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________________ न्यायविनिश्चयविवरण और इस कल्पनाकोटि को परमार्थ सत् न मानने के कारण यदि जैनदर्शन का स्वादान्द लिनान्स आपको मूलभूत तत्य के रूप खममाने में नितान्त असमर्थ अमीर होता है मो हो, पर वह वस्तुमीमा का अवलंघन नहीं कर सकता और न कम्पनालोक की लाश्री दाद ही ला सकता है। स्मात् सन्द को उपाध्यायी संशय का पर्यायवाची नहीं मानते मर तो प्रायः निधि क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं(१७३)कि...यह. अनेकान्मवाद संशपबाट का रूपान्तर नहीं है। पर आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते हैं। परन्तु म्यान का अर्थ 'संमत करना भी न्यायसंगत नहीं है क्योंकि संसाधना संशय में जो कोरियाँ उपस्थित होनी है उनकी अनिश्चितता की भीर संकेन मान है, निश्चय उससे भिक ही है। उपाध्यायी समावाद को संशयवाद और निश्चयवाद के बीच संभा पनामाद की जगह रखना चाहते हैं वो एक अनध्यवसापात्मक अनिश्चय के समान है। परन्तु अब स्थाबाद स्पष्ट रूप से डंके की चोट यह कह रहा है कि-बड़ा स्यादस्ति अधीन अपने स्वरूप, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस पचतुष्टय की अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण है । घना स्से मित्र याधन पर पदार्थों की टि से नहीं ही है यह भी निश्चित अवधारण है। इस तरह जब दोनों धर्मों का भयमें अपने रष्टिकोण से घड़ा अविरोधी अाधान है तब घई को हम उभय रष्टि से अस्ति-नास्ति रूप भी निश्चित ही कहते है। पर मारत में यह सामर्थ्य महीं है कि घट के पूर्णरूप कोशिसमें अस्ति नासिरा जैसे एक-अनेक नित्य-अनित्य आदि अनेको युगम-चम लहरा रहे है-कह सके अतः समप्रभाव से घटा अबस्य है। इस एकार जब स्याहार सुनिश्चित दृष्टिकोगों से तत्तत् धमों के वास्तषिक मिश्रय की घोषणा करना है तब इसे सम्भावनापार में कैसे रखा जा सकता है ? स्यात् शब्द के साथ ही एयकार भी लगा रहा जो निर्दिष्ट धर्म का अवधारथ सूचित करता है तथा स्पान शब्द उस मिन्दिष्ट धर्म से अतिरिक्त अन्य धर्मों की मिश्रित स्थिति की सूचमा देता है। जिससे श्रोमा यह न समझ ले कि पस्तु इस्री धर्मरूप है। वह स्याद्वाद कल्पित धर्मों तक व्यवहार के लिए भले ही पहुँच आय पर वस्तुस्यवस्था के लिए वस्तु की मीमा को नहीं लापता । अतःन यह मान नाम कारदा भपेजरप्रयुक्त निश्चमवाद है। इसी तरह रोंदेवराज जी का पूर्वी और पश्चिमी दर्शन (पृष्ट ६५) में किया गया स्यात, शब्द का कदाचित' अनुबाव भी श्रामक है। कदाचित् सन्द कालापेक्ष है। इसका सा अर्थ है किसी समय । और प्रचलित अर्थ में यह संशय की ओर ही झुकाता है। स्याप्त का प्राचीन अर्थ है करिन-अर्धा किसी निश्चित प्रकार से, स्पष्ट शब्दों में अमुक निश्चिम रष्टिकोण से। इस प्रकार अपेक्षामधुक निश्चयकार ही स्थान का अधास्त वाच्यार्थ है। महापंसित राहुल सांकृत्यायन ने तथा इतः पूर्व पी. कोबी आदि में स्थावाष की उत्पति को संजय बेलाडिपुत के मत से बताने का प्रयन किया है। राहुलजी के दर्शन दिग्दर्शन (४० ४५६) में लिखा है कि आधुनिक जैनदर्शन का आधार स्थाद्वार है। जो मालूम होता है संजय बेलद्विपुत्त के चार अंग चासे अवकासपाद को लेकर उसे साप्त अंगभला किया गया है। संजय ने सत्वों (परलोक देवता) के बारे में कुछ मी निश्वारमक रूप से कहने से इन्कार करते हुए उस इन्कार को चार प्रकार कहा है--- है? नहीं कह सकता । २ नहीं है ? नहीं कर सकता । ३ भी और नहीं भी नहीं कह सकता। ४ न है और में नहीं है ? नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिये जैनों के सात प्रकार के द्वार से..... है? हो सकता है (स्थादस्ति) ३ नहीं है। नहीं भी हो सकता है (स्पावास्ति) ३ई भी भौर नहीं भी भी और नहीं भी हो सकता (मालिक नास्तिक)
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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