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________________ ARE न्यायविनिश्वयविवरण (१०१०५, ११)विधामापूद है और काम में ही उक्त हमारे पहले मुल का माना भाहो सकता है कि पादिराज ने स्वकृत श्लोक का ही सरपर्योदान किया हो। अधदा पृत्ति में ही गध में उक्त लक्षण हो और धादिराब ने उसे पायल कर दिया हो। जैसा कि सधीयलय स्थवृत्ति (पृ. २७) में “इन्द्रियार्थज्ञान स्पष्ट लिसाहितमाप्तिपरिहारसमर्थ प्रादेशिक प्रत्यक्षम्। यह इन्द्रियप्रत्यक्ष का सक्षण मिलता है । अथवा इसे ही वादिराज मे पवस्व कर दिया हो। फलतः हमने इस श्लोक को इस विवरण में वादिराजकृत ही मानकर कोटे टाइप में छापा है। अकराष्ट्रमन्यत्रय की प्रस्तावा में इस श्लोक के सम्बन्ध में मैंने पं० कैलाशचन्दजी के सत की परश की थी। अनुसन्धान से उनका मत इस समय उचित मालूम होता है। अलमन्थनय में मुद्रित कारिका नं. ३८ का 'ग्राह्यभेदोन संपत्ति भिनस्थाकारमयपि" यह उत्तरार्थ मूल का नहीं है। कारिका नं. १२९ के पूर्वाध के बाद तथा सुनिश्चितस्तैस्तु सवतो विप्रशंसप्त" यह उसराध मूल का होना चाहिए। इस तरह इस परिच्छेद को कारिकार्यों की संख्या १९८३ रह जाती है। प्रस्तुत विवरण में छापते समय कारिकाओं के नम्बर देने में गाड़ी हो गई है। ताडपत्रीय प्रति में प्रायः मूल श्लोकों के पहिले म इस प्रकार का निह बना हुआ है, जहाँ पूरे इजोक आए हैं। कारिका 40 पर पह चिह्न नहीं बना है। अकलङ्कमन्यत्रय में मुदित मथम परिप्लेष की कारिका में निम्नलिखित संशोधन होना चाहिएकारिका नं० १६ -शक्दो -शको। कारिका नं. २५ -बन्यो -वन्य-1 करिका . ३, न विहाना महि ज्ञाना-1 कारिका म० . -मेष निश्चयः -मेप विनिश्चयः। कारिका ८ कथन त कारिका नं १०२ दुमेश्व प्रवेध्य-। कारिका २०१४. अतदारम्भ अत्तदाभदिसीय और तृतीय परियोद में मुद्रित कारिकाओं में निम्नलिखित कारिकापरिवर्तनादि हैकारिका नं० १९४ की रस्मा--"अतहेतुफलापोहः सामान्य चेदपोहिनाम् । सन्दर्यते यथा धुण्या न तथाऽप्रतिपतितः।" इस प्रकार होनी चाहिए। कारिका नं. २८३ के पूर्वाध के बाद "चित्रवैतविचित्रामरटभङ्गप्रसङ्गतः कः सर्वथा इलेषात् नानेको भेदरूपतः।" यह सारिका और होनी चाहिए। कारिका नं.३७२ का " प विशाय दृषकोऽपि विदूषकः" यह उत्तरावं मूल का नहीं है। कारिका नं. केपार "तत: दार्थयोनास्ति सम्बन्धोऽपौरुषेयकः" एह कारिकाध और होमा चाहिए। कारिका मं०१७ के बाद "प्रमा प्रमितिहेतुरवात् प्रामाण्यमुपगम्यते" यह कारिका और होना चाहिए। अन: अकलप्रन्धत्रयगत त्यावधिनित्रय के अङ्क अनुसार संपूर्ण ग्रन्थमे १८०३ कारिकाएँ फलित होती है। न्यायधिनिश्चय विवरण-न्यायविनिश्चय के पय भाग पर प्रबलतार्किक स्थादायविद्यापति सारिराजमूरित तारायं वियोतिनी व्याख्यानरत्नमाला उपलब्ध है। जिसका नाम भ्यायधिभिश्चय विवरण है। जैसा कि शदिराकृत इस रलोक से प्रकट है-- १ परम्मरायत प्रसिद्धि के अनुसार इसका नाम न्यायकुमुदचन्द्र के न्यायमुदचन्द्रोदय की राह न्यायधिनिश्यालर हद हो गया है। परन्तु वस्तुतः वादिराज के उक्त श्लोक गत उल्लेखानुसार इसका मुख्य माधान न्यायविनिक्षयांवरण है। दूसरे शब्दों में इस तश्पर्यावयोतिमी व्याख्यामररनमाला भी कह सकते हैं। पर मायविनिश्श्यालबार नाम का समर्थन किसी भी प्रमाण से नहीं होता। ए.परमानन्दजी शाखो सस्थाबा ने
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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