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________________ प्रस्तावना यह भनिएप भी हैं। इसी तरह अनन्न कुष, शनि, पर्याय और धर्म प्रयक वस्तु की निजी सम्पत्ति है। इनमें से हमारा स्वरुप ज्ञानलाम्य एक एक अंश को विश्य करके क्षुद मनवानों की सृष्टि कर रहा है। आत्मा को निस्य सिद्ध करने वालों का पक्ष अपनी सारी शक्ति आत्मा को श्रमियसि फरणे नालों की उबाड़ फझर में लगा रहा है तो अनिष्यवादियों का गुट नियवादियों को भा रा कह रहा है। सहावीर को इन मतरादिपर की बुद्धि और प्रवृति पर नरस आता 1 नुद्ध की तरह आत्मनियत्व और अनित्याच, परलोक भीर निर्वाभादि को जल्याकृत (कन कार fex सय की मधि महीं करना चाहते थे। उनने इन सभी तस्दी का यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्य को हाल में लाकर उन् मानस समता का समभूमि पर ला दिया। उनने वाया कि वस्तु को नम जिय दृष्टिकोण से देख रहे हो वस्तु रतनी ही नहीं, उलको ऐसे अनन्म दृष्टिकोणले देने जाने की क्षमता है, उसका विराट् स्वरूप अनन्त धर्मान्मक है। नई जो इरिकोश विरोधी मालूम होता है उसका ईमानदारी से विचार करी, वह भी वस्तु में विद्यमान है । विर में पक्षपान की दुरभिम्बन्धि निकालो और दूसरे के दृषिको को भी उतनी ही प्रामाणिकता से वस्तु में ग्योतो यह वहीं न्याय रहा है। हाँ, वरनु की सीमर और सादा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। नुम साहो कि जर मनत्य सजा जाय या पेहन में जदल, तो नहीं मिल सकता क्योंकि प्रत्येक पदार्थ के अपने अपने किसी धर्म निति है। मैं प्रश्यक वस्तु को अनन्त धर्मात्मा कह रहा हूँ, सर्वधर्मात्मा नहीं। अनन्त धर्मों में चेला के मम्भव शमन धर्म तम में मिलेंगे तथा अचेतन गत सम्भन धर्म अचेतन में पेतन के गम-धर्म अच्छेनन में नहीं पाये जा सकते और न अपेतन के चेनन में। हाँ. कल ऐसे सामःम्प धर्म भी है जो वेतन और अचेतन दोनों में माधारण रूप से पाए जाते है । तात्पर्य यह कि परत में बहुत साइश वह इतनी विराट है जो हमारे तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोकों से देखी और जानी जा सकती है। एक क्षुद-दृष्टि का रह करके इमो का निरम्हार करना या अपनी दृष्टि का ईकार करा तस्तु के कवरूप को नासमझी का परिणाम है। हरिभवसरि ने लिना , कि-- आग्रही यत मिनीपति गुक्ति तत्र यत्र मतिरस्य मिविया पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरति नियेशम् ॥"-लोकतत्त्वनिर्णय] अा--आग्रही म्गकि अब मनोवा के लिए युक्तियाँ ना है, युकियों को अपने मस की और ले जाता है, पर पक्षपातरहित मध्यस्थ व्यक्ति युकिमिव बातम्यरूप को स्वीकार करने में अपनी मनि की सफलता मानता है। अनेकान्त दर्शन भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वसुस्वरूप की ओर अपने मन को लगाओं हकि अपने निश्चित मत की ओर यस्तु और युक्ति की खींचातानी करके उन्हें बिगाचने का दुषयरस करो, और न कल्पना की उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तु की सीमा को ही लांघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमता के लिए यह वस्तुस्थितिमूलक अलेकान्स नवज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस मरतमधारी को ज्ञात हो सकेगा कि पह किनने पानी में है, उसका झम कितना स्वरूप है। और वह किस हुरभिमान से हिंसक मतवाद का सर्जन करके मानवसमा का अहित कर रखा है। इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्त दर्शन से विचारी मैं या दृष्टिकोनी में कामचलाउ समन्वय या दोलादाठा समझीना नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूप के आधार से यथार्थ नवज्ञानमूलक समन्बम तुष्टि प्राप्त होती है। ___डॉ. सर राधाकृष्यमान इण्डियम फिलासफी (जिन्द १० ३०५-) में स्थाबाद के उपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि इससे हमें केवल आशिक अथवा अर्धसत्य का ही ज्ञान हो सकता है, स्थादाद से हम पूर्ण सत्य को नहीं जान सकते। दूसरे शब्दों में-स्थाहाद में अर्धसत्वों के पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निक्षित अमिश्रित अर्थसत्यों को मिलाकर एक साथ रख देने से बंध पूर्वसत्य नहीं कहा जा कसा " आदि।
SR No.090296
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 1
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages609
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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