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मूल में शामिल करके नयी प्रति को जन्म नहीं दिया है। ऐसे स्थान में ताइपत्रीय प्रति के सिवाय अन्च प्रतियों के पाठ टिप्पण में दे दिये हैं।
एक ताडपत्रीय प्रति वारंग के मठ की भी हमें प्राप्त हुई थी। इसका उपयोग भी सन्दिग्ध पाठों के निर्णय के लिए दरातर किया गया है। यह प्रति प्रायः अशुद्ध है।
टिप्पण-इस ग्रन्य में भी 'न्यायकमदचन्द्र' जैसे तुलनात्मक टिप्पण देने का विचार था। वैसी शक्यता थीथी और सामग्री भोर पर यह कार्य बहुत समय और शक्ति ले लेता। अतः मध्यम मार्ग का अवलम्बन लेकर टिप्पण संक्षिप्त कर दिये हैं। इनमें महत्व के पाठभेद तथा पूर्वपक्ष का तात्पर्य उद्घाटन करने के लिए तत्तत्पूर्वपक्षीय ग्रन्थों के पाठ, उसकी टीका तथा अर्थबोधक टिप्पण ही विशेषरूप से लिखे हैं। ग्रन्थ को समझने में इनसे पर्याप्त सहायता मिलेगी। .
प्रस्तावना-प्रस्तावना में ग्रन्थ और ग्रन्थकार से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ खास मुद्दों पर संक्षेप में विचार किया है। कुछ प्रमेयों को नये दृष्टिकोण से देखने का भी लघुपयल हुआ है। स्थावाद और सप्तभंगी के विषय में प्रचलित अनेक भ्रान्तमतों की समीक्षा की गयी है। ग्रन्थकार अलकत्र के समय के सम्बन्ध में विस्तार से लिखने का विचार था पर अपेक्षित सामग्री को पूर्णता न होने से कुछ काल के लिए यह कार्य स्थगित कर दिया है। ज्ञानपीठ मूर्तिदवी ग्रन्थमशाला में आगे न्यायविनिश्वयविवरण' का द्वितीय भाग, 'तस्वार्थवार्तिक' और 'सिद्धिविनिश्चय-टीका' ये अकलङ्कीय ग्रन्थ प्रकाशित होनेवाले हैं। इनमें 'न्यायविनिश्वयविवरण' द्वितीय भाग आधा छप भी गया है। 'तरवार्थवार्तिक' तीन ताडपत्रीय तथा अनेक कागज पर लिखी गयी प्राचीन प्रतियों से शुद्धतम रूप में सम्पादित हो चुका है तथा सिद्धिविनिश्चयटीका पर भी पर्याप्त श्रम किया जा चुका है। आशा है, यह समस्त अकरावाङ्मय शीघ्र ही प्रकाश में आएगा। तब तक अकलङ्क के समय आदि की साधिका सामग्री पर्याप्त मात्रा में प्रकाश में आ जाएगी।
__ज्ञानपीठ के अनुसन्धान विभाग में अप्रकाशित अकलङ्कीय वाङ्मय का प्रकाशन तथा अशुद्ध प्रकाशित का शुद्ध प्रकाशन और तस्वार्थसूत्र की अप्रकाशित टीकाओं का प्रकाशन यही कार्य मुख्यतया मेरे कार्यक्रम में है। विविध विषय के संस्कृत, प्राकत और अपभ्रंश भाषा के दसों ग्रन्थ अधिकारी विद्वानों द्वारा सम्पादित हो चुके हैं, जो छपाई की सुविधा होते ही प्रकाशित होंगे। संस्कृतिसेवकों, जिनवाणीभक्तों और साहित्यानुरागियों को ज्ञानपीठ के साहित्य का प्रसार करके उसके इस सांस्कृतिक अनुष्ठान में सहयोग देना चाहिए।
आभार-दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जी तथा उनकी समरूपा धर्मपत्नी सौजन्यमूर्ति स्माली ने सांस्कृतिक साहित्योद्धार और नव-साहित्य-निर्माण को पुनीत भावना से भारतीय ज्ञानपीठ का संस्थापन किया है और इसमें धर्मप्राणा स्व, मातेश्वरी मूर्तिदेवी की भव्य भावना को मूर्तरूप देने के लिए ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला का संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में प्रकाशन किया है। इनकी यह संस्कृतिसेवा भारत के गौरवमय इतिहास का आलोकमय पृष्ठ बनेगी। इस भर दम्पती से ऐसे ही अनेक सांस्कृतिक कार्य होने की आशा है।
श्रद्धेय ज्ञाननयन पं. सुखलाल जी की शुभ भावनाएँ तथा उपलब्ध सामग्री का यथेष्ट उपयोग करने की सुविधाएँ और विचारोत्तेजन आदि मेरे पानस विकास के सम्बल हैं। श्रीमान् पं. नाथूरामजी प्रेमी का किन शब्दों में स्मरण किया साथ, वे चतुर माली के समान ज्ञानांकुरों को पल्लवित और पुष्पित करने में अपनी शक्ति का लेश भी नहीं छिपाते । आपका यादिराज सूरि वाला निबन्ध ग्रन्थकार भाग में उद्धृत किया गया है। सुहद्धर महापाड़ित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी कठिन तिब्बत-यात्रा में प्राप्त प्रज्ञाकर-गुप्तकृत 'प्रवाणवालिकालकार' की प्रति देकर तो इस ग्रन्थ के शुद्ध सम्पादन का द्वार ही खोल दिया है। मैं इन सब ज्ञानपथगामिवों का पुनः पुनः स्मरण करता हूँ।