोगादस्मादसिद्धादिसकलावयविकत्वादवयमिद साधनम् - घटादिस्थूलप्रतिभासो न मानसः प्रतिसङ्ख्यानेनानिवायैवात् गोहपस्थूलप्रतिभास वदिति । एतदेवाह 'अर्थ' इत्यादि) सेन घटादिवयवी तस्य स्वावयवेषु विद्यमानत्वात् तस्य प्रतिमासोनिशोऽयम् अर्थमा स्वविषयं जानातीति अर्थज्ञाः 'विच्येक रूपत्वात् साध्यनिर्देशोऽयम् । न इति इ' इति च प्रतिषेधाभ्यामस्यैवार्थस्याभिधानात् । अतेन: १०: कल्पितविषयत्वप्रतिषेधाद अमानसत्वं तत्प्रविभासस्याभिहितम् । हेतुमाह--योजनं प्रतिसद ख्यानकृतं समाधानंः युक्तं तदभावादः अयुक्तः इति प्रसा (प्रतिस ) उल्याने नासमाधेयत्वादिति धान्तमाद- अभिलापत्रम् । अभिलक्ष्यते (परेणाभ्युपगम्य कप्यत इति अभिलापो सोप्रति भासः सः इव तदिति
saare
अपि यो मानसप्रतिभासो नासौ सन्निहितार्थो यथा अतीतादिप्रतिभासः सन्निहि १५. तार्थचार्य घटादिस्थूलप्रतिभासः वनानसः । न हि 'अयं घटः' इत्यसन्निहितेऽर्थे भवति । इर्द च नः प्रत्यक्षम् सन्निहितार्थनिश्चयलक्षगखीनः । ननु को पुनरसौ स्थूलो नाम यस्य विपयत्वेन समिधानम् व एवेति चेत् न हि शतस्तातीतिः स्यात् भवति च परिपिहितलोचनस्य स्पृशतोऽपि तदवलोकनात् । स्पर्श एवेति चेत् अस्पृशतोऽयुम्सीलितलोचनस्य तंदुप
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: । "रूपायधिकरणमन्यव द्रव्यमेत्र से इति चेतून भयं पदः इत्यत्र वर्णादेर- २० म्यस्याप्रतिवेदना अंत एवोक्तम् फैल
नायं घटः इति ज्ञाने वर्ण प्रत्यवमासनात्
तीन वटापिप्रतिमामा नापि स्पार्शनः अपि तु तदुमचा मानस व तस्मादसन्निहितार्थ एवायमिति चेत् निः रूपावेरन्योन्याविवेक लक्षणस्यार्थस्यः सत्रिधान एवं विभासभावातून कथमन्योन्याविवेको विशेषादिति चेत् परस्परपरिहारस्यैव विरोधत्वात् ॥ २५ तस्य चैकान्तिकस्याभावात् अविवेकस्यापि प्रतिमासात् । नः चः प्रतिभासान्यद्विशेषेऽपि निष रथनमस्ति के कुतस्तत्प्रतिभासइतिः चेमू दर्शनादेवेति भूमी वैद्यदि चक्षुषम् स्पर्शास्वे नाग्रहणात् कथः स्थविषयस्य तदविवेक प्रत्येति तदवियेनान्तरीयकत्वात् ?
मोहभस्थूलप्रतिभासे । २-ज्ञानिवर्तकचं ० ० ० ० - से सति त ० ० ११.५६ टा-आ०, ब०, इति विश्वति । विज्ये वैयं ६-०, ३०,१०,००० ७ नेति च प्रति
० ० ० स कुतः ॥ ९. स्थूलप्रतीतिः । १०. स्थूलपलब्धेः १. ११.पाधिक-म०, ३१,१०,१०। १२ स्पूलः । ६३-विभावा स०)
१४ दर्शनम् १५-०११
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- मस्य, आ०, १०, ५०, ४०: ६ति 'अ'
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न्यायविनिश्चयविवरणे
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पदेन मार्शन तयित्यपि प्रयुक्तम् । तेनापि रूपादिकमजानता स्वत्राले तदविवेकस्य दुनित्वा, म च रूपाविसर्वस्वनिपयं दर्दानान्तरमस्ति गतविवेकमुपपर्शयेदिति येत् ; ; ; अविवेमवत् विवेकस्याप्यग्रहणप्रसङ्गात् । तथा हि-म चाक्षुपमेव ज्ञानं स्पर्शादिकमप्रतियत् स्वविषयस्य
तद्विवेकं प्रत्येतुमर्हति, वद्विवेकप्रतिपत्तेरपि तत्प्रतीसियुरस्सरत्वात् । एतेन स्पार्शनं सदित्यपि प्रत्यु५ कम्; तेनापि रूपादिकमप्रतियतः स्वविषये तद्विवेकस्य दुरवबोधत्वात् , सकलरूपादिविषयस्य च दर्शनान्तरस्याभायातमा ततोऽपि तदनगम इति कथं दानधलात परस्परं विविक्तं रूपादिस्खलक्षणं शामवस्थापयितुम् ?
___ स्यान्मतम्-रूपादिदर्शनस्य स्पर्शाविषयत्वेऽपि तद्विवेकस्य स्वविषयादनन्तरत्वात् स्वविषय प्रतियत्तमपि नियमेन प्रत्येति अन्यथा अनर्थान्तरत्यायोगादिति । तदयमस्म्यक१० मानन्दहेसुरसूतस्पन्दः । सद्विवेकवत् तदविरेकस्याप्येवमवगमोपपत्तेः, कश्चित्स्पायविधेकस्य
हपादेर्शनविषयादनान्तरत्याविशेषात् अप्रतिपत्रादपि तद्विषयस्याविवेक दधिरुपस्योष्ट्रस्पर्शादेरप्यविवेकः स्यात् अप्रतिपनत्वाविशेषात् , उतच वधिकरभोरेकाययवित्वात् दधनि प्रवृत्तिमोदनायामष्ट्रेऽपि प्रवृत्तिः स्यादिति चेत् ; न; तद्विनेकस्याप्येवमव्यवस्थितिप्रसङ्गात् , रूपवल
श्रणस्य हि सर्वस्माद्विवके स्वतोऽपि विवेक इति नीरूपमेव तदिति तोदनायामुष्ट्रवद् दधन्यपि १५ न प्रवृत्तिः स्थान नीरूपस्य ध्योमवदशपय॑स्वादनत्वात् । शथा च कस्यचिद्वयनम् :-"आकाशमाखादयतः कुतस्तु कालग्रहः ?' [ ] इति ।
सर्वस्मायतिरेकिरवे तविशेषनिराकृतेः । स्वतोऽपि "यतिरेकित्तानिःस्वभाव भयेइधि ।।५४३|| सथा च दधि स्वादेति चोदितोऽपीह मानवः ।
दधन्यपि च नीरूपे वर्शता कपमुष्ट्रवत् ॥५४४॥
स्वरूपस्य प्रतिपन्नत्वात् कथं तत एव तस्य व्यतिरेक इति थेस् ? न; प्रतिपन्नत्वादध्यतिरेके परतोऽपि न स्यात् तस्यापि कुतचित्प्रतिपसिसम्भवात् , अन्यथा सत्त्वानुपपतेः "उपलम्भः "सत्येव" [प्र. वालिकाल० २।५४ ] इति 'चनात् । अध्यतिरेके प्रतिपति
रन्यतिरेकसाधनी; सा व स्वरूप एव न परत्र, तत्र व्यतिरेकप्रतिपसेरेव भावादिति चेत् ; २५: न लाई दधिस्पस्यापि करमादन्यतिरेको व्यतिरेकप्रतिपत्तरेव सन्न भावात् । सत्यपि "सान
व्यतिरेकसाधनीति चेत् ; न; अन्यतिरेकस्यापि तत्प्रतिपत्रसिद्धिप्रसङ्गात् । निधित्वात् सतस्तसिद्धिरिति चेत् ; न; व्यतिरेकेऽपि तुल्यत्वात् , तत्प्रतिपत्तेरपि निर्याधस्वाविशेषात् । ने हि लौकिकः परीक्षको वा करमविविक्तदधिरूपनिरूपणोपनिबद्धां बुद्धि बाधोपरामवधुच्यते ।
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दर्शनम् । २ स्पर्शाविविवेकम् । ३ ताहिकविषयस्य भर०, वा,प,स। स्पशादिविवेकस्म । रूपादः । ५ स्पादिषिचेकमपि । ६-३का दधि-आर, ५० वैश्वोदधि-01-स्य सर्व-आ०,१०, १०, स.। -क्यबाधन भा०, 4०, स. २-रेकले ०५०,०, स. १० व्यतिरेकवा-मा-, प. प., स.. सत्गति द-मा०,५०,०,०। १३ "सत्तोषलम्म एवेति भाषानो पारमार्थिक" -प्र० कार्विकास. २०५४१३व्यतितकप्रतिपत्तिः। शन्नतिरेकप्रतिपरीः ।
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मधमा प्रत्यक्षप्रस्ताव स्थानमाप्तम्-येनातिशयेन दधिव्यपदेशनिवन्धनेन करभादधिरूपं व्यतिरिच्यते संस्य व्यतिरेकविधिस्वभावत्ने करभादिव स्पर्शादेरपि दधिगतात्तदूपस्य व्यतिरेक एव स्थात् । अस्व. भावरये करभादप्यन्यतिरेकापत्तिः, अतो नः वर्णवासात्मकत्वनीमयात्मकत्वं दधिद्रव्यस्यति; सदपि स्वरधाचैव परशुभारनिशात परस्य; तय हि-स्वादेरपि येनातिशयेन व्यतिरिच्यते तथं तद्व्यपदेशनिबन्धनेन तस्यापि त्र्यतिरेकविधिस्वभावत्वाविशेशत दधिरूपस्य स्पर्शादेखि ५ स्त्ररूपादपि व्यतिरेक एव श्रीन, तस्यातत्स्वभावत्ये स्पर्शदेरप्यव्यतिरकापत्तेः, अतरे न वर्णाद्या. स्मकत्वमपि दधिस्वलक्षणस्य, अपि तु नीरूपत्वमेव । तदुक्तमुम्वेकेर्न (?).
"न भेदो वस्तुनो रूपं सदभावप्रसङ्गतः ॥" [ ] इति ।
तस्य तद्विवेकविधिस्वभाषत्वं स्पर्शादिविषयमेव न स्वरूपविषयमिति चेन् ; कुत एतत् ? एवमनुभवादिति चेत् १ किं भयान् अनुभवव्यापारमपि जानाति ? तथा घेस् ; सुस्थितं तर्हि १० दधिरूपस्य ततस्पर्शावरन्यतिरेकित्वम, व्यतिरेकित्वञ्च करभात् ,अनुभवव्यापारस्यैवमेव प्रतीतेः । एकसामग्र्यधीनतया कल्पित एव तस्य सचिव्यतिरेका, तत्कथं तस्यानुभयविषयत्वं कस्पितस्य तदयोगादिति चेत् ? न ; नीलादिरूपल्यापि अविद्याविलासिनीविलासोपनीतशरीरत्वेन दर्शनविषय. स्वाभावारत्तेः । तथा च वेदमस्तकवचनम्... "नेह नानास्ति किचन" [हदा० ४।४।१९] इति "इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते"[ऋक्०४५७१३३,यहदा०२११११५] इति प । नीलादेरपरं १५ दर्शनवे म प्रतीयत इति मे ; न ; "तदन्यविरेकशून्यस्यापि तद्वेवस्याप्रतीतेः । लीलादिमात्रं प्रतीयन एथेति चेत् । न ; अन्येनापि 'सन्मानं प्रतीयते एव' इति कत्तु (वक्तु) शक्यत्वात् ।
मनु सन्मात्रे वस्तुसति तव्यतिरिक्त दर्शनमेव नास्ति द्वैतवादापत्तेः, तत्कथं "तस्य सद्वेद्यत्वमिति येत् ; न; नीलादिमानेऽपि परमार्थसति" तदभावात् । नीलादिसुखादिशरीरव्यतिरे:किणः वद्राहकस्य "अलङ्कारकारेणानहीकारात् । मौलादिसुखादिशरीरयोश्च माहात्वेन ग्राहकल्यान- २० भ्युपगमात् । नीलादिएकमेव तदर्शनमिति रेत्। सन्माप्ररूपमेव सदर्शनमपि किन्न स्यात् १ सन्मात्रस्य सवियादत्वातदनन्तरत्वे दर्शनस्यापि सविवादत्यमिति न तस्य तत्र प्रामाण्यम् , निर्विवादस्यैव प्रामाण्यादिति येत् ; न; नीलादिदर्शनस्यापि तदभावप्रसङ्गात् । अत्यन्तासाधारणस्य नीलादेरपि विवादाधिष्ठानत्वेन तदनन्तरत्वे तदर्शनस्यापि तदधिष्ठानत्वाविशेषात् । प्रदर्शनविवादस्य कुतचिदुपपत्तिबलानिराकरणमिति चेत् ; म; सम्मानदर्शनविवादस्थापि तत एव निरा-२० करणप्रसङ्गात् । तदुपपसिपलस्य सन्मादनन्तरत्वे तद्वद्विवादविषयत्वात् झुतस्ततस्तदर्शनविवानिवृत्तिः विवादास्पदादेव सदयोगात् ? अन्यथा धर्शनादेव वादशात् तद्विवानिवृत्तः "वद्व
- शतिशयस्य । २ पवितपस्य । ३न्यतिरेकविधानसभाये । ४ अतिशयस्यापि । ५ प्राप्त स्यात. रस्वमा-०, २०, ५०, ०६१६ मण्डनमितमसिद्धी (१५) उपलभ्यते। -वस्ता , १०,प.स. ८ दधिरूपस्य १९ उपनिषवचनम् । १० स्पर्शाद्यभेदान्यस्य । " मात्रस्य ..२ परमासति. भा०,०,40,801 ३ दर्शनाभावात् ।।४रन्यतिरेकेश त-आ-,२००, स० १५ प्रशाकरसुप्तैन । १६-१. विवा-मा०, २०, ५०, स०१७ सदन्ति-आग, 40, प. ८ सम्मानयत् । १९ विवादास्दात् । २० वषयविलोपकल्पन ।
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Meroin
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न्यायविनिश्चयविवरले
छोएकल्पनवैफल्यप्रसङ्गात् । बदलविवादस्थापि अभ्यस्मादुपपत्तिबलानिवर्तनमिति चेत् ; न; तत्रापि 'प्राण्यप्रसशामतिवृत्तेस्नषस्थानोपस्थानात् । अर्थान्तरस्थे तु दैतदोषोपनिपातान् न सम्मा.
माहास्य दर्शनविषयस्वमिति चेत् ; ; ; नीलादिस्खलक्षणविषयदर्शनाधिष्ठानविवादब्यावर्त्तनपरस्यापि उपयत्तिबलस्य तत्वलक्षणादनन्तरत्वे तद्विवादविषयत्वेन तदर्शनविवादल्यावर्तकत्वा५ भावस्थ विसदस्याप्यन्योपपत्तिबलाव्यावर्तने अवस्थाकोषस्य धाविशेषान् । अर्थान्तरनेऽपि
यदि सस्थासाधारणरूपत्वं तदवस्थ एवं वैस्य तदर्शनविवादनिवर्तकत्याभावः तस्यापि तत्स्वलक्षणः धद्विवादभूमित्कान् । तद्विवादस्याप्यन्यस्मादसाधारणादेवोपपसिबलान्निवृत्तिरिति छन् न, द्विती. यस्य अनवस्थानदौःस्थ्यस्य प्रसङ्गात् । भवतुः साधारणमेव 'दस्य रूपमिति चेत् । ३ ; वस्तुसतो
भवन्सतेनाऽभावात् । अयस्तुसदेव सत् कल्पितत्वादिति चेत् । न तशादेव तलाव सन्मात्र१० दर्शनविवादस्यापि निवृत्तिप्रसङ्गात् । न तत्र ताशमपि तत्सम्भवति अद्वैतवादपरिपोजनादिति
चेत्, न तस्य कल्पितत्वेन नीरूपस्य अद्वैतवादप्रत्यनीकरवायोगात् । भीरूपात कथं तद्विवादनिवर्तनमिति चेत् १ कथं तत एव स्खलक्षणदर्शनविषादनिवर्तनमिति समानः पर्यनुयोगः १ सन्मात्रे वस्तुसप्ति कल्पनमपि कुतस्तदलत्य ? तत एव सन्मात्रादिसि घेत ; न ; तस्य स्वयं
ज्योतीरूपस्य नित्यशवत्वेनाभ्यनुलानात् । न च कल्पनायां न "तच्छुद्धिः, "तस्या मिस्याप्रति १५ भासत्वेनाशुद्धित्वादिति चेत् ; ननु "असाधारणलक्षणवस्तुवादिगोऽपि कुतस्तदलस्य कल्पनम् ?
झानस्वलक्षणादेव कुतश्चिदिति चेत् ; न; तस्य स्वसंवेदनारमनः शुद्धस्यैवाभ्युपगमात् , तत्र च कल्पनारूपस्याशुद्धिदोषस्यानुपपतेः । नैकान्ततः सुद्धमेवं संवेदनम् स्वरूपक्षया शुद्धस्थापि. पायाकारापेक्षया तद्विपर्ययभायात, अन्यथा "अमिलापसंसर्ग न्यायवि० पृ० १३ ]
इत्यानिर्विषयत्वप्रसङ्गादिति चेन ; म; सत्तातत्वेऽपि तुल्यबाद, तस्वापि पादप्रयेणैव परि२० शुद्धिभावात् "त्रिपादस्थामृतं दिदि" [गजु पुरुष, ३११३. छान्दो० ३।१२४६] इत्याम्नायात् । पादतः पुनरपरिशुद्धिरेष, तस्य विश्वभूतस्वाभिधानात् । तद्भूतानाच भेदप्रतिभासरूपलेनाऽशुद्धिरूपत्वे तदात्मनि तत्पादेऽप्यशुद्धिं प्रति विवादाभावात् । अन्यथा “पादोऽस्य विश्वा भृतानि" [यजु० पुरुष० ३१३। छान्यो० ३।१२।६ ] इति झुसेनिर्विषयत्वापसः ।
अस्त्येव वस्तुतो निर्विषयत्वं श्रुतेः पादसोऽपि तस्य परिशुद्धत्यात , अन्यथा मोक्षाभावानुषछात १५ अशुद्धिपरिक्षये मोक्ष इति चेत् । न ; अशुद्धेस्तत्पादस्वभावत्वेन तपरिक्षये तत्पादभी
स्यापि परिक्षयोपनियतात् । न चैतत्ययं परेषाम् , आत्मपरिक्षयस्य सैरनभ्युपगमा केवलमविचारबन्धुरप्रतिभासमात्रसापसम्बनैवेयं “पादोऽस्य" इत्यादिका अतिरिति चेत्न अभिलाएसंसर्ग"[ न्यायवि० ] इत्यादेरपि निर्विषयत्वात् परिशुद्धरूपस्यैव संवेदनस्य भावात् । प्राप्यप्रस-पा०, ५०, १०, प रतु वैदोषी-
धास।" मैतदोषो. संदविता-सा, 4०१०,०। ४-स्याप्यनुफ्यान,०, ००। ५: तस्यादर्श-800, 2007 १०। ६ उपपसिकलस्य । साधारणदेव । उपपतिश्यम् । तुम स्वमायादुपंपतिवसांत् । उपपत्तिबलत्यं ।। द्धा याब पर कल्प या असाधारणक्षणवस्तु- प.स.11४ उपसिबलस्व । १५-दस-108/-या विध-भा,
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प्रथमः प्रत्यक्षस्तावः
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" स्वरपदं चितं प्रकृत्या" [ १० वा० १।२१०] इति वचनात् । मलपेरिक्षय एक प्रभावं न सर्वदेति चेत् न मलानां कदाचिदरि वस्तुवृतेनाभावात । "परमार्थतस्तु चिज्ञानं सर्वमेवाविकल्पकस्" [० वार्तिकाल २१२४९ ] इत्यलङ्कारात् । "अभिलापसंसर्ग" [ न्यायवि० ] इत्यादिस्तु श्रुतिवनिष्ठुर विचारपरीषहाम प्रतिभासमात्रविषय एव । उतः संवत्र स्वलक्षणवादेऽपि तादृशं किञ्चिदस्ति ५ यत्तद्दर्शनविषादतिवन परनुपपत्तिश्लमुपकलयेत् । प्रतिभासमात्रादेव तहिं विचारविधविशरामशरीरान् तदुपकल्पनम् इत्यपि दुर्बलम् ; मतान्तरेऽपि समस्थात् । ततो यदि रूपादेः स्पर्शादिभ्यो विवेक एम, feat sfoपतः तर्हि स्वरूप विवेक एवं तद्विवेकस्तु efore rare | care स्पर्शायविवम् स्वरूपतोऽपि न दर्शनविपयस्वं स्व सर्वत्र सर्वदा सर्वथा च विवेकविकलस्य तेंदुपपत्तेः । तथा च श्रुति:- "पश्यन्वा एतत् द्रष्टव्यं १० न पश्यति न हि टुटेपरिलोयो विद्यते ।" [ बृहदा० ४।३।२३ ] ।
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स्यान्मतम् - मामेवेदं 'resent' इत्यादि न हि निरस्तसकलभेदको तत्प्रतिभासप्रपञ्चं सत्तातरत्रमनुभवपथोपस्थापितमुत्पश्यामः । ततो यदि रूपादिरपि न स्यात् निर्वि वादः शून्यवादावतारः स्यात् न चार्य न्याय्यः प्रमाणाभावात । ततो न रूपाये स्वरूपतो विवेकः परस्परस एव तद्भावात् तथैवानुभकव्यापारस्य निरवद्यस्योपलम्भादिति ; सदपि न १५ समीचीनम् ; निरस्तस्पर्शाद्यविवेकतस्प्रतिभासस्य रूपादेरपि तत्वथोपस्थापितस्यासम्प्रतिपत्तेः शून्यवादावतारस्य तदवस्थस्यात् । ततो न रूपादेदधिगतस्य तस्स्पर्शादेर्विवेकः करभादेव तेंड्रा - व्यापारस्य तथैव संवेदनात् । धर्मकीर्तिनाऽपि व्यापारानभिज्ञानादेवेदमभिहितम् - "सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः ।
चोदितो दधि खादेति किमु नाभिधावति १ || tereत्यतिशयः कविद्येन भेदेन वर्त्तते ।
स एव दधि सोम्यत्र नास्तीत्यनुभयं वरम् ॥” [प्रा०३।१८१-८२]इति । ततः सिद्धं लक्षणावयविसभिधान सापेक्षत्वेन दृष्यादिस्थूलप्रतिभासस्य सन्नि हितार्थस्वं ततञ्चामानसत्वम् । " तदाह- 'अर्थ' इत्यादि । प्रतिभास प्रस्तावात स्थूलाकार. घोरः स धर्ती, साध्यसंह-अयुक्तः असङ्गतः । कुतः सकाशात् ? असता, अस्थति प्रेरयति स्वविषयेष्विन्द्रियाणीत्यमं मनः तस्मात्तत इति इन्द्रियादेव युक्त इत्यर्थः । निभितमाह--अर्थ ज्ञाने अर्थस्यानन्तयेकस्य ज्ञानम् उक्तन्यायेन तत्प्रतिभासं प्रति समितिमावगमः"
२५
I
१ परीक्षय एव ० ० प०, स० । २ परार्थतस्तु आ०, ३०, १०, १०१.५ ४ म्राराम् ० ० ० ० ५ दर्शनविषयत्वोपपतेः । ६ष्टव्यमिति पदम् सम्पतमिति भाति । "पश्यत्वेन पश्यति"... वृद्धा ७ विवेकभावात् । एस०११ सिद्धान्तादवि-आ०, ब०, प०, स० स्थाइ आ०, ६०, प०, स०
1
०६, १०, स० ।
२३.
वि-आ०, २०,१०,०० 'एतत्' इत्यस्य टिप्णभूर्त तयापार-आ०, ८० ११ गतेऽस्मिन् तस्मा
२०
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1
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५.
१०
१७८
न्यायविनिश्वयविवरणे
[ १३१०
तस्मिन् इति, तस्मात्रिमित्तादिति यावत् । परप्रसिद्धं निदर्शनमाह-अभिलापवत् अभिसम arati aण्डनमभिला तामाप्नोतीत्यभिलापं स्वलक्षणं तस्यैव तद्वदिति । तदयमत्र सहरावभासोऽयमर्थसन्निधिसम्भवात् ।
मानसोऽन्यः स्वाक्षण्यावभासवत् ॥९४५॥ इति ।
देवं स्पर्शादिनानावयवाधिष्ठानस्य तदवियेकलक्षणस्यावयविन: पारमार्थिकस्यैव भाषादुपपन्नं तस्य प्रत्यक्षविपयत्वम् । ततः सूक्तम्- 'बहिरर्थस्य ग्रहणम्' इति ।
परमार्थैकनानात्वपरिणामांविघातिनः ॥ ९॥ इति ।
एकं च नानाच एकनाना तयोर्भाव एकनानात्वम् एकत्वं च नानात्वं व' इत्यर्थः, भावप्रत्ययस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् स एष परिणामो विवर्त्तः । परमार्थश्वासो अकल्पितत्वात् एकनानात्वपरिणामा स तथोक्तः, तस्य अविघातः प्रमाणैरप्रतिक्षेपः स विद्यतेऽस्मि fafa परमार्थैकनानात्यपरिणामाविघाती बहिरर्थस्तस्य 'प्रतिभास:' इति सम्बन्धः । कुस्तत्प्रविभास इति चेत् ? न ; प्रत्यक्षादेव पक्षुरादिजनितान् क्रमानेकस्वभावादिसि १५ निवेदितत्वात् ।
२५
केवल व तस्य तद्विषयत्वमपि तु द्रव्यस्यापि अक्रमवत् क्रमेणाचि पेरावरपर्याया विष्वभावस्वभावस्य द्रव्यसंज्ञितस्य स्तम्भादेरविरोधात् । एतदेवाह
स्यान्मतम् - अवयवेभ्यो भिन्न दवावयवी पर्यायेभ्यश्च द्रव्यमर्थान्तरमेव बहिरर्थः, अवय एव वा निरवयविनो निर्द्रव्या एव वा पर्यायाः बहिरर्थः, ततस्तस्यैव प्रत्यक्षात्प्रतिभासो न क्रमाक्रमानेकस्वभावस्येति । तत्राइ
प्रतिज्ञातोऽन्यथाभावः प्रमाणैः प्रतिषिध्यते । इति ।
२०
अन्यथा पूर्वोक्तादन्येन प्रकारेण भावः सस्त्र पहिरर्थस्य प्रतिज्ञातः परैरीकृतः प्रमाणैः प्रत्यक्षादिभिः प्रतिषिध्यते प्रतिक्षिप्यते इति । सवो न तथा बहिरर्थं इति भावः । यदि तस्यान्यथाभावो व प्रतिपन्नः कथं प्रतिषेधः तस्यै निर्विषयत्वायोगात् ! प्रदिप्रतिपतित पन; दत्रापि वा तत्प्रतिपत्तिर्न तदा तत्प्रतिषेधः प्रतिपत्त्यधिष्टितस्य तद्योगात्,
सत्त्वव्यवस्थितः अन्यस्य तद्व्यवस्थित्युपायस्याभाषात् । अन्यदा तु तत्प्रतिषेधेन सर्वथा तदन्यथाभावप्रतिषेधः प्रतिपत्स्यवस्थायां सभावादिति चेत्; न; प्रतिपन्नस्यैव तस्य प्रतिषेधेन तन्निर्विषयत्वाभावान्। नापि प्रतिपन्नत्यान्यदेव निषेधः ; प्रतिपत्तिसमयेऽपि निषेधात् । तत्समयेऽप्यतः कथं प्रतिपतिरिति चेत् ? स्यादेतदेयम्, यदि विषयामीनसत्ताकत्वं प्रतिपतेः, न चैवम्, deferent निषेदनाम् । कृतस्तर्हि तत्प्रतिपत्तिरिति चेत् ? तच्छास्त्रादेव । कृतां तु कुतश्चित्मसम्बद्धात् पुगलविशेषादिति नमः । तथा च प्रयोगः - सर्वथैकान्ताहानं
I
१ परापरपर्यायादारभ्यस्य २ प्रतिषेधस्य ३ यथा ला०, ब०, प०, स० प्रति मेघःभाषा प्रतिपसी । ६ परशाघ्रादेव । शाखाकाराणां तु तस्कुतो तत्कुत-आ०, ब०, प०, स०१
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१११०]
प्रथमः प्रत्यक्षपस्वायर वहादिनां शरीरेन्द्रियादिव्यतिरिक्तजीवसम्बद्धपुद्गलपरिपाकपूर्वक मिश्याज्ञानत्वात् मदिरापयोगजनितमिध्याज्ञानवत् । तज्ज्ञानत्वं च तस्य प्रत्यक्षादिना पाध्यमानत्वात् । अदुसम्
"जीवस्य संविदो भ्रान्तेनिमिन मदिरादिवत् ।
तत्कर्मागन्तुकं तस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥" [सिद्धिवि० पृ. ३७३] इति ।
भविष्यति चास्य तृतीये विस्वर इति नेदानी क्रियते । भवत्येवम् । तथापि कथम. ५ सतो विषयस्य तत्र प्रतिभासनमिति चेत् ? तज्ज्ञानशक्षित एव, सतोऽपि तस्य संत एव सदु. पपत्तेः । निरूपितं चैतत्पूर्यमिति म निरूप्यते ।
___ यदि प्रतिपत्तिविषयस्याप्यभावो हन्तैवं कथमनेकान्तेऽपि विश्वास इसि चेत् ? भवत्वेवम् , यदि प्रतिपत्तिमात्रात्तत्सिविरुध्येत, न चैयम् , सद्विशेषाय निठावाधात् तदभ्युपगमात, तस्य च प्रमाणैः तत्रोपस्थापनात् । यदीवमनेकान्तविधिपरैः कथं तरेकान्तप्रतिषेध इति घेत ? न; प्रतिरोधपरत्वस्यापि तेषु भावात् , अन्यथा तैर्विषयेषु स्वरूपादिवत् पररूपादिनापि विध्युपकल्पनायां नाऽवयवावयम्यादिविभागः, सर्वाभेदापोः : मार्य दोनो पक्षमा गिरी को आस्तामेतत् , उम्मतस्य यथावसरं निरूपणात् । एतेन प्रतिषेधपरेष्वपि तेथें विधिपरत्वमप्यक्षयोद्धव्यम् , अन्यथा तैर्विषयेषु पररूपादिवत् स्वरूपादिनापि प्रतिषेधोपकल्पनायामपि न तद्विभागसिद्धिः सकलविषयनि:स्वभावतापत्तेः । मायं दहेषः शून्ययादिनामिति चेत् ; इइमत्यास्तां १५ निरूपितत्वाभिरूपयिष्यमाणत्याछ । ततो विषयाणां परस्परतो विवेकमविवेकय स्वसो वदतामवश्यम्भावी प्रमाणेषु विधिप्रतिषेधपरतया द्वैप्याभ्युपगमः । तथा च तान्येच आत्मम्यनेकासम् एकान्तबिरोधिनं प्रतिपद्यमानानि तन्त्र परप्रतिज्ञातं तदन्यथाभावं प्रतिषेधतीति किन्न: म्यासेन ? बहिर्विषय एवाचेतने "तब्यापारोपदर्शनेन अस्माभिस्तत्यतिध"विधानात् । तव्यापारोऽपि पराभिमतबहिर्विषयानुरूप एवेति चेत् ; किं तत्प्रमाणं यस्यैष व्यापार: ? प्रत्यक्षमेवेति २० छन् ; म; अस्य अवयवावयव्याधेकान्तभेदे तददर्शनात् । अन्यथा तर न विवादः स्यात् , अस्ति , कैश्चिन् तत्रात्यन्ताभेदस्य, अपरैः कथन्निद्धदस्य, योगैरेशान्तभेदस्य च प्रतिपादनात् । स्याद्वादिनामपि यदि फवरिषदे तव्यापारः कथं विवाद इति चेत् । न सत्यपि "तव्यापारे बावट्यामोहस्यानि (हादनि)मयसम्भवात् विषादोपपता, निश्चयस्यैव विवादविरोधित्वात् । न चैवं नैयायिकानाम्, घरप्रत्यक्षस्य निश्चयकरूपत्वाद् “व्यवसायास्पर्क प्रत्य- २५ कम्" [ न्यायसू० १३१४ ] इति तलक्षणभवणात् । स्याद्वादिनामपि निर्णयात्मकमेव प्रत्य
-सम्बन्ध-०,१०,१०,१।२-मानत्वं तस्य मा.२०,०,स। ३ मिथ्याज्ञावश्यम् । -तेनिर्मित सा५ अत्र सावत्रं त्रुष्टितम् । भवत्येवं प०,०। झापशक्तित एव । ७ प्रतिपत्तिविशेषादेव । ८ प्रमाणः। १ प्रमाणेषु । .. झन द-R०, २०, प., 1 प्रमाणभ्यापारोमदनम । १२ अन्यथाभावनिषेध । ३ दर्शनात भा.प.स. ४ कात्र भा०प०.स. १५ पौर १६ जनैः, कुमारिलभसारिमिक्ष। १७ तम्यापारबलव-बा०,२०,१०,साप्रमाणभ्यापारे। पक' युक्त नैयायिकामाम् ।
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न्यायविनिश्यविवरण क्षम् व्यवसायात्मक ज्ञान प्रत्यताम् ME इसिल्लाक्षणस्यापित श्रवणादिति चेत् ।। म; एकान्ततस्तदारसंकल्वाभावात् , लयबसायात्मनोऽपि तस्या कवजिनदव्यवसायस्यापि सम्भ. वात् । एकान्तव्यवसायाधभाषाभ्युपगमेहि तव तेषां स्याहादिस्वस्याभावापतेः कथन्न स्वमतव्या
मसिन व नैयायिकानो तदेकारतभेदे प्रत्यक्षमनिर्णयस्वभावमिन्युफरनाम् , अवयवावय५ ठ्यादावपि तस्य तत्स्वभावत्तापत्तेः कचिदपि : उयवसायाभावप्रसङ्गात् । न चैतन्न्याध्यम् ,
व्यवसायात्मकम्" इति तल्लक्षणस्यासम्भवदोषानुपात । तदेकान्तभेद एवं तदव्यवसायं नायथ्यादी' इत्यप्यनुपपन्नम् ; व्यवसायेतरस्वभावतया उभयारमकस्य सत्प्रत्यक्षस्याभ्यनुज्ञाने * तेषामनेकान्तविपाभावप्रसङ्गात । तस्मात् व्यवसायकस्वभावमभ्यक्षमावाणानाम् अवकन्या.
दिवा सद्विषयेण उदेकान्तभेदेनापि व्यवसिदेनैव भवितव्यसिवि कुतस्तंत्र विवादप्रवृत्तिः । १९ :: स्यान्मृतम् यथा प्रत्यक्ष
नितेश्यलयवादौ सौगतस्य विवादस्तथा. यदि तदेकान्तभे देऽपि को दोष इति । सन्नः विवादस्यान त्यापतेः । वथा हि.
, विवायुस्य नियूसिहि निर्णयाडेवामान्यत:
1 1 :: नितेऽपि विवादश्चेत्कुतः स्यात्तनिव-नही ।।१४.६ . THE
अध्यक्षादनियावश्च सोऽनुमामोदितः कथम् in Rai tim. निवर्सेन गास्यापि निर्णयांदपर बलमHARM ... तदशकयत्यवच्छेदो विवादोऽनन्तता नजना .
मी : कथारम्भस्य मैफल्य व्यक्त क्ति प्रयादिनामः ६४.all id: REFERENCE
विवादस्तन नियुक्तो न्यायविदामयम् । Fri ... निधयश्च विद्यावश्चेत्यंन्योन्यपरिपीडा ।।१४ | Pin e
यत्ततम् येत्यादि निर्देशनमा तयुतम अवयव्यादौ निर्णोते स्थूलादितया सौग. तस्य विवादाभावात् । तत्परमार्थसत्त्वे विवाद इति च मतहि निणीते विवादः, तस्य सत्सरचे निर्णय भाषान् स्थूलादादेव तद्भावात् । यो न बाहिरथपरमार्थसव प्रत्यक्षर्षिय इति कथमिदमुक्तम्- 'अथवेदन प्रत्यक्षलक्षणम्' इति । इति चेत्ने, ज्यामोहविकलेप्रतिस्पेक्षया सद्वचनात् । नेपा प्रत्यक्षलव एव तत्सवनिश्चयात् । वाह व प्रति निरर्थकमेव तद्वयन र विवादाभावेन तनिवर्तनस्य तस्करस्याभावीन, प्रत्यक्षस्वरूपनिर्णयस्य च स्वत एवं भावाविति येन् ।
सत्यम्न ताप्रति तद्वयनस्य तस्वरूपनिर्णयनीरव नापि तद्विषयविधादनिवर्तनफलत्वम् , तथापि न वैफल्यं संशयविशेषव्यवच्छेवार्थत्वात् । दया हि-सम्यग्ज्ञानं निःश्रेयसकारणम्
प्रत्यक्षस्थान मानियखभावत्वापसी 'यदेका 406,40,16, अवयवावरन्यायकान्तभेदे। नैयायिकानाम् सममि -आपस वृतिश्च मा०,००सा अनुमामादेरपि । ८ हजेत् Eid-440, '९४यसि स य देस्या-मा०,१०,५०।। यदैवं मा०,५०, यस-1 १२वायविनिश्चय तृतीयश्लो के११त्य पाएमआर .स. विर्जयारवंत १५-सकरण स..
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१०]
प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्तावः
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इति श्रवणात् तेषामपि संशय:- 'कापुनरसौ सम्यग्ज्ञांनवचनस्याः विषयः ?' इति । तत्र नापकिरतुः यदेवं सुप्रसिद्धमात्मार्थवेदनं तदेवेति तद्वचनविषयसंशयुदासार्थमिदमभिहितम् आत्मार्थवेदनं प्रत्यक्षलक्षणम् इति । पर्व परोक्षलक्षणेऽपि वयम् । तु सोऽपि निर्णयस्यानुत्कृत्वादपरो व्यामोहस्तेषां व्यापारोपदर्शनादेव व्यामोह - प्रध्वंसे निर्विवादश्वसम्भवात् तस्प्रयोजनपरमिद्मपि वचनमनमेव देवस्य -
येष
1.
पश्यपि। कचित्किञ्चित्सामान्यं वा खलक्षणम् ।
म आत्तिन्ते तु श्यार्थस्टको भान्साधनम् ॥” [सिद्धिषि०४० १२ १] इषि ।
चै नैयायिकानां तदेकान्ते प्रत्यक्षस्या निर्णयत्वमनुत्कृष्टनिर्णयत्वं वा युक्तम् अवयव्यादिमात्रेऽपि पितरशंसात अनेकान्तविद्वेषित्वेन तत्र निर्णयानिर्णयेयोः निर्जयोत्कर्पानुत्कर्षयोरध्यसम्भवात् । ततः स्थितम् नै तदेकान्ते प्रत्यक्षव्यापारो विवादागिति । ततो यदुकं व्योम - १० शिवेन" प्रत्यक्षेण रूपादिव्यतिरिक्तस्य द्रव्यस्यावधारणात्तद्विपर्ययव्युदासः” [प्र०च्यो० १०. ४४] इति; तत्प्रतिज्यूढम् ; एकान्ततस्तस्यतिरिक्तस्य तेनावधारणात, अन्यथा fierदानश्वरप्रसङ्गाम् । अवधारिते तदयोगावित्युक्तत्वात् ।
१५
यदप्यपरमुक्तं तेनैव--"हीन्द्रियग्राह्यं तु द्रव्यम् कथमेतत् ? प्रतिसन्धानात् । तथा हि- 'महद्राक्षं चक्षुषा तमेतहिं स्पृशामि यं वास्प्राक्षं वं पश्यामि' इति । द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यामेकार्थग्रहणं विना प्रतिसन्धानं न्याय्यम्” [० व्य०० ४४ ] इति ; तत्रापि प्रतिधनस्य किंविषयमविनाभावित्वम् किं द्रव्यविषयम्, किंवा सद्दणविषयम् ? द्रव्यविषयमिति चेत्; अत्रापि किं तस्यै तदविनाभावकथने प्रयोजनम् ? निश्चिताविनाभावस्ततः तत्परिज्ञानमेषेति चेत् तदपि द्रव्यस्येति कुतः ? 'तदविनाभावादिति चेत् तर्हि "वतोऽप्यम्यदेव "तत्परिज्ञानम् । तस्यापि विनाभावात्तत्सम्बन्धित्ये" "ततोऽपि "तत्परिज्ञान- २० परमेवेति न वयमवधारयामः क पुनरिदमनवस्थापोपदूरं व्यपरिज्ञानं लभ्यत इति । तन्नाविनाभावात् "तत्तस्येति युक्तम् स्वयं " तत्परिच्छित्तिरूपत्यादिति चेत्; न; प्रतिसन्धानस्थाकि "तत एव तत्सम्बन्धित्वापत्तेः । इष्टमेवैतम् औलुक्यस्येति चेत्; यहि किमस्य "तदविनाभावकथनम् ? तत्परिच्छित्तिरूपत्व निवेदनार्थमिति चेत्; न; अप्रतिपन्नस्य निवेदनायोगात्, अविनाभवत्यैव तत्रासि धूमादिवत् । वक्ष्यते चैतत् -"अन्यथानुपपन्नत्वमसिद्धस्य २५
१ तेषां तु ० २०, प० । एते तु स० यवोत्कर्षा-आ०, ० ० ० ३ न भेदेका -आ०, ब०, प०, स० रूपादिव्यतिरिकस्य यथ । ५ प्रत्यक्षेण । प्रतिसन्धानस्य 1. दव्यविषया विनाभावकथने । ८ प्रतिसन्धानतः । व्यपरिज्ञानम् । १० प्रयाविनाभावात् ११ व्यपरिज्ञानादपि । १२ द्रव्यपरिज्ञानं व्याविनाभावीति परिज्ञानम् १३ अन्यपरिज्ञानस्यापि । १४ स्नेन ततोऽपि ० ०, प०, स०१५ अन्यपरिज्ञानादपि । १६ अन्य परिज्ञानं तदविनाभावीति तृतीयपरिज्ञानम् । १७ मध्यपरिज्ञानं द्रव्यस्येति । - वासस्थति आ०, ब०, प०, स० । १८ व्यपरित ११ परिच्छितिपत्वादेव । २० प्रतिसन्धानस्य २१ दष्याविनाभावित्वकथनम्
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१८२
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PRINTEREpras
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न्यायविनिधयविवरणे
[ १० न सिद्ध्यति।"न्यायवि० श्लो० १२] इति । प्रतिपन्नस्यैव' 'ततस्तनिवेदनमित्याययुक्तम् । यसस्तत्प्रतिपतिः सत एघ तद्रूपत्वस्यापि प्रतिपसे, तस्य तदनन्तरत्वात् , अन्यथा सदयोग्गत् अदिनाभावनिवेदनानर्थकत्वस्य तदवस्यत्वात, सण्डशः प्रतिपश्च निवास्तिवात् । तन्न तस्य द्रव्यविषयमविनाभाविव सप्रयोजन यतस्तत्कथनमिति स्थितम् ।
भक्तु रणविषयमेष 'तस्याविनाभावित्वमिति चेत; तत्रापि स एष दोषः-'किं सस्य इत्यादिः । अपि च, यदि सस्य "तदविनामावित्वेन "तस्वभासित्वम् । कथं द्रव्ये प्रामाण्यम् १ "अन्यविषयस्यान्यने तदयोगात् अतिप्रसङ्गात् । प्रामाण्यमपि तस्य तद्गृह्ण एवेति वेत् ; म; "प्रतिसन्धानमर्थसिद्धौ प्रमाणम्” [ प्रशध्यो पृ० ४५ ] "इत्यस्य विरोधात् ।
न च 'द्वाभ्याम् इत्यादिना तस्य तदहणाविनाभावगुपक्रम्य 'प्रतिसन्धानम्' इत्यादिमा १० द्रव्ये तत्प्रामाण्योपसंहार कथं पूर्वापरवेदी विदध्यात्, "उपक्रमोपसंहारयोर्विसंवादादिति चेत् !
सस्थम् अयमपरः परस्य दोषः । नास्ति दोषः, द्रव्ये वत्प्रामाण्यस्य सहप्रामाण्यागेपनीतस्थामुख्यस्य 'प्रतिपावनादिति चेत् ; न ; द्रव्येन्द्रिय सन्निकर्षोपनीतजन्मनस्तस्य॑ दा मुख्यस्यैव प्रामाण्यस्योपपत्तेः । न प तत्सभिकर्षजस्वं तस्यासिद्धम् ; "इन्द्रियमर्थेषु सविकल्पकशानो
पची सङ्केतस्मरणागेल" [ प्रश, लो. गादिन्न म्यामेव तत्समर्थनात् । १५ भवतु तर्हि मुख्यत एव प्रतिसन्धानस्य व्यविषयस्वम् , तस्यार्थकार्यस्य सतो निर्विषयत्वस्या. प्ययोदशदिति चेत् ;न; विचन्द्रादिवेदनस्वार्थकार्यस्यापि निर्विषयत्वदर्शनात् । "प्रतिभासदत्वेन न निर्विषयस्यमिति चेत् ; नन्या प्रतिभासवानों नामावयषी, तस्य व भानुपलब्धपूर्वस्य प्रतिभासनम् , अध्यक्षा दर्शनपर्शनविषयतया दहणायोगान् । न चैवम् , 'यमहम्' इत्यादिन्य
सद्विषयतयैव सस्य कथनान् । उपलब्धपूर्वस्यैव भवतु प्रतिभासनमिति चेत् ; ; उपलब्धेर्दर्शन २० नादिरूपाया अप्रतिभासे तद्विषयतया तस्य प्रतिभासासम्भवात् । भवतु दर्शनादेरपि प्रतिभास
इति चेत् । फस्सनेन्द्रिय सन्निकर्षः । संयोग इति चेत्, न; तस्य गुणवेन "गुणे वृत्यभावात, गुणश्च दर्शनाविरात्मनः । तत एव न तस्य श्रोत्रे शब्दवचक्षुरादौ समवाया; अन्यगुणस्याम्यत्र "अदयोगात् । नापि संयुक्तसमकायादिः; चक्षुरादिसंयुक्तेऽवयविनि "तस्य समवायाभावादिति
करमतत्सनिकृष्टस्य तस्य प्रतिसन्धाने प्रतिभासन सत्प्रत्यक्षत्वसमर्थनविरोधात् ? अस्त्येव २५ सम्बद्धविशेषणभाषः तत्रापि सनिकर्षः पक्षुरादिसम्बुद्रध्यापेक्षया दर्शनादेविशेषण याम् तद्भा
प्रतिसन्धामस्य । र भविनरभावच्यनेन । । सपरिच्छिसिरूपत्वनिदेदनम् । प्रतिसन्धानप्रतिपत्तिः । ५ तापरिरिकतिरूपत्वस्य । न तस्य भा०, ५०,०, । त्वं न प्र-१०, २०, ५० रू.. ८ द्रव्यपहाणविषयम् । १ प्रतिसन्धान प्रतिसम्मनस्य। 11 म्यवहाविनाभाविलेन । १२ द्रष्यप्पावभासित्वम् । शल्यविश्वस्य । १७व्ये १५ "प्रतिसन्धान व्यसिसी प्रमाणम्"-प्रक्ष. दो-11-हारविसं मूषप्रज। 14 प्रतिसाधनात् मा०, १०, १०,स.1 १९ प्रतिसन्धानस्य । २. दम्य । २१ प्रतिभासमर्थकार्यलेम निर्वि-मा०,०, ए.स. 1 २२-नानुपल-मा०,०, प., स.। २३ दामादौ । २. समवायायोगा। २५ दर्धनादेः। २६ प्रतिसन्धाने प्रत्यक्षक्समर्थनस्य विरोधात् । २५ विप्रेषणभावस्व ।
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११.}
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
१८३
मार्गद
वस्य च विशिष्द्रव्यज्ञानान्यथानुपपत्त्यैवाधिगमात । 'द्रव्येणासम्बद्ध दर्शनादि कथं तद्विशेरणमपि इत्यपि वार्शम् : 'संयुक्त' समवेतं का विशेषणम्' इति नियमानभ्युपगमादिति चेत् । 4 गुणादीनां सम्मन्धामात्र विशेषणभावस्य स्वयमेव निराकरणात् । "नैतदेवम् । गुणकर्मसामान्याना समवेतानामेव विशेषमतोफ्लैब्धे।" [प्रशच्यो०१० ५० ] इति वचनात् ।
स्यान्मतम्-प्रदिसन्धानसमये दर्शनादरपक्रमादपक्रान्त एव तद्विषयभावः, केवलं तदु. ५ पजनितसंस्काराभिव्यक्तिवादविद्यमानस्यैव तस्य प्रतिमासनम् , सत्र च भ्रान्तमेष प्रतिसन्धानम् , शुद्ध एव द्रव्ये सदविभ्रमोपगमारिति । सदगुच्यते-तेंद्राबाद् द्रव्यमविविक्त चेत् ;
निविटा नमोतिन तिमन्नानाससिद्धिः, तद्भाषस्य ५ द्रव्यादवियेक सस्यापित तैवविद्यमानतेवेति कथं व प्रतिसन्धानस्य प्रान्तत्वम् ? अपरित्यक्तसदसरस्वभावयो: परस्परमविकरदयमप्रसङ्ग इति चेत् ; न; रूपस्पर्शयोरप्यनुन्मुक्ततदात्मनोरेवान्योन्यमविधिएकत्या- १० पनियतेन्द्रियपाहत्वान्नेति चेत्, न; प्राच्ययोरपि भेदप्रतिभासविषयत्वेन तदभावानुपङ्गात् । यथैक हि नयनस्पर्शनाभ्यां रूपरपर्शयोहणमेवं तद्भावद्रध्ययोरपि भ्रान्तेतरप्रतिभासाभ्यामिति न विशेष पश्यामः । तदुभयप्रतिभासात्मकमेकमेव सहिज्ञान तद्विषयत्वादविरुद्ध एक तयोरयिवेक इति घेत् ; न; नयनस्पर्शनोपजनितप्रतिभासभेदेऽपि तदात्मकस्य शानस्यैकत्वात् , तद्विषयत्वेन रूपस्पर्शाविधकस्यायविरोधोपपत्तेः । अस्तु को दोष इति चेत् ? म तस्यैव द्रव्यवस्थापनात् । १५ विविक्तमेव तद्विषयभावाद्रव्यमिति चेत् : तस्य यदि तथा प्रतिभासने न तर्हि सद्भावप्रविभासनम् , न हि पीतविधिक्तशावभासने पीतावभासनमुपलब्धम् । तथा चोल्सन एव 'यमहम्' इत्याविरूपः प्रतिभासव्यवहारः स्यात् । नास्ति तथा तस्य प्रतिभासनमिति चेत् ; न अभेदात् द्रव्यरूपेणाप्यपतिभासनप्रसङ्गात् । सम्मूछितसत्प्रतिभासेतरस्यभाषद्वयं तदेकमेव द्रव्यमिति घेत; म; सम्मूतिरूपस्पर्शस्वभावतयस्यापि" द्रव्यस्यैकस्याभ्युपगमप्रसङ्गात् । तथा च तदेवाधयवि. द्रव्यं तस्यैव प्रतिसन्धाने प्रतिभासमान, *'अस्माक्षम्' इति तल्लीनस्य स्पर्शस्य पश्यामि' इति रूपस्य 'यं तम्' इति च सदवियेकस्वभावस्यावर्यायनस्तत्राध्यवसायातू नापरं विपर्ययात् । वक्ष्यति चैतस
"स्पर्शोऽयं चाक्षुषत्वास न रूपं स्पर्शनमहात् ।
रूपादीनि निरस्यान्यन चाप्युपलभेमहि ।” न्यायविश्लो०२८५] इति । " सतो निराकृतमेतम् - "रूपस्पर्शयोश्च प्रतिनियतेन्द्रियग्राह्यत्वादेशत्प्रतिसन्धान न सम्भवति" [प्रश० व्यो०४० ४४ ] इति ; त्रैव तत्सम्भवस्य प्रतिपादनान् ।
दर्शमादिः पटविशेषणम् "घटदर्शनम्' इत्यादिविशिष्टज्ञानान्यथानुपपतेः। "संयुक्त समसश विशेषणमिति नियमानभ्युपगमाव"-प्रशम्योपु०५५ । ३-लब्धिरिति आ०,०,१०,801 ४ दर्शनविषयस्य । ५ विद्यमान एकदर्शनविषयभावारतद्धावस्थापि। ८ भ्यान ९पयोरपि चैतन-मा०,००,सन
मानविषमभावयोरपि । व्यव तद्विषयमावरिक्तित्वेन । १२ सदभाष मा.व.,प.स.। १३ विविक्तरलेन । ११ व्यस्य । १५-खिरूपयस्यापि भा.,40,101 १६ असंस्पार्मम् अरपार्शमू सामसंस्पर्श
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न्यायविनिश्वयविवरणो
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यदि च रूपकमेकं द्रव्यं न भयेत् कथं भ्रान्तरस्वभावसेकं प्रतिसन्धानम् ! तदपि मा भूदिति चेत्; न; तस्यैकान्ततो विभ्रमे दर्शनादिविषयत्ववत् द्रव्यस्याप्यसिद्धेः । अविhorasस्यापि परमार्थत एव सिद्धेर्निवेदितत्वात् ।
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safe व, यदि न सम्भवत्येव भ्रान्येतरस्वभावमेकं संवेदनम् न तर्हि ह मामे ५ मा ' इत्यपि ज्ञानं सम्भवेत् । तद्धि प्रामादावव्यभिचारित्वेनाभ्रान्त न इहभावे व्यभिचारात् । इभावाभावे कथं तज्ज्ञानमिति चेत् १ न श्रन्तराल दर्शनमात्रेण सद्भावात् । तथा च परस्य वचनम्"दूराद् ग्रामारामयोरन्तरालमपश्यताम् 'इह ग्रामे वृताः' इति ज्ञानं दृष्टम् " [ प्रश० व्यो: पृ० १०७ ] इति । ना भूतदपि ज्ञानमिति चेत्; कथं तर्हि 'दृष्टम्' इत्युक्तम् । कथं वा समवाणे वच्छेदार्थं सम्बन्धपदम् ? तदपि तदर्थं नेति चेनू नष्ट आन्तेह१० ज्ञानस्य व्यवच्छेदार्थ सम्वन्धपद" [शव्य०० १०७ ] इत्यस्य विरोधात् । 'Bara fr:' इत्यपि ज्ञानमेतेन व्याख्यातम् ; सस्यापि शकुनावव्यभिचारित्वभ्रान्त्ये भावे भ्रान्तत्वात् । आकाशस्याद्रियत्वेन तत्र इहेति प्रत्यक्षप्रत्ययायोगात् । तथा च परस्य वचनम्"" "अतीन्द्रियेऽप्याकाशे यत् 'इह' इत्यपरोक्षज्ञानं सत्केवलं श्रान्तम्" [शव्यो० १० १०७] इति । मा भूत्तदपि ज्ञानमिति चेत्; तर्हि कथम् "इहाकाशे शकुनि१५ रिति ज्ञानं दृष्टम् ' ' [श व्यो० १०७ ] इत्युक्तम् ? कथं वा "सवच्छेदार्थम् आचार्याघारग्रहणम्” [प्रश॰व्यो“पृ० १९७ ] इत्यभिहितम् ? तत्र भ्रान्तेतराकारज्ञान परित्यागः परस्य श्रेयान् । तदपरित्यागे च यथा तदाकारयोः परस्परप्रत्यनीकत्वेऽपि कपि विवेकस्तथा वर्णस्पर्श इति विवेक एवावयवी नापर इति नासौ हिरर्थो नापि शाक्यवमात्रम्, न द्रव्यान्तभिनं पर्यायेभ्यः तस्य सर्वस्यापि earn a fadare स्य तद्वरुद्ध२० भासितत्वात् ।
तु तर्हि निष्य: पर्याय एव मंदिरर्थः तस्य दीपादिनिदर्शनेन अन्यत्राप्यवगमात् । दीपा च निर्विवाद प्रत्यक्षेणैवाधिगमात् । निर्विषादों हि दीपादौ क्षणी पर्यायः, प्रत्यक्ष्मदेव बलाबलानामपि तत्र सम्प्रतिपरोः । धर्मकीर्तिनापि दुवदर्शनार्थमेव
" तथा लिङ्गमा बालमसंसृष्टोत्तरोदयम् ।
पश्यन्परिच्छिनत्ये दीपादि नाशिनं जनः ।। " [प्र०वा०२३१०५] इत्यस्याभिधानादिति चेत्; न; तत्रापि विवादाविशेषात् । कथमन्यथा "न चैकदैकतैलजनित एक एवासी दीपज्यालाप्रतानः " [प्रवार्तिकाल इति प्रज्ञाकरेण तस्योपदर्शनम् ? अविधमानस्य तदयोगात । स्वयमुद्राक्तिस्योपदर्शनमिति चेत्; न; षद्भाषनस्य प्रयोजनाभावात ।
१ प्रतिसन्धानस्य । १ संभवतीत्येव का० २००० ३ अन्सहालदर्श - प्रा०, ८०, प०, स० " आन्ते.........प्रश००५ "अतीन्द्रियेऽध्यांकाते इति ज्ञानं च भ्रान्तंम्"-प्र०यो । तदा भा ५०, प०, स० । ७ वर्णस्पर्शाद्यभेदः । नैयायिकाभितः भवात् पृथग्भूतः । ९ सैद्धाभिमतः १० प्र मा० ६०, प०, स० द० ब०, प०, स०
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१०]
प्रथमः प्रत्यक्षपस्ताक
परिहारः प्रयोजसमिति क्षेत्र : मन्त्रमनुद्भावगमेव न्यायम् , अद्भाव्यसमाधानत्य स्वात्वा समीकरणक्त अबुद्धिमलोकव्यवहारत्वात् । सन्नायं स्वयमुदाधितः, परेषामेव भावात । यदि तत्रापि विवादः कथम् 'अलिङ्गम् इत्युक्तम् । विवादव्यवच्छेदस्य लिलादेव भावान्, अन्यतस्तवभावानन्तरमेव निवेदयिष्यमाणत्वात् , तम्मालिन श्वनादविवाद एव दीपादौ सत्पर्यायः । तरिवादोपदर्शनं तु शास्त्रविरुद्धगेय निबन्धनकारस्थेति चेत् ; सत्यम् ; अस्त्ययं तस्य दोषः । ५; नास्ति दोषा, सत्यायलिङ्गत्वे विवायवच्छेदस्य अन्यत एव भावादिति चेत् ; किं पुनस्तदन्यदन्यत्र प्रत्यक्षात । तदेवास्तु इति चेतनतरतद्विषयविकल्पामसिकमा । तद्विषयावेवेतिः चेत् । न; दीपादिवदन्यत्रापि प्रत्यक्षत एव तत्तद्विशदनिवृत्तेः अनुमानवैफल्यात . अन्यत्र तस्यैध विवादनिमिक्तत्वान्न ततस्तव्यवच्छेद इति चेत्, कुतस्तस्य सिभित्तत्वम् १. समानाकारगोचर त्वादिति चेतः नः दीपावावपि तदविशेपान् । समानाकाराभावान्लेति चेतना केवल १० सादृश्यात घमारसामग्नीलो वा एयाममिति गम " [ वार्तिकाल ] इति सत्साश्यानुवादिन्या अलङ्कारविरोधात् । सन्न ततिपयादेव, प्रत्यक्षासध्ययच्छे । सदस्यविषयात् । इत्यप्यसङ्गतम् ; अतिप्रसङ्गा--नीलमत्यक्षादेव लोहिते पीतंत्र्यवच्छेदापसे। तत्र प्रत्यअन्वे (क्षं) सदस्यम् । तर्हि तदुत्तरकालभाची विकल्प एव तदन्यः, तते एक संयन्छेद इतिः चेन् : न; ततोऽपि अप्रमाणपत्तश्योगातः, अतिप्रसङ्गान् । प्रसासिद्धिप्रयासमस्याका प्रमाण- १५ सेशसौ प्रत्यत्वेनेति चेन म; उसोत्तरत्वात् । नृतीयप्रमाणस्येच प्रमाणसहयातियमव्यापसे ततः 'एकदा' इत्यादेविवादस्य यस्यमाच्छेदकमुक्तम्-':::.:.:: ..:
"यदि प्रथमसम्पातमात्रादुत्त्पन्न एवं स ... .
कालान्तरध्यापितया वृथा तेलायतः परम् ॥प्रवानिकाल २१०५] इति; तदपाकृतम्: तस्य प्रत्यक्षत्वे तटूलभाविविकल्प र दोपस्योस्तत्त्वात् । अनुमाने विकल्प एवार्य ३० विकल्पः कचिदिति चेन् । ननु सकिल्मस्य लिलायत्तत्वात् लिङ्गादेव तच छर्द इत्यायालम, तथा प्य स एव "शास्त्रविरोधा, सत्रालिङ्गवचनेन विवादाभावस्य प्रतिपादनात् , निवन्धनकती "तु बिया' दस्थ लिङ्गतस्तव्यबन्छेवस्व चाभिधानात् ।...........
स्थामतम्--अलिङ्गवचनानिर्विवादस्य चरमसमय प. शास्त्राभिप्रेतं. तत्र वालादेरप्यविवादस्यैव भासदर्शनस्य भावात् । न च तव पियादा लिङ्गतस्तव्यवच्छेदो वा नियन्धनः ।। कृता लिमप्यते, पूर्वपूर्वतत्पर्याये येव तनिरूपयात. तत्रैथ दर्शनस्य माश्यविषयत्वेन विवादनिमित्तत्थान , म घरलपर्याये तत्र सदुसरावस्यानुरापत्ते, दर्शनस्य- तरसादयविषयत्वाभावात् - तत्कयं शास्त्रविरोध इति. ? उन; 'नाशिनम्' इत्यस्य मध्यमपर्यायापेक्ष्या व्याख्यानात् "अनावस्थ्य विनाशोऽनित्यतेति च व्यपदिश्यते" [१० कार्तिकाल इति । तदपि
१०. १: खनित्वा । ३. तववभागस्य स० ३ प्रजाकरस्य । तदेवास्तीति आ पस ५ प्रमशरत्येव । परिवानिमित्तत्वम् ।त्रि 16424:14रिका । कालान्तरस्थापितया"-मातिकाम...19.प्र वातिक। 19:प्रभाकरगुरने अलधारकृता । ....
.. . .
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न्यायविनियत्रिवरणे
[ १२११०
परमपर्यायापेक्षमेवेति चेत्; न; न च प्रदीपादीनां सादयस्थ्यम् अपि तु परापरतैलोपादानजन्यमाना परापरैव प्रदीपज्याला " [ प्र० वार्तिकाल० ] इति तत्रैव व्याख्यानस्य समर्थनात् । चरमपर्यापेक्षायां परापरेद्यनुपपत्तेश्वरमविरोधात् । तवो दुरुत्तर एवायं शाखविरोधः परस्येत्यलं न्धेन । विवादस्तु विद्यत एव तत्कथं सति तस्मिन् दर्शनादेव दीपादौ ५ क्षणभङ्गसिद्धिः अतिप्रसङ्गात् ? छन् विवादे भवत्येवेति चेत्; कुतस्तव्यवच्छेदः ? यदी - स्यादे विचारादिति चेत्; न; कक्षणिकत्वेऽपि प्रदीपादश्वरापरेतैलादिना वारस्यासशयस्योपकल्पनात् । न च तस्य तस्मादेकान्तेन भेो यतः सम्बन्धाभावात्र तस्येति व्यपदिश्येत, तेर्न वा दम्दरस्य करणेऽनवस्थानं भवेत् अपि तु अभेद एव । सोऽपि नैकान्तिकः, येन प्रतीपादिवत्तदतिशयस्यापि तदात्मनः प्रथमतैलादिसम्पातादेवोत्पतेरपरा परतत्सम्पातस्य वैयम्, १० तदतिशयवद्वा प्रदीपादेरपि तदात्मत्वंनापरापरस्वभावत्वादैकान्तिकमनित्यत्वमापयेत मेवाभेदयोरनेकान्तेनाभ्यनुज्ञानात् । न चैतद्वचनमात्रम् प्रत्यक्षेणैव भेदेतरात्मना प्रसिद्धत्वात् । न च सस्यं तदात्मत्वमसिद्धम् ; अनुभवसिद्धत्वात् । यदीत्यादिविचारस्याप्यन्यथानुपपतेः । निमित
५
'आत्मनानेकरूपेण "इत्यादी । तन विचाराद्विवादव्यवच्छेदः तस्य तदनुकूलत्वात् । ततो न कचिदपि प्रत्यक्षाद्भिर्वियादात् क्षणभङ्गसिद्धिः यतो निर्देस्यः पर्याय एव बहिरर्थोऽ१५ वतिष्ठेत, सद्रव्यस्यैव तस्यावस्थानान् तयैव प्रत्यक्षस्य निर्विवादत्वोपपर्णनात् । वरमणेऽपि किमेवं नाव इति ? क एवमाह 'नावतिष्ठते' इति १ तहिं कुतस्तदुत्तरक्षणे नोपलभ्यत इति चेत् ? अनुपलभ्यत्वेन परिणामादेवं । अविद्यमानत्वादेवानुपलभ्यत्वं किन्नेति चेत् ? न वरक्षणस्यावस्तुत्वप्रसङ्गात् अकार्यकारित्वात् । स्वविषयज्ञानकरणान्नैवमिति चेत्; न; सजातीयकरण एव विजातीयकरणं" नान्यथेति निवेदयिष्यमाणत्वात् । तत्र प्रत्यक्षं पराभिमतमहिषि२० यानुरूपं तस्यानेकान्तानुरूपस्यैवोपलम्भात् । नापि प्रमाणान्तरमः तस्याप्यनेकान्तनियतत्वेन नियमाणत्वात् । तथा चानेकान्तस्यैकान्तनिषेधात्मकत्वेन प्रमाणैः तद्विधेरेव निषेधत्वपपतेरुपपन्नमेतत्
२५
१८६
प्रतिज्ञातोऽन्धाभावः प्रमाणैः प्रतिषिध्यते ॥ १० ॥ इति ।
तदेवं "व्याख्यातमिन्द्रियप्रत्यक्षं व्यवसायात्मकम् । तत एव च निदर्शनात् अनिन्द्रियप्रत्यक्षमपि स्वसंवेदनापरक व्यवसायात्मकमवगन्तव्यम् । तथा हि-व्यवसायात्मकं स्वसंवेदनं प्रत्यक्षत्वात् इन्द्रियप्रत्यक्षम् । न चेदमाश्रयासिद्धं साधनम्: सर्वज्ञानानां स्वरूपवेदनस्यान्यनिरपेक्ष प्रतिभासत्वेनानात्वात् । तत्प्रतिभासत्व एव विवाद इति चेत्; न;
१ निबन्धेन आ०, ब०, प०, स० : दिव्या-आ०, ब०, ४०, स० । 'यदि प्रथमपातमात्रात्पच इस्यादिविषारात् । -स्तै लादोमानत्रैषा-य:- रतैलादिनमत्रैवा-आ०, प०, स० अतिशयस्य ५ क्षेत्राः । १ प्रतिवान • अतिशान्तरस्य प्रदीपात्मनः । ९ अतिशयात्मकत्वेन । १० प्रत्यचय ११ न्यायवि० [ो । १९ " उ-सीन नाशो दोपस्तमः षुद्रलभावतोऽति" सा० टि०१३ -धकरणामान्यआ०, ब०, प०, स० | १४ तनिषेधप-२० ५० ५० ४० १५ व्याख्यानमि भा०, ब०, १०, स० ।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताया नीलम्हालाय तवेदनस्याननुभवान, तस्य व प्रतिभासनाद्विवादानुपपत्तेः, अभ्याsधप्रतिभासेऽपि विशदान न बहिन्तिः प्रतिभास इत्यन्धकल्पं जगद्धयेत् । तदाह--
परोक्षज्ञानविषयपरिच्छेदः परोक्षवत् । इति ।
परोक्षं स्वप्रकाशत्रिकलम् । ननु परोक्षमस्पष्टमिति प्रसिद्ध वस्कथं 'स्वप्रकाशविकलं तदुच्यते इति चेत् ? न ; व्युत्पत्तिभेदेनार्थद्वयप्रतिपादनात् । अचमिति हीन्द्रियम्, तच्च ५ वैशयहेतु, पावरणधिमाविशेषाधिष्णानं जीवप्रदेश पयोध्यते तस्वैन मुख्यत इन्द्रियवान, तस्पतिगत प्रत्यक्षमिति स्पष्टपतिपतिः, तस्मास्पराकृत्तमवैशवकारावरणाधिष्ठानजीवप्रदेशोपनीत परोक्षमित्यत्रास्पष्टप्रतिपत्तिः । यदा अक्षणम् अर्थवत्स्वरूपस्यापि प्राहकत्वेन व्यापमम् अक्षा, तस्मात्परावृत्तं परोक्षमिति, तदा स्वप्रकाशवैकल्यातिपत्तिः । अत्र च स्वसंवेदनाभावस्य प्रमादयमेकार्थो गृथते नास्पष्टत्वं विपर्ययात् । ततः परोक्ष स्वप्रकाशयिकलं शान ये ते परोक्ष- १० झाना चालिकाः, तेषां विषयपरिच्छेदो परितः छेदो व्यावृत्तिर्यस्य सः परिच्छेदः, विषयश्वासौ परिच्छेनच विषयपरिच्छेदो पाह्यविशेष इत्यर्थः । परोक्षं विषवि तेन समान वर्तते इति परोक्षवत् , सोऽपि परोक्ष एव भवति विवादाविशेषादिसि भावः ।
लोकप्रसिद्धमप्येतल्झानानामात्मवेदनम् | यान्त्रिकस्य विवादाचेन्न भवत्येव तत्वसः ॥५५०॥ अर्थवेदनमप्येव न भवस्येव तादृशम् । सत्रापि विश्रदम्से यत्प्रबुद्धा बुद्धशासने १५५१॥ अविज्ञाने व बाहास्य तविशेषः कथं पुनः । यज्ञ कुति येनाय याहिका स्वर्गमाप्नुयात् ।।५५२॥ अज्ञातस्यैष यज्ञस्य करणं यदि कल्पयो । व्यर्थिका धर्मजिज्ञासा किन स्याद्वेदयादिनाम् १ ॥५५३॥ अपरिक्षालसेपास्ति नापि तत्करणं कचित् । सर्वेषां यक्षकारित्वमन्यथा स्यादनाकुलम् ।।५५४॥ अर्थग्रहः प्रसिद्धोऽयमधलाबालकेष्यपि । विकादं विदधीतास्मिन्ननुन्मतो जनः कथम् ? ५५५॥ इस्वपि स्वगृहे तुल्यमुत्तरं निश्चयागतम् ।
तस्मात्स्ववेदन सर्वज्ञानानामनुपद्रवम् ॥५५६॥ स्था चदुक्तम्--
“यदा तु ग्रायसाकार नीलादि प्रतिपद्यते । न तदा ग्राहकाकारसंवित्तिदृश्यते कचित् ॥” [मी० श्लोकशून्य०७४] इति । १०
व पर्याय
आ०,०, स.-
वजा-प-1३ अपि ने मा०,40, प., स..
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ग्यायविनिश्चयषिधरणे
.305
सत्रः कीदृशम् तदाकारस्याः संविभिनी: स्यारे लीलादेख्यतिरिक्तस्येति चेत् । फाचित क्षतिः अस्माकमपि तदनियः । व्यतिरिक्तस्येति चेत्न नीलबदहमिनि तदाकारत स्यापि दर्शनात् । अहम्बुद्धावामन, एय दर्शन ग नीलबेदमस्येति चेतना नीलप्रमाणस्वभावस्यैष न दर्शना,.. अन्यथा नीलस्य कर्गल्येन प्रतिभासविरोधात 1 तहणस्वभावलमप्यात्मन ५. एवेति चेत् । अनर्थकमेव तर्हि ज्ञान तरप्रोजनस्य विषयपरिच्छेदत्यात्मन एव भावान् । ज्ञानस्य
तत्र करणत्वाचानकत्यमिति पेन्न : कार्यस्यैव करणापेक्षणात नामा कार्यम् । तस्य नित्यवरन् । अनित्य एष विषयपरिच्छेदपर्यायस्तस्येति चेत् ; न., नापि पक्षुरादरेच प्रतीतस्य: करणखोपा सो दुनिवासिनी बुद्धि इतिबुद्धरेवाभावात
त्पर्याय एव बुद्धिरिति चेत् । न तर्हि तस्य.परोक्षत्वार अहम्युद्धौ प्रत्यवभासनात् । तत्रापि १० न शक्तिरूपेण प्रतिभासदमिति चेत अस्तु तस्यैर्व परोक्षत तत्पर्यायस्य तु कथाम । तस्यापि
तदुञ्यतिरेकादिति चेत् । न राहि मीलारेरपि प्रत्यावं सक्तिरूपातस्याप्यन्यतिरेकात् । प्रत्यक्ष मेव तस्य तद्वमिति चेत्, म तस्यातीन्द्रियत्योपररमात् । अन्यथा त प्रत्यत्तयो ज्ञाताहाहा. दहनशक्तता" [ मी. चलो अर्था ०.३.] इत्यादेपकल्यात । तथा चेमपि दुर्भाषित
मेवे-"प्रत्यक्षोऽर्थः" [ ] इति । ततो यथा परोसत्वेऽपि “तपस्य प्रत्यक्षमेव १५ नीलादिकं तथैवानुभवात् तथा तत्पर्यायोऽपि तत्रापि तथाऽनुमवस्याविशेषात् । "कुतश्चेद
पिण, तमापि सथाऽनुभवम्याविशेषात् । "कुती निश्चितम् 'सकलं ज्ञानं स्वप्रकाश
यातं चार्थसंवित्तौ नात्मानं ज्ञातुमर्हति तेन प्रकाशकत्वेऽपि बोधायान्यत्प्रतीत्यते ॥ sis: "ईदृशं या प्रकाश तस्यार्यानुभवात्मकम्
। सति प्रकाशकत्वे च ध्यस्था इश्यते यथाः ।। 31:' रूपादौ चक्षुरादीनां तथात्रापि भविष्यति ।। ram
प्रकाशकत्वं वाटेऽर्थे शक्त्यभावानात्मनि मीठ श्लो शून्य०१८४-८५] इत्यादेविचारादिति चेत् । उच्यते-याय विचार "सकलानान्ता पोतिनमात्मानमपि स्वप्रकाशविकलावैति; कथं सकलमपि ज्ञान स्वप्रकाशविकले विचारतानस्य स्वकाशप्रसिद्ध ! अथ नाचैतिः कथं सफलज्ञानाना स्वप्रकाशकल्यमवगतमा विचारका
वप्रकाशवकल्स मवगतम् , विचारशानस्य तदनवममान ?
Saman तस्यापि विचारज्ञानान्तरातदक्गम इति चेत् तदन्तरस्याप्यपरतदन्तरात सध्यममेऽन.
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महम्धुमो। २ मीलणस्वभावमपि । ३ बारमनः1 ४ "समादप्रत्यक्षा बुद्धिः वायरमार १५५ । ५ बालपर्याय एव । ६ शक्तिरूपस्तौद । लोलादेः तिरूपम् । ९ आकारयान बायोऽर्थः, पहि बहि समस: प्रत्याशमुपलभ्यते ।"-शायरभागा श तिकणय भयोऽपि । १२कृत. श्चिदमिसा मामाममृति मला प्रकाशन तस्यानिभवात्मकमाम चारमानुभवोऽस्त्यस्यात्मनी में प्रकाशकाना-पीकोका १५.विचारस्यात्मानपि । १.६ खात्मास्वप्रकाशविकलभानुभवतो विचारस्य प्रकारावयासमिति भारतदनम्तरस्यायाम कस।
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प्रथमः प्रत्यक्षता वसायोपात् । न वदोषा; यावच्चममेव विचारज्ञानयन्धोत्पतेः, प्रत्युत्पन्ने तु श्रमे तत एथ सविनिवृत्तः, अभिरुसलिमृत्तिवाक्छया वातद्विच्छिन्तेः । न झनभिरुचित विचारज्ञान प्रवन्धुः (प्रयधु ) महति । विषयान्तरसम्पदा तलावृत्तेः । श्यते हि कृषिनीलझानस्य पवमानस्यापि पीतादिसनिधावनवस्यानं पीसादिक्षानस्यैव तथा प्रादुर्भावात् । सयुक्तम्
"यावच्छ्रम च तद्बुद्धिस्तत्प्रबन्धे व सत्यपि ।
सेमाच्या(श्रयात्रुच्या)न्यसम्पाद्विपल्लेदो विषयेष्विव ॥" [मी० श्लोशून्य. १९३] इति चेत् ; भवस्ययमनवस्थाघोषस्य परिहाये । पुनः सकलसंवेदनम्वप्रकाशवैकल्यापरिज्ञानदोषस्य, तख तदवस्थस्यात् । ततस्तमपि शेष परिजिहीर्षवा सुदूरमनुसृत्यापि विचारमानं स्वपरप्रकाशरूयमुररीकर्तव्यम्, अन्यथा स्वगतपरोक्षसायास्तेनापतिपत्तेः उक्तदोषापरिहारात । एतदेव दर्शयितुमाह-परोक्ष' इत्यादि । परोक्षं स्वप्रकाशविकलं ज्ञानं जानातीति परोक्षज्ञाः १० मीमांसकस्य सम्बोधनमेतत् । विक्षिप्रत्यये सति एवंरूपसिद्धिः । विषयपरिच्छेदो विषयस्य सकलज्ञानपरोक्षतालक्षणस्य परिच्छेदो विचार: परिच्छिदसतेऽनेनेति व्युत्पत्तः, सन परोक्षवत् परोक्षश्चक्षुरादिः स्वप्रकाशबैकस्यात् तद्वन्न तत्समानो न भवति, स्वप्रकाशस्थापि सत्र भावादिति भावः । ततो यथा विचारज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वमपि तथैव निर्वाधादनुभावात् स्थार्थज्ञानस्थापि तदस्तु तदविशेषात् । तरलतरपि तत्र तत एव विचारज्ञानवदधिगमात् । ततो नेदं पर्या. १५ छोचितवनम्-'प्रकाशकत्वम्' इत्यादि ।
___ यज्ञानस्य विषयवदात्मन्यपि व्यापार: तर्हि चक्षुरादे रूपादिवद्रसादावपि व्यापारः कुतो नेति चेत् ? 'तथैोऽदर्शनात' इसि ग्रूमः । चथा स्वरूपव्यापारस्यावर्शनम्, सदर्शनस्य निवेदितत्वात् । तत इदमपि "ताशमेव-'सति प्रकाशकत्वे थइत्यादि । तेन 'प्रकाशकत्वेऽपि इत्यादि पुनः अनुभवप्रत्यनीकत्वादेव प्रविधिहितम् ।
किंवा तदनवबोधे परिहीयते यतस्तदवोधायान्यप्रतीक्षणम् ? अर्थप्रकाशनमेव, अपरि. मा("अपरमा)नादप्यपरिज्ञानादर्थज्ञानप्रकाशनायोगान् , "तदपि स्वप्रकाशन्य ज्ञानान्तरं प्रतीक्षेत । "तदपि तदपर हानान्सरमित्याचरापरक्षानप्रतीक्षायामेवासंसार च्यापासन्न प्रथमज्ञानस्य .. प्रकाशनम्, "तदभावादर्थस्यापि न प्रकाशनमित्युफ्रतमिदानी वेद्यवेदकुमावेन,ततो दूरमनुस्मृस्यापि । कस्यचिदपरिज्ञातस्यैव स्वविषयप्रकाशकत्वे प्रथमज्ञानस्यापि तद्वत्तदुपपः ध्यर्थमेतत्परिझानार्थमन्यप्रतीक्षणम् । “सन्न अर्थज्ञानापरिज्ञानेऽर्थप्रकाशनस्य "परिहाणिः । अर्थशानभरमस्य वर्हि परिहाणिः, अपरिजाते तस्मिन् तदयोगात् तस्य परिक्षातविषयत्वात् । अस्ति ५ तज्ञानस्य
- तसि-आ०, २०, ५०, स। अगवस्थानिपुरीः। २ वाञ्छाया सा । ३ अनवस्थाविधि। है अपस्माते: । ५ समात्या--1. ६-शर्माप प्रा०, २०.१०,
स मिर्वाधानुभवादेव। 4-ज्ञानदषि-मा०, ब, साजानादषि-०। ९षयनसदाम-4.1 विषयवशादात्म-4.विषयवसायम-- मा. ... र्श-०, २०, ५०, "अपलोचितमेव । १२ स्वरूपालयबोधे । द्विती चश्वनात् । १४. द्वितीय स्वममपि । १५ तृतीयं ज्ञानम्। १६ प्रथमभावप्रकाशमाभावै। १७-रिनस्व स. १८ समानार्थज्ञानापरिक्षाने भा०, २०, २०,
स परिहाणेः भार, प, प., स .प्रयमझारे।
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Micram
ग्यायविनिधयविवरखे
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स्मरणम् 'परिक्षातो मया यः' इत्यत्र विषय[वत् विधविणोऽपि प्रतिमासनात, तवस्तवन्यथानुपपत्या अर्थज्ञानस्य परिक्षासमवगम्यत इति चेत् ; न; भ्रान्तस्य 'वस्यासत्यपि
पनि सम्माम् , कपिशापूर्वअपि 'स' इति स्मरणविभ्रमस्थरेपलम्भात् 1. अभ्रान्तमेष स्मरणमिति चेत् ; कुछ एतम् ? सस्थेव तत्परिज्ञाने भावादिति चेत ; सत्येति कुतः १ स्मरण५ स्थानान्तत्वादिति चेत् ; ; परश्यराश्यात्-सिद्धेन तरसत्त्वेन तदनान्तस्वसिद्धिः, सवश्च तत्सस्वसिद्धिः' इति । अन्यत एव तत्सत्वसिद्धिरिति चेत् ; न; स्मरणवैचांपत्तेः ।
अपि च, अन्यदपि तद्विषयं यदि न भवेत् कि तस्य परिहीयेत ! स्वविषयप्रकाशन मिति चेत् । न सोसरवाच । स्मरणमेव सहिष्यं परिहीयते सत्येव तस्मिन् तदुपपत्तरिति
घेत् ; न: "भ्रान्धस्य तस्य' इत्यादेः पुनरनुसन्धात् अनवस्थावाहिमश्चक्रकस्यापतेः । अभ्रान्तस्वं १० स्मरणस्य निर्वाधस्वादवगम्यते न द्वितीयज्ञानावात् ततोऽयमदोष इति चेन् ; न तनिधित्व
स्य स्वत्तो दुरवबोधत्वात स्वसंवेदनवादप्रत्युञ्जीवनापत्तेः । अन्यतरसदयपोथै इति चेत् ; न; ततोऽपि भ्रान्तात्तदद्योगात् । अभ्रान्तमेव तदिति चेत् ; कुत पतत् ? सत्येव निर्माधत्वे भाषादिति चेत् । सत्येवेति कुतः ? तस्याभ्रान्तत्वादिति चेत; न ; पूर्ववत्परस्पराश्रयदोषात् । न
तदोषः, तनिधित्वस्मन्यत एघातामानिति चेत् ; ; प्राध्यस्पान्यस्य वैयापोः । १५ अपि च, अन्यदपि द्वितीयं यदि प्रान्तम् : कुत्तस्ततोऽपि "तवममः अतिप्रसङ्गात् ।
अभ्रान्तमेव तदपीति पेस ; म; "कुत एतत् इत्यादेराइस्मा परिनिष्टाशून्यस्य "परिभ्रमणस्योपनिपातात । तदननार्थवानस्यापि निर्याधत्वं टुरचयोधमिति प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्य समानत्वान्न्यायस्य । तत इदमसम्मन्येव "लक्षणं 'बाधवर्जितं प्रमाणम्' इति । स्पसंवेदनवादिना तु
नार्य दोषा, कस्यचित्क्वचिभ्यासपाटवातिशयाविष्ठानस्य देशकालमरागतरापेश्यापि निर्वाष२० तस्य स्वत "एवाध्यवसायात, अन्यथा सकलप्रवृत्त्यादिव्यवहारविल्लेवापत्तरिति निरूपितम् , निरूपयिष्यते च यथास्थानम् 1 ततो न स्मरणस्थापि परिहाणिः यतस्तद्वलेनार्थज्ञानस्य स्वज्ञानायान्यप्रतीक्षामुपश्येत : अपि च--
प्रतीक्ष्यमाणमप्यन्यत्तायता लभ्यते कथम् । *हि विप्रेच्छया लब्धिर्भूतपूरस्य दृश्यते ॥५५७॥ अर्थप्रकाशसस्वच्चेदन्यथानुपपत्तिकात् । तस्यापि निर्मुलस्या तज्ज्ञानोन्मुखता कथम् ? ॥५५८|| तत्स्वरूपे हि निर्माते तस्येदं बुद्धिरुद्भवेन् । ज्ञाय एव पितर्येष पुत्रस्तस्येति निर्णयात् ॥५५९||
स्मरणस्य । २ तवरिशमन : ३ प्रथमशानस्थ परिश्चनसस्वसिद्धिः। द्वितीयशनम् । ५ प्रयममानविषयम् । प्रथमझामस्य । बोधगामिति भा०,२०,०स०। ८ असन्तेरेष स-मा०प०, प., ९ पूर्वमानस्य निर्वधावे। १० पूर्वज्ञानस्य निर्वाचत्वायगमः। 1यक्षक१२ एराज विशेषणत्रयमुपादानेन सूत्रसारेण कारणकोषबाधारहितमगृहातग्राहि शान प्रमाविति प्रमाणलक्षणं सूचितम् ।"-सारनी॥१५: ५ एप व्यवसा-श्रा०प०,१०,
स ताई वि-10 मा, १०, स.।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव:
र्गदर्शक
ज्ञानमात्रोन्मुखे तस्मिन् सम्बन्धग्रहनिर्मुखे । अर्थस्य ज्ञानमित्येष व्यवहारः क्षयं ब्रजेत् ॥५६॥ अर्थाभिमुस्ये तस्यापि तस्कृतासत्प्रकाशनात् । सदानमपि लभ्येत तमायेचे निरूपणे ।।५६१॥ अनत्रस्थानदोषोऽयमनिवार्यः प्रसध्यते । विषयान्तरसदारनिषेधक्षमापक्रमः ।।५६२॥ तत्वज्ञानावपाहिन्यः स्मृतयोऽध्यनवस्थिताः । प्राप्नुवन्ति तदन्यार्थस्मृतिसञ्चारवारिकाः ॥५६३॥ जानन प्रवर्तक वाक्यं स्मरस्तावमययम् । कथं तदर्थविद् विनस्तउमार्नमृतिमान् कथम् ?॥५६५ ॥ येन तद्विषयं कुर्वनामुष्ठानमनाकुलम् । प्रत्यक्षायैर्विमुच्येत प्रेत्य चेह च याक्षिकः ॥ ५६५॥
स्यान्मतम्-सत्यम् अर्थाभिमुखस्यैव स्यार्थज्ञानाभिमुख्यम् अनवगतेऽर्थे तस्येद झान इसवयमायोगात, प्रतियोगिनि पितरि बात एक वस्यायं पुनः' इति प्रतिपतिदर्शनात । सम्बन्धमहणनिर्मुखतया ज्ञानगात्रस्य ने प्रमाणे तु 'अर्थस्य झानम्' इदि व्यवहारलोपप्रसङ्गात् । १५ तत्र यद्यपि त्यात्ताचरर्थ प्रकाशनात्तद्विषयमपि ज्ञानम् , तसादपि ससस्तद्विषय झानमित्यपरापरज्ञानोपकल्पनम् , तथापि नानवस्थानं यावच्छुममेव सदुपजननात् , उपजाते तु श्रमे लदभाषात । सत एवन स्मृतीमामप्यनवस्थानम् : तासामप्युपातमानपरम्परामात्रपवसायिस्वेन परतः प्रवृतेरभावात् । तदुक्तम्
“घटादौ च गृहीतेऽर्थ यदि तावदानन्तरम् । अर्थापत्यावबुध्यन्ते विज्ञानानि पुनः पुनः ॥
यावच्छ्रमं ततः पधाचायन्स्येव स्मरिष्यति ॥"मी० श्लोक शून्य. १९०] इति । तसः प्रवर्तकवाक्यरूपाविषयान्तरे तदर्थलाक्षणे समारसम्भवे कथनानं कर्ष छान "तज्ञानस्मरणं यतस्तदनुमानासम्भवात् प्रेस्त्र चेहू च याज्ञिकस्य प्रत्यवायनि तिर्न भषेदिति; तदपि न समीचीनम् ; अमापरिज्ञानात्.-'कस्य श्रमः, को वा श्रमः १' इति । अर्थप्रकाशस्यैव ।। श्रमः, अन्यथानुपपतिवैकल्यमेव च श्रम इति चेत् ;न; प्रथमस्याप्यर्थज्ञामत्याग्रहणप्रसङ्गात । न हि वस्याप्यर्थप्रकाशनादन्यतो महणम् । न चान्यधानुपपत्तिविकलादपरापरझानक्त्तस्वापि"
-- -- वैदयक्यम् । २ वाक्यज्ञानम् । ३ वाक्याता । तवावग्रस्त ज्ञानस्य स्मृतिमान का, 40, 4, स. । यदि तदर्थव नाति Aधनकाले अज्ञानत्मरणं स्यादिति भावः । ५ द्वितीयशामस्य । ६ द्वितीयझानेन । द्वितीयशामता ८ प्रथमयमस्य यो विषयः सविषयमानम् । ९ तूतीपशानादपि । तरकृतवादपि बास००, | " वितीयज्ञानस्य यो विषयः तद्वियमपि शमनम् । 11वसितरवेन मा०, ब०, १०, १२ वाक्याज्ञानम् । १३ साक्षार्थानमरणम् । १४ कल्पश्रममैवच श्रमः-.. ल-वयनमः २011५प्रथमश्रामस्थाषि।
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न्यायविनिश्चयांचवरणे
ततो ग्रहणमुपपन्नम्। अतिप्रसङ्गात् । सन्न तत्प्रकाशस्य श्रमः! आत्मनः श्रम इति चेत् । कस्त.. स्थापि प्रम? अर्थज्ञानलझानादिप्रबन्धप्रतिपत्ताभिरुचिकन्यमिति चेत् ; न ; सबैकल्येऽपि सामग्रीसद्भाचे तत्प्रतिपोरवश्यम्भावात् अशुचिप्रतिपत्तिवत् । तहि सामग्रीवैकल्यमेव तस्य
श्रम इति चेत् : ननु अर्थप्रकाश एवं सामयी, स च वियत एख, कथं सवैकल्यम् ? न ५ तन्मानमेव सामग्री येनैवम्, अपि त्वन्यथानुपपन्नतया तत्सरिज्ञानमपि, न च तत्सर्वस्मिन्नपरापरे
तस्प्रकाशे विद्यते, प्रिचतुगादिवत्प्रकाश एक सद्भावात् तस्कथमनवस्थानमिति चेस् ? म सहि प्रथमस्थाप्यर्थशानस्य प्रहणम् , तत्राप्यन्यथानुपपत्तिपरिज्ञानाभावस्य वयामणस्वात् । ततो न *तीयमाणस्यापि हातानप य सकाह-'परोक्ष' इत्यादि । परोक्षज्ञानम्
आयमर्थवान सस्य विषयो विषयप्रकाशः तारख्याताच्छदधोपपत्तेः । तेन परिच्छेदो ग्रहणम् , १० परोक्षवत् पर: पत्राद्वाव्यश्री योधस्तस्येव तदिति ।
आयस्याग्यर्थयोधस्य ग्रहणं नार्थदर्शनात् ।
अन्यथासम्भवाज्ञानादुसरज्ञानतावत् ॥५६६॥ उन्न अर्थप्रकाशादेवार्थज्ञानं महणम् । अन्यथानुपपन्नतया परिज्ञानात् तस्तद्रहणमिति चेत् । सिद्धस्य, असिद्धस्य पा "तस्य तत्परिक्षानम् ? सिद्धस्येति चेत् ; कुतः सिद्धिः ? १५ स्वत इति चेत् ; ज्ञानधर्मस्य, अर्थधर्भस्य था ! झानधर्मस्य पम् ; न; ज्ञानस्यैष
स्वस्सिद्धिप्रसङ्गात् तस्य सत्प्रकाशाम्यतिरेकात् , तथा च व्यर्थ तस्यान्यथानुपपत्तिपरिवारम् , तस्य ज्ञानप्रतिपयर्थत्वात् , तस्याश्च स्वत एव सिद्धत्वात् । अन्यत एव सिद्धिरिति चेत्, सदपि कुतः सिद्धम् ? तत्कृतात्मकाशादिति चेत् । न तस्यापि नझानधर्मले स्वतः सिद्धत्वे च"पूर्ववदोषात् , पुनरभ्यतस्तत्सिद्विकल्पनायामप्यमयस्वायत्तेः । तम्न जानधर्मस्य कुतश्चिसिद्धिः।
अर्थधर्मस्यैवेति चेन ; न; तस्थापि स्वतःसिद्धार्थस्यापि तत एव सिद्धेनिकल्पनावैफल्यम्। विज्ञानवादप्रत्युनीयनच, स्वसंविदिततत्प्रकाशानन्तरत्वे विषयस्य तज्ज्ञानवापतनिर्विवादत्वात् । न छ याज्ञिकस्य तदभ्युपगमः श्रेयान , बहिरा भावे तनिबन्धनस्य यागादेरभावप्रसङ्गात् । वन स्वतस्तत्सिद्विः" नाप्यन्यतः, सदभावात् । अर्थज्ञानं तदस्तीति चेत् ; न; सतोऽर्थस्यैव सिद्धः।
"तत्सिद्धरपितत एव सिसिरिति चेत् । न तस्यार्थसिद्धि प्रत्युपक्षीणस्य ससिद्धि प्रत्यव्यापारात् । १५ व्यापारे चानवस्थानात् , अपरापरतत्सिद्धौ तस्यैवासंसार व्यापारात् । मा भूदर्थशानासरिसद्धिः,
सदन्यत एष तद्भावादिति थेम् ; न; ततोऽप्यनर्थविषयान् तरप्रकाशयहायोगात् । अर्थविषयमेव सदिति चेत; कुतस्तदपि "शास? तस्कृतादेवार्थप्रकाशादिति चेत् । म प्राक्तनार्थज्ञानवदोषात ,
अर्थप्रकाशात् । २ --सिदि वतिन सा-आ०, २०, B.-पत्तिहि वर्मांच सा-प.। ३ भ्रम इति पेन्नार्थ-800, ब, १०, स० । अम्पयानुपपन्नतया परिहानमपि । ५-शत एक बार , १०, स.। ६ महानार्थ-भा., ०,१०.1 प्रबन्धवत् । ८ परिशामात्-to, ब०, १०, सः। ९ अप्रकाशाद । १. अर्थानस्य 1 11 पूर्वदीयात् मा०, ब, १०, स. १२-यामध्यवस्था-ता। १२ अर्थप्रकासमिथिः । " अर्थप्रकारसिद्धरपि । १५ अर्थचामादेव । १६ अर्थप्रकाशसिद्धि प्रति । १७ जामम् भा., ०,१०।
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प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
१९३
प्रकाशस्यापि ज्ञानान्यत्सिद्धायनवस्थानात् । तन्न सिद्धस्य सस्यान्यथानुपपतिपरिज्ञानम्। नाप्यसिद्धश्चैव न प्रतिपन्ने धूमे तस्य पावकापेक्षं 'सुपरिज्ञानम् अन्यथाऽनुपपन्नत्वम् । तदेबाहअन्यथानुपपत्वमसिद्धस्य न सिद्ध्यति ॥ ११ ॥ इति ।
.
अन्यथा अर्थज्ञानाभावप्रकारेण अनुपपन्नत्वम् अघटनम् उक्तप्रकारेण असिद्धस्य विषयप्रकाशस्य न सिध्यति ।
अपि च, अयमर्थधर्मः सन् कथं बुद्धिमनुमापयसि ? तत्कृतत्वादिति चेत्; सी यथामनः कथं तथा तदवेदने तत्सत्षयेदनम् । तस्या एव ततोऽनुमानादिति वेम् एतदपि कुतः ? तथा संवेदनादिति चेतुः किं तत्संवेदनम् १ तदेवानुमानमिति चेत्; किं पुनस्तस्य स्वसंवेदनमस्ति ? न त् कथं ततस्तथ संवेदनम् ? अप्रतिविदितादेव तस्मात्तस्य प्रतिनियत पुरुषबुद्धिगोवरत्वस्य दुरवबोधत्वात् । माभूत्तस्य स्वसंवेदनम्, अन्येन तु वेद्यमानं तथाविधमेव च २० इति चेत् तस्यापि तथाविधसद्वेदनविषयत्वं कुतः ? तथा संवेदनादिति चेत्; किं तत्संबेदन तदेव ? अन्यदिति चेत्; न; अत्रापि किं पुनस्तस्य' इत्यादेरनुबन्धात् अनवस्थानोत्तरस्य चकर्क स्थापतेः । एतेन परस्य सा बुद्धिर्बुद्धिमानम् इत्यपि प्रत्युक्तम् न्याय समानत्वाम् । तन्त्र बुद्धिकृतरमर्थ प्रकाशस्य ।
९९२
;
;
अहेतुकत्वे कथं सत्यमेव "तस्येति चेत्; न; अर्थहेतोरेव तदुपपत्तेः, यावदर्थेभाषि- १५ हवं तस्य नीलत्पादिवत् । ततः कादाचित्कत्वं न स्यादिति चेत्; किं पुनस्तद्रहितोऽवि " कदाचिदर्थोऽसि ? तथा पेम कुत एतत् ? तथादर्शनादिति चेत्; ननु तत्प्रकाश एव तद्दर्शनम्, तत्कथं स पदास्ति स एव नास्ति' इत्युपपन्नं व्यापातात् १ विरद्रष्टव्यान्दरालापित्वं प्रकाशरहितमेव पश्चात्प्रत्यभिज्ञायत इति चेत् प्रत्यभिज्ञायां यदि तत्र प्रकाशते कथं "तस्यास्तद्विषयत्वम् अतिप्रसङ्गात् । प्रकाशते चेत् कथं तस्य प्रकाशरहितत्वं व्याघातस्योकत्वात् ? प्रत्यभि- २० ज्ञायाः पूर्वमप्रकाशमेव सदस्तित्वमिति चेत्; न; तदपरिज्ञाने 'तप्रकाशमन्यथा वा' इति दुश्वबोधत्वात् | अर्थकारणात् भवतस्तत्प्रकाशस्यै कथन्न सर्वप्रतिपन्नृसाधारणत्वं नीलवदिवि चै; न; ज्ञानात्परोक्षात् भावेऽपि समानत्वात्, अन्यथा ""अज्ञानाधीनस्य नीलस्यापि भावात् । म चापरिज्ञातस्य तस्य कादाचित्कस्ववेदनम् । नापि परिज्ञातस्य अर्थज्ञानादन्यतञ्च तत्परिज्ञानाभावस्य निवेदितस्वात् ।
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atered at तत्कृवो विषयपरिच्छेदोऽपि परोक्ष एव पुरुषान्तरज्ञानकृतसत्परिदवदिति । एतदेव निवेदयति- 'परोक्ष' इत्यादिना । 'परोक्षवत्' इति परं पुरुपान्तरज्ञानं वदुचस्ततो विषयपरिच्छेदसद्वदिति असिद्ध इति यावत् । न च तथाविद्यात्परि
1
;
५
बुद्धिः ।
१ स्वपरिक्षा-आ०, ब०, प०, स०२ प्रकाशनस्य य०, प०, स० ] ३ अर्थप्रकाशः ॥ ४ मम इये दिने कि संघ आ०, ब०, प०, स० ० तदा भा०, २०, ५०, 8०1८ स्वपि। १ किं पुनः संत्रे - ०,४०,१०, स० १०० कस्योपपत्तेः ०१०१००११ अर्थप्रकाशस्थ १२ अर्थकावारोऽचि प्रत्यभिज्ञाया अतराळविषयत्वम् । १४ अर्थप्रकाशस्य १५ अाधीनस्य १५ सर्वप्रतिपाधारणत्वाभाव १७ परपुरुषा ४०, प०, प०, स० । १८ तचाधिकारपरि- भ०, ४०, प०, स० ।
સ
२५
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स्थायविनिश्चयाधिकरणे
दालवयनुमान पुरुपान्तरज्ञानतादपि ततस्तदनुमानप्रसङ्गात् । तस्य वदन्यथानुपपत्तिनियमानिश्चयानेति चेन् । म; स्वबुद्धिकृतस्याप्यसिद्धस्थ संदनिश्चयाविशेषादिति एतदेव वक्ति । 'अन्यथा' इत्यादिना निवेदनात् तत्करतयातिशयो दूषणाभिधाने परसामध्यमुपजीवत शति ? संग्राह
मिथ्याविकल्पकस्यैतदुव्यक्तमात्मविडम्बनम् । इति !
अत्रेदमैदम्पर्यम् -भवेदेवेदं भवत्सामर्थ्य यदि दूषणे भवतोऽधिकारः स्यात् । न चैवम् , अनुपायत्यात् । "पृष्टं (अदृष्ट) दृष्टया" [प्रका० २३४६८] इत्यादिर्विकल्प एव समोपाया, वेनास्वसंविदितज्ञानेऽर्थगोपरत्वनिषेधस्य दूपणस्यापादनादिति चेत् । न ; तस्य निर्षियत्वात् ,
"विकल्पोऽवस्तुनि सात्" [ ] इत्यभिधानात् । न प तीवशात्कस्यचिरक्वचिदा१० भादगम् ; अतिप्रसङ्गात् ।
अस्पसंविदितज्ञानादर्थ निषेधनम् । अवस्तुहाहिकल्पाच्धेत । ततः कस्मान्न तद्विधिः ॥ ५६७ ।। निषेध एव "तस्यास्ति प्रतिबन्धो विधौ न घेत् ।। सोऽपि ती निनाभाये केनाधगम्यवाम् ॥ ५६८ ६ सस्गादेव न तज्ज्ञानं तस्य "स्वांशष्यवस्थितः । न विकल्पान्तरात्तस्याप्येतद्दोपानतिक्रमात ॥ ५६९ ।। ने चोभयापरिज्ञाने सरसम्भवप्रधेदनम् । "विष्वसम्बन्धसंवित्तिा इत्यादिवचनक्षतेः ।। ५७० ॥ सम्बन्धोऽपि यदि द्विो विकल्पस्येह गोधरः । तदवस्तुविनिर्भासमवादः]स्थितिस्मन् कथम् १ ।। ५७१।। सोऽपि तत्प्रतिबन्धाच्चत्तमस्थानिबन्धनम् । तस्यापि प्रतिबन्धस्य विकल्पादन्यतः स्थितौ ।। ५७२ ।। परापरविफल्पानामासंसारमुपस्थितेः ।।
अनवस्थामदोषः स्यादसायनिदशैरपि।। ५७३ ॥ ततो निराकृतमेवत्
"लिङ्गलिनिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि । प्रतिबन्धात्तदाभासशून्पयोरप्यवञ्चनम् ॥" [५०या० २१८२] इति ,
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अर्थपरिच्छेदात् । अदिति ०,१०,81 ३ अस्वसंचिदिसस्य अभ्यधामुपपत्तिनियमनिधसामानाविशेषात् । ५ अप्रेदमेव तात्पर्यम् आ०,५०,५०, बटयः सापक, अध्योऽन्थेन नया राय न हि कवित। -दि यस्मादरा पिज्ञानं येषा लेऽषोः विवन्येल मष्टा हा इति ने, र निश्चय विषया: स्य"-प्र.का.म.श५६८१ विकल्पस्य । चिनिषषिकरवात्। अष्टिविधानम् । १. विकल्पस्य । 11-विज्ञाना-80०, ०प० । १२ स्वांश व्यवस्थिते मा०,०, प.स.। "विष्णुसम्बन्धसविसिनेकरूपनवेयनातू । दसकपाहणे सति सम्बन्धवेशनम् ६-१० याचिका
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मार्गदर्शक
१।१२।
प्रथमः प्रत्यक्षमस्वाक प्रतिबन्धस्यैव दुरवबोधत्वात्। तस्मात् मिथ्या वस्तुतो निर्विषयवादसलो विकल्प: "अष्टदृष्टयः" इत्यादिविचारो यस्य तस्य मिथ्याविकल्पकस्य सौगतस्य एतत् परोक्षशानदोषोडावनं व्यक्तं परिस्फुटं यथा भवति तथा आत्मविडम्बनम् , आत्मतिरस्करणम् असा. धनाङ्गवचनानेग्रहामा।
___ अपि च, अप्रत्यक्षज्ञानादष्टेः प्रतिषेधो यदि 'तुन्छः कथं तत्र अनन्तर विकल्पस्य ५ प्रतिबन्धः सत्तावात्म्याभावात् , अन्यथा विकल्पस्यापि छतापत्ते, सत्कार्यत्याभावाच तत्प्रतिघेवस्य तुच्छरवनाहेतुत्वात् । प्रत्यक्षबानादेष्टिरेव पर्युदासवृत्त्या सेंद्विपरीतात्तवृष्टिप्रतिषेध इति चेत् । तदपि यथाप्रतिभासम् , यथाभ्युपगम वा स्यात् ! आयेऽपि विकल्पे यदि सद्विषयाकारम् ; सहि परस्परविविक्तानेकनीलपीतायाकार तदेकमभ्युपान्तव्यम्-"चित्रप्रतिभासेऽप्येकैव धुद्धि"१० वार्तिकाल० २।२२०] इति वचनात् । तेश्चाक्रमवन् क्रमेणापि तथानिधत्वं न १० परित्यजवि अशफाश्वेिचनत्वस्य तत्रापि निरूपणादिलि सम्भवक्रमाभ्यां सविकल्पकं तत्याने विविधानुविधानस्यैच "विकल्पलक्षणत्वात् , शब्दसमस्य तु ललक्षणस्य 'अभिलापसदंशानाम्'इत्यादी" निषेधात् । अविषयाकारं चेम् ; न तथाप्यनेकशक्तिकरयस्याशक्यनिषेधत्वात् , अन्यया युगपदनेकार्थमाइकस्वानुपपः सञ्चितालम्बनत्यविरोधात् । “सम्भवानेकान्ताच "पर्यायानेकान्तस्य व्यवस्थानान् सिद्ध तथापि" सम्भवक्रमाभ्यां सविकल्पफलम् । न च १५ "सविकल्पस्यार्थज्ञानत्वम् ; तस्थावस्तुविषयत्वेनाभ्युपगमात्, तत्कथं प्रत्यक्षात्तस्मादर्थदर्शनमेव तद्विपरीतात्तनिषेधो यतस्तन विधार विकल्पस्य प्रतिबन्धः प्रत्यक्षस्य वा " स्वसयेदनसाधन भवेत् ? तदाह-मिथ्या इत्यादि । मिथ्या निर्विषयो विकल्प एकमनेकाकारमेकमनेकशक्तिकं वा ज्ञानं यस्य तस्य सौगतस्य पसत अर्थदर्शनान्यथानुषपत्त्या सद्विकल्पस्वसंवेदनसाधनं श्यतमात्मविडम्पनं विफल्पस्यानर्थविषयत्वेनार्थदर्शनलक्षणस्य हेतोरेषासिद्धत्वा- २० दिति भावः । वन्न यथाप्रतिभालं वलात्यक्षसंथेदनम् ।
ताई यथाभ्युपगम "तदस्थिति चेत् ; न ; निरंशस्य 'तस्थ साकारस्य निवकारस्य चाननुभवात् , विकल्पोपसंहारवेलायामपि चित्रावभासस्यैव तस्य प्रतिसंवेदनात् , तदुपसंहारव्युत्थाने तथैवानुस्मरणाय । ससस्तन व्योमकुसुमवत् स्वसंवेदनसाधन प्रयासमात्रकमेव । 'तदाह-'मिथ्या' इत्यादि । अविकल्पकस्य निरंशदर्शनस्य एतत् स्वसंवेदनसाधनं मिथ्या २५ न समीचीनं अनुपायत्वेनाशक्यत्वात् निरंशार्थदर्शनस्य तलिङ्गस्थासिझे, अतश्च व्यक्तमात्म
------- - विकल्पवानिविषयः । २-ददष्टेरेव भा०, २०, ५०, ३ अप्रत्यक्षश्मना मष्टिप्रतिषेधः । प्रत्यक्षशान । ५ प्रत्यक्षहामम् । एकल । "चित्रामासानि मुखिर कैद माहाअविलपरवात् , शक्यविरेचनं चित्रममेकम्, मविरेचनाश्च बुद्धची लादयः।"-. वालिकाल. १२२०१ युगपरकमाभ्याम् । एं प्रत्यक्षमानम् ।।. "विविनानुबिधानस्य विकल्पनान्तरीयकत्वात्"-प्रमाण ०९८ न्यायविरलोक १२युगपदकधर्मात्मकत्यात् । १३ कमेन भनेकपागात्मकस्य । पर्यायोऽने का आद०,०,Hot I तथा हि मा०, ब,२०,०। १५ सविकल्पकस्या-आ०,००.स. १६ विचाराव। 10 तदस्तीति भा०,40, प.सं.१४ प्रत्यक्षस्या १९ तथा मा०, २०, ५०,स० ।
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न्यायविनिश्चयविधर
[ AR विडम्बनं परोक्षज्ञानवादितिरस्कारेणात्मनः सौंगतस्यापि तिरस्कारात् , तदभ्युपगतस्यापि संवेदनस्य वस्तुसः परोक्षत्वादिति मन्यते ।
यदि चायं निर्बन्धः नापरिज्ञातान् संवेदनादर्थरष्टिर्मपतीति ; तर्हि कथमव्यवसितादपि व्यवसायादर्थव्यवसाय: स्यात् ? व्यवसित एव व्यवसायो व्यवसायान्तरेणेति चेत् । कुत ५ एतत् ? तस्य स्मरणादेव, न स्यव्यवसितस्य स्मरण तिप्रसङ्गादिदि चेस् , तर्हि व्यवसायस्यापि व्यवसायेन भवितव्यम् , तत्रापि स्मरमाविशेषादिति व्यवसायमालोपनीता स्यात् । अस्तु को दोष इदि धम् ? कुतस्ताई तन्मालाप्रसूतिः ? पूर्वपूर्यस्मात् व्यवसायादिति चेत् । म; विषयान्तरसहाराभावप्रसवात्-पूर्वपूर्णव्यवसायस्य स्थविषयापरापरध्यवसायजनन एवोपक्षीणस्य विषयान्त
व्यवसायं प्रत्ययापासन् । न हि जनकत्वेन प्राझलक्षणप्राप्तं खसन्तानसम्बन्धिस्वेनास१० रङ्गश्च पूर्वपूर्वव्यवसायं परित्यज्योत्तरोत्तरव्यवसायस्य विषयान्तरव्यापारः सम्भवति । सम्भ
वत्येवार्थसनिधी, अशे हि सनिधो (धौ) व्यवसायस्य पूर्वव्यवसायमहणामिमुख्य प्रतिबद्धय स्वमहणाभिमुख्यमेदोपकल्पयतीति चेत् । न तर्हि व्यवसायस्य व्यवसायः स्यात्, अर्थव्यवसायस्पैद प्राप्तः, तथा च व्यवसायस्य स्मृतिरेव न स्यान, अव्यवसिते तदनुपपत्तेः। प्रतिबन्धकस्यार्थ
स्यासन्निधाने भवत्येवेति येन् ; न; असनिहितार्थाया व्यवसायशाया पयासम्भवात् । तथा च १५ निरवधप्रतिपसिरक्षाविधानविकलतयोसममूला एष व्यवसाययुद्धयन्त द्विषयाश्च स्मृतय इत्युअवलं तरभारतदर्शनम् ! ततो यदुक्तम्शानस्प-ज्ञानान्तरेणानुभवो भवेत्तत्रापि च स्मृतिः । . दृष्टा सद्धेदन केन तस्याप्यन्येन चेदिमाम् ॥
पाला ज्ञानविदा कोऽयं जनयत्यनुवन्धिनीम् । पूर्वा धीः सैर चेन स्यात्सश्चारो विषयान्सरे ॥ तो प्राधलक्षणप्राप्तामासना बनिका धियम् । अगृहीत्वोसरनानं गृहीयादपरं कथम् ? ॥ बाधः सन्निहितोऽप्यर्थस्तां पिकधु ( पिबद्दु) महि प्रभुः । धियं नानुभवकश्चिदन्यथाऽयस्य सनिधौ ॥ न चासनिहितार्थास्ति दशा काचिदतो धियः ।
उत्सममूलास्मृतिरप्युत्सनेत्युज्ज्वलं मतम् ॥" [प्र०या० २।५१३-१८]इति; वरप्रतिशिरम् ; स्वपक्षेऽप्यनिवारणात् ।।
नन्ययं पक्ष एंवाऽसौगताना ययवसायस्य व्यवसायान्तरेण व्यवसाय इति, सस्कयमेवमुपक्षेपः कृत इति चेत्नस्वतस्तब्यवसायाभावे व्यवसायान्तरतस्तषसाथस्यावश्याभ्युपगमनीयस्यात्,
, वस्तुनस्तरपरी-। वस्तुसत्वरो-प्रा००, स. १ परिश्वमारस-गा, २०२०, स २ तमालपस्मृतिः स! तन्मालीलाप्रसूपस्मृतिः आ०, ब०, 401 स्मरणानुपपारीः। ५ चौमसासमितिमार, प., 40,.14-पनमू-आ०, २०, ५०, 2.! . मालालामश्थिा 0510,प.स.16 पूर्यादिः से-मा०,२०, प... ५-नभ्यतीर्थ-प्रा .प.स. 1 एवं धौय-भा.प.,५०,
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२११२ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्ता
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अन्यथा ततोऽर्थ व्यवसायस्य तरस्मरणस्य चासम्भवात् । स्वसंवेदनयेद्यत्वात्तस्य ततोऽयं व्यवसाय [ : ] स्मरणञ्च तस्य, न व्यवसायान्तरत्रेत्यादिति चेत ; कीशं तत्स्वसंवेदनम् ? अव्यवसाय स्वभावमिति चेत् ; न तर्हि व्यवसायस्य तत् स्वसंवेदनं संस्याव्यवसायस्वभावाभावात् । व्यवसायस्वभावमेव हि संवेदनं तत्स्वसंवेदनं हितम् अपक्ष सुखपती सर्वदेवस्वसंवेदन भवेत् । सुखदुःखयोर्भेदान्नेति चेत्; न; व्यवसायेतयोरपि तदविशेत्राम् । माभूतस्य स्व- ५ संवेदम् अन्यदेवास्त्विति चेत्; तदपि यद्यव्यवसायस्वभावम् ; स एव प्रसङ्ग :- "न तहिं' इत्यादिः । पुनरपि तथाविधत्य संवेदन कल्पनायामनयस्था | व्यवसायस्यैव कथचिदव्यवसायस्वभाव इति चेत् ; भवत्येवम्, तवापि तस्याव्यवसायस्वभावेनंद वहिर्विषयत्वं तेनैव प्रतिपनत्वात्रापरेण विपर्ययात् । को दोष इति चेत् ? अर्थव्यवसायाभाव एव । न व्यवसायस्वभावसंवेदनविषयतामुपगतस्य व्यवसितत्वं नाम, अव्यवसितस्यैव कस्यचिदभावापतेः । १० संवेदन व्यवसाय मुक्तयत्ति व्यवसायस्वभावात् कथचिदनर्थान्तरत्वादिति चेत्; व्यवसायं किमेवं नोपनयति तदविशेषान् ? आत्मव्यवसायं प्रति वदनर्थान्तरत्वमनङ्गमिति चेत ; अर्थव्यवसायं प्रति कथममिति न किञ्चिदेतत् १ तनाव्यवसायस्वभावं तत्स्यसंवेदनम् । भवतु व्यवसायस्वभावमेव तरिति चेत्; न; अभिजल्पसंसर्गाभावात् । अभिजल्पसंसर्गे हि व्यवसायोऽवकल्यते । न च ये तत्संसर्गोऽस्ति वहिर्व्यवसायाभावा- १५ वायोऽपि सत्येव " तत्संसर्गे भवति, साम्प्रतं यदि स्वरूपे संसर्गः न बहिः स्थास् युगपदभिरुपद्वयसम्बन्धस्याप्रतिवेदनादभ्युपगमाच । क्रमेणैकत्र ज्ञाने तद्द्वयसंसर्ग ि चेत्; न; एकस्य क्रमाभावात्" क्षणभङ्गत्वादव्यापत्तेः । नाभिसम्बन्धाद् व् "तायं येनायं प्रसन्नः किन्तु संशयावित्यच्छेदस्वभावत्वात् । तदपि नाभिजल्पसम्बन्धात्, अपि तु स्वहेतुविशेषात् तच्छन्तित्वेन तेममुत्पत्तेः । तस्मात् स्वशक्ति एव स्वरूपाधिान २० संशयादिव्यवच्छेदस्वभावत्वात् व्यवसायस्वभावमेव व्यवसायानां स्वसंवेदनमिति चेत्; उपपन्नमेषैतत् यमेव व्यवसायानां तस्कव्यवस्थितः, अन्यथा तदसम्भवात् । तथा हि-नाभिजल्पस्थामनुस्मृतस्य योजनम्, न पाये तद्विषये" "तत्रनुस्मरणम् अतिप्रसङ्गात् स्टेऽपि न चानिश्चिते" क्षणभङ्गायभिजल्पस्याप्यनुस्मरणापत्तेः तथा च 'तदर्शनानन्तरमेव तदभिस्परमुविद्धस्य "व्यवसायस्थोत्प सेनादिवस, न तत्रानुमानस्य साफल्यमुत्पश्यामः, "व्यवसिते २५ विपरीतपस्यानुत्पत्तेः तद्व्यवच्छेदस्याप्यसम्भवात् । निश्चित एव तर्हि तद्विषये तदभिजल्पा
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व्यायात् । २ व्यवसायस्थ स्वभावात् व्य-आ०, ब०, प०, स० ०००। भूतस्य प०, स० ६ अव्यवसायस्वभावेनैव ज्ञातसात् । ७ नाम ० । ८ अव्यवसायस्वभावमपि ।९ स्वस्थ व्यय - जा०, ४०,५०,७०१ १० शब्द ०, ब०, प० १२वसायात्मकत्वम् । १३ तु विशेषात् आ०, ४०, ४०, १५ शब्दरमरणम् । १६ शब्दस्मरणं भवतीति शेषः । १७ क्षणभङ्गदर्शनानन्तरमेव भवरूपतेः। ३९ सर्व क्षणिक सत्त्वादित्यनुमानस्य । २० विपरीतारोपनिषेधार्थ मनुमानसाफल्यं
तत्स्वसंवेदना आ०, व्यव-आ०, १०, १०, ११- स् ल २०१४ शब्दवि । १८ क्षणिकमिदमिति क्षण
स्वादित्याशयामाद |
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न्यायविनिश्वयविपरणे
[ १११२
नुस्मरणमिति चेतुः नः 'निश्चित' तस्मिन् तदनुस्मरणम्, तदनुस्मरणे व संद्योजनया वैभिनयः' इति परस्पराश्रयस्य यकत्वात् । ततः स्वहेतुसामर्थ्यादेय क्षयोपशमविशेषलक्षणात् संशयादिव्यवच्छेदस्वभावोत्पत्तेः व्यवसायानां तस्वमवतिष्ठते नान्यथा । तथा च वेत्रस्यान्यत्र वचनम् "व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षं स्वत एव नः । अभिधानाद्यपेत्तायां भवेदन्योऽन्यसंश्रयः ।" [ ततो यदुक्तम्
] इति ।
"रूपं रूपमतीक्षेत तद्वियं किमितीक्षते ।
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अस्ति चानुभवस्तस्याः संविकल्पः कथं भवेत् ||" [ प्र०वा० २११७७]इति तत्प्रतिविद्दितम् ; अभिजयसम्बन्धेन हि व्यवसाये रूपव्यवसायसमये तद्बुद्धिव्यवसाय न १० भवेत् युगपदभिजल्पद्वयसम्बन्धाप्रतिवेदनात् । अस्ति च तैयापि तनुभवः, स च कथं व्यव सायात्मकप्रत्यक्षवादिन इति भवत्ययं पर्यनुयोगः । न चैवम्, अन्यथैव व्यवसायस्य व्यवस्थापन्नात् । ततो व्यवसायात्मकमेव व्यवसायानां स्वसंवेदनम् । तच न "परस्य प्रत्यक्षम् "तस्याव्यवसायस्वभावतयाऽस्युपगमात् । नाप्यनुमानम् ; साम्यादर्थान्तरस्यानुमानदास, स्वसंवेदनस्य च व्यवसायेभ्यो भेदाभाचान् । नाप्यन्यत्प्रमाणम् प्रमाणद्वयनियमव्याघातात् । न चाप्रमाणम् ; १५ अप्रमाणाद्व्यवसायसिद्धेरयोगात्, प्रमाणचिन्तायैफल्यापत्तेः । "अतो वरमस्त्रसंवेदनमेव व्यय-: सायानाम् । न चेदमपि शोभनम् अव्यवसितैर्ध्यवसायैरर्थव्यवसायायोगात, अन्यथा अप-: रिक्षैिरपि परिच्छितिप्रसङ्गात् । नन्वेवं सन्तानान्तरज्ञानैरथेपरिच्छित्तिः किन भवतिः अपरिच्छिनत्वाविशेषात् तथा च प्रतिसन्धानं निष्कलमेव ज्ञानभेदकल्पनम्, एकसन्तानज्ञानदेव सर्वेषां बहिरर्थपरिच्छेशेपपत्तेरिति चेत् व्यवसितिरप्यर्थानापन्यसन्तानव्यवसायैः कस्मान २० भवति अव्यवसितत्वाविशेषात् । तथा च प्रतिसन्धानं तद्भेदकल्पनमपि निष्फलमेष, एकसन्धानव्यवसायैरेव सर्वेषां यादाव्यवसायोपपत्तेः । अव्यवसितैरपि स्वव्यवसायैरेव स्वयमथसायन परुयवसायैरिति चेत्; न; 'अननुभूतैरपि स्वानुभवैरेव स्वयमर्धानुभवो न परातुमयैः' इत्यपि प्रसङ्गात् । अननुभूतानां तेषां स्वानुभवत्वमेव कुतोऽवगतं येनैवमुच्यते ? "साटानामिन्द्रियाणां कथमात्मीयत्वमगम्यत इति चेत् १ मा भूत्तदवगमः, न काचित्क्षतिः १ २५ कथं "cent इति चेत् ? न; सदभावात् । कथं तथा व्यवहार इति चेत् ! न तस्य भाक्तत्वाम् रूपावित्रिषयानुभवहेतुत्वेन तदुपश्तेः । अनुभवस्य तु न भाक्तमर्थप्रतिपत्तिनिदधनत्वम् तस्यानुभवान्तरनिमित्तत्वाभावादनवस्थापत्तेः । तस्मादनुभवहेतु नामप्रसिद्धिर्न दोषाय नानुभवानाम्, तदप्रसिद्धौ विषयाप्रसिद्धेः, अन्यथा सर्वदा सर्वविपथप्रसिद्धिप्रसङ्गात् । तदुक्तम्
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१- सेऽस्मिन् आ०, ब०, प०, ४०२ शब्दानुस्मरणम् ३ शब्दयोजनया अर्थनिश्चयः । पयोपजायते व्य-म० भ०, प०, स० ६ सोऽविकल्पः आ०, ४०, प०, स० प्र०क० । ७ रूपव्यवसायका रूपमा ८ कथमव्यवसा-प्रा०, ब०, प०, स० ९ यस्यैव व्यन -आ०, ब०, प०, स० १० बोद्धस्य प्रत्यवय १२ अ इंपरम भा०, ब०, प०, स० १३ व्यवसायभेद १४ अननुभूतानाम् । १५ इन्द्रियैः। १६ क्षुषा पश्यामीत्यादिव्यवहारः । १७ इन्द्रियाणाम् ।
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१।१२]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव "आत्मानुभूतं प्रत्यक्ष नानुभूत परैयदि । आत्मानुभूतिः सा सिद्धा कुतो येनैवमुच्यते ॥ व्यक्तिहत्वप्रसिद्धिः स्यान व्यकयक्तमिच्छतः।
व्यक्त्यसिद्धावपि व्यक्त यदि व्यक्तमिदं जगत् ॥"प्रया० २।५४०.४१] इति चेत् ; न ; व्यवसायेष्वपि समानत्वात् । तेऽमि हि कथमव्यथसिता आत्मीयत्वेनाव- ५ गन्यन्ते ? सखेतोऽनुभवादयस्ताशा एव कथं वागम्यन्त इति यत् ! माभूतथा तदवगमो न काचित् शतिः । कथं तैरावसाय इति चेत् ? न तदभावात् । कथं तथा व्यवहार इति श्रेत् ? न; सस्य भाक्तत्वात् , बहिऱ्यावसायहेतुत्वेन सटुपपसे । व्यवसायान तु न भातमर्थव्यवसायनिवन्धनत्वं तेषां तव्यवसायान्तरनिबन्धमत्वाभावादनवस्थापतेः । तस्मात् व्यवसायहेतूनामयससायो न दोषाय च व्यवसायानाम् , तव्यवसाये विषयाव्यवस्थिसेः, अन्यथा १० सर्वदा सर्वविषयव्यवसायापतेः । तदशानमप्येवं ( तदात्येवं ) वक्तव्यम् -
आत्मनिश्चितमेव स्यानिश्चित नान्यनिश्चितम् । यद्यात्मनिश्चयः सिद्धः कुतो येनैवमुच्यते ॥५४४॥ मा भूग्निश्चयहेतूनां निश्रयसेन का क्षतिः । म बानिधयः सिद्धयेनिशाध्यमिश्चितैः ।।५७५|| अनिश्चयेऽपि तेषां घेड़यों निधीयते परी । तदा सर्व जगत्प्राप्तं सुनिश्चयपधं गतम् ॥५७६॥ इति ।
प्रत्युक्त व्यवसायान स्वतः परतश्च व्यवसायः । ततो मिथ्यवदं यत्-"अव्यवसितैरपि व्यवसायाचं व्यवसीयते"[ ] इति । ववाह-'मिथ्याधिकल्पकस्यतत्' इति । न विद्यते विकस्पन विकल्पो व्यवसायो यस्य तत् अविकल्पं तश्च तत् कं च ज्ञानं २० तस्य कार्यत्वेन सम्बन्धि । किं तत् ? एतत् । आचं व्यवसितमिति । अस्यैव परचेतसि स्थितत्वेनेतच्छब्देन परामर्शत् । तस्किम् ? मिथ्या, न सम्यक् । अन्यथा 'अव्यक्तनाप्यनुभवेन वाह्य व्यक्तम' इत्यपि न मिथ्या स्यात् । ततः किम् ? इत्यत्राइ-ध्यकम्' इत्यादि । 'एतत्' इत्यत्रापि सम्बन्धनीयम् । एतत् परेणोच्यमानं "व्यक्त्यसिद्धारपि व्यक्तं यदि व्यक्तमिदं जगद्" इति वन व्यक्तं स्पष्टम् आत्मविडम्यनम् आत्मतिरस्करणम् , अदोघे २५ दोषोद्भावनात् । ततो न सोगतस्य दूषणवचनसामर्थ्य असद्दूषणवादित्वात्। सुरकथै सदुपजीवन स्थाद्वादिन इदि कारिकाखण्डस्य तात्पर्यम् ।
"मनु चक्षुरादायननुभूते चारादिना रूपारानुभूतमिति यथा तथा माननुभमेऽप्यर्थो हात इति भविष्य तस्याह अर्थव्यतितोकधुरादेरर्यदर्शनेऽप्यप्रसिद्धिरम्यतिः स्यात् , यतीन कारणदर्शमपूर्वक कार्यदर्शनम् । मतु व्यक्तरुपलब्धेः व्यकामियतो रक्स्यसिद्धियुका। यदि पुनर्व्यरसिद्धावपि व्यक्त करतूच्यते तदा सर्वमिदं जगत्
के स्माद, अध्यक्तव्यक्ति कस्वेन विशेषाभावात् ।"प्रयाम. पृ. २०१। अनुभूताः । वाल्मीयलेन । ४ अनुभवादिभिः। ५ ब्यवहारत-अर०,०,१०,स. । अनुभवादीमाम् । ६ कि रा.प.स
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न्यायविनिश्चयविचरणे तदेवं प्रासांनक प्रतिपाद्य परीक्ष' इदकस्वार्थम् अध्यक्षम्' इत्यादिभिः श्लोकः सङ्गृहीतुकामः प्रथमं परप्रसिद्धेनैव अर्थज्ञानानुमानेन अर्थशरनस्य स्वसंबेदनविषयसां অথবাঘমা
अध्यक्षमात्मनि झानमपरानुमानिकम् ।।१२॥ मान्यथा विषयालोकव्यवहारविलोपनः । इति ।
अध्यक्ष स्वानुभवप्रत्यश्वेचत्यान् न प्रत्यक्षान्तरवेशत्वात् तस्य निराकरणात् । कि सत् १ शान नीलादिवेदनम् । कस्मिन् ? आत्मनि । कोशे सस्मिन् ? अपरत्र अन
न्सरे स्वास्मनीति यावत् । कुन्त एतत् ? आनुमानिकम् इति । अनुमानमत्रारंपत्तिरेव, "शाते स्वमुपानादवगच्छति' [ शायरभा० ११११५] इत्यत्र अर्थापसेरेवानुमानशब्द. १० नाभिधानात् । अनुमानेन गृह्यत इत्यानुमानिकम् । हेतुपदं चैतत् । तदयमर्थः-स्वात्मनि स्वसं.
वेदनप्रत्यश्नपू अर्थज्ञानम् , आनुमानिकत्वादिति । किं पुनरानुमानिकरवं स्वसंवेदनासावे न भवति भवत्येव । तदाह-नान्यथा' इति । अन्यथा स्वसंवेदनाभावकारेण आनुमानिक स्वात्मनि धान न भवतीति । एतदेव कुतः ? इत्यत्राह-विषय'. इत्यादि । अत्रापि
'अन्यथा' इत्यनुवर्तयितव्या, अन्यथा अर्थज्ञानस्वाध्यक्षवाभावप्रकारेण विषयः अन. १५ म्यत्रभाषः स धान्यथानुपपतिरेव तस्य आलोको दर्शनं स एव व्यवहारी व्यवसायरू
परवात , तस्य विलसिर्विलोपस्तस्मात्तत इति । तथा हि-श्रर्थापचिस्तापदन्यथानुपपत्तिवलादेव । तरच नापरिझातमेव तत्प्रसूतिनियन्धनम् अपरिक्षासमयस्यापि ततस्तत्प्रसूतिप्रसमात , तथा व निर्विवादं भवेत् । न हि अापतित पवार्थानं प्रतिपद्यमानस्तत्र विप्रतिपत्तुमईति ।
भवति' पात्र विप्रतिपत्तिः-खानुभवप्रत्यभवेद्यमज्ञानमिति जैनादेः, प्रत्यक्षातरवेद्यमिति २० वैशेषिकारे, अर्धापत्तिवेयमिति व मीमांसकस्य तदर्शनात् ।
भवतु परिज्ञातादेव उद्रलातत्प्रसूतिरिति चेत् ; कुतस्तत्परिहानम् ? अर्थज्ञानादन्यक्ष पर कुतश्चिदिति चेत् । तेनापि यधर्थज्ञानस्याऽपरिज्ञानं रुथ तद्विषयस्य तबलस्य ततः परिज्ञानम् ! सपिरिज्ञानक्सोऽपि कुतत्रित् सर्वविषयपुरुषविशेषज्ञानस्य परिज्ञानप्रसाद,
तथा च दुर्भाषितमेतत्२५
"सर्वज्ञोऽयमिति होई तत्कालेऽपि धुभुसुमिः ।
तज्ज्ञान यविज्ञानरहितैगम्यते कथम्।।" [मीश्लो० १५१।२, एलो २१३४]इति।
भक्तु वतोऽर्थज्ञानस्यापि परिज्ञानमिति चेम् ; अर्थापन्तिरूप तत्र तदभ्युपगन्तव्यम् , अन्यतस्तसरिझानायोगास् , "अनुपानादवगच्छति" इति वचनात् । अभ्युपगम्यत एयेति चेस ; सबले ताई सात् किनाम प्रमाणम् ? अन्यदेव किमपीचि चेत् ; साई प्रातमर्थ
म्यापवि.इको.१०। ५ अभयप्राभाष: 0,40, प० । मायामाची स.। तस्य यस्यापि मा०, य,००। मवतु यात्र श्रा.,40,१०स०५म्यापपत्तियत्तात् । तद्बलेन सर्दि सअन्यथानुपत्तिबले।
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मार्गदर्शन
११९३ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
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ज्ञानेऽर्थापत्तिः अन्यथानुपपतित्वले धान्यदिति । तथा च न तयोरन्यतरेणाप्यर्थज्ञानविषयं सहलभति, परम्परा । न येकेोभयापरिज्ञाने ra: शक्योsanन्तुम् ।
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स्याशक्यम् अर्थापचितदन्यरूपयोभयस्य भावमेकमेवे तदुभयविषयं नैकान्तभेदवत्ता प्रमाण मास इति तेन तस्य सागप्रमाणत्वप्रसङ्गात् प्रत्यक्षादिष्वनन्त ५ बातू । भवतु तद्वऽपि तदर्थापत्तिरूपमेवेति चेत् न वैस्यसूतिनियन्वनश्य चैद्रलान्तरस्याभावान् । भात्रे तत एवार्थज्ञानार्थापत्तेः प्रायस्य यस्य वैक स्यात् । भवत्विति तू विप्रातर्हि तदा व्यवहारो विफलहारे प्रयोजनाभावात् । तद्वखन्तरेऽपि व्यवहारविलोपनादियं वक्तव्यः तत्रापि 'तब नापरिक्षात मेव' इत्यादेः 'विलुप्रसिद्व्ययहार:' इत्यादिपर्यन्तस्य सुखनिरूपणस्यात् । पुनरपि लान्तरे सर्वोऽपि वक्तव्य १० sa narrat मुक्तिः । तन्न परतस्तत्परिज्ञानम्
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एतेन आत्मनस्तत्परिज्ञानमिति प्रत्युक्तम् । छतोऽरि तद्वित्र्यप्रमाणपर्याय निरपेक्षात् तदसम्भवात् . माणकल्पनस्यैव स्यङ्गात् सकलप्रमाणमिषयपरिज्ञानस्यान एवोपपत्तेः । arendra स्वत्परिज्ञानमिति चेत् व तस्यार्थज्ञानादन्यत्वे तदर्थापत्तिरूपत्वस्य दोष च निवेदितत्वात् । अस्तु नहि ततोऽज्ञानरूपादेव सत्परिज्ञानमिति चेत् न तस्य १५ स्वत्वाभावे ततोऽपि तत्परिज्ञानासम्भवात् । यदि हि तत् परिज्ञातस्त्ररूपं भवति भवत्यैव ततः स्वतिलपरिज्ञानं नान्यथा । न हि 'मद्रियमिदमन्यथानुपपत्तिलम्' इति परिज्ञानम्, अनात्मत्वे ततः सम्भवति । न चापरिज्ञावात ततोऽर्थापत्तिज्ञानस्येति स्वानुभवप्रत्यवेद्यं तदङ्गीकर्त्तव्यम्, अन्यथा तस्यागुरुनिकत्वायोगादिति सूक्तम्- 'अध्यक्षम् इत्यादि ।
सदयम् 'अन्यथानुपपन्नत्वम् इत्यर्थस्य ग्रहः । स्वसंवेदनाभाये स्वत्वम्यथानुपपन्नत्वस्य दुरवबोधत्थमनेन प्रतिपाद्यते । तब 'अन्यथानुपपन्नत्वम्' इत्यादिनापि प्रतिपादितमेव अन्यथानुपपन्नत्वम् असिद्धस्य स्वभावप्रत्यावेद्यस्व सम्बन्धि तद्मकत्वेन न सिद्धयति' इति तद्व्याख्यानभावात् । पुनरप्युकस्यैवार्थस्य सोपपत्ति संग्रहमाह
आन्तरा भोगजन्मानो नार्थाः प्रत्यक्षलक्षणः ॥ १३ ॥ न पियो नान्यथेत्येते विकल्पा विनिपातिताः । इति ।
असि भवा आन्तराः सुखादयस्ते प्रत्यक्षलक्षणाः प्रत्यक्षं लक्षणं प्रमाणे aa artः । " इति तेषां प्रतिषेधे । कथम् ? अन्यथा तत्संवेदनस्य स्वास्मन्यध्यक्षस्वाभावप्रकारेण ।
१ स्याद्वादिकृतम् । २ । ३ अनुपस्विन्तरस्याभावात् । नादिनिरूपणे - ब०, प०, स०५ मध्यमः अन्यथानुपपत्तिरिति विवे-आ०, २०,१०, स० ७ श्रमः । ८परिज्ञात००, प०, स० १० २ ११ १० ति००००१
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न्यायविनिश्चयविवरणे तदयमत्र प्रयोगा-स्वारमनि सुखादिसंवेदनं प्रत्यक्षम, अन्यथा सुखादीनामपि प्रत्यक्ष. त्वानुपपसे । तथा हि-सुखादयः प्रत्यक्षविषयतामनुभवन्तः स्वतः, अन्यतो शाऽनुभवेयुः । अन्थत एवेति चेत् । तदपि तद्वदनं नियतम् , अनियतं वा भवेत् ? नियतमेवेति चेत् ; कुत एतत् ? सुखादीनामवश्यसंवेद्यत्वात् , तदपि सत्त्वादिति चेत् ; म ; सर्यस्य सर्वदित्वापा, विषयान्वरसमायभावप्रसङ्गाच-सुखादिवसद्रिययस्य संवेदनस्यापि सस्वेग अवश्यसंवेशत्यात् , तथा तत्स्येदनस्यापील्यास सारं सत्संवेदनप्रबन्धस्यैव प्रादुर्भावान पियान्तरसञ्चारः संवेदनस्य स्यात् । सति विषयान्तरसन्निभाने भवत्येव तत्र लस्य सञ्चार इति चेत्, म तर्हि सलोऽवश्य: संघेदात्वम , सच्चरमसंवेदनस्य सक्वेऽपि संदभावात् ।
अपि च, तत्संधेदनं यदि सुस्यादिमात्रात् ;ने प्रत्यक्ष स्थान् इन्द्रियसम्प्रयोगजस्य तस्यात् । १० माप्यनुमानादि ; लिङ्गादिनिरपेक्षत्वात् । अपि तु प्रमाणान्तरमेव सक्षम भवेत् । भवविति चेत् ;
ननु तेनापि पश्चाद्वाविना तात्कालिकस्यैव सुखाइवेदन नपौर्घकालिकस्य । तत्र च दो वक्ष्यामः । तात्कालिक एवं सुखादिर्न पौर्वकालिक इति चेत् ; न; सर्वधा समानकालल्ये सुखादितत्संघेदनयोर्युयतिनयनयोरिच हेतुफलभाषाभावापत्तेः । सन्न सुखादिमात्रात्तत्प्रत्यक्षम् । यदि पुनस्त- .
मनःसम्प्रयोगजमेव सैदिति मतम् । तदपि न समीचीनम् ; तत्सन्प्रयोगस्यानियमेन तत्संवेदन१५ स्याप्यनियमापतेः । नियस एथ तत्सम्पयोर्भ इति चेत् ; न; बहिर्विषयेष्वमदर्शनान् ! अन्त.
विषयेष्वेवमेयति चेतः सुखादिवंत वसंगसिंचनसमाविरपिजियमेन तद्वदनस्थापि नियमप्रसमान विषशन्तरसाराभावस्य तदयस्थत्वात् । तन्न तत्र नियतं किश्चित् वेदनम् ।
अनियतमेव भवत्यिति चेन् ; किं पुनरेवं काचित्सुखावरसंवेदनमध्यस्ति ? तथा चेत् ; म; सस्य भोगरूपत्वाभावापो, असंवेदने तदद्योगात, भोगरूपश्च सुलादिः । अत एवाह२० 'भोगजन्माना' इति । भोगो भुक्तिवेदनारूपः स एव जन्म प्रादुर्भावो येषां ते तथोक्ता इति । न च स्वतोऽन्यतयाऽदने नस्य भोगरूरलमुश्पन्नमतिप्रलक्षात् । तथा हि
अविज्ञातोऽपि भोगश्चत्सुखादिः परिफलप्यते । सर्पदा सुखदुःखादिमोगाकान्त जगइवेन ॥५७७॥ संषित्तिसमये भोगसत्यस्य नियमो यदि । स्तम्भावः संधिदः पूर्वमपि सस्वं कथं भवेत् ? ॥५७८|| इत्ययोचं पुगभावः न पच्छयानः | आकारभेदनिहितमतानपि तद्विताप. १९७९ ॥ प्रथमोऽयं पुराणो या गृहस्तम्भादिरियलम् । जानस्येव तदाकारदर्शगादेव बेहिनः ।।५८०५
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सवश्पसंदेशवाभावात् । २ प्रत्यक्षवाए। सुरशादसंवेदनम् । * मनःप्रयोगः । ५-तेः संदभाग,०, २०,801 स्वभादौ । - भाक०, २०, 2016रादिधाम् आ०, २०, प०, स..
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प्रथमा प्रत्यक्षातायः सत्राप्यारदेशिस्टयन स्वतशक्यनियम । तत्रापि तदिवेकः स्थासद्विदां वरनकमार ॥५८१!! देव भोगपुरासमाकारायचेदनम् । स्थाप्रवीतिौधुर्गादविमानपदं मसात् ।।५८२॥ न चैकात्मसुखादीनां द्रष्टा कश्चिदिहास्यः । यतस्तद्वचनातेषां पूर्वभाषा प्रतीयताम् ।।५८३।। तस्मादविदितो भोगः क्षणेऽपि यदि संम्भवेत् । सर्वदातनतत्सत्वं दुर्निचार प्रसज्यते ॥५८४।। अग्निहोत्रागनुष्ठान स्वर्गभोगाय तथा । नित्यसिद्धेहि तड़ोगे किनिमित्तव्यपेक्षया ॥५८५५ तभिव्यक्तये सच्चेदमुष्टानमभीप्सितम् । इन्द्रियज्ञानमध्येवं उद्धेतोय॑कम्यमिव्यताम् ।।५८६॥ यात् 'धुद्धिजन्म प्रत्यक्षा' इति सूत्रैस्थितिः कथम् । जन्मश्रुतिर्यतो लोफे नास्त्यभिव्यक्तिवाचिनी ।।५८७॥ सदपि व्यङ्ग्यमिष्टश्वेत् सर्वकार्य तथा भवेत् । ततः सायमतं तरुव यथास्थान निषेत्स्यते ॥५८८॥ तस्मादप्रतिपत्रस्य न यथा सर्यकालहा । भोगस्य कालत्वमपि नैवं प्रकल्प्यताम् ॥५८५॥
भवतु तर्हि संवित्तिसमव एव सुखादिरिसि देत ; तथापि कथं तस्यानिपत्ये भोगरूपत्वं मृद्विकारवत् ? अचेतनत्वेऽपि यथा किन्दिन्नील धवलच किकिचस्, तथा किञ्चियनु. २० प्रहरूप पीटारूपं किञ्चित् किमिति विरुद्धम् , यतोऽचेतनमपि भोगरूपं न भवतीति चेत् ? न सारमेतत् । नीलादिबद्रोगस्यापि साधारपत्यप्रसङ्गात् । अचेतनं हि नीलादि देववृत्तमिय अन्यान् प्रत्यपि नीलाधेय न पीतादीनासन्यतमम् , एवमवेतनो भोगहेऽपि किञ्चिदिव सर्वाप्रत्यपि भोग एष स्वान्नाऽभोगः। तथा 4
भोगेनैकेन सर्वेषां भोगवत्वं तनुभृताम् । दुर्निवारप्रसार स्यादधिोगविदा मते ॥५९०॥ यो पेन घेथले भोगो भोगी न स एव येस् । अन्येन वेदने तस्य सोऽपि स्यात्तेन भोगवाम् ॥५९१॥ अन्येन तस्य वित्तिश्चेत्र देहान्तर्गतत्वतः । देहान्तर्गत एनान्यः किन स्यात्तस्मवेदकः ? ॥५९२५
। सहयेत् तर १२ सम तल-मा., ०,१०.स. [ ३ "सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येदिया तस्प्रत्यक्षमलिमित्त विद्यमानोपल भगवाद ।"-मी. सू. 11131 v जन्मशब्दः ।
बुद्धिजन्म
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म्यायविनिश्चयक्षिरणे
[ २०१५ आत्मधर्मस्यतस्तस्यं यद्यन्येनाप्रषेदनम् । अचेतनः कथनाम तद्धर्मो मृधिकारवत् ॥५९३॥ उमरधेने या मा भूतस्याभ्यक्षेण बेदनम् । अनुमानेन तद्वित्तिः, परस्यापि कथन्न यः ।।५९४॥ ततोऽनुमानधन भोगेनैकस्य कस्यचित् । सदन्यस्यापि भोगित्वं निर्विवादमुपस्थितम् ॥५९५॥ *सामान्यमनुमायेद्यं तस्याहावायनात्मकम् । नास्ति तत्तेर्न भोगित्वं परस्येत्युपकस्पने ॥५९६॥ सामान्य यदि तवस्तु झावाद्यास्मैव तन्न किम् । अस्तु यदि तमान प्रमाणमनमा कथम ॥५९७॥ विशेषायणे तरच सामान्य गृझते कथम् । महाविज्ञातखण्डादेर्मोत्वं शक्यप्रधेदनम् ।।५९॥ विशेषग्रहणे सिद्ध भोगित्वमनुमावतः । विशेषस्यापि सामान्यरूपेण ऍणाम चेत् ।।५९९।। कथं तस्यान्यरूपेण ग्रहणम् ? यदि विभ्रमात् । विभ्रान्तस्य प्रमाणत्वमनुमानस्य सत्कथम ॥६०० "तस्य सामान्यतादात्म्याचपेण' प्रवेदने । प्रत्यक्षेणापि तस्यास्तु तथैवं प्रतिवेदनम् ॥६०१॥ "अन्यथा "तेन "तद्वित्तौ श्रान्तिः प्रत्यक्षमाश्रयेस् । तज्जगन्मान्यमानत्वगौरवक्ष्यकारिणी ॥६०२॥ प्रत्यक्षानुमयोरेवमभिन्ने विषयग्रहे।
भोगाध्यक्षीव भोगी स्यात्किन्न भोगानुमानकृत् । ॥६०३६
स्यान्मतम्-स्पष्टोपलम्भविषय एव भोगः परितोषारिनिवन्धर्म तदुपलभश्च प्रत्यक्षत पर नानुमानात् , तस्य अस्पप्रतिभासत्पात् । न चापरितोषादिकारिणय भोगेन भोगवत्त्वं तदनु२५ मानवतस्तदयमपसङ्ग इति; वन्न; अस्पष्टोफ्लम्भविषयस्यापि मनोझादिरूपस्य परितोपादिकारि
वोपसम्भात्। अन्यभोगस्यास्मीयत्वेनाप्रतिपरोने तेन परितोषादिः' इत्यप्यनेन प्रतिविहितम् ; नवभुषसिवरनकालकमनीयरूपारेरनात्मीयत्वेन दर्शनेऽपि परितोषाधुपलम्भात् । प्रतिपत्तिविषयोऽपि "कुतश्चिदृष्टष्टशक्तिवशात् कश्चिद्धोगः कस्यचिदेव परितोषाविहेतुर्न तदपरस्येति चेत् ; उच्यते
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भीषस्व । २-२ मा या भूदा। मामधर्मस्वम मानकेन क-आ०,०प०. सन . भोगिर स्वीक्रियमाणे । ५ भोगवादिरूपम् । ६ अनुमानधन भोगसामाग्वेन । - प्रहर्ष म बैल बा, २०, ५०,सन भोगित्व परस्य । २ विशेषस्य सामान्यरूपेण । १० विशेषस्य । सामान्यरूपेण विशेषस्य । १३ सामान्यरूपेण । १४ सामान्यरूपेण १५ प्रत्यक्षेण । १६ विशेषत्वाने । " अश्विद्दष्ट-मा०,१०,१०,सा
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१११४ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
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भागः स्वयं यदि परिमाणात्मा तदा तेनैव तत्परपरितोष करणेऽपि प्रत्यक्ष भोगप्रतिपत्तिमत इवानुमानभोगप्रतिनिमसोऽपि परितोपादिमन्त्रोपपत्तेः कथन कस्यचिद्भोगेन तदपरस्यापि 'भोगवयं भवेत् ? परितापाद्यात्मत्वमपि तस्यामितः कचिदेव नापरं प्रतीति चेत ; फुस एत ? केनचिदेव तस्य पेण प्रतिपतेरिति चेम्; न परेणापि तस्य तद्रूपेणैव प्रतिपत्तेः । रूपान्तरेण प्रतिपतिस्तु न सत्प्रतिपत्तिः अतिप्रसङ्गात् । रूपान्तरमपि तस्मादभित्र ५ वेति चेत् व्याहतमेतत्- 'तदन्तरम्य तदभिनं च' इति । "भेदेकान्तानुपाश्रयादशेषश्चेत्; एवमपि तत्प्रतिपत्त यदि न परितोषाद, अविपरित दि dr at सुखादित्पत्तेः, अन्यथा सवादिमात्रेणापि तत्वप्रसङ्गात् । तदात्मना सत्प्रतिvat a set परोऽपि परितोपादिमान् यतः कस्यचि परोऽपि तद्वान्न भवेत् ? तत्र स्वयं started atrस्य प्रत्यात्मं तत्प्रतिनियमः ।
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स्वयं तदात्मकत्वे तु कथं तस्य भोगस्वम् १ परितोषादिकरणादिति चेत्; न; सचन्दनादेरपि तत्त्वप्रसङ्गात् तेनापि तत्करणात् । अस्त्येयोपचारात्तस्यापि तत्वमिति चेत्; उपचारत इति कुतः ? स्वयमपरितोपादिरूपत्वादिति वेत् न स एव सुखादेरप्युपचारत es eared | न चैवम् ; संस्य स्वस एव भोगत्वेन सर्वप्राणभृतां प्रसिद्धत्वात् । एतदर्थञ्च 'भोगजन्मान:' इति वचनम् । "तस्योपचारभोगत्वे वा मुख्यो भोगो वक्तव्यः, तेन विना १५ उपचारस्यासम्भवात् । तत्कृतपरितोषाविर्मुख्य इति चेत् सोऽपि यद्यर्थान्तरज्ञानविषयतया कस्यचिगः, तदपरस्यापि स्थात्, तेनापि तत्परिज्ञानाविशेषात् "तदविशेषेऽपि तस्य परितोषादारमत्वम् अष्टवशात् कञ्चिदेव नापरं प्रतीति चेत्; न; तत्रापि 'कुवं एतत्' इत्यायनुबन्धादावृत्तिदोषस्यानवस्थितस्य प्रसङ्गात् । तन्न परतः सुखादीनां प्रत्यक्षत्वानुभवनगुपपन्नम् प्रत्यारमं नियमाभावप्रसङ्गात्
;
;
अस्तु स्वत एव तेषां तदनुभवनमिति चेत् अपरोक्षं तर्हि तदनं वक्तव्यम्, अन्यथा "तदनर्थान्तरत्वेन तेपामपि परोक्षत्वेन ततो हर्षानुदयप्रसङ्गात् । वक्ष्यति चैतन् 'सुख-दुःखादिसंविः' इत्यादिना । ततः सूतमिदम्- 'सुखादिवेदनम् आत्मनि प्रत्य क्षम् अन्यथा सुखादीनामपि प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः' इति ।
१
पुनरप्यात्मनि ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वमुपपादयतीति प्रत्यक्षमात्मनि ज्ञानम् । कुत एतत् अर्थाः प्रत्यक्षलक्षणा: नान्यथा इति । अन्यथा ज्ञानस्यारम नि स्वतः प्रत्यक्षत्वाभाषप्रकारेण अर्था freeवलादयः प्रत्यक्षलक्षणा प्रत्यक्षप्रमाणा न भवेयुः । यदि
1.
१०, ब०, प०, स० । २ तस्याशन्तितः किटिदेव आ०, ब०, प०, स० ३ मोगस्य 1 ४ परितोषादिरूपेण । ५ भदैकान्ताना० २०, प०, स० ६ सुखादिव । ७ तवात्मकः १०, ४०. प०, स०॥ परितोनकर ८ भीमम्। ९ सुखादे: ।१० सुखादेः | ११ मुख्येन । १२ सदपि विशेवेऽपि तस्यापरि-आ०, ब०, प०, स० १३ सुखादेः १४ प्रत्यात्मं नि-मा०, ५०, ५०, स० १५ पादोनाम् । ६ परीक्षामाऽभवत्वेन । १७ स्वायवि० ० १४ ।
२०
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न्यायधिनिश्चयविवरण मवेयुः को दोप इति येन् ? तलक्षणत्यापरिज्ञानमेवेति घूमः । '
तमत्वं हि तेष स्वतः, परतो का परिज्ञायते ? न सावत् खसः; तस्यार्थधर्मस्वाभावप्रसङ्गात् । अर्थधर्मत्त्व हि सस्यार्थस्यापि स्वतः परिशेयत्वं भयेन् धर्मभिगोरभेदनयाभ्यनुज्ञानान् । न चैवम ,
अहो न तस्यार्थधर्मस्वम् । नापि शानधर्मस्वम् ; ज्ञानस्यापरोक्षत्यापः, स्वतः परिज्ञान विषय. ५ खेनापरोक्षात् 'तरक्षणवादव्यतिरेका । तद्धर्म वा तेन कथमस्तलक्षणो भवेन ।
अतिप्रसवात् । तेनापि तस्य तलक्षणस्थकरणादिति चेत् ; न ; तस्यापि प्राध्यधन ज्ञानधर्मत्वात् , तेनाप्यर्थस्य मल्लक्षणत्वानुपपतेः । पुनस्तेनापि तस्यापरतलक्षणस्वकरणे परिनियाभानप्रसङ्गात् । एतेन सस्थात्मधर्मस्वं प्रतिविहितम् ; समानत्वानन्यायस्य । सम्र स्वतस्तस्य
परिमाण र नि ; किं तत्परम् ? अर्थशानादन्यदेव ज्ञानमिति चेत् ; कुत एतत् ? १० तस्कृवस्य परिज्ञेयत्वस्य तत्र दर्शनादिति चेन् ; ने ; तस्य स्वसो दर्शने पूर्ववोधात् । परतो
दर्शने किं तत्परम् ?' इत्यादिप्रसारयानिवृत्तेरव्यवस्थापत्तेः। एतेन 'आत्मा परः' इति प्रत्युसम्; अनवस्यादोषस्थाविशेषात् ।
____ अर्धज्ञानादेवसंत्परिज्ञानमिति देत् : "तेनापि "क्यसत्कृसत्वेन तत्परिज्ञानम् ; प्रान्तमेव तद्भवेत् अर्थानां तल्लक्षणत्वस्य तत्कृतवान् ,वस्य याम्यथा तेन परिमानान् । सत्कृतस्बेन तु तेन १५ सस्परिमाने सिद्धं तस्य स्वतः प्रत्याभूत्वम् ,अन्यथा सत्कृतस्य सल्लाक्षणत्यस्य तेन परिशानायोगान् ।
न हि तवाजानतः शक्यं कृतत्यपरिक्षानम् । अपरिज्ञात (परिज्ञान) तल्लक्षणस्वमेव “लेपर्ड मा भूदिति चेम् कथामिदानी "यागायझरखेन पां स्वर्गादिसुखादिभोग लुत्वम् , अतल्लक्षणानां" तबनभावस्य कर्तुमशक्यत्वात् ? भोगहेतपश्चार्थाः परस्याप्यमिमताः । तत पधाह-भोग
अन्मानः' इति । भोगस्य स्वर्गसुखादेर्जन्म येभ्यस्ते भोगजन्मानोर्थी इति । ततो२० ऽश्वयम्भाविनि तेषां तरक्षणत्वे तत्परिज्ञाने च तदन्यथानुपपत्तिबलादेव स्वतः प्रत्यक्षमर्थमानमभ्यु.
पगन्तव्यम् । अतश्च तत्तथाऽभ्युपगन्तव्यम्-न, यतः, अन्यथा तथा तदभ्युपगमाभावप्रकारेण धियो" युद्धयः । बुद्धय एवं कश्या प्रत्यक्षलक्षणाः । प्रत्यक्षस्य लक्षणं सत्सम्प्र. योगजत्वं सद्विचते आसामिति सशक्षणाः, मत्वर्थीयाकारप्रत्यये सति एकरूपत्वान् , प्रत्यक्षबुद्धाय
इति यावत् । कुतस्ता न भवन्सीलि चेन् ! प्रमाणाभावात् । यद्यपि न प्रत्यक्षं सत्र प्रमाण२२ [मनुमान मस्त्येवेति चेत; न ; वस्य 'विषयेन्द्रिय'इत्यादिना निषेधात् । मा भूवम् ताई
तद्धिय इति चेत् ; न ; सासामर्थपरिच्छेदरूपं भोग प्रति हेतुत्पविरोधात् ; असतीनां गगनकुसुमनजामिष सदयोगात् , बद्धतषश्च ना । दाह-'भोगजन्मान' इति । व्याख्यासमेतत् ।
- प्रत्यक्षलक्षणथम् । २ नीलपवलादीनामू। ३ प्रत्यक्ष लक्षणस्वस्य । ४ प्रत्यक्षलक्षणस्यात् । ५ शानधर्मस्खे । ६ ज्ञानधर्मण कालहस्पस्वैमापि अर्यस्य अपरप्रत्यक्षलक्षगरकरणादिति चेत् . असप्रत्यक्षलक्षणले. नापि । ८ तमाशा-भा०,.१०,०।९ प्रमालाणवपरिज्ञानम् । • अर्थशाने नायि कृ त स्वेन । १२ बर्थतत्वात् ।। अराकृतस्येन होण। 10 अर्थश्वनेन । ५अर्थस्य ।।उस्कृतपरि-मा..., २०.स.1 0 आपरिशान न-मा०,०, ५०, २०। १८ अर्धानाम् । १९ योगाय-भा०, ०, प.स १. प्रत्यक्षलक्षणलशन्यानाम् ।२०- बुदय एप सा. १२२ म्यायवि० श्लो. १६ ।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्तावा
तस्मादयश्यम्भाविन्यर्थपरिश्छेदे सस्य एव तबुद्धयो वक्तव्याः । तन व स्वानुभवप्रत्यक्षरेय प्रमाणम् अनुमानस्यापि तत्रान्तरीक्कत्वात् । वक्ष्यति चैतत् 'तायत्' इत्यादिना' । ततः स्यात्मनि तत्प्रत्यक्षवेद्या व प्रत्यक्षधियो व्याः। इति एवम् एते अनन्तरोता विकल्पा: भेदाः सुखादयो नीलादयश्च बुद्धवच ज्ञानस्याप्रत्यक्षस्थे प्रत्यभलक्षणा न भवन्तीति विचार्य शिनिपातिता निराकृताः 'परोक्ष' इत्यादिकारिकार्थेन', तेनाप्यस्यैषार्थस्याभिधानान् । ५ सदनेन तवस्यैवायं समाह इति दर्शयति ।
यत्पुनरेतत्-मा भून शुखादीनां प्रत्यक्षवमिति । तत्राहसुखदुःखादिसंवित्तेरयित्नेन हर्यादयः ।। १४ ।। इति ।
सुखदुःस्वादीनां संचित्ते परोक्षत्वेन यदि अविसि तदा सेपागल" तदनोंन्तरवार, तदनन्तरत्वेऽप्यर्थ वेदनोक्तन्यायेवित्तिरेयेति कथं तेभ्यो हर्षादयः कस्यचित्, १० अविप्रसङ्गात् ! हर्षादय इति संयोगपरत्वेऽपि न पश्चावं लघुल्यहातिः, कचिम्छन्दोविनिसिवेदिनां तबङ्गीकारात् "कोषनिपण्यास्य प्रकृतिमलिनस्य"[ ]इतिवत् । प्रत्यक्षेण तेषामवेदनेऽप्यनुमानेन वेदनासेभ्यो हर्यादय इति चेत् । न ; तस्यैवासम्भवान् लिहाभांवान् । सुखादीनां परिन्छेन एच लिङ्गमिति चेत् । न तद्बुद्ध्यसिद्धौ सदसिद्धवस्त्रोक्तवान् ।
अभ्युपगम्यायाह
आनुमानिकभोगस्याप्यन्यभोगाविशेषतः । इति ।
अनुमानेन यो गृाते भोगः सुखायनुभवतस्य अपिशब्देन तदभ्युपगमं दर्शयप्ति, पुरुषान्सरभोगाविशेषान् न ततो हर्षाट्य इति । तथा हि-न चित्रक्षितो भोगो हर्षाविहेतुः
आनुमानिकत्वाम् आत्मान्सरभोगवन् । पुत्रादिभोगेन व्यभिचार साधनस्य तस्यानमानिकत्येऽपि पित्रादेहादिकारणत्वाविति चेत् ; न ; असिद्धमान । न हि संस्य तद्भोगानुमानरादेव हर्षादयः; २० अपि तु तदनुमाने सति स्नेहपरवशस्य स्वयमेव स्वानुभवसंवेद्यमोगरूपेश परिणामा , अन्यथा वैरीभूतपुत्रादिभोगानुमानादपि तस्य “तत्प्रसङ्गात् । ततो न सुख्खादिवुद्धरपत्नश्चय न्याय्यम् ।
इतश्च न तन्न्याय्यमित्याह
वायस्परन "शक्तोऽयमनुमातुं कथं धियम् ॥ १५ ॥
यावदात्मनि सचेष्टासम्बन्धं न प्रपद्यते । इति ।।
परोमानवादिनोऽपि मीमांसकस्य परबोधप्रतिपतिरवश्यकतव्या प्रतमन्धविग्रोएदेशादेरन्यथानुपपत्तेः । न च परबोधस्य प्रत्यक्षतो वित्तिः ; "अनिन्द्रियसायोगात् । अनुमान- हस्सवितिस्तु लिन सस्तत्सम्बन्धपरिझानसव्यपेक्षा । न घाप्रत्यक्ष बोधे तत्सम्बन्धो लिङ्गस्य -------......-- -.---.-...- ... ..... -.- ...- -...-.-.-.. .......... - - .. ...
न्यायवि.ली. 141 वे ध एव भा०, २०, ५०,स। ३-चार्ग नि-शा, ब०, ५०, स! ४ स्यायविक लो.१.१५ सुखदुःखादीनामपि । ६ पथमाक्षरस्य हकारस्य | 0 पिदः। 6 -पुरुषाय. मादि-140, प., पित्रादेः। दृवादि। 11 शम्बोड मा०, २०, ५०, स। १२मा-आ०, २०, स०। १३ -४१६ तत्र बन्धवि-०,०,५०,स-11४न्द्र एसम्प्रयोगाभा पात् ।
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न्यायविनिश्चयविषरणे
१९९६ शक्यपरिज्ञानः, सतो यावत् असौ आत्मनि प्रत्यक्षत एव बोधपूर्वत्वं स्याहारादेर्न प्रतिपदोत न तावत्पुरुषान्दरबोरमनुमातुमहतीति कथमस्य परार्थ फिमपि चेष्टितमिष्टं भवेत् । आत्मन्यपि योधमनुमिमान एव तत्पूर्वकत्यं ब्याहारादेरवगच्छतीति चेत् ; सवनुमानं यदि तस्मादेव लिङ्गात् ; तदा सतः सम्बन्धपरिज्ञानम् , परिहातसम्बन्धाच लिहात्तत्' इति सुव्यक्त ५ मुझ्यथा अश्लूमिनिबन्धनमन्योन्याभरणम् । अन्यत एव लिहात्तदिति चेन् ; म ; तत्सम्बन्ध
स्थाप्यन्यतोऽनुमानादवगैमा, सदपि लिङ्गात , तत्सम्बन्धस्यापि तदनुमानादशाम इत्यनवस्थादो. धात् । तन्नात्मनि शोधनानमनुमानात् , लिङ्गाभावाच । तबाह
विषधेन्द्रियविज्ञानमनस्कारादिलक्षणः ॥ १६ ॥
अहेतुरात्मसंवित्तरसिद्धयभिचारतः। इति । ___ आत्मनि शोधानुमाने हि विषयेन्द्रियादीनामन्यतमस्यैव लिङ्गत्वे सम्बन्धसम्भवात् , नापरस्य विपर्ययान् । तत्र न तावद्विषयेन्द्रियान्तःकरणाना लिनत्यम् । तेषां बोध प्रति हेतुत्वेन व्यभिचारसम्भयात् । अप्रतिवद्धक्तिरमाव्यभिचार एवेति चेत् ; ना, कार्यादर्शने संस्थैवारिसामान् । विद्युदादिपरमस्य ददर्शनेऽपि तत्परिज्ञानमिति चेत् ; सत्यम् ; सजातीय कार्यापे
क्ष्या सँसनादेव तत्परिशानं तस्यै "मासाना) सरीयकत्वात्, "अन्यथा तत्सन्तानस्यैष १५ अयस्तुस्वायत्तरित्युत्तरत्र विस्तरविधानात् । न वैषं विभासीयकार्यापेक्षयापि दसस्तस्परिज्ञान बहुलं सदभावेऽपि भावसस्वस्योपलम्मा ! विजातीयच कार्य विषयादीनां बोधस्तकर्थ सबै
तेषामप्रतिहतशक्तिकस्यमिति सम्भवव्यमिधारत्वान लिन्त्यम् । असिखल्याच्च । असिद्धा हि विषयादयः परोक्षज्ञानवादिनाम, तदपरिझानस्थ निवेदितत्वात् । .
एतेन विधानस्यापि तत्रालिङ्गत्वमुक्तम् ; स्वत एव परोक्षज्ञानादिनां तदसिद्धत्वस्थ सुप्रसिदत्वात् । किं पुनरिदं विज्ञानं नाम ? स एवं साप्यो बोध इदि चेतः नः तत्र लिङ्गत्वसम्भावनस्याप्यसम्भवात् । न हि साध्यमेव कश्चिदनुमचो लिङ्ग सम्भावयति अनित्यत्ययम् । ससि तत्सम्भावने तत्र दूपणवचनम्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । अर्थापतिरनुमान वा विज्ञानमिति चेत् । न ; वयस्यापि तद्विष्यत्वे तथापि तत्सम्भावनाऽभावात्, 'प्रत्यक्षेऽपि
प्रसङ्गार न कश्चित्तलक्षवेधो भाव: स्यात् । अतद्विषयत्वे तदुद्भवानुमाने तस्सम्भावनप्रसङ्गः". २५ तथा तभवानुमानेऽपीति न कषिव्यवस्थितियतोऽनुमानवेद्यो बोधो भवेत् । ततो दूरमनुसृयापि यदि तस्य स्वस्तद्विषयत्वान्न तत्सम्भावना, आवस्यापि न स्यादविशेषान, इति नार्थापत्यश
लिमादिति भा०, २०, ५०,०+२ -मान्य-०,२०,०, R. 1-गमन त-पा, ५०, ५०, १०।। -तिभाव्य-भा, य०, १०, सः । ५ अप्रतिवद्धशक्तिकस्यस्यैव । । कार्यदर्शनेsपि ।
सत्वाव। 4 अप्रतिबद्धरित्यपरिज्ञामम् । ९ कास्य । " अप्रतिबद्ध शकिकस्वाविवाभाबित्वात् ।। चरमक्षणस्य कार्य मानावे ।।२ दिमातीवकार्याभावेऽपि । वे 11 विषयादीमाम् । १५ विक्षनासिम वस्य । स्वस्वरूपविश्यरचे । " साध्यात्मको वेऽपि । १०लिसम्भावनाऽभावात् । अर्थापरयनुमानसोर्स बोधस्यापि शासन स्थहपाविषयत्वादिति भावः । १९ स्वरूपमिययत्वेन प्रस्थचात्वेऽपि लिझसम्भावनापाम् , पत्र प्रत्यक्षविपक्षीभूते । २. सर्व एन अनुमेयः स्थाविति भावः । ॥ स्वस्वरूपाविषयों । २५ यतः तस्य स्वरूपा विषयत्वात् । २३ लिङ्गसम्भारमा।
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प्रथमः प्रत्यक्षपस्तावा
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दिकमपि विज्ञानम् । साध्यज्ञानादुत्तरज्ञानस्यैव तखोपपत्तेः तत्र सम्बन्धसम्भवेन तत्सम्भावनस्य सम्भवात् । आदिशब्देन अनुक्तपरिप्रहः । अनुक्तश्च परिस्छिन्नो विषयः, तत्परिमछेदो वा स्यात ? । सोऽपि आत्मसम्बित्तः मीमांसकशानस्य अहेतुः अगमकः इत्याह
असिद्धसिद्धिद्धि)रभ्यर्थः सिद्धश्वेदखिलं जगत् ॥ १७ ॥ सिद्धम् [ सरिकममो सेयं सैव किन्नानुपाधिका । ] इति । ५
परिच्छिन्नस्य विषयस्य तत्परिच्छेदस्य या नापरिज्ञातस्यैव तहेतुत्वम् ; अतिप्रसङ्गात् । न चापरिज्ञावज्ञानम्तविषयः तत्परिच्छेदो या 'परिज्ञासः' इत्युपपन्नम् ; 'अखिल जगत्परिज्ञातम्' इत्यप्युपपत्तेः । परिवायत एय स्वतो मुख्यतोऽर्थविशेषणल्येन वा सत्परिच्छेद इति चेत् ; सोऽपि यदि ज्ञानधर्म; उनाह-'ततिकमतो ज्ञेयम्' इति । तत् अर्थशानम् अतः परिच्छे. दान किम् नैव शेयम् अनुमावळ्यम् , परिच्छेदपरिक्षानादेव तदनन्तरत्वेन ज्ञानस्यापि १० स्वत एवं परिज्ञातत्यानिति भावः। भवतु पार्थस्यैव धर्म इति चेत् ; भाइ-सैव किनानुपा. धिका ? सैव परिच्छित्तिरेव सिद्धिशब्दवाच्या किं न भवत्येष अनुपाधिका विषयज्ञानविशेषणशून्या ? परिच्छिन्ते स्वतः प्रत्यक्षायाः अन्यतिरेकेणार्थस्यापि तस एप प्रत्यक्षत्वात् विफलमेव ज्ञानम् , अतो विरुद्धो हेतुः, शानसाधनाय प्रयुक्तेन तदभावस्यैव साधनादिति तात्पर्यम् । तदा 'परोक्षज्ञान' इत्यादेः संग्रहः ।
तवेवं दूषणमन्यत्रातिभिन्नाह
एतेन रोऽपि मन्येरसमत्यक्षं घियोऽपरम् ॥ १८ ॥
संवेदनं न तेभ्योऽपि प्रायशो दत्तमुतरम् । इति ।
एतेन परोक्षेत्यादिना मीमांसकदूषणेन तेभ्योऽपि नादनं किन्तु दत्तमेवोसरम्। कथम् ? प्रायशो बाहुल्येन, परस्यायुत्तरस्य वक्ष्यमाणत्वात् । सस्मिमा तहाने तदनुपपत्तेः । २० तेन्यो येऽपि सारख्या मन्येरन् । किम् ? संवेदनम् चैतन्यम् । कीरशम् ? अप्रत्यक्षम् प्रत्यक्षस्य प्रमाणविशेवत्यान, प्रामाण्यस्य च शिवधर्मत्वात् , चित्ताच्च संवेदनस्य मिनत्वेन प्रत्यक्षत्वानुपपत्तः । अत एवाह-धियो व्यवसायात्मिकाया बुद्ध अपरं भिन्नामिति । तात्पयंमत्र परोक्षसंवेदनेन यदि धुलिप्रतिविम्बितार्थानुभवनं विषयानुभवनमेष किन्न स्यान् यतो न मीमांसकमतम् ? आक्षेपसमाधानयोरुभयत्रापि समानत्यादिति । एते सग्रहश्लोकाः। २५
नैयायिकस्वाह-अर्थप्रकाशगमेव ज्ञान नात्मप्रकाशनं सरिसद्धावुपायाभावात् । अर्थप्रकाशनमेष संत्रोपायः दस्य तदन्तरेणानुपपसे । अत एव कस्यचितवनम्-"अप्रत्यक्षोल्लम्मस्थ नाथदृष्टिः प्रसिद्ध्यति ।" [ ] इति । इति चेत् ; केयमर्थष्टेः प्रसिद्धिःकिमुत्पत्तिः, आहहेस्जिदुपलब्धि; १ नोपलम्भोऽपि यस्याप्रत्यनत्वे सत्यर्थदृष्टिन प्रसिति-फि
निरोपपतः। विषयपरिच्छेदः। ३ 'प्रायशः' इति वचनापयत। ४ 'अयानु५२मरम्' इत्यारभ्य एतेन येऽवि' इत्यन्तम्टी संग्रहश्लोकाः, परोक्ष ज्ञान विषय' शाकिस्स अर्थस्य मिः शेमहात् । ५ आत्मप्रकाशने । ६ अर्थप्रकाशनस्य । . आत्मप्रकाशन विना । ८-बातीति सैर आ, 40, 4, Rt
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न्याययिनिश्चयविवरण सैवार्थरष्टिः, उत संजनकं आनमिति ! सन यद्यभिमति: सैवार्थाष्टिरुपलम्भः, तस्याप्रत्ययस्वे सत्युत्पत्तिर्न सम्भवतीति; उदयुक्तम् उत्पादे सति पश्चादष्टेः प्रत्यक्षत्यं युक्तं न पूर्वमेव, अन्यथा अतिप्रशान् । अथ अर्थरष्टिजनकं ज्ञानमुपलम्भः, संस्थाप्रत्यक्षवेऽर्थदृष्टिोत्पद्यते इति; तदयुक्तम्: पक्षुरादिवप्रत्यक्षस्याप्युत्पादकत्वसम्भवात , तीघस्पादिना सुषुप्तप्रेयोधे पूर्वानासंत्रे ५ दनात् । अथार्थसप्टेः प्रसिद्धिरुपलब्धिः तदाप्ययं स्यावास्यार्थो भपति-अप्रत्यक्षोफ्लम्भस्य नार्थीपलभ प्रत्यक्ष इति । न चानेन किञ्चित्साधितं भवति । अथ दृश्यत इति शुधिः अर्थ एव, ततश्चापत्यझोपलभास्वार्थोऽपि प्रत्यक्षो म भवतीत्यं वाक्यार्थः, न; उपलम्भादर्थान्तररवान् । न चैकस्याप्रत्यक्षत्वेन अन्यस्याध्यप्रत्यक्षत्यम् ; अतिप्रसङ्गात् । अथोपलम्भस्याप्रत्यक्षत्वे
सति अर्थो दृध इत्येवतीतिर्न भवतीत्यभिमतमेतदस्माकम, नागृहीत विशेषणं विशिष्ट१० प्रतीची निमित्तम् । न च सर्वत्र दर्शनविशिष्ट एवार्थो गृह्यते । न हि 'शुक्लो गच्छति
गौः' इत्यत्र गोदर्शनमनुभूयसे, अपितु गुणक्रिया विशिष्टो गौरवानुभूयते । ततो नार्थदर्शनस्य खसंघेदनसिद्धाबुपायत्वम् , अन्यथानुपपत्तिवैधुर्यादिति । तदेवत् व्यामोह विस्मित भासर्पकस्य ; स्नकाशनाभावे ज्ञानस्य विषयनियमानुपपत्तेः 'मार्थदृष्टिः' इति निवेदनात् ।
न झस्वप्रकाशस्य तस्य 'अयमेव विषयो नान्यः' इति शक्योफ्पादनम | तत्कारणस्य १५ विषयप्रतिनियमान् तस्यापि तनियम, प्रतिनियतविषयं हि सत्कारणम् इन्द्रियसग्निकर्षादिकम् ,
भाजनितं महानामपि प्रसिनियतविषयमेवेति चेत् । कुतः कारणस्य तनियमः १ झानस्य तनियमादिति चेन्न; परस्पराश्रयस्य सुव्यक्तत्वात् । कारणस्यतेम्ज्ञानादेव"तनियम इति चेत् ; म; तस्याप्यस्वप्रकाशस्य सन्नियम एवं विषयो मातनियम इत्यशक्योपपादत्यरत् । तत्कारणस्य
सद्विषयनियमासस्यापि तन्नियम इति चेत् । न; 'कुता कारणस्य सनियमः' इत्यागनुबन्धावन२० बस्थापश्च । सतो नाऽनात्मवेदनस्य ज्ञानस्य विषयप्रतिनियमो विवक्षितवदन्यत्रापि तस्य प्रवृत्तिसम्भवात् । तदेवाह
विमुखज्ञानर्सवेदो विरुद्रो व्यक्तिरन्यतः ॥१९॥ इति
मुखं स्वसंवेदनम् अर्थप्रकाशस्य विषयनियमे तस्यैवोपासवेनाधुनैव निवेदनात, तस्याभायो विमुखम्-अर्थाभावेऽव्ययीभावविधानात , तजानन्तीति विमुस्वज्ञाः, नैयायि२५ कानां सम्बोधनमेतत् । न संवेदः समीरीने वेदनं संघदो न सम्भवति युष्माकम् । ':'
इत्यस्य वयमाणस्य सिंहाचिलोकित सम्बन्धास् । कीदशा संवेदो न सम्भवति। विरुद्ध विषयप्रतिनियमेन स्वीकृतः । कुत्त इति चेत् ? व्यक्तिरन्यता विवक्षितार्थवदन्यत्रापि तत्संबेदनरूपा न्यक्तिः सम्भवति यत इत्यर्थः । तात्पर्यमत्र
सप्वगामिति सैव are,९०,०स०२-प्रबोधपूर्व-400, प, स.।३-मादयथार्च-16, ५०,५०,स.
1 भप्राय- मा०,००,०1 ५ - ! -स्य प्रका-प्रा०, २०, ५०, स! विषयप्रतिनियमः । ८ सति कारणास्य विषयप्रतिनियमें घनस्य सचिवमा, सम्मिश्न कारणस्य विषयप्रतिनियम इति । ५ कारमशानादेव । १० विषयप्रतिनियमः।
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यार्गदर्श
१९२०
प्रथमः प्रत्यक्षमस्ताः ज्ञानस्यानात्मवेदित्वे तस्यायं विषयो घटः । इति स्वेच्छानिबद्धोऽयमात्मा नोपपत्तिमाम् ।।६०४॥ स्वेच्छानिबद्धाः सर्वेऽपि तस्यैव विषया में किम् ।। यतो विवक्षितादादन्यत्रापि न जतिः ॥६०५॥ स्थानमतं घटविज्ञान यदि सर्वत्र यसते । सर्वत्र व्यवहारोऽय भयेदानयनादिकम् १६०६॥ न धैवं निस्तार्थस्य श्यधवारस्य दर्शना । वसोऽपि निवार्थत्वं ज्ञानस्यानात्मवेदिनः ।।०७।। इति तन्नेष्टभूमित्वाम्यवहारस्य देहिनाम् । बहूनां दर्शनेऽप्यर्थे कधिदिष्टे तदीक्षणात् १६०८।। नियतार्थनिबद्धश्च व्यवहारः फुत्तो गतः १ । तद्दष्टेश्चेन्न तत्रापि घोद्यस्यास्य प्रवर्तनात् ॥६०९।। अस्वप्रकाशातद्न्टेरपि तस्याः कथं भवान् । विषये व्यवहारोऽयं नान्य इत्यपि कल्पयेत् ॥६१०॥ अन्यतस्तनियमाञ्चेन्नन्वेषमनस्थितिः । सर्वस्यारि प्रसङ्गस्थ प्राच्यस्यारोपणात् ॥६१२॥ सदस्वसंविदो बुद्धरांना नियमास्थिते । व्यवहारः क्वचित्सियन् तदन्यत्रापि सिद्धयति ।।६.१२॥ सदेवाहअसञ्चारो न यः [स्थानमविशेष्यधिशेषणम् । ] इति ।
'अन्यतः' इत्यनुवर्तते । विवक्षितादन्यत्रापि विषये समीचीन चरणं सच्चारः संव्यवहारः तदभायः असचारा समय इति पूर्ववत् । तत्र व्यवहारनियमादपि ज्ञानस्य विषयनियमः तस्यैवासिद्धः।
तदेवं सर्वविज्ञानसर्वार्थस्वे प्रसञ्जिते ।
स्याः सर्वशकिञ्चिल्झविभागविकला स्थितिः ॥१३॥
तदाह--'स्थानमविशेष्यविशेषणम्' इति । विशेष्याश्च सर्पाः सकलबेयनलक्षणविशेषणाधारस्वात् विशेषणाश्च किविताः तदभावान् , विशेष्यविशेष न विद्यन्ते यस्मिंस्तद् अविशेष्यविशेषणं स्थानम् ।
स्थान्मतम्-न कारणनियमानापि कार्यनियमात् दर्शनस्य नियतविषयाभिमुल्यं येनैवं स्यात्, अपि तु अनुभवादेव । सर्वविषयत्वे हि सर्व दृष्टम्' इत्यनुभवः स्यात् । न चैवम्, ३० ।
-पिम यथार्थत्वं आ०, २०, ५०,। २ विषयध्य-- आ-, ०५०, स भा०,०,५०।-पाधारणस्वास।
-पाधारकात
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२१२ न्यायविनिश्चयविवरणे
[ १९२० 'घटो वः पटो eg:' इति विषयनियमेनैव सस्वानुभवात् । योगियर्शनस्य तु सर्वार्थत्वमुपपनमेव, सर्वत्रापि त्वेनैव सदनुभवोद्भवात , सत्कथमविशेष्यविशेषणं नैयायिकानावस्थरनम् अनुभवबलादेव सकलेतरविषयसंवेदनभेदव्यवस्थिती सर्वज्ञकिकिचनविभागोपपने सविशेष्य. विशेषणस्यैव तदरस्थानस्य सम्भवादिति ? सोच्यते-कोऽयमनुभवो येन दर्शनस्य सैदाभिमु. रूयम् । तदेय दर्शन मिति चेत् ; स्वतस्ता सस्य तदाभिमुख्ययगन्तत्र्यम् । क्या घेन् ; न; स्वसंधेदनप्रत्युक्जीवनेन तदभावप्रविशाविरोधात् । तदेषाह-'विमुखज्ञानसंवेदो विरुद्ध' इति । विमुखं च तत् विषयान्तरनिर्मुखत्वान, ज्ञानरूध घटादिदर्शनं विमुखज्ञानं तस्य य: स्वत एव संवेदः अन्यतः संवेदनस्य बत्त्यमाणोत्तरत्वात् ! मविरुद्धो विरोधवान् स्वप्रकाशाविकलसफलज्ञानप्रतिश्येति यावत् 1
भवतु तहिं तदन्यदेव ज्ञानं तदनुभव इति । सदेवाह-व्यक्तिरन्यतः' इति । दर्शनस्य यत्तदाभिमुख्यं तस्य अन्यतः दर्शनविषरशदेष झामात व्यक्तिः प्राकट्यमिति ! अत्रेदमाह-'असनार' इति । समीचीनचारो ज्ञान तदाभिमुख्यस्य तदभावः असवारः उदन्यतोऽपि तस्य न सम्यक परिज्ञानमित्यर्थः । तथा हि-तस्याप्यामिमुख्य 'नियताभिमुख
एव पर्शने न सर्वाभिमुखे' इति कुतः परिक्षानं येनैवमुध्यते नियताभिमुखमेव दर्शनं दृष्टमित्यनु. १५ भवान , अन्यथा च तदभावादिति चेत् ? म ; सत्रापि 'कोऽयमिनुभवः' इत्यादि प्रवन्धस्यानुबन्पादनवस्थानशेषानुषचनात् । तदेवाह-'अनवस्थानम्' इति ।
अवस्थानमदृष्टशक्तो, ईश्वरानुमहास, अन्यतो वा भवतीति येत ; यस्य नहि हास्य स्थतः परतश्च न परिधान समापारस्वत्यम्भावेनानिरूपणाम् न तद्विषयस्य शानस्येश्यम्भाष. निर्णयः तदभावे च तविषयस्य, इति ताबडतयं यावदर्शनस्य नियवामिमुख्य निर्णयदूर भवति । ततो न तदाभिमुख्य विशेषणं तदर्शनकच विशेष्यमित्युपपनम् । पतवार-अविशे
यविशेषणम् । विशेष्यविशेषणयोरुक्तरूपयोरमात्र एव स्यादित्यर्थः । ततोऽनुभवयलमपि दर्शनस्य नियतविषयत्वे निबन्धनमिति कल्पनैव केवलमवशिष्यते तस्याश्च सर्यवाधिशेषात्सर्याभिमुखमपि तत्प्राप्तम् । ततो यदुक्तं ज्योमवता (?)-"यस्मिन्नेव विषधे ज्ञानमुत्पन्नं स
एनोपलभ्यो नेतर इति विषयविषयिभाषस्य नियामकत्वम्" [प्रश० न्यो० पू० ५२८ ] २५ इति ; सदत्यन्तधालभाषितम् ; विषयविषयिभावस्यैवातिप्रसङ्कन पर्यनुयुक्तत्त्वात् । न हि दोषेण
पर्यनुयुक्तस्यैव तत्परिहारायोपदर्शनमुफ्पन्नम्, अन्यथा विपतिपस्या पर्यनुयुक्तस्य अनित्यत्वावरेव तत्परिहारायोपदर्शनसम्भवासदर्थं कृतकरयागुपदर्शनमुपपन्न न मधेत् । न चैवं कस्यचिदिष्टरप्रसिद्धिा, विवादविषयमेवोपदय तत्परिहारस्य सम्भवे प्रयासरहितस्यैव स्वपक्षव्यवस्थापनस्य
सम्भषात । तदस्मादशक्यप्रतिषेधमेव दर्शनस्य सविषयत्वम् । ३०
अपि च, कस्यचित् तेन द्रष्टुत्वे परस्यापि स्यात् तदनात्मप्रकाशस्याविशेषान। माय 1-समवस्था-- आच,40,40,60) र तपाभि- आ.ब.प.स.। -सप्रतिमानप्रति-आ०,०, १०. अमन--140,40,801 कल्पः नेव आ4.4.स। ६ थ्योगमशी मा०,०,५०,०
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मार्गदर्शक
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२०] प्रथमः प्रत्यक्षमस्साकः
२१३ दोषः, सम्बन्धस्य नियामकत्वात् । अनात्मप्रकाशस्यापि यत्रैष तस्य सम्बन्धस्तस्यैव तद्विषयदर्शनं भवति न परस्य । तथा च परस्थ क्थनम्-“यस्मिन्नात्मनि समवेतं ज्ञानमुपजातं स एव द्रष्टा नान्यः । तत्र विवत्तितङ्गानासमवायात् ।" [प्रश. ज्यो० पृ० ५२९ ] इति येत् ; न; समवायनियमस्य दुरवयोधस्यात् । दयाहि-कुत इश्मयगन्तव्यम्-'फरिदेवात्मनि दर्शनस्य समवायो नान्यत्र' इति ? तत एव दर्शनादिति चेत् ; न ; स्त्रसंवेदनप्रत्युञ्जीवनात् । ५ तस्य च तदभावप्रतिशया विरोधात् । तदाह-विमुस्त्रज्ञानसंवेदो विरुद्धः' इति । च्याख्यानं पूर्ववत् । इयाधिशेष:-'विमुस्त्रत्वं 'पूर्व विषयान्तरं प्रति, अघुमा तु आत्मान्तरसम्बन्ध प्रति' इति ।
भवतु सहि ज्ञानादन्यत स्त्र तस्य तनियमावगमः । तदाह-व्यक्तिरन्यतः तनिकमस्येति । तत्राह--असञ्चार: असम्प्रतिपत्तिः सनियमस्य । कुतः ? इत्याह--अनवस्थान १० यस इति | साहि-तदपि झानं तदात्मन्येव समवेतं तद्विषयम् “एकात्मसमवेतानन्तरज्ञानवेधमर्थज्ञानम् ] इत्यभ्युपगमात् । तस्यापि कुतस्तनियमाबैंगमः ? 16 एवेति चेन् ; न; 'स्वसंवेदनमत्थुज्जीवनात्' इत्यायनुवन्धावनवास्योपस्थानस्य व्यतत्वात् । सदुपस्थानमाकामानिवृस्या नियम्यत इति चेन् ; 'न सईि चरमस्थ तेनियमपरिज्ञानं तदभावान "सत्यू. वस्येति [ न ] दर्शनस्य कचित्समवायनियमः स्वतोऽन्यत्तश्च तदपरिज्ञानादिति न तज्ज्ञानं १५ विशेष्यं नापि तस्य नियतात्मत्वसमवेतस्वं विशेषणमित्यायातम् । तदेवाह-अविशेष्यविशेषणम् । विशेष्यविशेष व्याख्याते, तयोरभावः अविशेष्यविशेषणम् अर्थाभावेऽव्ययीभावात् ।
अपि ३, अनात्मप्रकाशने ज्ञानस्य झानत्वमेव कथम् ? कथं च न स्यात् ? तत्पतिपत्त्युपायाभावाम् ! "तदेव तत्रोपाय इति चेत् ; न, स्वसंवेदनप्रत्युजीवनेन तदभावप्रतिशावि- २० रोधात् । तदाह-'चिमुखज्ञानसंवेदो विरुद्धः' इति । व्याख्यातं विमुखं सस्य ज्ञानेन ज्ञानात्मना स्वतः संवेदो विरुद्धः पूर्ववत् ।
व्यक्तिस्ताई तज्ञानत्वस्य अन्यतरवद्विषयाझानादिति परः; तबाह--'असञ्चारः' इति । तात्पर्यमत्र यत्तदन्यज्ञानं सत्प्रत्यक्षम्, अन्या भवेत् । प्रत्यक्षमपि यद्यर्थप्रकाशनं न भववि कथं तदभिमुखस्य मानस्य प्रकाशन विषयाप्रकाशने तहाभिमुख्यास्याशक्यप्रकाशनत्वात् ! २५ बदमकाशने तविशिष्टसन शानस्वाप्रकाशनम् , असरे मा भूत्तद्विषयं सविकल्पक प्रत्यक्षं तस्य सविशेषणवस्तुप्रतिपत्तिरूपत्वेन विशेषणाप्रतिपत्तावनुत्पत्तः, निर्विकल्पकं तु तत्स्वरूपमात्रालोवनरूपं प्रत्यक्षं "सदप्रतिपत्तावपि भवत्येवेति चेत् । न तदभिमुखतयैव तस्य ज्ञानत्वप्रतिल
1-तिमाया श्रा, १०, १०, स पूर्वदिष- मा०प०, १०, स.। -रसम्बद्ध प्रति श्रा०प०, प., स.। -मापनमा मा० ., स.. ५ तदपरिसानं मा०,००, स.1 एकार्यसमभा०, ५०,०,.. -मापगमः मा...,०, स. अनवस्थोपस्थानम् । १ समयावनियम । १० उपचरमस्व। झाममैव स्वसिद्धी उपायः। 1-वने सव- विशेषणाप्रतिपसारपि। :
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२१४ म्यायविनिश्वयविवर
[ १२० म्भात्, "अर्थग्रहण बुद्धि" [भ्यायभा०.३.३४६ ] इत्यभ्युपगमात् । तदाभिमुख्यस्य चेदप्रतिपत्तिः किमविशिष्ट तम्य रूपं यनिर्विकल्पकप्रत्यक्षवेद्य भयेस् ? प्रकाशमानमिति चेत् ; न; विषयविमुखस्य तस्वैवाभावात् । सत्यम्, तदभिमुखमेव ता, केवलं तदाभिमुख्यं न गृह्यते, मात्रस्यैव भाति चोई ; ; प्रामकिशुष्पस्याभेवे कायममहणं प्रकाश५ स्थापि तत्प्रसङ्गान् ? गृहीतेतरस्त्ररूपताया विरोधात् । भेरे तुन प्रकाशस्य प्रकाशस्त्रम्
अर्थाभिमुखत्याभायान, अतिप्रसङ्गात् । भिन्मेनापि तदाभिमुख्येन सम्बन्धास्तदभिमुखतयेक प्रकाश इति चेत् । नैवम् ; स्वाभिमुखत्वस्यापि सम्भवात् , तत्सम्बन्धस्यापि तत्रोपपत्तेः। तत्प्रकाशभनात्मप्रकाशं ज्ञानम् । न च सविकल्पकस्य प्रत्यक्षस्य तत्राभावे निर्विकल्पकमपि सम्भवति तस्यैव संत्र प्रमाणत्वात् । तथा च व्योमवता उक्तम्-"अथास्त्रे निर्विकल्पकलानस्योत्पत्तिः, सद्भाचे तु किं प्रमाणम् ? सविकल्पकज्ञानोत्पत्तिरेव" [ प्रश० न्यो ३० ५५ } इति । सतः सत्यपि निर्विकल्पके सविकल्पकमङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथा वदसिद्धेः । तस्य च नविपये सवारी प्रवृत्तिस्तकथं तेन तदर्यज्ञानस्य प्रकाशनम् ? तबासमार एव तस्य करमादिति चेत् ? अतत्सन्निकर्षजत्वात् , अर्थसन्निकर्षजे हि शानमर्थे सचारवनापरम् ।
न च द्वितीयज्ञानं तत्सनिकर्षजम् , अर्थज्ञानसन्निकर्षादेवं संयुक्तसमवायलक्षणात्तदुत्पत्तेः । अत१५ स्मारकर्षजस्यापि तत्र सम्वारे कथमयमेवास्य विषयो नापर इति व्यवस्था ? सदाह-अनव. स्थानम् विषयस्येति यावत् । तन्न प्रत्यक्षादर्थज्ञानस्य मानत्वपतिपत्तिः।
भवतु सामान्यच एय सत्प्रतिपत्तिद्धितीयस्यैव विकल्पस्योपादानादिति चेत् ; न कि तदन्यत् ? उपमानभित्ति चेत् ; म; तस्योपलभ्य एवं विषये वाध्यत्वोपाधिकरयेन प्रवृत्ते,
अर्थशानस्य चानुपलभ्यत्वप्रतिपादनान । आगम इति चेत् । ने; तस्मादप्यपरिज्ञावातदप्रतिपत्तेः । २० परिहासादेव भवत्पित्ति भेत् ।
"तझानस्यापि "सत्य वेर्य चेदागमान्तरान् । समाप्येवं प्रसङ्गः स्यात्तथा सत्यनवस्थितिः ।।६१४॥ अनुमा तु नास्येव तम्झानत्यावबोधनम् । प्रत्यापूर्वकत्वेन "सदभाचे सदस्ययात् ॥६१५॥ म चास्ति परम मानं न्यायतरपविहां मत्ते।
अर्थयोधस्य गरेवत्वं यतः स्यादुपपसिमन ।।६१६॥ सतः किम् ? इत्याह-अविशेष्यविशेषणम् ज्ञान विशेष्यं तस्य विशेषणमर्थसं
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"कोभिरूपविशेषगरहितम्" ता.दि.२-के -०, ०,१०स०, ३ सविकल्पत्यैः । निर्विकल्पके ! ५ व्योमवतायुसा । न्यानमहक ५० । न्योममता आ०, २०। ६ "अन्य fe विशिष्धर्थानुपलब्धी विशिष्टस्य सहनस्मरणस्नुपपत्तेः सविकल्पक शनं न स्यात् । तस्य ताकार्यत्वात्" Me यो पृ. ५५७ १ . म वि ०, २०, ५०, #1 6 -य ज्ञा-प्रा०,०, ५०, स.। १ ममःसंचुके आत्मनि अर्थज्ञानस्य रामवेतत्वात् । १० सामन्नानस्यापि । अर्थशान शत्यम् । तत्व भा०,०, स.। तमन्यत्वं १०१ १२ प्रयभावे।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्तावा म्यानिधत्वं तदुभयं न भवेत् अनुपायथेनातिपत्तिविश्वस्यादिति । ततो पदुक्तं भासर्यक्षेत्र - "स्वरल्यावयोधकत्वामा कथमसौ बोधस्वभाव इति चेत् इति पूर्वपक्षरिल्या समाधानम्स्वात्मदाहकत्वाभावेऽपि यथाग्निदहनस्वभाः 'स्त्रात्मदायकत्वामावेऽपि यथा दावा दिक दानादिस्वभावम् ।" [ ] इति ; सत्प्रतिविहितम् ष्टान्तमात्रात्साध्यसिद्धी सर्वत्र हेतुवैफल्यात् अतिप्रसनाच्च । न तन्मात्रादेव तरसाधनमपि तूपपत्तिमत्तयां च, उप- ५ पतिश्च सथाप्रविपन्नत्वम् । तदयमर्थ:--अनारमवेदनेऽपि वान शानमेव तथाप्रतिपश्नत्वात् अमात्मदहनेऽपि वद्विषत् ; इत्यपि ने सारम् ; असिद्धत्वादेतोः, तथाप्रतिपन्नत्यस्य प्रतिषिवस्वात् ।
यदप्यन्यदुक्तं नैव तदप्रसिद्धी विषयस्याप्यासिद्धिरिति चेत् , इति पूर्वपक्षवित्या समाधानम्-किं कारणम् ? न हि तदृफ्लम्भः स्वविषयं लिङ्गदरसायति येन तद- १० प्रसिद्धी विषयस्याप्यासिद्धिः स्यात् । किं तर्हि १ तद्गृहीतिरूपतयोत्पादमात्रेण तं विषयं व्यवहारयोग्यं करोति तदप्रसिद्धावपि विषयः प्रसिद्ध श्वेस्युच्यते' [ ] इति ; सध्यसम्बद्धम् तद्गृहीतिरूपतयोत्पादस्यैव दुष्परिज्ञानत्वेन प्रतिक्षिमत्वात् । ततो ज्ञानस्य विषयनियम नियतपमासमवायमर्थप्रकाशरूपत्वच प्रतिपत्तुमिच्छता स्वप्रकाशरूपं तदभ्युपगन्सव्यम् , अन्यथा तदसम्भवादुक्तधन् । स्वप्रकाशे तु हाने सम्भवति तत्प्रतिपत्ति: यसिषयतथा १५ यदामस्वभावतया प स्वतस्तस्य वेदनं स एष तदयों नापरः स एव प तेन प्रमाता नापर!' इति, अस्यायपरिच्छित्तिरूपतया च स्वतः प्रवेदनात 'शानमेव तत् नाहानम' इत्यस्य च स्वाह एवं व्यवस्थापनात् । ततः स्वप्रकाशमेव ज्ञानं स्यहेतुघलात्तथैवोत्यप्तेः ।
यत्पुनरत्र तस्यैव कचनमू-"उत्पाद हि सति पश्चादयदृष्टेः प्रत्यक्षत्वं युक्तं न पूर्वमेव" [ ] इति । तत्परामिायापरिज्ञानादेवोकम् । न हि सौगतस्यापि 'अप्रत्यक्षोपलम्भस्य' इत्यादि ब्रुवाणस्यायमभिप्रायः प्रागेवार्थदृष्ट्र प्रत्याक्षत्वं पश्चादुस्पतिः' इति, अपि तूपयमानैव सौ स्वप्रकाशरूपतया प्रत्यक्षेवोत्पद्यते, तपतयोत्पसावेव "तस्यास्तदूपत्वोपपत्तेः", अत्तद्रूपतयोत्पत्तिः अनुत्पांतरेवेति अनुत्पन्नवार्थराष्टिमवेवित्यमेव । तत्कथं पराभिप्रायत: पौर्वापर्यमर्थष्टी तत्प्रत्यक्षस्वतदुत्पादयोर्थतस्तत्र 'नहि' इत्यादि दूषणमुश्रुध्येत ? "तदयमविज्ञानपूर्वपक्षसया दूषणमुद्घोषयन्तात्मनो पियूषकत्वमावेदयति । एवमन्यदपि तस्य दुर्विलसितमुपदय .. प्रतिविधातव्यम् ।
कथं पुनरात्मवेदनं ज्ञानस्य ? कधच न स्यान् ? स्वात्मनि क्रियाविरोधादिति चेत् । में; असिनत्वात् । विरोधोऽपि प्रमाणाधनमेष नापरः, ततः कस्यचिनिषेधायोगात् । स च
भेखि पूर्व-स० । येन तदिति पूर्व -१०।२ स्यात्मादाह-मा., २०, ५०, स.। लवनार्थकदाप्याती दायः इति रूपम्, छेदका शि यावत् । ३. पानादि-आ०, १०, १०। ४ दृष्टान्तमात्रादेव । ५-सया बोप- श्रा, ब०, प.स.1 याय-आ०,०,५०, १० 1 0 भासव । तदप्यसम्बग्यम् सा। अरधिः १. अर्थद र वोपपत्तेः। १२ तिरमोत्पति-पा०, ५०, ५०, स-114 सौगलस्वाभिप्रायः १४ सत्यमपि सात-आ०,३०,३०, स.!
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२९६ न्याययिनिश्चयविवरणे
[ १२०. प्रमाणप्रसिद्धन सिद्धयति, 'तत्प्रसिद्धच तद्वाधिन छ' इति तत्रैव विरोधात् । प्रमाणप्रसिद्धन्छ ज्ञानस्य स्वश्वेदनं विषयनियमादिनाऽनुमानेन मध्यवस्थापनान । 'सपक्षानुगमाभावादनुमानमेक तन्न भवतीति चेत् ; स्यादेतदेवम् , यदि सदनुगमस्यासाधारणतया 'तल्लक्षणत्यम् । न
चैयम , सदाभासेऽपि तत्युत्रत्वाद भाषात् । तस्मादन्यथानुपपन्नत्वस्यैव था तल्लभगत्तम । ५ तच्चाविकलमेव विषयनियमादौ । तदेव कई तदनुगसाभावे गम्यत इति चेस् ? न विपक्षे
बाधकबलादेव तदवगमात् , तस्य चोपदर्शितत्वात् । करिष्यते च तस्यैव तल्लक्षण प्रश्न्ध इति नेच प्रतन्यते । ततः सम्यगंत्र प्रकृतमनुमानमिति न तद्विषये ज्ञानस्यात्मवेदने कश्चिद्विरोधो यसस्तनिषेधः स्यात् ।
प्रमाणसिद्धमप्येतद्विरुद्ध चेत्स्त्रवेदनम् । अर्थवेदनमप्येवं विरुद्धमवबुध्यताम् ॥६१७॥ प्रमाणमेव तस्यापि परित्राणाय नापरम् । ततः स्ववित्तेरवाणे त्राणमर्थविदः कथम् ? १६ १८५ स्वार्थवित्तिविलोपे च शानमेव क्षयं मजेत् । ज्ञानाभाषे कथं ज्ञेयं स्वसंवेदनधिविपाम् ? ।।६१५॥ ज्ञानज्ञेयक्लिोये च शून्यवादानुपजनम् ।
तस्मान्न्यायनिर्यन्धो मुच्यतामस्ववेदमान १६२० इसमेवाभिसन्धाय सौगलेनाप्युक्तम्
"यदा स्वरूपं तत्तस्य तदा कैव विरोधिता ।
स्वरूपेण विरोधे हि सर्वमेव "प्रलीयते ॥"[प्र. शर्तिकाल० २।३२९] इति । ___ कश्चायं "स्वाल्मा नाम या क्रियाविरोधः ? क्रियावानेवार्थ इति चेम् ; त तद्विषेधे कथं कियावत्त्वम् ! क्रियावये या कथं ततिरोधो व्याघातात् ? न व्यापातः उत्कर्मकत्वेन तत्र तद्विरोधस्याभिधानात् , तत्कर्सका तु न विरुध्यत एव 'छिन्नत्ति खगः' इति श्तीते:, कर्म तु तत्र व्यतिरिक्तमेव खङ्गा का छिनत्तीति प्रत्ययादिति चेत् ; नन्थेवं युद्धेप्यात्मसमायिन्याः सत्कर्म"कत्यमेव "प्रतिषिदं भवति, न चैतत्पश्च भवताम् , आत्मनोऽप्रमथरवप्रसमान वस्यैव युद्धौ कर्तृत्वात् । तदिदमन्यत्र सन्धानमन्यत्र पात; शरस्य, युद्धः स्यसंवेदनप्रतिपेयायोपक्रान्तेन
आत्मनि प्रसिपत्तिकर्मत्वप्रतिषेधात् । तन्न क्रियामानर्थः खात्मा । क्रियैवेति वेस् ; कः पुनः क्रियाविरोध: ? ताप्यानुपपत्तिरिति चेत् ; कथं पुनस्वस्या एव तद्रूपत्वानुपपत्तिः व्यादी.
---...- - प्रमाणसिसियतेतर- आ., बत, . प्रमालासिदे सिध्यत्येतस्प्र- स । २ २ २ पक्षा- १०,०प० । ३ तदनगर- आ०,०,५०, स. | अपक्षागमस्य । * अनुमानलक्षणत्वम् । ५ गर्भस्थः श्यामः तम्युनत्या इतर पुत्रवदित्यादौ । ६ असाधारणतया । अन्यथानुपपनस्वमेव ।। ८ सपक्षानुगमामादे। ९ अन्यथानुपनत्वस्येव । १० प्रतीगत प०, स. ११ वात्मनाम् यत्र भा०,०,१०, स.। "स्वात्मा हि क्रियायाः स्वरूपम्, विवाशादात्मा का?"-प्रमेवक.. 1३६. न्यायमु. १.1461 स्थ. ना.पू. २२१ । १२ कियावत्व बुद्धिकमेकत्वमेव बुधिविषयत्वमेव । १४ प्रसि मा०,०,१०,म
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...TAAS
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१०२० ] श्यमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
२७ नामपि द्रव्याविरूपरवानुपपस्या शून्यवादानुषङ्गात् । वतिपयस्येन तंत्र सदनुपपत्तिर्न तदूपत्थेनेति । न हि छिदिरात्मन्यपि लिदिर्भवतीति चेत् ; किंविषया तर्हि छिविः ? निर्विषयवे स्वात्मनीति विशेषनुपादानप्रसङ्गान् । काष्ठविपयेति चेस् ; कुछ एतत् ? स्र्वसत्ताया एवेति चेत् ;न; स्वात्मविषयत्वस्यापि प्रसङ्गात् । विशेषाधानादिति चेत् । न ; स्वात्मन्यपि तत्सम्भवात् । काठ एव छिदिकृतस्य विशेषस्य विनाशात्मनः प्रतिपत्तिर्न छियासानीति चेत् ; न; काष्ठेऽपि साक्षा- ५ सस्य नेतत्वाभावात् ,, तदारम्भकोक्यवसयोगविनाशकृतत्वात् । पारम्पर्येण छिदियवस्वमपीति चेन, सिद्धं तईि तस्याः स्वात्मविषयत्वमपि तद्विनाशस्यापि पारम्पर्येण तत्कार्यत्वान् । छिदिहि स्वासमवायिनी खड्गकाष्टसंयोगात् स्वकार्यान्निवर्तमाना भवत्येव परम्परया खबिनाशस्य कारणम् । अथैवमपि तस्या न स्यविषयत्वम् ; काविषयत्वमपि मा भूत् । ततो न स्वात्मन्येव कियाविरोधः परात्मन्यपि तद्भावात् । तथा च
यथा विरोधमुडीक्य "छिदेखत्मनि करप्यते । विरोधो बेदनस्वापि स्वात्मनि म्याक्वेदिभिः १६२१॥ तथाऽन्यत्रापि " दृष्ट्वा तस्याः किसोपालप्यते । वेदनस्य स्वचाऽपि विरोधो बाधवर्जितः १६२२ "उभयत्र विरुद्धच शानं सदिति केवलम् ।
प्रत्येवव्यं भन्नेदेसझौतमुद्राप्रमाणकैः ॥६२३॥ सवो न स्वामान क्रियाविरोधेन अर्थशानस्य स्वसंवेदननिषेधानमुपपनयु।
सत्रिवेधे या कुतस्तस्य' प्रतिप्रतिः १ अप्रशिपत्तिकमेव तत्सर्वदेति चेत् ; न ; व्योमअसुमवत्तदभावापसेः । "एकात्मसमवेतानन्तरज्ञानादिति चेत् । कुत इदमवसितम् ? 'अर्थशानं ज्ञानान्तरजेचं देवत्वात् ""कलशवन' "इत्यनुमानादिति चेन् ; कलशस्यापि कुतस्तदेवत्वमपसितं २० यसो निदर्शनस्य साध्यवैकल्यं न भवेन् ? तदनादेवेति चेन् ; न; तस्याखसंवेदनस्वात् । यदि हि न "तत्स्यसंवेदनं भवत्येव ततः कलशान्यत्वस्थ "वद्धर्मस्य ग्रहणम् । न चैवम् , अतो विरुद्धमेतत्-'अनात्मदिन एव नानासस्य कुसश्चिदन्यत्वं गृहाते' इति । तदेवाह-'विमुख' इत्यादि । विषयात् विभिन्नं मुखं रूपं यस्य ता ज्ञान विमुखज्ञानम् , तस्य यः स्वतः संवेदः स विरुद्धः स्वसंवेदनप्रमात् । व्यक्तिरन्यतः कलशज्ञानादन्यत एव शामातस्क- २५ लशान्यत्वस्य व्यक्ति प्रकाशनमित्ति पर । तत्राह-'असञ्चार' इति । असञ्चार असम्प्रतिपत्तिः कलशास्तदन्यत्वस्येति यायन् ।
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विवाविश्यखेन । २ कियायाम् । ३ क्रियारूपवानुवपत्तिः । ५.स्वसदेवि भान, २०, ५०, प.। ५ किदिक्त । कस्यावय-भा०, ब०, २०, ०५ . बंदसिद्धं भा०, २०, ५०, स.1 किदिदिनाक्षस्थापि । ९-गामि सरका-भा०, २०, २०, ०० छिदेखत्मनि क-मा, चनप०,
स तवादमा०, २०, ५०, स.। विरोधम् । १२ पाये स्वाश्मनि च । १३ अर्थशनाय ७ एकार्थसम-80०,०, १०,801 १५ सञ्चादिवत् आ०, २०, ५०, स.।। श्याम्-पृ. १२.टि. ११७ समबेदनम् । 14 नधर्मस्व ।
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१०
२१८
न्यायविनिश्वयविवरणे
Teri aarateeयान्तो यदि वेद्यते । स्यापि कलशज्ञानादन्यत्वं गम्यते कुतः १ ॥ ६२४॥ वदन्यत्वापरिज्ञाने वचस्तता कथम् १ | कलशाद्वेदनान्यत्वमन्यतो वेदनाविति ॥६२५ ॥
वेद ने स्वतस्तस्य स्वसंवित्पलापिनाम् ।
अन्यतो वेदने तु स्यादनवस्थानदूषणम् ॥१६२६ ।।
तदाह- 'अनवस्थानम्' इति । ततश्च न तज्ज्ञानं विशेष्यं नापि तस्य कलशार्थीम्यरखं विशेषणांमेत्या-विम् । सदाह - 'अधिशेष्यविशेषणम्' इति । ततो निदर्शनस्य साध्यवैकल्यमिति भावः ।
यत्पुनरत्र परस्यानुमानम्- "कलशादर्थान्तरं तज्ज्ञानं चेतनत्वात्, यत्पुनस्तस्यादनर्थान्तरं तम वेतनं यथा तस्यैव खरूपम्, चेतनञ्च तज्ज्ञानम्, तस्मात् ततोऽर्थान्तरम्" ] इति तदपि न समीचीनम् अनुमानज्ञानस्यापि ज्ञानादन्यरस्य स्वतः पूर्ववदप्रतिवेदनात् अनुमानान्तरपरिकल्पनायामनवस्थापतेः ।
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[ १।२०
अपि च, कुतः करावेतनत्वस्य व्यावृत्तिः वस्य तद्विरुद्धेनाचेतनत्वेन व्यातत्वा१५ दिति चेत् तदेव कुतोऽवगतम्, यतसव्याप्तादनर्थान्तरस्वास व्यावर्त्तमानं चेतनत्वमर्थान्तरत्व
3
पत्र नियतं तदवगमयेत् ? तत एव कलशज्ञानादिति वेम् तेनापि चैतन्यं क प्रतिपन्नं यत. स्तत्पर्युदासरूपमचेतनत्वं कलशस्य तवोsवगम्यताम् ? अप्रतिपन्ने तस्मिन् तत्पर्युदासस्य दुखगमत्यात् अप्रतिपन्नमैकपयु दासवत् । आत्मन्येवं तस्प्रतिपन्नमिति चेत्; न; अनात्मवेदिनि तस्मिम् उदयोगात् । ज्ञानान्तर इति चेत्; न; तस्यै तदविषयत्वात् । तत्र कलशस्य तज्ज्ञाना२० देवातत्परिज्ञानम् । अन्यतो ज्ञानादिति चेत् । न ततोऽपि कलशमात्रविषयासदनुपपत्तेः । प्रतिषेध्यमेतनत्यविषयमपि तदिति चेत् किं तवेतनम् ? तदेव ज्ञानमिति चेत्; न; अस्वात्मवेदिनस्तस्य तद्विषयत्वायोगात् । कलशज्ञानमिति चेत् स एवत् ?, "दस्य "तेनार्थवेदनत्वेन महणत्तपत्वाश्च चेतनस्येति चेत्; ईशस्तव्यापारः कुतोऽयमतो येनैवमुच्यते ? न सावत एव तस्यानात्मविषयत्यात् । तातव्यापारगोचरत्वस्य स्वतः प्रतिवेदना२७ भाषात् । अन्य तत्कल्पनायाम् अनवस्थादोषत् । आकाङ्क्षानिवृत्या तोषनितिरिधियेत् कथं पुनर्जिज्ञासिततादृशत व्यापारनिश्चयाभावे तदाकाङ्क्षानिवृत्तिः तस्या स्वनियनयन्धनश्थात् १ अध्ास्तर्हि तदशेषनिवृत्तिरिति चेत्; सोऽपि यदि
कलात्
१०१००१
राज्ञानात् मिषत्वस्य ।
५- शंक्य आ०, ब०, प०, स०६१न सर- भा०, ब०, प०, स० ज्ञानाविपयत्। ९शानान्तरम् । १० फलज्ञानस्य ११ शानान्तरेण । १२ - रोरवी मरत्व प०, स० । १३ परिवेदना आ०, ब०, प० १४ आन्यानियले १५ अनवस्यादोष ।
हानान्तरस्य । ८ - ४०
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव तमिश्चयमविधाय तोष नियति तदवस्थं तम्बापायपरिझानम् । तद्विधानमपि यधन्यतः कथं दोषनिवर्तनम् ? तत्राप्यन्यतस्तविधानस्यापेक्षणीयत्वात् । व्यापारो बुभुरिस. वस्सत व द्विधानमिति चेत् ; ; स्वसंवेदनवादप्रत्युनमजनप्रसङ्गात् । तन्नान्यतो विज्ञानात् कलशस्थाचेतनत्वं शक्यपरिज्ञानम् , पर्युदवसितस्य चेतनत्वस्य कचिदष्यपरिज्ञानात् । तत्कथं तेनाऽनन्तरत्वं व्याप्तं यत्तस्तस्मायावृत्तं चेसनस्वमर्थज्ञानस्य कलशादर्थान्तरस्वमवबोधयेत् ? ५ उदयं सम्दिन्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनानैकान्तिकत्वान सम्यग्धेतुः, अतो नानुमानादपि कलशात्तझानस्वार्थान्तरत्वमिति साध्यवैकल्यादाहरणस्य न कलशज्ञानस्यार्थान्तरक्षानविषयत्वसाधनं सम्यक साधनम् ।
व्यभिचाराच। व्यभिचारि खल्विदं चत्वं व्याप्लिज्ञानेन। मप्रविज्ञातव्याप्तिकरयागुमानम् अतिप्रसमा । नापि प्रादेशिकतद्विज्ञानस्य ; देवाविज्ञातव्याप्तिकं तेनैव व्यभिचार- १० सनात् । तसः साकल्येन द्विशाने तु संदेवात्मगतस्यापि वेद्यत्वस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वेन न्याप्ति प्रसियन् आत्मवेदनमेष , तदन्तरवेद्यामिति सुध्यको व्यभिचारः । साभ्यसाधनसामान्यस्यैष तेजज्ञानविषयत्वं व्यास्तनिष्ठत्वेन "सदपरिझाने परिज्ञामासम्भवाम् , म. व्यक्तीनां विपर्ययान् , व्यक्तिरूपं च "तज्ज्ञानं तत्कथं तस्य तद्विषयत्वमिति चेत् १२ : "तदपरिज्ञाने सामान्यस्याय. परिझानास् तस्य सन्निष्ठत्वात् । कतिपयव्यक्तिपरिज्ञानादेव भवति तत्परिज्ञानमिति चेत् ; न; १५ तक्ता व्याप्तिपरिज्ञानासम्भवात् , अन्यथा तत्पुश्रादायपि "सरसम्भवान्न व्यभिधारः स्यात् । बाधनाचत्रं व्यभिचार इति चेत् । न; "लक्षणयुक्त बाधासम्भवे सल्लक्षणमेव दक्षिसं स्यात्" [२० वार्तिकाल० २.१७] इति वेद्यत्वादापि बाधाविरहं प्रति च निःशई चेतः स्यात् । बाधस्यानुफ्लम्मानिाशकमेवेति चेत् ; न ; अनुफ्लम्भस्य सर्वसम्मनिधन: "सतोऽपि दुरव. मोधरनासिद्धत्वात् । आस्मसम्बन्धितच "परचितो (चेसो) पृत्तिविशेषैव्यभिचारित्वात् । अतो २० नाबाधितविषयत्वानुमानलक्षणम्, अपि तु विज्ञातव्याप्तिकत्वमेव, तश्च सकलव्यक्तिविज्ञानमुखेनै नान्यथेसि कथन संन्यानिज्ञानस्य "तद्विषयत्वमिति सुव्यक्तमेव तेनानैकान्तिकत्वम् ।
"सुखाविना च, तस्यापि स्वत पर प्रकाशनात् । न हि तस्य वेधस्यापि पर प्रकाशन मनुभूयत इति । तदाह-विमुख इत्यादि । विमुख स्थग्रहणपराङ्मुखवात् अर्थशान" तस्य ज्ञानमर्थान्तरं विमुखंज्ञानं सस्य सम्बन्धी गमकत्वेन चः संवेदः संधेवरवं हेतुः सः २५
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विश्वयविघारम् । २ अचेतनत्वेन । ततो बस्तुमा, प०,०:-स्थानन्तरमा००, -०, स.।५ ऋतिस्यसाध्यसाधनभ्यक्तिधु गृहौतन्यासिकस्य । ६ सदेव वस्तु । यवेवाविज्ञाना-मा००३० ।
• म्याप्रिक्षाने द्विज्ञातुं सहे- प्रा . प., । ८ व्यामिहानम् । २ व्याफिलाम | : सध्यसाधनसामान्यापरिमाने । स्वातिमानम् । १२ व्यत्यपरिक्षाने । ११ सामान्यस्य | Varमान्यपरिक्षासम् । १५ कतिपयस्यक्तिपरिज्ञानमात्रेण । १६ व्याप्तिज्ञानसम्भवात् । १७ सपुत्रवादी। १८ स्तोऽपि मा, 4०, प., स.। १२ परतोनिवृत्ति-०५ परिचितीकृत्ति- २० । २० स्वविषयस्वमिति । तुलना-"मुखसंवेदनेन इतोळमिचचरात् महेश्वरहानेर घ" -अमेवक.१० १३२ २२ -नय तस्य भा०,व०, ५०, स.।
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५
न्यायविनिश्चय विवरणे
[ १।२०
अवरुद्ध विपक्षेऽपीति शेषः तस्माद्व्यभिचारीति भावः । व्यामिशाने सुखादिज्ञानेऽपि तयाः सुखादेवान्यत एव ज्ञानात् व्यक्तिः ; इत्याह-'व्यक्तिरन्यतः' इति । तत्रोत्तरम् -'असञ्चारः ' इति । तंत्र व्याप्तेः सुखाश्चान्यतो न सवारः न परिज्ञानम् । कुतः ? इत्यत्राह - अनषस्थानम् । 'यत:' इति शेषः । तथाहि
१५
२५
२२०
सुखापेक्षा तु व्याख्यानम् - यद्यन्यदेव सुखादेस्तद्वेदनं तहिं पश्चादेष व सुखाद्युत्प-१० तिसमये, ततः पूर्व तनिमित्तस्य सन्निकर्षस्याभावादित्यविदितस्यैव तस्योत्पति । तथा च' serial सुखादिना तद्वान् पुरुषः' इति यद्वस्थानं व्यवस्था लोकस्य तन्त्र स्थात्, अबिदिसस्यानुत्पन्नस्पत्वादित्यनवस्थानम् । पदनाम वत्पत्वमिति वेम् व्यवधाने सद योगात् तावत्कालं तदनवस्थानात् । अनन्तरमिति चेत् न नियमाभाषांत् । न झुत्पन्नस्यानन्तरमेव नमिति नियमः अन्यत्रैवमदर्शनात् ।
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तदन्यत्रापि सारियो यदि ते । तत्राप्येवं स्यावनवस्था कथन्न वः ? ॥६२७॥ आकाविनिवृत्त्यादि पूर्वमेव विचिन्तितम् ।
तस्माद्व्याप्तिसंवित्तित्ततं योगम्यताम् ।। ६२८ ||
egers fereeपस्य समाधानम्- 'सुखादेर्धर्माधर्माभ्यामुत्वा तौ च यथा सुखाद्युत्पतिपातिपतस्तदनन्तरक्षणे तत्संवेदनमषि" [ इति सदस्यनुपपन्नम् ;उत्पत्तिसमय एव तस्य संवेदन न हि समसमयस्व " तस्यानन्तर समयस्वम् ; " तत्समयस्यापि परमत्येन व्यवधानप्रसङ्गात् । अपि यत्तस्य" प्रतिवचनम् - "या तूत्पचिकाल एव सुखादेः संवित्तिः सा भ्रमनिमित्तस्याशुभावस्य तत्र सम्भवात् तत्कृता, यथा घटादेरुत्व"२० द्यमानस्य प्रत्यक्षता, तत्रावश्यं घटस्योत्वति द्वितीयक्ष रूपादिसमवायः तृतीये संवेदनम् अत्र च "युगपत्संवितिः । सुखादौ तु द्वितीयंाणे संवेदनोत्पादात् स्वप्रकाशअम:" [ ] इति । तत्रोच्यते - कस्यासौं तमः ? तस्यैव सुखादेरिति चेत ; न; अचेतवात् । चेतनथमो हि विभ्रमः, स कथमचेतनस्य स्वात् घटादावपि प्रसङ्गात् ? आत्मन इति चेत्; न; तस्याप्यचेतनत्वात् । चेतन एवात्मा चेतनसमन्त्रायादिति चेत् तद्यदि चेतनमन्यमिtena ni garatafaभ्रमः स्यादविप्रसङ्गात् ? तद्विषयमेवेति चेत् न घटादावपि 'संदनस्य तद्विभ्रमत्वप्रसङ्गात् । ततश्वानिचितं तस्याम्यद्यत्वमिति कथमज्ञानस्य तदन्तरमेयत्वे "तस्य निदर्शनत्यम् । आशुभाषात्संवेदनस्य सत्र यौगपद्यविभ्रम एव न स्वप्रकाशविभ्रम इति
3
१ दोषि - प्र०, १०, १००२ म्याक्षिनेऽपि ० ० ० ० व्यादिताने ४ सुखाद्युत्पत्तेः प्राक् । ५ सुखाः ६ कल्पना-आ०, २०, ५०, १०७ तदवस्या - ०१०, प०, स० - पादनाशी आ०, ब०, प०, स० । ९ सुखादेः । १ सुखादिसंवेदनस्य । १३ अमन्तरसमयस्यापि । १२ विश्वरूपस्य । मा अ०, ४०, १०, स० १४-पतिः डि-सा० १५ रूपवान् घट इति विशिष्टज्ञानम् । १६ घटद नवस्तदनन्वरजेय--म०, ब०, प०, स० १९वस्थ तस्थ निनस्य निद - मा०, ब०, प०, स०
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२०) प्रथमःमत्यक्षप्रस्तायः
२२१ छन् ; ; सुम्यादावपि तस्यैव प्रसङ्गात् । भवस्विति चेन् । न; 'स्वप्रकाशभ्रमः' इत्यस्य विरोधात् । सत्यपि चौगपचभमे कथं सस्य प्रत्याश्त्वम् अभ्रान्तस्वैव तत्वात् ? अप्रत्यक्षमेव तवेदनमिति चेत् कथं ततः सुखादिसिद्धिः ? विभ्रमात्तद्योगादतिप्रसङ्गात् । योगपय एष तस्य भ्रमत्वं न सुखादाविति चेत् ; कश्चमेकस्य विभ्रमाविभ्रमस्वभावत्वम् विरोधात ? अविरोधे का यस्यैव सुखादित्वं तस्यैव स्वप्रकाशनत्वमपि भवेदिति न सुखादेरन्यतः सचारतस्यैवान्य- ५ स्थाव्यवस्थानात् । तदाह-अमवस्थानम् । ततः स्थितं सुखादिनापि वेद्यत्वस्य व्यभिचारित्वम् ।
___ "ईश्वरझानेन च । न हि तस्यान्यवेदत्वम् । एकत्वात् तस्य । नायवेद्यत्पम् ; ईश्वरस्यासर्वज्ञास्वप्रसङ्गान् । अस्त्येव तस्यापि ज्ञानान्तरम् , न घामबस्थानम् । तयोरन्यस्पैकेनकस्थ मान्येन वेदनात् , नमपि परस्परायणम् ; स्वप्रकाशनिरपेक्षयोरेव बिषयमफाशत्वादिति मेत् । म तथापि स्वप्रकाशस्यावश्यम्भावात् । तथा हि तदेकमन्यस्य आत्मविषयस्यैर प्रकाशनम्, न १० पात्मापरिझाने तद्विपयतया तस्य प्रकाशनमुपपनम् । आत्मपरिज्ञाने व किसन्यज्ञानपरिकल्प. नया भक्त्वेकमेव तज्ज्ञान तथापि न व्यभिचारः तस्यापरिहानाम्, तव्यतिरेकेणव तस्य सर्वज्ञत्योपगमादिति चेत् ; दपरिक्षाने तत्समधारित्वेन कथं तदारमनोऽपि परिज्ञानम् ? मा भूदिति पेत् ; कयं तर्हि "स बेशि विश्वम्" [ श्येता० ३.१५ ] इत्यादिना तस्य "स्वरूपोपदर्शनम् अपरिजातस्य सत्योगात् ? न चेदमपौरपेयमेवः अनभ्युपगमात् । अपरिहा- १५ वस्य" बोपदेशे" करणमपि "तस्यैवेति कथं अगतो बुद्धिमोतुकत्वम् ? अतो न तदपरिज्ञानमुपपत्रं बहदोषत्यान। "नाप्यन्यतस्तत्परिज्ञानमिति कथन - तेन व्यभिचारः साधनस्य । न व्यभिचारः अनित्यत्वेन विशेषणात्, "अनित्यत्यविशिष्टं हि वेधत्वं साधनं न सन्माश्रमेव, 'अर्थशानं तदन्तरवेद्यम् अनिस्यत्वे सति बेयत्वात् "कलशवत्' इति प्रयोगकरणात् । माहेश्वरे च ज्ञाने तद्विशिष्टस्य हेतोरभावात् , तस्य नित्यत्वादिति चेत् ; न; हेस्वन्तरत्वेन २० निमहस्थानप्रसङ्गात् , "अविशेषोक्त हेतौ निषिद्धे पुनर्विशेषोपादानं हेत्वन्तरम्" [ न्यायसू० ५।२।६ ] इति वचनात् । प्रथमगेव तथा वचने न दोष इति चेत् ; न; तथापि व्यभिचारस्यानिवारणात् विशेषणस्य विपक्षाविरुद्धत्वात् । न हि विपमेणाविरुद्ध विशेषणं ततो हेतु व्यावर्तयितुमलम् । अनित्यत्वं हि नित्यत्वस्व परिहारेण सत्यैर्वे तत्प्रत्यनीकस्थात्, न स्वप्रकाशस्य विपर्ययत् , अत एव स्वप्रकाशोऽपि अस्वप्रकाशस्यैव परिहारेण मानित्य- २५ स्वस्येति न परस्परपरिहारेण स्वप्रकाशविरुद्धत्वमनित्यत्वस्य.। नापि सहानवस्थानेन, असति
योगपतिम्रमस्वैष । २ अलावान् । ३ पात्यमेव मा., 40, प. स11-द्विविध-भा, 40., स. ५-१ विश्रमस्व-भा०, २०, ५०, १० धेन य--800, 40, प. -नायस.। "महेश्वराशनेन हेतीयभिचारा"-प्रमाण पृ. ६.१ युसंपनुशा- टी. पृ०1०। न्यायअमु.पृ.1431 स्था रखा ४.१२२। ज्ञानापरिज्ञाने । ९ स्वात्मनोऽपि स्वरूपदयों-मा. ब०, ५०,112 महेश्वरस्वरूपस्य । १५ दोषदेशकरप-धा०, ५०, ५०,०। १३ अपरिहातस्यैव । १४ नापतस्य-मा०, द., प०,०।१५ अनित्यत्व विशेषत्वं सा- मा०, २०, ५०, स-11६ लासादिवत् भा०,५०, १०, स। 10 नित्यत्व स्पैन ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[१/२०
1
veereefeat inस्थानस्यापि सम्भवात् । कलशादावदर्शनात्र' तत्सम् इति चेत्; नित्यत्वस्यापि न स्यात् आत्मादावदर्शनात् तत्कथमीश्वरज्ञानस्य नित्यस्यापि स्वप्रकाशत्वम् ? कचिद (द) नेऽपि न नियत्वस्य वैद्विरोध इति चेत्; अनित्यत्वेन किमपराद्धं arents aरोधमावेदयति ! ततो विपक्षाद्विशेषणस्य व्यावृत्तिनियमाभावात्तद्विशिष्टस्य ५ हेतोरपि न नियम इति संशयिताविपराभ्यावृत्तिकत्वादवस्थं सविशेषणस्यापि व्यभिचारित्वम् । ततश्च यद भासर्वज्ञेन पक्ष त्रयमुपन्यस्तम्- "अनैकान्तिकत्वपरिहारार्थं परमेश्वरस्य ज्ञानद्वयमम्युपगन्तव्यम्, तद्वयतिरेकेण वा सर्वज्ञत्वम्, अनित्यत्वे सति इति वा हेतुविशेषणं कर्त्तव्यम्" [ ] इति तत्प्रतिविष्टितम् पक्षत्रयेऽपि अनैकान्तिकत्वस्याशक्य परिहारत्वेन प्रतिपादित्वात् इयमतिप्रसङ्गेन । ससः साध्यविक निदर्शमत्यादनैकान्तिकत्याच न वानस्य ज्ञानान्तरवेयत्वं सिद्ध्यति । देवाह--'अविशेष्यविशेषणम्' इति । विशेषयं ज्ञानं तस्य विशेषणं ज्ञानान्तरवेद्यत्वं तदुभयस्याभावः अविशेष्यविशेषणम् । तवो न ज्ञानं ज्ञानान्तरवेय प्रमाणाभावात् । स्वसंवेद्यले प्रमाणमुक्तमेव, ततस्तदेव प्रेक्षावद्भिरभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा तस्वविपटनादिवि स्थितम् ।
२२२
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अपि च, यस्वप्रकाशत्वमेव सकलसंवेदनानां तदा कथं कचिन्नैरन्तर्य संवेदनामां तेत्परिज्ञानं वा ? न हि 'देवदस गामभ्याज' इत्यादी दकारादिविषयमेकमेव संवेदनम्, dr rateवात्, "उत्पन्नापवर्गित्वेनाभ्युपगमात् । क्षणक्षीणत्वे च नं कारसंवेदनस्यैव एकायदो प्रवृत्तिः, तस्यासन्निकृष्टत्यात असन्निकृऽपि प्रवृत्तावतिप्रसङ्गात् " प्रत्यर्थनियता हि बुद्धयः" [ न्यायभार २२१४६ ] इति भाष्यविरोधाच । तस्मात् प्रतिवर्ण २० विद्यन्व एव वदनानि निरन्तराणि च 'निरन्तरमुपधा दकारादयः' इति स्मरणात् । न च स्मरणम्" अप्रतिपन्ने वैज्ञैरन्तर्य सम्भवति अतिप्रसङ्गात् । न च तत्परिज्ञानं तेषां स्व एव तदस्वसंवेदनप्रतिज्ञाविरोधात् । एतदेवाह - 'विमुख' इत्यादि ।
१५
विमुखानां स्वप्रकाशकानां ज्ञानानाम् उक्तवाक्यदकारादिविषयाणां संवेदः "सकुलितत्वेन तैरन्तर्येण वेदनं स्वतो विरुद्धः" तदस्वसंवेदनप्रतिज्ञयेति । व्यक्तिरन्यतः "अन्यतस्तस्य न सञ्चारो न संवे२५ संवेदनान्त्रैरन्तर्यस्येति परः तत्राह-'असञ्चारः" इति । दनम् । कुतः ? इत्याह-अनवस्थानं यतः । तथा हि--तदन्यनेकं चेत् सर्ववरमेण तेन भवित
स्वप्रकाश-अनित्यत्वयोः । २ लदानिश्यत्वं वर्तले न स्वप्रकाशस्वमिति । स्वप्रकाशविरोधः ।
६ -द-म०, ब०, प०, स० । वरदज्ञाने ० १ ० ० । ० ४० १२ न तदाकारा दकारादिने । १९ अस्ततस्य
४ विपक्षमाषृतिनियमः । ५ वासर्वादेन आ०, ४०, प०, स०
• सवेदना- आ ० प० ८ तथा आ०, ब०, ९०, स०
१० देवदत्यादिविषयस्यैकस्य संवेदनस्य ११ उत्पन्नापवर्धने आ० भ० ब०, प०, स० १२ एकारस्य ।
४४ स्मरणीयप्रति आ०, ब०, प०, स० १६ नैरन्तर्वपरिज्ञानम् । १७ दरादीनाम् । १८ कलितत्वेद आ०, ब०, प०, स०
आ०, प०, स० पुस्तत्व- प० २० अतस्तस्य भा०, ब०, प०, स०
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१॥२०] प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्तावा
२२३ 'तदेव तदनसम्भवात् । भनालिसि घेत । तेग वेटने नहट - यस्यापि वेदनायोगान् । न च तेषामपि घेदनम् , *तदा तेषामुत्पन्नापेवर्गित्वेनास्वस्थानात् । अवस्थाने वा कचं निरन्तरत्वं तदेकसमयमात्र तया कालकमाभास ? सरयेव तत्कमे तदुप. पः । 'अपरित्यक्तकमाणामेव यामवस्थामम्' इत्यपि न युरुम् ; अवस्थितस्वभावापेक्षया नैरन्तर्याभावत्य क्रमवत्स्वभावापेक्षया च तपरिज्ञानस्य पूर्ववत्प्रसङ्गात् । पुनरपि ५ कमापरिहारेणावस्थानकल्पने तदेवोत्तरमियनवस्थादोषपारम्पर्योयनिपातात् । तस्मात्सासनवावस्थानम् । तत्र व कर्थ नैरन्तयं कथं वा युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति १ "युगमज्ञानानुत्पत्ति
सो लिङ्गम् न्यायसू. ११४१६] इति व्यवसिष्ठेत १ कथं का सविषयत्यम् ? तत्काले पारादीनामपक्रमात् । अनपक्रमे का कथन युगपदहणम् ? तनाय पक्षः श्रेयान । तस्मात्प्रतिवेदन मिन्नान्येत्र तवनानि । तत्र व पूर्व दकारवेदन पुनस्तद्वेदन" ततोऽध्येकार. १० थेदनं पुनरपितवेदनमेवमुत्तरत्रापीति न वर्णज्ञानानां नैरन्तयं पश्यामः "तरज्ञानवधानात् , तरकथं निरन्तरतया तत्सरिज्ञानम् ? बटनादिति चेत् ; न; नरन्तर्यस्यैव घटनरवात् , तस्य चाभाना | आशुभावप्रयुक्ताद्विभ्रमाद् घटनामिति चेत् : "तस्फिमिदानीमवस्तुसदेव ? तश थेन् । न; सदेकज्ञानसंसर्गितया संवेदनानामप्यवस्तुत्वासनात् कथं सैवर्षप्रकाशनं व्योमकुसुमैरिवावस्तुसविस्तदयोगात् । घटन एव तज्ज्ञानस्य विभ्रमो व्यवधानहानस्य बाधकस्य भावान वेदनस्वरूपे १५ विपर्ययादिति चेत; न त्रापि घटनस्थैव रूपत्वात् । न हि कारशानमप्यघटनरूपं सम्भवति । तपाहि-अर्धमात्रिकत्वापि कारस्थानेकणक्रमोपनियमित्यवश्यम्भाविनि क्षणभेदे सत्ताक्षभाविना दकारभागानामपि भेदावश्यम्भावी तज्ज्ञानानामपि भेदः, स. घटनं यदि विभ्रमनिबद्धमेव कथं तत्र फस्यधिद्बोधयानान्तत्व विभ्रमनिबन्धनपरिक्षानेन प्राधनादिति न सकारमानस्यापि वस्तुस्वम् । वर्णान्तरज्ञानेऽध्ययमेव न्याय इति न फिब्धिपूर्णज्ञान वस्तुसद- २० रतीति विलुप्तो यर्णयबहारः ।।
वर्णज्ञानविलोपे च पदशानं कथं भवेन । सत्येव वर्णविहाने पदज्ञानस्य सम्भवात् ॥६२९।। पदनानमनावृत्य काफ्यज्ञानव दुर्लभम् । पदानानु यस्मादाक्यानं परैर्मतम् ॥६३०॥ पदवाक्यव्यवस्था व तज्झानासम्भवे कथम 1 व्यवहारो यतः शब्दः सिन्न्यायविदां मो॥६३१॥
१ सदेव भा०प०स। २ सर्वथरमभूतेन भन्यज्ञानेन। ३ दकारादिसंवेदनानाम् । ४ चरमसमये । ५-पवर्मत्दै-००,९०.स. ६ कालकमे । ७ नैरसोंपा। स्कारविरवेदना गाम् । ५-ले तदाकारा-80०,००,स. १. दकारवेदन देवयम् ॥ एकारनेदनशनम् । १२ दारादिशानन पद्धनम् : 10 -संवर्मतया ,व०,५०,०111 वैल्नेऽपि । । ६ सकार-भा०प०,५०,०1 10 अर्यमाश्मिकमा०प०अर्थ माशिक-२० । १८ सप्पकमोप-- ब प०,स। १५ दकारभागनासानाम् ।
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२५४ न्मापविनिश्चयविवरणे
[१२१ एतदेवाह-अविशेष्यविशेषणम् । विशेष्यो वादिस्तस्य विशेषणं ज्ञेयत्व तस्याभावः 'अविशेष्यविशेषणम्' इति । ततो वर्णज्ञानस्य परमार्थसत्यमिक्षा लागला. मघटनस्य तदभ्युपगन्तव्यं तस्यैष वर्णज्ञानस्वान् । न च तत् अन्यवेद्यत्वनियमे सम्भवतीति स्वसधमेव तदङ्गीकर्तव्यम् । कथं पुनः संस्यध्यात्मवेदने घटितत्वेन बेदनं येदनानां नैरिसरै. रिसरापरिमानादिति चेन् । न तेषां कथञ्चिदन्ययस्यापि भावात् , अन्धिसेनात्मना घटाधिष्ठानशानानां परिकाने घटनस्यापि सुपरिज्ञानत्वात् । उक्तव्यैतत्-'आत्मनाऽरेकरूपेण' शत। प्रतिक्षणभेदनियमे तु. ते न भवत्येत्र कचिदपि पटनज्ञानं तदधिकरणभेदपरिशरणस्य कुत्तश्चिदसम्भवात् । न कमपरापरतदधिष्ठानभेदविषयं ज्ञानं "सनियमवादिनां सम्भवति,
सनिहितविषयत्वेन तस्याभ्युपगमात् तत्कथं तद्वतघटनपरिज्ञानम् ? १० तो यदुकं प्रझाकरेण-"तदाकारैकबुद्धिवेदने दीर्घवेदनव्यवस्था" [प्र.
वार्तिकाल. २१४८५ ] इति; तत्प्रतिविहितम् ; दीयत्वं हि वर्णानां समयक्रमानुपातित्वम् , तदाकारत्वे बुद्धरपि "तदनुपातिस्येनाक्षणिकरवानुपगात् । कल्पनयै" तस्याः तदाकारत्वं न वस्तुत इति चेन् ;न; कल्पनातस्तदाकारत्वस्य पालानाम्" इत्यादिवसव्याख्याने प्रति
विहितस्यात् । ततः समान एवं नैयायिकरत्सौगतस्यापि हान्दव्ययदाराभाव इत्यले प्रसनेन । १५ साम्प्रतं विमुखेत्यादिकमेव व्याख्यातुकामो योगज्ञानदूषणं सौगरशानेऽपि योजयनिश्मरह
निराकारेतरस्यैतत्प्रतिमासमिक्षा यदि ॥२०॥
तत्राप्यनर्थसंविताधर्थज्ञानाविशेषतः । इति ।
निराकारं नैयायिकादेन तस्मात इतरत् साकारं तस्य एतत् 'विमुख' इत्यादि दूषणम् । कुतः । इत्याह--अर्थज्ञानाविशेषतः । अर्थस्यैव न स्वरूपस्य झानं सस्मादविशेषाधवलक्षण्यात् । न हि यद्यस्मादविशिष्ट तत्तयणापरामृप्ट भवितुमर्हति वदनिशिष्टत्वस्यैवाभाव. प्रसङ्गान् । ""असिद्धं तस्य तदविशिष्टत्वम् , समाह-प्रतिभासभिदा यदि । प्रत्यात्म भासन प्रतिभासा स्वप्रकाशनं तेन भिदासाकारहानस्यार्थज्ञामाद्विशेषो यदि चेत् ; ताह-तत्रापि सहिदायामपि तद्रूषणं भवतीति यावत् । अत्रेदमैदम्पर्य्यम्-नाविशिष्टत्वमर्थज्ञानात् साकार ""ज्ञानस्यानात्मवेदित्वमुच्यते यता प्रतिभासभिदोच्येत,किन्तु विषयविषयिणोरन्यतयपरिज्ञानमेव । तवास्ति स्वप्रकाशेऽपि झाने। कदा इत्याह-अनर्थसंबित्ती अर्थपरिनित्यभावे । तथा स,
अर्थशत्वं यद्द् दुर्बोध स्वप्रकाशशून्यस्य । स्वपराभ्यां तद्बोधप्रतिषेधान् पूर्वमस्माभिः ॥६३२॥
परमावलम् । २ त हान भटमस्यैव । ३न्य भद-०, २०, ५०,०। सत्यस्वात्ममा०,०,.,8+ स्यादिली. ८।६ज्ञानानाम् । . घटनाधिकरशानानी भेदारिशामस्य 1 ८ प्रति. क्षणभेदमियम । ९ शास्त्रस्य । • समयमानुपतित्वैन । 11 कल्पनौतस्याः मा०,१०,५०,स. । १२ बुद्धः। ११ सविसी०३।प्रसिद्ध स्वस्य त-आब०,५०,०1१५-ज्ञानस्यात्मदि-भाव०,०,स
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१२१] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
२२५ समुदिक्षार्थपणे तस्सारूप्यं स्ववेदिनोऽपि कथम् ।
गम्येत, तन्मुखेन यदर्थग्रहणं भणन्ति परे ॥६३३॥
अर्थसरूपज्ञानग्रहणमेव हि परेषामर्थग्रहणम् उपचारात , तत्वतस्तदेव प सारूप्यज्ञान कथमपिरिझाने भवेत् । झोनमात्रपरिज्ञानाद्भवत्येवेति चेत् । न ; सारूप्यस्य सम्बन्ध विधवेन तत्परिक्षानस्पैकरूपपरिझानमात्रादसम्भवात् ।
द्विष्ठसारूप्यसंवित्तिकरूपनवेदनान् ।
यस्वरूपग्रहले सति सारूप्यत्रेदनम् ॥६३४॥
अन्यथा सम्बन्धमानस्यापि तन्मात्रादेव सम्भवादश्लीलमेवेदं भवेत्--"द्विष्ठसम्बन्धसंविधिः" [प्र. वार्विकाल १११] इत्यादि।
भक्तु परिज्ञाते एवार्थे सारूप्यपरिज्ञानमिति चेत् ; कुतस्तत्परिज्ञानम् ! तत एव ज्ञाना- १० दिति चेत् ; यदि सारूप्यमनाध्य ; निष्फलं तईि तकल्पनम् । तत्परिज्ञानमुखेनैवेति चेत् । न; 'अर्थपरिज्ञाने 'तत्परिज्ञानम् , "तन्मुखेन वार्थपरिज्ञानम्' इति परस्पराश्यात् । सारूप्यान्तरपरिज्ञानमुखेनैवेति" चेत् ;न; एकार्थापेक्षया "तदन्तरस्थाभावात् । भावेऽपि "कथमर्थापरिक्षाने "तस्यापि परिझानम् ? परिक्षात एवार्थ इति येत ; न; 'कुतः' इत्यादेवनुबन्धाधन"वधानानुपडात् । समता पार्थस्य नरहणम्य प परिक्षानम् । अत्रार्थे 'विमुख' १५ इत्यादेव्याख्यानम् -मुखभित्र मुखं पैतन्यं वस्तुरसपरिहानस्य तद्धीनस्वात्, विगतं मुख यस्मात्स विमुखः अचेतनार्थः, स च ज्ञानञ्च विमुत्वज्ञाने तयोः संवेदः समत्वेन स्वरूपत्वेन वेदनम् । स्वतो विरुद्धोजुपपन्न इति । अन्यत्त शन तईि ज्ञानात्तत्मारूप्यस्य व्यक्तिस्तेनार्थस्य तज्ञानस्य च महणसम्भवादिति चेत् ; न; "तेनायनाटतसारूप्येण सग्रहणान् , प्रथमज्ञानेऽपि तस्कल्पनावैफल्यानुषतात् । सारूप्यपरिझानमुखेन तु तेन तद्हणे २०
रस्पराश्रयस्य सारूप्यान्तरकल्पने चानवस्थानस्य प्रसङ्गात् । तत समोऽपि प्रथमझानसारूप्यत्र सवारः सम्प्रतिपत्तिः, तस्सारूप्यस्यैवासम्प्रसिपले। तस्याप्यन्यतः परिक्षानपरिकल्पनश्यामनवस्थानम् । अत्र चार्थे 'व्यक्तिः ' इत्यादि 'अनवस्थानम्' इत्यन्त सुगमत्वामाख्येया। तलो न प्रत्यक्षात्ततोऽन्यतो वा सारूप्यपरिक्षानम्।
पि तस्पृष्ठभाविनी विकल्पात् ; तस्यावरसुविषयत्वात् । ततोऽपि वस्तुसिद्धापतिप्रसनात् । वायति चैतत् "अयमेव न वेत्येवम्" इत्यादिना"। सारूप्यमप्यषस्त्वेवेति चेत् ;न;
पानम्।
. अर्थखरूप--मा, २०, ५०, .1 २५मर्थपरि-80०, ०,१०,स। ३ ज्ञामज्ञानमात्र-- मा०, ०, ज्ञानाधानमात्र-१० । एकरूपज्ञानमात्रादेव । ५-शान एका-आ. ब., म.
साप्य एवं परि-मा०,०,१०,१०१ सारूप्यकल्पनम् । सारूप्यपरिक्षान। ९ साहायपरिशयनम् । १. सायासैन। 11-मुखेनेति मा०,स. १२ सारूपान्तरस्य । १३ कमपरि-भा०,०,१०,०1१५ बामप्यान्तरस्थापि।।५-वस्थामा०,३०,६०,101 १६ सेनावनात-०,०,१०.१५ भायलनेन । १८-दमादिना आ०,०००१९ न्यायविक लोक ६२ ।
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घ्यायविनिश्चयविधरणे
[११२३ सदात्मनः प्रत्यक्षस्याप्यास्तत्वप्रसङ्गात। वयम अञ्जन विन्यासादेव लोखनभङ्गः । प्रत्यक्षस्य तत्पति 'संस्कारार्थेनैव सारूप्येण 'नीरूपत्वस्योपस्थापनात् । अवस्तुादेषयस्यापि तस्यै क्षत्र प्रामाण्य तिबन्धादिति चेत् । न; अनुमानादन्यस्य तेदभावात् । तस्य च "प्रकाशनियमः" ।
इत्यादौ निषेत्स्यमानत्वात् । ततो म कुत्तचिदपि सारूप्यं सुपरिहानम् । ततो न सहानं ५ विशेष्यं नापि सस्य विशेषणं सारूप्यम् , अत इदमुक्तम्-अविशेष्यविशेषणम् । इति सूक्त 'निराकारतरस्यइत्यादि । ततो न योगसौगतावन्योन्यमविशयाते अस्वधेदनावित्र स्ववेदनादपि संवेदनादसिद्धेरभावान् । मा भूतसिद्धिः, संवेदनमात्रस्यैवाभ्युपगमादिति घे ; न; "स्वतस्तत्त्वम्" इत्यादिना वनिराकरणात् ।।
इदानीमनवस्थानमेव संविद्विषयं पूर्वोक्तं व्यक्तीकुमाइ
ज्ञानज्ञानमपि ज्ञानमपेक्षितपरं तथा ॥२१॥
ज्ञानज्ञानलताशेषनमस्सलविसर्पिणी।
पर्यन्ते-'प्रसज्येत' इति । निराकारमेव झानं तसो मानवस्थान परतस्तत्र सारू.. प्यपरिहानाभववादिति चेत् । न तद्वदेव प्रथमशानस्थापि निराकारत्वापत्तेरविशेषात् । निरा
कारस्य क विषयनियमः ? इस्यपि न युक्तम् । पर्चतज्ञानेऽपि समानस्वात् । शक्तिनियमातन्त्र १५ सनियमः प्रथमज्ञानेऽपि न वैमुख्यमावति । सदेवाह
[प्रसज्येत ] अन्यथा सदस्प्रथम कि मृग्यते ? ॥२२॥ इति ।
ततः प्रथमवत् पर्यन्तेऽपि "सरूपमेव ज्ञानम् । तस्य व परतः प्रतिपत्तौ तदवस्थ एक "तत्प्रसङ्गः। तत्र च सुदूरमनुसृत्यापि पर्यन्सज्ञानस्य "कुतश्विप्रसिपले व ततस्तत्पूर्वस्य नापि
ततस्तत्पूर्वस्य परिक्षानं यावत्प्रथमझानमप्रतिपन्नम् । "अर्थप्रतिपत्तिाकारखानप्रतिषत्तरेव २० तत्प्रतिपरित्या, तस्याश्वाभावादिति प्रवृत्त्यादिव्यवहारबिकलमखिलं जगद्भवेत् , "तस्याथैसस्वप्रतिपत्तिमूलत्वेन समावेऽभाषात् । एतदेवाह
गत्वा सुदूरमप्येवमसिद्धावन्त्यचेतसः । असिद्धेरितरेषां च तदर्थस्याप्यसिद्धितः ॥२३॥
असिद्धो व्यवहारः इदि ! मा भूतव्यवहार इति. घेदाह
अयमतः किं कथयाऽनया-! इति ।
संक्षारा-मा०, बा , स.। २ निरूप-प्रा०, १०, ५०, १०३ विकल्पस्य । वस्तुप्रतिबन्धात् । ५ नमाण्वाभावात् । ६ व्यायवि इलो ३३ । .-दिन सवेधनादर्थ-श्रा००,१०, स०। ८ न्यायधि. श्लोक ५। ५-परस्तथा बा०,०, प., स. १० पर्यन्तमाने विषयनियमः।
" स्वरूप-भा०प०,०,०। १२ अननस्यामार।१३ कुश्विन-मा..., १०, स. १४ पर्यभगमनात् । १५ उपान्त्यज्ञानस्य । १६ उपाध्ययनात् । १७ अर्थाप्रति-का.16 प्रत्यादिमवहारस्य । वस्यार्यप्र-मा०, २०, ५०, ०१
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९३२४ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
२२७
अयं सौगतः किञ्चित् कुर्वीत" इति शेषः । कया ? कथया वार्तिका त्रिरूपया, अनया प्रसिद्धया । कुतः ? इत्याह- 'अतः' इति । अतो व्यवहारादेव कथा यह इति । तदुक्त' भवति-सांत हिं प्रतिपातिकादिलक्षणे व्यवहारे सम्भवति कथा तस्यास्तद्विशेषत्वात असति तु तस्मिन् सरया भाभावान । कथं तय किमप्यस शिष्य व्युत्पादनमन्यद्वा कुर्याति १
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यदि या, 'निराकारेलरस्य' इत्यादिनैव प्रसङ्गागतं ataanaक्षप्य नैयायिक सेव पुनरप्यपक्षिपनाह - 'ज्ञानज्ञानम्' इत्यादि । तं प्रति व युक्तमनवस्थाप्रसञ्जनम्, न हि तन्मते ज्ञानज्ञानस्य परिज्ञाननियमः "तदपरिक्षानेऽपि दोषाभावात् । तत्कथमस्य वदपरापेक्षणं यतस्तत्प्रसङ्गः शास्यापि सन्नियः करमादिति चेत् न ऋषि सदभावात् । न हि तस्यापि नियमेन परिज्ञानम् अपरिज्ञातस्यैव तस्यापि विषयप्रकाश - १० करस् ताव व्यवहारस्यापि सम्भदिति चेत् क इदानीं परोक्षज्ञानवादिनो मीमांस. काचस्य विशेषः स्यात् ? अयमेव यत्तस्यें परोक्षमेव ज्ञानम्, नैयायिकस्य तु काचित्स्यश्रमपीति चेत्; उच्यते--यदा तत्परोक्षम् ; तदा तदस्तीति कुतः १ सवतोऽपि " तथाविधं पावकादिकं "दिस्तीति स इति चेत् ? मा भूत्, न काचित् क्षतिः । न चैषं " भत्रतः 'अपरिज्ञातस्यैव foresarea' इत्यभ्युपगमः । अन्यदा प्रत्यक्षत्वादिति चेत्; न; ततस्तदेखें तरसवो- १५ पपतेः । एकदा प्रत्यक्षस्यान्यदापि सस्त्रे नित्यमर्थज्ञानं भवेत्, "पूर्वापर कोट्योरपि अप्रतीवस्यैव सत्वोपपत्तेः । परोक्षस्थापि तत्कार्यावहारास्तित्वं पावकस्यें" धूमादिति चेत्; न; व्यवारस्यापि धूमवदपरिज्ञातस्यागमकत्वात । परिज्ञातस्यैव रामकत्वमिति चेत्; न; तपरिज्ञानस्यापि अर्थपरिज्ञानक्वपरिज्ञाने कुतोऽस्तित्वम् ? व्यवहारादेव " तत्कृतादिति चेत्; न; तत्रापि 'व्यवहारस्वापि' इत्यनुसन्धानाद्'' अत्र्यवस्थापतेः । ततो यदुक्तं भासर्वशेन- "तदप्रarat aaisa हाराः प्रवृत्ता इति कुतोऽवगम इति चेत् इति पूर्वपयित्वा व्यति वचनम् - तद्व्यवहारदर्शनादेव अङ्कुरदुःखादिदशनात् बीजादिनिश्चयवत्" [ 1 इति तस्प्रतिविहितम् ; व्यवहारतस्तदवगमत्य अमवस्थादोषोपहतत्वेन दुष्करत्वात् । ततो परोक्षत्वमनवस्थावदोषान निर्मुक्तिः, अर्थशास्य प्रत्यक्षत्वनियम एवाही कर्तव्यः । ततज्ज्ञानस्यापि तनियमे कथं ' तदन्तरानपेक्षणं यतो 'ज्ञानज्ञानला' इत्या
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२५
० २ उपहार देवऋथा यस ता ३. कथयतः ५०, ५० १ ऋया | *तः। नैयायिकम् । ९ ज्ञानानापरिनेऽपि ।
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१७ नम्१८ परोक्षम् । १९ इन्दिदति कुः ० ० २१ भक्तोऽपि परि० नैयायिकस्य २२ प्रत्यक्षकाल एम २४ २५ स्यैधू-आ००० २१ व्यवहारपरिज्ञान
• कुरीति ० ० ४] व्यवहार विशेषत्वात् ५ स्वारे १० रादन्यज्ञानापेक्षणम्। १ अमवस्थाप्रः १२ परिक्षाननियमः । १३ प्रथमानस्य ।
| १५ नैयास्थि । १ मीमांसकस्य प०, स० । २० हा का० ० ० ० १३ उत्पत्तेः आको विमाशात् पश्चात्को
| तत्वरितस्या-आ०, ब०१ २० व्यवहारपरिज्ञानात् २८ सन्धादन्य-चा० १९ यदभ्यु-आ०, ब०, प०, स० । ३० – मे अङ्गी-आ०, ४०, ५०, १० : ३१ अर्थशास्यापि । ३२ उदन्तरापे - ०प०, स० ।
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न्यस्यविनिश्चययिधरणे
[११ पनवसरं मवेत ? पर्यन्ते कस्यविज्ञानस्यात्मवेदनत्वादनक्सरमेवेदमिति चेत् । न तद्वत्प्रथमशानस्यापि तत्त्वानुषशात् । तदेवाह-'अन्यथा त्मधर्म कि मृग्यते इति । ततस्तस्याप्यन्यत एव येवनादमयस्थानभव ।
मानघस्थानं विषयान्तरसन्निधान्मन् । सन्निहिते हि विषयान्तरे तवेष झानम् , न ५ शानज्ञानादाविति चेत् । न ; सन्निहितेऽपि तस्मिन् तस्यैवान्तरकृत्वेन बलीयस्त्वान् । अन्तरजोऽपि (दि) ज्ञानदानादिआत्मसमवायात, न विषयान्तरं विपर्ययान् , प्रत्यासनसम्बन्धश्च ! प्रत्यासनो" हि सर्व मनसः सम्बन्धः संयुक्तसमवायलनणः "बयसभिकर्षत्वान् , विषया. तरज्ञानहेतुरंतु सम्बन्धो विश्कृष्टः 'चतुष्टयादिसनिकपत्वात् । ततो बलवति प्रत्यासन्नसम्बन्थे
प ज्ञानज्ञानाचौ स्वविषयज्ञानजननसमधे सति कथं सन्निहितेऽपि विषयान्तरे झानं यदनवस्थान १. न भवेत अध्यापक "तसानिधानम.व्यातिविपचे मानसप्रत्यले सकलार्थनेदिनि माहेश्वरेच
ज्ञाने तदभावात् । "ततो न विषयान्तरसन्निधानमङ्गमवस्थितः । सत्यपि विषयान्तरसन्निधानाद. स्थाने कथं पर्यन्तज्ञानस्यातिपन्नस्यास्तित्वम् ? किं पुनः प्रतिपस्या म्यानमस्तित्वं येन तदभावे ग भवेत् ? यादम् ; कथमन्यया व्योमकुसुमादेस्तन्नं भवेन् ? सस्य ताई सर्वशत्वं "सतः सर्वस्य
वेदनात् । ' प्रत्येक न बेदन अदुभिरेव वेदगदिति चेत् ;न; असर्वशनैश्मपि प्रतिपशुभशक्य१५ स्वादिति चेन् । सत्यम् अस्ति प्रतिपुरुष सर्वज्ञत्वम् , अन्यथा ज्यारिपरिज्ञानाभावस्य निवेदनात् ।
पर्यन्तज्ञानस्यापि सहि पायकादिवत् . व्याप्तिझानविषयत्वादेवास्तित्वमिति ने । कथं तु यमुक्तं भासर्वक्षेन - "न पुनरविदितो नास्त्येवोपलम्भः" [ ] इति ।
"कथं या यातिनस्यास्तित्वम् ? भवतां कथम् १ स्वययुपलम्मान् ; ममाप्येवमति चेत् : न; 'अन्यथा' इलादिदोषात् । उपलम्भान्ससदिति चेत् । अनुपधासमनवस्थानम् , २० "तस्यापि तदन्तरादस्तित्वोपपत्तेः । अपि विषयान्तरसमिधानादयस्थानमित्ति" चेत् ;न;
'सत्यपि' इत्यादेनुबन्धन बाकसमावनवस्थापत्तेश्च । ततः पर्यन्तज्ञानस्याविपत्तिकस्वादमा एष वक्तव्यः ।
तदनेन शक्तिपरिक्षयात् ईश्वरनियोगाचावस्थानमिति प्रतिविहितम् । पर्यन्तज्ञानस्याप्रतिपत्तिकस्वाभावप्रसङ्गात। तदभाचे च तद्विषयस्याप्यभाषस्तावदेवं यावत् प्रथमतानस्य २५ तदर्थस्य चाभाव इत्यसिद्ध एव वनिवन्धनो व्यबहार इति । तदाइ--
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१ मवेदनत्वानुयात् । २ पर्वतस्यापि शानस्थ । ३ विषयान्तर एव m ares श्रुटितम् । ५ -सको हि तन्न मनः स-पा०,००० शादी। ज्ञानज्ञानादि मा मनश्रेति प्रयम् । हेतुस्सत्सम्बन्धी ०,१०,११९ विस्वान्सर इन्द्रियम् मात्मा मनोति चक्षुष्टयम् । • विषयान्तरसमिधानम् । ११ ततो विष-मा०प०,१०।१२ -दनवायाने 80,40,10,1111नियाप्तिस्वम् आ०,०,१०,१० । १४ प्रतिस्था अशिश्वव्याप्त्यमाचे । १५ अस्तित्वम् । १६ स्वतः भा०,०,१०,सः । सरवेन रूपेण । " सतः सत्तापरिक्षण | १८ सामान्यरूपतया । १९ बरियारेण । २. क्षेत्र पुनर-800...।" कर्थ भ्या-REO,प,स. १२२ उपलम्मान्तरस्थापि। २३ अभ्यस्माद् वपलम्भान्तरात। २५ नावनस्थानमिति भा०, वा, प.स., । २५ सहिषयावश्या-भा०, ००, सः । उपान्त्यशान ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावा
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गत्वा सुदूरमप्येवमसिद्धावस्यचेतसः । असिद्धेरितरेषां च तदर्थस्थाप्यसिद्धितः ॥२३॥
असिद्धो व्यवहारोऽयम् इति । तत; किम् ? इत्याह
अतः किं कथयाऽनया ?। अनः अनन्तरन्यायात् । किम् ? न किञ्चित् 'व्युत्पाद्यम्' इति शेषः १ कया ? कथया सूत्रवार्तिकादिलक्षणया । अनया प्रसिद्धयेति । तत्वज्ञानध्युत्पादनमेव हि तस्याः प्रयोजनम्-अनन्तरल्यायेन च तदभावानिष्प्रयोजक कथेति भाव इति ।
'निराकारतर' इत्यादयः अन्तरश्लोकाः वृत्तिमध्ययतित्वात् , 'विमुख' इत्यादि. वार्तिकन्याख्यानवृतिग्रन्थमध्यवर्तिनः खल्वमी श्लोकाः । 'वृत्तिचूणीनां तु विस्तारभयानामा- १८ मिास्थानमुपदश्यते । सहमहांकास्तु वृत्युपदार्शतस्य बार्तिकार्थस्य संग्रहपरा इति विशेषः ।
वदेरमवस्थापितेऽज्ञानस्यारमवेदने सावस्यः प्राह-सत्यम्, अर्थज्ञान प्रत्यक्षमिति नात्र विवादः किन्तु तत्परार्थमवेतन। परार्थ सस् संहतत्वात् , शयनासनाधावत्। शयनासनाधान हि परस्परप्रत्यासत्तिविशिष्टतया संहतं परार्थमेवोपलब्धं तस्य तदुपभोक्तशरीरार्थत्वेनोपलव्धेः, 'अतो न साध्यवैकल्यमुदाहरणस्य । नापि हेतोरसिद्धत्वम् ; अर्थज्ञानस्यापि गुणत्रयरूपतया संहसः १५ स्वोपपत्तेः । सनिवेशविशेषो हि संहतत्वम् , तच्च भेदसम्यपेक्षम्, भेश्चाविकलो गुणाना. मिति संहतमेव सदात्मकमर्थज्ञानम् । तदारमत्वच तस्य यथासम्भवं सुखदुःखमोहनिमित्त. स्वेनाव्यवसायात् । न ह्यत्वात्मक तनिमित्तं भवितुमर्हति अतिप्रसङ्गान् । भवति च ततः कस्यचित्कदाचित् सुखम् "अन्यदा दुःख मोहो का । ततो गुणत्रयात्मकम् , ततश्च परार्थम् , "अत एवाचेतनम् । परार्थत्वं हि पयनुभवापेक्षवं विप्रयत्वमेवोच्यते । विषयश्च घटादिरचेतन २० एक प्रतिपन्नः । सत इदमुच्यते-'अर्थज्ञानमवेतन विषयत्वात् घटादिवत्' इति । तत्रेदमाह--
प्रत्यक्षोऽर्थपरिच्छेवो यचकिशिकरण किम् ॥२४॥ अथ नायं परिच्छेदो पथकिञ्चित्करण किम् ?
अर्धस्य नीलादेः परिच्छेयो निर्णयः अर्थपरिच्छेवः । प्रत्यक्षः स्वानुभवावेशः तथैव व्यवस्थापितस्वात् । अनेन ''अर्थज्ञानमवेतनम्' इति प्रत्युत्तम् । अमेतमत्वे २५
- । कयाः । २ . तद-भात, ब०, १०, स.। ३ मध्यविवर्तिनः सा वृत्तिनितो तु म., ब, प०,०। ५ यत्तिप्रदशित भाप., पं.स.। ई "ट्रातपरार्थत्यार-इह के ये पता ते परार्धा दृष्टाः पर्यहरयशनादयः"-stusकामाटर, गोपादा युकिती को का.
11. शबनासनायाम। 4 भा०,१०,१०,७०३९ भेदसंकापेक्ष 40,8.11.-वसायो न भा०,८०, ५०, स. "सुखदुःखमोहानारमकम् । १२ अर्थशमान । १ अन्यथा तु-मा-२०, ५०, स. १७ सत भा०, ब०, प., स.14 मानम्वेत-श्रा०, २०, २०, स.।
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२३०
[१॥२६
न्यायविनिमयविवरणे स्वसंवेद्यस्थायोगात् । तस इदमुच्यते-चेतनस्तपरिच्छेदः, स्वसंवेद्यत्वान् , यस्तु न धनो नासो तथा यथा नीलावित', स्वसंवेयश्च तत्परिच्छेदः, तस्माछपेसम इति ।
नायं प्रयोजको हेतुः, स्थयमचेतनत्वेऽपि तस्य सनसंसर्गेण स्ववेदनोपपसे । एवं सवनस्य विनमः स्यादिति चेन: न: अव्यतिरेकापेक्षया हदभ्यपगमात् । अभ्युक्गम्यत ५ पब चेतनतत्परिच्छेदयोरव्यतिरेकवेदनस्य विभ्रमस्थम्, व्यतिरेकस्यैव परमार्थत्वात् । प्रत्यक्षत्वं जिभ्रमस्य कथमिति थे। न; वस्तुतस्तस्वाध्यमावास् केवलमनुत्पन्न विवेकदर्शनप्रतिपत्रभिप्रायानुसन्धानमात्रेण सदभिधानात् । तन्न स्वसंवेद्यत्वं चेतनत्वसाधनायालं तत्परिच्छेदस्य अन्यथानुपपत्तिविकलत्यादिति चेस् ; तदिदमपालोषितमेव परस्य वचनम् ; बिभ्रमविषयत्वेन वेतनतस्परिच्छेदयोरपि तदविवेकवदयस्तुसैव प्राप्नुयात् । इदमयभिमतमेवेति चेत् ; कथाम दानी सदवस्तुत्वस्य 'प्रतिपत्तिः ? वस्तुभूतस्य तद्वेदनस्याभावात् , अवस्तुभूताच्च अवस्तुप्रविपत्तेरपि दुरुपपादत्यात् । यस्यति बैतत्
"विभ्रमे विभ्रमे तेषा यिभ्रमोऽपि न सिस्यति ।" [भ्यायवि० श्लो. ५४] इति ।
तो तुरता माहीम मिति अनाग दोष:- चेतनशानभागयोरप्यास्तुरवं विभ्रमविषयत्वात् तदविवेकधन्' इति । तयोरविभ्रान्तमेव सदनं निधित्वात् , १५ सदविवेके तु प्रान्तमेव "पाधवस्यात् , तहसदसियमेव "तयोथिंभ्रमविषयत्वमिति चेत् ।
भवत्येवेदं यदि "तवेदनमेव लभ्येत । कुतो न लभ्यते । विवेकावेदनादेव । रियको हि ज्ञानभाताच्चेतनस्य सपिवित" । कथं तदवेदने संस्थापि वेदकम् ! देने वा
विदिताधिदिसत्येन चिदाकार विवेकयोः । विरुमधर्माध्यासेन भेदात्र कथन ३ः १३६३५॥ विवेकाद्भिद्यमानश्च "तदाकारी प्रजयलम् । ज्ञानभागेन सादात्म्यमभावादन्यथा गवेः ॥६३६॥ तथा च स्तुतस्त्रं चिद्रूपत्वव्यवस्थितः । चिति संसर्गतश्चित्त्वं तस्येत्यनुचितं वचः ।। ६३.७॥ तस्मादेकान्ततो भेदाश्चित्स्वभावविवेकयो । विरुद्धधर्भाध्यासेऽपि नैवायं शक्यकल्पनः ।।६३८|| एकान्ताभेदपक्षे र चिपस्याप्यवेदनम् । तद्विवेकचदेव स्यादिति "तत्सम्भवः कथम् ॥६३९॥
1- संद-आ०,40,1012-दिस-बा., ०,१०,स। अर्थशामस्य । -दनऔर-आ०,०, स५ प्रत्यक्षालस्य । ६ प्रत्यावामियानात् । बदनं हि वि-भा०,०, ए., स। ८-वे घेतनत-मा.. . समत्वासप-10) ९ प्रतिपत्तुर्वस्तु-आ०, २०, ५०, स. .. -वाय पस्तु-श्रा०,०,१० १११ माधवत्वं स- म.प.। बाधयान् स...२ चैतनमनभागयोः ।। भवसद मा०, २०, ५०।१४ चैतनशनमागयौवेंदनमेच ! १५ चेतनादभिः । पिसादने । १० चेतनस्यापि । १८ विचार, १ शानमागे । २. चिद्रपसाबः।
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शर५ ] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताया
२३. अविवेकपरिज्ञान सेन ज्ञानस्य यद्भवत् । 'संसारकारणस्वेन कापिलेर भिलप्यताम् ।।६४०॥ चिद्रूपवद्विवेवस्याप्यथा नियमाद्रहे । कयविषयतिस्तु ज्ञानभागयोरपि ।। ६४१॥ तदेव भवेदेवदेवैरन्यत्र भाषितम् ।
"वितेविषयनिर्भासविवेकानुपलम्भतः । विज्ञातायाः कचिस्सिद्धो विरुद्धाकारसम्भवः ।।" [सिद्धिवि०प्र०परि०] इति ।
ततो यत् पतन्जले सूत्रम् -"दग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवासिता"। [ योगसू० २१६] इति । यश्च तत्रैय विन्ध्यवासिनो भाष्यम्-"भोक्तभोग्यशक्त्योरत्यन्तासङ्कीर्णयोरविभागप्राप्ताविक सत्यां भोगः प्रकलप्यते" [ योगमा० २२६ ] इति । तत्पतिविहितम् ; १०. ईवार्थत्वानुपपत्तेः, वस्तुस एवोक्तेन न्यायेन तथोरविभागस्य भावात् । न हि साक्षादेष सतस्तदषिमागस्य इवार्थत्वमुपपत्रम् ; तच्छंक्स्योरपि तदर्थत्वप्रसङ्गात् । तथा च तदेवावस्तुसत्त्वं सयोरपीति स एव पुनरपि गायावादः प्रातः । निरुपद्रवप्रतिपत्तिविषयत्वेन तच्छक्योरेंनिवार्थत्वपरिकल्पनं तदविभागेऽपि समानम्-कथश्चितस्यापि" निरुपद्रयतथैव प्रतिवेदमान। कुतशायमिथार्थ:" प्रतिपत्तव्यः ? सत एव दर्शनशब्दवाच्यात झानभागादिति "वेत् ; १५ "तेनाप्यात्मानमप्रतियता कथं तबगेकत्वस्य स्वार्थस्थ प्रतिपत्ति; एक इवाह रशा' इति ? नहि स्फटिकमात्तियसः 'प्रवाल इव स्फटिका' इति"प्रविपत्तिः । आत्मनश्व "यदि सफछपरासङ्कीर्णतयैव परिझानम् । न भवत्येव तत इवार्थवेदनम् ।
एकशक्त्या स्वमसङ्कीर्ण तद्भागः प्रविदम्यम् । सत्सङ्कीर्ण इवास्मीति कथं नामाययुध्यताम् ? ॥६४३॥ शुभ्रमेव मणि कश्चित् करवित्परिपश्यतः । न हारत" इवेत्येव तत्र युनिः श्वसते ॥६४४॥ कथं वा सदसवीर्णस्थात्मनः स्यात्ततो गतिः । अचेतनस्वात्तस्यैष न धर्मोऽयं पटादिवत् ।। ६४५१ हक्शस्किसकरात सोऽपि चेतनो यदि करूयते । तनासङ्कीर्णसद्वित्ती तत्सार्याच्यवस्थितः ॥६४६॥
-राकार--सा, ०, ५., स. । . पातकरता. 1 ३ - कालि-बा, २०,५०, . स. , एवार्थ-डा0, 40, प०, सन्। ५ दरदर्शनशासपोरपि। इयार्थ। . अविभागादेव ।
८-स्तर स.। ९ -रनिवार्यश्व-२०, I " अनिवार्थत्वं वस्तुत्वमिति । " अविभागस्यापि । १ -यमेकार्थः भा०,०, ५०, स. १५-तिथिसमापि स. १४ जामभागेनापि । पकत्वस्थार्थ-40, प. प., स. एचैवाई आ०,०,५०,०। १७ -तः पादळ इस आ०, १०, २०, R.1 16 • जसितात्म-बा०,०,१०स० । १९ यदि तच्छक्य-अ०,१०,५. ! यदेतरवाय-स.। २. परत श्रा,
१०, २०, स. 1 २१ शानभागात् । १२ ज्ञानमामोऽपि । २३-व्यव-भा, बक, प०, सा!
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न्यायविनिश्चयविवरणे
अन्यथा यदि सकीर्ण (f) टक्कयात्मानमन्यया । असङ्कीर्णतया वेत्ति विरोधानवकाशनात् ॥ ६४७॥
तन तत्सङ्करेऽप्येवार्थस्योपकल्पने । resent स्मादन्यवस्थामतिभ्रमः ||६४८३
hi व भागस्य स्वत एव विपाकीर्णतया परिज्ञानं अवेतनस्यात् कलादिवत् । चेतनसङ्कीर्णतया चेतन एवायमित्यपि न शोभनम् ; तयसङ्करपरिज्ञान समय एव तत्सङ्करस्याव्यवस्थितेविरोधात् । नास्ति विरोधा, या अन्यैव सा रक्शक्तिर्यदपेक्षम साङ्कर्यपरिज्ञानं तद्भागस्य, साप्यन्यैष तच्छक्तिसङ्करापेक्षं तस्य चेतनायमानत्वमिति चेत्; न प्राध्यस्येव सरलङ्करस्यापि अविद्याविषयतया स्वार्थत्वे तत्रापि 'कुतश्चायमिवार्थः १० प्रतिपतयः' इत्यादिप्रसङ्गस्यानुबन्धाष्ठयवस्थया बुद्धिविभ्रमापते । प्रतिपित्सानिवृत्या द्विभ्रमनिवृत्तिरवस्थिविभागाम दस नियमार्थनया अलिकतिपत्सिता निष्पता तत्परिज्ञाने भवत्येव व्यवस्था, तदपरेशम् इवार्थतथा प्रतिपित्तावैकस्यादिति चेत् ; कथमिदानीमप्रतिपन्नास्ते सूत्रभाष्याभ्यां तदर्थत्वेनाभिधियेरन् प्रतिपद्मवस्तुविषयत्वात् प्रेक्षावतां वचनप्रवृत्तेः । सस्मादवश्यम्भाविनी साकल्येन तत्प्रतिपतिरिति कथमनवस्था१५ व्यावृत्तितो मतिविभ्रमो न भवेत् । नापि तच्केर परापरत्वम् यतः कयावितस्य सङ्करः याच विपर्ययः परिकरूप्यते परस्यैवमनभ्युपगमात् । तन्न तव एव तस्य तकि सङ्करविकस्य प्रतिपत्तिः, यत स्वार्थस्य तत एवाधिगमः स्यात् ।
#
२६२
नापि परत यायचेतनत्वं घटादियदेव प्रतिपत्तिधर्मत्यानुपपत्तेः । 'टक्साङ्क र्यादेतन एव पर:' इत्यपि न युक्तम्; तत्रापि तत्लाङ्कर्यैस्य इवार्थत्वेन स्वतः प्रतिपत्तेरुक्क - २० न्यायेनासम्भवात् परतः प्रतिपत्ती अन्नवस्थापत्तेः । दूरमनुसृत्यादि कस्यचिदनन्याधीनमेव चिपत्यमभ्युपगन्तव्यम् | अन्यथा ततः कस्यसिदिवार्थत्वापरिज्ञानात् । इत्युपपन्नमर्थ ज्ञानस्य वस्तुभूर्तचेतनत्व निवेदनार्थं प्रणम् अन्येनत्ये कल्पितेचेतनत्वे च प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः ।
1
[ १३२५
"
भक्तु प्रत्यक्षात्परिच्छेद इत्याह- 'यदि' इत्यादि । यद्ययमभ्युपगम्यते तदा अकिञ्चित्करेण न किचित्करोतीत्यकिञ्चित्करः पुरुषः, तस्यैव कर्तृत्वाभ्युपगमात् तेन २५ किम् ? किम् । निष्फल एवासौ कल्पित इत्यर्थः । सफल एवासौ वस्परिच्छेदस्या. धिष्ठान से' हि वेदनाधिष्ठित एव प्रवृत्तिमाम् चेतन नापर: पुरुषादिति चेत्; न; अचेवनत्वस्यासिद्धत्वाम्, त tae एव तस्योपपादितस्थात् । एतेन भोगस्तस्फलमिति
+
7
1 संकीर्ण वच्यत्यात्मानमन्यया आ० ० ० ० २ रेष्वेवनिया-आ०, ब०, प०, स० । कपञ्याज्ञान- मा०, ३०, प०, स० ४०, ब०, प०, स०५ तत्रैवार्य आ०, २०, ००६ एक अ०, ब०, प०, स० न्यादीनामेव आ०, ब० ००८ चे ४०, ब०, प०, स० तमचे-आ०, ४०, ४०, स० । १ कप ० ११ परिच्छेदे ।
कप्यते इ-प० । ११ परिच्छे
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
श ]
२३३ प्रत्युसम् ; उस्यापि विषयदर्शनस्य सते एव भावात् । चेतनस्यापि तदपराधिष्ठानदेव भोक्तृत्वकल्पनायामव्यवस्थितेः पुरुषेऽपि प्रसन्न ।
अपि च, अद्ययं भोगः पुरुपादनन्य एव तद्वदेव नित्य इति ध्यर्थ एव भोग्यसनिधिः अकिलिचत्करस्थान । भोमा! हि सत्सन्निधिः, भोगनित्यत्वे च कि सेन ? सत्सनिधिनित्यत्वा. देव वन्नित्यमिति चेत् ; न ; अनिर्मोक्षप्रसङ्गात् । आत्यन्तिको हि परभोगोपरमो भोक्तु. ५ निर्मोक्षा, तस्य च भोग्यसनिधिनिस्यत्वे दुरुपादत्वादपरिच्युतिरेव संसारस्येति कथमुपजात. तन्निदस्यापि तापत्रयनियुसये तन्निनहेतौ जिज्ञासा तपश्चरणं वा सम्भाव्येव ? सटुक्तमन्यत्र
"श्यदर्शकयोमुक्तिनित्यव्यापकयोः कथम् । यतस्तापाद्विमुच्येत तदर्थञ्च तपश्चरेत् ? ॥ [सिद्धिवि० परि० ८] इति ।
सन्न सत्सन्निधेर्नित्यत्वम् । तदनित्यत्यैव तर्हि भोग्ोपरमादपवर्ग इति चेत् ; न; १. बदुपरमे तदात्मनः पुरुषस्याप्युपरमात् "पुरुषोच्छेदकैवल्यवादोपनिपाताम् । तन्न भोगस्य पुरुषादनन्यत्वम् ।
__ अन्यत्वगेबास्तु तस्य तत्प्रतिविम्वरूपत्वास , पुरुषप्रतिबिम्ब हि बुद्धिविवर्तगत सह. तिसरूपं भोगः । स च प्रतिबिम्बतद्वतोरभेदः"; धन्द्रतोयसत्प्रतिविम्बयोर्भेदस्यैव प्रतिपत्तेरिति चेत् । सम्ध्यते-रत्प्रतिबिम्ब बदि न "ततः; तदवस्धं तहरूल्यम् । वन एवेति चेत् । तस्य यदि १५ मिस्यं तत्करणसामध्ये नित्य एव भोग इति कथमपवर्गः ? भोग्यसन्निधापेव तत्सामथ्र्य मिसि चेत्, न; प्रागसमर्थस्य तदापि तदद्योगात् , नित्यतया स्वरूपाच्युसेरसम्भवात् । प्रान्यास. मर्थरूपपरित्यागेन तदा तत्समर्थरूपोपादाने तु परिमायेव परमार्थतः पुरुष इत्ययुक्तमुक्तम्"चितिशक्तिरपरिभामिनी' [योमा ११२ ] इति ।
सत्यपि पूर्व सामध्ये सरसग्निधावेव "तस्य "तत्कर्तृत्व सामग्रीतः कार्यभावात् नान्यदेति २० येत सदापि तस्य यधनुषचरितमेव तत्कारित्वं कथयुक्तम्
"गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेर भवत्युदासीनः ।" [ सांख्यका० २० ] इति ?
उपचरितमेवेति चेत् ; वस्तुतस्तहि निष्फल एव पुरुष इति कथं भोगातदनुमानम् सस्थाऽतत्कालस्यात् । ततो निषिद्धमेवतत्त् (मेसस्) पुरुषोऽस्ति भोक्तभावात्" [सांख्यका०१७]
विषयदर्शन्दमयस्स भौगस्त । २ परिच्छेदादेव । ३ चेतनस्यापि परिक्छेदस्य । मतदान . पराधि-श्रा०, २०, ५०। ५ भाग्यसनिधिनः। भोगनित्यस्लम् । . हि भौगो-०, ०, ५०, १०।
८ धुरेष पुरुषार्थापरिसमातिन्यः, तदवसायौ मोक्ष:"-योगभा. १८ तदर्थाश्यायः विधेसस्थामा पुरुषार्थसमाशिः"-योपवा. १८।५ भोग्यरित्य--16,छ., ५०, स.. . "तुःखप्रयाभिधाताजिशाखा उदयघातक हतो"-सांख्यका मोबसविध्यानित्यावेऽपि । १२ पुरुषच्छेद-आग,०, ५०. स। सच , 20,५०,स। 18 पुरुषास् ! 14 भीमसनिधिकाऽपि। १६ भोग्यसन्निधादेव। 10 पुरुषस्व । १८ प्रविधिम् । १९ भोग्यसनिधिलेऽपि ।
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1
अपि च तेन भोगेन भोग्यं भुञ्जानः पुमान्न 'वायदभुक्तेनैव भोक्तुमर्हति मुकारम aise dearer स्य स भोग एव न भवति तेन तस्याननुभवादिति चेत्; इतरस्यापि ५ न स्यात् सेनापि दननुभवस्याविशेषात् । मुक्ततेनैव युके इति चेत् कुतस्तद्भुक्तिः ? स्वत इति चेत् ; व्यर्थं तोयकल्पनम्, भोगस्यापि स्वत एव तत्प्रसङ्गात् । भोगान्तरेण सत्प्रतिच्छाबालक्षणेनेति चेत्; न; तत्रापि तदन्तरकल्पनायामनवस्थानात् । तत्र भोगेन पुरुषस्य साफल्यम् । स्यार्धनोपक्रमेण भागाभावे तस्यैव वैफल्यात् । भोगोपरम एव हि "कैव
नापि
भोगस्य च स्वत एवाभावात् किं तदुपरभार्थेनोपक्रमेण ?
१०
१५
20
E
न्यायविनिश्वयविचरणे
[ ११२५
इति सप्रतिकारस्य " अयमेव च तस्य भोगो यत्तत्र छायासङ्क्रमण्यसामर्थ्यम्”
I
] इति च विकारस्य ।
24
यम्
भोगाभावे स्वतः सिद्धे किंशुके पाटत्ववत् । कस्तदर्थं प्रवर्त्तेत यदि नोन्मादवान् जनः ||६४९॥ सत्यं तस्य भोगस्वनिवृत्यै नापि वर्तनम् | सदा शान्तस्वभावत्वात् दृशिमात्रस्य तत्त्वतः ॥ ६५०१३ केवलं बुद्धिस्वस्थ भोगादिरुपचर्यते ।
तत्र स्वामिनि राज्येव सेनाम्यूहगतो जयः ॥ ६५१॥ sa ageerरस्य निष्फलस्यैव कल्पते । ततोऽन्यत्रापि सस्कृतिरनत्रस्थानमानयेत् ॥ ६५२ ॥ प्रमाणाषिषये वस्मिन्नुपचारः कैंथ वा । प्रतीत एव यल्लोके दृश्यते प्रवर्तनम् ||६५३॥ न पुमान् सारशः कापि प्रत्यक्षेणावलोक्यते । यह कापिलाः प्राहुः प्रशान्तमक्ष वादिनः ॥ ६५४॥ भोगातिः पूर्वं तस्य ज्ञानं निवारितम् । प्रत्यक्षापरिज्ञातं कथमाशेऽपि तं वदेत् । ॥ ६५५३॥ आतत्वस्यैव वज्ञामरहिते सम्भवात्ययात् । आप्तान्यरोपदेशेन तज्ज्ञाने मानवस्थितः ॥ ६५६॥ नापि मानवचनेभ्यः प्रमान्तरम् । यस्वत्प्रतिपत्तिः स्यादित्यसन्देव ते पुमान् ॥ ६५७३) -
30
१
ते ० ० ० ० ३ भुतस्य । ४ तदनुभ-आ०, ब०, प०, स० भक्त" योगभा० ३५५ । ६ प०, स० । ८ उपचारप्रवृतिः १ अतो मानुमानात्तद्रतिः १ ते ० प०, स०
1
सरस-आ०, ब०, प०, स० । भोक्षात् । पुरुषस्य उपचरितगोगाभावः शुद्धिः, एतस्यामसत्यभो-आ०, ब०, प० स०७ कपन ० ०,
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११२५ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
देवो 'किञ्चित्करेण किम् ||६५८
सेनाव्यूहजयस्योपपत्र एव राजन्युपचारस्तस्य प्रमाणतः प्रतीतेः । प्रतीतिविषयतया avarta लोके प्रवृतिदर्शनात् । न चैवं पुरुषे भोगस्यै फुतश्चित्तस्यैवानधिगमात् । न हि प्रत्यक्षेण बुद्धिव्यतिरिक्तस्य चिद्रूपस्याभिगविः तस्य स्वयमचेतनत्वाम् । सांसर्गिकच ५ चैतन्याव्यतिरिच्य ग्रहणानुपपत्तेः । नाप्यनुमानास भोगावेर्लस्य नित्यात्, लिनान्तरस्य च यथास्थानं निराकरणात् । नाप्यागमात् तस्यान्तवचनात्वात्, आप्तेयापरिज्ञाते तस्मिन "कस्वादिसम्भवात् । आप्तान्तरोपदेशा सत्परिज्ञाने चानवस्थानदोषात् । न चापरं यतस्तत्प्रतिपतिः “त्रिविधं प्रमाणमिम्" [ सांख्यका० ४] इति वचनात् । तो निःशेषप्रमाणव्यापारदूरपथ परिवत्तित्वेन व्योमारविन्दमकरन्दलौरमसन्निभ एव पुरुष इति कथं १० सोपचारादपि भोगवत्वं यतो निष्फलं तत्परिकल्पनं न भवेस ? इति सर्वमेतत देवस्येदं वचनमाविर्भूतम् -'अकिञ्चित्करेण किम्' इति ।
प्रमाणम्
विकल्पान्तरमुपक्षिपति - 'अर्थ' इत्यादि। 'अर्थ' इति विसर्के । परिछेोऽर्थनिर्णयो ari न प्रत्यक्षः, किन्त्यचेतन एवासाविति यदि अयं परस्याभिप्रायः । तत्रोत्तरम्, अकिविकरेण तत्परिच्छेदेन किम् ? न किञ्चित् । असिद्धं तस्य अकिञ्चित्करत्वं भोगापत्र- १५ गत्यात्, "भोगापवर्गार्थं दृश्यम् " [ योगसू० २२१८ ] इति वचनात् । भोगार्थत्वं तु भोग्यप्रतिथिमावहत्यास । विषयो हि तंत्र प्रतिथिस्थित घर पुरुषस्य भोग्यो भवति, “बुद्ध्यध्यataमर्थ पुरुषश्वेते" [ ] इति वचनात् । अपवर्गार्थत्वञ्च रजस्तमोभ्यामनfrents भूतिया निवान्तनिर्मलस्य स्वरूपतच्छायागतपुरुष विवेकप्रतिपत्तिकरत्यात् ।
परिज्ञाने तत्रापि निर्विण्णस्य चेतनस्य वैराग्यबलेन संस्मविरोधेन स्वरूपप्रतिष्ठान- २० areer चे उध्यते तत्परिच्छेदः पुरुषस्यात्मनमनुपदर्शयन् कथं भोग्यमुपदर्शयेत् "दर्पणादाचेयमदर्शनात् ? उपदर्शितात्मन एव दर्पणादेस्तं प्रति "मुखाशुपदर्शकत्वप्रसिद्धेः । आत्मानमुपदर्शयन्नपि यदि तदन्तरप्रतिविम्बितमुपदर्शयति तदा तदन्तरभव्यपरतदन्तरप्रतिवि-
२३५
तमेव दर्शयति तत्राप्येव नित्यपरापरतत्परिच्छेद कल्पनाचामनवस्थानात्र कृतभोग्यदर्शन सम्भवतीति कथं तस्य भोगार्थश्वं "यव किञ्चित्करत्वं न भवेत् ? अतदन्वरप्रतिविम्बितस्य २५ तस्योपदर्शने सुमचत्करत्वं विषयस्यैव तथा उपदर्शनोपपत्तेः ।
शेषः ।
१ - वेचयेत् आ०, ब०, २०, २० २
४ प्रत्यक्षस्य ५ नाप्युपगमा-आ०, ब०, प०, स
७ पितेथे भा०, ब०, प०, स० । ८ नायं प्र-आ०, ब०, १० तहप्रतिविरी-मा०, ब०, प०, स० 1 ब०, प०, स० स० । १२ मुख्याद्यु-आ०, २०, ५०, स० २ १३ प्रातमभी आ०, ब०, प०, स० ।
० ० ० ० ३ उपचारः इति
६. कश्चिदसा, ५०, प०, ९० ।
स० । ९ कुछी । तत्प्रति-आ०, दर्पणादावेव दर्श-प्रा०, ०, प०, ब०, प०, स० । १४ यदि कि-आ०,
प०,
11
:
1
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२३६
न्यायविनिश्चयधिधरणे अकरमा न विषयप्रतिपत्तिः क्रियात्वात् छिदिक्रियादिव । करणऽच मुख्यं सत्परिच्छेद एवं व्यवसायस्वभावश्चात, व्यवसायोपलब्धस्यैव विषयस्य उपलब्धसोपपत्तेः, नेन्द्रियादिक विश्ययात् । नापि तत्प्रतिपसौ करणान्वरकल्पनायामनवस्थान स्वत पय करणत्वात् , अर.
णस्य हि तदुभ्यतः प्रतिपत्तिः। फरणस्य तु तदूपतया परत्र ज्ञानमुपनयतो नितरामात्मनि ५ तदुपनयनं प्रदीपवतः प्रदीपस्य हि प्रकाशरूपतया प्रसिद्धमेव परत्रेवालाभ्यपि परिज्ञामोपनयनम्)
तन्न तन्निरपेक्षस्य विषयस्यैव स्वरूपोयदर्शन मिति कथं तस्याकिम्पित्करस्वमिति चेस् ! इदमय. किविरकरमेघ वपनम् 1. तथाहि-यदि विषयोरलम्भस्वभारः पुरुषः किं तत्परिच्छेदेन ? पुरुषक्त्तदुपलम्भस्यापि नित्यतया तनिरपेक्षत्वात् निष्फलकल्पनायामनवस्थानात् । तस्यातत्स्व
भारत्वेऽपि नितरां तस्य निष्फलत्वम् अन्य प्रति प्रदीपवत् । तत्सन्निधौ तस्य तदुपलम्भनमिति १. चेत् ; नं; स्वयशक्त रुदयोगात् ज्योमकुसुमपत् । वा शक्ती सैव तत्र साक्षात
करणम्, तत्र सत्यामसत्यपि प्रदीपादौ नसमन्चरेणु सान्धकाररूपदर्शनस्य प्राणिमात्रे अन्धकारवर्शनस्य व भावादिति किं तत्कल्पनेन ? तेंदुपधानेन व्यवसायस्वभावत्वं तदुपलम्भस्येति चेत् । न; स्वत एव तस्यापि भावात् । तत्परिच्छेदस्थापि तदुपस्त(ट)म्भादेव तत्स्वभावत्वं न
स्वतोऽचेतनत्वात् । सन्न तस्य भोगार्थत्वम् । १५ अत एवं नापवर्गार्थत्वम् , अपवर्गस्य भोगनिवृत्तिरूपतया भोगाभात्रेऽनुपपतेः ।
विवेकप्रतिपस्यतया च तचापयर्थित्वम् । न च तस्य तत्वमिति निवेदितमिषार्थविचारे । तेतः सूक्तम् 'अकिश्चित्करण किम्' इति ।
अपि च, नीलादिसुवाविषिश्योपस्थापनेन हि तत्व भोगार्थत्वम्, सदुपस्थानन्च तत्प्रतिबिम्शत् । तदपि कुतस्तस्यावागन्तव्यम् ? तत एव "तत्परिच्छेदात् , स एव हि 'मयीद प्रतिबिम्बमस्मादादुपजातम्' इति प्रत्येतीति चेत् ; न; तस्य अचेतमत्वेन तदयोगात् । चिच्छाशसक्रमाच्चेतन एवं स इति चेत् ; न; तत्सकमस्य पुरुपादनन्यन्ये वक्ष्यमाणोपरत्वात् । अन्यत्वे तु म तत्य. स्वतश्चेतनत्वं "तस्य पुरुषधर्मधेन अन्यत्ररयोगात् "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" [ योगमा० १९] इति वचनात् । चिच्छायान्सरसझमकल्पना
यामनवस्थानात् । भक्नपि कनिश्चेतनः यदि पृथगेवार्थ पश्यति किं प्रतिबिम्बही कल्पनेन ? पुरुषस्थापि तथा तदर्शनोपपतेः । यदि न पश्यति; कथं वत्कार्यतया प्रत्ति
विम्ब प्रतीयात् १ अप्रतिपने कारणे तस्करर्थत्यस्याशकाप्रतिपत्तिकत्वात् । इन्द्रियस्याप्रतिपसाबपि सत्कार्यता रूपदिज्ञानं कथं प्रतीयत इति चेत् ? न; स्वतस्तदनभ्युपगमात् । न हि सदेधे. न्द्रियज्ञानमात्मन इन्द्रियकार्यत्वं प्रत्येति; तव्यतिरेकादेव लिलासत्प्रतिपत्तेः । वक्ष्यति बैतत्
"अक्षादेरप्यदृश्यस्य तस्कार्यव्यतिरेकतः" [न्यायवि० श्लो० १७९ ] इति ।
२०
। अर्थपरिमोदेन । २ विषमोक्लम्भखभावाभावे । ३ विषयपरिच्छेद । । शकी सस्याम् । ५ तदुपाचानेन का ! ६ पुषस्य । वावर्गा-80०, २०, प० । ८ -सि येदि-मा०, २०, प.। १अतः भाय.प.11.विषयपरिषशत् चेतनत्वस्य । १२ -सदभ्युपगमातू-भा०.५०,०1
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मार्ग
२३७
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तायः
अत्राप्येवमिति चेत्; आस्तां तावत् । तत्र तत एव तत्कार्यत्वावगमः । प्रत्यक्षादन्यत इति ;; वस्याप्यविपयत्वे ततोऽपि तदसम्भवान् । अर्थविपयत्वञ्च यदि प्रतिवियमन्तरेण; प्रथमपि कल्पनम् । प्रतिविम्वेनेति चेत् तदर्थकार्यश्वस्यापि न स्वतोऽवगमः पूर्ववत | अभ्यः प्रत्यक्षादिति चेत्; न; 'वस्याप्यर्थाविषयत्वे' इत्याद्यनुवन्यादव्यवस्थितेः । एतदेशह—
५
१२५]
प्रत्यक्षं करणस्यार्थप्रतिविभ्यमसंविदः ||२५|| इति ।
करणस्य युद्धिषिर्तस्य स्वस्य परस्य या प्रत्यक्षं स्फुटसंवेद्यम् अर्थप्रतिविम्यम् rer after 'अयुक्तम्' इत्युपरिमागरथेन सम्बन्धः कुतः ? इत्याह- असंचिदः अचेतनत्वात् । न ह्यचेतनेन कस्यचित्प्रत्यत्वमुपपन्नम्, ' चेतन कल्पनाचे कल्यापतेः । चेतनत्वेनाप्युक्तन्यायेनासंविदोऽसम्प्रतिपत्तेः । तत्र प्रत्यक्षात्तत्परिज्ञानम् ।
नाप्यनुमानात्; प्रत्यक्षाभावे सदवृत्तेर्लिङ्गाभावाच । विषयनियमो लियगामिदि चेश न तस्य 'एन' इत्यादिना' निराकरणात् । कार्यव्यतिरेकस्तर्हि लिङ्गम्, कार्यस्य प्रतिबिम्बलक्षणस्य सत्यपि कारणान्तरसाकल्ये कदाचिदमुत्पद्यमानत्वादिदमवगम्यते-अस्ति कारणान्तरमस्य यभावादिदानीममुत्पत्तिरिति स चार्यो व्यपदिश्यत इति चेगू; न; व्यातिरेकस्या. सिद्धे सति पूर्वज्ञानादौ तस्यावश्यम्भावात् । भरतु प्रतिविम्बसारये स्मादेव तस्योत्पत्तिः १५
साये तु कथम् ? अतोऽर्थादेव तादृशासदुपजनवमिति चेम् सात्वेऽप्यर्थस्य कथं तदुपजनकत्वम् ? रातरिति चेत् सा किमन्य तत्कारणे नास्ति ? तथा चेत् कथमेकप्रधानास्मकत्वं जगतः ? सत्यभेद एव तदुपपत्तेः शकेरेव प्रधानार्थस्वाम् ।
शक्तीनां यदि मित्वं स्यात् प्रतिकारणम् (1) । मेदान्तरव देवासामपि कार्यत्वमापतेत् ॥६५९॥ तध्वपि शक्तीनामेवं भेदप्रकरूपने । शक्तिभेदप्रववस्वानाविवायां कथं भवेत् ॥१६६० ॥ एकशविद्धत्वं जगदस्थ कल्पितम् ? | यतः प्रधानं तस्वं ते तदेतद्भावे प्रतिबिम्बविधायिनाम् ।
जीवनं भवेत् ॥६६१।।
असत्यपि कचित्कार्यं व्यतिरिध्येत तत्कथम् ॥६६२ ॥
तन कार्यव्यतिरेकस्यापि लिङ्गत्वमिति नानुमानादपि तत्परिज्ञानम् ।
भक्तु पुरुषादेव तत्परिज्ञानं तस्य साक्षादेवोपलब्धिरूपत्वादिति चेत्; न; देनापि पृथगर्थं तत्प्रतिविम्वयोरपरिशाने तयेोर्हेतुफलभावस्य दुखवोधत्सत् । सत्परिज्ञानञ्च यदि तस्मति
१ प्रतिबिम्बकल्पमम् । २
५. कारण - ० ० ५०। ३ प्रवादं तवं आ०, ब०, प० ।
० ० १८ । ३ पूर्वज्ञानादेव भिन्नत्वं हि स्वाप० ।
१०
૨૦
२५
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न्यायविनिश्वयविवरणे
[ ११२६
freed विज्ञानात् ; तस्यापि कुतस्तत्कार्थत्वमवगन्तव्यं तत्कार्याततस्तदत्रगतेरयोगात् । पुरुपादेवेति चेत्र ; न ; सत्रापि 'वेनापि' इत्यादेः प्रसङ्गादनवस्थोपनिपाठाञ्च । स्वत ऐन योस्तेन परिज्ञाने व्यर्थं सार्थप्रतिविन्यस्यापि ज्ञानस्य कल्पनम् विनापि स्वत एव पुरुषस्यार्था-aree | भवत्ये (त्वे ) वमिति चेत् तर्हि न कैवल्यम सर्वदाऽर्थस्य भावेन दर्शन५ स्यानिः । भावे वा पुरुषविकलमेव कैवल्यं भवेत् सदा दयाभावेनं' "तदर्शनस्य कैवल्ये "तदेकरूपस्य पुरुषस्यासम्भवात् । आत्मदर्शनरूपस्तदा पुरुष इति चेत्; न; तद्दर्शनस्थापि 'दृश्यदर्शनावभेदात्, अन्यथा निरंशत्वव्यापत्तेः ।
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भवतु तर्हि तदा तस्य "स्वपर विषयत्व विशेषणरहिता दृशिरेव रूपम्, “द्रष्टा दशिमात्र: " [ योगसू० २।२०] इति यचनादिति चेत्; कथमिदानी प्रागतद्रूपत्वे तदापि सत् १० कौटस्थ्यन्यापः ? प्रागपि तद्रूप एव स इति चेत् कथं दृश्यदर्शिस्त्रम् ? इत्ययत्नसिद्धमेव कैव भवेत् । सत्यम्, न तवापि तस्य तदर्शित्वम्, दृश्यसन्निधानादेव केवलं "सव्यपदेशात्, संसारस्य च परमार्थतोऽसम्भवादिति चेत ; कुतः सन्निधिशानय् ? न तायद दृश्यात् ; अवेतनस्वात्, चिच्छायासमाच्च चेतनत्वस्य प्रतिषिद्धत्वात् । नापि शुरुवात् तस्य वस्तुतो निर्विषयत्वात् । निधेरपि ववन्तरवसादर्शन कल्पनायाम् अनवस्थानाम् । ततो दुर्भाषितमेवेद १५ विन्ध्यवासिन:- "तस्माच्चित्तवृत्तिवो" पुरुषस्यानादिः सम्बन्धो हेतु:" [योगमा० ११४ ] इति तस्यैव सम्बन्धस्यापरिज्ञानात् । न चापरिज्ञातविया प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः । सपि समिधाने न सावता तस्यै' तदर्शित्वम्, तद्दणपरिणामे सत्येष सयुपपत्तेः । अन्यथाप्रवृत्तस्यापि arficere, सर्वगतस्येन सर्वदा तत्सन्निधानभाषात् । सपरिणामश्च न तस्याविकारिणः सम्भवतीति न पुरुषस्यापि वस्तु तदुपरकं वा चित्तं संवेद्यं सम्भवतीति । तदेवा
२०
अप्रत्यक्षं स्वसंवेद्यमयुक्तमविकारिणः । इति ।
gover हि यमप्रत्यक्षमेव प्रत्यक्षेण तत्प्रतिविम्यवत्, अतः (अन्तः) करणलक्षणे"नापरिज्ञातेन तत्प्रतिपसेरयोगात्, तदपरिहास्य व निवेदितत्वात् । भवतु स्वतस्तस्थ तत्संवेद्यं न प्रत्यक्ष इति चेत्; 'स्वसंवेधम्' इत्यप्ययुक्तम् स क )स्य ? अधिकारिणः स्वतस्तद्वेदनाभावस्याभिहितत्वाम् । ततो यदि "चित्तस्य दृश्यत्वम् स्वसंविदितमेव तदभ्युपगन्तव्यं
कार्यम् ।
विशाशम् ३ एकनयो-आ०, ब०, प० । ४ धर्मतत्प्रतिविषयोः १५ पुरुषेण । ६ शामकल्पना विनापि । ७ दर्शन | अर्थ ९-भावे सदर्थदर्श-आ०, ब०, प० । १० दृश्य. दर्शनस्य । ११ हृदयदर्शनात्मकस्य । १२ - स्वासद्वाशत् आ०, ब०, प० । १३ श्यदर्शनामे - आ०, ब०, प० । १४ कैवल्यकाले । १५ स्वपरवमिति विशे- १० 1 यत्वमितिशे- भा०, प० । ११ रशिमाखयम्। १७ श्यदर्शिष्यपदेशात् । १८ व्यसन्निधानान्तर १९ विकसिोधे-आ०, ४०, प० १२० नादिसम्पदो हे मा०, ५०, १०१ "नादिमन्यो" - दोयभा० २१ पुरुषस्य तस्य दर्शि-२०, ४०, प०२२दर्शित्वम् । २३ - स्यापि दर्शि-श०, ब०, प० । २४ दृश्यसहिधान २५ परिज्ञानेन आ०, ब०, प० २६ दृश्यप्रतिपतेरपात्। १७ दानस्य आ००० १२८ चेत् संवे-आ०, ५०, प० । २९ चैत १० । चेतस्य आ० भ० । ३० त्वमस्व ० ० ०
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११२६ ।
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः धुरुपयन हन्नुपपत्तेः । कथं पुनश्चितस्य दृश्यत्वे स्वसंविविक्त्वम् । कथं च न स्यात् ? अन्यत्र भनुराही शब्दादी का 'श्य तदर्शनादिति चेत् : ना भूदन्यत्र तदर्शनं चित्ते तु वियत एव । विद्यमानमपि तद्धान्तमेय, पुरुषसन्निधिवलेन भावादिति चेत् । म; तदपरिज्ञाने तद्वचनानुपपत्तेः । सत्परिक्षामाथि यदि पुरुषान् मई सन्निहित्तम्' इति, यदि वा चित्तात् 'ममात्र सन्निहितः' इति; सदा सस्थावश्यम्भावि स्वपरविषयत्वामिलफल भयपरिकल्पनं ५ चित्तत एव सकलसमोहितगरिदि । स्वपनाने का तयार गरिवेदनम्, न होमनिर्णयसमय एवं निर्णयान्तरम् । युगपसदप्रतिवेदमात । तथा च सूत्रम्-"एकसमये चोभयानवधारणम् ।" [ योगसू० ४२.] इति। प्रसिद्धचार्थवेदन चित्तस्येति न तस्य स्वतो दृश्यत्वम् । नापि चित्तान्तराम, अनवस्यामात् तस्यापि तदन्तरराश्यत्वात् । अरश्यत्वमेवेत्सपि न युक्तम् । तेस्प्रचारसकेगनेन सत्वानां प्रवृत्तिदर्शनात्-'क्रुद्धोऽहम्, भीतोऽहम् , अमुत्र १० में रागः, अमुत्र में मोघः' इति । सतोऽन्यदेव तत्र दर्शनमभ्युपगन्तव्यम् । न चैत्र चिसय. तत्र दोषः, तस्य स्वतः परतवाष्टश्यत्वात् । विपयोपलम्भमावस्यैव संदूपतयोपगमादिति चेत् । न: दत्तोसरत्याग
अपि च, दर्शनायसं तस्य सश्यस्त्रमिति कुत इदमवगन्तव्यम् ? "अनन्तरान्यायादिति चेत् ; न : तेनापि दर्शनश्यगोळयसाये ततोऽपि तदयोगात् । तद्वयवसाययो भेदे फर्ध ३५ योगपोन भावो "टश्यादन्यदेव दर्शन मिति "एक समये च" इत्यादिसूत्रविरोधात् । एक सय तदुभयव्यवसायी न्याय इति चेत् ; चित्तमप्येकमेव वपरश्यवसायि किन्न स्यान् ? यतस्तरमा दन्यदेव दर्शनं न भवेत् । अवश्यं चेदमभ्युपगन्नध्याम् , अन्यथा वनाविव्यवहारोऽपि न भवेत् व्यवसायबहुत्वे तदनुपपत्तेः । न तत्र व्यवसायबहुत्वम् , एकस्यैव धवखदिरादिविषयस्य मेचकस्य व्यवसायस्याभ्यनुज्ञानादिति चेत् : न ; स्वपरयोरपि तस्यैकस्य प्रसङ्गाम् । एकव्यवस- १० यविषयत्वे कथं "त्यो द इति चेन् ? न ; धवस्त्रदिरामायपि समानत्वाम् । 'तत्रापि प्रतिविषयं भिन्ना एक व्यवसाया इति चेत् ; कुसस्सेपायवगमः ? अनवरतानामभ्युपगमविरोधात् । कुतश्चियवसायादिति चेतन"तत्रापि प्रसिम्यवसायं तदै 'कुत:' इत्यादिप्रश्नादनिष्ठापः। न प्रतिविषयं तद्भेदः "तस्मादेकमनेकार्थमवस्थितं च चित्तम्" शेिगमा० ११३२] इति भाध्यविरोधाचततो यथा अहित कथविध विषयभेदाम्यवसायभेदेऽपि विज्ञानमेकमेय २५
१ श्वेत सर--मा०, २०, प-१२चित्तापरिज्ञाने। चित्तस्य।४-मुभयकल्पमा, ३०,५० विपुलाचुभयम् । ५ प्रतिषिद्ध-नाम । प्रतिविध-१०६ भदृश्वमेधे-80०,40,9.1 0 तप्रचारसयान
मा०,०, ५० वित्तप्रचार । "धुद्धिप्रचारप्रतिसंवेदनात सशको प्रकृतिदश्यते बुचोऽह भीसोऽहम् अमुत्र मेरायः अगुन ने क्रोध इति"-योगमा ११८ दर्शवस्व । ५ दर्शनहपतवा विसरमा १ अन्तु. राज्याय-आ०, २०, ५०, अनन्तरोत्पन्नागुभयात् । १२ अनन्तरामनापि । १३ दर्शनदृश्यव्यवसाययोः । १५ बता दिमिनीव दर्शन मिति १५ उमयन्यसाथि झानम् । १६-स्य व्यय--आ०, ०,१०० स्व. परयोः । १८ धवलदिरादावपि । १९ कुनश्चेद्व्य-भा०, २०, ५०। २० व्यवसायविषयव्यवसायमैदे । २१-मिशाला
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म्यायविनिश्चयश्चिा तथा स्वपरयोरपि इति नातदर्शनार्थेन दर्शनकल्पनेनेति । व्याल्यातमनिन्द्रियमत्यक्षम् ।
सौपनः प्राह-भवतु स्वसंविदितमब ज्ञान तस्य तु कथं वहिर्विषयत्वम् ? म सस्वमात्रेण, अतिप्रसङ्गात् । सकलविषयलाधारणं हि तत्सस्वम् , सेन छ तस्य पहिविषयत्ये सर्व सर्वविषयमेव संवेदनमित्ति कचं प्रतिकर्मव्यवस्था - नीलस्यैवेदं संघेदनं ग पीतस्थ' इति ?
स्वात्मतम्-आलोचनाशानेन्द्रियतनिफ्यसमिकदेरेव तद्व्यपस्थति; दन्न, तस्यापि साधारणत्वात् । असाधारणस्य हि व्यवस्थापकत्वम् । न घासौ तथा नीलाधिरामवत् पीताअधिगमेऽपि भाना : तामियममारना । न हि तनुत्पादकस्यैव तब्यवस्थापकस्वम् ; एकक्रियानिमितस्य क्रियान्सरं प्रत्यनात्यात् । अन्यथा यतः कुतश्चिरित्रलक्रियानिष्पन कस्यचिदष्यभिमतक्रियावैकल्यं भवेत् । अर्थेनैव तर्हि संसर्गिणा तव्यवस्था, संसृष्टस्यैव नीलादेवेदन कापरस्येति १० चेत् । न ; तस्याप्यज्ञातस्य व्यवस्थापकल्वेऽतिप्रसङ्गात् । न याव्यवस्थायां तज्ज्ञानम्। तज्ज्ञाना.
[त् व्यवस्थायां परस्पराश्रयात् । तस्गासदात्मभूतस्यैव कस्यचिद्भेदस्य व्यवस्थापकत्यम् । सपार्थाकार एम , संत एवाधिगमस्थार्थघटनोपपत्तेः । अन्यस्य तु मान्धपाटवाः सतोऽपि तद्रेदश्य साधारणतया संदनगरवात् । तथा च वासिकं तनिबन्धनच
"तस्माद्यतोऽस्यात्मभेदादस्वाधिगतिरित्ययम् ।
क्रियायाः कर्मनियमः सिद्धा सा तत्प्रसाधना | [ प्र० घा० २।३०४ ] यतः स्वरूपभेदादस्य संबेदनस्य अयमस्य नीलस्य पीतस्य बाधिगतिः इति नियमः साधित गसिस्तनसाधना सिद्धा, तन्मात्रभावादेव नियमस्यास्य भावात् । तथा बोक्तम्-"भाषादेवास्य तद्भा" [404n० ११६] न चेयमर्थघटनर सारूप्यादन्यतः संवेदनस्य । यतः
अर्थन घटयरयेनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । “अन्या स्वभावो ज्ञानस्य भेदकोऽपि कथञ्चन ।। तस्मात्प्रयाधिगतेः साधनं मेयरूपता !
साधनेऽन्यत्र तत्कर्मसम्बन्धो न प्रसिद्ध्यति ।[प्र० वा० २१३०५,६]
सदाकार हि संवेदनप, व्यवस्थापयति नीलमिदं पीतं चेति । यथा आकारयोगित्वं ज्ञानस्य सथोसस्त्र प्रतिपादयिष्यामः । अन्यत्र तु साधने वेन कर्मणा सम्बन्धी न
मालोचनामादेरपि । २ संसोऽर्थस्य । ३ अर्थकारादेव । । अर्थमहान हस्तात् । ५-पतिनियम आ०,०, प.1 परिषदा आ० ब०, ५०1"एमधिपतिम् अर्थरूपतार अर्थसपना नुस्त्या ने सभ्यः कश्चिदिन्द्रियादिः सभेदात् कयाकन वैमापि प्रकारेण वामस्य भेदकोऽप्पन झन घटयति योजयति मोलस्ययमधिगति पीतस्य नेसमित्यादि ......"तस्मात्प्रमेयामिगतः कलभूतायात व्यवस्थाप्यायाः साप प्रमा मेयरूपतः । अथे। सायं तस्य प्रतिविषयं निमत्य सूपलक्षयात् । सामप्यास् पुनरम्यान साधने तस्याः क्रियायाः फर्भसम्बन्धी नौलत्ययमधिगतिः पौलस्य दत्मादि म सिध्यति । इन्द्रियाधिगतिविशेषत सम्भवयनुभवमात्रामकहानत्य विशेषत्वानोगार । ज्ञानमतस्थापरविशेषस्य खक्षमभेदेमानुपत्ताशयात ।"-प्र० बा० म. सु. ११३.4३.६। अन्यस्य मामी भा.ब.40 1 "अभ्यः त्वमेदाते"-30416मत सम्रडो धाब०प०।
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११२७ ]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव प्रसिध्यति । संवितेस्तदाकारता चेल् परित्यज्यतेः कथं तस्य संवदेन मिति नियमः १ साक्षात्करणादेष नियमो मविष्यतीति चेत् किमिदं साक्षात्करणमर्थस्य रूपम् , अथ सवेदनस्य, 'अधान्यदेव किञ्चित् ?
अर्थस्य साक्षात्करणं यदि रूपं पदिष्यते । साक्षात्कारि हि विज्ञानं कथमर्थस्य तद्भवेन् ? | अथ संवेदनस्यैव रूपं साक्षाक्रिया मता। साक्षात्कृतः कथं सोऽर्थो न बन्यस्यान्यरूपता ॥
अन्यत्वेऽप्येष दोषस्तु भवेदेवानिवारितः ।
तथा हि-यदि साक्षात्करणमर्थस्य स्वभावः 'नीलादिवसाधारण इति सर्वस्य संविदितः सोऽर्थो भवेत् । साक्षरक्रिया चार्थस्य न युक्ता सानधर्मस्वात् । अथ जान. १० धर्मोऽसावविषयः तेनार्थः संविदित उच्यते; गई वाय इसका अर्थसंवेदनरूपत्वादिति चेत् ; अर्थस्य संवेदनमिति किम्? अर्थरूपत्वात्संवेदनस्येति चेत् ; सैवार्धाकारता संवेदनस्य । अथार्थालातत्यादर्थसंवेदनम्। तथा सति चक्षुषोऽपि जातत्वात् चक्षुःसंवेदनमिति प्राप्तम् । अर्थ पश्यति न चक्षुरिति चेत् । अर्थ पश्यतीति कोऽर्थः ? अर्थ पश्यत् दृश्यते तेन पश्यतीत्युच्यते केन पश्यति ! स्वरूपेण । यथैव सहि स्वरूप १५ संवेदनरूपेण पश्यति तथा अर्थमर्थरूपेणेत्यर्थस्यता अर्थस्य साधिका, संघेदनरूपता संवेदनस्येति तदाकारतैव सर्वस्य साधिका । नान्यः स्वभावो भेदकोऽपि ज्ञानस्यार्थेन घटयति ।" [प्र० कार्तिकाल० २।३०४ ] इति । अवाह
एतेन वित्तिसतायाः साम्यात्सकवेदनम् ॥२६॥
प्रलपता मतिक्षिप्ताः पतिषिम्योदये समम् । इसि ।।
पलपन्तो निरुपपत्तिकमभिजल्पन्तस्ताथागताः प्रतिक्षिताः। कि प्रलपसः? सर्वेकवेदनं सर्वस्य नीलधवलादेरेकेनैव ज्ञानेनाधिगमम् । कुतः वित्तिसत्तायाः साम्यात् निराकारज्ञानसहावस्य सकलविषयसाधारणत्वादिति । फेन तेषां प्रतिक्षेपः ? एतेन कपिलदूष. णेनेति । तथा हि किं तदेकज्ञानम् यस्य निराकारत्वे सर्वविषयत्वमापावेत? नीलादिविषयो निर्णय पवेति चेत् ; म ; तस्य निराकारतवैव नियतविषयस्य स्वानुभवात्यक्षेणानुभवात् । निराकारस्ये २५ कुतो विषयनियम इति चेत् ? स्वहेतुप्रयुक्तपदेव शक्तिनियमादिति भूमः । कुतस्तस्यायगम इति चेत् ? विषयनियमादेव। मनु "सनियमोऽपि शक्तिनियमादेवावगम्य" इति कथन परस्परामय
, साक्षात्कारमा ब०, P1 १ अन्याय , , प-1 ३ संदिश्य-०, २०, प.। सदिष्य-१० कार्तिकालय | नीललादि--80,२०,५०। ५ कोऽपि वि- ., प०। ६ द्वितीयकवचनम्। -गमात् भा०,०,१०। 4.-न सति कापिल-श्रा०,०,५०१९ शशिमियमस्य । विश्पनियमोऽपि ।"-मन्यत इति मा०,०,१०॥
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[ १२८
२४९
न्यायविनिश्यविवरण इति चेत् ? म ; तत्रिययस्य प्रत्यक्षत एव सिद्धत्वात् । फेवळ 'स कुतः' इति प्रश्ने नियमेन प्रत्ययस्थानं तस्यावश्यम्भावनापासम्बया, अन्यथा सारूयासम्भवस्यापि नित्रे दनाम् । ततो वचस्य परिकोदो व्यक्लायोऽभ्युपगम्य तस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् , ईि सत्रा. न्वत एव विषयनियमादभित्किरमेव सायकल्पगमिति जितेन सदाह
प्रत्यक्षोऽपरिच्छे शो धमकिञ्चित्करेण किम् ॥२७॥ इति । पशान्तर --
अथ नार्य परिच्छेदो यदि अकिश्चित्करेण किम् 1 ] स !
अथ इति विज्ञ 1 यदि अयम् अनन्तरपरिच्छेदो नीलादिव्यवसायरूपोन वियत इति ताह-अकिश्चित्करेण किम् सारूप्यकल्पनेन विषयाभावान् ? न हि निविषयं । १० हत्कल्पनमुपपन्नम् : योमकुसुमे ऽपि नत्प्रसवात् । सायकल्पितं गन्ध तद्विषय इति चेत् ;
न; तस्यासस्वान् । कथमन्यथा "संसर्गादविवेकश्वत" [प्रधा०२।२७४] इत्यादिना तन्निराकरणम् ? सतस्सदंयोगान् । "स्खलक्षणयदभ्युपगमसिवस्य तस्य ससिपचत्वमिति चेत् ; a; तत्सिवस्यापरमार्थत्वात् । अपरमार्थत पत्र संवेदनं तस्सारूप्यं यति चेत् । कुतः कि
सिभ्येदित्यन्धमूकं जगदूरोत् ? स्वप्रसिद्धमेव वर्हि निर्विकल्पकं दर्शनं सद्विपय इति चेत् । न ; १५ तस्यापि प्रतिक्षेप्यमानस्यात् । ततो निर्विषयत्वानुपपन्नमेव तत्परिकल्पनस्याकिञ्चित्परत्वम् ।
___ भवतु हि व्यवसायस्यैव तद्विषयत्वमिति चेत् ; न; तस्य स्वसः प्रत्यक्षल्वे सारूप्य. स्थापि तदात्मनः प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । अस्तु को दोष इचि येत् । न निर्विवादत्येन तरसाधन: प्रयासवैफल्यापत्तेः । तत्प्रत्यज्ञस्यायव्यवसायवेन विवाद इति चेत् ; फर्ध पुनर्यवसायस्याडवय
सायस्वभावः स्यात् विरुद्धधर्माथ्यासेन भेदात् ? इत्यस्वसंवेदनमेव व्यवसाचस्वाभ्युपगर्मायेरुद्धमाप२० तितमिति कुवस्तसिद्धिः अन्यत्तस्तत्सिद्धरनभ्युपगमान् ? स्वसंवेदना नान्यत इति चेत् : 'म सस्य
स्वतः' इत्यादिप्रसनावरकापत्तेरनवस्थानाच । सत; सव्यवसायमेव संत्स्यसंवेदनं तेन प तत्स्वरूपवन सारूप्यस्यापि व्यवसायान तत्र विवाद इत्यकिञ्चित्कर एव तत्साधनप्रयासः । तदाहप्रत्यक्षोऽर्थपरिच्छेदो यद्यकिश्चित्करेज तत्प्रयासेन किम् ? न किञ्चिदिति ।
यदि चार्य निर्धन्धो व्यवसायस्य स्वसंवेदनमव्ययसायमेवेति । तदेवाह-'अथ नार्य परिच्छेदो यदि' इति । 'अर्थ' इति पूर्ववत् यदि अयम् अनन्तरः परियो व्यवसापस्त्र स्वसंवेदनं व्यवसाय एवेति निश्चयो न न विद्यते इति । सत्राह-अशिश्चित्करेण किम् सारूप्येण न किश्रिकलमिति यावत् । विषयलियमस्तस्य फलमिति चेत्, न; अव्यवसितासतस्पदयोगात क्षणिकरबादिवत् । न हि क्षणिकत्वादो नास्स्येव साहायं नादावपि सख्यतिरिक्त
विक्ष्यनियमस्य । १शचिनियमेन। १-पि वे-आप.प. 4.1 ५ तदप्रयो-बा०, ५०, प. । ६ लक्षणबदनभ्युप-आ-, व ८-स्वाप्याव-माब.प. तत्संबे-., 400
प्रत्यक्षान्तरमाद काय. ५० . व्यवसायप्रत्यक्षस्य ।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
२४३ तदभावप्रसङ्गात् । भवतु तत्रापि संवेदनस्य तेस एक तैनियम इति चेन् ; किमिदानीगनुमानेन ! व्यवसाय इति चेत् ; म; बहिःसाकारस्यैव ज्ञानस्य व्यवसायत्वात् । अध्यवसायत्वेऽपि किं तव्यवसायेग ? प्रसिरिति चेत् ; न ; तस्या दर्शनादेवोपपतेः "तत्प्रधानत्त्वात" [प्र.. वा० १५] इति वचना, क्षाणिकत्वादेरप्रवृत्तिविषयत्वाच ।
___ समारोपव्यवच्छेद इति चेत् ; तेनापि किम्? विषयनियम इति चेन्; न; 'संवेदना- ५ दर्थान्तरात्ततस्तदयोगात् , "तस्साचतोऽस्यात्मभेदात्" इति वचनब्यापतेः । अनर्यान्तरादप्यसारूप्यरूपान्न ततसनियमः "तसात्प्रमेयाधिगते साधन मेयरूपता" प्रवा० २०३०६] इत्यस्योपद्रवात् । सारूप्यरूपत्थे तु वस्य संवेदनकारादेव भावात् विफलमनुमानम् । तत्र विषयनियमः सत्यवच्छेदात् ।
संवाद बलि नेस : ननु मोऽपि संघरनविण्यम्यस्थम्भावव्यवसाय एक, स च घटना- १० देव भवति घटनस्य व्यवसायरूपत्वात् । क्षणभक्षादेरिदै संवेदनं नान्यस्य इति नियमन हिं घटनम् , सब व्यवसायात्मकमेव उल्लेखरूपत्वात् अतद्रूपत्वं व्यवसायान्तरस्याप्यभावात् । घटनमपि 'सव्यवच्छेदादेवेति चेत् म; तस्य विषयसारूप्यादेव भावात् । तद्व्यवच्छेदसहायमेव "ववपि तनिवन्धन" न केवलं समारोपे गदप्रतिवेदनादिति चेत् : न हि सति "तस्मि. अवश्यम्भाधी सन्नियम इति दुर्भाषितमेवेदम्-'भाषादेवाऽस्य ता" [प्र०या०१६] इति । ९५ नयबछेदार तस्य विशेपे तत एव सनियमो न सारूप्यात् । अविशेपे तु न तदपेक्षणम् अकिशेषकारिण्यपेक्षाया अनभ्युपगमात् । तत्सहायत्वमेव विशेष इति चेत् । न;
पृथक् तस्य समर्धत्वे सहायेनेह कि लम् । पृथक् तस्यासमर्थ सहानेह किं फलम् ॥ ६६३ ॥ "सामध्ये ताशं तस्व सारूप्यस्य मसं यदि । सहायं यदपेक्ष्यैव कुर्सत घटनक्रियाम् ।। ६६४ ॥ सहायनियमेनैव स्वहेतुपरभाविना । चैतन्यं नित्यमध्येवं किन्न स्थानियतार्थरक् ॥ ६६५ ॥ सारूप्यमन्तरेणापि "सत्राथेनियमस्थितः । तत्साधनप्रयासोऽयं धर्मकीर्तेरतो वृथा ।। ६६६ ॥ "तत्रानुभवमात्रेण ज्ञानस्य सदृशात्पनः । भाव्यं तेनात्मना येन प्रतिकर्म विभज्यते ॥" [ze वर० २।३०२] इति ।
१क्षणिकन्यादायपि । २ सारूप्यादेव । ३ एक नियम भा०, २०, प० । विषयतिनियमः । ॐ वाचः सारूप्यस्य फलमिशियेत् । ५ "प्रलेसनमानस्वात"- वा०। ६ बिदनाद भिआत् समारोपन्यपच्छेदात् । .. समाचव्यवच्छेदाय विषयनियमः । . अनुल्लेखास्मकस्म । १ समारोपव्यवच्छेदादेव । . विषयमामयम् । 10- केवल आप०, २०१२ सकृप्य। १५ स्वहस्वस्थ । १५ समारोपन्यवच्छेदापेक्षणम् । १५ सामथ्र्यासार-आ०, २०, ५० चैतन्थे ।
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Data p
२४४
५
न्यायविनिश्चयविवरणे
सहायसन्निधानेऽपि वेदनिधित्वेत् ।। ६६८ ॥ seमर्थविदित्येष सारूप्येऽपि समो नयः ।
तत इदमप्यलङ्कारवचनं प्रत्युक्तम्---
[ १२८
" तद्बोधकं वस्तु तथैव तदबोधकम् ।
यदा तो वस्तु केन नेष्टपबोधकम् ।।" [० वार्तिकाल० २।३०२ ] इति । सारूप्येऽपि समानत्वात् । उन्न तालहायत्वमपि तस्य विशेष sfa frore तदपेक्षनम् । अतः क्षणक्षया सारूप्यस्यैव विषयनियमनिबन्धनत्वात् कथन्न वैयर्थ्यमनुमानस्य ? तदनिच्छता च तत्र तस्येन्नित्यमनुज्ञातव्यम् । तथा च कथं नीलादावपि तस्य
विशेषादिति ब्रहम्-'अथ नायम्' इत्यादि । तत्र व्यवसाये rates कल्पन १० प्रत्यक्षविशेधात् । स्वतस्तभिश्वये च तत्सवैफल्यात् । अनिश्चये च तस्याकिचित्करत्यात् ।
भवतु साख्यस्यैव चैतन्ये तत्कल्पनम् इदमेवाह- 'अर्थ' इत्यादिना । कापिलीयः पुरुषः अयं सारूप्यविषय इति परियो निश्चयः सौगतस्य यदि इति ; सत्राह--अकि दिपत्करेण पुरुषेण किम् ? न किचित् । विपयाधिगमस्य तत्फलस्यात् कथं तस्याकिविस्तरत्वमिति चेत् ? ; आकारवादे पृथकृतदधिगमाभावात् आकारद्वारा तदधिगम इति १५ चेत्; आकारस्यैव कुतोऽधिगमः ? स्वत इति चेत्; न; कापिलेखनभ्युपगमात् । विषयाfurniदेव स्वाfers व्यवस्थाप्यते तदभावे तदनुपपत्तेरिति चेत्; न; प्रथ वदविगमाभाate उक्तत्वात् । पृथगेव तदधिगमः कापिलैरभ्युपगम्यत इति खेत्; न; तदभ्युपपमस्य कथाकारकल्पनम् ? तदभाव एव तदुपपत्तेः । अप्रमाण तु न पृथक अधिगमः य: स्वाधिगमसम्पादनम् ? आकारद्वारादेव तदधिगमात्तत्सम्पादनमिति चेत्; न; "तसम्पादने २० तस्यैवासिद्धेः " तत्सम्पादनासत्सिद्धौ च परस्पर भयात् । तत्र विपयाधिगमादपि तत्सम्पादनमुपपनम् । तत इदं साङ्ख्यसिद्धान्तानभिज्ञतयैत्र परेणोरूम्-"" यथैव तर्हि स्वरूपं संवेदनरूपेण पश्यति तथार्थमर्थरूपेण्ॣ" [अ० वार्विकाल २/३०६ ] इति । ततो विषयाधिगमस्याकारवतस्तयादभाषादुपपन्नम् 'अकिञ्चित्करेण किम्' इति
नापि निरंशे दर्शने तत्कल्पनमुपपन्नमित्यादयति- 'प्रत्यक्षम्' इत्यादिना । २५ करणस्य इन्द्रियस्य कार्य प्रत्यक्षं साक्षात्कारिज्ञानम् | उपलक्षणमेतत् प्रत्यक्षान्तरस्यापि । तत्त् अर्थप्रतिबिम्बम् अर्थाकारमिति आयुक्त युक्तिवर्जितम् । विक्यनियम एवं संवेदनस्य तत्र युक्तिः तदभावे तदनुपपतेरिति चेत ; न; निरंशस्यें] एतस्यैकाननुभवात् । न हि तिरं
1- धानोऽपि भा० २०, प० । २ समारोपष्यवच्छेदासन्निधानतुल्यं स विशेषः : ३०, ब०, प० । ४ निषादो । ५ यस्य । ६ विषयनियमनिबन्धनत्वम् । ७ चे आकार- भा०प० ८- सेः प्रमा-भा०, ०९ तदविगमात्म्यादने आ०, ब०, ५० विश्याधिगमात् स्वाधियसम्पादनम् । १० स्कधिगमासम्पादने । सिम्पादन १२ देश ०१०२०१ १३-२००, ब०, प०
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१।२८]
प्रथमः प्रत्ययापस्ताना किश्चित्संवेदन कचिनियमपदपलब्धं यत्तस्तस्य तदन्यवानुपपन्नास्वमवसीयेत । अन्यथानुपपनत्वमसिद्धस्य न सिध्यति" [न्यायवि० श्लो० ११ ] इति वचनान् । एसदेवाहअसंविदः सम्प्रसिपातः निरंशस्य प्रत्यक्षस्येति । सन्न व्यवसायादन्यत्र सारूप्यकल्पनमुपपन्नम् । नापि व्यवसाये तस्य निराकारस्यैकामना । नासा समय सम्, सस्य स्थानुभशभावात् । तर्हि न फिञ्चिपि तस्य प्रत्यक्षमाकारस्येति चेत् अत्राह-"अप्रत्यक्षम् ५ इत्यादि । अधिकारिणः आकारविकारविकलस्य व्यवसायस्य यत् स्वम् आत्मीय संवेध नीलादि तन अप्रत्यक्षमित्ययुक्तम् अत्र 'अनुभवबाधनात्' इति भाषगतो हेतुः प्रतिपत्तव्यः ।
यदि छ, निराकारत्वे ज्ञानस्त्र प्रत्याससिनियमाभावारसर्ववेदमत्वम् ; सत एष सर्षाकाररगपि भवेत् । सस्य सत्कारणत्वाभावानेति थेन् ; न; सत्रापि समानत्वात् प्रश्नस्य- १० 'समपि किन्न तस्य कारणम्' इति ? अतोऽपि तदेव सर्वविषयत्यम् । एतदेव कारिकाशेषेषण दर्शयति-प्रतिबिम्बोदये आकारवत्वे ज्ञानस्य समं सदृशं सर्वेकवेदनम् ।
स्यान्मतम्-न वस्त्वित्येव सर्व सर्वस्य कारणे शक्तिप्रतिनियमात् । प्रतिनियनशक्तयो हि मात्रा प्रतिनियतमेव कार्य कुरिम् न सर्वम् । न च कारणमित्येव चक्षुरादिकमपि तत्र स्वाफारसगर्पणक्षमम् , तच्छक्तिविशेषस्य नीलादापेव स्वहेतुशलभापिनो भाषाम् । ततो न १५ साकारत्वेन सर्वविषयत्वम् । नापि बनुदादिविषयत्वमिति; तना शक्ति एव नियत विषयत्वो. पपतेः आकारवादयध्योपति: । कल्पयसारि साकारं शक्तिरभ्युपगन्सन्या, तदभावे संस्यैव नियतस्यासम्भवात् । तथा च तदयस्थ एव अर्थः स्वशक्तितो बेदनस्य विषयनियममवकल्पयतीति व्यर्थभ कारकल्पनं संवेदनस्य । युक्तञ्चतत् अर्थस्यैवमेव सिद्धेः। आकारवादे हि न तस्य सिद्धिा थगदर्शना । अकारदर्शनमेव सस्यापि दर्शनं सादृश्यादिति येत् ; म; 40
थगइष्टे तस्मिम् तत्साहश्यस्यैव दुरवामित्वात् । न चानबगत सादृश्यमुपधारकल्पनायालमिति निवेदितं पूर्वम् । तस्मान्नेइमत्र निदर्शनमुष्पन्नम्-"यथा पितुःखदृशः पुत्र उत्पतिमान् पितूरूपं गृहातीति व्यपदिश्यते लोके विरापि ग्रहणय्यापारेण तथा विज्ञानेऽपि व्यपदिश्यते" [१० कार्तिकाल २६३०५ ] इति; पम्यात् । उपपन्नं खल्विदम्-पुत्रः पितूरूपं गृहातीति पृथगे पितापुत्रयोस्सरसावयस्य चोपलम्भात् । न चैवमत्र, पृथग अर्थतदाफारयोस्तस्साधर्म्यस्य २५ चाप्रतिबेदनात् । तस्यादर्थशस्तित एव विषयनियमो युक्तः । "वस्तुतस्तु झानस्यैव "सत्र शक्तिः, अर्थस्य ज्ञान प्रत्यकारणत्वात । नव ज्ञानमशहमेष; तत्र सदाकारस्याप्यारावासान् व्योमकु. सुमषस् । शात्यायाकारद्वारेणैव बहिर्विषयत्वमिति चेत् । न; पारम्पदोषान् । भवति हो पारम्पर्यम्-'शहित आकारः, ततोऽर्थवेदनम्' इति । - ---
निराकारत्वेन । २ हृदयगतः । भगवती आ०,०,१०॥ ३ पत्तेः क- 1 • भाकारस्यैष । ५ वृक्षा-प्रा०, २०,५. ६ अबस्थापि यह कार, ए,१०। “ अर्थे। ६ पितृभापम् श्रा, .. . पस्तुतस्तम्जा-आ.. .। विषयनियमें।
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न्यायविनिश्चयपिपरणे
[२०२८ निराकारज्ञानमेव नास्ति अप्रतिवेधनात् वल्कथं तच्छविसस्तन्नियम इति चेत् १ न; तस्यैव 'नीलमई बेशि' इत्यनुभवात् । एवमपि कथं तस्य बहिर्विषयत्वमिति चेत् ? कस्यायं प्रश्न-प्रयोजकस्य, प्रकारस्य, ज्ञापकस्य वा ? प्रयोजकरतु 'प्रतिपादित एव । प्रकारः शकिलक्षणः । झापकञ्च स्वसंवेदनरूपा, स्वत एव तत्र बहिर्चिषयत्वस्थानुभवान् । सैदेव कीदृशामिति ५ "बेन ? नीलपि कीशम ! बादशमनुभवेन दृश्यते ताशमेवेति चेत् ; न; प्रस्तुतेऽपि
समानत्वात-बहिविषयत्वमपि शातस्य बादशमनुभयोपारुढे सादृशमेव तदिति । सो निराकस्वमेव -"नीलादिसुखादिकमन्तरेणापरस्य ज्ञानाकारस्थानुपलक्षणात्" [ ] इति; अपरस्यैव स्वपरपरिच्छेवरूपस्य तदाकारस्य दर्शितत्वात् । साक्षात्करणञ्च तस्यैव धर्मो
मार्थस्य । कथमेवमर्धः साक्षात्कृत इति व्यपदेश इति चेत् ? न; साक्षास्करणविषयत्वादेव १. तदुपपत्तेः । स्वयं तस्य तद्धर्मत्वे तु 'साक्षात्का सः' इति स्थान 'साक्षात्कृतः' इति । न
हि भवति शेवनधमैं खड़ा किन्न इति, 'छेत्ता' इति तत्र व्यपदेशदर्शनात् । तत इश्मपि शब्दन्यायापरिझानादेव परस्य वचनम्-"अध संवेदनस्यैच" इत्यादिक (दिकम् ।) चतो यदि निराकारत्ये सर्वविपयत्वं संवेदनस्य आकारवत्त्वेऽपि भवेत , शक्तेरनियामकत्ने सदाकारनियमस्याप्यसम्भयात् । इति सूकम्-'प्रतिविम्योदये सनम् । इति ।
पुनरपि साकारबार्द दूषथनाह---
सारूप्येऽपि समन्वेति प्रायः सामान्यदूषणम् ॥२८॥ इति ।
सारूप्येऽपि न केवल सामान्ये समन्वेति सङ्गतं भवति । किम् ? सामान्यस्य दूषणं प्रायो बाहुल्येन नित्यत्वादिदूषणस्य तबाऽभावात् । तथा हि-यथा सामा
म्यस्य क्वचित् दृश्यस्ये सर्वत्र दृश्यत्वमेवे, दृश्यत्वादह (वार)इयत्वे मिरक्यवत्वविरोधात् , तथा २० संवेदनस्य यदि नीलविषयत्वं वदाकारतया अडविषयत्वमपि तदाकारसयैव, अन्यथा विषयस्या
नुकूतेतरत्वेने विषयिणश्च सरूपेत्तरत्वेन विबुधर्माथ्यासे निरंशत्वविरोधात् , अविरोधे का सामान्थेऽपि "तदविरोधादसम्यसमेतस्-"जातिः सर्वत्र दृश्यत" [५० वा. स्व० ३।१५८] इति । तथा च अदमेव संवेदनमिसि कथं ततः कस्यचिदधिगमो ज्ञानकल्पमावैफल्यापोः ।
तदनेन अधिगमनियमस्य सारूप्यसाधने बिरुद्धत्वमुक्तम् । २५ अथ नील आध्यादन्यदेव तत्कथं तत्र सारूप्ये आध्येऽपि तनियम इति चेत् ?
उच्यते
-"
१५
पुनरपि माग
-.:-.:.
लोसायी पदार
१ प्रतिवादिन एक । २ बहिविषयत्वमेध । ३ वेमनी-, 40, प... "तस्मात्सुखादिनीला. दिव्यतिरिक्तमपरमिह जगति संवेहम नास्तीति"-. चार्तिकाल १५०३ । ५ शामाकारस्य । तदर्ग प्रत्येतुं सा-मा०, ०७२४१०५ किं भवति सा-या, ५०,५०।- सादयत्वाद दृश्य-80, प, प.। १. चित् अदृश्यत्वे क्वरित दृश्यत्त्वे । 1-खे वि-आम., प०।१३ अपिद्दयस्वस्थ क्वचिश्वाश्यवस्थाविरोधात् । ३ नीले ।
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२४७
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव जडत्यानीलमन्यच्याडं नीलं कथं भयो ? । सम्बन्धाच्चेदाइत्वेन सोऽपि कः परिकल्भ्यताम् ? ॥६६९६ न वादास्यं विभिन्नत्यातदुत्पत्तेस्तु सम्भवे । जडत्यानीलमुत्पन्नं जान पेन् प्रागुक्तस्तत्र दोपश्न ज्ञाने इडतेत्ययम् । पुनस्तदक्लृप्तौ स्यादनवस्थानदूषणम् ॥६७१॥ जस्वेतरनिर्मुस नाऊ येदुपकरप्यते । स्कन्धान्तरं तदापन्नं तथम नानभ्युपागमात् ।।६७२।। तत्रिर्मुक्तरपि ज्ञानं तदाकारतयोभवत् 1 संनिर्मुक्तं भवेनीलप्रभवोत्तरनीलबम् ॥६७३॥ नीलादिवा( दिव ) फवं तस्नाशीलस्याधिगमस्तदा । चेतनस्यैत्र धर्मोऽयं यसो लोके प्रसिद्धिमान् ।।६७४।। तस्मादधिगमोऽन्यत्भाचारादेव वेदनात् ।
यादर्थश्रुतिः श्रवं गता ॥६७५11 वन बाध्यात्यानीलकल्पनेयं फलाबहा। तथापि नीलसंविरुक्त नील्याऽनवापनात् ।।६७६६ अवदाकारयां विस्या जाड्यस्य यदि घेदनम्। नीलस्यामि तयैवेति व्यर्थमाकारकल्पनम् ।।६७४।। अविज्ञाते तु जायस्य कवे तत्र प्रवर्तनम् । नीलमायाकोवाच्येत्कथं नामिप्रसध्यते ॥६७८३ सम्बन्यो जाइय एवेति यदि तत्रै वर्तनम् । कथं तस्मिन्नविझाते सम्बन्धोऽध्यधगम्यताम् ॥६७९।। साधनज्ञानतोडग्ये साध्ये वर्तनसम्भवात् । अनुमानभवणस्य कैमर्यक्येन पोषणम् ॥१८॥ 'अप्रतितो जावे? "स्नानादेः प्रापर्ण कथम् । नीलमात्रप्रवृत्त्या चेनाध्यमन्यथा भवेत् ॥६८१॥ तथा बौलमेव स्याद्धिना जाधेन चेतन पैतन्येतरनिर्मुस्ता पूर्व "सिपेधनात् १६८२॥
1-सरसंभवात् ५०-रेस्तुरखभनेत् आ०,201 रतयोद्भनेर भा०, ०,१.१ अनस्यतरनिसानीलावाका भा०, थ, ए-। ५ अत्तरनिर्मुसहानात् । सरीत्यानधा-भा०,२० प. आये एस। जाय। ६ प्रवृत्ती दोषावादनात आख्ये अतिरेषास्तु इत्युके प्राह अप्रति. कूसोनी ताब, Wo,३।१० यतः । 11 निवेदनात मा०, ५०,०।
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न्यायविनिश्चविधरणे
[ १२२ दूपर्ण वेतनवेपि पुरस्तादभिधास्यते ।
सदलं त्वरितत्वेन प्रस्तुते दीयतां पतिः ।।६८३॥ ततो न सारूप्यवादे बहिरर्थवेदनम् , इत्यसरूपमेव ज्ञानमभ्यनुज्ञातव्यम् ।
कथं पुनरतपेण तद्वेदनमिति पेन् ? थमसामान्यस्वभावैः स्थण्डादिभिः समानप्रत्यय ५ जननम् ? स्वहेतुनियतात् कुभिप्रत्यासत्तिविशेषादिति चेत् ; अनुकूलमाचरसि, निराकारादपि वेदनात्तत एव विषयाधिगमोपपत्तेः । सकलविषयाधिगमः करमान्न भवतीत्यपि न युक्तम् ; सण्यादीनामेवं सकलसमानप्रत्ययहेतुत्यापत्तेर्व्यवहारसायोपिनिपातात् । प्रतिनियतसमानप्रत्ययहेतुरेव सौ महिशेषो न सर्वसत्प्रत्ययनिबन्धममित्यपि समासमन्यत्र, निराकारेऽपि वेदने प्रतिनि
यतार्थाधिगमनिबन्धनस्यैष वद्विशेषस्य भावात् । सारूप्यमेव तत्र सद्विशेष इति चेत् ; खण्डा१० दिध्वपि सामान्यमेव तद्विशेषः करमान्न भवति तदभाधेऽप्येकप्रयोजनजननस्योपलम्सात ?'उप
नयन्ते शि. बक्षालोकादरम्नदेवसामान्याधिष्मिा अपि रूपज्ञानमेकमुपजनयन्तो बगे. पशमनादिकं वा गुच्चादयः , तथा ठाइयोऽपि तादृशा एव समानप्रत्ययमेकमुपजमयसीसि कि तत्र सामान्यकल्पनयेति चेत् ? म ; प्रायवनीलादेरपि निराकारादेव वेदनादधिगम
प्रसमान पूर्योपादेयत्यया । न हि नीलस्य पूर्वक्षणापादेयत्वमसंवेयमेष नीलस्यापि तत्त्वापत्ते, १५ निरंशवादे भागशस्तवनविरोधात् । न च "सदाकारत्वं "तवेदनस्य; "तस्यापि "तदुपादेय
स्वप्रसङ्गमम् । न घेदमुचितम् ; चेतनस्याचेतमोपादेयरवानभ्युपगमात , अचेतनमेव तदपि प्राप्तम् , सया च कथं "सस्तवनम् ? अन्यतस्सवेदनमिति चेत् । न ; तस्यापि तदाकारल्ले पूर्ववत्प्रसगाव , पुनरम्यतस्तद्वेदनपरिकल्पनायामनवस्थापत्तन किञ्चिदर्थवेदनमिठि सुव्यवस्थितः सारू.
प्यवादः तद्विपयाभावात् । ततो दूरमनुसत्यापि निराकारमेव तदनमभ्युपगन्तव्यं नियतविध. २० यन्च, तद्वनीलधेदनमपीति नार्थः सारूप्येण यतः स एव तत्र "तद्विशेषः स्यात् ।
कस्तहि तविशेष इति चेत् ? अतदर्थपरावृत्तत्वमेव । तदेवाह--
अतदर्थपरावृत्तमतद्रूपं तदर्थदृक् । इति । अतद्रूपम् अनीलादिरूपम् अपिशब्दो द्रष्टव्या, ताशमपि वेदनं तन्नों अदिक
"
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-माथे तु पु-५०१ नये पु-भा०प०१७ इत्यसप-मा०, २०, ५.11खादी । ४ प्रस्थान प्रतिषिीयः । ५ भाषनात् मा., म.प. "धेन्द्रियासोकमनस्कारा मेन्द्रियमनस्कारा रूपविहानने जनयन्ति आरमेन्दियमनोर्थतत्सभिकर्षावा असत्यपि तद्भावनियले सामान्ये । शिशपालो मित्राश्च पापरानन्द मेऽपि प्रत्या एकाकार प्रत्यभिज्ञान अमति सभ्यो का ददनमहादिका कासाध्यामकियां यथास्यनम् । RT भैदाविशेषेऽपि जलादयः । श्रौत्रादिवद् रूपादिविज्ञाने ।.."यथा या गुहयो पत्यादीनां सह प्रती वा उदरादिशममादिलानाम् एककार्य कियावत् । र तत्र सामान्यमपेक्ष्यते । मैदे तत्प्रकृतिस्वात् । न तदविशेषेऽपि दधिधपुसादयः ।" -8. का. स्व. ३१७५, ६. एहसामान्यामविधिता ए। ८ धदेवरवापसः । ९ भागतसाद-बार, ०, प... पूर्वक्षणोपादेयत्वावरत्वम् । " नीलवेदनस्य । १२ मीलदेदमस्य । १३ पूर्वनीलक्षणोपादेयत्व । ५ नौलवेदनात् । ३५मालय भनम् । १६ प्रत्यासतिविशेषः ।
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२२३० प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
२६९ भेमार्थ पश्यतीति तदर्थहन अवधारणगर्भयात्समासस्या कूत रसन्? अतदर्थपरावृतं यत इति । मालादेरादन्यः पीतादिरतदर्थः तस्मात्पयवृत्तं तद्रहणपराङ्मुखत्वात् , तत्कथं वेन तदर्शनम् ? न हि तत्परावृत्तमेव वदर्शनं भवति । मनु अतद्रूपले सस्परावृसत्यमेव कथमिति प्रश्नविषयः, तत्कथं सस्यैयोत्तरत्वम् ? प्रश्नविषयस्यैवोत्तरत्वे न कचित्साधनसाफल्यम् , विवादविषयादेव ससिद्धेरिति चेत ; म; शास्तिगतस्य तत्परावृत्तत्वस्य हेतुत्वात् , अधिगम्यतस्य च साध्यत्वात् । । संदयमर्थ:-शक्तिनियमात् संवेदनस्याधिगमनियम इति । एतदेवोत्तरार्थ विकृण्वन्नाह
अधेदमसरूपं किमतवनिवृत्तितः ॥२९॥
तदर्थवेदनं न स्यावसमानामपोहवत् । इति ।
अधेति प्रश्ने । इदं स्वसंवेदनवेद्यं ज्ञानम् । कीरशम् ? असरूपम् अविश्याकारम् । अनेन तसारूप्यसाधने प्रत्यक्षाधममुक्तम् । तदर्थवेदन तस्य नीलादेरर्थस्त्र वेदन तत्परिच्छेदि १० किन्नस्यात ? स्यादेव । कुस एतत? अतदर्थनिवासितः । व्याख्यासमेतत् । सैष कथमसरूपस्येति चेत् ? खण्वादीनाभिवेति अमः | सवाह-'असमानामपोहवत्' इति । यथा कर्कायोहा स्वलादीनामसरूपाणामेव तथा तववस्थापीत्यर्थः । तन्निवृत्तेनीरूपत्वावार्थ ततो व्योमकुसुमादित्र नियतमर्थयेदनमिति चेत् ? न ; सर्वधा सन्नीरूपत्वस्यासिद्धत्यान् , फडिनद्रावतादात्म्येनैय तत्प्रतिपत्तेः।
- “नात्यन्तमन्यत्वानन्यता च विधेनिषेधस्य च शून्यदोपात "हत्व० श्लो० ४२] इति वचनारुच । परस्म तु भवत्येवाचं पर्यनुयोगः किं ते तदपोहस्य कलमिति ? समानप्रत्यय इति म ; न; नीरूपाचदयोगात् । प्रसिद्धश्च तस्य तन्नीरूपत्वं "रूपं तस्य न किचन" [प्रश्वा० २.३०] इति वचनात् । 'बासनाप्रबोधादेष सत्प्रत्ययः, तत्र केवलं तदपोहस्य सहकारिभाव एव'त्यपि वासनामावविलसितमेव कारपस्यैव सहकारिस्वोपपसमय नीरूपस्य कार- २५ जत्वम् ; वस्तुत्वानुपमान , तेस्य सहभगवान, अन्यथा स्वलक्षमस्यापि तद्भात्रोपनिपातान्न किञ्चिद्भवेत् ।
यत्पुनरेतत्-"समानप्रत्ययः समानतामन्तरेण सर्वस्य विलक्षणत्वात्कथमुदयी ?" [प्र०वार्तिकाल.० ४.१२] इति पूर्वपयित्वा प्रतिपादितम्-"तदन्यव्यावृत्तिमात्रादेव नियामकारकचिदेव तदुदयः" [ ] इति ; तत्प्रतिविहितम् ; तन्मात्रस्य मरूपत्वेन २५ व्योमकुसुमवत्तत्प्रत्ययनियामकल्यायोगात् ।।
यक्ष्यन्ययुक्तम्---
"आरोपितो य आकारो वासनाचीजोधतः । तापनमात्रेण पर्याप्तं जातिरन्या था न किम्॥" [प्र० मालिकाल. ४११२] इति;
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१ लन्दयमर्थशक्ति । २ प्रत्यक्षा-मा०, 2, 4, ३ भण्डादिषु । कशिपोहस्य । ५ बरामः । ६ कारणसभणत्यास् ! . "अश्वा तदम्बन्पासिमानमेवास्तु सामान्ममिति क्षतिः ।"-प्र. यासिकाला ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
{१।३० पिन किलित 'दामीमपदे तोपि एन्यापोहवसमानप्रत्याशेगात्। वस्तुरूपत्वे तु स यब यस्तुभूतः समानाकार इत्यसागसमेतन्... "जातिरन्या वृथा न किम्" इति । ततो न फुतश्चिदपि नीरूपत्वात् समानप्रत्ययः।
भवरवेवम् ; तस्यैवाभावात । विशेषान्तरव्यापिरूपत्वे हि समानत्वम् । न च प्रत्ययस्थ ५ रूपं सैदन्तरल्यापि, तन्मात्रपर्यवसाथिन एव तस्य प्रतिभासनात् । ततः स्खलक्षणमेव तन् , न सामान्यम् । तथा च परस्य वचनम्-"स च बुद्ध्याकारैः स्खलक्षणमेव न तत्सामान्य घुद्धान्तरस्य तदानीमभावात् अर्थगतत्वाभावाच" [प्रचालिफाल०४११२] इति । ततो न समानप्रत्यवाभावो दोषायेति चेत् ; न ;
"प्रत्ययो यदि नामायं क्वचिदेव प्रवर्तते । नियमो हेतुमात्रे स्थात् सामान्ये तु गतिः कथम् ?।" [प्र०वार्तिकाल०४.१२]
इत्यस्य विरोधात् । अनेने सामान्यप्रत्ययमभ्युपगम्य तन्नियामकत्वेन सामान्याइन्यस्य अन्यापोहस्य प्रतिपादनात् । असत एव तस्याभ्युपगम इति चेत् ; न; प्रयोजनाभावात् । व्यवहारः प्रयोजनमिति चेत्, न; तस्याप्यसतस्तसोऽसम्भवात् अप्रतिवेदनाच ! कृतो हि व्यवहारस्य
प्रतिवेदनम् ? दर्शनादिति चेत् । न ततः स्वलक्षणस्यैव प्रतिवेदना | न प तस्यैव व्यवहार३५ त्वम् ; निरंशक्षणक्षीमत्वात् ,न्यवहारस्य च पूर्वापरभावाधिष्ठानप्रवृत्त्यादिरूपतया तद्विपरीतत्वात् ,
तत्र च दर्शनस्यायवृत्तः। विकस्पादिति चेत् ; म; समानप्रत्ययापलापे तस्यैवासम्भवात् तस्य संदूपत्तात् । अङ्गीकारादस्त्येव तत्प्रत्यय इति चेत् ; न; तदर्थापरिज्ञानात् । दर्शनमीकार इति चेत् । न तत्र समानाकारस्याप्रतिभासनात् । प्रतिभासनेऽपि स्खलक्षणवदसत्त्वानुपपसः । विकल्प इति चेत् । न समान प्रत्याभावे तदभावस्योकरवात् । अङ्गीकारादरत्येव तत्प्रयय इति १० देत् ; न; 'तदर्धापरिज्ञानात्' इत्याउनुबन्धादनवस्थापत्तेः । न दर्शनगीकारो नापि विकल्पः
किन्तु सदभिनिवेशमानमिति चेत् ; न; तस्यापि सिदूपत्ये दर्शनविकल्पान्यतरकोटिव्यतिक्रमानुपपत्ते । अपित्वे तु न ततस्तत्प्रत्ययप्रतिपत्तिः, ज्ञानकल्पनावैकल्यबोधान्त इति न विकल्पाअपहारप्रतिवेदनम् । नापि व्यवहारान्तरातू ; अनवस्थानात् । ततो न कुखश्चिापि तत्परिक्षामम् । अत: प्रतिषिद्धमेतत्'व्यवहारमात्रमविचारिततस्त्रयापि जात्या सम्पायसे?" [प्र०वर्तिकाल. ४।१२]इति;
अपरिशातस्य "तया सम्पादन मिति दुरवबोधयात् । अपि च, किमिदमविचारिततत्वया" इति । विचारभीरुखभावया" इति चेत् ; ननु--
भारोपिताकरस्य । २ समानप्रत्ययस्यैशभाषाद। विशेषान्तरध्यापि । १ समात्र १५-कारखमा०, ३०प०।। श्लोकेन । यत्यापोहस्व भा०,०, ५०1८ -सिर्वि-मा०,०, प.: ९ सदूपलाशी--, ०, प.] 1. व्यपहारस्य । जात्या । १९ - तप.अति आ, ०,१०।१३ -भीर स्वस्पद इति ०,०,५०।
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प्रथमः प्रत्यक्षपस्ताय:
विचारो हि विकल्पात्मा मदभाने कथं भवे ? । यतस्तद्धौरता जास्तित्वत्येयं प्रकल्पते ।।६८१॥ अङ्गीकागत्तदस्तित्वं पूर्वमेव निवारितम् । स एव मास्ति तस्माच तद्रीतिरिति दुर्घटम् ॥६८५॥ नियादिरूप तत्रानं सामान्य निरुपद्रयम् । क्षणभनिजगढादवैसध्यावेदनक्षमम् ।।६८६॥ नस्माद्विचारसदाने विकल्पो निरुपद्रवः । सन सामान्यनि सम्मनिपेनिस्ततः कथम् ? ॥६८७।।
स्तुसत्रेच सामप्रत्ययः । न च तस्थ नीरूपादन्यापोहादुत्पत्तिरिति दुरतिक्रमोऽयं दोशपात: भौगलम्य । झाप्रकारेण तु तदभ्यामात्रेण इहमभिहितम् - 'असमानामपोहवत्' १० इति । ततः शितम-प्रश्वा सम्मानपरिणामविकलानामेयाम्यापोहततर नियत एव समानप्रत्यया तशा सामाबिकलम्थैव संवेदनस्यातदर्थनिवृतिः, अतर नियतमेथार्थवेदनमिति ।
नन यावतदर्थ व्याहत्या नियतार्थत्वं ज्ञानस्य ताबदतदाकारल्यावृत्यैव करमान भवति ? अतदाकारल्यावृत्तिनाम सदाकारत्वमेव, तञ्च न कचिदयुपलभ्यते, तत्कथं तेन नियतात्विं ग्वटपौ)वति चेत् ; म; अन्यत्रापि तुल्यत्वात् । अतव्यावर्तनमपि तदाभिमु. १५ ख्यमेव तेनापि कथं जिथतार्थत्यं वस्यैवादर्शनान, । अप्राप्नदर्शनमपि अर्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या परिकल्प्यत इति चेत; मा प्रतिकर्मनियमान्यथानुपपल्या तदाकारल्यस्यापि परिकल्पनात् । 'कुत्तस्तस्यापि नियमः शिवभविषालान प्रतिकर्मनियमायोगात ?' इत्यपि न युक्तः प्रश्नः; तमाभिमुरूयेऽप्येवं नापतेः । शाक्तितस्तु (शक्तिस्तु) न स्त्र पक्षपावगुद्वति । ततो स्याकारवत्तो नार्थवेदनं तदम्यतोऽपि भवेन् । तुस्पदोपतत्परिहारत्वान् इति उरसाद एवं महिरथस्य । स २० भाभिप्रेत एवाहतवादिनः हि संधेदनस्यान्वत वेद्यम उत्साटोपात । स एव म तेत अन्यस्य पेद्यमिति स्वप्रकाशमेव सदयशिष्येत । सयुक्तम्
"नान्योऽनुभाब्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः |
तत्रापि तुल्यचोद्यत्वात्स्वयं सैव प्रकाशते ॥" [प्र०या० २।३२५] इति चेन : अत्राह--
अत्राक्षेपसमाधीनामभेवे नूनमाकुलम् ॥३०॥
खचितमात्रगतोपतारसोपानपोषणम् । इचि ।
अश्र अनयोः निराकारतरशानयो। आक्षेपसमाधीनांबोधारिद्वारामा प्रकारेण अभेदे विशेषमा सति । नु इति वितः । बरखचित्तमात्रं संविदद्वैतं स एव गर्तवा दुःखापा
.-
-..-....-
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१ प्रकाप्यते १८ १ २ विनर एव । ३ शेषनिषतः आ००,4-10-नुमानमात्रेण मा०, २०, ५ संवेदनम् ।
पं.
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व्यायविनिश्रयविचरणे
[ ११३२
दहेतुत्वात् गर्छः ठम्यावतारसोपान मवतरणमार्गः " नान्योऽनुमान्यः" इत्यादिस्तस्य पोषणं समर्थनं तदाकुलं न भवति । कुतः ?- ऊनं यतः । अनमवगमनम् favor (वर) [२०]
अवतेरवगमनार्थत्वाम् (कटा)
देशे सत्यरूपात उवा अवगत्या अनं हीनम् अवगमरहितं यस्मादित्यर्थः ।
तथा हिमाद्यादिनिषेधः कुतोऽन्तव्यः "यतो नान्यः" इत्यादि शोभेत ? मायापरिज्ञानादिति चेत्; न; अपरिज्ञानान कस्यचिद्ातिपत्तेः, अतिप्रसज्ञान | तयपरिज्ञानमेव तन्निषेधापेक्षा परिज्ञानम् । न चेदं व्याहतम् विषयभेदात, परिज्ञानस्यैवापरिज्ञानस्यवत् अपरिज्ञानस्यापि परिज्ञानत्वोपपतेः । प्रसिद्धं हि रूपपरिज्ञानस्यापि रसादात्रपरिज्ञानत्वमिति येत्; उच्यते यदि क्रज्ञानानिपेधस्यान्यस्त्रम्- "नान्योऽनुभाव्यो बुद्ध्या" इति व्याह १० न्येव वैन्निषेधस्य तत्परिज्ञानादन्यस्यैव तेनानुभवात । अनन्य एव तवस्तत्रियाह्यादिपदासस्य तत्परिज्ञानरूपत्यादिति चेन्; अप्रतिपन्ने प्रशादौ कथं तस्यै पर्युदासरूपत्वमपि शक
गन्तुम् ? अपि कलशाद भूतलादेस्तत्पर्युदासरूपतया प्रतिपत्तेरप्रतिवेदनान् । एकान्तापरिज्ञाने जात्यन्तरस्य कथं तत्पर्युदासत्वमवगम्यत इति पेन ? क एवगाह नैकान्तपरिज्ञानमिति ? सम्यकान्तस्य नैगमादि नयविभागेन मिथ्यैकान्तस्य च परपरिकल्पनया प्रति१५ वेदना | ग्रादेरपि कल्पनचैव वेदनमिति चेत न तत्पर्युदासरूपादेव शासकल्पनानुपपत्तेः, ततस्तत्पर्युदासस्यैव प्रतिवेदनात् । अन्यतस्तत्कल्पनायामद्वैतव्यापतिः ।
:
:
av, अन्यस्यापि "aoकल्पकत्वं तन्निर्नालित्यमेव । चच्चानुपपन्नम् "अविभागोऽवि बुद्ध्यात्मा" [ प्र० वा० २३५४ ] इत्यस्य व्यापातात् । सत्यम् न तस्यापि वस्तुततन्निर्भासित्रम्, अन्यत एव तत्र तत्कल्पनादिति चेत् न तस्यातन्निर्मासत्ये ततस्तत्र २० सत्कल्पनानुपपत्तेः । न रूपनिर्भासमेव ज्ञानमन्यत्र तन्निर्भासित्वं कल्पयिम | भवतु तस्य तन्निर्भासित्वमिति चेत्; न; अविभागवुद्धिप्रतिवातस्वोक्त्यात् । तत्रापि तदन्यतस्तत्कपनायाम् अनयस्थापत्तेः । तन्म कुतश्रिदपि ग्रह्मादिप्रतिवेदनम् । तत्कथमेतत्-
५
사
“ग्राह्मग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ।" [ प्र० वा० २।३५४ ] इति ।
"लक्षणस्य स्वतः परतश्चासम्भवात् । "विचारावरुद्धं विशीर्यत एव तल्लक्षणम्, २५ तु "रोधं तदभ्युपगम्यत इति चेत्; न; विचारस्यैक परामर्शानस्य ऋतुवृतेनाभावात् । अवस्तुभूतात्तु तत्त्वतो न ततः क्वचिदभावप्रतिवेदनम् ।
१.0
" स्वसंवेदनादेव तत्प्रतिवेदनं सर्वज्ञानानां ग्राह्यादिभेद निर्मासक्तिया स्वतः प्रतिषे
* "ज्यरस्वरविव्थमियामुपधायाश्व" पा०सू० र असहितस्य वकारस्य '' इत्यम्य । खा दिनिषेधपरिज्ञानात् । ४ प्राह्मादिनिषेपस्य । ५ प्रशादिनिषेव परिज्ञान। ६ याह्यादिनिषेध ७ श्राश्रादिपर्युदास ८ ९ एका १० हानेका००० ११स्कल- ०१ - दिल्पकलम् | ११ अन्यज्ञानस्य । १४ प्राणादिवेदवानित्र प्रतिभासस्य । ३५ विवाद-आ०, १०, १० १६ विचारविश्वम् १० सं० ० ०
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प्रथमः प्रयासप्रस्तार
दनदेखि यो नः निर्भासाटो तकल्यस्य तोऽपि दुरवसमत्वात् । सत्यपि कचित्तद्वे. दने कुतः क्वचित कल्यवेदनम् ! न सातलिभासादेव; तेन "लद्वैकल्पाधिकरणस्य शानस्याप्रतिवेदनात् । सदप्रतिवेदने तदाधेयस्य सद्वैकल्यमय दुरवबोधत्वात् । न च तदधिकरणस्य तेन प्रतिपत्तिः, "तस्य नानुभयोऽपरः" [प्र० वा० २१३२७ ] इत्यस्य व्याघातान् । नापि उदधिकरणे व ज्ञानेन सद्वैकल्यवेदन ; नापि तन्ति सस्थानक्वोधात् । न च निषेध्यान- ५ वामे तन्तियेधपरिज्ञानम् । र योभयविषयमेकं संवेदनमस्ति अतस्तद्वैकल्यस्थ चिदयगमः; तत्रापि तस्याः " इत्यादेरुपद्रवात् ।
कथमेत्रमशान्तप्रतिधस्य जात्वन्तरे परिज्ञानम् ? जात्यन्तरविषय हि प्रमाणम् । न च तेन प्रसिधेयस्यैकान्तस्य प्रतिपतिः, येन च तस्य प्रतिपत्तिनयेन न तेन तनिषेधाधिकरणस्य जात्यन्तरस्य प्रतिवेदनम् । न चोभयविपयमन्यत् ; तस्यापि प्रमाणत्वे एकान्तविषयत्वस्य नयत्वे जात्यन्तर- १० विषयत्वस्य चायोगात् । प्रगणनयभावयिकलेन तु [] सपरिक्षानम् ; प्रमाणाविपरित कल्पनापल्यापत्त। न कुसभिनिध्यतनिषेधाधिकरणपरिज्ञानमन्तरेण तन्निषेधप्रतिपत्तिरुपपत्तिमतीति चेन्न ; आत्मनस्तदुभयविषयस्य भावात् । आत्मा हि नयपर्यायात्प्रमाणपर्यायमुपधावन सर्वथा तरछक्ति परियजति मतस्तविषयपरिज्ञानाभावात्तद्रिविशतया जात्यन्त. रस्य परिधान न भवेशा तत्परित्यागेहि "निरम्परावादामात्मैच न स्यात् । न चैवम, तस्य १५ व्यवस्थापनान । प्रमाणपर्याय एवं नयशक्तिभावे कर्य प्रमाणत्वमेव तस्वननयत्वमपीति चेन् : न: एकान्तत: "प्रमाणत्यानन्धुपगमास् । अत एव 'श्याप्रमाणम् , स्यादप्रमाण इत्यादि सप्तमीपवर्तन। न चैवं परस्थापि प्राशादित्वनिषेधाधिष्ठानविषयं फिरिचरसम्भवति यतस्तद्वियकपरिक्षानं विवेत् । सहिदमप्रतिपनविषयमेष परस्य वचनम् - "अविभागोड पि बुझात्मा" [२०वा ०२१३२७ } इति । ततः सूकम्...माह्मादिनिराकरणस्याद्वैतगतोच-२० तारसोपानस्य परिपोषणमाकुलम् अवामरहितत्वात् इति । एतौ अन्तरश्लोकौ ।
स्यान्मतम्-'सारूप्येपि' इत्यादिना सारूप्य-सामान्ययोः साधारण "दोषसमन्थया प्रविपादितः, ततश्च कथं सारूप्यवसामान्यस्यापि वस्तुत्वम् ? मा भूदिति चेत् । न तस्य 'सामान्यविशेषार्थात्मवेदनम्' "इत्यनेन प्रत्यक्षविषयत्वनिवेदनात , अवस्तुमः प्रत्यक्षवि. एयत्वानुपपरोरिति ; तबाह
सामान्यमन्यथा सिद्धम् [न हि ज्ञानार्थपोस्तथा ॥३२॥
अष्टेरर्थस्पस्य प्रमाणान्तरतो गतेः। इति । - -- -.. ..... -- - - ---- --- - -
ग्राह्यादिप्रतिमासानेयने । २ स्वसंवेदनादपि । ३ प्रासाविवेशने । ४ लद्वैकल्मादिकार-41., .. ५०। ५ ज्ञामस्य । ६ -1 न्या- I .एकान्तस्य । न तक्रि-भा०, 40, 400 .हि नेय ए--,
हि मे य-. ..-पनवप-आ०,०,५०१ अषिकत्वप्रसार १२ प्रमावासभा,.. १३ प्रहादियिकपरिज्ञानम् । १४षमन्ययः ,20,011५न्यायवि. सोहै।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[ १२१३२
"
;
;
वेन हि प्रकारेण सामान्यं दुष्यति 'व्यक्तिभ्यो व्यतिरेकेण व्यतिरेके हि 'वासां तन इति व्यपदेशो न स्यात् असम्बन्धात् । न चानुपकारे सम्बन्धोऽपि अतिप्रसङ्गात् । व्यक्तिभिस्तदभित्र्यक्तिरुपकार इति चेत् अभिव्यक्तिरपि नियताभिरेव कुतः ? कुतश्चित्प्रत्या सप्तरिति चेत् तथा सा समानप्रलय कुर्वन्तु के साम्येन सस्मिन् पत्करूप५ नस्यावश्यम्भावात् । एवं हि पारम्पर्य परिश्रमः परिवृतो भवति, अन्यथा नियमेन तस्योपनिषा तात् प्रत्यासत्तेरभिव्यक्ति सामान्यस्य ततश्च समानप्रत्यय इति । नित्यत्वेन च नित्यत्वे हि cr freelyani daतर्नियत्यात् । न तस्याः कुतश्विो नित्यत्वहानेः । तच्छfree g न कदाचिदपि दर्शनं व्योमारविभ्यवत् । न च तस्य कुतश्रिच्छधानम् अनित्यस्वोपनिपातात् । एतेन व्यापित्वमपि चिन्तितम् । व्यापित्वे हि तस्य सर्वत्र प्रतिपत्तिः अतरौ तु न क्वचिदपि स्वान् । शक्तिप्रतियन्त्रवदाधानयोः पूर्ववदयमान इति । न तैया स्वाद्वादिनां सामान्यं सिद्धं किन्तु अन्यथा अन्येन कथयिष्यतिरेकादिप्रकारेण । संरंशपर्यायरूपं हि सामान्यं में व्यक्तिभ्यो व्यतिरिक्तमेव तदव्यतिरेकस्यापि दर्शनान । न च तस्यै free मे द्रव्यतो नित्येऽपि पर्यायतो विपर्ययात् । नापि व्यापित्वमेव एकल्योपचारतो व्यापित्येऽपि वस्तुतः प्रतिव्यक्ति पर्यवसानान् । प्रसिद्ध सामान्यमीशं सौगतस्यापि प्रत्यक्षविपयतया तस्याभ्यनुज्ञानान- "दृष्टेश्व घमलादिषु" [ ० ० २३८४ ] इति वचनात् ।
J
।
१५
२०
२५४
तु एवमज्ञानयोरपि न दुष्यत्येव सायं दूषणनिबन्धनस्य नियत्वादेतत्राप्य भावादिति चेत ; अत्राह - 'न' हि ज्ञानार्थयोस्तथा' इति । तापमत्र मा भूत्सारूपये नित्यत्वादेः सामान्यधर्मस्याभावात् तत्प्रयुक्त उपवो निरंशत्वस्य तु स्वलक्षण्यश्यम्भावान " तत्प्रयुक्तस्य तु तस्य नास्त्येव परिहारः तत एव प्रायशः सामान्यदूषणमित्युकम् । तत्र सर्वात्मना अर्थतज्ञानस्यापि जडत्वादर्धस्यैव जीवनं न ग्रामस्येति कस्य सामप्यम् ? ज्ञानवद स्यापि या ताज्ञानस्यैवावस्थानं नार्थस्येति केम साम्यमिति ? तसो तथा जैनकल्पितेन प्रकारेण ज्ञानार्थयोः सामान्यं सामप्यं सिद्धम |
२५
अपि च, सारूप्यं नाम द्विष्ठो धर्म:, तदधिकरणप्रतिपत्तयेव शक्यते प्रतिपत्तु नान्य: वरप्रदिपत्तिमात्रादिति ज्ञानवदर्थोऽपि प्रतिपतयः । भवत्येवमिति चेत् कुतस्तत्प्रतिपचिः ? त एव प्रत्यक्षात् यस्य सारूप्यं परिजिज्ञास्यत इति चेत् ततोऽपि ययसारूप्योपायमेत्र सह व्यर्थमेव सारूप्यकपनम्। सारूप्योपायमेवेति चेत्; न; परस्पराश्रयप्रसङ्गात्- 'प्रपित्तावर्धस्य तत्सारूप्यपरिज्ञानम्, परिज्ञाते व वरिंमस्तदुपायादिवेदनम्' इति । तत्र ततोऽर्थदर्शनम् । तदेवाह - 'अटेरर्थरूपस्य' इति । साधनमिदम् 'न हि' इत्यादि साध्यम् ।
२व्यः । ३ तच्छतिनि-०, ६०, प० ।
१ बेन तयोः सभा २०१० ४ - ज्यादानआ०, ब०, प० अ० ज० २०१६ साहसपर्यावा०, ५०, १०७ न यत्ति ४०, २०, ए० । ८] सस्य- आ०, ब०, प० । ९ त्राभावा-आ०, ब०, प० ० न दिशा ० ० ० नित्वप्रयुक्तस्य । १२ नार्थज्ञानस्येति तस्य आ०, ब०, प० । १३ तद्विष्ठ आ० प्र०, प० ।
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प्रथम प्रत्यक्षप्रस्तावः
भक्त्वन्यत एव तत्प्रतिपत्तिरिति चेत् । सदाप यांचे प्रत्यक्षमस पर दोष:--सारूम्यानपेभे ततस्तस्परिनाने सारूप्यकल्पनावैकल्यस्य, तपेक्षे सतस्तत्प्रतिवेदने परस्पराश्यस्य चाविशेषात् । पुनरपि प्रत्यक्षान्तरात्तत्प्रतियत्तिकल्पनायामनवेस्थानान् । ततो नान्यसोऽपि प्रत्यक्षादर्थवेदन सम्भवति । तदेवाह-"प्रमाणान्तरतोऽगते' इति । प्रत्यक्षाटन्यत्प्रत्यक्ष प्रमाण तदन्तरं तस्माद् आपतेरप्रतिपः 'अर्थरूपस्य' इति ।।
___अनुमान्यत्तत्प्रतिपसिरिति चेत् ; न लिङ्गाभावात् | मीलाधाकार एव लिङ्ग तस्यार्थकृतत्वादिति चेत् । अत्र विश्वरूपस्य प्रत्ययस्थानम्--"क्क तन्निवन्धन ज्ञानस्याकारवत्वं दृष्टं येनैवमुच्यते ! आकारद्वयदर्शनाभायात् । न हि ज्ञानाकारादन्योऽर्थाकार उपलभ्यते यतस्तस्कृतत्वं ज्ञानाकारस्योपलभ्यते ! उपलम्भे वा तस्यापि प्रतिभासमानखात्-झानाकारतैवेति तनिबन्धनमन्य एकाकार उपलब्धव्यः । तत्राप्येवंकल्पनायामनवस्थैः । १० ततोऽर्थस्य मात्रेण सचाभ्युगमो न प्रमाणनिवन्धनः" [ ] इति; सनयुक्तम् ; अन्वयनलात् तदनुमानानभ्युपगमात् । न हि बौद्धस्म संधेदनाकाराद्विस्थाकासनुमानम् अन्वयत्रलात् येनैवप्रसङ्गः स्यात् , अपि तु व्यतिरेकसामादेव । तथा म सस्य वचनम्-"चक्षुरालोकमनस्कारेषु सत्स्वपि न भवति स्तम्भशून्याभिमते स्तम्भाकारमताधिज्ञानम् , अन्यत्रझटिति एव भवति ततो ज्ञायते-अन्येन केनचिदत्र यस्तुना भक्तिव्यम् , यदभावादन्य- १५ त्राभाषः स तथाभूतोऽयः प्रमेयो बाहाः" [प्र.यातिकाल ३६३९०] इति । व्यतिरेकवलादपि गमनमनुमानमित्ति प्रसिद्धमेध । नैयाधिकस्यापि अन्त:करणादेरतत ऐन प्ररिपतेः ।
'भवतु सहि व्यतिरेकवलादेव ज्ञानाकारस्य लिङ्गममिति चेन् ; न; असिद्धत्यात । असिद्धो हि सदाकारो निराकारस्यैव ज्ञानस्यानुभवात , तत्कथं तस्य व्यतिरेकः ? सिद्धस्यैव क्वचित्तदुपपत्तेः। सिद्धेऽपि तदाकारे ततोऽर्थस्य नाम्वादशस्यानुमानम् । सारूप्याभावप्रसङ्गाल । 'अन्या- २० दृशश्वार्थः, सरसरूपच संवेदनम्' इति न्याधातात् । अथ या संवेदनं नीलरूपं ताशस्यत्र ततोऽनुमानम् ; कुत एतस् ? वारशादेव ताशस्य सम्भवादिति चेत् । न; अन्यादृशादपि सारशस्य सम्भवदर्शनात् यया निर्विकल्पाविकल्पस्य । संत्रापि विकल्पवासनासहायादेव विकल्पस्वमिति चेत्, आकारवत्वमप्याफारवासनासाहाय्यादेव किन स्यात् यतस्ततोऽर्थस्य वारशस्यानुमानम् ? बासनाप्रभवत्ये विकल्प एवं दर्शनं भवेदिति चेम् : किमिदं विकरूपत्वं नाम ?, २५ साधारणाकारत्वमिति चेत् ; अवासनामभवले तत् किं नास्ति ? तथा चेन् ; मनोऽपि कथमसदाकारं नवाकारहानं जमयेन् ? सदाकारमेव मन इति येन् ; सत्यदनं वहि सविकल्पक प्राप्तम् , नानावयवसाधारणस्य स्थूलरूपस्य देन प्रतिवेदनात् । भवरिवति चेस् ;न; तद्वदेव बहिरर्थवेदनस्यापि सविकल्पकत्वोपपतेः । अन्वरिष बहिरपि स्थूलरूपस्य परमार्थसत्त्वाऽविरोधान् । तदुक्तम्
स्वा स्वात् मा०,२०,०। मतिरेकमलादेव । सम्भयनि दशेरात क्षा०.,प.. ४ विकत्येऽपि ५विकल्पमेव हमाविकतपकर शा०। ५-तरिक मा०, २०, ५०।८तादेव बहिस्थवदेन बहि-र०, घ.!
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न्यायविनिश्चयविवरणे
[ ११३२ चित्रार्थनानयश्चित्रं वस्तुरूपं न कि बहिः ।" ! ] इति । विचारासहत्वान्न पहिः स्थूलरूपं परमार्थः इति चेत् ; न; अन्तरपि तदसहस्वस्य वस्यमाणत्वात् । मा भूदुभयत्रापि तदिति चेत् ; असतः कथं तस्यावभासनम् ! मरीचिकातोय
यदिति चेत् ; न; स्वतोऽवभासने तयसत्त्वविरोधात् , स्वसंवेदनस्य मिध्यावानभ्युपरमात् । ५ अन्यतोऽपि ३ निराकासन् तदक्भासनम् ; साफारशदवैफल्यापत्तेः । आकारवरचे तु तदायसदेव भवेत् असदाकारत्वान् । तस्याध्यान्यतस्तथाविधादवमासमिति चेत् ; न; अनवस्यानात् । मा भूवयमासनमपि तस्येति चेत् ; न; महत्वात । दृष्टं हि तस्यावभासनम् , तदपहले नीलादौ निरंझे का समाश्वासो यत्र दर्शनगन्धोऽपि नास्ति ? भवतु सर्वाभावः तस्यापि फैश्विरप्रतीक्षणाविति चेत् ; ननु इसमबद्भुतमवभाति यत् सर्व नास्ति, तत्प्रतीक्षणं च विद्यते इति । तदप्युक्तम्
____ "चित्रमेकमनिच्छद्भिश्चित्रं शून्यं प्रतीक्ष्यते" [ ] इति । तन्न स्थूलाकारस्य प्रतिक्षेपो न्याय्यः ।
माध्यसत्त एव तस्य प्रतिभासनम् । म व मरीचिकादोयमत्र निदर्शनम् ; तस्याप्यसयः साकारवारे प्रतिभासायोगात् , पूर्वोक्तन्यायात् । ततः स्थूलाकारमेष दर्शनम् , तस्य च साधार
णाकारतया विकल्पत्वमशासनाप्रभवत्वेऽपि समानम् । न समानम् अननुसन्धायित्वाम् , अनु. १५ सन्यायित्वं हि बिकल्पकतम् , तदभावारसाधारणाकारमपि दर्शन निर्विकल्पकमेवेसि चेसन
पासनाप्रभवत्वेऽपि समानत्वात् । वस्प्रभवस्थापि स्थूलप्रतिभासस्याननुसन्धायित्वाविशेषान् । सथापि तस्य न पासना कारणमिति चेत् ; विकल्पस्यापि न स्यात् । सतो निर्विकल्पाविकल्पस्येव निराकारादेवार्थाई आकारवतोऽपि ज्ञानस्योत्पत्तिसम्भयात् न वदाकारादर्थस्य ताशस्थानुमानमुपपन्नम् । एतदेवाह--प्रमाणान्तरतोऽगले प्रत्यक्षादन्यत्प्रमाणं तदन्तरम् अनुमान तरमाद् अगतेस्पतिपत्तेः 'अर्थरूपस्य' इति । तथा च निषिद्धमेतम्-"नहाभ्यामर्थ परि. छिध प्रवर्त्तमान" [ इति, प्रत्यक्षानुमानयोरन्यतरस्याप्यर्थस्याप्रतिवेदनार । सहः स्थितम्--
सामान्यमन्यथासिद्ध न हि ज्ञानार्थयोस्तथा ॥
अष्टेरर्थरूपस्य प्रमाणान्तरतोगतः । इति ।
रमात्मतम्-निराकारस्वे ज्ञानस्य कस्तस्य विषयः स्यात् ? समकालो नीलादिरिति चेत् ; न; वन प्रतिबन्धाभावात् । प्रतिबन्धस्यापि सद्विषयत्ये सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्राः । हेतुत्वेन प्रतिवश एव सोऽपीति बेत् । न तर्हि तत्समफालत्वम् । न हि हेतोः फलेन समकालत्यम् । तत्त्वे हि प्रागसस्थम् , असतश्चासामध्ये प्राक् । पश्चात्कार्यकाले सामर्थ्यमिति
परमार्थमिति बा०, ०,१०।३-भासमाने अर०,१०,५०।तत्वाय वि-श्रा, ब०,५० नियाँ-बा०, ८०, ५.१ ५ सत्प्रतिभासस्यापि । पानाप्रभवस्थापि। -रादेवासाधारणाकारक्तोऽपि ०५.1 प्रतिबन्धरहिसस्यापि । ८ तुलना-प्रथासिका २१९४७ ।
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१३४]
प्रथम प्रत्यक्षमाया येत् ; कार्यकाले कार्यस्य विद्यमानस्याद् व्यर्थ सामर्थ्यम् । एवं हि कार्यस्य कालो यदि तदर कार्यस्य सत्त्वम् । तस्मात् प्रारोध सत्त्वं सर्वहेलूनाम् । अतोऽर्थोऽपि हेतुर्न फलभूतस्वपाइकविज्ञानसमानकालभावी । तदुस्तम्
"असतः प्रामसापात्पश्चाश्चानुपयोगतः ।
प्राग्भावः सर्वहेतूनां नातोऽर्थः स्पषिया सह ।।" [x०वा०२।२४६] इति । ५
भयतु सहि समाविन एवं विश्व तव पुत्भन शाने अन्धादिति चेत् ; न; ज्ञानकाले तस्याभावात् । न हासप्तस्वकाले तद्विषयत्वम्, एवं हि निर्विषयत्वमेव ज्ञानस्य स्यात् । साकारवादिना तु भायं दोपः, स्वाकारखानहेतुतथैव तस्य सहिपन्यत्वोपपत्तेः । तदप्युक्तम्
"भिन्न कालं कथं ग्राहमिति चेद्वायता विदुः। हेतुत्वमेव युक्तिशा ज्ञानाकारापणक्षमम् ॥” प्रध्या०२॥२४७] इति । १० सत्रा
अतीतस्पानभिव्यक्ती कथमात्मसमर्पणम् ॥३३५१
असतोऽज्ञानहेतुत्वे व्यक्तिरव्यभिचारिथी । इत्ति
यदि ज्ञानकाले अतीतस्य दखेतोरभावात अनभिव्यक्तिः अप्रतिपत्तिः ताई तस्यामभ्युपगम्यमानायां धमात्मसमर्पणं संबेदने स्वाफारोपनिधानम् ? 'अतीतस्य' इति १५ सम्बन्धः । कदैतदिति चेत् ? असतो ज्ञानकाले अविद्यमानस्यावीतस्य अज्ञान हेतुश्चे ज्ञानहेतुल्याभाघे तद्धेतोरेव हि तन्त्रात्मसमर्पों परस्याभिप्रेतम् "हेतुत्वमेव युक्तिज्ञाः" इत्यादिवचनात् । असमा ज्ञानकाले यदि तद्धतुत्वं सद्वेवस्वमपि स्यात्, निर्दिषयत्वमेवं संवेदनस्य स्यात् । 'ससस्य वेद्यम्' इति 'सन्न अयम्' इत्यादिति चेत्; तिहेतुकलमप्येवं स्यात् 'असत्तस्य हेतुः' इत्यत्रापि 'सन्न हेतुः' इत्यर्थात् । स्वकाले सस एव हेतुत्वान्न निर्हेतुकरव. २० मिति घेत्; निविषयत्वमपि न भवन, स्वकाले सत एव तस्य तद्वेद्यत्वात् । अन्यकोलस्यापि चेपत्ये तदविशेषात चिरातीतमपि वेयं भवेदिति न तत्र प्रमाणान्तरकल्पन फलयल, प्रत्यक्षत एव सिरोरिति चेत् ; न; हेतुत्वेऽप्येवं प्रसङ्गात् । अन्यकालत्वाविशेषेण चिरातीतस्यापि हेतुत्वे स्वात्मसमर्पणे व प्रत्यक्षसिद्धः प्रमाणान्तरवैफलस्य चाविशेषात् ! शक्षस्यथ हेतुत्रम् , म च चिरातोतस्य शकत्वम् अनन्तरस्यैव संवेदनोपजनने सामर्थ्यान् , ततो नायं प्रसङ्ग इति चेत्, न; २५
सङ्गान्तरस्याप्येवमनुपपत्तः । शक्यस्यैव हि बंधत्यम्, न चिरातीतस्य शक्यत्वम , अत्यकालातीतस्यैव तद्विरा ( तनित्ति) प्रति शस्यत्वात । तदेवाह-व्यक्तिरव्यभिचारिणी। यक्तिः अतीतस्य प्रतिपत्ति व्यभिचारशीला अनन्तरवश्विरप्रवृत्तेष्वप्रथः।।
यत्युनरेतत-अतीतादेरपि प्रत्यक्षविपयत्वे वर्समानत्वमेव अभिमतबर्तमानवमिति
१ कार्यान प्राक्काले । तदाकारस्य-आर, ब०, प० । २ प्रबन्या-मार, ब०, ५। ३ कपडच दात्मसमपन्न संघवनस्था-आ०, -1 सदससस्पा , प. .। ५ करलेस्यापि , ५०। ६ -सत्वादवि-भा०, २०, ५० ७ प्रमादकालान्तरस्याम्मेव-
भा०, ०,१० |
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२५८
न्यायविनिश्चयविवरणे
[ ९११३४
तत्रापि फिमिदं वर्त्तमानत्यमेव नाम ? प्रत्यक्ष विपयत्वमेवेति चेत्; न; साध्यस्यैव हेतुयोगात, तद्विषयत्वमेव हेतुस्तदेव साध्यमिति कथमिव न्यायवेदिनः प्रतिपद्येरम् ? 'अनित्यम् अनित्यत्यात्' इत्यादित साध्यत्वानुपपत्तेश्च सिद्धत्वात् । सिद्धं हि तद्विषयत्वमतीतादेः ।
५
सिद्धमेव साध्यम्; असिद्धस्य तस्येन प्रसिद्धत्वात् । वर्तमानत्वं वर्त्तमानव्यवहारविषयत्वम् तदेशातीतादौ प्रत्यक्षविषयत्वेनोपपद्यते न हि विषयत्वादन्यत् सव्यवहार निबन्धनं Free त्वेन प्रसिद्धेऽपि वर्तमाने प्रतिपत्तेरिति चेत् किमेवं नीले पीतव्यवहारforest read ? प्रसिद्धे पीले सद्विषयस्यैव तयवहारनिबन्धनत्वेन प्रसिद्धेः, तस्य च atest भावात् । एवं लोको न क्षमते वस्य तथा प्रकल्प नाभावादिति चेत्; न; अन्यत्रापि तुल्यत्वात्-लोकस्थातीतादावपि वर्त्तमान व्यवहारकल्पनस्याभावात् । वर्तमानकालसम्बन्धित्वं ९० वर्त्तमानत्वमिति चेत्; न; कालस्य तत्र प्रमाण (ना) भावोपन्यासेन स्वयं प्रतिक्षेपात् । अप्रतिक्षेपेऽपि यथा कस्यचित्प्रयक्षविषयस्य वर्त्तमानकालसस्यन्धाद् वर्तमानत्वम् एवम् अतीतादिकाल सम्ब धादित्यमपि भवेदिति कथं सर्वस्य प्रत्यक्षविषयस्य वर्त्तमानत्वोपपादनमुपरोत ?
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यदि चार्य निर्वन्धः प्रत्यक्षवेवं वर्त्तमानमेव नातीतादिकमिति तर्हि प्रत्यासनव यू दिकमित्यपि भवेत् । शक्यं हि वक्तुम् 'पर्वतादयोऽपि दूरादित्याभिमताः प्रत्यासन्नाः १५ प्रत्यक्ष पीकूपादिवत्' इति । प्रत्यक्षवचनाशैवक्षित, प्रत्यक्षेणैव पर्वता दूरादित्वस्य प्रतिपत्तेरिति चेत्; न; अन्यत्रापि समानत्वात्, अतीतादावपि वर्त्तमानकल्पने प्रबाधनस्याविशेषात् अतीतादेस्तीतादितयैव प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तेः । अतीता प्रत्यक्षमेव न वर्तते काले तस्याभावात् परप्रसिद्धेन तु तस्य विषयत्वेन वर्त्तमानत्वापादनभिति चेत्; दूरे
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दापि न सत्प्रवर्त्तते तद्देशेऽपि तस्याभावात्, अतदेशेऽपि तत्प्रकृतौ अतत्कालेऽपि स्यात् । २० अवश्यं चैतदेवमभ्युपगन्तव्यम् कथमन्यथा योगिप्रत्यक्षस्यासीतादौ प्रवृत्तिः ! वर्तमानमात्रशेषज्ञत्वविरोधात् । तदपेक्षया सर्व वर्तमानमेवेति चेत् कथमेवमतीता दिल्वेन भाधानामुपदेशो वर्तमानवयैष तदुपपत्तेः वर्त्तमानतया प्रतिपक्षस्यातीतादित्वेनोपदेशे संस्वषद्रकत्वेन प्रामाण्या भावानुषङ्गात् । अस्मदाद्यपेचयाऽतीतादित्वमप्यस्येव तेषामिति चेत्; अरमदादेरेव तर्हि तथा तदुपदेशो युक्तो न योगिनः, तदपेक्षया "तेषु "तदभावात् ।
२५
* वेदम् अस्मदायपेक्षयापि तेषामतीतादित्वम् ? अदर्शनविषयत्वमेव । "तस्मादतीतादि पश्यतीति कोऽर्थः ? अन्येनादृश्यमानं पश्यति" [ ४० वार्तिकाल० २४१३८] इत्यलङ्कारवचनादिति चेत्; न; तात्कालिकस्यापि व्यवहितविप्रकृष्टादेरन्येनादर्शनसम्भवात् । मानं कथमस्त उपलम्भलक्षणत्वात्सताया इति चेत् ? किमिदानीं यावदेव यमस्मदावेसाववेनास्ति ? तथा चेत्; योगिनापि तावदेव दृश्यमिति न योगीरयोः कधिद्विशेषः स्यात् ।
१ - मानवं नाम आ०, ५०, प० । २ वि । ३ व्यवहारनियमत्येन । ४ " प्र केनापि गतिः कालस्य विद्यते ।"-प्र० वार्तिकाल० ११३८ । प्रत्यक्षवेद्यम् । ६ अतीतकाले योग्य पेक्षया । ८ दिवे आ०, ब०, प०१५ योगिनः १० अर्थे । १ अतीतादित्वाभावात् । १२ किभेदनम् प०
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प्रायनप्रस्ताव
२५९ अस्मदादीनां रष्टमतीतम् , द्रक्ष्यमाणमनागतमिति प्येत् ; सत्तहि कथं योगिवर्शनापेक्षयापि वर्तमान भवेत् उपरतत्वादनुत्पन्नत्वास । अस्मदादिदर्शनस्यैव तद्विषयस्योपरमानुत्पत्ती न वस्तुन इति चेत् । तस्य ताईि स्यादक्षणिकल्धं पूर्वापरकालव्यापित्वात् । तन्न अस्मदायपेक्षया भावाना. मतीतादित्वात्तबावनोपदेशः । तेषामुपदेशोऽपि वर्तमानतयैव सथैव स्वयं परिज्ञानादिति क्षेत्र ; न तर्हि तदुपदेशशदुपायोपेयभावपरिज्ञागम् , पर्जुमानतयोपदिष्टानां सहावाभावात् । ५ नाहि वर्तमाना एव भाषाः केचित्पामिनदुपाथत्वमुपेयत्त्वं चा प्रतिपद्यन्ते "प्राम्भाः सर्वहेतूनाम्।
प्र. वा० २३२४६ ] इत्यस्य व्याघातात् । अतो व्यर्थमेव तदम्वेषणम् , सोपायहेयोपाइयत्त्वपरिज्ञानस्य तदन्वेषणादिष्टत्वात् , 'तस्य च ततोऽसम्भवात् । ततो न सुभ्सषितमेतत
ज्ञानवान् मृग्यते कवितदुक्तप्रतिपत्तये ।" [za वा० १।३२] इति । सस्माइतीतादितया प्रविपनत्पादेव भानां योगिना तथोपदेश हत्यामकर्तव्यम् , अन्यथा १० योगिन एवाभावापत्तः परासी वर्तमानतयैव सर्व पश्यति; स्वसन्सानभाईदलः पूर्वोत्तरसमयभाविनिरवशेषक्षशनाप तथैव पश्यतीति नासो कस्यचित्कार्य पूर्वाभावात् , नापि कस्यचित्कारमामुत्तराभादादित्यसन्नव खरविषाणवत् । तस्तंभावमनभ्युपगच्छता यथास्वकालभाविन एव तान् स पश्यतीति वक्तव्यम् । तथा च "सैरेव व्यभिषारादयुफमेतस्-'अतीतादिकमपि वर्तमान प्रत्यक्षविषयत्वात प्रसिद्धवर्तमानवस्' इति । तस्मात्तसत्कालभावितयैव अतीतादेरस्म- १५ दाविप्रत्यक्षव्यक्त्वापि प्रतिपतिः, न सस्था: कालव्यत्ययलक्षणो व्यभिचारोऽस्ति । तदेवाहव्यक्तिरव्यभिचारिणी।
साकारमेव तु विज्ञान व्यभिचारि द्विवन्द्राहिरभावेऽपि तदाकारस्य मानस्थोपलम्भात् । न "तन्मात्रासवस्तुप्रतिपतिर्विशिष्टादेव अहि वोपनीताततस्तत्परिक्षानोपगमात् , लस्य चाव्यभिचारादिति चेत् । स्थादेतदेवं यदि बहिर्भावस्य पृथग्दर्शन भवेत्-'इदं बहिर्भावोपनीत- २० माकारवद्विज्ञानम् इदमन्यथा' इति । न चैवम् , सर्वश ज्ञानाकारादेव सत्प्रतिपक्षी, वस्य च सत्यसति चार्थे विशेषाभाषान् ।
__ मन्त्र निराकारापि व्यक्तियभिचारिण्येव "द्विचन्द्रादौ बहिरसत्यपि तदर्शनात् । निर्बाधात् तव्यतिरव्यभिधारिण्येष, द्विषन्द्रादिश्यक्तिरतु बाधावतीति चेत् ; न; बाधकस्यासम्भवात् । तथा हि
"बाधकः किं तदुच्छेदी किंवा ग्राह्यस्य हानिकृत् ।
ग्राह्याभावज्ञापको वा यः पक्षाः परः कुतः १ ॥ . यदि आपको माध्यप्रत्ययस्थामावं करोति तदालम्बनस्य वा; तदा "तत् जातम् , अजातं का?
वस्तुनः । २ अतीतादीनाम् । ३ अर्यकारणभाव । । योग्यन्वेषणम् । १-यसत्परि-आ-०३० । तरवपरिज्ञानस्य । . योगिता तो न संभ-श्रा, ००१८ दृश्यले मा०, २०, ५० योग्यभावम् । १. अतीतादिमिरे । तदाकारानमात्रीपलम्भात् । १२ -सिर्विशेषादेव भा० म.प.! यसद्धिचन्द्रा-बा,य.व तद्धि चन्द्रा-401 ११ वाध्यम् ।
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२६० যাখকিনিখবিশী
[१३४ अजातस्य कथं तेन सेस्याभावो विधीयताम् । न जातु खरशृङ्गस्य ध्वंसः केनचिदर्पितः ।। जातस्यापि न भावस्य ततोऽभावो विधीयते । "तदस्ति हेतोस्तुशास्ति वाधकादिति साह सम् ।।
यद्यजातोऽसौ भावः केन तस्याभावः क्रियते ? दैवरकाः किंशुकाः करताना पुना रजयति ? अथ जातः कारणात् । तथा सति यथा जातस्तथास्ति, कथं तत्र विनाशावेशः? तथा सति तदेव नष्टं तदेव सदिति महदसमञ्जसम् । अथ यथा न ज्ञातस्तधा विनाश्यते; तथा सति
अन्यरूपेण जातस्य यद्यन्येन विनाश्यता ।
नीलादेरन्यपीतादिरूपेणास्तु विनाश्यता ॥
न च तस्य तद्रूपमिति सैव देवरक्तता । तेन च रूपेणासौ पचाद्विनाश्यते । अथ मंदा
यदि पश्चाद्विनाश्वेत धूर्व तद्रूपता भवेत् ।। तेन रूपेण जातस्य कथं एवाद्विनाशनम् ? " तदैव तेन रूपेण जातः पवाद्विनाश्यते । पंचात्तद्रूपता नास्ति दैवरक्तः स किंशुकः ॥ पूर्णमेचास्य नाशश्चत्कारणमादेव तत्तथा ।
नाशकेन पर कार्य किपस्येति निरूप्यताम् ? ॥ एसदालम्बनविनाशेऽपि समानम् | तथा हि
यथा स जासस्तेनास्य रूपेण न विनाशनम् । यथा न जातस्तेनापि न रूपेण विनाशनम् ।। व्यर्थकत्वादशक्यत्वात् प्रमाणेनाप्रत त ।
अर्थस्यास्य "कथं नु स्यात्कल्पनापि सचेतसाम् ॥ "अब आलम्बनामाद ज्ञापयति बाधकः तदप्यसत्
यदा स दृश्यते भावस्तदाऽभावो न बोध्यते । यदा न दृश्यते भावो [5दर्शनं तस्य बोधकम् ।। तदा भावप्रसिद्धौ च नाभानः "सविशेषणः ।
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बाधकेन । २ वाश्यप्रत्ययस्य तदालतमस्य । न ज्यादखा-पा०, १० वाध्यम् । ५ स्वकारणात् । ६ अपरूपम् । सर्वघा भाव। सर्वथा प.। 4 पश्चाक्टूपनास्तिो दे-, ०, ५०, प्रवासिकाइ १ ५ जमादकसारनाशरूपेण सापक तु स्यात् ब कथन स्थान नासिकार।।११ अयालय-आ०, २०, ५०1३३ यथा न आ०,२००।१४ तदभाषप्रप.। भाषादर्शभकाले। १५ यस अर्थस्व अभावः क्रियते तेन विशेषनीभूतेन मन मसितव्यम् , ववमारे व धमभापः सविशेषणः ।
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१२३४] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
२६१ विशेषणाप्रसिद्धौ च पोधशक्तिः कथं 'तव ? ॥ विशेषणमथान्यत्र सिद्धमयानुवादयत् । भावरूपं हि सनत्र नामावस्य विशेषणम् ।। तदेवान्यत्र नास्तीति यद्येवं प्रतिपद्यते । तथैव प्रतिपयस्य निषेधोऽयं किमर्थकः १ ॥ अन्यथा प्रतिपक्षस्य तथापि न निषेधनम् । प्रागुक्तमेतदेवेति न पुनः पुनरुच्यते । न दृश्यते यदा भाषस्तदा न स्याभिषेधनम् ।। स्मृत्याध्याहृत्य तपास्य क्रियते चेनिषेधनम् । स्मृत्या स्वरूपग्रहणे न कथञ्चिनिषेधनम् ।
स्मृत्या स्वरूपग्रहणे नाभारस्य विशेषणम् ॥" [ प्र०बार्तिकाल० ३।३३० ]
इति चेत् ; फिमस्यं विधारस्य प्रयोजनम् ? न किशिदिति चेत् ; न; निष्प्रयोजनपचनस्य असाधनाङ्गवचनस्येन निहाया ! बाधकसदायपरिज्ञानस्य नाशः प्रयोजनमिति येस् ; न; तस्याजातस्थ तद्योगास् , तत्र 'यद्यजातोऽसौ भावः' इत्यादेर्दोषात् । नापि आतस्य; तत्रापि 'अथ जात कारणातथा सति' इत्यादेः प्रसङ्गस्यापि विशेषात् । अथ येन १५ रूपेण न जातस्तेनास्य : नातेसर; नापि 'अपमान' इत्यादेविकलस्याविशेषात । जन सैल्परिज्ञानस्य विधारामाशः तद्विषयस्य बाधकस्येति चेत् ; न; तत्राप्यस्य प्रसङ्गस्थ तुस्यत्वात् । तस्यापि 'यथा स जातः तेनास्य रूपेण न विनाशनम्' इत्यादिनक प्रतिपादनात् । तन्न तद्विषयस्यापि दतो माशः । तर्हि तत्परिज्ञानस्य निर्विषयत्वं तेन ज्ञाप्यते इति घेत ; किमिदं निषिधनमाम १ तद्विषयस्य बाधकस्यासत्त्वमेवेति चेत् ; न ; तत्रापि 'सदा स २० दृश्यते भावः' इत्यादेरुपसर्पणाव ।
अपि च, नाप्रसिद्ध बाधके तद्विशिष्टत्वमभावस्य, न च तथा प्रतिपत्तिः तदा भावाप्रसिद्धी इत्यादेयायान् । प्रसिद्ध च तस्मिन् भाव एव नामावः, भावाभाषयोनिपर्यायमेकर विरोधात् । अन्यत्र प्रसिद्धमन्यत्रानुवादोपनीसं निषिध्यस इति चेत् ;न; तत्रापि 'भावरूप हि तत्तत्र' इत्यादर्दूषणस्थानुपक्षात् । न पारिजातस्यानुवादोऽपि । परिज्ञानच न २५ दर्शनभेष, निषेधसमये सदभावात् । स्मरणमिति चेत् ; सेनापि यदि तत्स्वरूपप्रर्ण सम्भवस्यनुवादो न निषेधः, स्वरूपतः प्रतीयमानस्थ तदयोगात् । अथ २ स्वरूपग्रहणम् ; न तर्हि तस्याभावविशेषणत्वम् , स्मृत्या स्वरूपग्रहणे' इत्यादिना स्वयमध्येयमभिधानात् ।
सतो न विषयाभावस्थापि परिक्षानं सत्कवमुत्तो वाधकामावनिर्णयः ! यतो नि धैर
समः भा०,३०,०। २ सदेवान्य-सार, व०,401 विशेषणीभूत वस्तु। ३ नास्तीति रूपेण । प्रतिपाद्यते भा०, २०, ५०, प्र. वार्तिकाल | ५ यथाभावः भा०, २०, २०। मस्थ प्रयो-000, ब०, प... बांधकसदायपरिहाना -पानः प्रवीजनमिति झलनायस्थ था,.,.११-कस्कत्यास-मा०, ब, प० । युगपस् ।
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२६२
न्यायविनिश्चयविवरणे द्विचन्द्राविर्य (दिव्य) क्तिर्भवेन । ततो विधाराद्वाधक निवेधता तस्य तदभावज्ञापकत्वमनुमन्त व्यम् । तथा च विचन्द्रादेरपि मिछिदभावमयबोधयन किन्न बाधकं भवेत् ? तस्य प्रतिभासे कथममायबोधनमिति चेन् ; कवं बाधकस्य ? तदपि मदीयमेव चोणमिति चेत् ; उच्यते
भवेदिदं चोयम् , यदि प्रतिभासनादेव सत्यम् , सति तसिस्न् कथमभावोधनं विरोधादिसि ? न ५ दैवम् , अर्थक्रियासामादेव सत्वोपपत्तेः । प्रतिभासनमाधादेव तु सत्त्वे नित्यादेरप्रतिषेध. प्रसङ्गात् , तस्यापि स्वसाहिणि विज्ञाने प्रत्यवभासनात् । नास्स्येव तादृशं झानं लोक इति चेस; कीरशमस्ति? सौगतकल्पितमनित्यादिविषयमेवेति चेत् । नः विप्रतिपत्त्यभावप्रसन्नान् । सथा च व्यर्थमेव प्रमाणशास्त्रप्रणयनं तस्य प्रमाणविजयविप्रनिपनि निराकरणादात स्वत एव च
तेदभावे किंवदन सत्प्रणयनप्रयालेन किंशके पारलिमापादनप्रयासयत् । सोऽपि नास्त्येवेति १० शेत् ; ; स्मृत्वात् । भ्रम एषायं तवेति चेत् ; किमिदं भ्रम इति ? असत्यपि "तत्प्रयासे तत्परिज्ञानमिति चेत् ; अस्ति ताई प्रतिभासनमसलोऽपि इति कथमुपलभ्यमानस्थाभावज्ञापनमनुपपन्नम् । यतः किरियरकस्यचित अधक न भवेत् । ततो माधवत्त्वादुपपत्रं द्विचन्द्रादिध्यायभिचारित्वं नार्थव्यक्तविपर्ययात् । विपर्ययातिपसिनाभ्यासे स्वतः, मन
भ्यासे च परतः । न देवमनवस्थानम् । पर्यन्ते कस्यचिभ्यासपतो ज्ञानस्यावश्यम्भावात् । १५ तवाह-व्यक्ति निराकारयुद्धिः अव्यभिचारिणी व्यभिचारशीला न भवति, ततो बहिरर्थप्रतिपत्तिस्तत श्वेति भावः।
'निराकारल्यक्तिरेव गस्ति नीलादिसुखादिन्यतिरेकेण तदसम्प्रतिपत्तेस्तरकथं स्वधिव्यभिचारित्वं तस्या इति चेत् ? न; स्वसंवेदनतरसत्प्रतिपत्तेर्निवेदितत्वात् ।
अपि च, निराकारैर अहिरर्थष्यतिः, "मिन्नकालम्" [प्र. का० २२४७ ] २० इत्यादिप्रवनस्याम्यथानुपपचेः । न हपरिज्ञातविषयः प्रेक्षात्रता प्रश्नः । परिज्ञानाच भिनकालस्वार्धस्य न प्रत्यक्षात ; तेन "पृथक तस्याप्रतिवेदनात् । पृथक प्रतिवेदने हि तस्य भिन्नकालाव. गन्यद्वा "तत्त्वं शक्यमवगन्तुम् । न चैवम् , तदाकारस्यैव तेन प्रतिपः, तस्य च तदनुपविष्टाय तात्कालिकत्वात् । नापि तत्कादाचित्कवलिनोपजनितादनुमानाचत्परिज्ञानम् ; "तस्यापि प्रत्यक्ष
धनिराकारस्याभावात् । आकारवश्ये तु तेनापि स्वरूपस्यैव परिणानं न पृथगर्यस्येति न ततोऽपि २५ तत्परिज्ञानम् । पुनरपि तदाकारकादाचित्कस्वलिङ्गोपजनितादनुमानात्तत्परिज्ञानपरिकल्पनाया
अनवस्थानमसमजसमासज्येत । न चापरं तत्परिजानकारणमिति कथमयं प्रभभिन्नकालं कथं प्रासम्" इति ? प्रश्नोपनियन्धनस्य भिन्नकालवस्तुपरिज्ञानस्याभावे तदनुपपत्तः । कथं वा तश्रेदगुत्तरम्-"हेतुत्यमेव" इत्यादि । तस्यापि भिमकालवस्तु विषयत्वेन तज्ञानाभावेऽनुपपत्ते । तदेवा
अतीतस्थानभिव्यक्ती कथमात्मसमर्पणम् । इति ।
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विचारस्य । २-भावमेवयो-मा०, द०,१०।३ भवदिदं आग, घ,१०। ४ निल्यादेव। ५ विवादाभाये । शाखप्रणयनप्रयासः । ७ पात्रप्रययनप्रसा। सर वाघ-भा०,०प०।-रामभा०,०,५011. प्रसक्तस्था-माम०,१०११-तत्वमशाब०,०।९ मिमकालस्य अर्यस्य ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
२६३ ___ अभिमुली लिप सि न पुन: शिक्षा सुद्धि; यिक्तिः तदन्या अनभिव्यक्तिः आकारवती व्यक्तिः तस्याम् , आत्मसमर्पणं स्याकारनिवेशनम् अतीतस्य सज्ञानात्माच्यविषयस्य 1 कथम् न कम्चिन् अवगम्यत इति शेयः । ततो भिन्नकालविषय प्रश्नमुत्तरच प्रतिपादयता तत्परिज्ञानमभ्यनुनावव्यम् । तस निराकारयैव व्यक्तय उपपछत्त इति उपपन्न सक्यथानुपपत्या तव्यक्तिव्यवस्थापनम् । तदेवाह
असतो ज्ञानहेतुत्वे व्यक्तिरव्यभिचारिणी । इति
असतः अतीतस्य तस्य ज्ञानकाले व्यतिक्रमात् ज्ञानहेतुत्धे स्वाकारज्ञानजनकत्वे व्यक्तिः निराकारा वित्तिः, अन्यतस्तस्परिज्ञानयोगात् अव्यभिचारिणीप्रमाणमिति यावत् ।
यदि निराकार व्यक्तिः कथं पुलः प्रकाशननियमः-नीलस्यैवार्य प्रकाशो न पीता।' इत्येवं रूप इति चेत् ? अत्राह
प्रकाशनियमो हेतोयुद्धेन प्रतिविम्यतः |
अन्तरेणापि ताद्रूप्यं ग्राह्यग्राहकयोः सतोः । इति
प्रकाशोऽधिगमः तस्य नियमोऽवधारणमुक्तरूपम् , स कस्याः सम्बन्धी ? बुद्धेः प्रत्यक्षलक्षणायाः ततस्तस्य भावात् । स कुतः ? इत्याह-हेतोः युद्धों हेतुरिन्द्रियादिलक्षणः प्रकाशावरणक्षयोपशमाविसव्यपेक्षस्तत इति । एतदुक्तं भवति स्वहेतोरेव बुद्धिः नियतप्रकाश. १५ शक्तिकत्वेनोत्पन्ना यतो लियत एव ततो विपलप्रकाश इति । अवश्यान्युगमनीयश्चार्य स्वहेतुनिवन्धनः शक्तिनियमो भावानाम् , अन्यथा 'नोलज्ञानस्व नीलवत्पीताश्योऽपि किन्न सर्वे हेतयः तज्ज्ञान वा नीलबस्किन्न सर्वेषां कार्यम् ? कारणत्वेन प नीलस्य आकारथितृत्वे संदविशेषात चक्षुरादयोऽपि ज्ञानस्य कुतो नाकारयितारः ? कुतो का स्वलक्षणदर्शनं नीलबरक्षणभङ्गादावधि न निश्चयमुपजनयति यतस्तत्र समायेयः तब्यवच्छेपार्थमनुमानकद परिकल्प्येत' इत्या. २० धतिप्रसङ्गपर्यनुयोमे कः पर; परिहारः ? ततो यथा शक्तिनियमादेय अत्र कारणत्वादिनियमः तथा प्रकाशनियमोऽपि बुद्धरिति व्यर्थ तदर्थमाकारपरिकल्पनम् । न चालीवपरिज्ञानार्थम् ; तस्यापि शकित एवोपपत्तेः । ततो यवन यार्तिकम्
"ज्ञानशब्दप्रदीपानां प्रत्यक्षस्येतरस्य । . जनकत्वेन पूर्वेषो क्षणिकानां विनाशतः ।।
शक्तिः कुतोऽसतां ज्ञानात्" [प्रश्वा०२१४१७] इति; तत्पतिविहितम् । सन्निधानं यदि प्रहनिबन्धनं भवेदतीतस्व शब्दादेरहणम् असग्निभनात् । न चैवम् । शक्तेस्तनिबन्धनत्वात् , तस्याश्च मित्रकालभावापेक्षयापि भावान , अभ्यथा तदररिज्ञानमेवेति निवेदितत्वात् । यदपि समानकाले परित्रानेऽतिप्रसङ्गपरं वार्मिकम्
, अभिमुखिदिमाग, ब। २दयत्ति त- मा०, २, ५० । ३-स्य शान-बा०, २०, २० । नालज्ञान या । ५ कारणत्वाविशेषा। ६ 'विक कुतोऽसता-३० वा. ग्रहपनिम्न्धनत्वात् ।
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२६४ न्यायविनिश्चयषियरण
[२३५ "अन्यस्यानुपकारिणः ॥ व्यक्तौ व्यज्येत सर्वोऽथ:" [अ० वा०२१४१८) इति । यशान निबन्धनम्-'न समानमारा हेतुतः दयाहाटी : अम्बापो प्रहाणे च
सर्वमेव गृह्यत" [प्र०कार्तिकाल०] इति ; संवपि प्रत्याख्यासम् ; न हि कालसाम्याविषयपरि५ ज्ञानं यदयमतिप्रसङ्गः, किन्तु शक्त, तस्याश्च स्वहेतुबलभाषिनो नियमात् नियतस्यैद
समसमयस्यान्यस्य वा परिज्ञानमिति किगतायता न पर्याप्तम् १ बस इदं बालविमलम्भनमाकारपरिकल्पनया कम्प्यने । कथञ्चार्यम् "स्पर्शस्य रूपहेतुत्वात्" [प्रवा० १९८४] इत्यादिण्याख्याने "परस्परवियोगेन समानकालयोरपि हेतुत्वात्" [प्रत्यार्तिकाल. ]
इत्यनेन समसमयस्यापि स्पर्शस्य रूपहेतुत्वं प्रतिपादचोय निबन्धनकारः तादशस्यैवार्थस्य १० बानहेतुतां प्रत्याचक्षीत ? यत इदम् न समानकालस्य" इत्यादि सूक्तं भवेत ? तत्य प्रज्ञाकरोऽपि विस्मरणशील इति सविस्मयमस्मच्चित्तमावर्तते ।
यपि हेतोः प्रकाश्वप्रकाशनियम एव "तद्धेतोनियमो यदि "[प्रका०२१४१८] इत्यनेन पूर्वपक्षयित्या समाधानमुक्तम्- "नेपायि कल्पना ज्ञाने" प्रवा०२१४१९] इति । निषन्ध.
नमत्र-"[न] प्रतिनियतग्रहणपनया कल्पनया } हेतुनियमो हि पदार्थानां स्वरूपे, १५ कार्यकरणे दा ? न तावरस्वरूपे ; स्वरूपप्रतिनियमे हि कारणतः स्वरूपमेव सयोस्तथाभुतं
यदवभासते ततः स्वरूपावभासनमेव प्रसक्त तत्पूर्वकारणाधीनं न परस्पराधीन मिति न परस्परं ग्राह्यग्राहकभावः समानकालतयोदयात् । यदधीना हि त्योर्मायग्राहकता तेस्थ हि तौ ग्राह्यग्राहकापिति युक्तम् । न च संविदितात् स्वरूपादपरा प्रावग्राहकता ।
कथं तर्हि 'ग्राहकोऽहं ग्राह्यं ममेदम्' इति प्रतीतिः ? न; सदपरस्य सम्बन्धस्याप्रति२० भासनात् । कल्पनामात्रमेव अनादिवासनाधीनमेतत् । तथा चोक्तम्-'सव्या
पारमिवाभाति" [प्र०वा०२१३०८] इति । तस्मात्स्वरूप खहेतुनियमान प्रााग्राहकभावः । अथ कार्यकरणे हेतु नियमा, तदापि यदि ताभ्यां प्रतिनिपतस्य कार्यात्मनो जननम् ; कथयिय ग्राह्यग्राहकभार: सहकारिभाव एव भवेत् ? न च तावता यायग्राहक
भावः, तस्मान हेतुतो ग्राह्यग्राहकभायः" [प्रत्यातिकाल.] इति । तत्र स्वरूप एव हेतुनियमः, १५ च तावता स्वरूपप्रतिभासनमेव नीलतवेदनयोः । नीलस्य हि खहेतुनियतं प्राशस्वं नियतवेदना
पेक्ष्मेव न तु निरपेक्ष तत्कर्ष सस्य स्वतोऽवभासनम् ? तद्वेदनस्यापि तनियतमाहकत्वं नियत्रनौसापेक्षं स्वापेक्षच, वत्कथं तस्य स्वाषभासनमेव । न चैवं सति कारमेव नीलस्य प्राहक माझञ्च द्वेदनस्य' इति चोद्यम् ; नीलमदनयोः परस्परापेक्षस्यैव प्रामाइकभावस्य कारणेन
'असम्बर -80 दातिकाल 1 २ प्रहाकर मुमः । ३ सस्यापि रुप-मा०, ३,. १ का कारण का श्रा, कार्यकारना प०५ ५ तस्य हेतौ बाव.१०१६ संविदितस्वरूभा०, 4,401 संचिदितस्वस्वरूप'-प्र. वानिकाल-10-रूपस्यवहे- १०, २०, प०। ८वहे सुदि यतमाइस्थम् ।
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अयमा प्रत्यक्षमताधा
२६५ नियमास् न स्वापेक्षस्य । अवश्यन्तदेवमगीकर्सयम, अन्यथा नौलतद्वेदनयोहेनुफलभावेऽपि सत्प्रसङ्गात् । सर्वदनं हि कारणमेव कस्यचित् , अन्यथा तदषस्तुत्थापन । कारणत्वन तस्य भार्थोपजननशक्तिलक्षणं स्वकारणादेवेति तदेव तस्य नीलं कार्य ने पुनस्तसस्येति प्राप्तम् । तथा कम तत्तस्य प्रारमेव आहेतोस्तदनभ्युपगमात् । ततो निराकृतमेतत्
___ "मानं सावमासतः। तं व्यक्तीति कथ्येत तदभावेऽपि तस्कृतम् ॥” (प्र०या०२१४२०] इति ।
नीलझाने नीलकृतत्वस्य तदवभासस्य च तदाकारतालक्षणस्यानन्तरनीत्या निषेधात् । यस्मादत्र कारणेन कानापेक्षमेत TEL t सानियेवदेवोत्तरम् । एतच्च प्रामग्राहकभावेऽपि समानम्-मीलसदनयोः परस्परसव्यपेयैव तेंद्रावस्य सत्कारखेनोपसर्पणात । ततो दुहितमेतत्-"यदधीना हि सयोः" इत्यादि । नीलतज्ज्ञामस्वरूप- १० व्यतिरिक्त तदावे एव नास्ति सत्कथं तचिन्तेति चेत् ? म; कार्यकारणभावस्यापि तत्यतिरिक्तस्थाभावात् तश्चिन्तनस्याभावापत्तेः । कार्य हार्ग तस्य कारणच नीलमिति. प्रतीत अस्त्येव वदाय इति चेत् ; न; ग्राह्यं नीलं सस्य ग्राहक व ज्ञानमित्यपि प्रतीतः ।
'कल्पनामात्रमेवैतदनादिवासमाधीनम्' इत्यपि न युक्तम् ; कार्यकारणभावप्रसीतापप्येवप्रसङ्गात् | कल्पित एव सदावोऽपि परमार्थतो बहिरर्थस्याप्रतिवेदनात् । न हि प्रत्यक्षेण १५ तत्प्रतिवेदनम् ; आकारवतो ज्ञानस्यैव सवः प्रतिवेदनात् । नाप्यनुमानेन; तस्य प्रत्यक्षपूर्वकस्येम तभाषेऽनववरणात् ।
"प्रत्यक्षपूर्वकं सर्वमनुमान प्रवर्तते ।
प्रत्यक्षस्यानुमापेक्षा यधन्योन्यसमाश्रयः ।।
न यावदनुमान प्रमाण क्षावन्न प्रत्यई प्रमाणीभवति बाह्येऽर्थे । न च प्रत्यक्ष- २० स्य प्रामाण्यासम्भवेऽनुमानम् । तत्पूर्वकत्वात् , अन्यथा अन्धपरम्परा भवेत् । तस्मात्परमार्थतः खरूपमेव संवेदनस्य संविदितं नार्थः ।" [प्रचार्तिकाल० २१४२०] इति मास्येव वस्तुतस्तस्य कारणत्वं तत्कार्यत्वञ्च ज्ञानस्य, कल्पनैव केवल तावमुपदर्शयतीति येल; न; पहिरर्थवेदनस्य सविकल्पकत्येन प्रत्यक्षदाभावप्रसङ्गात् । न ६ कल्पनारोपितगोवरस्य निर्दि
कल्पकत्वमुपपनम् । सस्थर , मिथ्याभिनिवेशरूपेण विकरुपेन सरिकल्पकल्वम् अपरामर्शरूपी . कस्वारनिर्विकल्पकत्वमुच्यत इति चेत्, कवं वापि प्रत्यक्षवं भ्रान्तत्वात् ? म हि मिध्याविश्यमभ्रान्तमुपपन्नम् ; अतिप्रसङ्गात् । इदमपि सत्यमेव बस्तुवृत्त्या सर्वस्वालम्मने भ्रान्तत्वात् , अभिनिवेशकभावाभावाभ्यां तु सम्यनिध्याशानावभागः, या हि व्यवहई राभिनिवेशा .
नौठवेदनस्य । २ २ पुनः मीलवेदनं भोलस्य कार्य नीलानाशादिति भावः। अकारणस्य । प्राप्रमाकभावस्य 1५प्राप्राहकभावः 1 ६-मेव तदना-80,40,4.10वेदनम् भा...।
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. २६६
Preferrertaरणे
[ २२५५
[सत्] सम्यग्ज्ञानं "प्रामाण्यं व्यवहारेण” [प्र०वा० १।७] इति वचनात् । यंत्र तु सदभावः वैमिरिककेशादौ मिथ्यैव ज्ञानम् "केशादिनर्थोऽर्थाधिमोक्षत:" [प्र००२११] इति वचनादिति चेत्; अनाकारमेव तर्हि विज्ञानमभ्यनुज्ञातव्यम्, व्यवहारस्य तथैव भाषात् । न हि व्यवहारी नीलमेव विज्ञानमनुमन्यते 'नीलमहं वेद्मि' इति नीलादन्यत्रैव साने ५ तदभिनिवेशनात् । न चास Farvasna विनेति निर्निमितमुपपन्नम् । सत्यपि तथा व्यवहारे प्रकाशनियमाय साकारवाद इति वेस्; न; हेतुबलादेव तत्रियमाश्च विषयाकारात् । एतदेवाह-न प्रतिविस्वतः । प्रतिविम्वं विषयसारूप्यं न ततः प्रकाशनियम इति । कवत् ? इत्याह- अन्तरेणापि विनापि । किम् ? ताद्रूप्यं विषयाकारत्वं ग्राह्यग्राहयोनयः सप्तोर्व्यवहारो विद्यमानयोरिति । विद्यच एव व्यवहारतो नीलतद्वे१० वनयोरन्यत्वम् । न चैवमनुभव इति चेत्; न; अन्वयव्यतिरेकानुभवस्यैव भेदानुभवत्वात्, अन्य विज्ञानमनुभूयते व्यतिरेकवश नीलादिकम् । तथा हि
१५
२०
२५
पीते प्रवृत्तं प्रत्यक्षं यदान्यत्र प्रवर्तते ।
सदा तदन्वितं पीतं व्यतिरेकि च दृश्यते ॥ ६८८॥ पीतादव्यतिरेके सुमहत्तस्याम्ययः कथम् ? |
forts a defer दर्शनं सार्वलौकिकम् ॥६८९॥ पीतं मया पुरा दृष्टमधुना दृश्यते परम् । streets are स्वोऽनुभव निर्णयाम् ||६९० ॥ अभेदे त्वन्दितानापीतमप्यन्वितं भवेत् । न हान्वितादमिनं तदुपपन्नभमन्वितम् ।। ६९१॥ विषयान्तरसारः प्रत्यक्षस्य तदा कथम् । पीतस्यैव सदा विस्वज्यानान्यतिरेकिणः १ ॥ ६९२ ॥ अन्वयव्यतिरेकेऽपि यद्यभेव प्रकल्पनम् !
ज्ञानयोर्लोके न किञ्चिद्भितो त्रजेत् ॥ ६९३॥ frogramera भेदोऽन्यत्रापि नापरः ।
असा कथमन्यत्र भवेत् ॥ ६९४ ॥
T
बालोपानमेव यदन्यव्यतिरेकाभ्यां भेदप्रकल्पनम् प्रमाणाभावात् । safe कुचियावृत्तमित्यपि प्रमाणमस्ति प्रत्यक्षस्य तत्राप्रवृत्तेः । प्र feerefore भावनां प्रतिपत्तव्यं तथा उद्धेतोर्नियमाम पौर्वापर्यम् अतिप्रसङ्गात् । च च तदप्रतिपतों सतस्तदन्वयव्यतिरेकपरिज्ञानम्: तस्य वदविनाभाषाम् । असति ब
१०, ६०, प० । २ अर्धकुमावत् । ३ नाभिशय प्रत्यक्षम् अम्बितम् पीतनद ६ सामस्य । पौर्वापर्याप्रतिपत्ती ।
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११३५ }
प्रथम प्रत्यक्षमस्ताप प्रत्यक्ष नानुमानम् ; तत्पूर्वकस्वाम् । प्रमाणान्तरं तु नास्त्येव यतस्ताविपतिः । असोऽनादितद्वासनाविकासोलासिता विकल्पिफैल धुद्धिरन्वयव्यतिरेकावुपदर्शयति । तदभिप्रायेण ५ पीततज्ञानयोर्भवकल्पनमनुमन्यत एव, परमार्थव एवं सदनभ्युपगमात् , "परमार्थतस्तु तदतदाकारं परापरं विज्ञानमेव" [प्र. पार्तिकाल० २१३०४३ इति वचनादिति चेत् । कुता पुनरिदमपरापरवं विज्ञानानामवगन्तव्यम् ? तेषामेध कुत्तश्चितम्यतमादिति चेत् । न ५ तस्य स्वाफारमात्रपर्यवसायिस्वेनान्यत्राप्रवृत्तेः । न दि सदन्यत्राप्रवर्तमानं तद्तमपरापरत्वं प्रत्येसुमहति; धर्मपरिज्ञानस्य तदधिकरणएपरिज्ञानाविनाभावनियमात् । तकस्मात्तत्परिझानम् । भवतु बहुभिरेव तत्परिज्ञानम् , सानि हि परस्परमनुप्रवेशरहितमात्मानमारमानुभवस्वभावतया प्रतिपद्यन्ते, तदेव च तेषामपरापरस्परिज्ञानमिति चेत् ; नन्दिदमेव दुरवबोधं यकं सगोचर 'विज्ञानं न भवेत् । भवतु सदिति चेत् ; न वक्ष्यमाणोचरत्वात् । सन्न प्रत्यक्षात्तदपरापरत्व- १० परिक्षानम् । नाप्यनुमानात् ; प्रत्यक्षाभावे तदनुत्पत्तेस्तत्पूर्वकत्वान् । प्रमाणतरस्य वानभ्युपगमात् ।
___सदपरापरत्वमपि तद्वासनोपनीतेन विकल्पेनैव करप्यत इति चेत् ;न; "परमार्थत" इत्यस्य विरोधात् , कल्पिदस्यापरमार्थस्थान् । अस्ति वस्तुतस्तदपरमार्थत्वम् , सत्परमार्थत्यकथन सत्र लोकाभिप्रायानुरोधादिति चेत् ; ; अन्वित एव ज्ञाने सत्कथनप्रसङ्गात् । 'तत्व (तत्रैव) १५ लोकस्य परमार्थत्वाभिप्रायात् ।
__ कस्य पा वस्तुतः परमार्थत्वम् ? पीतजेष्ठनाकारमात्रस्यासषेदनस्येति चेत् ; पीतमपि कीदृशम् ? स्थूलमिति चेत् ; न; तस्यानभ्युपगमात् । "तस्मानार्थेषु न ज्ञाने स्थलाबमा(लामा)म" [१० वा० २।२११ } इति बननात् । परापरपरमाणुरूपमिति घेन् ; तत्परमाणुषु तईि वेदनमेकं प्रदर्शमानमात्मानमपरापरतदाफागनुगतं तदाकाराम (कारांच) २. परस्परब्यसिरेकिणः प्रतिपदात इति कथं प्रत्यक्षसिद्धायान्षयव्यतिरेको न भवेतां यता पीतादेवनयोः पारमार्थिक एवं भेदो न भवेत् ? प्रतिपरमाणु मिस एष तवनं सदयमदोष इति चेत् । कथमद्वैतं कथं वा तद्वदनानां बहुत्वस्य परिज्ञान स्वरूपवेदनभियमेन परस्परमषिषयीकरणात् ? अम्यस्य बैकस्य तत्परिझातुरभावात् । भवत्वेकपरमाणुरूपमेव पीतमिति चेत् ; न तस्यानवभासनात् । न हि निभेदस्य संवेदनस्यावभासन पाझपाहकाविभेदप्रतिभासयत २५ श्व तस्य प्रतिवेदनात् । स्थतो निर्भेदमेव तत् , तदप्रतिभासस्तु तस्योपप्लव एव "झरनस्साभेदिनो भेदप्रतिभासो सुपलवा" [प्र० वा० २१२.१२ ] इति वचनादिति चेत् ; तदुपलवो यदि तस्य स्वत एवं; कथं निभेदत्वम् । न हि स्वत एव भेदेन प्रत्यवभासमान निभेदमित्युपपश्नम् , पीसतयाऽनभासमानस्यास्यपीवत्वरसगास । अन्चत पय तस्य तदुपला स्वतस्तु सन्निर्भेदमेवामभासत इति चेत् ; कथं सईि तस्यासस्वोपपादनम् , यथातत्वं प्रतिभासमानस्य तद- ३०
झाने तर-आ०1०1०२त्त एष प० । अत्र लाडपत्रं श्रुतिसम् । ३-स्यापरमा आग,.. भत्र साप त्रुटितम् ।
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भ्यायविनिमयविवरणे
[ ११३५ योगा ! तदपि नेति चेत् ; किं पुनरिदमुन्मत्तभाषितम्-"ज्ञानमपि स्वरूपेणाप्रतिपणमसदेवेति शून्यतेवावविशष्यते" [अ० शासिकाल० २१२१२] इति ? शून्यवादिन एवेदं वपन न झानवादिनः, तेत निभेदतथैव तनिर्भासस्व तत्सरवस्य पाभ्युपगमात् । तथा च तस्य वध.
नम्-"अविभागोऽपि वुड्यात्मा" [अ००२।३४५] इति, "स्वसंवेदनप्रसिद्धयेसत" ५ प्र०वार्तिकाल० २।३५४] इति च । इति चेत् ; उच्यते
मिभेद एव बुद्ध्यात्मा स्वतश्चेदयभासते । प्राङ्गादिभेदनि सस्तन्त्र करमादुपलषः ? ॥६९५१ WEAR नाव द्वैतानिपीडनमत् ! न स्वतो नान्यत्तश्चैव यदि निर्भासते कथम् ? ॥६९६॥ मायामरीचिप्रभृतिरिव चेन्नेदयुत्तरम् । . न हि तस्थापि निर्भासः स्वपरापेक्षया विना ||६९ ॥ तथापि तस्य निर्भासे सदुद्धयागनो न किम् । स्वयेदनप्रसिद्धत्वं यतस्सोपवण्यते ? ॥६९८॥ नास्त्येव तस्य निर्भास इत्यप्यश्लीलभाषितम् । प्रहप्राहकसंवित्तीत्यादेः लोक्तस्य याधनात् ॥६९९॥ 'राष्टश्चायं न दृष्टस्य लोपो बुद्धौ प्रसनमः । शून्यतैव भवतत्त्वं बुद्धरुककर कैशन ॥७००६॥ "त्रिकस्याप्यमावेन हयपप्यवाहीयते । तस्मासदेव तस्यापितत्त्व यो दयशून्यता ।।" [प्र०या०२।२१३) इति । शून्यता परमार्थश्रेत्केदमाकारकल्पनम् । यतः प्रयासः सर्वोऽयं तव साफल्यगुखहेत् । १७०२।। प्रमाणविरहाच्चायं परमार्थः कथं भवेत् ? । अशून्यमेव सस्य स्यादन्यथा सकलं जाम् ।।७०३॥ प्रमाणं चेन शून्थर प्रमाणस्यैव भावतः । शून्यरषं चेत्प्रमाण मेत्येतत्पूर्व निवेदितम् ॥७०४॥
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1-प्रति-श्रा०, प. प. शामवादिना। ३ मैसदिति चेत् श्रा, 40.1 -लि-10, २१.० ५ "मायामरीचित्रभृतिप्रतिभासनसत्वेऽपि न दोष:"- तिकाख 118 "मानहाइसवित्तिवानिय श्यते"-. पा. ११३५१ पृष्ट्राय न यस्य लोपे नु-NO. 4.16 "वत्र एक शाम विरुद्वमं न शुरुमिस्सैकस्य मावस्वस्थ प्राहकत्वस्य वामझ्याभ्युक्तस्यत्वेकामायन बमवहायते । अन्योन्यसापेक्षयोरेवाभावेऽपरानायथ न्यायप्रामत्वात् । तस्मातस्य शानस्यापि वरवं तदेव था येन प्रायंपाका कारण शुन्यता चाम।"-. पा० स०१० २१३१यवय-al.1
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११३५)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
२६९
ततो नातज्ञानं सच्छूम्यावं या परमार्थतः; स्थापनोपायाभावात् ।।
भवतु यात्मवाऽविभागः परमार्थः, तस्य स्वसंवेदलप्रसिदत्वात् । न चैवं मालादिभेदनि सस्योपलवस्थाभाशत्-"मायग्राहकसंवित्तिभेदचानिय लक्ष्यते" [१०या० २१३५४] इति वचनव्यापत्तिा बदुपलवस्य युख्यन्तरेणोपकल्पना , बुद्धिभेदस्यानिराकरणात्, बहिरर्थस्यैव प्रमाणाभावेन प्रतिक्षेपाविति चेत् । न; युद्ध्यन्तरस्याप्यविभागितयैष स्वतः प्रसिद्ध ५ दतोऽपि तदुपकल्पनानुपपत्ते । तत्रापि तदसरासदुपकल्पम्परिकल्पनायामध्यवस्थापतेः । अपरापरश्च धुद्धिभायो न तद्विषग्रमेकज्ञानमन्तरेण शक्यः प्रतिपत्तुम् , तदभ्युपगमे च परितादेरेषा. परापरस्य सदस्यपगन्तव्यम् अविशेषात । तथा च तदेव परसातौ कमेणानप्तिमात्मनः पीलादेव परस्परसो व्यावृत्ति प्रतिपयत इति प्रत्यक्षसिद्धाधेव संवेदनतद्वधगतापवश्व्यतिरेको न कल्पनामात्रविरचितौ | ततः प्रतिषिद्धमेतत्
"अन्वयन्यतिरेकाम्यां भेदव्यापारकल्पना । अनादिमासनासङ्गान ताबध्यक्षपूर्वको ।। सजातिपूर्वविज्ञानाऽतुमवाहितवासना।
व्यतिरेकफापनाबीज केवलान्धपरम्परा प्र०पार्तिकाल० २३०८]इवि ।
प्रत्यक्षतश्चान्वयव्यतिरेकयोः प्रतिपस्तौ प्रतिपन्न एन पीसतद्वेचनयो दः, वैस्थ संदूपत्वान् । १५ तेदूपरवेऽन्यदे नालधकलादायपि न मधेस् । न हि विरुद्धधर्माध्यासादपरस्वत्रापि भेदाः । म येत् पीततद्वेनयोर्भवमपि न भेदः परत्रापि न भवेत् । तस्मादनुभवोपारूटमेव मानसद्विषययो. नानावं न व्यवहारमात्रप्रसिद्धम् । तदेवाह-'अन्तरेणापि इत्यादि । सतोपलम्भाविषययोस्सविषयतौर परेण सत्योपगमात् "उपलम्भः सचा" [५० थासिकाल० ४१२६३] इति अपनात् । शेषं पूर्ववत् । सतो यदेतवार्मिक तन्निबन्धनभ्य
मार्थोऽसंवेदनः कश्चिदनर्थ चरपि वेदनम् । पृष्टं संवेधमान तत्तयोर्नास्ति निदेकिता ॥" [प्र. पा० २१३८८ ) "अनन्वयव्यतिरेकित्वात् एकमेव नीलसंवेदनमन्योन्यव्यतिरेकेणादर्शनात् ।
नार्थोऽसंवेदनो दृष्टोऽनर्थकञ्च न चेदनम् । सदापि योगादेकं तदर्थसंवेदनं सतः ॥ भेदेन विनियोगार्थ भेदवि दमिच्छति ।
स त्रास्ति ततो भेदाभेदपोः कैव भिवता ॥ तस्मादत्र भेद इति नाममात्रमेव परेम विधातव्यम् न परस्य काचित् सतिः । हेयो
का नापर-आ-,10,104 २-मार्थवस्तस्य भा०,०, प० ।। मैदस्य । सन्धयंव्यतिरेकरूपविक्रांबासस्मकृत्वार । ५ विरुद्धधर्माध्यासामसपेपि। विस्वधर्माच्यासः। उपसम्भविषयतयैव ।
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२७०
न्यायचिनिश्श्यविवरणे
[ २६३५ पादेयविभागश्चेत्तत्र नास्ति किमीशा भेदेन" [वार्तिकाल० २।३८८] इति; तत्प्रतिविहिसम् ; 'अनन्वयव्यतिरेकित्वात्' इत्यस्यासिझे; वस्तुतस्तद्रावस्य प्रतिपादनात् । अन्योन्यव्यतिरे. णार्थतवेदनयोर्दर्शनस्थोपपत्र, अन्वितानविकरूपत्वेन ज्ञानार्थयोर्दर्शनस्यैव संव्यतिरेकदर्शन
लात् । न च तद्व्यतिरेकस्य निष्फलस्वम् ; ध्यतिरेकेणैव विनियोगात् । नीलमेव हि वसादिक५ मारछावनादौ विनियुज्यते न तज्ज्ञानम , तेन कस्यविदाच्छादनाभावान् , तदेव च सज्ञान विषया.
तरपरिच्छित्तावुपयुध्यते न नीलं शेन कस्यचित्परिच्छेदायोगात् । यथा च तज्ज्ञानस्य विषया मारपरिबिसौ विनियोगस्तथा प्रतिपादितमेव । ततो 'भेदेन' इत्यादि प्रशावलविफलतयेव प्रझाकरण प्रतिपादितम् । यत्पुनरुक्तम्
"दधानं तय तामात्मन्यर्थाधिगमनात्मना । सव्यापारमिवाभाति व्यापारण स्वकर्मणि ॥
तशाध्यवस्थानादकारकमपि स्वयम् ॥" {प्र०या० २१३०४-८ ] इति; तवपि महतस्तमसो विलसितमेव; "संवेदनमात्मनि विषयाकारसां धत्ते" [ ] इत्यस्य प्रतिक्षेपात् , तद्वशादधिगमध्यवस्थानस्यासम्भवात् । तदसम्भवे 'सनियन्धनस्य 'स
व्यापारमिवाभाति' इत्यस्यानुपपत्तेः , बस्तुत एव तस्य सव्यापारवाच । न हि सस्मिन्नेव १५ तदिवेति व्यपदेशो नील एव नीलमिवेति सत्सङ्गात् । वस्तुतः सन्यापारवाच तस्य परा
परविषयाभिमुख्यलक्षणस्याधिगमव्यापारस्य तत्र प्रतीतः । नापि तस्याकारकरवम् ; परतुसति व्यापारे वदपेक्षया कारकत्वस्यैवोपपत्तेः । ततो हेतोरेव प्रकाशनियमो बुद्धे कारनियमादिति सूक्तम्-'प्रकाशनियमः' इत्यादि !
भक्तु नाम सत्यर्थे हेतोरेव तत्काशनियस न ताप्यात् , यत्र तु मिरिकज्ञाना २० पावर्थ नास्ति तन्त्र कथम् ? न हि तत्र प्रकाश एवं सम्भवति तस्य प्रकाश्यनिष्ठरवेन तवभा
येऽनुपपत्तेः । सम्भवतश्च कुत्तश्चिनियमो नरम्यस्य । तत्रापि विद्यत पय केशादिः प्रकाश्य इति पेस् ; न; तस्यानर्थत्वात् । न बसावधः; अर्थक्रियाविरहात् । अर्थ पवाय अलौकिका, लौकिककस्यैवायं नियमो यदर्थक्रियया भवितव्यमिति चेत् ; न; तस्य "अभिप्रदेशकालानाम्"
इत्यादी स्वयमेव निराकरणात् । सस्मादसौ तज्ञानस्यैवाकारो मे पापस्य प्रकाशविषयस्य २५ सतो मत्यन्तराभादात् । प्रकाशविषयेण पर्थेन वा भवितव्य लानेन वा । तथार्थत्वाभावे
अवश्यम्भावि ज्ञानत्वम् , अर्थशानाभ्यां राश्यन्तरस्याभावादिति सिद्धू सत्लेशादेस्तायादेव प्रतिवेदनम् , ततस्तत्र विपर्ययस्यत्येव भषबुको न्याय । तदेवाह
अनाकारशक्षेषु त्रुध्यत्येष नयो यदि ॥३५॥ इति । अर्थस्य वाह्यस्याकारः स्वरूप तस्य सवा 'किमयमर्शकारी भवति २ वा इति
क्रिमामधेनेति भार, 4, 1 नार्थव्यतिरेक । ३ विश्वाकारतावशात् । । संवेदनस्य । ५कर्ष तर्हि प्र-सा, 4०,०।६ प्रयासस्य । ज्यापवि० को ४६1 सौ ज्ञान-सा.,.,.
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३८)
प्रथमा प्रत्यक्षाप्रस्ताव पत्यवमर्शनम् अर्थाकारशका, न विद्यते सा येषु मिरादिज्ञानविषयेषु वे अनर्थीकारशक्षाः शाभावमिवेदनेन सत्र निर्णयस्यास्यन्ताभावमावेदयति । तेषु शुक्ष्य ति शिथिलीभवति एषः अनन्तरोक्त 'प्रकाशनियमो हेतोः' इश्यय नयो न्याय: ताप्यादेव तत्प्रकाशनियमात् । सिद्ध क्वचितस्तनियमे अन्यत्रापि तदेव नियामकम् । तथा हि-विवादापनस्तरप्रकाशनियमो विष. याकायदेव, तत्प्रकाशनियमत्वात् , तैमिरादिप्रकाशनियमवत्' इति परस्याकूतम । यदि ५ इति तदाकूतयोतने । तत्रोचरमाह
सर्व समानमर्थात्मासम्माख्याकारडम्बरम् । इति ।
अर्थश्च आत्मा व ज्ञानस्वभावसदन्यस्य सस्याभावान , तयोः असम्भाव्यसदूपरनामावा तस्याकारस्य केशादिलक्षणस्य डम्बर तझाने प्रतिभासनम् । सदयमर्थ:-नायमर्थरूपः केशादिनापि झानरूपः 'किन्त्यविद्यमान एष सज्झाने प्रतिभासते सत्कथं १० संत्रानन्धरमयस्य प्रोटनम कथं या तनिदर्शनबलाद्विषादापोऽपि विषयाकारसाधनम? सस्येव तस्य ज्ञानरूपस्ये उदुपपसः। असतः प्रतिभासमानमेव न सम्भवति प्रतिभास्याभावादिति घेत; न; संस्यैव प्रतिभास्यस्वान् । कथं तस्य प्रतिभास्यत्वमिति चेस् ? फरिमन प्रकारे प्रश्न विषयगत इति चेत्, 'कोशादिरूपेण' इति भूमः । कथमसतस्तद्रूपत्वमिति चेत् ? सतोऽपि कथम् ? तथा दर्शना समानमन्यत्र-सतोsरि केशाधिरूपस्योपलाभात् । असप्तोऽ- १५ सस्तेदोदामनमुपपने नपरोमि म त नि मत्वेनैव सदुपपन्नं न तद्रूपतये. त्यपि प्रसार । सदूपतेव तस्य सत्त्वमिति चेत्असरवमपि तयूपतयोसि किन्नानुमन्यते ? सदसतरविशेषापत्तेरिति चेत् । न शक्तिभावाभावाभ्यां तत्परिहाराम-यस्य हि तक्रिया शक्तिः स साक्षात्कशादिः अम्बस्तु सदाभास इति । तन्नायं विषयगते प्रकारे प्रश्नः । तज्ञानगत इति चेत् । न तत्रापि शकिरणोत्सरवचनात् । असपि केशाविक ज्ञानेन प्रतिभास्यते २० सक्तिमत्वादिति । सदेव कयमसद्विषयमिति चेस् ! आह
'सर्व समानम्' इति । चोय तत्समाधानं च सर्व समान सदृशम् सद्हणे तदनुकरणे च । तथा हि यसतो र प्रहणम् अनुकरणमपि कथं यतो ज्ञानं सदाकारम् ? न तदनुकरणात् तस्य तदाकारत्वमपि तु पूर्वज्ञानादिति चेस्; न; तस्यापि सदाकारत्वं यदि पूर्वानासस्यापि तत्पूर्वज्ञानादित्यनादेः केशनि सस्य समान् । न चैवम् , विषयान्तरनिर्भास. ३१ ध्यवधानस्य दर्शनात् । व्यवहितस्यैवाकारार्पकस्वमिति चेत् ताशस्यैवार्थस्य प्रतिभासन किन्न भषेधारः केशादिक्षानमर्थपन्न भवेत् । भवत्येवमविप्रसको जन्मातरावगतस्यापि प्रतिभासोपोरिति पेस् ; न आकारापेमेऽपि तत्प्रसासू शक्तिनियमतस्तस्परिहारस्यान्यनापि प्रत्यवायाभावात् । कमानाया प्रतिभासमानस्य कर्थ व्यवहितत्वं कक्षादेरिति चेत् । बहिर्भावस
भ्यायतारठा- भा०,१०,५०किशमिमा १०। नानन्तरस्य श्री-ए-1 सत्रानन्तमयस्य 10, 2012असत एष। ५ तथा तद्द-आ.ब.प.६ केशादिरूपतया । अपि के-चा.. १०. तई यद्यवतीनुम-शार, ०,१०। मानमर्यवान बाय, प..
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२७२
न्यायविनिश्चयविवरणे प्रतिभासमानस्य कर्थ तस्य झानान्तर्गतत्वम् ? तद्भावस्य मिथ्यात्वादिति चेत्, न; वर्तमानत्वस्यापि तत्वाविशेषात् । मिथ्याकारस्य कथमर्थत्वमिति चेत् ? ज्ञानत्वमपि कथम् ? म पहिर्भाधेन ज्ञानर केशादितयैव तस्यादिति चेत् ; अर्थस्वमपि त्यैव किन्न स्यादविशेषात् । ततो न पूर्वज्ञानेनापि तदाकारेण तदर्पणम् । अतदाकारेण तु तद्हणवन्न तदर्पणमप्युपिन्नम् ५ अतिप्रसङ्गाद् दोषादिसि सूक्तम्-सर्व समानम् इति ।
शक्तिनियमानियतस्यैव तदाकारस्यार्पणे तत एव ग्रहणमपि नियतस्यैव भवेस् । तन्नियमत्र यस्तुसरकेशादिविषदर्शनाहिततद्वासनापरिपाकवशात् , भवन्मतेन वस्तुसस्तदाकारदर्शशि शासनागरिमायादायित् । टेनाद
मान्तराधिपत्येन [ सान्तरप्रतिभालवत् ॥३६॥ ]
तत् अनन्तरोक्तम् अर्थात्मासम्भाध्याकारडम्पर भ्रान्त मिथ्याहानस्य आधिपत्येन सामर्थेन । प्रान्तमाह-सान्तरप्रतिभासवत् इति । अन्तरं व्यवधान सेन सह यर्सम्बन सान्तरं केशादि तस्य ज्ञानात् बहिर्यवधानवत्त्वेनैव प्रतिभासनात् तत्पतिमास: सर तद्वदिसि । तात्पर्यभत्र -केशाविप्रतिभासोऽयम् अवस्तुविषयः अभ्यमानत्वात् सान्तरप्रतिभास
वदिति । साध्यरिकलं निदर्शनम्, तत्प्रति भासस्थापि वस्तुविषयत्वान् । अन्तरस्यापि झाना१५ भारत्वेन वस्तुस्वादिति चेत् ; न तहि केशरदेस्सदाकारस्वम् अन्तरितस्य तदवोगास , सर्वस्यापि
पदाकारत्वापसे । असोऽवस्त्वेव केशादिकम् अज्ञानत्वं गत्यन्तराभावात् , अर्थत्यस्य स्वयमनभ्युपगमात् । सइयं शमनप्रयोगादेव प्रकोपो दोपस्य केशादिप्रतिभासस्थावस्तुविश्यवंमुपशमयितुमुभावितादेव निदर्शनेस्य साध्यवैकल्यात् "तत्प्रतिभासस्य तद्विपयत्वोपनिपातात् । शहि
है दोपमपसिसारविषता नान्तरस्य शानाकारत्वाररीकर्तव्यमिति "सिद्धं तस्यावस्तुस्वेन तस्पतिमा. २० सस्यावस्तुप्रतिभासित्वमिति न साध्यवैकल्यं निदर्शनस्य ।
संवृत्तिरवायमन्तप्रतिभासो नाम । दर्शन हि केशादेस्तपमेव नापरमसम्प्रतिपसः । न च तदेव स्वतः स्वस्य व्यवधानमुपदर्शयति विरोधात् । संवृतिस्तु व्यवधानवासनापरिपाकानुत्पधमाना व्यवधानस्य ततस्येनोपदर्शनात् अन्तरप्रतिमास इत्युच्यते । न च सस्थावस्तुविषयत्वेनान्यथा या विचारसहत्वम्, "तदसहरवस्यैव तद्रूपत्वात् , ततः सन्दिावसाध्यमेव २५ निदर्शनम् ; अवस्तुविषयत्वस्य साथ्यस्य तत्रानिश्चयनादिति चेत् ; न, केशादिप्रसिभासस्यापि
संवृतित्वप्रसङ्गात् तस्यापि वासनापरिपाकाभावेऽनुत्पत्तेः । अतस्तस्यापि तद्विषयादन्यत्वानन्यः स्वाभ्यां विचार(स)क्षमत्वात् कथं निश्चित सत्य सदाकारत्वं यतस्तदवष्टम्भेनान्यस्यापि वेदन
सदभावल मि- 4, ५० 1 दिर्भावस्य । -ममतिप्रमादिदोश इति श्री०,०,.. ज्यमनिश्चय-मा... . । -यहेतुत्वाद्वास-आ.,.,.! ५-वानरयनन भास,.,. केशादिप्रतिभासस्वापि शनाकाराभाई। -तमुपदर्शयितु-पा०, २०, ५०९ सान्तरप्रतिमासस्य । "शादिप्रतिभासस्म । सिद्वान्तस्य प्रा०, ०.१२ विकरासहस्तस्यैव । । संपतिस्वरूपत्वात् ।'
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१/३६ ]
ગ્રહ
विषयाकारानुमानमुपपन्नं भवेत् ? स्पष्टप्रतिभासत्वान केशादिप्रतिभासस्य संवृतित्वम् । न हि संवृतेःस्पत्यम् । "न विकल्पानुविद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता । ० वा० २२८३] इति वचनादिति चेत्; न; अन्तरप्रतिभासस्यापि स्यैवोपलम्भात् तस्य वस्तुविषया निश्चयान्न सन्दिग्धसाध्यत्वं निदर्शनस्य ।
प्रथमः प्रत्यक्षयस्तथा
i
नापि वायमानत्वस्य हेतोरसिद्धत्वम्, 'नायमित्यमेत्र केशादि:' इति बाधकप्रत्ययस्य ५ तत्रोपनिपातात् । बाध्यबाधकभावस्य व तात्त्विकस्यैव व्यवस्थापनात् । यदि राज्ञानादन्य एय केशादिरन्येनापि कानोपलभ्यते नानाप्रतिपत्त साधारणत्वाद्वहिर्विषयस्य सत्य केशादिवत् १ तिमिरादेस्तदुपलब्धिनिबन्धनस्याभावादित्यपि न युक्तम् परस्यापि तिमिरादिसम्भवात् । तत्सम्भवे भवत्येव तस्यापि तदुपलम्भ इति चेत्; न; अन्यस्यैव केशादेस्तेनोपलम्भात । कथं तर्हि तैमरिकयो रेकवाक्यत्वम् 'आकाशे केशस्तवसोऽयमास्ते इति । न; सादृश्यनिबन्धनत्वा- १० सत्रेकवाक्यत्वस्य, एकस्यैवोपलम्भे तयोरन्यतरस्यान्यंत्रोपलम्भो न भवेत्तस्यैवान्यत्र सम्भवात् । raft च मित्रदिग्देशतया तदुपलम्भनं तैमिरिकस्य तस्माचाशोऽन्य एवासौ केशादिरिति ज्ञानानुप्रविष्ट एवायम् अनन्योपलभ्यत्वान तज्ज्ञानस्वरूपवदिति चेत्; न; पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितस्वान चैदनुप्रविष्टस्यैव वस्य प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तेः, यहिस्तस्यै अन्दस्वज्ञानस्यैव प्रतिभासनात् ।
·
,
न च 'तज्ञानस्वरूपे तदनुप्रवित्वे सति अनन्योपलभ्यत्यमुपलब्धम्' इत्येष "तस्य १५ need after विरोघो न सभ्यते । गम्यत एव सहानवस्थानं "तद्विरोष इति चेत ; न; "सहावस्थानस्यैव प्रतिपत्तेः "तनुप्रवेशसहितस्यैवानन्योपलभ्यत्वस्य प्रतिवेदनात् । परस्परपरिहारस्तद्विरोष इति चेत्; न; अन्योपलभ्यत्यापेक्षयैव "तस्य भाषान हेतुविरुद्वेन अन्योपलभ्यत्वेन साध्यविपक्षस्य व्याप्तत्वात् । अस्त्येव "वेनापि तस्य विशेष इति चेत् कष पुनस्तव्याप्तिप्रतिपत्तिः ? सत्यकेशादाविति चेत्; नः तत्राप्यन्योपलभ्यत्वस्य वस्तुता स्वयमनभ्यु- २० पगमात् । पठति च प्रज्ञाकर:- परेण तदभावेऽपि दृश्यते इति विपर्यासमारोप्य तथा व्यवहारः" [ ] इति । न वैपर्यासिको धर्मस्तात्त्विकस्य याघको मानवके सिंहत्ययमष्यत्वस्य । ततो व्यभिचारी हेतुः सत्य केशशदाववज्ञानानुप्रविष्टेऽपि भावात् । यं दोषः, तत्रादि तदनुप्रवेशस्यैव भाषादिति चेत् : वव पुनरिदानी हेतुविरोधिना साध्यविपक्षस्य व्याप्तिपरिज्ञानं यतो विपक्षष्यावृत्या हेतोर्गमकत्वम् ? क्वचित्साहचर्थदर्शनमात्रेण २५ names areyards प्रसङ्गः श्यामेऽपि क्वचित्तस्य दर्शनात् । नैवमिति प्रकृतेऽपि समानत्वाम् अनम्योपलभ्यत्वस्यापि साध्यविपर्यये दर्शनात् । सद्यथा - सान्तरत्वेन हि
न
१ पुरुष २ पुरुषस्य २-न्यत्र तदुप भा० ० ० ४ केशादेः । ज्ञानभस्यैव । ५ केसादे: । ७ केशादेः । ८ केशादिशानस्य । इत्ययमात्रेण १० सस्णपमत्वं तस्य म विपक्षविशेधः २ दानवस्थामा०, ब०, प० १३ तदसुप्रदेश - ला०, २०, ५० । १४ विरोधस्य ! १५ सदमुप्रवेशेपि । १६ सस्य देशादावपि ।
१५
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२.७४
न्यायचिमिश्चयविवरणे
[२६ 'तदपि स्वयमुपलभ्यमानमन्येन शक्यमुपलव्धुं केशाधिवत् । न च तस्य तज्ज्ञानानुप्रवेश इति प्रतिपादितमनन्तरमेव । ततो नातस्तैमिरकेशादेस्तज्ज्ञानानुप्रयेश सिस्यति यतस्तत्र प्रकाशनि. यमस्य सादृष्यनिधनस्वनिर्णयान अन्यत्रापि तस्यैव सनिबन्धनत्वसाधनमुपपोत र तत्तो घोपशक्षित एव तत्केशादायपि सनियमस्य भावादन्यत्रापि तत एव तनियमः प्रसिपत्तव्य इत्य. ५ लमभिनिवेशेन ।
स्यान्मतम्- यदि संचिदनुप्रवेशो नार्थस कश्रमवासनम् ? स्वरूपेणैव पुरोवर्तिनेति चेत् ; कथं दूरेऽपि म तथैव दर्शनम् १ कथं ध्यामलितत्वेन प्रणम् । न ह्यन्यरूपेण तद्रहणम् । अथ तपमेन मन्दालोकसम्पन्मिन्दतया प्रकाशते; सदनुपपनम् । यतः
अर्थस्य प्रतिभासः स्याद्यदि भासा समन्वितः ।
अन्येन सहिताभासे ने स्यान्मन्दावभासिता ॥७०५॥ परस्परब्याचा रेकरूपप्रविभासे हि तयोरेव तथावभासनमिति नाऽस्पष्टरूपप्रतिभासः । न खल्वन्यस्मिन् स्वरूपावभासवति तदपरस्तथा भवति । भवत्येव कुसुम्भरागवलान्तरितयस्तुप्रति. भासवदिति चेत् ; ; तत्रापि समानत्वात् । स्वरूपेण प्रतिभासने "मेरताव(न रक्तताव )भासः ।
सदेव तस्य रूपमिति सथायभासगाभ्युपगमे प्रकृतस्याप्यालोकमन्वतया तदेव रूपमिति सफलस्य १५ तथावभासनात् कुतो धुद्धिभेदः १ तस्मादालोकभेदेऽपि न भेवावमासः । तस्माद्धरेषायमाकारो
मन्दरूपः तथा व्यरूपधेति; तन्न समीचीनम् ; गन्दरूपस्थापि बाहात्यात् । ननु अर्थस्यासदूपत्वात्कथं तथा प्रतिभासनम् , मन्दालोकबलासप्रतिभासनस्य प्रतिविहितत्वादिति चेम्
A
मन्दालोकान्क्याइर्थो सन्दश्चेन्नावभासते । "बुद्ध्यामारोपसम्पत्तिदूपो भासते कथम् ? ॥७०६।। मियोव्यावृत्तयो|धभेशोपलश्योस्त। प्रतिभासे कथं बोधरूपे स्यासठुपतयः ।।७०७।। निरुपलवसामाचे तवेदं कथमुच्यते ? : "ज्ञानस्याभेदिनो भेदनतिभासो खुपचः ॥" [प्र. वा० २।२१२ ] मोहाभाषे का च स्यात् "शास्त्रं मोहनिवर्त्तनम् ।" [प्र. वा० ११.] असतः खरस्य किं किश्चित्स्यानिवर्त्तनम् ॥७०९।।
stam2015-5:.'-.......
.
पादि। २ मत्यशादावपि । ३ चैत्यं -RT, ५०,०। ४ वटयूप-भाग, ब., .. ५ सुलना-4 पासिकाल. २१४१६ । ६ अनेन स-०,०,401 - न समन्दर-मा०, ००।
-ति स्प-भाग,०प० । करेण भा०,०प०।१०-नेन न रसाय- 1-परस्तावमास:प्र. कार्तिकाय । !! कस्मा-०, ५०,401 १२ बुद्धधात्मालोकम-मा०, स., प..
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११३६ ]
प्रथमः परपक्षप्रस्ताका विवेकविकलस्यागमत्येवोपनको यति । तस्यैवार्थोऽपि मन्दारमास: किन्नोपपत्तिमान् ? ॥१०॥
सत्यपि बुदुष्यात्मनो प्रामादिविकरूपस्य चान्योन्यवादसतया प्रतिभासने सद्विवेकश. तिविफलस्य भवत्येव बुद्ध्यात्मनि ग्राह्यादिभेदप्रतिभासोपप्लव इति चेत् । नेयम, मन्दावभासस्थाप्युपलवस्य सम्भवान् । 'मन्दालोकरूपयोरपि विविक्तलया प्रत्ययभासनस्य तद्विवेकवैकल्यस्य ५ व कविप्रतिपत्तिरिति सम्भवानिवारणात् । तस्मात् “मन्दालोकसाहित्येन रूपेऽपि मन्दप्रतिभासोपपत्तेरथस्य प्रतिभासः स्यात् ।" [ ] इत्यादिकमयालोचितवपनमेव निबन्धनकारस्य । धर्मकीर्तिस्तु "मनसो युगपत्तेः" [प्र. या० २११३३ ] इत्यादिना दर्शनविकल्पयोरन्यसरधर्मस्यान्यन्त्र प्रत्यासत्तिवशावघ्यारोपं ब्रुवाण एवं आरोकमान्यस्य सत्पाटवस्य वा रूपेऽपि कथमध्यारोपमपाकुति ? यतस्तदध्यारोपरशादेकाकारस्थापि स्पस्य १. स्पष्टेतरात्मना भेदेन प्रतिभासो न भवेत् । ततस्तस्यापीदमपालोचितमेअभियानम्
"भान्धपाटयभेदेन भासो धुद्धिभिदा यदि।। भिमन्यस्मिन्नभिन्नस्य कथं भेदेन भासनम् ? "[प्र०या०२१४११]इति !
न च षयमाोकमान्य निबन्धमत्वं मन्दायभासस्य मः, सत्यपि तस्मिन् बालके परि. स्फुटस्यैव रूपयर्सनस्य भावात, असस्यपि तस्मिन् परिणतवयसि मन्तस्यैव रूपप्रतिभासस्यो- १५ पलम्मा , अपि तु तज्ज्ञानाशक्तिनिबन्धनत्यमेव । यदुक्तम्- 'तद्धान्तराधिपत्येन इति ।
ननु यावत्तवाधिपत्येन बहिरसस एव मन्दाकारस्य प्रविमासमं तावत ज्ञानाकारस्यैव स्मान भवति? प्रतीतिश्चैवमनुग्रहीता भवति । तथा हि प्रतीतिरेव मम ध्यामलितरूपोदिता' इति जनः प्रसिपतिमानिति चेत् ; ; दहिवन प्रतिभासमानस्य तदाकारत्वानुपपतेः । 'प्रतीतिरेवं मम ध्यामलिवरूपोदिता' इति तु प्रतिपत्तिबहि:स्थस्यान्तरुपचारात् । ननु कार्यधर्मस्य २० कारणे भवत्युपचाये यथा घलुपि दर्शनमान्धस्याध्यासात मन्दं चक्षुः' इति । दर्शनस्य तु न विषयः कार्य नाप्यन्यान् यतस्तन्मान्यस्य तन्त्राध्यासात् 'भन्दै दर्शनम्' इत्युच्यते । विषयत्वादेव तद्धमस्य विषयिष्युपधार इति चेत् ; मैं; मान्ययम् धर्मा-तरस्यापि तद्गतस्य साध्यासप्रसङ्गात् । तथा च फुझ्यादित्वेनापि दर्शनस्य चरदेशः स्यात् न चैवमनुमति भपतः । तस्मादस्पष्टत्वं नाम हटेरेष रूप सर्वजनप्रसिद्धत्वात् । न च सार्वजनिकस्य निश्चयम्य निर्मिबन्धनमेव विभ्रमत्वव्यय- २५ स्थापनत्वमुपपत्रम् । तदुक्तम्--
"मम ध्यामलितं चधुस्तादृग्दर्शनसमपात् । तत्कार्यदर्शनादेव व्यपदेशस्तथास्तु सः ।
मदाबलोक-भा०, प.प.10-दिकथम-०३०.५० । ३ अालोकमान्ये । पद्ध। ५-वमच्या-मा०, २०, ५०। ६-स्य तु विषयिः का-आ०, २०, प. .दर्शने। -मनुभयत्तिर्मभार,. .।
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न्यायविनिश्वयविवरणे
egreg कार्य नास्त्यन्यार्थः कार्यतया स्थितः । तथा समागमादेव यदि नीलापि सोम्यताम् ॥
मुख्य पमेयं दृष्टिहिं न कदाचिचयेष्यते । सर्वलोकप्रतीतितः ॥
[ २१३६
नियो न हि सर्वेषामकस्याज्ञान्त उच्यते ।।" [० वार्तिकाल० २।४९० ] इति चेत्; न; तनिश्चयस्योपचारेण भाषात्, उपचारस्य विषयभावेनोपपत्तेः । न चैवं धर्मान्त रस्याप्युपचार! : या (वा) ही गोत्षयत्तिष्ठन्मूत्रत्वस्यापि तत्प्रसङ्गात् । कदाचिदस्त्येवायमपीति चेत्; न; दर्शनेऽपि कदाचिद्विपकव्यपदेशस्थ भावात् 'पाव को धूमान्' इत्यत्र घूमदर्शनस्यैव धूमत्वेन व्यपदेशात् । तत: 'कुड्यं ममेयम्' इत्यादि परभिप्रायानभिज्ञतयैव प्रतिपादितम्, १० कादाचित्कस्य विषयश्यपदेशस्य विषयिण परेणाभिप्रेतत्वात् । न च तनिश्चयस्याकस्मादेव स्वयते, बाधादेव तदेभिधानात् । त बहिभावेन प्रतिभासनमेव |
"
जैस.
ननु न संवेदना बहिर्भात्रः, तस्यैव तचतिरितस्याभावादनुपलम्भातू 'तानपादानत्वात् । न च तदात्मने एव तस्य षहिभयो विरोधात् । समार्थ बहिरेव व्यामलाकारः ' इति व्यवहारस्तु शरिरापेक्षयैव, ममत्येव शरीरस्य व्यपदेशात् । स्वरूपप्रतिभासे हि न वट. १५ स्वास्थ "व्यवहारमात्रविदम् आश्रयापेक्षया परम्" [ ] इति वचनादिवि चेत्; न; शरीरस्यापरिज्ञाने नमत्येन निर्देशानुपपत्तेः सुमशरीरयत् । न च तस्य परतः परिज्ञानम् अनभ्युपगमात् । खतस्तु परिज्ञाने भवतु 'नमः' इति न पुनर्थ्यामलाकार इति तस्य सेनापरिज्ञानात् । न हि स्वसंवेदने परसंवेदनम्” [ ] इति वचनात् । मा भूच्छरीरापेक्षयापि "तस्य तटस्थत्वमिति चेत् कथं तद्व्यवहारः ? संकृतिमात्रादिति चेत्; २० “कुतस्तयोर्हेतुफलभावप्रतिपत्तिः ? न कुतश्रिदिति चेत् कथमभ्युपगमस्तद्विपर्ययवत् ? नप संवृतिमात्रावप्रतिपत्तिः तेन व्यवहारस्यापरिज्ञानात्। नापि व्यवहारात् तेनापि तन्मात्रस्याप्रतिवेदात् न च तयोरेकेन परिज्ञानाभावे तद्धेतुफलभावस्य परिज्ञानम् । भवतु तदुभयfarera ज्ञानमिति चेत्; न; यतस्तत्रापि तयोरनुप्रवेशे न हेतुफलभावः तस्य भेदनिष्ठत्वासम्भवात् । अनप्रवेशे सिद्ध " तयास्तदपेक्षया" तटस्थस्यम् । संवृत्या व्यव
पं०,
१-का-आ०, ब०, प० २३ दर्श-आ०, ब०, १०४ भिज्ञातप० । ५ न्सत्यकथनात् ६ बाधक घ्यामलाकारस्य 2 ● यसः भ्यानलाकार संवेदन र नेदः अत: तस्यैव संवेदनपत्र ध्यामाकारस्य कथं तस्माद् व्यतिरिक्त्वमिति मावः । ९ धनुब्धस्य संवेदनस्य 'वेदस्य हिर्भावः' इत्यत्र म अपादानार्ष युते। तचानुदान प० । श्यानुपादान-आ०, ब० ।
० सहखरूदेव संवेदनात् तस्य यामलकरस्य । १९ – सेन तटस्थ लटस्थ
वनस्थानस्थत आ
२० । १२ मायापेक्ष-आ०, ब०१-मानापेक्ष प०। १३ व्यामलाकारस्य १४ तद्यस्थत्वमिति भा०, बं०, ०१ १५ तिहारयेः । १६ रेकापरि-सा०, ३०, २०१७ उभवनिनेऽपि । १८ संकृतिव्यव हारयोः | १९ उमयविषयकज्ञानापेक्षया ।
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११३८३
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव हार इत्यपि संवृत्यैव न बरतः । ततो यदि तस्थ विचार्यमाणस्यायोगो न कम्विदोषो विचाराक्षमत्वस्यैर 'तदूपत्वादिति चेत् ; न; वास्तवस्यैष तब्यबहारस्य प्रसङ्गात् । तस्मिध्यात्वस्य' मिध्वाचे मत्यन्तराभावात् ।
अपि च, द्वितीयस्यामपि संवृतौ पूर्ववत्प्रसङ्गः तस्यास्तत्फलस्य चापरिक्षाने न तद्भाव. स्थाभ्युपगमः । परिझानत यदि क्वचिदननुपविष्टतथैव किल 'वस्तुतः तदस्यतथैव प्रतिभास- ५ मम् ! तयोरपि संवृत्यैव तदापः परिकल्प्य तस्य च विचारपरिशिथिलत्वं न दोशयेति *चेत् ; तम; अव्यवस्थापनेः । ततो दूरमनुसत्यापि कयोसिंवृतिवरफलयोः पारमार्थिक एष सद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः । स च तयोः क्वचिदहिसयोरेर प्रतिभास ने) सम्भवति नान्यथा । तथा न स्यामाकारस्यापि तज्ञानयहि सस्यैव प्रतिभासनमिति सिद्ध तदेकत्वनिश्चयस्य तेन चाधनाविभ्रमत्यम् ।
यदि धन (पुन) रसत एव तदाकारस्य भ्रान्सिसामध्येन बहिरवासनं कथं तज्ज्ञानस्यास्पष्टत्वं यतः परोक्षतया प्रमाणत्यम् ? कथं धा बहिरभिव्यक्तेन रूपेण तज्ज्ञानस्य स्पष्टत्वं यतः प्रत्यतया प्रमाणत्वमिति चेत् । न अभिप्रायापरिज्ञानात् । न ह्यालोकालिङ्गितवस्तुविषयतया स्पष्टत्वं प्रत्यक्षस्य श्रोत्रादिप्रत्यक्षस्य तद्रावर (तदभावापत्ते, अपि तु क्षयोपशमादिनिमिरले भानस्य विशुद्धिविशेष एष । अस्पष्टत्वमप्यपकृष्टस्तविशेष एवन भ्यामलाकारकलितबस्तु. १५ प्रविभासित्वमेव, स्मरणादौ सदभावापत्तः । प्रतिपादित चैतत्पूर्वम् । ततो नानांकारशकेऽपि मिरविषयादी प्रकाशनियमस्य सुनिबन्धनस्य अश्यति यतोऽन्यत्रापि निदर्शनेन तस्वट्यत्ता व्यवस्थापतेति स्थितम् ।
इशानी 'प्रकाशनियमो हेतोः' इत्यादिकमेव व्याचिस्यासुरवसरप्राप्तं चोयमुस्थापयति
यथैवात्मायमाकारमभूतमवलम्यते ।
तथैवात्मानमात्मा चेवभूतमबलस्वते ॥३७॥ इति । पथैव येनैव प्रान्तेराधिपत्येन प्रकारेण मापरेम आत्मा स्वभाषो ज्ञानस्य तस्यैवासम्बकत्वोपपशेः अयं प्रत्यात्मवेदनीय आकारं मिरकेशादिकम् अभूतम् अविद्यमानम् अवलम्बते जानाति सधैव तेनैष प्रकारेण आस्मानं स्वरूपम् छात्मा अभूतम् २५ मसम्सम् अवलम्बते चेत् यदि । तथा हि, यद् बोधाधिपत्येनावलम्बसे तवभूतम् यया . मिरकेशादि, योधाधिपत्येनाबलम्ब्यो च योधात्मेति । तत्रोप्सरमाह
न स्वसंवेदनात् तुल्यं मारपत्र चेन्मतम् । ] इति ।
संतवसायात टप्पा-पृ १५ रि.. त्या व्यवहारः' इत्यस्य मिध्यमरूपत्वे । १ देवपलमावस्य। सद्भावस्यान्युप- ब०,.1 पातुतर-80०, ०,१. चेनाव्य-आ०, २०, १०। ६ वनस्तत १०. ताप त्रुद्धितम् । ५-धनं च-मार, ०,१०। ८ तशालोपयोः १० तडाबापत बार, २०१९-मनादि-80,20, ५.।
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भ्यायविनिक्षयविवरणे
[ १८ ___ आत्मानमारमा अभूतमवलम्बते इत्येतत् न । कुतः ? स्वेन भात्मना संधेपनात प्रतिपरोस्तद्वात्मनः । तात्पर्यमत्र-ययाधिपत्यं तस्याभूतमेव कुतस्तेनात्मनस्तत्केझादेविलम्धनम् ? इत्यसिद्धं साधन तद्विकलता च दृष्टान्तस्य । मूतमेवेति चेत् ; कुत एतत् ? तथैव स्वसंवेवनास्प्रत्यक्षात्प्रतिपत्तेरिति चेत् ; प्रत्यक्षबाधितस्तईि भवदीयः पमस्तस्य कथं हेतुवलेन व्यवस्था५ पनम् ? "न तस्य हेतुभिखाणमुत्पतन्नेव यो हतः"
इति न्यायात् । न भूत नाप्यभूत तार ; या सदुभवकिपीतः दिसि गे: ; ना
तद्विकल्पव्यतीतस्त्र यद्यभूतमुदीयते । तयोरन्यतरः कल्पो भवेयुक्तप्रतिक्रियः ॥११॥ भूतं चेदाधिपत्यञ्च तद्भुत न किं मतम् । भूताभूतविकल्याभ्यां निर्मुक्तं सदपीति चेत् १७१२।। अनवस्थानोत्रेण तदेतत्पीडिस श्यः ! वञ्चित्तपरिवेशमावहत्यतिदुःसहम् ।।७१३।। सस्मारमुपेत्यापि तद्भूतमभिवाञ्छता ! बोधात्मा भूत एवाचमभ्युरेतो भवत्यलम् ।।७१४॥ तस्मादालम्पनं तस्य नाभूतस्योरपद्यते । "इति सूक्तमिदं देवैः 'न स्वसंधेदनात्' इति ।१४१५।।
पर गह-तुल्यं सदृशम् आत्मनीषाकारेऽपि सत्केशादी स्वसंवेदन तस्यापि तदनर्धान्सरत्वेनैव प्रतिवेदनात् । न हि तत्रापरं तठेदनमुपलभ्यते । इवमेव च स्वसंवेदनं यदन्य. निरपेभमुपलम्भनमिति भावः परत्वे ।।
ननु इदं प्रामेव प्रतिविहितम् अन्योपलम्भस्य च्यवस्थापनरत् , तल्कि पुनरुपक्षेपेणेति चेत् १ न; अन्यथा दूषणप्रतिपादनार्थत्वात् । सदेवाह-भ्रान्तरिति । 'न' इत्यनुवृत्तम् । यदुक्तं 'तुल्यम्' इति । सम; कुतः ? भ्रान्तेर्विभ्रमात् मिध्यात्यावदाकारस्य । न हि ज्ञानाकारस्य मिथ्यात्वमुपपन्नं झानस्यैव वासनात् । प्रसिद्ध भ्रान्तितया तदाकारः । ततो न स्वतस्तस्य
संवेदनम् । अधान्तिरेचासो ज्ञानरूपतया भ्रान्तिन्तु बहीरूपत्वेनैवासतेति चेत् ; म सस्य तथाऽ. २५ नत्रभासनान, अन्वारूपतयैव प्रतिपत्तेः, अप्रतिभासने प न भ्रान्तिः, अतिप्रसद्वात् । प्रतिभा
सत एव ज्ञानान्तरे तद्रूपतया । तदाह 'अन्यन्न चेत्' इति । अन्यत्र ज्ञानान्तरे तत्प्रतिभास इति प्रान्तिः तदाकारः चेत् यदि इति । तत्रोसरमाइ-'मतम्' इति । '' इत्यधिकृतम् । इदमभिमत ने सम्भरतीत्यर्थः । न हि शानाकारस्य कानान्तरे प्रशिासनम् अनन्यवेशया
-- - -- -प्रतीक्षितः धा०,००२-तमपि शा०प०,१०। १ ततः सूज-आ, ०,4010 तदर्थी 10,04०। ५ "एतदेव स्वसम्मेवनं यदायोपरत्वे पति प्रकाशनं भाम!"-20 वार्मिकाल३।४६५। ५ युस मा., 40,4010-वति मा०, २०, प.।
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राबद
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव तक्ष्भ्युपगमात् । अन्यस्यैव तत्र प्रतिभासममिति घेत; फथं तत्केशादेभ्रान्तित्यम ? अन्यस्यैव तदुपपत्तेः । तत्सारश्यादिति चेत् । तस्यापि कथं तवं येनैवमुच्येत । तत्र पहिरसतः संशादेः प्रतिभासनादिति चेत् ; ; प्राच्येऽपि सम्झाने तथैव वत्प्रसान् । इति सिझं मुख्यतवैध तस्व माहिर संभासंपेन विधि यकिने प्रविष्टस्यैव तस्य प्रतिभासमम् । यहीरूपत्वं तु झानान्तयेपदर्शितमेवेति वेत; न तत्रापि न हि' इत्यापित्य परिध- ५ मादब्यवस्थापत्तेः।
एतनैव तदपि प्रत्युक्त यदुक्तमलद्वारे-"विकल्पो ग्राह्यग्राहकोल्लेखेनोत्पत्तिमान सोऽपि स्वरूपे ग्राहग्राहकरूपरहित एव परेश तथा व्यवस्थाप्यते न तस्यापि स्वतो व्यवस्था" [प्र. वार्सिकाल० ३१३३० ] इति । कथम् ?
'विकल्प एव नैव स्वादनवस्थामदोपतः । सदभावे कथं नाम क्चोऽप्येतत्प्रवर्शताम् ॥७१६॥ "याच्यवाचकसम्बन्धज्ञाने हि वचनं भवेत् । नापरं तच विज्ञानमन्यत्र सविकल्पकात् ॥" [ ] तरसंस्कागदोवृत्तिरित्यप्यतेन दूषितम् । विकल्पभाषिसंस्कारस्तदभावेन यद्भवेत् ॥७१८॥ सदचोऽपि न हास्य मिवस्यावलोकनात् । प्रान्तिरेय त्येयं चेत्कयं भ्रान्धिनिमद्यताम् ॥१९॥ वचस्यविद्यमानेऽपि तत्सस्वारोपणं यदि ! विकल्पादेवं नन्वेतसदभावस्ततः कथम् ? ॥७२०॥ मिध्याज्ञान तसः किद्विस्तुवृत्त्यैत्र कथ्यताम् । बालमेव च तद्वाएं तन्मिध्यारूपमियपि |७२॥ तज्ज्ञानस्य स्वरूपञ्च तद्धन्मिस्या भवेति । सहदेव सस्य स्यास्वसंघदनमाखसम् ॥७२२॥ अस्ति चैतसतस्तमासत्वं सूक्तमिदं ततः । 'न स्वसंधेदनात्तुल्यं भ्रान्तरन्यत्र चेन्मतम् ॥७२३।। इति । २५
कथं पुनर्वाहास्य प्रहणम् १ क न स्यात् ? स्वाभिमुखेम रूपेण तोगात । . खरूपस्यैव हि तेन प्रहणमुपपन्नं न बालस्य, तदभिमुखेनेष रूपेण प्रहण में स्वाभिमुखेनेति
चेत् ; किमेव रूपे स्त: १ तथा चेत् ; फुतस्तयोः प्रतिपत्तिः ? परस्पराभ्यामिति चेस् ; तथा
ततक्ष स्व-मा०, ब०, ५० वितीय वि-मा, २०, प । ३ एकता मा., ., प. विकरुपे एष भा०, 4.2.1 ५ निरन्भस्वा-प्रा .. .६कलयस्य वि-पा०, ५०, ५.१ ७-पतोत-मा०, २०, ५०1
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[११३८
म्यायधिनिभयविवरजे ससि देवदायज्ञदत्तपरिच्छिन्नमिय न द्वयमिति बेथेत, 'गया विदितमेतत्' इति च न स्यात् कर्तुरसंवेदनस्वेनानवभासमात् । तत ते पत्र स्वसंवेदने स्याताम् । तथा च सन्तानान्तरप्रतिपन्नवदप्रतिपत्तियोः । अत एवात्मा द्वयोः प्रसिपत्तेष्यते, अन्यथार्य प्रसङ्ग इति परः; अबोच्यते
स्ववेदनेतरत्वेन पूर्वन्यायानतिक्रमात् । सोऽपि पर्यनुयोगेन नैवाने विमुच्यते ॥७२१॥
यदि स्वसंवेदनरूप आत्मा तस्य स्वात्मनि निमग्नत्वात् म परवेदनम् । परस्यापि वेदने को विरोध इति चेन? 'तेन रूपेण परं बेत्ति परेण का' इति विकल्पयोरेका स्या
तव्यम् । 'स्वरूपेण वेति' इति न युक्तम्, 'स्वरूपस्य स्वात्मनि व्यवस्थानात् । स्वरूपे निविष्टं १० यद्रूपं स्वाभिमुखमेव, तत्कथं पर वेत्ति ? अन्यमुखच्चेत् ; तेन तर्हि स्वात्मा न प्रतीयते । ततः
सन्सानान्सरबेदनवन्न द्वयप्रतीतिः । यस्य तदाभिमुस्यद्वयं स एक एवेति चेत् ; 'यूयोतत्' इति का प्रतिपत्तिमान् ? स एव इति चेन ; पुनराभिमुल्यद्वयेन प्रयोजनमित्यनजस्थान स्यात् । ततः स्वसंवेदनरूपत्रयम् , ततस्तद्वेदने पर आत्मोपगन्तव्यः पुनरपर इति महत्यनर्थपरम्पस ।
ततः स्वविषयमेय झानं. २ बहिविषयमिति चेत् ; कथमेवं कपिकस्यविधिभ्रमः स्यात् ? १५ असदवभासित्वं हि विभ्रमः, तश्च घहिर्विषग्रस्यैव सम्भवति न स्लपविषयस्य, स्वरूपस्य
विद्यमानत्वात् । विभ्रम एत्र मा भूदिति चेत् ; न; तस्य प्रसिद्धत्वात् । विचारासहैव तत्प्रसिद्धिरिति चेत् ; कोऽसौ बिधारो यदसहत्वं तत्पसिद्धः १ 'कथं पुनः बालस्य ग्रहणम्' इत्यादिरेवेति चेत् ; न; सस्य जडत्वे स्ययमेघासम्भवादप्रतिपत्तेः । न हि तस्य स्वतः
प्रतिपति च्यात् । परतः इति चेत् ; न ततोऽपि स्वरुपमात्राभिमुखाचल्योगात् स्वरूपस्य स्था२० रमनि' इत्यादिवचनात् । विचारऽयभिमुस्वमेव तदिति चेत् ; न; सत्रापि 'किमेवं द्वे रूपे स्तः'
इत्यादेनिरवशेषस्य प्रसङ्गस्योपनिपातात् । सन्न जो विचार: । चेतन एवेति चेत्, तस्याप्येकामारत्वे कथं तत्र परपरस्य पूर्वपक्षोल्लेखस्य तदुसरोल्लेखस्य चोपदर्शनं विरोधात् १ अनेकाकारत्वेऽपि यदि प्रत्युल्लेख तदभेदरसदा कुत 'इदमत्रोत्तरम्' इति पूर्वपक्षनदुत्तरयोविषयविषय
भावज्ञानम् ? पूर्वपक्षोल्लेखस्य तदुसरे सदुल्लेखस्य व पूर्वपक्षे प्रतीत्यभावात् । न च सड़ा. २५ वापरिहाने विचारः, तस्य वाद्रूप्यात् । सन्तानरूपेण भेदो विस्त इति चेम् ; न; सस्थावस्तुसत्त्वे विधारस्यापि तत्त्वापत्तः ताप्यात । तत्र व दोषस्य लक्ष्यमाणत्वात् । वस्तुसदेव तद्रूपमिति चेत् ; न; "आत्मसिद्धिप्रसङ्गात् , परापरज्ञानवर्षायाविध्यामावस्यैषात्मत्वात् , सति तस्मिन् निर्धाधमेय बाहामण स्वपररूपगोचरस्थाभिमुख्यद्वयस्य तत्र भावात् । तदयप्रतिपत्तावष्यपरे
1 स्वर स्वार, 401 स्वरूपस्या-प। विशिष्ट प.1 तस्याविदत्तात मा...! विभ्रमसदिः । ५ आती मि-R०,०, प. विषयविधिमायापरिक्षाने। आसिद्धि-आ-, , प.1 स्वरूपयो-मा०,०,०।
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११३८ 1 प्रथमः प्रत्यक्षता
२८१ जाभिमुख्यद्रयेन प्रयोजनं तत्प्रतिपत्तात्रपि तदन्येनेत्यनवरधानमिति चेन् ;न; विचारोल्लेख भेदप्रतिपत्ताबपि एवंप्रसङ्गात् तत्रापि तदाभिमुरूपभेदेन प्रयोजन प्रक्षिपशापि तदन्येन तत्प्रतिभेदेनेत्यनवस्थानस्याविशेषात् । नास्त्यनवस्थानम् , परतस्तदुल्लेखानामपरिज्ञानात् । 'परतो हि सत्परिक्षाने तत्राभिमुख्यमेदापेक्षणातवानवस्वानं तत्परिक्षानेऽपि तदपाभिमुख्यभेदस्यायश्यापे. क्षणीयत्वात् , न चैवम् , स्वत एव तेषां परिज्ञानात् । स्वतः परिक्षाने परस्परस्वरूपापरिक्षामा ५ कथं तानात्वपरिज्ञानम् ? इत्यपि न मन्तव्यम् । तत्परिक्षानस्य तदविध्वाभायात्मना विचारेगैव भावान, तस्य निरक्शेषतदुल्लेखविषयत्वादिति चेन् सिद्धं नः समीहितम् , आत्मरूपयोरपि स्त्रपयभिमुख योरेवमात्मनेत्र सबभेदिना प्रतिपसेरनवस्थानदोषागवतारात् । परराभिमुख्यस्यापि स्वतः परिक्षाने तदपि स्वामिमुखमेव भवेत् , अन्यथा ततस्तत्परिमानायोगादित्यन्यदेव पराभिमुस्वं तदभ्युपगन्तव्यम् , तस्थापि स्वराः परिज्ञानेऽपि ततोऽपि परं पराभिमुखमभ्युपगन्तव्य. १० मिति कथं तदोपानवतार इति चेत् । न परापरस्य स्वाभिमुस्वत्याभावात् । कुतस्तहि पराभिगु ख्यस्य परिक्षानमिति चेत् १ प्रथमादेव स्वाभिमुखतः, तस्मात्तस्य कथाविदव्यतिरेकात् , आत्मन स्वविवर्सज्ञानस्वपराभिमुख्यथोरप्येकमेव स्वसंवेदनमिति न स्वसंवेदनरूपत्रयं सम्भवति । ब्यतिरेकर यार्पणया सम्भवत्येवेति चेन् । न; तथापि तत्परिज्ञानार्थमात्मान्तरपरिकल्पन नयतोऽप्यका ततस तिरकस्यामा , अन्यथा विचारातदुल्लेखानामपि ततस्तथा व्यतिरेके १५ सस्पतिपत्यर्थ विचारान्तरपरिकल्पनस्वापि प्रसनात् । तत इदविचारशतयैव प्रतिपादितम् -- 'ततः स्वसंधेदनरूपवयम्' इत्यादि।
पुनः स्वपराभिमुखयो रूपयोगत्मनभानाधिव्यसिरेकितया विरुद्धधर्भाध्यासे सति परस्परमविवाभाव इति चेत? न विचारतदखानामपि तत एव तयभावापः। विचा. रोऽपि मा भदिति देत: कपनतिनों भवतः स्वितः (सा) प्रजता ? संवेदनावर इति चेत् ; भेवे जीवति कथं तद्वैतम् ? नियकृते सस्मिन् तदिति चेत् ; न विचारादेव तन्नि करण्यत् तस्य पाभावात् । अविद्योपप्लुतानामस्त्येव विचारः, तत्परिशुद्धायेव तदभावादिति येत् । अतः पुनस्तदुपलवापेक्षणं विचारस्य ? स्त्रयमप्युपप्लवत्वादिति चेत् ; कथं ततस्ताविक भेदनिराकरणं तद्विधिवत् १ कथं वा सति सस्मिन्निरुपल व तदद्वैतम् । तस्याप्यन्यतो विचारानिराकरणादिति चेन् ; न; अमवस्थाप्रसङ्गात् । मायं दोय। प्रदीपकल्पवाद्विचारस्व । २५ प्रदीपो हि तैलबादिक निर्दहा स्वत एवोपशाम्यति न त निमितान्तरमपेक्षते तद्वद्विवासेऽपि भेदजालं निराकृत्य स्वत एव निराक्रियते न तत्र विचारान्तरमपेक्षते इति चेत् । ततस्तनिराकरण नाम बदभावधेदनमेव । तब म स्वयम् । तद्रूपत्वेन विरोधात्-'अमावन्न वेदनम् , तयेत नाभायः' इति । अविरोधेचा तदन्तस्याप्यभावस्यैव वेदनत्यमिति मोपात्तस्य विशेषः ।
मार्गदर्श
परतोऽपि सत्य--10, बा, ए०।२ -मानस्वरूपाभि-०, ०.२०१भेदविवक्षया 1 " भैवप्रदिनयनाघि पूर्वया भेदस्य सिधभावात् । ५. मविचारितवैव मा., २०, ५०। ६ विचारतदुस्लेखमयपि १०. विचारस्तदुल्लेखनमपि । मा, स्थितः प्रज्ञा सं-मा०, ५०, ५० तपतस्याप्य-बा, ब०,५। ९-दिकनिद-या, २०,५०१ नम निवे-१० । नाय सदमा निवे- 4.1
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२८२
न्यायविनिश्चयविवरण नापि त सुत्यम ; अभावस्य 'सहयोगान् । ततो मोपलवरूपाविचारत भेदनिराकरणम् । अनुपल्लवरूपत्ये तु तस्य तदेकयोगक्षेमत्वेन आत्माप्यनुपाव एव · स्वपरयरिछेनस्वभावावपि तस्येति कथन्न बाहापणम् ? तदेवाह -
सत्यं तमाहुराचार्या विमा विभ्रमश्च यः ॥३८॥ यथार्थमयधार्थ घा प्रभुरेषोऽवलोकन । इति ।
सत्यम स्थितिम आत्मानम । क्षात्मन एवं विचारविषयदया प्रस्तुतत्वात । आहुः आवेदयन्ति । के ? आनार्या विचारझामप्रवर्तका इति । अनेन सत्यात्मयायित्वाभाके सेवा तत्प्रवर्तकत्वाभावं पूर्वोक्तन्यायमादयन् अनुमानसिद्ध तत्सत्यत्वमावेदयति-कीदृशं तम् । इत्याह-योऽवलोकले पश्यति ! कया ? विद्यया यथावस्थितवस्तुरूपावलोकनशक्त्या 1 तदमेन 'सारूप्यमवलोकनानिमित्तम्' इति प्रत्युक्तम् ; शतरेव तन्निमिनत्वोपपत्तेनिवेदितत्वात् । कमवलोकते ? एथार्थ को येन स्वभावेन स्थितोऽर्थः स यथार्थस्तमिति, सुसुपेसि समास: तदनेन 'सर्थमुपालन एव' इत्येकान्तः प्रतिविहितः । सधा हि -- तदेकान्ताय नाप्रतिपन्नस्यैवाभ्युपगमा अनुपाल ववन् । मापि कुतश्चिदुपतषादेव तत्प्रतिपत्तिः सहदेव, अनुपातयातु तत्प्र
लिपसौ कथं तदेकान्त इति ? न विधिमुखेन कुसश्चित्तत्प्रतिपत्तिर्यदयं असमः स्यात् , अपि स्व१५ नुपालन एवं प्रतिक्षिप्यते तम्प्रभागस्य प्रत्यक्षादेरसम्भवादिति, तल्लक्षणदोशेदावनेन प्रतिक्षे
"पान् । प्रतिक्षिमे चानुपपये पारिशेष्यादुपलवस्यैवावस्थानं गत्यन्तर/भावादिति चेन् ; म; तत्रापि प्राच्यादेव दोषास् पारिशेष्यस्यायुपश्यत्वे ततोऽप्युपलवस्य तविपर्ययवर व्यवस्थितः । अनुपलवत्वे तदेकान्तपरिहाणेः । उपलवस्थापि यदि स्वरूपं व्यभिचरति कथमुपलबत्यम् ! न
व्यभिचरति" चेन् ; तथापि कथं तस्वम् ! अव्यभिचारिस्वरूपस्यैवानुपलबत्वात् , "तदवलो२० कनस्य यथार्थावलोकनत्वादिति सूकं यथार्थमवलोकन इति ।
पुनरपि तस्वरूपमाह-विनमैश्च मिध्याकारप्रणशक्तिविशेषैश्च । पशब्दः पूर्वसमुच्चयार्थः 'अयथार्थ मिथ्याकारं योऽयलोक इत्यनेनापि मिथ्याज्ञानद्धात्रमावेदयता ज्ञानानां स्वत एव प्रामाण्यमिति प्रतिविहितम् , सत्र मियाज्ञानाभावप्रसङ्गात् । वधा हि
स्वशब्देन हानस्वरूपमेनोच्यते । तयदि प्रामाण्यस्य प्रयोजक मिथ्याजानेवपि भवेदविशेषास् २५ इत्यभाव एव तेषां भवेत् , सति प्रामाण्य मिथ्यात्त्रविरोधान् । अभाव र मिथ्याज्ञानानां चोद.
नावर प्रत्यागमस्यापि धर्मे तम्मानजननद्वारेण प्रामाण्यास ""धर्मे चोदनैव प्रमाणम्" [ ] इत्यपालोचितमेव पचनं भवेन् ; "अन्ययोगव्यवच्छेदाभावभावधारणानुपपत्तेः ।
.-........::.:..
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हेवायोमान् । २ नीदमतम् । “साधन मेयरूपता-प्रवातिकाक्ष. २३.५ ३ सुबन्तं सुषन्तेन सह समस्यते । ५ उपायकान्तप्रक्षिपसौ । ५ इति रुचन्न बि-श्रा०,१०,१० भनुपरवाइकमाणस्य । -पासत्प्रति-भा०,१०,401 अनुशववत् । १ पारिशेयस्य मनुष्यरूपये। 1. -पि तयादि-आ प
1-सरतीति मा.,१०,५०1१ सदवलमेका भा०प०,०11३- स्व-मा.... "चौदनैच प्रमाणश्च स्तर में प्रचारितम्"-
मील चौर सू०एको ४११५-द्रष्टव्यम्-पू. २५ टि ।
Hi-main
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११३१] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताचः
२८३ मिध्याज्ञानेषु प्राममपि प्रामाण्य 'पाधकप्रत्ययेनापोपत इति चेत: तयदि तेषामेव स्वरूपमविशिष्टं कथमपबादः ? तेषामेव तत्प्रसङ्गात् । न पैषम् , सत्यपि बाधकप्रत्ययोपनिपाते तैमिरिकस्य द्विषन्द्रप्रतिभासानिवृत्तः । तस्कलपादन्यदेव अप्रामाण्यामिति चेन् ; तत्रापि यदि ज्ञानस्वरूपस्य निरपेक्ष प्रयोजकरवं स एव दोषो मिथ्याज्ञानेष्वपि तसङ्ग इति । अधकप्रत्ययविरहस्यपेक्षस्यैव तस्य संत्र प्रयोजकत्वमिति घेत् । न तहि स्वतः प्रामाण्यम् , परसध्य. ५ पेक्षवे परत एव सदुपपचेः। हॉनरूपमेव तद्विरहः भाषान्तरस्वरूपत्वादमावस्य, सस्मादया. प्रसङ्ग इति चेत् । न मिथ्याज्ञानेष्यपि तद्रूपसद्भावन तमिरहप्रसङ्गात् । भवतोऽपि भूवल. मेव घटाभावं अवतः सघटमपि भूतलं तदभावः' करमान्न भवतीति चेन् ? न भुतलस्य सदभावत्वम् अपि तु तत्वैवल्यस्यैव "एकस्य कैदम्यमेव परस्य वैकल्यम्' हेतुयिक पृ० १४८) इति वचनात् । न च कैवल्यं भूतलमेय; "तझेदस्थापि तत्र प्रतिभासनान । बाधाविरहस्यापि १० "ज्ञानात् कथञ्चिदर्थान्तरत्वे नैकान्ततः स्वतः प्रामाण्यम्, निरपेक्षत्या ज्ञानमात्रादेव भावे तहेकान्तोपः । न हि तद्विरहापेक्षया भवतो निरपेक्षत्वम् । तदिरोपि वासमेत, कथचित् "तव्यतिरेकाम, अज्ञानस्यैतदनुफ्यते।। न ह्यज्ञानस्य झानात "कथविमप्यन्यतिरेकः । ततस्तद. पेक्षत्वेऽपि तस्यामाण्यस्य न स्वतस्तावविरोधः, स्वतःशब्देन' अनानस्यैवापेक्ष्यतया प्रत्यास्यानादिति येस् ; न; सत्यपि ज्ञानत्वे तेग "ततिरेकानपहवात् । सदनपालवे च कथं १५ तदपेक्षस्य स्वतो भाकः ? परत एव भावोपपत्ते, परनिरपेक्षस्यैव भावस्य स्वतो भानत्वात् ।
परिच्छेदकत्वमेव प्रामाण्यम् , सब स्वत एव ज्ञानानाम् , तरिके सन बाधाविरहस्य व्यपेक्ष्येति चेत् । न "तन्मात्रस्य मिथ्याशानेष्वपि भावान् । न तन्मात्र प्रामाण्यम् , अपि तु यथार्थप्रतिभासहपस्तविशेष इति "पेस् ; "तस्य वाई किमन्यत्प्रयोजकम् अन्यन्न बाधाविरहात ? वविशेषोऽपि स्वतः एव", बाधाविरहात् तस्य शातिरेवेति घेत ; में; स्वसरसावे अति- २० प्रसङ्गस्यामिहितत्वात् । स्वतोऽपि शक्तिविशेषाधिष्ठानादेव तद्विशेषो न "तन्मात्राविति चेत् ; ; शक्तिविशेषस्यैव प्रयोजकरवे परतः प्रामाण्यापत्तेः । एतदर्थमेव शक्तिविशेषवाचिनो विद्यापदयात्रीपादानम् । ततो यदि निर्वन्धः स्वतः प्रामाण्ये निर्विशेषमेव झानं "तत्र प्रयोजकमभ्युपगन्तव्यम् । तत्र न मिथ्याशानसम्भवः, शानमात्रस्य तत्प्रयोजफंस्य "तत्रापि भावेन प्रामाण्यस्यैव प्राप्नेः । न च मिथ्याज्ञानाभावः, दस्तोत्तरत्वात् । तरमादुपपन्न मिध्याज्ञानसद्भावेन २५ "स्वतः प्रामाण्यप्रत्याख्यानम् ।
५ बोधकप-20,०प० । २ प्रमाणमि-80०,१०. प्रामाण्यप्रसनः शानस्वरूपस्य। ५ मनमाये । शामस्वरूप-
य याकविरहः । ८ नाचिरह । ९ वटामारः। 1. कैवल्यभूतलयो दस्य । "माहिद-०,०, २०११ बाघविरहोऽपि ३ १३ -सन्मति-आ.,.,4.12 कप विदाम्यमा०, वरुप.१५ -ना-आ०, ०प० । १६ बापाविरहेण । १७ ज्ञानभवामिलोपा । परिच्छेदमात्रस्य ।।९ चैत् न स्व मा., ब०, प.। २० परिच्छेकवेशेषल्य । २१ उत्पश्यते इति शेषः । २. परिक्छेदविशेषः । २३ म ज्ञान सामान्यसामग्रीता । २५ दलोके ।-योपादाना मा०,१०,५०॥ २५ प्रामाण्ये । मिथ्याशानेऽपि २. खतः प्रामाण्येन प्रमा, य..।
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भ्यायिनिश्चषियरणे
[ १३९ का पुनरसौ यो विद्यया यथार्थ विभ्रमैश्वायथार्थमवलोकने । प्रत्याह-एषः प्रत्यास्मवेदनीयः इति । अनेन प्रत्यक्षवद्यत्वमारमना प्रतिपादयता तनिषेधवादिनः अस्य वाधनं प्रति. पादितम् । कीदृशः पुनरेषोऽपि १ इत्याह-प्रभु इति। प्रभुत्वं पुनस्तस्य यथार्याधवलोकने विषयाकारस्य व्यतिरिक्तविज्ञानस्य धामपेक्षणात् । एतदपि कुत इति चेत् ? तथैव तस्य स्वरो ५ ऽनुभवात् । निरूपित्तज्वैतात् । फुतः 'पुनर्यथार्थत्वमवलोकगस्य परिचायत इति चेत् ? छुनश्च न परिझायो ? तदुपायस्याभावादिति चेत् ; कथं तदपरिज्ञाने तद्वचनम् ? परिज्ञानपूर्वफत्वारभारत वचप्रवृत्ते । अन्त्येव सस्य परिक्षानमिति चेत् : तस्य वर्हि यथार्थत्वं कुतश्चित्परिज्ञातव्यम् अन्यथा तदुपायाभावस्य ततः परिझानायोगात् । न तस्य यथार्थत्वं नापि दविपर्ययः
संदुमयविकल्पनिमुक्तस्यादिति चेत् । न तस्याप्यपरिज्ञाने पचनायोगात् । परिक्षाने च यथार्थत्यं १० चस्य कुवश्विदवगन्तव्यम् , अन्यथा ततस्तनि सत्याप्रसिद्ध । तरपरिज्ञानस्यापि तदुभयविकल्पनिमुक्तिरेवेति चेत् ;न; प्राच्यादेव प्रसङ्गात् , अव्यवस्थापत्तेश्च । ततो दूरमनुसत्यापि यधर
देव कुत्तशिदनाकचित्तनि सत्वपरिज्ञानम् । तस्य च यथा यथार्थस्वपरिक्षाने मंश्चिदु. पायस्तथा विषयावलोकनीति नोपायाभावात्तत्परिज्ञानप्रतिक्षेपः । तृदनेन अयथार्थत्वपरि
ज्ञानस्याप्यप्रतिक्षेपो निरूपितः । तत्रापि बाधकम्योपरयस्याभावात् तस्यापि प्रतिक्षेप इति चेन्; १५ "अस्ति तहिं बाधकः बाघकादेवास्यापि तदुपपत्तेः । न मया कुतिश्चित्तत्परिज्ञान प्रतिक्षिप्यते
यतोऽयं प्रसङ्गः, अपि तु परप्रतिपादितस्य सत्यरिशानोपायस्थ बाधाधुर्यादेरनुपायस्वमेवापाशा इति चेत् ; म; अनुपायस्य सदापादनस्याप्ययोगात् । व्यभिचारदिदोषोशाषनं तमोपाय इति. चेत् । न तोऽप्ययथार्थात् तदयोगान् । यथार्थमेव तदिति चेत् ; सिद्ध तर्हि यथार्थत्वमव
लेकनस्यापि तदोपोदावनवत्तस्यापि कुतश्चित् तस्वपरिज्ञानोपपत्तेः । ततः सूक्तम्-'सत्यम्' २० इत्यादि ।
___ यदि पुनीलझानं न नीलाकारम् अपि तु गोधरूपमेय कर्य नीलस्यैवेदमिति विशेषो बोधरूपतया विषयान्तरं प्रत्यापि तस्याविशेषाम् ? नील एच व्यापारात्तस्यैव तन्न पीसादेरिति "वेत् ; न; निराकारत्वे व्यापारस्यैव ताशस्याप्रतिवेदनात् । अस्ति चायं विशेषो विषया.
न्तरन्यावृत्तिलक्षणा, सतो नीलोधरूपतया द्विरूपभेद नीलझानम्, तथैवानुस्मरणाच । अनुस्म. २५ रणं हि तस्य द्विरूपतयैव मीलज्ञानमासीत्' इति नीलबोधरूपठ्ठयोल्लेखेन वदुस्पत्तः प्रतिवेद
नात् । न हि स्वयमनुभयरूपस्य उभयरूपतया स्मरणे अधिरोहणमा"मसमर्पणमुपपन्न । अवश्यं चेदमुपगन्तयम् , अन्यथा "ततस्तस्मरणस्य", "ततोऽपि "तस्मरणादेरेकाकारादिकत्वा
पुनरवश्यावं , ०,१०। र सपायर्याव-प० । ३ तस्य यथावं 4- 07-4.. अवधायपरिज्ञारे । ५ यत: अप्रसिद्धप्रतियोगिमोऽभावो नास्ति अतः साधनभावस्य प्रतियोगिभूषा साधका ईएयरत्येव ।। अयभवपरिज्ञानस्यापि । ७ प्रतिश्योपफ्री: 1 प्रमादपि तु ० ०.प. ने सपालाश्रा०, ०,१०१. निराशा०,५०,०। "नमसर्पणमु-प्रा०, २०।१२ घमामात् । १५ विषयस्मरणात्य । १४ द्वितीयज्ञानात् । १५ प्रथमज्ञानस्मरपादेः ।
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११३९]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तायः नुपपत्त । एकाकारादिकम्य तलस्तस्मरणम् , ततोऽपि तस्मरणादिकमुपलभ्यते । तथा च का. तिक नियन्धनकच--
___अन्यथा तदाकारं कथं ज्ञानेऽधिरोहति ।" [२०व० २:३८० ] इति । "यदि तत्तदाकारमात्मानं स्वसंवेदनेव नानुभवेद कथं तदाकारतया ज्ञाने स्मरणे अधिरो. हेत् । अघिरोहणं तदाकारजननम्, उदधिरोहतीति कुतः ? तथैव प्रतिपत्तेः ।
एकाकारोत्तरं ज्ञान तथा युत्तरमुत्तरम् । अवश्यमेतदुपगन्तव्यम् । तथा हि-उमरमेकैकेनाकारणाधिकमधिकं भवति नान्यथा । सथा हि-पूर्वेण नीलं गृहीतं तदुत्तरेण नीलझानम् , तदुत्तरेण नीलज्ञानज्ञानम् , तदुतरेगापि तदधिकमिति निचिनोति । तदेतदन्यथा न स्यात् , एतदेवोदाहरणेन प्रतिपदयति
तस्थाथरूणाकारावात्माकारश्च कश्चन ।
द्वितीयस्य तृतीयेन ज्ञानेन हि विभान्यते । द्वितीयज्ञानं पूर्वज्ञानद्वयाकार स्वाकारञ्च विभाव्यते तृतीयेन, चतुर्थेन तदेव त्रयमेकरकारराधिकमिति यावद् गणयितुं स्मर्तु या शक्रीति : सिकाल० ] इति । तसरे विश्यमानस्य विषयान्तरल्यावृत्तिलक्षणात् । तज्ज्ञानस्य चाकाराधिक्यलक्षमाविशेषादाकारवत्वमेव १५ अर्थज्ञानस्योपपन्नम् । तस्कर्थ विषयाकारनिरपेक्षवं तदवलोकने प्रभुत्वमुभ्यत इति चेत् ? अत्र पूर्वोक्तमेवोसरं विस्मरणशीलानुनहाय प्रतिनिर्दिशन्नाह
विषयज्ञानलझानविशेषोऽनेन वेदितः ॥३९॥ इति ।
विषयज्ञानं नीलादिज्ञान माझानं द्विषयमनुस्मरणम , सयोर्षिशेषो व्याख्यातः । अनेन प्रकाशनियमः' इत्यादिना । बेदितो निरूपितः । सथा हि-यान्यथानुषपनत्व २० तविशेषस्य भवत्येव ततो विषयाकारव्यवस्थापनम् । न चैवम् । तस्यासम्भवात् । लक्ष हिस्यहेतपनियतादेव शक्तिविशेषाद्विषयान्तरव्यावृत्तिनियमे किसवर्थेन तदाकारनियमफल्पनेन ? कल्पयतोऽपि तनियम तच्छक्तिविशेषल्यावश्याभ्युपगमनीयवान , अन्यथा तनियमस्थैवासम्मनादिति प्रतिपादितत्वात् । सति च तद्विशेषे किमनेन परिश्रमहेतुना पारम्पर्यण-'सविशेषात झानाकारस्याकार विशेषः, ततोऽपि विषयनियमः' इति ? सद्विशेषाद तनियमोपपत्तेः। तसो न २१ तनियमलक्षात विषयक्षानविशेषात् आकारवस्त्रव्यवस्थापनमुपपमम् , अन्यथैव तस्योपपतः। नापि तदनुस्मरणातादाकारत्रयलक्षणाद्विशेषात । तस्यैदासिद्धः। सिद्ध एषासौ विषयज्ञामो. पसमताभ्यां नीलबोधाकाराभ्यां स्वाकारेण ब, तत्र तल्लक्षणस्य विशेषस्य विभावमादिति - . .. .. -...--.
-बनप्रभू-1, 4, २ मदन्यथा-१०, २०, प.। ३-पनियाधादेव भा.म.पा . शामिविशेष। ५ तो वि-मा०, ०,१०।६ शक्तिविशेषादेव । -रतिमा, घ०,५०८ स्वाकारी च मा०, २०, 01
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न्यायचिनिश्चय विवरणे
[१५३९ चेम् ; म; विषयज्ञाने विषयाकारस्यानन्तरन्यायेनाभावात् , तेन समर्पणानुपपत्तेः । कथमेयं तस्य सदाकारस्येन स्मरणम्-नीलज्ञानमासीत् इत्युल्लेखरूपमिति चेन् ? भवेदेवेदं यदि नील. मेव ज्ञानं नीलझानम्' इति तदुल्लेखार्थः स्यात् । न चैवम् , 'नीलस्य 'झानं नीलज्ञानम्' इति
सदस्यात् देवश्सकम्पलवत् । एवमपि कथं नीलस्य स्मरणमिति चेत् ? 'तज्ञानस्य कथम् । ५ तदाकारस्यानुकरणादिति चेन्; न तस्यैव स्मरणापत्तेः । तत्र व 'आसीत' इत्युल्लेखानुपप. ति:,तदाकारस्य स्मरणमातीतत्वाभावात् । तात्कारिकस्यापि असलहानरूपतयाऽध्यारोपा. सदुपपत्तिरिति घेन; फोऽसौ तदध्यारोपः ? सदेव स्मरणमिति चेत्त ; कुतस्तहिं तत्र तदाकार. रय परिझानम् ? म स्वतः; सेन तस्थ पहिभूतस्यैव परिज्ञानान् । अन्यतस्तस्मरणादिति चेत् ; ;
अनुभवाभावे तदनुपपत्तेः । न च स्वसंवेदनादपरस्तत्रानुभव इत्यपरिशानमेव तस्य प्रारम् । १० तन्न तदेवाघ्यारोपः । नापि पर!; तत्रैवासीत्' इस्युल्लेख प्रसङ्गात्। न चैवम्; 'नीलझानमा
सीत्' इति विषयज्ञानरमरण एव तदुपलम्मात् । पदपरव्यापारस्य वारोपात्तथा तदुपलम्म इति चेन्कस्तहि तस्य तास्थिको व्यापारः १ निर्यापारस्य व्योमकुसुमाविशेषेणाभावापत। आत्मन्येव विषयज्ञानाकारस्य स्मरणमिति चेन् ; न तर्हि सत्रातीतरवारोपः, तत्काललया
सारणेन नियास् , निश्चिते घ विपर्ययानुत्पतेः । अनिश्चयात्मना सत्रैव सज्ज्ञानं तब्यापार इति १५ चेन् न; विरोधात 'स्मरणं च, अनिश्चयात्मक छ' इति भासा च पन्ध्या च' इतिवस् । सो
नापरस्त व्यापार इत्यतीतपरामर्श पर सव्यापारोऽनुमन्तव्यः । स प्रविष्टर सद्विषथाकारस्य न सम्भवतीत्यानुप्रवेश एव सत्र सस्य वक्तव्य इत्यसिद्ध .CATकारत्रयामा विशेष:, स्मरणस्थ स्वकारस्यैकस्येवं भावात् । न स्यान्यधानुवपनत्वम् ।
"अन्यथानुपपनत्वमसिद्धस्य न सियति ।" [न्यायवि० श्लो० ६१]
इति न्यायात् । तत्कथं ततो विषयमानस्याकारवस्वमनुमानपदवीमपनीयते ? कथं पुन. रसदाकारेण स्मरणेन नीलस्य तज्ज्ञानस्य वा परिज्ञानमिति चेत् । न 'स्वहेतूपनिबहादेव शक्तिविशेषात्' इति रत्तोत्तरत्वात् । अयमेत्र विज्ञानसम्झानयोर्विशेपो यविषयवानस्य नीले स्वात्मनि शक्तिः स्मरणस्य तु नीले तज्ञाचे स्वात्मनि ऐति । तस्मादप्रासीसिकमेवेदम्'तस्यार्थरूपेमाकारौं' इत्यादि ।
S
कस्मात्पुनः शक्तिविशेषाद्विषयशागतज्ज्ञानयोविशेष उच्यते, म पाहाभेदादेव तवेदो वक्तव्यः ? प्राहाभेवस्य नीलपीवादिलक्षणस्य परिस्फुटप्रतिभासविण्यतया फळभेदात् , अनुमेयशक्तिविशेषापेक्षया बातिप्रसिद्धत्वात् । अत एव च भट्टेन प्रतिपादितम्
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शानमिति त-मार, ५०, ५० र सस्य ज्ञानस्व आ० म०प०।३ाकारस्थय ।। -सातः मा०,०, प.1 ५-नु-भा०, २०, ५014 शमा-80०, ५०,०। नीलतमहानत्यास्मनि च भा०, ०,१०
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
"विश्यव्यपदेशाच्च नते शामनिरूपणम् । सज्ञानात्मन्यनेकत्वे ग्राह्यभेदनिवन्धनः ।।
संवित्तिभेदः सिद्धोऽत्र किमाकारान्तरेण न !" [ ] इति चेन्उमा- मेदा संपा। मिदन या दनुप्रवेशन मिले; कथनाकारवस्वं यत ईद शोभेत-'किपाकारान्तरेण नः' इति । नात्स्येवतस्य तदनुपवेश इति चेत् ; कधं ततः संवित्ति- ५ भेदो गगनस्यापि तत एव तासगात् । सभ्य तेनामयम्भान्नेति चेत ; संबित करतेनावष्टम्भ; ? विषयत्वमेवेति चेन्संदपि नीलसंक्तिी नीलवत् पीतादेरपि कस्मान भवति ? अशक्तरिति चेन् । कस्याशक्ति; ? विश्रयस्यैध पोसादेरिति चेत् ; न; सदश विपि संबित्तिसामर्थे तद्विपयभावस्यावश्यम्भावान , अन्यथा शुक्तिरूप्यादेवियत्वापत्तेरिति निवेदनात् । संवित्तेरेवाशक्तिः, मोलाची नियत एव विषये तस्याः शक्तिभावान विषयान्तरे विपर्ययादिति चेत् ; सिद्धस्तर्हि १. शक्तिभेदादेव संवित्तिभेदो न ग्राह्यभेदात् , "तद्देवस्यापि संवित्तिभेदादेवोपपत्तेः। स्वहेतोरेव "तभेदो न संवित्तिभेदादिति चेत् ; म; सो नीलधवलादिरूपस्यैव भेदास् । " ग्राह्यरूपमपि तदेवेति चेत् । भवत्वेवम् , तथापि कुतस्तदवगमो यतस्तन्निबन्धनं संवित्तिभेदं आयात ? संबित्तिभेदादेव , २ चैवं परस्पराश्रयः; संवित्तिभेदस्य तभेदादनवनमा । "सभेदोऽपि हि संवित्ति भिनत्येक, न पुनसभेदमवगमयति सस्थान्यत एवानगमादिति चेत् ; कुतस्तर्हि विभ्रमवित्तीना १५ भेदः । तद्विषयात् केशोण्डकादेरेव भेदादिति चेत् । न तस्यासस्वात् । २ चासत्तो भेदकत्वम् तस्य" वस्तुधर्मत्वेन तासम्भवात् । विषयत्वमसतः कथमिति चेन् ? न; सस्यापि तदलेनाभावात् , संविसिश्लादेव तदुपपतेः । ततो में ग्राहाभेदस्य भेदकत्वम् अध्यापकत्वात् । शक्ति. भेदस्य तु भेदकत्वे नार्य दोषः, सर्वसंविरिषु तद्धारात् । "सदभेदस्वापि कुतोऽवगमो यत. स्तनिवन्धनः संवित्तिभेदस्त्वयापि निरूप्यत इसि घेत ; 'संवित्तिभेवादेव तम्निबन्धना' इति २० ब्रूमः ! ततो न प्राह भेदामाप्याकारभेदात् संवित्तिभेदः शक्तिभेदादेव तदुपपत्तरित्युपपन्नमुक्तम्-. *विषय' इत्यादि।
यदि ज्ञानमांकारं म भवति कथं सरस्मरणे अर्थस्यापि नियमेन स्मरणम् 'नीलन्जानमा. सीत्' इति ? सति भेदे घटस्मरणे "पटस्येव तस्योगान् , सदाकारत्वे तु तस्य भवत्येक प्रश्वा स्मरण हव्यतिरेकेण ज्ञानस्यैव स्मर्तुमशक्यत्वात् । सत्यध्यासज्ञानस्य व्यतिरेके तत्सकलित. २५५ स्यैव स्मरणं विभ्रमात् । विगस्य च निमिरा तस्य तत्र तद्व्यापारः, तत्कायवं बा। ततो विषयसङ्कलिततज्ज्ञानस्मरणस्य अन्यथैव भावात् न ततो विपयाकारव्यवस्थापन विज्ञानस्योपपत्रमिति चेत् ; उच्यते
विपस्योपदेशासान. १० विक्ष्यस्यपदेशाशमणे आ २ -मनेरचे आम०१०१ ३ इतीर्द १०.१० । ग्राभेरस्य । ५ संविस्वनुश्वेशः। शवदादेव। . भेदप्रमाता नियमपि । शुतिरूपा भा०म०,५०१ रजतस्य । १. ग्राभेदस्यापि । १७ प्रायः । १२ बाह्यरूपमेव तदेवेति क्षा १०। प्रायमेदोऽपि।।मेवारतस्य १५ शरिरामेवस्थापित १६टस्यैव पाध्याया-आ.ब.पा
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DEASTHANI
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ग्यश्यविनिश्वयविवरणे ''अर्थकावस्या ज्ञानस्मृतापर्थस्सनेदि ।
भ्रान्त्या सझलनं ज्योतिर्मनस्कारेऽपि सा भवेत् ॥ भ्रान्तिरिति सम्बन्धः । यद्यर्थस्य कार्य विज्ञानम् अधाप्यर्थे कार्य व्यापारो यस्येति ज्ञान... स्मृतौ मियमेनार्थस्मरणम् अतस्तदयमूढमनिसन्तानस्य तथा भवति प्रतिपत्तिः, एवं तहि । ५ ज्योतिर्मनस्कारेऽपि तथा प्रतीतिः स्यात् । यथा विपयकार्यता विज्ञानस्य तथा आलोककार्यता
मनस्कारकार्यतापि तेन द्वयसङ्कलनेनापि प्रतीयेत । न हि कार्यत्वे कश्चिद्विशेषः । अथ ।। विषये भ्याएतस्वासत्सङ कलनम् , मनस्कारे तत्राध्यापृतस्यात् तदा तस्यालोकेऽपि । समान एवं व्यापारः । न ह्यालोकमपहाय रूपे व्याप्रियते । तदसदेतत्-तसाद्यथा
आलोकप्रतिभासमिति न भवति तथा रूपप्रतिभासमिति न स्यात् । अथालोकोऽपि विषय .१० एवान्तर्गतत्वात् 'रूपप्रतिभासम्' इति निश्येनैव गढम्म न; आलोकस्य प्रकाशकत्वेन
विषयवाभावात् कथं तत्र व्यापारः १ अथ प्रकाशकोऽप्यालोको रूपनिपतितत्वाद्र्य मेच सम्पद्यत इति विषया; तथा सति ज्ञानमपि प्रकाशक रूपनिपतितत्याद्रूपपेवेति साफा राफोमवत् विज्ञानदि सासारण । यथा न रूपेण विनाऽऽलोको न ग्रहीतु (-को ग्रहीत
शक्यस्तथा विज्ञानपपि, न हि रूपादिकं प्रकाश्यं विना विज्ञानं ममास्तीति कश्चिद्विजाः १५ भाति । समापायाकारमेव विज्ञानम् एवमन्यथा तदनुस्मृतौ रूपादिसरणायोगादतिः
प्रसङ्गात" { प्र० कार्तिकाल. २१३८० ] इति चेत् । नायमरि दुष्परिहरो दोपो । यस्मान विषय इत्येव सर्वत्र स्मरगम , यत्र शक्तिस्तौय तत्भावात् । न च शक्तिरपि । विषयनिबन्धना यतो नीलकवालोऽपि भवेत् , अपि तु तत्कारणादेव संस्कारात् । तस्याप्य
नुभवाद् भावे नीलबदालोके किन्न भावस्तस्यापि तद्वत्तद्विषयत्वात् , म यसो विषयेऽपि । २० क्वचिदेव संस्कारकारी नान्यग्रेत्युपपन्नम् , एकरूपत्वादिति येत ; न एकरूपत्वस्यासिद्धत्वान् ।
स्वहेतूपनिबन्धस्य प्रतिविपर्य शक्तिविशेषस्य भावाम् । अवश्यं चैतदेवमहगीकर्त्तव्यम् , अन्यथा विषयाकारेऽपि माने दोषोपपतेः । तथा हि
यदि नीलस्य तज्ज्ञानाकारस्वात्तस्मृतौ स्मृतिः । आपकोऽपि तदाकारस्तस्याप्येपान किं भवेत् ।।७२५॥ भीलक्षानमनालोकाकार चेत्तदृशिः कथम् ?" तथापि तशी व्यर्थ नीलेऽध्याकारकल्पनम् ॥७२६५ आलोकादर्शने नीलमात्रस्यैव रशिः कथम् ? अन्यथा हि वचो न हालोकमित्यादि दुष्यति ।।७२७॥ रूपे निपतनात्तस्य तद्पश्चैत्र शिर्यदि । नीलस्यापि भवेदेषा तमिपावाधिशेषतः ॥२८॥
"तिनालोको प्रहीतुम्"- संस्कारस्थापि। ५. व्यापा-या
सतिकाल । २-मा शने , प01 लोकमत
। ३ दुष्परिहारी
.,.,
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव रूपमात्रामास तदर्थशानं ततो भवेत् । में स्वालोकावभास वन्न व नीलावभासनम् ॥७२९|| विज्ञानं नीलनिर्भासमासीदिवि ततः स्मृतिः । कयं यतोऽर्थशानस्य नीलाकारस्थ कल्पनम् ॥७३॥ विशेशपेक्षया नीले रूपया न येद्दशिः ।
आलोकेऽपि विशेष: किन्नैव यन्नैवमुच्यते ॥७३१!! यदज्ञानमालोकाकारं प्राप्त विशेषतः । ततः सङ्कलितालोकं तज्ज्ञानस्मरणं भवेत् ।। ७३२।। विषयाकारवावेऽपि तद्विपर्ययवादबत् । स्मरणातिप्रसङ्गस्य इन्त हन्ता कथं भवान् ? ।।७३३॥ एतेन क्षणभङ्गाधाकारत्वावर्थसंविदः । तरसङ्कलनतस्तत्र स्मृतिः स्यादिति दर्शितम् ।।७३४॥ स्मृत्या पक्षणभलादी नीलादाविव निश्चिते। प्रयासमात्र क्षेत्र स्थादनुमानोपल्पनाम् ॥७३५॥
तस्माद्विषयाकारेऽपि विज्ञाने 'नीलसालितस्यैव सस्य स्मरणं नालोकादिसलि. १५ तस्य' इत्यत्र भापरमस्ति निबन्धनमन्यत्र वारशाच्छक्तिविशेषादित्ययुक्त तदर्शनाद्विषयाकारविहानकल्पनं शक्तिविशेषादेव तस्य माधात् । न धान्यथैव भवतस्ततस्तस्कल्पनं धूमादेर्जलादिकल्पनस्थापि प्रसङ्गात् ।
यत्पुनर्विषयकार्यतया विज्ञानस्य विषयसङ्कलितत्वेन स्मरणेऽतिप्रसङ्गाय प्रतिपादित 'यथा' इत्यादि, यवेदमपरम्
"सर्वेषामपि कार्याणां कारणैः स्यासथा ग्रहः ।
कुलालादिविवेकेन न स्मर्येत घटस्ततः ।।" [प्रय बा० २।३८१ ] इति ; सदपि न शोभनम् ; शक्तिकल्पनयैव तस्यापि परिहारात , अन्यथा इदमपि शोभनं भवेस्'यदि विषयकार्यत्वात्तदाकार लकानं मनस्कारकार्यत्वात्तदाकारमपि भवेन् , न हि कार्यत्वे कश्चिद्विशेषः' इति । तथेदमपि -
सर्वेषामपि कार्याणां कारणः स्यारसमाकविः ।
कुलालाकारशून्यस्य न घटस्योडवस्तसः ।७३६॥ इति सदिदमविप्रसारयादनं चएलकपिशावकस्य मुप्तभुजङ्गोत्थापनभित्र परस्यैव विपतिमापादयति न निराकारज्ञानवादिनः, शक्तितिनियमादेव तेन तत्परिहारस्याभिधानात् । तदेवाइ
यथार्थका मा०, ०प०१२ क्षणमसिही है -कारकल्प मार, ब., ०१ शोभन मोदिति शेषः ।
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म्यायधिनिश्वयविवरणे अर्थज्ञानस्मृतावस्मृप्तौ नातिप्रसज्यते । इति ।
अर्थो नीलादिस्तस्य ज्ञानं तस्य स्मृती येयमर्थस्यापि वज्ञानसंसर्गित्वेन स्मृतिस्तरयां निराकारज्ञानकादिसम्गमायां नातिप्रसज्यते सैवार्थस्मृति: 'योतिर्मनस्कारादिभिः' इति' शेपः।
कथं पुनर्गसिप्रसध्यसे याक्सा निराकारमानस्य साधारणतया सर्व विषयत्वं तत्स्मरण५ स्यैवे व सर्वत्रैवानुभवविषये प्रवर्सनमापात पवेति चेत ; अत्र पूर्वोक्तमेव शक्तिनियममुत्तरीकुर्वनाह
सरूपमसरूपं वा यस्परिच्छेदशक्तिमत् ॥४॥ तस्यनक्ति ततो नान्यत् व्यक्तिवेदसतः कथम् ? इति ।
यस्य नीलादेः परिच्छेदो व्यवसायो यत्परिच्छेदस्तस्य शक्तिः सा विद्यतेऽस्येति यत्प१० रिच्छेदशक्तिमत् अर्थज्ञान तज्ञान व तदित्युक्तं व्यक्ति प्रकाशयति ततोज्यत्
क्षणपरिणामादिकमालोकादिकं च न व्यक्ति तत्परिच्छेदशक्तिमरवाभावात् । कोश तत् यच्छब्देन निर्दिश्यत इत्याद-सरूपं सस्वभाव रूपशब्दस्य स्वभाववामित्वात नीरूपः प्रध्वंस इतिवत् । कुतः पुनरिदमषगद यविज्ञानहतित एव विषयव्यक्तिनियमो न पुनस्तदुत्पत्ति
सालप्याभ्यामन्यतो बेधि चेत् ? तविद निदर्शनेन प्रत्यादिशन्नाह-असरूपम् अविद्यमान १५ दिन वाशब्दस्येवार्थत्वात् । वात्पर्यमत्र-यदि सदुपस्यादेरेव 'तनियमः सैमिरिककेशादौन
भवेत् तस्य नीरूपस्येनाकायर्पणक्षमस्य हेतुत्वस्य योग्यत्वादेवाभावात् । ज्ञानस्वरूपसया सरूप है। एव तत्केशादिरपीति चेत् ; न; तस्य ज्ञानाद् "बहिष्ट्वेनैव प्रविमासनात् । भान्तमेव पहिवमिति क्षेत् ; किमिदं भ्रान्तमिति ? अविद्यमानमिति चेत् । तस्य तहि कर्थ व्यक्तिः तदान
कारार्पणक्षमभ्य हेतुत्वस्य तत्राप्यभावात् । तदपि ज्ञानरूपतया सरूपमेवेति धेन । न तस्यापित २० सत्केशायधिशनवयैव "प्रतिभासनात् । भ्रान्तमेष तदधिष्ठानत्वमिति चेत् ; र; तत्रापि
'किमिदं भ्रान्तम्' इस्यायनुबन्याव्यवस्थापत्तेश्च । कुसो वा ज्ञानस्य तदाकारत्वम् ? अहेतुकत्वे नित्यत्वादिदोषात् । अक्सरज्ञानादिति चेत् ;न; तस्मिन्नताशेऽपि तदर्शनान् । अतादृशादपि तद्भावे सन्मात्रमेव सरवं भवेत् । तत एवं सकलस्यापि विज्ञानवैश्यरूप्यस्य सम्भवात् । तर
शादेव व्यवहितादिति चेत् ; म; पूर्व तिमिरादिरहितस्य तदभावात् ।. प्राग्जन्मभामिन इति । २५ चेत् । प्रागपि सदभावे कर्यामदानी तिमिरादिभावेऽपि सस्य सदाकारत्वम् ! अत एष तनाव
स्थानुमानमिति चेत् । कयमेवं विधवागर्भावपि घिरध्यवहिजस्य पतिसम्पर्कस्पैष मानुमान यतो ।। जारसम्पर्कदोषेण विधया दूप्येत । सन्निहितादेव सत्सम्पादन्यत्र गर्भाधानदर्शनाविति चेन् । न; कथं तर्हि चिरन्ययहिसस्य केशाविज्ञानस्यापि सदाकारापकत्वम् ! सनिहित यव नीलादौ ।
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इति विशेष माग,०,१०. २-नानुभव-प० । अर्थशामल तादिस्यु-भा०,०, .1 हखखभा-16, म.प० । ५ विषनिश्मा स्वरूप मा०,०,५०। महिः परवेनैव प. प्रतिभावान , ब । १ नमिति भा०, १०, प० ।
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१४१]
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव तस्थापि' दर्शनात् । चिरापमान्तादपि लाक्षासंस्कारान् कासिफलमदो सगदर्शनादिति चेत् । न; तद्विधवागर्भस्यापि नारशास्त्पतिस्म्पकोदेव प्रसाद न च कार्यालगतस्यापि व्यवहिनादेव तत्संस्काराभावः, तदुपहिताद्वीजशक्तिप्रबन्धादेव सनिधिमतस्तद्भावात । भवतु केशायाफारमपि झानं सन्निहितादेव तज्झानशक्तिप्रयवादिति चेत् ; तस्प्रबन्धो यदि तदाकारः कथन प्रवन्धवस्त. दर्शनम् ? असदाकारत्वे तु कयं ततस्तैमिरिकज्ञानस्य तदाकारतम् ? तत्प्रबन्धस्य तत्करण. ५ स्वभावत्वादिति चेत. तब्यक्तित्वभावत्वमेव कस्मान भवति ? असतो व्यक्तिविषयत्वायोगादिति चेत् : करणविष्यत्वं कथम् । दृश्चत इति चेत् । व्यक्तिरपि दृश्यत एव । ज्ञानाकारत्वेन सत एक सादृश्यत्वेनासत इति चेत् । न सज्ञानरूपत्वपरिज्ञानाभावस्य पूर्व निवेदितस्यात् । यस्मादसत एव तदाकारस्यापि ज्ञानशक्तिसो व्यक्तिः । अत इदमुथ्यते सरूपकेशाविन्यक्तिरपि' विज्ञानशतित एव व्यक्तित्वात असरूपतयक्तियदिति ।
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भवक्षु नाम अर्तमानस्य तच्छक्तितो व्यक्तिः सति तत्र छक्तिसम्भवात् , असीतादेस्तु कथम् ? असति सम्र बदसम्भवादिति मन्यमानश्वोदयति --
'व्यतिवेदसलः कथम् १ इति ।
सन् वर्तमानम् असत् अतीतादि वस्य, कथम् ? न कथञ्चिद्वयक्ति बेच्छन्दः पराभिप्राय द्योतयति ।
सदिनमपि निदर्शनबलेन तत्रापि शक्तिभवस्थापयम् परिहरवि--
आरादपि यथा चक्षुरचिन्त्या भावशक्तयः ॥४१॥ इति ।
आरादपि दूरादपि न केवलमासन एवेत्यपिशब्दः । यथा येन शक्तिभावकारण धातु: तज्जनिस ज्ञानं कार्य कारणोपयारात् , तथैव अतीतादेरसतोऽपि व्यक्तिरिति । अयमत्र भावः-यदि हानसमये अतीतादेरभावान्न तत्र तच्छक्तिर्व्यक्तिी दूरचन्द्रावावपि न भवेत् २० तस्यापि ज्ञानदेशे[s] भाषात् , अन्यथा नयनगोलक पद तत्प्रतिभासप्रसङ्गात , तस्यैव सद्देशस्यात् । न चैवम् , दवीयसि गगनाल एव दफ्लम्मान् । तदाकाराकस्य तदेशवास्यापि तदेशतगोपलम्भ इति चेत् । न; पितरि विप्रकृष्टे पुत्रस्यापि तस्वरूपस्य विकृष्टतयोपलभप्रसङ्गा | शानस्यापि स एर देशो यत्र चन्द्रादिरिति चेत् ; तथापि कथं सत्र दूरप्रतिभासन
ना(ज्ञान)पेश्या तदैव प्रयासन्नप्रतिभासनप्रसङ्गात् । न चैवम् , सदा चन्द्रादौ दूरप्रतिभासन- २५ - स्यैव भावात् । शरीरस्वस्यापि ज्ञानस्यातविषयत्वे न तदक्षमपि दूरप्रतिभासनम् । इन्द्रियान्सरमानापेक्षयापि तत्प्रसङ्गान् । तद्विषयत्वे तदपि प्रथमशागवचन्द्राविदेशमेवेति कथं तशादपि
1-पि तहमा २०, २०१२ प्रतिबन्धस्त-म, ब,०।३रिमा०,२०,२०। सनिसद्वारा भा०,०, ५ चौदति कार०, ५०। ६-पि द-भा, व, प. तस्वस्पतिभा .प. तथाहि मा०, २०, ५०1९ सदेर भा०, म.,५०।-त. वि-मा०प० ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
R] दूरप्रतिभासनम् ? पुनरपि शरीरस्थापरमानापेक्षया सत्परिकल्पनायाम् अव्यवस्थापतिः । विषयदेशलानकल्पनायाश्च योगिज्ञानस्य प्रतिविषयदेशं भेदरपत्ते योगी नाम कश्चिदेको भवेत् । अत्यति दे देव.३५ मेचकशानस्यायुषगमादिति चेन्न ; व्यापकास्पवादस्य व्यवस्थाप्रसवात् । मापि तात्विक त दे तदेकमुपपन्नम् ; भेदेतरात्मशास्त्रानभ्युपगमात् , नीलयोध५ रूपतया तान्त्रिक एव भेदे तदुपपत्तिप्रसा। तथा च यतस्य कल्पितत्वप्रतिपादकमलवारवचनम्
"नीलान व्यतिरेकेण विषयितानमीक्ष्यते ।।
'ज्ञानप्रवेन मेदस्तु कल्पनाशिल्पिनिर्मितः ।। (प्र०वार्सिकाल० ३।३७७] इति । 'तश्लीलभाषितं भवेत् । अतात्तिके सु तद कथं सस्य विषयग्रहणम् ? कारचलाभावात् । १० स्वशक्तित एवेति चेत् ; उपपत्तिमदेवम् , अन्यथा कालदेशविप्रकृष्टतया भावोपदेशस्याभावप्रस
जात , किन्तु नयनशानादपि स्वविषये मिनदेशेऽपि व्यक्ति स्वशक्तित एवं भवेत् तयैव निरक्यानुभवान् । तथा च कथं मिनदेशक भिन्न कालस्यापि स्मरणादेनं व्यक्तिः ? पत्रे तत्रापि हानशक्तरेनिवारणात् । भिन्नकालवस्तुझानं निषियमेव पुस्काले तद्विषयस्याभाषादिति
घेत् ; मिनदेशवस्तुमानमपि कधं सविषयं तदेशे तद्विषयस्याध्यमावात् । तस्य देशान्तरे १५ विमानत्वादिति चेत् ; इतरत्यापि कालान्तरे विद्यमानत्वारिति समः समाधिः । सर्वस्यापि कालान्तरवर्तिनः किन्न व्यतिरिति चेत् ? देशान्सरवर्सिनोऽपि किन्न स्यात् ? खहेतुनिषद्धा.
शक्तिनियमादिति चेत्"; ; अन्यत्राप्यस्यैव परिहारत्मात् । कथं पुनः शत्योऽपि देशकालविप्रकृष्टभावापेक्षप्रादुर्भावा" इति चेत् । न तथा तासामचिन्त्यत्वात् । न हि शताया
'कथमित्यमेवोत्पन्ना नान्यथापि' इति थियारयितुं प्रार्यन्ते । प्रमाणवलोपनीतास्तु परमभ्यनु२० शांयन्त एव, अन्यथा न किश्चिद्भवेत् अपहस्तिततवालावलम्बनस्यान्यत्रापि वस्तुव्यवस्थापन
स्यासम्मवान् । तदेवाह-'अचिन्त्या मावशक्तयः' इति । स्वपदव्याख्यातमेतत्" । योधमा• विष्कुनाह
विषमोऽयमुपन्यासस्तयोऽत्सदसत्त्वतः । इति । अयमतर: आरादित्यादिः उपन्यासो रक्षान्तो विषमो दान्तिकमाशो न भवति । २५ सरशेन व दान भवितव्यम् । तद्वैषभ्यश्च तयोर्दे शकालविप्रकृष्टयोः सदसस्वतः वेश.
व्यवहिवस्य" हि सज्ञानदेशे असस्वेऽपि व्यक्तिरुपपनैन तज्ज्ञानकाले मात्रात् , न कालव्यय
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..परविश्व-भा०, २०१०। ३ प्रतिविषय देशभेदा-भा०, ०,१०।३-बादप्रथम धुप०,०1४-प्रतिपादितम-R०,०, ५०। ५ विज्ञानस्वेन मे३-०६ सदश्मलभा-बाd., १० . कासदेशे पि प्रकृ-भाग, कालदेवोऽपि विप्रकृ-प०। ८ वष मा.,२०,०। भिवदेश
मिमालेऽपि । शानदेशे। ११ वैरन्य-मा०, ०, २०१२-वाविति 80,०,.. ५-स्थानमेतरा , 40, प.।" हितस्य दितत्त्य मानप्रदेशे प.सहितत्व ज्ञानदेशे भा०,०।
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११४३
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
२९३
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विस्थ, संदेशवतत्कालेऽन्यभावात् । चेत् शमः परापूतमयद्योतयति । तदिदं परिहरा--
पदा यन यथा वस्तु सदा तन तथा नयेत् ॥४२॥
अतकालादिरप्यात्मा न पेन्न चाहिने इस
यवा यस्मिन् काले यत्र यस्मिन् पेशे यथा येन प्रकारेण वस्तु नीलधवलानि स्थितम् इति शेषः । तद्वस्तु तदा सस्मिम् काले तत्र तस्मिन् देशे तथा तेन प्रकारेण ५ नयेत् प्रापयेत् व्यक्तिम व्यक्तिः ' इत्यनुवर्तमानस्य विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धात् । क इस्याह-आत्मा जीयः। अतत्कालादिः न विद्यन्ते तस्य वस्तुनः कालादयः कालदेशप्रकारा यस्यासमवतत्कालादिः । अपिशब्दात् तत्कालादिरपि । यद्येवं तत्प्रकारत्वाद्विषया. कारत्वं तस्यापत इति चेन ; सत्यम् ; सस्वप्रमेयवादिना सभ्यनुशामान् , अन्यथा नीरूपत्वापत्तः । अतरप्रकारचं तु नीलमद्याकायभावादिति निरवद्यम् ।
विपक्ष दोपमाहन चेत् एबमारमा व्यक्ति न नयति धेत् । न व्यवतिष्ठते न वस्तुव्यवस्था प्रतिलभते । तखलु व्यवस्था प्रतिलभमानं कालदेशाकारभेदेनेष प्रतिलभदे। तथा तपसिलम्भश्च कथं भवेत् आत्मा पेदतत्कालादिरपि सरकालादिकं वस्तु ने व्यज्यान ? सदाकारज्ञानाथेति चेन् । न; Tr: स्वरूपमापर्यवसायिन भिन्नदेशावितया तस्य तत्प्रतिलम्मानुपपत्तेः । न हि तात्कालिकनिरंशज्ञानानुप्रविष्टस्यैध विषयाकारस्य मिनदेशादित्वम् । १५ तन्हाकारजनकस्य मिनदेशाविश्वात्तस्यापि मिनदेशादिलगिति चेत् । फुतस्तदा कारजनकस्य भिन्नदेशादित्वमवगतम् ? अन्यतस्तदाकारज्ञानादिति चेत् ; न बत्रापि 'ततः' इत्यादेरनवरयानदुस्तरवास्थयाविबन्धनिदानस्त्र प्रसङ्गस्योपनिपातात् । तषितस्याकारस्य मिनदेशानियादिति चेन् । तदपि कुतोऽवगतम् ? तज्जनकस्य मिन्नदेशादित्वादिति चेत् । न परम्पराश्रय. बोषस्य परिस्फुटत्वात् । स्वत एव संथिदनन्यत्वादिति छन् ; न; तस्थापेक्षिकत्वात् । अपेक्षिक २० दि भिन्नदेशत्यादिकम् ; किञ्चिदयेक्ष्यैव तस्य भावात् । तच्चापेक्ष्यं नात्मैक, तन तामातात् । नाप्यन्यत् । तस्य स्वाकारमात्रपर्यवसितेनाऽपरिझानान् । न चापरिज्ञाते तस्मितदपेक्षं भिन्न देशत्वादिकं सुपरिज्ञानम्, परिशस्त एष प्रामादौ सदपेक्षया पर्वतादौ भिन्नदेशत्वादिपरिनाहनस्योपलम्भात् । सम्न किठिन्ददेतत् ।
भवतु साई तत्त्वं संविददैवमेव, देशादिभेवस्तु कल्पनारोपित एवेति चेत् । तदपि १५ कल्पनं कस्मात् ? अहेतुफरवायोगान् । पाल्यादेव वत्कल्पनामिनि चेन ; त मिनवेशस्वादिक सत्परिजानञ्च यदि परमार्थत एक किमन्यत्रापि न भयेन् ? बरूपनारोपितमेवेति चेत् । न; 'तदपि इत्यागनुमममाघदनाद) नवरयोपनिपातात् । तदाह-यदा पत्र यथा वस्तु शादि
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शानदेषवद सानकालेऽपि । ३ दिदं 4-81०,०, ५०। ३ मतितिष्ठला। यदैव आ., .प.५स्य जि-०,२०,०।६-तेन परि-मान, २०,
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म्यायविनिश्वयविवरणे
[ ९१४५
२९४
भेदकल्पनं कार्यकारणरूपेण स्थितं वस्तु तदा तत्र तथा नयेत् व्यक्तिम् अनस्कालादिरस्यात्मा सम्बोarara न मेन श्रवतिष्ठसे वस्तु व्यवस्थाचिकल भवतीत्यर्थः ।
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पिमा सुनिर्विवादिननेन तदपि कुसः अनचगह५ seated ? "स्थ स्वतो गति:" [ प्र० वा० ११६ ] इति चेत्; तत्कथमद्वैतय्, वेदावगमभेदस्यैषमभिधानात् १ वैद्भेदेऽपि तदेकमेचेति चेत्; न; क्रमेणानमहावि भेदेऽपि तदेकत्वप्रसङ्गात् । तथा च नियकुलं देशादिभेदेने वस्तुव्यक्तिनयनम् तनयन विधातुरामनो निर्व्याकुलत्वात् । व्याकुल एवासौ भेदे सत्येकस्वस्य व्याघातादिति चेत्; अत्राह-न 'वेदात्मा न व्यवसिष्ठते वेद्यादिभेदाक्रान्ताद्वैतवास्तवव्याघातस्याविशेषादिति भावः । १० कहिपत व व वेद्यादिभेदो वस्तुतो निर्भेदत्वादद्वैतस्येति चेत्; न; कल्पने यक्ष पत्र इत्यादेर्निव्याकुलत्वस्याभिहितत्वात् । पुनरपि विपक्षे दोषमाइ
व्यवहारविलोपो वा [ मोहाच्चेदयथार्थता ] ॥४३॥ इति ।
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'न वेत्' इति, एवं न चेत् 'यदा' इत्यादिप्रकारेण वस्तु व्यक्ति नयत्यात्मा तदा व्यवहारः प्रवृत्त्यादिलक्षणस्तस्य त्रिलोपो विलया स्यात् । तथा हि-व्यवहारः कचिद्वि १५ पये वार्थिनो भवन् भित्र एव भवति नास्मनि, तस्यानुभूयमानस्त्वेन तद्विषयस्त्रानुपपत्तेः । frerseas सर्वे सप्रसङ्गात् । न चाकारवादिनो भित्रप्रतिपत्तिरस्थीति निषेवितम् । अतो विलुप्यत एव व्यवहारः । वाशब्दः पूर्वदोषसमुच्चये ।
नास्त्येव देशादिभेदः प्रवृत्त्यादिरूपो व्यवहारो वा कचित्तदाश्रयश्य अहिर्भावस्यैवाभावात् । वरप्रतिभासस्तु विपर्यासोपनीत एव "प्रतिभासः समस्तोऽपि वासनावलनिर्मितः ।" २० [ प्र० वार्तिकाल० ३।३६५ ] इति वचनात् । तस्मादयमयथार्थ एव । उदेह- 'मोहावेदयथार्थता' इति । देशादिभेदव्यवहारयोग्यथार्थत्वमविद्यमानत्थम् । कुतः ? मोहाल तत्प्रत्ययस्य विपर्यासरूपत्वाम् चेत् शब्दः पराकूतचोदने । तत्रोत्तरमाह
२५
अत्यन्तमसदात्मानं सन्तं पश्यन् स किं पुनः । प्रस्फुटं विपरीतं वा न्यूनाधिकतयापि वा ॥४४॥ प्रदेशादिव्यपायेऽपि प्रतियन् प्रतिरुध्यते । इति ।
मरोपितोऽपि देशादिभेो व्यवहारो वा तद्विकल्पमनुप्रविशति तावन्मात्रस्यैव प्रसङ्गात् । न च तावन्मात्रं तद्भेदो व्यवहारो वा लोकस्यैवमनभिनिवेशादप्रतिपत्तेश्च । बहिर्ग
१-आ०, ब०, १०२ मे २०० १०३
तमस्तु ० ० ० ५ एष न घेत् ० ० ० "भावनामादनिर्मितः” - प्र०वार्तिकाल -घ्यवाये - १०, २०, ५०
च वस्तु ० ० ०
मिन्नेन विना 2-०, ब०, १०७ । ९ बहिर्यतस्य तस्यैव ते अ०, ५०, १०.६
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव वस्यैव तस्य सेनोपदर्शने पुनः अत्यन्तं पररूपवत् 'स्वरूपेणापि असदात्मानम अविद्यमानस्वभावं विषयविषयिगोर्देशादिभेदं प्रवृत्तिप्रायादिरूपं व्यवहारञ्च पश्यत् अवलोकयन् । कथम् ? सन्नं विद्यमानमिव, असति सच्छब्दप्रयोगात् इवार्थप्रतिपतिः 'अग्निर्माणकः' इतिचन् । सा अनन्तरोक्त भारमा तस्यैव तथादर्शित्वोपपत्तेः । किम् ? कस्मात् । पुनरिति शिर:कम्प प्रतिरुध्यते निषिध्यते, नैव निषिध्यते इति यावत । किं कुर्वन् ? प्रतियन् प्रसिपद्य- ५ मरनः। किम् ? सन्तं विद्यमानमपि.सन्तमिस्यस्यादृस्या सम्बन्धाश्त्यमाणस्य अपिशब्दस्य च मित्रप्रक्रमेक योजनात् । कस्मिन् सति प्रतियन?प्रदेशाविध्यपायऽपि प्रदेशव्यपाये चन्द्रादिकम् कालव्ययाये अतीतादिकम् , द्रव्यध्यपाये काचादिज्यवहितमिति । एतदुक्तं भवति-यथाऽयम् अतत्कालादिरेव आरोपिताकारं पश्यन्न प्रतिरुध्य तथा अनारोपितमपि । इत्यारोपितवदनी. रोपितस्यापि आत्मशक्तिप्त एत्र परिज्ञानोपपत्तेः । कथं सः प्रतियम् ? प्रस्फुटं कर्ण स्पष्टम् १० अनेन प्रत्यक्षपर्यायरूपतया सन्तं प्रत्येतीवि प्रतिपादयति । यथा चेपमुफ्पन्नं 'तथा प्रतिपादितं नामिति न पुनरुच्यते । पुनरपि कथं प्रतियन् विपरीतं वा स्पायविकलं वा तद. नेनापि स्मरणादिपरोक्षपायरूपेण सन्त प्रत्येतीति नियेदयति ।।
ननु यदि प्रत्यक्षवत्स्मरणादावपि वस्तुनः स्वरूपेण प्रतिभासनम् ; थमस्परत्वम् ? तस्वरूपप्रतिभासे स्पष्टत्वस्यैवोपपत्तेः । न हि तस्वरूपप्रतिभासादपरमध्यझेऽपि स्पष्टत्वम् । १५ ततो यदि स्वरूपतस्तेन "वस्तु प्रशिपन्न स्पष्टरूपमेय वत् । यदि स्वरूपसो न प्रविपनाम् ; अप्रतिपन्नमेव सर्वथा तद्भवेत् । स्वरूपप्रसिपत्तावपि तदस्पष्टमेवेति चेत् ; तहि नीलादेस्तद्वेदनान् कथं भेदः १ कथाच न स्यान् ? अविवेचनान् । यदि हि नीलाविस्ततो वेदनान्तरेऽपि प्रतिभा सेत भवेद्विवेचनं ततश्च भेदः । न चैवम् , प्रत्यक्षप्रतिभासिनः स्पष्टात्मनस्तस्य" स्मरणादावन्य"प्राप्रतिभासनात् , तवास्पष्टात्मनस्तदपरत्यैष प्रसिभासोपलब्धेः । नीलादिसमयत्रैकरूप एव न २० तस्य स्पधनमस्पष्टत्वं वा, तयोविज्ञानधर्मत्वादिति चेत् ; कथं तर्हि 'स्पष्टो नीलादिरस्पष्टो का' इति वन व्यपदेशा अन्यधर्मेणान्यत्र तदनुपपसेः १ स्पष्ट विज्ञानसंसर्गादिति चेत् । ननु संसर्गस्तदभेद एवं 'स्पष्टो नीलादिः' इत्यभेदेनैव प्रत्यवभासनात् । तथा च ज्ञानान्तर्गत एकासौ इति कथं तदपरतया व्यवस्थाप्चेत ? तदेकतां प्राप्तस्यैव तस्माद्रेदानुपपत्तेः । तथा च परस्व वचनम्
"स्वरूपेण प्रतीतं चेत्साक्षात्करणमेव तत् । स्वरूपेणाप्रतीतं घेत्सर्वथास्याप्रतीतता ।।
सह-मा०००।-मदेवार्थ-बा०,१०,१०३ दिध्यते बा....। दिवायेमा०प०,१०।५-बदनाकारोपि तस्यास्मशासिया, ०, प० । 4- स्फुटम् आ.., प० ।- स्था प्र-भा०, ०,१०। ८ फायविक तवनेनापि स्मरणेनारि परीक्षाक-800, ब., २०। ९-समयस्पट-वाब,...प्रतिभिर' -भाकम.,प. नीलादेः२--भर००, प.१३ 'नपदेशानुपपत्तेः ।
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न्यायविनिमयविवरणे पेण प्रतीतेऽपि तदसाक्षात्कृतं यदि । नीलरूपस्य संक्तेिमदस्तहि कथं भवेत् ।। प्रतीतिभेदाझेदो हि नीलादेरेकरूपता । भिनेऽन्यस्मिन्कथं भेदस्तदन्यस्य प्रमान्विसः ॥ तत्संसर्गात्तधात्यं घेदपरोऽर्थः कुतो भवेत् ?
तदेकतां प्रपत्रस्य ततो भेदः कुतो मतः १" [५०वार्तिकाल ० २१३२९ ] सतो म ज्ञानसंसर्गाननीलादेः स्पष्टात्मत्वम्, तस्यैव बहिर्मूतस्याभावप्रसंङ्गात् , अपि तु स्वत्त एव तस्य च प्रत्यक्षमत्स्मरणादावपि प्रतिभासने तदपिस्पष्टमेवेति न युक्तमुक्तम्-"विपरीतंवा प्रति
पन्' इति 'पेत् ; 'तदिदमपि प्रज्ञापरिपाफवैकल्यमेव प्रशाकरस्य ज्ञापयनि-स्वरूपप्रवीत्या १० वैशानुपरस्ते, उपशुतझाने तदभावप्रसन्नात् । अस्ति च कामिन्यादिविषयस्योपतझानस्या
पि वैशधम् । न च तत्र स्वरूपपरिहानं कामिन्यादीनामभावात् । शानाकारतया विधन्त एव त इति चेत् ; म; 'अभूतानपि पश्यन्ति" इत्यस्य विरोधात विद्यमानानामेषाऽभूतत्वायोगात् । "पुरतोऽयस्थितानिद" इत्यपि न युक्तम् ; झानापेक्षया तदाकाराणामेव पुरतो भावानुपपत्तेः,
एकत्र निष्पैर्याय भिन्न देशवासम्भवात् । कल्पितस्तदा इति चेत् ; न, “पश्यन्ति" इत्यस्या१५ योग्यम् फरूपनस्य वर्शनरूपत्वासम्भवात् । वर्शनसाहपर्यात्तदपि दर्शनमेवेति चेत् ; न तत्रापि
दर्शनषद् अन्त:विष्टतयैव तत्प्रतिभास साक्षात् । पुनरपि कल्पितस्य पुरतोभावस्यावस्थापने व्यवस्थाकस्यापत्तेः । असो दूरं गत्वापि वस्तुस एव तेषां कचित्पुरतो भावो यक्तव्य इति कथ झानाकारस्वम् तदिनदेशानां तदाकारत्वानुपपत्तेः अतिप्रसाादित्यसतामेव तेषां दर्शन मिति कथं
तन्त्र वैशयम् । असतां स्वरूपेण महणायोगात् । नीलाविना स्वरूपेणैव तेषामपि ग्रहणमिति २० चेत् ; कथमिदानी भीरूपत्वमिति ससि स्वरूपे सदमुपपत्ते:! पाध्यमानत्वादिति चेत् ; न; समी
रूपत्वे वस्त्रयुक्तस्य वैशगस्यापि तस्वप्रसङ्गात् । 'नीरूपमेव सदपीति चेत्, ; वर्शनस्यापि तबनर्थान्तरत्वेन नीरूपत्वापत्तेः । तस्मादर्थान्तरमेव दर्शनमिति चेत् ; कुतस्ताई हरय वेदनम् ? स्वत एवेति चेत् । न व्याघातात् । व्याहतं खल्विदं यत्-'नीरूपम् , स्वतश्च वेद्यते' इति
व्योमकुसुम्भदिवस् । तत एव दर्शनादिति चेत् ; न; तस्माविशदत्वे दर्शनत्यायोग्यात् । विशदमेव २५ तदिति चेत् ; न; विषयविषयितया वैशद्यस्य तत्रानवमासनात् । सपि तवैशई नीरूपमेष,
सत्प्रयोजकस्य विषयवेशयस्य नीरूपत्वात् । भवतु नीरूपमेव सपीति यत् । न तत्रापि 'दर्शनस्यापि' इत्यादेशमुगमादनषस्थानोवोपनिपातात् । ततो ३ विषयस्वरूपहणप्रयुक्त वैशवम् , निर्विषयकामियादिदर्शने सदभावानुषङ्गात । भावनापरिपाकप्रयुक्तं तत्र वैशधमिति :
Thame
RAam
..
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--
बाहिy-... प० । २ सदेवमपि आ., २०, ५०३ -मसोपरतल्य-मा०,००। "कमशोकमोन्मादचारस्वाना पछताः । अभूतानपि पश्यन्ति पुरोऽवस्थितमिव ।"-० कार्तिकाल. २१८२५ युगयत् । पुरतो भावः । .-लादीनां स्व-मा...,प०। नीलप-०,०, २०।
नीलकप-10,.,. .. कामिन्यादौ ।
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tis's]
प्रथमः प्रत्यक्षभस्ताबा
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म सत्यपि विषये 'तत्प्रयुक्तस्यैव तस्य प्रसङ्गात् । भवत्विति वेम् ; यत्र तर्हि तत्परिपाको रास्ति तत्र सत्यपि विषयहणेन वैशयम् । नायं दोषः सत्येव तत्परिपाके विषयग्रहणस्यापि भावादिति चेत्; न; भावितस्यापि विषयस्य ग्रहणप्रतीतेः । अन्यथा अनभ्यासेदशायां जलादेवदर्शने लिङ्गाभावात् कथमर्थकियानुमानं यतः स्तनपानाद्यर्थिनः प्रवृत्तिर्भवेदिति न विषयस्वरूपवनादेव वैशम्, सत्यपि तस्मिनन्तरङ्गमलविशेप मलीमसत्वेना वैशद्यस्यापि सम्भवात् । ५ ततो न सूक्तमिदम् ' स्त्ररूपेण प्रतीतं चेत्' इत्यादि ।
सम् अन्तरङ्गमविरमा विगमप्रयुक्तत्वे वैशद्येतयोर्ज्ञानधर्मत्वमेवेति कथमन्यस्वाभ्यां व्यपदिश्यते ' स्पष्ट नीलादि: अस्पष्टो वा' इति ? ' इति च ; न; तथाविधज्ञानविषयतथैव तथा व्यपदेशोपपत्तेनं सादारम्यरूपात्तत्संसर्गात् । तद इदमपि न सुभाषितम्- 'तत्संस तिचात्वं वेत्' इत्यादि, सञ्चपदस्थ तत्समभावेऽप्युपपत्तेः ।
पुनरपि कथं प्रतियन्नित्यत्राह न्यूनाधिकतयापि वा । न्यून पूर्व गृही तस्यास्यैव स्मरणात् अधिकतया तस्यैव कालाधिकस्यानुस्मरणात् । अथवा पर्वताद गण्डशै. लक्ष्य न्यूनतया ततः पर्वतस्याधिकतया प्रतिवेदनात् ।
स्यान्मतम्-विषयाकारवैकल्यमेवात्र व्यवस्थापयितुमभिप्रेत्तम्, तब 'प्रदेशादि' इत्यादिनैव प्रतिपादितम् तत्किमनेन 'प्रस्फुटम्' इत्यादिना 'न्यून' इत्यादिना च प्रयो- १५ अन्यभावादिति ? तम आत्मन्यवस्थापनस्य तत्प्रयोजनस्वास् किं पुनरात्मा "प्रतिरुध्यत इति ? अत्र पसे भूया - 'प्रमाणाभावात्' इति तमुतरम्'प्रस्फुटम् इत्यादि । व्यवस्थापित एव पूर्वमात्मेति चेत् न प्रकारान्तरेणेदानी व्यवस्थापनात् । तथा हि यद्यात्मा नाम न भवेत् कुस्तदा प्रस्फुटेतररूपतया विज्ञानेषु न्यूनाधिकस्वभावतया च विषयेषु राशिद्वयप्रतिपतिः १ "एकशशिविषयस्य ज्ञानस्य यन्तरं प्रत्यनुपक्रमेतत्प्रतिपतेरनुपपत्तेः प्रतियोदिपरिज्ञान- २० मन्दरेणैकराशिपरिज्ञानमात्रादेव "तत्प्रतिपत्तेरनुपलम्भात् । तत्र तदुपक्रमे च न सम्भवत्येवात्मप्रतिषेधः परापर विषयग्रहणोपक्रमाविज्ञानस्य ज्ञानस्यैव आत्मत्वेन आत्मतत्ववेदिभिरभ्यनुज्ञानात् । न च राशिद्वयपरिज्ञानमसिद्धम् प्रसिद्धत्वात् । प्रसिद्धिरप्येकराशिपरिज्ञानस्यैवेति चेत् । कुत एतत् ? तथानुभवादिति चेत् न राश्यन्तरज्ञानेऽपि वदविशेषात् । तथापि तस्य प्रसिपला तदपरस्यापि भवेदित्यभाव एव वहिरन्तश्च भावानामापद्येत । न चासौ शक्यव्य- २५ वस्थापनः प्रमाणवैकल्यात । ततोऽनुभवलादेकस्पिरिज्ञानमभ्यनुज्ञानतो राश्यन्तरपरिज्ञानमयुपविषय एव । एतदर्थमेवेदमुकम् -'प्रतियन्' इति । तस्मादुपपन्नं राशिद्वयपरिज्ञानादाव्यवस्थापन तत्प्रतिपादनार्थं प्रस्फुटम्' इत्यादिकं 'न्यून' इत्यादिकञ्च वचनम् ।
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भाषापरिपाकप्रयुतस्यैन । २ वैशवस्य । ३ वेदन्यत्र मा०, ६०, ० प०
४० ५० ५ भूलदशा-आ०, ब०, प० । इति रा
प०
८ - ० ० ५-ताव अस्य न्यून-आ०, ब०, प० ०११-० ० ० १२ प्रतिया-आ०, ब०, प० । १२ -
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१०
१०३४- परिभ
-स्य संख-०, ५०, ३० प्रति०, ६०, ० ० ४० १
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भ्यायविनिश्चयविवरणे साम्प्रतं 'विपरीतं या नियन्' इत्येतत् स्मरणपर्यायेणेथे प्रत्यभिज्ञानादिना पर्यायेगापि इमयनाइ
एतेन प्रत्यभिज्ञानाचतीतानुमितिर्गता ४५॥ इति ।
प्रत्यभिज्ञान नदेयेदं ताशमिदमिति वा ज्ञानम् , सदादिर्येषां तर्कानुमानश्रुताना तानि ५ प्रत्यभिज्ञानादीनि तैः अतीतस्य उपलक्षणमिदं वर्तमानस्यामागतस्य च अनु पश्चात्
पूर्वपूर्वस्मादूर्ध्वमुत्तरोत्तरः मितिः परियानं गसा निश्चित ! केनेति चेत् ? एतेन 'यदा यत्र' इत्यादिना ।
तथा डि स्मरण यवतत्कालाधपि स्वयम् । नियतमाहि उद्वरस्थान प्रत्यभिज्ञाद्यपि स्फुटम् ।।७३७॥ सामासाशात्तस्य तरिकयातों विनिश्चयात् ।
ससपेटियातनाकाजविस्यकल्पनम् ।।७३८॥
अतिपनविषयमेव प्रत्यभिज्ञानम् 'अनु' इति वचनात् । न च पूंर्वापर योरेकत्वं सारश्य या फुलश्चित्प्रविपन्न तत्कथं तस्य प्रत्यभिज्ञानेन प्रमिसिरिति यत् ? म; प्रत्यक्षतोऽपि तत्प्रतिपत्ते।।
सन्निहितस्यैव पर्यायस्थ तेर्ने प्रतिपत्तिर्न पूर्वस्य सत्यं तदेकरवस्य तत्सारश्यस्य घा तेन १५ परिक्षानमिति चेत् । किमरेवय सस्य सन्निधानम् ? प्रत्यक्षमेवेति चेत् ; ; विषयस्य तज्ज्ञा.
नापेक्षया समकालवानभ्युपगमात् "नातोऽर्थः स्त्रधिया सह" [ प्र० वा२१२४६ ] इति वचनात् । तदर्थजावस्याकारस्य तत्समकालस्वमेव स्यापि तत्समकालरकम् , तेस्परिज्ञानस्यैव विषयपरिझानतयाऽभ्यनुझानादिति चेत् ; अनुपकारे तदाकारस्यापि परिज्ञानं कथम् १
"नाकारणं विषयः" [ ]"इत्यस्य विरोधात् । श्यसिरिक एवायं विषये २० न्याया, न चाकारस्य ज्ञानाव्यतिरेफ इति चेत् ; कस्वहि सत्र न्यायो यतस्तत्परिज्ञानम् १
स्वतोस्तत्स्वभावतयोत्पत्तिरेवेति चेत् ; व्यतिरिकेऽप्ययमेव फस्मान भवति यतस्तत्र निष्णयोजनमेव हेतुभावपरिकल्पन न भवेत् ? अहेतोरपि परिज्ञाने किन्न सर्वस्य परिज्ञानम् आहे. तुत्वाविशेषादिति चेस् ? न; आकारस्याथ्यहेतोरेव वेदनात् , सत्राप्येषमतिप्रसास्योपनिपासात् ।
स्वहेतुनिवद्वेन" शक्तिनियमेना हेतुत्वेऽपि तस्यैव सत परिक्षानं न सर्वस्येति चेत् । न व्यसि१६ रिक्तपरिज्ञानेऽप्येवमेव समाधानोपपत्तेः, व्यतिरिक्तस्यापि तादृशादेव तभिषमात् नियतस्यैव
परिज्ञान न सर्वस्येति । शक्तितच विषयपरिक्षाने कर्थ सन्निहितस्यैव प्रत्यक्षेण दर्शन मासीतादेपि तत्रापि तस्य शक्तिसम्भवात् ।
भवतु पूर्वापरयोस्वयं प्रकृतिस्तथापि न सतस्तत्रैकरवं प्रतीयते, भवत्यैवैकान्ततः
-
-..
-गैव मा०,०,० ३"मिवेदवबाह इति पाठेम भाव्यम्"-ता. हि प्रत्यावहाण आद इत्यर्थः । । इसोकामोरहा श्लोकदथम विगति" सारिक। -विदि-०.१०१५ पूर्वपश्योमा०, २०, ५०१६ प्रत्यक्षा ! - सनसमकालत्वमेव ! ८ अर्थत्यापि । ९ मारपरिझयमस्यैव । १. "est. 4:"वासिकान18011-तुनियमेन बा-6,401 नियमेनहेतु-१०। १२ प्रत्यभिज्ञानस्य ।
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२२४५ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
५९९
प्रतिपैरिति चेत्; यकसमवायात्, अनेकसमवायाद्वा ? न तावेदकसमवायात् तत एकस्वarrestee veer परिज्ञानप्रसङ्गात् । पर्यायान्तरस्यापि तव एवं परिज्ञानमिति चेत्;
परत्वाभावापत्तेः । न हि तत्पर्यायाभिमुख्यैकस्वभावसंवेदन वेगस्य तदर्थास्तरत्वं तस्वरूपवदुपपन्नम्। एकस्वभाव नित्य निबन्धनत्वेऽपि कार्याज़ामपरापरत्वस्यानिवारणप्रसङ्गात् । भक्तु adaस्यैकस्यैव परिज्ञानं न परस्येति चेमू ; कथं तस्य ततो भेदपरिज्ञानम् ? अपरिज्ञाते ५ तस्मिन् तदनुपपत्तेः । तस्य तत्स्वभावत्वादपरिज्ञातेऽपि तस्मिन् भवत्येव परिज्ञानम् अन्यथा "तत्वभावत्वस्यैवाभावप्रसङ्गादिति चेत्; न; तत्स्वभावत्वस्यासिद्धस्यात् । भेदो हि पूर्यस्योत्तरसूत्राभाव एय, संच 'दधिकरणतया पञ्चादेव भवन् कथं पूर्वस्य स्वभावः स्यात् । पूर्वस्यैव तद्रूपतयाऽवस्थितिमत्त्वेनाक्षणिकत्वापतेः । "पूर्वमेवायमभावो" न पचादिति चेत्; भावस्तर्हि "पश्चादिति कार्यासमकालत्वं कारणस्य पूर्वमेव गतं सन्तानव्यवस्था कथन १० विधुरीकुर्यात् ? कथमपि सुभाषितम्
स्मा
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"न तस्य किञ्चिद्भवति न भवत्येव केवलम् " [ प्र० स० ३३२७७ ] इति ? " मत्येव" इति वचनानुपपत्तेः । भावोऽपि तस्य बलादापतितः प्रागेव " इति चेत् पश्चातहिं किं स्यात् ? न किञ्चिदिति चेश्; नन्वेवमभाव एवोक्तः स्यात्, परस्य न किञ्चिदर्थस्याभावात् । भवत्येवमिति वेत्; न; 'ख च तदधिकरणतया इत्यादे. १५ स्याभिहितत्वात् । पुनरपि प्राग्भावपरिकरूपने प्रसङ्ग: 'भारतहिं' इत्यादिः " अनवरथादोषमात्रायेत । 'न "तस्य पश्चाद्भावो नाप्यभावः इत्यपि न युक्तम् उभयाभावस्य न किन्वि दत्वापत्तेः तस्य पञ्चाद्भावपूर्वभावयोः प्राप्यदोषानतिक्रमात् । तत्रापि 'न तस्य' इत्यादिबने परस्यानयस्थादोषस्योपनिपातात् ततः पश्चाङ्गान्येराभाव" इति नासौ पूर्वस्य स्वभावः । यद्येवम्, अस्वभावाचतोऽपि तस्य भेदो वक्तयः तदस्वभावत्यस्यान्यथानुपपत्तेः । तस्य २७ यदि तत्स्वभावत्वं पूर्वस्यापि स्वादविशेषाम् । तस्यापि पञ्चाद्धाव्यभावत्वेन नास्त्येव
83
* तत्स्वभावत्त्रमिति चेत्; न; तत्रापि 'यशेषम्' इत्यादेरनुयन्धादनवस्थानमुत्रहतश्रक्रकस्यानुषज्ञादिति चेत्; न; तस्माद्रवस्याभावान्तरनिबन्धनस्थानभ्युपगमात् तत एवाभावात्तदुपपत्तेः । स एव भावः प्राच्यस्य "स्खतो "निबन्धनम् न तवन्तरं तदप्रतिपत्तेः सत्कथमयं 3
प्रसङ्ग: ?
1 - पतिरि-आ०, ब०, प० । २ -बादेवैक-आ०, ब०, प० । ३ तखभेद् आ०, ब०, प० ४ परमेदस्वभावत्वात् सरस्वभावाभाव०, ब०, प० ६ उ ● ममावा उत्तराधिकरणलगा । ९ उत्तरखःतया । १० पूर्व एवं भ० ० ० १ ११ उत्तराधिकरणकः पूर्वाभावः । १२ यदि उत्तरकाले पूर्णभावः नास्ति किन्तु पूर्वमेव तईि पूर्वस्य सद्भाव एवं प्रापः ११३
तथा च कार्यकारणयोरेकका अ १५ पूर्वप्यस्य । १५ वत्सरणतः १० किन ध्यान १९ भ० ० ०
२० पूर्वभावस्य
।
० ० । २४
कर्य सन्तानभ्यवस्था स्वादिति भावः १४ पूर्वक्षणस्य । ००१०१८ कश्चिदर्य भा० ४०, प० पूर्वं श्रुतित्वकल्पने । २-० ब०, प० पश्चादभाव एव-आ०, ब०, प० । २५ पूर्याभावः पूर्वस्य । २९ पूर्वश्रवभावत्यम् । ३० पूर्वमुकस्य स्वभावश्यम् । ३३ पूर्वम्ानात् पूर्वमेवस्य । ३४ मेोपपत
२२ पूर्वस्व २३ वस् प ० २६ पूर्वाभावादपि। २७ पूर्व २८ पूर्वा पूर्णमास्यापि ३३ पूर्व मेदस्यापि १२ ३५ स्वस्मात् । २६ भेदेन ता० ।
8
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३००
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AnusumaiREHIMASHEHARDAN-HITECAREERIES-
म्यारविनिमयविधरणे पवादावी भाव एष किन तम्निबन्धन ततोऽपि "परस्यामावस्यापरिझरनादिति रेल । उच्यते
सर्वाऽर्थान्तरं भावादभावश्चेनिविध्यते । निषिध्यता न किञ्चिन्न स्याद्वादयेदिनार ६७३९॥ कामचद्यस्तु तह दो नासौ शक्यनिपीडनः । प्रतीसिथिताइलेषलब्धस्वासयसुखो ह्ययम् ॥४०॥ पश्यन्तः कलशं यस्माम्जायमानं स्वहेतुतः 1 माटो मुपिण्ड इत्येवं निश्चिन्वन्ति विपश्चितः ।।७४१॥ एकान्समावरूपे तु कलशे नाशनिर्णयः । कर्थ मन्त्रोपजायेत तन्मिध्यावसञ्जनात् । ७४२॥ निश्चयो न च मिध्यासौ निर्मासस्य समुद्भवात् । तस्माद्भापात रिकोऽयमभावोऽस्ति कथनं ७४३५ स एव सः प्रायस्य प्रतीत्या सुहदोच्यते ।। कथक्रियतदभेदेन माशोक्तिस्सू (स्तू) सरोदये"।।७४४६॥
तन्नोतरस्यासवित्तो नभायाभाववेदमम् । एकस्वभावमध्यक्षं न च तदनक्षमम् ॥७४५ यद्यनेकस्यमा तदनमेणोपगम्यते । एकानेकावभाव तत्कमेणापि न कि मतम् ? ७४६|| अनेकसम्यं सच्चन्यायादागस मुल्यते । तेन पूर्वापराभेदः सुधोधो भेदन किम् ?।।७४७॥ तपातहिरप्येवमेकत्वेऽध्यक्षस गते । निरवाहमेचात्र प्रत्यभिशाप्रधानम् ७४८॥ सादृश्ये प्रत्यानिशानमेतेन प्रतिवर्णितम् ।
प्रत्यक्षादेव तस्यापि" प्रहणस्योपदर्शनात् ।।७४९॥ एतदेवाहप्रायशोऽन्यव्यवच्छेदे प्रत्यग्रानवषोपतः । इति ।
प्रत्यग्रं च सद्वर्तमानस्यात् प्रतिनवम् अनवं च सदतीतस्वाच्चिरसन तस्य पोधः "परिज्ञान प्रत्यभिज्ञानादेः स प्रत्ययानवयोधा तस्मात्तत इति । उपलक्षणमेतत्-'सशोधता
--.-.- - उतरक्षण एव । ३ किं तधिय--१०,२०.
५ ३ अत्तरक्षणात । मिनस्य । ५ निवेश्यते मन .०,५०६ निधेष्यताम् आग, 40, 4.10 -तिरेकोऽयम-क्षा०, १०, १016: प्रा०, २०, ५०।१ प्रतीच्या मार -सूतरोध-०, २०, प.!" -हिस्सू "त्रु."". IPीतर-१०॥ १५ अध्यक्षम् 1 1-पि प्रत्ययस्योप-प्रा००,५०५ परिशा प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यभि-०.। ।
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मार्गल
{1:38].
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
इत्यपि द्रष्टव्यम्। इदमभिहितं भवति अतत्कालादित एव प्रत्यभिज्ञादेर्यंत एकत्वसादृश्यपरिज्ञानं
भावेषु यत तव 'तन' इत्यागुपपन्नमिति ।
कथमेवं प्रत्यभिज्ञादेः प्रामाण्ये' प्रत्यक्ष प्रतिपन्नविषयत्वेनापूर्वार्थस्वाभावात्, अ
पूर्वार्धन भवतां प्रमाणम् " प्रमाणमनधिगतार्थाधिगमज्ञानम्" [ इति वचनादिति चेत् ? अत्राह-अन्यव्यवच्छेदे इति अन्यत् एकत्वावैकान्तिकं नानात्वं सारश्याच्च ५ वैलक्षण्यमध्यारोपितं तस्य व्यवच्छेदो निरालस्वस्मिन् चन्विभितं यः प्रत्यमानवबोधस्तव इति । एतदुक्तं भवति - प्रत्यक्ष प्रतिपन्नस्यापि समारोपच्यव छेदविशिष्टतया प्रत्यभिज्ञानादिना प्रतिपत्तेः कथचिदपूर्वार्थमेव तत् तत् प्रमाणमनुमानवदिति । तथा च सूक्तं चूर्णो देवस्थ
वचनम् -
1
३०१
“समारोपष्यवच्छेदात् प्रमाणमनुमानवत् । स्मृत्यादितर्क पर्यन्तं लिङ्गिज्ञाननिबन्धनम् ॥" [
श्यानात् ।
] इति
कथमेवं प्रत्यक्षविषये सर्वत्रापि न प्रत्यभिज्ञादिकं यतः घट्टका देत्यभिज्ञानात्कस्यचिदनुवादभङ्गो भवेदिति चेतू ? न स्मर्यमाण एव तत्र तदुपपत्तेः । न च स्मरणस्यापि तत्र सर्वत्रापि भावः संस्कारगोचर एव तस्य भावात् तथैव प्रतिपत्तेः । एतदेवाह- 'प्रायश:' इति । प्रायशो बाहुल्येन यः प्रत्यभिज्ञादेः प्रत्यग्रामवबोधस्तत इति । यावत् निस्येतरात्मकं १५ वस्तु सादयेत्मकं चाभ्युपेयते तावन्तद्विपरीतमेव कुढो नाभ्युपेयत इति चेत् ? अत्राह-अविज्ञाततथा भावस्याभ्युपाग विशेषतः || ४६ ॥ इति ।
अविज्ञात: अपरिज्ञातः तथा तेन परोसेनैकान्तक्षणक्षयादिप्रकारेण भावः metre वेतनस्येतरस्य वा तस्य योऽभ्युपाय अङ्गीकारः तस्य विशेषतो वाधनादतिप्रसमेति भावः । तथा हि
एकान्तक्षणभङ्गादि यद्यज्ञातमुपेयते ।
द्ववेकान्त नित्यपेयं किन्न ते मतम् ॥७५०|| सर्वप्रादिनामेवमभिप्रेव्यवस्थितेः ।
पराजयः क सम्भाव्यस्तदभावे जयोऽपि वा ।। ७५१ ॥
सस्याम्युपगमस्तस्माज्ञातस्यैोपपत्तिमान् ।
न च तस्य परिज्ञानभिसि पूर्वं निवेदितम् ॥ ७५२॥
30
इमे 'यथैवास्मायम्' इत्यादयोऽन्तरश्लोकाः 'प्रकाशनियमः' इत्यादेस्तै
१०
स्यान्मतम् - यदुक्तम् असमेव केशादिः वैमिरिकस्य प्रतिभासते श्रान्तेयधिपत्येन इति;
प्रमाणप्रायक्ष-आ०, ब०, १०२ " प्रमाणमभिसंवादिज्ञान मन चिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात्"अष्ट, भटख० पृ० १७५१३ प्रस्फुटकादे- भा०, ९०, १०१४ अनुवादभोपपतेः । ५०, १०, १० १
२५
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३०२ .
न्यायविनिश्चयधिवरणे
[ ६ सद्युक्तम् ; असतः प्रतिभासेऽतिप्रसन्नात् , व्योमकुसुमादेरपि पक्षापत्तेः । 'असो अस्तुसभेव तत्केशादि [३] खप्नविषयश्चेति ; तन्त्र ; शक्तिवैफल्यात् । यदि वस्तुसनेव स्वनादिविषयः, कधं तस्य शक्तिवैकल्यम् १ वस्तुसति तदयोगात् । न चाय शकिमानेष सत्कार्यादर्शनात् । न
हि स्वप्नोपलब्धाहनादेदाहादिकार्यम् । तदपि कदाचिदुपलभ्य एवेति चेत् ; म ; तस्या५ प्यसक्ष एवं प्रान्तिसामयेनोपलम्भात् , कथमन्वया तदादग्धतया स्वैव पश्चादन्यथोरलम्भ
मम् ? न वेदमन्यदेव, दृढप्रत्यभिज्ञानविषयस्वाम् । असत्यपि कार्ये शक्तिमानेवायम् , अलौकिक त्वात् । लौकिकस्यैवार्य धर्मो यच्छक्तिमत्वेऽवश्यम्भाविकार्यदर्शन मिति घेत् ; अन्न; अति कार्ये शक्तिमत्वस्यैव दुलपणदत्वात् , तदुपपादनस्य कार्योपाध्यायत्वात् । तज्ज्ञानमेव तस्ये कार्यम्,
अकारणस्याविषयत्वात् सतस्तत एवं तदुपयनमिति चेत् ;नस्वर्गवैत्यवन्दनाधिष्ठानस्य साय. १० साधनभावस्थापि तस एव पदुपपादनापत्तेः । भवतु को दोष इति चेत् चैत्लवन्दनानेरपि धर्मस्वमेवेति
भ्रूमः । तथाच न युक्तमेतत्-"धर्मे चोदनैव प्रमाणम्' [ ] इति' प्रत्यागमस्यापि तत्र प्रामाण्यात् । अथ ताने" "तदागमादेव केवलान्न "तद्विषयात कथमिदानीं तस्य भक्तिमत्त्वम् । "कार्यलेशमध्यनुपञ्चनयत्तस्तदनुपपतेः । तदपि मा भूदिति चेत् ; सिद्धं तर्हि 'स्यावस्तुसत पव
प्रतिभासनम् , सकलशयिसविरहस्यम सदूपत्वात , तथा स्वप्नादिविषयस्यापि स्यादविशेषात् । १५ यदि वार्य विष्ववियो भायो "भाविक एव कधं तस्येच्छानुवर्तनम् अन्यत्र सारौं
तददर्शनात् । अस्ति बेच्छानुवर्तनं विप्लवविषयस्य कामिन्यादेरिसच्या पुरतः पार्वतश्वोपल म्भान् । अनियतदेशगतत्वात तथा "तस्योपलम्भो नेच्छात इति चेन् ; न;"अन्यस्यापि तदुपलम्भप्रसङ्गात् । सामग्रीवैकल्यान्नैवमिति चेत् ; सति चक्षुरादौ कथं तदैकस्यम् १ विप्लवापेक्षमे ।
तदपि साभपी न फेवलमिति चेत् ; न ; वस्तुससि विषये विप्लवस्यानुपयोगा, अन्यथा २० अन्यत्रापि तदपेक्षणप्रसङ्गात् । वस्तुसत्यपि अलौकिक एव "तपेक्षण नान्यत्रेति चेत; कयमेव । तस्य विप्लवस्वं वस्तुसविषयोपलब्धिनिबन्धनस्य "वायोare अतिप्रसङ्गात् । अनिष्टस्वात
तद्विषयस्येति चेत् ; न; विषाविविश्यस्य चक्षुरादेरपि तत्त्वापत्तेः । न यानिष्ट एक "तस्य विषयः कामिन्यादेरिष्टस्यापि तद्विषयत्वात् । अर्थक्रियाविरहादनिष्ट एवायमपीति चेत्, न । तदर्शनस्यैवानिस्तदर्धकियात्वात, "गेयस्य श्रवणवत् । न हि गेयस्य श्रवणादन्यदेव फलम् ,
१ ततो भा०,40, प० । २ मिरिककेशादिः । ३ -दी तयार-आ०, २०, ५० स्वप्रे । कार्यम् ।। उपाध्यायः वषकी यरूप। ५ फिरसरम। ॥ शजिमश्वक्षामादेव । -मस्य साधन-10, १०, प016 चैत्यदायनज्ञानादेव चैत्ववन्दननियस्वर्गप्रापणशक्तिमरवस्थ उपपादनापतेः । ९ "तस्मात् चोदनेव प्रमाणं धर्मस्य इति स्थिता प्रतिज्ञार्थः।"-६०
चैत्वदन्दमनिष्ठरवर्गणशसिनम् । बौद्धागम देव । १३ चैत्य बन्दनायविषयात १३ चैत्यवन्दनस्य । १४ का लेश-मा०,०,५०11५ पबन्दनस्य । १६ भवि कप भा०, मा. परमार्थसम्मेव।.परमार्थसदस्तुनि । १० विप्लवषिश्वय १९ "प्रतिपतु 'कालिन २.-कल्यात्मवमिति ०,२०.५० । २० सामग्रीकल्यम् । २२ पक्षुराद्यपि। २३ विषयविद्ध-पा०,.. ५०।२४ साहनपत्राषि-०, ०,१० । २५ विसवापेक्षणम् । १६ विरुवायोमात् । २. विविषयस्य ।। २८ विटवल्यापत २९ विश्वस्य । ३० कामिम्मादिरपि । मेयश्रवण-भR०,०, प्रयक्ष श्रषण • I
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१७]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
३०३
1
तस्यैव प्रीतिरूपस्य तत्फलत्वेन प्रसिद्धत्वात् तत्कामिन्यादेरपि तदर्शनस्यैव 'श्रीतिरूपस्य फलस्योपपतेः नार्थ क्रियाविरहादनित्यमुपपन्नम् । तथा च कस्यचिद्वचनम्
"झे स्वरूपसंविधिरेव तत्र क्रिया मढा ।
चित्रेपिष्टपात्रेण फलं परिसमासित् ॥ [प्र० वार्तिकाल० १ १ ] इति ।
;
५
चदपि 'दर्शनं न कामिन्यदेः अपि विन्द्रियादेरेवेति चेत् कथमसत्कार्यस्य "तद्विषयत्वम् ? स्वशक्तित इति चेत्; न; असद्विषयत्वस्यापि प्रसङ्गात् तत्कथं कामिन्यारलौकिकत्वेन सम् ? तन्निर्व या तत्कार्यमेव तद्दर्शनमिति कथमर्थक्रिया विरहात्तस्यानिष्टश्वम्, यतस्तदुपलधितोः "कासोन्मादादेत्रित्वम् ? अविश्यश्वे च कथं 'तदपनयने लोकस्य प्रयासरायपनयनवत् ? ततो न वस्तुसदर्शने विवापेक्षणं वियस्यैव तत्रानुपपत्तेः । अतश्चक्षुरादिरेव तत्र सामप्रीति तत्सामग्रीतः परस्यापि समानदेशकालस्य तद्विपरीतस्य च तदर्शनं भवेत्, अनि देशादेरर्थस्य नियतप्रतिपत्तृषेद्यत्वाप्रतियेदनात् । ततो न स्वत एव तस्यानियतवेशादित्त्रम्, अपि वच्छानुवर्तनादेव इच्छयैव तद्भावनारक्षणया परितः कामिन्यादेरुपलम्भात् । अतो न तारा' परमार्थिकं वदिम् ।
१०
एतदेवाह
अभिनदेशकालानामन्येषामप्यगोचराः ।
विप्लुताक्षमनस्कार विषयाः किं यहिः स्थिताः ॥४७॥ इति ।
किं नैव षहिः स्थिताः ? के ? विप्लुताक्षमनस्कारविषयाः । विषाक्षविषयाः केशादयः वितमनस्कारविषयाः कामिन्यादयः । कीट्शास्ते न बहिः स्थिताः ? अभिनदेशकालानाम् विशुतेन सहाभिन्नो समानो देशकालो येषां तेषाम् इथं कामिन्यादीनां निवेशादित्वापेक्षयोक्तम्, अन्येषामपि भिन्नवेशकालानामपि एतदनियत देशत्वाद्यपेक्षया प्रति २० पादितम् । तेषामगोचरा अविषयाः इति । तात्पर्यमत्र- यदि परमार्थसन्तोऽपि नियतदेशादयस्वा तेन वितेन अभिन्न देशकाकानां विपया एव भवेयुः | अनियतदेशादयः पुनरन्येषामपि, ate tea परमार्थति दर्शनात् । न चैवम्, अतो न ते वहिर्विद्यन्त इति ।
तदनेन "स्वप्न शरीरं वस्तुसत्' इति प्रत्युक्तम् वस्तुत्वे तस्य यथा तेनान्येषां दर्शनं तथाऽन्यैरप्यभिनदेशकालेस्तस्य दर्शनं भवेत्, अस्वप्नान्तिकशरीरवत्, अन्यथा "तस्यापि २५ परापत्तेः कथं सन्तानान्तरव्यवस्थापनं यव इथं सूतं भवेत्
"बुद्धिपूर्वी क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्दात् । ".
सन्ताना० इमे० १]
१ प्रतीत्तिरूपत्यस्य भा००२ मा आ०, ब०, प०१५ दर्शनं तु का ० ०, प० । ४ कामिस्माचार्यस्य । ५ कामिभ्यादिविषयत्वम्-विरहार्थस्य आ०, ब०, प० । ७ कापीमान्दादे- भ० ० ० 14 काचापनयने । कामि ज्यादा १० स्वापान्तिश - ०२०प०। "यथा स्वप्रान्तिकः कायः त्रास भावने जामरेड विकाराय तथा जन्मान्तरेष्वपि "प्र०कार्तिक २६६२११ किशरीरस्य । १२ भाकरीरस्यापि ।
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३०४ न्यायचिनिश्चयविवरण
[१४८ इत्यादि।
न तंत्रापि परमार्थतः परस्परतरे दर्शनम् , व्यवहारमात्रेण तु तदभ्यनुज्ञानमिति धेम् । तस्य स्वप्नान्तिकेऽपि भावात् । अस्ति हि तत्राप्येचे व्यवहारः 'परमहं पश्यामि परोऽपि माम्' इति तथा च सुनोस्थितो यथा पर कथयति 'मयर त्वं स्वप्ने : इति ५ सया पयेऽपि गान् 'मयापि स्वष्टा इति । व्यवहारप्रसिद्धमपि तत्रै परस्परदर्शनं मिध्ये. बेति चेत् । तच्छरीरदर्शनमपि तथा स्यादविशेषात् ।
किञ्च तहरीरस्योपादानम् ? अतुपादानस्य वस्तुसमानुपपत्ते, अन्यथा आदिजन्मनोऽपि तथैव तदापत्तेर्न परलोक सिद्धिर्भवाद। २२मालमेर पानमिति
येत् । सईि सन्तानान्तरमेव सदिति कथं सस्य ताहमादौ सुनसरीरस्थोत्रासनादिकम् ? नं १० झन्यस्य "पटकभक्षणे परस्य पिपरसया मरणमुपलब्धम् । सुनशरीरमेव तस्योपादानमिति
न्, 'तप्तहिं निःसन्तानं भवेत् , पकस्य सन्तानद्वयोपादानत्वानुपपत्तेः। सदुपपसी वा यथा सतः" स्वरमानितके बुद्धीन्द्रियावेः सन्तननं संथोत्तरमुपशपरेऽपीति कथं तस्य सुप्तत्यम् "बुद्धयमानस्यात् स्वस्नान्तिकचत् । ऋक व मावादिशारीरसेवापत्यस सानस्य स्क्सन्तानस्य" कोपादानं न भषेधसः परलोकसिद्धिरिति दुस्तयेऽयं दोषापातः ! तन्न तस्य परमार्थसत्त्वम् , अर्थरूपतया तत्सत्वे कई निश्छिद्रापिहितेऽपि गर्भगृहादौ तस्य प्रदेश सदन्यत्र "तददर्शनात् । "अप्रतिपत्वेनान्यषिलक्षणस्यत्तस्येति चेत् ; न; अलौकिकार्थवादप्रत्युजीवनापत्तो, अलौफिकस्यैव अप्रविध इति नामान्तरप्रतिपादनात् , तो विजयी मीमांसकः स्याम लाथागत: 1 बोधरूपतया तु वस्य परमार्थत्वमाकारवादप्रतिक्षेपादेव प्रतिक्षिप्तमिति ने पुनः प्रतिक्षिप्यते । ससो न बहिरर्थतया स्वप्नान्तिकस्य कामिन्यादेवा सर्व थहिरवस्थितस्य नानाप्रतिपतृसाधारणस्वप्रसङ्गान् ।
नाय दोषः, *तस्थान्तदेहदृस्तित्वादिति चेत् ; इदमेबोस्लिख्य "परिहरनाइ
अन्तःशरीरवृतेश्चेददोषोऽयं न साइशः । तत्रैव ग्रहणारिक था रचितोऽयं शिलालम ॥४८॥ इति ।
शरीरस्यान्तः अन्ताशरीरम्, अन्नाशदस्य "पारे मध्येऽन्तः" [शाकटा० २।१।९ इति सूकत्वान् पूर्वमिपात: रात्र वृत्तिनं कामिन्यादेस्तस्याः चेत् यदि २५ अदोषो दोशे न भवति अयम् 'अभिन्न देशकात्मनाम्' इत्यादिः । तत्रोत्तरमाह-न इति ।
मात्यन्तःसरीरवृत्तिः । अत्रोपपतिमाह-ताशः कामिन्यादिप्रकारस्य तत्रैव बहिरेष, . पहिरित्यस्व प्रस्तुतस्वात् , ग्रहणात् परिज्ञानात् । न हन्धाशरीरवृत्तौ बहिणभुपपन्नमिति
"मन्यते खुखिरूमा साम येषु न तेषु धाः "त्युतराधम सिद्धिवि० वि० परि० । उदाहमिदम्-सबमा. पू. १९१२ जाप्रपवरीरे । स्वभान्तिक । ५-याद्विजन्म-20,०,५०। ५भनुः पादानतयैव । ६ रस्तुसात्तपत्तेः। दीया' इसि भाशयाम् । ८ तहिं जा०, ५.५०। ५ सप्तशरीरम्। • सुप्तस कामिग्यादेर्वा शरीरान ११ बुधायमानत्वात् बा .प. २ सन्तानस्य ०, २०, प.। १३ स्वप्मान्तिकारीरस्थ18दर्थ-- २०.१५.प्रतियातरहितत्वेन । १५ स्वप्नान्तिस्य कापिध्याये । १७ परिवारवाइ प्रा. १०५०
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११४८] मधमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
३०५ भावः । विभ्रमालादन्त शरीरवर्तिनोऽपि बहिर्भावेन ग्रहणमविरुद्धमिपि चेदवाइ-किंवा किमिव, रचितो निर्मितः अयं परेणोच्यमानः शिलालवः अब यतया शिलालक्समानत्याष्ठिालव इति । शरीरातर्सिनो बहिः प्रतिमास उच्यते । एतदुस्तं भवति-यथा शिलायो निमानमेव अद्वयं गुरुत्थाम्न प्लवनं लघुस्वाभावात् तथा कामिन्यादेरन्तरेव प्रतिभासनं श्रद्धेयम् अन्तर्भवनस्य सत्र भावात् , न यहिः बहिर्भवनस्थाभाशत् । असदपि पहिर्भवनं भ्रान्तिवला. ५ प्रतिभासत इति चेत् । कथमेवं कोमिन्यादिरेव असन्न प्रतिभासेत भ्रान्सिनलस्य सम्भवात् ? वाध्यमानतया बहि वासत्यवत् तेदसत्त्वस्यापि परिज्ञानात् । तस्मादसन्नेव कामिभ्यादिर्नालीकिकोऽयों नापि ज्ञानाकार इति ।
स्यान्मतम्-भ्रान्तमपि शानं न कामिन्यादेव्यतिरिधामस्ति तवप्रतिवेदनसत् , तत्कथं दलादसत एव तस्य परिझानमिति ? बहिर्भावस्य कथम् १ मा भूदिति चेत् । न दृष्ट. १० स्वात् । दृष्टं हि पहिर्भावस्य परिज्ञानम् , 'बहिरय कामिन्यादिः' इति । २ प रष्टस्यापहवः कामिन्यादिज्ञानेऽपि प्रसङ्गात् ।
मनु न ज्ञानदेव तसर्थ पहिर्भायो न प तस्य उस्माव्यतिरेकः तदप्रतिबेदनात् । न चाव्यतिरिक्तादेय पहिर्भायो विरोधादिति चेत्त् ; न ; कामिन्यादेनिमिति व्यतिरेकस्यापि परिज्ञानात् । मिध्यैव तस्परिज्ञानं "शिलापुत्रकस्य शरीरम्' इत्यादिवदिति चेत् । कुवस्सस्य २५ मिथ्यात्वम् ? तद्विपयस्य ब्यतिरेकस्यासस्वादिति चेत् ; किं पुनरमतोऽपि प्रतिभासनम् ? तथा येत् किन्न कामिन्याधेरेवासतः प्रतिभासन यंतस्तस्य ज्ञानाकारस्वफस्पनम् । वो वस्तुसमेष हामिग्यादेस्तल्झानाध्यतिरेफ इति बहिरेवासौं न संदाकारः । बहिरपि न समझेप वाधावत्वान् । ससो वदुक्तम्
"आत्मा स तस्यानुभवः सपनान्यस्य कस्यचित् ।
प्रत्यक्षप्रतिवेद्यत्त्वमपि तस्य तदात्मना ।” [प्र०वा० २१३२६] इति; सत्प्रतिविहितम् ; तदनुभवस्य तदर्थान्सरत्वेन 'आत्मा' इत्यादेरयोगान् , अर्थातरस्यैषानुभवस्यासी येथतया "सम्बन्धी इति स च इत्यादेरसम्भवात् । प्रत्यक्षप्रतिवेवत्वमपि तस्यार्थान्तरादेवानुमदात्र पुनः स्वयमनुभवात्मत्यादिति 'प्रत्यक्ष इत्यादेरप्यनुपपत्तेः । पदव्युत्तर
"नीलादिरूपत्तस्यासौ स्वभायोऽनुभषश्च सा नीलापनुभवः ख्यातः स्वभावानुमघोऽपि सन् "प्र०२० २।३२८) इति; हृदपि न सुभाषितम् ; नीलादेरपि कामिन्यादिवदतदाकारेणैव ज्ञानेन परिझाना , तस्य
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कामिन्यादरेर आ०, ५०,०। २ अमिन्यायविस्थापि । ३ श्रामिलात : १ कामिन्यादेः । ५ मदि-R०,०,५०। कामिन्यादः । ७ भेदस्यापि । ८ यसस्य मा०, २०, ५० पलामाकारः । १. सरस्वैवास्यानुभ-भा०, २०, प० । सम्बन्धेति एवेदिवा-
शाखा , प.। ३९
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३०६ न्यायविनिश्चयविचरणे
[ ८ रस्वभावत्मानुपपत्तेः । कथमतदाकारेण सद्रहणम् ? प्रतिबन्धाभायेन सर्वपहणप्रसन्मादिति चेत् । न प्रतिवन्यस्य शसिनियमलक्षणस्य प्रतिपादितत्वात् , कथभन्यथा विप्लुनाकारमहलम ? न हि तब तादात्म्यार , विष्लुतेनाऽविप्लुतस्य तदयोगान् । नापि समादुत्पत्तिा, तस्याशक्तस्वात् समकालवाच । ततः शक्तिनियमादेव तत्परिज्ञानम् , तद्वन्नीलादेरपि इति । न प विल५ साकारमानं नास्त्येव; स्वयमेव तदभ्युपगमात् । अत एवोक्तम्
"अवेधवेदकाकारा यथा भ्रान्तिनिरीक्ष्यते ।
विभक्तलक्षणायग्राहकाकारविप्लया ॥" [प्रवा० २१३३० ] इसि । यतोऽपि प्रामादिभेदविफलवनि (विप्लववनि) रक्षणं सोऽपि न वस्तुवस्तनिरीक्षणम् ; स्वरूप.
मात्रविषयत्वात् । अन्येग तु तद्विषयत्र तत्रोपकल्प्यत इति चेत् ; सिद्धं तर्हि तदन्यस्य वि. १० पयत्वम् अतविषयेष्ठ वदुपकल्पमायोगात् । तत्राप्यन्यतस्तदुपकापनायामनबस्थामदोषात् ।
ततो दूरं प्रपलायितेनापि स्वत एव कुतश्चित तद्विपल्यस्य परिहानमभ्युपगन्तव्यम् , तदहिभूतस्यैव तच्छक्तिनियमाविति च
ततो यदुक्तम्--
संवेदनेन बाहात्यमतोऽर्थस्थ न सिन्यति । संवेदनारहिर्भावे स एव तु न सिन्दगति ।। यदि संवेद्यते नीलं कथं बाह्यं तदुच्यते ।
न चेत्संवेद्यते नीलं कथं बाझं तदुच्यते ? ॥"[प्र० वार्तिकाल.० ३१३३१] इति; प्रतिक्षिणम् ; विष्वेऽपि समानत्वाम् । तथा हि
संवेदनेन बाहरवं विहायस्य न सिवति । संवेदनादर्भािवे स एव तु न सिद्ध्यति ।। ७५३ ।। विवो यदि बहोत ऋथं पाहाः स उच्यते । विलवश्चेन्न होत कथं बाह्यः स उच्यते ।। ५५४ ॥ इति ।
ततो यदि सायपि वेदने विप्लवस्य बाशत्वमविरुद्ध नीलादेरपि स्यादविशेषात् । यो नीलाविज्ञानमपि वितथावभासं झानत्वात् कामिन्यादिशामवदिति चेत् ; स्थं पुन: साधर्म्यात्रस्य २५ गमकत्वम् , तत्पुत्रत्वादावपि प्रसङ्गात् । विपक्षेऽपि भावान्नैवं चेत् ; सानत्वस्य विपक्षन्यावृति:
कुतोऽवार ? अनुपलम्भादिति चेत् ; न ; ततस्तदवसमायोगान , वक्तृत्वानापि तत एष तेद. वामप्रसङ्गमत् । न हि तस्यापि विपक्षे सर्वज्ञावाकुपलम्भोऽस्ति । तथा च सुगतो न सर्वशो वीतरागोवा वकृत्वादे रथयापुरुषवत्, इत्यस्यापि गमकरवं भवेत् । अनुपलम्भेऽपि विरोधाभावात्सन्दिग्धैव तस्य विपक्षेव्यावृत्तिरिति चेत् ; किं पुननित्वस्य विपशेण विरोधः १ तथा घेस् ; कोऽसौ ...
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विद्युतपरिझानम् । ३ पला ,५०,२०६३ अनुग्लम्मात् । -तपणमा-ar. विपक्षल्यान.. त्तिहानाभावात् । ५ सदपसमप्र-
ताश्त त्व । विपक्षविदेशाभावात् । ८ रक्तृत्वस्य । साम्पाच-सा...
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१२४८ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
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fe: ? विसयामासनिवृतिमात्रमिति चेत्; न; तस्य तुच्छंस्याप्रतिपत्तेः । अवितथावभासत्वमिति चेत् तदपि यदि वस्तुसदेव कथं तेने तस्य विरोधः १ न ज्ञानस्य सदयमा सिस्वमुपपन्नम् [ज्ञान] कल्पनावैफल्यापतेः । सदेव कल्पनारोपितत्वादिति वेद । तेनापि कस्तस्य विरोध: ? सहानवस्थानमिति चेत्; न; सधैव तवस्थानात् सत्येव ज्ञाने सत्करूपस्योपपसे, निरविष्ठानस्य तस्यायोगात् । परस्परपरिहार इति चेत ; न; ज्ञानत्वस्याज्ञानत्वेनैव तद्भावात् ५ न सम्यगवभासित्वेन । तद्विरुद्वन्यात्वात्तेनापि तस्य सद्भाव, सम्यगवभासित्वविरुद्धं दि मध्यावभासित्वं तस्य परिहारेणावस्थानाम् तेन च व्याप्तं ज्ञानत्वाम्, अतस्तस्थापि सद्भाव इति श्वेत् कुतस्य ? तद्विपर्ययविरोधादिति चेत्; न; परस्पराश्रयात् तद्विपर्ययविरो धात्तस्य सम्याप्तत्वम्, ततञ्च तद्विपर्ययविरोध इति । कामिन्यादिarag area तस्मिन् तस्यै दर्शनाचत्वनिश्चय इति वेम् नं थ्वापुरुषादौ सत्येव किञ्चित्वा कृत्यादेरपि १० दर्शना draft cयापस्वत्तिक्र्यापत्तेः । अवरतस्यापि विशेषत्रलादेव विपक्षव्यावृति
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कथं सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वं यत्र गमकत्ये भवेत् । तथा चासङ्गतमेतद्
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“उक्त्यादेदोपसंक्षयः ।
नेत्युक्ते व्यतिरेकोऽस्य सन्दिग्धो व्यभिचार्यतः ॥ [श्र० वा १११४४ ] इति ।
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विरोधादेव विपक्षव्यावृत्तिनिर्णये तत्र सन्देहानुपपत्तेरव्यभिचारित्वस्यैव सम्भवात् । १५ ज्ञानप्रकर्षसारतम्येऽपि वक्तृत्वादेरपक तारतम्यान बलोकनात् । अत्यन्तप्रकर्षप्रवेऽपि ज्ञाने तत्सम्भावनादविरोध एव ते वयें तदवमदोष इति चेत्; न वहिं सत्येव तस्मिम् तद्दर्शनाव्याप्रत्य. निर्णयः, सत्येष किविरवाद रहस्यापि वत्तृत्वादेस्तद्विपक्षेऽपि सम्भावनात् । तथा च क ज्ञानत्वस्यापि वितश्रावभासित्येन व्याप्तिर्यंत इलात्तद्विपर्ययेणे तस्यें विरोधः स्यादिति सदवस्थ तस्यापि सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्येन्नागमकस्वम् ।
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नन्वत्र सम्यगभासित्वमेव विपक्ष: च न ज्ञायते किमिदमवभासस्य सम्यक्तमिति १ वस्तुसद्विषयस्वमिति चेत्; विपयस्यापि कुतो वस्तुसत्त्वम् ? न प्रतिभासनात् तस्यावस्तुसत्यपि भावात् । धविरहविशिष्प्रादिति चेत्; सद्वैशिष्ट्यस्यैव कुतोऽवगमः ? बाधातुपअननादिति चेत्; न; तदनुपजननस्योत्पसिसमये कामिन्या विज्ञानेऽपि भाषाम् । पश्चादपि भाविनः Aarange वेत्; न; कामिन्यादिज्ञानेऽपि पश्चादपि तत्सम्भवात् । न सर्वेदापा- २५ चत्र 'सम्भष इति त् न नीलादिज्ञानेऽपि समानत्वात् । न हि तत्रापि सर्वथा पञ्चाचसम्भवः ; चिरकालानुपजातमावस्यापि पुनः कुतश्रिवोपदर्शनात् शाखार्थविपर्ययज्ञानवत् ।
१स्याप्रतिपतिती वि-आ०, ब०, प० १ व्यवितयामासत्वेन ३ ज्ञानत्वस्य ४ यदि भक्तियात्र मासिदैव । ५ न ज्ञाने आ०, ब०, प० । ६ नोपप-आ०, ब०, प० । ७ परस्परपरावाद ८ सम्यगवानपि १ ज्ञानत्वस्य १० परस्परपरारक्षण विशेषः २ ११ ज्ञानत्वस्य १२ मिथ्याभासच्या सरणम् १३ मा १४ शानस्य । १५ शव १६ वक्तृत्वादेवि १ वि० [० ए० १८ सर्वविपक्षेण १९ २० भवितावभासिने । २१ शानरवस्य 2 २२ धानात् ध्यावा । २१ व्याधानुपजननसम्भवः ।
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न्यायविनिश्चयविधरणे
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तथा तत्सम्भवेऽपि म तस्य कुतनिस्परिज्ञानम् । तत्परिज्ञानवतः सर्वक्षत्वापतेः। न हि निरक्.. शेषानागतकालपर्यायपरिज्ञानाभाषे सधिष्ठानस्य बाधानुत्पादस्य परिझान सम्भवति । किचिहानस्यापि भवत्येक क्रमेण तत्परिज्ञानमिति चेत् । न तर्हि कदाचिदपि तद्वैशिष्ट्यस्य निधया, परापरसमयमाविबाधानुत्पादप्रतीक्षायामेवासंसारं व्यापायत् । तन्न बाधाविरहविशिष्टादपि प्रतिभासाद्विषयस्य वस्तुसत्यव्यवस्थापनम् । अस्खलिसप्रत्ययविषयत्वादिस्यपि न युक्तम् ; बाधाविरहाइपरस्य तदस्खलनस्यैवासम्भवात् । सस्वच प्रतिनिहितत्वात् । यस्तु लोकस्य श्रारखेलनाभिमानः स वासनादादेिव न विषयस्य पस्तुस वात् । तद्विषयसया कस्यचित् सम्पाबमासित्यमिति कथं तत्र साधनस्य सम्भावनम् , असति तदयोग्गदिति न सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्ति
कत्वेनानैकान्तिकत्वं तस्येति चेत् ; तम समीचीनम् ; शधावकत्यस्य कचिदन्तरणसामध्ये स्वत १. एव परिझानसम्भवात् । नियतदेशाथपेक्ष्यैव तत्सम्भवो न देशादिसाकल्यापेक्ष्येवि चेत् ।
तदपेक्षयापि तदविरोधात् । तत्साकल्यापरिझाने कथं वपेक्ष्यापि सपविरोध इति पेस् न या शवत्वात् तस्य फलतोऽवगमात् । सम्भवसि च तत्फलमेवम् , पचमिदं देशकालनगन्तरापेक्ष्यापीति परिज्ञानम् एवं प्रतीतिभावात् । अवश्यं चैतदेवमभ्यनुज्ञातव्यम् ; अन्यथा भवद्विचारेऽपि तवैकल्यस्यापरिज्ञानप्रसङ्गात्। तस प ससोऽपि कथं बाधाकल्यस्याभावो भावतः सिद्ध्यो ? न मया कुतश्चित्तद्वैल्यस्याभावः साध्यते यदयं प्रसङ्गः, केवलं पत्र परोकमेव प्रमाणं प्रतिक्षिप्यत इति चेत् । सत्प्रतिक्षेपस्तर्हि विधाराद्वस्तुसनेव सिध्यतीति वक्तव्यम् । अन्यथा तस्यैव वैयध्योप। । न प बाधावैकल्यमन्तरेण ततस्वसिदिः, प्रतिभासमात्रस्यासत्यपि विषये भाषादिति स्वत एव तस्यापि तवैकल्यम् , संकलदेशकालगरापेक्षयापि सुपरिज्ञातमभ्यनुज्ञातव्यम् ।
तत्प्रतिक्षपोऽपि न स्या तसः क्रियते परव्यामोहनस्यैव करणादिति चेत् ; सहेतुत्वं तईि धस्य २. निश्चेतन्यप, अन्यथासंदर्य सस्यैवोपादानानुपपत्तेः । न चानिश्चितबाधाकल्यात्कुतश्चित्तनिश्चयो
बाहनिश्चयवत् । न प तत्र तनिश्चयोऽन्यतः अनवस्थादोषात् । पर्यन्ते यदि स्वत एवोक्तसपस्तनिधयः ; नहिं बहिर्वेदनेऽपि भवेदिति सम्भवत्येव सत्र वस्तुसविषयत्वेन सम्यगवभासिस्वमिति तघ्र सम्भाव्यमानमनै कान्तिकमेव ज्ञानत्यं विपक्षव्यावृत्तेः संशयात्। सदिदमतिसुकुमारप्रगोधरमपि हेतुदोषमन्तरगतमोबाहुलकाप्रतिपयमानरैत्र परैः प्रकृसमनुमानमुपदर्शितमित्यावेदयन्नाइ
विप्लुसाक्षा यथा बुद्धिर्वितथमतिमासिनी ।
तथा सर्वत्र किन्नेति जहाः सम्प्रतिपेदिरे ।।४९॥ इति ।
विलुतानि कामोन्मादकाचादिमिरुपहतानि अक्षाणि मनःप्रभृतीनिन्द्रियाणि यस्या सत्र कर्तव्यायां सा विल्लुसाक्षा बुद्धिः प्रतीतिः, सा यथा येन बुद्धित्वादिप्रकारेण वितधमति भासिनी मिथ्याकामिन्यागुपदर्शिनो तथा तेन प्रकारेण सर्वत्र सर्पा बुद्धिः सर्वत्र इत्या
, -पर्यएपरि-भा.ब.प. २ बाधाविरहस्य । ३ देशादियाल्याश्यमे | . बायका ५-सत्यविषये था, प. प. सकलन-बा, 4., प. .वं हि तस्य भा.,.,.1 ८ तदर्यस्यैवी-80०, २०, ५० ।
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PATROPININDMAITRVARImanandibansitivisiwannatakedaisainamainsinilineaintenavranikhusiasisinsahitwaanisinema
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्तावा
३०९ स्व समयसप्रतिरूपकस्य प्रथमान्सस्य भावात् । किन्न विसथप्रतिभासिनी भवत्येव इति एवं जडा व्यभिचारदोषपरिझानविकलास्ताथागतर: सम्प्रतिपेदिरे सम्भूय प्रसिपमा इति ।
यत्पुनरेतन्मण्डनत्य
"प्रत्येकमनुविद्धत्वादभेदेन भूषा पतः । भेदो जलतरङ्गाणां भेदानेदः कलावतः ॥” [जलसि० का० ३१] ५
"अभेदानुविद्धत्वात्प्रत्येक विश्वस्य.भेदो मृषा यथा जलतरङ्गेषु चन्द्रमसः, तंत्र हि प्रत्येकं चन्द्रमा इत्यन्वयः । तथा विश्वस्य भेदेऽपि प्रत्येकमिदं 'सेत् अर्थो यस्तु' इत्यभेदान्थया, तरुभेदस्तु यद्यपि न मृषा वनमित्यभेदानुगत[स]च न तु प्रत्येकम् । न हि प्रत्येक तरुषु वनमिति बुद्धिरतो न तेन व्यभिचारः | एतदर्थञ्च प्रत्येकमित्यु. कम्" [ प्रशसि. न्या०] इति; तदपि तस्य बलवतस्तमसो विलसितमेव ; तथा हि- १० किमिदं भेदस्याभेदानुविद्वस्वम् ? एकस्वभावान्च्य इति चेत् ; न; जलतरणचन्द्रेष्वपि तक्मावास्, वस्मतिपत्तिवैकल्यान । न हि तशप्येकतरणचन्द्र एव पयपरप्रतिपत्तियस्ति युगपश्रामाल.. पतयैव तेषां प्रत्यवभासनात् । 'चन्द्रश्चन्द्रः' इत्यनुगमव्यवहारस्तु तत्र सादृश्यनिबन्धन श्व नैकत्वायसः, देषां परस्पर सहशतयैव प्रतिपः । भवतु सादृश्यमेव तत्राभेदाचुगम इति चेत् । न तस्यापि गममत्वम्, धर्मिहेस्थाविज्ञानस्यभिवापत् । न हि वेषु एवं ज्ञानमिद शानम् इति १५ प्रत्येकमनुगमो नास्ति, सुप्रसिद्धत्वात् । न च तेषां भूधानम् , तत्कथन व्यभिचारी हेतु ? सोन्यपि मृति पेत् ; कथं तेभ्यस्तास्विके भेदसपात्वानुमानम् ? अमृषारखेन कल्पनादिति खेत् । न माणसफादप्यमृषापावकतया ऋस्पित्तासात्विकस्यैव दाहादेः प्रसङ्गत् ।
ननु कल्पितोऽपि च अद्दिदंशो मरणकार्याय कल्पते प्रतिसूर्यफश्च प्रकाशकार्याष, सदस्कल्पितरूपेभ्य एव तज्ज्ञानेभ्यः किन तात्विकं सदनुमानमित्ति चेत् ? तैस्तहि मरणादि- १० मियभिचारः साधनस्य । तेशम् इदं मरणकार्यम् , इदं प्रकाशकार्यम्' इति प्रत्येकमभेदानुगमे सत्यपि मृषात्काभावान् । मृषैव सान्यपीति चेत् ; न; यस्मात--
अमृषाकार्यनिष्पसौ मृपारूपाग्निमिततः । दृष्टान्तत्वं कथं तेषां मृषैव यदि तान्यपि ।। ७५५ ६३ लोकप्रसिद्धितरसेपरमधात्वेन संचादि । तेनैव न्यभिचारित्यमपि करमान्न मृष्यते ॥ ७५६ ।। वस्तुतो व्यभिचारित्वं ततश्चेन प्रसिद्धयति । दृष्टान्तत्वं कथं सरमावस्तुभूतं प्रसिद्धयति ।। ७५७ ।।
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सन तहिं मा०, व०प०१२ तदर्थोऽपस्थित्यभे-भाग, ०।। -स्यभेदोऽनुग-81, प. प.। "अवमिस्यभेदानुगमश्य"-मासिक ज्या-1 से सत्यव-प्रा., ०, २०१५ धमिहत्वाविश्वनानि । -सूर्यकञ्च बी6,4०,५०धर्मिहत्वादिज्ञानेभ्यः । ८ मरदोग्यपि । ९ रातरम् ।
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न्यायविनिमयविवरणे वस्तुपस्या पदव्येतदवस्तु यदि वर्यते । अनुमान कथं वस्तु बलेनोपकल्पितम् ।। ७५८ ॥ विश्भेदगृपात्मस्य यतस्तस्माद्यवस्थितिः । न एयरतुवात्किञ्जिन्मेयं शक्यनिरूपणम् ।। ७५९ ॥ तत एवान्यथा विश्वभेदयाथाम्यनिर्णयात् । फुसचिवन्मुषायाः क्यास्पदं प्रतिपद्यसाम् ? ॥७६०॥ अवस्तु न हि नामेह त्वयैव सुलभ भुधि । तत्कृता तस्वनिर्णातियत्तवैशेति करुष्यताम् ॥ ७६१ ॥
समावस्थेसाइमाम् अनाशा नतो.त्यशेमले हैन साम्यव्यवस्थापनानुपपत्तः । १० अंतस्तत्सत्यत्पनिदर्शनं मरणादिकमपि वस्त्येवेत्युपपन्नस्तेन व्यभिचारः साधनस्य ।
विधाऽविधाभेदेन न हि विद्याविषयोरभेदः । न ब विधाविद्ययोरियमियञ्चेत्यादिः प्रत्येकमनुगमो नास्ति मृषात्याभावेऽपि इति । तद्भवस्यापि भूधास्वमेवेति चेत् ; कुत इदानी संसार १ समिगन्धनस्य पृथगविणारूपस्याभावात् ? कहिपतादिति चेत् । कुतस्तस्कैल्पनम् । प्राध्यादेव तपादिति चेत् ; न तस्यापि वस्सुतो विशथम्मूतस्याभायात् । सपि कलिप्त१५ मेवेति चेत् ; न; 'कला' इत्यादेः प्रसनादनवस्थानात् । नाच दोषः, अनादिस्वातंत्पनन्य
स्येति पेन् । सस्य सहि वस्तुत एवं विशाधग्भाये तदवस्थ व्यभिचारित्वम् । अपृथग्भावे तु स एष प्रसनः 'कुत इदानी संसारः' इत्यादि । पुनरपि 'फरिपतात्' इत्याविषयने 'कुतस्तरकल्प. नम्' इत्यादिप्रसा आवर्तमानो महान्समनवस्थाशेपमुपनिपातयेत् । तस्मादतिदूरमभिलप्यापि तस्य तत्पृथग्भावस्तात्त्विक एव वक्तव्यः । कथमन्यथर अयमाम्नाय:
___ "विद्यां चाविद्याश्च यस्तद्वेदोभयं सह" ३ [ईशाइलो० ११] इति । "विद्याविधे न्ये () अप्युपायोपेयभावाल सहिते" [अभि० व्या० पृ० १३] इति व क्षद्विवरण "मण्डनं (नस्य); निरवकाशस्यात् । तथा हि
यदि विद्यापृथग्भावो वस्तुनः कषितस्य वा। "तत्पमन्यस्य नास्त्येव क्व प्रतिष्ठा "सह श्रुतेः ।। ७६२ ।। सत्येव यत्पृथग्भावे "तत्प्रयोगस्य दर्शनम् । *सह चैत्रेण मैत्रोऽयं स्थूल इत्यादिषु स्फुटम् ॥ ७६३ ॥
......
, अतस्तत्वनि-मा०, 40, प.१२ विधाऽविद्याभेदत्यापि । ३ अविद्यारूपकल्पनम् । अविवारूपात् । ५अभिवासन्तानस्य । विद्यारूपस्व विधायभाष।। 4 मैत्रा...
९भपसन्ता३111५निवाधि थेले १५ विद्यावियेन्ये भाग 01 १० मटन सुनि-आ०, २०, ५. 'मनम्' इति पाळे 'मण्डनकृतम्' इषयों मामः भविधाप्रवन्धमा २ 'यस्तदोभय मह' बोलस्व सहशब्दस्य । १३ बहशदश्योगस्य ।
समाच-स.।
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३२१
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मधमा प्रत्यक्षप्रस्ताव उपायोपेर्यभाषच (याज) पृयग्मावे कथं भवेत् ।
तद्विद्याविद्यायोर्येन भुमण्डं मण्डनोदितम् ।। ७६४ ॥
स्यान्मतम्-न तस्य विद्यापलं पृथक्त्वं नाप्यपृथक्त्यम् , अवस्तुत्वात् । वस्तुन एव हि कस्यचित्कुतश्चित्स्यवस्वापृथवस्थाम्या ध्वपदेशो मावस्तुनः । तस्य साभ्यामनिर्वचनीय एवेति; तदपि न सकतम् ; यस्मात्
अयमेव च विद्यायाः स्वभावो यदि कल्यते । सायविष विद्याया वापि योपलभ्यताम् ॥ ७६५ ॥ विद्यायावेत्स्वभाषोऽन्यो वास्तषः परिपठ्यते । अविधातः पृथग्भावः कथमेव निषिथ्यताम् ।।४६६॥ स्वभावभेद मामात्र सिदिमाः । भावेषु यस्मात्तनेयं पर्चितार्था क्योगतिः ॥७६७ कथं च पृथग्भावस्तस्थाविद्यान्तरादपि ।
सदपेक्ष्यापि यसस्था वस्तुल्यं तदवस्थितम् ॥७६८॥ मा भूदिति चेत् ; कथमिदानी तस्याम्नायोपजनितात्मकत्वादिचानलक्षणस्य अपल्यरूपमृत्युं प्रति प्रत्यनीकसया तनिस्तरणत्वम् ? यतै इदं स्वास्नातं भवेत्
"अविद्यया मृत्यु तीळ विद्ययाऽमृतमश्नुते" [ईशा० श्लो० ११] इति ।
सत्येव मिथः पृथग्भवे विषादेविषान्तरोपशमनादेपलम्भात् । अवस्तुसतोऽपि अविशान्तरात्पृथग्भाये तद्वदेय विद्यालोऽपि भवेत् अविशेषादित्युफ्पन्नो व्यभिचारः साधनस्य, वि. द्याविद्याभेदस्याभूषात्येऽपि तद्भावात् । तसो मण्डनादिभिरपि व्यभिचारदोषमजानानैरेव प्रकृतमा नुमानमुपदर्शितमित्यावेदयति 'विप्लुताक्ष' इत्यादिना !
विविधं प्लुत प्लवनं तरङ्गादिषु यस्य स विलुतो जलचन्द्रादिः, तमश्नोसि विषयत्वेन व्याप्नोतीति विप्लुताक्षाबुद्धिः यथा येन तद्विषयस्याभेदानुविवस्थादिना प्रकारेण विसथप्रतिभासिनी गृपाचन्द्रादिभेदोपदर्शिनी, तथा तेनैव प्रकारेण सर्वत्र बुद्धिः किन्नेति जडा विदः सम्प्रतिपेदिरे। आइयं तु तेषां व्यभिचारदोषापरिज्ञानात् अविद्यापरिकल्पि. सारमत्याचा प्रतिपत्तव्यम् । . 'यत्युनरेतत् कामिन्यादिबुद्धिवन् तरचन्द्रादिवति निदर्शनम्-तत्रापि वितधप्रति
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२५
ववेत् पृ-स. १सुख माधनं समर्थन स्प त सुमण्डम् । १ विद्याप्रबन्धस्य । "ना. विद्या : स्वभाषः, सान्तिस्म, दास्यन्नमसती, नापि सती, एवमेवेगमविद्या माया मिध्वा प्रतिभास गुच्यते। स्वभाववैन कस्यचित, अन्धोऽनन्यो छा परमार्थ एनेति माविद्या; अत्यन्तासत्वे सीन यनहाल तस्माक्षनिर्वचनीया" मालि. पृ०९।५ परिवध्यते स01६ सदरेषस्यतस्य प० । तदपचापि ययस्य मा०,० ३ इदं साम्पत भा०, ५०, ५.।
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३१२
न्याथयिनश्चयविवरणे
[ १११ भासित्वस्य मावस्य च यतः प्रतिपत्तिः, तस्य घेत अवितधप्रतिभासित्वं कथन व्यभिचार: ? सत्यपि ज्ञानत्वे विस्थप्रतिभासित्वस्य, तद्विषये च मृषात्वे सत्यपि इदमिदमित्यभेदानुगमे मृषावस्याभावात् । वितश्प्रतिभासित्वे तु सतः कथं तत्सिद्भिः सद्विपर्ययवत् । अतो निदर्शनस्य साध्यवैकल्यमित्यावेदयत्राह--
प्रमाणमात्मसात्कुर्वन् पतीतिमसिलइयेत्। वितधज्ञानसन्तानविशेषेषु न केवलम् ॥५०॥ इति ।
प्रमाणम् अवितथनिर्भासं लानम आत्मसात्कुर्वन् प्रतीति यथार्थपरिच्छिचिम् अतिलञ्चयेत् प्रत्यावशीत । सौगतो ब्रह्मवादी वा। क सामतिलब्धयेत् १ वितथा मिध्यामि
मत्ता ये ज्ञानामा सन्तानविशेषाः कामिन्यादिविषयाः तरङ्ग चन्द्रादिविषयाथ प्रवाहभेदाः १० तेषु, न केवलं न प्रमाणमन्तरेण, तदनसिलधनस्यापि तथा प्राप्तेः । न च तदात्मसात्करणे
परस्योपपलम्, व्यभिधारदोयस्य तत्रोपदर्शिवत्वात् । तसो निदर्शनस्य साध्यवैकल्यादपि न प्रकृ. तानुमानयोर्गमकत्वमित्यभिप्रायो देवस्य ।
अपि च, यदि मिध्यानभासनमेत्र ज्ञानम् , कुतः सन्तानान्तराणां प्रतिपत्तिर्गतस्तेषाभनित्यत्वादिधर्मोऽवबुध्येत ? कुसो वा जीवान्तराणा यतस्तेषामध्यात्मा विभिनत्यादिस्वभावो १५ विभाव्येत, धर्मपरिज्ञानस्य धर्मिपरिज्ञाननान्तरीयकत्वात् । मिथ्याज्ञानाश्च न यथावतत्प्रतिपत्तिा,
बहिरर्थतनपञ्चयोरपि तस एव तथा सत्मा अययायदेव उत्प्रधिपतिः, तेषामपि बालभेदकदपरमार्थत्वात् , प्राधादिसन्तानान्तर जीवान्तरभेदप्रतिभासस्तु विपरीतवासनाघलादविवाद परिकल्पित एव । तदुसम्,
"अविभामोऽपि यात्मा विपर्यासितदर्शनः । ग्राह्यप्राइकसवितिभेदयानिय लक्ष्यवे ॥ मन्त्राग्रुपप्लुताक्षाण यथा मृच्छकलादयः । अन्यथैवावभासन्ते तटूपरहिता अपि ।।" [प्र० ० २।३५४, ५५] इति । "यथा विशुद्धमाकाशं तिमियोपलतो जनः । सङ्कीणमिव मात्राभिर्मिमाभिरपि पश्यति ॥ तथेदममलं ब्रह्मा निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रतीयते।।"[हदा०मा० वा० ३१५१४५,४४]इविध तदेवाह
अद्वयं दूपनिर्भासं सदा घेदवभासते । इति ।
झानात् । २ मानवेन चिल्लान, दस,५०। ३ विताप्रतिभासिवसिदिःनिध्यासनादेव । .. अयथावततष्प-भा०, २०,01 अयथावदेतत्प्र-स. ६-त एत-भा०प०, प.
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१५१] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
३१३ अवयं संवेदनहत्त्वम् आत्मलस्यान पनि संग्राह्मादिभेदनि सम् । इव शब्दोऽत्र वत्र्यः । तनि से तनि सवचनादग्निर्माणवक इत्यादिवत् । कदा तवयम् सदा सर्वकालं भेषभतिभासदशायां तदुरसंहारवशायावेति चेत् शब्दः पराक्तयोसने । तनोत्तरमाह
नसतो नापि परतो भेदपर्यनुयोगतः ॥५१॥ इति ।
तस्य स्खलु संविद्वैसस्य स्वसो वाऽवभासन परसो वा गत्यन्तराभावात् १ स्वत ५३ ५ "स्वयं सैव प्रकाशते" {प्रका०२।३२७] इति वचनादिति चेत् ; कथमेवमात्मतत्वस्यापि स्वतोऽनवभासनम् १ "अवार्य पुरुषः स्वयं ज्योतिभवति' [हमा० ४१३।९,१४] इत्यादेवचनात् ।
ननु आरमा नाम नित्यानित्यत्वञ्च कासयानुगतात् । तत्र मध्यकालानुपातिनो रूपान् कालान्तरानुपातिनो रूपस्य स्थभेदः ; तावन्मानमेव तदिसि कथं नित्यत्वम् । भेदे लप. १० रापरं संवेदनमेष दिसि नासावात्मा नाम न चारमन्यद्वैते कालसम्भको सतरतत्त्रयानुपासाहित्यलम् । सन्न तस्य स्वतोऽवभासनम् । अक्मासनास सदस्तित्व मेदस्यापि स्थात् तदविशेषादिति चेत् - ; चिदद्वैतेऽपि त्यानस्य निरंशस्यावमासनम् । २ च तेंदले कालसम्भवो यतस्तत्क्रमानुपाताभावादनित्यत्वं भवेत् । अवासनाय तदस्तित्वे प्राह्मादेरपि स्यास्तविशेषान् । बाघकाभावाभावाभ्यां विशेष इति चेत् ;न; आत्मप्रश्न- १५ प्रतिभासयोरपि तत एव सदुपपत्तेः । कथं पुन: पश्नपतिभासस्थ आघनम् ? कथं च न स्यात् ? तत्मतिमासस्यात्मप्रतिभासादभिन्नत्वात् “आरपनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति" [ ] इत्याम्नायाविधि बेन ; प्राह्मादिभेदप्रतिभातस्यापि कथम् ? सस्प्रतिभासस्यामि संविप्रतिमासानन्यस्वस्थान युपगमात् ! वस्तुतो नास्त्येष प्रतिभासो विचारासहत्वान केवल कल्पनामात्रतस्तदभ्युपगमा सस एव तस्य थाधोपपत्तिरपीति चेत् ; न ; प्रफल्मप्रतिमासेऽपि २० समानत्वात्त । न हि प्रायस्यामि यस्तुतः प्रतिभासनम् , प्रमरणविरहात् । केवल मायानिवन्धन पर तेदभ्युपगमः, "इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते" [हदा० २१५१९] इत्यादि वचनात् । तत एव तस्यापि बाधोपपसिरिति । सत्र संविदव तस्य स्वतोऽवभासनं पुरुषाद्वैतेऽपि 'ततस्तस्नुपङ्गात् । न चेदमुचितम् , नभयप्रतिभाससद्भावे वस्तुसति" अद्वैतव्यापरिदमेवाहन स्वतः इति । न खतोऽद्वयस्यावभासनम् । कुतः ? भेदेन "तदुभयाद्वयरूपेण २५ पर्यनुयोगत: अद्वयस्य प्रतिविधानत इति ।
परतस्तदवभासनेऽप्याह-'नापि परता' इति । कुसः ? भेदपर्यनुयोगतः सति परस्मिम् भेदलावश्यम्भावान" सेन चाहतप्रतिविधानादिति ।
सौगता । २ मनिस्यत्वास्तित्वे । ३ भवनासनाविशेषात । तस्यापीक्षण-मा०,२००.. ५ संवेदनाद्वैत। बाधवटपउप्रियप्रतिमासस्य "श्रमपगि खल्बरे र श्रुते मते विज्ञात इदै.सर्व विदितम्"-वृहदा
। उद मिदम् मसि. पू. ८।८ प्रासादिभेदप्रतिमासः । २ प्रपञ्चसभ्युपगमः11.-ति चेमभा, २०, ०० "स्वतः प्रतिमासप्रमात । १२ सल सस्यसत्यार-माप.,.,. दुमयतयक-श्रा6,०,१०१४-मायावत्तववाह-प्रा.,.,., स.
४०
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३१४
न्यायविनिश्चयविषरणे स्यान्मसम्-- तेन तस्य प्रतिविधान तस्यावस्तुत्वात् । न शुवस्तु वस्तुरूपप्रतिविधानाय समर्थ सरश्रयम्दादिवचन्द्रादेरिति ; बदसतम्; आरमावतस्याप्येयं परतः प्रतिभासप्रसमाम् , परमप्युकन्यायेन तव्यापत्तिनिवन्धमत्याभावात् । कथं : पुनः परतस्तस्य
प्रतिभासः । कथं बन स्थान् ? परस्याविद्यामयत्वात् , अविधायाश्च मियाज्ञानत्वात्५ "अविद्या माया मिध्यामास:" [नसिक पृ० ९] इति मण्डनेन सदाभिधानात् । न च मिथ्याज्ञाने तत्त्वप्रतिभासनं तज्ञानत्वविरोधात् । तस्वं च पदव सस्यैव परमनि- .. श्रेयसत्येन परभ्युपगमात् । तदेतत्प्रेयः पुत्रात् प्रेयो मित्रात प्रेयोऽन्यस्मात्सर्वमान्य [हदा० १।४८] इत्याम्नायादिति थे ; न, संघिदव तस्यापि तद्वत्परतोऽनलभासनापो
परस्य विकल्पत्वेनावस्तुप्रतिभासिस्थात् "विकल्पोऽवस्तुनिभीसः [ . ] इति १० वचन्तात् । न चारस्तुवेदने वस्तुप्रतिभासनं सदनस्वविरोधात् । बस्तु च तदष्ट सं..तस्यैव काष्ठाग
मानसी : TERRY, "पद्यद्वैते न तोषोऽस्ति मुक्त एवासि सर्वधा" प्र० वार्तिकाल० १।३६] इति वचनात । सत्यम् ; न परतस्तत्प्रतिभासनं प्रामादिभेदसमारोपठ्या च्छेदस्यैव ततो भावात् । सति हि नव्यवच्छेदे निर्याकुलं स्वत एष तदरमासनं तभ्याकुलर
हेतोसवारोपस्याभावादिति चेत; म; आरमन्यपि समानत्वात् । न हि तस्यापि परतः प्रतिभासन१५ । तत्रापि परस्थानायादेः प्रपञ्चापनिवारण एव व्यापारात् , सनिवारणे व स्वत एव तस्य निाकुलमरमासन ब्याकुलस्वनिवन्धनस्य सदारोपस्थाभावात् । सदुष्का
"आम्नायता प्रसिद्धिच कवयोऽस्य प्रचक्षते ।
भेदप्रपञ्चविलयद्वारेण च निरूपणम् ॥" [ ब्रह्मसि० ११२ ] इति । "कः पुनस्तत्रपळचस्य विलयो नाम ? मीरूपं निवृत्तिमात्रमिति चेत् ;न, "तस्यानिरूपित्त२० रूपस्य कार्यत्वानुपपत्ते; कारणत्यवत , अन्यथा वस्यैव सकलपकारणत्वेन ब्राभायोपपत्तेः
तदुपरस्य निरतिशयानन्दादिरूपस्य महामः परिकल्पनमप्रयोजनमेव , सत्प्रयोजनस्यान्यव परिसमानत्वात । वन्न तनिकृतिमा पहिल्या
नापि भेदप्रतिभासकालुप्यपरिशुद्धों: जीवस्वभाषः, तस्य ब्रह्मणो भेदे "तस्यैव तवारेण निरूपणापसेर्न प्राणः । ब्रह्मणश्च तथा निरूपणमभितम् "नमस्यामः प्रजापतिरित्या २५ "नन्तमाम्नाय" [ ] इत्यादेवनान् । मास्येव "तस्य "स्माद: "अनेन
जीवनात्मना" [ छान्दो० ६.३१२ ] इति जीवनाझपोरभेदस्याम्नायादिति चेत् ; ; ब्रह्मवत्तस्यापि" नित्यपरिशुद्धिप्रसशास् , अभेदस्यैवलक्षणस्वात् । अभेदेऽपि. मुखसत्यसि
भेदेन । ३ भेदस्य। ३ री यतोऽस्तु अतः न होन अशावेत्यादिन्याबैन । ५ सद्वैतव्याधात । ५ देतत्व । ६ मिथ्यासानाय । - मस्सुवेदनल व सं गा .प०,०। ९-ईदा इति पैन परसः सा-या ति देश सः भा०,१०,१०।14 सौगमा प्राह । निवृतिपत्रस्य । १२-परिमित सुमो आ०,००,
स दस्वभावस्वैव । १५ -स्यमन्तस्यान्या-मा-20०,०५ जीवस्य ।। 1 ब्राणा। 10 ओवस्थापि ।
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१३५१]
प्रथमः प्रत्यक्षपस्तावा
बिम्पयोर्मुस्खस्यैव परिशुद्धिर्न तत्पतिविम्यस्य तस्य मणिकृपाणादेः रागादिना कालुष्य. स्योपसम्मानः । सदभेदेऽपि प्रक्षण एव नित्या परिशुद्धिर्न जीवस्य तत्राविद्याकानुष्यस्योपलम्भादिति चेत् ;न; प्रतिबिम्यस्य भ्राम्स्युपदर्शितस्वेनावस्तुसतोऽपि मुखादभेदानुपपत्तेः, सहन्भुवस्थाप्यवस्तुसत्त्वप्रसङ्गान । 'ममेवं मुखम्' इत्यभेदपरामर्शोऽपि तत्र साश्यातिशयादेव पित्रार्पिशात्माकारषात् , नाभेदात् । अभेदे तु वस्तुतस्तत्रापि मुखप्रयोजन भवितव्यम्, न ५ वैवम् , आलापकवलप्रसमादेस्तत्रानुएलम्भात् । अवस्तुससः कथं प्रतिभासनमिति येत् ? 'भुखतव्यतिरेकवत्' इति भूमः । जीवोऽपि भ्रान्त्युपदर्शितत्वाधस्तुसनेवेति चेत् ; व्याहत्तमेस्'अवस्तुसंश्च ब्रह्मणश्च न भियते' इति, ममणोऽप्यवस्तुसस्थापत्तेः । ब्रह्म तस्माद्भिद्यत एव स एद तु ब्राह्मणो न भिद्यते तस्मादयमदोष इति चेत् । न जीवस्य तदभेमन्तरेण प्राणोऽपि 'तझेदानुपपत्तः भेदस्योभयनिष्ठत्वात् । तस्मादश्रद्धेयमेवेदं भौतोपाख्यानयत् । तद्यथा-कूपोप्रा- १. मस्य समीप प्रामस्तस्कूपस्य निलयं दूर इति । तस्मानरियस्य ब्रह्माभेदे ब्रह्मण्येऽपि तदभेदस्यायश्यम्भावात् । यद्दविद्या कालुष्यं जोवस्य या प तत्परिशुद्धिरागन्तुकी "तदुभयं प्रमापि ममाथि) "परिस्पृशम्त्ये (शत्ये)वेति म सुभाषितमेतम्-"तुद्धि सदा विशुद्ध नित्यप्रकाशमनागन्तुकार्थम् [ब्रह्मसिक पृ० ३२j इति । "तथेदनाप-"तस्मादविद्यया जीवाः संसारिणो बिनाया विभुच्यन्ते" [अक्षासिक पृ० १२] इति । ब्रह्माधिष्ठानस्य सदाविशुद्धत्वादेरभेदे सहि १५ जीवेऽप्यनुपातात् । भिशाय एवं जीवो ब्रह्मणः कल्पनारोपितत्वात् , ब्रह्मा तद्विपर्ययादिति चेन् ; का तर्हि तस्य" परिशुद्धिः "स्यात् यदन्वितो जीवस्वभाव! प्रपञ्चक्लियत्नेन व्यपदिश्येत १ अविद्या कालुमि तिरेवेति चेत् । न; स्वतोऽपि निर्मुक्तिप्रसात् , स्वरूपस्याभ्यारोपितस्याविद्याममत्वात् । अवस्विति छन् । न; नीरूपस्य तन्निर्मुक्तिमात्रस्थासम्भवावित्ति प्रसिपादनात् । तन्न परिशुद्धो जीवस्वभाव एव सरप्रपञ्चविलयः तत्परिशुद्धरेकापरिज्ञानान् । २०
भक्तु नित्यपरिशुद्ध अव "सद्विलय इति चेत् । न ; नित्यस्य विलवस्य प्रसङ्गात् । तथा च किं तत्र परापेक्षया नित्यस्य निरपेक्षत्वात् , निस्ये तद्विलये "परस्थाभावाच्च । ततो यदुक्तम्-"अश्यिया अवणादिलक्षणया अचिौर निवर्त्यते मृत्युरित्यविद्यैवोच्यते" [प्रकासि०४० १३] इति । तत्पतिविहितम् ; नित्ये भेरप्रपञ्चविलये निवानियतकयोरविश्योरेवासम्भषे वचनस्थासम्भवश्वियरषान् । तत्र इत्पञ्चविलयः कश्चिदपि शक्यनिरूपणो २५ यद्वारेण परतः प्रजापतेनिरूपणमिति घम् ।
प्रतिविम्यस्य । २ चित्राप्तिाकारवत मा०, २०, ५०, १० । चित्रादितनारमारवत् पा0(1) प्रतिक्वेिऽपि । प्रतिविम्बस्य । ५ अवस्तुसती भावात् । । सद्भेद-मा०, २०, ५०, स.। प्रअमेर । * श्रीवभेदानुपपतेः । ८ भौतापमा०,००, स. १ ९ तस्य फूपस्य पाल, ब०, ५०, स. १. सद्भदस्य ० ०, २०, ० "तद्वतम् सा । १२ रुपयस्वेरे-सा- I 12-काकाम् , या, १०,०11.तथापि पा०, २०, प... ५ जीवस्य । १६ स्याद्वाजीषेप्यनुक्लिय-प्रा., म., १०.स.in व भा.,40, १०, .1 14 प्रपत्रनिमयः । १९ वाम्मायादेः।
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३१६
न्यायविनिश्वयविचरणे
૧૨
'needs कोsयमापस्य व्यवच्छेदो नाम ? नाश पयेति चेत् ; न; तस्य fareedavedisarreः । तस्यैवाशक्तिकरणमिति चेत ; न; तस्य निषेत्स्यमानत्वात् । तदेव संवितमिति चेत्; न; तस्मापि कार्यशपतेः । न चेदमुषितम्- "न कारणं न कार्यं च तत्" [ ] इति स्वयमभ्युपगमात् । कीदृशं च वत् ? निरंशं परमाणु५. मात्रभिति चेत्; न; तस्याप्रतिवेदनात् भवत् । "चित्रमेव तत् "चित्रप्रतिभासाध्येकैव बुद्धि " [ वार्तिकाल० २१ २१९] इति वचनादिति चेत्; किमिदं चित्रमिति ? नानामाद्याकारभिति बेल; न ; तथा नानाशस्यापि प्रसङ्गात् । को दोष इति चेत् ? न; एकया शक्त्या आत्मनः तदन्यया व सदपरस्य परिज्ञानापतेः तथा च परमार्थत एक ग्राह्यHeart areatar तस्यायेपि यतस्तद्व्यवच्छेदद्वारेण ततनिरूपणम् ? यदि ९० परमार्थत एव वद्भावः; कथं तद्विकलतया संवेदनस्य विकल्पप्रतिसंहारवेलायामनुभवो नारोपितस्यै ? वैकल्यानुपपत्तेरिति चेत् न निष्प्रपरस्यात्मन एव तदानीमनुभाम् । प्रपञ्चज्ञानस्यैवारोपितविषयस्वोपपत्तेः । तदुकं कैचित्
}
"कृतिसंहारे स्वयं सदव्यवति ||" [ष० ३१२/११] इति । तथा परै:
१५
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"अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपच्यते ॥" [सर्ववेदान्त० २५] इति । मात्रमेवैतत् निष्प्रवस्यात्मनः स्वचित्यननुभवादिति चेत्; न; माद्यादिभेदविलस्य संवेदनस्यायनमुभवात् । अननुभवमपि सद्विचारावगम्यते विचारणैव तदभेदारोपं व्यवच्छि Per] सदस्यस्यापि प्रत्यायनादिति चेत् न एवम् "आम्नायादेवात्मनोऽप्यवगमप्रसङ्गात् । तेनैव "प्रपश्वारोपं प्रत्याचक्षाणेनात्मनोऽपि 'धुंडानुपस्थापनात् । वत्प्रपञ्चाख्याने किमवशिष्यते २० यस्यात्मस्वेन बुद्धायुपस्थापनम् । श्राह्मादिभेदत्याख्याने कस्यावशेषो यस्य संवेदन बुद्ध समर्पणम् ? 'तेंद्भेदसाधारणस्य प्रतिभासमानस्येति चेत्; अन्यत्रापि तस्यैव किन्न स्थान कथमेवमात्मसंवेदनयोर्भेद इति चेत् ? आत्मनो नित्यत्वाद् अम्यस्य तद्विपर्ययात् ।
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2
1
कथं पुनरात्मनः शब्दाने प्रकाशन "तस्याविद्याभेदत्वेन मिध्याज्ञानत्वात् ? न हि मिथ्याज्ञाने वस्वप्रकाशनम् ; तन्मध्यात्वस्यैवाभावापतेः । एवं हि प्रत्युत्पन्नशव्यज्ञानमात्रस्यैव २५ मेयोपनिपातेन प्रवृत्त्यादिः सर्वोऽपि संसारख्यापारो न भवेत्, आत्ममनध्यानाधुपदेशापार्थकतां प्राप्नुयात् तस्यापि तत्प्रपञ्चयार्थत्वात् तत्प्रलयस्य च शब्दज्ञानमात्रादेव
1
सोम २ प्रायः दिभेदसमारीपस्थ । ३ मा ४ विमानमैव मा २०, प०, स० ५ स्यामा० २०, प०, स० संवेदनाद्वैत । ७ महाकाराकान्तस्य ८ - शनितिवि ०, प०, स० । ६ अनुभवायमपि संवदनम् । १० अम्नायादेवायास्म - ० ० ० ११ मायेने १२ चा ० ० ए०, स० १३ वृद्धा उभा०, ब०, १०, स०१४- नर मायादि -आ०, ब०, १०० १५कापिभेद. १६ शब्दसामस्य ।
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प्रथम प्रत्यक्षप्रस्ताव
भावान् । 'तन्मात्रादेव तावः किन्तु तन्मनमाधुसंस्कृतादेव, तदुपसंस्कृत हि तज्ज्ञानम् , इतरनिरवशेषाविधायिलासानुपरमयत् बारमानमा सुपरमयति "यथा पयः पयो जरयति स्वयमपि जीर्यति, विषञ्च विपान्सरमुपशमयति स्वयमपि उपशाम्यति, उपरतसकलसद्विलासबेलाययम्य स्वत एव निष्प्रपन्चमात्महस्वं प्रकाशत इत्येषम्मकार शब्दज्ञानस्य सत्प्रकाशनिबन्धनत्यमिति चेत् । ननु, अयमप्यर्थः कुतश्चिदाम्लायज्ञानादेय हातयः । तस्यैत्र सिध्यात्ये ५ तज्ज्ञानाकर्थ तत्प्रतिपत्तिः । न चापरमुपायान्तरं यतस्तत्परिज्ञानाविश्वप्रीतीनिकमेवेदम्
"संहताखिलभेदोऽतः सामान्यात्मा स पतिः । हेमेर परिहार्यादिभेदसंहारचितम् ॥” [ब्रह्मासि० ११३] इति ।
तन्न भेदप्रपथ्यसंहारवती बेला नाग काचिच्छक्यनिरूपणा यस्यामात्मतत्त्वस्य निष्प्रपञ्चस्य प्रकाशन मिति चेन् । संविदव तस्यापि कथं विचारझाने प्रकाशनम् ! तस्यापि विकल्प- १०
नावस्तुगोचरत्वाद् अन्यथा सस्य सगोचरत्वविरोधात् । एकप प्रत्युत्पन्नविचारमानस्वैर सकलयालमेवारोपप्रलयोपनिपातेन तदमप्रकाशनास निष्फलमेर सदभ्यासोपकल्पनं भवेत् , "तस्यापि तत्प्रकाशनान्यस्य फलस्याभावात् , सस्य च प्राथमिकादेव विचारज्ञानादुरपतेः । अभ्यासपरिपाकाधिष्ठितमेव "ता प्रकाशनिबन्धनं न केवलम् , "तत्खलु निखिलमप्यपरमध्यारोपमपाकुर्वत आरमानमध्याकरोति यावदायेपावित्याप्तस्य, यथा प्रदीपस्तैलवायर्यादिकं प्रति- १५ संहरनारमानमपि प्रतिसंहरति । संहतसकलभेदारोपवेलायां तु तव तस्य स्वतः प्रकाशनमिति चेन् ;न ; अस्यास्वर्थस्व कुतचिद्विकल्पादेवावगमात् । तस्य च मिथ्याज्ञानत्वेन सहवामानु. पायस्वात् , उपायान्तरस्य चाभावात् । तस्मादिदमप्यपातीसिकमेव
"""ग्राहग्राहकवैधुयोत् स्वयं सैच प्रकाशते ।" [प्रा० २।३२४) इति ।
सन्नात्रापि विकल्पप्रतिसंहारबती बेला नाम कादिच्छनिरूपणा यस्यां सदा तस्य । स्वतः प्रकाशनमुपकल्प्येत । तदेवाह--
प्रतिसंहारवेलायां न संवेदनमन्यथा । इति । क्यमेतत् ।
इदमपरं व्याख्यानम-यदुक्तम्-'अद्वयं द्वयनि सम्' इसि । कुतस्तस्य" सग्निसत्यम् ? स्वस बेति चेत् ; अत्राह-'न स्वतः' इति । उपपत्तिमत्रा-'भेवपर्यनुयोगसः इति । भेदः संवेदनस्याविभागलक्षणो विशेषरतस्य पर्यनुयोगः 'स कथं
--..-.-.-.-.--. ...... -.-..-.-... . शब्दापादेव। २ -परकृतादेव। ३ शन्दानम् । " "या पर पो जरवति स्वयं च जाति वा विष निशान्तरं शमयति रश्य र शाम्यति"-- हासिक पृ.१२। ५ आम्नायवैच। -सती. तिक-श्रा, २०, ५०, परिहार्य कारकम् । ८ मगरे प्रपलसंधारयति वेला पा .१०स.। २-पिकरी पतस्वेन बारच.,०, सं०11.मासस्यापि विचारतानम् । १२ पिचारशावस्य । - वांतद-मा०,००, स. १५ निहत्यस्य-1 १५ "तस्यापितुपचीसस्थान व मेद प्रकाश"-या. 11-एर यस मा. २०१० स. स्व जि-पा०, २०, ५०, स.।
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११८
म्यस्यविनिश्चयविवरणे
[५॥५२ सम्भवति' इति प्रश्नः तस्मात्तत इति । कथं खल स्वम एव विभागरूपतया प्रतिभासमान. सविभागमुपपन्नाम् ? विभागस्यासत एष प्रतिभासनादिति चेत् ; कथमिवानीमसदवमासि. नस्तस्य सम्यग्ज्ञानत्वम् ? यतस्तरमाम् दुःखहेतुहाणं प्रकरप्येत, मिध्याज्ञानात्तदयोगात नित्यादिक्षानचत् । अभिमतच सतसात्प्रमाणं परस्य, "मेरात्म्यदृष्टस्ताक्तितोऽपि वा" ५ [प्र०या० १३१३९ ] इत्यत्र युक्तिशब्देनातवेदनस्यापि तप्रदायकारणतया प्रज्ञाकरण 'व्याख्यानात् । तदेवाह-भेवपर्यनुयोगतः। भेदस्तत्प्रहाणकारणत्वविदोषः तत्पर्यनुयोमः 'स कथम्' इति प्रश्ना तत्त इति । तन्न स्वतस्तस्य द्वयनि सत्वम् ।
परतोऽपि नेत्याह-नापि' इत्यादि । उपपत्तिमाह-भेद' इत्यादि । परमेष भेद. स्तस्य पर्यनुयोगः 'तत्कथम्' इति प्रश्ना, तत इति । अढते परस्यैवासस्यादिति मन्यते । १० कस्पितं तत्सत्त्वमिति चेत् । न; सत एव तत्कल्पनायोगादसवात् । कल्पनया सस्पश्चेत् ; ने;
परस्पराश्यात--'कल्पनया सत्त्वम्, ततथ कल्पना' इति । अन्यत इति चेत् ; न; सत्राप्येवं प्रसङ्गात् । "तस्याप्यन्यतः कल्पनानामनवस्र्थात् । मानप्रस्थानम् , अमादित्वातत्यन्यस्येति चेत् ; कुतस्तत्सिद्धिः १ स्वत इति चेत् ; न; स्ववेदनस्य वस्तुसत्संवेदनधमेल्वेन बायोमात् । “सबपि विकल्पितमेवेति चेत् ; कथं ततः करिदित्यम्भावस्य सिद्धिः अनित्यम्भावस् ? १५ कुलो वा परमार्थसन्नेव सधन्धो न भवेत् ? प्रतिसंहततत्प्रवन्धस्यय संवेदनस्य सत्यभ्या
सपाटके प्रतिवेदनादिति चेत्, न; कदाचिदपि संदनुभवाभावात् । तदाह-'प्रतिसंहार' इत्यादि । सुन्योधम् ।
एशेन पुरुषाद्वैतस्यापि द्वअनिर्मासत्वं प्रयुक्तम् । न हि तस्थापि स्वतस्तविर्भासत्वं भेदपर्यनुयोगलः । भेदस्य 'एकमेवेदमद्वितीयम् इति विशेषस्य पर्यनुरोगान् ‘स कथम्' इति २० प्रश्नात् । न हि स्वत एव भेदेनगावभासमानस्त्र सद्विशेषसम्भवः । भेदस्यासत पव प्रतिभासनात्त
सम्भव इति चेत् । कथमसदरभासिनस्तस्य सत्यज्ञानत्वम् । यतः "सत्यं ज्ञानमनन्त॒ ब्रह्म" [ तैत्ति, २३२११ इत्याम्नायेत । मिथ्याज्ञानत्रे तु कथं तदर्शनारसफलदुःखनिरहणम् ? यत इदं स्वाम्नातं भवति--
"भियसे हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
सीयन्ते चास्य कर्याणि तस्मिन् दृष्टे परावरे"।" [मुण्डको० २१२१८] इति ।
तन्न तस्य स्वतोद्वयनि सत्यम् ।नापि परतो भेवपर्यनुयोगतः तदद्वैते परमेव . भेषस्तस्य पर्यनुयोगतः तत्संभवप्रश्न; कथमसावतव्यापत्तेः' इति ततस्तस्माविति । परस्य ..
मा. श्रा.. ६०, ५०, १० २-तमान्दवेद-भाग, २०, ५०, स. ३ "मक्षा युक्तियोगः - परस्परसातासम् , अ सरपिगोडी" य. दार्विकाल ११३९४-५ स्क्यंगि मा०, ५०, up सः। ५ तत्राणन्यतः अब०, ५०, स.। ६-स्थानम् ना-भा०,३०,५०,०। . वस्तुसंसं संदे, मा०,०, १०,स। वेदनमपि । १ संवेवनानुभक्षभासा । १. एकमेकाहिलीयमिति विशेश्य परम्परे भा०, प प ,।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः कल्पनया सत्त्वान्न दोष इति चेत् ; न; 'तत ए३' इत्यादेः 'अनित्थम्भाववत्' इति पर्यन्तस्था. त्रापि समानस्वान् ।
यदि वा, भेदः "तमेव प्रा(भा)न्तमनुभरति सर्वम् , तस्यैव भासा भासि" [कठोप० ५.१५ ] 'इत्याम्नासः पुरुषाधीनो भेवप्रतिभासस्तत्पर्यनुयोगः 'कथमयम्' इति प्रानः, तस्मादिति । परतो भेदप्रतिभासे पुरुषायसतथा सवाम्नायो विरुद्ध्येतेति मन्यते । ५
परसो द्वयनिर्मासं त्रुवाणः प्रतिपीडयेत् । पुरुषायतद्वारमामनन्तं मिडागमम् । ७६९।। विवेकाशसमुद्दिश्य प्रतिपत्तारमागसः । पुरुपाझेदनि समन्वाहेति मतं यदि ॥७७०11 परतो भेदनिर्भासः कस्येदानी विवेकिनः । 'नविकेऽनुपायत्वास्परस्यैवानवस्थितः ।।७१॥ कल्पनातः परं स्थाच्चेसैव कस्माद्विवकिनः। विभ्रमाद बलिनस्तहि वियेकी सुमहानयम् ॥७२॥ विभ्रमप्रतिरोधी हि विषेक: सार्वलौकिकः। सथास्ति विभ्रमश्चतिम श्रद्धेयमिदं वचः ।।७७३|| सत्येव पादत्रे तस्य सद्विरोधोपकल्पने पाटवं किमिदं पुंसः स्वरूपग्रहणं यदि ॥७७४॥ वस्किमुल्पनमात्रस्य विवेकस्य न विद्यते। तथा चेत्तस्य बेचं स्यावविद्याकल्पितं परम् ॥७७५|| ने विवेकस्तथा बासौ मिध्यार्थस्वासदत्यवत् ।
में विवेकाभयं तस्मात्परतो भेदभासनम् ॥७७६।। ततः सूक्तम्-'भेदपर्यनुयोगतः' इति ।
कुतश्च मेदप्रपञ्चः परमार्थसप्रेव न भवेद्यतस्तस्य कुत्तश्विक्षारोपितत्य परिकलायेत ? अतिसंहस्सरमपञ्चस्यैव परमात्मनः कदाचित्प्रतिवेदनादिति चेत् । म ; ताशस्य कदाचित प्यनुभवाभावात् । तदाह-'प्रतिसंहार' इत्यादि । तम्नाद तबादः श्रेयान् ।
विभ्रमवाद एवास्त्विति चेते. न तस्य 'विप्लस' इत्यादिना प्रसिक्षेपात् । तदेव न्याचक्षामस्तस्यविक्षेपमेव दर्शयति- इन्द्रजालाविषु भ्रान्तामीरयन्ति न चापरम् ॥५२॥ अपि चाण्डालगोपालवाललोलविलोपन । इति ।
...-....-- - श्वेता मुण्डको ३२.२ -सलथायासतदा-1, ब., ५०, सा, विवेकाशक्तिम्-०,०,१०, स! विवेकस्य । ५ विझविशेषकसनायाम् । धियः आ.ब.प.। -एरिसाब, ५०,०।
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३२०
न्यायविनिश्चयविवरणे व्यक्तः शब्दार्थः। साययोर्थस्तून्यते-यदिन्द्रजालस्वप्नादिविषयेषु विप्लकच्या प्रत्ययत्वमन्यद्वा न उजाग्रदर्थविषयेष्यस्ति, स्वयमेव प्राणिनां सत्र विप्लवप्रतिपत्तिप्रसङ्गेन धनुमानस्य वैकल्यापत्त। अनुमानान्तरेऽप्येवं प्रसङ्ग :, कुसकत्वादेरपि घटादायनिस्यस्यव्याप्ततया प्रविपन्नस्य शब्दे धर्मिण्यभावात् । भावे स्वत एव पुंसां नाप्यनित्यत्वप्रतिपत्तो, अनुमान ५ वैफल्याविशेषादिति चेत् ; सत्यम् । तत्र वालावलागोपालादीनां स्पत एवानित्यत्वप्रतिपत्तिः ।
न चैतावता तपमानवैफल्यम् ; आगमाहितसंस्कारस्य तत्र मिसरवाथ्यारोपे तस्य तव्यपच्छे. दार्थत्वात् । जाणत्यत्ययेषु त्यागमवतामेवै विष्ठवप्रतिपत्चिन बाअदीनां "शमाण्य व्यवहारे" [प्रमा० १७ ] इत्यस्य विरोधात् , बालादिपरिझानादन्यस्य व्यवहारस्याभावात
'सस्य च विप्लवगोवस्त्र 'कथं ततः प्रामाण्यव्यवस्थापन विप्लवब्यवस्थापनस्यैवोपपत्ते ? १० तस्मादविष्लवज्ञानमेव तत्र 'सेपाम् । न च विप्लयात्मन एष "प्रत्येयत्वस्य तत्र
भावे तदुपपन्नम् । सत्यपि "तस्मिन्नविश्वसंस्कारादुपपन्नामेडेति चेत् ; न ; वेषाभिदानी तत्संस्कारहेतोरनुपलम्भात् 1 न याहेतुकस्तत्संस्कारो नित्यत्वापतः। प्राक्तनात्तत्संस्कारादिति चेत् ; न; "स्वरूपसत्यस्येऽपि प्रसङ्गान् , तस्यापि संस्कारयलादेव सत्यतथा परिज्ञानसम्भषात्
वस्तुतो विप्लयस्यैवोपपत्तेः । कथं पुन: स्वरूपविलये अहिविप्लवपरिक्षानं सत्येव "तविधये १५ सदुपपत्तेस्तस्य तदपेक्षत्वादिति चेस् ? कथामिदानीमेकचन्द्रादिविप्लवे द्विचन्द्रादिविप्लवपरि
हानम् ? सत्येकचन्द्रादेरविप्लवत्वे द्विचन्द्रादिविलयस्यापि परिक्षानसम्भवात् । परिकल्पितेन 'तक्षविप्लवेन तैपरविप्लवपरिज्ञानमिति चेत् ; स्वरूपाविप्लवेनापि तादृशेनेच बहिर्षिलवपरिज्ञान भवतु विशेषाभावात् । तत: स्वरूपबदसंस्कारबलोपनीतमेव बहिरर्थसत्यत्वमिति न विप्लयात्मक
"तस्प्रत्ययेषु प्रत्यक्त्वम् , बारादीनामपि तत्र विश्लयप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । न चैवम् , अविप्लवपरि२० ज्ञानस्य तत्र तेषां भावादित्यसिद्धो हेतुः, अतश्च सद्वादिना जश्त्वमिति । तथा च "यज्ञातश्चम ( यज्ञातमाश्चर्य ) दाह
तत्र शौद्धोदनेरेच कथं प्रज्ञापराधिनी ||५३।। बभूवेति वधं तावत् बहुविस्मयमास्महे । इति
तत्र जामस्प्रत्ययादिप्लके शौद्धोदनेरेव सकलझानधन्यस्मन्यस्य धुद्धस्यैव म चाण्डा २५ लादीमामल्पप्रज्ञानां कथं प्रज्ञा बुद्धिः अपराधिनी स्खलपक्ती "सर्वमालम्बने भ्रान्तम
प्र०वार्तिकाल २११९६] इत्युपदेशात् भूव इति एवं वयं परीक्षापाषा सावत् क्रमेण ।
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1-4सूच्य-10,40,4..! २ शब्द।। मीमांसकायम ४ -रोपित -80,400 स.1 अनुमानस्म । ५ बौलानाम् । ६ मालादिमवहारस्य | . कृपक्ष सतः , 4, ५., RI
आम्स्प्रत्यये । ९ वालावलादीमाम् ।।. प्रत्ययस्य भा०, २०, स.। ११ विलबारमनि । १२ संवेदनस्वरूपसरवत्वेऽपि । १३ स्वरूपाविश्वे! ११ महिर्षिश्वोपफ्छ । १५ एकचम्दाविप्लवन । विचन्द्र । १५ परिक हिपने पात्रयमेधु। १९ यज्ञाश्वतदर तबाह मा | वशवदस तदाह स. या दर्ग सदाइ याच वयं तदाह 4.1१०-शानदन्यामन्य आ०, २०,स।
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प्रवाह
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
३२१ बहुविस्मयम् अनल्पाश्चर्यम् आस्महे । भवचि हि प्रेक्षावतामाश्चर्यबहुलमासन मनोऽप्रस्थान यदि मन्द बुद्धिगोचरे महामतेरेव परिस्खलनम्। अस्ति चेद शौद्धोदनः। अविशेषेऽपि स्वरूपार्थहास्नानाम् अर्थशानेष्वेव विप्लयोपगमात् । परमपि तदाह
तत्रायापि जनाः सत्काः [ तमसो नापरं परम् । इति ।
तन्न तस्मिन् प्राकृतजनहाविषयेऽपि परिस्खलनबत्ति शौद्धोदनौ अद्यापि स्वलनद- ५ सया परिझानसमयेऽपि जना दिग्नाम्गादयः सक्ताः तत्यामाग्ये कृतामहाः "प्रमाणभृताय" [प्रमा०स० श्लो० १] इति वचनादिति च वयं बहुविस्मयमास्महे । भवति हि विचारशूरचेतसा साश्चर्यमवस्थान यदि प्रसाबलोपपन्नोऽपि लोकः परिज्ञान(त)ोधेऽपि' आमयुद्धिमकु(बुद्धिं कु)बीत । बदलोपपन्नाश्व दिग्नागादयः “स श्रीमानकलङ्कधी [ ] इत्यादी "न्यायमार्गतुला " [हेतुधि: टी. पृ० १] इत्यादेश्च श्रवणात् । भवदपि कदाचि-१० महाबलम् अभ्यारोपेण बमसा प्रतिरुध्यते तदयमदोष इसि चेत् । न तमस एव तेन प्रतिरोधसम्भवात् तस्य वस्तुबलप्रवृत्तत्वात् , तमसश्च विपर्ययात् । कदाचिदेवमपि स्यादिति चेत् ;
तमसो नापरं परम् ॥५४॥ इति तमसः अध्यारोपाद् अपरं प्रशाबलं परन किन्तु सम एव परम्, ततौर तलपतिरोधित्वेन प्रकृष्टत्वादिति च व्यं अविस्मयमास्महे । भवति होतत् अधिस्मयापादानं यदुन्ध. १५ कारेगापि प्रदीपः प्रतिरुध्यते इति । भवतु पहिरिवान्सरपि विप्लयो बुद्धवेदनेऽपि तदभ्युपगमात् । "मिशवोऽहमपि मायोपयः स्वभोपमः" [ ] इत्यादिषचनादिति चेत् । न ; अत्रापि 'तत्र' इत्यादेपस्याविशेषाम् ।
अपि , यापरिक्षानं तद्विषवस्य कथमवस्थापनम् अविष्यवत् ? परिजानन पथविप्लवम् । कथं तदेकान्तः ? सविप्लवं वेत् ; कथं ततस्तरिसद्धिस्तद्विपयवत् ! देवाह- २०
विश्रमे विभ्रमे सेषां विनमोऽपि न सिद्ध्यति । इति ।
विनमे बहिरन्तः सकलज्ञानविष्लयविषये यस्तद्विषयस्य ज्ञानस्य विभ्रमो विप्लंकस्तस्मिन् तेषां मानानां विनमोऽपि न केवलमविन इत्यपि शब्दाः , न सिद्ध्यति ।
अविभ्रमो यथा सर्ववेदनेषु न सि ति।
विभ्रमाविनमोऽप्येवं विमान प्रसिद्ध्यति ।।७७७॥ दतः सूक्तमिदम्
सान्यापि जना सक्तास्तमसा नापरं परम् । विभ्रमे विनमे सेषां पिनमोऽपि न सिध्यति ।। इति ।
थे व्यास म,०,० -१२३क्षाबलेन। ३-अवस्था--ला...प०,01 चिय. कान्तः । ५ 'एवं विश्वम्' इति सिद्धिः । यिमविषयाय ।
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३२२
न्यायविनिश्चयविवरणे
सदसिद्ध दूषणान्तरमध्याह
कथमेवार्थ आकाङ्क्षानिवृतेरपि कस्यचित् ॥५५॥ व्यवहारो भजामि मूकलोहितपीतवत् । इति ।
२५
अर्थे जन्मदौ व्यवहारस्वदभिदानादिः स य आकाङ्क्षायां विभ्रमाभिप्रायस्य ५ निवृत्तिः अर्थ इत्येवमुक्तिरेव तस्यास्तद्रूपत्वात् । तस्या एव एवकारस्यात्र दर्शनात् न वस्तुतोऽर्थस्वभावात् । विभ्रमैकान्ते तदसम्भवात् । तन्निवृत्तिश्च कस्यचिदेव ढालनावतो नापस्य तस्य तत्र साकाङ्क्षया अनर्थव्यवहारस्यैव भावात् । अपिशब्दः 'ब' इति शब्दार्थः, 'व्यवहारः' इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः इति । परमतं कथं नैव भवेत् ? दृष्टान्तमाह- 'अति' इत्यपि । जातिकेन विधिरमुपलक्षयति नान्तरीयकत्वात् लोहितादिशब्देनापि १० तद्विषयं व्यवहारम् । तदयमर्थः यथा नातिवधिरः शब्दार्थसम्बन्धमज्ञानानः तत्रिन्धनं 'लोहितं पीतम्' इति च शब्दविकल्पात्मकं व्यवहारं न प्रतिपद्यते तथा विभ्रमैकान्तमप्रतिपद्यमानोऽपि तत्रैषार्थाधिमुक्तिभावाभावाभ्याम् अर्थानर्थव्यवहार इत्यपि न प्रतिपत्तुमर्हतीति । परस्य मतम् न प्रकारेऽपि संवेदनानां 'विभ्रमः तत्र तेषामप्रवृत्तेः "नान्योऽनुनीलज्ञानस्य बुद्धयास्ति" [० वा० २१३२७] इति वचनात् । न घाविषये विभ्रमः ; १५ पीते सत्प्रसङ्गात् । तन्न सद्वत् रूरूपे तस्करूपनम् स्वरूपस्यानुभवाधिष्टितत्वेन परमार्थसत earea, अन्यथा सकलव्यवस्था वैफल्योपपतेरिति । तत्राहू
"
१९५७
अनेक सन्तानानस्थिशनविसंविदः ॥५६॥ अन्यानपि स्वयं प्राहुः प्रतीतेरपलापकाः । इति
अनर्थान् अविद्यमानवियान् प्रत्ययाम् प्राहुः प्रतिपादयन्ति ' प्रत्ययान' इत्यध्याहा २०- रात् । कीदृशान् ? एकसन्तानान् अभिसन्तानाम् । पुनस्तद्विशेषणम् अस्थिन् क्षणिकान् अन्यानपि मित्रसन्तानानपि तादृशाम् प्राहुः स्वयं यौarः । तद्विशेषणम् अविसंविद इति । न विद्यते स्वपरविषयतया विविधा संवित् सम्यग्ज्ञानं येषां ते तथोक्ताः । कुतस्ते तथेति चेत् ? आह-प्रतीतेरपलापका यत इति । प्रतीतेः स्वपरविषयतया लोकप्र सिद्धा अपना तेषाम् अविसंवित्वं न पुनर्वस्तुतस्तदभावादेष, अन्यथा सन्तानसन्दा - नान्तरतद्रवानेकत्व क्षणभङ्गादीनामप्रतिपचिप्रसङ्गाम् । तदनेन प्रतीत्यपलापामधेयवचन तेषामुपदर्शयति ।
व पं संविदद्वैतमेवेति चेत् दत्तमत्रोत्तरम् -'अद्वयं निर्भासम् इत्यादिना । तदेव 'विस्तारयन्नाह
मी या वादि-आ०, ब०, प०, स० इत्यादिमु ० ० ८०स०॥४ तत्व-आ०, ब०, प०, स० । ५ शब्दश्चेदिति मा०, ब०, प०, स० विभ्रम-आ०, ब०, प०, ४. ७-घदरवारप्र-०, ४०, प०, स०१८ विस्तस्य
४०, प०, स० ।
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९१५९ }
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
स्वतस्तत्त्वं 'कुतस्तत्र वितथप्रतिमासतः ||१७|| मिस्तत्त्वं कुतस्तत्र वितथप्रतिभासतः । इि
"
स्वतः स्वस्मात् तत्वम् अरूपं 'तो' नैव 'सिकोस्' इत्यध्याहारः । हेतुमाह-- 'वित्त' इत्यादि । क्तियो प्रायादिनीलादिरूपो भेदस्तस्य प्रतिभासनं वितपतिभासः तस्मात् इति । एतदुक्तं भवति सकलमेदप्रतिभासविकलं हि संविदात्रं परस्याद्वै ५ चित्राकारम् सति तस्मिन् हिस्सन्तानान्तरप्रत्युञ्जीवनापत्तेः । सस्यै च न स्वतः सिद्धिः स्वतोऽपि भेदाधिष्ठानस्यैव संवेदनस्य प्रतिभासनात् तस्य च मिथ्यात्वादिति । परतस्तसिद्धिं प्रत्याचक्षाण आह- 'मिथ' इत्यादि मिश्र इति 'अन्यतः' इत्यर्थो निपातत्वात्, निपाताननेकार्थत्वात् । 'मिश्रः' परत तत्त्वम् अयं कृतो नैव सिद्ध्यति । कुल सलू ?, वितथप्रतिभासतः न हि परतोऽपि निरंशस्य प्रतिभासनं भेदयत एव तत्रापि सद्विषयस्य १० प्रतिभासनात् । तत्राय च विध्यात्वादिति भावः ।
३१३
ag a reaः प्रतिभास निरस्ते निरस्तमेवाद्वयम् परतस्तु तत्प्रतिभासनं परस्याप्यनभिप्रेतमेत्र "तस्या नानुभवोऽपरः" [प्र०वा० २२३२७] इति वचनात् तत्कथं तस्योपक्षेपः परप्रसिद्धस्यैवोपोपोपपतोति येशू आरास तस्यानुभव:" [प्र०वा० २३२६] इत्यादेर्विचारस्य फलम् ? न किचिदिति चेत्; न; असावचन- १५ eda द्वादिनो freeाशप्तेः । तस्मादु तपरिज्ञानमेव चत्कले मेदसमारोपयवच्छेदस्यापि deferrer अन्यथा वैफल्यापतेः । अतो विचत एव परस्यापि परतस्तत्प्रतिभासन feegeea ex दुक्षेपः । तदेवाह -
3
यतस्तत्त्वं पृथकू सत्र मतः कपिषः परः ||५८१| इति |
बुधः प्रतिपता कचिद् विचारात्मा परः प्रकृष्टः पृथग भिन्नः तत्र ते मतः २० अभिप्रेतः परस्य । कीटशोऽसौ ? यतो यस्माद् बुधात् तम् अद्वयं प्रतिभातीति शेषः स एव तर्हि विचारात्मनो बुधात्तस्वं प्रतीयतामिति चेत्; आह
ततस्तयं गतं केन [कुलस्तत्वममरवतः] इति ।
ततो धात् तत्त्वमयं गतं प्रतिपन्नम्। केन ? न केनचित् । तथाहि विचारो are freereaशेष एव ।
विकल्पका विज्ञानमभिध्येतरात्मकम् । aeda सम्येव निरंशज्ञानवादिनः || ७७८॥ afera सम्भवत्येव तदेतत्कल्पनं कुतः ? पररवेकिस्पान तस्याप्यन्येन कल्पनात् ॥ ७७९ ।।
१ वियतीत्या०, ब०, प०, स० २ विचकारेतस्य ०५ श्रपरिशन । ६ अम्र्य आ०, ब०, प०, स० विकल्पश्व-आ०, ब०, प०, स०
ने निरस्तमेला, ब०, प०,
२५
1.
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३२४
न्यायचिनिश्चयविचरणे
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अनवस्वानदोषोऽश्मनिवार्यः प्रसज्यते । तस्मान सम्भवत्येव विज्ञानं ते विकल्पकम् १७८०॥ ने चासम्भयतस्तस्मासस्वस्य प्रतिवेदनम् ।
व्योमाम्भोरहसौर यादपि तस्य प्रसखान् ॥ ६८१॥
तदेवाह-'कुतस्तत्त्वमतवतः' इति । कुतो नैव तत्वम् अद्वयम. अतयRE अविमानसहावाद्विचारान् गतमिति । एसनानुमान विचार इति प्रत्युक्तम् । अपि च,
अनुमानं भवेद्याप्ती साध्यविस्या च तेवतिः । द्वित्तियदि चाध्यक्षान पारस निःशेयसं भवेन !!७८२॥ न च निःश्रेयसपालस्वानुमान प्रकल्प्यते। विधूतकल्पनाजाले येते निवसं मतम् ॥७८३|| विकल्पः साध्यधीश्चेत्र तस्य स्वाशे व्यवस्थितेः। साध्यैकत्यावसायाश्चेत्तदेशस्यैवगुरुयते ॥७८४ वस्तुतो न तथाप्यस्ति साध्यवित्तिस्ततः कथम् । व्यामिधारनुमान यदद्व तविषर्थ भयेन् १७८५॥ यादशं व्याग्निविज्ञानमयथार्थ मवेत्ततः ।।
साडगेवानुमान चेत्ततस्तस्यानिः कथम् ? ७८६॥
सदाह- कुसस्तत्वममरवतः' इति । न विद्यते तत्वम् अद्वयं विषयस्येन यस्मिन् उद् अतत्वम् अनुगानं तस्मात् कुतस्तरवं गतमिति यदि निरंशस्य स्वतः परतश्च न प्रतिभासनम् ।
सदपि मा भून् ; सर्वाभावस्यापि यौः सिद्धान्तीकरणादिति कश्चित् । निरोतरनित्ये. तपदिपिकल्पैनिर्विकल्पस्यैव तत्वस्य परिकल्पनादिति परः । तत्राह
यथा सत्त्वं सतवं वा प्रमासत्वसत्यतः॥५०॥ सथाऽसत्वमतत्वं वा प्रमासत्वसतत्वतः । इति ।
यथा येन गत्यन्तराभावप्रकारेण सरवं ज्ञानशेयरूपस्यार्थस्य विद्यमानत्वं प्रमास. स्वतः प्रमाणभावात् । तथा तेन प्रकारेण नस्य असत्त्वमपि प्रभासत्यतः प्रमाणभावादेव । तात्पर्यम्
प्रमाणनिरपेक्षस्य सर्याभावस्य कल्पनम् । न युक्तम्, तद्विपक्षस्य तथाक्लुमिप्रसमलनान् ।।७८७१॥
२०
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, प्रतिवेदमस्य । २-छा विचा-ता। ३ छयातिलानम् । साध्यज्ञानम् । ५ कौवस्य । तस्वमन्म-०,५०,०,
साथ 1 6 प्रभागनिस्पैजतमा।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावा
३२५
प्रमाणातरप्रक्लप्तिस्तु न भवत्येव सर्वथा ।
प्रमाणस्यैव सद्भावात्तक्लुसिविधातिनः ॥७८८॥ इति । तत्र शून्यवादः श्रेयान् ।
निर्विकल्पकवस्तुवादिनोऽपि सतवं विकल्पत्वम्, 'सह निरंशादिभिर्विकल्पवर्तत इति सतत् तस्य भावः सतत्त्वम्' इति व्युत्पादनात् । तत् यथा प्रमासतरवतो भावस्य ५ तथा अतस्वम् अविकतपत्वम् न विद्यन्ते ते विकरूपा यस्य तदतत्तस्य भावोऽतत्त्वमिति ज्युत्पादनात । तदपि प्रमासतस्वतः प्रमाणस्य सचिकल्पत्वात् । वाशब्द उभयत्रापि पक्षान्तरथोतने । तात्पर्यमत्रापि
सर्वविकल्पाती तस्वं न विना प्रमाणत: सिद्धयेत् । तद्विपरीतस्यापि च तरवस्यैवं प्रसिद्धिमयात् ।।७८९|| तत्र सदपि प्रमाणं सर्वरिकल्पव्यतीतमेय मतम् । यदि तस्य न प्रसिद्धिः स्वतोऽस्ति निश्श्या भावात् ॥७९॥ अधिनिश्चितमपि सच्चेत् ; स्वतः प्रसिद्धं प्रभागमविकल्पम् । सविकल्पमेव में तथा किमित्यवस्था कृतस्तस्ये ॥७९१ परतस्तत्प्रतिपत्तौ तदपि पर निर्षिकस्यमेव यदि । तत्राप्यय प्रसको भवन्नसक्यो निवारयितुम् ॥७९२॥ पुनरपरनिर्विकल्पकल्पनायामवस्थितिर्न स्यात् । तस्मात्प्रमाणभन्ने सविकल्पकमेव वक्तव्यम् १७९३॥ सस्य स्वनोऽनुभवनात् युगपत्रपपरार्थनिर्णयप्रकोः । एकान्तनिर्विकल्पं प्रभवति तस्मिन् कथं तस्वम् १७९४॥ इति ।
भवतु प्रमाणादेव सविकल्पकाष च भावेध्वसरवमत स्वभ्य, तत्तु न परमार्थतः, विशराक्षमत्यास् , अपि तु व्यवहारेणैव संकृतिरूपेणेति चेह; न; उतोऽसत्त्वातस्वोरिख सत्वसतस्वयोरपि भावेषु कल्पनापत्तो व्यवहारस्य सत्राप्यविशेषात् । न चेदमुचितम् । विये. धात् । यदि तेषु सरवसतत्त्वे तदा कथमसत्स्वासतत्त्वे । येत् कथं सरवसतत्त्वे इति ? तवाद
सवसत्वमतवं वा परसस्वसतत्वयोः ॥६॥
न हि सत्त्वं सतत्वा तदसवासप्तवयोः । इति ।
माद अनन्तोकम् असत्त्वमतत्त्वं च वासभेन समुश्यात् । न हि नैव सम्भवति। . कदा १ परयोस्तद्विरोधिनोः सत्त्वसत्तस्थयोः सदोः स्थाऽसत्त्वं सतत्त्वं पर वाशब्देना
२५
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१-मात्र बल्लति-प्रा.,.,प.स.। २ वर्षाभाषकल्पमाप्रतिपक्षभूतस्य। ३ विकरूपत्वम् ।
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न्यायविनिश्चयविवरण
{१६३ त्रापि समुच्चयात् । तत् अनन्तरोक्तम् 'न हि' इति सम्बन्धः कदा 'असत्त्वासतरवयोः सत्यसतश्वपत्पनीकयोरस भासतस्पयोः सतोरिति ।
स्यान्मतम-सांवृत्तमपि विज्ञानमसस्वादिविषयमेव सस्वसिद्धिविन्धन.न 'सत्वाविवि क्यमिति; 'तन मिथ्यात्वाविशेषात् । मिथ्याज्ञानमपि मणिप्रभामणिशानमेव तनिकाधनं तत्र मणिमात्या परितोषदर्शनाम न प्रदीपरमामणिज्ञान विपर्ययात्, सदापीति चेत् न वापि विभ्रमे सदनुपपत्ते । हि-ने मणिपभामणिज्ञान वनिबन्धन भ्रान्तत्वात् प्रदीपप्रभामणिज्ञानवत् । कथमेवं ततः प्रसस्य मणिप्राप्तिरिति चेत् ? न; सन्निहितस्यान्यत एव सत्यानासत्याप्तः । तदेवाह--
परितुष्यति नामैका प्रभयोः परिधावतोः ॥६॥
मणिभ्रान्तेरपि भ्रान्तो मणिरत्र दुरन्वयः ॥ इति ।
परिधावतोः प्रवर्तमानयोर्मध्ये एकः परितुष्यति मणिप्राप्या मारो विपर्ययास् । कुतः परिधावतोः ? मणिभ्रान्तरपि न केवल सदभ्रान्से । क्य तद्भ्रान्ते ? प्रभयोः द्विवचनान्मणिप्रदीपप्रभयोरिति । नामशब्देनाबारुचिमावेदयन् तत्रोपपत्तिमाह
भ्रान्ती अन मणिनाने मणिर्दुरन्धयो दुरनुगमो दुरवायो वेति । तदनेन साध्यसमत्वं १५ दृष्टान्तस्य पर्शितम् । परो दृष्टान्तसमर्थनमाह
सति भ्रान्तेरदोषश्चेत् [ तत्कुतो यदि वस्तु न ] ॥३२॥ इति ।
सतिहि मणी तत्मभामणिज्ञानात्मा भ्रान्ति सति, तस्माददाषः मणिरत्र दुरत्वयः इति दोषो नास्ति, सत्येव मणौ भवन्त्यास्ततस्तदन्वयस्यावश्यम्भावादिति भावः । तदुक्तम्
"मणिप्रदीपप्रमयोमणिबुद्धधाऽभिधावतोः ।
मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थ क्रियां प्रति "प्र० का २.५७] इदि । स्वेच्छब्दः पराभिप्राये। तत्रोत्तरमाह-'तस्कुतो यदि वस्तु न' इति । वस्तु मणिरूप यदि न विद्यते तत् 'सति' इत्यादि कुतो न कुतश्चिदपि । तथा हि कीदृशं तद्वस्तु ? शून्यमिति चेत् : सुस्थितं तस्यास्सत्प्रापकर्वम् । सकलविकल्पविकलमिति चेत्, न तस्यायन
नुभवात् । निरंशपरमानुरूपमित्यपि अद्धानमात्रम् । अनुभवप्रत्यनीकत्वात् । नानाक्यवसाधारण २१ स्थूलमिति चेत्, अाह
काम सति तदाकारे तहान्तं साधु गम्यते ।
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असतस्कयो:- प्रा०,००,०। २ प्रतवादिदि-आ०,००, स.। तन्मि-आ, २०, ५०,स.. तस्वसिखिनिहन्धनम् । ५ सत्ये मणी भा.,.,.,००६ धारते। मकन्याखदान-ब०,, प.,स-10 मविप्राः । ८ मणिकासमणिप्रापकत्वम् ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रदायः
२२७
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प्रसिद्धः स्थूल आकाशे यस्य तस्मिन् वस्तुनि सति भ्रान्तं मणिभ्रमणं यदित्यधिकृत्य सम्बन्धः तदा कामम् अतीव तान्तं साधु शोभनं मणिप्राप्याऽवगम्यते में चैत्रम् ; अनेकान्तविद्वेषिणस्तदाकारस्य वस्तुनोऽसम्भवादिति भाषः । संवृत्या तदाकारमेव वस्तु परस्यापि प्रसिद्धमिति चेत् न दृष्टासरवान्तिकेऽपि सांवृतस्यैव वस्तुनो मिथ्याज्ञानतः प्रसिद्धिप्रसङ्गात् । भवत्येवमिति चेत्; न; परमतानतिज्ञायनात् ।
१६४
"स्वादिवसस्यादि संवृत्यैव यदीध्यते ।
परपक्षाद्विशेषस्ते कस्तवा ऋतुतो भवेत् ? ॥ ७९५ ॥ त्या वास्तम् । तत्र स्वर्गापवर्गादिसुख सम्प्रापि सम्भवात् ॥ ७९६ ॥ न सर्ववस्तुवैरात्म्य निर्विकल्पादि तत्रवत् । Realese feञ्चदिष्टमवाप्यते ॥ ७९७॥ प्रयोजनवदुन्मुख्य निष्प्रयोजनमाश्रयम् ।
प्रेक्षाणां कथं नाम कक्षीक क्षमो भवान् ॥ ७९८ ॥
अयमेवं न वेत्येवमविचारितगोचराः ॥६३॥
जायेरन् संविदात्मानः सर्वेषामविशेषतः ॥
५
तन सांवृतं तवमित्युपपन्नम् ।
rag वास्तवमेवेति चेत् न तस्य मिथ्याज्ञानादसिद्धेः । सर्वेषामपि तर्त एवाभि- १५ मतसिद्धिप्रसङ्गात् । तदाह
यदि किञ्चित्स्योत् सर्वेऽमी सत्वदर्शिमः ||३४|| इवि ।
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अयं बहिर प्रतीयमानो भावः एवं शून्यसादिरूपेण न वा नैव एवं सत्त्वादि- २० रूपेण एवमित्यस्य इति शब्दव्यवहितस्यात्र सम्बन्धात् । इत्येवमविचारितगोचरा नापिया जायेरन् उत्पयरेन संविदात्मानो विज्ञानस्वभावाः सर्वेषां प्रवादिनाम् अधिशेषतो विशेषमन्तरेण । ततः किम् ? इत्याह- तावता तज्जननमात्रेण यदि वेत् किञ्चित् शून्यादिकं स्यात् भवेत् सर्वे निरवशेषा अभी वैशेषिकादयस्त स्वदर्शिनः स्वाभिमादिपदार्थतत्वदर्शनशीलाः स्युरिति वचनपरिणामेन सम्बन्धः ।
द्रव्यादीनां विचारासइत्यादययार्थत्वमेवेति चेत्; न; शुन्यादावपि तदसत्वाविशेधातु । कथं वा व्यादेर्विचारासहत्वम् १ कथञ्च न स्वास ? शून्यनिर्विकल्पवादिनो विचारस्यैवासम्भवात्, सप्तोऽपि तस्य स्वांशमात्र पर्यवसानात् । तदाह---
3 [वयाकारमतीय तां भ०, ६०, प०, ४०। तच्छदैन । एकान्न० ए० ग भवतैयमि-आ०, २०, ५०, स० । ५ सप्तादि ० ० ०, ० ६ मिथ्याज्ञानादेव ।
३ संविदा
७-
অ--, ६०, प०, स० ।
२५
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73HPATNAFRAT.:..
नटरRacints
३२८ न्यायविनिश्चयविवरणे
[ १६६ पर्वताविधिभागेषु स्वांशमात्राक्लिथिभिः ॥१५॥ विकल्पैरुत्तरैत्ति तम्यमित्यतियुक्तिमत् । इति ।
पर्वत महणं सर्वद्रज्योपलक्षण पर्वतस्य द्रव्यत्वेन तवः तज्जातीयोपलक्षणोपपतेः । आदिशन्देन गुप्चदिएरियाः । पर्वत आदिका ते पर्वतादयः, त एव परस्पर तो विभज्य५ मानतया विभागाः विशेषास्तेषु । तत्त्वम् अयथार्थत्वम्, 'सेवामयार्थाना मावस्तत्त्वम्' इति ज्युत्पादनात् । तत् वेत्तिनजानाति सौगत इत्यतियुक्तिमद् अतिशयेन सयुक्तिकम्, उपहसन सत् अयुक्तिमत्येवमभिधानात् । कैः १ विकल्पः विचारमानैः । कीटशैः ? उत्तर: सरन्ति व्यवस्थाकल्यानुत्सवन्त इत्युत्तरास्तैः, इत्यनेनोपहासे कारणमुक्तम् । तदाह
सन्माविकल्पवादेषु विकरूपरनामसम्भवात् । तैः क्वचितत्वविज्ञानमुपहासास्पदं न किम् ॥ ७९९।। अनुपायं हि किञ्चिन्न कस्यचिस्सिद्धि मृच्छति ।।
अनुमायष्टसिद्धौ हि कस्य कर दरिद्रता ८.०॥
भवन्तु षा विकल्पा:, राधापि है: स्वांशमाने का मारोपितामिलाप्याकारलक्षणे पर्यबसिसैः चिदन्यत्र तत्वरिझानसतियुक्तिमदेवेत्यावेदयन्नाह स्वांशमात्रावलम्बिभिः १५ इति । तथा हि
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स्वरूपमात्रनिर्मग्नैर्विकल्पैस्तश्ववेदनम् । कथमन्यत्र यद्रव्याचयधार्थ प्रकल्प्यते ॥८॥१॥ अनुमानादिवान्यत्र सदाभासादपि स्वयम् । सस्त्वज्ञान कुतो न स्यादविशफाष्टिदोस्तयोः ।।८२२६५ छानुमानस्य साध्येन सम्पन्धाच्चे विशिवता । सम्बन्धोऽपि विकल्पान परतः शक्यवेदनः ॥८०३।। संतोऽपि स्वात्मनिर्मग्मात्सम्बन्धप्रतिपत्कथम् । सम्बन्धे सस्य सम्बन्धादेवं सत्यमवस्थितिः ११८०४।। विकरूपाननान्मानं येन प्रत्यक्षमुच्यते । अनयैव व पदत्या निषिद्धः सोऽपि बुद्ध्यते ॥८०५।। शुक्लस्य दर्शने यद्वन्मानं शुक्लविकल्पतः ।
स्थात्पीतादिविकल्पादयविशेषात् पुरोदितात् ।।८०६॥ - -------- .......... . - - ..--
-माविलम्बिहा- २ सर्वत्र-आ०,०, ५०, स.१३वतः खत्रातीMt.,.,., अन्न व संभ-मा०, २०, ५०, स.। ५-सपाय--१० -माप्रविसम्-िता -विशिवरता मा, १०,०, RT८ विकापादपि ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताचा
शुक्ले शुक्लविकल्पस्य सम्बन्धाच्चेविशिष्टता । न तस्यापि प्रमाणत्यप्रसङ्गायनुमानवत् ।।८०७।। गृहीतविश्यत्वं सु स्वांशमात्राक्लम्बिनः ! न तस्व शक्यते वक्तुं यतः स्यादप्रमाणता ॥६०८॥ 'एकत्वाध्यवसायेन स्वयं दृश्यविकरूप्ययोः । गृहीतमहणं तत्र कल्प्यसे यदि सौपतेः ।।८०५॥ . एकत्वं व्यवसायस्यैवांशो दृश्यविकलाययोः । कथं यतो शिकारय गृहीवार भान् ।।६।। एकत्याध्यरसायनेत्याः पुनरुतीरणे । तदेवोत्तरमेयं स्यादमयस्था महीयसी ॥८११॥ गृहीतार्थत्वमीक्षमनुमानेऽपि विद्यते । तत्कथं स्यात्प्रमाणं यत्प्रमाणयमाञ्जसम् ।।८१२।। प्रयोजनविशेषाश्वेत्तन्मान कः स कथ्यताम् ।। निश्चयश्चन्न शुक्लादिविकल्पेनपि तदतेः ।।८१३।। प्रसूतिरिति चेन्नास्या अपि तत्रोपलम्भनात् । नियादेवमीलादौ यसो सोकः प्रवर्तते ।।८१४॥ समारोपनिषेधश्वेत्सोऽपि ध्वस्ति येन । अप्रामाण्यसमारोपो दर्शनेषु निषिध्यते ॥८१५!! नत्र तल्समारोपो यस्य तैः स्थानिषेधनम् । इति चेरिकामदानी सद्विकल्पानामपेक्षया १८१६ ॥ अरेक्ष्येत परः कार्य यदि विछत किण्वन । यदकिनिन्धरकर वस्तु किं केनचिदपेक्ष्यते ? ॥८१७॥ चतस्तेषु तदारपो गम्यतां तदपेक्षया । तनिषेधात्प्रमाणत्वं तद्विकल्पेष्यपि स्फुटम् ।। ८१८॥ उस्मानासौ" विशेषः सः, वस्तुलेशप्रहो यदि । विकल्पेषु स किं नास्ति "शुलतारुपमहात् ॥८१९ खांशमात्रावलम्यित्वाल्लेशग्रहणं कथम् । तेषु चेनुमान कि स्वांसादन्यत्र पत्तिमत् ॥८२०॥
__ 1 सम्बन्धविचरतः मा०, २०, ५, स. १२ एकत्वाद्यबस-RLD, ब०५०, प्रयोजनविशेषः। सवैमा०,०, १००। ५ चेत्तस्या अपि आ.ब.प. सादिकल्पेषु । . रचने । ८ मामाण्यसमारोपः । १३९ बा० ३१२४९.। १० समारोफनिकः । गुलस्वाद- ., ५०, स.। १ विकल्प।
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मार्गी
३३०
१५
न्यायविमिधयविचरणे
अभियोगक्षेमध्ये सत्येवमनुमछावन् ।
मानत्वं बेद्विकल्पानां मानद्वित्वं विलुप्यते ॥ ८२१ ॥
अमानत्वेऽप्यमानत्वादनुमानस्य किं च तैः ।
कथं प्रत्यक्षमानत्वं स्वशमग्नेः प्रदीयताम् ||८२२॥ इति ।
५
सदाह - 'पर्वमादि' इत्यादि । पठ आदियेषां समुद्रादीनां ते पर्वतादयः । विभ ज्यन्ते विशेषेण परिचिन्ते यैवे विभागाः पर्वतादीनां विभागा पर्वतादिविभागाशेषु संविदात्मसु । 'संविदमानः' इत्यस्येह विभकिपरिणामेन सम्बन्धात् । सत्वं प्रमाणत्वम् तच्छब्देन 'प्रमाणमात्मसात्कुर्वन्' इत्यत' इहोपस्थितस्य प्रमाणस्य परामर्शः । चेति जानाति । कः ? सौगतः । कैः १ विकल्पैः व्यवसायैः । कीदृशैः ? उत्तरे प्रत्यक्षोत्तर१० कामाविभिः इयलियुक्तिमत् । अत्रोपपत्तिमाद- 'खांश' इत्यादि । सुगमम् । "आवरणं तर्हि परमाणूनामसंसर्गात्कथम् ? इति न युक्तम् न विप्रतिमावरणं काप्युपलब्धं येन तत्त्वाभावे परवाणुषु न स्यात् तथा प्रतिघातादयः । अथैवमुच्यते
छिद्रत्वात्परमाणूनां संहतेः स्वात्पटादिकम् । कथमावरणं वातस्यासपस्य जलस्य च ॥
१०६४ : २५०१ Ro, T, EFT, NO,
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अवयवसंयोगमन्तरेण परमाणव एव केवलाः अव्याहतपरस्परान्तरानुप्रवेशाः कथमावरणमाजः ? अप्रोच्यते-असंसृष्टाः कथमवयविनं जनयन्ति । संसर्गच नैकदशेन तदभावात् न सर्वाना अभु मात्र पिण्डप्रसङ्गात् । संयोगस्य पदार्थान्तरस्त्र जननेनेति चेत्; तमेव संयोगं सान्तराः कथं जनयन्तीति समानः प्रसङ्गः । संसर्गे २० परमाणुमात्रपिण्डप्रसङ्गः । संसर्गचेत् किं संयोगेनापरेण तथा अवयविना ? अथ सारा एक संयोगपवयविनश्च जनयन्ति तथा सत्यावरणादिकार्यमपि किन जनपन्ति ?” [to वार्तिकाल ० १/९१] इति ।
#
२५
- 'पर्वत' इत्यादि । विभज्यत इति विभागा विशेषाः स्वलक्षणपरमाणवः तेषु तत्वम् । किं तत् ? इत्याह-पर्वतादि । पर्वणो भावः पर्वता सा च भावेष्टकत्यमेव वंशादिपर्ववत् । अनेनाचरणमुक्तम् । पर्वदा आदिर्यस्य प्रतिघातादेः कियान्तरत्य तत् पर्वतादि । तत्किम् ? येति जानाति प्रज्ञाकरः । कः ? विकल्पैः अनन्तरविचारैः । कीटः १ उत्तरैः । नैयायिकाविं प्रति उत्तरीकृत इति अतियुक्तिमत् । अत्रोपपतिमाह-'खांशमात्र' इत्यादि ।
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३ संसर्गाभावप्रयुक्त अभयवित्वाना
तथा हि प्रति YA➡AT•, •, T», 1
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
३२१ स्वविसिनियतैपि विचारः परमाणुषु । कार्यमावरणादीवि नोपहास्यमिदं कथम् ? १८२३॥ अन्यथा नीलविज्ञानात्तस्त्वं त्रैलोक्यगोचरम् । जन सर्वोऽपि जानीयात् सर्वेझोऽपि स्फुटं भवेत् ।। ८२४॥ तेषामणुषु सम्बन्धास्त्रांशमात्रविदामपि । तेभ्यस्त तत्वसंवित्तिरित्ययज्ञानकल्पितम् ।।८२५६ तश्वरवं न हि तेषां यत्तसम्बन्धेऽपि विद्यते अन्यथा साध्यसम्बन्धालित साध्यता बजेस् ।।८२६॥ लिशासिङ्गिानि विज्ञानमनुमानं यदुच्यते । तश्यता क्वचिनीस्था तबो निष्फलकापनम् ॥ ८२७|| क्षेभ्योऽप्यन्ये विकल्पाश्चेदणुतत्त्वहक्षमाः । सत्राप्यय प्रसाः स्थास्थांशमात्राषठम्बनास् ॥८२८॥ तेभ्योऽप्यन्यविकल्पाना प्रक्लुभावनत्र स्थितः । अणुतरवपरिज्ञानं न युगेनापि सियति ।।८२९।। अबश्वकस्वान्मानत्वं विचारणां यदीष्यते। अपञ्चकत्वमेवेवमतज्ज्ञत्वे कथं भवेत् ॥ ८३०॥ सम्बबालवयव असलान् । लियानरमेव मानत्वे व्यर्थिकवानुमा भवेत् १८३१६ तमार्थानवभासित्वे युक्तमर्थेष्ववञ्चनम् । विकल्पानास्ताचेदे कोरहार्ने कीर्तितम् ॥ ८३२॥ “लिलिनिधियोरेवं पाम्प्र्येण वस्तुनि ।। प्रतिबन्धासदाभासशुन्ययोरप्यवञ्चनम् ॥" [प्र०का० २६८२] इति ।
कथं वा सम्बन्धादपरिमानादेव क्वचिदवञ्चनम् ; सर्वस्य प्रसङ्गात् । परिमातादेवेति चेत् । न ; परमाणुनामदर्शने तस्परिज्ञानानुपपत्तेः । भवतु तदर्शनमपीति चेत् ; न ; अस्मदादी स्वाभावात् । भावे तदेव तेष्वक्यव्यादिकल्पनस्य धाधकं स्यात् । तथा च यदुक्तम्- १५ 'अत्राप्यतीन्द्रियरर्शियोगिप्रत्ययो भवति बाधकः, यदि योगी भवेत्" [प्र०वार्तिकाल. १।९१] इति ; तदत्यन्तफल्गजल्पितम् ; सनिहितादरमहाविदर्शनादेव तक्षाधने विकृधपुरपप्रत्ययमस् तत्कल्पनानुपपसे । योगिशब्देनास्मदादिरेवोज्यते तस्यापि देश्स्तोऽसीन्द्रियार्थदर्शित्यादिति चेत् । न ; 'यदि इत्यादिविरोधात् । प्रत्यात्मवेवनीयस्थारमदादिभावस्य अमान्न
विधारणाम् । २ परमाणुसम्मन्येऽपि। ३ अविसंवादित्वात् । । कीर्तनम् मा०, बरु, प.स." ५ परमामुदनस्या परमाणु । . -सापनदिय-मा०, ५०, ८०, स.। दिविधामाट् आ०, १०, स।
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न्यायविनिश्चय विवरण हास्पदत्वात् । आशक्यते यानेने योगिभायो यदिशचोपादानात् । मयतु योगिनैव यो दर्शन मिति चेत् ; इदमपि कस्मात् ! "तेकामेव विचारक्षमत्वाचावयव्यादीन; विपर्ययादिति घेत ; किमिदं तेषां 'सरममत्वम् १ २ सावत्तद्विषयत्वम् ; अनभ्युपगमात् । तत्प्रतिबद्ध विषस्वमिति चेत् । तदपि कुतः १ सेपामेव तेन दर्शनादिति च । न ; परस्पराश्रयान्५ 'तपाम्' इत्यादिमा 'तत्प्रतिष - इत्यादरतेन व तेषाम्' इल्यादेव्यवस्थापनात् । भवतु चा सति योगिनि तेन तेषामेव दर्शनम् , असति तु कथम् १. न पैकान्सेन सन्नेवासी यवील्याशङ्काचचनानुपपत्तेः तस्य पाक्षिकामाक्सव्यपेक्षत्रात् । तर विडियदेतत् । ततो विचारसाफल्यमभ्युपगच्छवा वसव्यं बहिरर्थविषयत्वं विकल्पानाम् , अन्यथोपहासात्परत्वेन दरसाफल्यानुपपसः ।
प्रकारान्तरेणापि "तेषां तद्विषयत्वं दर्शयन्नाइ
सन्तानान्तरसद्धतेश्चान्यथानुपपत्तितः ॥६७॥ विकल्पोऽर्थक्रियाकारविषयत्वेन तस्परैः ।
झायले न पुनश्चित्तमात्रेऽप्येष नयः समः ॥१८॥ इति ।
धर्मकीतैः" सन्तानादन्यस्तच्छिष्यादिसन्तानः सन्तानान्तर सस्य पद्धतिः १५ सहावा सैय करमादिति चेत् ? शासकरणात् । न हि "तत् स्वार्थम् ; निश्चिततदर्थत्वात् , अन्यथा
करणायोगात् । कालान्तरतनिश्वार्थत्वात्स्वार्थमेवेति चेत् । न ; तनिश्चयस्यापि पूर्वतनिश्चयादेव भावात् । कदाचिद्विच्छिद्येतापि "प्रबन्ध इति चेत् ; तर्हि पर एव विसिवनतत्प्रबन्ध. प्रतिपत्ता तद्विपरीतत्वादिति परार्थमेव "तस्करणम् , तह पराभाने न सम्भवति । मा भूदिति
चेत् ; न ; उपलम्मान् ! सोऽपि स्वप्नादिनन् भ्रम पत्रेति चेत् ; किमस्य वचनस्य फलम् ? २० तमझानमिति चेन् ; अस्ति परः, तदभावे तज्ञापनानुपपत्तेः । इदमपि नास्त्येव बचनमिति
येत् ; न ; 'उपलम्भात्' इत्यादेरनुबन्धादव्यवस्थापत्तेश्च । ततः पर्यन्ते फिश्चिमनं पार. मार्थिकं परार्थ चळव्यम् , तमच्छा थेति सिद्धा सन्तानान्तरससिः, सस्या अन्यथानुपपत्तितः, ज्ञायते प्रतीयते । १ विकल्पो ब्यवसायः । केनात्मना १ अर्धकि
याकारविषयत्वेन अर्थक्रिया स्नानपानादिः तां करोतीत्यर्थक्रियाकारो जलादिः स विषयो २५ गोचरो सत्य सस्य भाषस्तत्वं तेन । कैशैयते ? तत्परैः सः अर्थक्रियाकारः परः प्रधानो येषां वैमनः ।
कथं पुनर्विकल्पैलादेर्महणम् ! कथं न स्यात् ! स्वग्रहणस्वभावेन 'दयोगात् । परग्रहणस्वभावेनेति चेत् ; न ; स्वभावभेदे विकल्पस्यापि भेदात्मनो भेदापर:। भवत्खन्य
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प्रज्ञाकरेण । ३रमाणूनाम् । ३ परमाणू नामेव विचारक्षमत्वम् । ५ सत्प्रतिबन्धवि-10,. ब०, २०, स० । ६ मिना । ७-दम्व-आ०, २०, ५०, सा। योगी । ९-त! यदस-मा, २०, ५० " विकरयामा बहिरविषयत्वम् । ११ वकीसम्मा० ब०, ५०,०11९ शास्त्रकरणम् । १३शाभिश्चयप्रबन्धः १४ शास्त्रकरणम् । १५७मस्य। जलादिग्रहणायोगात् ।
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११६८ }
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्ताव
३३३.
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एवा विकल्प इति चेत्; न; तेस्याप्यस्ववेदिनोऽर्थविषयत्वासम्भवात् घटादिवत् । स्वचेदने तुभ्य एवार्थविकल्पः स्वात । न चेदमुचितम् । तत्राप्येवं विचारे अनवस्थापतेरिति चेत् नै खपरविपयस्वभावभेदाधिष्ठानस्यैकस्यैव विकल्पस्य भावात् । कथमेकस्थानेकस्वभावत्वं विरोधादिति चेत् ? कथमन्दरविचारस्य अनेकपरामर्शाधिष्ठानत्वम् ? अति परामर्श भिन्न एव विचारोऽपीति चेत ; किं कपनया बहिरर्थवेदनस्यैकेनैव प्रतिक्षेपसम्भवात् । ५ agata तत्प्रतिक्षेप इति चेत्त न बहूनां युगपदसम्भवात् विकल्पानां वदनभ्युपगमात् । क्रमेण सम्भव इति चेत्; न; क्रमवतामेकत्र कार्ये व्यापारानुपपत्तेः, अन्यथा कन्याभावराभ्यामपि गर्भनिष्पत्तेर्ते कन्या गर्भवती दूष्या भवेत् । तस्मादेक एव परामर्शभेदेपि विचारो वक्तव्यः, तथा स्त्रपरमह्णस्वभावभेदेऽपि विकल्प इत्युपपन्नं तस्यार्थक्रियाकारविषयत्वम् । अवश्यं चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् कथमन्यथा सन्तानान्दरस्य परिज्ञानम् ? तत्राप्यस्य विचारस्याप्रति १० रोधात् । न चापरिक्षातस्यैव तस्य सत्यं नित्यादिवत् । न च तन्नास्त्येव विचारकरणात् । परार्थं हि तत्करणं कथं पराभावे भवेत् । संशयितेऽपि परे भवत्येव तरकरणम् -'यदि स्यात्परस्तदर्थमिदम्, न चेत् न' इति बुद्धयति चेत्; न; अनेकान्तविद्वेषे संशवस्यैषासम्भवात् तस्य 'इदमित्यमन्यथा वा इति परामद्वयात्वे सत्येवोपपतेः । सद्यात्मreate सम्भवे या त्रिकल्पेन कोsपराधः कृतो येन स एव स्वपरवेदनस्वभावद्वयारमा न १५ भवेदित्युपपन्नं ते बहिरर्थस्य वेदनम्, अन्यथा " तद्रलेन सन्तानान्तरस्याप्यव्यवस्थितेः ।
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ne यावन्तरस्यैव जादेर्विकल्प बेचत्वमनुमानादुच्यते तावदनर्थान्तरस्य कम्पन कथ्यते तदनुमानस्यापि भावात् ? तथा हि-जलादिस्तद्विकल्पादनर्थान्तरम्, तद्वेद्यस्थात्, तत्स्वरूपवति चेत्; न; सन्तानान्तरेण व्यभिचारात् तस्य तद्वत्वेऽपि तदर्थान्तरस्यात् । न च नैव तद्विकल्पानर्थान्स २० व्यभिचारिणो गमकश्वम् अन्यथानुपपतिवैकल्यात् । इदमेवाह - न पुनः या चितमेव न जडमिति चित्तमात्रं जलादि तस्मिन् साध्ये, न केवलं जडरूप इत्यपिशब्दः, एवोऽनन्तरोको नयः न्यायोऽन्यथानुपपत्तिरूपः समः सरशः तत्र तदभावात् ।
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ननु सन्तानान्तरस्य विकल्पो न तावत्प्रत्यक्षम् परचेतसां साक्षादप्रतिभासनात् । अनुमानमिति चेत्; न; लियाभावात् । व्याहारादेस्तु" न लिङ्गत्वम् गाढमूर्च्छावौ तदभावेऽपि भावात् । तद्विशेषस्य तत्त्वमित्यपि न युक्तम् असि साध्ये तस्यैव दुरखत्या | सिद्धे २५ तस्मिन् तदुद्धिरिति चेत्; न; परस्पराश्रयात् साध्यसिद्धया द्विशेषस्य तत्सिद्या च साध्यस्य व्यवस्थापनात् । तदेवाह-
१ प्यस्वसंवेभ, ब०, प०, ४०११-संवेदने आ०, ब० ए० स० । ३ - पतिरिति आ०, ब०, प०, स०४ न पर-आ०, ब०, प०, स० ५ "कथं पुनर्विकल्पैर्वग्रहणमित्यादिस्" या दि सन्दामान्तरस्य । ७ विचारकरणम् ८ इदमित्यर्थमन्य- २०, ४०, प०, स० १९ संशयस्य । १९ बिकल्पलेन | १२ २०१३ सन्तानान्तराविनाभाविनो व्याहार रादिविशेषस्य । १५ सन्तानान्तरे साध्ये |
१० विकल्पेन : १४ लिम् ।
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न्याययिनिश्मयविवरण अन्योन्य संश्रयानो चेत् [ सकिमज्ञानमेव तत् । इति ।
उक्तरूपात् परस्पराश्रयास नो चेत् न यदि सन्तानान्सरसतिरिति सम्बन्ध ननु अयमन्यत्रापि प्रसना-पानकादौ धूमादेरपि न सितापम् गोपालकलशादी तदभावेऽपि'
भास्वान् । तद्विशेषस्य तत्वमित्यपि न सुन्दरम् ; पावकाद्यसिद्धौ सस्यैवापरिज्ञानात् । तसिद्धौ' ५ परिझाने पूर्ववत्परस्पराश्रयात् । तद्विशेषस्य खसाध्यनियमलक्षणस्य धूमादिस्वरूपत्वात,
अपरिझातेऽपि पावादी भरत्येव परिज्ञानमित्यपि न शोभनम् : ज्यादारादिविशेषस्याप्येवं परि. हानप्रसङ्गादिति चेत् ; सस्यम; अस्तीदं समाधान सुबोधत्वात्, तत्र मजनिमीलनं कृत्वा समाधानान्सनिधित्सथा परं पृच्छन्नाइ-तारिकम्' इति । तत् तस्मात् सन्तानान्तरं ये
घेदित्यस्मात्, कि त सिद्धम् ? पर आइ 'अज्ञानमेव लस्' इति । तद्विकल्पस्यार्थकि१० काविषयत्वम् अज्ञानम् अप्रतिपत्तिकं सन्तानान्तरसावलियास्य ज्ञानस्य सलिङ्गाभावेऽसम्भवादिति भावः परस्य । तत्रोत्तरमाइ----
अद्वयं परचित्ताधिपतिप्रत्ययमेव वा ॥६९॥ ।
धीक्षते किं तमेवार्य विषमज्ञ इवान्यया । इति ।
मतामयाहारादिप्रतिपन्न व व्यभिचारोशावनस्य सत्रासम्भवात् । प्रतिपत्तिरपि न निर्षि१५ कल्पात् ततस्तस्यानिश्चयान् , अनिश्चित व व्यभिचारोद्भावनस्यासम्भवात् । नापि विकासात्;
तस्यायनुभयस्वभावत्वे तदसम्भवात् । तथा हि-तमेव प्रसिद्धमेव । कमेद ? परचित्ताधिपतिप्रत्ययं रचित सन्तानान्तरमानम् अधिपतिप्रत्ययो निमित्तकारणं यस्य सः परचिरह. विपतिप्रस्यको व्याहारादिः तसेच, 'असहायं न तव्यभिचारादिकम्' इत्येवकारार्थः, किम् । इत्याह-योक्षते प्रतिपद्यते किं नैव | 23 ? अयम् अनन्तरोसो विकल्पः । अस इत्याह'अयम्' इति । पत्रकारः प्रथमोऽत्र सम्बध्यते । द्वौ अवयको यस्य तवयं द्विरूप वस्तु तस्मा... दन्य अवयं तदेव यत इति, विकल्पविशेषणमपि अद्वयमिति नपुसंकमेव, परवलिनस्वातत्पु. सरस्थ । दिदसभिमिहितं भवति
स्वयकरवभावोऽयं विकल्पस्त्वन्मते स्थित व्याहारायः कथं वेन यहिरयस्य वीक्षणम् १५१ . ८३३ ॥ अवीक्षपणे कथं ठस्य व्यभिचारः प्रकल्प्यताम् । सन्तानान्तरसद्भावानानं तस्मान यदरेत् ॥८३४॥ तस्माद्धेतोरनेकान्ते विकल्पो दर्शयनयम् ।
मुक्तस्तद्विषयों न स्यादन्यथा दितिस्ततः ॥८३५॥ 1 पात्रकामावेऽपि । २ पापकाविनामानिनो धूमस्य । १ पक्कसिटौ। ४ स्किस्पेन : ५ ब्वाइरादा।। १ व्याहाशदिव्यभिधाररिसामम् ।
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१७०
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव सन्तानान्तरलिङ्गस्यासम्भधेऽपि ततः स्थितम् । विकल्पो बहिरर्थस्य वेदिवेत्युदितानयात् ।।८३६॥
उक्तसमर्थन दृष्टान्तमाह-विषम स्याटसप्रदेश जामातीति विषमज्ञः स' इव थद्वत् अयम् अन्यथा अन्येन समप्रकारेण । किम् ? बीक्षते । तद्वत्स्वरूपमात्रविषयोऽपि विकल्पो व्याहारादिकमपरम् । किम् ? चीक्षत इति । वाशब्दो क्तिकें । 'किम्' इत्यस्यानन्तरं ५ द्रष्टव्यः । प्रयोगश्चात्र-यस्मादन्यविपर्य न ववस्तस्य वीक्षणं यथा विषमज्ञानात् समभावस्य न्याहापदेरन्यविषयश्च विकल्पः स्वरूपमात्रगोचरत्वात् तन्मात्रस्य व्याहाराविभिन्नत्वान् । ततो न सैतस्तस्य व्यभिचारोद्धावनमुपपन्नम् तदुद्भाक्ने वा तस्य' बहिर्विषयत्वमसीकर्तव्यमिति भावः ।
ध्याहारादेव्यभिचायन्न ततः सन्तानान्वरप्रतिपत्ति; तवभावाच न तदलेनार्थक्रियाकार- १० विषयवपरिझानम् | विकल्पस्य किमिदानी तत्त्वं भवेत् यत्र भवतः स्थिरपनत्वम् । सर्यवस्तुनैरात्म्यं सर्वविकल्पातीतं सौकमात्र वति मेत् ; कुत्ते एतत् तस्यैव विचारसहस्वादिति चेत्, अत्राह-'अद्वयम्' इत्यादि । 'नों इत्यनुवर्तमान वासब्दयात् किमः परं द्रष्टव्यम् ।। किं वा नो वीक्षते ? किन्तु वीक्षत एवं । कः ? अयम् अतादिविधारः । कम् ? तमेव प्रसिद्धमेन । कोदशम् ? अन्यथैव इति । प्रथमस्यैवकारस्थात्र सम्बन्धः । 'भूतम्' १५ इत्यध्याहारश्च कर्तव्यः । तदयमर्थ :-- अन्यथैव परपरिकल्पितादद्वैतादिप्रकारादन्येनैव प्रकारेण भूतमिति । हे किरूयं पाते ? अद्वपम् उपलक्षममिदम्, तेन शून्यममाति । दृष्टान्तमाह'विषमज्ञ इव 'इति । यदम्यथाभूतमेधाज्ञो जनो विषं वीक्षत इति | कुतः युनरेवन्वैसमेवार तम् अशून्यमेव शून्यं तद्विवारो धीक्षने' वैतादेवाविद्यमानत्वात् अविधमानस्य साम्यथा वीक्षणायोगादिति चेत् । न तस्य प्रमाणविषयतया विद्यमानत्वात् । तदाह --'परचि. शाधिप्रतिप्रत्ययम्' इति । परं प्रकृष्टमविरलिवस्येन चिरं झानं यस्य सः परचितः निर्शधपतिरतिक इत्यर्थः । अधिपत्यतेऽधिगम्यतेऽनयेत्यधिपतिः अधिगतिस्तस्याः प्रत्ययो विश्वासः संवादो यस्मिन्नसौ अधिपतिपस्ययः संवादिज्ञानविषय इत्यर्थः । परचित्तबासायधिपतिप्रत्ययश्चेति परचित्ताधिपतिप्रत्ययः तमिति । परचित्तपदेन *स्वप्रसिद्ध अधिपतिप्रत्ययपदेन "परप्रसिद्धचा द्वैतादेर्विधमानस्वमात्रदयति । तथा हि
अस्सल प्रतिमासं यत् ज्ञान संवादवस्था ।
द्वैवादि तस्य संवेद्य विद्यमानं कथं न वन् ! ॥८३७|| तसो नाहतादेविधायदवस्थापनम् , आत्मादिविचारपतद्विचारस्थापि" विपर्यासरूप.
९.पराच.३०
व द्वषम-मा०,०,१०,११ व्यवहारदे बाब०,०, स..३ म्याहारादेः। “विक स्पस्य । ५ विकल्पस्य । ती सस्वर भक्तः स्थितप्र-आ०,२०,०1. ६९ लोकतः । ८ किया। ९ ते तदद्वैता-आ., 40, 11 जैन सोमत ११ भात्मशन्देनात्र वेदान्तिभिरभ्युएफ' मा मालम aracetवैतषियरस्यापि ।
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३३६ म्यायविनिश्चयायवरणे
[ Ast स्वेन विशेषाभावारिति निरूपितवान् । विशेषे या तद्वत् वाहविकल्पस्यापि स्वप्नविकस्पाचदुपपत्ती नार्थक्रियाकारविषयत्वं तस्य में स्मात् 1 से विचार विकल्पैरप्य सादेब्रहणं येनार्य दोषः । न पैसावता वैफल्यमेव तैपाम् ; समारोपण्यवच्छेदेन फलेन फलबत्त्यान् । वदेवाह
समारोपव्यवच्छेदः साध्यश्चेत्सविकल्पकः ॥ ७० ॥ इति । ५ सुबोधमेतत् । अत्रोत्तरमाह
नैषापि कल्पना साम्याहोषाणामनिवृत्तितः । इति । एषापि अनन्तरापि कल्पना न । कुत एकत् ! साम्यात् पूर्वन्यायस्थात्रापि सहशत्वात्।। तथा हि-यथा है: स्त्रांशमात्राम्बाभन ताः पारदस्तथा तव्यवच्छेवोऽपि । न अपरि
झाते तस्मिन् सन्ददविपरीतारोपभिवर्तनम् । परिज्ञात पर मरीचिकादौ तद्गतजलाधारोपनिवर्तन १० स्योपलम्भात्। हेत्वन्तरमाह-पोषाणाम् अनुक्तानामपि सानो साम्यात् इसनेन गस्तत्वात अनिवृत्तितो निवर्तनाभावात् । तथा हि
कोऽयं समायेपस्य व्ययच्छेदो नाम ? "सत्वज्ञापनमिति चेत् ; कि "तस्य तस्वम् १. असस्मिम् “तहत्वमिति चेत् न ; तस्य तस्वसंधेदमादेव. परिज्ञानात् । सस्य निर्विक
स्पत्वासदपरिजातमेवेति चेत् ; ना अज्ञाताविषयतया . विकल्पानां प्रमाण्यप्रसङ्गात् ।। १५ सेऽपि तत्र समारोपमेव व्यवच्छिन्दन्ति न "तत्त्वं प्रतिपद्यन्त इति चेत् ;न; तत्रापि 'कोऽयम् । इत्यायनुबन्धादयवस्थापन । सन्म तत्त्वज्ञापनं तब्यवच्छेदः ।
चन्नान इति चेत् ; कस्तदनाशे दोषः ? तत्त्वज्ञान प्रतिबन्ध इति चेत् ; कुत "एतत्? तस्य विभ्रमत्यादिति चेन्न स्वतस्तस्परिज्ञाने तदनुपरत्त। न हि गुद्दे विषज्ञान। विभ्रमरूपतया प्रतिपन्नमेष गुडतत्त्वपरिणाम "प्रविधन्धुम (बद्ध) हैसि । स्वतस्तत्परिज्ञानम्परि२० शानमेव निर्विकल्पत्वादिति चेत् ; कथमिदानीं तस्य तत्वज्ञान प्रतिबन्धित्वम् अनुपदर्शित
"स्वरूपस्य तदसम्भवादतिप्रसनात् । कथं वा तनाशाय विकल्पान्वेषणम् ! अशाते वस्मिन तदनुपरचम च "विकरूपात्तन्नाशः तस्याऽहेतुकत्वेनाभ्युगमात् । तन्नाशोऽपि न तव्यवच्छेदः।
सयुत्पत्तिप्रतिबन्ध इति चेत ; करतदप्रतिबन्धे दोषः ? तत्त्वज्ञान्यतिबन्ध इसि येत् । १५२ । उक्तरेत्तरत्वात् । कथं वा सति समर्थकारणे "तत्प्रतिपन्धः कुतश्चिन् ? असगर्थे तुम
पनि
स
लदास्यविमा०,५०, १०, -लै सस्यान्यान्यथिया-भा, ३०,०। 'म इति निरर्थक भाति । ४ विकल्यामाम् । ५ नेवा विमा०,०,५०६-पिकल्प आर, ब... सिमानामा बिभिई-मा०, २०, प014-मात्रचिल-ar1-वादित्यनुति- २००11. "समारोप"---
मारोपस्य । १२ हणमि-6, 2०.५.१ १३ पैसस्य आर, ०, ५०० स्वेद. नस्य । १५ मा मनम्। १६ समारोफ्नाशः। 1. तत्सल्य मा-य०प०।१८ प्रतिबग्धमहा0,40, प. सभावस्य मा०, २०, २०२० समारोपे । २: विकल्पस्थास्तमा-मा.प.1 २२ नाशस्य । २३ तत् तस्मात् कारणात् माशोऽपि । २५-वि तथ-मा., २०५०।१५ तत्वज्ञान प्रतिबन्धः ।
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१७२]
प्रथमः प्रत्यक्षपस्तावः किविधविकल्पैवसिद्धस्वात् 'तस्पसियन्धस्य। कारणस्यैव सामर्थ्य तै' प्रतिरुध्यत इति चेत् । न ; असतः प्रतिरोधासम्भवात् । स्वहेतुबलोपनीतत्वेन सत एवेति चेत् । न ; तस्याप्युत्पत्स्यवस्थायां सयोग्यत , अन्यथा सदुत्पतेरेव प्रतिरोधप्रसङ्गात् । न चेदमुचितम् , सति 'समय कारणे तत्प्रतिरोधस्याप्यनुपपतेः। तत्रापि कारणस्यैव सामर्थ्य सेः प्रतिरुध्यत इति खेत । न ; 'अमतः' इत्याचानुबन्धादव्यवस्थानुषकाच्च । पश्चासत्प्रतिरोध इति चेन् ; म; ५ सदा तस्य स्वयमेव नाशात् , विकल्पाना मृतमारणत्वापत्तेः । समर्थमपि फारणं विकल्पाभाये सत्येव समारोपमुपजनयति न पुस्तकाने तादृशस्वात्तसामर्थ्यस्येति चेत् ; मैयम् , नित्यस्याप्यनिषेधप्रसलान् । सदपि हि सत्येव सहकारिणि कार्यकारिन तदभाव छरपि साहशत्वात् , सहकारिणा पदनुएकारस्यान्यत्रापि समानत्वात् । ततो नै "तैरतयुत्पतिप्रतिबन्धः।
स्शन्मतिरेषा भवतः-विकल्पसहायः 'समारोपक्षणस्तदुत्तरक्षमसमर्थं जनयति सोऽस्यसमर्थतरमसमर्थतमं च सोऽपि, ततश्च कार्यानुत्पत्तिरिस्येवं प्रकारः, "तैस्तदुत्पतिप्रतिबन्ध इति ; साऽपि न ज्यायसी ; यस्मातक्षणस्य समस्यैयोत्तरक्षणस्य जनने यदि शक्तिः कथं 'विकल्पसाहाय्येऽपि "अन्यथा सज्जननम् ?'अथरसभर्धत्त्यैव ; तथापि किं विकल्पै. स्तत" एव सदुपसे: ? कय श तदन्यक्षणस्य वस्तुत्वम् , सजातीयमतन्वतस्तदयोगात् । १५ विजातीयतननादिति" पेत् । न ; अशको तस्याप्ययोगान् । शताविति चत् ; न ; सजातो. यस्यापि समसङ्गात् । भाशक्तिरेय "तसि येत् ; न; शक्ताशक्कतया "तदापते । विजातीयसनने "शक्तिरेवेतरवाशक्तिरिति चेत् ; न ; "इतरस्यापि विषयः तन्न प्रसङ्गात् (इसरस्यादि तननासङ्गात्) अशक्तिरिति "शक्तरेवाभिधानात् । भवत्यपि शक्तिस्तन्न तनोतीति चेत् ; विजा. तीयमपि न सनुयात् अविशेषात् इत्यवस्तुरखमेव 'तस्य । भवत्विति चेन् ; कथं तस्य कुतश्चिदु- २० पतिः अवस्तुनस्तद्योगान व्योमारविन्दवदिवि ! ततोरप्यवस्तुरबमजनमत्थात् , एवं तद्धेतोरपीलि सर्वस्यापि तत्सम्यस्यावस्तुत्वमापत्सिवम् । ततः समारोपस्यैवाभावान तम्यवच्छेदेनापि विकल्पानां साफल्यमतो वस्तुविषयत्वेनैव तदुपतिः ।
एवं विकल्पानामर्थक्रियाकारविषयस्यव्यवस्थापनेत बहिरर्थस्वस्थाप्य प्रकारान्तरे. गापि समवस्थापयलाह
नहि जातु विषज्ञानं मरणं प्रति धावति ॥७१।। असंश्चेद्वहिरर्थात्मा प्रसिद्धोऽप्रतिषेषकः । इति ।
। तत्वज्ञान प्रतिबन्भस्य । ३ विकल्पः। ३ प्रतिरोभायोगात् । ॐ समर्थका- म०,५०। ५ वत- । विकल्पैः। ६. समायसव-०,००।- विकल्पैः। 4 समारोपणस्य । ९ विकल्पसाहाय्यस्यान्य-आ, ... भार्यक्ष ननम् । ११ अासामर्श्वस्यै-00,40,401 १२ तत एवंद्ध-का-१०,१०१ असमर्यसमारोपणादेर । १३ यतानमः-०,०, २० । १४ सजातीयोत्पती १५ समारोपक्ष भेदा स्थात् । ५ सयातीयेऽशक्ति: १७ प्रजातीयस्यापि । १८ शक्तिरेक-
माप०१९ मारीपक्षणस्य ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे नहि नैव जातु कदाचिदपि विषज्ञानं विधाकारं वेदनं मरणं प्रति धावति कारणत्येनोपसर्पति सर्वस्यापि तज्ज्ञानक्तो मरणप्रसङ्गात् । न चैवम् , नियतस्वैव सहर्शनान् ।। न रूपमात्रविधज्ञान येनायं प्रसङ्गः किन्तु रसविशेषज्ञानमेव । न चेदं सर्वस्यास्ति ; 'यस्य । त्वस्ति तस्य भवत्येव मरणमिति चेत् ; कुतोऽस्यास्तिस्थम् ? तद्वासनात इति येस् । ५ तस्या अपि सर्वत्र भावात् । तत्प्रबोधादिति चेत् ; न ; 'तस्यापि स्वरसतो भाये नियमा योगान् । अन्यतः प्रबोधकादिति चेन् । सदपि यदि बासनान्तरम् , स एव प्रसङ्गः, वस्यापि । सर्वत्र भावात् । तत्प्रबोधस्यापि तदन्तरापेक्षायाम् अनवस्थादोषात् । ततो न विहानास्मरणमिति सूक्तम्-'म हि' इत्यादि।
कदैतत् ? इत्याह-असन् अविद्यमानः चेत् यदि बहिरात्मा बहिरर्यस्वभावो १. विपाल्य इति शेषः । सति तु पहिरात्मनि विषतदास्वादनादेर्भवति मरणमिति । यावत् । तदयं प्रयोगः-पहिरयरूपमेव विषं तवो मरणस्यान्यथानुपपत्तेः।
कुता पुनर्षियान्मरणमिति परिझानम्" ! म चावविषज्ञानात् । तस्य "मरणे । माहीम हिदानी नियमानं सत्र प्रवृत्तिमदुश्पमम् । नापि मरणज्ञानात् । तस्यापि
प्रागसतो विषविषयत्वानुषपः । न चोभक्तमयव्यापकमेकज्ञान" सम्भवति । तस्यापि स्वतः १५ पूर्वसमयव्यापिना रूपेणोत्तरसमयस्यापिम देन च पूर्वसमयव्यापिनः परिझानाभावे रूपयाविधानतया दुरवगमत्वात् । "अन्यबस्तदवगम इति चेत् ;न; सत्राप्येकसमये समयावधि च पूर्वपदोधात् । पुनसादन्यपरिकल्पनायाम् अनवस्थानात् । न च विधमरणयोरपरिक्षाने" सुपरि. योधस्तगतरे हेतुस्लमाः, इत्यसिद्धमेवत्-विषान्मरणम्' इति यदन्यथानुपपत्या बहिरर्थविष
साधनसिति चेत् ; अग्राह-प्रसिद्धः प्रमाणनिश्चितो बहिरात्मा । कीदृशः' इत्यपेक्षायां । २० 'मरणं प्रति धावन्' इति प्रत्ययपरिणामेन सम्बन्धः । तत्र हेतुः-अपतिषेधकः । विद्यते प्रतिषेधको यस्येत्यप्रतिपक्षको चतस्ततः प्रसिद्ध इति । यदप्रतिषेधर्फ तत्प्रसिद्धं यथा । परस्थ संविदद्वैतम् , अप्रतिषेधकच यहिरात्मा उक्तविशेषण इति ।
मनु यथा सस्य न प्रविषेधकं तथा ने साधकमपि ततः साधक-बाधकप्रमाणाभावास्सन्देह एव । न च सन्दिग्धस्य प्रसिद्धत्वमिति चेन् ; अत्राह
सन्देहलक्षणाभावान्मोहश्चेद्यषसायकृत् ॥७२॥ "बाधकासिद्धेः "स्पष्टभात्कथमेष विनिश्चयः । इति ।
1-चिदि-मा .प. २ विश्वशनम् । ३ गस्यास्ति आन्, १०, १.१४ वासनाप्रोषस्य । नासनातरापेक्षायाम् । ६ विशामा ,... . इति तु शेष: बा.,.,4.10 -मि विशेष-मा4०,०। ९ सौगतः प्राह ।।.-नाम मा २०,० "मरणमा-मा०,०प०. 12-मेव शानम्। आ-, ०,१० १३ उत्तरसमयव्यापिना रूपेण १४ अम्यज्ञानाद 'विकान्मरणम्' इति ज्ञानम् । १५." हासपचममेतत्'-दा- टि। १६ “पमं लघु सर्वत्र' इति नियमस्यामायादेवप्रयोकः । स्वामिनिसरि देशामक स्तोतया प्रयुक्तम् । भवाचवकासेऽयुक्तिविति ।"-सरि। १७ स्पाभावान मारमा, ५01
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१७३] प्रथमः प्रत्यक्षपस्ताना
३३९ सन्देहेन लक्षणं सन्देहलक्षणं यथोक्तस्य बहिरात्मनः तस्याभावात् , निश्चये. नैव तलक्षणस्य भावात प्रसिद्ध इदि ।
विषरूपे हि 'शहार्थे मरणं प्रति पावति । सन्देहो नास्ति लोकस्य निश्चयस्यैव दर्शनात् ॥८३८॥ अस्त्ययं निश्चयः किन्नु प्रमाणान्नैव साधकान्त। उक्तनीरया प्रमाणस्य सामावनिरूपणात् ।।८३९॥ अनादिवासनोल्लासरूपाम्यामोष्टतः परम् ।
ईशो निश्चयः पुंसां न्यायाधातक्रियाक्षमः ॥८४०॥ सदाह'-'मोइश्चेद्यवसायकृत्' इति । तत्रोत्तरम् 'बाघकासिद्ध इति । वक्ष्यमाणमत्र 'कथम्' इति सम्बन्धनीयम् । पाधकम् उत्तविषयस्य प्रमाणस्य निषेधकम् , तस्यासिद्धेः १० कारणात् । कथम् ? म कथञ्चित् , मोहो व्यवसायकृत् इति ।
प्रमाणस्य निषेपश्यद्विषतकार्यवेदिनः । कुतश्विनिश्चयस्तारक व्यामोहादिति युक्तिमत् ॥८४१॥ न वर्ष बाधकस्यैवाप्रसिद्धर्ननु चोदितः । विचारो बाधक चेत् प्राक् कुवस्तस्यापि सम्भकः १८४२॥ व्यामोहाच कथं तेन तमिवेधस्य साधनम् । निश्चयादपि तादृक्षावुकसिद्धिप्रसन्जनात् ॥८४३॥ प्रत्यक्षाकचेन तत्रैवं परामटेरसम्भवात् । विकल्पास्मा परामृष्टिनादिकल्पे हि युज्यते ॥ ८४४स
ववाद-स्पष्टाभात् प्रत्यक्षात् । कथम् ? न कथञ्चित् । एष पूर्वोको विधारात्मा निश्चय २० इति।
यदि घ विषप्रत्याशमेवात्मनो मरणे तत्प्रत्यक्षमेव पा विधे प्रवृत्त्यभायं पराशति सद्भावमेन किन्न परामृशति विशेषाभावात् । तदेवाह
'विपर्यासोऽपि किन्नेष्टा आत्मनि प्रान्त्यसिद्धिता ।।७३१॥ इति ।
कथं पुनरतद्विषयस्य तत्परामर्शित्वमिति चेत् १ कथमतद्विषयत्वम् ? अतत्का- २५ लत्यादिति चेत् ;न; तत्कालेऽपि तस्य कथञ्चिदन्वयात् अन्यस्यापि प्रतिपतेः ! वक्ष्यति चैतत्-- 'भेवज्ञानात्' इत्यादिन।
भ्रान्तिरेव तत्प्रतिरतिरिति चेन ; न ; बाधकाभारात् । न मेरज्ञानं बाधकम् । तस्यैवात्यन्तमेदविषयस्याप्रतिभासनात् । कथविद्वेदविषयस्य तु न बाधकत्वम् । अविरोधात् ।
बाहोऽर्थे प्रा०, २०, ५०१२ तथ्यह मा०, २०,०३-कल्पो हि भाग ०.१४ माण. प्रत्यक्षमेर ५ "हि"-als टिक।
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३४०
म्यायविनिश्चयविवरण तदेवाह- आत्मनि भ्रान्त्यसिद्धितः' इति | झामानामन्वय आरमा पत्र प्रान्तेरसिद्वितो निधिप्रतिपत्तरेव सिवितो विपर्यासोऽपि किन्नेष्ट इति । अवश्यौतदेवमभ्युपगग्तव्यम् , अन्यथा तत्र प्रवृत्तेरिव सदभावत्याप्यपरामर्शप्रसङ्गात् । न हातद्विषय सत्रात्मनः प्रवृस्यभान पराम्रष्टुमर्हसि । मा भूदुभयथापि परामर्शः तदुपायस्यान्वयस्यैव दुरवयो५ धत्वादिति चेत् । कस्येदानी सुखादयोधरवम् ?, अवयवेदनस्यैक, "खरूपस्य खतो गतेः
प्रचा. ११६] इति यत् । न ; तस्यापि यथाकल्पनमप्रतिमासनात् । न हि यथा सत् परे । परिकल्पते उपजितसलदारू पाजारसमा. या त धिमासनमस्ति, प्रासादिभेदकल्पनाकलुषीकृतवपुष एव प्रलवलोकनात् । अन्य तत्कल्पनेति चेत् ; न ; अद्वैसक्षतेः,
अन्यत्वस्थानवलोकनाच । विघ्नमस्तदनवलोकनमिति चेत् । कस्य विभ्रमः १ तत्कल्पनाया १० पवेति चेत् । यदि समस्या विभ्रमः किमद्वैतस्यागतं यतस्तम यथापरिकल्पनमेक आत्मान नोपदर्शयति ?
उन्मत्तो यदि नामैको लोष्टं पश्यति हेमवत् । अनुन्मत्तोऽपि लोकः किं तया सत्प्रतिवीक्षते ! ॥८४५।। यथाकल्पसमस्त्येव स्वतस्तस्योपदर्शनम् । बलिना तनिकस्पेन आचान्निश्चीयतेने चेत: ॥८४६॥ दर्शनानिर्विवादं चेत् का दोषणे निश्चयारते । निर्विवाद ततश्चेन्न तद्दष्टं यः स्वतः कथम् ॥८४७।। तदेव तेन सृष्टं यत् विषादायनमुच्यते । सधिवादच दृष्टं चेत्येवनातिप्रसन्जनात ।।८४८॥ तत्कल्पनायान प्रान्तिरतस्यैव सद्यतः । निर्भवं भेदयत्वेन स्वरूप पश्यतीति चेत् ॥८४९॥ सर्व तत्स्वरूपस्य स्वतो इष्टविलोपनात् । विभ्रमस्तत्ववित्तिश्च तत इत्यतिसाहसम् ।।८५०॥ भेद एव भ्रमस्तस्य चिदादौ नारमनीति चेत् । विभ्रमेतररूपं तदेकं संवेदनं कयाम् ।।८५१॥ सथैव प्रतिमासाश्वेदेतदेवाह सांगतः
अद्वयं द्वयनि समास्मन्यप्ययभासते । इति ।
संवेदनं स्खलु अद्वयम् अभिन्नम् । कीदृशमपि ? यनि समपि विभ्रमेसभयाकारमपि । अपिशब्दस्य भिन्नकमत्वात् । तस्य तानत्वं कस्मिन् ? आत्मनि
--- --- - हिप-at०,०, प० । २ दुर्बोध--80०-1 अबवेदनम् । १-कलकरमा-मा ३०, प० ।५ कल्पमायाः । ६ न चित् भार, ०२० पर्शनात् । विभादोऽनेन मु-प-। विधावामरमु-०, ब.. ९ सत्वन्धर्व आग, २०, ५०
२०
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३४९
स्वरूपे । तादृशमपि सदद्वयं कुत इति चने ? अवभालने थत इति । न हि प्रतिभासमानभन्यथाकल्पनमति, अतिप्रसङ्गादित्यवर्मनमानेकान्ते परेण निरूपिसे सत्याह
हसरत्र विरोधः क एक एक स्वहेतुतः 11७४॥
तथा स्वपरात्मानौ सदसन्ती समश्नुते । इति ।
इतरत्र क्रमानेकान्ते, कर न कचिद् विरोधः । कदाभिदि समझनुरे सम्यक् । बुद्धयन्तरपरिहारेणानुने क्यानोति । कः ? एक एव बोधारमा न हो। फौ ? सदसनमा सन् वर्तमानो विषमाही पर्याया, असन् अनागतो मरणाही सौ ! कोरशों ? खपरात्मानौ स्वात्मानौ स्वस्वभावी कथञ्चित्तयोस्तस्मादव्यतिरेकान् , परात्मानौ ? कथचिद्विपर्ययात् । कुल पुनरिस्थम्भाव इत्याह-स्वहेतुतः स्वकारणादिति ।
अपरापरपर्यायव्यापी बोधः स्वहेतुतः । तादशादुपजातो यन्न विरोधेन दुण्यति ।।८५२॥ तम्रोपपत्तिमाह-'तथा' इति । सेने प्रतिभासनप्रकारेणेति । तथा हि- . बैंक एव बोधात्मा विप्रमाविभ्रमात्मकः । निर्बाधप्रतिभासत्याधुमपत्परिकल्प्यते ॥८५३॥ कमेणापि तथा किन्न परापर विवर्तमः ।
बोधारमैक; प्रकल्प्येत निर्भासादनुपपुवात् ॥८५४॥ नविनमा संवेदनस्य स्वभाव सद्विवेकस्यैव तलवभावत्वात् । न चैतावता तत्र निर्विवाद तद्विरकस्य "सतोऽप्याबोधिमार्गमनकभासमास , सतनादिस्वभावतयैव तस्य प्रत्यक्लोकनात् । तन्न विभ्रमेसरकारसयोभयाकार संवेदनं यत्तत्वष्टम्भेन क्रमानेकान्तव्यवस्थापन मिति घेत् १ अत्राई
तत्प्रत्यक्षपरीक्षाक्षक्षममास्मसमात्मनो ॥७॥
तथा हेतुसमुद्भूतमेकं किन्नोपगम्यते । इति ।
तत् संवेदनम् उपगम्यते सौगतैः । कीदृशम् ? प्रत्यक्षः सदादि परोक्षो विभ्रमविवेकस्तयोः अक्षणं व्यापनम् अक्षःसं क्षमत इति क्षमतदात्मकम् । पुनरपि तद्विशेषणम् आत्मानम् सजातीवाद्विजातीयाच्च स्यति व्यावयिनि इति आत्मसम् , निरंशक्ष- २५ णिस्पमिति । तस्योपगमने किम् ? इत्याइ-'एकम्' इत्यादि । 'त' इत्यनुवर्तनीयम् ।। सत् संवेदनं किन्नोपगम्यते उगम्यान एक । कीदृशम् ? एकमभिन्नम् । कयो ? मात्मनोः क्रमस्वभाक्यो । अक्रमस्वभावयोः एकस्य परेयोपगमात् । कुतस्तसारमा ! '
प्रम-आग, 4०, ५० । २ तेन मा., ०, ५०, ३ यत्रैक मा । विनमविवेकस्यैव । ५सतोऽप्यचारिमाया , ५०।६-ते सौ-4000,५०। -योकस्य परे-40:०,१०।
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३४२ न्यायविनिश्चयविवरण
{१७६ इत्याह-माथा तेन तादात्मना तो कारणम् सुपर म यत इति । ३३मत्र तात्पर्यम्
अनेकान्तभयाज्ञान विभ्रमाविमास्मकम् । मुदतोऽवपरित्याज्यं तत्प्रत्यक्षेतरात्मकम् ।।८५५॥ विरुद्धधर्माध्यासेऽपि कथञ्चित्यया मतम् । एक सहरकमेणापि किमेकं मोगभ्यसे ॥५६॥ दृष्टान्तः प्राच्य एवान्यो' नेति नास्माकमाप्रहः । फलं हि केनाप्यस्माकमुपायेनाभिवान्छितम् ॥८५७॥ यदि प्राच्या प्रसिद्धस्ते तेन नः साध्यनिश्चयः । परभेद्भवतः सिद्धस्तेन न साध्यनिश्चयः ॥८५८६॥ न च तद्विरुयत्यागे निर्विवाद मतान्तरम् ।
यत्र ते भवति प्रज्ञाऽनेकान्तर्भयवर्जिता ॥८५९॥ इति ।
वर्तम्मनपर्यायानभेटे पूर्वापरयोः ; तयोरपि वर्तमानत्वमेव सैदभेदात् वत्स्वरूपवविति चन्मानमेवावशिष्यते, सस्य चानभ्युपगमात् कथन नैरात्म्यवाद ? कथं वा तत्पत्यत्वे तैयो१५ रपि न प्रत्यक्ष यतस्तत्र प्रमाप्मान्तरप्रवृत्तिः फलवती भवेत् । तथापि तत्परोक्षत्वे न सन्तान.
भेदा सन्तानान्वराणामपि तदनन्तराणामेव 'तद्वन् परोक्षत्वोपपत्तेरिति कयौकात्मवाद इति चेन् ? अत्राह
सवैकत्वमसङ्गादियोपोऽप्येष समो न किम् ॥७६|| इति ।
सर्वेषां पूर्वापरपर्यायाणाम् एकत्वं वर्तमानादभेदस्तस्य स स आविर्यस्य १. नैराम्यवादसम्मानमेवाभावादेः स चासो दोषश्च न केवलमन्य एष वयोच्यमानः समः सहशो न किं सम एव भवेत् । 'संवेदनेऽपि' इति शेषः ।
तथा हि
अभ्रमादमिनः स्गत् भ्रमः सोऽयमो भवेत् । प्रमाभावे कथं सूक्तं 'भासं मोहनियर्शनम् ॥८६०॥ भ्रमादृष्यभ्रमाभेदे भ्रम एवावशिष्यते । अविभ्रमव्यपोहे र कुतः किमवगम्यताम् १ १८६११) अध्यक्षादपि सरमादेर्याहाकारच्यत्रो यदि । अभिन्नोऽभ्यक्ष एसयमपि तत्त्वात्तदात्मवत् ।।८६२॥
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एक प्रत्यक्षतरमकमिति । २. कान्त भय-आ०,०प० । ३ वर्तमानादात वर्तमानस्वरूप ।। १ कर्तमानमात्रमेव । ५ बर्तयामप्रत्यारवे । ६ पूर्वापरयोः। . प्रत्यक्षवेऽपि। ८ त --4100,.. ९ पूर्वापरकन् । .. .पा.१।
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१९७८ }
प्रथम प्रत्यास्ताचा
अध्यक्ष के वाद्याकारयतिः कथम् ११
अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मेत्यादि सूक्तं यतो भवेत् ॥ ८६३॥ परोक्षाचद्विवेकाच सत्त्वादेरप्यभेदिनः ।
परोक्ष एव स्वात्स्वरूपदासा ॥ ८६४ ॥ चैतन्यगन्धस्याप्यभावस्तस्व चाश्रये ।
सियाचिन्मात्रस्यापि लोपनात् ॥ ८६५ ॥ नायं प्रसङ्ग estarभेदत्वाभावतो यदि । अयमेव परत्रापि समाधिः किन मृष्यते १ १८६६ स कथचिदेवाभेदोऽयं पूर्वापरविवर्त्तयोः । वर्तमानात लोकस्तथैव परिपश्यति ॥ ८६७ ॥
कोटष्टिमनात्यन्तरकल्पनम् ।
तद्वन्ध्यावसौन्दर्यकल्पनैकोदरोद्भवम् ॥ ८६८||
अनुभवास्वादं स्वबुद्धिपरिकल्पितम् । art aratefaces किन कस्येह सिद्ध्यति १ ॥८६९ ॥
तस्मालोकरशा मानं तथा न स्वपरं जगत् । सर्व वरात्मैवासार्येण प्रतीयते ॥ ८७० ||
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भेदाभेदव्यवस्थेषं प्रतीता लोकचक्षुषः । इति ।
सुबोधम् । ततो यस्तम्- 'कुतो विधान्मरणमिति परिज्ञानम् ? न तावद्विज्ञानाभू' इत्यादि सस्प्रतिविहितम् विधज्ञानस्यैव कथञ्चिन्मरणमाहितया परिवर्तनात्, तेनैव विषमरणयोर्हेतुफलभास्यापि सुबोधत्वात् । ततः सूक्तम्-- 'ह्यमेव विषं हतो मरणान्यथानुपपत्तेः' इति ।
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.
विज्ञप्तिर्विताकारा यदि वस्तु न किश्चन ॥७७॥ भासते केवलं नो चेत्सिद्धान्तविषमग्रहः । इति ।
१०
१००२९३५४ + २ भैवतः आ, म० ए० १ तलवेदम्यगन्ध-० ० ०1१ "सर्वविश्रमवादी प्राह" - सा० डि. योग
-लक्ष्य भाय-आ-६००
आ०, ६०, १०।
१५
चनात्मक वस्तु यतः 'सम्भवक्रमाभ्यामनेकान्तात्मनो बहिर्भावहेतुफलभावादेः परिज्ञानम्, वत्परिज्ञानोपायाभावात् । "विद्यति: स्वसंवेदनात्मिका तदुपाय इति चेत्; न; तस्या महिरिवान्तरपि विभ्रमत्वात् । न हि विभ्रमाद्वस्तुपरिज्ञानम् अतिप्रसङ्गादिति चेत् २५ एतदेवाशक्य परिहरन्नाह
२०
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न्यायविनिश्चयविधरणे
[१६७ विज्ञप्सिर्बुद्धिः वितथोऽसत्य आकार: प्रतिभासो यस्यां सा वितथाकारा । ततः किम् । वस्तु कार्यक्षम किश्चन चेतनमवेतन पान भासने न प्रतिभासते न सम्या. वगतिसपसपैति, तस्या एवाभावान् यदि चेत् ; अनोत्तरम् केवल प्रमाणसहायरहितं विज्ञप्तितियाफारेति , ततधासिसम् ।।
महि प्रमाणसम्बग्घशन्यस्यास्तित्वनिर्णयः ।
बुद्धेरविभ्रमस्यैव विभ्रमस्योपपद्यते ।। ८७१।। कैयैतत् ? केवलं नो वेत् च यदि सिद्धान्त एव विश्मो दुष्परिहरो ग्रहः सिद्धान्त. विषमग्रहः, तदा तत्केवलम् , यदा तु स विद्यते न तदा तेहस्यैव "भिक्षयोहमापि
मायोपः" [ ] इत्यादेस्तन्त्र प्रमाध्यत्वात् । भवतु लत एक निर्णय इति चेत; १. २ ; silsनि विमरूपास्दयोगात् अन्यया तादृशादेव प्रतिसिद्धान्तादपि तद्विषयस्य तस्मसङ्गात् । सदेवाह
अनादिनिधनं तश्चमलमेकपलं परैः ।।७८३
सम्पीतिपरितापादिभेदात्तरिक द्वयात्मकम् । इति ।
तस्वं ब्रह्मरूपम् , अलं समर्थ पुरुषार्थाय "तरति शोकमात्मवित्" छान्यो ९५ ॥१॥३] इत्यादिना तवेदनस्य शोकनिरस्तर(निस्तर)कारणतया श्रवणात् । कोदृशम् ?
अनादिनिधनम् अविधमानपूर्षापरपर्यवसानम् । “तदेतत् प्रक्षापूर्वमनपरमनन्तस्मशाधम्" [हला० ।५।१९] इति वचनात् । एकम् असहायम् "एक एवण्यपद्वितीयः" [मा० २।४] इति श्रुतेः अलं पर्याप्त परैः पहिरन्तश्च भेदैः । श्रूयत एव केवलं तादृशं तत्त्वं न कदाचिदपि
प्रत्यवभासत इति चेत् ;न ; विभ्रममात्रेऽपि समानस्वासू , तत्प्रतिभासनस्यापि निरूपितत्त्रात्। २० प्रत्युत प्रतिभासत एव प्रयसत्त्वं सकलभेदानुयायिनः प्रतिभालमात्रस्योपलम्भात् , तस्यैव च
प्रात्येन तद्वादिभियावर्णनात् ! कथं तदद्वितीय भेदस्यापि प्रतिभासमात् । सति तस्मिन् तूयरूपवाया एकोपपत्तेः ? तदाह-तत् अद्वयं किम् ? नैवे, किं तर्हि स्यात् ? दूयात्मकम् उभयरूपं तत्त्वं भवेत् । कुतः १ इत्याह सम्प्रीतिः सुखं परितापो दुः तावादी येषां भयशोक
नीलधवलादीनां तेषां सम्पीसिपरितापादीनां भेदात् नानात्वात् , तस्य अद्वयतस्थे अस्य२५ तमसम्भवादिति भावः ।
एवं पाततिकायां प्रतिविधानमाह
माशमाहकक्झाम्निस्तत्र किनानुषप्रयते ॥७९॥ इति । तत्र तेषु सम्प्रीत्यादिषु भ्रान्तिर्मिध्यावभासनं किं कस्माद् मानुषज्यते न सन्यते
SitSUPER
१ तदेतत् ॥०, प., प० । २ दुष्पनिहारी भा०, ५०, प० । ३ निर्णयप्रमशात् । ५ मा०,०,५०,०।६ अद्भयत्ये मा.,० ० ।
गस्वैव मा.
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१६८०) प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावा
३४५ प्रसन्यत एवेति । निदर्शनमाह-ग्राह्यग्राहकयोः नीलसद्वादयोः इव तद्वदिति । हेतुरन 'भेदत्वात्' इत्ययगम्यते दृष्टान्ते तस्वैव भ्रान्स्यनुषचनेन व्यामिपरिज्ञानात् । तदर्य प्रयोगःसम्प्रीत्यादिः प्रान्त्यनुपङ्गी भेदत्वात् प्राधादिवदिति । भ्रान्त्यनुषक्तिकथनेन सम्प्रीत्यादेभेदस्य वस्तुतोऽसर, कथयन् तस्यावतप्रत्यनीकत्वं प्रतिषेधति । नहि भ्राम्त्यनुपक्तं द्वित्वं चन्द्रस्यैकस्बप्रत्यनीकमुपलब्धमिति ।
तदेवमनीकृत्य सम्प्रीत्यादिभेदं तस्य सत्यनीकल्लमपाकृतम् । इदानी स एकोपायान्नास्तीति निवेदयन्ताह
भेवो वा सम्मतः केन हेितुसाम्येऽपि भेदतः ] । इति ।
भेदः सम्प्रीत्यादे मास्वम् 'चा' इसि पक्षान्तरोतने, सम्मतः सम्यक् प्रतिपन्नः । केन ? न केविज्ञानेन ततो न तस्ये तत्प्रत्यनीकत्यम् अज्ञातस्य व्योमकुसुमवत् सदयोगा- १० दिति भावः 1
कथं पुनः केनेति ? न प्रत्यक्षत पन गरियो एरिया दामिनस्यैव तंत्र परिम्फुटस्वभासनात् । ततो नागभावप्यभेवप्रतिपतिः, भेदप्रत्यक्षेण विरोधात् । भ्रान्तिप्रतिपत्तिमा तेसो भवत्येव, तदविरोधिन्या एक तस्वास्ततः परिज्ञानादिति चेत् । न ; प्रत्यक्षस्य विधिमाविषयत्वेन भेदगोवरत्वानुपफ्सेः। "व्यवच्छेदनिष्ट हि भेदः, व्यवच्छेदश्च म विधि- १५ परस्य प्रत्यक्षस्य विषयः ; घरकधं तेन' मेदग्रहणम् ? व्यवस्छेदपरत्वमप्यस्त्येव प्रत्यक्षस्य सदयमवोप इति चेत् ; न युगपत्तदसम्भवात् । न हि किलि-चक्वचिद् विदधदेव प्रत्यक्ष वदेव तत्र तावनछेतुमर्हति, निष्पर्यायकमेकत्र विधिव्यवच्छेदयोरप्रसिपः । पर्यायेण तस्य सत्य. रस्वमिति चेत् ; विधिपूर्वस्तहि व्यवच्छेदो वक्तव्यो विहिसस्यैव 'अयमत्र नास्ति मासाच्यम्' इत्ति व्यवच्छेदप्रनिरत्तेः । उदञ्च
"लब्धरूपे क्वनिरिकञ्चित्ताहगेव निविष्यते ।
विधानमन्तरेणातो न निषेधस्य सम्भवः ॥" [ब्रह्मसि० २२] इति । भवत्येवमिति चेत् ; ३ ; एकव्यापारत्वेन कमवत्वानुपपत्तेः । प्रत्यक्ष हिमा क्षणिकम् , सम्यापारी विधिव्यवच्छेदो क्रमवन्तौ भवेताम् , क्रमत्रतोहि व्यापारयोः पातो न तब्यापार स्वात् । अपि च, जन्मय बुद्धीपारोऽर्थावहरूपायाः, सा चेदर्थविधानरूपोदया विधिरेवास्या २५ व्यापारः, न व्यवच्छेदो योगपश्चनिषेधात् , उत्पन्नायाश्चानुत्पः । ------------- -..- .---
। एपेति दर्श-आ०, २०,१०।भेदस्य । ३ बैतप्रवनीश्चत्वम् । ४ भेद एव । ५ भेदस्थ । ६ अतिप्रायनीकत्यम् . भेदः । प्रत्को १ मत् । १० म्यषय रूभी हि । क्षेत्र । १२ युगपत् । २३ प्रत्यक्षस्य 1 10-पतिः पा०, २०,६०।१४ " सत्येप्रमाणसानध्याारी सन्तौ वियिस्वच्छेदो क्रमवन्तौ युज्यते, क्षणिकत्वात, मरतोईि व्यापारयोः पश्चाहनो न तव्यापारः स्यात्, व्यवधानात् । अपि च अन्य दे पापारी अर्थावरहरूसवाः; सा चेदरियानरूपोदमा, विधिवास्स म्यापपरः योगपरस्त्र निधेषात् , उसया पुमर नुस्पतः।"-बासि पृ. ४५।
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३४६ न्यायविनिश्चयविकरणे
(१८० 'अपि च, सनिहितावलम्यन प्रत्यक्षं नासन्निहितमर्थगवासावितुमर्हति । न चानवभासमान व्यवच्छे पर्याप्नोति | अनवभासे हि सत्र व्यवच्छेदो व्यवच्छेदमानं स्यात, न व्यवच्छेद: कस्यचित् । तस्मानावया(मानवमा) समाने विषये अन्यव्यवच्छेदः, अन्यस्थ
घटारसमिहितत्वेन तजजामें ऽनवमासनात् । ज्ञानान्तरेऽवभासनामावलेषु इति चेत् ; न; ५ स्वयं व्यवच्छेवकृता वदूपासंस्पर्शे 'अस्थायं व्यवच्छेद" इति प्रतिपस्यसम्भवास् । इदम युक्तम्
"क्रमः सङ्गच्छते युमा नेकविज्ञानको ।। [न]" सन्निहित तय तदन्यासङ्गि जायते ।।" [ब्रह्मसि० २।३] इति ।
ननु इदमेव दर्शनस्यान्यध्यवच्छेदकारित्यं यनियतविषयत्वम् । तद्धि यथा नीलं तदाकारनियमाद् विधत्ते तशा संदन्यत्र भवतीति व्यवछिनस्यपि, अन्यथा नियतनीलविधाना१. नुपपत्तेः । सद्विधानादन्यस्य च अन्यव्यवच्छेदस्याभावात् । इदमस्ति, इदमत्र नास्ति'
इति तु विधिव्यवच्छेदव्यवहारः दर्शनालभाविकल्पविकल्पित एवेति चेत् ; न ; नीलदर्शनास् पीतादिवत् रसारपि व्यवच्छेदप्रसङ्गात् शत्प्रतिनियमस्वाविशेषात् । भवत्येव तदूपतया तस्यापि व्यवच्छेदः, सद्देशादितयैर्व अनभ्युपगमादिति चेत् ; R; पौवादाव.
ध्येयं प्रसवात् , पीतादेवदेशादित्वे भवत्युपलम्भो नीलबसुल्योपलम्भयोग्यत्वात् । न चोप१५ लम्धिः, तलदेशादित्या पीतस्य व्यवच्छेदः, रसादेस्तु न तद्योग्यत्वम् अतो ग तथा"तथा
बच्छेद इति चेत् । ताप्येतापि न भवेत् , तद्देशादित्ववदनुपलभ्यस्यैव तस्य तद्रूपचोपपसे । उपलभ्यस्थामुपलभ्यत्वं कथं विरोधादिति पेल् ? अन्धनलाई विरोधाद् व्यवच्छेदो न दर्शननियमान् ! असवि व व्यवच्छेदे कुतो विरोध; ? इसरेतराश्रयो वा-विरोधात् व्यवच्छेदस्य,
ततोऽपि विरोधस्य व्यवस्थितः । तस्मान्न कविधिरन्यवच्छेदः ।। २. "अपि च, एकनियमादन्यव्यवच्छेदे चित्रादिषु नीलादीनामेकदर्शनभाजो भेदो न सिद्धधेत , एकज्ञानसंसर्गात एकत्र ष झानस्थानियमात् । इदमप्युक्तम्
"विधानमेव नैकस्य व्यवच्छेदोऽन्यगोचरः।।
पास भूदविशेषेणमा न भूदेकधीजुषाम् ॥" [ ब्रह्मासि ० २१४ ] इति । सन व्यवच्छेदब्यापार प्रत्यक्षमिति न भेदविषयम् , ततो न सेनेकत्वाम्नायस्य विरोधः । २५ तदप्यभिहितम्
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"अपि समिहितार्थाला प्रत्यक्ष मासनिहितममभासयिामह लिन चामवासमानरूपं व्यव. होई पर्याप्नोति अनयमाप्रमाने हि तत्र व्यवच्छेद्ये ३१वरदमानं स्पाद, पवच्छेदः कस्यचिन् । सर्वस्यका स्थाम् । तस्ममानवमासमाने घरो ज्यवरछेदा निहितार्थानसम्पने प्रवक्षेऽसमिहिनावभासो युक्तः ।" -मासि-पृ०४५ १२ खस्मामावभासने ०,१०,०।३ सिनि-80,4.40 "न सनिहित तय तदस्थामाश भायते ।"-अझसि.५ मा पीतादिकं न भवति । ६ -संथास्था-मा०, २०, प.' बोल. स्पतया । " रसदेरपि । ८ नीलरेशतवैव रसादिवरच्छेदानभ्युपगमाव । १ तुल्योक्तम्भयोग्यतम् । ३० नोलेद. शादिता । रदिन्यवरछेदः । १२ तुलना-बसि. पू. ४.१२ मा भूदेवधियामिति मा.,१०,५०।
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१८०
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावा
"दुर्वा प्रत्यक्षं न निषेट विपतिः ।
Here आगमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुध्यते ॥" [ ब्रह्मासि० २ १ ] इति ।
ततः स्थितम् 'भेदो वा' इत्यादि ।
दैव ? इत्याह- 'हेतुसाम्येऽपि इति । हेतून प्रत्यक्षादिन्यायानां साम्यं विविमात्रविषयत्वेनागमसाश्वं तस्मिम् । 'अपि' इति सौष्ठवे, कुतश्चार्य नियमः सुखादिः ५ सुखादिरेय न दुःखादिः सोऽपि स एव न सुखादिरिति यतस्तस्याद्वैत प्रत्यनीकत्वं भवेत. १ एतेनैव स्वहेतु सामर्थ्यादुत्पतेरिति चेत ; अत्राह-
★
मेदतः ।
तेषामेव सुखादीनां नियमश्च निरन्वयः ॥८०॥ इति ।
३४७
भेदतः भेमाश्रित्य योऽपि नियमः परस्परामिक्षणात्मा । केषाम् ? तेषाम् १० अनन्तनां सुखादीनाम् । स किम् ? निरन्वय एव अशक्यसाधन एव free तया एवकारस्या सम्बन्धात् । तथा हि-भेो नाम व्यावृत्तिः, सा चानेकाधिद्याना' प्रतिज्ञायते प्रज्ञायते च । तथा च तस्या एकस्याः अनेक स्तुस्वभावत्वेन वस्तूनामपि सुखादीनां भेदो न स्यात् । नैकस्मादभिन्नमभिस्वभाव भिनं युक्यते तद्वदेव । * अपि भेदो नाम परस्परानात्मा स्वभावविशेषः । स चेद्वस्तुनः स्वभावा; वस्तूनामभावप्रसङ्गः अभावात्मप्रविज्ञानात् । प्रकारान्वरम् भेदश्चेद्वस्तुनः स्वभावो नैकं किचन वस्तु स्यात् भेदेन एकत्वस्य विरोधात् परमाणुरपि भेदादनेकात्मक इति नैकः । तथा च सरसमुचयरूशे नैको उपयस्यात्मा 'नातकत्वानेकत्वयोरनुपपत्तेः तृतीयप्रकाशसम्भवाच्च वस्तुनो निःखभावाप्रसङ्गः । *अथ मा भूदेव दोष इत्यर्थान्तरमेव व्यावृत्तिराधीयते तथापि व्यावृत्तेरस्वरूपत्वात् स्वरूपेण भावा न व्यावृताः स्युः ।
२०
'स्वान्तम्- वसुन्ययं विकल्पः सम्यत्वं वेति नावस्तुनि । अवन्तु चायं भेदो विकल्पोपनीतत्वात् मायातोयवत् तत्कथमत्रार्थ विचार इति ? तन्न ; एवमपि निःस्वभावेन वस्तूai agar aerereापत्तेः । कल्पितस्तु वदो न वार्यत एव ब्रह्मवादिनानाथविद्याfrofects तदस्याभ्यनुज्ञानात् । वन सुखादीनां भेदतो नियमः, तस्यैव विचाराक्षमरनासम्भवात् । तदुक्तम्
"न भेदो वस्तुनो रूपं वदभावङ्गतः ।
अरूपेण च मित्रत्वं वस्तुनो नात्रकल्प्यते ||" [ब्रह्मसि० [२५] इति ।
तुलना हासि० पृ० ४७ २ शा ० ० ० ३ । * तुलना-"भेदः परस्परानारमस्वभाव: लि० पृ० ४०५ " अपरः प्रकारः भेदश्वेद्रस्तुनः स्वभावः "महासि० नावकर प० ७ हासि० पृ० ४०१८ महासि० पृ० ४८ ।
०४८ । मावकल्प्यते ० २० ९ वस्तुभेक्ष-म० य०, प० ।
१५
२५
i
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३३८
म्यायपिनिययिधरले
...'.
तन्न विधाकान्तवादः, सहदास्नायात ब्रह्मवादस्याप्यस्थितः।
भयतु बर्हि विज्ञानवाद एय, तस्य प्रत्यारालादेवोपपचेः, न ब्रह्मचादो विपर्ययानिति वेत अाह
प्रत्यक्षलक्षणं ज्ञानं मूलितादी कथं ततः ॥ इति ।
विकल्पमतुभयन तलक्षणं प्रमाणं यस्मिन् तत् प्रत्यक्षलक्षणं ज्ञानम् । कथम् ? न कथञ्चित् । कुत एतत् ? मृच्छितो मोहाकान्त आदिस्य 'सुषुप्तादः सर. ततस्तलक्षणहानप्रसङ्गात् । ननु तत्र तल्लक्षणं प्रत्यक्षमेत्र नास्ति कयं वत्प्रसङ्ग इति चेत् ? कुतस्तन्नास्ति ? अनुपलम्भादिति चेन् । न ; अन्यत्रापि समानत्वात् , अखण्डवेदनस्य जामदादावन्यप्रतिषसे।
अपि च, मुञ्छिनादौ शानाभावे प्रबोधस्य कदाचित्कनाहेतुल्यायोगात् शर्यरोपा दानवप्रसङ्गः । तदाह
अज्ञानरूपहेतुस्तदहेतुस्थप्रसङ्गतः १८२॥
प्रवाह [ एक किन्नेष्टस्तदभावाविभावनात् ] । इति ।
प्रवाहः प्रबन्धो ज्ञानस्य, 'ज्ञानम्' इत्यस्य विमतिपरिणामेम सम्बन्धात् । कदा १५ भवतः १ मूर्षियतादेवलम् । 'मूछित्तायौ' इत्यस्यापि पश्चमीपरिणामेन योजनात् । किम् , अज्ञानम् अचेतनं रूपं स्वभावो यस्य शरीरस्य स एव हेतुः कारणं यस्य सः अज्ञानरूपहेतुस्तत्प्रवाहः भवसि' इति शेष: । क्त एतत् । तस्य सत्प्रवाहस्य अहेतुस्थम् . अकारणकत्वं वस्य प्रसता प्रसञ्जनात् । तात्पर्यम् -
गाढामूदावस्थाया झानस्याभावकल्यने । तस्य प्रयोघहेतुस्वमसतो न भवेसतः १८७२|| शरीरमेव तस्येदं कारणं परिकल्प्यताम् । अन्यथाऽहेतैव स्याद् गत्यन्तरपरिक्षयात् ।।८७३॥ अनित्यत्वमहतोश्च कथं नामोपपत्तिमान् ? "नित्य सस्वमसत्त्वं वा" इत्यादेः स्योक्तस्य पीउनात् ॥ ८७४॥ जामझानस्य हेतुत्वादु दोषो नैप भवेद्यदि । चिरनष्टस्य हेतुत्वं कथं सस्योपकल्प्यताम् ।।८७५॥ स्वकाले तस्य भावाध्येदारम्पः किन्न कल्प्यते ? नित्यकव्यापिनस्तस्थाप्यमा प्रतिबेदनात् ॥८७६।।
-
.
.:
पस्य विज्ञान प्रबोधे पूर्व भवनात् ।
हमादे-मा., ब०, प.! आयते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्चितर
.प्र.पा. ३१३४ ३ -4 पार्तिकाल. ९ ।
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मार्गद
१६८२)
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्तावा तदेवाह
एका किन्नेष्टस्तव भावाविभावनात् । इति । एका द्वितीयरहित आत्मा इति गायत् । किम् ? कस्मात् । नेष्टः ? इष्ट एव प्रबोथहेतुः । त एतत् ? तदमावस्य एकामावस्य अविभावनाद' अनिश्चयात् ।
ननु यहासौ प्रामारामावरन्य पव, कथमस्ति ? अप्रतिमासनाम् ! अस्तिरऽपि ५ ग्रामारामादिः किं भपति ? असन्नेवेति चेत् । न प्रतिभालनात् । प्रसिम्पसवतोऽप्यसस्त्रे तदा. स्मन्धपि प्रसङ्गात् । सन्मेवेति चेत् । न अद्वैततदात्मवादव्यापादनात् । भरतु प्रामारामानिरेषायमिति चेत् ; न चित्राकारकज्ञानाभ्युपगमेन बौद्धदर्शनस्यैथैर्य प्रतिष्ठामात न मलवावस्य, तत्र निराकारस्यैवारमनः प्रसिद्ध । "अस्थूलमनथै मनणु ) अहस्यमदीर्धमलोहितमस्ने हमच्छायमतदो( मो वायुश्नाकाशम्" [ वृहदा० ३१८५८ ] इत्यादि पचनात । १० सरकथं सदभावाविभाधनं तद्भावस्यैष विभावनादिति चेत् ; म; जामशानेऽप्येवं प्रसङ्गात् । तदपि च यदेवम् नीलम बेनिइति स्वपरख्यवसायारमकं ज्ञानं ततो भिन्नमस्ति अप्रति. वेदनात् । अस्तित्वेऽपि प्रकृतं कि भविष्यत्ति ? असदेसि चेत् : म; प्रसिद्धस्यासत्त्वे अन्यत्रा प्यनाश्वासात् । सदेवेति चेत् ; ; उभयाप्रतिवेदनात 1 "मनसोयुगयवृत्तेः" [१० कार २६१३३ ] इत्यादेनिषिद्धत्वात् । भवतु तदेई तदिति खेन । स; अप्रतिबेदने तदेवेरययोगात् । १५ अस्त्येव स्वतस्तस्य प्रतिवेदन मिति चेत् ; पस्किनाम प्रमाणम् ? अप्रमाणासत्पत्तिधेदनायोगात् । प्रत्यक्षमिचि पेत् ; न तस्य निर्विकल्पकत्वात् । निर्विकल्पं हि प्रत्यक्षं सत्कथं तस्वभावशून्यस्य व्यवसायस्य स्यात् । अरत्येव तस्यापि स्वभाव इति चेत् ;न; 'व्यवसायश्च निर्विकल्पश्च' इति च्यापासात् । सायं दोषः ऐकान्तिकस्य व्यवसायस्थानभ्युपगमादिति चेत् वमपि स्वतो निर्विकल्पकस्वभावस्यैत्र प्रतिवेदन प्रत्यक्षं न व्यवसायात्मनः । पुनस्त. २० स्वापि निर्विकल्पस्वभावकल्पनाथामनवस्थानम् , ध्यरसायन निर्विकल्पश्च' इत्यादरनुबन्धात् । तत्र तत्प्रत्यक्षम् । नाप्यनुमानम् अलिङ्गजस्यात् । मापि प्रमाणान्तरम अनभ्युषामात् । ततो न स्वतस्तत्प्रतिवेदनम् । नापि परत: "तस्थानानुभवोऽपरः" [प्र. वा. ११ ३१०] इति व्याघातात् तदर्धस्यापि प्रतिवेदनप्रसङ्गाश्च । ततो न जायशान नाम किञ्चित्प्रतिविदितमस्ति यस्व प्रबोधहेतुत्वकल्पमम् । अप्रतिविदितस्यापि दर्कल्पने परब्रह्मण पब दस्तु । २५ ततः सूक्तम् 'एक' इत्यादि।
यकमात्मा कर्य प्रतिशरीरं जीवभेदः 'देवदासजीयो यज्ञदत्तजीवः' इति? अमित्रा एवं स्वल्दात्मनों जीयाः । तदेकत्वे व तेषामप्येकत्वमेव स्यान्न नानात्वम् , न देवम् , नानास्वस्यैष तेषु दर्शनादिति चेत् ;न ; सम्यगेला ; उपाधिकल्पिडेभ्यस्ता परमात्मनोऽन्यस्यात् । तद्यथा-घटाकाशादुनाधिपरिस्छिन्नात् अन्योऽनुपचिरपरिच्छन्न आकाश इति । तद. ३० ।
१-सावेत-पा०,०, ५. २ 'नीलम मि इसि शानम् । ३ जायजानेऽपि . आपउनमेव ! ५निर्विकल्पकसाभारतत्वकल्यने । अक्षणः14-1तमाना-आ.ब.प. जीयेभ्यः ।
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MARSTAREER
१५
गामा
म्यायविनिश्चयविवरणे
( १८ भेदवचनं तु तेषामुपाध्युपरमे पृथगवस्थानाप्रतिवेदनात् , तद्विकारत्वाच्च । तस्यैव परमात्मनः खल्धेते विकारा य इमे जीवा अन्ये च भेदाः । तदुक्तम्-"यथाग्नेज्वलतः सर्या दिशो विस्फुलिङ्गा विप्रतिष्ठेरन् एवमेव एतस्मादात्मनः प्राणा यथायतनं विप्रतिष्ठन्ते प्राणेश्यों देवा देवेभ्यः लोकः (काः)।" [कोपीत० ३१३] इति । 'तवाह
अविप्रकृष्टदेशादिरनपेक्षितसाधनः ८३॥ दीपयेत् किन्न सन्तानः सन्तानान्तरमासा । इति ।
दीपयेत् दीप्यमान प्रकाशमानं कुर्यात् , किन कुर्यादेव । किम् ? सन्तानान्तरं जीवादिलक्षणं सन्तानभेदम् । को दीपयेत् ? सन्सानः सम् मोहन्यूनाधिकभावरहितस्तानो विस्तारो यस्य सः परमात्मा, तस्यैव वृद्धिपरिक्षयरहितविस्तारमूर्तिकत्या प्राविद्भिरभ्यनु. ज्ञानात् । कथं दीपयेत् ? असा परमार्थेन । परमार्थस्वं क्लबदपिशामिप्रायवशात् वस्तुतः सन्तानान्तरस्यापरमार्थत्वात् । सः कीदश: ? अविप्रकृष्टः सन्तानान्तरेण सह प्रत्यासन देशादियस्य स तथोक्तः । तदनेन देशकालाभ्यां प्रत्यासन्नत्वात्प्रबोधादो तस्यैव हेतुत्वं न जानकारनादेः विपर्ययादित्यायेदयति । पुनस्तद्विशेषणम्-अनपेक्षितं स्वोत्पत्ति प्रति साधन निमित्तं येन स तथोस । तपनेनापि तस्य नित्यत्वमावेदयति ! अनित्यत्वे अनपेक्षितसाफ नत्वानुपपत्तेः । प्रसिद्धं पैसस् ब्रह्मविदाम्-"न तस्य कश्चिन्जनको न पाधिपः" [श्वेता ६.९] प्रत्यागमास ! तदेतदसहमानः सौमत आह
अन्यवेधविरोधात् [ किममिन्स्या योगिना गतिः ॥८॥ इति ।
अन्ये भिन्नाः परस्परता परमात्मनश्च जीवादयस्ते च ते येयाश्च वेदनविषयाः तेषां विरोधात् । 'न दीपयेत्' इति योजनम् । इदमोनावेदयसि-प्रतिविदितानामेव तेषां स दीएकः परिकस्पस्तिव्यो नान्ये व्योमकुसुमादिषत् , वेद्यता व तेषामनुपायत्याविरुद्धति ।. म विरुवा, तेषां स्वत एव येद्यस्यादिति थे ; न; वेदनस्य 'परमात्मधर्मस्वेन तेष्वसम्भवान् । "नान्यदस्ति द्रष्टु नान्यदस्ति श्रोत नान्यदस्ति पन्त नान्यदस्ति विज्ञात" [वा ३८.१] इति वचनात् । नाय दोषः, सेफाम 'सव्यतिरेकात्तद्धर्मत्वोपपत्तेरिति चेत् । तेभ्यस्तस्य "व्यतिरेफे सेषामपि" ततो" व्यतिरेफस्यैव न्याय(य)त्वात् , "तस्योभयनिष्ठतयैव प्रत्यवलोकनात् । प्रसिद्धन "तेभ्यस्तस्य व्यतिरेको मनविदाम् , "परमेश्वरस्तु अ. विद्याकल्पिताच्छारीरात्कषुर्भोक्तु विज्ञानारमाख्यादन्यः, यथा मायाविनश्चमखड्गधरात् सूत्रेणाकाशमधिरोहतः स एव मायादी परमार्थरूपो भूमिष्ठोज्न्या" [५० मा० १।११७ इत्यादिभाष्यश्रवणात् ।
तथैवाह आ०,१०,२०१२.समो न्यूना-आ०, २०, प.। "अस्थूलमानण्वस्य... वृद्धदर ३।८।५-वा: स्पादनेन भा०, २, प.। ५ जीनामाम् । ५ परमार्थध-आ., ०,१०। • जीवानामपि । ८ परमात्माऽव्यतिरेकात् । १ जीभ्यः ! १० परमात्मनः बीमानामपि।। प्रयाग: 1. १३ पतिरहस्य। जीवेन्यः । ५ परमाश्मनः तेभ्यस्तयति-आ.ज..
सरस्ट-मालामालनमाला
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१९९४)
प्रथमः प्रत्याप्रस्ताव सुवर्णस्य रुचकादिव्यतिरेकेऽपि रुचकादयस्तद्व्यतिरिक्ता एवं सत्परमात्मनो जीवादिव्यतिरेकेऽपि जीवादयस्तव्यतिरिक्ताः किन भवन्तीति चेत्त ? कुतः पुनः सुवर्णस्य रुचकादिव्यतिरेक ? 'तदशवयवस्यान्सर भावादिति चेत् । चादीमामा नाम तयतिरेको, सदभानेऽपि द्रव्यान्तरे भावात् । अन्य एव ते रुखकादय इति चेत् ; सुवर्णमण्यवस्थान्सरगतमन्यदेव किन्न स्यात् । प्रत्यभिज्ञानादिति मेस् न; 'अभी व रुचकादयः अमोल रुमकादयः' इति क्वापि ५ 'तत्त्त रवलोकनात् । ताश्यात्तत्प्रवर्तन नैकत्वादित्यपि समान स्वर्णेऽपि । ननु अस्ति ताबद्ठयोदव्यतिरेक, रुपकादीनाम् , तत्तु द्रव्य स्वर्णमन्यद्वेति किमनेन ? तव्यतिरेकमात्रा निदर्शनात् परमात्माव्यतिरेकस्य जीवादिषुपकल्पनादिति चेन्न ; अस्ति सावत्पर्यायवादास्य सुवर्णस्य, ते च पर्याश रुपकादयोऽन्ये वेति क्रिमनेन, ससादास्यादेव निदर्शनाजीपादश्यतिरेकस्य । एरमागन्युपपादनात् । एकैकपर्यायपरिहारेणेव सकलपर्यायोपसंहारेणापि सम्भवति सुर्वणं १. तत्कथं तस्य सन्मात्रेणापि तादात्म्यं यदेवमुन्यत इति चेत् ; न; एकैकद्रव्यपरित्यागेने सफलद्रव्यपरित्यागेनापि रुचकादीनां सम्भवाद्, अन्यथा अविषचनानुपपत्तेः, कल्पनामात्रस्योभय. त्रापि समानत्वात् । तन्न व्यतिरिक्तादेव सुवर्णान् स्वस्तिकादीनामन्यतिरेको यतस्तव्यतिरेकिण एवात्मनो जीवादीनामव्यतिरेकात् तदुच्चेतनधर्मत्वं पपायेत | तन्न "तेषां तात्त्विक शानधर्मत्वम् ।
कल्पितमेव भवस्विति चेत्, केन पत्कल्पनम् । अविद्या विलासेनेत चेत; न; जीवादिभेदश्यतिरेकिंणस्तस्यैवाभावात् । प्राम्भवीयत एव सदिलास इति चेत् ; म; तस्यापि वस्तुतो हा नपत्याभावात् । कल्पितमेष तत्रापि "सदूपत्व प्राम्भवीयेन नदेन । न चैपमनवस्थागं दोपः, अनादिस्वात् प्रबन्धस्येति चेत् ; सद्वत्तदज्ञानरूपत्वस्यायनादित्वात् । न चालवूपादेव क्वरितद्रुपकल्पनम् ; अर्थतने घटादिप्रबन्धेऽपि प्रसङ्गात् । सलाविद्याविलासेन तस्कल्पनम् । २०
अस्तु, परमात्मनैव तत्कल्पलम् ; नस्य "तस्वत एव वानरूपस्वरन् “सत्यं ज्ञानमनन्तं प्रमाण [तैत्तिख २,१११] इति वचनादिति चेत् । भवत्वेवम् ; तथापि कथं कस्पिप्तस्य तपस्य स्थचित्प्रतिपस्याहस्थम् ? कल्पितस्य' पावकस्य पावकाङ्गत्वादर्शगान् ! कल्पिसोऽम्य. हिशो भवत्येव मराशामा सिसि क्षेत्र ; वस्तुसतस्तदंशकाल्पिनो" ज्ञानस्यैव "सदगरवात् । वदंशस्य तदङ्गत्वे अविप्रसङ्गात् । भवत्यत्रापि वस्तुसता परमात्मन एव "तरकल्पनाकृतस्तस्पति- २५ पत्त्यङ्गतम् , "तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्यैव भासा समिदं विभाति [को०५:१५]. इति वचनादिति चेत् ; किमिदानी जीवेषु चैतमत्वकल्पनेन कल्पितेऽपि तस्मिन् पुरुषादेव
- 1 चमावेऽपि । २ सुवर्षव्यतिरेकः । ३ दौडादौ । प्रत्यभिज्ञानमः । - सादृश्याच । ६-दव्यादिक्पति-8०, २०, प.। ७- दर्शा , ३०, ५.१८ पर्यावमात्रेणापि । १ नव सभा, ब० पैमाथि स-५० | १जीवानाम् । ११ भविषाविलायस्यैव । १२ प्राभावीय-प्रा०, २०, प० । जीवादिभेद। १३ तद्रूपं प्रासमायो-भाग, म, प. 1 तद्वत एक ०,०,०।१५-स्यमा पापकस्य पावा--, 20, 4. 18 -सर्वश-04..1 १७ मरणात्वात । 14 नात-आ . ५.१९पुरुषाला १०.५०।
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३५२ न्यायविनिश्चयविवरणे
[११८३ तत्प्रतिपत्तेः 'ततस्तस्मतिपत्तिरेव सेषु तस्कल्पनामिति चेत् । न ; घटादायपि प्रसङ्गात् । एक्श्च चेतन एव सर्वभेदो नावेतन इति 'प्रतीतिविरुद्धमापद्येत । पुरुषोऽपि तान् प्रतिपयमानः प्रतिपन्न:, सद्विपरीतरे या प्रतिपद्येत ? तद्विपरीत एघ, "तद्वा एतदक्षरं गाग्यदृष्टं द्रष्ट्ट अश्रुतं
श्रीख अमत मन्तु अविज्ञातं विज्ञा"हदा ३१८१११]इति वचनादिति चेत् ; कथमिदानी ५ सस्य सर्वशत्वम्, आरमापरिक्षाने तद्नुपपत्तेः । न चासर्वज्ञ एवासी "सर्वज्ञ' ब्रह्म जगत्कारणम्" [७० भा० १३१।१०] इति भाज्याम् । “स घेति विश्वम्" [ श्वेता. ३३१९ ] इत्याम्नायाञ्च ।
भवतु प्रतिपत्र एदेति चेत; स भूमा, अल्यो वा भवेत् १ भूम चेत्तथापि कई तस्य सर्वज्ञात्वं स्वरूपादन्यस्याप्रतिवेदनात् ? "यत्र नान्यत्पश्यति नान्यगोति नान्य१० द्विजानाति स भूया" [ छान्दो० ७१२४११] इति वचनात् । तदधस्थायोगन्यदेव नास्ति
सर्वस्य भूमन्यनुप्रवेशात् । न चासतोऽपरिक्षानादसर्वशवम्, अपितु सत एष सविशेषात्परिशानात् । न चे भूमन्यस्ति, सतो भूम्नः सर्वात्मना परिज्ञानात् । सप्तः स्वपरिज्ञानमेव तस्य सर्वज्ञत्वमिति चेत् कथं वहिं तस्यं जगत्कारणस्वं तदन्यस्य जगत एवाभावात् । स एव जग
दिति चेत् ; न; तस्य तत एशनुत्पत्तेः। यद्यसौ सन् किमुत्पत्त्या ? यासम् ; कुत उत्पत्ति१५ रिति ? कथं का ततो जीवादेभेदस्य प्रतिपत्तिः तदानीमसतस्ततोऽपि सदनुपपत्तेः । तन्न भूमा जगत उत्पत्तप्रतिक्त्तवा निमिचमुपपन्नम्।
भवत्वस्य एवं स इति चेत् ; सेनापि यदि भूम्भोऽपरिज्ञानं कथं सर्वज्ञत्वम् ? परिक्षाने स एव भूमा "ब्रह्मवद ग्रीव भवति" [मु०४०३।२।१] इति कथमस्पत्यम् ? उपाधिपरिच्छिमतया परिक्षानादिति चेन्; ने; तत्परिकछेदस्यापरवात् । न च सपपरिज्ञानं तत्परिहानम् अन्यत्र विभ्रमात् । विश्नमे च कथं तस्य प्रहात्वं यतो द्विविधं श्रेझकल्पन शोभेत?"अपहतपाप्मत्वादिभिर्घद्वाधर्मेरिति चेत् ; म; विभ्रमस्यैव पाप्मत्वान् । नाय" पाप्मा अदु:खहेतुत्यादिति चेत् ;न; अस्मदा विविभ्रमस्याप्यतवेतुत्वापत्तः । तथा चासनतमेतत् -'मृत्यो।स. मृत्युमामोति य इह मानेव पश्यति" [कठो० ४११०] इति । "ब्रह्मज्ञानिभ्रमस्यैवापाप्मत्वं
प्रहरनम्वलनोपहतशक्तिकत्मान्नेतरविभ्रमस्य विपर्ययादिति चेत् ; न; ब्रह्मज्ञानी च विभ्रमी २५ थेसि ध्याघातात् । अथ तस्थाथि इच्छया भवत्येव विभ्रम इति "चेन, न; इच्छाविश्यत्य
विभ्रमात्मागदर्शनान् अदृष्टतद्विषयस्य चेच्छानुपपत्त: । प्राक्तद्पर्शनभावे व नेच्छातो विभ्रमा विभ्रमादेव तावात् । तथा च अनादिविभ्रममलोपहतस्य कथं वस्यापहवपाप्मत्वादिक" यतो.
:
पुरुषात् । २ प्रतिहद- ०, ५०। ३ "पाणिवादी अवनो सतोता पश्वरवचा र हास्यकर्षः । स कति दिन हि हस्व देता तमाहुरम्य पुरव महान्तम् "ता. टि"वेत्ति वयम्"-. बेता। ४ वस्तु ता । ५ भूमावस्थायाम् १६० 1 . ब्रह्मच आ०, २०, ५०८ मतकात्यामावान ९ ममणी वैदिखध्ये शब्दहा रश्च यत् ।"-मैत्रा०६९२ !" "अहतमका होष प्राडोकः।"-आन्दो ८ । ५१ दिनमः 11 विभ्रसस्यै-मा0,411 १३ अर्थस्यापि हाला-अ.ब.प. वैच्छा। मा०,०, ० ५ - न पत्ती ०, ०, प.
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पार्गदर्श
प्रथमः प्रत्यक्षपस्सा ब्रह्मत्वमल्पस्य । सत्वेऽपि न तस्य स्ववेदने परवेदनम्, विभ्रमाभावात् "अविज्ञातं विज्ञात" [हदा०३३८१११] इति वचनाच्च ! परतस्तस्याविज्ञानादविज्ञातस्य नोच्यते स्वतस्तु विज्ञात एवास्पोऽपीति चेत्, न तर्हि परविज्ञानम् “ विज्ञातं द्वैतं विज्ञेयं न विजानाति" [ ] इत्यादिना आत्मज्ञस्य परविज्ञानप्रतिषेधाम् । भूमन्येव तेनापि तत्प्रतिषेधो नाल्पे वामझानयत् परशानस्थापि भावादिति चेत् । न तस्यापि भूमाभेदार, सत्रापि तनिषेधान् । ५ बाधित भेद एवं ततस्तस्येति चेत् : कथं तर्हि शत्वं तात्विकस्य ज्ञानन्तरवानभ्युप. गमास् , कल्पितेन च इवेन ब्रह्मत्वानुपपत्त: ? ततस्तस्याप्यात्मजले न परवेदनमिति न सन्त्येवं जीवाः स्वसः , परतश्चाप्रतिपत्त । तन्न तेषामेकेन दीपनमिति सूक्तम्- अन्यवेद्यघिरोधान्न दीपयेत्' इति ।
सबोत्तरमाह-'किमचिन्त्या योगिनां गतिः' इति । किमचिस्या ? चिन्त्यैव १० गतिः प्रवृत्तिः योगिनां सम्बन्धकताम् । तथा हि-पूर्वोचरज्ञानानां कार्यकारणभावः सम्पन्धरतेषां सत्येष भेदे भवति, भेदश्च न देशं कुतश्चिच्छन्त्यपरिझाना, सर्वज्ञानानां स्वरूपमात्रनिष्टस्पेन प्रतियोगिन्याधुत्त अप्रतिपन्ने च प्रतियोगिनि 'अहं कारणमस्य अहं कार्यमस्य' इति व्यवस्थापयितुमशक्यम् । तत्कथं प्रयावज्जामानस्यापि कचित्कारणस्वम् १ मा भूदिति चेत् । तत्राह
'आयातम्' [अन्यथाऽद्वैतमपि चेत्यमयुक्तिमत् ] । इति ।
जामज्ञान प्रबोधस्यानुफ्यमपि कारणं अवामस्यैक टूपणमुक्तम् 'एक किन्नेष्ट' इत्यादिना । दूपणान्सरमिवानी वक्तव्यम् । ता [हि ] जापजहान प्रमोधादुत्पन्न यदि तस्य जनकम्"; परस्पराश्रयः - 'उत्पनेने तस्य जननम् , जनिताच्योत्पत्तिः' इति । अनुत्पन्नं चेत् : नः सर्व नमनप्रसङ्गान् । तथा हि
अनर्थ चेद्विज्ञानमवित् सर्वविवेत् । ज्ञानान्तरं वृथा प्रातमिति यानिगारे 11८७७॥ सथेदमपि वक्तव्य जापान प्रमोधतः । अजात " सस्य हेतुश्चेत्सर्वहेतुः प्रसस्यते ॥८७८॥ हेवन्तरं ततः प्रानं स्वन्मतेऽपि यथेहिवम् । एकहेतुप्रकादश्च ब्रह्मवाद प्रकल्पयेत् ॥ ८७९॥ प्रत्यासत्या स तस्यैव हेतुर्नान्यस्य चेन्मतः । सस्था एवार्थनियमो ज्ञानस्याप्यनुसन्यताम् ।।८८०11
नामाव-शा, ब०, २१, २ अविज्ञातमिति वचन । ३ विज्ञानात-बार, ० . ४ परे कि-शा, २०, ५। ५ अस्पस्पापि ६ अल्पेऽपि " मुम्नः अल्पस्य । ८ प्रबोधस्य । ९ जनक तहिं"- दि.१० जानेन । 11 प्रोस् । २"अवित सहि"-ता. टि.३ "भवेत् तथा "-तारि०११४ अशत भा००, ०.१५ प्रत्यासत्तेः ।
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न्यायविनिश्वयविवरणे
[१८५
देवाह-'अविप्रकृष्ट' इत्यादिना । सन्तानः ज्ञानात्मा सन्तानान्तरम् water किं न दीपयेत् किं न प्रकाशयेत् ? कथम् ? अञ्जसा । कीदृशः ? अनपेक्षितसाघनः । अनपेक्षितम् अनाकाङ्क्षितं साधनं विषयकृतमुपकारलक्षणं येन स तथोक्तः । दनपेक्षस्य तत्प्रदीपनेऽतिप्रसङ्ग परिहरति- विप्रकृष्टः प्रत्यासनो देश आदिश्य कालादेः स ५ यस्य सः अविप्रकृष्टदेशादिः अविप्रकृष्टत्वं च देशावेर्योग्यतथैव न संसर्गितया व्यवहितदेशादेरपि प्रदीपकवास । उन्कं चैतत्पूर्व 'घदा यत्र' इत्यादिना । सत्तो निराकुलतया बहिरर्थसिद्धः कथं विज्ञानवाद इति भावः ।
३५४
न च योग्यतावगमः कार्यदर्शनादेव, तथ कार्यं व्यतिरिक्तविषयदर्शनमेव, तच्च न स्वरूपादन्यत्र ज्ञानप्रवृत्तेरनवलोकनात् नीलादेरपि ज्ञानानुप्रविष्टस्यैव प्रत्यवभासनात्, न बहिः १० भूतस्येति चेत्; सदेवाह- 'अभ्यवेद्यविरोधात्' इति । अन्यन्त्र तज्ज्ञानात् व्यतिरेकात् द्विषयत्वात् तस्य विरोधात् । तथा हि-यदि नीलादिः संबेदनमननुप्रविष्टः कथं तत्स मानाधिकरणतया परिज्ञानम् 'नीलादिः संवेद्यते' इति, तदनुप्रविष्टस्यैव तथा तदर्शनात् नीलमुत्पतमितिवत् । अनुप्रविष्टश्चेत् कथं तद्वाहात्वम् अनुप्रवेशविरोधात् ? बदुक्तम्
२०
"यदि संवैधते नीलं कथं वा तदुच्यते ?
न चेत्संश्यते नीलं कथं वाह्यं तदुच्यते ?" [प्र० वार्त्तिकाल० ३१३३१] इति ।
ततो 'अन्यवेद्यविरोधान सन्तानः सन्तानान्तरं दीपयेत्' इति । तत्रो. तरमाह - 'किम चिन्तया योगिनां गतिः' इति । किं कुतो योगिनां परिशुद्धज्ञानसम्पन्नानां बुद्धानां गतिः बुद्धिः अचिन्स्या अविचारचितव्या ? साप्येवं विचारयितस्यैव । तथा हि--यदि सा स्वरूपान्यत्र न प्रवर्तते कथं तया तेषां योगित्वंम् अतिप्रसङ्गात् । प्रवर्तते चेतुः कथमन्यत्रापि अन्ययेद्यविरोधो यतः सन्तानः सन्तानान्तरं न दोपयेत् ? पयेत्, योगज्ञानापेक्षयापि तत्कृतमुपकारमपेक्षमाण पर उपकारित्वस्यैव ग्राह्यलक्षणत्वादिति चेत्; न;
ते । तथा च यदुक्तम्
२५
" रूपादेश्वतसचैव विशुद्धधियां प्रति !
ग्राह्यलक्षणचिन्तेयमचिन्त्या योगिनां गतिः ॥" [प्र०वा० २२५३२] इठि ।
तदपर्यालोचितवचनं भवेत् । तदपेक्षयाऽन्यदेव प्राह्मलक्षर्ण तत्तु नास्मदादिभिरित्यन्तया शक्यनिरूपण तो नोच्यते । अस्मदादिज्ञानापेक्षमेव तु लक्षणं शक्यनिरूपणत्यादुच्यते इति चेत ; art तेषां वत्वे कणादादीनामपि वव एव तत्प्रसङ्गात् । * क परिहारेण तथाnaratna प्रमाण्यपरिकल्पनमुपपद्येत
aftevar
i
तदुपपादयता
तथा
१ तदपेक्षय ० ० ० २ -वादियुक-आ०, ब० स्वादित्ययुक्त-प० १ ३ आहालचणेन । कणादादिपरिहारेण ५ "प्रमाणभूताय अगदितैषिणे प्रणम्य शाखे सुक्ताय तायिने । ( प्रमाणसमु०
श्लोक १ } " ता० दि०
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
परनिरूपण पदमी मधुम: । वदाह---'अन्य' इत्यादि । अन्ये च से कणादादयो दिनच विश्वस्य तेषाम् 'अविरोषात् अविरोधात् । किमचिस्या ? शक्यचिन्तय योगिनां युद्धानां गतिथुद्धिरित्यविधयक्तीति । ताच तदपेक्षया उल्लक्षणं निरूप्यमाण न योग्यताया अपरम् अतस्तदेवास्मदादिशामापेक्षयापि भवतीति व्यर्थ तदुत्पत्यादिकल्पनम् । अतदुत्पन्नादिना तत्प्रकाशनेऽतिप्रसङ्ग इठि चेत् ; न; ५ योग्यतानियमेन प्रकाशानियमस्याभिहितत्वात् । सतः सूक्तम्-'अविस्कृष्ट' इत्यादि ।
योगिन एव मा भूवन न काचिस्पतिः संवृतिमात्रेण तदभ्युपरामादिति खेर ; अत्राह
आयातमन्यथाऽसिम् अपि चेत्थमयुक्तिमत् । इति ।
अन्यथा अन्येन 'ज्ञानमपि ज्ञानान्तरस्य न हेतुा,नापि योगिनो विदान्' इति प्रकारेण आयातम् उपनतम् अद्वैतं निरंशसंवेदनैकव्यक्तितत्त्वम् । अपि सौगतस्याभिमतमेवेति चेन्; १० आह-अपि चेत्थमयुक्तिमत्' इति । 'इस्थम्' इन्सनन्तरम् 'अपिच' इति द्रष्टव्यम् । इत्थमनेनाद्वैतप्रकारेण । अपि धन केवलम् अन्यथैव अयुक्तिमत् तस्वं संविदतिस्थ ब्रह्माद्वैतवदनुपपत्तिमसया प्रतिपादितत्वात् । ततः क्वचित् प्रज्ञास्थैर्यमन्विच्छता न बहिरर्थः प्रतिशेतन्या तत्प्रतिक्षेपे 'सदनुपपत्तेः ।
कथं पुनर्वहिरर्थस्य वस्तुसतः परिझानम् ? २ प्रतिभासान् ; वस्यासत्यपि तस्मिन् १५ विप्लवावस्थायां भावात् । "aविशेषादियपि न युगम् ; अभाषितत्वादेः वद्विशेषस्य निराकरणादिति चेत् ;न; तद्वत्सन्तानान्तरस्यापरिज्ञानापत्तेः । प्रत्यक्षतस्वदप्रतिवेतनात् , तक्षिअस्य च व्यावासदेरसस्यपि तस्मिन् विप्लवदशायां भावात । तदाह
छयाहारादिषिनिभीसो चिप्लुताक्षेऽपि भावातः 1८५॥ इति ।
व्याहारो वाग्व्यापारः आदिर्यस्थ गमनादेः कायपरिस्पन्दस्य शस्य विनिर्मासनं २० व्याहारादिविनिर्भासः सन्तानान्तरं किन्न दीपयेत् इति नकारवमधिकृत्य सम्बन्धनीयम् । अत्र हेतुमाह-विप्लुताक्षेऽपि स्वागायुपहलेन्द्रियेऽपि प्रतिपत्तरि तद्विनि सस्य भावतो विधमानत्वात् , न व्यभिचारिणो गमकत्वमिति भावः । परः परिहारमाह
अनाधिपत्यशन्यं तत्पारम्पर्येण चेत् [असत् । इति ।
अधिपतिः निगि सन्तानान्तरं ध्याहारादेः स एवाधिपत्यं तेन शून्य आधिपत्य- २५ शून्यम् , न श्राधिपत्यशून्यम् अनाधिपत्यशुन्यम् आधिपत्यसहितमिति यावत् । किं तदिति चेत् १ आह-तत् ध्याहारादिकम् । कथं तत्ताशम् ? इत्याह-पारम्पर्येण परम्परतया विप्लुताअभावि व्याहाराष्टिक यद्यपि साक्षादाधिपत्यसहित न भवति, परम्परया तु भवत्येव ।
अविरुवात, प्रस-ता। २ प्रज्ञास्थानुपपत्तेः । ३ अर्थे । ४.प्रतिमासविशेषात् । ५-दत्तवेदमा०, २००६ सालानाभार । नाकार-भा०,०- ८-त्य सन्निहित-810, 40, प..
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न्यायविनिश्वयविवरणे
f te
आधिपत्यसहिताज्याहारा क्षित एव वयाहारादेस्त्पन्नत्वात् ततस्तस्यापि परम्परया गमकत्वान्न व्यभिचार इति परस्य भावः । चेत्यमेव योतयति ।
तत्रोत्रम्-- 'अमत्' इति । असत् अस्तम् अनाधिपत्येत्यादि । हेतुमाह
५
३५६
'पहिल्यहेतुमपरे विदुः ॥८६॥ इति ।
शब्द मदर्थे । यस्मात् अर्थेष्वपि अर्धप्रतिमासेष्वपि विषयशब्देन विषयप्रतिवेदनाम्, न केवलं व्याहारादिषु इत्यपिशब्दः । प्रसङ्गः पारम्पर्येणार्थ साहित्यस्य । तथा पार्थप्रतिभासानामपि विप्लुताक्षभाविनाम् अर्थप्रत्यायनोपपोर्न व्यभिवार इति शास्त्रकारस्याभिप्रायः । ततश्च यदुखम् - "ग्राह्मप्रतिभासः परमार्थसद्विषयो न भवति तत्प्रतिभासस्वात् विप्लुताक्षरप्रतिभासवत्" [ ] इति तत्प्रतिविहितम् ; निदर्शनस्य १० साध्य कल्यात् । तदेवाह - 'इत्यहेतुमपरे विदुः' इति । इति एवम् अनन्तरहेतुम् अहेतुम् अगमकम् अपरे अर्थवादिनो विदुर्विजानन्ति ।
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इमे 'इन्द्रजाल' इत्यादयो 'विप्लुताक्ष' इत्यादेरेव व्याख्यानश्लोकाः ।
कुतः पुनः सोऽपि प्राह्माकारस्य वर्धित्वम् ? कुन न स्यात् ? अर्थज्ञानादयतिरेका वस्याप्यनुमानादयमात् । तवेदम्-'यत्र 'सहोपलम्भनियमः तत्र भेदः यथा चन्द्रद्र' १५ सहोपलम्भनियम नीलतज्ज्ञानयोः, इसि । नीलस्यैव केवलस्यानुभव न ज्ञानस्य तस्य परोक्षत्वात् कथं तत्र तन्नियम इति चेत्; न; अननुभवविषयासस सम्वानान्तरज्ञानादिवाऽर्थपरिच्छेदानुपपतेः। "ज्ञानान्तरानुभूदासु ततः तत्परिच्छितो अनवस्थानस्याभिधानात् वनासिद्धो हेतुः । नापि रूपालोकाभ्यां व्यभिचारी; तत्र तदभावात् निरालोकयापि रूपस्यानादिसंस्कृत नोपलम्भात् नीरूपस्याप्याललेकर गगनतले विलोकनात । तस्मान नियमो भेदे सति गराश्ववदुपपत्तिमान् । ततो भवत्येष नीलवज्ज्ञानयोस्तस्मादभेय् प्रतिपत्तिरिति चेत् अत्राह
Ra
सहोपलम्भनियमानाभेदो नीलसद्धियोः । इति ।
तस्य बोरसद्धीः, नीलं च तद्वीच नीटसद्वियौ । तस्येत्यत्र नीयायेत्यपेक्षायामप्रवृतिः
१ "सरसंवेद्यस्य नियमेन धिया सह । विषयस्य सम्बत्वं केनाकारेण सिद्धति ॥ विषस्य हि नीलादेर्धिया सह कूदेव संवेदनमिया सह न पृथक् । ततः संवेदनादपरो विषय इति ?"-वार्तिका पृ० ९१३ " द् यस्मादष्टथक् संवेदनमेव तत्तत्मादभिन्नं यथा नीलपीः स्वस्वभाव यथा वा तैमिरिकशाम प्रतिकसी द्वितीय उडुपः चन्द्रमाः । नीलपीचेदम् इति पचविदाः । धर्म्यन गोलाकारसदियों तो रमग्नः साध्यधर्मः, यथेोकः सहोपलम्भनियो हेतुः । ईटस एवाचायदि प्रयोगे देम्यर्थोऽभिप्रेतः" तप० पृ० २ मीमांसा०शि० मी०ज्ञानस्य पक्षं मिशनमिति व ऽनुमानादवगच्छति बुद्धिमिति । तः००५ परोचत् । योगानुरगतात्" - ता० दि०७ सद्दोपलम्भनियमाभावात् सहोपलम्भनियमात् । ९ "स. पेक्षम समर्थ भवतीति" (०म० २११) न्याया समःसाभारः । "ता० दिन
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१८७ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष्रप्रस्तावः
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गमकत्वात्, अनपेक्षायां तु न नीधिय एव प्रतिपत्तिः अन्यधियोऽपि ततः सम्भवात् । तथा वन सहोपलम्भनियमः अन्यधीव्यपेक्षया नीलस्य तदप्रतिवेदनादिति चेत् न प्रकरणादिवशात् तच्छच्वस्य नीलार्थनिर्णये बहिरपेक्षाविराङ्गनकस्वोपपतेः वृत्तिविधानस्याविरोधात | तयोरभेदः तादात्म्यं भेदाभावो वा । कुत एतत् ? सहोपलम्भनियमात् । अस्यार्थः पचाद्विवरिष्यते । हिमादिदर्शनात् ।
तदिदं 'निषेधन्नाह'न' इति । कुत एतदिति चेत् ? पक्षस्य प्रत्यावात् । प्रत्यक्षं हि न ज्ञानात् नीलाच तज्ञानम् अर्थान्सरतया जडेवररूपतया भिन्नजातीयत्वेन सकलप्रेक्षावत्साक्षिकतया प्रतिपद्यमानं तदभेदपक्षं प्रतिक्षिपत्येव, पावकानुष्णपक्षमिव बहनोष्णप्रत्यक्षम् । तन्न तस्य हेतुलात्परिपालनम् ।
"न तस्य हेतुभिखामुत्पतन्नेव यो हृतः ।" [ 1. इषि न्यायात् । १० तद्भदस्यस्य भ्रान्तत्वान तेन तस्य प्रतिक्षेपः चन्द्रार्कादिस्थिर प्रत्यक्षेणेव सद्गतिपक्षस्येति श्वेत् ; न ; बाधकाभावात् । अन्यतस्तद्वावने तत एव तदभेदपरिज्ञानार्थस्तनियमः स्यात् । तन्नियमादेष साधनं देशान्तरप्राप्येरिव स्थिरप्रत्यक्षस्येति चेत् भवेदेवं यदि तत्प्राप्तेरिय " तन्नियमस्याप्यविनाभावनिश्वयः सुलभः स्यात् । न चैवम्, तदलाभस्य वक्ष्यमाणत्वात् । ततो नीलजियोरभेदः, तत्पश्रस्य प्रत्यक्षेण बाधनात् ।
૧
कथमिवं कारिकायामनुक्तमभिधीयत इति चेत् ? न ; सामर्थ्यप्रापितस्याभिधाने दोषाभावात् । परेणैव हि नीलसद्धियोरिति भेदं निर्दिशता, तत्प्रत्यक्षमुपस्थापितं तन्निर्देशस्य "तन्मूलखान "तच्चोपस्थाप्यमानमभेदप्रतिक्षेपकमेव तत्त्यनीकविषयत्वादिति न किश्विद
सामञ्जस्यम् अतश्च न तयोरभेदः । इत्याह
1
विरुद्धासिद्धसन्दिग्धव्यतिरेकान्वयत्वतः ॥८७॥ इति ।
safatherer aufतरेकान्वयौ । अन्वयव्यस्य अावदन्ततया पूर्वनिपातेन भक्तिव्यं तत्कथमयं निर्देश इति चेस् ? न धर्मार्थादिषु दर्शनात व्यतिरेकशब्दस्यापि पूर्वनिपातोप सन्दिग्धौ संशयित व्यतिरेकान्वयो” यस्य सन्दिग्धव्यतिरेकान्वयः । रुद्रादीनां कृत्वा भावप्रत्ययः तस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धा कर्त्तव्य इति । इदमुच्यतेन नीलसद्धियोरभेदस्तादात्म्यं सहोपलम्भनियमात् । कुतः ? तस्य विपक्ष एवं भावेग विरुद्धत्वात् ॥ ५५
मोपलम्भनियमाप्रतिवेदनात् २ "यमाणप्रकारेणो भयोरपि नैतनत्वेनाविदित्यार"-तादि० 1
मीन: "भेदव प्रान्तविज्ञानेश्वतेन्दाविवाहये ४०० २।२८९ । निवेश्या ४०, १०१ ५ पक्षस्य । ६ देशान्तर प्राप्तेरिव । सहोपसम्पनिवस्थापि८ षष्ठी वचनप्रयोगेणं । ९ तम्मिदर्शनस्य ० ० ० विभक्त्या निर्देशस्य १० भेदभाक्षम खत्वात् भेदक्षम् १२ अभेद . १३ "लघुच्यनाद्यदपानमेकम् (शा० २१:११९) इतिसूत्रोक्तप्रकारेण सा दि० । १४-५ प यस्य आ०, ब०, ०१५ "द एव" - ता० दि० ।
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'तथा हि
न्यायपिभिचयवितरणे
*areerये योग न सहार्थो नीलवद्वियोः ।
पर्य यतो लोके भेदाधारं प्रतीतिमत्त् ॥८८१ ॥
atres a eatre बालिकाकुवयोरिव । तयोः परस्परकत्वं कविभिः कल्प्यतां कथम् ? ॥१८८२ ॥ तदनियतो हेतुनिषेधत्येव ते मतम् ।
तत्कथं farnate सजीवनचिया स्थितः ॥८८३३ भेवे गवाश्ववन्नो चेत् सहह नियंमरतयोः " ! desi
विवेकवत् ॥८८४॥
चन्द्रदृष्टवत्तद्विवेकोऽपि ते मतः ।
कानुमानस्य कैमर्थ्यक्येन कपनम् ॥ ८८५ ॥ तस्यैव निश्वयार्थं कल्पनमुदीर्यते ।
चन्द्र ऽपि निश्चयायै मानमन्यत्कल्प्यताम् ॥ ८८६॥ प्रत्यक्षादेव निश्वेश्चन्द्रश्चेत्तदभेदतः । द्विषेोऽपि सत्यमनुमानं पुनर्वृथा ॥ ८८७ ॥ अभेदेऽपि न चैन्द्रश्रिये निश्वयः ।
[ ११८७
पिटिति "सिद्धं निदर्शनम् ||८८८|| वसामय्यास्तत्पत्तेः सनियमो यदि । नीलतज्ज्ञानयोरेव नाभेदेऽपि स्वदुक्कयोः ॥ ८८९ ॥ यः कस्मा भवता भद्र नेष्यते । सहरनियमस्तत्र यत्तयोर्न गवाश्ववत् १८९०३॥ व्यवसाय लोकस्य नीलतज्ज्ञानयोरयम् ।
भेद एवास्ति भेदेत्यनज्ञ (एवास्ति नाभेदे त्यज) निर्बंन्धनेशसम् ॥८९१॥
वतः स्थितं सहोपलम्भनियमस्य विरुद्धत्वान्न ततो नीलवलयोरभेद इति ।
अपि च, एवं विकल्पविकल्पयोरपि मनसोरेकत्वप्रसङ्गः सहोपलम्भनियमात् । अस्ति हि तत्रापि तत्रियमः “मनसो युगपते:" [प्र० वा० २।१३३] इति वचनात् | अनियतैव तंत्र
ना- "शत्र भदन्तशुभगुप्तत्वाद- विरुद्धोऽयं देतुः यस्मात् सहश लोके स्वान्नैवान्ये किमा ति । विरुद्धोऽयं ततो हेतुर्यस्ति सहवेदनम् ॥” तर ६०० पृ० १४६०२७ २] तादाम्ये सहा योग व इत्यन्यः ३ तत् तस्मात् मीक्वलिः । ५ उप्टेन म१०, ५०, प०, ६ "प्रत्यक्षादेव निश्चय इति सम्बन्धनीयम्ता दि० । ● सिद्धिर्निद ०प०८ निर्विकल्पविकल्पकयोः ।
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१८७]
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव संवृतिः केवलस्यैव निर्विकल्पस्य प्रतिसंहारे विकल्पस्य चेन्द्रियव्यापारोपरमें दर्शनादिति चेत् । न; तर्हि नीलतमहानयोरपि तन्नियम वलस्यैव उज्ज्ञानस्य वित्रयान्सरे नीलस्यापि ज्ञानान्तरे दर्शनात् । तदन्यदेव ज्ञानं नीलं च, पूर्वापरैकत्वे प्रमाणाभावस्य निवेदनात् । सतो यमीलसहितं ज्ञान ज्ञानसहितञ्च नीलं सदन्यदेवत्यस्त्येव सत्र सनियम इति चेत् । कथमेवं विकल्पेतरयोरप्यसहभाचिनोरन्यदलात सहप्रसिपनयोसनियम न भवेत् १
तथा च वस्तुयुत्त्यैव तभेदव्यवस्थितः । कथमुक्तमिदम् “मूढः तयोरैक्य व्यवस्थति" ॥ [१० वा०२११३३] दर्शनाभेदतः स्याष्ट्य विकल्पे तत्ततो भवेत् ।। ""विकल्पानुविद्धस्य” इत्यादि "तजडकल्पितम् ॥८९३॥ सवामपि सामान्य वस्तु सस्यास्वलक्ष्मकस् ।
सदवस्त्वभिधेयत्वात्" इति तन्मुन्धभाषितम् ॥८९४॥ विकल्पधर्मयोरेवमभिलाप्येतरात्मनोः ।
सहोपलभादेकरके विकल्पो नायकल्पते ।।८९५॥
तथा हि-न "तस्याभिलायकस्वभावस्य खतो वेदनम्, "तस्यानभिलाप्यस्य तत्रा सम्भवात, अभिलाप्यस्यानभिलाप्यरूपानुपपसे । अभिलाप्यमेव "तदपोसि पेत् ; न तर्हि १५ प्रत्यक्षम् , “तस्थान मिलाप्यस्यैषाभ्यनुज्ञानात् । तृतीयं तु प्रमाणं भवेत् अलिङ्गजस्नानुमा. नेऽप्यनन्तर्भावात् । ततश्च 'प्रमेयद्वविध्यात्" इति व्यभिषारी हेतुर्भषेम, प्रमाणहषिध्याति. क्रमेणापि भावात् । “नाप्ययमनभिलाप्यस्वभाव एष ; "अभिलासंसर्ग" [ न्यायवि० पृ० १३] इत्यादेनिर्विपयत्वापसेः। अभिलाप्याकारविषय खल्वेतत् कथं तदभाचे निर्विषय न भवेत् ? "आयेपिठतदाकारविषयत्वान्न बोष इति चेत् ; न ; आरोपकस्याभावात् । विकल्प "श्व हि आरोपकारी, तस्य धोकन्यायादसम्भवे कुतः क्वचिस्कस्यचिदारोपणमिति विकल्पविकलं सकलं जगद्भवेदिति कथमनुमा यतः सहोपलम्भनियमादित्यसाधनाङ्गतया निमहाधिकरण न भवेत् ? यदि पुनर्विकल्पाविकल्पयोर्विकल्पधर्मयोः अभिलाध्येतराकारयोर्धा सत्यपि सहोपलम्भनियमे नाभेदः । कथं तदा तस्य गमकत्वं व्यभिचारात् ? तदेवाह-विरुद्धस्वास्' इति । विरुद्धत्यं विपक्षस्वीकृतत्वं तस्मादिति ।
१ युगपत्तिः । २ "अरविवारसंहारे सुगतावस्थायामित्यर्थः"-At to ल स्मेति श्रापि सम्ब नीसम्"-सादिक । पिडित कारागारे"-साहि०३५ सदीपलम्भमियमः । ६ केरलस्य दि-आ0,49, -प.। सहीपलाभनियमः 14 सदभेदे म्पयस्थित प्रा०,०,०निर्विकल्पसविकल्पयोरभेदब्यबस्थितेः। १
प्रा. २०१।१. "सविकल्पकस्य विकल्पज्ञानस्येत्यर्थः"-सादित बलिय-10,40, १२ विकल्पमनवेद्यम् । १३ तत् सामान्यमवस्तु । प्र०स०२।११।१७ विकल्पस्य । १५ स्वरसंवेदमस्य।१६-रूपतानुपपत्तेः-मा०प० १७ स्वतो घेदसमपि । १८ प्रवक्षस्य । १९ प्रमेयवाद प्रमाणहविष्यम्"मा. टि। २. विकतः । ३. "अभिलायसवयोम्यप्रतिभावतीतिः कल्पना"-न्यायवि० । २२ स्थित-अभिलाप्याकार । २३ व व्यवहारोप-
श्रा०प०।
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न्यायपिनिश्चयषिधरणे एतेन यत्परस्य मतम्-" नीलतज्ज्ञानयोरेकत्वं तनिक्मेन साध्यते अपितु उभयोरपि चेतनत्वेनाविशिष्टत्वम्” [ ] इति । तदपि प्रत्याख्यातम् । तथा हि
यथैव सन्नियामेऽपि भमसोरविकल्पता । एकस्यैव विकल्पत्वं परस्यैव न तूभयोः ॥८९६।। भीलतज्ज्ञानयोरेवं राज्ञानं चेन्न नीलकम् । तवभिन्नं तु सज्ञानमिति भेदो दुरुत्तरः ॥८९७) अचेतनत्वात्सविरोलिं वेतनमेव चेत् । अन्यतस्ताहि तचित्य साध्य स्त्रियमो वृथा ॥८९८॥ यथा चावेतनस्यापि बिन्तिः सम्भवति स्फुटम् ।
तथा निवेदिवं पूर्ष तरिकमा 'प्रयायते॥८९९॥ किचेई भीलं समानश्च, ययोरखनियमादभेदसाधनम् ? निरंशपरमाणुरूपमिति चेत् ; न ; वक्ष्यमाणोत्तरत्वात् । यवेध प्रसिद्धमिति चेत् ; न तस्य नासावयवसाधारणस्याक्सविसिद्धिभयेनानभ्युपगमात । अभ्युपगमेऽपि न सिद्धो हेतु ; सकीं पश्यतस्तद्विषयस्य"
परेण परिझानेऽपि तज्ञानस्यापरिहानात् । सद्विरकस्यापि परेण कथं परिज्ञानमत्रगतम् ! १५ रोगहर्षादेस्तकार्यस्य दर्शनादिति चेत् ; न ; तस्' सदेकविषयकार्यत्वस्यामुपायत्येनासिद्धा, अनुमानाच्च तत्समानस्यैव परेण परिझानं शक्चरिकल्पन न तस्यैव, सस्य सामान्यविषयत्वात् ।
अपि च, रोमर्यादिकार्यदर्शनात् स्वपस्योरेकविषयत्ववकिसुहादित्यमपि भवेत् , भिन्न सुखादित्वे भिन्नविषयत्वस्याप्यनिवारणाच । देशभेदात् कथं सुखादेरेकस्वमिति चेन् ? न; "एकाधे
तद्देशभेदस्थासम्भवाम् । ततः कथं भिन्न देशो रोमहर्यादिरिति चेत् ! न ; अविरोधात् । २. अन्यथा एकस्माद्विषयादपि तदभावप्रसमान् । रोमहर्षादिभेदाच सुखादेभेदे माद्यस्यापि से"
किन्न स्थादविशेषात् ? ततो यथा भिन्नादेव सुखादेः स्वपरयोः रोमहर्षादिः तथा प्रासादपीति न सदर्शनाद स्थविषयस्य परवेद्यत्वं शक्यविधानं यतो हेतोरसिद्धत्वमिति" । तदुस्तम्
।'अन्येन वेदनं चैतत्कुतोऽवसितमात्मना । तत्कार्यदर्शनाम्नैतत्कार्यत्वस्याप्रसिद्धितः । अनुशनस्य सामान्य विषयत्वस्य वर्णनात् । स एव दृश्यतेऽन्येनेत्येतदेव न सिद्धयति ।।
सहोपलभनियमेन । २ सहोपलम्भनियमेऽपि । ३ परस्म में दुभ-भा. ० .३ ४.नीले चेतन त्वम् । ५ सोपलममनियमः ६ सय २०, प० । ७ वीसच ज्ञान भा०, 41 401 सहोपलम्भमियमात् हारप्रसिद्धम् । १. नर्लफीक्षास्य । रोमहर्षादः । १२ अनुमानस्य 1 १३ प्रतिषश्रोः । १४ल-सप्रतिपत्रीमिग्नदेशवर्तित्वात् । १५ एकत्रैतदेश-भा०, ५०, प०।१६ अभिन्मदेशात् सुखादेः। 10 भिन्मदेशीबरोमहर्षावभाव 1 १८ भेदः । १९ -समुचमिति बार, २०,०।
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kl૮૭ ]
प्रथमः प्रस्थप्रस्तापं ।
यथा च महर्षादिकार्यस्तदेकता' । तथा सुखादेरेकत्वं तत एव प्रसिद्ध्यति || अन्यदेव सुखं तस्य ग्राहामध्यन्यदस्तु तत् । देशभेदात्सुखादीनामन्यत्वमिति चैन्मतिः ॥ mard देशभेदोऽपि कथं सिद्धयति तयतः १ । तत एव सुखादन्ये रोमहर्षादयो न कि ? | अन्यत्वाद्रोमहर्षादेः सुखस्य यदि भिन्नता ।
अन्यत्वे ग्राह्यमप्यन्यदिति वसान्न गृह्यते ? ॥ [ वार्तिकाल ३/३२१]
·
३६१
1
afgata दार्थप्रकाशनम् । स्वष्टस्य वादिनस्य त्रिरूपलिङ्गस्य परेणापरिज्ञाने कथं तं प्रति deerमक्त् जायन्धं प्रति रूपप्रकाशवत् । तदयमन्यत्तरा सिद्धः सहोपलम्भनियमः प्रकाशितस्यापि परेणापरिज्ञानात् । सत्समानस्य परिज्ञानादशेष इति चेत् न स्ववत्परिज्ञाने सत्प्रकाशनवल्यात् । ततस्तत्परिज्ञानमिति चेत्; न; अपरिज्ञातस्य प्रकाशनासम्भवात् । परिज्ञानेsपि त रा फल्यम् । वादिपरिज्ञातस्येति चेसू न i दशोत्तरत्वात्, तत्रापि परेणापरिज्ञानात् । पुनरपि सत्समानस्य तेन परिज्ञानमिति चेत्; न; 'स्वत:' इत्यादेरनु- १५ वृdeoवस्थापते । न च तत्र धर्मिण्यपरस्तन्नियमो ऽस्ति तदप्रतिवेदनान, अप्रतिवेदितस्य ज्ञानस्वभावत्वानुपपत्तेः । धन्तरे विद्यत एवेति चेत् तस्याप्यप्रतिपत्रस्य कथं प्रकाशनम् ? स्वयं ष्टार्थमणविरोधात् । प्रतिपन्नस्येति चेत्; न; चोचरत्वात् । तत्रापि तदपरस्य तत्समानस्य तेन परिज्ञानमिति चेत्; न; 'स्वतः' इत्यात् । एकत्र व धर्मिणि नियम sererit grरपि धर्म्यन्तरे तद्भेदकानायां स एक प्रसङ्गः तस्यापीत्यादिव्यवस्था च । २० गितस्तनियमो व्यवहारादेक एव ततस्तस्यैकत्र प्रकाशनमेव अन्यत्रापि प्रकाशनमिति चेत्; न; एकत्र परिज्ञानस्यैशन्पत्रापि परिज्ञानत्वप्रसङ्गाम् । ततः किम् ? अन्यतोऽपि किम् ? साध्यप्रतिपत्तिरिति चेत् ? ततोऽप्येकार्यपरिज्ञानमेव । ततस्तत्परिज्ञानमपरिज्ञानमेवेति चेन् न ततः साध्यप्रतिपचरपि तदप्रतिपचियापत्तेः । भवत्येवं परस्यैव तत्प्रतिपत्तिमतोऽभावादिति चेन्न तदभावेऽस्यापि वचनस्य वैयर्थ्यात् । इदमपि मा भूदिति चेत न २५ अत्राप्येवं प्रसङ्गात् । पुनरेवमभिधाने अनवस्थदोषान्। ततो दूरप्रसारितस्यापि शब्दस्य परार्थत्वनियमात् कथं तदभावः ? सतोऽपि परस्य प्रत्यक्षादेव 'तस्प्रतिपत्तिः न प्रकाशिताहिकाविवि चेत्; कुत एतत् ? परस्य प्रत्यक्षं नीस्तानाभेदविषयं प्रत्यक्षत्वात् अस्मत्प्रत्यक्ष
1
;
१स्य एका २ अभिपदेशात् ३ "सत्र परामानं स्वष्टार्थप्रकाशन मिश्याचार्ययलक्षणम्"प्र म त्रिपाशनम् ५ अपरस्य सहोपलम्भनियमस्यानुपलम्भात्। ६दिश्ववस्था ०, ब०, प० प्रतिपतितो ममा-आ०, ४०, ५० ८ स्थानदी - ०१०१०१९ क सामेदप्रतिपत्तिः । १० ए०, ब०, प० ।
४६
१०
T
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न्यायविनिश्चयविवरणे
१८७ वदिति घेत; कथमिव द्विष्टकामित्वं स्वपरपोरेकविषयस्वभयान परार्थानुमानमिष्यसे, तदेव पोच्यते इति । सतो दुरतिक्रममेव परविषयस्य परेण परिज्ञानं 'तदर्शनस्य प । दृश्यते हि सामग्रीषशातू परदर्शनस्य प्रतिपतिनं वद्विषयस्य 'पश्यनयमास्ते स तु न ज्ञायते यं पश्यति'
इति व्यवहारदर्शदात् । कथं पुनदर्शनस्यैव परिक्षानं न तद्विषयस्येति चेत् ? ; सत्रै ५ सत्सामाया प्रतिबन्धात् । सामप्रीतस्तदएरिझानेऽपि तदनुमितादर्शनात्तत्परिक्षाने "तस्य दृश्य.
शून्यस्यासम्भवात् , भ्रान्तस्यापि केशोण्डुकादी सत्येय दृश्ये भावात् केवलं स तत्र मिथ्या, सत्याने तु तथ्य इति विभाग इति चेम् ; भवतु नामैवम् , तथापि कस्तव परितोष ? तथापि सहोपलम्भनियमस्याप्रसिद्ध । न हि सामग्रीतो दर्शनस्यैव तसोऽपि विषयस्यैव प्रतिपत्तौ तग्नि
थमः । ततो दुरालाप एवायम् अन्येन बेदन चैतत् इत्यादिः । असाधारणरवे विषयस्य १० वयमप्रबन्धस्याप्यस्य वैयापत्त, प्रकाशितस्यापि परेणापरिहानात् , अपरिझातस्य पारा
ध्यानुफ्यो । लिङ्गायत्तत्समानपरिक्षामाददोप इति चेत् । न ; सस्यातद्वचनत्वेन" सत्यपि तदोषे तमिमहाभाषप्रसङ्गात् । तद्वचनमेवेति चेत् ; न ; "तपरिक्षाने तत्रभवस्यापरिक्षामात् । वत्परिक्षाने तु कलमचाधारणत्वं विषयस्य स्वपरप्रतिपसिविषयस्य सत्वानुपपत्तेः । तदर्य साधारणता धचनस्य प्रतिपद्यमानो नीलादेरेव किन्न प्रतिपोत ?
यत्पुनरत्र घोगम्-"यदि च साधारणत्वं प्रतिभाति त्वया दृष्ट न येति किमिति प्रश्नः प्रमाणान्तरसंवादार्थः। यदि प्रत्यक्षान प्रत्येति वचनादपि नैव प्रत्येष्यति । "सदपि साविभासमेव सूचयति त्वं प्रति ( स्वस्पति ) भासितं मम प्रतिभाति इति । "तेनापि प्रष्टैच झातव्यं तत इतरेतराश्रयदोषः । यच्च प्रत्यक्षेण न प्रतिपन्नं तत्कथं
घवनात्प्रत्येतव्यम् ? न हि प्रत्यक्षेऽर्थे परोपदेशो गरीयान्" [प्रय वार्लिकाल. ३६३३१] २. इति । तदपि व्याकुलचित्ततामलकहरफर्मुरावेदयति ; क्रनसाधारणत्वेऽपि प्रसङ्गान् । दस्थापि
प्रत्यक्षतः प्रतिभासे किमित्ययं प्रश्नः स्वयापि ""शुतं न वेति ! कदाचिदर्शनस्यापि भावात् । तदर्शने कथं तत्साधारणस्वं दर्शनापेक्षवासस्थेसि चेत् । कथं वचनस्याप्यश्वणे तत्त्वं तस्यापि अवमापेक्षत्वात् । अयणयोग्यतयेति चेत् ; ; परस्त्रापि दर्शनयोग्यतया भवेत् । दर्शनाभावे सैद कथं कार्यानुमेयत्वात्तस्या" इति चेत् : न; कदाचिदर्शनस्यापि भावात् , इत्थमेव वचनेऽपि तमावस्थापनोपपतेः । सतो न प्रत्यक्षप्रतिपन्न एव साधारणाकार प्रमाणान्तरसंवादार्थः" प्रश्ना, किन्तु तस्यैव परदर्शनविशिष्टस्य प्रतिपत्तये | उतो न युक्तमुक्तम्--'यदि प्रत्यक्षात्' इत्यादि तथा 'तेनापि इत्याद्यपि। परस्परप्रश्नमानातत्प्रतिपशेरनभ्युपगमात् । ६ च प्रत्यक्षादप्रतिपन्नस्यैव
१५
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परदर्शवस्य । २ वर्शन एक सामध्यनुमिताद । वमविषयपरिक्षारम् । ५ दर्शन दर्शनस्य । विषयः। 6 महोपातम्भनियमः । लिममानेन परि-आ., ०, प० । १. चनस्य विषयप्रतिपादकमाभावेन । "विण्यापरिक्षाने । १२ साधारणवानुवरी १३ वचनमपि । १५ स्थैव - 40, 40, ० ५ श्रुतं तदेवेति श्रा०,५०,०1१६साधारणश्वस्य । 10 तस्वस्यापि ०, २०, ५01साधारपरम्16 योग्यतायाः १९-संमयादथार्थः ०,१०, प.।
।
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प्रथम प्रत्यक्षमस्ताना
३६३
अपनारप्रतिपतिः, न च तत्र वचनस्यागरीयस्त्वं विशिष्टरूपलिपश्यर्थतया तत्वोपपतेः। अत श्वमप्यसमातम् ; 'यथ' इत्यादि । यसवेदमन्यस्
"प्रत्पक्षस्य प्रमाणत्वे वचनस्य प्रमाणत्व (ता)।
एवनस्य प्रमाणत्वे प्रत्यक्षस्येत्यसाध्वदः ।।" [प्र.कार्तिकाल ३३३३१]इति;
सन युक्तं 'प्रत्यक्षस्य' इत्यावि , सति प्रत्यक्षसंवादे कचनमामाण्यस्य लीलाम्यत्वात् ५ 'वचनस्थ इत्यादिक हुँ अयुक्तम् ; तत्संधावनिरपेक्षस्यैव प्रत्यक्षस्य सा(असा)धारणाकारे प्रामाण्या , तस्य च भवतोऽपि प्रसिद्धस्वात् , अन्यथा वाग्व्यापारवैयाफ्रोरिति निवेदनाम्। ततः स्थित विषयविषयिणोरेकस्य अन्यतरस्यापरिक्षानेऽपि परिझानादसिद्ध सहोफ्लम्भनियमः, सतश्च न नीलतद्वियोरभेव इति ।
स्थावाकृतम् भवत्वयं प्रसङ्गो यदि योगपर्व सहशब्दस्यार्थः, न वैषम् , तस्यैकार्थत्वात् । १० श्यते च तस्य तदर्थत्यम् , यथा सहोदर इति । तद्यमर्थः-सह एकस्य उपलम्भः , तत्य नियमाझानस्यैव भार्थस्थ' इत्यवधारणं सस्मादिति , तन्न ; झानमश्रीलादेरप्युपलम्भात् । तदेवं ज्ञानमिति चेत् ; न ; सदन्यस्यैव तस्य 'अहम्' इति प्रतिवेदनात् । अड्मिस्यपि नीला.. घेच प्रतिवेद्यत इति चेत् । न ; सस्य पीतादावभावासमात् । नीलबदन्येदक पत्र सदिति । बेत् ; कुत एतत् ? “पौर्वापर्ये प्रमामाभावादिति चेत् ; न ; अन्यत्वस्याप्यपरिज्ञानप्रसवात् | १५ ने हि पूर्वापरयोरेकेनाऽग्रहणे 'पूर्यसादिदमन्यन्' इति सुपरिझानम् । कुतचित्परिज्ञाने का तदेकरबपरिहानमपि स्यादविशेषात् । तसो न नीलाथेष मानमिष्यसिद्ध एकोपलम्भनियमः ।
सिवस्यापि कि तस्य साध्यम् ! नीलावियोरेकत्वमिति थे ; न ; तदर्शनस्यैद हेतुत्वात् । तदेकरखव्यवहार इति चेत् ; करहि "तव्यवहारो नाम । शनिश्चयरतदभिधानाचेति बेत् ;न; निश्वयाभिधानविषयस्यैव हेतुत्वास" नैकोयलम्भनियमो हेतुः ।
२० पृथगुगलम्भाभाव इति येत् ; फुतस्तरविपत्तिा ! प्रत्यक्षादिति चेत् । न ; प्रसिबन्धाभावात् । तादात्म्य प्रतिबन्ध इति चेत् ; ; प्रत्यक्षस्य "सदभावत्वापत्तेः, हेलोई प्रत्यक्षवान् भाषरूपत्वोपनिपातात् । तदुत्पत्तिरिति चेन् ; न ; अभावस्य सकलशशिविकलसया कारणत्वानुपपत्तेः । न थाकारणस्य अविपत्तिः, नाकारणं विषयः" [ ] "इत्यस्य विरोधान् ।
नाप्यनुमानावत्परिज्ञानम् । प्रत्यक्षाभावे सदनवतारात् , लिङ्गाभावाच । सद्धि लिन भावरूपम् । तस्य प्रत्यक्षवत् पुत्राप्रतिबन्धात् । न याप्रतिबन्धस्य लिहत्वम् । वादास्यादिलिलप्रतिबन्धकल्पनाघैफल्याप नाप्यभाषरूपम् । तत्रापि 'कुतस्तप्रतिपत्तिः
प्रत्यक्षस्येवसानेदा - पालिकाक-। २ सहशान्दस्व ।। एकार्यत्वम् । नालायपि । ५ शानस्य । १ अहमिति प्रतिवेदमस्म । - अहमिति प्रतिवेदनम् । ८ एकस्यैव प्रतिवेदनस्य कमानीवत् पोलादी बम्भवे । "युनः स (मदरसुभगृह ) एमाह-यदि सहशब्द काखदा हेतुरसिमः"तरवस.पृ०५६८18.टि.पृ.१५५: 10 एकस्लीपलम्मयैर हेतुत्ने बासिनसमिति भावः । 19 पड़ामा०,१०,
१११२-स्वाद तहको-8001011३वृषापलम्मामाक्वात् । १५ प्रष्टव्यम्-पृ०२९८वि०१.4
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३व
म्यायधिनिश्यविथरपणे इत्यादेः तादात्म्यादिपर्यन्तस्योपनिपासात् । पुनरभावरूपतल्लिापरिकल्पनाया धनकदोषादनवस्यापत्तेश्च । तन्नानुमानापि तत्परिमानभित्यज्ञातासिद्धस्थानहेतुरेवायम् ।
___कथं वास्यानर्थस्य हेतुत्वम्, "अर्थों यर्थं गमयति" [ ] इत्यस्य विरोधात् । संवृत्यार्थ पवाय परमार्थसः कृतकस्वादेरप्यर्थाभावान् । न हि तिरंशे परमार्थतः कृतकत्वमा ५ नित्यत्वमित्यादिसाभ्यसाधनभूतमर्थद्वयं सम्भवतीति चेत् ; आस्ता सावदेतत् । सन्नायमपि हेतुरसिद्धत्वात् ।
युगपदुपलम्भ एवास्तु हेतुरिति चेत् । न तस्यापि विपक्षणाविरोधात् । अनियेधे गवान्वायौ किन्न तेंदुपलम्भ इति चेत् १ अभेदेऽत्येकाशुमा किन्न स्याम् १ स्वहेतुतस्तथानु
पत्तेरिति चेत्, न; इसरप्रापि समानत्वात् , गवाश्वादेरपि ततस्तथानुत्पत्तेः । ततो यत्र स्वहेसु. १० सामध्यं तम्न भवत्येव भेदेऽपि तदुपलम्भ इसि सिद्धं सदिग्धव्यतिरेकरवा । ततः सूक्तम्
सन्दिग्धव्यतिरेकस्वत इति , तथा सन्दिग्धाचयरक्त इति च, व्यतिरेफसन्देहे अन्वयसन्वेहस्याप्यावश्यकाल (कत्वान्) ।
यापुनर्विचन्द्रादियादिति निदर्शनम् । तदपि न शोभनम् ; साध्यधिकलत्वात् । न हि. द्विचन्द्रावस्तब्शानादभेदः, साकारवादप्रतिविधानात् । परस्पर तदाकारद्वयस्याभेद इति क्षेत् , १५ ; सत्रापि यथाप्रतिभासं भेदस्यैव भावात् । श्रयासरचमभेद एव एकत्यैष चन्द्रमसो द्विरूपतयोफ्लम्भादिति चेत्, न; अन्यथास्थातेरपि प्रतिविधानाए । तत इई कारणोषवशावाकार. सवेवानभासमानं यथाप्रतिमास भिन्नमेधेति सिद्ध साध्यकत्यम् , असश्चानुवारणमिति ।
या पुनरेतत् परमाणुमात्रमेव "नील तज्ञानाविक तरच कल्पित यब साध्यसाधनभेदः परमार्थतो नित्यत्वाचनुमानेऽपि तभायात् इति तदपि न साघीय परिकल्पिता तोस्वस्थता . २० साध्यसिद्धरसम्भवाम्, अन्यथा तत एक भेदस्थापि तारस्य सिद्धिप्रसङ्गात् । तथा हि
थयोः सहोपलम्भनियमस्तयो दो यथा सुगतरयोः सनियमच नीलतनामयोरिति । सुमतोफ्लम्भसमये हि तदन्यस्यानुपरूपावभाव एवं स्यात् सुगतस्यात्यन्तिकरयास् "तिष्ठन्स्येव पराधीना" [प्र०वा १।२०१] "इत्यादिवचनात् । न च तदन्याभाये "सस्यापि
सम्भवः, तस्य जम्चितैषिणो अगदभावेऽनुपपत्ती, अन्योपलम्भे च सुगतस्थानुपलब्धों "तद्वि२५ कले जगद्भवेन् , संसारिप्रवाहस्याप्यपर्यन्तत्यान ! न भेदं पथ्यं भवताम् अनुमानमुद्राभेदापत
ध्यातिपरिज्ञानस्य तवायत्तत्यान् , "न च सम्बन्धी व्याप्यसर्वचिदा ग्रहीतुं शक्या" [प्र. वार्तिकाल• १९२] इत्यलारवचनम् । सर्वविदस्तज्ञाने कथमितरस्यानुमानमिति वेत् ? इदमपि भवानेव प्रष्टव्यो य एवं शूक्षे । सदरित " तयोस्तनियम इति न साधनकल्य
सरप्रतिजा , . .। २ पृथगुपसम्भाभावः। ३वाद् युगपदुफ्जम्भवपलम्भ-4.1 -खाद युगपदुवलम्भवत् गुणपदु-आ०, २०१४ मेदेन । ५ युपपदुपलभः । ६ -मदिवावमा--0001
नीलपीतांना--भा०,4,400 साध्यसाधनामावात् । ९. सारिकाप । १. "कल्पकापारासयेषभावनापरिलक्षिसाः । सिष्ठम्त्यैर पराभीगा को तु महती कृपा-अभिन. पृ. १३४ गतस्थापि । १२ सुगर अन्यम् । १३ गतेतरयोः सहोलम्भनियमः ।
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१६८२]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
मुदाहरणस्य । नापि साध्ययकल्यम् अभेदे संसारिणि सुरातत्वस्य सुगते च संसारिस्वस्थानभिमतस्य ARTH | संसारीतरविभाग न नान्ति सचिव तस्यैव सावतो भावात तक वस्योदाहरणत्यमिति चेन् ? कथमिदानी संदभेदानुमान सवैते धर्मिहेतूदाहरणविभागभावात् , अनुमानस्य च सन्मूलत्वाम् । सपि मा भूदिति चेन्; न सहि भवामस्माकं प्रतिवादी तद . नुमानचादिन एक संत्त्वात , वेन चास्यातिप्रसङ्गस्य हुँप्परिहरत्वादिति कथमतो न भेषसिद्धिः १ ५
तयं प्रतिपक्षमनपाकुर्वत एव कल्पितायेतोः साध्यसिविं सास्त्रिकीमन्विच्छन् कथमिष प्रज्ञावन्तमात्मानं प्रेक्षाषया प्रकटीकुर्यात, यदि केनापि निष्ठुरहृदयेन विलन्धो न भवेत् । तदेवाह
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साध्यसाधनसङ्कल्पस्तत्वतो न निरूपितः । परमार्थावताराय कुतश्चिस्परिकल्पितः 1८८|| अनपायीति विद्वत्सापास्मन्याशंसमानका। केनापि विपलब्धोऽयं हा ! कष्टमकृपालना ॥८९॥ इति ।
साध्यं नीलतज्ज्ञानयोरभेदः साधन सहोपलम्भनियमः , तयोः सवरूपः समर्थन स तत्त्वतः निरंशवस्तु समाश्रित्य न निरूपितः न स्थापितः, निरंशत्वे साध्यादिधर्मभेदस्य, सम्मिश्च निरंशत्वस्यासम्भवादिवि भायः । कीरशास्तहि स इत्याइ-परिकस्पितः १५ अध्यारोपितः । कुतः परिकल्पित ? कुतश्चिद्विकल्पबुद्धिमलाम् । किमर्थम् । परमार्थाष. साराय परमार्थस्य नीलतनानाभेदस्यास्तारः प्रतिपाद्यवेससि प्रवेश तस्मै इति । कुतः पुनः परिकल्पितस्य तदवसारार्थत्व(स्वम् ?) इति चेत् । अनपायी अव्यभिचारी यत इति। ने शा परिकस्पितस्यापि तदर्थत्वम् अव्यभिचारादन्यतः तस्य । परिकल्पिते ऽपि भाथे कथं तस्यापि न तदर्थत्वगिसि मन्यते । अत्र दूषणम् इति एवं विद्वत्ता प्रश्नावलज्ञालिताम् आत्मनि २० स्वरूपे आशंसमानकः "न्यायमार्गतुलारूद जगदेकत्र मम्मतिः" [ ] इत्या. दिनी कुत्सितमाशंसमान अयं प्रसिद्धो धर्मकीर्तिः केनापि दिङमागादिना विप्रलब्धो यद्वितः । कीदृशेन ! अकृपाटना निष्कृपेण । सकृपस्य परपञ्चकत्यासम्भवात् । कञ्चकत्वञ्च तस्थासत एव तत्सङ्कल्पस्योपदेशात् । कल्पनया सन्नेवासाविति येत । न तस्या" एवं साध्यसाधनोभयधर्मपरामर्शद्वयात्मनो निरंशवस्तुबरादेऽनुपपते।। तस्या अपि कल्पनयोपपता- २५ वव्यवस्थापनः । ततो न तात्विकस्तरसङ्कल्पो नापि सांवृत इति कथं तदुपदेशी न बच्चको
मालतजियोरभेदानुमानम् । २ प्रतिवादिस्वात् । ३ दुष्परिहार-मा०, ५०, ०। ४ दिपिच यदि-मा०, २०, ०। ५ निरंशं वस्तु भा०,व०,०। ६ परमार्थावदासर्थत्वम् । श्वव्यभिचारस्य। "न्यायमार्गतुलाराई जगदेवत्र यन्मतिः । (हेतु जि. पृ. 1) खगेन अर्यटेम धर्मकीर्तिस्तवनं कृतम् । अनेन ज्ञायते यत् धर्मकीर्सिमापि करिमविन्ये म्यायमार्गदुलाहाम्' इत्यादिभिरेव स्वस्तवनं कृतम् । १ सङ्कल्पः । १. करूपनाया एय।
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३६६
भ्यायविनिश्चयविवरण
दिनागादिः' ? कथं वा तयामाण्यादसन्रामेव तमनपाथिनं प्रतिपद्यमानो न विपलब्धो धर्म कीतिः ? कास्पनिकस्य व तत्सत्वस्य प्रतिक्षेपात् | अप्रतिक्षेपेऽपि कुतस्तस्य सदनपायित्व प्रति बन्धस्य तास्त्रिकस्याभावात् , कल्पितस्य विपक्षेऽप्यविशेपाह । तस्मादसन्तमसाध्यप्रतिवन्धन तमनपाविनं प्रतिपयमानो वञ्चित गवाया , अतश्च यदस्य विद्वत्साशंसनं तदपि कुत्सितमिति ।
साध्यसाधनसङ्कल्पत्रस्तुतत्त्वं न बेश्ययम् । वर्णयत्यपि तद्वित्वं मूढवं किातः परम् ॥९००
शास्त्रकारः पुनरत्र विवादमावेदयनात्मनि कारुणिकत्वं प्रदर्शयति-'हा कष्टम्' इति
अविद्योल्लासमुत्पश्यन् दिइनागादी सुदुःखदम् ।
हा कष्टमिति देवोऽयं कृपालुत्वाद्वियीदति ॥९०१॥ .. तस्मान्न कल्पितस्य नियमस्य सम्याहेतुले यतो नीलतज्ज्ञानोरभेवः सिद्धयत् ।
का पुनरय नीलादि म यस्य तज्ज्ञानभेदिनो पहिरर्थत्वं परिकल्येत ? परमाणुसन्दोह इति चेत् ; न; तत्र छायावरणादेरर्थप्रयोजनस्यासम्भवात् । न हि परमाणवः छायाविधायिनो विरलपरिमण्डलात्मना छत्रादिरूपसानुपपत्तेः । अत एव न पततो जलाराधार. कारिणः । कथं का तकाकर्षणे नियमगेनान्याकर्षणं भेदे सदनुपलभात् । नाय योपो योग्यता. विशेषात् । दृश्यते हि भेदेऽपि विशेषादयस्कान्ताकर्षणे लोहाकणं तद्वत्परमाणुपि भवेन् । नापि तत्र छायावरणादेरण्यसम्भवा; योग्यतावलादेव सस्या युपपत्तेः, दृश्यते हि तलाद् बहुछिद्राणामपि चषकादीनां परम्भःप्रतिबन्धित्वमिति चेत् । स्यादेतदेव ; यदि परमाणव:
प्रतीयेरन , न वैषम् , कैकश: समुदायेन का तत्प्रतिपत्तेरप्रतियेदनात् । न चाप्रतिपन्नेषु २० रटान्तमात्रा इदन्त्वम् अनिदरवं चा शक्यम्यवस्थापनम, अतिप्रसङ्गात् । तत्र संत्सन्दोहो
नीलादिः । तदारब्धोऽवयवति श्वेन् ; न: परमाणूनों निरपेक्षतया सदारम्भकत्वे पृथग्दशाया मपि प्रसङ्गान् । संयोगसव्येपक्षाणां तस्थे "संयोगो ययोकदेशेन , अव्यपस्थापत्तिः । तदाह
तत्र विभागभेदेन षडशाः परमाणकः । इति ।
सत्र तस्मिन् संयोगे दिश एव भागा दिग्भागात दस्देन षडशाः पडक्यवाः परमाणयो भवेयुरिति शेषः । तथा हि-पाइयदिग्भागेषु चर्तुपु उपर्यधस्ताइ व्यवस्थितः । २५ परमाणुभिरभिसम्बध्यमानस्य मध्यपरमारोरवश्यम्भाविना पडेकदेशा तदभावे प्रत्येक तास
म्सन्मानुपपत्तेः । तथा व सुव्यवस्थितं नित्यत्वम् , सावयवत्वे विनाशस्यावश्यम्भावान । कई था परमाणुस्वम् , सावयवस्य कार्यद्रव्यवस् स्थूलस्वात् १ सदवयवाना व्यतिरेकादिति खेल
1-दिक:-140,40१२-सच प्र-श्रा०,40,401 ३लबायचं आ०,०, ५० १ सदीपलम्भनियमस्य । ५ योग्यता विशेषान् । ६ नाशुसमुदायः । ७ "पटकन शुगपयोगातू परमागः पाई. शता पण समानदेशत्वात पि: स्यारशुमारकः"-विसि कि० + । अतु-शः पू. 20 तस्पसं.पू. २011
LA
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१९९१) प्रथम प्रत्यक्षप्रस्ताव
३६७ कथमेन तस्तस्य सावयवस्वम् । सम्बन्धादिति चेन्न पि दिग्भागमेदिभिरभिसम्बद्धमानस्य तस्य पुनः पशतापत्तेः। पुनः सदानां तब्यतिरेकपरिकल्पनायामनवस्थान प्रायदोपानतिधृत्तेः । न पापर्यवसायिनस्तदंशाः प्रवीतिक्षिपयाः । पकनेशेन तेषां संयोगः । सर्षात्ममेति चेत् ; आह
___ नो स्पिण्डोऽणुमात्रः स्यात् [नच ते बुद्धिगोचराः ॥९॥ इति । ५
नो चेत् न यदि पडशा परमाणध एकदेशेन संयोगस्याभावान् सर्वात्मनेव तदभ्युगमात, तथा प पिष्टः परमाणुप्रकृया अg व अणुमानः स्थान भोस । निरभाग दिनां हि परमाणूनां सर्वात्ममा मध्यपरमाणुना सम्बन्धे तदनुप्रवेशस्यावश्यम्भावात् । स एकोऽवशिष्यत इति मन्यते । सथा वन कार्य तस्यैकद्रव्यस्यासम्भवान्, "[अ] द्रव्यमनेकद्रव्य प द्रध्यम्" इत्यभ्युपगमात् ।
भवतु वा कथमपि संयोगः, स तु कथनप्रतिपन्नाना; अतिप्रसङ्गात् , अप्रतिपन्नाश्च परमाणवः प्रत्यक्षतस्तदप्रतिभासमान् । तदाह-न च से बुद्धिगोचराः इति । न च नैव ते परमाणवो बुद्धः अध्यभसंविदो गोधरा विषयाः स्थूलस्यैव स्तम्भा. देस्तत्र प्रतिभासनात् । तथापि तत्कस्पनायाम् अव्यवस्थापतेः । अनुमानाताई तत्प्रतिपत्तिः तच्छेदम्-विवादापन सद्ध्यणुकं स्वतोऽल्पपरिमाणावयवारब्धं कार्यत्वात् पटादिवत् । ये च १५ ततोऽल्पपरिमाणा ने परमाणत्र इति चेत् । न पटादे परकल्पितस्याभावात् , निदर्शनत्यानुपत्तः । अभावश्च तस्य परिस्टमनयमासनात् । तमाह
म कम् [एकरागादी समरागादिदोषतः । इति ।
न च नैव एकम् अखण्डम अवयवनिक्रान्तं 'पटादि इति । 'कुतः' इति प्रश्ने 'न च से' इत्यादि । न च सद्बुद्धि गोचर इति बचनपरिणामेन हेतुपदमभिधातव्यम् । २०
हेत्वन्तरमाह-एकरागावी समरागादिदोषतः इति । राग आदिर्यस्य चलनावरणादेः स तथोक्ता एफस्य प्रदेशस्य रागादिरेकरागाविस्वस्मिन् समः साधा. रणः प्रदेशान्तरस्य रागादिः स एव दोषस्तरमाता इति । फत्वे हि शरीरादेः क्वचिद्रागाचा सर्वत्र तेन भविसम्यं रागादिमतः प्रदेशातदपरस्थानान्तरत्वात् । न हि
पृषाभूसाक्ष्यनैः परमाणः । २ सावयः। ३ अनन्दाः । ४ सम्वदेससदनी-मा०, २०, ५० । ५-विशेषतः इति मा०प००। ६ कार्यस्य । - "सथा द्रब्य द्रश्यमनेवव्ये व व्यमिति बचायाधतः । तथा हिम विधसे अन्य जन व व्यरिपत्रव्यम् । परापूनो अमर नास्त्याकाशादीमो मायावापि मनकमित्यकाम , निस्तब्यमिति यावत् । अनेकान्य बनेकाध्यं जनकमत्येत्यनेम स्वरूष द्विविधमे द्रव्यमान्य नित्यममेकद्रव्यमान्य मामिति । एम्यस्य व कार्यदन्यस्यायुपमे घाइतमेद् भवतीति ।"-प्रश- प्यो १० २५६ ।
-2--00, 01 "त्या कार्यान्हल्पपरिमाण समवासिकारणम् । तस्याप्यन्यदायपरिमाणमित्याचं कार्य निरतिशयाघुपस्मिाक्षरारब्धमिति ज्ञायते ।"-प्रशयो .2-२२४ । "कर्मपरिमाणापेक्षया तदवयवपरिमाणस्य लोके उत्पीयस्त्वप्रतीतः यश तायवः स परमभविष्यति ।"-90. सह. पु•३। अपवारणारममा०प०,१०० वरपरिक-मा०,२०,२९पटादिति मा०,०,५०
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न्यायविनिश्यविवरले
'निष्पर्यायं तत्रैव रागादिस्तभावश्चोपपनो विरोशत् । ततः पाण्यादौ रामे चलने चापरणे
प्रवेशान्तरेऽपि तत्प्रतिपतिः स्यात् । न चैवम् , तन तदभावस्थैव परिज्ञानात् । प्रदेशान्तर. यद्वा पाण्यादावपि न 'तत्यतीतिः स्यात् सप्तः तस्यैकान्तेनाभवात् । न चैवम् , पाण्यादी सद्भावस्य प्रदेशान्तरे च सदभावस्य निर्विवाद प्रतिपत्तेः । भिन्न एवं परस्परं प्रदेशाः श्वेश्येव । ५ तु तद्गतरे म भिद्यते तदमप्रसङ्ग इति चेत् ; ममि प्रदेशगमश्चलनादिः प्रदेशिनं यदि । नोपसर्पति सत्रैव चलतः प्रदेशामचलतस्तस्य प्रथसिद्धिः स्यात् । एवं समादावधि । उपसर्प. सीति छन् । न; सौर इतरंग्यपि पलप्त एव सस्य परिज्ञामापत्तः। एवं रामादावपि । 'वैवम् । तन्न "चलाचलादिः कश्चिदेकोऽवयवीति । “तदुक्तम्
"पाण्यादिकम्पे सर्वस्य कम्पप्राप्तेविरोधिनः । एकत्र कर्मणो [योमात्स्यात्पृथक्सिद्धिरन्यथा ॥ एकस्य चावृती सर्वस्यातिः स्यादनाहती। दृश्येत रक्त चैकलिन् रागोरक्तस्य वा]मतिः । नास्त्येक समुदायोऽस्मात्" [प्र०वा० ११८६-८८] इति ।
अत्र यदासर्वज्ञस्य प्रत्यवस्थानम्- “यचावन्नास्त्येकोऽवयवी तस्य पाण्यादिकम्पे १५ सर्वकम्पप्राप्तेरिति । तद युक्तम् ; व्याप्रमसिद्धत्वात् । न हि यस्य पाण्यादिकम्पे सर्व
कम्पप्राप्तिः तस्यामाका इत्येवं व्याप्तिः कचिट्ठहोता । नापि यस्य सत्य तस्य न पाया दिकम्पे सर्वकम्पप्राप्तिः इत्येवं व्याप्तिः परेण न च दृष्टान्ताभाये स्वपक्षसिद्धौ परफ्लनिकरण घा कधिद्धेतो सामध्यं दृष्टम् " [ ] इति ; तन्न युक्तम् । ।
घौद्धमतामभिशानान् । न मात्र योद्धेन विशेष्यस्यैयाययियो निषेधः साध्यत्वेनाभिवतः , स्वयः ।। १. मपि न्यवहारप्रसिद्धया तस्याभ्युपगमात् , अपि तु तहिशेषणस्यैकत्वस्यैव तन्ने विप्रतिपत्तेः। अत एव 'नास्त्येकः समुदायः' इत्युक्तम् , अन्यथा 'नास्ति समुदाया' इत्येयोच्यते । सुरन्त्र चलाचलाविरूपो विरुद्धधर्माध्यास एक, तस्यैव साध्यविपक्षे "तविरुद्वधर्मप्रसङ्गापादन
५ युपपत् । २ चटन:दिप्रतीतिः । ३ प्रशिन। * " वेदमिथापादनं योगामाम तरयुतसिद्धयोः ४५. इसिद्धधन होकारान्'-सादिक ५ पलादिः आ.., "पाण्यादिकम्प सर्यस्य कम्पनाले। पदि पाण्यादयोऽवय स्वायम्वरूपसा करण्यादेः कम्पे सति पर्यस्य पादादैरपि कम्पः प्रनीति । एकस्मितहिान् कर्ममा कम्पस्य विरोधिनीSEEarयोगात ....... अधावयवेभ्यो भिगोषवयधी ! अत एवैकस्मिनयदे कम्पमाने माझ्यवान्तरस्व कम्पः लदापि स्वयधपिरिभा अवयवाक्यविनी वे पृथकम्पमानाक्यकारकम्यमानस्यास्यविनः समवेतस्य गैदेन तत्रैवाक्य सिसिः स्थान सरोकनन् ।... अचाभेदपझे एक्स्वानास्पाती सस्यावृतिइव स्यादिति प्रसाभेदपक्षमाश्रियानाकृती भाविनः स्वीक्रियमाणायामात एकावयवना वृतोऽसी दृश्यतेति । अथाभेदपले रके चैकस्मिवश्य सर्वषयवे रामो देवतेति प्रसः । भेदपोतु एफ एवाश्योरकस्य. खावयमिनो वाऽतिः स्वादिति प्रा"-पा०म० अति 11८६-८७ । अश्वविनि पृ. ८५ । क्षनिवारणी भा०,५०,०14 स्म वि-आ.व.प० । ९-त्यतै आग,२०प०१.दिदधर्मा-मा०,००।
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१९१]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव व्याजेन कथनास् | पास्त्येव च्यातिप्रसिद्धिः यस्मिन् चलत्यपि यन्न पलसि न तत्तेने यथा पणेम पापाणं:, चलत्यपि पाणिशरीरे न चलति प्रदेशान्तरशरीरमिति । तत्कथन ष्टान्तो
न च इत्यादि सूक्तं भवेत् ! सूक्तमेवेदम् , अययविनमनभ्युपगच्छतः पर्णपामणयोरण्यभाषादिति चेत् । न व्यवहारप्रसिद्ध्या तदभ्युपगमस्योवस्वात् ।
अवघ्येसपर तस्यैव-नि कश्चिदनुन्मत्तः प्रत्यवतिष्ठते नास्त्येको बन्ध्यापुत्रः ५ तस्य पाण्यादिकम्प सर्वकम्पप्राप्लेः, अकम्पने का चलाचलयोः पृथकसिद्धिप्रसङ्गः खपुपखावत्" [ ] इति । तदपि न सुभाषितम् । पन्ध्यासुतविलक्षणस्यावयविनः स्वपुष्पादिविलक्षणयोश्च पर्णपाषाणयोमौसमतेऽपि प्रसिद्धत्वात् । तदवष्टम्भेन प्रत्यवशिष्ठमानस्योन्मसत्वानुपपत्तेः । तन्नागृहातव्यापको हेतुः ।
नामसिद्धः । तत्प्रीतिभावास ! सामु चलप्रसीतिरचलत्यपि स्यादिवच्चलावयवसम- 1. बाथात् , तथा चलत्यपि अचलस्तीतिः अबलावरबसमसयानिमित्तात सम्भवति तत्कथं तन्मात्रात क्वचिकलाचलयं तस्वतः सिष्यति ? विभ्रमस्य असत्यपि तस्मिन् सम्भवात् , तक्षः सन्दिग्धासिद्धो हेतुरिति चेत् ; अर्थ वकः शरीरस्यापि सिद्धिः, विभ्रमतदयोगात् । चलादिरूप एव विभ्रमो न शरीर इति चेत् ; न ; विभ्रमेतररूपतया प्रत्ययभेदप्रसङ्गात । नब मिन ए हत्पत्यया, 'चलति शरीरम्' इति, विशेषणविशेष्यविषयस्यैकस्यैव तस्यानुभवात् । १५ भ्रान्तस्तदनुभव इति चेत् । कथं ततः प्रत्ययस्यापि सिद्धिः विभ्रमात्सहयोगात् ? तदेकरव एष सवित्रभो न प्रत्यये इति धेन् । न विभ्रमेतररूपतया तद्भेदप्रसङ्गात् । न च भित्र एवानुभव 'पक एवाय' इति विशेष्यविशेषणविषयात्यैकस्यैव तस्मनुभवात् । प्रान्तस्तदनुभव इति चेस; न ; प्राध्यासानुबन्धादनवस्थानोपनिपाताल । ततः शरीरवश्वलायलरवाहावयभ्रान्त एव प्रत्यय इति बस्तुत एव तरिसद्धेः कथं सन्दिावासिवय साधनस्य !
____ मा भूत्सन्दिग्धासिद्धर्व सन्दिग्धव्यतिरेकत्वे तु स्यात् , संयोगषच्चलनस्यापि अंदेशवृतित्वेनकस्थापि पलायलप्रत्ययविषयत्वाविरोधादिति चेन् । ने, प्रदेशाभावे प्रदेशवृत्तिखानुपपत्तेः ! श्रव्यापकत्वमेव तस्य तत्तित्वमिति वेत् । न ; प्रदेशामाये तस्यैवानुपरः । तेदधिचितेतरप्रदेशसहावे हि तंत्र तस्याव्यापकत्वं नान्यथा । संयोगस्य कथमित्यपि न युक्तम् । तत्रापि समानत्वात् तत्पर्यनुयोगस्य, तस्याप्येकाश्यपिनि अध्यापकत्वानुपपोरिति । व्याध्यस्य' २५ 'प्रदेशवस्यान संयोगस्याध्यापकत्वम् , अपि तु 'तेद्धमत्वात् । तथा च परस्य पवनम्... "संयोगस्यैव ह्येवं धर्मो येन पत्र यत्रायवे सम्बद्धोऽवयवी दृश्यते तत्र तत्र रूपादिय
• अन्न 'य'इस्याथ्याहार्यम् । २ मासशस्यैव । ३ न चल सा., १०, ५।४ प्रतीलिमात्रान् । ५ अनुभवात् । एसायमन-आ-, प०,० भावाप्य वृत्तिवेन । ८ अठ्यापकत्वस्थानुपपः । ९ सदधिचितप्रदेशाद भित्र प्रदेशसभा तरप्रदेशे। अनय दिनः । प्रदेशत्वा-भा००० अम्पाप हि संयोगव धर्म इति भावः ।
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न्यायविनिषिधर पो
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दुपलम्भकारणावैगुण्येऽपि संयोगो नोपलभ्यते " [
] इति । तस्मादेषं धर्मत्वादेव संयोगादेः प्रदेशवृत्तित्वं न 'व्याप्यस्य प्रदेशवस्वात् । तद्वचनस्यापीति चेत्; न; तद्धर्मणः संयोगस्यैव बौद्धं प्रत्यसिद्धत्वेन त्वानुपपतेः । अप्रसिद्धोऽपि परप्रसिद्धेन येते व वाय-वधा सम्म निर्विकल्पकेन ज्ञानेन तदेव सविकल्पकं ज्ञानमात्मसर्श कथञ्चिदुत्पादितं कथश्चिमेत्यभिन्नस्यैशंशः परिकरूप्यते तथा संयोगाद्याधरस्यापीत्यदुष्टं संयोगादेः प्रदेशवृत्तित्त्रम्" [ इति
चेत्; न; वैषम्यादुपन्यासस्य । न हि विकल्पज्ञानम् एकान्तेनाभिन्नमेत्र, सरशेतरस्वभावयो: - तदर्थान्तरत्वाभावानभ्युपगमात् । सदनर्थान्तरत्थे तु कथं ताभ्यामन्योन्यभेदिभ्यामभित्र earance १ येनोच्यते- 'अभिन्नस्यैव' इति । न वावयविन्यपि कथविद् भेदवत्येव १० संयोगादेः प्रवेशवृत्तित्वम्, 'संयोगस्येय' इत्यादिविरोधाद्, अनेकान्तवादोपाश्रयप्रसङ्गाच्च । बौद्ध स्थापि senre deveङ्ग इति चेत् ? * एवमाह-'न' इति ! " चित्रप्रतिभासाप्येकैव बुद्धि : " [ro वार्तिकाल० २१२१९] इति वचनात् । क इदानीं जैनासस्ये विशेष इति चेत् ? न; पर्यन्ते तस्यापि तेन निराकरणात् "अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा" [प्र० वा० २।३५४] इत्यादिवचनात् । न संयोगान्तेन स्वमायादेव प्रदेशवृतित्वं चलनस्य, अपि तु व्याप्य१५ भेदादेव इति न सन्दिग्धो व्यतिरेकः तत्रियस्यैष भावात् । तस्मादुपपन्नमेतत्-नैकोऽवयवी चलाचरत्वान अन्यथा तदयोगादिति ।
३७०
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"तथा, 'आसामावृतखात्' इति च नन्विदम् अश्यन्देव सिनेषु नात्रयविनि तस्मादसिद्धमिति चेत् अक्ष्यविनि तर्हि किम् ? आवरणमेवेति चेत्; न; मनामध्यदर्शनप्रसङ्गात् । 'अनावरण मेष' इत्यपि न युक्तम्; अविकलस्य दर्शनापत्तेः अविकल एक सर २० इति चेत्; न; तथानुभवाभावात् सन्देहानुपपत्तेश्च । न हि अविलष्ट्र एव सन्देहः । भवति चायम् अर्धायुतं पश्यत: किमयं देवदसः किं वा तदपरः' इति च । अवयवाग्रहणात् सन्देह इति चेत् तदग्रहणेन तदर्शनस्य प्रतिबन्धे कथमविष्टदर्शन कल्पनम् ? अप्रतिबन्धे तु क द्विरोधित्वात् । निश्चयरूपं च दर्शनम
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सत्र सन्देहो निश्चिते 'तदनुपपत्ते, निश्चयस्य "व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षम् " ] इति वचनात् । कथं चयमवयवप्रण २५ मन्तरेण दृश्येत ? 'तैलस्य तद्दर्शनं प्रत्यनङ्गत्यादिति चेत्; न; कतिपयाषयग्रहणाभावेऽि 'सत् । कावयवहणमेव 'वेदनङ्गमिति चेत्; कथमिवानी सकलावयवनिष्ठतया दस्य
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१] अवयधिनः । २ निर्विकल्पशालेन। ३ भावावनभ्यु ता० । विकल्पज्ञानान्तरस्वभावयोर्मित्रत्वाभ्युपगमात् । ४ विस्पज्ञानस्य ५६ विद्धिरिति वपनस्थापि देश-आ०, ब० । ८ तु च्यव्याप्या० ० प० ९ का आ०, ब०, प०:१० तथा वृथा नाव-अस०, ब०, ९० । “अथवा अम्मा विरुद्धधर्मसंसर्गः । तथा हि-आवृते एकस्मिन् पाप्यादी स्थू स्यार्थस्य भावानारूपे युगपद्रवन्तौ विरुद्धधर्मसंयोगमस्य आनंदवराः । - वयविनि १० ८५११ देवानुपपत्तेः । १२ अवयव १३ अवयवस्य । १४ अवदर्शनात् । १५ अभ्यावेदर्शनानम् ।
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प्रगमरवक्षप्रस्ताव:
३७१ दर्शनम् , सत्येव तहणे तटुपपत्तेः ! मा भूदिति चेत् ; कथमधिकलदर्शनं 'सनिस्वभाव. विकलस्यैव पर्शनाम् । तमित्वं नाम तत्समवायः, तस्य च तचो भेदान् न सरयाष्टाक्ष्यपनिदर्शनत्य चैकस्यमिसि चेत् । कथमर्थान्तरत्ये तस्य तेन तनिष्नोऽवयधीति व्यपदेशः ? सम्बन्धादिति चेत्र ; सर्हि स्वभावः कथं तदग्दर्शने दृश्येत ? तस्वभावतया मादीति चेत् । न ; दर्शनकायस्थोकयात् । तस्यापि सतो भेदादग्रमदोष इति चेत् । कथं न ५ सम्बद्धोऽवयत्रीति व्यपदेशा ? सम्बन्धादिसि च । न ; दहि' इत्यादेरावृत्या चक्रकापत्तेरनवस्थानास । ततो दूरमनुसत्यापि कस्यविरसम्बन्धस्य वत्स्वभावत्वं चेदभ्यनुज्ञायेत शच्यस्य तन्निनस्वस्वैव तदभ्यनुज्ञातव्यम् । न च तस्य सकलायवप्रणमन्तरेण दर्शनम् , आधेयदर्शनस्याधारग्रहणसव्यपेक्षयात । श्याक्यनिष्टतथैव तु दर्शनेऽपि सिद्धे विकलदर्शनम् । न च "तत् अनावृतस्योपपन्नमित्यषयविन्येस अर्धावरणभावाभासिद्धत्वं साधनस्थ । 'सन्दिग्धन्यति- १० रेकत्वं तु पूर्धवटुवाच्य समायतिव्यम् । ततो भवत्येवास्मादपि हेतोकोऽवयवीति ।
____तथा "रतारतस्यादित्यतोऽपि । रक्तारहि तन्तुभिरारब्धे पटे अवश्यम्भवत्येक रतारतमा तया रूपभेदो न भवस्येष सत्रैकस्यैव रूपस्य चित्रस्य भावात् । तथा च प्रतिपतिः चित्रमिदं रूपमिति चेत् ; न; 'चिनं चैकं च' इति व्यापाता-भेदस्य चित्रार्थत्वात् अभेदस्य कार्थत्वात् , भेदाभेदयोश्च परस्परपरिहारस्वरूपाधिकरणतया विरोधस्य सुप्रसिद्धत्मात् । उपच-१५
"चित्रं तदेकमिति चेदिदं चित्रतरं ततः ।" [म. या० २।२००]
भवतु तदेकमेव न चित्रं नीलपीलादिविशेषैरनिदेश्यस्यादिति चेत् ; न; सारस्याप्रतिभासनात् । अप्रतिभासितस्यापि ध्यग्रहणादनुगमः, नीरूपस्य व्यस्य दर्शनायडेगादिति चेत् । कधम्नुपयस्य द्रव्यप्रतिपत्त्यतस्वम् अभ्यत्रैवमदर्शनान् । तथापि तस्कृल्पने फिमरूपस्यैव द्रव्यस्य न दर्शनकल्पनम् , अविशेषात् ? भवत्येक तयूपं प्रतिभासयच, तथापि कथं तत्र चित्र. २० प्रतिमासः १ चित्ररूपानयवसम्बन्धादिति चेत् ; न; उपाधिकृतस्येन विभ्रमस्यापत्तेः । न चासो विभ्रम पत्र, चित्राकारबसपस्यापि ततोऽसिद्धिप्रसङ्गात् । चित्रत्व एवासी विभ्रमो ने दूप इसि चेत् ; न; विप्रभेटरात्मना तस्यैव चित्रत्यायः, तस्य च बसुतस्तत्त्वे तपस्यैव किन्न स्यात् ? तदप्युपाधिनियमानमेव न छास्तवमिति चेत् ; न तत्प्रतिभासस्यापि विघ्नमस्यापत्तेः । न चासो विम एव ततश्चियत्वरप्राध्यप्रतिभासस्थापि असिद्धिप्रसङ्गात् । चित्राकार एवासी विक्रमी -. ---....-...-...--------------------.
.. - ....1-विकल्पद-भा. ., १० । अक्यनिष्ट । ३ समवायस्य । अवयवात् । ५समबायेन। ६ सम्बन्धिस्वभावः । ५ तदर्शने भा०, ७, ०१ सम्पन्न्यदने : ८ मा न दी-मा०, व... सम्बन्धीs-आ., या, ५०। १. विकलदर्शनम् । १. "स्धुलस्यैकस्वभावत्वे मक्षिकापदन भारतः । पियामे पिहितं सईमास लाविभागतः ।। रक्त च राग कसिन रूप ज्येत रक्तवत् । बिहधर्मभाने का नानारयमतुज्यते।"-तत्वसंपली. ५.३, ५८४ |' तथा रागारागाभ्यां विरोधः सम्मायनीयः ।"-अवयदि नि००८५ | १२ पाप्रतिभास इलि आ०,५०,१०11३ अवयवस्यैव विचमाविभ्रमविषयत्वात् पित्राव स्यादिति मारः। 1४ अवस्वस्थ पस्मृतचित्रले। १५ भबसनरूपस्चैव ।
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३७२
म्यायचिनिश्चयक्धिरण ने सत्प्रतिभास इति चेत् । न तत्रापि 'विभ्रमेतरात्मना' इत्यादेः पोन:पुन्यादनवाथापचः । तसो दूरं गत्वारि पर्यन्ते तत्प्रतिभासचित्रत्वं तात्विकमेव बसयम , तबसपचित्रत्वमध्यविशे. षात । वतो यदुक्त भासर्यशेन-"तसाद्विशेषतोऽनिर्देश्यरूपमात्रमेव तत्रोत्पन्नम् , चित्र
प्रतिभासस्तु तत्र चित्रावयवसम्बन्धात् स्फटिके नीलादिप्रतिभासवत्" [ ] ५ इति प्रतिनिहितम पवन बित्यस्य भावात् ।
manticiditorial
___ भवतु तत्त्वत एव तंत्र चित्रत्वम् , सत्तु च रूपस्य स्वरूपभेदाम् , अपितु नीलस्यपीतत्यादिनानाजातिसम्बन्धादेष । न चैकत्र नानाजासिसम्बन्धानुपपत्तिः, कुसुमत्वोत्पलादित्यादिनानाजासिसम्बन्धस्यकत्रापि द्रव्ये दर्शनादिति चेत् ; जातयतद्वति व्याप्त्या वर्तेरन् , अध्याप्त्या
था र व्याप्त्या चेत् । न तथाननुभवात् । न हि नीटत्यच्यामरेव तवं प्रतीयतें पीतस्वादेस्त१. पातिपत्तिप्रसङ्गात् ।
नहि नीलत्वमात्रेय व्या वरतुनि युक्तिमत् । पीतत्वाविपरिज्ञानमन्यत्रैवमदर्शनान ॥९०२।। न घनीलचमात्रेण तचित्रमुपपत्तिमस् । अभावासहजनावमचित्रत्यैव कस्यश्चित् ॥९०३॥ अन्याप्त्या तु न जातीनां जानिमत्यस्ति वर्शनम् । गोलाबमूलत्वगोत्वादिजासिम्वेवमदर्शनान् ।।९०४॥ नृत्यसिंहत्वयोरेकप्राणिन्यख्याध्य वर्तनम् ।
श्यते चेन्न तत्रापि जातिद्वित्वानपेक्षणात् ।।९०५!! एक हि समृसिंहत्वं स्वायव्यापि -इयते । नवरत्वं ततश्चान्यन सिहत्व यकशिकम् ।।९०६॥ एवं चित्रत्वमध्ये सामान्यमिति चेत्सल । नानासामान्यसम्बन्चाचित्रमित्यस्य दूपाणान् ।।९०४॥
पथैव नरसिंहत्वपुरुप गत्यादिक परत्वादेजात्यन्तरमेकमेव स्वाश्रयत्यापिच, सचिनत्वमपि नीलत्वादेरर्थान्तरमेकमेव स्वाधग्रव्यापीति चेन ; न; "एकस्याप्यनेकनीलादिधर्माधि२१ करमत्वेन चित्रप्रतिभासनिपयत्यमम्भवान्" [ ] इत्यस्योपद्वान् , एकस्यानेक. त्वाशेगाद , नीलस्यादिव्यपदेशानुपपत्तेश । कुतश्च सञ्जाति मनो स्पस्योत्पत्तिः १ पटादेवेति छेत् ;न; सर्वस्मादपि सतस्तत्प्रसन्न कश्चिदश्यचित्रः परः स्यात् । प्राक्तनामित्ररूपादेवेतिचेत् ; न; प्रथमनिपर्ने पटे तद्रूपाभावापते पूर्ण सदभावात् । पटाश्यका पादिति चेत; न ततोऽपि चित्रात् । अत्रयनेषु तदभावान् । अविवानि चेन ; न तस्य अत्यन्तरत्वेन
--- ----...-..-. . . न तद्रूप इति मा०, २०१०।१तत एव १०, २०,०1३ ।४ पटावस्वरुपादपि ।
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१९१ ]
प्रथमः प्रत्यक्षमस्ताव
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परयोगात नीलादेः पीतादिवम् । रूपत्वमात्रेणैकजा विश्वमेव न जात्यन्तरस्वमित्यपि न युक्तम् ; नीलादेरपि पीतादिजन्मापत्तेः । ततोऽवयवरूपात्तत्पस तस्यापि राजातित्वमेव, तथ्य न रूपादेव तत्र चित्ररूपस्याभाशपोः । नाप्येकेन चित्रत्वेन तत्र तदभावस्याभिधानात् । नाष्यनेकभीत्यादिना; तस्य स्वाक्षकन्याष्टर्यभावात् । न च तयापि सामान्यम; सर्वगतस्यैव तस्योपगमात् तदव्यापिनच सर्वगतत्वानुपपशे: । ततो न नानाजातिसम्बन्धा - ५ स्त्रीतिगोचरत्वम् अपि तु स्वरूपभेदादेव । न तस्यैकावयविनि सम्भवः
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३७३
इत्युपपदम्यथानुपपस्या तदभावसाधनम् ।
वाचित उत्पद्यताम् १ समभाय्यादेः कारणादिति चेत् किं पुनर्थ. शुकस्य समवायिकारणम् ? अणुश्यमिति चेत्; न; परमाणूनामनुपलम्भेनासस्यात्, तत्र समंधायिकारणत्वस्य तत्संयोगे चासमवायिकारणत्वस्यासम्भवात् । निमित्तमात्राच्च न सत्पति: १० अनभ्युपगमात् इत्यसस्वमेव प्रणुकस्य प्राप्तम् । तदभावे च न तदुत्तरं क्रयम् सोऽपि न तदुत्तरमित्यन्त्यावयत्रिपर्यन्तस्याभाव एव तद्रव्यस्य स्थाम् । नायं दोषः, सस्थाहेतुकस्यैव भाषादिवि चेत् अवाद
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लता सिद्वेक्ष्योपान (
सर्वथेति चेत् ] ॥९१॥ इति
स्वतो हेतुमन्तरेण सिद्धेर्निष्पत्तेः अयोगाद् अघटनास् । 'न चैकम्' इति १५ सम्बन्धः शब्दः पूर्वहेतुसमुच्चये । परमप्यत्र हेतुमाह- 'तद्वृतेः सर्वधा' इति । तस्य अवयविनः स्वावययेषु वृत्तिर्वर्त्तनं सस्याऽयोगाइ । 'न चैकम्' इति । कथं तवयोगः ? सर्वथा सर्वे एकदेशेन सर्वात्मना वा इति प्रकारेण । तथा हि सर्वात्मना तस्य तंत्र वृत्तौ; बहुस्वम् प्रत्यवयवं भवाम्, एकावयवत्वं वा । देशतो वृतौ "सेषां तदन्यत्वं प्राध्यावयव
[क] से तस्य ? तेष्वपि वृत्तेरिति चेत् नः सर्वात्मना तन्निषेधात् । देशतश्चेत्; २० न; पूर्ववदोषादनवस्थानाच्च ।
ननु "बहुत्रन्यतमो देशः, तत्साकस्यं च सर्वम्, न चावयविनो निरंशस्य बहुवम्, अतो न सर्वात्मना देतो वा तस्य वृत्तिः प्रकारान्तरेणैव सद्भावात् तस्य च विशेषप्रतिषेधदेवाभ्यनुज्ञानात् यथैव हि वामेन चक्षुषा दर्शननिषेधो दक्षिणेन दर्शनमभ्यनुज्ञापयति,
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१ चित्ररूपोत्पत्तेः ।
स्यन्तरमिव पश्यपस्यापि । ४-प्यामा-मा
० ० ५ स्वाश्रयाय्यापि ६ स्वरूपमेन्ययानुपश्या ७ एक सद्स्य ० ० ० ८ अन्य विः। ९ अवयषेषु १० देशम् ११ "एकस्मिन् भेदाभावादेवन्दमानुपपते। प्रस्यः किं पर्व इत्स्नोऽभ्यषी व अथैकदेशेनेति रोपपद्यते प्रश्वः । कस्मात् १ एकस्मिन् भेदाभावादशब्दप्रयोगामुपपतेः । 'करमम्' इत्यनेकस्याशेषाभिधानम् ':' इति नाना करवचिदभिधानम् ताविमो ने देश उदोभैदविषयकस्मियम्युपपद्येठे मेराभावादिति । ४२११ तथा हिश्वमाभिधानमेकदेशः । निरवशेषता व सर्वशब्दस्यार्थः । तथा विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञाविषयात् प्रकारान्तरेण वृतिः प्राप्नोति । अन्यथा दि न वर्तत इति वाच्यम्।" - प्रश० व्यो० ० ७६
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म्यायविमिश्नविवरण
[ १९१ अन्यथा तदनुपए, तथा सर्वात्मैकदेशाभ्यां वृत्तिनिरोधोऽपि प्रकारान्तरेण वृस्तिमभ्यनुज्ञाप. सत्येव, अन्यथा 'म वर्तते' इति अविशेषेणैव वचनासङ्गादिति चेत् । तस्कारान्तर सस्य स्वरूपम् , अन्यन्ना गत्यन्तराभावा ?
स्वरूपं सस्य वृत्तिशेपटो वसत इत्ययम् । विशिष्टप्रत्ययास्तत्र क नामोपपत्तिमान १९०८॥ मेने सत्येव यल्लोके विशेषणविशेड्ययोः । दण्डी मनुष्य इत्येवं स प्रतीतिपथं गतः ।।९०९१ भेदकल्पनयाऽसौ वेत्तकृती तास्विकी कथम् ? । तत्तिर्भागवान् येन सात्विक परिकरुप्यताम् ॥९१०॥ अतारिवकं तु तरसत्वं न बौद्धोद्वेगकारमम् । व्यवहारशा तस्य तेनापि स्थितिसाचनात ॥९११॥ अन्यैव तस्य धृत्तिश्चेत समवायास्मिका मता। नयापि तस्यासम्पन्धे विशिष्टः प्रत्ययः कथम् ? ॥९१२॥ सम्बन्धावेच दण्डादेर्थतोऽयं दृश्यते गरे । कथं वा तस्य सा वृतिः पटस्तन्तु यद्यत् ॥११३।। गर्दभोऽपि तथा तेपु न भवत्यन्यथा कथम् । लोकः कथं ततो यस्तो पटमेव न गर्दभम् ।।९१४॥ सम्बन्धोऽपि तया वस्य स्तश्चेत् किन्न तन्तुभिः । इति व्यथैव सैवं चेनास्य पूर्व निवेधनात् ।।९१५॥ अन्यतयेन तेनापि तस्याः सम्बन्धकल्पने। . कथं से विशिष्टत्वं नस्य यत्तन्मतिर्भवेत् ||९१६॥ कथं वा स्यात्प्रतिक्षित गर्दभातिप्रसजनम् । तेनापि तस्य सम्पन्धे त्वत्तोऽन्यत इति द्वयोः ।।९१७॥ पक्षयोरनयस्थान प्रान्यदोषानिवर्तमात् ।
सन्मान्याप्यस्ति तत्तिरित्ययूसिक सन सा ॥९१८॥
ततो यदुक्तं व्योमवता--"त्यनुयपत्तिरिति हेतुः स्वरूपासिव वृतेः समयायस्य सिद्धसात" [प्रश ज्यो० पृ. ४६] इति ; सत्प्रतिविहितम् ; उक्तेन न्यायेन सम्बायस्यापि सित्वासिद्धेः ।
मा भूसिः, तथापि कथमसरवम् ? कयन न स्यात् १ वृत्त्या सवस्याव्याप्सेः ।
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२ कल्पनाकप्ता। विशिमत्ययः ।। -सेतराम पार,
प्रतीतिर्थ गतः मा०,०, प. २०१५ धारयेत् । वर्तलम् भा०, १२, प.
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१९३]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावा न हि वृत्तावेव सस्वमाकाशादौ परोपाते रूपादो सदभावेऽपि भावादिसि वेन् ; सत्यम् । सत्त्वमात्रस्य न सध्यातिः, अवयभ्यादिसत्वस्य तु विधात एव । कुन्त एतन् ? स्वबुसित इति चोन् ;न; सदनिषेधप्रसङ्गात् । न हि स्वयं वृत्तिव्याप्ततया बुध्यमानस्थैव तत्सत्त्वस्य निषेधनम् । परबुद्धितः इति चेत ; परस्यापि यदि तत्र प्रमाणमस्ति न तनिषेधनम् , सदनुमानस्य तेन प्रतिक्षेपात् । तस्यैव तदनुमानेन प्रतिक्षेप इति चेहनवत्यति तस्यैवानुत्पत्ति- ५ प्रसङ्गात् , तन्मूलत्वात् , तेन तयाप्तिपरिक्षाने सत्येव सदुपत्तः । अथ नास्ति प्रमाणम् । म तर्हि व्याप्तिनिश्चयः, तदभावेचन तनिषेधः । सत्येन तनिश्चये व्यापकाभावान व्याप्य. निषेधोपपत्तेरित्ति चेत् , ग, स्याणादन्यतो वा' मालिका भीमावस्योपाश्रयात् कथं सदाश्रयणेन कस्यचिनिषेधनम् , अतिप्रसङ्गात् । कथमढ़वायेकान्तस्य ? म हि तस्या प्यपरिजातस्यैव निषेधः तन्निषेधानुमानस्याश्रयासिद्धिदोधात् । स्वयं परिज्ञाने व पूर्ववतदनुपपत्तेः । १० परबुद्ध्या तत्परिझानस्य प्रमाणभावाभावाभ्यां विचारे प्रगिव दोषात , अकृतविचारस्वैत्र परबुद्धिमात्रस्योपाश्रयणं ताधागतस्यापि सदभीर मुदहेदविझपात् । ततः स्थितम् -'न चैकं सर्वधा तहस्तरयोगात्' इति । साम्प्रसं पूर्वपक्षसमाप्तिम् इतिशब्देन चेनदेन ए पराभिप्राय शोतनाह 'इति येत्' इति ।
अवोत्तरमाइएतत्समानमन्पन्न भेदाः संविदसंविदोः ।
न विकल्पामपाकुर्युरन्तोनुबन्धिनः ॥ १२॥ इति ।
एतदनन्तरोक्तं तत्र' इत्यादि, समानं सशम् ! क ? अन्यत्र । अपि शब्दोऽत्र द्रष्टव्यः । सदयमयों न केवलं बहिरर्थे अपि तु अन्यत्रापि विज्ञानेऽपि तस्यैत्र सदपेशमा अन्यत्वात् । तथा हि-विज्ञानमपि सांशस्वादिना वोपेण "दोपदत् निरन्तरत्वान् बहिरर्थवदिति । न वेदं स्वतन्वं साधनम् ; बहिरर्थे पश्चतस्तस्योपगभानानिष्टापत्तः, २० अन्यथा तमिदर्शनोपन्यासायोगान् , अपि तु प्रसङ्गापादनम् । तदपि ने तत्वतस्तत्र तस्व. व्यवस्थापनार्थम् अतत्र स्वयमपि तदनभ्युपगमात् , अपि तु व्यामिविघटनार्थमेव । यदि निरन्तरत्वं दोषवस्येन व्याप्तं विशानेऽपि तद्भयत तत्रापि तस्य विद्यमानस्वाविति । तस्यापि बालवत् परित्यागे किमवलम्बनो बहिनीय दूषयेन् ? निरवलम्बनस्य तत्पोषणस्यामनिवारणात् ।
तो नास्ति तस्ये "तेन व्याक्षिः, सविकलेऽपि विहाने तस्य भावात् । ततोऽनेकान्तिकत्वान्नातो" २५ - यहिरमें तद्वत्रसाधनमुपपन्नम् । ततो यदुक्तं न्यायवार्तिके-'यः परेण "मोदितं दोपमनु
तदमावादि-आप, प.। २ निषेधानुमानस्प। ३ प्रतिपेष मा..द,०। -वेधोऽतिभा., ०, 101 ५ मिषानुस्पलेः । ६ तथाग-०, ब०, १०। ७ पोषर्ष मा०, ३., 14 स्वतन्त्रमा-भा०, ०, ५०! १ निरन्तरत्वस्य । १. दोषयम। " निरन्तरस्यात् । १२ नौधिसम् भाक,०,५००
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1 १३९२ दुत्य 'भवतोऽप्ययं दोषः' इति अवीति स निगृहीतो वेदितव्या" न्यायवा० ५।२।२१॥ इसि ; तत्प्रतिविहितम् ; 'दोषमनुवृत्य' इत्यस्यासिद्धः, व्यभिचारोगबनादेव तदुद्धरणात् । 'भवतोऽपि' इत्यस्य च, ज्याप्तिविघटनचलेन तदुद्भावनोपायत्वात् । एतदप्यन्यत्तत्रैव
"यत एवासावुत्तरे वक्तव्यप्रसङ्गं करोति अत उत्तरापरिज्ञानान्निछते" [ न्यायवाय ५ ५।२।२१ ] इति । तदपि दुर्भाषितम् ; प्रसङ्गकरणस्यैवोक्तमीत्या सदुत्तरत्वेन तदपरिझानस्या
भावात् । अन्यदयुत्तरमेवं विधे विषये सम्भवति, तस्यापरिक्षामाभिगृहात इति चेत् ; ; प्रकृतस्य परिज्ञानाजयस्यापि प्राप्तेः । न तदुभयं योगपद्येन ; विरोधात् ।
निमहाजयो नास्ति जयश्वेनारित निग्रहः। निम जयश्चेति व्याहतं युगपद् वयम् ॥९१९॥ अपरिज्ञानमप्यत्य कस्मादप्रतिपादनात् । न निग्रइभयात्तस्य परिज्ञानेऽपि सम्भवात् ॥९२०॥ एकदोषाभिषामेन परपक्षे हि दूपिते । दोषान्तरप्रवाशे हि निग्रहायैव कल्पते ।।१२१॥ ससो दोपान्तरस्यापि निग्रहो यद्यकीर्तनम् । सतो हेवन्तरस्यापि नियहः स्यादकीम भम् ।।९२२॥ ततस्तत्कीसन योगैर्निमहः कल्प्यते कथम् । इयमेर स्वयं देषैरन्या प्रतिपादितम् ॥९२३१ "चादिनोऽनेकहेतुक्ती निगृहीतिः किलेप्यते ।
मानेकपणस्योक्ती वैतण्डिकविनिग्रहः ॥” [सिद्धिवि० परि० ५] इति २० तसो न युक्तम्-'उत्सरापरिज्ञानान्निगृह्यते' इति ; तदपरिज्ञानस्यैवासिद्धः । एवमन्य दपि समानदोपापादनं निदोर्ष प्रतिपत्तव्यम् । वन्न मतानुजा नाम निग्रहस्थान सम्भवति ।
मा भूत् 'चौरस्त्वं पुरुषत्वान्' इत्युक्ते 'भवानपि चौर: तत एवं' इति प्रसङ्गकरणबुरखा प्रतिमुवाणस्य सनिग्रहस्थानम् , चौपादनयुश्या तु प्रतिषसो भवत्येद, परापादितस्व. चौस्यात्मन्यभ्युपगमात् , अनभ्युपगमे हि न पुरुषत्वं तत्र हेतुर्यक्तव्यः किन्तु पद्श्येणानतिसृष्टम सम्बन्धः, न योक्तः सः, इ.,त्तरस्यापरिज्ञानेन परमतमनुजानतो. भवत्येव तन्निग्रहस्थानमिति चेत् ; कस्तेन तं निगृहीयात् ? वात्र ; परिषद्मलादिपरिमहवैफल्यापत्तेः।। परिपालादय एवेति चेत् ; तेनापि कादिनो गुणाभावात् जयमपश्यन्तः कथमितरं निगृहीथुः । जगामा निपहानुपपत्तेः। न च तस्य स्वपक्षसाधने गुणः, चौर्य प्रति पुरुषत्वस्थानकान्तिकत्वेनासाधनत्वात् । परत्र सदभ्युपगमकरण स" इति चेत् । न ; तस्याप्यन्यायनिवन्धनत्येन
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- याचनाति उत्तम् 1 २ अयपराजयी । ३ स्वती भा०,०,५०४ निग्रस्थानम् । ५ अनलिस्ट परद्रव्धसम्बन्धपत्रवादिति ३६ मुणः।
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१९९२]
प्रमः यक्षरता . दोषत्वात् । विजिगोणेः कथमपि सत्करणं गुण पति पेत् ; न ; चपेटाविनापि तस्करमस्य गुषत्वप्रसङ्गात् । हेन तस्करण परिषत्पतिर्न सहते धर्मयुतेरिति चस् ; व्यभिचारिहेतुना सस्करणं कथं सहेत अधिशेषात् ? स्वयमपरिहानादिति चेत् । न : स्वतस्तस्यापरिज्ञानेऽपि प्राचिनकवचनान परिज्ञानोपपत्ते:, प्राश्निकैश्च तचनस्यावश्चम्भावात् , अन्यथा तद्वैपाल्यात् । परिक्षातमपि सहते न्यायासस्ने नस्य गुणत्वेनाभिधानादिति चेत् ; शास्त्रान्तरे तस्य दोषत्वेना. ५ भिधानाम् न सहेतापि । सस्कर्थ वस्माकान्तेन वादिनो जयो यत 'इतरस्य निग्रहः स्याम् ? सम्म कश्चिदपि मतानुज्ञानं निग्रहायशल प्रसझेन ।
कथं पुनर चेतनाथदोषेण चेतमस्य दूरणं तस्करदोषेण साधोरपि तमसङ्गादिति चेन् । स्थादेवम् ; यर्थेऽज्यचेतनवं तस्थायलम्बनम् , तदभावामधेतने न भवेविति। न चैवम् , अर्थेऽपि नैरन्तर्यस्य तदवेलम्मनस्यात् , सस्य च घेतनेऽप्यविशेषान् । न च सदवलम्बनस्य चेतनभेदैः प्रतिक्षेपः, १० तस्यापि प्रतिक्षेषापतेः । तथ्य दोषस्यामिधायिध्यमाणत्वात् । उदाह-भेदाः चेतनेतरवलक्षणाः, व्यक्तिभेदारहुवचनम् । कयोस्ते? संविदसंविदोः ज्ञानार्थयोः, विकल्पान् सांशत्यादिदोषपरामर्शान् न अपायुः, न प्रतिक्षिपेयुः । असंविद्रहणं किमर्थम् । हदैस्वदनपाकरणस्थ परं प्रत्यपि प्रसिवत्वादिति चेत् । न ; तस्य निदर्शनार्थवाद् असंविधत् संविदा अपि तानापाकुयुरिति । तत्र हेसुमाह-नरन्तर्यानुवन्धिन इति । नरन्तर्य प्रत्यासित, तदनु. १५ बन्धिनस्तदवलम्बिन इति ।
नैरन्सय "मनस्थ से दोषोत्पत्तिनिवन्धनम् । मिदास्तत्प्रयुक्तस्य दोषस्य क्षेपकाः कथम् ? ॥९२४। 'सस्थापि तैः प्रतिक्षेपे सान्तस्त्वमघाधिलम् । चेतनेषु भवेत्तस्य तदभावस्वनिश्चयाम् ।।९२५|| निरन्तरेतरत्वाभ्या निर्मुक्ता यदि संविदः । स्थूलस्तम्भावभासोऽयं कथं सासूपपद्यताम् ॥९२६॥ अन्यथा ताशेरेव बाहोरम्यगुभिः स्वयम् । व्यनिष्पादनास्किनु नैरन्दर्येश नः फलम् १९२७॥ यत्सांशत्वादिदोषस्य सत्राप्युद्धानं भवेत् । निरन्तरस्पस्याभावः सासरत्वं तदुच्यताम् ।।५२८॥
भवतु सान्तस्त्वमेव संवेदनानामिति घेत् ; म ; व्यवधानाभाये तस्नुपपत्तेः। -व्यवधानश्च न सजातीयैरव्यवहितैरेव ; नरन्तवशेषात् । व्यवहितैरेवेति चेत् ; न ; तशव
१ बटादिमा । उत्तरस्य मा०, १०, १०३ - माप-10,20,017 अचेतनत्वाभावात । ५ दोगदलपनत्वात् । भैरन्तर्यस्य । ७ वेतोमतम् (!)। नैरस्तायुस्मा ५ सार्थस्थापि। १७ किन्तु मै-माय..!
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म्यायविनिश्चयविवरणे धानस्यापि सजातीयैरव्यवहितैरनुपपत्तेः । व्यवहितैरेवेति चेत् । न ; अनवस्थापतेः । तथा प नीलमणिसम्मताना संवेदनपरमाणूनां परापरैरपरिमाण तत्परमाणुभिर्व्यवधानात् नीलव्याप्त सकलं जगद्गवेत् ।
नीलव्याप्तं जगत्प्राय पीतादिपरिवर्जितम् । तप प्रतीतिसौभाग्यप्रत्यनीक प्रकल्पानम ॥९२९।। व्यवधानं विजातीयवापि स्यात्सपरैः । तदा नीलमणिनाम न कश्चिदवविष्यते ॥९३०।। न मेचकमशिज्ञानमपि सत्रोपपचिमत् । तेपु पर्यन्तवरस्येव तथा ज्ञानप्रवर्तनात् १९३१॥ उपदानान्ययोरेवं व्यवधानप्रकल्पने । अतीय कालदूरत्वं संवित्योः सम्प्रसध्यते ॥९३२।। सतश्वव्यवधान नीलझाने फम कवित् । प्रतीतिपथमापनो भ्रश्यत्येव भवन्मते ॥९३३॥ सजातिव्यवधानेऽपि नीलसंवित्तिसन्तसेः । अनादिनिधनत्याप्तिः प्रतीति प्रतिपीडयेत ॥९३४ः। तस्मानिरन्तरत्वं तद्वक्तव्यं वेदनेष्वपि । सांशवप्रत्याभावदोषं स प्रकल्पयेत् ।।९३५।।
तथा हि-नीलमणिसंवेदनपरमामूनां देशतो नैरन्तये' मध्यवर्तिनः पदंशाः प्राप्नुवन्ति षभिदिग्भागभिलेनैरन्तर्यादिति । तेरपि व्यतिरिक्तस्तस्य नैरन्तय पुनरन्ये षडशा इति, तैरेव २० सकलस्यापि गपनतलस्य व्याप्तेरनघकाशास्तदन्थे भवेयुः। तथा क्रमवतामपि सरपरमाधूनां
देशको नैरन्सर्वे मध्यवर्तिनो द्वौ देशौ पूर्वापराभ्यां द्वाभ्यां नैरन्तर्या , साभ्यामपि दया नैरन्तयें परौ उभौ देशाविति तैरेवानाधनन्तकालव्याप्तेः काला कीरगुपादानादिप्रयन्धस्य भवेन् ? सर्वात्मना तु नैरन्तर्ये परमाणुमानत्यं "प्रमयस्य, मणिपरमाणूनामेकत्रैयानुप्रवेशात् । सन्ता.
नस्याप्येकक्षणत्वम् , एकत्रैप परापरतरक्षणानां प्रत्यस्तस्यात् । न च प्रकारान्तरं नैरन्तर्यस्यास्ति १५ यत्रायं दोषो न भवेत् । कथं नास्ति ? तेषामक्रमाणामन्योन्यात्मकतया स्थूलीमावेन क्रमवताच दीर्घाभावेन नैरसर्यस्थोपतेरिति चेत् ; न ; कालदेध्य क्षणभङ्गधादव्यापत्तो, देशवैर्येऽर्यव. यविवस् ! एकत्र चलनादौ सर्वत्र सत्प्रसङ्गार प्रत्यवसामेव चलनादिः, न प्रत्यस्येति वेत् ; न ; तेषां प्रचयकरूपत्वेन रूपान्तराभावात् । भाके का यत्रैव तेषां चलनादिस्तव प्रवग्रस्य सविकलस्य प्रतीसिप्रसवात् ।
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सन्थे । ५ परमाणी । । शैः । ४ अवरम सा.,श्रा०,०। ५ -पपत्तिरिति भा०प०१.। नामादौ भा०,०, प..
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावा
हिं मा भूबन तत्परमाणवः नत्सतानाच, नेपामपि वाहपदप्रतिभासनात् , नु मधेशानियान चे ; तस्य निरूपस्य नियस्यमानत्वात् । नीलादिमेवा. विष्ठानमेतदितिवन : किमिद नेयां नमाधिष्ठानम् तत्र समिति चेस: अषयनिवदत्तिविकल्पाविरोधानुषङ्गान् । तदात्मत्वमिति चेत् । न ; अवयविनोऽपि स्वायययापेक्षया 'वसङ्गात् । स एवं नास्ति, कपालव्यतिरेकेणाऽप्रतिभासनादिति चेत; ज्ञानमपि नास्ति ५ नीलादिध्यविरेणाप्रतिभासनात् । नोलादीनामेकत्वमेव "तदिति चेत् ; अजयध्यपि कपालानामेकत्वमेव किन्न स्यात् । विरुद्धधर्माश्यासादिति चेत् : नीलादीनो कथम् १ अशक्यश्वेिचमत्कादिति चेत् । न ; सेनापि तदध्यासस्याप्रतिरोधात् चित्रप्रतिभासाभावापत्तेः।।
किछेदमशक्यविधनस्वम् ? युगपत्प्रतिभासनमिति चेत् । न ; तथापि भेदस्यवोपपत्री योगपास्य "तनिष्टत्वात् । अपृथग्वेद्यस्वमिति क्षेत् । तदपि कुतः प्रतिपत्तव्यम् ? १० तदेकत्यादिति चेत् । न ; परस्पराश्रयात्-अपृथग्वेद्यस्वेन तस्य, ततश्चापृथग्यशस्वस्य सिद्धः। नीलादिभ्य पयेति चेत् ; न; रपि परस्परस्त्रापरिक्षाने सदपेशस्य सद्वेश्चत्वस्यापरिज्ञानात् । परिक्षाने तु नार्थनियनम् अर्थस्याप्यन्यसस्तदुपपत्तोः । अत एव नानुमानादपि तपरिशानम् । न पानुमानग?से सम्भवति विरोधात् , औतेन तस्य नैरन्तयेतरचिन्तायां पूर्वपदोषार । वनायवेधत्वमशक्यविवेचनत्यम् । एकस्वेन प्रतिभासनमिति चेत् ; न ; कपालेष्वपि तदावेना । क्यविसिद्धरप्रतिषेधान् । तदेवाह-'एतस्समानमन्यत्र' इति । एतत् परचित्ररथम् "अभेदप्रतिभासरूपमशक्यविषेशन समानमन्यत्रापि अहिरावयचेष्वपि ।
भक्तु समानम् , सथापि "नातस्तत्र सिधि!, दूरविरलकेशेषु "पदभावेऽपि भावादिति चेत् ; तेष्वपि कुतस्तदभावेतद्वानः सन्निवेशविशेषादेकार्थकरमा वासनाप्रबोधाटणेति चेत् । न; संवेदनभेदेष्वपि सन द तत्प्रसज्ञान । न प "सबैकार्थकरणं नास्त्येव । खरविणवद.. वस्तुत्वापत्तेः । कार्यकारणभेरे कथमसिमित्यपि न सारम् ; परस्यैव वोपरत् । न र सद्भेदा एक 'सनिवेशनिवन्धन तत्प्रतिभासनम्' इत्यादिविकल्पानसकुर्वन्ति, भेदस्वेन बालभेदाविशेपात् । तदाह-संविषसंविदोः । असंविदाहणमत्रापि निदर्शनार्थम्, असंविद इव संविदोऽपि भेदा नीलादयो विकल्पान् परामर्श नापाकुर्युः। कीदृशाम् ? नैरन्तर्यानुबन्धिनः नैरन्तर्य सनिवेशविक्षेपम् उपलक्षणमिदम्-तेनेकार्थकरणादिकमपि अनुबध्नन्ति अनूपस्थापयन्ति प्रतिभासनमिति शीलाम् इति ।
सवचित्रमेक हे विज्ञान सत्कथं भवेत् । निर्बाधाप्रतिभासायचेद बाघोऽप्यर्थस्तथेष्यताम् ॥९३६॥
नीलादिभेदानाम् । ३ भद्वैतसंवेदनेन। तदात्मवप्रसात् । अवधी ५ शानम् । “विरुद्धधर्माश्यासत्या. अन्यथा-वस्वधर्माच्या पाभाने । ८ मनिष्टरवात् । तस्य १.अमेवप्रतिमासस्य रूप-बाब.प.। ११ मयविवेधनत्वतः अपयशु अवसिदिः । एचयम्वभावेऽपि। १३-कारतरसनाप्रतिमेधा
०,०,401 १४ संवेदनभेवेषु। 14 घिदनमैदा एल .द्वि-०,०,10
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ज्यायविनिश्चयविपरणे
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मन्येवमपि अषयपाविश्वम्भाशलक्षण एवावयशी मिति नचार्य योगस्याभिप्रेता अषयवभिन्न एव तत्र सस्याभिप्रायात् । तस्य च न सिद्धिा, तदूषणस्य तदयस्थत्वादिति चेत् ; भक्तोऽपि विकरूपमेव संवेदन सिलति । न प सत्तवाभिप्रेतम् "अविभागोऽपि जुन्यास्पा"[० सा० २।३.५४ ] इति विरोधात् । यस्वभिप्रेतं निरंशयेदनं तमायापि सिद्धा, ५ सदाविपतिदूरकस्याप्रतिपात् । अय कदाचिदिदमपि तैयाभिप्रेतम् , यौगस्याप्यवयवाविष्वभावः विवाभिप्रेत: स्यात् १ प्रयोजनाभावादिति चेत; न ; रहिरर्थस्थापनस्यैव प्रयोजनत्वात् । स्यावादानुप्रवेशस्तु भवतोऽपि, चिकचितवादस्यापि स्याद्वादत्वात् । अनुप्रविष्टस्यापि परित्याग्माक्दोषो योगस्थापि, तविषम्भावस्य परित्यागात् । तत्परित्यागे न कश्चिदवयवी, प्रकारान्तरस्य
अतिशेषादिति चेत् ; चिकचित्तपरित्यागेऽपि न किञ्चिद्विक्षानं निर्भागतपस्य प्रतिक्षिमत्वात् । १. अतोन बहिनोन्तः किचिदिति सर्वनरारम्यम् ।
. न तस्यापि 'निष्प्रमाणा सिद्धिरतिसात् । प्रमाण न ठन वास्तवमस्ति हिरो- : घान् । अवास्तवमिति चेत् । न सतस्तस्य तत्वतोऽप्रवियत्तेस्तद्विपर्ययवत् । नापि सदप्रतिपरमेष प्रमाणम् : अनभ्युपगमात् । तत्प्रतिपत्ति न वस्तुभूतात्प्रमाणात ; तस्यैवाभावात् । अबरतु भूतादिति चेत् । न तस्यापि मशात्प्रतिपत्तावनवस्थानात् ।
___ अपि च, किमिदमवस्तुभूतमिति ? अविद्यमानमिति चेत् । न तस्याऽकिंचित्कररवेन प्रमाणस्वायोग्यत् । विद्यमानत्वेन कल्पनात्तस्यमिति चेत् ; कुतस्तत्कल्पनम् ? संवृतेरिति चेत् । म: तस्था अपि मिध्याझामव्यतिरेकेणाभावात् , सत्य बोक्नीत्या निषेधाम् । संपुखरपि संवृत्या परिकल्पनायाम् अनवस्थावोधात् । तत्र सर्वनरालयमपि तश्वम् ; तंत्र प्रमाणस्याभावात् । भावेऽपि न ते संस्थ परिच्छेदः, प्रतिबन्धाभावात् । न हि तरात्म्येन तस्य तादात्म्यम् । स्वयं नैरात्म्याप्रसङ्गात् । नापि चबुत्पतिः तस्य सर्वशक्तिकस्यात् । न च योग्यत्वम् ; सस्य कार्यावसेयत्वात् । न च कार्य सत्परिच्छेदरूपमुपलम्धम् ; सत्रैव विप्रतिपतेः । ततो न तस्य प्रमाणोपपनत्व विकारचतुरा: प्रवक्तुमईन्ति । ये तु ब्रुवन्ति वे "विचारविकला इत्यावेदयति ।
आहुरर्थवलायातमनर्थमविकल्पकाः । इति।
आहुः प्रतिपादयन्ति । किम् ? अनर्धम् अर्थस्य ज्ञानज्ञेयलक्षणस्थाभावम् , अर्थाभावेऽव्ययीभाषविधानात् । की शम् १ अर्थचलायातम् अयं तस्वनिरूपणार्थि मिरित्यर्थः प्रमाणम् , तस्य बलं विषयप्रतिबन्धस्तनागतम् अर्थषलायातम् । "कया ? अधिकल्पका न विद्यते विकल्पो निवेदितन्यायेन सस्य प्रमाणविषयत्वामावनिर्णयो येषा. ते तथोडास्तापाता इति ।
।
अवधिभि-मा-40,401 २-औरत चिकचित्रका-81०,१०,५५। निष्प्रभागसि-मा५.1५ वर्षनराल्पविरोधात् अवास्तषप्रमाणात् । --TO, २०, ५०। 4 प्रमाणेन । नैरासमस्य। 1. मावास्य 11 वरात्म्सस्य १२ निराचारवि-श्रा,२०,२०१२ के मा।
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९३] मधमा प्रत्यायला
३८१ एतेन 'सकलविकल्पविकलसवित्तिमात्र तत्त्वमित्यपि प्रत्युक्तम् । सबैकस्य नीरूपनिषेधात्मत्वे प्रमाणविषयथासम्भात , तस्य तदलायावत्वं मुखसामप्यविफल्पकत्याविशेषात् । पर्युदासमेव, तत् फ्यु दस्तसकलबिकल्परर संवेदनस्यैव तकल्यार्थस्वादिति चेत् ; इदमयसाम् । यस्मात्
विकस्पा यदि वेद्येश्न निषेध्येरा सर्वथा । विकल्पान्न बेरेर निषेध्येरन ते क्वचिन् ।९३७॥ न होविज्ञाय तद्रूपं तदुल्लेखेन ताम् क्वचित् । सत्रामी नेति मिश्वेतुं निर्यकुश प्रभुर्जनः ।।९३८॥ वस्तुतस्तदवितावप्यारोपेण प्रवेदनात् । बहुधानकपत्तेषां निषेधः सम्मको यदि ।। ९३९॥ सन्न सारं विकलादेवारोपस्यावकल्पनात् । धायेपत्तस्य क्लसौ तु भवत्यन्योन्यसभायः १९४० ॥ अन्यायपातिकस्पश्वेत्सोऽस्यन्यस्माद्विकल्पकात् । सोऽप्यारोपासदन्यस्मादिरथं स्यादनवरिपतिः ॥९४१॥ परकल्पनया रेस्युनिकरूपास्तान सङ्कसम् । आत्मेतरविकल्पे या विकल्पविरहात्ययः ॥९४२॥ आरोपातद्विकल्पश्येनेदानी तनिषेधनाम् । तस्मादिकल्पासंवितेः तनिषेधः क्वचित्कशम् ।।९४३ ॥ किच सवेदनं यत्र विकल्पः फ्युदरयते । नीलादिरूपं तच्चेत्स्यात् सापकल्पकमेव सन् १९४४॥ नानाभागलभावस्य तस्य स्थूलस्य दर्शनात् । पकानेकविकल्पस्य तनावश्यमवस्थिवः ॥९४५॥ तद्विकल्पअपेत्तस्य न तस्यास्ति खतरे गतिः । अविचादा स्वसंविसर्विवादषिषवेऽत्ययात् ।।९४६।। अभ्यसोऽपि न ताक्षातस्याप्यन्येन साशान् । प्रतिपत्त्दै यतो दूरं प्रसरत्थानवस्थितिः ॥९४७॥ असारच तद्वित्तिस्ताविकी कल्पिताकधम् । अकल्पिताचेन्नम्वेव देव स्याद्विकल्पकम् ।।९४८॥
साल विमा०, ५०, १०। ५ अभिडेग-, .., प... प्रधानरत् । ४ तारसा भा.,40,..
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२८२
न्यायथिमिश्यविवरण तमच सर्वविकल्पानामभात्रे दत्तबुद्धयः । बौद्धाः कथमिव भूयुः विरोधापतिभीरवः ॥९४९।।
सदेवाह- 'आहुः' इत्यादि । 'क' इत्यनुवर्तनीयम् । नाहः यौद्धाः । कम् ? अनर्थम् अध्यंत इत्यर्थः सकलविकल्पामायः तस्मादन्यं विकल्पभावम् । कीदशम् । ५ अर्थवलायातम् , अर्यमानं निर्विकल्पवेदनमर्थः तं वलयति स्थापयतीति सटूलर तदधिगमः, तस्मै लवर्थम् आयातम् । कस्मानाः ? अधिकल्पका विकल्पानाममा कायन्ति कथयन्ति यत इति । ततो न सकलविकल्पातीवमपि तत्वम् , प्रमाणप्रणयनवैकल्यात् ।
अस्तु सहि विभ्रगगात्रं तत्त्वम् , अन्तर्बहिश्च यथाकल्पनासिरतो, याप्रतिभासन नानैकत्वादिधर्मविचारायोगात् । तस्मादविद्यमानमेव सुखनीलादि सर्यमवभास "मायामरी. १. चिप्रतिभासवदसत्त्वेऽप्यदोषः" [प्र० शर्सिकाल- २१२१०] इति वचनादिति कम्बित् ; सोऽपि न विपश्चिदेव । यस्मात् -
सत्यविभ्रमात्मासौ सर्वथा विभ्रमः कथम् । मिथ्या भेस् , सुखनीलादि सत्यमेव प्रसज्यते ॥९५०॥ यसोऽपि विभ्रमझानं विचारात्परिकल्प्यते । सनिभ्रमे कथं तस्मादन्यविभ्रमवेदनम् ? ॥९५१।। असा मानस विकल्पनात् । धिभ्रमैकान्ववादोऽयं नश्येत्पर्यन्त एव ते ॥९५२।। सदविभ्रमपक्षे तु सदालासर्व विभ्रमम् ।
में प्राहा अवत्ते ब्रूयुर्मेषफल्पाः परं परे ।।९५३॥
उदाह-'आहुः' इत्यादि । कम् आहुः ? अनर्थम् न विद्यतेऽर्थोऽस्मिन् हत्यनर्थों विभ्रमः तम् ! की शम् ? अर्थवलायासम् , अर्थो विषारः तस्य तत्त्वतो भावान् अन्यथा ततो विभ्रमव्यवस्थानुपपत्तेः, तस्य बलं सामध्ये सेनाबातम् । क आहुः ? अविकल्पकार इति | अक्यो मेघाः 'ईपदसमासा (कल्पम् ) अश्या अधिक स्पा अनुकम्पिताः त पवादि. कल्पका विभ्रमवादिन इति । न मया तत्त्वतो भावनैरात्म्यादिकं कुतश्चितकलादागत परिकल्प्यते चयं प्रसन, किन्तु परपर्यनुयोगेन 'सद्विपर्यय एक निषिभ्यते । निषिलेय सस्मिन् सदेव तस्वमवशिष्यते गत्यन्तराभावादिति नेन् ;न; तत्पर्यनुयोगदानचिनिषेधे अतिप्रसवात् । अदिति चेत् । न ; तस्यैव तवादिनामभावान ! भात्र सिद्ध खत एव तस्यार्थबलायातस्य परिकल्पन तत्र चाय शेषश्रोति सूक्तम्-'आहुः' इत्यादि ।
२०
१-विप्रतिभासदासरवमय-ar "प्रतिभावसारवेष्यत्र"- वर्तिका । २ प्रसिनु अप. लभ्यमानः कौशाम्तर्गतः कस्य इति शासमा प्रत्ययस्य सूर्यकः । ३ पहिरोदिसद्राको -गातदन-म०,०,०
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प्रथमा प्रत्यक्षमस्ताव!
इदमेवानेकान्सशदिनमुपहसमः सौगतस्य प्रत्युपहास दर्शयन् व्याचप्ले
चित्रं तदेकमिति चेदि चित्रतरं तप्तः ॥९३॥ इति
चित्रं नानारूपं तवा चित्रपतङ्गादि, एकम् अभिग्नम् इति एवं घेत् यदि मन्यते जैनः इदम अनन्तरोक्त सतभित्रात् अतिशयेन चिनं चितरं विस्मयनीयतरम् । तथा हि-यदि नानास्पं नैक विरोधात् , इत्यसदेव एकत्वम् , तद्भाधे च न नानारूपम् , 'तस्यापि ५ परमाणुस्पस्याबुद्धिमोरयादित्यसनेर ताइशो बहिरर्थ इति भवत्येव तवादिनामुपहास इति भावः । परस्य तत्र प्रत्यपहासमाह
चित्रं शून्यमिदं सर्व वेत्सि चितम ततः । इति
'चिनं नानारूपं बाय मयूरादि । कीरशम् ? इदं प्रत्यक्षवेद्यं सर्वं निरवशेष घेरिस जानासि । कीशम ! शुन्यं भीरूपम् । इयम्' इत्यत्रापि सम्बन्धनीयम् । इदं परस्य ववनं १० तश्वित्रतरात अतिशयेन चित्र चित्रतमम् , अनुपायस्यैव तदभावदनस्य प्रतिपादनात् । . तत्प्रत्यक्षमेव तत्रोपाय इति चेत् ; ; तेन तदस्तित्वस्यैव प्रतिवेवनात् । अत एवोक्तम् इदम्' इति ।
सत्यम् ; हेन तद्वारस्य वेदनम् , तसु तदन्तर्गतस्यैवेति चेत् ; न ; बहिर्भूतस्यैवानुभवात् । भ्रान्तस्तदनुभय इति चेत् । न ; सर्वदा तथैव भावान् । न च ताशस्य १५ विभ्रमः स्वरूपेऽपि प्रसङ्गात् । तन्न प्रत्यक्ष रोपायः / विरोध इति चेत् । न तस्याप्यप्रति पन्नस्यानुयायवात । न प्रत्यक्षानत्प्रतिपत्तिः सेनस्वाधिष्ठानस्यैव नानारूपस्योपलम्मात । न हि तत्रैकत्यविकलस्य नानारूपस्य सद्विकलस्य चैकत्वस्य प्रत्यवभासनम , तथा कदाधिदप्यसंक्तिः । तदुक्तम्
"न पश्यामः क्वचित्किञ्चित्सामान्य वा स्खलक्षणम् ।।" [सिद्धिवि०५०२] इति। २०
मा भूततस्तत्प्रतिपतिर्विचारादेव उदभ्युपगमात् । तथा हि-वदि चित्रपतगादी नीलपीतादिकमेक । तर्हि 'नाना' इति कथं चित्रत्वम् ? कयाचिदेवकं । सर्वति यत् ; तत्रापि येन स्वभावेनैक येन च नाना तयो वे ; यदेकं तदेकमेव बनाना तदपि नानैवेति म चित्रमेकम् , नैकं चित्रमिति कथमनेकान्तवाद: ? तत्रापि कथञ्चिदेव भेदादयमदोप इति चेत् । न; तत्रापि तत्रापि' इत्यानिप्रसानियतेरनयस्थोपनिपातारच ! न पापर्यवसितानरमेव भेदाभेदस्वभावानाम् एकत्र परिकपनमुपपन्नं प्रतीतिप्रत्यनीकत्मात् । ततो यदि किश्चित्पर्यवसाने बानारूपमेकं न भजति प्रथममपि न भवेदविहोपात् । इति सिद्धस्तस्य सस्परिहारलक्षणो
सस्थापा-सा० । २ विश्रमिति ना-आ०, १०, १२ क्षेत्र । ४ सर्वथा भवतः । ५ विरोध. प्रतिपाति -मधिष्ठा-०२०,
प स्यो । "आत्यन्तरं तु एखयामः सहोऽनकातसाधनम्" इयुत्तरार्धम् । ९ प्रत्यक्षात् ।
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न्यायविनिश्वयविवरणे
[ २२९४
;
विरोधः, तस्य वहिर्याभावप्रतिपत्तायुपायत् । तेनैकस्यानेकत्वे अनेकस्य चैकत्वे निषिद्धे परिशिष्टस्याप्रतियेदनादभावोपपतेरिति चेत्; न; विचारस्याप्रमाणत्वे ततो विरोधस्याप्रतिपत्तेः । प्रामाण्यच न प्रत्यक्षस्येन ततो विरोधपरिज्ञानाभावस्य निवेदितत्वात् । अनुमान. वेनेति चेत् तत्र वर्हि विरोधषिद्धं किमङ्गीकर्तव्यम् अन्यथा अनुमानस्यादुत्पत्तेः । तरप्रतिबन्धस्य च न प्रत्यक्षात्परिज्ञानम् सस्य विरोधाविषयत्वात् । न च विशेषमानता कस्यचित्प्रतिवन्धः शक्यपरिज्ञानः, त्रिस्य तस्य सत्येव तत्परिज्ञाने परिशानोपपत्ते: । fara deafe परिज्ञानं तेन विरोधस्यापि प्रतिपत्तेरिति चेत्; न; परस्पराश्रयात्-प्रति बन्धपरिज्ञानाद्विचार: ततञ्च तत्परिज्ञानमिति । विचारान्तरात्तत्परिज्ञानमिति चेत् न तेनापि स्वादयोगात् । महणे तु प्रकृतविचार वैयर्थ्यम् । अनुमानत्वे च विचारान्तरस्य १० वद्धेतोरपि प्रतिबन्धपरिज्ञानमन्यतो विचारादित्ययवस्थितो विचारः स कथं नाम विरोधमु पबृंहयेत् ? " स्वयं पतभोद्भरते पतन्तम्" [ ] इति न्यायात् । ववो नाभुमानत्वेनापि विचारस्य प्रामाण्यम् । अतो विकल्पमात्रमेवेदमवस्तु संस्पर्शिदुरागमानुर कानां.. रक्तपटानाम् । न चातः क्वचिद्विशेषस्यान्यस्य वा प्रतिपत्तिः । न चैकानेकस्वभावयोररापि तस्वभाव, अपि तु चित्रपत य एष नीलादीनां परस्परमेकस्वभावः स एव तयोरपि १५ सरका जयगानम्योन्यं नानास्वभावः स एव तयोरपि तत्स्वभावः तथैव परिस्फुटापुषि निरुपप्रथतथा प्रत्यवभासनात्, are areaनवस्थापरिकल्पनमुप-' पनम् । तत्र विरोधादयेकानेकात्मनो बहिर्भावस्याभावपरिज्ञानं सस्यैवाप्रतिपतेः ।
नापि वैयधिकरण्यात् : तस्यापि विरोधासिद्धावसिद्धेः सन्मूलत्वात् । नात्युभयदोNeपरिज्ञानलक्षणात् तत्परिज्ञानस्य प्रत्यक्षत एवं प्रतिपादनात् । नापि साङ्कर्यसंशयाभ्याम् ; २० कथञ्चिदार्येणैव निःसंशयं तत्प्रतिपयेः । असो निर्वानप्रतिपत्तिविषयस्याभावमनुपायमाथक्षणो भवत्येवाती पासविषय इति युक्तमुक्तम्- 'चित्रं शून्यम्' इत्यादि ।
ततो न यो वात् नापि विभ्रममात्र सकटविकषिक वा सस्यतिपेधस्याभिहितत्वात् । नापि संवृतिमात्रम् स्पष्टप्रतीत्तिविषयस्य तस्वानुपपते: । तवाहकान्त तिर्नासत्संवृतिरेव वा ॥९४॥ इति ।
सुबोधमेतत् । वाशब्दादनुक्तसमुच्चयः तेन 'न सकलविकल्पविकलम्' इत्यवि प्रतिपत्तव्यम् ।
भवतु तर्हि तदेकव्यक्तिचिन्मात्रमद्वैतमिति चेत् सपदि चित्रैकरूपम्, 'चित्रप्रति भासाध्येकैव बुद्धिः" [१०] वार्तिकाल० २१२१९] इति वचनान् वदानुकू श्रमागतम् .. नास्यापि तद्रूपस्यानिवारणात्। न च याचमपरिज्ञानानास्येव स्वतस्तस्यापरिज्ञानेऽपि परता.
५
२५
1
१ सय २ -व्यवस्थाविवारस्य आ०, ब०, प० ३३ बौद्धानाम् । तस्या प०५ ० ० ०.११ मुखीयते तेन सकल-आ०, ब०, प० ।
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दर्शक
२१९९४ 1
परिज्ञानात् । तस्य च स्वपरविपयस्वभावद्वयाधारस्याभ्युपगमात् । 'तत्स्वभाषद्वयस्याप्यपरेम तद्वयेन तस्याप्यपरेण न परिज्ञानमित्यनवस्थानम्' इत्यपि चोद्यं न चिंकवादिनः सम्भवति तत्रापि प्रसङ्गात् ।
प्रथमः प्रत्यक्षवसायः
३८५
चैवम्,
1
प्रत्यक्षतः परिज्ञानम् ; व्याहारादि लिङ्गमिति
1
;
भवतु बाह्यस्य परिज्ञानम् ; तथापि कथं चित्रस्यैकत्वम् ? कथं ज्ञानस्य ? अशक्यविवेचनत्वादिति चेत्; न; बहिरपि तद्भाषस्य निवेदितत्वात् । अभिनयोगक्षेमत्वादिति ५ चेत्; किमिदं तत्रादिति १ सहोत्पत्तिविनाशत्वात् सहोत्पत्तिसंवेदनत्वाद्वेति चेत्; न; तस्य सन्तानान्तराने भिचारित्वेनागमक वात् । अस्ति हि तेषां तत् न चैकत्वमिति । "तान्येव न सन्ति अपरिज्ञानाम् तत्कथं तेषु तम् ? न हि ते शरीरवसत्रापि संशयाद्यभावापतेः । नाप्यनुमानात् लिङ्गाभावात् । चेत्; कुत एतत् ? तस्य संवेदन कार्यत्वेनात्मनि प्रतिपत्तेरिति चेत् तहिं तस्य संवेदनस्य 10 deas anम् - अन्यथा 'संवेदनस्य व्याहारादिः कार्यम् तस्य संवेदनं कारणम् इति परिक्षानासम्भवात्। भवत्विति चेत्; न; तस्यापि संवेदनसमयस्य व्याहारादौ सरसमयस्य च संवेदने प्रवृत्त्यभावात् 'तरकाले भाविनि भूते वा स्वयमभावात् तत्कालेन च तत्प्रतिपत्त अतिप्रसङ्गात् । न चोभयकालत्वमेकस्य क्षणिकत्वात् । भवतु वा "तस्य "तत्कार्यत्वम्, तथापि न गमकत्वम् गाहस्वापादौ साध्याभावेऽपि भावात् । अन्य एष स व्याहारादिः न च व्यभिचाराद्विलक्षणस्यापि गमकत्व गोपालपटिका धूमव्यभि वात् पर्वतधूमस्यापि पावकं प्रत्यगमकत्वापत्तेरिति चेत् भवत्येवं तथापि कथं तस्य सर्वत्र कार्यम् ? कविता दर्शनादिति चेत्; न; तेन वद" तत्प्रतिपत्तिसम्भवान्न सर्वत्र ata sun saप्तिज्ञानादिति चेत् कुतस्तस्योत्पत्ति ? कवित्तया दर्शनादिति चेत्; नाकस्यापि सर्वत्र गोमय कार्यस्वपविज्ञानापतेः करचितथादर्शस्याऽविशेषात् । न २० अन्यत्रान्यतोऽपि तस्योत्पत्तेः । वज्ञानयतः सर्वज्ञत्वापतेश्च । तस्मादप्रतिपन्नन्यामिस्वान व्याहारादेस्तेषामनुमानम् इत्यनुपलम्भात् सन्त्येव सन्तानान्तरज्ञानानीति न रभिनयक्षेत्र व्यभिचार इति वेस् कोऽयमनुपलम्भो नाम ? उपलम्भनिवृत्तिमात्रमिति चेत्; न; ततो गरानं कुसुमादिष कस्यचिदप्यप्रतिपतेः । अम्योपलम्भ इति चेत्; तेनापि कथं प्रतिपत्तिः १ तद्विविकतया तद्विषयस्योपलम्भादिति चेत् अस्तु तर्हि २५ ae aerat न सत्र, अन्यथा प्रत्यक्षादेव स्वर्गादिविधिकभूसत्यदिविषयात् सर्वत्र
१५
F
१ शानस्य । २ चिज्ञानेऽपि १ "योगः अस्य विश्वस्य परिल प्राप्तिः क्षेमः तदयं क्रियातुष्टानलक्षणं परिचालनम् ।" हेतु०टी० पृ० ३६ "धर्मानुवृत्तिः गोना, रूपधर्मानुवृत्तिः क्षेमः" प्र० पा० ० ४ समानान्तरत्नानाम् ५ सन्तानान्तर शामानि । ६ व्याहारादेः ७ ज्ञावस्यापि । ८ व्याहारादिकाले भाविनि । ९ श्राले भूते १० हारादेः। ११ संवेदन कार्यम् । १२ यन्त्र दृश्यते तत्रैव १२ इन्दीवरकन्दस्यापि 18 "मरसं शशाक उदरिन्दीवरं गोमयात् काष्ठादग्नि रहे ः फणादपि मणिपित्ततो रोचनाः । इति पुरातनवचनम् " - ० टि० | १५ तगादी १६
४९
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....... -....
--.-.-....--
.
न्यायविनिमयविधरणे
[.९९४ स्वर्गाद्यभावप्रतिपत: चार्वाकस्यापि किं तत्र प्रमाणान्तरपरिकल्पनया ? यत एई शोभेत--
___ सद्भाय. प्रांताच कस्याच ॥" [ ] इति ।
कथं वा क्वचिदपि संपामश्याना सस्मादभावप्रतिपतिः ? 'हश्यानुपलम्भस्यैव समकत्वम्' इति स्वमतव्याघातात् | इदमपि भेदवादिन एव मत भाद्वैतवादिनः तेनानुपलम्भ५ मात्रादभावप्रतिपत्तरभ्युपगमादिति चेत् ; न ; एवं नीलेनान्याकारस्य तेन नीलस्यानुपलम्भात्,
अभावप्रतिपत्तावनिमयोगक्षेमत्वस्याश्यासिद्धिप्रसङ्गात् । नीलेतरयोरन्योन्यमनुएलम्भेऽपि स्वय. मुपलभोन्नाभाव इति चेत् । न ; सन्तानान्तरेष्यपि स्वयमुलम्भस्य भाशत् । सोऽपि परेणानुपलभ्यमानो नास्त्येवेति चेत् ; म ; नोलेतरवोरपि स्वयमुपलम्भस्य परस्परानुपलम् - नामावापतेः । तन्नानुपलम्भमात्रादपि सदभावज्ञानम् ।
कथं पा तन्मात्रासदभावज्ञानाहानम् ? कथं प न स्यात् ? तन्माप्रशानेन तदमावज्ञानस्य तज्ज्ञानेन च सन्मात्रस्याप्रतिपत्ते, तत्काले तस्याभावात् , उभयसमयव्यापिनश्च ज्ञानस्यानभ्युपगमात् । उभयोश्च कुवश्विवपरिज्ञाने तन्द्रेतुफल्मभावस्थाशक्यपरिझानत्वात् । सत्यम् ; न वस्तुसोऽनुपलम्भस्य सज्ञानहेतुत्वम् "अशक्त सर्वम्" [५० वा. २१४] इति ।
वचनात् , संवृत्त्या हु तदभ्युपगम्यते "संवृत्त्यास्तु यथा तथा' [ze वा० २१४] इति । २५ वषनादिति चेत् ; न ; व्याहारादेरपि तथैव सम्तानान्तरपरिझानहेतुत्वापत्तेः । संवृतिः । बटेन सपरिज्ञानमपरिज्ञानमेवेति देत् ; ; तेन निषेधस्याप्यनिषेधत्यसमाम् ।
अपि च, केय संवृत्तिाभ ? तत्र हेतुफलभावमध्यारोपयन् कचिन्मिध्यात्रिकस्य इति चेत् ; न ; तस्यापि हेतुसमसमयस्य तत्फले तत्कालसमसमथस्य च हेतौ अप्रवृत्तः, .
उभयसमसमयस्य च तस्यानभ्युपगमात् , कथं ततोऽप्यनुपलम्भस्य तद्धेतुत्वम् ! सत्यम् । २० न तस्याप्युभयविषयत्वं वस्तुतः संवृत्यन्तरेणैव परिकल्पनादिति चेत् । न ; तेनापि हेतु
तत्फलयोरपरिज्ञाने विकल्पतद्विषत्वस्याशक्यारोपणत्वान् । तस्यापि तदन्तरेण द्विषयत्व. परिकल्पनान्न दोष इति चेत् ; म ; वत्रापि 'तेनापि' इत्याउनुबन्धादावृसिमतोऽनवस्यादोषस्थापत्तः । विचाराधिष्ठिता न सम्भवस्येव संवृत्तिः, लोकयुद्धभैव केवलमभ्युपगम्यत । इति चेत् । न सम्यगेतत् ; लोकस्यैव सन्तान्मन्तरस्वभावस्याभावात् । तदयं लोकमेवानभ्युगच्छन् तद्या संवृतिमाशीकरोतीसि कथमनुन्मत्तप्रज्ञ: ?
भवतु वा संवृतिः, तथापि तया तदभावज्ञानस्य किमारोपवितव्यम् ? अनुपलम्भ
.
.........
...
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"तनु धर्मकीहिना-अमायरामाम्यस्थितेरन्यावतो गतः। प्रमानान्तरसद्भावः प्रतिष कस्कचित्" प्र. परी० पू० ६४ प्रा. कन्द पु०१५५४ प्रमाणमी. पृ०८ । २. प्रतिषेधसिद्धिरपि यथोकरया एकापलब्धः पश्या दृश्यानुपलब्धिसत एव । -यावि० पृ. १३ । प्रमागवा. स्व.
५ मामवातिहास- २५२. ३-दभावान - ०० "अपलम्भमाया सन्तानान्तरान भरवशाभमभूदिसि मानम्"-ला. शि. . संघाच 11 ५ संवृतियलेन । ६ "सत्याभास पत्र मतर पर मार्यत विचार्यमाणम्यत्पे संवत्तिः सेति गीयते " नातिकान -14।
।
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मधमा प्रत्यक्ष प्रस्तावः
१४९४ ]
૨૦
,
कार्यत्वमिति चेत न असति तस्मिन् तदारोपणे तस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गात् । सत्येवेति चेत् तदापि किं तस्य प्रयोजनम् ! 'तदभावप्रतिपत्तिरिति चेत्; न; तस्यास्तत्सत्तामात्रेणैव भाषात् तदभेदात् । स नित्यस्त्रस्य निषेध, निर्हेतुकत्वे अवश्यं तत्प्रसङ्गादिति चेत् ।
;
'न सम्यमेतदपि यस्मात
free
क्षेत्र विनिषिध्यते ।
निषेधेहि निषिद्धाः ||९५४ ॥ तदयं मच्छिमछेदस्तवागतः । नित्यत्वहानिकामस्य ज्ञाने तद्धान्युपस्थिते ॥ ९५५॥ तद्रूपं चेदनित्यत्वं नित्यत्वं दैवतो गतम् । तनिषेधाय तयर्थ कार्यत्वाधिरोपणम् ॥ ९५६ ॥ आरोपित नित्यत्वं तत्र नास्त्येव निश्रयात् । नियात्मानुमान प्रसिद्ध बौद्धशासने ॥९५७॥ Fred farrears arस्तीत्यपि न युक्तिमत् । विना तेननितिर्नेति पूर्व निरूपणात् ॥ ९५८ ॥ तदयुक्तस्तदा वैफल्यारसंवृतेरथम् ।
दोषो न सौगतस्यास्ति तद्वृत्तान्तानुवादिनः || ९५९ ॥ न चासो संवृत्तिः शक्या निषेद्ध हेतुसम्भवात् । तत्सम्भवोऽपि तद्धेतोस्तदनादिकमानसात् ॥ ९६० ॥ इति चेतमेवेदं कार्यकारणता स्थितौ । स तु तं सर्वमित्यभिधायिनः ॥९६९॥ संवृतीनां प्रवापि संवृत्या" यदि सत्स्थितिः । स्थानं वस्तनिर्णयो भवेत् ॥ ९६२ ॥ तस्मादयुकमेवेदं कीर्तितं धर्मकीर्तिना ।
"निष्पत्तेरपराधीनमषि कार्य स्वहेतुना ॥ ६६३ || सम्बध्यते कल्पनया किमकार्यं कथञ्चन ॥ [प्र० वा० २१२६] इति कल्पनया तत्सम्वन्धस्यैवमसम्भवात् ॥ ९६४ ॥
स्वरूपमेव तस्याऽऽरोष्यमिति चेत्; न; अनुपलम्भस्य वैकस्यापतेः । संवृतित एव
तत्रणरूपस्यै' भावात् । भवत्विति चेत्; न; अनुपलम्भवादिनोऽसाधनाङ्गवादित्वेन नित्रोपनिपा
| सन्तानान्तराभावे ।
शाने
समानान्तराभावप्रतिपतिः । ३ सन्तान्तराभावयतामात्रेणेन तदभाव५ सावतामस्य । तदभावज्ञान मैच तैः ० ० ० १ ८ अनुपलम्भकार्यत्वधिरोपसम् ९ स्वपक्षियेस १० प्र० वा० २.४ ११ संयादि ततः स्थिते: ० ० ० १२ त्या । १३ स्मा
भाषा-म०, ब०, प० ।
१५
२०
२५
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APAN
भ्यायचिनिश्चयषिधरणे
[ १।९५ तात् । कथं वा तस्तस्वतः सन्तानान्तराभावस्य परिज्ञानम् आरोपितस्वरूपस्य हात्त्विफप्रयोजननिबन्धनल्यानुपपत्तेः तोयादिवत् । सदृष्यताक्तिकमेवेति चेत ; न तर्हि तरवारसदाच इति कथन सैरभित्रयोगक्षेमत्वस्य व्यभिचारः ? नायं दोषः, तेपासप्फत्वेन पक्षीकरणादिति
घेत; न; व्यभिचारविषयस्य सपयोगात्, अन्यथा न किन्नित्तत्पुत्रत्वादिकमपि व्यभिचारि ५ मधेन् , तत्रापि ग्याविरमारविषय पीकरणात को विरोधी मात्र एच तेषामभिन्नयोगक्षेमस्वं न भवेत् , अश्यात्मना तेन साक्षाद्विशेधद्वयस्थापि सर्वसत्वेन बचनादेरिवासिद्ध। मानावविरुवनैकत्वेभ तस्य' च्याप्तवान् भारम्पर्येण वेनापि विरोध इति धेन : क्य पुनरेकत्वेन सन्याप्तिः प्रतिपन्ना ? प्रकृत एवं विज्ञान इति चेत् ; सत्र योकत्वप्रसिपसिरन्यतः,
व्यर्थमभिन्नयोगक्षेमत्वम् , तस्यापि तदर्थत्वात् तस्याश्चान्यस एव भावान् । अत एव तत्प्रति१० पत्तौ परस्परालयः --निश्चिते. नानात्वविरोधे वस्तत्प्रतिपत्तौ सेन समाप्तिनिश्चयः, सतयं तद्वि.
रोधनिश्चत्र इति । तन्नाभियोगक्षेमत्वं हेतुः, संशयितविपक्षव्यतिरेकत्वात् , तदपि मानावेन साक्षात्परम्परया य "विरोधासिद्ध व्यभिचारनिश्चयावा, मिश्रितो पत्र व्यभिचारः सन्तानान्तरज्ञानेषु स्याहारादिभेदाद् भिन्नतयैव प्रतिपन्नेषु हेतुभावार। ।
यत्पुनरत्रोक्तम्-'तद्रेदश्य साकल्येन व्याप्तिपरिज्ञाने तत्परिज्ञानरतः सर्वज्ञत्वम् , १५ देशतरसत्परिझाने म ममकत्वं व्यभिचारसम्भवात्' इति ; सदपि न युक्तम् ; अभिनयोगक्षेम
खेऽपि तथा प्रसङ्गात् । वार्य शेष: वन्न पक्ष एवं व्याप्तिग्रहणादिति चेत् ;न; व्याहा. रादिभेदस्यापि "तत्रैव तद्रष्णान् गमकषोपपत्त: व्यभिचारदोषस्य परिहरणात । तत्राभिनयोगः क्षेमत्वादेकत्वं संवेदनाकाराणाम् ।
यत्पुन:-अभेदप्रतिभासादेव निर्वाधार तथा ये ; अर्थाश्यवानामध्येकत्वं तदविशेषात् । २० प्रतिपादितम् चैतन्-'एतत्समानमन्यत्र' इति । तदेव विस्मरणशीलानामनुग्रहार्थमादयन्नाह
__ अनश्वार्थचलायातमनेकात्मप्रशंसनम् । इति ।
अत्र च शब्दो भावनायाम् ! अतः अस्मान् एकान्तविभ्रमादेर्यदन्यस् "अन्यत्र' इत्यनुवर्तमानस्य विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धाम् । किं सद् १ अनेकात्मप्रशंसनम् , अने.
कारमनः अनेकस्वभावस्य ज्ञानस्यैव नार्थस्यानभ्युपगमान् , प्रशंसन प्रतीतित्रलेन स्तवनम् । २५ उत्किम् । अर्धस्य बाह्यस्य पटादेवलं स्वरूपादप्रत्यवनं तस्मै तदर्थम् भायावम् आगतम् अर्थचलायातम् । तथा हि--
चित्रमेयं यथा ज्ञान प्रतीसिवलतो मतम् । मन्यत तदर्थोऽपि तव एवानुपलवान् ॥५६५॥
सन्मानान्तर शनैः। सन्तानानानामपि सन्तानान्तरसानानाम् । सहानवस्थापरस्परपरिहारस्थितिलक्षविरामदयस्वादि। ५ ममिचयोगक्षेमत्वस्य । ६ नानात्वेनापि । ० एकरवप्रतिपस्वत्याद।८ एकत्वप्रतिफ्ती। ९एकस्यव्यातरवात् । .विरोधसिद्ध भा .प.. पक्ष एव पशिग्रहणात् । १२एकार्य संवेदमाकाराणाम्।
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प्रथमः प्रत्यक्षास्ताका
३८३
न चक्रमेकरामादावित्यादिरपि' बोरक्त । एकामेकस्वभावेऽर्थे विप्लवायन स्पसे ॥९६६।। कल्पते यत्र योगो सोऽस्माभिरपि चेष्यते । वं दूपयनतोऽस्माकं प्रतिहस्तायवे भवान ॥९६७।। चिकज्ञानवसत्र संशयापि दूषणम् । प्रवर्ततेन निर्धाधनियोश्लेपभूपिते १९६८॥ अद्वैतवेदन तस्मादेकानेकात्मक जुबन ।
न प्रभुबहिरर्थस्य वारशः प्रतियोडने ॥९६९॥ मवतु वाह तकमेव पत्र
किं स्यात्सा चित्रकस्यां न स्वासस्या मतावपि ।
यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ॥" [प्रवा०२१२१०] इति वचनादिति चेत् ;न; तारशस्य कदाचिदपि तस्याननुभवात् । अननुभाज्यमपिलिका स्वगम्यत इति चेत् ; न ; प्रतिवेदने दत्कार्यस्वभावतया फस्यचिदपि परिशानायोगात् , अवस्कायस्वभावस्य लिमत्वानभ्युपगमात् । सुगतसन्निधानात्तदयगम्यत इति चेन् ; न ; अद्वैतवादे सुगतस्यैवाभावात् । भावेऽप्युत्तरमाइ
न ज्ञायते न जानाति न च किश्चन भाषते ॥१५॥ बुद्धः शुद्धः प्रवक्तति तस्किलैषां सुभाषितम् । इति ।
वुद्धः सुतो न ज्ञायते न विनेयः प्रचीयते तस्य बुद्धिरूपतयाऽनन्यवत्वा "सस्या नानुभयोऽपरः" [प्र. का० २।३२७) इति वचनात् । अपरानुभवभावे पा तद्वतोऽपि सर्वदर्शित्वं सकलविषयाकारगर्भस्य तेन परिज्ञानात् । तस्याप्यपयनुभवभावे तद्वतोऽपि २० सर्वदर्शित्वम् । तत्राप्येवमिति सर्यस्थापि युद्धमनुभवलो विनेयवर्गस्य तदनुभवाविष्ठानस्यापि सर्वदर्शित्वान्न किञ्चिद् बुद्धेन ? बुद्धवदेव तस्यापि स्वत एव तत्वपरिक्षानात् । तन्न तस्थापरस्मादनुभवात्परिज्ञानम् । अनुमानादिति चेन् ; न ; ततोऽपि तस्य स्वरूपप्रतिवेदने पूर्ववहहेपात् , अन्यथा तलैयात् । समारोपन्यवच्छेदाल सद्वैयद्यमिति चेत् । किं वाधण्छेदेन ?
म्यायविश्ली - ९१ । २-याशेषणे आ.,२०, प.! " यदि सा शिक्षा बुखावे. करुप स्थात् तथा च चित्रोकं द्र व्यवस्थाप्येत तदा कि दूषणं स्यात् ? आइ-1 स्वासस्था मत्तावाये। नं बलं इध्ये तस्थ मताप्येवस्थान स्थचित्रता। आकारसामावलक्षणवादस्व । नानात्वेऽपि चिन्ता पमम् । अपुरुषप्रतीतिवत् । कथं तर्वि प्रीतिरिवाइयदादं यमनि रोचते सत्र में क्यम् । यदीदमस्वदूरयेऽपि ताप्यमनमर्थानां भासमानानां नीलादीमा स्वयमपररया रोचते तत्र तधाप्रतिभासे के स्वमसहमामा अपि निपैरम् ? सस्तु वे प्रतिभासते चेति व्यफमालोक्यम् ।"-प्र.पा. मावृति।१।
तरपरि-आ.व., पग ५ अनुमानयात् ।
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HEATRE
२९०
न्यायविनिश्चयविधरणे
सत्यपि तस्मिन तस्वरूपस्याप्रतिवेदमात् । प्रतिवेदने तु सिद्धं तसोऽपि सर्वदर्शित्वं सकलाकारप्रतिबद्धम्य बुद्धस्वरूपस्य तेन प्रत्यवलोकनात । तदुक्तम् -
"समारोपध्यवच्छेदातयसिद्धिपनिछताम् ।
अनुमानमनर्थ स्यादन्यथा सकलग्रहः ॥" [ ] इति ।
arय सदस्थ पूर्ववयम् , ततो न कुतश्चिपि तस्य परिज्ञानमित्युपपन्नमिदं 'बुछो में झाय' कि ।
तदनेन सुवसन्निधानात्तत्वज्ञानमित्ति प्रत्यक्तम् ; सुगतस्यापरिज्ञाने ठरसग्निधानस्यापि दुष्परिज्ञानत्वात् । अपरिज्ञातमेष सन् तपरिहानस्य निवन्धनम् चक्षुरादिवपादिपरिज्ञानस्येति
चेन् ; भयेदेवं यदि रूपादिलानरत् निरंशदनविपर्य 'किछिरिझानं विप्रसिपतिमलोपले१. पविकलेन प्रक्षाप्रकाशेनोपदर्शितं भवेत् । न चैवम् , सर्वदा प्राधादिभेदमलाधिष्ठानस्यैव तस्य
परिज्ञानावलोकानात । प्रतिपादितं दैवत् पाक 'मतिसंहारवेलायां म संवेदनमन्यथा' इति । तदनेन तत्त्वज्ञानात्तत्सन्निधानपरिज्ञानं प्रत्युक्तम ; उक्तनीत्या तत्वज्ञानस्यैवाप्रतिपः । तन्न तत्सन्निधानात्तदवगतिः ।
तद्वचनाद् "अद्वयं यानमुत्तमम्" [ ] इत्यादेस्तदवगतिरित्यप्ययुक्तम् ; १५ 'सदपरिज्ञाने तद्वचनस्याप्यशक्यपरिधानत्वात् । कथं वा तस्यैव वचनं प्रमार्ग में रध्या
पुरुषारपि १ तस्यैव परिशुद्धहानत्वादिति चेतन: स्वरूपापेक्षया रथ्यापुरुपादेरपि तस्वात् । न सकलविषयापेक्षयेति चेत् ; ; ; बुद्धेऽपि तदभाशत् । न हि तस्यापि सर्वत्र परिशुद्धज्ञान समकालभाविन्यभावात् , "तस्याकारणस्वेन तदविषयत्वान् । तदपि कार.
णमेव सविनाभावादिति चेत् ; न; तस्यापि विषयत्वे "मातोऽर्थः स्वधिया सह" २० प्र०वा०२१२४६] इत्यस्य विरोधान् । भवदपि लभ्य सर्वार्थानं निराकारं चेत् न तस्यक
स्वभावस्य देशफालस्वभावभित्रानेकवस्तुविषयत्वम् एकस्वभावज्ञान विषयत्वेन सर्वस्याप्येफरवापसे, अन्यथै कन्वभावहेतुकत्वेऽपि कार्याभेदप्रसाभावात् न नित्ये नानाकार्यविरोधः स्यात् । अनेकस्वभानमेव भवतु दिदि चेन् । कथं तदेकम् , प्रतिस्वभाव विरुद्धधर्माभ्यासेन भेदोपनिपातात् ? अन्यथा कमेणापि तदेकमेवानेकस्वभावं प्राप्नुयात् । शक्यविवेचनाकान्नति पेन् । २५ किमिदं विवेचनं यच्छक्यमुच्यते ? कालफतस्तत्स्वभावाना क्रम इति चेत् ; न ; 'युगपदपि
देशकृतस्य"दस्य भावात् । ततो" नात्यन्ताय भेदः, तेषामभेदस्वापि प्रतिभासनादिति चेत् । म ; कालभिन्नानामप्यभेदानुगमस्यावलोकनात् । मिध्यैव तेषां तदनुमगो विकल्पोपनीतस्वादित्यपि नोत्तरम् ; देशभिन्नानां 'वनुगमस्यापि [विकल्पोपनीतत्वात् , स्पष्टप्रत्ययविषयत्वानेसि
1-सातत्या-आ.२ सुगटसन्निधानाम् । ३ -शानिया , 4०,०। किभिज्ज्ञानं श्रा, ब.०५.२७ १०२२ । ६ सुक्सापरिझाये। समकालभाविनोऽयस्य 4 गुगतानस्य । ९ क्रमागपमा०,०,१०।१. कमल । देशकृतकमा । १२ अभेदानुगमः । १३ अभेदानुगमस्यापि ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताका
घेत् ; अस्ति कालभिमानामयि) स्पष्टप्रत्ययविषयत्वम् । निरूपयिष्यते च तत् । अनेन एकान्तभेदप्रतिवेदनं विवेचन मिति प्रत्युक्तम् ; प्रत्यक्षतस्तदभावात् । अनुमानस्य च तैरपूर्वकसया तत्राप्रवृत्तेः । नापि सन्वानाम्बरं प्रति नयनं विवेचनम् ; तस्याप्रसीते: अनभ्युपगमा । नाप्यन्य. वेद्यबम् ; युगपाविनामिव क्रमभुवामपि तेषां परेण प्रत्यक्षेणामहणात् । अनुमानेन प्रणस्य चोभयत्राविशेषात् । तसो भवत्येव अमरतामपि तेषामभेदः ; सदस्याभेदप्रत्यनीकत्वाभाव. ५ स्वात् । तदुक्तम्
"अन्तर्बहिर्मुखाभादि संविद न भिनप्ति घेत् । 'अक्रमं न अमाधीनं भिन्द्यादेव सुखादिकम् ।।" सिद्धिवि०म०परि०] इति ।
में चेदमुचि भवताम् ; बुद्धस्यैकान्ततः प्रतिसमयभङ्गुरत्वेन तदात्मत्वानुपपः। तत्र तज्ज्ञानस्य क्रमवदक्रमेणाप्यनेकस्वभावत्वमिति व सेन तस्यादत्रिवेशिखं निराकारेण ।
शपि साकारेण ; तस्यावाकाराकमानविषयत्वेनान्यत्राप्रवृत्तेः । सर्वमपि तँग्राकाराकमेयेति चेत् ; 4-पूर्वीपरसम्भाविको भी बीमारिकरिव समप्यारमनो यदि न तब समर्पयन्ति कथं तयं तद्विषयत्वं यतस्तेनाशेषज्ञत्वं बुद्धस्य ? कथं वा क्वचिदु. पाथोपेयभावस्य परिज्ञानम् तस्य कालकमालिङ्गिवत्वेन तदनवबोधे दुखबोधत्वात् । यौगपञ्चालिङ्गि तत्वे तु तद्धाय एव न भवेन् कस्यविनिम्पन्नस्यानुपायत्वात् , निष्पन्नस्यापि पुनरनुपयो- १५ गान् , स्वनिष्पत्तिसमय एंवोपेयस्यापि निम्पसे। भव्यभिवायदुपायत्वं न निष्पादकत्वादिति चेत् । कुतत्तर्हि तनिष्पत्तिः। न कुत्तश्चिदिति चेत् निस्यसकादिप्रसङ्गात् । अन्यत इति चेत् । न तस्यैकोपायवापत्तेः , न प्रकृतस्य । भवस्विति येत् । न तस्याप्युपेयसमसम. यत्वे पूर्वरदोषात 1 पुनरन्यतस्तभिष्पत्तिकल्पनायाम् अनवस्थानसन् । सन्निसमयस्वे तु सिद्धः कालक्रमालिङ्गितस्तद्भावः । स च न बुज्ञानस्य विषयः, अनर्पिताकारत्वादिति कवं तस्य २० प्रामाण्यम् ? यत इदं सूझ भवेत.
"हेयोपादेयतत्त्वस्य साम्युपायस्य वेदकः ।
यः प्रमाणपसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥" [अ० वा० ११३४] इति ।
"हमपि ते तत्र समर्पयन्ति पूर्वापरभावेनैव तदर्पिताकाराणां बुद्धवेदने व्यवस्थानादिति चेत् ; उच्यते--
२५ प्रत्याकार यदि ज्ञान तत्रैकान्तेन भियते । प्रत्यर्थनियतत्वेन कथं सर्वार्थविदयेत् ॥९७०॥
।
प्रत्यक्षपूर्वकसर १ क्रममाऽपि २० क्रममाव्यषि आ., २०१३ अकम से कमाना भा.., प. चुरझाने। महीलादि-आ.. . सासकमस्य 01.01 उपायोपवाव ८ एकोपाय-80,०,५०१ ९ नित्य सत्या-80,20,1"नित्यं सत्त्वमसर वा हेतौरन्यानरेक्षणात् ।"-. वा ३३४ 11.मन द्वि-आ.ब.प.111 कालक्रममपि भावाः । १२ ४५वस्थापनाली,पप.
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९२
म्याययिनिश्वर्याचबरो
समान
तदाकारक्रमस्यापि परेग प्रतिवेदनम् । सदाकारेण तत्रापि तक्रमस्यान्यतो गतौ ।।९७१। अमवस्थानदोषः स्याकान्तेन तद्भिदा। प्रत्याकारे कथश्चिच्छेदनेकान्तः प्रशस्थताम् ॥९७२।।
आत्मानमेव जानानः क्रमाऽनेकान्तगोवरम् । बुद्धः कथं सतो यादेकान्तक्षणिक जगत् ॥९७३॥ तदन्वयस्य मिथ्यात्ये मिध्येय स्यासथागतः । मिथ्या व सर्ववेदी र प्रमाणम्येति साहसम्॥१७४॥ तन्न कालकनज्ञानं तस्व स्थावादविद्विषः! सोपायोपेयविज्ञान मास्ति तस्य तदत्यये ।।९७५॥
तदाह-न जानाति न घेति बुद्ध। किम् ? किश्चन पेादि इति सत्यम् । भक्तु तस्याज्ञेयस्वं तत्त्वापरिक्षानच तथापि शुद्ध इति चेत् ; आह-शुद्धः निमर) का युद्ध । इति एवम् , तत् क्रमायातयचनम् , केपाम् एषां चौद्धानाम् । 'किल' इत्यरुचिद्योतने।
सुभाषितम् अरुचिद्योतनाद् दुर्भाषित मिति यावत् । तथा हि-अपरिहाते तस्मिन् कथं १५ तेसुद्धा परिक्षानम् । कथं या तत्त्वापरिक्षानमलशमटितस्य शुद्ध सम्भवोऽपि चतस्तद्वचनभेतेपी
सुभाषितं भवेत् ? ___ भवतु वा परिशुद्धरे बुद्धस्तथापि कथं तस्य पचनम् ? कथञ्च न स्यात् ? कारणाभावात् । सस्य हि कारणं विकल्पः,"विकल्पयोनयः शब्दा:"[ ] इत्यभिधानात्। न पासौं"
दुस्य; विधूतकल्पनाजाललान 1 सदभावेऽपि तस्कृतासंस्काराद्वयनमिति चेत्"; न; सस्यापि २. विकल्पत्वे तथासम्भवात् । अविकल्पस्ये तदुभयस्त्रभारस्किलल्थे च "वतो बयनस्यानुत्पत्तेः,
अन्यथा विकल्पयोनिस्वनियमव्यायावात्। विकल्पादेव चिरापकानात्तस्य रचनमिति बेल न; तस्य हेतुत्वे सन्तानान्तरासिद्धः । "व्याहारादेस्तसिद्धिरिति चेत् ; न; तस्यापि चिरापकान्तयद्धिप्रभवस्वशायां ततस्तरपरिज्ञानयोगान् । तथा इनचार्वाकस्येव बौद्धस्यापि "परार्थ शासप्रणयनम् । बुद्धिरनुसन्धानवत्येव व्याहारादिकं जनयति आत्मनि तथैव दर्शमान चिरापक्रान्तेति चेत् ; विकल्पोऽपि सथाविध एव पचन मुत्सावयति, अमादादौ तथा दर्शनान चिराप. शान्त इति किन्नेष्यते ! स्वापादौ विकल्पविकलस्यापि वचनस्योपलम्मादिति चेत् ; में; तदा
कमेनैका- ., प०। २ उपाथादिकत्वं श्रा०, ब, प. धुद्धिए- प.प. -नमेशा-०, ५०, ५.१५श्नस्य । ६"दिकल्पाः सब्दयोगः । तेषामन्योन्यासन्धी भार्थन् शब्याः स्पृशयमी ॥” इति शेषशः । देव्यम्-म्पायडमु. ५० ५३.टि. . ७ विकल्पः शुबस्य-शर, २०,०। ६ विकल्पामावपि । १. मेत् त-श्रा०, २०, संस्काराद। १२ पुरस्म । १३ चिरापकान्तस्य । १४ व्या हारदेितदिति मावा , प.११५पर्यशामा०,40, 4-1 ११ स्मदी .
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याः
घयमा प्रत्यक्षपस्तावः
बुद्धिविफलस्थापि व्यापारादेः प्रतिपत्ते । ततश्विरापकान्ताद्विसामान्यापारादिवत' ने विकल्पादपि वचन मिति न कुनश्चिपि बुद्धस्य बचगम् । तदाह-न च नैव किचन किमपि उपायोपेयतस्वं भाषते कश्यति बुद्ध इति । यद्यपि नाम स्वमुखेन न च किम्वन भापते बुद्धस्तथापि प्रवरच कुख्यादिभ्योऽपि नस्लभानोपजनितस्य नत्योपदेशस्य तद्वयनत्वादिति चत ; कथं सेामप्यविफल्पत्यं वचनम् ? विकल्पयोनिनियममाघातात् । अस्मदादिवचनस्वैव ५ तनियमो न बुद्धवचनस्येति चेत् ; किमिदानी कुश्यादिभ्यतत्यल्पनया बुद्धादेव तदुपश्च: तथा च दुहितमेतत् । "ये कल्पयन्ति कवयः सुगतस्य वाच
स्ते कल्पनामपि मुनेः परिकल्पयन्ति !'' [ ] इति ; याच कल्पनाव्याप्तिवैकल्यात ।
भवतु विकल्पत्वमेव कुट्यादीनामिति चेन् ; किमिदानी 'तत्र युद्धप्रभावेन ? स्वयं "विकल्पवादेव तेषां वचनोपपत्तेः । तद्विकल्पत्वं तत्प्रभावादिति चेत् । न तस्य उदु पादा. नस्थे “सेगां युद्धकसन्तानत्वेन बुद्धस्यैर विकल्पकत्वासनात् । तत्सहकारित्वे तु तत्र किमुपादानम् ' कुझ्यादिकमेवेति चेत् । न ; तस्याचेतमत्वे तत्वायोगात् शरीरवत् प्रागपि विकस्परकेन खेतमगेव "तदिति चेन ; ने ; तथाप्रतीत्यभावात् । यिफस्पाच विकल्पे किं १५ वा तत्सहकारित्वेनात्मदादिविकल्पमत। "तस्थयिषयत्वं सस्थ" सत" इति चेत; न ताहि तदपमाणम् । प्रमाणञ्च न प्रत्यक्षम : विकल्पत्यारा । नानमानस: अलिङ्गजस्वादिस्यन्यदेव प्रमाणमनिष्ट भवेत् । कथं वा कुन्यादिविकल्पबद्धिनेयविकल्पस्यैव "ततस्तस्वविषयत्वं न भवेत ? एवं हि पारम्पर्य परिहतं भवति-'कुनादिविकल्पत्य ततस्तत्वविषयस्वम् , सप्तो वचनम् , वतश्च विनेयानां तत्वज्ञानम्' इति । एवम्भूतस्तस्य" प्रभाव एव २० नास्तीति चेत् ; कथं चिन्तामणिकल्पत्वम् ? यत इदं सुभाषितम्
"चिन्तारलोपमानो जगति विजयते विश्वरूपोऽप्यरूपः॥"[
चिन्तित प्रकार प्रदानसमर्थप्रभारे सत्येन चिन्तारोपमत्वोपपत्तेः। ततो न कुझ्यादिभ्योऽपि तत्प्रसवात्तत्त्ववचनमिति न ततोऽपि सस्य वक्तृत्वम् । ततसद्भाषणं परस्य दुर्भाषणमेव। तदाह 'प्रवा ' इत्यादि । व्याख्यातमेतत् ।
. .--यक्षिविंक-आर, ०,१०। "मारावेतता सश्चिन्ताममेरिख । निस्सास्ति स्याकाम कुयादिभ्योऽपि देशना ।"-तस्वसं. रलो. १६०८ : ३ बुवादीमा विकृत्याहितत्वे । ४ अध्यादौ । ५ विकल्यादेव आग, मप. ६ कुरुवादीनां विचल्लवम् ! . दुरस्म कुपादिविकोपादासत्वे । ८ कुदीनाम् । ९ विकल्पोपादानत्यायोगान। .. कुठ्यादि। १ तत्सत्यधि-आ, ब०,५०१२ विकल्पस्य । 18 दसहकारित्वेन । १४ बुद्धसहकारतः । १५ युदस्य ।
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३९४
ग्यायविनिश्चयविवरणे
Karismatini
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सन्न बुद्धदखनादपि निरंशस्य संविदद्वयस्य प्रतिपत्तिर्यतः सत्त्वम् । सतोऽपि भूसभवध्यानां यद्यन्यसमेन कालेनारच्छेदः ; कालान्तरं तस्वशून्यं भवेत् । तथा कार्यस्थायि कस्यचित्रभाचे व्योमकुलमादिषवस्तुत्वम् । 'भावे त्वद्वैतव्यापत्तिः ।
नैष दोषः : कालस्यैवापरस्याभावान् , असता च तस्यायच्छेदानुषपत्तेः । न च ५ कार्याभरवादसत्त्वम् । कार्येण सत्वव्याप्ठेरभावात् । भाचे कार्यसमसमयमेव कारण स्यान्न
पूर्व कार्यस्यामावात् । तादृशस्य' ५ नं तत्कारणत्वम् अपि तु तदेककारणप्रभवत्वमेव । सत्कारणस्थापि कार्यव्याप्तसत्ताकचे कार्यसमसमयत्वेन तदेककारणप्रभवत्वम् , सरकारोऽपि तथा चिन्तायामसम्भाव्येव तत्कामो भवेत्। तथा कार्यक्रमोऽपि, कार्यस्यापि कार्यान्तरेम सत्त्व.
व्बानो सत्समसमयत्वस्यावश्यम्भावात् । तत्सम्भवमिच्छता च म कार्यव्याप्तं कस्यचित्सवम१० भ्युपगन्तव्यमिति ने कार्याभावार्त्तदद्वयस्याभावः । एतदेवाह
न जातं न भवत्येव न च किश्चित्करोति सत् ।। ९६ ।। इति ।
अत्रैवकारो भिमक्रमो नकाराभ्यां परो द्रष्टव्यः । नैव जातं च भवति इति 'चित्रं तदेकम्' इति सता' 'तदेकम्' इति च अनुवर्तयितव्यम् । तदयमा तत्
संवेदनम् एकम् अयं नैव जातं नैवोत्पत्रम् , अनेन 'तस्वातीतत्थं प्रतिक्षितम् । नैव १५ भवति नैव निष्पद्यते अनेनापि वर्तमानत्वम् । 'नैव भविष्यति' इत्यपि भाषित्व
प्रतिगार व्यम् शालोमा : माये सत्रातीतत्वाविप्रतिक्षेपः काल. स्यैव रिबन्धनस्याभावात् । न प नैव किञ्चित्सजातीयमन्यद्वा कार्य करोति जनयति सदापि सत् कार्येण सत्त्वच्यालेरभावात् । हेतुद्ववं चैतत् परस्याभिप्रायगतम् । अत्र पूर्वपक्ष- . द्योतन येत्' इति द्रष्टव्यम् । उसरमाइ
तीक्ष्णं शौद्धोदनेः शृङ्गामिति किन्न प्रकल्पयते ? इति । सुबोधमेव । तात्पर्यमत्र
निरंशं वेश्यद्वैत मुस्कोपाधि कुतश्चन | प्रमाणादुपलभ्येत शोभत्तवं भवद्वचः ॥९७६॥ प्रमाण हुँ न तत्रास्ति प्रत्यक्षादीति भाषितम् । केवल कल्पनैव स्यात्तदस्तित्वे निवन्धनम् ।।१७७१५ न च वास्तवं युकमन्यथा दनिधनम् । चियाणमपि किन स्यानिशि बुद्धमस्तके ॥५७८
-.
-.
.......
भवाद-०, बैंक, प.। र कार्यसमकालदतिः। ३ कारणकम। 1 ५ -दिसब-आ००, ५०।५ अौकात । । तस्यापि तस्वं आ०, २०, ५० . "श्लोक अविद्यमान हेतुद कथनुच्यत माझा शयामा"-ता. टि.1८"सौमस्य"-8-2012 -समुत्तो-800,40,401 १० तैन्न भाग१०,५०। 1" "पानिवन्धन मिरेशमवतम्"माटि.।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
३९५
अद्वये नास्ति दुखोऽपि यत्र ङ्गस्य कल्पगम । इति घेत्करूपन्य नस्य किन सवाय कल्पने १९७९।। सदस्य च बुद्धश्च तच्छृङ्गं चेति सस्थतः । थिनयायालयाने मनिषकः कथम् ॥५८०॥ तामात्कल्पितमतमवस्त्येव यवोदितम् ।
तदव भतरूपन्न बहिरर्थनिपेधनम् १९८१॥ इति ।
तस्मादेकन्यत्तिकमनेकन्यक्तिकं या चित्रमेव संघवनमनुमन्तव्यम् । तच बहिरर्थमपि वादशं प्रत्यवस्थापति एकरागानो सर्परागादेः मांशवादेश्व दोषस्य तद्वत्तदाफारवञ्च बहिरर्थे तदषयवेषु चाप्रवृत्तेः। यत्र तु प्रवृत्तियोंगकारपसे अक्यविनि ठद्वयवेषु च त्रास्माकममिरतिरेव, सतोऽत्र सरप्रवृत्या नाचिदन्यस्माकं परिग्लानिः । यद्येवं कुतस्तत्र तोषस्य 'एतत्समान- १० मन्यत्र' इत्यादिना समाधानम् ? आहितविषयस्याभ्युपगमनीयत्वादिति चेन् ; न हीरशम् अकलङ्कदेवस्य चेष्टितं यदयसन्यायेनापि दोषेण परपक्ष प्रतिक्षिपतीति । ततो युक्त विज्ञानवदर्थस्यापि प्रतीतिश्लाघस्थापनम् ।।
इदानीं वक्तव्यशेष दर्शयित्वा परिह माह
एक्रेन चरितार्थत्वासनाऽधिपतिपत्तितः ॥ १७ ॥
अलपर्थेन चेन्नैरमतिरूढानुवादतः । इति । ।
अलं पर्याप्तम् अर्थेन घटादिना प्रयोजनाभावात् । उदाहरणादिकमस्ति तस्य प्रयोजनमिति मेत् ; कुतस्तदस्तित्वम् ? प्रतिभासाच्चेत् ; प्रतिभासरूपमेव तहिं तेन तद्व्यतिरिक्तस्य वश्योगात् । तच तपादेव घटादेरिति किं स्त्रार्थस्य कारणधेन ? तदाह-एकेन नानाकारसाधार
न झानेन नार्थेन तस्य 'अलम्' इ िपयुंदासात्। परितो निष्पादितोऽयः प्रयोजनं यस्य २० तस्य भावात् चरितार्थत्वात् अर्थस्य । 'एकन' इस्यपेक्षायामपि परितशब्दस्य 'पृत्तिर्गमकत्यान् । तर्हि ज्ञानेनाप्नलपम् अन्येन चरितार्थत्वादिति घेत ; किं सदन्यत् ? अर्थश्चेत् ; न; "ततो जडत्वेन "मानार्थस्याधिगमस्थासम्भवान् । ज्ञानमेवेति चेत् ; च सहिं सेनालमिति शक्यम् , अभ्युपगमान् । उदाह-तत्र ज्ञाने अविप्रतिपत्तितो बौद्धवदर्थवाविनोऽपि विप्रतिपत्तेरभावात् , अन्यथा नार्थसिद्धिः स्वतस्तद्योगादिसि मन्यते । 'येत्' इचि परमतं थोतयअत्तरमाह-नैवम् । एवम् २५ 'अलमर्थन' इति प्रकारेण । कुत एतन् ? अतिरूतस्य प्रमाणवलतोऽतिप्रसिदस्य अनुधावतोऽनुकथनात 'अर्थत्येति' । तात्पर्यमत्र...
चित्रकाना। २ -कमभिर-सा । ३ तरसी भा०,००। यदन्यायेन भार, ०, १०। ५ सकारणादि। इप्रतिभासरूपादेव। . अर्थस्य । ८ अशन्देन । १ समासः। १० अर्यात् । " मानस्यार्थस्य आ., 40, 40 | मप्रयोजनमाः। १२-मार्यस्येति मा०, ६०,०।
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३२६
स्यायविनिश्वयविवरण प्रयोजनक्शादर्थः करिपतो यदि कथ्यते । थुख्येत तत्पतिक्षेपस्तदर्थस्वान्यतो' भवान् ॥९८२।। न चैवं मानसामर्थात् छानयत्तस्य वर्णनात् । निषेधे मानसिद्धस्य ज्ञान जीवति तत्कथम् ? १९८३]]
किं पुनस्तत्प्रमाणं यतोऽतिस्ठत्वमर्थस्येति चेत् ? तावत् 'प्रत्यक्षम्' इति ममः। "तत्रापि प्रतिभासान्तगर्तमेव नीलमनभासते नापरम् , ततः प्रतिभासव्यतिरेके न प्रमाण ततो नाभ्युपगमः ! अथ प्रतिमासान्तगत तन्न प्रतिमास प्रतिमासस्वान्तस्त्यात , मौलादेश बहिरवभासनात् । न व्यतिरिक्तस्य सद्भाये तस्य प्रतिभासनं स्वरूपेया. . परोक्षेण तस्य प्रतिभासनात् । यथा हि
"व्यतिरिक्तस्य सद्भाचे न नीलस्वापरोक्षता । स्वरूपेणापरोक्षत्वान्न तस्वान्यापरोक्षता ॥"
[प्र० चार्तिकाल० ३१३३३ } इति प्रज्ञाकरः । वत्र किं तत्प्रत्यक्षम् , यत्र प्रतिभासान्तगर्तमेव नीलमवभासेत ? नीलादन्यदेवेति घेन् । न; 'न व्यतिरिक्तस्य' इत्यादेनिरोधात् । स एष प्रतिमासो यत्रान्तर्गमो नीलस्येति १५ चेत् ; तेन तहि पूर्वापरीभूतेन भवितव्यम् , अन्यथा पूर्व विशेषणत्या आत्मनः, पश्चात्तष्ट्रि
शिष्टतया नीलस्य ततः परिक्षानायोगात् । सत्येव हि प्रागुपाधिपरिज्ञाने भवत्युपाधिमप्रति. पतिः, "विशेषणं विशेष्यं च" [प्र. वा० २११४५] इत्यादि वचनात् । गधिगम्यं च वद्रूपं येद्यन्तर्गतनीलं तन्नीलस्यापि वदन्तर्गमस्तकावभासत इति तेनापि पूर्वापरीभूतेन भवितव्यम्
अन्यथा तत्रापि 'अन्यथा' इत्यादिदोषात् । तटूपस्यापि प्रागविगम्यस्यान्तर्गतनील पुनरयमेव १. प्रसङ्ग इति अधस्ताविस्तारवतो नीललानस्य कथं क्षणभङ्गित्वम् ! कथं वा निर्विकल्पना प्रतिभासोपाधिकतया मीर परिमिछन्वतो विकल्पकत्वस्यैवोपपत्तेः।
एतेन 'अन्तर्गतपीतं तत्' इति प्रत्युक्तम् ; तुल्यदोषत्वात् । कथं चा तत् पश्चान्नीलस्य । विशेषणम् ; विरोधान् । पीतस्य परित्यागादिति चेत् । न तहिं पीतमेव तत , तत्परित्यागेन । नीले तत्यागेनापि पुना रूपान्तरे प्रमत्तः, व्यावृत्वादनुवृत्तस्य विरुद्धधर्माभ्यासेन भेदस्यैवोपपत्तः।। यदि पुनस्तत्र न फिश्चिदस्यतर्गतम् । कथं सज्ञानम् ? अनाकारस्यान गुपगमात् । अन्यथा पश्चादप्यतदाकारमेव तत् नीलविषयं भवेत् । कथं तस्य तद्विषयत्वम् ? कथं तदाकारस्य ? स्वतुक्लात्तथैवोत्पत्तेः ; समानमन्यत्र । ततो न युक्तम्-'प्रतिभासव्यतिरेके न प्रमाणम् इति ; नीलस्य सन्मानायतिरेके तस्यैव प्रामामात् ।
।
ज्ञानात् । १ उत्पचेः । ३ प्रत्यझेऽपि । ".." सम्बन्ध लौकिकी स्थिति । गृह वा सहलव्यैतत्तथा प्रत्येत्ति मान्यथा ." इति शेषांशः। ५ यद्यनन्तर्गत नो-आ०, ब०, ५०६ - जय--16, २०, ५० .-स्पकर म०, २०६८ कथं वा तदर-बा०,०,प.।
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१९८ |
प्रथमः प्रत्यक्षस्तावः
"
एतदमित्युक्तम्- "यथैव ग्राहकाकारः खरूपेणापरोक्षो न ग्राहकान्तरभावात् तथा तेन समानकालse नीलादि:" [प्र० वार्तिकाल० ३।३३०] इति कथम् ? माह के स्वत एव ग्राह्ये च परत एवापयेत्वस्य दर्शनात् । दर्शनानुसारित्वाचाभ्युपगमस्य । अन्यधा "देव era तदेवायुपगम्यते" [ ॐ वार्तिकाल ३।३३० ] इत्यसङ्गतं स्यात् । ग्राहकसमकालतया श्राह्मस्य स्वयं प्रकाशत्वेऽपि इदमपि नीलं सत्समका स्वाद्भवेत् । प्रत्यक्ष- ५ बाधनस्य इतरत्रापि तुल्यत्वात् । न 'तत्सम समयत्वमात्रेण तस्य 'सभ्यम् अपि तु तद्वसपतया चक्षुरादेवोत्पत्तेरिति चेत्; न तव्यापारात्पूर्व पञ्चादपि सद्भावात् । पौर्वापयेतस्य प्रमार्ण नास्तीति चेत्; चक्षुरादिकार्यत्वमपि कथम् १ पौर्वापर्यमाणादेव तस्यापि परिज्ञानोपपतेः । तथा च दुर्भाषितमेतम् - "थथा चक्षुरादिकाद्राहकाकारस्तथा तत्समानकालो ग्राह्माकारोऽपि " [प्र० वार्तिकालय ३२२०] इटि ; कल्पिते तु तस्य तत्कार्येत्येतनिबन्धनं स्वयं प्रकाश १० मपि कल्पितमेव न तास्विकम् । तत्र च न विप्रतिपत्तिः । तन्त्र नीलादेस्तत्प्रतिभासादेव तदन्तर्गतत्परिज्ञानम् |
भयत्यन्त पयेति चेत्; न; सन्नापि विषयान्तर्ग मैस्यान्येन परिज्ञाने अनवस्था दोषत् । श्रमतिविषयस्य तेन प्रतिपत्तौ प्रायेनापि स्यादित्त्रयुक्तमुक्तम्'प्रतिभासान्तर्गतमेव नीलमवभासते नापरम्' इति । अनन्तर्गत प्रतिभासे कथम् 'नीले १५ प्रतिभासते' इत्यमेक्षण इति चेत् । न ; एवमपि भेदस्यैवावगमात् । अभेदे हि 'नीलम्' इत्येव 'प्रतिभासते' इत्येव वा स्यात् न चोभयम् ? अभेदेऽप्यपोद्धारपरिकल्पनस्या प्याran इति चेत् स्यादेतदेवं यद्यभेदस्य कुतश्रियमः स तु ततोऽन्यवश्च न reater aar letteावगमात् । सभाविनो "विकल्पादित्यव्ययुक्तम्; ततोऽपि यथानुभ्वं प्रवृताद्भेदावगमस्यैवोपपत्तेः । अनुभवातिक्रमप्रवृत्तासु न "तवः कस्यचिदपि प्रधानादि- २० विपादिवागमः सम्भवति । विकल्पाच्च । भेदावगमे कथं ततो द्वैरूप्यम् ? कथं वा काल्पनि कस्यानुभयविषयत्वमुच्यते ? यत इवं सूकम्
11
प्रत्यक्षात्
"तस्माद्धिरूपमस्त्येकं यदेवमनुभूयते । स्पर्यते च" [ प्र० बा० २।३३७ ] इति ।
aat 'एकम् ' ' 'अनुभूयते' इति 'न द्विरूपम्' इत्यत्र 'स्मर्यते' इत्यस्यैव सम्बम्बाद- २५ दोष इति चेत्; न; अनुभवाभावे स्मरणानुपपतेः । उपपत्तावपि फुतो द्विरूपस्यैकस्य वेदनम् ? यत इदं शोभेत
"माकारस्यास्य संवेदन फलम् ।" [ १० वा० २।३३७ ] इति ।
३९७
१] ग्राहकसमानमात्रेण । तस्यमयवार्थ-आ०, ६०, १०।२प्रस्य ग्राहक प्रकाशरूपस्य ५ प्रहास्य भावात् । ६ रात्रीला ० ० ० ७ प८ भेदकल्पनया ९ प्रत्यचबलभाविनः । १० - हय्यु- मा०, ब०, १०१ इत्यनुआ, ब०, प० 1
स्वरेणावरोशत्मम् । ४ तस्थान्येन ११विकल्पात् | १२
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म्यायधिनिभ्यविवरण अनुभवादेव स्मरणकत्येनाव्यवसितादित्ति घेर ; में; ततोऽगि द्विरूपस्यैवागमोपपते कस्य । तद्विपयत्वपरित्यजत एष तस्य तदेकत्वाध्यबसाय इति चेत् ; 'अपरित्यजतः' इति अतः ? तथा निश्चयात् ; न सहि तद्विषये विरूपकल्या विशयेन सहिरोमान् । ततो न सबकस्वायत्र
सायादनुभवस्य विरूपविषयत्वमपि तु तत्वत एवेति कार्तिकतात्पर्यम् । अतस्तदपरिझानादेखें ५ इटं निबन्धन कारस्य वचनम्-"अपोदारपरिकल्पनया द्विरूपम्" [F० वार्तिकाल. इति ।
___ भवतु द्विरूपमनुभवात् , सथापि त नीलं बहिस्र्थः, प्रतिभासैकत्यस्यापि तत्रानु. भवादिसि घेत् । न ; सदभावस्य निषेदितस्वात् । भेदमात्रे नीललप्रतिमासयोरसङ्गतिरिति घेत् । न ; विषयविषयिभापत्यैव तत्र सङ्गदित्वात् । नीलं प्रचिभासते' इत्यत्र नीलं प्रति. भासस्य विषयो भवति' त्यवगमान। का पुनर्विषयार्थ इति चेन्? मीलाऽपि का स्वरूप मेवेति चेत् : अपरोऽपि तदेव सर्वस्य विषयत्वमविशेषात् । स्वरूपस्येति चेत; नीलत्वमपि स्यात् । सो यस्यैव कारणं तदेव मालमिति चेत् ; विषयोऽपि यस्यैव शामं स एव स्यान् । कि सस्य' झाने ? कारणेनापि किम् ? कारणमेव इतरेणापि ग्रहणमेव । ततो युक्तं प्रत्यक्षाद् अतिरुदत्तमर्थस्य ।
तथाऽनुमानादपि । ततः पर्वतशिरसि पायकस्य परोभस्यैव प्रतिपत्तो । परोक्षचार्य एष अपरोक्षस्यैष ज्ञानस्याभ्युपगमात् । सोऽप्यपरोक्ष एव महामसपावकस्यैव तसः १५ प्रसिपः, महानसपायकश्च अपरोक्ष एव प्रतिपन्न इति चेत् । न ; तथा सति सन्निहितिष -
मानवैफल्य साक्षात् । अध्यारोमानेच तस्यापरोक्षय अध्यारोपभानुनादेवेति चेस् , अध्या रोपित सहि तस्य झामस्वमर्थत्वं तु प्राकृतमिति प्रारम | अध्यारोपितमेव तत्र रुपमापरं यस्य परोक्षवेनार्थत्यमिति चेन्; कुतस्तदभ्यारोपणम् ? अनुमानामादिति चेत् ; न; 'संदभावे
"तस्यैवाभावात् । सद्भाचे भाव इति चेत् ;न; परस्पराभयान्त बध्यायेपणात धूमः, धूमाञ्च २. वध्यारोपणमिति । अन्यतस्तद्ध्यारोपणं चेत्, न; वस्याषि लिङ्गवे पूर्ववहोपात् । तत्रापि
लिशान्तरात्तध्यारोपेण अनवस्थावोषात् । अनुभवातदध्यारोपणं तु न पर्वते स्थात् सत्र पादकानुभवस्य प्रानप्रवृत्ते रिति न बन पापकार्थिनः प्रवर्वेरन् । अपरोक्षत्वे व वत्पावकस्य कथं सदनुमानस्य परोक्षविषयत्वम् ! अतीतस्यैर तत्र तस्याभ्यारोपादिति चेत् ; भवत्वेवम् ,
तथापि तत्र तस्य प्रतिभासे न परोक्षत्वम् । न हि प्रतिभासवरचे च परोक्षत्वमुपपन्नम् । १ अतिप्रसङ्गात् । अप्रतिभासे तु नाघ्यारोपा, प्रतिभासव्यतिरेफेण तदप्रतिपत्तेः। प्रति
भासोऽपि तस्यान्यष नानुमान इति चेत्, न तस्य निषिद्धत्वात् । कय प्रमाणभनुमानम ? अदर्शनसमारोपन्यवच्छेदादिति चेत; म; 'स्य सुन्छस्याप्रतिपते: अनभ्युपगमा ! दर्शनोपनयनमेव पावके 'तेगावच्छेद इति चेतू ; ननु दर्शनमपयेशत्वमेव, वश्च विनात्यनुमानेन
-देवताभि-आ, प. १०।२ प्रभाकरस्य । ३ असम्बन्धः। * मोल । ५ विषय 1 ६ तिमिति शेषः 1 . स्पमेनापि । भनुमानाम् । ९ पर्वतीयपावकः । १. पर्वतावरस्व । मामा । १२.अध्यारोपस्यैवाभावात् । १३ वदयारोपेण धू-बाबा , ५० । १४ पाकस्य । १५ तथा दिसत्र प्रति-. भा, १६ व्यवच्छेदस्य } १७ भदर्शनसमारोपप्रश्स्टेदः ।
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प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
३९९
तस्यास्त्येवेति न तव्यवच्छेदासस्य' प्रामाण्यम् अपि तु पावकविषयत्वादेव तदप्यपरोक्षतात्रयतिरेकेणैव, अन्यथा तत्परोक्षविषयत्वप्रतिज्ञाज्याचासात्। ततो यदुक्तम्- "अनुमानमपि नापरोक्षताव्यतिरेकं साधयति" [प्र० वार्तिकाल० ३१३३३] इति तत्प्रतियूउम् ; तेन तद्व्यतिरिक्तस्यैव पावकश्य व्यवस्थापनात् ।
error - 'दि च दश्यमानताव्यतिरेकेण विकल्पे तदर्शनार्थं न प्रवर्तेत ५ दर्शनार्थिनो वा नोपदिशेत् नहि दृश्यमानतामप्रतियन् दर्शनार्थी भवति” [प्र० वालिंकाल० ३/२३३] इति ; तत्र किमियं श्यमानता पावकस्य यदप्रतिपत्तौ दर्शनार्थी न भवे ? स्वयं दर्शनात्मक स्वमिति चेत्; सत्यम्; न तस्य प्रतिपत्तिः, नयपि तेनार्थिवं लोकस्य अर्थान्तरेणैव दर्शनेन तस्य तदुभावात् । दर्शनसम्बन्ध इति चेत् न सति दर्शनेऽनुमानषैफल्याट् अर्थित्वायोगाश्च । न ह्युपनतेनैव कस्यचिदर्थित्वम् अनु पन्त एव तदर्शनात्। दर्शनयोग्यत्व- १० मिति चेत्; अस्त्येव तस्य प्रतिपत्तिः, परोक्षस्यापि पावकस्य तद्योग्यस्यैवानुमितेः, व्याप्तेस्तथैव निश्रयात् । योग्यताप्रतिपतौ दर्शनेन कथमर्थिश्वमिति चेत् १ न; अन्यत्रापि शक्तिपरिज्ञानादेव फलार्थिस्वोपलम्भात् । तन्न स्वयं दर्शनार्थनास्, दर्शनार्थिनः कथनाद्वा पावकानुमानस्यापरोक्ष वियत्वं शक्योपपादनं परोक्षविषयत्वेऽपि तद्योग्यतापरिशदुपदेः । प्रतिपक् कथं परोक्षत्वमिति चेत् ? तत्प्रतिपसेरस्पष्टत्वादेव तदपि तस्था' कथमिति चेत् ? न; कारणवस १५ fear निषेदा। ततो युक्तम् अनुमानादध्यतिरूढत्वमर्थस्य । तत इदमकीर्तिकरमेष धर्मः-
।
“दर्शनीश धिरहितस्थाग्रहात्हे ग्रहात् ।
दर्शनं नीलनिर्भास नार्थो वाह्योऽस्ति केवलः ॥" [प्रञ्चा० २१३३५] इसि | प्रत्यक्षानुमानाभ्यां दर्शनोपाधिरहितस्यैव पावकादेः प्रतिपत्तेः तत्र बाह्यत्यार्थत्वस्योपपत्तेः | ततः प्रवतित्राद्विज्ञानस्य यदस्तित्वं वदस्यापि यच्च अर्थस्यापरमार्थत्वम् २० विशददर्शनपथप्राथायित्वास, तैमिरिक केशादिवस, तस् विज्ञानस्यापि स्यादविशेषात् । तह
कल्पना सदस्वेन समा । इति ।
ज्ञानस्य सत्त्वेनार्थश्वासत्त्वेन कल्पना अर्थ ज्ञाने च सदृशीति यावत् ।
ननु एवमपि ज्ञानकल्पनैवास्तु, तत्र सकलसमद्दितसिद्धेः, अन्यकल्पना तु सिद्धोपपस्थायिनी कुतः पोष्यत इति ? तत्राह -
किन्तु गरीयसी ॥ ९८ ॥ प्रतीतिप्रतिपक्षेण तत्रैका यदि नापरा । इति |
किन्तु इति अपि
१ अनुमानस्य । २ विकल्प्येस प० । चिकल्यैतद्दर्शनायें आ०, ब० । ३. लोकस्व । ४ दर्शनार्थत्वात् ।
५ स्वरूपप्रतिपक्ष ६ ने कार आ०, ब०, प० । ७ति वि-आ०, ब०, प०
सत्र तस्मिन् कल्पनासाम्ये सति एका शासकल्पना
२५
1
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४००
भ्यायविनिश्चयविवरणे
.
:..
यदि स्याद् अपरा अर्थकस्पना यदि न स्यान् , 'स्यात्' इत्युपस्कारस्य यदि शब्दस्य चोभराव सम्बन्धात् । तत्र दूषणम्-गरीयसी गुर्षी नितरां ज्ञानकल्पना । वत्र निभिसमाहप्रतीतिप्रतिपक्षेण प्रतीति नस्य प्रतिपत्तिः तस्याः प्रतिपक्षः तदभरवस्तेन । तथा हि-ज्ञान नाम विषयग्रहणस्वभावमेव, प्रती: “विषयग्रहणधर्मो विमानस्य" [ ] इति ५ वार्तिकाच्च । विषयभावे च ताप्याभायास्कि वस्यापशिष्येत ? यस्य 'प्रतीतिः स्वरूपमेष तस्य विषयो न पायमिति घेत; किं पुनस्तस्य विषयत्वम् ? ग्राहात्वमिति चेत् ; कथं प्रहमत्वम् ? ग्राह्यस्यैव तदनुपपत्तेः । स्वभावभेदावेक त्यैव तदुभयधर्मकल्पनाचामपि अनेकान्तदोषात् । संवृत्या निर्दोषत्वमनेकान्तस्येति चेत् ; न ; बाझबज्ज्ञानस्याप्यपरमार्थस्वापत्तः,
निरंशस्थापि तस्य विषयविषयिभावायोगेनासम्प्रतिपत्ते । तत इदमप्रातीतिकमेव "स्वरूपस्य १० स्वतो गतिः" [प्र०वा० श६] इति ।
___ इयमेव सस्य स्त्रतो गतिः यग्निरपेक्षं प्रकाशनम , भेदव्यवहारस्तु तत्र काल्पनिक इति चेत् ; किमिदं प्रकाशनं नाम ? जडप्रतिद्वन्द्वी धर्म इति चेत् ; म ; अपरिझाने अइस्य क्वचितत्पतिद्वन्द्विस्त्रस्यापरिक्षान्मन् । परिक्षाने तु मानिषेधो जवस्यैवार्थत्वात् । कल्पितमेव न
सात्विमिति चेत् ; ननु कल्पितत्य कल्पनायुद्धिविषयत्वमेव । तच्च नान्तर्गमेण ; तद्बुद्धजड... १५ त्वापत्त्या स्वप्रकाशपच्युते । बुखुषन्तरेण प्रकाशे चानवस्थामप्रसङ्गान् । अनन्तर्गमेण चेत् । कथं स्वसंवेदरमेव पुद्धिकलम् ? बाहासंबेदमस्यापि भावात् । तस्मादिदमप्यनुभवप्रन्यनीकमेष-- :
"तस्मात्प्रमेये वाजपे युक्तं स्वानुभवः फलम् ॥ प्रश्वा० २०३४६] इति
“यतः स्वभावोऽस्य यथा तथैवार्थविनिश्चयः ।।" [प्र०का० २१३४६] इति ष। अजस्त्रमावयाऽपि युद्धमा जबस्य निर्षयान् । सन्न अङप्रत्यनीकत्वेन प्रकाशनम् । ..
विद्रूपत्वेनेति चेत् ; न ; चितेरपि प्रकाशपर्यायत्वात् । अपि च, अम्यो यदि न काचिदपि शक्तिः कथं "स्त्रयं सैव प्रकाशते" [ग्रवा० २.३२४] सत्यामेव कर्तृशको 'प्रकाश' इत्युपपोः । अध्यारोपितया "तका प्रकाशत इति चेत् । न ; तथैव तदनुषपचे। न हि सच्छक्तिविकलतय संविदाना तामात्मन्यारोपयितुमर्हति । सद्विकलतया न संविस
सदादिनैव संवेदनादिति चेत् । कथमुभयात्मा ससी केनचित्संविते फेनचिनेति ? कुत्तचिद२५ दृष्टास्कारमादिति चेत् ; ; ; बहिर्भावस्यापि इष्टानिष्टस्वरूपत्यैव फेनशिदिष्टात्मना परेणा
निष्टात्मना च प्रतिपत्तिप्रसङ्गान् । एकरूपनदिनां रूपान्तरस्याप्रतिपत्तो कुवस्तस्योभयात्मकरवप्रतिपत्तिरिति । अनेकात्मकं चार्थमेकरूपतया दर्शचतश्चाष्टारकथमर्थवेदनम् । तस्तिमियदेरिधानर्थवेदनस्यैवोपपत्तेः' इति च न पर्यनुप्रोगः; परत्रापि तुल्यत्वात् । तथा क यथेदमुच्यते
1-ति स्वरू-I, द..। २ मिदोषत्वेऽने-श्रा०, ५०, प.। ३ जलस्यै-पार, ब.. -कमैवेति मा०,०प० ।५ प्रतीत: प्रा०, ब, प.।चिती। -तथा प्र-आ.व. ० ।
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१R९
प्रयमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
४०१
"तमनेकात्मकं भावमझात्मत्वेन दशयत् ।
तदरष्टं कथनाम भवेदर्थस्य वेदनम् ॥ प्रा० २१३४४] इति ; सधेदमपि वक्तव्यम्वामनेकात्मिका बुद्धिमेकात्मत्वेन दर्शयत् ।
तबदृष्ट कथनाम भनुद्धेः प्रवेदनम् ॥९८४॥ इति । ततः सर्वात्मनैव सा 'संवित्ते इति न तचैव तदारोपः । नापि बुद्धधन्तरेण ; तत्रापि तच्छक्ति. विकलतया संविदाने तत्प्रतिभासायोगात् । तत्रापि बुद्धयन्तरेण सदारोपकल्पनायाम् अनवस्थादोषोत् । सच्छक्तिमस्थे तु बुद्धः कथं तदपेक्षं तत्प्रकाशनं निरपेक्षं नाम शस्तदन्यतिरेकादिति चेन् ? किं पुनस्तयाँ कम्पतिरिकप्रकाशनम् ? तथा चेत् । कथं तया परयुद्धिपरिज्ञानम् ? थत इदं सूक्तं स्यात्-"स्वरूपेण हि संचितौनां भिन्नत्वात्प्रतिपुरुपं नानाकारवेदन १० युक्तम्" [प्र. वार्तिकाल० ३।३३९ ] इति । सासामपि कुतश्चिदाकारमुखेणैव वेदन मान्ययेति थेन् ; न ; सुप्त-प्रबुद्ध जीवन-मृतेष्टानिष्टादिरूपाणां तदाकाराणां युगपदेकत्र समर्पण स्यापतिपत्तेः।
न होकदैकं विज्ञान साकार परबुद्धिभिः । सुप्तं बुद्धं मृत जीवदिष्टमन्यच्च दृश्यते ।।९८५॥
सः शक्तिवशात्तासा वित्तिर्नाकारकल्पिता । तथार्थस्यापि तेनेदमयुक्तं कीर्तिवार्तिकम् ।। ९८६॥ "तदर्थाभासतैवास्य प्रमाणं न तु सन्नपि । .
ग्राहकारमा परार्थत्वात् बाह्येष्वर्थेष्यपेक्ष्यते ।।" [x० वा. २१३ ४७] इति । प्राहकारमन एव शतिरूपस्य परघुद्धिप्रसिपचिवदर्थप्रतिपत्तावप्यपेक्षणात ।
संथिभेदानभीष्टौ च नापरं तत्त्वमस्ति वः ।
संविदद्वयवादस्य प्रतिक्षेपात्सविस्तरम् ।।९८७१] तस्मादर्थोऽबङ्गीकर्तव्य एष, अन्यथा ज्ञानभेदस्यानिवाहस्वापत्तेः ।
भवतु याहस्थापि ज्ञानम् , तस्य तु कुतः सत्यवम् । कुतस्तद्विषयः कश्चिदेव सत्यो ने सो ? प्रापयादिविशेषादिति चेत् ; न तत्रानषस्थादिदोषान् । तदुस्तम्
“यथैव प्रथम ज्ञानं तस्य प्राप्तिमपेक्षते ।
तत्प्राप्स्यापि पुनः प्राप्रपेक्षेत्यनयस्थितिः ।। , सवितरिति प्रा०,०, ५० जनासीत्यर्थः । २ -दोषः त-आ०, २०, ५०।-या तयार ब, नकस्था-आ.व०,५००
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ર
न्यायविनिश्रयविवरणे
कस्यचित्तु यदीयेत स्वत एवातिरूपता । प्रथमस्यापि सद्भाव इति सर्वाना || प्राप्तेरथापि पूर्वेण प्राप्तिरूपेण सत्यता । अन्योन्याथय इत्येकासत्यत्वेनोभयस्य तत् ॥ अथ कारणशुद्धीतज्ज्ञानस्यास्ति सत्यता । ज्ञानस्यापि सत्यत्वं तत्कारणविशुद्धितः ॥ एवं परापरोक्षादस्था प्रसज्यते ।" [प्र० वार्तिकाल० ३१३५१]
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इति चेत्; न; अभ्यासे स्वतः अन्य परतस्तत्सत्यत्वस्य निश्चयत्। न चानवस्थानम् पर्यन्ते कस्यचिदभ्यासक्त भावात् । अवश्यं चेदमकर्तव्यम्, अन्यथा अर्थज्ञानवत् सन्तान१० भेदज्ञानस्यापि सत्यत्वानिश्चयात् तद्विषयस्याध्यसिद्धिप्रसङ्गात् । न चैत्रं केशादेरपि तानासिद्धि: : तत्र स्वतः परतश्चासत्यत्वस्यैव निश्चयात् । तदाह-
न हि केशादिनिर्भासी व्यवहारसाधकः ॥ ९९६ ॥ इति ।
केश आदिर्यस्य मशकादेस्तस्य निर्भासः प्रत्ययो न हि स्फुटं व्यवहारसाको व्यवहारः स्वतोऽभ्यतो वा सत्योऽयमिति निश्चयः, प्रसाश्रकः सद्विषयत्वेन १५ अलङ्कारको यस्य सः इति कथमसः प्रतिभासनम् ?
आस्तादनन्तरं निरूपणात् । पर आइ
वासनाभेदाद्वेदोऽयम् [ सिद्धस्तत्र न सिद्ध्यति } | इति ।
पूर्वपूर्वविकल्पोपशीतः संस्कारी वासना, सद्भेदो दार्श्वशैथिल्यलक्षणस्तस्मात् तमाश्रित्य अयं प्रतीयमानो घटादिज्ञानं तथ्यं मिथ्या च केशादिज्ञानभिति भेदो निर्णयः २० भिते मित्रतया व्यवस्थाप्येते परस्परतः तथ्यमिध्याज्ञाने येन स भेदः' इति व्युत्पत्तेः । संस्कारदादशैथिल्याभ्यामेव हि चिज्ज्ञाने तथ्यमिध्यात्व विभागविनिश्वयो न विषयभावाभावाभ्यामिति कथं तत्रियासिद्धिरिति मन्यते ?
तत्रोत्रम्- 'सिद्धस्तत्र' इति । अपिशब्दः द्रष्टव्यः । तत्रापि सन्तानभेदनेऽपि सिद्धो निश्चितो वासनाभेदाद् भेदोऽयम् । तथा च ततोऽपि कथं तद्भेदसिद्धिः १ मा २५ भूत् तद्भेदस्य ज्ञान सत्यत्वनिश्रयस्य च वासनाभेदादेव भावात् ।
"
"कार्यत्रात्सकलं कार्य वासना भेदसम्भवम् ।
कुम्भकारादिकार्य वा स्वदर्शन कार्यवत् ॥" [प्र० वार्त्तिकाल० ३।३५.१ ]
१ अन्यथा आ०, ब०, प० । अभ्यासददसायाम् २ था तज्ज्ञा-भा, ब०, प० । ३ नीतसं
५०, प० । ४ "वासमा पूर्वविज्ञानकृतिका शक्तिहयते "प्र०वार्तिका० ० १८ ५ दाद- ना० ०६ तथायथं ततोऽपि आ०, ब०, प०
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
४०३
इति वचनादिति चेत् । कुतः स्वप्नदर्शनस्य सर्लभावः । कुतश्चिनिश्चयादिति चेत् । न; 'तस्य वासनाबलभावित्वे ततोऽर्थस्येद तस्याप्यसिद्धेः । वस्तुतथाभावभावित्वे तु हेतो. उयभिचारः, वस्य कार्यत्वेऽपि तद्वलभाविवाभावात् । लोकाभिमायादेव तस्य तर्लभावित्वं में स्वत: मया कुतश्चिग्निश्चीयत इति चेत् ; न ; लोकस्यापि तत्र तन्मात्रभावाभिप्रायस-- भावात् । तदाह
नसियति । तन्मानभावो दृष्टान्ते सर्वत्रार्थोपकारतः ॥१०॥
पारम्पर्येण साक्षाद्वा परापेक्षाः सहेतवः] । इति । नसिद्धयति । स एवं वासनाभेद एव तामानं वरमात भायो जन्म । क्य? दृष्टान्ते निदर्शने । कियति १ सर्वत्र सर्वस्मिन् स्वप्नविष्ठवभाविनि विप्लवान्सरभाषिनि च । फरमात् १ १० अर्थस्य नीलादेसरकत्वेन ब्यापार उपकारोन विषयत्वेन , असत एव सदा तस्य प्रतिभासनात् , तस्मात् । कथम् ! पारम्पर्येण अविप्लवे दर्शनमर्थात् ततः संस्कारस्ततश्च विप्लवे नारीचौरादिदर्शन मिसि परिपाटिः पारम्पर्य तेन । दृष्टान्तमाह-'साक्षाद्वा' इति । 'या' इति स्वार्थः, साक्षाद अव्यवधानेन वा[अ] विश्वे यथा सदुपकारस्तथा पारम्पर्येणान्यदेति । सौत्रान्तिकाधनुगमेन चेदमुक्तम् , "स्यत: साक्षावपि तत्र तदुपकाराभावात् । की शास्ते घटान्ता यत्र साक्ष्मदिन पारम्पर्येण तदुपकार इवि प्रश्नयस प्रत्याह
। परापेक्षाः सहेतवः । विच्छिन्नप्रतिभासिन्यो व्याहाराविधियो यथा ॥ १.१॥ इति ।
व्याहारो वचनमादिर्यस्य व्यापारस्य तस्य धियों बुद्धयः । कथम्भूसा ? पर बाय “ध्याहारादिकम् उपकारकमविप्लये साक्षादिवान्यदा पारम्पर्धेणापेक्षन्त इति परापेक्षाः, २० तत्र हेतुः सहेतवः सकारणिका यह इति । न हि परानपेश्चत्वे सहेतुत्वं परस्यैव हेतुत्वात् ।
एवापि वासनेष परमस्तु किं व्याहारादिनेति चेत् ; पाह-'विच्छिन्नमतिभासिन्यः' इति । विच्छिन्नं विच्छेदः देशादिनियमस्तेन प्रतिभासन्ते इति शीलास्तथोकाः । नहि व्याधारादिधियां वासनामात्रफारमरखे देशाविमियमः सम्भवति । तथा हि-पूर्व ज्ञानं यासना, तच्च न सहशमेव, विसरशादपि तद्धियां भावात् । सा(ता)दशादेव व्यवहितात्तद्भावः, २५
सस्यापि साराअवहितादेव सव इति चेत् । कयं तेषां विसऔरतुपादानोपादेयैरेकसन्तानत्वं - यत इर्द सङ्कलनम्-नीलमवलोक्य चोरव्यापार पश्यामि' इति । भवतु घिस शादपि तनाव
निश्चय । २ स्वरमदर्शवम वासनाबलभावित्वस्य । ३ वासमाल ।स्वप्नदर्भम। ५-५ सारनामे-RO4. प.1 ६ चिडवेनारि पोय- प-1 संवेदनाद्वैतपादिमतेन । ८ नवहारा , ०, १.५ यथा पा-आ०, २०, ५०1१. नीरमय-प्रा०, २०, प० ।
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म्यायविनिश्चयविवरणो
इति चेन् । कथं तईि नासा विच्छेदो विसदृशस्यादिश्वेदान् । तच्छक्तिप्रवस्य विच्छेदादिति घेत् ; ; तस्यापि विसदृशकार्यत्ये सदरोगात् । सतुशक्तियोधविच्छेदात्तद्विच्छेदकल्पनाचाम् अनवस्थानोपात्रा सन्म 'तन्मात्रभावित्वं वासा देशादिनियमात्मा विच्छेदः । नाप्याकारनियमात्मा; व्याहारादिनेवाकारान्तरेणापि विसदृशावश्यन्तवा तदुत्पत्तेः । याह्यापेक्षाया 'तूएपद्यते । ५ बायाद् व्याचारादेव देशाविनियवहेतुबलान्नियमोत्पतेः साक्षात , पारम्पर्येणापि तदाहितादेव संस्कारादन्तरङ्गनियमोफ्नोतप्रबोधातदुत्पत्तेः । ततो दुर्भाषितमेतन
"कस्यचिरिकश्चिदेवान्तर्वासनायाः प्रबोधकम् |
ततो घिय विनियपो न बाझार्थव्यपेक्षया ।" [प्र०या० २१३३६] इति ।
यदि बाह्यानियमः कथं स्थप्ने स्वशिरोधारणादेर्शनम् , तस्य साचादभावात् , प्राग१० प्यरष्टैरिति चेन्न ततोsपि । जन्मान्तरमहादेव संस्कारवाहितस्तज्ज्ञानान् कुतो न सर्वदा? कुत्तो
वा रागादीनां भियमः १ २ हि सग्रालम्बनमुरोगि, तप्तो रागहेतोरेक विरागस्यापि दर्शनादिति बेत् ; न, अन्तरण सहायस्यैव सर्च तन्निशमकवान् । ततो थैदा अन्तर यनिमित्तं च देव तदेव मान्यदा मान्यरुय ज्ञानरागादिकार्यमुपजायज्ञे । 'वासभेषान्तरक तस्या एष तेद्रता स्वतः
सकलप्रतिभासनियामकत्वेन संवेदनादिति चेत् ; कुतो विप्रतिपत्तिर्यतस्त बानुमानम् ? अनिश्चया१५ दिति चेत् निश्चयादप्यनिश्चितात्कुतस्तदभावः" ? न हि स्वतस्तस्यै निश्चयो कासनावत् नाय.
न्यतः ; अनवस्थादोषात् । अनिश्चितावपि स्ववेदमात "तनिवृत्ती वासनायामपि स्यादिति व्यर्थमे तवानुमानम् । तस्मादवेसनमेवान्तरई तस्यैव प्रकारजन्यभिचारवतः कार्याप्रतिपत्तेः। तदेव च भयोपशमविषयमद्वाहतसंस्कारसाहान्येन विद्यार्थमयथार्थव प्रत्यय
मुपजनयतीति सूक्तमेतत्-'परापेक्षा दयाहारादिधियो पिच्छिन्नतिभासिन्यो २० यतः' इति ।
___'यथा' इति साहश्ये यथैसा परापेक्षास्तथाऽन्येऽपि दृष्टान्ता इत्येवं साध्यबैकस्य दृष्टान्तस्य "प्रतिपाद्येशानी तत्र सत्यपि "सन्मानभाये साध्यासिद्धिमावेदयन्नाह
सनिवेशादिभिष्ट्रगोपुराहालकादिषु । बुद्धिपूर्वैर्यथा सत्य नेयले भूधरादिषु ॥१२॥ तथा गोचरनिभीसैईष्टैरेव भयादिषु ।
अयाह्यभावनाजन्यैरन्यत्ययगम्यताम् ॥ १०३ ।। इति । सन्निवेशः संस्थानविशेष आदियेयामचेतनोपादानवादीमा इष्टरुपलब्धः ।
नामात्रमादित्येपियाम् । ३ आकारनियममा निदाज्ञानादपि.५ मायालारमात् । ६ ज्ञानता या शर, य०, ५.1 4 व आ०,०,१०। ९ बासनाचता पुरुषेश शासनायाम् । ११ विप्रतिषस्वभावः । । निश्रयस्य । १३ निथयस्वेदनात् । निश्चये। १५ विप्रतिपत्तिनिवृतौ । १६ प्रति. पा-१०, २०, ५०1१७दानामानन्यर।
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१११०३
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताका श्व ? गोपुरालकादिषु । कोशः १ युधिपूर्वैः, युद्धं बुद्धिर्विष्यते अस्येति' बुद्धी, पुद्धिमान् पूर्यों हेतुर्येषां तेः । यथा येनासिद्धादिप्रकारेण तवं धुद्धिपूर्वत्वं नेष्यहै। य? भूधरापिषु यौः तथा हेन प्रकारेण गोचरनिर्भासः विषयप्रतिभासे; वृष्टरेव भयादिषु, आदिशब्दादुन्मादादिषु । कीरशैः ? माघभावनाअन्यः, अविद्यमानशाहया वासनयेव जन्यैः, अन्यत्र जाप्रद्विषये तत्वम् अबाह्यभावनाअन्यत्वं 'नेष्यते' इति ५ गखेन सम्बन्धः इत्यवगम्यताम् । तथा हि-युक्तं तारशादेव विषयप्रतिभासित्वप्रल्पयत्वादे अन्यत्रापि भावनाजन्यत्वसाधन मारशस्थ भयादो तम्याग्निपरिज्ञान नान्यादृशान् । अन्याशन तन् आप्रत्प्रत्ययेषु पर्वतादिषु सनिवेशादिवत् । कुत एतत् ? अन्यत्र कुसः ? स्त्रयं तन्त्र नाका बुद्धिपूर्वयुद्धकाणम् गत्तेऽपि मान्यत्वयुद्धेरभावान् । अपरामृष्टविशेष सामान्यमेवात्र हेतुरिति चेत् ; न ; बुद्धिपूर्वत्थेऽपि तस्यैव तत्वापत्तः । कथं पुनः सनि. १० वेशादिवस्तुविशेषे सति दृष्टस्य "सन्मानानुमानम् , पाण्डुद्रव्यविशेष एवं धूमे दृष्टस्यानलस्य पाण्डुद्रव्यमानादपि तत्प्रसङ्गात् । तदुक्तम्
"वस्तुभेदे प्रसिद्धस्य शब्दसाम्यादभेदिनः ।
में युक्तानुपितिः पाण्डद्रव्यादिव हुताशने ।।" [प्र०या० १।१४] इस्यपि न समाधानम् ; भावनाजन्यत्वस्यापि तन्मात्रात्तवभावापत्तेः । ततो विषयनिर्भासादि. १५ विशेषस्यैव साध्यव्यामिः, तस्य च सनिवेशादिवत्प्रकृते' धर्मिण्यभाषास् न तसः साध्यसिद्धिः।
नन्वेवं कृतकत्वादनित्यमपि न सिस्वेत् तस्यापि घटादौ साध्यव्याप्तवया प्रतिपन्नस्य शब्द धर्मिण्यभावादिति चेत् । अत्राइ
अश्रमिथ्याविकल्पौधेरप्रतिष्ठानकैरलम् । इति ।
अत्रास्मिन् न्याये सति मिथ्याधिकल्पौधैः असत्यविकल्पप्रवन्धेः अलं पर्याप्तम् । २० कीरशैः १ अप्रतिष्ठान न विद्यते परपक्ष पर दोपतया प्रतिक्षाने प्रतिमा येषां तैरिति । पनिवेशायसिद्धतोद्भावनपक्षेऽपि तेषां भावादिति भावः।
यदि बा, भवतु सनिवेशादेवुद्धिमसोऽपि सिद्धिः, स तु चिप एव अन्यस्य बुद्धिअस्थासम्भवात् , अनित्याच "अन्यत्राक्रियाविरहात् , अविभुश्च निरंशत्य व्यापित्वायोग्यात् । वाशश्च वासनारूप एव । ततो न सरिसक्षी काचिदस्माकं परिपीडा, परितोषस्वैध भावात् । २५ अव एवोकम्
"प्रधानाना-प्रधानं ददीश्वराणां तथेश्वरः । सर्वस्य जगतः की वासना देवता परा ॥" [प्र०वार्तिकाल. ३१३५१] इति ।
1-ति बुद्धिमान् भा०,०,०। "प्रीद्यायलोऽनेकाचः (शाकटा० ३१३४१५३) इति सूनेष पुरधान्दा सरस्व इन"-मटिका विश्वप्रतिभासित्यादि । ३ विषयप्रतिभाखिवसामाभ्यम् । सामान्यमानस्य हेतुत्वा । पतो। ५ बुद्धिपूर्ववस्व । ६ निवेशमात्रात् । ७ अनुमान प्रसस्त । ८ विश्वप्रतिमासमात्रात्म त्प्रत्यये । १.निस्के।
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४०६
न्यायविनिश्चयविषरणे
[ १११०५ तन्न सनिधेशादेरगमकत्वं यतस्तद्विषनिर्भासादेरपि तस्यापद्यत इति । अत्रेदमाह'अत्र' इत्यादि । अन्न सन्निवेशाविसाध्ये बुद्धिमति देती ये विकल्पोधाः चेतनत्वं न. विभुत्वं नार्थक्रियेति परामर्शतबार मिश्चैव अवस्तुविषयत्वात । अत एव न तेभ्यः कस्य. चिमतिष्ठानमित्यलं से: कल्पितरिति ।
नहि मिथ्याविकरूपेभ्यो हेतो बुद्धिमति स्वयम् । चेवनत्वादिभावस्य प्रतिष्ठान समञ्जसम् ॥९८८११ वासनारूपता तस्य यतस्तैरुपकल्प्यताम् । अन्यथा वासनाधर्मसर्वस्वप्रतिषेधमात् ॥९८९१६ तेरेवेशादिरूपत्वं तस्या' किन प्रकरुप्यते । २ हि तारिवकल्पोपैदरिध करयनिस्क्वचिन् ॥९९०।। तथा र वासनातुवादिना' यददुच्यते । "प्रधानमीश्वरः कर्म यदन्यदपि कल्प्यते ॥९९१३ वासनासङ्गसम्मूहचेत स्पन्द एव सः।" इति तद्वत्परेणापि वाध्यमीशादिवादिना ॥९९२॥ वासनैव जगद्धतुर्मान्य इत्यपि कल्पनम् ।
प्रधानेशादिसम्बन्धमूढप्रस्पन्द एव सः ॥९९३ ।
तत इदमनिभ्छता सन्निवेशादेरगमकत्वमेव वसभ्यम् । सविषयप्रतिभासत्वादेरपीति न वासनाभेदात्प्रत्ययनियमा, अपि तु बाहाभेदादेव तथैध प्रमाणतः प्रसिद्धरिति स्थितम्।
___ भवतु बहिरयः, स तु परमाणरूप एव तस्यैव प्रत्यनत्यानापसे विपर्ययादित्युपक्षिय २. प्रत्याचक्षाण श्राह
अस्यासन्नानसंसृष्टानाणनेपाक्षगोचरान ॥१०४॥
अपरः माह तत्रापि तुल्यमित्यमपस्थितिः । इति ।
अत्यासन्नान् अतिशयम निकटवर्तिनः, इत्यनेनाणूनी प्रत्यत्वे निमित्तमुक्तम् ।। यद्येवं रूपस्य रूपनैकट्यान् यथैकप्रत्याविषयत्वमेवं रसादेरपि स्यादिति चेत् । न ; तस्य २५ देशतस्तन्नैकश्येऽपि एकप्रत्यक्ष कार्यशक्तितस्तदीवात् रूपस्यैव हि रूपान्तरेण संस् न रसाः। कार्यान्तरापेक्षायां तु तस्यापि "तदरस्येव, रूपादिसाधारणस्यैवोदकाहरमादेशनात् । असं टान् संसर्गरहिताम् अणनेष सत्रयविनम् अक्षगोचरान इन्द्रियज्ञानविषयान् , अपरो । योगाचारात अन्य; सौत्रान्तिका पाह-तयोत्तरम् । तत्रापि प्रत्यासत्तावपि न पूर्वसेव तुल्यं ।
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बासनायाः । २ हेतुयाराना यह -आ०,०,६०३ प्रकारे अभ्यालिबान. ३१३५१, ३.प. एष मा०, बस, प० । -भासना-२०,२०,१०। ५-सपो मा०,०,०। रसाः। ॐ नैडण्याभवात् एक यक्षकार्यशतगपेक्षया मैकव्यम् । ९ रसादेरपि । १० भैकव्यम् ।
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(1804]
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
सदृशं दूषणमिति शेषः । किं तत् । इत्यनवस्थितिः इति । इति अतः प्रत्यक्षतः अणुविषस्थानम् ।
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भवतु पूर्वं प्रत्यासत्तेरभावात्तदनवस्थानं न पचाद्विपर्ययादिति चेत न पश्चायसंसर्गात् । असंसर्गेऽप्येकदेशतया तदुपपत्तिरिति चेत् कः पुनरेकदेश: १
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अणुश्चेतन्निलीनानां स्वरूपमिश्रणं कथम् ?
तस्य प्रत्यणु मेदाच्चको देशः कथं मतः ? ॥ ९४॥ एकदेशतया तस्याध्येकत्वमिति चेदसम् । तत्राप्येवं प्रचिन्तायामनवस्यानुगञ्जनान् ॥ ९९५॥ स्थूलकल्पितस्तेन प्रत्यासतिर्न तात्विकी । इन्द्रियज्ञानकेयत्वं तेषां मूलतः कथम् ॥९९६ ॥ न भनी ततः
४०७
ease एवेति न भवनस्थितिः ॥ ९९७॥ शक्तिसादृश्यतस्तेषां प्रत्यासशिर्यदि । संसर्गेण विना ते व्बुद्धिः कुतो भवेत् ? ॥९९८ easeमिति तत्साम्यादेय किम् ? | सर्वत्र शक्तिसाध्याज्जगदेकपट भवेत् ॥ ९९९॥ कार्यमेन यूहस्थ परिकल्प्यते ।
स एव शक्तिसाद्दश्ये कार्यभेदः कथं मतः १ ॥२०२८॥ अन्यथेष्टेऽपि चैकस्मिन् तद्भेदाद् ब्यूहमेदतः ।
न घटो नाम कश्चित्स्याच्चेटी' फेलोदकं हरेत् १ ॥ १००१ ॥ एककार्य तेषु व्यूहधर्यदि वचनो । निरंशवेदनं तस्य स्वपराभ्यामवेदनात् ॥१००२४ अनेकन लायाकारमेकं चेटिकन "शः । बाहर यतस्तस्मिन् अपव्यूह कल्पनम् ॥१००३॥ वेदनं व्यूहरूपं चेत्कार्य तत्कल्पनं कुत: ? तत्कार्यादन्यवस्तस्मादिति चेन्नावस्थिते ॥१००४ ॥ जलाधाहरणं तच्चेन्न जलादेरवेदनात् ।
अणुस्तोमो जलादिश्चेन्न तस्याद्याप्यसिद्धितः ॥१७५॥
१ तदुपपतेरि-आ०, ब०, प० । २ अनामू । ३द्र-आ०, ब०, प० 1 8 रचेटिका न-म०, ००५ साहसम् आ०, ब०, प० । ६ - प्रस्थितिः आ० अ०, प० ।
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न्यायविनिश्चयविवरणे व्यूहादुरपशिसस्तन झानं मतं यदि । सन्न ज्यूानयस्थाने तदुत्पतेरसम्भवात ॥१००६॥ तरास्तु साजस्थायामन्योन्याश्रयदूस्यात् ।
तन्न संसर्गवैधुर्ये व्यूहो नामोपपद्यते ।। १५१७।।
भपतु संसर्गादेव 'तेषां दर्शनमिति घेत् ; न ; 'सर्वदा स्थूलस्य दर्शनात् । दर्शनजन्मा विकल्प एव स्थूलज्ञानं न दर्शनम् । न हि दर्शनमसविषयं युक्तम् । असंश्च स्थूलाकारो बहिरवयवभेदेनादर्शनादिति चेन् ; भवतु कश्चित्तदभेदेनेव दर्शनम् । कथं भिन्नानामभिन्न रूपं विरोमादिति चेत् ? "नेदानी विकल्पविषयत्वमवि स्थूलस्थ, अनेकान्तविद्वेषे विकल्पस्याप्वभिप्यानभिलाप्यभेदाधिष्ठानस्यासम्भवादिति सर्व निर्विकल्पमेव जगत्तासम् । ततः कुतो t० नीलादेरपि प्रतिपत्तिः निर्विकल्पस्य क्षणभङ्गादिवत् तत्रापि असत्कल्पस्यात् । विकल्पमेकाने
कात्मकमनभिदुखतो बान किमपराद्धं यतस्तमेव तादृशभभिट्ठहोत । कुनलस्य दाशत्वमिति पेत् ? विकल्पस्यैव पूर्वपूर्वस्मातादृशोदामाद अन्नपल जगताना एवं कश्चित्थूलीभवन्ति । करस्यैकदेशाभ्यां पर्यनुयुज्यमानो न सम्भवत्येव संसर्गः तत्कर्ष तशात् "तेषां धूलीमाय इति चेत् । कथं दर्शनमपि 'तक एवं "तस्याप्युपपत्तेः । कृतो का १५ ताभ्यां सत्यनुयोगो "व्याप्त्यभाये येन केन वित्ततासङ्गात् । सत्यपि ताभ्यां तस्य" ता"
नैकदेशेन संसर्गेऽनबस्थानम् , नापि सर्वात्मना तस्मिन्प्रपयहानिः, परस्परानुप्रवेशस्य संसर्गस्यामभ्युपगमान् । वियोगपर्युदास एव हि संमृज्यमानपदार्थात्मा संसर्गः प्रतीयते नापरः। स च सन्तो: “सदरेण पाश्वदेशात्मा परमाणोस्तदन्तरेण "सर्वात्मेति न किञ्चिदसमखस
मुरपश्याम "यतो न सदशादणव एव स्थूलीभवेयुः । सहशातेभ्य एव स्थूलकार्यस्य तत्प्रत्यया२० देर्भावात् कि स्थूलेन ? पारम्पर्यपरिश्रमो हो स्यान्-तेभ्यः स्थूलस्तत्तश्च तत्कार्यमिति थे ।
न तर्हि नीलादिनापि किन्चित् , कार्यस्यापि तत्प्रत्ययादेस्तेभ्यः एव सम्भवान् । सदुक्तम्
"स्वीकुर्वन्ति गुणानां यया शक्त्याऽगुणाम किम् ।
तया तत्संविदं कुयुभिन्नाश्वेदेकसविदम् ॥" सिद्धिवि० परि• ] इति ।
नीलादिम्यतिरेकेण नापरस्सस्वभावो असत्कार्य स्थादिति चेत् ; न ; निराकारा. वस्थस्य प्रधानस्यैव तत्स्वभावस्वात् । न तथा कदाचिदपि तेष प्रतिपत्तिरिति चेस् :
परमाणुनाम् । २ सय आ०,०प०अश्वैल्यू-E-२०१० ।-भेदे श दर्श-आ-, ब.प.1 ५ न तदानी आ०१०प० । नीलादावपि । ७ अनिकायकत्वेन अविद्यमानवाचात् कुपतत्रता भा.प.,प० । ९ एकानेकात्मकत्वम् । १७ दरमागूनाम् । संसदशादेव ।।२ दर्शनस्यापि । कास्कदेशाभ्याम् संसर्गपयोगः । १४ व्याव्यभावात ये-आ०,०,१०।१५ पर्यनुयोमप्रसाद । १६ संसर्गस्य - व्याभिसावे । 14 लम्वन्तरेण ! १९ परमाश्यन्तरेण + २. सर्वात्मनेति १०,०,५०२१ सन्तानलद्ध शावण-०, ५०,०।२२ परमाणस्य एव । २२ निराकारावस्थानस्य मा०,40,10t
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४०१
१९०६
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव निरंशस्यापि तदभावात् । यामलकं कस्तुवृत्तेनैव स्थूलं किमिति यदरापेक्षयेच फपित्यापेक्षयापि न तथेति चेत् १ स्वहेवोस्तथैवोत्पन्नत्वात् । न हि भावः स्वहेतुप्रकृतस्तथाऽन्यथा का भवस: पर्यनुयोगमईन्ति, अन्यथा पावकोऽपि घूमस्यैव (स्येव)किन्न सर्वस्य जनकः ? धूमोऽपि पाकस्यैव(स्येव)किन्न सर्वस्व गमक इति पर्यनुयोगान न कश्चिदित्यम्भावे नारतिष्ठेत । आपेक्षिकरवाद स्थूलस्यावस्तुरूपस्वे कारकक्षात्कयोरपि तस्वापत्तेः । ततो निस्वधप्रविपतिविषयत्वात् ५ स्थूल एव व बहिर्भावो न परमावो विपर्ययादित्युपपन्नमुक्तम्-'इत्यनवस्थितिः' इति ।
तदेवं परमाणूनां प्रत्यक्षत्वं प्रत्याख्याय अवयविनस्तत्प्रस्याख्यानाय योगमतमुपक्षिपति
तत्रापि तुल्यजातीयसंयोगसमयायिषु ॥१०५॥
अत्यक्षेषु ध्रुषेष्यन्यदध्यक्षमपरे विदुः । इति ।
तत्र तेषु अनन्तरोक्तेष्वणुपु अन्यद् अर्थान्तरमश्यविद्रव्यम्-अध्यक्षम् । अपि-१० शब्देनावावी योतयति-परमाणन एवं तावन्न सम्भाव्याः कथं तवान्यदध्यानमिति । दृश्यते छ अपिशब्दादयनायोतनं यथा-"ब्रह्माण्ड यदवतत् तत्रापि क्षितिमण्डलम्' [ ] इति ।
कि पुनरषयविमा परिकल्पितेन, तत्प्रयोजनस्य परमाणुष्वेव परिसमाप्तरिति चेत् ? न; तेषामदर्शनात् । न चारष्टेषु तत्समाप्तिकपनम , अव्यवस्थापः । सदाह--'अत्यक्षेषु' इति अक्षज्ञानमतिकान्वेष्विति । प्रत्येकदशायापत्यश्त्वेऽपि सरतावस्थायां कुतो न ते १५ प्रत्यमत्वमिति चेत् ? न तदापि नित्यत्वेन प्राध्यस्वभावापरित्यागात् । पदाह-'ध्रुधेषु' इति । अपरित्यक्तसत्स्वभावामामेव यथा द्रव्यारम्भकत्वमेवमध्यक्षत्वमपि सदा किन भवेदिति चेत् । भवेदेवम् , अदि तदापि तत्प्रतिभासनम् । न चेदमस्ति, स्थूलस्यैव प्रसिभासनात् । “सबपि परमाणुष्वेव नावयविमति चेन् । कथमस्थूलेषु स्थूलदर्शनम् ? कुंतश्चिद्विभ्रमनिमित्तात् दूरविरलकेशवदिति चेत्र ; किंरूपास्ते केशा यत्र तदर्शने निदर्शनमुध्येत १ परमाणुरूपा इति २० चेतन: तत्र दर्शनस्य विवादाधिष्ठितत्वेन इष्टान्तस्वानुपपत्तेः। स्थूलरूपा एव याच यावती च मात्रा[प्र०वार्तिकाल द्वि०२००३१०] इति न्यायादिति चेत् ; न; अवयविनमनभ्युपगच्छतस्तपास्ते इत्यनुपपत्तः । परबुद्धरा ते समान स्वबुद्धग्रेति चेत् । स्यामा वर्हि किं निदर्शनं यतस्तदर्शनस्याविषयतामावशीत इति न किनिदेतत् । ततः स्वबुद्धया अपि सपा एव से वक्तव्या इवि "सिद्ध तेषु प्रत्येकं ददर्शनस्यावयविविषयत्यं तद्वद् घटादायपि । न २५ र दूरविरलकेशेषु तदर्शनस्य विभ्रमावादावधि विभ्रमः ; नीलादावपि कचित्तदर्शनस्य विभ्रमात् सत्यनीलादावधि तत्त्राप्तः । ततो युक्तम् 'अन्यदध्यक्षम्' इति ।
भवस्यन्यदध्यक्षम् , ससु स्थूलावयवारब्धमेष, तस्यैव महत्त्वेनाध्यक्षस्योपपतेनं परमा.
,
स्थूलम् । २५वं च श्रा०, २०, ०.३ समं दो-मा०, ५०, ५० -ब्दादेवावा म., ५०। ५-आधिरि-१०, २०,प.। परमायाम् । स्थूलप्रतिभासनम् । ८ स्थूलदर्शनम् । स्वबु-आ०,०, प.।" स्थूलरूपा सिद्धान्तेषु आ., १०, प.।
५२
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४१० रायविनियविधरणे
[१।१०६ ण्वारब्धं विपर्ययान् , सतो न युक्तं सन्न ग्रहणमिति चेत् ; न; महतोऽपि परमायाराणुकादिक्रमेण प्रादुर्भावात् पारम्प येण परमाणुनिश्वत्वेन सत्र प्रहणोपपसे सबसेषु अन्यदध्यक्षम् अपरे योगा विदुःजानन्ति । कीदृशेवित्याह- 'तुल्य' इत्यादि। समायो दृत्तिः कार्यस्य स येषामस्तीति
समवायिनः कार्योपादामहेतवः संयोगेन सहिताः समयायिनः संयोगसमवायिनः 'शाकपा५ र्थिवानिवदुत्तरपदसोपी समासः। संयोगप्रहणमुपलक्षणम्-निमित्तान्तरस्थापि । सादिया
संयोगस्य तेषु समवायाद, कालवेशादेश्व संयोगादिति प्रतिपत्तव्यम् । तुल्यजातीयाश्च ते संयोगसमवायिनश्च तुल्यजातीयसंयोगसमवाधिनः तुल्यजातीयत्वं कार्यद्रव्यापेक्षम् । कार्यस्य द्रव्यस्य हि पार्थिवस्य पार्थिवा एव, आप्यस्य चाप्या एव समवाधितो नान्य इति । एवमन्यनापि । वेपु तुल्यजातीयसंयोगसमवायिषु इति । अत्र प्रतिविधानमाह
कारणस्याक्षये तेषां कार्यस्योपरमः कथम् ॥१०६॥ इति । सेवा वैशेषिकादीनां कथा ? न कथञ्चित् । कार्यस्य अवयविनोऽन्यस्य उपरमः कादाचित्कत्वम् । कदा ! कारणस्य परमाणुलक्षणस्य अक्षये नित्वत्वेन स्वरूपावैकल्ये इति ।
तात्पर्यमत्र--कार्यस्य हि कात्र सत्तासम्बन्धात् । न चासौ सतः', एतद् वैयया॑न् । नाप्यसतः; स्वरशृङ्गादेरपि प्रातः | अपि तु प्रागसतः फारशसामन्याः "प्रागसतः सत्ता१५ सम्बन्धः कार्यत्वम्' [ ] इति गचना । न च कारणस्थाझये प्रागपि कार्यस्यासत्वं
सत्यस्यैथोपपसे, परमश्रस्य तस्य सति तस्मिन्नव इयम्भावात् । असति सस्मिन्मभावादेव तस्य तस्परसन्नत्वं न तु सति भावनियमादिति येत: सत्यप्वभाव किंनिवन्धनम् ? स्वभावनिबन्ध मत्वे भवनस्यापि तत्रिबन्धनत्वापत्ते:, नित्यत्वसमस्य चोभयत्राप्यविठोपात् । शक्तिवैकल्यमिति
चेत् ; न; पश्चादप्यभरत्नप्रसङ्गात् । न हि नित्यस्य पश्चादपि द्वैकल्यप्रच्युतिः, अनित्यत्वापत्तेः। २० एतदर्थमेव च 'अक्षये' इत्युक्तम् ।
कथं वा शक्तिविकलस्य यस्तुत्वं व्योमकुसुमवत् १ अर्थान्सरशक्तिसम्बन्धादिति चेत्; न; अनुपकारिणरतत्सम्बन्धायोगात् अतिप्रसङ्गात् । न च शक्तिविकलस्योपकारित्वम् ; अवस्तु. त्वात् । पुनरव्यर्थान्तरशक्तिसम्बन्धाद्वस्तुत्वकल्पनायाम् अनवस्थापत्तेः । न च शत: कुवश्चि
दुपकाये नित्यत्मान् । नित्यत्वे कथं तत्कार्यस्य प्रागभाव इति चेत् ; न; एवमपि परस्यैव २५ पर्यनुयोगइन् । अनित्यैव शक्तिः, गभाविन्यास्तस्याः कारणादुत्पत्तेरिति चेत्, न; सत्यविकले
कारणे तत्मागमावस्याप्यनुपपत्तेः। सतोऽपि कारणस्य स्वशक्तिवैकल्यात्तस्याः प्रागभवनमिति चेत्; म; 'पश्चादप्यमवनप्रसङ्गान्' इत्यादेराम्नायान् अनवस्थोपनिपालाश्च ।
।
समयाय -आ.ब., प० । २ सत एव बैं-आद०,०३ "स्वकारपसम्बन्धः कार्यत्वम्"- न्यो० १० १२९ । "प्रागसतः ससासमक्या या कार्यसमित्येकै"-प्रश० क० पृ. १०। ४ कारणाधीनस्य । ५ कार्यस्य । ६ बाक्तिवैदस्यपरयुतिः। ७ सम्म पर्व -०, २०, ५० ८ शक्कैः ।। चेत् तन्ना , २, प.।
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मार्गदर्श
१।१०
प्रथमः प्रत्यझयस्ताव किं वा शक्तिकरणे कारणस्य प्रयोजनम् १ कार्यकारणमिति ग्थेत्; म; शक्तिकरणेऽपि तदन्तरकरणापेक्षायाम् अभवस्थादोपेण कानिपतेः । स्वतस्सत्करणे तु कार्यफरणमेवास्तु विशेपाभावान् ।
भवतु स्वतस्तत्करणम् , तथापि में कार्यस्यानुपरमः संयोगस्यापेक्षणीयस्यामात्रे सदुपरमात । संयोगापेक्षा एव हि परमाणवः कार्यारम्भिण इति चेत् । स एवं तेषां कथं ५ संयोगः ? तदुत्पत्तेरिति येत ; अनिवृत्तः पर्यनुयोगः नेमक्षये कथं तदुपरमः' इति । संयोगोऽपि तेषां कर्मणः, तदपि संस्कारान् , सोऽपि कर्मणः पूर्वस्मात , तदपि पूर्यस्मादेव संस्कापत् , तावदेवं यावदार्य कर्म, तत्तु तेपामात्मसंयोगात् , तदनित्यत्वेन फर्माधनित्यत्वादु. पपंजः संयोगस्योपरम इति चेत् ; न; आत्मनः परमाणूनान नित्यत्वे तत्संयोगस्याप्यनित्यत्वानुपपतेः। अपेक्ष्यस्याप्यरष्टस्यात्मकार्यत्वेन सर्वदा सनिधानात् । अपेक्ष्यासनिधानासद्सन्निधान- १० मिति चेत्, ननु तत्रापेक्ष्य द्रव्यादिकमेद "द्रव्यगुणकर्माणि धर्मसाधनम् "[ ] इति "भावकसूत्रात् । तदपि न तदेव स्यादृष्टापेक्षादात्मपरमाणुसंयोगादिक्रमादुत्पत्तिः । परस्पराश्यात्-सत्यष्टे तदपेक्षा तत्क्रमातदुत्पत्तिः, तत्पन्नश्च तदपेक्ष्य अदृष्टस्योत्पत्तिरिति । भवतु "अन्यदेवेति चेन ; न ; तस्यापि परमाणनामक्षये तत्कार्ययेनोपरमायोगात् तग्निबन्ध नस्यादृष्टस्यास निघामानुपपरोः । अक्षयेऽपि तेषाम आत्मसंयोगादिक्रमस्य त सोरहवानित्यत्वेगा- १५ निस्यस्यादुपपनैवोपरतिः । अरष्मानित्यत्वं चापेक्ष्यस्य द्रव्यादेरनित्यस्यादिति चेत् । न ; सत्रापि तदपि न तदेव' इत्यादेरनुगमात् आवृत्तिदोपादनवस्थानुपमा । तन्न तत्तयोगकादायिकत्वेन कार्योपरमः ।
____ कुतो का तेपी संयोगादि सहकारि ! प्रतिक्षणं तत्कृतादुपकारादिति चेत् । न ; 'स्य तेभ्यो भेदे तेषामिति व्यपदेशानुपपत्तेः । ततोऽपि मिन्नस्योपकारस्य भावाप्सदुपपत्तौ २० अनवस्थानदौ:स्थ्योपनिपाठात् । "अभेदे तेषामनित्यत्वापत्तेः" । एककार्यकरणमेवोपकार इति चेत् ; कुतस्तेन" तत्करणम् ? शकत्वास ; तदपि कुतः ? सति तस्मिन्नवश्यम्भावान कार्यस्येति चेन् ; न तर्हि परमाणूनां शक्तत्वं सत्स्यपि तेषु कार्यानुत्पतेः । सहकारिसन्निधादेव ते शक्तत्वमिति चेत् ; न ; अनित्यदोषस्योकत्वात् । तत्सनिधिरेष सेषां शक्तिरिति चेत् ; करमन्यः अन्यस्य शक्तिः ? तेन तत्कार्यस्स करणादिति चेत् । तदपि कथम् ? कथं गन- २५
१ कार्यकार-आ०, ब, प०१३ तदमन्तरेणारे-पा०, ५०, ५०। ३ कियायाः | भात्मसंयोमस्यामित्यरक्षेन । ५ महासमिशनम् । ३ -अपनानोति भाषः सूत्रात् भ०, २०, २. . "सस्पतु साधनानि श्रुतिस्मृतिविहितानि श्रमिणो सामान्यविशेषभारेमाचस्थितानि इमगुणकर्माणि"-प्रश: मा० . १८. दम्यादिकमपि । न्वादः । १० आरमाणुसंयोगात परमाणु किया निवातो विभामः, विभागार, पूर्वदेशसं योगनाशतता परमाणुग्यसंयोगः तेन च पाणुकोश्पत्तिा, विभिद्य शुकः कमित्यादिकमान। पाल्यागुपतिः । ११ सादिकम् । १३ उपकारस्य। १४ उपधारारठयोग देरभेदे । १५-स्योपपसे: ०,१०,५०।
संयोगादिसहकारिण"-ता, दि०१७ चे सज-प्रा०, ब, पः।
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t૨ न्यायविनिधयविवरणे
[११०६ कार्यस्थ प्रतिब्यून करणमिति चेत् ; न; सुत्र वस्तुतस्तम्यूहस्यैव हेतुत्याम् , वत्पोषकत्वेन राशि भल्या चद्धेतुत्योधकल्पनान् | परमाणूनामपि भाक्तमेव हेतुत्वं सहकारिपोषणादिति चेत; न। तत्पोषणेऽपि तदपरसहकारियोषणेन हेतुत्वे अनवस्थापत्तेः। स्वचस्तत्पोपणे तु व्यर्थमेव
तन् कार्यस्यैव स्वतस्तदुपयः । एवं हि तात्त्विक तहेतुत्वं भवेत् 1 भवतु स्वस एव ५त्योपणं वन्तु सहकारिसन्निधिविशिष्टतामामेव तेषां न केवलानामिति चेत् ; न ; तरिशिष्ट
रूपश्य प्रसाद को साग सोपर, अभावे चानित्यत्वस्याभिधानात् । तदा तत्सनिध्यभाव एष तेषां तपाभायो न स्वरूपाभावो यक्ष्यं प्रसङ्ग इसिं चेत् ; न; पश्चापि तत्सग्निविभाव एव तद्रूपभावो न स्वरूपभाव इत्यपि प्रसङ्गात् । एपश्च तद्रूपं कारणं ब्रुयता तरसमिधे.
रेख कारणत्वमभिहितं न तेषाम् । तेषामेव विशिष्टप्रत्ययवेधस्वभावो विशिष्टरूपं न सनिधिरेष; १० तर्हि तद्भाशेऽपि पूर्व वधस्वभावाभाव व ने वत्सन्निधिमात्राभाव इति कथन अनित्यतादोपोपनिपातः ।
सेन प्रवदपि प्रत्युक्तं यदुच्यते परैः-“न तेशमेव कारणत्वं नापि तत्सन्निधेरैव, अपि तु सदुभयसामायाः।" [ ] इति; कथम् ? यथा सामग्रीभावे तदन्तर्गतसत्तात्मकत्वेन कार्योत्पसौ तेषामुएयोगः, तथा सभरयेऽपि तदन्तर्गताभावत्वेनैव तदनुत्पत्ती क्षेपामुपयोग इत्यनित्यतादोषस्याप्रविक्षेपात् । सामन्यभाषस्य सदभावसन्तरेणापि तदनुत्पत्ति प्रत्युपयोगे सामग्रीभावल्यापि सद्भावमन्तरेणव किन्न तरूपत्ति प्रत्युपयोगः स्यात् ? सामग्रीभाषे तद्रावस्यावश्यः म्भावादिति चेल ; भवखवश्यम्भावा, अन्यथा नित्यबहाने , सस्य तु कुतस्तद्गत्वम् ? ने हायश्यम्भाकादेव तश्वम् , अरकाशादिभाषस्यापि तस्वप्रसमान नियमवती सामग्री स्यान् । अननुत
व्यतिरेकरवान सस्य तवरवमिति चेत: तक्ष एव परमाणुभावस्यापि न स्यादिति कन्न तन्निर२० पेक्षस्यैव सामग्रीभावस्य तदुत्पताबुपयोगः !
सामग्रीकारणत्वे च प्रत्येक सत्कारणत्वाभावात् कथं परमाणवः समवायिकारणम् संयोगोऽसमवायिकारणं निमिसकारणमन्यदिति व्यपदेशः १ सामनीकारणत्वस्य तत्रोपचारादिति बेत् ; न; मुख्यकारणवाभावेनावरतुत्वापत्तेः । कथं. साध्या अपि कारणत्वम् अवस्तूनां सामय्या
अध्यवस्तुत्वात् ? सामग्यास्तदभेदान्मुख्यमेव प्रत्येकमपि कारणत्वमिति चेस् ; न; प्रत्येकपरिस२९ माप्त्या तस्यास्तदभेदे सामग्रीयत्वेन फार्थबहुभापत्त, कार्यानुपरमोडाच परमागूनां समरूपा
णामक्षयात् । बहुपरिसमानौ तु कथं प्रत्येक कारणत्वं तत्परिसमाप्त्या बहुष्येवं तत्वोपपत्त। तथा च नैकशी वस्तुस्वमकारणस्वात् । बहुशो कस्तुत्यमेष एकशोऽपि वस्तुत्वमिति पेन् न; एकशस्तदभावस्यैव यहशोऽपि तदभावत्वायत्तः । यसस्त झाव एव दृश्यते कारणत्वादिति चेत् ; न; एकशोऽपि विपर्ययात् तदभावस्यैव दर्शनात् ।
1“उपचारप्र"-
तारिa+२ सइकारिपोपमम् । ३ सहकारितोषगम् । * सहकारिमन्निध्यभावः । ५ परमाणूनाम् । सत्पीय परमाणु निरपेक्षस्यैवकारात्वोपपसे ।
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९०२०६ ]
प्रथमः प्रत्यक्षमस्ताक
४१३
एका वस्तु
परमाण्वादेर्नित्यत्वम्, षकारणवस्त्रेऽपि साभावात् । न वस्तुन: स्वतः सप्तासम्बन्धाद्वा तस्यं व्योगकुसुमादावपि प्रसङ्गात् । तमाकारणवतो नित्यम् "सदकारणवन्नित्यम् ।" [चै० ४।१।१] इति वचनात् । एकरा कारणलेन वस्तु सामय्याः श्रपि ततः कार्यस्यावश्यम्भावात कथन मुख्य कारणभावो य इदं विश्वरूपस्सूखम्"तथाच मुख्यः कारकव्यपदेशो यदा सहकारिसहितं स्वरूपं कार्य जनयति अन्यदा ५ गौणः [ ] इति । तन " द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारम्भन्ते" [वै०० १२४१०] इस्युपपन्नम् ; आरम्भफाणानियारभ्यस्यापि प्रागसत्याभावेनारभ्यत्वानुपपत्तेः ।
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अथ वा कारणस्याक्षये तेषां कार्यस्य परापरतया तस्यैवानुत्पत्तिः उपरमः कथम् ? न कथञ्चित् । तत एव कारणादेकस्य परस्य पुनरप्यपरस्योत्पत्तेः । सहकारिकादनुयायियुक्त सहकारेण प्रति न च तद्वैकल्यम् प्रागिव १० पचादध्यवयवसंयोगस्य भावात्, atra carri निरपेक्षत्वात् । "संयोगस्य द्रव्यारम्भे निरपेक्ष कारणत्त्वात्” [ ] इत्यात्रेयवचनात् । तदवैकल्येऽपि कारणप्रतिवन्धादनुत्पत्तिरिति चेत्; न; सचि शक्के देती तदयोगात् ।
कार्यमपि प्रतिवन् सक्कमेवेति चेत्; न; काचपज्योपनिपातात् हेतोरुत्पत्तिस्तत्
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बन्धन कार्यादिति । हेतोः हेतुत्वमेव तेन प्रतिषन्त इति चेत ; किं सस्य हेतुत्थम् ? १५ स्वरूपमेवेति चेत् न तस्योत्पन्ने कार्ये भावात् । शक्तिरिति चेत्, न ; तस्यां अर्धान्तरस्थानभ्युपगमात् । तत्साहित्यमेव तेन तत्प्रतिबन्धः सति 'तरिम कार्यो जनस्था पत्तेरिति चेड् ; न ; वदनुत्पतेस्तगोत्राचीनत्वप्रसङ्गात् । न चैतत्पण्यं भवताम्, तदुत्पतेरपि "मानलेन हेोरकिरत्वापतेः । तदभावसहिताभावादेव तदुत्पत्तिरिति वेस ; न; तदनुत्पत्तेरपि "तद्भावसहितास्वभावादेव प्राप्तेः । " सद्भात्रे हेतुभावोऽपि प्रतीयत २० इति चेत् तस्य शक्तिरूपस्य फार्यानुमेयतया कार्यादुत्पत्तावप्रतिपत्तेः । स्वरूपमेव तस्य शक्तिः, नैतस्याप्रतिपत्तिरिति वेतन तर्हि वस्य प्रतिबन्ध इति "कथमनुत्पति: अपरापरस्य कार्यस्य अक्षीणशक्तिके देतो "हृदयोगात् इत्युपपन्नमेतत्- 'कारणस्य' इत्यादि । न चार्य पक्षान्तरे दोपः प्राचैकस्थूलपरिणामानां तत्परिणामापरिक्षये तद्गरपरिf णामारम्भे शक्तिपरिश्रयात्। शतध कथञ्चिच्छक्तिमदर्थान्तरत्वेन व्यवस्थापनात् ।
अपि च, कुत इदं परमाणनामाधारत्वं यतः कार्य तेषु व्यपदिश्येव ? उत्पादनादिति चेत ; न ; सहकारिणामपि तसात् स्थापनादिति चेत्; न; स्वयमस्थान्नुतयोत्प
१ अन्यथा आ०, ब०, प०२ पुन ०, ब० ए०१३ संयोगस्य स कर्महेतुः द्रव्यारम्भे निरपेक्षः प्रा० ० ० ६३१५ कार्येण ६ तस्योत्पत्तेर्माचे कार्ये स्वरूपस्य । कारणसाहित्य ८ कारण प्रहित्यप्रतिबन्धे । ९ कारणाहित्यप्रतिबन्धमात्र प्रतिबन्धाभाव कारण साहित्यप्रसिद्राम तदभावावसिष्ठा -आ०, ब०, प० ।
सद्भावे । १३ हेतुभावस्य । १४ कपप-म०, ब०, प०१ १५ अनुपस्ययनात । १६ भारत्त्
२० ए० । 50 कारण साहित्य.
१२ धारणहित्यप्रति
२५
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यविनिश्चयश्षिरण
( १९०६ अस्य तदयोगात् । न हि संस्य तेभ्यः स्थितिरव्यतिरेकेण विरोधास , स्वयमस्थास्तु व स्थितिश्च तस्येति । व्यतिरेकेऽपि फर्थ तया सतिष्ठेन्नाम ? सन्मन्वादिति चेत् ;न; अनुपकारे तदयोगा. दतिपसमास । स्थित्यापि तदन्सरस्योपकार इति चेत् । न तस्यापि व्यतिरेके पूर्ववतासङ्गात् । सेनापि तदन्तरकल्पनायाम् अनवस्थापन। स्थितिरेव कार्येणोपकार इति चेत् ; न ; ५ तस्वरूपस्य परमाणुभ्य एक भावात् । अस्वरूपमुपकार इतिचन्। तेमाप्यनुपकारे सम्बन्धा.
यो : गाव परिकल्पनायाम् अवस्थोपनिपातात् । तत्रास्थास्तुतयोस्पास्य तश्चिवस्थापनम् । नापि विपरीतस्य धैयाम् । सत्यपि स्थापकत्वे परमाणूम क स्थाप्यस्य कुतश्चिदुपरमः ? स्थापकेष्वक्षीणेषु तदयोगात् । उपरमहेतुसन्निधानाागेव तेषां स्थापकत्वं न पश्चादिति चेन् ; म; अनिरुत्वापत्त राघवनात् । कार्यस्वैवार्य धर्मो यत्स्थापकेषु सत्स्वपि उपरमहेतुसन्निधानादुमतीति चेत् । तदुपरमे कथं स्थापकत्यं तस्य स्थाप्याऐ. अस्वात् ! चित्रोपरमे कथं कुक्क्यस्य स्थापकत्वमिति चेत् ? न; असिद्धस्यात् । न हि सत्येय स्थापकत्ये कुठ्यस्य चित्रोपरमः, तदस्थापकत्वपरिणामभाव एव तेंदुपपत्त': । किमिशनी पृष्ट्यादिना तेदुपरमहेतुनेति घेत ? न ; सत्सन्निधान एव तस्य स्वहेतुतस्तस्परिणामात् । उक्तनैतत्
"स्वतोऽन्यतो विवर्तेत क्रमादे तुफलात्मन"[ सिद्धिवि, परि० ३] इति । १५ त कुख्यमत्र यान्तो वैषम्यात् । तस्मादनुपरतिरेव सत्सु स्थापकेषु कार्यस्येति व्यर्था
एकोपरसिहेसको नित्यकारणवादिनाम् । तदाह कारणस्य इत्यादि । कारणस्य परमाणुरूपस्य जावावधनम् । अक्षये स्थापकस्वभावापरिक्षये कार्यस्य स्थाप्यस्योपरमः प्रध्वंसः । कथम् न कथञ्चिन् ।
किञ्च तस्य सै; स्थाप्यत्वम् ? सम्बन्ध इति चन् ? सोऽपि यदि सर्वासना २० सदनुप्रवेशः। तदा परमाणव एव नापरं द्रव्यमिति कथन “सर्वाग्रहणम् अवरब्ध.
सिद्ध" [ न्यायसू. २१११३५ } इति मैवतोऽपि दोषः । एकदेशेनेति चेत् ;न; कारणव्यतिरेकेण तदभावान । भावे तत्रापि सर्वात्मना तदनुप्रवेशे स एव अवश्यभावान्न तस्य नापि परमाणूनाम्तीन्द्रिग्रत्याहणमिति सर्षापाहणदोषः । वत्राप्येकदेशेन
तदनुप्रवेशकल्पनायाम् अभवस्थानम् । न सात्मनेकदेशेन वा सम्बन्धः; "तस्य भेदाभावात् , २५ सत्येव , भेदे सग्निशेषतायां सर्वात्मनेति, तस्सशेषतायामेकदेशेनेति चोपपत्तेः, अपि
तु स्वरूपेणैव ; इत्यपि न युक्तम् ; देनापि तदनुप्रवेशे तन्मानावशेषात् "पूर्वदोषानसिवृत्तः । न तनुप्रवेशः सम्बन्धः, अपि तु अजहब्रूपतया "स्तिरेवेति चेत् ; तशपि न क्रमेण प्रत्यक्यवं तस्य सम्बन्धः; एकव्यस्य प्रसङ्गान् , तस्य दानम्युपगमान् , अवय
कार्यस्य । कार्यस्व । ३ कार्यम् । ४ चित्रोपरमोपपसः । पित्रोपाम । १ कुलपस्य । - कार्थस्य । - योगस्यापि 1 "अषयषिद्रव्यममभ्युपगम्छन् सौगत प्रति भवता अराधमानी दोषो भक्तोश्री यौवस्यापि स्यादि ।" ता.रि.१९ एकदेशाभावात् । १. अश्वविनः । ११ सप्रशस । १२ प्राप्ते. रे-आरब०, ५०
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प्रथमः प्रत्यक्षता बान्तराणाच अवयविशून्यस्वापसेः । नापि युगपत् ; अप्रतिपः । न हि यदा सफाययकसंम्बद्धतया विशिष्टप्रत्ययोपारूढं तदैव तदन्यावयवसम्धयतया शक्ष्यं प्रसिपी विरोधात् । न हि नील नीलतया प्रतीयमानमेय पीततया बुद्धिशिखरमध्यारोहति, 'ततो यथा नीलबुद्धियेद्य भीलमेव न पी सकाषयवसम्धयमेव तत् बुद्धियेयं नावयबान्तरसम्बद्धम् । यत्तु तत्सम्बद्धं क्यान्तरमेव भवितुमर्हतीसि कथमवयक्तिोऽपि एकत्वम् ? सहुत्वत्यैवोपपत्तेः । न चैका- ५ वयवसम्बद्धं तत्प्रत्ययवेद्यं च तन्न भवति, अवयवान्सरपेक्षयापि तथा प्रसङ्गात् । तदन्तरस्यापि स्वतापकत्वात् । न चैकैकसम्बन्धादन्यः सत्कलापसम्बन्धः। तस्यैव वीयमानस्य कलापगोचरतया व्यवहारोफाढत्यान् सेकन् । सेकस्य हि प्रतितरु सम्भवम् पत्र प्रसिद्ध वीप्सया तत्कलापगोचरस्वम् । ततः प्रत्येकमसम्बन्धे सम्बन्धवैकल्यमेश्ययावनः प्राप्तम् । तन्मा भूदिति प्रत्येकमेव सम्बन्धः, तत्र च प्रत्यक्या हुत्वमेव अवयथिनो नैकत्वम् । न येनात्मना ।। तदेकावयवसम्बद्धं तेनैवावयवान्तरसम्बद्धतया या यदर्य प्रसङ्ग स्थात् , अपि तु आत्मान्तरेणैवेति चेत; न ; स्वभावभेदासवान् । सद्भावे निरंशवादश्यारत्ते, भिन्नावयश्कल्पनावैफल्याच्च । तदुक्तम्
"एकस्पानेकवृतिन भागाभाबादहूनि वा।
भागित्याद्वास्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनाईते । आप्तमी०लो० ६२] इति । १५
मन चमाविको ने शनिपशिः नष्ट समता क्रमयोगपशाभ्यां वृत्तिपर्यनुयोगः ? धर्मपर्यनयोगस्य सत्येत्र धर्मिण्युपपः, प्रसिपत्ताबपि किं तत्पर्यनुयोगेन ? युगपदनेकावयववृत्तिगत एव तस्य प्रतियने, तथा प्रतिपन्नस्य घाशक्यप्रतिक्षेपत्वादिति धेन ; सत्यम् , अस्ति प्रतिपत्तिः , न तु सा प्रमाणम् , तत्प्रामाण्यस्यैत्र वृतिपर्यनुयोगेन प्रतिक्षेपात् । स एष तत्प्रतिपस्या किन्न प्रतिक्षिप्यत इति धेन् । नील दैव कथनीलम्' इत्यपि पर्यनुयोगः 'सर्व २० सर्यास्मकम् ति प्रतिपस्या किन प्रतिक्षिप्यते ? सस्था प्रत्यक्षप्रत्यनीकत्वात् , न हि नीलमेष भवदनीलं प्रतिभासत इति चेत् ; समानमन्यत्र, अवविप्रतिपत्त रपि तत्पत्पनीकत्यात् । नहि निरंशस्यावयविनोऽपि प्रत्यक्षे प्रतिभासनमस्ति ।
___ गद्येवं निषियमेव तेरस्यात् , परमाणूनामतीन्द्रियत्वेन सद्विषयत्यायोगादिति चेत् ; न; कवचिदवयवाभेदिनस्तस्य तद्विषयत्वात् , अवयत्रिवस् सत्ययवाभेलस्यापि सत्र प्रतिभासनात् । २५ अत एय तन्तक पटीकृसा इप्ति व्यवहारः । न हायम् अपटात्मनां पटभावापत्तिमन्तरेण घटामटति । अभूततदाने सत्येव च्चिप्रत्ययोपपते । अवयक्तद्वत्तोः पृथस्थामणादयमभेदप्रतिभासो न वस्तुवृतेन अभेदभावात, "सेनावनप्रतिभासयात् । न हि "सेनावरप्रतिरूपायाभेदस्य भावात.
१-वधता आ०,०,१०।२ तथा या आ०,वा, प. अक्वविदव्यम्। ४-भरपेयं ततः आ०,, प० ।५ सम्ब-०,०,११६ स्वभावभेदे । अपथनिमः। 4 भिर्यनुयोगएव.९ प्रत्यक्षम् १ अरविनः।"कर्मकतन्या प्रगतश्चे कि (शाकया. ३४४५५)" ताधिकार चन्द्रदिप्रति -80, ब
-नाव प्रसि-आ०, २०, ५० । सेनावनात्मकस्य अमेस्स।
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यायविशिध्यविवरणे प्रतिभासः, प्रत्यासत्तावपि प्रसङ्गा, अपि तु दूरात् पृथक्त्वापरिक्षामादेव, सद्वत् अत्रयवतद्धतो. रपीति चेत् । न स्थूलप्रतिभासत्याप्येवं परमाणुष्वेष प्रसङ्गात ! भवत्ययं प्रसनने यदि परमाणवः पृथक्वेनापि कदासिदुपल परन् तदा कुतश्चिदमृहीतपृथक्त्वाना सेषामेव स्थूलत्रुद्धिविपयत्य. मिति । न चैवम्, सर्वदा तेपामसीन्द्रियत्वेससाक्षात्करणात् । न चातीन्द्रियाणामेव करितुर५ गादीनां धवस्खदिरादीनाच पृथक्त्वापरिज्ञानात् सेमावसद्धिविषयत्वमुपलब्धम् , प्रायासतो पृथक्त या दृमानामेव तेषां दूरतः पृचफ्लापरिक्षाने तबुद्धिगोचरवप्रतिपते ।। अतोन सेग्णवादिप्रतिभासष्टान्सान परमाणुयु स्थूलप्रतिमासोपकल्पनमुपपन्नं वैषम्यादिति येत : नेदानीमवयस्ततोरपि पृथक्त्वापरिज्ञानादभेदबुद्धिः तयोरपि पृथक् कदाचिदध्यप्रतिपत्तेः । न हि निरंशमेवावय
विनं तदवयवकलापं च क्वचिदपि सम्पश्यामो यतस्तयोरेव कुचित्पृथक्त्वापरिज्ञानादभेदto बुद्धिगोचरत्वं परिकल्पयेम ।
यत्पुनरेतत् अणुपु स्थूलप्रत्ययस्य अतरिमसत्प्रत्ययत्वम् ; म; प्रधानापेक्षित्वात् । भविः तव्य स्थूल एव तत्प्रत्ययेन प्रधानमूतेन । न हसति पुरुष एवं पुरुषप्रलये स्थाणी तत्प्रत्ययो दृष्टः । न चावयविनः सम्भवति प्रधानस्तत्वयः, तदभावात् । तत्कथं परमाणुष्वप्रधामस्त
स्प्रत्यय इति ? तदपि न बुक्तम् ; अवयक्तद्वतोरभेदप्रत्ययस्थाप्येवमभावप्रसङ्गान् । न हि १५ तस्याप्यतस्मिस्तम्प्रत्ययस्धेन धाननिरपेझस्योत्पतिः । न च कथयिनादानियतः कश्चिदपि
मुख्यः कथनिदभेदप्रत्ययः सम्भवति, सदभाये च कथं तदपेशी परस्पर कान्तभिन्न योरवयवत तोसत्प्रत्ययः सम्भवेत् । ततो यदि पृयापरिक्षातयोरप्ययययतद्वतोः शक्त्यापरिक्षामादभेदप्रत्यवः । परमाणुष्वेष साधशेषु तसः स्थूलप्रतिभासो भवेत् । सदाह-कारस्य' इत्यादि । कारणस्य पृथस्थापरिज्ञानलक्षणस्य अक्षये अवयक्तद्वतोरिव परमाणुष्वपि भावे कार्यस्य अभेदप्रत्ययवत् स्थूलप्रतिभासनस्थ उपरमो नियुत्तिः कथम् ? २ कथविदिति ।
अस्तु समवायातयोरभेदप्रल्थ्य इति चेत् ; न ;"तस्मात् 'इहेदम्' इति भेदप्रत्ययस्योपगमात् , तखेतोश्चाभेदप्रत्ययहेतुस्वानुपपत्तेः । कथं या "ततस्तरोत्तत्प्रत्ययः ? सम्बन्धादिति चेत् ; केन सम्बन्ध ? तादात्म्येनेति चेत् , म ; परमतानुप्रवेशपत्तः। सम्पन्धान्तरेणेति ।
चेम । न ; तेनाप्यसम्बद्धन तेंदयोगान् । तस्यापि सम्बन्धान्तरेण सम्बन्ध अनवस्थोपनिपा२५ तान् । स्वत एवं समवायस्य सम्बन्ध इति चेत् ; न ; अवयक्तद्वतारेव स्वतस्तव्यसनात् ।
असम्बन्धत्वान्नेवि चेन् ; समयायस्य कुतः सम्बन्धत्वम ? खतः सम्बन्धाच्चेन् ; सोऽपि । कस्मात् ? सम्बन्धत्वाचेत् ; न ; परम्पराश्रयात्- स्वतः सम्बन्धात् सम्बन्धत्वम् , ततश्च स इति ।
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। सामोsh : २ अणुरुधू-धा०, २०, ५। ३ स्थूलप्रायथेन । ४ स्थूलप्रत्ययः । ५ मा N०, २०, ५०। ६ पृथकवेनापरिश्मनेषु । समवायात् । ८ सम्मवान्तरेणापि । ९-समरिन भाग, १. प.।
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प्रथमः प्रत्यक्षस्तावः
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अथायं तस्य स्वमायो
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यससम्बद्धोऽपि वैयोरभेदप्रत्ययमुपजनयतीति तन्त्र; तन्तुsatta कपालपटोरपि तत्प्रसङ्गात् । तन्तुपदयोरेव तस्य तनननस्वभाषो न कपालपटयोरिति चेत्; कपालघटयोस्तहिं कुतस्तत्प्रत्ययः ? समवायान्तरादिति चेत्; न; " तत्त्वं भावेन व्याख्यातम्" [चै० सू० ७२२८] इति तदेकत्वकथनविरोधात् । एकस्यापि तत्र तत्र Faraari at इति चेत्; न; स्वभावभेदस्य कवितार्थान्तरस्ये अनेकान्तवादप्रत्युजी ५ घनापत्तेः । सर्वथाऽर्थान्तरत्वं तु कथं स तस्येति व्यपदेशः ? सम्बन्धादिति चेत्; न; तत्रापि प्रतिभावं तत्स्वभावभेदकरूपनायाम् अव्यवस्थितिप्रसङ्गात् । ततो निर्विभाग एव समवायः, ततः यं तन्तुपरयोरेवाभेदप्रत्ययो न कपालंपटयोरप्यविशेषात् । तदाह- 'कारणस्य' इत्यादि । arrrrr eater अक्षये तत्कालपटादावपि भावे कार्यस्थ पूर्वोतर नावभेदप्रत्ययस्य उपरमो निवृत्तिः कथम् ? न कथञ्चिदिति ।
समास्याविशेषेऽपि
विशे
न कपालादिति सोऽयमदोष इति चेत्; किमिदानीं समवायेन ? अविष्वभावज्ञानस्य तत्फलतger समवायविशेपादेव भावात् कथं वाविष्वग्भावप्रत्ययस्य मिध्यात्वे ततः घटादेरपि प्रतिपत्तिः ? मिथ्याप्रलयायोगात् । अन्यत एव तत्प्रतिपत्तिरिति चेत्; न; युगपत्प्रत्ययartaretara | क्रमेण प्रतिवेदनमिति चेत्; न; तथागनुभयात् । न हि पटादिवदभेद- १५ प्रत्यययोः पौर्वापर्यस्यानुभवः तथानिश्चयाभावात् । निश्चयाला च भवतामनुभवः, स कथं तदभावे भवेत् ? कथं वा पटावेरभेदप्रत्ययेनाप्रतिपत्तौ तदधित्वेनापि तन्तवः पटोभवति' इति चिद्यते चेयम् तस्मादेक एवायं प्रत्ययो मिथ्यास्मेति कथमत: पटादितस्वं प्रसिद्ध ? यवोsवयवयवस्थापन योगाः सौगतमतिशीरन् ।
5
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अभग gari प्रत्ययो मिथ्या बाध्यमानत्यात् न पert विपर्ययाविति चेत्; कथमेक एवायं मिध्या व अभिध्या च विरोधात् ? अन्यथा प्रतिपत्यभावान्न विरोध इति चेत्; अनुकूलमाचरितम् अत एव बहिरर्थस्याप्यवयविरूपतया नातैकस्वभावस्य सिद्धेः । ततो न निरंशावयव्यभावेऽपिं प्रत्यक्षस्य निर्विषयत्वम् आत्यन्तरविषयत्वेन सविषयत्वात् । तदुक्तम्–“जास्यन्तरं तु पश्यामः" | सिद्धिविοपरि० २ ] इति ।
5
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नवप्रसङ्ग भयात् प्रत्यक्षस्य निरंशावयविनः कल्पनमुपपन्नम् असत्यपि २५ समताभावात् । न चैवम्, अतीत एव तस्मिन् वृत्तिपर्यनुयोगः; परोपगमतस्तस्य प्रतीतेः । प्रतीयमानस्य मित एक प्रतीतेर्निरवर एव राय "सत्पर्यनुयोग इति चेत् कथमिदानों भावभावनैरात्म्यादावपि पर्यनुयोगः ? तस्यापि यथाकरूपनं तद्रूपस्यैव प्रतीतेः । कल्प्यत
भावेन रसया इत्र, पथा स्वभावभेदः । ५
८ अवयविनि । ९ - सरस्तत्र
मेव
१ अवश्थनः। २०० प० स्वाविशेषात् विशेषताभाषावैकत्वं सत्तायाः तथा समवायस्यापि इति भावः । आ०, ब०, प०६ पदा० २० प० ७-मात्र ए-आ०, ब०, प० । आ०, ३०, प० । १० धृतिपर्योगः ।
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न्यायधिनिश्वयविवरणे एव परमपरैस्तद्रूपं न परिस्फुटज्ञानप्रकाश पश्लिप्यतीति चेन् ; समानं वृत्तावपि, सापि परिकल्प्यस एव भवद्भिर्न तम्या अपि तत्प्रकाशशेपरलेपः क्वचिदपि दृश्यते । न हि निरंशं किञ्चित् क्यचित्क्रमेण योगपद्येन वा वर्तमानमुपलभेमहि ।
योतमनुपलम्भादेव पृत्तिवः वृसिमतोऽन्यभाव: साधयितव्यः किं पुतिपर्यनुयोमेखि ५ चेत् ? सत्यम् ; अस्ति तत्तोऽपि तदभाषसाधनम् । "न पश्चापः क्वचित्किञ्चित्सामान्य वा
स्खलक्षणम्" सिद्धिवि०परि० २] इति वचनान् । शृत्तिपर्यनुयोगस्तु व्यापकाभावादपि.सदभाव निलणार्थ:,अनेकप्रकारत्यासत्त्वनिरूपणस्य । व्यापिका हि वृसित्तिनतः परैस्तथैव प्रविपचे। वृत्तसिमरत्वे 'कथं तस्यानेकन पर्सनं युगपभिरंशस्य' इति भवति पर्यनुयोगः १ न
चैवम् , पदार्थान्तरस्य समवायस्यैव कृतित्वात् । तस्य पानेकन भायो विभुत्वात् । वैदनेकन १० भाव एव सिमतोऽप्यनेका भाव इति चेत् : कथं तस्य तद्धर्मो वृत्तिमतः ? तस्य तत्सम्बन्धमा
दिति चेत् न पटस्य सन्तुवत् कालादिष्वपि सर्वत्र तिप्रसङ्गात् समवायस्य सार्वत्रिकत्वात् । सस्याषिशेषेऽपि सममायिनः पटादेविशेषामियम इति चेत् ; कस्य नियमः ? समवायत्येति चेत् ; न; 'सात्रि कश्च नियतश्च' इति व्याघातात् । पटादरेवेति चेत् किमिदानी समकायेन इति म सपा वृत्तिः, समवायिविशेषस्यैव वृत्तित्वात् । तत्र गोतमेय दूषणम् ।
न च समवायो नाम कश्चित् ; प्रमाणाभावात् । न हि तस्य प्रत्यक्षात्प्रतिपतिः, पट. तन्तुष्यतिरेकेण वदनिर्णयात् , समिकर्षाभावाच । न तावदसौ संयोगः; द्रव्य एवं तदुपगमात् । गापि समवायः; तस्यान्यस्यानभ्युपगमात् । नापि संयुक्तसमवायादि, तस्यापि कविसमवायाभावे समवायस्य, असम्भवात् । भवतु सम्बद्धविशेषणभाव इति चेत् कथं समायस्यानात्रिवत्वम् ? सति तस्मिन्नाश्रितत्वस्यैवोपपत्तेः । समवायापेक्षस्यैव तत्राभितरवस्य निषेध इति चेत् ; कुतो दोषान् । अनवस्थानादिति चेत् ; कुतः सम्बद्धविशेषशभावे स न भवति ? वैस्य समवायादनान्वरत्वात् । अर्थान्तर एव तत्प्रसन्नादिति चेत; में; एवं समवायस्थापि पंटावरनन्तिस्य. प्रसङ्गात्- अविशेषणान् विशेषणत्वस्येव" असम्बन्धादपि सम्बन्धस्यानान्तरत्याविरोधात् । तथा च स्वरूपवृत्तिरेवोक्तदोषा" स्यात् । तन्न अनाधिसत्वे समवायस्थ समवायरन्तरवसविशेषणमावोऽपि सम्भवतीति कथं "सोऽपि दर्शनं तस्य ? ने चासनिक दर्शनम् ; सन्निकर्षवाददैफल्थापः । तस्मान्न युक्तमुस्तम्-"समवायस्य प्रत्यक्षेणैच प्रतिभासनात्" [ ] इति" । अत एव चातीन्द्रियः [प्रश० भा० ० १७४] इति प्रशस्तकरवचनविरोधाश्च ।
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maintainindia
समवापरयानेकत्र । २ समक्षय 1 ३ अनेरूसिवाको धनः। ४ समघायस्थ । ५ संयोगाभ्युपममात् । ६ -यादि त-सा० । ७ सम्माविशेषभावस्य । ८ अनवरदादोष । ९ पटा मा०,०, प० । १० दिशे- " घणानात्मकार समाधान, या विशेषणस्वस्य-सम्बदधिशेषणभावस्य अनन्तरत्वं तथा सम्बन्धानरमकान, पटादेरपि सभापत्य बनान्तरत्वं स्मात् विशेषाभावादिति भावः । ११-त्वस्यैव आ०, २०, ५०। १२-वृतेरेखोग-. मा०,५०, ५० १३ सम्बद्धविशेषणीभावापि। १४ "रामदाये अभाव में विशेषणविशेष्यभावान"-यावधा 11211 "देता पवषिधसम्बन्धसम्बन्धिविशेषणविषयभावात् रश्याभाव-रामवासयोग्रहणम् ।.."मत्रायस्व तु काँचदेव ग्रहणम्-पथा सरसमायवान् घरः पटेहपराभवाय इति ।"-म्यायसा०पू०३।
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प्रथमः प्रत्यक्षपस्तावा
इह प्रत्ययापेक्षमेव तेन तस्यातीन्द्रियत्वमुच्यते तस्य तत्रापतिमासमान, आधारस्यैव हि तत्र प्रतिभासतं न समवायस्थ निर्विकल्पे प्रत्यक्षान्तर एव तस्य प्रतिभासनाविति चेत् । न तस्याकि भावनात् । अवयवावविनोः संश्ले.पशानमेव तदिति चेतनतत्र धचित्तादात्म्यस्यैव प्रतिभासमादिति निरूपणात 1 उतो न युक्तमेतदपि व्योगशिवस्य-"निर्विकल्पके त्ववयवाचयविनोः संश्शेषज्ञाने समवायः प्रत्यक्ष एवं [प्रश व्यो . पृ० ६९९] इति । तन तत्र प्रत्यक्ष प्रमाणम् । ५
नाप्यनुमानम् । तदभावान् । ननु इदमस्ति-इह शारनासु वृक्ष इति प्रत्ययः सस्यन्धपूर्वकः, निर्वाचत्ये सति इह प्रत्ययत्वात् , कुण्डे धीति प्रत्ययवदिति चेत् ; ने ; अतोऽपि तादात्म्यस्यैव सम्बन्धस्योपपत्तेः । ननु तादात्म्यं नाम श्रस्य शाखाभिस्तासां वा वृक्षेणैकरद. मेव, तत्कथं सम्बन्धः ? सम्बन्धस्य विष्टतयैवोपात्तरिति येत । न ; एकान्तेनैकस्पाभावात् द्विष्टताया अप्युपपरेः । कथं पुनर्भेदाभेदयोरेकविधेरन्यतरप्रतिवपल्वात् एकत्र धर्मिणि सम्भय १० इति चेत् ! कथं विनगेतरयो रेकत्र ज्ञाने सम्भवः रादविशेषात् १ मा भूदिति चेत् ; किं पुनरिधानीम् इह प्रामे वृक्षाः' इति ज्ञानमभ्रान्तमेष ! तथा चोर ; कि सम्वच्छेदार्थेन निर्वाधताविशेषणेन ? भ्रान्समेव, सम्बन्धाभावेऽपि प्रामारामव्यवधानादर्शनादुत्पत्तेरिति थेन् ; कथं ततो प्रामादेरपि प्रतिपत्तिः मिथ्याज्ञानस्य वस्तुविषयस्यायोगान् ? न च प्रामादिरवस्त्येष वाधाविरहात् । न च तद्विरहविषयस्थावस्तुत्वम् अतिप्रसन्नात् । अभ्रान्समेव प्रामाद तदिति चेत्र ; १५ कश्मेकमेव भ्रान्तमभ्रान्त, विभ्रमेतरयोरष्येकविधानस्य इसरप्रतिषेधरूपत्वेन एकत्रायोगा ? प्रतिमासभेदेन व दस्यकोषपः। विलक्षणो हि विभ्रमप्रतिभासादितरविभासः सत्कथं तस्य तदेकविषयत्वम् १ प्रतिभासस्यापि न सर्वथा भेदः, कथञ्चिदभेदस्यापि प्रतिभासनादिति चेत ; अनुकूलमाचरसि , अवयत्रसदतोरप्येवं कथञ्चिदभेदोपपोः अभेदप्रतिभासाविशेषात् । अस्ति हि तत्रापि भेदभेदस्यापि प्रतिभासः, शालाचलने वृक्षश्चलतीति प्रत्ययात् । न झत्यन्तव्यतिरेके शाखा वृक्षे शक्यं प्रतियतुम् । समचायाच्छक्यमेवेति चेत् ; कथं तवोऽपि शाखाया वृक्षत्येन प्रतिपत्तिः , इहेतिप्रत्ययाभावप्रसङ्गात् । न हि तपप्रतिपतिहेतोरेव तदधिकरणत्वप्रतिपत्तिः, विरोधात् । न हि नीलं नीलसया प्रत्यायग्रदेव तदधिकरणनया प्रत्याययदुपरूवम् । न च शाखावत् स्यापि चलनादेष तत्र 'चलनप्रत्ययः; चलनद्वयस्यानुपलम्भान् "व्याप्त्या तत्प्रसमा । म हि निरंशस्याव्याप्त्या तत्सम्भवः ; निरंशवव्यापः। ततः शाखापालनमेष वृक्षस्यापि चलममिति की शास्त्रातादाम्यं वृक्षस्य प्रतीतिसिद्ध न भवेत् , यतस्तत्रार्थान्तरसम्बन्धप्रतिज्ञा प्रतीतिप्रतिक्षिा हेतयश्च विरुद्धान भवेयुः ? सदेवाह
प्रशस्त्रकरेग। २ बुद्धप्रत्यये । ३. समवायस्य । १ "इस तन्तुषु पट प्रदाबीहास्यमा सम्बन्धकार्यः अवाप्यमानेहप्रत्ययवान् । यो योऽया यमानेहप्रत्यधः स सम्व कार्यः सह कुरा धोति...""तथा चायमबाध्यमानेहप्रत्ययः तस्मात्सम्बन्धकार्य इति ।"-शव्यो पृ०१०९ । प्रा०कन्द पृ० १२५ । ५ -पपासेरिआ०, २०, प०। ६ चलनं तत्र प्रत्यय-मा०, २०, ५०1७ सईदेवस्वछेदेन । ८ -शस्य भ्याआन, २०.०
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मार
10
४२०
म्यापविनिश्चयविधरने समवायमा वृक्षोऽन शाग्वास्थित्यादिसाधनैः ।
अनन्यसाधनैः सिद्धिरहो लोकोत्तरास्थितिः ॥१०७! पति ।
समवायस्य मृक्षाशावादी नामयुतनिधानाम् अत्यन्तव्यविरेकिगः सम्बन्धस्य आस्थितिः या प्रतिज्ञा लोकोत्तरा लोक दर्शनप्रत्ययम उत्तरति उहङ्घयतीति ५ लोकोसरा प्रत्यक्षनिराकनेति यायन !
मुद्धा वृक्षशाश्वयोः । भिन्नसम्बन्धसन्धे कशन प्रतिनिध्यने ? ॥१००८॥ ततः प्रत्यानित पक्षानन्तरभावतः ।
कालात्यापरिष्कृत्य हेनुनामिति मन्यने ।।१५०९।।
सिद्धिर्जमिस्तस्या रहस्याम: सिद्रिरहः सिस्वभाव इति यावन् । कस्य ? समवायस्य। कैः ? 'वृक्षोऽन्न शाखासु' इति एवं रूपं ज्ञानरभिधानच आदिपाम् इह तन्तुषु पटः' इत्यादिज्ञानाभिधानानां तान्येय साधनानि तैरिति । न वानि साधनानि, तद्धर्माणाम, इहप्रत्ययत्वादीनां साचनत्वादिति चेत् ;न; धर्मवद्वतामविष्वाभा.
वापेक्षथैवमभिधानात् । 'यो य इस प्रत्यय: स सम्बन्धपूर्वको यथा कुण्डे बदसणीति प्रत्ययः १५ इति च्यातिदर्शनस्याप्येवमेशेषरः, अन्यथा हेतोयोनिदर्शने करव्ये धर्मिणस्तदुपदर्शनम
सम्बद्धं भवेत् । कथं पुनरितिशब्दस्य आदिशब्देन समासः 'वृक्षः' इत्यादेस्सेनापेक्षणात् ? अनपेक्षणे तु न संदूरस्य बुद्धधादेस्तेनोपदर्शन मिति घेत् ; न तदनपेक्षतयैव प्रकृतस्य तेनोपवर्शनात् । वृक्ष इत्यादिकं तसुद्धौ तत्प्रकरणार्थमुक्तम् । कुतस्तैस्तस्य सिद्धिरहः १ इत्यत्राह
अनन्यसाधनैः यत इति । अन्यः समकायस्तस्य समाग्रियोऽर्थान्तरत्वात् , सस्मादन्यः २० तादात्म्यपरिणामः तस्य साधनः विरुद्धैरिति यावत् ।
समवायविरुद्धस्य लादारभ्यस्येह साधनैः । समवायस्य संसिद्धिः कथयारोपपद्यते ॥१०१० तादात्म्यसाधनावश्च तेषां तब्यालिभियान । विभ्रमाविभ्रमाकारप्रत्यये सुपरिस्फुटम् ॥१०११॥
नहि इह विभ्रमेताकारयोः ज्ञानमिति प्रत्ययस्व तादात्म्यसम्बन्धपूर्वकस्वनिर्णयेऽपि . शाखादी इहेदम्प्रत्ययस्य तदन्यसम्बन्धपूर्वकस्वसाधनमुपपन्नम् , यथान्याग्निनिर्णयमेव अनुमानो. परो, अन्यथा अतिवसमात् । 'कुण्डे दधि' इति प्रत्ययस्य तदन्यसम्बन्धपूर्षकत्वमेव प्रसिपमम्, तत्संयोगस्य ताभ्यामन्यत्वादिति चेत् । न प्रत्याससिपरिणामस्यैव संयोगस्यापि प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तेः, अन्यत्र विवादात् । न विवादः, अन्वयन्यसिकित या प्रतिभासभेदात् भिरस्यैव
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-सन्देहः क-म, २०, प.
ज्ञानम-आ०, २०, ५० ।
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प्रथमःयक्षपस्ताका
संयोगम्य परिक्षाना | अन्यची हि संवोपरि सत्यसति च संयोगे तस्योपलम्मान , व्यतिरेकी च संयोगः सत्यपि संबोगिनि तस्याप्रतिपत्तेः ; इत्यपि न सुनम ; सद्भेदादपि विभ्रमेताराकाग़म्यां झामन्येव स्थञ्चिदेय लडेपनिशानात । आत्यन्तिक्षभेदस्य अभेदप्रतिभान प्रतिक्षेपात् ।
- संयोगम्यैकल्ले सदन्यतिपात संयोगिनोरप्येकत्वमिति येन् न, प्रतिसंयोगि भिन्नस्यैत्र तस्य प्रसिपत्तेः । कथमनुगतरूपामाचे 'कुण्डं संयोगि दधि संयोगि' इत्यनुगत प्रत्यय इति चेत् । ५ कथाम 'संयोग: सम्बन्धः समवायः सम्बन्धः' इत्यनुगतप्रत्ययः, सम्बन्धमायाप्यनुगतस्याःभाषान् ? भावं सस्य सप्तमपदार्थत्वापसे। न हि तस्व द्रव्यादीनां पञ्चानामन्यतमत्वम् : समवायाधारलया तदनभ्युपगमात् । अत एव न समश्यत्यम, समदायनानात्वे अनवस्थानाम । सम्मासंयोगराभवषयोः स्वरूपगेत्र परस्परसादृश्यात् अनुगतप्रत्ययकारणमङ्गीक व्यम , तनुत् दधिण्द्वयोरपि । ततो निषिद्धमेतत् योमशिवस्य-"भिन्नेभ्योऽनुगतप्रत्ययस्याऽदर्शनात्" १०
श: यो पृ. ] इति मिश्राभ्यामेव संयोगसमयायाध्या सम्बन्धप्रत्ययस्यानुगतस्योपल. मात् । न संयोगोऽपि तब्धतिरेकी यत्पूर्वकत्वं 'कुण्डे दद्धि' इति प्रत्ययस्योपकल्प्येत् !
कुतः पुनः समवायाभावे 'शाखासु वृक्षः' इति प्रत्ययः १ इति नेपाह- .
अध ऊर्यविभागादिपरिणामविशेषतः । इति ।
अ अ च ये विभागा मूलारूपा अक्ययास्त आदयो येषां पायमध्य- १५ विभागान है: सह परिणामविशेषः कथविभेदपरिणामस्तत इसि ।
अभेदपरिणामादि शास्त्राभिरिह शास्विनः । शास्त्रासु वृक्ष इत्येप प्रत्ययः परिदृश्यते ।। १५१२॥ तत्कयं तद्रशेरन्यसम्बन्धपरिकल्पनम् ।
दृष्टान्यहेतुकल्यूमौ हि न स्वपिरस्त्रात्यस्थितिः ॥१०१३॥
यदि च 'शास्वासु वृक्ष!' इति प्रत्ययात्तत्र वृक्षस्य कार्यवेन वृचिः 'वृक्षे शाखा' इत्यपि प्रत्ययातासामपि सत्र तथाति प्राप्नुयात् । एवम्स 'न यावच्छरखर न तावदृक्षा, + यावर वृक्षो न वावच्छाखा' इति परस्पराश्रयात् उभयाभावः परस्यापदित्याधेश्यमाह
तानेव पश्यन् प्रत्येति शाखा क्षेऽपि "लौकिकः ॥१०॥ इति । तानेव प्रकृतामवयवानक्यविनञ्च पश्यन् प्रत्येति प्रतिपद्यते शास्था आधे
-
सीरा-आ०, २०, ५० 12 -रेकल्यात् ता । ३ तदभ्गुण-भा०, २०,०। यदिपचान्यतमतमत्वान-न्युपगमात् । ४ समवावाधारस्वादेव । ५ बुझे कार्यस्पेन इसिः । ६ -पत्तेरिया , 4०, १०। ७ "पटसन्तुम्वियेत्यादिशामे स्वयं कृताः । गोलि ठोके स्यात् के गौरिगलकिकम् ।"-प्रसव ११३५० । “वृक्षे शामा शिलाशामे इत्या लौकिका मतिः । शिलान्यपरिशिष्टाहरणार्योपलम्भनात तो पुनस्लाशिति शान लोकासिमान्तमुण्यते ।"-तब सं०पू० २६७ ।
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꽃은
न्यायविनिश्वयविधरने
{ १०८
यभूता वृक्षे आसरभूते, न केवलं तासु वृक्ष, अपितु तथापि सा श्रत्येतत्पदार्थः । कः प्रस्येति ? लौकिकः । लोकेन हारेण चरतीति लौकिको व्यवहारीति यात । अनेन व्यवहारप्रमत्वात् 'घुत्रे शाला:' इति प्रत्ययस्याशक्यापत्वमावेदयति । देवं समवायस्याभावात् नात्रयत्रिन सहूपा परमाणु वृतिरित्यत्नेवासा कथं तस्य दर्श ५ कथं वा छायातप निवारणादिकम ?
P
Rasiya तस्य न ? नित्येनात्मनेति येन न तत्रापि 'कारण' " इत्यादिदोषात् । तथा हि
१०
१५
२०
दर्शनं यदि नित्येन पुंसाऽर्थस्य प्रकल्प्यते ।
नित्यं तद्दर्शनं किन नित्यकारणसम्भवे ? ॥ १-१४॥ अन्त:करण संयोगाद्यपेक्ष्यविरहाद्यपि ।
संयोगो वः कथं वापि समवावे निराकृते ॥ १०१५ ॥ भावतो न स्यान्निमित्तमपि किञ्चन । "समायादिनासन्ननिमित्तं यत्परैर्गतम् ||१०१६ ॥ ततोभयत्र सार! सर्वाविशेषः सति स्थूलेऽपि तत्कथम् ? १०१७ aarsaपेक्ष एवात्मा दर्शनादेि करोत्ययम् । सत्र कार्यनित्वदोषोऽयं दुरुपक्रमः ॥ ११८ ॥ सकृदेव च तत्कार्य सर्व स्यादनपेक्षणात् । क्षणान्तरे त्ववस्तुत्वमद्देतुत्वात्प्रसभ्यते ॥ १८१५ ॥ grass दास तरकार्यं स्यात्तथा पुनः । न चैवं श्यते वरमास नित्येष्यति हेतुता ॥। १०२० ॥
विज्ञानविपादाविकार्यस्य कादाचित्कत्वं क्रमभावच्चाभ्युपगच्छता काढ़ा
चिकी शक्तियत्मनः क्रमभाविनी चाभ्युपगन्तव्येति कथं तस्य नित्यत्वम् ? शकीनां संहकारिरूपतया वचोऽत्यन्तव्यतिरेकादिति चेत्; न; व्यतिरेके शक्तिस्वभावस्य निवेदितत्वात् । २५ यथा पूर्वपूर्वशक्तिपरिहारेण कथमिवदुत्तरोत्तरशक्त्युपादानमात्मनः तथा कथचित् नानात्वपारिमाण्डल्यादिपरिहारेणैकस्थूलाचाका रोपादानं परमाणूना मायविरुद्धमिति 'नावयवेभ्यः स्थूलमर्थान्तरम् ]
१ - या ता०, ब०, प०
का ००१०३ अवयत्री ४ अवयविनः । ५ "कारस्याये तो कार्यस्योपरमः कथम् ता० वि०६ यायाः समवायसमवायिकारणभक्ति । ७ समवायाद्विना नि-आ०, ब०, प० १८ वंदी ४०, ८० प० सहकारिसाध्यं शमरिन्युत करः ।" ता० टि० । १० नावधिन्यः ० २००
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प्रथमा प्रत्यक्षरस्तावः अर्थान्तरत्वे पुनरपि तदाशनपूर्व दूपणमाह
तुलितद्रव्यसंयोगे स्थूलमर्थान्तरं यदि । तत्र रूपादिरन्पश्च साक्षरीक्ष्येत सावरैः ॥१०९॥ इति ।
तुलितानाम् उन्मानपरिच्छिन्नानां द्रव्याण सन्तुधीरणादीनां संयोगे स्थूलम् अषयविद्व्यम् अत मुलितद्रोग्योपविगे , समरे रूपादिः, आदि- ५ शब्दात् रसादिश्च अन्यः अवयवरूपादिभ्योऽर्थान्तरभूतो न केवलम् अवयवाहयादिरेवेति म शब्दः । 'भवेन्' इस्यध्याहारः । भवत्येव अवयवरूपादेतपादिप्रादुर्भावस्य' "गुमाश्च गुणान्तरमारमन्ते" [वैशे सू० १।९।१०] इति वचनेनाभ्यनुज्ञानरविति येन् ; पाहईक्ष्येत दृश्येत तत्र रूपादिन्यः । न च वीयसे । न हि सन्तुरूपादिरयः, अन्यश्व पटरूपादिरुपलभ्यते, दबासम्प्रतिपः । तथापि तदुपलब्धिकल्पनायां न फिन्चित्क्वचिदेक।। मुपलब्धं भवेत् । उपलम्मत्वाभिधानस्य जातिविशेषस्य तथाभावादनुपलब्धिरिति चेत् । क्वेदानी सद्विशेषस्य भावः ? तन्तुरूपादाविति येन् ; पश्यत आश्चर्य यन्महसि पटरूपादौ से नास्ति अमहसि सन्तुरूपादौ विद्यत इति ।. कुसो वा तत्र तस्यास्तित्वम् । सहपादेशपलब्धे. रिति चेत् : न ; स्यापि तदवययरूपादेर्मिनस्यानुपलम्माम् । पुनस्तदययवरूपायौ तदस्तित्३. परिकल्पनायामनवस्थापत्तः । ततः क्वचिदपि कार्यद्रव्ये रूपादेः कारणरूपादिश्यतिरेकेणानुपलब्धेः ।। निविषयमेवेदं ब्रद्वयम्-"अनेकद्रव्येण समायाद्रूपविशेषाञ्च रूपोपलब्धिः । एतेन रसगन्धस्पर्सेषु ज्ञान व्याख्यातम् [३० सू०४।१८,९] इति । तन्न जातिविशेषाभावात्तस्यानौक्यत्वम् । इन्द्रियाभावादिति चेत् ; न; इन्द्रिययद्भिरूपलब्धिप्रसङ्गात् । दाह-'साः ' इति । सहारिन्द्रियैर्वर्तन्त इति साक्षास्सै से ईस्येत । आदराभावान्नेति चेत् ; म; आदरपशिस्तदीक्षणापसेस्तदाह-सादरैः आदरवद्भिः स ईक्ष्येते ते ।
सत्रैव दूषणान्तरमाह
गौरवाधिक्यतस्कार्यभेदाश्च [आसूक्ष्मतः फिल] : इति
गुरो को गौरवं तस्याधिक्यमतिरेकः, ०५ तस्य गौरवस्य कार्यभेवा: फलविशेषाः तुलानसिविशेषलक्षपाः ते च गौरवाधिक्यतात्कार्यभेदाः । चशदान केवलं रूपादिरेव सत्र स्थूले 'ईक्ष्येरम्' इति कत्रमपरिणामेन सम्बन्धः ।
२५ द्विसन्तुरे गुरुत्वं हि तन्तुगौरवतोऽधिकम् । सोऽपि प तदारम्बे द्रव्ये तदभिवृद्धिमत् ॥१०२१।।
.
"धोरणशब्दः कटसमनायिकारणबाचक इह उन्तु यः रह वारण कर इति वश्याणस्वात् ।"- शारि०। २-वस्तत्व मा०, ५०, प01 पश्वासात्पर्य य-आ०, २०, ५०1४ जातिविशेषः। ५ति खलो त-बा०, २०५०। ६ तन्तुरूपादौ । ७ जातिविशेषल्य 1 ८ "पां तन्त्रमावश्या अंगवस्नेको संपादिखसात्"-10 दि०। ९-नीरत्वम् आ०,०,०110 सह-आ०, २०, ५०।
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४२४
न्यायविनिश्वयविवरणे
तावदेवं पटद्रव्यं यावत्परिणामवत् | तत्तथा किन वीक्ष्येत सादरैः प्रतिपरामिः ।।१०२२॥ इन्द्रियागोचरत्याश्चेवत्येवं तथापि तत् । तुलानतिविशेषैतत्काय करमान श्यते ॥१०२३॥ तेषामपि न चाष्टिर्भरता हेतुसम्भवात् ।
अंत स्याह तत्काभेदाश्चेति विदांवरः ॥ १०२४॥ अत्र परस्व परिहार दर्शयत्राह
___ आसूक्ष्मतः किल । अतौल्यावर्धराशेस्तद्विशेषानवधारणम् ॥११०॥ इति ।
तद्विशेषस्य कार्यद्रव्यगतस्य गौरवाधिक्यविशेषस्य तत्कार्यविशेषस्य च अनवधारणम् अनिश्चयः । कस्मात् ? अमोल्यात् हास्य fu is:मि , तस्य मावसौ. स्थम् , न तौल्यम् अताल्पं तुलया परिच्छेत्तुमशक्यत्वं तस्मात् । फस्य १ अर्थराशेः अर्थान परमाणुगुकऽयकपडणुकाष्टाणुकाल्पांशुतन्तुपटानां पशेः । आ कुतः । आसूक्ष्मतः
आ परमाणुभ्यः परमाणूनमिविधीकरयेति यावत् । न हि महत्यनेकद्रव्यराशी तोल्याने १. तन्मध्यपातिनो गौरवाः सत्कार्यस्थ च प्रतिद्वन्यमियसयोपलक्षणम् कार्यासमारतोलने
तत्पासिनोऽशुकस्येव सम्भवतीति परस्य भावः । शानकारस्तवारवि किलशब्देन द्योतयति । करमात् ? अनुपलक्षितस्य भावासम्प्रसिद्धः । तथा हि
गौरवादि पृथक् तत्र यदि योपल यते । कथं सस्यास्तिवा नमो व्योमाम्भोजवदसा ।।१०२५४ मोरवादेः क्रियायाश्च तकृताया असम्भवे । सदपेक्षं कथं सरस्थान समवाय्यपि कारणम् ॥१८२६॥ द्वितन्तुकादि तारक च क नद्रव्यमुरुयताम् । . कियाववादिकं यस्मात्त्रितयं द्रव्यलक्षणम् ।।१०२७॥ বলাবন্যকলাবনে । आहासिथत्वमायस्य हेतो; सम्प्रति शासकृत् ।।१०२८॥ ताम्रादिरसिकादीनां समितझर्मयोगिणाम् ।
कथमातिलकात् [स्थूलपमाणानवधारणे ॥१११।। इति ।
महि सम्भवत इयरवेमातोलनम् , अन्यथा अर्धगुञ्जापरिमाणं रतिका मादिषां मापकादीन से रसिकादयः, तानं शुल्यमादिर्यस्य सुवणादेः सम्य रक्तिकादया ताम्रादिरक्ति
१ तत एवाह न त-आ०,०, ५०। २"कियागुपदासमवायकारणमिति इन्भलपम्।"-२० सू० १11111३-प्राप्यनय-आ०, ०,१०। ५ गिनाम् अर, ०,१०।
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११११२
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव काययः तेषाम् , कथं 'मानम्' इति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः मान तोलनम् । फीरशामा ? समितकमयोगियां पृथगवधारिताः समिता, तेच ते पुनः क्रमेण तुलीयोगिनश्व समित क्रमेयोगिणः तेषाम , आ कुतः तेषां सोलनम् ? आ कुत्तश्च समितकमयोगिणस्ते १ इत्याह
आतिलकात् । तिलपरिमाणं तिलक तदवधीकृस्य स्तः प्रभृति वा । दृश्यते हि तिलकस्यैकस्येयच्या तोलन पुनरसदपल्यासे तदधिकस्य तावदेवं याद रक्तिकाया:, सत्रापि तापदेवं ५ यावन्माषकादेस्तोलनम् । एवम् अल्पस्यांशुकस्य प्रथमभियसया पुनस्तदवचविना क्षेपे तधिकरय तत्रापि तावरेचे यापत्तन्तोः, तत्रापि तावदेवं यावदन्त्यावयविनः पटादेर्भवति तोलनम् । तन्न वस्तुराशिगवस्थापि सम्भवतः सम्भवस्यतोलनम् । यत्तु कापसभारमध्यपासिनोऽशुकस्येयेति ; तदपि न सारम ; निपुणवाणिज्ञां तत्रापि तोलनस्यैव प्रतीतेः । अतो यथोलनम् असम्भव एष तद्विषयस्येति भावः ।
महति वार्थराशी तोल्यमाने शसस्य प्रमाणानवधारणम? अवयविनामिति चेत् । आइ
स्थूलममाणानवधारणे ॥१९॥ अस्पभेदाग्रहान्मानमनामनुषज्यते । इति । स्थलस्य अवयविनः प्रमाणमियमा तस्यानधारणमनिधयः तस्मिन्नभ्युपगम्यमाने , मानं परिच्छेदः 'पटोऽयं बटोऽयम्' इत्यादिना रूपेण परमाणनामनुषज्यले प्राप्नोति । वमा ए यतो भयं तदेवापतितं परमाणुदर्शनाद्विभ्यतस्तस्यैव प्राप्नेः । सत्र हेतुमाह-'अल्पभेदाग्रहात्' इति । पटापेश्चया सन्तबस्सदपेश्या तदवयवाखापेक्षयापि सदययवा यावस्परमाणत्रः अल्पभेषा अवधिन एव तेषामर्थराशो तोल्यमाने प्रत्येकमियपया तक्ष्ग्रहाइप्रतिपत्तेः।
अंशित्वेन पटस्व सन्यादीनामियसया । अप्रहात्परमामूनां परिझानं प्रसभ्यते ॥१०१९॥ तेवामप्यपरिझाने बहिनि विवर्जितम् ।
जगत्प्राप्नोति योगाना दोषोऽयं दुरुपक्रमः ॥१०३०॥ तनावविना तदा तदनवधारणम् । अवयवानामिति चेत् ; नाह
अंशुपातानुमाष्टरन्यथा तु प्रसज्यते ॥११शा इति ।
अन्यथा रपरिकस्पिताइक्यदिनों तदवारण नाक्यवानामिवि प्रकाराइन्येन अवयवानामपि तदषधारणमिति प्रकारेण प्रसस्यते प्रसक्तिभवति । अवयविनामेव केवानि.
मोमिणव ता०।२-योगिनः काक०,०1३ अल्पमेदादिति मा०,५०, प00-बाबानाभाग,१०, प..
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न्यायविभिकायविवर
दल्पपरिमाणानामितरापेक्ष्या, अवयवत्वादिति भाषहेतुः हेत्वन्तरमाह-'अंशुपानानुमादृष्टेः' इति । महति कार्यसमारे तोल्यभाने यस्तत्रांशोः पातस्तस्य यानुमा तुलानतिविशेपाशिवात् तस्याः ष्टेदर्शनाय अन्यथा तु प्रसज्यत इति । अपि च, परमाणुपर्यन्तं मध्यपातिनामवयदविशेषाणामशक्येयसातोलनानां यद्यभावः पर्यन्तोऽप्यवयवी न भवेत् तस्याध्यवयर्याधीनस्यैवाभ्यु५ पगमात् । भावश्चेत ; तत्राह -
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क्षीराद्यैरविजातीयैः प्रक्षिप्तेः क्रमश घटः
raft पूर्वेस यावद्भिर्न विपर्ययैः ॥ ११३॥ इति ।
ae aeri क्षीरमाद्यं येषां मीरादीनां ते, अविजातीयैः एकजात्यधिष्ठानैः प्रक्षिप्तैः घटे निवेशितैः । कथम् क्रमशः परिपाट्या स घटस्तावद्भिरेव तत्परिमाणैरेव १० पूर्वेत पूर्ण क्रियेत यावद्भिः यत्परिमाने पूर्येत विपर्ययैः युगपनिवेशितैः विजातीयैव युगपनिवेशितैः, द्रव्यस्यैकस्यैवारम्भाद्विजातीयैस्तु तस्याप्यनारम्यात् । ततो युगपत्नमाभ्यां तावद्भिरेव प्रक्षेपविषयैकानक द्रव्योत्पादनैर्घटस्यापरिपूर्णेतरतया भेदोपलब्धिर्भवेदिति भावः । तच्छायमेव धर्मकीर्त्तिनापि प्रतिपादितम्
१५
“तक्ष्य क्रमेण संयुक्ते पांशुराशी सद्युते ।
भेदः Fortraitri पृथकू सह चतोलिते 11" [० वा० ४। १५७] इति । ननु युपपनिवेशितैरपि द्विलुकाद्यपरापरद्रव्यारम्भक्रमेणैव अन्त्यावयविन आरम्भ. स्वतः कथं तैरप्यपरिपूर्तिः ? इव्यबहुरवे परिपूर्तेरेबोपपत्तेरिति चेन् नः सर्वैरपि क्षीरादिघुलुकः वृतयोरेकस्यैव द्रव्यस्य कैश्विदारम्भोपगमात् । येषां तु नैवमभ्युपगमः तेषां कथं तन्तु पट: ? न हि तैस्तस्यानारम्भे सब भावः । तदारम्भकाणां खण्डावयविनां तत्र भावात् ० तस्यापि तत्र भाष इति चेत्; न; उपचारापतेः । तथा च कथं तद्विषयात 'धन्तुषु पट:' इति प्रत्ययात् संम्वन्धसिद्धिः १ मुख्यस्यैव 'कुण्डे दधि' इत्यादेः प्रत्ययस्य सम्बन्धपूर्वकस्योपलभात् । न हि दृष्टो धर्मोऽन्यत्र योजनमर्हति पावकप्रमेत्य का जन्मादे: माणवकेऽपि योजनप्रसवान् । सम्बन्धोऽपि तत्र उपचरित एवेति चेत्; कुतस्तर्हि मुख्यतन्वत्सिद्धिः ? कर्पट पट ft प्रत्ययादिति चेत्; न; रूटितस्तदभावात् । भावेऽपि तमेव तत्साधनमनुका २५ कुतः पदार्थप्रशाद 'इह तन्तुषु पटः इह वीरणेषु कट:' [प्रश० भा० १० २७१] इत्युपचरितस्य तस्योपन्यासः ? ति मुख्ये 'गोगोपन्यासायोगात् तस्मादिष्टसिरसम्भवात् । ततः साचादपि तन्तुभिः पटस्थारम्भ वन्यः । द्वत् क्षीरादिधुलुकैरप्यन्यस्य तद्रव्यस्येति न तैर्गुगपनिवेशितैर्नानाद्रव्यारम्भ इत्यपरिपूर्तिरेव तैर्घटस्य । ततः सूक्ष्म- 'पायद्भिर्न विपर्ययैः' इति ।
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स्य
तदेव अस्यादयवी मायः " - ता०द्रि० । २वाधारी -०० १०३ सि-आ०, ब०, प० । ४ । ५ गुण-आ०, ४०, प०1६ अन्य आ०, ब०, प० ।
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'प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्ताव
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ननुयायी नाम न कश्चित तर्हि परमाणव घावशिष्येरन प चानुपलम्भात् बस्तुदर्शनशून्यं जगत्मातमिति चेत् न देषामेव कुतचिफी भूतानामुपलम्भविषयत्पावनां परस्परमिव किंन पटावयवैरत्येकी भात्रः मेाविशेषादिति चेत ? भवतोऽपि The areas भय घटमत्यात्मन्यवस्थापयन्ति तदविशेषत् तस्यैव तत्र समवायाविति चेत्; न; तत्रैव प्रश्नात 'कुतः स तस्यैव न घटस्थायि' इति 1 समरायस्यैवेयं शरपदमेष ५ तत्र योजयति नापरमिति चेत्; न; स्वरूपव्यतिरेकेण शकेरभावात् स्वरूपस्य च सर्वत्राविशेषात् । प्रत्यय तद्विशेषकल्पनायां तु समवायस्यापि तदर्थान्तरत्न प्रत्यवयवि भेदः स्यात् । तदर्थातरस्तु कथं '' तस्य' इति व्यपदिश्येरन् ? न समवायान्तरात् सदभावात् । स्वत एवेति चेत्; पटोऽपि स्वत एव तन्तूनामिति किं समवायेन । कथमितस्य तदर्शान्वरत्वकल्पनं तु तेषामेकीभावं पुष्णातीति कथम एरोपालम्भस्तत्रापि भवेत् समवायविशेषाणामपि परस्परमिव १० पदार्थान्तरभागैरपि न मानेकीभावो भेदाविशेषात् ? स्वहेतुनियाच्छतिविशेषादिति चेत्; समानं पापीति न किञ्चिदेतत् । तनावयवी परपरिकल्पित इति कुतस्तत्र गुणकर्म. सामान्यादीनां सम्भवः ? तेषां तदाश्रितत्वेनं तदभावे सम्भवानुपपत्तेः । साम्प्रतं परमताक्षेपपुरस्सर स्वमतमाह
१९१४
riशेषवंशी न तेऽत्रान्ये वीक्ष्या न परमाणवः | आलोक्यार्थान्तरं कुर्यादश्रापोद्धारकल्पनाम् ॥ ११४॥ इति ।
કચ્છ
१५
अंशेषु भागेषु अंशी भागी न वीक्ष्यो न दृश्यो 'वीक्ष्याः' इत्यनेन षचमपरिणामेन सम्बन्धात् । न से अंशा अत्र अशिनि वीक्ष्याः । कीदृशाः स च ते च इति वे ? अन्ये परस्परमेकान्तेन निर्भिन्नाः परमाणवः तर्हि वीक्ष्या इति चेन आईन परमाणवो वीक्ष्या इति च सम्बन्धः । न हि तेऽत्यन्योन्यमेकान्तेन भिन्ना: प्रत्यक्ष- २० भासते । ततो न सत्येव परपरिकल्पिता बहिर्भादा टइययाऽभ्युपगतानां तेषामदर्शनादिति
मम्यते ।
फीरस्सा बहिर्भाव प्रति चेत् ? एकानेकरूपं जात्यन्तरमेवेति श्रमः, तस्यैव श्रतः प्रतिपतेः । कथं तर्हि लोकस्य 'सन्तषोऽवयवाः परश्वावयवी' इति व्यवहार इति चेतू ? आह-आलोक्य प्रत्यक्षतः प्रतिपद्य किम् ? अर्थान्तरं जात्यन्तरम् कुर्यालोकः । २५ कद्र काम् ? अन अर्थान्तरे अपोद्धारस्य अवयवादिधकरणस्य कल्पनाम् अभिसंन्धिम् । aastraधनिबन्धन एवायं व्यवहारो न प्रत्यनिबन्धन इति भावः ।
1
"यस्यापि । २ घटावयवाः १ तदन मा० ० ० ४ रातिविशेषाः स्वयविशेषा इत्यर्थःटिं। "समावस्तु सम्बन्धो नित्यः स्यादेक एव स इति तरकिरायामुतम्" ० ० "खशब्देन विध्या" ता० दि०१५ पाप भ०, ५०, ५०
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४२८ न्यायधिनियायविवरण
[११५ जात्यासरस्थालोक्यत्वं चुवता पेदमुथ्यते ।
निमित्ताभावतो नात्र संशयादिरिति स्फुटम् ॥१०३१॥ ___ संशयादिः खलु दोषो भेदमभेद निमित्तगुफाभित्य प्रवर्तते । न च भेदाभेदाभ्यामत्यन्तविलक्षणे जात्यन्तरे तदुभयमस्ति यतस्तवनम् , अन्यथा नरसिंहेऽपि मानवाजरिपु५ बर्मावलम्बिनो दोपस्य प्रवृत्तिः स्यात् । मा भूत् प्रत्यक्षादिप्रमाणविषये तत्प्रवृत्ति, अभिसन्धि विषये तु स्यात् , अभिसन्धी भेदाभेदयास्तनिमितयोः पृथयेव प्रतिभासनादिति चेत् । न; सम्रापि धर्मिणः प्रतिभासाभावात् । न याप्रतिपन्ने धर्मिणि भेदेतराभ्यां संशयादिप्रकल्पनमुप. पनम् । सन्म संशयादिः तक !
___ नाप्युभवदोषः ; भेदेतरयोरेकस्येवरेनयेनाप्रतिपतेः, युगपर नयद्वयस्याप्रवृत्तेः । १० तत्कथं प्रतिपक्षोपेक्षा भेदस्यैवाभेदस्व वा अभिसन्धान विषयस्य उमयदोपोपनिपातेनोपपतिः
म्भवति यतस्तदभावकल्पनम् । ततो व्याधूतसंशयादिरेव जैनस्व प्रमाणविषयो नयविषयाच बहिरवं इति स्थितम् ।
तदेवं 'परोक्षज्ञानविषय 'इत्यादिना आत्मवेदनम् 'ऐसेन वित्तिसताया। इत्यादिना पार्थवेदनं व्यवस्थापयता कारिकोपात्तम् पारमपदमर्थपदप व्याख्यातम् ।
इदानी तयुपा द्रव्यपदं व्याविख्यासुराए-- "गुणपर्ययवद्र्य से सरकमसयः । विज्ञानव्यक्तिशायाद्या भेदाभेदी रसादिवत् ॥११५॥ इति ।
द्रव्यमिति लक्ष्यस्य गुणपर्ययपदिति व लक्षणस्य निर्देशः । गुणाश्च सहभुवो धर्माश्वतनस्य मुखज्ञानवीर्यादयः । यथोक्तं स्यावादमहार्णवे
"सुखमालादनाकार विज्ञान मेयबोधनम् ।
शक्तिः क्रियानुमेया स्थापूनः कान्तासमागमे ।" [ इति । अन्धेसनस्य रूपरसादयः । पर्याय याश्च कमभाविनः चेसनस्य सुखदुःस्वादयः, अवेतमस्य कोशकुशूलादयः गुणपर्ययाः, ते सन्त्यस्येति गुणपर्ययवत् । गुणादिग्रहणेन द्रव्यमात्रस्य,
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ती मेन्-अ०,२०,१०।२भेदाहियानमेन अभेदस्य अमेवमाहित नयेन भेवस्याप्रतिपत्तः । ३ प्रतिपक्षापशया भा०,40,101 श्लोक 11 “परोक्षशानविषयपरिच्छेदः परीक्षवत् दमकारिकार अपरामिदम्" ता. दि.। ५ो २६ : "एलेमेत्यादि शादिशतितमकारिकैयम्"-सादिक। रसुरस्यकारिकोपत्तम् । . "गुणाणमासदो दवं एकदमारेसमा गुणाः । लम्सगं पजायं तु उभश्ची अस्सिम्यः भवे ॥"-उचरा २८। “दच्चे सहलासभियं उत्पादनमधूवत्तसेजुत्तं । गुगपज्जयायं मा भारत सञ्चस्तू "पचास्तिक 1901 "गुणपर्थववष्यम्" तत्वार्थ ५५३८ । "तं परियष्णा दग्दु बढ़ जनुष्णपज्जयजुत्तु । सहभुव जाणहि ताग गुग कन-गुलपण युर -परमात्मा ५. बी.टि.पू. १४२५० २७ । ८ -ति नमया, थ०, प.१२पर्यावा: भाग, २०,५०
हाल
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव द्रव्यग्रहणेन च गुणादिमागस्य प्रसिक्षा सत्र प्रमाणाभावात् , निवेदयविध्यते चैतत् । मदुष्प्रत्ययेन तु तदुभयभेदै कान्सस्य । रयत एवं भेदैकान्तेऽपि तत्पत्ययः' 'गोमान देवदसः' इति सम्पन्धमात्रात्तत्कथं तेन तत्प्रतिक्षेप इति चेत् ? न ; द्रव्यतालमणयोः कश्चिदभेदादन्यस्य सम्पन्धस्याभावात् , समवायस्य प्रविक्षेपात एकान्तभेदे कार्यकारणभावस्याप्यनुपपत्तेः।
गुणपर्ययाणां व्याख्यान से' इत्यादि । 'से' इसि गुणपर्ययः । कथं पुनद्रव्ये गुणी- ५ भूसानां तेषां तच्छब्देन परामर्श द्रव्यस्यैव मुख्यतया तदुपपत्तेः । बहुवचनात् द्रव्यस्य बहुखेनाप्रक्रमादिति चेन ; न गुणादीनामपि तथा तद्भावात् , समासासाहुत्वस्याप्रतिपत्तेः । अप्रतिपन्नमपि सम्भवति तत्र सदिति चेत् ; ; द्रव्येऽपि जीवादिभेदेन तदविशेषात् , पुलिङ्गवत्त्वस्यापि न विरोधः जीवादीनां पुहिरवादिति चेतन; शब्दोपक्रमेण गुणादीनामप्रधानत्वेऽपि बुद्ध्युपक्रमेण प्राधान्यान् । युद्धथुपक्रमस्य च शब्दोपक्रमादेव प्रतिपत्तेस्तस्य तदविनाभावान , बुखावय- १० प्रधानत्यैव तेषामुँपक्रम इति चेह, नप्रथम स्वरूप एवोपक्रमात् विशेष्यापेक्षया पश्चादेव प्राधान्यप्रक्लो : रामशेऽपि मा भरि मायादिशेमानिमि चेत् ? म; प्रयोजना भावात् । द्रव्यलक्षणस्य 'गुण पर्ययवत्' इत्यनेनैव प्रतिपादनात । ततो गुणपयाँ एव ते।
___ सह च क्रमश्च सहक्रमो, ताभ्या तन द्रश्ये वृत्तिरात्मलाभपरिणतिर्येपी वे सहकमा वृत्तयः सत्यो गुणाः नमवृक्षया पर्ययाः । के पुनस्तद्गुणादय इत्याह-विज्ञामव्यक्ति. १५ शक्त्याचा: इति । विज्ञानं दानादिषितम् , उपलक्षणमिदं मश्रादेरपि, तस्य व्यक्तिम दृश्यमान रूपं 'व्यज्यत इसि व्यक्तिः' इति व्युपत्तेः । शक्ति कार्योपसमनसामयम् , विशानव्यक्तिशक्ती ते आधे येषां से विज्ञानम्पत्ति शक्त्याचा इति । आद्यशब्दाद् अन्येऽपि सहवृत्तयः सुखज्ञानवीर्यपरिस्पन्दादयः क्रमवृत्तयश्च सुखदुःखहर्षविपादादयः परिगृह्यन्ते ।
कथं पुनव्यविशत्योः सहभाषः ? तस्य भेदनिष्ठत्वात , तयोश्च भेदाभावादिति २० पेत् न ; अभेदे व्यक्तिषच्छतेरपि प्रत्ययात्वप्रसङ्गात् , तया च किं तदनुमानेन ? विपत्तिपचिनिवारणमिति चेत् ; सैव कुतः प्रत्यक्षविषये विप्रतिपतिः ? अनन्तरं "तत्फलस्म स्वर्गा देरदर्शनादिति चेत् । न ; व्यकावपि "तदभेदेन तत्प्रसङ्गात् । तथा च कथं तदनुमान धर्मिण्यसिद्धे सदनुपपः १ निश्चयासत्र" विप्रतिपत्तिनिवृत्तौ शतायपि स्यात् । तन शक्तव्यक्त्यभेवा, व्यक्तिदर्शननिश्चयाभ्यो तदर्शन निश्चयाभावात् ।
एतेन "सामग्री शक्तिरिवि प्रत्युक्तम् । तथा हि
. ! मतपत्य-मा० म०, ० २ उम्रयोगो नो-प० । तनयमा सदिमाद देव-मा, बछ । ३-त्रात्कथं आ०, म०, १० । ४ मतुष्प्रत्ययेन । ५ बहुवेन । ६ दिशे-श०, २०, ५०) ७ गुणादीनाम् । 4-श्याथा ., म०, १०। ५ शश्वनुमानेभ । १० दागाविफलस्य, मेदिन । १२ विनिपत्तिप्रसङ्गात् । ३ । १४ “न तावन्मीमांसकतनन्द्रिका तिरस्मभर नुसते किन्नु कारणानां स्वरूप को सहकारिताकलं "न्यायचा. ना. टी. पृ. १३ । “वरूपानुनमत्कार्य गहकार्युष हित्तत् । न हे कल्पयितुं शतं शाकिमन्यामन्दियाम् ॥"न्यायम. पृ० १ । “किन्तु यौल्य
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४३.
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स्थायविमिवयविषरणे साहिरिहरनमारू'यशाला :
श्य शक्तिरिहत्येवं निश्चयः स्थासर्थिनः ॥१०३२॥ न चैवं कार्यरपटौद तत्र निश्चयदर्शनात् । न चानिश्चितमध्यनं सामयीशक्तिवादिनाम् ।।१०३३॥ सत्यामेव च सामन्यां मन्नतत्रादिना कथम् । वाहस्यानलकार्यस्य प्रतिबन्धो भवेयम् ? ।।१०३४॥ विना मायभावेन सामग्री विकलैव चेत् । ततस्तदा कर्थ दाहः कायादेपि मयंवत् ॥१०३५॥ सामन्येव न शक्तिस्तन्नापि जास्यादिरेव सा। दृश्यमानेऽपि जात्यादौ शक्तिष्टेरसम्भवात् ।।९०३६॥ सम्भवेऽपि मन्त्रादौ स्वतः शक्तिचिनिश्चयात् ।
रूपदेशवयार्थ प्राप्तमेकान्तवादिनाम् ।।१०३७॥ ধন্স কিবয হচ্ছি, বংশানু।
नापि शक्तिरेव व्यक्तिक, तदप्रत्यक्षत्वापोः । नाप्येकान्सेन भेदः ; शक्तिसक्तिमहा१५ वाभावोपनियताम् । शक्यको समवायत्तद्भाव इति चेत् ;न; 'अशक्तिमत्त्ये तदनुषपः
खरखवत | शक्किम न तयैष शश्या; परस्पराश्रयान्-'तया शक्तिमत्त्वे तत्र तत्समबायः, तसशस्य शक्तिमत्त्वम्' इति । नाप्यन्यया: अनवस्थापतेः। तन्कान्वेन अभेदो भेदो वा तत्रोपपना, कथविदेव तयोरुपएकोः । तदाह-"भेदाभेदी' इति । केषामित्य
पेक्षायां विज्ञानव्यक्तिशतवाद्यानामिति विमतिपरिणामेन सम्बन्धः कर्तव्यः । निदर्शनमत्राह२. रसादियात्' इति । रस आविर्येषां गन्धादीनां तेषामिव तदिति । निरूपित रसादीनां
भेदाभेदात्मकत्वमसि निदर्शनत्वेनोपन्यास: । यदि बा, रसादयो ज्ञाननिर्भासा; तेषामिव सददिति । प्रसिद्धच कटीभक्षणकालभाविशेषनिर्भासा रसरूपादीनां भेदाभेदात्मत्वं "बौद्धस्य "नीलादिश्चित्रनिर्भास" [१० श० २।२२० ] इत्यादापलधारकृता यथैक
निरूपणात् । २५ "गुणपर्ययवद्र्व्य म्" [१० सू० ५।३८] इति सूत्रमिदं तत्त्वार्थस्य, इदमेव व
त्या व्यापिण्यासया कारिकायामुपक्षिप्तम् , तत्र कि गुगमहणेन 'पर्ययपदव्यम्' इत्येवास्तु गुण्डानामपि परिच्छिन्नायनरूपलया पर्ययेवान्तभावादिति चेत् १ अत्राह
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शानियहरसहपारिसभिधाननेय शक्तिः । संवेयं द्विविधा शशिदच्यतेसस्थिता असन्तुका च । सत्वाचवारिन स्वहारमस्थता समिः, आगन्तुम मुदायमारियोगरूपा।"-म्यायमं० १० ११५। "महिनो दर्शने शकिपदार्थ एव नास्ति, कोऽसौ ताई ? कारवत्नम् । किंदयूक्षकालचिन्तजातीयत्वम् , सहकारिकत्या प्रयुक्ताकार्याभादयस्त वेनि"अनुबाहकक्सान्यान् सहकारियपि शक्तिवप्रयोगात्""-न्यायकुसु. १५१३ ॥
सत्यतः आ०, १०, १० । २ महिना धिन् विशे प्रति दाहशकिप्रतिरोधकाले। ३ अशिस्वादिजातिका व्यक्तः शान्तिरहित । ५ बरोबर भा०, १०)
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मथमा प्रत्यक्षप्रस्तांना
सदापि सधिकल्पासधासाधनाय क्रमस्थितः।
गुणपर्यययोर्ने क्यमिति सूत्रे द्वयग्रहः ॥११६।। इति ।
सूत्रे 'गुणपर्ययबद्र्व्य म्' इत्यत्र द्वयस्य गुपपर्यंयद्वितयस्य ग्रह आदानम । कस्मात् ? गुणपर्यययो क्यमिति । गुणश्च पर्यश्च गुणपर्ययो, जाताघेकवचनम् , तयोरेक्यमभेदो न, कमानमभावरूपाविरुद्धधर्माभ्यासादिति मन्यते इति हेतोः । ५
यवेवं गुणार्षिकोऽपि नयो वतयः । सति विषये 'तवचमानुपपत्ते, तत्कथं ल्या पर्यायार्थतया द्विविधस्वमेय मूलमयस्य १ पर्ययार्थ एवं गुणार्थोऽपि, पर्ययशब्दस्य सहकाभाविधर्मसामान्यदायित्वादिति चेत् ; न तर्हि सूत्रेऽपि गुणग्रहणमचन् , पर्ययशब्देनेच सामान्ययाचिना गुणानामपि प्रतिपतेरिति चेन् । न ; ततः पर्थयप्रतिपत्तिसमय एत्र गुणानां सदनुपपत्ते; । न हि सामान्यशब्दाधुगपदेव सकलतदर्थप्रतिपत्तिः, गोशब्दस्य नवार्थत्वेऽपि १० कदाभिरकस्यचिदेव ततः प्रतिपत्तेः । तन्त्रेणानेकप्रतिपत्तिरपीति चेस् ; न ; तन्त्रस्य व्याख्यानगम्यत्वान , व्याख्यानान्न प्रतियोगैरीयस्त्वात् । भवतु समयान्तरे ततस्तत्मतिपत्तिः सरिफ गुणग्रहणेन ? सरयम् । प्रयोजनवशेन सद्ब्रहणात् । तहि. देव तनिमित्तं पक्षल्यं न भेद इति खेत् । न ; प्रयोजनस्यापि भेदायत्तस्वेन भेदस्यैव मूलनिमित्त्वोपपतेः। .
किमर्थस्तईि भेदग्रह इत्यवाह-सविकल्पाख्यासाधनाय । सह विकल्प दैवर्शत १५ इति सविकल्यं युगपदूमाबिनानाभेदमिति याक्स , सस्याख्या प्रतिपसिस्तया साधनं प्रतिपत्तिरेख व सबिकल्पाच्यासाधनाय । कस्याः तदित्यत्राह-क्रमस्थितः क्रमेण परिपाच्या स्थितिः परापरपर्यवेष्ववस्वानं सस्थाः । किंकालाया; ! सदा सर्वकालभाविन्याः । अपिशब्दः मस्थितः इत्लन द्रष्टव्यः । तात्पर्यमत्र
युगपद्वस्तु वक्तव्यं नानाधर्मसमाश्रयम् । बहिरन्तरनंशस्य तस्याप्रत्यवभासनात् ॥१.३८॥ क्रमानेकस्वभावं तत्तदेवानुमन्यताम् । विरोधादिभयोन्मुक्केभयत्रापि सम्भवात् ॥ १०३९॥ प्रतीतिश्च यथा तस्य प्रत्यक्षादन्यतोऽपि वा। प्रतीयतां तथा किन्न क्रमानेकस्वभावभृत् ॥१०४०॥
गुणपिकनयायन । २ पर्याचा-भा०, २०, ५० उत्थार्थवार्तिक (५१८) गुणधर्धनयम ल्याथिंकेऽस्त वः कृतः। तथाहि- "तनु चोरतम्-राविषयस्तृतीयो मूलनयः प्रायोनि, नैप दोषः; दयस्प द्वापारमानौ सामान्य विशेषश्चेति । सामान्यमुत्सोऽन्ययः पुण.इत्यर्थान्तरम् । विशेषी भेदः पर्वाय इति पर्यायशष्टः । नन सामान्यविषयो नयो मार्थिक विशेषविषयः पर्यायार्षिकः सदुमयं समुदितमयुतसिद्धरूपं इम्यमित्युच्यते । न तस्पिमस्तुनायो नयो भवितुमर्हति दिकलादेशबानपानाम् ।"-राजना.५५३८१३ "खपशुयाम्पसदिल्नेत्रवृणिभूजले"शवमरः । ४ समवायान्तर भा०, २०, १० । अालान्तरे । ५ पयशन्दतः । ६ -ौः परीत्यत्र इंश-मा., ब१०।
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પ્રશ્
न्यायविनिश्चय विवरणे
परापितः शक्तिसाचिव्यकाङ्क्षणात् । मानाद्यनन्तसंसार विशिदोष: प्रसज्यते ।। १०४१॥ अन्यथा कल्पनानोऽपि सर्वकालस्थितेर्महान् । कल्पनान्तरवैयर्थ्य प्रमाणान्तरवद्द्भवेत् ॥ २०४२ ॥ कल्पनात्तदि नेष्येत सौगतैः । समारोप व्यवच्छिसिरनुमानफलं कथम् ? |१०४३२३ नासतोऽस्ति व्यवच्छितिः समारोपस्य तत्कृता । कल्पनाकृतद्विरापोऽप्यस्ति वापरः ||१०४४ ॥ अनुमानमनिच्छन्तस्त व्यापारणे ।
स्युरतस्तेषां नाधिकारो विचारणे ॥१०४५ ॥ ततोऽनुमानमन्विच्छन्नेकस्वप्रतिवेदनम् ।
विकल्पाद्धतितो ब्रूयात्तद्वदृध्यक्षसो वयम् ॥ १०४६॥ विकल्पकात् क्षणक्षीणादेकत्वप्रतिवेदनम् ।
[ ९०११६
नाति ||१०४७ll सर्विकल्पान्तरतो यदि ।
इच्छम् कथं विकल्प अस्थातो न स्यादारोपस्य व्यवस्थितिः ।। १०४८।। air at tera fभाप्येतत्मके । itstard यक्षस्य निषिध्यते ॥१०४९॥ स्वाचिना हेर्ने न स्यात्स्व परस्थापितामहः । देवैर्निवेदितं चैतस्वयमन्यत्र तद्यथा ॥ १०५० ॥ " द्रव्यात्स्वस्मादभिन्नाथ व्यावृशाच परस्परम् ।
लक्ष्यन्ते गुणपर्याय धीविकल्पा विकल्पवत् ॥" [ सिद्धि परि० ३ ] इति । अश्वव्यापारतः प्राप्यात् स्वाप्रित्यक्षसम्भवे । परापराक्षव्यापारयन्यं चेत्तदत् ॥ १०५२॥ परापरोपकारस्य देनादानादात्मना ।
free se harयि निश्वयानिश्श्रयात्मनः ॥ १०५३ ।।
तो युक्तं यथा गुणद्रव्यं तथा पयवदपीति ।
अथवा, यत एवं गुणवद्द्द्रव्यमात्मादि तत एवं पर्वययदिति सूत्रार्थः । गुणवत्वं हि प्रसिद्धमेव, बुद्धवादिभिरात्मावे तच पर्ययवत्वाभावेऽनुपपन्नम् । तथा हि-बुन्यादेरनुत्पत्त "यात्मावे रूपं तदेवं तदुत्पत्तावपि कथं प्रागित्र पश्चादपि बुद्ध्यादिमा ! बुदयादेर्भावादेवेति
१ अनुकृता । २ पणम् ता । ३' शास्त्रमुरतः आ०, ब०, प० । केवलं शाखव्याख्यातरः स्युर्न । विचारकः । बहः ६ सत्मादिशां आ०, ब०, प० ।
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४१२६] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
४३३ येत् ; किन्न सर्वस्यापि तवत्वं व्यतिरेकाविशेषात् । आत्मादाय भावादिसि चैन् । का सप्तम्यर्थः ? स्वरस्मेवेति चेत् ; ; प्रागिय तस्य तदर्थवानुपपतः । समवाय इत्यस्यनेनापास्तम् । प्रागभावी स्वभावस्तस्य पश्चादिति चेत् ; कुतस्तस्येसि ! समवायान्तयदिति चेत् ; न; तस्याभावात् । भावेऽपि प्रागिन पश्चादपि तसस्तदनुपपत्तेः । तत्रापि प्रागभाविनः स्वभाषस्य पश्चाद्भावे अमवस्यादोषात् । तादात्म्यादिति चेत् ; आत्मादेरेव स तादृशः करमा- ५ न भवति ? अनित्यत्वापतेः समवायेऽप्यविशेषात् । एवं हि समवायपरिकल्पनमरप्रकल्पनत्वेन एसपीया परिद्वतं भवति । ततः सिद्धं गुणवत्त्वात् पर्ययवस्वमात्मा, पूर्वापरस्वभाववैलमण्यस्यैव पर्यायार्थत्वात् ।
____ मनु एवं युद्ध्यादिनाप्यात्माः तादात्म्यादेव तहदायोपपत्तेः किं तदर्थेन पर्ययवरव. कल्पनेन ? अन्यथा तदर्थेमाप्यपरपर्ययवस्वकल्पनेन भविध्य तदर्थेनाप्यररेण सुस्कल्पनेनेत्य- १० मकस्थापत्तेरिति चेत ; सत्यमेवेदं गदि परोऽप्येवं प्रतिबुद्व्येत । न च प्रतिबुध्यते अनेकान्तबादापत्तिभयाप्त , अतस्तं प्रति सैव तदापत्तिर्गुणवत्त्वेन व्यवस्थाप्यते । तच्च गुणवत्त्वं न गुणसमवायो नापि गुणतादात्म्यं यदन्यतयसिद्धं भवेत, अपि तु गुणसम्बन्धमात्रम् । इस्य सोभयसिद्धस्य भवत्येय मतकत्वम् , अन्यथानुपपश्युपपत्तेः ।।
ननु ६ गुणा बुद्धयादयः, ते च पर्याया एष क्रममावास् , तद्वत्वं च पर्ययवस्वभेव । १५ सोसिद्धम् । न साध्यम् । असिद्धत् ; न साधनम् । अन्यदेव पर्यववत्वं ततः साध्यमिति छन् । न ; ततोऽप्यन्यस्य तद्वत्त्वस्य साधने अनवस्थापसं:, असाधने साधनस्य व्यभिचायदिसि येत् । न ; शक्तिन्यक्तिरूपतया. साध्यसाधनयो दान् । व्यक्तयो हि युद्धपादयः पर्याया!; तद्वस्वेन प्रतिबुद्धयादिव्यक्ति मिद्यमान शक्तिपर्ययस्तात्वं द्रव्यस्योपकरूयते । शक्तिपर्यायाणा. मपरतिपर्ययोपनिबन्धनत्वं यवि नास्ति व्यसिपीयाणामपि न भवेत् । अस्ति चेन् ; मन. १० वस्थानमिति घेन् । सत्यम् ; अनपस्थिता एव तत्पर्यया अनन्तशक्तित्वात् भावस्य । तत्र कुतोऽवगन्तव्यम् । व्यक्तिपर्थयात् । शक्तिपर्थयस्य ततोऽपि परस्य 'तत्पर्यायस्यानुमानेऽनवस्थापत्ते ; "इत्यपि न युसम् । कतिपयतदनुमानपर्यवसाने तद्रलभाविन 'महादेव निरवधिशैक्ति पर्ययपरिच्छेदोपपत्ते: अनवस्थोपनिपाताभावात् । अहस्य चावश्याभ्युपगमनीयवात् , अन्यथा अनामन्तकालकलापस्याप्रतिपत्ते, आत्मादौ तत्सम्बन्धास्मनो नित्यत्वस्य अव्यवस्थापनप्रसङ्गान् । र ततो युक्तं गुणवस्वेन पर्ययरत्त्वीपकल्पाम । सम्प्रतिपत्तिविषये गुणवत्वे विप्रतिपत्तिविषयपर्ययवस्थाविनामार्थनिश्चयसभायात् ।
___अत एव छ साध्यसाधनभावेन भेदात् सूत्रे गुगपर्यययोः पृथगुपादानमित्यावेदयसि 'सदापि इत्यादिना गुणपर्ययमोनैक्यम् । इति एवं सूत्रे द्वयग्रहः भेदः । कुतः ?
! प्रतीतस्र्थव भा०, २०, ५०। २ हदेव न कु आ०, २०, ५.। ३ व्यतिपर्थयात् शक्तिपरस्य । ५ शसिपीयस्य । ५ इत्ययुक्तम् आ-, २०२० तादेन । -शनिपरि -आ०, २०,५०८ -निय मस्तहाभा-श्रा०,०, प. ।
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४३४ न्यायविनिश्मयविवरणे
[२११७ इत्याह -'सत् द्रव्यम् आपिसन्याश्रयत्वेनागछत्ती(ती)ति सदापिसाःपिकल्या गुणात्मानो भेदा यस्य तस्यास्या निर्णयः साधनाय निश्चयाय । अस्य ? क्रमस्थिते, कमभावित्वान क्रमा पर्यायास्तेषां स्थितियस्मिन् सस्य मस्थितेः पर्ययवतो यत इति । ससः स्थित गुण. पर्यायोलिङ्गलिभिभावप्रतिपादनार्थमुभयोपादान सूत्रे इति । ५ अनिप्रसङ्गापरिहाराय करमा भवति भरति हि गुण प ठयमित्युक्ते तत्प्रसङ्गः
सत्त्वचेतनत्वादिगुणाारसंया बौद्धविधानस्य खुद्धिसुखादिगुणाधिष्ठानतया महेश्वरदेव असमस्य द्रव्यत्वप्राप्तेरिति चेत् ; न; गुणपद्रव्यमित्युक्तेऽपि तदप्राप्तेरित्यावेदयनाइ
गुणवद्ध्यमुत्पादच्ययधौव्यादयो गुणाः ।
दुद्राय द्रवति द्रोष्यस्येकानेक खपर्ययम् ॥११७॥ इति ।
गुणधव्यमिति हि सुन्नं संक्षेपश्यम् । न चैवम् असत्यापि विज्ञानेश्वरादे→स्यस्था___ पति ; तन्न गुणयन्त्रस्यैव गुणव्यापकानामुत्पादादीमामभान अभावात् । अत्पादादित्याना
हि गुणाः कथं तदभावे भवेयुः वृक्षामा शिशपावम् ? तदिदमाहू-'उत्पायव्ययधोध्यात्यो गुणाः' इति । प्रागसत आत्मलाभ उत्पादः, सतो विनाशो व्ययः, कथञ्चिदत्रस्थानं ध्रौव्यम् ,
तात्यादयो व्यापकत्वेने प्रधानभूता येषां से तथोक्ताः । अर्थक्रियाकर्तृत्वेनैव ज्यामिर्गुणानां १५ नोत्सावादिभिरिति घेत ; न ; "तस्यापि उत्पादादिस्वभावत्वा । न हि कस्यचित्मागिर काकाले यसमधरेय तस्करीत्या ; प्रापि तसन कार्यानुपरमायो । समर्थस्येति चेत् । सदा ताई समभिवतः प्राच्यासमर्थस्वभावपरिहारेणावधायित्वमवश्यमिति कथं नोत्पादागास्म . कमेव तत्कर्मत्वं भवेत् ? तच्चाकमाद्विनामाव्यविर्तमानं गुणवस्वमपि व्यावर्त यतीति कथं तस्य
द्रव्यधापत्तिर्यनिष्टमारदोत। नन्वेवं संक्षिसादपि सूत्रात् जमवत्वस्यापि प्रसिपत्ते: "गुणपर्यय२० वद्रश्यम्" इति किं विस्तीर्णेनेति चेत् । सत्यमेव यदा उत्पादादिप्राधान्य गुणानां
व्याख्यायते । यदा तु न तदा गुणधरम पर्ययवरकन्यवरथापना विस्तीर्ण सूत्रम्। कि पुनः सूत्रकारस्य संक्षिप्तमपि सूत्रमस्ति ? बाडम् , कुत एतत् ? निर्यन्धनकारेणोपक्षेपान् । स्वयुद्धिालुगास्योपक्षेप इति चेत् ; महविदमद्भुतम्-प्रसूत्रकारस्याससी धुद्धिः निबन्धनकारस्येति ।
कस्यविश्यम्-भवतु नाम तत्रोत्पादादित्रयं यत्र पूर्वापशै पर्ययो, विनाशोत्पादयो। फश्चिदषस्थानस्य च तत्र सम्भवान् । “यत्र वर्तमान" एवास्ति ने पूर्वापसे अनुपल भात , तत्र कथम् ? यतो द्रव्यलक्षणमव्यापक न भवेदिति ? सत्राह-'तुद्राव' इति । दुद्राक्ष हुतवद्विादादि द्रव्यम् । कम् ? वपर्ययं न द्रव्यान्तरपर्यायम् असकीर्णतयैव प्रतिपत्तेः । अनेन
२५
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--
१ ससन्यमपि सा., म.,५०। ९ सदापि सनि-श्रा०,०, ० । अनिष्प्रसापाः ।। शुभत्वत्यैव आ०, ३०, ५०१५ साकायाकर्तृ त्यस्या। 4 -पमा-श्रा, ब०, ५०१७ पर्यायाव-०,40, १०। अकलदेदेन । ९ सूचकारस्य अविश्यमान बुद्धि: निबन्धकारस्व मारता । १० विद्युदादिद्रव्ये"-ता. टिक। "प"-सारिक
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Ans
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११८ अयमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
४३९ पूर्वपर्ययवत्वं तस्योक्तम् । द्रोष्यति स्वपर्ययम् , अनेनापि परपर्ययवत्त्वम् । अत्र हेतुः द्रवति स्वपर्ययं यत इति ।
शब्दादि वस्तु बुद्धाच द्रोष्पत्यध्यात्मपर्ययम् । 'थतस्तद् प्रति व्यक्त घटादिरिष तत्त्वत६१०५४॥ पूर्वाशधे कथं तस्यानुपायाना भवेन्जनिः'। बरतुस्वमुसराभा की बानर्थकारिणः ॥१०५५११ सजातिकरणाभावे विजातीयकृतेरपि । असम्भवादिसि व्यक्तं पूर्वमेतनिवेदितम् ।।१०५६॥ अवस्तुस्ने च तद्धेतुप्रधन्धे स्यादवस्तुता। असम्पादयतो वस्तु यदपस्तुस्वमिष्यते ॥१०५७॥ अस्पादावित्रर्य तस्माच्छम्यादावपि तच्चतः ।
क्षिमिवायसम्रा समयोnahan शब्दादिद्वन्यमेवेदमुत्पादादिप्रयस्थितेः । एकानेकात्मक यतनिश्चिन्वन्ति विपश्चितः ॥१०५.९॥ नातो लक्षणमन्यापि सूनसंक्षेपपर्शितम् ।
द्रव्ये सर्वत्र भावान्नाप्यतिन्याप्यन्यसोऽगते ॥१०६०।।
भवतु नाम विधुवावस्त्यावध्ययवत्वम् , प्रौव्यवस्वं तु कथमिसि घेत ! न; प्रौव्यबद्ध विधुदादिकम् उत्पादव्ययस्यात घटादिवदिति तनिश्चयात् । घटावावपि धौव्यवश्वस्यासिद्ध। साध्यबैकस्यमुदाहरणस्येति चेत् । अत्राह
भेदज्ञामात् मतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि ।
अभेषज्ञानतः सिद्धा स्थितिरंशेन केनचित् ।।११८॥ इति ।
घटादौ हि प्रौव्यवस्वमनम्पियन्स किमन्यत्तत्रान्विच्छेयुः ? कितिदिति चेत् । न; प्रतीसिविरोधात् । अत्याव्ययांविधान प्रतिक्षणं भेदमिति चेत् । तमपि कस्मादविच्छन्ति ।
कामादिति चेत् ; म; सस्य तैमिरिसकेशादिभेवहानवप्रामाण्ये सतस्तदन्तिच्छायो. गात् । न भेदज्ञानमित्येव समप्रमाणम् , बाधाविकलतया प्रामाण्यस्यापि प्रतिरतेरिति २५ वेत् । तर्हि भेषस्य घटादिप्रतिक्षामनानात्वस्य ज्ञानात् प्रत्ययात् प्रतीयेते प्रादुर्भावश्वोत्तरस्थ तत्क्षणस्य अत्ययान पूर्वस्य प्रादुर्भावात्ययौ यदि घेत ; अभे. दस्य तयोरेकत्वस्य ज्ञानम् ततः सिद्धा निश्चिता स्थिति अवस्थानम् । तेव्हामस्यापि खूनपुनर्जातनखादावप्रामाण्येऽपि घटादिपपरपर्ययेषु आचावैकल्येन प्रामाण्यादिति
। यतस्तन्द्र-मा०, २०, ५० । २ उत्पतिः । ३ अर्थवि यामुपादकस्य ! ४ चैत म तर्हि मा०, २०, २०१५मभेदनस्यापि ।
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म्यायविनिश्चयषिषरणे
{१।११८ भावः । भेदाभेदात्मक हि भवन्मते वस्तु, तस्य छ सदात्मना स्वितावभेद एव, न भवः स्यात् । अस्थितावपि भेद एक नाभेदः स्यात् तत्कथमुभयात्मकत्वं तस्येति चेति १ अाह'अंशेन केनचित्' इति । न युत्पादव्ययो रिधतिर्वा वस्तुनः सर्वात्मना यदर्य प्रसमा किन्तु केनचिदागनेव । भागभाचे न प्रमाणमालम्बनम् , व भेदाभेदात्मनो जात्यासरस्यैव मर५ सिंहवत् प्रतिपर नरसिंहयोरिव भेदेतरभागयोः । नय एष तंत्रालाबनं "कुर्यात अप्रापोद्धारकल्पनाम्" न्यायवि० इलो. १११ ] इति वचनादिति । चेन्न कल्पन्यविषयस्याबस्तु. सत्येन तन्निबन्धनस्योत्पादावेरप्यवस्तुत्वापत्तेरिति चेत् । न बाधाभावात् । न हि फस्पनावि. पय इत्येव सर्वमवस्तुसत् ; बाधाकल्ये वस्तुससोऽप्युपपसेः । न तवैकल्यं प्रमाणेनेर
जात्यन्तरविश्येण पापनादिति चेत् ; न; अनुप्रविष्ट कल्पनाविषयस्यैव जात्यन्तरस्थ सेनापि १० प्रतिपत्तेः । न हि सकलकल्पनाविषयप्रतिक्षेपे जात्यन्तरं नाम सम्भवति । तद्विषयसमाहार.
स्यैव परस्परसम्भूच्र्छनात्मनस्ववेन' प्रतिक्तेः । प्रमाणं सर्हि कल्पनया अध्येत अनगुप्रविष्टस्यैव जात्यन्तरे स्वविषयस्य संया मणादिसि चेत् ; न ; अनुप्रवेशवदननुप्रवेशेऽपि *तस्था
औदासीन्यात् । अतो न फल्पमया प्रमाणस्य नापि तेन तस्या बाचन मिति यथास्वं वस्तुसन्तावेध तद्विषयौ । अतो युक्तम्-अंशेनैवोस्पदव्ययौ स्थितिश्चेति । ततो यदुक्तं मण्डनेन
"उत्पादस्लितिभङ्गानामेकत्र समवायतः ।
प्रीतिमध्यस्थताशोकाः स्युन स्युरिति दुर्घटम् ।। यस्य स्खलु द्रव्यारपर्याया भिद्यन्ते तस द्रव्यमानार्थिनो द्रव्यस्थितेर्विनाशाभावात् अपूर्वस्य चानुत्पादात् मध्यस्थता, रुचकार्थिनस्तस्यापूर्वस्योत्पतेः प्रीतिः,
बर्द्धमानकार्थिनस्तस्य विनाशाच्छोक इति व्यवस्था प्रकल्प्यते । यस्य तु न "पर्य२० येभ्योऽन्यद्रव्यं न द्रध्यादन्ये पर्ययातयोस्पत्तिस्थितिभङ्गानामेकन समाये द्रव्यार्थिनी
मध्यस्थता भयेन भवेच प्रीतिशोक साताम्, न हि तद्रव्यमवतिष्ठत एव विनश्यति अपूर्वञ्चोत्पद्यते तत्र विनाशादर्शोत्पश्च प्रीतिशोको स्यानो न पश्यस्थता, मध्यस्थता च स्थितेः स्यादिति दुघटमाफ्यते । तथा पर्खयानकार्थिन स्तन्नाशासोक इति स्यात् न
च स्यात् स्थिते । प्रीतिच तस्यापूर्वस्योदयात् स्यात् । तथा रुखकार्थिनस्तस्यापूर्वस्यो. २५ दयात् प्रीतिः स्यात् , न च भवेत् पूर्वस्यैव स्थितो, विनाशाच शोकः स्यात् ।" [ब्रासि २०२४] इति ।
___ दिदं प्रमाणाभिप्रायेण, नयाभिप्रायेण वा दूपणम् ? आये विकल्पे युक्तम् उत्पत्ति स्थितिभङ्गानामेकन समवाय इति, परस्पराविष्यम्भूतानामुत्पादादीनां प्रमाणतः प्रतिपतेः । न
DAANTENTRA
बार.5
१-मदलम्ब-०, १०, १०। २ तावमम्म-, २०, ५। ३ 'येन' इतिपदयमत्र सम्पातीदासमिति भाति । सहिषये समा-आ., #०,१०। कल्पनाविषय । ५ अन्यन्तरलेन । कल्पनयां । कल्पना । ८ "शरावो अर्थमानकः इत्यमर" ता. दि० । अत्र सुवर्णशराको प्रायः ॥ ९ कम्पने सा . पर्याव-आय०, ५०
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११११८]
प्रथमा प्रत्यक्षस्तावः पुनद्रव्यार्थिन इति वर्धमानकाथर्थिन इति च पर्यायान् द्रव्यस्य ततोऽपि पर्ययस्यापोद्धारेण ततोऽ. प्रसिपः । न च तथा तमप्रतिपत्तौ तदथिनाम्, अनपोसारेण तु प्रतिपसो जात्यातरमेव प्रती. यत इति कथं न्यायधिध जात्यन्तरार्थित्यस्यैव सम्भवात् । तदर्थिनश्च मध्यस्थतैव सर्वदा सदूपाश्च्युतेः न तदभावः । नापि प्रतिशोको सनिमित्ताभावात् । तन्ने प्रमाणभिप्रायेण ।
मयाभिप्रायेणैवेति चेत् । तत्रापि युक्त द्रश्यार्थिनो मध्यस्थता,भवेदिति न तु न भवति ५ सरभिसन्धितो द्रव्ये मध्यस्थताया एयोपपत्ते तदभावस्य यसो दुर्घटस्वम् । प्रीतिशोको स्यातामित्यप्यपेशलम् ; द्रव्ये तन्निमित्तयोरुत्पादविनाशयोरभावाम् "न सामान्यास्मनोदेतिन ज्येति व्यक्तमन्वयात्". [आममी लो० ५५] इति वचनात् ! सस; परमतानभिज्ञानदेवोत्तम्-न हि रादित्यादि आपया इति पर्यन्तम् । तथा कर्तमानकार्थिनस्सनाशाच्छाक एव न तदभात्रः, सनिमित्तस्य' स्थितेस्ताऽभावान् । उदयव्ययाधिष्ठानस्वमेव हि पर्यायाणां न स्थिसिमरवम् १० "व्येत्युदेति विशेषात" [आप्तमी ० श्लो० ५७] इति घनाम । नापि प्रीतिः । तस्यैव पुनरुदयाभावात् । एवं रुचकार्थिनस्तदुत्पादान प्रीतिरेव न तदभावः, तस्यैव पूर्वमभावात् । नापि शरेका; उत्पथमानस्यैव नाशाभावात् । तसो बर्द्धमान कार्थिन इत्यादि शोकः स्यादिति पर्यन्तमपि परमतापरिज्ञानमेव परस्यावेदयति । यदण्यपरं तस्यैव
"नैकान्तः सर्वभावानां यदि सर्वविधागतः ।
अप्रवृत्तिनिवृत्तीदं प्राप्त सर्वत्र ही जगत् ॥ इति । पदा हि सर्वप्रकारप्पनैकान्तिकत्वं भावाना तथा सति नायं लौकिका कचिदभिमतसाधनप्रकारमवधार्य प्रवर्तेत यतो नासो तथैव, नापि निवर्तेत यतो नासाबतथैव, तथा दुःखहेतोने निवर्शत यतो नासो तथैव नापि न निवर्तेत यतो नासावतथैवेति कष्ट वत दशामापद्येत ।" [ब्रह्मसि, २५२५] इति ।
तत्रापि न परिहरवः किमपि कष्ट नयाभिप्रायेण सर्वत्रैकान्तस्यैवोपपादनान् "तदेकान्तोऽर्यिताश्यात्" हित्व श्लो० १०३] इति वचनान् । तथा च यत्सुखसाधन तत्तयेत्र नाऽतथापि यतो र प्रवत्तेत । दुःखहेतुरपि तथैव नाऽतथापि तो न निमत्तेत र प्रमाणार्पणेन तथाऽतथास्योर्मावास् भवत्येवार्य प्रसङ्ग इति चेत् । न प्रमाणसस्त्र पप्रतिपत्तावप्यभिसन्धिविषय एव व्यवहारोपपत्तः, अभिसन्धेश्कभावात् , प्रत्युत ऐकान्तिकरय एष सुखसाधनस्दादर, प्रतिनिवत्तिकत्वं जगतः। तथा हि नकचन्दनादिकमादिविषादिकं च समिहितस्येवान्यस्थापि तत्कालस्येपास्यकालम्यापि यदि सुखसाधनमेव दुःखसाधनमेव वा किं प्रवृस्या निवू या वा ? पतो नैकान्त इत्यादि नकारवर्ड परपक्षेऽपि वक्तव्यम् ।
__ अथानेकान्तवदेकान्तोऽपि कविषयले प्रश्नविदा,भेवस्या विद्याविलसितस्येदन्तया निर्व
28 २६
1 भेदरूपेण । १ अमेवेन । ३ -पाभिदूषणम् नया-भा०, २०, ५०। ४ विधमानाभिप्रायत्तया। ५ धोकामानिमित्ताशयः ऋाघ:"-त्रासि व्या०।७-मेव दासुखसाधन-0001
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SainamaAI
न्यायविनिश्चयक्यिरणे
[ १९९८ मशक्यत्वादिति चेन्; मा नाम भूत भेदे तदिष्टिः परमात्मनि तु भवेत् . ततो हि लोकानां सृष्टिः "स इमाश्लोकानसृजत" [ऐस० २१२ } इत्यादि अषणात । तस्य चैकान्ततस्तत्सृष्टिहेतुर कार्य किनिद्विवभिनदेशादित येच निःशेषापरदेशादिलयाप्युपजायत इति तत्साकय ससाकार्यप्रति
पतिविरुद्धमापयोत अप्रवृत्तिनिवृत्तिकं च जगद्भवेत् । अथ न तथा' तस्य तद्धेतुत्वं कथं कार्य ५ जगन् ? कथचिचदभावादिनि चे ; कथं तर्हि 'जगदुत्पत्ती सन प्रयत्तेत यतो न हेतुरेव, नापिक
प्रवत यतो माहेतुरे' इति कष्टदशापतिर्भवतोऽपि न भवेत १२ भदस्येव विषयभेदात्, नहि यस्य तहेशादिस्वे स हेतुरहेतुरपि तत्रैव, अपि स्वम्यदेशादिर, चत्र वाप्रवृतिः', इतरत्र कृतायध्यु. पपरत एवेति कथं कष्टता ? समापने स्तुपपशेरेव कष्टार्थत्वादिसि चेस ; वह चन्दनादिरपि
येनास्मना हेतु: सुखस्य न ले वाहेतुः अपि त्वन्येव, तेन च तत्राप्रवृत्तिः, इतरेण प्रव-हमान१० स्यापि मानुपपस्या पीडयत इति कथं "परोऽपि कष्ट दशामापद्यत ।
जगतुत्वमपि परमात्मनः नेष्यप्ते जगत एव विचारपरिशोधितस्याव्यवस्थितेरिति पेत् ; कुत इदानीं 'तत्पतिपत्तिः । न स्वतः ; असम्प्रत्ययात् संविदद्वैतवत् ।
स्वतश्वेस्परमात्मायं प्रतिपन्नः समिष्यते । संविदयमध्ये स्वत: सिद्धं समिप्यताम् ।।१०६१॥
आत्मसंविदयस्यैवं सस्वतः सम्भवे ; कथम् । वस्तुभेदप्रतिक्षेप: ? नेह नानास्ति किञ्चन" ।।१०६२॥ श्रुतिभ्यस्तत्प्रतीतिश्रेत् ; जगतोऽसम्भचे कथम् । श्रुतयोऽप्युपपद्यन्तरे जगदन्तर्गता हि साः ॥१०६३।। अमाध्यमेव हेतुले ताभ्यस्तव मतावपि । श्राषयन्ति यतस्तास्त कारणात्मतयोदितम् ।।१०६४॥
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“यतो वा इमानि भूतानि जायन्से" [तेत्ति, ३।१] इत्यादिका हि अत्यो जग. वेतुत्वप्रतिपादनमुखेनैव परमासमा श्रावयन्ति तरकथं सस्य न हेतुत्वं कस्रित का श्रुति. प्रसिद्धस्य कल्पितत्यानुपपत्तेः १ परमात्मन्यपि "तदुपनिपातात् । ततः कारणमेव जगतः पर
मात्माउनेकान्तयति धन तत्रापि" प्रसुसिनिवृत्तिवैकल्यम् ? विषयमेदात्तु "तदभाये चन्दन१ कण्टकादावपि न भवेदित्ययुक्तम्-'अप्रवृत्तिनिवृत्तीदम्' इति पर्याप्त प्रसनन ।
तत उत्पादादीनां नयविषयाधिष्ठानतया सार्याभावात्तग्नियाधाना प्रीत्यादयो भवन्त्येष न न भवन्ति इत्युपपनमुक्तं स्वामिसमन्तभद्र सम्मतोपजीविना भट्टेनापि
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विशेषदेशादितया । २ सन्मदेशादौ । ३ -तिस्त्र वृत्ता-101 ४ कष्टदशापत्तनुपप-आ.५००। ५ जैनोऽपि 1 ६ माईतप्रतिपत्तिः । • कठोप- 11 वृहदा १९८ ब्रहामः । ९ प्रतिपसादपि ।
फस्पितत्वोपनिषतात् ।" फरमात्मन्यपि । १२ प्रतिनियुक्तिवैकल्याभावे ।
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२११८)
प्रथमा प्रत्यक्षमस्वाका "घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ।।" [आप्त०मी० श्लो० ५९]इति । "वधयानकमङ्गेन रुषकः क्रियते यदा।। तदा पूर्यार्थिनः शोक प्रीतिचाप्युत्तरार्थिनः ॥
हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्य तस्माद्वस्तु प्रयात्मकम् ।" [मी०लो०५० ६१३] इति । ५
ततो घटादेरभेदज्ञानेन धौथ्योपप - साध्यबैकस्यम् । नापि साधनवैकल्यम् ; वृत्तावादेरपि तत्र शानदेव प्रतिपत्ते ।
'उत्पादो नाम अभूस्वा भवनम् , अभूतस्य च न भवनम् , ज्योमकुसुमादियात् , अतः कथमुत्पाद इति चेत् ? न ; छलीवरादिव्यापारवैफल्यापत्तेः । अभिव्यक्तिकरणातत्साफल्यमिति चेत् ; न ; अभिव्यक्तेरप्य वायाः करणायोगात् । अभिव्यक्त्यभिव्यक्तिकरणा- १० दिति चेत् ; ; अमवस्थापत्तेः । अभिव्यक्तेरभूतायाः अपि करणं न घटादेरिति किंकृतो विभागः कुतो वा प्रागपि भवतोऽनुपलब्धिः । तिरोभावादिनि चेन् । यदि तस्मादन्यः कथन घटादिकस्येव तत: सर्वस्यानुपलब्धिः ? सवे तस्य भानादिति चेत; न; 'सर्वसव विधसे' इति दर्शनान् । सदभिव्यक्तस्तत्रैव भावादित्यपि न युक्तम् । अत एव तदभिव्यक्तियमिक्सवैव भाषादिया; अनवस्थापतः । ६ दरमापरिशेखा। 4-4 कि ची १५ पश्चादुपलब्धिः । कृतश्चितिरोभावापरामादिति क्षेत् ; सिद्धमुत्तचिमस्ववत् व्ययवस्वम्पीति न । साधनवैकल्यं निदर्शनस्य । नाप्यपक्षधर्मस्वं हेतोः । शब्दवियुदादावप्युत्पावध्ययक्त्रस्याऽवि. प्रतिपत तो भवत्येक शब्दविशुदादेवस्थानत्वप्रतिपत्तिरन्यधानुपरतिनियमनिश्चयात् ।
"यपुनरेतत्-गवू यद्भाचं प्रत्यनपेक्षं सत्तावनियस यथा अन्त्या कारणसामग्री कार्योत्पाद प्रत्यनपेक्षा तावनियता, विनाशं प्रत्यारपेक्षश्च भाषा, तस्मानश्यस्येष न तिष्ठतीति । तत्र २० कदाऽसौ मश: १ भावस्योत्पत्तिसमय पधेति चेत् ; न हेतोधर्मिविपर्ययसाधनेन "विरुद्धत्वोपपत्त । उत्पसिसमयभावी हि भावो धर्मा, तस्य च तदैव नाशे कथं न विपर्ययो यस्त साधयन हेतुर्विहको न भवेत् ? उत्पतेयमिति चेत् ; सोऽपि यदि भावादिनः कथं भावस्तपतया व्यपदिश्येत भावो नश्यतीति ? न हान्य! अन्यरूपल्या व्यपदेशभहत्यति
सख्य आशकते। २ "कार्यस्लमभूरकामाविसम्"-फिरणा• पृ० २९. तिरोभावः । तिरोभावतः । ५ पटादवेध । ३ “संर्व सर्वत्र विशात इति दर्शन्तीकारान् सिरोआघोऽपि सर्वत्र विद्यते ततः सर्वस्थानुपलब्धिर्भवरिश्त्यर्थः।"-ता. दि. ७ सर्प सर्वत्र विद्यते इति दर्शनाव । ८ 'म युभम् इति सम्बन्धः । १ फटादेः। 10-वीपगमादिति , ०,१००ौद्धस्य मतम् । "तयं भावोऽनपेक्षताव प्रसि तापनियतः तद्यथा सकलकारपसामनीकायोत्पादनेसम्भवप्रतिबन्धा।"-प्रा . स्व .५५ । "ये या प्रत्यनपेक्षास्ते तदायनियताः यथासमनन्तरकला सामग्री कांत्मिदने नियता । दिमाशं प्रत्यनपेक्षा सर्व जन्मिनः कृतका भावा इति स्वभावतः "-तश्वसं० २०श्लो०३५३ । १२ विख्योप-भा०, ब०, २०। "सर्वस्य सर्वरूपतथा व्यपदेशप्रहात"-साहिं।
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સવ
म्यायविनिश्चयविचरणे
( ११११९
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प्रसङ्गात् । नायं दोषः ; भाबस्यैव तद्धेतुवया पत्वेन व्यपदेशोपपशेने सर्वस्य सर्वरूपतया विपर्ययादिति चेत्; न; erratस्यैव भावस्य तद्धेतुत्वापत्तेः, नाशात् पूर्वं नश्वरस्यानुपपतेः । सतो नश्वरत्वेनार्थक्रियाकारित्वस्य व्यापिव्यवस्थापनं परस्यापरिज्ञानविजृम्भितमेव । अन्यतो नवरस्यैव तस्य तद्धेतुत्वमिति चेत् न नाशस्यापि पञ्चाद्भावि तत्रापि सोऽपि यदि ५ भाषा' इत्यादेरनुबन्धात् । तन्नोऽपि नाशान्तर नश्वरस्यैव भावस्य हेतुत्व परिकल्पनायापरिनिष्ठापते: । 'तन्नायं भिन्न एव भावात् । अभिन्न एवास्त्विति चेत्; न; तस्थापि तद्भवरूपत्वप्रसङ्गात कादिस्यापि भावान्न तपत्वापत्तिरिति चेमू; कथमेवमवस्थितस्य कथचिदन्यथा भa re नाशो न भवेतत्रैव लोकस्यापि नाशव्यवहारप्रतिपत े । तत्र विरुद्ध हेतुः निरम्यविनाशसायनाय प्रयुक्तेन सद्विरुद्धस्य सान्वयस्यैव विनाशस्य तेन साधनात् । १० : सर्व सदुत्यादादित्रयात्मकमेत्र नोत्पादाद्यन्यतमैकान्तात्मकं तदप्रतिपत्त ेः । घतवाद
eateriesuratsaree' 'सदसतोऽगतेः । इति
'सत्' इति धर्मिणो निर्देश: प्रसिद्धत्वाम, उत्पादव्ययधोग्ययुक्तम् इति साध्य कशास्त्रम् “सिद्ध "साध्यम्" (न्यायवि० ० १७२] इत्यभिधानात् । हेतुत्वमत्र सत एव द्रष्टव्यम् । धर्मित्वं प्रत्युपक्षीणस्य कथं तस्य हेतुत्वमिति चेत ; न; साध्यं १५ प्रत्यधिकरणभावेन तस्य तत्पश्येऽपि अन्यथानुपपन्नस्वेनानुरभ्यात, तस्य धर्मिभाव प्रत्यनुपयोगात् ।
प्रतिज्ञार्थकदेशस्यसिद्धस्य कथमन्यथानुपपत्वमपि साध्यवदिति चेत् ? न साध्यस्यापि तदेकदेशस्वेनासिद्धत्वम् अपि तु स्वरूपेणाप्रतिपत्तेः । न चैवं सोऽप्रतिपत्तिः धर्मिश्वस्याप्यभावप्रसङ्गात् । तदयमंत्र प्रयोगः - यत्किञ्चित् सम तर सर्वमुत्पादव्ययप्रययुक्तम् २० अन्यथा सत्त्वानुपपतेः ।
असिद्धिरन्यथानुपपत्तेः साध्यस्यासम्भवात् 1 न हि असम्भवत्साध्यापेक्ष क्वचिदन्यथानुपपन्नत्वमुपपत्तिमत्ता मुद्वहति । arrereas forक्ष्मसूचीमुखनिदभीतत्वात् । तथा हि यदि 'भावस्य स्वतो न सत्यम्; उत्पादादियोगेऽपि न स्यात् व्योमकुसुमत् । उत्पादादिना वासवान योग:, योगेऽपि न सरवम्; कूर्मरोमयोगेणापि तत्प्रसङ्गात | सत्रोत्पाद २५ दिरिति चेत् यदि स्वतः माशेऽपि तथैव समिति किं तद्यो ? अपत्यादादियोगादिति लून उदुत्पादादेरप्यपरोत्पादादियोगेन सत्यपरिकल्पनायाम् अपरिनिष्ठापत्तेः । तन योगो नाम साध्यं सम्भवति तत्कथं तद्मन्यथानुपपन्नत्वं सत्वस्येति चेत्; न; उत्पादादेस्तो कान्त एवं दोषोपाठात् नाभेदभावे 'तोत्पादाचारमकस्यैव "सत्स्यरूपल्या निर्णयाम् ।
१ गावातुतया २ नाशः । ३ शस्यारिटि० पृ० १४९०२१५ म् अक० दि० पृ० ११२० ३२ ६ सावलं प्रत्य० ० १०७ अन्धानुयशलस्य ८ प्रतिशार्थंकदेवात्येन । ९ यदि स्वभाव- ० ६० १० १० ताका ११ - अ० ० ० ॥
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१९१९
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताका सप्तः किमिदं सत्यम् ! उत्पादाथारमकत्वमेव नापरम् , इति । "उत्पादव्ययधौव्ययुक्त' सद" [२० सू० ५।३०] इति युक्तशष्यस्य थाभेदयाचिन मोपावानात् ।
च, कनिदानीमक्रियासामर्थ्यस्यापि सहक्षणस्वं यत्त इदं सूक्तं स्यात्___ "अर्थक्रियासमथं यत्तदत्र परमार्थसद ।" प्र० ० २१३] इति । स्वयमसतस्तस्यामध्यन सम्बन्धेऽपि ध्योमकुसुमवासस्वानुपपत्तेः । असता च तेन तद्वदेव सम्बन्धा- ५ सम्भवात् । स्वतस्तस्य सत्त्वे भावस्यापि तत एव सदुपपत्तेः सत्सम्बन्धवैफल्याम् । अपरसत्सामर्यसम्बन्धासत्त्वे चानवस्थादोषत्माविशेषात् । एक्म् "उपलम्भः सत्ता" [अ०वार्तिकाल. २२५४] इत्यादावपि वक्तव्यम् । 'भाषाइभिन्नमेव तत्सामथ्यादिकं देवध भावस्य सस्वं नापरम् | न व संस्थापरं तत्सामादिरूपं सत्वमपेक्षणीय स्वत पर वापत्वात्' इति समाधानं तु उत्पादाधात्मन्यपि सत्त्वेन वैमुख्यमुद्रप्ति ।
भनु उत्पादादेपि उत्पादादिस्वभावत्वात् अस्तु उत्पादस्योरपादात्मकरवं स्थक्षो ध्ययनौ. ध्यात्मकावं तु कथमिति चेत् ? न; व्ययश्रीव्याभ्यामपि तस्यं कथञ्चिदभेदात् स्वर एव तदात्मकत्वस्याप्युपपत्तेः । भावादेव उत्पादादेरभेदो न परस्परत इति चेन् न, भाषाभेदस्यैष परस्परसोऽप्यभेदत्वात । "व्यावसाश्च परस्परम्" [सिद्धिवि. परि० ३] इत्ययकान्तिकब्यावृत्तेरनभिधानात् । एवं व्ययस्योत्पादोव्यात्मकत्वं धौव्यस्य च उत्पादश्ययात्मकस्य १५ स्वतः प्रतियसव्यम् । तन्न तस्यासम्भवः साम्यस्य विचारवैमुख्याभावादिस्युपपन्नमेव वदपेझमन्यथानुपपन्नत्वं साधनस्य । - व्यभिचारादनुपपनमेष तस्यान्यथानुफ्पन्नत्वम्, अभिवारश्नोत्पादादीनामन्यतमैकामनि अन्यतमद्वयात्मनि वा भावेऽपि भावादिति चेत् ; न; असतोगतेः । सदुत्पादादिनयं ध्याप्यपदेन व्यापकस्याभिधानान् । न विद्यदे सद्यस्मिता असत् , तदन्यत्तसैकात्मकम्', २० श्रन्यतमद्वयात्मकं वा वस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणेन अगतः अप्रतिपत्तेः।
विनेतराभ्यो नोत्पादोन व्ययो वाप्यवेदनात् । प्रमाणेन विरोधाचन पोत्पादव्ययौ कचित् ।।१०६॥ विरुद्धं हि निरंशार्थस्योत्पाधिगमद्वयम् । सत्सशिरचे समाधानं पुरस्तादभिधास्यते ॥१०६६॥ त्पावधीन्यरूपश्च भावो हि ध्ययवर्जितः । न प्रतीतिविदग्धस्त्रीपरिष्वमसुनावहः ॥१६॥ व्ययवानेव भिनेन व्ययेन स मतो यदि । सदा तेनैव सर्वोऽपि भावो व्यतीह किम वः ॥१०६८॥
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भकियासामबैन । २ स्थल एव । ३वं सस्पष आo,०, ५०॥ ४ पवाऽपि । ५-फम् तदन्य -मा., ०५०। ६ नाप्य-भा०, २०,०।
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१०
કર
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न्यायविनिश्वयविवरणे
fararस्य नियतस्यैव वेदनात् ।
इति व्ययकालेऽपि भावस्य स्यादवस्थिति: ॥ १०६९। raatafat an वैशिष्ट्येन वेदनम् ।
तथा च न विषादः स्वादिष्टनाशेऽपि देहिनाम् ॥१०७०।। अंस्थितस्यापि वैशिष्ट्ा बुद्ध्युपस्थापितस्य चेत् ।
युद्ध परापमं तस्य सतत्कथमस्थिति ॥ १ ॥ १०७१ ॥ असउश्चेत्कथं तस्य व्ययवैशिष्ट्यवेदनम् ? । दृष्टं हि नीलवैशिष्ट्यंसद एवोत्पतात्मनः ॥ १०७२॥ आरोपितेन रूपेण वैशिष्ट्यं तस्य चेत्सतः । व्ययस्तस्यापि रूपस्य भोवस्यैव भवेत्सदा ॥१०७३॥ ततस्तस्थापि वैशिष्ट्यमतः कथमुच्यताम् ? । आरोपितेन रूपेण तस्याप्यस्तित्वकल्पने ॥ १०७४॥ पूर्वदोषानिवृत्तिः स्यादनस्यानवाहिनी ।. विशेषणत्वमप्यस्य नाशक्तस्योपपद्यते ॥ १०७५॥
निशिदोरेव हि नीलादेर्विशेषणत्वं दृष्टम् । न च व्ययस्य तद्धेतुत्वं शक्तिवैकल्यात् सक्किम भाव एव स्यात् तस्य तलक्षणत्वात् द्रव्यादिवत् । द्रव्यादेरपि न शक्तिमस्वांत् भावत्वम् अपि तु भावेन सथावरज्यपदेशेन सम्बन्धात् न च व्ययस्य तत्सम्बन्धो येतो भावस्वमिति चेत् कथं तहि भावस्य भावत्यम् ? तत्सम्बन्धाभावादनवस्थापतेः । स्वत पव भावप्रत्ययकरणादिति चेत् द्रव्यत्वादेस्तर्हि धाम् ? न हि वैतस्तत्प्रत्ययः द्रव्यादिप्रत्ययस्यैव २० भावात् इत्यभावत्वमेव तस्य स्यात् । तदपि नास्ति अभावप्रत्ययकरणाभावादिति चेते तर्हि भावाभावस्वभावविनिर्मुक्तं तत्त्वान्तरं प्राप्नुयात् । तथानुपपन्नम् " सतच सद्भावोऽसतवासद्धावस्तत्त्वम्" [ न्यायमा० १११३१] इसि वस्वनियमप्रतिपादन माध्यव्याघातापतेः । नायं प्रसङ्गः स्वप्रत्ययोपजननसमर्थयथा द्रव्यत्वादावपि भावत्वस्यैवोपपत्तेरिति चेत् ; -अनुकूलमाचरसि; शक्तिमस्त्रस्यैव भावलक्षणत्व प्रतिष्ठानात् । तथा च व्ययोऽपि कथम २५ भावः स्वप्रत्ययश्रविशेषात् ? इत्यस्थ एवासौ सर्वथा 'वक्तव्य इति नासो कस्यचिद्विशेषणम्, स्वानुरकप्रत्ययमकुर्वतस्तस्यानुपपत्त। सप्तरे न विशिष्टप्रस्थयन्नियम्मासनियमः । सत्कार्यव्ययनियमादिति चेत् किं पुनरुयादपि व्ययः १ तथा चेत्; न; तस्यापि भावादर्थान्तरत्वे शयप्रसङ्गस्यानिवृत्तेः, अनवस्थापत्ते । श्रनर्थान्तरत्वे तु तद्वत्प्रथमस्यापि
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१ अपि तस्यापि आ०, ५०, ५०२ भावस्येव का० भ० B यकार०, ५०, ५० ५ इव्यत्वादेः भावप्रत्ययः । ८ मिति ०९ विशेषणत्वानुरः ।
भावस्येह प०। ३ नाशखस्यो आ०, ब००प० । अभावत्वमपि । ७ चेलाई मा०, ब०, प०१
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प्रपा प्रत्यक्षप्रस्तावा
४४३ वस्वोपपत्ते सिद्धमुत्पादधौव्यात्मनो भावस्य व्ययात्मकत्वमपि, अन्यथा वदप्रतीतेः । एवम् अल्पावानेव धौव्यव्ययास्मा भायो नान्यथा प्रतीत्यभावात्।
___ भक्तु व्यतिरिक्तनोत्पादन देहत्त्वं नात्मभूमि वेत; : पुनला स्या? प्रोगसतः ससासम्बन्धः, कारणसम्बन्धो वेति चेन् ; म ; तत्र कारणवैफल्यापः, तत्सम्बन्धस्थ नित्यत्वेन कारणनिरपेक्षत्वा
"सत्ता स्वकारणाश्लेषकारणात्कारणं किल ।
सा सहा स च सम्बन्धी नित्ये कार्यपथेह किम् ? ॥" { ] इति खन्न तत्सम्बन्ध उत्पादः।
प्रागसत आत्मलाभ इति चेत् । न वहि तस्य व्यतिरेक इति आत्मभूतेनैवोत्पादेमीत्पादवान प्रौव्यरुश्यात्मा भाषः, अन्यथा तदवगमाभावात् । उत्पादध्ययस्वभावमेव प १० प्रौव्यम् , अन्यथा कस्याप्यपरिहानात् । ध्रुवमेवात्मादि परिवायत इति चेत् ; कुतस्तत्परिज्ञानम् । स्वशक्तित इति चेत् ; न; सर्पदा सर्वेणापि तत्प्रसादविवादापत्त:। सामप्रीतस्सत्परिज्ञानम्, न च सा सर्वदा सर्वस्यापीति चेत् । तदशायां यदि सस्य प्राच्य वदविषयत्वं न परिक्षीयेत कथं तद्विषयत्वं' विरोधात् १ परिक्षीयते येत; कथन व्ययः तस्य तस्मादर्थान्तरत्वात् , न हि अर्थान्तरस्य परिक्षये तत्परिक्ष्यः, अतिप्रसङ्गात्। कथं तादृशेन तेने सद्विषय इति व्यफ. १५ देशः अतिप्रसङ्गस्याविशेषात् ? सम्पन्धाकुतश्चिदिति चेस् ; ; ततोऽप्यान्सर तदनुपपत। तत्राप्यपरसम्बन्धकल्पनायाम् अनषस्थापते;"। तत्य तस्मादनान्तरत्वे तु सिद्धं तदपरिभये पश्चादप्यपरिक्षानम् । न परित्यक्ततदविषयत्वसम्बन्धस्वमा सद्विषयभावमनुभवति । अनुभवता परित्यक्तास्वभावमेवेति कथा ध्ययः ?
कथं पानोत्पादः १ पूर्वस्वभावपरित्यागत्योत्तरस्वभाकोपादानात्मन एकोपपत्त । २० अनुत्तरोपादानस्य वारस्थानायोगेन निःशेषपरिक्षये तत्परिज्ञानस्योत्पन्नस्यापि निर्षिषयत्वापत।। तन्नैकशो द्विो बा सम्भवन्त्युत्पादादयः, यतरसत्रापि भावाद्व्यभिचारी हेतुर्भवेत् ।
ननु धौव्यं नाम पूर्वस्य दधिपर्यायस्यो तरतत्पर्यायेणेकत्वम् , सच तेनैव कुतो न करभपर्यायेणापि देशादिभेदस्य प्रकृतेऽप्यविशेषादिसि पेस् ? अाइ
तादात्म्यनियमो हेतुफलसन्तानवद्भवेत् ॥११९॥ इति । २५ तादात्म्यम् पकरवं सत्य नियमो विपर्यायस्य तत्पर्यायेणैव न करभपर्यायेणेत्यक
तद्वन्नाम -आग, ०, ५०१ कय पुन-मार, १०, प.1 ३ "अप किमिदं कार्यत्वं नानक्तिस्वकारणसत्तासम्बन्धः"-Kare ध्यो० १० १२९६ ४ -बमस्तर्हि इति आ०, २०, ५०३ ५-पादनात् धौ -ला०,०,१०६ प्राप्यं यत्तदि-मा०, २०,५०। ७ परिमानविषयत्वम् । तदविषयत्वस्य आत्मादेः । क्षत्र 'नध्ययः' इत्यनुवर्तनीयम् । ९ अर्थान्तरभूतेन । 1. सदविषयत्वपरिक्षण ।। -पसेश्च तस्य -10,00, ५. २ तविषयत्वस्य । तविषयत्वापरिक्ष १४-पत्वं तदि-आर,०, २०१५ संचादिति ।
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न्यायविनिश्चयविवरो
धारणं भवेदिति बद्धा विधानस्तदगाव यच्छिनति, सध्यवरछेदे तद्विधानानुपपते। अत्र हेतुः 'असतो गतः' इति असतः करमपर्यायेष्वविद्यमानस्य तादात्म्यस्य दनो वधिपर्यायवेव गते प्रतिपसः । तत्र दृश्यन्तः हेतुफलसन्तानवत् । हेतपश्च फलानि च पूर्वाप पाणि, मसान:, महल ! A ने भेरेऽपि परस्परमेवैका सन्तानो ५ न करभरण : समावृत्तस्य तस्य तवैव गतेः, अन्यथा "चोदितो दधि खाद" [प्रमा ३।१८२] इत्यादेस्तत्रापि प्रसङ्गात् । तथा तत एव तेषां परस्परमेव तादात्यं न तरक्षण। __अथवा हेतुफले हेतुस्वफलत्वे भावप्रधानत्वान् निर्देशस्य । यदि का, न वियदे हेसुरस्य सा अहेतुः प्रध्वंसा फलं विधिः अन्यस्य फलस्यानुपपत्ते तयोः सन्तन्यते तादात्म्येन विस्तीर्यते
इति हेतुफलसन्तानो अहेतुफलसन्तानो वा मध्यभणः तस्यैव । न हि तस्य हेतुत्वमेव, १० स्वयमफलस्य सामान्यादिषदवस्तुत्वापस । पूर्वपूर्वापेक्षयाऽपि तस्य तत्त्वेन तत्त्पूर्वकालभाषित्वेन
विरापशमदोषाच । मापि फलत्यमेव; स्वयमहतोयोमकुसुमसमत्वोपनिपातात् । उत्तरोत्तरापेक्षयापि तस्य सवेन, वत्तदुत्तरकालभाषित्वेनातिचिरभावितप्रसा। तथा न तस्य विधिरेव स्वभाषः, तत्ममवत् क्षमान्तरेऽपि स्वभावत्वेनाक्षणिकस्मप्रसङ्गात् । नापि नाश एवं; क्षणा
न्तरवत् तत्क्षणेऽपि तेदात्मत्वेन शून्यवादोपनिपातात् । ततः पूर्व प्रति फलत्वमुत्तरं प्रति हेतुत्वं १५ तरक्षण प्रति विधित्वं क्षणान्तरं प्रति नाशत्वमिति परस्पर भिनायेव हेतुफलभाषौ विधिविना
शौच । न च सौ च सौ च तादात्म्येन व्याप्नुवति सस्मिन्नतिप्रसनः; वस्तुसार्यापत्त: । ततो यथा नियतपतीतिसामान नियतमेव हेतुफलतादात्म्यं विधिविनाशतादात्म्यच तरक्षणस्य तथा दृष्या पर्यायतादालयमपीति न कश्चिदुपालम्भः ।
मा भूतत्क्षणस्यापि तत्तादाम्यं हेतुफलभावस्य विधिविनाशभावस्य च क्वचिदनिष्टः। २० असं हि तत्त्वं तस्य निरखधप्रमाणविषयत्वात् , न हेसुफलभाषादि विपर्ययात् । कल्पिवस्य
तु न दृष्टान्तरवम् , साध्यस्यापि कल्पितस्यैव प्रसिद्धिप्रसङ्गादिति चेत् । न ; अद्वैसस्यापि निर्भागपरमाणुरूपस्याप्रमाणस्वास् ! नानकसभावत्वे सु नाद्वैतं तदर्थस्थापि ताशस्थाऽनिषेधोपपादनात् । · भवतु तदुभयमपि क्षणिकमेवेति चेत् ; वाह
मिनमाहिः सर्व युगपत्कमभाविनः।
प्रत्यक्षं न तु साकारं गमयुक्तंमयुक्तिमत् ॥१२०॥ इति ।
सर्व मिरवशेषम, अन्तवेतन मिन्नं बहिश्चाचेतनं भिन्नम् अनेकस्वभावं युगपत् आममेण 'यात्' इति शेषः । तत्रोत्तरम् क्रमभावि क्रमेण भवनशीलम् अन्तर्थहिः ।
१-देश्वि आ, २०, ५०।२ "इतुत्वेन"-दिविरपिनहदोशत् । ४ फलत्वेन । ५ स्थात्मा ,प- ६ व्यामोति त-मा०,40,1010“संविदर्धद्वयम्-सा.टि14-समयुकवत. मा०,००।
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१।१२१)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताचा सर्व भिन्नमिति सम्बन्धः । कुत पसन् ? प्रत्यक्ष प्रत्यक्षवेद्यं यत इति । निरूपितं चैतत् ।
मनु यदि प्रत्यक्षमक्रमं न संनतपरक्रमप्रासपात्तः । सनम वेत् न ; सरनामेणाप्य. परिझातेन तनुपपत्तेः, तत्परिज्ञानस्याप्यपरतरक्रमेण परिकल्पनायामनवस्थापतेरिति चेत् । अग्रोसरम 'न तु इत्यादि । प्रत्यक्षमित्यत्रापि सम्बन्धनीयम् । प्रत्यक्ष प्रत्याप्रमाणं साकारं स्वपरनिर्णयात्मकं न सु नैव अयुक्तिमत् अपि तु युक्तिमदेव । कीदृशं तत् । अयुक्तिमन्न भवति ? क्रमयुक्तं क्रमेण अपरापरशैक्तिपर्यायरूपेण युक्तमुपपन्नम् । प्रत्यक्षक्रमस्या परततक्रमेण परिज्ञानानभ्युपगमात् । न च तावता तस्यापरिज्ञानमेव प्रत्यक्षपरिझानस्यैव तत्क्रमपरिहानत्वात् , प्रत्यक्षतरकमयोः कश्चिदेकत्वात् । अवश्यं चैवमभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा युगपद्भावितदपरापरस्यभावपरिक्षानस्थाप्येत्रमयक्तिमत्त्वापत्तेः । सतो युक्त युगपदिव क्रमेणाप्यनेकस्यभाषं सर्वम् , प्रत्यक्षतस्तथैव प्रतिपत्तः ।
एतदेव लोकप्रसिद्धेनोदाहरणेन दर्शयन्ना
प्रत्यक्षप्रतिसंवेधः कुण्डलादिषु सर्पयत् । इति ।
प्रत्यक्ष विशदं व्यवसायात्मकं ज्ञानं तेन प्रतिपुरुष सम्यगबाधितत्वेन यो ज्ञातव्यो 'विशेषः' इति वक्ष्यमाणमिहाकव्य सम्बधीयम् । विशेषश्च द्रव्यपर्यायात्मा भावा, तस्यैकान्त ठयतिभिन्नद्रव्यपर्यायाभ्यां भिमानतया विशेषाभिधानोपपत्तेः। अशेदाहरणम्- १५ कुण्डलमादिर्वेषां प्रसारणोस्फमविकणादावस्थाभेदानां तेषु सर्प इव तद्वत् ।
सर्पस्तावदनुस्यूतः कुण्डलायमनादिषु । प्रत्यक्षेणैव संयेयो विवादस्ता ते कथम् ! ॥१०७६॥ प्रत्यक्षेऽपि विषादवेदविवादः च कल्प्यताम् । कल्पनैवान्ययज्ञानं प्रत्यक्षनेवि चेन्मुपा ।।१०७४il अन्वयज्ञानप्तोऽन्यस्य प्रत्यक्षस्याप्रवेदनात् । अवेदनाभिमानते निश्वयाभावतो यदि ॥१०७८॥ सनिश्चयं वेदध्यक्षं कथं नाम न निश्चयः । अनिश्चयं चेत्सर्वत्र सर्व प्रत्यक्षमुख्यताम् ॥१०७९।। तमोऽनुश्रुतसादिज्ञान प्रत्यक्षमेव तत् । विशदत्वेन नि सात् सुखनीलादिवोश्वत्त् ।१०८११॥ वैशयं च यथा तस्य मुख्यमेय न कल्पितम् । निरूपितं तथा पूर्वमिति नेह निरूप्यते ॥ १०८१ ॥
1 परमर्या-आ०, ३०, प० । २ तुलना-"तमाटुभयानेन ब्रावृत्यभुगमात्मकः । पुष्योऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डमादिषु सर्पवत् ॥"-मो. पृ० १९५ । प्रयागसं० ११२) ३ -4 विध-प्रा०,०, ५०1४.स स-आ०, ब०, ५०
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Malicitiमराम्यानमा
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THANNERATION
म्यायविनिश्चयविवरणे
[२११२२. सतो ध्यादिरूपत्वं वस्तुमोऽध्यक्षतोऽधुना ! पश्यलयनन्तेऽपि काले सत्वं प्रपद्यते ॥१०८२॥ पश्यतोऽपि तथा व्याप्तिं यदि नानुमिष्तिस्तदा । क्षणभानुमानादेरपि देयो जलाक्षलि: १०७३॥ तस्मान्मध्यकदेवान्यकालेऽप्यस्तदात्मकः ।
प्रपक्रूयोऽत एषोसा पूर्व श्लोके 'सदाश्रुतिः ॥१०८४।। सलो द्रध्यपर्यायास्मैव भावः प्रत्यक्ष तथा प्रतिपत्तेः । यत्पुनरत्रोक्तमतेन
"अविनाशोऽनुवृतिश्च व्यावृत्ति श उच्यते । दशादिशा पाया नाशिनः किं तदात्मकाः ।। नष्टाः पर्यायरूपेण नो चेद्रव्यस्वभावतः ।
किमन्यरूपता तेषां न चेन्नाशस्तथा कथम् ॥" हेतु०टी० पृ० १०५] इति ।
तदयुक्कम ; द्रव्यापिनांशे पर्यायनाशस्थानभ्युपगमान , सारेव नश्यत; पर्यायत्वात वनइयत द्रव्यत्वात् । कथमेकस्यैव नाशश्च अनाशश्चेति त ? प्रतीतिरेन प्रष्टज्या यैषमुप
दर्शयति न षयं तदुपाध्यायसया सदुपदर्शितमनुमन्यमानरः | प्रतीतिरेव पृष्ठपत इति चेत् । १५ कुतो वस्तुव्यवस्था
प्रतीविरेन वस्तूनां व्यवस्थाया निधनम् । सन चेन्नारित विश्वासो विनष्टा तव्यवस्थितिः ॥१०८५॥ निर्विकल्पप्रवीतेस्तु सब्यसोपकल्पनम् ।
कुर्वन्तः कामयन्तेऽमी यस्ययाऽपि सुसोद्भवम् ॥१०८६॥
उतः प्रतीतिबछावस्थापितत्यादुपपन्नमेकस्यैव माशश्नानाशश्चेषि तथा जोतिश्चा. जासिइति । दवर -
"एकं जातमजातं च नष्टानष्ट प्रसज्यते ।
द्रव्यपर्याययोरेकस्वभावोपगमे सति ।"[हेतु० टी० ५० १०५] इस्मयमामुपालम्भ श्व, स्याद्वादिनामभिमतत्वात् । यद्येवं द्रव्यपर्याययोः कयं स्वालक्षण्यभेदो यतस्तमानात्यप्रकल्पमिति चोह ? विनाशाविनादारूपया भेदस्यापोद्धरणात सवपि कस्पायैव नयमामधेयया न प्रत्यक्षादिप्रतीत्या, सत्र जात्यन्तरस्यैव भेदाभेदैकान्तविलक्षणस्य प्रतिभासनादिति निवेदितमसकन् ।
ततो यदुक्तम्-"ततो लक्षपभेदेन सयोनैव विभिन्नता।" हेतु टी० पृ० १०५] इति; तत्तथैव प्रत्यक्षादिप्रतीत्यपेक्षया । कल्पनापेक्षया तु न तथा, तत्र तलक्षणभेदस्य प्रतीते: ।
१ सदाशयः। २ "उत्पत्तिश्चानुत्पतिश्च"-तादि।
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१११२१
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्ताव
पुनव्यपययोः सदात्मकमेकं वस्तु द्वयस्योपपत्तेः, अभेदेऽप्यन्यतरस्यैव सम्भवात् । कथदभेदे तु ताभ्यामभेदरूपस्याभे तद्वद्वेद एव स्यात् । भेरे सु परस्परविविताः श्रयः स्वभावा नैकस्तदात्मार्थः तेषामध्यभेदरूपस्यापरस्य कल्पनायामनन्तस्वभावत्वमेकस्यापतितः (तम्) परापरतरस्वभावपरिकल्पनस्यापरिनिष्ठानात् । न च तदभ्युपगमो वस्तुपलम्भविज्ञाने तद्रवभासनादिति चेत्; न; एकान्ततस्ताभेदयोः प्रत्यक्षादात्रप्रतिभासनाम्। न कथञ्चिदभेदेऽपि ताभ्यामन्य- ५ सदभेर्दरूपम् यदयं प्रसङ्गः किन्तु स्वरूपमेव द्रव्यस्य पर्यायेण पर्यायस्य द्रव्येणाभेदः, सथैष प्रत्यक्षादितः प्रतिपत्तेः । श्रवश्यं चैतदेवमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा विकल्पस्यापि स्वषिष यापेक्षया निर्विकल्पेतरात्मनो ज्ञानस्याभावप्रसङ्गात् । शक्यं हि वैत्रापि वकुम् तदात्मनोर्भेदे ज्ञानद्वयम् अभेदेऽन्यतरत्वम् कथञ्चिदभेदे प्राध्यप्रसन्न इति । ततस्तत्राप्ययमेव परिहारः, स्वरूपमेव तस्य वयोश्च तेनाभेदः तचैव निरवयस्ववेदनाध्यक्षोऽविगमादिति । ततः १० प्रमावृत्तमजानतैवेदमपि तेनाभिहितम्
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"एकान्तेन विभिन्ने च ते स्थातां वस्तुनी स च । aat: केन विभिश्राभ्यामभिश्रस्य विभेदतः ॥ तेषामभेदर्थमभित्र यदि कल्प्यते । अम्मस्यभावस्तस्यापि तदभेदप्रसिद्धये ॥ कल्पनीयः स्वभावोऽन्यः तथा स्यादनवस्थितिः । वान्तस्वभावमर्थसामर्थ्यभाविनि ।
"ज्ञानेऽवभासते तेन तथैवोपगमो भवेत् ।" [हेतु० टी० पृ० १०५ ] इति । थेदमपि
"ऐकान्तिकत्वभेदः स्यादभिनाद् भित्रयोर्यदि ।
भेद एवं विशीर्येत तदेकाव्यतिरेकतः ॥" [हेतु०टी० पृ० १०५ ] इति । द्रव्यपर्यायाभ्याम् अभ्यस्याभेदरूपस्याभावे तस्मात्तयोर्विकल्प सदाकारयोरियाभेद परि. शङ्कनत्यैवानुपपत्तेः । यदप्युक्तम्
"अभेदस्यापरित्यागे भेदः स्यात्कल्पनाकृतः । " तस्याक्तिभावे वा स्यादभेदे मृषार्थता ॥ अन्योन्याभावरूपाणामपराभावहेतुकः ।
एकभावो यतस्तस्मान्नैकस्य स्याद् द्विरूपता ||" [ हेतु०टी०४० १०६] इति; सददि सर्वादेरिव विस्पज्ञानस्यापि रूप्यं प्रतिविदध्यात् अविशेषत् । एकरूपमेव
५ विकल्पस्य । स्वातामिति वार्थः " झामेन स ०
वस्नी
1- फाः - भ०, घ० प०२ मेवं यक्षा०, ५०, १० । ३ सय विषयथेति द्वन्द्वः विकापेऽपि । निर्विकल्येतराभ्याम् । ७ अर्चन “थः पूर्वः स्वभावः यव कार्यमेवानुमितः ते ००० ० १०५ ९ "वयोरेको न भिक्षायाम् इति वा पाठ-० दि० । १० ० ० ११ तस्थापि तदभावे आ०, ब०, प० । भेदस्व ।
१५
२०
२५
!
1
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४५८
पायविनिमयविवर सहारम् धनसामा कारस्य सत्र कल्पितत्वादिति चेत् ; में ; स्वसस्तकरूपमस्य प्रत्यक्षवदसम्भवात् , अन्यतश्वानवस्थापतेः।
कुतो वा परस्पराभावरूपत्वं भेदाभेदयो ? प्रत्यक्षादिसाणादिति चेन् ; न ; सत्र सम्मूसितदुभयस्वभावस्यैव सादेर्भावस्य प्रतिभासनात् । मयादिति चेत् ; न ; स्वापि ५ सम्यगभिसन्धिलये प्रतिभासमानस्याप्येफस्य अपराभावत्वेनाप्रतिभासनातू , अपरन विधिवत्. प्रतिषेधस्याप्यनभिसन्धेः । एकाधारमाभिसन्धिस्तु मिथ्यैव प्रमाणव्यापारप्रतिद्वन्द्रिस्वादिति म सङ्कलेनान्योन्याऽभाषरूपस्वं द्रव्यपर्याययो, यतो द्रन्यस्यैव पर्यायरूपतया पर्यायस्यैव च अन्यरूपतया एकस्यैव रूप्यं न भवेन् । यदप्युक्तम्
"अन्योन्याभावरूपाश्च पर्यायाः स्युन भेदिनः ।
तद्विनाशेऽ] विनाशि स्याद्रव्यं वा कथमन्यथा ॥[हेतु दो पृ० १०६]इति;
तत्रापि पर्यायाणामभेदित्वं नाशित्वच द्रव्यस्य यदि कश्चित् ; अनुमतमेव, द्रव्यमेव नश्यति पर्यायनशात , पर्याय एव तिष्ठन्ति द्रव्याविनाशादिति प्रतीतिबलेनाभ्यनुज्ञानात् । एकान्तेन तु सत्कल्पनमनुपपनं तद्वलेन प्रनिक्षेपात् ; अन्यथा विकल्पज्ञानमपि तदाकारबदेकान्तेन
व्यावृत्तमेव नानुवृत्तमिति प्रत्याकार तद्भेदानोभयात्मकमेकं उद्धयेत् । तथा तदाकारयोरप्येका. १५ सेनाभेद एवेति निर्विकल्पकमेव तत् न कश्चिदपि विकल्प इति सन्निबन्धनाय बाआयत्र्यवहारस्या
भावात कथमनेकान्तदोपोद्घोषणम् । विकल्पकमेव या तदिति कथं तत्स्वधेदनस्य प्रत्यक्षस्वं कल्पनापोढस्यैष दुपपत्तेः नाप्यव्यतिरिक्तस्थानुमानस्वमिति अन्यदेव तत्प्रमाणं प्रमाणद्वयनियमव्यापाताय कल्प्येत । म पाऽस्वसंधि देवमेव तत् "सर्वचित्तचैहानाम् न्यायधि० पृ० १९]
इत्यादेविरोधान् । ततः कश्चिदेव तज्ज्ञानस्य व्यावृत्तत्वमभिन्नत्वव्य तदाकारयोरिति प्रतीति२० वशात् प्रतिपत्तव्यम् । तथा द्रव्यस्य नाशिवमभिन्नत्वन्द पर्यायाणामिति न कश्चिव्यापारः।
ततो थवा नेदं विकरूपे दूषणम्-'तद्धर्मयोराकायोः तवं क्षेत्र या तयोरनुप्रवेशे ऐकान्तिको भेदाभेदो, अननुरवशे धर्मधर्मिणोः भेद एष नापर। तथाहि येनारमना सामं सदाकाराविति प यदि तेन भेदः, सदाभेद एव नैकस्य दैरुप्यम् । न च ज्ञानतदाकाराभ्यामपरस्वभावो यनिमित्त.
स्स्योरभेदः । सतोऽपि "तस्मादि शानतदाकारयोरभेदः सदा " एव नताविति तयोः स्वमा. ३ बहानिः तस्मात्यो दोऽप्यस्तीति चेत् । तत्रापि येशत्मना झानं तदाकारौ तदन्यश्चेति यदि
तेन भेदः; सदा भेद एव तेषामप्यभेदसिवये "परस्वभावकल्पनायो पूर्वप्रसाऽनिवृत्तिः, धमित्वका तस्यैव स्थासदायत्तत्वात् मानतदाकारयोः । न चापरिनिधितापरापरस्त्रभावं तज्ज्ञानं प्रतीयते इति । कस्मान् ? एकान्ततोऽनुप्रवेशस्य, झानतदाकाव्यतिरिक्तस्य तदभेदरूपस्य यानभ्युपगमात् । न चैवं भेद एक तयोः । स्वत एव कथग्वित्परस्पराभिन्नसया मिधिपतील्युपारूढत्वात् । तथा
१ विकालयवनम् । २-मायभेदादिति आ०प०प०1३ कमेतन कश्चिद्विक-आ.ब.प.1 प्रत्यक्षस्योपपतः । ५ तदा आ०,०,१० । यदा भा.,40,401 ७ सम्मीद्विषयमम् । ८ विकल्पस्य ९ विकल्ये । .अपरखभावान्। ११ अभेद एक। १२ अपरखभावात्। १३-द्वपर-मा०,००
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२११२१)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः द्रव्यपर्यायाम केऽपि वस्तुनि । अस इदमपि प्रतीतिवमानभिज्ञतथैव तेनोकम
"ऐकान्तिकायनन्यवाझेदाभेदी तयोर्भुवम् । अन्योन्यं वा तयाँ दो नियतो धर्मधर्मिणोः ।। तयोरपि भवेद् भेदो यदि येनात्मना तयोः । पर्यायो द्रव्यमित्येतद्यादि भेदस्तदात्मना । भेद एव तथा च स्यान्न चैत्रस्य विरूपता ! द्रव्यपर्यायरूपाभ्यां न चान्योऽस्तीह कश्चन || स्वभायो यन्निमित्ता स्यारयोरेकस्वकल्पना । ततस्तयोरभेदे हि स्वात्महानिः प्रसज्यते ।। तस्य भेदोऽपि ताभ्याश्चेद् यदि येनात्मना च ले । धर्मी धर्मस्तदन्यश्च यदि भेदस्तदात्मना ।। भेद एयाथ तत्रापि तेभ्योऽन्यः परिकरुप्यते । सेषामभेदसिद्ध्यर्थ प्रसङ्गः पूर्ववद्भवेत् ॥ न चैवं गम्यते तस्माद्वादोऽयं जालयकल्पितः।" हेतु० टी०४० १०७] इति ।
मन्यिवं प्रागेव प्रतिपादितम् 'एकान्तेन विभिन्ने च' इत्यादिमा । न चातिव्यवधान १५ यदनुस्मरणाय पुनरपि प्रसिपाछत तस्मानिसारशील इचार्य प्रतिमातीति येत : किम इषशब्दो. पादानेन ? साक्षादेव क्षणिकप्राज्ञस्य हरुछीलस्योपपत्तेः। ततो निर्वापत्यादनेकान्तस्य न तशादी जाल्मा, तन्त्र अभूर्स दोष घोषयतोऽर्वस्यैव (र्घटस्यैव) आत्मत्वात् ।।
विकल्पस्योभयरूपत्वं निर्विकल्प-सविकल्पश्यावृत्तिभ्यामेव न बरतुतः पत्कथं तद्वदन्यवापि वास्तवत्वमनेकान्सस्येति चेत् । तस्य स्वरूपमपि अस्वरूपठ्यावृत्तिरेवेति अभाव एव विक. २० ल्पस्य । तया घ अनुमानस्यापि तद्रूपस्याभावात् निष्प्रयोजनत्वं सर्वहेतूनामिवि कि सत्पूर्वपदनाय (सत्प्रतिपावनाय) हेतुविन्दुः तद्विवरणं धार्च (बाचंट) स्थ. १ रातो वस्तुस एपोभवरूपत्वमनुमानविकल्पस्येति कथं तद्वदन्यत्रापि निर्दोषत्वममेकान्सस्य न भवेत् ? एतदेव पूर्वमुक्तम्---
__तादात्म्यनियमो हेतुफलसन्तानकडवेत् [न्यायवि० श्लो- ११९] इति ।
स: अनेकान्तः आत्मा यस्येति तस्य भावः तादाभ्यम् , सस्य नियमः निर्दोषस्वेन २५ अवश्यम्भावः । संच, हेतुफलम् अनुमानचिकल्या, स एव स्वीकारयोः सन्तन्यमानत्वात् सन्तान: तस्येव तद्वदिति । तस्मादमास्य एव अनेकान्तवादः इत्यचं त्याचंट) प्रत्येचमुच्यताम्
अर्चवचटक, तदरमादुपरम दुस्तकंपक्षवलचलनात् । स्यावादाचलविदलमचुचुर्न तवास्ति नययनुः ॥१०८७॥ इति ।।
साकार-आ०,०,
"परस्मोऽसभीषयकारी स्त्"-ता०वि०। २ विकल्परूपस्य । ३ नियमः। प०। ५-दवाल्य आ-, ०१०॥
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भ्यायत्रिनिश्चयविवरण
[ १११२१ तदेवं मूलकारिमानिर्दियोः द्रव्य-पायपदयोः ठगाख्यानं कृत्वा सामान्यविशेषषदओस्तदर्शयसि
समानभावः सामान्य निशेषोऽन्यो व्यपेक्षया ॥१२१॥ इति ।
समानः सदृशः स चासौं भावश्च आत्मलाभ; स एक सामान्यम्, 'नेक ५ सकलव्यक्तिगतम्' इति समानशब्देन, नापि तद्सोऽर्थान्तरम्' इति च भाषपदेन प्रदर्शयति ।
न हि सामान्यं तदाधारसमस्तव्यक्तिगतमेकं सम्भवति; व्यक्त्यन्तरालेऽपि तदुपलम्भप्रसङ्गात् । व्यक्ताव तयुपलम्भो ध्यत्तस्तन्निमित्तत्वात नान्यत्रेचि चेत; न; उपलभ्येस
रस्वभावतया तस्य भेदापसेः। सो व्यापि सामान्यं वथैवोपलभ्यत इति कथनान्तरालेऽपि १० तदुपलब्धि: ? व्यक्तिच्नेव भावादिति चेत् ; तदन्तालेयसतः कथमेकत्वम् १ अनुगतप्रत्ययात् ;
कः प्रत्ययस्यानुगमः ! एकत्वमिति चेत् ; न; प्रतिव्यक्ति 'खण्डो गौः मुण्डो गौः' इति तदरशैवोपलम्भात् । प्रत्ययरधं सामान्यमिति चेत् । तस्याप्येकत्यं तव्यक्तिधु कुतः । तदानुगामिनि भन् : नः नवापि 'कः प्रत्ययस्यानुरामः' इत्यादेशयुत्तेरनवायापत्तेन । तन्नैकं सस्वमन्यदा सामान्यम् ।
नापि भावार्थान्गरम् ; भावस्यासत्यापत्तेः सत्येन सम्बन्धात्रेति चेत् ; म; सम्बन्ध. स्य द्विष्ठत्वात् , असतश्च सदधिकरणत्वानुपपसे। काकदन्तऋन् । प्रारीवाऽसत्यं तत्सम्बन्धात् न तत्समये इति चेत् । ग; किं पुनस्तत्सम्बन्धः फादागिरको यत एवम् ? तथा थेन् ; कुतस्त'स्यापि सरथम ! अन्यस्मात् तत्सम्बन्धादिति चेत् ; सोऽपि कथमसतः व्योमकुसुमधन् ?
सस्यापि प्रागेव सत्सम्बन्धादसत्वं न सत्समय इति चेतन तत्रापि 'कि पुनः इत्यादेदोश२० दपरिनिष्टानाच । अकादाचित्कस्तु नित्य पचति न तदपेशे भावस्य ग्रागसत्यम् । भषतु स्वरूप.
सश्चापेक्षमेवेति चेम् ; सति तस्मिम् किमन्यसत्त्वसम्बन्धेन ? कारणेन तत्सम्बद्ध एवोत्पाद्यत इति चेत् ; भवेदेवं यदि सरवद्वयमुपलभ्येत । न वैवम् ; 'पटोऽस्ति, पटोऽस्ति' इत्यादादेकत्यैव आत्मभूतस्य तस्योपलम्भास्।
____घटोऽस्तीति प्रत्ययः विशेषणापेक्षः, विशिष्टनात्ययस्वासू , दुखीति प्रत्ययषत् , यशापेक्ष्य ३. विशेषणं तद् अर्धान्तरं सस्वम् , तत्कथं तस्याऽप्रतिपत्तिरिति चेत् ? म; स्वरूपसत्त्वस्यैव कल्पनापृथकृतस्य विशेषणत्वोपपत्तेः । इण्डोत्पन्न वस्तु मिन्नमेव विशेषणं दृष्टमिति चेत् ; किं तत्त्वशम् ? एण्ड इति चेत् ; तर्हि 'देवदत्ते दण्डः' इत्येव प्रत्यय: स्यात 'उत्पले नीलम्' इतिवत्, न 'दण्डी' इति । दण्डसम्बन्ध एय; तरयैव मत्वर्थीयेनाभिधानादिति चेत् ; न तस्यापि स्वरूपप्रत्यासत्तेरन्यस्याऽप्रतिपत्तेः, अकारणाच ततो दण्डीत्यत्र तत्प्रत्यासोरिव सद्रव्यमित्यायो
-पोऽन्यब्यारे-म०, २०,२०१२ सम्बयापि। ३ तासम्बन्ध- प्रा०, ००७-यापतेआ०, २०, ५०।
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१।१२१]
प्रधार प्रत्यक्षमस्तायः स्वरूपसत्त्वस्यैव अभिसन्धिपृथकृतस्य विशेषणोपपत: नालोऽर्थान्तरस्य सत्त्वस्य प्रतिपत्तिः ।
अर्थान्सरमेव द्रव्याचेः सत्त्वम् , तस्मिन् भिसमामेऽप्यभिधमानत्वात् , प्रदोपादेः पर्वत. वत् । न चाभिलमानत्यमसिद्धम्: 'सटू द्रव्यम् , सन गुण, सत्कर्म' इति सर्वत्र द्रव्यादौ सल्लिअस्य सत्प्रत्ययस्याविशेषादिति चेन्; यास्तस्याऽविशेप: ? म ठावदेकरयम् प्रतिद्रस्यादि बढ़ेद. स्यैव प्रसिपस: । नापि सादृश्यम् ; सहशासो विषयस्यापि सशस्त्र प्रसिद्ध, तस्य च ५ प्रतिव्यादि भिशमानत्वात् ।
___ चत्पुनः तदभेदे साधमातरम्-"विशेषलिङ्गाभावाच' [वशे० सू० १२११४) इति; तदपि न द्रव्योधभेदज्ञानस्यैव तसिझत्वात् । अभिन्नं हि नच्यादिभ्यः सत्त्वं प्रतीयते 'सद्व्याविकम् इति द्रव्यादिसामानाधिकरण्येन प्रतीतः । समवायात्तथा प्रतीति: नाऽमेनादिति चेन्न; अभेदादेव 'एको भावः' इत्यादी तत्तीर्दर्शनात् । न हि भावाद् अर्थान्तरात्मकमेकत्वं तत्सम- १. अपि सम्भवति संल्यास गुणवेम व्यसमयायित्वात् भावस्य च परसामान्चस्व अद्रव्यत्वात् । सस्मादभेद एव तस्य तस्मादिति तनियन्धनैव तत्सामानाधिकरण्यप्रतीति, तद्वत् सद्रध्यादिक. मित्यपि, अन्यथा हेतुफ्लभायस्याव्यवस्थितिप्रसमा । ततो न्यादियम् तदभेदेन प्रतीयमान भिन्नमेव सत्वम् । यद्येवं कथं तदात्मना सबैकत्वप्रसिज्ञान नस्येति येन् १ सहनयेन तन्मात्रस्यैवापोद्धारादिति त्रूमः । सन्न एकमर्थान्तरञ्च अध्यायः सस्वं सम्भवति । तद्वन् १९ द्रव्यत्यादिकमपि, तस्थापि शिव्यादि दम्यम् , मादिगंणा, उत्क्षेपणादि कर्म' इति प्रथिव्या. दिसमानाधिकरणतया प्रतीतेः, तदनन्तरमावस्य तद्वद्वेदस्य च उपपसिमलायातयात् । ततः सूक्तम्- 'समान भावः सामान्यम्' इति ।
अन्यो विसमानभावः विशेषः, विसःशपरिणामादेव भावेषु व्यावृतप्रत्ययस्योपपत्तेः। निस्यद्रव्येषु अन्त्यविशेषेभ्यो भिन्नेभ्य एत्र सदुपपत्तिरिति चेत् । कथमव्यावृत्तषु १० "सेभ्यरतदुपपत्तिः १ ते तत्र समयायादिति क्षेत" : सकिम् अध्यात्तानि ध्यावर्तयति ? तथा चेत् । न ; व्यावृत्तेस्तद्पत्ये विसदृशपरिणामसिद्धेः । अनपत्ये कथं सया तानि व्यावृत्तानि? व्यावृस्थन्तरकरणादिति चेन; अनवस्थापतः । न व्यावयति व्यावृत्ति प्रत्ययं सूपजनयतीति चेत् ; ; अव्यावृत्तेषु "तत्प्रत्ययस्य प्रान्तत्वप्रसङ्गान् अलोहिते लोहितप्रत्ययवस् । न घायं भ्रान्तः योगिनां भावात् । न हि तेषां भ्रान्ति:, निरुपालक्क्षानवतामेव तत्वोपपतः। तत: तुल्याकतिमुजक्रियेष्वपि परमाणु परस्परासम्मी कश्चिदा. कस्यादिव्यक्तिरेकी परिणतिविशेषो वक्तव्यः सो योगिनामयं प्रत्यय इति सिद्धो विसश.
. सायस्य । २ द्रव्याभेद-भा०, २०, ५०॥ ३ सामानाविचारण्य ५ भायसमाथि । ५ एकत्वस्य । ६ भाचात् सामान्यात् । -राप्यत्र-
ताल्यादेव तद-आ0, 10, 2018 "अन्तेषु झ्या अन्त्याः स्थाश्यविशेषकलादिशेपाः 1 बिनाशारम्भरहतेष नित्यान्चेष्वाकाशकालदेनाममा प्रतिद्रव्यमेफैकशी वर्तमानाः अत्याच्याशिवृदिलयः ॥"-प्रश. मा. पृ० १६८ ॥ १॥ निशेषेभ्यः 1 ११ न कि-श्रा, म०,०।१२ -दुतो ग्या-
आ प । नित्यदश्यरूपरदे । १४व्यासिवश्व १५ सेमिस्वीपपसः ।
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শ্বাশ্ববনিম্নখবৰ
[१।११ परिणामः । ससो पदुकम्--"योगिनां नित्ये तुल्याकृतिगुणक्रियेषु परमाणु मुक्तारमपन:सु नान्यनिमित्तासम्भव एभ्यो निमित्तेभ्यः प्रत्याधार विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययश्यावृत्तिः तेऽन्त्या विशेषाः ।" प्रश. मा० पृ० १६८] इति ; सदयुरूम ; अन्यनिमित्तसम्भवस्य निर्वाधान , व्यावृत्तिप्रत्ययादेव अवगमात् । अन्स्यविशेषनिबन्धनत्ये तनिधित्वानुपपत्तेः । ५ ततो निष्प्रयोजनमेय संस्कस्पन वैशेषिकस्य । तवः खितम्-'समानभावः सामान्य विशेषोऽन्यः' इति ।
___सामान्यविशेषयोः अपेक्षाकृतत्वान्न वस्तुस्वभावत्यम् । न हि यत्तुस्वभावाः 'पुरुषेच्छया भवन्ति, तदनियमेन सेधामायनियमप्रसङ्गादिति घेत ; अत्राह--'ध्यपेक्षया
इति । अपेक्षा पुरुषेच्छा, तदभावो व्यपेक्षा, तया सामान्य विशेषन, तत्तो वस्तुस्वभावी १० च । न हिं सामान्यविशेषस्वभावश्ये भावः पुरुषेच्छामपेक्षते, स्वहेतोरेव तथोत्पत्तेः । तहिंी
कथं स्पण्यापेक्षया 'समानः' इति, कापेक्षया च "विलक्षणः' इति मुण्डे प्रत्यय इति येस् ! एवमपि प्रत्ययस्यैव सत्कृतवन सामान्यविशेषयोः । प्रत्ययोऽपि नीलावित्रत्ययवस् तन्मात्रादेव कस्मादभवन अपंक्षामनुसरतोति चेत् ! सत्यम् ; नानुसरत्येव प्रत्याश्त्ययः प्रत्यभिज्ञानस्य
तु सैय सामग्रीति तदेव तामनुसरति । नहि प्रतियोगिप्रतीक्षामन्तरेज एफरचयत् साश्य१५ वैसदृश्ययोरपि प्रत्यभिज्ञान सम्भवति । तदेवं द्रव्यपर्याययोरिव सामान्यविशेषयोरपि लक्षणोपपतेः उपपन्नं तदात्मकरवमर्थानाम् ।।
___ अनुपपन्नभेव एक य यात्मक' इति विरोधादिति चेत ; कुतो विरोधः १ .एव. मेवेति चेम्: गकिश्चित्तत्वं भवेत स्वेच्छाविरोधस्य सर्वत्र सम्भवात् । प्रसणत इति चेत् ।
क्व तेनासौ प्रतिपन्न: ? घटे घटयोश्च, तत्र एकत्वद्वित्वयोः द्वित्वकस्वविरुद्धयोरेच प्रतिपसेरिति २० चेत् । कीदृशो वो यत्र तत्प्रतिपत्तिः ? सामान्यमान विशेषमा थेति चेत्र ; म किञ्चित्तस्वं
तथाप्रतीत्यभावान् । सामान्य विशेषात्मा चेन ; न तर्हि विरुद्धमेकस्य रूप्यम् विरोषव्यापारि. तेनापि प्रमाणेन तदविरोधस्योपदर्शनान् । सामान्यचिशेषाभ्यामिव पटकुटीभ्यामपि पदस्य ध्यारमकत्व" किन्न भवतीति चेस् ? भवत्येव यदि प्रमाणमुपदर्शयति । न चैवम् , अतोन
भवति । ततो यदुवं मण्डनेन-"नेशानां वित्तिपिद्धार्थानां ज्ञानानां प्रामाण्यमेव युज्यते २५ संसयज्ञानवत" [ब्रह्मासिक पृ० ६३] इति ; सदसम्बदम् । तदर्धविप्रतिषेधस्यैव कुत्तदि
प्रसिद्धः । सधप्रामाण्यात्तसिधौ परस्पसमय:--'सरप्रसिद्ध्या सामाश्यम् ततश्च सत्मसिद्धिः' इति ।
यापरम्-"संशयविषयोऽपि द्वधात्मा स्यात् दयाभासस्वात्तख" असि.
।"पौरपक्षाच न हि वस्वनुवर्तते"-ग्राहालि २०६।२ अपेक्षाकृतत्वाम् । ३ अत्यभिचानम् । "एकत्त्य हास्मकता विरोधली, एकात म्यात्मकञ्चेति विशिष्ट्रिय।"-प्रहसि.कृ. १३ । "परस्परसभानरये स्यात्तामान्यविशेषवीः । सा तश्यतो नेर्द हूँ रूपयनुगमय -सवस-एलो० १७२२। हेनुकटी०१०५ । म. वार्तिकाल. ११२५ । 4. सू. सा. भा० २२२१३३ । १ -न ने आ०, ब०, १०। ५ "इवोरामासः प्रकाशो एस्सासी याभासः तस्य भावव तस्माद-सा० दि० ।
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भधमा प्रत्यक्षप्रस्ताव ४० ६३ ] इति । तदपि भवत्येव ; यदि संशया प्रमाणप , प्रमाणोपदर्शितस्यैव वस्तुरूपयोपपत्तेः । अश्यथा सर्वस्य सर्वार्थसिद्धेः नामेदवादी' 'तमविशयीत ! यदि च विरोधात् न यात्मक वस्तु कथं ब्रह्मणः प्रतिपन्नेतरस्वभावत्वम् ? प्रतिपत्रमेव प्रल तस्त्रमाणात् नाप्रतिपन्न मिति चेत् । न ; भेदविवेनाऽपतिपतेः । सेनापि प्रतिपत्तों में तत्र भेदविभ्रमः स्यात् , नहि रहे पीतविवेफेन प्रतिपन्ने पीतविभ्रमः । विवेकस्याऽनिशयाद्विम इति घेन् । न; ५ प्रतिपत्तेरेन निश्चयत्वात् , अन्यथा आनन्दादेरप्यनिश्चयेन विभ्रमविधयत्वे प्रमाणवेद्यमेव ब्रह्म न भषेत्-'विभ्रमाकान्सन तथा इति विरोधात् । प्रतिपसेरपि आनन्दादाधेव निश्चयो न सद्विवेक इति चेत् ; न ; प्रतिपत्तेरपि निश्चयेतरात्मत्वानुपपरो: विरोधात् । अन्यथा प्रमण एव प्रतिपत्रेतरस्वभावत्वमविशति बसो क्षेत्र --
"एकसमविरोधेन भेदसामान्ययोर्थदि ।
न द्वयात्मता भवेससादेकनिर्भक्तभागवत् ॥' [ असि० २।१८ ] इति । अन्यथा प्रमण्यप्येवं अन्
एकत्वमविरोधेन प्रतीतेतरयोयदि ।
न पारमता भवेत्तस्मादेकनिर्भक्तभागवत् ॥१०८८॥ इति । सदेवं द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मकत्वं मावस्य प्रफञ्चोक्तमुपसंहृत्य दर्शयन्नाह -- १५
स्वलक्षणमसङ्कीर्ण समान सविकल्पकम् ।
समर्थ स्वगुणोरेक सहक्रमविवर्तिभिः ॥१२२।। इति ।
लक्ष्यते इस्थम्भावेन गृहाते येन सलक्षणाप, स्य स्वरूपं लक्षणं यस्य तत् स्वलक्षणम् , शेतनमन्यद्वा वस्तु , न हि तस्थान्येन लक्षणम् । अन्येनैव क्रियावादिनां ध्यस्य लक्षा मिति चेस् ; गुणादेरपि तेन कस्मान्न लक्षणम् ? ध्य एव तस्य भावादिति चेत् ; अलक्षिते २० तस्मिन् 'शत्रैव' इति कुतः ! लक्षितमेष तत् 'अन्येनेति चेत् ; R; क्रियावत्याद लक्षितलक्षणस्वेन वैयापत्तेः । अन्यस्यापि तस्मादर्थान्तरत्वं वेस् , daily तस्तस्यैव लक्षण न गुणादेरपि । द्रव्य एव तस्यापि भावादिति चेत् ; न ; 'अलक्षिते तरिमन्' इत्यादेरावृत्त्या चक्रकादश्यवस्थितेश्च । अनन्तिरवचेत् ;न; क्रियायत्वादेरेव तत्वापरो । तन अन्येन वल्लक्षितम् । क्रियाववादिनैवेति चेत् ; न ; परस्परानयात्- 'लक्षिसे तस्मिंस्तत्रैव क्रिया. १० यस्वादिः, तेन तलक्षणम्' इति ।
।
:-कादिनमति-तालवादीन्मदि-आ०, २०, प. बादी समति-सादिक । २ भेददादिनम् । ३प्रतिपसिरपि भा०, २०प०। "भवेदेकतरनिर्भकभाचवत्"-महासि०। ५ "मियानगुणवत्समधायिकारण म्यम् (वैशे.सू. १११:१५) इति वचन्यत्"मा०टिक । ६ "काणान्तरेण"-ला. टि.। . - लक्ष -बाब०,५०
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Erandolan
न्यायविनिश्चयविसरणे
[१११२२ अपि च, तेनं सलक्ष्यमाणं रूपं यदि द्रव्यादिनमेव कुतस्तक्षशिसं स्यात् ? सेनापि सस्य लक्षणादिति चेत् ; म; सत्राप्येवं प्रसाद् अपरिमिष्ठापत्तेः । अभिनयत् । तपपि स्वतो गुणादेपर्यावृत्तम्, अव्यावृत्तं का?
व्यावृतं तन्न चेद् द्रव्यं स्वर एवं गुणादिकात् । क्रियाववादिनान्येन ततो व्यावर्त्तते कथम् ? ॥१०८९।। न हि स्वरूपमन्येन शक्यते का मन्यथा । अन्यथाऽऽस्मानित्यं स्यात् परिणामप्रकल्पनात् ।।१०९०॥ व्यावृत्तबुद्धिहेतुत्वात् से तब्यावर्तको यदि । अव्यावृत्ते कथं सम्मिन् तद्युदिन भूषा भवात् ।।१०९११॥ सृषाबुद्धिकराद् द्रव्य व्यास गुणादिकात् । प्चन्द्रश्चन्द्रान्तरादेव व्यावृक्षरततो भम् ॥१.९२||
व्यावृत्तमेव उत्तस्मात् स्वभावेनोपगम्यताम् ]
तथा ससि सदेव स्यात् , नच तयोरेकान्तस्य लक्षणम् । यमात्मानमाभिस्य शामिदमस्माद् व्यावृत्तम्' इति प्रतिपत्तिः स एव असाधारणत्वात् तस्य लक्षणमुपपनै नापरं विपर्ययात् । १५ तसः सूक्तम्-'स्वलक्षणम्' इति ।
__ कथं पुनरभेदे लक्ष्यलक्षणभावः । तत्र हि लक्ष्यमेव लक्षपमेव वा स्यात् । न । तयोरेकाभावे अन्यतरस्य सम्भवः परस्परापेक्षित्वादिति चेत; न; प्रवृत्ति व्यावृतिरूपतया तदुपपतेः। न हि वस्तुनः प्रवृत्तिरेव रूपम् ; पररूपादिनापि वप्रसङ्गात् । नापि ध्यावृत्तिरेष; स्व
रूपादिनापि तदापतेः । अपि तु प्रवृत्ति-व्यावृत्ती हे अपि, तत्र प्रतिरूपेण लक्ष्यम्, लक्षणब्ध २. तदेव व्यावृत्तिरूपेण । यस्तु हि प्रवर्तमानम् अन्यामाधारणेन पात्मनैव शक्यं लक्षयितुं नान्यथा ।
तथा च सत्प्रत्ययहेतुत्वेन सत्वस्य द्रव्यादिप्रत्ययहेतुत्वेन च द्रव्यस्वादेरसाधारणात्मनेव' परै. रपिटक्षणमभ्युपेष्ठम् सतो नाभेदे लक्ष्यलक्षणभावानुपपतिः।
भवतु स्वलक्षणम् , सतु विजार्यायादिव सजातीयादपि विलक्षणमेयेत्यत्राह-समामं, सदृशं केनचित् स्थलक्षणं नैकान्तेन विलक्षणमेव तथा प्रतीतेः । कल्पनयैव हथेति चेत् ; में; २५ प्रत्यक्षतः प्रतीते: । महि तत्प्रतीतं कल्पनावैसश्वेऽपि' प्रसङ्गात् । खण्डप्रत्यक्षं मुण्डे
नास्ति तत्कथं तत्सार प्रत्यक्षप्रतीसमिति चेत् ? वैसदृश्यमपि कथं "सत्प्रत्यक्षस्य फर्कादायप्यभावात् । कादिविशिष्टसथैव तस्याऽप्रतिपत्तिः स्वरूपसस्तु प्रतिपत्तिरेवेति चेत्, नसादृश्यस्या
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तेन लक्ष्य -, ब०, ५०१२ -वृत्तिबुधि-आ०,०, ५०१३ नित्यावस्वादिः । ४ लक्ष्यलक्षणभावोपपतेः। ५ "परसामान्यस्य"-ताटि "अपरसामान्यस्य"-तारि.10 -पात्मन्येष आग,40 पाटयायिवादिभिरपि । "सक्षणपसाधारणो धर्मः" . ज्यो० पृ. १८९१ १ साढश्येऽपि आ,40, १०।१० प्रतीयते इति ता. 11 खण्डप्रत्यक्षस्य ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव प्येवं प्रतिपत्तेः । भवतु वैस-प्रयमपि कल्पनयति चेत् ; मेदानी स्वरक्षणं नाम किधिन्, सरशेतराकारल्यतिरेकेण तस्मऽप्रतिभासनात् । तस्माद्वस्तुसदेव सादृश्यम् । अपि च,
पूर्वानुभूतसादृश्यं जलादेदृश्यते न चेन् । स्नानपानादिसामयं कुतस्तस्यावगम्यताम् ? ॥१०९३।। कल्पनासिद्धसादृश्यात् वस्तुसामर्थ्यथित कथम् ? । अनुमानादनभ्यासे स्नानार्थी यत्प्रवर्तताम् ||१०९४॥ तत्समधूतया वेयं वस्तु तोयादि वाञ्छता ।
समं तोयादिनान्येन तस्मयं मनीषिणा ॥१०९५॥ सदाइ- 'समर्थम्' इति । अर्थक्रियायां शक्तं यतः ततः 'समानम्' इति ।।
यदि गोत्वं नाम सामान्यमन्यत्, साश्यानास्ति कुतो बाहुलेयादौ ग्ोबुद्धिः १ १. शाबलेबसाइभ्यादेवेति चेत् । ननु ततः 'शाबलेय इव' इत्ति, भेदविनमे 'शालेयोऽयम्' इति का प्रत्यः स्यात् न गौः' इति, साबलेक्स्य अगोस्वात् । गोत्वे तस्यैव कथमन्येषु अत्यन्ससधशेष्वपि वद्धि। गोरूपस्याभावात् । शावलेयखमात्र हि गोरूपम् , तत्कथं तदन्येषु ? व्यक्तिसरापः । तम तरसाश्यादन्यत्र सदुद्धिः । अन्यसाइयादिति चेत् ;न; अन्य. स्यापि प्रसिद्धस्य गोरभावात् । तस्मात् तद्बुद्धिरम्यत एव अन्धिानकरूपात सामान्यादिति १५ थेस् न ; शायलेयसादृश्यादेव तदुपपत्तेः । भवतु ततः शाबलेयबुद्धिः, गोबुद्धिस्तु कथमिति येत् ;न ; गानभिज्ञस्य शालेय एव गौरिति सङ्केतात् । 'कर्कादावपि तत्सदेतालुद्धिरिति घेत ; भक्तोऽपि किन्न ? सामान्यस्य तद्विपयस्याभावादिति चेन् ; परस्यापि सारश्याभावात् । सारश्यात्तबुद्धिः गषयेऽपि करमान्नेति चेत् । सामान्यादपि कमान १ सयादेस्वश्रापि भावात् । तद्विशेषादेव समान न सन्मात्रादिति चेत् ; समानमवत्र, सारश्यमात्रादपि २० "तदनभ्युपगमात् । “सादृश्याद(द)गोत्वे शाबलेयत्वं कथमिति येत् ! सामान्यानपि सरखे कथम् ? अन्यतः सामान्यादिति चेत् ; सादृश्यादृप्यन्यस एधास्तु, सामान्यवत् सादृश्यस्यापि अनेकधा वस्तुषु भावात् । ततो न सूकमेतत् कुमारिलस्य
"सारूप्यमथ सादृश्यं कस्य केनेति कथ्यताम् । न तावच्छाबलेयेन वाहलेयादयः समाः ।। विशेषरूपतो येऽपि तत्संस्थानादिभिः समाः । शावलेय इथेति स्यात् तत्र बुद्धिन गौरिति ।
अस्तुसो यदि मा०, प., प012 "भा आह"-ला. रि० ३ शालेयस्येव । । " मिस्सादात्म्यानित्यं सामान्य नागसिकरिष्यते तन्ना दूपर्ण शाखान्तर उक्तम्-तादाशचं मतं जातवैक्सिजन्मन्यजानता। नाशेऽनाशश कैनेष्टस्तद्वानम्बशे न किम्"-ता. टि.। ५ श्वेताश्यादौ । ६ "शवलेय एव गौरिति सकतात" -ता.टि.। . अन्वितबुद्रुप्यनभ्युषामात् । ८ अनेकशावलेयव्यक्तिमतमाश्यात् । ९ "मौरिष"-मी. लो।
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जयरामघाटमा
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ज्यायविनिश्चयविवरणे
[१११२२ शालेयोऽयमिति वा भ्रान्त्या गौरिति नास्ति तु । शालेयस्वरूपश्च न गररित्यवतिष्ठते ।। तदन्येषु हि मोवुद्धिन सात सुसहशेष्वपि । दृश्यते सामान्यत्वे गोरूपं सत्र विद्यते ॥ न चान्यो गौः प्रसिद्धोऽस्ति यत्सादृश्येन गौभवेत ।"
[मी० श्लो० आकृति० श्लो०६७-७१ ] इति । प्रतिपादितन्यायेन शावलेयस्यैव गोरूपतया व्यवस्थितौ तर गृहीतसतस्य बाडुलेयावावपि तत्सदृशे गोबुद्धः तब्बबहारस्य च सम्भवात् । सादृश्यमेव तत्र नास्तीति चेत् ; . कथम् 'अयमन ALTE' इति प्रत्ययः ? सत्रयवसादश्यादिति चेत् ; न ; अवयवानां तवतो भेदे योगमतानुप्रवेशान् । अभेदे कथं 'तत्स! श्यम् अवयविसादृश्यमेव न भवेन् ? यतो 'न तावत्' इत्यादि सुभाषितम् । यदि साश्यात् याहुलेयादौ गोबुद्धिः कदाचित् कस्यचित् कचिच्च स्थात् मैन्ने थैत्रधुधिवत् , भ्रान्ति तद्वदेव । न चैवम , सर्वदा सर्वेषान्ध भावात् , निधित्वेनाभ्रान्तत्वाच्च । निर्वाधभ्रान्तिकल्पने सर्वज्ञाममिथ्यात्वापः । न चैकोऽपि
* सोय : गिरपरिज्ञानात् । बभूव पूर्वमिति चेत् । न तस्य अस्मदादिभिरप्रतिपसे। १५ तन तत्सादृश्यात् क्वचिद् गोबुद्धिः। भवन्ती वा बाहुलेयवत् महिण्यादावपि भवेत् तत्सारश्यस्य
तत्रापि भावात् । न हि तस्ये क्वचिरपरिसमाप्तिः अनधित्वान् , ततो न तद्वशाय गोबुद्धिरिति चेत् ; सन्नः यस्माद् भवत्येव पाहलेयादी गोबुद्धिः विश्रमो यदि तद्विषयस्तन्न न स्यात् मैंने पैत्रबुद्धिवन् । अस्ति च संभ सद्विषयः सादृश्यविशेषः तत्रैव तद्बुद्धः सङ्केत्मत् । अत एवं सर्वदा सर्वेषामपि तदुपपत्तिः । एकगोबनिबन्धनत्ये तु भवत्येव विभ्रमः प्रत्यक्षेण तद्गोवविविकवस्तुविषयेणे बाधनात् । न च सद्विभ्रमे सर्वज्ञानमिध्यात्मम् ; बाधावत एव सदुपपः। मैं को गौः कश्चिमास्ति प्रथमसतविषयस्यैव तत्त्वात् । न च तत्र विशेषाग्रहणम् ; सादृश्यविशेषस्योपलम्मात् । न च बनिबन्धना बुद्धिः महिष्यादावपि तत्र तदभावान् । अन्यतस्तु
५ यान भवत्येय, सामान्यान्तरादधि प्रसनन् , तस्यापि निरवधिवात् । तसः सुलभैव सारस्थविशेषा गोबुद्धिः । इति दुर्भाषितमेवेदमपि तस्य
"न पापि स इति ज्ञानं सदृशेष्वस्ति सर्वदा । सर्वपुंसामतो भ्रान्तिका बाधकवर्जनात् ॥ सर्वज्ञानानि मिश्या व प्रतज्यन्तेऽव कल्पने । विशेषग्रहणाभावादेको मौः कश्च कम्प्यताम् ।।
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5 "न थान्मम . सो०। २ अश्यवसादृश्यम् । ३ श्रान्तिश्येसदे ता । त्रिदेव गौ: भा०, ० ०।५ सयस्य ६ मरिन्दवभि-tu, 04.1 साद.श्यवशात् । ८ बाहुलेयादी । महोआ.ब.प.110 -पवेध-आग,०,1011 का गौः आप.,
प ताका -100, 11 १३ अश्यपस्तु , नप कुमारितस्य ।
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मार्गदर्श
१६१२२]
प्रथमः प्रत्यक्षताम: बभूव यबसौ पूर्व नास्पदादेस्तदग्रहात् । सादृश्यस्यावधिर्नास्ति ततो गोधीन लभ्यते ।।"
[मी० एलो आकृति० श्लो० ७१.५४] इति । तम्न सामान्यारमना स्वरक्षणस्य सरोऽपि ।
नापि शक्त्यात्मना तस्यापि प्रतिव्यक्ति भिन्नस्यैव भावान् । अभिन्न एवासौ मृत्पि- ५ ण्डादीनाम् । न हि मृत्पिाशक्तरेव दण्डादियभावे तेषां तत्कायें ग्यापारतदन्यकारणवदिति घेन्; न; सर्वशक्तिसाकल्येऽपि सदुपपत्तेः । यथा मृत्पिण्डस्तत्र शक तथा दण्डादिरपीति शक्तिसाकये तूपादान एव सहकारिण्येव चै कस्मिन् सर्वशक्तीनां भावात् तदन्यतमस्वैव तत्काय स्थान सर्वेषाम् , यात् । एबमपि सामन्या एव जनकत्यं नैकस्येति लेत. न; सर्वशक्तिसाकल्ये सद्विरोधान । न तद्विरोध, प्रत्येकदशायां सत्साकल्यस्य तिरोधानादिति चेत् ; इतर- १० दशायां कुतस्तदभिव्यक्ति : १ सामोशक्तरिति चेन् ; न; शक्तिसार्यवादिनः सन्छतेरपि प्रत्येक भावात , तदापि तदभिव्यक्तः । तथापि तस्याजनकत्थे समुदायस्यापि न स्यात् तत्रापि अभिव्यक्तशक्तिसाकल्याइन्यस्य राजमनानिमित्तस्याभावात् । सामग्रीशस्या पाऽनभिव्यक्तया न तदभिव्यक्ति कार्यवत् । न च स्वतस्त व्यक्तिः प्रत्येकशक्तियत् । सामन्यन्तरशतया तश्यक्तावमवस्थानम् । सामग्री च यावदेकशक्तिमभिव्यक्ति तावत् कार्यमेव कुवाँस किं पारम्प. १५ येण? तन्न शक्तिसादेककार्यस्लम उपादानादीमाम् , अपितु लत्साम्यादेव । अत एव यहष्वेव कार्य नैकस्मिन् । तत्सा वितरनिपेक्षमेकस्मिक्षेत्र स्यात् उपादानेतरशक्तीनां तत्रैव भावात् । सन्न शक्तिरूपेणापि सङ्कीर्ण वस्तु । तदाह- "असङ्कीर्णम्' इति !
नन्वसङ्करो नाम स्वलक्षणानामिसरेवरभावामा भेद एव | सस्माश ते मनान्तरस्खे तद्वदभावरूपत्वात किग्नाम स्वलक्षणम् ? एकरूपत्वास केन का किमसष्वीणं भवेत् ?
अपि च, भेदस्य वस्तुरूपत्वे न क्वचिदेकरवं भेदेन 'तस्य विरोधात । ततः परमाणुरपि भिन्ना (त्र) पर 1 न चैकामा तत्समुच्चयरूपमनेकमपि न व तृतीयः कश्चित्प्रकार इति निःस्वभावत्वमेव स्वलक्षणस्य स्यात् । तदुक्तम्--
"न भेदो वस्तुनो रूपं तदभावप्रसङ्गतः ।" [ब्रह्मसि० २।५] इति ।
अथ मा भूदयं दोष इति तस्य तेभ्योऽर्थान्सरस्वमिष्यते "स तहि नीरूप पद स्यात् २९ वस्तुध्यतिरेकिणः प्रकारान्तरासम्भवादिति न सलेन तेपासाङ्कर्यम् , नीरूपस्य क्वचिदनुपयोगादिसि सार्यमेव प्राप्तम् । इदमप्युक्तम्
दण्डादीनाम् । १ तरकारें ब्यापारोपपत्तेः। ३ चैन रूपेण। * प्रत्येकदारामपि । तथापि मा०, २०, ५०५ प्रत्येकस्य 1 ६ सपणानाम 1 एकरपस्य. ८ "परमारपि भारतकात्मक इति मैकः तश च वन्समचरमोऽप्यस्यामा नायकःपने"-ब्रह्मासि गृ० ४८ । १-42-मार, यापर 1" इतरेतराभाषाम।।
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૧૮ म्यायविनिश्चयविवरणे
[ १४९२२ "अरूयेण च भिन्नत्वं वस्तुनो नायकल्पते।" [ब्रह्मासि० ११५]इति चेत् ; उच्यते
यसावदुक्तम्-'भेदात स्वलक्षणानामनर्थान्तरत्वे तद्वदेकत्वम्' इति । तन ; भेदस्यकरयाभाशन , प्रतिस्पलक्षणं परिसमामिमत एव तस्योपणमान् । नापि तद्वदभावरूपरवम् एकान्ततस्तेषा 'हदनन्तरत्वस्याभावात् । कथकिवदभावरूपत्यं तु न दोपाय , इष्टत्वात् ।।
यदन्यदप्युक्तम्- 'मा भूदयम्' इत्यादि ; तदपि न सुन्दरम् ; अर्थान्तरवस्यापि एका माया । अतदिन न नीरूपत्वमेव विपर्यवस्थापि भावादिति 'कथं सति सस्मिन् साकय सेपाम् , "वस्य तदूषत्वात् । उक्तञ्च - "नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेनिषेधस्य च" वृहत्स्व० श्लो० ४२] इति ।
यदप्यमिहितम्- 'भेदस्य वस्तुरूपत्वे' इत्यादि ; तदपि न मनोझ प्राज्ञानाम् ; तथा १० हि- “योकत्यवत् स्वरूपत एष भेदः स्यात् तदा तेगैकत्वं परिपीड्या विरोधात । न धैवम् ,
सस्य परोपाधित्वात् । परतो हि स्थलमानि विद्यन्ते म स्वतः । म चोपाधिभेदे विरोधः यसस्ततस्तस्थे परिपीडनानु. एकसमुच्चयात्मनोऽनेकस्याप्यनुपपत्तः, प्रकारान्तरापरिझानाच नि:स्वभावत्वं तेषाममुषज्येत ।
कथम्वं वाविना बानोऽपि निःस्वभावत्वं न भवेत ? शक्यं हि वक्तुम्-- प्रपत्र१५ विवेकस्य "तत्स्वभावत्वे न तस्यैकत्वं विवेकेन तद्विरोधिना एरिपीडमान , तदभावे व नानेकत्वं
सस्य तत्समुच्चयरूपत्वात् , म च प्रकारान्तरम् , ततो नि:स्वभावमेव तदिति । नास्त्येव तस्य तरमाद्विवेकः, "सर्वगन्धः सर्वरस" [छान्दो० ३ १४१४] इत्यादिना तस्य सस्मित्वप्रवणादिखि घेन् ; न ; निर्मुक्त्यभाषप्रसङ्करम् । प्रपञ्च एव हि अशनायापिपासादिरूपः संसारा,
अस्माकर "तस्याविवेके कथमुपायेनापि निर्मुक्तिः ? न हि तेन वस्य" स्वभावाद्वियोगः २० पावकायेव औरण्यात् । स्वमावतश्चाविवेके तस्य संसारः । भवन्नपि वियोगः कुतश्विदेव स्गस्
न सर्वस्मात , तत्प्रबन्धस्य अनन्तत्वेन अनुच्छेदत्वात् । ततो नित्यनिर्मुक्तं "सदिच्छता पद्विविक्तमेव एष्टव्यम् । अथ नास्त्येव प्रपश्च: "नेह नानास्ति किश्चन" [ बृहदा कठोर ४१११] इत्यादि श्रुतेः तत्कथं तस्य तस्माद्विवेकः १ अयतः प्रतियोगित्वानुपपरेरिति चेत् । किमपेक्षं तहीदम्-"अस्थलपनहस्यम् (मनहूस्वम्)" [वृहदा० ३.८८] इति, २५ "स एप नेति नेत्यात्माणबदा० ३।५।२६] इति य? अविद्याफल्पितप्रापेक्षमिति
चेम् ; तत्प्रपन्धात्तहि सद्वियको बक्तव्यः, अन्यथोक्ताहोपात् । न तस्य तस्माद्विवेको नाप्यविवेक तदुभयं प्रति 'तस्यावस्तुत्वेन अपादानस्यायोगादिति चेत् । न नेति नेति निषेधानुपपतेः, विदेकस्यैव निषेधार्थत्वात् । अपि च,
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..:
अभावाभिवत्वस्याभानात् । २वं ना०, ५०,०३ -लनामावान् अ, ब, प० । कथं तर संदि तपा०,२०,२०। ५ वरूपायस्थाने।६ साल। मोहलपत्यान् । ८ बर्दवान
०,२०,१०। एकत्वस्य । १. प्रहावभावले। ११ अक्षः । १२ पशददै । १३ बम । तत्तथेच्छ भा०, ५५,१०१ १४प्रपदस्य।
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१६१२२)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ता
४५९
खभावस्तारशस्तस्य यदि संसार अध्यते । न भवत्येव निर्मुक्तिस्तत्स्वभावापरिक्ष्यात ॥१०९६॥ निर्मुखियदि तध्यैव संसारः कस्यवां परः । संसारेण विना यस्मन्निर्मुसिनाधकलप्यते ।।१०९७|| जीवानामेव संसारनिमुसिष तस्य घेत। जीवेभ्यस्तदभिन्न चेत् न तस्येत्युच्यतां कथम् ॥१०९८॥ मुखात्तत्प्रतिविम्बानामनन्यत्वेऽपि तद्रतः । नाऽशुद्ध्याधियथा तस्य तथेहाशति चेन्मृषा ॥१०९९॥ 'तेषां तस्मादभेदेऽपि सेभ्यस्त देदवर्णनात् । स्वयमेव तथा अझ जीवेभ्यो यदि मिद्यताम् ॥११००
अविविक्तं कथनाम कथ्यता तत्पश्चतः। यात्र प्रतेत नि:स्वभावत्वकल्पनम् ॥११०१॥
तस्मात्तत्राप्ययमेव परिहार: स्खोपाधेरैकत्वस्य न परोपाधिना भेदेन बाधनमिति; तथा स्खलक्षणेऽपि । गुरुः पुनः परोक्षत : स्वपि किमर्थम् ? स्वरूपला. भार्थमिति चेत् ; न, तस्य वस्तुस्वभावेन तद्धतोरेव भावात् । न हि वस्तुनः स्वहेतोरुत्पत्ति: १५ भेदविकलस्यैव । पैरतोऽपि ; परस्पराश्रयतया तवभावप्रसङ्गात्- ‘मति वस्तुभेदे परम् , परतश्च तछेदः' इति । पश्चाच हेस्वन्तरादुत्पद्यमानः कथं वा वस्तुनः स्वभावः स्यात् कार्यान्सरवत् ! यस्तुहेलो रत्पत्ती व किं तस्य परापेक्षया प्रयोजन स्वरूपस्य वस्तुकारणादेव भावात् १ नार्थक्रिया परासन्निधानेऽपि सवर्थक्रियादर्शनान । "प्रतीतिश्चेत्, ने तईि भेदः परापेक्षः, तद्विषयायाः प्रतीतेरेव वदपेक्षत्वास । न हि सस्याः उपेक्षत्वं सविषय- २० स्थापि; रूपादिप्रसीलेः चक्षुराद्यपेक्षत्वेन रूपादावपि वत्प्रसङ्गात् । न च प्रतीतेरपि तदपेक्षत्वम् ; परस्परामयात्- प्रसिद्धं हि परमपेक्ष्य वस्तुभेदप्रतिपत्तिः, तत्प्रतिपत्त्या च परप्रसिद्धिः' इति । न १ वस्तुमानादनवगृहीतभेदाद् भेदसिद्धिः; एकस्मिन्नपि तत्प्रसनात । तन्न अपेक्षा नाम काचिद् वस्तुधर्मः।
पुरुषधर्म एवास्तु, पुरुषेणैव कस्यचित कुन्धित भेदस्यायेक्षणादिति चेत ; न; वस्तुन्नि २५ तदपेक्षानुवर्तनस्यासम्भवात् । न हि पुरुषस्य भेदापेक्षया वस्तु मिन्नं भवसि, अन्यथा सह. कारः कोविदारोऽपि स्यात् "दयापि तदपेक्षासम्भवात् । तदुक्तम्
"पौरुषेयोमपेक्षाञ्च ने' हि वस्त्वनुवर्तते" [ब्रह्मासिक २१६ } इति ।
ब्रह्मानः । २ प्रतिबिम्बगतः। ३ प्रतिबिम्बानाम् । मुखमेद । ५ परायेक्षणात् । ६ वखे तमा, ब०,१० 'नहि इत्यन्धयः । भेदः । ९ भेदस्य। १० प्रयोजनम् । " प्रतीतः परापेक्षतम् । १२ तेन रुपेणापि, सहकारस्थ कोविदाररूपेणापि । ५ न हि स्वम-भा०, २०,०।
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દુઃ
स्पायविनिकायविवरणे
[ १११२२.
वन भेो नाम faerceहः, येनासङ्कीर्णत्वं स्वलक्षणस्येति चेन्; न; अन्यथा अपेक्षार्थत्वात् । न हि परतः स्वरूपदेर्भात् भावस्य तदपेक्षस्त्रम् अपि तु तदपादानत्वात् । तदपादानो हि सामेदः स्वतोत्पन्नः तथैव प्रतीतेः । न च स्वहेतुबलायातो भावस्वभावः पर्यनुयोगविषयः 'कस्मादेवम्' इति सर्वत्र प्रसङ्गात् वस्तुविलोपापतेः । तस्मादपादानत्यमेव अपेक्षार्थः । तथैक ५ पञ्चविवेकस्यापि ब्रह्मण्युपपत्तेः । पुरुषापेक्षानुवर्तनस्य स्वनभ्युपगम एव परिहार ।
भवतु भेदः, तस्य तु कुतः प्रतिपतिरिति येन् ? प्रत्यक्षादेव विधिवत् निषेधेऽपि सद्व्यापारात् । निषेध्यापरिज्ञाने कथं कंबचित्ततः निषेधः । न च निषेध्यस्य तेन परिज्ञानम्, सन्निधानाद, असन्निहितार्थत्वे च तस्य अतिप्रसङ्गादिति चेत्; न; विधिवत् वस्तुस्वभा aar ज्ञानेऽपि तस्य प्रतिपत्त अन्यथा विधेरपि न स्यान् तस्याप्यनुपश्लिष्टनिषे१० चस्यासम्भवान उपश्लिष्टपीतादिनिषेधस्यैव नीलविधे: लोकप्रसिद्धाध्यक्षादमुद्धेः । अध्यक्षान्तरं तु न वयमेवं वृद्धा अपि बुद्धयामहे यस्य विधिमात्र वियत्वं प्रतिपद्येमहि । तैप्रसिद्धस्यैव तन्मात्रविषयत्वे वा कथमाझायस्यापि निषेधविशेषात्मनः ततः प्रतिपत्तिः । न हि विधिमात्रेण आम्नायस्थ आम्नायत्वम् अन्नन्नायेऽपि तद्भावात्, अपितु तदन्यनिषेधरूपतयैवेति कथं तस्य विधिनियतादष्यक्षात् प्रतिपत्तिः ? मा भूदिति चेत् कर्ष तस्माद् क्षण: प्रसिद्धि: "आम्नायत्तः ९५ प्रति कस्य पवते" सिं० १/२ ] इत्युका सोमेत ? अप्रतिपन्नादेव ततस्तत्प्रसिद्ध अतिसङ्गात् । प्रमाणान्तरादेव तस्यै प्रतिपत्तिः न प्रत्यक्षादिति चेत्; न; "प्रत्यक्षादिभ्यः सिद्धादाम्नायात सत्त्वदर्शनम् " [सि० पृ० ४१] इत्यस्य विरोधात् ।
विधिनियमे च "तस्य आम्नायवत् त वादनादेव प्रामाण्यं न "व्यवहार विपर्यासाभावादिवि कथमुक्तम् -"प्रत्यक्षादीनां तु व्यावहारिकं प्रामाण्यम्" [ मासि० पृ० ४०] २० इति ? ' तंत्र मेदप्रतिभासमपेक्ष्य "तदुक्तम् अस्ति च व्यतिभासो व्यवहर्तृमुख्या विचारबुद्धस्यं विधिमात्रनियमः तथा च तत्त्वावेदलक्षणं प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायत एवेति चेत्;
प्रतिभासस्वभावत्वे विचारबुद्ध्यापि अनपवर्तनात्, अन्यथा स्वरूपस्यापि "अपवर्तना कस्य Mantafare सम्पात ? अस्वभाव व्यवपि कथं तत्र रामनुमन्यताम् १ विनादिति चेतः स एव तद्विवेकप्रतिभासे कथम् ? अनिश्चयादिति चेत्; न; प्रतिभासस्यैव २५ निश्चयत्यात्, अन्यथा स्वरूपस्यापि न निश्चयः स्यात् प्रतिभासादन्यस्य वनिश्चयस्याप्रतिषेदनात् । सोऽपि निश्चयो न विवेक" इति चेत्; न; निश्चचेतरकोरेकत्वानुपपत्तेः सामान्यविशेषयोरपि तत्त्वापत्तेः "एकत्वमविरोधेन" [ब्रह्मासि० २१८] इत्यादिना तत्र दूषण
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, “आदिशब्देन वाकया प्रतीतिन प्राय" ता० दि०२ "उत्पतेः " सा० टि० । ३ प्रत्यक्षस्य । ४ निपेध्यापरिज्ञानेऽपि । " प्रतिपत्तिः ६ "वेशन्तिसिद्धस्यैव "ता दि० "ओत्रेन्द्रियप्रत्यक्षात्" - धा० टि ८ आम्नायसः । ९ आम्भवस्य १० प्रत्यक्षस्य व्यवहारासंवादादित्यर्थः " ता० द०१२ प्रत्यक्ष । १३ व्यावहारिक प्रामाण्यमुक्तम् १४ "प्रत्यक्ष" - ता दि० । १५ "प्रस्मस्वभावत्वे त० दि० । १६ - पव-आ०, ब० ५० १७ तत्या यात्रन्मान -आ० १० १० १८ स्वरूपे १९ “भेतिमाविवेष" ला०दि० ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताका
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स्यारत्नप्रसङ्गान् । निवेदितवन । तन्न विभ्रभे तद्विवेकप्रतिभासः ।
मा भूत् स्वरूपस्यैव स्वतः प्रतिभासात् , तद्विवेकस्तु वध विचारबुद्धय वावगम्यत इति येन् ; न तयापि प्रत्यक्षाविधाने तत्र सद्विवेकस्य दुरवबोधत्वात् । विधानन्ध विवेचनात् प्रागेव न युगपत् । नापि पश्चात् ; तस्याऽसिद्धरवेन अनुवादायोगे तदनुवारेन तत्र तसिवेचनस्यायोगान् । 'ह भेदप्रतिभालो नास्ति' इति विधिपूर्वच विवचनम्, न च तद् यु- ५ श्रेयापार: स्यात् विधिसमय एष तस्याः क्षणिकत्वेन नाशात् | अक्षणिकत्वे तु प्रत्यक्षस्यापि सत्त्वान किन्नसें त्र्यापारः स्यात् यतो विधायकमेव सतू न निषेधकनिति नियम्येत भवतु अन्यत. दुखरेव विवेचनं व्यापार इति चे; म; तैयापि तस्याविधाने कथं तत्र तद्विवेचनम् ? तद्विधाने त - देव तव्यापारः तव तस्या अपि भावान्न विवेचन विपर्ययात् । पुनरपि भवतु' इत्यादिवचने न परिनिष्ठानम् | उन्न तत्र भेदप्रतिभासा विभ्रमात् स्वतः परतश्च तद्विषेकस्याऽअतिपत्तेरिति सिद्धं १० प्रत्यक्षरय दविषयत्वं निर्यावनागोपालमपि प्रतिपत्तः ।
कथं पुनः प्रत्यक्षं विधिव्यवच्छेदयोः युगपदेव प्रवर्तमान विध्यनुयादेन व्यवच्छिनत्ति 'भूतले. म घटः' इति ? विधेरपूर्वसिद्धत्वेन अनुवादायोगादिति चेत् ; : "तस्यैकमाघृते । न हि विधिव्यवच्छेदयोः तस्य गुणप्रधानभावेन वृत्तिः यदेवमुच्येत अपि तु परस्परस्वभावतया प्रधानयोरेव ममापि व्यवच्छेचे तत्प्रवृत्तिः यसो व्यवछैद्यस्य देशकालव्यवहितस्य तेनाऽग्रहणात् १५ 'कर्थ तब्यनच्छेदस्य ततः प्रतिपत्तिः' इति पर्यनुयुष्येत विधिषत स्वरूपत एव तत्प्रतिपत्तेरित्युक्तस्वात् । ततो यदुकम्- "अनवभासे हि तत्र व्यवच्छेो व्यवच्छेदमात्रं "स्यात् न [ब्धपच्छेदः कस्यचित् [नासि० पृ० ४५] इति । तदुपपन्नम् , ''सर्वस्थ वा स्यात्" [प्रसि० पृ. ४५] इत्येस नोपपन्नम् ; निषेभ्यविशिष्टतया ततस्तस्प्रसिपोरनभ्युपगमात् । कुतस्तईि 'भूतले ने घटः इवि' इति पेत् ; न ; भक्तोऽपि न घटे" पटाभावः' इति कुतः २० प्रतिपतिः ? प्रत्यक्षादेवेति चेत् । न ; विधिमात्रस्यैव समापारत्वात् । तदसरवनिषेधोऽपि वस्यैव व्यापार इति चेत् । स यदि पूर्व स एव समापारो न पश्चादाकी विधिः, तदा प्रत्यक्षत्यापरमात् । ततो यथेदं विधिवादिनोच्यते -
"आहुविधात प्रत्यक्ष न निपेद्ध विपश्चितः ।
नैकत्व आगमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुद्धयते ॥" [ असिं० २५१] इडि ; २५ तथा निषेधचादिनापि वक्तव्यम्
आहुनिषेद्ध प्रत्यक्षं न विधान विपश्चितः । २ शून्यत्व भागमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुध्यते ||११०२॥
.....
....
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लन्यैव तत् आ०,००। २ न च तत्र सद्धा -आ०, ३०, २० । ३ विवेचनम् । • विवेचनात्मकः। ५ तस्मापि वि-भा., ०, प० ६ प्रत्यक्षस्य । ७ भेदप्रतिभासविवेचनम् । ८ राव भा०, ०,१०। प्रत्यक्षद रपूरले सिबल्देन ता० । १. प्रत्यक्षस्य । प्रत्यक्षोण । १ "२ व्यवच्छेदः कस्यनित"-प्रशसिनन पर प्रति हमा० म०प० । १४ घटेषु 2-मा०, ब०, १.
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•पायविनिश्रयविवरण
१।१२३
मा
सनिषेधे * बागमः किं याप्राभं यो येन चिरुज्यत इति चेतन: साभेदेऽपि तुझ्यवान् । सत्यम् ; २ वस्तुतः त्रापि सनुभयम , अविधानिवन्धत तु विश्व इति चतः न ; अन्यचागि संदृतिनिधिनस्य भावाच । सैव कथं तप्रेति चेत् । अविद्या
कथमिवस्त्र ? अथाविद्या विद्याऽद्वैतप्रतिवन्धिनी न भवति लायाः सर्वाकारैतुमशक्यत्मा५ दिति चेत् । न ; संयुसेरपि तथात्वेन नैसल्यवादप्रतिबन्धित्वानुपपत्तेः ।
___ अथ विधिसमय पब तस्य स व्यापारः कथं विध्यनुवादेन भवेत् ? "अपूर्व प्रसिद्धतया पिधेरभुचावायोगास । नपि तस्मादायी से तस्य व्यापारः सदा प्रत्यक्षस्यै. माऽभावात् इति ने प्रत्यक्षात् "विधेवासरत्यवच्छेदः । मा भूदिति चेत् ; विधिरपि न
भवेत , तस्य तद्रूपत्वात् "विधेर्विधेयासत्त्वव्यवच्छेदरूपत्त्यात्" [ब्रह्मासिक पृ० ४५] इति १. मण्डत्वचनात । मा भूदु विध्यनुवादेन सदसाव्यपघटेदः प्रत्यक्षात तद्रूपतयैव सदुषगमात् ।
तदनुषादेन तु तावच्छेदः प्रत्यभिज्ञानादेव प्रत्यक्षविहिले घटे तदनुवादेन तन्न स्मरणोपनीतस्य । तदभावस्य 'नायमिह' इति प्रत्यभिज्ञया प्रतिपारिति चन; 'भूतले न घटः' इत्यपि प्रतिपत्तिस्त एवेत्यलमभिनिवेशेन । यदि विधिप्रत्याक्षत एवं अन्यव्यवच्छेदः स तर्हि भूतले घटादेरिक
प्रतिक्षणपरिणामादेरपि स्यात् तद्विधितात यापि तस्य प्रसिपसेरिति चेत ; अस्ति प्रतिपत्तिः न तु १५ प्रमाणम् , अर्थक्रियाकारित्वादिलिलोपनीतेन तत्परिणामानुमानेन वाध्यमानत्वात् , न सहि
घटादियषच्छेदेऽपि प्रमाणप, आम्नायेनैव अभेदविषयेण बाधनादिति चेत्त; न तस्य प्रसिविधास्य. मानत्वात् । तसो भेदस्य प्रत्यक्षत एव प्रतियोरुपपन्न भुक्तम्-'स्वलक्षणमसङ्कीर्णम्' इति । असङ्गीणपदेन स्वलक्षणस्य विशेषात्मकत्वं समानपदेन च सामान्यात्मकत्वमुक्तम् ।
अत: सामान्यविशेषात्मकत्वात् सर्व वस्तु सविकल्पकामेव नाऽसहायस्जमात्रम् । अत एपाह२० 'सविकल्पकम्' इति ।
सत्यम् ; अस्ति भेदस्य प्रत्यक्षादिना प्रतिपत्तिः, न तु वस्तुसत्यम् , आम्नायेनैवअभेदविधयेण बाधनात् । न चैवम् मानायस्यापि भेदविशेपस्य "तस्मादसिद्धिः बाध्यमानदेन अप्रमाणत्वादिति मन्तव्यम् ; तत्वावेदनलक्षणस्यैव प्रामाण्यस्य वेब हेर्न वाधनान व्यवहाराविसंवादलक्षणस्य, अवस्तुविषयत्वेऽपि अविद्यासंस्कारस्वैर्येण सम्भवात् , तस्य चन तेन धनम् अविरोधान् । कथमेवं प्रत्यक्षादेः तदपेझेणैव तेन माधवमिति चेत् ? नः स्वरूपप्रतीर्ति प्रत्येक 'तस्य तदपेक्षत्यात् न स्वार्थप्रतीति प्रति लधस्वरूपख स्वत एव सदुपपत्ते, अन्यथा प्रामाण्यमेव । न स्यात् स्वकार्य प्रति निरपेक्षतथैव 'सँदुषपः । स्वरूपप्रतीसिहेतुत्यस्य तु न तेन बाधनं तत्त्वा.
.
State
दक्षु मशक्यस्यैन । २ असत्यनिषेधः । ३ पूत्रमप्रसिद्धत्या। ४ असाधनिषेधः । ५ विधेयारत्वस्य व्य-०, 40, प० । प्रत्यक्षत्वात् आ०,००। प्रत्यभिज्ञान: । ८ प्रतिक्षपरिणामविविसराया 1 " ९ प्रत्यक्ष एवं सा० १० प्रलक्षात् । १. प्रायो। १२ अन्नाधन ! १३ स्थ रस्तु-०, २०, १०। १५ "प्रत्यक्षादीनां तु व्यावहारिक भाष्यम् , अविद्या संस्कारस्य स्थग्ना व्यवहारविषयाभावात् ।"-प्रालि पृ.१०।१५यक्षापेक्षेणब । १६ अभमायस्य प्रत्यपरत्वान। १० भाषधोपपसः ।
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४६३
प्रथमः प्रस्थाप्रस्ताव'
१११२२ ]
वेदभागस्यैव बाधनात् तत्रैव विरोधान् । तदविशेषादाम्नायस्यैव किन प्रत्यक्षादिना बाधनमिति चेत् ? न; प्रत्यक्षादितः तदपेक्षतया परत्वेन आम्नायस्यैव बलीयस्त्वात् । बलीयसा दि १ दुर्दस्य वा लोकरत् न तेन तस्य । इयते च पूर्वापवादेन परस्य बलीयस्त्वम्, यथैकत्व. ज्ञानस्य ततोऽपि विज्ञानस्य तस्य तदुपमर्देनोपपत्तेः । ततो न भेदस्य वस्तुसत्वम् "प्रत्यक्षादो तस्वादनस्य " ३६ सर्व यदयमात्मा" [वृहदा० २।४२६] इति, "आत्मैवेदं ५ सर्वम्" [छान्दो० ७१२५|२] इति, " सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" [अन्दो० ३|१४|१] इति water सर्वाभेदभवद्योदयता बाधनात् । तन्न वस्तुतः स्वलक्षणन्यासङ्कीर्णत्वं प्रतिभाससात्रादेव व्यवहार सिद्धप्रामाण्यात् उदुपपत्तेरिति चेत् किमिदम् आम्नायस्थ अभेद विषयत्वम् ? तत्परिज्ञानत्वमिति चेत्; न; अचेतनत्वात् । वरपरिज्ञानं प्रति हेतुत्वमिति
चेत् :
तत्परिज्ञानमपि यदि विषयायविरितं वहिं तस्य स्वतस्तथा प्रतिपत्तों भेद एव १० तदर्थः स्यान्नाभेद इति कथं तेन प्रत्यक्षादेः भेदविषयस्य बाधनम् ? एकवाक्यतया सदुवोद्रलतस्यैवोपपतेः । अप्रविपत्तौ च व्यतिरेकस्य तदव्यतिरेकात् तत्परिज्ञानस्यापि न प्रतिपतिरिति कथं ततः सर्वाभेदस्याधिगतिः ? प्रतिपत्रन्तरगतादपि ततस्तत्प्रसङ्गात् । व्यतिरेकेणैव तस्याप्रतिपत्तिर्न रूपान्तरेणेति चेत्; न; प्रतिपत्तयोरेकत्र विरोधात् । अविरोधे यां भेदाभेद तदुपपत्तेः कुतो न तत्त्वावेदनमेव प्रामाण्यम् आम्नाययत् प्रत्यक्षादेरपि १५ भवेत् । अव्यतिरिक्तमेव ततस्तदिति चेत्; न; निलत्वेन अफार्यत्वापतेः । नित्यो हि तद्विपयः सर्वाणः परमात्मा ""स वा एष पहानज आत्माऽजगेऽमरोऽमृतोऽभयो " [] ४/४/२५] इति श्रवणात् । कथं तव्यतिरेके तत्परिज्ञानस्यानित्यस्वं यत आम्नायादुत्पत्तिः । तत्र तत्मानतिरिक्तम् । नाप्यव्यतिरिक्क्म् मायामयत्वेनावस्तुत्वात् वस्तुनैव (a) व्यतिरेकेतर विकल्पोपपत्तिरिति चेत न तर्हि सस्य कार्यतापि, अवस्तुनि तस्या २० अप्यप्रसिद्धेः । तत्र आम्नायस्य स्वतः तत्परिज्ञानहेतुत्वेन वा तद्विषयत्वम् यतस्तेन प्रत्यक्षाप्रतिपीडनमुपपद्येत । सत्यध्याम्नायाद् मह्मणः परिज्ञाने --
F
श्रम तच्चेत् समर्थ न वपुष्पाद् भक्ते कथम् ? प्रतिभासवलाश्वेन तस्यासत्यपि दर्शनात् ॥ ११०३ ॥ विना कार्येण सामर्थ्यमपि तस्य न युध्यते । कार्यार्थमेव यल्लोके तत्प्रसिद्धिपदं गतम् ॥ ११०४ ॥ कार्यमस्ति प्रपञ्च मिथस्तस्माच 'यदि । मित्रमेष कथन स्यादसङ्कीर्ण स्वलक्षणम् १ ॥ ११०५३॥
7
१ विरोधाविशेषात् । २ प्रत्यक्षापेक्षतया । ३१ पूर्वी प्रकृतिक" - मी०सू० ६१५५५४ । मिति पयव्यतिरिरवेन । ७ विषयात् परिज्ञानम् ॥ ८ स एष श्र०, २०,१० । १०त्मक कार्यम् ।
९. सत्यस्यादा- ० ० ०
२५
i
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म्यायविनिश्वयविवरणे
[ ९।१२३
तच्छतिरवस्तुभूतैव, असदपि चन्द्रद्वित्वादिकं प्रकाशयतरादेः वस्तुत एष शक्तेरवि चेत्; न; चक्षुराद दोषतः तच्छक्तिभावात् । न चात्मनि कविशेषः, "निष्कलं निष्क्रिय शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्" [ श्वेता० ६.१९] इति तत्र निर्दोषताया एव श्रमणासू । - ततः शकिल्या अवस्तुसनेवासाविति कथं तदान्नायस्य प्रामाण्यं यतस्तेन प्रत्यचादेर्भेदस्य ५ वाधनम् ? शक्तिमन्त्रे तु शास्त्रमेतत्कार्यं तद्ध्यतिभिन्नखाभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा तत्त्वानुपपते: ।
१०
१५
४६६
ततो यथार्थवादमा कार्याविभिद्यते ।
२:
प्रधानादेरपि तत्कार्यजन्मनि ॥११०९॥
न च तद्भेदविज्ञानमाम्नायेोपपते । तथैव स्तम्भकुम्भादिर्ययास्वं कार्यजन्मनि ॥ १११०॥ समर्थो भवे त्रासमर्थादन्यतः स्वयम् । नैकत्वrtateतो बाधा तज्ज्ञानस्यापि युज्यते ॥ ११११ ॥ न तत्कार्थभेदखानमपीडयन् । स्तम्भादिनिर्माधाय भवति प्रभुः ॥ १११२३ तस्मात् सामर्थ्यलिङ्गोत्थमनुमानमवाधितम् । 'परस्परसी वस्तु क्स्त्र निश्रयात् ॥ १११३ ॥
इमेवाह 'समर्थम्' इति । यस्मात् स्वकार्ये समर्थ शकं स्वलक्षणम् तस्मात् सङ्कीर्णम् इति । स्वलक्षणस्य स्वरूपमाह- 'स्वगुणैरेकम्' इति । स्वयहणेन परगुणै रेकत्वाभावादयन् "चोदितों दधि खाद" [ ३१८२ ] इत्यादेरनवकाशस्थं दर्शयति । गुणशब्देन च तस्य सामान्यवाधित्वात् गुणपर्यययोरुभयोरपि ग्रहण अव २० वा 'सहक्रमविवर्तिभिः" इति । सूत्रे तु पृथक्पर्येयोपादानस्य प्रतिपादितमेव प्रयोजनम् । कुखः पुनरेवं स्वलक्षणमिति चेत् १ आह- 'समर्थम्' इति ।
>
अर्थक्रियासमर्थ यत् स्वलक्षणमुदीरितम् ।
द्रव्यपर्ययात्मैव बुद्धिमद्भिर्नियते ॥ १११४ ॥
न द्रव्यं नच पर्यायो लोभयं व्यतिभेदवत् । राष्ट्रमर्थक्रियायां यत् तत्प्रतीतिर्न विद्यते ॥ १९१५॥ निवेदयिष्यते चैतत् यथास्थानं सविस्तरम् । विस्र स्थीयतां तस्मादिदानी मुच्यते परम् ॥ १११६ ॥ 'भिम' इत्येतदसमानस्य मतमाशङ्कते -
यदि शेषपरावृते रे कज्ञानमनेकतः । इति ।
१ - दि थ-आ०, ब०, प० २ एक्वाम्नायः ३ यत् आ०, प० । ४५० वा २३१५
परानपेक्षम् ।
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१९९२३]
भैयामा प्रत्यक्षप्रस्ताव
४७
एकज्ञानाविं, तदेकसिद्धिी, तस्कस्य नानायवसाधारण्य(ग)स्थूलस्य ज्ञानमतीन्द्रिर एकशाला न रूकवाद, गिअनेकता अनेकरमान् परमायोः । कोशात्? शेषपरावृतः शेषाः तम्झान प्रत्यहेतयः प्रत्येकावस्था: परमाशवः तेभ्यः परावृत्तिः सञ्चयलक्षण यस्मिन् तस्माविति । तथा हि-वटादावेकज्ञानं संचितानेकनियन्धनम् एकज्ञानत्वात् दूरविरलफेशेषु तज्ज्ञानबन् । ततो न तद्लात् अक्रमादनेकस्वभावस्कस्य सिद्धिरिति परस्या- ५ फूलम् । 'यदि' इति तदवोतनार्थम् । अत्रोत्तरमाह
अनर्थमन्यथाभासम् [ अनशानां न सशयः ॥१२३॥ इति ।
'एकज्ञानम्' इत्यनुवर्तते । रत् न विद्यते अर्थः अर्थक्रियासमयः यस्मिस्तत् अनर्थम्, 'नोऽर्थात् ' शाकटा० २१११२२८] इति काभावः, समासान्तस्यानित्यत्वात् । अथवा अर्थो न भवतीत्यनर्थः स्थूलाकारस, सोऽस्यास्तीत्यनर्थम् , अभ्रादिषु दर्शनादकार. १. प्रत्ययात् । अनर्थवे निमित्तम् 'अन्यथाभासम्' इति । अर्थो थेन व्यवस्थितोऽनेकाऽस्थूलप्रकारेण तस्मादन्येन एकस्थूलप्रकारेण भालः परिच्छेदो यस्मिन् तद् अन्यथाभासम् । यद्. न्यथाभासं सदनर्थम् यथा दूरविरलकेशेषु स्थूलै कझान , तथा च घटादापि तज्ञानम् , वथा च कथं तस्य प्रत्यक्षत्वं भ्रान्तस्यात् ? स्थूलाकार एव तस्य तत्रं न नीलादाविति चेत् । कथमेकस्यैव तत्वमतत्त्वञ्चापि रूपम् ? अन्यथा घटादेरपि मानेकरूपत्वस्याविरोधान् न स्थूला. १५ कारेऽपि तस्य विभ्रम इसि कथं तत्रापि सनत्य न भवेन ? दूरे सदाकारस्य असत एष दर्शमानमिति चेत् ; मीलादापि मैवप् , तस्यापि क्वचिदसत एकोपल भात् । यत्र साधोप. नियातः तत्रैव सस्यासत्वं न सर्वत्रेति चेत् ; नः स्थूलाफारेऽपि तुरुक्चात् ।
___ कथं या दूरोपलभ्यस्य सदाकारस्यास त्वम् ? प्रत्यासत्तो सद्विविक्तानामेष केशानामुपल. म्भादिति चेत् ; कीरशास्ते केशाः ? स्वावयवापेक्षया स्थूला एथेति चेत् ; असन्म एव वस्तुत: २० सहि तेऽपीति कथं तेषां सञ्चयः कथं का स्थूल्यनज्ञान हेसुत्थम् असतां तदयोगात् । निरंशपरमाणुस्वभाग एवेति चेत् ; न तेषां प्रत्याससावप्युपलभ इति कथं ततस्सदाकारस्यास यतस्तनिदर्शनात् घटादावपि तदसत्यम् ?
भवतु स्थूलबत् नीलादावपि तस्य मानावयवसाधारणसया सविकरूपत्वेन विभ्रम एक "समालम्बने प्रान्तम्" [ ] इति वचनात् । प्रत्यक्षस्य तु तस्य व्यवहt- २५ प्रसिद्वादविभ्रमादिति चेत् ; न तहि सतो यहि निरंशार्थसिद्धिः अतदाकारत्वात , अन्यथा आकारवादण्याचावात् । ततः स्थूलार्थस्यैव सिद्धिनेत । न तहिं सस्य निर्विकल्पकत्वम्, सविषयस्य साधारणतया सविकल्पकल्येन सामर्थ्यजन्मनि सिस्मिन्नपि तरवस्यैवोपपसे।
इतिसूत्रेण विहितस्य कञ्चत्यमस्याभावः । २“देश्यः" शाकटा० ३३१४२१ ३ स्यन्त. खम् । । "परमार्थतस्तु सकलमालम्बने भ्रान्तमेव ।"-90 चार्तिकाल. २११९६ । ५ तयाफारशानस्य । ज्ञानेनिन
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भ्यायविनिश्चयविधरणे
{१।१२३ सतो यदुक्तम्-"प्रत्यक्षं कल्पनापोडमर्धसामोदरपतेः"
] इति; सत्र अर्थों यदि परमाणुः : असिद्धो हेतु।। स्थुलश्चेत : उत्तानीत्या विरुद्धः। ततो यदि भ्रान्तम: ने निर्विकल्पम् , तच्चेत् ; न भ्रान्तम् , इति महानयं सङ्कटप्रवेशः परस्य । सतः सिद्ध प्रत्यक्ष एवं सहविषर्तिभिरेकं स्वलक्षणम् । व्यावहारिक्रमेव तत्तथान तास्विमिति येत न ध्यवहारानन्यस्य तत्त्वस्याभावात , अप्रतिपसे । वन सम्चितपरमाणुनिबन्धनस्वं प्रत्यक्षस्थ । निरस्तश्च तत्सम्यय: सान्तरनिरन्सरचिन्तया । तदेवाह- अनंशाननराशयः। पशियहुत्वापेक्षया बहुवचनम् । ततो निषिद्धमेतत अर्चस्व
"भागा एवावभासन्ते सनिविष्टास्तथा सथा ।" (हेतु० टी० पृ० १०६] इति ; सनिदेशस्यैव अनशेष्वभावात् , स्थूलप्रतिभासस्यैव च भागप्रतिभासविरोधिनोऽनुभषात । १० कुः पुनविनतम् चितिभिरकम्' इति ? प्रत्यक्षत इति पेत् ;
न देन क्षणभङ्गिमा समिहिसस्यय गुणस्य' प्रहणान् न पपरसमयभाविना वदा तस्याभावात् । तथापि पहणे देशकालव्यरहितस्य सर्वस्यापि प्रहमा सर्पस्य सर्वदर्शित्वं प्रमाणान्तर. वैयर्य प्राप्नुयात् । न च तेषाममहणे सदेवत्वं स्वलक्षणस्य शक्यमवगन्तुम् , व्यापक प्रतिपत्तेाग्यातिपत्तिनान्तरीयकत्वादिति चेत् ; भवेदेवम् , यदि तस्य क्षमत: सिलो १५ भवेत् , न चैवम् । तथा हि- 'न तस्य स्वत एवं तरिसद्धिः । तेन पूर्वापरयोरग्रहणे तयावृत्तिस्मस्य तस्य दुरवबोधत्वात् व्यावृत्तिप्रतिपत्ते, व्यावयंप्रतिपत्तिनान्तरीयकत्वात् ।
प्रहन्छ यद्यतत्कालेम; बहिर्षिधानामपि भवेन । तत्कालेन चेत् ; व्याइतमेतत्"तत्कालेनैव तत्कालव्यावृत्तिास्मनो गृह्यते" [ ] इति । मायन्यतः प्रत्यक्षात : "अत एय, अनभ्युपगमा सदस्य तत्स्वभावरवान् । पूर्वापरापरिज्ञानेऽपि भवत्येव स्वतः प्रतिपत्तिरिति चेत् । तद्विपर्ययस्यापि किन्न तथा बहिरन्तश्च प्रतिपत्ति: सस्यापि कचनिन्दसरस्वभावस्यस्याविशेषात् ? अणिकतयैव उभयत्रापि पस्तूनां प्रतिमासनादिति चेत् । म: एकतयापि प्रतिपसेर्दर्शनात् । अध्यारोपितमेवैकल्यं तत्र विकल्पेन प्रतीयते न मास्तरमिति चेत् ; विकल्पेनापि कयमसदाकारण तस्य महणम् आकारबादवैकल्यप्रसद्भात् ! तदाकारस्वत न सर्वथा तदवस्तुत्कापते । २ पास्तुना तत्पतिपत्तिः ; अन्यत्रापि झानवैयपिसे ।
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1"अर्धस्य सामध्यग रामुखयादित्याह । द अर्थस्य समनिश्पद्यमान सदूपमेनानुर्यात् ।"-. वातिकाल२११५२ १ २ गुणग्रह आ०, २०, ५.१३ तस्व स्वर एक तसिद्धिरित्यत्र न तस्य प्रत्यक्षान्तरस्तत्मिद्धिरिति दसध्यम् । तत्कालनेर तत्कालख्यातिरामनी परत इत्यत्र अात्मशब्देन प्रथम प्रत्यक्ष प्रायम्" .........."मनु ल-कहतेन निबास्त्रनुपाविमा प्रश्नान्तरण प्रथमप्रत्यक्षाय तत्कालव्याप्रति शुत इयत्र ध्यास्वभावात् न्याहरुमैतदित्यु कयं युक्त स्थदिति न शनीयम् ; प्रवक्षस्य वा कालायत्तित्वेनाक्षणिकत्वं तथा पञ्चतमत्यात्यापि अक्षरणकरवं सम्मपत्यविसंवादात , तथा परस्य क्षमाग विश्वतरीत्यभिप्रायेगोसम्वाद ।"-सा. ट्रिक। " कालेन आOR., ५. | " "तथा होत्यादि प्रतिपादिनप्रक्रियाल एन ।"-नाटिक। ६ तामस्त अ०, १०, २० । ७ - वस्यानि-आर, २०, ५०1८ अनिकाया ।
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९।१२४]
प्रयमा प्रत्यक्षतामा 'कस्तुमेव विकल्पान्तरेण प्रहममिसि ; न ; तथापि कथमतदाकारण' इत्यादेभ्रमणाद. परिनिधान । कथाविपचदाकारस्वं तु नानेकान्तविद्विषामुपपन्नम् । तदुक्तम्
"विरोधानोमयकात्म्य स्वावादन्यायविद्विपाम्" [आप्तमी ० श्लो० ३] इति ।
वस्तुतो विषिक्त एव विकल्पमतदाकारात , अधिवकस्तु विभ्रमादिति चेन् ; विषेकस्य ५ प्रसिपचौ ए विभ्रमः ! निश्चयाभावादिसि चेस् ; न ; प्रत्यक्षेऽपि तदापत्तेः । तथा च अयमेतत्- "प्रत्यक्षं कल्पनायोडं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।" (प्र. बा. २११२३] इति , सद्विभ्रमाकान्तादेव सदभावप्रसिद्धरयोगात् । च तदाकारस्यासविधानान विभ्रा इति चेत् । इसरत्र कुतस्सस्सन्निधानम् ? वासनात इति धेन ; न ; सस्रः प्रत्यक्षसमयेऽपि भाशत् । सत्या अपि मै प्रयोधः सखेसोरभावात् पश्चात प्रत्यक्षादेव सहशापरापरविषयान् तत्पनोधे युक्स बरसासनिधानं तदवियफविभ्रमश्च विकल्प इति चेन; कुसस्तहि प्रधानादिवासमाप्रबोध: यतस्तविकल्पः । न चायं मास्येव बलमुपलभात् । अचलातु प्रत्यक्षेऽपि स्यात् । संभ तद्विवेकप्रतिपत्त्यै तविभ्रमा
___ सत्यमिदम् , न हि विकल्पस्यापि स्वतस्तद्विनमः, विकल्पान्तरादेव सावादिति बेत् । तवोऽपि , सविषयान ; तदयोगात् । तविषयल्ये व पूर्वयत्प्रसङ्गाम् । लबाभि १५ 'उदन्तरात्तत्कएपनायाम् अनयमापसे।।
___मभूद्विकल्प एवेति चेत् ; किमिदानी कल्पनापोडग्रहणेन व्यायामानान् ? कि काभान्सपाहणेन मानसवन्द्रियस्यापि विभ्रमस्य तुल्यन्यायतयाऽनुपपत्तेः । ततः ससि विभ्रमे सद्विवेकः तमानस्याऽप्रतिपय एव वक्तव्यः । न च सावता योधरूपतयाऽपि तस्याऽप्रविपत्तिरेष विभ्रमासिद्धिप्रसङ्गात् "अप्रत्यक्षोपलम्मस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति" [ इति २० अचनात् । भवत्वमिति चेन : सिद्धा नहि क्षणभङ्गस्यापि प्रत्यक्षे तद्वदप्रतिपत्तिः । एतनेवाह
नयाऽयं क्षणभको न ज्ञानांशः सम्प्रतीयते ।
अर्थाकार विवेको न विज्ञानांशो यथा कथित् ॥१२४॥ इति । तथा तेन प्रकारेण अयं परप्रसिद्ध क्षणभ म सम्प्रतीयते । कीदृशः । ज्ञानांशः शानस्य प्रत्यक्षादः अंशो माग | य क इघ ? इत्याह क्रचित् विकल्पादों विभ्रमझाने यथा २५ येन तदनुभवाभावप्रकारेण अर्धाकारात् रधुलादिलक्षणात विवेको मानावे न सम्प्रती. पते । श्रीशः विज्ञानांश इति | सदंशकच तस्मात प्रतिपन्नात अप्रतिपन्नत्वेन कथञ्चि
-
प्रस्थक्षे यदि क्षणभस्य न स्वतः प्रतिपत्तिः, मा भू अनुमानात भवर
येव । तथा हि
१ वस्न्यै व-आ०, २०, ५० । २ वासमायः । ३ वः आ.व., प० । ४ "प"सादि। सप्तमीत्यर्थः । ५ ततोप्यतद्विष-श्रा०, ५०,५०। ६ तदनन्तरा-भा०, ०,१०। ७ तत्वसन २० पु. ४०11 तुसना-साथसं.लो. २०७४।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
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PARIYAnmotswanatio
यदैव हेतुः तदैव फलं यथा प्रचीपकाल एक प्रकाशः, वर्तमानसमय ए च प्रपक्षहेतुश्चक्षुरादिव्यापारः ततः प्रत्यक्षमपि तदैव न पूर्व नापि पश्चात् तदा नियम एव च तस्य क्षणभङ्ग इसि येत् ; कुतस्तत्समयनियमः व्यापारस्य ? प्रत्यक्षस्य तत्समयनियमादिति चेत् । न ; परस्पराश्रयात्-पूर्वेणोत्तरस्य तेन च पूर्वस्य सिद्धेः । तद्विषयात्प्रत्यक्षादिति चेत् । तसोऽपि कस्मात्तस्य ५ सनियम एवावगम्यते न पूर्वापरसालशिवमपि ! तय दिवस विवि मेत् ; न शायरी स्वतः प्रतिपत्तिः पूर्ववहोणत् । अनुमानादनन्तरीक्तादिति चेत् ; न ; तथापि 'कुतस्तत्समय. नियमः' इत्यादेरुपस्थामादनस्थितेश्च ! तातोऽनुमानात् तत्प्रतिपत्तिः । नापि घस्तुत्वादिलिहोत्थान : ततः परिणामस्यैव सिद्धरिति निवेदनारा ।
तन्न 'मात प्रत्यक्षश्य ततः एकत्वस्यापरिज्ञानम्"; समस्यैशासि। कति १० द्विपर्ययस्य तु प्रतीतेः भवत्येय ततस्वत्परिज्ञानमित्यनयैव कारिकया निवेदयति-तथा
अयं लोकप्रसिद्धः क्षणभङ्गोनः कथञ्चिदक्षणिकात्मा ज्ञानांश: प्रत्यक्षाविज्ञानभागो द्रव्यापरनामा सम्यग् अकल्पितत्वेन प्रतीयते । कथं पुनरवमहादिपरापरपर्यायाणां भेदे सति उदात्मनः प्रत्यक्षस्य क्षणमनोनत्वमिति चेन : भेदवदभेदेनापि प्रतीतेतीले च पर्यत.
योगानुपपत्तेः । प्रतीतिरेव कुसस्तश्रेति चेत् । स्वत पत्र पित्रज्ञानवत् । अस्ति हि नील. १५ पीलादिनानाकारयापिनो वामस्य स्वतः प्रतिपत्तिः । एतदेवाह- 'अर्थ' इत्यादिना । अनि
नीलपीतादिविलक्षणपरमाणून आकारयन्ति अनुकुर्वन्तीत्यर्थाकाराणि, सानि ध तालि विवेकोनानि अभेन सदेकत्वसाधनं परकीयमशक्यविषेषनरवं सूचितम् । अर्धाकार. थियेकोनानि च तानि विज्ञानानि 'प नीलाावभासरूपाणि रोषाम् अंशो व्यापकभागः
स यथा अनुभवगतत्वेन कश्चित् चिकानवादिमते सम्प्रतीयते तथा प्रागुत्तोऽपि इत्येचं २० व्याख्यानार्धमेव श्रोभयत्रापि अंशग्रहणम् , अन्यदेवमेय भूयात
तथार्य क्षणमलोनविज्ञानस्य प्रतीयते ।
अर्थाकार क्विकोनविज्ञानस्य यथा क्वचित् ।।१११७|| इति ।
चित्रश्च विज्ञानभवश्याभ्यपगमनीयमेव क्षणभरे कान्तवानिमोऽपि इति, अन्यथा सर्वभावनि स्वभावतापतेः । निरूपितझैतत्- "चित्रमेकमनिच्छद्भिः" [ पृ. २५६ 1 ) २५ इत्यादौ । ततः प्रत्यक्षत एव नियाकुलता यहिरन्तश्च स्वगुणपर्यायसावात्म्यस्य प्रतिपसे सूक्तमुक्तम्-- 'स्त्रगुणैरेक सहक्रमवित्तिभिः' इति ।
एवं स्थिते परिणामस्य निठाकुलवान् समेव बस्तुलक्षणभागमाविरोधेन कृश्यन् सलमणं तस्त्रार्थ सूत्रेण दर्शप्रति--
सहायः परिणामः [स्थासविकल्पस्य लक्षणम् । इति ।
४
१-मयस्ता -आर, २०, ५०। २ इत्युक्त पटते इत्यन्वयः । ३-परतु प्रतीतेः आ०,
१ प्रतीतोप आग, घ, प० ५ अन्यवनेय -आ०, या, ५०६० स० ५।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव अतश्च समानश्रुसिकत्वेन एकोच्चारणगम्यमनेक वाक्यमुन्मजति-'ते: स्वरूपादिभिः भयनम् आत्मलाभः तदाषः स परिणामः' इत्येकम् । अनेन च पररूपाविना भवन प्रस्याचशाण: साइल्यमत प्रत्यारष्टे । सर्वभेदरूपेण आल्याने प्रतिलभमानस्य प्रधानस्य प्रतीतो कथं तत्प्रत्याख्यानम् ? अस्ति हि प्रधानस्य प्रतीक्षिरानुमानिकी । तथा हि- 'ये यवन्वितास्ते बढेसुका यथा मृतस्विताः शिवकादयो मासुकाः, सुखाद्यन्विताश्च भेदा महदादयः, 4 तस्मास तुकाः । यश्च सुखदुःखमोहात्मकस्तदन्थ्यो सद्धेतुः 'तप्रधानमिति चेत् ; न ; सुखाद्यन्वयस्य भेदेवप्रतिमासनान् । नहि यथा शिषकादिषु मृदन्वयः तथा भेदेषु सुस्वादयः प्रतिभासते, अन्यथा प्रधानमेव प्रतिभासितं भवेत् तदन्ययस्यैव तस्वास् । सभा च किं तत्रानुमानेन प्रत्यक्षप्रतिपन्ने सहयात् मृदादिवस् , अन्यथा मृदादावपि तत्कल्पनाया निदर्शनान्वर सत्रापि तस्कल्पनायां तदन्तर मित्यनवस्थापचेः; सत्यम् ; म तस्य भेदेषु अन्वितस्यैवानुमान प्रति- 1. पन्नस्थान , अपि तु सर्गप्रामाविमो निभेदस्य । तस्य धातिसूक्ष्मत्वेमानुपलब्धेन वैयर्थ्यमनुमा. नस्येति चेत् ; मा भूवैयर्यम् , असम्भवस्तु स्यात निदर्शनाभावात् । शिवकादिरेव निदर्शनमिति चेत् ; भवत्येत्र निदर्शनं यदि तत्रापि मृदूपं नि दमेव कारणमिति प्रसिद्धम्। न चैषम्', तदप्रतिपत्तः । न हि निर्भेदस्य सायान्यस्य प्रतिपत्ति; भेदान्वितस्य तु प्रविपत्ती कथं निर्भदस्य प्रधानस्य अग्ने प्रतिपत्तौ तविपरीतस्थापि कल्पनमिति चेत् ; किमि विपरीतकम् ? अनाधारणमिति चेत् । न तस्कल्पनाम 1 अनियताधारस्वमिति प्येत् ; न तर्हि प्रधानस्यापि निर्भेदत्यम,
अनियतभेदत्वस्येवोपंप । तन्न निर्भेदस्य प्रधानस्य हेतुस्त्रं यस्य सर्मप्राभाविना सूक्ष्मत्वे. नानुपलभ्यस्य महदग्देस्सत्कार्यात् प्रतिपत्तिः । ततो न युक्तमुक्तम्
"सौक्षम्याचदनुपलब्धि भावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः। महदादि तय कार्य प्रकृतिविरूपं सरूपञ्च ॥" [सां० का० ८ ] इति । २०
भवतु सोदमेव सर्वक्षा सदिति चेत् ; न तहदिमुपपन्नम्- "प्रकृतमहान" [सां०का० २२] इति ; सझेदात् 'महान' इत्युपपसे । तद्भुदस्य सतोऽपि महदुत्पत्तावनन्धयात् प्रकृतेस्तु विपर्ययादेवं बधनमिति चेत् ; न तर्हि महादेरहङ्कारादिररि तस्थापि भेदत्वेन तदुत्पत्तावनन्षयात् , इत्यसत्तमेतत् "महादाधाः प्रकृतिविकृतयः सप्त' [स० का, ३] इति | विकृतित्वस्यैव तन्त्र सम्भवान्न प्रकृतिस्वस्य । "मूलप्रकृति" [सई० का ३] २५ इत्यपि न मन्धुरम् ; भेदानुगसायाः प्रकृतेरपि भेदान्तरकार्यत्वस्यावश्यम्भावात् मूलस्वस्य
"सुखदुःखम्नेहसमन्विता हि चुच्चादयोऽरयादिलक्षणाः प्रतीयन्ते । यानि च परमानुगतानि तानि सत्तभावान्मत्तकारणफानि, पश्चा ऋमिपिण्डसमनुगता बटमुटादयो भृद्धेमपिण्डाध्यसकारणका इति कारणमस्त्पन्यसमेदानामिति सिद्धम् ।"-सो. स. काँपृ०1041 स का जथम १५ । प्रधानत्वात् । ३ स्वर्गप्रा-प्रा०, २०,१०। -स्यानिमपति-आ०, २०, २०५ ५ यथा महानसे धयसविपद वाटामिप्रतिपत्तावपि अनुमानातद्विपरीवस्य सार्णपाने: करन भवति तथैवेति भावः। ६-भेदस्थोवपतेन निमा य, प.. "प्रकृतिसरूपं विरूषच"-सां• का।
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ग्यातिनिधयविवरण अविकृतिस्वस्यासम्भवान् । तन्न पफप्रधानहेतुकरयं जगता भातीतिकम् , पढ़ेदस्य भिन्नोपादानवायामेव प्रवीतिभावादित्युपपत्र स्वरूपादिमिरेव तस्य भवनम् ।
तथा, 'सस्यैकस्य भावः तद्भावः स परिणाम: स्यन्यत'; अनेनापि 'अस्यका एव नावयबी' इति प्रतिक्षितम् । तेषामेव कवचिदेकभावस्य अश्यविनोऽपि प्ररिते। अन्यथा ५ शून्यत्रावपत्तेर्निरूपितत्वात् । कथं पुनरमेकमावस्यापरित्यागे 'तेषामेकमा ? प्राच्याकार
परित्यागाजहसिकस्यैव उत्तरकारोपादानस्य परिणामस्योपगमात् । तत्परित्यागे व कथं तस्य स्थवीयस्त्वम् अनेकावयवसामानकापावादिति ? लोकमान 7 पायायुमावामिमुँकिरिति चेत ; न ; कथञ्चिदेव तस्य परित्याग । अनेकमावस्य हि अनेकभावापति
योग्यतयैव प्रत्येकदशाभाविन्या परित्यागः न पुनरेकभावापत्तियोग्यतया परस्परसमवायसमय. १. भाविन्या । तथापि सत्परित्यागे तदेकभावस्यैवानुत्पसिसमा । तत: सरयव्येकमाये
कथाचिदनेकभावस्थापरित्यागार परमाणुपादापतिः । एवमपि अषषषस्य अवयवान्तरेणेकमाये पररूपेणापि भावः प्रतिपन्नो भवति, तथा च है: स्वरूपादिभिरेष भाव, तावः' इस व्याख्यानं व्याकुली मूतं भवति । न चैवं विभक्षणे नोदितस्य करभेऽपि निवृत्तिः पनस्ते.
नायकभावसम्भवादिति चेत् ; न ; तदेकभाषस्य तत्पसयाँ चित्रकसंवेदनमनियमेन सतस्तस्य १५ पररूपत्वाभावान तथा प्रसीते। । न चैवं नोऽपि करभेणेकभाषः प्रतीत्यभावात् । सम्भावनया
৪ ক্লাব বিসপ্পা। ঘি খবস্থালীন জ্বংসধুলীনাদি নানা भवमोऽपि दधिवादने चोदितस्य करभेऽपि प्रवृत्तिप्राप्त । सत्ता प्रातीविकमिदम्- 'सस्पैकरय भावः तद्भावः' इति ।
तथा, 'तेन परस्परैकत्वेन द्रव्यपर्यायाणां भावः तनाव परिणामः' इत्यपरम् । २. अनेनापि ठयात् पर्यायाणां तेभ्यश्च तस्य आत्यन्तिकं भेदं प्रत्याचष्टे, स्थलिदभेदस्थापि प्रतिपत्ता
मिथ्यैवेयम्'भेदप्रतिपस्या बाभ्यमानस्यादिति चेत् ; कृतस्तत्प्रतिपक्ति ? प्रत्यक्षादिति चेत् । न; अभेदप्रतिपत्तेरपि तत एव भाषेन थाध्यत्वायोगाद। कथमुभयोरेको भावो विरोधादिति चेत् १ किमिदानी भेदप्रतिपसिरे ? तथा चेत् ; "कस्या: "या बाधनम् ! अभेदसंस्कार
परिपाकोपनीताया. अभेदनसिपोरेवेति चेत् ; न तस्या; सहभाषो ज्ञानोत्पत्तिोपमस्या२५ निष्टस्य प्रसङ्गात । नाऽपि पश्चान् । प्रतित्तिभेदस्याप्रतिवेदनात् । अप्रतिवेदन सधुवरिति
चेत् ; न ; प्रतिपत्त्योरपि तदष्यतिरेकेण तत्मसङ्गान् । प्रतिविदितसरात्मकत्वे तु सयो; भेदाभेदात्मकत्वेन किमपस भरतो यत्तदेव द्रव्यपर्याययोन क्षम्यते ! वन्न इयमन्येच अभेद. प्रतिपतिः प्रत्यक्षान् , प्रत्यक्षादेबैकस्मात् भेष्वदभेदस्याऽपि प्रतिपत्तेः । एवमपि भेव व सस्य
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यायमित्वन्धयः । २ अवयवानाम् । २ "पूर्वाधारपरित्यागासह दत्तात्तसकारान्वयनयमिक्यस्यो पादानत्वातीस-अस्टसाह. पृ.६५। ४ मित्रत्वम् । ५मागवा , प.प० ।। -रेखीव माने to म०प०७ तदतपत्या ता०। ८ वाक्यमित्यम्वदः । ९धभेदप्रतिपतिः। तस्यास्तथा बाबा, प०,५011 मैदप्रतिपत्त्या । १२ लधुवश्यभेदेन । १३. प्रत्यक्षस्य ।
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[१११२५]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
कथं सदेवें
;
;
प्रामाण्यम् नाभेदे, तस्यासत rs समवायोपनीतस्य तत्र प्रतिभासादिति चेत् प्रमाणतदाभासत्वाभ्यां भिन्नम् ? अभिनं सत्र दर्शनादिति चेत् + तदर्शनस्य areer ouratऽपि तद्दर्शनस्यै प्रामाण्योपनिपातात् । अव तैस्याऽपि तंत्र बन्नेष्यते समवायोपनीतस्य असत एव तस्य तत्र प्रतिभासनादिति तन्न इत्यादेरनुषङ्गात् अनवस्थिते ।
तत्राऽपि कथं तदेव'
१
rer दूरं गतेनाऽपि प्रमाणेतरभागयोः । एकत्वं सात्विकं वाच्यमनवस्थान भीरुणा ।। १११८।। पारम्यं निधानशेधितम् । देवानुमन्तव्यं न्यायमार्गानुना ॥ १११९॥ aartaaraमास्ते शेते च माणवः । seervareer arreस्यावबोधनात् ॥ ११२० ॥ अत्रे तु तस्य स्यादु भेदज्ञानमपहृतम् । निद्रायितं जगत्मा तत्रैवर्जनात् ।। ११२१ ॥ समवायादभेदश्चेत् असम्मेावभासते । भेद: सर्वोscaria feन्नैकस्मात्प्रकाशताम् ? ॥ ११२२ ॥ द्रव परं तवं न भवे सर्वशक्तिमत् ।
पर्यालोच्येदमेवोक्तं मण्डनेन मनीषिणा ।। ११२३॥
"समवायसामर्थ्याच्चेत्" भेदवतोरभेदावभासः हन्तैकस्यैव वस्तुनः सामध्ये
विशेषre arearers युपेयताम् व्यर्था वस्तुभेदकल्पना" [ब्रह्मसि०१० ६१] इति । e endia: सती मिध्या वा इत्युपपन्नमेतत्- 'सेन अन्योन्यात्मकत्वेन भावस्वद्भावः २० परिणामः' इति ।
स किमित्याह- स्यात् स विकल्पस्य लक्षणम् इति । स परिणामो विकल्पस्थ विविधं स्वमतानुरूपेण 'तीयैः कल्प्यत इति विकल्पः, चेतनेतरलक्षणो भावः तस्य लक्षणं रूपं स्थात् भवेत्, प्रत्यक्षेण विषयस्य तथैव प्रतिपत्तेरिति भावः ।
तत्रैवानुमानमाद
ade वस्तु साकारमनाकारमपोद्धृतम् ॥ १२५ ॥ इति ।
वस्तु
चेतनसन्यच्च धर्मिं तदेव परिणामलक्षणमेच नैकान्ततः क्षणिक कूटर वा स्वकारः । कुल इत्याह साकारन इवि । आ समन्तात् क्रियन्ते कार्याणि येस्ट आकारा शक्तिपर्यायाः सह वर्त्तत इति साकार सशक्तिकं यत इसि ।
१ प्रत्यक्षमेष २ प्रत्यक्षदर्शनस्य । ३ पर्यायाददर्शनस्य । प्रादे६अदानंद एवं सतोर मे-ता। हाथैः आ०, ब० ए० ९ site, 4, 40 1
६०
प्रत्यक्षाभेददर्शनस्थापि
१०
१५
२५
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न्यायविनिश्वयविचरणे
[ ११२५
3
शक्तिम क्षणमेव किन्न भवतीति चेत् ? उच्यते-सत्तो यदि स्वकाल एव कार्य. तत्कार्यमपि तदेव तदेव तत्कार्यम इति निरवकाशैः सन्धान: तंत्रिबन्धनो व्यवहारख cererfect चेत्; कः पश्चादर्थः । तद्विनाशचेत् सोऽपि यदि कार्यमेव तदा "कायें कार्यम्' इत्युक्तं भवेत् तच्चानुपपन्नम् भेदाभावात् । भेदे तु नाथं कार्यं तदन्यस्याभावास भावे स ५ एव दोषः तद्योगपधात् सन्तानबाको निरवकाश इति । कार्यादन्य एक नाशक्षेत्; न सोऽपि कारणसमसमयः पूर्ववदोषात् । पञ्चादेवेति चेत्; न; 'तत्रापि कः पश्चादर्थः इत्यायतुसमाख्यवस्थितिदोषानुषङ्गात् । न नाशः पञ्चादर्थः । दर्शननिवृत्तिसाहिं तदर्धः, कारणकार्योति देत न अत्तदर्शनस्य अकारणत्वप्रसङ्गात् । न च सर्व वृत दर्शनमेव संसारिणः सर्वदर्शित्वापतेः । सर्वदर्शिनांऽपि न तत्र निवृत्तिः तद्दशायामसर्द१० दर्शित्वापत्तेः । एतेन दर्शनविषयत्वमेव वर्तमानत्वमिति प्रत्युक्तम् देशादिव्यवहितत्वेन अवृत्तदर्शनस्य वर्तमानत्वप्रसङ्गात् । योग्यपेक्षया च सर्वस्य वर्तमानत्वे कथमुपायोपेय.
3
भन देशना ? सहभाविनां तद्भावत्वानभ्युपगमात् । तन्न निवृत्तिरपि तदर्थः । नाsपि कालविशेष: तस्यानिष्टेः ।
5
;
i
eeg कार्यमेव तदर्थं न जोको दोषः तदर्थस्य आधारत्वानवक्लृप्तेः", १५ 'नीलादिने 'वाचेनाऽपि स्वरूपेण भवति कार्यम्" इत्येवशवकरूपनात् कालविशेषस्याCategories, "तदन्तरापेक्षया वस्वानक्लनो अनत्रस्थानस्याप्यषकल्पनादिति चेत्; कुतस्तस्य सत्प्रतिपतिः ? प्रत्यक्षादिति चेत् न ततः कारणस्याप्रतिपत्ती 'अत इर्द पत्' इत्यप्रतिपत्तेः । न च ततः कार्यसहचरात् कारणस्य तत्सहचराद्वा कार्यस्य प्रतिपत्तिः असन्निधानात् । असनिहितविषयत्ये अतिप्रसङ्गात् । उस परत्वे प ২• क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गात् । तन्न प्रत्यक्षम् सस्प्रतिपत्तिः । तन्मनो विकल्पादिति चेत्; न; तस्यावस्तुविषयत्वेनाऽप्रमाणत्वात् । न चाश्रमाणिकैव 'तत्यप्रतिपत्तिः कल्पना । न कञ्चिदपि पश्चादर्थो निश्चयविषयः ।
譬
१६
प्रमाणव्युत्पादनप्रयास
४७४
:
i
भवतु वा तथापि कुतस्तदा कार्यम् ? कारणसामर्थ्याच्चेत् न सदभावात् । प्राप्यादेवेति चेत्" अक्षणिकादपि ततस्तथा किन कार्य यतः सत्वं ततो व्याव १ २५ कार्यकालेऽपि तस्य भावादिति चेत् भवतु, न विरोधः । न हि कारणभाषेन कार्यविरोधः, Ferrata fudधस्य सम्भवात् अन्यया तादपि शिखिनः के कार्ति स्यात् कथं
• कार्यकार्यमा २ कारणकारणकाले ३ कार्थकार्यस्य कार्यभार रानामेकस्मिन्नेव क्षण निपलनात द्वितीये च निरन्वयविनाशात् समाप्तः सन्तानव्यवहार इति भावः । ५ तु सध्यं का-आ०, व ए । ६ साशः आ०, ब०, प० । ७ दर्शन निवृत्तिः "टील या वर्तमानाता | शाक्तिा य भागवनिति कालदस्थितिः॥" प्र०वार्तिकाट ३११३७९ शादि-आ०, ब०, प० ११० उपत्यभावस्य । क्लाहि आ०, ब०, प०। १२ नापि आ०११ कार्य-आ०, ब०, प० : १४ तदनारा-आ०, ब०, प० १५ प्रत्यक्षात् । १६०, ६०, प० । १० प्रदि- भ० ० ० २८ क्षणिकदापि आ०, ब०, प० ।
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प्रपमा प्रत्यक्षपस्तापा पुन: निस्यादेकस्वभावाम कालभिन्नमने कार्यम् १ तस्वभारभेदाहेव तदुपपतः, तदभ्युपगमे व कथं तदेकम ? तवनान्तरत्वेन सत्राऽपि भेवस्यैवोपपशेरिति चेन; कथमिदानी प्रदीपाहेरपि क्षणिकादेकस्वभाबादेव देशभिन्नत्य कार्यस्य कमलादेरुत्पत्तिः । स्वभावभेवाषालप्तौ निरंशवादव्यापतेः । 'एकोऽपि स्वभावस्तस्य नाश एव यतो नानावेशमनेक कार्यम्' इति प्रतिवचनं न नित्यपक्षेऽपि वै मुख्यमुद्दति, नित्याइप्येकखमावादेव कालमिनस्य कार्यस्योत्पत्ते, ५ न देन भेदः क्षणिकवा । पदुसम्
"प्राक शक्तानवरात् कार्य पश्चात् किनाविनश्चरात् । कार्योत्पत्तिविरुध्येतन चै कारणसत्या ।। यद्यदा कार्यमुत्पित्सु तत्तदोस्सदनात्मकम् ।
कारण कार्यभेदेऽपि न भिन्न क्षणिक यथा ।।" सिद्धिवि०परि० ३] इति । १७ तन्न क्षणिकात् कार्यम् ।
माप्यक्षणिकात, ततो यकस्वभावदेव देशादिभिन्न कार्यम् ; क्षणिकादमि किन्न स्वा! तस्य कार्यकालमाप्त्यभावात् तत्प्रातस्यैव कारणस्वादिति चेत् । अनुत्पन्नस्य कार्यस्य कः कालो यस्य प्राप्तिः १ उत्पनस्येति चेत् ; न परस्पराश्यात्-तरप्राप्तात् उत्पत्तिः , उत्पन्नस्य च कालभावात् तत्माभिरिति । प्राप्त्या च कारणले अतिप्रसङ्गः-सर्वस्य नित्यश्य एकन का १५ तैरवापसे । प्रामपि तन्त्र यदेव लमर्थ तदेव कारणं न सर्वमिति चेत् । पर्याप्त प्राप्त्या, सद्विफलस्यापि सति समय तक्ष्याविरोधात् । प्राप्त्यभाये संदेव कथमषगम्यत इति पत्रमा अम्बयव्यतिरेकाम्यो तददगमात् । सोवपि प्राप्तिभावाभावावेति येत् : त पक्ष तथा प्रसीतेरिसि चेत; क प्रतीतिः ? नित्य एयेति चेन्; न; क्षणिकवनिरंशस्य तस्याप्रतिपः । सन्न एकस्वभावं सरकारणम् । स्वभावभेदस्य तु तदनन्तरस्थावक्लप्तौ सनिरंशवादस्य व्याघात:, २. अर्थान्तरस्य तु सहकारिसन्निविरूपस्यावकल्पनं प्रागेव निवारितम् । तर निस्यादपि कार्य क्षणिकवत् । 'प्राक् शतात्' इत्यादिकन्तु देवैः साम्यापादनबुद्धय वाभिहितं न वस्तुतः तत्कारणत्वनिवेदमयुद्धधा । कथमन्यथा "मिध्येकान्ते विशेषो वा का स्वपक्षविपक्षयोः" [लधी दलो० ४१] इति तद्वचनं न विरुध्येत १ सता क्षणिकादिलक्षणात् विपक्षात बाधकप्रमाणबलेन ध्यावर्तितस्य साकारत्वस्य निक्षितान्यथानुपसिकत्वेन गमकत्वोपपः अदि. २५ एखम् ततो वस्तुनः परिणामलमणत्वसाधनमिति" सूक्तमेसम्-'तदेव वस्तु साकारम्' इति ।
नन्त्रे वस्तुबत् तद्धभणामपि शक्तिमत्वेन वलक्षणत्थे माक्रमाभ्यामनेकान्तात्मकस्वम् : पुनस्तद्धर्माणामपि तथा तत्त्वमिति एकवस्तुधमैरेव सकलस्यापि जगमोऽभित्र्यानत्वात
क्षषिकादिख- आ०, २०,१०।२ कार्यभेदेन दिलास्थ स्वमादभेदः । ३ नवरं का- १० ४ तत्तथोप- भा०, म०, प.! ५ शकिस्य । ६ लार्यकाल प्राध्या । कारणापतेः । सामर्थभेद । १ बाम्यमन्यतिरेवावपि । १. अमला । 11-धनापमिति आ०,०,१०। १२ कम्तकामाभ्याममेकान्तारमकत्वम् ।
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म्यागविनिश्चयविवरले वरवन्सरतज्ञर्माणामक्काशः स्यादिति चेत् ; आह- अनाकारमपोद्धृतम् इति । म विद्यते माकारोऽनेकान्हरूपस्वभावो यस्य नन्-अनाकारं परिवति सम्बन्धा । कीरशं सया ! अपोधृतं द्रश्यरूपतया पर्यायेभ्यः तद्पतया द्रव्यात परस्परमा नयबुद्धपा पृथक्कृतम् , अपृथककृतस्यैत्र अनेकान्तात्मत्वोपयमादिति भावः । यद्येवं व्यभिचारी हेतुः साकर. ५ रत्यादिति, तेषां शक्तिमत्त्रेऽपि परिणामलक्षणवाभावादिति चेत् । न : तेषां पृथकशक्किमरया
भावात् । न चैवमवस्तुस्वमेव मयबुद्धयाऽपि वस्तुतात्म्यस्याप्रतिक्षेपात् दुर्नयत्वामुषमात् । ततो नयार्पणया एकान्तात्मकत्वं प्रमाणार्पणया बनेकान्तात्मकत्व करतुन इति व्यवस्थितम् ।
गरिदम् बाम व्यासरः सूर-नैकस्मिनसम्मवात्" [ब्रह्मसू० २१२१३३] इति । अस्यार्थ:-मानेकान्तवादो युक्तः ।, कुन पतन् ? एकस्मिम् थर्मिणि १. सदसवनिस्यानित्यत्वनानैकत्वादीनां विरुधर्माणामसम्भवादिति; समाह
भेपानां बहुभेदानां लकत्रापि सम्भवात् । इति ।
परिणामलक्षणमेव वस्तु । फुतः १ भेदानां सदसत्वादीनाम् । कीदृशानाम् ? पहुभेवानाम् अनेकप्रकाराणां तत्र तस्मिन् परभसिद्धे एकत्रापि "एकमेवाद्वितीयम्"
[छान्दो०६।२।१] इस्यानातेऽपि न केवल स्याद्वाविप्रसिद्ध जीवादावेद हस्यपिशब्दः सम्भ१५ पात् । तथा हि
व्यावृत्तं येन तद्ब्रह्म अपनादवकाप्यते । तस्याप्यवस्तुरूपरवं सहदेव प्रसम्यते ॥ ११२४ ॥ सस्मादिष स्वरूपाच तच्चेद् व्यावृत्तमुख्यते । नैरास्म्यवादनिर्मुक्तिः कथं ते ममवादिनः । ॥ ११२५ स्वरूपादनियूस तत् व्यावृत्तं येन प्रपञ्चतः । सदसद्धर्मभेदोऽयं कथं तन सम्भवी ॥ ११२६।। प्रपमधात्तद्विवेकशेस् फुतश्चिदयगम्यते । प्रपन्चाधिगमस्तत्र भवत्येव सर्वथा ।। ११२७ ॥ सद्विवेकवदन्यच्च सद्रूपचेन्न चेयते । सर्वथा सदनिर्भासं प्रधानादिभिश्ते ॥ ११२८ सत्यज्ञानात्ममा वितिः तस्य नो वेद्विवकतः । विश्तिाविदितारमाऽयं तत्र मेदोऽस्तु सम्भवी।। ११२९ । अमृतत्वात नित्यकलेत तस्य अझाविवेकतः। मुमुक्षुषा प्रयासस्य किमन्यत्फलमुध्यताम् ।। ११३० ।
1-मत्त्वे परि- म०, २०,९.। २- याद एथे- भा०,५०, ५०।३ प्रपञ्चषदेक
प्राणि ।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्तावा
संसारस्थ निश्चित भुको संसारिता कथम् ।। विभ्रमाच्येत् स एवायं सत्या मुक्ती कथं भवेत् ? ॥११३११ कथञ्चिदेव तन्नित्यममृतत्वं यदीध्यते । नित्यानित्यस्वभावोऽयं भेदो मणि सम्भयेन् ।। १.१३२॥ पत्रं बहुप्रभेदस्य तन्निभेदस्य सम्भवे । परिणामस्वरूपत्वं सस्य केन निवार्यते ॥ ११३३॥ सबनेकान्तषिदुधे न ममं व्यवतिष्ठते ।
तस्माद्रमविलोपीदं सूत्र च्यासोपवर्णितम् ॥११३४!! यस्पुनः सर्वमनेकान्तात्मकमेव इति निर्धारणे भाष्यकारस्थ दूषणम्-"नेति नमः, निरङ्कर्श अनेकान्तं सर्ववस्तुषु प्रतिजानानस्य निर्धारणस्यापि वस्तुत्ताविशेषात् स्यादस्ति स्या- १० मास्ति इत्यादि विकन्योपनिपातादनिर्धारणास्पकतैव स्थानमा २१३३1 इति ; सदपि भवत्येक यदि धर्मिण्येव तस्य निर्धारणवदनिर्धारणमपि 1 में चैकम, क्षेत्र निर्धारणस्यैव भावात् , अनिर्धारणं तु धर्मापेक्षया तदभावार, धर्माणाध विकलानां ब्रह्मण्यपि निवेदनात् ।
___ यच तस्येवमपरम् - "एवं सति कथं प्रमाणभूतः सन् तीर्थकरः प्रमाणप्रमेय- १५ प्रभातप्रमितिषु अनिर्धारितासु उपदेष्ट्र, शक्नुयात ?" [ब्रह्म शां० २१२।३३] इति ; सदपि न सुन्दरम् ; स्वरूपादिना प्रमाणादीनां सख्येय निर्धारण्यन , सया सदनिर्धारण तु पररूपादिना संदभाषाम् । भषमन्यदपि तस्य दुर्विलसियमपासितव्यम् । ततो यदुक्तम्"अनिर्धारितार्थ शाखं प्रणयन पत्तोन्मत्तवदनुपादेयवधनः स्यात् ब्रह्मा० २१२।३३] इदि तत्र कथमनिर्धारितार्थ शास्त्रम् १ प्रकारान्तरेण येत ; ; तस्याभावान् । उक्तर- २० कारण चेत् । कथं तत्प्रणयशो मचादिसादृश्यम् ? प्रमाणोपपलवस्तुवादिनः तदनुपपत्ते, अन्यथा वेदोऽपि मचादिक्दनुपादेयवचन: स्यात् , सेनापि सैक्सवाविस्वभायं ब्रह्मोपदिशता 'सदेव सत् असदेव वा' इत्यनिर्धारितस्यैव तस्य प्रणयमात । अथ मणि परमार्थसति a प्रपत्रो नाम कश्चिदस्ति यद्विवेकस्य तत्र रुपान्तरत्वात् सदेव इत्यनिर्धारित तपेदिति पेत् ; न त दानीमनेकान्तदोषणेऽपि, तस्यापि प्रपश्चान्तर्गतत्वेन सदभाषे सम्भवाभावादि. २५ त्यठमतिनिधेन।
ब्रहम आ००,५०।२धर्मिणि । ३ निरिणाभावात् । निर्धारणम्यानाम् । ५ ससा 1 सप्ताइभाचात् । ० "सच त्यचाभवत् । निही चानिहतं च 1 निलयनं चामियन । विज्ञान चाविज्ञान । सत्य श्रामृत व सनमभवत् । "-- ०१० । । । "सस्त्र मूर्त त्वकामूर्तमभवत् ... निमी नाम टिप्कृष्य समानासमानजातीयेभ्यो देशकालविशिवतयेदं तदिम्युरात्मनि सद्धिपोतं ... निलयनं नोडमाश्रयो ... अनिलयनं तद्विपरीत... विज्ञान वेतनमविज्ञानं तद्रहितमतनं पापागादि सूर्य... अन्त यतविपरीतम् !"-.उ.शांक मा० २।। "सदसचाहमर्जुव"-म गरे० ९।१९।८ रूपान्तर्मतत्वात् आ०,२०। ९-तं न त-आ०, ०प०।
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व्यायधिमिधयविधरणे
RISHAMAREAt
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स्यान्मतम्-सति सामान्य सम्भवायेकत्र भेदः तस्यैव एकार्थत्वात् । न प सदस्ति; व्यकिभ्योऽर्थान्तरत्वेन अप्रतिपः । नबता एक सामान्यम ; अनन्वितमा । कयकिन. दन्वयकल्पनाथाम; अनवस्योपनिपातास । सदभावे कथं धर्मिधर्मादिव्यवस्था ? सामान्यरूप ।
एक हिसदो धर्मा तस्य साध्यसाधनधर्मसाधारणवात् । धर्मोऽपि साध्यमनित्यत्वं तद्रूप५ मेव, तस्य पक्षसपक्षसाधारणत्वात् । अन्यथा तदंशव्याप्तेरभावप्रसङ्गाल ! हेतुधर्मोऽपि कृतकत्वादिः वेत्साधारण एव, अन्यथा अनेकान्तिकत्वषसमान; इत्यपि र मन्तव्यम्; ज्यावृत्ति. भेदतस्तदुपपत्तः । अशदश्यावृत्तिः शब्दो धर्मा, धर्मश्च अकृतकलाविण्यावृत्तिः कृषकस्यादिरिति पर्याप्तमेतायता किं तदर्थेन वस्तुभूतसामान्यपरिकल्पनेन ? परिकल्पितेऽपि तस्मिन खरे
दस्य अवश्याभ्युपगमनीयत्वाम् , अन्यथा भेदव्यवहारप्रच्युते । सामानाधिकरण्यादिव्यव. १. हारस्यापि तत एवोपपत्तेः । तदस्य पस्तुसत्त्वेऽन्वितत्वे च सामान्यस्यैव शन्दान्तमिदमि.
स्यपि न मन्तव्यम्; कल्पनयैव तस्य तदूपत्वान् न वस्तुत: । कल्पने हीयम् अबस्तुसन्तमपि वस्तुसन्तमिव अनन्वितमप्यन्वितामिव अभिन्नमपि भिन्नभित्र स्ववासनाप्रकृतेरुपदर्शयन्ती धर्मधर्मभावादिसामान्यप्रयोजनमुकल्पयति । तदुक्त--
"संसृज्यन्ते न मिधन्ते स्वतोऽर्धाः पारमार्थिकाः ।। रूपमेकमनेकच तेषु बुद्धरुपप्लकः ।।" प्रा० ३१८६] इति । नैकत्र भेदसम्भवः तस्यैवैफस्याभायादिति; तबाह
अन्धयोऽन्यव्यवच्छेदो व्यतिरेका स्वलक्षणम् ॥१२६॥ सता सर्षा व्यवस्थेति नृत्येकाको मयूरवत् । इति ।
अन्ययः अनुगमः खण्डादिषु गोरिति तन्तुषु अयं पट इति रुचकादो देवेदं सुख२. मिति रूपः, सोन्पस्य कादः वीरणादेः मृदादेश व्यवच्छेद एव नापरः । तया सर्व
स्मात् सातीयात् विजातीयाच्व व्यतिरिच्य भियते इति व्यतिरेकः स एव स्वलक्षणम् न पूर्वोक्तम् । ततः तस्मादम्वयाम् स्वलक्षणाच्च सर्धा निरनशेपा व्यवस्था स्वाभिमतवस्तुध्यवस्थितिः इति एवं नृत्येत् "नृत्वं कुर्यात् काक इस काकः सौगसः तद्व्यवश्वात्मनि
मृत्यक्रियायामुपायात्मनः पिच्छभारस्यामावात् मयूर इव मयरोजैनः तत्र तस्य सिद्धारस्य र निवेदनातू स इव तदिति । सौरतस्यापि उक्त एवं सत्रोपाय; अन्वयः स्वलक्षणम्य सरकथमेतदिति चेन् ? न तावत् स्वलक्षण तत्रोपायःसस्य
बौद्धस्य । ३ “सौगत एक परेणापागानं दूषणमनुवति"-तार टौ। ३ सामान्याभावे । १ सपक्षसाधारण एव । ५ "पक्षमा कृतवास्याङ्कीकपरप्रकारेण असाधारणाकान्तिकाम्"-हरि -स्वाव्यात कृ-भाग, प. 10 सअनिमः शब्द पति"-ता०शि०1८ अतझेदस्य । ९-नैव हायस्तु मा...। द्रष्टव्यम्- प्रवास, ३१७८९३ । १- "भेदानां. बहुभेदानां तत्रैकस्मिानयोगतः ।" -2.पा. ३.४५" नृत्य कु-श्रा, ब०, ५०२ शास्त्र आ०, प., प.।
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९।१२७ ।
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
व्यतिरेकैकरूपं तद्यथान्यस्माद् विविच्यते ।
तथा स्वतोsपि नीरूपं तदुपायः कवित्कथम् ? ॥ ११३५ ॥ ३ अन्यदेव स्यास्ति fact यदि । कधी चैवावपिवेवेवे ।।११३६|| arrafornia सम्भवे ।
देव वस्तु सामान्यं तत्कथं तन्निषिध्यताम् ।।११३७।। नच सरकल्पितं रूपं स्वालक्षण्यविरोधत: ।
अस्पृश्यं कल्पनाभिर्यलयतेऽन्यैः स्वलक्षणम् ॥ ११३८|| घर सामान्यसंसिद्ध: तद्रोह विभ्यता ।
स्वरूपतोऽपि व्यावृत्तमेकान्तेन तदिष्यताम् ॥ ११३९॥ स्वलक्षणे वासत्येवमन्यावृतयः क ताः । न हि व्यवृत्तकाभावे सन्ति तास्तदुपाश्रयाः ॥ ११३०॥ तदभावे के नाम कल्प्यतां निबन्धनाः ।
પૂર
जातयो बहुधा भिन्ना यतः सुतमिदं वचः । ११४१७
१५
"aat यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तनिबन्धनाः । जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः ॥ [श्र०वा० ३१४०] इति । जास्यमध्ये कथञ्च स्यात् धर्मादिसम्भवः ।
अनुमानव्यवस्था ते याचे नाव कल्प्यताम् ॥ ११४३॥
१०.
सत्यपि स्वलक्षणस्य व्यावृत्ति कथं तत्रत्थनस्य सामान्याकारस्य विकल्पादपि प्रति पत्तिः ? कथम् न स्यात् ? तस्यावस्तुत्वेन वर्दकारणत्वात् । अकारणस्यपि स्वहेतु नितान् शक्ति- २० विशेषात् प्रतिपत्तों कैमर्थक्याद् वस्तुन्यपि स्वज्ञानं प्रति कारणत्वपरिकल्पनम् तस्यापि ततः शक्तिविशेषादेव वारशात् प्रतिपत्तिसम्भवात् ? सर्वस्यापि वस्तुनः वत एव प्रतिपतिः स्यादकारणत्वाविशेषादिति चेत् अवस्तुनोऽपि स्यात् तथा च शब्दविकल्पेनेत्र शब्दवत् कृतकत्वादिकमपि प्रतीयता निरवशेष जातिविशेषामिष्ठानतया शब्दधर्मिणः 'प्रतिपसे: हेतुसाध्यविकल्पानां कथन कैमर्थक्यम् ? यत इदं सुभ्यषितम्-
"ततो यो येन धर्मेण विशेषः सम्प्रतीयते ।
न स शभ्यस्ततोऽन्येन तेन भिन्ना व्यवस्थितिः॥" [२०० ३।४१ ] इति । शक्तिनियमाकारणस्यापि तस्य नियतस्यैव प्रतिपत्तिः न सर्वस्येत्यपि समाधानं न वस्तुप्रति१ लक्षणम् । र खलक्षणस्य सोने ० ० ० स एव शब्दवत् आ०, ब०, प०
कल्प्यतां तां भ० ० ए०१६ विनाकारण
०, ब०, प० ९ सयत्रयमिति प्रश्नः
सः । ५ कथं साधु ८- पतिहेतुबा
२५
.
:
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inhing
STERE
४८० म्यायधिनिभयविवरणे
[ १३१२७ पसायि पक्षपात परित्यजति । ततो विज्ञानशक्तिपरिज्ञानकल्यादेथेदं धर्मकोर्सर्वचनम् - "नाकारणं विषयः"
इति । न कारणत्वासरचं सतः प्रतिपत्तिः अपि तु तव्यतिरेकादिति च । न तद्वत्तस्यापि स्वालक्षण्यप्रसङ्गात् । स्वलक्षणे हि विकल्प: स्वसंवे
दनाध्यक्षविषयत्वात् तत्कथं तदव्यतिरेकिणः सामान्यस्पत्यम् । विभ्रमादिति चेत् : कस्य ५ विभ्रमः? तस्वैव विकल्पस्येति चेतन; वतस्वलक्षणतयैव तदाकारस्य स्वतः प्रतिपत्तो। विकल्पावरान सामान्याकारतया प्रतिपत्तिरिति चेत् । न; ततोऽपि तदाकारस्याव्यतिरेके स्वलक्षणताया एवोपपत्तेः । पुनः विकल्पान्तरात सामान्याकारतया प्रतिपत्तो अप्रतिपत्तिरेच अनवस्थोपनिपातात् । तन्न सविकल्पबुद्ध अन्यतिरेकी सामान्याकार: सम्भवति, यत्पच्छादिवभेदत्वात् भावा अभेदिन इव प्रयवभासेरन् । ततो दुर्भाषितमेतत् सम्भवद्विपयत्यात
"पररूपं स्वरूप यया सन्ध्रि(संघियते धियाँ । एकाथप्रतिभासिन्या भावामाश्रित्य मेदिनः ॥ तसा गंदा संशया मेदित! गम् ।
अभेदिन इवाभान्ति भावारूपेण केनचित्प्र ० या स्व० ३१५०.७१] इति ।
कुतश्चायम् अभेदप्रत्यवमर्शी 'गौरयम्, अयमपि गौ: ' इति विकल्पः खण्डमुण्डा१५ दिवेष न कर्कशोन्मअकरादिष्यपि भेदाविशेषात् । तेष्वेव तद्धेशोः स्वभावस्य नियमान्, तश्यते
हि सत्यपि भेदे केचिदेव काचित् स्वभावतो नियताः यथा रूपदर्शने साराक्ष्य एव ज्वरादिशमने व गुडूच्यात्य एव नापरे, तद्वत् साधभेदपरामर्शऽपि खण्टाद्य एवं सतो नियता न कादयः । तदुक्तम्
"एकप्रत्यत्रमार्थशामामार्थसाधने. भेदेऽपि नियताः केचित् स्वभावेनेन्द्रियादिवत् ।। ज्वररादिसपने काश्चित् सह प्रत्येकमेव वा।
दृष्ट्वा यथा चौपधयो नानात्वेऽपि न चापः ॥" [प्र. वा. ३।७२-७३]
इति चेल ; उच्यते--- कांदिव्यतिरेकेण खण्डाविष्वेव नियम्यमानस्तत्स्वभावः कस्पितः, तारिखको चाकल्पित इवेत्। कुतस्तत्रैव तत्कस्पन न फर्कादिष्वपि सनिबन्धन२५ स्याधि स्त्रमावस्य सत्रैच नियमादिति चेत् । न तस्यापि कल्पित्तस्ये 'फुतस्तव' इत्यादेदोषात.
अनवस्थानुपाय | तशासौ कल्पिता। ताधिकरवेग सितात्विमेव सामान्यम् , तस्यैव खण्डादिसाधारणस्य स्वायत्य तत्वात । नयनापि दर्शनहेतोः स्वभारस्य सामान्यस्येष्टौ अमिष्टानुपाभावात । तथा च तस्यभाचमाहिती पुलिः अर्थवत्येय मानझिा, बरसुनिव
THAमकारस्य विकल्पात"-तारिक २ मामालाकारस्थायि । ३-तया एको- आ०, १०, १०। ४ असम्भवाद्विष- भा०, य, य. 1 ५ "अन्यन्यासस्थाभकामान्यम्"-तारि० । ६ संहिते आo, ५०, ५०1७ "विशिष्टबुद्धचा'-तादि।
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२१२८)
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्तावः
४८१
नावत्कार्यकर्कादिव्यपोहनिष्ठा । हस्याच यहाहा खण्डादिष्वक कर्कादिभ्यश्च व्यावृत्तं रुपमनभाति तत्सतस्वमेवन निस्लपवं परीश्यमाणस्योपपत्तेः। तन्नेवमपि परीक्षासह परस्य वचनम
"तत्स्वभावग्रहाया धास्तदर्थे वाप्यर्थिका । विकल्पिकाऽतत्कायार्थभेदनिष्ठा प्रजायते ।। तम्या महापामानि याहाममिवान्यतः ।
व्यावृत्तभिध निस्तस्त्वं परीक्षानभावतः"प्र० का० ३।७५.७६] इति ।।
यदि पुनः स्वभावनियमोऽपि नेष्यते ; न वाई अभेदप्रत्यवमर्श; तमिमित्तः । तदभावान फल्पितमपि सामान्यमिति कथं ततो धर्मिधर्मसामानाधिकरण्यादिव्यवस्थातर्तन बौद्धस्य तलो वस्तुसामान्योपायेन वनप्रवृतं जैनममिसमीक्ष्य निरुपण्यतथैव प्रवर्समानं ताथागतमुपसद्धिः देवैरुचितमेवेदमुक्तम्
"अखण्डताण्डवारम्भविकटाटोपभूपणम् । शिखण्डिमण्डलं वीक्ष्य काकोऽपि किल नृत्यति ।" [ इति ।
कुतश्च स्वलक्षणस्य अन्वयस्य वा प्रतिपतिः ? अप्रतिपत्तौ वाभ्यामेव सर्वव्यवस्थेति प्रतिज्ञानुपपत्तेः । याथासययन प्रत्यक्षादनुमानाच्चेति चेत् ; ; प्रत्यक्षस्य यथाकल्पनमप्रतिपसे । नहि परकस्पितम, एकान्तनिरंशक्षणाक्षीणनीलादिस्वलक्षणाकार प्रत्यक्षं दिरक्षवोऽपि वीक्षामहे, १५ यतस्तेन स्वलक्षणप्रतिपतिं प्रतिलभेमहि । अनुमानस्य च यथा नाभिजल्पसम्पर्कयोग्याकारस्य प्रतिपत्तिः तथा निवेदिसमेव । अप्रतिपादपि तत एव सत्प्रतिपत्तिरिदि चतः अवाह
प्रामाण्य नागृहीतेऽर्थे प्रत्यक्षतरगोचरी ॥१९७॥ [भेदाभेदी प्रकल्प्येते कधमारमविकल्पकै।] इति ।
प्रमाणकर्म प्रामाण्यं परिच्छिसिलक्षणं तात्न सम्भवति । कस्मिन् ? अगृ. २० होते स्वयमप्रतिपन्ने प्रत्यक्षादौ "अप्रत्यक्षोपलामस"
} इत्यादि वरनात् । कस्मिन् परिच्छेथे' तत्र न सम्भवति १ अर्थे स्वलक्षणे सामान्ये च । सामान्यस्यार्थखम अवैकत्वाध्यवसायेन परैरभ्युपगमान् । ततः किम् ? इत्याह --'प्रत्यक्षतरगोचरौ भेदाभेदी प्रकल्प्यले कथम्' इति । प्रत्यक्षतरगोचरी प्रत्यक्षानुमानविषयौ भेदा. भेदी स्त्रलक्षणसामान्यलक्षणों प्रकल्प्येते प्रकर्षेण स्वाध्यते । कथम् ? न कथम्चिात् । २१ कै ? आत्मविकल्पकैः आरमानं यस्तुस्वभावं विकल्पयन्ति भिन्दन्सि इत्यात्मविकल्पका -काशवादिनः सौगता: तैरिति न हि सदप्रतिपन्नयोस्खयोस्सद्विषयत्वम् . अतिषयस्यैवाभावप्रसङ्गादिति मन्यते । भवतु यथाप्रतिभासमेव प्रत्यक्षं तत्पूर्वकञ्चानुमान स्वलक्षणे सामान्य
- - . .......--.मासिमिद आ०,०, १.१२-तं चैवमभि-भा० ब०,१०३- तत्र ०.१०.१०। १" ताभ्यां प्रत्यक्षातुमानाभ्यामनतीनयोः ।" तादि।
।
११
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HAMARPARANANDainionline
४६२ म्यायविनिश्चयषियरण
[५५१२८ लक्षणे च प्रमाणमिति बत् ; न; त्रापि सम्भवनमाभ्यां वस्तुभूतानेकधर्माधियानम्यय भावस्य प्रत्यवभासनास् न मिरंशक्षणिकपरमाणुरूपस्य नाप्यवस्तुसामान्यात्मना ।
__ भनत्वेवम्, तथापि तदेव त्या प्रमाणमिति चेत् ; आह–'प्रामाण्यं नागृहीतेऽर्थे इति प्रमाणभाषः प्रामाण्यम् अविसंवादित्वप, अन्यद्वा प्रत्यक्षादेः न सम्भवति । कस्मिन् ? ५ अर्थे स्वलक्षणादौ । कथम्भूते ? अगृहीते अप्रतिपन्ने । अंसम्बन्धेन प्रामाण्यश्य अत्रैच निराकरणादिति भावः । ततः किम् ? इत्याह-'प्रत्यक्ष इत्यादि । व्याख्यानमत्र पूर्ववत् ।
भषेदपि प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यं तवार्थप्रतिभासात्, नानुमानस्य तत्रावस्तुधिपयत्वेन तभावात् । तत्रापि खण्टवादयोऽर्था एव अतत्कार्यकारिकांदिव्योवृत्तिविशिष्याः प्रतिभासन्ते,
त एव च सेषो सामान्य नायरमेक गोत्वादि सहावहारस्य ताइगर्थगोचरैरेय झामाभिधानः १. प्रवर्तमानत्वेन मिथ्यार्थत्वान् । बटुक्तम्
"अर्थशाने निविष्टास्ते ( अर्श झाननिविष्ठास्ते ) यतो व्यावृत्तिरूपिणः । तेनाभिन्ना इवाभान्ति व्यावसाः पुनग्न्यतः ।। तु एव तेषां सामान्य समानाकारगोचरः।
ज्ञानाभिधानमिथ्यार्थो व्यवहारः प्रतायते ॥” [अ० बा० ३। ७४.७८ } .इति चेन् ; कथं पुनभेदस्य तत्स्वभावस्थासमशे तेषां प्रतिभासनम् ? ' एव प्रतिभासन्ते न
प्रतिभासन्ते च' इति ध्यावातान । भेदरूपेणैयाप्रतिभासनं न रूपान्तरेणेति चेन् ; म ; निरंशवस्तुवादिनामेकत्र रूपभेदाभावात् ! कल्पनया तइंदे कल्पितमेव स्थान्तरं तत्प्रतिभासिसामान्य नार्थस्वरूपम् , इत्ययुक्तमुक्तम-'त एव तेषां मामान्यम्' इति । कथकवैध "पररूपं स्वरूपेण" [प्र.० ३७०] इत्यादिना संवृतिस्वरूपमेव सामान्यम् भावनानास्वपन्छादनमिसि पूर्व प्रतिपाद्य इदानीमन्यथाववनमुपपन्नं विस्मरणशीलतापनः ? तन ततोऽर्थप्रतिभासनम् , अप्रतिभासिते वन तस्य प्रामाण्यम् । तवाह-'प्रामाण्यम् नागृहीतंऽर्थ इति । यदि स्यात् । नित्यत्वायनुमानस्यापि किन्न स्यात् ? तस्य तन्न प्रतिबन्धास्याप्यभावादिति चेत् । क्षणक्षयाध. नुमानस्य कुतस्तत्रै प्रतिबन्ध ? प्रत्यक्षादिवि चेत् ; न ; परफस्पितस्य तस्यैवाप्रतिपसः । प्रतिपत्ताबपि सतो नार्थवन् तरकार्यस्यानुमानस्य परिझानमः स्वयं तवाकारस्वेन सविकल्पकापत्तेः । न च उभयोरपरिज्ञाने तत्सम्बन्धस्य परिज्ञानम्, "विष्टसम्बन्धसरित्तिमैंकरूपप्रवेदनात्" [प्र. पासिकाल० १११ ] इति स्वयमेवाभिधामात् । विकल्पादपि न तत एव तस्य प्रतिपत्तिः । तेन धग्रहणेऽपि अर्थस्याग्रहणात् । विकल्पान्वरेणापि स्वांशमात्रपर्यवसायित्वेन पयतिरितस्य तस्याग्रहपान । म य तेंद्" अनुमानावन्यदेय, तृतीयस्यापि
CINEMPIRE.
HERPUTRAINMENT कमजतमासायEिRAYANA माता
"विषयविषयिभान सम्बन्धाभावेन" -तापटि०।२हीतरप्रतिपयस्तयोस्तरिय मित्यादिना"RE. टि। ३ "मर्था जननिविष्यस्ते यतो व्यापतरुप -प्र. वा. "अनुमानान"-शामिल 1५ नित्यलायनुमानस्य । इनित्यवादी क्षणवादी पक्षणालयाद्यानुमामत एव । ९ प्रतिबन्यसाविकम्पान्तरम् ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ता
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प्रमाणस्य प्रसङ्गात् । अनुमानमेव अर्थक्रियाप्रामिलिजमिति रेस्; न; तस्यापि तत्रागृहीते प्रतिबन्धात् प्रामाण्ये 'कुतस्तत्र प्रतिबन्धः' इत्यनुपनात् अनवस्थापन।
सदनेन मणिप्रभामणिज्ञानस्यापि मणौ प्रतिबन्धश्चिन्तयिडयः । तत इरमपि निर्विषयमेव परस्य भाषितम्
"लिङ्गालिङ्गिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि |
प्रतिबन्धात्तदामासशून्ययोरध्यवञ्चनम् ॥" पि० वा० २१८२] इति ।
कीदृशे वा सोऽयों यत्र तस्य प्रतिवन्धः, यतोऽप्यर्थक्रियावाप्तिः? एकान्तनिरंशमणिकपरमाणुलक्षण इति चेत् ; न; तादशस्य मणेरण्यप्रतिपत्तेः । तत इवमशक्योपपादनमेव
"मणिप्रदीपप्रभयोर्मविबुद्धयाभिधावतोः। मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ॥ स्था तथाऽपथार्थत्वेऽप्यनुपानतदाभयोः ।
अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् !" [प्र०या० २१५७.५८] इति ।
दृष्टान्ते दान्तिके च परफल्पितस्यार्थस्याभावे तदर्थक्रियाया एवासम्भवात् 'विशेषोऽर्थक्रिया प्रति' इति, 'अर्थक्रियानुरोधेन' इसि प वक्तुमशवरवात् ।
जन्यविचारे नानुमान न च तदभ्यासज प्रत्यक्षमिति सकलव्यवहारविलोपः, ततो १५ व्यवहारं परिपालयता सरप्रामाण्यमकृतविचारमेवाभ्युपगन्तव्यमिति चेत् : न: नित्यत्वाचमुमानस्यापि तथा तदभ्युपगमप्रसमा व्यवहारस्य प्रायशः शविषयादेवोपपत्तः । तदाह'प्रत्यक्षतरगोचरौं' प्रत्यमादितरदनुमानं तस्य गोधरौ विषयौ कथं न प्रकल्प्यते? प्रकरूप्येते एव, कथमित्यस्य प्रक्रान्तेन नया सम्बन्धात् । को ? तद्गौचरी कथं न प्रकल्पयेते भेदाभेदी । भेदइय, उपलक्षणमिदं निरंशत्यादे, अभेदश्च, इत्मप्युपलक्षणं व्यापित्वादेः, २० में इति । अभेदस्यैव समोरवप्रकल्पना पतम्या न भेदस्य तत्र सौगतस्यापि ( स्यावि-) प्रसिपचेरिति चेत् । न ; दृष्टान्तार्थस्वात् तवचनस्य । यया भेदस्यास्तविचारमेव सद्गोपरत्वं तद्वदर्भवस्थापि वक्तव्यमिति । कै पुनरतो तथा कथन प्रकल्प्येते ! इत्याह- आत्मविकल्पकैः । आत्मानं कूटस्थनित्यमोश्चराविक ये विशेषेण कल्पयम्ति नैयायिकादयः वैरिति । सतो निस्यत्वानुमान युवासेन क्षणिकत्वाचनमानस्यैव प्रामाण्यं व्यवस्थापयता २५ वस्तुमाहिरवं तस्याभ्युपगन्तव्यम् । तथा च सिद्धं तद्वदेव सम्भवक्रमानेकधर्माधिष्ठानभावविकल्पस्यापि पस्तुविषयले निर्धापरवर , अन्यथाऽर्थवेदिनः संवेदनस्यैवाप्रतिरसेरिति स्थितं सामान्यविशेषात्मकत्वं प्रत्यक्षविषयस्य।
साम्मतमुकमेवार्थमनुप्राहपरवात् शिष्याणामनुस्मरणाय लोकानां विंशस्या
१-लिमिति प्रा०, बा, प० ।-शमी --- |
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४८४
न्यायविनिश्चयविवरणे
....... . . .-.........
thistindi
सगृध कश्यत्राह--
उत्पादविगमनौख्यद्रव्यपर्यायसङ्ग्रहम् ।।१२८॥
सद्भिनप्रतिमासेन स्थाद्भिन्नं सविकल्पकम् । इति ।
सद् अर्थझियासमर्थमिदं धर्मि, सत्रेदै साध्वम्-उत्पावविगमधीष्याण्येव द्रव्यम् ५ "उप्पायट्ठिदिभंगा हयंति दविलक्षणं एवं ।' [सन्मति० १११२] इति वचनाम, तर
पायाश्च तेषां सङ्ग्रहः परस्परतावास्येन स्वीकारो यस्मिम् तत्तथोकम् । कृत एतत् ? इत्यवाह-सविकल्पका साशं यतः । निरंशस्वे हि सत्सङ्महत्वं सतो न स्यात् । सविकल्पकत्वे हेतुमाइस्थात् कश्चिद भिन्न भिन्नतया प्रतिपनम् । केन १ भित्रपतिभासेन।
मद्य मिलने वस्तु नाभिनमित्याह
अभिन्न प्रतिभासेन स्यादभिन्नम् [ स्थलक्षणम् ] ॥१२९॥ इति । सुबोधमिदम् । सामान्यमेव तारशमिति चेत् ; आह-'स्वलक्षणम् इति । कथं पुनः परस्परविरुद्धभेदाभेदधर्माधिष्ठानमेकं वस्विति चेत् । आह
विरुद्धधर्माध्यासेन स्याद्विरुद्धं म सर्वथा । इति । एतदेव कुत इत्याइ--
असम्भवदनादात्म्यपरिणामप्रतिष्ठितम् ॥१३०॥
असम्भवश्वासावतादात्म्यपरिणामच असम्भयदतादात्म्यपरिणामः सम्मद तादात्म्यपरिणाम इत्यर्थः । सत्र प्रतिष्ठितं प्रभागेन पूर्व स्थापित यश ति । अनेने मेदाभेएयोरेका समवाय एव न तादात्म्यमिति प्रतिक्षितम् ।
पुनरपि तद्विशेषणमाह___ समानार्थपरावृत्तमसमानसमन्वितम् । इति ।
समानार्थाः शक्तिसादृश्येन तुल्या मृत्पिण्डस्य दण्डादषः तेभ्यः परावृत्तमपसृतम् । अनेन सायकस्पिस वस्तुसाइर्य प्रतिक्षिप्तम्। असमानो विसदृशपरिणामः तेन समन्धित सङ्ग नम् । अनेनापि सर्वमेका सेनाभिन्नम्' इति ब्रह्मवादिमसं प्रतिध्वस्तम् । कुतः पुनः तदित्यमित्याह
(प्रत्यक्षं बहिरन्तश्च परोक्षं स्वपदेशतः । ॥१३०॥ २५ प्रत्यक्ष प्रत्यक्षवेद्यं यतः । क ? 'बहिरन्तश्च' इति । यद्येवं प्रत्यक्षत पन तथा
तस्य प्रतिपः, प्रमाणान्सरस्थ वैफल्यमिति खेल ; आह-'परोक्षं स्वपवेशतः' इति । सतो न सवैफल्यमिति भावः । कथं पुनरेकमेव स्वलक्ष तथा प्रत्यक्षं. परोक्षश्चेवि चेत् ? अना
सुनिश्चितमनेकान्तमनिश्चितपरापरैः । इति ।
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2-मंगा भवानसद - सा० । २ अनेकमेझ-आ०, ब, प० ।
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१।१३२) प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
५८५ __ अनेकान्तम् अनेकस्वभावं वस्तु सुनिश्चित सुविवेचितं पूर्वमेव न पुनर्विविध्यते । कैस्तदनेकान्तम् ? अनिश्यितः अप्रत्यक्षविश्वैः परैरुत्तरकालमाविभिः अपरैश्य पूर्वकालभाबिभिः प्रदेशैः । ततः प्रत्यक्षं परोक्षश्च सत्तरिति ।
स्वान्मतम्- उपादानोपादेयलक्षणसन्तानादन्यत् कमानेकान्तं परमाणुसमुदायादवय. व्यादेश्वार्थान्तरमझमानेकान्तमपि दुर्थिवेचनमेवेति तबाह
सन्तानसमुदायादिशब्दमात्रविशेषतः ॥१३१। इति ।
सन्तानसमुदाययोः आदिशब्दावयव्यादेश्च योगकल्पितस्य शब्द एवं तन्मात्रम् तेनैव विशेषोऽनेकान्सान् नार्थतः, अनेकान्तस्यैव सन्तानादित्वात् ततः । ..
[ तथा सुनिश्चितस्तैः [तु] तत्वतो विप्रशंसतः।।
तथा सुनिश्चितः तत्वती वस्तुतः विप्रशंसत प्रशंसनमुपपादनं प्रशंसा १० तदभावो विप्रशंसम् , अर्थाभावेऽव्ययीभावात् ततः इति ।
एतदुक्तं भवति--एकत्याभावे यधा दधिक्षणस्य तदुत्तरक्षणे का सन्तानः तथा किन्न करभक्षणेनापि, यतो दधिमक्षणे चोदितः करमेऽपि न प्रवर्तेत ? तस्यातत्यायवान्नति चेत; इसरस्य कुतस्तत्त्वम् १ तदनन्तरं नियमेन भात्रादिति चेत् ; न तस्यापि तथैव भारात् । अनु. पादेयत्यानेति चेत् ; इतरस्य कुतस्तदुपादेयत्वम् ? सादृश्यादिति चेत; न; योगीतरज्ञानथोर- १५ । ध्येकसन्तानत्वापचेः, वस्तुतस्तस्याभावाच्चै । कल्पनायेपितस्य करभक्षणेऽप्यनिवारणात । टन्नैकस्वाभावे सन्सामः ।
नाप्यवयवी; तस्याप्यवयवानामन्योन्याभेदरूपत्वेन तदाधेऽनुपपत्ते । सेप समु. दाय एषाक्यकी नाभेद इति चेत् ; सोऽपि यथैकम्यूहगतानामन्योन्यं तथा किन्न व्यूहान्सरगसैरपि, यतो घदमानयत्युक्ते पटेऽपि न प्रवर्तेत ? शक्तिसाधा भावादिति चेस; विवक्षिता. नामपि तदेकरूपत्वे कथं भेदः तदन्यतमवत् ! वैधर्म्यस्यापि भावादिति चेत् ; साधर्म्यवैधयचोरिव फिनावयवानामेव कालिदभेदो यतः स एवात्रयबी न भवेत् । तन्नामेवमनिच्छतो भिन्नेषु साधर्म्यस्यापि सम्भवो यतो व्यूहनियमः । तदुक्तम्--
"सन्सानः समुदायश्च साधर्म्यञ्च निरङ्कुशः। - प्रेत्यभावश्च तत्सर्व न स्यादेकसनिहवे ॥" [आप्तमी० श्लो० २९] इति । २०
यश्च मतम्-उपादेयेनैवोपादानस्थकसन्तानत्वं नान्येनेति । तत्रोपादानमपि ने - प्रत्यभिज्ञानादन्यत: शक्यसमर्थनम् । ततोऽभि न मिण्यार्थात् मापि साश्यार्थात ; अति. प्रसङ्गाम , अपि तु कग्निवस्तुभूसाभेदविषयादेव। ततः तत्समर्थनादप्यनेकान्तमेष सुनिभितमित्यावेदयामाह
तदि-आ०,१०,१०१२ करमणस्य । ३ "परमार्थतः साश्यस्य रहवातरनकोयरादेवं वचनम्" ता. टि०१४ लानसरकारन्ये आ०, ब०, प० ।
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४८६
म्यायविनिश्चयविवरणे
[१२१३२-१३४ प्रत्यभिज्ञाविशेषात्तदुगावानं प्रकल्पयेत् ॥१२॥ अन्योन्यारमपावृत्तभेदाभेदावधारणात् । मिथ्यापत्ययमशेभ्यो विशिष्टात् परमार्थतः ॥१३३॥ इति ।
लत् विवक्षितं षस्तु उपादानम् उत्तरस्य कार्यस्य सजातीय कारणे प्रकल्पयेत् ५ समर्थयेत् सौगतो यसः, तस्माश्च सुनिश्चित्तमनेकान्तमिति । कुतस्तत्प्रकल्पयेत् । प्रत्यभिधान्यस्मात् विशिष्यमाणत्वात् विशेषस्तम्मात प्रत्यभिज्ञाविशेषास् । इदमेवाह - मियामत्यवम. शेभ्यो लून पुनर्वासनलकेशाचेकप्रत्यभिज्ञानेभ्यः , उपलभगमिदम् , तेन सादृश्यप्रत्यः भिज्ञानेभ्यन्त्र विशिष्टात् तत्त्वतः परमार्थतः । कुतस्तविस्थम् ? अन्योन्यमात्मानी परात भगवेदी नशेरवार मिश्चयनात् ।
सदिति स्मरणम् इदमिति च प्रत्यक्षम्, म ताभ्यामन्यत् प्रत्यभिज्ञानं रतस्तयोरवधार. णमिति चेत् ? अन्नाह
तथा प्रतीतिमुल्लङ्घय यथास्वं स्त्रयमस्थिते । । नानकान्तग्रहग्रस्ता मान्योन्यमनिशेरते ॥१३४॥ इति ।
मानाऽनेकरूपाः क्षणिकायेकान्ता नानशान्ताः स एव ग्रहाः व्यामोहनिबन्धनत्वात् १५ तेस्ता वशीकृताः सौगतादयो नान्योन्य न परस्परम् अतिशेरते अतिशयं लभन्ते ।
कास्मान् ? यथास्वं स्वमतामतिक्रमेण स्वरम् आत्ममा अस्थिते अवस्थानाभावात् । कि कृत्वा अस्थिते तथा सेन सदिदमित्युभयोल्लेखाभेदप्रकारेण या या प्रतीतिरतामुल्लड़य प्रतिक्षिप्य 1 तथा हि
यथा न प्रत्यभिज्ञान प्रत्याकार विभेदनात । तद्वत् प्रत्यणु मिभदान प्रस्थहमपि नो भवेत् ॥ ११४३॥ अनुमाल सत्पूर्व प्रत्यक्षासम्भवे कथम् ? । तदत्यये कुतस्तस्य सौगता साधयन्समी ॥ ११४४॥ अद्वैतशून्यबादौ तु प्रागेव प्रतिभाषितौ । अनेकाकारमेक तत् प्रत्यक्ष युक्तकल्पनम् ।।११४५।। तदिदं द्वित्तयोलेखं तद्वत् प्रत्यवमर्शनम् । भेदेतरात्मनोऽर्थस्य ततः किनावधारणम् ।। ११४६ ॥ तत्प्रतीत्यपलापे तु तदन्याश्वेिदनात् ।
एकान्तवादिनः सर्वे नान्योन्यमतिशेरने ।। ११४७ ।। भयतु सत्र सुनिश्चितमनेकान्त यत्र पूर्ववद्युसरस्याथि पर्शनम् , प्रत्यभिज्ञानस्य
-भयोशामे-आ०, २०, ५01२ विमेदतः श्राप
।
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प्रथमा प्रत्यास्ताप
वनिश्चयहेतोसत्र सम्भवात् , यत्र तु पूर्वस्यैव दर्शन न परस्य तत्र कथं वेतन प्रति. पन्नस्थ पूर्याभेदेनान्यथा या प्रत्यभिज्ञान सम्भवतीति चेत् ; अत्राह
शब्दादेरुपलब्धस्य विरुद्ध परिणामिनः । । पश्चापनुपलम्भेऽपि युक्तोपादानवद्गतिः ॥१३५॥ इति ।
शस्य आदिशब्दाद् विशुदाश्च उपलब्धस्य मध्यावस्थायां प्रत्यक्षस्य विरुद्ध- ५ परिणामिनो विरुद्धो दृश्यावश्यः स एव परिणामः स विश्वतेऽभ्येति विरुष्परिणामी तस्य । पश्चाद उत्तरकालम् अनुपलम्भेऽपि अदर्शनेऽपि युक्ता उपपन्ना गतिरानुमानिकीति । निदर्शनमुपादानस्येव उपादानवदिति।
एतदुक्तं भवति - शब्दादेहत्तरपरिणामस्यायोग्यत्वेनादर्शनेऽपि अनुमानतोऽवगमात् कथन प्रत्यभिज्ञानं यतस्तत्रापि सुनिश्चितमनेकान्तं न भवेदिति युक्तम्-उपादानस्योपलब्धाच्छब्दादेरनु १० मानम् तस्य निरुपादानस्यायोगात नोपादेयस्य कारणस्य कार्यवस्वनियमाभावादिति चेत् अत्राह
तस्यादृष्टमुपादानमष्टस्य न तत्पुनः ।
अवश्यं सहकारीति विपर्यसमकारणम् ॥१३३। इति ।
तस्य उपलब्धस्य शब्दादेः अष्टम् अनुपलब्एम् उपायाने पूर्वशब्दापावानम् अष्टस्य उत्तरतत्परिणामस्य तत् शब्दादि पुनरिति चित न उपादानम् इति एवं सौगसेन १५ विपर्यस्तं वैपरीत्यं नीतम सदादिकमवस्तुकृसमिति यावत् । अत्र निमित्तम् अकारणमजनक यत इति । न हि अकारणस्य वस्तुत्यं व्योमकमलयत् । सजातीयमकुर्वतोऽपि विजातीयस्य योगिज्ञानादेः करणास् कथमकारणस्वं तस्येति चेत् ? आह. अवश्य नियमेन सहकारि योगिज्ञानादिकार्यनिय नेति सम्बन्धः, सजातीयमतन्वतो रूपादेरिष पदयोगात्, अन्यथा तस्थापि कदाचित् वदेव स्यात् न सजातीयोपासनस्वमित्यसङ्गतमिदं भवेत् "रूपादे रसतो २० गतिःप्रवा०३७८] इति, तस्यासन्तानितस्य रसकाले सम्भवाभावात् । तत; सजातीयवाद विजातीयेऽपि तस्याकारणत्वादवस्तुत्वमापतत् तत्कारणपरम्परामस्यबस्तुभूतामुपकरूपयेस् । न चैत्रम्, अतस्तस्योभयत्रापि कारणत्वादुपपन्ना तस्मानुपादानवदुपादेयस्यापि प्रतिपत्तिः । कथमेव कार्यस्वभावानुपलब्धिभेदेन त्रिविषमेव लिङ्ग कारणस्यापि लिङ्गलान् । तस्य स्वभावहतावतर्भावादिति चेत् न साध्यादन्तिरस्थेन स्वभावहेतुत्वानुपपत्तेः । तथाविधस्यापि तत्साधान २५ तत्त्वमविरुद्धमेव | नरपेक्ष्यश्च तस्य तत्साधर्थम् । प्रसिद्ध हि कृतकवादेम्बद्धेतोरनित्यत्वादी नरपेक्ष्यम्, सस्य सन्मानानुबन्धित्वान् , तथा कारणस्यारयन्त्यक्षणप्रामस्य कार्य सस्यापि सन्माना
कथं संभवानाम-आ-, २०, ५०।२ “सुनिश्चित्तमनैकान्तमित्यत्रापि सम्पन्न !"- टि ३ मतं भवति भा०, २०, प.1 अनुमानमिति सम्बन्धः । ५ लब्ध पूर्व-आ.,..1 अकारणजम-०.०, ५०1७ सहकारितायोगात् । ८-वन्तीन इति आ.,य, प. ५ तवमपि विरू-आग, ब., प० । नरपेक्ष्यम्' इत्यन्वयः ।
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४८८ म्यारविनिमयविवरण
[१११३८ नुबन्धित्वाविशेषादिति पतः किमिदं तस्य तन्मात्रानुबन्धिखम ? सहभापनियमः पश्चादेव भावात । स्वकालेऽवश्यम्भाव इति चेत् ; न; कार्यहेतोरपि तद्धतुरवप्रसङ्गान् । न हि तस्मिन्मपि सति स्वकालेनावश्यम्भाष; कारणस्य, कार्यहेतोरेवाभावप्रसङ्गान् । तदीयते स तस्य नेति
चेतू : माभूत् तथापि तन्मात्रानुगनिधनस्तस्य प्रत्यायने नरपेक्ष्यस्य कृतकत्वाविसाधर्म्यस्याविशे५ पाम्, तथा चैकः स्वभावहेतुः स्यानापरः, अनुपलब्धेरपि तविशेषत्वेनाभ्यनुज्ञानात् । ततो
यथा तत्साधम्र्थेऽपि कार्यस्य ततो भेद एष साथ्यावान्तरत्वात तथा कारणस्यापि ततो निराकृतभेत--
"हेतुना या समर्थन कार्योत्पादोऽनुमीयते ।
अर्थान्तरानपेक्षत्वात् स स्वभावोऽनुवर्णितः ।।" [प्र०वा० ३।६] इति । १० एवं सति साठयाघात इति छन् । भवतु परस्यैवार्य दोषः । न दोषः,तस्य स्वभा
बान्तर्भावाभाधेऽपि कार्यहेतावन्तर्भावात् , कारणमध्यवश्यम्भावि कार्य कार्यात विशिष्यते इखभ्युपगमादिति चेत् , एमपि कार्यमेवैको हेतुर्भवेत स्वभावस्यावश्यम्भात्रिसाध्यस्यैव सत्कार्यवापत । तदभेद कयं तत्कायतति साधनसा कथा भेदकल्पनाश्चेत्त म; तत एव तत्का.
यस्वस्याप्युपपत्तेः । तादरम्यादेव गमकस्खे किं तत्कार्यवेत्ति येत् ? न तत एव गमकवे कि १५ वादात्म्येनेत्यप्युपनिपातान , प्रत्युत्त तत्कार्यत्वमेयात्रोपपन्नकल्पनम , साध्यसाधनभावभेशानुकूल
त्वान्, न तादात्म्यं विपर्ययात् । तनाथमत्र परिहार इति लिङ्गसमविरोधि चतुर्थ मेष तल्लिङ्गमिति कथं न परस्यायं दोषः १ निगमकमाह
नदेव सकलाकारं तत्स्वभावैरपोद्धृतः। निर्विकल्पं विकल्पन नीतं तत्वानुसारिणा ॥१३॥
समामाधारसामान्यविशेषणविशेष्यताम् । इति ।
सत उक्तलक्षणं स्वलामणम् एवम अनेन प्रकारेण सकलाः सम्पूर्णाः आकाराः गुणपर्यायलक्षणा यस्य तत् सकलाकारम् । कैत तथेत्याइ.-तस्यैव स्वभावा: स्वधर्माः तैरेव नान्यदीयैः । अस्तु नैतन्त्र समवेतैस्तत्तथेति चेत् ; आह-निर्विकल्पम् ते ग्रस्तस्य पृथक्त्वं विकल्पः वस्मानिकान्तम । कश्चित्तव्यतिरिक्त सथैव प्रतीतिभावादिति भावः । यदि वा , यमात्मानमाश्रित्य भेदो याश्रित्याभेद इति यो विकल्प: सौगता। तस्मानिएकान्तम् । प्रत्यक्षतः तत्रात्मभेदस्याप्रतिपत्ती तथा विकल्पस्यानुपपतेः । 'यदैवं कथं तत्र सामानाधिकरण्यादिक तस्य भेदोपाभचत्वादिति चेत् ? न ; रेत्र वत्स्वभाधैः नया पृथकता सदुपपयेः । तदाह-तत्स्वभावरपोद्धृतः परस्परतो निकृष्ट ! केन ? विकल्पेन
. . ... .......---- -- ---... ...तदायले खत-आ०, २०, २०१२-यत्वापत्तेः आ०.५०, प० । ३ -क्षगमनेन अ०,२०,१० ४ कैस्तथै-आ०,५०,401 ५ "यदि स नेदः सामान्यविशेषयोः यमात्मानमाथिल्य सामान्य विशेष इति लेनास्मना भेदस्तदा म्यतिरेक एव ...".-4. दा. स्वन ३॥ १.०६ यर्थ re, न.प. ।
meenimamsunninimali
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प्रथमा प्रत्यक्षमस्ताः
नयापरनामधेयेनजीतं प्रापितम्। काम् । समानाधार गौः शुक्ला इत्यादिशम्पप्रवृत्तिनिमित्त भेदस्यैकमधिकरण', सामान्यच्च गर्वा गोस्वमिति , विशेषणं च भेदक नीलमिति , बिशे. स्टम भेषमुपसमिति , तेषां भावं समानाभारसामान्यविशेषणविशेष्यताम् । विकल्पस्यावस्तुविषयस्वेन मिध्यैव सन्नियन्धनं तन्नयनमिति चेत् ? ; सद्वराविषयत्वस्य व्यवस्थापितस्थान । अत्र एवोक्तम्-तत्वानुसारिणा इति । कयं पुनस्तवासतां तेषां नेनाप्य. ५ पोद्वार इति चेत्न प्रमाणतोऽनकधर्माधिष्ठानतया यस्तुनः प्रतिपत्तौ दसवायोगात् । अव पवाई
'भेवाना बहुभेदानां तत्रैकत्रापि सम्भवात् ।'
ययेयं प्रमाणन एवं भेदविषयात् सामानाधिकरण्यादिव्यबहारोपपत्तेः किं तदर्थन नयकस्पनेनेति चेत् १ न; भेदस्याभेदोपश्लिष्टस्यैव तेन अस्तिपत्ते अगुणप्रधानभावेन १० चोपेक्षितामेदो गुणराधानभावी च भेदः प्रस्तुतव्यवहारोपयोगी, न च तस्य नयादभ्यतः प्रतिपत्तिः । न चैवं व्यवहारानमेव प्रमाणम् ; आपोद्धारिकव्यवहारस्यातन्निबन्धनस्वेऽपि सकलधर्मकलापालङ्कृतजीवाविपदार्थव्यवहारस्म तेत एपोपपतेः ।
तदेव वस्तुभूतादेव धर्मभेदात् व्यवहारोपपत्तौ यत्तदर्थ ध्यावृत्तिमदेव जातिभेदोषकसन उस्यायुतत्वं तत्कल्पनकत्ताम्यास्त्रानभीस्वं दर्शयन्नाह--
अत्र दृष्टविपर्यस्तमयुक्त परिकल्पितम् ॥१३८॥
मिथ्याभयानकग्रस्त गरिव तपोवने । इति । अत्र एतस्मिन् वस्तुनि कथित्तव्यवहारनिमित्त यजालिजा परिकल्पित रखेच्छाविरचितम् । कीरशम् ! इष्टात् प्रत्यक्षप्रतिपन्नात् वस्तुभूताद् धर्मभेदान विपर्यस्त विपरीतम् अषस्तुकपमिति यावत् , तन् अयुक्तम् अवस्तुत्वेन व्यवहारफलेमासम्बन्धान , अन्यत एव च तस्य २० भावार प्रतिपतिफलेन या । निषेवितं तत् । कैस्तरपरिकल्पितम् ? भयानकाः भयहेतघोड़नेकातविषयाः संशयादयः, मिथ्या च ते भयानकाइच मिथ्याभयानकारतेषां होगाभासत्वेन साक्षाद् भयानकरवाभावात् वैस्ता वशीकृदा मिथ्याभयानकग्रस्ताः तैः सौगतः। अत्र निदर्शनं मृगरिव तपोषने । तथा मृगैः मिध्याभयानकप्रस्तैः क्षेमस्थानेऽपि वैपरीस्य कल्प्यते तथा विवेकषिकलैः सौगतैरपि वस्तुनि बस्तुभूतानेकधर्माधारे निश्शेषनिश्रेयसाम्यु- २५ दयनियन्धने संशयादिमिथ्यादोपविभीषितावलोकन विह्वलैः व्यवहारार्थमवरसुभूतभेदाधारत्वं परिकल्पितमिति।
मिथ्यामयानकरवमेव सेवा दर्शयाह
-करणं च सा-बा, २०, ५० र म्यायपि इलो. १२२ १ ३ प्रमामतः । ४ -पामावरवेन आ०, 44,401 ५फरिपते आ०,०, प.
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४९०
भ्यायविनिश्चयविवर
[ ११४१ यस्यापि क्षणिक ज्ञानं तस्यासनाविभेदतः ॥१३९॥ प्रतिभासभिदा धत्तेऽसकृत्सिद्धं स्वलक्षणम् । इवि ।
तात्पर्यमत्र-संशयाविभयाइनेकान्त परित्यजतो ज्ञानम् आसप्राविषिषयमेहमनेकार्थम्, प्रत्यर्थनियत वा भवेन ? नादाविदम्- अन्न व अपिशब्दो मिनप्रक्रमत्वात् तस्येस्यस्थानन्तर '५ द्रष्टव्यः । सदयमर्थ:- यस्य सौगतस्य क्षणिक ज्ञानं तस्यापि न केवलं जैनस्य प्रति
भासभिदा यस्तुभूतमाकारभेदं तज्ज्ञानं घस्ते । कुसः १ आसन्न आविर्यस्यासनभरादेः तविषयस्य तस्य भेदस्तमानित्य ता इति । आस हि तद्विशद विशदतरमासनतरे 'विशदतर्म पासनतमे इति । भवत्येवमिति दाह- असकृदनेकवार सिद्धं यनिश्चित प्राक स्वलक्ष. .
णम् अन्यत्रापि योज्यम् , वइपि प्रतिभासभिक्षं घसे, निर्दोषप्रतिपतिविषये तत्रापि संशयावेः । १० तजहानवदनयतारात् । द्वितीयेऽप्याह
विलक्षणार्थविज्ञाने स्थूलमेक खलक्षणम् ॥१४॥
तथा शाम तथाकारमनाकारनिरीक्षणे । इति ।
अर्थस्यासनादेः विज्ञानम् अर्थविज्ञानं विलक्षणं च तत्परीक्षायन प्रतिपरमाणु मिनमर्थविज्ञान प सस्मिन्नपि, भपिशवदस्यानापि योजनात् । स्थूलं नानाययवसाधारणम् १५ एकम् अवयवैः कथनिदष्यतिरिक्त स्वलक्षणं चेतनातनलक्षणं प्रतिभातीति शेषः । कुल
पतन् । तथा तेन स्थूलमेकमिति प्रकारेण ज्ञानमनुभयो यत इति । ततोऽनुभवनिरुद्ध प्रत्यर्थनियाज्ञानकल्पनं परस्येति भावः । तथा ज्ञानेऽपि कस्मान्न तद्वाधं विलक्षणमेव भवतीति येस् ! आह-तथाऽऽकारं विलमणाकारं वलक्षणं भवति । फदा १ अनाकारनिरीक्षणे सति निर्विकल्पदर्शनेन स्थूलैकविज्ञाने। न हि अतज्ञानात तसिद्धिः। सतोऽपि तसिद्धी दूषणमाह
अन्यथास्मिनोस्तत्वं मिथ्याकारैकलक्षणम् ॥१५२॥ इति ।
अन्यथा अन्येन स्थूलझानात् सूक्ष्मसिद्धिप्रकारेण अर्थात्मनोः विषयविषयिणोस्सावं अपक्षयनरंश्यनानात्वादिकं मिथ्या दित कि तर्हि स्थास् ! आकारेषु प्रामायमाविप्रपञ्च. रूपेऽत्रेकमनुगत लक्षणं खरूपं यस्य तत् आकारकलक्षणं परम तत्तस्वमिति सम्बन्धः ।
बनादो स्थूलसंवित्त दा यक्वतो यथा । पदावपि सद्बुद्धिस्तदायसव कल्प्यसे ।।११४८) सथा सरणाचन्द्रेषु भेदबुद्धरिक त्वया । परस्या अफि बबुद्धेरेकाधीनत्वमुच्यताम् ॥ ११४९॥ इति ।
सद्विशद -70,०,५०. २ एकमरक्यम् भा०, २०, प० । ३-मानस्सवं आध,०प० । र ०,२०,५००
पर
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भगमः यक्षप्रस्ताव
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भवतु निर्विकल्पादेव दर्शनाद्विलक्षणं तस्वमिति चेत् । कथं तत्र स्थूलप्रतिभासः ? विभ्रमादिति शेत् । न ; सद्विवेकम्य दर्शनेन तदयोगात् । सधादिरूपस्यैव तत्र दर्शनं न वद्विवेकस्यति चेत् ; अपाह
विज्ञानप्रतिभासेऽर्थविवेकाप्रतिभासनात् ।
विरुद्धधर्माध्यासः स्याद् व्यतिरेकेण चक्रकम् ॥१४२॥ इति । ५
विज्ञानस्य उपलक्षणमिदं तद्विषयस्य च प्रतिभासे सदादिरूपेण प्रणे यस्तस्यार्धात् स्थूलाधाकाराद विवेकस्तस्याप्रतिभासमाद् विरुद्वयोश्याश्ययोः धर्मयोरध्यासः स्याद् भवेत् । तथा सति सुनिश्चितमनेकान्तममवद्यमिति मन्यते । भवतु सर्हि तस्य तस्माद् व्यतिरेक एवेति चेन ; न ; तथा सत्यविवेकप्रसङ्गात् , व्यतिरेके सस्या. वश्यम्भावात । एवञ्च सिद्धमिदम् - स्थूलमेकं स्वलक्षण तथा ज्ञानं यत इति । पुनरपि तस्य १० तस्मादविवेकपरिकल्पनायां वक्तव्यमिदम्-विज्ञानपतिभास इत्यादि । सत्रापि मारिखत्यादिवचने यककम् तथेत्यादेरनुबङ्गात् । एतदेवाइ- व्यतिरेकेण अर्थविवेकस्य विज्ञानाद् भेवेन कृत्वा चक्रवदावर्तमानमाक्षेपसमाधानं चक्रकं स्यादिति सम्बन्धः। सन जीवति स्थूलझाने निर्भागज्ञानसम्भवो यतः परमाणुसिद्धिः । वदसिद्धौ यदन्यम् प्राप्तं तदप्याह
प्रतिक्षणं विशेषा न प्रत्यक्षाः परमाणुवत् । इति ।
क्षणं क्षणं प्रति प्रतिक्षणं परमागून ये विशेषा: निरन्वयविनाशलक्षणा से न प्रत्यक्षाः प्रत्यक्षविषया न भवन्ति । निदर्शन परमाणाव इव तद्वत् । वे च सद्विशेषा कयोपपत्याने प्रत्यक्षा: ? इत्याह
अतवाभतया बुद्धः । अर्थाकार विवेकवत् ] ॥१४३॥इति ।
बुद्धे प्रत्यक्षरूपायाः स्थूलावभासिवेनान्विताकारावभासिधेन ' असदाभतया २० परमाणुतविशेषावभासित्वाभावेन |
स्थान्मतम्-- प्रत्यक्षं परमाणुतत्प्रतिक्षणभङ्गाविषयमेष स्थूलादिबुद्धिस्तुं कल्पनेव केवलं निर्विधया न प्रत्यक्षमिति ; नन्न । तद्विवेकन प्रत्यक्षस्थापनिवेदनात । अन्त्येव तथा तस्य स्वतः प्रतिवेदनमवियेकविभ्रमस्तु विकल्पादेव कुश्चचिदिति चेन ; ने ताबदसौ दर्शनविकरूपाभ्यां प्रोव, निमित्ताभावात , तयोरेवैकप्रवृत्तिकारणयास्तप्रिमिनोन परैरभ्यनुज्ञामान ! सपि २५ युगपत् ; युगपद्विकल्पद्वयानभ्युक्गमान । ६ पश्चादपि । पर्शजविकल्पयोक्तदानीमतिकमेण सद्विभ्रगस्य निर्विषयत्वापत्तेः । पूर्वच नत्र सभी विवेकालीकारस्यैव प्रसन्नात् । सम्भवतोऽपि तस्य कुता प्रतिचिः ! स्वसंवेदनादेव प्रत्यक्षादिति चेत् : न; वस्य विभ्रमादन्यतिरेके
१५
--.-.......-
-....-..
१ श्रातदारम्भतया आ०,०, २०१२-बुद्धेस्तु बाब०,०1३-दनमिति वि-भा, ब०, प० । -बामविदे-आ.....।
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म्यायविनिश्श्यवियरले
[ १४५ प्रत्यक्षबानुपपत्तेः। व्यतिरेके १ सस्य तद् वेदने विभ्रमासम्भवास् । पिकल्पान्तयत् तरसम्भवे चानवस्थानस्य निवेदितवान् । अवेदने तु यथा न तस्य प्रत्यक्षत्वं बुद्धरतदाभवादेव मान्यतो विश्रमात् , तथा प्रविक्षयविशेषाणां सद्धर्मिषां परमाणूनामपि । एतदेवाह -
अर्धाकारविवेकवत् शति । अर्थी दर्शनविकल्पैकत्वरूपो विभ्रमाकारः तस्माद् विवेको ५ विकल्पस्वसंवेदनस्य स इव तत् प्रतिक्षणं विशेषान प्रत्यक्षाः परमाणश्यसि ।
एवञ्च यजासं परस्य सहर्शयन्नाह
अत्यन्ताभेदभेदी न तद्वतो न परस्परम् ।
दृश्याश्यात्मनोबुद्धिानभासमायोः ॥१४४॥ इति ।
बुद्धिनिर्भासश्च स्वसंवेदनामा क्षणभङ्गश्च तयोः उपसरणमिदम् । तेनं नीलादि. १. क्षणभङ्ग योरित्यपि द्रष्टव्यम् । तयोः तद्वतः सदधिकरणात झालादाच अत्यन्ती ऐकान्तिको
अभेदभेदी नादात्म्यव्यतिरेको न नापि परस्परम् । कीदृशयोः १ श्यामदयात्मनो: दृश्यात्मा नीलादिद्धिनिर्भासइय अदृश्यात्मा क्षणभस्वयोरिति ।।
कुत एतत् । इत्यवाह__सर्वधार्थक्रियायोगात् तथा सुप्तप्रबुद्धयोः । इति ।
तथा हि- यदि नीलाविक्षणभङ्गायोः बुद्धिनिभासक्षणभङ्गायोश्च तद्वत एकान्तात्यतिरेक: लेदा पिण्डस्योपसंहारात् परमाणुरेवावशिधयेत् तस्य पाप्रतिपरमावो महावदिति । तरः सर्वधा सर्वेण योमपद्येन क्रमेण वेति एकस्वभावेनानेकस्वभावेन वेति प्रकारेण अर्थस्य कार्यस्य क्रिया निष्पत्तिः तस्या अयोगात्, नीरूपातदनुस्पतः।।
एवं यदि नीदेः क्षणभङ्गोऽव्यतिरिक्त तद्वदेव दृश्यः स्याल, स्था प कि सदनुमानस्य २० फलम् ? निश्चय इति चेत् ; सिंदभावे न भवेत् ? व्यवहार इति चेन्; न; नीलादिदर्शना
देव तदुपपत्तेः। तत्रापि निश्वयादेव स इति चेत् । स एव सहि क्षणमास्यापि नियः स्याद. व्यतिरेकादिति न तत्फलं तदनुमानस्य । नापि समारोपव्यवच्छेदः; निश्यिते समारोपाभावात् । एतदेवाह - सर्वथा सर्वेण दर्शनहेतुस्वेन निश्चयानिमित्तत्वेन समारोपन्यवच्छेदकत्वेन च प्रकारेण अर्थक्रियायाः शमशानुमितेः अयोगादिति । नीलादेः क्षणभङ्गाव्यतिरेके शु भाध्यान्तःपातिस्पेन धर्मिहेनुट्रान्तानामसम्भादलुमानानुपपत्तेः सुव्यक्तमेतत् सर्वार्थक्रियायोगात्' इति । वन्नैकान्दन तयोः परस्पर साश्वामेदो सपि भेदस्तद्वतः, नीलाईबुद्धिानभासस्य 7 मित्वत्ताप, नित्याच, क्रमयोगपयादिना सर्वप्रकारेण सर्वधार्थक्रियायोगात् ।
भवतु कथञ्चिदेव तयोस्तद्वतः परस्परं चाभेदो भेदो वेति चेन् । अत्राह
- -- - --...
तेन क्षा-वा०, २०,५०१२इत्याह भा०, २०, ५०१३-हिनी-आ०,००४ तदापि पि-- आ० ब०, २०1 ५क्षणानुभानस्य । निश्चयाभावे।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
जायमागया।
तथा सुप्तप्रबुद्धयोः। अंशयोर्यवि लादास्यमभिज्ञानमनन्यवत् ।।१४५।। इति ।
सुप्तश्व गाढनिद्राविष्टः । उपलक्षणमिदम्- तेन मूछितश्च । प्रबुन्दश्च प्रत्यु. स्पन्नभयोधः । इदमप्युपलक्षणम्-तेम जागरितश्च । तयोः सुप्तप्रवुद्धयोः मूर्छितजागरितयो । तादात्म्यम् एकत्वं तथा तेनानन्तरोन कथञ्चिदिति प्रकारेण । करिशयो? अंशयोः ५ जीवभागयोः ।
अस्तु नाम कागत्वं प्रबुद्धजागरितयोः विज्ञानस्वभाववत्वात् न सुप्तभूतियोः विपर्ययादिति चेत् । न विज्ञानस्यैध क्षणभल्लादिविज्ञानवत् निश्चयविकलस्य सुवादित्वात् । स्वापाचौ सस्याभाव पर किन्न स्यादिति चेत् १ क्षणभङ्गादावपि किस स्यात् । नीलादावपि नयतामिति मेन ; पण प्राणायभावप्रसङ्गादिति भूमः । प्राण देव तदा प्राणादिर्न १० विज्ञानादिति चेत् न नहोशनी सन्तानान्तरप्रतिपत्तिः देशान्तरभाविनो स्याहारादेरपि व्याहा. रादिप्रभवस्वेन पुद्धिपूर्वस्वाभावात् । अस्तु आप्रज्ञानादेव स इति येन; कथं कमबत्वम् १ नाकमा क्रमवतोस्तस्योत्पत्तिः, "नाक्रमात् ऋमिणो भाषा:" [प्र०या० ११४५] श्त्यस्य विरोधात् । क्रमांश्चापरापर: प्राणादिस्सदवस्थायामुपलभ्यसे सतस्तस्कारणेन झानेनायि कमबसा तदा भवितव्यम् । तसरतस्य निश्चयवैकस्यमेव स्वापादिन भावः । पदपि निश्चय- १५ स्वरूपमेव ज्ञानत्वात्, प्रबोधज्ञानवस् किन भवतीति चेत् ? मवतोऽपि क्षणभङ्गादावपि सैन्द्र समारोपविकलमेव दस्थानीलाविवत किन्न स्यात् १ तश्वाविशेषेऽपि कारणवशात् कवित्तदवैकल्ये नियवैकल्यमपि स्यात् । ततो युक्त सुमादेरध्यात्मभागत्वम् ।
कुतस्तयोस्तादारभ्यम् ? इत्याह-अभिज्ञानम् इति । अव च यदि' इश्येतत्स. म्बन्धनीयम् । तच निपातस्वात् यत इत्यत्राथें द्रष्टव्यम् । तदयमर्ष:- अभिज्ञानं य एवाई २० सुन्नः स श्न प्रबुद्धः' इति प्रत्यभिज्ञान सुनप्रबुद्धसङ्कलनात्मकम्, यदि यत इति । न हि सुनात् प्रघुद्धस्यात्यन्तध्यतिरेके तस्य सदेकत्व सङ्कलन युक्तम्, अन्यमुनापेक्षयादि प्रसङ्गात् । सन्तानभेदानेति चेत. ; न ; सन्तानव्यवस्थाया अप्थेकत्वाभाषेऽनुपए । चिन्तिततम् ।
__ स्थान्मतम् - व्यवसायात्मन एव ज्ञानात् संस्कारः "व्यवसायात्मनो दृष्टेः संस्कारः" [सिविवि०परि० १] वचनाद , सुप्तमानस्थ चाव्यवसायस्वात् कथं ततः संस्कारो यतः २५ स्मृतिरूद्भवन्ती प्रत्यभिज्ञानमक्षकरूपयेदिति ? मा भून सत्कृत: संस्कार, जानज्ज्ञामफुतस्तु संस्कारोई प्युत्थानावस्थाझ्या विकासमुपनीयमानः स्मृत्युपस्थापनद्वारेण जागरितेनेव सुसेनापि प्रबुद्धस्यैकरवं सङ्कलपसि । कथमन्थमृतान संस्कारादम्यत्र सङ्कलनमिति चेन् ! न ; अत्यन्ताय सफोरम्परवाभावात् । न चेई सङ्कलनं भ्रान्त यतस्तदेकल्यन साधयेत् । तदाह-अनन्ययत् ।
निश्चयस्म । २ खपादौ । ३. विज्ञानम् । ४- विकल्पमंत्र आ०, २०, ५01५ तस्कृतसं-आ०, २०, पाशानतः । ६ अपिशब्दः एदार्थकः ।
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४९४ न्यायविनिश्वयविवरण
i अन्यः कस्पितरूपो विभ्रमनामा विक्यो यस्य तदन्यत् तस्मादन्यद्- अनन्यवत् वास्तक. सत्तादाम्यविषय माघकाभावादिति यावत् ।
इदानीं टेन द्रव्यपर्यायादीनामन्योन्यागकस्वेन भाष इति परिणामलक्षणं सह्या दर्शयन्नाह --
संयोगसमचागादिसम्बन्धाद्यादि वर्तते ।
अनेकत्रैकमेकानेक चा परिणामिन: ।।१४६।। इति ।
संयोग समवायश्च संयोगसमवायावादी यस्य संयुक्तकार्थसमकायावेः स एक सम्बन्धः वत्मात् यदि चेत् घर्तते, * किम् १ अनेकत्र शरीरवेशेषु एकम् आत्मव्य
संयोगेन शरीरं समवायेन, एकत्र शरीरे अनेक कटककुण्डलादि संयोगेन, कटकवादि १० संयुक्तसमवायेन, रूपसंस्थानादि समवायेन दा, रूपस्वादि समवेतसमवायेन, शरीरसमक्ते
रूपादौ तस्य समयायात् । एवमन्यत्रापि योग्यम् । वेति समुख्यार्थम् । तत्र समाधानम् - परिणामिन इति 1 परिणाम लक्षणो विदातेऽस्येति परिणामी भावः तस्य परिणामिनः संयोगसमवायादिसम्बन्ध इति विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धः । तथा हि- अप्राप्तयोः प्राप्ति
संयोगः । शनिश्च यदि शरीरादर्थान्तरम् ; वर्ष प्राप्तं शरीरमिति सद्भपसया तब प्रत्ययः ? १५ सम्बन्धादिति चेस सतोऽपि सारथस्य सम्भवे सिद्धः परिणामः । शरीरस्यैव ततोऽतपस्व
सपनयोत्पत्तेरसम्भवे कथं ततोऽपि तथा प्रत्ययः । कथं या तस्याश्रान्सत्यम् अवमिस्तद्वहान् ? भारताय कथं ततः तात्ययत् शरीरस्यापि प्रतिपतिः ? वाप्य एवासी भ्रान्तो न शरीर इति थे। कथमेकस्यैव मास्तिरञानिमश्च स्वरूपं विरोधाम् ! अविरोधे वा कथमेकरयैव क्रमेणा
प्रातिः प्राप्तिश्च स्वरूपं न भवेत् ? इति सिद्धः परिणामिन एव संयोगसम्बन्धः ।। २० सथा समवायोऽपि शरीरस्य तदाधारे तदषयकलापे इहेति प्रत्ययहेतुः । सदा
धारत्वक्ष्य तस्कलापस्य यदि याबद्रव्यमाधि , सशरीरस्यैव तस्य प्रतियतिः स्यात् आधेयविरहितरयाघारस्यासम्मवान् । अषद्रव्यमाविनोऽपि तरसाद् व्यतिरेके 'वाधारस्तकलाप इति न तद्रूपतया वत्प्रतिपत्तिः । सम्बन्धात्तथा प्रतिपत्ती : तरिझमेतरंकल्पनायां च पूर्वक
प्रसाद । अव्यतिरेके सिद्धस्तत्फलापः परिणामी प्रामतदाधारस्य तदाघारतया सवुत्पत्त्यव२५ स्थायां परिवर्तनादिति समवायोऽपि परिणामिन एव ! एवं संयुक्तंसमवायादिरपि ।
नन्वेषमशक्यपरिहारत्वे परिणामस्य किमक्यवगुणविशेषेभ्यो गुण्यषय विसामान्यानामर्थान्तरस्केन ? अवयवादीनां तद्रषेणापि परिणामोपपोरिति चेन ; अभिमतमेवैतत् । अत पत्रेदमपि व्याख्यानम्- अक्थवादय एवावयव्यादिरूपेण परिणामिनः परिणामशीला इति ।
१ कनिदने-बाब०, ५०।-द्रव्यसंयो-आ०, २०, ५०। ३ -बाबादिः स-सा०, २०, य. ४-मिन यो प्रा०,०प० ।५ हिमवमोव मु-अब, २०, ५०। ६ तभूपत्वेनापि आप०, ए.! अवयव्यादिरूपेणापि।
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२१४८)
मयमा प्रत्याधस्तावर
तदेवमस्थित यौगएराक्रमाभ्यां सामान्यविशेषात्मकं स्वलक्षणम् ।
भवंतु सामान्यम्; तसु विजातीयव्यायनिरूपमेव सस्य निर्वाधत्वेन वस्तुपु भाषात , अर्थक्रियायाश्च दुपाश्रयतयैव तत्रोपपत्तेः । पाचकादिध्यात्तिमत एवं नया स्नानादितम्क्रियादर्शनान । सामान्यवादिभिरपि तस्यावश्याभ्युपगमनीयवान्, अन्यथा कोपिपरिहारेण खण्डादायेव गोत्वमिति नियमायोगाविति घेत ; अत्राह
___ अतद्धतुफलापोहमविकल्पोऽभिजल्पति । इति ।
सामान्यमिति वक्ष्यमाणमिहाकृष्य सम्बन्धनीयम् । तदयमर्थः-२ विहोते तस्य खण्डादे हेतुफले ततारणकायें येषां ते अततुफलाः कर्कादय; तेभ्योऽपोहो व्यावृत्तिः । सामान्यमभिजल्पति कथयति । अविकरूपो विकल्पज्ञानरहितः सौगसः । न हि सामान्य मनिच्छतः उज्ज्ञानसम्भवः । तस्य हि न स्यालक्षण्यमेव रूपम्, अभिजल्पसम्बन्धा- १० भावापत्तेः । तदभिसम्बन्धिनोऽपि रूपस्य त भावे कथं सामान्यप्रतिशेष: तस्थैध साधारण त्मनस्तत्त्वात् ? असाधारणत्वे शब्दसङ्केतादेस्तत्राप्यसम्भवात् । भवदपि सामान्यं तदवास्तवमेवापोहत्वादिति चेत् कथमभिजल्पसम्बन्धं प्रति योग्यत्वम् । तस्य वस्तुधर्मस्वात् । तदपि कल्पितमेवेति चेम्: न तेनैघ तदयोन्मत् । सति योग्यत्षे तरच विकल्पकत्वं विकरूपत्वे च तेन तस्कस्पन मिति परस्पराश्यास | विकल्पान्तरात् तत्र तरकल्पनमिति चेतमः तत्रापि तदन्तसत १५ तत्कल्पनेऽनवस्थापते: । वनापोहवादिनो विकल्पसम्भवः । तदसम्भवे च कुतरे व्यावृत्ति सामान्यनसिपत्ति प्रत्यक्षस्थावद्विपयस्वात् ? कुतो वाभिजल्पः तस्य योनित्वेन तदभारे मोपपत्तेरिति मन्यते।
साम्प्रतं तस्य वस्तुषु भावादीनां वस्तुसामान्यसाधमत्वेन विरुद्धषमावेश्यनाइ
समानाकारशून्येषु सर्वधानुपलम्भतः ॥१४७।। • सस्यवस्तुषुभावादि साकारस्यैव साधनम् । इति ।
तस्यवस्तुपुभाष आदिर्यस्यार्थक्रियाश्रयत्वादः तन् तस्यवस्तुषुभावादि। कथै पुनः सुबन्तसमुदायस्य समासस्तस्यासुबन्तत्वाम ? सुबन्तम्य हि सुबन्सेन समास इति वैयाकरणन्यायः । समासेऽपि कथं सुपोऽनुरभाष इति चेत् १ न ; वरसमुदायस्वाभावात् । न हि 'तस्यवस्तुषुभावः' इति सुबन्तसमुदायोऽयम् , अपि तु तदर्ष- २५ विषयं तत्प्रतिरूपकमखण्डमेय प्रातिपदिकम् , सस्य व सुदन्तावादुपपन्नः समासः, सद्विधायिन; सुपो लुक् च। न च सुमन्तरमस्ति चालुगभावः पर्यनुयुज्येत । तत् किमित्याह-साकारस्यैव । आकारयत एव न नीरूपस्य सामाम्यस्य साधन स्तुपु परि.
बाइः प्राह । २तवाभावे आ०,१०,१०३ योग्यत्वस्थ । ५ सद्योरित्वेन आ.ब.प. 'विकल्पयोनयः सदा विकल्याः सदमीचर"इपभिमाना। ५ "मुपसुपा"-अनेन्द्र०१३।३।६ या लुभा-04०प०)
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म्यापविनिश्रपबिबरणे
[ ११४८
णामिभावलक्षणेषु भवनादेस्तत्रैव प्रतिपतेः । क्षणक्षीणपरमाणुरूपाणि स्वलक्षणान्येव वस्तूनि तत्र च भावोदिः प्रतीयते न साकारस्येति चेत्; न; तेषामेद प्रमाणाभावेनाप्रतिपत्तेः । न हि तदप्रतिपच तत्र मात्रादेरन्यतरस्य वा प्रतिपत्तिः सम्भवति । वाद-समानश्वासो मान
४९६
सहिव आकाes समानाकारः तेन शून्येषु यावर्णितस्वलक्षणेषु । कथं सडून्येषु ? ५ सर्वे प्रत्यक्षविषयत्वेनानुमानविषयत्वेन च प्रकारेण अनुपलम्भतः तस्य वस्तुषु मायादेरिति विमतिपरिणामेन सम्बन्धः ।
+
i
+
कथं पुनस्तेषां समानाकारशून्यत्वम् यावता प्रत्यक्षमेव तेषु प्रमाणमिति चेस् ? तदपि यथाकल्पनम् यथाप्रतिभासं वा भवेत ? न तापदायम् तस्याप्रतिपत्तेः न हि निर्विकल्पं प्रत्यक्षं कचिदपि दृश्यते यसः तत्स्वलक्षणप्रतिपत्तिः । प्रथममिन्द्रियज्ञानं तदेव १. इयते केवलं तत्पृष्ठभाविनैकस्थूलविकल्पेन प्रत्युन निश्चीयत इति चेत् कथमनिश्चित सदास्ति ? कथं वा प्रामाणम् ? अन्यथैवमपि स्यात् सकलमपि प्रत्यक्षं व्यावृतवस्तुfarane केवलं भेदविकल्पेन प्रत्यूहान निश्चीयत इति भेदाभावे प्रत्यक्षादन्यो विकल्प ea न सम्भवतीति चेत न अनेकान्ताभावेऽपि तदसम्भवस्य निवेदिताम् | अविचारितरम्यया तु कल्पनया तत्सम्भवस्योभयत्राविशेशम् तथा च सर्वाभेदरूपस्य पुरुषस्य प्रसिद्धेः १५ “यः सर्वेषु लोकेषु तिष्ठन् सबम्यो लोकेभ्योऽन्तरो यं सर्वे लोका न विदुर्यस्य सर्वे लोकाः शरीरं यः सन् लोकानन्तरो यमयति स आत्मान्तर्याभ्यमृत:" [हदा ० ३३७११५] इत्याद्याः श्रुतयोर्यो
i ;
न वैवं निर्विकल्पा भ्रान्तिरपि । शक्यं हि वकुम- 'पश्यन्नयमेकमेव चन्द्रमसं पश्यति द्वित्वारोपविकल्पान पुनर्निचिनोति' इति । तथा च व्यर्थमान्तयहणं" कल्पनापोढपदेनेव २० विस्वान्तेर्विनिवर्तनात् । निर्विकल्पैव तद्धान्तिः इन्द्रियभावाभावानुरोधित्येनैन्द्रियावादर्थंसनिधित्वा प्रतिसन्धयः चानिरोध्यत्वादिति चेत ; न; तस एवं जातिप्रतिपतेरप्यमानसत्वापत्तेः । तदुक्तम्-
"न चेदं व्यवसायात्प्रत्यक्षं मानसं पतम् ।
प्रतिसङ्ख्या निरोध्यत्वादसन्निघ्यपेक्षणात् ॥" [सिद्धिवि० परि० [१] इति । २५ सद्भावाभावानुरोधित्वादिकमध्यारोपितमेव न तात्त्विकमित्यपिनोत्तरम् द्वित्वभ्रान्तावपि तथैव तत्प्रसङ्गात् ।
अपि "विषयरूपं तस्प्रत्यक्षम् अभ्यथा वा ? तत्राये विकरूपे त्वेव सामान्यं सारून '
स
१ - रूपादिस्य- आ०, १० प० २ "मीरूपस्य सामान्यस्य "ख दि० । ३ भवनादिः आ०, ब०, ०४ मा नभ-आ०, ब०, १०५ प्रथमेन्द्रिय- भा० ब०, प० । ६ निर्विकल्पनेव । ७ "यः सर्वेषु भूतेषु शिष्ठन् सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्नरो वृहदा० 14 प्रत्यक्षलक्ष] ९ चानुरोध्य - आ०, ब०, प० १० विषयस्वरू मा०, ब०, प० ।
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श१४८)
अंधमा प्रत्यक्षप्रस्तायः प्यस्यैव तस्वात् । तपि तत्रातारिखकमेवेसि येत ; न ; भ्रान्तस्ना प्रत्यक्षवप्रसार । एतेन कल्पितमिति प्रत्युक्तम् । कल्पिताकारस्यापि प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः । सर्वथा च विषयसारूप्ये विषयषत सस्यापि जड़त्वाप न स्वतः प्रतिपत्तिः अन्यतच सरूपाम् प्रतिपत्तावनवस्थापतिः । असहपान प्रतिपत्तौ विषयायापि तस एव प्रतिपत्तेः व्यर्थ तत्रापि सारूप्यकल्पनम् । असह. पमपि नाप्रतिपन्नमेव तत्प्रमाणम् अनम्युपगमास । प्रतिपत्तोच प्रसिपलिफलस्य व्यापारस्य ५ स्वरूप एवोपक्षयात् कुतस्ततो विषयप्रतिपत्तिः ? आपरान्तरादिति चेत् ; २उभयव्यापारात्मस्व वस्य वस्तुतः सामान्पविशेषात्मत्वस्याप्यनिवारणापरोः । तत्र यथाकल्पन तल । नापि यथाप्रतिभासम् तत्र स्वपरव्यवसायात्मनि बाहिरन्तश्च नानाषयवसाधारणस्य स्थल. स्यैव प्रसिपशेः । न प्रत्यक्षतः स्वलक्षणप्रतिपत्तिः ।
नाप्यनुमानात; तस्य विकल्पनिषेधेन निषेधार, प्रत्यक्षाभाषेऽनयताराम। ततो ।। वस्त्वेद सामान्य तदन्वाहात्मयत्यहसूनां विरुद्धस्यात् ।
स्यान्मतम् बण्डादीनां कोविभ्व इव परस्परतोऽपि भेदाविछोऽपि एव सामान्य गोत्वं विभ्रति न कादयः' इत्यत्र तन्नियता शक्तिरेवावलम्बनम, तया च तदरणमकृत्या किन्न तवहारमेवानुगतप्रत्ययादिरूपं से कुधीरन । एवं हि कल्पनाऔरषं परिहतं भवति शैक्तिः सामान्य व्यवहारश्चेति । तत्र सामान्यमर्थवदिति; तयुक्तम् ; एवं हि विशेषाणामप्यपरिकल्प है। नप्रसङ्गात । सक्यं हि वक्तुम्-यया प्रत्यासत्या गोत्यमेव खण्ज्ञादीन् विशेषाम् बिभर्ति नाश्वत्वं सया तविशेषव्ययहारमेष कुषासालं तद्विशेषैरिति । एवञ्च न कश्चिदपि विशेषो जीवितुमर्हति सर्वविशेषग्यवहाराणां सन्मात्रादेव महासामान्यादुपप। विशेषाभावे कथं तमबहार: सस्थापि विशेषरूपत्वादिति चेत् । सामान्याभावेऽपि तव्यावहारः कथं तस्याप्यनुगतप्रत्ययावे: सामान्यरूपस्यात् । झस्पिस पत्र व्यवहारो विचारपीडो न सहत इति घेत न; विशेषव्यवहार... स्यापि तारशस्वात् । कथं पुनरेकस्वभावात् सामान्याद् देशकालादिभेदी दम्यवहार, कारणभेदादेव कार्यभेदस्योपपोरिति बेस् ? न; दोहपाकादिकार्यभेदेऽपि सद्धेतोः पावकस्य भेदाभावात् । तत्रापि शक्तिभेदादेव सद्भेद इति चेत् ; कुतस्तव्यतिरेकास् शक्तिमतोऽपि न भे: ? तमा. नास्थेन तदेकत्वस्याविरोधादिति चेत् ; महविदमह अत्-अनन्तरक्षतिसममाथिमा तन्न विरुद्धपते अर्थान्सरकार्यसमायिना हु बिरुवयते इति ! व्यतिरिक्तव शक्तिस्तद्वत इति पे न तत एव कार्यनिरूपः शक्तिमसो वैयर्यापोः । नायं दोषः, तेन नईदस्य करणादिति घेत: न; तस्याप्यपरेण तद्भेदेन करणेऽननस्थापत्तेः । स्वतस्लत्करणे कार्यभेदेन किमपरावं यतस्तमेव न कुवीत ? तथा च पाचकवदेव सदात्मनः सामान्यस्यैव सकलजग निर्माणसामोपयोः ध्यर्थमेव तदर्थ भाषभेदपरिकल्पनम् । उक्तस्य मण्डनेन
खरूपन्यव-80,०प०१२-रे नि-आ०, २०,०।३-त् प्रत्यक्षात प्रत्य-०,०० -रतौ भेदा-७,२०,०। ५ शशिमा-म०, २०, १२ । ३ यया प्रसीस्था अ, ब,
प दाहपारा-आग, 40, प.10-निणसा-श, 4, ए.
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न्यायविनिश्चयधिधरणे .
[१११४१ " याने भेदे रूपभेदो न लक्ष्यते । दाहपाकादिभेदेन कशानुन हि भेदवान् ॥ यथैव भिन्नशक्तीनामभिन्न रूपमाश्रयः । नथा नानाक्रियाहेत् रूपं किनाभ्युपेयते ।। एकस्यप महिमा भेदसम्पादनासहः । वहरिब यदा भावभेदकल्पस्तदा मुधा ॥" [यसि० २१७-१०] इति ।
तदेय सामान्य लोपलभ्यते मेदश्यत्र बहिरन्तश्नोपलम्मान, नदुपलम्भे या न भेदव्यवहार: तस्य संहतास्थितभेदरूपयात तत्कथं तत्र तस्य सामर्थ्यम् , असलि तदनुपपत्तोरिति
चेन् ? म; विशेषाणामपि परपरिकल्पितानामप्रतिपतोः । प्रविपत्तौ वान सामान्यव्यवहारः ९. 'सहताखिलसामान्यरूपत्वाशेषाप, सत्कथं तत्र तेषामपि सामथ्र्य असति वदनुपरः । कल्पनया सत्वमिति चेत्, न तस्या एव भेदाप्रतिपत्ताबसम्भवान् । निधेदिसमचैतन् । एतदेवाह
में विशेषान सामान्य तान् वा शत्या कयानन ॥१४८॥
मद्विभर्ति स्वभायोऽयं समानपरिणामिनाम् । इति ।
अत्र द्वितीयो मम सदित्यनेन सम्बन्धनीयः । वाशब्दश्चैवार्थः । तदयमर्थ:-सदा२५ अनन्सरोक्तं सामान्य नामवाविपरियाल्पितं कथाचन भिन्नयेतस्या का शक्त्या प्रत्यासत्य
परसम्झया नान् विशेषान यामारामादिरूपानन विभर्मि या न स्वीकरोति यथा । उपलक्षणमिदम्-नापि नव्यवहार करोति । तथा विशेषाः सौगताभिमता: सामान्य गोत्वादि न विभ्रति बिभतीत्यस्य वचमपरिणामेन सम्बन्धात । इदमप्युपलक्षणम्-तेन तब्यबहारमपि
न कुर्वन्ति, तेषामपि सत्सामान्यपदप्रतिपत्तिविषयत्वेन खपुष्यतुस्थान मा भून् कल्पि२० तानां तेषां बद्धरणं त्वत्परिकल्पितानां भवेत् त्वया तत्प्रतिपत्तेभ्युपगमादिति चेत् ; न, तत्रापि
तदसम्भवात् । न हि वेऽपि विशेषाः कयाचिदपि शक्त्या सामान्य विभ्रति, स्वयं तदूपत्वेन सदाधारत्वानुपपत्तेः । तन तापीय प्रक्रियाऽवफल्पते । तदाह- स्वभावोऽयं सामान्यरूपः । छेपाम् ? समारपरिणालिनी स्वहेतुसामग्रीतः साश्यपरिगामापसिमताम् । भिमेव सामान्य विशेपेभ्यस्तबाधेयच 'स्वण्डादिषु गोत्वम्' इति प्रतिपत्तेः, तत्कचं ते तन्न विभ्रतीति २५ त् ? अाह
अपसिद्धं पृथसिद्धय उिभयात्मकमजसा ॥१४९॥ इति । प्रकला प्रत्यक्षलक्षणरवेन सिई निश्चितं प्रसिद्ध सायद अप्रसिद्धम् । किं तत् ? विशेभ्योऽन्तरत्वेन सिद्धं निष्पन्नं सामान्य महि प्रत्याने सामान्यस्य
-हेतु 4,40,५०।२ तथा गुदा ०, २०,।३ सेनाखि-श्रा०, १०, प.। 1-यो महादे-मार, १०,०। ५ चौशल्पलान विशेषमाम् ।
ETRA
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प्रथमः प्रत्ययस्साधा
विशेषभ्यो भेदस्तदाधेयत्वं वा प्रत्यक्भासते, कथठित तदम्यतिरेकस्यैव तस्य सत्रावभासमान । तथापि तत्र तदयभासकरपनायो भवन्तु कुशलिनस्ताASTER 'परस्परविश्लेषिणामधूनामेध सत्रावभासनम्' इति सेषामपि शक्यथात परिकल्पनस्य । खण्डादिषु गोस्वमिति तु प्रतिपतिरापोद्धारको व्यवहारार्थ न तावता सस्य तदाधेयत्वम् , अन्यथा तेषामपि सदाधेयत्वं भवेत् - "सामान्यनिष्टा विविधा विशेषाः" [ युक्त्यनु० श्लो०४६ ] इत्यपि प्रतीतेः । कीदृशं ५ सहि सत्त्वम् ? इत्याद-उभयात्मकमनसा इति । सामान्यविशेषोभयस्थभावं क्यम् अअसा परमार्थनेति ।
हदात्मत्येऽपि वस्तुनः सामान्यमेकमेव 'सर्वसर्यगतं न प्रतिव्यक्ति भिन्नं सदशपरिणामलक्षणम् । तदुक्तम्
"यथा च व्यक्तिरेकैव दृश्यमानः पुनः पुनः । कालभेदेऽप्यभिन्नैवं जातिभिनाश्रया सतौ ॥ कारविययशो वृत्तिपूछा जाती न युज्यते ।
न हि भेदविनिर्मुले कास्यभेदविकल्पनम् ॥"मी० श्लो०वम० ३२-३३] इति चेस ; न ; व्यक्तिवेतदन्तरालेऽपि तस्योपसम्भपसङ्गात् । अनभिब्यक्तनेति । ध्यक्तावपि न भवेत् , तदन्तरालगतात् तद्गतस्य तद्रूपस्याभेदाम् । भेदे व्यकिगतमेव वत्सा- १५ मान्यमस्तु तत एव तत्प्रयोजनपरिसमासे प्य वदन्तराले तस्कल्पनम् । प्रतिव्यक्ति तस्या भेवे कथमभेदप्रत्ययः 'स्पण्डो गौमुण्डो गौरित्ति' इति न् । अभेदेऽपि फथं क्वचिदभिव्यकिर. मभिव्यक्तिमान्यत्र "ग्यक्रतापत्वात् । न हि व्यक्तिविधयस्वभावो येम तद्वत्वेतराभ्यां सस्थ मेवा अपि त्वन्येव तता, तत्प्रतिपत्तिरूपत्वादिठि घेत ; कथमेवं तदन्तराले "ववप्रतिपत्ताधनभिव्यक्तिमत्तरम् । तेसप्यप्रतिपसेरेव प्रतिपादनाम् । तत्पर्यनुयोगे तस्या एवोत्तरत्वानुपपसे।। २० कृतश्च तस्याभिव्यक्तिः ? यत्र "तत् सन्त इति चेत् ; न ; सर्वतः स्यात् । सर्वसर्वगतत्वेन तस्य सर्वत्र भावास । यस्य सामध्यं सत इति थे ; "वदपि यदि सामान्यरूपं सर्वसर्वगतन स एव दोष:- सदन्तरालेऽपि ततस्तदभिव्यक्तिरिति । नायं दोधा, "नस्य तत्रानभिव्यकत्वे. नामभिव्यञ्जकत्वात । इतरत्र कुसस्तदभिव्यक्तिः १ अन्यस्मात् सामादिति चेत् ; न; तदपीत्यादेः सत्राप्यनुषणादनवस्थापश्च । असर्वगम मेव तदिति चेत् । न : २५ सर्वगतसामान्यसिझाव्यापसे । सामान्यादन्येव सामथ्र्यम् असर्वगतमनभिव्यक्ताच, अन्यथा पूर्षवद् दोयादिति घेत । ततोऽपि" यथभिव्यकिस्तव्यापिनी ; सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गः, सर्वगतसामान्यव्यापिन्या सदभिव्यतया "तदन्यतिरिक्षासकलवस्तुब्याप्तेरवश्य
। सर्व सर्प-आ०, २०.५०।२ -वसत्तदन्त-मा- ०.२०१५ -तिमातरम-मा०, २०, ५०। • गोरिति मैस् मा०, २०, ५०।५ अभिव्यक्त"-तारि। पपस्यम्साराले। • सामान्याप्रतिपसी । 4 "अममियतर्न सामान्यप्रतिपत्तिः' इत्युत्तरम् । ९ स्वदमियतत्यापि। १० सामान्मम् । ११ सामर्थ्यमपि । १२ सामान्यस्य । १३ असर्वगतमामादपि । १४ सवभिब्यति-मा०, ०,१.!
Mar
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मायविनिशानियो
मानान। वक्ष्यति पैतस्- नित्यमित्यादिना। यदि म समापिनी कथं संदमिष्यत्तम, अमिष्यक्तिव्यानस्वभावस्यैषभिट्यत्तस्योपपतः । खण्डोभिव्यक्तमप्यभिव्यक्तमवति छन । न: तस्य स्थण्डाभात्रान् । सदा का कथं सत्र कारल्यावयवी नियंतयोगो मोपपाते थत इदं सूक्तम्-'कात्स्यायनशो वृत्तिः' इत्यादि । अपि पा.--.
ब्राह्मण्यमपि सामान्यं यदि सर्वगतं तदा । शूद्रानिष्वपि नावाज्जानिसायमागतम् ॥११५०॥ स्यक्ताव्यक्तविभागस्तु निर्षिभागे न युछिमान । कुत्तो वा तदभिव्यक्तिमेक्सि यस्तदसम्भवान् ॥११५१॥ कौण्डिन्यादेन हि व्यक्तेस्ताक्तिहरलभ्यते । अन्यधानुपदेशः स्यामिश्रयसत्र गोस्ववन ।।१५। उपदेशसाहायैर इयक्तिस्तन्यशिका यदि । केवलैव समर्धा चल सायापेक्षा किम् ।। ११५३। केवला न समर्धा चल सहायाधणेन किम । महाय पन मामध्यं तस्यामित्यपि मो नरम ॥ ११५४३ भ्वतः सामान्यत्वे तदद्योगाम ग्यपुष्पवन। स्वतोऽपि गनि सामाय सहायो नैव कार्यकन ॥११५५३ सत्येव सचिव तत सत्कृत क्यासधा सति ।
या लस्करण 'जातेयक्तिरेवास्तु तत्कृता ॥११५६॥ एवं हिन प्रसज्येत पारम्पर्यपरिश्रमः । सचिवन विनाप्यस्ति तरुवेन कुर्वीत किन्न तम् ॥११५४३ कार्य कार्यकृतेऽप्यस्ति सामयमिति साहस 1 अन्योन्यान्यसामर्थ्य व्यक्तिमत्सचिवद्वयम १९५८11 कार्यकृच्छन्न शदानावप्येवं तत्प्रसखनान ।
कौण्डिन्यादिषन् "सूतमागवाविप ब्राह्मण्यस्य व्यक्तिरेख, तत्रापि तस्य तदुपदेशस्य १५ प सर्वगतसामान्रवादिमतेन भावा । ततस्तत्रापि तदभिव्यक्ती कथं याजनाध्यापनादयः
कर्मविधयो न भवेयुः, आधारसायं न भवेत् । तदेवं क्षत्रियत्वादयोऽपि 'चिन्त्याः । तन्न सस्य सर्वसर्वगहरवं तद्वदुः गोत्वादेरपि । व्यक्सिसर्वगसाय तु प्रत्यासराल विश्छेदे नानाथम् , अन्यथा ससर्वगतादविशेषः । सन्न साइशेन सामान्येन तदात्मकस्वं भाना सारश्यात्मनेव
पायनिक बलो. १५५। २ व्यवस्वायने भा०, ब... । ३ केवल -आर, 40,401 • जाहव्यक्ति--सा० । ५ प्रामण्या क्षत्रियाज्जातः सूतः । भत्रियाओं वैयालालो मागमः । ६ प्रष्टव्यम्-प्र. वार्कि काल. १२ । ७-या सईग-आ०, २०, ए,1८ सर्वगहेन ।
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प्रथमः प्रत्यक्षवस्ताका तेन तदुपपरः । कयं तस्यापि विशेषेणैकत्वं विलक्षणस्यादिति चेम् ! कथं रूपेण संस्थानस्य सदविशेषात् ? मा भून् , संस्थानस्यैवाभावादिति चेतन : दर्शनात | ने ट्वि पाय देयस्यौस्यादिकं न पश्यति, तदपावे रूपदर्शनेऽपि तदापरन्धकल्पं जगवेन । झपमेव संस्थानम् , सत्येव तदुपलम्भे तस्य दर्शनात नापरमिति देत ; न ; सत एक रूपम्यापि संस्थानादन्यायाभावप्रसङ्गात् । दूरविरलकेशादो केवलत्यापि पस्य दर्शन मिति म ने ; ५ समन्धकारादो केवलम्यापि मयूरादिसंस्थानस्योपलम्भात् | संस्थानमेव सत्र भषति यथारष्टस्याप्राप्ते, सस्यैव संस्थानत्य प्राप्तिरपि स्यात् , न चैवम् , स्पष्टस्यैव प्राप्तेः । न च सयोरेकत्वं प्रतिभासभेदेन भेदस्यैवोपपत्तो, सस्माद् प्रान्तमेव सदर्शनम् विसंवादादिति चेत R; अस्पष्टतायामेव विसंवादान , न संस्थाने । सद्ध्यतिरेकात् तत्रापि विसंवाद एवेति चे; ; एकान्ततस्तदभावान , अन्यथा नास्पमित्येव म्यान प्रतिभासो नस्लमिति । कथं १० वा तत्संस्थानस्यावस्तुत्वे लिकम् ? अविनाभावनियमादिति म ; न तनियमस्यापि अदुत्पत्तितादात्म्ययोरेवाभ्यनुकानात् । अत एवोक्तम
"कार्यकारणामावादा खभावादा नियामकान । . अविनाभावनियमो दर्शनान न दर्शनात् ।" [प्र. वा० ३।३०] इति ।
मावस्तु कस्यचित्कार्यम् ; व्योमकुसुमादिक्त् । नापि स्वभावः । स्वभाववस्त्रेऽपि १५ साध्यस्य नरमादेकान्तेनाभेदे तायवरत्वेव स्यात् । नव तस्साधने प्रेक्षावता प्रवृत्तिः पुरुषार्थाभावात : साधितास ततो वस्तुसाधनमिति चेन ; न तस्यापि तस्माकान्तेनाभेदे पूर्ववदोषाबनवस्थानुषङ्गा । कश्रित सदस्यनिरेकपरिकल्पनया तत्साध्यवस्तुत्वपरिपालनं ध्यामलितोपलब्धसंस्थानस्यापि वस्तुत्वमवस्थापयति, तस्यापि ध्यामलिनत्वात् कथरिखदेवाव्यतिरेकात् । मा भूलिकत्वमपि तस्येति चेत् ; कथं सहि तन्त्र प्रसिपनप्रामित्यभिचारस्यानुमानाश्रिसंधादः १२० यत इदं सूरुम्
“ममैवं प्रतिभासोऽयं न संस्थानविवर्जितः ।
एवमन्यत्र सृष्टत्वादनुमान तथा च तत् ।।" [प्र०बार्सिकाल० ५११] इति ।
कथं पुन: अनुमानादयविसंवादः तद्विषयस्याप्यस्पष्टावभासित्वेनावस्तुस्वाविशेषान , तत्रापि शत्प्रतिभासलिकोपजनितारनुमानाद अदिसंवादपरिकल्पनायामनवस्थापत्तिरिति चेत् : २५ अयमपि परस्यैव दोषः । दोषः, व्यवहारभकभयाकृतविचारस्यैवानुमानप्रामाण्यस्याभ्यनु. झानादिति चे न तथा पर्शनस्यैव तदशीकारोपपत्तेः । एवमप्यवास्तवमेव संस्थान व्यावहारिकस्याध्यक्षस्यावस्तुविषयस्थात्, ततः सांवृतमेव तत् अस्थूलादिव्यावृत्त्या स्थलादे। संवृत्या परिकल्पनादिति चेम् ; अधाह
। सामान्येन । २-पलव्यामिव्यभि-आ.ब.प.।
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न्यायविनिमयधिषरणे सक्षिवेशाविवद वस्तु सांवृतं किन कल्प्यते । इति ।
सन्निवेशो रचनाविशेष; संस्थानमिति यावत् । स आदिर्यस्य सदृक्षपरिणाम स इव तद्वन् "सुप इ" [शाकटा० ३।३।२] इति प्रथमान्सात् वत् प्रत्ययः । वस्तु रूपादिः
सांकृत संवृतः कल्पनाया आपतम् किं कस्मात् न कल्प्यते । कल्प्यात एष शक्य हि ५ वलुम्-अरूपादिन्यावस्था स्पादिरपि कल्पनोपदर्शित एव है तात्विक इसि । रूपायभावे कस्यारूपा; व्यावृत्तिरिति चेत् ? स्थूलादेरभावेऽपि कस्यास्थूलादेः ज्यामि । रूपादेव, वस्यैव स्यूलावितया परिकल्पनादिति चेत् ; अन्यत्रापि स्थूलादेरेव, वस्यैव रूपाश्विया परिकल्पनादिति समानश्चः ।
___ भवतु स्वपि सावृतमेयेति छन् ; कुतस्तस्य परिहानम् ? अवस्सुस्वेन स्वतस्तद २० योगान् । अन्यत इति पेन ; न ; ततोऽप्यतदाकारात्तदसम्भवात् । ददाह
अप्रसिद्धं पृथसिद्धम् ! उभयात्मकमक्षसा]
अमसिद्धं प्रमाणनिश्नि न भवति । किम् । पृथक् ज्ञानादर्थान्तरतयाऽनाकारफत्वेन सिर्दू निष्पन्न सनियेशादि रूपादिकम् सर्वश्रा सदाकाराच नसतस्तस्य परिक्षानं तस्वाईप
सदवस्तुत्वाम् । पुनस्तदन्यस्य सर्वथा सदाकारस्य कल्पनायामनवस्थापतेः । कथयितदा. १५ भारत्वे व सिद्धं तवास्तपेतरस्वभाव सदाह 'उभयात्मकम्' इति । भवतु सतः किम् .
इत्यत्राह-अजसा इत्यादि । सनिवेशादि वदम्तीति सनिदेशाविवो जैनाः 'विच्येवं रूपात तेषां वस्तु रूपस्थूलादिरूपतयाऽनेकान्तात्मकं सांकृतं भवभिप्रायेण किन्नेष्यते १ इयत पव । कथम् ? अञ्जसा परमार्थेन । वात्पर्यमत्र
सरयेतरस्वभावं घेदेक वस्तूपगम्यते । वस्तुतस्तहि रूपादिसंस्थामाात्मक वैथा ।। ११५५ । तथा प तरसामान्यवि पारमापि तस्वसः । वक्तव्यं वस्तु तनुद्धिदेवताकोपभीरूभिः ॥ ११६० ॥ अनेकान्तात्मके भावे सत्येवमुपपादिते । . खण्डशोऽपि परिज्ञानं न वस्तुषु विरुध्यते ॥ ११६१ ॥ निरंशार्थप्रयादे हि वस्तुनः सर्वयाग्रहात् । में कथिविभ्रमो नाम भवेदित्याह शास्त्रवत ।। ११६२ ।। समग्रकरणावीनामन्यथा दर्शने सति ॥१५॥ सर्यास्मनां निरंशस्यात् सर्वथा ग्रहणं भवेत् । इति ।
अन्यथा अनेकान्सादन्येन प्रकारेणेकरूपेण वर्शने अभ्युपगमे सति विद्यमाने , ३० सौगाताद ना सर्वथा सर्वेष्ण पन्द्रादेवतुलत्यादिनेक्षकादित्वादिनापि प्रकारे ग्रहणं मवेत् ।
-पाविकः शां-आ०, २०, ५०।१ विच् प्रत्यये सति। तदा भा०, २१, ५० !
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव कुतः १ निरंशस्थात् निर्भागत्वात् । न हि निर्भगं वस्तु गृहीतमगृहीतोपनं विरोधात । भवत्येव तथा महणं 'पाचिदिति चेत् :
आ त्म गार सो धान्यानो चारमनां मुरुषाणाम् । कीदशानाम् ? समग्रकरणादीनां करणमिन्द्रियमाहियेषामालोकादीनां ते करणादयः, समयाः सम्यगभिमुखाः कार्योत्पादने करणादयो येषां तेषामिति । यथा सामग्रीसाधन चन्द्राही वर्तुलवादेर्यहणं सैमिरिकादिमिस्तपैकत्वादरपि भवेदविशेषान् । तथा ५ वन विभ्रमो नाम कचिदपीति व्यर्थस्तनिवृत्यर्थः प्रशस इति मन्यते ।
भवतु तस्यैकस्वादिनैव वर्तुत्वादिनाप्यप्रगुणमेवेति चेत् : आह
नौयानादिषु विभ्रान्तोन न पश्यति बाह्यतः ॥१५२॥ इति ।
नौयानमादिः येषाभाशुभ्रमादीनां तेषु निमित्तेषु सत्तु विभ्रान्तः प्रति- . पत्ता न न पश्यति पश्यत्येक । कवायतो हस्तथाप्रतीतेरिति भावः ।
पश्यन्नप्यसदेव पश्यतीति चन्द : आह
न च नास्ति स आकारज्ञानाकारेऽनुषङ्गातः । इति । .
सं वर्मुलस्वादिः आकागेन च नैव नास्ति विद्यत पर बाहावरतत्मतीतेरविसंवादा. दिति भाषः । आझस्यादर्शनमसत्त्वम्य अवतो दोषमाइ-ज्ञानाकारेऽनुषतः ज्ञानस्थाकार म्वरूपं तत्रानषड्न प्राप्ति न पश्यतीत्यस्य नास्तीत्यस्य च तस्मात् । वाहातो कम पश्यति न १५ च नास्तीति सम्बन्ध:
यदा बावदेवाय न पश्यत्यन्तरप्यलम । भ्रान्तश्चैतन्यशून्यस्थं सदा याप्नोति मानवः ।।११६३।। चैतन्यरहितश्चासौ मृत एव कथं भ्रमी । मिध्याज्ञान्येव यल्लोके भ्रमीति प्रथितो बुधैः ॥११६४॥ धान्तिमान बहिश्चान्ता थुपेतवतोऽपि न । स्वतोऽन्यतो वा तद्वित्तिरिति पूर्व निरूपितम् ॥१२६५३ धात वाहस्ततो ज्ञानमभ्रान्त चाम्तरिच्छतः । द्वित्वादितैव चन्दादिरविभ्रान्तोऽस्तु नान्यश्वा ।। ११६६॥ विवेको विप्लवकाराद् यदि विज्ञामचन्द्रयोः । तहे विप्लवाकारः क्व पराकः प्रवर्तसाम् ॥ ११६७॥ तदनहे फथं वितिरविभेदासयोरपि । तस्मात १३येतरात्मरबमनेकान्तावलम्बनम ॥११६८॥
- - - ...--.- -. अान्तानाम्"-ता-पि. 1२. स्त्र - माया पाना आ.,..11-सिरपि भेमा०, २०५०
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५०४ न्यायविनिश्चयनिधरणे
[११५७ इदमेवाइ
तस्माद् इष्टस्प भावस्थ न दृष्टस्सकलो गुणः ॥ १५३॥ इति ।
तस्मात् प्रागुकादनकान्तात् समाश्रित्य दृष्टस्य उपलब्धस्य मावस्य चन्द्रायः न दृष्टो नोपलधः सकल: सम्यो गुणः स्वभावः बिनाकारविवेकाविलक्षणो नैकान्तात् सत्र ५ दृष्टस्यारष्ट स्वभावविरोधात् | भवतु दृष्ट एव का सकलोऽपि गुण इति येत ; उसमत्र- कुलो विभ्रम इति । अभ्यत इति चेत् ;न ततोऽप्यचन्द्रप्रतिभासाल, उम्र विभ्रमे अतिप्रसङ्गात् । नापि चन्द्रप्रतिभासान् । तत्रापि सर्वगुणतयैव तस्य प्रतिभासास ! सत्राप्यम्यसो विमफल्मलायमनवस्थापत्तेः। ततो यदुतम्
"तसाद् दृष्टस्य मावस्व दृष्ट एदाखिलो गुणः ।" [•वा० ३।४४] इति; तदुपपरस्त एवैकान्तो यदि लभ्येत । इदं तु न युक्तम्
"प्रान्सेनिधीयते नेति साधन सम्प्रवर्तते ।" [प्र०या० ३४५] इति ;
सर्वात्मना वस्तुदर्शने भ्रान्त्यमावस्य निवेदितवान् ।
सदेवं रूपसंस्थानात्मकत्ववन् दृश्येतरात्मकत्वदरच सामान्यविशेषात्मक वस्तुनि व्यवस्थिने सवि परस्यापद्यते सदाह
प्रत्यक्षं कल्पनापोर्ट प्रत्यक्षादिनिराकृतम् । इति ।
प्रत्यक्ष प्रत्यक्षवेधं ज्ञानशेयलक्षणं पस्तु कल्पनापोडं जात्यादिकल्पनारहिस यत्परस्ये तत् प्रत्यक्षेण आदिशग्दादनुमानादिना र निराकृतम् । अनेन "प्रत्यक्षं कल्पनापोदम्" [प्र० वा० २।१२३ ] इत्यस्य पाभासम्वं ब्रुक्ता न हेतुभिः परित्राणमित्यावेदिष्ठं भवति।
नियमयमाड
अध्यक्ष लिङ्गसस्सिद्धमनेकारमकमस्तु सत् ११५४॥ इति । सत् विरामानम् अनेकात्मकम् अनेकस्वभावम् अस्तु भवतु। कुतः सिद्धं निश्चित यतः । कुतस्सिद्धम् । अध्यक्षलिड्गतः अध्यक्ष लिन साभ्यां वसः । न हि प्रमाणसिद्धे बस्तुभ्यनस्तुकार' प्रेक्षावतो युक्त इति भावः । भवतु नाम प्रत्यक्षात सत् "सिद्ध सस्य निशितलक्षणस्वास् लिमास्तु कथं सस्य निश्वेष्यमाणलक्षणत्वादिति चेत् ; न ; सस्यापि विषयतः प्रत्यक्षनिश्चयादेव निश्चयात्। नहि प्रत्यक्षविषयादन्यथा 'तस्य विषयः प्रत्यक्षमाधित्वेनाप्रामाण्यप्रसन्नात् । न चैवं पुनस्तनिश्चयकरणस्याार्थकत्वम् । तस्य लक्षणविप्रतिपत्ति
१५
PA
ज्ञानं शे-आ.ब.२० । २ न तस्य हेनुभित्राणमुत्पतमेव यो हवा!" टिक। । वस्तुन्यवस्तुका-म,.,.1 अमरीकारः । ५ सिवं निधि-81,.40 लिसस्य ।
हानी
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प्रथमा प्रत्यारस्वाया
५०५ निराकरणार्थत्वेन सार्थकलात् । स्पमतानुरामपरवशतसो मासरित्यादनेकात्मके स्तुनि नास्तुकारमनुमन्यत इति चेत् । न ; प्रमाणालोकप्रकाशिते यस्तुनि सत्पुरुषाणां पुरुषार्थभीरुतया मत्सरानुयपत्तेः । एतदेवाह
सत्यालोकप्रतीतेऽर्थे सन्तः सन्तु विमत्सराः । इति । सुबोधमेतत् ।
साम्प्रसं सहसपरिणाम सामान्यमनभ्युपगच्छतो शेषिकादेः तब्ययहार एव न सम्भवति, तपरिकल्पितस्य सामान्यस्यानुपपत्तेरिति दर्शयितुं प्रथमं ताका परसामान्य सत्यमेव प्रत्याचष्टे । समानन्यायत्तया उत्पत्याख्यानादेव द्रव्यत्वादेरपरसामान्यस्यापि प्रत्याख्यानोपनीतात् (पनिपातान )
नित्यं सर्वगतं सत्वं निरंशं व्यक्तिभिर्थदि ॥१५४॥ व्यक्तं व्यक्तं सदा व्यक्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् । इति ।
अत्र द्वितीयरुशम्दो व्यक्षकपायः व्यक्तं करोति व्यक्त यसीति वचनाधि (Narula) मिति व्युत्पता । सदरम:- सत्वं सामान्य व्यक्तिभिः द्रव्यादीनामन्यतमविशेषः व्यक्तं प्रकटीभूतं यदि चेस् , व्यक्तं व्यसकं ठ्यादिधु सद्ध्यं सन् गुणः सत्कर्मेति र प्रत्ययस्योपजनकम् । अघ्र दूषणम्-ध्यक्तं प्रकटीभूतं भवेदित्युपस्कारः । १५ किम् । प्रैलोक्यं त्रयो लोकास्प्रेसोक्यम् 'चातुर्यचिदत् व्युत्पत्तिः । कदा तद् व्यतम् ! सदा सर्यकालम।
चैयं सत्यसर्वज्ञः कश्चिद युपपद्यते । सस्किञ्चित्पश्यता सणाशेषार्थावलोकनात् ।।११६९॥
यदा व या च तदस्ति तदैव तत्रैव तहतिर्न सर्वदा सर्यत्ति चेत ; भवेदेवं यदि २० सनिस्यमसर्वगत्तन्न । म वैषम् , नित्यसर्वगत्तस्यैष तस्याभ्युपगमात । तदाह-- नित्यं सर्वगतम्' इति । ताशस्याप्यभिव्यक्तिसहायस्यैव तस्य सत्य यहेतुत्वम् , न व सर्वत्र सर्पदा तदभिव्यक्तिः , तदयसदोष इति पेन ; न ; द्रव्यादीनां तदभिव्यञ्जकानां सर्वदा सर्वत्र च भावान् । तैरत्यभिस्यक्तैरेव "सदभिव्यक्ति परैरिति चेत; न ; सत्येन तदभि. व्यक्तौ परस्पराश्रयास- सेन सदभिध्यषितः, अभिव्यक्तैश्च "तैस्तस्याभिव्यक्तिरिति । १ द्रष्यत्वादिभिरभिव्यक्तिरिति चेत; न ; तैयाभिव्यकसैस्तदभिव्यक्ती सपनापि" स्यात् अविशेषात् । पृथिव्यादिरूपाचुक्षेपणादिभिरभिव्यक्तीति चेत् ; २ तैरप्यनाभिव्यक्तः, - अनश्यापसेश्च । तत्र सामान्यधर्मेस्तदभिव्यक्तिः । स्वरूपेणैव निर्विकल्पकरस्यक्षविषयेणेति
-- - - -------- --- - पायचि ब, प० । "अच् पचादिभ्यथ" कास०४४२४४८२ सणः आ.ब.प. चतुईर्णा एव चातुर्वर्थम् । ४ "सत्यम्"-ता. टि.। ५ सस्काभिब्यक्तिः। स्वाभिव्यक्ती । सरखेन । पादिभिः । ९ म्यादीनाम्"-ता. टि० १० अभिवमान भिव्यक्ति स्यात् ।
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न्यायविनिश्चय विवरण
घे ; सदपि यदि भावविलक्षणम् , कथं तत एवाभिव्यक्ति मश्वस्य नामावादपि ? तत्रै तस्य विद्यमानत्वादित विपर्ययादिति चेत् । न ; तति सप्तम्यर्थस्य कारकविशेषत्वात् , न चामावादिनः कारकत्वम् ; अशक्तः। शक्तेरेव कारकत्वेन न्यायविदा प्रसिद्धत्वात् ।
शक्तिभावे तु भवत्येवाभावविलक्षणं तत् , तथा च तत एव भावप्रत्ययोपपत्तेरलमर्थान्तरेण ५ भान प्रयोजनाभावात् । शक्ते: शक्तिमदमर्थान्सरत्वान् , सेवा व परस्परसो व्यापूरोः कथं सत्सदित्यनुवृत्तप्रत्ययहेतुत्वम् , अनुवृत्तरूपस्यैवानुमबुद्धिनिधिनत्योपपत्तरिति चेत् ? कथमिदानी तेपामेषेदमभिव्यजकमिदमभिव्यञ्जक तत्वस्येत्यनुगतप्रतिपसिनिमित्तत्वम् ? न हि तेषामनुगम; परस्परतः भावसाकर्यापत्तेः। अननुगमेऽपि शक्तिसादृश्यात् तेभ्य एष सत्प्रत्यय इति चेत् ।
कथमेवं भाषप्रत्यय एव तेभ्यो न भवेत् । तथा च प्रतिद्रव्यं भिद्यते भाव; एकद्रव्येन्द्रियसन्नि१. कर्षादुपलभ्यमानत्वात् , रूपादिवदिति ।
अत्र यदुक्तमात्रेयेण-"प्रतिद्रव्यं भियते भावः' इति अपामो भवान् भावं धर्मिण प्रतिपद्यते वा, नवा ! यदि न प्रतिपद्यते; हेतुराश्रयासिद्धो भवति । अथ प्रतिपद्यते। येनैव प्रमाणेने सत्सदित्यवृतप्रत्ययेन भावं धर्मिषं प्रतिपद्यते तदेव प्रमाणं सस्याश्रय
भेदऽप्यभेदकलमनुशास्ति' [ ) इति ; सत्प्रतिनिहितम् ; अनुवृत्ताभि१५ प्रयनकमत्यवेनेव अनुवृत्तभावप्रत्ययेनाप्येकस्य भावस्याप्रतिवेदनात् । तवं तस्य कुतम्चिद
भिव्यक्तिः सम्भवति स्वयमेवाभावान् । भवतोऽपि यशभिव्यक्तिरनर्धान्तरम् ; तहिं तद्वदेव तस्यासिद्धत्वात् , सतोऽपि विशेषलिङ्गात् न तस्य 'भेवः तदभेदप्रतियेदिना सल्लिङ्गाविशेषण सत्सदित्यनुश्चप्रत्ययरूपेण शस्यमानत्वादिति चेल । ततोऽपि न तस्यैकत्वं तदनिवेदन(नह).
विधुरेण विशेषलिनेन वाध्यमानत्वात् । नैप दोष: सतोऽपि सर्वथा सदस्याप्रतिबेदनादिदि २. चेत् ; किमिदानीमेकानेकरूपो भावः ! तथा चेत् । न ; सांशत्वापसः । न यायमभ्युपगमो भवतां सदाह-निरंशामिति । तदो नानन्तरं ततोऽभिव्यक्तिः ।
___ भवस्वान्तरमेव, तस्यास्तत्प्रतिपत्तिरूपस्वादिति चेत् । सत्सहायमपि सस्यं किम सर्व सर्वदाऽभिव्यक्ति १ सर्वस्य सर्वदाप्यग्रहणात् , गृहीतमेव हि द्रव्यादिकं तेन स्वविशिष्टतयाऽ. भिव्यज्यते दण्डेनेव देवदत्तः, न बाग्दिर्शिनां सर्वदा सर्वप्रहणे कश्चिदुपाय इति चेत् । न ; २१ सस्वस्याप्याहणप्रसङ्गात् । न हि निरक्शेषदेशकालकलाकलापावलोकनविकलस्य नित्यसर्वगतं
सत्त्वं शक्यपरिज्ञानम् । न वापरिक्षासेन तेन तद्विशिष्टतया द्रव्याविभूतिपतिः "नागृहीतविशे. पणा विशेष्यबुद्धिः" [ ] इति "न्यायादतिप्रसङ्गात् । तदनवलोकने तपेक्षं
नामावलक्षण-भा०, ०.०1 ३ "महि द्रव्यं कारकम् , किं तर्हि शक्ति:-काशि०२001 है "सत्वन"-ता. टिक। -व्यन्ज सर्वस्त्रे-आ., २०, ५०। ५-योनैव : 0, ब०,१०॥
-वभेदस्थ भेद-भा०, ५०, १00 साविश्लेषण आप्र०, ५016 मायनन्य-आ०, २०,401, ९ “विशिद्धिरिह न न्याशातावदोषणा 6640" मी० श्लो० अपोह० । लौकिक तृ। न्यायदिति प्रधा०,०,५०
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१।१५५ ]
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्तावः
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नित्यत्वमेव न गृह्यते । न सत्यमपि तस्य तस्मादर्थान्तरत्वादिति चेत् कथमेवं तत्र तद्रूपव्यपदेश:- 'नित्यं सर्वगतञ्च सत्वम्' इति ? सम्बन्धादिति वेत; तेनापि साष्यस्यानवकल्पनास अवकल्पने तु स एव प्रसङ्गः तदनवलोकने तदूपं न शक्यपरिज्ञानमिति । न वाप्यस्य 'वेनाव कल्पनम् वक्ष्यज्ञानस्यैवावकल्पनादिति चेत न अतद्रूपे राज्ञानस्य मिध्यात्वात् वस्तुतस्तदनित्यमसर्वगतव प्राप्तम् । तथा च कथमेतत् 'पको भावः ' इठि प्रतिदेशकालमें भिद्यमाने तस्मिकत्वानुपपतेः ? ततो वास्तवमेव तस्य नित्यगतस्यमिति कथं सर्वदेशकालविशेषापरिज्ञाने तस्य परिज्ञानं यक्षः कचित् कदाचिदपि सत्प्रत्यर्थ कुर्वीत
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एतेनावयविज्ञानमपि प्रत्युक्तम् अवयविनोऽपि स्वारम्भकसकलावयत्र परिक्षानाभावे तद्वयापिरूपस्य दुष्परिज्ञानत्वात् । तदपारज्ञाने तव्यापित्वमेव तस्य न ज्ञायते न स्वरूपमिति १० चेत्; न; वस्य तस्मादनर्थान्तरत्वात् । अर्थान्तरत्वे कथं तत्र तव्यपदेश:- स्वारम्भकावयवSatta ? सम्वादिति चेत् न तेनापि सादूत्यस्यानव कल्पनात् कल्पनेतु पूर्वषदोषात् । तदुपज्ञानस्य तेनावकल्पने स्तुतस्तदन्याप्येवावयत्रीति कथमूधःपार्श्वभागादिष्येक पत्र स्तम्भो भवेत् ? यतः सोगतं तदभाववादिनमतिशयीत वैशेषिकः । न स्वारम्भक निरवशेषावयवापरिज्ञाने सत्परिज्ञानमुपपन्नम् १ तथा च यदुक्तमात्रेयेण- १५ "पलब्धिकारणोपपन्नं वस्तु तद्विशेषणत्वेनोपलभ्यते भावो न सर्वाधारविशेषणत्वेन ! विद्रव्यमपि व्याख्यातम् येषामवयवानामुपलब्धिकारणमस्ति तैः सहोपलredsarai येषां नास्ति न तैः सह" [ ] इति वदतीव परीक्षापथपरिभ्रष्टतामेव तस्याचष्टे निरवशेषाधारावयवव्यापित्वभावयोर्भारावयविनोः कतिपयाधारावयव. गोचरतया परिज्ञानस्यासम्भवात् । सम्भवतोऽपि अतस्मिंस्तद्रूपतया मिध्यात्वापत्तेः ! ः २० कतिपयाभिरपि व्यक्तिभिरभिव्यन्यमानं सत्त्वं सर्वस्वाधारगतेनैव रूपेणाभिव्यज्यत इति सूक्तम् - 'संदा व्यक्तं त्रैलोक्यम्' इति ।
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Prasad द्रव्यगुणकर्मणामेव ततोऽभिव्यक्तिः तत्रैव तस्य भावात् -"सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु स' भावः" [ वैशे० १२७ ] इत्यभिधानात् न सामान्यसमवायविशेषाणां विपर्ययात् न च द्रव्यादिप्रयमेव त्रैलोक्यम् साय पार्श्वसनिवेशरूपत्वादिति चेत् २५ आह- 'सचराचरम्' इति । चरत्यभिव्यङ्गत्वेन परस्य बुद्धिं गच्छतीति चरं द्रव्यात्रियम् अचरं तद्विपरीतं सामान्यादित्रयम् ताभ्यां सह वर्तत इति सचराचरं त्रैलोक्यमिति ।
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नैनकम्- 'सामान्यादौ सत्त्वाभावान्न सवस्तदभिव्यक्ति:' इति, वेशः द्रव्यादौ कुतसद्भावः १ समवायादिति चेत् न तस्य सामान्यादावपि भाषात्, अन्यथा 'द्रव्यादिममत सामान्यम्, नित्यद्रव्यसमवेता विशेषा:' इति व प्रत्ययाभावापतेः समवाये तु निनरामुपपत्रैः १० ।
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१ सम्बन्धैन । २ अययध्यचभाववादिनम् । तदाय्य आ०, ब०, प० १ ४ ८० स सप्ता" - बैशे० । ५ न सूतं श्र०, ब०, प० । ६ - व्यतिरिति चेत् आ०, ब०, प० । ७ समवायः ।
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ग्यायविनिश्चयविचरणे
सत्कृतो यद्यन्यत्र तेदायो नितरामात्मनि इति न्यायात् । यदि पुनः सत्यपि समवाये न सामान्यादौ सैद्धाको स्यादापि न भवेदविशेषाम् । विशेषकरूपनायां तु नैकः समवायः स्यान् । तैदविशेषेऽपि द्रव्यादीनां विशेषो यतस्तत्रैव सत्त्वं न सामान्यादाविति चेत् । तर्हि द्रव्यत्वादि
सामान्यविशेषाणामन्स्यविशेषाणाञ्च सत्त एव तत्र भावोषपत्ते: कैमर्थक्यात् समवायफल्म ५ नम् ? यदि पुन: समवायात् द्रव्यादिवत् द्रव्यत्वादावपि सस्व. पृथ्वीत्वाद्यवान्सरसामान्यमपि किन भवतीति पेत् ? अयमपि भवत एव पर्यनुयोगो या समयायकृत द्रव्यादौ सस्थमन्वाह, भारमा विपर्ययात् । तसो युक्तं द्रव्यादिवद् द्रव्यत्यादी सामान्ये विशेषसमवाययोश्य सस्वोपपतेः सचराचरं त्रैलोक्य सत्तो व्यक्तं भवेदिति ।
यापुनरिद सूत्रम्-"सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु स भाव [वैशे०१।२।२] ५. इति, त भाई "परस्परसंवशिष्टेषु द्रव्यगुणकर्मस्वविशिष्टं सदिति यतोऽभिधानं
प्रत्ययश्च भवति स भाव इति । उपलक्षणार्थश्चैतत् सूत्रम् , तथा व्यमिति पतः पृथिव्यादिषु तद्रव्यत्वं गुण इति यतो रूपादिषु तद्गुणत्वं कर्मेसियत उत्क्षेपणादिषु तत्कर्मत्वम्" [ ] इति । तत्र यदि सरवादयो न सन्ति कथं सेभ्यः क्वचिद् व्योमकुसुमेभ्य
इव सदाधमिधानस्य प्रत्ययस्य च प्रवृत्तिः ! सन्त्येवोपचारतस्त इति चेत् ;न; तत्कुसुमेष्वपि १५ सदनिवारणात । किं वा सद्भिस्तेषो साथस्य यतस्तत्र सरवमुपचर्येस ? सविशेषणस्वमेव, तथा
च भाष्यम्-"यथा च सन्ति द्रव्यगुणकर्माणि सतामपि द्रव्यमकर्मणां विशेषणं तथा सामान्यविशेषसमवाया इति सन्त इव सन्त इत्युच्यन्ते ।" [ ] इति पेत् । न; परस्पराश्रयापत्तेः-सति ध्यादीनां सो तद्विशेषणवेन सरवादेः सषम , सत्ता च तेन सम्बया द्रव्यादीनां सस्वम् पृथिव्यादीनाकर द्रव्यादित्वमिति । सझोपकारतस्तेषां सत्वम् ।
नापि सप्तासम्बन्धात् ; सत्तासम्बन्धे हि सामान्यादीनामपरजातित्वप्रसङ्ग इति स्वयमेव तत्रिराकरणात् । भवन्तु तर्हि स्वत एव ते सन्त इति चेत् । कथं तही भाष्यम्-"सामान्यविशेषसमवायानां तु सदित्यभिधानप्रत्ययायौपचारिको"[ ] इति १ वस्तुभूतस्वरूपसत्तानिबन्धनयोस्तयोरोपचारिकत्वानुपपसेः 1. स्वसश्च तेषां सावे तद्वद् द्रव्यादीनामपि स्थादविशेषान् । एचदेवाह
सत्तायोगाद्विना सन्ति यथा सत्तादयस्तथा ॥१५५॥ सर्वेऽर्थी येशकालाश्च सामान्य सकलं मतम् । इति । सतया महासामान्येन योगः सम्बन्ध: सरमाद् विना तमन्तरेण यथा येन
समवसल्लम् । २ सस्वभावः।३ समवायाविशेषेपि । समान्यचदि-आ०, २०, ५०।५ कर्मस इति अ०,००१ "परस्परमिशिष्टेषु द्रव्यगुणकर्मसविशिष्टा सत्सदिति प्रत्ययानुतिः सा पार्थान्तराषितुमर्हतीसि , रत्तदान्तरं सा ससेति सिद्धा । "--प्रश० भा० पू० १६५ . "अभिमान प्रवन्ध भवताईस सम्बन्धनीयम्। एवं मुपत्तकर्मत्वयोरपि ।"-ता. ठिक । ८-न प्रात्याव-आर, ०,१०। ९ सामान्यादीनाम् ।
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११६५६ !
प्रथमः प्रत्यक्ष प्रस्ताव
५०९.
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सत्तदिष्वप्यपर सत्ता सम्बन्धकल्पनायामनवस्थितिरिति प्रकारेण तेषु तत्प्रतीत्यभावप्रकारेण या सन्ति विद्यन्ते सत्तादयः आदिशस्शद् द्रवत्वा तथा तेन प्रकारेण अर्थाः यादयः " द्रव्यगुणकर्मस्वर्थः " [शे० ८/२/३ ] इति नाम सर्वे निरवशेषाः सन्तीति सम्बन्धः । न हि तत्राप्यर्थान्तरस्य स्वस्व प्रतिपतिः रूपभेदानवलोक नात् । सम्बन्धात् तदवलोकनमिति चेत्; न; सर्वथाप्यनवत्येकनप्रसङ्गात् । सदापान्तरस्यायं. ५ anatara | तथापि तस्यावलोकने नानेकान्तप्रतिक्षेपः अवलोकितानवलोकिसरूपत्वेन तत्यावश्यम्भावात्, तथा च सामान्यविशेधात्मकत्वेनैव किन्त्र स्वास्, यतः प्रतीतिमतिर समर्थान्तरं परिकल्येत ? कथं धानवस्थाननिर्मुक्तिः ? सत्तादिपु सस्वान्तरस्याभावादिति चेन् न जीवति सत्प्रत्यये तदभावस्यासम्भवात् । औपचारिक एव स तत्र माणवके सिंहप्रत्ययवदिति चेत न बाधकाभावे "तत्त्वानुपपतेः । तत्र तदन्तरावलोकनमेव १० aresमिति चेस, यद्येवं प्रतिपय से द्रव्यादिष्वपि तम्माभून्, अनवलोकनम्याविशेवात । अनयलोकितमपि सत्प्रत्ययादम्यत इति चेत् न वहिं सत्यस्वयस्यानवलोक वाचकमिति कथं सम्वादिष्वपि ततस्तदन्तरं नावगम्येव यतोऽनवस्थानं न प्यान ? तस्मात् स्वत एव देव्या↑ दयः सन्ति पृथियादीनि द्रव्याणि रूपादयो गुणाः उत्क्षेपणादीनि कर्माणीति वक्तव्यम्, प्रतीतिव्यापारस्यैवमेवानुभवात् ।
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नन्वेव सरवादीनां "पृयगनाथ कथं सम ? परप्रसिद्धयेति चेम्; न; सस्थाः प्रमाण तथा तदभावानुपपत्तेः | अभ्युपगममात्रत्वे तु तद्विषयनिदर्शनादवस्थाप्यमानं व्याद्यर्थसत्त्वमपि दृशमेव भवेदिति चेत् सत्यम् न हि वयं दृष्टाम्सयलात् त तत्त्वमवकल्पयामी निरपवादा" उत्प्रतीतलादेव तदवकल्पनात । सत्त्वादिनिदर्शनोपदर्शनं सुपरस्य वालिङ्गनमवस्थापयितुम्-'यदि द्रव्यादिषु तलमविलङ्घयसि किन सत्यादिव २० लक्ष्यभनव स्थादोषमन्वाकर्षसि ?" इति । भवति चैवमवस्थापनम् 'स्वास" (वाग्य) चिता वादिनो न विचलिष्यन्ति" [ ] इति न्यायात् । कुतो वा सत्त्वादीनां सामान्यरूपत्वं यतस्तत्र सामान्यान्तराभावः ? समानप्रत्ययहेतुत्वादिति चेत्; न; देशकालावस्थासंस्कारादेव तद्रूपतेः । अस्ति हि तस्थापि तस्प्रत्ययहेतुखम्- 'दक्षिणात्योऽयम अयमपि दाक्षिणात्यः' इति देशान् 'प्रावृषिकोऽयम् अयमपि प्रावृषिजः' इति कालात + 'बालोऽयम् अयमपि बाल:' इयवस्थात, 'पण्डितोऽयम् अयमपि पण्डितः' इति संस्काराम तत्प्रत्यय
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१ अनवलोकित खरूपविशेषात् । २ शा ग्रीभ्यस्य स्वरूपान्तरस्य २ अनवलोकितपाददे । ४ सपान्तरस्य । ५ - कल्वेनेच आ०, ब०, प० ६ ससादिषु । औपचारिकत्वानुपपत्तेः १८ समान्यादिषु । ९ समान्तर १० सामान्यम् ११ पृथभाये ०१०१०१२" सतायोगाना सन्ति यथा सत्तादयः इतिसाटि०२ १२- भावाप्रति आ०, २० ए० १ १४ पनं सावधानियन्त्रिता ता 'अस्मिन् पाठे समाधानदा यिन्त्रितापादिनः' इत् श्रेयः १५ "स्वारयन्त्रिता वादिनो न विचलिष्यन्तीति" प्रमेयक०पू०६६२ । १६पित्रस्य- आ०, ब०, प० ।
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५१०
म्यायविनिश्चयविवरणे
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प्रादुर्भावस्याबलोकत्तात् । अथ तत्रापि देशादेधर्मविशेषाणामत्पत्तौ सदधिष्ठान सामान्यविशेषा एव तत्प्रत्ययहेतवो न देशादय इति चेत; म ; तेभ्य एव तदर्शनान् । अन्यतस्तत्परिकल्पना सर्वन हेलभाम्रनिगारिलोपात: : अमो नेशादय एव तद्धतव इति भवस्येव तेषां सामान्य
रूपत्वम् । तदेवाह-देशकालाच । च शवावस्थादयश्च सामान्य भयेयुरिसि वाक्यशेषः। ५ तथा ष यदुक्तम्-"सामान्यादयो न सत्तासम्बन्धवन्तः, अवान्तरसामान्यधिकलत्वात् ,
ये तु तत्सम्बन्धवन्तो न ते तद्रिकलाः यथा द्रव्यादयः नद्विकलाश्च सामान्यादयः, तस्मान तत्सम्बन्धषन्तः"[ ] इसि' ; सत्प्रतिब्यूतम : देशादिश्दन्येषामपि द्रव्यगुणकर्मणां क्वचित कथञ्चित् कदाधित सामानप्रत्ययहेतुत्वेन सामान्यरूपतोपपती न सतासम्बन्धी नावान्तरसामान्यमित्युभयाख्यावृत्त्या वैधयोदाहरणत्वानुपपत्तेः । समानप्रत्ययहेतुरेव सामान्य देशादयस्तु नैवम , विशेषप्रत्ययस्यापि तत एव भावादिति चेत् ; न त िसनद्रव्यत्यावयोऽपि सामान्य समानप्रत्ययवन्, 'प्रागभावादिरूपादिश्यावृत्तिप्रत्ययस्यापि तत एच भावादिति न किञ्चिदेतन् । म्वादादिना तु नायं दोषः सर्वस्यापि विशेषात्मकत्ववत् सामान्यात्मकत्वस्यापि प्रतीतिश्लेन वैरभ्युपामान । तराह- सकलं वेतनेतररूपं वस्तु मतम् अङ्गीकृतं सामान्य. मिति सम्बन्धः ।
सकलपि मदि सामान्यं नहि सन्मात्रमेव जगत् प्राप्त , मायतिरेके सामान्यरूपत्वानुपपतेः, अभिमतब्येतद् ब्रह्मविदाम्-सकलभेदकलापमलविकलय तन्मात्रस्यैव ब्रह्मरूपतया सैरभ्युपगमादिति चेत ; कुतस्तदभ्युपगमः ! स्वेच्छानिवद्धादम्युपरमात तसिद्धावतिप्रसङ्गाः । प्रसिभासवरेपनिश्रद्धादिति चेत् । न ; निभदस्याप्रतिभासनात् । न हि निर्मदस्य सतः प्रतिभासनम् जीवपुलदिभेदतत्प्रभेदपरिकलितशरीरलया भेदरूपस्यैव तस्य प्रत्यवभासनात् । कथमन्यथा संसारतत्कारणादिः , तस्य भेदरूपत्वेन समभावेऽनुपपत्तेः ? मा भूदिति चेत् ; ; "मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति" [ कठ० ४.१० ] इत्यादेषचनस्य निर्विपयत्वापत्तेः । भवतु भेदप्रतिभासः स तु अविद्यारूपवारवनितास्वैरविलासपरिकल्पितत्वेनासत्त्वषिषय एवेति चेत् । कथं तस्यार्थान्तरत्वे प्रहार: तात्त्विक एवं भेदो न भयेस् । सस्थासत्वादिति चेत्, न; 'असंश्च प्रतिभासश्च' इति व्याघाताम् । भावाभावाभ्यामनिर्वचनीयत्वादिति चेम् ; न; तपस्याप्यसरचे भेदप्रतिभासत्वा. नुपपतेः। सस्वे भेदताविकत्वस्य सदयस्थत्वान् । तस्यापि ताभ्यामनिर्वचनीयस्वकल्पनाया प्राच्यप्रसङ्गानिवृसेरनवस्थापलेश्च । ततस्तस्थानान्तरत्वे तु महापि ववत् तद्विलासपरिकल्पितं भवेत् 1 न चैवम , तस्य निरवविद्यारूपतया परैः अंतिज्ञानात् । नायं दोषः सस्य सनो भेदाभेदाभ्यामनिर्याच्यावादिति चेम् ; ; तपस्यासस्वे प्रतिभासत्वासम्भवात् । सरवेऽप्य.
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सामहेभय । २ प्राम्भावा-आ०, २०, ५० समभावान्दिव्याकृतित्ययः सत्वाद, स्पादिव्यकृतिप्रत्ययः इम्यत्वात् । ३-पनिक- आ., 40, 401 सन्मानस्थैत्र । ५-ताश्विकस्त्र आ०, बा, 400 -प्रमानशिवआलम, प० । ७ परिज्ञा- अ, ब, 40। "विहानमानदं प्रम"-वृहदा० ३।५।३५ ।
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प्रयमा प्रत्यशश्स्वाना बान्तरत्वेऽनर्धान्तरत्वे च पूर्ववत्प्रसङ्गमत् । तस्यापि ताभ्यामनिर्वचनीयत्वकल्पनाचाम् अनवस्थानोपनिपातात।
स्यान्मतम् -अयमेव अविद्यामुग्धवविलासप्रश्वस्य स्वभावो यदुक्तविचारपर परिपातासहिष्णुत्वम् । सरसहिष्णुत्ये तत्पश्चत्वपरित्यागापः ।
'जंह्यादविद्याऽविद्यास्त्र विचारं सहते यदि ।
न्यायधातासहिष्णत्वमविद्यालक्षणं यतः "[ ]
इति वचनादिति चेत्न; सरस्वभावस्यापि सत्यासत्त्वयोस्ताभ्यामनिर्वचनीयत्वे च भेदाभेदयोस्ताभ्यामनिवर्जनीयस्वे च पूर्ववत्प्रसङ्गात तस्यापि तत्प्रतिपातासहिष्णुत्वग्यावर्णनायामनवस्थितेरप्रतिक्षेपास् ! ततो दूरं गत्वापि तात्त्विक तदर्थान्तरच तपमभ्युपगन्तव्यमिति कथं न भेदो वास्तको यतस्तदात्मकमेव सत्त्वं न भवेत् ? उदाह
सर्वभेदाभेदं सत् सकलाङ्गशरीरवत् ॥१५६।। इति ।
भेदाश्च जीवपुद्गलादयः प्रभवाश्च तेपानवान्तरविशेषाः, जीवस्य संसारिणो मुक्ता: सस्थावराः सकलेन्द्रिया विकलेन्द्रियाः सन्जिनोऽसहिजन इति, पुलस्य यिष्य आपस्ते. जांसि वायव इति भेदप्रभेदाः, सर्वे निरवशेषा भेदप्रभेदा यस्मिंस्तत सर्वभेदभेदं सत् सरवं भावप्रधानत्यानिर्देशस्य । सकलेत्यादि सत्रैव निदर्शनम् । सकलान्यदानि करा- १५ रणादीनि सस्य त तच्छरीरंप दिव तद्वदिति । तात्पर्यमत्र-यया न पाणिपादादेरान्तर शरीरं सद्भाव एवोपलभ्यमानत्वात् । न हि तदर्थान्तरत्वे तस्य तदाब एयोपलब्धिः , गोर. भावेष्यश्यस्योपलम्भात्। न चैवम् अतोऽनान्तरमेव ततस्तत् । उक्तलातत्-"भावे चोपलब्धः" [ब्रह्मासू० २११११५] इति । अतश्च तस्थ सतोऽनन्तरत्वं यत्प्रत्यक्षतस्तथैवोपलभ्यते । न हि गवाश्ववत् पाण्यादिशरीरयो भेदेनोपलब्धिः; परस्पराविध्वम्भावेनैवोपलमधेः । न चोपलब्धे. लक्षणान्तरम् । अतिप्रसङ्गात् । इदमप्युक्तम्-"भावाच्चापलब्धेः" [ब्रह्मसू० २११५१५] लक्षणान्वरे इति । तथा तत एव सबूपमपि मेदादनान्तरमभ्युपगम्तव्यम् । न हि तस्थापि भेदाभावेऽपि भोदादन्यस्वेनाप्युपलब्धिः; सस्येव द्रव्यादौ भेदे तत्प्रभेदे च सदनन्तरत्येन च सर्वत्र सर्वदापि प्रतिपत्तेः । तदनन्तरत्वे तस्य भेदस्वेई भेदान्तरं प्रति तस्याप्यनुगमन न भवेत् , तथा "तदन्तरस्य सर्वस्याप्यसस्वादेकभेदमात्रमेव सदूपं प्राप्तम् | तर प्रतीसिविरुद्धमिति
२५ चेन्; ; शरीरेऽप्ये प्रसशान न हि तस्यापि पाण्यादेरश्यतिरेके संददेव तदन्तरं प्रत्यनुगमन
-.-- -- -- -- -- ..बतान-पा०, ०.1 स्वादविद्या-आ०,०,०। म्यावाचतिस-गा0 1 ४ “अपिधाया अविमान दमवतु लक्षागू । मानाचासाहपुरकमसाधारणभिप्यते ॥"-१० सं० वा० एलो. १०। ५ सदसत्यय-आ०,०,
प नसा स्था-मा०,40,101 प्रत्येप्यास्ते-ना... 40: सरूपान्तरम्। ५ लक्षणन्तर' इति पदं समानारापातांगांत भाति । " "भावामओपलब्धेरित या सूत्रम्"-4 सामान
भान्तरस्य । २ पाण्वाश्य । १३ अवयवान्तरम् ।
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५१२ न्यायधिनिश्चयधिवरले
[ १५६ मिति तस्याशरीरस्वादेकावयममात्रभव तदपि प्रतीतिविरुद्ध प्राप्नुयात् । स्वत्त एव पाण्यादे: शरीरस्वं नैकशरीरानुगमनादिति थे ; द्रव्यादे: सस्वमपि तथैव किन्न स्यात् ? सत्वबहुस्वापसे. रिति चेत् ; शरीरगड्डस्वापचरितरदपि न भवेत् ।
ननु शरीरं नाम कमावस्त्र परम्परया परमाणुकार्यम् , परमाणुभ्यां हि संयोगसहा५ याभ्यां गणुकम् , मणुकाभ्याञ्च चतुरणुकमुत्पयते, यावन्त्यावयवि शरीरमिति तन्मतप्रसिद्धः। परमाणवश्च नित्याः ते १ यदि प्रवृत्तिस्वभावाः; सर्पदा तत्काईमामुत्पतिरेर नोपरमः । निवृत्तिवभावचे मोत्पत्तिः । उभयस्वभावत्वं तु विरोधादसम्भाव्यम् । अनुभय. स्वभावत्वे तु निमित्तशात् प्रयूसिनिवृत्त्योरभ्युपगम्यमानयोरधादेनिमितस्य मित्यसनिधानात्
नित्यप्रवृत्तिप्रसङ्गः । अतधस्वेऽयरष्टादेः; नित्या प्रवृत्तिप्रसङ्गान् । तस्मादनुपपन्नः परमाणूमा 1. कारणभाव इति कथं तद्व्यणुकादिरस्थावयविपर्यन्त; कार्यप्रबन्धो यस्य स्वाक्यभेदाभेद
परिचिन्सया परिक्लिश्नीम इति चेत् ; न ; सदूपस्याप्यौपनिषदस्यैत्रमसम्भवात् । तदपि यदि प्रवृत्तिस्वभावम् ; सृष्टिरेव सर्वदा जगत इति कथं प्रलयो महापलयो वा ? निवृचिवमा घेत ; सभावात् कथं जगत्प्रपवतिभासः ? तदुभवस्वभावत्वं पुनस्तत्रापि निष्कलकत्वभावे
विरोधादेवासम्भाव्यम् । अनुभयस्वभावयेत् ततोऽपि कथं जगदुत्पसिस्थितिविपत्तयो यत १५ इति ? निमिसनशादेव तस्य 'प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा न स्वत इति चेत; यदपि निमित्तं यदि
नित्यम्यतिरिक्तस्य ततः ; किमभ्यधिकमभिहितम् ? व्यतिरिक्तश्चेत ; कथमद्वैतम् तत्त्वम् अपि च प्रवृत्तिनिवृत्यारम्यतरैव तस्यापि स्वभावो नोभयम , विरोधाविशेषादिति सम एवं दोष:-प्रवृसिस्वभावत्वे सर्ग एय जगतः, निवृत्तिस्वभावते च न प्रपश्प्रतिभास इति ।
तस्याप्यनुभयस्वभावस्य निमित्ताशान, प्रवृत्तिनिवृत्तिपरिकल्पनाया ; अयमेव प्रसङ्गोऽनवस्था२० पत्तिाच । तन्न तन्नित्यमनित्यमपि ।
नागश्चेत्र तत्कार्य अगदहावत कथए । कार्य चेत नित्यकार्यस्य कदाचिद्रवन कथम् ॥ ११७० ॥ सर्गप्रलययोर्येन कादाधिरकत्वमुच्यताम् । काहाचिकनिमित्ताश्चेत् तत्कादाचित्फकल्पनम् ।। ११७१।। सत्राप्येष प्रसझे किन्नानवस्थितिरापतेत् । अनादेस्तत्प्रक्यस्य न दोषोऽनवस्थितिः ५११७२॥ क्रमे सति प्रबन्धः स्याकमा क्रमः कथम् ? । अक्रम छ मतं ब्रह्म कूटस्थं यचदिव्यते ॥ ११७३॥
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यो नियतः श्रा, ५०, १०.
प्रासनिक
शरीरमपि। २ परिक्षेम आ० ०,१०। भा०, ब०,१०।
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अधमा प्रत्यक्षप्रस्ताव
प्रबन्धवन्निमिसानिमित्त सत्प्रवध्यते । प्रवन्धवर सस्यापि परस्मादेव तारशात् ।।११७४॥ तथा सत्यम (न) वस्वानाहोणमिमुच्यसे फथम् । रामोपनिषदं सत्वमप्युत्पत्त्यादिकारणम् ।। ११७५||
सत्यम् , अकारणमेव नझ तस्य नित्यनिरचनरूपतया शान्तात्मनः कषित्प्रवृत्तिनिवृत्त्यो. ५ रसम्भवान, अविद्योलासस्य क्षु जगत्कारणस्य तन्नान्तरीयकत्वाम् तदपि तस्कारणमावेदयन्ति श्रुतयः । नहि विद्यासम्पर्कविकलस्तदुल्लास: प्रतिभासहितस्य तस्यासम्भवान, प्रतिभासस्य च विद्यारूपत्वादिति चेन् ; कुतस्तथाभूतस्य परिझानम् ? "सदेव सोम्ये दशग्र आसीद, एकमेवाद्वितीयम्" [छान्दो० ६ १२ १ १] इरशदेसनायादिति पेन्; न तस्यापि निरंशपरमाणुरूपस्याऽपनिवेदनात् । स्थूलत्वे तु नानावयवसाधारणत्वमवश्यम्भावि, तस्य तपन्तरेणानुपपसे।। १५ सया च देव स्वावयषेभ्योऽनन्तरं भवत्प्रस्तुते वस्तुनि निदर्शनम्, शरीरमहणस्योपलक्षण. स्वादिति सिद्धो नः सिद्धान्त । तस्याप्यविद्योल्लासनिबन्धनत्वेन न स्वाषयवेभ्यो भेदो नाप्यभेदो वस्तुसद्विषयत्वात् वैद्विकरपस्येति चेन् । कथमिदानी सङ्कलास् सस्वसो प्रसिद्धिः 'अवस्तु. सतस्तदनुपपत्तेरतिप्रसमा | माभूततस्तस्त्रलिपसिः तदुपकल्पिताइन्यत एव सामात् तत्परिझामेगमाविवि चेत्, न; सत्रापि तस्येत्यादेरनुगमादनवस्थापसेश्य । सतो दूरमनुसत्यापि किवि- १० सावक AIRTANT चावयवेभ्यो वक्तव्यं तथा व सिद्धं तद्वदेव सद्रूपस्यापि भेदप्रभेदरूपाव(समस्वम् संथैव नियाबादवरोधादिस्युपपत्रमुक्त 'सकलाङ्गशरीरवत्' इति ।
पाय तु मतम्-साध्यकल्प निदर्शनस्य शरीरस्यापि वर्दशेभ्यो नियमेनानान्तरस्यामावादिति दापि दुर्मसम् । जीवस्यनम्तिरवपरिज्ञाने बदनुपपत्तेः । समवश्यावेव तपरिज्ञान नानान्तरत्वादिति चेत; कः पुनः संयोगात समवायस्य विशेषो यतस्तत एव तत्परिशान न २० संयोगादपि । अयुद्धसिद्धसम्बन्धत्वमेवेति चेत् ; न तावदियमयुतसिद्धिरणथम्देशस्त्रम् ; भरीरतदयोस्तभावेन सम्यायामायापतेः । नहि धोरपृथग्देशस्वम् ; शरीरस्थ सदगादेशत्वात् सदकाना तदारम्भकदेशस्वात् । अयमहिषपस लौकिकस्य पृथरदेशस्यस्याभावादपृथरदेशत्वं सयोरिति चेत्, न; करसलात्योः कुँवलामलकयोरपि तथात्वेन समवायापत्तेः । नाप्यभित्र कालत्वम् अत एव शरीराभिनकालत्वं तदङ्गानाम् प्रागपि भावात् , अन्यथा सवारम्भकस्वामुपपत्तेः शरीरस्यैव सम्बन्धापेक्षमभित्रकालत्वम्, नहि शरीरमन्यदाऽन्यदाच सम्बन्धः । सम्बध्यमानस्यैव सस्त्रोपोरिति येन् । कुत ऐतत् । तत्सम्बन्धस्य तदेकसामान्यधीनत्वादिति . न; तस्व नित्यस्योपगमात् । तदुत्पत्तिसमये तस्य भावादिति चेत् । हत एव कलमप्यामसोन वाशमेवोलत । आमलकस्याकारणस्वान्नेति चेत् ; न लेनापि तत्सम्बन्धविभुत्वा
आम्नायस्यापि । २ भेदाभेदविकल्परूप । ३. आम्नायवल्पत् । आम्नायतो ब्रह्मचत्तिपतिः । ५ तैरेवनिबाप.विदरामलकयोरपि । एतत्सम्बन्ध-प्रा०, ब, प० ।
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यायावनिश्वयविधरणे देरनिवारणात् , तथा च सत्सम्बन्धोऽपि समवाय एवेति न संयोगस्यावकाशः कश्चित् ।
का देयमुत्पत्तिर्यस्याः सम्पन्धाभिनकालत्वम् । प्रागसवः शरीरस्यात्मलाम एवाभाष. विलक्षण इति चेत् । न तस्य व्यादिष्वनन्तर्भावे सामस्य पदार्थस्य प्रसङ्गात् । अन्तर्भावोऽपि
म सामान्यावित्रस्तया; तस्य नित्यत्वेषानुत्तिरूपत्वात् । नापि गुणकर्मत्वेन; शरीरस्य द्रव्य. ५ स्वोपगमात् । द्रव्यस्वेनैवेति चेत् ; कुतस्तस्य सत्त्वम् १ स्वत एवेति चेत् ; न; द्रव्यत्वकल्पना
वैफल्योपनिपातात व्यवसम्बन्धादिति खेल सम्मन्बाधीनस्य स्वावस्यावारिखकस्वास स्फटिकोपरागयत् । संयोगायत्तमेव स्वरूपमतात्त्विकं न समवायाधीनमिति चेत् ;न; नादारभ्याभावस्योभयत्राविशेषात् । यतो वस्तुतः समम मच पदार्थ इति दुस्तये व्यापातः परस्य । चन्न
प्राइसव आरमलाम उत्पादः । तर्हि भवतु सत्तासम्बन्धी कारणसम्बन्धो का स इति चेत् ; कथ१. मेवमुस्पाइसम्बन्धयोरभिन्न कालत्वं तस्य भेदनिष्टत्यात् । सम्बन्धस्यैवोत्पादत्वेष भेदासम्भवात् ।
तन्नाभित्रकालत्वमयुतसिद्धिः। अभिन्नखभावस्वमिति चेत्, सिद्धस्तहि वादात्म्यपरिणाम एष समवायः, तत्रैव सति तस्वभावत्वोपरसेिित न साध्यवैकल्यं निदर्शनस्थ ।
नापि साधनकल्या निधनादाम्यप्रत्ययविषयत्वस्य शास्त्रकारहदयगमस्य साधनस्य सन्तिकवत् तत्रापि भावात् । सो युक्तमेव तत्-'सर्वभेदप्रभेदात्मक सत्, निरक्यथा१५ दाम्यप्रत्ययविषयस्वा , स्वाजाप्रत्यङ्गात्मकशरीरयत्' इसि | सद्पाव्यतिरेके कथं भेदाभेदो
भावानामिति परेन ? न देथारपि प्रतिभासात् । नहि सपत्यक भावाः प्रत्यवभासन्से सरपणेव समषियमपरिणागाधिष्ठानभेदप्रभेदरूपेणापि परिकुटशानवपुषि तेषां निरपवादसया प्रत्यवभासनात्, निरवयप्रतिभासोपाध्यायस्वारुच भावसत्त्वप्रतिष्ठाया: । वाह
तत्र भावाः समाः केचिन्नापरे चरणादिवत् । इति ।
तत्र तस्मिन्नुतरूपसन्द्र्षे सति भाषा जीवादयः समाः परस्परं समानपरिणामरूपा . नाभेदिनः । तथा च दुराम्नानमेवत्
__ "एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सवव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा"[श्वेता०६।११]इति । जीवानां प्रतिशपरं सदृशारिणामाधिष्ठानतया भेदिनामेव प्रतिभासनानादिनाम् । उपा.
धिभेदादेव तत्र भेदप्रतिभासो न स्वरूपभेदादिति चेत् । न सर्वाभेदयादिनानुपाधिभेद२५ स्यापि वस्तुवृत्तेनाभावात् । सोऽपि परोपाधिभेदोपनीतात् तत्प्रतिभासादेव न मरवद इति घेत;
२; अनवस्थादोषात् । वापरापरापरिमितोपाधिभेदप्रतिभाग घुगपदनुभःपारिजासशीच्छायामण्डलपिण्डीभूताः प्रत्यवलोक्यन्ते येनैवं सत्त्वस्थिति प्रति विसंधयुद्धयः सुखमध्या. सीमहि । वस्तुतश्चीपाधिभेदव्यवस्थापने न प्रतिभासभेदावय॑मिषन्धनम् । अतस्तव एष युग
1 "सामान्य" -ता. दि. २ भेदप्रभेवरूपेणापि । ३ उपाधिभेदोऽपि । -परिशात--प्रा०, २०, .प.। ५ "विश्वस्तधियः, समो विसम्मविश्वासी इत्यमरः । विनधरितम्भशब्दावकमातुसमुत्पनी"-साहि। ६-पन्यनि- मा, २०, ५० ।
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१९५८
प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताद पदनेककायोश्चराय जीवामामपि भेदोपपतेः समाना एव ते परस्परं नाभेदिन इत्युपपन्नमुक्तम्'समा भावाः' इति ।
योदमेकशरीराधिष्ठानानामपि पूर्वापरचि सलक्षणानां साश्यमेव परस्परं नैकत्वमिति चेत् ; अत्रोत्तरम् - 'केचिन्नापरे इति । केचित् नानादेहगहरपरिवर्तिन एव से समा नापरे नैकवपु:सम्पणियन भेदभेदस्यापि तत्वतीतिबलेनावस्थापनात् । अभिहितशत्- ५ 'भेदशना' हस्यादिना । यदि या मोनिका का समापन समानापरे जीवपुद्गला.
यस्तेपो परस्परतो विसनपरिगामाविष्ठानतया 'प्रतीतः । अत्रोदाहरणम-'चरणादिवत्' इति । चरण आदियों करशिरःपृष्ठोदरादीनां ते इस महदिति । यथा चरणादीनामेक. शरीरात्मकत्वेऽपि भेदभेदरूपत्वं परस्परसः समविषमात्मकतया भिन्नरूपतयैव प्रीतेः । चरणादयो हि चरणादिभिः समा म कादिभिः, तेऽपि तदन्तरैः समा न चरमादिभिरिति, १० तथा सहपहनयापितकसम्पत्वेऽपि जीवपुद्रलादीनामिति ।
साम्प्रतं प्रस्तुतप्रस्तावार्थविस्तारमुपसंहत्या दर्शयत्राह---
एकानेकमनेकान्तं विषम समं यथा ॥ १५७॥ सथा प्रमाणत: सिद्मन्यथाऽपरिणामतः । इति ।
सदित्यनुवर्तते सद्विपयवियिरूपं यन्तु एकम् अनुगसापेक्षया, अनेक १५ स्याताकारापेक्षया । अनेन द्रव्यपर्यायरूपत्वमुक्तम् । सधा विषम विसरशरूपं 'च' शब्दः सममित्यत्र द्रष्टव्यः । समं च न केवलं विषमम् , अपि तु समं च सहसपरिणामि ८ ! इत्यनेन सामान्यविशेषात्मकत्वं निवेदितम् । अव एव अनेकान्तम् अनेकस्वभावम् । म पेदं बात्रमपि, यथा येन प्रस्तुतप्रस्तावनपश्चितप्रकारेणानेकान्तं वस्तु भवति तथा तेन प्रकारेण सिद्धं निश्चितम् । कुतः प्रमाणतः प्रत्यक्षादन्यतश्च, तस्यापि तद्विषयत्वेन ३० विरूपयिष्यमाणत्वात् । यद्यकं कथमनेक विरोधादिति देत् ? अनोत्तरम्-'अन्यथा' इत्यादि। अन्यथा अन्येनैकान्तप्रकारेण विषयप्रहणव्यापारः परिणामस्तदभावाद् अपरिणामतः प्रमाणस्येति विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धः । तथा हि योकमनेकात , तदपि एकरूपादेकान्सतो ध्यावृत्तं प्रणतोऽगभ्येत भक्त्येन उदभेदस्य विरोध प्रमाणप्रत्यनीकत्वात् । न च तस्य ताशस्य प्रतिपत्तिः, अन्योन्यात्मन एवावगमात् । न च प्रमाणावगते विरोधः , वस्तुमानेऽपि सत्सकन नराम्यवादोपनिपातात् ।
क्षणिकमेव वस्तु प्रत्यक्षतोऽवगम्यत इति चेत ; सरपुनः प्रत्यक्षं व्यावहारिक धा - स्यावस्येदं लक्षणम्-"प्रमाणपविसंवादिज्ञानम्" [१०मा० ११३ ], पारमार्थिक वा यस्यापीद
योकमेव सरीराविधानामपि प्रा०, ५०,५०। २ "भेदज्ञानात् प्रतीधेने प्रादुर्भावाश्ययौ यदि 1 अमेदमानतः सिद्धा स्थितिरशेन केनश्चित् ताटिका न्यायिक लो०११८।३ म परे ता.१४ ते तत्री-ता। ५-पहलानामि-भा०,व०, २०१६-त्य दर्श--आ०, २०, प.
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भ्यायविमित्ययविधरणे
[१९५८ लक्षणम् - "अशाखाप्रकारे का प्रा० ११३] ? व्यावहारिकमिति : ननु सनिश्चयात्मकमेष, तथैव व्यवहर्तयु प्रसिद्धो, अन्यथा "मनसो” प्रवा० २।१३३] इत्यादिना तत्प्रसिद्धिपतिपादनस्यानुपपतेः । न च ततः क्षणिकाय प्रतिपतिः, निर्षिवादत्वे.
नानुमानवैफल्यापत्तेः। द्वितीयविकरूपेऽपि कुतस्तदनुमानस्य प्रामाण्यम् ? समारोपव्यबध्छे५ कादिति चेन ; कोग्यं समारोपो नाम ? अलिकेऽश्नणिकज्ञानमिति चेत् ; उच्यते
कालत्रयानुयायिनमिह न क्षणिकं वदन्ति विद्वांसः । प्रत्यक्षाविव तक्षणिकज्ञानात्सुबोधं कः ११७६॥ न हाक्षणिक ज्ञानं पन्तुगलादस्ति बौद्धसिद्धान्ते । कल्पितरूपं कथमिव तरकस्यापि प्रतीप्तिकरम् १११७७॥ तस्याप्चक्षणिकरवं क्षणिकशासान शक्यकल्पनकम् । अक्षणिकञ्च ने किनिद्विज्ञान वास्विकं भवताम् ॥११७८॥ कल्पितमक्षणिक तयदि पुनरुच्येत पूर्षवदोषः । पुनरपि तद्ववचने कथमनवस्थानतो मुक्ति ? ॥११७९॥ सत्र समारोपोऽयं शक्यपरीक्षस्ततः कथं ब्रूयुः ।। सतिमिछत्तिविधानात् प्रमाणमनुमानमिति योद्धाः १ ॥१९८०१
अपि मैवं कथं नीलादिविकल्पारापि न प्रामाण्यम् ! नीलादौ विपरीतसमारोपाभावादिति चेत; क्षणिके कुतत्वावा ? साधर्म्यदर्शनादिति चेत् ; म; मोलादेरपि पीतादिना कथ. पित्तदर्शनात् । सर्वथा क्षणिकेऽपि संदभावान । न तत्र समारोपः प्रतीयत इति पेस् ; इतरत्र कुतस्तत्प्रतीतिः । स्वत इति चेत् ; न: अलक्षणवे तदयोगात् । प्रत्यक्षं हि स्वसंवेदनम , हत कायमस्वलमगविषयं भवेत् ? स्वलक्षणात्मैव स इति चेत् ; न हि समारोपाकारत्वं स्वलक्षण. स्थातयत्वात् । अन्यत एव तस्य तदाकारत्वं न घत इति चेसः कथमम्यकृतस्य स्वसो वेद. नम् । तदप्यन्यत एवेति चेत् ; ग; लस्थाप्यतनाकारत्वे हदयोगा । मदाकारत्वे सदपिक स्वलक्षणमिति तस्यापि न स्यसंवेदनादवगतिः । स्वलक्षणमेव तत् , तदाकारस्वन्तु तस्याप्यन्यत एवेति चेत् । न तयापि कथमित्यादेरनुषशासनवस्यानदोषसषाणदूरपरिपातनस्य दुरपाकरस्यात् । तन्न समारोपस्यैवाप्रतिरसेः तम्यवच्छेदः फलमनुमानस्य । अनिश्चितार्थनिश्चय इति चेत् ; किं पुनः प्रत्यक्षतः स नास्ति' मास्स्येव तस्यानिध्यरूपत्वादिति चेनः कथं प्रामाण्यम ? प्रामाण्ये या किमनुमानेन संस्कृतनिश्वयाभावेऽपि सत्रामाण्यस्याविघातात. अस्ति च तन् । वतन प्रत्यक्षात्प्रतिपतिः क्षणिकस्य ।
. "मनखोर्युगपद्यतः सविकल्याविकल्पयोः । विदो स्प र्श व्यारेक्य अवस्यति ।।"-ता. टी... २ यायिनमिसिने ५०/-याविनमपि में , ३ भया भा०,२०,०1४साधयाभावात् । ५ अभु
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१९५८ प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
५१७ नाप्यनुमानात ; प्रत्यक्षतः तदप्रतिपत्तौ सतस्तद्धेतुसम्बन्धस्यापरिज्ञानात् । अनुमानात्तत्परिक्षाने तत एव परस्पराश्रयस्य, अन्यसश्चानत्रस्थानत्य प्रसङ्गान । न च प्रमाणान्तरम् : अनभ्युपगमात् । तन्न क्षणिक प्रमाणवेचं यदने कमेने भवदात्मनि क्रमस एकरूपतो विरुध्यात् ।
___ नापि नित्यम् । नहि त्रापि प्रत्यक्षं प्रमाणम् ; नवि तद्धकम् , अतोतर्फ वा ? सद्धेतुकत्ये विषयस्य तत्करणैकस्वभावस्य नित्यत्वात् कथ तज्ज्ञानोपरम: ? सामविकस्यादिति चेत् ५ न; विषक्त्यैक सैन्ये वयोग्यत् । अन्यस्य तत्वे कथं विषयहेतुर्क तज्ज्ञानम् ? विषयश्चान्यदच सासपीतिक्षानप्रत्येक योस्तत्त्वे ज्ञानानुपरमस्य तदवस्यवाद । सम्भय तत्वे कथं प्रत्येक कारणवं यतः समवावि किञ्चिद् अन्यबसमयायि निमिक्तचापरं कारणमुच्यते ? महि सामग्या पर कारणत्वे तद्वेदः, तस्या एकत्वेन समवाय्यादीनामन्यतमत्वस्यैत्रीपपत्तेः। न र दिन्यतममात्रात्कार्यम्: त्रिभ्यः फारणेभ्यः कार्यमिति भक्तामभ्युपगमात् । कुतो वा प्रत्येक १० मकारणस्वेदातुनं व्योमकुसुमादिवत् ? सत्तासम्बन्धादिछि चेन् ; ननु सोऽध्याधार्याधाराव एव । न किञ्चित्करत्वे तायः, तत्कुसुमादिचदेव । सामग्रीकारणवस्य तत्रोपचाराम् नराविधिस्करस्वमिति चेन्: न तदायत्तस्य सहासम्बन्धस्यागुपचरितस्यैत्र प्रसज्ञान, संवृतिसत्ताया पर प्राप्तेः । नच संवृतिसतासंभवदशायामपि वस्तुत: कारणत्वमिति , बतायं हेतुफलभावः तास्विकीमवस्थामास्तिनुवीत ? तसः प्रत्येकमेव कारणत्वात् कथमएरमन्तज्ञानस्य ? समग्रभाव. १५५ पशायामेष तावादिति चेत् । न तहि सनियम. प्रागकारणस्य सदशायो कारणतया परिणा. मान् । तन पद्धक प्रत्यक्षम् ।
नाप्यनदेतुकम्; निस्वेश्वरहेतुकत्वे तनाण्यनुपरमदोपस्य तदवस्थत्वात , अन्यथा कार्यत्वादेः तेन गाभिचारापत्तेः । नपानुपरतस्यैव तस्य भावः ततो विषयान्तरपरिज्ञाना. भाचानुपास, युगपत्तदुत्पादनस्यानभ्युपगमात् । सुन्न प्रत्यक्षासत्परिवानम् ।
२० नाप्यनुमानान् । तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वेन तदभावेऽनवतारात् । किंवा तत्र लिङ्गम् ? कार्यमेव, कारणभादेव तस्योपपवेरिति चेत् : ने; अनुपरतस्यासिद्धेः। उपरतिमतस्तु उपरतिमत एष तस्य सिद्धिन नित्यस्य । ततो. यक्तमुक्तम्-तस्य कार्य लिङ्गमिति । अकारणवस्वमिति चेत ; नप्रागभावेन व्यभिचारात , तस्य तत्त्वेष्यनित्यत्वात् । सोऽपि निस्य एवेति चेत् ; कुतो न कार्यकालेऽपि तस्य प्रतिपत्तिः । कार्येण प्रच्छादनादिति चेत् । १० प्रच्छादनमागभावेन तहि व्यभिचारस, तस्याऽकारणवरवेऽप्यनित्यत्वात् । सोऽपि नित्य एवेति चेत् । न ; तत्रापि 'कुठो न' इत्यादेरावर्शनाद अव्यवस्थापत्तेः । न चापरापरस्यापरिमितस्य प्रछादनस्य प्रतिपति। तस्मादनित्य एव म इति कथन व्यभिचारः। समवायित्वे" सत्यकारणवत्यादिति तोर्विशेषणान , प्रागावस्य च समवायित्वादिति चेत : कुतो
--. .-. - ---- - स्यांसंज्ञानात भा०, प.। २-३ ता-401 वचपदा-मा...। ई-गम: प्रा०, ब०, प० । “सामग्रीत्वे"-सा०टि०। ५-तुकं ज्ञानंजा०, १०, १०। ६-पामय-आ०, २०, ५०। . प्रासमाचलस्य14-ले वस्य कारणवत्त्व-आ०, २०, ये तस्य कारण .)
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५१८
ग्यायविनिश्चयविवरणे
[ श९५८
1
'धर्मियोse are ? स्वयमन्यत्र समवायादिति चेत्; न; परमाण्वारमादेतदभावात् । यस् नत्वान्न वा निदर्शनस्य साधनवैकल्यापतेः सत्तायामन्यस्य सद्भावात् । समवायस्य तेन सम्बन्धादिति यत् न सम्भन्धान्तरात् सभाबात, अनवस्थापत्तेः । 'स्वतस्तद्भावस्तु 'प्रागभावेनापि किन्न स्यात् ? तत्र सत्रपि सम्प्रत्यये ५ जनयतीति व्याघातात् । तन्न सविशेवणमध्यकारणवत्त्वम् वा लिङ्गम् व्यभिचारात् 1
;
i
भवतु विनाशकारणापरिज्ञानं निस्यत्वं लिङ्गम् । विनाशकारणं हि कस्यचित् समवायिकारणविनाशः घटादिनाशासू सदूपादिनाशोपलब्धेः असमवायिकारणविनाशश्च कस्यचित् कपालादिसंयोगनाशात् घटादिनाशप्रतिपसे:, नापरमनुपलम्भात् । न च परमाण्यासमादे: समवायिकारणम् निरवयवत्त्रात् । अत एव नासमवायिकारणम् ; समवायिकारण१० संयोगस्य तत्त्वात् । न चासतो विनाश इति सिद्धं विनाशकारणापरिज्ञानम् । सूत्रवैतत्-"अविद्या च " [वैशे० ४ ११५ ] इत्यविद्यापदेन विनाशकारणापरिक्षनास्य प्रतिपादनात् । अत्र प्रयोग: freer: परमाण्वादयः परिज्ञातधिनाशकारणत्वात् सतावदिति चेत्; न; अस्यापि प्रागभावेनैव व्यभिचारात् न हि तत्रापि विनाशकारणं समधान्यादिकारण विनाशः, तत्कारणस्यैवानुत्पत्तिमत्रेनासम्भवात् । समवायित्वविशेषणस्य च पूर्वषय प्रतिक्षेपात् । नन्वेवं १५ विभावात् कथं तस्यानित्यत्वमिति चेत् ? अयमपि परस्यैत्र दोशे य एयमिच्छति । न दोष नाशाभावेयवत्येन तत्यानित्यत्वात् अन्तवान् हि प्रागभावः कार्यान्तरस्यैव तस्य प्रतीतेरिति चेत् कथं कार्यस्य तदन्तम् ? तदभावरूपत्वादिति चेत् तदेव तहिं तस्य नाश इति कथं तदा । ताच्छादनादिति चेत् न तस्य प्रतिषिद्धत्वात् । तदमपि तत्र लिङ्गम् । लिलान्तरमत्येवमुपन्यस्य प्रत्यसितव्यम् । तन्नानुमानादपि प्रतिपतिर्नित्यस्य ।
1
T
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i
२०
२५
नाप्युपमानात् तस्य प्रमाणान्तरप्रतीते वस्तुनि संज्ञासंहिसम्बन्यप्रतिपत्तित्वात् । प्रमाणान्तरेण च निरस्थाप्रतिपन्नत्वात् 'तदिदं नित्यम्' इति तत्सम्वन्धप्रतिपत्ते दुरुपपादत्वात् 1 [आगमस्य तु नाव प्रामाण्यय प्रत्यक्षादिप्रत्यनीकत्वात् । तन्न नित्यं नाम किश्चित, देकमेव प्रतीयमानमात्मन्यनेकरूपतां प्रतिकुर्वीत । ततो "युकमेकानेकस्य प्रमाणसिद्धत्वादनेकान्त्वमिति ।
तथा समविषमाकारस्यापि नहि तत्रापि कश्चिद्विरोधः प्रामाण्यस्य तद्रहणपरि णामस्याप्रतिबेदनास । ततो व्यवस्थितम्-व्यवसायात्मकं विशदं द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थीस्वेदनं प्रत्यक्षमिति :
किमनेन तलक्षणेन "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमश्रान्तम्" [ न्यायबि० १ । ४ ]
१"परमाण्वात्मादयो नित्याः समवायित्वे सत्यकारण रयात्सत्तावद" सा० टी० । श्वतस्माद्भाव आ ० ए० । ३ प्रागभावेऽपि आ०, २०, प० । ४ - विशेयनाशः आ०, ४०, ९० ५ न्दयो म परि ० १०६ "प्रागभावस्य" ता० डि० । ७ कार्यमेव प्रागभाव विनाशः कम नभावात्मकः १ ९--समय
ब्रा० । ११ युकमेवानेक-आ०, २०, प० ।
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Maa m:---=---
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२१५८]
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव। इत्येवास्तु निदोषत्वादिति चेत्, उकयते कीदृशं तज्ज्ञानं यदेव प्रत्यक्षतया लक्ष्येत ? निरंशक्षण क्षीणपरमाणुरूपमिति घोर ; ; विकल्पदायां सहप्रतिपत्त । विकल्पस्यैव 'नीलमहं वेधि' इत्याफारस्यानुभवात् , न तद्व्यतिरिक्तस्य दर्शनस्य । अस्त्येव तस्याप्यनुभवः, केवलं विकल्पैसत्येनाव्यवसायान पृष्ठनिश्चय इति चेत् ; कथमनिश्चितमनुभूतं नाम बुद्धिव्यतिरिक्तचैतन्ययत् । कथं वा वद्रूपं प्रतिभासनं भावानां क्षणिकतया व्यवहार हेतुः निश्चितस्य तत्यानुपपत्तः, ५ असिद्धस्यात् । अनिश्चितस्यापि सिद्धत्ये हेमोरपि स्यादित्यसङ्गतमिदम्-"हेतोस्त्रियपि" [प्र. का० ३.१४ Jइत्यादि । विचारतो वियत एव निश्चयस्सस्य, अनिश्चयस्तु नीलादिवस् प्रत्यक्षजन्मनो निश्चयस्यामावादिति चेत्, किमप्येवमप्यनुमानेन ? व्यवहारस्य नीलादियसू क्षमक्षयेऽपि तनिश्चयादेकोपपतेः अन्यथा नीलादावपि ततस्तदनुपपत्तेस्तस्य निदर्शनवा. भावप्रसङ्गात् । तत्राप्यनुमानत एव सदुपपरिकल्पनायामानवस्थापनिपात:-परापरतनिदर्शनस्य १०
व्यवहारकारणानुमानप्रबन्धस्य दावश्यकल्पनीयत्वात् । तन्न विकल्पदशायो तत्प्रतिपत्तिः । विकल्पसंहारवेलायामिति चेत् । न तवेलाया श्वानवलोकनात् । सदा तत्प्रतिपको वा कुतस्तत एच क्षणक्षयेऽपि व्यवहाये न भवेत् ? विपरीवारोपादिति चत्न ; विकल्पसंहारइस विषरीसारोपवेति व्यायामात् , तदारोषस्यैव विकल्पत्वात् । कचिनीलादावपि कुमस्ततो व्यवहारः १ तदारोपाभावादिति चेत् ;न; निरंशे वस्तुनि भागतस्तदनुपपत्तेः । काल्पनिकस्य व २५ सांशत्वस्य तहशायामसम्भवास्। तन्न समारोपात् ततस्तव्यबहाराभावः । नापि पाटवायभावात् ; नीलादायपि तदापत्तेः। तत्र पाटवादिभावे । न प्रतिभालनमेव व्यवहारहेतुः , अपि तु पाट्यादिविशिष्टम् , तस्य च क्षणक्षयेऽभाषादसिद्धो हेतुः । यच तत्रबभासमात्रम् ; तस्य मीलादावभावात साधत्तवैकल्यव्य दृष्टान्सस्य । रातो दुर्भाषित्तमिदम्-"ययथाऽयभासते तस. थैव ध्यवहारमवतरति यथा नील नीलतयाध्यमासमानं तथैव तव्यवहारभक्तरति, अब. २० मासन्ते व सर्वे भावाः क्षणिकत्तया" [ ] इति । ततो निर्विशेषमेव समारोपवैक. स्यादिकं चिदादिनीलादिक्षणक्षयाविविषयमन्थेषणीयम् |
तथा सति निःशेषधर्मव्यवहस्ततः । प्रत्यक्षादेव सिनत्वात व्यर्थस्तत्साधनश्रमः ||११८१३॥ अस्ति चार्य प्रयासस्ते तत्र तत्र वदुश्याने। क्षणक्षयनिरंशरवारिकल्पत्वादिसाधनम् ।।११८२१॥ तम ज्ञान किमप्यस्ति क्षणक्षीणमनशकम् । नापि चित्रं क्रमेणापि तचित्रत्वप्रसञ्जनात् ॥११८३ क्षणभाविकरूपत्ववार्ताप्यत्र न यद्भयम् । सम्मादसम्मवाहोपायुक्तं नाध्यक्षलक्षणम् ॥११८४॥
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-रीतसमारी-मा०,०,१०।२-वामीला-भर०, २०,..
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শ্বাধিনির্মিত
[स९५८ इदमेवाह
अधिकल्पकमभ्रान्तं प्रत्यक्षाभम् पदीयसाम्] ॥१५८॥ इति ।
न विद्यते विकल्पो 'जात्यादियोजनरूपा प्रतिभासो यस्मिस्तद् अविकल्पकम् अभ्रान्तं तिमिराशुभ्रमणायलाहितविभ्रम परोक्ती ज्ञान। सस्किम प्रत्यक्षमिवामासिन ५ प्रत्यक्षमेवेति प्रत्यक्षाभं तस्यैवासम्भवात् , असम्भवश्व सत्र प्रमाणाभावात् । अत एवोक्तम्
अन्यथाऽपरिणामतः इति । सम्भवेऽपि क्व सस्य प्रत्यक्षस्वम् ? दृश्ये जलावाविति चेत् । में सस्याप्यनुभवाधिष्ठितत्वेनाप्रवृत्तिविषयत्वात् । प्रवर्तकस्य र प्रत्यक्षत्वमनुमतं भवतां प्राप्ये भाविनीति चेत् ; न तस्य तेनाप्रतिपत्तेः । अप्रसिपनेऽपि प्रत्यक्षत्वे अतिप्रसङ्गात् । इश्वप्रसिपतिरेव सस्यादि प्रतिपत्तिस्तयोरेकत्यादिति चेत् ; उच्यते
घस्सुतो यदि मतका क्षणाशि जगत्कथम् ।। सवृत्या यदि वन स्यात् प्रत्यक्षमविकल्पकम् ।। १९८५॥ न होकत्योपसम्पृकश्याप्योपल भनम् । अविकल्पकमाणापक्षका ॥११॥ क्षणक्षयित्वं प्रत्यक्षवेद्यमित्यपि 'व: कथम् । परमार्थपथे वचन देन तदसम्भवात् ॥११८७॥ नित्यानित्यादिनिःशेषविकल्परहितं यतः ।
अद्वैतमेव स्त्रार्थ खसंवेदनगोचरः ॥११८८॥
भवतु वर्तमानविषयमेव प्रत्यक्षम् , न च तस्याप्रवर्तकस्वम् , उपलम्मपरितोष. मात्रादेव तदुपपत्ते, भाविनि तु तस्य तत्त्वं व्यवहतजनाभिप्रायादेव न सत्यत इति चेत् । २० नन्वेई क्षणभङ्गादापि तस्यैव प्रामाण्यात् किमर्था तन्त्र प्रमाणान्तरमवृत्तिः १ समारोपन्य
च्छेदस्य विहितोत्तरत्वात् । निक्षयाति चेत् ; नीलादावपि कि सत्प्रवृत्तिः । प्रत्यक्षादेष सस्य निश्चयादिति चेत् । कथमेतत् तस्यानिश्चयरूपत्वात् ? निश्चयहेतुत्वादिति चेन् । मे। निर्विकरूपत्वात् । निर्विकल्पं हि प्रत्यक्षं कथं निश्वयहेतुः अर्थवस् ? निश्यसंस्कारादेव
विनिश्चयः प्रत्यक्षस्य नखेतुत्वं तसंस्कार प्रबोधादिति धे; में; सत्प्रबोधस्याप्योदेवोपपत्तः । २५ इस चैतन्
"अभेदासशस्मृत्यामाकम्पधियां न किम् ।
संस्कार विनियम्येरन् यथास्वं सन्निकर्षिभिः ॥"[सिद्धिवि०परि० १] इति । तन्न प्रत्यक्षानिश्चयः । भवन्नपि कथं नीलादावेव न क्षणश्यादावपि. यसस्तव
"जातिः मिया गुणो द्रव्यं संवा पदैव कल्पनाः । अश्वी याति सितो घण्टी कत्तलारण्यो यथाकमम् - ताटी०१२-विप्रतिमा०,००।३णात्परी- २००४ नआ०,२०,०।
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म्यायविनिश्चयधिधरणे सर्वथा वितधार्थत्वं सर्वेषामभिलापिनाम् ।।१५९||
ततस्तस्यव्यवस्थानं प्रत्यक्षस्येति साहसम् । इति ।
सर्वधा सण स्खलक्षणाप्रकारेण सामान्यप्रकारेण च वितधात्वं मिथ्यार्यस्त्वं सर्वेषां लिबजानामन्येषान निरवशेषाणाम् अभिलापिनां विकल्पानाम् इति एवं साहसम् अनालो. ५ चितं चेष्टितं प्रमाणामवादिति भावः । तथा हि-स्वतो का तेषां मिध्यार्थत्वमवगम्येत , अन्यतो पा' स्वतश्या ; न पद मिथ्यात्व सत्यार्थत्वमेव नीलादिना भवेत् गत्यन्तरासम्भवात् । सत्यार्थत्वं चेत् ; न ; सर्वथा वितथार्थत्वप्रतिझाविरोधात् । अस्तु नीलादिनैव वितथार्थत्वम् , म वितथावत्वेनापि , कथञ्चिदेव सदङ्गीकारादिति चेत् । कथमेवं प्रधा.
मादिना श्तियार्थत्वेऽपि नीलादिना सत्यार्थत्वन्न भवेत् ? यत. इर्द सूक्तं स्यात-"वितथार्था १० नीलादिविकल्पा विकल्पत्वात् प्रधानादिविकन्पयत् ।" [ ] इति । स्वतोऽपि
वितथार्थवावगमे च किमर्थमिदमनुमानम् ? समारोएव्यवच्छेदार्थम् , सत्यार्थसमारोपस्यानेन व्यवच्छेदादिति चेत् ; न ; तस्यैव तत्वानुपपत्तेः । न हि स्वयं वितधार्थत्यमवगत एवं विपरीक्षारोपत्वं विरोधात् । अन्यस्य तत्र तरवमिति पेत् ; न तस्यापि स्वत एवारोप्यकारेण
मिथ्यार्थत्वस्यावामान । अवगत तपस्याव्यवच्छेदेऽपि न दोषः, पुरुषार्थप्रतिबन्धाभावास । १५ वाप्यन्यस्य तदारोपत्वकल्पनायामनवस्थापतिः । तन्न स्वतस्तेषां वितथार्थत्वावगमः । नापि
परता, प्रत्यक्षस्य तनाव्यापारात् । न हि तेन विकल्पानां प्रतिपत्तिः सामान्यविषयत्वापसे, तेषां सामान्याकारस्यात् । तथा चेन ; व्याहतमेतत् - "प्रमाणं द्विविध प्रमेयवैविध्यान [प्र. वानिकाल २११२] इति । न च तदप्रतिपत्तौ सद्धर्मस्य परिझानम् ; सस्य तत्प्रतिपतिनान्त
रीयकत्वान् । नापि परतो विकल्पात ; संस्थाप्रामाण्यात् । प्रमाणमेव लिङ्गजो विकल्प इति २० रेत : कुन एतत् ? साध्यप्रतिवन्यादिति चेत् । न साध्यस्यैव व्यवस्थितस्याभावास । भावेड.
पि कृतः प्रतिबन्धस्य परिक्षानम? तत एव विकल्पाविति चेस तथा सायस्यैव सकिन्न परिज्ञानम् ? तस्यावस्तुविषयत्वादिति चेत् । प्रविबन्धस्यापि न स्थादविशेषात् । अवस्वव प्रतिबन्ध इति चेस् ; न; अवस्तुत्या वस्तुत्वात् , अन्यथा तथा निर्धारणायोगान् । प्रविधन्धेऽपि
प्रतिबन्धादेव तस्य प्रामाण्य ने परिज्ञानादिति चेत; न वापि कुत इत्यादेशवसेरव्यवस्थि२५ तेश्च । न त पब सत्परिज्ञानम् । नाप्यन्यत: सद्विकल्पात; तस्यापि प्रतिबन्धादेव प्रामाण्याम् । तत एव च तत्परिज्ञानस्थासम्भवात् । अन्यतस्ताहिकल्पात् तत्परिकल्पनायां यापरिनिधानात् ।
किंवा तद्वितथार्थत्वप्रतिबद्ध लिङ्गं यतस्तदनुमानविकल्प: ? विकल्पत्यमेवति चेत् । कुतस्तस्य सत्यार्थत्याद व्यावृतिः यतोऽनेकान्तिकावर भवम् ? प्रधानादिविकल्पे अद्विपर्ययेण माहचर्यदर्शनादिवि चेत ; न ; तन्मात्रासदनुपपत्तेः, कथमन्यथेन्द्रियानवस्यापि न तो
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अभिलाना-०, अ, २०॥ २ तथापि श्रा०, ५०,५। ३ "मानं द्विविधं मेयविध्यात्" । २० चा..। शिक:पान्तरस्था-140, ए०॥ ५ सदा आ०, च, प०।६ विकल्पस्य । साह चमात्रा।
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प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताक्षा ध्यावृत्ति द्विचन्द्रादिशाने सस्यापि तत्साहश्यावलोकनाम् । तथा च विकल्पानामेव वस्तुविधेकशक्तिवैकल्यं मेन्द्रियबुद्धेरिति कुसः प्रतिपद्येमहि । यतस्तत्प्रभावास् क्षणभरदिवस्तुयाथास्व. मवयमानाः पुरुषार्थसिद्धौ बुद्धिमवस्थापयेम । निर्बाधस्यैवेन्द्रियज्ञानस्य सत्यार्थत्वम् , न च तस्य विपक्षेण साहचर्य सक्ष्यमदोष इति चेत् ; न ; विकल्पेऽपि समानत्वात् । नहि वस्थापि मावस्य' तदर्थत्वं बाबाकस्यविनिश्चयाधिष्ठानस्यैव तदुपगमात , तस्य च ५ दुरबोधविपक्षसाहनर्यरूपत्वात । ततः सूक्तम्-'सर्वधा' इत्यादि ।
द्वितीयमपि विकल्पार्थवेसध्यवादिनः साइसमाद- तल इत्यादि । ततस्वेभ्यो वितथार्येभ्यो विकल्पेभ्य: हरवव्यवस्शानंतश्वेन प्रमाणल्येन व्यवस्था निर्णयः । कस्य। प्रत्यक्षस्य नीलादिवर्शनस्य "वश्व जनयत्नाम्" [ ] इत्यादिवचनात् , इति साहसम् । तथा हि
निश्चयाद्वितथार्थाश्वेत्रमाणं नीलवर्शनम् । मरीचिदर्शनं किन्न तोयनिर्णयतो भवेन् ! ॥११८९॥ एकात्याध्यवसायस्याभावादु श्यविकरूप्ययोः । इति चेत्सोऽपि मिथ्यास्तद्विशेषकरः कथम् ॥११९०॥ तदर्थस्थापि इयैकत्वेन वियतो यदि। नास्थापि विवथार्थस्य प्रायदोपानतिक्रमात् ॥११९१॥ एकत्वाध्यवसायस्य वामन्यस्य कल्पनम् । अनवस्थालतानागपाशबन्धान मुच्यते ॥११९२॥ स्यान्मतं व्यवहारेण प्रमाणे नीलदर्शनम् । व्यवहारे विचार न कार्यस्तस्मयागभान् ॥१११३॥ केवलं स यथा लोके तथैव अनुमन्यताम् । न्यवहारार्थिमित्तस्वीरपीति सप्यसत् ।।११९४॥ नीलवर्शननितित्तदर्थंकत्वनिश्चयः । इत्यस्य व्यवहारस्य लौक्रिकेष्वप्रवेदनात् ।। ११९५॥ अमत्येवायं विमोहात भवन्तो न वदन्हि घेत । विमोहो निश्चयाधीने व्यवहारे कथं भवेत् ॥११९६॥ विमोहम्य बलीयस्वादाहार्थस्येति चेदयम् । शसस्त्रेणापि निषतेत कथमेव यदुच्यते ॥११९७॥ "प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्तनम् ।" इति ।
१-नोमादि जि-आ०, २०, ५.१
-प्रस्थानद-भा०,40,१०।३५० था. 11
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म्यायविनिश्चयविवरण
तन्नाय लोकरूटोऽस्ति व्यवहारो भवन्मतः । तहोपायव चेयन्ते यतो व्यवमिहीर्यवः ॥११॥
ततो युक्तमुक्तम्-'त' इत्यादि । अथवा, प्रत्यक्षस्प तत्त्वं निर्विकल्पत्वं तम्य व्यवस्थान तत इति साहसम् । न यथार्थादनुमानचित्रपालदाधापनभुपपन्नम ; अति ५ पैतत्परस्य - "प्रत्यक्ष निर्विकल्पम् अर्थमामादन्याचे कतरार्थक्षणवत्" [ ] इश्यादेः "न सन्ति प्रत्यक्षे कल्पनाः, उपलब्धिक्षमाप्रापा नायनुपालभान, भूतले घटवत" [
इत्यादेच नद्रावधानयोगम्य दर्शन 1 भवत्येव नादशावपि 'तत: सम्बन्धरलात तस्य व्यवस्थापनमिति चेत में लम्य प्रत्यवादवगतिः। अद्यापि तस्या
व्यवस्थितत्याना व्यवस्थितमेव वनस्पतोऽपि सम्य वयवस्थिन: "प्रत्यक्ष कल्यनायो १. प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।" [प्र.का२११२३] इनि वचनादिति चेन् ; किमिदानीमनुमानेन ?
ज्यामोहविपद इति चेन, सति व्यामोहे कथं व्यवस्थितत्वम् अतिप्रसङ्गाना तन्न ततस्तदवगमः। नापि तद्विकस्पान : तस्य दयगमात्पूर्ण विकल्पान्तरवदाप्रमाणत्वात् । तदवामे
प्रमाणस्वमिति नन परस्परालयाम-तवर्गमात्प्रामाण्यम् सति च तस्मिस्तदशाम इति । नाम्पान्तर,
सासरव्यवस्विमिदो। ततो विकल्पवलादेव विकल्पानां १५ विराथार्थत्वं प्रत्यक्षतरवडर व्यवस्थापन (a) न सर्वथा विनथार्थत्वमभ्युपगन्तव्यम् । तथा
च सिद्धू नीलादिविफस्पस्यापि सत्यार्थ निरुपद्रवत्वादिति तस्यैव तत्र प्रामाण्यं निरपेक्षतया तयवसाय प्रति सापकतमत्वान , अधिसंवाद नियमाच, म निर्विकल्पस्य विपर्ययादिति प्रत्यक्षाभासमेत्र तन्, न प्रत्यक्षम , इत्ययुक्त परकीयं तहमणमिति भावो देवस्य । प्रतिषिद्धमेव.
मधिकल्पकमिन्द्रियप्रत्यक्षम् । २० इन्द्वानी मानसमपि तत्प्रत्यक्षं प्रतिपेद्धं कारिकापादत्रयेगा पणसिद्धं तत्स्यरूपमुपदर्शयति
अक्षज्ञानानुजं स्पटं तदनन्तरगोषरम् ॥१०॥ प्रत्यक्ष मानसं चाह [भेदस्तत्र न लक्ष्यते ।। इति ।
आह धर्मकीर्तिः । किम् ? प्रत्यक्षम् | कीरशम् ? मानसं मनसः पूर्वज्ञानादा. मतं न केवलमैन्द्रियमेवेति । यसब्यः भान्सत्यमेय दर्शयाते | अवज्ञानं चक्षुरादिकार्य २५ रूपादिप्रत्यक्ष सस्य कार्य यदनु तत्सरशतयोत्पन्नम् अनोः सादृश्यार्थत्वात वत् अक्षज्ञाना
नुजम् । अनुजपदेनाक्ष ज्ञानमानसयोरुपादानोपादेयभावभावेदयति, हेतुफलयोस्सादृश्यनिबन्ध. नस्य तद्रावस्य परैरभ्युपगमात् । स्पष्टं विशदम् अन्यथा प्रत्यक्षत्वानुपपसे । प्रत्यक्षत्वे निमि. समाइ-तस्यादरज्ञानार्थस्यानन्म द्वितीयो नीलाविक्षणोऽभज्ञानसमसमयो गौधरो विषयो पस्य ससथोक्तम् । कथं पुनस्तकाछन्देमालझानार्थस्य परामर्श: ! कथाच न स्यात् १ अपक्रमात,
1 अनुमानविकल्पाम् । २ प्रत्यक्षम् । ३ स्वत एव । ४ स्वावधानम्तरविण्यसहकारंपरिदयज्ञानेन सममन्तरप्रत्ययेन जनित तत् मनोविज्ञानम्।"-न्यायवि. पृ.1014वा०२।२४३
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स५ । प्रपमा प्रत्यक्ष प्रस्ताव
पू२५ तच्छन्दस्य च प्रक्रान्तपरामशिस्वादिति चेन ; न; विषयिप्रक्रमादेव नान्रीयफतया विषयस्यापि
कमात् । एवमपि श्रुतस्यैव विषयिणः किमपरामर्श इति चेत् । न तद्विषयतया मानसस्थ परै. रनभ्युपगमात । तदभ्युपगमस्य चानेन प्रतिपादनात् । वथा च परस्याभ्युपगम:-"इन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणा जनितं मानसम्" [प्र० बार्सिकाल० २११४३] इति ।
तदिदानी निराकुर्वनाह- भेदस्तन न लक्ष्यते। इति । भेदो व्यतिरेक इन्द्रियानात सत्र मानसे न लक्ष्यते न दृश्यते । तथा हि तडज्ञानात्पूर्वम, सह, पश्चाता स सत्र सत्येत १ न तावत्पूर्वम् : तहकार्यस्य ततः पूर्वमसम्भवा । नापि सह; कार्यकारणोः सहभावानुपपो, युगपत्प्रत्यक्षमयत्याप्रतिवेदमञ्च । न हि सदैव मानसमिन्द्रियाच प्रत्याशयमेनुभवादविशदेवयुषि प्रतिफलितमवलोकशामो यतस्तथापकल्पयेम अनियमप्रसङ्गाः । न धनव- १० लोकिताबकल्पनस्य नियमः-'अयमेव तम् न तत्वयादिकम्' इति, स्वेच्छानिवन्धनस्य तत्राप्य. निवारणात् । गापि पश्चात् । तदेन्द्रियव्यापारे ते प्रत्यक्षताया एव तत्रोपपत्तेः । अतशापारे । विशतिभासप्रतीतिः। २. कल्पनया तदस्तित्वम् : अन्धादावयविशेषात । नन्वयमेव तस्य सस्माझेदो यन्निश्चयरूपत्वम् । निश्श्यरूपं हि मानसमक्लोक्यते 'इदं नीलम् , इदं पीसम्' इत्युस्लेखतस्तस्योपलम्भात् न तपेन्द्रियज्ञानस्येति चेत् ; एवमिन्द्रियज्ञानस्यैव निश्चयपत्वे को १५ दोष द्विषये कथं संशयादिः निश्चयविरोधादिति चेन ? मानसविषयेऽपि कथं तदविशेपात् ।म भवत्येवेति चेत् ; किमिनानीमनुमानेन, संशवादेरनुत्पास्य व्यवच्छेदासम्भवात ? यन्त्र मानस तत्रोत्पश्त एव संशयादिरिति चेत् ; न; सतीन्द्रियज्ञानादो तत्कारणे मानसस्थासम्भवानु. पप सम्भवोऽपि तस्य नीलादावेद न क्षणभपदावत: तंत्र संशयादिव्यवच्छेदास कलमेवानुमानमिति येत ; न ; निरंशवस्तुवादिनां भागशो वस्तुपरिच्छेदस्थासम्भवात् । न च २० निश्वयानिश्चयरूपचया व्यापतेन्द्रियस्य प्रत्यक्षद्वयम् ; अनुपलक्षणान् ।
यस्पुनरेतत्-समानकालमाकारयमिदमैन्द्रियं मानस, तस्य चैवस्वाध्यवसायाद् विवेकनानुपलक्षणमिति : तत्र कुतस्तरभ्यवसायः ? = ताक्दैन्द्रिमन् ; तस्यानध्यवसायस्व. भावत्वात् । न सनव्यवसायोऽध्यवस्थतीत्युपपन्नम् , अलोचनो लोकयतीतियत् । एकत्रवेदनमे तदभ्यवसायो नैकत्वविकल्पमं तथाविरुद्धमेन्द्रियस्याध्यक्षस्थायीति चेत् : उच्यते
तदेवनं घेदान्त तथ्यमेकत्वमापसेत् । आकारद्वयमित्यादि दम्मिथ्य भवतः ॥११९९।। भ्रान्तमेव तदिष्ट प्रत्यक्ष तरकथं मतम् । अभ्रान्तत्वं यतो पौर्बुद्धमध्यक्षलक्षणम् ॥१२॥
इन्द्रियानात् । २ इन्द्रियप्रत्यक्षताया। मानसप्रत्यक्षस्थ
क्षणमादी।
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न्यायविनिश्चयविवरणे
एकस्वभागे प्रत्यक्षं तन्मा भूदिति करूपने । "प्रत्यक्षदेवमेकत्वम्" इत्युच्चैर्बुध्यते कथम् ? ।। १२०१ ४ अभिप्रेत्य विदा प्रत्यक्षं यदि रान्मतम् ।
वाच्यः स एव तद्वेद्यः कथमेकत्वमुच्यते १ १११२०२ || प्रत्यक्षात्कर्थवेिद् विभ्रमस्याविभेदनात् ।
प्रत्यक्ष मि. व्यक्तया गिरा ।।१२०३ ॥ निर्णयमेवं तथा सति ।
45
" इदमित्यक्षविज्ञानं न ततो मानसं परम् ॥ १२०४ ॥ कुतश्यायं प्रत्यक्षस्य स्वरूपे विभ्रमः ? कारणदोषादिति चेत् न
i
"हेतुदोषात् प्रमेये धीरतथापीति युक्तिमत् । स्वरूपेऽपि कथं युक्ता हेतुदोषशतादपि ।।" [
[ २१६२
]
इत्यस्य विरोधात् । अनेन कारणदोषादपि स्वरूप विभ्रमाभावस्य प्रतिपादनात् । ततो नैन्द्रियादेकत्वाध्यवसायः । मा भूत्मानसादेव तदभ्युपगमादिति चेत्; न; तस्थापि स्वरूपेऽष्यव सायशून्यत्वात् स्वरूपस्य च प्रत्यक्षैकत्वेनाध्यवसे यया प्रस्तुतत्वात् ।
१५
i
अपि च तदष्यवसायो यर्थाभ्यवसायसम समयः सदा न च युगपदनेकविकल्पसम्भव:" [ ] इत्यस्य विरोध: । निमयचेत् न तदुभयामकस्य मानसस्याक्षणिकत्वप्रसङ्गात् । तत्र मानसादपि तदन्यंवसाय: । नापि ज्ञानान्तरात् ; वस्त्रापि तत्समयस्यानुपलक्षणात एकत्वाध्यवसायादनुपलक्षणमिति चेत्; न; वदन्यतोऽन्यवसायेनत्रस्योपपत्तेः । यत्वे तु तस्य न ततस्तयोरेकत्वाध्यवसायः वत्समये २० तयोरेवाभावान असतोश्वाषिवेकनिश्चयानुपपत्तेः । तन तयोरेकत्वाध्यवसायाद् भेदस्यानुपलक्षणम् अपि त्वभावादेवेत्युपपन्नम् -'भेदः' इत्यादि ।
4:
शान्तभद्रवाह-यद्यपि प्रत्यक्षतस्तस्य तस्माद्भेदो न लक्ष्यते कार्यवो लक्ष्यत पष । कार्यं हि नीलादिविकल्परूपं स्मरणापरण्यपदेशं न कारणमन्तरेण, कादाचित्कत्यात न पाह ज्ञानमेव तस्य कारणम् सन्तानभेदात् प्रसिद्ध सन्मानान् सरवज्ज्ञानय । ततोऽन्यदेवाज्ञाना२५ तत्कारणम्, तदेव च मानसं प्रत्यक्षमित्येतदेव दर्शयित्वा प्रत्याचिख्यासुराह
अन्तरेणेदमक्षानुभूतं क्षेत्र विकल्पयेत् ॥ १३१ ॥ सन्तानान्तरवच्तः समनन्तरमेव किम् । इति ।
अन्तरेण विना इदम् अनन्तरोकं मानसं प्रत्यक्षम् अक्षानुभूतम् ऐन्द्रियज्ञानartतं नीलादि न विकल्पयेत् नीलादिकमिदमिति नानुस्मरेस्टोक : सौगतो का । सत्यपि
१- शाक-आ०, ब०, प० । २ "इदमित्यादि यज्ज्ञानमभ्यासात्पुरतः स्थिते । साक्षात्करणतस्तु प्रत्य मानसं महम् ||" - अ• वार्षिक २२४२ । ३ शत्कर- भा०, ब०, प०
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प्रथमः प्रत्यक्षमा
मानसप्रत्यक्षे तदनुभूतमेव विकल्पयति साक्षानुभूतं तत्किमक्षयहणेन ? सद्धि सदानीमर्थवत् यदि सति तरिमस्तदनुभूतं विकल्पयेतू , न चैवम् , अतोऽनुभूतग्रहणमेव कर्तव्यमिति चेत् । अन्यथा सहि व्याख्यास्यामः- अनुभवनमनुभूतम , अक्षाणां कार्यमनुभूतम् अक्षानुभूतम् अक्षधाममिति यात , सत्कर, इक्षमन्तरेण न विकल्पयेत् न विकल्पं नीलादिस्मरण कुर्यात् । अत्र पोपपनि सन्तानान्तरघत इति । सन्तानस्यान्सर भेदः स विद्यतेऽरयेसि ५ सन्तानान्तरवत अक्षानुभूतम् । एतच्च हेतुपदं द्रष्टव्यम्-सन्तानान्तरवरचादिति, विषाणी गौरित्युक्त विषाणित्यादितियत तद्वत्व सस्य तेन योगपधात "मनसोर्युगपगुत्तेः " [प्र. वा. २। १३३] इति वचनात् । न च युगपद्वत्ता उपादानोयादेवावं लग्निबन्ध चैकसन्तानत्वम् | उदाहरणस्यतु प्रसिद्धसम्माननदनुभूना सम्ममा अनु-गरमायाः पराकून द्योतनः । तत्रोचरम्-'ताः' इत्यादि । एपकारः 'किमोऽनन्तरं द्रष्टव्यः । सो १० मानसं प्रत्यक्षं समनन्तरम् उपादानं किमेव ध, विकल्पस्येति शेषः । महि मामसं विकल्पस्योपादानमुपपन्नम् । इन्द्रियमा समभाविनरसस्य ततः प्रागेव भावान् , सस्य चेन्द्रियझानकार्यतया पश्चादेवोत्पत्तेः । न च भाव्यपि समनन्धरमिति प्रज्ञाकरादन्यस्य मतम | तत्रापि चेत इन्द्रियशानं समनन्तरम् उपादानं मानसस्थ किमेव नैव, अपि तु विकल्पवदुपादेय. मेव स्यात् । तथा चेत; न; मानसम्य निरुपादानसमापतेः । वदेवाह-धेत इति । एषकार. १५ श्वेतःशब्दास्पगे द्रष्टव्यः । मानसस्य समनन्तरं चेस एवास्तमम् । अन्यदित्यवधारणम्, किन सिञ्चिन् । उत्तरं मानसमेव तस्य समनन्तरमिति मेत् ; न. वहदिमुपपन्म "इन्द्रियझानेन" [प्र. वार्तिकाल० २१ २४३] इत्यादि । इन्द्रियज्ञानं तस्योपादेयमुपादानं वेति चेन् । किमेयं विकल्प एव न भवेदविशेषात् ? तदेवाह-चत एव इन्द्रियानमेव समनन्तरं मानसस्य किं कस्मात् , विकल्पोऽपि स्थान : एवञ्च 'विफल्पा-मानसं सतश्च विकस्पा' इत्स्योन्यसंय २० इति मन्यते । भवत्ययं प्रसङ्गो यदि तयोः परसपरत आमलाभाडेतुफलभावो भवेत् , एका निष्पत्तायन्यानिष्पत्तेः । न चैवम : कुसश्चित् कस्यचिदात्मलाभस्येच विचाराधिक्रितस्याप्रतिवामान , अत एवोक्तं “निप्पशेरपराधीनम्" [२० वा० २१ २६ } इत्यादि , अपि तु मान्सरीयकरपात् । न हि स्यकालभाषिनं विकल्पमन्तरेण मानसम् , नापि ताशं सदन्तरेण विकल्पः, ततो न परस्पराश्रय इति चेत् ; न; सत एव सन्तानभिन्नयोः गुगपट्टत्तिमिसयोरपि २५ सहावापतेः । न हि विना देवदसचित्तन यज्ञवृत्तादेश्चितम् , सरेकवितस्यैव जगत: प्राः ताबन्ध. स्याविच्छेदात , न चैवम : अतोऽस्ति तयोरप्यविनाभावान्मियो हेतुफलभाव ज्ञात कर्थ सन्तानान्तरचित्तपरिहारेण मरणचित्तात्तरभवानचित्तस्यैवानुमान यतो निश्चिता परलोकसिविदिस्यतन भाविनो मानसाटिकरूपः । भवतु पूर्वरमादेव, पूर्वाक्षशानक्षन्मन इति खेत । तस्याज्ञानेन' योफसन्तानत्वम् ; तदुपादेयस्य विकल्पस्यापि स्याल , देवदत्तेनैव तत्पौत्रस्य । तथा चाक्षशानादेव ३०
।
-पत्का००,101 फिमनन्तरं आ०,व०प०.३सहभा-मा०,40,401 उपादानम्। ५-तरभाषाय-भा०, २०, ५०६-माने -मा०,40,०
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प्यायविनिश्चयायवरण
[ १११६३ विकल्प इति कि मानसेन ! तबाह-चन इति । चेत एष अक्षज्ञानभेय न मानमम । किं कस्मात न विकल्पयेत् इति सम्बन्धः । कीरशम ? समनन्तरं परेश मानसस्योपादानमुक्त यदि भिनमन्तानवम : तहि यथा ततो न विकल्पस्तथा मानसमपि न HIRE Aण्टकस्य पिता 'गण्टूपाद् भवति । सदाह-चेन इति । चेतः अभक्षानं समनन्तरं मानसस्यो. ५ पादान किमेवं नैव विकल्पवत् । नत्रैय दोपचयमाह
शकुलीमक्षणादो चत्तावन्त्येव मनस्थिपि ।।१६२।।
यावन्तीन्द्रियचेतांसि प्रतिसन्धिर्न युज्यते ।
शकुल्या भक्ष्यविशेषस्य भक्षणमादिर्यस्य तदा वायास्तस्मिन , चेत् यदि तावन्त्येष तत्परिमाणान्येव न न्यूनान्यधिकानि या मनस्थिपि मानसप्रत्यक्षाण्यपि, न १. केपलमझज्ञानानीत्यपिशलदः । यावन्ति यत्परिमाणानि इन्द्रियचेतांसि इन्द्रियप्रत्यक्षाणि
प्रतिसन्धिः प्रत्यवमा न युज्यते । तात्पर्यभत्र-- यथेन्द्रियज्ञानपरि मिसानि मनांसि तथा तजन्मानो विकल्पा अपि तत्परिमाणा पवेसि कथम्यमेक; परामर्श:-'रूपादिकमहमेवानुमयामि' इति ? सदभावे र स्पादीनां कथमेकघटादिव्यवहारविषयस्यम् । एकप्रत्यवमर्शवलादेव तदुपगमा ।
__ "एकात्यवमर्शस्य हेतुत्वाद्धौरभेदिनी ।
एकधीहेतुभाधन व्यक्तीनामप्यांममता ॥" [५०वा. ३।१०८ ] इसि वचनात् । तन नाव मनसामुपपन्नम् ।
अथैकमेव सकलरूपाविविषयं तेभ्यो ममतदाह
अथैर्क सवैविषयमस्तु इति । सुयोधमेतम् । अवोत्तरम्
... किं वाक्षवुद्धिमिः ॥१६३॥ इति । अक्षधुद्धिभिः अक्षशान किया किमिव तदेशम् , म फिरिदिह निदर्शनमस्ति । अलाहरणादिकमम्त्येव, तस्य पदादित्यपदेशमाओऽनेकम्मादेय रूपादे कस्य भावादिति ।
म; सस्य तवानुपादानवान , एकान्सतस्तदनकरत्रस्य थालि। एकोपादाममनेकमिव तदुपा२५ दानमेकमपि कमान भवति ? दृश्यते हि नीलैकशानोपादानं कटीमक्षणादी रूपादिज्ञानपक
मिति येस; ; तम्याप्यसि, रूपादिविषयायकस्यत्र मंघकत्या प्रतीतः । 'यावन्तीन्द्रि. यचेतांसि इति तु परप्रसिद्धवैवाभिहितः । सन युक्तम्-एकम् इत्यादि ।
साम्प्रतं मनसामक्रमोत्पत्तायुक्त प्रतिसन्ध्यभावं क्रमोत्यत्तायपि दर्शयलाह
NIRedmasitinkinagiri
VIE
१ गण्डूमाद् भव-मा००प० । किन्चकः । 'केथुआ' इति भाषायाम् । २ "विकल्प:'-soft ३ अनेकोपादानम्।
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१।१६५]
प्रथम प्रत्यक्षमस्ता कमोत्पत्ती सहोल्पसिविकल्पोऽयं विरुध्यते । इति ।
क्रमेण मनसाम् उत्पत्ती अभ्युपगम्यमामायां सहैवोत्पत्तिर्यस्य रूपादिपयमर्शस्य सोडीयमानो सिम्यते। शुनदरे 'रामागपत्तेः। ततो रूपे मनः, पुनस्तद्विकल्पः, ततो रसे मना, पुनस्तद्विकल्पः, उथान्यतापीति विकस्पैर्मनोव्यवहित मनोभिच विकल्पव्यवहितवितव्यम् । न चैवम् , प्रतीत्यभावादिति भावः । ५
___स्यामसम्पादेक एव सेभ्यस्तद्विकल्प इति ; तन्न, इन्द्रियज्ञानकमोत्पत्तावत्येवं बद्भावप्रसङ्गात् । भवस्विति चेत् । अत्राह- 'झम' इत्यादि । क्रमोत्पत्ती इन्द्रियचेतसा सहोल्पत्तेरिन्द्रियझानयुगपदुत्पादस्य विकल्पो निश्श्यः "तसात् सन्तु सकृद्धियः।" [प्र. वा. २।१३०] इत्ययं परस्य प्रसिद्धो विरुदयते। कई वा मनसां प्रत्यशत्वम् यदि न स्वसंवेदनम ? तपस्यैव स्वयं तदभ्युपगमात् । स्वभने तु तत एव तत्प्रसिद्ध किं 'विकरूपतः । तदनुमानेन निश्श्यार्थम् , सनिश्चितस्यैव सिद्धत्वात , स्ववेदनस्य चाविकल्पखेनानिश्चयत्याविति चेन्न ; विकल्पस्याप्येवं स्वतोऽसिद्धिप्रसङ्गाम, वदनुभवस्याप्यनिश्यत्वात् । निश्चयान्तरातत्सिद्धिकल्पनायाम् अनवस्थोपनिपातात , असिद्धस्य पालिङ्गवात् । अनिश्चयेऽपि सत्प्रसिद्धौ मनसामपि स्थाविशेषादिति व्यर्थमेव ततस्तदनुमानम् । इदमेवाह--
अध्यक्षादिविरोधः स्यात्तेषामनुभवात्मनः ॥१६४॥ इति । १५
आत्मनोऽनुभवः अनुभवारमा, "रामदन्तादिषु दर्शनात् आत्मशम्दस्य परनिपातः, सतोऽनुभयात्मनः स्वानुभवस्य तेषां मनसा सम्बन्धिन 'उत्पत्ताबपि' इति सम्बन्धः । तत्र दूषणम्-अध्यक्षमादिर्यस्य तद् अध्यक्षादि अनुमानमिति यावन , तस्य विरोधो वैकल्येन परिपीडन स्याद् भवेदिति । अथवा, नेपामिति महोत्पत्तिविकल्पपरामर्शः प्रक्रमात् । बहुवचन पुनर्व्यक्तिबहुत्वापेक्षम् , तेषाम् । कस्यों किम् ? अनुभवात्मनः २० अनुभव आत्मा स्वमाशे यस्य सद् अनुभवात्म, प्रक्रमात मानसं प्रत्यक्षम् , तस्मात् । उत्पसावधिकृस्याभ्युपगम्यमानायाम अध्यक्षेण आदिग्रहणायनुमानेन च विरोधो वाय स्थात् । प्रत्यक्षेण तावद्भवति ततस्सदुत्पत्तेर्वाधा, तेनेन्द्रियज्ञानादेव सदुरपमिप्रतीते, या अनुभष:- 'मया युगपजभुरादिना रूपाविकमन्वभाति' इति । तद्वपनुमानेनापि , तेनापि तस्मादेव तदुपरथ्राबसायान् । तया हि- यद्यस्यान्वयत्यतिरेकावधिको तत्तस्यैव कार्य २५ कुलालादेरेदारिय)कुम्भाति, अनुविधते पेन्द्रियस्यान्वयव्यतिरेको विकल्या इति । अनुकृतान्वयव्यतिरेकाम्यस्य च तदेतुत्वकल्पनायां न चित् अश्विनियसो हेतुः फलं या भवेतन शान्तमपक्षो' व्यायान् ।
सहोसायनुपपत्तः । २ विकल्पस्तद-आ०, ०,१०1३- मशि-भा, प०प०। "राजदन्तादिन परम्"-पा० सू. २०१३: । ५ ल्याना 4और, ०,१०६६ तस्यां म०, २०, ५०।-क्षी न्यायान् ता.
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१
...
५३० ग्यायविनिश्चयविवरण
{ १११६५ धर्मोचरस्थाह- म प्रत्यक्षादिप्रसिद्धत्वात् मानसं प्रत्यक्षमिष्यते यतोऽयं दोषः किन्रवासमाधीनत्वात् । तत्र च परे दोपमुद्भावयन्ति-यदि मानसमयि किश्चित्प्रत्यक्षं सहि नान्धी नाम कश्चित् लोचनश्किलस्यापि तरसम्मवादिति तत्परिहाराय तक्षणप्रणयन इन्द्रिय
शानेन इत्यादि । न हीन्द्रियज्ञानभन्धल्स यतस्तदुपादानस्य मानसप्रत्यक्षस्य तत्र भावात्तव्यवहारो ५ न भवेदिति । तत्रोत्तरमाह
वेदनादिवदिष्टं घेत्कथं नातिपसज्यते । इति ।
वेदना सुखाचनुभूतिरादिर्यस्य संज्ञादेस्तम् इष्टम् अभिमतम् प्रत्यक्षं चेत् यदि । दूषणमत्र-'कथम्' इत्यादि सुबोधम् । तथा हि
अस्वसंवेदनं सन्धेत प्रत्यक्षत्वेन गम्यते । ऐन्ट्रियादिकमध्येवं तथा चातिप्रसनम् स१२०५॥ "अप्रत्यक्षोपलम्भस्य" इत्यादि निर्विश्यं भवेत् । paperन परिस तु स्वघेइने ॥१२०६॥ बुद्धेश्चैतन्मयन्यत् प्रत्यागमनिरूपितम् । भवेदित्यपि "बुद्धोकं कथनातिप्रसज्यते ? ॥१२०७॥ प्रमाणसवस्तुल्योऽयमुभयत्रातः एव हि । 'अध्यक्षादिविरोध: स्यात्' इत्यमाणि मनीषिणा ॥ १२०८॥ यत्पुनरुक्तम्-विप्रविपत्तिनिराकरणाय तस्लमणमुच्यत इति ; तबाह
प्रोक्षितं भक्षयनेति दृष्टा विप्रतिपत्तयः। ॥१५॥ इति । पोक्षित मन्त्रिताभिरन्दिरभ्युभितं भक्षयेत् मांसमिति बैदिकरः । तदुक्तम्
"प्रोक्षित भक्ष्यन्पास घालणानां तु काम्यया __ यथा विधिनियुक्तस्तु प्रामानामेव चात्यये ॥" [मनु० ५।२७] इति । न मायेत्मोक्षिसमपि तु 'पात्रपतितं त्रिकोटिशुद्धम् इति प्रौद्धाः, इति एवं दृष्टाः उपलब्धा विप्रतिपत्तयो बहुधधनमन्यासाम् अपि तासाम् योगास्वर्गः, षैत्यवन्दनात् "स्वर्ग:' इत्यावीना
परिग्रहार्थम् । तथा च तन्नितनार्थमपि प्रमाणशाले हस्तक्षणमभिधातव्यमिति भाषा, २५ स्वपरिच्छेदं प्रत्युपयोगित्वेन "तं प्रत्यनुपयोगात् । तदेवाइ
CRASH
"एलच्च सिद्धान्तासिद्धं मामसं प्रत्यक्षमन स्वस्य साधकमस्ति प्रमाणम् , एवं जातीयक तयदि स्वास्न कश्चिद्दोषः स्थ-विवि पराई लक्षणमाल्यालयस्यति ।"-व्यायविनी पृ०११। २यदा पेन्द्रियज्ञानविषयोपाययभूती दाणो गृहीतस्तदा इन्द्रिययनमायहीसस्य विश्वान्तरस्यात्राणादवविरायभावदोपप्रसको निरस्तः।"-न्यायविक टी. पृ० १५३ अन्धादिपवहारः। ४-न शाम्यते मा०,३०,३०१५ द्रष्टव्यम्-०४६९ टि०७ । इसारख्याग । ७ बुद्धपोतं श्रा०,२०,40) इतोति माद.१०१९"तहि सो अहं गौवक यहि मंसं अधरिंभीर्य ति पवामि दिसून परिसंकित ... खो अहं जीव सानेहि मंसं परिभोग ति बामि अदिह असुन अपरिसकित"मनियम जीवकसुस । दिकानाम् । १५ोक्षानाम् । विप्रतिपरिनिराकरणं प्रसि ।
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१९३०
प्रथमः स्तायः
लक्षणं तु न कर्तव्यं प्रस्तावानुपयोगिषु । इति ।
1
तुशब्दः कर्तव्यमित्यसः परो द्रष्टभ्योऽवधारणार्थच । तदयमर्थ:-लक्षणं न कर्तव्यमेव, प्रस्तूयते प्रमाणफलस्वनाविक्रियते इति प्रस्तायो हेयोपादेयतस्वनिर्णयस्त अनुपयोगीनि मानसमांसभक्षणादीनि तेषु । बटुवचनं मांसभक्षणादिनिदर्शनपरिमार्थम् । परमतमपि न्यायधर्मादनपेतम् ।
५
'अविकल्पकम्' इत्यादिना सामान्यतः प्रतिक्षिप्रमपि स्वसंवेदन प्रत्यक्षं
युक्तयन्तरेण प्रतिक्षिपाद
अध्यक्षमात्मवित्सर्वज्ञानानामभिधीयते ॥ १६६ ॥ स्वापमूर्च्छायस्थोपि प्रत्यक्षी नाम किं भवेत् । अध्यक्ष कल्पनाविभ्रमविफलत्वेन आत्मवित् आत्मवेदनम सौगतैः । वत् सर्वज्ञानानां विकल्पेतरभेदाधिष्ठाननिरवशेष वोधानाम्, सानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् " [ न्यायवि० १० १९] इति । अन्नदूषणम् - स्वापच स्वदर्शनमिकलोऽनस्थाविशेषो न तद्दर्शनवान् ददवस्थस्य स्वयमपि प्रत्यक्षत्वोपगमात् । मूर्च्छा मर्मप्रहाराविनिभिन्नश्चितव्यामोह, स्वापमूर्चे ते आदी यस्योन्मादादेः स स्वापमूर्च्छादिः स्वनिश्चयवैकल्याविशेषेण स्त्राप एव मूर्च्छादेरन्तर्भावेऽपि पृथगुपादानम्, १५ 'नस्यापि भावात् । अन्यदेव हि प्रासादश्यनादिकं निमिवं स्वापरयान्यदेव च विशेषोपयोगः दिकं मूलः । aar मेदादपि प्रt निर्भवन्ति ष्ठेपथु (?) घ शरीरं तद्विपरीतं मूर्च्छितादेरपि । स एवावस्था यस्य सोऽपि न केवलं तद्विपरीत इत्यपि शब्दः प्रत्यक्षी प्रत्यक्षवान् नाम स्फुटं किन्न भवेत् ? नकारस्य पूर्वश्लोकावते, भवेदेव । तत्राप्यारथसंविदो भाषात्, तथा च कथमवस्थातुप्रतिष्ठेति भावः ।
अभिधीयते १०
- "सचि
२०
तदवस्थस्य ज्ञानमेव नास्ति तद्भावे जामत इव तस्वविरोधाततः कथमात्मवेदनम् ? तोऽयं प्रसङ्ग इति प्रज्ञाकरो ब्रह्मवादी च तेनापि वस्थायां जीवस्य परमात्मरूपसम्पन्नतथा विशेषविज्ञानोपर मस्योपगमात् । " प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्यतो न वार्ड किञ्चन वेद नान्तरम्' [दा० ४१३/२१] इति श्रुतेः ।
तत्रोत्तरं दर्शयति
विच्छेदे हि चतुःसत्यभावानादिर्विरुध्यते ॥ १६७॥ इति ।
: इलना- " मुग्धः कदाचिश्विरमपि नोच्छ्वसिति सवेपथुरस्य देो भवति भयानकं वदनम् विस्कारित नेत्र सुघुतस्तु प्रमादनस्तुल्यकालं पुनः पुनरुच्छ्वसिति निमीति भस्य नेत्रे भवतः । निमितमैव भवति मोहयोः, मुसलसम्पाद्यादिनिमित्तत्वान्मोहस्य, प्रमादिनिमित्तस्ताय स्वापत्य ।" सा० भा० १०-१२ निर्भवन्तिध्वेप्रभु वा ता० । ३ जास्वप्नपुसिरीयायस्याः "संवेदनामाष एव • मृतयोन विशेषः "प्र० वार्तिकाल १५७ । ५ "सुषुप्तिर्नाम ज्ञानशुन्यो जीवस्यावस्थाविशेषः । अत्र न श्रुतिः सुप्तौ न कथन कार्म काम न कक्ष स्वप्न पश्यति तत् सुषुप्तम्”- बृ० ३० ४२११९ ।
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२५
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वायविनिमयविधरने स्वापाको विच्छेदे उपरमे विज्ञानानामिदि सम्बन्धः हि यस्मात् चतुःसत्पं दुःखसमुत्यनिरोधमार्गलक्षणं तस्य भावना प्रबुद्धेन मुहमहुश्चेतसि परिमलन सा आदिर्यस्य गुणादिप्रकाशस्य ब्रहालोकास प्रत्यायमस्य च स विरुष्यते । तस्मात् सन्ति तदा विज्ञाना
नीति कथन कथितो दोषः । तथा हि-यदि स्वापादौ ज्ञानविच्छेदः कुतः प्रबुद्धस्य बरसत्य: ५ भाधन सनिहितस्य तद्वीजस्थाभावात् ! आमदवस्थामाविन इति चेत्न ; तस्य चिरनवेन
कारणत्वानुफ्पचे, अन्यथा आत्मदर्शनबाजादपि पिरप्राहीणादेव सुगतस्य जन्मदोषसमुद्भवलक्षायाः पुनरावृत्तः सम्भवात् , असम्भवमेतद्भवेल्- "अधुनरावृत्या गतस्तुगतः" [ ] इति । यदि पुनस्तस्य सम्यग्ज्ञाननिलुतशक्तिकत्वान्न कालान्तरेऽपि सत्फलम् ।
चतुःसत्यभाषनाफलमपि तद्वीजान्न भवेत , सस्यापि स्वापादिनिलीमशक्तिकलाम । रयत इनि १० चौर; सत्यम ; श्यते, चिरनष्टादिति तु न दृश्यते, संघिहितादपि तदुपपत्ता यदि समिहित
शान एवं स्वापादिः कथमवस्थान्तसविशिष्यत इति चेत् ' आस्तामेतत् । अपि च, कथमेवं प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रवर्समानस्य नियमेनाधिसंवादः १ जामशानात् प्रबोधविसंवत् 'चिरकालाएकान्तादपि जलपावकादेस्तदुत्पतिारिकल्पनायां नियमतस्तदक्रियावाप्लेरसम्भवात् । तद्रू.
पत्वाचाविसंवादय । हो न सुभाषितमेतत् "न याभ्यामर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽर्थ१५ क्रिया विसंबाधते !" ] इति । ततः समिहितादेव ततस्तदुत्पत्तिमभ्युपग.
च्छता पतुःसत्यभावनापि सनिहितहेतुकैवाभ्युपगन्तव्या । न च तद्भावना नेष्यस एवं; तन्मूलत्वात् सकलगुणदोषप्रकाशरूपस्य योगिज्ञानस्य । तदुरुम्
"बहुशो बहुधोपायं कालेन पहुनाऽपि च ।। गच्छन्त्यम्यस्थतस्तस्थ गुणदोषार प्रकाशताम् ॥” [प्र० वा० १३१३०] इति ।
तथा यदि स्वापादौ परमात्मसम्पमसया- विशेषविज्ञान विकलो जीवः कथं तस्य पुनरस्थानम् । तस्य विज्ञानमूलत्वास, तस्य च बदानीमभावात् । लेशतस्तकायेऽपि तदात्म्यपसेरनुपपत्तेः निवृत्तनिश्शेषाविद्यासस्पर्श हि परमात्मरूपम् , तस्कथं तदापत्नस्य जीवस्थापि 'तल्लेशसंस्पर्श: तपस्यैव प्रसन्नात् । भवतु आप्रत्सम्यमाविन एवं विशेषज्ञानात्तस्य पुन
रुस्थानमिति चेत् ; न; संसारसमयभाविनस्तस्रो मुक्तस्यापि तत्प्रसङ्गात् । "तस्य विधाबलोपर. २५ मितस्य न सहेतुत्वमिति चेत् ; स्वापादिवलोपरतस्य कथम् ! शास्त्रप्रामाण्यान, श्रावति दिमा
सम्-"पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति" [वृहदा० ४।३।१५] इत्यादिकं सुषुप्तादेः पुररुस्थानम् , सतो युक्तं तलमिलुनस्यापि तद्धेतुस्वम्, अन्यथा सदनुपपतेः । न चैवं मुक्तस्य
परिमेलन मा० ब०, प०.१ २ द्रष्टव्यम् पृ०३६ टि०३३ समिहितादेव । ५ चिरकालोपापि -आ०, २०, प० । ५ जानीरसि । ६ “कच सुमतेन-माणमविसंपादिज्ञानमर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम्" [प्र०या०11३]-ता-टि.। . माभ्यामर्थ मा०, ५०,०८ पुनश्त्यानस्य । परमात्मापतेः। १० अविद्यालेश। संसार समयभावितः । १२-परदितस्य आ०, ०,१०।
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१।१३८)
१३३ पुनरुत्थानम, निरवधिनिर्मोजन्यैव श्रमणान । न्न विद्यावलपराहतस्य तत्कारणस्वनिर्वभो:यमुपपत्तियमधुर इति चेन; मन्येव शास्त्रमेवाप्रमाणे स्यात. , मिरवयवपरमात्मसमापनस्वेन श्रावितयोः सुधुननिर्मुक्तयोः पृथक्करणेन मिश्याच्यापारवान विचन्द्रादिषोषवम् । नास्येव तेन तयोः पयस्करण नामासोश्वोपाधिगतयोः पृथक्करमान , त्योश्च जलसूर्यादियानस्यैव प्रसिद्धेरिति घेन् ; भवत्येव वेन तयोः पृथक्करणम् , परमात्मापत्तिस्तु कथं श्राव्येत अवस्तुनो ५ नस्तुरूपायत्तेविरोधात् उस्तुनस्सदम्वरूपापभित्र ! कथं तर्हि अलसूर्यादेजलाधुपरमे सूर्याया पत्तिरिसि पेत् । न बायाधारोपरतों उपरमस्यैवोपलम्मान न तदापत्तेः । एवमत्राप्युपाध्युपरमे वदामासयोरुपरतिरेव स्थान तदापसि; अवस्तुस्कात् । ननूपाध्यनुप्रविष्टः परमात्मैव जीवो न तयाभास पब, "हन्ताऽहममिमास्तिस्रो देवता अनेन जीवनात्मनाउनुप्रविश्य"[छान्दो ६।३।२] इत्यादी जीवस्यात्मलेन निर्देशात् कथं ठस्यावस्तुत्वम् ? यतो न तदापसिरिति १० चेत् । न तदपि साधु; लौकिकादविवेकाभिप्रायात तथा निर्देशात् आमासस्यैवारमस्थेन । अतएवात्रार्थे सन्न माध्यं प-"आभास एव च" ० २३१ डि : "जाग गई जीवः परस्यात्मनो जलस्र्यादिवत् प्रतिपसव्यो न स एवं साक्षात्रापि वस्त्वन्तरम्"
.शा. २१३१५ ] इति । ततो न स्यापाद्यवस्थायां विशेषविज्ञानरयाविद्याव्यपदेशस्यान्य. रूपायसिः, उपरतौ २ न तस्योन्मजनम , नाशिम्योन्मजने च म प्रबुद्धस्यानुभूतस्परयादिकं २५ सीवान्तरषत् । अस्ति चेदम् । तस्मादन्ययन्छिन्नदान एक स्वापादिः निश्चयवैकल्यान जाग. स्वप्नदशाभ्याम , अपरित्यक शरीरस्वाथ चतुर्थावस्थाको विशिष्यते ।
स्वसंवेदनमात्रस्य तु प्रत्यक्षत्वमाराणानां न तस्य जाग्रदादेविशेषा, तदात्मवेदनस्यापि प्रत्यक्षरयात् । सन्न निश्चयविकलसवितिमात्रमेव प्रत्यक्षम ।
अत्रैवोपपस्यन्तरमाह
प्रायशो योगविज्ञानमेतेन प्रतिवर्णितम् । इति ।
योगिविज्ञानं चतुपर्यसत्यगोपरं युद्धज्ञानम् एसेन निर्विकल्पप्रत्यक्षवादेन प्रतिवर्णिते प्रतिपादितं भवतीति शेषः। कीरशम् ? प्रायशः प्रथमयशोऽप्रामाण्यलक्षणं यस्य तादृशमिति। तदपि हि कल्पनापोढत्यादेव प्रत्यक्षम् , अन्यथा वहमणस्याज्याशिदीपात् । न च "सत् स्वसप्तामात्रेण विनेयान प्रमाणम् , अपि तु सोपायहेयोपादेयतश्योपदेशान् । २५ "शानवान् मृग्यते कश्चित्तदुक्तमतिपत्तये।" [प्र.या० १२३२] इति वचनात् । सोऽपि न निर्विकस्पात , नाप्यचेतनात् कुड्यादेः । " विकल्पधोनयः शब्दाः" [
] इति वचनात् । न विकल्पसंस्काराक; योगिनस्तदावे विधूतकल्पनाजालबविरोधात । सः सविकल्पमेष सदभ्युपगन्तव्यम् । तथा च सिद्धमिन्द्रियादि
२०
पृथयार-प्रा०प०प० । “आत्मनेति वचनात् खात्यमोऽव्यतिरिसन चैतन्यस्वरूपतयाऽविशिष्ठेन।" -छारदो शाना०1३-मजनेन २०,०,१० तत्सत्तामा-मा-२०५०।
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MAR
ज्यायधिनिश्चय विवरण
[ १६.. प्रत्यक्षमपि सविकल्पं प्रत्यक्षरवार योगिप्रत्यक्षवदिति । फीरशच तमिर्षिकरूपकम् ? निराकारमेकशतिककवि स न तस्यानेकविषयस्वाभावानुषङ्गात् , अन्यथा नित्यस्यापि सरशोअनेककार्याविरोधात् न तत्प्रतिषेधः तथा च
अशेषज्ञतयेष्टस्य किश्चिमात्यायशस्थित्तेः । प्रायशो योगिविज्ञानमेसन प्रतिषणितम् ॥१२०९॥ साकारमेकाकारं वदेतेनैव निरूपितम् । अनशक्तिक सच्चेदनेकाकारमायलम् ॥१२१०॥ नामाशक्तितदाकारसाधारणतया स्थितम । निर्षिफल्यं कथनाम तद्विभ्रजातिकरूपनाम् ॥१२११॥
तथा घ
अविकल्पातयेष्ठस्य विकल्पवायश:स्थितः। प्रायशो योगिविज्ञानमेतन प्रतिवर्णितम् ॥१६१२॥ साम्प्रतं साइपम्य प्रत्याभलक्षणे प्रत्याभक्षाण आइ
श्रोत्राविवृत्तिः प्रत्यक्षं यदि नैमिरिकाविषु ॥१६८।।
प्रसङ्गः किमतघृसिस्तद्विकारानुकारिणी । इति ।
श्रोत्रमादिर्यस्य चक्षुरादेस्तस्य वृत्तिविषयाकारपरिणसिः यदि चेस् प्रत्यक्षम् । ननु बुधित्तिरेषाध्यवसायरूपा साक्ष्यस्य प्रत्यक्षं "प्रतिविषयाभ्यवसायो दृष्टम्" [साका०५] इति वचनातू , तस्कथं श्रोत्रादितिः प्रत्यक्षमाशयत इति घेत न; तदृशेरपि अहिरिन्द्रिय.
प्रणालिकयैव भावान सप्तरेव सरकोपपतेः। सति हीन्द्रियाणामालोधने मनसि सङ्कल्पः, २० ततोऽहकारेऽभिमानः, ततश्च बुद्वावध्यवसाय इति सरिसद्धान्तप्रसिद्ध । अत्र दूषणम् समिरिक
धादिर्येष कामलिकादीनां तेषु प्रसङ्गः श्रोत्रादिवृत्तिप्रत्यक्षत्वस्य । तथा च द्विचन्द्रादिरपि सास्तिक एव भवेदिति भावः । सद्वृत्तिरेष सा न भवति यतोऽयमतिप्रसङ्ग इति चेत् । अनोत्तरम-किं कस्मात अतवृत्तिः पन्द्रद्वित्वालोचनादिः, तस्य श्रोत्रा विकारमनुकतीत्येवं.
शीला न भवेदेव । भवसि प, तिमिरादिना विकृत एवं श्रोत्रादौ तद्वत्तेर्भावात् । आसाविता२५ घ्यवसायनिषन्धनमेव वृत्तिवृत्तिन वृत्तिमात्रम् ; इलापि न युक्तम् "शब्दादिषु पञ्चा]- नामालोचनमात्रमिष्यते वृत्तिः । [सां०का० २८] इति उन्मात्रस्यैव तवृत्तित्ववचनात् ।
एकशरिखकान, 1 २ "योग्रादितिः प्रान्तेपि न हि नाम न विद्यते । न च मान विमा पृतिः श्रोत्रादेवर पचते।"-40 वार्तिकाला ३०० ।-अकस .१६ पागण्यस्व। यतिथि । रूपं पश्यति, मनः साल्पयति, अहारोऽभिमानपति विरभ्यवस्यति ।'-स. का. माठर ३०। ५ धोत्रादवदा आ०,१०,५.६ "शब्दादिषु पश्चामामाचनमामिण्यते अधिः"-स. का ।
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१४१७ ]
पथमा प्रत्यक्षमस्ता साम्प्रतं नैयायिकस्य प्रत्यक्षलक्षणमुपदर्थ नियकुर्वनाह
तथाक्षार्थमनस्कारसत्त्यसम्पन्धवर्शनम् ॥१६९।। व्यवसायात्मसंवायव्यपदेश्यं विरुध्यते । इति ।
अक्षर इन्द्रियम् अर्थः तद्विषयो मनस्कारोऽन्तःकरणं सत्त्व आत्मा सेषी सम्बन्ध: औरमा मनसा युज्यते मन इन्द्रियेण तदप्यर्थेमेसि क्रमेण सन्निकर्षः। तस्थ कार्य दर्शनं ५ विषयज्ञानम् अक्षार्थमनस्कारसत्वसम्बन्धदर्शन प्रत्यक्षमिति प्रकृतेन सम्बन्धः । यह खस्वमादिग्रहणमेव कर्तव्यम् , न सम्पन्धमहर्ण तदर्थस्यार्थादेव प्रतिपत्तः । न हि विषयज्ञानं कुदादिकं परस्परससनिकृष्टमेव कर्तुमर्हति, परस्परं सन्निकर्षवत एव दण्डादेर्घटादिकर्मणि व्यापारात्, तदक्षादेरपि ताशस्यैव विषयज्ञाने व्यापारोपपत्तेर्भवति सत्कार्यदर्शनप्रतिपादनबलादेव तत्सम्बन्धप्रतिपचिः,अतो न कर्तव्य सम्बन्धप्रहेणमित्ति चेत् ; सत्यम् । १० स्थापि सक्रियते संयुक्तसयोगादेः सम्बन्धान्तरस्य प्रतिक्षेपेणाभिमतस्यैव संयोगादिसम्बन्ध. षट्कस्य परिग्रहार्थम् । एवमपि अन्धग्रहणमेवास्तु तेनैव प्रत्यासक्तिवाविना तस्वदकस्याविरोधात संशब्यस्तु 'किमर्थ इति चेत् ! न; तस्य 'सम् निश्चितो अन्धः सम्बन्धा' इति व्याख्यानार्थत्वात् ! निश्चयश्च सम्बन्धस्य कधित् कस्यचित् नापरस्थ । तथा हि-चक्षुषो घटादिना संयोगः सम्बन्धो निश्चितो द्वयोरपि द्रव्यत्वात् । ततेन रूपादिना संयुक्तसमायोज्यस्या- १५ सम्भवात् । रूपरवादिना तु सत्समवेतेन संयुक्तसमवेतसमवायः सस्यैव परिशेषाम् । भोत्रस्य तु शन्न समवायः । शब्दत्वेन समवेतसमवायः । समदायाभावाभ्यां पुनरिन्द्रियस्य सम्बन्धिविशेषणभावा, समयायिनो घटतववयवा इति घटादिविशेषणस्वेन सम्बायस्य प्रतिस्तेः, अधर्ट भूतलमिसि भूतलविशेषणस्वेन १ घटाभावायाधिगमात् । तदेवमयमत्र सम्बन्ध इति निश्चयघोसनार्थमुपसर्गोपादानम् । एवं विश्वरूपेणापि सन्निकर्षपदस्य व्यास्थानात ।
तदेव प्रत्यक्षमनभिमतव्यवच्छेदाथै विशिष्टि व्यवसायास्म । व्यवसायों निर्णय आमा स्वभावो यस्य तत् समोरुम् । अनेन संशयज्ञानस्य व्यवच्छेदः, तस्याक्षादिसम्बन्धदर्शनरूपत्वेऽपि व्यवसायभावाभावात् । संवादोऽध्यभिचारः सोऽस्वास्तीति संवादि अनेमापि विपर्ययज्ञानस्य । तस्योक्तरूपस्य व्यवसायास्मनोऽपि व्यभिचारभूमिश्वास । व्यपदेशाई व्यपवेश्यार तदहस्वन तस्कार्यत्वात्, न व्यपदेश्यम् अव्यपदेश्यम् अशब्दजन्यमिति यावत् । अनेनापि २५ शम्पसत्रिकर्षाभ्यामुफ्जनितस्य पद रूपम् इत्यादिवानस्य तस्योभयभन्मनोऽपि शाध्यतया लोकेऽधि(भि)रुदत्वात् । तदनेन "इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन ज्ञानमव्यपदेश्यमयभिधारि- व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्" [ न्यायसू० १३१४ ] इति सूत्रमुपदर्शितय । यदोयमक्षार्थग्रह
"तच्चेदं प्रत्यक्षं तुटवत्रयवयसन्निकर्षात् प्रवर्तते, तत्र बाह्य रूपादौ विषये चतुष्टयसनिकद मुत्पद्यते आत्मा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमधनति, सुखादी क्सभिकर्षानमुपश्ते तत्र चक्षुरादिव्यापाराभापात्, आत्मनितु श्रीगिनी थोराममनसोरेस संयोगाजाममुपजायते तृतीयस्व ग्राह्यस्य प्राहकस्य तत्राभावात् ।"यायमं.०७.२-वरोधनान् मा...,प..किमर्थमिति आ....। ५ सम्बन्धवि आ०,०प०। ५ “यवच्छेद गति सामन्यः"-साटिल। “व्यवच्छेदः"-ला-टि।
२०
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५३६
म्यायविनिश्वयविवरण
[ ९।२७०
णमेव कर्तव्यम् तस्यैव प्रत्यक्षकारणतथा सूत्रे निर्देशान, न मनस्कारसस्वग्रहणं विपर्ययादिति dr; न; तस्यापि सस्कारणत्वात् सूत्रे तु सदव वनं साधारणकारणत्वात् । साधारणं हि कारण मनस्कारादिः प्रत्यक्षवदनुमानादावपि भावात् । अचादेस्तु चत्रोपादानं प्रत्यक्षं प्रति तस्यासा धारणत्वप्रतिपादनार्थं न तु कारणान्तरभ्यवच्छेदार्थम् । तथा च न्यायभाष्यम्- "नेदं कार ५ धारणाप्रत्यक्ष कारणमिति । किं तर्हि ? विशिष्टकारणवचनम् । यत्प्रत्यक्षज्ञानस्य विशिष्टकारणं तदुच्यते । यत्तु समानमनुमानादिज्ञानस्य न तत्रिवत्येते ।" [न्यायभा० २१११४] इति । यथेषं सूत्रत्रयत्राप्यसाधारणमेव कारणं वयं नेसरदिति चेत्; न; तत्रापि दूषणदर्शनार्थत्वात्तद्वचन ततः कुचोद्यमेतत् । सहि सुचद्धमिदं प्रत्यक्षलक्षणfafa न आह-विरुध्यते विचारेण पीत इत्यर्थः । कधमियाह- 'तथा' इति । १०. वीप्सागर्भमिदम् ।
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हृदयमर्थ:-सेन तेन विशेषणरूपेण विशेष्यरूपेण तत्समुदायरूपेण च प्रकारेणेति । तथा हि- विशेषणं सावयवसायात्मकमिति विरुध्यते निषयभावात् । संशयज्ञानं निवर्त्यमिति चेत् न वस्य सन्निकर्षपदेनैव निवर्तनात् । सत्रिक जमेव तदपीति वेत् कस्य सन्निकर्ष: ? स्थायुपुरुश्योरन्यतरस्य, उभयस्य वा ? न तावत्तदुभयस्य; १५ एकत्रैका तस्सम्भवात् । सम्भवे ज्ञानस्य संशयस्वानुपरते । न हि वस्तुसति संशयो नाम अतिप्रसङ्गात् । अन्यतरस्य तु सन्निकर्षे तस्यैव सत्र प्रतिभासनं भवेत् कथमितरस्य ? असन्निकृष्टस्यापि प्रतिभासने अन्यत्रापि सन्निकर्ष कल्पना वैफल्यात् । सन्निकृष्ट एवान्यतर इतरेणापि रूपेण प्रतिभासते नापरः कचिदनिकृष्ट इति चेत्; न; इतराकारस्य तत्रामा तेन सन्निकर्षानुपपत्तेः । रूपान्तरसन्निकर्षस्तु नेतरप्रतिभास कारणम् अतिप्रसङ्गात् । वन संशयज्ञानस्य सन्निकर्षत्वम् । २० नापि विपर्ययज्ञानस्य i विपरीताकारस्य त्राविद्यमानत्वेन सन्निकर्षानुपपतेः । रूपान्तरसकिच न तत्प्रतिभासनमिति निवेदनात् । तद्रव्यभिचारीत्यपि विरुध्यते विपर्ययज्ञानस्यापि सन्निकर्षवचनेनैव निवर्तनात् तद्वदव्यपदेश्यमित्यपि । ननु च व्यपदेश्यं ज्ञानं शब्दसहायादिन्द्रियसन्निकर्षादेव भवति, तत्कथं तस्य तत्पदेन निवर्तनमिति चेत् १ कोsat शब्दस्वस्थ सहायः ? सत्यमान इति चेत् प्रत्युत्पन्नविवयदर्शनस्य, तद्विपरीतस्य २५ वा १ न तद्विपरीतस्य अदृष्टे विषये 'अयमस्य वाचकः शब्द:' इति सङ्केत्तस्यासम्भवात् स्वमा सम्भव इति चेत् सत्यम् नवासी सन्निकृपः । सत्रिकुण्डे चेयं चिन्वा । भवतु प्रत्युत्पातदर्शन सहाय इति चेत् यमेवं तद्दर्शनस्यैवासौ सहायों न सन्निकर्षस्य, तत एत्र सायश्देश्यज्ञानस्योत्पतेः । तदभावे सत्यपि सन्निकर्षे पूर्वमनुत्पतेः । अथ कर्षमेव सज्जनयति
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३० ' इदमेवम्' इतिं नेत्; इदमेवं
7 मिति किं तहिं विशिष्ट कारणमिति किस इति वा आ०, ब०, प० ।
तदर्शनादेव ।
जनयतु तथापि न सन्निकर्षस्य तत्कारणत्वम् । तदर्शनस्येत्र तत्पुरस्तातया प्रतिवेदनात् । न हि
ता०२ वर्तन -आ०३००३ यः शब्द तद्दर्शनाभावे ।
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पंचमा प्रत्यक्षपस्ताका
सनिहित इत्येव सन्निकर्षोऽपि कारणम् ; समिधानस्याकारणेऽपि सम्भवान् । अत एव वक्ष्यति--
"सनिधानं हि सर्वस्मिन्नव्यापारेऽपि सरसमम्" (न्यायवि० श्लो- ३०१] इति । यदि च, 'इदं रूपम्' इत्याविज्ञानं सन्निकर्षजम् , 'अयं स गवयः' इत्यपि स्यात् , सन्निकृष्ट एव गवये तस्याप्युत्पते। तथा च तद्वयवच्छेदार्थ यनान्तरमास्थानभ्यम् , अन्यथा तस्थ प्रत्यक्षस्वेन 'प्रमाणान्तररवाभावानुषङ्गात् । तदन्दरम् च तदिष्ट भवतापमानाख्यम् । सस्योप, ५ मानवपननिमित्तत्वेन व्यपदेश्यत्यादयपदेश्यपदेनर व्यवच्छेद इति चेत् ; न; व्यपदेशसाफ तमस्य व्यपदेश्यत्वोपगमात् । २ थोपमानस्य व्यपदेशसाधकतमत्वम् ; साधय॑साधकतमश्वेनोपगमात् । अन्यथा तस्यापि 'इदं रूपम्' इत्यादिज्ञानयन शाब्दयोपपत्तेर्न प्रमाणान्तरत्वं भवेत् । प्रमाणावरस्यापि सस्य व्यपदेशात्स्य पदेश्यत्वमिति चेत् । न ; रूपमित्यादिज्ञानस्यापि प्रमाणान्तरस्यैर तथा व्यपदेश्यप्रसङ्गात् । तथा चानुपपन्नमिदं भाज्यम्- १० "नामधेयशब्देन च व्यपदिश्यमा शान्दम्" [न्यायभा० १।१४] इति । व्यपदेशस्यैत्र तत्र साधकतमत्वं खोको ध्यपदिशति-रूपमिदमित्येतदूवमातप्रया प्रतिपनं न तु प्रत्यक्षादित इति तब्यवहारमसिपसेः, सतः शान्दगेष सत्र प्रमाणान्तरमिति चेन ; ; इतरत्रापि तुल्यत्वागययोऽयमित्याप्तवयनान्मया प्रतिपन्न व प्रत्यक्षादित इत्यपि लोकव्यवहारोक्लम्माद । तथापि तस्याशाब्दस्वेनाव्यपदेश्यादेन व्यवच्छेद इत्यास्थातव्यमेव यनान्तरम् । नास्थातव्यम् , १५ सनिकर्षवचनेनैष । तस्य व्यवच्छेदात । न हि तस्य सत्रिकर्षादुत्पत्तिः । गमयदर्शनादेवाप्तवपनसहायातायोस्पोरिति चेत् । सिद्धवहि. 'इदं रूपम्' इत्यादिनानस्यापि तत एव व्यवच्छेदः तस्थापि नीलादिदर्शनादेव शब्दसहायादुत्पतेर्न सन्निकर्यात् । अत एत विश्वरूपेणापि दर्शनमेव पुरस्कृत्य संकेतकरणमुपदर्शितम् -- " यदेतत्पश्यसि तस्य गोशब्दो वाचकः ।"
1 इति । तदर्शनं पुरोधाय शब्दः सङ्केतितः कथम् । तदन्यस्य सहायत्वं सन्निकर्षस्य गातु ॥ १२१३॥ सत्रिकर्षपदेनैव तस्याप्येवं व्यवच्छिदि । इयमरूयपदेश्योक्तिरल्यावा विरुध्यते ॥१२१४॥
मेदमव्यपदेश्यपर्व विशेषणार्थ प्रत्यक्षस्य अपि सूत्तरपपतयनिषेधार्थम् अव्यपदेश्यम् २५ अवक्तव्यम् । कि तत् ? चिरन्तनै कायिकस्त विशेषणत्वेनाभिहितगव्यभिचारीति व्यवसायात्मकमिति च पद्वयम् । सरप्रयोजनस्यान्यात एव भावादिति व्याख्यानदर्शनाम् । स इन्द्रियार्थ. समिकोत्पन्न झानं प्रत्यक्षमित्येव लक्षणमस्तु निर्दोषस्वादिति ; सोऽपि न निर्दोषवादी ; सनिकर्षस्यैवात्ममनसोरसम्भवात् , तस्य १ यथास्थान निषेयिष्यमाणत्वात् । भावेऽपि कथं समिकर्षस्य कादाचित्कत्वम् । न हि नित्यहेतुकस्यानित्यवम् ; हेत्वनित्यत्वादेव सत्कार्या- १५
1 उपरावप्रमाणत्वाभावानुशत । २ "उक होषपर हारार्थपरः कश्चिञ्चैयायिकः थाह"-ता.
टिन म्यपदेश्याव्यपदेश्यम्न कथमीपमित्यर्थः।
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न्यायविनिवाविवरण
[ १५० नित्यत्वोपपत्तेः । निरूपितञ्चैतत्' 'कारणस्य' इत्यादिना । नापीन्द्रियार्थयोः सन्निकर्षः ; प्रमाणाभावात् । व्यवधाने सत्यग्रहणं दृश्यते, सन यदि सन्निकर्षनिरपेक्षमेवेन्द्रियतान व्यवधानेऽपि स्वात् , न चैवम् , अवोऽस्थि सन्निकर्षस्लयोयदभावावधाने सति नार्थशान
मैन्द्रियमित्यनुमानतस्तत्प्रतिपसः कथं प्रमाणाभाव इति चेत् ? कोऽसो सन्निकर्षो नाम यस्य . सतः प्रतिपतिः । प्रातिविशेष इसि पेन् । सस्यापि प्राप्तिमतो व्यतिरेके तेन तयोस्तपरस्तद्विशेषो वक्तव्य ? तदभावे तत्सहायतया प्रत्यक्षसानहेतुत्वानुपपत्तेः । अपरसद्विशेषस्थापि ततो व्यतिरेके सप्त एव पुनरपरतद्विशेषो वक्तव्य इत्यपर्यन्तास्तविशेषरः प्रसध्येरम् । न च तेषां प्रमाणता प्रतिपतिः। अध पर्यन्ते कश्चिदव्यतिरिक्त एवं तद्विषो भवति योग्यतारूपस्त
दयमदोष इति ; तन्न; प्रथमत एवं तदभ्युपगमप्रसङ्गात् । प्रथमतस्वादशस्य तद्विशेषस्व न १. प्रतिपत्तिरिति चेत् पश्चात् कुतः प्रतिपत्तिः प्रागुताल्लिादेवसिचेन्न सस्य प्राययविशेषात् । भवतु तथए प्रमापि तद्विशेष इति चेत् । न त नयनघटयो संयोगः श्रवणशब्दयोर्वा समवायो व्यतिरिः , तदभावे च , तत्समुदायरूपसंथुक्कसमयायादिरपीति न युक्त पोढात्वन्यामर्णनं समिकर्षस्य ।
योन्यले यदि प्रालिकादेव वाहशात ।
रूपक्षप्तेषूथा यपुरभीनां परिकल्पनम् ।। १२१५ ॥ सत इन्द्रिचेत्यायपि विरुध्यते ।
नमा विरुभ्यताम् , तथापि ज्ञानमिति विशेष्य पद विरुध्यते: विनापि तेन शानस्यैव प्रसिपः, तदन्यस्येन्द्रियार्थसनिकदिनुत्पतेः। सुस्वादिरपि तत्त एवोत्पश्चत इति चेत् ।
म; तस्यापि ज्ञानवान् । विषयपरिच्छित्तिरूपमेष मानम् "अर्थग्रहणं बुद्धिः" [न्यायभा० ३। २० २१४६] इति वयनाल । न च सुखादितत्परिच्छिसिरूषा, आहादादिरूपतयैव प्रति
भासनादिति चेत; न; अज्ञानस्व स्वतःप्रतिभासाभाषप्रसङ्गात् । प्रतिभासोऽपि तस्व परत एष बटादिवत् , सुहादिः प्रतिभालते' इति प्रतिभासलामानाधिकरण्यं तु मतिमासाभेदोपचारादेव 'पदा प्रतिभासते' इतिवत् न वस्तुतः प्रतिभासरूपत्वादिति चेत् । किसिवानी स्व प्रस्तुसपम् ? आहानादित्वमिति पेत् ; न ; सस्य सामान्यरूपस्वात् । ल: सर्प एवं सुखादिरपीति चेन् । यदि मुख्यतः ; न तर्हि सस्य सत्सनिक दुत्पतिः नित्यत्वात । उपचारतश्चेत् । कथं वस्तुतस्तस्य तद्रूपत्त्रम् ! उपचरितस्य षस्तुसयाअपपतः । अतश्योपचार: ? सम्बन्धान ; संम्भवो हि सुखादिशहादादित्येन साप्यतयोपमलयत इति चेद; न; स्वयमनिर्वारितासाधारणरूपत्वे सम्बन्धस्यैव दुरवसमत्वात् । न हि
श्लो.१०६ । “वरणस्वाक्ष ते कार्यस्योपरमः कथम्" -साटि-२ “ग व भ्यरहिताथोंपलसिधरस्ति तस्मान प्राप्यकारीति ।"-व्यायवा पृ०३५ । म्यारकुमु. १०१८ टि. १३ । पू... दि०३ ।
"इन्द्रियार्यसमिकरोस्पमित्यादि प्रागुवं सूत्रम्"-हि। वे सुखादेः । ५ जारयात्मकत्वात् । सम्बन्धी हि सुखादेश -ता- 1 0 तपस्या आ. द. १० ।
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प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव
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फिश्चिदित्यम्भावानवारितं नन्दिरसम्बद्धमिति शक्यमध्यवसातुम । तमोपचारतोऽपि तस्य तद्रूपत्वमिति कथमिन्द्रिप्सन्निहितादर्शग्योमकुसुमस्थेवोत्पत्तिः । भवन्ती' चेयं योऽनगन्तव्य
सावत् स्वर एत्रभयोधरूपत्वात् । नान्यसोऽपि सुखादिसत्रिकर्षात संयुकसमक्षायादुत्पमास; तन सुखादेरेव महात् । नाप्यर्थसलिकन संयोगादेरुपक्षाचेन नात्यर्थस्यैव धन्दमदहनादे परिज्ञानात् । न भोमययोरेकज्ञानाविषयवे सतत्कार्यकारणभाको निर्णयविषयमा नेतुं पार्यते । ५ पार्यत एव सदुमयज्ञानजन्मना सङ्कलनेनेति चेत् । तस्य प्रत्यक्ष लविन्द्रियं वक्तव्यं यतस्त. स्थोपतिः ? मन एवेति चत. ; कस्तस्यार्थेन सनिक ? संयुक्तसंयोगादिति चेत् । न; तस्य समिनियम व्यवस्थापयता विश्वरूपेण प्रतिक्षेपाम् । नयनादिकमेवेति चेस् : म; नस्य सुखविपयत्वासम्भवास, सुखावटादिवत् ग्रंसिपअन्तरप्रत्यक्षविषयस्थापक सन्न तस्प्रत्यक्षम 4. नारयनुमानम ; लिङ्गभावान् । सदाभाविव लिङ्गमिति चेत् । न तस्यापि १० सुस्खादिवहिरर्थयोरेकज्ञानाविषयस्य दुरवगमत्यादिस्युशन्यात् । न चैतदुपमानं शाब्द वा सारश्यशश्यामपेक्षणात । न चाप्रमाणतात दगमः । तन तस्य तस्मादुत्पतिः, इत्ययुक्त अव्यवच्छेदाय झानमहणम । तन्नाययवशो विचारमाणमिदमविरुखमः । नापि समुदितम् । असम्भवदोमन । न हि परिकल्पितमस्यसंवेदनं ज्ञान सम्भवनि; "विमुख" इत्यादिनी तस्य [ निराकरमान् ] ,
भव्यापकत्वाच, अश्यापकं ही लक्षणं सुखादिप्रत्यक्षेण । वपीन्द्रियार्थसग्निकर्योत्पनं प्रत्यक्षत्वात नीलादिप्रत्यक्षवत् , नतः कथमव्याप्तिरिति चेत् ! उध्यसेतो अदि सुख्शदिव्यतिरिक्त, र सत्येन्द्रियसन्निकर्षः, सदभावे तस्यायभावात् । तद्भावेऽपि न किलियन , तस्य प्रत्यक्षार्थत्यान, तस्य च नित्वात् । व्यतिरिक्तश्शेत् । न; प्रमाणाभावात् । 'सुरवाहिस्तस्प्रत्यक्षात व्यतिरिक्त तद्विषयवान कलशादिवत्' इत्यनुमानं २० प्रमाणमिसि घेत म; 'अनुष्णो दहनो द्रव्यत्यासव' इत्यस्यापि प्रमाणत्वापचे पक्षस्योbणवत्याने आपना तोच झालातिपातापदिष्टरवास नेति चेत् ; प्रकृतस्यापि न भवेत सुखादेस्सद्व्यतिरेकस्यापि तत एवाधभासनात् । सब्यतिरिकश्च सतः पूर्व यशाननुभव एवास्ते ततोऽपि पूर्व तथैवास्त इति नित्य एवायमतः कथं चन्दनदहनादेहत्पस ? यदि पुनस्तदापि वस्थानुभवो न तर्हि तस्य सस्मादिन्द्रिय सन्निहितादुत्पतिः सहब नेनोत्पत्तेरिति कथं न लक्ष. २५ मस्याज्याप्ति
तथा पचानेनापि, न हि चक्षुषोऽपि पटादिसन्निकर्षः प्रमाणावात् । चक्षुर्घटादिकं प्राप्त प्रकाशयति बालोन्द्रियावान स्वगादिषन , 'इस्यनुमानमत्र प्रमाणमिति चेत् । न
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1 भवति वैये आ०,१०,५०१२ प्रसिपस्यन्तर-भा०, २०, २० १ ९ सुम्सावित्रत्यक्षात । ५ मभिकर्मभावे । ६ इन्द्रियनिकभावे 'मुखादिप्रत्यक्षसद्भावेऽपि। - समिकण। ८ प्रत्यक्षात एव । १ "नःोग्ने प्राप्धार्थ परिचितन्दाते वायोटियवारयमिन्द्रियपत् । न्यायवा वापृ००३ ज्यापमु.पु ७५ दि० २१
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पायविनिक्षयविवरणे
( १९७०
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airat के मशकादेरप्रकाशनप्रसङ्गात् । न हि तस्य चक्षुषा प्राप्ति, अविद्यमानत्वाव्योमकुसुमति | प्राप्त एवाक्षिपदमादिस्तेने तथा प्रकाश्यत इति चेत्; न; तत्रैव तस्य तत्प्रकाशनायः नदूरपुरोवर्तिन्याकाशे । न हि चन्द्रमसः प्रामादन्यत्र सद्वित्व प्रकाशनम् । यदि मादेः प्राप्तिर्भवतु तस्य प्रकाशनं कथं केा ? मोऽपि सम्य स्वभाव इति चेत ; ५ कथं तत्प्रकाशस्य मिथ्यात्वम् ? अविद्यमानत्वादिति चेत् कथमविद्यमानस्तत्स्वभावो व्याचाछात् ? अविद्यमानस्याप्राप्तस्यापि प्रकाशनमिति चेत् विद्यमानस्यापि स्यारविशेषात् । विद्यमानं सर्वमपि किन प्रकाश्यत इति चेत् ? इतरपि किन ? योग्यता नियमादिन्द्रियस्येति समानमन्यत्रापि । तन्न तत्व पटादिना सन्निकर्षः संयोगः तत एंव न तेन रूपादिना संयुसमवायो न रूपत्वादिना संयुक्तसमवेतसमवायो न समवायाभाषा सम्वद्धविशेष प्रभाव १० इति सुलिष्ट चक्षुर्ज्ञानेनाव्यापकत्वं लक्षणस्य +
यदपि च नेदं प्रत्यक्षस्य रक्षणम, अपि तु तत्फलस्य प्रत्यक्षं प्रत्यक्षफलमिति व्याख्यानादिति तदपि न सम्य मतम् वत्राप्युक्तदोषाणाममपवर्तनासू । कुतश्चेदमेव न प्रत्य क्षम ? विषयाधिगमस्यानुपजननादिति चेत न अव्यतिरिक्तस्योपजननात् । अध्यतिरिकं हेतुरेव फलमेष वा स्यानोभयमिति चेत्; न; पूर्वापरतथा व्यतिरेकस्यापि भावास पौ १५ पर्येणापि कथमेकस्य व्यमिति वेत ? अपर्यापर्येण कथम् ? तथापि माभूदिति चेत्; नेदानीं सामान्यविशेषां निर्णयेवं निवारीवरात्मक विपर्ययज्ञानं वेति किं वव्यवच्छेदाय व्यवसायात्मकमव्यभिचारीतिवचनेन ? योगपद्येन रूप्यस्याविरोधे क्रमेण किमपराद्धं यतस्तेनापि सविरुद्ध न भवेत् ? क्षणिकत्वान ज्ञानस्येति चेत ; न; अहमेव नीलं रक्ष पीतं पश्यामीत्यनुगतरूपस्यापि तस्य सङ्कलनात् । आत्मन एवेदं सङ्कलनं न ज्ञानस्येति चेत्; न; ज्ञानादन्यस्य तस्य तंत्रानवभासनात् व्यपदेश. वत्, अन्यथा व्यपदेशस्यापि तत्र सर्वत्राभावसनमिति निष्फलमव्यपदेश्यमिति विशेषणमसम्भवात् । अपरिज्ञातशब्दार्थ सम्बन्धस्याच्यपदेश्यमेव प्रत्यक्षमिति चेत्; अगृहीतमवस्स
स्याम्यतिरितात्मविषयमेव प्रकृतमुपसङ्कलनमिति समानमुत्पश्यामः । यदि तदेवानुगमरूपं कन्दन्द्रियव्यापारेणेति चेत् १ न तेन तदात्मन एव विषयविशेषाधिगमस्य तत्रोपस्था२५ पनात् । तमेान्यत: "फलमेव प्रत्यक्षस्य प्रत्यक्षत्वस्यापि भावात् । दिदानीं प्रत्यक्षम् तत्पद्यते तदिति चेत् तदपि यदीशम् नेदं तत्पले परिकल्पयितव्यम् उक्तन्यायेन प्रत्यक्षत्वतस्यैव फरवस्याप्युपयसः । भवतु अभ्याद्दशमप्यचेतनमिन्द्रियालोकादि, चेतनमपि
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२०
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१ चक्षुषा २ केशादिरूपेण । ३ पक्ष्मादः । ब०, प०६ "फलविशेषणपक्षमेव सम्मन्यामहे । परिहरिष्यामः यत एवं विशेषणविशिष्शानात्र्यं
४ एक लद्र- सा० । ५ सम्बन्धविशेषणभाषेनेखि आ०, तन व यधिकरणं चोदितं सदसःशब्दाध्याहारेण भर्यात तस्प्ररक्षमिति स्यार्थः "यायमं० पृ० ६१ । १०८७ यौगप है-आ०, ब०, प० । ८ आत्मनः। ९ सकूल १० फलम मेव आ०, ब०, प० । ११ज्ञामम् । १२ सनात्मकम् ।
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प्रथमा प्रत्याशप्रस्तावा संशयस्मरणादिकमिति चेत् ; है; अनोपचारतो मुख्यतश्च प्रामाण्यस्पैष प्रतिक्षिणवान | न पाप्रमाणे प्रत्यहं तस्य तद्विशेषत्वात् । तन्न नैयायिकस्त्र प्रत्यक्षरूषणमुपपन्नम् ।
स्पुनरिवं मीमांसमस्य-"सरसम्प्रयोगे पुरुषस्थेन्द्रियाणां वृद्धिजन्म प्रत्यक्षम् ।" [जै० सू० ११९१४] इसि; सप्यतेन प्रत्युक्तम् ; सम्प्रयोगस्य संस्मिकार्थत्वे नैयायिकर दोषार ! अणे समाना-प्रायला नक्षुरिन्द्रियस्वासु स्वरादिवदिति । तत्र किमिदं ५ चक्षुर्नाम ? गोलक एवेति चेत; सत्राप्राप्यचारित्वस्यैव प्रतीतः । तनिर्गतो रश्मिप्रसर इति चेत; तस्यापि किमिदं प्राप्यकारित्वम् ? प्राय समिपत्य विषयं दक्षानमननमित्ति चेन् । क सनननम् ! आत्मनीति वेतन सत्रापि समिकर्षगते तदप्रतीतः । न हि विषयसन्निकर्षसैभिहित आत्मनि ज्ञानमिति कस्यचिदपि प्रतिपत्तिः । तथापि कल्पनार्य बापित्वकल्पनमपि स्याम , अविशेषात् । ममास्मिन्पों दूरमहणम् , भातुः सन्निहितारखेन तद. १० पेक्षया तदसम्भवात् । असनिहिताविधानाsपेक्षया तत्सम्भव इति चेत् ; किमेतदधिष्ठानम् ? गोलफरूपं शरीरमिति स; स्यापरिज्ञानात् । यदि हि तदपि परिक्षायेत भवेदितो दूर. सगरमिति प्रतिपसि न्यथा । न च तस्यै नगरमानेन परिज्ञानम , असन्निपात् । असनि. कृष्टस्यापि प्रहणे नगरेऽपि सन्निकर्षयध्योपनिपासात् । न च यावन्म लेने वानं साक्तद घेक्षया नगरवूरस्मस्य ततः पतिपत्तिः । नम अधिष्ठानापेक्षयापि सम्मष इत्ययुक्तमुकम्--- १५ "विच्छिन्न इति धुद्धिा स्यादधिष्ठानमपेक्ष्य च।"
(मी इलो० १३१४ श्लो० ५७ ] इति । भवतु शरीरगत एवात्मनि तजननम् , दूरादिप्रतिपत्तेरपि सदपेक्षथैव भावादिति यम् ; कथामिन्द्रियाप्रमार्गसग्निकर्षाद् दूरवर्तिनस्तन्मूलमले सत्र माननम् इन्द्रियान्वरेष्येषमदर्शनात् ! तास्यापि पपि कल्पनाया पराप्यकारिस्वमेष कल्पयितव्यम् । सन २० रश्मिप्रसरेण बहिवयपरनाम्ना प्रयोजनम् , सत्येव प्राध्यकासिवे वत्साफल्यात् ।
कथन तस्य साधम् ? कथा न स्यात् ? गोलकास्थैव वस्त्वाम् । "सवपि पक्षु. रुपकाराय सय चिकित्साविधानात् । न हि सदुपकाण्यान्यत्र तनिधानमुपपत्रम् ; अतिप्रसङ्गात् । अनेकान्तिको हेतु:-सदर्थम्य पदयोरपि सद्विधानस्योपलम्भादिति चेत् ;न पादमार्गेण तद्तस्यैव वारा आपि गोलकमार्गेण रशिप्रसरगतस्यैव तस्य २५ तार्थमिति चेन् ; न ; अजमाविरूपस्य तद्विधानस्य बहिःप्रसरतोऽनुपळभात् । अन्त:असतो पुवाविरूपस्थापि तद्विधामस्यानुपलम्भ एवेति चेत्, सत्यम् । स तु शरीरावर्भािगेन व्यवधानात् । न चैवमत्र केनचिद् व्यवधानम् , अत उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्याभावायेषनुस्तम्भो
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- "सम्यगर्थे च संशब्दो दुष्अयोगनिवारणः । प्रयोग इन्त्रियामा व्यापारोऽधु पथ्यते " मी0ो.
11 इ. ३४२"तयोच्च शयकारित्यमिन्दियत्वात् त्वगादिवत् ।" मीलो. att । संनिहितात्मनि आय, व, प. ४ आत्मनो व्यापकले। ५ गोलकस्य । नगरमानेन । -मापस , २०, 4.14 रश्मिरूपस्य । ९ पशुस्वम् प्रा., 40,04.मोनकमपि ।
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म्यापिनिश्वयविवरणे
१२१७१ ]
read गोकष चक्षुः तथ शरीर पर वृतिमत् न पहिरिति प्रतिषिद्धमेतत्
"चित्तस्य शरीराच वहिर्वृतिं प्रवक्षते । चिकित्सादिप्रयोगश्च योऽधिष्ठाने प्रयुज्यते ॥ सोsपि तस्यैव संस्कार आधेयस्योपकारकः । तद्देशश्चापि संस्कारः सर्वव्याप्त्यर्थं इष्यते ॥ चक्षुराद्युपकारश्च पादादावपि दश्यते । तस्माकान्ततः शक्यं संस्कारातत्र वर्तनम् ॥” ।
I
[ भी० श्लो० १|१|४| श्लो०४४-४६ ] इति । यत्पुनः पक्षान्तरंम् इन्द्रियाणामर्थे व्यापारी रात्रगुण तयाऽवस्थानं वा कार्यावसेया १० शक्ति सम्प्रयोग इति अपि न सारम्; सत्यार्थस्य स्वप्नज्ञानस्य सदभावेऽपि भावेन क्षण. स्वाय्याप्तिशेषात् । न हि तत्र सम्प्रयोगः; पिण्डीपिहितलोचनस्यापि सद्भावात् । अस्येव शक्तिलक्षण इति चेत्; न; तस्यापि विस्फारित एव अक्षणिक स ( अंणि स ) वासून पिहिते अतिप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षमेव न भवतीति त् किमिदानीं भवेन्नाम प्रमाणं सत्यार्थस्वात् ! नानुमानाद्यन्यतमम्; सस्तक्षणानन्ययात् । सप्तमन्तु प्रमाणमनिमापते । १५ प्रत्यक्षमेव सदभ्युपगन्तव्य निर्वावस्पष्टनिमासत्वात् जामस्प्रत्यश्वत्, लोकप्रसिद्धत्वाद | वन द्विद्यमानोपलम्भनमेव अविद्यमानोपस्थम्भनस्यापि तस्य बहुलमुपलम्भात् । तत्कथं तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वम्, यतस्तत्रे चोदनेष प्रमाणमवसीयते १ नवं लोक एवाविश्वमानोपलम्भनस्था सत्सम्प्रयोगजस्य च तत्प्रत्यक्षस्य सम्भये योगित्यक्षमपि साहशमैर्थासि (मर्थात् सि ) यती बद्रमेतम
२०
५४२
"न लोकव्यतिरिक्त हि प्रत्यक्षं योगिनामपि । प्रत्यक्षत्वेन तस्यापि विद्यमानोपलम्भनम् ॥ सत्सम्प्रयोगजत्वञ्चाऽप्यर्वाषप्रत्यक्षवद् भवेत् ॥॥"
[ भी० श्लो० १३१३ ४, श्लो० २८.२९] इति चेत् सत्यम् अत्यथमपि परस्य शेषः । तम्नैकमपि प्रत्यक्षं शक्यलक्षणम् । पुनरपि नैयायिकस्य विरुद्धं दर्शयति
नित्यः सर्वगतो ज्ञः सन् कस्यचित्समययतः ॥ १७० ॥ ज्ञाता द्रव्यादिकांस्य [नेश्वरज्ञानसंग्रहः । ] इति
" "यदि पार्जवस्थानं सम्प्रयोगोऽथ व क्लो० १ ११४, को० ४९२ ने ६-लम्भस्मास ध्या०, ब०, प० । ७ - सि+. त्या० वा०९
योग्यताक्षणी धान्यः संयोगः कार्यशक्तिः " ० भावात् न वहिदेखि प्रा० ० ० - मर्यो सि० ब०, प० । मर्यो सिसा कस्यापैति आ०, ब०, प० ।
प्रत्यक्षम् ५। वासमापत्रे
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ust
प्रथमा प्रत्यक्षप्रस्ताव नित्यानाधेयादिस्वभाव आत्मा सन् विधमानो विरुध्यत इति सम्बन्धः । तस्याकिटिचस्करोन ज्योमकुममादविशेषादिति प्रतिपादनात । अत एव सर्वगतः सर्वभूतैः सम्बद्ध इति । झो झाति ६ विरुभ्यते अससस्तदुभयाऽसम्भवास् । कुतश्च तस्य सत्यम् ! स्वत एवेति चेत् न ज्ञानकल्पनावैफल्यात । ज्ञानसम्वा धादिति चेत् । न ; तत्सम्बन्धादपि ज्ञानवामित्येव स्यात न इ इति । हशब्दादपि तदुपरवं प्रतीयम इति चेत् ; ; साप्यस्य प्रतीते। अन्यथा न किञ्चित्तता प्रसीयेस । साबध्यमपि तत्सम्बन्धादेव प्रतीयत इति चेन् ; कुसो ने देवदत्ते दाण्डरूप्यप्रतिपत्ति: ? समायस्यैव संपतिपसिहेतुत्वात न संयोगस्येति चेत् ; मिध्यव सहि सप्रतिपत्तिः, असदूपे तान्प्यमहणात् । तथा च कथं वतः आत्मतत्वप्रसिपधिः ? आत्मन्यमिथ्यात्यादिति चेत् किं पुनरेकमेव ज्ञान सिध्या नामिथ्या व ? तथा चेद ; न ; क्रमेणाप्यपरापरस्वभावस्य तरमाऽऽपत्तेः। एव तत्रैवान्वितरूपे १० 'मातृप्रयोजनपरिनिश्वानात व्यर्थमात्मान्तरपरिकल्पनम् विभिन्नज्ञानकरूपमं च स्वत एव शारयान् । विभिन्नशानसमवायाकच ज्ञत्वे गगनादावपि प्रसङ्गः तत्रापि तदविशेषात । सन्म समबाणेन किनिधन ! नापि ततो ज्ञत्वमात्मनस्तवाह-कस्यचित् अर्थान्तरज्ञानस्य समया. यता इति विरुभ्यते , स्वत श्वात्मनो बस्न तयात् । ततश्च 'द्रव्याविकरयाधस्य ज्ञाता इत्यपि विरुध्यतेऽतिप्रसलान् । ततो न तामशं विज्ञान प्रत्यक्ष तत्फलं १५ दोपपत्रमिति भावः ।
अध्यापक प्रत्यक्षलक्षणं परस्य,सेनेश्वरज्ञानस्वासङ्ग्रहादिस्याह- 'नेश्वरज्ञानसंग्रहः' इति हि सस्थ निस्यम्य इन्द्रिमार्थसनिकर्पजवं विरोधात् । अध तन्न प्रत्यक्षमपि, किमिदानी प्रमाणातरमिति चेत् ;न; तस्यापि नित्यस्यासाधकतमत्वात् । मापि तत् फलम् अनुत्पत्तिमरवान् । स्वविषयाव्यभिधारात्म केलं प्रमाणमेवेति चेत् ; न तस्य प्रत्यक्षादि- २. स्वानन्तर्भावे प्रमाणचतुष्टयनियमध्यापसे । अन्तर्भावन प्रत्यक्ष एस नानुमानादी ; अस्मदापविशेषापत्तेः।
भवतु तदप्यनित्यमेवेति केचित् । सम, तस्यापि स्वविषयस्य तत्सन्निकर्षजत्वाभावात् । अस्वविषये सर्व विषयवायोगान ! अन्यस्य तद्विषurasनवस्थापत्तिः, अन्यस्यापि तदन्यविषयस्यात् । अथ एफेन सानिरिकस्य सर्वस्य अन्येन मा सस्य ग्रहणादयमदोषो हानय- २५ भाषादीश्वरस्थति पेत् । न ; एवमपि स्वसंवेदनस्थावश्यम्भावात् । न हि तदेकं झालं स्वरूपमप्रतियत् तस्यतिरिक्सन्तिरगतस्वविषयका प्रतिपत्तुमर्हति, विषयमानस्य स्वविषयाहया प्रसिपतेः स्वप्रतिपत्तिनान्तरीयकत्वात् । तन्न शानद्वयकल्पनमर्थक्त् । प्रतिक्षिप्तश्चार्य पक्षः प्रागिति नेह सम्यते । ततो नानियस्यापि तानस्य सेन संग्रह इति लक्षणान्तरमेव तत्र
साप्यप्रतिपत्ति । "ज्ञानाद्विको मामियो मिहाभिः कयधन | झार्म पूर्वापराभूत सोऽयमात्मेति कौर्तितः "-सा-दि०। ३ वरनरप । १ ईश्वरज्ञानम् । ५-मामाविशे-आ.,०, १०,०, 1.ति मोन् मा०,०प० । ७ वनस्पगोचरस्थ : मानस्वरूपविषयवे ।
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न्यायविमिश्रयविक्र
[११.१०२
व्यमिति मन्यते । भवतापि कस्मादसीन्द्रियप्रत्यक्षस्य लक्षणान्तरं नोच्यत इति चेत् ?
時間一
२०
५४४
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लक्षणं 'स्पष्टं प्रत्यक्षम्' इत्येतत् समं सदृशं त्रिष्वपि प्रत्यक्षेषु कस्ता हन्द्रियादिप्रत्यक्षा दतीन्द्रियप्रत्यक्षस्य विशेष इति चेत् ? एतावान् विशेषोऽशेषगोचरम् । निःशेष द्रव्यपर्यायपरिष्दरूपम् अतीन्द्रियप्रत्यक्षम् । क्रमेण तद्गोचरमितरदपि प्रत्यक्षमिति चेत्, आह'अक्रमम्' इति । इन्द्रियायत के कथस्तिरवत्तद्व्यक्रमं तनोचरमिति चेत् ? आह-करणातीतम् । करणानीन्द्रियाण्यतीतमतिक्रान्तं निरपेक्षत्वात् तस्यैव समर्थनम् 'अक १० लक्ष्म्' इति । अविद्यमानज्ञानावरणादिकल्मषमित्यर्थः । तथा हि-यज्ञानं स्वविषये निरावरणं वक्रममकरणञ्च तं प्रत्येति यथा सत्यस्वप्नज्ञानम्, तथा चातीन्द्रियप्रत्यक्षम् । निरावरण तस्योत्तरत्र समर्थनात् । अनावरणमपि faranterns as areवभाव्यादस्मादिज्ञानवदिति चेत्; न; अस्मदाविज्ञानस्याप्याचरणवशादेव असर्वार्थत्वं न स्वाभाव्यादिति निरूपप्यास् । तत्कषां प्रत्यक्षम् ? इत्याह- महीयसीम् अर्हतामिति । भवतु तर्हि रगतस्यैव १५ सय सहिनस्य तस्वोपदेशस्य भावादिति चेत्; मध्यमिदं यदि तस्वोपदेश एवं सत्र भवेसन चैवम् । अत एवाह
लक्षणं सममेतावान् विशेषोऽशेष गोचरम् ।
अकर्म करणातीतमकरकुं महीयसाम् ॥ १७१ ॥ इति ।
शाल्वा विज्ञप्तिमात्रं परमपि च वहिर्भास भावप्रवादं ahamaargerपि सकलं नेति सत्यं प्रपेदे । नशाना तस्य तस्मिं च फलमपरं ज्ञायते नापि किशिदित्यश्लील प्रमत्तः प्रलपति अमीराकुलं व्याकुलातः ॥ १७२॥ इति ।
झास्वेत्यनन्तरम् अपि चेत्येतद् द्रष्टव्यम्। तदयमर्थो ज्ञात्वापि च प्रतिपद्यापि च । किम् ? विज्ञप्तिरेव न बहिरर्थं इति । यदि वा सैव सकलविकल्पमाविका न भेदो नाम कश्विदिति तन्मात्रम् । कीदृशम् ? परं प्रकृष्टं तस्यैव निःश्रेयसत्वेनोपगमात् । किं चकार ? हिर्भाभावो हिरर्थः तस्यं प्रवादं तवतित्वोपदेशं चक्रे चकार । कुतः ? लोका२५ नुरोधात् विनेयाभिरुषेः । ननु यदि वहिर्भावं न प्रतिपद्यते कधं तत्प्रवादकरणं सुगुप्तवत् ? कथं वा विनेयानुरोधः १ सस्यापि विज्ञप्तिवहिर्भूतत्येन तेनाप्रतिस्सेरिति चेत्; न; एवमवि परस्यैव दोषात् । यदि frerana ज्ञातं देवोपदेष्टव्यं सत्यरपात् नापरं विपर्ययात् । संवृत्या वदपि स्वमेवेति चेत् न विकल्पस्यैव संवृत्तित्वात् । तस्य चैकान्सवारे निषिद्धत्वात् । राम्न संवृतिसत्योपायः उत्त्वोपदेश | सुग्रतस्योपपत्र इवि वे
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सां महतामि-आ०, प०, प० १ २ विज्ञप्तिवहिर्भूतमपि । ३ वादिनि आ०, २०१०
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________________ 11172] प्रथमः प्रत्यक्षप्रस्ताव सत्यम् / अत एवास्य प्राम्यमाथित्यमाह-इति उतम्याथात् प्रलति बहुलस्पति / का? व्याकुलासः इति कसैल्यशिविकल: आता तथागता, वदिशामस्पेनोपगमाप्त / कथं प्रलपति इति 1 अश्लील प्राम्यम् / कुतस्तस्य क्याफुलत्वम् ? जाधीर्यतः / तस्थमपि कुतः 1 मा दुर्गसनामदिरापरवक्षो यत इति / सई विज्ञहिमाश्रमेव तेन तस्वमुपदिष्टमस्तु अद्वयं यानमुचपम्" इति वस्मादिति चेन् ; न ; तस्यापि चित्रैकरूपत्वे अनेकान्तवावप्रत्युजोवनात् / परस्परम्यावृत्तानेकनीलादिरूपत्ये च सन्तानभेदानिराकरणात ! न संत्राप्यसौ तिष्ठति अपि तु पुनरपि उसदोषादूमपि सकलं वेतनमन्यह तवं नेति प्रपेदे पन्नान् / तदेव तहि तस्वं तेनोपविश्यतामिति चेत् ; म ; तन्त्रात्यश्लीलमित्यादेोपात् / फुत एतत् ? म ज्ञाता सस्य 1. सामावस्य यत इति / स हि सर्वोभावे तज्ज्ञानमपि विरोधात् / तत एबम तत्फलस्यापि परिक्षानम् , इत्याइ-तस्मिन् सर्वोभावे न च नैप कर तत्साध्या अपरम् अर्थान्तरम अन्यस्य सस्कलस्वानुपपत्ते, ज्ञायते ज्ञानस्यैव तद्वा अनुपपत्ते / तन्म सदभावतत्वमपि शक्योपदेशं न च फलमपि तस्य सम्भवतीत्याह-नापि किञ्चित् / फलमिति सम्बन्धः / दुःखोपशमनादेसद्वैपये खत एवाभावादिति देवस्याभिशयः / प्रमया माशासम्मुनिपनेः श्रीहेमसेनादपि व्यक्तं मन्मनसो पदीयहदयं विदयापालतः / तस्य न्यायविनिश्चयस्थ विवृतः प्रस्ताव बाथो मया प्रत्यक्षप्रसिपत्ये बितरतु श्रेयांसि भूयाति नः / इत्याचार्यस्याद्वावविद्यापतिविरपिते न्यायविनिश्चय कारिकाविवरणे प्रत्यक्षप्रस्तावः प्रथमः / -मुत्तरम् आ०,५०,०। "तथा चौक्तम्-अयं शानमसमम्"-1. पासिकात 11विशतिमात्रेऽपि / 3 सभाया।