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________________ प्रस्तावना ३५ "प्रणिपत्य स्थिरमाया गुरुन एरामप्युक्षरयुद्धिगुणान् । न्यायधिनिश्चयविवरणभिरमणीयं मया क्रियते ॥" ख्यायलय की तरह न्यायविनिश्रयविवरण (प्रथमभाग ०२२९) में आए हुए 'वृत्तिमध्यवर्तिस्वात', 'वृत्तिपूर्णानां तु विस्तारभयानास्माभिर्व्याख्यानमुपदश्यते' इग अवतरणों से स्प है कि न्यायविनिश्चय पर अफालदेव की स्वन्ति अवश्य रही है। वृत्ति के मध्य में भी लोक ये जो अन्सरश्लोक के साम से प्रसिद्ध थे। इसके सिवाय कृत्ति के द्वारा प्रदर्शित मूलबार्तिक के अर्थ को संग्रह करनेवाले संग्रहलोक भी थे। चादिराजसूरि में जिन १८०३ श्लोकों का व्याख्यान विवरण में किया है उनमें असरलोक और संग्रहश्लोक भी शामिल हैं । कितने संग्रहश्लोक है और कितने अन्साश्लोक इसका ठीक निर्णय द्वितीयभाग के प्रकासन के समय हो सकेगा। पर वादिराजपूरि ने वृत्ति या पूर्णिगत सभी श्लोकों का व्याख्यान नहीं पिया ... ६ तथा : पूजी देवस्थ बचनम्' इस प्रस्थान याक्य के साथ "समारोपच्यवदेवात' आदि ठीक उरत है। यदि वादिराजसूरि न्यायधिनिश्व की स्ववृत्ति को ही चूर्णिशब्द से कहते है तो कहना होगा कि आपने पति या चूर्णिगत सभी श्लोकों का व्याख्यान नहीं किया, क्योंकि 'समारोपयवच्छेचात योफ भूल में शामिल नहीं किया गया है। इस तरह' वृति के यावत् गधभाग की तो व्याश्या की ही नहीं गई, सम्भवतः कुछ पन भी छूट गए है । जैसा कि सिद्धिविनियटीका (पृ. ११. A) के निम्नलिखित उल्लेखो से स्पष्ट है: तदुक्तंन्यायविनिश्चये- चैतद बहिरेव । किं । यहिहिरिव प्रतिभासते। कुत एतत् ? भ्रान्सेः । तदन्यत्र समानम् । इति" सिद्विविनियटीका (पृ० १९ A.) में ही न्यायविनिश्चय के नाम से 'सुखमाबहादमाहा श्लोक उद्धत है.-"कथमन्यथा न्यायविनिश्वये सहभुवो गुणा इत्यस्य सुखमाहादनाकार विज्ञान मेयबोधनम् ।। शक्तिः क्रियानुमेया स्यादयना कान्तासमागमे ॥ इति निदर्शनं स्यात् ।" यह श्लोक सिसिविनिश्चयटीका के उल्लेखानुसार न्यायविनिश्चय स्वधुप्ति का होना चाहिए। क्योंकि यह गुणपर्यववव्यं ते सहमवृतयः (लो० )के गुण शब्द की वृत्ति में उदाहरणरूप से दिया गया होगा। यह भी सम्भय है कि अकलक्ष ने स्वयं इस श्लोक को तृप्ति में उद्धत किया हो रोमि वादिराज इसे स्थाद्वादमहार्णव अन्य का बताते हैं। यह भी चिप्स को लगता है कि न्याययिभिश्चय की उक्त वृत्ति हो सम्भवतः स्वाहादनहाव के नाम से प्रख्यात रही हो। जो हो, पर अभी यह सब साधक प्रमाणों का अभाव होने से सम्भावनाकोटि में ही हैं। न्यायचिनिश्चयविवरण की रचना अत्यन्त प्रसन्न तथा मौलिक है। तसात् पूर्वपक्षों को समृद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए भगणित प्रन्या के प्रमाण उद्धत किये गये है। जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है वादिराजसूरि के ऊपर किरी भी वार्शनिक आचार्य का सीधा प्रभान नहीं है। ये हरएक विषय को इसका न्यायविनिश्चयालहार माम भी मानकर इसके प्रमाणतिर्षय से पहिसे रचे जाने के सम्बन्ध में प्रमाणनिर्णय (पृ. १६) गत यह अवतरण एकीभावस्तोत्र को प्रस्तावना (पृ. १५) में उपस्थित किया है-- "अस एव परामस्मिक साश्मेव मानसप्रवक्षस्य प्रतिपादितमलकारे-दिमित्यादि मज्जानमभ्यासात् पुरतः स्थिते । साक्षारकर इतस्तन्त्र प्रत्यक्ष मानसं मतम् ॥" परन्तु इस अवतरण में उपलङ्कार शब्द से न्यायविनिश्चयालकार इस नहीं है क्योंकि यह इलीक कादिराजसूरि के न्यायविनिश्चयदिवरण का नहीं है किन्तु प्रशाकरणाकृत प्रमाणशर्तिकानपुर (मिश्रित . ४) . का है, और इसे वादिसन ने न्यायविनश्यविवरण (पृ. ११९) में पूर्वपक्षप से उधृत क्या है। वादिराज मे स्वयं न्यायविनिश्वयविवरण में कोसों जगह प्रमाणबादिकारभार का बलकार' नाम से उल्लेख किया है। अतः न्यायविनिश्चयविवरण का न्यायविनिश्चयाल र नाम निर्मूल है और मात्र थुतिमाधुनिमित्त ही प्रचलित हो गया है।
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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