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________________ २.३ संयोग-वियोगों के आधार से ग्रह विश्व जगत ( गच्छति जगत् अर्थात् माना रूपों का प्राप्त होना) बनता रहता है। मस्ताना न t यह विश्व में जितने सद हैं उनमें से कोन एक सकता है। अनन्त जड़ परमाणु अन आत्माएँ, एक धर्मद्रव्य, एक एक आकाश और इतने सद है। इनमें धर्म अधर्म आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूप में सदा विद्यमान रहते हैं उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि ये स्थ नित्य हैं किन्तु इनका प्रति जो परिणमन होता है। वह स्वाभाविक परिणमन ही होता है। आत्मा और पुट्ट ये दो द्रव्य एक घूसरे को प्रभावित करते हैं। जिस समय आरमा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने प्रतिक्षणमा स्वाभाव का हो वा रहता है, उसमें विक्षण परिणति नहीं होती। जब तक भावना शुद्ध हैं तब तक ही इसके परिणाम पर जातीय जीवान्तर का और विजातीय एक का प्रभार आने से आती है इसकी प प्रत्येक को स्वानुभवसिद्ध है। जनही एक ऐसा शिक्षण द्रव्य है जो से भी प्रभावित होता है और विजातीय चेतन से भी इसी पुल द्रव्य को चमत्कार आज विज्ञान के द्वारा हम सब के सामने प्रस्तुत हैं। इसी के होनाधिक संयोग-वियोगों के फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं । बिद्युत् शब्द आदि इसी के रूपान्थर है, इसी की शक्तियाँ है । जीव की अशुद्ध दशा इसी के संपर्क से होती है। मदि से जीवरसंगको पचान्तरने पर भी जीव इसके संयोग से मुख नहीं हो पाता और उसमें विभाव परिणमन व मोड अनरूप होती रहती हैं यह जीव अपनी वारिसाधना द्वारा इतना सस और स्वरूपप्रतिक हो जाता है कि उस पर बाह्य का कोई भी प्रभाव न पड़ सकें तो वह सुरु हो जाता है और अपने अनन्त चैतन्य में स्थिर हो जाता है। यह मुक्त जीव अपने प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्य में लीन रहता है। फिर उसमें अशुद्ध रक्षा नहीं होती। अतः परमाणु ही ऐसे हैं जिनमें शुद्ध वा भार किसी भी दशा में दूसरे संयोग के आधार से नाना आकृतियाँ और अनेक परिणमन संभव है सर होते रहते हैं। इस जगत् व्यवस्था मैं किसी एक ईश्वर जैसे निया का कोई स्थान नहीं है; यह तो अपने अपने संयोग-वियोगों से परियममी है। प्रत्येक पदार्थ का अपना परिणमन पालू है। यदि कोई दूसरा संयोग या पदा और उस हम्य में इसके प्रभाव की आत्मसात् किया तो परिणयन सभाति हो जायगा, अन्यथा वह अपनी गति बदलता चला जायगा। हाइड्रोजन का एक अणु अपनी गति से प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूप में मुल रहा हैं। यदि आसीजन का अणु उसमें आ जा तो दोनों का रूप परिणमन हो जायगा । ये एक विश्नु रूप से सन संयुक्त परिणाम कर लेंगे। यदि किसी वैज्ञानिक के वियोग का मिला तो दोनों फिर भी होते हैं का संयोग मिल गया भाफ बन जायेंगे यदि सांप के मुख का संयोग मिल्यो तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतका पुल और के निमिक्त सिम्का for are है। परिणमनाक पर प्रत्येक द्रव्य चड़ा हुआ है। वह अपनी अनन्त श्रय्यताओं के अनुसार अगस्त परिणों को कमशः धारण करता है । समस्त 'सह' के समुदाय का नाम लोक श्री विश्व है। इस विन विचारिए--- न्यों की संख्या की दृष्टि से, अर्थात् जिवने उनमें किसी मये सत् की वृद्धि ह कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जो दृष्टि से अब आप लीफ के नव और शाश्वत या प्रश्न को (१) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, खोफ भाव है स इसमें हैं उनमें का एक भी सत् क्रम नहीं हो सकता और हो सकती हैं। न एक सर दूसरे में विलीन ही हो सकता है। इसके अंगभूती का हो जाय या साल हो पायें (२) या लोक अशा हॉट की से अर्थात् जिससे सत् हैं ये प्रशिक्षण सहा या विसदृश परिणमन करते रहते हैं। इसमें दो है क्षिण भाषी परिणाम । -
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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