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________________ ३२ न्यायविनिश्वयविवरण ममेद और संघर्ष नही रहेगा। नोण से वस्तु स्थिति तक पहुँचना ही विसंवाद से इटार जीवको सकता है। जैन दर्शन की भारतीय संस्कृति को यहीं है। भाव में जो स्वप के दर्शन हुए हैं वह इसी फल है। कोई यदि विश्व में भारत का मस्तक ऊँचा रस पड़ता है तो यह जाति, था देश आदि की उपाधियों से रहि भावमा ही हैं। का 7 इस प्रकार सामान्यतः न न शब्द का अर्थ और उनकी सीमा तथा जैनदर्शन को भारतीय वर्णन करने के बाद इस आस में आए हुए प्रथमत प्रमेय का वर्णन संक्षेप में को किया जाता है--- fare परिचय ग्रन्थ का बाह्यखरूप सार में 1 यह अभ्यद्यपद्यमय रहा है यस्य नाम आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जैन न्याय का अवतार करने वाला न्यायावतार अभ्थ लिखा अनुमान और दीनों का विश्न किया गया है। भरुदेव न्याय में भी प्रत्यक्ष अनुमान और धन कमा रहे हैं। धर्मकीर्ति के पार्तिक में और परानीवन है। परार्थानुमान और सन्द प्रमाण की प्रक्रिया लगभग एक है का एक प्रमागविनय भी है। स्नाकर (२०२३) में धर्मकीर्तिरपि स्याविनिश्र विवि के तीन परिच्छेदों में कमशः प्रत्यक्ष स्वार्थानुमान है। यदि पर्वतका समविनय के अतिरिक्त न्यायविनिषद जाम का नाम की पसन्दगी में इसका उपयोग कर लिया होगा। अभी के न्यायविनिश्वय ग्रन्थ का तो पता नहीं चला है। हो सकता है कि देवसूरिने प्राणविभव का ही न्यायविनिश्वम के नाम ले उल्लेख कर दिया हो क्योंकि उसके प्रत्यक्ष स्वार्थानुमान और परार्वानुमान परिच्छेदभेदों के विवेचक है। अतः क की तरह प्रभागविधि नाम की ही अधिक सम्भावना है। देव ने याद को दोष से न हुआ देखकर उसके ािर्थ न्यायवतार और माननिय के आद्यन्त पदों से ग्रन्थ का न्यायमिa नामकरण क्रिया होगा | और पान का भी कोई रा है तक के अनुसन्धान से धर्म न्यायविनिश्चय को करके लिखा है कि अपने ग्रन्थों में कहीं न कहीं 'अ' मास का प्रयोग अवश्य करते हैं। यह योग कहीं जिनेन्द्र के विशेषण के रूप में, कहीं प्रन्थ के रूप में जीर कहीं के रूप में टीचर होता है यानि २०६) में 1 रनियापोविनिश्चीयते इस सरिसेस के द्वारा , विज्ञानन्द का परीक्षा (२०४९) गत दोनों की हृदयहारिणी रीति से सूचना दे दी है यादिराज की सिदिविनिमय टीका (४० २०८) का ' कह कर की गई विनय की दासादि आदि कारिका, स्वाम काकार धर्मपति द्वारा '' भगवद्विन्यायविधिये' लिखकर 'स्यलक्षणं मातु" इस तीसरी कारिका का उधृत किया जाना इस ग्रन्थ की कता के प्र पोषक प्रमाण है । ग्रन्थगत प्रमेयस्यायविनि में है प्रस्तावों में स्थूल रूप से निम्नलिखित विषयों पर प्रकाश डाला गया है- २ वचन इन प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्ष का लक्षण, इन्द्रिय प्रत्यक्ष का लक्षण, प्रमाणस्तव सूचन राफा व्यवसायात्मक विकल्प के अभिलाप आदि लक्षणों का खण्डन शान को परोक्ष के कारिका २० और न्यायजि के वफा शक्य, अमन्स
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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