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________________ प्रस्ताचना ५५ । परपरिकल्पित भाव सि --- बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। कल्पनापोठ और अनाम्तहान उन्हें प्रत्यक्ष इष्ट है। शम्बसस्ट शान विकल्प कहलाता है। निर्विकल्पक शब्दसंसर्ग से शून्य होता है। निर्विकल्पक परमार्थसत् स्वलक्षश अर्थ से उत्पन होता है। इसके चार भेद होते हैं-इन्द्रियात्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंकेदमप्रत्यक्ष और घोषिप्रत्यक्ष । निर्विकल्पक स्वयं व्यवहारसाचक नहीं होता, व्यवहार मिविकल्पकजन्य सथि. कल्पक से होता है। सविकल्पक ज्ञान निर्मल नहीं होता । विकल्प ज्ञान की विदादाता सविकल्प में झलकती है। झात होता है कि वेद की प्रमाणता का सहन करने के विचार से बौद्धों ने शब्द का अर्थ के साथ वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं माना और यावत् पादसंस्मी शाम को जिनका समर्थन निर्विकल्पक से नहीं होता अश्माण घोषित कर दिया है। इनने उन्हीं जाने को प्रमाण मामा जो साक्षास् या परम्परा से अर्धसामथ्र्षजन्य है। निर्विकल्पक अस्पक्ष के द्वार यद्यपि अर्थ में रहनेवाले क्षणिक्षस्व आदि सभी धर्मों का अनुभव हो जाता है पर उनका निश्चय यथासंभव विकलकज्ञान और अनुमान से ही होता है। मल निर्विक. स्पक नीलांस का भारमिदम्। इस विकापशान द्वारा निश्चय करता है और उपहारसाधक होता है तथा क्षणिकांश का 'सर्व क्षणिकं सत्यात्' इस अनुमान के द्वारा कि निर्विकल्पक नीसमिदम् आदि विकरयों का उत्पादक और अर्धस्यलक्षण से उत्पण हुभा है अतः प्रमाण है। विकल्पहान अस्प है क्योंकि यह परमार्थसत् स्वलक्षण से उत्पन्न नहीं हुआ है। सर्वप्रथम अर्थ से निर्विकल्पक ही उत्पन्न होता है। उस निर्विकल्यावस्था में किसी विकल्पक का अनुभव नहीं होता। विझल्प कालपरसामान्य को विषय करने के कारण त निर्विकल्पक के द्वारा गृति अर्थ को प्राण करने के कारण प्रत्यक्षाभास है। . अकल देव इसकी मालोचमा इस प्रकार करते हैं-अर्थक्रिया पुरुष प्रमाण का अन्वेषण करते है। जय पवहार में साक्षात् अर्थक्रियासापकमा सबिकल्पक में ही है सब क्यों न उसे ही प्रमाण माना जाय ! निस्पिक में प्रमाणता लाने को भागिर आपको सविकल्पक ज्ञान तो मानना ही पड़ता है। रवि निर्विकल्प के द्वारा गृहीत नीलाश को विषय करने से विकल्प ज्ञान अप्रमाण है, तब तो अनुमान भी प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत क्षणिकत्वादि को विषय करने के कारण प्रभास भहीं हो रस्केगा। निर्विकल्प से शिस प्रकार मालासों में नीलनियम्' इत्यादि विकल्प अस्पन होते हैं उसी प्रकार क्षणिकदादि अशॉ में भी 'क्षणिकमिदम् इत्यादि विकरूपशाम उत्पन्न होना चाहिये । अतः व्यवहारसायक सधिफलपमान ही प्रत्यक्ष कहा जाने योग्य है। विकल्पकान ही विशदरूप से प्रत्येक प्राणी के अनुभव में भाता है, जबकि निर्विकल्पज्ञात लुभवसिद्ध नहीं है। प्रक्ष से सो स्थिर स्थूल अर्थ ही अनुभव में आते हैं, अतः क्षणिक परमाणु का प्रतिभास कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है। निधिकल्पक को स्पष्ट होने से तथा सकिया को अस्प होने से विषयभेद भी मानका बक नहीं है, स्योंकि एक ही वृक्ष दूरवर्ती पुरुष को अस्पष्ट तथा समर्मावर्ती को स्पट चीखता है। आद्य-प्रत्यक्षकाल में भी कल्पनाएँ बराबर उत्पन्न सधा बिनष्ट सो होसी ही रहती है, भले ही वे अनुपलक्षित रहें। निर्विकल्प से अधिकष्प की उत्पत्ति मानमा भी ठीक नहीं है। क्योंकि यनि अशन्द निर्विकल्पक से सशब्द विकल्पज्ञान उत्पन्न हो सकता है तो शदशून्य अर्थ से ही विकलपक की उत्पत्ति मानने में क्या बाधा है? मत: मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्मादि यावद्विकल्यज्ञान संबाद होने से प्रमाण है। हाँ ये विसं कादी हो वहीं इन्हें अप्रमाण कह सकते हैं । मिर्दिकएपक प्रत्यक्ष में अभियास्थिति अथोस् अर्थक्रियासाधक रूप अदिसंवाद का लक्षण भी नहीं पाया जाता, अतः उसे प्रमाण कैसे कर सकते हैं. शब्दस सृष्ट शाम को विकल्प मानकर अप्रमाण कहने से शामोपदेश से क्षतिकस्यादि की सिद्धि नहीं हो सकेगी। मानस प्रत्यक्ष निरास-ौद इलियान के अन्तर उत्पन्न होनेवाले विशदशान को, जो कि उसी इन्द्रियज्ञान के द्वारा ग्राह्य अर्थ के अनन्तरभावी विसीयक्षण को जानता है, मानस प्रत्यक्ष कहते हैं। , भकलङ्ग देव कहते हैं कि-एक ही निश्चयात्मक अर्थसाक्षात्कारी शान अनुभव में आता है। आपकं द्वारा बताये गये मानस प्रत्यक्ष का तो प्रतिभास ही नहीं होता। 'मलमिदम् मह विकल्प शान भी मानस
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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