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________________ प्रस्तावना स्थादग्द--सुनय का निरूपण करनेवाली मापा पति है। भ्यान्' शब्द कह मिश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इस धर्मशाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक भी धर्म विद्यमान है। नाश्पर्म यह कि---अधिरक्षित शेप धमों का प्रतिनिधित्व स्पात शब्द करता है। 'रूपवान् घटः' यह वाक्प भी अपने भीतर 'स्यात्' शब्द को छिपाये हुए है। इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपयान् घटः' अर्थात चक्षु इन्द्रिप के द्वारा ग्रास होने से या रूप गुज की ससा होने से घड़ा रूपवान है. स रूपवान् ही नहीं है उसमें रस ग स्पर्श आदि अनेक गुण, छोटा बहर आदि अनेक धर्म विद्यमान है। इन अधि. वक्षित गुणधमी के अस्तित्व की रक्षा करनेवाला स्वात्' शब्द है। 'स्थान का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किनु निश्चय है। अर्थात् पट्टे में 6 के अस्तित्र की सूचना प्लो हपवान् शानदेही रहा है पर उन उपेक्षित शेष धमों के अस्तित्र की भूचना 'स्मात्' शब्द से होती है। सारांश यह कि 'स्यात् शब्द रूपवान् के साथ नहीं जुटता है, किन्तु अविवक्षित धमों के साथ। ब्रह 'रूपवान को पूरी वा पर अधिकार जमाने से रोकता है और कह देता है कि वस्तु बहुन बड़ी है उसमें रूप भी एक है। ऐसे असन्त गुणधर्म वस्तु में लहरा रहे हैं। अभी रूप की विवश या दृष्टि होने से वह सामने है या शब्द से उबरित हो रहा है सो वह मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है। दूसरे क्षण में रसकी मुरुपक्षा होने पर सा गौण हो जायगा और वह अविवक्षित शेष धमों की राशि में कामिल हो जायगा। पात' शब्द एक प्रहरी है, जो उसवरित धर्म को इधर उधर नहीं जाने देता। वह उन अविवक्षित धौं का संरता है। इसलिए 'रूपक स्पाल कामाय पर मोमोगशो में रूप की भी स्थिति को स्यात् का शायद या संभावना अर्थ करके संदिग्ध बमामा चाहते हैं ये भ्रममैं हैं। इसी तरह 'स्वास्ति घटा दाय में 'घटः अस्ति यह अस्तित्व अंश घट में सुनिश्चित रूप से विद्यमान है। स्यात् शम उस अस्तिल की स्थिति कमजोर नहीं बनाता किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थिति की सूचना देकर भन्न नास्ति आदि धर्मों के सहाब का प्रतिनिधित्व करता है। सारांश यह कि 'स्यात्। पद एक स्वसन्त पन है जो कस्सु के शेश का प्रतिनिधित्व करता है। उसे हर है कि कहीं अस्ति' मास का धर्म जिसे सन्द से उरित होने के कारण प्रमुखता मिली है पूरी वस्तु को नहप जार, अपने अन्य नास्ति आदि सहयोगियों के स्थान को समाप्त न कर जाय। इसलिए यह प्रति वाक्य में चेतावनी देता रहता है कि है भाई अस्ति, तुम वस्तु के एक अंश ही तुम अपने अन्य नास्ति आदि भाइयों के हक को हवपने की या नहीं करना । इस भय का कारण है-निन्झ ही है, अनित्य ही हूँ आदि अंशवायों में अपना पूर्ण अधिकार प्रस्तु पर समा कर अधिकार चेंग की है और जगत में अनेक तरह से वितण्डा और संघर्ष उत्पा किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है. पर इस पाद-प्रतिवाद ने अनेक मनवादी की भूपि करके अहंकार हिस्सा संवर्ष अनुशारसा परमतासहिष्णुना आदि से विश्व को अशान्त और आकुलतामय बना दिया है। स्यात्' शब्द काप के इस जहर को निकाल देता है जिससे अहंकार का सर्जन होता है और वस्तु के अन्य धर्मों के अस्तिस्य से इमकार करके पदार्थ के साथ अन्याय होता है। ___ स्यात्' शब्द एक निश्चित अपेक्षा को होसम का जहाँ अस्तित्वा धर्म की स्थिति मुरक सहेतुक नाता है वहाँ कर उसकी उस सहरा प्रवृत्ति को भी ना करना है जिससे वह पूरी यस्तु का मालिक यनना चाहता है । यह व्यायाधीश की सरह मुरम्त कह देता है कि---, अस्ति, तुम अपने अधिकार की सीमा को समझो । मध्य क्षेत्र-काल-भाय की दृष्टि से जिस प्रकार तुम घट में रहते हो उसी सरह पर यादि की अपेक्षा 'मास्ति' नाम का तुम्हारा भाई भी उसी घर में है। इसी प्रकार घट का परिकार एस बड़ा है। अभी तुम्हास नाम लेकर पुकारा गया है इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय सुमसे काम हैं तुम्हारा प्रयोजन है तुम्हारी विवक्षा है। अतः इस समय तुम मुख्य हो । पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है जो तुम अपने समानाधिकारी भाइयों के साथ को भी गध करने का दुस्मयास करो वारसधिक यात सो
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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