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प्रस्तावना
'पग्विामिल जिनालग नाम का मनिर निर्माण कराया और उसके पूजन तथा मुनियों के आहार-चाम के लिये कुछ भूमिका दान किया ।
हम सब बातों से साफ समय में भाता है कि वादिराज की गुरुशिष्पपरम्परा मजाधीशों को परम्परा थी, जिसमें मान लिया भी जाता । और दिया मी कसा था। वे स्वयं जैनन्दिर बनवाने थे, उनका बीणोद्वार कराते थे और अन्य मुनियों के आहार दान की भी व्यवस्था करते थे। उनका 'भष्पसहाय विशेषण भी इसी दानरूव सहायता को ओर संकेत करता है। इसके सिवान वे राजाभों के चारों में उपस्थित होते थे और नहाँ वाद-विवाद करके वादियों पर विजय प्राप्त करते थे।
देवसेनपुरि के दर्शनसार के अनुसार प्राविसंघ के मुनि कच्छ, खेत, धमनि (मंदिर) और वामिज्य फरके जीविका करते थे और भीतल जल से स्वान करते थे। मन्दिर बनाने की बात तो ऊपर आ चुकी है, रही खेली-वारी, सो जब सामोरी थी तब यह होती ही होगी और आनुपतिक रूप से शाणिज्य भी। इस लिये शायद दर्शनार में द्राविसंघ को जैनाभास कहा गया है।
कुष्ठ रोग की कथा-वाधिराजसूर के विषय में एक चमत्कारिणी कथा प्रचलित है कि उन्हें कुष्ठरोग हो गया था। एक बार राजा के प्रचार में इसकी चर्चा हुई तो उनके एक अमन्य भर ने अपने गुरु के अपवाद के भय से चल ही कह दिया कि उन्हें कोई रोक नहीं है। इसपर बहस छिद गई और आखिर राजा ने कहा कि मैं स्वयं इसकी जाँच करूँगर भा घबताश हुआ गुरुजी के पास गस और रोला 'मेरी का अब आपके ही हाथ है, मैं हो कह आया । इसपर गुरुजी ने दिलासा दी और कहा, 'धर्म के प्रसाद से सब ठीक होगा, चिन्ता मत करी । इसके बाद उन्होंने पीमावस्तोत्र की रचना की और उसके प्रभाव से उनका कुष्प दूर हो गया।
एकोमान की कीर्ति भहारककृत संस्कृत शा में यह पूरी फवा तो नहीं दी है परन्तु श्लोक की टीका करते हुए लिखा है कि "मेरे अन्तःकरण में प्रतिक्षित है
कुष्टरीमाकान्त पारीर यदि सुवर्ण हो जाय तो भया आश्चर्य है?"अांत पन्द्रकी तिची उक्त कथा से परिधिम थे। परन्तु जहाँ तक हम जानते हैं, यह कया बहुर रानी नहीं है और उन लोगों द्वारा नहीं गई है जोसे चमकारों से ही आचार्यों और भद्दारकों को प्रतिष्ठा का माप किया करते थे। अमावस के दिन गनो के चन्द्रमा का उदय कर देना, चवालीस या अड़तालीस वैदियों को तोड़कर कैद में से बाहर निकल आना, साँप के काटे हुन पुत्र का जीवित हो जाना आदि, इस तरह की और भी अनेक कारपूर्ण कथायें पिछले भट्टारकों की गन्दी हुई प्रकलित है जो असंभव और अप्राकृतिक सो है ही, जैनमुनियों के करत्र को और उनके वास्तविक महत्व को भी मीचे गिरती हैं।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि सच्चे मुनि अपने भक के भी मिपाभाषण का समर्थन नहीं करते और न अपने रोग को छुपाने की कोशिश करसे है।
अदि यह घटना सत्य होती तो भरिलपेण प्रशस्ति (पा० सं०1०५०) तथा दूसरे शिलालेखों में जिनमें पादिराजसूरि की बेहद प्रशंसा की गई है, इसका उल्लेख अषत्र्य होता। परन्तु जान पड़ता है तब तक इस कथा का आविर्भाव ही न हुभा चा।
इसके सिवाय एकीभाव के जिस चौथे पर कर आश्रय लेकर यह क्या गदी गई है, उसमें ऐसी कोई आत ही नहीं है जिससे उस घटना की कहाना की जाय। उसमें कहा है कि अय स्वर्ग सोक से माता के गर्भ में आने के पहले ही आपने पृथ्वीमंडल को सुवर्णनद कर दिया था, तभयान के द्वारा मेरे अन्तर में प्रवेश करके यदि आ मेरे इस शरीर को सुवर्णमय कर दें तो कोई आश्चर्य नहीं है। यह एक भक्त कति की सुन्दर और अनूटी जस्प्रेक्षा है, जिसमें वह अपने को कौ की मलिनता से रहित सुवर्ण या उजव मामा ।
-- --- -- ----- १-हेजिन, मम स्थान्तरोई ममान्त:करणमन्दिर त्वं प्रतियः सर यत इदं मदीयं कुष्टरोगाकाल वपुः शरीर सुमीकरोमि तस्कि चित्र तरिकमाय न किमपि नायर्यमित्यर्थः।