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________________ न्यायविनियत्रिय सक उपनवासा का परिणमन नहीं है। जो हमें अनेक क्षण रहनंबाला परिणमन दिखाई ता है ग्रह प्रतिक्षणभावी सहा परिणमन का स्थूम टि अबलोकनमान है। इस तरह सनत रक्तमाल संयोग-वियोगों की दृष्टि से विचार कीजिये हो लोक मशाल है. अनि-य है, प्रतिक्षा परिवर्तित हैं। (३) क्या लोक शाश्वत और अशाश्चप्त दोन रूप है ? हो, क्रमशः उपर्युक बोना या स विचार कीजिन को लोक शाइनन भी है (द्रव्य दृष्टि से) अशाश्वान भी है (यय रष्टि से)। दोनों दृष्टिक.मी को कमशः प्रयुक्त करने पर और उन ओनं पर मल इष्टि से विचार करने पर जान उभयरूप ही प्रतिभारिस्त होता है। (1) क्या कोकशाश्वत मनी रूप नहीं है । आखिर उपका पूर्ण रूप क्या है ? हो, लोक का पूर्णरूप अवकन्य है, नहीं कहा जा सकता। कोई शब्द एसा नहीं जो एक साथ शाश्वन और अशाश्वत हत होनों सरूप को नया उसमें विद्यमान अन्य अनन्न दमा को युगपत कह सके। अतः पद की असामर्ष के कारण जगत् का पूर्णरूप अबकम्य है, अनुभव है, वचनात है। इस मिरूप में आप देखो कि यस्तु का पूर्णरूप बननों के अयोधर है अभिबंधनीय या अवतम्य है। यह चौथा उत्तर अशु के पूर्ण रूप को युगपत कहने की दृष्टि से है। पर यही जगत् शावत कहा जाता है दृम्बपि से, असाश्चम कहा जाता है पर्यायष्टि से । इस तरह मूलतः चीया, पहिला और तमरा ये तीन डॉ प्रश्न मौलिक है। तीसरा उभयरूपता का प्रश्न तो प्रश्रम और द्वितीय के संयोग हा है। अब आप विचार कि संजय ने अब लोक के पासत और असावत आदि के बारे में स्पष्ट कह दिया कि मैं जानता हो तो बना और बुद्ध ने कह दिया कि इनके चकर में पी, इसका जानना उपयोगी नहीं सत्र महाार ने उन प्रश्नों का वस्तु स्थिति के अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और मित्रों की जिज्ञासा का समाधान कर उनको बौद्रिक नीनता से प्राण दिया । इन प्रश्नों का स्वरूप इस प्रकार हैसंजय महावीर 1 या लोकत है? मैं जानता होऊँगो इसका जानना अनुः हाँ. लोक जून्य दष्टि से अगा, (अनिश्य, पयोगी है (अन्धाकृत शाश्वत हैं, इसके किसी भी विशेष) अकथनीय) यत् का ससंथा नाश नहीं हो सकता। २ क्या लोक असाचन? हाँ लोक अपन प्रतिक्षण भावी परिवर्तनों की टि से शाश्वत हैं, कोई भी पदार्थ दो क्षणस्थानी नहीं। है क्या साफ शान और अक्षा हाँ, दोनों दृष्टिकोणों से क्रमशः विचार करने पर लोक को शाश्वत भी कहते हैं और अशाश्वत भी। क्या लोक दोनों का नहीं है , हाँ, ऐसा कोई शक नहीं को अनुमय है। लीक के परिपूर्ण स्वरूप को एक साथ समन भाव से कह सके। उसमें शाबत अशा श्रत के सिवाय भी अनन्त रूप विद्यमान है अतः समय भाव से वस्तु अनुभव है, अवकन्य, अनिर्वचनीय है।
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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