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________________ प्रस्तावना १९ वैदिक शाखाओं में शंकराचार्य में प्रकरमाध्य में स्थानां को संरूप लिखा है इसका संस्कार भी कुछ विद्वानों के माथे में पड़ा हुआ है और में है। जब यह स्पष्ट रूप से अवधारण करके कहा जाता है कि 'घटः स्यादस्ति अर्थात् षड़ा अपने स्वरूप से है ही । घः स्यास्ति-पद स्वभिन्न स्वरूप से नहीं ही है सम संशय को स्थान कहाँ है ? स्पन्द जिस धर्म का प्रतिशन किया जा रहा है उससे मन अन्य धर्मो के सद्भाव को सूचित करता है। यह प्रति समय श्रोता को यह सूचना देना चाहता है कि बता के शब्दों से वस्तु के जिस स्वरूप का निरूपण हो रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है उसमें अन्य धर्म भी विद्यमान हैं, जबकि संसद और शायर में एक मी नहीं होता। जैन के अनेकान्त में अनन्त धर्म निश्रित है, उनके दृष्टिकोणमिति है सच संशय और शाब्द की उस भ्रान्त परम्परा को आज भी अपने को तटस्थ माननेवाले विद्वान भी चलाए जाते हैं यह विवाद का ही हाय है। धर्म इसी संस्कारवशी बलदेवजी स्वात् पयाजियों में शायद शब्द को सितंबर (१०१०२) जैन की समीक्षा करते समय शंकराचार्य की वकालत इन शब्दों में करते हैं कि "यह निश्चित ही है कि इसी समय से वह पत्रों के विभिष्ठ रूपों का समीकरण कear are aो समग्र विश्व में अनुस्यूत परम तत्व तक sare ही पहुँच जाता। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर शंकराचार्य ने इस 'स्वाद' का मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाग्य (२२, ३३ ) में युक्तियों के सहारे किया है " पर उपाध्याय जी, जब आप स्यात् का अर्थ निश्चित रूप से 'संशय नहीं मामते तत्र शंकराचार्य के खण्डन State क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व० महामहोपाध्याय दा० गंगानाथ झा के इन क्यों करे देखें-"जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त कान पड़ा है, तब से मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसे पेस के भाषायों ने नहीं" श्री पाणिभूषण अधिकारी हो और पत्र लिखते हैं कि धर्म के स्वाद्वाद सिद्धान्तको जिल्लागत समझा गया है उतना किसी अभ्यसिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अवाद किया है। यह बात स्वरूपों के लिए क्षय होती थी किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान विद्वान के लिए तो यही कहूँ यह यद्यपि मैं इस महर्षि को आदर की दृष्टि से देखता हूँ ऐसा जान पड़ता है उन्होंने इस धर्म के वर्तमान के मुह ग्रन्थों के अध्ययन की परवाह नहीं की अनेक स्वतन्त्र वत् व्यवहार के लिए सहूई से एक कहे जायें पर सकता? यह कैसे सम्भव है कि वेतन और अचेतन दोनों ही एक सद और दर्शन स्वाद्वाद सिद्धान्त के अनुसार वस्तुस्थिति के आधार से समन्वय करता है जो वस्तु में विद्यमान हैं उन्हीं का समन्वय हो सकता है । जैमदर्शन को आप वास्तव बहुत्ववादी दिल आये है। काल्पनिक एक वस्तु नही हो के प्रातिभासिक विवर्त । सिल्पनिक समन्वय की ओर उपाध्याय जी संकेत करते हैं उस ओर भी जैन दार्शनिकों प्रारम्भ से ही टिपाद किया है। परम संग्रह नय की टि से सदूप से यावत् चेतन अचेतन द्रव्यों का संग्रह करके 'एके सत् इस शब्दव्यवहार के होने में जैद दार्शनिकों को कोई आपत्ति नहीं है। कह विहार होते हैं, पर इससे मौलिक ध्वन्यवस्था नहीं की जा सकती ? एक देश या एक राष्ट्र अपने में क्या वस्तु है ? समय समय पर होने वाली गित दैनिक एकता के सिवाय एफद्देश या एक राष्ट्र का स्वतन्त्र ही क्या है? दाण्डों का अपना है। उसमें व्यवहार की सुि के लिए और देश संक्षा जैसे कानिक है यवहारसत्य हैं उसी तरह एक सत् या एक काल्पनिक होकर व्यवहारसत्य न सका है और कल्पना की दौड़ का चरम विन्दु भी हो सकत है पर उसका पाप होना नितान्त आज विज्ञान एटम तक का विश्लेषण कर हुआ है और सब मौलिक अशुओं की पृथक पता वीकार करता है। उनमें अभेद मीर इतना यहा अभेद जिसमें चेतन अमूर्त अभू आदि सभी हीन हो जय नासाम्राज्य की अन्तिम कोटि है ।
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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