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________________ न्यायविनिश्वयविवरण ナ यह है कि यदि पर की अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस पदे में तुम रहते ही वह महा यदा ही रहेगा कपड़ा आणि पररूप हो जायगा अतः जैसी तुम्हारी स्थिति है देही पर रूप की अपेश 'नास्ति' धर्म की भी स्थिति है तुम उनकी हिंसा न कर सकी इसके लिए हिंसा का प्रतीक 'स्था शब्द तुमसे पहले ही पाक्य में लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह तुम्हारा शेष नहीं है। तुम सो रायर अपने नारिंग आदि अन् भाइको वस्तु में रहने देते होरसे सबके सब अनन् को क्या कहा था। इनकी दिए है। ये शब्द के द्वारा तुममें से किसी एक 'अस्ति आदि को मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी अहङ्कार पूर्ण कर देना ते हैं जिससे 'अस्ति' अन्य का निराकरण करने लगा जाय। यस हि शब्द एक भजन है जो नहीं होने देता और उसे निर्मक तथा पूर्ण बनाता है। इस अतिसंरक्षक, भावना के प्रतीक जीता भाई रहते हो, पर इनकी पारीको सहरी रूप, सुमिश्रित अपेक्षाद्योतक 'स्पा' शब्द के स्वरूप के साथ हमारे दार्शनिकों ने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूप का 'शायय, संभव है, कदाचित् जैसे अक्ष पर्यायों से विकृत करने का ट अपन अवश्य किया है तथा किया जा रहा है। सब से धोतर्क ो यह दिया जाता है कि घड़ा बस्ति है तो हो सकता है, एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष विरोध है पर विचार तो करो ar ar ही है, पता नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, घोदा नहीं, तात्पर्य यह कि वह घरभित्र मन्त नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों होता है कि 'बड़ा अपने से अस्त है. पररूप से भारत है। इसमें परों की अपेक्षा 'नास्तित्य' धर्म है, नहीं सो दुनिया में कोई शक्ति घड़े को कपड़ा आदि बनने से नहीं रोक सकती। यह 'नास्ति' धर्म ही घने को घड़े रूप में फायम रखने का हेतु है। इसी भास्ति धर्म की सूचना 'अ' के प्रयोग के समय 'स्वात् शब्द दे देता है। इसका भारी | आदि अनन्त शक्तियों की असे अनेकरूप में दिखाई देता है या नहीं ! यह आप स्वयं बतायें। यदि अनेक रूप में दिखाई देता है श्री भापको यह कहने में क्यों होता है कि एक है, पर अपने गुणधर्म शक्ति आदि की दृष्टि से अनेक हैकर सोचिए कि वस्तु में जब अनेक विरोधी का हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मों का अविरोधी दार है तब हमें उसके स्वरूप को विकृत रूप में देखने को दुईटि तो नहीं करनी चाहिए। जो 'स्पा' शब्द वस्तु के इस पूर्ण रूप दर्शन की याद दिलाता है उसे ही हम विरोध जैसी गालियों से दुरदुराते हैं किमाश्रमसः परम् । यहाँ धर्मकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यान में आ जाता है कि 'यदीयं स्वयमयी रोचते तथ के वयम्।' अर्था-यदि वह अनेक धर्महर वस्तु को स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है वो इस में जीने का एक एक कम इस कार है। हमें अपनी ि रिबनाने की आया है। वस्तु में कोई विरोध नहीं है। विरोध हमारी दृष्टि में है। और इस इष्टिविरोध की अमृतध 'स्वाद' शब्द है, जो रोगी को इसके यम यर उतर भी नहीं सकता। कटु वो जरूर मालूम होती है पर काम लिखा हुए है बलदेव उपाध्याय ने भारतीय दर्शन (१० १५५) कि- " स्थात् (शाक्य, सम्भवतः ) शब्द अस् धातु के eिs के रूप का सिन् प्रतिरूपक अव्यव माना जाता है। घड़े के विषय में हमारा परामर्श 'स्यादस्ति = संभवतः यह विद्यमान है इसी रूप में होना चाहिए ।" यहाँ 'स्यान्' शब्द को शायr ar rajaerat aa उपाध्याraat स्वीकार नहीं करना को में फिर भी आयोग का समर्थन करते हैं। इसीलिए वे
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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