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________________ न्यायविनिश्चयविवरण स्वयं आत्मसात् करके ही व्यवस्थित ग से युक्तियों का जाल बिझते है जिससे प्रसिधाक्षी को निकलने का अवसर ही नहीं मिल पाता। साक्ष्य के पूर्वपक्ष में (पृ. २३१) योगभाष्य का उल्लेख "विन्ध्यवासिनी भाष्यम्' शब्द से किया है। सांख्यकारिका के एक प्राचीन नियन्ध से (१०२३४भोग की परिभाषा उद्धत की है। यौचमतसमीक्षा में धर्मकीर्ति के प्रमाणपासिंक और प्रज्ञाकर के वासिकालकार की इतनी गहरी और विस्तृत अालोचना अन्यय देखने में नहीं आई । बार्तिकाष्ठहार का तो आधा सा भाग इसमें आजदेरित धोतरादाय सामगुरु बारम्बार इनकी तीखी आलोचना से नहीं छूटे है। मीमांसादर्शन की समालोचना में वायर उम्बेक प्रभाकर मण्डल कुमारिल आदि का गम्भीर पोलोचन है। इसी तरह न्यायधिक मत में व्योमशिध, आत्रेय, भासर्वज्ञ, विश्वरूप आदि प्राचीन माचार्योंके मत उनके प्रन्थों से उदएस कर के आलोभित हुए हैं। उपनिषदों का येवमस्तक शब्द से उल्लेख किया गया है। इस सरह जितना परपक्षसमीक्षण का भाग है वह उन उन मसी के प्राचीनतम अग्धों से लेकर ही पूर्वपक्ष में स्थापित करके आलोचित किया गया है। स्वपक्षसंस्थापन में समराभट्टादि आत्रयों के प्रमाणवाक्यों से पक्ष का समर्थन परिपुष्ट रीति से किया है। जब वादिराज कारिकाओं का व्याख्यान करते हैं तो उनकी अपूर्व बयाकरणाचुन्बुता चिसको विस्मित कर देसी है। किसी किप्ती कारिका के पांच पांच अर्थ तक इन्होंमे किए हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकानी के टिगोचर होते हैं। कादपछटा और साहित्यसकता तो इनकी पद पद पर अपनी आभा से ज्यायभारती को समुज्ज्यल बनाती हुई सहदयों के हृदय को आहादिस करती है। सारे विवरण में करीब २००५-२५.० पय स्वयं कादिराज के ही द्वारा रचे गए हैं जो इनकी काव्य चातुरी को प्रत्येक पृष्ठ पर मूर्त किए हुए हैं। इनकी तणाशक्ति अपनी मौलिक है। क्या पूर्वपक्ष और मया उत्तर पक्ष बोनों का वधान प्रसाद ओज और माधुर्य से समलकप्त होकर तप्रवणता का एच अविधान है। इस श्लोक में कितमे ओज के साथ यमक मैं मद का उपहास किया है ___ "अर्थतवादक, तदस्मादुपरम दुस्तरूपक्षयलवलनात् । स्राबादामनविस्मयुन स्वास्ति नबधः । (पृ. ४५९) इस तरह समन ग्रन्थ का कोई भी पृष्ठ वादिसज की साहित्यमयणता सदनिष्णावता और दायभिकता की युगपत् प्रतीति करा सकता है। एकीभावस्तोत्र के अन्त में पाया आनेवाला यह पन पादिराज का भूतगुणोद्धायक मात्र स्तुतिपरक नहीं "यादिराजमनु शाब्द्धिकलोको वादिराजननु साकिकासहः। वादिराजमनु काम्पकृतस्ते धादिराजमनु मध्यसहायः ॥" बादिराज का एकीभावस्तोत्र उस निष्ठावान और भक्ति विभोरमानस का परिस्पदन है। जिसकी साधना से मध्य अपना परम लक्ष्य पा सकता है। इस तरह वादिराज ताकिक होकर भी भक्त थे, वैयाकरणखणफ होकर भी काध्यकला के हृदयालादक लीलाधाम थे और थे अ न्याय के सफल ध्याहयाकार । जैन दर्शन के अभ्यागार में वादिरान का न्यायविनिश्चयविवरपा अपनी मौलिकता गम्भीरता अरिष्टता युक्तिप्रवणता प्रमाणसंग्रहका आदि का अद्वितीय उदाहरण है। इसके प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव का संक्षिप्त विषयपरिचय इस प्रकार है प्रत्यक्ष परिच्छेद यावविनिश्चय ग्रम्य के सीम पपिच्छेद है-मस्पक्ष २ अनुमान मौर ३ प्रवचन । इस अन्ध में अकष ने न्याय के विनिश्चय करने की प्रतिज्ञा की है। न्याय अर्थात् स्वाहामुद्रांकित जैन मात्राय को कलिकाल दोष से गुणद्वेपी व्यक्षियों शरा मलिन किया हुआ देखकर विचलित हो उठते है और भव्य
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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