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________________ १६ न्यायविनिश्चयविवरण करने से लिए समवाय नाम का स्वतन्त्र पार्थं मानना पड़ा। अ में गन्ध की अग्नि में रस की और वायु में रूप की अनुभूति देखकर प्रथ प्रथमाने पर वस्तुतः वैशेषिक का प्रत्यय सेवाली गलत है। प्रत्यय के आधार से उसके विभूत धर्म तो जुदा जुदा किसी तरह माने जा सकते हैं, पर स्वतन्त्र पदार्थ मानना किसी तरह नहीं है सर एक ओर दी या सोने फमशः जगत में और प्रकृति में अभेद की कल्पना की वहाँ वैशेषिक ने किभेत्र को अपने दर्शन कर आधार बनाया। उपनिषत् में यहाँ मस्तु के कूट को स्वीकार किया गया है यहाँ अति केशकम्बल जैसे उच्छेदवादी भी विद्यमान थे। द ने या के मरषोत्तर जीवन और शरीर से उसके दाद को करणीय काया है। युद्ध को कर था कि यदि हम आम के अस्तित्व को मानते हैं तो है और यदि मा का कहते हैं तो उच्छेदवाद की भाति आती है। अतः उनमें इन दोनों वादों के डर से उसे अस्त्रकरणी कहा है। अन्यथा उनका सारा उपदेश भूतवाद के विरुद्ध आत्मबाद की का 7 परि पर है ही। जैन यास्तव बहुस्ववादी है वह अनन्त चेतनतय अनन्त द्रव्य-परमानुरूप, एक एक अय, एक आकाशज्य और असं काय इस प्रकार वास्तविक मीि को स्वीकार करता है। अन्य सद्वरूप है चाहे वह चेतन हो या चेतनेतर है। उसका रूप से परिणमन प्रतिक्षण होता ही रहता है। यह परिणमन कहलाता है। असर भी होती है और सभी युद्ध इम्पों की अपर्याय सहा एफसी सपा होती है, पर होती है अवश्य धर्म यादव दीव इनक परिवाद होता है। पुल का परिणमनट भी होता है सभी औऔर इन दोनों में वैमासिक है और इस बात के कारण इनका विपरि मन भी होता है जीव हो जाता है तब परिणयन नहीं होता। इस वैभाषिक शक्ति का स्वाभाविक ही परिणाम होता है । सापर्य यह कि प्रत्येक सत् उत्पाद व्यथ बैब्यशाली होने से परिणामनित्य है। हो स्वतन्त्र सन् में रहनेवाला एक कोई सामान्य पदार्थ नहीं है। अनेक जीवों की नायक सारश्य से संग्रह करके उसमें एक जीववहार कर दिया आता है। इसी तरह चेतन और अ दो भातीय द्वयों में 'सक' नाम का कोई स्वतन्त्र सप्ताक पदार्थ नहीं है । परन्तु सभी न्यों में परिनित्य नाम की सता के कारण सन् स यह व्यवहार कर दिया जाता है। अनेक इच्यों में रहने घरला कोई स्वतन्त्र सत् नाम का कोई वस्तुभूत तत्र नहीं है। ज्ञान, रूपादि गुण, उत्क्षेपण आदि क्रियाएँ सामान्य विशेष आदि सभी द्रव्य की अवस्थाएँ हैं पृथक् सत्ताक पदार्थ नहीं। यदि बुद्ध इस वस्तुस्थिति पर गहराई से विचार करते से इस नियम में न उन्हें का भय होता और नाबाद प्रकार उसने आधार के क्षेत्र में मध्यमप्रतिपक्ष को उपादेयता है उसी तरह वे इस वस्तु के निरूपण को भी परिणामिनिस्यता में डाल देते स्याद्वाद-जैनदर्शन में इस तरह सामान्यरूप से यसको परिणाम का वीर 1 माना है। प्रत्येक का निरूप से कथन करने है उसका पूर्णवों के अगोचर है। अनेक I बाली भाषा साहाद रूप होती है उसमें जिस धर्म का मिपा होता है उसके साथ 'स्वा इसलिए लगा दिया जाता है जिससे पूरी वस्तु उसी धर्म रूप न समझ ली जाय। अविवक्षित शेषधर्मो का भी उसमें है यह प्रतिराग 'स्पा' शब्द से होता है। स्वाहा का अर्थ है- स्वाद-अमुक निति अपेक्षा से अमुक नित अपेक्षा से घट अति ही है भीर अमुक नियत अपेक्षा से घट नास्ति ही है। स्वाद का अर्थ न तो शायद है न संभवतः मीर न कदाचित् ही 'स्याद' शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोण का प्रतीक है। इस शब्द के अर्थ को पुराने बरी मानदारी से समझने का प्रयास तो नहीं ही किया था किन्तु आज भी वैज्ञानिक दृष्टि की दुहाई देने वाले दर्शनलेखक उसी भ्रान्त परम्परा का पोषण करते आते हैं।
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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