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________________ -- प्रस्तावना ४३ 'का नाम शान इस माद्यपरिधि में आ गया। इस सीमोल्लंघन का दार्शनिक प्रयोजन पौवादिसम्मत निर्विकल्पक श्री प्रमाणता निराकरण करना ही है। . . अफलवने विशव शान फो प्रत्यक्ष बताते हुए ओ मान का साकार विशेषण दिया है यह उपर्युक्त मर्म को पोतन करने के हो लिए। बौद्ध क्षणिक परमाणु रूप चित्त या जड़ क्षणों को स्वलक्षण मानते हैं। यही उनफे गत में परमार्थसत् है, पही वासायिक अर्थ है। यह स्वलक्षण शवशून्य है, शब्द के अयोथर है। शब्द का पाष्य . इनके मत से बुद्धिगत मभेदांश ही होता है। इन्द्रिय और पदाध के सम्बन्ध के अनन्तर निर्विकल्पक दर्शन उत्पन्न होता है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसके अनम्सर शब्दसलेत और विकल्पवासना आदि का • सहकार पाकर शब्दसंसर्गी सविकल्पक ज्ञान उत्पन होता है। शव्यसंसर्स होने पर भी शब्दसंसर्ग की योग्यता जिस शाद में आ जाय उसे विक्रम्प कहते हैं। किसी भी पदार्थ को देखने के शद पूर्वरष्ट सत्सा पदार्थ का स्मरण होता है, तपनन्तर सहाचक शब्द का स्मरण, फिर उस शब्द के साथ वस्तु का भोजन, तब यह घट है इत्यादि शब्द का प्रयोग । वस्तु दर्शन के बाद होनेवाले-पूर्व स्मरण आदि सभी व्यापार विकसक की सीमा में आते हैं। तात्पर्य यह कि-निर्विकल्पक दर्शन घस्तु के मथार्य स्वरूप का अदमासक होने से प्रमाण है। सविक्कएक शाम शयनासना से उत्पन्न होनेके कारण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को स्पर्श नहीं करता, अंत एव अप्रमाण है। इस निर्विकल्पक के द्वारा वस्तु के समप्ररूप का दर्शन हो जाता है, परन्तु निक्षय पथासम्भव सविकल्पक ज्ञान और अनुमान के हारा ही होता है। , अकलंकदेष इसका खान करते हुए लिखते हैं कि किसी भी ऐसे निर्विकल्पक ज्ञान का अनुभव नहीं होता जो निश्यामक न हो। सौत्रान्तिक बाझार्थवादी है। इसका कहना है कि यदि ज्ञान पदार्थ के आकार न हो तो प्रशिकीभ्यवस्था अर्थात् घट झान का विपत्र घट ही होता है पर नहीं-नहीं हो सकेगी। सभी पदार्थ एक ज्ञान के विषय मा सभी शान सभी पदार्थों को विपण करनेवाले हो जायेंगे। अत: ज्ञान को साकार मानना आवस्यक है। यति साकारता नहीं मानी जाती यो विषयशाम और विषयज्ञानज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा। इसमें यही भेष है कि एफ मात्रविषय के आकार है तथा दूसरा विषय और विषयज्ञान वी के भाकार है । विपत्र की सत्ता सिद्ध करने के लिए शान को साकार मानना मितान्त आवश्यक है। .. अकलंकदेव मे, साकारता के इस प्रयोजन का मण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि विषय प्रतिनियम शाम की अपनी शक्ति था-क्षयोपशम के अनुसार होता है। जिस ज्ञान में पदार्थ को जानने की जैसी योग्यता है वह उसके अनुसार पृष्ठाय को मानता है। सदाकारता मानने पर भी यह भ ज्यों का स्यों वह रहता है कि हान अमुक पदार्थ के ही आकार को क्या प्रहप करता है । अन्य पदार्थों के साकार को क्यों नहीं । अन्त में ज्ञान गत शकिसी विषय प्रतिनियम करा सकती है तवादारता आदि नहीं। जो ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पा हुआ है वह उसके आकार होता है। इस प्रकार तनुत्पत्ति से मी आकारमियम नहीं बन सकता ; योकि झन जिस प्रकार पदार्थ से उत्पन्न होगा। इसी तरह प्रकाश और इत्रियों से भी। यदि लघुस्पति से स्वकारता आती है तो जिस प्रकार मान पटाकार होता है उसी प्रकार उसे इन्दिय तथा प्रकाश के आकार भी होना चाहिये । अपने उपाझमभूत पूर्वज्ञान के आकार को तो उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये। जिस प्रकार भान पर के पटाकार को धारण करता है उसी प्रकार पह उसकी जपता को श्यों नहीं पार करता? यदि घट के आकार को धारण करने पर भी जाता अगृहीत रहती है तो घट और उसके अहत्व में भेव हो जामगा। यदि पद की अडता असदाकार शान से जानी जाती है तो उसी प्रकार पर भी अतदाकार जान से मामा माय। वरतुमात्र को निरंश माननेवाले बौर के मत में वस्तु का खण्डशः भाग तो नहीं ही होना चाहिये। समानकालीन पदार्थ कदाचित ज्ञान
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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