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________________ न्यायविनिश्चयविवरण #ভিধৰিঘৰত ঋী মন श्रीमन्यायविनिश्चयस्सनुभृतां चेतोगुनिलः सम्मा प्रतियोधयापि च तान्ति श्रेयसापणम् । येमायं जगदेकवासलधिया लोकोसरं निर्मितो देवस्ताकिलोकमतकमणिभूयारस वः श्रेयसे ३३१३३ विद्यानन्दमनन्तवीर्यसुसद श्रीपूज्यपाद दया-- पालं सन्मतिसागरं कनकसेनाध्यमभ्युद्यमी। शुद्धधन्नीसिनरेन्द्रसेनमकलंकवादिय सदा, श्रीरलवामिसमन्तभद्मनुले बन्दे जिनेन्द्र मुत्रा २॥ भूयो भेदनयावयाइगहनं देवस्य यद्वाजय कतद्विस्तरतो विविच्य वनितुं मन्दप्रभुमशः। स्थूलः कोऽपि नयस्तदुक्तिरियो व्यक्तीकृतोऽयं मया स्थेयाम्चेतसि धीमता मतिमलरक्षालनकक्षमः ॥३॥ व्याख्यानरत्नमाले प्रस्फुरनपदीधितिः। क्रियता हदि विदिस्तुरती मानसं तमः ॥४॥ श्रीमरिसहमहीप: परिपाद प्रख्यातवादोशतिस्तन्यायतमोपहोदयगिरिः सारस्यतः श्रीनिनिः। शिष्यः श्रीमतिसागरस्य विदुर्ग परयुस्तपाश्रीभुतां भ:सिहपुरेश्वरो विजयते स्थाहादविद्यापतिः ॥५॥ इति स्याद्वादविद्यापतिविरचितम्या न्यायचिनिश्चयतात्पर्याचद्योसिम्या व्याख्यानरमाया तृतीयः प्रायः समाप्तः। इस तरह अन्य और प्रकार के सम्बन्ध में ऋछ खास तारुण्य मुद्दों का निर्देश करके इस प्रस्तावना को यहीं समझ किया जाता है। लहू की जगन्याय को देन, अलङ्क का समय तया म्यायविनिश्यप्रिवरण के अनुमान और प्रवचन प्रस्ताव का विषर-परिचय इसी प्रन्थ के द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना में रचित होंगे। भारतीय ज्ञानपीठ भी। मार्गशीर्ष कृष्ण ३. वीर सं० २४७५ -~-महेन्द्रकुमार जैन )
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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