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________________ न्यायविनिश्चयविवरण में उचित भी हैं पर लोक व्यवहार के निवाहार्थ वैशांश का सद्भाव होमे से उसे संध्यवहार प्रत्यक्ष भी कहा गया है। पेशद्य का लक्षण अमलदेव ने स्वयं लधीयरपथ (कारिका..)में यह किया है "अनुमानाप्रतिरकेपा विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशथं मते बुद्धरवैशयमतः परम्" अर्धा-अनुमान आदिक से अधिक, नियत देश काल और आकार रूप से प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासन को वैशय कहते हैं। दूसरे पाब्दों में जिस ज्ञान में अन्य किसी शान की सहायता अपेक्षिस न हो वह जान विशद कहलाता है। जिस सरस अनुमान आदि शान अपनी उत्पत्ति में लिमज्ञान आदिज्ञानान्तर को अपेक्षा करते हैं उस तरह प्रत्यक्ष अपनी इत्यत्ति में किसी भी झान की आवश्यकता नहीं रखता । यही अनुमानादि से प्रत्यक्ष में अतिरेक अधिकता है । यद्यपि आगमिक दृष्टि से इम्लिय आलोक या झामान्तर किसी भी कारण की अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान परोक्ष है और आत्ममायसापेक्ष ही ज्ञान प्रत्यक्ष, पर दार्शनिक क्षेत्र में अकलदेव के सामने प्रमाणविभाग की समस्या थी जिसे उन्होंने बड़ी म्यवस्थित रीति से सुलझाया है। तत्त्वार्थसूत्र में प्रति और धत हन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है और वहीं मसि स्मृति संज्ञा चिम्सा और अभिनिबोध को अनातर बनाया है। अनन्तर कान का तात्पर्य इतना ही है कि ये सब मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होगे हैं। मति में इन्द्रिय और मन से अपक्ष होनेवाले भवनह ईहा अवाय और धारणा जान सम्मिलित है। कलङ्कव ने मसि को सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर लोकप्रसिद्ध इन्द्रियशन की प्रत्यक्षता का निर्वाह किंस और स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और अति इन सब को परोक्ष प्रमाण रूप से परिगणित किया । बागम में मति और अत परोक्ष थे ही । स्मृति आदि मतिज्ञानाधरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण मासेशान थे ही इसलिए इनका परोक्षय भी सिद्ध था। मात्र इद्रिय और मनोवस्थ मति को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष दना देने से समस्त प्रमाण व्यवस्था जम गई और लोक प्रसिद्धि का निर्वाह भी हो गया । यपि अकालदेव ने लघीयखय में स्मृति प्ररपभिज्ञान तर्क और अनुमान को भी मनोमति कहा है और सम्मयशः वे इन्हें भी प्रादेशिक प्रत्यक्षकोटि में खाना चाहते थे पर यह प्रयाल आगे के भावार्यो के द्वारा समर्थित नहीं हुआ। इस तरह कमरेव ने विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर श्रीसिद्धसेन दिवाकर के 'अपरोक्ष प्राहक प्रत्यक्ष इस प्रत्यक्ष लक्षण की कमी को दूर कर दिया। उत्तर कालीन समस्त समाचार्यों ने प्रकलोपन इस लक्षण और प्रमाणस्यवस्था को स्वीकार किया है। यद्यपि बौद्ध भी विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है फिर भी प्रत्यक्ष के लक्षण में अकलाङ्गदेन के द्वारा विशद पद के साथ ही प्रयुक्त साकार और संजला पद खास महत्व रखते हैं। बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है । यह निर्विकल्पक झान जैनदार्शनिक परम्परा में प्रसिद्ध विधाविषयीसन्निपात के बाद होनेवाले सामान्यानभाती अनाकार दर्शन के समान है । अकाल देष की दृष्टि में जन निर्विकल्पक दर्शन प्रमाणकोटि से ही चाहिyस है सब उसे प्रत्यक्ष त र ही नहीं जा सकता था। इसी बात की सूचना के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष के लक्षण में साकार पद दिया है। निराकार दर्शन तथा बौद्धसम्मत निर्विकल्पकप्रत्यक्ष का निराकरण कर निश्चयामा विशदज्ञान को ही प्रयक्षकोटि में रखता है। बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के बाद होने वाले 'नीशमिदम्' इत्यादि प्रत्यक्षत विकल्पों को भी संव्यवहार से प्रमाण मान लेसे हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष के विषयमूर्त दृश्य स्थलक्षणा में विक्रया के विषयभूस विकल्प्य सामाम्प का एकत्यावसाय करके प्रवृत्ति करने पर स्वलक्षण ही प्राप्त होता है, असा विकल्प ज्ञान भी संव्यवहार से प्रमाण यन जाता है। इस विकल में निर्विकल्पक काही विशदता आती है। इस करण निर्षिक और सविकल्पक फा अतिशीघ्र उत्पन होना या एक साथ होमा । तात्पर्य यह कि और के मत से सविरुष्पक में न तो अपना पैशा है और च प्रमाण । इसका मिरास करने के for अकलाक्षेत्र में अंजसा विशेषण दिया है और सूचित किरा कि बिकल्पनाम अंजरा निशद है संव्यवहार में नहीं।
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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