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आचार्य पडद्यासागर सूरि
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-गुरुवाणी
गुरुवाणी
• प्रवचनकार . आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वरजी महाराज
• संकलन एवं संपादन •
साहित्यप्रेमी गणिवर्य श्री देवेन्द्रसागरजी महाराज
आ. श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर
श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र, कोवा (गांधीनगर) पि ३८2000
• प्रकाशन . श्री अष्टमंगल फाउन्डेशन, कोबा (गुजरात)
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गुरुवाणी
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• प्रकाशन •
श्री अष्टमंगल फाउन्डेशन
कोबा (गुजरात)
पुस्तक - गुरुवाणी
सुमधुरवक्ता आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज
के प्रवचनों का संकलन
संस्करण प्रथम सन् - 1996
• मुद्रक इम्प्रेस ऑफसेट
ई-17, सैक्टर 7 नोएडा - 201301 (यू.पी.)
दूरभाष:- 8527995 / 8529440 फेक्स:- (011) 8529536
• प्राप्ति स्थान • श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, जील्हा गांधीनगर (गुजरात) पीन नं. 382001
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41 यू ए जवाहर नगर, दिल्ली-110007
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%3Dगुरुवाणी
आमुख...
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भारत भूमि अनादिकाल से ऋषियों-मुनियों और तपस्वियों की जन्मस्थली रही है. सुधी सन्तों और आचार्यों ने अपनी साधना और अपार ज्ञान-गरिमा से निरन्तर भारतीय संस्कृति को अनुप्राणित किया. मुनियों की इसी मनीषा का प्रतिफल है कि आज भारतीय शाश्वत संस्कृति की अक्षय निधि समग्र विश्व में अपने अनूठे वैशिष्ट्य के लिए सुविख्यात है. प्रसिद्ध संस्कृति चिन्तक डॉ. हर्षनारायण के शब्दों में संस्कृतिर्भारतीया या सा न बहिर्विश्वसंस्कृतेः । देश के इन्हीं मर्मज्ञ आचार्यों ने अपने सतत सर्जनात्मक योगदान से भारतीय वाङमय को समृद्ध बनाया. आचार्यों की इसी परम्परा में आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे महान् साधक जैनाचार्य का आविर्भाव हुआ.. ___ बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न आचार्य हरिभद्रसूरि धर्म, दर्शन, कथा-साहित्य, योग, काव्यशास्त्र, ज्योतिष, आगम आदि के अद्भुत विद्वान् थे. संस्कृत, पाली तथा प्राकृत भाषाओं पर उनका अधिकार था और जैनागमिक प्रकरणों पर तो उनके विपुल साहित्य की सरिता प्रवाहित हो उठी. आचार्य श्री ने 'समराइच्चकहा' और 'धूत्तख्खाण' जैसे कथा-ग्रन्थों के साथ-साथ 'अनेकान्तजयपताका' 'षड्दर्शनसमुच्चय' आदि दार्शनिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया. योगसाधना के प्रबल-द्रष्टा आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योगबिन्दु' 'योगदृष्टिसमुच्चय' जेसे अनेकों अद्वितीय योगग्रन्थों को प्रणीत किया. उनकी साधना वस्तुतः एक महान योगी की साधना थी और इसका विलक्षण दिग्दर्शन उनकी प्रभूत आगमिक रचनाओं, जैसे 'अष्टप्रकरण', 'धर्मबिन्दु' आदि में होता है.
आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा प्रणीत 'धर्मबिन्दु' उनकी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है. आठ अध्यायों में विभक्त इस गद्यात्मक रचना में उन्होंने जैन धर्म की एक जीवन्त-झाँकी प्रस्तुत की है. सम्पूर्ण ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है और इसे सूत्रों की शैली में आचार्य ने अमूल्य रत्नों की तरह पिरोया है. इस कति में जैन धर्म के वास्तविक रूप का प्रतिपादन किया गया है. श्रावक-व्रत, अतिचार, शिक्षा-दीक्षा तथा दीक्षार्थी के गुणों का वर्णन इस पुस्तक का प्रमुख प्रतिपाद्य है. श्री आचार्य हरिभद्रसूरि के कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है कि 'धर्मबिन्दु' पर मुनिचन्द्र सूरि ने 3000 श्लोकों में संस्कृत में टीका लिखी है जिसका इटालियन और गुजराती भाषा में अनुवाद भी उपलब्ध है.
आचार्य हरिभद्रसूरि की दृष्टि समन्वयात्मक थी और उन्होंने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को जनमानस तक सम्प्रेषित करने का यावत् जीवन स्तुत्य प्रयास किया. 'धर्मबिन्दु' जैसे अनुपम ग्रन्थों की रचना करके उन्होंने अज्ञान के तिमिर में भटकते जागतिक प्राणियों
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ॐ
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गुरुवाणी
को अपने धर्मोपदेश एवं साहित्य से ज्ञान पथ पर आरूढ़ होने के लिए उत्प्रेरित किया. दिग्भ्रमित मानव को मुक्ति-मार्ग का वरण करने का उपदेश दिया और समाज के श्रेयस् के लिए अध्यात्म की शिक्षा दी.
सुमधुर वक्ता आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वरजी महराज ने विलक्षण सन्त परम्परा को अलंकृत कर हुए महान आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा प्रणीत ग्रन्थ 'धर्मबिन्दु' के आलोक में अपने प्रवचन द्वारा धर्म के विविध पक्षों पर प्रकाश डालकर व्यस्त और भ्रान्त जनमानस का पथ-प्रदर्शन किया, उन्हें अध्यात्म मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया ताकि वे मनुष्य जीवन की सार्थकता को पहचान सकें और आत्मा के तत्व का साक्षात्कार कर सकें. प्रस्तुत पुस्तक उसी दिव्य मृदुल वाणी की परिणति है.
वस्तुतः मनुष्य का जीवन दर्द और उत्पीड़न से ओत-प्रोत है. वह अपनी पीड़ा को अपने अन्तर्मन में समेटे हुए समाज के बीहड़ कानन में भटक रहा है. इसी उत्पीड़न से जकड़ा हुआ उसका मन इसके समाधान की अपेक्षा से अपने अनथक प्रयास में लगा हुआ है. चाहे वह अर्थोपार्जन हो अथवा भौतिक सुखों के प्राप्ति की अभीप्सा, मानवीय प्रपीड़न हो या सामाजिक शोषण, व्यक्ति अज्ञान के अंधकार से पूर्णतः अभिभूत है और यहाँ तक कि मनुष्य मनुष्यता से हाथ धोये जा रहा है. महर्षि अरविन्द का उद्घोष याद आता है- 'आधुनिकता को चीरकर देखो तो आदिम सांसारिक सुखों की उपलब्धि के अहर्निश प्रयास में मनुष्य अपनी वास्तविकता को भुला बैठा है, तृष्णा की संतुष्टि में लगा हुआ वह मनुष्य अन्ततः एक ऐसे कगार पर आकर खड़ा होता है जहाँ उसे मात्र निराशा ही मिलती है, उसकी सुख प्राप्ति की तृष्णा एक मृगतृष्णा बनकर रह जाती है' तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः '.
प्रस्तुत प्रवचन- कृति में श्रद्धेय आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वरजी महाराज अपनी मृदुल यथार्थ वाणी से निश्चय ही मनुष्य के अन्तर्मन को आन्दोलित कर देते हैं. निष्ठुर से निष्ठुर, आधुनिक से अत्याधुनिक पाषाण हृदय को भी गुरुवर की मर्मभेदी वाणी एक बार झकझोर देती है, उनकी सरस और वैज्ञानिक अभिव्यक्ति का पान कर किसी का भी मन कम्पित हो उठता है, वह तत्काल तो बरबस अध्यात्म में सन्नद्ध हो ही जाता है. बड़ा अपूर्व प्रज्ञा कौशल पिरो उठा है आचार्य श्री की इस कृति में श्रोता- पाठक इसके श्रवण-पठन में तन्मय हुए बिना नहीं रह सकता. यत्र-तत्र उद्धृत दृष्टान्तों की प्रासंगिकता एवं आंग्लभाषा की छुट-पुट शब्दावली से प्रस्तुत पुस्तक में भाषा की समरसता एवं सहजता जीवन्त हो उठी है.
दस अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में मनुष्य जीवन में सदाचार का मार्गदर्शन बड़े क्रमिक ढंग से दर्शाया गया है. दुःखी आत्माओं के दुःखों को दूर करने से आत्मा परिशुद्ध होकर परमात्मा की ओर उन्मुख होती है. पूज्य गुरु महाराज जी ने कहा है कि हमें कोई
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同
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- गुरुवाणी
भी कार्य जो लोकापवाद का कारण बने उसे नहीं करना चाहिए- 'लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः' करुणामय आचार्य ने जीवन के व्यवहारों और कर्त्तव्यों का बड़ा स्पष्ट विवेचन किया है. दधीचि ऋषि का दृष्टान्त देते हुए उन्होंने जीवन में परोपकार की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला 'परोपकाराय सतां विभूतयः' जब तक व्यक्ति में परहित की भावना नहीं उद्दीप्त होती उसका अन्तर्मन निर्मल नहीं बन पाता 'भावना भवनाशिनी' तुलसीदास जी ने भी स्पष्ट कर दिया हैं. "परहित सरिस धरम नहिं भाई. पर पीड़ा सम नहिं अधमाई." अर्थात् किसी भी प्राणी का मन वाणी अथवा कर्म द्वारा किसी भी रूप में कष्ट पहुँचाना या अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर उसका शोषण करना अक्षम्य अपराध है. यही सच्ची अहिंसा की अवधारणा है- 'अहिंसा परमो धर्मः', इसी से अशुभ कर्मों अथवा अन्तराय कर्मों के दूषित विकार को नष्ट करके व्यक्ति जीवन के सच्चे मर्म को पहचानने में सक्षम होता है.
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पूज्य गुरु महाराज जी का उपदेश जीवन की अशा को सर्वथा नष्ट करने के लिए है. एतदर्थ आवश्यकता है कि सर्वप्रथम मन को निर्मल बनाया जाए, तदनन्तर ही धर्म की प्रक्रिया आरम्भ हो सकती है. मन यदि पवित्र होगा तभी हम शान्तिपूर्वक साधना में प्रवृत्त हो पाएंगे और इसलिये हमें मन के सारे संशयों को तिलांजलि देनी होगी. श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- 'संशयात्मा विनश्यति'. एकमनस्थ होकर ही व्यक्ति साधना पथ पर आगे बढ़ सकता है. जीवन की नियमितता, आत्मा का अनुशासन, परमात्मा की आज्ञा का अनुगमन, सदाचार, परोपकार, दान, सत्य भाषण, अहिंसा ये सब साधना पथ और धर्म के सोपान हैं. इनके अनुपालन और आचरण से आत्मा का निर्मल साधना मन अध्यात्म में प्रवृत्त होता है. इस प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र की मोक्ष प्रदान कराती है.
निष्कर्षतः अल्प शब्दों में यही कहना समीचीन होगा कि परम श्रद्धेय आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वरजी महाराज के मृदुल कमल कंठ से निःसृत यह गुरुवाणी पुस्तक रूप में एक अमूल्य रत्न है जिसके अध्ययन से आज का दिग्भ्रान्त और सन्तप्त मनुष्य एक विलक्षण आनन्द की अनुभूति करेगा, उसका जीवन एक आदर्श जीवन बन जाएगा. यही मंगल कामना है.
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गणिवर्य देवेन्द्रसागर
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-साऊत-तपाणा
प्रकाशकीय...
मंत्र और सूत्र परम लघु होते हैं किन्तु होते हैं वे परम प्रभावकारी. आज इन दोनों के सम्बन्ध में एक दीवार यह खिंच गई है कि मंत्रों की क्रियाएँ और सूत्रों की व्याख्याये दुर्बोध होती जा रही हैं. जहाँ तक सूत्र ग्रन्थों का प्रश्न है, उनका विस्तार और उनकी व्यापकता केवल-प्रतीक के तौर पर आदर्श वचनों या सिद्धान्तों के रूप में सिमट कर रह गई है. जिस तरह किसी निबन्ध का शीर्षक बता देने से निबन्ध पूरा नहीं हो जाता, उसके लिए विषय की पूरी परिधि तक जाना पड़ता है, इसी प्रकार सूत्रों की सार्थकता उनकी व्याख्या पर निर्भर है. सोने चाँदी की दुकान का साइन बोर्ड पढ़ लेने से ग्राहक का काम नहीं चलता उसके लिए तो उसके अधिकृत स्वामी और उसकी ताली की आवश्यकता पड़ती है जो उसे खोल कर ग्राहक को एक एक करके दिखला दे.
गुरु भगवन्त आचार्य हरिभद्र सूरि का 'धर्मबिन्दु' एक ऐसा ही जौहरी की जवाहरातों से भरा हुआ सूत्र ग्रन्थ है जिसकी व्याख्या रूपी चाभी के अधिकारी राष्ट्रसंत, परम प्रभावक जैनाचार्य पूज्य पाद पद्मसागर सूरीश्वर जी महाराज हैं. संसार की सभी धार्मिक परम्पराओं में गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है. 'धर्मबिन्दु' पूर्ववर्ती आचार्य गुरु का सूत्र-ग्रन्थ है. इसलिए ग्रन्थ का नामकरण 'गुरुवाणी' के रूप में किया गया है, जो अपने पूर्वाचार्यों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता का परिचायक है.
ग्रन्थ के विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं. यह एक दर्पण हैं इसमें झाँक कर देख लीजिए इसमें आप की अन्तरात्मा की झलक मिलेगी क्योंकि प्रौढ़ प्रज्ञा के धनी आचार्य भगवन्त ने साधारण से साधारण विषयों को भी अनेकान्त दृष्टि से स्पष्ट किया है. विविध रूपकों, दृष्टान्तों, लौकिक और शास्त्रीय आख्यायिकाओं और उपाख्यानों द्वारा सरल, संवेदन शील और व्यंग्यात्मक शैली में की गई यह व्याख्या मात्र व्याख्या ही नहीं एक स्वतंत्र प्रणयन है. इसे आप पढ़ना आरम्भ करेंगे तो एक सांस में पढ़ लेना चाहेंगे. इसे आप बार बार पढ़ेंगे और जीवन भर अनुचिन्तन करेंगे क्योंकि यह कोई सामान्य पुरतक या वाणी नहीं है. यह एक वाड्.मय रूपी औषधि है जो भव के प्रहार से घायल हमारे आप के घावों को भरने में समर्थ है. गणिवर्य श्रद्धेय देवेन्द्र सागर महाराज ने इसका कौशल पूर्ण संकलन और संपादन करके तथा इसका उत्तम और सुरपष्ट रूप से मुद्रण करके हमारा बड़ा उपकार किया है.'
इस पुस्तक के मुद्रक-इम्प्रेस ऑफसेट, नोयडा के श्री साकेत प्रकाश एवं सिद्धार्थ प्रकाश के अत्यन्त आभारी है जिनकं अनथक प्रयत्नों से यह ग्रन्थ मोहक स्वरूप में आपके सम्मुख प्रस्तुत हो सका.
इसके प्रकाशन के लिए अष्ट मंगल फाउन्डेशन अपने को धन्य मानता है. फाउन्डेशन धर्म प्राण, परम उदार स्वनाम धन्य श्रावकों के भी आभारी है जिनके आर्थिक सहयोग से ग्रन्थ ने आकार ग्रहण किया. ____ आचार्य भगवन्त की प्रेरक, प्रभावक और उद्धारक वाणी जगत के जीवों का सतत कल्याण करती रहे और हम संसारी जीवन अपने कषायों से मुक्त होते रहें भावी प्रतीक्षा के साथ :
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-गुरुवाणी
प्रकाशन के सहयोगी
श्री. जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मंदिर, गांधीनगर - बेंगलोर श्री. आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर, चिकपेट, बेंगलोर श्री. मणिलाल प्रेमचंद मोरखिया (थराद निवासी) बम्बई श्री. सोहनलाल गौतम महावीर चौधरी चेरीटेबल ट्रस्ट अहमदाबाद
शा. धनराज कांतिलाल कांकरिया, अहमदाबाद 6 श्रीमती सूरजकंवर पारसमलजी गोलिया, बम्बई
शा. लालचंदजी भैरुलालजी चोपड़ा, अहमदाबाद शा. कालिदास ताराचंद शाह परिवार (पालीताणा निवासी) कलकत्ता श्री छोटमलजी सुराना, कलकत्ता स. सुधीर केशवलाल भन्साली, कलकत्ता स. रतनलाल मगनलाल देसाई, कलकत्ता श्री मुकुन्द सिंघवी, पटना श्री वीरचंद सुचन्ती, पटना श्री सुमेरजी छाबड - किशनगढ़ (राज.) श्री मनोजकुमार बाबुलाल जी हरण (सिरोही - राज.) गोवा श्री आनन्दचन्द जी ओस्तावल - कलकत्ता श्री अजयचन्द और विजय कमानी - कलकत्ता
श्री कान्तीलाल जी और श्रीमती कमल कुमारी तांबी - कलकत्ता 19 श्री निर्मलकुमार जी नवलखा परिवार - अजिमगंज (कलकत्ता) 20 श्री लक्ष्मीपतसिंह धनपतसिंह दुग्गड़ - कठगोला, जियागंज, कलकत्ता 21 श्री दीपक ऑफ 22 श्री एसदु संस्थान 23 श्री कांकरिया चैरिटेबिल ट्रस्ट - कलकत्ता
सेठ किशनलाल कांकरिया चैरिटेबिल ट्रस्ट 24. स्व. श्री अनूप चंदजी सेठ की स्मृति में - कलकत्ता 25 श्री मदनचंदजी प्रकाश - कलकत्ता
श्री चंदजी हस्तिमाल बेगनी - कलकत्ता 26 श्री देवेन्द्र बोथरा - कलकत्ता 27 श्री मोतीलालजी महेन्द्र कुमार सेठिया - कलकत्ता 28 श्रीमती कनककुमारी और उषाकुमारी बोथरा - कलकत्ता 29 रायचंद चोरडिया - कलकत्ता 30 स्व. श्री राजेन्द्रसिंह सिंघवी - अजिमगंज, कलकत्ता 31 प्रेमचंद मोघा, कलकत्ता 32 श्री जयकुमार सिंह, अजयकुमार सिंह, निर्भयकुमार सिंह, भागलपुर, कलकत्ता 34 स्व. श्री उमरोदेवी बोथरा की स्मृति में....
हम सभी के आभारी है अष्टमंगल फाउन्डेशन
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गुरुवाणी
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सौजन्य स्मरण
'गुरूवाणी'
प्रकाशन में सहयोग प्रदान करने वाले सभी महानुभावों के हम हार्दिक आभारी हैं।
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गुरुवाणी
डा. नथमल टाटिया, निर्देशक जैन अगम ट्रांसलेशन प्रोजेक्ट
गुरूवाणी - एक परिचय
"गुरुवाणी” का अवलोकन का परम सुअवसर प्राप्त हुआ। परमपूज्य आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्ववरजी महाराज के 31 प्रवचनों के इस संग्रह में जैन धर्म के लोकहितकारी अनेक तत्त्व सुचारू रूप में लिपिबद्ध हुए हैं। विषय-प्रतिपादन शैली इतनी कुशल है कि साधारण से साधारण पाठक भी इसे सहजता से समझ लेता है। जैन धर्म की व्यापकता एवं गभीरता का मान पाठक को सहज ही इन प्रवचनों के अध्ययन से हो जाता है। जीवन-विज्ञान एवं जीवन-कला के कई मूल्यवान तत्त्व इन प्रवचनों के माध्यम से पाठकों के हदय में अंकित हो जाते हैं, जो उनकी जीवन शैली में मौलिक परिवर्तन लाने में प्रचर मात्रा में सक्षम हैं। __"गुरूवाणी" हमारे जीवन की कई समस्याओं का स्पष्ट रूप से समाधान देती है। संसार की दर्दनाक वास्तविकता के कई प्रसंग इन प्रवचनों में प्रांजल भाषा में लिपिबद्ध हैं, जो हमें जीवन-यापन की सही दिशा बताते हैं। भगवान महावीर के उपदेशों की मौलिक विशेषता को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री ने कहा है महावीर का वचन सापेक्ष है उसमें आपको संसार की बात भी आयेगी, सामाजिक दृष्टि से भी चिन्तन मिलेगा, आपके शारीरिक आरोग्य के बारे में भी जानकारी मिलेगी, आध्यात्मिक दृष्टि से परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी उसके अन्दर आप को मिलेगा।
परमपूज्य आचार्य श्री का ज्ञानभंडार अति विशाल हैं जीवन की सूक्ष्म गहराइयों को पहिचानने की उनकी शक्ति अपार है। वास्तविकता को अपने नग्न रूप में प्रदर्शित करने की उनमें अपार क्षमता है। पुराने आख्यानो, कथाओं एवं घटनाओं के माध्यम से आधुनिक जीवन की समस्याओं के समाधान के मार्ग उनके प्रवचन प्रशस्त करते हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्राचीन जैनाचार्यों ने अपनी गंभीर सूत्रात्मक वाणी द्वारा तत्कालीन प्रबुद्ध वर्ग के समक्ष जिस समन्वयात्मक अहिंसा एवं अनेकांत सिद्धांत को रखा था, आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वर जी महाराज ने आधुनिक जगत् के हितार्थ आधुनिक भाषा में उसे ही पद्धति से व्यावहारिक रूप प्रदान किया और गणिवर्य श्री देवेन्द्रसागरजी ने उसी सहजता से आचार्यश्री के प्रवचनों को आवश्यक सम्पादन द्वारा पुस्तक का आकार दिया है। आचार्यश्री की ओजस्वी वाणी का प्रभाव लिखित पुस्तक के रूप में उतना ही निखरकर आया है, इसके लिए गणिवर्य देवेन्द्रसागरजी साधुवाद के पात्र हैं.
नथमल टाटिया
6-3-96
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गुरुवाणी
अनुक्रमणिका
अध्याय विषय
पृष्ठ
Na
85 101 122 141 160 180
202
12.
220 241 181 304
14.
15.
16.
मंगलाचरण की परम्परा तथा अहंकार का विनाश आत्म-संतोष के उपाय गृहस्थ-जीवन में नैतिकता, प्रेम और द्रव्य अर्जन आत्म-विकास के सोपान : परोपकार और प्रेम ध्यान और साधना में मन की एकाग्रता सत्य और सदाचार : गृहस्थ जीवन के मूल आदर्श करूणा, त्याग और परोपकार धर्म का वास्तविक स्वरूप जीवन का आधार-शिष्टाचार क्रिया और आचार में श्रद्धा का महत्व मोक्ष का राज मार्ग (ज्ञान-दर्शन और चरित्र) संकल्प से आचार की सिद्धि आठ गुणों का चमत्कार वाक संयम सहनशीलता और प्रायश्चित तीन प्रश्नों का समाधान आत्मा की रक्षा के लिए बलिदान वाणी का व्यापार प्रेम, मैत्री और मुक्ति समाधान संवाद से, विवाद से नहीं क्रिया-सिद्धि क्रिया-विधि धर्म का मर्म आचार का मर्म ब्रह्मचर्य का मर्म काम पर विजय क्रोध पर संयम आवास का विधान कर्म का फलोदय आहार का संयम पर्युषण की साधना धर्मबिन्दु विषयानुक्रम
320
11.
18. 19.
334 353 374 391
407 427
23.
21.
444 461 476 491 507 527 544 564 585
28.
29.
30.
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निरन्तर विकास के पथ पर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
(कोबा-गांधीनगर)
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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा आज इतना प्रसिद्ध हो गया है कि इसके साथ तीन नाम जुड़ गये हैं - प्रथम आचार्य श्री कैलाससागरसूरि की पावन स्मृति, द्वितीय आचार्य श्री पद्मसागरसूरि म. सा. की प्रेरणा से विकसित यह तीर्थ तथा तृतीय अपने आप में अनुपम आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर। इनमें से किसी का भी नाम लेने पर स्वतः ये तीन स्वरूप उभर कर आते हैं। ये तीनों एक दूसरे के
पर्याय बन चुके हैं। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि अहमदाबाद-गांधी नगर राजमार्ग पर स्थित यह तीर्थ साबरमती नदी के समीप सुरम्य वृक्षों की घटाओं से घिरा हुआ प्राकृतिक शान्तिपूर्ण वातावरण का अनुभव कराता है। गच्छाधिपति, महान जैनाचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य राष्ट्रसंत, आचार्य प्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शुभाशीर्वाद से यहाँ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की स्थापना 26 दिसंबर 1980 के दिन की गयी थी। आचार्यश्री की यह
महावीरालय
इच्छा थी कि यहां ज्ञान और धर्म-प्रवृत्तियों का महासंगम हो। एतदर्थ आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. की स्मृति में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का भी निर्माण किया गया। आज श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र अनेकविध प्रवृत्तियों में अपनी विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं में विकसित हो चुका है और विस्तारण कार्य प्रगति पर है। महावीरालय: हृदय में अलौकिक धर्मोल्लास जगाने वाला अतिभव्य जिनेश्वर महावीरस्वामी का प्रासाद महावीरालय निर्मित किया गया है। प्रथम तल पर गर्भगृह में मूलनायक महावीरस्वामी आदि 11 प्रतिमाओं के दर्शन अलग-अलग देहरियों में होते हैं तथा भूमि तल पर आदीश्वर भगवान
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की भव्य प्रतिमा, माणिभद्रवीर तथा भगवती पद्मावती सहित पांच प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं। सभी प्रतिमाएँ अत्यन्त मोहक एवं चुम्बकीय आकर्षण रखती हैं। इस महावीरालय की विशिष्टता यह है कि आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के अन्तिम संस्कार के समय प्रतिवर्ष 22 मई को दुपहर, समय 2.07 बजे महावीरालय के शिखर में से होकर सूर्य किरणें श्री महावीरस्वामी के तिलक को देदीप्यमान करती है। गुरुमंदिर : पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के पुण्य देह के अन्तिम संस्कार स्थल पर पूज्य श्री की पुण्य स्मृति में संगमरमर का कलात्मक गुरु मंदिर निर्मित किया गया है। स्फटिक रत्न से निर्मित अनन्तलब्धि निधान श्री गौतमस्वामीजी की मनोहर मूर्ति तथा स्फटिक से ही निर्मित गुरु-पादुका वास्तव में दर्शनीय है। इस गुरु मंदिर में आचार्य श्री के जीवन-प्रसंगों को स्वर्णाक्षरों से अंकित करने की योजना है।
गुरुमंदिर
।
आराधना भवन : आराधक यहाँ आत्माराधना कर सकें इसके लिए आराधना भवन का निर्माण किया गया है। मुनि भगवंत यहाँ स्थिरता कर अपनी संयम आराधना के साथ-साथ विशिष्ट ज्ञानाभ्यास, ध्यान, स्वाध्याय आदि का योग प्राप्त करते हैं। प्राकृतिक हवा एवं प्रकाश से भरपूर इस आराधना भवन में एक प्रवचन खण्ड व 18 कक्ष हैं। इनमें से छ: कक्ष भूगर्भ में हैं जो ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय के लिये विशेष उपयुक्त हैं। साधु भगवंतो के उच्चस्तरीय अध्ययन के लिए अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान पंडितजनों का विशिष्ट प्रबन्ध किया गया है। यह ज्ञान, ध्यान तथा आत्माराधना के लिये विद्यानगर काशी के सदृश सिद्ध हो सके, इस हेतु प्रयास किये गए हैं तथा आगे भी चल रहे हैं।
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शेठ शानियाल लल्लूभाई शाह भजन आराधना भवनऊ.
आराधना भवन
मुमुक्षु कुटीर : देश विदेश के जिज्ञासुओं, ज्ञान पिपासुओं के लिए दस मुमुक्षु कुटिरों का निर्माण किया गया है। हर खण्ड जीवन यापन सम्बन्धी प्राथमिक सुविधाओं से सम्पन्न है। संस्था के नियमानुसार विद्यार्थी मुमुक्षु सुव्यवस्थित रूप से यहाँ उच्चस्तरीय ज्ञानाभ्यास, प्राचीन एवं अर्वाचीन जैन साहित्य का परिचय एवं संशोधन तथा मुनिजनों से तत्वज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। जिससे वे समाज में ज्ञान का सही रूप से प्रचार-प्रसार कर सकेंगे।
मुमुक्षु कुटीर ।
अल्पाहार गृह : यहाँ आनेवाले श्रावकों, दर्शनार्थियों, मुमुक्षुओं, विद्वानों एवं यात्रियों की सुविधा हेतु भोजनालय व अल्पाहार गृह की सुन्दर व्यवस्था है, जिसमें जैन सिद्धान्तों का पालन करते हुए तदनुरूप सात्त्विक भोजन उपलब्ध कराया जाता है।
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की यह आत्मा है। यह स्वयं अपने आप में एक विशाल संस्था है। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के अन्तर्गत निम्नलिखित विभाग कार्यरत हैं: देवदिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार : देवदिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भाडागार में लगभग 2,25,000 से अधिक प्राचीन दुर्लभ हस्तलिखित शास्त्र ग्रंथ हैं। इनमें आगम,न्याय, दर्शन, योग, व्याकरण, इतिहास आदि विषयों से सम्बन्धित अदभूत ज्ञान का सागर है। इस भांडागार में 1.000 से अधिक प्राचीन व अमल्य ताड़पत्रीय ग्रंथ विशिष्ट रूप से संगृहित है। इतना विशाल संग्रह किसी भी संग्रहालय के लिये गौरव का विषय हो सकता है। आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी ने अपनी भारत-भर की पदयात्रा के दौरान छोटे-छोटे गाँवों में असुरक्षित, उपेक्षित एवं नष्ट हो रही भारतीय संस्कृति की यह अनूठी निधि लोगों को प्रेरित कर संग्रह करवाई है। यहाँ इन बहुमूल्य कृतियों को विशेष रूप से बने ऋतुजन्य दोषों से मुक्त कक्षों में पारम्परिक ढंग से विशिष्ट प्रकार की काष्ठ-मंजूषाओं में संरक्षित किया जा रहा है। क्षतिग्रस्त प्रतियों को रासायनिक प्रक्रिया से सुरक्षित करने की बृहद योजना है। अनेक हस्तलिखित ग्रंथ सुवर्ण व रजत से आलेखित, तथा सैंकड़ों सचित्र हैं।
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आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार :
ज्ञानमंदिर में भूतल पर विद्वानों आदि हेतु कक्ष / उपकक्ष सहित पाठकों के लिए अध्ययन की सुन्दर व्यवस्था युक्त आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार नामक ग्रंथालय है। यहाँ कुल मिला कर लगभग 78,000 मुद्रित प्रतें एवं पुस्तकें हैं । ग्रंथालय में भारतीय संस्कृति, सभ्यता, धर्म एवं दर्शन के अतिरिक्त विशेष रूप में जैन धर्म से सम्बन्धित सामग्री सर्वाधिक है। इस सामग्री को इतना अधिक समृद्ध किया जा रहा है कि जैनधर्म से सम्बन्धित कोई भी जिज्ञासु यहाँ आकर अपनी जिज्ञासा पूर्ण कर सके ।
श्री राजारामंदिर वैसा घर साजिदा सत्र जी
॥
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सम्राट सम्प्रति संग्रहालय :
सम्राट सम्प्रति संग्रहालय ज्ञानमंदिर में प्रथम तल पर अवस्थित है । पुरातत्त्व - अध्येताओं और जिज्ञासु दर्शकों के लिए प्राचीन भारतीय शिल्प परम्परा के गौरवमय दर्शन इस स्थल पर होते हैं। पाषाण व धातु मूर्तियों, ताड़पत्र व कागज पर चित्रित पाण्डुलिपियों, लघुचित्र, पट्ट, विज्ञप्तिपत्र, काष्ठ तथा हस्तिदंत से बनी प्राचीन एवं अर्वाचीन अद्वितीय कलाकृतियों तथा अन्यान्य पुरावस्तुओं को बहुत आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक ढंग से प्रदर्शित करने के साथ ही कहीं भी उनकी धार्मिक एवं सांस्कृतिक अवहेलना न हो, इसका पूरा ध्यान रखा गया है।
ब्रोमायभवने वजेचनयात्रा
गदानत्रमवदुगाकावा
संग्रहालय को आठ खंडों में विभक्त किया है. 1. वस्तुपाल तेजपाल खंड, 2. ठक्कर फेरू खंड, 3. परमार्हत् कुमारपाल खंड, 4. जगत शेठ खंड, 5. श्रेष्ठि धरणाशाह खंड, 6. पेथडशा मन्त्री खंड, 7. विमल मंत्री खंड 8. दशार्णभद्र मध्यस्थ खंड.
प्रथम एवं द्वितीय खंड में पाषाण एवं धातु की प्राचीन कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है, जिनमें तीर्थंकर की प्रतिमाएँ अपनी अलौकिक एवं अभूतपूर्व मुद्रा के साथ प्रदर्शित है. तृतीय एवं चतुर्थ खंड में श्रुत संबंधित जानकारियाँ दी गई है. ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से इ. 15वीं शताब्दी तक ब्राह्मी लिपि का विकास, आलेखन माध्यम, आलेखन तकनीक, एवं आलेखन संरक्षण के नमूने प्रदर्शित किये गये हैं. इनके अलावा आगम शास्त्र एवं अलग-अलग विषयों से संबंधित हस्तलिखित ग्रंथ भी प्रदर्शित किये गये हैं ।
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पांचवे और छठे खंड में गुजरात की जैन चित्र शैली के इस्वी. 11वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के चित्र, सचित्र हस्तप्रतें, सचित्र गुटके, आचार्य भगवंतों को चातुर्मास के लिए आगमन हेतु विज्ञप्तिपत्र एवं प्राचीन यंत्र चित्रादि वस्त्र पर प्रदर्शित किये गये हैं।
सातवें खंड में चंदन एवं हाथी दांत की सुंदर कलाकृतियां प्रदर्शित की गई हैं जो दर्शकों का मन मोह लेती है। इनके अलावा परंपरागत कई पुरावस्तुओं का प्रदर्शन भी किया गया है।
सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय अपने विकास के पथ पर अग्रसर है। सभी कलाकृतियों को एक ही स्थान पर सुसंयोजित करना, संरक्षण करना, समय-समय पर विशिष्ट प्रदर्शन की योजना बनाना, संशोधन करना, कीटादि से बिगड़ी हुई कलाकृतियों को पुनः संस्कारित करना और जैन संस्कृति की प्राचीनता एवं भव्यता के प्रमाण पत्र समाज तक पहुंचाना इस संग्रहालय का ध्येय है।
आर्यरक्षितसूरि शोधसागर : ज्ञानमंदिर में संगृहित हस्तलिखित ग्रंथों तथा मुद्रित पुस्तकों की व्यवस्था करना एक बहुत ही जटिल कार्य है लेकिन ग्रंथ सरलता से उपलब्ध हो सके इसके लिये बहुउद्देशीय कम्प्यूटर केन्द्र ज्ञान मंदिर के द्वितीय तल पर कार्यरत है। ग्रंथालय सेवा में कम्प्यूटर का महत्त्व वर्तमान समय में अत्यंत आवश्यक हो गया है। हस्तलिखित व मुदित ग्रंथों, उनमें समाविष्ट कृतियों तथा पत्र पत्रिकाओं का विशद् सूची-पत्र एवं विस्तृत सूचनाएँ कम्प्यूटराइज की जा रही हैं।
महावीर-दर्शन (कलादीर्घा) : भगवान महावीर के प्रेरणादायक प्रसंगों को प्रदर्शित करने के लिए इस कलादीर्घा का निर्माण प्रगति पर है। यहां भगवान महावीर व उनकी अविच्छिन्न परम्परा में हुए तेजस्वीपुज्ज श्रमण व श्रावकों के प्रेरणादायक प्रसंगो को ध्वनि तथा प्रकाश हलन चलन से युक्त प्रतिमाओं द्वारा सजीव करने का प्रयास किया जाएगा।
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सम्पूर्ण परिकल्पना के स्वप्नदृष्टा एवं शिल्पी तत्कालीन, गच्छाधिपति आचार्य भागवन्त श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के असीम आशीर्वाद व युगद्रष्टा, राष्ट्र सन्त, महान जैनाचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के अथक-अनवरत परिश्रम, कुशल मार्गनिर्देशन एवं सफल सान्निध्य के फलस्वरूप श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र अपने आप में एक जीवन्त ऐतिहासिक स्मारक बन गया है। इस ज्ञानयज्ञ में आचार्य प्रवर के शिष्य व प्रशिष्य रत्नों के अहर्निश सद्प्रयास, कार्यकर्ताओं की लगन तथा उदार दान-दाताओं का अविस्मरणीय सहयोग भुलाया नहीं जा सकेगा। दर्शकों एवं विद्वानों ने हमारी व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है तथा हमारी सुचारु एवं चिरकाल तक हस्तप्रतों को संरक्षित करने की व्यवस्था से प्रभावित होकर अनेक जैन संघों ने बंद पड़े ज्ञान भण्डार एवं लोगों ने स्वयं अपने व्यक्तिगत संग्रहो को हमें भेट दिया है। निकट भविष्य में
विस्तार की यहां अनगिनत सम्भावनाएं तथा योजनाएं है, विशेष रूप से एक विशाल साध्वीजी उपाश्रय, यात्रिक धर्मशाला तथा अद्यतन भोजनालय शीघ्र ही बन जायेगा। वास्तव में आचार्यश्री और श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र एक दूसरे के पर्याय बन गये है।
नम्र निवेदन : संस्था के वर्तमान स्वरूप को संरक्षित करने तथा विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए आपसे तन-मन-धन से सहयोग अपेक्षित है।
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र (रजि. नं. A2659, Ahmedabdad) को दिया गया अनुदान आयकर अधिनियम 80G के अन्तर्गत कर-मुक्ति का अधिकार रखता है।
सहयोग ही सफलता की कुंजी है
संम्पर्क सूत्र : श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा गांधीनगर - 382 001. (गुजरात) (भारत)
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श्रीमद् बुद्धिसागर सूरीश्वरजी म. सा.
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आचार्य पद्मसागरसूरि
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आचार्य श्री पद्मसागरसूरि म.सा. हृदय के उद्गार - ओजस्वी प्रवक्ता
जैनाचार्यों की गरिमापूर्ण अर्वाचीन परम्परा में एक यशस्वी नाम है : आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज का. व्यवहार-कौशल्य, वाक्पटुता, स्वाभाविक सहजता, निर्भीक अभिव्यक्ति, कर्त्तव्य-परायणता, अनुशासनप्रियता, अद्भुत साहसिकता, नेतृत्व-सक्षमता इत्यादि अनेकानेक सद्गुणों से निखरता आपका जीवन जन-सामान्य के लिए आदर्श और वरदान हैं, तो मानवता व साधुता के लिए सुखद संवाद. महान आदर्शों के ठोस धरातल पर निर्मित हुआ आपका प्रतिभासम्पनन व बहुमुखी व्यक्तित्व प्रारम्भ से ही संघर्षशील रहा है. ध्येय के प्रति अपार निष्ठा और सद्विचारों व सदाचारों के लिए समर्पित आपका जीवन अपने आप में एक उपलब्धि है.
आचार्यश्री के प्रवचनों के सन्दर्भ में लोग कहते हैं कि आप जादूगर हैं. प्रवचन में लोगों को बांधे रखने के आपके सामर्थ्य की होड़ नहीं हो सकती. आप प्रभावशाली प्रवचनकार व
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बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. भाषा की सरलता, कथयितव्य की स्पष्टता, अभिप्राय की गम्भीरता, विचारों की व्यापकता, प्रस्तुति की मौलिकता आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज के प्रवचनों की विशेषता है. नाभि से निकले आपके सचोट शब्द श्रोताओं के हृदय को गहराई तक आंदोलित करते हैं. आपके प्रवचनों ने जनता में अद्भुत लोकप्रियता प्राप्त की है. जैन सामाज को आप पर गर्व है. आपके ओजस्वी प्रवचनों से व्यक्ति और समाज में आए परिवर्तन तो अगणित हैं.
अष्टमंगल फाउन्डेशन
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S
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ग
परम पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा.
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गणिवर्य देवेन्द्रसागर
परम पूज्य दादा गुरू आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज सदैव ही मेरी प्रेरणा के स्त्रोत रहे हैं। आदरणीय गुरुवर्य की महती कृपा ही साधना पथ को निष्कंटक बनाकर सहज प्रगति में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई हैं। ___ आचार्यश्री के मुखारबिन्द से निकले हुए आशीर्वचन सभी श्रावकों को धर्म मार्ग पर चलने की उत्कट आकांक्षा एवं अक्षुष्ण शक्ति देते हैं। प्रवचनों द्वारा दिया गया आचार्य श्री का मार्गदर्शन श्रावकों को उन्माद से झकझोर कर जगा देता है और उन्हें मोक्षमार्ग पर चलने के लिए निरन्तर प्रेरित करता है। - आचार्य श्री के निरन्तर प्रवचन सुनने से मेरा हृदय आन्दोलित हुआ एवं एक इच्छा हुई कि आचार्य श्री के प्रवचनों को लिपिबद्ध कर के श्रावकों के सम्मुख प्रस्तुत करूं जिससे भ्रमित मानवता को सही दिशा देने वाले आचार्यश्री के प्रवचनों का लाभ जनसाधारण को प्राप्त हो सके।
आचार्य श्री के ओजस्वी प्रवचन श्रावक वर्ग के हृदय को आन्दोलित कर न केवल उन्हें अपनी आसक्तियों व कषाय युक्त जीवन के प्रति असारता का स्मरण करा देते हैं अपितु उन्हें दृढ़ता से कषाय युक्त होकर धार्मिक प्रवृत्ति में विचरण को प्रेरित करते हैं। ___ आचार्यश्री की ओजस्वी वाणी एवं उनकी विशिष्ट शैली श्रवण करने पर जितना श्रावक को आन्दोलित करती है उसका लेश मात्र प्रभाव भी इन लिपिबद्ध प्रवचनों द्वारा आए तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझूगा। __मेरा यह प्रयास धर्म प्रवृत्ति को विकसित करने में सहायक बने, कषाय युक्त जीवन की प्राप्ति हो एवं मोक्षमार्ग कंटक विहीन हो, यही प्रार्थना है।
गणिवर्य देवेन्द्रसागर
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समर्पण
कषाय व दुखों में खोई हुई उस जनता को! जिसकी दृष्टि मोक्षमार्ग की किरण पाने के लिए बरसों से भटक
अष्टमंगल
मंगल फॉउन्डेश
उन्डेशन
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- गुरुवाणी
मंगलाचरण की परम्परा तथा अहंकार का विनाश
करुणामय आचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने अपनी अद्भुत रचना धर्मबिन्दु के द्वारा अपने चिन्तन को प्रारम्भ करने से पूर्व सर्वप्रथम परमात्मा के उपकार का स्मरण किया. वस्तुतः भारतीय और आर्य संस्कृति की परम्परा में कोई भी मंगल कार्य हम प्रारम्भ करते हैं तो सर्वप्रथम परमात्मा एवं गरुजनों को नमस्कार करने के पश्चात ही उसका श्रीगणेश करते हैं, चाहे वह कार्य लौकिक हो या आध्यात्मिक.
आचार्यप्रवर ने जहां जीवन का सुन्दर मार्गदर्शन किया, वहीं उन्होंने सर्वप्रथम परमात्मा को स्मरण करके अपने भावों को अभिव्यक्ति दी कि हे प्रभु! प्रस्तुत रचना में किसी प्रकार से मेरी बौद्धिक विकृति न आये, मेरे द्वारा लोगों को कोई गलत मार्ग-दर्शन न मिले. जो आपने कहा, वही मैं लोगों तक पहुंचाने वाला बनूं. यही इस मंगल सूत्र का आशय है.
उन्होंने अपने अन्तर्भाव प्रकट किए, उनके अन्तरंगों से उन शब्दों का आविर्भाव हुआ. अन्तर्भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्द एक माध्यम है जैसा कि उन्होंने कहा -
प्रणम्य परमात्मानं, समुद्धृत्य श्रुतार्णवात्।
धर्मबिन्दु प्रवक्ष्यामि, तोयबिन्दुमिवोदधेः।। तदन्तर प्रार्थना में उन्होंने ऐसी लघुता प्रकट की कि भगवन् मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. यह जो कुछ विद्यमान है, सब तेरी कृपा की ही परिणति है. तेरे कहे हुए शास्त्रों में से, उस शास्त्र के महोदधि में से, मैंने तो एकबिन्दु मात्र प्राप्त किया. अब इस ग्रन्थ के द्वारा जो कुछ भी यहां रखूगा, वह अपने वैदुष्य प्रदर्शन के लिए नहीं, अपितु इसका उद्देश्य संसार के बहत बडे समुदाय को तेरी आप्तवाणी से लाभान्वित कराना है. उन्हीं आत्माओं के उपकार के लिए मैंने इस ग्रन्थ की रचना की. इस रचना का ध्येय कोई अपनी विद्वत्ता को प्रदर्शित करने के लिए नहीं, न ही अभिमान बताने के लिए, और न ही यह दर्शाने के लिए कि मैं कितना जानकार हूँ, परन्तु जो कुछ भी मैंने तेरे साहित्य के समुद्र में से प्राप्त किया, यह तो तेरे वचनों के पयोधि में से एक बिन्दु मात्र है. जगत् के हित के लिए, आत्माओं के कल्याण के लिए, अनेक लोग तेरे प्रवचन से धर्म का अनुपालन करें, आत्म कल्याण करें - इसी आशय से इस ग्रन्थ के माध्यम से मैं लोगों तक परमात्मा की वाणी का सम्प्रेषण कर सकँ.
उक्त श्लोक के प्रारम्भ में सर्वप्रथम शब्द का जो प्रयोग किया गया, वह सर्वथा अचिन्त्य है – पहले ही नमस्कार "प्रणम्य परमात्मानं” से अभिप्राय है वह परमात्मा जो परिपूर्ण है, जिनके अन्दर राग और द्वेष का सर्वथा अभाव है, सारी दुनिया जिनको परमात्मा के रूप में स्वीकार करती है, जो पूर्ण है, परमेश्वर है, निरंजन है, निराकार है, ज्योतिस्वरूप
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-गुरुवाणी:
है और सम्पूर्ण शक्ति में जिनकी चेतना है, जिनकी चेतना अनन्त शक्तिमयी है, उस सम्पूर्ण परमपुरुष परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ____ आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने किसी प्रकार की कोई साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं बतलाई
और न ही किसी प्रकार से उन्होंने अपनी मनोविकृति का परिचय दिया. परन्तु जो निरंजन है, जो आत्मा सर्वथा कर्म से रहित है, निराकार है अर्थात् जिसका कोई आकार नहीं, शरीर नहीं, मन नहीं, कर्म कुछ भी नहीं, ऐसे निराकार परमेश्वर और अनन्त सिद्धमय आत्मा को नमस्कार करके मैं इस ग्रन्थ की रचना कर रहा हूँ, ऐसा कहा.
नमस्कार इसीलिए किया जाता है कि यत्किंचित् अहम का अंश अन्दर हो नमस्कार के उपरान्त उसका विसर्जन हो जाय. बोतल के अन्दर यदि कोई गलत चीज हो और आप उसे झुकाएँ तो वह ढल जाती है, निकल जाती है. इस प्रकार मन की बोतल के अन्दर यदि अहंकार का प्रवेश हो गया हो, किसी कारण से यदि ज्ञान में अजीर्ण हो गया हो, मन के अन्दर विकृति आ गई हो तो नमस्कार जैसी क्रिया के द्वारा मन के बोतल में से अपने अहंकार का मैं विसर्जन कर रहा हूँ और भगवन् तेरे स्मरण के द्वारा उस बोतल को मैं पूर्ण कर रहा हूँ ताकि मेरे अन्दर सद्भावना बनी रहे. निष्पक्ष रूप से लोगों को मार्गदर्शन देने वाला बनूं.
जैन साधु किसी पक्ष का वकील नहीं होता. किसी सम्प्रदाय की वकालत नहीं करता. जो सत्य है, जो आत्मा है, आत्मा के अन्दर रह रहे जो भी पदार्थ हैं और जो परिपूर्ण परमेश्वर है, वह साधु उन्ही का पक्षधर होता है. यही महान आचार्य हरिभद्रसूरि का कथन है. जिसे उन्होंने इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया:
न मे पक्षपातो वीरे न द्वेषः कपिलादिषु।
युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।। __ऐसी सुन्दर बात उन्होंने लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर स्पष्ट कर दिया कि मैं महावीर का वकील नहीं हूँ. महावीर के वचन का बचाव करने वाला नहीं हूँ, किसी के पक्ष का मैं नहीं हूँ. अन्य दर्शनों से, अन्य धर्मों से मेरा कोई अन्तर्द्वष नहीं है.
"युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः" आचार्यश्री ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिनका पक्ष परम सत्य है, जिनके कथन में सत्य है, मैं उनका पक्ष करने वाला हूँ, चाहे वह महावीर ने कहा हो, या राम ने कहा हो या कि वह श्रीकृष्ण का उपदेश हो, जहाँ परम सत्य है एवं आत्मा से संबंधित जो भी बातें हैं मैं उसका सहर्ष अनुमोदन करता हूँ, सत्य का पक्ष लेकर ही मैं चलने वाला हूँ. किसी पक्ष का वकील नहीं, किसी पक्ष का रागी नहीं, मैं तो केवल सत्य का अनुरागी हूँ..
अपनी पवित्रता को प्रकट करने हेतु की गयी सर्वोत्कृष्ट क्रिया - नमस्कार की क्रिया है. दुनिया के प्रत्येक धर्म के अन्दर इस नमस्कार को सर्वप्रथम महत्त्व दिया गया है. यह अत्यन्त रहस्य का विषय है. इसके द्वारा व्यक्ति अपनी पात्रता, अपनी योग्यता का सम्पादन
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-गुरुवाणी
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करता है. इसीलिए क्रिया के अन्दर नमस्कार का महत्व रखा, नमस्कार क्रिया के अन्दर अपने अहंकार का विसर्जन किया जाता है. मन से संसार को निकालने का प्रयास किया जाता है और नमस्कार के द्वारा आत्मा इस प्रकार की योग्यता एवं पात्रता प्राप्त करती है. ज्ञानियों ने कहा है कि कोई भी वस्तु प्राप्त करने से पूर्व, पहले स्वयं को खाली करना पड़ता है. यदि आप मेरे पास लोटे में छाछ भर के लाएँ और दूध की याचना करें तो मैं दूध रखूगा कहां, लोटा तो छाछ से भरा होगा. मन के लोटे में यदि आप गुरुजनों के पास संसार का छाछ भरकर ले जाएँ और फिर कहें कि परमात्मा का अमृत इसके अन्दर आप भर दीजिए तो कैसे समायेगा?
एक बहुत बड़ा समझदार दार्शनिक किसी महान योगीपुरुष के पास गया. विदेश से आया था और उसने सुना था कि भारत में बड़े महान योगीपुरुष रहते हैं. वह चीन से इस देश में आया था. हजारों वर्षों तक इस देश का चीन के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध रहा है. वह दार्शनिक महान् योगीपुरुष के पास दर्शनार्थ गया. भारतीय परम्परा से उसका कोई विशेष परिचय नहीं था. योगीपुरुष के दर्शन के पश्चात् वह उनके पास बैठ गया. __ योगीपुरुष ने पूछा, “कहो कैसे आना हुआ" ? पहले तो उसने अपना परिचय दिया कि मैंने बहुत अभ्यास और अध्ययन किया है, दुनिया के हरेक धर्म और दर्शन का बड़ी गहराई से अध्ययन किया है और मैंने सुना है कि भारत के अन्दर महान योगी हैं, इसलिए कछ योग की प्रक्रियाओं को जानने तथा उन रहस्यों को समझने के लिए मैं हिन्दुस्तान आया हूँ, यहां आपका नाम सुना, सो दर्शन की इच्छा बलवती हुई और सोचा शायद यहां कुछ मिल जाये, अस्तु प्राप्ति की अपेक्षा से आया हूँ, मैं सारी दुनिया में घूम चुका हूँ, बहुत गहन अभ्यास किया है, बहुत सी भाषाओं का मैं ज्ञाता हूँ और दुनिया के हरेक दर्शन के विषय से मैं पूर्णतः विज्ञ हूँ.
उसके कथन में अहंकार की दुर्गन्ध थी, अपनी जानकारी का प्रदर्शन था कि, मैं बहुत कुछ जानता हूँ, योगिराज कुछ नहीं बोले, बड़े गम्भीर रहे. अन्दर जाकर केतली में चाय लेकर आये तथा कप और रकाबी भी लेकर आये. योगिराज ने कहा कि मेरे आतिथ्य को स्वीकार करें. यह भारतीय शिष्टाचार की परम्परा है. इस प्रकार कहकर हाथ में कप और रकाबी दे दिया और केतली लेकर के योगीपुरुष ने चाय डालनी शुरू कर दी.
कप भर गया, रकाबी भर गई परन्तु वह तो डालते ही गये. वह आने वाला व्यक्ति विचार में डूब गया कि ये कैसे दार्शनिक हैं; कैसे विद्वान हैं कि इन्हें इतना भी मालूम नहीं कि नीचे बिखर रही है और उसके छीटें मेरी पैंट को बिगाड़ रहे हैं. उसने बड़ा संकोच किया और कहने लगा - स्वामी जी बस कीजिए, यह तो पूरा भर गया है, कप और रकाबी भर गया है. मेहरबानी कीजिए.
सुने ही नहीं, वह तो पूरा डालते रहे. पूरी केतली उन्होंने खाली कर दी. सब नीचे फैल गया. चाय फैल गयी, छींटे से उसकी पैंट भी भीग गयी. वह मौन रहा -- स्वामी जी अन्दर चले गये.
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-गुरुवाणी
दस मिनट के बाद जब उनका बाहर आना हुआ तो स्वामी जी ने कहा कि आपके प्रश्न का उत्तर मैंने दे दिया है. यदि आप जाना चाहें तो जा सकते हैं. वह दार्शनिक घबरा गया कि बड़ी विचित्र बात है. कोई चर्चा नहीं हुई, कोई वार्तालाप नहीं हुआ. मैंने तो अपना प्रश्न उपस्थित किया और आकर उन्होंने जवाब दे दिया कि मैंने प्रश्न का उत्तर दे दिया है, यदि आप जाना चाहें तो जा सकते हैं. __उसने कहा कि महात्मन्, मुझे जरा स्पष्ट रूप से समझाइए, आपके कहने के आशय को मैं समझ नहीं पाया हूँ, आपके कहने का अभिप्राय क्या है?
स्वामी जी ने कहा कि उस कप और रकाबी से मैंने आपके प्रश्न का जवाब दे दिया है. आपको यह मालम होगा कि जब मैंने कप में चाय डालनी शुरू कर दी, कप भर गया, रकाबी भर गई और भरने के बाद जो कुछ मैंने डाला वह सब बिखर गया, नीचे गिर गया -- आपकी यही स्थिति है कि आपका दिल और दिमाग इतना भरा हुआ है जिस प्रकार यह कप और रकाबी. यहा आते ही वह तो बिखरने लगा, इस तरह शब्दों से बिखरने लगा कि मैं बड़ा दार्शनिक हूँ, सभी दर्शनों का मुझे परिचय है. सारी दुनिया का भ्रमण किया है, बहुत सारे विषयों का ज्ञान मेरे पास है. आप तो यहां आते ही आपके कप और रकाबी में से बिखरने लगे, शब्दों के द्वारा बाहर गिरने लगे. मैंने सोचा यदि इसमें मैं ज्यादा डालूंगा तो वह भी बिखर जाऐगा. क्या आप मेरी बात समझ गये? उस योगी ने कहा- पहले आप अपना दिल और दिमाग खाली करके मेरे पास आयें तब यहां से आप कुछ पा सकेंगे.
अत: नमस्कार की क्रिया से दिल और दिमाग को खाली किया जाता है. अहम से आत्मा को शून्य बना लिया जाता है. कुछ प्राप्त करने के लिए जा रहा हूँ, और बिना नम्रता के कभी किसी वस्तु की प्राप्ति नहीं होती. प्रवचन में से जो कुछ आपको प्राप्त करना है उसकी सर्वप्रथम प्रक्रिया नमस्कार की है जिससे यह ध्वनित होता है कि मैं कुछ नहीं है. मेरे पास कुछ नहीं, मैं स्वयं कुछ नही. मेरा कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. जो अस्तित्व है वह आत्मा का है. परमात्मा की कृपा का परिणाम है. उनके अनुग्रह से इसकी प्राप्ति हुई न कि मेरे स्वयं के प्रयत्न से. यहां इस नमस्कार का इसीलिए महत्त्व है, नहीं तो आत्मा प्राप्ति से वंचित रह जाऐगी.
इसी प्रकार आप जब नल के पास जाते हैं तो बर्तन कहां रखते हैं - नल के ऊपर या नीचे? नल के नीचे तभी तो वह पूर्ण बनता है, भर जाता है, यहाँ भी जो कुछ ग्रहण करना है वह नम्रतापूर्वक ही ग्रहण किया जा सकता है. अभिमान के सिर पर आरूढ़ होने पर यदि आप कुछ लेना चाहें तो आपको कभी कुछ नहीं मिलेगा. पूरा जीवन आपका निष्फल चला जाऐगा. अहंकार जीवन का सर्वनाश करने वाली चीज है. क्रोध यहीं से जन्म लेता है, मान यहीं से है. इतिहास में बहुत से व्यक्तियों का जीवन आपको दृष्टिगत होगा जिनको दर्प ने काल-कवलित कर दिया.
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गुरुवाणी
आप देखते हैं रेलवे ट्रेन की स्थिति को कि अहंकार का सिग्नल जब तक खड़ा रहे तो गाड़ी कभी अन्दर नहीं आती है. यह अभिमान का प्रतीक है, ट्रेन विचार करती है कि मुझे क्या गर्ज मैं अन्दर आऊँ कोई स्वागत नहीं, सम्मान नहीं यह अभिमान का प्रतीक है. ट्रेन बाहर रुक जाएगी. परन्तु जब सिग्नल यह विचार करने लग जाय कि इसके आये बिना मेरा कोई मूल्य नहीं एवं इसके न आने से यहां श्मशान जैसी शान्ति रहेगी. यहां कोई चहल पहल नहीं होगी. इसके यहां आने से ही यहां की रौनक बढ़ेगी और लोगों में प्रसन्नता होगी. विचारपूर्वक जब सिग्नल डाउन होता है, नम्र बनता है, झुक जाता है और तब ट्रेन अन्दर आती है.
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आप विचार कर लेना यह मस्तक सिगनल जहां तक आपका ऊपर है वहां तक न तो परमात्मा प्रवेश करेंगे न गुरुजनों का आर्शीवाद अन्दर आएगा. परन्तु यह मस्तक सिगनल जैसे ही डाउन हुआ नमस्कार – सहज के अन्दर आशीर्वाद आपको प्राप्त हो जाएगा. परमात्मा की कृपा आपको प्राप्त हो जाएगी. उनके व्यक्तियों की सद्भावना आप प्राप्त कर पाएंगे, पहले इसे सीखो. यह अकड़ चुका है. ऐसा प्रयत्न करें कि वह नम्र बन जाऐ. नम्रता में अपूर्व शक्ति है, नम्रता अथवा विनयशीलता धर्म प्राप्ति का द्वार है.
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"धम्मस्स मूलं विनयः”
परमात्मा महावीर का कथन है कि धर्म का जो मूल है, वह विनय है और विनय के द्वारा ही व्यक्ति प्रेम का साम्राज्य स्थापित कर सकता है. जगत के प्राणीमात्र के अन्तस्तल में अपना स्थान बना सकता है. इसमें सारे क्लेशों और कटुता का नाश करने की अपूर्व क्षमता समाहित है. नम्रता के द्वारा हम अपनी क्षमा की भावना प्रकट करते हैं. अपनी तिक्तता विसर्जित करते हैं. अपने वैर भाव को हम तिलांजलि दे देते हैं. अनन्त काल के संसार का भेद इसी नम्रता की क्रिया के द्वारा ही हम प्राप्त करते हैं. इसीलिए संसार के प्रत्येक धर्म के अन्दर सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया गया है. मंदिर जाएं, प्रभु का दर्शन करें, रास्ते में सन्त मिल जाएं, गुरुजन मिल जाएं तो नमस्कार अवश्य करें. घर के अन्दर अपने माता-पिता या बड़े भाई या जो भी घर में बड़े हैं, सर्वप्रथम व्यवहार में भी नमस्कार करें. कहीं पर जब आफिसर के पास काम कराने जाये तो वहां भी पहले ही नमस्ते, नमस्कार करते हैं. बड़ी अपूर्व क्रिया है. विलक्षण चमत्कार इस नमस्कार की क्रिया में अन्तर्हित है. शुद्ध भाव से परमात्मा को किया हुआ नमस्कार मोक्ष का कारण बनता है.
हमारे यहां प्रतिक्रमण सूत्र में पाप की आलोचना की जो सबसे श्रेष्ठ क्रिया है, उसमें स्पष्ट कह दिया गया है
"इक्को वी नमुक्कारो जिनवर वसहस्स वद्धमानस्स । संसार सागराओ अ तारेई नरं व नारिं वा ॥
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संसार के इस सागर से आत्मा तैरकर किनारा प्राप्त कर लेती है ऐसी अपूर्व क्रिया है इस नमस्कार में. इस लिए ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया है.
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: गुरुवाणी:
आपको मालूम होगा घर के अन्दर इलैक्ट्रिक स्विच आप रखते हैं और यदि स्विच ऑफ कर दें तो लाइट चली जाती है. स्विच जैसे ही ऊपर हुआ, उसका माथा,
"गर्वेण तुंगं शिरः"
गर्व से, अभिमान से उसका माथा आपने ऊँचा कर दिया, ऑफ कर दिया लाईट चली जाएगी, अन्धकार मिलेगा परन्तु जैसे ही स्विच आपने ऑन कर दिया, स्विच को नमा दिया तो उसमें नमस्कार का चमत्कार देखा तुरन्त लाइट आ जाती है. यह मन का बटन है, मन का स्विच है.
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मन को विपरीत करिये तो क्या बनता है नम मन का स्विच यदि आपने आन कर दिया, औंधा कर दिया, और नमस्कार डिवाइन लाइट. अन्धकार में ज्ञान का प्रकाश आएगा. यह रहस्य है. मन के स्विच को ऑन करके रखिये. नमस्कारपूर्वक हरेक क्रिया करिये. नमस्कार की भावना से प्राप्त करने की उत्कण्ठा रखिये. सारी समस्या दूर हो जाएगी. मन का तनाव दूर हो जाएगा. मन को हल्का बना देगा.
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नमस्कार की क्रिया में यही रहस्य है. बड़ी प्रसन्नता होगी. अनेक व्यक्तियों की जब सद्भावना मिल जाएगी तो प्रसन्नता तो स्वयं आ जाएगी.
यहां भी उस परमात्मा को सर्वप्रथम भावपूर्वक नमस्कार किया गया कि भगवन् तुझे नमस्कार करके मैं इस कार्य के अन्दर प्रवेश कर रहा हूँ. इस लेखन कार्य के अन्दर, जो मुझे जगत् को देना और जो कुछ जगत को दिया जाय, वह विशुद्ध हो, अमृत तुल्य हो. उसमें मनोविकार रूपी विष का प्रवेश न हो जाए. अहं की दुर्गन्ध इन शब्दों में न आ जाए. इसीलिए प्रथमतः नमस्कार की मंगल क्रिया सम्पादित की गयी ताकि जगत् का मार्ग-दर्शन करने की प्रक्रिया में कहीं मनोविकृति न हो. विशुद्ध अमृत तत्त्व इसके अन्दर दिया जाये जिसका पान करके आनन्द का अनुभव हो सके.
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बहुत सारे ऐसे विकृत लेख आपको मिलेंगे. बहुत गलत मार्गदर्शन मिल जाएंगे. पश्चिम सभ्यता की आँधी इतनी खतरनाक है कि वह साइक्लोन सारी दुनिया के अन्दर वायरस फैलाने वाला है. विषाक्त कीटाणु फैलाने वाला है. उनका एक ही दर्शन है, उनकी एक ही मान्यता है – “खाओ, पीओ, ऐश करो कल तो तुम मर जाओगे." जहां परमात्मा के अस्तित्त्व में विश्वास नहीं है. स्वयं की आत्मा में आत्मविश्वास नहीं, जहां किसी प्रकार का जीवन में अनुशासन नहीं, जहां भोग का अतिरेक हो, वहां यही दशा होगी. मरना तो सबको है. ज्ञानियों ने कहा • मरना भी एक अपूर्व कला है. जिसका सारा ही जीवन धर्ममय होगा. विनम्रतापूर्वक जहां जीने की सुन्दर कला होगी. जहां विचारों का अपूर्व सौन्दर्य होगा, वहां उस आत्मा की मृत्यु भी जगत् को प्रेरणा देने वाली बनेगी, उसका सारा ही जीवन परोपकारमय होगा.
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इसीलिए कवि ने कहा
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: गुरुवाणी:
" जीना भला है उसका जो जीता है इंसां के लिए। मरना भला है उसका जो जीता है खुद के लिए ॥”
जो आत्मा अनेक आत्माओं के कल्याण के लिए जीवित हो, पूर्णतया परोपकार की भूमिका पर जिसका जीवन निर्वाह हो, उस आत्मा का जीवन धन्य है और उसकी मृत्यु भी मंगलमय होगी.
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परन्तु जो व्यक्ति सिर्फ अपने लिए जीता है, अपना पेट भर कर यह समझ ले कि सारी दुनिया का पेट भर गया है, उस व्यक्ति का तो मरना ही श्रेष्ठ है. अपने लिए नहीं जगत् की आत्माओं के लिए मुझे जीवन जीना है. मेरे जीवन में से अनेक व्यक्तियों को लाभ मिले, यह भावना नमस्कार के द्वारा प्राप्त होगी. व्यक्ति जब लघु बनता है तब उसे प्रभुता मिलती है. इस प्रकार प्रभुता के विचार अद्भुत होते हैं.
"लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर।”
संत तुलसीदास का कथन है - जहां लघुता होगी वहीं प्रभुता आएगी और यदि पहले ही प्रभुता का नशा बढ़ जाए तो ज्ञानियों ने कहा है कि वहां कुछ मिलने वाला नहीं. वह आत्मा की प्राप्ति से वंचित रहेगी. सारा जीवन धर्म से शून्य रहेगा, कुछ मिलेगा नहीं. भारतीय दर्शन के उन महान विद्वानों ने चिन्तन प्रस्तुत किया कि पश्चिम की आँधी में हम किस तरह से अपनी स्थिरता को प्राप्त कर सकते हैं. आपके सामने सर्च लाइट दिया, ज्ञान का ऐसा दिव्य प्रकाश आपके समक्ष रखा और कहा
"अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥”
हे आत्मन्! मौत आपके मस्तक पर नाच रही है और न जाने कब आप किस निमित्त से चले जाओ, क्या इसका पता है आपको ?
मैं राजस्थान के एक गांव में था. गांव में मां बाप का एक इकलौता युवक पुत्र था. वह बहुत ही विनम्र, संस्कारी तथा मेरा अच्छा परिचित था. बैसाख का महीना था. उसकी शादी का मौका था और संयोग से मेरा आना हुआ. माता-पिता एवं पूरा परिवार इतना हर्षित था कि इस युवक का बड़ी सुन्दर जगह पर संबंध हुआ है.
शादी का उत्सव मनाया जा रहा था. शाम को निकासी निकलने वाली थी. इष्ट मित्र, बन्धुगण सब आए हुए थे. पूरे परिवार से घर भरा हुआ था. दूल्हा राजा स्नान करने के लिए स्नानगृह में गया. दस मिनट हुआ, बीस मिनट हुआ और घन्टा भर निकल गया. लोग विचार में पड़ गये कि निकासी का समय है, और अभी तक वर राजा नहीं आये. लोगों ने जाकर के दरवाजा खटखटाया. अन्दर कोई सुनने वाला नहीं. लोग विचार में डूब गए. क्या कारण हो गया ? क्या हुआ? दरवाजा तोड़ा गया और तोड़ करके जब
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गुरुवाणी
अन्दर देखा तो तनी हुई लाश पड़ी है. पानी के अन्दर से करंट उतर गया. लीकेज था लाइन में और वहीं खत्म हो गया. नीचे बैन्ड बज रहा घोड़ी आकर के खडी है. सारे परिवार के लोग इन्तजार कर रहे हैं कि अभी वर राजा आएंगे और निकासी निकलेगी. किसे मालूम था कि इस घर से इसकी लाश निकलेगी. जगत् का यह स्वभाव है.
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ज्ञानी पुरुषों ने इसीलिए चिन्तन प्रस्तुत किया कि जरा अपने सामने इस मौत को देखिए आज नहीं कल निश्चित आने वाली है. इस वारन्ट को कोई रोक नहीं सकता. आपके पैसों से वहां कोई रुकावट नहीं आ सकती. आपके बन्दूक वाले चौकीदार उसे रोक नहीं सकते. जगत् की कोई गोली उसे मार नहीं सकती. आपके मकान का दरवाजा या दीवार उसको आने से रोक नहीं सकती. कोई वकील वहां "स्टे आर्डर" लेकर दे नहीं सकता. कोई डाक्टर आकर उस समय जीवनदान आपको दे नहीं सकता. कैसी लाचारी है. व्यक्ति बड़ा अहंकार रखता है बड़े नशे में रहता है. उनके शब्दों से देखिए दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध निकलता है.
परमात्मा ने कहा और ज्ञानी पुरुषों ने भी कहा • हे आत्मन्! जरा विचार कर और अपनी भावी उस मृत्यु का दर्शन कर, जो तेरे साथ में है.
" नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः”
तेरे माथे पर मृत्यु नाच रही है, आज नहीं तो कल वह दिन तो निश्चित आने वाला है. तू मृत्यु के वर्तुल पर उपस्थित है. तू खड़ा है. आप जहां बैठे हैं जरा गहरी नजर से झांक कर देखिए कि कितने मुर्दे वहां गड़े हुए होंगे कितनी लाशें जली होंगी.
संसार का कोई ऐसा स्थान नहीं जहां श्मशान या कब्रिस्तान न बना हो. अनादि अनन्त काल से संसार चला आया है. राजधानी तो आज बनी किसी समय यह श्मशान भी रहा होगा. हजारों मुर्दे यहां जले होंगे, गाड़े गए होंगे, मारे गए होंगे. मुर्दों पर बैठकर आप गर्जना करते हैं. नीचे तो मुर्दे गड़े हुए हैं और संसार गर्जना करता कि मैं कुछ हूँ. उसे नहीं मालूम कि यह कुर्सी चली जाएगी. यह सत्ता चली जाएगी. पॉकेट खाली हो जाएगा. पैसा आता है तो व्यक्ति बड़े गर्व से अकड़कर चलता है. पाकेट गर्म रहता है तो शब्दों में गर्मी आती है. परन्तु उर्दू में कहा जाता है - "दौलत, यह बड़ा दौलतमंद आदमी है. समझ गए दौलत ! मतलब दो लात ! आती है तब कमर पर लात मारती है, छाती बाहर आती है. अकड़ के चलता है और जाते समय छाती पर लात मार कर जाती है. यह लक्ष्मी तो कमर झुका जाती है अपने आप नम्र बना जाती है. यह दौलत नहीं दो लात है."
बहुत सावधानी से अपने जीवन का निर्वाह करना है. बड़ी जागृति में जीवन जीना है. मैं अंधकार में न रहूँ, अज्ञान की दशा में भटकने वाला मैं न बनूं. ज्ञान के प्रकाश में चलने वाला बनूं. अहं के नाश का सर्वश्रेष्ठ उपाय और जीवन की साधना का प्रवेश द्वार
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%3-गुरुवाणी:
ही नम्रता है. कभी यदि परमात्मा को नमस्कार कर लिया जाए तो ज्ञानियों ने कहा कि भव संसार में हम तर जाएँ.
कोई साधु सन्त पुरुष मिल जाए, मंगल भावना आ जाए तो सन्त के चरणों में पाप का प्रक्षालन कर दें. वासना से आत्मा मुक्त बन जाए. न जाने कब किस सन्त के अन्तःहृदय से आशीर्वाद मिल जाए और मेरे लिए आशीर्वाद ही वरदान बन जाए. वह जीवन का परिवर्तन लाने वाला बन जाये, सन्तों का परिचय जीवन में कभी न कभी तो सुगन्ध देकर ही जाता है, इसलिए सत्संग को इतना महत्त्व दिया गया है. सांधुजनों के परिचय को इतना महत्त्व देने का यही तात्पर्य है. आप किसी सेंट की दुकान पर जाकर बैठे तो वहां आपको खुशबू लेने के लिए कोई पैसा देना पड़ता है? सारी उसकी दुकान सेंटिड (सुवासित) होती है. आप दस मिनट बैठे या आधे घण्टे बैठे. बिना पैसे मुफ्त में आपको खुशबू मिलती है. कोई पैसा इसका चार्ज नहीं होता और बहुत ज्यादा आप सेंट की दुकान पर बैठो तो आप भी सेंटिड हो जाएंगे. सुगन्ध आप में भी आ जाएगी. इसी तरह साधु संतों के समागम में बिना पैसे के आपको जीवन सुवासित करने का प्रवचन सुनने को मिलता है.
याद रखिए और अधिक परिचय में आएं तो संयमी आत्माओं का संयम आप में भी सुगन्ध पैदा करता है. आपकी भावना में भी वह सदभावना भर देता है, इसीलिए यहां सतपरुषों के परिचय को इतना महत्त्व दिया गया है. यहां हमारे जीवन के अंदर व्यवहार के अंदर इसका बड़ा महत्त्व है. हम लोगों को बचपन में यह संस्कार दिया जाता है और पहले ही हमारे घर में यह शिष्टाचार है कि माता-पिता को नमस्कार करने का - सुबह उठते समय, शाम के समय, आरती के समय एक दिया-बत्ती के समय. जैसे ही बालक को बोध होने लगता है उसे इन संस्कारों से परिचित करा दिया जाता है कि वह माता-पिता, गुरुजन और बड़ों को नमस्कार करें. बाल्यकाल से ही नम्रता की शिक्षा दी जाती है. माता-पिता होकर के यदि आप बालक को धर्म संस्कार से वंचित रहने दें तो उस आत्मा के आप शत्रु बनते हैं, क्योंकि आपने इस प्रकार की शिक्षा नहीं दी, ज्ञान नहीं दिया. माता और पिता ने अपने कर्तव्य का उस समय भान नहीं रखा कि यह बालक आगे चलकर आत्मा में अशान्ति पैदा करने वाला बनेगा. धर्म संस्कार से मुक्त रखने का यह परिणाम फिर आपको ही भोगना पड़ेगा.
हमारी भारतीय परम्परा में सर्वप्रथम नम्रता का संस्कार दिया जाता है, आज तो पचास वर्षों से बड़ा परिवर्तन आ चुका है. भले ही दुनिया की दृष्टि में क्रान्ति कहा जाये, परन्तु जीवन के अन्दर यह आपकी भ्रान्ति है. एक जमाना था जब उत्पात करने पर शिक्षा मिलती, दण्ड मिलता. पाँव में गिरते, क्षमा मांगते, बारह बज जाते, भूख लग जाती. नमस्कार करते. बड़े प्यार से प्रेम से बिठाकर भोजन देते. हम लोग प्रतिज्ञा करते उनके सामने, अब कभी यह उत्पात नही करेंगे, बदमाशी नही करेंगे.
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-गुरुवाणी
बाल्यावस्था की चंचलता होती है और वह दण्ड हमारे हित के लिये होते हैं. बड़ा वात्सल्य होता है. अब समय इतना बदल चुका है कि यदि आप कभी प्रयोग करें तो मुसीबत हो जाय. घर के अन्दर यदि आप कभी डॉट- डपट कर दें, दो थप्पड़ ही लगा दें, उस आत्मा के हित के लिये तो परिणाम क्या होगा? आपको मालूम है-थाली फेंक कर के शेरे बहादुर निकल जाएं. जाओ, मुझे नही रहना है. फौरन घर से बाहर, फिर पेपर में फोटो छापते रहिए. टी० वी० पर उनके दर्शन करते रहिए. परिस्थिति यह है कि मां बाप उनके पाँव पर गिरते हैं कि बेटा माफ कर दे. भूल हुई, अब ऐसा कभी नही करेंगे.
एक जमाना था, हम अपने माता-पिता के पाँव में गिरते थे. आज जमाना इतना बदल चुका है कि मॉडर्न एजुकेशन के प्रभाव से कि माता-पिता को नम्र बनना पड़ता है, कि बेटा भूल हुई, फिर कभी नहीं कहूँगा- चल.
अगर बाल्यकाल से संस्कार होगा तो भविष्य में बच्चे आपके लिये उपयोगी बनेगें. प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति ने यदि बालकों में धर्म संस्कार, नम्रता का संस्कार, नही दिया तो बुढ़ापे के अन्दर रो कर के मरना पड़ेगा रोज प्रभु से यही प्रार्थना करेगा कि अब तू मुझे उठा ले. अब इस संसार में, इस परिवार में नहीं रहना.
यहां पर इस नमस्कार के द्वारा व्यवहार की भी शिक्षा दी जाती है. आध्यात्मिक जगत् में तो इसका बहुत बड़ा महत्त्व है. परन्तु उस नमस्कार का आपके व्यावहारिक और सामाजिक जीवन में भी बहुत बड़ा महत्त्व है. बिना नमस्कार के आपका व्यवहार नहीं चलता. आपके कार्य में रुकावट पैदा होती है. इसलिये मैं आपसे कहूंगा कि हमेशा नम्र बनने का प्रयास करें. आप कहें कि हे भगवान, तेरी बड़ी कृपा है. तेरी कृपा से जीवन मिला. हे भगवान, यह तो तेरी असीम कृपा का ही प्रतिफल है कि मेरा इस जगत् में प्रादुर्भाव हुआ तथा यह समय और यह समृद्धि प्राप्त हुई. कम से कम इतना भी उस परमात्मा के उपकार का स्मरण करेंगे तो जीवन धन्य हो जाएगा. ___ साधुजनों के पास जाकर के यदि भावपूर्वक, गुरुजनों को नमस्कार करें कि आपके द्वारा ही मुझे जीवन का मार्गदर्शन मिला है. मुझे जो ज्ञान का प्रकाश मिला, यह आपकी कपा का ही परिणाम है तथा गरुजनों के अन्तःकरण से प्राप्त इस आशीर्वाद से आपका जीवन धन्य बन जाएगा. यह नमस्कार सामान्य क्रिया नहीं है. बड़ी सुन्दर यौगिक क्रिया है. यह काया को निर्मल करने वाली क्रिया है. यह वचन को पवित्र करने वाली अपूर्व साधना है. इससे वचन में नम्रता आएगी तथा मन विशुद्ध और परिष्कृत बन जाएगा. आत्मा के गुणों का सर्जन बड़ी सहजता से आपको होने लग जाएगा.
इसीलिए मेरा कहना था कि जब कभी भविष्य में आपको आगे बढ़ना हो या आत्मा का विकास करना हो तो यहां जो इस महापुरुष ने लिखा इस नम्रता का जो मन्त्र दिया, नमस्कार के द्वारा यह प्रतिदिन आपको हृदय में रखना है. अपने मस्तिष्क के अन्दर इसे प्रतिष्ठित कर लेना है कि इसके बिना मेरा कोई व्यवहार आगे नहीं बढ़ेगा. इसीलिए यहां
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: गुरुवाणी:
पर गुरुजनों ने नमस्कार की उपादेयता पर प्रकाश डाला. परमात्मा से लेकर अपने माता-पिता तक इस नमस्कार की क्रिया को व्यापक बनाया गया है. प्रथम सूत्र के अन्दर उस महान् करुणामय आचार्य ने आपके जीवन का, व्यवहार का, अध्यात्मिक दृष्टि से, सब प्रकार से इस नमस्कार के द्वारा परिचय करा दिया. अहं के विसर्जन की मंगल क्रिया है, नमस्कार.
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" प्रणम्य परमात्मानं समुद्धृत्य श्रृतार्णवात्”
धर्म बहुत व्यापक है. इस ग्रन्थ का नाम ही धर्मबिन्दु है परन्तु प्रथम मंगल सूत्र के अन्दर प्रारम्भ करते हुए उन्होंने लिख दिया प्रभु तुझे नमस्कार करके इस क्रिया में मैं आगे बढ़ता हूँ. मेरे मन के अन्दर संसार प्रवेश न कर जाय. लघुतापूर्वक तेरे वचनों को लिखते समय मैं प्रामाणिक रहूँ. मैं धर्म के विशुद्ध स्वरूप का परिचय दे सकूँ और उस परिचय के अन्दर उसकी पूर्णता का परिचय भी बतलाया कि धर्म कितना व्यापक है.
बरसात के दिन में कुएँ के अन्दर रहने वाले मेंढक के घर, बाहर के दूसरे मेंढक मेहमान आ गए. आने वाले अतिथि का कुंए के मेंढक ने बड़ा सुंदर स्वागत किया और पूछा कि आप कहां से आए ? अजी मैं तो बम्बई से आया हूं. बरसात का मौसम था. यात्रा में सुविधा रही, मैं आ गया. अरे भाई, यहां आए तो बंबई में आप रहते कहां थे? समुद्र में अरब सागर में. अरब सागर में ? सागर क्या होता है? उस कुंए के मेंढक का एक प्रश्न था. अब क्या परिचय कोई शब्दों से दिया जा सकता है ?
धर्म शब्द का परिचय यदि मैं शब्दों से दूंगा तो उसकी व्यापकता आपको मालूम नहीं पड़ेगी. वह शब्दातीत है. शब्दों की पैकिंग में धर्म की यदि मैं सप्लाई करूं तो धर्म का अधूरा ही परिचय मिलेगा. वह आत्मा ही जान सकती है. कई चीजें ऐसी हैं इस संसार में, जो अनुभव के द्वारा ही जानी जा सकती हैं.
मैं आपको घी पिला दूं और पूछूं कि घी का स्वाद कैसा है? एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो घी के स्वाद का परिचय दे सके. आपको कहना पड़ेगा कि धर्म ऐसा है जिसका शब्दों से परिचय नहीं दिया जा सकता. जब आप साधना के द्वारा उसका अनुभव करेंगे तभी उसका स्वाद आपको मिलेगा. वह शब्दातीत है अर्थात् शब्दों से परे है. शब्द के माध्यम से कहां तक परिचय दिया जाय. उसका तो लिमिटेशन होता है. शब्द तो शरीर है. उसमें रहने वाला भाव वह धर्म की आत्मा है.
इसलिए मैं आपसे बतलाता हूं कि उस मेंढक ने परिचय दिया. निःशब्द की भूमिका जिसका परिचय देना था उसका शब्द के माध्यम से या किसी भी प्रकार व्यावहारिक माध्यम से आप जो परिचय देंगे, वह परिचय कभी पूर्ण नहीं बन पाएगा.
पर,
संसार की वर्तमान में, सबसे बड़ी समस्या है कि हम धर्म का परिचय अनुभव या साधना के बिना देने लग जाते हैं. इसलिये धर्म क्लेश का कारण बन गया है. शब्द में
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-गुरुवाणी
विकृति आ जाएगी. आपके स्वतंत्र विचार इसमें आ जाएंगें. उससे परमात्मा का विचार गौण बन जाएगा. और आपका विचार मुख्य हो जाएगा और वहीं पर यह साम्प्रदायिक दुर्भावना पैदा हो जाएगी. सारी सद्भावना खत्म हो जायेगी.
मेंढक ने छलांग लगाई कुएँ के अन्दर और कहा इतना! सागर के मेंढक ने कहा - कि तुम नहीं समझ पाये. उसने कहा कि क्या सागर इससे भी बड़ा है. अरे भाई सागर बहुत बड़ा है. उसका कोई माप नहीं, आकार नहीं. कुएं में मेंढक ने बहुत जोर से छलांग लगाई, आधा कुआं पार कर गया और उसने कहा -- तुम्हारा सागर इतना बड़ा है? अरे यार नहीं! पूरी ताकत लगा कर एक छलांग लगाई. पूरा कुआं पार कर गया. इस किनारे से उस किनारे तक चला गया और कहा - इतना बड़ा सागर है? सागर के मेंढक ने कहा कि इस तरह उसका परिचय नहीं दिया जा सकता. उसकी महानता का परिचय मैं शब्दों से नहीं दे सकता. किसी माप से उसको मापा नहीं जा सकता. यह तो तुम मेरे साथ यात्रा में चलो. चलकर देखो तब मालूम पड़ेगा.
कुएँ के मेंढक ने कहा कि मैं मानता ही नहीं. मेरी दुनियां से बड़ा कोई संसार में है ही नहीं. जिन्दगी भर उस कुएँ में रहा, उसे क्या मालूम कि संसार कितना महान् है. हमारी दशा भी यही है. ठीक कुएँ के मेंढक जैसी स्थिति है. बुद्धि हमारी कुएँ जितनी है और हम धर्म का परिचय लेने के लिये निकलते हैं. हमारी आत्मा बहुत व्यापक है, उसकी व्यापकता का परिचय हम अपनी बुद्धि से कैसे कर सकते हैं. बुद्धि तो एकदम सामान्य है. उस महान तत्त्व की जानकारी के अभाव से यदि अन्धविश्वास पैदा करते हैं तो हमारी मुर्खता है. जिन्होंने ज्ञान के प्रकाश में देखा, वह ज्ञानी पुरुष ही जान सकते हैं.
बहुत सी बातें ऐसी हैं. जो तर्क से नहीं समझाई जा सकती. उसे श्रद्धा के द्वारा, ही समझा जा सकता है. पहले साधना कीजिए. उसके बाद उसके स्वाद का अनुभव आएगा और फिर उसके बाद सुगन्ध पैदा होगी. आपको धर्म की व्याख्या बताई. धर्म किसे कहा जाता है? यहां जो धर्मबिन्दु शब्द का प्रयोग किया गया तो इसका बहुत सीधा सा अर्थ है. 'धृ' धातु से 'धर्म' बना है. व्याकरण में 'धृ' का अर्थ धारण करने के लिए प्रयोग करते हैं. आत्मा को दुर्विचार में जाने से रोकें, रक्षण करें, उसका नाम 'धर्म' है.
__ "दुर्गतौ पतनात् प्राणान्धारयति धर्मः" दुर्गति में जाते हुए, दुर्विचार में जाते समय आप अपनी आत्मा का रक्षण करें या रोकें तो उसको धर्म कहते हैं. धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं. धर्म आपकी आत्मा में है और भगवान महावीर ने इसे स्पष्ट कहा है
“धम्मो शुद्धस्स चिट्ठई" शुद्ध हृदय के अंदर धर्म निवास करता है. अशुद्ध और गंदे हृदय में कभी धर्म ठहरता ही नहीं है.
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-वाकवीजासतIUII
“अन्तःकरणशुद्धित्वमिति धर्मत्वं" आपका अन्तःकरण, आपकी आत्मा परिष्कृत हो, शुद्ध हो, वहीं पर धर्म का वास होता है. बाकी अशुद्ध आत्मा में धर्म कभी रहता ही नहीं. धर्म के लिए बड़ी व्यापकता की आवश्यकता है.
ज्ञानियों ने कहा कि संकीर्णता कभी आत्मकल्याण की साधना नहीं बनती. किसी आत्मा को दुःखी करने वाला जीवन में कभी सुखी नहीं बनता. किसी को रुला कर के जगत् में कोई प्रसन्न नहीं हो सकता. किसी को मार कर के आप जिन्दा भी नहीं रह सकते. वह व्यक्ति दूसरों को नहीं मार रहा है, अपनी आत्मा को ही मार रहा है. वह दूसरी आत्माओं को दुःखी नहीं कर रहा है, अपने ही दुख को निमंत्रण दे रहा है. आध्यात्मिक परिभाषा के अन्तर्गत आप धर्म के रहस्य को समझने का प्रयास करें. यदि आप किसी आत्मा को सुखी करते हैं तो उसी के सुख में आपका सुख छिपा हुआ है. वहीं से आप सुख प्राप्त कर पाएंगे. परोपकार की मंगल कामना ही तो धर्म है.
व्यास ऋषि से जनक महाराज ने एक प्रश्न किया कि भगवान अठारह पुराण पढ़ने का मेरे पास समय नहीं है. आप इसका सार समझा दीजिए. पाप और पुण्य की परिभाषा बतला दीजिए. व्यास ऋषि ने दो शब्दों के अंदर ही पाप और पुण्य का परिचय दे दिया
"अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥" ऋषि ने कहा था कि महाराज याद रखना कि पर पीड़ा के समान जगत् में कोई पाप नहीं और परोपकार के समान जगत् में कोई पुण्य नहीं. यही अठारह पुराणों का सार है. सारे धर्मग्रन्थों का यही निष्कर्ष है. अत: जीवन को परोपकारमय होना चाहिए.
'परोपकाराय सतां विभूतयः' महान पुरुषों का जीवन परोपकार का मन्दिर होता है. आपका जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाए कि आने वाली आत्माओं को शान्ति और समाधि मिले तथा आप कष्ट सहन करके दूसरी आत्माओं को शान्ति देने वाले बनें – यही महावीर का आदर्श है. 'तू सहन कर और अनेक आत्माओं को शान्ति प्रदान कर'. - आज हमारा वर्तमान जीवन कैसा बना है, यह मंगलाचरण के अन्दर, ग्रन्थ को प्रारम्भ करते समय साधना के प्रवेश द्वार के अन्दर आपको परिचय दे दिया गया कि प्रवेश तभी मिलेगा जब आपमें इसकी योग्यता होगी, परोपकार की भावना हो, अंतःकरण को शुद्ध करने का आपका प्रयास और जीवन के अन्दर प्राणिमात्र के प्रति आपकी सद्भावना हो. नहीं तो द्वार पर ही आपको रुकना होगा. बिना नमस्कार और बिना इस प्रकार की भावना के आपको धर्मक्षेत्र के अन्दर प्रवेश नहीं मिलेगा.
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% 3Dगुरुवाणी
आगे चलकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया--
तोयबिन्दुमिव यह तो शास्त्रों का अपार समुद्र है और भगवन्, मैंने तो उसमें से मात्र एक बिन्दु प्राप्त किया है. आप उनकी नम्रता तो देखिये. जरा भी ज्ञान का अजीर्ण नहीं है. कैसी विनम्रता और लघुता है. जरा भी उसमें अजीर्ण नहीं. जो मैंने प्राप्त किया प्रभु सब तेरी कृपा का परिणाम है और तेरे ही शास्त्रों एवं ग्रंथों में से चिन्तन करके, स्व मैंने इसे प्राप्त किया है.
मैंने पहले ही आपसे कहा है - बिन्दु में से सिन्धु प्रकट करना है. आत्मा को अणु में से विराट तक पहुंचाना है, यह परोपकार की भावना स्व से सर्व आत्माओं तक पहुंचा देना है ताकि कहीं कोई समस्या न रहे. हम तो अटके हुए पड़े हैं, सम्प्रदाय के ऐसे बन्धन में जकड़े हुए पड़े हैं कि दूसरों को देखने की दृष्टि ही खत्म हो गई. मात्र पैकिंग रह गया और माल गायब हो गया.
यहीं किसी बैंक में हमारे जमालखां पठान रहते थे जो उस बैंक में चौकीदार थे. एक बार मैनेजर का कोई काम ऐसा आ पड़ा कि उसे जाना पड़ा. चौकीदार से कहा “जरा समय खराब है, जोखिम है, तुम जरा ध्यान रखना, हिफाजत रखना.” चौकीदार बहुत वफादार था और कहा, "पठान बडे वफादार होते हैं. हजर बेफिक्र रहिए." पहले मेरी गर्दन जाएगी फिर ताला टूटेगा. आप निश्चिन्त रहिए. ताले पर सील लगाकर मैनेजर चले गये. पांच-दस दिनों के बाद जब मैनेजर अपना काम करके लौटे. पठान बड़ा खुश हुआ कि हुजूर जरा देखिए कि बैंक का ताला और सील सही सलामत है. पांच रुपये बख्शीष दिया और कहा, जमालखां वाह, बिल्कुल सुरक्षित है! सील खोलकर के जैसे ही ताला खोला -- अन्दर गए. मैनेजर देखकर आवाक रह गया कि सारा कैश लुट गया था, बैंक लुट गया था. बैंक की साइड में वेण्टीलेशन में से चोर घुसे थे और तिजोरी साफ कर गये थे. बाहर आकर वह मैनेजर चिल्लाया - अरे जमालखां! बैंक लुट गई. चौकीदार बोला हजूर अन्दर क्या हुआ, क्या नहीं, मुझे नहीं मालूम. आपने मुझसे बोला था कि सील और ताले का ध्यान रखना तो मैंने बराबर ध्यान रखा. अन्दर क्या हुआ वो आप जाने मेरा उससे कोई संबंध नहीं, हमारी दशा भी जमालखां पठान जैसी है.
ज्ञानी पुरुष, साधु पुरुष हमें आकर कहते हैं कि भले आदमी तुम लट गये. अन्दर चोर घुस गया. मान आ गया, लोभ आ गया, सारी पवित्रता लुट गई. परोपकार की भावना लुट गई. महाराज वह सब कुछ हुआ. जो मैं अपना कपड़ा, अपना सिम्बल, अपना तिलक, बाहर की वेशभूषा पकड़ के बैठा हूं ताला और सील की तरह वह सुरक्षित होना चाहिए. अन्दर से आत्मा में से सब लुट जाये, उसकी परवाह नहीं. मेरा ओधा कायम, मेरा डण्डा कायम, तिलक कायम, त्रिपुण्ड कायम, बाहर का पैकिंग सही सलामत, ताला और सील में कोई गड़बड़ नहीं और अन्दर लुट गया. ऐसी मूर्खता हम क्यों करें कि पैकिंग का ध्यान रखें और माल सब गायब हो जाए.
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3-गुरुवाणी
पोस्टमैन आपके पास आए और रजिस्टर्ड इन्श्योर्ड लेटर लेकर आये तथा चेक चला जाये और खाली लिफाफा आपके हाथ में दे जाए तो आपकी कैसी दशा होगी. हमारी आज वही दशा है. धर्म चला गया, उसका पैकिंग लेकर हम घूम रहे हैं. मन को संतोष दे रहे हैं, प्रसन्न बन रहे हैं. बड़ा धर्मात्मा हूं, बड़ा धार्मिक हूं. परन्तु धार्मिक बनना इतना सरता नहीं है. यह कोई यूनिवर्सिटी का सर्टीफिकेट नहीं है जो आपको दे दिया जाय. यह तो स्वयं ऐसी योग्यता प्राप्त करनी पड़ती है तब व्यक्ति उसके योग्य बनता है. धार्मिक बनने के लिए बहुत बड़ा बलिदान देना पड़ता है. दुर्विचार की कुर्बानी देनी पड़ती है. सारी दुर्भावना खत्म करके और परमात्मा के योग्य अपना जीवन निर्माण करना पड़ता है. तब जाकर के व्यक्ति उस योग्य बनता है. इस प्रथम मंगलाचरण के अन्दर ये सारे ही परिचय इस महापुरुष ने दे दिए.
यदि आपको धर्म में प्रवेश करना है तो इसकी शर्त है. सूत्र को प्रारम्भ करते समय उन्होंने कहा - धर्म कहां से प्रारम्भ होता है. "मैत्र्यादि भाव संयुक्तं" - एक ही वाक्य मैं आपको बताऊँगा -
धर्म कहां से जन्म लेता है? मैत्री भावना, विश्वबन्धुत्व की भावना क्या है? प्राणिमात्र को स्वयं की दृष्टि से देखें, जहां मैं देखता हूं वहां भी मैं हूं. वहां भी मेरी आत्मा विद्यमान है और मेरे अन्दर ये सभी आत्माएं मौजूद हैं. जो मेरे अन्दर है, वही आपके अन्दर है. यह साक्षेप दृष्टि आनी चाहिए. मैत्र्यादि भाव. जगत् के सारे जीव मात्र मेरे परम मित्र हैं, उनके अनुग्रह से ही मेरा कल्याण होगा. इस मंगल भावना से परोपकार करना चाहिए. अहम् की भूमिका पर नहीं, और नाहं की दशा में कुछ नहीं हूं, नम्रता के द्वारा, उस नम्रता
। में परोपकार करना होगा. यह आप मत समझ लेना कि मैं बहुत बड़ा उपकार कर रहा हूं. किसी को देकर के बड़ा उपकार कर रहा हूं. आप सोच लेना आपके घर पर भिखारी आता है. क्या कहकर के जाता है. आप यह समझते हैं कि भिखारी को आपने पांच रुपया दे दिया, बड़ा उपकार किया, आत्म-कल्याण हो गया. अपने अहम् का पोषण कर लिया.
धर्म के माध्यम से भी व्यक्ति अपने जीवन में अहम् का पोषण करता है. देकर के भी अजीर्ण पैदा होता है. अहंकार पुण्य की खेती खा जाता है. भिखारी कितना बड़ा उपदेश आपको देकर के जाता है.
कालिदास जैसे महान कवि ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया - वह भिक्षा ग्रहण करने नहीं आता. वह सामान्य भिखारी नहीं है. वह आपको जागृत करके जाता है. आपकी भूल से आपको बचाता है. वह घर-घर जाकर क्या कहता और क्या उपदेश देता है.
"बोधयन्ति न याचयन्ति भिक्षाद्वारा गृहे-गृहे" पण्डित कालिदास कहते हैं कि वह सामान्य भिखारी नहीं है. घर-घर फिर करके, भटक करके वह बोध देता है, उपदेश देता है. "बोधयन्ति न याचयन्ति" वह भीख नहीं
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-गुरुवाणी
HOM
मांगता है, उपदेश देता है. कहां “भिक्षाद्वारा गृहे-गृहे" -- भिक्षा के माध्यम से हरेक व्यक्ति तक वह जाता है और कहता है "दीयतां दीयता, अदातुः फल मिहराम्"
सेठ! कुछ देना, कुछ देना, मैंने पूर्वभव में कुछ नहीं दिया, उसका ईनाम भिखारी बना, यह सजा मिली. मेरी तरह से ऐसी भूल तुम कभी मत करना. देकर के जाना, परोपकार करके जाना. मैं भी तुम्हारे जैसा हूं. कोई ऐसा अशुभ कर्म किया. किसी को देने से रोका होगा. किसी के देने में ईर्ष्या पैदा हुई होगी. कोई धर्म कार्य के प्रति मन के अन्दर ईर्ष्या की आग लगी होगी. मेरा पुण्य जल गया. मुझे यह सजा मिली. प्रकृति ने यह सजा मुझे दी. मेरी तरह से तुम भूल कभी मत करना. "दीयता-दीयतां" कुछ दो, कुछ दो.
अदातुः फलमिहराम् कुछ परोपकार करके जाओ और यदि नहीं करोगे - अदातु फल मित्रस्थं ये मैंने नहीं दिया उसका प्रेक्टिकल रिज़ल्ट मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं. मुझे देखकर कुछ सीखो. क्या मेरी बात समझ गए?
आप कहें महाराज! मेरे पास कुछ देने को नहीं. बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं जो मजदूरी करते हैं, पेट भरते हैं परन्तु पेटी नहीं भर पाते. इसमें कोई आपत्ति नहीं. परन्त जो देता है उसे देखकर के आप दलाल बनें. उसका कमीशन आपको मिलेगा तथा प्रसन्नता देने वाले को धन्यवाद, क्योंकि उसमें कोई जीभ नहीं घिसती. जब कोई शुभ कार्य करता है तो आपको उसकी प्रसन्नता का आभास होना चाहिए. मैत्री भाव का एक प्रकार है कि कोई भी शुभ कार्य देखकर अपने अन्दर प्रसन्नता हो तो इससे देने वाले का उत्साह बढ़ता
हरेक प्रकार से पुण्य उपार्जन आप कर सकते हैं. परन्तु यदि आप कहें कि नहीं हमारे यहां महान् पूर्वाचार्यों ने भगवान् की पूजा में लिखा -
“करण करावण अनुमोदन सखा फल निपजावे" अस्तु, यदि कोई शुभ कार्य करता हो तो उसे देख कर के प्रसन्न होइए. यह मैत्री भाव हैं और मैत्री भाव को विकसित करने का एक उपाय है - प्रसन्नता. आप अपने मित्रों को किसी शुभ कार्य करने की प्रेरणा दीजिए. अच्छे कार्यों में आप भाग लीजिए
कभी ऐसा प्रसंग यदि आ जाए तो मैं भी सोचता हूं कि आप सभी वस्तुतः दिल वाले हैं. कभी कोई मंगल कार्य आ जाए, राष्ट्र पर संकट आ जाए, समाज पर कोई विपत्ति आ जाए, कदाचित् कोई प्रकृति का ऐसा प्रकोप आ जाए तो हमेशा के लिए आप अपनी मंगल भावना रखिए. भाव के अन्दर दुष्काल नहीं चाहिए. जितनी शक्ति आपमें हो उतना अवश्य देना. परन्तु भाव और अपनी प्रसन्नता ऐसी होनी चाहिए कि ऐसे शुभ कार्यों में मैं भी भाग लूं. इसमें कुछ गांठ का पैसा नहीं लगता. परन्तु यदि आपने उसमें कृपणता की तो इसका परिणाम अच्छा नहीं आएगा.
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-गुरुवाणी
सम्राट अकबर के समय की एक बात है. बीरबल उनके बहत ही मनपसन्द व्यक्ति थे. एक दिन दरबार में एक ऐसी बात चली. बीरबल एक बात तू मुझको बता. ये सभा में लोग बैठे हैं दीवाने आम में मुझे बता कि ये लोग इस समय क्या सोच रहे हैं. वह तो तरंगी आदमी था. बीरबल ने कहा हजूर! क्या मैं कोई पैगम्बर हूं? कोई फकीर हूं? मैं तो एक इंसान हूं. भला मैं लोगों की बात कैसे जान सकता हूं? कैसे आपको सुना सकता हूं?
अकबर बोला! नहीं नहीं तुम मुझे समझाओ.
बड़ा कुशल था. युक्तिबाज व्यक्ति था. बड़ा अच्छा मनोवैज्ञानिक था. बीरबल ने कहा हजूर! जब आपने आग्रह किया तो मुझे समझाना ही होगा. परन्तु हजूर मैं जानना चाहता हूं कि एक-एक व्यक्ति का बताऊँ या सबका एक साथ ही बताऊँ.
अकबर बोले - नहीं नहीं. एक-एक व्यक्ति को तो बताने में काफी समय लग जाएगा. सबका एक-साथ ही बता दो.
वह जानता था. वह बादशाह को अच्छी तरह से जानता था. लोगों के मिजाज़ से भी परिचित था. उसने कहा हजूर! इस दीवाने-आम के अन्दर, इतनी बड़ी सभा में ये जितने भी आपके सामने बैठे हैं. ये इस समय यही सोच रहे हैं कि आपका आयुष्य हजूर सौ वर्ष का हो.
अब इस बात से कौन मना करे. सबकी गर्दनें हिलने लगीं कि हजुर, यही सोच रहे हैं. जितने लोग बैठे थे, सबने यही कहा कि हजूर, वे मन में यही सोच रहे हैं. आपका राज्य अफगानिस्तान से भी आगे बढ़ जाये और उधर बर्मा तक फैल जाये, आपका साम्राज्य बहुत लम्बा-चौड़ा हो जाए. ये सब यही भावना रखते हैं. आपकी प्रजा आपके हित का चिन्तन करती है. सारे गर्दन हिलाने लगे. उसने कहा हजूर! और कबूल कराऊँ. आप जितना कहें उतना कबूल करवाऊँ.
नहीं-नहीं! अब मुझे संतोष हो गया, परन्तु धुनी था उसने कहा बीरबल! मुझे एक बात समझ में नहीं आती, तू मुझे समझा दे और तो सब बात मैं समझ गया. सारे शरीर में बाल उगते हैं, हथेली में क्यों नहीं?
हजर ये तो “गॉड-गिफ्टेड" है. यहां आपका कायदा नहीं चलता. ये तो खुदा का कायदा है. मेरा भी कोई कायदा या बुद्धि नहीं चलती. यहां तो मौन रखना ही ज्यादा ठीक रहेगा. ___ तुम मुझे समझाओ. इस सारे शरीर में बाल उगते हैं, हथेली में क्यों नहीं उगते? बड़ा प्रश्न था, बड़ा आग्रह था. बीरबल ने कहा इससे बचने का कोई उपाय नहीं है. इसलिए इनको समझा देना, इनका मनोरंजन कर देना ही तर्कसंगत होगा. हमारे जीवन की सच्चाई कह गया बीरबल.
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-गुरुवाणी
बीरबल ने कहा कि हजूर आप तो दानेश्वर हो. रात और दिन आपके हाथ से ऐसे खैरात होते हैं. ऐसा सुन्दर दान-पुण्य होता है. हजूर! दान देते-देते, अशर्फी देते देते हथेली के सारे बाल आपके घिस गए. हजूर! अब मैं क्या कहूं.
अरे तू मुझे क्या बेवकूफ बना रहा है. मेरी हथेली के बाल घिस गये. तेरे बाल कहां गये.
हजूर! मैं तो ब्राह्मण हूं. आपने इतना दान दिया कि लेते-लेते मेरे बाल भी घिस गए. ___ अरे मेरे बाल देते हुए घिसे और तेरे लेते हुए घिसे. ये सभा में सब इतने लोग बैठे हैं. इनके बाल कहां गए?
हजर। आपने इतना ईनाम दान दिया. मैंने लेकर के अपना घर भरा. ये ईर्ष्या में हाथ मलते रहे और इनके भी घिस गये.
समझ गए, आप मेरी बात? ईर्ष्या की आग बड़ी खतरनाक होती है, स्वयं के पुण्य को जलाकर राख कर देती है. कभी भविष्य में ईर्ष्या की आग में अपने गुणों को आप भरम न करें. यदि कोई आत्मा परोपकार करता हो, शुभ कार्य करता हो, तो उसका अनुमोदन करें. यह धर्म का प्राण है. उसका नाश नहीं मेरा नाश हो रहा है. वे दुःखी नहीं, उसे देखकर मैं दुःखी हो रहा हूं. उस आत्मा के दुःख को, दर्द को मैं कैसे दूर करूं? यही हमारा सतत प्रयास होना चाहिए. ___अब इसके पश्चात् धर्म के अन्य पक्षों पर हम आगे प्रकाश डालना चाहेंगे. धर्म कहां से प्रारम्भ होता है तथा मंगलाचरण के द्वारा उसका पूर्व परिचय आपको दिया जा चुका है. इसी पर और गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत करेंगे.
सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम्
भगवान महावीर के उद्गार हैं कि प्रेम के द्वारा लाया गया परिवर्तन स्थायी होता है. कोई चाहे जितना भी दुष्ट व कठोर हृदय का व्यक्ति क्यों न हो, प्रेम के आधार पर उसे पिघाला जा सकता है, प्रेम पगडंडी है सामने वाले के हृदय तक पहुँचने की.
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=गुरुवाणी
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पाणी
आत्म -संतोष के उपाय
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अनन्त उपकारी, परम कृपालु, परमात्मा जिनेश्वर ने जगत के जीवमात्र के कल्याण के लिए धर्म प्रवचन के द्वारा मोक्ष मार्ग का परिचय दिया. किस प्रकार व्यक्ति अपनी साधना के द्वारा स्वयं की पूर्णता को प्राप्त करे - उसका सम्पूर्ण मार्ग-दर्शन परमात्मा ने अपने प्रवचन द्वारा किया है.
"सर्वत्र सर्वस्य सदा प्रवृत्तिः दुःखस्य नाशाय सुखस्य हेतुः। कदापि दुःखम् न विनाशमेति सुखम् न कस्यापि भजेंतेस्थिरत्वम् ॥" जीवन के अनादि-अनन्त काल के इतिहास में जीव मात्र का यही प्रयत्न रहा कि सुख की प्राप्ति हो परन्तु आज तक वह सुख मिला नहीं. प्राणी मात्र का यह प्रयास रहा कि दुःखों का नाश हो, परन्तु आज तक दुःख नष्ट हुआ नहीं, सारा प्रयत्न निष्फल गया - सुख की प्राप्ति मृगतृष्णा ही रही, दुःख को नष्ट करने का सारा प्रयास विफल रहा, कारण? विफलता के कारणों को हमने खोजा ही नहीं. कारण था -बिना आधारशिला का मकान बनाते रहे. बिना चिन्तन के हम आराधना करते रहे. लक्ष्य को भल कर के हम चलते रहे और इसी कारण आज तक हमारी सुखप्राप्ति की साधना असफल रही. मानसिक अशान्ति से आज हमारा पूरा जीवन त्रस्त है. हर व्यक्ति ने अपने क्लेशों से स्वय को पीड़ित कर रखा है.
प्रभु ने सुख प्राप्ति का अत्यन्त सुन्दर मार्ग बताया. आत्म-संतोष के द्वारा उस परम वैभव को हम प्राप्त कर सकते हैं. यदि इच्छा और तृष्णा पर नियन्त्रण आ जाए तो मानसिक अशान्ति का नाश सहज हो सकता है. असन्तोष की अग्नि भयंकर है. चित्त की सारी प्रसन्नता उसमें जल कर राख हो सकती है,
व्यक्ति हर क्रिया में प्रतिफल की कामना रखता है. यहां तक कि धर्मक्रिया में भी वह अपेक्षा रखता है कि कुछ मिल जाए. यही असंतोष विनाश का कारण है.
अपने प्रारब्ध से जो सहज रूप में मिल जाए, उसी में संतोष होना चाहिये. हमारा सारा पुरुषार्थ अर्थ और काम पर ही केन्द्रित रहा. धर्म और मोक्ष का परुषार्थ गौण बन गया. सुख की प्राप्ति के जो साधन थे, उनको गौण बना दिया. गहस्थ जीवन में अर्थ और काम की प्राप्ति गौण विषय होना चाहिए था, उसे हमने मुख्य बना लिया. सारी समस्या, सारी विषमता यहीं से उत्पन्न हुयी.
सृष्टि में हर पदार्थ का मूल्य है परन्तु व्यक्ति ने स्वयं का मूल्यांकन नहीं किया. जन्म-जन्मान्तर की वर्षों की साधना के उपरान्त मनुष्य ने मानव-काया धारण कर मोक्ष का यह प्रवेश-द्वार प्राप्त किया है. इस मनुष्य जीवन की प्राप्ति के लिए भूतकाल में उसने बहत से बलिदान किए और उसी की परिणति के रूप में वह मानव रूप में अवतरित
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唐
: गुरुवाणी
हुआ. परन्तु इस वर्तमान में मानव शरीर से यदि उसने कुछ लाभ नहीं उठाया तो भविष्य में वह पुनः उसी अन्धकार के गहन गर्त में भटकता रहेगा.
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इस लोक में पदार्पण करने के अनन्तर वह अपने परिवार के भरण-पोषण करने जैसे सामान्य कर्त्तव्यों में ही उलझा रहा और उसने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये आत्म-दृष्टि विकसित नहीं की. उस व्यक्ति ने आज तक कभी नहीं सोचा कि मैं कितना मूल्यवान हूं? एवम् किन महान् कार्यों के परिणामस्वरूप ये साधन सुलभ हुए हैं? यदि वर्तमान शून्य रहा तो भविष्य में सृजन होने की कोई संभावना नहीं. विभिन्न धर्मों के सभी धर्माचार्यों ने सर्वप्रथम आत्मा के मूल्य को परखने का उपदेश दिया है. एक बार यदि आपका लक्ष्य आत्मा पर केन्द्रित हो गया और साधना के मूल्य को आप समझ गए तो मग्नता आ जाएगी और सारी साधना सफल हो जाएगी. सारी क्रिया सफल हो जाएगी.
जैन दर्शन की सारी क्रियाएं पूर्णतः वैज्ञानिक हैं. एक-एक शब्द के अन्दर वह परम सत्य छिपा है. जिसकी हमने खोज नहीं की. यदि एक बार भी खोज की गहराई में गए होते और स्वयं को खोकर खोज की होती तो हमारी खोज आज पूरी हो जाती. सामायिक करते समय या परमात्मा का स्मरण करते समय जो एकाग्रता हम में आनी चाहिए थी, उसका अभाव रहा. मग्नता और तादात्म्यता का भाव आना चाहिए तथा उसके साथ एकाकार हो जाना चाहिए, उस स्थिति को लाने के लिए हमनें कभी कोई प्रयास नहीं किया. अभी आपको स्वयं का भी परिचय नहीं और न ही स्वयं की आत्मा के मूल्या परिचय और न आत्म-शक्ति का परिचय है. कदाचित् प्रारब्ध से दो पैसा मिल जाए और कुछ भी न रहते हुए सब कुछ हो जाए तब चित्त में ऐसी प्रसन्नता होगी कि बहुत कुछ कमा लिया और पैदा कर लिया. इस प्रकार का आत्म संतोष आपको मिलेगा. परन्तु सब कुछ कमाने के बाद प्राप्त होने के बाद यदि किसी कारण से शारीरिक व्याधि आ जाए या कोई ऐसा असाध्य कष्ट आ जाए अथवा रोग का आक्रमण हो जाए और डाक्टर आपको सलाह दे कि इसके लिए आपको विदेश जाना पड़ेगा क्योंकि यह बड़ी ख़तरनाक बीमारी है. उसकी शल्य चिकित्सा होगी जिसमें बहुत बड़ा खतरा है. उस समय क्या आप विचार करेंगे कि वर्षों तक पसीना बहा कर यह, अर्जित की गयी सम्पूर्ण सम्पत्ति रोग निदान में ही समाप्त हो जायेगी. आप पैसा बचाएंगे या शरीर बचाएंगे? आपको मालूम है कि विदेश जाएंगे और चिकित्सा कराएंगे तो सभी सम्पत्ति समाप्त हो जायेगी - ऐसी स्थिति में आपका क्या निर्णय होगा ?
आप सत्य ही बोलेंगे कि शरीर बचाएंगे. शरीर है तो पैसे का मूल्य है. पैसे का उपयोग करने वाला भोक्ता तो यह शरीर है. पैसा इतना कीमती नहीं है बल्कि शरीर ज्यादा कीमती है. और यदि मैं आपसे आगे पूछें कि शरीर का मालिक इसका मैनेजिंग डायरेक्टर ट्रांसफर हो जाए तो फिर इस शरीर की क्या कोई कीमत है ? घर में रखना कोई पसन्द नहीं करेगा ? जिस घर का आपने निर्माण किया जिस परिवार को आपने जन्म दिया और जिनका
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गुरुवाणी
आज तक भरण-पोषण किया क्या वह परिवार भी उस शरीर को रखना पसन्द करेगा? नहीं.
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यह संसार स्वार्थ से भरा है. अलग-अलग प्रकार के स्वार्थ हैं. बहुत ज्यादा यदि अनुराग है, तो वहाँ पर भी स्वार्थ है. जिस संसार को आप अपना मान कर के चल रहे हैं, जिसके अनुराग के लिए आप अपना जीवन दे रहे हैं. क्या आपने कभी सोचा कि वह संसार वास्तव में मेरा है? यह धर्मशाला है. परिवार के जितने भी सदस्य हैं, सभी यात्री हैं, सब अपने कर्म के अनुसार आए हैं और न जाने कब कौन चला जाएगा.
यदि आप इस धर्मशाला के अन्दर अतिथि रूप में आए हैं और आप अतिथि बन कर यदि इसमें रहें, तब तो कोई समस्या नहीं, कोई अटेचमेंट (मोह) नहीं. यदि आप मालिक बनने की कोशिश करेंगे, तो अनेकशः समस्याएं पैदा हो जाएंगी. उदाहरणार्थ किसी के घर यदि आप अतिथि बन कर के जाएँ तो आपको कोई चिन्ता रहती है कि नाश्ता कब आएगा? खाना कब मिलेगा? सारी सुविधाएं मिल जाती हैं क्योंकि आप अतिथि हैं. वे सारी चिन्ताएं मकान मालिक पर हैं. यदि स्वयं को अतिथि बनाकर संसार में रहें तब तो बहुत कुछ सुख मिल सकता है. परन्तु हम अपनी आदत से लाचार हैं – मालिक बन कर रहने की कोशिश करते हैं और जैसे ही वह भाव अन्दर आता है - अटेचमेंट (मोह) का आवरण द:ख एवं अशान्ति को आमन्त्रित करता है. हमारा जीवन क्लेशमय होकर तमाम उलझनों से जकड़ उठता है. __इस प्रकार जिनके लिए आपने सब कुछ किया, वही आपको विदाई देते है. यह आपको मालूम है कि यह घर मेरा नहीं और परिवार भी संयोग से मिला है. यह शरीर और संसार सब उधार का है और उधार की दुकान पर आप दीवाली मनाने की कोशिश करें तो आप स्वयं ही इस तथ्य पर चिन्तन करें कि कब तक मनाएंगे? पैसे से ज्यादा कीमती यह शरीर है और शरीर से ज्यादा कीमती आत्मा है.
आप स्वयं स्वीकार करेंगे कि हमारा ज्यादा से ज्यादा समय या तो पैसे के लिए या शरीर के लिए या संसार सुखों को प्राप्त करने के लिए लगता है. आत्मा के लिए परमात्मा के ध्यान में या अथवा साधना में हम कितना समय लगाते है. और यदि जो समय हम देते भी हों तो वह समय किस प्रकार है जो सामायिक लेकर आप बैठे हैं, परमात्मा का स्मरण कर रहे हैं या फिर माला फेर रहे हैं. आप परमेश्वर को साक्ष्य मानकर बैठे है कि अडतालिस मिनट तक साधु रूप में स्थिर चित्त होकर आराधना करेंगे मन, वचन,
और कर्म से कोई ऐसे कार्य में प्रवृत्ति नहीं करेंगे, जो आत्मा के प्रतिकूल हो. आप प्रतिज्ञाबद्ध होकर सामायिक में बैठे हों और संयोगवश, बच्चे स्कूल गए हों, घर में कोई न हो और उस समय पर यदि कोई कुत्ता सीधे ही आपके चौके में जाए और एक-आध लीटर दूध वगैरह पड़ा हों तो आप सामायिक बचाएंगे या दूध आदि बचाएंगे?
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-गुरुवाणी
साधना का मूल्य आपकी दृष्टि में है ही नहीं. वह कुत्ता दूध आदि बिगाड़ देगा इसकी आपको बड़ी चिन्ता है. आप अपनी प्रणबद्धता को भी तिलांजलि देकर किसी भी तरह आप उस कुत्ते को निकालने का प्रयास करेंगे. मेरा इतना ही अभिप्राय है कि जो एक लीटर दूध का त्याग नहीं कर सकता वह इस संसार का त्याग किस तरह से कर पाएगा?
यह कैसी भयंकर आसक्ति है? एक छोटी-सी चीज़ में उसकी आसक्ति छिपी हुई है और उसके अन्दर यह विवेक नहीं है और न ही यह तात्विक दृष्टि विकसित है कि यह सोच सके-मैंने इस लोक में क्यों पदार्पण किया है तथा मैं तो कुछ लेकर तो नहीं आया था ?
एक बार कोई चौकीदार गोरखा जा रहा था. रास्ते में सौ का नोट पड़ा हुआ पाकर मुदित हो गया और उसे उठाकर जेब में रख लिया. थोड़ी-सी दूर आगे गया तो उसका एक मित्र मिल गया. मुफ्त का पैसा था. बिना पसीना उतारे मिला था. मित्र को बुलाया
और कहा कि चाय पी कर के आएं चाय पीने के लिए वह होटल में गया नाश्ता भी किया. परन्तु जैसे ही चाय, नाश्ता कर के वह पेमेंट करने के लिए काउण्टर पर आया तो पॉकेट में देखता है कि पाकेट खाली. उसका सारा चेहरा उतर गया, निराश हो गया.
उसके साथी ने पूछा कि अरे भाई क्या बात है? एकदम चेहरे पर परिवर्तन कैसे आया?
क्या बतलाएं! रास्ते में निकला था – एक सौ का नोट मिला. मेरे मन में आया कि चलो इसका उपयोग करें और इसी बीच तुम मिल गए और इच्छा हुयी कि साथ-साथ नाश्ता करें और चाय पीएं परन्तु यहां तो कोई पाकेट ही साफ कर गया. ___बड़ा सुन्दर दार्शनिक उसका मित्र था. उसने कहा कि अरे इसमें चिन्ता की क्या बात है? तुम घर से निकले तो कुछ था नहीं. रास्ते में मिला और रास्ते में गया. इसके लिए हंसना क्या और रोना क्या?
अपनी पूर्व स्थिति पर तो विचार करो. आप ज़रा-सी आत्म-दृष्टि प्राप्त करो, हम जन्में तो क्या लाए थे? और जाएंगे तब लंगोटी भी रहेगी? नहीं, फिर संसार के मार्ग में पूर्व के पुण्य से यदि पैसा मिल गया तो उसका क्या आनन्द और यदि कर्म राजा ने पाकेट काट लिया और वह पैसा चला गया तो उसके लिए क्या रोना?
मन को यदि आप समझाने का प्रयास करें तब तो यह मन मान लेता है. यह सारा ही उपद्रव मन का है, इसीलिए ज्ञानियों की भाषा में कहा गया है -
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। संसार के बन्धन से मुक्त होने का साधन मन है. मन ही वह चाबी है. तिजोरी के अन्दर बहुत सारा वैभव रहता है परन्तु चाबी एक होती है. आप उससे तिजोरी खोल भी सकते हैं, बन्द भी कर सकते हैं. राइट टर्न दीजिए - खुल जाएगी, लेफ्ट टर्न दीजिये तिजोरी बन्द हो जाएगी. चाबी एक है और काम दो हैं.
R हना
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-गुरुवाणी
मन एक है और इसके कार्य दो हैं: यह संसार को कस्टडी भी देता है और मोक्ष भी. यह मन संसार से मुक्त कर देता है. गुरुओं द्वारा बताई गयी मैत्री और प्रेम रूपी चाबी को सही तरफ (राइट टर्न) घुमाना पड़ता है, और हमारे अन्तःद्वार को खोल देती है. आत्मा अनन्त वैभव की मालिक बन जाती है. हमारी आदतों में बैर, कटुता, द्वेष और अहंकार जैसे भयंकर दूषित तत्त्व हैं, जो बाहर से आए हुए वैभव स्वरूप हैं. ये आत्मा के व्यावहारिक गुण हैं. स्वाभाविक नहीं.
हमने कभी ध्यान अवस्था में अपनी अन्तरात्मा के गुणों के वैभव को देखने का प्रयास ही नहीं किया. कभी हमनें अपनी मनःस्थिति पर आत्म-चिन्तन नहीं किया और अप्राप्ति के कारण असंतोष की आग में मन जलता रहा. भूतकाल सारा निष्फल गया. अनादि, अनन्त काल तक हम प्राप्ति से वंचित रहे, अप्राप्ति की वेदना से घिरे हुए रहे. अप्राप्ति का असंतोष बड़ा भयंकर होता है. उसकी वेदना आत्मा में बड़ी भयंकर होती है. बहुत से लोग कहते हैं कि प्रयास किया मगर उपलब्धि कुछ नहीं हुई. अतः सुख से वंचित रहे.
एक व्यक्ति बहुत दुःखी था. मेरे पास समय लेकर जब रात्रि में आया तो मैंने पूछा - "क्या बात है?"
"महाराज! बहुत बड़ी चिन्ता है." “किस बात की?" "मेरे लड़के ने बहुत बड़ा नुकसान कर दिया." "कितना बड़ा?" “दस लाख रुपये का नुकसान कर दिया, महाराज!"
वह बड़ा श्रद्धालु व्यक्ति था. मैंने कहा कि मेरे पास धर्म आराधना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. मैं साधु हूं, अपनी मर्यादा में रहकर मैं जो कर सकता हूं वह करने को मैं तैयार हूं. मैं आपको मार्ग-दर्शन दे सकता हूं, धर्म आराधना क्यों करना ? वह बता सकता हूँ.
"आप मुझे बताएं कि आप बम्बई आए तो आपके पास क्या था?"
"महाराज! कुछ नहीं, नौकरी करता था. मात्र डेढ सौ रुपए महीना और खाने-पीने को मिलता था."
"उसके बाद आपने क्या किया?" "किसी की भागीदारी में धन्धा किया." "उसके बाद आपने क्या किया?" "महाराज! उसके बाद? मैंने स्वतंत्र दुकान कर ली." "आज आपके पास क्या है?" "फ्लैट है, दुकान है, गाड़ी है, .....
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% 3
Dगुरुवाणी%3D
"आप यह विचार क्यों नहीं करते - जब यहां आया था तब नौकरी करता था, फूटपाथ पर सोता था. होटल में खाता था. सेठ की गालियां सुनता था. धीरे-धीरे आप आगे बढ़ते गए और आपने भौतिक विकास कर लिया तथा अब पचास लाख का फ्लैट आपके पास है, तीस लाख की दुकान व पांच लाख की गाड़ी भी आपके पास हैं तथा इतने नौकर-चाकर हैं. ज्वैलरी तथा लिक्विड-मनी आपके पास है तथा बैंक बैलेंस भी. इतना सब कुछ आपके पास है, और दस लाख चला गया तो उसके लिए आप रो रहे हैं? अरे! जो है उसका आनन्द लूटो - नहीं तो आप मर जाओगे."
व्यक्ति का स्वभाव है कि जो चला गया, उसकी चिन्ता में वह अपना पूरा जीवन समाप्त कर लेता है. एक महीने से वे चिन्ता कर रहे थे कि दस लाख चला गया और नुकसान हो गया परन्तु उन्होंने यह नहीं विचार किया कि जो मेरे पास एक करोड़ है उसी से आनन्दित रहूँ, हम अपनी अज्ञानदशा में इसी रोग से आक्रान्त हैं और यही दशा हमारी अशान्ति का कारण है.
जरा-सी ज्ञान दृष्टि से यदि विवेकपूर्वक देखा जाए तो आनन्द का खजाना अन्दर है. कैसा भी बाहर वातावरण का निर्माण हो जाए अथवा कर्म को लेकर कैसी भी विषम समस्या पैदा हो जाए. अगर यह आत्मदृष्टि उन्मेषित हो जाए कि हर परिस्थिति में आप चित्त की शांति बनाए रखें तो कभी भी कोई समस्या आप विचलित को नहीं करेगी.
आज का पूरा मानव समाज इस चिन्ता से पीड़ित है जो पूर्णतः निरर्थक है. जिसके जो पास नहीं है, वह उसको प्राप्त करने की आशा करता है. यही दुःख का मुख्य कारण है. हम यही चिन्ता करते हैं कि कुछ मिल जाए. हमारा सारा प्रयास कुछ प्राप्त करने के लिए होता है. जगत की अनित्यता का कभी आप विचार कीजिए तथा मन को समझाने का प्रयास करें तो उसका पागलपन मिट जाएगा. यह मानसिक रोग की चिकित्सा है. इसका उपाय परमात्मा ने बताया है कि अनित्य भावना का चिन्तन करना चाहिए. जैसे
"अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।" परमात्मा ने मानसिक रोग की पीड़ा का अत्यन्त सुन्दर उपचार बताते हुए कहा है कि मन को समझाएँ कि प्रत्येक दृश्य वस्तु नश्वर है तथा जो हम करते हैं वह सब यहीं रह जाता है.
तीन पीढ़ी के बाद नाम याद रखने वाला भी घर में कोई नहीं होगा. हमारी स्थिति इस तरह है. किस बात पर मैं अभिमान करूं और किस वस्तु का मैं आनन्द लूं? मन से जो आनन्द मिलता है, वह आनन्द स्थायी नहीं होता क्योंकि वह उधार का है. अपनी आत्मा के ही गुणों का आनन्द लें. जो पास है, उसी आनन्द से मन को सन्तोष दीजिए.
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: गुरुवाणी
इतिहास में बहुत सी बातें मिलती हैं. सारी सम्पत्ति सब यहीं छोड़ कर के चले गये, सिकन्दर सारी दुनिया को लूटने के लिए जा रहा था. अरस्तू उसका बड़ा आध्यात्मिक गुरु था. वह उनसे आशीर्वाद लेने के लिए गया. सिकंदर को सामने देखकर अरस्तू कहता है "गुरुदेव, आशीर्वाद लेने के लिए आया हूं." "किस बात का आशीर्वाद ?"
"क्यों आए, कैसे आए ?"
"हिन्दुस्तान पर विजय प्राप्त करने के लिए जा रहा हूं."
"उसके बाद क्या करोगे ?"
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"उसके बाद, अरब पर विजय प्राप्त करूंगा."
"उसके बाद ?"
"उसके बाद, उससे आगे की जो दुनिया है, उस पर अधिकार प्राप्त करूंगा."
"अरे, उसके बाद तू क्या करेगा ?"
“पूरा मिडिल ईस्ट मेरा हो जाएगा. पूरा एशिया मेरे अधिकार में आ जाएगा और बाकी के जो भी द्वीप या खण्ड हैं, उन सब पर मेरा अधिकार होगा."
"अरें, उसके बाद तू क्या करेगा ? "
"सारे विश्व में एकाधिकार करूंगा. सारे विश्व का सम्राट बनूंगा. "
"उसके बाद तू क्या करेगा? अरस्तू ने जब आखिरी बार पूछा. "
"तब मेरे पास जीतने को कुछ नहीं रहेगा. बड़ी शांति से, ऐंठन से मैं बैठूंगा और दुनिया पर साम्राज्य करूंगा. फिर कोई इच्छा और तृष्णा नहीं."
"तू कैसा मूर्ख है-- इतनी बड़ी अशांति पैदा करके, शांति की कल्पना करता है ? धूप में पसीना सुखाने की इच्छा रखता है? अभी तुझे कौन-सी अशांति है ? खाने को मिलता है, रहने को मिलता है, हज़ारों नौकर तेरी सेवा में है, बड़ा राजमहल है, हजारों-लाखों आदमियों का घर उजाड़ कर के, किसी को मार काट कर के, किसी को लूट कर के इतनी बड़ी अशांति पैदा करके - तू शांति की कल्पना करता है. ऐसे मूर्ख व्यक्ति को मैं आशीर्वाद नहीं देता." इस प्रकार अरस्तू ने उसे स्पष्ट कह दिया.
इतिहास साक्षी है कि जैसे हिन्दुस्तान पर विजय प्राप्त की, उसे वापिस जाना पड़ा. बत्तीस वर्ष की उम्र में शरीर से लाचार हो गया. उसका जीवन असंतोष की अग्नि से परिच्छिन्न हो गया, वह मानसिक रूप से ऐसा पीड़ित बन गया कि मृत्यु शैय्या पर पड़ गया. सेनापति, और बड़े-बड़े व्यक्ति वहां पर आ गए और सभी खड़े थे.
अन्तिम समय पर कहता है कि मुझे मौत से बचाओ.
डाक्टर कहते हैं कि हमारे पास मौत का कोई इलाज नहीं. ऐसी कोई दवा हमारे पास नहीं है जो आपको बचा सके.
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吧
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: गुरुवाणी
आप पैसे से नर्सिंग होम और बड़े डाक्टर अथवा एक्सपर्ट डाक्टर ला सकते हैं. बहुत कीमती दवा भी फौरन आप मंगवा लेंगे. मगर आप पैसे से आयुष्य कहां से लाएंगे ? क्या किसी मेडिकल हाल में वह मिलता है? सब चीजें तो पैसे से मिल जाएंगी पर आयुष्य कभी पैसे से नहीं मिलता. वह तो पुण्य से ही प्राप्त होगा.
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यह हमारी आदत है कि जब सब तरह से व्यक्ति लाचार हो जाता है और हास्पिटल से डाक्टर डिस्चार्ज करके कह देता है कि इन्हें अब घर ले जाओ यहाँ पर अनावश्यक रूप से जगह मत रोककर रखो. जितना इनका आयुष्य है, भोगने दो. इनकी जो इच्छा है, उसे तुम पूरा करो. डाक्टर भी उंगली के इशारे से यह कह देता है कि ऊपर परमात्मा को याद करो.
जीवन में जब कुछ करना था, तब तो आपने किया नहीं. और जब डाक्टर ने रेड सिगनल कर दिया कि होपलेस केस, बचने की सम्भावना नहीं, घर ले जाओ, तब परमात्मा का स्मरण किया जाता है.
आग लगने के बाद कहते हैं कि महाराज! कुंआ खोदो. आग तो लग चुकी है. यह हमारी अज्ञानता है. मृत्युशय्या पर सम्राट सिकन्दर जगत् का बादशाह लेटा हुआ था और सारे सेनापति सिर नीचे लटका कर के, उदासीन भाव से खड़े थे. सारी दुनिया को जीतने वाला सिकन्दर मौत से हार कर के गया. वह मौत को नहीं मार पाया. उसके पास में अपार वैभव था, परन्तु वहां धन कोई काम नहीं आया. ज्ञानियों ने कहाः
"अनित्यानि शरीराणि"
शरीर अनित्य है, वैभव अनित्य और नाशवान है, जरा उस पर विचार कीजिए. इसीलिए मैं आपको उस पर चिन्तन दे रहा हूं. मन को कैसे समझाया जाए तथा मानसिक शांति कैसे पैदा की जाए, क्योंकि जहां से समस्या पैदा हुई है, समाधान वहीं से आपको मिलेगा. जो चीजें आप घर में खोते हैं, यदि आप उन्हें बाहर में खोजने के लिए जाएं तो चीज वहां नहीं मिलेगी और वह खोज कभी पूरी नहीं होगी.
सेठ मफतलाल यहां से बम्बई गए और वहां से लन्दन गए. उनको कोई ऐसी बीमारी थी, जो डाक्टर डायगनोज नहीं कर पाए, और न ही निदान कर पाए. एक तरह से बड़ी अशांति थी. वह जब खाते तो बड़ी बेचैनी लगती तथा श्वास लेने में रुकावट आती. वह बेचारे सारा दिन उदास रहते और उन्हें भारीपन नजर आता. स्फूर्ति नहीं मिलती थी तो उन्होंने विशेषज्ञ डाक्टरों को दिखाया. किसी डाक्टर ने कहा कि आंख के डाक्टर के पास आप जाओ, नज़र की कमजोरी से भी ऐसा हो सकता है. कान में कोई कारण हो अथवा और कोई बड़े अच्छे चिकित्सक को दिखाओ. कहीं पर भी कोई नहीं मिला और वे इंग्लैण्ड गए. वहां के बड़े-बड़े डाक्टरों ने जब देखा, और डायगनोसिस किया तो कह दिया कि सेठ, तुम्हारा कोई रोग पकड़ में नहीं आ रहा है. ब्लड में नहीं, यूरिन में नहीं, किसी प्रकार के टेस्ट में कोई रोग नज़र नहीं आ रहा है यह कोई नई बीमारी निकली है।
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HOR घ
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%Dगुरुवाणी:
और बड़ी खतरनाक बीमारी है. अच्छा है तुम. अपने घर वापिस लौट जाओ और जो । तुमको करना हो, घूमना-फिरना हो, कर लो. “टुमारो यू शैल डाई." ___मौत का सर्टीफिकेट लेकर मफतलाल दिल्ली वापिस आए कि जगत् में अब इस बीमारी की कोई दवा नहीं है. यह बड़ी खतरनाक बीमारी है. उन्होंने देखा कि अब अगर मुझे मरना है तो अच्छी तरह से क्यों न मरा जाए. खा-पी कर के और घूम कर के मैं मरूं. उन्हें घूमने का शौक लगा. वह बड़े समृद्ध व्यक्ति थे अपने दर्जी को बुलाकर कहा कि मुझे एक दर्जन सूट सिल कर के दो. मैंने कमाया है और मुझे उसका उपयोग करना है. पूरे हिन्दुस्तान में घूमूंगा और तीर्थयात्रा पर जाऊंगा.
जब सूट सीने के लिए दर्जी आया – ऊपर से नीचे का सब माप मालूम था क्योंकि रोज नये कपड़े सिला करता था. कॉलर सीने का जब वह माप ले रहा था. सेठ मफतलाल ने कहा, क्या माप तुम लेते हो, वर्षों से कपड़ा सिला रहा हूं शरीर के एक-एक अंग का माप तुझे मालूम है. ___ दर्जी ने कहा, हो सकता है उस माप में शायद कुछ भूल रह गई हो. मुझे आप फिर से माप लेने दीजिए, दर्जी का आग्रह था.
उसने कहा नहीं-नहीं, मैं ठीक कह रहा हूं. मुंह से माप तो बोल गए. गर्दन का माप भी वह कह गए कि सोलह गिरह का है. टेलर ने कहा, मेरा आपसे नम्र निवेदन है, आप माप लेने दीजिए.
शरीर का माप लिया गया. अब वे तो पांच-सात वर्ष पहले की बात कर रहे थे और उसके बाद उनका शारीरिक विकास अच्छा हो गया, अतः जो माप पहले था, वह अब पुराना हो गया था. अब गले का माप यदि सोलह गिरह का लिया जाये - वे आज तक सोलह का ही सिलाते आए.
दर्जी ने कहा कि सेठ साहब! यह माप आप बदल दीजिए. सोलह के माप में तो आपको फांसी जैसी सजा हो जाएगी. इतना कसा रहेगा, आपकी पाचनक्रिया बिगड़ जाएगा. आपके श्वास में रुकावट पैदा होगी. आंखों के सामने अन्धेरा आएगा. कान में झनझनाहट सुनाई देगी. सारे दिन आपको बेचैनी रहेगी. क्या आपने कभी यह सोचा है?
सेठ तो चमक गया कि इसीलिए तो मैं बम्बई गया, और वहां के बड़े-बड़े डाक्टरों को मैंने दिखाया. इंग्लैण्ड के सारे डाक्टर मात खा गए. कोई बीमारी नहीं पकड़ पाया और मैं तो मौत का सर्टीफिकेट ले कर के आया हूं.. यार! तुमने तो गजब की बात कह दी.
आप अब बात समझ गए होंगे. बीमारी गर्दन पर थी. एक ज़रा-सी भूल के परिणाम स्वरूप मैं लाखों रुपये नष्ट कर के पूरी दुनिया घूमकर आ गया.
REPORTER
SATH
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-गुरुवाणी
जहां समस्या पैदा होती है, समाधान वहीं मिलेगा. जैसे ही उसको ढीला कर दिया । गया, सारी समस्याएं स्वतः मिट गयीं. समस्या मन से पैदा होती है और यदि मन को समझा दिया जाए तो सारी समस्या का समाधान हो जाएगा.
दरअसल, हम पैसे में समस्या का समाधान खोजते हैं. परिवार में खोजते हैं, पत्र में, पुत्री में, बाहर के वैभव में और धन-सम्पति में समाधान खोजते हैं. परिणामतः समस्या अन्दर बनी रहती है और हमारी मृग-मरीचिका की तलाश जारी रहती है. __ मृत्यु का भय सबसे भयंकर होता है. इससे आतंकित अच्छे-अच्छे व्यक्तियों का एक ही परिणाम होता हैं. सम्राट-सिकन्दर अन्ततः निराश हो गया क्योंकि वह समझ गया था कि उसके पग-पग पर अग्रसर होने के साथ मृत्यु निमन्त्रण दे रही थी.
जब किसी को युवावस्था का मद हो, पास में धन की प्रचुरता हो, मानसिक स्थिति भी दर्द से आप्लावित हो और साथ में सत्ता का मद भी हो तो आप समझ लें कि उसकी अन्तिम घड़ियों का यह पूर्वाभास हैं. अस्तु कवि का निम्न उद्घोष स्मरणीय है
"उछल लो, कूद लो, जब तक है जोर नलियों में"
“याद रखना इस तन की, उड़ेगी, खाक गलियों में" सारी गर्मी चली जाएगी. बड़ी शान-शौकत से निकलते हैं. बड़े शान से चलते हैं. बहुत ऐशो-आराम से हम रहते हैं. माथा ऊंचा करके हम निकलते हैं. हमें कुछ नहीं मालूम, हमने अपने भावी काल को नहीं देखा. वर्तमान के अन्दर अपनी मृत्यु को झांककर के नहीं देखा. उसे मालूम नहीं कि कल जला दिया जाऊंगा - श्मशान के अन्दर यह खोपड़ी कितने पांव की ठोकर खाएगी. बड़े शान से मैं ऊंचा मस्तक लेकर के जा रहा हूं और न जाने मृत्यु के बाद कितना अपमान इस देह को सहन करना पड़ेगा.
एक बार एक समझदार फकीर मरे हुए मुर्दे की राख लेकर सूंघ रहा था. किसी व्यक्ति ने पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं. उसने कहा कि यह किसी बहत बड़े रईस लाला की राख है. वह दस बार सेन्ट (इत्र) आदि लगाते थे और जहाँ से निकलते थे. वह परिवेश सुवासित हो जाता था. बड़े सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति थे. मरणोपरान्त राख में उनकी सुगन्ध का अवशेष देख रहा हूँ.
कैसा समाजवाद है? चाहे कैसा भी गरीब हो अगर जला दिया जाए तो उस राख में कोई दुर्गन्ध नहीं मिलेगा. चाहे कैसा भी अमीर हो, उसकी राख में कोई सुगन्ध नहीं मिलेगा. श्मशान का समाजवाद बड़ा विचित्र है.
कितना बड़ा था सिकन्दर, और वह भी मरते समय निराश हो गया. सारी दुनिया को लूटने वाला, उस पर विजय प्राप्त करने वाला, वह मौत से हार कर के जा रहा था सब कुछ लुटा कर के जाना पड़ रहा था, कुछ भी उसके पास नहीं बचा.
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गुरुवाणी
इकट्ठे कर जहां के जर, सारी दुनिया के मालिक थे।
सिकन्दर जब गया दुनिया से दोनों हाथ खाली थे। सिकन्दर जब हिन्दुस्तान आया तो उसके भी गुरु ने कहा था कि किसी जैन साधु से परिचय करना. विजय-प्राप्ति के बाद वह उस नशे में घूम रहा था और किसी नौकर को कहा कि किसी जैन साधु का परिचय करना है.
कोई ध्यानस्थ साधु गुफा में बैठे थे. सामने जाकर खड़ा हो गया. उसने सोचा मेरा सम्मान करेंगे, अभिवादन करेंगे. परन्तु वह तो ध्यानस्थ ही रहे, कोई परवाह नहीं की.
उसने तलवार निकाली कि ऐसे बद्तमीज की गर्दन उड़ा दी जाए क्योंकि बड़ी गर्मी थी, उसकी युवावस्था में होने पर. इतनी बड़ी सत्ता और विजय का उन्माद ऐसा था कि तलवार निकाली. फिर विचार आया और साधु से पूछा कि तू कौन है ? मुझे जानता नहीं कि मैं कौन हूं?
जीवन और मृत्यु में उनको कोई भय रहता ही नहीं, राग होता ही नहीं. वे मान और अपमान को समदृष्टि से देखने वाले तथा उनके लिए सोने में, धूल में कोई अन्तर नहीं. वे धूल के ही एक शुद्ध प्रकार हैं, ऐसी जैन साधुता है. विश्व के अन्दर इसकी बराबरी करने वाले दूसरे आपको कोई नहीं मिलेंगे. थोड़ी-बहुत विकृति यदि आई तो आप सब के बहुत अधिक परिचय का परिणाम है. बाकी, साधुओं की शुद्धता तो सुगन्धमयी होती है. उनकी अन्तःचेतना तो पूर्ण जागृत होती है. लोकैषणा साधु के लिए विष तुल्य है. साधु उससे बहुत दूर रहते हैं. सहज में शासन की सेवा हो गयी तो ठीक, नहीं तो मेरे पुण्य में कुछ कमी रही. वे तो अपनी साधना में ही मग्न रहते हैं.
सिकंदर उस साधु से कहता है, "तू जानता है मैं कौन हूं? मेरे हाथ में नंगी तलवार
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।
साधु ने उससे कहा, “मैं अच्छी तरह जानता हूं, और अच्छी तरह पहचानता हूं." “कौन तू है ?" "तू मेरे गुलाम का गुलाम है."
आप कटे हुए पर नमक डालें तो कैसी पीड़ा होती है? एक तो वह उत्तेजित था ही और उस पर ऐसे शब्द बोल दिए कि वह और ज्यादा उत्तेजित हो गया.
उसने कहा, "तू समझा मुझे, नहीं तो इस तलवार से तेरी गर्दन अलग करता हूं" साधु तो बड़ी शांति में थे. उसमें कोई अशांति नहीं थी, कोई भय नहीं था.
उन्होंने कहा “तू मुझे तलवार से क्या डराता है? मैं भी देखूगा कि तलवार से तू मुझे कैसे काटता है."
"तेरी गर्दन कट जाएगी तो तू क्या देखेगा?" साधु ने कहा "यही तो तेरी मूर्खता है. इतनी भी अक्ल खुदा ने तुझे नहीं दी. अरे,
रद
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-गुरुवाणी
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जिसे तू काटता है, वह थोड़े ही देखता है. देखने वाला तो अन्दर बैठा है. तू क्या तेरा बाप भी नहीं काट सकता. समझ गया?" तलवार अन्दर चली गयी. सिकन्दर विचार में पड़ गया, बड़ी गजब की बात कह दी.
तू जिसे काटता है, वह नहीं देखता और जिसे तू काट ही नहीं सकता वह अन्तरात्मा तो मेरे अन्दर है, वह देखेगी कि तू कैसे काटता है. साधु ने दार्शनिक दृष्टि से बड़ी दार्शनिक बात उसे समझा दी और उसकी तलवार अन्दर चली गयी. __ वह झुक कर के बैठ गया, “भगवन् मैं आपका गुलाम हूं, बतलाइए. मुझे स्पष्टीकरण दीजिए, मैं गुलाम कैसे हूं? __ "बड़ी सीधी सी बात है - ये सारी इन्द्रिया मेरी नौकर हैं. आँख से न देखने की स्थिति में वे बन्द हो कर के ध्यानस्थ हो जाती हैं. कान को परनिन्दा नहीं सुनने की स्थिति में कान बन्द हो जाते हैं, जीभ को आदेश देता हूं, यह वस्तु नहीं खाना, वह बेचारी मौन हो जाती है. सब इन्द्रियां एकदम मेरे बस में हैं. ये सब मेरे नौकर और गलाम हैं और तू इन्द्रियों का गुलाम है." ___“आंख ने कहा मुझे नाच देखना है तो पूरी रात चली जाती है. कान ने कहा महफिल में जाकर के संगीत सुनना है तो पूरी रात गुलाम बन कर तू उसकी सेवा में जागता है. जीभ ने कहा मुझे यह खाना है तो तू उसकी सेवा में प्रवृत्त हो जाता है. हर इन्द्रिय का तू दास है. हर इन्द्रिय का तू गुलाम है. मैं इन्द्रियों का स्वामी और मालिक हूं इस बात का मुझे गर्व है और तू गुलाम होकर मेरे जैसे सम्राट को डराने आया और वह भी तलवार लेकर. तेरी क्या ताकत कि तू मुझे मार सकेगा?"
सिकन्दर भी समझ गया, वह चरणों में गिर गया “भगवन्! आज मेरी आंख खुल गई"
इसीलिए मैंने कहा कि आत्म-चिन्तन किए बिना, स्वाध्याय किए बिना तुमको अपने स्वयं का परिचय नहीं मिलेगा. आप जगत् का परिचय जानते हैं, परन्तु स्वयं का कोई परिचय नहीं. __आज तक बहुत प्रवचन आपने सुने होंगे. बहुत साधु-सन्तों के परिचय में आप आए होंगे और मैं पूंछु कि आपकी आत्मा का शत्रु कौन है? आप क्या जवाब देंगे? ___ जिन्दगी निकल गई पैसा उपार्जन करने में और जब जरूरत पड़ी तो आपको परमेश्वर याद आता है, जब आपकी तिजोरी खाली हुई या शरीर में किसी रोग का आक्रमण हुआ तब आप परमेश्वर को स्मरण करते हैं. वह भी स्वार्थवश याद किया गया कि भगवन अब तू ही बचा
"त्वमेव शरणं" इससे पहले कभी आपने परमेश्वर को याद किया या कभी आत्म-दशा का चिन्तन किया कि कल मुझे जाना है और जो मेरी वस्तु है मेरा लक्ष्य होना चाहिए. आप प्रवृत्ति
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-गुरुवाणी
महा!
करो परन्तु निवृत्ति रखकर के प्रवृत्ति करो. बाहर की प्रवृत्ति से निवृत्त होकर के थोड़ा-बहुत अवश्य ही आत्म-चिन्तन करें. मैं कौन हूं? मैं क्या हूं?
आपसे यदि कोई पछे - "ह आर य" - आप कौन हैं? क्या जवाब देंगे? क्या कहेंगे मेरा यह नाम है. नाम तो उधार है और जन्में तो लाये थे, रजिस्टर्ड था क्या?
कछ नहीं, मां-बाप ने दे दिया, आपको स्वीकार करना पडा. जैसा भी नाम दिया हो - मफतलाल नाम दिया हो, चन्दूलाल नाम दिया हो, स्वीकारना पड़ता है. जगत इस नाम से पुकारता है, चलो स्वीकार्य है, कोई डिक्शनरी में से देख कर के तो नाम लाये नहीं. आप कहें महाराज! इस घर में रहता हूं – क्या है -- धर्मशाला है – वह घर आपका हुआ कभी. कई आए, कई गए, आना-जाना तो चालू है. आप क्या कहेंगे?
आप कहेंगे कि यह शरीर मेरा है, महाराज. यह शरीर भी तो एक उधार ही है, माता-पिता की देन है. आपका क्या? शरीर भी आपका नहीं, परिवार भी आपका नहीं, मकान भी आपका नहीं, नाम भी आपका नहीं है, तो आपका है क्या?
कभी आपने स्वयं का परिचय किया कि मैं कौन हूं? ये अन्दर से बोलने वाला कौन है? नहीं! ____ आत्मा का एक बार सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करें. अपनी स्वयं की जानकारी आप प्राप्त करें कि मैं कौन हूं. आत्मा का शत्रु कौन? आपको मालूम नहीं. परमात्मा का कथन है. जैन दृष्टि से आपका शत्रु आपके अन्दर ही है बाहर नहीं. यहां तो जो अपने कर्म को शत्रु मान कर के चले - वही साधु और वही श्रावक माना गया है. आहार-विषयक आयुर्वेद का नियम है –
“भोजनान्ते शतपदं गच्छेत्" चरक संहिता आयुर्वेद शास्त्र (मेडिकल साइन्स) दुनिया का प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रन्थ है. वह आयुर्वेद का प्रमुख स्रोत है जिस पर मेडिकल साइन्स शोध में लग रहे हैं. सारी दुनिया की आंख खोल देने वाला ग्रन्थ. आपके आरोग्य की चाबी उसमें बतलाई है. उसमें कहा गया है
यदि भोजन के बाद श्रम नहीं किया गया तो वह भोजन बीमारियों का घर बन जाता है. रात्रि के समय किया हुआ भोजन आपके अन्दर विकृति पैदा करता है. सूर्य की रोशनी, अल्ट्रावायलेट किरण भोजन के पाचन में सहायक बनती है और मन्दाग्नि को प्रदीप्त करने वाली अल्ट्रावायलेट रेज़ सूर्य की किरणें है जिसके प्रकाश में कोई वायरस नहीं होता. उसकी किरणों में यह ताकत है कि ऐसे जीवाणुओं को पनपने ही नहीं देतीं. उसके कारण कीटाणु छिप जाते हैं परन्तु जैसे ही सूर्य अस्त होता है, वे सारे कीटाणु बाहर निकलते हैं.
रात्रि के अन्धकार में वे अपने भोजन की प्रतीक्षा में रहते हैं. वे आंखों से नहीं दिखते, और न ही चर्म-चक्षु ग्राह्य हैं. इतने सूक्ष्म होते हैं. दाल में, साग में, आपके भोजन की
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गुरुवाणी
सामग्री में यदि वह आ जाएं परन्तु आपको मालूम नहीं पड़ेगा और यदि आप उस भोजन को ग्रहण करें तो कई ऐसे विषाक्त कीटाणु आपके भोजन के अन्दर बीमारी उत्पन्न करते हैं.
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धार्मिक दृष्टि से वह हिंसा का कारण माना गया है. शारीरिक दृष्टि से आरोग्य की हानि का कारण माना गया और उसका वैज्ञानिक कारण बतलाया गया है कि यदि आप भोजन के बाद पांच- पच्चीस कदम नहीं चलेंगे तो वह भोजन आपके पेट में पड़ा रहता है. यह कार्य उस बायलर को करना पड़ता है जिसमें से एसिड उत्पन्न होकर भोजन को पचाता है. परन्तु तब तो वह एसिड उत्पन्न करता है.
परन्तु यदि आप भोजन करके ऐसे ही सीधे बैठे रहे. शाम को आप दुकान से थक कर के आएं नौ बजे आएं दस बजे आएं - भूख तो लगेगी ही, सारे दिन आपने श्रम किया है. जैसे ही आपने पेट भर के भोजन किया तो रात को दस बजे आप कहां घूमने जाएंगे? उसके बाद आप क्या श्रम करेंगे? घर में टी. वी. चल रहा है और पास में बच्चे बैठे हैं. ऐसी स्थिति में आप भी सोफासेट पर आराम ही करते हैं. वह भोजन आपके अन्दर पड़ा है.
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इस प्रकार जो काम शरीर को करना था, वह आपकी होजरी कर रही है. बड़ा श्रम पड़ रहा है, उस होजरी पर और धीरे-धीरे उसकी शक्ति कम पड़ जाती है. वह होज़री कमज़ोर हो जाती है और उसके बाद पाचन क्रिया कमज़ोर होते ही भूख बहुत कम लगेगी और सारी बीमारियों का वह कारण बनेगी. एक दिन, दो दिन चल सकता है पर रोज़ की आदत तो ख़तरनाक होगी.
भोजन का एक नशा होता है. इसमें बड़ी अल्पमात्रा में अल्कोहल होता है, तन्द्रा आती है, प्रमाद आता है. विश्राम करने की इच्छा होती है. नौ-दस बजे भोजन के बाद आप तुरन्त सो जाएंगे. भोजन के बाद पचाने के लिए जो पानी मिलना चाहिए उतनी मात्रा में पानी पेट में नहीं जाएगा. श्रम के द्वारा जो पाचन होना चाहिए. वह पाचन-क्रिया बराबरं नहीं होगी. अन्दर पड़ा हुआ वह आहार गैस उत्पन्न करेगा. और फिर वह गैस्टिक ट्रबल.
आयुर्वेद की दृष्टि 84 प्रकार की वायु हैं. अगर अलग-अलग नाड़ियों में वायु का प्रवेश होता है तो वे अलग-अलग बीमारियां उत्पन्न करती हैं, अगर वह गैस सीधी तरह से नहीं निकल पाई, नाड़ियों में और प्रवेश कर लिया तो धीरे-धीरे आगे चलकर पैरालिसिस (लकवा) करेगा. हाईपर ऐसीडिटी करेगा. कभी हेम्ब्रेज (विफलता) का कारण बनेगा. हृदय की नस में प्रवेश किया तो हार्ट अटेक लाएगा. रक्त के अन्दर प्रवेश कर गया तो रक्तचाप का रोग, ब्लड-प्रेशर उत्पन्न करेगा. इस प्रकार सारी बीमारियों का कारण बनेगा.
ज्ञान तन्तुओं में प्रवेश करेगा तो मेमोरी ( स्मरण शक्ति) कम होगी, दिल और दिमाग में तनाव पैदा होगा. शरीर में भारीपन आएगा. आप जो रात नौ-दस बजे आहार करके सो गए यह सारी बीमारी वहीं से पैदा हुई.
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-गुरुवाणी
आयुर्वेद में कहा गया है:
"भोजन आधा पेट कर, दुगना पानी पीऊं।
तिगुना श्रम, चौगुनी हंसी, वर्ष सवा सौ जीऊं ॥" आहार जिस मात्रा में किया गया, उससे दुगनी मात्रा में पानी पीना चाहिए. यह आयुर्वेद का सिद्धान्त है. इसके बाद तीन गुणा शारीरिक श्रम अपेक्षित है. पाचन हो जाता है तो शरीर का आरोग्य सुरक्षित रहता है. __ आरोग्य तो गांव में है, सुबह से शाम तक किसान काम करता है. धूप सहन करता है, गर्मी सहन करता है, रोग के प्रतिकार की उसमें कैसी शक्ति वहां कोई सर्दी-गर्मी नहीं होती. वहां कोई बीमारी नहीं आती. सशक्त रहते हैं. वहां मुश्किल से ही कोई हॉस्पिटल है. कभी दवा के लिए लाइन नहीं लगाते. कभी कोई शारीरिक कारण बन जाये तो अलग बात है. आरोग्य की दृष्टि से शहरी लोगों से तो वो बेचारे पुण्यशाली हैं.
बड़ी सात्विक खुराक है, वे कुछ उल्टा-सीधा नहीं खाते. आईसक्रीम पार्टी में नहीं जाते. वे अपनी तरफ से कोई माल-मलीदा नहीं उड़ाते. सूखी रोटी और दाल-साग खाते हैं फिर भी उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है. यह उनके श्रम का परिणाम है. जितनी आप श्रम की चोरी करेंगे, उतना ही रोग को आमन्त्रण देंगे. फिर यह शरीर न रहकर कार्टून बन जाएगा. अधिक मात्रा में श्रम की चोरी का परिणाम, रोग को आमन्त्रण देना है. ___सुविधाएं इतनी बढ़ गईं हैं कि ऊपर चढ़ना है तो लिफ्ट चाहिए. नीचे उतरे तो गाड़ी चाहिए. गाड़ी से उतरकर दुकान गए तो सोफा चाहिए और वहां जाकर आराम से बैठ गए. कहां से आरोग्य मिलेगा? फिर तो आप बेचारे डाक्टरों की ही दया के पात्र हैं.
किसी कारण से एक बार सेठ मफतलाल को कोर्ट में उपस्थित होना पडा. कोई क्रिमिनल केस था.
न्यायाधीश ने पूछा - "आप जैसे शरीफ आदमी और कोर्ट में! आप पर चोरी का केस!"
जज का पहला ही प्रश्न था कि "आपने चोरी क्यों की?" सेठ बोले माफ कीजिएगा - "मैंने आपके लिए चोरी की." यह सुनते ही, जज तो चौंक गया. "मैंने आपसे कब चोरी करने को कहा था?"
"आप नहीं समझते. यह तो बड़ा सुन्दर राष्ट्रीय कार्य है. "नो प्राबलम" आज राष्ट्र में बेकारी की समस्या बहुत बड़ी है. लगभग दो करोड़ पढ़े-लिखे शिक्षित व्यक्ति, आज इस देश में बेकार हैं. आप मेरी बात को बड़े ध्यान से समझिए. मैं बड़ी दार्शनिक दृष्टि से यह बात कह रहा हूं. बहुत बड़े पैमाने पर जीवों का उपकार कर रहा हूँ. हजारों-लाखों आदमियों का पेट भरता हूं. परिवार का पोषण करता हूं. अगर चोरी नहीं करू तो हजूर!
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3-गुरुवाणी
आपको यहां कौन बिठाएगा? पुलिस का स्टाफ बेकार हो जाएगा तथा वकीलों की जमात बेकार हो जाएगी. हजूर आप बेकार हो जाएंगे. आपके बीवी-बच्चों का क्या होगा?"
हम कितने बड़े स्टाफ का भरण-पोषण करते हैं, जरा हमारे कार्य पर तो विचार कीजिए. आप चोरी की बात करते हैं. उससे आगे कुछ नहीं सोचते, कि चोरी करने वाले कितना बड़ा उपकार देश पर कर रहे हैं. लाखों-करोडों व्यक्तियों का पेट भर रहे हैं. हजारों व्यक्तियों का भरण-पोषण हो रहा है. यह सब चोरी का परिणाम है.
इसी प्रकार यदि आप होटल में न जाएं तो हॉस्पिटल बेकार हो जाएंगे महाराज क्या बताए - ऐसी हालत में फेमली डाक्टरों की दशा क्या होगी?
हाँ तो मेरा कहना था कि यह सारी बीमारियों का जन्म स्थान है. मैं आपको अपनी दृष्टि से नहीं कहता कि आप छोड़ दीजिए. आप समझ कर के छोड़िये.
"भोजन आधा पेट कर, दुगना पानी पीऊं।
तिगुना श्रम, चौगुनी हंसी, वर्ष सवा सौ जीऊं ॥" तीन गुना श्रम होना चाहिए. हम लोग साधना का श्रम करते हैं, कई व्यक्ति बेचारे संसार में रहते हैं, नैतिक दृष्टि से उनका कर्त्तव्य है. परिवार का भरण-पोषण करना. वे शारीरिक श्रम करते हैं.
चौगुनी हंसी. हंसी का मतलब है -- प्रसन्नता. चित्त में प्रसन्नता “हैप्पीनेस” चाहिए. प्रसन्नता रोग का प्रतिकार करती है. प्रसन्नता बहुत-सी बीमारियों की बड़ी सुन्दर दवा है. प्रसन्नता चित्त के अन्दर राग और द्वेष के परिणाम को खत्म करती है, मन्द कर देती है.
तो मेरा कहना था कि यह दवा तो ऐसी है अगर आप सेवन करें तो आरोग्य भी मिल जाए. रोग का प्रतिकार भी हो जाए और सब तरह से आपका जीवन आनन्द-मंगलमय हो जाए. शाम के समय भोजन कर यदि आप सो जाते हैं तो पूरी रात वह आहार गैस उत्पन्न करता है. बिना पानी के बिना श्रम के वह शरीर बीमारियों का घर बनता हैं और धीरे-धीरे वे रोग शुरू हो जाते हैं.
यह मात्र जैन दर्शन में नहीं अपितु मार्कण्डेय पुराण में मार्कण्डय ऋषि ने भी - कहा है:
“अस्तं गते दिवानाथे आपो रूधिरमुच्यते।
अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेय महर्षिणा ॥ मार्कण्डेय ऋषि ने लिखा कि रात्रि के समय, सूर्य के अस्त होने के बाद यदि कोई व्यक्ति पानी पीता है तो वह रक्त के बराबर है और यदि अन्न का सेवन करता है तो वह मांस के तुल्य है.
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: गुरुवाणी
"अन्नं मांससमं प्रोक्तं"
जब वैदिक ऋषि-मुनियों ने भी यह उदाहरण दिया तो इसका मतलब आप समझ लीजिए कि उसके त्याग का कितना महत्त्व है. प्रत्येक धर्म में आपको बात नज़र आएगी. महावीर का वचन सापेक्ष है. उसमें आपके संसार की बात भी आएगी. सामाजिक दृष्टि से भी चिन्तन मिलेगा. आपके शारीरिक आरोग्य के बारे में भी जानकारी मिलेगी. आध्यात्मिक दृष्टि से परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी उसके अन्दर आपको मिलेगा.
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परमात्मा का प्रत्येक प्रवचन सापेक्ष होता है. धार्मिक दृष्टि से रात्रि भोजन का त्याग जीव दया का पालन होता है. आध्यात्मिक दृष्टि से मानसिक शान्ति मिलती है. आपके सदाचार का पालन होता है. रात्रि में किया हुआ आहार पेट में गर्मी पैदा करता आपके जीवन को क्षीण बनाएगा, विकार उत्पन्न करेगा, उत्तेजना उत्पन्न करेगा और वह मानसिक पीड़ा, क्रोध के रूप में परिवर्तित होगी. आवेश आएगा. राग और द्वेष के परिणाम को पुष्टि मिलेगी. इसीलिए उसको वर्जित माना गया है. आध्यात्मिक दृष्टि से इसीलिए उसका परित्याग किया गया है.
सायंकाल यदि आहार करना पड़े तो सूर्य की रोशनी में करना चाहिए. सन्ध्या को पांच बजे सूर्यास्त से पूर्व करिए. कम से कम घण्टा दो घण्टा शरीर को श्रम और चलने को मिलता है. कार्य करने में वह भोजन आसानी से पच जाता है. पूरा पानी मिल जाता है. इससे आपको बीमारी नहीं होगी.
जयना का अभाव याने निरीक्षण का अभाव कई बार बड़ी भयंकर भूल बन जाती है. रात्रि में कदाचित् पानी का उपयोग करना पड़े तो देखकर जयनापूर्वक, कोई जीव-जन्तु इसमें न हो, देखकर के यदि आप करते हैं तो ठीक है.
बम्बई घाटकोपर में एक बड़ा सुखी संपन्न जैन परिवार रहता था. रात्रि में पूना के लिए निकलना था. नौकर को कहा चाय बना लाओ. हमने आज घर का सारा काम नौकरों को सौंप दिया, कहां तो श्राविका चाय बनाती, सब काम यत्नपूर्वक होता, जीवन का आरोग्य मिलता, आहार पवित्र मिलता, बुद्धि और विचारों की शुद्धता रहती थी, आज क्या है ?
परिश्रम की चोरी के कारण बाहर से आटा पिसा कर लाते हैं, उसका सारा सत्व जल जाता है, विटामिन खत्म हो जाता है. पहले सुबह उठते ही घण्टा भर परिश्रम करते, घर पर ही हाथ की चक्की से पिसाई करते, प्रमोदपूर्वक पिसाई होती, शुद्ध आहार, प्रोटीन मिलता.
अब प्रोटीन कहां मिलेगा क्योंकि आटा तो जल जाता है. चक्की से पीसने के बाद आप आटे के कनस्तर को पकड़िए तो हाथ जल जाएगा, आप पकड़ नहीं सकते. इतनी "हीट" होती है. गेहूं का सारा सत्व जल जाता है. उसका माधुर्य फीका पड़ जाता है. शरीर को बल कहां से देगा. सब गुण तो उस चक्की में ख़त्म हो गया. जिस मात्रा
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-गुरुवाणी
में उसको गर्मी मिलनी चाहिए, पिसना चाहिए चक्की में अधिक मात्रा में गर्मी मिल जाती है. वहां पर अनाज की शुद्धि भी कहां रही. कसाई के घर का भी अनाज़ आया, वेश्या के घर का भी अनाज़ आया. न जाने कैसे-कैसे घरों का अनाज उसमें आया - और सब उसके साथ ही - आपका भी पीसा गया. सब कुछ पेट में गया.
वहां कहां परिमार्जना की जाएगी. कीड़े हों, मकोड़े हों, तिलचट्टे हों, जो भी आएं वे सब साफ - वह सारा विटामिन्स उसमें आता है.
घर के अन्दर श्रमपूर्वक पीसा जाता था. शुद्ध मिलता था, सात्विक मिलता था. उस आहार में माधुर्य मिलता था, उस रोटी के अन्दर मिठास मिलती थी. उसमें घर का, परिवार का वात्सल्य मिलता था. मां के हाथ की बनाई हुई चीज़ यदि आप खाएं तो तृप्ति मिलेगी, उसमें जो वात्सल्य है, वह वात्सल्य आप कहां से लाएंगे?
घर के अन्दर रसोई करने वाला ठाकुर हो, रसोइया हो. उसको तो पैसे से मतलब. सेठ या सेठानी आए, उसने तो परोसा और रख दिया.
उस भोजन में कहां से वह प्रेम मिलेगा? न आनन्द मिलेगा और न ही वह तृप्ति.
मैने एक बार यह कहा था कि बच्चे नौकरों को लोग सौंप देते हैं जिससे उनके संस्कार भी उसी प्रकार बिगड जाते हैं.
अपनी देखी हुई घटना से आपको अवगत करा रहा हूँ कि एक बार मरीनड्राइव बम्बई में किसी सेठानी के बंगले पर जाना था. देखा कि मेमसाहब गोद में कुत्ते को लिए जा रही हैं और उनके पीछे उनकी दाई बच्चे को लिए हए थी. कितनी नकल हमारे यहाँ के लोग पश्चिमी संस्कृति की कर रहे हैं, बिल्कुल अन्धे तौर पर.
मैंने कहा, वाह! कुत्ता मेमसाहब के हाथ में और बालक आया के हाथ. मुझे तब मालूम पड़ा जब वह बालक रोया. तब जाकर के उनको अक्ल आयी फिर बच्चा हाथ में लिया और कुत्ता आया को दिया. रोना बन्द हो गया. मैंने कहा देखो - यह समय की बलिहारी. उस बालक में संस्कार कहां से आएगा. अपना संस्कार तो आने से रहा, उन नौकरों का संस्कार आएगा. बाहर के वीभत्स संस्कार आएंगे. यह हमारी दशा है.
दशा क्या, यह दुर्दशा है. आज अपने घरों में भी इसका प्रवेश हो गया है. काम करने में शर्म आती है. घर के अन्दर रसोई बनाये तो रसोइया, परसे तो रसोइया – सब काम उनके हाथ से ही होता है, एक सेठ साहब थे. बड़े सम्पन्न थे. नौकर से कह दिया सुबह गाड़ी तैयार कर देना. चार बजे उठ गए. नहाए-धोए और बाथरूम से आए और कहा कि चाय बना दो.
उस नौकर को क्या मतलब कि बर्तन झांक कर के देखे - बम्बई में तिलचट्टे इतने होते हैं कि बर्तनों में घुस जाते हैं. हम लोग भी वहां रहते हैं तो सामान के अन्दर भी घुस जाते हैं, वहां पर उस व्यक्ति ने चाय बनाने के लिए गैस का उपयोग किया, चूल्हे पर केतली रख दी, पानी डाला, चाय डाला और मिल्क पाउडर डाला क्योंकि सब रेडीमेड
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-गुरुवाणी
मिलता है. चाय तैयार हुई तो कप में डाला और सेठ को दे दिया. चाय पी रहे थे. ड्राइवर बाहर बाग में इन्तज़ार कर रहा था. थोड़ा समय हुआ था तो सेठ साहब तो परलोक पहुंच गए.
परिवार के पांचों व्यक्ति साफ हो गए. नौकर भी साफ हो गया. घर में कोई नहीं बचा. ड्राइवर आकर के देखता है कि सभी मूर्छित पड़े हैं. ड्राइवर घबरा गया. पड़ोस में जाकर उनके किसी मित्र से कहा कि आप ज़रा आओ देखो, क्या हुआ. सेठ ने हमको पांच बजे बुलाया था, पूना चलना था, गाड़ी तैयार है.
पड़ोसी ने आकर देखा. घबरा गया. डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने आकर देखा और कहा कि केस तो खलास है, कोई बचा नहीं. पुलिस बुलाई गई, इन्क्वायरी हुई, सचिंग हुई. क्या कारण? कोई चोर नहीं, डाकू नहीं, कोई बदमाश नहीं. जहर का असर कैसे हुआ. पुलिस ने अन्दर रसोईघर में झांक कर के देखा. चाय पीने के बाद यह घटना घटी. वहां कप-रकाबी सब जूठी पड़ी हुई थी. अन्दर जाकर के जब देखा तो केतली के अन्दर एक बड़ा जहरीला नाग था.
गर्मी का समय था. पीछे पहाड़ी थी. कहीं खिड़की आदि से वह आया होगा और केतली में घुस गया. ठण्डक के कारण केतली से बाहर निकल नहीं पाया. सुबह नौकर ने केतली में पानी डाला, चाय डाला, दूध डाला और शक्कर डालकर ढंक कर के चला गया. सांप गर्मी से गैस के चूल्हे पर मर गया. उसकी ज़हर की थैली फूटी और सारा विष फैल गया. एक भी व्यक्ति उस परिवार में जीवित नहीं रहा. यह रात्रि भोजन का परिणाम है. ___ जयना से रहित भोजन की यही परिणति होती है कि सारा का सारा कटम्ब ही मौत की शैय्या पर सो गया. ऐसी घटनाएं प्रायः घटती रहती हैं. इसलिए जयना विधि से ही भोजन करें. आप कछ दिन के लिए मेरे कहने से रात्रि भोजन का त्याग कीजिए और उसके बाद आप देखेंगे इसका परिणाम कि आपका शरीर हल्का हो जाएगा. स्फूर्ति मिलेगी, ताजगी मिलेगी. भोजन में, भूख ज्यादा लगेगी. अगर आप चार रोटी खाते हैं तो छः रोटी खाएंगे. बिना पैसे की दवा है, कोई टॉनिक लेने की जरूरत नहीं. आरोग्य मिल जाएगा. गैस ट्रबल नहीं होगा. किसी तरह की बीमारी नहीं होगी.
आपको दुहरा लाभ मिलेगा. आत्मा का भी आरोग्य मिले. और शरीर का भी आरोग्य मिले.
चतुर्मास के अन्दर न खाने जैसी चीजों का त्याग करना चाहिए, अभक्ष्य का सेवन नहीं करना चाहिए. खाने पीने में जब तक आप का संयम नहीं आएगा, तब तक धर्म की चर्चा व्यर्थ है. जहां तक आहार की शुद्धि नहीं आएगी, वहां तक विचारों की शुद्धि नहीं आ सकती.
आपको डायबटीज हो डाक्टर के पास जाएं, और वह कहेगा - इन्सुलिन का इंजेक्शन मैं देता हूं, केप्सूल देता हूं, परन्तु परहेज तो आपको करना ही पड़ेगा. अगर दवा लेते
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गुरुवाणी
ही चले जाएं. इंजेक्शन लेते चले जायें, रोज़ केप्सूल लेते रहें और कहें कि हलवा-पूरी भी चाहिए, इसके बिना तो मैं भोजन नहीं करता तो कैसे आरोग्य मिलेगा ?
पथ्य के साथ औषधि का सेवन हो तो शरीर को आरोग्य मिलता है. यहां आचार का पथ्य पाले बिना यदि मैं रोज़ विचार का मेडिसन आपको दूं, रोज आपको आराधना की टेबलेट दूं. आप एक घण्टा ये टेबलेट लें परन्तु पथ्य नहीं पालें तो मेरी दवा क्या काम करेगी. और यह तो आप जानते हैं आउटडोर पेशेंट ट्रीटमेंट के लिए आते हैं. आरोग्य की चिन्ता के लिए आते हैं, मानसिक शांति मिले, समाधि मिले.
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सारे जगत् के अन्दर, हर व्यक्ति मानसिक अशान्ति से पीड़ित है. किसी व्यक्ति के चेहरे पर प्रसन्नता नहीं मिलेगी और जो मिलती है, वह कृत्रिम है आर्टिफिशियल है. अन्दर तो रो रहे हैं और दिखावे के लिए हंसना पड़ता है. मजबूरी है आप यह सब स्वीकार करेंगे. आपको सच बात स्वीकार करनी पड़ेगी और वह परिस्थिति ऐसी होगी कि आप स्वीकार लेंगे.
हाँ तो मेरा तात्पर्य था कि छः मास तक रात्रि भोजन का त्याग करें. नवकार महामन्त्र की आराधना करें, जिस महामन्त्र के प्रभाव से सुदर्शन के यहां देवता नौकर बनकर के आए. आप भूल गए. इस भौतिक तंत्र-मंत्र में कुछ नहीं धरा है. मन को शान्त करने का यह एक प्रलोभन है. इसमें कुछ नहीं है " देयर इज़ नथिंग ".
आप उस चक्कर में न पड़े. "नमस्कार महामंत्र" के अलावा आज तक कभी मैंने अपनी जीभ को गन्दा नहीं किया जो परमात्मा के लिए जीभ समर्पित कर दिया. जिस जीभ से अमृत उत्पन्न होता हो, अरिहन्त का स्मरण होता है, उसमें गटर (नाली) का पानी कैसे डाला जाए ?
एक बार सेठ चन्दूलाल दिल्ली से बम्बई गए. गणपति पूजा चल रही थी और वहां जाकर गणपति जी के कान में प्रार्थना कर दी कि मेरी एक कामना है, अगर पूर्ण हो जाए तो सवा क्विंटल का लड्डू लाकर आपको चढ़ा जाऊं. गणपति को मोदक प्रिय है. एक मारुति गाड़ी यदि मुझे मिल जाय तो यह ट्रेन टेक्सी में आना-जाना मेरा मिट जाय. रोज मौत को हथेली में लेकर के चलना पड़ता है. भगवन्! बस एक कृपा हो जाए, और कुछ नहीं चाहिए. एक मारुति कार अगर मिल जाये तो सवा क्विंटल का लड्डू चढ़ाऊं गणेशचतुर्थी का और आपका यह महोत्सव भी मैं करूं.
गणेशजी को बड़ा गुस्सा आया. गणपति ने उठाकर एक सूंढ़ लगाई और कहा कि बेवकूफ. मुझे मूर्ख बनाने आया है! तेरे में इतनी अकल नहीं. अगर तुझे मैं मारुति दे सकता तो मैं चूहे पर सवारी क्यों करता ? मेरा वाहन चूहा है. बिना प्रारब्ध के जगत् में कुछ मिलता ही नहीं
भगवान रामचन्द्रजी जैसे को वनवास जाना पड़ा. वशिष्ठ ऋषि ने "कमर्णो हि प्रधानत्वं किं कुर्वन्ति शुभग्रहाः ।"
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खुलकर
के कहा:
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%Dगुरुवाणी
__यहां तो कर्म की प्रधानता है. क्या मिलेगा. महावीर परमात्मा का अनन्त पुण्योदय था. फिर भी साढ़े बारह वर्ष तक उनको कष्ट सहन करना पड़ा. कान में कील ठोक दिया गया. उस समय किसी देवता ने आकर बचाया?
श्री रामचन्द्र जी को वनवास में किसी देवता ने आकर कोई सुख-सुविधा पूछी कि सीता को मैं जाकर ले आता हूं --- सारी व्यवस्था हो जाएगी. कृष्ण की द्वारिका जलकर राख हो गई. कोई देवता बचाने वाला नहीं मिला.
आप ऐसे पुण्यशाली हैं कि - सवा किलो प्रसाद, सिन्दूर और तेल चढ़ा दें देवता आपकी सेवा में आकर हाजिर हो जाएं. उस कल्पना में आप मत रहना. गांठ का पैसा भी जाएगा और कुछ नहीं मिलेगा. भूत प्रेत भी आ जाए, तो भी धन्यवाद दो – वे भी इस काल में नहीं आते. वे भी आपसे डरते हैं. ऐसा हमारा जीवन बन चुका है. इस तंत्र-मंत्र में आप कहां तक पड़ेंगे? कभी इस विषय में अपनी श्रद्धा को कहीं आप मलिन न बना लें.
सुदर्शन सेठ की वह साधना थी. ऐसा भयंकर आरोप लगाया गया कि इनाम में मौत मिली. धर्म करने वाले को मौत की कैसी कसौटी पर उतरना पड़ा. उस पुण्यशाली ने पेपर कैसा लिखा. हमें लोग कई बार कहते हैं कि महाराज! धर्म किया और धाड़ पड़ी. तो मैंने कहा जहा पैसा होगा, वहीं डाकू आएंगे. जहां पुण्य होगा वहीं कर्म कसौटी करने आएगा. दूसरे को कौन लूटेंगे. जिसके पास लंगोटी भी नहीं, उसे कौन लूटेगा? __आप याद रखिए, ऐसी परिस्थिति के अन्दर यदि आपके चित्त का संतुलन रहता है आप धन्यवाद के पात्र हैं. ऐसे भयंकर समय पर अरिहन्त का स्मरण करके और उस व्यक्ति ने “नमस्कार-महामंत्र” की जो साधना की उसके उस शब्द के कम्पन, वायबरेशन ने देवताओं का आसन चलायमान कर दिया, हिला दिया. उनका उपयोग वहां पर गया, क्या कारण? मुझे कौन याद कर रहा है - जरा भी दीन बन कर के नहीं. सुदर्शन सेठ तो धन्यवाद देता है अभयारानी को जिसकी कृपा से इनाम में यह मौत मिली. परमात्मा का स्मरण करके मुझे मृत्यु का आलिंगन करना होगा. मैं अपनी मृत्यु का महोत्सव मना रहा है क्या पता सोते हए मर जाता. बीमारी में मर जाता. दर्घटना में मर जाता. कौन वहां भगवान् का नाम लेने आता. जागृत अवस्था में मृत्यु मिल रही है और यह महारानी की कृपा है.
परमात्मा अरिहन्त का स्मरण करते समय मृत्यु मिले, इससे अधिक और क्या चाहिए. यह तो पुण्योदय है. वह वाइबरेशन (कम्पन) कैसा? "नवकार" का स्मरण कैसा?
___ “अरिहन्ते शरणं पवज्जामि" देवता नौकर बन कर के सेवा में बिना बुलाए आये ऐसे पुण्यशाली की सेवा करूं, मेरा जीवन धन्य बने. आप भी अपना जीवन ऐसा बनाइए कि किसी देवी-देवता को बुलाना न पड़े, आपके नौकर बन कर के सेवा में स्वयं आएं. आपका अपना जीवन ऐसा बना
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गुरुवाणी
है कि उन्हें गरज़ हो तो आएं, मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरे प्रारब्ध में परिवर्तन करने वाला संसार में कोई नहीं. ये तो मानसिक शांति के लिए हम अपनी साधना करते हैं. गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और क्या है? आप वासक्षेप लेते हैं. यह अच्छा है आपको इसका रहस्य नहीं मालूम, वरना तो आप लेना ही बन्द कर दें, क्यों दिया जाता है कुछ मालूम नहीं, देने वालों को भी मालूम नहीं, बस दिया जा रहा है. आशीर्वाद स्वरूप दिया जा रहा है, कि दुकान पर जा रहे हैं वह अच्छी चले, परिवार में समृद्धि हो. वासक्षेप - डालना. अर्थात् सुगन्धी डालना. जीवन को सुगंधित करना. सन्तों के यहां आशीर्वाद ही मिलता है, अभिशाप नहीं, लेकिन वह आशीर्वाद क्या है?
"नित्थारग पा होह" हे आत्मन्! तुम्हारी आत्मा का संसार से निस्तार हो, मोक्ष की प्राप्ति हो. समस्त दुःखों से आत्मा मुक्त बन जाए - यह गुरुजनों का आशीर्वाद होता है. “धनवान् भव, पुत्रवान् भव”, “समृद्धिवान् भव" - यह अल्पकालिक आशीर्वाद यहां नहीं होता, कि आज आ गया तो हसने लगे आर कल चला गया तो रोने लगे. यहा तो स्थाई आशीर्वाद होता है. सदा के लिए आपका मंगल हो. सदा के लिए आपकी आत्मा सुखी हो. यह मंगल आशीर्वाद हृदय से, भाव से दिया जाता है.. ___ आशीर्वाद कब लिया जाता है - कोई मंगल प्रसंग हो, कोई अनुष्ठान करते हों, आराधना करते हों, तीर्थयात्रा में जाते हों, कोई मन के अन्दर अशांति हो, रोग के कारण से साधना में कोई रुकावट आती हो, तब गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं कि भगवन! चित्त की शांति और समाधि के लिए, मेरी धर्म आराधना निर्विघ्न पूरी हो जाए, उसके लिए मुझे आशीर्वाद चाहिए. तब आशीर्वाद हृदय से, भाव से दिया जाता है.
आप सरल हैं, आपको मालूम नहीं. आजकल आशीर्वाद सिर्फ इसीलिए दिया जाता है, सन्त आपके डबल रोल को अच्छी तरह जानते हैं, अगर वासक्षेप नहीं डालें तो जो पहले भक्त बनने का नाटक कर रहे थे वही तुरन्त कहेंगे - महाराज को अभिमान आ गया, वहां खड़े रहे और वास-क्षेप भी नहीं डाला. सन्त सोचते हैं, चलो डाल दो.
आप विचार करना, साधु अपने-आप में बादशाह होता है. उन्हें किसी की फिकर नहीं, साधु जीवन का यही तो आनन्द है, कोई परवाह नहीं. परवाह करे तो वह फिर साधु नहीं. वह तो मस्त फकीर है. मिलें तो आनन्द, नहीं मिले तो आनन्द. आए तो आनन्द, जाए तो आनन्द वहाँ आनन्द में कोई कमी नहीं आती. ___ मैं इसीलिए कहता हूं कि यदि मेरे आनन्द में भागीदार बनना है तो दो-तीन चीज़ आपको समझाऊंगाः आपकी श्रद्धा निर्मल बने. अपनी आराधना में आप जागृत बनें. आपके आहार की पवित्रता प्राप्त हो और साधना की शुद्धि के द्वारा उस साध्य, मोक्ष मार्ग का परिचय आपको मिले.
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गुरुवाणी:
समुद्र के किनारे आप यदि घूमें तो ठण्डी हवा जरूर मिलेगी और आपको आनन्द आएगा. पर समुद्र की गहराई में डुबकी लगाएं तो मोती मिलता है. अभी तो आप प्रवचन के किनारे-किनारे, घाट पर घूम रहे हैं. आपको ठण्डक मिल रही है, आनन्द हो रहा है, बड़ी प्रसन्नता होती है, मानसिक शांति मिल रही है पर जब प्रवचन की गहराई में डुबकी लगाएंगे, तब मोती मिलेगा, रत्नत्रय मिलेगा सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्रय और उसका परिचय मिलेगा.
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इसका कितना मूल्यवान परिचय आपको मिलेगा और उसके बाद यह बाहर का आनन्द चला जाएगा. फिर अन्दर से अपने घर का आनन्द आप लेंगे. यह तो उधार का आनन्द है. चला गया तो तुरंत रुलाएगा. आपकी प्रसन्नता नष्ट कर देगा. एक क्षण के अन्दर चित्त में प्रसन्नता और दूसरे क्षण रुदन जो कि यह संसार का स्वभाव है.
आप यहां से दुकान पर गए समझ लीजिए आपका अति पुण्य का उदय है. ग्राहक आए, हज़ारों-लाखों का सौदा चल रहा है और अचानक अगर आपकी पत्नी का फोन
आ जाए.
आपका एक लड़का अचानक गिर गया, एक्सीडेण्ट हो गया तो सहसा आप जिस आनन्द में डूबे हुए पैसे गिनने में लगे थे वह अपार दुःख में परिणत हो जाता है और आप सारी मुद्रा राशि नौकर के भरोसे छोड़कर चले जाते हैं.
आप दौड़ कर के गए और अपने बच्चे को कदाचित् प्रयत्नपूर्वक बचा लिया. फिर आनन्द आया फ्लड (बाढ़) की तरह, आह! मेरा लड़का बच गया, एकदम सेफ साइड. परमात्मन्, तेरी बड़ी कृपा. एक बार रुलाया फिर हंसाया और फिर अचानक कोई ऐसा काम्पलिकेटेड केस (हालत) आ गया और पत्नी बीमार पड़ गई तो हॉस्पिटल ले गए. डिलीवरी केस है और उस समय यदि डाक्टर ने कहा कि सेठ साहब दो में से एक जीव बचेगा बताओ किसको बचाना है ? हां, तो ऐसी परिस्थिति की मैं बात कर रहा हूँ. संसार को मैं अच्छी तरह जानता हूं, घर-घर जाता हूं, एक-एक व्यक्ति से परिचय करता हूं. आप से अधिक तो संसार को मैं जानता हूं. मुझे घर घर का परिचय है. मैं कितने घर घूम आया, इतने तो आप कहीं गए भी नहीं हैं, प्रायः साठ हजार किलोमीटर चल चुका हूं. कितने ही घरों तक चला गया. कितने ही व्यक्तियों के सम्पर्क में आया. उससे अनुभव मिला और मैं स्वयं को धन्यवाद देता हूं कि बड़ा अच्छा हुआ, बड़ी समझदारी से निकल गया, नहीं तो दुःखी हो जाता.
पर आज धन्यवाद, आपको देता हूं कि यह संसार यह संघर्ष, घर के अन्दर की यह परिस्थिति, रावण जैसे अवतारी सुपुत्र यम जैसे जमाई मिले, दुर्गा देवी जैसी बहू मिले और रोज़ सुबह-शाम सेठ साहब, सेठ साहब करना पड़े. मन्त्रियों के पांव चाटने पड़े, आफिसरों की गुलामी करनी पड़े, रोज़ गुप्त दान देकर रहना पड़े ऐसे भयंकर समाज में महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक बड़े कठिन उपसर्ग सहन किया और आप ज़िन्दगी
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- -diपाणा
भर रोज यह उपसर्ग सहन कर रहे हैं तो आप धन्य हैं, जो ऐसे संसार में रहते हैं. ___ हमसे यह सहन नहीं होता, हमने तो बर्दाश्त नहीं किया, हमने संसार छोड़ दिया आपको धन्यवाद देता हूं, कि आप बड़ी बहादुरी से अभी तक संसार में डटे हैं.
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्। प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्
हिन्दू सच्चा हिन्दू बने और गीता के आदर्शों को अपने जीवन में चरितार्थ करे, मुसलमान पाक मुसलमान बन जाए और कुरान के आयतों को जीवन में उतारे. जैन सच्चा जैन बन जाए और आगमोक्त जीवन जिये. ईसाई वास्तविक ईसाई बने और बाईबल के बतलाए पथ पर चले -- इस प्रकार सभी अपने-अपने धर्मग्रन्थों के अनुसार जीवन जीएँ तो देश की अधिकांश समस्याएँ पल-भर में हल हो सकती है. फिर यह देश रामराज्य ही नहीं, स्वर्ग बन सकता है.
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गरुवाणी
गृहस्थ-जीवन में नैतिकता, प्रेम और द्रव्य-अर्जन
अनन्त उपकारी, परम कृपालु, करुणामय, आचार्य भगवंत श्री हरिभद्र सूरि जी जगत् के जीवन के कल्याण के लिए, उनकी आत्माओं के सुन्दर मार्गदर्शन के लिए, इस 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ की रचना की. धार्मिक दृष्टि से उसका प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरण के बाद उन्होंने कहा और लिखा कि सर्वप्रथम व्यक्ति अपने जीवन को कहां से प्रारम्भ करता है, जीवन की प्रारंभिक भूमिका क्या है? एक बार यदि व्यक्ति एकांत में गंभीर यह विचार और चिंतन करे तो उस चिंतन के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन को उज्ज्वल बना सकता है. मैं जैसा करूंगा वैसा ही परिणाम मुझे सामने मिलेगा. व्यक्ति अपने भाग्य का स्वयं ही निर्माण करता है. प्रारब्ध का निर्माण, आपका वर्तमान पुरुषार्थ करता है. जैसा आपका कार्य होगा, जैसी आपकी मनोवृत्ति होगी, और जैसा आपका पुरुषार्थ होगा, उसी के अनुसार प्रारब्ध का निर्माण होगा. भाग्य का निर्माण भगवान नहीं, व्यक्ति स्वयं करता है. परन्तु हम अपनी कमजोरी को ढकने के लिए भगवान को बीच में लाते हैं. आपने दो पैसे कमा लिए तो आपको नशा आ गया. व्यक्ति बड़े अहम् से कहता है कि मैंने सब कुछ किया, मेरे पास कुछ भी नहीं था. वह बड़े गर्व से अभिमान का पोषण करता है और कदाचित् वह बहुत कुछ लेकर आया और कुछ बचा न हो, सब कुछ खो गया हो और आप उनके पास जायें और उससे यदि बात करें तो कहेगा कि भाई क्या करूं मसीबत में आ गया, सब कुछ खो दिया, क्या करें भगवान की यही मर्जी थी. कमाते समय भगवान याद नहीं आया, मगर खोते समय भगवान को दस बार जरूर याद करेगा. वह यह नहीं सोचता कि मेरी मूर्खता से गया, मेरे पास विवेक का अभाव था और मेरी अज्ञान दशा के अन्दर उपार्जन किया हुआ मेरा द्रव्य चला गया. यही तो व्यक्ति की आदत है.
आध्यात्मिक दृष्टि से परमात्मा ने कहा कि जरा आप अपने जीवन पर विचार कर लेना. यह जीवन आज नहीं तो कल नष्ट होने वाला है. जिस चीज का आप उपार्जन कर रहे हैं जिसके लिए आप सारा जीवन प्रयत्नशील है वह आपके पास स्थायी रूप से रहने वाला कदापि नहीं है. इस प्रकार आचार्यश्री हरिभद्र सूरि जी ने इस प्रथम सूत्र के द्वारा इसकी पूरी जानकारी दी है. आपका सारा वर्तमान प्रयत्न निष्फल होगा, आपमें आत्मा के लिए जो प्रवृत्ति है. अपने स्वयं के आत्मसंतोष के लिए जो कार्य किया, चित्त की समाधि को प्राप्त करने का जो आपने प्रयास किया, वही प्रयास, वही पुरुषार्थ परलोक तक आपके साथ जाएगा.
सभी सांसारिक वस्तुएँ नश्वर हैं. ये भविष्य में आपके साथ नहीं रहने वाली हैं, गृहस्थ जीवन का परिचय देते हुए उस महान पूर्वाचार्य ने लिखा:
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-गुरुवाणी
सोऽयमनुष्ठातृमेदात् द्विविधो।
गृहस्थधर्मो यतिर्धश्चेति ॥ उस महापुरुष ने धार्मिक जीवन का परिचय तीन प्रकार से दिया. गृहस्थ जीवन के लिए दो प्रकार के जीवन का प्रावधान किया एवं साधु के लिए एक तीसरे प्रकार के अलग जीवन का प्रावधान किया. इसकी विवेचना करते हुए उन्होंने कहा
तत्र च गृहस्थधर्मोऽयि द्विविधः
सामान्यतो विशेषतश्चेति ॥ गृहस्थ जीवन का परिचय दो प्रकार से दिया. सामान्य और विशेष तौर पर. गृहस्थ जीवन का दूसरा प्रकार विशेष साधना के द्वारा, व्रत और अनुष्ठान के द्वारा, नियम और अनुशासन के द्वारा. वह जीवन किस प्रकार का होना चाहिए? वहां तक पहुंचने के रास्ते कौन से हैं? परन्तु सर्वप्रथम सामान्य प्रकार से जीवन का जो परिचय दिया वह जीवन निम्न सूत्र से प्रारम्भ होता है:
__ न्यायोपातहि वित्तमुभय हितायेति इस सूत्र के द्वारा सर्वप्रथम जीवन के अन्दर उस धार्मिक दृष्टिकोण का परिचय दिया कि बिना उपार्जन के जीवन का निर्वाह संभव नहीं, परिवार का भरण-पोषण सम्भव नहीं. गृहस्थ जीवन के लिए उपार्जन उसका नैतिक धर्म है. परिवार का भरण-पोषण करना, उनकी सेवा करना उसका नैतिक कर्त्तव्य है और उस कर्त्तव्य को धार्मिक मर्यादा में लिया गया है, परन्तु उपार्जन कैसे किया जाये? क्योंकि जीवन का व्यवहार यहीं से प्रारम्भ होता है.
'न्यायोपात्तं हि वित्तम्' यह तथ्य स्पष्ट कर दिया कि जिस किसी भी द्रव्य को आप व्यापार, नौकरी मजदूरी या अन्य किसी पुरुषार्थ से अर्जित करें, उसके तौर-तरीके न्यायसंगत और प्रामाणिक हों. उसमें आपकी हृदयेच्छा ऐसी हो कि मनसा-वाचा-कर्मणा कोई शोषण और प्रपीडन न हो.
आपका अन्तःकरण पूर्णतः शुद्ध हो. इसी मंगल भावना के साथ आप अपनी सारी नेक-हृदय की विशुद्धता के साथ सभी व्यापारों में प्रवृत्त हों. आप भगवान से यह प्रार्थना करें कि आपकी बुद्धि सदैव निर्मल बनी रहे और आप ठगी, चतुराई, कूटनीति, अथवा अन्य आधुनिक बुद्धिचातुर्य से धनार्जन हेतु अपनी मानसिकता को विकृत न करें. मन, वाणी और कर्म से किसी को आहत न करें, न ही किसी को अन्य पीडा पहुँचाएँ या उसका अपनी चतुरता से शोषण करें, क्योंकि किसी भी गलत तरीके से अर्जित द्रव्य आपका अन्ततः विनाश करेगा. अस्तु, आपके लेशमात्र चूक जाने से यदि पाप का प्रवेश हो गया तो वही एक दिन विशाल रूप धारण कर लेगा और पाप का विशाल द्वार खुल जाएगा.
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गुरुवाणी
आपकी ज़रा सी उपेक्षा आपके सम्पूर्ण जीवन का नाश कर देगी. आपके हृदय की । सारी पवित्रता चली जायेगी. कहने को कहा जाता है बड़ी छोटी-सी बात है, परन्तु छोटी सी बात भी कई बार बडी खतरनाक होती है. आप हवाई जहाज में यात्रा कर रहे हों और यदि मशीन में जरा सी गड़बड़ी हो जाये तो वह कैसी समस्या पैदा करती है? आप यहां से अपनी गाड़ी में जयपुर या कहीं घूमने के लिए निकले हों और टायर में यदि एक छोटा सा पंचर हो जाये तो फिर क्या हालत होती है? चलते समय जरा-सा कांच या कांटा लग जाए तो पांव की क्या हालत होती है? कहने को कहा जाता है, जरा-सा.
खाने के अन्दर अगर जरा सा विष आ जाये तो क्या हालत होती है? नाव में बैठ कर आप यात्रा कर रहे हों और नाव में जरा-सा छेद हो जाए तो क्या हालत होती है? एक ज़रा सी बात कितनी खतरनाक बनती है. धार्मिक कार्य और साधना के अन्दर जरा-सी भूल हो जाए तो क्या परिणाम होता है. इस जरा-सी बात की आप उपेक्षा न करें. गाड़ी आप स्वयं 100 कि. मी. की स्पीड से चलाते हैं. आपकी गाड़ी दौड़ रही हो और जरा-सी झपकी खा जाएँ तो यह यात्रा परलोक की यात्रा बन सकती है. एक जरा-सी भूल के परिणाम स्वरूप मौत हो सकती है.
साधना के क्षेत्र में यदि आप ज़रा-सी भूल करेंगे, याद रखिए, इसका इनाम किस प्रकार से मिलेगा. यहां तो पूर्णतः सावधान रहना है. जो उपार्जन कर रहे हैं उसमें विवेक होना चाहिए, उपार्जन की अपनी मर्यादा होनी चाहिए, उस उपार्जन के अन्दर आपकी मंगल-भावना आनी चाहिए कि इस वस्तु से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है.
धार्मिक दृष्टि से आत्मा से पदार्थ का कोई सम्बन्ध नहीं है. इस नैतिक दृष्टि से अपने कर्तव्य का हमें पालन करना चाहिए. एटैचमेंट नहीं, आसक्ति नहीं, अगर आसक्ति आ गई तो वियोग का दर्द बड़ा भयंकर होगा.
सारे संसार को रुलाने वाला, सारे देश का नक्शा बदल देने वाला, हिटलर विश्व युद्ध के समय लूटमार के द्वारा बहुत बड़ा खजाना संग्रह कर लिया था. बिल बॉक्स के अन्दर रहता था और जब उसे मालूम पड़ा कि बर्लिन घिर गया है अब मरने के सिवाय मेरे पास और कोई उपाय शेष नहीं रहा. सारी दुनिया को जीतने की कल्पना लेकर ढाई-तीन करोड़ व्यक्तियों को मौत के घाट जिसने उतार दिया, अरबों-खरबों की सम्पत्ति जिसने इकट्ठी कर ली, कैसा अटैचमेंट, कैसी आसक्ति, सारा खजाना उसके बिल बॉक्स में था. मन में इस प्रकार की एक भावी कल्पना कि सारे विश्व का साम्राज्य मेरे हाथ में होगा, अपार सम्पत्ति का मैं मालिक बन जाऊँगा और वह यह भूल गया कि कल मुझे मरना है और आसक्ति से घिरा हुआ जीवन, मरते समय ऐसा दर्द उसके अन्दर पैदा कर देता है कि वह इसी वियोग के दर्द से आहत हो जाता है कि मैंने जो उपार्जन किया है वह मुझे छोड़ कर जाना पड़ेगा.
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-गुरुवाणी:
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कोई व्यक्ति उसकी आंख से आंख नहीं मिला सकता था. हिटलर के समय जर्मनी में किसी व्यक्ति की ताकत नहीं थी कि आंख से आंख मिलाकर उससे बात करे, जब भी कोई व्यक्ति उसके पास जाता तो वह आंख और गर्दन नीची करके बात करता. चाहे सेनापति हो, या अन्य कोई कैसा भी अधिकारी हो उसका यही अनुशासन था. एक सामान्य श-मेकर के यहां जन्म लेने वाला, मात्र छठीं कक्षा तक पढ़ा हुआ व्यक्ति, र का नक्शा बदल कर चला गया. मरते समय उसने अपनी प्रेमिका और अपने सुन्दर कुत्ते को स्वयं शूट कर दिया और खुद भी आत्महत्या करके मर गया. उसी समय उसने अपने नौकर को बुलाकर हिदायतें दे दी कि मेरे मरने के बाद मेरी लाश को तुम पेट्रोल में जलाकर राख कर देना क्योंकि दुश्मन के हाथ मेरी लाश चली गयी तो बड़ी दुर्दशा होगी. वह इस बात से चिंतित था कि मुसोलिनी किस तरह मारा गया? प्रजा ने उसका कैसा तिरस्कार किया? कहीं यह दशा मेरी न हो जाये. स्वयं आत्महत्या करना इतिहास को देख करके सावधान होना है, कि ऐसी भूल मेरे जीवन में न हो. __ आप जगत् को प्राप्त करके क्या करेंगे? हिटलर ने इतनी बड़ी दुनिया को जीता, अपार सम्पत्ति का मालिक बना और परिणाम क्या आया? वह बड़ा दर्द पैदा करके उसने छोड़ दिया. इससे उसको बड़ी भयंकर पीड़ा हुई. इसीलिए ज्ञानियों ने कहा कि उपार्जन इतने ही मर्यादित रूप से करना, जिससे अपना जीवन निर्वाह सुख शांति से हो जाय. अनीति का आश्रय न लेना पड़े, जीवन में अप्रामाणिकता का प्रवेश न हो जाये और मेरा नैतिक पतन न हो जाये. यहां तो उस नैतिकता का मूल्य है, वह जो धर्म की नींव है और यदि नींव मज़बूत नहीं, तो आपके जीवन की प्रामाणिकता अस्थिर है, नींव कमजोर होने पर मकान में स्थिरता कहां से आयेगी. वह धर्म स्थिर कैसे हो सकेगा? दुनिया के अन्दर सबसे बड़ा दुष्काल अच्छे चरित्र का है. यह नैतिकता का दुष्काल है, सभी जगह अनैतिकता का साम्राज्य है, सामान्य नौकरी करने वाला व्यक्ति भी अपेक्षा रखता है कि मेरी साइड इनकम (अतिरिक्त आय) कहीं न कहीं से हो. व्यापार करने वाला व्यक्ति भी यही सोचता है, सरकार के अधिकारी भी यही सोचते हैं कि मुझे कुछ जगत के अन्दर मिल जाये, यह ऐसा वायरस (विषाणु) है जो सर्व व्यापक बना हुआ है. कोई जगत् खाली नहीं रखता और इसी से हम को सावधान होना है.
जैन इतिहास में एक बात एक व्यक्ति के जीवन के सम्बन्ध में बड़ी सुन्दर आती है. उस व्यक्ति की प्रामाणिकता कैसी अपूर्व थी, कि भगवान महावीर ने उसके गुणों का अनुमोदन किया. भगवान का एक परम श्रावक और भक्त था, पुनिया. पुनिया का जीवन इतना संतोषी था कि वह उतना ही द्रव्य उपार्जन करता जिससे एक दिन तक का उसका पेट भर जाए और वह स्वयम एक समय ही आहार करता. रूई की पूनियों का व्यापार करने वाला, बाज़ार में बेच करके वह उससे इतना ही द्रव्य लाता जिससे दो आदमी का पेट भर जाए, उसे परिवार में दो के अलावा और कोई नहीं था. परन्तु उसमें मंगल-भावना ऐसी थी कि एक अतिथि को घर पर बुला कर मैं भोजन कराऊं. हमारी आर्य संस्कृति
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गुरुवाणी:
में कहा गया है, 'अतिथिदेवो भव' अतिथि देव तुल्य है और उनकी भक्ति करना यह हमारा नैतिक धर्म है. वह पुनिया श्रावक प्रतिदिन एक सधार्मिक अतिथि बन्धु को घर पर लाता और ला करके, बहुत भक्तिपूर्वक सुन्दर भोजन दे करके, उसके बाद स्वयं भोजन करता. समस्या यह थी कि वह उपार्जन इतना ही करता था कि दो आदमियों का पेट भरे, क्योंकि तीसरे की कमाई नहीं थी.
एक दिन अपनी पत्नी से कहा कि हमें यह भक्ति की परम्परा तो चालू रखनी ही है. इसके अन्दर कोई कमी नहीं होनी चाहिए, इसमें खामी नहीं रहनी चाहिए. दोनों ने मिल करके, निर्णय किया कि प्रतिदिन एकान्तर उपवास करेंगे और एक धार्मिक बंधु को, अतिथि रूप में घर पर बुलाकर भक्तिपूर्वक भोजन कराएंगे.
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आप विचार कीजिए कि इतना उपार्जन उसके पास में था नहीं, इतना द्रव्य नहीं ऐसी अनुकूलता नहीं कि तीन व्यक्ति भी उसके पास खा सके. ऐसी प्रतिकूलता में भी आनन्द का अनुभव करने वाला, प्रसन्न रहने वाला, अपनी सामायिक के अन्दर चित्त को स्थिर रखने वाला वह ध्यान में ऐसा मग्न बन जाता कि सारी दुनिया को भूल जाता. उसका सामायिक इतना मूल्यवान था कि सारा साम्राज्य भी यदि अर्पण कर दिया जाये तो भी उसका मूल्यांकन नहीं हो सकता. सामायिक अवस्था में उसके ध्यान और चित्त की एकाग्रता इतनी प्रबल थी. वह एक दिन स्वयं उपवास करता और एक दिन उसकी धर्मपत्नी उपवास करती. यह अनुक्रम चलता रहा, एक सधार्मिक बन्धु को बुलाकर भावपूर्वक भक्ति से भोजन देने की उसकी प्रतिबद्धता का जीवन के अंतिम समय तक उसने पालन किया. ज़रा भी उसके अन्दर संसार का प्रलोभन नहीं था क्योंकि उसने प्रलोभन का प्रवेश द्वार ही बंद कर रखा था. भगवान महावीर के समय की यह घटना है, आज तक दुनिया उसको भुला नहीं पाई. याद करती है. परन्तु हम अपनी आदत से ऐसे लाचार हैं, कहीं से मिल जाए एनी हाऊ एनी वे • कोई भी रास्ता हो, गलत हो या सही, उस प्राप्ति में आनन्द का अनुभव लेते हैं. भगवान महावीर की भाषा में कहा गया है:
खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा
क्षणमात्र के सुख के लिए व्यक्ति अपने आनन्दित जीवन को दुखमय बना देता है भौतिक वासना के सुख में आत्मा के आनंद की आप कल्पना भूल जाइए. वह आनंद कभी मिलने वाला नहीं और जो कुछ आप आनन्द प्राप्त कर रहे हैं, वह भविष्य में रुदन का कारण ही बनेगा. वह भविष्य में आत्मा के लिए पीड़ा का कारण बनता है. ऐसा आनन्द नहीं चाहिए जो आज हंसाए और कल रुलाए और भविष्य में सारा जीवन अंधकारमय बन जाए. प्राप्ति तृप्ति का कारण बननी चाहिए. आत्मसंतोष होना चाहिए, परन्तु आज असंतोष की आग में इन्सान जल रहा है. सारी प्रामाणिकता उसकी जल गई है. कवि ने बड़ा सुन्दर कहा किसी ज़माने में चोर चोरी करते थे, परन्तु अंधकार में, रात्रि के समय, एकांत में. आज बौद्धिक कुशलता इतनी व्यापक और सुन्दर बन गई है कि अब चोरी
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गुरुवाणी:
करने के भी वैज्ञानिक तरीके आ गये हैं, बड़ी सफाई आ गई है, उस कवि को कहना पड़ाः
'बिजली की रोशनी में सामान चोरी हो गया'
कवि कहता है अंधियारे में नहीं, रात्रि में नहीं, एकांत में नहीं, बिजली की रोशनी में सामान चोरी हो गया.
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'इंसान तो था लेकिन ईमान चोरी हो गया।'
चौकीदार मौजूद था परन्तु अन्दर से प्रामाणिकता ही चली गई. मगर आप धर्म करते रहें, प्रार्थना करते रहें मगर उसमें प्राण तो है ही नहीं और इसीलिए आज की यह सारी धर्म आराधना और धर्म ही प्राणशून्य बन गया है, स्वादहीन बन गया है, जिसमें किसी प्रकार की अनुभूति आत्मा को होती ही नहीं.
कुछ दिन पहले मेरे एक परिचित व्यक्ति जापान से आये उनका कारोबार जापान में है तो कई बार बम्बई आना-जाना पड़ता है. वह एक दिन रात्रि में बैठे थे. मैंने उनसे पूछा कि वहां के विषय में आप कुछ जानकारी दीजिए. वहां के लोगों का व्यवहार कैसा है ? उन लोगों का जीवन-व्यवहार किस प्रकार का है? उन्होंने एक परिचय मुझे दिया और मैं चौंक गया. उन्होंने कहा कि महाराज मैं टोकियो के एक होटल में ठहरा था. बाज़ार से नये बड़े सुन्दर जूते लेकर आया तो मैंने नये जूते तो पहन लिए और पुराने जूते होटल में ही छोड़ दिये, मैंने सोचा कि कहां इन्हें बम्बई लेकर वापिस जाऊँ पड़े रहने दो. अब मैं तो वहां से फ्लाइट में सीधे बम्बई आ गया और दूसरे दिन बम्बई पहुंच गया. एक सप्ताह मैं एक पार्सल देखता हूं जो जापान से मेरे पास आया और होटल मैनेजर ने उसके साथ एक पत्र भेजा कि आप हमारे होटल में इस रूम नम्बर में ठहरे थे. आप यहां भूल से अपने जूते छोड़ गये, वे जूते आपको एयर पार्सल से भेज रहा हूं. कृपया इन्हें स्वीकार करें. पार्सल भेजने में दो दिन का विलम्ब हुआ उसके लिए हम क्षमा चाहते हैं.
बाद
दो सौ रुपये. गांठ के खर्च करके, होटल वालों ने, बिना पांव के जूते उनके घर तक पहुंचा दिए. यह आज का इतिहास है भूतकाल की बात नहीं है.
परन्तु यह भारत जहां राम की भूमि कृष्ण की भूमि महावीर ने जहां पर अवतार लिया, ऐसे ऋषि मुनियों की पावन भूमि और राम, कृष्ण या महावीर के मंदिर से ही जूते गायब हो जाते हैं.
अब आप विचार कर लीजिए कि हमारे देश की क्या दुर्दशा है, नैतिक दृष्टि से हमारा कितना घोर पतन हो चुका है और जहां नैतिकता नहीं होगी तो धार्मिकता कहां से आएगी नैतिकता में से ही धार्मिकता जन्म लेती है और इसलिए इसके अन्दर सर्वप्रथम सूत्र के द्वारा गृहस्थ जीवन के प्रथम आचार का परिचय दिया धन, प्रामाणिकता से उपार्जन करना, 'न्यायोपार्जितम् द्रव्यम्'
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: गुरुवाणी
न्याय से, प्रामाणिकता से, ईमानदारी से उपार्जित पसीने का पैसा चाहिए, जिससे हम परमेश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर सकें. पूर्वकाल के उन महान पुरुषों के अन्दर यह मंगल-भावना इसीलिए आती थी क्योंकि वे प्रामाणिकता से उपार्जन करते थे. पेटी या पिटारा भरने के लिए वे कभी पाप नहीं करते थे. उनके उपार्जन में आसक्ति नहीं थी, अनासक्त भावना थी. सहज में मुझे कहना पड़ता है, निर्वाह करना कोई आसक्ति नहीं थी. उनकी मृत्यु भी महोत्सव होती थी. उनका सारा जीवन ही आनन्दमय रहता था, परन्तु आज का जीवन असंतोष की आग में जल रहा है. कैसे मैं प्राप्त करूं? किसी प्रकार मुझे मिले. सारे व्यक्तियों का जीवन उसी तरफ दौड़ रहा है. मिलता क्या है ? रेस के घोड़े की तरह हम रोज़ दौड़ते हैं. रेस कोर्स में जाकर देखिए, घोड़ा कितना दौड़ता है पर माल तो सब दूसरे ले जाते हैं, घोड़े को क्या मिलता है - चना और घास.
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ठीक इसी तरह इन्सान भी घोड़े की तरह दौड़ रहा है. आत्माराम भाई को क्या मिलता है ? मौज तो इन्द्रियां करती हैं. मन का विषय, मन का विकार अपना पोषण करते हैं, दण्ड और श्रम तो आत्मा को मिलता है. आत्मा को परलोक में दुख मिलेगा, दर्द मिलेगा वह सब आत्मा को सहन करना पड़ेगा. मौज मजा तो आपकी इन्द्रियाँ करेंगी. जैसे कि घोड़ा दौड़ता है, मज़ा दूसरे लेते हैं.
बड़े आश्चर्य की बात है. मैं बम्बई में रेस कोर्स के पास से निकला तो घोड़ों ने मुझसे कहा कि महाराज एक नई बात सुनाऊं, मैंने कहा क्या ? बोले हम जब दौड़ते हैं तो लाखों आदमी रेस कोर्स में हमें देखने आते हैं, परन्तु महाराज आप ज़रा विचार कीजिए, इन्सान सुबह से शाम तक रोज़ दौड़ता रहता है, मैं तो केवल शनिवार को दौड़ता हूं. इन्सान रोज दौड़ता है परन्तु एक भी घोड़ा उनको कभी जाकर देखता नहीं. इन्सान की दौड़ का कोई मूल्य ही नहीं है, हमारी दौड़ का तो फिर भी मूल्य है.
यह हमारी वर्तमान दशा है. बिना प्रारब्ध के कोई चीज प्राप्ति होने वाली ही नहीं है. व्यक्ति कहां-कहां जाता है, कैसे-कैसे पाप करता है, कितने गलत आचरणों का सेवन करता है, वह कभी अपने वर्तमान को नहीं देखता, वर्तमान में भविष्य को झांक करके नहीं देखता कि मैं जो आज कर रहा हूं इसकी सजा मुझे कल मिलेगी.
कुछ वर्ष पहले की बात है. अमेरिका में यह घटना घटी है. आप जानते हैं कि हमारे देश की पारिवारिक परम्परा का वहां अभाव है. ज्वाइंट फेमिली (संयुक्त परिवार) वहां पर कभी नहीं रहती. सुबह शादी की और पत्नी कब छोड़ करके चली जाएगी इसका भी कोई विश्वास नहीं. वहां यह खेल-तमाशा जैसा है. जीवन साथी की खोज करने में भी दस बार विचार करना पड़ता है, यह तो आप धन्यवाद दीजिए हमारी भारतीय परम्परा को, कि आप सुख और शांति से जीवन जी रहे हैं, परिवार में आपको परिपूर्ण प्रेम और विश्वास है. परिवार का आपके प्रति लगाव और सद्भावना है जिसका सबसे बड़ा अभाव पश्चिमी देशों में है.
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गुरुवाणी
हमारी परम्परा बड़ी सुन्दर है. हमारी सभ्यता सारे जगत् में एक आदर्श है. एक जमाना था जब परिवार का प्रेम कितना अद्भुत था. मैंने आपको रामायण की बात कही, राम के परिवार का एक सामान्य परिचय दिया कि राम जब वनवास से लौट करके आने लगे तो भरत राज्य का संचालन कर रहे थे. अशोक वाटिका तक राम का आगमन हो गया, हनुमान पास में ही थे हनुमान और राम का अभूतपूर्व प्रेम था.
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हमारी जैन रामायण में हनुमान मोक्ष में गये, आप आश्चर्य करेंगे, कई बार लोग संकुचित भावना से अन्यथा विचार कर लेते हैं. जैन दृष्टि से, हमारे यहां तो राम का वही आदर्श है जो महावीर का है. कोई अन्तर नहीं है कदाचित् राम के उपासक उपेक्षा कर जाएं. हमारे यहां दृढ़ नियम है. हिन्दुस्तान का एक भी जैन साधु या साध्वी ऐसा नहीं कि जो द्रौपदी और सोलह सतियों का नाम लिए बिना मुंह में पानी डाले. प्रतिदिन प्रातः काल प्रतिक्रमण में सोलह सतियों का नाम लेना ही पड़ता है. यह सच्चाई है. उनका नाम बड़े आदर से स्मरण किया जाता है, तदनन्तर ही मुँह में पानी डाल सकते हैं.
महान तीर्थ शत्रुंजय में सर्वप्रथम प्रवेश करते समय पांच पांडवों की मूर्ति आती है. हनुमान मोक्ष में गए, तद्भव मोक्षगामी आत्मा थे, पूर्ण ब्रह्मचारी थे, उनके जीवन का आदर्श आपको जैन रामायण में मिलेगा. हाँ तो हनुमान और राम का ऐसा स्नेह था कि एक दूसरे को आप अलग नहीं कर सकते. प्रत्येक क्षण राम और हनुमान साथ ही सोते तथा राम जागते तो हनुमान भी जागते.
एक दिन रामचन्द्र जी के मन में एक ऐसी कल्पना आई कि सारी दुनिया कहती है कि राम के नाम से पत्थर तैरता है. नदी के किनारे वे उस समय विश्राम कर रहे थे. रात्रि का एकांत समय था और मन में एक विचार आया तो उन्होंने सोचा कि मैं स्वयं एक बार प्रयोग करके देखूं प्रयोग तो हमेशा संदिग्ध होता है. प्रयोग तभी किया जाता है जब मन में सन्देह हो, विश्वास में प्रयोग नहीं होता, अविश्वास में ही प्रयोग होता है.
एक बार यदि आप राम का नाम लेते हैं, तो वह आत्मकल्याण का मुख्य कारण बनता है. राम का नाम पुनः पुनः हम इसलिए दोहराते हैं ताकि हमारे अन्तःकरण के का उद्दीपन हो सके, वे भाव जागृत हो उठें.
सुषुप्त भावों
कबीर के आश्रम में एक बार एक बड़ा दुःखी व्यक्ति आया. परन्तु कबीर घर पर नहीं थे. कबीर के घर में उनकी पत्नी थी. कबीर का बड़ा सुन्दर और संतोषी जीवन था, और वे कटु सत्य कहने वाले व्यक्ति थे. उनकी पत्नी ने आने वाले व्यक्ति से पूछा कि भाई कैसे आए? तभी उसने कहा कि मैं बहुत दुःखी हूं, मुझे ऐसा उपाय बतलाइए कि जिससे मेरे जीवन में सुख का आगमन हो दुख और दर्द से मेरा जीवन आप्लावित है, और मैं यह आशीर्वाद लेने आया हूं कि मेरा दुख चला जाए और मुझे सुख मिल जाए. पत्नी ने कहा यह राम नाम की औषधि दिन में तीन बार लेना. आपके सारे दुख का रूपांतर हो जायेगा और सुख 'की अनुभूति मिलेगी. वह बेचारा आशीर्वाद लेकर जाने लगा उसी समय
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-गुरुवाणी
सामने ही कबीर मिल गये. संत कबीर ने पूछा कि भाई सुबह-सुबह आज मेरे आश्रम में कैसे आए?
उसने कहा कि महाराज, आशीर्वाद लेने आया था. आप तो थे नहीं, मां वहां पर थीं और उनका आशीर्वाद मुझे मिल गया. "क्या आशीर्वाद दिया?"
उन्होंने कहा कि दिन में तीन बार राम का नाम लेना और तुम्हारे सारे दुख दर्द चले जायेंगे.
सुनते ही कबीर का चेहरा उतर गया. कबीर कुछ बोले नहीं, उदास हो कर घर पर आए. पत्नी ने पूछा"आज क्या बात है आपका चेहरा उतरा हुआ है, आप इतने उदास क्यों हैं?"
"तुम्हारे कारण. मेरे घर में परमात्मा के प्रति इतना बड़ा अविश्वास और तुम अविश्वास का जहर ले करके साधना करती हो, तुम्हें कैसे पूर्णता मिलेगी?" ।
यह सुन करके पत्नी भी विचार में डूब गई. “मैं और परमात्मा के प्रति अविश्वास?"
"और नहीं तो क्या? तूने तो एक प्रयोग किया है, वह आगन्तुक व्यक्ति दुखी था, दर्द से घिरा हुआ था और उसको वैचारिक शांति तुझसे प्राप्त करनी थी, तुमको इतना भी विश्वास नहीं परमात्मा के नाम में, कैसी प्रचण्ड शक्ति है, एक बार राम का स्मरण कर लीजिए तो सारे दुख और दर्द चले जाएं. मगर तुमने तो उसको कह दिया कि दिन में तीन बार लेना, और उसके अन्दर अविश्वास पैदा कर दिया. तीन बार की जरूरत ही क्या है? यदि एक बार में नहीं होता, तब तीन बार में कैसे दुःख दर्द दूर होगा?"
डाक्टर के पास मरीज जाए और डाक्टर स्वयं शंका में हो, शंकाशील हो, और मरीज से कहे कि मैंने रोग का पता तो लगाया है. सुबह यह टेबलेट्स तो लेना. अगर फर्क न पड़े तो दोपहर को यह कैप्सूल ले लेना और अगर इस कैप्सूल से भी फायदा ना हो तो शाम को आना मैं तुम्हें एक इंजेक्शन लगा दूंगा.
इसका मतलब - इट इज एन एक्सपैरिमैंट. यह प्रयोग जो डॉक्टर आप पर कर रहा है इससे डाइग्नोसिज़ (रोग की जाँच) पूरा नहीं हुआ है. __कबीर अपनी पत्नी से बोले कि तुमने तो प्रयोग किया, सुबह राम का नाम लेना, दुख नहीं जाए तो दोपहर को फिर ले लेना, अगर उससे भी फायदा न हो तो शाम को आना, फिर नई दवा दे दूंगी. कितनी सचोट बात कह दी. हम अविश्वास ले करके मंदिर में जाते हैं, अविश्वास ले करके संतों के चरणों में जाते हैं, मन में हमेशा शंकाशील रहते हैं इसीलिए आपकी साधना कभी फलीभूत नहीं होती. दुर्गा के मन्दिर गये, लाभ नहीं मिला, फिर काली के मंदिर चले, नहीं मिला तो चलो कहीं वैष्णव देवी के मंदिर चलें, नहीं मिला,
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%Dगुरुवाणी
पचास जगह भटकते हैं. इसका मतलब आपका प्रयोग चल रहा है. इट इज एन एक्सपैरीमेंट - प्रयोग कर रहे हैं कि कहीं लाभ मिल जाएगा.
रोज एक-हाथ का कुआं खोदते हैं कहीं पानी मिलता ही नहीं. पानी के लिए आपको एक ही स्थान पर कुँआ खोदना पड़ेगा अर्थात् कहीं न कहीं आपको अटूट श्रद्धा-विश्वास प्राप्त ही करना पड़ेगा.
हमारी हालत तो ऐसी है कि हम ट्रेन में बैठ कर यहां से बम्बई जा रहे हों. राजधानी एक्सप्रेस में बैठे हों और सामान जैसे पेटी बिस्तरा माथे पर ले करके कम्पार्टमेंट में बैठे तो लोग क्या कहेंगे कि अरे भाई गाड़ी में बैठे हो तो आप अपना पेटी बिस्तरा अपने माथे पर क्यों रखे हो. उसे नहीं मालूम कि जिस गाड़ी में मैं चढ़ा हूं, जो मुझे ले जा रही है वही मेरा सामान भी ले जाएगी. हमारी यह मनोस्थिति ही हमारी परमात्मा के समर्पण के प्रति हमारे दृष्टिकोण को दर्शाती है.
अरिहन्ते शरणं पवज्जामि
त्वमेव शरणं मम। जब परमात्मा का समर्पण स्वीकार किया, उनकी गाड़ी में बैठ गये. दुकान, मकान, परिवार, सारा बोझा, पेटी-बिस्तरा सब माथे पर फिर क्यों ढो रहे हैं? यह सब मैं चलाता हूं, परिवार का पेट में ही भरता हूं, सारी मजदूरी मैं करता हूं, पर याद करें आपने भगवान की शरण ली है जिसके चरणों में आपने जीवन अर्पण किया, यह सब उसी की कृपा से चल रहा है. पर हमारी आदत पेटी बिस्तरा माथे पर, और बैठे हैं गाड़ी में, जैसी है.
रात्रि का समय था और जैसे ही राम जागे उनके मन में एक विचार आया. उन्होंने प्रयोग किया कि सारी दुनिया कहती है कि राम के नाम से पत्थर तैरता है, मैं भी प्रयोग करके देखू.
तो मैं यहीं से आपको वह बात समझा रहा था कि प्रयोग तो अविश्वास की भूमिका है. पत्थर लिया, राम का नाम लिखा और राम ने नदी के किनारे जाकर उस पत्थर को छोड़ा. हनुमान जाग रहे थे, परन्तु राम को मालूम नहीं था कि वह जाग रहे हैं, नाटक ऐसा किया कि जैसे वह सो रहे हों. हनुमान के मन में कुतूहल था कि राम क्या कर रहे हैं? राम रात में जाग करके नदी के किनारे क्यों गये. अब जैसे ही राम का नाम लिख कर उन्होंने पत्थर पानी में डाला तो वह डूब गया. राम ने चारों तरफ देखा कि किसी ने देखा तो नहीं.
चुपचाप आकर अपनी जगह पर सो गए. अब मन में विचार करने लगे कि जो सारी दुनिया कहती है वह सच है या जो मैंने प्रयोग किया वह सच है? सारी दुनिया कहती है कि राम के नाम से पत्थर तैर गया और मैंने अपने हाथ से राम का नाम लिखा और पानी में पत्थर डाला और वह डूब गया.
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गुरुवाणी:
हनुमान अपने मन में हंसने लग गये परन्तु हँसी रुकी नहीं. हंसी जब प्रगट गई और राम से कहा कि प्रभु आपने यह क्या नाटक किया. मुझे मालूम है. आप जानते हैं, यह भी मैं जानता हूं कि यह बात मेरे पेट से बाहर नहीं जायेगी, आप निश्चिंत रहिए, और मैं आपको कारण भी समझा देता हूं कि पत्थर क्यों डूबा ?
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बहुत सुन्दर बात हनुमान जी ने समझा दी. राम को संतोष हुआ और वह सो गए. हनुमान जी ने राम जी को यह समझाया था कि प्रभु, जिसको राम ने त्याग दिया, वह तो निश्चय ही डूब जाएगा, वह भला कहाँ से तैरेगा. बात का आशय यह है कि जिस पर परमात्मा की कृपा नहीं है, उसका विनाश तय है.
जो व्यक्ति परमात्मा का साथ छोड़ दे, धर्म का साथ छोड़ दे और स्वतंत्र रूप से अपने व्यक्तित्व या अस्तित्व को ले करके चलने का प्रयास करेगा वह निश्चित रूप से संसार - सागर में डूबेगा. परमात्मा ने जिसको छोड़ दिया या हमने उसका साथ छोड़ दिया तो यही दशा होगी.
कैसा राम का अपूर्व जीवन था. अशोक वाटिका में रात्रि में राम ने मन में विचार किया कि अब मुझे अयोध्या में प्रवेश नहीं करना है. मैत्री का कितना सुन्दर प्रकार, जीवन की कैसी अपूर्व प्रामाणिकता की प्रेरणा इससे मिलती है. क्योंकि धर्म का जन्म ही मैत्री से होता है और मैत्री के साथ अन्याय का परिणाम बुरा होता है.
न्यायोपात्तं हि वित्तमुभलोकहितायेति
न्याय से उपार्जित किया हुआ द्रव्य, इस लोक में और परलोक में, दोनों के लिए कल्याणकारी बनता है. यह पाप का प्रवेश द्वार बंद कर देता है जीवन में प्रामाणिकता आ जाये तो दुनिया के पाप का प्रवेश द्वार बन्द हो जायेगा. अपूर्व मैत्री भाव वहां पर प्रगट हो जाएगा क्योंकि किसी आत्मा को बेवकूफ बनाऊ, किसी की आंख में धूल डाल करके और दो पैसे कमाऊं, क्यों अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करूं भवान्तर में फिर यह बुद्धि मुझे नहीं मिलेगी. उसके अन्दर ऐसा भय होगा और पापभीरुता का उसमें गुण पैदा होगा.
रामचन्द्र जी ने मन में एक संकल्प किया. उसी समय अयोध्या में उनके प्रवेश की तैयारी चल रही थी. लोगों में बड़ा अपूर्व उत्साह था कि राम अब चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या में पधार रहे हैं. हनुमान को जगा करके राम ने कहा कि अब मेरी इच्छा अयोध्या में जाने की नहीं है, प्रवेश बन्द कर दिया जाये. मेरे मन में रात्रि में ऐसा विचार आया कि चौदह वर्ष तक मैंने नहीं, मेरे भाई ने राज्य किया और तुम जानते हो हनुमान, व्यक्ति का स्वभाव है - आत्मा का अनादिकालीन संस्कार है कि प्राप्त की हुई चीज़ को छोड़ना बड़ा मुश्किल होता है. मेरे जाने से मेरे भाई भरत के मन में दुख तो ज़रूर होगा, कि अब चौदह वर्ष का सारा साम्राज्य मुझे अपने भाई को देना है. एक लोक-लज्जा से, लोक-व्यवहार से, हमारे कुल की परम्परा से हमारे आदर्श को देखकर मेरा भाई मुझे राज्य ज़रूर देगा इसमें संशय नहीं, परन्तु उसकी आत्मा को जरा भी पीड़ा पहुंची, अगर
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धन
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-गुरुवाणी
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जरा भी उसकी आत्मा को दुख पहुंचा तो मुझे ऐसे राज्य से दूर ही रहना है. अपने भाई के हाथ से लेकर मुझे ऐसे राज्य की कोई जरूरत नहीं है. किसी को दुखी करके मैं सुखी नहीं बनना चाहता.
हनुमान ने कहा कि आप निर्णय करने से पहले थोड़ा-सा सोचें और मुझे वहां जा करके आने दें. मैं देख करके आऊं उसके बाद आप तदनुसार निर्णय करें कि, आपके जाने से उसको दुख होगा या आपके जाने से उसके मन में प्रसन्नता होगी. आप बालक जैसी इस विचार धारा को मेरे आने के पश्चात् ही व्यवहार में लें.
हनुमान स्वयं गये. राज दरबार लगा था और भरत के दरबार में जा करके हनुमान ने वहां बधाई दी कि अब राम का आगमन हो चुका है. वे अशोक वाटिका में विश्राम कर रहे हैं बहुत जल्दी उनका इस अयोध्या नगरी में प्रवेश होगा. मैं बधाई देने आया हूं और उनका संदेश देने आया हूं.
भरत ने जैसे ही राम का नाम सुना वह भाव विभोर हो नृत्य करने लग गए. उनके मुँह से धन्यवाद का शब्द भी नहीं निकला, उसका भी दुष्काल पड़ गया.
कैसा अपूर्व प्रेम था. अभिव्यक्ति नहीं मिली, शब्द नहीं मिले, नाचने लग गये. प्रेम के आंसू दोनो आंखों से आने लग गये. ऐसा हर्ष कि संपूर्ण शरीर रोमांचित हो गया.
हनुमान तुरंत लौट गए और जाकर कह दिया कि राम इस सबकी आप बिल्कुल चिंता न करें. मैंने भरत से मिलकर देखा तो उनके चेहरे से आपके प्रति जो उनका प्रेम झलका, मैंने अध्ययन किया. जिस व्यक्ति के पास जा करके मैंने मात्र आपके आने की सूचना दी, आगमन की बधाई दी और वह ऐसे अपूर्व भाव से नृत्य करने लग गए, प्रेम के आंसुओं की धारा उनके नेत्रों से बह चली, शरीर में रोमांच हो गया कि आनन्द व्यक्त करने के लिए उनके पास शब्द ही नहीं थे, शब्दों का ही दुष्काल पड़ गया. राम ने निर्णय बदला कि अब मैं जरूर जाऊंगा. आप समझ गये होंगे कि मैत्री किसे कहा जाता है.
कहने को हम मैत्री कह देते हैं, पर्युषण आता है, संवत्सरी आती है, नाटक कर लेते हैं, क्षमा याचना कर लेते हैं, ईद का त्यौहार आता है, एक दूसरे के गले मिल लेते हैं, क्रिसमस आता है, एक दूसरे को बधाई दे देते हैं. हरेक धार्मिक पर्व के अन्दर कहीं न कहीं आपको मैत्री का प्रकार मिल जायेगा. दुनिया का हर धर्म इसको मानता है. धर्म का प्राण तो यही है और यदि प्राण चला जाये और आप मुर्दे को उठा कर ले चलें उस धर्म का मूल्य क्या? वह क्या मोक्ष देगा? वह क्या आपको छुड़ायेगा? हम मरे हुए धर्म की उपासना कर रहे हैं. और प्रेम, वह तो जीवित धर्म है. जहां प्रेम होगा वहां अनीति, अन्याय कभी हो ही नहीं सकता, कभी सम्भव ही नहीं. इन दोनों का एक दूसरे के साथ अन्योन्य सम्बन्ध है. ____ मैं आपको यह समझा रहा था कि परद्रव्य को प्राप्त करने में जो आनन्द आता है, उसका वियोग कैसा दर्द पैदा करेगा. कैसा अपना परिवार होना चाहिए. परिवार का धर्म
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-गुरुवाणी
कैसा सुन्दर होना चाहिए? भारतीय परम्परा का यह एक बड़ा आदर्श है और इसीलिए मैं कहूंगा कि आप भी बड़े सुखी हैं कि ऐसा परिवार आपको मिला है. आज विदेशों में लोग हमारी पारिवारिक धर्म परम्परा और संस्कृति से वे लोग ईर्ष्या करते हैं. इसके लिए तरसते हैं.
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__ अमेरिका के एक धनाढ्य व्यक्ति का प्रसंग याद आता है. उसके पास अपार वैभव, अपार सम्पत्ति थी. पर परिवार की शांति नहीं मानसिक शांति नहीं. उसका बंगला बहत विशाल था. घर के अन्दर एक सैफ बनाया और उस तहखाने के अन्दर करीब छ: करोड़ डालर की सम्पत्ति पड़ी थी, ऑर्नामेंट्स, बहुत सुन्दर मूल्यवान आभूषण और लाखों डॉलर अन्दर पड़े थे और सैफ इतना सुन्दर बना हुआ था कि किसी की नज़र में ही न आए. यांत्रिक कुशलता ऐसी सुन्दर थी कि अगर बन्द कर दिया जाए तो बाहर से एक बहुत बड़ा फोटो नज़र आए. ऐसी व्यवस्था थी कि किसी को मालूम ही न पड़े कि अन्दर क्या है. एक दिन अचानक कोई जरूरी कागज, कोई डाक्यूमेंट्स निकालने थे. वह चाबी ले करके गया, सैफ खोला. उसका गप्त रूप से अन्दर जाना किसी को मालम नहीं लगा. वह अन्दर गया दरवाजा अन्दर से बन्द करके नीचे उतरा, जरूरी कागजात थे. वे लिए और ले करके लौटने लगा. जैसे ही वह लौटने लगा, दरवाज़ा बंद. उस यंत्र में ऐसी टैक्नीकल खराबी आई कि, किसी भी हालत से दरवाजा नहीं खुला. आटोमैटिक फिटिंग थी. इलैक्ट्रानिक सिस्टम था. अन्दर कोई ऐसा साधन नहीं कि बाहर किसी व्यक्ति को मालूम पड़े कि अन्दर कोई छिपा हुआ है, पुकार रहा है या रो रहा है. न घंटी थी न इन्टरकाम टेलीफोन की व्यवस्था थी, न कोई यांत्रिक सुविधा थी. बहुत कोशिश की, निराश हो गया, पसीने से तर हो गया, मौत का डर, सामने अपनी मौत देख रहा था कि मेरी मौत निश्चित है क्योंकि किसी को भी मालूम नहीं कि मैं सैफ में उतरा हं.
जब भय आता है तो साथ में प्यास आती है. शरीर का पानी उस भय में सूख जाता है. भय से उसे बड़ी तीव्र प्यास लगी. कागज़ लेकर लिखता है कि परमात्मा की कृपा से यदि कोई व्यक्ति मुझे एक गिलास पानी पिला दे तो सारी अरबों की सम्पत्ति देने को तैयार हूँ. उसे मार्केट में एक ग्राहक भी नहीं मिला. पुण्य का जब दुष्काल आता है और जीवन के द्वार में जब मौत का प्रवेश होता है, तब ऐसे निमित्त मिलते हैं. कोई व्यक्ति नहीं, कोई पुकार सुनने वाला नहीं, कोई उसके आंसू पोंछने वाला नहीं, कोई सान्त्वना देने वाला नहीं, तड़प रहा है. कलम ले करके लिखता है - 'गोल्ड इज़ वर्स्ट प्वायजन'. संसार के अन्दर यह सबसे भयंकर जहर है. इसका स्मरण करना भी आत्मा के लिए हानिकारक है, इसका संग्रह करना सर्वनाश है और इसका स्मरण करना भी पाप है.
आप विचार कर लीजिए उसी द्रव्य के पीछे आज का इन्सान दौड़ रहा है, जो मौत का कारण है.
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-गुरुवाणी
___ वर्ष 1947 में लाहौर से आने वाला एक हिन्दू परिवार तीन दिन तक लाहौर स्टेशन पर रुका रहा. गाड़ी में जगह नहीं, स्पेशल ट्रेन थीं, भर करके जा रही थीं. उस समय देश का विभाजन हआ. यह हमारा दुर्भाग्य था. भाई-भाई का क्लेश, न जाने कितने व्यक्तियों का घर उजाड़ गया और ऐसे ही दुःखद समय की यह घटना है. तीन दिन तक, जिस व्यक्ति ने अपना घर जलते हुए देखा, अपने परिवार को मरते हुए देखा, दुख और दर्द से भरा हुआ इन्सान एक छोटा सा अपना बालक और अपनी स्त्री को ले करके मश्किल से स्टेशन पर पहुंचा. जो कुछ भी थोडा बहुत बचा हुआ सामान था. वह बेचारा घर से सूटकेस के अन्दर लेकर निकला था. परमेश्वर का नाम लेकर स्टेशन तक पहुंच गया, वहां सुरक्षित वातावरण था. गाड़ी की प्रतीक्षा में तीन दिन निकल गये और उसे भूख और प्यास बड़ी गजब की लगी हुई थी. चौथे दिन बड़ी मुश्किल से एक ट्रेन के अन्दर प्रवेश मिला. इंजन ड्राइवर से निवेदन किया, कि भाई यहां से हिन्दुस्तान की सीमा तक मुझे पहुंचा दे. मज़बूरी का इन्सान कितना गलत फायदा उठाता है.
ड्राइवर कहता है कि पांच सौ रुपए दो तो इंजन में बिठाता हूं.
शरणार्थी है. उसका जीवन भयंकर दुःख से घिरा हुआ है. पूरे परिवार को मरते हुए अपनी नजरों से देखा. जिस घर में वह जन्मा, उसे जलते हुए उसने देखा है और उसकी लाचारी का यह दुःखद शोषण. कैसी अनीति? कैसा अन्याय? यह अन्याय ही नहीं अत्याचार है.
उस व्यक्ति ने इंजन में अपना बाक्स रखा. अपने बच्चे और अपनी स्त्री को पहले ही लेडीज़ कम्पार्टमेंट में चढ़ा दिया और स्वयं इंजन में आ कर बैठ गया,
ड्राइवर ने कहा कि भाई तुम शरणार्थी हो, क्या पता तुम बदल जाओ, पैसे देने से इनकार कर दो, इसलिए पहले एडवांस पांच सौ रुपए दे दो.
उसने सूटकेस खोलकर पांच सौ रुपए गिन करके दे दिए. सारा सूटकेस सोने और नोटों से भरा हुआ था. बेचारे के पास जो कुछ घर में था, ले करके निकला था. बाकी तो सब नाश हो गया.
उसके सूटकेस के अन्दर की वस्तुएं देखते ही ड्राइवर के मन में पाप का प्रवेश हो गया. वह बेचारा थका हुआ था, तीन दिन का भूखा, प्यासा. गाड़ी चालू हो गई तो चलती हुई गाड़ी में उसको झपकी आने लगी और नींद भी आने लगी, मन में थोड़ी शांति मिली थी कि चलो अब अपने देश सुरक्षित पहुंच जाऊंगा. वहां जा करके फिर से कोई नया कारोबार करूंगा. ड्राइवर की फायरमैन से इशारे में बात हो गई. ड्राइवर ने कहा, यार यहां हज़ारों-लाखों रोज मरते हैं. अगर यहां एक मर गया तो कौन पूछने वाला है. जिंदगी में इतना नहीं कमा पायेंगे. सारी सम्पत्ति आ जाएगी. कोयला झोंकने का जो फावड़ा होता है, फायरमैन ने वह उठा करके उसके माथे पर मारा. वह तो बेचारा सो रहा था और
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-गुरुवाणी
उसकी चोट ऐसी लगी कि वह बेहोश हो गया. ड्राइवर और फायरमैन ने मिल करके उसे ब्वायलर में डाल दिया.
आप जानते हैं स्टीम इंजन का ब्वायलर कैसा होता है. जैसे तिनका जलता हो ऐसे ही उसका शरीर भस्मसात हो गया.
पैसे का दर्शन करना भी कितना खतरनाक है. अनीति और अन्याय से भरा हुआ जीवन, क्या पाप नहीं करता. शरण में आये हुए व्यक्ति का नाश कर देना कितना भयावह लगता है? पर द्रव्य को प्राप्त करने की दूषित मनोवृत्ति कितनी ख़तरनाक है? परन्तु यह पाप छिपा नहीं रहता. दुर्गन्ध को आप कितना छिपाएंगे? आखिर वह कहीं न कहीं से प्रगट होगा. जैसे ही गाड़ी अमृतसर आई, लेडीज कम्पार्टमेंट से उसका बच्चा और उसकी पत्नी उतरे और इंजन की ओर आए. ड्राइवर को यह पता नहीं था कि पीछे भी कोई है. उसकी पत्नी ने सूटकेस देखते ही कहा कि मेरे पति कहां गये?
ड्राइवर ने कहा कि मुझे कुछ नहीं मालूम. ड्राइवर के चेहरे से बोलने से मन में शंका हुई. उस स्त्री ने तुरंत पुलिस के पास जाकर निवेदन किया कि मेरे पति नहीं मिल रहे हैं. कहीं गायब हो गये हैं. शायद उन्हें मार दिया गया है और यह मेरा सारा सूटकेस इस ड्राइवर के अधिकार में है, यह मुझे दिलाया जाये. पुलिस बड़ी ईमानदार थी, अंग्रेज़ अफसर थे. पुलिस ने ड्राइवर और फायरमैन को गिरफ्तार किया और वह सूटकेस कब्जे में लिया. जब उनकी पूछताछ की गयी तब मालूम पड़ा कि लाश ब्वायलर के अन्दर डाली गई थी. ब्वायलर को बुझा करके अन्दर से हड्डियां बरामद की गयीं.
मेरा तो आपसे इतना ही कहना था कि अनीति और अन्याय का विचार व्यक्ति को कहां से कहां पहुंचा देता है. दूसरे के धन को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति कैसे भयंकर पाप के रास्ते अपना लेता है. इसीलिए परमात्मा ने कहा कि पर द्रव्य अर्थात् यह पैसा ऐसी चीज है, जिसका दर्शन करना भी पाप है, जिसका स्पर्श मात्र भी पाप है और संग्रह करना तो सर्वनाश है. यह समझ करके इसे उपयोग में लेना कि यह ज़हर है, जहां तक पाकेट में है, वहां तक पाप. और जैसे ही यह परोपकार में गया, तुरन्त पुण्य का प्रकार बनता है. रूपांतर होता है. कभी संग्रह करने की मनोवृत्ति नहीं रखना, यह तो समर्पण करना है. प्रारब्ध से और पुण्य से यदि दो पैसा ज्यादा मिल जाये तो उसे परोपकार में देना, परन्तु उपार्जन में विवेक रखना कि न्याय से और नीति से ही मैं उपार्जन करूंगा. बड़ा सुन्दर चिंतन है. यदि आपकी भावना सुन्दर है और न्याय तथा प्रामाणिकता से उपार्जन करते हैं तो कोई ऐसा अशुभ कर्म है, जो रुकावट पैदा करता है. वह तोड़ देगा. भावना से अशुभ कर्म का नाश होता है, आपके द्रव्य के, पैसे के आगमन में जो अंतराय है, जो रुकावट है, उस रुकावट को भी निकाल देता है.
लोग बहुत प्रयत्न करते हैं. गलत रास्ते अपनाते हैं. मैं कहता हूं कि जो प्रारब्ध में है, वह परमात्मा भी नहीं ले सकता. बिना प्रारब्ध के यदि प्रभु भी आएं तो वे भी कुछ नहीं दे सकते.
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___ बहुत वर्ष पहले दिल्ली में शंकर जी आए. उन्होंने देखा कि सारा देश मुझे याद करता है, शिवालय में जाता है और रोज सुबह से मेरी पुकार चलती है, शाम तक लोग मुझे पुकारते हैं, मेरी अर्चना और पूजा करते हैं. शंकर जी ने विचार किया कि जा करके उन भक्तों की खबर तो लूं. पार्वती ने कहा प्रभु जरूर चलो. भक्तों की पुकार है, जरा देश में आओ और स्वर्ग से उतरो. मृत्युलोक में क्या चल रहा है, जरा नज़र तो दौड़ाओ.
शंकर और पार्वती दोनों जैसे ही दिल्ली बार्डर में प्रवेश हुआ तो सुबह के समय उन्हें एक दरिद्र नारायण नजर आए. बड़ी गरीब स्त्री थी. उसकी दर्दनाक स्थिति देख करके हृदय पिघल जाए, वह अपने पति के साथ आ रही थी. पति भी बेचारा बड़ा दुखी था, वह सब खो चुका था, चेहरा उतरा हुआ था, न जाने कितने दिनों का भूखा होगा. एक छोटी-सी बालिका साथ थी. जैसे ही शंकर जी बार्डर में घुसे, ये तीनों नजर आए. भारत में आते ही यह चीज नजर आती है. गांधी जी ने मरने से पहले कहा था कि यहां की प्रजा का कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्रता के बाद नंगा भूखा नहीं रहेगा, देश की स्वतंत्रता के बाद नंगे का मतलब बदमाश, लुच्चे, वे कभी भूखे नहीं रहेंगे. यह आशीर्वाद आज सफल हो रहा है. सज्जन ही मारे जा रहे हैं, नंगे तो आनन्द ले रहे हैं, मजे लूट रहे हैं.
यह गांधी जी का कलिकाल को आशीर्वाद है. उन्होंने इसे आजादी के बाद दिया था, या यों कहिए कि अपने मरने से पूर्व दिया था कि आजादी के बाद इस देश में नंगे कोई भूखे नहीं मरेंगे. सज्जन ही भूखे मरेंगे क्योंकि कलियुग है.
हालत वही हुई. तीनों दरिद्र नारायण मिले. पार्वती ने देख करके कहा कि आप सारे जगत को वरदान देते हैं. इनको भी दें. शंकर ने अपनी योग दृष्टि से देख करके कहा-इसके भाग्य में नहीं, प्रारब्ध में नहीं, किसके घर का ला करके वरदान दूं, पर स्त्री का हठाग्रह आप जानते हैं. मेरा आदेश तो होता है, पर पत्नी का अध्यादेश होता है. मैं यहां पर यदि कहूं कि शुभ कार्य है, करने जैसा है, परोपकार हो जाएगा. हां-हां विचारेंगे, सोचेंगे. यदि थोड़ा बहुत कम ज्यादा हो तो उसमें लाभ ले लेंगे. परन्तु यदि चांदनी चौक से निकलें और कोई आभूषण नजर आ जाये, या बनारसी साड़ी नजर आ जाये, चाहे दस हजार की हो, और आदेश मिले कि लेना है तो उधार ला करके भी देंगे. यह एक सहज बात है. जहां राग है, वहां अर्पण होगा. अभी वह धर्म का राग प्रगट नहीं हआ इसीलिए अर्पण में रुकावट आती है. स्त्री का राग, पुत्र का राग, परिवार का राग. राग होना चाहिए, परन्तु विकत नहीं सुसंस्कृत राग होना चाहिए. आत्मा का राग होना चाहिए. परिवार के प्रति भी आत्मानुराग होना चाहिए.
पार्वती का आग्रह था कि नहीं! नहीं! तुम्हारी और बात सुनने को मैं कदापि तैयार नहीं. इसको वरदान मिलने ही चाहिए. तीन हैं, तीनों को तीन वरदान दीजिए. शंकर जी ने देखा कि पार्वती मानने वाली नहीं हैं, स्त्रियों का हठ. शंकर ने कहा अच्छा कहती हो तो बुलाओ, तीनों को तीन वरदान दे देता हं.
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-गुरुवाणी
पार्वती ने पहले उसकी स्त्री को बुलाया और बुला कर कहा -- मांग तुझे क्या चाहिए. साक्षात् शंकर हैं, मांग वरदान. स्त्री ने विचार किया, मांगू तो, रिटेल में क्यों मांगू होल सेल में ही मांग जब साक्षात् भगवान शंकर मिल गए तो कमी क्या रखनी. उसने कहा "मुझे किसी करोड़पति की औरत बना दीजिए. यहां तो खाने का पता नहीं, पीने का पता नहीं, पहनने का ठिकाना नहीं. जब से शादी हुई बड़ी दुर्दशा है. मौत को ले करके जी रही हूं भगवन! ऐसा वरदान दीजिए कि दिल्ली के सबसे बड़े श्रीमंत के यहां जाकर, मैं उसकी स्त्री बनूं और रानी की तरह से रहूं"
"तथाऽस्तु" वरदान फलीभूत हुआ. देवकृत माया, शरीर के अन्दर रूपांतर हो गया. कपड़े सुन्दर पहन लिए, आभूषण से एकदम सज्जित हो गई. चेहरा आदि सब एकदम बदल गया. भाव-भंगिमाएं सब बदल गयीं. __वह पति पास में खड़ा हुआ देख रहा. ईर्ष्या की आग में उसका मन जल रहा है कि मुझे छोड़ कर चली गई, अब मेरी सेवा कौन करेगा? इस बच्ची का लालन-पालन कैसे किया जायेगा. मन में ईर्ष्या की आग, मुझे छोड़ करके क्यों गई? अब वह गुस्सा उसके अन्दर - दुर्बल व्यक्तियों को गुस्सा ज्यादा आता है. चाहे वह मानसिक दुर्बलता हो या शारीरिक दुर्बलता, यह एक स्वभाव है.
शंकर जी ने उसे बुलाया, बेटा इधर आ, मांग तुझे क्या चाहिए, ले तुझे वरदान दूं
भगवन्! मुझे कुछ वरदान नहीं चाहिए, आवेश में था, उबलते हुए पानी में चेहरा नहीं दीखता. जब जीवन क्रोध से उबलता हुआ होता है, तो वहां आत्मा की अनुभूति नहीं होती, वहां यह प्रतिबिम्ब नज़र नहीं आता कि मैं कौन हूं और क्या कर रहा हूं? विवेक का भान नहीं रहता. आवेश में कह दिया भगवान इसे कुतिया बना दीजिए, इसे सजा मिलनी चाहिए क्योंकि यह मुझे छोड़ करके चली गई.
"तथाऽस्तु" दूसरा वरदान मिल गया.
वह रानी से कुतिया हो गई. बड़ी दयनीय दशा, देख करके इंसान को दया आ जाय. बच्ची पास में बैठी थी. मां की दशा देख कर शंकर जी के चरणों में गिरी.
भगवान शंकर ने कहा, बेटी तू भी मांग तुझे क्या चाहिए.
बच्ची कहती है - भगवन् मुझे कुछ नहीं चाहिए. मुझे मेरी मां चाहिए, जैसी थी वैसी ही मेरी मां, मुझे मिल जाए वह बस.
"तथाऽस्तु" वह जैसी थी वैसी ही हो गई.
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गुरुवाणी:
शंकर जी ने पार्वती जी को कहा, देखो प्रारब्ध नहीं, भाग्य नहीं, मैं साक्षात् शंकर, हृदय से वरदान दिया. तीनों को तीन वरदान दिए और जैसे थे, वैसे के वैसे ही रहे. कोई बदलाव नहीं हुआ. अब सम्भवतः बात समझ गए होंगे.
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आप वैष्णव देवी से ले करके रामेश्वरम् तक की यात्रा कर आएं, पर प्रारब्ध हो तो मिलेगा. किसी देवता को यह एकाधिकार नहीं दिया गया कि वह आपका वह भण्डार भर दे. समुद्र के पास पानी बहुत है पर जिसके पास जितना बर्तन है, उसमें उतना ही पानी आएगा. संसार में लक्ष्मी की कोई कमी नहीं, समृद्धि की कोई कमी नहीं. जिस व्यक्ति ने शुभ कर्म किया होगा, कोई दान पुण्य, कोई उदारता या कोई ऐसे शुभ कार्य के द्वारा धर्म आचरण किया होगा, तभी जाकर वर्तमान में प्रारब्ध मिला है. प्रारब्ध के अनुसार ही प्राप्ति होगी, इससे अधिक प्राप्ति कभी सम्भव नहीं. आप कभी ऐसा प्रयास न करें, गलत रास्ता न अपनाएं. सही मार्ग बतलाया कि उपार्जन कैसे करना है. इसे कैसे प्रामाणिकता से करना है. इसे कैसे मैत्री भाव से अपने धर्म को जीवित रखना है. आगे इन दोनों विषयों पर विस्तार से विचार करेंगे.
मैत्री भाव, जो धर्म का रक्षण करने वाला है और न्याय से अर्जित द्रव्य का उपयोग कैसे करना है ? उसका उपार्जन कैसे करना ? किस प्रकार का विवेक रखना ? भगवान ने यह आदेश नहीं दिया कि तुम भूखे मर जाओ, परन्तु जो तुम प्राप्त करते हो, उसमें विवेक रखो. उस प्राप्ति में यदि अधिक आ जाए तो उसका उपयोग कैसे करो यहीं से प्रारम्भ होता है – धर्मबिन्दु न्याय से उपार्जन किया हुआ द्रव्य मुझे चाहिए और जीवन की सबसे बड़ी जटिल समस्या उपार्जन की है.
कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा, जिसके पास वकील न हो. वकील के पांवों से ही आपको चलना पड़ता है, क्यों ? कारण यह है कि गलत करना है. अतः बिना वकील के सहारे चल नहीं सकेंगे और आप यह जानते हैं कि वकील पहले से ही आपको कहते हैं कि मुझे देख कर आना, मेरा यूनिफार्म कैसा है ब्लैक सूट. मेरा धंधा कैसा है, पहले समझ लो . कोई व्यक्ति ऐसा नहीं जिसके घर के अन्दर इस पाप का प्रवेश न हुआ हो और इस पाप के प्रवेश को रोकना है. कैसे रोका जाएगा? जरूरत कम करना, आवश्यकता कम होगी तो पाप स्वयं कम हो जायेगा. देखा-देखी बन्द कर दें, दूसरे ने कोठी बनाई तो मैं इससे शानदार बनाऊं दूसरा मर्सडीज़ गाड़ी लाया है तो मैं राल्सरायस लाऊं, दूसरे ने यह सूट सिलाया है तो मैं यह सूट सिलवाऊं. यानी ज़रूरत बढ़ती चली गई और उसी के अनुसार आपका पाप बढ़ता चला गया. आपके अन्दर की भूख और ज्यादा लगने लग गई और इसका कारण था कि हम असन्तोष से जलने लग गए हैं और प्राप्ति की वेदना में तड़पने लगे. प्राप्ति न हो पाने की स्थिति में हमारे मन की वेदना इतनी भयंकर हो जाती है कि हम तनाव से घिर जाते हैं और अन्ततः अप्राप्ति ही मृत्यु का कारण बनती है. अनीति से उपार्जन करने के लिए हम तनावग्रस्त रहते हैं और चेहरे से प्रसन्नता
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गुरुवाणी:
चली जाती है. भयंकर रोग इससे पैदा होते हैं. ज़रा विश्लेषण कीजिए. आगे मैं बहुत अच्छे तरीके से इसी का स्पष्टीकरण करूंगा और एक-एक सूत्र आगे बढ़ेंगे.
इसमें तो हर बात बतलाई गई है. उपार्जन कैसे करना, विवाह कैसे करना, कैसे कुल में करना, कैसी मर्यादा से करना और कैसे मकान में रहना और कैसे घर में रहना, कैसी यात्रा करनी, कैसे भोजन करना, हर चीज़ इन सूत्रों में आएगी और आपकी सारी समस्याओं का समाधान इन्हीं सूत्रों से दिया जाएगा.
बीमारी का कारण, असंतोष, और समाधि का कारण दर्द का कारण, ये सब चीजें मैं आपके सामने धीरे-धीरे स्पष्ट कर दूँगा. यह वैचारिक मार्गदर्शन आपको प्रवचन से मिल जायेगा फिर आप अपना इलाज स्वयं करने लग जायेंगे.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम्”
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事
चेक अथवा ड्राफ्ट में यदि कोई तकनीकी भूल हो तो बैंक उसे स्वीकार नहीं करती. उसे लौटा देती है. ठीक इसी
प्रकार प्रार्थना में पश्चात्ताप न हो, संसार की याचना और वासना रूपी तकनीकी भूल हो तो वह भी अस्वीकृत होती है. ऐसी कितनी ही प्रार्थनाएँ आज तक लौट आई है, उन पर रिमार्क लगा है : "कृपया सुधार कर भेजिये !
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-गुरुवाणी
आत्म-विकास के सोपान : परोपकार और प्रेम
परमकृपाल परमात्मा जिनेश्वर ने जगत के प्राणिमात्र के लिए धर्म प्रवचन द्वारा लोगों का महान उपकार किया. प्रवचन के द्वारा यदि जीवन का सुन्दर मार्गदर्शन उपलब्ध हो जाये, इसके श्रवण से जीवन का परिवर्तन हो जाये तो सारी साधना सफल हो जाए. प्रवचन परिवर्तन के लिए है. प्रवचन आत्मा की पवित्रता को प्राप्त करने का एक परम उत्कृष्ट साधन है. अन्तः प्रेरणा से ही व्यक्ति प्रवचन श्रवण में प्रवृत्त होता है क्योंकि परमात्मा के ये प्रवचन प्राणिमात्र के कल्याण की कामना से ही उनके अन्तस्तल में उद्भूत हुए हैं. यदि भावपूर्वक उसे ग्रहण किया जाये तो संसार के समस्त बन्धनों से आत्मा मुक्त हो जाये, परमात्मा के प्रवचन श्रवण करने का परिणाम – संसार की समस्त वासनाओं के बंधन से आत्मा की मुक्ति है.
किसी व्यक्ति को यह नहीं पता कि हम कहां जा रहे हैं? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? हमारा ध्येय क्या है? किस प्रकार का मैं कार्य करूं कि मेरा भविष्य उज्ज्वल बने और मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकँ? आज तक अपने जीवन का कोई लक्ष्य हमने निश्चित नहीं किया है. सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो चका है. इसीलिए मैं यही कहँगा कि
त हो चुका है. इसीलिए मैं यही कहूँगा कि मकान या मन्दिर का जीर्णोद्धार तो बाद में होगा. सर्वप्रथम जीवन का जीर्णोद्धार करें. जीवन का नवनिर्माण प्रारम्भ करें. पहले अपने अन्दर में यह पिपासा जागृत करें कि आप. स्वयं को पहचान सकें ताकि आप अपने जीवन-लक्ष्य का भेदन कर सकें..
एक बहुत सुन्दर मन्दिर का निर्माण कार्य चल रहा था. वहाँ रास्ते से कोई संत जा रहे थे. संत ने एक व्यक्ति से पूछा कि भाई क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने बड़ी सहजता में जवाब दिया कि पत्थर तोड़ रहा हूं. बड़ी मुसीबत है, पेट की समस्या से ज्यादा नहीं सोच पाता. किसी भी प्रकार पत्थर तोड़ करके, मजदूरी करके अपना जीवन-निर्वाह कर रहा हूं. संत थोड़ा आगे गये और एक दूसरे व्यक्ति से पूछा कि भाई क्या कर रहे हो? उसने कहा कि महाराज एक मंदिर का निर्माण कर रहा है. पसीना बहा करके पैसा पैदा करता हूं और परिवार का निर्वाह तथा भरण-पोषण कर लेता हूं, उससे आगे गये, एक व्यक्ति से पूछा कि भाई तुम क्या कर रहे हो? उसने कहा कि महाराज जी मैं भगवान का निर्माण कर रहा हूं, अपने विचार के सारे सौन्दर्य को इस पत्थर के अन्दर आकार दे रहा हूं, ताकि इसमें प्राण आ जाए, सौन्दर्य आ जाए. जगत् की आत्मा आ करके यहां परम शान्ति का अनुभव कर सके. मेरे जीवन का यह लक्ष्य है कि मैं सारी सन्दरता इसके अन्दर समाविष्ट कर दूं. मैं इस पत्थर में अपने विचार को एक सम्पूर्ण आकार देना चाहता हूँ.
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-गुरुवाणी
पद
कवि की कल्पना में, जगत में तीन प्रकार के व्यक्ति हैं. एक तो ऐसे मिलेंगे कि जो पत्थर तोड़ करके अपना जीवन-निर्वाह कर रहे हैं. किसी तरह से मनुष्य का जन्म मिल गया है, उसे ही किसी तरह पूरा कर रहे हैं. कुछ इस प्रकार के व्यक्ति आपको संसार में मिलेंगे जो मजदूरी कर लेंगे, नैतिक दृष्टि से परिवार का भरण-पोषण कर लेंगे, परन्तु उससे आगे का लक्ष्य उनके पास नहीं है. परन्तु बहुत कम ऐसे व्यक्ति आपको नज़र आयेंगे जो अपने विचार की सुन्दरता को जीवन में आकार देने वाले हैं. बहुत कम ऐसे व्यक्ति आपको मिलेंगे जो आत्मा में परमात्मा का निर्माण करने वाले होंगे, जो जीवन के सौन्दर्य को प्रकट करने का प्रयत्न करते हों, जिनके जीवन का एक लक्ष्य निश्चित हो कि मुझे आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा करनी है, मैं संसार में भटकने के लिए नहीं आया, चलने के लिए आया हूं. मेरा लक्ष्य निश्चित है और मुझे वहां तक पहुंचना है.
अगर आपके जीवन का एक लक्ष्य निश्चित हो जाये तो ध्याता रूपी आपकी आत्मा, ध्यान के माध्यम से ध्येय तक पहुंच सकती है. वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है, परन्तु प्रयास तो आपको ही करना पड़ेगा. आज तक हमने प्रयास नहीं किया. सिर्फ हम प्रश्न करते रहे. मन की वासना को किसी न किसी प्रकार तृप्त करते रहे. वासना कभी तृप्त नहीं होती. अब तक अप्राप्ति की वेदना के अन्दर हम कुठित बनते रहे. मानसिक मलिनता के अन्दर आत्मा के तत्त्व को मूर्छित बनाते रहे. जीवन में, कभी जागृत दशा में जीवन की पूर्णता को प्राप्त करने का हमने कोई प्रयास नहीं किया. आप अपना लक्ष्य निश्चित कर लीजिए और चलना शुरू कर दीजिए.
स्वामी विवेकानन्द ने सारे जगत् को कहा – 'उत्तिष्ठत जाग्रत'. हे आत्मन्! तुम उठो, जागृत हो जाओ, अपने जीवन का परिचय प्राप्त कर, उस लक्ष्य को ले करके आगे बढो. ___ मैं आपसे कहूंगा, यदि आप जागते हैं, तो उठ जाइए, अगर आप उठ गये हैं तो चलना शुरू कीजिए, आप चलना शुरू कर दिए हैं तो और ज्यादा अतिशीघ्रता में चलने का प्रयास कीजिए. इस छोटे से जीवन के अन्दर उस महान लक्ष्य को प्राप्त करना है, यह निश्चय आपके अन्दर में होना चाहिए. आज तक यह हमने जीवन में निश्चय नहीं किया है. आप पूछते रहे, बहुत सारे व्यक्तियों की एक आदत बन गई, महाराज जी आत्मा कहा है? परमात्मा कहा है? कैसे पहुंचेंगे? पूछ करके जीवन व्यतीत कर दिया गया और चलने का कभी प्रयास किया ही नहीं।
प्रश्न करना भी एक फैशन बन गया, माडर्न फैशन. कहीं से उठा करके,पढ़ करके, चोरी करके, सुन करके ले आये और भौतिक प्रदर्शन करने के लिए अपने प्रश्न को उपस्थित किया. धर्म प्रदर्शन की चीज़ नहीं, स्वदर्शन की चीज़ है. यह दिखाने के लिये नहीं धर्म तो स्वयं देखने के लिए है कि मैं कहां हूं और कैसी परिस्थिति में उपस्थित हं? वर्तमान में मेरा कार्य क्या है, कार्य करके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए धर्म है. धर्म जीवन की व्यवस्था है. धर्म जीवन का अनुशासन है और धर्म स्वयं को प्राप्त करने का एक साधन है.
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-गुरुवाणी
हमारी आदत है कि हर चीज दिखाने की कोशिश करते हैं. घर की पूंजी कभी दिखाई नहीं जाती. तिजोरी हमेशा हम बंद रखते हैं. कभी कोई व्यक्ति तिजोरी खोल करके दुकान पर नहीं बैठता, कभी कोई धन के वैभव का प्रदर्शन नहीं करता कि मेरे पास कितनी सम्पत्ति है. बाजार में आप जाते हैं, हजारों रुपये जेब में हों, आप चांदनी चौंक में खड़े हो करके कभी नहीं गिनेंगें. एक सामान्य भौतिक सम्पत्ति को भी हम छिपा करके रखने की कोशिश करते हैं कि कहीं मैं लुट न जाऊं, कहीं यह चोरी न हो जाए. यह तो आत्मा का वैभव आत्मा की पूंजी है, यह बताने की चीज नहीं है कि मैं जगत में ढिंढोरा पीटूं कि मैं बड़ा धार्मिक हूं, बड़ा तपस्वी हूं, बड़ा परोपकारी हूं. यह कहने की चीज़ नहीं, यह तो छिपाने की चीज़ है.
धर्म करने की विधि के सम्बन्ध में ज्ञानी पुरुषों का मत है कि हमें धर्म गुप्तरूप से करना चाहिए. मां बच्चे को पल्ला ढाँककर दूध पिलाती है ताकि कहीं नजर न लग जाए. परोपकार गुप्त रूप से करना चाहिए ताकि यहां लोगों की प्रशंसा जीवन में पतन का कारण न बन जाय, क्योंकि प्रशंसा को पचाने की शक्ति होनी चाहिए, नहीं तो यह जहर का काम करती है. व्यक्ति में नशा चढ़ता है कि सारा जगत् मेरी प्रशंसा करता है. मैं बड़ा धार्मिक हूं – मैं बड़ा नैतिक हूं - मैंने बड़ा परोपकार का कार्य किया – मैंने बहुत बड़ा दान किया. जहां तक उसमें गुप्तता नहीं होगी, वहां तक उस दान में या धर्म में प्राण नहीं आयेगा और वह निष्प्राण धर्म कभी अंतश्चेतना को जागृत नहीं कर सकेगा. इसीलिए परमात्मा का आदेश है कि धर्मक्रिया गुप्त रूप से होनी चाहिए.
लखनऊ में वाजिद अली शाह थे. बड़े माने हुए बादशाह थे. वह वहां के नवाब थे तथा एक मनमौजी व्यक्ति थे. एक दिन जुम्मे की नमाज़ पढ़ाने का प्रसंग आया. नमाज अदा करने के लिए बड़े मुल्ला को वहां आमंत्रण दिया गया. मुल्ला मुदित हो गया कि आज तो नवाब का आमंत्रण मिला है और साथ में शाही भोजन का भी आमंत्रण है. घर में अपनी बीबी से कहा कि मुझे घर में जलपान, नाश्ता आदि कुछ नहीं करना है, आज तो शाही भोजन का आनन्द लेना है, ज़रा भूखे पेट जाऊंगा तो ठीक रहेगा. बेचारे सुबह-सुबह वहां आए. बड़े-बड़े अमीर, बड़े बड़े शहजादे, अमीरजादे, शाही मस्जिद में नमाज़ अदा करने के लिए आये थे और बड़ी अदा और अदब के साथ खुदा की बंदगी की. नमाज अदा की, पर बड़े मुल्ले के अन्दर भावना यह थी कि लोगों को मैं बताऊं कि कैसी सुन्दर मैं बंदगी करता हूं, मैं कितनी सुन्दर नमाज अदा करता हूं. लोग मेरी धर्म-क्रिया की, इस प्रार्थना की, प्रशंसा करें, वह प्रशंसा की भूख ले करके आया था. प्रशंसा की भूख मानसिक दरिद्रता है. जगत् से पाने की कामना भी मानसिक दरिद्रता का लक्षण है और जो व्यक्ति मन से दरिद्र है वह आत्मा पर विजय नही प्राप्त कर सकता. महावीर परमात्मा ने कहा कि हमारी सारी धर्मक्रियाएँ आत्मा को पाने के लिए, आत्मा का साम्राज्य प्राप्त करने के लिए तथा स्वयं का मालिक बनने के लिए होती हैं.
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3-गुरुवाणी--
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बहुत उठ-बैठ की, बड़ी अदब के साथ नमाज अदा की और जब शाही भोजन का प्रसंग आया और महल में गये तो बड़े-बड़े अमीर, बड़े-बड़े खानदानी श्रीमंत, नवाब के जितने भी परिचित मित्र थे, वे सब आये थे. वे सब तो घर से भोजन करके आये थे और वहाँ पर तो औपचारिक दृष्टि से उनका आमंत्रण था. आदर की भावना से वे सब बैठे और दो-दो ग्रास लेकर उठे और हाथ धोकर चलते बने. बड़े मुल्ला ने विचार किया कि घर से भूखा आया था और पेट पाताल में जा रहा. यहां पर तो यह हालत कि सब दो-दो ग्रास खाए और हाथ धोकर उठ गये. मेरी तो बड़ी बुरी दशा हुई है, अभी जो दो ग्रास लिया, यह तो गले तक उतरा है, पेट तक पहुंचा भी नहीं और ये उठ गये. बड़ी सुन्दर सामग्री थी, इतनी सुन्दर भोजन की सामग्री देख कर मुल्ला बड़ा विवश हो रहा था.
बड़े मुल्ला ने सोचा कि सब खा पी करके उठ गये और यदि मैं बैठा रहूं तो ये लोग समझेंगे कि कहां का दरिद्र आया है? कौन से दुष्काल से आया है, अभी तक खाने के लिए बैठा है. मैं किसी से कम थोड़े ही हूं. मुल्ला उठ करके अपना हाथ मुंह धो करके अपने घर आ गया; परन्तु बेचारा भूखा था. इतनी अदब से नमाज अदा की, उठ बैठ बहुत की थी, अत: भूख तो बहुत तेज लगी थी, परन्तु उसकी विवशता यह थी कि वह औपचारिकता वश लज्जा के कारण खा नहीं पाया. घर पर आया और अपनी पत्नी से कहा कि जल्दी रसोई तैयार करो, बड़ी भूख लगी है. ___"आप तो मना करके गए थे कि आज शाही भोजन करके आऊंगा. और तुम्हारी यह हालत कि आते ही आदेश देना शुरु कर दिया. क्या बात है. वहां खाकर नहीं आये?"
"अरे तू समझती नहीं है, वहां बड़े-बड़े श्रीमंत आए थे, बड़े-बड़े अमीरजादे, बड़े-बड़े पीरजादे आये हुए थे, नवाब के परिवार के लोग थे. उन्होने तो दो-दो ग्रास खाए, और हाथ धोकर सब उठ गये. मेरी बड़ी विवशता थी. मैंने भी कहा मैं तुमसे कम थोड़े ही हूं. उनको दिखाने के लिए मैं भूखा होते हुए भी हाथ धोकर उठ गया."
उसकी पत्नी बड़ी समझदार थी उसने कहा - "बड़े मियां अन्दर जाओ और फिर से नमाज पढ़ो, फिर से बंदगी करो. उसके बाद यहां खाना खाने आना. तब तक मैं खाना तैयार करती हूं."
"क्यों? नमाज फिर से क्यों पढ़ें?"
"अरे वह नमाज भी तुमने दिखाने के लिए, नवाब को खुश करने के लिए अदा की थी. वह खुदा तक नहीं पहुंची. ठीक उसी तरह जिस तरह तुमने खाना दिखाने के लिए खाया और वह पेट तक नहीं पहुंचा और आप वहां से भूखे आये." ___ तात्पर्य यह है कि जो साधना प्रदर्शन के लिए होगी, उसमें स्वदर्शन का अभाव होगा. नमाज़ दिखाने के लिए अदा की, वह खुदा तक नहीं पहुंची, दिखाने के लिए खाना खाया वह पेट तक नहीं पहुंचा और घर में भूखा आया. कहां तक दिखाने के लिए धर्म करेंगे?
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गुरुवाणी:
कहां तक लोगों में यह प्रदर्शन करेंगे. यदि आप दिखाने की भावना रखते हैं, तो स्वयं का देखना ही बंद हो जाएगा. आत्मा की अनुभूति आप नहीं कर पायेंगे. इसमें बड़ी गोपनीयता चाहिए, तब वह पूंजी सुरक्षित रहती है. यह घर की पूंजी है. वह बताने के लिए नहीं होती. आत्म- संतोष के लिए चित्त की समाधि के लिए, आत्मा की भावना को तृप्त करने के लिए यह धर्मक्रिया होती हैं. आत्मा की प्यास बुझाने के लिए करते हैं. परोपकार जगत् में सबसे बड़ा धर्म माना गया है. चाहे वह किसी भी प्रकार का हो. महावीर की भाषा में "जो व्यक्ति गरीब की, निर्धन की, दीन और दुःखी की सेवा करते हैं, वे मेरी सेवा करते हैं. यह परमात्मा की सेवा है, और सेवा के कार्य में आगे बढ़ना है, यह लक्ष्य ले करके चलना है.
हमारा कोई लक्ष्य नहीं, और यदि आपने सोचा हो, तो मुझे बता दीजिए. मकान बनाते हैं, तो पहले इंजीनियर से योजना तैयार करायी जाती उसके बाद मकान का निर्माण किया जाता है. जीवन की योजना कभी आपने बनायी ? कभी आपने ऐसे साधु-संतों, गुरुजनों से मार्गदर्शन लिया कि मुझे अपने जीवन की योजना चाहिए, किस प्रकार मैं अपने जीवन का निर्माण करूं, ताकि साधना की सर्वोच्च भूमिका को मैं पा सकूं? मैं अपनी आत्मा को पा सकूं? कभी हमारा यह लक्ष्य नहीं रहा. मानसिक दरिद्रता ले करके गये, कुछ मिल जाये. जहां मार्गदर्शन लेना था, याचना करने लग गये कि आशीर्वाद मिल जाये, कुछ जगत् की प्राप्ति हो जाये, कुछ भौतिक दृष्टि से प्राप्त हो जाये. कोई अन्तस्तल की प्यास ले करके कभी किसी साधु संत के पास नहीं गया. जगत् की याचना और दरिद्रता ही ले करके गये. क्या मिलेगा ? जो प्रारब्ध में है, वही प्राप्त होगा. प्रारब्ध के सिवाय तो प्राप्ति होने वाली नहीं, चाहे आप कितना भी प्रयास कर लें. लक्ष्य से भ्रष्ट होने का यह परिणाम • व्यक्ति दरिद्र बनता है जगत् की याचना के लिए अपनी आत्मा के सारे गुणों को नष्ट कर देता है.
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आज तक हमारा यही लक्ष्य रहा कि जगत् को प्राप्त करें. यह लक्ष्य कभी नहीं सूझा कि स्वयं को प्राप्त करें. यह हमारे संसार की यात्रा है. यह मोक्ष की यात्रा नहीं है. यह धर्म यात्रा नहीं है. आत्मा को संसार की यात्रा में कभी पूर्णविराम प्राप्त ही नहीं होता और मोक्ष की यात्रा में आत्मा को पूर्ण विश्राम मिलता है, जीवन का पूर्णविराम प्राप्त होता है. और यह बार-बार का आना-जाना, शंकराचार्य जी की भाषा में कहा जाये जैसा उन्होंने
कहा:
पुनरपि जननं पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननी जठरे शयनं.
बड़ा सुन्दर भाव उन्होंने प्रगट किया. विरक्त भावना को प्रगट करने के लिए चर्पट मंजरी में भगवान से प्रार्थना करते हुए उन्होंने कहा कि भगवन् कहां तक संसार में जन्मता-मरता रहूँगा. बार-बार मां के गर्भ में आना और जन्म लेना, मृत्यु प्राप्त करना इस
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भव परम्परा से मुझे मुक्त कर. वहां मुक्त होने की उत्कण्ठा थी अन्दर की भावना थी और हमारी आदत ऐसी है, बार-बार संसार में आओ, समृद्धि मिले, जगत् मिले, यह जगत् कहां तक आपका रक्षण करेगा. यह जगत् आज तक किसी का रक्षण करने वाला नहीं बना, निरपेक्ष है, आपके साथ इसकी कोई अपेक्षा नहीं है. परन्तु हमारा प्रयास वही रहा. ___ लोग पूछने के लिए प्रश्न पूछ लिया करते हैं. बहुत-से व्यक्तियों की आदत है. हमारी मनोदशा समाज को प्रभावित करने की रहती है. ज्ञानी देखकर आत्मा और परमात्मा के विषय में बहुत चर्चा, किन्तु प्रश्न के अन्दर प्राण नहीं होता, गहराई नहीं होती और उन प्रश्नों के अन्दर अन्तर की प्यास नज़र नहीं आती. अन्तर की जिज्ञासा उनके अन्दर चाहिए, तब प्राण आए. बौद्धिक प्रदर्शन के लिए भी कई बार प्रश्न पूछा जाता है कि मैं बड़ा ज्ञानी हं. याद रहे, यदि प्रश्न उधार है, सुना, सुनाया या कहीं से पढ़ करके प्रश्न उपजा है, तो जवाब सन्तोष-प्रद नहीं होगा. सन्तोष-पूर्वक जवाब तभी मिल पाएगा, जब प्रश्न स्वयं के अन्तस् की गहराई से प्रस्फुटित हुआ हो. अन्तश्चेतना के तारों की झनझनाहट से जिसका आविर्भाव हुआ हो.
प्रोफेसर चन्दूलाल की आदत थी कि वे हमेशा प्रश्न करते. आप जानते हैं, ज्यादातर दार्शनिक विक्षिप्त होते हैं, उनका पूछने का तरीका बड़ा विचित्र होता है क्योंकि वे अपनी धुन में ही रहते हैं. एक दिन कालेज में गये और अपने विद्यार्थियों से प्रश्न कर लिया कि मेरे अन्दर एक मानसिक उलझन है और मैं चाहता हूं कि तुम में से उसका कोई उत्तर दे तो मुझे बड़ा आत्म-संतोष मिलेगा. एक तीक्ष्ण बुद्धि वाले लड़के ने कहा, साहब प्रश्न करिए. जवाब मैं दूंगा. आज कल के लड़के बड़े चतुर होते हैं. बुद्धि का अतिरेक भी कई बार सर्वनाश का कारण बनता है. ___ कलकत्ता में एक पढ़ा-लिखा बड़ा होशियार लड़का था. एक दिन ग्रैण्ड होटल के "नो पार्किंग” की जगह अपनी गाड़ी खड़ी करके सुबह-सुबह अपने काम पर निकल गया. काम करके लौटा तो देखता है गाड़ी के पास पुलिस खड़ी है, उसे अपनी गलती का आभास हुआ. मन में विचार किया – अगर गाड़ी के पास जाता हूं तो कम से कम सौ रुपया तो गुप्तदान देना ही पड़ेगा. गुप्तदान देने को मन नहीं था.
बुद्धि दौड़ाई, दस रुपये दिए और टैक्सी से घर पहुंच गया लाल बाजार पुलिस स्टेशन को टेलीफोन घुमाया कि इस नम्बर और इस रंग की गाड़ी घर से गुम हो गई. पता नहीं घर से कौन ले गया कहां चली गई? मन में निश्चिन्त था बिना पैसे का चौकीदार खड़ा है, चिन्ता है ही नहीं. गाड़ी के पास पुलिस खड़ी थी. गाड़ी को कोई खतरा है ही नहीं. उसके फोन करने के बाद पूरे कलकत्ते में वायरलैस (बेतार का तार) से समाचार पहुँच गया. वहां जितने भी चैक पोस्ट थे उन पर समाचार चला गया अब घूमते-फिरते घंटे-दो घंटे में जब पुलिस की गाड़ी वहां आई और देखा कि गाड़ी तो यही है. गाड़ी का नम्बर भी यही है. कलर भी यही है. मॉडल भी यही है. जाकर देखा, पुलिस वाला बेचारा एक
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-गुरुवाणी
घण्टे से ध्यानस्थ खड़ा था, देखा कोई आए तो पारणा करूं. वे पुलिस वाले अपनी गाड़ी से उतरे और उन्होंने उस पुलिस वाले से कहा कि भाई यहां कोई आने वाला नहीं, यह गाड़ी तो चोरी की है. कोई उड़ा करके लाया है और तुम्हारे डर से कोई आता नहीं है. उसने कहा यार चोर कहां से आयेगा? साहूकार हो तो आए. एक घण्टा मेरा पानी में गया और मिला कुछ नहीं. पुलिस उस गाड़ी को ले करके गयी और उसके बंगले तक पहुंचाया और कहा सेठ साहब यही गाड़ी है?
हां भाई यही है. सुरक्षित ही आ गई. धन्यवाद.
बिना पसीना उतारे गाड़ी घर पर आ गई. यह मैंने आपसे कह दिया परन्तु यह कहना नहीं चाहिए. आप कभी ऐसा प्रयोग मत करना, नहीं तो पाप मुझे लगेगा कि महाराज ने सिखाया. आवश्यकता से अधिक अक्ल भी नहीं चाहिए क्योंकि व्यक्ति उसका बड़ा दुरुपयोग कर रहा है. आणविक ऊर्जा जगत् के कल्याण के लिए हो सकती थी, परन्तु आज इन्सान की बुद्धि पर विवेक का अंकुश नहीं रहा, धर्म का नियंत्रण नहीं रहा. उसका परिणाम सर्वनाश के लिए हो गया, जो सृजन के लिए चीज बनी थी. वह विसर्जन का कारण बन गई.
प्रोफेसर चन्दूलाल के मन में भी विचार आ गया. लड़कों से जब पूछा कि यह बताओ कि यदि दिल्ली से बम्बई तुम हवाई जहाज़ में यात्रा करो और तीन सौ मील प्रति घंटा की गति से जहाज उड़ता हो और उस समय पर तुम यहां से बम्बई पहुंच जाओ तो मुझे यह जानना है कि इस समय मेरी आयु कितनी है?
बड़ा अटपटा सवाल था और बड़ा उलझा हुआ भी. बच्चों ने बड़ा आश्चर्य प्रगट किया कि सर, बड़ा गम्भीर प्रश्न है. चक्कर में पड़ गये कि तीन सौ की गति से उड़ने वाला प्लेन दिल्ली से बम्बई तक की यात्रा करे और उसके अनुसार इनकी आयु का निर्णय करना, यह तो बड़ा गजब का प्रश्न है. इसके तो हाथ-पांव भी नहीं हैं. परन्तु एक बहुत अच्छा विचारवान विद्यार्थी, उसने विचार कर लिया कि जवाब तो मुझे देना है. उसने यह नहीं कहा कि प्रश्न गलत है. उसने कहा कि सर आपकी वर्तमान आयु चौवालीस वर्ष है. ____ "हां ठीक है, इट इज करैक्ट. बहत सच कह दिया. मेरी वर्तमान उम्र इस समय ठीक चौवालीस है.” बड़ा खुश हो गया और प्रो. चन्दूलाल ने कहा बच्चे! यह समझाओ कि किस फार्मूले से तुमने यह निर्णय किया." ___"वह आप मत पूछिए. आपको मैंने कह दिया. मेरा अंदाज सही निकला. ठीक चौवालीस वर्ष इस समय आपकी आय है, उस लड़के ने कहा कि अब क्या बताएं? आपका प्रश्न ही ऐसा था कि निर्णय भी अलग तरीके से करना पड़ा. मेरे घर पर मेरा भाई है जो रोज इस तरह के प्रश्न करता है वह आधा पागल है, और इस समय उसकी आयु बाईस वर्ष
lala
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-गुरुवाणी:
है. मैंने अंदाज लगाया कि वह आधा पागल है और बाईस का है. आप तो पूरे पागल हैं इसलिए चौवालीस के होंगे.
ऐसे प्रश्नों से कभी प्यास बुझने वाली नहीं. प्रश्न तो अन्दर से उत्पन्न होना चाहिए. जिज्ञासा की मनोवृत्ति होनी चाहिए तब उसका समाधान मिलता है. प्यास ले कर ही आपको आना है. प्रश्न को लेकर के आना है, उपस्थित करना है. समस्याओं का समाधान प्राप्त करना है. यह नहीं कि आप प्रश्न न करें, जरूर करें गहराई में जाकर विचारपूर्वक आपका प्रश्न हो. प्रश्न यदि सुन्दर होगा, विवेकपूर्ण होगा, उसका समाधान करना बड़ा सरल हो जाएगा.
मैं जो आपसे कह रहा था कि लक्ष्य को ले कर के चलना है. आपके जीवन का लक्ष्य क्या है? अपने लक्ष्य तक जाना है. प्रयास किया? चलने के लिए कोशिश की? प्रश्न करते रहे. मोक्ष कहां स्वर्ग कहां, परमात्मा कहां? एक कदम भी हम आगे नहीं बढ़ पाए. कहां तक पूछेगे? जीवन पूरा हो जाएगा पूछने में. कब आगे बढ़ोगे? आपको नहीं मालूम कि मैं क्या कर रहा हूं? कर्त्तव्य से विमुख होकर आप चलेंगे कैसे? ____ मैं आपको सही कहता हूं, पूछना बन्द कीजिए, चलना शुरू कर दीजिए. कैसे चलना है वह मैं बता रहा हूं. परमात्मा ने जिधर आदेश दिया, जहां जाने का रास्ता बतलाया, उसी रास्ते से चलना है. दुराचार के मार्ग पर नहीं जाना है, दुर्गति की ओर नहीं जाना है. जीवन को बर्बाद या नष्ट नहीं करना है. जीवन में आत्मा के गुणों का सृजन करना है. मैं सदगति का अधिकारी बनूं. मैं सद्कार्य करने वाला बनूं और जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर के ही मैं जाऊं. आज तक जो भी मैंने देखा .. जो भी आए प्रश्न करते रहे. पूछते रहे पर चलने वाले मुझे आज तक नहीं मिले.
1961 में जैसलमेर जा रहा था. लम्बी यात्रा थी - सौ-दो-सौ आदमी साथ थे. एक मुकाम ऐसा आया जहां रात्रि विश्राम करना पड़ा. वहां का एक ग्रामीण व्यक्ति, खेती करने वाला, रात्रि में साढ़े आठ या नौ बजे कैम्प में आया और कहा कि महाराज एक प्रार्थना है विश्राम करना चाहता हूं - अपरिचित व्यक्ति था. एकदम एकान्त जगह थी, पास में कोई गांव भी नहीं. उस जगह डाकुओं का उपद्रव भी था. ___ मैंने स्वाभाविक रूप से पूछा कि भाई तुम कहां से आए? कैसे आए? मैं तो तुम्हें जानता नहीं. उसने कहा कि महाराज मैं इस पास के गांव का आदमी हूं और किसी कारण बस चूक गया, रात्रि में बस सर्विस बन्द है. अब मैं वापिस अगर गांव में जाता हूं तो दो कोस मुझे गांव में जाना. वापिस मुझे चलकर के आना, सुबह दस बजे मुझे बस मिलेगी, तो मैने सोचा कि रात्रि में यदि सोने को यहां मिल जाए तो सुबह पांच बजे पैदल निकल जाऊं और आठ बजे गांव पहुंच जाऊं. वह जिस गांव में जाने वाला था संयोग से उसी गांव में हमारा मुकाम होने वाला था. रास्ता बड़ा घूम कर के जाता था. मैंने उससे पूछा
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गरुवाणा
कि भाई हम भी उसी स्थान पर जाने वाले हैं तो मेरे साथ चलो. मुझे विश्वास हो गया कि गलत आदमी नहीं है. ___मैने कहा कि भाई सुबह ज़रा जल्दी चलना होगा, काफी लम्बा है, यहां से करीब अठारह-बीस किलोमीटर है, महाराज मैं आपके साथ हं. एक सीधा रास्ता मैं आपको बतलाऊंगा - यह रास्ते का चक्कर मिट जायेगा. बड़ी प्रसन्नता हुई. मैंने कहा कि परमात्मा की बड़ी कृपा. घर तक यह आदमी आ गया. लोगों से कहा तो लोग भी बड़े खुश हए.
फाल्गुन का महीना था, गर्मी बड़ी तेज़ थी, रात्रि में मैंने उसे पास में रखा और दो-तीन आदमियों से कहा कि भाई इसका ध्यान रखना प्रलोभन देना, कहीं यह चला न जाए.
सुबह हम चल पड़े. वह आगे-आगे और हम पीछे-पीछे. अब रास्ते में हम आगे बढ़ने लग गए. सड़क छोड़कर के हम नीचे उतरे तो धोरा, रेती एक-एक बेंत पांव अन्दर जाएं. श्रम इतना पड़ा कि मेरे मन में विचार आया कि यह लोभ तो बड़ा गलत रहा. वही रास्ता ठीक था. यहां तो अधिक श्रम पड़ता है. वहां तक पहुंचते-पहुंचते तो पानी उतार देगा.
हम चलते रहे, घण्टा-दो घण्टा निकला. हर व्यक्ति में मानसिक उत्सुकता होती है, मैंने उससे पूछा कि भले आदमी अब गांव कितनी दूर है. बोला कि डेढ़ कोस है. फिर मैं चलता रहा. घण्टा भर निकला और सूर्योदय हो गया.
मैंने कहा कि भले आदमी अब कितना है. बोला कि डेढ़-दो कोस और दूर है. मैंने कहा ठीक, पहले भी यही और अब भी यही. थोड़ा दूर चले और आधा घण्टा निकला, फिर उससे पूछा --- अशिक्षित व्यक्ति था, सच-सच बताओ कि अब कितनी दूर है?
बोलने लगा कि एक-डेढ कोस और है. ठीक है, अपनी भाषा में कहा कि गांव तो सामने ही है डेढ-दो कोस. ____ मैंने उसको पकड़ा और कहा कि पहली बार पूछा तो एक-डेढ़ कोस, दूसरी बार पूछा तो भी डेढ कोस, तीसरी बार पूछा तो भी डेढ़ कोस - और कुछ शब्द आता है कि यही आता है. __ मैं चल रहा हूं कि खड़ा हूं, यह बताओ?
अंगूठा छाप आदमी था, गंवार था, जाट था वहां का और बोला कि महाराज! साधु-संत तो शान्त होते हैं, आप गुस्सा क्यों करते हैं? पहले तो मुझको उपदेश दिया. ____ मैंने कहा यह जो आवेश आया, यह तुम्हारी कृपा से आया. तुम्हारे प्रति तिरस्कार नहीं है, अरुचि नहीं है, पर मैं जानना चाहता हूं कि गांव कितनी दूर है और तुम सच बोलते नहीं, जब पछता है - डेढ-दो कोस, डेढ-दो कोस. मैंने तीन-तीन बार. चार-चार बार पूछा, हमारे साथ इतने सारे आदमी हैं – भूख बढ़ रही है, प्यास बढ़नी शुरू हो गई, मुकाम नहीं आया तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी.
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-गुरुवाणी
अंगठाछाप इंसान ऐसा महान दार्शनिक निकला, कि मेरा बोलना बन्द कर दिया. ग्रामीण व्यक्ति था, भोलापन उसके चेहरे में दिखता था. उस व्यक्ति ने हाथ जोड़कर मुझे निवेदन किया “क्षमा करो महाराज! आपको मेरे निमित्त से दुःख हुआ. मेरा कोई और आशय नहीं - आप एक बार पूछो या दस बार पूछो, वह गांव कितनी दूर है? आप मेहरबानी करना और क्षमा करना, वह गांव कभी पूछने से नहीं, चलने से आएगा. ____ मैंने कहा पूछना बन्द, चलना शुरू. समझ गए, आधा घण्टा हुआ गांव में पहुंच गया. मैंने कहा कि उस आदमी को बुला कर के लाओ. उस आदमी को बुलाया और कहा कि तुने मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दी, मैंने उसको धन्यवाद दिया. देखिए, पढ़ा-लिखा नहीं था, हृदय की भाषा थी और हृदय की भाषा में कहा, कोई कृत्रिमता नहीं थी, बड़ा सहज था और उसकी बात ने मेरे ऊपर असर किया. मैं उस इंसान को आज तक नहीं भूला. __ मैं भी आपसे यही कहूंगा कि आप पूछना बन्द करिए और चलना शुरू करिए. आज तक आप पूछते चले आए - परमात्मा कहां, मोक्ष कहां? यह कोई पूछने की बात है, चलना शुरू करिए, लक्ष्य आ जाएगा. चलना है नहीं-और मोक्ष चाहिए, कहां से मिलेगा.
___ "चरैवेति चरैवेति बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय" बुद्ध ने कहा है तुम चलो, तुम आगे बढ़ो – अनेक आत्माओं के कल्याण के लिए, इस आत्म-कल्याण की भावना से, मोक्ष-मार्ग की तरफ आगे बढ़ो. संसार की वासना से आपको ना है, चलना शुरू कीजिए. कैसे चलना है, उसका मार्गदर्शन, प्रवचन से आपको रोज़ मिलता है. लक्ष्य निश्चित करके चलना है और वहां तक जाने के लिए दो ही रास्ते हैं - परोपकार या प्रेम. प्रेम का माध्यम या परोपकार का माध्यम, दो ही माध्यम है. मैं कैसे उस आत्मा का भला करूं. दुःखी आत्माओं के दुःख को, दर्द को, कैसे दूर करने वाला बनूं. यह मंगल-कामना आपमें आनी चाहिए.
प्रेम और मैत्री का गुण विकसित होना चाहिए. यह ऐसा तत्त्व है - जो परमात्म-तत्त्व को आकर्षित करता है. आत्मा के गुणों को विकसित करता है. आत्मा को निर्भयता प्रदान करता है.
हमारे यहां महावीर की भाषा में, जैन दर्शन की प्रक्रिया में - सामायिक को इसीलिए महत्त्व दिया गया है क्योंकि वह समत्त्व की भावना को उत्पन्न करता है. जगत् में समदृष्टि से रहने की कला आपमें विकसित करता है और परम्परा में आपको परमात्म दशा का भोक्ता बनाता है. वह धर्म को जन्म देने वाली मंगल क्रिया है. परन्तु उसके रहस्य को, उसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया को हम समझ नहीं पाए और औपचारिक दृष्टि से क्रिया कर लेते हैं. जड़ता आ जाती है, सक्रियता नहीं आ पाती. चैतन्य जागृत नहीं हो पाता है. क्रिया के अर्थ और रहस्य को हम समझ नहीं पाते.
प्रत्येक धर्म में ध्यान की प्रक्रिया में समत्त्व को पाने की भूमिका छिपी हुई है. कैसे मैं वह प्रेम प्राप्त करूं - जगत की सभी आत्माओं तक मेरा प्रेम व्यापक बन जाए. जगत
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: गुरुवाणी
एक
की सभी आत्माओं की, प्राणिमात्र की मैं सद्भावना प्राप्त करने वाला बनूं और परोपकार उसी प्रेम का व्यावहारिक रूप है. जहां तक प्रेम नहीं आएगा, परोपकार आ ही नहीं सकता. वह तो प्रेम के द्वारा, जिसे आप दयालुता कह लीजिए, करुणा कह दीजिए, आन्तरिक वात्सल्य कह दीजिए • पर्यायवाची, समानार्थी, अलग-अलग शब्द हैं परन्तु आशय तो हृदय के अन्दर प्राणिमात्र के प्रति मैत्री या प्रेम का भाव आना ही चाहिए. 'धर्मबिन्दु' के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में इसका परिचय दिया है कि धर्म का प्राण मैत्री है, प्रेम का तत्त्व है परन्तु आज का इंसान उससे बहुत दूर जा रहा है. परिवार में भी आज ऐसी समस्या है पिता और पुत्र के बीच आज दीवार खिंची हुई है. जहां पिता-पुत्र में भी भेद होगा तो फिर परमात्मा के अभेद को कैसे पा सकते हैं. अगर परिवार के अन्दर ही समस्या है तो संसार का समाधान आप कैसे कर पाएंगे. समस्याओं का समाधान प्रेम के माध्यम से ही आपको खोजना होगा और जैसे ही आप प्रेम के तत्त्व को विकसित करेंगे. बिना मांगे, बिना आमंत्रण आपको पूर्णता मिल जाएगी. पूर्ण बनने के लिए ही प्रयास है और वही जीवन की यात्रा है, मैं पूर्ण बनूं, परमेश्वर बनूं, आत्मा के अन्दर से परमात्मा को प्राप्त करने वाला बनूं.
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ये सारे ही पुरुषार्थ तभी सफल हो पाएंगे, जब अन्दर प्रेम की भूमिका हो. रामचन्द्र जी के प्रेम का इसीलिए मैंने पूर्व में आपको परिचय दिया. उनके अन्दर कितना अद्भुत प्रेम का तत्त्व था. महान् योगी पुरुषों के जीवन की घटनाओं को देखिए, आपको प्रेम का तत्त्व नज़र आएगा. इसीलिए अपने जीवन में वे महानता पा सके. प्रेम तो बलिदान देता है. प्रेम जीवन का सर्वस्व अर्पण करने को तैयार होता है. परन्तु हमारे अन्दर वह भावना कहां ?
कुछ ऐसी बाते हैं जिनका परिचय प्राप्त करना है. प्रवचन के द्वारा उस परोपकार की गहराई तक उतरना है. जीवन में प्रयोग द्वारा अपने कार्य से उसे गतिशील बनाना है. परोपकार के द्वारा प्रेम की भावना को सक्रिय रूप देना है ताकि आप जीवन में कुछ कर सकें.
कभी रास्ते में दीन-दुःखी आत्माओं को देखिए कैसे जीते हैं, कैसी दशा है कभी विचार आता है कि इनका दुःख और दर्द मैं कैसे दूर करूं ?
टॉलस्टाय रास्ते पर चल रहा था उस समय बड़ी भयंकर ठण्ठ पड़ रही थी, बर्फ गिर रही थी, स्नोफाल हो रहा था • एक बेचारी गरीब बुढ़िया ठिठुर रही थी. टालस्टाय ने देखा कि अगर थोड़ा समय और इस तरह से यह निकाल देगी तो बेचारी मर जाएगी. उसके पास एक ओवरकोट था, निकाला और अच्छी तरह से बुढ़िया को ढक दिया. गोदी में उठाकर उस बुढ़िया को ले कर ऐसी जगह पर बैठाया कि जहां ठण्डी का प्रकोप कम हो. वह अपनी डायरी में लिखता है कि मेरे अन्दर ऐसी भावना आई और इस कार्य से मेरी आत्मा को संतोष मिला. दयालु बनने के लिए वह लिखता है कि "डज़ नाट कॉस्ट
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पर
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: गुरुवाणी:
बी काइण्ड " दयालु बनने के लिये पैसे की ज़रूरत नहीं, हृदय की ज़रूरत है. देखने में यह एक सामान्य कार्य था.
अपने धर्म को हम अपने जीवन में सक्रिय बनायें. यह भी तो धर्म का ही एक प्रकार है. ऐसे दीन-दुःखी की सेवा के द्वारा धर्म को विकसित किया जाता है. भीतरी गुणों का विकास किया जाता है. अपनी भावनाओं को पुष्ट किया जाता है, विचार को आकार दिया जाता है.
इन चीज़ों में हम बहुत उपेक्षित हैं और आप यह समझें कि परमात्मा के द्वार पर जाऊं, आरती उतारूं और भगवान प्रसन्न हो जाएं भगवान के यहां जाकर के दर्शन कर लूं और प्रार्थना कर लूं और परमात्मा प्रसन्न हो जाएं • परमात्मा सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं. आपकी औपचारिकता से वे पूर्ण परिचित . अन्दर की वास्तविकता क्या है, वह परमात्मा से छिपी हुई चीज़ नहीं है. वहां जीवन का सभी पाप प्रगट है. वहां तो आन्तरिक रुदन लेकर के जाना है. हृदय से पश्चाताप ले कर के जाना है. हृदय से रोकर के प्रभु की प्रार्थना करनी है
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भगवन्! तेरे द्वार पर अपराधी बन कर के आया हूं, साहूकार नहीं, सद्बुद्धि की कामना लेकर के आया हूं. भगवन्! तेरी कृपा से वह शक्ति मिले कि ऐसी भावना से मैं बच पाऊं. दुर्विचार का, दुर्भावना का मैं प्रतिकार कर सकूं. वह शक्ति तुम मुझे प्रदान करो. क्या कभी इस प्रकार की प्रार्थना लेकर गए?
हमेशा हमारी प्रार्थना में जीवन की दरिद्रता छिपी मिली. ऊपर से परमात्मा को प्रार्थना और अन्दर से भाव यह चले
करें
शांतिनाथ प्रभु शाता करो;
गोल घी कपासीया मोंघा करो।
क्या भगवान बाजार भाव की चिन्ता करते हैं या आपका चौखटा देखने के लिए बैठे हैं ? भगवान को रिश्वत देने चले कि अगर यह काम हो जाए तो इतना रुपया आपको दूँ. क्या भगवान् आपके पाप में भागीदार बनने वाले हैं? कैसी अज्ञान दशा. इस अज्ञान दशा से मुझे निकलना है. प्रारब्ध में विश्वास करना है. मेरे कार्य में मुझे विश्वास होना चाहिए. मेरे वर्तमान कार्य से, मेरे प्रारब्ध का निर्माण होगा. अपने कर्म से व्यक्ति अपने प्रारब्ध का निर्माण करता है.
परमात्मा साक्षी भाव में है. किसी का भला-बुरा नहीं करता. इंसान स्वयं अपना भला-बुरा करता है. परमात्मा ज्ञाता और द्रष्टा है, निरपेक्ष है, उसे कोई मतलब नहीं. जैसे आप करते हैं, वैसा ही आपको फल मिलेगा. इसीलिए कहा गया है:
“स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । " “स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्मात् विमुच्यते ॥”
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同
घ
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गुरुवाणी
___ इंसान जैसा करता है, वैसा ही भोगता है, वैसा ही फल उसको मिलता है अपने कर्म से ही अपने कार्य से संसार का परिभ्रमण करेगा.
"स्वयं तस्मात् विमुच्यते" व्यक्ति अपने प्रयत्न द्वारा वासनाओं से मुक्त होकर संसार से मुक्त बनता है. पशुत्व और प्रभुत्व दोनों शक्तियां आपमें निहित हैं. निर्णय आपको करना है, कि किस शक्ति को साकार करना है यदि पशत्व में रुचि है तो आप अपनी ऊर्जा का गलत दिशा में प्रयोग करेंगे और यदि प्रभुत्व की उपलब्धि चाहिए तो आपकी ऊर्जा सद्गामी बनेगी.
दोनों अवस्थाओं में शक्ति की समभाग रूप से आवश्यकता है, राम बनने के लिए भी शक्ति चाहिए और रावण बनने के लिए भी, कृष्ण के लिए भी, कंस के लिए भी, चाहे महावीर बनो, चाहे गौतम बुद्ध बनो चाहे देवदत्त. शक्ति की आवश्यकता दोनों के लिए है. दोनों परिस्थितियों में शक्ति की असमानता नहीं थी, असमानता थी तो वह सिर्फ उस शक्ति के प्रयोग की प्रक्रिया में थी. जब व्यक्ति अपनी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बना लेता है तो वही शक्ति या ऊर्जा योग-शक्ति के नाम से परिचय प्राप्त करती है, और यदि उस शक्ति को वह अधोगामी रूप दे देता है तो वही शक्ति, भोग-शक्ति के नाम से पुकारी जाती है.
शक्ति तो एक है उसके प्रयोग अलग-अलग हो जाते हैं, उसी प्रयोग की भिन्नता का परिणाम है कि वह नर और नारायण, शिव और शव जैसी महान असमानता को जन्म देता है, भूतकाल में किया गया ऊर्जा का गलत उपयोग हमारे लिए वर्तमान में संसार रूपी सैन्ट्रल जेल बन कर उपस्थित हुआ, जिसके हम कैदी बनकर आए, अपराधी बनकर आए और दण्ड भोगने के लिए कर्मवश होकर जीवन जीना पड़ा. जीव को जड़ (कर्म) के अधीन रहना पड़ रहा है. संत तुलसी दास ने कहा
कर्म प्रधान विश्व करि राखा.
जो जस करहिं सो तस फल चाखा ॥ जो व्यक्ति जैसा कार्य करेगा, उसके अनुसार उसको वैसा ही फल भुगतना पड़ेगा. यह तो आपको देखना है कि मैं कैसा कार्य कर रहा है. मेरे कार्य में मेरी आत्मा को संतोष है कि नहीं. मेरे कार्य से मेरी आत्मा कहीं रुदन तो नहीं करती. आत्मा की पुकार हमनें कभी आज तक सुनी ही नहीं. कभी अपने कार्य में वह विश्वास पैदा ही नहीं किया. ___ कर्त्तव्यनिष्ठ बनिए. धर्म शब्द की परिभाषा में अपने कर्त्तव्य को ही महावीर ने धर्म कहा. सत्कार्य करना ही धर्म है. शुभ कार्य में प्रवृत्ति जीवन का परम धर्म है. जीवन को सदाचारी बनाएं, सत्यनिष्ठ बनाएं, सत्कार्य का आग्रह करें. तभी जा कर के व्यक्ति का जीवन धर्म सक्रिय बन पाएगा. ऐसा कार्य करें कि आपकी आत्मा को तृप्ति मिले, जिससे मानसिक प्रसन्नता मिले कि यह कार्य मैं कर रहा हूं और इससे मुझे बड़ा आनन्द है.
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गुरुवाणी
मेरे परिचय से लाभ क्या ? साधु-संतों का परिचय इसलिए किया जाता है, ताकि विचार में परिवर्तन आ जाए, क्रान्ति आ जाए. ऐसी वैचारिक क्रान्ति जिससे सक्रिय बन जायें. परमात्मा के विचार अपने आचार से प्रकट होने लग जाए और आचार सुगन्धमय हो तथा उसमें सदाचार की सुगन्ध हो.
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जीवन में मुझे बहुत से व्यक्ति ऐसे मिले, जिनका जीवन स्वतः मुखरित हो उठा है जिनकी उपस्थिति मात्र उपासक के जीवन को झकझोर दे, जिनका मौन ही उपदेश बनकर बरसे. जिनकी सहज दैनिक चर्या ही धर्म की जननी बनने जिनकी धर्म चर्चा का नहीं, चर्या का सहचर है, उनका परिचय कभी समय आने पर दूंगा.
जो चीज़ शब्दातीत है, शब्द के माध्यम से उसका परिचय कभी पूर्ण नहीं बनेगा. निःशब्द की भूमिका से जीवन की साधना का परिचय मिलना चाहिए. यहां शब्द की आवश्यकता ही नहीं. आपका कार्य ही आपका परिचय देता है. आपका आचरण आपके जीवन को सुगन्धा देता है. इस परिचय से यदि आप में परिवर्तन आ जाए, तभी मुझे मानसिक प्रसन्नता मिले.
साधु-संतों का परिचय बड़ा महत्व रखता है. समाज और राष्ट्र का उत्थान इसमें निहित है. व्यक्ति की पवित्रता का उद्गम है. वह व्यक्ति की अन्तश्चेतना का उन्मेष करता है. उसका यही चमत्कार है कि वह व्यक्ति की सुषुप्त चेतनाओं को उद्दीप्त करता है.
बहुत वर्ष पहले की यह घटना है. प्रेक्टिकल धर्म किसको कहते हैं वह समझा रहा हूं. आपको जानकारी है, शब्दों से आपको परिचय मिला आचरण से धर्म कैसे सक्रिय बनता है, उसका दो मिनट में आपको मैं परिचय दूं. हमारे सन्त, रेलवे लाइन से विहार करते हुए जा रहे थे, बरसात शुरू हो गई. महाराज ने साथियों से कहा - आकाश बादलों से घिरा है, संध्या हो गई है, मुकाम तक पहुंचते - 2 रात हो जाएगी, सन्तों के लिए रात में चलना निषेध है.
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादम्.
साधु जीवन का आचरण है कि देखकर ही पांव रखें, मुनिराज की एक झोपड़ी पर नजर गई, देखा कि खेतों का चौकीदार भी वही है, वहां गए और उससे कहा भाई ! हमें मुकाम तक जाने में रात हो जाएगी. बरसात की सम्भावना है - मात्र एक रात्रि तुम्हारे यहां विश्राम करना है, स्थान मिलेगा ? हम साधु-संत हैं. सुबह हम चले जाएंगे.
वह व्यक्ति इतना प्रसन्न हुआ कि मेरे घर परमेश्वर के प्रतिनिधि संत-पुरुष आए. ग्रामीण व्यक्तियों के अन्दर आपको हृदय की सरलता मिलेगी, जो वह प्रसन्नता मिलेगी, वह एक अलग प्रकार की होगी.
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शहरी सभ्यता बड़ी विकृत है. हंसना भी यहाँ बनावटी है. आपका रोना भी प्रदर्शन मात्र है. वे सच्चे दिल से रोएंगे और सच्चे दिल से प्रसन्न होवेंगे. उनकी आन्तरिक हृदय की प्रसन्नता ही एक अलग प्रकार की होगी.
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साधु अन्दर गए. वह ग्रामीण व्यक्ति अपना सामान लेकर दूसरे की झोंपड़ी में चला गया. मेरे घर अतिथि आएं हैं. साधु-संत आए हैं, उनकी सेवा का आज मुझे लाभ मिलेगा. संध्या की क्रिया प्रतिक्रमण से निवृत्त हो कर महाराज बैठे. वह व्यक्ति वहां आता है और पूछता है -- महाराज मुझे आप धर्म समझाओ कैसी प्यास ले कर के आया था.
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हमारे यहां, आज तक ऐसा एक व्यक्ति नहीं मिला कि जो यह प्रयास लेकर आया हो कि महाराज आप मुझे धर्म समझाइए कहने ज़रूर आए, दुकान नहीं चलती है, पैसा नहीं आता है. महाराज क्या करें, बड़ा धर्मसंकट है, परिवार में क्लेश है. महाराज क्या बताएं इस तरह दुनिया भर की शिकायत लेकर के आएंगे, याचना लेकर के आएंगे, जीवन की दरिद्रता लेकर के आएंगे.
रोज़ मुसीबत आती है तो मैंने भी रास्ता निकाल लिया. मैंने कहा भाई, मैं भी बहुत दुःखी था. संसार छोड़कर के यहां आ गया, आप भी आ जाओ. अपने सुख में आपको भी भागीदार बना दूं. किसी को आना तो है नहीं. सही रास्ते से काम करना नहीं. जब सज़ा मिली है, तो भोगनी नहीं. छटकने की बात करते हैं.
"अवश्यं भाविनो भावाः '
जो भावी भाव है. उसे जगत में कोई टाल ही नहीं सकता. अगर टालने की हिम्मत होती तो राम को वनवास जाने की जरूरत नहीं पड़ती. कृष्ण को युद्ध करने की जरूरत न पड़ती. जुए के अन्दर पाण्डवों की यह दशा नहीं होती. यहां तो आपको कर्म की प्रधानता को मान कर ही चलना पड़ेगा.
वह व्यक्ति धर्म की प्यास लेकर आया था कि महाराज मुझे आप धर्म समझाइए. धर्म क्या है ? महाराज ने कहा सर्वप्रथम जीवन का धर्म वहीं से प्रारम्भ होता है जो दूसरों के लिए जीना सीखे, दूसरों के लिए मरना सीखे. महाराज मैं समझ नहीं पाया, जरा स्पष्ट करिए.
दूसरी आत्माओं को जीवन दान देना जगत् का सबसे बड़ा पुण्य कार्य है. महाभारत के शांतिपर्व में योगेश्वर कृष्ण ने कहा है:
"यो दद्यात् काञ्चनमेरुं सकलांचैव वसुंधराम् । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥
ये श्रीकृष्ण के शब्द हैं. कहा कि युधिष्ठर याद रखना - सारी पृथ्वी का दान करने वाला कोई दानेश्वर भी आ जाए. शायद कर्ण जैसा कोई दानेश्वर ही पैदा हो जाए. मेरु पर्वत जितना सोने का रोज़ दान करने वाला हो परन्तु एक जीव को बचाने वाला उससे अधिक पुण्य उपार्जित करता है. अभयदान का इतना बड़ा मूल्य है.
किसी आत्मा को जीवन दान देना सर्वश्रेष्ठ धर्म है.
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गुरुवाणी:
"दाणाण सेट्टं अभयप्पयाणं”
भगवान महावीर के शब्द हैं. जगत् में सबसे बड़ा दान अभयदान है अर्थात् किसी आत्मा को जीवन दान देना. भगवान महावीर ने कहा, "जीओ और जीने दो" और इससे भी आगे बढ़ कर कहा कि दूसरों के जीवन के लिए तुम अपना जीवन बलिदान करो. खाओ और खिलाओ. महावीर का आदर्श है कि तुम भूखे रह कर भी दूसरों को खिलाओ. स्वयं सहन करके जगत् की आत्माओं को शांति प्रदान करो. यह हमारे धर्म का सिद्धान्त है.
उस व्यक्ति ने कहा कि भगवन् आज से मांसाहार का त्याग किसी जीव को मैं दुःखी नहीं करूंगा और आपने जो आदर्श दिया, कभी अगर प्रसंग आया तो प्राण देकर भी दूसरों को बचाऊंगा, यह मैं प्रतिज्ञा करता हूं उसने यह तत्काल संकल्प कर लिया.
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एक दिन और एक रात्रि के परिचय का इतना बड़ा परिवर्तन सुबह के समय महाराज विहार करके गए. चातुर्मास का समय आया. यही श्रावण महीना और बिहार में भयंकर बारिश हुई, जहां महाराज गए थे, वहाँ भयंकर बारिश. रात्रि का समय, बाढ़ आई, नाला टूट गया, रेलवे लाइन नम गई. वह टूटने की आवाज आने से वह एकदम जगकर झोंपड़ी से बाहर जाकर झांकता है तो देखा कि रेलवे लाइन नम गई, क्रेक हो गयी. घबरा गया, बिजली की चमक में उसने देखा कि रेलवे लाइन टूटी हुई और थोड़े समय में ट्रेन आने वाली है. बरसों से रहता था, सभी गाड़ियों का समय अन्दाज से उसको मालूम था, उसने अनुमान लगाया कि हज़ारों निर्दोष व्यक्ति इससे मर जाएंगे. क्या मैं तमाशा देखता रहूं, अरे, उस साधु पुरुष कहा है कि मर कर के दूसरों को जीवन दो.
मैं जाकर गाड़ी को बचाऊं. घर में परिवार के किसी भी व्यक्ति को नहीं जगाया. उसने सोचा क्या पता मेरे कार्य में रुकावट करें. गरीब व्यक्ति था एक ही धोती थी. उसी की मशाल बनाई, खाने का सारा तेल उसमें डाला. मशाल बना कर के रेलवे • लाइन के पास चलता बना. यह नहीं सोचा मेरे बच्चों का क्या होगा. पुण्य कार्य का आनन्द ऐसा था कि सारा दर्द उसके नीचे दब गया. कितनी प्रसन्नता थी उसको ? यह आज कैसा सुन्दर • मौका मिला ? गुरु महाराज के वचन को आज मैं साकार करने जा रहा हूं. मशाल लेकर वह रेलवे लाइन के किनारे-किनारे दौड़ने लग गया. रास्ते में सोचा स्टेशन तो बहुत दूर है और वहां तक पहुंच नहीं पाऊंगा उसने सोचा कि साइड में दौड़ता हूं तो गाड़ी नहीं रुकेगी, गलत समझ लेंगे. ड्राईवर सोचेगा कोई बदमाश या डाकू गाड़ी लूटने के इरादे से आया है.
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अंग्रेज़ों का टाइम था. आन्दोलन भी चल रहा था. ड्राइवर कहीं गलत न सोच ले इसलिए उस व्यक्ति ने विचार बदला और दोनों रेलवे लाइनों के बीच में दौड़ना शुरू किया कि मैं कट जाऊंगा, ट्रेन रुक जाएगी. पंचनामा होगा, लोग इक्ट्ठे होंगे और ट्रेन
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-गुरुवाणी
रुकने से उनको मालूम पड़ जाएगा कि वास्तविकता क्या है – सामने रेलवे लाइन टूटी हुई है. हजारों आदमी बच जाएंगे. मैं अकेला मरू, इसमें क्या. बहुत बड़ा लाभ है इसमें तो. यह तो लाभ का सौदा है.
मन में ऐसा सोचकर लाइन के बीचों-बीच चलने लगा. प्रसन्नता बड़ी प्रबल थी. सामने से ट्रेन आ रही थी. गाड़ी ने सीटी दी रेल चालक ने बहुत बचाने की कोशिश की परन्तु इसको मालूम ही नहीं कि मेरी मौत की पुकार है. इसे नहीं मालूम कि सामने से मौत आ रही है. अपनी धुन में वह इतना आनन्द में डूबा हुआ था. दौड़ता हुआ जा रहा था परन्तु योग की परिभाषा में कहा जाता है: “मेण्टल टेलीपैथी” आप यदि किसी के लिए अच्छा सोचते हैं या विचारते हैं तो वे विचार सामने वाले के हृदय पर, दिल और दिमाग पर असर करते हैं. यह इलेक्ट्रोनिक सिस्टम है कि परमाणु सामने वाले के हृदय पर निश्चित असर करेगा. इसीलिए अपनी प्रार्थना में सदविचार रखते हैं ताकि सभी आत्माओं में मेरे लिए सद्भाव उत्पन्न हो, प्रेम का संचार हो.
उसकी बचाने की भावना कितनी सुन्दर थी. यही “मेण्टल टेलीपैथी" काम कर गई. इसने ड्राइवर के अन्दर एक ऐसा विचार पैदा कर दिया कि गाड़ी तो मेरे कण्ट्रोल में है. बहुत बरसात होने से गाड़ी धीमी थी. यह बेचारा मर जाएगा, किसी का घर उजड़ जाएगा. कोई विधवा बन जाएगी, बच्चे अनाथ हो जाएंगे, मैं इसको बचा लूं. यहां बचाने की भावना, ड्राइवर के अन्दर भी बचाने की भावना को जन्म देती है. उसने गाड़ी को कण्ट्रोल में लेना शुरू किया, ब्रेक लगाया. दस-बीस मीटर के फासले पर गाड़ी रुक गई और जैसे ही गाड़ी रोकी और ड्राइवर गुस्से में उतरा. एक तमाचा लगाया और कहा कि मूर्ख, तुझे जेल भेज दूंगा. इस तरह रास्ते में मरने के लिए आया. बहुत जगह है मरने की. ___वह व्यक्ति हाथ जोड़कर, बड़ी नम्रता से कहता है - बाबू! आप गलत समझ लिए है. मैं आपको बचाने की भावना से आया था. इस गरीब के पास सिवाय शरीर के दूसरा कोई साधन नहीं. मैने सोचा आपको कैसे बताऊं. इसलिए मैंने निर्णय किया कि मैं मर जाऊंगा और आप सब बच जाएंगे. इस प्रकार हज़ारों व्यक्ति गाड़ी में बच जाएंगे. सबका आशीर्वाद मिलेगा. मेरे जीवन का पाप धुल जाएगा. गुरु महाराज का जो आशीर्वाद था, वचन था वह फलीभूत हो जाएगा. मैं निष्पाप बनने के लिए आया था और मर कर के आपको बचाने के लिए आया था, संयोग कि आपने मुझे बचा लिया.
ड्राइवर सुन कर के विचार में पड़ गया – क्या बात करते हो? कि बाबू जी इस गरीब की झोंपड़ी के सामने जो रेलवे लाइन है वहां एक नाला है, बहुत ज्यादा पानी आने से बाढ के कारण, वह एकदम नम गया. ट गया. मैं घबरा गया. विचार में पड़ गया कि हज़ारों व्यक्ति निर्दोष मर जाएंगे. मैं कैसे उनको बचाऊं. बस बाबू जी! इसी भावना से मैं मशाल लेकर के आया था. मैं गलत आदमी नहीं हूं और यदि आपको विश्वास न हो तो आप स्वयं चलकर देख लें.
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गुरुवाणी
गार्ड और ड्राईवर आए और जब झांक कर के देखा तो पांव धंसने लग गये. उसके पांव में गिर गए. तू देवदूत है. तू नहीं होता तो आज यहां पर एक भी जीव न बचता. उसको गाड़ी में बिठाकर ड्राइवर ने गाड़ी पीछे कर ली. जब स्टेशन पर गाड़ी वापिस लौटकर आयी तो यात्रियों ने जाकर पूछा कि बात क्या है ?
ड्राइवर और गार्ड ने कहा कि एक ऐसा देव पुरुष है जिसका जा कर तुम दर्शन करो, जिसकी कृपा से तुमको यह जीवन मिला, नया जन्म मिला. मौत के मुंह में से तुम निकल कर के आए. इस पुण्यशाली आत्मा का दर्शन करो. यात्री उतर गए.
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वह बेचारा सीधा-सादा लंगोटी पहने हुए खड़ा था. पढ़ा-लिखा भी नहीं था. सद्भावना से लोग आए. जब उन्हें सच्चाई मालूम पड़ी, पर्स निकाला, किसी ने अंगूठी निकाली, किसी ने चेन निकाली, किसी ने घड़ी निकाली जो जिसके पास था, इसके उपकार को याद करने के लिए दे डाला. इसकी कृपा से यह नया जीवन मिला. इसका मान और सम्मान किया जाये. वह बोल नहीं पाया और अन्तिम समय उसने कहा कि बाबू जी, मेहरबानी करके क्षमा करो मेरा धर्म मुझे बेचना नहीं है. मेरे पुण्य को कलंक नहीं लगाना है. यह तो मेरे गुरु का वचन था जिसका कि मैंने पालन किया. यह तो मुझे अपनी आत्मा के लिए करना था. मुझे इन पैसों से बेचना नहीं.
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गरीब की ईमानदारी देखी ? उसके धर्म की प्रामाणिकता आपने देखी ? उसने कोई सौदा नहीं किया "गिव एण्ड टेक" की भावना नहीं कि मैं कुछ देता हूं तो लूं - ऐसी कोई भावना नहीं. कुछ भी नहीं लिया और कहा कि जिसकी जो चीज़ है, वापिस ले जाए. मुझे कुछ नहीं चाहिए. बाबू जी माफ करो. मेरा धर्म मुझे बेचना नहीं. मेरे जीवन को कलंकित नहीं करना है. मेरी प्रसन्नता आप नष्ट मत करो.
न माला पहनी, न तिलक लगाया, न साफा पहना, न अभिनंदन-पत्र लिया. न ही किसी का धन्यवाद लिया. जैसे उसने कुछ किया ही नहीं. उसने अपने कर्त्तव्य का पालन किया. गुरु का आदेश था जो मुझे करना था, मैंने किया. बड़ी नम्रता से, बड़ी सहजता से किया. उसने सबको धन्यवाद दिया और वह वापिस चला गया. कहां गया, यह नहीं मालूम.
बड़ी खोज हुई, और वहां के ईस्टर्न रेलवे के जनरल मैनेजर को कलकत्ता से बुलाया गया. मालूम तो आखिर पड़ा, पुलिया के पास ही एक झोंपड़ी थी. बुलाकर के जनरल मैनेजर ने एक प्रश्न किया कि हमारे जैसे पढ़े-लिखे और शिक्षित व्यक्तियों में भी ऐसे विचार नहीं आते, ऐसी परोपकार भावना नहीं आती. तुम्हारे जैसा अशिक्षित व्यक्ति, अंगूठाछाप इंसान, यह इतना सुन्दर भाव तुम्हारे अन्दर कैसे आया?
वह कहता है कि एक रात्रि एक जैन सन्त पैदल चलने वाले आए थे. शाम पड़ गई थी. उन्होंने हमारी झोंपड़ी को पावन किया. मैंने उनका सत्संग किया. उनकी कृपा का
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गुरुवाणी
परिणाम है. यह सारा पुण्य कार्य उस महापुरुष की कृपा की ही परिणति है और मैंने तो जो पुण्य का फल था, वह भी गुरुचरणों में अर्पित कर दिया. भगवन्, मुझे कुछ नहीं चाहिए.
वह बड़े विचार में पड़ गया. जो सम्मान करना था, रेलवे ने किया. मुझे तो आपसे बस इतना ही कहना था कि वह एक रात्रि का संत परिचय और कितना बड़ा जीवन का परिवर्तन. यहां एक सौ बीस दिन, चार महीने का मेरा आपका परिचय होगा और मैं देखता हूं कि कितना परिवर्तन आता है?
मुझे और कुछ नहीं चाहिए, प्रवचन के द्वारा आपके जीवन का परिवर्तन चाहिए. आप अपनी पवित्रता प्राप्त करें. अपने आचरण में सक्रिय बनें. अपने धर्म को क्रियात्मक रूप दें. जीवन में ऐसे सक्रिय बनें कि जीवन का सुगन्ध दूसरे व्यक्ति तक पहुंच जाये. लोग आपके गणों से आकर्षित हों. आपके कार्य से उस आत्मा को प्रेरणा मिले. मैं केवल आपसे यही चाहता हूं, और मेरी कोई अपेक्षा नहीं. मुझे पैसा नहीं चाहिए, आपकी पवित्रता चाहिए. पैसे से कोई मतलब नहीं, वह भौतिक सम्पदा है. मैं तो आपकी आत्मा की तरफ देखता हूं कि आपकी आत्मा के गुण विकसित हों और आगे भविष्य में चलकर के आपकी आत्मा परमात्मा के लिए प्रिय बने. अन्दर का द्वार खुल जाए, भेद की दीवार टूट जाए. जगत् के साथ मैत्री और प्रेम का संबंध कायम हो जाए. जो कृष्ण का वाक्य है, वह हमारे जीवन में साकार बन जाय
वसुधैव कुटुम्बकम् सारा जगत्, प्राणिमात्र मेरा कुटुम्ब है. सभी मेरे परिवार के सदस्य हैं - हृदय की यह भावना विकसित होनी चाहिए और वह मैं देखना चाहता हूं. आज की जो परिस्थिति है, उस पर मैंने अभी विचार नहीं किया. आगे इस पर विचार करेंगे कि कैसी दर्दनाक आज की परिस्थिति है. कितना खतरा है, इंसान को इंसान से. कैसी परिस्थिति में हम जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
सारा संसार अराजकता से घिरा हुआ है. हर व्यक्ति दुःख और दर्द से पीड़ित है. किसी भी आत्मा के चेहरे पर प्रसन्नता नहीं है. चित्त की प्रसन्नता का यह दुष्काल कैसे आया? हमारे चारित्र्य में यह कलंक कैसे लगा? हमारे आचरण में यह निष्क्रियता कैसे आयी? इन सारी बातों पर आगे विचार करेंगे कि इसका उपचार कैसे किया जाए. यह भयंकर बीमारी है. इससे बचने का उपाय कैसे खोजा जाए.
ध्यान की प्रक्रिया में आपको मैं बताऊंगा कि ध्यान कैसे करना, जाप कैसे करना. बहुत सारे व्यक्तियों को मालूम नहीं कि ध्यान अथवा जाप कैसे करना चाहिए. इसके अन्दर क्या करना चाहिए.
अगर मन स्थिर नहीं रहता है, चंचल रहता है तो ध्यान की थोड़ी-सी भूमिका आपको समझा दूं कि कैसे करें. कई बार लोग माला गिना करते हैं, गले में माला पड़ी रहती
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%3DगुरुवाणीD
है. माला किस तरह से फेरना, यह भी विवेक उन्हें नहीं होता. जाप करते समय तीन बातों का विशेष ध्यान देना है.
एक तो समय निश्चित होना चाहिए. जब भी आप मन्त्र जाप करें मनोवैज्ञानिक दष्टि से समय का निश्चित होना बड़ा महत्त्वपूर्ण है. आपको सुबह चाय के समय चाय की याद आ जाती है, चाय का टाइम हो गया. दोपहर को तीन बजते ही उबासी आने लगती है, मालूम पड़ जाता है कि अब मुझे चाय पीनी है. खाने के समय खाना याद आ जाता है, बिना घड़ी देखे मालूम पड़ जाता है कि मेरे खाने का समय हुआ. इसी तरह से यदि आपने जाप का समय निश्चित कर लिया तो बिना कहे आपको मालूम पड़ जाएगा. अन्दर से स्वयं आवाज़ आएगी कि अब जाप का समय हो गया है, मुझे जाप पर बैठना है. आदत पड़ जाएगी. आदत डालने के लिए निश्चित समय चाहिए. जहां आप बैठते हैं, वही स्थान होना चाहिए, स्थान परिवर्तन नहीं. करना क्योंकि जिस स्थान पर आप जाप करेंगे, आपके विचार-परमाणु वहां ऐसा वातावरण बना देते हैं कि आप के जाते ही वे परमाणु आपके मन को स्थिर करने में सहायक हो जाते हैं.
आप रात्रि में जहां सोते हैं, अगर उसी कमरे में आप सोने के लिए जाएं तो वहां के परमाणु ऐसा वातावरण निर्मित कर देते हैं कि जाते ही आपको निद्रा आने लगेगी परन्तु यदि आप दूसरी जगह सोएं, किसी दिन तीसरी जगह सोएं तो वातावरण निर्माण करने में समय चला जाएगा और आपको जल्दी नींद नहीं आएगी, मन बैचेन हो जाएगा.
इसीलिए जाप जहां पर करते हों, उसी स्थान पर करें. वहां का वातावरण ऐसा निर्माण हो जाएगा, आप जाकर बैठे और आपके मन के अन्दर वह वातावरण असर करेगा. जाप में, मन को स्थिर करने में, वह वातावरण, आपको सहयोग देगा. स्थान निश्चित होना चाहिए, समय निश्चित होना चाहिए. जाप की संख्या निश्चित होनी चाहिए. एक माला गिने, कल दस माला गिने फिर एक माला गिने. फिर दोष देते हैं माला को, ऐसा नहीं होना चाहिए. कई लोग कहा करते हैं -
- "माला तो मन की भली और सब काष्ठ का भार" क्या लकड़ी का भार उठा कर के चलना, कोई मतलब नहीं? माला ने जवाब दिया कि आप मुझे क्यों बदनाम करते हैं.
"माला तो भली काष्ठ की, बीच में बोया सूत,
माला बेचारी क्या करे, जपने वाला कपूत." उस जपने वाले का ठिकाना नहीं, आप मुझे क्यों बदनाम करते हैं. अरे मैं तो निर्दोष हूं. हरेक की धर्म साधना में सहायक बनने वाली हूं माला हमेशा नाक और नाभि के बीच में होनी चाहिए. जब भी आप घर में अपने इष्ट का जाप करें, तो उस समय माला की मुद्रा नाक और नाभि के बीच में होनी चाहिए. नाभि से नीचे माला नहीं जानी चाहिए.. नाक से ऊपर माला नहीं जानी चाहिए. इसका यह शास्त्रीय प्रमाण है और जब भी माला
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गुरुवाणी
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गिनते हों, उसमें तीन प्रकार के जाप हैं - मानसिक जाप भी कर सकते हैं. पुकार कर के भी जाप कर सकते हैं. मन्त्रोचार के द्वारा और उपासिका जाप भी कर सकते हैं. ___ अनुष्ठान करते समय मन का जाप करना ज्यादा श्रेष्ठ है. मन की एकाग्रता के लिए, मन के अन्दर, मानसिक जाप करें. जाप जिस समय कर रहे हों दिशा पूर्व या पश्चिम होनी चाहिए, उत्तर और दक्षिण नहीं. क्योंकि ध्रुव का आकर्षण ऐसा है कि उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव मन को चंचल कर उसमें अस्थिरता पैदा करते हैं. अतः पूर्व और पश्चिम की दिशा में बैठने से मन स्थिर रहता है. - इसीलिए जाप में और शुभ कार्यों में दो दिशाओं को शुद्ध माना गया है. इसमें आपको मानसिक चंचलता कम आएगी. ___ अतः जाप निश्चित हो, जाप की संख्या निश्चित हो. एक माला तो एक माला, पांच माला तो पांच माला. साथ में स्थान निश्चित हो. समय निश्चित हो, फिर आप जाप करिए आपको बड़ा आनन्द आएगा.
कई बार लोग मेरे पास आते हैं, कहते हैं कि मन चंचल बनता है. मन का स्वभाव है. णमोकार का मन्त्र आप गिनते हैं, गायत्री मन्त्र गिनते हैं और मैं कहता है कि यदि आप उसको पश्चिम से पूर्व की तरफ गिने - मन एकाग्र रहेगा. णमो से हवई मंगलम् तक आप गिनते हैं. आपको मन को स्थिर रखना है तो हवई मंगलम से शुरू करके णमो तक की यात्रा आप करें. आप देखिए मन कैसा स्थिर रहता है. पूरी तरह स्थिर हो जाएगा.
अभी तो आपने मन को समझाया नहीं. जिस दिन आप मन को समझा देंगे मन मान जाएगा. मफतलाल एक दिन किसी महाराज के पास शिकायत लेकर के आए और कहा कि महाराज - मन स्थिर नहीं रहता है, बड़ा चंचल है, बड़ा इधर-उधर घूमता है, कहां-कहां भटकता है और आप कहते हैं कि मन स्थिर रहता है. मैं मानने को तैयार नहीं, कोई भी तर्क मैं मानने को तैयार नहीं हैं.
राज-दरबार में महाराज बैठे थे. राजा के सामने सेठ मफतलाल ने यह प्रार्थना की कि साधु-सन्त बेकार की बात करते हैं, मन कभी स्थिर रहता है? उसका स्वभाव तो बड़ा चंचल है. महाराज कुछ नहीं बोले कि ठीक है आपके प्रश्न का जवाब आज, नहीं एक-दो दिन बाद देंगे.
राजा के कान में महाराज ने एक बात बतला दी. मन को कैसे स्थिर रखना यह उपाय बतला दिया. महाराज ने पूरे गांव के अन्दर डिण्डोरा पिटवा दिया कि बहुत कीमती, बड़ा मूल्यवान, मेरा हार चोरी हो गया और घर-घर की तलाशी ली जाएगी.
संयोग, घर की तलाशी लेते समय सेठ मफतलाल के घर से हार बरामद हो गया. जिसकी कभी कल्पना नहीं थी. किसी ने सोचा भी नहीं था अब मफतलाल सेठ बड़े विचार में पड़ गए, बड़ी चिन्ता में डूब गये. गिरफ्तार किया, राज-दरबार में लाकर उपस्थित
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गुरुवाणी
कर दिया. मफतलाल ने बड़ी सफाई दी कि मैं बड़ा प्रामाणिक महाजन के घर जन्मा हूं, कभी गलत काम नहीं किया. क्या पता कोई व्यक्ति मुझे बदनाम करने के लिए यह हार मेरे घर डाल गया हो.
राजा ने कहा मुझे क्या बेवकूफ बनाते हो? मजूरी खुद करे और नफा तुमको दे जाए एसा कोई आदमी मिलेगा जो इतना खतरा लेकर के, इतना कीमती हार मेरे राजमहल से चुरा ले जाए. और तुम्हारे यहां डाल आये - ऐसा कभी नहीं होता है. तुम गलत बात करते हो, तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं, तुम्हें सजा मिलेगी.
वहां तो मौखिक कानून था, राजा ने सज़ा दे दी, सजा-ए मौत. इसको फांसी की सजा दे दी जाए. हमारे राजदरबार में आने वाला, दरबारियों के साथ बैठने वाला, एक प्रतिष्ठित परिवार का सदस्य होकर, इतना गलत काम इस व्यक्ति ने किया है,
मफतलाल को काटो तो खून न निकले, उसकी ऐसी दशा हो गई.
महाराज पास में ही बैठे थे, महाराज से निवेदन किया, याचना की कि राजन्! एक सामान्य गलती के लिए इतनी कठोर सजा नहीं देनी चाहिए. महाराज ने कहा-इसने ऐसा कार्य किया. साधु का राजा पर बड़ा प्रभाव था. साधु ने दया की याचना की और कहा कि राजन्, मेरी बात आप मान लें. मैंने कभी आपसे कोई निवेदन नहीं किया, मेरी बात मान कर के आप इसे क्षमा दान दे दीजिए.
राजा ने कहा कि ठीक है, साधु पुरुषों के वचन का अनादर तो नहीं किया जा सकता आप कहते हैं तो इसको क्षमा कर सकता हूं पर एक शर्त - तेल से भरा हुआ एक पात्र इसके हाथ में दूंगा और यह अपने घर से मेरे राजमहल तक आए. एक बूंद भी तेल रास्ते में नहीं गिरना चाहिए फिर मैं इसे क्षमा कर दूंगा. लेकिन इसने जरा भी तेल रास्ते में गिरा दिया तो दो चौकीदार, पहरेदार इसके साथ चलेंगे और इसकी गर्दन उड़ा दी जाएगी.
मफतलाल ने सोचा कि अब प्राण ही जा रहा है तो उसमें कछ तो बचाव का रास्ता है - डूबते हुए आदमी को तिनके का भी सहारा मिल जाए तो धन्यवाद है. शर्त स्वीकार कर ली. सब लोग मफतलाल के घर तमाशा देखने आए. ऐसा तमाशा कौन नहीं देखना चाहता. पूरा शहर उलट गया, नगर के अन्दर रास्ते में भीड़ इकट्ठी हो गई. मौत का जलसा देखने के लिए विशाल जन समुदाय उमड़ पड़ा.
एक दम पूरा तेल से भरा हुआ भगोना, उसके हाथ में दे दिया. आगे ढोल बज रहा है, बैण्ड बज रहा है, शहनाई बज रही है. लोग नाच रहे हैं, कई गीत गा रहे हैं क्योंकि राज-दरबार की ओर से आयोजन था कि भीड़ भड़क्के में इसको भुला देना है. इसके हाथ से तेल निकल जाए, ऐसा प्रयत्न करना है. पीछे दो चौकीदार नंगी तलवार लेकर चल रहे थे. एक बूंद भी तेल रास्ते में गिर गई, छलक गई तो गर्दन अलग. ___ अब मफतलाल दोनों हाथों से भगोना पकड़ कर के रास्ते में चलने लग गए. ढोल और नगाडे बज रहे हैं, शहनाई बज रही है. पूरे गांव के लोग तमाशा देखने के लिए
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गुरुवाणी
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उपस्थित हैं. पीछे से नंगी तलवार है. मफतलाल घर से निकले, सवारी निकली उनकी, मौत की सवारी और वह चलते-चलते-चलते राज-दरबार तक आ गया. पूरे रास्ते में एक बूंद भी बाहर नहीं गिरा. कैसा संतुलन!
क्षमा कर दिया गया. राज-दरबार में लाकर के पेश किया. मफतलाल ने निवेदन किया कि महाराज आपके आदेश के अनुसार कार्य तो किया परन्तु एक बूंद तेल बाहर नहीं आया. साधु महाराज वहीं पर बैठे थे और उन्होंने मफतलाल को कहा कि मफतलाल घर से राज दरबार तक आप आए तो आपका मन कहां भटकता था?
महाराज, वह तो तपेले में ही था.
सारा तर्क खत्म हो गया. मफतलाल का पुछना बन्द हो गया. मन चंचल है – कैसे एकाग्रता आ गई? झांक करके देखा भी नहीं कि बाहर क्या हो रहा है. लोग नाच रहे हैं, गा रहे हैं.
उसने कहा कि मझे तो तपेले में मौत नजर आ रही थी. वहीं देख रहा था, पीछे नंगी तलवार की चिन्ता थी महाराज. मैंने और कुछ नहीं देखा, मेरा मन इसी में रहा.
तात्पर्य यह है कि जिस दिन आप मन को समझा लेंगे, चेतावनी दे देंगे कि जो तू इकट्ठा कर रहा है, तुझे छोड़ना होगा. जो तूने पाया है तुझे खोना है. एक दिन तू यहां से जाएगा. एक बार उसे मौत का परिचय दे दें, जगत् की अनित्यता का परिचय दे दें. मन सहज और सरल बन जाएगा और वह कभी तफान नहीं करेगा. मन को समझाया नहीं गया. ईश्वर की उपासना कैसे करनी, थोड़ा सा उपाय मैंने आपको बतलाया. बाद में मैं आपको इसका पूरा उपाय बतलाऊंगा कि किस तरह से जीवन में सुन्दर आराधना करें.
"सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्"
प्रेम के माध्यम से जीवन की शुद्धता को प्राप्त करो, जीवन को मन्दिर जैसा पवित्र बना दो, अपनी वाणी में इतनी मिठास भर दो कि उसे सुनने वाला प्रेम के बन्धन में बन्ध जाय.
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शा
ध्यान और साधना में मन की एकाग्रता
परमात्मा महावीर ने जीव मात्र के कल्याण के लिए अपने धर्म प्रवचन के द्वारा जगत् पर सबसे बड़ा उपकार किया है. दीर्घकाल की साधना के बाद परमात्मा को जो उपलब्धि प्राप्त हुई उसे सारे जगत् के कल्याण के लिए प्रवचन के माध्यम से प्रदान किया है. साधना के द्वारा किस प्रकार अन्तशुद्धि प्राप्त की जाए, किस प्रकार प्रवचन के द्वारा जीवन की पवित्रता को प्राप्त किया जाए और प्रवचन के मार्गदर्शन से जीवन की पूर्णता प्राप्त हो. यह सारी जानकारी प्रवचन श्रवण से प्राप्त होती है. __श्रवण साधना का एक प्रकार है. जन्मजन्मान्तर की गन्दगी से आलिप्त हूँ. धीरे-धीरे मलीनता मिटाने का यदि हम प्रयास करें तो सफलता निश्चित है. तीन-चार दिनों से यही चिन्तन करते हुए चले आ रहे हैं. बाहर के जगत् से अन्तर्जगत में हम प्रवेश करें, जगत् को नहीं पहले अपने आप को देखने का प्रयास करें, जिसमें चित्त-वृत्तियों का शुद्धीकरण हो, ऐसी सरल साधना में हम प्रवेश करें. साधना के प्रकार को समझें और परमात्म तत्व से सुन्दर विचारों को जीवन में हम सक्रिय बनायें. परमात्मा के विचारों को अपने आचार से प्रकट करें. मैं क्या जानता हूं? यह जानकारी अपने शब्दों से नहीं, अपने आचरण से प्रकट करें और जिस दिन इस विषय में सक्रिय हो जाएंगे, धर्म साधना का अनुभव और उसकी अनुभूति सहज में प्राप्त करने लगेंगे.
सर्वप्रथम यही चिन्तन करना है, कि हम जा कहां रहे हैं? हमारी दिशा निश्चित नहीं हैं, हमारे जीवन का कोई ध्येय या लक्ष्य निश्चित नहीं है. यदि मैं आपसे पूछे कि आप कहां जा रहे हैं? कोई निश्चित नहीं. लक्ष्य की अज्ञानतावश भटक रहे हैं.
चलने और भटकने में बहुत अन्तर है. हम संसार में भटकने के लिए नहीं आये, चलने के लिए आए हैं. जीवन की यात्रा का पूर्णविराम चाहिए. कहां तक इस संसार में हम श्रम करेंगे? कहां तक श्रम के द्वारा इस जीवन में संघर्ष उत्पन्न करेंगे, मुझे विश्रान्ति चाहिए, विराम चाहिए. संसार का विसर्जन चाहिए.
जिस दिन अपनी आत्मा को संसार से शून्य बना लेंगे, उस दिन से आत्मा के गुण सक्रिय बन जायेंगे, आत्मा के समस्त गुण जागृत हो जाएंगे. मूर्छित अवस्था से जागृत में आ जाएंगे और वह जागृति भविष्य में आपके जीवन को पूर्णता प्रदान करेगी. जीवन में जागृति पहले चाहिए. नींद नहीं, जागृत दशा में श्रवण करना है. उपयोग और विवेक की जागृत दशा में, यदि परमात्मा के वचन का पान किया जाए तो वह अमृतपान, विषय और कषाय के जहर का सर्वनाश कर देता है.
क्रोध कषाय को जहर की उपमा दी गई है. उसी जहर से अन्तरात
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गुरुवाणी
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जिसके विध्वंस पर ही समत्व का सृजन संभव है. समत्व सृजन के लिए अपनी गलतियों की स्वीकृति प्रथम सोपान है.
स्वीकृति की कला यदि आ जाए. समर्पण सहज में आयेगा और एक बार यदि समर्पण की भूमिका आपने प्राप्त कर ली तो आत्मा के गुणों का सर्जन प्रारम्भ हो जाएगा. स्वीकार की भूमिका चाहिए. हमारी आदत है कि हम भूल की वकालत करते हैं. परमात्मा ने कहा कि भूल के बाद पश्चाताप होना चाहिए. वही उसकी औषधि है. भूल बीमारी है, रोग है
और उसका उपचार है प्रायश्चित. पश्चाताप का आंसू आना चाहिए. ___जीवात्मा अनादि काल के ये संस्कार लेकर के आई है. कदाचित् प्रमादवश भूल हो जाए, हम स्वीकार करें. भविष्य में ऐसा न हो, इसका संकल्प करें. जो प्रमाद से भूल हो चकी, उसके लिए हृदय के अन्दर दर्द पैदा हो. तो आप सही मार्ग पर चल रहे हैं. उन भूलों को जानने का प्रयास करें. भूल को स्वीकार कर पश्चाताप के द्वारा उसका शुद्धीकरण कर लेना सम्यक विचार, सम्यक दर्शन है. भूलों को अलग-अलग दृष्टिकोणों से जान लेना सम्यग्ज्ञान है और भूलों से आत्मा को निवृत्त कर लेना, उसका संकल्प करना सम्यक्चारित्र और सम्यक आचरण है. पहले आपको अपनी दिशा लक्ष्य निश्चित करनी होगी. भगवान ने कहा है:
"सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः" सम्यक श्रद्धा हो, विशुद्ध ज्ञान हो. निर्मल चारित्र्य हो, वही मोक्ष का राजमार्ग है. अन्ध श्रद्धा से मुक्त बनना पड़ेगा. इन्द्रियों की वासनाओं से आपको मुक्त बनाना पड़ेगा, तब सम्यग्दर्शन की विशुद्धता मिलेगी. परमात्मा के प्रति निष्ठा आनी चाहिए.
आपकी निष्ठा, सम्यग्दर्शन, धर्म इमारत की आधारशिला है. श्रद्धा उस आधारशिला का पत्थर है. दृढ़ संकल्प करना है. परमेश्वर के प्रति पूर्णतया जीवन को समर्पित कर देना है. भूल का प्रवेश द्वार बन्द हो जाए. परमात्मा के समर्पण का यह चमत्कार है, पहले आपको निष्ठा प्राप्त करनी पड़ेगी. परमात्मा को छोड़ कर के और कहीं नहीं जाना है. उस परमेश्वर को, जो परिपूर्ण है, पूर्ण समत्व की भूमिका है, जो पूर्ण वीतराग दशा के अन्दर है, जहां राग और द्वेष का सर्वथा अभाव है, ऐसी परिपूर्ण आत्मा को ही अपना सर्वस्व अर्पण करना है, फिर चाहे वह किसी भी धर्म से संबंधित हो.. ___कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि जी महाराज गुजरात के महान् सम्राट् महाराजा सिद्धराज की विनती से, उन्हीं के आग्रह से सोमनाथ के मन्दिर में गए. एक शिवोपासक पंडितजी मिले. उन्होंने कहा, महादेव की स्तुति आपके द्वारा हो. सोमनाथ देव की ऐसी अपूर्व स्तुति की, महादेवस्रोत्र की रचना की. सर्वप्रथम महादेव शब्द का परिचय दिया. परिभाषा बताई की महादेव किसे कहा जाता है:
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-गुरुवाणी
भवबीजाङ्कुर जननाः रागाद्याः क्षय मुपागता यस्य
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै।" महादेव की स्तुति के प्रथम श्लोक में उन्होंने कहा जिसके भव रूपी अंकुर नष्ट हो गए, भूल की परम्परा का विसर्जन हो गया, संसार का पूर्णविराम जिन्होंने प्राप्त कर लिया, राग और द्वेष सर्वथा क्षय हो गए, जहां इस प्रकार की पूर्णता हो, संपूर्ण दोष मुक्त आत्मा हो. जिन्हें फिर आप चाहे राम के नाम से पुकारे, महावीर के नाम से पुकारे, कष्ण के नाम से पुकारें, हरि कहें, शंकर कहें, कोई आपत्ति नहीं. किसी भी नाम से आप पुकारें जगत् के वे महादेव हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं.
अनेकान्त दष्टि से कैसा अपर्व चिन्तन, जगत को दिया कि सम्पूर्ण साम्प्रदायिक द्वेष खत्म हो जाए. हमारी आत्मा के बीच में जो दीवार है, वह दीवार टूट कर के, दरवाजा बन जाये. यदि एक बार यह निष्ठा आ जाए, परमात्मा के प्रति आप प्रामाणिक बन जायें तो यह जीवन ज्योर्तिमय बन जाए, प्रकाशमय बन जाये. परन्तु आज तक हमनें शब्दों को पकड़ा, धर्मग्रन्थों के अन्दर मात्र शब्दों को देखा. आज तक उसकी आत्मा का स्पर्श नहीं किया. उसके प्राणों को छूने का प्रयास तक नहीं किया. उन महापुरुषों ने किस भावना से शब्दों को जन्म दिया है, उनके शब्दों का रहस्य क्या है? उन शब्दों का जरा विश्लेषण कीजिए. गहराई में जा कर के शब्दों की आत्माओं का स्पर्श करिए. अब उसके भावों को समझ लेंगे, अन्तर्भावों की शद्धि हो जाएगी. हमने शब्दों के शरीर को पकड़ा और यही कारण है कि साम्प्रदायिक द्वेष में दृढ़ता आ गई, मनोभेद उत्पन्न हो गया.
कछ वर्ष पर्व धर्म प्रचार की भावना लेकर इंग्लैंड से एक पादरी आए. सेवा की उत्तम भावना लेकर आये. रास्ते में आ रहे थे तो ट्रेन में बड़े मियां साथ हो गए. बैठे-बैठे बड़े मिया को विचार आया और उन्होंने पूछा, हमारे देश में आने का आपका प्रयोजन? "लाडे क्राइस्ट" के विचारों का प्रचार करने आया हूं. कोई आपत्ति है? आपके धर्म में ऐसी कौन सी विशेषता है कि आपको वहां से यहां आना पड़ा? हिन्दुस्तान में तो इतने धर्म हैं, कि अगर यहां से निर्यात किया जाये तो भी कोई आपत्ति नहीं है.
पादरी जरा विचार में पड़ गया. नया-नया धर्म का व्यापार करने आया था. कुछ नफा मिल जाये. उनको अपनी जमात बढ़ाने से मतलब है. वहां यह प्रयोजन नहीं कि आत्मा कुछ शुद्ध बने, अलिप्त बने. जब उनसे यह पूछा कि आपके धर्म में ऐसी क्या विशेषता है कि आपको यहां आना पड़ा. उसने कहा – “लार्ड क्राइस्ट" का आदेश है - तुम्हारे गाल पर यदि कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल तुम उसके सामने कर दो. उस आत्मा को तुम बल से नहीं प्रेम से जीतो. प्रेम का सन्देश लेकर आया हूं. बाइबल का यही आदर्श है.
बड़े मियां बड़े समझदार थे. उन्होंने कहा ऐसी बातें तो मैंने बहुत सुनी हैं और पढ़ी हैं. लोग विचारों का सम्प्रेषण कर देते हैं मगर आचार में शून्य रह जाते हैं. आज के उपदेशक
ता
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: गुरुवाणी
इसी प्रकार के हैं. पंसारी की दुकान पर कभी आपने तराजू को देखा है, जो आता है उसे माल तोलकर के दे देता है, झोला भर देता है, परन्तु स्वयं खाली का खाली रहता है. हमारे आधुनिक भाषण देने वाले नेताओं का जीवन भी ऐसा ही होता है, आपूर्ति तो कर देंगे स्वयं का तराजू देखा जाए तो खाली.
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कपड़े की दुकान पर आपने मीटर देखा है, कपड़ा माप करके सारी दुनिया को श्वेताम्बर बना दे परन्तु स्वयं दिगम्बर का दिगम्बर. मीटर के ऊपर एक भी धागा या सूत आपको नहीं मिलेगा ? मात्र उपदेश देने से काम नहीं चलता. पण्डितों ने कहा
"परोपदेशे पाण्डित्य".
उपदेश देने वाले व्यक्ति बहुत मिलेंगे. आवश्यकता है कि उसे आचरण में अपनाया जाय. महावीर परमात्मा ने कहा जानकारी कभी धर्म नहीं होता, आचरण धर्म होता है. दिमाग को लाइब्रेरी मत बनाइये, उसे विचारों का गोदाम मत बनाइए. आचार से उसे प्रकट कीजिए अपने जीवन में संयम की सुगन्ध पैदा कीजिए.
पादरी विचार में पड़ गया और कहा कि यदि आप जानना चाहते हैं तो व्यावहारिक प्रयोग कर सकते हैं. वह समझ गया. पहली बार भारत में आया हूं और यहां इस तरह की समस्या आ खड़ी हुई. मैं अपनी सच्चाई प्रकट नहीं करूंगा तो समस्या पैदा हो जाएगी, 崭
झूठा हो जाऊंगा. साहस जुटाया और कहा कि आप प्रयोग कर सकते हैं.
बड़े मियां ने देखा कि बहुत दिन हो गए आज ज़रा तमाशा तो देखो. ज़ोर का एक तमाचा लगाया. पादरी बड़ा सावधान था, परीक्षा का पेपर लिख रहा था. उसने दूसरा गाल सामने कर दिया कि यह भी हाजिर है, बड़ी नम्रता से ताकि "लार्ड क्राइस्ट" का वचन असत्य न हो जाए बड़े मियां ने देखा कि लाभ से वंचित क्यों रहना, दूसरे गाल पर भी एक तमाचा लगा दिया.
दोनों गालों पर थप्पड़ खा कर के पादरी खड़ा हो गया. बड़े मियां ने देखा कि इसका आचरण तो बड़ा सुन्दर है. इतने में स्टेशन आया और गाड़ी रुक गई. पादरी ने अपना चोला उतारा, सब कुछ उतारा, उन्होंने कहा कि यह क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा कि "लार्ड क्राइस्ट" का आदेश मैंने पालन कर लिया. उनका यही आदेश था कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो. उसके बाद उनका कोई आदेश नहीं. अब तो मुझे आपसे निपटना है, ब्याज सहित वसूल करता हूं. बड़े मियां ट्रेन से उतर कर भाग गये.
शब्दों की जानकारी का यही अर्थ है. बाइबल पढा, शब्द को पकड़ लिया गया. शब्द के शरीर का परिचय हुआ परन्तु उसके रहस्य तक नहीं पहुंच पाए कि कहने का आशय क्या है ? सभी धर्मों में शब्द को पकड़ लिया गया. शब्द के शरीर तक हम पहुंच पाए और यही कारण है, हमारा जीवन आज साम्प्रदायिक द्वेष और क्रोध से भर चुका है, वह
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गुरुवाणी:
दुर्गन्धमय बन चुका है. विचारों में विकृति आ गई है. जीवन जो सर्जन के लिए मिला था, वह सर्वनाश का कारण बन गया.
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सभी महापुरुषों का एक ही प्रकार का कथन था कि अगर व्यक्ति अपने-अपने धर्म और सम्प्रदाय के अनुसार प्रामाणिक बन जाये, अपने धर्मग्रन्थों के अनुसार आचरण करें तो संसार स्वर्ग बन जाए. वह ईमानदारी हमारे अन्दर नहीं है. अपने भूतकाल के इतिहास को जब देखता हूं कि हमारी धर्मभावना जीवन में सक्रिय थी. हमारे देश का डाकू भी अपने शब्द के लिए प्राण दे देता. जो प्रमाणिकता हमारे आर्य देश के डाकुओं में थी, वह आज हमारे साहूकारों में भी नहीं है.
हमारे वर्तमान जीवन में नैतिकता का ह्रास हुआ है. हमारे अन्दर वह नैतिकता नहीं रही क्योंकि जहां धर्म होगा, वहां नैतिकता तो अवश्य मिलेगी, सदाचार के गुण अवश्य मिलेंगे.
हम राम की बातें करते हैं, मोक्ष की बातें करते हैं, महावीर की बाते करते हैं, लेकिन कभी उनके जीवन की गहराई में नहीं गए. वर्द्धमान से महावीर तक की यात्रा में कितनी रुकावटें आई, कभी देखा है ? उनके जीवन की निर्मलता कभी देखी ?
हम अपने जीवन का आदर्श, लक्ष्य भी अभी तक निर्धारित नहीं कर पाए, जीवन का लक्ष्य है, राम को प्राप्त करें, आत्मा को प्राप्त करें, परमेश्वर तक की यात्रा को प्राप्त करें. संसार में भटकने के लिए नहीं आए. मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने के लिए यात्री बन कर आए हैं. जीवन का एक ध्येय निश्चित करके आए हैं.
हम जगत् की तरफ देखते हैं, कभी स्वयं की तरफ झांककर भी नहीं देखते कि हमारी क्या दशा है. हम देखते हैं, दुनिया किधर जाती है. "वेयर एम आई गोइंग " . मालूम नहीं कि मैं कहा जा रहा हूं. दुनिया से क्या मतलब.
यह हमें
चार-पांच व्यक्ति पूना से बम्बई घूमने के लिए आए होंगे, रविवार का दिन था, दो-पांच मित्रों को साथ लेकर बम्बई घूमने के लिए निकले थे. पूरे दिन घूमते रहे, भटकते रहे, कोई लक्ष्य तो था नहीं, “"ओवर ड्रिंक्स" कर लिया. पूना से टिकट लेकर आये थे. उनको शाम की गाड़ी से वापिस पूना पहुंचना था. नशे में थे, होश नहीं था, टैक्सी मिल गई बुलाया. स्टेशन ले चलो. उसने बाम्बे सेन्ट्रल पहुँचा दिया. उन्हें बस इतना ही मालूम था कि हमें जाना है. गुजरात मेल में बैठ गए. जैसे ही पहला स्टेशन दादर आया. चेकर ने आकर कहा "प्लीज़ टिकट". उन्होंने कहा कि पूना से ही वापसी टिकट लेकर बैठा हूं. प्रथम श्रेणी का यात्री हूं. चेकर ने कहा कि महाशय जी आप गलत बैठ गए हैं. मफतलाल ने कहा क्या बात कर रहे हो, क्यों गलत चढ़ गये ? तुम गलत चढ़ गए, मैं बिल्कुल सही बैठा हूं.
यह आपको गुजरात पहुंचाएगी, पूना नहीं जाएगी.
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-गुरुवाणी:
मैं सब जानता हूं आई एम ग्रैजुएट. तुम मुझे क्या सिखाओगे, पढ़े लिखे नहीं हो.||| गलत ट्रेन में चढ़ गए पूछ करके चढ़ना था, अनाड़ी आदमी हो.
दूसरे से पूछा – तुम्हारी टिकट कहां है? तू मेरी टिकट पूछने वाला कौन? सब नशे में थे.
तीसरे से पूछा. उसने कहा - क्या यार, बिना टिकट चढ़ गए तो चुपचाप बैठ जाओ. गड़बड़ किया तो आने वाले स्टेशन पर पुलिस बुलाकर नीचे उतार देंगे. सबने गलत जवाब दिए. पांचवा व्यक्ति जरा सही नजर आ रहा था, नशे की मात्रा कम थी.
पूछा महाशय जी टिकट?
यार! तुम समझते नहीं, किस दुनिया में जीते हो, दिस इज डैमोक्रेसी. हम पांच मित्र हैं. पांचों को तुमने पूछा. उसने अपने साथियों की तरफ इशारा करके-पूछा क्यों यार, अपने सही चढ़े हैं? पांचों ने हाथ ऊंचा कर दिया. वी आर राइट, बिल्कुल सही. यह अकेला कब से बकबक कर रहा है. कोई सुनने वाला नहीं. माथा खा रहा है इसको नीचे उतारो. __ मात्र चलना ही पर्याप्त नहीं है, चल तो सभी रहे हैं. दुनियां में सैकड़ों धर्म हैं, सभी चल रहे हैं. ऐसा भी प्रतीत हो रहा है, सभी की मंजिल की तरफ यात्रा है, फिर भी मंजिल की उपलब्धि नहीं हो पाई. क्यों? क्योंकि सभी की यात्रा सुषुप्तावस्था में चल रही है, कोई भी जागृत दशा में नहीं चल रहा है. कोल्हू के बैल की तरह सबकी आंखों पर अन्ध विश्वास की पट्टी बंधी है. परिणाम क्या आता है?
कोल्हू के बैल की दशा देखिए, सुबह से शाम तक चलते-चलते शरीर थक के टूट जाता है लेकिन परिणाम में शून्य ही प्राप्त होता है, मीलों की यात्रा चलकर भी वहीं का वहीं रहता है, परिणति में सिवाय थकान के कुछ उपलब्ध नहीं हो पाता. हम भी चल रहे हैं, वर्षों से सामायिक कर रहे हैं, व्रत, नियम कर रहे हैं, प्रतिक्रमण कर रहे हैं, लेकिन परिणाम जीवन में कुछ भी परिवर्तन जैसी घटना नहीं घटी. __ आप किसी व्यक्ति को बाजार में देखकर यह निर्णय नहीं ले सकते कि यह धार्मिक है और यह नास्तिक, जो बेईमानी नास्तिक कर रहा है वही धार्मिक कर रहा है. झूठ, क्रोध, अहंकार कहीं पर भी आपको भिन्नता नजर नहीं आएगी. ऐसा कैसे? मान्यता में इतनी बड़ी भिन्नता और आचरण में पूर्णतः समरूपता. ऐसी साधना ऐसी यात्रा को आप क्या कहेंगे?
ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की. उस रचना में सबको एक समान आयुष्य दिया. परमात्मा की दृष्टि में अमीर और गरीब का भेद नहीं होता. दीवार होती ही नहीं, यहां तो दरवाजा है. कोई भी आओ कोई भी जाओ. यहां कोई रुकावट नहीं. परमात्मा के द्वार के अन्दर हमेशा दरवाजा खुला नजर आएगा. कोई साम्प्रदायिक दीवार नजर नहीं
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-गुरुवाणी
आएगी. मोक्ष में दीवार तो रुकावट पैदा करेगी. दिल को दरवाजा बना लीजिए, दीवार मत बनाइये.
ब्रह्मा जी ने एक समान दृष्टि से सबको आयुष्य दिया, बड़ी सुन्दर कल्पना है. इन्सान आया चालीस वर्ष का आयुष्य दे दिया. गाय बैल आए उनको भी चालीस वर्ष का आयुष्य दे दिया. कुत्ते आए उनको भी चालीस वर्ष दे दिया. सबको एक समान आयुष्य दिया.
बैलों ने विचार किया कि बड़ा अन्याय हो गया. उनकी बहुत बड़ी सभा हुई. ब्रह्मा जी के पास बैलों ने पुकार की. यह कलियुग है. इन्सान निर्दयी है. हमसे बहुत मजदूरी करायेगा. जब शरीर की शक्ति क्षीण हो जाएगी, कसाई के हाथ बेच देगा. बड़ी बुरी मौत होगी. हमें इतना लम्बा आयुष्य इस काल में नहीं चाहिए. भगवन्! हमारे आयुष्य को आप घटा दीजिए. यही प्रार्थना लेकर हम आए हैं. ब्रह्मा जी ने कहा, यहां सबको समान आयुष्य वितरित किया गया. यहां दिया जाता है वापिस नहीं लिया जाता. जो चीज दे दी गई वापिस नहीं ली जाती. तुम्हारा आग्रह है तो ट्रांसफर हो सकता है, रिटर्न नहीं.
इन्सान खडा था. आप जानते हैं, इन्सान की हर जगह मांगने की आदत. भगवान के द्वार गया तो भी याचना, गुरुद्वारा गया तो भी याचना, मस्जिद में गया तो भी याचना. मुझे कुछ मिल जाए. आप मांगना बन्द कर दीजिए, आपको सब कुछ मिल जाएगा. वे सब जानते हैं और वे अनन्त ज्ञानी हैं. आप जिस भावना से आए हैं वह परमात्मा और गुरुजन सब जानते हैं. कहने की ज़रूरत नहीं. मांगना एक प्रकार का अविश्वास है जो देने ही वाला है, वहां मांगना क्या? घर में थाली लेकर बैठे, मां रोटी डालने ही वाली है, मांग करके क्या करोगे? मांगना तो मां के प्रति अविश्वास है. परमात्मा के द्वार पर गए, गुरुजनों के पास गए, गुरुद्वारे में गए तो वे अन्तर्दृष्टि से सब कुछ जान लेते हैं और बिना मागे सब कुछ मिल जाता है.
हमारी आदत, तिरुपति से लेकर वैष्णवी देवी तक लाइन लग जाती है. हम आत्म कल्याण के उद्देश्य से नहीं जाते, बस सिर्फ इसलिए कि कुछ मिल जाए. कहां तक दरिद्र बनके रहेंगे. सम्राट् बनिए. कहां तक याचना करेंगे, समर्पण भाव लाइये. दरिद्रता से ही मानव का पतन हुआ है. मांग-मांग करके इकट्ठा करेंगे आखिर तो छोड़ कर के जाना है. मौज-मज़ा तो दूसरे करेंगे. गलत तरीके से उपार्जन करने से सजा आपको मिलेगी
और मजा लड़के करेंगे. ___मैं राजस्थान से विहार करके आ रहा था. गर्मी के दिन थे. सुबह धूप निकली हुई थी. गांव के लोग जुलाहे थे. मैं गांव के किनारे से जा रहा था तो एक माचा (पलंग) पड़ा था. लकड़ी लेकर जोर-जोर से उस माचे को मार रहा था. मैंने कहा यह क्या तमाशा है. उससे पूछा कि इसे क्यों मार रहे हो? ___ महाराज क्या बतलाएं! पूरी रात खटमलों ने मेरे प्राण ले लिए, खून चूस लिया.
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-गुरुवाणी:
मैंने कहा - वह बात सही है पर खून चूसने वाले तो रात को ही विहार कर गए, पलायन हो गए. इस माचे को क्यों मार रहे हो. इसने क्या गुनाह किया है? इसने तो तुम्हें आश्रय दिया, पूरी रात तुमने विश्राम किया. इसने क्या गलती की?
क्या बताएं? शायद इसमें हों. मैंने सोचा यही हालत अपनी है. मौज-मजा तो इन्द्रियां करेंगी. बाल बच्चे करेंगे, आने वाली सन्तान करेगी, इन्द्रियों को आश्रय देने वाली आत्मा दुर्गति में जाकर मार खाएगी. कर्म की मार उस पर पड़ेगी. आत्मा ने क्या भूल की. खटमलों ने खून चूसा पर मार तो माचा ने खायी, उपार्जन करें, कमाएं, पाप करें, सब करना पड़े. झूठ बोलकर के पैसा पैदा किया. पाप करके पैसा पैदा किया, अनीति से अन्याय से उपार्जन किया. मज़ा लड़के, पोते, परपोते करेंगे. बाप अच्छा मजदूर, कमा कर के रख गया मौज करो. लड़के आपको धन्यवाद देंगे ऐसे भी नहीं हैं, क्योंकि आपने संस्कार ही नहीं दिया. __ मज़ा वे करेंगे और सजा आपको मिलेगी, विचार कर लेना, एक चिन्तन है. हमारी ऐसी स्थिति बन जाती है.
इन्सान की आदत -- हर जगह मांगना शुरू कर देता है. कवियों की बड़ी सुन्दर कल्पना के अन्दर अपने जीवन की सच्चाई छिपी मिलेगी. हमारे जीवन की सच्चाई नजर आएगी. भगवान भी मानव की मांगों से तंग आ गए. मन्दिरों से भगवान चले गए. देवलोक में जाकर नारद जी को बुलाया और कहा “मुझे इन्सान से बचाओ. जिस मंदिर में गया, लाइन लग गई. किसी धर्म स्थल पर गया तो लाइन लग गई. भीड़ से तंग आ गया अब कहां जाएं." नारद जी ने कहा - "कैलाश पर्वत पर जाइये. वहां पर मनुष्य पाएगा."
"क्या बात करते हो? तेनसिंग और एडमंड हिलेरी वहां भी पहुंच गए और झंडा फहरा के आ गए. अब कैलाश, हिमालय भी सुरक्षित नहीं है. वहां भी इन्सान के कदम चले गए. चन्द्रमा पर भी आ जाइये. कहीं टेलिस्कोप से देख लिया तो मेरी मुसीबत. राकेट तैयार हो गया, यहां तक उनकी सवारी आ जाएगी. वह भी सुरक्षित नहीं है."
"भगवान ऐसा करिए कि पाताल लोक में चले जाइये" - नारदजी ने कहा,
भगवान ने कहा – “पाताल में जाकर क्या करूं? मनुष्य महासागर की गहराई तक चले जाते हैं. मुझे वहां भी नजर आता है कि इन्सान वहां भी आ जाएगा. सोचकर बताओ कि मैं कहां छिपूं, जहां इन्सान न आए."
नारद जी ने विचार पूर्वक एक ऐसी जगह बतलाई कि जहां इन्सान कभी जाता ही नहीं. नारद जी ने भगवान के कान में कहा - "इन्सान के हृदय में चले जाइये वहां इन्सान कभी झांककर नहीं देखता. अपना हृदय नहीं टटोलता वह मन्दिर में झांकेगा. गुरुद्वारों में झांकेगा, मस्जिद में जाकर झांकेगा, भगवान है, खुदा है. वह यह नहीं सोचेगा कि खुदा तो खुद के अन्दर में है."
न्य महा पहच
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-गुरुवाणी
अपने अन्तर्हृदय में नहीं देखते कि परमात्मा अन्तर में ही छिपा है. मन्दिर तो उसे प्राप्त करने के माध्यम हैं. चित्त की एकाग्रता को प्राप्त करने के साधन को, यदि आप साध्य मान लेंगे तो बड़ी भयंकर भूल होगी. उस माध्यम से स्वयं को पाना है. बच्चों को पुस्तक दी जाती है. ज्ञान तो उसके अन्दर है. पुस्तक एक माध्यम है ताकि उस ज्ञान का विकास पुस्तक के माध्यम से हो. परमात्मा की मूर्ति के द्वारा, उस अवलम्बन से स्वयं को पाना है.
ब्रह्मा जी ने सब को समान आयुष्य का वितरण कर दिया. बैल ने कहा भगवन! मुझे बचाइये. यह इन्सान बेमौत मार डालेगा, कसाई के हाथों में दे देगा. काम निकलते ही स्वार्थपूर्ति होने के बाद, मेरी बड़ी दुर्दशा हो जाएगी. उन्होंने तो चालीस-चालीस वर्ष का समान आयुष्य वितरण किया हुआ था.
भगवान ने कहा - "ट्रांसफर हो सकता है, रिटर्न होना संभव नहीं. इन्सान खड़ा था – भगवन्! चलेगा. लेने को तैयार हूं. बीस वर्ष बैल का मिल गया. इन्सान बड़ा प्रसन्न हो गया. वह आशा लगाए खड़ा था, शायद और कुछ मिल जाए. कुत्तों की भी बहुत बड़ी सभा हुई. उन्होंने निर्णय किया हम तो इन्सान के बड़े वफादार हैं. इन्सान परमात्मा का कितना वफ़ादार है, वह विचारणीय विषय है. कलियुग में हमारी क्या दशा है? हमारी जाति को बहुत बदनाम किया जा रहा है. हमारी वफादारी लोगों के ध्यान में नहीं आती.
कुत्तों ने विचार करके निर्णय कर लिया और ब्रह्मा जी के पास गए, बोले कि भगवन्! हमारा लम्बा आयुष्य घटा दीजिए. हम इस प्रकार जीना नहीं चाहते. ब्रह्माजी बोले, भाई ट्रांसफर हो सकता है पर रिटर्न नहीं हो सकता. वापस नहीं लिया जा सकता.
कत्तों ने कहा - जैसा आप उचित समझें. यदि रिटर्न नहीं हो सकता तो ट्रांसफर कर दीजिए. इन्सान खड़ा था आशा लगाए कि कुछ मिलेगा. बीस वर्ष कुत्तों का भी मिल गया.
समय पूर्ण हुआ परमात्मा तो चले गए. परमात्मा ने वहां पर जो वरदान दिया था, वह हमारे जीवन में साकार हो रहा है. हमारे जीवन की वर्तमान में दुर्दशा देखिए. देखा कभी, चालीस वर्ष हक का होता है. उसके बाद बीस वर्ष बैल का लिया. इस कल्पना में अपने जीवन की सच्चाई को देखिए. चालीस वर्ष तक माता-पिता विद्यमान होते हैं. सास-ससुर होते हैं. हरा-भरा परिवार होता है. शरीर सशक्त होता है. निश्चिन्त रहता है. किसी बीमारी का आक्रमण नहीं होता. चालीस वर्ष के बाद दो चार जमाई आ जाएं. दो चार सुपुत्र हो जाएं. घर के अन्दर लड़की बड़ी होने लग जाए. फिर देखिए चालीस साल से साठ तक बीस वर्ष कैसा जाता है.
बैल की तरह मजदूरी सारे घर का वज़न. आज जमाई की चिन्ता, लड़कों की चिन्ता, बहू की चिन्ता, शादी की चिन्ता, सब तरह की चिन्ता ही चिन्ता होती है. दुकान की समस्या, कमाई की समस्या, पसीना उतारते हैं. सुबह से शाम तक धूप, गर्मी, सर्दी, सब बर्दाश्त
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: गुरुवाणी
करते हैं. पूरे संसार का वज़न उठा करके चलते हैं. गुलामी नज़र नहीं आती. चालीस वर्ष से साठ वर्ष तक हमारी क्या स्थिति होती है. कैसी मजदूरी करनी पड़ती है. संसार का यह श्रम कभी वैराग्य नहीं देता. जैसे ही साठ वर्ष के हो जाएं और लड़के होशियार हो जायें. बुद्धिमान हों. चाबी ट्रांसफर हो जाए. दुकान आफिस संभालने लग जाएं. शरीर से कमज़ोर हो जाएं, पांव जवाब दे दें. आंख में रोशनी कम हो जाए. दांत ट्रांसफर हो जाएं. खाना पचे नहीं. बच्चे दुकान में पहुंच जाए. उनके हाथ में सारा कन्ट्रोल आ जाए. ऐसी लाचारी में क्या दशा हो ?
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साठ से लगाकर अस्सी तक, घर में कहां जगह मिलती है, कभी सोचा ? कहां बैठते हैं ? दरवाजे पर बच्चों को खिलाओ, दरवाजे पर रहो, चौंकीदारी करो. समय होगा थाली में खाना आ जाएगा. वह जगह किसकी है? बोलने की ज़रूरत नहीं, आप जानते हैं ? जो वरदान लिया गया, उसी का यह परिणाम कि वृद्धावस्था में वही जगह मिलेगी. तब भी कभी वैराग्य आया. कभी जीवन में जागृति आई. यह तो ट्रांसफर होता है.
लोग कहते हैं - स्वतन्त्रता चाहिए, आजादी चाहिए. नौ महीने तक गर्भ में रहे. पांच वर्ष तक मां की नजर कैद में रहे. पच्चीस वर्ष तक बाप की कस्टडी में रहे. उसके बाद जैसे ही शादी हुई फिर कैसी गुलामी, विषय की गुलामी ? जैसे बुढ़ापा आया बच्चों की गुलामी. कभी कोई काम आ जाए और मैं चर्चा छेडूं की इसे करना चाहिए तो कहेंगे महाराज, बच्चों से पूछ कर बताऊँगा.
सारा जीवन इस गुलामी में पूरा होता है. जीवन में आजादी हैं कहां ? स्वतन्त्रता है। कहां? व्यक्ति बात करता है मुझे आजादी चाहिए, स्वतन्त्रता चाहिए. यम-नियम का बन्धन नहीं चाहिए.
मर्यादा बन्धन नहीं, जीवन का अनुशासन है. आज का मनुष्य यह सोचता है कि नियम का बन्धन नहीं चाहिए. व्रत, नियम प्रतिज्ञा नहीं चाहिए. आजादी चाहिए तो कटी पतंग जैसा ही परिणाम आएगा. इन्सान को बौद्धिक विकार को लेकर नशा चढ़ता है. ज्ञान का अजीर्ण हो जाता है. सन्निपात की स्थिति आ जाती है. बीमारी में वात, पित्त, कफ सब एक नाड़ी में आ जाए, उसे सन्निपात कहते हैं. व्यक्ति फिर बकबक करता है. तीनों सम नाड़ी में आती हैं. वह मृत्यु से पूर्व की भूमिका है, मृत्यु निश्चित है. बक बक बक करने लग जाता है. उसे मालूम नहीं, क्या बोल रहा हूं? मेरे सामने कौन है? सब भूल जाता है. बकवास करता है.
हमारे यहां भी पैसा आ जाए, पद आ जाए, ज्ञान आ जाए तो मनुष्य सन्निपात की स्थिति में आ जाता है. वह कहता है- मुझे यम नियम नहीं चाहिए, बन्धन नहीं चाहिए. अनुशासन नहीं चाहिए यम नियम और परमात्मा के आदेश की परतन्त्रता नहीं चाहिए. नहीं चाहिए तो यहां आग्रह तो है नहीं, परन्तु उसका यही परिणाम आए सारा जीवन आपका बन्धन में जाता है. कोई ऐसी जगह है, जहां बन्धन न हो ? यम नियम आपको
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-गुरुवाणी
बन्धन नज़र आता है. प्रतिज्ञा जीवन की बड़ी सुन्दर व्यवस्था है. अनुशासित जीवन आत्मा को मुक्त करने का साधन बनता है. आप मुझे कहें नौ महीना मां के गर्भ में रहना पड़ा, आजादी थी वहां पर? कर्म की कस्टडी थी.
जन्म के बाद पांच वर्ष तक आपको मां की नजर में रहना पड़ा, भूतकाल को झांक कर देखिये कैसी गलामी थी, बिठाए बैठना पड़ा, खिलाए खाना पड़ा, सुलाये तो सोना पड़ा, धमकाए तो सुनना पड़ा. कुछ आपका कानून चला? पचीस वर्ष तक बाप की कैद में रहे, तो बजट वहीं से पास होता था. पाकेट खाली थी. लाचारी थी. पच्चीस वर्ष आपकी गुलामी में गए. कहां गई आपकी आजादी? शब्दों में रहा, आचरण में कुछ नहीं था. पच्चीस वर्ष के बाद घर की जवाबदारी आयी. बड़ी बुरी जवाबदारी होती है. वैदिक परम्परा में एक बड़ा सुन्दर रूपक दिया है. ___ यम-नियम जीवन के अनुशासन हैं. वे जीवन की व्यवस्था और सुरक्षा के लिए हैं. कहीं आपकी आत्मा दुर्गति में न चली जाए, उसे आप प्रकाशित कर पाएं इसीलिए अलग-अलग धर्म में अलग-अलग व्यवस्था हो गई. अनुशासन बतलाए गए ताकि व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त कर पाए. जिस दिन इन्द्रियों पर अनुशासन होगा, बिना प्रयत्न के सहज में आपको आत्मा पर अधिकार मिल जाएगा.
प्रदेश पर यदि अधिकार मिल जाए तो देश मिलने ही वाला है. सारा प्रयत्न ही उसके लिए होना चाहिए. सारी व्यवस्था धर्मबिन्द ग्रन्थ में इसी रूप में बतलाई गई है. किस तरह से अपने जीवन का सुन्दर निर्माण किया जाए. किस तरह से जीवन को ज्योतिर्मय बनाया जाए, उसे प्रकाशित किया जाए. अनेक आत्माओं के हित के लिए मेरा जीवन अर्पण हो जाए. वह भावना है? है सहन करने की ताकत?
जैसी आपकी दष्टि होगी वैसी ही आपकी सष्टि बन जाएगी, श्री कष्ण जी जैसी दष्टि प्राप्त करें. वे एक बार जा रहे थे, साथ में बहुत से और साथी थे. एक मरा हुआ कुत्ता देखकर सब घृणा प्रकट करने लग गए, अपनी नाक को कपड़े से ढक लिए, थूककर के निकले, बस अरुचि पैदा कर रहे थे, उसे देख कर कृष्ण जी ने अपने मंगल दृष्टि से कहा - अहा! कितना वफादार प्राणी है. नमक खाने पर उसके लिए प्राण दे देता है. जगत में ऐसा एक भी प्राणी आपको नहीं मिलेगा. जिसका आप पालन करें, और आपका वफ़ादार बना रहे. ऐसे प्राणी मिलेंगे जो आप पर आक्रमण कर दें. परन्तु यह बड़ा वफादार है. इसकी प्रामाणिकता बड़ी सुन्दर है. मरने के बाद इसके दांत कितने सुन्दर मोती की तरह चमक रहे हैं.
यह उनकी गुण दृष्टि थी. जितने भी व्यक्ति गए, वे विचार में पड़ गए. नतमस्तक हो गए. हमारी दृष्टि भी इतनी मंगल होनी चाहिए कि गन्दगी में भी हम सुन्दरता को देखने लग जाएं. किसी प्राणी के प्रति घृणा और तिरस्कार हमारे जीवन में न हो. मंगल दृष्टि हो. कहीं से भी सद्गुण को ग्रहण करना है.
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-गुरुवाणी
हम एक अंगुली उधर करते हैं तो तीन अंगुली आपकी तरफ आती हैं. उधर क्या देखता है इधर देख, कैसा है. तीन अंगुली को नहीं देखते कि वे मुझे क्या कह रही हैं. ये बहुमत हैं, तीन हैं वह तो एक है. हमारी नजर एक की तरफ जाती है, तीन की तरफ नहीं कि मैं स्वयं कैसा हूं. मुझे क्या अधिकार, किसी को कुछ कहँ, हर व्यक्ति अपने कर्म के अधीन है.
"मित्ती मे सव्व भूएसु" परमात्मा ने कहा आप यह प्रतिज्ञा करिए, जगत् में किसी भी आत्मा से मेरी कोई शत्रुता नहीं. क्लेश ही संसार का बीज है. जीवन को जला कर के कोयला बना देगा, राख बना देगा. सारी शांति आपकी उससे नष्ट हो जाएगी. आत्मा की सारी समृद्धि लुट जाएगी. समत्व की भूमिका चाहिए.
साढ़े बारह वर्ष तक परमात्मा महावीर ने सहन किया. सारे जगत् को उन्होंने कहा, जो आत्मा सहन करेगा, वही सिद्ध बनेगा.
साधना के क्षेत्र में पहले सहन करता है. कोई भी शब्द आ जाए, शब्द का पान इस प्रकार से करें कि जहर भी अमृत बन जाए, सहन करने की ऐसी शक्ति आप विकसित करें कि जगत् की कोई शक्ति ध्यान भंग नहीं कर सके. समदृष्टि को प्राप्त करने के लिए, साधना के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचने के लिए, सामायिक की साधना है. यह समत्व को प्राप्त करने की परम साधना है. धीरे-धीरे व्यक्ति उस क्षेत्र में समत्व के पथ पर आगे बढ़ता ही चला जाए फिर कोई भेदभाव नहीं रहेगा, कोई दीवार नहीं रहेगी. सारा संसार ही उसके लिए द्वार होगा. सभी आत्माओं के लिए उसके अन्दर प्रवेश संभव होगा. सभी आत्माओं को वह अपनी दृष्टि से देखेगा. सर्व को स्वयं में देखेगा. स्वयं को सर्व में देखेगा. यह मंगल दृष्टि उसमें आ जाएगी. संघर्ष की प्रवृत्ति चली जाएगी.
संगम देव प्रभु वीर को पीड़ित कर रहा था और परमात्मा महावीर बिल्कुल मौन खड़े रहे, जरा भी द्वेष भाव की दृष्टि नहीं. कैसी उदारता थी, सहन करने की कैसी अपूर्व शक्ति थी, तब सिद्ध बनें. समभाव में यही चिन्तन कि यह बेचारा कर्म वश है, भूतकाल का कोई ऐसा कर्म उपार्जन किया है. मैं निमित्त बन करके आया हूं. इस बेचारी आत्मा का क्या होगा. कैसी सुन्दर भावना, कैसा मंगल चिन्तन. मुझे यह पसन्द नहीं कि इसके दुःख का निमित्त मैं बनूँ, दया के आंसू आ गए. दूसरी आत्माओं को दुःखी देखकर यदि आपका हृदय दर्द का अनुभव करे, दूसरों की पीड़ा का आंसू आपकी आंखों से आ जाए तब समझना मैं दयालु हूं. दूसरे का दर्द देखकर के आपकी आंख में आंसू आना चाहिए. दूसरों की पीड़ा का आपको अनुभव होना चाहिए.
इस आत्मा की क्या दशा है. इस दुखी आत्मा को दुख से कैसे मुक्त करूं? तब जाकर के साधना से सुगन्ध पैदा होती है. यही है महावीर का सम्पूर्ण दर्शन.
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-गुरुवाणी:
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___ जीवन की शुद्धि के लिए पहले आप सहन करना सीखें. उसमें भी सर्वप्रथम शब्द की चोट को सहन करना सीखें क्योंकि कटुता वहीं से पैदा होती है. संघर्ष वहीं से पैदा होगा. इसने ऐसा कह दिया, उसने वैसा कह दिया. महान पहुचे हुए सन्त थे. ऋषि थे. ध्यानस्थ बैठे थे. कोई उनका परम भक्त था. बड़ी सुन्दर वस्तु लाकर अर्पण कर गया. सामने एक व्यक्ति ने जब यह नजारा देखा मन में विचार आया कि यह कैसा सन्त है, कैसा साधु हैं. कहीं कमाने जाता नहीं, खाता पीता मज़ा करता है. मन में ईर्ष्या पैदा हुई. इसके भक्त वर्ग कैसे हैं. बड़ी मूल्यवान चीज लाकर सामने रख गए. झांक कर देखता भी नहीं. बेवकूफ है. जवान व्यक्ति था, सामने आकर के नहीं बोलने जैसा बोल गया. कायर आदमी है, घर से भाग कर आ गया. बाल-बच्चों का पालन-पोषण करने की ताकत नहीं इसलिए बाबा बन गया. मुफ्त का खाना मिलता है. बोलने वाले कटु शब्द वह बोल गया.
महात्मा के चेहरे पर कोई वेदना का चिन्ह नहीं. अपनी प्रसन्नता में मग्न साधना का नशा ऐसा है जो कभी उतरता ही नहीं. आप रात को शराब पीयेंगे तो उसका खुमार सुबह उतर जाएगा. परन्तु इस साधना का खुमार ऐसा है, एक बार इसे अपना लिया तो जिन्दगी में उतरे ही नहीं. जगत् का दर्द या दर्द का अनुभव भी नहीं होने देता. आनंद का ही अनुभव होगा. कोई दर्द नहीं होगा. इस नशे में यह मजा है.
साधु अपनी साधना में मस्त थे. जगत् से शून्य थे क्या हो रहा है कुछ मालूम ही नहीं. परन्तु हम अपनी साधना में तो, हम सब ध्यान रखते हैं. माला गिनते समय घर की पूरी चौकीदारी रहती है. भगवान का भजन चलता हो, लक्ष्मीनारायण के मन्दिर में गए हो. जूता बाहर खोल करके आए. मन जूते में रहा. शरीर भगवान के पास ले गए. ऊपर से प्रार्थना कर रहे हैं. आप दृष्टि देखिए.
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव" दृष्टि तुरन्त बाहर जूते की तरफ घूमेगी कि जूता है या गायब हो गया. फिर जूते की तरफ नज़र करते हुये बालेगा.
"त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव" फिर वापस मुड़ कर भगवान् के सामने देखकर बोलेगा.
"त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव" फिर बाहर जूते की तरफ देखकर बोलेगा.
"त्वमेव सर्वम् मम देव देव" जूते से भी गई बीती हमारी प्रार्थना. जूते का मूल्य समझ लिया. प्रार्थना का मूल्य आज तक समझ में नहीं आया. यह जूता बड़ा मूल्यवान है. दो सौ-चार सौ में लाया हूं.
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गुरुवाणी
परन्तु नहीं मालूम कि प्रार्थना अमूल्य है. मैंने कहा कि दिमाग से आप जूता निकाल देना. परन्तु हमारी हालत बड़ी खराब है जाता नहीं, पुरातन संस्कार है, प्रयत्न करेंगे तो ज़रूर सुधार आएगा.
महात्मा को आकर के अपशब्द बोल गया. साधना में उनका प्रवेश हो चुका था. वे तो साधना के नशे में थे सब भूल गए थे, दुनियां कहां है? चित्त की ऐसी एकाग्रता आ जाती है, कुछ पता नहीं पड़ता, क्या हो रहा है? जहां तक यह स्थिति नहीं आएगी, संसार से शून्य नहीं बनेंगे और कभी अन्दर में सर्जन नहीं होगा. आत्मा की वह खोज कभी पूरी होने वाली नहीं है.
सम्राट् अकबर जंगल में शिकार खेलने के लिए गए थे. शाम का समय था, खुदा की बन्दगी के लिए नमाज पढ़ रहे थे. बड़ा सुन्दर कालीन बिछा दिया गया. उनके साथ और भी कई अमीर थे. अचानक शाम के समय एक छोटा-सा निर्दोष बालक दौड़ता हुआ आया और गलीचे के ऊपर से निकल गया. बड़ा सुन्दर गलीचा था. सम्राट् एकदम नाराज़ हुए अपने आदमियों को कहा कि इस बालक को पकड़ करके ले आओ.
कहा था और
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नमाज़ पूरी हो गई. बन्दगी करके जैसे ही बादशाह अपने कैम्प में गए. सिपाहियों ने उस बच्चे को बादशाह के सामने पेश किया. बच्चे को बादशाह ने तुझे शर्म नहीं आई. कैसी बदतमीजी की तुमने मैं खुदा की नमाज़ पढ़ रहा तू मेरे सामने से निकल कर चला गया. मेरा गलीचा गन्दा कर गया.
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बच्चा कुछ भी नहीं बोला. वह बड़ा समझदार बच्चा था. हाथ जोड़ कर के कहा गुस्ताखी माफ करें. मुझे क्षमा करें. मैं एक बात कहना चाहता हूं मैं अपनी मां के साथ आया था. मां जंगल में लकड़ियां काट रही थी, शाम का समय था. मैं जंगल में खेलने चला गया, मां चली गई, मां ने देखा बालक आ जाएगा. मैंने जब देखा तो मां नज़र नहीं आई. किसी साथी ने कहा-तेरी मां इस रास्ते से गई है. मैंने अपनी मां खोजने में स्वयं को ऐसा खो दिया. मुझे कुछ नहीं मालूम, बादशाह कहां खड़े हैं. नमाज कहां पढ़ा जा रहा है. गलीचा और कालीन कहां बिछा है. मैं दौड़ता गया. खोज में स्वयं को खो दिया. मेरी खोज पूरी हो गई. मां मिल गयी. हुजूर ! आप खुदा की खोज में निकले थे. आपको सब मालूम है कौन किधर से गया, गलीचा किसने गन्दा किया. यह आपकी खोज कब पूरी होगी ?
परमात्मा की प्रार्थना में जब तक हम स्वयं को खोएंगें नहीं, तब तक आपकी खोज पूरी होने वाली नहीं स्वयं को खोना है, स्वयं को खोजना तो दूर गया. परमात्मा की खोज भी दूर गई. हम तो दुनियां को खोज रहे हैं. पैसे को खोज रहे हैं कहां से मिलेगा. परमात्मा के माध्यम से यदि आप पैसे को खोज रहे हैं, तो यह हमारी मूर्खता होगी.
महात्मा ध्यान में मग्न थे. सब खो चुके थे. संसार को भूल कर आए थे. मात्र परमात्मा की स्मृतियों में जीवित थे. उनके लिए संसार मर चुका था. वासना ख़त्म हो गई थी. वह व्यक्ति गालियां देकर के गया, पता ही नहीं. दो-तीन दिन तक उसने ये नाटक किया
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गुरुवाणी
इस
आखिर वह व्यक्ति थक गया. कैसा पत्थर जैसा आदमी है. रोज़ इतना बकता पर कोई ध्यान ही नहीं देता. चौथे दिन आया. मन में ग्लानि पैदा हुई कि कोई महान सन्त हैं, अपशब्द बोलकर मैंने आग लगाने की बड़ी कोशिश की परन्तु वह तो फायरप्रूफ हैं. बर्फ जैसे हैं. इतना उत्तेजित किया. शब्दों की चोट इनको दी. न जाने कैसे-कैसे शब्द इनके सामने मैने लाकर रखे परन्तु इनके चेहरे पर क्रोध की ज़रा भी निशानी नहीं, तनाव नहीं. चरणों में गिर गया. उसके हृदय से परिवर्तन हुआ कि कोई महान सन्त हैं. कहा भगवन्! मेरी अज्ञान दशा को देखकर आप क्षमा करें, मैने जो भी की भूल उसके लिए क्षमा चाहता हूं भगवन्! मैंने आपके साथ कितना दुर्व्यवहार किया, कैसे-कैसे अपशब्द बोले भगवन् क्षमा करें और आशीर्वाद दें.
सन्त ने कैसा जबाब दिया उसे छाती से लगाकर कहा नहीं की. तेरा कोई अपराध है ही नहीं.
बेटा! तूने कुछ भी भूल
प्रेम से सारी दुनियां को जीता जा सकता है, प्रेम ही एकमात्र ऐसी साधना है जो बिना मन्त्र के सिद्ध हो जाती है. यदि व्यक्ति प्रेम की साधना में प्रवेश कर जाए, ऐसी मंगल भावना विकसित करे कि जगत में कोई भी पराया नहीं सभी मेरे अपने हैं, अपनी दृष्टि को ही बदले दे, दूसरों को मित्रवत् समझने की दृष्टि आ जाए, तो संसार की समस्त वैमनस्यता समाप्त हो जाए. प्रभु वीर की दृष्टि परिवर्तन की प्रक्रिया धीरे-धीरे आपको बतलाता रहूंगा. मेरा काम है सप्लाई करना आप तक पहुंचा देना. डाकिए की तरह से संदेश दे देना. परमात्मा का प्रवचन तो सारे विश्व को प्रकाश देने वाला है. इतना सामर्थ्य है उस प्रवचन में कि सारे देश को, सारे विश्व को, प्रकाशित कर दें. पावर हाउस देखिए कितना वोल्टेज होता है उसके अन्दर हाई वोल्टेज होता है. पूरे शहर को सप्लाई करता है पर होम डिलीवरी के लिए कितना वोल्टेज चाहिए ?
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कम वाल्टेज चाहिए. दौ सौ वोल्टेज चाहिए घर तक पहुंचाने के लिए, अगर सीधी सप्लाई कर दी जाये पावर हाउस से तो आपके घर की क्या हालत होगी. दीवाली हो जायेगी. पूरा शहर जल कर के राख बन जाएगा शक्ति है, पर ग्रहण करने की ताकत नहीं है. परमात्मा का यह प्रवचन तत्त्वज्ञान से भरा हुआ है. समृद्ध है, सारे विश्व को प्रकाश देने वाला है. हमारे पास इतनी मानसिक क्षमता नहीं है.
सप्लाई नहीं की जाती ट्रांसफर होता है. हाई वोल्टेज को, लो वोल्टेज में लाकर डिलीवरी दी जाती है. सुधर्मा स्वामी का यह पाट (तखत) ट्रांसफार्मर है, ताकि आप समझ लें. परमात्मा के विचार के प्रकाश में से आपको भी रास्ता मिल जाए. आप स्वयं अपना प्रकाश प्राप्त कर लें, चलने का रास्ता आपको स्वयं दिखाई पड़े मैं समझंगा मुझे अपनी मजदूरी का लाभांश मिल गया. उससे मुझे प्रसन्नता मिलेगी. इनमें रुचि पैदा हो गई, प्यास जग गई.
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-गुरुवाणी
___आत्मा की खोज के समुद्र में जब डुबकी लगाएंगे, तब समत्व रूप रत्नों की प्राप्ति होगी. इस उपलब्धि के लिए आपको ध्यान की प्रक्रिया से गुजरना होगा, ध्यान द्वारा ही उस परम तत्व की, परमानन्द की अनुभूति होगी. मैं क्या हूं? कहा हूं? आदि प्रश्नों का भी सहज में समाधान मिल जाएगा. समाधान प्राप्ति के बाद आप आप नहीं रह पाएंगे. पूर्ण रूपान्तरण हो जाएगा. वर्षों की सतत् साधना, मोक्षफल की जननी बन जाएगी.
साधना चले और जीवन न बदले, इससे बड़ा क्या आश्चर्य हो सकता है? सूर्य निकला हो और कहे आकाश अभी अंधकार का आश्रय बना हुआ है, यह कोई स्वीकार्य है? पानी पी लिया जाए और कहें प्यास नहीं बुझ पाई तो समझना चाहिए कि हमने पानी ही नहीं पिया. पानी की जगह किसी गलत वस्तु का सेवन कर लिया. ध्यान की उपलब्धि, उसकी अनुभूति किस तरह से हो वह भी आपको समझाऊंगा. आज इतना ही रहने दें.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम"
कब्र में सोए एक मुर्दे ने आवाज दी मुझे यहाँ कौन छोड़ गया? मेरे पास धन-मकान-सब कुछ था. मुझे यहाँ अकेला कौन छोड़ गया?
वहीं से गुज़रते एक कवि ने प्रत्युत्तर दिया : “सब्र कर, तुझे छोड़ने कोई तेरा दुश्मन यहाँ नहीं आया. जिनके लिए तू सब कुछ छोड़ आया है, वे ही तेरे परिजन तुझे यहाँ लाकर छोड़ गए हैं!
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गुरुवाणी
सत्य और सदाचार : गृहस्थ जीवन के
मूल
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परम कृपालु आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी महाराज ने अनेक आत्माओं के कल्याण की मंगलकामना से इस 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ की रचना की. सूत्रों के द्वारा धर्म-साधना का मार्गदर्शन दिया, किस प्रकार से जीवन में अपने धर्म को व्यापक बनाया जाये. मेरा धर्म मेरे मकान तक, परिवार तक और प्राणिमात्र तक व्यापक बने. जैसे-जैसे हम उन सूत्रों का चिन्तन करेंगे और चिन्तन के द्वारा, स्वयं के जीवन का निरीक्षण करेंगे, तो जो सत्य है, वह हमारे सामने उपस्थित होगा. मैं क्या हूं? कौन हूं? किसकी कृपा का यह वर्तमान परिणाम है ? और मैं कहां उपस्थित हूं ? और मुझे कहां जाना है? इन सारी बातों पर स्वयं को विचार- चिन्तन करना है. जीवन मिल गया परन्तु इसकी पूर्णता आज तक नहीं हुई.
आदर्श
जीवन मिलना कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु उसकी पूर्णता महत्त्वपूर्ण बात है और जो जीवन के सदाचार या सदाचरण का सूत्र चल रहा है, वह अति मूल्यवान है, इसलिए कि जीवन के उस चारित्र्य को कैसे प्राप्त किया जाए ? सूत्र समझने के उपरान्त उस पूर्णता को प्राप्त करना सरल बन जाएगा.
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ज्ञानियों ने कहा है, कि आपका जीवन कितना भी सुन्दर हो, चाहे कैसा भी मूल्यवान हो. व्यक्ति धनवान हो, पूर्व का पुण्य लेकर के आया हो, सब प्रकार की सुविधा हो, साधन-सम्पन्न हो, परन्तु यदि जीवन में सत्य और सदाचार के दो कांटे नहीं हैं, तो उस जीवन का कोई मूल्य नहीं. उन दो कांटों का ही मूल्य है. अर्थात् सत्य और सदाचार इन दोनों विषयों की उपादेयता पर चिन्तन हुआ. सत्य के द्वारा उस प्रामाणिकता को प्राप्त करना है, और सदाचार के द्वारा जीवन को सुगन्धित करना है, इसलिए हम इस दिशा में चिन्तनरत हैं. गृहस्थ जीवन का एक आदर्श है - सदाचार. इसके अभाव में कुछ हो नहीं सकता. गृहस्थ जीवन का आधार है, व्यक्ति का उपार्जन करना, और शादी-ब्याह के द्वारा अपने परिवार का निर्माण करना..
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शादी कहां करनी है ? विवाह-संस्कार कहां किया जाये ? हमारी संस्कृति में विवाह को भी संस्कार की उपमा दी गई है. वह भी जीवन का एक संस्कार है. कैसे करना ? कहां करना ? इसमें इसका निर्देश है. व्यक्ति भावुकता में आकर तुरन्त बिना सोचे निर्णय कर लेता है और उसका परिणाम अनर्थकारी होता है. पूरे परिवार के लिए वह विध्वंसकारी क्योंकि उस निर्णय में उसकी गहराई नहीं, उसका अनुभव नहीं, और इसका परिणाम हम रोज़ देखते हैं. परन्तु घर के माता-पिता के द्वारा जो निर्णय लिया जाता है, वह बहुत सोच समझ कर के, अनुभव के द्वारा लिया जाता है. माता-पिता यह नहीं चाहते कि मेरे पुत्र का जीवन बर्बाद हो या क्लेशमय बने. वे बहुत सोचने के अनन्तर ही निर्णय लेते हैं.
बन जाता
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गुरुवाणी
यदि इस प्रकार निर्णय के आधार पर यह कार्य किया जाये तो इसमें कोई बाधा या रुकावट नहीं आयेगी. जो आज घर-घर की समस्या है, उसका बहुत हद तक समाधान हो जाएगा. माता-पिता में भी ऐसी उदारता होनी चाहिए कि उसमें बालक की भी सलाह ली जाए ताकि बालक के मन में यह भाव न आए कि मेरे जीवन का निर्णय करने वाले यह कौन होते हैं? सलाह ले लेने से पारिवारिक प्रेम बना रहता है. माता और पिता के प्रति बालक का पूर्ण सम्मान सुरक्षित रहता है. अतः मिल-जलकर यह निर्णय लेना ही अधिक समीचीन है.
जहां उनके शील का, उनके आचरण का, उनके व्यवहार का पूर्ण परिचय पहले प्राप्त किया जाये. जैसे कि उनका खान-पान कैसा है?, उनका रहन-सहन कैसा है?. उनके परिवार का वातावरण, उनके गांव, मोहल्ले का वातावरण जान लेना चाहिए. नहीं तो बहुत बड़ी समस्या पैदा होती है. अपनी परम्परा में, अपनी आराधना में, अपनी धर्म-साधना में, अपनी मान्यता में, वह विचार का मतभेद आगे चलकर क्लेश का रूप ले लेता है.
सूत्रकार ने इस सम्बन्ध में बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया और कहा कि समान कुल हो, अगोत्रज हो. एक ही गोत्र में विवाह आदि का कार्य न करें, क्योंकि शारीरिक आरोग्य की दृष्टि से वह हानिकारक है. आगे चलकर वह प्रजा बुद्धि से विकृत हो जाती है और अतिशय विषयी और कामी बनती है. इसीलिए उसका निषेध किया गया. इस परम्परा का निर्वाह करने के लिए उन्होंने कहा कि विवाह एक गोत्र के अन्दर आर्य परम्परा के अनुरूप हो, चाहे हिन्दू हों या जैन. वैदिक संस्कृति में, एक गोत्र में विवाहादि कार्य, बौद्धिक विकृति एवं आरोग्यता की दृष्टि से निषिद्ध माना गया है. इस प्रकार के आचरण जीवन में, भविष्य में, धर्म स्वरूप हो जाते हैं.
संस्कारी कूल के अन्दर बड़ी समाधि मिलेगी, चित्त को एक प्रकार का अपूर्व आनन्द मिलेगा और आपकी धर्म-साधना में वह सहायक बनेगा. चित्त की समाधि धर्म-साधना की आधारशिला है, और यदि चित्त में समाधि और शांति नहीं है उसके अन्दर मानसिक क्लेश है, पारिवारिक क्लेश है, तो वह कभी धर्म-साधना में सफल नहीं बन पाएगा. अन्दर से उसके विचार में उद्वेग रहेगा, चिन्ताएं रहेंगी और वह कभी भी एकाग्र चित्त नहीं बन पाएगा.
पारिवारिक क्लेश जीवन के अन्दर अशांति का एक मुख्य कारण है और उसका भी मुख्य कारण आपके मन की अशांति है क्योंकि यदि मन चंचल रहेगा तो मन का आकर्षण हमेशा क्लेश को जन्म देगा. जो व्यक्ति अपनी मर्यादा में रहकर अपने गृहस्थ जीवन का संचालन करता है, वह उत्तम प्रकार की आत्मा है. ऐसी आत्मा, आगे चल कर के आत्म-विकास में सफल बन सकती है.
आप वर्तमान स्थिति पर सोचिए. रोज नयी दुर्घटनाएं दृष्टिगत होंगी. बहुत कम व्यक्ति इन दुर्घटनाओं में से बच पाए हैं. बहुत कम ऐसे परिवार और घर मिलेंगे, जहां क्लेश ।
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की अग्नि नहीं पहुंची. हर घर जलता हुआ नज़र आएगा. हर व्यक्ति अन्दर से पीड़ित नजर आएगा, क्योंकि वहां वह जीवन उसकी मर्यादा के विपरीत है.
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सदाचार को हमारे यहां एक अमूल्य निधि माना गया है:
"प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रह्मैक कारण*
कलिकाल सर्वज्ञ ने कहा कि हमारे जीवन के अन्दर चरित्र को प्राण माना गया और प्राण शून्य आपकी साधना जीवन में कभी सुगन्ध नहीं देगी, वह दुर्गन्ध से भरी हुई मिलेगी.. हमारा वर्तमान जीवन विषयों की दुर्गन्ध से भरा हुआ है. यह अनादि काल का संस्कार है. चारित्र के अभाव में आप कितना भी प्रयत्न करें, वह दुर्गन्ध, सुगन्ध में रूपान्तरित होने वाली नहीं.
कुछ ऐसे अशुभ निमित्त आज मिल रहे हैं. दिन और रात उसी वातावरण में हम रहते हैं. इस वातावरण का हमारे मन पर असर पड़ता है. एक समय ऐसा था जब सदाचार का कितना बड़ा मूल्य था. जीवन में नैतिकता का कितना मूल्याकंन किया गया है.
आध्यात्मिक क्षेत्र में हमारे इतिहास में देखने को मिलता है उदयपुर स्टेट में हिन्दुकुल भूषण चारित्र्य संपन्न महाराणा गोपाल सिंह थे, जिनका एक पत्नी व्रत का नियम था. कठोर प्रतिज्ञा थी उनके जीवन में महाराणा थे, विचार से स्वतन्त्र थे. धन सम्पत्ति की कमी नहीं थी. सारे हिन्दू जगत का सम्मान उन्हें मिला था, परन्तु अपनी धार्मिक मर्यादा में रहकर, एक पत्नी व्रत का नियम उन्होंने ले रखा था. विचारों में इतनी पवित्रता और सदाचार के इतने सुन्दर समन्वय की परिणति के अवबोध के लिए इतिहास साक्षी है. वह है मेवाड़ का इतिहास और उसकी एक अपूर्व घटना.
एक महात्मा पुरुष उदयपुर आए. एक कुष्ठी व्यक्ति जिसका सारा शरीर कोढ़ से गिर चुका था, उनके दर्शन की अपेक्षा से उनके पास गया, चरण-वन्दन किया और कहा कि भगवन् ! मैं बहुत भयंकर रोग से पीड़ित हूं और यह कुष्ठ की व्याधि इतनी खतरनाक है कि गांव वाले भी मुझसे घृणा करने लग गये परिवार वालों में भी मुझ से घृणा है. मेरा विचार है कि मैं इस शरीर का अन्त कर दूं. अंतिम इच्छा ले कर के आया हूं. यदि आपका आशीर्वाद मिल जाये तो मैं रोग से मुक्त हो जाऊं इस भावना से मैं आपके पास दर्शन को आया हूं.
महात्मा ने कहा- मेरे पास आने की जरूरत ही क्या है ? अगर तुझे आरोग्य चाहिए. तो महाराणा राजमहल में जहाँ स्नान करते हैं उनके गौमुखी के नीचे बैठकर स्नान करो तो तुम्हार रोग नष्ट हो जाएगा. पहले जल निकासी के लिए पृथ्वी के नीचे से नाली नहीं होती थी और जल के लिए ऊपर से गौमुखी जैसा निकास होता था.
बड़े विचार में पड़ गया कि इनके पास कोई आशीर्वाद नहीं, कोई जड़ी-बूटी नहीं और बहुत अच्छा उपाय इन्होंने बता दिया. तो ठीक है संत पुरुषों का वचन है. प्रयोग
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-गुरुवाणी
कर के देखें, क्या आपत्ति है. वैसे भी तो यह शरीर सड़ा हुआ है, जल जाएगा, राख । बन जाएगा. अगर मैं प्रयोग कर लूं तो क्या आपत्ति है.
संत का मार्ग-दर्शन मिला. सिपाहियों से निवेदन किया कि भई जहां महाराज स्नान करते हों, और जिस नाले में से जल गिरता है, मुझे जरा उसके नाले के नीचे बैठने दो, मैं वहां बैठकर स्नान करना चाहता हूँ. सिपाहियों ने कहा कि यह कौन सा पागलपन है. उससे क्या होगा. उसने कहा - नहीं भाई ! मेरी इच्छा है. सिपाहियों को दया आई. छूट दे दी और वह बराबर उस नाले के नीचे स्नान करने लगा. दो दिन, पांच दिन, दस दिन, इक्कीस दिन तक वह बैठा और उस जल से स्नान किया. बड़ा आश्चर्य होगा - सारे रोग उसके दूर होते चले गए. घाव सूख गये, और इक्कीस दिन के बाद वह व्यक्ति ऐसा दीखने लगा कि जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं.
उसने महात्मा के पास जाकर के निवेदन किया कि महात्मन् ! आपने यह कौन सा उपाय मुझे बताया समझ में नहीं आया. महाराणा कोई मन्त्र-तन्त्र नहीं जानते. न ही महाराणा कोई साधु-सन्त हैं, तो यह क्या विशेषता है?
उन्होंने कहा, तुम समझे नहीं ! अरे वह एक पत्नी-व्रत का नियम लेने वाली सदाचारी आत्मा है और उस ब्रह्मचर्य की, उसके अन्दर इतनी प्रचण्ड शक्ति है.
एक पत्नी-व्रत का यह परिणाम कि अगर उसके शरीर से स्पर्श किया हुआ जल कोई यदि पी ले तो वह औषधि का काम करेगा. शरीर के अन्दर विद्युत होती है. बड़ी तेज़ गर्मी होती है. पानी का स्वभाव है, विद्युत को बहुत जल्दी ग्रहण करता है, वह और यदि जल शरीर से स्पर्श करके नीचे उतर जाए तो वह औषधि का रूप ले लेता है और यदि उसके द्वारा कोई व्यक्ति स्नान करे, उसका प्रयोग करे तो आरोग्य मिलता है. उस परमाणु में इतनी ताकत होती है. उस जल के अन्दर औषधि है, गुण उसके अन्दर प्रकट होता है. शरीर से निकलने वाला परमाणु, शरीर से बहने वाली विद्युतधारा, उस जल के अन्दर इतना परिवर्तन ले आती है.
हमारे यहां जैन इतिहास की घटना में भी ऐसा वर्णन आता है. उदयपुर के पास बहुत बड़ा तीर्थ है - माण्डवगढ़ जैन तीर्थ. एक समय में वह एक बड़ा राज्य था, राज्य का केन्द्र-स्थान था और हमारे पेथडशाह जैन, वहाँ के महामन्त्री थे. राजा को ऐसी भयंकर बीमारी हई. बहुत उपचार किया, इलाज किया परन्तु बीमारी गई नहीं . बहुत पीड़ित था. मन से बहत व्यथित था. अपने राजदरबारियों से उसने कहा कि भाई कोई उपचार किया जाये. बाहर से किसी अच्छे वैद्य को बुलाया जाये.
किसी व्यक्ति ने कह दिया कि यहां जो आपके महामन्त्री पेथडशाह है यदि उनकी चादर लेकर के आप दस-पांच दिन ओढ़ें तो मुझे विश्वास है, कि आपकी बीमारी चली जाएगी. आदेश गया. राजा ने पेथडशाह के यहां कहलाया कि ओढ़ने का चादर मुझे चाहिए.
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-गुरुवाणी
महामन्त्री ने कहा कि राजा का आदेश है तो ले जाओ. उसे मालूम नहीं था कि इसका क्या उपयोग करेंगे. चादर मंगवा लिया. रात्रि में वही चादर ओढ़ता और थोड़े समय तक जब उसका प्रयोग किया तो सारी बीमारी चली गयी. उस रहस्य को जानने के लिए जब उस व्यक्ति से पूछा कि तुझे कैसे मालूम? ।
राजन्! मुझे केवल इतना मालूम था कि यह व्यक्ति सदाचारी है. पूर्ण ब्रह्मचारी है. बत्तीस वर्ष की अवस्था से जीवन-पर्यन्त इस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य का नियम लिया है और इसके अन्दर ऐसी एक शक्ति है जो मेरे अनुभव में आयी. यह चादर आपने जो ओढा. उसमें परमाणु औषधि का तत्त्व है. औषधीय गुण उसके अन्दर विद्यमान हैं और मुझे पूर्ण विश्वास था कि आप यदि चादर ओढ़ेंगे तो बीमारी चली जाएगी. यह कोई चमत्कार या जादू नहीं है, यह इसका वैज्ञानिक पक्ष है.
सदाचार के गुण से, हृदय की पवित्रता से, सद्विचार के द्वारा शरीर से निकलने वाले प्रतिक्षण इलेक्ट्रोनस - परमाणु में ऐसी प्रचण्ड शक्ति आती है कि वे परमाणु यदि वासित बन जाएँ और उसका उपयोग यदि कोई बीमार व्यक्ति करता है तो बीमारी चली जाएगी. उसके विचार में भी समता आ जाएगी. उसके विचार के अन्दर भी सद्भावना प्रकट हो जाएगी. यह परमाणु का गुण होता है.
जहां पर परमात्मा देशना देते हों, प्रवचन देते हों - उनके अतिशय में इतनी बड़ी विशेषता होती है कि बारह योजन तक (पूर्व काल के अन्दर यह एक प्रकार का माप था - इतने लम्बे-चौड़े विस्तार तक) कोई भी व्यक्ति उस परिधि में आ जाए तो उसके विचार में परिवर्तन आ जाएगा. विचार में एक आन्दोलन प्रगट हो जाएगा. उसके विचार सद्भावना से प्रतिष्ठित हो जाएंगे.
“अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः" पातंजल योगदर्शन में महान् ऋषि ने लिखा कि जो व्यक्ति सदाचारी होगा, अहिंसक, होगा, विचार में जिसके पवित्रता होगी, उसके पास आने वाला व्यक्ति, उसके वर्तुल के अन्दर, उसकी परिधि में यदि कोई आ गया तो वह विचार से आकर्षित बन जाएगा. उसके विचारों में परिवर्तन आ जाएगा. वह पूर्ण सात्विक बन जाएगा. अनेक आत्माओं के प्रति सहज ही एक भाव प्रगट हो जाएगा. यह विशेषता है. ब्रह्मचारी आत्माओं का आशीर्वाद इसीलिए लिया जाता है. सदाचारी आत्माओं का चरण-स्पर्श इसीलिए किया जाता है. साधु पुरुषों के चरण-स्पर्श में यही तो रहस्य है.
इसका वैज्ञानिक कारण है. शरीर में प्रतिक्षण "इलेक्ट्रोन्स” निकलता है. एक प्रकार की आभा निकलती है. जो आप चमड़े की आँख से नहीं देख सकते. वह दृष्टिगोचर नहीं होती. अदृश्य किरण है. शरीर की ज्यादातर शारीरिक शक्ति जो है, सद्विचार की जो प्रचण्ड शक्ति है उसको ये अर्थिव मिलता है. साधु उघाड़े पांव चलते हैं, ताकि शक्ति और शरीर के अन्दर संतुलन बना रहे. इसीलिए साधु संन्यासियों को उघाड़े पांव चलने
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गुरुवाणी
का आदेश दिया गया. जीवों की जयना के लिए और शरीर के अन्दर सदाचार और ब्रह्मचर्य
के द्वारा जो उसने शक्ति-संपादन किया है, शक्ति प्राप्त की है उसके अन्दर संतुलन बना रहे. वह शारीरिक मानसिक दृष्टि से भयंकर नुकसान कर जाएगा क्योंकि उस प्रचण्ड शक्ति को सहन करने की क्षमता वर्तमान शरीर के अन्दर में नहीं है. उसके संतुलन को बनाए रखने के लिए अर्थिव उसको मिलता रहे, उघाड़े पांव चलने से शरीर के अन्दर जो अधिक शक्ति का संग्रह है, उसका विसर्जन हो जाएगा. यह इसके पीछे रहस्य है, उघाड़े पांव चलने का और कोई कारण नहीं. अगर इसका वह उपयोग नहीं करता है और शक्ति की मात्रा बढ़ती चली जाती है तो उसका परिणाम • क्रोध आएगा, चिड़चिड़ापन आएगा. भयंकर द्वेष पैदा होगा. दूसरे प्रकार से वह शक्ति उसके लिए हानिकारक बन जाएगी.
इसीलिए यहां इसका महत्त्व रखा गया. ऐसी ही पवित्रता आपके अन्दर में आनी चाहिए. स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण, पढ़े-लिखे नहीं थे. उन्हें बहुत सामान्य प्रकार का अक्षर ज्ञान था परन्तु वे हृदय से इतने सरल और सज्जन पुरुष थे कि उनके सदाचार का आप जीवन देखिए: अपनी स्त्री को भी मां कहकर बुलाते थे. मां की उपासना में सारे जगत् की सभी नारियों को वह माँ की दृष्टि से देखते और यहाँ तक कि स्वयं अपनी परिणीता स्त्री को भी इसी माँ की गरिमा से अलंकृत करते. कैसी पवित्रता थी उनके विचारों में, तभी वो विवेकानन्द जैसे शिष्य को पैदा कर सके. सदाचार के सौन्दर्य जीवन में उतार कर अपने विचारों को शिष्य के द्वारा वे आकार दे सके. यह शक्ति सदाचार के गुणों में है. दुराचारों से भरा हुआ जीवन दुःखमय होता है.
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"आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः"
ऋषि-मुनियों का यह वाक्य है जो व्यक्ति आचार से भ्रष्ट होगा, वह विचारों से निश्चित नष्ट होने वाला है, और आचार से भ्रष्ट व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकता. "आचारहीनं न पुनन्ति वेदा". दुराचार का भयंकर तिरस्कार करते हुए ज्ञानियों कहासड़े हुए कान का कुत्ता किसी भी स्थान पर चला जाये कान में कीड़े घतपत करते हों, माथा सड़ चुका हो, दुर्गन्ध से भरा हो. उसकी दशा देखकर के हृदय में एक प्रकार की विकृत भावना आ जाएगी. कोई व्यक्ति अपने यहां उसे प्रवेश नहीं देगा. वह जहां जाएगा वहां तिरस्कार का पात्र बनेगा. ज्ञानियों ने कहा आध्यात्मिक जगत् में यदि कोई दुराचारी आत्मा आ जाये तो वह भी जगत् में इसी प्रकार से तिरस्कार का पात्र बनती है. उसके सुधरने का कोई उपाय नहीं रहता.
सदाचार का महत्व दर्शाते हुए कहा गया है
"प्राणभूतं चरित्रस्य "
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सदाचार को चरित्र का प्राण माना गया है. गृहस्थ जीवन में इसी सदाचार को सुरक्षित रखने के लिए विवाह-संस्कार का प्रावधान बताया गया है. हमारे पूर्वजों, ऋषि-मुनियों,
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-गुरुवाणी:
साधु महात्माओं ने वैवाहिक परम्पराओं का इसी आशय से मार्ग-दर्शन किया है ताकि विवाह ऐसा किया जा सके जिससे वह किसी प्रकार के मानसिक द्वेष और अशान्ति अथवा सामाजिक विग्रह से बचा रहे. नहीं तो आपकी शादी-विवाह से उनका क्या प्रयोजन. उसका प्रयोजन तो मात्र इतना ही था कि आपके चित्त की समाधि बनी रहे. समाज का सुन्दर रूप से विकास हो. यही उनका दृष्टिकोण था. ____ कैसी पवित्रता थी उन आत्माओं के अन्दर, जो इतना बड़ा विसर्जन कर पाईं. मन से अपने संसार का विसर्जन कर पाईं. बाहर से, व्यवहार से, उनका भोक्तृत्व नजर आता था, परन्तु उनका जीवन अन्दर पूर्ण योगमय था.
जैन धर्म की दृष्टि से श्रीकृष्ण के यहां पर सोलह हज़ार रानियां थीं. वे वासुदेव थे. उनके पास कोई कमी नहीं थी परन्तु उनको योगेश्वर कहा गया, क्योंकि उनकी भोग में कोई आसक्ति नहीं थी. उनका विरक्त जीवन था. जब भोग में रह करके भी व्यक्ति अनासक्त बन जाता है तो योगी बनता है. बाहर से कदाचित् आप योगी न बन पाएं पर मन से तो योगी बन जाना चाहिए. कदाचित् बाहर से मैं योगी न बन पाऊं, मैं अपनी साधुता को प्राप्त न कर सकू, कोई चिन्ता नहीं. अन्तर्मन से तो अपने को साधु बना देना है.
साधु शब्द का अर्थ है - सज्जन, सरल और साधक, मन को तो ऐसा साधु बना ही देना है कि मन के अन्दर पाप का प्रवेश न हो पाए.
रामकृष्ण में क्या प्रचण्ड शक्ति थी. विवेकानन्द ईश्वर के अस्तित्व में बहुत कम विश्वास करने वाले व्यक्ति थे. जब स्नातक होकर के आए, साधुओं की खोज में जब निकले. तब उनके मन में एक विचार पैदा हुआ कि इस काली के मन्दिर में कोई सन्त रहता है, उनके दर्शन कर लूँ. जीवन में सर्वप्रथम वहां गये. किसी व्यक्ति ने कहा कि भाई ! जाओ और कोई साधना नहीं, कोई मन्त्र, नहीं तंत्र नहीं, कोई चमत्कार नहीं. ब्रह्मचारी आत्माओं का जीवन ही चमत्कार से परिपूर्ण होता है. संकल्प ही सिद्धि का कारण बनता है, जगत् की भौतिक सिद्धि तो उनको सहज में मिलती है.
जब आध्यात्मिक दृष्टि आ जाती है. तब जगत् का कोई आकर्षण उस आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकता. रामकृष्ण जब बीमार पड़े, उन्हें कैंसर हुआ तो बहुत सारे लोग उनके पास आए और निवेदन किया. बड़े-बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति कलकत्ता से आए और बोले, भगवन! सारी दुनिया को आप रोग से मुक्त करते हैं. उसकी भावना पूर्ण हो जाती है. लोग यहां आकर के शांति का अनुभव करते हैं. आपके चरणों में बैठकर आनन्द लेते हैं. हमें दर्द है कि आपको यह भयंकर व्याधि हो गई और कोई उपचार इस समय नहीं. उस ज़माने में कहां इसका उपचार था. निदान भी मुश्किल था तो उपचार कहां से होता.
हमारी प्रार्थना है कि मां काली से आप प्रार्थना करें और यौगिक शक्ति के द्वारा इस
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गुरुवाणी:
बीमारी को आप दूर करें. हमारी यह भावना है, कि आप रोगमुक्त हो जाएं. रामकृष्ण पहले तो हंसे और हंस करके उन प्रतिष्ठित व्यक्तियों से और विद्वानों से कहा.
"तुम मुझे समझ नहीं पाए. आज तक क्या तुम मुझे पागल समझते हो, मुझे मूर्ख समझते हो."
नहीं! ऐसी कोई बात नहीं. किसने कहा ?
"तुम बात तो ऐसी ही कर रहे हो कि जैसे मैं मूर्ख हूं, पागल हूं, कुछ समझता ही नहीं हूं. क्या बात करते हो इस शरीर के लिए मैं अपनी प्रार्थना लुटा दूं और मां से यह याचना करूं. कितना मूर्ख हूं कि राख के अन्दर घी डालूं. यह शरीर जलने वाला है, नष्ट होने वाला है. कल इसे तुम जला कर के राख कर दोगे. मैं अपनी अन्तरात्मा की प्रार्थना, इस शरीर के लिए कैसे लुटा दूं. मां की प्रार्थना इसलिए करूँ. ऐसी मूर्खता रामकृष्ण से नहीं होगी." ऐसी विरक्त भावना थी.
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वे एक सामान्य सन्त थे, पढ़े-लिखे नहीं थे, गृहस्थ जीवन में थे और फिर भी उनका मन सन्त की तरह था. वे एकदम शांत और सज्जन स्वभाव के थे. आप उनकी गहराई देखिए आत्मा का लक्ष्य आप देखिए कितनी जागृत अवस्था थी और उस जागृति के अन्दर उन्होंने अपने शरीर का विसर्जन कर दिया पर कभी मां से याचना नहीं की कि "मां तेरा शिष्य हूं और मुझे दुःख से तू मुक्त कर दे" नहीं "मैंने पूर्व में कोई ऐसा अपराध किया है जिसकी सजा मुझे मिली है और प्रसन्नता से मुझे सजा भोग लेनी है चाहे शारीरिक पीड़ा के द्वारा हो या किसी अन्य प्रकार से हो. सजा, सजा है.
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उन्होंने अन्तिम समय विवेकानन्द को बुलाया. सदाचारी आत्मा के गुण और विचार कैसे होते हैं, उसका यह एक नमूना है. बुलाकर के विवेकानन्द से कहा कि मेरे मन में एक विचार आता है, मेरे पास आठ सिद्धियां हैं और वे सहज में मिली है. बिना याचना के, बिना मांगे मिल गयीं क्योंकि दृष्टि इतनी शुद्ध थी और जहां दृष्टि शुद्ध होगी, वहां सारी सिद्धियां बिना बुलाये आएंगी.
कैसे देखिएगा कि यह एक अपूर्व कला है. जो नेत्र परमात्मा के दशर्न करे, जो नेत्र वीतराग निर्विकार दृष्टि को देखे, जो नेत्र साधु-सन्तों के चरणों में गिरे. संत पुरुषों का दर्शन करे और यदि उस नेत्र में पाप का प्रवेश हो जाए तो आंख में धूल पड़ जायेगी. ज्ञानियों ने कहा- वहां ऐसी आंख का क्या काम वह दर्शन की साधना कहां सफल ?
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- सारी सुन्दरता परमात्मा के चेहरे में है. सन्त-पुरुषों के आत्मिक सौन्दर्य में छिपी है और जब उस सौन्दर्य का पान करने वाली आत्मा में गन्दगी प्रवेश होने लगे तो हमारी साधना का मूल्य क्या रहा? ज्ञानियों ने कहा, जिस आंख में ऐसी पाप की धूल पड़ी हो उसका कोई मूल्य नहीं.
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% 3Dगुरुवाणी
महावीर ने तो कह दिया कदाचित् अगर ऐसी भूल हो जाए तो उसका निर्देश दियाः ।
“चित्तभित्तिम् न जोईज्जा नारी वा सकलंकीया" उत्तराध्ययन सूत्र में कहा कि जिस प्रकार से दोपहर के समय, जब सूर्य का भयंकर ताप पड़ रहा हो, भूल से उस सूर्य की तरफ नजर चली जाने पर दृष्टि स्वयं नीचे चली जाती है, उसी प्रकार संयमी और सदाचारी पुरुष की दृष्टि, यदि दीवार पर लगे स्त्री के चित्र पर भी चली जाए तो वो संयमपूर्वक अपनी दृष्टि को संयमित करें.
विवेकानन्द में कैसे गुण थे. अमेरिका जाने के बाद उनकी सुन्दरता देखकर, उनका आकर्षण देखकर कई स्त्रियां आई. एक स्त्री ने आकर जब विवाह का प्रस्ताव रखा और कहा कि महात्मन्! मेरी इच्छा है कि आपकी अर्धांगिनी बनूं. उन्होंने कहा कि मेरी भी इच्छा है. मुझे भी बड़ा आनन्द होता, यदि मेरे को तेरी जैसी बहन मिलती. सुन्दर मां मुझे मिलती, बड़ा आनन्द मिलता. विवेकानन्द का जवाब सुनकर वह चली गई.
विदेश जैसे अशुभ निमित्त में रहकर भी अपने को संयमित रखा. वे जानते थे. उनके पास संयम का व्रत था कि जरा भी विचार में शिथिलता नहीं आनी चाहिए. वे पूर्णतः जागत थे. अस्तु जीवन में कभी कलंक नहीं लग पाया, उनका जीवन निष्कलंकित रहा. नहीं तो उनके पास क्या कमी थी. लाखों अनुकरणकर्ता थे. बहुत बड़े-बड़े श्रीमन्त राजा-महाराज उनके अनुयायी थे. विद्वत्ता की बड़ी प्रचण्ड ताकत थी. प्रतिभा थी. सब कुछ कर सकते थे, सब कुछ करने में स्वतंत्र थे परन्तु नहीं. उनकी मर्यादा थी, और वे मानते थे कि मर्यादा में ही जीवन सुरक्षित है, और इसीलिए इतने सुन्दर विचार उनमें आए.
जीवन का अन्तिम समय था और रामकृष्ण ने कहा कि मेरे पास आठ सिद्धियां हैं और वे सहज में प्राप्त हुई हैं, बिना मांगें मां की कृपा से मुझे मिली हैं और मैं चाहता हूं कि वे सिद्धियां मैं तुझे देकर के जाऊं. विवेकानन्द ने चरणों में गिरकर कहा कि इन सिद्धियों को पचाने की ताकत मुझ में नहीं है.
भगवन्! कृपा करिए - यह भौतिक लालसा, संसारी प्रपंच मुझे नहीं चाहिए, मेरा जीवन जगत की दुकानदारी के लिए नहीं, इन सिद्धियों से तो जीवन का निश्चित पतन होगा, फिर भी मैं आपसे जानना चाहता हूं, भगवन्, क्या इन सिद्धियों का आत्मा से संबंध है? परमात्मा की खोज में क्या सिद्धियां सहायक हैं? क्या सिद्धियों के द्वारा मैं परमात्मा को पा सकता हूं? रामकृष्ण ने कहा कि बिल्कुल नहीं. यह सिद्धि तो जगत् के लिए है, चमत्कार के लिए है. इससे आत्मा का कोई प्रयोजन नहीं. परमात्मा से इसका कोई संबंध नहीं. __ वे चरणों में गिर गए. विवेकानन्द ने कहा – भगवन् कृपा करिए, यह जहर मुझे मत दीजिए. मुझे मत दीजिए, मुझे तो आपका अमृत चाहिए, आशीर्वाद चाहिए. मैं परमात्मा ।
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गुरुवाणी
का उपासक हूं आत्मा की सफलता मुझे मिले और मेरी साधना उज्ज्वल बने. जगत् के प्रलोभन और प्रपंच को प्राप्त करने का यह भयंकर साधन ये सिद्धियां मुझे नहीं चाहिए.
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जिसके लिए आप दुनिया भर में भटकते हैं. न जाने कहां-कहां जाकर माथा टेक कर आते हैं, विवेकानन्द के सामने वे चीजें आयीं और गुरु महाराज आशीर्वाद के रूप में वे चीजें दे रहे हैं और विवेकानन्द ने कहा कि यह ज़हर मुझे मत दीजिए. मुझे नहीं चाहिए.
विचार के अन्दर प्रलोभन का यदि इस प्रकार प्रतिकार कर दिया जाये तब साधना सक्रिय बनती है, तब यह शक्ति प्राप्त होती है. गुरुजनों के पास जाएं. हाथ रखा और कार्य हो जायेगा, वे परमाणु औषधि रूप हैं, कोई चमत्कार नहीं.
विवेकानन्द जब पहली बार गये तो वे अर्द्धनास्तिक जैसे व्यक्ति थे. कालेज से निकल कर के आये थे और कहा कि मुझे ईश्वर के अस्तित्व में ज़रा शंका है. आप मुझे आशीर्वाद देंगे. ईश्वर के विषय में कुछ अनुभव कराएंगे? आत्मा की शक्ति के विषय में कुछ परिचय आप मुझे देंगे ?
रामकृष्ण हंसे वे अति सरल थे. बड़े वैचारिक क्रान्ति वाले व्यक्ति थे. उन्होंने कहा "बेटा मेरे पास आओ ईश्वर का अनुभव करना है. आत्मा की शक्ति का तुम्हें परिचय
करना है.
कोई मन्त्र नहीं, कोई तन्त्र नहीं, कोई चमत्कार नहीं. मन से सकंल्प किया, दृढ़ संकल्प, और संकल्पपूर्वक विचारों से जैसे ही उसके माथे पर हाथ रखकर शक्तिपात् किया, तभी विवेकानन्द के मस्तिष्क में प्रचण्ड शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ. विवेकानन्द ने अपने अनुभव में लिखा मैंने जीवन में ऐसा प्रकाश नहीं देखा, बिजली चमकने से भी कई गुणा अधिक प्रकाश था. मैं मूर्छित हो गया बेहोश हो गया. उस शक्ति को पचा नहीं पाया. आधे घण्टे तक मूर्छित अवस्था में पड़ा रहा. जैसे ही होश आया, चरणों में गिर गया और कहा कि मैं कान पकड़ता हूं. आत्मा के अस्तित्व के विषय में आज मुझे पूर्ण विश्वास हो गया.
रामकृष्ण ने कहा यह तो एक सामान्य चीज़ है आत्मा अनन्त शक्तिमय है. मेरे पास यह शक्ति कहां यह तो तुझे आत्मा के अनुभव के बारे में ज़रा-सी जानकारी दी. माथे पर हाथ रखा और तू शक्ति को पचा नहीं पाया. इन शक्तियों का तू विकास कर, ये शक्ति तेरे अन्दर भी निहित हैं.
सदाचार गुण से आत्मा सहज ही इन शक्तियों का विकास प्राप्त कर लेती है. जो साधु संतों के पास आशीर्वाद की अपेक्षा से आते हैं, वे सदाचारी, ब्रह्मचारी आत्माएं होती हैं. उनके विचारों में पवित्रता रहती है. जैसे माथे पर हाथ रखा कि सारा परमाणु उसके दिमाग में उतरता है, मेडिसन बनता है, आरोग्य प्राप्त करता है, मानसिक शान्ति प्राप्त करता है, सद्भाव के द्वारा अशुभ कर्म क्षय करके पुण्य को जन्म देता है. साधु सन्त त्यागी
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-गुरुवाणी
पुरुषों के प्रति आदर आ जाए, सद्भाव आ जाए, परमात्मा के प्रति यदि पूज्य भाव आ जाये तो वह अशुभ कर्मों का निवारण कर लेता है और वहां जैसे ही अशुभ कर्मों की दीवार टूट जाये, वहां पुण्य का जन्म होता है, और जैसे ही पुण्य पुष्ट बना, अनुमोदना के द्वारा वे पुण्य आपकी हरेक भौतिक क्रिया में सहयोग देने वाले बनते हैं. ___ लोग चमत्कार के पीछे भटकते हैं. बिना सदाचार के चमत्कार आ ही नहीं सकता. इसीलिए मैं कहूंगा कि आप भटकना ही बन्द कर दें. स्वयं की शक्ति का ही विकास प्राप्त करें. एक पत्नी-व्रत के अन्दर, पूर्ण सदाचारी जीवन जीने का प्रयास करें. गृहस्थ जीवन की साधना में भी शक्ति है.
एक घटना हमारे जैन धर्म के इतिहास की है. एक सज्जन शादी करने गये थे. लग्न का समय था. शादी के अन्दर फेरा फिराया जा रहा था. फेरा फिरते-फिरते मन के अन्दर वैराग्य आ गया. यह चतुर्मुखीरूप संसार - मनुष्य गति, तिर्यञ्च गति, नरक गति, स्वर्ग गति. संसार चतुर्गतिरूप है और चार-चार फेरा मुझे फिरना पड़ता है. तीन फेरे तक पुरुष आधा रहता है और चौथे फेरे में तो आपको मालूम ही है. जीवन-पर्यन्त श्रीमती के आदेशों का अनुपालन करना होगा. कैसी विचित्रता है हमारे नियमों की कि सांसारिक नियमों की भी बड़ी विशेषता है. सांसारिक प्रतिक्रिया में भी बड़ी विशेषता है. यदि वैराग्य भाव आ जाए तो, चतुर्मुख रूपी संसार – चार फेरों में फिर जाए. जगत् का बन्धन स्वीकार कर लें, यह वैराग्य भावना कि मैं कहां आ गया हूं. सावधान होने के बाद भी असावधान हो कर आया और यहां जगत् की ग्रन्थि मैंने बांध ली. जिस संसार के नाश के लिए मेरा जन्म हुआ और फिर से मैं संसार पैदा कर रहा हूं. ऐसा वैराग्य आ गया कि वह शादी करने गया था. फेरा फिर रहा था और उस लग्न-मण्डप के अन्दर कैवल्य ज्ञान प्रकट हो गया. केवली बन गये. गये थे शादी करने और केवली बन गये, सर्वज्ञ बन गए. विचार का वैराग्य ऐसा प्रचण्ड हो जाए. मन से यदि साधु बन जाएं तो ज्ञानियों ने कहा कि यह संसार आपके लिए स्वर्ग बन जाये. ये सारी साधना आपके जीवन में सुगन्ध भर देगी. संसार में रहें लेकिन अलिप्त रहकर. यदि आप पानी की बाल्टी में हाथ डालें - क्या पानी चिपकेगा? स्लिप हो जाएगा. वैराग्य के तेल से यदि आत्मा का मर्दन कर दिया जाये. फिर यदि संसार में भोग के कीचड़ में गिर जायें – लिप्त नहीं बनेगा - अटेचमेंट नहीं होगा, अनासक्त रहेगा. घर के अन्दर गर्म दूध की और चाय की तपेली जब आप उतारते हैं. इसे सीधे स्पर्श नहीं करते. बीच में संडासी रखते हैं - अप्रत्यक्ष कि कहीं ऐसा न हो कि इसकी गर्मी मेरे हाथ को जलाये.
संसार के अन्दर भोग का प्रयोग भी ऐसे ही करना है. वैराग्य की संडासी बीच में रखनी. है प्रत्यक्ष नहीं, अप्रत्यक्ष रूप से. आत्मा से संबंध नहीं, विचारों से कोई मेल नहीं, ठीक है संसार है. परिजनों का पालन-पोषण करना मेरा नैतिक कर्तव्य है, इस गृहस्थ
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गुरुवाणी
आश्रम का धर्म है, यही समझकर के इसका उपयोग करना. संतान प्राप्ति के लिए ही यह संबंध होता है, इसके आगे इसका कोई प्रयोजन नहीं. विषय के पोषण के लिए नहीं. समष्टि की तरह उसका उपयोग करना ताकि आत्मा के लिए वह हानिकारक न बने. वर्तमान काल बड़ा दुःखद है, यह तो भूतकाल की बातें मैंने आपसे कही. हमारे इस वर्तमान में आप झांककर के देखिए:
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हर व्यक्ति का जीवन दुराचार की गंध से भरा हुआ है. कहां से सदाचार उसके अन्दर प्रगट होगा. कहां से वह साधना उसके अन्दर सक्रिय बनेगी. मैंने कल ही कहा था जो तीर्थंकरों को जन्म देने वाली माता, अवतारी पुरुषों जैसे राम और कृष्ण को जन्म देने वाली माता है. उन माताओं का यदि आप अभिनय करें अपमान करें, उनके अंग प्रदर्शन का यदि आप विषय वासना से निरीक्षण करें, वह आत्मा में साधना फलीभूत कैसे होगी? वे धर्मबीज, वहां वृक्ष कैसे बनेगा ? मोक्ष का फल देने वाला कैसे बनेगा ? कभी नहीं माँ रूपी उस नारी को घोर अपमानित किया जा रहा है.
स्त्री जाति को विषय का साधना मान कर के चल रहे हैं. जगज्जननी माताओं के साथ यदि ऐसा व्यवहार किया गया तो व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो पाएगा. धर्मशास्त्रों ने निर्देश दिया है और पुराण और उपनिषद ने भी स्त्री जाति का कितना बड़ा सम्मान किया है. इसीलिए मैंने कल कहा था कि जहां नारी जाति का सम्मान किया जाये, मां के रूप में उसे स्वीकार किया जाये तो वह जगत् स्वर्ग बनता है. वहाँ दुष्काल नहीं आएगा. प्रकृति का प्रकोप नहीं आएगा. दुर्भिक्ष नहीं पड़ेगा. वहां इस प्रकार का रोग व्यापक नहीं बनेगा. वे परमाणु इतने शुद्ध होंगे, विचार इतने सुन्दर होंगे कि वातावरण परिवर्तित कर देंगे.
परन्तु वर्तमान स्थिति बड़ी नाजुक है यह रोग घर घर तक पहुंच चुका है, जो साधन व्यक्तियों में चरित्र के निर्माण के लिए होने चाहिए, नैतिक दृष्टि से जीवन के उत्थान के लिए होने चाहिए, उन साधनों का, रेडियो या दूरदर्शन का कितना घोर दुरुपयोग आज किया जा रहा है.
आपकी आंख में और कान में रोज़ विष डाला जा रहा है, वह संतान क्या करेगी. उस संतान के भरोसे यह देश कैसे चलेगा? पहले ही अपनी मानसिक दृष्टि से दुराचार के रोग से घिरा हुआ जीवन राष्ट्र का क्या रक्षण करेगा? अपने जीवन का जो रक्षण नहीं कर सकता, वह राष्ट्र का क्या रक्षण करेगा ?
गुजरात की एक बहुत छोटी-सी घटना है. अंग्रेजों के समय एक शूरवीर तलवार लेकर के जब युद्ध में गया. युद्ध का संचालन करने वाला अंग्रेज़ कमाण्डर था और जब उसने चावड़ा को देखा, वनराज चावड़ा को दोनों हाथों से युद्ध में तलवार चला रहा था. बड़ा बहादुर था, बड़ा शूरवीर था. आज भी गुजरात उसे बहुत याद करता है, किसी प्रकार
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-गुरुवाणी
दुश्मनों के चंगुल में फंस गया, गर्दन काट दी गई. गर्दन काटने के बाद भी उसकी तलवार दस मिनट तक तो चलती रही. यह जोश कहां से आया? अंग्रेज़ इस चमत्कार को देखकर विचार में पड़ गये. गज़ब का आदमी है - जीवन में नहीं देखा. गर्दन काट दी फिर भी दस मिनट तक दोनो हाथों से तलवार चलाता रहा.
युद्ध समाप्त होने के बाद उस अंग्रेज ने अपने मस्तिष्क में सोच लिया कि इसके मां-बाप से मैं मिलूंगा. इसमें ऐसी क्या विशेषता थी? घर पर गया. बाप था, मां मर चुकी थी. घर पहुँचकर अंग्रेज ज़रा जानकारी लेना चाहते थे. उनके पिता से जा कर के पूछा – मैं एक जानकारी लेने आपके पास आया हूं. तुम्हारा लड़का कैसा शूरवीर था, युद्ध में गर्दन कटने के उपरान्त भी तलवार चलाता रहा, ऐसा अद्भुत चमत्कार कैसे घटा? ऐसी कौन सी शक्ति थी उसमें? मेरी इच्छा है कि आप मेरे साथ इंग्लैण्ड चलें और हमारे देश में भी ऐसी संतान आप पैदा करें, जो हमारे देश का गौरव बने. बाप ने क्या जवाब दिया -
संतान तो मिल सकती है - इसके जैसी मां तुम कहां से लाओगे? उसने उस घटना का वर्णन किया कि उसके मां की कैसी पवित्रता थी. तब शेर की संतान की तरह तुमको इसने वीरता का परिचय दिया. इसकी मां का जीवन देखा, आदर्श देखा. बाल्यकाल था. यह बालक निर्दोष था. सिर्फ तीन वर्ष की अवस्था थी. पालने में झूल रहा था. मैं बाहर से आया. इसकी मां रसोई बना रही थी और पास में ही पालना पड़ा हुआ था, झूला. गांव में रिवाज़ है बालक को झूले में झुलाया करते हैं, उसको सुला देते हैं, माताएं गीत भी गाती रहती हैं ताकि मां का मन भी बहलता रहे. मां का संबंध भी बना रहे. उस समय मैंने आकर के कुछ नहीं किया. इसकी मां का जो घूघट था, वह मैंने उठाकर नीचे किया, चूंघट दूर किया और इसकी मां ने मुझे कहा कि पर-पुरुष के सामने इस तरह ठिठोली करते हए. तुम्हें शर्म नहीं आती, बालक पर क्या संस्कार आयेगा? यह इस बालक में आपकी छाया कैसी पड़ेगी. इसकी सुषुप्त चेतना तो जागृत है जीभ काट कर के वहां प्राण दे दिया इसकी मां ने.
अब आप विचार करिए - इतनी सी ठिठोली का परिणाम उसकी मां जीभ काट के रसोड़े में मर गई. तब जाकर के स्त्री की संतान वह बालक पैदा हुआ, क्या यह आपके अन्दर है?
अंग्रेज डायरी में लिखता है कि यह हिन्दुस्तान में ही मिल सकता है. भारतीय परम्परा के संस्कार में ही ऐसे शूरवीर जन्म लेते हैं. यह दुनिया में खोजने पर नहीं मिलेगा. यह हमारी सभ्यता पर हमारा अधिकार (मोनोपाली) है. क्या पवित्रता थी? क्या यह देश था? हमारे युवा आश्रमों में से गुरुजनों का आशीर्वाद लेकर निकलते थे और उन गुरुजनों का आशीर्वाद कैसा फलीभूत होता था. राष्ट्र कितना सुरक्षित था. जब वे चलते - युवाओं
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-गुरुवाणी
के अन्दर वह तेज होता था – जमीन धंसती थी. हमारी संतान पच्चीस वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्य आश्रम में से गुरुजनों का आशीर्वाद लेकर जब बाहर आते.
धर्मं चर. धर्म का आचरण करना. अधर्म का प्रतिकार करना. यह आशीर्वाद होता था. वे बालक जब बोलते थे तो जैसे सिंह गर्जना करते हों, शब्दों का वाइब्रेशन - (कम्पन) इतना होता था कि सामने वाले का हृदय दहल जाये. वह ताकत थी, शेर की संतान थी. उनके पास गर्जना थी. जीवन में संयम का बल था. देश को ऐसी स्थिति में कोई खतरा नहीं था.
इस परम्परा को जैसे हमने दूर किया और इसका परिणाम कमजोर हुआ देश और आज तो ऐसी स्थिति है कि नारे तो हम लगा लेंगे, जलूस निकाल लेंगे, चिल्ला लेंगे, उत्तेजना आ जाएगी परन्तु उत्तेजना में शक्ति कहां. चिल्ला लीजिए. गली के कुत्ते भी बहुत चिल्लाते हैं, पूरी रात नींद बिगाड़ देते हैं पर ताकत है शेर से मुकाबला करने की? हमारी शारीरिक शक्ति तो आप देखिए – गन्ने में से रस निकाल लेते हैं और सांझा बचता है, यह हमारी स्थिति है.
सुदामा ऋषि के जैसे तो हम नज़र आते हैं कि बिना एक्सरे के एक-एक हड्डी गिन लो. यह हमारी स्थिति है आज के युवाओं की, ताकत कहां गयी? सदाचार की शक्ति कहां गयी? वह पवित्रता कहां गयी? विचार की सुन्दरता कहां गई? कछ भी नहीं मिलेगा. पच्चीस वर्ष के अन्दर तो बुढ़ापा नजर आता है. ___ पांच बरस, दस बरस की बालक की उम्र होती है, वहां तक ठीक है, बालक स्वस्थ है और जैसे ही सोलह-सत्रह बरस के ऊपर गया, बीमारियों से घिर जाता है, मेडिसन चालू हो जाती है. फेमिली डाक्टर रोज आकर के उसका जीर्णोद्धार करते हैं. वह मकान, जिसकी नींव इतनी कमजोर है कि यदि आपने छत बनायी तो दो वर्ष के बाद पानी टपकने लग जाये. दीवार में दरार हो जाये और मकान हिलने लग जाए. वह मकान कब तक टिकेगा. पन्द्रह बरस की उम्र हुई. अभी तो मकान का निर्माण हुआ और उससे पहले ही यदि जीर्णोद्धार शुरू हो जाए - दवाइयां और इंजेक्शन शुरू तो वह इमारत अपने जीवन की सेंच्युरी कब पूरी करेगा? चालीस-पचास वर्ष से पहले ही तबादला हो जाएगा. उनके जीवन को देखकर दया आती है. यह हमारे आज के संस्कार हैं.
स्कूलों में यही संस्कार मिलता है. वहां का समाज एवं परिवेश ऐसा बन गया है. घर में आइए तो घर में रोग व्यापक बन गया. माता-पिता का बालकों पर कोई अधिकार नहीं रहा. धार्मिक संस्कार से शून्य उनका जीवन बन गया. पोस्टर देखिए तो ऐसे होंगे कि जो भावना व वासना को उत्तेजित करने वाले हों. इस प्रकार के विज्ञापन आपको मिलेंगे. जहां जाइये वहीं पर यह जहरीली हवा आपको मिलेगी. इस भयंकर चक्रवात में, तूफान
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गुरुवाणी:
में अपने सदाचार का आप रक्षण कैसे करें. राष्ट्र को बल कहां से मिलेगा ? भ्रष्टाचार बढ़ेगा. विषय की पूर्ति के लिए गलत रास्ते लेने पड़ेंगे. रोज ये दुर्घटनाएं हम अपनी नज़रों से देखते हैं, और फिर उसमें हमारी सरकार का साथ मिल जाता है.
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घर-घर में कसाईखाना खोल दिया गया है. जहां-जहां जाता हूं विज्ञापन देखता हूं दो सौ रुपए के अन्दर गर्भपात. पढ़ते समय शर्म आती है, मन में इसका दर्द पैदा होता है. हिंसा जिसे हमारी संस्कृति के अन्दर भयंकर अपराध माना गया, सरकार उसको प्रोत्साहन देती है, और हमारी आर्य संस्कृति के परिवार में मानव हत्या जैसे भयंकर पाप किए जाते हैं.
कभी आपके हृदय के अन्दर यह भावना आती है. माताओं के हृदय के अन्दर कभी यह करुणा आती कि अपने पेट में पल रहे उस बालक को हमने स्वयं मार डाला, हत्यारा बना प्रभु का अपराधी बना. सामाजिक दृष्टि से तो अपराध है ही आध्यात्मिक दृष्टि से तो सबसे बड़ा पाप है. गर्भपात के द्वारा पंचेन्द्रिय की हत्या, मानव हत्या जैसे भयंकर पाप इस जगत् में किए जा रहे हैं कि इसके वर्णन के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं.
आज तक हम पशुओं को बचाने के लिए चिल्लाते रहे. अब तो मुझे चिल्लाना पड़ेगा कि अपने बालक को बचाओ. पाप को छिपाने के लिए व्यक्ति कितना बड़ा पाप करता है और उसमें फिर सरकार सहायक बनती है. विदेशों के अन्दर इसका बड़ा प्रतिकार किया जा रहा है. अमेरिका की प्रजा में बहुत बड़ा विद्रोह चल रहा है. रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय इस चीज़ को बिल्कुल नहीं मानता. इस्लाम बिल्कुल नहीं मानता. परन्तु आश्चर्य है कि हमारी हिन्दु संस्कृति या जैन संस्कृति इस बात को ज़रा भी स्वीकार नहीं करती. यह तो सरकार का अत्याचार है, बलात्कार है और हमारी आवाज तक नहीं उठती. हमनें उसे स्वीकार कर लिया. कोई आन्दोलन नहीं. आपको स्वयं इसका निर्णय करना पड़ेगा. यह हमारी वर्तमान स्थिति है.
कहां जाएं! कैसे हम अपने सदाचारी जीवन की रक्षा कर सकें! मैं तो कहूंगा कि पहले आप स्वयं अपने परिवार में इस प्रकार तैयारी करिए. अपने परिवार को सुन्दर बनाइए ताकि आपका आदर्श देख कर के दूसरे व्यक्ति कुछ पा सकें. अपने बच्चों को आप ऐसा तैयार करिए. गुरुजनों के सम्पर्क में लाइए. मनोवैज्ञानिक उपचार करिए ताकि उनके अन्दर मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आ जाए और भविष्य में वह सन्तान आपके लिए आशीर्वाद बने और अगर यह संस्कार नहीं दिया तो यह संतान भविष्य में आपको रुलाएगी. आपके जीवन को, आपकी मौत को भी बिगाड़ कर रहेगी क्योंकि सदाचार ही नहीं तो सद्विचार कहां से आएंगे. बिना सदाचार के सद्विचार जन्म ही नहीं लेते.
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- गुरुवाणी:
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पेट काट करके भूखे रह कर के एक व्यक्ति ने अपने लड़के को विदेश भेजा. पुण्य ने साथ दिया कि होशियार निकला. मेधावी छात्रवृत्ति मिल गई. परन्तु इकलौता लड़का होने से माता-पिता का वात्सल्य प्रेम ऐसा था. प्रेम का अतिरेक कई बार पतन का कारण बनता है, भूखे रहकर के फटा हुआ कपड़ा पहन कर के अपने बालक को पढ़ाने की भावना से उस माता-पिता ने बालक को विदेश भेज दिया और धर्म संस्कार जरा भी नहीं दे पाए. बाल्यकाल से लाड़ और प्यार सिर्फ भौतिक अपेक्षा कि लड़का बड़ा होगा, होशियार • होगा, कमाकर के लाएगा और हम बड़े आनन्द से अपना जीवन व्यतीत करेंगे. अमेरिका में उसने एम.बी.ए. किया. व्यापार प्रबन्धन में उसने स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित कर ली. बहुत बड़ी कम्पनी का प्रस्ताव मिला और उसने पद स्वीकार कर लिया.
बहुत पुरानी बात है, जब वह स्टीमर से बम्बई आ रहा था. बाप उसे लेने के लिए गया. कम्पनी से पत्र मिला कि तुम्हारा पुत्र इस स्टीमर से उतरने वाला है क्योंकि घर का परिचय और पता था. बेचारा मैले फटे कपड़े पहने हुए था कि इतने बड़े पद पर मेरा लड़का आ गया. हृदय के अन्दर बड़ा उल्लास था, आज मेरा बालक मेरी कल्पना को साकार करने के लिए आ रहा है. मैंने जो विचार किया था, वह विचार आज पूर्ण ना. अपार प्रसन्नता थी. गरीब बाप अपने बेटे की आशा लेकर बहुत उमंग लेकर कि आज उसे देखूंगा "पोर्ट" (बन्दरगाह) पर गया. प्रतीक्षा कर रहा था कि स्टीमर आएगा. बहुत सारे आफिसर उसकी कम्पनी के उसको लेने स्वागत के लिए गए. पुष्प गुच्छ लेकर, गुलदस्ता लेकर फूल की मालाएं लेकर गए. यह बेचारा फटा हुआ कपड़ा, दरिद्र जैसा दिखाई पड़ने वाला नीचे खड़ा रहा. वहां बड़े-बड़े लोग थे, चपरासी ने घुसने ही नहीं दिया. अगर वहां यह कहता कि यह लड़का मेरा है तो मार खाता कि कोई पागल आ गया. वह बेचारा नीचे आ गया कि लड़का मुझे देखेगा जरूर मुझे बुलाएगा. मेरे पांव पड़ेगा. मैं उसे अपने प्रेम के आंसुओं से नहला दूंगा बड़ी सुन्दर कल्पना थी, परन्तु वह बालक जो दस बरस तक अमेरिका रहा. वह भौतिक वातावरण, वह दुराचरण का उस पर प्रभाव था. वह जैसे ही उतरा और बहुत बड़े-बड़े आफिसर मालाएं पहनाने लग गए, गुलदस्ता देने लग गए, हाथ मिलाने लग गए. पूरी पाश्चात्य संस्कृति उसके जीवन में ऐसा घर कर गयी थी. वह ऊपर से देख रहा है कि मेरा बाप नीचे खड़ा है, बाप एक दृष्टि से उसे देख रहा है. कब मेरा बालक नीचे उतरेगा, मेरे पांव पड़ेगा, मुझे नमस्कार करेगा. अब उसको बड़ा संकोच हो रहा है कि इतने बड़े-बड़े आदमियों के बीच में कैसे इनको प्रमाण करूं, इनसे कैसे मिलूं और कैसे इनसे बात करूं? अब वह बालक आखिर बाप की ही संतान थी. ध्यान बार-बार उधर जा रहा था.
एक साथी ने पूछा "हू इज़ देयर"
कौन है वह वह बोला
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"ही इज़ माई सरवेंट. "
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-गुरुवाणी
देखा आपने. जैसे ही बाप के कान में यह शब्द गया कि मुझे नौकर कहता है, चला गया. जिन्दगी में इस लड़के का मुंह मुझे नहीं देखना. भूखे मर जाऊंगा, आत्मघात कर लूंगा पर इस नालायक कुपुत्र का मैं मुंह कभी नहीं देखूगा.
समझ गए, धर्म संस्कार से शून्य जीवन का यह परिणाम आता है. बाप को नौकर कहते हुए शर्म नहीं आयी. उसने विचार नहीं किया कि मैं क्या कर रहा हूं? जिसने मुझे जन्म दिया, भूखे रहकर और दिन-रात मुझे खिलाया. फटा हुआ कपड़ा पहन कर मुझे सुन्दर कपड़ा पहनाया और कितना ऋण लेकर, कितनी मजदूरी करके मुझे अमेरिका भिजवाया. मुझे इस पद पर बिठाने का सारा श्रेय तो मेरे बाप का ही है, वह सब उपकार भूल गया, साफ हो गया. यह पश्चिम की आधी इतनी खतरनाक है कि यह सारे सदविचारों को उड़ाकर के रख देगी.
अगर जीवन में आप सावधान नहीं रहे और ऐसी संतान आपके जीवन में आगे चलकर घातक सिद्ध होगी. वह मानसिक शांति देने में कभी सहायक नहीं बनेगी. इसीलिए बाल्यकाल में ही ऐसा संस्कार दिया जाये कि सदाचार से वह आत्मा अपने जीवन को प्रतिष्ठित कर पाए. उनके जीवन के अन्दर सद्विचार उत्पन्न हों. उनका जीवन एक वट वृक्ष, की तरह बने. अनेक आत्माओं को शीतल छाया देने वाला बने. अनादि काल का संस्कार है और हम विषय की दुर्गन्ध में रहे, तो संयम की सुगन्ध हमको मालूम ही नहीं पड़ेगी.
चांदनी चौक के अन्दर मफतलाल सेठ की दुकान थी. इत्र की दुकान थी. बेचारा सुबह हरिजन आता, झाडू देकर दुकान साफ किया करता. मेरी दुकान को जरा अच्छी तरह से साफ रखना, बाहर गन्दगी न रहे, गन्दगी न रहे. मैं तुझे इनाम दूंगा. वह इनाम के प्रलोभन में वह बेचारा हरिजन रोज़ सुबह आता और बड़ी साफ-सफाई कर जाता.
एक दिन हरिजन ने कहा, सेठ साहब! आपने कहा था इनाम के लिए अब दीवाली नजदीक आ रही है, कुछ बख्शीश. मफतलाल सेठ क्या देने वाले थे. काम करा लिया. उन्होंने कहा कि देखो - गुलाब का इत्र तुम्हें देता हूं. एक सींक पर इत्र का फूट्टा बनाकर के कहा कि लो सूंघो. थोड़ा और ज्यादा दूंगा अपने परिवार वालों को भी जाकर देना. यही तो इनाम है. मेरे पास जो चीज़ है वही तो इनाम में दूंगा. ____ जिन्दगी में कभी इत्र सूंघा ही नहीं. उस बेचारे हरिजन को सीख के अन्दर लगाकर के इत्र दिया, गुलाब का इत्र था. जैसे ही सूंघा बेहोश हो गया. मूर्छित हो गया. जिन्दगी में कभी ऐसा अपूर्व सुगंध अनुभव किया नहीं और वह बेचारा वहीं बेहोश हो गया. जीवन की अपूर्व घटना थी. इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई. मफतलाल ने कहा! अरे यार कुछ नहीं हुआ. मैंने तो गुलाब का इत्र इसे इनाम में दिया. मेरी दुकान के सामने साफ-सफाई करता है इसलिए इसे इत्र का फूहा दिया. उसकी घर वाली कहीं
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-गुरुवाणी
सामने रोड़ साफ कर रही थी. कचरे की टोकरी सामने पड़ी हुई थी, उठाकर के आई और देखा तो सामने भीड़. अंदर आकर के झांका तो उसी का पति था, दोनों सफाई कर्मचारी थे. दुकानदार को पूछा कि मफतलाल यह आपने क्या किया? ___ अरे कुछ नहीं, देखो, इसके हाथ में इत्र का फूहा दिया था और इसने जैसे ही सूंघा, यह बेहोश हो गया. अब मैं क्या करूं. मैं भी घबरा गया. उसने कहा अब डरने की जरूरत नहीं, इसका इलाज मेरे पास है. वह गई और इत्र का फूहा तो अलग कर दिया और जो गंदगी से भरी हई टोकरी लेकर के आई थी, उसे थोड़ा नाक के पास घुमाया. जैसे ही उसको अपनी वास्तविकता मालूम पड़ी, उसकी सुगन्ध आई, वह उठकर के बैठ गये.
देखा आपने यह चमत्कार. वह जिन्दगी भर इसी गन्दगी में रहा और ऐसा प्रिय, इसको यह गन्दगी प्रिय हो गई. आपने देखा कि टोकरी घुमाते ही एकदम जागृत हो गया.
सेठ साहब! यह सुगन्ध सूंघने लायक व्यक्ति नहीं. यह इसी दुर्गन्ध में रहने वाला आदमी है. हम लोग तो इसी में जन्में और इसी में बड़े हुए. ____ ज्ञानियों ने आध्यात्मिक भाषा में कहा, जो संसारी दुराचार में जन्मा, और दुराचार में ही बड़ा हुआ, और दुराचार की दुर्गन्ध से जिसका जीवन सना हुआ है, निर्मित है, वह चाहे जितना भी संयम का सुगन्ध ले जाये मूर्छित हो जाएगा. उसको तो विषय का ही दुर्गन्ध चाहिए. संयमी आत्माओं के संयम की सुगन्ध से वह वंचित रहेगा. दुर्गन्ध में रहने का यह अनादि काल का हमारा स्वभाव है, अनादि काल व्यतीत हो गया. यह वर्तमान इस प्रकार से न जाए, संयम की सुगन्ध से अपनी आत्मा को सुगन्धित बनाओ. यह संकल्प आपको करना पड़ेगा. __ आप देखते हैं, अच्छे-अच्छे घरों के अन्दर, जरा सी भौतिक प्राप्ति के लिए, कैसी भयंकर दुर्घटनाएं होती हैं? कैसी यातनाएं देते हैं? रोज एक-आध घटना तो आपको देखने को मिलेगी ही. जल जाती हैं, जला दिए जाते हैं. जहर दे दिया जाता है. मार-पीट की जाती है. क्यों? कभी मन के अन्दर ऐसा विचार आया कि नैतिक दृष्टि से कितना भयंकर गुनाह कर रहा हूं. निर्दोष आत्मा के साथ मेरा कितना गलत व्यवहार हो रहा है और जगत् मूक-दर्शक बना रहता है. - मैं तो कहता हूं ऐसी आत्माओं और परिवार का सामाजिक बहिष्कार कीजिए, तिरस्कार कीजिए. वे समाज में बैठने लायक व्यक्ति नहीं हैं.
सरकार जो भी सजा दे, परन्तु हमारे यहां कभी उनका तिरस्कार नहीं किया गया कि दूसरे व्यक्ति सावधान हो सकें कि यह गलत काम नहीं करना. सामाजिक दृष्टि से उनका सम्मान होना ही नहीं चाहिए. ऐसे व्यक्ति प्रथम कोटि के अपराधी हैं, वे सम्मान के पात्र कदापि नहीं हैं.
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गुरुवाणी:
घर में हत्याएं करें, ऊपर से महावीर का नाम लें, राम का नाम लें, कृष्ण का नाम लें, मन्दिर जाकर के परमात्मा को ठगने की कोशिश करें. माला ले जाएं - क्या परमात्मा रिश्वत लेते हैं या आपके पाप की वकालत करने वाले आपके पाप का रक्षण करने वाले हैं? किस मुंह से हम जाते हैं? इतना भयंकर पाप करने पर परमात्मा के चरणों का स्पर्श करने की भी योग्यता उन आत्माओं में नहीं. ज्ञानियों ने कहा कि परमात्मा के दरबार में भी वह क्षम्य नहीं है.
आप गृहस्थ हैं, ज़रा विचार कर लेना सद्गृहस्थ हैं. कभी इस पाप का प्रवेश आपके द्वार तक न आये. अपने परिवार तक इस पाप का प्रवेश न आये. आप यह संकल्प कर लें. रोज की यह घटना है. यह हमारे देश और हमारे समाज में यह बड़ी कलंक की वस्तु है और ये घटनाएं रोज़ घटती हैं क्योंकि आर्थिक प्रलोभन है.
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इसीलिए कहा कि माता-पिता, अपने गुरुजन, बन्धु उनकी सलाह के अनुसार कार्य करें. यदि सम्पन्न परिवार, अपने समान कुल, शील, आचार-विचार वाले व्यक्ति हों तो यह गड़बड़ी पैदा नहीं होगी. जहां अनुभव शून्य जीवन हो, तात्कालिक निर्णय किया जाता हो, भौतिक प्रलोभन से कोई निर्णय लिया जाता हो, वहां ये सारी समस्याएं पैदा होती हैं. आपके गृहस्थ जीवन की सारी पवित्रता चली जाएगी.
बहुत कुछ आपसे कहा आप एक बार फिर से इस पर विचार कर लेना. अब आगे चर्चा होगी शादी और विवाह के प्रसंग के बाद
" तथा शिष्टाचरितप्रशंसन्नमिति”
व्यवहार के अन्दर शिष्टाचार का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. अब इस सूत्र के अन्तर्गत आपको तत्सम्बन्धी मार्गदर्शन मिलेगा. इसमें सारे शिष्टाचार का परिचय दिया गया है
"लोकापवादभीरुत्वं, दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तितः ॥ सर्वत्र निन्दासंत्यागो, वर्णवादश्च साधुषु । आपदैन्यमत्यन्तं, तद्वत् संपदि नम्रता ॥ प्रस्तावे मितभाषित्वमविसंवादनं तथा । प्रतिपन्नक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम् ॥ असद्व्ययपरित्यागः, स्थाने चैव क्रिया सदा । प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् ॥ लोकाचारानुवृत्तिश्च सर्वत्रचित्यपालनम् । प्रवृत्तिर्गर्हिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥
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धन
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:गुरुवाणी
यह सब शिष्टाचार है और एक-एक शिष्टाचार समझने योग्य है. ऐसा कोई कार्य अपने जीवन में नहीं होना चाहिए, जो लोकाचरण के विरुद्ध हो.
“यद्यपि शुद्ध लोक विरुद्ध नाचरणीयम्" ऐसा कोई कार्य नहीं करना जो लोक-व्यवहार में प्रचलित न हो, जो लोक निन्दा का कारण बन जाये, तमाशा बन जाये. शिष्टाचार के अन्तर्गत हमारे यहां सूत्र में कहा जाता है कि प्रतिक्रमण में, लोक विरुद्ध कार्य कभी नहीं करना नहीं तो मानसिक तनाव आएगा. जीवन भय से ग्रस्त रहेगा. मन के अन्दर एक प्रकार से लज्जा का अनुभव होगा.
"दीनाभ्युध्दरणादरः" न-दुखियों की आत्माओं का उद्धार करना. आपकी दृष्टि में यदि कोई गरीब या भूखा इंसान आ जाए या रोग से पीड़ित आत्मा आ जाए और सामर्थ्य या सक्षमता होते हुए भी आपने उसका अगर दर्द दूर नहीं किया, प्रयास नहीं किया तो भगवान की दृष्टि में कहा गया कि वह भी गुनहगार है. वह भी एक प्रकार की हिंसा है.
अतः सामर्थ्य होते हुए किसी आत्मा के दर्द का निवारण करना हिंसा के अन्तर्गत आता है. यह हमारे शिष्टाचार का एक आवश्यक पक्ष है. दूसरी बात, आपको अपनी कृतज्ञता के प्रति सचेत रहना चाहिए कि उसने आपका उपकार किया अतः आप भी यथा सम्भव करें.
"सुदाक्षिण्यं" अन्दर दाक्षिण्या का गुण आना चाहिए. कोई व्यक्ति अगर गलत कर गया तो दाक्षिण्या रखिए, उपेक्षा करिए कि हो गया होगा, इंसान भूल कर ऐसा कर गया. जिस प्रकार चलने वाले को ठोकर लग ही जाती है उसी तरह कार्य करता हुआ व्यक्ति व्यवहार में भूल कर देता है. अपनी दाक्षिण्यता को आप कभी मत भुलाएं.
"सदाचारः प्रकीर्तितः” इस प्रकार सम्यक् आचरण का गृहस्थ पालन करें.
"सर्वत्र निन्दासंत्यागो" निन्दा को त्यागो. यह कैंसर से भी भयानक रोग है. बाजार में आप चाट खाते हैं. उससे भी ज्यादा स्वाद परनिन्दा में आता है. किसी की निन्दा सुनने में, किसी की निन्दा करने में लोगों को बड़ा आनन्द आता है. यह कैंसर जैसा है. सारी साधना में कैंसर उत्पन्न करता है. कमजोर बना देगा. जीभ की सारी पवित्रता चली जाएगी. हज़ार बार राम का नाम लिया, अमृत उत्पन्न किया इस जीभ से, और एक बार परनिन्दा किया तो अमृत में जहर मिला लिया. वह अमृत आत्मा स्वीकार कैसे करेगी. आप किसी के यहां भोजन के लिए जायें और खीर से भरा हुआ तपेला हो, भगोना हो और उस में यदि एक बूंद पायजन (जहर) डाल दें तो आप लेंगे? कभी नहीं. इसी तरह निन्दा आत्मा कभी स्वीकार नहीं करेगी.
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-गुरुवाणी
परनिन्दा के पाप से अपने आपको बचाना है. इस पर भी विचार हम करेंगे. कितना अनर्थ होता है इसमें. पूरा परिवार जलता है. रोज समाचार पत्रों में राजनैतिक नेताओं का तमाशा देखते हैं. सिवाय निन्दा के कोई दूसरी बात आती है? कभी किसी राजपुरूष ने किसी आत्मा की प्रशंसा की? मरने के बाद जरूर गुणगान गाया जाता है. मालाएं पहनाई जाती हैं. पर जब तक जीवित होते हैं वहां तक कभी नहीं.
विनोबा भावे ने एक बड़ा सुन्दर अभिप्राय दिया कि प्रजातन्त्र में ऐसे सज्जन व्यक्ति आने चाहिए जो इस देश के लिए राष्ट्र के निर्माण के लिए कुछ कर सकें. सज्जन व्यक्ति की व्याख्या उन्होंने बतलाई कि जो परनिन्दा न करे और आत्म-प्रशंसा भी न करें. क्योंकि दोनों ही दुर्जन व्यक्तियों के लक्षण हैं. स्व-प्रशंसा, मैं बड़ा विद्वान् हूं, बड़ा जानकार हूं, बड़ा सेवा करने वाला हूं. अपने मुंह से ही अपना गुणगान करने वाला, और प्रतिदिन दूसरों की निन्दा करने वाला, सामने वाला व्यक्ति बड़ा गलत है, बड़ा ख़तरनाक है,बड़ा चोर है, बेईमान है दुर्जनता का प्रतीक है. आज के नेताओं को आप देख लीजिए. उनके वक्तव्यों को आप सुन लीजिए. आपको मालूम पड़ पाएगा कि यह सज्जनता के अन्तर्गत आते हैं या इनकी वाणी में दुर्जनता है. वे कैसे राष्ट्र का रक्षण करेंगे?
किसी समय में बड़े सुयोग्य नेता थे. आज भी आपको कुछ ऐसे वर्ग मिलेंगे. परन्तु बहुत कम है. पहले हमारे जीवन में यह चीज़ आनी चाहिए कि हम निन्दा नहीं करेंगे. गुणों की तरफ ही मुझे दृष्टिपात करना है और गुणों को ही ग्रहण करना है.
“अवर्णवादश्च साधुषु" "कभी साधु पुरुषों के विषय में ऐसा अकारण गलत नहीं बोलना. कभी उनके दोषों को देखकर के अपनी जीभ गन्दी नहीं करना. साधु पुरूषों के लिए जीवन कर्म के अधीन विनम्रता आनी चाहिए. अपनी दृष्टि में कभी इस प्रकार का अवर्णवाद नहीं आना चाहिए. ये सारी चीज़े इसके अन्दर एक-से एक बढ़ कर के हैं और बड़े महत्त्व की है. आपके व्यवहार को सुन्दर बनाने वाली हैं. आपके जीवन का नव-निर्माण करने वाली हैं और आगे चलकर के आपकी आत्मा को शांति प्रदान करने वाली और भविष्य में सद्गति देने वाली चीजे हैं. इस शिष्टाचार का पालन मुझे अपने व्यवहार में करना है. कल इस विषय पर विचार करेंगे. शिष्टाचार, जो हमारे लिए आवश्यक माना गया, इस पर दो-तीन दिन लगकर विचार करेंगे, काफी लम्बा सब्जेक्ट (विषय) है. आज इतना ही रहने दें.
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्
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=गुरुवाणी
करुणा, त्याग और परोपकार धर्म का वास्तविक स्वरूप
महान कृपालु आचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरि जी महाराज ने अपने दीर्घ काल के चिन्तन के द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया उसे परोपकार की भावना से इन सूत्रों में पिरोकर जगत् के कल्याण के लिए, अर्पित कर दिया. इस ग्रंथ के द्वारा इस प्रकार का मार्ग-दर्शन दिया कि जिससे जीवन का कोई क्षेत्र. कोई व्यवहार धर्म से रहित न हो, वह धर्म से नवपल्लवित हो. बोलना, चलना, खाना-पीना, जीवन का हर व्यवहार धर्ममय हो. धर्म शब्द का अर्थ बहत व्यापक है. कर्त्तव्य के रूप में धर्म को स्वीकार करना है. परमात्मा की प्रार्थना, उपासना, ध्यान एक अलग चीज़ है, जीवन का हरेक व्यवहार प्रामाणिक हो, आत्मा के अनुकूल हो और सारी प्रवृत्तियां आत्मा के कल्याण के लिए हों. प्रत्येक क्रिया से प्रार्थना, उपासना
और ध्यान की सुगन्ध प्रवाहित हो. ऐसी कोई प्रवृत्ति हमारे जीवन में नहीं चाहिए जिससे किसी आत्मा को कष्ट हो. अप्रीति उत्पन्न हो. मन के अन्दर अशांति पैदा हो. जिस कार्य में आत्मा साक्षी न देता हो, ऐसा कोई कार्य नहीं करना है. सम्पूर्ण जीवन धर्म-प्रधान बना लेना है, जीवन क्षणभंगुर है. न जाने कब और किस निमित्त से चला जाए. जाने से पूर्व अपने आचरण के द्वारा आत्म-शुद्धि प्राप्त कर लेनी है.
जैसे-जैसे जीवन के अन्दर धर्म सक्रिय बनेगा आपके विचार सम्पर्ण क्रियात्मक रूप ले लेंगे. आपकी वाणी, व्यवहार और विचार में एकरूपता आ जाएगी. यह जीवन एक संगीत उत्पन्न करेगा. जीवन क्या है? इसके आकार को देखिए. इसकी आकृति तानपूरे जैसी है. तानपूरे में तीन तार होते हैं. जब इन तीनों तारों को एक साथ झंकृत किया जाता है तब सुनने में बड़ा. मधुर और बड़ा प्रिय होता है.
जीवन में भी मन, वचन और कर्म, ये जीवन तानपूरे के तीन तार हैं और यदि इनमें एक रूपता आ जाए तो जीवन-व्यवहार शब्द संगीत बन कर के बाहर आता है. हमारे जीवन का शब्द भी संगीत बन जाये. हमारे विचारों की अभिव्यक्ति, एक कविता का रूप धारण कर ले. जीवन में हमारा चलना-फिरना एक प्रकार का नृत्य बन जाए. वह मानसिक प्रसन्नता को प्रकट करे और मन के अन्दर वीतराग के उस परमतत्व की प्रतिष्ठा हो जाए
और जीवन का प्रत्येक आचरण जगत के प्राणिमात्र को आहलादित कर अपनी सदभावना प्रकट करने वाला बन जाए. अस्तु, इस काल में, इसी समय वह व्यक्ति परम सुख का अनुभव करने लगता है. आचरण के द्वारा, इस जीवन में नव संस्कार को प्रतिष्ठित करना है.
ग्रन्थकार ने जीवन व्यवहार के दो मुख्य साधनों का परिचय देते हुए उस सूत्र में कहा कि द्रव्य उपार्जन कैसे करें, कौन-सा तरीका उसमें अपनाना है.
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-गुरुवाणी
"न्यायसंपन्नविभवः" द्रव्य न्याय से उपार्जित किया हुआ ही चाहिए. द्रव्योपार्जन जीवन-निर्वाह के लिए तथा परिवार के भरण-पोषण के लिए चाहिए. यदि उससे अधिक प्रारब्ध से प्राप्त हो जाता है तो कहें भगवन! तू ऐसी बुद्धि दे कि उसका उपयोग मैं परोपकार के लिए कर सकं गृहस्थ जीवन और व्यवहार को चलाने के लिए विवाह एक आचार है, जिसे जीवन व्यवहार का दूसरा प्रमुख साधन माना गया है. विवाह कहां करना, कैसे करना, किस प्रकार की भावना से करना वह चिन्तन भी इस महान आचार्य ने प्रस्तुत किया ताकि जीवन में विषमता न पैदा हो. जीवन में कोई ऐसा मानसिक या अन्य प्रकार का द्वेष पैदा न हो जाए, कोई दुविधा उत्पन्न न हो, परिवार क्लेश से पीड़ित न हो, कहां और किस प्रकार से विवाह संस्कार किया जाये,
तीसरे सूत्र के द्वारा आचार्य प्रवर ने उपदिष्ट किया कि जीवन में व्यवहार का भी पालन अवश्य करना. तो शिष्ट आचार का अनुमोदन करते हुए, शिष्ट आचार का परिचय दिया कि शिष्टाचार क्या है? उत्तम पुरुषों का मान करना, माता-पिता, गुरूजनों का सम्मान करना, उनके साथ विवेकपूर्वक व्यवहार करना. उनके साथ बोलना शिष्टतापूर्वक - ये सब चीजें शिष्टाचार के अन्तर्गत आती हैं परन्तु इससे भी आगे हमारे जीवन और आचार, शिष्ट आचारों की सम्प्राप्ति हेतु सूत्र के द्वारा परिचय दियाः
"लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः" ऐसा कोई कार्य मुझे नहीं करना कि जो लोगों की इच्छा के विरुद्ध हो.
"यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नाचरणीयम्" हमारे ऋषि-मुनियों का यह चिन्तन रहा है कि चाहे आप कितने भी शुद्ध मार्ग का अनुसरण करते हों, परन्तु यदि लोकव्यवहार से वह कार्य विरुद्ध हो जाता है, लोकरुचि उस कार्य में नहीं है तो लोकरुचि का सम्मान करते हुए उस कार्य की उपेक्षा कर देनी चाहिए. समय के अनुसार कार्य में परिवर्तन आता है. आचार में भी थोड़ा-बहुत परिवर्तन आता है. किसी समय वह चीज बड़ी महत्त्वपूर्ण थी. उस समय के लोकमानस में उसका आदर था. लोगों की उस कार्य में रुचि थी और कदाचित् वर्तमान में उस कार्य में रुचि न हो तो लोकविरुद्ध होकर वह कार्य नहीं करना चाहिए. वह कई बार आत्मपीड़ा का कारण बनता है. मानसिक आघात का कारण बनता है. यदि इस प्रकार का आचरण नहीं करते हैं तो परिणाम जितना सुन्दर होना चाहिए उतना नहीं होता है.
ऐसी प्रथा हैं कि विवाह - शादी में या ऐसे किसी भी कार्य में, प्रदर्शन का अतिरेक हो जाता है और इसी अतिरेक का परिणाम साम्यवाद को आमन्त्रण देता है. लोग धर्म से विमुख होते हैं. उनमें ईर्ष्या प्रकट होती है. लोकमानस उसमें रुचि नहीं लेता. यह लोकापवाद है.
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गुरुवाणी:
वर्तमान काल को देख कर भगवान महावीर के शब्दों में कहा जाए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कार्य करें. द्रव्य का मतलब लोगों की आत्मा के परिणाम. विशुद्ध द्रव्य आत्मा है और उसके परिणाम, उसी को देखकर के कार्य करना कि कर्म उचित है या नहीं. क्षेत्र देखना कि यह क्षेत्र, यह प्रान्त, यह प्रदेश हमारे कार्य के अनुकूल है या नहीं. अलग-अलग प्रदेश की अलग-अलग रुचि होती है. उनकी संस्कृति तथा प्रादेशिक परम्परा अलग होती है. उसे देख कर के निर्णय करना चाहिए. काल देखना, लोग क्या चाहते हैं, समय की पुकार क्या है और यदि समय से विपरीत होकर हम कार्य करेंगे तो निन्दा मिलेगी, ईर्ष्या मिलेगी, लोगों का आवेश मिलेगा और मन की अशांति मिलेगी. लोगों का भाव भी देखना आवश्यक है कि उनका अन्तर्भाव किस तरह का है.
"लोकापवादभीरुत्व"
इस प्रथम सूत्र के द्वारा शिष्ट आचरण का लक्षण बताया गया है. बंगाल में भयंकर दुष्काल पड़ा था. स्वामी विवेकानन्द उस समय बंगाल में मौजूद थे और ऐसी परिस्थिति, कि लोग दाने-दाने के लिए तरसने लगे. उस काल और समय में लोगों के अन्दर बहुत ही श्रद्धा थी. धार्मिक आस्था भी बहुत प्रबल थी. वहां की प्रजा में भी बड़ी सुन्दर धार्मिक आस्था थी. लोगों ने मिल कर के लाखों रुपयों का एक फण्ड इकट्ठा किया, ताकि बहुत बड़ा यज्ञ वहां पर किया जाये, अनुष्ठान किया जाये. पैसा तो इकट्ठा हो गया. श्रीमन्त लोग थे, उच्च कुलीन लोग थे. लाखों रुपयों के करीब फंड इकट्ठा हो गया. रुपये एकत्र करके उन्होंने अपनी एक कमेटी बनाई और विचार किया कि स्वामी जी को जाकर निमन्त्रण दिया जाये कि इस कार्य के लिए आप आइये आपकी अध्यक्षता में एक बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान किया जाये.
देश, काल की परिस्थिति बड़ी विपरीत थी जनमानस अलग प्रकार का था. लोगों को पेट की चिन्ता थी. जहां तक पेट की चिन्ता होगी, वहां तक परमेश्वर का विचार कभी नहीं आएगा. तब तक आत्मा का विचार कभी नहीं आएगा. यदि संस्कारवश आ भी गया तो उसमें स्थिरता नहीं रहेगी. इसीलिए भगवान महावीर को कहना पड़ाः
"
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खुहा सम वेयणा नत्थि
जगत् में भूख सदृश कुछ नहीं है. क्षुधा की वेदना से आहत व्यक्ति अकरणीय कृत्यों को भी कर डालता है. कभी-कभी वह हताश होकर अपने प्राण भी दे देता है. इस सम्बन्ध
में एक उक्ति भी है बुभुक्षितः किं न करोति पापम्.
"
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यज्ञ के समारोह में आने के लिए विशिष्ट व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द के पास गए और कहा कि हम लोगों ने इतना सुन्दर आयोजन किया है और उसकी अध्यक्षता आपको करनी है. वह बड़े विचारवान् व्यक्ति थे. इसी प्रथम शिष्टाचार का उन्होंने पालन किया. उन्होंने कहा इस समय तो मुझे मानव यज्ञ करना है, यह सारा पैसा आप मुझे दे दीजिए और इसका उपयोग मैं इस प्रकार के यज्ञ में करूंगा कि बंगाल में एक भी व्यक्ति भूख से
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-गुरुवाणी
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पीडित न रहे और वह मृत्यु को प्राप्त न हो. ये जीवित परमात्मा हैं और मुझे यह यज्ञ आप करने दीजिए. मेरा इसमें कोई प्रयोजन नहीं है. लोग भूख से तड़प कर के मर रहे हों तो आप परमात्मा को प्रसन्न नहीं कर सकते.
आज चारों तरफ दुष्काल का प्रभाव है. प्रतिदिन देखते हैं -- पशु मर रहे हैं, मानव मर रहे हैं, न जाने क्या-क्या हत्या कर डालते हैं. ऐसी परिस्थिति में आपको विचार बदलना चाहिए. विवेकानन्द का शाब्दिक प्रहार उनकी चेतना को जागृत कर गया और उनको विचार बदलना पड़ा और उन्होंने लाखों रुपए का फण्ड विवेकानन्द के पास ला कर दिया
और विवेकानन्द जी ने भूख से पीड़ित लोगों के कल्याण के लिए उसका उपयोग किया. ____ मैं नहीं कहता कि यह धार्मिक कार्य या अनुष्ठान गलत है. परन्तु समय के अनुरूप, व्यक्ति, काल, भावों को देखकर के, लोगों के परिणाम को देखकर ही कार्य करें, चाहे कितना भी शुभ कार्य हो परन्तु यदि लोक रुचि न हो, लोगों की, प्रसन्नता न हो, और यदि आप करें तो लोक निन्दा का कारण बनेंगे. लोग धर्म से विमुख बन जाएंगे कि हम तो भूख से मर रहे हैं और यहां देखो इनको धर्म सूझ रहा है. इसीलिए यहां इसको महत्त्व दिया गया कि ऐसा कोई कार्य नहीं करना जिससे हमारे जीवन से, हमारे आचरण से, हमारे कार्य से लोग धर्म से विमुख बनें. हमारा प्रयत्न लोगों को धर्म के सम्मुख ला कर खड़ा करना है. जीवन का प्रत्येक कार्य धार्मिक प्रेरणा का कारण बन जाए, परन्तु ऐसा कोई अशुभ निमित्त नहीं देना कि जिससे इस परिस्थिति का सृजन हो.
हमें महान पुरुषों द्वारा किए कार्यों से उत्प्रेरित होना है तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुगमन करना है. तदनुसार ही आचरण करना है.
एक समय था लोग सुखी थे, सम्पन्न थे. जीवन की कोई समस्या नहीं थी. लोगों ने बड़े आलीशान मन्दिर बनाये. बड़े अदभुत मन्दिर तैयार किए, क्योंकि उस समय उसकी बड़ी आवश्यकता थी. हमारे देश की संस्कृति में इसका बड़ा महत्त्व रहा है. वे हमारी भारतीय संस्कृति और परम्परा के प्रतीक हैं. भारत का इतिहास मन्दिरों से जुड़ा है. उस समय लोगों की मनोवृत्ति कैसी थी, उसका यह परिचायक है, मंगल प्रतीक है क्योंकि सुखी लोग थे, संपन्न थे, किसी के पेट में भूख की वेदना नहीं थी और उस समय कला का सुन्दर निर्माण हुआ. हजारों-लाखों मन्दिर बनाए गए. परन्तु आज परिस्थिति बड़ी विचित्र है. मन्दिर विद्यमान हैं परन्तु लोगों की भावना खत्म होती जा रही है.
एक समय था, जब मन्दिर तोड़े जाते थे. हमारी भावना इतनी जागृत थी कि एक तोड़ते तो एक दर्जन मन्दिर बनते थे. लोग सम्पन्न थे. लोगों में प्रसन्नता थी, मंदिर निर्माण हो जाता, परन्तु अंग्रेजों के समय से लगभग 1500 वर्षों की अवधि में शिक्षा का इतना पतन और दुष्प्रभाव रहा कि मन्दिर विद्यमान रहता है, जाने की भावना खत्म कर दी जाती है. 'वह हिस्टोरिकल प्लेस (ऐतिहासिक स्थल) है.' ऐसा कहकर उससे जुड़ी हमारी आस्था की हत्या कर दी जाती है और श्रद्धा का अपूर्व सौन्दर्य मात्र कला का प्रतीक बन कर रह जाता है. पश्चिमी सभ्यता और अत्याधुनिक शिक्षा की भयावह आँधी से आज का स्वार्थी ।
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-गुरुवाणी
मानव अपने इतिहास की वास्तविकता से मुँह फेर लेता है और परिणामतः हमारी आध्यात्मिक भावनाएँ कण्ठित हो जाती हैं, नष्ट हो जाती हैं. मन्दिर टूटते थे, उसकी हमें चिन्ता नहीं थी, अब जब भावना तोड़ी जा रही है, उसकी बड़ी चिन्ता है. मन्दिर विद्यमान रहेंगे, उसमें जाने वाले भी रहेंगे, परन्तु जाने के साथ जुड़ी आस्था की उमंग समाप्त हो जाएगी. परमात्मा के पास जाने की भावना खत्म की जा रही है. यह शिक्षा नहीं परन्तु शुगर कोटिड पायज़न (मीठा जहर) है. शब्दों के माध्यम से ऐसा नशा दिया जा रहा है. सारी भावना विकृत की जा रही है. वैभव का प्रदर्शन उसी का परिणाम है.
भगवान महावीर ने कभी इस प्रकार का उपदेश नहीं दिया, आदेश नहीं दिया कि तुम अभिमान और अन्याय से द्रव्य का उपार्जन करो, अनीति से उपार्जन करो और उसे अभिमान से खर्च करो.
न्याय से उपार्जन करना और तीर्थस्थानादि मन्दिर में खर्च कर देना. मुझे इससे-बड़ी प्रसन्नता होगी, तुम्हारे अपराध माफ हो जायेंगे. भगवान के यहां यह आदर्श नहीं है कि तुम गटर में पांव डालो और गुलाबजल से पांव धो लो और गन्दगी चली जाएगी.
न्याय से, नीति से, प्रामाणिकता से धन उपार्जन करो. अपने प्रारब्ध में विश्वास रख कर के कार्य करो और बड़ी नम्रता से अर्पण करो, बड़ी लघुता से तुम दो ताकि अन्दर की प्रभूता मिल जाये. सर्वप्रथम शिष्टाचार के द्वारा उन्होंने यह बतायाः
कभी प्रकृति का कोई प्रकोप आ जाए, उस समय पहले उस कार्य के लिए अपना योगदान देना. कोई दुष्काल का प्रसंग आ गया, दुर्भिक्ष आ गया, कोई प्राकृतिक प्रकोप जैसे भूकम्प आ गया, अचानक कोई बाढ़ आ गई, तूफान आ गया, ऐसे समय में खाना-पीना, जलसा करना, शिष्टाचार के विपरीत कार्य हो गया. आपका धर्म अपमानित होगा, आपकी बदनामी होगी. लोग अप्रिय शब्द आपके लिए कहेंगे. आपके धार्मिक अनुष्ठान की प्रतिष्ठा कम करेंगे. वहां पर उसकी उपेक्षा करके वर्तमान में क्या आवश्यकता है जिससे लोग धर्म की अनुमोदना करें. इस मंगल भावना से कार्य करना है कि मेरे कार्य की प्रशंसा हो, उस प्रशंसा से मेरे भाव और उल्लास जागृत हों तथा मेरे चित्त की शांति और समाधि बनी रहे. इसीलिए शिष्टाचार सम्बन्धी प्रथम सूत्र में बतलाया गया है कि
"लोकापवाद भीरुत्वं" लोक रुचि को देख कर कार्य करना चाहिए, उससे विपरीत नहीं. जब ऐसा प्रसंग आ गया तो देखा लोगों ने अपने प्राण देकर के, अपना बलिदान देकर के, हमारी संस्कृति को बनाये रखा. जब उन्होंने हमारी संस्कृति को जीवित रखा तो हम भी कुछ ऐसा कार्य करें अपना योगदान देकर के परमात्मा महावीर के विचारों को स्थायी बनायें. भगवान के विचारों को अपने जीवन में आकार दें. शिष्टाचार के अन्तर्गत दूसरा प्रकार बतलाया
'दीनाभ्युद्धरणादरः'
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- गुरुवाणी
अगर अपने पास शक्ति है, अपने पास साधन है, तो दीन-दुःखी आत्माओं के लिए जरूर सहायता का कार्य करना, उसके योग्य कार्य करना जिसे अपने यहां अनुकंपा कहा गया है. सम्यक दर्शन, सम्यक श्रद्धा का जो मुख्य लक्षण है, उस अनुकंपा का हृदय में अनुकंपन होना चाहिए. दुःखी आत्माओं को देखकर के हृदय दर्द से भर जाये. उनके दर्द का आंसू जब आंख में आने लग जाये, तब समझना कि मैं कुछ दयालु बना. मेरे स्वभाव में कुछ करुणा आयी. मैं परमात्मा के प्रेम के योग्य बना.
ऐसे पुण्य कार्य का मुझे कब अवसर मिले कि दीन आत्माओं की मैं सेवा कर सकू, अनाथों की सेवा करने वाला बनूं, भूखी आत्माओं को भोजन देने वाला बनूं, किसी दुःखी आत्मा के आंसुओं को पोंछ कर के, अपनी प्रसन्नता को मैं प्राप्त करूं, मेरा चित्त प्रसन्न हो जाये. यह मंगल भावना इसी शिष्टाचार के अन्तर्गत यहां दी गई:
धार्मिक कहलाना सबको पसन्द है, परन्तु धार्मिक बनने में बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि वह तो आचरण से बना जाता है, शब्दों से नही. किसी व्यक्ति को अगर धार्मिक कहा जाये वह बड़ा खुश होगा. पर यह नहीं मालूम कि धार्मिक बनने में कितनी कठिनाई, कितना बड़ा बलिदान दिया जाता है. कितना बड़ा योगदान उसमें होता है. बहुत सारे ऐसे व्यक्ति आज भी आपको मिलेंगे कि जब-जब ऐसा प्रसंग आता है, तब उन्हें कैसा पेट का दर्द होता है. हमने कभी उस तरफ ध्यान नहीं दिया.
हमारे यहां पाक्षिक प्रतिक्रमण में अपने दोषों के निरीक्षण के लिए अतिचार सूत्र के द्वारा यह विचार किया जाता है, कि भगवान की आज्ञा के विपरीत मैंने कार्य किया और उस अपराध की क्षमायाचना की जाती, प्रति चतुर्दशी के दिन हम बोलते हैं
"दीन-दुःखी सधार्मिकतनी अनुकंपा भक्ति न कीधी" परन्तु हृदय से पूछिए कि कभी झांककर के किसी दीन-दुःखी को देखा. हमारे पास-पड़ोस में कितने व्यक्ति रहते हैं. उनकी क्या स्थिति है हमने यह विचार कभी नहीं किया.
सम्राट कुमारपाल के दरबार में, जब महान् आचार्य कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि महाराज का आगमन हुआ और उनके शरीर पर जो खेत वाले मजदर पहनते हैं. एकदम मोटा वस्त्र था इतने महान् आचार्य, सुकुमार शरीर, अपूर्व पुण्यशाली आत्मा, प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति, बड़े-बड़े राजा-महाराज जिनके चरणों की सेवा करें, ऐसा प्रबल पुण्योदय और उस महान् आचार्य के शरीर पर एकदम मोटा वस्त्र,
राजमहल में आचार्य भगवन्त आए. सम्राट कुमारपाल स्वागत के लिए गए. सम्मानपूर्वक अपने दरबार में बुलाया वस्त्र देखकर के वह शर्मिन्दा हो गया. आचार्य भगवन्त को वन्दना करने के बाद सम्राट ने निवेदन किया कि भगवन्, मेरे जैसा भक्त आपका परम सेवक, आपके चरणों का दास, सारा राज्य मैंने आपके चरणों में अर्पण कर दिया, आपका आदेश शिरोधार्य है. आपके शरीर में यह मोटा वस्त्र देखकर मुझे बड़ी शर्म आ रही है.
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गुरुवाणी:
उन्होंने कहा कि राजन्! कभी मेरे साथ चलो आपकी प्रजा में कितनी गरीबी है, प्रजा में कैसी दीनता है, कैसी परिस्थिति है, उसका ज़रा मैं आपको परिचय कराऊं.
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मेरा एक साधक, घर की परिस्थिति से लाचार, परन्तु प्रेम से लाकर उसने यह वस्त्र मुझे दिया. प्रेम का कभी भी भौतिक दृष्टि से मूल्यांकन नहीं होता, वह अमूल्य होता है, उसने लाकर बड़े प्रेम से मुझे यह चीज़ भेंट की और मैंने स्वीकार कर लिया परन्तु इस कपड़े से तुम्हें यह जानकारी मिलनी चाहिए कि इस तुम्हारे राज्य के अन्दर कैसे निर्धन और गरीब व्यक्ति रहते हैं. मेरी चिन्ता छोड़ कर तुम उनका विचार करो कि तुम्हारा क्या कर्त्तव्य है ? इतने बड़े साम्राज्य के तुम मालिक बनो परन्तु उन व्यक्तियों के लिए कभी तुमने विचार किया ? इस कपड़े से यही सन्देश देने आया हूं कि तेरे राज्य में ऐसी प्रजा है कि जिनके पास पहनने के लिए भी दूसरा वस्त्र नहीं था और मुझे प्रेम से ऐसी परिस्थिति में भी मुझे अपने वस्त्र अर्पण किया. प्रेम अमूल्य है. इसीलिए मैं इसे अस्वीकार नहीं कर सका कि यदि ये वस्त्र भी मैं ले जाऊंगा तो इनके पास और भी वस्त्रों का अभाव हो जाए. मैंने इसे स्वीकार किया कि ऐसी परिस्थिति में यदि मैं स्वीकार नहीं करूँगा तो इनके दिल में पीड़ा होगी.
गुजराती के कवि ने बड़ी सुन्दर भावना आचार्य भगवन्त के सन्दर्भ में कहा
तुझ जेहवा शासन तणां शुभ स्तंभ होय ते छतां;
निर्धन रहे किम नृप अचंबो, अमे मन पामता ।
तुम्हारे जैसा शासन का सम्राट, इतने बड़े विशाल साम्राज्य का मालिक और तुम्हारे देश में ऐसी गरीबी है जिसके लिए तुम्हें शर्म आनी चाहिए. वह पैसा किस काम का, उस समुद्र के जल की क्या कीमत जो किसी की प्यास बुझाने में सफल नहीं. उस कवि ने
कहाः
शुं कामना मोटां समुदर तृष्णा कोई नी ना टले; एथी भली नानी नदी ज्यां सर्वे ने शान्ति मले ।
उससे तो दुबली पतली, छोटी नदी भली कि आने वाले की प्यास तो बुझाती है. समुद्र के पानी की क्या कीमत, भले ही उसके पास बहुत बड़ी जल राशि हो, जल का बहुत विशाल संग्रह हो. उन धनवानों का यहां कोई मूल्य नहीं. बैंक कैशियर की तरह संग्रह करके चले गये, लाखों नोट रोज़ गिने, पर मिले वही के वही जो भाग्य में लिखे थे. वही भोग सके बाकी तिज़ोरी में पड़े रहे.
आगे चल कर उस कवि ने वर्णन किया कि ऐसे दीन-दुखियों की सेवा करने का परिणाम क्या? उन्होंने कहा ऐसे महान, सहधर्मी बन्धु, दीन-दुःखी आत्माओं की सेवा करने का परिणाम, अति सुन्दर है,
कवि कहता है कि सहधर्मी भक्ति करने से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है. गणधर नाम कर्म का व्यक्ति उपार्जन कर सकता है.
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गुरुवाणी
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सहधर्मी भक्ति - ऐसी सुन्दर, अपूर्व भक्ति को छोड़कर के हम कहां जाएं? इन आत्माओं की सेवा से घर बैठे धर्म मिलता है. परमात्मा प्रसन्न होते हैं, उनका आशीर्वाद मिलता है. हमारे अशुभ कर्म का निवारण होता है और उपार्जन किए हुए जो अशुभ कर्म हैं, जिसका परिणाम गलत आने वाला है, वे सारे कमें इसके द्वारा क्षय हो जाते है. अतः यह कैसी सुन्दर और मंगल क्रिया है.
ऐसी परिस्थिति में हमारा नैतिक कर्त्तव्य क्या है? आप खा लेते हैं, पी लेते हैं, परिवार का भरण-पोषण करते हैं पर नैतिक दृष्टि से हमारा और भी कर्त्तव्य है. पड़ोसी, हमारे परिवार, हमारी जाति में रहने वाले, हमारे परमात्मा के शासन में रहने वाले और दीन-दुःखी उनको आप देखिए और अगर हमनें कुछ नहीं किया तो हमारा अपराध है. यथाशक्ति आपके जो अनुकूल हो वह उनके लिए करिए. परिस्थितियों से जकड़ा व्यक्ति कई बार न करने जैसा कार्य भी कर जाता है. गलत तरीके से जीवन व्यतीत करना पड़ता है. अगर धन्धा नहीं मिला तो गलत काम करना पड़ता है. उस गलत कार्य के करने में जितना दोषी वह व्यक्ति है, उससे कहीं ज्यादा वह व्यक्ति है जो उस व्यक्ति की परिस्थितियों से अनजान बनकर उसे अपनी स्वार्थ पूर्ति का साधन बना कर रखता है.
रायबहादुर बुद्धसिंह प्रख्यात और बहुत बड़े जमीदारों में से थे, घर के मुनीम की लडकी की शादी का प्रसंग आया. शादी में खर्च करने लायक पैसा उनके पास नहीं था, मन में पाप का प्रवेश हो गया. उनके यहां से चार-पांच चांदी की थाली गायब कर दी. पैसा अर्जित करने के लिए उन थालियों का जब बाजार में बेचने के लिए गया. दुकानदार ने थालियों में रायबहादुर का प्रतीक-चिह्न देखा, और वह समझ गया कि थाली चोरी करके लाई गई है.
दुकानदार बड़ा प्रामाणिक और ईमानदार था, माल ले लिया इस भाव से कि कहीं गलत जगह न चला जाए और रायबहादुर के घर पर संदेश भेज दिया कि अमुक नाम का व्यक्ति आपके घर से इस प्रकार सामान चोरी करके मेरी दुकान पर लाया है, कृपया अपना सामान वापिस ले जाएं. आज से सत्तर, अस्सी वर्ष पहले की घटना है, तब लोग बड़े प्रामाणिक थे, ईमानदार थे, किसी पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा का अनुभव करने वाले थे, आज जैसा कलुषित वातावरण नहीं था.
आप सोचिए. जब समाचार पहंचा व्यक्ति का नाम आया, तो रायबहादुर मन में विचार करने लग गए कि वह ऐसा नहीं हो सकता. एकान्त में उस व्यक्ति को बुलाया और बुलाकर के बडे प्रेम से पछा कि भाई, तम हमारे भाई हो, हमारे सहधर्मी हो, भगवान का तिलक लगाते हो, परमेश्वर की आज्ञा का तुम पालन करते हो. ऐसी क्या मजबूरी तुम्हारे अन्दर आई कि तुमको यह पाप करना पड़ा. बिना पूछे, बिना आज्ञा हमारे घर की थाली ले जा कर तुम बेच आये. कौन सी मजबूरी में ऐसा करना पड़ा. याद रखो! तुम्हारी इज्जत वह मेरी इज्जत है. यह बात मेरे पेट से अभी तक गई नहीं, जाने वाली भी नहीं. मुझे सच-सच बता दो.
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गुरुवाणी
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उस व्यक्ति की आंखों से आंसू आ गए. अन्तरहृदय से बड़ी करुणा से वे शब्द निकले. इस कुल में, इस जाति में, मेरे भाई होकर, मेरे संबंधी होकर यह विवशता कैसे आई.
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वह चरणों में गिर गया, कहा कि लड़की की शादी का प्रसंग था. पैसा पास में नहीं था और कोई सम्बन्धी देने को तैयार नहीं. ऐसी विवशता में मुझे यह अपराध करना पड़ा. अब आप जो सजा देना चाहें दे दीजिए परन्तु अब जिन्दगी में मैं मर जाऊंगा परन्तु इस प्रकार का पाप नहीं करूंगा, यह संकल्प लेता हूं. सामने वाले व्यक्ति का हृदय परिवर्तन हो गया.
मालिक बुलाकर के जब इतने प्रेम से बात करता है. उस ने यह नहीं कहा कि तुमने चोरी की, तुम बदमाश हो, चले जाओ. मैं तुम्हें पुलिस में दूंगा. कितने प्रेम से उसको समझाने का प्रयास किया, उसकी मजबूरी को समझने का प्रयास किया कि किस कारण इसको यह काम करना पड़ा. मेरा सहधर्मी होकर के यह गलत कार्य कैसे किया इसके इस आपराधिक कृत्य का कहीं मैं तो कारण नहीं हूँ. उस व्यक्ति ने अपनी परिस्थिति बताई. उन्होंने कहा, कोई हर्ज नहीं. आज के बाद कभी ऐसा गलत कार्य मत करना. मैं तुम्हारी पांच रुपया तन्ख्वाह बढ़ाता हूं. अस्सी साल पहले की बात है. दूसरे मुनीम को बुलाकर के कहा मुझे ऐसा लगता है कि इसको रुपये की ज़रूरत है इसलिए इसका 'पांच रुपया महीने बढ़ा दिया जाये, जो आज का पांच सौ रुपए होता है. इस व्यक्ति को गलत करना पड़ा, इसका कारण मैं हूं, मैंने इसका ध्यान नहीं रखा. जो व्यक्ति मुझ पर आश्रित है, मेरे यहां अपना जीवन-निर्वाह करता है और मैंने कभी बैठकर के यह नहीं पूछा कि उसके घर की क्या परिस्थिति है, कितना बड़ा परिवार है, निर्वाह होता है या नहीं. मैंने अपने काम से मतलब रखा. कभी इसके जीवन में झांककर के नहीं देखा. नैतिक दृष्टि से मेरा कर्त्तव्य था. जो व्यक्ति मेरे यहां आश्रित हो, जीवन निर्वाह करता हो, उसकी समस्याओं पर विचार करना भी मेरा कर्तव्य है घर में यदि सुख-दुःख का कार्य आ गया तो मेरा नैतिक कर्त्तव्य है कि मैं उसका भी पालन करूं. आपने कभी ऐसा सोचा ?
अठारह साल पहले मेरा चातुर्मास बम्बई था. अचानक व्याख्यान देकर के जैसे ही मैं ऊपर गया करीब ग्यारह बज गये थे एक बहन मेरे पास आई और कहा कि महाराज ! आप मेरे घर पधारें बड़ी तेज गर्मी थी. व्याख्यान से थक कर के मैं ऊपर गया था. मैंने कहा बहन, गोचरी के समय साधु जाते हैं, आकर ले जाना महाराज गोचरी के लिए नहीं, मुझे दूसरा काम था. क्या ? मेरे पति बहुत बीमार हैं और न जाने कब चले जायें, अन्तिम श्वास गिन रहे हैं. आपके दर्शन की आशा रखते हैं, अगर आप मंगलाचरण सुना सकें? मैंने कहा, अगर ऐसी परिस्थिति है तो लाख काम छोड़ कर के आऊंगा. मैंने पूछा घर कहां है. बोली, एक-डेढ़ किलोमीटर.
मैंने कहा मुझे चलना है. इसके चेहरे से मैं भाप गया कि दर्द से भरी हुई आत्मा है, मात्र वहां आंसू नहीं निकले, उसकी वाणी के अन्दर जो दर्द था, चेहरे पर जो उदासीनता
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गुरुवाणी
थी, उससे मैं समझ गया कि कुछ बोले बिना मुझे वहां चलना है. मैं गया. भयंकर गर्मी. पांव एकदम सिक जाएं रेलवे लाइन के किनारे-किनारे करीब तीस पैंतीस बरस की वह बहन और में पीछे-पीछे चलते चलते मैं विचार में पड़ गया और पूछा कि बहन घर किधर है ? महाराज घर तो कहां है, वहां झोपड़पट्टी है और उसी में रहते हैं.
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मुझे ऐसी गलत जगह पर जाना पड़ा चारों तरफ झोपडपट्टी कहीं शराब बिक रही है. कहीं बदमाश लड़ रहे हैं दुनिया भर की वहां गन्दगी कैसा भयंकर वातावरण. अन्दर गया, जब उस झोंपड़ी में घुसा, छोटी सी झोंपड़ी और वहां जब उस आदमी को देखा तो मेरा हृदय कम्पित हो गया. नीचे लेटा हुआ था, बिछाने को कुछ नहीं, नाम को एक तकिया. घर के अन्दर नज़र गई, तो कोई बर्तन नहीं केवल एक-दो अल्यूमूनियम के थाल, कोई चीज नहीं.
मैं बहुत विचार में पड़ा मंगलाचरण भी सुनाया सब कुछ किया. मैंने पूछा कि इसको थर्ड स्टेज में है. डाक्टर ने जवाब
क्या बीमारी है ? महाराज क्या बताऊं कैंसर है और दे दिया और महाराज में इनकी सेवा में चार दिनों से जो आस पास जा कर के मजूरी करती थी, यह भी नहीं कर पाई खाने को रहा नहीं. आज चार दिन से इनको दवा नहीं दे सकी. महाराज दो बच्चे हैं छोटे चार दिन से बच्चों के लिए दूध नहीं ला सकी, बच्चे भी भूखे हैं. आयंबिल शाला में जाकर के इन बच्चों को खिलाया. ऐसी परिस्थिति है. महाराज! आशीर्वाद दीजिए, इस आत्मा को शांति मिले और अपना जीवन यह शान्ति से पूरा करें. कोई याचना नहीं. ऐसी दर्दनाक परिस्थिति में वहां गया. मेरा हृदय ऐसा हो गया कि मैं इसके लिए क्या करूं.
मैंने कहा बहन ! सब हो जाएगा. मैं मंगलाचरण तो सुना कर के गया लेकिन वहां का सारा दृश्य मेरे आंखों के सामने चित्रपट की भांति नृत्य करने लग गया. गोचरी लाई हुई थी आहार के लिए साधुओं ने एक बार कहा, दो बार कहा कि गोचरी का समय है, गोचरी कर लो. एक बजने आया परन्तु मेरे मन में वही विचार, आहार कैसे करूं? उनकी क्या दशा होगी, जो आज मैं देखकर के आया हूं. चार-चार दिन से बच्चे भूखें हैं, उनको दूध पीने को नहीं, ये बीमार हैं, वह मृत्यु शैय्या पर हैं, उसके लिए दवा तक नहीं, घर में पानी लाने के लिए घड़ा तक नहीं. कैसी परिस्थिति, कैसी लाचारी वह सारा दृश्य मेरे हृदय में ऐसा असर कर गया कि मुझ से नहीं रहा गया.
एक बहुत ही परम स्नेही मित्र थे. मैंने उनको बुलवाया कि तुम अभी के अभी आओ. जब तक वे नहीं आए, मेरे मन में ऐसी अशांति रही, उनके छोटे बच्चों को जो मुझे रास्ता बतलाने आए थे, उनको मैंने रोक रखा था. उसको खिलाया और मैंने स्नेही मित्र से कहा कि इस बच्चे के साथ अभी जाओ, उस घर की स्थिति देखो और सबसे पहले जो तुम से हो सकता है, उनके लिए करो. उसके बाद ही आहार करूंगा. तीन बजे मैंने आहार किया,
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गुरुवाणी
ऐसे कितने व्यक्ति इस दुनिया में होंगे. यह दृश्य देखने के बाद मेरा हृदय पिघल गया और मैंने सोचा कि हम तो भोजन कर लेते हैं, पेट भर जाता है, अपने लिए तो दुनिया दीवाली नज़र आती है और कितने व्यक्ति बेचारे भूख से अपना जीवन व्यतीत करते होंगे, कितना दर्दनाक उनका जीवन होगा, कैसी-कैसी परिस्थिति में बेचारे जीवन पूरा करते होंगे और सहधर्मी बन्धुओं के लिए हमारा ज़रा भी लक्ष्य नहीं. दीन-दुःखी आत्माओं के लिए ज़रा भी दया नहीं. यह कमाया हुआ पैसा किस काम का ? यह तो विष है, मार डालेगा. इसे परोपकार के द्वारा अमृत कैसे बनाया जाये.
"
हमारा शिष्ट आचार होता है. ऐसे दीन आत्माओं का दुःखी आत्माओं का उद्धार करना, उनका हाथ पकड़कर के उनको खड़ा करना, अपनी बराबरी में लाने का प्रयास करना. यह सबसे महान् पुण्य कार्य है परमात्मा को प्रसन्नता मिलती है, अनुग्रह मिलता है क्योंकि उनकी आज्ञा का इसके द्वारा पालन होता है, परमेश्वर की आज्ञा का पालन ही वास्तविक पूजा है. उनकी आज्ञा का आदर करना सम्मान करना और उनके अनुसार जीवन व्यवहार का पालन करना भाव पूजा है.
ऐसी परिस्थिति आ कोई भयंकर पापी आत्मा प्रकट नहीं हो रही है. इसे
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जाए और यदि हृदय में भावना जागृत न हो तो समझ लेना कि हूं, कोई ऐसा पाप कर के आया कोई ऐसा पाप कर के आया हूं जो मेरे अन्दर यह भावना नैतिक दृष्टि से प्रथम कर्त्तव्य माना गया.
भगवान ने कहा जिस आत्मा में करुणा नहीं, जिस आत्मा में वात्सल्य नहीं, जिस आत्मा में दीन दुःखियों के लिए प्रेम नहीं, प्यार और अनुराग नहीं, उस व्यक्ति के जीवन का मूल्य ही क्या, वह तो पशु से भी गया- बीता है उससे तो पशु भी लाख गुणा अच्छे हैं. गाय को देखिए, आप उसे घास खिलाते हैं और बदले में वह दुग्ध देती है. पशु कितना परोपकार करता है जिन्दगी भर आपके लिए सर्वस्व देता है और मरने के बाद भी अपना चमड़ा और हड्डी तक आपके लिए देता है.
मनुष्य क्या देता है
"ते मृत्युलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । *
कवि ने कहा कि हमारा जीवन इस पृथ्वी पर भार रूप बन गया है. ऐसा कोई कार्य हमने अपने जीवन में नहीं किया, जिससे हमारे मन को शांति मिले प्रसन्नता मिले. जीवनपर्यन्त लाभ-लाभ करते रहे और जहां लाभ-लाभ करेंगे, वहां भगवान राम कैसे मिलेगा ? बिना राम को याद किए यह भावना कहां से आएगी. अन्दर से राम की करुणा कैसे बरसेगी राम जैसा दयालु हृदय कैसे बनेगा ? हमारे अन्दर महावीर की अन्तः करुणा कहां से प्रकट होगी ?
जीवनपर्यन्त वे करुणा मन्दिर, दया की प्रेरणा देते रहे धर्म का आधार जिस करुणा को माना, जिस दया को माना कि नहीं, इंसान की सेवा ही मेरी सेवा है, प्राणिमात्र की
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गुरुवाणी
सेवा ही मेरी सेवा है. वह सेवा का आदर्श कहां गया? ये हमारे जीवन के बडे प्रश्न हैं.
एक महान् श्रावक जगडू शाह ओसवाल कच्छ का निवासी था. आचार्य भगवन्त ने अपनी दिव्य-दृष्टि से पूर्वाभास कर उसको कहा कि आने वाले वर्ष में इस देश में ऐसा भयंकर दुष्काल पड़ेगा, परोपकारार्थ जितना अनाज का संग्रह कर सको, मंगवाकर कर लो. वह विदेश से भी अनाज मंगाता रहा और संग्रह करता रहा और गोदाम भर दिए.
दुष्काल पड़ा. गुजरात, राजस्थान बहुत सारे मध्य प्रान्त - सब दुष्काल से घिर गये, जगडूशाह ने सभी जगह राजाओं को अपना निवेदन भेज दिया और कहा कि आप जरा भी चिन्ता नहीं करें. जगडूशाह जहां तक जीवित है, वहाँ एक भी प्राणी अनाज के बिना नहीं मर सकता. इतना विशाल संग्रह किया था. एक नया पैसा नहीं लिया और सभी राज्यों को अपनी ओर से अनाज वितरण कर दिया.
आप सोचिए! यह आज से छह-सात सौ वर्ष पहले की घटना है और उस जमाने में, इतनी उदारता उसके जीवन में कि एक भी पैसा नहीं लिया. यह तो परोपकार के लिए है, यह भी नहीं कहा कि जगड़शाह की तरफ से दिया जाता है. प्रजा का है, प्रजा के लिए है, हमारा कुछ भी नहीं. यह तो प्रजा का पैसा है. हमने व्यापार के द्वारा प्रजा से उपार्जन किया और प्रजा के कल्याण के लिए अर्पण है. मेरा कुछ नहीं. कहीं अपना नामो-निशान तक नहीं रखा. सारे देश का दुष्काल केवल एक ही व्यक्ति ने दूर कर दिया यह सोचकर कि मेरे पास यह पड़ा हुआ पैसा किस काम का. परोपकार का ऐसा पुण्य अवसर मिला - मैं क्या मूर्ख हूं कि इस सुअवसर पर चूक जाऊं. इस अवसर का पूरा लाभ मुझे उठाना है.
एक जैन साधक की उदारता, महावीर की कैसी करुणा उसके जीवन में साकार बनी आप देखे. सारा प्रान्त गुजरात का सुबह उठकर के जब राम का नाम लेते हैं तुरन्त ही जगडूशाह को याद करते हैं. ऐसी पुण्यशाली आत्मा का नाम सुबह लिया जाये ताकि ऐसे गुण मेरे अन्दर भी आएं. परोपकार की भावना हमारे अन्दर भी जन्म ले. हमारा जीवन भी ऐसा आदर्श बनना चाहिए कि हमारे जाने के बाद लोगों के हृदय में हमारी स्मृति कायम रहे. हमारी स्मृति प्रजा के दिल और दिमाग के अन्दर स्मारक बन जाये, लोग याद करें और प्रेरणा लें. ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए.
प्रसंग आ जाए और यदि आपने उसका सही प्रयोग नहीं किया तो परिणाम क्या आएगा. अपना पेट तो कुत्ता भी भर लेता है, पशु भी अपना पेट भर लेता है. लेकिन मनुष्य के अन्दर वह शक्ति है कि दूसरों का पेट भी भर सकता है.
इस मानव जीवन का इतना मूल्य इसीलिए रखा गया कि वह परोपकार कर सकता है. अपने विचार को सक्रिय बना सकता है और उसे आकार भी दे सकता है. परन्तु पशुओं में यह ताकत नहीं. वह केवल अपना ही पेट भर पाता है.
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-गुरुवाणी
आचार्य भगवन्त ने इस सूत्र के द्वारा बड़ी सुन्दर प्रेरणा दी है:
दीनाभ्युध्दरणादरः दीन-दुःखी आत्माओं का अपमान करके या तिरस्कार करके नहीं. आदरपूर्वक, उनका उद्धार करने की भावना रखें, कोई व्यक्ति आपके द्वार पर याचना लेकर आया. जब व्यक्ति लाचार हो जाये, कोई उपाय न रहे, तब वह किसी के द्वार पर जाता है. कुछ आशा लेकर के जाता है. यदि आपने तिरस्कार कर दिया, परिणाम, उसकी आत्मा दुःखती है. दर्द से भरी हई आत्मा है और कभी अन्तर से अगर दुराशीष निकल गया, परमाणु से भी भयंकर होते हैं.
आप सम्मानपूर्वक, प्रेमपूर्वक उससे निवेदन कर सकते हैं कि भाई, मेरे पास अनुकूलता नहीं है, तिरस्कार नहीं, सम्मानपूर्वक. मेरा कर्त्तव्य है, मैं कोई इस पर उपकार नहीं कर रहा हूं. यह लेने वाला व्यक्ति मेरे ऊपर उपकार की वर्षा करके जा रहा है. यह पुण्य प्रदान कर रहा है. मैं तो पैसे दूंगा. यह व्यक्ति तो मुझे पुण्य का परमाणु देकर के जा रहा है. मेरे अन्तर्भावों को प्रसन्न करके जा रहा है और यह मेरे ऊपर आशीर्वाद की वर्षा भी.
दान देने वाले में ऐसी नम्रता और लघुता आनी चाहिए कि लेने वाला व्यक्ति उपकार की वर्षा करेगा. मैं कुछ नहीं यह तो मुझे पुण्य अवसर दे रहा है. इसलिए उसका अपमान कभी नहीं करना. कई बार ऐसी राजकीय परिस्थिति आ जाती है.
हमारे पूर्वजों ने इतना महान् कार्य किया है. उनका जीवन प्रसंग आप सुनें तो आपको भी प्रेरणा मिल जाए कि क्या कार्य है. अहमदाबाद जिसे - साढे चार सौ वर्ष पूर्व अहमदशाह ने बसाया था, काफी अच्छी समृद्ध नगरी है. आज साढ़े तीन सौ जैन मन्दिर हैं महाजनों की बहत विशाल संख्या है और पहले से ही महाजनों का बड़ा वर्चस्व रहा है. आज गुजरात का या अहमदाबाद का कोई भी निर्णय होगा तो पहले महाजन को पूछा जाएगा. ऐसी एक वहां की पंरपरा रही है, मुगल काल में जो वहां का सूबा कमजोर था, जरा ध्यान नहीं दिया. ___ अहमदाबाद की समृद्धि और उसका आकर्षण देखकर ईरान की तरफ से हजारों की संख्या में लुटेरे, बदमाश लूटने के लिए आए कि पूरे अहमदाबाद को लूटकर साफ कर देना. कत्लेआम शुरु कर देते हैं, मार-धाड़ शुरू कर देते हैं और मकानों को जलाना शुरू कर देते हैं, जिससे लोग भयतीत हो जाएं, घबरा जाएं और बड़ी आसानी से उनकी सम्पत्ति उन्हें मिल जाए. कोई उनका मुकाबला न करे, युद्ध की एक नीति है कि सामने वाले को एकदम भयभीत कर देना, ताकि वह हतप्रभ बन जाए और उस मौके का लाभ लेकर लूट कर के चले जाएं.
नगर सेठों को यह समाचार मिला. बहुत बड़ी संख्या में लूटने के लिए ईरान की तरफ से कोई लुटेरे आए हैं और अहमदाबाद पर उनकी दृष्टि है. शहर से बाहर उन्होंने मुकाम
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-गुरुवाणी
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किया है और वे जानते हैं, उनके पास पूरी जानकारी है कि यहां पर इतनी संख्या में सेना नहीं है, जो हमारा प्रतिकार कर सके, मुकाबला कर सके. मौका बड़ा अच्छा है, व्यापार का इतना बड़ा केन्द्र है, करोड़ों की सम्पत्ति बिना पसीना उतारे मिल जाएगी.
नगर सेठ जैसे ही मन्दिर से दर्शन करके आए और बड़ी बैचेनी शुरू हुई. गांव वालों ने मुझे नगर सेठ बनाया. रोज परमात्मा का दर्शन करता हूं, तिलक लगाकर आता हूं कि भगवन् तेरी आज्ञा शिरोधार्य करूंगा और प्रभु की आज्ञा का पालन करने का जब अवसर आया यदि मैं मुंह छिपाऊं तो मेरे जीवन में इससे बड़ा अधर्म कार्य और क्या होगा. तिलक लगाने का मतलब प्रभु तेरी आज्ञा, तेरे वचनों को स्वीकार करता हूं, शिरोधार्य करता हूं, इस कार्य के लिए जो कुछ मेरे पास है, प्रभु तेरी आज्ञा के लिए सर्वस्व समर्पित करता हूं. तिलक इसीलिए लगाया जाता है और इसका एक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक कारण है.
शरीर के अन्दर नाभि से लगाकर सिर-ब्रह्मांड तक षट् चक्र हैं उसमें आज्ञा चक्र आपकी भृकुटि में, दोनों नेत्रों के बीच आज्ञा चक्र है, आदेश वहां से छूटता है. विचार परमाणु वहां से जन्म लेते हैं. चन्दन का सुन्दर, शीतल तिलक के द्वारा हम प्रतिदिन प्रयोग करते हैं, चन्दन लगाते हैं. वह बड़ा शीतल होता है और शीतोपचार कहा जाता है..
आयुर्वेद की भाषा में, शीतोपचार, विचार में उत्तेजना और गर्मी न आ जाए, इसलिए प्रतिदिन चन्दन का तिलक लगाते हैं ताकि विचार शान्त रहें, सौम्य रहें, आत्मा के अनुकूल रहें, इसके पीछे यह भी एक कारण है. जब प्रसंग आएगा मैं आपको समझाऊंगा. एक-एक चीज की आवश्यकता क्यों है? मन्दिर क्यों चाहिए? यह इस प्रकार का निर्माण क्यों किया गया? मकान कैसा होना चाहिए? इसके अन्दर पूरा विवरण आने वाला है कि कहां, कैसे मकान में रहना है?
आजकल आधुनिकता का प्रतीक बन गया है कि कोठियों में रहना, बंगलों में रहना. भले ही आप प्रसन्नता का अनुभव करें, जीवन की वहां सुरक्षा नहीं मिलेगी. हमारे मोहल्ले में जो व्यवस्था थी. अलग-अलग जातियों के मोहल्ले बंटे हए थे. मोहल्ले में रहने वाले व्यक्ति में पाप का प्रवेश द्वार बन्द मिलता था.
मुहल्ले में एक आदमी अगर अपरिचित आ जाए. पूरा मोहल्ला चौकीदार था. हमारे जीवन का रक्षक था. ध्यान रखते इसके घर कौन आया, कौन गया. क्या वार्तालाप हो रहा है. सारी घटनाएं मालूम रहती थी. व्यक्ति पाप करने से पहले सौ बार सोचता कि करना या नहीं करना - मुहल्ले वाले देख लेंगे. शर्म और लज्जा आपके जीवन का कवच था.
कोठी में कौन देखने वाला है? कौन आया, कौन गया? और यदि विदेश चले गये तो हजरत सुलेमान, आपके प्रिंस आफ बेल्स, क्या धन्धा कर रहे हैं, किसको मालूम. कौन झांककर के देखने वाला. कौन उनके जीवन की रक्षा करने वाला. मुहल्ले में थे तो वहां तक तो पूरा मुहल्ला रक्षण करने वाला था. मुहल्ले का हर व्यक्ति आपके जीवन का रक्षक
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था. वह शर्म और लज्जा ऐसी चीज़ थी कि चाहते हुए भी पाप का आचरण नहीं हो सकता था. अब बाहर जाने के बाद कोई रुकावट नहीं रही.
इस सारी व्यवस्था को भंग करने का परिणाम यह हुआ कि जीवन की शांति आप खो बैठे. यहां वे व्यक्ति विचार करते हैं कि अब क्या करें!
मन्दिर दर्शन करके आए. नगर सेठ विचार में पड़ गए कि मेरे पास अपार सम्पत्ति, इतना धन और इतना वैभव, यह सब किस काम का अगर प्रभु आज्ञा का पालन मेरे जीवन में न हो. कितनी दीन-दुःखी आत्मा इस शहर में हैं और यह कत्लेआम करने वाले चौबीस घण्टे के अन्दर अहमदाबाद को लूटेंगे. सारा शहर श्मशान बन जाएगा. यहाँ हजारों-लाखों निवासियों की सामूहिक हत्या कर दी जाएगी. कितनी बहनें विधवा बनेंगी, अनाथ बनेंगी. मां-बाप के बिना बेचारे बच्चे अनाथ हो जाएंगे. मैं क्या करूं?
सारा शहर स्तब्ध हो गया. सब के मकान के दरवाजे बन्द हो गए. सैंकड़ों जैन मन्दिरों का रक्षण कैसे किया जाये. ये साधु महात्मा यहां रहते हैं, उनको क्या मालूम. आप उसकी अन्तःकरुणा देखिए. इनका उद्धार, इनका रक्षण करने की मंगल भावना से नगर सेठ ने निर्णय किया. अपने चार सिपाहियों के साथ बग्घी लेकर के दुश्मन की छावनी में गए. जहां वे लुटेरे आ कर के ठहरे हुए थे, उनका कैम्प था. व्हाइट फ्लेग (श्वेत पताका) लेकर के गए, ताकि वे मुझे गलत न समझ लें.
वहां जो लुटेरों का सरदार था उसने कहा - सेठ साहब! कैसे आए? मैं आपसे एक याचना करने आया हूं.
आप तो गांव के नगर सेठ हैं. उनको मालूम पड़ गया था कि नगर सेठ हैं. आप मेरे यहां भीख मांगने कैसे आए?
जी हां! लोगों के प्राणदान की भीख मांगने आया हूं कि हमारे नगर में एक भी व्यक्ति मरना नहीं चाहिए. बोलिए मैं आपकी क्या सेवा करूं.
उसने अपनी माँग रखी कि इतने करोड़ हमको नकद चाहिए. सोना, चांदी, नगीना सब मिला कर करोड़ों की सम्पत्ति चाहिए और यदि आप दे सकते हैं तो मैं आपकी भावना की कद्र करूँगा.
नगर सेठ ने कहा, आप मेरा विश्वास कीजिए. आपने जो मुझसे मांगा उससे सवाया लाकर के दूंगा परन्तु कुरान की सौगन्ध खा कर के कहिए कि यह तलवार म्यान से बाहर नहीं निकलेगी और जैसे ही मैं आपको लाकर सम्पत्ति दूं, आप अहमदाबाद से ही वापिस अपने देश चले जायेंगे. हमारे नगर में किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाएँगे. इस देश के किसी भी गांव को आप. नहीं लूटेंगे.
मैं वचन देता हूं, तुम जाओ.
मुझे संवत स्मरण नहीं, यह दो-ढाई सौ वर्ष पूर्व की एक ऐतिहासिक घटना है. सेठ वापिस घर आए. घर पर अपने मुनीम से कहा कि जितनी सम्पत्ति है बाहर निकाली जाये.
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गुरुवाणी
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फावड़े से लेकर के सोना और चांदी के सिक्के तहखाने से बोरों में भरे गये. दस गाड़ियों में वहां पर माल भरा गया. सोना, चांदी, सिक्का, जो भी था सब और जो उसने राशि कहा था, उससे भी अधिक सम्पत्ति सारी गाड़ियों में सजाई. मुनीमों ने कहा जिन्दगी में मैंने इस नगर सेठ के तहखाने का तलिया नहीं देखा था. वह उस दिन देख लिया.
लेकर के गए और जाकर के वहां जो विदेश से दुश्मन लूटने के लिए आए थे, उनको कहा कि आप देख लीजिए अपनी संपत्ति. अगर तोलना है तो तोल लीजिए. मेरे वचन में यदि कोई अन्तर आए तो आप मुझे सजा दीजिए. आपने जो वचन दिया है उसका पालन होना चाहिए. वह स्तब्ध रह गया यह देखकर कि हिन्दुस्तान का एक इंसान, ऐसा दयालु हो सकता है. यह खुदा का फरिश्ता है.
उसने कहा सेठ साहब! हमारी भूल हुई. अब जीवन में ऐसा पाप हम कभी नहीं करेंगे. हमको पेट भर के मिल गया. अब यह लूट-मार का धन्धा, या किसी को खत्म करने वाला काम नहीं करेंगे, आप विश्वास कीजिए.
हृदय-परिवर्तन हुआ. वचन देकर के गया. सारे अहमदाबाद में जब यह बात फैली सबके दरवाजे खुल गए. लोगों ने प्रसाद बांटना शुरू कर दिया. मन्दिरों में गये और लोगों ने पूरे अहमदाबाद में जलसा मनाया. नहीं तो चौबीस घण्टों में श्मशान हो जाता. सैंकड़ों-हजारों इंसानों का कत्लेआम कर दिया जाता. यह नगर सेठ खुशहालदास, कस्तूरभाई सेठ के दादा के दादा के जीवन की घटना है. इतना बड़ा त्याग सारे शहर को बचाने के लिए केवल एक व्यक्ति ने दिया.
अहमदाबाद की सारी प्रजा, मुसलमान से लेकर के हिन्दू तक सब कौम के लोग माणिक चौक पर एकत्रित हो गए और यह निर्णय किया कि जिस नगर सेठ ने आज हमको बचाया, नया जीवन दिया, हमारे शहर को आबाद रखा, हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम उसके लिए कुछ करें. सेठ ने मना कर दिया कि मुझे इसके बदले में कुछ नहीं चाहिए. लोगों ने तय किया कि यहां जो भी व्यापार होगा, एक रुपये में से एक पैसा सेठ का नज़राना होगा और यह नज़राना बाजार की तरफ से उनको हर साल भेंट किया जाएगा. नगर सेठ ने मना कर दिया.
अहमदाबाद के व्यापारियों का यह प्रस्ताव नगर सेठ ने ठुकरा दिया और कहा कि आप मुझे लज्जित न करें. मैंने जो किया अपना कर्त्तव्य समझ कर किया. आपने जब नगर सेठ बनाया तो सेठाई ऐसे नहीं रहती. प्रसंग आने पर उसका सही उपयोग होना चाहिए. लोगों ने बहुत जिद्द करके उनको बहुत कुछ तोहफा दिया. ब्रिटिश के काल में कस्तूरभाई सेठ की परम्परा तक नज़राना मिलता रहा. अहमदाबाद शहर को बचाया, उसके प्रतीक के रूप में यह हर वर्ष दिया जाता था.
आप विचार कर लीजिए कि हमारे पूर्वज किस प्रकार के थे. घर की सारी सम्पत्ति ले जाकर के दे दी. यह नहीं सोचा कि कल क्या होगा. मेरी सेठाई कैसे चलेगी. पुण्य |
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कार्य है, परोपकार का कार्य है. कितनी दीन-दुःखी आत्माओं के हृदय से मुझे आशीर्वाद मिलेगा और ऐसे सुन्दर परोपकार का सुअवसर मुझे कब मिलेगा. सब कुछ जा कर मैं अर्पण कर दूं. कहां तो ऐसी मंगल भावना और कहां आज हमारी वर्तमान स्थिति. कैसी स्थिति में हम खड़े हैं. विचार करिए. कभी ऐसा विचार आता है? दो रुपये भी किसी आत्मा को दें. मैं इतना कमाता हूं, इतना प्रतिशत मेरा परोपकार में जाएगा, शुभ कार्य में जाएगा. सारा जीवन इसी में पूर । हो जाता है. होटलों में निकल जाता है अस्पतालों में मर जाता है. देख कर के दया आती है अन्तिम समय चेहरे पर उदासीनता मिलती हैं.
कुछ भी नहीं हुआ. जो हाथ परोपकार के लिए मिला था, उसका उपयोग जगत् प्राप्ति के लिए इकट्ठा करने में हुआ. मरते समय हाथ खाली करके चला जाता है. यह विचारणीय प्रश्न है.
सेठ मफतलाल किसी गांव से दिल्ली में आए थे. यहां पर तकदीर आजमाई, भाग्योदय हुआ. लाखों की सम्पत्ति उन्होंने कमाई. दो-तीन लड़के थे, बड़े होशियार. मरते समय उन्होंने पूछा कि बड़ा बच्चा कहां गया. कहा कि वह आपकी सेवा कर रहा है, आपके माथे पर पंखा कर रहा है. बोले मंझला लड़का कहां है. कहा कि आपका पांव दाब रहा है. पूछा कि छोटा लड़का कहां है. कहा कि वह आपके लिए दवा लाने गया है. महामूर्यो! दुकान पर कौन गया? दिवाला निकल जायेगा. यह हालत थी मफतलाल सेठ की. तीनों लड़के सेवा में हाजिर मर रहा हूं, इसकी चिन्ता नहीं, दुकान की चिन्ता. मरते-मरते भी दुकान की ही चिन्ता.
मफतलाल गांव में गये. छोटा गांव था, व्यापार के लिए बड़े शहर में आकर बसे थे. यहां से कमाई होता वहां चले जाते. उम्र अस्सी वर्ष के ऊपर हुई. शरीर से बूढ़े हो गए पर मन से बड़े जवान थे. जैसे ही गांव में पहुंचे और वहां लेन-देन की कोई तकरार हुई. अचानक हादसा लगा बीमार हुए, पक्षाघात (या लकवा) हो गया. गांव वाले थे, उनके घर पर ले गए और चौक पर रख दिया. गर्मी के दिन थे, चौगान में उनका माचा रख दिया. आस-पास के लोग दयालु थे. दवा ले आये. घर ले आए, सेवा की. टेलीफोन किया. तीनों बच्चे दौड कर के भागे, सेवा के निमित्त नहीं, वे तो जानते थे कि जो आया है वह तो निश्चित जाएगा परन्तु अब यह उम्र – पक्षाघात हो गया, अटैक, या हैम्ब्रेज हो गया और कहीं मर गए तो वह चौपड़ा कहां रखा है, इनको कुछ मालूम नहीं कि वह रखा कहां है. उनके पेट में कहीं चला गया तो पैसा डूब जाएगा.
इस भावना से तीनों इकट्ठे होकर टैक्सी लेकर के गये, ऐसा वैराग्य था इनके अन्दर कि बाप तो आए है, मरेंगे ही. जैसे बाप में था, वैसा बेटों में संस्कार आया. वहां टैक्सी लेकर के दौड़े कि जल्दी से जल्दी जाएं, मरने से पहले जानकारी तो मिल जाए. वहां गए देखा तो पक्षाघात. जुबान अटक गई, बोला जाता ही नहीं. तीनों बच्चे हैरान हो गए. उपाय करना है, नहीं तो गजब हो जाएगा. थोड़ी देर में देखा तो बाप बेचारा दरवाजे
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गुरुवाणी
की तरफ बार-बार इशारा कर रहा. बोला नहीं जाएं ? ऊह ऊह, इतना ही शब्द निकले. इशारा दरवाजे पर ही करे,
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बच्चे समझ नहीं पाए कि इशारा किस बात का कर रहे हैं. बच्चों ने समझा कि कुछ बताने की इच्छा है, बोल नहीं पा रहे गांव में एक बड़ा जबरदस्त वैद्य था, वहां गए और कहा कि मेरे पिता की अब अवस्था भी है, बीमार भी हैं, कोई ऐसी दवा आपके पास है जिससे वे अन्तिम समय में कुछ बोल सकें. वैद्य ने कहा कि है संजीवनी नाम की दया है. पांच सौ रुपए की एक खुराक पड़ेगी गुलाब जल में घोंट कर दो मरता हुआ इंसान भी एक बार दो मिनट के लिए ज़रूर बोलेगा गर्मी आ जाएगी. रक्तचाप उच्च हो जाएगा. वह उठ के बैठ जाएगा उससे इतनी गर्मी और उत्तेजना पैदा होगी कि जीभ हिलने लग जाएगी. जो पूछना हो पूछ लेना. दो या तीन मिनट इसका असर रहेगा, उसके बाद नहीं.
दूध के साथ पिला
बच्चों ने देखा यह घाटे का सौदा तो यह है नहीं. सारा पता लग जाएगा. लाखों की सम्पत्ति दिख रही थी. बेचारे गए तीनों बच्चे दवा लाए, दूध के साथ पिलाया और पिलाते ही दस-पन्द्रह मिनट के अन्दर शरीर में जाते ही दवा ने असर किया, एकदम उत्तेजना आई बाप एकदम उठकर के बैठा तीनों बच्चे ऐसे वीतरागी बन गए एकदम नम्र, देखने लायक बिना नम्रता के प्राप्ति नहीं होती. बच्चों ने बड़ी विनम्रता से कहा-पिता जी! आप सुबह ग्यारह-बारह बजे बार-बार कुछ इशारा कर रहे थे, हम समझ नहीं पाए. रोकड़ रकम कहां है. ब्याज- बट्टे पर दी हुई वह सब राशि कहाँ है ? अगर पता चल जाए, तो हम उसकी वसूली कर सकें.
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बाप को यह सुन कर के ऐसा गुस्सा हुआ, जैसे आग में घी डाला हो. बेवकूफों क्या मुझे यहां मारने आये हो क्या मैं मरने वाला हूं? क्या समझ रखा है? एक घण्टे तक दरवाजे पर मैंने इशारा किया और तुम समझ नहीं पाए बेवकूफों तुम क्या शहर की दुकान सम्भालोगे ? दिवाला निकालोगे क्या दिवाली मनाओगे. घण्टे भर तक इशारा किया. मेरे ध्यान में आ गया लेकिन तुम्हारी अकल में नहीं आया. बात करते-करते घड़ी तो अपना समय पूरा कर रही थी.
उन्होंने कहा पिताजी! कहिए तो सही, हम समझ नहीं पाए.
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क्या समझ नहीं पाए. घण्टे भर तक इशारा किया • वह बकरी घुस गई थी, मैं माचे में लेटा देख रहा था. वह झाडू खा रही थी. मैंने कहा- इसको निकालो, निकालो निकालो और तुम बेवकूफों-गधों में अकल नहीं, बकरी पूरा झाडू खा गई. इतने में तीन मिनट पूरे हुए जुबान अटक गई और वह वापिस लेट गए.
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तीनों बच्चों ने माथे पर हाथ ठोंका कि पांच सौ की दवा पिलाई, वह भी पानी में गई. मरते-मरते इसको झाडू दिखायी पड़ा.
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-गुरुवाणी :
ज़िन्दगी अगर लोभ में गई, तो मरते समयं यही दशा होगी, झाडू ही नजर आएगी. मेरा आपसे यह कहना था जो पुण्य का अवसर मिला है उसका उपयोग कीजिए. विषय काफी लम्बा है आगे इस पर और विचार किया जाएगा.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्"
पश्चिम की आँधी आज जोरों पर है. हमारी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के लिए पश्चिमी - सभ्यता एटम बम या अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग नहीं कर रही है. बल्कि पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो और टी.वी के माध्यम से आक्रमण कर वह हमारी वैचारिक पवित्रता को नष्ट कर रही है. यदि समय रहते उससे अपना रक्षण नहीं किया गया तो एक दिन दुर्विचारों का यह शक्कर मिश्रित ज़हर हमारी समस्त सद्भावनाओं को मार कर रख देगा.
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-गुरुवाणी
जीवन का आधार - शिष्टाचार
महान् आचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरि जी महाराज ने 'धर्मबिन्दु' के द्वारा जीवन व्यवहार का सुन्दर परिचय दिया. उन्होंने मानव जीवन के आवश्यक कर्त्तव्यों के लिए उनके व्यवहार का सुन्दर स्वरूप अपने चिन्तन द्वारा प्रस्तुत कियाः
शिष्टाचरितप्रशंसनमिति सूत्र के द्वारा यह प्रतीत हो रहा है कि हर व्यक्ति को अपने शिष्टाचार का उचित पालन करना चाहिए. भले ही अपनी शक्ति अनुसार अत्यधिक करे, यदि परमात्मा की कृपा से वह साधन सम्पन्न हो तो उसका सुन्दर से सुन्दर उपयोग करें. __ व्यक्ति प्रमाद में सारा जीवन व्यतीत कर देता है और अपने कार्य से विमुख हो जाता है. जहां कर्त्तव्यनिष्ठा होगी, कार्य करने की जहां सुनिष्ठा होगी, वह कार्य निश्चित सफल होता है. एक बार निर्णय कर लेना है कि यह कार्य मुझे करना है और यदि इस प्रकार दृढ़ संकल्प किया जाये तो आधा कार्य तो वहीं पूरा हो जाता है. मात्र आधा करना ही अवशेष रहा, केवल संकल्प चाहिए.
निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी शारीरिक दृष्टि से परोपकार करने में सक्षम होता हैं. परोपकार में मात्र मन की जरूरत है, पैसे की ज़रूरत नहीं, और मन के अन्दर यदि परोपकार का भाव जन्म लेता है तो शरीर से वह स्वयं क्रियान्वित रूप में प्रकट होगा, आपके कार्य में भावना का परिचय मिल जायेगा कि व्यक्ति बड़ा सुन्दर, परोपकारी है. इस प्रकार जीवन को परोपकार का मन्दिर बनाना है... ___ असुरों का जब भयंकर उपद्रव हुआ. तो देवताओं ने मिल करके ब्रह्मा जी से प्रार्थना की. ब्रह्मा जी ने कहा कि इन असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए मेरे पास कोई उपाय नहीं, कोई साधन नहीं; परन्तु उन्होंने यह सुझाव दिया कि महान् तपस्वी दधीचि ऋषि तप कर रहे हैं. तुम वहां जाओ और उनसे प्रार्थमा. करो तो असुरों के उपद्रव से तुमको शान्ति मिल जाएगी. देवताओं ने दधीचि ऋषि के सम्मुख जाकर प्रार्थना की कि भगवन्! प्रतिदिन यह उपद्रव होता है. राक्षसों के उपद्रव से हमारा जीवन अस्त-व्यस्त और अशान्त हो चुका है. कोई उपाय बताइए. ऐसा कोई आशीर्वाद दीजिए जिससे असुरों से शान्ति मिल जाए.
दधीचि ऋषि ने अपने ज्ञान के द्वारा योग दृष्टि से देखा, उन्होंने कहा कि असुरों के उपद्रव को शान्त करने का मात्र एक ही उपाय है. और कोई दूसरा उपाय नहीं है. मैं अपना जीवन अर्पण कर दूं, देह विसर्जन के उपरान्त मेरी अवशिष्ट अस्थियों से आप एक अस्त्र का निर्माण कर, उसे बचाव का साधन रूप बनाकर असुरों पर प्रयोग करो. इसी शक्ति से देवों की सुरक्षा और असुरों का विनाश होगा..
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गुरुवाणी:
दधीचि ऋषि ने अपना प्राण दे दिया, देह विसर्जन कर दिया और उनके बतलाये हुए उपाय से, शरीर में से निकली हुई हड्डी के द्वारा बनाए हुए साधन से असुरों का उपद्रव शान्त हो गया. इसीलिए ऋषि-मुनियों ने कहाः
"परोपकाराय सतां विभूतयः" व्यक्ति परोपकार की भावना में सर्वस्व अर्पण कर सकता है. दधीचि ऋषि ने विचार किया, कि मुझे थोड़े समय तक जीना है और मेरे शरीर के द्वारा यदि इनका भला होता हो तो क्यों न शरीर का सदुपयोग कर लिया जाये.
परोपकार की भावना हमेशा मन से जन्म लेती है. और शरीर उस भावना को क्रियात्मक रूप देकर उसकी अभिव्यक्ति करता है. आपके पास पूर्व के प्रारब्ध से, पुण्य से पैसा आ जाए तो उसका उपयोग उसी प्रकार से होता है, जिस प्रकार से आपने अपने मन का निर्माण कर रखा हो. पहले मन को तैयार करना पड़ेगा. मन में इस भावना का निर्माण करना पड़ेगा कि मानव जन्म लेकर के यदि मैंने सेवा नहीं की तो मेरा जन्म सारा निष्फल हो जाएगा. परोपकार की भावना को बड़ी सुन्दर उपमा दी है. सेवा की भावना, अति मूल्यवान भावना है. ऋषि-मुनियों की भाषा में कहा जाय तो उन्होंने कहा है:
"सेवाधर्मो परमगहनो योगिनामप्यगम्यः" यह सेवा धर्म इतना महान और गहन तत्त्व है, जो योगियों को भी इसकी गम्भीरता का आभास नही हो पाता.
"दीनाभ्युद्धरणादरः" इस सूत्र के द्वारा, यह जानकारी प्राप्त करनी है. कि यत्किंचित जो मेरे पास है, उसमें से मैं परोपकार में अर्पण करूंगा. अपने शरीर का उपयोग इस प्रकार के कार्य में करूंगा. मेरे मन में सतत् उस प्रकार की भावना बनी रहे. मेरा हृदय कोमल बना रहे. बरसात के कारण जमीन जब कोमल होती है, उसमें बीज डालिए तो तुरन्त उसमें से अंकुर निकलता है. हृदय जब सद्भावना के द्वारा कोमल बन जाए तो धर्म-बीज का अंकुर तुरन्त वहां उत्पन्न होता है और उसका परिणाम थोड़े से समय में हमारे समक्ष आ जाता है. ___ अतः हृदय की कठोरता निकल जानी चाहिए और उसमें करुणा का आविर्भाव होना चाहिए कि जाते-जाते भी मैं अपने शरीर का सुन्दर से सुन्दर उपयोग करने वाला बनं. आपके शरीर की क्या कीमत है, कुछ भी नहीं. आज जो कुछ भी मूल्य हम ने मान लिया या समझ लिया, वह पैसे को समझ लिया. कवि ने कहा है:
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः,
स एव वक्ता स च दर्शनीयः। कवि ने सब के लिए अन्त में कहा है:
"सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति'
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-गुरुवाणी:
बड़ा सुन्दर उसका चिन्तन था. कवि ने कहा जिस व्यक्ति के पास पैसा है वही कुलीन है, वही वक्ता है और वही दर्शनीय है कितने आश्चर्य की बात है कि सभी गुण सोने के अन्दर आ गए.
“यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः" यदि दो पैसा आ जाए तो व्यक्ति को जगत् कहेगा – कि आह! बड़ा कुलीन, बड़े खानदान और बड़े रईस घराने के हैं क्योंकि पैसा आ गया. सारे दुर्गुण उस सोने की चमक में ढक गये, और व्यक्ति की महत्ता नजर आई. यदि कोई सज्जन व्यक्ति, सात्विक पुरुष, महा विद्वान, महान् घराने से आया हो. पैसा उसके पास न हो तो जगत कभी उसको स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि पैसा नहीं है. यह स्वभाव है, उसकी सात्विक दृष्टि में लोगों को दरिद्रता नज़र आएगी. भिखारी है, भूखा है, खाने को नहीं, पहनने को नहीं, जगत् को उपदेश देने के लिए निकला है:
“स एव वक्ता स च दर्शनीयः" यदि पैसा आ जाए और टूटा-फूटा वक्तव्य दे जाये, भाषण दे जाए तो लोग कहेंगे - ओ! विचार करने वाला भाषण है, बहुत महत्त्वपूर्ण भाषण है, समाचार पत्रों में स्थान मिल जाएगा. लोगों के मस्तिष्क में उसकी जगह मिल जाएगी. बड़ी प्रशंसा होगी - चाहे आता-जाता कुछ भी न हो. परन्तु यदि कोई ऐसा व्यक्ति जिसके पास पैसा न हो, महा विद्वान हो, विचारक हो, चिन्तनशील व्यक्ति हो और बहुत अनुभव के द्वारा दार्शनिक भाषा में आत्मज्ञान का परिचय अपने प्रवचन से देता हो - लोग कहेंगे - खाली तपेला है - आवाज करता है. आता-जाता कुछ भी नहीं है. क्या बकवास करता है? माथा दुःख रहा है. अनादि काल का यह स्वभाव है
“सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति" जगत् के ये सारे ही गुण, उस सोने के टुकड़े के अन्दर आ गए, जितने भी गुण हैं, उसी में नजर आते हैं. पैसा प्राप्त करना भी सरल है परन्तु परोपकार में लगाना, उसके लिए बहुत बड़ा पुण्य चाहिए. जहां तक पुण्य का अभाव होगा, वहां तक अर्पण की भावना कभी पैदा नहीं होगी. अन्दर में देने की रुचि नहीं आई है, लेकिन देने के तरीके अलग-अलग हैं.
बहुत-सी जगह पर, दान भी कन्डीशनल (सशर्त) होता है. मैं यह देता हूं, इसका फायदा मुझे मिले, बेनिफिट (लाभ) मिले. ज्ञानियों की भाषा में कहा गया कि वह दान नहीं, व्यापार है. आपने पैसा दिया, उसने नाम दिया. दान का प्राण चला गया. वह मोक्ष का कारण, आत्म-शांति और समाधि का कारण नहीं बनेगा. और फिर भी हम स्वीकार करते हैं. क्यों?
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-गुरुवाणी
कई व्यक्ति मुझसे पूछते हैं कि इस गलत चीज़ को आप क्यों प्रोत्साहन देते हैं. मैंने कहा- “एज ए रिहर्सल" - वह दान देने की प्रेक्टिस (अभ्यास) कर रहा है. अगर आप बिल्कुल ही बन्द करा दोगे तो उसकी भावना ही मर जाएगी. वह देता तो है. देते-देते उसमें संस्कार आएगा. मेरे शब्द की चोट कभी न कभी उसको जागृत करेगी और कभी यह भावना आ जाएगी कि यह देने का तरीका गलत है, मैं ऐसे दूं कि मुझे भी मालूम न पड़े – “फार गिव एण्ड फारगेट" दूं और उसे भूल जाऊं, याद न आए.
दे कर के यदि याद आता है, अभिमान आता है कि मैंने दिया तो वह अहंकार सारे पुण्य की खेती को खा जाएगा. देकर के यदि नम्रता आ जाए, व्यक्ति स्वयं को धन्यवाद दे - मैं पुण्यशाली हूं, मेरे द्वारा यह सुकृत कार्य हुआ तो उस कार्य में आनन्द आएगा. उस कार्य में आत्मा को प्रसन्नता मिलेगी, आत्मसंतोष मिलेगा. देने का यह तरीका होना चाहिए. इस शब्द पर आप ध्यान देना -
"दीनाभ्युध्दरणादरः" ऐसे दीन व्यक्ति, जो कर्म संयोग से निर्धन बन जाएं, परिस्थिति से लाचार बन जाएं, मजबूर हो जाएं, परिवार-सम्पन्न न हों, स्थिति संपन्न न हो और प्रतिष्ठित हों ऐसी परिस्थिति में कई बार ऐसी दुर्घटनाएं हो जाती हैं, विवशता व्यक्ति को मौत की तरफ ले जाती है, ऐसी परिस्थिति में उन आत्माओं को सहयोग देना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है. जैन परम्परा में इसको बड़ा महत्त्व दिया गया है.
"साधर्म्यवच्छलन्तु बहुलाभं" ऐसे सहधार्मिक जनों की भक्ति करना, असीम पुण्य का कारण माना है. पर्युषण पर्व आएगा - उस समय पर इसका विवेचन चलेगा. उसी पर्युषण, पर्व में महावीर परमात्मा का कथन है:
“एगत्थ सव्वधम्मा इंएगत्थ साहम्मिआण वच्छल एक तरफ सारी दुनियाभर की धर्म क्रिया करिए, तप करिए - दूसरी तरफ यदि शुद्ध भाव से ऐसे सधार्मिक बन्धुओं की, ऐसी दीन आत्माओं की आप सेवा करते हैं तो सब धर्म एक तरफ और यह सेवा धर्म एक तरफ, उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. इतना मूल्य इस को दिया गया, इतना आदर इस धर्म को दिया गया. परोपकार, तो हृदय की अनुकंपा है, हृदय की दयालुता है, हृदय की करुणा है. इसी आधारशिला पर सम्यक्-दर्शन आधारित है. सम्यक्-श्रद्धा का आधार है. परमात्मा के प्रेम को पाने का सबसे सरल तरीका है. उनकी आज्ञा का यथावत् पालन है. उनका आदेश है:- परोपकारी बनो.
जहां तक पैसा पाकेट में है, वह पाप माना गया परन्त जैसे ही पाकेट से परोपकार में गया; तो वह तुरन्त ही रूपान्तरित होता है, पुण्य बनता है, फिल्टर हो जाता है. परोपकार में जाए, तब यह गटर का जल भी गुलाबजल बनता जाएगा, नहीं तो दुर्गन्ध देगा, अभिमान
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गुरुवाणी
उत्पन्न करेगा, विकृति आएगी, उसका गलत उपयोग होगा. पैसा है, आप शराब पीजिए - आपके विचार पर आधारित है, आपके विवेक पर निर्भर है परन्तु कुछ ऐसा कार्य करना कि जाते समय आत्मा प्रसन्न रहे, संतुष्ट रहे.
दुनिया का सबसे धनवान व्यक्ति, राकफेलर, ने कैसी गरीबी में अपने जीवन का निर्माण किया. एकमात्र भावनाः
___ "भावना भवनाशिनी" यदि परोपकार की भावना भी आ जाए तो भी अशुभ कर्मों, अन्तराय कर्मों और जो भी आपके अन्दर दूषित तत्व हैं, उनका वह प्रतिकार कर देती है, भावना में बड़ी प्रचण्ड शक्ति है. कभी “राकफेलर" की जीवनी आप अवश्य पढ़ें. वह दुनिया का सबसे धनवान व्यक्ति था. उसका जन्म जंगल में हुआ और उसकी मां लकड़ियां काटकर बाजार में बेचकर के अपना जीवन निर्वाह करती थी. रहने के लिए सामान्य झोंपड़ी थी. उस बालक के रक्षण में पूरी रात आग जलाकर रहती ताकि कोई जंगली जानवर न आ जाए और मेरे बालक को नुकसान न पहुंचे - ऐसी स्थिति. जहां रहती थी वहां मकान में दरवाजा भी नहीं था. ऐसी भयंकर परिस्थिति में, पूरी दरिद्रता में. उसका बचपन व्यतीत हुआ, थोड़ी-बहुत शिक्षा उसको मिली, बेसिक शिक्षा. आगे पढ़ने के लिए वह प्रयास करता है. मां मजदूरी करके, कष्ट सहन करके, कि अपने बालक को मैं पढ़ाऊं. बालक सशक्त था. उसमें वैचारिक दरिद्रता नहीं थी. उसने प्रयत्न किया और नौकरी मिल गई. एक प्रोफेसर के यहां नौकरी करता. प्रोफेसर बड़ा दयालु, उसकी सारी सुविधा और उसका पूरा ध्यान वह प्रोफेसर रखता. कालेज की फीस स्वयं देता. पढ़ने की पुस्तकें भी वही देता, उसके घर का सब काम वह करता. कालेज में घंटी बजाने की उसकी नौकरी लगवा दी. थोड़ा-बहुत पैसा वहां से मिल जाता.
मां को संतोष मिलता. उसके हृदय में एक ही भावना थी कि मैं अपनी मां की सेवा करूं. मेरे लिए मेरी मां सब कुछ करती है, और मेरी मां ही मेरे लिए सब कुछ है. जब यह मंगल-भावना आती है तो यह कर्तव्यपरायणता को जन्म देती है.
दरिद्रता से कोई तात्पर्य नहीं, यह तो पूर्व कर्म का फल है, परन्तु इस फल का भी प्रतिकार आप कर सकते हैं - आप में वह भावना चाहिए.
अपनी मर्यादा रखकर के ही कार्य करना चाहिए. व्यापार का तरीका बतलाया कि उपार्जन करना परन्तु एक भाग रिज़र्व रखना - एक भाग व्यापार में रखना - उसका एक भाग परिवार के भरण-पोषण में लगाना और एक भाग धार्मिक कार्यों में, परोपकार में, दीन-दुखियों की सेवा में लगाना ताकि कभी कोई समस्या न आए, चिन्ता न आए. मानसिक रूप से आत्मा कभी पीड़ित न हो.
राजस्थान में, गुजरात में एक परम्परा रही है कि प्रति वर्ष सोना, चांदी, स्थाई मिलकियत लेंगे, इस तरह से थोडी-बहत पुंजी वे रिजर्व रखेंगे -- आपत्ति काल में जो
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गुरुवाणी:
काम आ जाए. अगर खाएं- पीएं मज़ा करें तो कई बार ऐसी समस्या आती है कि समाज के लिए उनका जीवन कलंकित बन जाता है. एक अपराधी बन करके यहां से परलोक जाते हैं.
वर्षों पहले बम्बई के एक निर्धन परिवार की घटना है. एक परिवार का मुखिया बहुत बड़ा जुआरी था. जैसा कि आपको बताया कि गलत संसर्ग में जाकर व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है. वह जुआरी भी अपना सब कुछ गंवा बैठा और अन्त में उसने मृत्यु का आलिंगन किया. पूरे परिवार के लिए उसका जीवन श्राप बन जाता है.
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सट्टा में सब कुछ बर्बाद कर दिया, साफ हो गया. बहुत गरीबी से पीड़ित वह परिवार अकेली मां सारे परिवार का भार वहन करती. बच्चों का लालन-पालन करना, पड़ोस में जा कर के बर्तन मांज कर के आती. कपड़ा सी कर के बड़ी मुश्किल से अपना जीवन निकालती दो बालक, एक बच्ची और एक बालक बालक को मां ने पहले से ही यह संस्कार दिया.
मां ने कहा! बैटा, जीवन में अपनी पवित्रता और ईमानदारी नहीं जानी चाहिए, पैसा तो आता जाता रहता है तेरे पिता ने भूल कर दी. इसका यह मतलब नहीं कि अपने कुल 'की परम्परा चलाएं. बेटा जीवन के अन्दर यह पवित्रता कभी नष्ट नहीं करना । अचानक मियादी बुखार हुआ. मां बीमार पड़ी और ऐसी परिस्थिति में घिर गई कि घर के अन्दर कोई साधन नहीं, ग्यारह बरस का बालक और नौ बरस की उसकी छोटी बहन, और परिवार में कोई नहीं, परन्तु बालक धर्म संस्कार से पूर्ण था मां के विचारों से बहुत प्रभावित था. मां ने कहा था कि कभी भूल कर भी गलत रास्ता नहीं अपनाना, सत्य का आश्रय नही छोड़ना, जीवन है, उतार-चढ़ाव आएंगे कदाचित कोई ऐसी परिस्थिति आ जाऐ तो भी, पेट के लिए भी, कोई पाप नहीं करना. बड़े कोमल हृदय का बालक. शब्द को पकड़ लिया और उसके अनुसार, उसका आचरण.
मां की स्थिति बहुत नाजुक हो गई. बालक बैठा-बैठा सोचता है कि मैं क्या करूं. घर में पैसा नहीं. मां तो रोज़ मज़दूरी करके शाम को पैसा ले आती. अब क्या किया जाए. कोई उपाय पास नहीं था. मां के प्रति आदर और सेवा की भावना कि मां के इस दर्द में मैं कैसे सहायक बनूं पड़ोस में एक मुसलमान भाई रहता था फल- फ्रूट का बिज़नेस करता था और यही वैशाख का महीना था, आम का मौसम था. वह बालक निर्दोष भाव से कहता है बड़े मियां! एक काम करोगे, बोला क्या ? मुझे थोड़ा-सा आम दे दो, मैं बाजार में बेचूंगा. थोड़ा-बहुत उससे आमदनी हो जाएगी. अपनी मां के लिए दवा लाऊं, उसकी सेवा कर सकूं इतना ही पैसा मुझे चाहिए, उसकी अन्तर्भावना, कोमलता देखिए. वह बालक टोकरी लेकर जाता है, कितना प्रसन्न होता है, परन्तु दिन के ग्यारह बज गए लोग आते हैं. जाते हैं, वह तो बम्बई शहर है. किसी ने ध्यान भी नहीं दिया. बालक ग्यारह बजे विचार में पड़ गया कि अभी तक मैंने मां को दूध नहीं दिया,
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गुरुवाणी
दवा नहीं दी. घर पर नहीं गया, मां अलग चिन्ता करती होगी. उसका बुखार भी अधिक बढ़ा है और मेरा कैसा पाप कि मां की सेवा से मैं वंचित हूं. कितने सुन्दर विचार हैं टोकरी ले कर के बैठा है, प्रतीक्षा में, कोई आ जाए और दो पैसा भी इसमें अन्दर मिल जाए तो बड़ी प्रसन्नता से मैं मां की सेवा करूं. उसकी भावना इतनी सुन्दर थी. कोई व्यक्ति नजर नहीं आया. एक श्रावक भाई आए, गाड़ी से नीचे उतरे. सम्पन्न व्यक्ति थे. बालक ने जाकर उनका पांव पकड़ लिया. पांव पकड़ते ही वह सेठ कहने लगा कि बेटा यह क्या है, क्या कर रहे हो?
और कुछ नहीं, मेरी एक प्रार्थना है, मेरी मां बहुत बीमार है. दवा के लिए मेरे पास पैसा नहीं. मां को लाकर दूध पिलाने के लिए पैसा नहीं. मेरे घर पर आज मेरे पिता मौजूद नहीं. मुझ कमजोर शरीर पर इतना बड़ा उत्तरदायित्व, इतना बड़ा भार आ पड़ा है. मैं आपसे दान अथवा भीख नहीं मांगता, मैं आम लेकर आया हूं. दिन के बारह बज गए और अभी तक किसी ने भी नही खरीदा, मैं खाऊं या न खाऊं, मुझे मेरे पेट की चिन्ता नहीं. आप यह आम ले लीजिए. पैसा मिल जाएगा और उस पैसे से मेरी मां के लिए मैं दवा खरीद सकूँगा.
उसके हृदय का भाव देखकर सेठ का हृदय पिघल गया. उन्होंने तुरन्त सौ का नोट निकाला और बालक को दिया. आम गाड़ी में रख दो और यह सौ का नोट ले जाओ. नहीं-नहीं मेरे सौ रुपए नहीं होते. इतना तो आम नहीं. बाकी रुपए आप वापिस ले लीजिए. मुझे तो बस केवल अपनी मजदूरी के पैसे चाहिए.
उस बालक के लिए कितना बड़ा प्रलोभन और ऐसी परिस्थिति में भी उसके विचार की कैसी दृढ़ता? कहता है, नहीं-नहीं. सेठ ने कहा- मेरे पास रेजगारी नहीं है, सामने दुकान से लाकर के ड्राइवर को दे देना. सौ का नोट लेकर के सामने एक पान वाले की दुकान पर गया, वहां छुट्टा करवाया. अपना पैसा, जो नफा-मजदूरी का था, ले लिया और बाकी पैसा मुट्ठी में ले कर के और रास्ता पार करके आता है तो गाडी दुर्घटना ग्रस्त हो जाती है.
बालक गिर गया और पूरा माथा उसका फट गया. उठाकर के उसको तुरन्त अस्पताल ले गया, वहां बेहोशी की अवस्था में भी हृदय के विचार उसके शब्दों से प्रकट हो रहे हैं. मेरी मां के लिए - मेरी मां के लिए. मां के सिवा कोई दूसरा शब्द ही नहीं आ रहा था. मेरी मां क्या करती होगी. डाक्टरों ने आश्वासन दिया. - जैसे ही सेठ नीचे उतरे और पूछा कि लड़का आया था.
ड्राइवर ने कहा. वह आ रहा था और गाड़ी से दुर्घटनाग्रस्त हो गया. कहां है? वह अस्पताल में पुलिस वाले ले गये. उसकी मानवता देखिए. पुलिस से पूछताछ की कि बालक जो दुर्घटनाग्रस्त हुआ था, किस अस्पताल में है. वे स्वयं वहां गाड़ी लेकर के गए. डाक्टरों ने बहुत प्रयत्न करके उसको बचा लिया. उसको भान (होश) आया. भान आते ही, सेठ ।
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- गुरुवाणी
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साहब वहां पहुंचे पास में गए और पूछा, बेटा! यह क्या हो गया. आंख खोल कर के देखता है तो कहता है कि सेठ साहब! मैंने आपके पैसे मुट्ठी में रखे, लौटाने के लिए आ रहा था, मुझे पता नहीं वे पैसे किसके पास गए, कहां गए मुझे मालूम नहीं, मुझे माफ कर देना.
इतनी घायल अवस्था में वह बालक कहता है मुझे क्षमा कीजिए, मैं आपको लौटाने के लिए आ रहा था. मेरी मां के लिए दवा का पैसा तो मेरे पाकेट में है. सेठ ने कहा कि मैं पैसे के लिए नहीं आया. मैं कोई मांगने के लिए नहीं आया - तेरी भावना देखकर के मैं आया हूं. बालक ने कहा कि आप मेरी चिन्ता न करें. यदि आपको मेरी चिन्ता है तो आप मेरी मां के लिए चिन्ता कीजिए. मेरे लिए मेरी मां मेरा सर्वस्व है.
कैसी हृदय की भावना, यह परोपकार की वृत्ति, मां की सेवा की आंतरिक-रुचि सारे अशुभ कर्म का निवारण कर देती है. सेठ को कोई संतान नहीं थी, वह करोड़पति सेठ थे. सेठ ने निर्णय कर लिया कि यह बालक मैं लूंगा. इसका लालन-पालन मैं करूंगा. परमपिता के रूप में मैं इसका पालन करूंगा और इसकी मां की जैसी भावना होगी, उसके लिए सारी व्यवस्था में स्वयं कर दूंगा. डाक्टर से प्राइवेट में कह दिया कि इसका सबसे सुन्दर ईलाज होना चाहिए. बालक बच गया. उसकी मां को बुलाकर के कहा कि जहां तुमको रहना हो, मकान बनवा देता हूं, नौकरानी रख देता हूं. तुम जैसे चाहे रहो - तुम्हारा मासिक खर्च मैं दे दूंगा अगर यह बालक मुझे दे दो. जो बालक मरते समय भी अपनी मां का विचार करता है. मेरे लिए तो यह बालक कोहिनूर हीरा सदृश है. यह बालक मेरे घर पर रहेगा. इसे पढ़ाऊंगा, इसे तैयार करूंगा और मेरी सारी संपत्ति मैं इसके नाम करूंगा. ___ग्यारह वर्ष का बालक और उसके अन्दर भी यह परोपकार की भावना. मैं भूखा रहूं, मेरी मां को दवा लाकर के दो. कैसी प्रामाणिकता. सौ का नोट मिला तो भी मना कर दिया. ज़रा भी प्रलोभन उसे आकर्षित नहीं कर सका. ऐसी भावना, ऐसी दृढ़ता परोपकार में आपके अन्दर आनी चाहिए.
जब ग्यारह वर्ष का निर्दोष बालक अपने अन्दर यह भावना पैदा कर सकता है. तो हमारे पास दुनियाभर का अनुभव है, उम्र की दृष्टि से बहुत बड़ा अनुभव है, तो हमारे अन्दर यह भावना क्यों नहीं आती और जिस दिन यह भावना अपने अन्दर आ जाएगी आप याद रखिए, सूत्रकार ने लिखा है -
यह सद्भावना पाप का प्रतिकार कर देती है और यदि यह भावना आंधी का रूप ले ले, तूफान बन जाए. मन के अन्दर आन्दोलन शुरू कर दे, मूवमेंट शुरू कर दे - एक क्षण के अन्दर पाप का पलायन हो जाएगा. उस आंधी से सारे पाप के परमाणु उड़ जाएंगे. इसीलिए इसको यहां महत्त्व दिया गया. सारी दयालुता का आधार इसको माना गया. परोपकार के द्वारा व्यक्ति अपनी करुणा को सक्रिय बनाता है. अपने विचार को
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% 3Dगुरुवाणी
अपने अन्तःकरण में प्रतिष्ठित करता है. इसीलिए यहां परोपकार को इतना महत्त्व दिया गया है:
"दीनाभ्युद्धरणादरः" ऐसी दीन-हीन आत्माओं की सेवा करना, ऐसी आत्माओं के अन्तर्हदय का आशीर्वाद प्राप्त करना बहुमूल्य माना गया, इसका कोई मूल्यांकन भौतिक दृष्टि में नहीं होता,
ऐसी गरीबी में “राकफेलर" बड़ा हुआ. चारों तरफ से मुसीबत घिरी हुई थी. कालेज में घंटी बजाता, गरीबी ऐसी कि रात को पैंट और शर्ट धोकर सुखा देता और सुबह वही पहन कर के जाता, एक ड्रेस था. यह राकफेलर अपनी डायरी में लिखता है कि जैसे ही कालेज में उसने प्रवेश किया. चर्च में जाकर एकदिन प्रार्थना की, प्रार्थना में पुकार थी कि भगवन्, जो तुझे सज़ा देनी है, मैं सहर्ष स्वीकार करता हूं, उसकी मुझे चिन्ता नहीं. परन्तु मेरी एक भावना पूरी हो जाए.
मेरी एक ही भावना है, मेरे जैसे कितने, लाखों गरीब दुनिया में होंगे, अगर प्रभु तेरी कृपा से दो पैसा मिले तो मैं सबसे पहले गरीबों की सेवा करूंगा. मैं पैसे का यही सदुपयोग करूं, परोपकार में लगाऊं. वर्ष-दो वर्ष का समय निकला. कुछ पैसा उसने पैदा कर लिया. कोई जमीन बिकने वाली थी और वहां उस जमीन के अन्दर धीमे-धीमे कारोबार शुरु किया. कुदरती वहां से पेट्रोलियम निकला. उसकी रायल्टी उसको मिली. पैसा बढ़ता गया, बढ़ता गया. एक दिन ऐसा आ गया कि एक मिनट के अन्दर एक लाख की आमदनी हई.
उसने बहुत बड़ा फाउण्डेशन बनाया. स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका गए तो उनसे मुलाकात हुई. वह स्वयं चल कर गया कि भारतीय ऋषि-मुनियों का जीवन त्याग-प्रधान होता है. उनका मैं दर्शन करूं. उनके विषय और प्रवचन का उसमें बड़ा आकर्षण था. अतः उनसे मिलने गया.
भारतीय सन्यासियों का जीवन कैसा है? विवेकानन्दजी कुछ पढ़ रहे थे - कुर्सी पर बैठे थे. सामने राकफेलर आकर के बैठा. दस मिनट तक तो उनका ध्यान ही उस ओर नहीं गया. कौन आया-कौन गया, गम्भीर व्यक्ति थे. दस मिनट के बाद ध्यान गया, उन्होंने देखा और पूछा कि आप कौन हैं? स्वामी जी, मुझे राकफेलर कहते हैं. मैं आपके दर्शन के लिए आया हूं.
संसार का सबसे धनाढ्य व्यक्ति और स्वामी जी के दर्शन के लिए आया. भारतीय संस्कृति का कैसा आकर्षण? स्वामी जी के पास कुछ नहीं था. हमारे साधु-संतो में जो त्याग की वृत्ति थी, वह बड़ी अपूर्व थी. लोगों के हृदय में अपना साम्राज्य पैदा कर लेते. लोग दिल्ली में राज्य करते और साधु लोगों के दिल में राज्य करते हैं. वे हिन्दुस्तान में राज्य करते है. और साधु के प्रेम का साम्राज्य सारे विश्व के अन्दर होता है. __स्वामी रामतीर्थ जब अमेरिका जाने लगे. कोई अता-पता नहीं, किसी ने टिकट कटा दी और जाने लग गए. वह पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर में प्रोफेसर थे. गणित के बहुत
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-गुरुवाणी
बड़े विद्वान थे. परन्तु त्यागी बन गए, गंभीर सन्यासी बन गये. दो कपड़ा लिया, झोली में डाला और अमेरिका रवाना. वहां अमेरिकन स्टीमर में कोई उनको मिला और पूछा, "आपका लगेज?"
“अरे! साधुओं का क्या लगेज (सामान) होता है. मेरे पास बहुत सामान है." “क्या सामान है?"
"एक चद्दर है. तुम नहीं जानते रात को ओढ़ता हूं चद्दर का काम देता है. गर्मी आई बिछा लेता हूं -- दरी का काम देता है. गर्मी आई माथे पर डालता हूं - छतरी का काम देता है. बहुत काम देता है – इसमें एक नहीं अनेक चीजें हैं. मुझे दो कपड़े चाहिए, बहुत हैं. प्रभु की मर्जी."
"आप अमेरिका जा रहे हैं?" "हां, इच्छा हो गई राम की, चलना है." “कहां ठहरेंगे?" "तुम्हारे यहां. "आपका कोई पहचान वाला?" “तुम पहचान वाले हो. यहां मिल गये."
उसके साथ. ऐसी दोस्ती हो गई वह व्यक्ति उनके प्रेम के आकर्षण से बाहर नहीं जा सका. सारी अमेरिका में धूम मचा दी. वापस आते समय जब वे हांगकांग में उतरे और जब कलकत्ता स्टीमर की टिकट बुक कराई, उनको एक मित्र ने आकर कहा कि आप जिस स्टीमर से जा रहे हैं. एक देश का बादशाह भी उसी स्टीमर से रवाना हो रहा है.
तो मेरी टिकट वापिस करा दो. एक स्टीमर में दो बादशाह होते हैं? धुन के धनी थे. टिकट कैंसल करा दिया गया.
वे क्या समझते हैं. यह भी बादशाह है. क्या दो बादशाह एक ही स्टीमर में जाएंगे?
हमारे साधु-संतों का जीवन ऐसा अद्भुत था. मैं तो कहता हूं कि आप आओ और देखो इसका स्वाद ही अपूर्व है. यह कहने का नहीं, अनुभव के लिए है. कोई चिन्ता नही है? कोई नोन-तेल, लकड़ी की चिन्ता है? कोई पगड़ी की या भाड़े की चिन्ता है? एकदम निश्चिन्त जीवन इतना सुगम जीवन और फिर भी लोग आते नहीं. यही तो दुर्भाग्य है.
स्वामी विवेकानन्द ने दस मिनट के बाद उसको देखा और पूछा -- “कैसे आए?" "आपके दर्शन के लिए, आशीर्वाद के लिए."
विवेकानन्द पहले तो विचार में पड़ गए और कहा “आशीर्वाद इस तरह नहीं दिया जाता. कुछ परोपकार कर के आएं, कोई सुन्दर कार्य आप कर के आएं – उसके बाद
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गुरुवाणी:
आशीर्वाद की अपेक्षा रखें. साधु-संतों का आशीर्वाद ऐसे ही नहीं मिलता. वह भी पुण्यशाली आत्माओं को, उनके शुभ कार्य के लिए दिया जाता है. कितने ही गरीबों को मार कर के पाप को आमंत्रित करने के लिए आशीर्वाद नहीं होता कि मैं कहूं - " धनवान भव" और वह पाप कितने ही गरीबों को मारकर के, पाप से उपार्जन करे उसमें मैं भागीदार बनूं. ऐसा मुफ्त का आशीर्वाद साधु-सन्तों के पास नहीं होता. कुछ परोपकार करके आओ, कोई सुन्दर कार्य करके आओ, तभी धन्यवाद दिया जाये."
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उसके दिल में बड़ी चोट लगी, विचार में पड़ गया परन्तु एक चरित्रवान् व्यक्ति के शब्द थे. उसके अन्तर्हृदय में घर कर गया और सोचने लग गया कि कितना निश्चिन्त. कोई परवाह नहीं. मेरा कोई स्वागत नहीं, सम्मान नहीं. मैं आया तो उसकी कोई उनके चेहरे पर प्रसन्नता नहीं. एकदम मस्त सन्यासी और मेरे हित के लिए उसने कहा, कुछ परोपकार करो, और मैंने बाल्यकाल से नियम किया था कि कुछ कार्य करना है.
अब आप सोचिए, बत्तीस करोड़ डालर का "राकफेलर फाउण्डेशन" बनाया. आज से अस्सी बरस पहले बत्तीस करोड़ डालर का कितना मूल्य था.
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विवेकानन्द की सेंच्युरी में उनकी पूरी जीवनी प्रकाशित हुई. कैसे-कैसे उनके जीवन की घटनाएं घटीं, वह सारा वर्णन है. "राकफेलर फाउण्डेशन" की स्थापना भी विवेकानन्द की प्रेरणा से हुई सारा एशिया, अफ्रीका और सारा मध्येशिया गरीबी के नीचे दबे हुए जो देश हैं. वहां के लोगों को मेडिकल एड मिली. शिक्षा के लिए सहायता मिली या ऐसे कोई दुर्भिक्ष, प्राकृतिक प्रकोप हों और इस फण्ड से उनको सहयोग दिया जाए, उसके लिए उस फण्ड की स्थापना हुई.
राकफेलर ट्रस्ट बनाकर विवेकानन्द के पास आया और निवेदन किया कि स्वामी जी! आपने कहा था बहुत बड़ा एक ट्रस्ट मैंने बनाया है. मैंने सबसे पहले उसमें बत्तीस करोड़ डालर जमा कराया है. "राकफेलर फाउण्डेशन" अब तो आशीर्वाद दें.
स्वामी जी ने कहा कि मैं क्या दूं. तुम मुझे धन्यवाद दो. तुमको मैनें जीवन जीना सिखाया. धन्यवाद का पात्र तो मैं हूं कि तुमको यह जीवन जीने की कला मैंने बतलाई. अब तुम्हारे जीवन के अन्दर उस परोपकार का आनन्द आएगा, मानसिक प्रसन्नता मिलेगी.
तुलसीदास जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है:
"पर हित बस जिनके मन मांही, तिनकहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥” जिस आत्मा के अन्तर्हृदय में परोपकार की भावना जागृत होगी, जगत् में कोई वस्तु उसके लिए दुर्लभ नहीं.
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उस व्यक्ति ने बाल्यकाल में प्रभु से प्रार्थना की कि भगवान मेरी भावना पूर्ण हो जाए तो मैं गरीबों के लिए कुछ करूंगा. भावना साकार बन गई. किसे नालूम था कि जिसके पास पहनने के लिए एक पैंट, रहने को केवल एक सामान्य झोंपड़ी, खाने का पता नहीं. गुलामी करनी पड़ती है और वह आदमी दुनिया का सबसे बड़ा धनवान बन जाएगा.
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गुरुवाणी
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ऐसी अन्तर्भावना जब भवों का नाश कर देती है तो पाप का नाश कैसे नहीं करेगी, दुर्विचार का नाश कैसे नहीं करेगी? हमेशा सद्भावना से आत्मा को वासित करें. प्रयत्न करिए ज़रा भी दुर्भावना आ जाए, प्रतिकार करिए, उसको चोट पहुंचाइये. इन्द्रियों को कभी हावी न होने दीजिए क्योंकि ये पाप के प्रवेश-द्वार हैं वहां पहले ही अपना नियन्त्रण होना चाहिए. आत्मा पर अधिकार बाद में होगा, पहले अपनी इन्द्रियों पर अधिकार करें, अपने विषयों पर अधिकार करें. अपनी भावना में विवेक का संचार करें और उसके पश्चात आत्मतत्व की चर्चा करें.
आत्मा-परमात्मा और मोक्ष तो बहुत दूर की चीज़ है. पहले आप जहां खड़े हैं, उस धरती को देखें कि मैं कैसे चल रहा हूं, ठोकर तो नहीं खाऊंगा. मेरा व्यवहार किस प्रकार का है, मेरे व्यवहार से किसी आत्मा को अप्रीति तो नहीं होगी. मेरे जीवन में मेरे व्यापार में कोई गलत कार्य तो नहीं होगा. उसके अन्दर प्रलोभन का प्रवेश तो नहीं होगा. वह उपार्जन पवित्र तो होगा. अस्तु, पहले व्यावहारिक दृष्टि को व्यापक बनाना है और उसके बाद आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करना है. ये सारी चर्चाएं जीवन व्यवहार से संबंधित बातें हैं. इसीलिए मैं यहां कर रहा हं.
“दीनाभ्युद्धरणादरः" जीवन में एक भी किसी दीन-दुःखी आत्मा की सेवा की हो, अपने जीवन की डायरी में लिखा हो, कि मैंने कहीं इस प्रकार का कार्य किया हो तो उससे प्रसन्नता हो. कभी किया ही नहीं और मात्र बोल कर के रह जाएं. बोलने से बीमारी नहीं जाती.
सेठ मफतलाल के यहां वैद्य आए. ठण्डी का समय था. उम्र भी बहुत हो गई, बीमार थे. वैद्य ने कहा कि ऐसा करिए, शीत ऋतु है और मैं एक रसायन लिखकर देता हूं, आप उसका सेवन करिए, आपको आरोग्य मिल जाएगा, बड़ी शक्ति मिल जाएगी. बहुत लम्बा-चौड़ा फार्मूला दे दिया - सोना भस्म, वसन्त-मालती. उसके अन्दर बड़े कीमती रसायन थे. परन्तु वह एक टका भी खर्चे नहीं. आदत से वह मजबूर थे.
मरने का समय आ गया. डाक्टर ने आ कर कह दिया --- सेठ साहब! अब अपनी परलोक की तैयारी कीजिए, राम नाम की औषधि लीजिए - यह दवा कोई काम नहीं आएगी. सेठ मफतलाल अन्तिम सांसें गिन रहे थे. लड़के कफन लेने गये. अन्तिम समय की तैयारी में लग गए. उनका बिस्तर नीचे रख दिया गया. घी का दीपक भी रख दिया गया. कान में प्रभु का नाम दिया जा रहा था. संयोग से बड़ा लड़का कफन जल्दी से लेकर आ गया. छोटा लड़का बड़े भाई से कहता कि आप सामान ले आयें.
वृद्ध सेठ मफतलाल, बड़ा ध्यान देकर सुनता है. अभी तक कान सक्रिय हैं. बड़े लड़के ने कहा ले तो आया हूं परन्तु कफन बहुत बड़ा आ गया है. जल्दबाजी में नौकर नौ गज का ले आया.
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% 3Dगुरुवाणी
ऐसा करो! अब कफन ले आए, तो इसका उपयोग कर लेने दो. वृद्ध कहता है, क्या बोला मेरे लिए नौ गज कफन लाया है. वे समझ गए कि पिता के कान तक आवाज चली गयी. वे फुसफुसा रहे थे.
पिताजी ने कहा बेटा! इसकी क्या चिन्ता करता है. अरे, आधा फाड कर रख दे, तेरे काम आएगा. __ मरते-मरते भी वृद्ध कहता है - "आधा तेरे काम आएगा” – मेरे लिए तो आधा ही बहुत है.
ऐसे आदमियों को क्या धर्म उपदेश देंगे, और क्या संस्कार मिलेगा. एक नया पैसा जिससे छूटे नहीं. जानता है कि मरने के बाद यह सब पराया होने वाला है फिर भी कैसा ममत्व? यह बड़ी खतरनाक चीज है. प्रलोभन का प्रतिकार करना बहुत कठिन है. व्यक्ति उस चक्कर से निकलता ही नहीं और जब तक प्रलोभन नहीं जाएगा परोपकार नहीं जन्मेगा. वह तो भावना को मूर्छित कर देगा, चाहे आप कितना ही प्राप्त करें. आखिर उसका परिणाम तो गलत आएगा. ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाए. सद्भावना का पोषण कैसे किया जाए? इसका रक्षण कैसे किया जाए? हमारे यहां एक नहीं अनेक प्रश्न रखे हैं जिससे अपने को प्रेरणा मिलती है. उन आत्माओं के जीवन व्यवहार से प्रेरणा मिलती है. हमारा भी लक्ष्य ऐसा होना चाहिए. हमारे अन्दर भी भावना विकसित होनी चाहिए.
दीन-दुःखी आत्माओं की भक्ति से, जो पुण्य जन्मा, उस पर मेरा अधिकार कैसे? सभी आत्माओं की सेवा से यह पुण्य मिलता है तो इसके अन्दर से कुछ न कुछ तो मैं परोपकार में दूं क्या दूं?
गुजरात के महामंत्री वस्तुपाल तेजपाल ने माउण्ट आबू में एक अद्भुत जिनालय बनवाया जिसमें विक्रम संवत् ग्यारह सौ बारह में बारह करोड़ रुपये लगे थे। यह विश्व में एक बेजोड़ ऐतिहासिक मन्दिर है. ऐसी सजीव कला है जैसे पत्थर बोलते हों, उसमें प्राण आ गए हों. बनाने वाले की भावना भी कैसी थी. उनके महल की एक ईंट नहीं रही. मन्दिर कायम रह गया. वस्तुपाल तेजपाल महामंत्रियों का मन्दिर आबू और देलवाड़ा में आज भी कायम है. आज नौ सौ वर्ष हो गए. कुमारपाल सम्राट का प्रतीक. तारंगा का क्या भव्य कलात्मक मंदिर है. आपने चमत्कार देखा मंदिर की एक ईंट नहीं गिरी और उनका महल साफ हो गया, महल कहां था? यह भी पता नहीं. एक ईंट नहीं मिलती. मंदिर पूरा का पूरा कायम है.
जीवन में परोपकार रहेगा. अपने लिए किया हुआ, जो भी है, उसका नामोनिशान नहीं रहेगा.
एक सन्त के पास बहुत धनाढ्य व्यक्ति चला गया. कहा महाराज मेरे मकान का उद्घाटन है. बंगला बड़ा शानदार बनाया है. महात्मा ने कहा ठीक है. सामने हिन्दुस्तान
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गुरुवाणी
का नक्शा था, वह मंगवाया. मंगाकर के पूछा रहा, दिल्ली केन्द्र में है.
दिखाईये इसमें दिल्ली कहां है. यह
इसके अन्दर तेरा बंगला कहां है? नक्शे में तो बंगला नहीं है. तुम्हें क्या मालूम है ? दुनिया के नक्शे में तेरा कोई अस्तित्व नहीं ? तेरे बंगले की झांकी तक नहीं. तू गर्व करता है.
व्यक्ति की आदत है कि उसे सन्निपात हो जाता है. नशे में बकता है. मन के अन्दर जब मोह का नशा चढ़ता उस समय भान नहीं रहता कि मैं क्या बोल रहा हूं.
मुझे एक बार एक आदमी बम्बई ले गया. दो करोड़ का फ्लैट लिया था. वे संपन्न व्यक्ति थे. उस दिन प्रभु की पूजा रखी थी. मुझे कहा कि आप एक बार हमारे यहां पधारें. मैंने कहा ठीक है. परमात्मा की पूजा है, मैं आ जाउंगा. मैंने कहा चलो, ऊपर ले गया जो गृहस्थों के यहां बहुत सुन्दर फर्नीचर वगैरह होता हैं. ले जाकर मुझे दिखाया. साहब, यह फ्लेट दो करोड़ में लिया है. पच्चीस लाख फर्नीचर में खर्च किया है. वह हीरे का बहुत बड़ा व्यापारी था. मैंने कहा • मुझे किसी के पुण्य से कोई ईर्ष्या नहीं है, प्रसन्नता है. पूर्व के पुण्य से तुमको मिला है. अगर भावना हो तो कभी परोपकार में वह पैसा देना. तुमने कहा बहुत सुन्दर मकान है. मैं भी कहता हूं बड़ा सुन्दर है पर इसमें एक भूल है. उसे सुधार लेना. इसमें भूल है ?
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हां! इसमें भूल है. मैंने कहा, फिर कभी मिलना बात करेंगे. मैं तो आ गया. जिस व्यक्ति को मिलने के लिए चार-चार दिन पहले समय लेना पड़ता, एक मिनट टाइम नहीं. रात को ही आ गया. मुझे विश्वास था ऐसा मन्त्र देकर आया हूं बिना बुलाए आएगा. हुआ भी वही.
मैंने कहा
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इतनी जल्दी आ गए.
नहीं-नहीं महाराज, इधर से जा रहा था सोच लिया. चलो महाराज जी को वंदना करके जाऊं. मैंने कहा, बड़ी अच्छी बात है.
महाराजजी वह भूल क्या है? आप मुझे बतलाइये? मैंने कहा इतने बड़े कुशल व्यापारी हो. धंधा करते हो. मेरी बात को नहीं समझे. अरे जिस मकान के अन्दर तुम मुझे लेकर के गए. जिस दरवाज़े से प्रवेश किया. तुमने कभी सोचा उसी दरवाजे से तुमको बाहर निकालेंगे. मकान तुम्हारा और घरवाले तुमको बाहर निकालेंगे वह दरवाजा बन्द कर दो. दीवार बना दो ताकि कभी ऐसी भूल न हो.
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अरे, महाराज दीवार बनाया जाएगा? मैंने कहा, तुम्हारा मकान कैसे हुआ ? उस सारी सुन्दरता पर दरवाज़ा पानी फेर देता है. मकान बहुत सुन्दर, बड़ा शानदार. परन्तु याद रखो, तुम्हारे घर वाले उसी दरवाजे से निकालेंगे. इसीलिए मैंने कहा, यह भूल सुधार लेना. दरवाज़े की जगह दीवार बना देना ताकि कोई ले ना जाए.
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गुरुवाणी3D
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नशा उतर गया. मैंने कहा घर में रहो, मकान में रहो, झोपड़ी में रहो. जरा हृदय के अन्दर यह विचार करके चलना कि मुझे कल जाना है.
जवानी के जोश के अन्दर यदि पाकेट गर्म हो जाए. यदि दिमाग के अन्दर नशा चढ़ जाए कि मैं कुछ हूं तो एक कवि ने कहा है:
उछल लो कूद लो जब तक है ज़ोर नलियों में.
याद रखना इस तन की उड़ेगी खाक गलियों में ॥ विचार कर लेना. उछल लो, कूद लो, जो मर्जी में आए बोल लो. इस तन की खाक गलियों में उड़ेगी. जला देंगे. अस्तित्व नहीं रहेगा. बड़ी शान-शौकत से हम जाते थे, यह खोपड़ी हमेशा ऊंची रहती थी. कहां गया तुम्हारा ऐशोआराम? वह शान-शौकत. वह नवाबी, वह रईसी कहां गई? देखा सब साफ.
बहुत विचार करके चलना. जो पूर्व के पुण्य से मिला है, उसका सही उपयोग करना. कुमारपाल सम्राट के समय ऐसे कई प्रसंग आए. वस्तुपाल, तेजपाल संघ लेकर के जा रहे थे. इस रूपक के द्वारा “लोकापवाद भीरुत्वं" ऐसे कार्य में कभी रस नहीं लेना, जिसमें लोगों की रुचि न हो, प्रसन्नता न हो, वह चाहे कितना भी सुन्दर कार्य होगा असुन्दर बन जाएगा एवं इस पर दोनों पर चिन्तन हो जाएगाः
वस्तुपाल, तेजपाल महामन्त्री थे. पैसे की कोई कमी नहीं. अपने जीवन में तीन अरब सोना मोहर से ऊपर तो दान-पुण्य कर के गए. पर्युषण में उनका जीवन प्रसंग आप को मालूम पड़ेगा. क्या-क्या कार्य किया. अचानक बहुत बड़ा पैदल संघ लेकर के शत्रुजय जा रहे थे, जिसे हमारे यहां शाश्वत तीर्थ माना जाता है, जिसका अपना एक स्वतन्त्र इतिहास है, जिसमें लोगों की भावना का बड़ा योगदान है, उनकी भावना की अभिव्यक्ति अपूर्व साहित्य के रूप में विकसित हुई, धनेश्वर सूरि जी जैसे महारचयिता ने भी “शत्रुजय माहात्म्य" नामक काव्य की रचना की।
संघ लेकर के निकले. राजस्थान के सांचौर में उन्होंने मुकाम किया. संयोग आधे राजस्थान में पूर्ण सुकाल था. बहुत सुन्दर वृष्टि थी. लोग बड़े प्रसन्न थे. किसी तरह की कोई समस्या न थी, वे सांचोर में गए और वहां की स्थिति देखी. दर्भिक्ष था. लगातार दो वर्षों से अकाल की स्थिति थी, लोग तंग आ गए थे. महाजन कर्जदार हो गए. पैसे से खाली हो गए. वसूली नहीं हुई लोगों के पास खाने का अनाज नहीं.
महामन्त्री के आदमी जो संघ यात्रा में थे वहां पर ठहरे. पहले ट्रेन तो थी नहीं. तो वही थी व्यवस्था. सामुदायिक यात्रा होती. वहां दुष्काल की परिस्थिति थी. महामन्त्री ने सांचोर संघ को स्वयं के यहां आमंत्रित किया, लेकिन वहां के संघ ने उनके इस आग्रह को अस्वीकार कर दिया.
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महामन्त्री स्वयं गए, गांव के पंचों को इकट्ठा किया, हाथ जोड़कर निवेदन किया, एक जैन श्रावक होने के बाद जिसकी तलवार से सारी दुनिया डरती थी. सड़सठ बार युद्ध में गया. विजयी होकर आया कभी हारा नहीं
राष्ट्र की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझता था. यह उसका इतिहास इतना परोपकारी व्यक्ति कि राष्ट्र रक्षा के लिए राज्य पर आक्रमण हुआ तो अपनी प्रजा, अपने धर्म अपनी संस्कृति के रक्षण के लिए वह पीछे नहीं हटा. अहिंसा का यह मतलब मत लेना कि कायर कहलाओ.
कुमारपाल बड़ा अहिंसक था. परन्तु युद्ध के अन्दर कभी हार के नहीं आया. हम किसी पर आक्रमण नहीं करते. हमारी वह भावना भी नहीं होती. उस समय हमारी रक्षण भावना होती है. जो प्रजा मेरे आश्रित है, मैं उनका रक्षण करने वाला बनूं. परिणाम रक्षण का होता है, वहां परीक्षण का परिणाम नहीं होता. युद्ध में मात्र अत्याचारियों का प्रतिकार किया जाता है, अत्याचार नहीं. प्रतिकार होता है कि मैं अपने राष्ट्र का रक्षण करूं. प्रजा के प्रति विश्वास का घात न हो जाए. मेरे प्रमाद से हमारा राज्य नैतिक या धार्मिक दृष्टि से पतन की तरफ न चला जाए. रक्षण करना मेरा कर्तव्य है. वे कर्त्तव्य समझ करके युद्ध में जाते हैं, और युद्ध में भी प्रतिकार की नीति होती है, अत्याचार की नहीं, रक्षण की भावना होती है, किसी को खत्म करने की नहीं.
महाजनों ने कहा कि हम भोजन नहीं स्वीकार सकते. क्या कारण है? कारण और कुछ नहीं. सांचोर में रहने वाले पूरे महाजन कर्जदार हैं. किसी के पास पैसा नहीं. लेने-देन का व्यवहार चलता था, उधार दिया था. प्रजा इतनी गरीब हो गई, दो तीन वर्ष से फसल नहीं हुई. हम वसूली नहीं कर पाते. ऐसी स्थिति में अगर हम आपके यहां भोजन करने आएं तो हमारा भी फर्ज बनता है कि हम भी आपके श्री संघ की सेवा हेतु आपको भोजन पर आमंत्रित करे, और दुष्काल के परिणाम स्वरूप हम आज ऐसी परिस्थिति में नहीं हैं, इसी भाव से कि जब हम भोजन नहीं दे सकते तो भोजन करने के लिए आमन्त्रण कैसे स्वीकार कर सकते हैं.
बात महामन्त्री के गले उतर गई. क्या ऐसी भयंकर स्थिति है? मैं तैयार हूं. जितना अनाज चाहिए यहां के गरीबों के लिए मैं उसकी व्यवस्था करता हूं. वह मैं अपने राज्य से लाकर दूंगा. महाजनों को बुलाया और कहा आप भोजन नहीं लेंगे हमारी लानी तो लेंगे. लानी घर पर दी जाती है. हरेक के घर एक एक लानी.दी जाती है. प्रभावना के रूप में, प्रभावना लेने में कोई आपत्ति नहीं.
अनाप-शनाप संपत्ति थी. उसने महाजनों के घर में एक-एक लाख रुपया प्रभावना के रूप में दिया लानी, संघ पूजन. ग्यारह सौ घर थे. महाजन प्रसन्न हो गए. प्रभावना थी स्वीकारना पड़ा, वचन बद्ध थे. वहां जितने भी दीन-दुखी थे, सब के लिए अनाज की व्यवस्था की. कहा कि पहले लोगों की पेट पूजा कराई जाए. उसके बाद परमात्मा
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हना
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गुरुवाणी
की पूजा में आगे बढूंगा, नहीं तो परमात्मा मेरी पूजा स्वीकार नहीं करेगा. मेरे पास साधन है. मेरे पास शक्ति है यदि मैं शक्ति को छिपाऊं तो अपराधी बन कर के जाऊंगा मैं शत्रुंजय साहूकार बन कर के जाना चाहता हूं, अपराधी बन के नहीं.
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हमारे पूर्वजों में ऐसी मंगल भावना थी. न जाति देखते थे न व्यक्ति देखते थे. वहां तो कार्य देखकर के अपना कार्य करते थे. इस कार्य से मेरी आत्मा को आनन्द मिलेगा, प्रसन्नता मिलेगी और कहां आज हमारी स्थिति, बड़े बुद्धिमान और चतुर हैं. जब देने का नाम आए फिर आप देखोगे, चेहरा देखो, फोटो उतार लो जैसे कैस्टर आयल पीकर के आया हो, या सुदर्शन चूर्ण फांक करके आया हो,
मफतलाल सेठ मर रहे थे. अड़ोस पड़ोस के लोग आए राम का नाम लेने के लिए कि सेठ साहब अब तो परोपकार कर जाओ. जीवन में कभी खर्चा ही नहीं रात्रि में निकलते, एक थैली पास में रखते जूता उसी में उतार के रखा करते थे कि रात्रि में जूता घिस जाए. कोई हमारे जैसा मिल जाए, कह दे सेठ रात्रि में नंगे पांव चलते हैं. ये नहीं कहते कि जूता घिस जाए इसलिए बैग में रखा है.
इतने चालाक आप पकड़ नहीं सकते. इतने होशियार वाक्पटुता में भी वे निपुण थे. चतुर्मास का समय, कीड़े-मकोड़े मर जाएं जीव यातना की जाती है.
मरते समय मोहल्ले वाले राम का नाम लेने के लिए आए. किसी मित्र ने कहा, यार मरते-मरते तो कुछ दान करके जा. क्यों बदनामी लेकर के जा रहा है. वह बहुत लंगोटिया दोस्त था. मफतलाल की नज़र में एक गाय आई और कहा जाओ पंडित को बुलाकर लाओ, मुझे अभी गोदान करना है.
लोग तो आश्चर्य में पड़ गए कि यह क्या चमत्कार हुआ, गऊ दान तो बहुत बड़ा दान है. गाय मिल जाए, रोज का दूध मिलेगा. मफतलाल सेठ ब्राह्मण को गऊदान देगा. पंडित प्रसन्न हो गया. गांव के लोग मानने को तैयार नहीं. परन्तु घर के लड़के बुलाने गये थे. पंडित रास्ते में आ रहा था. जिससे भी मुलाकात होती कहते, अरे मफतलाल के यहां जा रहा हूं, गोदान कर रहा है.
लोगों ने कहा पंडित जी माल ले आओ पर इस घर का अनाज पचेगा नहीं. यह गाय उस घर की है. पंडित तो लोभ में आए हुए थे. यार तुम तो वैसे ही बकते रहोगे, कभी न कभी तो आदमी की मति सुधरती है, मरते समय उसने जो पुण्य का विचार किया है उसके लिए धन्यवाद दो.
पंडित जी आए और गोदान की क्रिया हुई. गऊ को लाया गया. पूंछ पकड़ कर पंडित जी के हाथ में दे दिया गया. मन्त्र बोले औपचारिक विधि पूरी हुई अनुष्ठान पूरा हुआ. मफतलाल ने कहा कि मेरे जाने के बाद सवा पांच पैसा दक्षिणा बच्चों से ले लेना यानि वह भी उधार. गाय लेकर के गए, गाय तो बीमार थी. बड़ा अनुभवी, उसका अंदाज बिल्कुल सही, एक पाव दूध भी नहीं पिया और शाम को चार बजे गाय मर गई.
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-गुरुवाणी
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मफतलाल जानता था, एक तीर से दो शिकार हो गए. गाय को निकालने का पैसा बचा. तकलीफ बची. मेहतर को बुलाओ, रुपया, सवा रुपया मांगें, घर की शद्धि कराओ. अपने यहां नियम बहुत हैं. गोदान का गोदान हो जाएगा और यह गाय टिकने वाली भी नहीं है, मरने वाली है.
बेचारे पंडित जी घबरा गए. ब्राह्मण का घर. यहां तो गऊ का मर जाना, अनाज वगैरह सब बाहर निकाल देना पड़ेगा, बहुत बड़ा आर्थिक नुकसान होगा. रोते हुए सेठ के पास आए कि सेठ साहब सवा पाव दूध नहीं पिया और यह हालत हुई. हम तो ब्राह्मण हैं. घर की शुद्धि करवानी होगी. अनाज तेल जो घर में है, सब बाहर निकाल देना पड़ेगा. सूतक पालना पड़ेगा.
सेठ ने कहा - क्यों रामायण बांच रहे हैं, आपको दे दिया, आप जाने, आपकी गाय जाने, मेरा क्या लेना-देना? मैंने तो आपको पकड़ा दिया. आपके भाग्य में नहीं मैं क्या करूं. यहां से कुछ मिलने वाला नहीं.
मरते-मरते गौ दान किया, परन्तु गौदान भी बड़ा विचित्र. पैसा भी बच जाए और गौदान का नाम भी हो जाए. पंडित रोता हुआ गया. शाम को सेठ साहब भी परलोक पहुंच गए. मरने वाले तो थे ही. मरकर के स्वर्ग में गए. जाते ही वहां पर धर्मराज ने पूछा - कहां से आए? दिल्ली से आया हूं. क्या बात है? क्या पुण्य कार्य किया कि आप यहां स्वर्ग में आ गए. तुम्हारा बहीखाता देखू? बही खाता देखते हुए धर्मराज ने कहा मरते हुए गाय दान किया था और चार घण्टे वह गाय ब्राह्मण के यहां जीवित रही. चार घण्टे तक स्वर्ग का आनन्द ले लो. उसके बाद तो नीचे नरक में जाना पड़ेगा. चार घण्टा बहुत है, उसके बाद जहां भेजना हो भेज देना मुझे कोई आपत्ति नहीं.
वहां पर गाय आकर के हाजिर हो गयी. धर्मराज ने कहा यह गाय जिसका तुमने दान किया था. तुम्हारे आदेश का पालन करेगी. तुम्हारी सेवा में हाजिर रहेगी. चार घण्टे के बाद गाय लुप्त हो जाएगी. तुमको ट्रांसफर करना है. तैयार रहना. गाय मेरा आदेश मानेगी. आप वचन से बद्ध हैं. गाय को आदेश दिया क्या देखती है? लगाओ धर्मराज को सींग, बेचारे भागे, तहलका मच गया, कि जब नरक में ही जाना है तो पूरी तरह से जाऊं. • ऐसा चमत्कार दिखाकर के जाऊं कि देवता भी याद करें. बेचारे धर्मराज भाग करके विष्णु के पास निवेदन करने गए मफतलाल भी पहुंचे. गाय को आदेश दिया क्या देखती है? लगा सींग. विष्णु जी घबरा गये सिंहासन भी हिलने लगा, वचन से बद्ध थे. मना नहीं कर सकते थे. आदेश का पालन भी आवश्यक था. शंकर. के पास गए. पूरे देवलोक में तहलका मचा दिया. जिसको देखे-लगा सींग. जब नरक में ही जाना है तो फिर कसर क्या रखनी. पूरी तरह हैरान-करके जाना है. देवलोक में तहलका मच गया, बड़ा विचित्र आदमी आया है. बड़ा खतरनाक है. जैसे ही चार घण्टा हुआ गाय लुप्त. वह चली गई.
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गुरुवाणी
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देवताओं ने बंदी बनाया. हाथ पांव बांधकर के लाए सभी बैठे थे. ब्रह्मा जी, विष्णु जी, शिव जी, पूरी पैनल बैठी थी. वहां पकड़ कर ले आए, ये मफतलाल है, इसको जितनी सजा दी जाए उतनी कम है.
ब्रह्मा जी ने आदेश दिया. उसको तो रौरव नरक में भेजना है, भगवन्, तैयार. तुम समझ गये अभी अभी तुम को जाना है. भगवान आपके द्वार में न्याय है, अन्याय नहीं. आपने न्याय दिया. मैं स्वीकार करता हूं. ज़रा भी अनादर करने वाला नहीं. आप जो सजा देंगे, मैं स्वीकार करूंगा. पर मेरी बात सुनेंगे क्या ? यह नहीं होना चाहिए कि सरासर अन्याय जाए दुनिया में आदमी कहां जाएंगे. मेरे मन में यह शंका रह जाएगी. बोलो क्या है ? भगवान और कुछ नहीं,
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भगवान मेरी बात सुन लीजिए और न्याय दीजिए. आपके साधु संत, सन्यासी जो मृत्यु लोक में आपके प्रतिनिधि हैं. घर-घर घूमते हैं रोज प्रवचन देते हैं, और रोज़ कहते हैं साधु सन्तों का दर्शन करो, परमात्मा का दर्शन करो. वैकुण्ठ मिलेगा, दुर्गति का नाश होगा, चिल्ला-चिल्ला कर प्रवचन में बोलते हैं.
मुझे कोई आपत्ति नहीं, उनका कथन सत्य है और कुछ नहीं, आपके इस धर्मराज के बही में गलत नहीं लिखवाऊँगा. मैं यहाँ पर आपसे कोई गलत कार्य करवाने नहीं आया. बस इतना ही लिखना है, जो सच है, कि मफतलाल ने यहां ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को साक्षात् देखा, साक्षात् उनके दर्शन किए और यहां से मर कर नर्क में जा रहा है.
ऐसा कैसे लिखा जाएगा ? तो फिर यह तो सच बात है. मेरा सत्याग्रह है. मैंने कोई गलत तो लिखवाया नहीं. वहां तो नाम लेने से वैकुण्ठ मिलता है, यहां तो साक्षात् स्वर्ग में आपको देख रहा हूं. आप इतना ही लिखो कि मैंने दर्शन किया और यहां से नरक के लिए ट्रांसफर हुआ.
ब्रह्मा जी, विष्णु जी सब विचार में पड़ गये कि क्या करना चाहिए ? उसने कहा भगवन आप विचार करिए, मैं बैठा हूं आज तक मफतलाल ऊपर बैठा है, अभी तक ब्रह्मा जी, सोच नहीं पाए कि किस प्रकार से उसका ट्रांसफर किया जाए.
व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग बड़े विचित्र प्रकार से करता है. परन्तु बुद्धि का उपयोग
• परोपकार के लिए करना है. अब इस पर आगे चिन्तन करेंगे.
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम्
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गुरुवाणी
क्रिया और आचार में श्रद्धा का महत्व
परम कृपालु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि जी ने मानव जीवन के विकास, आत्मा की पवित्रता तथा सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए, इन सूत्रों के द्वारा जीवन का सुन्दर मार्गदर्शन किया है. किस प्रकार से अपनी आत्मा से परिचय किया जाये उसकी पूरी भूमिका इन कर्त्तव्यों और शिष्टाचार पालन के द्वारा उन्होंने बतलाई है. दीवार यदि साफ और एकदम स्वच्छ हो और उस पर चित्र बनाएं, तो चित्र की सुन्दरता बड़ी अपूर्व होगी. गन्दी दीवार पर कभी चित्र अंकित नहीं किया जाता.
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मन यदि स्वच्छ और पवित्र होगा, और उसमें धर्म का आकार दिया जाये तो वह आकार अपने आचार के द्वारा सहज ही होगा. उस धार्मिकता में अपूर्व सुन्दरता मिलेगी. परन्तु मन की दीवार यदि गन्दी हो, मन यदि अस्वच्छ हो और कर्म की कालिमा उसमें लगी हो फिर आप धार्मिक विचारों का आकार देने का प्रयास करें तो उस चित्र में सुन्दरता नहीं आयेगी.
इसलिये उस महान आचार्य ने पूर्व भूमिका में ह्रदय को शुद्ध और स्वच्छ करने के लिये शिष्टाचार, सुन्दर आचार के द्वारा प्रथम परिचय दिया. गत दो तीन प्रवचनों में इस पर विचार चल रहा है कोई भी कार्य बिना साधना के सफल नहीं होता, धर्म क्रिया हेतु आत्मा को पाने के लिए विभिन्न प्रकार के बहुत से साधन बतलाए गए हैं.
आपको कहीं भी यात्रा में जाना हो, वाहन का साधन आवश्यक है. गृहस्थों के लिए अनिवार्य है, नदी पार उतरना है तो नाव चाहिए. आपके पास चाहे जैसी भी जानकारी हो परन्तु कार्य की सफलता के लिए साधन आवश्यक माना गया है.
दर्जी कितना भी होशियार हो, परन्तु यदि सुई और धागा उसके पास नहीं तो वह क्या करेगा ? विचार को आकार कैसे देगा. बिना साधन के उस साध्य को कैसे प्राप्त करेगा, वह लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं कर सकता.
चित्रकार कितना भी सुन्दर जानकार हो, महान कलाकार हो, परन्तु उसके पास यदि रंग या पीछी न हो, ब्रुश न हो, तो वह अपने विचारों को किस प्रकार आकार दे पाएगा. जब तक वह उस विज्ञता को व्यावहारिक रूप से कोई आकार नहीं देता, वह महत्वहीन है.
तात्पर्य यह है कि बिना साधन के व्यक्ति कभी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता.
इसी तरह चाहे डाक्टर कितना भी जानकार हो, परन्तु उसके पास यदि साधन में सर्जिकल इन्स्ट्रूमेंट्स न हों, स्टैथस्कोप न हो तथा अन्य प्रकार के साधन न हों, तो वह आपका क्या उपचार करेगा किस प्रकार से वह रोग का परीक्षण करेगा. अस्तु, प्रत्येक क्षेत्र में साधन आवश्यक है.
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-गरुवाणी- पाणा
आप व्यापार करते हैं और चौपड़ा (बही) आपके पास न हो तो व्यापार क्या मूल्य रखता है.
जिस तरह से हर क्षेत्र के अन्दर साधन आवश्यक हैं, उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी आचार एवं क्रियाओं के द्वारा व्यक्ति अपने परम साध्य को प्राप्त करता है. ये सब अलग-अलग प्रकार के साधन बतलाए गए. तप, सेवा, क्रियाएं, परोपकार और शिष्टाचार के पालन के द्वारा व्यक्ति अपनी प्रामाणिकता से और सत्य के अवलम्बन से उस परमात्मा को प्राप्त करने में सफल हो जाता है. फिर सारी धार्मिक क्रिया जीवन में सक्रिय बनती है. एक्टिव बनती है. वह विचार या जानकारी फिर मूर्च्छित नहीं रहती, वह प्रैक्टिकल (व्यावहारिक) रूप लेती है, प्रयोगात्मक दृष्टि से उस कार्य के अन्दर फिर सफलता मिलती है.
प्रत्येक साधन का परिचय अलग-अलग आचार के द्वारा दिया गया ताकि जीवन के अन्दर इस प्रकार परोपकार की रुचि आ जाए. इन विचारों में अंकुर आ जाये, जो कल मोक्ष का फल देने वाला बने. करुणा का अंकुर अपने हृदय के अन्दर प्रस्फुटित होना चाहिए. सुप्रवचन के द्वारा बीज डाला जाता है. यह आत्मा की खेती है. साधु हर रोज़ प्रयास करता है. अमृत प्रवचन के द्वारा सीच कर वह आपके हृदय को कोमल बनाता है, वह साधु प्रतिदिन अन्दर की घास उखाड़ करके और आपके अन्तर्मन को स्वच्छ और सुन्दर बनाने का प्रयास करता है. सींचन से परमात्म तत्त्व के द्वारा, हृदय के अन्दर उस कोमलता को, प्रदान करने का वह पुरुषार्थ करता है और फिर इसमें मोक्ष का बीज-वपन किया जाता है. समय आने पर क्रियाओं और आचरण के द्वारा, वह व्यक्ति उसे अंकुरित करता है और एक बार यदि यह खेती हो जाए, तो उस मोक्ष का फल निश्चित ही मिलता है.
आज किया गया प्रयत्न कल पूर्णता जरूर प्रदान करेगा. बशर्ते कि प्रयत्न सतत हो. बीमार होने की स्थिति में यदि डाक्टर को रोग परीक्षण के पश्चात् बीमारी का पता लग जाए तो वह उचित दवा देगा जिसे निर्दिष्ट परहेज के साथ लेनी चाहिए. ऐसा करने में यदि कोई प्रमाद करेगा तो परिणाम ठीक नहीं होगा.
जब हमें इस शरीर की इतनी चिन्ता है कि जरा भी उसमें प्रमाद न करें; तो आत्मा के लिए कभी ऐसा सोचा कि साध पुरूष जो मार्गदर्शन देते हैं उसके अनुकूल आत्मा को विपरीत कृत्यों से दूर रखें, जिन्हें करने का परिणाम, आत्मा के लिए खतरनाक हो सकता है, दुर्गति का कारण बन सकता है. धार्मिक औषधि लेने पर ही उसका फायदा होगा. उसे घर पर आप शो केस में संजोकर रखें तो कोई लाभ नहीं होगा या उसका दर्शन मात्र लें तो भी वो कोई फायदा नहीं देगा. वह तो दवा लेनी ही पड़ेगी. करना ही पड़ेगा.
यहां जो यह दवा बतलाई यदि इसे पथ्यपूर्वक लिया जाए, तो ज्ञानियों ने कहा है कि यह निश्चित ही आत्मा को आरोग्य देने वाली है. इसमें कोई संशय नहीं. पर व्यक्ति
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गुरुवाणी
की आदत है कि वह पाप अभी और पुण्य बाद में करना चाहता है यानी पाप कैश में और धर्म उधार में वह कहता कि महाराज अभी तो जवान है फिर कभी देखेंगे, वृद्धावस्था आएगी, तब माला गिनेंगे.
पूर्व का बासी पुण्य लेकर के आया और कदाचित् वर्तमान में उसका पुण्य प्रकट हो गया और कार्य में सफलता मिल गयी, पाकेट में गर्मी आ गयी फिर उसे परमात्मा को याद करने की भी फुरसत ही नहीं. धर्म कल करेंगे.
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सेठ मफतलाल जब बीमार पड़े. उन्हें टायफाइड हुआ. और बड़े डाक्टर आये. पत्नी अच्छी श्राविका थी. रोज़ कहा करती कि मन्दिर तो जाओ. सामायिक तो करो. प्रभु का नाम तो लो कुछ दान-पुण्य करो इतना पैसा मिला है, अरे साठ वर्ष बाद यह सब देखने की बाते हैं, अभी तो मैं पैंतीस साल का ही हुआ हूं. अभी तो बहुत लम्बा जीवन है अभी धर्म करने का समय नहीं है. ये मौज मजा करने के दिन हैं, यदि भगवान ने दिया है. तो उसका उपभोग करना है.
तो फिर भगवान ने दिया ही क्यों ? हर समय बात उड़ा देता. पत्नी मौके की ताक में थी. संयोग से वह एक दिन बीमार हुए. डाक्टर आकर के कहता है कि इस ताप को नियन्त्रित करने के लिए तुरन्त आपको इन्जेक्शन लेना होगा और ये कैपसूल भी लिख देता दिन में तीन टाइम लेने होंगे. डाक्टर तो सलाह देकर चला गया.
मफतलाल ने बिस्तर पर पड़े पड़े एक-दो बार अपनी पत्नी को बुलाया. वह आई नहीं. फिर ज़रा आवेश में आकर के कहा सुनती हो कि नहीं ? वह आई. क्या बात है ? तू समझती नहीं ? डाक्टर ने कहा है कि इन्जेक्शन लेना पड़ेगा. बहुत ज्यादा बुखार है. मेरा तो दिमाग फटा जा रहा है, कहीं हैम्ब्रेज हो गया तो उसका परिणाम तुझे ही पहले भोगना पड़ेगा. मैं चला जाऊंगा.
—
श्राविका ने कहा मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं जो भगवान ने चाहा वही होगा. परन्तु तुम हर रोज़ कहा करते थे कि धर्म तो मुझे साठ वर्ष के बाद करना है. और आज तुम मरने की बात करते हो. साठ-सत्तर वर्ष की उम्र होगी तो देखेंगे. फिर माला गिनेंगे. जो तू कहेगी, उस तीर्थयात्रा में जायेंगे. तो फिर आज इतनी क्या जल्दी है ? जब धर्म करने की जल्दी नहीं तो दवा के लिए इतनी जल्दबाज़ी क्यों ?
उसने कहा जो भूल हो गई, तू माफ कर, मैं तो मरा जा रहा हूं. मुझे तो मेरी मौत नज़र आ रही है. इस बुखार में मेरा सारा शरीर टूटा जा रहा है. पत्नी ने सीधे कहा
तो सच बोलो कभी ऐसे झूठ तो नहीं बोलोगे ? ऐसी गलती तो नहीं करोगे ?
शरीर रोग ग्रस्त हो गया तो बीमारी के लिए दवा आज ही चाहिए. परन्तु यदि आत्मा में बीमारी आ जाए या गड़बड़ी आ जाए, दुर्विचार का आगमन हो जाये और आत्मा घायल हो जाये या कर्म से पीड़ित हो जाए तो कहेंगे कि धर्म मुझे कल करना है. पाप
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गुरुवाणी:
आज और धर्म कल करना है. पाप रोकड़ में करना है और धर्म को बाकी उधार रखना है. यह हमारी आदत है.
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कहां से आत्मा को आरोग्य मिलेगा. आत्मा में बीमार दुर्विचार, विषय और कषाय का क्षय रोग (टी.बी) लग जाए, प्रमाद और कषाय आ जाए, उस समय पर उपचार के लिए हमारे पास कोई तैयारी नहीं. हम कहते हैं कि देखेंगे फिर कभी कर लेंगे.
इस प्रकार के प्रमाद से हमारा जीवन जर्जरित हो चुका है. जीवन का जीर्णोद्धार कर लेना है. इसका पुनर्निर्माण कर लेना है. भूल हो गई. उसकी चिन्ता नहीं. परन्तु उस भूल का पुनरावर्तन नहीं होना चाहिए.
भूल का प्रतिकार हमें संकल्पपूर्वक कर देना है. इस प्रकार की भूल में हमने जीवन के अनादिकाल व्यतीत कर दिए. अब हमारा भविष्य हमें नहीं बिगाड़ना है. अपने को वर्तमान में उपस्थित रहना है पूर्ण जागृति के द्वारा हमें अपनी साधना से उस सफलता को प्राप्त कर लेना है.
इसीलिए आत्मा के उस उपचार के लिए आचार का पथ बतलाया गया है- शिष्टाचार. इस प्रकार से यदि आचार का पालन किया जाए और उसके साथ यदि परमात्मा का नाम स्मरण किया जाए तो कोई समस्या नहीं रहेगी. समस्या तो हम स्वयं पैदा करते हैं.
सारी समस्या मन से पैदा होती है और अपनी आदत की विवशता, हम समाधान बाहर खोजते हैं, समस्या मन के अन्दर पैदा हुई और समाधान दुकान, मकान, परिवार, स्त्री, पुत्र अथवा पैसे में खोजते हैं कि शान्ति मिलेगी? अशान्ति अन्दर से पैदा हुई और शान्ति हम बाहर से खोजते हैं जो चीज आपने अपने घर में खो दी हो अगर आप उसे जनपथ पर खोजें तो क्या होगा ? घर में अन्धकार है और आप बाहर खोजने जाएं तो दुनिया क्या कहेगी कि भाई जो चीज़ तुमने घर में खो दी है उसे घर में ही खोजो. प्रकाश में उसे खोजो.
अशान्ति तो हमारे मन से पैदा हुई अज्ञान दशा में आत्मा के इस परमतत्त्व को हम समझ नहीं पाये. वैभाविक दशा के अन्दर, मात्र कल्पना के उस भ्रम में हम भटकते रहे. पर के अन्दर स्व की आसक्ति लेकर के चलते रहे पर को प्राप्त करने का प्रयास किया तो वह पीड़ा का कारण बना. पर की अप्राप्ति से आत्मा में जो असन्तोष आता है, वही पीड़ा का कारण बन जायेगा. दर्द उत्पन्न करेगा और उस बेचैन अवस्था में हम शान्ति के लिए प्रयास करते हैं. कहां और किधर मिले? कुछ मिलने वाला नहीं, कभी मिलने वाला नहीं जीवन उसकी खोज में चला जाता है. परन्तु आज तक वह शान्ति हमें मिली नहीं. हम आदत से मजबूर हैं.
समस्या मन से पैदा होती है और हम उसका समाधान प्राप्त करने के लिए दुकान में जाते हैं, मकान में जाते हैं. पर को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं. वह नहीं देखता
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गुरुवाणी
कि समस्या तो हमारे अन्दर है. समाधान बाहर कहां से मिलेगा. इसलिये ज्ञानियों ने कहा कि समस्या का हल अन्दर में ही खोजना.
"जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ।”
जो व्यक्ति खोज में स्वयं को निमग्न कर लेगा. उसकी खोज निश्चित पूरी हो जाएगी. परन्तु हमारी खोज में अधूरापन रहता है. उस खोज की गहराई में हम अपने को उतार नहीं पाते. जब तक उस खोज में स्वयं को नहीं खोयेंगे और जगत् में शून्य नहीं बनेंगे तब तक वह खोज कभी पूरी होने वाली नहीं.
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परमात्मा को पाने की वह प्यास अभी तीव्र नहीं हुई है और जिस दिन उसमें तीव्रता आ जाएगी, उस प्यास में भी गहराई आ जाएगी. प्यास में स्वयं को पाने की रुचि पैदा हो जाएगी. उस प्यास में जब प्राण प्रश्न बन जाएगा. परमात्मा स्वतः आपको मिल जायेंगे.
एक महात्मा से किसी व्यक्ति ने कहा- मुझे परमात्म दशा का अनुभव करना है. बहुत सारे ग्रन्थ पढ़े, बहुत सारे व्यक्तियों से मुलाकात की. बड़े-बड़े दार्शनिक मुझे मिले, सभी ने शब्दों में परिचय दिया. परमात्मा के अस्तित्व और सौन्दर्य के सैद्धान्तिक पक्ष से परिचित कराया, परन्तु किसी ने मुझे अभी तक व्यवहार में नहीं बतलाया है, जिसकी मुझे जिज्ञासा परमात्मा है या ऐसा कौन सा तत्व है, क्या आप जानकारी दे सकेंगे ?
महात्मा बहुत अच्छे सिद्ध पुरुष थे. वह गंगा किनारे अपने आश्रम में रहते थे. बड़ी मस्ती में थे. जगत् की कोई परवाह नहीं थी. परमात्मा की भक्ति का ऐसा नशा है कि एक बार यदि आ जाये, सब कुछ भुला देता है, संसार से आत्मा को शून्य कर देता है. परमात्मा भक्ति का नशा परम आनन्द ही आनन्द देता है, इसकी कोई गलत प्रतिक्रिया नहीं होती.
उस व्यक्ति के निवेदन पर महात्मा ने कहा चलो, तुमको परमात्मा की अनुभूति करनी है, दर्शन करना है, मैं कराता हूं. परमात्मा को पाने की प्यास तुम्हारे अन्दर लगी है परन्तु परमात्मा कभी तर्क से नहीं मिलता. तर्क के जंगल में यदि चले जायेंगे तो स्वयं को खोजना बहुत मुश्किल हो जाएगा:
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“शब्दजालंमहारण्यं, चित्तभ्रमणकारणम्"
आद्य शंकराचार्य का कहना है, ये तर्क तो जंगल हैं. यदि आप उसमें आत्मा को खोजने के लिए निकले तो स्वयं को ही भूल जाएंगे. आप स्वयं को ही खो बैठेंगे. कुछ नहीं मिलेगा. चित्त में भ्रम उत्पन्न कर देगा. तर्क के जाल में कभी उलझना मत. यह खोज का सही तरीका नहीं है. पर हमारी यह आदत है कि हर चीज़ में हम तर्क करेंगे. परमात्मा का स्मरण करने या जप करने आ जाएँ. परन्तु वहां विश्वास का अभाव है.
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आप डाक्टर के पास कभी तर्क करते हैं, उससे कोई गारन्टी लेते हैं कि आप्रेशन करवाऊंगा तो मैं बिल्कुल सुरक्षित आ जाऊंगा ? कभी डाक्टर ऐसा विश्वास दिलाता है.
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-गुरुवाणी:
डाक्टर कहेगा – भाई, तुम्हारा नसीब. मेरा प्रयत्न और तुम्हारा भाग्य. कोई गारण्टी देने वाला नहीं. पर कितने विश्वास के साथ आप्रेशन होता है. मौत को हथेली में लेकर जाते हैं. कितनी निष्ठा, कितना आत्मविश्वास कि जरूर मैं यहां से सफल होकर लौटुंगा. मेरा आप्रेशन सफल होगा. मैं नया जीवन लेकर के आऊंगा.
कभी प्रभु के मन्दिर में इस प्रकार विश्वास के साथ गए या सन्तों का आशीर्वाद लेने गए. इस भूमिका पर गए होंगे या नहीं होंगे उसमें तर्क करते हैं. डाक्टर यदि कहे कि नहीं दिन में तीन बार यही कैप्सल लेना. यह इन्जेक्शन लेकर ही खाना खाना, नहीं तो मर जाओगे. परहेज रखना, कभी हलवा पूरी खाना मत. क्या उस समय आप तर्क करते हैं कि डाक्टर साहब, यह क्या एक ही दवा दिन में तीन बार लें. रोज इन्जेक्शन लें. ये सब क्या है? वहां कोई तर्क नहीं. परन्तु आप हमारे पास अवश्य तर्क करेंगे कि महाराज, मन्दिर नित्य जाना चाहिए, रोज एक माला गिननी चाहिए, रोज उपवास करना चाहिए. आपकी परमात्मा के कार्य में बड़ा झंझट लगता है. ___ डाक्टर शरणं पव्वज्जामि. डाक्टर ने जो कहा वह ब्रह्म वाक्य, साधू शरणं पव्वज्जामि नहीं. डाक्टर ने जो कहा, वह स्वीकार्य, उसमें कोई तर्क नहीं और यदि तर्क करें तो वहां चलेगा. हमारे पास कई आदमी कहते हैं – महाराज! कहां तक यह धर्म करना चाहिए. रोज माला, तप, प्रार्थना करें कि महाराज इससे कभी छुटकारा होगा? यह क्या रोज़ का लफड़ा है?
बीमार पड़ जाएं और ऐसी भयंकर बीमारी हो तो डाक्टर क्या कहेगा. अगर तुम को जीना है तो यह इन्जेक्शन रोज लेना होगा, यह दवा रोज़ लेनी होगी. मरना है तो छोड़ दो. यहां भी ज्ञानियों ने कहा कि हममें यह यावत् जीवन की बीमारी है. संसार स्वयं एक बीमारी है शरीर भी एक बीमारी का प्रकार है. विचार भी एक प्रकार की बीमारी है, जहां तक बीमारी है , वहां तक तो दवा लेनी होगी इससे आराम मिलेगा, और जी सकोगे. अगर मरना है तो छोड़ दो. दवा तो हम छोड़ते नहीं, धर्म छोड़ने को तैयार हैं.
क्रिया, अनुष्ठान, जप, तप आदि में कोई रुचि नहीं है. शरीर को बचाने के लिए लाख प्रयास करेंगे. पर आत्मा की सुरक्षा के लिए कोई प्रयास नहीं किया क्योंकि शरीर का लक्ष्य है और आत्मा का कोई लक्ष्य नहीं है. हमने कोई आचार की बाड़ नहीं बनाई कि जिससे हमारा जीवन हमारी सारी धार्मिक भावनाएं सुरक्षित रहें. डाक्टर के पास हम कभी तर्क नहीं करते और आत्मा के सम्बन्ध में हम तर्क करते हैं.
एक बार बीमार मफतलाल बम्बई गए. किसी व्यक्ति ने कहा - बड़ा एक्सपर्ट डाक्टर है, जरा आप दिखा दें. अवस्था के भी कई कारण होते हैं. वह मन से भी अवस्था के कारण दुर्बल थे. शरीर में बुढ़ापा आया परन्तु मन भी बूढ़ा हो गया, घबरा गया. उन्होंने डाक्टरों के पास समय लिया. जाकर के डॉक्टर को निवेदन किया कि मैं बहुत दूर से आया हूं. पांच सौ रुपया आपकी फीस देकर आपका समय लिया है.
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गुरुवाणी
मुझे बतलाइये. बहुत बैचेनी रहती है, कमजोरी भी है. कुछ ऐसा सही इलाज कीजिए कि जिस से मैं ठीक हो सकूं. मुझे नई ताकत मिल जाये.
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डाक्टर ने पूरे शरीर का रोग परीक्षण किया. उसके बाद कहा, आप में कोई बीमारी नहीं है. अवस्था के कारण यह कमज़ोरी है. मैं टॉनिक आपको लिख कर देता हूं. दिन में दो बार दूध के साथ लीजिए बड़ा सुन्दर रहेगा. थोड़े दिनों में आपको शक्ति भी आ जायेगी और स्फूर्ति भी मिलेगी. पर वह तो धुनी दिमाग का आदमी था. घर से रवाना होते हुए किसी ने कह दिया देखो बम्बई है. वहां के डाक्टर बड़े विचित्र होते हैं. तुम फीस दोगे, यदि कुछ पूछना शेष रह गया तो यहां से तुम्हारा पुनः जाना और उस डाक्टर को मिलना मुश्किल. फिर पांच सौ रुपये देकर समय नष्ट करना पड़ेगा और होटल में ठहरकर पुनः पैसा खर्च करना होगा, अस्तु विस्तृत रूप से सब कुछ पूछ लेना.
वह पूछने की आदत से लाचार थे. पूछना भी एक बीमारी है और हमारे जीवन में भी ऐसी बीमारी आ गई कि हर चीज़ में हम पूछेंगे. एक बार में जो काम हो सकता है उसके लिए दस बार पूछेंगे. महाराज ये माला गिननी ? कितनी गिननी ? किस तरह से गिननी ? कहां पर गिननी ? क्या खाना? क्या छोड़ना ? क्या करना ? इस प्रकार पचास बार पूछेंगे.
अगर श्रद्धा का गुण अन्दर आ जाए तो राम-राम रटते रटते मरा-मरा करने वाला भी राम को पा जाता है. शब्द में सुन्दरता नहीं, वहां तो भावों में सुन्दरता चाहिए. शब्द तो मरा हुआ है. हमारे भाव ही उसके अन्दर प्राण का संचार करते हैं. मरा मरा करने वाला अर्जुनमालि जैसा पापी भी तर गया. राम-राम करने वाले रह गए क्योंकि उसमें श्रद्धा का गुण था. राम को प्राप्त करने की उसके अन्दर प्यास थी परन्तु हम आदत से विवश हैं कि हर प्रसंग पर तर्क का सहारा लेते हैं.
मफतलाल ने कहा "डाक्टर साहब! आपने जो कहा वह बिल्कुल सही दवा मैं ले लूंगा और उसे दूध के साथ लूंगा, परन्तु कुछ पूछना चाहता हूं पूछें?" "हां-हां बेशक." "डाक्टर साहब अगर दूध न मिले तो यह दवा पानी से ले सकता हूं?" "हां-हां कभी ऐसा मौका आ जाए दूध न मिले तो पानी से ले सकते हो." "डाक्टर साहब मुझे यह बतलाइये कि दूध गर्म चाहिए या ठण्डा ? " ""एज यू लाइक आपको जो पसन्द हो दूध के साथ लेना ज्यादा ठीक है." डाक्टर साहब आजकल तो दूध डेयरी का आता है. भैंस का चलेगा या गाय का ? अरे ! आपकी मर्जी में जो आये उसी प्रकार का दूध पीजिए.
"डाक्टर साहब! दूध शक्कर डालना है या नहीं ?"
"वह आपकी इच्छा पर है, "एज यू लाइक" जो आपको पसन्द है, वह कीजिए."
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गुरुवाणी
"डाक्टर साहब दूध ग्लास में लेना है या लोटे में?" डाक्टर विचार में पड़ गया और उसने कहा "देखिए अस्पताल में जाकर दिमाग दिखाइये. आप मेरा दिमाग मत खाइये. "
“अरे! डाक्टर साहब! मैंने पांच सौ रुपया फीस दी है. मुझे पूरी बात तो पूछने दीजिए. वापिस दिल्ली जाकर के यहां कब लौटूंगा. सारी हकीकत मुझे जान लेने दीजिए. " डाक्टर ने उठाकर फीस का पैसा लौटा दिया "मेहरबानी कीजिए, दस मरीज और भी बैठे हैं. मेरा समय जा रहा है. आप अपनी फीस ले जाइये. मैं समझंगा मैंने परोपकार किया. "
"अरे डाक्टर साहब! यह कैसे हो सकता है? आपने मुझे समय दिया मैं इतना पैसा खर्च करके आया. आप फीस लौटा रहे हैं. यह ठीक नहीं है. कृपया आप मुझे बतला दीजिए. " डाक्टर ने देखा यह पीछा नहीं छोड़ रहा है. उसने रुपये निकाले और कहा "मेहरबानी करके यह दवा दस रुपए में मेरी ओर से ले जाना दस रुपये आपको भाड़े का भी देता हूं. टैक्सी में चले जाना. आप जा सकते हैं. फिर कभी अगर ज़रूरत पड़े तो फोन कर लेना. "
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डाक्टर ने उठ करके उनको दरवाजे तक पहुंचाया. आदत से लाचार बाहर से फिर आये. डाक्टर ने कहा यह मूर्ति वापिस कैसे आई ?
पहले आप किसी मेन्टल
उसने कहा "डाक्टर साहब! जाते-जाते एक प्रश्न और रह गया. आपने दस के दो नोट दिए. टैक्सी वाले को कौन-सा नोट देना है ? और दवा किस नोट से लेनी है."
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डाक्टर ने कहा • " मेहरबानी कीजिए. दवा मेरे पास नमूने के तौर पर बहुत आई है, आप ले जायें. मेरी गाड़ी आपको गंतव्य स्थान तक पहुंचा देगी. रुपया भी अपने पास ही रखिए. "
हमारी आत्मा तर्क-वितर्क से पूर्णतः ग्रस्त है, आच्छादित है. इसीलिए शंकराचार्य जी को कहना पड़ा
" शब्दजालं महारण्यं, चित्तभ्रमणकारणम्”
इस शब्द के जाल में आत्मा को मत उलझाना नहीं तो उस तर्क के जंगल में से स्वयं को खोजना और निकालना बहुत मुश्किल होगा.
यहां तो श्रद्धा की भूमिका चाहिए. परमात्मा में पूर्ण विश्वास होना चाहिए.
हाँ, तो वह व्यक्ति जो साधु के पास परमात्मा की खोज में तर्क की कसौटी पर मापने निकला था, अपनी विद्वता पर उसको बड़ा गर्व था और अब व्यावहारिक रूप से परमात्मा को देखने की जिज्ञासा से साधु से निवेदन करने लगा.
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सन्त ने देखा कि वह मानने वाला नहीं. कितना भी समझाने का प्रयास किया जाये, परन्तु इनको प्रयोग द्वारा ही समझाया जाए. सन्त ने कहा आप प्यास लेकर के आये
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-गुरुवाणी
हैं कि आपको परमात्मा को पाना है, देखना है. हां! आपने बहुत प्रयास किए. बहुत तीर्थ स्थानों और बड़े-बड़े सन्तों के पास गए. आज तक ध्यान और जप के द्वारा कितने ही ऐसे मंगल अनुष्ठान किए. परन्तु आत्मा की अनुभूति आज तक नहीं हुई. ___ आपको हमारे जैसे की कोई जरूरत नहीं. अगर प्यास में पूर्णता है तो परमेश्वर का साक्षात्कार निश्चित हो जाएगा. आपमें थोड़ा अधूरापन है. इसलिये आप भटकते फिरे और परमात्मा की दशा की अनुभूति आपको नहीं हुई. चलिए मेरे साथ गंगा में स्नान कीजिए. पवित्र बनिए. मैं आपको परमात्मा का साक्षात्कार इसी समय कराता हूं. इसी क्षण आपको अनुभूति हो जाएगी और आपका अधूरापन भी आपके ध्यान में आ जाएगा.
वे बड़े पहुंचे हुए ब्रह्मचारी सन्त थे. सामने वाले व्यक्ति ने गंगा में डुबकी लगाई, स्नान किया. जैसे ही उसने स्नान के लिए गंगा में पांव रखा, वह सन्त भी साथ उतरे और जैसे ही उसने डुबकी लगाई, गर्दन दाबा, जोर से दाबा. गर्दन दाब देने से श्वास घुटने लगी. बहुत बैचेनी हुई. बहुत बड़ी ताकत लगाई उसने और बड़ी मुश्किल से अपनी गर्दन ऊपर कर पाया क्योंकि श्वास नहीं ले सका. अन्दर में बड़ी घबराहट हुई. ऑक्सीजन मिली नहीं, बैचेनी रही. सारी शक्ति लगाकर अपने माथे को ऊंचा किया और कहा - स्वामी जी, यह कौन-सा तरीका है परमात्मा की अनुभूति और दर्शन करने का? __ स्वामी जी ने कहा - "जैसे तेरा प्रश्न था, वैसा ही मेरा उत्तर. मैंने जब आपकी गर्दन इस पानी में जोर से दबायी, आप छटपटाने लग गये. मुझे बतलाइये उस समय आपको क्या याद आया - दुकान, मकान था, परिवार? आप उस समय क्या विचार कर रहे थे?
भगवन्, सारे विचार मर गए थे. मूर्छित हो गए थे, एक विचार था, मैं श्वास कैसे लूं. इतनी बैचेनी थी और जी अन्दर से घुट रहा था. मैंने सारी शक्ति केन्द्रित करके ताकत लगाकर अपना माथा ऊंचा किया. एक ही इच्छा, विचार था कि मैं श्वास कैसे लूं? बाकी सब विचार मर चुके थे. न मैंने दुकान देखी, न मकान देखा और न परिवार याद आया. संसार की कोई भी बात मुझे याद नहीं आई.
स्वामी ने कहा - मैंने आत्मा से परमात्मा को देखने की टेकनीक बतला दी. आप जिस दिन सब कुछ भूल जाएंगे और आपके अन्दर मात्र यह जीवित रहेगा कि मैं परमात्मा या आत्मा का साक्षात्कार करूं फिर मेरे जैसे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और आपको स्वयं अनुभव हो जायेगा.
अब आप बात समझ गए होंगे. अभी तो सारे विचार जागृत हैं, सक्रिय हैं, न जाने कहां-कहां भटकते हैं. मन कहां-कहां जाता है. धर्म साधना भी करते हैं और भटकते फिरते भी हैं.
एक योग्य व्यक्ति चन्दूलाल सेठ सामायिक में बैठे प्रार्थना आदि क्रिया कर रहे थे. __ कोई सन्त पुरुष आहार के लिए गए.
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गुरुवाणी
सन्त ने पूछा आज श्रावक चन्दूलाल कहां गए. श्राविका पत्नी रसोई कर रही थी. मुनिराज को आहार देकर कहा साहब, वह यहां नहीं हैं. इस समय वे ढेड़वाड़े गए हैं. अरे ! पर वहां कैसे उगरानी के लिए चले गये. अभी दस बजे का समय हुआ है. उस समय अन्दर चन्दूलाल सामायिक कर रहे थे. वे विचार में पड़ गए कि मेरी पत्नी कैसी है. मैं अन्दर बैठा हूं और कहती है ढेड़वाड़े गए. जैसे मुनिराज बाहर निकले और चन्दूलाल गरजे "तेरे में अक्ल नहीं है कि मैं यहां बैठा हूं?"
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वह तो मैं भी जानती हूं कि तुम यहां बैठे हो. पर तुम्हारा मन तो उधर घूम रहा है. दस बार घड़ी उठाकर देखी कि कब टाइम पूरा हो और कब उगरानी में जाऊं. शरीर से यहां सामायिक में बैठे हो और मन में ढेड़वाड़े में घूम रहे हो. यह सामायिक कैसे आत्मा की शुद्धि में उपयोग होगा. उसे कैसे आत्मा स्वीकार करेगी. गम्भीर भावपूर्वक की गयी धर्म साधना ही आत्मा का भोजन है. वही आत्मा के लिए उपयोगी साधन है. परन्तु हमने कभी भी उसका उपयोग उस दृष्टि से नहीं किया. हमने आत्मा की रुचि को बिना समझे और उसकी प्रसन्नता के बिना कार्य किया.
प्रत्येक शिष्टाचार आत्मा को संरक्षण प्रदान करता है. आत्मा तक की यात्रा पूरी करने हेतु इनका व्यवहार अपेक्षित है. इन्हीं आचारों के द्वारा व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है.
मैंने आपसे कहा
"लोकापवादभीरूत्वं"
महान आचार्य ने जगत से कहा कि लोक रुचि देखकर और लोगों का प्रेम संपादन करके जो व्यक्ति धार्मिक कार्य में प्रवेश करता है, वह कार्य कैसा भी हो, परन्तु परोपकार से परिपूर्ण हो. अनेक आत्माओं के हित के लिए हो.
मैं इससे पूर्व यह बता चुका हूँ कि कैसा कार्य होना चाहिए? अपने जीवन में किस प्रकार की उदारता आनी चाहिए ? देने के बाद अन्दर की भावना कैसी होनी चाहिए ? हमारा इतिहास उदारता का एक परिचय देता है.
जैन इतिहास में पच्चीस सौ वर्ष में ऐसा एक भी धनवान व्यक्ति संसार में आज तक पैदा नहीं हुआ जैसे कि शालिभद्र वह इतनी ज़बरदस्त पुण्यशाली आत्मा थी कि प्रतिव दीपावली में उसे याद करते हैं. अपनी पुस्तक में उस पुण्यशाली का हम नाम लिखते हैं.
"धन्नाशाली भद्र की समृद्धि हो जो ऋद्धि हो" परन्तु उसके पास क्या था ? मुनिराज की भक्ति करूं! जैसा कि मैं आपको स्पष्ट कर चुका हूँ कि यदि हमारी भावना विकसित हो जाए तो सारी परेशानियाँ दूर हो जाएं सारे पाप का अन्धकार समाप्त हो जाय. धन एवं पुत्र की प्राप्ति से जकड़े हुए मन का अन्तराय या रुकावट नष्ट हो जाय क्योंकि भावना इतनी प्रबल होती है कि वह अन्तराय की दीवार को तोड़ देती है.
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- गुरुवाणी
गरीब परिवार में जन्में एक बच्चे से बच्चों के साथ खेलते समय किसी बच्चे ने इतना ही कहा (ग्वाले का लड़का था) - आज मेरी मां ने खीर खिलाई है. तुमने कभी खीर खाई है? वह निर्दोष बालक दस-बारह वर्ष का था. उसने कहा, खीर क्या होती है? मुझे मालूम नहीं.
तू अपनी मां से पूछ. क्या सुन्दर स्वाद है उसके अन्दर, क्या मीठा है. खाकर के तबियत खुश हो जाए. बच्चों की बात सुन करके उसके मन में विचार आ गया. घर आकर मां से जिद की और कहा – मां मेरे लिए खीर बना, मुझे खीर खानी है.
बालक के हठ की तरह जिस दिन परमात्मा को पाने के लिए हट आ जाए, उस दिन कल्याण हो जाए.
आप देखिए, रास्ते में जाते समय यदि बालक किसी चीज पर नजर डालता है, और कहे कि यह चीज़ मुझे दिलाओ. बाप कहेगा – नहीं-नहीं ऐसे तो बाजार में बहुत चीजें आती हैं. प्रत्येक वस्तु को मांगने का बालक का स्वभाव है. बालक बड़े निर्दोष होते हैं, आप उनसे कितना भी छिपाएं परन्तु वे अपनी बात कहे बिना नहीं रहेंगे.
मफतलाल दिल्ली से बम्बई किसी शादी में जा रहे थे. साथ में तेरह साल का छोटा-सा बालक था, पर दस साल का देखने में लगता था. बम्बई जाना जरूरी था. बालक बड़े निष्कपट होते हैं. वे अपनी सच्चाई प्रकट कर देते हैं. मफतलाल ने तेरह वर्ष के बालक के लिए भी आधा टिकट लिया और उसको कहा कि यदि टिकट निरीक्षक आए और उम्र पूछे तो उसे दस वर्ष बताना. उसने हाँ कर लिया. वह बाप की कमजोरी समझ गया था. ___ गाड़ी ने रात्रि में मथुरा पार किया, और उसी समय टिकट निरीक्षक आ गया. एक बार सच कह दिया कि दस साल का हूँ और वह उतर गया. आगे जैसे ही अगले स्टेशन पर गए. बालक की नज़र बाहर गई. कोई मनपसन्द चीज़ स्टेशन पर थी. बाप से कहा कि मुझे दिला दो.
मफतलाल ने कहा - ऐसे कोई चलते रास्ते चीज़ दिलाई जाती है. हर स्टेशन पर नई चीज आयेगी. इस तरह पैसे नहीं खर्चना चाहिए. पहले कमाना सीख. उसके बाद लेना.
पिताजी अगले स्टेशन पर कह दूंगा कि मैं तेरह साल का हूं
मफतलाल समझ गया कि यहां गड़बड़ हो जाएगी. बालक से कहा - तेरे को जो कुछ लेना है, ले ले. उसने बम्बई तक डबल टिकट वसूल कर लिया. मफतलाल को अकल आ गई.
ज्ञानियों ने कहा कि ये कर्म हैं. असत्य के द्वारा यदि एक बार प्राप्त कर लिया तो दे देगा, परन्तु याद रखिए ये ब्याज सहित वसूल कर लेंगे. यह प्रकृति है. छोड़ेगी नहीं.
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-गुरुवाणी
बालक का हृदय बड़ा निष्कपट होता है. वह बड़ा सरल होता है. आप यदि बालक की पुकार नहीं सुनें तो आगे चलकर बालक मां से हठ करता है. चिल्लाएगा, मुझे दिलाओ. मा डांटती है. बाप फटकारता है. खबरदार परन्तु बालक से रहा नहीं जाता और आगे चलकर यदि बालक रोने लग जाये और रोना बन्द ही न करे, जो उसका सबसे बड़ा शस्त्र है तो आप क्या करेंगे?
आपका हृदय पिघलेगा या नहीं. परमात्मा के द्वार पर जाएं, बालक बन कर या निर्दोष बन कर के जाएं. और हठ पकड़ें की मुझे मोक्ष दो. मेरे अन्दर सद्भावना दो. मैं तेरे द्वार पर यह मांगने आया हूं और इसे लेकर के ही जाऊंगा. ____ यदि परमात्मा पुकार सुने, तो रोना शुरू करें. यह साधना का उत्तम प्रकार है. रो करके आसुओं से प्रार्थना करें कि भगवान तेरे द्वार से अब तो लेकर के ही मुझे जाना है. त कितना भी मझे कहे. मझे नहीं सनना है. अगर परमात्मा के पास ऐसा आग्रह आपमें आ जाए या यों कहिए सत्य और सद्भावना को प्राप्त करने का आग्रह आ जाए, यदि प्रार्थना रुदनपूर्ण हो जाए, तो परम पिता इतना करुणानिधान है कि आपकी भावना वह अवश्य ही पूर्ण करे. परन्तु रोकर के आज तक प्रभु के द्वार पर भीख मांगी ही नहीं, अन्तर्हृदय से कभी दर्द लेकर परमेश्वर के पास गए ही नहीं..
एक बार जंगल में सिंह का बच्चा कहीं चला गया. कभी उसने संसार के अन्दर पशुओं को नहीं देखा था. जन्म को थोड़े महीने हुए थे. छोटा-सा बालक घूमते-घूमते जंगल में अचानक घबरा गया. बहुत बड़ा हाथियों का झुण्ड आ रहा था. उसने जीवन में पहले ऐसी घटना कभी नहीं देखी थी. भय से घिर गया. दौड करके आया और अपनी मां की गोद में सो गया.
सिंहनी विचार में पड़ गई. शरीर थर-थर कांप रहा था. सिंह की सन्तान और शरीर के अन्दर भय का कम्पन था. उस बालक का चेहरा एकदम उतरा हुआ था.
सिंहनी ने कहा तुझे क्या हआ? मेरे दूध को कलंकित कर दिया, परिवार को कलंकित कर दिया. क्या हआ तुझे? यह भय कैसे आया. सिंह की सन्तान में तो कभी भय होता ही नहीं, वह तो निर्भय रहता है.
बालक ने कहा – क्या बताऊं. मैंने इतना भयंकर एक प्राणी देखा कि यदि उसका पांव मेरे ऊपर गिरे तो मेरा शरीर चटनी बन जाए. वह इतना विशालकाय, उसको देखकर मैं घबरा गया. सिंहनी समझ गई कि भय की कल्पना से ही बालक डर रहा है. इसको मालूम नहीं कि उसके पिता में कितनी प्रचण्ड शक्ति है. बालक मां सिंहनी की गोदी में सोया था.
सिंहनी ने कहा - तेरे पिता की शक्ति पर तुझे विश्वास नहीं, अरे कहीं जाने या छिपने की जरूरत नहीं. कोई भय करने की जरूरत नहीं, यहां से एक बार अपने पिता
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-गुरुवाणी:
को चीत्कार कर. देख, तेरे पिता में कितनी ताकत है, तेरा सहज में रक्षण हो जाएगा. सारे भय दूर हो जाएंगे. उसके बाद से उस बालक ने कुछ भी नहीं किया. न कभी भागा और न ही कभी छिपने का प्रयास किया.
अन्तर्हृदय से उसने पिता को पुकारा और ऐसी चीत्कार की जिसके अन्दर दर्द भरा हुआ था. अन्तर्हृदय की पुकार थी. पास में ही सिंह शिकार के लिए गया था. बालक की उस पुकार को सुनकर उसके मन में विचार आया कि यह दर्द कहां से आया. इस पुकार में यह भय का कम्पन कैसे आया.
छलांग लगाकर दौड़ता हुआ सिंह आया और आते ही सारी समस्या उसे दृष्टिगत हुई. हाथियों का झुण्ड आ रहा था. समझ गया कि बालक इसे देखकर के डर गया. उसने एक गर्जना की और सारे हाथी पूंछ उठाकर भाग गए.
सिंहनी ने अपने बच्चे से कहा – देखा! पिता की पुकार का चमत्कार. एक क्षण में भय चला गया. आप यह समझ लेना ये परम पिता परमेश्वर अनन्त शक्तिमय हैं, कभी घर में बैठे हुए कोई ऐसे कर्म का भय आ जाए, कोई शत्रु यदि आक्रमण के लिए आ जाए, तो एक बार से जिसमें दर्द हो उस परम पिता को पुकारिए. अन्तर्हृदय से जिसमें परमात्मा को पाने की भावना हो. उस परमात्मा के नाम के चमत्कार एक क्षण के अन्दर संसार का भय चला जाएगा.
अन्दर दर्द चाहिए. वह पुकार आपके हृदय की भाषा में होनी चाहिए. जीभ की भाषा में नहीं, बालक की तरह से निर्दोष बन जाइये.
वह बालक अपनी मां से आग्रह करने लग गया, मुझे खीर पिला. माँ बहुत विचार में पड़ गई. बालक ने कहा कि मेरे साथियों ने कहा कि खीर में बड़ा आनन्द आता है. उसमें बड़ा स्वाद आता है. मां लाचार थी. घर की ऐसी परिस्थिति नहीं कि वह बच्चे के लिए खीर बना सके. पड़ोस में गई दो चार मिलने वालों से उसने निवेदन किया. मेरे बच्चे को आज खीर बना कर खिलानी है. बहुत जिद कर रहा है. कहीं से शक्कर कहीं से दूध, कहीं से चावल लेकर के आई और लाकर के बच्चे के लिए खीर बनाई. ___ बड़ी सुन्दर खीर बनी. मां ने बड़े वात्सल्य से, उस बच्चे की थाली में खीर डाली और कहा बेटा - यह तेरे लिए बनाई है. तू पूरी खीर आज पी जा. मां बालक को सन्तोष देने का प्रयास कर रही थी. किसी कारण से मां पड़ोस में किसी काम से गई. अचानक एक महीने का उपवास किये हुए महान तपस्वी कोई सन्त बालक के द्वार पर आए. जैसे पुण्य की लाटरी खुलने वाली हो. उस बालक में एक दम विचार आया कि मेरे जैसे दरिद्र के यहां यह लक्ष्मी. साधुओं को उसने लक्ष्मी की उपमा दी. सन्तों का आगमन, धर्म लक्ष्मी का आगमन. उस लक्ष्मी से आत्मा के वैभव और गुण की प्राप्ति होती है. धर्म लक्ष्मी है. वह साधु-सन्तों के माध्यम से घर में आती है.
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गुरुवाणी
बालक के मन में विचार आया कि मेरा कैसा पुण्योदय हुआ कि यह सुन्दर निर्दोष वस्तु मेरी माँ ने बनाया और मुझे अपने पुण्य के प्रतिफल में इसको किसी साधु को देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. बड़े-बड़े समृद्ध लोगों के घर साधु नहीं आते. यदि कोई मंगल भावना हो तभी ऐसा संयोग मिलता है.
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बालक कहता है महाराज यह आप शुद्ध आहार लें. प्यार से बनाया हुआ द्रव्य था. उसका स्वाद भी अलग होता है. बड़े प्रेम से अर्पण किया. सब का सब डाल दिया. मुनिराज आशीर्वाद देकर के चले.
संयमी आत्माओं के संयम में सहायक बनना बहुत बड़ी मंगल क्रिया है
बालक सोचता है, वह दूध मेरे पेट में जाता तो ज़हर उत्पन्न करता, मैं संसारी हूं, वासना से घिरा हूं आज नहीं तो कल विषय वासना को उत्पन्न करता एक संत के पेट में गया, उसकी साधना में सहायक बनेगा उनके पेट में जाकर यह जहर अमृत होगा. उस बालक की ऐसी मंगल भावना थी.
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मां पड़ोस से आई, देखिए उसकी गुप्तता कितनी कि मैंने तो साधु को सारी की सारी खीर दे दी, मैंने तो लिया ही नहीं. मां यह देखकर के मुझे डांटेगी. अकारण मुनिराज के लिए गलत बोलेगी और निन्दा करके पाप में डूबेगी. मां का मैं रक्षण करूंगा मां को बतलाने के लिए उस बालक ने थाली चाटना शुरू कर दिया ताकि मां को सन्तोष हो जाए कि सारी खीर मैंने पी ली. अब थाली चाट रहा हूं,
दान की गुप्तता देखिए वह मंगल भावना ही इस गुप्तता का चमत्कार है, वहां ऐसे प्रबल पुण्य के फलस्वरूप वह बालक मृत्यु के उपरान्त सबसे धनवान व्यक्ति गौभद्र सेठ के यहाँ जन्मा और वह ऐसा पुण्यशाली की उसके जूते ही पूरे भारत की खरीद के लिए पर्याप्त थे. गौभद्र सेठ की मृत्यु हुई तो वे स्वर्ग में गए. परन्तु बालक के प्रति इतना अनुराग जिसके कारण प्रतिदिन देवलोक से जवाहरात आभूषणों से भरी हुई बन्द पेटी भेजते.. अलग-अलग प्रकार की चीजें उसके अन्दर भरी, वह अपने पिता की पुत्र के प्रति स्नेह के कारण भेजते.
इसीलिए मैं कहूंगा कि इस परोपकार साधु-सेवा की मंगल भावना को कभी आप मूर्च्छित मत होने देना. यह तो सतत् जागृत होनी चाहिए. ऐसे अवसर की तलाश होनी चाहिए कि आप दूसरे के लिए कुछ कर सकें. अपना परित्याग कर सकें.
एक राजा सवा लाख सोना मुहर के मूल्य का रत्न जडित कम्बल नहीं खरीद सका. जब व्यापारी के पास गया तो मूल्य जानकर पीछे हट गये परन्तु रानी के आग्रह पर उस व्यापारी को बुलाकर रानी ने पूछा रत्न जड़ित कम्बल किसको बेचा तो उसने कहा साहब मेरे पास जितने कम्बल थे सब शालीभद्र सेठ ने खरीद लिए."
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गुरुवाणी
श्रेणिक की आंख खुल गई. राजा में ये ताकत नहीं और प्रजा में ये ताकत कहां से आई. जब बुलाकर पूछा कि शालीभद्र कौन है. पता चला कि नगर का सबसे धनवान व्यक्ति है. उसे बुलवाने को कहा.
"राजन् ! जिन्दगी में वह कभी घर से नीचे उतरे ही नहीं. आप को यदि मिलना है तो आप उनके घर जा सकते हैं."
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यह इतिहास का पहला प्रसंग था कि राजा अपनी प्रजा के घर मिलने गया, कैसा पुण्य का आकर्षण. श्रेणिक के अन्दर भी विचार आया, भावना जागृत हुई. इतना बड़ा मगध का साम्राज्य और उस का मालिक अपनी प्रजा के यहां जाए.
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शालीभद्र की मां ने कहा राजन, वे तो सातवीं मंजिल पर हैं. नीचे आने में असमर्थ हैं. आप ऊपर जा सकते हैं वह ऊपर से नीचे भी नहीं उतरा शरीर क्या मक्खन जैसी कोमल काया थी. पान खाने को चरित्रकारों ने वर्णन किया है कि पान गले से नीचे उतरती हुई दिखती.
सम्राट ऊपर गया. जब उसे देखा, उसकी सुन्दरता देखी, उसका वैभव देखा तो सम्राट श्रेणिक ने आलिंगन किया. सम्राट के आलिंगन से उसको इतनी गर्मी लगी कि वह शरीर में पसीना-पसीना हो गया. उस पुण्यशाली आत्मा को भी शरीर छोड़ने में एक मिनट लगा.
एक क्षण के अन्दर अन्दर अरबों की सम्पत्ति का परित्याग कर दिया, सारी रानियों का परित्याग किया. भोग का परित्याग करके वह कैसा परम त्यागी बना राजग्रही नगर में दो उपवास के बाद एक बार आहार करता. उसका सारा शरीर क्षीण हो गया. पादोपगम अनशन करके वह तो अनुतरवासी विमान में चला गया. इस प्रकार वह एक भव अवतारी आत्मा थी. एक भव करके मोक्ष में जाने वाली आत्मा.
हम रात दिन चरित्रों में उसका वर्णन करते हैं. हर दिवाली में उन्हे याद करते. आज तक आपने पुस्तक में लिखा 'धन्ना' शालीभद्र की ऋध्दी हो जो खाली पेटी भी निन्यानवें आई हैं. वहां तो भरी हुई पेटियां आती थी. यहां तो खाली भी जाएं तो भी धन्यवाद कभी लिखते समय यह नहीं लिखा कि धन्ना शालीभद्र का त्याग हो जो त्याग से समृद्धि का जन्म होता है उस त्याग से पुण्य का जन्म होता है. अर्पण के अन्दर प्राप्ति छिपी हैं अर्पण की भावना आ जाए, फल की प्राप्ति सहज ही हो जाएगी.
"
परन्तु यह तरीका आपको मालूम नहीं कि मैं जो देता हूं तो वह पुण्य आत्मा ग्रहण करती है. इसलिए सूत्रकार ने इस पर जोर दिया:
"दीनाभ्युध्दरणादरः"
ऐसी दीन आत्माओं का हाथ पकड़िये, उन आत्माओं की सेवा कीजिए, जिसे परमात्मा स्वीकार करे, उस की आशा अनुसार हो, जिससे हृदय में परिवर्तन आ जाए. सद्भावना
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-गुरुवाणी
जन्म ले ले, और वह प्रेम पूर्वक अपने परमात्मा तथा उसके उपकार का स्मरण करें इस प्रकार की मंगल भावना आनी चाहिए.
देते समय मन में यह विचार आना चाहिए कि देकर हम किसी पर उपकार नहीं करते हैं. यह मेरी आत्मा के लिए है और मैं स्वयं इसके द्वारा कुछ प्राप्त करता हूं. यह भावना जिस दिन आपके अन्दर आएगी उस दिन पुण्य का दुष्काल नहीं रहेगा.
आप यदि देते हैं तो निश्चित आपको मिलेगा, यह विश्वास रख कर के चलिए. इन्वेस्टमैंट तो पहले करके चलना पड़ेगा. व्यापार करते समय लाखों रुपया उधार लाकर पहले आप लगाते हैं, तब वह बाद में लाभ का कारण बनता है, तब वह प्राप्ति का साधन बनता है और वहां यदि पहले दान ही नहीं दे और कहें-नहीं महाराज, पहले ही लाभ दिखलाओ, तो यह कदापि संभव नहीं है.
धन और संपत्ति के विषय में ज्ञानियों ने कहा है कोई ऐसा साधन नहीं है. कभी ऐसा प्रसंग आ जाए कि स्टीमर में आप यात्रा कर रहें हों और अचानक तूफान आ जाए, और जिस नाव या स्टीमर में आप बैठे हों उसका संतुलन ठीक करने के लिए नाविक या कैप्टेन आपको अपना कीमती सामान खाड़ी में फेंकने को कहे तो आप अपने प्राणों की रक्षा के लिए उसे फेंक देंगे. संसार में आपको इसी तरह त्याग भावना से रहना है.
आपने नाव को देखा है, पानी में रहती है पर कभी डूबती नहीं है. वह पानी के ऊपर होती है. पर नाव के अन्दर यदि पानी आ जाए तो निश्चित डुबा देगा.
यह जीवन नौका है. संसार सागर की इस नाव पर भाई आत्माराम यात्रा कर रहे हैं. लक्ष्य है मोक्ष तक इस जीवन नौका को पहुंचा देना. जहां तक संसार सागर में नौका ऊपर है, वहां तक कोई खतरा नहीं. कितना ही आंधी तूफान क्यों न आ जाए. परन्तु याद रखिए, इस जीवन-नौका में सांसारिकता नहीं घुसनी चाहिए.
अगर सांसारिकता का जल इस जीवन-नौका में आ गया तो वह इसे निश्चित डुबा देगा. मन में संसार का प्रवेश नहीं होना चाहिए. जिस दिन आप यम-नियम के द्वारा इसकी वैल्डिंग कर लेंगे कि संसार का प्रवेश मेरे जीवन में न होने पाए, जीवन का उद्धार हो जाएगा. सहज में जीवन के लक्ष्य को आप प्राप्त कर लेंगे.
इसीलिए इस सूत्र पर चिन्तन करके इसके आगे जो सूत्र बतलाया है, वह और भी इसके रक्षण के लिए ज्यादा सुन्दर हैं.
___“कृतज्ञता" उस महान आचार्य ने कहा कि हर व्यक्ति को कृतज्ञ बनना चाहिए. किसी व्यक्ति ने आपके ऊपर उपकार किया हो, या हम ने कभी किसी व्यक्ति से कुछ प्राप्त किया हो, तो उसके प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए. उपकारी के उपकार का स्मरण करना, उसके प्रति सदभाव का अर्पण करना, उनके गुणों को स्मरण करना कृतज्ञता है.
VAL,
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गुरुवाणी:
उन आत्माओं के लिए कभी ऐसा प्रसंग आ जाये तो अपना सर्वस्व अर्पण कर देना.
अमेरिका में एक ऐसी अपूर्व घटना घटी. एक व्यक्ति समुद्र के किनारे रात्रि में एक बजे गाड़ी लेकर के जा रहा था. वहां तो गाड़ी बड़ी स्पीड में चलती है. सब एक्सप्रेस हाइवे होता है, किसी कारण से लेट हो गया. बहुत दूरी पर एक ऐसा समुद्र का किनारा आया जहां लोग घूमने आया करते हैं. रात्रि के एक बजे चुके थे. उसके मन में एकदम विचार आ गया कि ऐसा सुन्दर रमणीक वातावरण है थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोक कर मैं घूम लूं. गाड़ी रोक करके वह घूमने के लिए समुद्र के किनारे जाने लगा. बड़ी सुन्दर हवा चल रही थी और उसको बड़ा आनन्द आया.
तनाव से मुक्त होने के लिए शुद्ध वातावरण चाहिये. मन को बहलाने के लिए ऐसा वातावरण असरदार होता है. वह मनकी दवा है जिससे मन को आरोग्य मिलता है. संयोग से, पीछे एक गाड़ी आ रही थी. बड़ा उदार व्यक्ति था, उसने एकदम अचानक ध्यान से देखा कि इतने एकान्त में समुद्र के किनारे गाड़ी रोकने वाले की क्या पता गाड़ी खराब हो गई हो.
आप उसकी मानवता देखिये. शिष्टाचार देखिये उसी समय अपनी गाड़ी पास में रोक दी. गाडी में झांककर देखा तो कोई व्यक्ति नहीं. दूर दृष्टि डाली तो समुद्र के किनारे एक व्यक्ति जा रहा था. मन में एक ऐसी कल्पना कर ली कि जरूर यह व्यक्ति आत्मघात के लिए जा रहा है. नहीं तो रात्रि में एक बजे समुद्र के किनारे जाने का दूसरा क्या प्रयोजन.
हालांकि उसे बहुत जल्दी थी. कोई मित्र आ रहे थे. उन्हें लेने के लिए एयरपोर्ट जा रहा था. घड़ी देखकर विचार किया कि जल्दी से जाकर मैं इस आदमी को पहले आत्महत्या करने से बचा लं. दौडता हआ गया उस व्यक्ति के पीछे गया कि यह मेरे देश का नागरिक है, किसी कारण वह कोई उलझन में आ गया होगा और कदाचित् यदि आत्मघात करता है, तो ईश्वर का गुनहगार बनता है. यदि मैं इसे नहीं बचाऊं तो मैं भी गुनहगार बनता हूं. उसको सांत्वना देनी चाहिये. यह मेरा नैतिक कर्त्तव्य है. दौड़ता हुआ गया तो उसे देखकर वह व्यक्ति एक दम आश्चर्य में पड़ गया. पीछे से गया. पीठ थपथपाई. क्यों यार, जीवन बहुत मूल्यवान है. परमात्मा की दी हुई भेंट है. यह लुटाने के लिए नहीं है. इस प्रकार बेमौत मरने के लिए जीवन नहीं मिला है. तुम ईश्वर के गुनहगार बन जाओगे. जो भी समस्या है, मैं तुम्हें कार्ड देता हूं, मेरे आफिस में कल आकर के मिलो. मेरे पास अभी ज्यादा नहीं दस डालर हैं. तुम्हारे पाकेट में रखता हूं. तुम आ जाओ, मित्र यह विचार बदल दो.
उसे बोलने का अवसर नहीं मिला और वह विचार में पड़ गया कि भाई उस व्यक्ति ने कैसे गलत समझ लिया. मैं कोई मरने तो नहीं जा रहा. परन्तु उसके मानवतावादी विचार को सुनने के बाद वे शब्द मन्त्र की तरह लगे. उसकी मूर्च्छित चेतना थी, वह जागत हो गई. एक पैसा कभी परोपकार में देने वाला नहीं, और उस व्यक्ति के मन में
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गुरुवाणी
एक भाव पैदा हुआ कि धन्य है इस पुण्यात्मा को हमारे देश के नागरिक को इसने भले ही गलत कल्पना की होगी पर उसका शिष्टाचार कितना मानवतापूर्ण है कि वह मुझे अपना कार्ड देकर आमन्त्रित कर रहा है.
पैसे का कितना सुन्दर उपयोग यह कर रहा है ऐसा विचार उसके अन्दर आया और उसके शिष्टाचार व्यवहार से उसके विचार में परिवर्तन आ गया और मन में सोचा कि मैं कभी न कभी ऐसी पुण्यशाली आत्मा का दर्शन करू. उसके परिचय में आऊं. उसके साथ रह करके अपने जीवन का निर्माण करूं. यह भावना उसके अन्दर पैदा हुई. परन्तु बहुत बड़ा व्यक्ति था. बहुत कम्पनियों का डायरेक्टर था. और अमेरिका में समय कहां.
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दूर रहने वाला व्यक्ति तो चला गया. उसने दस डालर और कार्ड दोनों अपने पास रखा. मित्र की स्मृति में रखा कि एक महामानव मुझे मिला था. यह व्यक्ति भी चला गया. यह भी बहुत धनाढ्य व्यक्ति था. कई कम्पनियों का मालिक भी था. अपने मित्र को लेने गया था. ऐयरपोर्ट लेकर के आ गया. छः महीने निकल गये और वे एक दूसरे को मिल नहीं पाये और न ही कोई सम्बन्ध कायम हुआ. छः महीने के बाद कोई ऐसा ही संयोग कि परोपकार की वृत्ति वाला व्यक्ति हानि में आ गया करोड़ों डालर का नुकसान इसकी कम्पनी को लगा. वहां के व्यापारी पत्रों में न्यूयार्क टाइम्स आदि में समाचार आया कि यह बड़ी कम्पनी लॉस में जा रही है.
दो हज़ार कि. मी. दूर रहने वाले व्यक्ति को जब समाचार आया बड़े ध्यान से इसने पढ़ा. उसको कार्ड दिया गया था. इस कम्पनी का नाम उस कार्ड में था. मन में सोचा कि शायद यह व्यक्ति तो नहीं है, जिसने बिना मांगे दस डालर मेरे पाकेट में रखा था. मानव का वह देवदूत मुझे कार्ड देकर गया था कि मेरे पास आना मैं हर प्रकार से सहयोग दूंगा. परन्तु तुम मरकर ईश्वर का गुनहगार मत बनना... कान के अन्दर वह आवाज गूंजने लगी. अपने सेक्रेटरी को कह करके वह कार्ड मंगवाया, कार्ड देखा तो वही कम्पनी थी.
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पंद्रह-बीस करोड़ डालर का नुकसान था बड़ी कम्पनी थी उसका यह मैनेजिंग डायरेक्टर था. मन में समझ गया कि सज्जन व्यक्ति था और मुश्किल में आ गया. किसी कारण इस कम्पनी को नुकसान हो गया मेरा नैतिक कर्तव्य है कि सहयोग देकर इस कम्पनी को बचाऊं. मेरे ऊपर इसने जो उपकार किया, विचारों के द्वारा जो मेरे जीवन का निर्माण किया है, मैं जाकर के उपकार का बदला चुकाऊं उसे नहीं मालूम कि मैं तो घूमने निकला था. आराम के लिए जा रहा था. थोड़ी मानसिक विश्रान्ति के लिए गया था. वहां हवा खाने उतरा था. मैं मरने के लिए नहीं जा रहा था. उसने तो गलत समझ लिया था. उसे नहीं मालूम कि मैं बहुत बड़ी कम्पनी का डायरेक्टर हूं बहुत सी कम्पनियों का मैं निजी मालिक हूं. उसने अपना टेलिफोन उठाया और उस नम्बर पर टेलीफोन किया मिलने के लिए समय मांगा. परन्तु वह व्यक्ति इतना व्यस्त था, इतना तनावग्रस्त
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: गुरुवाणी
था कि उसने कहा-क्षमा कीजिए, मुझे मिलने के लिए आप अभी आग्रह छोड़ दीजिए. आप मेरे सैक्रेटरी से मिल लीजियेगा.
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नहीं नहीं मैं आपसे मिलना चाहता हूं, इसी समय आना चाहता हूं. अतिआवश्यक कार्य है. मैं आपसे कोई पैसा मांगने नहीं आ रहा हूं.
जैसे ही वहां उनके ऑफिस में गया और परिचय दिया और कहा, आपने मुझे उस समय समुद्र के किनारे, रात्रि में एक बजे एकान्त में आकर आश्वासन दिया था. आपको मालूम होगा सहयोग देने का वचन दिया था.
ज़रा भूतकाल की स्मृति उसने ताज़ी की वह व्यक्ति देखिये ऐसी मुसीबत में है परन्तु उसकी नम्रता कैसी है. शिष्टाचार कैसा ! भाई मुझे क्षमा करो. मैं इस समय कोई सहयोग देने की स्थिति में नहीं हूं. जब भी अनुकूल समय होगा मैं तुम्हें बुला लूंगा.
आप अभी भी गलत समझ रहे हैं. आप कार्ड पढ़िये, आपके सामने रखा है. मैं कोई आपसे सहायता या सहयोग की अपेक्षा से नहीं आया हूं मैं कुछ आपको अर्पण करने आया हूं. मेरे जीवन पर आपका इतना महान् उपकार है. उस समय आपने जो उदारता का परिचय दिया और जो शिष्टाचार से आपने मेरे जीवन को प्रेरणा दी, मैंने बहुत कुछ आपसे पाया है, जो मैंने कम्पनी से आज तक नहीं कमाया था, वह कमाई आपके क्षणिक परिचय से मेरे अन्दर हुई.
कुछ सेवा की भावना लेकर आया हूं. आप मुझे क्या सहयोग देंगे. आप जो कुछ मांगिए. चैक बुक आपके सामने रखता हूं और आपकी कम्पनी को जो सहयोग चाहिये मैं देने को तैयार हूं.
अब सारी बात उसने स्पष्ट की, कि मैं तो घूमने निकला था. आपने समझ लिया कि मैं मरने जा रहा हूं. आपने मुझे बोलने का अवसर ही कहां दिया था. उससे पहले ही आप चले गये. मैंने आपके विचार पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन किया. मेरी आंख खुल गई. मुझे जीवन जीने का तरीका मालूम पड़ा. आप जो कहें देने को तैयार हूं. पन्द्रह करोड़ डालर उस व्यक्ति ने हस्ताक्षर करके उस कम्पनी को दे दिया, ताकि डूबती हुई कम्पनी तैरने लग जाये और कहा कि मैंने आपकी बदौलत बहुत कुछ पाया है. यह मैंने कुछ नहीं किया. भविष्य में मैं तो चाहता हूं मेरी कम्पनी के साथ साझेदारी हो जाये. मेरा हर संभव सहयोग आपकी कम्पनी और आपके लिए है. इस तरह अपना वह मानवता का ऋण चुका सकूंगा.
अमेरिका जैसी अनार्य भूमि पर ऐसे संस्कार कैसी सुन्दर मानवता के संस्कार. कोई लेना-देना नहीं एक सामान्य परिचय, एक क्षणिक परिचय. कैसी विचार की सुन्दरता. आत्मा को जागृत कर दिया. उस व्यक्ति ने उपकार का बदला पंद्रह करोड़ डालर का चैक दे दिया.
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: गुरुवाणी:
उपकारी के उपकार का स्मरण किया. कैसा परोपकार. आपने मेरे ऊपर महान उपकार किया. उस विचार दान का परिणाम कि मेरे अन्दर विचार का वैभव प्रकट हुआ. भविष्य में इस प्रकार की मुझ को भी प्रेरणा. कोई अपना मित्र हो किसी को सहयोग देने की ज़रूरत हो तो इस प्रकार की कृतज्ञता करनी चाहिये कि इसका मैंने नमक खाया है. यह मेरे भूतकाल का उपकारी है. जब-जब प्रसंग आए, उसकी कृतज्ञता का स्मरण कीजिए.
उपकारी के उपकार को कभी भूलने का प्रयास मत कीजिए. कृतघ्न कभी मत बनिये और अवसर आ जाये तो कृतज्ञ बनने का प्रयास करिये धन सम्पत्ति, पूर्व के पुण्य से मिली है. ऐसे पुण्यशाली आत्माशाली भद्र साधू सन्तों की सेवा के द्वारा, अनेक दीन-दुखियों की परोपकार के द्वारा अर्पण करके जिन्होंने पुण्योपार्जन किया है पुण्य का सम्यक् प्रकार से आप उपयोग करिये. पुण्य की हत्या कभी मत करिये.
हम तो पुण्य की हत्या करने निकले हैं. गलत कार्यों में पुण्य के द्वारा पाप अर्जन कर रहे हैं, प्रकाश में से अन्धकार में जाने का प्रयास कर रहे हैं. इसे रोकने का भी उपाय है. उस महान आचार्य ने नया चिन्तन दिया:
" सर्वत्र निन्दासंत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषु ”
पर निन्दा सबसे भयंकर मानव की बीमारी है. जीभ गन्दी होती है. अवर्णवाद का परिणाम साधु पुरुषों की निन्दा, सज्जन पुरुषों की निन्दा करके व्यक्ति अपनी मर्यादा का उल्लंघन करता है और भविष्य में जीव की प्राप्ति उस आत्मा के लिए दुर्लभ बनती है.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम्”
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यह शरीर और संसार सभी कुछ छोड़कर एक दिन चले जाना है. मृत्यु जीवन
की वास्तविकता है. संसार की जिन भौतिक
उपलब्धियों के लिए अथक पुरूषार्थ कर रहे हो, उन्हें कल खो देना पड़ेगा. समस्त सांसारिक उपलब्धियों को मृत्यु व्यर्थ बना देगी.
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गुरुवाणी
मोक्ष का राज मार्ग (ज्ञान-दर्शन और चरित्र)
परमात्मा महावीर ने अपने धर्म प्रवचन के द्वारा सारे जगत के कल्याण की मंगल भावना से, जीवन का एक अपूर्ण मार्ग-दर्शन किया है. भगवन से जब ये प्रश्न किया गया कि भगवान! संसार में धर्म किसे कहना चाहिए? किस प्रकार के धर्म की आराधना जीवन में होनी चाहिये? प्रभु! ऐसे मार्गदर्शन की आवश्यकता है जिससे हमारा जीवन सक्रिय हो एवं विचार रचनात्मक भूमिका निभा सके. परमात्मा ने इन सारे प्रश्नों का अपने उपदेशों द्वारा समाधान किया. उन्होंने कहाः
"आणाए धम्मो" अर्थात् आज्ञा ही धर्म है. परमेश्वर की जिनाज्ञा को स्वीकार करना, उनकी आज्ञा अनुसार जीवन का पालन करना तथा आज्ञा को शिरोधार्य रखकर के चलना ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ धर्म है.
भगवन्! जो आपने कहा वही परम सत्य है और उस सत्य को मैं भावपूर्वक स्वीकार करता हूं. आपकी आज्ञा के लिए जीवन समर्पित करता हूं. समर्पण के द्वारा जो सर्जनात्मक शक्ति पैदा होगी, वही शक्ति आगे चलकर साधना को सफल बनायेगी. साधना की सफलता के लिए समर्पण आवश्यक है और समर्पण से पूर्व स्वीकार करना अनिवार्य है. अस्तु परमात्मा जिनेश्वर की आज्ञा को मैं पहले शिरोधार्य करता हूं भगवन्त ने कहाः
"आज्ञाराध्दा विराध्दा च शिवाय च भवाय च" परमात्मा की आज्ञा को स्वीकार कर चलने वाला विसर्जन को प्राप्त करता है. परम्परा का पूर्ण विराम प्राप्त करता है. परन्तु भगवान की आज्ञा से विपरीत आचरण करने वाला अथवा उनकी आज्ञा का अनादर करने वाला दुर्गति प्राप्त करता है. वही दुर्गति में जानेवाला भगवन्त की आज्ञा का पूर्ण आदर करे, आचरण करे तो वह मोक्ष का भागी भी हो सकता है. । प्रस्तुत उपदेश के द्वारा व्यक्ति को उसके जीवन के लक्ष्य का उद्बोधन कराना है. यहां से सद्गति की यात्रा करनी है. दुर्गति में नहीं जाना है. सद्गति को प्राप्त करने का परम साधन परमात्मा जिनेश्वर की आज्ञा का पालन भावपूर्वक करना है, कदाचित् शारिरिक अनुकूलता न हो अथवा अन्दर कोई ऐसी कर्म की रुकावट आ जाये जो करणी के असमर्थ हो, परन्तु भाव से स्वीकार करना अनिवार्य है. अगर आज्ञा का परिपूर्ण पालन न हो सके तो उसका पश्चाताप करना यथेष्ट होगा. यह कहते हुए कि भगवान मैं अपराधी हूं.
भूल को स्वीकार करने वाला सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करता है. परिपूर्ण सम्यक् वह आत्मा प्राप्त करती है जो धर्म की इमारत का स्तम्भ माना गया है. बहुत वर्ष पहले मैंने
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- गुरुवाणी
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यूरोप का इतिहास पढ़ा. जहां पर एक बड़ी सुन्दर घटना मिली. फ्रांस और इंग्लैंड में बड़ा भयंकर युद्ध चल रहा है. नैपोलियन को बड़ा बहादुर माना गया है. दुनिया में सबसे अधिक उसका जीवन चरित्र लिखा गया. विश्व की हर भाषा में उसका जीवन चरित्र लिखा गया. विश्व की हर भाषा में प्रकाशित हुआ और कहा जाता है कि बाइबल जितनी प्रतियां उसके जीवन चरित्र की छप चुकी हैं.
लोगों को प्रेरणा मिलती है कि वह बड़ा साहसी व्यक्ति था. एक बार निर्णय कर लेता फिर उसके अनुसार वह अपने कार्य में लग जाता. वह कहा करता कि असंभव जैसी वस्तु मेरे शब्दकोश में नहीं है.
हमें अपने कार्यों में नैपोलियन से प्रेरणा लेनी चाहिए. हमारी आदत है कि हम धर्म के कार्य को कल के लिए टाल देते हैं और उसके करने में उदासीनता प्रदर्शित करते हैं. यदि कहीं दो पैसे धर्म के लिए खर्च करना पड़े तो अन्यमनस्कता आ जाती है परन्तु इसकी तरफ पापोन्मुख कृत्यों में बड़ी उत्कण्ठा और तन्मयता दिखाते हैं.
अब आप विचार कीजिए जिस समय ऐसे युद्ध मे नैपोलियन छोटी सी सेना लेकर के स्वयं गया, वह फ्रांस की सेना का कमाण्डर इन चीफ था. ऐसी महत्वपूर्ण सूचना मिली कि दुश्मन सेना बहुत पास हैं और अचानक सुबह के समय वे आक्रमण कर सकती हैं. उससे रक्षण के लिए पूरी तरह सावधान रहना है. यह रात्रि में उसे मालूम पड़ गया कि हमारी सेना का यहां मुकाम है तो अचानक छापामार युद्ध के द्वारा वह हमारा सफाया भी कर सकते हैं और कर भी देगे.
नैपोलियन ने रात्रि में ही आदेश दिया अपनी सेना को कि यहां पूरी तरह शान्ति और स्तब्धता होना चाहिए. कोई सिगरेट तक न पिये. दुश्मन को जरा भी गन्ध नहीं आनी चाहिए कि हम यहां पर हैं. यह बड़ा महत्त्वपूर्ण मोर्चा है और हम उन पर अचानक आक्रमण करेंगे जिससे दुश्मन घबरा जायें और हम मोर्चा जीत लें. ये बहुत बड़ी सफलता हमको मिलेगी. शाम के समय सारे कैम्प में आदेश दे दिया गया. रात्रि के समय घोड़े पर सवार होकर नैपोलियन यह निरीक्षण करने निकला कि सेना निर्देशों का सही अनुपालन कर रही है या नहीं, क्योंकि अनुशासन बनाए रखना है. सेना की पहली शर्त होती है अनुशासन,
उसने देखा कैम्प के अन्दर जरा सी प्रकाश की किरण बाहर आ रही थी, उतर गया और कैम्प के बाहर झांक कर देखा कि अन्दर कौन है. उसने देखा कि कैप्टन के टेबल के ऊपर मोमबती जल रही है. कोई पत्र लिख रहा है.
नैपोलियन अन्दर जाकर कैम्प में चुपचाप खड़ा हो गया. लिखते-लिखते उसका ध्यान पीछे गया कि कोई खड़ा है और ऊपर देखा तो नैपोलियन. वह गर्दन नीची करके सम्मान पूर्वक खड़ा हो गया.
नेपोलियन ने पूछा यह क्या कर रहे हो?
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-गुरुवाणी
"कुछ नहीं, बस अपनी पत्नी को एक पत्र लिख रहा था." "लिख लिया?" “हां, पूरा हो गया." “मेरा आदेश है कि इसके नीचे एक लाइन और लिख दो." "क्या?"
"बस लिख दो कि मेरे जीवन का यह अन्तिम पत्र है. मैं चाहता हूं कि तुम्हारी पत्नी को मालूम पड़ जाये. इसलिए जीवन का अन्तिम संदेश जो तुम्हें लिखना हो उसे लिख दो.”
नैपोलियन ने कहा – “अब पत्र मुझे दे दो. तुम्हारे घर तक यह पत्र पहुंच जायेगा. अपने साथी सिपाहियों से कहा-इसको गिरफ्तार कर लिया जाये."
सुबह के समय जैसे ही वहां परेड पर नैपोलियन आया. उस कैप्टन को बन्दी बनाकर लाया गया और आदेश दिया कि इस व्यक्ति ने मेरे आदेश का उल्लंघन किया है. इसने अनुशासन भंग कर दिया. अतः इसे पुरस्कार में मौत की सजा दी जाती है, सिपाहियों को बुलाया और कहा कि इसे गोली से उड़ा दो.
सारी सेना के अन्दर खलबली मच गई क्योंकि उससे सेना स्तब्ध रह गई, गोली से उड़ा दिया गया. ____ मैं कई बार सोचा करता हूं कि इस जगत का सुप्रीम कमाण्डर इन चीफ परमात्मा वीतराग तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु ने अनन्त कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त की, अन्तर्शत्रुओं पर सफलता प्राप्त की, उस जगत के सर्वोच्च विजेता, सेनापति परमात्मा महावीर की आज्ञा का यदि हम अनादर करेंगे (उल्लंघन करेंगे तो हमें कैसी सजा मिलेगी. आप स्वयं सोच लें.
एक सामान्य सेनापति के आदेश के उल्लंघन की परिणति मौत में हुयी और जगत का जो सर्वोच्च सेनापति है उस परमात्मा की आज्ञा का यदि हम अनादर करें, उल्लंघन करें, उपेक्षा करें, तो कर्म राजा कैसी सजा देगा वह आप सोच लेना. भले ही आप मौज कर लें लेकिन हमारे अन्दर यह मानसिक पागलपन हैं
चित्त वृत्तियों पर हमारा कोई अधिकार नहीं. किसी भी इन्द्रिय पर हमारा अनुशासन नहीं. हमारे मन के विषय पर हमारा कोई अधिकार नहीं है. किस प्रकार हमें सफलता मिलेगी. ___ हमारी यह दशा है कि आत्मा रोती रहे, मुझे अपने मन को प्रसन्न रखना है. इन्द्रियों के विषयों को तृप्त करना है. परन्तु मन के विषय के अन्दर कभी तृप्ति मिलने वाली नहीं है. मन की भूख के अन्दर कभी पूर्ण विराम मिलने वाला नहीं. आप मजदूरी करते चले
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: गुरुवाणी
जाइये, श्रम करते चले जाइये. श्रम के बाद कभी भी शान्ति मिलने वाली नहीं. इससे नया संघर्ष पैदा होगा.
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जितना आप मन को सन्तोष देने का प्रयास करेंगे आपका संघर्ष बढ़ता जाएगा, परमात्मा की आज्ञा के अनुसार, उनके मार्गदशन के अनुसार यदि हम साधना करते हैं. चित्त में विश्रान्ति मिलेगी. समाधि मिलेगी, और जगत की वासना को पूर्ण विराम मिल जायेगा. वासना का द्वार ही बन्द हो जायेगा. उस का रूपान्तरण हो जायेगा. वह सद्भावना बन जायेगी. उस परमाणु में परिवर्तन आ जायेगा. विचार में क्रान्ति आ जायेगी. वह विचार वीतरागता तक की यात्रा में आपको सहयोग देने वाला बन जायेगा. मेरा तात्पर्य यही बताने का था.
सर्वप्रथम जिनेश्वर देव की आज्ञा को शिरोधार्य करके मुझे अपनी यात्रा में आगे बढ़ना हैं, लक्ष्य की तरफ चलना है. कहां रुकावट आती हैं, उसका आप विचार कर लीजिये. हमारे यहां मोक्ष तक की यात्रा में जो राजमार्ग बतलाया है, वह है- 'सम्यग्दर्शन सम्यग् ज्ञान सम्यग् चारित्राणि मोक्षमार्गः
जैन परम्परा में महावीर जैसे सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट यह मार्ग दर्शन हैं. यह परिपूर्ण मार्ग-दर्शन है, जहां सम्यक् प्रधान होगा, उन विचारों को अपने आचार से प्रकट किया जायेगा और जहां से दर्शन, ज्ञान और चरित्र का त्रिवेणी संगम होगा वहीं पर यात्रा को पूर्ण विराम मिलेगा. हम लक्ष्य की प्राप्ति कर पाएंगे. हमारी जीवन यात्रा वहीं पर पूर्ण होगी और यही मोक्ष का राज मार्ग है.
प्रथम उपाय बतलाया, सम्यग्दर्शन, परिपूर्ण विश्वास डॉक्टर पर हमारा विश्वास, आप्रेशन करवाने जाते हैं. पूर्ण विश्वास लेकर जाते हैं और मन में ज़रा शंका सी रहती है, कि वहां से अपने प्राण लेकर के लौटूंगा या नहीं. इस पूर्ण विश्वास के साथ हम आप्रेशन करवाते हैं कि हमें नया जीवन मिलेगा. व्यापार करते हैं, लाखों करोड़ों रुपये की पूंजी लगाते हैं और इसे करते हैं पूर्ण विश्वास के साथ कि जरा भी नुकसान न होगा. मुझे लाभ मिलेगा, लाभ की आशा को लेकर लाखों रुपये का खतरा उठाते हैं.
व्यापार विश्वास पर चलता है. शरीर का आरोग्य विश्वास पर मिलता है. कोई मुकदमा चलता है तो वकील पर विश्वास कि जरूर इसमें सफलता दिलाएगा. इस प्रकार सारा जगत आपका विश्वास के बल चल रहा है. अगर जरा भी अविश्वास आ जाए तो लाखों करोड़ों का यह लेन-देन, आपका यह व्यवहार-रुक जाये. हमारे लिए जीवन जीना मुश्किल हो जाये. बाजार में चलते हैं पूरे विश्वास के साथ घर से बाहर निकलते हैं और सड़क पर चलते हैं, इस विश्वास के साथ कि कोई दुर्घटना नहीं होगी. रेलगाड़ी में वायुयान में मुसाफिरी करते हैं पूर्ण विश्वास के साथ कि जरा भी यहां दुर्घटना की संभावना नहीं है. मैं सुरक्षित पहुंच जाऊंगा. संसार के हरेक कार्य में आप विश्वास लेकर चलते हैं. तो फिर मोक्ष मार्ग में यह अविश्वास क्यों ?
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: गुरुवाणी:
जो परमात्मा ने कहा है उसे निस्वार्थ भावना से कहा है. वहां आप संदिग्ध क्यों होते हैं ? धर्म करते हैं तो विश्वास करके कीजिए, फल अवश्य प्राप्त होगा.
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सेठ मफत लाल की भावना जाग्रत हो गई. उन्होंने निर्णय कर लिया कि महाराज रोज कहते हैं तो ये चार महीना मुझे विश्वास के साथ धर्म क्रिया करना है. उन्हें मार्गदर्शन मिल गया. गुरु के धर्म स्थान पर गए. गुरू ने कहा ये दो महीने कम से कम पयुर्षण तक ऐसा करो कि जिसमें तुम्हारे मन को प्रसन्नता मिले, आनन्द मिले, सामायिक करो, प्रतिक्रमण करो, ध्यान करो, परमात्मा का स्मरण करो वह गुरु महाराज के वचन को स्वीकार करके आ गया.
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घर में पत्नी थी. एक दो दिन विचार किया. वह उपाश्रय में ही रहा. गुरु के पास जाकर उसने कहा मुझे तो यहां आनन्द आ रहा हैं. यहां सुगन्ध आती है, और यह इत्र की दुकान है. जाने की इच्छा भी नहीं होती. साधुओं के संयम की सुगन्ध ऐसी कि मुझे विषयों की उस दुर्गन्धि में जाने की इच्छा भी नहीं रही.
मफतलाल की पत्नी को जब पता चला तो वह क्रोधित होकर मन में बड़ी लज्जित हुई और अपने मैके चली गयी. मफतलाल को जब पता चला खुश होकर बोले कि अच्छा हुआ अब शान्ति से आराधना कर सकूंगा.
पड़ोसियों ने कहा- मफतलाल अक्ल है या नहीं. अरे ज़रा सोचो कि तुम्हारा मकान गिर गया. कहां तक इस प्रकार धर्म आराधना में बैठे रहोगे. जरा घर का ध्यान रखो. तुम्हारी मां अकेली है और कोई नहीं है. तुम्हारी पत्नी भी चली गई हैं. मकान गिरने से उसके नीचे तुम्हारा बिन पैसे का चौकीदार कुत्ता भी दबकर के मर गया.
उसने कहा • मुझे परमात्मा में विश्वास है और जो कुछ गुरु भगवन्त ने कहा उसमें विश्वास. इसलिए दो महीने तक मैं घर नहीं आऊंगा. जब तक संवत्सरी नहीं आएगी, मैं यहां से जाने वाला नहीं. लोगों ने देखा कि इस आदमी को कहना दीवार को कहने के समान है. यह बड़ा धुनी दिमाग का पागल आदमी हैं.
संयोग ठीक होने पर प्रकृति भी अनुकूल आचरण करती है. वह वरदान सिद्ध होती है. रात्रि का समय था. अमावस्या की रात्रि थी, पूर्ण अन्धकार था. चोर बहुत बड़ी चोरी करके आ रहे थे. अपार संपत्ति उनके साथ में थी. इतना सारा माल सामान चोरी करके गधे पर लाद दिया था. पांच दस गधे थे. किसी पर सोना मोहर, किसी पर चांदी के सिक्के, किसी पर बर्तन आदि विभिन्न धन दौलत लूटकर के वे रात्रि के समय जा रहे थे कि जाकर के अपनी संपत्ति का हम बंटवारा कर लेंगे.
संयोग ऐसा था कि गांव के अन्दर जैसे ही वे आए तो आप जानते हैं, गधे थोड़े कामचोर होते हैं. मार खाएंगे तब भी चिल्लाएंगे नहीं. आप जो भी काम कराएं बड़ी सज्जनता से करेंगे.
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गुरुवाणी
इन्सान को गधे से कुछ सीखने चाहिए परन्तु उस में तो गधे जैसा भी लक्षण आज नहीं रहा, श्रम की चोरी हमारे जीवन में नासूर बन गयी है कि उसके कारण हमें गलत रास्ता अपनाना पड़ता है. हमारा समाज यहाँ तक पतित हो गया है कि श्रम बिल्कुल नहीं करना चाहता. अगर थोड़ा सा श्रम करना पड़े तो उसे साइड इनकम का साधन समझ कर करता है, यह श्रम की चोरी हमारी साधना में भी प्रवेश कर गई है. साधना में भी हम चोरी करने लग गये हैं. जो हमें प्रामाणिकता पूर्वक आत्म कल्याण के लिए कार्य करना हैं. वहां पर भी हमारी उपेक्षा वृत्ति आ गई है और इसी का परिणाम कि हमारा सारा जीवन समस्याओं से घिर गया है.
मफतलाल अपनी आराधना में मस्त पूर्ण जागृत था. संसार से शून्य बन करके उसकी साधना चल रही थी. उसकी साधना में जरा भी संसार का प्रवेश नहीं था कि मकान गिर गया था या पत्नी चली गई थी. कोई चिन्ता नहीं. उसमें निश्चित परमात्मा समर्पण पर परिपूर्ण विश्वास था.
उसका यह नतीजा कि वे चोर उसी रास्ते से निकले. गधों को लेकर के निकले. अब वे बेचारे एक दो गधे ऐसे थे कि मोहरें और अशर्फियां लादी हुईं थी, वजन से दबे हुए गधे ने देखा कि अन्धकार है. मकान का दरवाजा खुला देखा जिसकी दीवार टूटी हुई थी. एक दो गधे जो अशर्फी और चांदी के सिक्के लेकर के जा रहे थे, वे घर में घुस गए. अन्धेरे में पता लगा नहीं, चोर जल्दी में थे आगे जाने लगे. सब गधे आगे निकल गए और ये सब विश्राम करने लग गए, सारा सोना मोहर चौक में गिर गयी. सारी अशर्फी का वहां पर ढेर लग गया. दोनों गधों ने देखा कि अब बड़ी विश्रान्ति मिल गई और विश्रान्ति लेकर गधे चलते बने.
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सुबह मफतलाल की मां उठी और देखा तो सोना मोहरों का ढेर लगा है. जब प्रारब्ध होता है तो सहज में प्राप्त हो जाता है. यह श्रद्धा और विश्वास का परिणाम है. मफतलाल जब संवत्सरी पर्व की आराधना करके घर पर आया तो मां ने बड़े प्रेम से उनको आशीर्वाद दिया. मां ने कहा- बेटा तेरी धर्म साधना हमारे लिए फलीभूत हो गई. जीवन का दुष्काल चला गया. सारी गरीबी चली गई. तूने जो सुन्दर पुण्य कार्य किया, यह उसी का परिणाम है.
मफतलाल ने कहा मां बहुत लोग आए मुझे बहुत सताया किसी ने कहा पत्नी चली गई, क्या तुम जानती हो ? अगर मैं गया होता और समझाकर घर पर ले आया होता, यह माल घर पर जो आया है, यह न बचता.
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स्त्रियों के पेट में बात जल्दी नहीं पचती पूरे गांव में ढोल पीट दिया कि ऐसी घटना मेरे घर पर घटी है. परिणाम यह हुआ कि गांव के राजा ने सारा माल कब्जे में कर लिया. मफतलाल ने कहा, मालूम है अगर मैं नया कुत्ता लेकर के आता तो कुत्ते की आदत हैं, घर में गधे को घुसने न देता, वह भों-भों करके निकाल देता, आई हुई लक्ष्मी चली जाती.
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गुरुवाणी
अगर यह दीवार और दरवाजा मैं बना देता तो यह मुझको न मिलता. यह धर्म नियम का पुण्य प्रभाव, चातुर्मास में कोई ऐसा आरम्भ समारम्भ नहीं करना, जिससे जीवों की विराधना हो. मैं अपनी धर्म साधना में वफादार रहा. प्रामाणिक रहा और गुरु भगवन्त के चरणों में रहा, इसलिए अपना प्रारब्ध साथ देकर गया.
जहां व्यक्ति विश्वास पूर्वक कार्य करेगा तो विश्वास की परिणति के रूप में सफलता तो निश्चित मिलेगी. परन्तु आदत से लाचार ज्यादातर व्यक्ति जगत को प्राप्त करने के लिए जगतपति परमेश्वर की उपेक्षा करते हैं.
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पहली शर्त यह है कि हमारे मन में विश्वास और श्रद्धा आनी चाहिए बिना प्रारब्ध के जगत में कोई देने वाला नहीं. कोई भी देवता लाकर के आपको कोई चीज नहीं देने याला आप भले ही जिन्दगी भर भटकते रहें, परन्तु कुछ नहीं मिलेगा. भगवान ने आध्यात्मिक भाषा में कहा कि इच्छा और तृष्णा से कुछ नहीं मिलेगा. इससे मात्र कर्म-बन्ध ही मिलेगा.
"इच्छा आगाससमानन्ता”
आकाश के समान हमारी इच्छाएं और तृष्णाएं अनन्त हैं, इसमें कभी पूर्णता आने वाली नहीं क्योंकि इच्छाएं कभी भी तृप्त होने वाली नही हैं. आज तक जगत में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जो अपने जीवन में अपनी इच्छाओं को पूर्ण कर के मरा हो, अपूर्ण अधूरी इच्छाएं लेकर के हम संसार से जाते हैं. सिवाय कर्म की मार के और हमें यहाँ कुछ नहीं मिलता.
सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है, हम अपने अन्दर सम्यग्दर्शन के पथ पर अग्रसर होते हुए उस परम सत्य का वरण करें, जिससे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सके और हमारे सम्पूर्ण दुःखों से हमें मुक्ति मिल सके. परन्तु समस्या ज्यादा प्रबल रूप तब धारण करती है जब हम आपत्ति की जरा सी भी कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते और हमारा चित्त विचलित हो उठता है उस अशान्ति की स्थिति में परमात्मा की कल्पना ही निरर्थक है.
जिस दिन आपके मन में यह दृढ़ता आ जाएगी कि मुझे परमात्मा के सिवाय जगत में और कुछ भी नहीं चाहिए ये जगत की सारी वस्तुएं उसके प्रतिफल में, आपके चरणों में आकर गिरेंगी.
परन्तु हममें वह विश्वास कहाँ? एक बहुत बड़ा जौहरी परमात्मा के प्रति पूर्ण विश्वास रखने वाला, बम्बई कलकता जैसे नगरों में बड़ा व्यापार करता था. वह दलाली का काम करता था. परन्तु जब भी घर से बाहर निकलता परमेश्वर का स्मरण करके जाता. वह बड़ा प्रामाणिक व्यक्ति था कभी गलत मान्यता नहीं और नहीं गलत विश्वास.
आज तो सारा ही जीवन अन्ध श्रद्धा पर चल रहा है. रास्ते चलते अगर कुछ मिल गया तो नमस्कार. नमस्कार उत्तम अंग है. वह कहां नमाया जाता है, किस जगह नमाया
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गुरुवाणी
जाता है, विचार कीजिए. अनन्त शक्ति को नमस्कार किया जाता है, जहाँ परमात्मा तीर्थकर हों, जिसका रोज आप स्मरण करते हैं, प्रतिदिन आप जिसका जाप करते हैं, प्रतिदिन जिनकी आराधना करते हैं. ____ मैं यह जानना चाहता हूं कि आप मन से कहां-कहां भटकते हैं. मन को दुराचारी बना रखा है. मन के विचार से आत्मा का रक्षण करें जो मन परमात्मा को समर्पित कर दिया है, उसमें दूसरों को याद करना, दूसरे का स्मरण करना, यह वैचारिक व्यभिचार और अपराध है.
जीवन के अन्दर जरा झांक कर देखिए, कहां-कहां जाते हैं. जो परमात्मा तीर्थकर की कृपा से नहीं मिला, पूर्ण परमेश्वर की कृपा से नहीं मिला, फिर जगत में किसी की ताकत नहीं कि लाकर के आपको दे दे. अरिहंत प्रभु की कृपा से ही आत्मा का सम्पूर्ण हित संभव है. अनन्त सिद्ध जहां पर मौजूद हैं, जिनका हम प्रातः काल स्मरण करते हैं, जो परम उपकारी हैं, जिनके स्मरण से ही कल्याण होगा, उनको भूल कर के जगत को याद करें तो वह व्यर्थ होगा. किसी देवी देवता की ताकत नहीं कि आपको लाकर रुपया पैसा दे दे.
आपका विश्वास है. मैं कोई विश्वास के अन्दर रुकावट पैदा नहीं करता, आपकी श्रद्धा पर प्रहार नहीं करता. परन्तु मांगना तो परम पिता परमेश्वर जी से मॉगो. जगत में भिखारी बन के जीने की क्या जरूरत.
एक बार एक बादशाह मस्जिद में खुदा की नमाज़ अदा कर रहे थे. उसी समय बाहर एक फकीर आकर बैठ गया, सोचा कि कुछ माँगूगा. जब वह बादशाह नमाज पढ़कर बाहर निकले तो उन्होंने फकीर को उसके हाथ में अशर्फी रख दी. फकीर ने उस अशर्फी को नाली में फेंक दिया. इस तिरस्कार पर बादशाह नाराज होकर पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया. फकीर बोला-जनाब क्षमा करें. मैंने सोचा था कि आप कोई बादशाह होंगे और अन्दर से आने पर कुछ दान मॉगूग रन्तु मैंने देखा कि आप तो मुझसे भी बड़े भिखारी निकले क्योंकि आप नमाज पढ़ते समय खुदा से धन दौलत और सन्तान के लिए प्रार्थना कर रहे थे. अतः मैंने निश्चय किया कि यों तो मैं भी बहुत बड़ा अपने मन का बादशाह हूँ. आप इस तरह स्वयं भिखारी हैं तो आपसे मुझे किसी दान की अपेक्षा नहीं हैं.
याद रखिये परमात्मा के द्वार पर मांगने जाना नहीं चाहिए, क्योंकि वहां तो बिना मांगे ही सब कुछ मिल जाता है. याचना या मांग लेना एक प्रकार का अविश्वास है. कभी ऐसा अविश्वास लेकर के आप परमात्मा के द्वार पर मत जाना, परिपूर्ण विश्वास के साथ जाना. ऐसा विश्वास नहीं कि जरा सी बात, जरा सी कसौटी पर, हम चलायमान हो जाएँ.
महान कवि गंग सम्राट अकबर के दरबार में था. वह नवरत्नों में से एक था और अचानक एक दिन उससे सम्राट ने कहा - "मेरी एक समस्या है. तुम समाधान कर दो. " उसने कहा - "जनाब होगा जो जरूर करूंगा.” "मैं एक समस्या देता हूं उसकी पादपूर्ति ।
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गुरुवाणी
मुझे चाहिये.” कवि गंग ने कहा – जनाब! आप फरमाइये, उसकी पादपूर्ति मैं कर देता हूं." __"सब मिल आस करो अकबर की"। ये जितने भी यहां पर बैठे हैं सब मुझसे आशा रखो, मैं तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करूंगा. उसके मन में ऐसी वासना आ गई कि जैसे मैं ही पैगम्बर हूं या अवतारी पुरुष हूं और मेरा नाम लोग लें और मेरे आशीर्वाद से परिपूर्ण बनें. ऐसा होता है. कई बार बड़े आदमियों के दिमाग में ऐसी बात आती है.
एक दिन अकबर के दिमाग में बात आ गई. पंडितों को बुलाकर के कहा - याद रखो. तुम लोग घर पर रामायण पढ़ते हो. मेरी इच्छा है एक अकबर के नाम से रामायण बनाई जाए. बीरबल को बुलाया और कहा ये आपकी जवाबदारी है. "अकबरी रामायण" को तैयार करना है.
"हजूर! समय तो चाहिये. एक दिन में कोई तैयार थोड़ी ही हो जाएगी. रामायण को तैयार होने में कई महीने लग जायेंगे."
अकबर ने कहा – जो खर्च आये, वो मुझसे से ले जाना."
छः महीने निकल गये, एक दिन दिमाग में आया, पूछा -- “बीरबल! मेरी अकबरी रामायण तैयार हो गई. जगत में उसका प्रचार होना चाहिये." ___हजूर! तैयार है मगर एक बात पूछनी बाकी है. उसे बेगम साहब से पूछकर के आता हूं बाकि पूरी रामायण तैयार है." वह बुद्धिशाली व्यक्ति था. अन्दर जहां बेगम साहिबा थीं वहां गया. बड़ा सा पोथा लेकर के कपड़े में लपेट करके गया और कहा - "आज बादशाह जनाब का एक आदेश है कि अकबरी रामायण पूरी करना है और उसके अन्दर एक प्रश्न हैं जिसका जवाब मझे आप से चाहिये."
बेगम ने कहा – क्या बीरबल! कौन सा जवाब चाहिये?
"हजूर! गुस्ताखी माफ करना राम की रामायण सीता के कारण पैदा हुई थी, अब अकबरी रामायण तो मैंने पूरा बना लिया है. उसका सम्पूर्ण जीवन वृत्तान्त तो मैंने इसमें लिख दिया है परन्तु एक बात पूछनी है कि सीता का हरण तो रावण ने किया था परन्तु बेगम साहिबा माफ करना! आपका किस तरह अपहरण हुआ है? बेगम गुस्से में आ गई सारा पोथा उठा लिया. अन्दर ले जाकर चूल्हे में डाल दिया, भाड़ में जाये तेरी रामायण पूरा जला करके राख कर दिया. क्या बात तुम यहां करने आये हो? क्या बदतमीजी करते हो?"
बीरबल को इतना ही चाहिये था. वह दरबार में गया और अकबर ने पूछा कि क्या मेरी रामायण तैयार है?
“हजूर! छ: महीने मेरे पानी में गये." “क्या हुआ?
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गुरुवाणी:
"हजूर ! मैं बेगम साहिबा के पास गया था. एक सवाल था वह जैसे ही उनसे पूछा इतना आवेश आ गया कि सारी रामायण लेकर चूल्हे में डाल दी. अब हजूर में क्या करूं. वह तो सब जलकर के राख हो गई. अब सवाल आप ही अपनी बेगम से पूछ लेना. हजूर अब मुझे मत भेजना."
अलग-अलग आदमियों के अलग-अलग दिमाग अलग-अलग विचार होते हैं.
"सब मिल आस करो अकबर की" सब मिलकर के मेरी आशा करो. मैं तुम्हारी आशायें पूर्ण करूंगा. एक ऐसे ही विचार में अभिमान प्रवेश कर गया. वह बादशाह था. इसी बात पर कवि गंग का स्वाभिमान जागृत हो गया. उसने कहा हजूर! यह आपका गलत सवाल है. इसका सही जवाब नहीं मिलेगा. आपने बड़ा गलत प्रश्न कर लिया जो परमेश्वर की मर्यादा है, आपने इसका उल्लंघन कर दिया. इसका जवाब यदि मैं देता हूं तो परमेश्वर का मैं भी गुनहगार बनता हूं आशा तो परमेश्वर से की जाती है जो परम पूर्ण हैं. आप तो स्वयं कर्म के गुलाम बनकर के आये है. आप तो स्वयं अपनी इन्द्रियों और वासनाओं के गुलाम हैं. आप क्या हमें मुक्त कर पायेंगे अथवा हमारी इच्छाओं को क्या पूर्ण कर सकेंगे.
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कवि गंग के ये शब्द ऐसे प्रहार करने वाले शब्द थे कि बहुत बड़ी चोट लगी. उसका स्वाभिमान टूटने लगा और कहा करना होगा. तुम मेरे नौकर हो." वह स्वाभिमानी कवि था किसी का अंकुश नहीं चलता. उसकी कलम को जगत में कोई देखने वाला नहीं, हजूर आपकी तलवार और मेरी कलम दोनों शक्ति समान है."
अकबर की अन्तर्चेतना को
- "मैं जो कहता "मैं जो कहता हूं तुम्हें
कहाः "कवियों के ऊपर
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अकबर ने कहा तुम विद्वान हो, समझदार हो. मैं जो कुछ कहता हूं उस पर जरा विचार करना और समझकर कार्य करना. इसका स्पष्टीकरण करो, मेरी समस्या का समाधान करो वर्ना अनर्थ हो जाएगा. कवि गंग ने कहा हजूर आप को सुनना है तो मैं सुना दूं.
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एक को छोड़ दूजे को भजे, रसना कटो उस लब्बर की अब की दुनिया गुनिया को भजे सिर बांध पोट अट्टब्बर की कवि गंग तो एक गोबिंद भजे, कछु संक न मानत जब्बर की जिस को हट की परतीत नहीं वो मिल आशा करो अकब्बर की
कवि का स्वाभिमान इस तरह जागृत हुआ कि उसने खड़े होकर के कह दिया, हजूर आप विचार करना एक को छोड़ दूजे को भजै", रसना करे उस लब्बर की एक परमेश्वर को छोड़ करके दूसरे को याद करने वाला या जगत की याचना करने वाला, ऐसे लब्बर नारायण की जीभ कट जाये. जो परमेश्वर को भूलकर के जगत को याद करे, इच्छाओं, तृष्णाओं का गुलाम बनकर के देवी देवताओं के पीछे भटकता फिरे ऐसे व्यक्ति की जरूरत नहीं है.
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-गुरुवाणी
हिन्दी में कहा जाता है अरब्बर को कचरा कि ऐसे अटाला. "इधर उधर की दु में भटकने वाला, वह गुलाम व्यक्ति न जाने कहां कहां इच्छा और तृष्णा को लेकर गया और अपनी वासना का गुलाम बना हुआ है तथा जो परमात्मा के स्थान पर सम्राट बनने की कामना रखता है. इधर-उधर भटकने वाला कर्म का अटाला, कचरा पोटला बांध करके परलोक जाता है.
"कवि गंग तो एक गोविन्द भजै, कछु संक न मानत जब्बर की"
यह कवि गंग तो अपना स्वाभिमान लेकर के आया है. सिवाय अपने परमेश्वर के जगत में किसी को याद करने वाला नहीं. श्रद्धा तो मैंने परमेश्वर को समर्पण कर दी है. अंत में ये भटकने वाला व्यक्ति नहीं हैं.
जिसको हर की परतीत नहीं, वो मिल आश करो अकबर की यानि जिसको परमेश्वर पर विश्वास नहीं है वही हजूर आपके दरबार में आयेगा. वही आपका गुलाम बनेगा, और अपनी आशा को पूर्ण करने की कामना से आएगा. ___ वे शब्द ऐसे तीर थे कि अकबर की आत्मा को चुभे और उसने सजा दी कि बात की इसमें तुम फेर बदल करो अन्य को मौत के घाट उतार दिये जाओगे. उस जमाने में जबानी कानून होता था. अंत में कविगंग ने देखा यह निष्ठुर है, यह समझने वाल नहीं, मुं पर थूक दिया, तो भी अकबर अहं के नशे में कहता है अंतिम चान्स देता हूँ फेरबदल कर दो. कवि तो मनके बादशाह हैं, चाहे तो घोड़े पर भी बीप दे, चाहे तो गधे पर. अंत में कवि गंग ने जोरों से अपने स्वाभिमान के प्रति किये कुठरा घात पर उसे वापस छंद बजाकर कहा-अब तू मेरी बात अंतिम सुन ले फिर तुझे करना है सो कर. कवि गंग ने गर्जना पूर्व कहाः
"अकब्बर अकबर नरा हन्दा नर होजा मेरी स्त्री या होजा मेरा वर एक हाथ में घोड़ा , एक हाथ में खर
कहना था सो कह दिया तूझे करना हैं सो कर." अकबर का खून सुनकर खलबला गया और आदेश दिया इसे बड़ी कट्टरतापूर्वक हाथी को शराब पिला करके मदमस्त किया जाये और हाथी के पांव के संग जंजीरों से बांधकर चांदनी चौक में दौड़ाया जाये. ___ यह एक ऐतिहासिक घटना है, चांदनी चौक के सारे लोग देखते रह गये. हाथी को शराब पिलाकर के मदहोश बनाया गया. जंजीरों से कवि गंग को हाथी के पांव से जकड़ दिया गया, और पूरे चांदनी चौक में दौड़ाया गया. कहीं हाथ गिरा कहीं पांव गिरा, शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गये परन्तु उसका स्वाभिमान बना रहा.
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राज बहिष
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गुरुवाणी
हमारे यहां का इतिहास गौरवपूर्ण है. लोगों ने अपनी श्रद्धा के लिए प्राण दे दिये, पर श्रद्धा से कभी विचलित नहीं बने. उस कवि का बड़ा शालीन परिवार घर के अन्दर था, लोग सांत्वना देने गये. उसका ही बाद में पुत्र भी मारा गया. लोग घर में बच्चों को सांत्वना देने गये. परन्तु उसका बेटा शेर की सन्तान भी कैसी ! गर्जना भी उस लड़के की कैसे थी कि जैसे ही लोगों ने कहा हम तो सांत्वना देने आये, तुम्हारे पिता की इस प्रकार दुखद मृत्यु हो गई.
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वह कहता है मेरा बाप मरा नहीं वह आज भी जीवित है. उसकी श्रद्धा और आत्मसम्मान आज भी कायम है. अपने पिता की मृत्यु का बड़ा सुन्दर वर्ण न उसने कवि की भाषा में किया:
देवन को दरबार भयो तब पिंगल छन्द बनाय सुनायो, काऊ से अर्थ दियो न गयो तब नारद ने परसंग बतायो, मृत्यु लोक में गंग कवि है, ताहि को नाम सभा में बतायो, चाह भई परमेश्वर की, तब गंग को लेन गणेश पठायो ।
(देवन को दरबार भयौ, तब पिंगल छन्द बनाय सुनायो) भरे दरबार में किसी देव पिंगल नाम का छन्द बनाकर वहां सुनाया. मेरा बाप पिंगल छन्द का सम्राट था. उसका प्रभुत्व था. उसके मुकाबले इस छन्द की रचना सुनाने वाला कोई भी उस समय नहीं था.
जब पिंगल नाम के छन्द का वहां पर पठन किया गया तब "काऊ से अर्थ दियो न गयौ तब, नारद ने परसंग बतायो"
जब वहां कोई उसका अर्थ व्यवस्थित रूप से नहीं कर सका, तब नारद जी ने परमेश्वर से कहा. भगवन्,“मृत्यु लोक में कवि गंग है ताहि को नाम सभा में बतायो"; मृत्यु लोक के अन्दर गंग नाम का एक महान कवि है. वह पिंगल छन्द सम्राट है. अगर उसके मुख से इसके अर्थ का श्रवण किया जाय तो आपको बहुत सन्तोष मिलेगा. बड़ा अपूर्व आनन्द आयेगा. " चाह भाई परमेश्वर की, तब गंग को लेन गणेश पठायो "
जब परमेश्वर के मन ऐसी इच्छा पैदा हुई, कि मैं कवि गंग के मुख से इसका अर्थ श्रवण करूं, तब गणेश को आदेश मिला और वह हाथी के रूप में आये तथा मेरे बाप को लेकर स्वर्ग गये.
हमारे देश का अपूर्व इतिहास इस प्रकार का है. श्रद्धा के लिए प्राण अर्पण कर दिये परन्तु उसमें जरा भी प्रलोभन नहीं आया. ऐसे व्यक्तियों का जीवन प्रसंग हमारे सामने परन्तु आश्चर्य का विषय है कि हमारी श्रद्धा ही नहीं है.
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बम्बई में एक व्यक्ति दलाली का काम करने वाला था. नमस्कार महामन्त्र के प्रति उसमें अपूर्ण विश्वास था. घर से बाहर निकलता तो परमेश्वर का स्मरण करके के निकलता.
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हरेक कार्य में परमेश्वर का स्मरण करता कि मेरा संसार भी मंगलमय बने. कभी दुर्विचार मेरे अन्दर न आ जाय, व्यापार में मेरे मन में कभी अनीति पैदा न हो,
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पाप से डरने वाली आत्मा परमेश्वर को बड़ी प्रिय होती है.
दलाली करने वाला बड़ा प्रामाणिक दलाल था. जेब में तीन लाख रुपये का माल था. बजार के अन्दर बेचने के लिए किसी व्यक्ति ने दिया था. गुंडे लग गये पीछे. गुंडों ने सोचा इसे यहां से उठा लिया जाये तो बहुत माल मिल जायेगा. जैसे ही वह जौहरी की दुकान से बाहर आया तीन चार गुंडे खड़े थे पकड़ा, टैक्सी में डाला और ले गये. जैसे ही उसे टैक्सी में बैठाया उस व्यक्ति ने अपनी अंगुली चलानी शुरू कर दी. परमात्मा का स्मरण कर नवकार मन्त्र का जाप करने लगा और निश्चित हो गया,
उसने कहा, आप एक बार छोड़ दीजिये फिर उसका चमत्कार देखिये आपको बता चुका हूं कि समर्पण में ही रक्षण है.
" अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणममः
"
परमात्मा से वह हर रोज निवेदन करे भगवन्! जगत में मुझे कोई शरण देने वाला नहीं है. तेरे शरण को स्वीकार करने आया हूं. ये जितने बैठे हैं, सब अनाथ है. जगत में कोई रक्षण करने वाला नहीं. नाथ तो एक ही है. वही परमेश्वर जगत का रक्षण करने वाला है
" तस्मात् कारुण्यभावेण रक्ष रक्ष जिनेश्वर"
इस मंगल भावना से जाते हैं कि भगवन् तू मेरा रक्षण कर, परन्तु भगवान के प्रति समर्पण आए तभी तो वह रक्षा करेंगे. हम गन्दी नाली के पानी को देखें तो उससे सदैव दुर्गन्ध ही आती है. वह अहंकार की दुर्गन्ध है परन्तु ज्यों ही वह नाली दुर्गन्धपूर्ण अपने अहंकार का विसर्जन कर देती है अर्थात् नदी में जाकर आत्मसपर्मण कर देती है तो वह पानी रूपान्तरित हो जाता है और उसी नदी में स्नान करने वाला व्यक्ति पवित्रता और आनन्द का अनुभव करता है.
गटर का पानी भी गंगा जल बन जाता है. इसी प्रकार हमारा जीवन पाप से भरा हुआ है. पाप का गटर अन्दर प्रवाहित हो रहा है. यदि परमात्मा का स्मरण कर लिया जाये तो वह समर्पण का भाव आपको गुलाब जल बना देगा, सुगन्धमय आपके जीवन को बना देगा. परन्तु एक बार इस गटर को वहां पर समर्पित कर देना होगा.
रास्ते के अन्दर की एक घटना है. हमारे एक महात्मा आनन्दघन ऋषि अचानक रास्ते से निकल रहे थे. वह महान पहुंचे हुए योगीश्वर थे. रास्ते में संत कबीर दास की कुटिया आई और उन्होंने कबीर दास के आंख में आंसू देखे. वे रो रहे थे. उनकी करुणा बरस रही थी, आनन्दघन ने पूछा, कि भाई कबीर आज क्या हुआ, किस दर्द के आसूं हैं ? तुम्हारी आंख में, कौन सी वेदना है ? क्या हो गया ?
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-गुरुवाणी -
A
कबीर ने अपनी भाषा में आनन्दघन जी को जवाब दिया
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय,
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। वह बोले, थोड़े समय पहले एक जवान आदमी को अन्तिम संस्कार के लिए ले गये उस बेचारे ने अपना अन्तिम जीवन भी नहीं देखा और वह भरा हुआ संसार छोड़ करके चला गया. यह देखकर मेरे अन्दर दर्द पैदा हो गया और उस आत्मा के प्रति करुणा प्रकट हुई जो नेत्र से आंसू बनकर के बाहर आई. बड़ा लाचार हूं. इस जगत् की इस चक्की में आज तक कोई नहीं बचा. अच्छे-अच्छे पिस गये. सुरक्षा लेकर के चलने वाले भी मारे गये. यहां कोई गार्ड बचाने वाला नहीं. कोई आपके मकान की दीवार या दरवाजा, कोई भी मौत को रोकने वाला नहीं है. ऐसी कमजोरी की दशा देखकर के मेरे नेत्र में दर्द के आंसू आ गए. ____ आनन्दघन जी महाराज ने कहा – कबीर तुम्हारे रोने से संसार के इस शाश्वत धर्म, में सत्ता में कोई परिवर्तन आने वाला नहीं. तुम्हारी समस्या का समाधान मेरे पास है. तुम्हारे प्रश्न का सही उत्तर में देता हूं. जरा विचार कर लेना, अगर बचना है तो एक मात्र उपाय यही है.
आनन्दघन जी भी एक महान कवि थे. उन्होंने अपनी भाषा में उसी प्रकार उत्तर दिया. आनन्दधन जी ने कहाः
"चलती चक्की है तो चलने दे, तू क्यों कबीरा रोये,
खीले से जो जा लगे, तो बाल न बांका होय।" घर के अन्दर चक्की होती है. आप देखना बीच में एक धुरी (खील) रहती है. यदि आप चक्की चला रहे हों और गेहूं पीस रहे हों दो चार दाने समझदार होते हैं, वे अगर धुरी में चले जायें और समर्पित हो जायें – “त्वमेव शरणम्" पूरी घण्टी पीस डाली उसका बाल बांका नहीं होता. परन्तु जो दाने यह अहंकार लेकर आते हैं कि मैं कुछ हूं - आई ऐम समथिंग, आई हैव समथिंग, तो वे साफ हो जाएंगे. यह सुनकर कबीर को बड़ा मानसिक संतोष मिला. हमारे यहां भी सही कहा है कि सन्त परमात्मा का समर्पण जिस व्यक्ति ने ले लियाः
__अरिहंते शरणं पवज्जामि जगत में वही एक मात्र शरण एवं रक्षण का उपाय है. बाकी तो जगत् की चक्की में अनाज की तरह पिस कर चला जाता है किसी का नामो-निशान भी नहीं रहता. परिणाम यह हुआ कि उस जौहरी को जैसे ही गुण्डों ने पकड़कर उसे गाड़ी में डाला था. उसने नवकार महामन्त्र गिनना शुरू कर दिया. यही मेरा रक्षण करने वाला है और कौन रक्षण करेगा. परमात्मा के स्मरण से पाप का प्रतिकार होता है. दुर्भाग्य का नाश होता है.
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-गुरुवाणी
उस शुभ परमाणु में इतनी प्रचण्ड ताकत है कि अज्ञान के अंधकार का नाश कर देता है. अशुभ परमाणु भी शुभ में परिवर्तित हो जाते हैं. कर्म के अन्दर संक्रमण की क्रिया शुरू हो जाती है. परमात्मा की शरण का चमत्कार कि उसके कर्म में भी रूपान्तरण हो गया. उसे विचार आया कि रास्ता मिल गया. इसमें इतना आत्म-विश्वास पैदा हो गया और उसने सोचा कि ये चाहे मुझे कहीं भी ले जायें, प्रभु मेरा रक्षण करेगा. मन में कोई डर नहीं. उसको मरने की भी कोई चिन्ता नहीं, सिर्फ एक ही चिन्ता थी कि परमात्मा का पूजन करके निकला हूं. माथे पर तिलक लगा हुआ है. लोग क्या कहेंगे. धर्म का अनुरागी था, बाजार का पैसा लेकर भाग गया. घर की बदनामी, मेरे धर्म की बदनामी होगी. वह मेरे प्रभु की बदनामी होगी जिसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता. लोग इशरा करेंगे. उनको क्या मालूम कि मेरे साथ क्या परिस्थिति गुजरी. मुझे किस प्रकार की समस्या का मुकाबला करना पड़ा, लोग तो समझेंगे, माल के साथ दलाल गायब हो गया. यह बदनामी बड़ी खतरनाक होगी और अपने ही धर्म को बदनाम करने का मैं निमित्त बनूगां. निर्णय कर लिया कि प्राणों की बलि देकर भी मुझे अपने धर्म की रक्षा करनी है.
गुण्डों ने उसे ले जाकर एक कमरे में बन्द कर दिया और कहा कि अब तुम्हारे बचने का कोई उपाय नहीं है. सरदार आकर सारा माल लूटकर तुम्हें मार कर नदी में फेंक देंगे. तुम अपनी अन्तिम इच्छा बता दो.
उसने कहा मेरी कोई इच्छा नहीं है. कभी भी मार सकते हो. तुम्हारी मर्जी में जो आये वैसा व्यवहार कर सकते हो. वह दृढ़ निश्चय था. उसे पूर्ण आत्म विश्वास था और वही नवकार मन्त्र का स्मरण कर रहा था..
उसके मन में एक विचार आया कि किसी तरह अपने धर्म की रक्षा करूं. प्रभु से यह प्रार्थना कर रहा था कि जो मेरे पास दूसरों की सम्पत्ति है उसे वापस कर सकं, वरना मेरा धर्म परिवार कलंकित हो जाएगा. अचानक पेशाब की शंका से पेशाब गृह में गया और रोशनदान खुला था. उसमें सिर्फ कांच था, जाली नहीं थी. मन में सोचा प्रभु तेरी कृपा से रास्ता मिल गया. अब नीचे गिर के मर जाऊंगा और लोग हजारों इकट्ठे हो जाएंगे. पुलिस आ कर मेरी मेरी पाकेट से माल प्राप्त करेगी. मेरे पर्स के अन्दर मेरे घर का पता है. बाजार वालों को भी मालूम पड़ जाएगा कि इस प्रकार दुर्घटना में मेरी मौत हुई.
माल सुरक्षित रहेगा. मेरी इज्जत बच जाएगी. मुझे मरने की चिन्ता नहीं पर प्रभु धर्म कभी बदनाम नहीं होना चाहिए. देखिए दृढ़ निश्चय और निश्चय का परिणाम. जोर का एक धक्का लगाया और रोशनदान के कांच को तोड़ दिया. परमात्मा का स्मरण कर
"अरिहन्ते शरणं पवज्जामि" बोलकर दो मंजिल से नीचे कद गया. तकदीर का सिकन्दर था मिल से रुई की गठरी आ रही थी और जैसे ही वह ट्रक नीचे से गुजरा
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-गुरुवाणी
संयोग से इसका गिरना हुआ और नीचे से ट्रक का आना. वह रूई की गांठ पर आकर के गिरा, ऐसा गिरा कि जरा भी शरीर को चोट नहीं लगी. बेहोश हो गया.
लोगों ने देखा लोग चिल्लाये. ट्रक ड्राइवर घबरा कर सीधा भाग कर गाड़ी पुलिस स्टेशन ले गया. कहा कि मेरे ऊपर किसी ने कत्ल करके शव डाल दिया है. पुलिस आई और देखा कि आदमी तो मरा हुआ नहीं हैं, सांस ले रहा है, जीवित है - पुलिस वाले तुरन्त एम्बुलेन्स बुलाकर अस्पताल ले गए. थोड़े समय में व्यक्ति की मूर्छा दूर हुई. जब उससे पूछा गया तो सारी हकीकत सामने आई. उस व्यक्ति से जब बाजार में लोगों ने पूछा तो कहता है कि नवकार का समर्पण मेरे रक्षण का कारण बना.
जिस दिन परमात्मा का समर्पण भाव अपने अन्दर में आ जाए, यह रक्षण तो आपको सहज में मिल जाएगा. कहीं भटकने की जरूरत नहीं. यह तो पूर्व व पुण्य है जो आपको मिला हैं, जिस दिन पुण्य में दुष्काल आएगा, लाख थापा मार लीजिए कुछ नहीं मिलेगा.
भगवान महावीर अनन्त पुण्यशाली आत्मा थे. जन्म से देवों के द्वारा पूजित, ऐसे परमात्मा महावीर जब दीक्षा लिए तो उन्हें भी साढ़े बारह वर्ष तक कर्म की मार खानी पड़ी थी. जिस दिन वह दीक्षा लेकर के प्रयाण किये, विहार किये, उस दिन से उपसर्ग शुरू हो गया. उनके कानों में कील ठोक दिये गये. पांव में चूल्हा बनाकर लोगों ने खीर पकाई. किसी भी देवता ने आकर भगवान को नहीं बचाया. किसी ने भी आकर के ग्वाले का हाथ नहीं पकडा कि क्या कर रहा है? कानों में कील ठोक करके क्या पाप उर्पाजन कर रहा है? परमात्मा महावीर जिसके पुण्य में कोई कमी, कोई दुष्काल नहीं, उन्हें भी उपार्जन किया हुआ कर्म वर्तमान में भोगना पड़ा. महावीर ने स्वीकार किया कि इन कर्मों को अज्ञान दशा में मैंने ही आमंत्रण दिया हैं और इनकी उपस्थिति में मैं उन्हें स्वीकार करूंगा.
कैसी अपूर्व साधना या आत्मा के प्रति समर्पण था? आत्म गुणों की मग्नता में लीन थे. जरा भी ध्यान नहीं दिया कि एक देवता ने बारह वर्ष में आकर महावीर का रक्षण किया. आपके जरा से लड्डू या पेड़ा चढाने में क्या वे आ जायेंगे. आपकी नौकरी करते हैं कि आपके गुलाम हैं या ऐसा कोई पुण्य महावीर से ज्यादा लेकर के आये हैं जो आ जायेंगे. ___एक माला गिना, पुकारा और देवता हाजिर. इस भ्रम में आप मत रहना. आप पूजा करें, प्रार्थना करें आपकी परम्परा से है, मैं निषेध नहीं करता. परन्तु इच्छा और तृष्णा लेकर के मत जाना. वे कोई रक्षण करने वाले नहीं. भगवन महावीर का रक्षण नहीं हुआ तो आपका क्या रक्षण करेंगे. राजा रामचन्द्र महान पुण्यशाली, मर्यादा पुरुषोत्तम. वे भी उसी भव में मोक्ष में गये और एक भी देवता ने आकर राम से नहीं कहा कि आप चिन्ता न करें, सीता को लाकर मैं हाजिर करता हूं.
क्या राम से ज्यादा पुण्य आप में हैं कि आपने आदेश दिया या रात्रि में प्रसाद चढाया और लक्ष्मी सुबह आकर नोट की पोटली आपकी तिजोरी में डाल जाय?
न
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-गुरुवाणी
दीवाली के दिन व्यक्ति पूरी रात दरवाजा खोलकर दुकान के अन्दर बैठते हैं कि शायद भूल से कहीं लक्ष्मी आ जाये. देखिये आप करते हैं, आपकी श्रद्धा, मैं आपका निषेध नहीं करता. परन्तु आप जरा विचारपूर्वक कार्य करेंगे तो आपको आनन्द आयेगा. मैं तो अन्धश्रद्धा पर चोट कर रहा हूं. ये अन्धविश्वास क्या देने वाले हैं? उनके पास क्या ताकत. मेरे प्रारब्ध में जो होगा मुझे वहीं मिलेगा. मैं जरा भी इस अन्धविश्वास को मानने वाला व्यक्ति नहीं, मैं जरा भी ऐसी मान्यता नहीं रखता..
सारी दुनिया उसी के पीछे है. राजा रामचन्द्र जी के पुण्य में कोई कमी नहीं थी परन्तु एक भी देवता ने आकर राम का रक्षण नहीं किया. उन्हें चौदह वर्ष तक बनवास में भटकना पड़ा. पाण्डवों को भी सहन करना पड़ा. कोई देवता पाण्डव के पास आकर नहीं कहे कि आप किस मुसीबत में आ गये, मैं आपकी सेवा में बैठा हूं.
द्रौपदी के साथ इतना गलत व्यवहार किया गया. तो क्या कोई देवता आये थे? वह तो योगेश्वर कृष्ण ने आकर के उसके शील की रक्षा की क्योंकि यह उसके पुण्योदय का प्रतिफल था.
योगेश्वर कृष्ण जो जगत का रक्षण करने वाले हैं, हमारे भावी तीर्थंकर की आत्मा हैं, वासुदेव की सारी द्वारिका जल कर के राख हो गई. कोई देवता आकर के आग नहीं बुझाये, न उनकी रक्षा की.
इतिहास की सारी घटनाएं आपके सामने हैं फिर हम अंधविश्वास क्यों करें एक परमात्मा को छोड़कर बाहर भटकने की ज़रूरत ही क्या है. एक में विश्वास रखिये अनेक स्वयं आ जायेंगे. आपके जीवन की साधना ऐसी हो कि देवता आपकी सेवा में बिना बुलाये, बिना आमन्त्रण आकर के हाजिर हों..
सुदर्शन सेठ को इनाम में मौत की सजा मिली. उन पर गलत आरोप लगाया गया था. वह महारानी की तरफ से दुराचार का आरोप था. रानी की वासना की पर्ति नहीं हुई. अभयाराणी ने उस पर ऐसा आरोप लगा दिया कि मेरे साथ गलत व्यवहार कर रहा था. राजा ने सोचा मेरी रानी के साथ गांव के सेठ ने इतना धार्मिक होकर ऐसा गलत कार्य किया तो इसको सूली की सजा दी जाये.
जब सूली के पास ले गये तो राजा और रानी को धन्यवाद दिया कि मेरी मौत का महोत्सव मनाने का आशीर्वाद दिया है. क्या पता सोते हुए मर जाता क्या पता दुर्घटना में मर जाता. हो सकता है, बीमारी में मर जाता. ऐसी परिस्थिति में यदि मौत आ जाये,
और प्रभु का नाम लेना मैं भूल जाऊं, हो सकता है कि जीवन हार के मैं जाऊं. मेरा परलोक बिगड़ जाये. मुझे दी गयी यह मौत नहीं, मेरे लिए महोत्सव है.
उसने और किसी देवता का स्मरण नहीं किया बल्कि सिर्फ प्रभु महावीर पर अपने ध्यान को केन्द्रित रखा. वह कायर नहीं था. उसका संकल्प दृढ़ था और मौत के डर
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-गुरुवाणी
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से अपने पथ से विचलित नहीं हुआ. उसने कहा कि अरिहंत को याद कर मौत को गले लगाऊंगा. उसका मन इतनी सद्भावनाओं से ओत-प्रोत था कि लेश मात्र भी उसमें दुर्भावना नहीं थी. मृत्यु देने वाले को भी वह अपनी अन्तरात्मा से आर्शीवाद देता है. उसके समर्पण-भाव से देवताओं का मन द्रवित हो उठा और उसकी सेवा करने को वे विह्वल हो उठे. एक ऐसे श्रावक-साधु का वृत्तान्त आप देख रहे हैं. आप भी ऐसी साधना कीजिए. परमात्मा के प्रति जीवन को समर्पित कर दीजिये. एक परमेश्वर अरिहन्त के सिवाय और मुझे कहीं नहीं भटकना. फिर उसका अनुभव आप पाएंगे कि बिना बुलाये देव आपके प्रत्यक्ष या परोक्ष जैसे ही होगा, वे आपकी सेवा में रहेंगे,
__ भावना भवनाशिनी भावना तो भव की परम्परा का नाश करती है और सद्भावना आ जाये तो देवताओं को भी गुलाम बना लेती है.
देवा वितं नम सति दुक्करम् करति ते यदि आप उस प्रकार की मंगलभावना अपने में विकसित करलें तो देवता भी आपका साथ देंगे और नमस्कार करेंगे. अर्थात् आप ज्ञान-प्रकाश में अपनी यात्रा आरम्भ करें और अन्धविश्वास को जीवन में न अपनाएं.
जब तक नसीब साथ देता है, तब तक सारी दुनिया आपके साथ है. पाकेट खाली हुआ तो आपको एक आदमी नहीं मिलेगा. आप जहां बजार में जायें, चार-चार गाड़ी घूमती हों, हाईक्लास एयरकंडीशन बंगला या कोठी हो और शान-शौकत से रहते हैं. रोज आपकी कम्पनी का नाम अखबार में चमकता है. उस समय यदि आप चांदनी चौक से निकलें तो बहुत से आपकी आवभगत करने वाले होंगे. उनका तांता लगा होगा. परन्तु आप बम्बई गये और पाकेट साफ हो गया. आने के लिए उधार टिकट लेकर आना पड़े. पूरे गांव को मालूम हो जाये, पेपर में चरित्र छप जाये और तीन महीने की सजा भोग कर के निकले हों. पास में कुछ नहीं खाकी कंगाली. फिर आप चांदनी चौक से निकलें, कोई आपको नहीं पूछेगा.
यह पुण्य का चमत्कार है, सूर्य उदय होता है. सारी दुनिया नमस्कार करती है - नमो नारायण नमो नारायण कहकर दिवाकर की पूजा करेंगे. अस्त होते समय कोई झांककर देखता है कि सूर्य नारायण कहां डूबे? यह पुण्य का उदय काल आता है. पुण्य का सूर्य जब उदय होता है, सारी दुनिया नमस्कार करेगी. जिस समय यह अस्त हुआ कोई नहीं पूछेगा.
सेठ मफतलाल के घर कोई साधु सन्त आये थे. उनके पास जाकर के आशीर्वाद लिया. मफतलाल ने कहा भगवन् – जरा मेरा नसीब तो देखिये, कब तक तकलीफ चलती है. ____ वह महान योगी पुरुष थे. अन्तर्हृदय में एक भावना आ गई. आने वाले का पुण्य होगा तब अन्दर भाव आयेंगे, आप यह मत समझना कि आप आयें और मुझे वन्दन करें. साध
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-गुरुवाणी
सन्तों को वन्दन करें. जरूर करें, आपका आचार और शिष्टाचार है. परन्तु आप अगर अन्दर इच्छा रखते हों कि आशीर्वाद मिल जाये और मैं मालामाल बन जाऊं तथा सारी दुनिया की लक्ष्मी आ जाये तो उसके लिए आपके अन्दर बचत खाते में पुण्य होना चाहिये.
यदि आपके अन्दर पूण्य का परमाणु होगा तभी वे परमाण मेरे अन्तर्हृदय में आन्दोलन पैदा करेंगे. मैगनेट की तरह मेरे विचार को उद्वेलित करेंगे और सहज में आशीर्वाद बाहर निकलेगा. परन्तु यदि आपके पास पुण्य नहीं है तो किसके घर का आशीर्वाद लाकर दूं यह कोई उधार तो मिलता नहीं कि कहीं से लाकर दे दूं.
आप वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करके देखिए कि यह हमारे अन्दर नहीं पैदा होती है. ऐसा नहीं कि आपको मैं देता जाऊं. आपके मस्तक पर हाथ रखने से आपको मानसिक सन्तोष मिलेगा पर आपको कोई उपलब्धि तभी होगी, जब प्रारब्ध में होगा. ___ मफतलाल ने हाथ देखा. महान योगी पुरुष ने कहा तेरा नसीब तुझे साथ दे रहा है. ओंधा करे तो सीधा हो जाये. तेरा नसीब इस समय इतना जोरदार है. पुण्य का शुभ-उदय चल रहा है. काहे का विचार करता है. लगा दाव, ओंधा करे तो भी सीधा हो जाये - ऐसा पुण्य है.
मफतलाल ने सोचा - अब क्या उपाय किया जाये? योगी पुरुष का वचन असत्य नहीं होगा. साधु कभी असत्य नहीं बोलता. वह राज दरबार में राजा के मुंह लगा हुआ था. बाल्यकाल का भी दोस्त था. इसलिए राजा ने कुर्सी लगा दी थी दरबार में मफतलाल को भी उसका जरा नशा चढ़ता. परन्तु संयोग ऐसा चल रहा था कि पास में पैसा नहीं था और वह नसीब आजमाने के लिए बैचेन था. __वह राज दरबार में गया और विचार किया कि योगी पुरुष ने कहा है - ओंधा करे तो सीधा हो जाये. ओंधा क्या करूं. गर्मी के दिन थे. राज दरबार में जैसे ही राजा आये, राजमुकुट पहने हुए थे. जैसे ही सिंहासन पर बैठे, सारे राजदरबारी खड़े होकर राजा का अभिवादन करने लगे. __ मफतलाल ने सोचा आज योगी पुरुष के वचन की परीक्षा लूं. ओंधे से ओंधा काम करूं. राजा के गाल पर जोर का एक तमाचा लगाया. इससे बड़ा औंधा और क्या होगा किया तो मेरी गर्दन जायेगी या कुछ अच्छा काम होगा.
तमाचा ऐसा लगा कि राजा का मुकुट नीचे गिरा अंगरक्षकों ने तलवार खींची कि गर्दन अलग कर दिया जाये. उस बदतमीज ने हमारे राजा का इतना बड़ा अपमान किया है.
राजा ने हाथ से इशारा करके रोक दिया और कहा नहीं, इसने मेरे ऊपर महान उपकार किया है. ये गर्मी के दिन हैं. बगीचे के अन्दर से माली बहुत सारे फूल सजाकर मुकुट ले आए थे और फूल की सुगन्ध और काला नाग का बच्चा उस मुकुट में छिप गया था. माली को ध्यान नहीं रहा. बगीचे में पड़ा था. मुकुट दरबार में जाने का समय
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-गुरुवाणी
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हुआ और थाली में लाकर मुकुट पेश किया और वैसे ही मुकुट माथे पर पहन कर राजा आ गये.
फूल के बीच में बड़ा जहरीला नाग माथे पर मौत के रूप में सवार था. राजा ने कहा सिवाय थप्पड मार कर गिराने का दसरा कोई उपाय नहीं था. यदि बेचारा हाथ डालता तो उसे मौत का डर था. अगर मुझे कहता कि राजन! माथे पर सांप तो मेरे हृदय पर असर होता और मैं तुरन्त हाथ ऊपर करता तो वह मुझे डस लेता.
थप्पड़ मार के गिराया. मतलब मुझे नया जीवन मिला. इस व्यक्ति ने मुझे आज मौत के मुंह से निकाला. सवा लाख रुपये और एक जागीरी इसको इनाम दिया जाय.
इसलिए मैं कहता हूं कि आप अपनी श्रद्धा को परिष्कृत बनाइये. श्रद्धा को परिमार्जित कीजिए. श्रद्धा का केन्द्रीकरण करिये. अन्तर्हदय में जिस परमेश्वर को आपने अपना इष्ट माना है उस अरिहन्त परमात्मा के प्रति विश्वासपात्र बनिये. प्रामाणिकता का इनाम आपको दिया जायेगा. वह परमेश्वर के दरबार से अवश्य मिलेगा.
इस तरह से अपने जीवन का ऐसा नव निर्माण करें कि अन्ध श्रद्धा से निकल कर सम्यक् श्रद्धा की ओर आगे बढ़ें तब तो आप कुछ पा सकेंगे. यदि अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास में रहें तो कुछ नहीं मिलेगा.
आप साधु-महात्मा को नमस्कार करते हैं, तीर्थकर परमात्मा का मंगल दर्शन करते हैं परन्तु दुकान खोलते समय सीढी को नमस्कार, ताले को नमस्कार, अन्दर बाक्स को नमस्कार, कुछ समझ नही आता है कि इस नमस्कार के पीछे किस देवता का आवास है. ऐसे भाव से यदि परमात्मा साधुसंतों को नमस्कार करें तो अपना जीवन सार्थक हो जाय.
नमस्कार का कुछ मूल्य होता है. इसका अवमूल्यन (डिवैल्यूवेशन) न करें. यह परमात्मा को या साधु सन्त को, प्राणियों को या जन्म देने वाले माता-पिता को किया जाता है. सिवाय इसके यह उत्तम अंग से नमस्कार नहीं और जो किया जाता है व्यवहार से, वह शिष्टाचार प्रणाम. बस श्रद्धा का उपयोग कभी भूल कर भी न करना, सही करना तभी साधना का आनन्द आयेगा. स्वाद मिलेगा, तब ये साधना सगन्ध देने वाली बनेगी. नहीं तो आप फिरते रहिये.
सेठ मफतलाल बगीचे में से फूल की टोकरी लेकर आ रहे थे. बादशाह नवाबों का बगीचा दिल्ली के पास किसी गांव में था. बहुत अच्छा बगीचा था. रोज वहां परमेश्वर को फूल चढ़ाने के लिए टोकरी भर ले आते. वे गुलाब का फूल ले आते. अचानक रास्ते में वर्षा का मौसम था तो जरा पेचिश हो गई. डिसेन्ट्री में आप जानते हैं, कई बार जंगल जाना पड़ता है. लूज मोशन होता है. वर्षा ऋतु में पानी की गड़बड़ी से यह रोग होता है. वायरस का संक्रमण होता है.
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- गुरुवाणी
ACAN
एक दिन मफतलाल को जरा डिसेन्ट्री भी हो गई. पर पूजा करने का पक्का नियम, बड़े होशियार, बड़े बुद्धिशाली. गांव में पंचायत उनके बिना हो ही नहीं सकती. नवाबी राज्य चलता था. गांव में बड़े प्रतिष्ठित थे. वे बहुत दूर बगीचे में गए. जंगल से निपट कर शुद्ध होकर टोकरी भर करके फूल लाने गए. गुलाब का फूल, इतना सारा टोकरी भरा हुआ लिए थे. किसी कारण गांव के फौजदार, कोतवाल समय के ताक में था. कोतवाल पठान से मफतलाल के साथ कुछ बातचीत बोलचाल हो गई. वह जरा अकड़बाज था.
मौके की ताक में था. कहीं मौका मिले और सेठ को चमत्कार बतलाऊं.
मफतलाल बड़ा सावधान था कि गांव का कोतवाल मेरा शत्रु है और शायद कुछ गड़बड़ी करे. डिसेन्ट्री के कारण लैट्रीन जाने की शंका हुई मगर दूर दरवाजे के पास ही बेचारा बैठ गया. यह चीज तो रोकी नहीं जा सकती, यह तो प्रकृति की पुकार है. कोतवाल सामने से घोड़े पर आ रहा था. वह डर गये कि कोतवाल मुझे अपमानित करेगा कि सेठ शर्म नहीं आती. गांव के दरवाजे के पास जंगल गया. उठाओ इसको. अपमानित करेगा.
मफतलाल सेठ कम तो थे नहीं. बात समझ गये कि घोड़े पर आ रहा है वह यमदूत. यह उसको निमित्त मिल जायेगा. वह बड़े ही होशियार थे. गांव के दरवाजे के पास जहां जंगल गये थे, वह फूल लेकर आये और उस पर डाल दिया. विष्टा को पूरा फूल से ढंक दिया.
पठान ने देखा-अरे मफतलाल! यह क्या कर रहा है? हुजूर! क्या बतलाऊं, बड़ा सुन्दर चमत्कार देखा. यहां कोई अभूतपूर्व आत्मा है. अरे इतनी सुन्दर लाइट, क्या शक्ति, इसके अन्दर दिव्यशक्ति प्रवेश करते हुए मैंने देखा. अभी मेरे पास और क्या था? भगवान को फूल ले जा रहा था, उसे मैंने यही चढ़ा दिया. तीन बार दंडवत भी किया वहीं पर मफतलाल ने.
पठान के मन में विश्वास पैदा हो गया-कुछ चमत्कार है. नहीं तो यह मफतलाल इतना सारा फूल यहां कैसे चढ़ायेगा.
गांव में बात फैली. पूरा हिन्दू समाज आया चर्चा हुई कि हनुमान प्रकट हुए है. वहां लाइन लग गई फूलों का ढेर लग गया. जो आए वहां प्रसाद चढ़ा दिया. ढेर लग गया. मफतलाल तमाशा देख रहा था.
संयोग ऐसा, मुसलमानों को मालूम पड़ा. वहां कोई चिन्ह तो था नहीं, न हिन्दू का मन्दिर, न मुसलमानों की दरगाह. गांव में नवाबी राज्य तो मौलवियों ने देखा. उन्होंने कहा-हमारे एक जमालखां पीर वहीं रहते थे. उनकी दरगाह थी. किसी कारण नष्ट हो गई. यह पीर का चमत्कार है. आकर बैठ गए, नीला कपड़ा बिछाया. लोगों की दुकान शुरू, जो आये वो ढोक देकर चला जाता. मुसलमान भी नमाज पढ़कर जाते.
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%3=गुरुवाणी
मुसलमानों ने कहा नही नहीं यह तो हमारा स्थान है. हिन्दुओं ने कहा-नहीं-नहीं यह तो हमारे हनुमान जी का स्थान है. शाम तक गांव में तनाव हो गया. सांप्रदायिक दुर्भावना जागृत हो गई. मफतलाल तो आराम से घर पर सो गए.
गांव का नवाब बड़ा समझदार था. उसने कहा भाई धर्म के नाम पर क्लेश क्यों करते हो. हमारे लिए हिन्दू-मुसलमान समान हैं. ये दोनों आंखें हैं. तुम इस प्रकार लड़ के हमारी शान्ति क्यों भंग करते हो. इससे अच्छा है दो हिन्दुओं में से और दो मस्लिम में से और पांचवा मैं, पांचों मिलकर के निर्णय करें और उस जगह को देखें और उसकी तफसीस करें खदाई करें अगर जरा भी हिन्दओं का अवशेष मिला. हिन्दओं को दे देंगे. अगर कोई मुस्लिम अवशेष मिलता है तो मुसलमानों को दे दिया जाएगा. क्या इसमें कोई आपत्ति है ? नगर की प्रजा ने स्वीकार कर लिया. पंच गए. नवाबजादा भी गए. पहले तो जाकर अदब किया. नवाब ने भी ढोक दिया ताकि दोनों प्रजा को शान्ति मिले.
नौकर को बुलाकर फल का ढेर हटाया. नीचे देखा तो वह विष्ठा थी. नवाब ने कहा कोई गांव में बेवकूफ नहीं मिला, क्या मैं ही मिला?
सारे जितने व्यक्ति थे वहां से दूसरे सब थूककर के गए. पूछो कि ये सब तमाशा किसने किया. वे कहे फलां मियां जाने, दूसरे कहें फला मियां जाने. जाकर के सारी मफतलाल को मालूम पड़ी. कोतवाल ने कहा-मेहरबानी करके मेरा नाम मत लेना. मफतलाल ने कहा आज से मेरी दुश्मनी मत रखना. कोतवाल हमेशा उसका गुलाम बन गया. अपना काम हो गया. यह अन्ध श्रद्धा है. इसीलिए मैंने कहा - यह माथा परमेश्वर के सिवाय और कहीं झुकाना नहीं. यह आप संकल्प कर लेना कि आज के बाद गलत याचना नहीं करूगां. कभी भिखारी बन करके परमात्मा के द्वार पर नहीं जाऊंगा. प्रारब्ध के सिवाय किसी देवी-देवता के पास याचना नहीं करूंगा.
गरुके पास परमात्मा के पास सिवाय आशीर्वाद के और कोई कामना मैं नहीं रखंगा. देखिए आपका प्रारब्ध सक्रिय बनता है या नहीं. जिस दिन आप मांगना बन्द कर दोगे उस दिन से स्वयं कुदरत आपको देगी. यह अनुभव की चीज़ है, आप करके देखिए. भले ही आप गुरुजनों के पास जाएं, देवी देवताओं के पास जाएं, मेरा किसी देवी-देवता से विरोध नहीं. बस आप मांगना बन्द कर दें क्योंकि यह चीज प्रारब्ध से मिलती है.
इच्छा और तृष्णा का उसके द्वारा पोषण होता है. आध्यात्मिक स्थिति में हम पीछे हटते हैं. सारी साधना फिर याचना में बदल जाती है. ऐसी साधना नहीं करनी है. अपने मन्दिर को व्यापार नहीं बनाना है. अपनी धर्म साधना को बिजनेस नहीं बनाना है कि पैसे के लिए अपनी पवित्रता को गंवा दें. प्राण चला जाए पवित्रता नहीं जानी चाहिए.
"सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्"
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-गुरुवाणी
संकल्प से आचार की सिद्धि
परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्र सूरि जी ने धर्मबिन्दु ग्रन्थ के द्वारा जीवन का अपूर्व और सुन्दर प्रकार से मार्गदर्शन दिया है. मनुष्य जन्म की प्राप्ति के बाद उसका विकास किस तरह से किया जाए. उसे प्राप्त करने के बाद उस पर आनन्द का अनुभव कैसे प्राप्त किया जाए. जीवन की साधना में सर्वोच्च शिखर तक किस तरह से मैं पहुंच पाऊं? वे सभी उपाय इन सूत्रों के द्वारा इन्होंने बतलाए हैं.
जीवन का व्यवहार यदि आपका सन्दर बन गया है. आपके जीवन के हर व्यापार से यदि लोगों में सदभावना, प्रेम-प्रीति उत्पन्न हो जाए तो उस प्रेम की व्यापकता आपको परमात्मा तक पहुंचा देगी. जितने भी विश्व के अन्दर धर्म हैं, उन सभी धर्मों में आचार को प्रमुखता दी गई है.
आचार से संपन्न व्यक्ति विचारों को बड़ी आसानी से स्वच्छ कर सकता है. विचारों को निर्मल बना सकता है और आत्मा के अनुकूल विचार निर्माण कर सकता है, परन्तु आचार में दृढ़ता आनी चाहिए.
एक बार यदि हमारे अन्दर यह संकल्प आ जाए कि मैं भलों का प्रतिकार करूंगा जो भूल मेरे प्रमाद से हो गए, उसका अन्तर हृदय से पश्चाताप करूंगा. भविष्य में भूल न हो जाये, उसका दृढ़ संकल्प पैदा करूंगा. तो यह संकल्प सिद्धि का कारण बन जाएगा.
हमारे अन्दर सबसे बड़ी समस्या है संकल्प का अभाव. कोन्फीडेन्स क्रियेट नहीं कर पाते. व्यवहार में कई बार हमने दृढ़ निश्चय किया है कि मुझे यह कार्य हर हालत में करना है. परन्तु उस प्रकार की दृढ़ता आध्यात्मिक साधना क्षेत्र में हम कर नहीं पाए. ऋषि मुनियों का यह चिन्तन रहाः
संकल्पात् जायते सिद्धिः जो व्यक्ति संकल्प करता है तो उस कार्य में उसे अवश्य सिद्धि मिलती है. तो कार्य की सफलता के लिए संकल्प अनिवार्य है, आवश्यक है. __ आचार और इसकी दृढ़ता आप संकल्प से प्राप्त कर पाएंगे. बिना संकल्प के कोई व्यक्ति अपने आचार में स्थिर नहीं रह सकेगा.
राग और द्वेष ये दोनों मन के ऐसे अशुद्ध परिणाम हैं. अशुद्ध पर्याय हैं कि वे दोनों तरफ आपको खीचेंगे. या तो आसक्ति आएगी, जिसे हम राग कहते हैं या किसी व्यक्ति के प्रति द्वेष जागत होगा. दोनों में से एक उपस्थित रहेगा. दोनों में से एक जगह आपकी उपस्थिति मिलेगी, या तो राग में या द्वेष में. या तो किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा
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गुरुवाणी
होगी. मैं उसे प्राप्त करूं? उसका ममत्व होगा. या कहीं से प्राप्ति की संभावना है तो व्यक्ति का अनुराग होगा. परन्तु अनुराग विकार और विषयों से भरा हुआ रहेगा. शुद्ध नहीं मिलेगा.
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जहां जिस पदार्थ का अनुराग होना चाहिए उस अनुराग का अभाव मिलेगा. अनुराग आत्मा के प्रति अनुराग परमात्मा के प्रति अनुराग हमेशा किसी व्यक्ति के गुणों के प्रति होना चाहिए. यदि इस प्रकार का अनुराग आ जाए तो आत्मा के अन्दर गुण विकसित हो जाए और उसे विकसित कैसे किया जाए? इस सूत्र के द्वारा परिचय दिया गया है: यह सूत्र है. गुणों का अनुराग यदि प्राप्त करना है. जगत् के व्यक्तियों का यदि प्रेम और सद्भाव प्राप्त करना है. जीवन को यदि आप प्रेम का मन्दिर बनाना चाहते हैं तो इस सूत्र को याद कर लेना पड़ेगा.
सारे जगत् के क्लेश का यही कारण है. बोलने में उन शब्दों में विवेक का अनुशासन नहीं रहा. संयम की मर्यादा नहीं रही और इसी कारण, वाणी में जो अन्तरात्मा की साधना की सुगन्ध आना चाहिए, उस वाणी में जो प्रेम का आकर्षण आना चाहिए, वह नहीं आ पाता. वाणी का व्यापार पुण्य का लाभ देने वाला होना चाहिए. सारे जगत् की आत्माओं से मैं प्रेम करूं. वाणी की क्रिया के द्वारा जगत् की आत्माओं का सद्भाव मुझे मिले.
सारे जगत् के अन्दर क्लेश का यही जन्म स्थान है. यहीं से संघर्ष शुरू होता है. विश्व के जितने भी भयंकर युद्ध हुए और उसका मुख्य कारण यदि आप गहराई से जाकर देखें, वाणी का दोष है. वाणी के विकार का कारण था, विनाश की तरफ ले गया.
भयंकर से भयंकर महाभारत का युद्ध हुआ जो भारत के इतिहास की एक ऐसी घटना है. एक सामान्य वाणी के विवेक का अभाव इतने बड़े संघर्ष का कारण बन गया. नहीं तो कौरव और पाण्डवों में कभी इस प्रकार का युद्ध नहीं होता. बहुत बड़ा सुन्दर राज प्रासाद निर्माण किया पाण्डवों ने और उस राज प्रासाद में अपने भाई कौरवों को आमन्त्रित किया.
जैसे ही उनके आमन्त्रण से कौरवों का आना हुआ. उसका जो फर्श था, वह इतना शानदार था कि देखने में दृष्टि में भ्रम पैदा कर देता. जैसे ही कौरव वहां आए सुन्दर राज प्रासाद देखकर के बड़े प्रसन्न हुए भाइयों का आमन्त्रण मिला अपनी प्रसन्नता लेकर आए थे. अन्दर जैसे ही उन्होंने कदम रखा, चौगान के अन्दर आए, मकान का फर्श ऐसा बना हुआ था, ऐसा दृष्टि में भ्रम पैदा कर दिया, उन्हें मालूम पड़ा इस फर्श के अन्दर जल होना चाहिए.
उस भ्रम को देखकर जितने भी वहां पर कौरव आए थे, उन कौरवों ने अपनी धोती ऊंची की. कपड़े ऊंचे किए ताकि ये कपड़े पानी में भीग न जाएं. वास्तविक वहां पानी नहीं था. वह एक प्रकार का भ्रम था.
आप रेगिस्तान में जाते हैं दिन के समय सूर्य की रोशनी में एक भ्रम ऐसा पैदा होता है जैसे कि जल आपको दृष्टि से यह आभास होगा कि वहां पर पानी है परन्तु वहां
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-गुरुवाणी
वास्तविक पानी नहीं होता. बल्कि रेती के कणों के द्वारा एक चमक पैदा होती है, भ्रम पैदा करता है जल का. परन्तु उसमें वास्तविकता नहीं होती. वहां भी उस फर्श के अन्दर ऐसी व्यवस्था थी. आते ही सूर्य के प्रकाश के द्वारा ऐसा भ्रम पैदा हुआ.
पाण्डव ज़रा हंसे कि कैसे इनको बनाया गया, अन्दर गये एक दूसरा चौक था. वहां पानी था, परन्तु आपको जरा भी आभास न हो. इस प्रकार की व्यवस्था थी. आपको फर्श ही नजर आए. और जैसे ही कौरव अन्दर गए, उस चौगान में तो कपड़े भीग गए. ये लोग ज़रा हंसे. पाण्डवों के हंसने से उनके मन को ज़रा आघात लगा कि मुझे उन्होंने आमन्त्रित किया और आमन्त्रित करके मेरे साथ ऐसी ठिठोली की. जरा नाराजगी आई कौरवों में.
बोलने में ज़रा-सा विवेक चूक गए. गाड़ी चलती हो और जरा ब्रैक लूज हो जाए तो दुर्घटना निश्चित है. जबान चलती हो और विवेक का यदि ब्रेक नहीं लगा और जरा-सा दो-चार शब्द आगे चला गया, शब्द की दुर्घटना निश्चित है. संघर्ष पैदा होगा.
भीम ने कह दिया कि ये तो मुझे आज मालूम हुआ कि अन्धे के लड़के भी अन्धे होते हैं. वह आग में घी का काम कर गया.
धृतराष्ट्र अन्धे थे. परन्तु बच्चों के अन्दर ऐसी कोई बीमारी नहीं थी. सारे कौरव देखने वाले थे. वह तो एक भ्रम के कारण था. और इनको एक चुहल करनी थी.
जरा-सा शब्द का विवेक चूक गए, उसका परिणाम, कौरवों ने प्रतिज्ञा कर ली कि इसका बदला हम लेकर रहेंगे. और याद रखो, तुम्हारी द्रोपदी को मैं जांघ पर बिठा कर अपमानित नहीं करूं तो हम कौरव नहीं.
भीम ने प्रतिज्ञा की. गदा उठा कर के कहा कि तुम्हारी जांघ को तोडकर रक्त पान न करूं तो मेरा नाम पाण्डव नहीं. यह संघर्ष का कारण है. अठारह दिन के युद्ध में एक करोड़ अस्सी लाख आदमी मर गए.
हमारे देश में महाभारत की घटना जैसी तो अनेक घटनाएं हमारे इतिहास में घट चुकी हैं. बोलने में विवेक रखना चाहिए. नहीं तो आग का काम करती है. पेट्रोल की टंकी तो हर इंसान के पास है. शब्द की चिंगारी लगते ही ज्वाला निकलती है. __ शब्द में चिंगारी नहीं आनी चाहिए. क्रोध या आवेश नहीं होना चाहिए. शब्द में ऐसा माधुर्य चाहिए कि सामने वाले व्यक्ति को अमृत मिले और उसकी आग भी बुझ जाए. क्षमा को पानी की उपमा दी गई है. शीतल फल जैसा. ऐसी सुन्दर मधुर वाणी यदि आपके पास में हो तो सामने वाले व्यक्ति की क्रोधाग्नि को बुझा सकता है. उसके अन्तर में जो क्रोध की भट्टी जल रही है, वह बुझ जाए. उसकी भी समत्व के अन्दर उपस्थिति हो जाए. उसका समत्व सारे जगत के लिए कल्याणकारी बन जाए. यहां पर सूत्रकार ने यह निर्देश दिया है:
“सर्वत्र निन्दासत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषु।"
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%-गुरुवाणी
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कभी इस प्रकार का गलत कार्य नहीं करना. पर निन्दा में कभी जाना नहीं. कभी साधु पुरुषों के विषय में गलत बोलना नहीं. अपनी साधुता चली जायेगी. अपनी सज्जनता चली जायेगी. बिना कारण आत्मा कलेश का पात्र बन जायेगी. ऐसे क्लेश में कभी निमित्त नहीं बनना.
बड़े से बड़े व्यक्तियों में भी ऐसा रोग है. पंडितों से लगाकर मूर्ख तक व्यापक है. यह वायरस बड़ा खतरनाक है. किसी कारण से प्रदूषण को लेकर कोई वायरस की बीमारी आ जाए तो एक बार आपके शरीर को नष्ट करेगी. फिर से आप शरीर प्राप्त कर लेंगे, जीवन प्राप्त कर लेंगे.
निन्दा का यदि वायरस आ गया, तो यह अनेक जन्मों की प्रक्रिया, वैर की प्रक्रिया जीवित रहेगी. आप मरते रहें परन्तु आपका वैर अन्दर जीवित रहेगा. वह वैर की परम्परा कटता को जीवित रखने वाला सबसे भयंकर वायरस है - परनिन्दा.
यहां इसका निर्देश है, साधना के क्षेत्र में, परनिन्दा को कैन्सर माना है. एक बार यदि व्यक्ति कैंसर से ग्रसित बन जाए. ऐसी असाध्य बीमारी है. उससे बचना फिर संभव नहीं होता. लाखों में एक व्यक्ति बच पाता है. कोई पण्य बल से. बाकी तो सभी समझ लेते हैं कि नोटिस आ चुका हैं, दिन गिनो.
परनिन्दा को साधना के क्षेत्र में कैन्सर माना गया, और यह बीमारी आपके अन्दर एक बार भी आ गई, इसका इलाज बहुत मुश्किल है. इस बीमारी से बचने का उपाय करें कैसे बोलना? क्या बोलना? इसका विवेक अपने अन्दर होना चाहिए.
प्रकृति ने आपको बड़ी सुन्दर व्यवस्था दी है. मैंने एक बार कहा भी था, आपको शायद याद भी होगा. हमारे शरीर के अन्दर शारीरिक रचना इस प्रकार की है. प्रकृति ने पहले से इसकी व्यवस्था इस तरह से की. आपके दो आंख, दो कान, दो नाक, दो हाथ, दो पांव. कहीं कोई द्वार नहीं. किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं. देखा आपने आंख इतनी कोमल है. परन्तु इसके रक्षण के लिए मात्र एक चमड़े का हलका सा पर्दा. कान के अन्दर कोई पर्दा नहीं. नाक के अन्दर कोई दीवार नहीं. सब अन्दर तक चले जाते हैं, कोई भय ही नहीं.
आपने कभी यह विचार किया इस जीभ के लिए कैसी व्यवस्था है. होंठ का दरवाजा दिया, अन्दर बत्तीस गार्डस् बैठा गए और उसके अन्दर में जीभ रखी गई. बहुत समझ करके मुझे बोलना है, बहुत विचारपूर्वक बोलना है.
विद्वान और मूर्ख में अन्तर कुछ नहीं होता. विद्वान समझ कर, विचारपूर्वक सोचकर बोलते हैं और मूर्ख बोलने के बाद सोचते हैं. और कोई अन्तर नहीं.
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गुरुवाणी
"बोली बोल अमोल है बोल सके तो बोल । पहले मन में तोल के पीछे मुख से बोल ||”
कवियों ने बड़ा सुन्दर चिन्तन दिया. अगर आप विचारपूर्वक तोल करके शब्द का प्रयोग करेंगे, तो शब्द का व्यापार आपको लाभ देने वाला होगा. आत्म-सन्तोष और आत्म-तृप्ति देने वाला होगा.
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परन्तु वहां विवेक अगर चूक गए तो उसका परिणाम संघर्ष होगा. क्लेश का कारण बनेगा. कैसे बोलना है, उसका विवेक पहले अपने में आना चाहिए.
ये शब्द ऐसे हैं, जो बड़े मूल्यवान हैं. कई आत्माओं को जागृत करने में शब्द सहायक बनते हैं. ये शब्द क्या हैं? एक प्रकार के प्रहार हैं. आपकी आत्मा पर एक प्रकार की चोट हैं. प्रवचन क्या है ? प्रवचन प्रहार है. आपकी अन्तरात्मा को चोट दे जाता है. आपको जगा जाता है. आपका विवेक जागृत हो जाए, जो सुषुप्त दशा में है. उस चेतना को जागृत करने के लिए शब्द की मार है.
सन्त शब्दों के द्वारा आपको जागृत करते हैं. और कुछ नहीं. जीवन क्या है ? जब ऐसा विचार करिए. बाज़ार के अन्दर में आप जाइये. जीवन एक चद्दर है. स्टील के सीटस् आते हैं. वे लम्बी चद्दर आदि आप लेकर के आ जाते हैं. यदि आप तालाब में, गंगा में जा करके डालें तो सीट्स डूबेगी या तैरेगी ? डूब जाएगी. परन्तु उसी स्टील को यदि आपने फैक्टरी में भेजा. बर्तन बन निकले किसी फैक्टरी में वहां पर यदि उसका उपचार किया जाए. प्रयोग किया जाए. तो आकार देने से पहले क्या किया जाता है. माप पूर्वक उसको काट किया जाता है. कटिंग मशीन में जाता है. उसके बाद ऐसा हैवी प्रेशर दिया जाता है. उस दबाव के कारण वह बर्तन का आकार ले लेता है. भगोना बन जाता है, तपेला बन जाता है. लोटा बन जाता है. इतना भयंकर उसको प्रेशर दिया जाता है, वज़न से दबकर के चोट से वह आकार ले लेता है.
यदि एक बार सीट में से आकार पैदा हो गया, फिर यदि आप गंगा में, जमुना में डालें वह डूबेगा, नहीं. वही चीज़ है, मात्र उसको आकार मिल गया. वही प्लेन सीट यदि आप डालते हैं तो डूब जाती है, उसे यदि चोट पहुंचा कर आपने आकार दे दिया तो आकार का चमत्कार, डूबेगा नहीं, फिर तैरेगा.
यह जीवन परमात्मा की कृपा से, पूर्व के पुण्य से वर्तमान में आपको मिला. यहां मेरा काम कुछ नहीं. यह धर्म स्थान है, यह तो फैक्टरी है. आध्यात्मिक साधना के लिए एक ऐसी फैक्टरी है. शब्द की मार पड़ती है. वज़न पड़ता है. प्रवचन का हैवी प्रेशर पड़ता है. उससे इस जीवन के आचार का आकार आपके जीवन में आ जाए. उसका चमत्कार कि यह संसार सागर में फिर नहीं डूबेगा. तैरेगा. हम डूबने के लिए पैदा नहीं हुए, तैरने के लिए यहां आए हैं.
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-गुरुवाणी
एक बार आपको यह आकार तो प्राप्त कर लेना है, यहां तो जीवन को आकार देने की क्रिया होती है. प्रवचन का प्रहार इसीलिए किया जाता है. अन्तरात्मा के अन्दर इस प्रकार का आचार प्रकट हो जाए. ऐसा प्रेशर दिया जाता है प्रवचन के द्वारा. जीवन कुंभ की तरह आकार प्राप्त कर ले. वह संसार में डूबे नहीं परन्तु तैरने लग जाए.
तैरना एक कला है. डूबने में कोई कला नहीं, आचार सम्पन्न व्यक्ति कभी संसार में नहीं डूबता. जो व्यक्ति सम्यक् श्रद्धा से संपन्न हो. शील से सम्पन्न हो, अपने आचार में जागृत हो, वह कभी संसार-समुद्र में डूबेगा नहीं, वह तैरेगा.
आप देख लीजिए, वाणी में यह विवेक का अनुशासन आवश्यक माना गया. शारीरिक रचना के अन्दर भी आप देखिए, कहीं किसी तरह का प्रतिबन्ध आंख के लिए नहीं, कान के लिए नहीं, किसी भी जगह कोई प्रतिबन्ध नहीं. आपकी जबान पर कैसा प्रतिबन्ध लगाया है. बत्तीस-बत्तीस गार्डस् रखे गए. कहीं ऐसी सुरक्षा नहीं है. आंख के लिए भी नहीं है. ___ जब से आप बोलना सीखे, तब से ये आने लगे. जहां तक आपको बोलना नहीं आया बाल्य अवस्था, निर्दोष अवस्था थी. ईश्वर का प्रतीक माना गया. बालक का हृदय तो निष्कपट होता है. एक भी दांत नहीं था. क्यों? खतरा ही नहीं. जब खतरा होता है, तब एक-एक गार्डस् बुलाये जाते हैं. जैसे-जैसे खतरा बढ़ता गया आत्मा की सारी पवित्रता जब चली गई, तब जाकर के बत्तीस के बत्तीस गार्डस् आकर के बैठ गए.
दांत ने एक दिन वार्निंग दी जीभ को. अगर बोलने में जरा तुम चूक गए तो जानते हो कुचल डालेंगे. धारदार हैं, तीक्ष्ण हैं, तुम्हारे रक्षण के लिए आए हैं. तुम इसका गलत उपयोग न करो. प्रकृति ने हमें भेजा है.
जीभ ने जवाब दिया. तुम मेरे पड़ोस में रहते हो. शत्रुता से कभी शत्रुता शान्त होती नहीं. मित्रवत् व्यवहार रखना पड़ता है. मेरे पड़ोस में रहते हो और तुमने आज पहली बार जुबान चलाई. और मुझे नोटिस दिया. तुम मेरा जवाब सुन लो. दूसरी बार यदि ऐसी भूल करोगे तो उसका परिणाम क्या आएगा? याद रखना. बाजार में ज़रा-सा ओंधा बोल गए तो बत्तीसी बाहर आ जाएगी. उस दिन से ये दांत चुप हैं कि इसको छेड़ना नहीं बड़ी खतरनाक है.
कभी आपके साथ दुश्मनी की दांत ने. कभी इसे कष्ट पहुंचाया? कभी घायल किया? कभी यदि भूल से जीभ को चोट लग गई तो दांत को कितना पश्चाताप हुआ होगा. इसे आप सोचकर के चलना. आपके हाथ दो, कान दो, पर जीभ को देखा आपने. पावर कैसा? डिपार्टमैंन्ट कितना पावरफुल है इसके पास, दोनों महत्त्वपूर्ण विभाग हैं – फूडसप्लाई और ब्रोडकास्ट,
यह मिनिस्टरी बड़ी पावरफुल होती है. सारा व्यवहार आपकी वाणी से चलता है. शरीर आपके आहार से चलता है. बिना वाणी के आपका व्यवहार नहीं चलेगा, व्यापार नहीं चलेगा.
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-गुरुवाणी:
जगत् का सारा व्यवहार बन्द हो जायेगा. यदि आहार नहीं लिया गया तो शरीर बन्द हो जाएगा. सारी प्रक्रिया खत्म हो जाएगी. दोनों महत्त्वपूर्ण विभाग हाथ में हैं.
यह आप विचार लेना. कैसी इसकी हम सेवा करते हैं. आज का एक माडर्न फैशन है. व्यक्ति का एक मापदण्ड है. जगत का एक ऐसा गलत व्यवहार बन गया है. स्टेट्स सिंबल. प्रतिष्ठा का एक प्रतीक बन गया. मेरा फैमिली वकील, मेरा फैमिली डाक्टर. बड़े गर्व से कहते हैं. अपने दोष को छुपाने के लिए कमजोरियों को ढांकने के लिए, व्यक्ति नशे में बोलता है. उसे नहीं मालूम कि मैं अपनी कमजोरी प्रकट कर रहा हूं.
यह मेरा फैमिली डाक्टर, यह मेरा फैमिली वकील है. बोलते हैं कि नहीं? यह क्यों रखना पडता है? कारण समझ गए? झूठ बोलते हैं, तब वकील रखना पड़ा. गलत खाते हैं, तब आपको डाक्टर रखना पड़ा.
यह कोई प्रतिष्ठा का प्रतीक नहीं. यह तो अपने जीवन के अपमान का परिचय है. मैं क्या गलत कर रहा हूं? आप लोगों को ढोल पीटकर बता देते हैं. ___ गलत खाएंगे, जीभ के लिए खाएंगे तो परिणाम यह आएगा. पेट के लिए खाएं, तो कोई बीमारी न आए. यह आप जीभ के लिए खाना शुरू कर देते हैं. तब यह तमाशा होता है. जीभ का काम क्या है? कमीशन एजेन्ट. दलाल, ये सेठ आत्मा राम भाई की इतनी बड़ी पीढ़ी. इसके अन्दर दलाल जीभ है. यदि आप यहां पर पीढ़ी चलाते हो, लाखों करोड़ों रुपयों का व्यापार करते हों. यदि आप दलाल के भरोसे सौंप दो कि माल लाया करो. बाजार देखे नहीं, भाव देखे नहीं, अपनी कपैसिटी देखे नहीं और माल लिया करें. तो दलाल को क्या, चाहे सेठ दिवाली मनाये या दिवाला निकले, उसे तो अपने कमीशन से मतलब.
समझ गए! ये सेठ आत्मा राम भाई का दलाल उसे क्या मतलब कि आत्मा दुर्गति में जाए, नरक में जाये या स्वर्ग में जाए. उसे अपनी दलाली कमीशन चाहिए.
आर्डर छूटा कि ये बहुत अच्छी चीज़ है, बाजार में खाओ. चाहे तो गलत हो आपकी शारीरिक दृष्टि से हानिकारक हो, आप तो इसे कमीशन देंगे. और इसका कमीशन तो चार इंच में काट लेता है. जीभ के अन्दर. क्योंकि स्वाद ग्रहण करने के जो तत्त्व थे, वे मात्र आपकी जीभ में हैं.
आत्मा राम भाई को क्या चाहिए? इस भोजन के अन्दर. दो रोटी और दाल, इससे ये गोडाउन भर जाता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए, इस शरीर के निर्वाह में. परन्तु दलाल को कमीशन मिलता है. ये भी लाओ वो भी लाओ. कमीशन काटा, माल अन्दर सप्लाई. जीभ से नीचे उतरते ही कोई स्वाद नहीं, उसका कोई आनन्द नहीं.
स्वाद सिर्फ चार अंगुल तक है, जहां तक कमीशन नहीं मिला, वहां तक आप को आनन्द देता है. पागल बना के रखता है. आपको नशे में रखता है. और लूट लेता है.
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-गुरुवाणी:
हमारी पूरी पीढ़ी हमने जीभ के भरोसे सौंप कर रखी है. इसी लिए आप को फैमिली डाक्टर रखना पड़ता है.
कोई जमाना था, मोहल्ले के अन्दर कोई एक डाक्टर भी आ जाए पूरा मोहल्ला इकट्टा हो जाता कि ये कहां से आया. यमराज का प्रतिनिधि कैसे आया. लोग घबराते. मकान के अन्दर, पूरा मोहल्ला आता. क्या हुआ? लोगों में इतनी प्रेम भावना थी, मेरे पड़ोसी को क्या हुआ? कि डाक्टर बुलाना पड़ा. गांव में कोई डॉक्टर नहीं मिलता. आहार विहार का पथ्य पालते, यही सबसे बड़ी औषधि. बहुत ज्यादा तकलीफ हुई तो उपवास कर लेते. आयुर्वेद के अन्दर बड़ा सुन्दर सिद्धान्त है. ___ "लंघनं पथ्यौषधम्" सबसे बड़ी दवा है लंघन याने, उपवास इससे बढ़कर के जगत् में कोई दवा है ही नहीं. सारे विकार खत्म हो जाएं. परन्तु वह हमको करना नहीं. दवा भी चाहिए, पेट तो रोज भरना है. बिना खाली किए, साफ किए इसमें शुद्धता आएगी कहां से? ___ आयुर्वेद का सिद्धान्त धार्मिक सिद्धान्त भी है कि अशुभ कर्म जो आ जाए धार्मिक दृष्टि से. यदि उस समय उपवास की मंगल भावना आ जाए. भावना कर्म का प्रतिकार करती है. दूषित तत्व का निवारण करती हैं, शरीर के विकारों का भी उपशमन करती है. सारे शरीर की प्रक्रिया शुद्ध हो जाती है, परन्तु हमारी आदत उपवास नहीं करना.
हमारे पूर्वज उपवास की औषधि का सेवन करते. सर्दी आ गई, बुखार आ गया, शरीर अगर घुट रहा है, ज्वर से यदि क्लान्त हैं. ज्वर से पीड़ित हैं तो सुबह क्या करते, वह जानते थे. शत्र और मित्र की पहचान उनको बडी सन्दर थी. मेरी साधना के अन्दर शत्र बनकर के बीमारी आई है. मेरी साधना में रुकावट पहंचाएगी. मेरी आराधना को खंडित करेगी. प्रमाद लेकर के आएगी. मेरे आरोग्य को भी नुकसान पहुंचाएगी. ___ शरीर तो धर्म साधना का साधन है. इसे सुरक्षित रखना है. धर्म क्रिया इसके द्वारा होती है. क्या करते? जाने, मेरा दुश्मन मेहमान हो गया. दुश्मन कभी आमन्त्रण से नहीं आते. वे तो बिना बुलाए आते हैं. यह कर्म है बीमारी के रूप में मेरे अन्दर आया.
सुबह उठते ही यदि शरीर टूटता है, बुखार सा लगता है, सर्दी जुकाम हुआ है, क्या करते? उपवास. चलो आज इसके द्वारा, इस निमित्त से, मेरा उपवास तो हुआ. तप की आराधना करते. ध्यान में बैठ जाते प्रभु का स्मरण करते. ईश्वर का स्मरण करते. कि चलो आज दुकान के पाप से बचा, झूठ बोलने से बचा. चोरी से बचा. न जाने कितने पाप और अनर्थ से आज मेरा रक्षण हुआ. इस दुश्मन का बड़ा भारी उपकार, बड़ा एहसान. इसने आकर मेरे ऊपर उपकार की वर्षा की. ऐसी मंगल भावना रखते. सामायिक में बैठ जाते. अपनी साधना में बैठते. संपूर्ण संसार का त्याग करके. मन से साधु बन कर के बैठते. यह बड़ी समझने की बात है. आने वाला दुश्मन यह सोचता कि मुझे अब खाना
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गुरुवाणी:
मिलेगा. विश्रान्ति मिलेगी परन्तु वह तो साधना का श्रम और कहा जाओ. मैं तुम्हारा स्वागत साधना से करवाता हूं. खाना बन्द,
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आपके घर में यदि कोई मेहमान आ जाए. आप चाहे पानी को न पूछो, भोजन के समय भी आप हवा खाओ. शाम के समय भी आप अंगूठा बताओ. वह मेहमान कहां तक टिकेगा. थक जाएगा. दस बज गए, बारह बज गए, कोई पता नहीं चाय नहीं, पानी नहीं. कुछ भी नहीं. आहार का त्याग, पानी का त्याग करके वे तो ध्यान में बैठ गए. विश्रान्ति भी नहीं आने वाली बीमारी सोचने लग जाती है यहां कोई स्वागत नहीं. सद्भाव नहीं, कुछ भी नहीं. मैं आया, मुझे कोई पूछने वाला नहीं तो एक दिन के अन्दर सब भाग जायें, दूसरे दिन वहां आने का नाम भी न लें.
यह सारी प्रक्रिया तो हम भूल गए. अब तो हम ऐसा व्यवहार करते दुश्मन के साथ जो आत्मा का शत्रु माना गया. कर्म वह यदि बीमारी के रूप में आ जाए, सुबह उठते ही यदि आपका शरीर टूटे, यदि सर्दी खांसी जुकाम आ जाए, जरा टेम्परेचर हाई हो जाये. क्या करते हैं? तुरन्त टेलीफोन से डॉक्टर को बुलाते हैं.
फैमिली डॉक्टर बुलाया गया है. सारे पुत्र-बेटियां आदि को बुलाते हैं कि आओ जैसे कि कोई बड़ा चीफ गेस्ट जैसा आया हो पूरा परिवार इकट्ठा हो जाता है, क्या हुआ ? कैसे हुआ 1 ? इनके स्वागत की तैयारी डॉक्टर आकर के देखकर के गया. कैप्सूल दे दिया गया. चार बार दवा लेना. यू टेक कम्पलीट रेस्ट, पूरा विश्राम इतने बड़े मेहमान आए. इनको छोड़ कर क्या मैं दुकान जाऊं, उनकी सेवा में पूरे दिन मुझे यहां हाजिर रहना है. डॉक्टर एडवाइज़ देकर के आएगा. आज ऑर्डिनरी खाना खुराक नहीं चलेगा. दाल-भात, रोटी-साग, जो रोज खाते हो, ये चीफ गेस्ट हैं. यू टेक ओनली लिक्विड फ्रूट जूस, टी, अन्ड कॉफी.
दिन में चार बार मौसमी का रस, दिन में दो बार चाय लो, कॉफी लो. बहुत अच्छा रहेगा. आने वाला मेहमान देखता है, बहुत अच्छा बेवकूफ मिला दस-पांच दिन भी रहो, काहे को जाना.
उपवास करें तो एक दिन में भाग जाए परन्तु स्वागत आप ऐसा करते हैं, आने वाला मेहमान दस दिन टिकता है. आखिर डाक्टर को भी वही रास्ता लेना पड़ता है. कहना पड़ता है कि आप बन्द करिए.
मेरी बात समझ गए. यह सब जीभ का उलझन है. आपका अंकुश यहां कुछ भी नहीं है. जीवन पर्यंत हम जीभ के गुलाम बनकर के रहते हैं. ये खिलाओ, वो खिलाओ, वो अपना कमीशन काटता है. आप दिवाली मनाओ कि दिवाला निकालो, उसे क्या मतलब.
आहार का संयम सबसे पहले चाहिए. आहार पूर्ण सात्विक होना चाहिए. तभी सात्विक विचार आएंगे. आहार यदि दूषित है तो आहार का परमाणु आपके विचार को दूषित करता है. वह परमाणु विचार परमाणुओं को दूषित करता है और वैसे विचार आपके आएंगे.
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-गुरुवाणी:
आप नशा लेते हैं आपके विचार कितने डगमगाने लगते हैं. शराब पीकर के मदहोश बनकर के आएं. विचार तो वहीं के वहीं पर लड़खड़ाने लग जाएंगे. आप गलत बोलने लग जाएंगे. आपके विचार में गलत तत्त्व बाहर आने लग जाएंगे. आहार का इतना जल्दी असर पड़ता है आप शराब पीकर देखिए घण्टे भर में आपको नचा देगी. _वह परमाणु तुरन्त आपके विचार को प्रभावित करेगा. जब एक मादक पदार्थ, एक प्रकार का व्यसन और उसका सेवन भी आपके विचार को खंडित कर देता है, दूषित कर देता है. यदि प्रतिदिन इस प्रकार अशुद्ध आहार, तामसी आहार करेंगे, उसका परिणाम आपके विचार पर कैसा पड़ेगा? साधना के क्षेत्र में वह प्रभाव कितना भयंकर नुकसान पहुंचाएगा? वह कभी मन में शुद्ध वातावरण निर्मित नहीं होने देगा. खंडित करेगा.
इसीलिए गीता में तीन प्रकार का आहार बतलाया गया. शुद्ध सात्विक आहार-जो साधना को सहयोग देने वाला साधना को सफलता प्रदान करने वाला. श्री कृष्ण की दृष्टि में जो गीता में कहा बिल्कुल सत्य है, यथार्थ है, सात्विक आहार चाहिए, सत्वगुणों वाला.
एक राजसिक होता है. विषय और कषाय को उत्तेजित करने वाला होता है. विषय की पुष्टि के लिए बहुत सुन्दर स्वादिष्ट भोजन, पकवान. प्रतिदिन उसका सेवन आपके जीवन को बरबाद कर देगा.
मसी आहार उससे भी भयंकर. मद्य, मांस का सेवन, अखाद्य का सेवन. ये हमारे यहां निषेध इसलिये किया कि लहसुन है, प्याज है, ये बड़े खराब पदार्थ हैं. उत्तेजित करने वाले हैं. सत्वगुण को नष्ट करने वाले हैं. अनेक जीवों की विराधना वहां पर होने की संभावना है. इसलिए इसका आध्यात्मिक क्षेत्र में निषेध किया गया. आपकी सात्विकता को कायम रखने के लिए. आप विचार कर लेना कि यह जीभ कितनी खतरनाक है.
दोनों विभाग इसके पास बड़े खतरनाक हैं. पहले आपका अनुशासन यहीं पर कायम होना चाहिए. पाप का प्रवेश पहले यहीं से होता है. कटुता और वैर का जन्म आपकी जुबान से होता है, क्योंकि वाणी पर विवेक नहीं रहा. उसका मूल कारण आपके आहार पर आपका कोई नियंत्रण नहीं.
पहले तो आहार का नियंत्रण. कैसा आहार करना, किस प्रकार करना. जिससे आपका आरोग्य सुरक्षित रहे और मन का आरोग्य भी सुन्दर रहे. विचार भी सुन्दर, स्वस्थ हो. जहां आरोग्य होगा, वहां विचार भी सुन्दर स्वस्थ होंगे. यदि आपका तन स्वस्थ है तो मन भी स्वस्थ रहेगा. मन का आरोग्य भी मिलेगा. पर उसकी चाबी है - शुद्ध सात्विक आहार. परिमित आहार.
यहां उस वाणी में कैसे नियन्त्रण लाया जाए, हर व्यक्ति को अपना वकील रखना पड़ता है क्योंकि झूठ बोलना है. उसके बचाव के लिए वकील का आश्रय चाहिए. झूठ
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%Dगुरुवाणी
हमेशा वकील के पांव से ही चलता है. उसके पास चलने के लिए शक्ति नहीं है, शक्ति का अभाव है.
यह एक प्रकार का प्रतीक बन गया, फैमिली वकील, फैमिली डाक्टर. मैं आपको कहता हूं फैमिली साधु भी रखिए. जहां जाकर के हृदय खोलकर के पाप प्रकाशन कर सकें. आत्मा के आरोग्य को पा सकें.
डॉक्टर से कितना सच बोलते हैं. वहां अगर झुठ बोलें तो सही दवा मिलेगी? सब सच बोलना पड़ता है डॉक्टर के पास, सांप कितना ही टेढ़ा चले परन्तु बिल के आगे सीधा ही चलना पड़ता है. __जैसे ही डॉक्टर के यहां गए, हृदय खोलकर के पाप प्रकट कर देंगे. डाक्टर साहब, मैंने यह नशा लिया, ड्रग्स लिया, गलत काम किया, दुराचार किया और इस बीमारी से घिर गया. आप मुझे बचाओ.
सच बोलना पडता है, तब वह सही निदान करके आपकी औषधि करता है, बराबर यही काम हमारे यहां होता है. ईसाइयों में आपने देखा कन्फैशन करते हैं. पादरी के पास जा करके हृदय खोलकर पाप प्रकट करते हैं. हमारे यहां भी यह प्रक्रिया है.
"गुरु जोगो आलोयणा, निन्दिय गरहीय गुरु सगासे" यह तो अतिचार सूत्र है, प्रतिक्रमण में बोलते हैं. उसका अर्थ क्या? अपने पाप को गुरु के सामने निवेदन करें, पाप का पश्चाताप करें. पाप नहीं करने का संकल्प करें. जो प्रमाद या भूल से पाप हो गया, उसका प्रायश्चित लें और आत्म शुद्धि करें.
यहां से प्रक्रिया बतलाई, अगर आपका फैमिली साधु होगा, कल्याणकारी मित्र होगा. बिना फीस लिए आपका इलाज करेगा. मार्गदर्शन देगा. हृदय खोलकर के आप प्रकट करेंगे तो उसका उपाय बतलाएगा, बचने का उपाय बतलाएगा. पाप की शुद्धि के लिए प्रायश्चित आपको देगा. हमेशा आपकी आत्मा का वह सतत् रक्षण करेगा. क्योंकि कल्याण मित्र है. उसकी दृष्टि आपके पाकेट पर नहीं, आपकी आत्मा पर है. ___ बाहर से आप कितना भी मित्र बनाएं. मित्र की दृष्टि आपकी पाकेट पर अटकेगी. वह कभी अन्तर हृदय को स्पर्श नहीं करेगी. ऐसे मित्रों से क्या काम. कवि ने कहा
"मित्र ऐसा कीजिए, जो ढाल सरीखा होय। __ मित्र कैसा चाहिए. पहले के जमाने में युद्ध में जाते. ढाल लेकर जाते. जो शारीरिक रक्षण के काम में आता है. वार को रोकता है. तलवार की धार सहन करता है. परन्तु शान्ति के समय कहां रखा जाता है? पीठ के पीछे. कभी महाराणा छत्रपति की तस्वीर देखी है? पीठ के पीछे ढाल होता है. ____ जो सच्चा मित्र है, परोपकारी है. आपकी आत्मा की तरफ दृष्टि रखकर चलने वाला जो मित्र होगा. आत्म-कल्याण के हित से जो आपका मित्र होगा. वह कैसा? आप जब
जाल
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-गुरुवाणी
%3
सुखी हों, आनन्द में हों, तब पीठ के पीछे रहेगा. कभी आगे आने का प्रयास नहीं करेगा | आपको सुखी अवस्था में देखकर आनन्द में रहेगा.
साधु का जीवन ही ऐसा होता है कल्याण मित्र की तरह, हमारा मित्र गृहस्थ में प्रसन्न है, आत्मा की साधना में मग्न है. बड़ा आत्म-सन्तोष मिलेगा. वह आपकी सुखी अवस्था में पीछे रहेंगे. वह कभी आगे आने का, आपसे फायदा उठाने का प्रयास नहीं करेंगे. कोई गलत फायदा नहीं लेंगे. परन्तु जब युद्ध का समय होता है, जब तलवार भाले बरछे चलते हैं और सामने यदि गोली बारी चलती हो तो ढाल क्या काम आता है? कहां ओटना है? पीछे से निकलकर आगे आता है. तलवार का घाव स्वयं सहन करता है, अपने मित्र को बचाने के लिए.
मित्र ऐसा चाहिए जब कर्म के आगमन का समय हो, सामने आकर खड़ा रहे. आपका रक्षण करे. आपको दुर्गति में जाने से बचाए. ऐसी मित्रता को ही यहां स्वीकार किया है. तो ऐसे समय जब दुर्विचार का आक्रमण हो, तब साधु आपके रक्षण के लिए आते हैं. सामने आकर खड़े हो जाते हैं. बचाव करते हैं. आपमें संकल्प जागृत करते हैं. आपके अन्दर विवेक दृष्टि खोलते हैं. प्रवचनों के द्वारा आपके उपयोग और विवेक को जगाते हैं. गर्जना करके आपके हृदय की भावनाओं को उपस्थित करते हैं. यह काम साधु पुरुषों का है.
निष्काम भावना से एकान्त जगत के प्राणीमात्र के कल्याण के लिए उनकी कामना होती है? कोई स्वार्थ नहीं. पर जगत में ऐसा कोई मित्र नहीं मिला.
इसीलिए यहां पर कहा कि ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे? कहां तक वकील का आश्रय लेंगे? लेने की कोई जरूरत नहीं. सच बोलना कभी सीखना ही नहीं पड़ता. झूठ बोलना ही सीखना पड़ता है. यह आप याद रखना.
सर्वत्र निन्दासत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषु । उस महान पुरुष ने बड़ी गंभीरता पूर्वक यह सूत्र दिया है. कि संपूर्ण परनिन्दा का त्याग. बड़ा स्वाद आता है परनिन्दा में बोलते समय पानी पकौड़ी खाते हैं, चाट खाते हैं, उससे भी ज्यादा स्वाद इसमें मिलता है. जितनी बार बोलो, उतनी बार नया स्वाद मिलता है. उसका एक बार मिलेगा, इसमें तो अनेक बार मिलेगा. बड़ा आनन्द आता है.
परन्तु यह नहीं सोचता कि आगामी भव के अन्दर जीभ मिलेगी नहीं. भगवती सत्र में परमात्मा महावीर ने कहा - अपने शिष्य गौतम से. हे गौतम! जो व्यक्ति अपनी जिस इन्द्रियों का दुरुपयोग करेगा. भवान्तर में वे इन्द्रियां उसके लिए दुलभ होंगी. मिलेगी नहीं. आंख का दुरुपयोग किया. अन्धापन आएगा. कान का दुरुपयोग किया - बहरापन मिलेगा. जीभ का दुरुपयोग किया तो गूंगे बनोगे. जीभ मिलेगी ही नहीं. आप विचार कर लेना. कि प्राकृतिक वस्तु.का कभी दुरुपयोग नहीं करना. यदि दुरुपयोग किया. असत्य, परनिन्दा में, परकथा में, विकथा के अन्दर ये जीभ मिलने वाली नहीं.
Maay
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3-गुरुवाणी:
बहुत समझ करके इन्द्रियों का उपयोग करना. ये प्रकृति ने वरदान दिया है. परमात्मा के स्मरण के लिए दिया है. यदि आपने इसका दुरुपयोग किया तो हमारे जैसा कोई दुर्भागी. आपको नहीं मिलेगा, कैसे बोलना है, क्या बोलना, यह सीखने की बात है.
वचन रत्न मुख कोठड़ी, चुपकर दीजे ताल;
ग्राहक होय तो दीजिए वाणी वचन रसाल।। कवि ने कितनी सुन्दर बात कही. आप यहां जौहरी बाजार में जाइये. सोना चांदी का जो काम करते है. सराफों के यहां जाइये, वे क्या तिजोरी से बाहर निकालकर प्रदर्शनी में रखते हैं. कोई जवाहारात, कोई ज्वेलरी, कभी रखते हैं? सामान दिखाने के लिए बाहर नमूना रहता हैं. बहुत कीमती बहुत मूल्यवान सामान तिजोरी में बन्द रहता है, परन्तु कब दिखाया जाता है. उसके योग्य कोई पात्र आ जाए. ग्राहक आ जाए. तब जाकर तिजोरी खोली जाती है. ग्राहक को माल दिखाया और वापिस माल अन्दर रखते हैं. बराबर ज्ञानियों ने कहा है:
वचन रत्न मुख कोठड़ी, चुप कर दीजै ताल। शब्द क्या हैं? ये तो अमूल्य रत्न जैसे हैं, कोहिनूर हीरे जैसे हैं. बहुत मूल्यवान शब्द हैं. कहां रखना मुखरूपी कोठरी में, तिजोरी में और छुपा कर ताला लगाकर रखना.
ग्राहक हो तो दीजिए वाणी वचन रसाल। यदि कोई ग्राहक आ जाए, योग्य पात्र आ जाए, तो शब्द को देना, वाणी का व्यापार करना. प्रेम और सदभाव की पूंजी कमा लेना. नफा ले लेना और वापिस चुप का ताला लगाकर बैठ जाना. ऐसे जीवन का व्यापार किया जाता है.
कुपात्र को कभी उपदेश नहीं दिया जाता. भगवान महावीर के साथ वर्षों तक गौशाला रहा. परमात्मा ने कभी उपदेश दिया. आपने सुना होगा कल्प सूत्र में सारा प्रसंग भगवान महावीर का उसमें गौशाले के साथ का वर्णन आता है. कभी गौशाला को उपदेश दिया. चण्ड कौशिक को उपदेश देने परमात्मा वहां चल करके गए. बिना आमन्त्रण उसके बिल तक गए. चण्ड कौशिक ने बुलाया नहीं था. कि भगवान मेरे द्वार पर आओ. और मुझे उपदेश दो. वहां छद्मस्थ काल के अन्दर परमात्मा ने उपदेश दिया. दो शब्द कहा उसे जागृत करने के लिए. ज्ञान से परमात्मा जानते थे मेरे निमित्त, से यह आत्मा जागृत हो जाएगी. एकान्त कल्याण की भावना से प्रभु वहा गए. __गौशाला सारा दिन परमात्मा के साथ रहता था. कभी प्रभु ने कहा? क्योंकि कुपात्र था. अयोग्य आत्माओं को कभी उपदेश नहीं दिया जाता. योग्यता और पात्रता देख कर उपदेश दिया जाता है. उत्तम खेत के अन्दर बीज बोया जाता है. पहाड़ों के अन्दर या रेगिस्तान में नहीं.
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-गुरुवाणी
उपदेशो ही मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।
पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम् ॥ । कवि कालिदास ने कहा --- उपदेश योग्य आदमियों को दिया जाता है. सांप को दूध पिलाइये, जहर पैदा करेगा. मूर्ख को यदि आपने उपदेश दिया, क्रोध उत्पन्न करेगा. आपके प्रति शत्रुता पैदा करेगा. हमारे मारवाड़ी में बड़ी सुन्दर बात है. मैं तो कई बार कहा करता हूं. आपने सुना भी होगाः
ज्ञानी को गुरू अज्ञानी का दास ॥
थे उपाड़ी लाकड़ी तो मैं उपाड़ी घास ॥ यह मारवाड़ी कहावत है. मैं ज्ञानियों का गुरु हूं. अज्ञानियों का तो दास हूं. क्योंकि अज्ञानियों के साथ आपका यह नम्रतापूर्वक व्यवहार नहीं कर सकते. वे उद्दण्ड हैं. अगर वे लकडी उठाए तो आप घास उठा लो. उसी में कल्याण है. मुकाबला कभी मत करना. अज्ञानियों से कभी शास्त्रार्थ नहीं करना.
जड़ता होती है, पकड़ होती है, पूर्वाग्रह होता हैं, उन आत्माओं के लिए उपदेश कोई उपयोगी नहीं रहता, कोई मूल्यवान नहीं रहता. ये तो अन्तर्वार खोलकर आएं, नम्रता लेकर के आएं. तो उसके अन्दर पात्रता आती है. तब पूर्णता मिलती है.
यहां पर परमात्मा ने यही कहा - वाणी के दोष का सर्वप्रः वारण कर लेना है. क्या बोलेंगे? कैसे बोलेंगे? भाषा के आठ गुण हैं. दशवैकालिक सूत्र के अन्दर भी प्रभ ने वाणी का विवेक बतलाया.
“अपुच्छियो न भासेज्जा भासमाणस्स अंतस,
पिट्टि मंस न खाएज्जा, माया मोसं विवज्जए। परमात्मा महावीर के मुख से निकले हुए ये शब्द हैं. कल इस पर मैं विवेचन करूंगा. यह तो बहुत समझने का है, क्योंकि विश्वव्यापी रोग है. अनादि काल से चला आया. यह क्रोनिक बन गया हैं. अब इसका ईलाज भी उसी प्रकार से किया जाना हैं. जब बीमारी क्रोनिक बन जाती है. बड़ी खतरनाक होती है.
यदि कोई दो चार टैबलेट्स दिया तो यह कोई ऐसी नहीं कि आपकी बीमारी को छुड़ा दे, यानि मुक्त कर दे. काफी उपचार करना पड़ेगा. बड़ा स्वाद आता हैं, आदत है, अनादिकालीन संस्कार है. एक बार नहीं अनेक बार करेंगे, भूल हो जाएगी. कैसे निकालें.
भगवान ने वाणी के प्रकार बतलाए कि भाषा किस प्रकार की होनी चाहिए. भाषा एक अपूर्व विज्ञान है. बहुत बड़ा चमत्कार है. शब्द के अन्दर वह जादू है. युद्ध में देखिए सेनापति की एक गर्जना होती है और कोई ऐसा त्यागी, देश का महान नेता बोलता है, उनके शब्दों का जादू कैसा? लोग अपने प्राण देने के लिए युद्ध में जाते हैं. अपनी गर्दन दे ।
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%3-गुरुवाणी
देते हैं. छाती खोलकर, सीना तानकर खड़े रहते हैं. गोलियों की बरसात में प्राण की आहुति दे देते हैं. शब्द में वह करामात है. ___ कई शब्द ऐसे होते हैं, अगर बाजार में बोल गए तो आपकी गर्दन अलग हो जाती है. एक सामान्य शब्द में भी अगर इतनी ताकत कि आपकी गर्दन अलग कर दे या सामने वाला व्यक्ति आपके लिए अपना प्राण दे दे, तो महामन्त्रों में कैसी ताकत होगी. भाषा के विवेक में क्या शक्ति होगी? वही तो देखना है. भाषा का विवेक मुझे चाहिए.
भगवान ने इसके आठ प्रकार बतलाए: स्तोकम् , मधुरम्, निपुणम्, कार्य पतितम्, अतुच्छम्, गर्व रहितम्, पूर्वसंकलितम्, और धर्म संयुक्तम्।
आठ हैं. उसमें सर्वप्रथम-स्तोकम में निर्देश दिया. भाषा बोलनी तो कैसे बोलनी. बहुत कम. साधना में मौन को प्राण माना है. हमारे यहां भी प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, सामायिक में क्या बोलते हैं. बड़ी सुन्दर प्रक्रिया है. यह ध्यान की प्रक्रिया है. पर ध्यान आएगा कैसे. मौन पूर्वक. मौन उसका आधारस्तम्भ है.
ठाणेणं मोणेणं झाणेणं। ये शब्द हैं प्राकृत में. एक स्थान पर मौन पूर्वक मैं ध्यान करता हूं. पहले झाणेणं नहीं आता, मोणेणं पहले आता है. मौन पूर्वक. विचारों का संयम रख करके परमात्मा का स्मरण करूंगा. मन से बिल्कुल मौन हो जाऊंगा. संसार से शून्य बन जाना वास्तिवक मौन है. काया में शून्य बनना यह काया का मौन है. तीनों प्रकार से मैं मौन को ग्रहण करता हूं. एक स्थान पर स्थिरता पूर्वक, बिल्कुल शब्द का व्यापार किए बिना हमारे यहां तो आत्मा का व्यापार चलता है. ध्यानपूर्वक परमात्मा का स्मरण करता हूं.
ध्यान से पहले मौन की भूमिका आनी चाहिए. सारी साधना को सफल बनाने का यही कारण. हमारे जितने आध्यात्मिक पुरुष हुए, उनके जीवन में आप देखेंगे, बहत कम बोलने वाले मिलेंगे. बकवास नहीं करेंगे. एक शब्द का भी गलत प्रयोग नहीं करेंगे..
महर्षि पातंजल योग दर्शन के रचयिता, बहुत बड़े विद्वान भारत के महान दार्शनिक ने क्या कहा. योग में प्रवेश करने से पहले सूचना दीः
वचनपातात्, वीर्यपातात्, गरियसी ॥ आज का मैडिकल साईंस भी इस बात को मानने लग गया. एक पाउंड दूध पीने के बाद शरीर को जो शक्ति मिलती है. एक शब्द बोलने में वह शक्ति क्षय हो जाती है, यह आज वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है. उन्होंने खोज की कि ऋषि मुनि ध्यान क्यों करते, थे? मौन क्यों रखते थे? वाणी का इतना संयम इतनी कंजूसी क्यों करते हैं? उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है? शारीरिक शक्ति क्षय होती है, वह न हो.
भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक मौन रखा. पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के बाद उपदेश ।
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-गुरुवाणी
दिया था. छदमस्थ पर्याय में मौन पूर्वक धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान में रहे. उसके बाद आत्मा जगत् की प्राप्ति हुई तब जगत् कल्याण के लिए बोले.
मौन का बड़ा महत्त्व है. मौन से चिन्तनबल, विचारबल बढ़ेगा, चिन्तन की गहराई मिलेगी.
हमारे एक महात्मा चातुर्मास में आए, आप जैसे सदभाव वाले व्यक्ति थे. बड़ा आग्रह किया. परन्तु मुनिराज ऐसे पवित्र थे, मौन रखते, भाषा का संयम. बोलते नहीं. उन्होंने पहले ही कह दिया मैं चार महीने मौन रखूगा. पर चला नहीं. लोगों ने आकर गड़बड़ी पैदा की. बहुत आग्रह किया कि आज चतुर्मासी चौदस है, आज तो चतुर्मास प्रारम्भ हो रहा है. दो अक्षर आप बोलिए. हम निर्दोष हो जाएं. साधु आचार तो है. उपदेश देना, यह साधुओं का कर्तव्य है. परन्तु मौन की भाषा में भी बहुत कुछ कहा जाता है.
भगवान महावीर निष्क्रिय नहीं रहे. साढ़े बारह वर्ष तक मौन की भाषा में जगत् को उपदेश दिया. उनके कार्य से, उनके चलने से, प्रत्येक क्रिया से लोगों को प्रेरणा मिली. मौन उनकी भाषा थी.
साधने कह दिया ठीक है यदि आपका इतना आग्रह है लिख करके दे दिया चतर्मासी चौदस पर मैं जरूर आऊंगा और संयोग बराबर चतुर्मासी चौदस को आए. आप जैसे भद्र लोग थे, आकर बैठे. महाराज ने मंगलाचरण किया. संघ का आग्रह कभी तिरस्कार किया नहीं जाता. हमेशा किसी की सद्भावना का आदर करना चाहिए. यह भी एक शिष्टाचार है. नहीं तो लोक विरुद्ध होगा. इस सूत्र में बतलाया गया. ऐसा लोक विरुद्ध कार्य नहीं करना जिससे अप्रीति उत्पन्न हो जाए. अभाव उत्पन्न हो जाए. बिना कारण मानसिक क्लेश का कारण बन जाए. ऐसा कार्य नहीं करना.
महाराज ने लोगों की सदभावना को देखकर के इतना ही कहा. पहला दिन था चतुर्मासी चौदस का. उस दिन उन्होंने यह कहा - एक प्रश्न किया, जितने भी लोग बैठे हैं, उनसे कहा कि भाई आपके आग्रह से मैं आया हूं. मुझे आज कुछ नहीं कहना है. मंगलाचरण के बाद एक प्रश्न पूछना है. यदि प्रश्न पूछने में उत्तर सन्तोषप्रद होगा तो मैं प्रवचन दूंगा, नहीं तो मौन रहूंगा.
लोगों ने कहा - बड़ी खुशी से पूछिए.
महाराज ने पूछा – आत्मा, परमात्मा और मोक्ष में आपका विश्वास है. सब लोग कहने लगे - महाराज क्या बात करते हैं? पूरा विश्वास है. सबने हाथ ऊँचा किया, बिना विश्वास के यहां आए कैसे? सब को विश्वास है. __ महाराज ने कहा - अब मुझे कुछ बोलना ही नहीं है, जो मुझे समझाना था, वह तो आपको आता है, जो विश्वास पैदा करना था, वह तो पहले से ही आता है. मैं बोलकर क्या समय नष्ट करूं, मेरा काम हो गया. सर्व मंगल कर दिया महाराज ने.
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गुरुवाणी:
लोगों ने कहा अच्छे बेवकूफ बने बराबर पर्युषण का समय आया. मध्य चतुर्मास का समय आया और लोगों ने बड़ा आग्रह किया कि महाराज महा मंगलकारी पर्युषण पर्व आया. कम से कम दो अक्षर तो आप बोलिए बहुत आग्रह था, महाराज ने स्वीकार किया. आए प्रेम का आग्रह था. प्रेम एक ऐसा बन्धन है बिना ताला और चाबी का महाराज आए बैठे. प्रवचन में मंगलाचरण किया और फिर वही प्रश्न उपस्थित किया.
साधुओं का घूम फिर करके यही सब्जैक्ट होगा. त्यागी पुरुषों का दूसरा कोई विषय नहीं होगा, यही सब्जेक्ट इसी वर्तुल में घूमना है. वही पूछा आत्मा परमात्मा और मोक्ष में आपका विश्वास है,
लोग पहले से ही रेडिमेड उत्तर लेकर आए. पहले बेवकूफ बन गए थे. जितने लोग बैठे थे कहा- महाराज बिल्कुल नहीं. अब तो महाराज बोलेंगे.
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महाराज ने कहा जो मुझे समझना था, वहां तो आप पहले ही खोज करके आ गए. वहां कुछ है ही नहीं, तो अब बिना पाये का मकान कहां बनाऊं आधारशिला ही नहीं है. श्रद्धा की भूमिका ही नहीं. ऐसे व्यक्ति जो मेरे से पहले ही अपनी यात्रा में जा करके और मोक्ष देखकर लौट आए. आत्मा की खोज करके आ भी गए कि वहां कुछ है ही नहीं. अब मैं क्या करूंगा बतला करके सर्व मंगल कर दिया महाराज ने
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भूमिका ही नहीं है, जानने की जिज्ञासा ही नहीं है. प्यास ही नहीं है. और जो मैं खोज रहा हूं, यात्री बनकर पहुंचा नहीं हूं पर विश्वासपूर्वक अपनी यात्रा में आगे बढ़ रहा हूं. परन्तु आप तो गए, लौट कर भी आ गए, खोज करके भी आ गए. परमात्मा नहीं. आत्मा की भी खोज कर ली कि आत्मा भी कुछ नहीं है परमात्मा भी नहीं मोक्ष भी नहीं. तो मैं बतलाकर क्यों अपना समय नष्ट करूं. बकवास करूं. इससे तो अपनी साधना करूं.
लोगों ने कहा आज भी ठीक बन गए. बात बिल्कुल सही थी. चार महीने पूरे हो गए. महाराज की विदाई का समय आया कार्तिक सुदी पूर्णिमा प्रस्थान करने लग गए. लोगों ने कहा महाराज आज तो दो शब्द बोल जाइये.
बहुत आग्रह देखा महाराज ने कहा- जाते-जाते मंगल आशीर्वाद देकर के जाऊं, लोग पहले से ही बड़े तैयार थे जैसे ही महाराज ने आकर मंगलाचरण किया.
फिर वही प्रश्न आत्मा, परमात्मा, मोक्ष में आपका विश्वास है ? तो आगे बढूं. आधे लोगों ने कहा बिल्कुल नहीं. आधे ने कहा साहब! पूरा विश्वास है. देखा ! महाराज दुविधा में आगये. :
महाराज ने कहा
मेरा काम हो गया आप जानते हैं आधे ने कहा विश्वास है. वह इन्हें नहीं जानने वाले आधे को आप समझा दो मुझे बीच में क्यों लाए, व्याख्यान पूरा. सर्व मंगल करदीया.
समझ गए, मौन के अन्दर बड़ी गहराई होती है. बहुत बड़ा इसमें साइंस छिपा है.
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-गुरुवाणी:
मौन के अन्दर अद्भुत साधना का एक प्रकार है. मौन का एक अपूर्व रहस्य है. इसीलिए विचारक पुरुषों ने कहा, भाषा के आठ गुणों में सर्व-प्रथम स्तोकम्. मौन का महत्त्व दिया. यदि बोलना पड़े तो अति अल्प स्तोकम् का मतलब है बहुत कम. अल्पम्. ज़रूरत से ज्यादा नहीं. वैर से कटुता से संघर्ष से आपका रक्षण हो. __ मैं सारी चीजें आपको कल समझाऊंगा. इसके बाद का जो मधुर, निपुणम्, कार्य पतितम्, अतुच्छम्, गर्व रहितम्, पूर्व संकलितम्, धर्म संयुक्तम्, -- ये भाषा के बड़े मधुर गुण हैं. एक बार इन गुणों को यदि आप समझ लें. तो आपकी भाषा परिष्कृत हो जाएगी. ___कैसा पानी फिल्टर आता है, पीने पर प्यास बुझा दे. यह भाषा भी छान करके फिल्टर होकर के आए जो प्यास बुझा दे. उसके अन्दर जरा भी विकार के कीटाणु न रहें, ज़रा भी वाइरस न मिलें, वैर विरोध के.
यदि आपकी वाणी का व्यवहार इस प्रकार का हो, तो यह व्यवहार आपको वहां तक पहुंचाने में मदद करेगा. पर्युषण पर्व की आराधना आपकी सफल बना देगा. ___भाषा में नियन्त्रण चाहिए. मैं इस विषय को समझाऊंगा. अब समय हो चुका है, आज इतना ही.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम्"
___ जब-जब विचारों में पाप का प्रवेश हो, तब · तब यह गहन चिन्तन करना कि मैं प्रति पल मृत्यु की ओर आगे बढ़ रहा हूँ. कदम-दर-कदम मेरी जीवन-यात्रा मौत की ओर हो रही है. मेरे पापों के क्या दुष्परिणाम होंगे? मृत्यु का चिन्तन पाप मय प्रवृत्ति को विलम्बित करेगा और इस प्रकार सम्भव है आदमी पाप से बच जाय.
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गुरुवाणी
आठ गुणों का चमत्कार
परम कृपालु भगवन्त श्री हरिभद्रसूरि जी महाराज ने जीव मात्र के कल्याण की मंगल भावना से इस धर्मबिन्दु सूत्र की रचना की किस प्रकार से साधना के माध्यम से स्व की प्राप्ति कर अनादि कालीन वासना से आत्मा मुक्त बने स्व और पर का भेद विज्ञान किस प्रकार से व्यक्ति की जानकारी में आए. वह सारा ही मंगल परिचय इन सूत्रों के द्वारा दिया गया है.
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जीवन व्यवहार का संपूर्ण परिचय धार्मिक माध्यम से दिया है. व्यवहार को किस प्रकार धर्म प्रधान बनाया जाए, उसकी सारी रूपरेखा इन आचार सूत्रों से उन्होंने बतलायी. शिष्ट और सज्जन व्यक्तियों का आचार किस प्रकार होना चाहिए ? आपके व्यवहार से, आपकी वाणी से आपकी अन्तर दशा का सहज में परिचय मिल पाएगा.
सर्वप्रथम आचार शुद्ध होना चाहिए तब जाकर के आत्मा का शुद्धिकरण किया जा सकता है. इसलिए आपके आधार का परिचय, धार्मिक दृष्टिकोण से, सामाजिक दृष्टिकोण से, आरोग्य की दृष्टिकोण से, सब प्रकार से दिया गया है.
कल जिस पर आपने विचार किया जो जगत् के अन्दर सर्व व्यापक है. कोई व्यक्ति विरला ही इसमें से बचा होगा. यह इतना भयंकर आत्मा का प्रबल शत्रु है. बीमारी का यह मुख्य कारण है किस तरह से इस बीमारी से बचा जाए आत्मा के परम आरोग्य को प्राप्त किया जाए आपकी आत्मा का शुद्धिकरण किस प्रकार से संभव हो, वह
उपाय बतलायाः
"सर्वत्र निन्दासंत्यागो ऽवर्णवादश्च साधुषु"
जगत् की सबसे बड़ी बीमारी है, सर्वव्याप्त बीमारी है और यह कीटाणु बड़ा खतरनाक है. यह शरीर ही नहीं अपितु आपकी आत्मा को बरबाद करके रख देता है आत्मा के सारे गुणों को मूर्च्छित करके रखता है. जगत् की आत्माओं के साथ जो प्रेम का संबंध है उसका विच्छेद करता है नाश कर देता है.
इसलिए भगवान ने कहा कि जो सत्य भी हो. कहने जैसा भी हो, परन्तु यदि सामने वाले व्यक्ति में उसके ग्रहण की पात्रता न हो, वहां मौन रहना ही श्रेष्ठकर है, नहीं तो वह कषाय और क्लेश का कारण बनता है.
हर व्यक्ति को उपदेश देने का अपना अधिकार नहीं. जगत् में किसी को सुधारने के लिए नहीं आए. अपने को सुधारने के लिए आए. हमारे आचरण को प्रेम पूर्वक प्रेरणा से यदि कोई व्यक्ति प्राप्त कर ले, तो बड़ी अच्छी बात है. परन्तु लोगों की आदत है
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-गुरुवाणी
___ 'परोपदेशे पाण्डित्यम्.' मैं बहुत सुन्दर बड़ा जानकार हूं. और दूसरे सब गलत कर रहे हैं. यह जो व्यक्ति के मन में कुण्ठित भावना आती है. उसी का परिणाम शब्दों के अन्दर से जहर निकलता है. सामने वाला व्यक्ति अगर ग्रहण न कर पाए, योग्यता का अभाव हो. उसकी प्रतिक्रिया बड़ी गलत होती है. वह स्वयं को सहन करना पड़ता है. झुकना पड़ता है.
भगवन्त के समय भी बहुत-से परमात्मा के विचार का विरोध करने वाले व्यक्ति हुए थे. परमात्मा महावीर का सिद्धान्त उन्हें प्रिय नहीं था. ऐसे एक नहीं तीन सौ तिरसठ विचार धारा के लोग-धर्मात्मा उस समय विद्यमान थे. अलग-अलग प्रकार से विचारों का विरोध करते थे. भगवन्त ने जो सत्य था जगत के समक्ष रखा, परन्तु उनके शब्द में जरा भी दुर्गन्ध नहीं आयी. ज़रा भी उन शब्दों के अन्दर उनका मानसिक क्लेश नजर नहीं आया.
दार्शनिक विचार धारा को लेकर के विरोध चल रहा था. हर व्यक्ति का विरोध हुआ. किसका नहीं होता है? परन्तु भगवन्त ने अपने आदर्श को छोड़ा नहीं. सबके समक्ष अपना आदर्श प्रस्तुत किया. इतने भयंकर वातावरण में अनेकान्त दृष्टि देकर के जगत् को समन्वय का रास्ता बतलाया. परन्तु भगवन्त ने कभी अपने मुख से यह नहीं कहा कि तुम गलत कर रहे हो.
जो सत्य था सामने रखा, अन्धकार को दूर करने के लिये यदि आप फायरिंग करेंगे, तो अन्धकार नहीं जाएगा. तलवार से अन्धकार को काटने का प्रयास करें तो सफलता नहीं मिलेगी. जरा सा प्रकाश उत्पन्न कर दीजिए. अन्धकार स्वयं चला जाएगा. अनादि अनन्त काल से मिथ्यात्व की ग्रंथि आत्मा के साथ बंधी हुई है. वर्षों से क्लेश का संस्कार लेकर आए. जरा-सा प्रेम उत्पन्न कर दीजिए, क्लेश स्वयं चला जाएगा.
परमात्मा ने जगत् को विचार का प्रकाश दिया, अंधकार चले गए. अहंकार अभिमान को लेकर आने वाले इन्द्रभूति परमात्मा की विचारधारा के प्रबल शत्रु, के मन में ज्ञान का अजीर्ण था. परमात्मा ने आते ही उनका तिरस्कार नहीं किया, भगवन्त ने यह नहीं कहा था तू मेरा विरोधी है. तू दुराग्राही है, तू गलत है मैं तेरे-से बात करना भी पसन्द नहीं करूंगा. जरा भी प्रभु ने कोई ऐसा रास्ता नहीं लिया जो गलत हो. आते ही बडे प्रेम पूर्वक संबोधित किया, आओ इन्द्रभूति! वही आन्तरिक स्नेह, वही वात्सल्य, परमात्मा की आन्तरिक करुणा बरसी.
इन्द्रभूति मन में विचार करता है कि जीवन में पहली बार इस महापुरुष के पास आया हूं. आज तक इनका मेरे साथ कोई परिचय नहीं, कभी साक्षात्कार नहीं हुआ. किसी प्रकार की मुलाकात नहीं हुई. फिर भी प्रभु ने मेरे नाम से मुझे संबोधित किया. ___ मन में विचार आया कि जगत् में मुझे कौन नहीं जानता. सारी दुनिया मुझे जानती है. हो सकता है महावीर भी जानते हो. इसीलिए मेरे नाम से पुकार करके कहा. परन्तु
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गुरुवाणी
मेरे मन के संशय को यदि बतला दें. और उसका समाधान करें तो मैं समर्पित हो जाऊं. परमात्मा तो स्वयं सर्वज्ञ थे. वहां कोई कहने जैसी बात तो थी नहीं.
प्रभु ने मन के संशय को सामने रखा और उचित समाधान किया. मेरे कहने का यही आशय है. इतना विरोध करने वाला इन्द्रभूति परन्तु प्रभु ने उसके साथ शालीन व्यवहार किया. सही शिष्टाचार, जरा भी दुर्भावना नहीं, जरा भी तिरस्कार की भावना नहीं. वही प्रेम दृष्टि यदि अपने अन्दर आ जाए तो अपनी सृष्टि सुधर जाए.
सम्राट् श्रेणिक परमात्मा के चरणों का महान उपासक था. कभी प्रभु ने सम्राट् श्रेणिक से ये आदेश नहीं दिया - "विरोधियों को राज्य से बाहर निकाल दिया जाए. मेरे साम्राज्य के अंदर तू मेरा परम भक्त और तेरे सम्राज्य में मेरे विरोधी हैं, उन्हें चुप कर दिया जाए. कभी प्रभु ने कहा?
देवताओं का प्रभु के पास आगमन होता. इन्द्र महाराज परमात्मा की सेवा में आते. ऐसा उनका आलौकिक पुण्योदय. तीर्थंकर नाम कर्म का उदय कभी प्रभु ने इन्द्र से यह आदेश नहीं दिया. क्योंकि ऐसा कर इन विरोधियों को शिक्षा मिले.
हमारे अंदर उत्तेजना आती है. हमारे अंदर आवेश आ जाता है. किसी के विचार को पचाने की ताकत हमारे अंदर नहीं. आप कषायों को पचा लीजिए. टॉनिक बन जाएगा. समता रस उत्पन्न करने वाला बन जाएगा. समता रस आत्मा के लिए टॉनिक है. वह ज़हर भी अमृत बन जाएगा. जो ज़हर को पचा ले, वही महादेव बनता है.
वैदिक परंपरा में बड़ी सुंदर एक कल्पना है. देवताओं ने समुद्र का मंथन किया. दोनों पदार्थ उसमें से बाहर आए. जहर भी आया और अमृत भी आया. जितने भी देव वहां उपस्थित थे, उन्होंने अमृत पान तो कर लिया परंतु जहर खाने को कोई तैयार नहीं. उसे स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं. शंकर वहां मौजद थे.
देवताओं ने देखा बड़ी समस्या हो जाएगी. जहर का पान करना भी जरूरी है. परंतु किसी के पास यह साहस नहीं कि वहां जाकर जहर का पान करे. सारे देवता मिलकर आए और शंकर के चरणों में गिरे और कहा प्रभु हम असमर्थ हैं. अमृत तो हम पी गए, जहर पीने को कोई तैयार नहीं. क्या किया जाए? कोई उपाय बतलाइये.
शंकरजी बड़े दयालु थे. और हृदय से उनकी आत्मा सरल थी. इसलिए भोले नाथ कहा जाता है. विष दिया, उन्होंने कहा कोई हर्ज नहीं, मैं पीने को तैयार हूं. लाओ मेरे पात्र में दे दो.
मंथन के द्वारा जो जहर निकला था, शंकर उसका पान कर गए. देवता बड़े घबराए कि कहीं अनर्थ न हो जाए. सहज भाव में मैंने तो प्रार्थना की और प्रभु ने स्वीकार कर लिया. शंकर तो पी भी गए. सारे देवता वहां घूमने लग गए. उनका प्रार्थना में एक रुदन था कि भगवन! कहीं अनर्थ न हो जाए. हमने आपका घोर अविनय किया है, हमें क्षमा कर दें.
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: गुरुवाणी
उन्होंने कहा इसमें कोई बड़ी बात नहीं. यौगिक प्रक्रिया के द्वारा, योग शक्ति से. उन्होंने अपने गले के अंदर उस विष का शमन कर दिया. उनका जो कण्ठ था, वह नीलवर्ण वाला हो गया. इसलिए विशेषण लगाते हैं नीलकंठ ज़हर के कारण उनका कण्ठ नीला पड़ गया. यौगिक क्रिया के द्वारा उसे वहीं स्तंभित कर दिया, ताकि शरीर में उसकी कोई गलत प्रतिक्रिया न हो.
सारे देवताओं ने बहुत बड़ी सभा की. और मिलकर के निर्णय किया कि हम तो देव हैं, जितने भी अवतारी पुरुष हुए सभी देव हैं. सभी ने अमृत का पान किया. एक मात्र शंकर ने ज़हर का पान किया. आज से ये देव नहीं, महादेव कहलाएंगे.
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यह वैदिक कल्पना का बड़ा सुंदर रूपक है. और आध्यात्मिक दृष्टि से इसे समझना है. जो व्यक्ति कड़वा ज़हर पीएगा. किसी के शब्द का पान करेगा, तिरस्कार का पान करेगा, किसी के क्रोध का यदि पान कर जाए और सहज पूर्वक उसे स्वीकार कर ले, तो वह जहर अमृत बन जाएगा. आत्मा के लिए टॉनिक बन जाएगा. वह आपके जीवन की एक सुंदर कसौटी होगी. वही महावीर बनेगा.
हमारे पास पचाने के लिए होजरी नहीं: पाचनशक्ति इतनी क्षीण है. गलत प्रतिक्रया हो जाएगी. और जगह हम मौन रहते हैं. भय से चुप रहते हैं, जानते हैं कि बोलूंगा तो गलत परिणाम आएगा. आवेश आ जाता है. तुरंत निन्दा का आश्रय ले लेते हैं. पराश्रित बन जाते हैं. कर्म के आश्रित बन जाते हैं. आत्मा के आवलंबन को छोड़ देते हैं. आत्मा के गुणों की उपेक्षा कर देते हैं और अपने अन्तर की चेतना की हत्या कर देते हैं. सारी साधना “छार पर लिपनो तेह जानो", गोबर का लेप लगाया हो घर के अंदर राख के ऊपर यदि आप गोबर का लेप करो, वो गोबर टिकेगा ? उसी तरह बिना समत्व के बिना इस प्रकार की मंगल भावना के, आप सारी धर्म क्रिया करें कोई उसका मूल्य नहीं रहेगा. गोबर उबड़ जाने वाला है. क्षणिक है. टिकने वाला नहीं, उसमें स्थायित्व नहीं.
सारे गुण मूर्च्छित हो जाते
सारे कषाय को जन्म देने वाली यह परनिन्दा है. पर चर्चा जिससे आत्मा का कोई संबंध नहीं. गांव के बाहर बैठने वाला व्यक्ति गांव की गाय को गिनता है.
किसी व्यक्ति की आदत थी, गांव के बाहर बैठना. सारे गांव की गांयें चरकर जब वापिस लौटती, गोधूलि के समय तो वही गिना करता था. बेकार बैठा था. इसके घर इतनी गाय. पूरे गांव की सब गाय उसकी अंगुली पर
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किसी साथी ने कहा "तुम बेकार समय नष्ट करते हो. इस परचर्चा से दूसरों के विचार से तुझे क्या मिलेगा ? हजारों गायों को तू हर रोज़ गिनता है. हरेक घर की गायों की संख्या तुझे मालूम है. पर कभी एक छटांक एक पांव दूध मिला है ?"
"यार वह तो नहीं मिला."
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गुरुवाणी:
"तो इस बेकार की माथा फोडी से क्या मतलब?"
मात्र हम परचर्चा करें. पर निन्दा करें. वह ऐसा, यह ऐसा, इससे आपकी आत्मा को क्या लेना देना ? आपकी आत्मा को क्या लाभ मिला? उससे कौन सा ऐसा पुण्य आपने उपार्जन किया? कौन से ऐसे पुण्य की आपको प्राप्ति हुई ? सिवाय क्लेश के और कुछ नहीं आपको मिलेगा.
मानसिक क्लेश और संताप से पीड़ित आत्मा को कभी शान्ति और समाधि का अनुभव प्राप्त नहीं हो सकता.
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परमात्मा ने अपनी देशना के अंदर अपने प्रवचन में यही मार्गदर्शन दिया कि जैसे भी हो वाणी का कभी दुरुपयोग नहीं करना चाहे कैसा भी प्रसंग आ जाए. मौन के द्वारा अपनी आत्मा की पवित्रता को कायम रखना. परमात्मा ज्ञान से सब जानते थे. सर्वज्ञ थे. जो आत्मा सर्वज्ञ होती है, कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर लेती है. सारे जगत् का चित्र उनके समक्ष स्पष्ट होता है. भूत, भावी और वर्तमान उनकी जानकारी से बाहर नहीं रहता. तीनों काल के समस्त वास्तविकताओं को जानने वाले होते हैं.
आपने आश्चर्य से देखा कभी समवसरण में जब प्रभु देशना देते हैं. प्रवचन देते हैं. सभी आत्मा पवित्र नहीं होती. एक एक आत्मा के मनोगत भावों को जानने वाले उसकी सारी पाप क्रिया को जानने वाले, भगवन्त ने कभी अपनी देशना में यह कहा तू क्या बात करता है? तेरा जीवन में जानता हूं किसी आत्मा के जीवन का प्रकाशन किया. किसी के पाप का विस्फोट किया ? कैसा गांभीर्य था.
"सागर वर गम्भीरा”
हमारे यहां प्रतिक्रमण सूत्र में कहा जाता है,
सागर के समान परमात्मा गंभीर होते हैं. जरा भी छलकते नहीं. विचार में जरा भी उत्तेजना नहीं. कार्य में कैसा समत्व विचार में कैसी धीरता. कैसी गंभीरता. जानते हुए भी नहीं, क्योंकि उनसे तो कोई पाप छिपा नहीं. परंतु प्रभु ने कुछ भी नहीं कहा, किसी से भी नहीं कहा.
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तू क्या करता है? मैं सब जानता हूं. हमारी आदत बड़ी विचित्र है. बिना जानकारी के भी हम कह देंगे. किसी को नीचा उतारने के लिए तिरस्कृत करने के लिए, अपमानित करने के लिए नहीं आए हम बोल देंगे.
भगवन्त ने कहा
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यदि आपने कभी बोलने नहीं जैसा कुछ बोला तो नहीं सुनने जैसा आपको कल सुनना भी पड़ेगा नहीं करने जैसा कार्य यदि आपने किया, तो नहीं भोगने जैसी सजा भी आपको ही भोगनी पड़ेगी.
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बोलते समय आप विचार करके बोलना नहीं तो फिर नहीं सुनने जैसा ही सुनना पडेगा. व्यक्ति की आदत है.
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गुरुवाणी
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एक बार बंबई में एक वकील ने मुझसे से पूछा. कि सच बात पर आवेश आ जाता है. तो महाराज ने कहा आवेश आएगा ही. कोई आदमी गलत करता है, हमसे सहन नहीं होता. ___ मैंने कहा - "आदमी को सुधारने का यह सही रास्ता नहीं. ऐसे आवेश में सिवाय नुकसान के कुछ भी नहीं." ___ मैंने उनसे कहा – “धर्म स्थान में आने वाले, मंदिर की सेवा करने वाले, परंतु हमारी यह आदत कि जरा कुछ भी इच्छा के विपरीत हुआ. तुरंत बोलेंगे."
एक ऐसा व्यक्ति मुझे मिला – त्याग पत्र लेकर आया सुबह ही मेरे पास. मैंने कहा – “क्यों, क्या बात है?" "बस अब त्याग पत्र दे देना है." "क्यों?"
"साथियों से हमारा मन मेल नहीं बैठता है, मैं बहुत सच्ची बात का आग्रह करता हूं. और कोई मानने को तैयार नहीं. मैं क्यों झुकू?" सारी गर्मी उसने निकाली. मैंने कहा गुस्सा आया है, इसको वोमिट करने दो. उसके बाद शान्ति से बात करो. ___ व्यक्ति को पहले आप शान्त हो जाने दीजिए. फिर उससे बात करें. गर्म तेल के अंदर आप ज़रा भी पानी डालेंगे, छींटा डालेंगे उसका परिणाम, पहले आपको जलाएगा. उसकी प्रतिक्रिया बड़ी गलत होगी. आवेश और उत्तेजना में यदि आपने उपदेश दिया, उसका परिणाम आपकी आत्मा में भी क्लेश होगा, उत्तेजना आ जाएगी.
व्यक्ति को पहले शान्त होने दीजिए. आवेश में था. “मैं बरदाश्त नहीं करता, एक घड़ी भी इसमें रहना पसंद नहीं करता. मेरा राजीनामा. किसी को नहीं दूंगा. आपको ही देने आया हूं. बस आप उन्हें पहुंचा दीजिए.” बोलकर के चुप हो गया. ____ मैंने कहा - यहां तो सब अपने भाई हैं. सब मिलकर के धर्म का सुंदर कार्य संचालन करते हैं. होता है कई बार विचारों में तालमेल नहीं बैठता. जरा सोचिए. जरा समय जाने दीजिए. उनकी उत्तेजना खत्म हो जाए. अपनी सच्ची बात रखिए. आज नहीं तो कल ज़रूर मानेंगे.
एडजस्ट होने का आप प्रयत्न कीजिए. मैंने कहा - ऐसे तो घर में भी प्रसंग आपके आते होंगे. यहां तो कभी महीने में एक बार मीटिंग होती है. परंतु घर के अंदर तो रोज़ चर्चाएं चलती होंगी. हर घर की एक अलग रामायण है. कहो, अगर दुर्गा देवी जैसी बहू आ जाए, रावण के अवतार जैसा कोई सुपुत्र आ जाए. यमराज के प्रतिनिधि बनकर कोई जमाई आ जाए. घर में रोज उपसर्ग चलता हो. ___ महावीर ने तो साड़े बारह वर्ष सहन किया, परंतु यहां हमारा जीवन तो ऐसा है जीवन पर्यन्त संघर्ष चलता है. और वहां रोज अपमानित होना पड़े. लड़के आपकी माने नहीं.
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गुरुवाणी
वे आपकी बात सुनें नहीं, घरवाली आपसे आंख मिलाए नहीं, ये सारा वातावरण यदि तनावपूर्ण हो, आप बरदाश्त करते हैं कि नहीं?
मैंने उनसे कहा - घर से राजीनामा दे दीजिए, मेरे यहां आइये द्वार खुला हआ है. कोई व्यक्ति अपने घर से राजीनामा, त्याग पत्र देने को तैयार नहीं, मंदिर से दे देगा, ट्रस्ट से दे देगा, बाहर से दे देगा, आवेश में आएगा. घर में रोज़ यह रामायण घटती है. परंतु कोई घर से त्याग पत्र दे कर के आने वाला नहीं मिला. वहां हम सब सहन कर लेते हैं. साधना में सहनशीलता का अभाव तो साधना कहां से परिपक्व बनेगी? वह साधना कहां जीवन में महक देगी? आनन्द दे ही नहीं सकती.
संसार में सहन होता है. पुलिस स्टेशन में आमन्त्रण मिले, वहां अगर अपमानित किया जाय, कैसे सहन करते हैं. बोलते हैं जरा भी? मौन हो जाते है. इन्कम टैक्स ऑफिस में गए, सवाल किया जाता है. एक अक्षर बोलते हैं? कलैक्टर के ऑफिस में गए, किसी बड़े ऑफिसर के पास गए. यदि वह धमकाए, अपमानित करे, कोई वहां शिष्टाचार नहीं और कितनी क्षमता से सहन करते हैं. धन्यवाद.
सारी समस्या यहीं पैदा होती है. जरा आत्म-दृष्टि से आप विचार करिए, हमारा व्यवहार कितना धर्म से शून्य बना है. जरा भी व्यक्ति विचार नहीं करेगा. आत्म-दृष्टि से, वह कभी नहीं सोचेगा कि मैं गलत कार्य कर रहा हूं. इसका परिणाम बड़ा गलत आएगा. धर्म से शून्य जीवन का यही परिणाम, वह कहीं प्रेम संपादन नहीं कर पाएगा.
बिहार के अंदर एक गार्डन में से निकल रहा था. बच्चे फुटबाल खेल रहे थे. अचानक फुटबाल खेलते-खेलते वह ग्राउंड से निकल कर मेरे पांव के पास आया. बड़ी सुंदर मैंने कल्पना की. फुटबाल से पूछा - "भाई क्या बात है. तू जहां जाता है वहीं ठोकरें खाता है. इसका क्या कारण है? कोई तुझे हाथ में लेना पसंद नहीं करता? जहां जाएं वहीं ठोकर. तेरी ये दुर्दशा देखकर मुझे दया आ गई." ____ फुटबाल ने एकदम सत्य कह दिया. आप से तो छिपा कर के बात क्या करूं.. उसने कहा -- “महाराज मेरे अंदर पोल है. बिल्कुल शून्य हूं, यही कारण जहां जाऊं, वहीं ठोकर मिलती है."
जिस आत्मा का जीवन फुटबाल की तरह धर्म शून्य होगा. एकदम पोल होगा, वह जगत् के अंदर कर्म की ठोकर ही खाएगा. सन्मान का पात्र नहीं बनेगा. कहीं उसे आदर नहीं मिलेगा. ___ हमारा जीवन इस प्रकार धर्म से शून्य नहीं होना चाहिए. शब्दों से व्यक्ति की पहचान होती है. तपेले में क्या है? वह चम्मच कह देता है. अन्तर हृदर में आपका चिन्तन कैसा है? यह जीभ कह देती है. यह चम्मच जैसी है. सुनने वाला उसके स्वाद में अनुभव कर लेता है. व्यक्ति कैसा है कटु या मधुर.
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% 3Dगुरुवाणी
यहां इस वस्त पर विचार करिए कल मैंने कहा था, कैसे बोलना है क्या बोलना है, यह भाषा समिति है. समिति का मतलब है - उपयोग, जयणा, जयणा का मतलब है - पूर्ण आत्मा की जागृति. जरा भी ऐसा गलत कार्य न हो जाए जो मेरी आत्मा के लिए पीड़ा का कारण बने.
किसी आत्मा को दुखी करना स्वयं की आत्मा को दुख देने जैसा है. उसी माध्यम से तो व्यक्ति दुख की प्राप्ति करता हैं बिना कर्म के जगत् में कभी कोई कार्य नहीं होता. कार्य के पीछे कारण छिपा होता है. जो कार्य घटित होता है, भले ही हम निमित्त बन कर के आएं. परंतु उसके पीछे कारण तो मानना ही पड़ेगा. बिना कर्म के कार्य बना कैसे?
कर्म की प्राप्ति का सबसे सरल साधन, कर्म के आश्रव बात पर, और आगमन का श्रोत आपकी जीभ है. मैं कहा करता हूं सबसे पहले धर्म का जन्म ही यहां से होता है. धर्म की मृत्यु भी यहीं से होती है. कृष्ण ने भागवत् में शांति पर्व में स्पष्ट कहाः
“सत्येन उत्पद्यते धर्मः" परमात्मा महावीर का भी यही शब्द है.
___सच्चं खलू भगवम" सत्य ही परमात्मा है, वही परम सत्य. सिद्ध अवस्था में आत्मा का शुद्ध स्वरूप, वही जगत् का परम सत्य है. सत्य को प्राप्त करने का सम्यक् प्रयास, सम्यक् पुरुषार्थ वही धर्म साधना है. आत्मा को प्राप्त करने का, परम सत्य को, सत्य के माध्यम से, प्राप्त करने का, वही परम मार्ग है. वही सम्यक् दर्शन है. सत्य को स्वीकार करना.
सत्य को समझना ही सम्यक ज्ञान है. सत्य में प्रतिष्ठित जीवन ही सम्यक् चरित्र है. असत्य का प्रतिकार करना ही चारित्र का गुण है.
सत्य को स्वीकार करना ही तो सम्यक् दर्शन है. अलग-अलग दृष्टिकोण से सत्य को समझना, वही सम्यक ज्ञान है. ज्ञान पर सम्यक अनुशासन, विवेक का अनुशासन. अंत में, उन्होंने कहा - धर्म का नाश कैसे होता है? मृत्यु कैसे होती है ? श्री कृष्ण ने बड़ा अपूर्व चिन्तन दियाः ।
"क्रोधात् लोभात् विनश्यति" क्रोध के द्वारा, परनिन्दा के द्वारा, पर चर्चाओं के द्वारा धर्म का नाश होता है. धर्म की मौत होती है.
धर्मसत्य से जन्म लेता है और क्रोध से वह मृत्यु प्राप्त करता है. मैं कहूंगा सर्वप्रथम वाणी से अपना अनुशासन कायम करना है. यह वाणी का व्यापार पुण्य का लाभ देने
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गुरुवाणी
वाला बने, जगत की आत्माओं के साथ प्रेम का संबंध कायम कराने वाला बने. इसके द्वारा मैं सद्भावना प्राप्त करूं, ऐसी सुंदर वाणी हमारी होनी चाहिए.
वाणी का विवेक पहले होना चाहिए. परमात्मा की वाणी में कैसा सम्बोधन, भो देवानां प्रियों, हर जगह पर परमात्मा महावीर का सम्बोधन किसी आत्मा को जब सम्बोधित किया जाता है उनके शब्द कैसे है. “भो देवानां प्रियो” हे देवताओं के प्रिय, ऐसा मंगल पवित्र संबोधन परमात्मा का, यह भाव अपने अंदर आना चाहिए. हर आत्मा का मैं सम्मान करने वाला बनूं. आत्मा को परमात्मा से देखू आत्मा के साथ उसके गुणों को प्राप्त करूं. उसके दुर्गुणों की तरफ नज़र नहीं डालनी है. ___ गंदगी पड़ी हो और वहां आप की हीरे की अंगूठी से हीरा गिर गया हो. मुर्गी आएगी मुर्गा आएगा. सड़े हुए अनाज कीचड़ के कीड़े उसकी खुराक है. वह खाएगा. यदि हीरे की कणी आ जाए तो चोंच में लेकर फेंक देगा. उसे उसका मूल्य मालूम नहीं कि हजारों टन अनाज इसके द्वारा आ सकता है. मेरी जिन्दगी आसानी से निकल सकती है. सात पीढी खा जाएं, इतनी सामग्री इससे मिल सकती है. __ हमारी आदत ऐसी बन गई. हीरा जैसे मूल्यवान पवित्र शब्द जो आत्मा के अनुकूल है. उसे तो हम उपेक्षित कर देते हैं. परंतु किसी आत्मा के दुर्गुण पर जो सड़ा हुआ अनाज जैसा है, जिसके अंदर कषाय और विष के कीड़े हैं. वही खुराक आत्मा को देते हैं.
कहां किस आत्मा में क्या दुर्गुण है. जिसे हम ग्रहण करते हैं. अपनी दृष्टि से प्राप्त करते हैं. यह गंदगी गलत खुराक अंदर जा कर के फूडपायज़न पैदा करती है. आत्मा के गुणों का नाश करती है. परन्तु सद्गुणों को प्राप्त करने का, जो हीरा जैसा मूल्यवान है, हमारी दृष्टि वहां नहीं जाती. यही कारण बिना चिन्तन के, बिना खुराक के, अवर्णवाद में, पर परिवाद में, हम चले जाते हैं. किसी भी व्यक्ति के विषय में तुरंत अपनी राय दे देते हैं. वह गलत है, यह सही है. उसके सारे गुण हम ढंक देते हैं और एक दुर्गुण नज़र आता है, यह व्यक्ति बड़ा गलत है.
सैंकड़ों उसके अंदर सद्गुण हैं, वहां तो दृष्टि डालो. एक-आध दुर्गुण होंगे, उन्हें छोड़ दो. जहां तक अपूर्णता है, अपूर्णता के लक्ष्ण हैं, वे तो कायम रहने वाले हैं. कभी गुण तो आप ग्रहण करो, मदमस्त जीव के अंदर जहां तक अपूर्ण दशा है. साधना की पूर्णता नहीं मिली, वहां तक ये दुर्गुण तो कायम रहने वाले हैं... __हमारी दृष्टि की पहली साधना ऐसी होनी चाहिए. लोग पेट का उपवास तो कर लेते हैं. परन्तु वाणी का उपवास आज तक नहीं किया गया. वाणी का उपवास - मौन. मौन को साधन के क्षेत्र में प्राण माना गया है. मोणेणं, मौनपूर्वक अपनी साधना में आत्मा स्थिर रहे. सारे दिन कितना हम बोलते हैं. कल मैंने आपसे कहा था, मौन का क्या महत्त्व हैं? मेडिकल साइंस किस निष्कर्ष पर गया? एक शब्द बोलते हैं और कितनी बड़ी शारीरिक शक्ति को हम क्षय कर देते हैं. आत्मा की साधना विसर्जित हो जाती है. और यदि आप
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गुरुवाणी
मौन रखें तो साधना का संग्रह होता है. कषाय के आगमन का द्वार बन्द हो जाता है. आत्मा, जो क्लेश से पीड़ित है, परम शान्ति का वहां अनुभव प्राप्त करती है. मौन की साधना. बोलना ही नहीं.
स्तोकम् भाषा के आठ गुणों में से एक गुण मैं कल बतलाकर के गया था. किस प्रकार बोलना स्तोकम्. बहुत अल्प. ज़रूरत से अधिक नहीं. जितना विवेक पूर्वक हम पौकेट में से पैसा खर्च करते हैं, बेफजूल एक पैसा खर्च करने का नहीं, एक चीज लेनी होती है, दस दुकान होकर आते हैं, कहां सस्ता मिलेगा? पसीना उतार कर के पैसा पैदा किया है.
ज्ञानियों ने कहा उससे भी अधिक विवेक वाणी के उपयोग में होना चाहिए. एक पैसा भी मेरा गलत न चला जाए, एक शब्द भी मेरा व्यर्थ नहीं होना चाहिए. यह हमारी शक्ति है. शक्ति का अपव्यय नहीं होना चाहिए. बहत प्रचंड शक्ति है हमारी वाणी के अंदर. वर्षों तक ऋषि-मुनि मौन रहते थे. मौन के बाद जब शब्द निकलते, वे शब्द मंत्र बनते थे. वे शब्द फलीभूत होते थे. प्रकृति के अंदर वातावरण में परिवर्तन लेकर के आते थे. उन आत्माओं के शब्दों पर आप दृष्टिपात करिए, उनके व्यवहार को देखिए. बड़ा सौजन्यपूर्ण उनका व्यवहार होता था. ___ महात्मा के पास किसी पुरुष ने आकर के गाली दी, अपशब्द बोला. मौन रहे. दो दिन आया, चार दिन आया, बोल-बोल कर के थक गया. विचार में पड़ गया. यह व्यक्ति बड़ा विचित्र है. पत्थर जैसा है. इतना मैंने इसके साथ दुर्व्यहार किया. पूर्व जन्म का कोई संबंध था. इस जीवन के साथ देखकर के आवेश में आ जाता हूं. गुस्से में आ जाता है. फजूल की बात करके चला जाता. खूब गालियां देता, एक अक्षर नहीं बोलता.
बुद्ध के जीवन की घटना है. राजपुत्र थे, जवान अवस्था थी. अपूर्व सौन्दर्य था चेहरे में. साधना की पवित्रता भी थी. आपको आश्चर्य होगा. स्वयं बुद्ध भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों के अंदर उन्हीं की परंपरा में साधु बने. बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा ग्रन्थ “मज्झिम निकाय" उनके त्रिपिटिक होते हैं. मज्झिम निकाय, दिगनिकाय, और सूत निकाम. उस ग्रंथ में उनका ही वर्णन है.
बुद्ध ने स्वयं कहा मैंने जैन. साधु बनकर, बहुत वर्षों तक साधना की घोर तपस्या की. परन्तु मेरा शरीर उसको सहन नहीं कर पाया. जगत के लोग कदाचित इस कठोर साधना को सहन न कर सके, इसलिए मैंने मध्यम मार्ग निकाला. जो अति कठोर न हो, अति कोमल न हो. बीच का रास्ता. उन्होंने एक-एक चीज स्वीकार की. मैंने लोच भी किया, मैंने वर्षों तक साधना की, तपस्या की. मेरे शरीर की हड्डी-हड्डी निकल गई तप के द्वारा.
चारित्रवान थे, इसमें दो मत नहीं. परन्तु विचारधारा से उसके बाद अलग हुए, उन्होंने स्वतन्त्र बौद्धमत वहीं पर पैदा किया. बुद्ध के माता-पिता पार्श्वनाथ भगवान के श्रावक थे.
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-गुरुवाणी
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बुद्ध ने पहले जैन दीक्षा ली. उसके बाद स्वतन्त्र मत उन्होंने चलाया. स्वयं बुद्ध ने अपने आगम सत्रों के अन्दर अपने जीवन-चरित्र का इस प्रकार परिचय दिया.
हमारे यहां भी ग्रंथों में यही वर्णन आता है. महावीर से उम्र में बीस वर्ष बडे थे. जहां तक महावीर ने कैवल्यज्ञान प्राप्त नहीं किया, वहां तक पार्श्वनाथ का शासन चलता था. जब कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ उसके बाद, परमात्मा महावीर का शासन प्रारम्भ हुआ. बुद्ध बीस वर्ष बड़े थे. उस समय पार्श्वनाथ का शासन चलता था, इसीलिए पार्श्वनाथ के अनुयायी श्रावक कहलाए. उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा में उनके मुनियों के पास दीक्षा ग्रहण की.
इतिहास की बहुत सी कहानियां आपको मालूम है. बहुत सारी ऐसी बातें हमारे यहां से वहां बौद्ध दर्शन में गईं. शब्द प्रायः मिलते-जुलते मिलेंगे. आचार के अन्दर काफी समानता आपको मिलेगी. एकमात्र सिद्धान्त की दृष्टि से भेद आपको नजर आएगा.
उस समय पर बुद्ध के पास आकर वह व्यक्ति हर रोज गालियां देता, आवेश में आकर एक दिन उनके मुंह पर थूक कर के चला गया.
बुद्ध एकदम शान्त रहे. राज पुत्र थे. गर्मी आ सकती थी, ज़रा भी नहीं. ज़रा भी उत्तेजना नहीं, थूकने वाला व्यक्ति थक गया. लौट कर के दूसरे दिन आया. मन में इतनी ग्लानि आई, इतनी पीड़ा हुई. कैसा महान संत है. युवा अवस्था राजकुमार जैसा चेहरा. क्या साधना का अपूर्व तेज, शील का सौंदर्य, मैंने उनके साथ आज तक बड़ा गलत व्यवहार किया. हमारे गांव में ये महापुरुष आए अपनी साधना में मग्न रहने वाले. मैंने जाकर उनके साथ बड़ा गलत व्यवहार किया. मैं जाकर क्षमा याचना कर के आ जाऊं. बुद्ध के शिष्यों ने जरा आवेश में आकर बुद्ध से पूछा - यह आप क्या कर रहे हो. सामने वाला व्यक्ति थूक कर चला गया.
कोई हर्ज नहीं उस बेचारे के पास शब्दों की कमी थी. इसलिए बेचारा थूक कर के चला गया. अब उनके पास कोई शब्द नहीं रहा. ग्लानि से भर गया. ग्लानि से भर कर के वह आत्मा आई. यह प्रेम का परिवर्तन था. हृदय से परिवर्तन आया. और क्षमा याचना की. बुद्ध ने कहा - इसमें क्षमा याचना की क्या बात तुम मेरे पास कोई भेंट लेकर के आओ. मैंने स्वीकार नहीं की तो वस्तु तुम्हारी तुम्हारे पास.
आप कोई चीज लाएं, मैं स्वीकार न करूं तो वस्तु पर अधिकार किसका? देने वाले का. मैंने स्वीकार ही नहीं किया. अरे, तुम गाली रूपी भेंट मेरे पास लेकर के आए. मैं तो मौन रहा स्वीकार ही नहीं किया, ध्यान ही नहीं दिया, तो चीज तुम्हारी तुम्हारे पास. मुझे क्या लेना देना है. __ मन को समझा दीजिए टेलीफोन आता हो. अगर कोई व्यक्ति फोन पर अपना गुस्सा उतारता हो, नहीं बोलने जैसा बोलता हो. आप मौन रहिए, उसको बोलने दीजिए. पांच मिनट दस मिनट उसे बोलने दीजिए. आदमी कषाय को ज्यादा समय तक नहीं रख सकता.
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गुरुवाणी:
प्रेम में स्थिरता नहीं मिलेगी. आवेश में स्थिरता नहीं मिलेगी. जिन्दगी भर आप प्रेम को रखते हैं. स्थिरता आ जाएगी. आवेश कितने समय करेंगे थक जाएंगे. बेहोश हो जाएंगे, यह ज्यादा समय का नहीं होता. बोलने दीजिए बोल बोल कर जब थक जाएं तब आप एक शब्द बोल दीजिए आप कह दीजिए. दिस इज रोंग नम्बर.
सामने वाले व्यक्ति की दशा देखिए मन को समझा दीजिए. कोई गलत बोलता हो तो मैं रोग नम्बर हूं. आत्मा से इसका कोई संबंध ही नहीं. जगत् में ऐसी चर्चाएं चलती रहेंगी. ये कभी कम होने वाली नहीं. उस वर्षा से मेरा कोई संबंध नहीं, कोई किसी तरह का सरोकार नहीं तो बहुत कम बोलने का प्रयास करें.
राजा शिकार के लिए गया. तीन रानियां साथ में थी सबकी अलग-अलग रुचियां थीं और रास्ते में जब शिकार के लिए गए. जरा वातावरण ऐसा था. एक रानी ने कहा. अपनी जिज्ञासा प्रकट की मुझे वहां संगीत सुनना है. क्या सुन्दर प्राकृतिक वातावरण है. यहां यदि संगीत चलता हो तो आनन्द आ जाए. राजा ने कहा- सरो नत्थी ।
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दूसरी रानी को बड़ी प्यास लगी थी. जंगल था. कहीं ऐसा नज़दीक में साधन न था और राजा से कहा मुझे तो बड़ी प्यास लगी है.
राजा ने फिर वही शब्द कहा सरोनत्थी. तीसरी रानी उसने अपनी जिज्ञासा प्रकट की कि मुझे एक तीर दो शिकार करना है. इतने सुन्दर यहां जंगल में पशु चर रहे हैं. और दो चार हिरणों का शिकार मुझे करना है.
राजा ने कहा
सरोनत्थी.
तीनों ने प्रश्न किया और तीनों का एक ही उत्तर सरोनत्थी. तीनों को समाधान मिल गया. वाणी का कैसा विवेक, कैसी मर्यादा, एक शब्द के अंदर सबका समाधान मिल गया. क्या ? सरोनत्थी, क्या गान के योग्य इस समय मेरा स्वर नहीं है. सरोनत्थी तुम्हें प्यास लगी है मैं जानता हूं. यहां पर तालाब नहीं है. सरोनत्थी तीर मांगा शिकार के लिए मुझे तीर चाहिए. राजा ने कहा सरोनत्थी, "सर" कहते हैं तीर को वहां तीर नहीं है.
तीनों ने अलग-अलग प्रश्न किए और जवाब एक ही मिले. सरोनत्थी.
आगमिक सूत्र में भगवन् ने कहा इसी प्रकार वाणी का विवेक रखें कम से कम बोलने के कारण आप क्लेश से बच जाएंगे. दोष से बच जाएंगे. आपका प्रेशर नार्मल हो जाएगा. कोई शरीर के अंदर गलत प्रतिक्रिया नहीं होगी. मन का भी आरोग्य मिलेगा. तन का भी आरोग्य मिलेगा और साथ में आत्मा को भी परम आरोग्य मिलेगा.
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आत्मा के आरोग्य को नुकसान पहुंचाने वाले तो क्लेश हैं और क्लेश का जन्म स्थान है पर निन्दा, पर-परिवाद, कदाचित बोलना पड़े आपका व्यवहार वाणी के ऊपर चलता हैं तो कैसा बोलना. माधुरम् मिठास दूसरा गुण है.
आप किसी के घर जाएं और कोई व्यक्ति आपको चाय या कॉफी लाकर के दे. मीठा नहीं हो तो आपको कैसा लगेगा. पीने के अंदर चाय या कॉफी स्वाद नहीं देगा. चेहरा
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गुरुवाणी:
कह देगा कुछ गड़बड़ी है. चाय या कॉफी में. चाय तो है कॉफी अच्छी है परंतु शक्कर नहीं. आप किसी के साथ बातचीत करें, शब्द तो है परंतु शब्द में शक्कर नहीं हैं, माधुर्य नहीं हैं मिठास नहीं हैं. सुनने वाले का चेहरा उतर जाएगा, तन जाएगा, क्या बोलता है? समझ गए यदि ज़रा-सा उसमें माधुर्य डाल दिया. आप शब्द का प्रयोग करें सामने वाला व्यक्ति आपके शब्द का पान करके संतोष व्यक्त करेगा. उसका चेहरा खिल उठेगा. समझ लेना. मेरे शब्द के बाण से इसको सन्तोष मिला. आनन्द मिला. पान करते ही उस शब्द के माधुर्य से इसके चेहरे पर प्रसन्नता आ गई. होता है. ___ कई जगह ऐसे प्रसंग आते हैं, माधुर्य का अभाव क्लेश का कारण बनता है. घर के अंदर सास -- बहू रोज लड़तीं, स्वभाव है. मेल बैठा नहीं. किसी संत के पास गए और कहा कि महात्मन! मझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि कम से कम घर का महाभारत तो बन्द हो जाए. बड़ा विचित्र संसार है. हर घर के अंदर वही कारण. सास अपने बड़प्पन को भल जाती है, वह अपना विवेक खो देती है. बड़े-छोटे का विवेक नहीं रहता. वाणी में संतुलन रहता नही. माधुर्य होता नहीं. बहू को, यह समझ कर अगर आप चलें कि वह घर की नौकरानी है. बहू यदि वह यह समझे कि ये बेकार बकवास करती है. बूढ़ी है, अकल है ही नहीं. अकल की जैसे मोनोपॉली मैंने ही ली है. तो संघर्ष का कारण बनता है. आग लगती है फिर घर में. या तो परिवार विभाजन होता है या उसका परिणाम गलत आता है. आत्म-घात तक की यात्रा होती है. पूरा परिवार पीड़ित बन जाता है. ये क्लेश की ग्रंथि बड़ी खतरनाक है. इसे यदि साफ नहीं किया गया तो अंदर-अंदर यह कैंसर पैदा करता है, वह रुग्णता पूरे परिवार के लिए श्राप बन जाती है. सारा आपका मानसिक टेन्शन उसी की तरफ लगा रहेगा, व्यापार में रुकावट, व्यवहार में रुकावट पैदा कर देगा. ये मैने कई जगह देखा है. एक घर का जरा-सा अशान्त वातावरण, वाणी के अंदर विवेक का यह अभाव कई बार पूरे घर को जलाकर राख कर देता है. ___ ये तो अनादिकालीन संस्कार हैं. सास-बहू में यदि मेल बैठ जाए तब तो बिना बुलाए लक्ष्मी उस घर में आ जाए. लक्ष्मी से पूछा गया तुम कहां निवास करती होः
अदंत: कलहो नास्ति तत्र वसाम्यह। . जिस घर में दांत का क्लेश नही हो, वहीं पर मैं निवास करती हूं. वहीं प्रेम होता है, संगठन होता है, कौटुम्बिक स्नेह होता है. परिवार के अंदर स्नेह होता है वहां मैं बिना बुलाए जाती हूं, रहती हूं. ऋषि मुनियों ने बहुत सुंदर बात बतलाई. वहीं लक्ष्मी का निवास होता है. और जहां क्लेश आया, लक्ष्मी चली जाती है. सारी पवित्रता चली जाती है. ऐसा कार्य मुझे नही करना. तो यह संसार है बड़ा विचित्र संसार है. आपको मालूम नहीं. . सास – बहू के अंदर क्लेश था और महात्मा के पास गई बहू ने कहा बड़े विवेक
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गुरुवाणी
से - क्या करें, कोई पूर्व कर्म का संयोग, सास ऐसी मिली फिर भी मां के रूप में मैंने स्वीकार किया.
परंतु कहां तक सहन करूं, कभी न कभी तो मैं बोल जाती हूं और बोलते ही दोषी बन जाती हूं. उनका आवेश पूरे दिन वह रेडियो चलाता रहता है. बिना बैटरी का सुनना पड़ता है ही.
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स्त्रियों की एक आदत है, उस जाति का एक दोष है. सहनशीलता का गुण कम होता है. पुरुष ज़्यादा सहन कर सकता है. वह नहीं कर सकती.
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घर के अंदर सास बहू थी. और अचानक बहू कहीं नई आई पढ़ी लिखी होती है, बड़े शहरों की दिल्ली जैसी, अब बेचारे गांव के अंदर एकदम चौथे आरे की सतयुग की मां थी. सास मां तुल्य थी, अब कोई न कोई ऐसा कारण आ जाता है, तो घर की मर्यादा, घर का व्यवहार कहना पड़ता. घर की बड़ी थी, मां तुल्य थी.
सास बेचारी बहुत सहन करती की भी तो मर्यादा होती है.
सास ने बहू से एक दिन कुछ कहा तन गई. मैं तो एम. ए. हूं. बहुत पढ़ी-लिखी हूं. सास कहां पढ़ने गई थी ? प्राइमरी ऐजुकेशन भी नहीं है. दुनिया कहां जा रही है ? सास को पता भी नही है. बहू को जरा पढ़ाई का घमण्ड था. सम्पन्न घर से आई थी, तो पैसे का अजीर्ण था. घर के अंदर सारा वातावरण एकदम गन्दा कर दिया. फिर भी बच्ची है, उम्र नही है अपरिपक्वता है पर सहन करने
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घर के अंदर व्यवहार से भी घर का सब काम करना पड़ता है. चूल्हा भी फूंकना पड़े. रोटी भी बनानी पड़े. बहू ने देखा कि यहां सब कुछ करना पड़ेगा, मजबूरी है. सासू अवस्था में हैं और नहीं करे तो आस-पास के लोग ताना मारेंगे. कैसी बहू आई है, सेठानी बन कर के आई है. घर का काम नहीं करती क्या शरीर को लकवा मार गया है ?
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उसने एक नया रास्ता निकाला. जैसे ही रसोई बनाने का टाइम हो वह एकदम वहां पर बेहोश हो कर के गिर जाए. बेचारा पति विचार में पड़ गया. पति भोलेनाथ जैसा था. इधर जाए, उधर जाए, डाक्टर के पास गया, वैद्य के पास गया, पूरा गांव खोज लिया. कोई इलाज हो नहीं, बीमारी हो तो इलाज हो बीमारी तो मन की थी. देखा, चलो चूल्हा फूंकने की झंझट तो मिटी जैसे ही रसोई तैयार हो जाए. एकदम बिल्कुल ठीक, खाने के समय कोई बीमारी नहीं.
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तो लोगों ने कहा यह तो हवा का प्रकोप है. कुछ न कुछ गड़बड़ी है. वह भी ऐसे ही नाटक करती. अभिनय तो ऐसा होता है कि वास्तविकता जैसी नज़र आए. असल हीरे से भी आर्टीफिशियल हीरे में चमक ज्यादा होती है अभिनय के अन्दर- वास्तविकता का दर्शन ज्यादा होगा. यह मनोवैज्ञानिक सत्य है. जैसे ही वह गिरती और माथा धुनने लगती. निश्चित हो गया कि कुछ हवा का प्रकोप है. और यह बहू को हैरान कर रहा है, कोई बाहर की हवा है, अब झाड़ा फूंकी दिलाना शुरू किया.
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%3Dगुरुवाणी
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एक दिन कोई महात्मा आए घर पर. सासू ने कहा और कुछ नहीं चाहिए, आप जो कहें, दक्षिणा में दे दूं, परन्तु बहू को क्या बीमारी आ गई? कौन सी हवा लग गई? आप कोई ऐसा आशीर्वाद दीजिए. इसको आराम मिल जाए.
बेचारे साधु महात्मा भी भोले जैसे थे. आए. कमण्डल से पानी निकाल कर छांट दिया. उसने भी बराबर नाटक किया. बहू समझ गई कि आज मौका अच्छा है. बराबर माथा धुनने लग गई. धुनते-धुनते ज्ञान तन्तु के अन्दर एक ऐसी प्रतिक्रिया होती है. ऐसी धुन सवार हो जाती है, नशा-सा आ जाता है. उसमें बड़ा आनन्द का अनुभव करते हैं. अतिशय माथा धूनने के बाद एक लय ऐसा बन जाता है. जो तोड़ना मुश्किल होता है.
उस समय संन्यासी ने पूछा – बोल तू इसके अन्दर कौन है. सच बता. नहीं तेरा उपाय करके ही जाऊंगा. धुनते-धुनते उसी लय के अन्दर जो एक प्रकार का मानसिक नशा होता है. उसी धुन सवारी के अन्दर बहू ने कह दिया “मै इस घर से एक को लेकर के जाने वाला हूं."
"तू है कौन? क्या ले जाएगा, किसको ले जाएगा? सच बोल."
“एक उपाय है अगर मुझे निकालना हो तो.” सास ने कुछ कह दिया होगा. मन के अन्दर गांठ बांध ली. ग्रन्थि थी, सासू को चमत्कार दिखाऊं. कह दिया उसने, मौका अच्छा मिल गया, बदला लेने का, अपमान का बदला. “मेरी सास यहीं माथा मुंडा कर मुंह काला करके अगर बैठे, मेरे से माफी मांगे तो ही मै यहां से जाऊं."
सास बड़ी गंभीर थी. अगर बेटे का जीवन सुखमय रहे तो मां क्या नहीं करती, सब कुछ कुर्बान करती है. बहू अगर ठीक होती हो. ___ "मुझे कोई आपत्ति नहीं. अगर यह बाहर का प्रकोप इसमें शान्त हो जाए. इस टोटका में तो मुझे सब बर्दाश्त है. माथा मुंडाकार, मुंह काला करके बैलूं. तू कहे एक बार नहीं तीन बार माफी मांग लू." मेरे लड़के को कुछ नहीं होना चाहिए. मां का हदय कैसा वात्र व से भरा होता है, अपने बालक के प्रति. निर्णय कर लिया कि “बता तू कब आएगी?' बस. रविवार के दिन दोपहर को मैं आने वाली हूं. उस समय यह सास मुझसे माफी मागे तभी जाऊंगी. नहीं तो घर से एक अन्य को लेकर के ही जाऊंगी.” लोग ज़रा भयभीत थे आप जानते हैं. भ्रम का भत कभी निकलता ही नहीं कोई मन्त्र ही नहीं होता उसका. उपाय किया. पर पति भोलेनाथ नहीं था बड़ा चालाक, बड़ा चतुर था. वह समझ गया कि दाल में काला है. कुछ गड़बड़ी है.
साथ रहने वाले एक-दूसरे से तो परिचित थे. वह सीधे अपनी ससुराल गया और अपनी सास से कहा तुम्हारी बच्ची जब से घर आई है, हमारे घर का तो सत्यानाश कर दिया. क्या हुआ? अरे क्या पता कौन से भूत प्रेत तुम्हारे घर से लेकर आई? हमारे घर को बरबाद कर दिया. अब कहती है मेरी मां आए माथा मुंडवाए, मुंह काला करे, माफी
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गुरुवाणी:
मांगे तो ही जाऊं. पति ने जाकर अपनी सास से कह दिया. सास ने कहा बच्ची अगर सुखी रहती है, तो मैं सब करने को तैयार हूं.
रविवार का दिन था पति चालाक था कोई मफतलाल जैसा ही था. पडोस में गया अपने मित्र के यहां मां को पहुंचा दिया. अपनी सासू को ले आया. एक मित्र के घर ठहराया बड़ी चालाकी से माथा मुंडाकर मुंह काला करके सामने लाकर बिठा दिया. पचास साठ वर्ष की उम्र में पहुंची हुई माता हो. माथा मुंडाकर मुंह काला कर दिया जाए तो पहचानना हर आदमी के लिए मुश्किल है. बरोबर सामने लाकर बिठा दिया. पूरा गांव तमाशा देखने आया. बहू के मन में आया कि सास का आज बरोबर बदला लेकर के रहूंगी कैसी नाक काटी आज, माथा मुंडवा दिया, मुंह काला कर दिया, जिन्दगी भर की अक्ल आ गई. मन के अन्दर वह ग्रन्थि बंधी हुई थी.
क्लेश कैसा होता है? उसका यह बड़ा सुन्दर रूपक लाकर के रखा, जैसे ही समय हुआ. वे बेचारे सन्यासी आये, परोपकार के लिए पानी लेकर के कमण्डल से छांटा मारा और मन्त्र बोला. एकदम वह उत्तेजना में आई और धुनना शुरू किया. पति भी पास में, पूरा परिवार वहां उपस्थित, वह पहचान नहीं पाई कि ये मेरी सास है या मां है. चिल्लाई, बड़े जोर से बोली
देख रण्डी का चाला, माथे मुण्डन मुंह काला
पास में ही पति खड़ा था उसने कहा
देख मर्द की फेरी अम्मा तेरी कि मेरी.
सारा भूत निकल गया,
ज्ञानियों ने कहा
"अयमेव संसारः"
इसी का नाम संसार है.
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यह संसार बडा विचित्र है जैसे-जैसे आप संसार की गहराई में जायेंगे स्वयं वैराग्य आ जायेगा. मैं तो इसीलिए कई बार कहा करता हूं. मैं धन्यवाद का पात्र नहीं, ऐसे भयंकर संसार में आप रहते हैं. मैं आपको ही धन्यवाद देता हूं, ये बेचारे साधु सन्त तो संसार छोड़कर के निकल गए. ऐसे विचित्र संसार में नहीं रहना आप आज तक मोर्चे पर डटे रहे हों, जो होगा देखा जायेगा. कफ़न बांधकर के खडे हों, धन्यवाद तो आपको देना चाहिये.
महात्मा ने कहा उस बहू से कि और कुछ नहीं करना, एक प्रयोग बतलाता हूं. घर पर जाकर करना सास तुम्हारे लिए सब कुछ करने लग जाएगी. बड़ा वशीकरण मन्त्र है. क्या छोटा-सा लकड़ी का टुकड़ा दे दिया. सवा इंच का जब सास घर में बोलना शुरू करे, बरसना शुरू करे, ये टुकड़ा देता हूं, मन्त्र करके मुंह में डाल देना.
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%3Dगुरुवाणी
साधु का शब्द था. जैसे ही वह घर गई, एक दो दिन निकला. अचानक कोई निमित्त । बना. उस दिन निमित्त में सास गई, आ गई बोलने के लिए.
लकड़ी का टुकड़ा मुंह में. अब मुंह में टुकड़ा लिया जाये. तो बोला जाए नहीं. एक अक्षर बोली नहीं. ऐसे दो बार तीन बार हुआ. प्रसंग के अन्दर वह सास के सामने एक अक्षर बोली नहीं. सास के मन में एक दिन एक भाव आया. यह बहू कितनी खानदानी हैं. मैं इतना गर्म हो जाती हूं. इतने आवेश में आती हूं. कई बार नहीं बोलने की बात. जैसी बोल भी देती हूं. अपनी बच्ची समझ कर परन्तु बडे गजब की बात है. मेरे सामने बोलती नहीं. कितना विवेक कितनी मर्यादा रखती है, इसकी मर्यादा कितनी सुन्दर.
सास का हृदय परिवर्तन हो गया. और बड़े प्यार से बड़े, वात्सल्य से अपनी बच्ची की तरह व्यवहार शुरू कर दिया. हमेशा के लिए कषाय का अन्त हो गया.
उसके पति ने पूछा - भई क्या बात है, घर के अन्दर यह क्या चमत्कार हुआ? मेरी मां अब तेरे साथ कैसा व्यवहार करती है? पूरे घर का वातावरण कितना सुन्दर बन गया, कहा-साधु-सन्त ने आशीर्वाद दिया. मुझे एक चीज दिया.
पूछा क्या? दिखाया तो एक लकडी का टुकड़ा. सन्त ने कहा था.-सासू बोले तब यह मुंह में डाल लेना. यह बहुत बड़ा वशीकरण मन्त्र है. सास वश में हो जायेगी. मैने प्रयोग करके देखा. जब-जब वह बोलती, मैं मुंह में डाल लेती, मुंह में डालती और चुप रहती, क्योंकि फिर तो बोला जाये नहीं. मेरी बात समझ गये. नहीं बोले.
गाली आवत एक है, जावत होत अनेक,
जो गाली जावे नही, तो रहे एक ही एक। चूल्हे के अंदर यदि आप लकड़ी नही डालेंगे तो आग स्वयं बुझ जाएगी. आपने मुझे अपशब्द कहा और साथ मे मैं यदि अपशब्द का व्यवहार करूं. उसका आना-जाना शुरू हो जाए तो परंपरा बढ़ेगी. यदि आप कभी बोलें और मैं चुप रहूं तो परिणाम वही आएगा, आप थक जाएंगे. सुनने वाला कभी थकेगा नहीं. बोलने वाला ही थक जायेगा, हमेशा ही परिणाम सुन्दर आएगा. मैं कहता हूँ हरेक के घर में यह टुकड़ा तो रखना ही चाहिये. जब-जब प्रसंग आ जाए तो टुकड़ा मुंह के अंदर व एक अक्षर बोलने का नहीं, उसे आप देखना आपकी आत्मा के लिए आशीर्वाद है. बड़े कुछ भी कहें. भगवान महावीर का एक शब्द है. महानिषिथ-सूत्र में कदाचित् गुरु आवेश में आ जाये. गुरु को उत्तेजना आ जाये. कोई ऐसा उपाय देखने में आया है?
गौतम स्वामी ने प्रश्न किया - भगवन! कुलीन और खानदानी शिष्य किसको कहा जाए? कुलीन और खानदानी पुत्र किसको कहा जाए? भगवान ने कहा-उसकी यह पहचान - कड़वा से कड़वा शब्द गुरु का हो या माता-पिता का हो. और उसे मिठाई की तरह से, कलाकन्द की तरह खाकर स्वाद का अनुभव करे. प्रसन्नता प्रकट करे, असल खानदानी, कुलीन शिष्य होगा. मां बाप की अगर सच्ची संतान होगी तो मौन रखेगी. और
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गुरुवाणी
ऐसे कटु शब्दों को भावपूर्वक ग्रहण करेगी. मिठाई की तरह से स्वादपूर्वक ग्रहण करेगी. कि मेरे ऊपर बड़ी कृपा है, गुरु महाराज की. मेरे माता-पिता की मेरे हित के लिए, कल्याण के लिए कह रहे हैं. यह गाली नहीं ये आशीर्वाद हैं, यह समझकर के जो चले तो समझना वह खानदानी कुलीन शिष्य है. वही खानदानी सुपुत्र है. जो माता - • पिता की गाली को आशीर्वाद मानकर के स्वीकार करे.
यह हमारा व्यवहार. मधुरम् ! यह दूसरा गुण है. मधुरता होनी चाहिये, कर्कशता होनी नहीं चाहिए. शब्द फीका नही होना चाहिए, स्वाद पूर्ण होना चाहिए. शब्दों के अंदर ऐसी ताकत होनी चाहिए, उन शब्दों को ग्रहण करते ही व्यक्ति आपके अनुकूल बन जाए. और आपके प्रति सद्भावना उत्पन्न करने वाला बन जाए.
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निपुणम्. तीसरा गुण. वाणी के अन्दर निपुणता होनी चाहिए. बुद्धिमत्ता होनी चाहिए. मूर्खो की तरह नहीं बोलना. समझदारी पूर्वक बात करना. विचार के अन्दर गहराई चाहिए. तब जाकर के वह वाणी सफल बनती है. और उसकी प्रतिक्रिया बड़ी सुन्दर होती है. यह नहीं कि बुद्ध बन कर सुन आए और बिना सोचे-समझे बक कर के आ गए.
बोलने में और बकने में बहुत अन्तर है. सोच करके विचार पूर्वक बोला जाता है. बिना सोचे, बिना विचारे बका जाता है. हम बकने के लिए पैदा नहीं हुए. बोलने के लिए. वाणी के अंदर निपुणता, कुशलता आनी चाहिए. व्यवहारिक बुद्धि उसके अन्दर होनी चाहिए. तीक्ष्णता होनी चाहिए. गांधी जी अफ्रीका की यात्रा में थे. उस जमाने के अंदर अंग्रेजो का वहां इतना अत्याचार था, किसी भी भारतीय के लिए अपने गौरव को टिकाए रखना बहुत मुश्किल था. ब्लेक बूट की तरह हमारे साथ व्यवहार किया जाता था. तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता था. जिस कंपार्टमेंट में रेल के अंदर अगर अंग्रेज यात्रा करते हों तो कोई भी भारतीय उसमें बैठ नहीं सकता था. एशियन बैठ नहीं सकता था. अफ्रीकन उसमें चढ़ नहीं सकता. चलने के लिए फुटपाथ अलग, होटल अलग, रेलवे अलग. कंपार्टमेंट सीट अलग. घृणा की दृष्टि से देखा जाता था.
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गांधी जी बैरिस्टर थे; टिकट लिया फस्ट क्लास का और बैठ गए. फस्ट क्लास में बैठे. कंपार्टमेंट एकदम खाली था बैठ गए. अगले स्टेशन पर कोई अंग्रेज़ चढ़ा. एक साथी उसका और चढ़ा. बीच में गांधी जी और दोनों साइड दोनों अंग्रेज बैठ गए. उनके मन में बड़ी घृणा उत्पन्न हुई कि यह इन्डियन कहां से आ गया.
उतरने के लिए कुछ इशारा किया, गांधी जी कुछ बोले नहीं. वह तो विचार में पहले से ही बड़े दृढ़ थे. अपने विचार के पक्के जिद्दी थे. जो सत्य है, उस का आग्रही तो होना ही चाहिए. बाल्यकाल से ही यह संस्कार लिया. बैठे रहे. गाड़ी चालू हुआ. चालू गाड़ी में उतरना कैसे दायें हाथ की तरफ जो अंग्रेज बैठा था - उस अंग्रेज ने देखकर के घृणा की दृष्टि से कहा यू डैमफूल. लैफ्ट साइड. बोलने में भी जरा घृणा प्रकट करके तिरस्कार की दृष्टि से गांधी जी को कहा, यू डैमफूल.
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गुरुवाणी
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गांधी जी चुपचाप बैठे रहे. स्टेशन आ ही रहा था. उतरने की तैयारी थी. गांधी जी ने अपना मौन भंग किया, वाणी में कैसी कुशलता होनी चाहिए. एक बार बोले और सब चुप हो जाएं.
गांधी जी ने कहा - बिल्कुल सही कहा. आय एम सिटिंग बिटविन टु डैमफल दो बेवकूफों के बीच में मैं बैठा हूं. उसके बाद अक्ल आई कि. ये तो मिस्टर गांधी हैं. कहने में, भाषा में वह विवेक होना चाहिए, बुद्धिमत्ता उसमें होनी चाहिए कि सुनने वाला भी एक बार उसमें डूब जाए. ____ अफ्रीकन कांग्रेस के अंदर एक बार ऐसा संयोग. डेमोक्रेटिक पार्टी विजयी बन गई. वहां दो ही पक्ष हैं. अपने भारत की तरह वहां स्थिति नहीं, बरसात के समय आप जानते हैं, मेंढक पैदा होते हैं. यहां रोज नई पार्टियां पैदा होती है. देश सेवा किसी को नहीं करना है, वहां तो मजे चाहिए. बिना मज़दूरी किए नफा चाहिए. बिना पसीना उतारे पैसा मिलना चाहिए. यह हमारा लक्ष्य बन गया.
वहां सिर्फ दो पार्टी हैं वर्षों से. जहां आप देखिए दो ही पार्टी या तो रिपब्लिकन या डेमोक्रेटिक. दोनों के चिन्ह हैं-एक का गधा, एक का हाथी. रिपब्लिकन का हाथी चिन्ह है. संयोग ऐसा वहां डेमोक्रेटिक पक्ष विजयी बन गया. रिपब्लिकन हार गई. प्रेसिडेन्ट उनका आया तो सैनेट का उद्घाटन था. उस दिन विरोधी पक्ष के जो नेता थे, औपचारिक दृष्टि से भाषण के लिए कहना पड़ा, विरोध पक्ष को भी. सैनेट उद्घाटन का पहला ही दिन था. विरोध पक्ष का नेता बड़ा होशियार बड़ा कुशल था. उसने निशाना छोड़ा, रिपब्लिकन था, उसे मालूम था ये डैमोक्रेटिक वाले हैं. उनका बहुमत है. उन्हीं की सरकार है. प्रेसिडेन्ट उनका है. खड़े होते ही उसने कहा - मैं यहां पर क्या भाषण दूं. आधे से ऊपर तो गधे हैं. इन गधों को क्या कहूं. उनका चिन्ह गधा है. शब्द बोलते ही स्पीकर ने कहा – नही, डू नोट स्पीक, बैठा दिया. कहा - आप अपने शब्द वापिस लीजिए, ये शिष्टाचार के शब्द नहीं हैं. संसद में बोलने लायक भाषा नहीं है. यह तो यहां के सैनेट के सदस्यों का अपमान है. या तो अपने शब्द वापिस लें या क्षमा याचना करें.
पहले ही दिन “प्रथमग्रासे मक्षिकापातः” पहला ही ग्रास लिया और मक्खी गिरी. कितना होशियार व्यक्ति था, बड़ा बुद्धिमान, अपनी बौद्धिकता का परिचय दिया उसने. कहा-रपीकर महोदय. अपने शब्द वापिस लेता हूं. यहां आधे गधे नहीं हैं. समझ गए मेरी बात इसका मतलब आधे तो हैं ही. स्पीकर ने कहा शब्द वापिस लीजिए. ले लिया. शब्द वापिस ले लिए पर आधों को तो गधा बनाकर ही गया.
पहले दिन ही उसने अपना बौद्धिक परिचय दिया. व्यक्ति में ऐसी कुशलता होनी चाहिए.
हमारे आचार्य हेमचन्द्र सूरि जी जब राजदरबार में पधारे, वहां पर बहुत बड़े-बड़े विद्वान् पण्डित थे. उनका आदर सम्मान और प्रतिभा देखकर के, पण्डितों के मन में ईर्ष्या आई. एक पण्डित ने ज़रा कह दिया - उनके आगमन पर पाटन की घटना है. सम्राट् सिद्धराज
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गुरुवाणी
जय सिंह के समय की घटना है. सिद्धराज का राज्य था, जैसे ही वहां आचार्य हेमचन्द्रसूरि का आगमन हुआ. कंधे पर कंबली पड़ी थी. हाथ में डंडा था जो साधू का वेश है, वो आ रहे थे. एक पण्डित ने ज़रा मसकरी कर दी.
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"आगतो हेम गोपालो, दण्ड कंबलमुद्वहन्"
हेम नाम का कोई ग्वाला आ रहा है. गाय चराने वाला, कंधे पर कंबली लटकी है. हाथ में डंडा लेकर के आ रहा है. हेमचन्द्र सूरि समझ गए. राजदरबार में आते ही सुनने को कैसा मिला. उसी समय जवाब मिला. हेमचन्द्र सूरि ने आकर बड़ी प्रसन्नता से कहा" षड्दर्शनश्च साधुषु पशुचारयन् जैन वाटके”
तुम्हारे जैसे ढोर को चराने के लिए ही यहां आया हूं. कहीं जंगल में नहीं पशु तो यहीं मिलेंगे. जैसा प्रश्न वैसा ही उत्तर. इसे कहा जाता है - निपुणता व्यवहार में ऐसी निपुणता आप रखते हैं ?
सेठ मफतलाल पकड़े गए तिहाड़ जेल में गए. घरवाली ने कहा- चौमासा आ गया श्रावण का महीना चल रहा है. खेती-बाड़ी कौन करेगा. तुम तो जेल में बैठ गए हम यहां क्या खाएंगे, चना फांके. खेती कौन करेगा, हल कौन चलाएगा, बीज कौन बोएगा. पैसा कहां से लाएं. बिना पैसे के ट्रैक्टर हल चलाने को कौन देगा.
मफतलाल ने कहा बडबड़ मत कर, मैं सब उपाय कर दूंगा. जा घर. मुलाकात के लिए आई थी. जेल से उसने ओपन पोस्ट कार्ड लिखा कि आज तक मैंने बहुत माल चोरी का लिया, इधर-उधर का माल खरीदा. घर में छिपाएं तो डर था, न जाने कभी नुकसान हो जाए. चैकिंग हो जाए. इसलिए मैंने अपने खेत के अंदर अलग-अलग जगह पर बहुत माल गाड़ा हुआ है. ध्यान रखना, खेती की पूरी रखवाली रखना. वहां कोई हाथ
साफ न कर जाए.
जेल से कोई भी पत्र बिना सेन्सर हुये जाता नहीं. सेन्सर के हाथ में लैटर आया और तुरंत पुलिस को इन्फार्म किया. इसके खेत के अंदर देखा जाए. अब क्या ट्रैक्टर चलने शुरू हुए. क्या खुदाई हुई, कभी जिन्दगी में ऐसा हल नही चला. एक-एक इंच जगह खोदा गया. पूरा खेत वहां पर खोद दिया गया. धन हो तो मिले.
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घरवाली आई तो मफतलाल ने कहा - देखा बुद्धि दौड़ाई. हल खैड़ दिया ना. बीज बो देना. समझ गए. इसे कहा जाता है। अक्ल. व्यवहार में तो अक्ल बहुत चलाते हैं. अध्यात्मिक क्षेत्र में अक्ल चलाइये. कर्म मूर्ख बन कर के लौट जाए. कर्म को ही ठगने का प्रयास करिए. जगत् को ठगने से क्या मतलब.
धुन
तुलसीदास के पास जब पण्डित गए. काशी में वे तो गंगा के किनारे राम की भक्ति में लगे थे. राम का स्मरण कर रहे थे. लोगों ने आकर नमस्कार किया और पूछा क्या हाल-चाल है ?
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गुरुवाणी:
A
हाल चाल अब बहुत सुन्दर है. मेरी भूल थी, उसे मैंने सुधार ली, आज तक राम को नमस्कार करता था. अब राम को नमस्कार नहीं करता. किसको करते हैं?
जगत् के महाठग को नमस्कार करता हूं. ठग कोई अवतारी पुरुष नहीं. कोई देवी-देवता नहीं. आप ठग को नमस्कार करते हैं? इतने महान संत होकर.
बिल्कुल सही है, मुझे वही नजर आया, उसी को ही नमस्कार करना. पण्डित विचार में पड़ गए. वह कवि सहृदय व्यक्ति थे. उनके भावों को समझ नहीं पाए. विद्वान पण्डित. ने कहा - जरा आप स्पष्टीकरण तो करिए. आप किस ठग को नमस्कार करते हैं तुलसीदास ने कहा अपने ठग का परिचय दूं.
माया तो ठगनी भई, ठगत रहत दिन रात,
जिसने माया को ठगा, उस ठग को नमस्कार. समझ गए आप. माया सारी दुनिया को ठगती है, पर जिसने माया को ठगा. कर्म को ठगा, उसको नमस्कार करता हूं. महाठग कौन अरिहंत, जिसने कर्म को ठगा. वो ठग कौन - राम. अपने अन्तर शत्रुओं को जीत लिया, कर्म को ही बनाया. जगत को बेवकूफ मत बनाइये, कर्म को बेवकूफ बनाइए. जगत् को ठगते हैं तो गुनहगार बनते हैं. यदि आपने कर्म को ठगा, माया को ठगा, तो साहूकार बनेंगे. ठगना सीखिए. वह कला मैं बताऊंगा, आज तो समय काफी हो गया. __माया को कैसे ठगा जाए, भाषा के तीन गुण तक आए, स्तोकम्, मधुरम्, निपुणम्. अब बताऊंगा --- कार्य पतितम्, अतुच्छम्, गर्व रहितम्, पूर्व संकलितम् और धर्म संयुक्तम्. ये गण बाकी रखें हैं. हम चर्चा करेंगे कि कार्य जब हो तभी बोलना. अकार्य बोलने का प्रयास नहीं करना. एक-एक गुण करने लायक है. आपके व्यवहार की बात है. सुबह से शाम तक सारा व्यवहार आपकी वाणी पर आधारित है, वाणी में यदि विवेक का नियंत्रण आ जाए, वाणी में पवित्रता आ जाए शब्द फिल्टर हो जाएं, तो कोई विकार का जन्तु पैदा नही होगा. कोई कटुता वैर विरोध के जन्तु वहां पैदा नहीं होंगे. यदि आत्मा उस वाणी का पान करे तो उसे आरोग्य मिलेगा. इस विषय पर पुनः हम चर्चा करेंगे. आज बस इतना ही रहने दो.
"सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्"
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= गुरुवाणी
वाक् संयम
परम कृपालु आचार्य-भगवन्त श्री हरिभद्र सूरि जी ने धर्मबिन्दु ग्रन्थ के द्वारा आत्मा के परम गुणों को, आत्मा के विशुद्ध धर्म को, जीवन और व्यवहार के आचरण को बहुत सुन्दर तरीके से समझाने का प्रयास किया है. उन्होंने बताया है कि प्रतिदिन उपयोग में आने वाली वस्तु, जीवन और व्यवहार का एक मात्र आधार हमारी वाणी है. इससे ही सारा व्यवहार चलता है. इसके माध्यम से व्यक्ति जगत का प्रेम प्राप्त करता है. इस वाणी के प्रकाशन के द्वारा अरिहन्त प्रभु के गुणों का स्मरण किया जाता है. ऐसे महत्व की इस वाणी का उपयोग किस प्रकार विवेक पूर्वक किया जाये? वह परिचय उन्होंने इस सूत्र के द्वारा दिया है.
वाणी की पवित्रता तभी आयेगी जब उसके अन्दर किसी प्रकार के विकार का विचार प्रवेश न करें.
सर्वत्र निन्दासत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषु इसी सूत्र पर गत तीन दिनों से हमारा विचार चल रहा है. व्यक्ति की आदत है. यह उसका अनादिकालीन संस्कार है. जब-जब प्रसंग आता है, व्यक्ति आवेश में आकर वाणी का दुरुपयोग कर बैठता है. परिणाम स्वरूप जीवन में संघर्ष होता है, सारा ही जीवन काम और क्रोध की आग में जलकर कोयला बन जाता है. सारी मधुरता चली जाती है. जीवन का सारा आनन्द चला जाता है. वाणी के माध्यम से जीवन में हमारे अन्दर की जो कविता बाहर आनी चाहिये, वह सब नष्ट हो जाती है, जीवन कर्कश बन जाता है. उसके सारे मधुर स्वर रुदन में बदल जाते हैं. व्यक्ति सिवाय पश्चाताप के कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता. शीर्ष अन्दर शून्य मिलता है. इसलिये ग्रंथकार ने इस पर अधिक जोर दिया और कहा कि जीवन में यदि आपको धार्मिक बनना है तो सर्वप्रथम इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त करना है. विषय के अनुकूल नहीं बनना चाहिए, अपितु विषय को अपने ऐसा अनुकल बना लिया जाये कि ये सारी इन्द्रियां धर्म प्राप्ति की साधन बन जायें.
यदि इन इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त हो जाये तो आत्मा को प्राप्त करना अति सरल बन जायेगा. आज तक कभी हमने इसका प्रयास नहीं किया. सारा जीवन जीकर भी आध्यात्मिक रूप में हम मरे हुए हैं. अंगों से मूर्च्छित उस जीवन का कोई मूल्य नहीं जिसमें धर्म सक्रिय नहीं. जिसमें धर्म आपके कार्य क्षेत्र को मार्गदर्शन देने वाला नहीं.
नियंत्रित और व्यवस्थित जीवन न हो, इन्द्रियों पर विवेक का अनुशासन न हो, ज्ञानियों की भाषा में कहा गया है कि वह आत्मा मृत है. अंदर से मूर्च्छित आत्मा को मृत की संज्ञा दी गई है.
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%3-गुरुवाणी
यहाँ तो हमें अपने व्यवहार से अपनी धार्मिकता का परिचय देना है. हर इन्द्रिय पर हमारा अनुशासन होना बहुत जरूरी है. खा-पीकर के तो सारी दुनिया चली जाती है, ऐसा जीवन कोई मूल्य नहीं रखता है. इसीलिए मानव जीवन को परमात्मा के पाने का परम साधन कहा गया है. इसे मोक्ष का मंगल-द्वार माना गया है. न जाने पूर्व जन्मों में कितने पुण्य आपने किए होंगे. प्रयत्न पूर्वक कितनी धर्म साधना आपने की होगी. उसके परिणाम स्वरूप इस वर्तमान जीवन की प्राप्ति हुई है. चौरासी लाख जीवन योनियों की मान्यता है वैदिक और जैन दर्शन की परम्परा में. दोनो ही दर्शन इसे स्वीकार करते हैं.
कितनी ही योनियों के अन्दर हमारा परिभ्रमण हुआ. न जाने कहाँ-कहाँ भटक कर हम यहाँ आये हैं. इसलिए यदि जरा भी प्रमाद किया तो वे ही योनियाँ फिर से आपके स्वागत के लिए तैयार हैं. फिर से यह परिभ्रमण का चक्र चलेगा.
परिग्रह की वासना को लेकर, जगत को प्राप्त करने की कामना को लेकर, पूरे संसार का परिभ्रमण चलता है और संसार जीवित रहता है. हम बार-बार मरते हैं परन्तु यह हमारा संसार जीवित रहता है, जिन्दा बना रहता है. यह कभी मरता नहीं. होना यह चाहिये कि हमारे अन्दर से संसार मर जाये. मन के अन्दर से संसार के विषय मूर्च्छित हो जायें और मैं पूर्ण जागृत रहूँ, अपने पूर्णतम को प्राप्त करूँ..
इस ग्रन्थकार ने अन्तर की करुणा से इस सूत्र की रचना की हैं. जगत का मुख्य कारण वैर, कटुता और वैमनस्य है. इस का जन्म इस से ही होता है. बोलने में विवेक का अभाव हो सकता है क्योंकि भाषा पर आपका कोई नियन्त्रण नहीं है. जिसे हमारे यहां समिति माना गया. समिति का मतलब ही होता है उपयोग, यत्न, कार्य और उस कार्य के विवेक को यहाँ समिति माना गया, भाषा समिति.
क्रियाओं के अन्दर, पौषध प्रतिक्रमण के अन्दर हम इसका उपयोग करते हैं. कि विवेक पूर्वक और मर्यादित रूप में बोलूंगा. जरूरत पड़ने पर ही मैं इसका उपयोग करूंगा. समिति का मतलब होता है सारा ही जीवन व्यवहार. इसे आधार माना गया है. इस आधार पर यदि आपका नियन्त्रण न रहे तो यह धर्म की इमारत कैसे और कब तक टिकेगी? यह आप स्वयं सोचिये.
यदि जीवन में व्यक्ति ने उद्देश्यमलक कुछ नहीं किया. खा पीकर, मौज करके, जीवन व्यतीत कर दिया. सभी विषयों के आधीन रहते हुए दुर्दशा पूर्वक अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गया. ऐसे व्यक्ति की - मृत्यु हो जाये तो अन्तिम संस्कार करवाने के लिए भी कोई तैयार नहीं होता. मोहल्ले वाले बाहर से लोग बुलाकर उस लाश को निकलवा देते हैं. और जंगल के अन्दर किसी एकान्त स्थान पर ले जाकर उस लाश को डाल दिया जाता है, कहीं किसी पापी व्यक्ति की ऐसी ही मृत्यु हुई.
वहाँ कोई योगी पुरुष अपनी साधना में अपूर्व आनन्द ले रहा था. एकान्त वातावरण था. प्राकृतिक सुन्दरता बिखरी हुई थी. ऐसे मंगलमय वातावरण में भी अचानक उसके
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-गुरुवाणी
मन में जरा चंचलता आई. विकृति आ गई. भाव में आवेश का प्रवेश हो गया. योगी पुरुष ने विचार किया कि आज यहाँ आस पास का वातावरण कुछ दूषित नजर आता है. __मेरे ध्यान में, साधना में, चित्त की एकाग्रता में यह व्यग्रता कैसे आ गई? मेरे भाव के अन्दर आज आवेश का प्रवेश कैसे हो गया? जरूर कहीं आस-पास दुषित वातावरण हुआ होगा. निरीक्षण किया. आत्म गवेषक व्यक्ति बड़ा जागृत रहता है. निरीक्षण के बाद उनको मालूम पड़ा, किसी व्यक्ति की लाश लाकर कोई वहाँ डाल गया है. जंगल के भूखे प्राणी वहाँ आ गये. लाश को सूघंने लगे. वन्य प्राणियों में सियार को बड़ा चालाक माना जाता है.
कहावत में जंगल का राजा सिंह बताया जाता है, उसको एक दिन ऐसी धुन सवार हुई कि जितने भी उसके दरबार में प्राणी थे, सभी को बुलाया सिंह के आमन्त्रण को कौन अस्वीकार करे, सभी आये. एक-एक को बुलाकर उसने कहा कि हमारे किसी साथी ने कहा है कि तुम्हारे मुंह से बड़ी दुर्गन्ध आती है. बास आती है. क्या यह सच है? मुझे मेरी दुर्गन्ध मालूम नहीं पडती तम संघो तो? बेचारे बकरी वगै ह सब आये. आकर संघने लगे. मुंह तो गटर है. दुर्गन्ध तो आयेगी ही. वैसे ही उन्होंने वहाँ कह दिया. हाँ हजूर, जो आपने कहा वह बिल्कुल सच है. आपके मुंह से जरा दुर्गन्ध तो आती है.
बड़ा अप्रिय लगा सिंह को वह शब्द और उसने उसी समय उन पर आक्रमण किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया. जितने भी जानवर वहां आये थे, सबके साथ इसी प्रकार का व्यवहार हुआ. सियार सावधान था, जब उसका नम्बर आया और उसे बुलाकर पूछा कि जरा बताओ तो सही कि यह दुर्गन्ध मेरे मुंह से आता है या नहीं? ये जानवर तो इस प्रकार कह कर गये हैं. तुम बताओ कि सत्य क्या है?
सियार ने कहा "हजर! आपका आदेश मझे शिरोधार्य है, परन्त मझे जोर की सर्दी लगी हुई है. जुकाम लगा है. नाक काम नहीं करती. मैं सूचूं तो भी खुशबू या बदबू मालूम नहीं पड़ती". इस तरह वह बच गया. वह अपनी होशियारी से, वाणी की चतुराई से बचा अन्य जिनते भी आये सब मौत के घाट उतर गये, सियार का यह कहना कि “मुझे सर्दी लगी है. मालूम नहीं पड़ता दुर्गन्ध है या सुगन्ध." उसकी चतुराई थी.. ___ सियार जब उस लाश के पास में आया और सूंघ कर देखने लगा. उसकी दृष्टि भी वहाँ पर गई. उसे मालूम पड़ा कि सियार आया है. वह इस लाश को खायेगा, भक्षण करेगा. दूर से ही योगी पुरुष ने अपने अन्तर की करुणा से कहा
रे रे मुञ्चक मुञ्च सहसा, निचस्य निंद्यवपुः योगी पुरूष ने दूर से देखकर उस सियार से कहा कि अवश्य ही तुमने पूर्व जन्म में कोई ऐसा अपराध किया होगा जिसका वह वर्तमान परिणाम है. इतनी निकृष्ट योनि में, पशु योनि में तुम्हारा जन्म हुआ है. यदि अब तुमने ऐसे गलत व्यक्ति की लाश को खाया तो भविष्य में तुम्हारी क्या गति होगी? यह भयंकर पापी आत्मा है, जीवन में कभी
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गुरुवाणी
धर्म कार्य इसने किया नहीं. इसका सारा मनुष्य-जन्म निष्फल गया है. इसका सारा जीवन पाप प्रवृत्ति से भरा हुआ रहा. ऐसी दूषित आत्मा की लाश है यह. इसे खाना छोड़.
सियार ने कहा भगवन्! आपका आदेश तो उचित है परन्तु मुझे भूख इतनी सता रही है कि जीना दुष्कर हो गया है. बड़ी मुश्किल से यह लाश मिली है. इसे भी आप मना कर रहे हैं. मुझ पर दया करिये. केवल थोड़ा सा आहार का आधार मिल जाये तो मुझे बड़ा सन्तोष होगा. इसकी यदि आँखें खां लूं तो क्या हर्ज है? छोटी सी आंख है. आंख ने क्या पाप किया होगा? योगी पुरुष ने देखकर सियार से कहा
"नेत्रे साधु विलोक नेत्रे रहिते," इस आंख ने कभी सन्तपुरुषों का दर्शन नहीं किया. इस की दृष्टि मात्र लोगों के दुर्गुणों पर गई. काक दृष्टि कैसी होती है? कौए की नजर जाती है गन्दगी पर. हमारी दृष्टि का यह विकार हमारे जीवन का विनाश करता है. हर व्यक्ति के दुर्गुण पर ही हमारी दृष्टि जाती हैं ह्यूमन साइकोलोजी है. मानवीय मनोविज्ञान है. आप यदि अपने मकान के अन्दर एक दम ह्वाइट पेपर, सफेद कागज बोर्ड पर लगा दें और मैं उसके बीचों बीच काला बिन्दु रख दूं तो आप सच कहें कि नजर कहाँ जायेगी? बिल्कुल केन्द्र में, सेन्टर में मैंने जहां काला बिन्दु लगा दिया है. सबकी नजर वहीं जायेगी.
यह अनादि काल का संस्कार 99 प्रतिशत उसमें एकदम ह्वाइट पेपर है, सफेद कागज है. एक पर्सेन्ट यदि मैंने ब्लैक स्पोट कर दिया, काला निशान बना दिया, नजर उस काले निशान पर जायेगी. 99 प्रतिशत जो निर्मल है, स्वच्छ है, वहां नजर नहीं जायेगी. ___ यही हमारी आदत है, किसी व्यक्ति में हजार गुण हों, वहाँ हमारी दृष्टि नहीं जायेगी. परन्तु जहां जरा सा भी दुर्गुण झलक जाये, हम झट वहीं पर दृष्टि टिका लेगें. अपवाद या अवर्णवाद बोलकर अपनी जीभ गंदी करेंगे और तुरन्त पर-निन्दा के आश्रित बन जायेंगे.
योगी पुरूष ने कहा-"नैन साधु विलोक नैनरहिते” इस आंख से कभी साधु पुरुषों का दर्शन ही नहीं किया, परदोष दर्शन में ही इसकी दृष्टि रही. अतः दृष्टि इसकी मलिन बनी रही. कभी प्रभु का दर्शन नहीं किया. विकार से भरी इसकी दष्टि कभी अपने आप को नहीं देखा. हमेशा पर दृष्टि में रहा. लोग क्या करते हैं? यही देखने में जीवन चला गया. मेरे अन्तर जगत् में क्या है? यह देखने का प्रयास ही नहीं किया. अपने को देखने की दृष्टि प्राप्त नहीं की.
दष्टि निर्मल होनी चाहिये परमात्मा ने कहा-गिद्ध दृष्टि चाहिये. गिद्ध की दृष्टि बहुत गहरी होती है. बहुत उँचाई से वह अपनी वस्तु को देख लेता है. उसी तरह से हमारे जीवन में दृष्टि होनी चाहिये, वर्तमान में रहकर भी मैं अपने परलोक को देख सकूँ, कल्पना कर सकूँ कि मेरा कार्य मुझे कहाँ पहुँचायेगा. किस प्रकार की मुझे गति मिलेगी. वर्तमान में इस प्रकार से देखना, यह दूरदृष्टि या गिद्ध दृष्टि है.
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गुरुवाणी:
सियार चुप रहा, परन्तु क्या करे, वह भूख से लाचार था. उसने कहा "भगवन् ! और कुछ नहीं, कान खां, लूं तो क्या है ? कान क्या पाप किया है ? छोटे से कान यदि मैं भक्षण कर लूँ तो मुझे थोड़ी सी तृप्ति मिल जायेगी. मानसिक सन्तोष मुझे मिल जायेगा.
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" सारश्रुते द्रोहिणौ”
योगी पुरुष ने गर्जना करके कहा- इस कान ने कभी भला श्रवण नहीं किया. पर निन्दा का ही श्रवण किया है. जगत की चर्चा का ही श्रवण किया है, कभी धर्म कथा या प्रवचन से इसने इस कान को पवित्र नहीं किया. ये कान खाने योग्य नहीं, तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी, तेरी सारी पवित्रता भी चली जाएगी, मेरा यह आदेश है, तू इसे खाने का विचार छोड़ दे.
'सारस ऋतौ द्रोहिणौ' आंख से कभी अच्छा देखा नहीं, कान से कभी धर्म कथा सुनी नही. सियार विचार में पड़ गया. कहा कि भगवान फिर क्या करूं. इसके हाथ खा लू. आपने मना कर दिया तो मुझे चुप रहना पड़ता है.
"हस्तौ दानविवर्जितौ”
इसने जीवन के अंदर हाथ से कभी दान किया ही नहीं. जगत को लूटने में ही इसका प्रयोग किया. अर्पण में कभी इसका उपयोग नहीं किया. केवल दुरुपयोग किया है. इसलिए भूलकर भी इसके हाथ का भक्षण मत करना, वरना तेरी रही-सही भी चली जाएगी. भवान्तर के अंदर इससे भी भयंकर योनि में तुझे जन्म लेना पड़ेगा.
जो हाथ सेवा के लिए कुदरत ने दिया, जिस हाथ से परमात्मा या साधुओं, मुनिजनों की भक्ति करनी चाहिए. जो हाथ दीन-दुखियों की सेवा के लिए मिला है, उसका उपयोग आज तक हमने क्या किया ? कोई साधन बुरा नहीं होता, साधन का उपयोग बुरा या भला होता है.
चाकू कितने व्यक्तियों को जीवन दान देता है, न जाने कितने व्यक्तियों का प्राण लेता है. चाकू निरपेक्ष है, निर्दोष है, उसका उपयोग यदि विवेक पूर्वक किया जाए तो लाभ के लिए है. विवेक शून्य होकर यदि उपयोग करें तो हानिकारक है. ये सारी इन्द्रियाँ मोक्ष प्राप्ति में सहायक बनती हैं. सारी इन्द्रियां कर्म क्षेत्र में सहयोग देने वाली बनती हैं. परन्तु यदि दुरुपयोग किया जाए तो दुःख को आमन्त्रित करती हैं.
हाथ का उपयोग कभी हमने इस प्रकार किया ही नही. सेवा के लिए इसका उपयोग हमसे कभी न हो पाया.
"हस्तौ दानविवर्जितौ”
व्यक्तियों की आदत है जगत को प्राप्त करना हमें प्राप्ति में आनन्द अनुभव होता है, अर्पण में जरा भी आनन्द नहीं आता है. लोग क्षणिक प्राप्ति के अन्दर बड़ी शान्ति का अनुभव करते हैं. परन्तु वह शान्ति स्थायी नही रहती, अस्थायी होती है. न जाने इस प्राप्ति
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-गुरुवाणी:
के लिए कितना भयंकर पाप करना पड़ता है. जगत को प्राप्त करने के लिए न जाने कितने अनाचार का सेवन करना पड़ता है. कितना घोर दुरुपयोग हम करतें हैं, इस हाथ का अपनी लेखनी के द्वारा. असत्य का प्रयोग करके यदि हम धन उपार्जन करें तो वह कैसे शान्ति देने वाला बनेगा?
धर्म का जो साधन है, उस साधन का यदि दुरुपयोग किया जाए. सरस्वती के साधन का यदि दुरुपयोग किया जाए, तो वह दर्द और पीड़ा का कारण बनता है. हमने कभी इस तरह से सोचा ही नहीं, लिखकर असत्य की वकालत करके, अप्रामाणिकता से जीवन चलाकर, कितना हमने अपनी आत्मा के लिए अनर्थ उपस्थित किया है, कभी उसका हिसाब हमने देखे ही नहीं.
पुराने जमाने में चौपड़ा रखा करते थे. हिसाब किताब के लिए दुकान पर. आपको मालूम होगा काली स्याही से, होल्डरों से चौपड़ा लिखा जाता था. दिवाली के दिन मुहूर्त करते समय उसी का प्रयोग किया जाता था. वह मांगलिक माना जाता है. हमारी परंपरा है. तो चौपड़ा लिखते-लिखते हमें मालूम है, उस समय ब्लोटिंग पेपर नहीं होता था, रेती रखी जाती थी. धूल सूखी हुई, यदि कहीं ज्यादा स्याही जम जाए तो उसे डाल देते. वह सूख जाता था. स्याही और कलम ने आपस में मिलकर बड़ी मित्रता की, स्याही ने कहा- परोपकार पूर्वक अपना जीवन अर्पण कर देना, यह मेरी भावना है. तुम मुझे सहयोग दो.
कलम ने कहा-ठीक है, मैं भी घिस घिस कर अपना प्राण अर्पण करने को तैयार हूँ, दोनों के अन्दर बलिदान की बड़ी सुंदर भावना रही कि अपना बलिदान करके लोगों का हम पेट भरें, लोगों के जीवन निर्वाह करने में मदद करें, परिवार का भरण पोषण करने में सहायक बनें.
आप देखिए! दोनों में कैसी सुंदर अपूर्व मित्रता है. कलम जैसे ही स्याही में डुबोया जाता है, स्याही का साथ मिलता है. दोनों में बड़ी अच्छी मित्रता रहती है. जैसे-जैसे कलम आगे चली, उसके पीछे स्याही सूखती हुई चली जाती है. मित्र के वियोग के अंदर, कवि की बड़ी सुंदर कल्पना है, वह स्याही अपना प्राण दे देती है. मेरा मित्र आगे चला गया उसके वियोग में मेरा जिन्दा रहना कोई मूल्य नहीं रखता. स्याही सूख जाती है, मर जाती है. कलम आगे चली जाती है.
कई बार आपने देखा होगा, लिखते-लिखते दो चार लाइन हम नीचे आ जाएं और यदि कहीं स्याही जीवित रह जाए, सूखे नहीं. ऐसे में यदि पन्ना बदलना पड़े तो क्या करते हैं? वह धूल लेकर ऊपर डाल देते हैं. वह धूल क्यों डालते हैं? तेरा मित्र तुझे छोड़कर कहां चला गया, मित्र के वियोग में तू अभी तक जीवित है. तेरे मुंह पर धूल पड़े.
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-गुरुवाणी
हमारी परंपरा बड़ी अपूर्व वस्तु है. आत्मा को छोड़कर धर्म को छोड़ कर यदि आप जीवन में आगे बढ़ जाएं, तो ज्ञानियों ने कहा कि आपके मुंह पर भी कर्म राजा धूल ढालता है. धिक्कार है तुम्हें. धर्म तुम्हारे जीवन का परम कल्याणकारी मित्र है. उसको छोड़कर तुम इतने आगे बढ़ गए? आत्मा और धर्म को छोड़कर यदि आगे बढ़ोगे तो मुह पर धूल पड़ेगी. धिक्कार है ऐसे जीवन को. इस जीवन का कोई मूल्य नहीं है, कोई महत्व नहीं है. तिरस्कार के योग्य है ऐसा जीवन.
योगी पुरुष ने बहुत सुंदर ढंग से उसको समझाया, कहा-कि तू इसे छोड़ दे. कैसी भी तुझे भूख लग जाए, उपेक्षा कर दे. यदि प्राण चला जाए तो भी चिन्ता न कर. वह तो जाने वाला है ही. दो दिन पहले चला जाए तो क्या हुआ. अतः इसके हाथ कभी मत खाना. वरना तुम्हारे अंदर की सारी उदार वृत्ति नष्ट हो जाएगी. न जाने भवान्तर में कहाँ किस योनि में जन्म लेना पड़े?
सियार कहता है और कुछ नहीं - "अगर इसका पेट खा लूं तो, योगी ने कहा कि "यह तो पाप का गोदाम है."
अन्यायोपार्जितवित्तपूर्णमुदरम्. अन्याय से उपार्जन किए हुए द्रव्य से इसने अपना पेट भरा है. कभी नीति और न्याय का पैसा इसके पेट में नही गया. कभी भूल कर के इस पेट का भक्षण मत करना. यह तो पाप का गोदाम है. बिचारा सियार विचार में पड़ गया. एक-एक अंग को लेकर के उसने चाहना की. कि भगवन्! यदि आपकी इच्छा हो तो इसको खा लूं. आखिर में सियार ने कहा "भगवन! इसके माथे को ही खा लूं." ।
योगी पुरूष ने कहा “यह तो पाप की पार्लियामेंट है. सारे दुर्विचार वहां से ही पैदा हुए. इसके अंदर पाप की मति है.
गर्वेण तुंगशिरः बड़े गर्व से इसने अपने माथे को ऊपर रखा है. इस सिर का भक्षण मत करना. नहीं तो अहंकार प्रवेश कर जाएगा. ये सारे पाप के विचार तेरे अदर आ जाएगे. उसका परिणाम तू जानता है. भवान्तर के अंदर बुद्धि मिलेगी नहीं, निर्बुद्धि होगा. इसलिए भूल कर भी इसके माथे का भक्षण मत करना". "भवगन्, इसके पांव को खा लूं तो क्या हर्ज है? सारा शरीर छोड़ देता हूं केवल पांव खा लूंगा."
“पादौ न तीर्थंगतौ" "इन पांवों से कभी तीर्थ यात्रा इसने नहीं की. कभी सत्पुरुषों की सेवा में इन पाँवों का प्रयोग नहीं किया. कभी कोई धर्म प्रवचन में या धर्म यात्रा में ये पांव नहीं गये. इसलिए इसे तू पूरा का पूरा ही छोड़ दे. भूखे मरना, तेरे लिए भले ही पुण्य न बने परन्तु इसका भक्षण करना, पाप अवश्य बन जाएगा."
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-गुरुवाणी
कितना भयंकर दुरुपयोग हमने अपने पावों का किया है. न जाने दिन में गर्मी में कहां पांव दौड़े. पैसे के लिए उस भयंकर गर्मी में भी हम दौड़ते रहे. परन्तु परमात्मा के दर्शन के लिए या साधु सन्तों के दर्शन के लिए कभी अपने पुण्य पुरुषों की सेवा के लिए हमने आज तक पांवों का प्रयोग नहीं किया तो फिर ये किस काम आए? ___हमने अपनी इन्द्रियों का आज तक उपयोग केवल पाप के आगमन के लिए किया है. इन्हें पाप को प्रवेश द्वार बना कर रखा है. पाप के उपार्जन में सारी इन्द्रियां माध्यम बन गईं जबकि इसका उपयोग धर्म का साधन बनने के लिए थे. किन्तु यह उपयोग धर्म साधना के क्षेत्र में आज तक नहीं किया गया. मोक्ष प्राप्ति का जो साधन था. वह साधन संसार उपार्जन में निमित्त बना. यह बहुत विचारणीय प्रश्न है.
पाँव को यदि आपने देख लिया होता, समझ लेते पांव ही की भाषा से उसके भावों को यदि यह जान लेते, बहुत कुछ पा जाते. पांव की भी एक भाषा है. ___ आज तक इस भाषा को हम समझ नहीं पाए. आप ने कभी पांव की नम्रता देखी? इस पांव की साधुता को देखा? कभी इसने असहयोग भाव से जीवन में अशान्ति उत्पन्न की? कभी हड़ताल की? आपकी आज्ञा का यथावत पालन किया. यदि पांव जितनी अकल भी हमारे अंदर आ जाए, तो ये सारी यात्रा मोक्ष की ओर, परमेश्वर की यात्रा बन जाए. पांव जितनी भी बुद्धिमानी हमारे पास में नही. आप देखना, जब हम चलते हैं, एक पांव आगे जाता है दसरा पीछे रहता है. वह कहता है, भई! तम आगे चलो. मैं तुम्हारे पीछे हूँ, तुम्हारे सहयोग में उपस्थित हूँ तुम्हारे सहयोग में तैयार हूं. तुम आगे बढ़ो, जैसे ही वह पांव आगे बढ़ता है, रुक जाता है. मानो कहता है तुम्हें लिए बिना मैं आगे नहीं बदूंगा. तुम आगे आओ. इन दोनों पाँवों की मैत्री क्या कभी आपने देखी? ___कैसा प्रेम पूर्वक आमन्त्रण है, एक इंच भी पिछला पांव आगे नहीं जाता. कभी साथ चलने का प्रयास नहीं करता. कभी इनमें यह दुर्भावना नही आती कि यह ही आगे क्यों बढ़ता है या मैं ही आगे आगे चलूंगा. हुआ है कभी ऐसा? एक पांव आगे जाएगा दूसरा पांव पीछे रहेगा. मैं तुम्हारे लिए सहयोग में, मैं तैयार हूं तुम आगे बढ़ो, जो आगे बढ़ेगा वह तुरंत रुक जाएगा.
तुम को छोड़कर मैं आगे नही बदूंगा. तुम मेरे साथ चलो मैं तुम्हारी सेवा में तैयार हूँ, जैसे पांव आगे आएगा पिछला रुक जाएगा. अगला रुका तो वह तुरंत कहेगा तेज आगे आओं. दोनों का प्रेम देखो, आपको यहाँ से घर तक पहुंचा देते हैं. घर दुकान मकान तक ले जाते हैं. इनमें अगर वैर हो जाए. कटुता आ जाए तो क्या आप यहां से जा सकेंगे?
पांव जितनी भी नम्रता आ जाए, सहयोग की भावना आ जाए तो भी उसका कल्याण हो जाए. हमने न तो अपनी इन्द्रियों से कुछ सीखा. न अपनी शारीरिक रचनाओं में से कोई अध्यात्मिक चेतना या जागति प्राप्त की. मात्र जगत की चिन्ता में सारा जीवन बरबाद हो गया.
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: गुरुवाणी
सियार ने साधु की आज्ञा का पालन किया और कहा- मैं भले मर जाऊं पर इसे न खाऊँगा. आपकी आज्ञा शिरोधार्य है. ऐसे पापी आदमी की लाश का भक्षण मैं कभी नहीं करूंगा. यह कवि कल्पना है, बड़ी सुन्दर कल्पना है. यह सारी कल्पना हमारे उपकार के लिए है. हमें जागृत करने के लिए है..
उस महान आचार्य भगवन्त ने भी यह निर्देश इसीलिए दिया.
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" सर्वत्र निन्दा संत्यागो"
जीभ का कितना घोर दुरुपयोग किया. आपने कभी सोचा. ढेर सारी मिठाई आप खा गए. जन्म से लेकर आज तक लड्डू पेड़ा कितना ही खा गए. क्या जीभ के अन्दर मिठास आई ? आज तक नहीं आई खाते-खाते आनी चाहिए थी. आपकी वाणी को मीठा बन जाना चाहिए था. क्षमापना करते समय संवत्सरी के पारणे में मिठाई से क्षमापना करना कि मैंने तुम्हारा बहुत ही दुरुपयोग किया. आज के बाद कभी दुरूपयोग नही करूंगा. जन्म से आज तक तुम्हारा स्वाद लिया, तुम्हारा परिचय किया. न जाने कितना-कितना तुम्हारा आहार किया. परंतु उस माधुर्य का स्वाद मेरे शब्दों में आज तक नही आया. कड़वापन ही रहा. मिठाई खा कर के भी मिठास नही आई फिर हम रोज खाते हैं. उससे भी क्षमापना करिए.
तुम्हारे परिचय से मुझमें परिवर्तन क्यों नहीं आया ?
संकल्प करिये कि ऐसा माधुर्य मेरे शब्दों मे आना चाहिए. स्तोकम् मधुरम्, और निपुणम् शब्द के जो गुण चल रहे हैं. जिसका वर्णन चल रहा है कि कैसे बोलना चाहिए. कैसी मधुरता आनी चाहिए. निपुणम् जब आप बोलते हैं तो उस कार्य के अंदर उस वाणी के व्यापार के अंदर, आपकी बौद्धिक कुशलता का परिचय मिलना चाहिए, चालबाजी का नहीं, चापलूसी का नहीं. बुद्धि पूर्वक, आत्मा के अनुकूल कुछ बौद्धिक कुशलता का लोगों को परिचय मिलना चाहिए. उसका उपयोग मैं आत्म हित में करूँ. ताकि कार्य के क्लेश से, क्लेश के आगमन से, यह आत्मा मुक्त बने. बुद्धि का उपयोग इस प्रकार से किया जाए.
अन्तर जगत में मेरी आत्मा के गुण लूटे न जाएं. हमने कभी इस प्रकार विचार नहीं किया, जो होशियार व्यक्ति को करना चाहिए. बाहर लुटने से बचने की हम बहुत कोशिश करते हैं. परन्तु अन्दर लुटने से बचने के लिए, हमने आज तक किसी उपाय पर विचार नहीं किया.
सेठ मफतलाल फस्ट क्लास में बंबई जा रहे थे. रास्ते में गुंडा मिल गया, हाथ में बड़ी कीमती अंगूठी थी. बड़ी मूल्यवान छड़ी थी. किसी गुंडे ने देखा यह मौका अच्छा है. बैठ गया वह भी उस फस्ट क्लास के डिब्बे में गाड़ी चल रही थी. मफतलाल विचार में पड़ गया. यह आदमी बहुत गलत दिखाई देता है. चेहरे की भाषा से ही वह उसे समझ गया. इतना कुशल था.
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गुरुवाणी
गाड़ी चल रही थी. वह जान गया कि इसकी हरकत बड़ी खराब है. इसकी नजर मेरी अंगूठी पर है. गुंडा आया. धमकी देने लगा. मफतलाल बड़ा चालाक और चतुर था. गुंडे ने इशारा किया कि तुम्हारे पास जो कुछ है, वह उतार कर दे दो.
मफतलाल ने कहा- बोल नहीं सकता, कान पर इशारा किया कि मैं सुन भी नहीं सकता. आप लिख कर दे दो कि आप क्या बात कर रहे हैं गूंगा बन गया, बहरा बन गया. सामने वाला व्यक्ति विचार में पड़ गया, उसने समझा यह गूंगा ही होगा, बहरा भी होगा. उसने एक कागज का टुकड़ा निकाला और पेन से लिख कर के दिया "जो कुछ तुम्हारे पास है, तुम दे दो. अगर नहीं दिया तो उसका परिणाम भोगना पड़ेगा. मैं तुम्हे खतम कर दूँगा. चलती हुई गाड़ी से तुमको बाहर फेंक दूंगा. चुप चाप दे दो." लिख कर कागज दिया है. मफतलाल ने कागज ले लिया. डाला पोकेट में, अगूंठी घड़ी जो कुछ था वह निकाल करके दे दिया. व्यक्ति को अच्छी तरह उसने पहचान लिया. आने वाले स्टेशन पर उस गुंडे ने देखा कि मेरा काम तो हो गया. अंगूठी मिल गई. घड़ी मिल गई इसके बाद, चार पांच हजार रुपये नगद भी मिल गए गूंगा आदमी है, बहरा आदमी है. निश्चय हो गया, वह क्या चिल्लाएगा? क्या बोलेगा? उसकी आवाज कौन समझेगा ? वह निश्चित था. आने वाले स्टेशन पर वह हजरत उतर गया माल सामान लेकर उसे कल्पना नहीं, थी कि गूंगा कुछ बोलेगा.
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पीछे से मफत लाल उतरा और चिल्लाया "चोर चोर मुझे लूट कर ले जा रहा है." पैसेन्जर इकट्ठे हो गए. चोर विचार में पड़ गया. इस को आवाज कहां से आ गई. वह घेर लिया गया चारों तरफ से और पकड़ा गया. कोर्ट के अन्दर सबूत के रूप में वह स्लिप निकाल कर दे दी. इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए. गाड़ी में इसने धमकी दी किसको साक्षी लाऊं मैं? वहां कौन विटनेस मिलेगा ? मैनें इससे लिखा करके ले लिया. मैंने यह चालाकी की. इसने लिख कर दे दिया. राइटिंग इसकी है पूछ लीजिए नहीं तो टेस्ट करा लीजिए. माल पकड़ना पड़ा. सजा हो गई. माल भी मिल गया, सजा भी हो गई. साक्षी की जरूरत नहीं पड़ी. चालाकी कैसे काम आई ? खेद है कि हम चालाकी और बुद्धि का उपयोग संसार को बचाने के लिए तो करते है. किन्तु कभी आत्मा के रक्षण में इसका उपयोग नहीं करते. मेरी आत्मा के गुण नष्ट हो रहे है. वह कर्म चोरी जैसा है. मेरी सारी साधना की पूंजी रोज लूटी जा रही है. आप ने वहाँ जो कमाया वह दुकान
में लुटा न दो, इसके लिए सिक्युरिटी चाहिए. दुकान के माल की रखवाली चौकीदार करता है, साधु भी चौकीदार जैसा है आवाज देता है आपको जगाता है, सावधान करता है. कोई भय नहीं, कोई खतरा नहीं, किसी पाप का प्रवेश नहीं, आप निश्चिन्त होकर बैठे हैं.
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यहाँ से आप दुकान तक यह सोचते जायेंगे कि आज बहुत धर्म कमाया है. बड़े सुन्दर विचार मिले. बहुत सुन्दर भावना से पुण्य उपार्जन किया. वहाँ पहुँच कर नौकर को हुंडी लाने को कहेंगे, उसके साथ ही लोभ पहुँच जायेगा.
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गुरुवाणी
वह एक धक्का लगाता है, एक थप्पड मारता है और सब संस्कार. यहां से जो प्राप्त किया उसे वह लूटकर ले जाता है. सामने दिखता है कि लक्ष्मी आ रही है. नोटों की बरसात हो रही है. सब भूल गये कि उस नशे में क्या सुना था? क्या किया था? मेरा कर्तव्य क्या था? वहां जाते ही सब कुछ भूल गये. सारी मेहतन पानी में डूब जायेगी.
जैसे ही दुकान पर गए, लोभ आया, वह उस सब को खत्म कर देगा. कोई व्यक्ति ऐसा वैसा मिल गया तो क्रोध का आवेश आएगा और तन मन में आग लग जाएगी. सारे सद्विचार जल कर राख बन जाएंगे. एक क्षण लगता है, सारे दिन हम वहां पर लुटाते हैं, कमाई है. मुश्किल से आप एक घण्टा, पुण्यशाली हैं कि आ जाए. परमात्मा की वाणी श्रवण करने को मिल जाए. मार्गदर्शन मिल जाए. परन्तु उसका परिणाम क्या? 23 घण्टे तो लुटाना है. जन्मे संसार में पुण्य लूटने के लिए हैं. स्वयं को लुटाकर नहीं जाना है. संसार से पुण्य लूटकर के जाना है. आज तक हम लुटाते आए. आत्मा के वैभव को लुटाते हैं. सारी पवित्रता को लुटाते रहे. संकल्प करो कि मुझे संसार को लूटकर ले जाना है, स्वयं नहीं लुटना.
आज तक संसार में मैं मरता रहा. संसार कायम रहा जिन्दा रहा, परन्तु अब ऐसा मरूंगा कि मेरे मन से संसार मर जाए. जब तक जिन्दा रहूं, आबाद रहूँ, ऐसी स्थिति में चला जाऊं कि मेरा मरण न हो. इसीलिए सारा प्रयत्न चल रहा है और किसी कारण कोई प्रयास नहीं. हमारा ध्यान उस तरफ नहीं गया. भाव और भाषा का सम्बन्ध अटूट है. भाषा का विवेक यदि नहीं रहा और उसमें निन्दा आ गई तो दुर्भाव को जन्म देगी. संघर्ष करेगी. बड़ा भयंकर संघर्ष होगा. निन्दा आगे चल कर मौत का कारण बनती है. कटुता और वैर की परम्परा को जन्म देती है.
जितने भी कोर्ट में केस चलते हैं उसके अन्दर देखिए. गहराई में जाकर देखें तो वाणी के अन्दर विवेक का अभाव आपको नजर आएगा. वही क्लेश का कारण बना है. जितने मर्डर होते हैं, हत्याएँ होती हैं, दुनिया के अन्दर, उन सैकड़ों मृत्यु का कारण क्या है? वाणी के अन्दर विवेक का अभाव ही वह कारण है.
ये जितनी भी घटनाएं रोज घटती हैं. स्त्रियों को अपघात आदि परुषों में इस का विचार कहां से पैदा होता है? उसका कारण अगर आप जानने का प्रयास करें तो आपको मालूम पड़ जाएगा कि घर में किसी न किसी व्यक्ति ने आपको कुछ गलत सनाया है. आप सहन नहीं कर पाए, और उसके परिणाम स्वरूप आपको मौत का रास्ता अपनाना पड़ा. संघर्ष का रास्ता स्वीकारना पड़ा या और कोई गलत रास्ता लेकर उसे काम करने का आपने संकल्प किया. यह दुश्मन है इस का मैं सफाया कर दूँ, यह निश्चय किया. इस प्रकार दुर्भाव ही क्लेश का कारण बनता है.
बोलने में यदि जरा सा दुर्भाव आ गया तो यह दुर्भाव आपके भावों को नष्ट कर देगा. बोलने में बड़ी गम्भीरता होनी चाहिए. हमारे यहाँ आगम सूत्रों में बड़े सुन्दर ढंग से बताया।
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गुरुवाणी
गया कि कैसी गम्भीरता चाहिए. कदाचित् किसी व्यक्ति का पाप भी नजर आये. आंखों से देखा हो तो भी गंभीर श्रावक पाप का प्रकाशन नही करेगा. वह यही समझेगा कि व्यक्ति कर्मों के आधीन है. पूर्व कर्म के कारण यह व्यक्ति गलत रास्ते पर चला गया. एकान्त में मित्र दृष्टि से उसकी पात्रता देख कर उसे उपदेश देगा. यदि पाप का प्रकाशन करता है, तो अनर्थ का कारण बनता है..
किसी व्यक्ति के मर्म रहस्य को प्रकट करना बहुत बड़ा पाप माना गया है. क्योंकि वह भी पर निन्दा के अन्तर्गत आ जाता है. आप बाहर चर्चा करेंगे तो वह किसी की आत्मा को आघात लगेगा. उसके अन्दर दर्द पैदा रहेगा. न जाने उसका क्या गलत परिणाम आ जाएगा. कई बार गलत घटनाएं हो जाती हैं. आगम के अन्दर इस विषय की बड़ी बात आती है.
संयोग ऐसा था, घर के अंदर पैसा था नही, परिवार के लोग बड़े उदासीन थे, भाई सब अलग हो गए. पैसे की माया है. गुड़ है तो मक्खी आएगी. पैसा है तो परिवार में एक नहीं, दस पैदा हो जाएँगें. यदि प्रारब्ध नहीं है तो आप जगत में घूमते रहो, कोई पूछने वाला नहीं. स्वार्थ से भरा हुआ संसार है यह. भगवन्त ने अपने शब्दों से कहा. संसार कैसा है इसका परिचय दिया.
"दुख रूपे दुखानुबन्धे दुखानुफले” यह संसार स्वयं दुख रूप है. दुख का अनुबन्ध कराने वाला. दुख की परंपरा उपस्थित करने वाला है. दुख को परिणाम या फल के रूप में देने वाला है.
स्वयं संसार ही जब दुख रूप है. हमारी साधना संसार के दुःखों से मुक्त होने के लिए है. अगर आप यहाँ सुख की कल्पना करते हैं, तो यह आपका भ्रम है कि मुझे संसार में सुख मिलेगा. सुख मिलने वाला नहीं. दुख से हम घबराते हैं. यह हमारी कायरता है, बहुत बड़ी कमजोरी है. भगवान ने दुख का स्वागत किया और आप तिरस्कार करते हैं. संत कबीर के यहां एक दुखी व्यक्ति आया और बोला “भगवन्, बहुत दुखी हो गया. सारा संसार मैने देख लिया और सारे परिवार का परिचय कर लिया. वैराग्य आ गया हो, ऐसा भी नही. आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ. कोई ऐसा मंगल आशीर्वाद दीजिए. जिससे मेरा दुख चला जाये और सुख की प्राप्ति हो.
कबीर ने कहा-“मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तू और दुखी हो जा." संत का शब्द क्या था, वज्रपात था. वह व्यक्ति चरणों में गिर गया और बोला “भगवन्! आपके मुख से निकला शब्द हमेशा साकार होता है, लोगों की ऐसी मान्यता है. सदाचारी आत्मा के मुख से जो निकला हो, वह शब्द साकार बनता है. इसलिए इस गरीब पर दयादृष्टि रखकर कुछ कीजिए. आपने जो शब्द कहा वह तो आघात है, वज्रपात है. भगवन्! दुखी हूं और इस घायल को यदि आप मारें तो आपकी इच्छा है. मैं तो संसार से घायल हो कर आपके चरणों में आय दुख और दर्द लेकर आया हूं. भगवन्, और कुछ मुझे नही चाहिए. केवल आपकी कृपा चाहिए."
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गुरुवाणी:
कबीर ने कहा “तुमने मेरी भाषा के रहस्य को नही समझा. शब्द कठोर हैं. पर उनमें मेरे जो भाव हैं, वे बड़े कोमल हैं." कवियों के भावों को समझना बहुत मुश्किल है. मुझे नही मालूम कि मेरे आश्रम के अंदर यदि सुख का प्रवेश हो जाए तो मैं उसका स्वागत कैसे करूंगा? कबीर ने अपनी भाषा में ठीक कहा. आप भी समझ लेना. जिसकी आप माला गिनते ही छोड़ देना. कबीर ने कहा.
सुख के माथे सिल पड़ो, जो प्रभु दिया भुलाय.
बलिहारी उस दुख की जो बार-बार प्रभु सुमिराय. समझ गए मेरी बात? नही समझे? सुख के माथे पत्थर पड़ो, जिसने प्रभु दिया भुलाय.
अरे तुम क्या समझते हो? मेरे आश्रम में यदि सुख आ जाए तो पत्थर लेकर उसके माथे में दे मारूँगा क्योंकि वह भगवान को भुला देता है.
“यहाँ सारे दिन प्रभु के समिरण की रटन चलती है, कितना महान उपकार है उस दुख का. इसलिए मैंने तुझे आशीर्वाद दिया, इसी में तेरा आत्म कल्याण होगा. सुख की बात छोड़ दे. दुख का स्वागत कर." आएगी ये भाषा समझ में? आज तक हमारे जीवन में जो है, वह दुख का ही उपकार है, जैन तात्विक दृष्टि से यदि देखा जाए. हमारे जीवन का आदिकाल प्रारम्भ होता है. निरोग अवस्था में से यह आत्मा जन्म और मरण करती है. एक भयंकर दर्द और वेदना से भरा हुआ वह जीवन, वह योनि निरोगावस्था है, वहां से इतना दुख सहन करके अनादि अनन्त काल में हमारा यह क्रमिक विकास हुआ है. भूतकाल का सारा इतिहास दुख और दर्द से भरा हुआ इतिहास है. इतना कष्ट सहने के बाद इष्ट की यह प्राप्ति हुई है. वर्तमान जीवन मिला है. इसमें हम भूतकाल के दुख को भूल गए है. वहां कोई धर्म क्रिया का साधन नही था. अनिच्छा से दुख को सहन किया और उसकी कृपा से कर्मक्षय हुआ, निर्जरा की और मानव जीवन तक आये. यहा आकर उस परम मित्र को भूल गए जिसने यह उपकार किया. आपको इस मानव जीवन तक पहुंचाया. __अगर दुख नहीं होता तो वर्तमान का यह सुख भी नहीं मिलता. भूल गए हैं यह आप! आगम में आई घटना की बात चल रही थी.
ऐसा वातावरण बन गया था उस घर के अन्दर पैसे का, दानापानी का, अभाव और भाव जानते ही हो आप. दुख से घिरा हुआ जीवन था मफतलाल का. ऐसी परिस्थिति में घरवाली ने भी उपदेश देना शुरू कर दिया. बेचारा क्या करे लाचार था, परिस्थिति का लाभ लेते हैं. मन में एक निर्णय किया कि विदेश जाकर वह कुछ उपार्जन करे. कुछ धन-उपार्जन करे. इस भावना के साथ घर से निकला...
स्त्री साथ में थी. छोटा सा गोंदी का बालक था. पैसा ऐसी चीज है, उसका आर्कषण ही अलग होता है. नाम रखने से कुछ नही होता. यहाँ तो पैसा चाहिए. काम चाहिए. यह
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- गुरुवाणी:
तो लक्ष्मी की कृपा है. गुजराती में कहा है पैसा है तो "सेठ नाथालाल." अगर पैसा चला गया, दान शीलता न रही तो कहते है "नाथियो." इतना बड़ा परिवर्तन आता है. देने से हमारी इज्जत होती है. चमक होती है.
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आखिर वही हुआ. परदेस जाते हुए रास्ते में उसे प्यास लगी. पुराने जमाने में लोग लुटिया डोरी रखते थे पास में अपना साधन अपने साथ रखते थे. आहार की पवित्रता का ख्याल रखते थे. गर्मी के दिन, पानी निकालने के लिए वह बेचारा कुएं में झुका. डोरी बांध करके लोटी डाली. सोच रहा था गर्मी का समय है थोड़ा पानी पी लें. सुस्ता लें, उसके बाद चलेंगे. पास में ही घर वाली थी, उसके मन में विचार आया कि यह कैसी निर्भागी आत्मा मुझे मिली ? जब से शादी हुई है, खाने का पता नही, पहनने का ठिकाना नही, हर समय सुबह से शाम तक न जाने कितनी गालियां सुननी पड़ी है. सोच के इसी आवेश में उसने पति को एक लात लगाई और कुएं में गिरा दिया. सोच रही थी कि अब हमेशा के लिए मेरे दुख का अन्त हो जाएगा. कई बार आवेश में ऐसे अशुभ निमित्त मिलते है. घरवाली को भी कभी आवेश में पति ने ऐसे कुछ शब्द बोल दिए होंगे. शब्द सहन नही हुये और जब मौका मिला उसने प्रतिक्रिया में ऐसा किया, उस बेचारे को कुएं में गिरा दिया. वह अपने बच्चे को लेकर पीहर में चली गई. उस जमाने में तार टेलीफोन थे नहीं. लम्बा चौड़ा परिवार नहीं था. कोई ऐसी कल्पना भी कैसे करे ? गांव में गई, जाकर कह दिया कि वे तो विदेश गए हैं धन उपार्जन के लिए कह गये है कि चार छह महीने में धन कमाकर आऊंगा, तब तुझे लेने आऊंगा.
लोगों ने विश्वास कर लिया. उस जमाने में छह-छह महीने तक की यात्रा होती थी. एक बार ही घर आते थे वर्ष में होली दीवाली घर आते. न चाह थी कि विदेश में क्या हुआ, क्या नही हुआ ? कोई ऐसे साधन नही थे. साधन के अभाव. सत्य क्या है ? यह कैसे मालूम पड़े? वह तो बड़े आनंद से रहने लगी कि हमेशा का दुख दर्द चला गया. रोज सुनाया करते, रोज ताना मारते कि तू जब से घर में आई तब से लक्ष्मी चली गई. अब यह कौन सहन करे ?
परन्तु जैसे ही वह कुएं में गिरे उनके पुण्य ने साथ दिया. एक पत्थर मिल गया. उसे पकड़ कर वे कुएं में खड़े रहे. डूबे नहीं, मरे नही सिर्फ थोड़ी ही चोट आ गई. आने जाने वाले कई ऐसे यात्री थे जिनको दया आई, उन्होंने इन्हे बचा लिया. अब इन्हें अपने जीवन पर विचार आया कि उस जीव को मैंने बहुत कहा था, उसी का यह परिणाम है. आवेश में आकर वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर गई है. परंतु इस पाप के उदय होने पर उसने समझदारी से काम लिया, बड़ा गंभीर रहा. परिणाम स्वरूप उसके लिए कोई शब्द नही बोला. सोचा कि यह तो मेरे कर्म का दोष है. वह निर्दोष है.
वह साधुओं और मुनियों के सम्पर्क में आया. एक सज्जन मिल गए. वे सहधर्मियो की भक्ति करने वाले थे. कहा कि मेरे साथ चलो. वे इसे देश विदेश में ले गये. बहुत
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गरुवाणाकमmit
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बड़ा व्यापार था उसका, उसके अंदर उनकी भागीदारी रखी. इस प्रकार से मालामाल हो गए. कल्पना से बढ़कर लक्ष्मी उनको मिली. दो चार छह महीने बाद धन उर्पाजन करके जब लौटने लगे तो मन में सोचा. ससुराल होकर जाऊं. वहां घरवाली होगी तो लेकर जाऊं. घरवाली ने कल्पना कर ली थी. वे तो कभी मर मरा गए. वह यही जानती थी और बड़ी निश्चिन्त थी.
उनके पतिदेव बहुत सी गाड़ी भरके दौलत सामान लाए. न जाने कितनी पेटी और पिटारे भर के जवाहरात लाए. इस दौलत को साथ ले घर के सामने पहुँचे. लक्ष्मी की माया बड़ी विचित्र है. लक्ष्मी चली जाए तो कोई घर में पूछने वाला नहीं, भले ही वह ससुराल क्यों न हो.
सेठ मफतलाल ससुराल में बहुत बर्षों के बाद गए. कभी जाते ही नही थे. अब तो घरवाली भी मर गई थी. विचार किया कि अब ससुराल जाकर क्या करूंगा? परंतु संयोग वश रास्ता वहीं से था. पांच सात साल बिना गये निकल गए थे. घर सास थी. दो तीन साले थे. और कोई परिवार में नही था. ससुर जी तो कभी के देवलोक चले गए थे. ऐसी परिस्थिति में मफतलाल ने देखा कि रात पड़ गई है. कम से कम रात तो यहां बिता लूँ, यह विचार किया. यद्यपि वे जानते थे कि पत्नी के मर जाने पर ससुराल का वातावरण कैसा हो जाता है. वहाँ दामाद की कोई कीमत नहीं रहती. - छ: सात वर्ष के बाद गए थे. शाम का समय था. सास को उनका आना अच्छा नही लगा फिर भी उसे स्वागत का नाटक करना ही पड़ा. बोली-आओ-आओ. बहुत दिन बाद आए. एकदम अचानक कहां रास्ता भूल गए. ___ मफतलाल ने कहा-नहीं-नहीं, मेरी इच्छा थी. बहुत दिन हो गए थे. सोचा कि सबसे मिलूं. अन्दर कोठरी में बैठा दिया. सास कंजूस सेठ की अवतार थी. टका एक छूटे नही. __मफतलाल आए तो सेवा भी उसी प्रकार से हुई. उन्हें अन्दर रूम में बैठा दिया गया. और सामने थाली रख दी गई. गांव के अंदर तो तेल का दिया होता है. वह एक तरफ जल रहा था. तीनों उनके साले थे जो बाहर काम कर रहे थे. सास ने अंदर बिठा कर कहा- आप बहुत देर से आए नही तो सीरा वगैरह बनाते. अब रात का समय है खिचड़ी तैयार है. आपको को भी भूख लगी होगी. नई रसोई बनाएं तो बहुत टाइम लग जाएगा. आप खिचड़ी खाओ.
अरी माँ जी, जो है वही लाओ. सास ने थाली में खिचड़ी डाल दी और फिर घिलौड़ी, घी का बर्तन ले आई. फिर उसने रुई की बत्ती बना कर इस कलसिया में डाल दी ताकि घी न गिर जाए, ज्यादा. घी डालने का नाटक करने लगी वास्तव में संसार बड़ा विचित्र है. बाहर के लोग भी आए मिलने, बड़े दिन बाद जमाई राजा आए. लोग देखने आए. वह नाटक कर रही थी. गोल-गोल घुमाने पर भी एक बूंद भी न गिरता था. क्योंकि बत्ती डाली हुई थी अंदर.
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% 3Dगुरुवाणी:
मफतलाल हाथ लगाकर समझ गया कि इसमें तो एक बूंद भी घी नही गिरा है. कुछ गड़बड़ है. वह भी बड़ा होशियार था. सास से कहा कि जरा एक गिलास पानी तो लाओ. यह पानी मैं पी चुका, गला सूख रहा है, खिचड़ी से. सास बेचारी बाहर पानी लेने गई. इधर मफतलाल ने घिलौड़ी का पूरा घी उसमें डाल लिया.
मफतलाल ने अपना काम पूरा कर लिया. सोचा अब रात आराम से निकलेगी. सास ने जब घिलौड़ी देखी तो उस का जीव एक दम अंदर हो गया. हाय-हाय आठ दिन पहले इतना घी अंदर था. सारा का सारा घी इसके अंदर जमाई खा जायेगा. आवाज दिया तीनों बच्चों को. जमाई राजा बहुत दिन से आए हैं. साथ बैठकर तो खाओ. ये मौका कब मिलेगा. सास ने देखा कम से कम मेरे तीनों बच्चे तो आ जाएं.
। मफतलाल ने सोचा-मजदूरी मैंने की, इस नफा में फिर ये भागीदार हो गये. इतना रिस्क लेकर के काम किया फिर भागीदार. तो बैठे खाने. संयोग देखिये. इधर मफतलाल के सामने तीनो बच्चे थे. घी सब मफतलाल की तरफ आया हआ था थाली का. इस प्रकार से रखी थी. तीनों सालों ने विचार किया, यार उधर हाथ मारना तो ठीक नहीं. घी का तालाब भी उधर है. अपनी तरफ जो कुछ है नही. बड़े होशियार थे वे साले. एक लकीर खींची. उन्होंने कहा – क्या साहब. संवत्सरी जैसी संवत्सरी गई. एक भी क्षमापना का कार्ड नहीं. कम से कम एक पोस्ट कार्ड तो लिखना था. व्यवहार में इतना तो रखना था.
दूसरे ने कहा-यार संवत्सरी तो गई. दीवाली भी गई. एक लकीर और खीची. तीसरे ने भी उसकी प्रकार का बहाना. कर तीनों तरफ से केनाल ऐसा बन गया और घी उधर चला गया. मफतलाल ने कहा-ये तो बड़े चतुर नजर आते हैं. इतनी मेहनत करके सब काम किया. ये मुफ्त में भागीदार बन गये. मफतलाल भी जबलपुर का था, कम तो था नहीं. उसने कहा यार होली दीवाली संवत्सरी जो है. वह सब आज ही समझ लो. उसने बराबर घुमाया. वे भी समझ गए. आपके संसार का यह नग्न परिचय है.
पैसे की माया है, अगर पैसा है तो सब कुछ है और पैसा नहीं तो कुछ भी नहीं. परिणाम यह हुआ कि जैसे ही वह माल सामान लेकर वहां पर आया, उसकी स्त्री घबरा गई कि यह जिन्दा कहां से आ गया. इसे तो मैंने कुएँ में धक्का दे दिया था. तो मुंह में पानी आ गया और बहुत स्वागत करने लगी. पर मन से बड़ी भयभीत थी. कहीं मेरी बात न खोल दे, जो मौत बराबर है. परन्तु बड़े गम्भीर थे वह श्रावक, एक शब्द बोले नहीं. घर के अन्दर आए, ससुराल में दो दिन रहे. परिवार को लेकर चले. साथ में एक लड़का था. जो बाल्यकाल में छोटा ही था. अब थोड़ा बड़ा हो गया था. अपनी श्राविका को लेकर घर आए. बच्चे की शादी भी हुई. एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि जब भोजन कर रहे थे, वहीं थाली में बैठे-बैठे. कोई सूर्य की किरण उसकी आंख पर पड़ी, पास में स्त्री थी, घरवाली ने देखा मेरे पतिदेव को कष्ट हो रहा है. अपना पल्ला लेकर ढांकने लगी. ताकि सर्य की किरण इसकी आंख पर न पडे.
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-गुरुवाणी:
ये आराम की बातें हैं. संसार की विचित्रता का परिचय इससे मिलता है. कैसा भयंकर संसार है. यह नाटक देखकर पति को जरा हंसी आ गई. आप जानते हैं, घर में सास, बहू का तनाव तो होता है. वहां भी वातावरण ऐसा था, पर पति बड़े गम्भीर थे, उस समय बहू भोजन परोसने आई. उसने अपनी सास को इस प्रकार से पल्ला डालते हए देखा. सूर्य के सामने से जहां किरण आ रही थी, वहां पल्ला डाल कर वह बैठी थी. पतिदेव हंस रहे थे एक दम अचानक. कोई बात किए बिना. बहू के मन में एकदम विचार आया कि इसको हंसी कैसे आ गई. बिना कारण बिना बात किए. कोई बात की नहीं, कोई ऐसी चर्चा चली भी नहीं, लाकर मैने तो थाली में रोटी डाली और उन्होंने पल्ला किया और मेरे ससुर हंसने लग गए. जरूर इसमें कोई रहस्य होगा. पर वह कुछ बोली नहीं.
रात को पतिदेव आए तो बह ने कहा - पिता की सेवा करते समय पांव दाबते समय यह जरूर से पूछना कि दोपहर को भोजन करते-करते आज बिना कारण हंसी कैसे आई? यह रहस्य जानकर के आना. पत्नी का कहा हुआ था. बेचारे गए और पिता बातें करने लग गए, बातें करते-करते पुत्र ने पिता से पूछा - पिता जी, अग्ज भोजन करते समय आपको अचानक हंसी क्यों आ गई थी? इसमें रहस्य क्या है? जरा जानने की इच्छा है,
बाप ने कहा - "बेटा संसार की बडी विचित्रता है. मैं बोलना नहीं चाहता. कहने जैसी बात नहीं है." बेटा बोला – “पिता जी, मैं आपका पुत्र हूँ, आपकी सन्तान हूँ, पिता-पुत्र में पर्दा कैसा? यदि कोई रहस्य है तो आपका मुझ पर उपकार होगा. आपका अनुभव मुझे फायदा देगा." पुत्र की बात विनय पूर्वक थी. बाप ने भी सोचा कि कदाचित् मेरे अनुभव से यह शिक्षा ले ले. संसार का वैराग्य इसके अन्दर आए. इस दृष्टि से पेट की बात जो बड़ी मार्मिक थी, पुत्र से कह डाली "तेरी मां आज सती-सावित्री की तरह से मेरे पास बैठकर पल्ला लेकर, सूर्य की किरण आंख में न पड़े, खाते समय अशान्ति न हो, उसके लिए इतना प्रयत्न कर रही थी. तू बालक था, जब मेरे पास कुछ नहीं था, विदेश कमाने के लिए निकला, कुएं में रस्सी डाली, लोटा डाल पानी निकालने के लिए. तेरी मां ने मुझे धक्का देकर अन्दर गिरा दिया. वही है तेरी मां जब आज पैसा आ गया, तू समझ गया ना?"
"हां पिता जी, सब समझ गया."
यह संसार बड़ा विचित्र है. यह किसी एक व्यक्ति का दोष नहीं, अपितु यह कर्म का दोष है. संसार इस विचित्रता के अनुभव से शिक्षा ले. वह सेवा करके आया और उसने अपनी पत्नी से कह दिया. उससे बात पची नहीं.
पत्नी को तो इतना ही चाहिए था, एटम बम मिल गया, कभी सास धडाका पटाखा छोड़ेगी तो मैं एटम बम डाल दूंगी. घर के अन्दर एक दिन ऐसा वातावरण बना, छोटी सी बात को लेकर विस्फोट हुआ. बहू ने कह दिया, देखी-देखी बहुत सती आई है, तूने पद
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गरुवाणी
तो अपने पति को कुएँ के अन्दर लात मार कर डाल दिया था, यहां बहुत सती-सावित्री बन रही है. बहू का इतना कहना था कि सास को चक्कर आ गया और एकदम बेहोश होकर गिर पड़ी. जब होश आया तो उसके दिमाग में तनाव था. दोनों दुकान पर थे बाप-बेटे. घर पर कोई था नहीं. वह मन में सोचने लगी कि अब मोहल्ले में मुंह कैसे दिखाऊंगी. यह बात आज तो मुझ से कही है, कल मोहल्ले में जायेगी. फिर पूरे गांव में जायेगी. सगे सम्बन्धियों तक बात पहुंच जायेगी. मेरे लिये यह मरण से भी भंयकर होगा. यह सोचकर वह ऊपर गई और डोरी लेकर गले में फांसी लगा ली और मर गई.
उस वाणी का परिणाम आत्मघात तक पहुंच गया. कुछ समय बाद भोजन के लिए पति जी आये. नीचे आकर बैठे तो देखा उनकी श्राविका नहीं है घर में, बेचारे ऊपर गये. जाकर कमरे में देखा, वहाँ श्राविका की लाश लटकर रही थी. तरन्त समझ गये कल की घटना. मैंने अपने पेट से बात निकाली, बच्चे को कही. उस बात का यह परिणाम हुआ. इसकी मौत का कारण बनी. इस सारे अनर्थ का कारण मैं हूं,
किसी के मर्म वचन का प्रकट कर देना, किसी की कमजोरी को प्रकट करना या करा देना. किसी के पाप का प्रकाशन कर देना, कितना बड़ा अनर्थ पैदा करता है. पर-निन्दा के अन्तर्गत आता है. ऐसा अनर्थ मेरे कारण हुआ. इस पाप का प्रायश्चित क्या किया जाये? उसी सोच विचार में वे स्वयं लटक गये, काफी समय तक, दुकान पर जब बाप लौटकर नहीं आये, तो लड़के ने दुकान बन्द की और देखा कि पिता जी क्यों नहीं आये, उनकी प्रतीक्षा में वह भोजन के लिए न जा सका था.
दुकान बन्द करके वह घर पर आया, नीचे भोजन किया, पूछा अपनी बहू से --- "कहां हैं पिता जी? यहां, माता जी भी नहीं हैं." लाज, मर्यादा शर्म ऐसी चीज है. बह ऊपर जा नहीं सकी. नीचे ही रही.
बहू ने कह दिया, "जाओ ऊपर कुछ करते होंगे. मिटिंग-आदि कुछ करते होंगे. जब से ऊपर गये तब से अभी इन दोनों में से कोई आया नही." लड़का ऊपर गया देखा नीचे मां की लाश पड़ी है और बाप की लाश लटक रही है. बालक समझ गया कि सारा पाप मेरे कारण हुआ. इस अनर्थ का कारण मैं हूं. बहू के कहने से विवेक खो दिया. मेरी मां की कुछ ऐसी कमजोरी थी जो कर्म के अधीन है. मैंने यह बात कर दी, उसका यह परिणाम हआ और मैं माता-पिता की मौत का कारण बना. मातृ हत्या-पितृ हत्या का भयंकर पाप मैंने किया. इस पाप का क्या प्रायश्चित करूं. किसे जाकर अब मंह दिखाऊं. मेरे जीवन का आधार ही चला गया. पिता की लाश उतारी और स्वयं उस डोरी के अन्दर स्वयं का आत्माघात कर दिया. बहुत देर तक बहू नीचे विचार में पड़ी रही. क्या अभी तक पति भी ऊपर से आये नहीं, सास ससुर भी ऊपर क्या कर रहे हैं, ये लोग? दिन के दो बजने को आये. अभी क्या कर रहें हैं, ये लोग? चुपचाप धीमे-धीमे ऊपर आई. पर्दे में झांककर देखा तो अवाक रह गई.
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गुरुवाणी
सास ससुर भी मर गये, मेरे पति देव की लाश लटक रही है. लोग क्या कहेंगे? मोहल्ले वाले ये सभी लोग कहेंगे कि डाकिन आई पूरे घर को हड़प कर गई. मैं कहां मुंह दिखाने जाऊं मेरे लिए संसार में अब रहा क्या है ? सत्यानाश हो गया. बोलने में ज़रा से अविवेक का कारण पूरा घर बरबाद हो गया, मैं अब यहां मुंह दिखाने लायक नहीं रही, पति की लाश नीचे उतारकर वह स्वयं भी लटक गई. परमात्मा महावीर के शब्द हैं. अगर जरा भी आपके अन्दर गम्भीरता नहीं रही. और परनिन्दा के आश्रय में आ गये. किसी आत्मा के मार्मिक बातों के गुप्त रहस्य का यदि आपने प्रकाशन कर दिया तो विवेक नष्ट हो गया समझो. उसका परिणाम उतना भयंकर अनर्थकारी हो सकता है. यहाँ पूरा घर पूरा परिवार साफ हो गया. आपका सुखमय संसार जल कर राख हो जायेगा. यह सब आत्मा के लिए अनर्थकारी होगा. जीवन के अन्दर गांठ बांध लें, ऐसी बात कभी नहीं करेंगे. कुटुम्ब की शान्ति के लिए, परिवार की शान्ति के लिए अपने आत्मकल्याण के लिए, यह गलत रास्ता में कभी नहीं अपनाऊंगा.
किसी आत्मा की कोई ऐसी गुप्त बात उसकी आत्मा को आघात लगे. उसकी आत्मा को पीड़ा पहुँचे. कदाचित् ऐसा कथन आत्मा के लिए मौत का कारण बन जाये. अतः संकल्प करो कि ऐसी कोई बात मैं कभी नहीं करूंगा. ऐसी गम्भीरता हमारे अन्दर आनी चाहिये. इसलिये भाषा का गुण बतलाया. कार्य पतितम् यह वाणी का चौथा गुण है.
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बिना कारण कभी बोलना नहीं. स्तोकम् मधुरम् निपुणम् के बाद आज इस कार्य पतितम् की व्याख्या. जब कार्य की आवश्यकता हो तभी बोलना, बिना कारण बोलना अनर्थ का कारण बनता है. जो नहीं बोलने चाहिए. वह आप कभी नहीं बोलना. जब कार्य हो आवश्यकता हो तभी बोलना,
·
बहुत आदमियों की आदत हुआ करती है. बिना कारण बोलते रहेंगे. व्यर्थ ही इधर उधर की चर्चा करेंगे. बिना प्रयोजन इधर-उधर कीर्तिकथा से आपको मिलेगा क्या? कोई लाभ नहीं, सिवाय नुकसान के पर व्यक्ति की आदत है.
मफतलाल बम्बई से दिल्ली आ रहे थे, रास्ते में दो तीन ऐसे ही मिल गये, समय कैसे निकालना, लम्बा रास्ता ठहरा, रास्ते में चर्चा चली, एक व्यक्ति ने पूछा "साहब! कहां जा रहे हैं?" उत्तर मिला 'दिल्ली' मैं भी दिल्ली जा रहा हूं." "आप कहाँ रहते हैं ?" "मैं जापान में रहता हूं, इन्डिया आया हूं. सोचा चलो देश हो आऊं इसलिए दिल्ली जा रहा हूं."
दूसरे व्यक्ति ने कहा "मैं अमेरिका से आ रहा हूं" सब अपरिचित थे. एक दूसरे की बातचीत हुई. मफतलाल से उनमें से भी किसी ने पूछा कि "आप कहां से आ रहे हैं ?" वे आ रहे थे बम्बई से पर बोले, "कैनेडा गया था वहीं से आ रहा हूं." बड़ाई तो करनी चाहिये. कौन किसी को देखने आया है. कौन किसी का पासपोर्ट मांग रहा है. सभी को बैठे बैठे टाइम पास करना था. बात में बात निकली. एक व्यक्ति ने कहा "यार ! यह
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-गुरुवाणी
इन्डियन रेलवे बड़ा धीमे-धीमे चलती है, यह भी कोई स्पीड है? चालीस-चालीस साल हो गये आजादी को और गाड़ी अब भी रोते हुए चलती है. मैं अभी जापान से आया हूं क्या सुपर फास्ट ट्रेन है. वहां मालूम भी नहीं पड़ता एक स्टेशन से दूसरा स्टेशन कब निकला. कब आया और कब गया. इतनी फास्ट ट्रेन चलती है वहां."
दूसरे ने कहा “मैं भी अभी इंग्लैंड से आया हूं, फ्रांस के अन्दर क्या ट्रेन चलती है, इतनी फास्ट चलती है कि वहां कुछ दिखता ही नही. ऐसी हाई स्पीड हैं.
मफतलाल बैठे-बैठे सोच रहे थे कि मैं भी तो कम नहीं हूं, दिल्ली का हूं होशियार हूं. उन्होंने भी बाजी लगाई. कहा - "यार! मैं अभी कैनेडा से आया हूं. और तुम जानते हो रेल वहीं पर बनाया जाता है. रेलवे का विकास ही कैनेडा से हआ हैं. इतनी फास्ट ट्रेन है. और अभी नई शुरू हुई सुपर फास्ट. बम्बई पहुंचने से दो दिन पहले मैं कैनेडा की एक ट्रेन में बैठा, वहां ट्रेन स्टेशन पर रुकी थी और मेरा कुली से झगड़ा हो गया. मैंने हाथ निकाला उस कुली को मारने के लिए. गाड़ी स्टार्ट हुई मेरा वह हाथ दूसरे स्टेशन के कुली को लगा. इतनी फास्ट ट्रेन है." वहाँ इस प्रकार मफतलाल बाजी मार गया. 'कार्यपतितम्' का आशय यही है कि बिना कारण बकवास करना, बोलना कोई मूल्य नहीं रखता फिर भले ही कोई मन के लड्डू खाये और सन्तोष माने. आप लोग बिना कारण बकवास कभी नहीं करना. ये चार भाषा के गण मैंने आपको समझायें. इन्हें अच्छी तरह याद रखना.
स्तोकम्, मधुरम्, निपुणम्, कार्य पतितम् जरूरत हो तभी बोलना बिना जरूरत के कभी अपनी भाषा का उपयोग मत करना. वाणी अपनी शक्ति है, इसका अपव्यय कभी नहीं करना. __इसके बाद के गुण आयेंगे. अतुच्छम्, गर्वरहितम् भाषा में तुच्छता नहीं चाहिये तिरस्कार नहीं आना चाहिये. गर्व रहितम् अभिमान का दुर्गन्ध भाषा में नहीं चाहिये. पूर्व संकलितम् पहले से सोचकर बोलना चाहिए. धर्म से युक्त भाषा बोली जाये. जो आत्मा के अनुकूल हो. आत्मा को एनर्जी देने वाली सत्य का पोषण करने वाली हो, ये जो चार गुण हैं. इस पर आगे विचार करेंगे. आज इतना ही रहने दें.
"सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्"
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-गुरुवाणी
वाणी के गुण
परम उपकारी, परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्रसूरि जी ने जीवन की साधना का बहुत सुन्दर व्यवहारिक मार्ग-दर्शन इस सूत्र के द्वारा दिया है. जहां तक व्यक्ति अपने जीवन में व्यवहार का शुद्धिकरण नहीं कर पायेगा वहां तक आत्म शुद्धि की कोई सम्भावना नहीं, जीवन का वर्तमान व्यवहार की अशुद्धि लेकर खड़ा है. वाणी के अन्दर, बर्तन के अन्दर, विचारों के अन्दर, ऐसी अशुद्धता है कि यदि उस पर आप साधना की भूमिका का निर्माण करें वह सम्भव नही होगा.
जीवन के अन्दर यदि इस प्रकार व्यवहार अशुद्ध होगा. सम्पूर्ण जीवन यदि असत्य की भूमिका पर होगा, विचारों में यदि कटुता और वैर की दुर्भावना होगी तो वहां सद्भावना का आगमन कैसे होगा? विचारणीय प्रश्न है. इसीलिए जीवन की प्राथमिकता का इस सूत्र के द्वारा परिचय दिया. यदि प्रारम्भ में धर्म साधना से पूर्व व्यक्ति इस प्रकार अपना जीवन निर्माण कर ले तो भविष्य में आत्मा के अनुकूल अपने जीवन का निर्माण कर सकता है. परन्तु जहां आपका व्यवहार शुद्ध नहीं, वहां पर निश्चय ही धार्मिकता की बात आप छोड़ दीजिए. क्योंकि चारों तरफ से कर्म का आक्रमण चालू है. हमने पूर्व में जो उपार्जन किया है, उस पूर्व कृत कर्म का यह वर्तमान परिणाम है. पूर्व में अज्ञान दशा में विषय के अधीन बन कर पौदगलिक वासनाओं को लेकर न जाने कितना भयंकर कर्म का अनुबन्ध हमने किया है. वर्तमान में उनका कट परिणाम हम रोज भोगते हैं.
वर्तमान में यदि आप ने इसकी उपेक्षा की तो सारी दुनियां पाप का प्रवेश द्वार बन जाएगी. यदि पाप का प्रवेश द्वार इन्द्रियों को बना दिया गया तो पुण्य कार्य में आपका उत्साह कहां से होगा. अन्दर तो सब गन्दगी भरी है. सारा ही जीवन विषय की दुर्गन्ध से घिरा हुआ है. इस दुर्गन्ध के हम आदी बन गए हैं.
बहुत बड़े सन्त पुरुष किसी सम्राट् के आमन्त्रण से राजमहल के अन्दर एक दिन पहुंचे. सम्राट् उनका परम भक्त था. सम्राट के बहुत विनंती करने पर महात्मा वहां पर गये. राजप्रासाद के अन्दर प्रवेश करते ही उन्होंने कहा कि “राजन्! मुझे इस भयंकर गन्दगी में क्यों ले आए? मैं एक क्षण भी यहां पर रह नहीं सकता. यहां पर बड़ी दुर्गन्ध है."
राजा ने कहा "भगवन्! आपकी धारणा कुछ गलत है. सारा ही राजप्रसाद सुगन्धमय है."
सन्त ने कहा – “तुम्हारी दृष्टि अलग है, इस दुर्गन्ध को तुम समझ नहीं पाते हो, मुझे अब यहां से जल्दी जाने दो.” यह कहकर वे उसी समय वहां से लौट गये. कुछ
दिन बाद राजा फिर से उन्हें आमन्त्रण देने गया. मन में विचार किया. कदाचित मेरे व्यवहार Hall में कोई ऐसी त्रुटि रही है कि सन्त पुरुष आकर के लौट गये. मझे लाभ मिला नहीं.
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गुरुवाणी
राजा फिर से वहां पर गये और राजा ने फिर से निवेदन किया - "भगवन! मेरे द्वार पर एक बार और आप कृपा करें. आपके आने से मुझे बड़ी प्रसन्नता मिलेगी. मेरी भावना पूर्ण बन जाएगी कि मैं आपको आहार का दान दूं."
योगी पुरुष ने कहा - "जरा मेरे साथ कुछ भ्रमण करो, तुम्हारी बात पर भी विचार करूंगा.” राजा उसके साथ-साथ चलने लगा. जंगल को पार करके वह ऐसी जगह पर गए, जहां चमारों का मोहल्ला था. प्रतिदिन वहाँ चमड़े का काम होता था. जूता बनाया जाता था. उस चमड़े के अन्दर तो आप जानते हैं कैसी दुर्गन्ध होती है. जहाँ पर चमडे का काम होता है. उसे स्वच्छ किया जाता है. वहाँ बड़ी भयंकर दुर्गन्ध होती है. ___ परन्तु आग्रह था सन्त पुरुष के साथ घूमने का. सन्त पुरुष ने उनसे कहा कि “राजन्! ये बेचैनी क्यों हो रही है?" राजा ने कहा "इसका कारण महाराज यह है कि यहां भयंकर दुर्गन्ध है. यह दुर्गन्ध यहां ऐसी बसी हुई है कि रह पाना सम्भव नहीं. अतः महाराज क्षमा करिए. आप जल्दी यहां से चलिए." . __सन्त ने कहा – “यहां पर भी लोग रहते हैं. और अपनी जिन्दगी जीते हैं. वे तो कहीं जाने की बात नहीं करते.” राजा बोला – “महाराज आप जानते हैं. उनका जन्म ही यहां पर हुआ. बड़े भी यहां पर हुए, उनका तो संस्कार ही ऐसा बन गया कि दुर्गन्धमय वातावरण उन्हें चुभता नहीं. परन्तु सहन नहीं कर सकता. जो यहां रहते हैं, उनकी तो आदत हो गई है इसीलिए उनको दुर्गन्ध सताती नहीं." ___महात्मा ने कहा – “तुम भी राजमहल में जन्में. राजमहल में बड़े हुए. उस वातावरण में तुम पले, तुमको क्या मालूम कि विषय की दुर्गन्ध कैसी होती है. वह तो हमारे जैसे साधुओं को ही मालूम पड़ता है, इसीलिए उस दिन मैंने मना किया कि राजमहल मुझे ले जाकर क्या करेंगे. तुम्हारे आग्रह में चला गया. परन्तु वहां से तुरन्त मुझे लौटकर आना पड़ा. वहाँ विषय की दुर्गन्ध थी. पुण्यशाली आत्माओं को विषय की दुर्गन्ध मालूम नहीं पड़ती जैसी कि संयमी आत्मा को, यह विषय की दुर्गन्ध उन्हें असह्य लगती है अतः वह वहाँ रहना नहीं चाहता.”
हमारी आदत बन गई है. हम ऐसे अनादिकालीन संस्कार लेकर आएं है. विषय के अन्दर मग्नता ले कर हम आए हैं. इसीलिए साधकावस्था के अन्दर उस प्रकार का आनन्द हमें आता नहीं, सारी इन्द्रियों को हमने पाप का प्रवेश द्वार बनाकर रखा है. जिस दिन इन्द्रियों पर हमारा निग्रह हो जाएगा, इन्द्रियों पर हमारा नियन्त्रण आ जाएगा, इन्द्रियां धर्म का प्रवेश द्वार बन जाएंगी तब कोई समस्या नहीं रहेगी.
प्रतिदिन पाप का आगमन तो होता हैं, पाप हम होलसेल में करते हैं, पुण्य रिटेल में करते हैं. अतः पाप की मात्रा बढ़ती चली जाती है. रिटेल के अन्दर व्यापार करने वाला करोड़पति कब बनेगा? वह तो उसके लिए मात्र एक कल्पना रहेगी. पुण्य कार्य,धर्म कार्य जब हमें रिटेल में ही करना है. सारे दिन में से एक घण्टा, और जो कुछ करना है तो
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-गुरुवाणी
भी चौदह केरेट का, चौबिस केरेट का नहीं. यह भी पूर्व के संस्कार से प्रेरित होकर, या देखा-देखी.लोक-व्यवहार से, या गुरुजनों की प्रेरणा से भावुकता के अन्दर हम कर लेते हैं. यही कारण है कि उसे करने से आत्मा को पूर्ण संतोष या तृप्ति नहीं मिलती जो मिलनी चाहिए.
धर्म क्रिया के अन्दर साधना क्षेत्र में जो आनन्द का अनुभव मुझे मिलना चाहिए, वह आज नहीं मिल पा रहा है, व्यापार करते हैं परन्तु यदि नफा न मिले तो चेहरा कह देता है. धर्म क्रिया करते समय यदि चित्त की प्रसन्नता न मिले, आत्मा को यदि आनन्द वहाँ न मिले. तो चेहरे पर प्रसन्नता कैसे झलक सकती है? धर्म क्रिया का आनन्द, उसकी प्रक्रिया का जो तेज हमारे चेहरे पर नजर आना चाहिए, वह आज तक नजर नहीं आया. क्योंकि जब आन्तरिक प्रसन्नता हो तब ही उसका बाह्य स्वरूप प्रकट होता है. हममें उसका अभाव रहा है. इसी कारण इन सूत्रों के द्वारा बतलाया गया कि पहले अपने जीवन के व्यवहार का शुद्धिकरण किया जाये.
जीवन व्यवहार का आधार वास्तव में पैसा या द्रव्योपार्जन नहीं अपितु वाणी का व्यवहार है. जिससे प्रतिदिन का आपका व्यवहार चलता है. कौटुम्बिक, पारिवारिक, सामाजिक आर्थिक सारे व्यवहार की आधारशिला ही आपकी वाणी है. उस वाणी पर कैसे नियन्त्रण प्राप्त किया जाये. इसका उपाय इन सूत्रों के द्वारा बतलाया गया.
निन्दक व्यक्ति कभी प्रिय नहीं बनता, वह कभी अपने जीवन में एक रूपता प्राप्त नहीं कर सकता. सामाजिक दृष्टि से, आध्यात्मिक दृष्टि से, वह व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता. उसके जीवन में वह भाव पैदा ही नहीं होगा. यहाँ उपस्थित वर्तमान उसका ही कट परिणाम है कि हम विभक्त है. विभक्त होने का मूल कारण वाणी के अन्दर विवेक का अभाव है, इससे साम्प्रदायिक भावना आएगी. साम्प्रदायिक भावना से पीड़ित होकर के हमारी वाणी अशुद्ध बनेगी. अशुद्ध वाणी क्लेश का कारण बनती है.
देश के विभाजन का यही कारण हुआ. दुनियां के नक्शे हमेशा बदलते रहते हैं. वे नक्शे बदलने के पीछे कारण हैं, उन पुरुषों की वाणी है जो जरा-जरा सी बात लेकर के हमारा इतिहास कलंकित करते हैं. ___मानव जाति का पांच हजार वर्ष का इतिहास कहता है कि हमारी वाणी के दोष के कारण आज तक 15600 युद्ध हुए. पांच हजार वर्ष के इतिहास में मानो सिर्फ लड़ाई का इतिहास है, 15600 युद्ध और उसके पीछे कारण आपकी वाणी, वाणी का विकार विनाश का कारण बना. वाणी पर नियन्त्रण नहीं रहा.
आप गाड़ी में जा रहे हैं. 120 कि. मी. की रफ्तार से गाड़ी दौड़ रही है. परन्तु यदि ब्रेक पर आपका कन्ट्रोल न रहा तो परिणाम क्या आयेगा. आप बोल रहे हैं वाणी का प्रवाह गतिमय होगा. परन्तु यदि विवेक का अनुशासन नहीं रहा. संयम का ब्रेक यदि वाणी पर
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गुरुवाणी
न रहा तो वह वाणी दुर्घटना का कारण बनेगी, वही दुर्भावना परम्परा में आपकी दुर्गति का कारण बनेगी.
संवत्सरी की आराधना करने का आशय यह है, आध्यात्मिक और तात्त्विक दृष्टि से आप विचार करिए. हमारे यहां पांच प्रकार का प्रतिक्रमण माना जाता है. प्रतिक्रमण हमारे यहां सबसे बड़ी धार्मिक क्रिया है. वह सारी धर्म साधना के अन्दर सबसे मूल्यवान क्रिया है.
"प्रतिक्रमण” शब्द का अर्थ आपको मालूम है. शब्द के पीछे उसका अर्थ क्या है ? “प्रति” का मतलब “पीछे” और “क्रमण” का अर्थ होता है "हटना.” प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ पीछे हटना होता है. पापमय विचारों से रिवर्स में आना. संसार से निकलकर स्वयं की आत्मा में स्थिर बनना. इसका नाम प्रतिक्रमण है. ये धार्मिक अनुष्ठान हैं. जिस प्रकार से मुसलमानों की भक्ति और कीर्तन का महत्व है. हमारे यहा उससे भी अधिक महत्व प्रतिक्रमण का माना गया है.
ये सारी क्रिया आत्मा को पाप से पीछे लाने की है. यह आपको मालूम है कि पांच प्रकार का प्रतिक्रमण रखा गया. पांच रखने के पीछे आशय क्या है? एक ही प्रतिक्रमण चलता. भूल दिन के अन्दर, रात के अन्दर, कभी भी हो सकती है. अठारह प्रकार का सेवन करने वाली आत्मा को झूठ भी बोलना पड़ता है. असत्य से, चोरी का उपार्जन भी करना पड़ता है. मस्खरी के अन्दर उपहास में कभी किसी आत्मा को दुख पहुंचाया हो. अन्याय से उपार्जन किया हो. गलत तरीके से उसे खर्च किया हो. मन में किसी के लिए गलत विचारा हो. पर निन्दा की हो आदि.
इन अठारह प्रकार से व्यक्ति पाप का सेवन करता है यानी पाप का अर्जन करता है. वह अपने विचारों को अठारह प्रकार से आकार देता है. पाप के विचार वहां साकार बनते हैं और उसके अठारह प्रकार हैं. अब ये रात्रि के समय, सोते समय, अज्ञान दशा के अन्दर यदि विचार पूर्वक मैंने ऐसे पाप का सेवन किया हो. विचार में भी यदि पाप का प्रवेश हुआ हो. प्रातः काल प्रतिक्रमण के समय परमात्मा के साक्षी के अन्दर, प्रतिक्रमण के अन्दर, इन पापों का प्रायश्चित करना, यह रायसी प्रतिक्रमण है. राय का मतलब होता है प्रात: दिवस संबंधी.
' जो कुछ अपराध दिन में मैंने किया हो, रात्रि संबंधी तो पूर्ण हुआ, यदि दिन संबंधी कोई क्रिया इरादा पूर्वक की हो. कदाचित् उस पाप प्रवृत्ति के अन्दर मुझे आनन्द आया हो. पूर्व कृत कर्म के कारण, अज्ञानता से, मोह के अधीन हो, पाप किया हो. उन सभी पापों का प्रायश्चित मैं साधना के समय फिर से करता हूं. दिन के अन्दर जितने भी दोष लगे हों, पाप का सेवन हआ हो, इरादा पूर्वक या सहज उन पापों की आलोचना शाम को संध्या के प्रतिक्रमण में हम करते हैं, दो प्रतिक्रमण हो गया.
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-गुरुवाणी
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यह पाप कैसा होता है. सामान्य प्रकार का जिसे संज्वलन कहा जाता है. धार्मिक परिभाषा में, इस पाप के विचार इतने हलके होते हैं कि सहज के अन्दर, दोनों समय के सामान्य प्रतिक्रमण के अन्दर, हम उसे मानसिक विचारों के द्वारा स्वच्छ कर लेते हैं. परमात्मा स्मरण के द्वारा उसका शुद्धिकरण कर लेते हैं. इस पाप को क्या उपमा दी गई? जैसे पानी की लकीर खींची, थोड़े समय के अन्दर वह लकीर सूख जाती है. हवा से गर्मी में, उसी प्रकार रात्री संबंधी, दिवस संबंधी जो भी पाप हुए हों वह सामान्य क्रिया से और तप की गर्मी से सहज प्रकार में सूख जाते हैं. सामान्य प्रकार का होता है ___ कुछ ऐसी पाप प्रवृत्ति होती हैं. विचारों का कुछ ऐसा आग्रह होता है कि व्यक्ति कुण्ठित बन जाता है, दुराग्रही बन जाता है. सामान्यतया विचारों का आग्रह रखता है. यदि रोग बढ़ जाए तो उपचार और चिकित्सा में भी परिवर्तन करना पड़ता है. गोली कैप्सूल से काम नहीं होगा, तो इन्जेक्शन लेना पड़ेगा. हमारे यहां पाक्षिक प्रतिक्रमण रखा गया है. कोई ऐसा पाप यदि विचार में स्थिर रह गया हो. जो आपके आचार को नुकसान पहुचाता हो, पाप की ग्रंथि बंध गयी हो. पूर्वाग्रही बन गया हो, दुराग्रह उसमें आ गया हो, उससे पीड़ित आत्मा के लिए पाक्षिक प्रतिक्रमण है जो चतुर्दशी के दिन विशेष रूप से उपचार हेतु किया जाता है.
आत्मा के आरोग्य को प्राप्त करने का यह उपाय है, उसके बाद व्यक्ति उसका प्रायश्चित करके अन्तर शुद्धि करता है. पाप मैं किसके लिए करूं, मुझे मेरे सामने अपनी मौत नजर आ रही है. यह सजा मुझे भोगनी पडेगी. यह समझ कर व्यक्ति अपने पाप को कमजोर बनाने के लिए इस प्रकार की सम्पर्क क्रिया करता है. और इन 15 दिनों तक आपके अन्दर जो कटुता है, जो विरोध की भावना रही, उसकी उपमा दी गई रेत पर यदि आप निशान करें तो वह कुछ घण्टा बना रहता हैं. इस प्रकार की कटुता को हमारे यहां पाक्षिक प्रतिक्रमण के अन्दर शद्धि के लिए उपचार बतलाया. तीसरा प्रतिक्रमण का स्वरूप “पाक्षिक प्रतिक्रमण" है.
कछ ऐसे भी पाप हैं, कटता है जो विचार को लेकर पैदा होते हैं. वाणी के अन्दर, विवेक का अभाव होने से जो कलह पैदा हो जाता है. पूर्वाग्रह बंध जाए तो कई ऐसे विकार हैं, जो स्थिर रहते हैं, चार महीने तक, उनका समय और मर्यादा बतलाई चार महीने तक. अगर कोई ऐसा पाप संग्रह में रह जाए, वाणी के अन्दर गर्व उत्पन्न कर दे, वाणी को तुच्छ और विकृत बना दे. ऐसे पाप की शुद्धि के लिए चातुर्मासिक प्रतिक्रमण हैं.
काफी समय आपको मिला. अवकाश फिर मिला. अवकाश में भी आप प्रमाद से मुक्त नहीं बनें. कर्म के दास बन करके अपनी आत्मा को पीडित किया. आत्मा के लिए आत्म दर्गति उपार्जित की. ऐसी परिस्थिति में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में विशेष आराधना के द्वारा, प्रभु प्रार्थना के द्वारा, परमात्मा स्मरण के द्वारा, आपने उसका शुद्धिकरण किया. भगवन्त से उसका पश्चाताप प्रकट किया कि “भगवन् ! मैं अपराधी हूं, आपका क्षमा का पात्र हूं." चार महीने
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-गुरुवाणी:
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में जो भी पाप जागत हो गए, उसकी उपमा दी गई है. खेत के अन्दर, तालाब के अन्दर, गर्मी में जैसे दरार पड़ जाती हैं परन्तु जैसे ही चतुर्मास आया एकरूपता हो जाती है. सब कुछ समान बन जाता है. उसी तरह से आत्मा और धर्म के बीच में दरार पड़ गई. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के द्वारा, ऐसा प्रयास किया जाता है जिससे आत्मा में एकता, समानता आ जाती है. __परन्तु यदि चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भी आप सावधान नहीं हुए तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आता है. ये चार प्रतिक्रमण पूरा हुआ. जैसे-जैसे कषाय की मात्रा बढ़ेगी, कषाय की मात्रा बढ़ने का परिणाम धार्मिक अनुष्ठान के अन्दर, क्रियाओं के अन्दर ऐसी व्यवस्था रखी गई है कि विशेष रूप से प्रार्थना या कार्योत्सर्ग किया जाएगा. परन्तु संवत्सरी वार्षिक पर्व सबसे बड़ा पर्व है, इससे बढ़कर वर्तमान काल के अन्दर कोई पर्व नहीं है. जैन परम्परा में यह पर्व आत्मा शुद्धि का पर्व है. मैत्री का पर्व है. पर्व का क्षण है. जितने भी भारत के अन्दर प्रचलित पर्व हैं. उन्हें प्रेरणा मिलती है. उनमें यह संपूर्ण पर्यों का प्राण माना गया है. यदि मैत्री नही, प्रेम नहीं तो परमात्मा की बात आप क्यों करते हैं. वह कभी मिलने वाला नहीं प्रेम के अभाव में फिर परमात्मा की बात आप क्यों करते हैं? क्योंकि परमात्मा ऐसे नहीं मिलता. प्रेम और मैत्री के अभाव के अन्दर हमेशा धर्म का दुष्काल मिलेगा. दुनिया के हर धार्मिक सिद्धांत के अन्दर ये उसकी मौलिक मान्यताएं हैं.
ऋग्वेद के अन्दर लिखा है “भगवान! तू मुझे ऐसी दृष्टि प्रदान कर, मैं सभी आत्माओं को मित्रवत् देखू" यह प्रार्थना की गई है कि पड़ोसियों के साथ. जगत् के साथ कैसा व्यवहार करता है. बाइबल के अन्दर लार्ड क्राइस्ट ने शत्रु-मित्र का भेद-भाव कर कहा – “स्वर्ग में जो द्वार है, वह उन आत्माओं के लिए खुला है, जिनका हृदय प्रेम और दयालुता से भरा है." आप विचार कर लीजिए. जहां प्रेम से परिपूर्ण आपकी आत्मा होगी, दयालुता से परिपूर्ण आत्मा होगी, वहां पर स्वर्ग का द्वार खुला मिलेगा. स्वर्ग में आपको आमन्त्रण मिलेगा.
दुनियां के हर धर्म में आपको ये सिद्धांत मिलेंगे. जैन दर्शन में तो सर्वत्र ही मैत्री है. यदि वह मैत्री नहीं रही तो इसका परिणाम सबसे भयंकर हमें भोगना पडेगा. आप हम भाग रहे हैं. मैंत्री की बात करने वाले सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने वाले दशलक्षणी पर्व को आधार करने वाले हम सब का यह आराधना या नाटक हुआ. यदि हम मन में कटुता रखें, बैर रखें, हदय के द्वार बन्द रखें तो वह किस प्रकार की आराधना हई? कैसी साधना हुई?
भगवान महावीर का कहना है "जो व्यक्ति अपने अन्तर हृदय का द्वार बन्द कर ले किसी भी एक व्यक्ति के लिए, तो गौतम, मोक्ष का द्वार उस आत्मा के लिए बन्द रहता है." किसी भी व्यक्ति के लिए यदि आपने अपना द्वार बन्द कर लिया तो प्रभु का द्वार आपके लिए कुदरती तौर पर बन्द हो जाएगा. आज तक हम प्रेम का नाटक करते रहे.
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- गुरुवाणी
लोगों को दिखाते रहे. क्षमावाणी पर पत्र लिखते रहे. क्षमापना पर्व मनाते रहे. अन्दर में क्या भरा है वह तो जाना नहीं. अगर क्षमा की भावना आती तो हमारी यह समस्या ही नहीं रहती. कोई समस्या नहीं रहती. यहां संसार भी स्वर्ग जैसा बनता. आपका जीवन चलता फिरता मंदिर जैसा बन जाता. परन्तु अफसोस है कि हम प्रभु के नाम को लेकर परमात्मा को बदनाम कर रहे हैं. जो सत्य है, वह तो सामने आएगा. प्रकाश के लिए किसी को ढोल नहीं पीटना पडता, कोई विज्ञापन नहीं देना पड़ता कि मेरा यह प्रकाश है. सारी दुनिया को नजर आएगा. जो सत्य है, वह सारी दुनियां को समझ में आ जाएगा, विज्ञापन की जरूरत नहीं. प्रेस पब्लिसिटी की नहीं. नारे लगाने की जरूरत नहीं. दुनियां बहरी नहीं है. अधी नहीं है, जो प्रकाश को न समझ सके. या सत्य की जानकारी उसे न मिले. किन्तु आदत से लाचार.
साम्प्रदायिक दृष्टि का वह तुच्छ परिणाम है. आज हम भोग रहे हैं. दुनिया के हर धर्म में आज वह रोग व्यापक बन गया है. यह वायरस की बीमारी इतनी खतरनाक है. कोई इससे बच नहीं सकता. सारी दुनियां को आदर्श देने वाला आज कैसी बीमारी में फंसाया गया. यह कटुता, वैर विरोध की भावना बीमारी ही तो है, संवत्सरी तो मनाते हैं. प्रतिवर्ष पर्व आता है. प्रेरणा देकर चला जाता है. वह तो अतिथि है, मेहमान की तरह से है, उसका जो स्वागत होना चाहिए हम कर नहीं पाते, मात्र औपचारिता का निर्वाह कर लेते हैं. उसमें वास्तविकता नहीं मिलती, पर्व की आराधना कैसे करें?
पार्श्वनाथ भगवान जिनका मोक्ष कल्याण पर्व नजदीक आ रहा है. उनके जीवन की घटना है. उन्ही का भाई पूर्व के 10-10 भावों के अन्दर क्षमापना के लिए उसके सामने गया. एक ऐसा ही प्रसंग था. पार्श्वनाथ भगवान का जीव अपने भाई के पास जो संन्यास लिए हुए थे और पंचाग्नि तप कर रहे थे, गया, वहां जाकर क्षमा याचना की कि मेरा व्यवहार आपकी आत्मा के दुख का कारण रहा है. मेरे निमित्त उस आत्मा को जो भी कुछ कष्ट हुआ हो मैं जाकर अन्तर शुद्धि के लिए क्षमापना करूं.
पार्श्वनाथ भगवान का जीव निर्दोष था. अपराध उन्होंने कुछ भी नहीं किया, परन्तु ऐसी गलत धारणा भाई के अन्दर आ गई. भाई संसार से विरक्त हो गये. उन्होंने संन्यास ले लिया. पार्श्वनाथ भगवान का जीव वहां गया. जाकर क्षमायाचना की. क्षमायाचना के बाद, कैसा आवेश आया उसके अन्दर, अब आप सोचिये. उस आवेश का परिणाम कितना अनर्थकारी हुआ. कहना था, दोष लगे या ना लगे, स्वयं क्षमापना की भावना लेकर के गए. जाकर के हृदय पूर्वक उन्होंने अपनी क्षमायाचना की. उसका परिणाम मन के अन्दर ऐसा प्रचण्ड पैदा हुआ. भगवान के भाई जिन्होंने संन्यास ले लिया था. मन से संन्यासी नहीं बने थे. बाहर से कपड़ा ही बदला था. उन्होंने पत्थर उठा लिया और उनके माथे पर दे मारा.
यह है कटुता का परिणाम, जिसके पात्र यहां पार्श्वनाथ बने. उन्हीं के भाई कमठ बन कर फिर बैर विरोध की भावना लेकर आए. उसके बाद परमात्मा पर क्या उपसर्ग
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- गुरुवाणी
किया वह तो इतिहास के अन्दर स्पष्ट है. परन्तु उन्होंने अपना नैतिक कर्तव्य कभी नहीं छोड़ा. अपने आचार को कभी छोड़ा ही नहीं.
मोहम्मद साहब एक बार समुद्र में स्नान करने गए, वहां पानी में एक जहरीला बिच्छ्र डूब रहा था. उन्होंने उसे हाथ से उठाया, बिच्छू का स्वभाव है, उसने डंक मारा, जिससे इनका हाथ कांप गया और वह वापिस पानी में गिर पड़ा. उन्होंने फिर उठाया उसने फिर डंक मारा, दो चार बार इस प्रकार की घटना हुई. साथियों ने कहा - जाने दीजिए. यह डूबना चाहता है, डूबने दीजिए. बार-2 आपको डंक मार रहा है. मोहम्मद पैगम्बर ने कितनी सुन्दर बात कही - यह पशु है, जानवर है. इसमें दिल और दिमाग नहीं. परमात्मा ने सोचने समझने की शक्ति नहीं दी. यह कोई अपना अपराध लेकर आया है, अपराध मान रहा है, इस योनि के अन्दर, परन्तु फिर भी कितनी बड़ी विशेषता है कि यह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता. डंक मारना इसका धर्म है, स्वभाव है. मैं इन्सान हूं, बचाना मेरा धर्म है. मैं अपना धर्म कैसे छोड़ दूं?
बिच्छू अपना धर्म डंक मारना नहीं छोड़ता तो मैं अपना धर्म बचाना क्यों छोड़ दूं? जीना भला है उसका, जो जीता है दूसरों के लिए. मरना भला है उसका, जो जीता है खुद के लिए. यहां तो परोपकारमय जीवन होना चाहिए. इस प्रकार की भावना अपने में रखनी चाहिए. यह जितनी बार डंक मारेगा, मैं इसे बचाकर रहूंगा. संकल्प था, दुनिया के हरएक धर्म इसको आज मानने को तैयार हैं. बाइबल जैसा ग्रन्थ भी प्रेम और मैत्री का सन्देश देने वाला है. न्यू टेस्टामैंट जहां पर लार्ड क्राइस्ट कहते हैं - दयालु और प्रेम से परिपूर्ण आत्मा के लिए स्वर्ग का द्वार खुला है. कहीं प्रतिबन्ध नहीं. बुद्ध की मैत्री
और करुणा देखिए. महावीर का विश्व मैत्री भाव देखिए. जगत के प्राणिमात्र के प्रति उनका हितचिन्तन आप देखिए. अगर एक बार उस चिन्तन पर विचार किया जाए तो व्यक्ति जीवन की समस्त चिन्ताओं से मुक्त बन जाए. पर आज हमारे पास उस चीज का अभाव है.
संत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषुः
"सर्वत्र निन्दा वर्णवादः साधुषु." महान पुरुष श्री हरिभद्र सूरि चार-चार वेद के ज्ञाता थे. वे चितौड़ राणा के राज पुरोहित थे. बाद में वे जैनाचार्य बने. चौदह सौ चवालीस ग्रन्थों के रचियता हुए. महान दार्शनिक विभूति बने, उनका यह कथन है इस सूत्र के द्वारा, कि अगर धर्म में प्रवेश करना है, जीवन के अन्दर अपनी जुबान पर लगाम पहले लगाओ. इन्द्रियों पर पहले नियन्त्रण प्राप्त करो. जहां तक आपके पास व्यावहारिक ज्ञान नहीं, वहां तक आत्मा के विषय में पूर्णता नहीं मिलेगी. उसके बाद आत्मा, परमात्मा या मोक्ष की चर्चा करो, कोई व्यक्ति जिसने प्राइमरी एजुकेशन भी नहीं लिया, उसे यदि यूनिवर्सिटी में एडमिशन दिला दें और वह रोज लैक्चर सुने, तब भी वह पेपर नहीं करेगा.
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%Dगुरुवाणी
प्राथमिक ज्ञान भी जिसके पास नहीं, प्राथमिक आचार विचार की पवित्रता भी जिसके पास नहीं, वह आत्मा की पवित्रता और पूर्णता को कैसे प्राप्त करेगा? इसीलिए यहां तो क्रमिक विकास में परमात्मा ने मान्यता दी है. आत्मा के अन्दर, धार्मिक कार्यों के अन्दर व्यक्ति को पहले अपनी स्थिति मजबूत कर लेनी चाहिए. इसके लिए सर्वप्रथम प्राथमिक स्थिति है - मैत्री. जगत के जीव मात्र के साथ मुझे इस प्रकार का सम्बन्ध रखना ही नहीं है तो सारी क्रिया आपकी निष्फल जाएगी.
हमारे यहां एक-एक महीना का उपवास करते हैं. नहीं करने वालों से, जो करते हैं, वे धन्यवाद के पात्र हैं. मुसलमानों में रोजा रखते हैं. ईसाइयों में भी तप होता है. दुनिया के हर एक धर्म में किसी न किसी प्रकार तप का आयोजन रखा गया है. इन्द्रियों के दमन के लिए, विषयों को नष्ट करने के लिए, आत्मा की शुद्धि के लिए तप आवश्यक है, तप की भट्टी में आत्मा का शुद्धिकरण होता है. हम ये सारी क्रिया करते हैं. रोज हम प्रार्थना करते हैं. दुनिया के अन्दर लाखों मन्दिर, चर्च, मस्जिद और गुरुद्वारे हैं, कोई कमी नहीं है, प्रभु का द्वार हर जगह आपको मिलेगा.
हमारी साधना क्यों नहीं सफल बन पाती? यह संसार मेरा स्वर्ग जैसा क्यों नहीं बनता? यहां हमारे मन के अन्दर भयंकर नरक जैसे विचार कैसे आते हैं? यह कुछ करने के बाद हम वहीं के क्यों रहते हैं? इसका कारण क्या, कभी आपने सोचा? मजदूरी करता हूं, साधना का श्रम करता हूं. सफलता क्यों नहीं मिलती? देखें पूरे वर्ष तक मैने मजदूरी की है. दस घंटे दुकान के अंदर हमने श्रम किया, यह नफा क्यों नहीं बतलाता है? चेहरा कह देगा. चिन्ता से प्रकट हो जाएगा. वर्ष बेकार गया.
यह संवत्सरी जो आ रही है. उस दिन यहां अंदर का चौपडा भी देखना है. पूरे वर्ष पर्यन्त मैंने तप किया, उपवास किया, मास रवणम् किया, बहुत प्रार्थना की, परमात्मा की भक्ति की, प्रतिक्रमण किया. सामायिक किया, अंदर का चौपड़ा टटोलना कि नफा कितना मिला. हमारे अंदर वह समत्व की भमिका किस प्रकार की आई है? मैत्री और प्रेम की भूमिका में कितनी मैंने वृद्धि की, कितना बढ़ाया, उसे कितना व्यापक किया? आज तक हमने इसपर कभी विचार नहीं किया. यह बहत खतरनाक स्थिति है. हर साल हम लास में जा रहे हैं, बस जीवन व्यतीत हो रहा है. नफा में कुछ नहीं.
सेठ मफतलाल दिल्ली से बंबई गए थे. जैसे ही स्टेशन पर उतरे वहां सेठ चन्दूलाल मिल गए. दोनों बेचारे साथी थे. पैसा खोकर के बंबई भाग्य की परीक्षा के लिए गए. शायद वहां तकदीर अजमाएं. स्टेशन पर उतरते ही वहां कोई ज्योतिषी मिल गया. बहुत लम्बा चौड़ा तिलक लगाया हुआ, भाग्य को धन्यवाद दिया कि सेठ साहब सुबह-सुबह आए एक दूसरे को देखने लग गए कि बहुत अच्छा. लम्बा चौड़ा कोट पहना हुआ था. देखते ही मालूम पड़ जाए कि करोड़ पति है.
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%3Dतारुताणी
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ज्योतिषी के पास गए. उन्होंने हाथ दिखलाया. कहा कि आज कोई ऐसा अच्छा महर्त दो, बंबई है, लोग यहां धूल से पैसा कमाते हैं. पैसा कमाने के लिए आया हूं. कोई उपाय बतलाओ, जरा मेरा हाथ तो देखो. उसने हाथ देखा और कहा -- सेठ साहब तकदीर तो आपकी बहुत साथ देगी. एक अनुष्ठान आप करा लीजिए. क्या? आप जानते हैं? ज्योतिषी तो बड़े होशियार होते हैं. उनको समझना बहुत मुश्किल है.
औरंगजेब के काल में यहां एक बार भूकम्प आया. सारे ब्राह्मणों को बन्दी बना लिया, और कहा तुम भविष्यवाणी करते हो. इस नक्षत्र में बरसात होगी. इस समय एक ग्रहण लगेगा. इस समय अकाल पड़ेगा. तुमने ये भविष्यवाणी क्यों नहीं किया, यह भविष्यवाणी क्यों नहीं की कि इस दिन रात्रि के समय भूकम्प आएगा? हजारों आदमी बेघर हो गए.
पंडितों ने कहा – “यह तो बड़ी गजब की बात है. औरंगजेब का जुबानी कानून था. थोड़ा सोचकर कहा - "हजूर! जरा विचारने दीजिए. कहां भूल हो रही है? जरा सोचकर बतायेंगे." _ विचार का विलम्ब कई बार बचाव का रास्ता निकाल देता है. एक ज्योतिषी ऐसा आया, वह सबके लिए उसकी मौत की तिथि बतला देता था. इस तारीख को मरोगे. पूरे गांव के अंदर शोक छा गया. हरेक की मृत्यु तिथि बतला दी, राजा को बड़ा गुस्सा आया. पकड़ कर के कहा - "बेवकूफ! तू अपनी मौत की तिथि निकाल, तू कब मरेगा." हाथ में नंगी तलवार ले ली. वह जानता था कि यह राजा बड़ा धुनी दिमाग का है. यदि मैंने कल परसों किया तो यहां इसी समय गर्दन अलग होने वाली है. मौत की दूरी केवल चार अंगुल ही थी. कसौटी का समय था.
उसने कहा - "हजूर जरा दो मिनट दीजिए. मैं पंचांग देखकर के अपनी मौत की तिथि आपको बतलाता हं." उसने विचार कर विलम्ब से रास्ता निकाल लिया. हाथ जोड़कर के कहा कि “राजन मैंने अपनी मौत की तिथि तो देख ली. पर कहने में जरा विचार आता है. कहूं या न कहूं?"
तेरी मौत एकदम नजदीक में चार अंगुल की दूरी पर है, तू जानता है, इसका परिणाम तेरे सामने उपस्थित है. मौत तेरे सामने खड़ी है.
उसने कहा - "राजन मैं आपकी तलवार से या मौत से नहीं डरता, परंतु कुछ कहने के अंदर अविवेक न हो जाए. किसी को दुख न पहुंचे. इसलिए डरता हूं." "क्या बात है? सच बता दे.” “हजूर मेरी मौत के बाद मात्र तीन दिन बाद आपकी मौत है." तलवार अंदर चली गई.
संदेश या आशंका का ईलाज दुनिया में होता ही नहीं. राजा ने देखा कि यह जोखिम क्यों लूं? आज इसकी गर्दन उड़ाऊं और तीन दिन बाद मुझे मरना पड़े. शब्द सत्य हो जाए, ऐसा रिस्क नहीं लेना. तलवार अंदर म्यान में गई. कहा -- “मेरे राज्य को छोड़कर चले जाओ." पंडित ने देखा, चलो जान तो बची. उपाय निकाल लिया.
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-गुरुवाणी
औरंगजेब को पंडितों ने कहा – “हजूर हमारे जितने भी पूर्वज हैं. हमारी हिन्दू संस्कृति के अंदर, जो भी हमारे पूर्वज हुए, मरकर के उनकी आत्मा देवगति में जाती है. आकाश में जाती है. स्वर्ग के अंदर जाकर ग्रह नक्षत्र देखती है, जो गति होती है उनकी सूचनाहमको देते हैं. हम लोग पितृ पक्ष में तर्पण करते हैं. उन्हें आह्वान करते हैं. उन आत्माओं को तृप्त करने का प्रयास करते हैं. वह पूर्व सूचना हमको सब मिल जाती है कि कौन सी घटना घटेगी. ग्रहण कब होगा. दुष्काल कब पड़ेगा. बरसात किस नक्षत्र में आएगी. उसकी पूरी जानकारी हमको मिल जाती है. हजुर ऊपर का विभाग तो हमारा है मुल्ला, मौलवी, पीर, फकीर, हजूर सब गाड़े जाते हैं. धरती में क्या होता है वह डिपार्टमैंट उनका है." __औरंगजेब ने कहा – “इनको निकाल बाहर करो.” समझ गए बड़े होशियार होते हैं. आप इनको नहीं समझ सकते कि हजूर नीचे बात तो वही जानेंगे, आप मौलवियों को बुलाइए. ___मफतलाल सेठ हाथ दिखा रहे थे और कहा – अरे, तुम्हारी तकदीर बड़ी सिकन्दर है. जाते ही धूल से पैसा पैदा करोगे. क्या बात करते हो. मैं अच्छा मुहूर्त देता हूं इस मुहूर्त का परिणाम यह है कि जाते ही वहां चांदी ही चांदी है. अरे मरोगे तो तुमको स्वर्ग भी मिलेगा. बेताज बादशाह बन जाओगे. तुम्हारा पुण्य सिकन्दर है. पर ग्यारह रुपया यहां दे जाओ, मैं जरा अनुष्ठान की विधि कर दूं. इसके बाद यह परिणाम आएगा. संसार स्वर्ग बनेगा. मरोगे तो बैकुण्ठ मिलेगा. करोड़ों की संपत्ति आएगी. पंडित के शब्द में बड़ा जादू था. आकर्षण था, शब्द की सुंदरता बहुत थी. ___ मफतलाल भी कम नहीं था, दिल्ली से गया था. उसने कहा पैसा गया, अक्ल नहीं गई. उसने कहा - "पंडित जी! आपने जब इस प्रकार से आशीर्वाद दिया तो दक्षिणा देने में कमी क्यों रखू, बंबई, दिल्ली, कलकता, सब जगह पर आपको इनाम में दक्षिणा देना है. “बड़ा गुस्सा आया पंडित को – “क्या दिल्ली, बंबई, कलकता तेरे बाप का है?" "तो क्या पंडित जी स्वर्ग और बैकुण्ठ आपके बाप ने खरीदा है कि आपने आशीर्वाद में दे दिया?"
बड़े अक्ल वाले आदमी थे चन्दूलाल और मफतलाल. दोनो मिल गए – कहा कि जरा तकदीर तो आजमाओ, मैं खाली हूं. चन्दूलाल मिला उसने कहा - मैं भी खाली हूं. घूमते फिरते एक रास्ता निकल आया. उन्होंने कहा “यार! ये प्लास्टिक के गिलास ले लें. गर्मी के दिन हैं जरा शर्बत बनाएं अपने पास थोडी पंजी हैं. प्लास्टिक के गिलास बालटी और शक्कर, खूब कमाई होगी यार, क्योंकि हजारों, लाखों आदमी चौपाटी घमने आते हैं. एक-एक गिलास भी लेंगे तो पैसे की बरसात हो जाएगी. महीने दो महीने तक धन्धा चलेगा फिर कोई नया व्यापार शुरू करेंगे."
दोनों समझ गए पर लाभान्तराय कर्म जिसे कहा जाता है, वह तो अपने भाग्य का दोष है, चाहे कितना भी कोई प्रयास करे.
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-गुरुवाणी:
"भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषम्" पूर्व में जो कार्य आप करके आए. जैसे प्रारब्ध का निर्माण करके आए. प्रारब्ध बड़ा बलवान होता है. सारे प्रयत्न को वह एक बार निष्फल कर देता है. इतना प्रारब्ध उनका बलवान था. वहीं पर बैठ गए. दिन के बारह बज गए, एक ग्राहक नहीं आया, प्रारब्ध ही ऐसा था. किसी व्यक्ति का ध्यान उधर नहीं गया.
चन्दूलाल सेठ को प्यास लगी, कहा – यार बड़ी तेज प्यास लगी है और भूख भी लगी है. कुछ उपाय करना चाहिए. मेरे पास तो सिर्फ चवन्नी बची है. कहा - कोई हर्ज नहीं. आधा गिलास चवन्नी है. भरा गिलास का यहां आठ आना है. अगर तुम चाहो तो बोहनी करा दो.
चवन्नी निकाल के दे दी. वह समझ गया. पानी उसको पिला दिया. दो बजे के समय मफतलाल की हालत बड़ी बिगड़ गई. चक्कर आने लग गया. ऐसी भयंकर प्यास, मूर्छा सी आने लगी. उसने कहा यार चन्दूलाल मेरी हालत बहुत खराब हो रही है.
उसने कहा – जो मैंने किया वह तुम भी करो. मैंने तुम्हें बोहनी करा दी, तुम मुझे बोहनी करा दो. हम दोनों तो पार्टनर हैं. ग्राहक नहीं आया उसकी चिन्ता नहीं. चार आने पॉकेट से निकाल कर दे दिया और पानी पी लिया. थोड़ी शान्ति मिली, प्यास बुझी, और यही व्यवहार दोनों के पास शाम तक चलता रहा, टर्न ओवर, चार आने इस पॉकेट से उस पॉकेट में, उस पॉकेट से इस पॉकेट में शाम तक सारा शर्बत खत्म हो गया. व्यापार पूरा करके लौटे. उनके किसी मित्र ने कहा - यार कैसा रहा? ____ कहा - व्यापार तो बहुत अच्छा रहा लेकिन नफा कुछ नहीं हुआ. आप समझ गए मेरी बात. हमारी प्रार्थना का व्यापार भी ऐसा ही है. रोज जाएं परमात्मा के पास, रोज जप करें, तप करें, दान पुण्य करें. मफतलाल जैसा व्यापार बहुत किया. टर्न-ओवर बहुत चला. परंत नफा कछ नहीं जीरो क्योंकि अंदर बैर है. कटता है. अंदर मैत्री और प्रेम का अभाव है. यह कषाय सब खा जाता है. आपकी सारी कमाई यह लूट लेता हैं इसलिए महावीर ने कहा पहले मैत्री और प्रेम लेकर मेरे पास आओ. तब मैं तुम्हें पूर्ण बनाऊंगा, जहां तक मैत्री और प्रेम के तत्व का अभाव होगा, वहां तक आत्मा कभी पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाएगी. जीवन की सारी साधना आपकी अपूर्ण रहेगी. साधना को पूर्ण करने के लिए प्रेम और मैत्री चाहिए. इसलिए इसका परिचय दिया और बताया कि इसे नष्ट करने का साधन निन्दा का त्याग है. ऐसी कोई निन्दा, पर निन्दा, पर चर्चा मैं नहीं करूंगा. जिससे बैर की परंपरा बढे या साम्प्रदायिक दर्भावना बढे. मैंने कहा आपसे --- सारे धर्मों के अंदर आज विकृति आ गई. हम उसे संस्कार नहीं दे पाए. हमारी सारी संस्कृति आज विकृति बन गई. मन की सारी उदारता आज खत्म हो गई. अनुदार प्रकृति से की गई साधना किस प्रकार से सफल बनेगी. सर्वप्रथम जीवन की सफलता को प्राप्त करने की साध शुद्ध करो. कभी ऐसा गलत बोलने का प्रयास नहीं करना.
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-गुरुवाणी 3D
हम तो पढ़ लिखकर भी मूर्ख बन जाएं. सन्त कबीर जी ने बहुत सुंदर बात कही है:
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय.
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय. यह ढाई अक्षर यदि सीख लिया जाये तो महा पंडित बन सकता है. इस प्रेम को प्राप्त करने का परम साधन परनिन्दा का त्याग है जो कि इस सूत्र में है. ___ मैंने कल ही आपसे कहा - चार बातें बाकी थी. भाषा के गुण जो मैं आपको समझा रहा था, कैसे बोलना और क्या बोलना. स्तोकम्, मधुरम्, निपुणम्, कार्यपतितम् इन चार पर विचार हमने किया चार शेष रहे. वाणी कैसी होनी चाहिये. अल्प हो, मधुर हो, निपुणता युक्त हो, बुद्धिमानी से परिपूर्ण हो. बौद्धिक कुशलता के साथ जब आवश्यकता हो तभी बोलना, बिना जरूरत कभी बोलने का प्रयास नहीं करना. कार्यपतितम्. जब बोलना पड़े तभी बोलना. अकारण कभी बोलने का प्रयास नहीं करना, बौद्धिक कुशलता उसके अन्दर आनी चाहिये. ___एक बहुत बड़े राजा के यहां एक दौलत नाम का नौकर था. पान में चूना ज्यादा
आ गया, पान में चूना ज्यादा लग जाने से राजा की जीभ कट गई, परिणाम स्वरूप उसे नौकरी से बरखास्त कर दिया गया. उसने किसी महाजन के पास पहंचकर उससे कहा - अब मैं बेकार बैठा हूं, दिवाली सामने आ रही है क्या करूं? महाजन ने कहा - कुछ नहीं दिवाली के दिन आना और मैं जो कहूं उस प्रकार कहना. बौद्धिक कुशलता दिखाते हए बोलना. उचित समय पर बोलना. उसका महत्व रहता है.
वह आया बिल्कुल सुबह का समय था और दिवाली का दिन. राजा बडे धार्मिक प्रवृत्ति का था. आवेश आ जाने से उसने ऐसा निर्णय दे दिया था, जिससे दौलत नौकरी से बरखास्त हो गया था. अब महाजन के कहने पर वह सुबह के समय में आया. जैसे ही राजा दरबार में आकर बैठे जोर से उसने राजा का जय-जयकार किया. बोला - हजूर! दौलत हाजिर है. यदि आप कहें तो चला जाये. यदि आप कहें तो आए. दीवाली के दिन राजा यह कैसे कहे, दौलत चला जाये.
ऐसी बौद्धिक कुशलता का परिचय दिया. गर्म लोहे पर चोट की. राजा को कहना पड़ा “दौलत आ जाये”. बंदा तैयार है. समझ गये. खुश कर दिया. अवसर पर ही बोलना चाहिए. यहां क्या बतलाया? भाषा के चौथे गुण में. कार्यपतितम्. जब जरूरत हो, आवश्यकता हो, उसी समय पर बोलना चाहिये. नहीं तो बोला हुआ निष्फल चला जाएगा. दिवाली के सिवाय ऐसा बोलना गलत होता. तब कहा होता तो ये चीज कभी होती?
समय की अनुकूलता और परिस्थिति को देखकर अपने शब्द का उपयोग करना, अपनी भाषा का उपयोग करना कार्यपतितम् कहलाता है.
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%Dगुरुवाणी
अतुच्छम्. भाषा के अन्दर किसी प्रकार की तुच्छता या दरिद्रता नहीं होनी चाहिये, अपनी भाषा के अन्दर किसी प्रकार का गर्व नहीं होनी चाहिये. नहीं तो व्यक्ति जब बोलेगा, उसके अन्दर हृदय की दुर्गन्धि ही दुर्गन्धि उत्पन्न होगी. श्रवण करने वाले व्यक्ति में भी अरुचि पैदा करेगी. मरे हुए मुर्दे को भी हम छुने में विचार करते हैं. मरे हुए शब्द का स्पर्श कौन करेगा. जिसमें प्रेम और मैत्री का अभाव हो, जो मरे हुए शब्द हों, उनकी यदि आप डिलीवरी दो तो कौन स्वीकार करने को तैयार हैं.. __इसलिए मेरा कहना था. अतुच्छम् - कभी तुच्छता, तिरस्कार अपने शब्दों में नहीं होना चाहिये. नहीं तो उनसे प्रेम का संबन्ध टूट जाता है.
गर्व रहितम, उन शब्दों के अन्दर गर्व नहीं होना चाहिये. हिन्दू संस्कृति के अन्दर तो गर्व का बहत तिरस्कार किया गया. जीवन के अन्दर की विकृति का परिचय गर्व से होता है. यह गर्व किसी काम का नहीं. धर्म क्रिया के अन्दर व्यक्ति को मजबूत करने वाला, उसका टॉनिक नम्रता और लघुता हैं, गर्व नहीं
"लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर.' जहां नम्रता होगी, जहां लघुता होगी, वहीं पर प्रभुता का दर्शन होगा. यदि पहले से ही प्रभुता आ गई तो प्रभु दूर चले जायेंगे. ऐसे दुर्गन्धमय वातावरण में परमात्म तत्व का वास नहीं हो सकता. हमारा जीवन बड़ा लघु होना चाहिए. आप देखते हैं, सुई के अन्दर आप डोरा डालिये, पर डोरा डालते समय सुई के अन्दर क्या किया जाता है. धागे को, सूत को कितना मसला जाता है? प्रवेश करने के लिए पहले थूक लगाकर, पानी लगाकर उसे मसलते हैं. नोकदार बनाते हैं. जैसे ही उसमें नम्रता आ जाती है सूई में प्रवेश हो जाता है.
प्रभु के द्वार पर भी मन को मसलकर, नम्र बनाकर आवाज देना नहीं तो प्रभु के द्वार में प्रवेश नहीं होगा. सुई के छेद के अन्दर भी धागे को मसल करके प्रवेश दिया जाता है. प्रवेश वहीं तक रहता है, जहां तक धागे में सरलता हो. परन्तु यदि एक गांठ बीच में आ जाये तो प्रभु के द्वार में प्रवेश बन्द हो जायेगा, फिर वह कभी प्रवेश नहीं पा सकेगा.
सुई में पिरोई गई यह नम्रता चमत्कार शक्ति है. चमत्कार यह कि इस नम्रता को लेकर उसमें एक बहुत बड़ी सृजनात्मक शक्ति आ गई है. सृजनात्मक शक्ति का परिणाम यह कि वह सबको एक कर देती है. चाहे कितने फटे हुए कपड़े हैं, जितनी दर्जी की दुकानें हैं, उनको सीने का काम इसी नम्रता के द्वारा किया जाता है. अन्दर प्रवेश कब मिलता है? नीचा होने पर उसकी नोक कितनी तेज होती है? बड़ा नुकीला होता है सुई का अग्र भाग. इसी कारण अन्दर में आसानी से प्रवेश मिल जाता है एक दूसरे को एक कर देती है. सुई का सम्मान कैसे होता है? इस एकता के कार्य से उसकी नम्रता के कारण सारा ज को नमस्कार करता हैं. किसी भी दर्जी के यहां जाइये. कोई दर्जी
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गुरुवाणी
सुई को कभी नीचे नहीं रखेगा. टोपी में, पगड़ी में या गर्दन के कालर में लगाकर रखेगा. नीचे रखने से दुर्घटना हो सकती है, पांव में लग जाये तो उठाना मुश्किल होता है. ऐसे कई कारण हैं. अतः दर्जी ज्यादातर उसे टोपी में ही रखते हैं. इतना बड़ा सम्मान.
छोटी सी सुई उसके कार्य को लेकर, उसकी नम्रता को लेकर उसका यह सम्मान कि उसे टोपी में रखा जाता है. परन्तु इतनी बड़ी जो कैंची होती है, उसका धन्धा है काटने का. अलग करने का, वैर और कटुता का. उसका परिणाम यह कि उसे पांव के नीचे दर्जी दाब करके रखता है. कितना बड़ा अपमान. व्यक्ति कितना भी बड़ा हो जाये परन्तु यदि उसके अन्दर नम्रता और लघुता का अभाव होगा, गर्व से यदि उसका जीवन परिपूरित होगा, वह कभी जगत में सम्मान प्राप्त नहीं कर पायेगा. सुई जैसी एक लघु वस्तु भी जगत का सम्मान प्राप्त कर सकी, तो फिर हमारे जैसा इन्सान यदि उसके जीवन में नम्रता आ जाये और विनम्रता के द्वारा यदि करने की भावना आ जाये, सारे जगत के कल्याण की कामना आ जाये, तो सम्मान का क्या दुष्काल मिलेगा. कोई दुष्काल नहीं. एक रूपता आ जायेगी.
संवत्सरी महापर्व के दिन इसी लिए नम्रता पूर्वक क्षमापना को स्वीकार किया गया. यह पांचवां प्रतिक्रमण इसीलिए किया जाता है ताकि जीवन के संपूर्ण पापों से मैं अपनी आत्मा को मुक्त करूं. किसी भी आत्मा से किसी प्रकार की कटुता वैर-विरोध मेरे अन्दर नहीं रहे, पूर्णतया सहन करने की अन्दर में रुचि आनी चाहिये. भगवान ने कहा कि जो सहन करता है, वही सिद्ध बनता है. जहां सहन करने की ताकत नहीं, वह सिद्ध भी नहीं बन सकता. ___ पहले तो स्वयं को इस योग्य आप बनाइये. हम तो शब्द को भी सहन नहीं कर सकते. जगत की मार को क्या सहन करेंगे? साढे बारह वर्ष तक महावीर को सहन करना पड़ा. जगत की मार खानी पड़ी. बड़े-बड़े महापुरुषों को जगत का तिरस्कार सहन करना पड़ा. अपमान सहन करना पड़ा, और वे सब पचा गये. जहर भी अमृत बन गया, वे सिद्ध बन गये, जगत की कटुता को पचाने वाला व्यक्ति जहर को अमृत बनाता है. सहन करने वाला व्यक्ति जगत में सिद्ध बनता है. महा पुरुष बनता है.
रास्ते के अन्दर बड़ा सुन्दर गुलाब का फूल खिला था. लोग बड़ी प्रशंसा करते जा रहे थे. संयोग से एक छोटा सा पत्थर रास्ते में गड़ा हुआ था. उससे कई व्यक्तियों को ठोकर लगी, कई व्यक्तियों के पांव से खून निकल गया. लोग उसका तिरस्कार करते धिक्कारते, बड़ा गजब का पत्थर है, ठोकर मारता है, कोई सुन्दरता नहीं. ____ अपनी प्रशंसा से गुलाब के फूल को बड़ा अहंकार हो गया. गर्व प्रकट हो गया. बोला - "मेरे जैसा सुन्दर इस जगत में कोई पदार्थ नहीं, मेरी सुन्दरता देखकर अच्छे से अच्छे व्यक्ति मोहित हो जाते हैं, मेरा आकर्षण ऐसा है. मेरे पास सुगन्ध है. मेरे पास सब कुछ है. इस पत्थर में सुन्दरता नहीं, खूबसूरती नहीं, कोई सुगन्ध नहीं, रास्ते के अन्दर न ।
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%3Dगुरुवाणी
जाने कितने लोगों को इसने ठोकर लगाई होगी." अपने प्रति गर्व और अभिमान तथा पत्थर के प्रति तिरस्कार की भावना उस गुलाब में थी.
वहां से कोई कलाकार निकला, उसकी नजर उस पत्थर पर पड़ी. अपने विचार को उसने शब्दों का रूप दिया. अति सुन्दर कि वीतराग के विचार को उसने उस पत्थर के माध्यम से प्रकट कर दिया. परमात्मा का अपूर्व सौन्दर्य प्रकट हुआ, दिखाई दिया. महीनों तक उसकी साधना चली. पत्थर ने सहन ही सहन किया, चोट खाता गया, खाता गया. __मैं मन्दिर जा रहा था. मेरे साथ कई साथी आ रहे थे, जूते वाले. सीढ़ियों के पत्थरों ने बड़ा विरोध अनुभव किया कि हमारा यह अपमान क्यों किया जा रहा है? उस मूर्ति के पत्थर में और हम सीढ़ियों के पत्थरों में कोई अन्तर नहीं है. हम एक ही जाति के हैं. एक ही जगह से जन्मे हैं. यहां यह भेद दष्टि क्यों है? सारा जगत उस मूर्ति का सम्मान करता है अपना प्राण देकर के, बलिदान देकर के, मूर्ति का सम्मान करता है. अपना प्राण देकर मूर्ति का रक्षण करता है. हम भी तो पत्थर हैं, हमारे ऊपर रोज जूते उतारे जाते हैं. यह अन्तर क्यों है?
मैंने कहा - भाई! वह उसके सहन की साधना का सम्मान है. छह महीने तक उस मूर्ति ने चोटें खाई है. उस पर हथौड़े मारे गये, छेनी लगाई गई, कलाकार ने उसे बार बार घिसा. हर तरह से उसके ऊपर चोट पहुंचाई. समभाव पूर्वक उस पत्थर ने यह सब कुछ सहन कर लिया. सहन की स्वीकृति का परिणाम यह स्वरूप प्रकट हो गया है. परमात्मा का निराकार भी यहाँ आकर साकारता प्राप्त कर गया है. सारा जगत वहाँ जाता है और उनके सहन के सौन्दर्य को नमस्कार करता है. परन्तु तुम्हारे साथ जब ऐसा व्यवहार किया गया. एक हथौड़ी लगाई गई, तुम आवेश में आ गये, कारीगर से कहा यह वेस्टेज है, सीढ़ी में लगा दिया जाये."
जो व्यक्ति संवत्सरी प्रतिक्रमण में क्रेक हो गया. गुस्से में आ गया, आवेश में आ गया, उसकी यही दशा होगी, जो सहन करेगा, शब्द की मार को सहन करेगा, वह जगत का सम्मान पात्र बन जाएगा. ____ "वह मूर्ति भी उसी पत्थर में से तैयार हुई, उसी में से गढ़ी गई. आलीशान मन्दिर में जब मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई, सारा जगत वहां सम्मान के लिए आया. जो गुलाब बड़े गर्व से अपना अभिमान प्रकट कर रहा था. मेरी सुन्दरता, मेरी खशब कहकर इतरा रहा था, लोग उसे तोडकर लाये और मूर्ति के चरणों में अर्पण कर दिया. गुलाब विचार में डूब गया. कल मैं इस पत्थर का तिरस्कार करता था. मेरे अंहकार का ही परिणाम है. कुदरत ने मुझे सजा दे दी है. इसी के चरणों में आकर मुझे समर्पित होना पड़ा.
वर्तमान समय के अन्दर ईगो, एक सर्वव्यापी रोग है. ईगो, मैं बहुत बड़ा हूं. मैं बड़ा महान हूं. मैं बड़ा विद्वान हूं. मैं बड़ा देश सेवक हूं. मैं बड़ा त्यागी हूं. जब तक आप इस
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गुरुवाणी
"मैं" की दीवार को नहीं तोड़ेंगे. शून्य का द्वार नहीं बनायेंगे. तब तक यह अहंकार आपकी धर्म साधना में ऐसा कैंसर पैदा करेगा. जिससे सारी धर्म साधना आपके लिए समाप्त हो जायेगी. कभी सक्रिय नहीं बनेगी. कभी आशीर्वाद नहीं बनेगी. धर्म के इस रहस्य को समझे बिना, यदि हम धर्म का परिचय दें, परिचय पूर्ण नहीं बनेगा.
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इसीलिए मैंने कहा- गर्व रहितम्. हमारे शब्द गर्व से रहित होने चाहिये. नम्रता की भूमिका पर शब्द का सृजन होना चाहिये, तब शब्द में सुन्दरता मिलेगी, उन शब्दों में संयम का सुगन्ध आपको मिलेगा. यहां तक यह सारा परिचय अभी तो अपूर्ण है. अभी वह इससे आगे बड़ा सुन्दर विषय लिया जायेगा. यह सूत्र पूरा होते ही आपके जीवन व्यवहार का और तरीके से परिचय दिया जायेगा.
“असद्व्ययपरित्यागो, स्थाने चैव क्रिया सदा”,
जीवन के अन्दर समस्याएं कहां से पैदा होती हैं ? आचार्य भगवन्त जीवन के अन्दर समस्याऐं कहां से पैदा हुईं ? आचार्य भगवन्त का निर्णय कितना सुन्दर है. असद्व्यय. हमारा पैसा जो व्यय बेकार या फिजूल किया जा रहा है. यह अनीति और अन्याय को जन्म देता है. क्योंकि साइड इनकम निकलवाने का रास्ता निकालना ही पड़ता है. सद्व्यय नहीं करेंगे. बिना प्रयोजन शौक, मौज के लिए आप पैसे का दुरुपयोग करेंगे. रास्ता भी फिर गलत होगा उपार्जन का. आपको असत्य का आसरा लेना पड़ेगा. इन बातों पर भी विचार करेंगे. परन्तु धार्मिकता का अपना जो चिन्तन बन गया है. यह ऐसा खतरनाक वायरस है, जिससे कोई भी धर्म बाकी नहीं बचा. हर धर्म के अन्दर इसने विकृति पैदा कर दी है. इस कारण हमारी शान्ति गई, हमारी पवितत्रता गई.
हिन्दू संस्कृति की एकता नष्ट हुई, विचार के मत भेद कायम हुए. महावीर का अनेकान्त जिस की हमने हत्या कर दी, महावीर का अनेकान्त सारे धर्म को एक करने वाला था, राष्ट्रीय एक रूपता पैदा करने वाला था, हमने मिलकर इस अनेकान्त की ही हत्या कर दी, उसी का नग्न स्वरूप इस वर्तमान में है. बेचारे साधु सन्त क्या करें. वे अन्त हृदय के रुदन द्वारा अपने दर्द को प्रकट करते हैं. परन्तु जगत में सुनने वाला कोई भी नहीं रहा, यह आज हमारी दशा है.
दुनिया के हर धर्म में अन्तर, भेद रेखा आ गई. दीवार बन गई, दरवाजे बन्द हो गये. कहाँ से आप प्रभु के पास जायेंगे ? भगवान की वाणी के साथ भी हम खिलवाड़ करने लग गये. मन पसन्द अर्थ करने लग गये. याद रखिये परमात्मा के शब्दों को जिनके साथ हम वकालत करने लग गए हैं. याद रखिए परमात्मा को अपनी कमजोरी को छिपाने का एक रास्ता हमने ढूंढ लिया. इसी का यह परिणाम है कि लोग धर्म से विमुख बन जा रहे हैं. लोगों को घृणा हो गई, ऐसे धर्म से क्या मतलब उस धर्म का, जो इन्सान से नफरत करता हो, प्राणियों में जहां प्रेम का अभाव हो, जहां इतनी संकीर्णता हो. सारी
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गुरुवाणी
दनिया परमात्मा की है. हर आत्मा में परमात्मा विद्यमान है. मैं किसका अपमान करूं, मैं किसका नाश करूं. व्यक्ति का नाश नहीं, मेरे स्वयं का नाश है. यह दृष्टि हमारे अन्दर आनी चाहिए.
“आत्मवत् सर्वभूतेषु" सारे जगत के अन्दर जितनी भी आत्मायें हैं. वह सब आत्मायें मेरे आत्म तुल्य हैं.
“वसुधैव कुटुम्बकम्" यह सारा जगत मेरा कुटुम्ब हैं, परिवार है, उसके साथ परिवार जैसा ही व्यवहार अपने को करना है. मुझे उस शब्द से जरा प्रयोजन नहीं, उस कार्य से प्रयोजन नहीं, जो अपने मतलब के लिए निर्माण किये गये. धर्म कोई ऐसा लंगड़ा नहीं, पंगु नहीं, इतना कमजोर नहीं है. वह पूर्ण है. सबल है. वह जगत की हर आत्मा को रक्षण देने में समर्थ है परन्तु वह वहीं पर रहेगा जहां शुद्ध हृदय हो, जहां प्रेम और मैत्री का वातावरण हो, वहीं धर्म का निवास होता है. अन्यत्र धर्म कहीं नहीं मिलेगा
भगवान तो चले गये मन्दिर से, आपके व्यवहार को देखकर, प्राण नहीं रहा ऐसी गन्दी जगह पर कोई व्यक्ति रहने को तैयार नहीं तो भगवान कहां रहेंगे. जहां पवित्रतता ही न हो. जहां प्रेम का अभाव हो वहां परमात्मा का भी अभाव मिलेगा. यहाँ तो प्रेम के माध्यम से ही परमात्मा का आगमन होता है.
प्रेम गली अति सांकरी या में दो न समायं, कबीर दास ने कहा कि यह तो प्रेम की गली है. यह ऐसी गली है जिसमें मात्र आप या केवल परमात्मा को ही लेकर जा सकते हैं. आपके साथ आपका संसार नहीं चलेगा. आपके सांसारिक विचार को वहाँ प्रवेश नहीं मिलेगा. अन्य विचार से शून्य होकर मात्र प्रेम से परिपूर्ण होकर ही परमात्मा के द्वार तक जा सकते हैं. अपने विचार को छोड़ देना पड़ेगा. अपने स्वयं के विचार का यहां कोई मूल्य नहीं है. आध्यात्मिक साधना के अन्दर प्रवेश करने से पूर्व इस धार्मिक वस्तु का प्राथमिक परिचय आपको प्राप्त करना पड़ेगा. जीवन व्यवहार आपको सुन्दर बनाना पड़ेगा. उसके बाद आपको अन्दर प्रवेश मिलेगा.
प्रवेश भी तभी मिलता है जब समर्पण का भाव हो, अगरबत्ती सुगन्ध देती है. अगरबत्ती को देखिये, उससे सीखिये, वह जलकर भी जलाने वाले को सुगन्ध देती हैं. दीपक प्रकाश देता हैं. आपको मार्ग दर्शन देता है. आत्मा में ज्ञान के प्रकाश को प्रचारित करने की प्रेरणा देता है, जलकर भी प्रकाश देता है. हम क्या देते हैं? गाय घास खाकर के आपको दूध देती है. इन्सान क्या देता है? वृक्ष आपको छाया देता है, फल देता है, लकड़ी देता है. वह अपना सब कुछ सर्वस्व अपना अर्पण करता है. इन्सान क्या देता है? मरने पर भी
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नौ की लकड़ी नब्बे खर्च. मर गया तो भी खर्च. श्राद्ध करो, जीमन करो, उसे जलाओ, कितना लफड़ा, इससे तो जानवर अच्छे हैं, जीवित अवस्था में भी अपना सर्वस्व अर्पण करते हैं. कितना बेचारे मौन भाव से अपना सर्वस्व अर्पण करते हैं. कितना बड़ा बलिदान है उनका? मरने के बाद भी अपना तन देकर जाते हैं. चमड़ा देकर जाते हैं.
इन्सान क्या देता है? जीवित अवस्था में भी खतरनाक और मरने पर भी समस्या पैदा करके जाता है. यहां तो इन्सान बनके आये, देव बनने का प्रयास करें. इन्सानियत हमारे अन्दर में आ जाये. आज वह इन्सानियत हमारे अन्दर नहीं रही, जो किसी जमाने में थी. यह आर्य संस्कृति थी, सारी दुनिया को आदर्श देती थी, संस्कार देती थी, शिक्षा देती थी. अब सारी दुनिया हमें शिक्षा देने आती है. जरा विचार करना पड़ेगा, हमारी क्या दुर्दशा है. वैचारिक दुष्काल है. इस देश में बाहर का दुष्काल नहीं. बाहर का दुष्काल कभी खतरनाक नहीं होता. इन्सान के अन्दर विचार का दुष्काल आ गया. सदविचार का दुष्काल आ गया है. प्रेम का दुष्काल इतना भयंकर है, अन्तर से परमात्मा ही चला गया. डेड बॉडी लेकर हम घूम रहे हैं. मुर्दो की तरह हम चल रहे हैं. जीवन के अन्दर विकृति का दुर्गन्ध आ रहा है. जीवन सड़ चुका है. जीवन का जीर्णोद्धार करें, नव निर्माण करें, आत्मा को निर्मल और पवित्र बनायें. प्रेम का मन्दिर इस जीवन को बनायें. तब बिना आमन्त्रण ही परमात्मा आपके अन्तर में प्रतिष्ठित हो जायेंगे. मेरे शब्दों से सुगन्ध आने लग जाये. मेरा जीवन संसार को सुवासित बना जाये. मेरा जीवन चलता फिरता स्कूल जैसा बन जाये. अनेक व्यक्तियों को प्रेरणा देने वाला बन जाए.
जीवन का आदर्श हम उपस्थित करें, तब मैं समझू आपका वर्तमान सफल बना. तब भविष्य भी आपके लिए वरदान बन जायेगा. आज ये विषय यहीं रखेंगे. समय आपका हो चुका है. इस विषय पर कल फिर चिन्तन करेंगे. अपना रनिंग सब्जेक्ट है. दो तीन दिन बाद यह विषय पूर्ण होगा, उसके बाद अगले विषय पर विचार करेंगे. सूत्रकार ने अगला विषय बड़ा सुन्दर दिया. कहाँ रहना और किस प्रकार रहना. आपका मकान किस प्रकार का होना चाहिये? आज का यह मकान तो बीमारियों का जन्म स्थान है, किस प्रकार शिल्प से इसका निर्माण किया जाता था. मन्दिरों का निर्माण, हमारे धर्म स्थानों का निर्माण कितनी सुन्दर शिल्पकला के द्वारा होता था, जहाँ जाने से मन की शान्ति मिलती. वैचारिक शुद्धता मिलती. चित्त की एकाग्रता आती, ऐसा वास्तविक शिल्प का गणित था. शुद्ध शिल्प से बना हुआ यदि मन्दिर है, मस्जिद है, या गुरुदारा है. जहां त्रिज्याकार हो रेखाकिंत गणित के अनुसार, उसे शुद्ध शिल्पमय मन्दिर कहिये परमात्मा के केन्द्र में आप खड़े हो जाइये. आपको एक अनुभव बतलाऊं कितना भी आप को सिर का दर्द हो, सिर में बेचैनी हो, मन में चंचलता-व्यग्रता हो, जाकर के केन्द्र में खड़े रहिये, तीन बार भूमि के साथ मस्तक का स्पर्श नमस्कार करिये, दर्द चला जायेगा. आप करके देख लेना. परन्तु शिल्पमय मन्दिर चाहिये. यह गणित का और शिल्प का चमत्कार है,
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-गुरुवाणी:
पिरामिड बनाने वाले बड़े बुद्धिमान व्यक्ति थे. आप एक का एक बार राउण्ड देकर के आइये, शरीर से दर्द गायब हो जायेगा. पिरामिड का चमत्कार तीन मिनट के अन्दर. यह बहुत बड़ा सब्जेक्ट है, तीन दिन बाद सोमवार से यह विषय चलेगा. आज इसको यहीं तक रहने दें. अपने विचार कल फिर प्रकट करेंगे.
"सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्"
म
मौत से न अपने परिजन बचा सकते हैं, न ही अपना मकान. मजबूत दीवारें भी मौत को रोक नहीं सकती न चौकीदार हाथ पकड सकता है मौत का. न कोई डॉक्टर मौत के भय से मुक्त कर सकता है और ना ही कोई वकील मौत के समक्ष स्टेआर्डर (स्थगन आदेश) ला सकता है. जीवन मृत्यु से घिरा है. केवल धर्म ही उसे सुरक्षा प्रदान कर सकता है.
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-गुरुवाणी:
सहनशीलता और प्रायश्चित्त
परम कृपालु आचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी ने अनेक आत्माओं के कल्याण की मंगल भावना से अपने जीवन का एक सुन्दर अनुभव लोगों के मार्ग दर्शन के लिए दिया है. किस प्रकार अपने आचार को सक्रिय बनाकर व्यक्ति अपने मूर्छित विचारों को जागृत करने वाला बने. उन विचारों के द्वारा अपनी साधना के जीवन की सफलता माध्यम से प्राप्त हो. यही मंगल आशय और इसी कामना से उन्होंने धर्म प्रवचन का यहां पर उल्लेख किया है, जीवन के सम्यक् आचारों के द्वारा जीवन को प्राप्त करने का सरल उपाय बतलाया है.
जिन सत्रों पर अपना चिन्तन चल रहा है. वे बहत विचारणीय हैं. चिन्तनीय हैं. साथ में अनुकरण करने के योग्य हैं. मात्र विचार और चिन्तन से काम नहीं चलता, उसे जीवन के व्यवहार के सक्रिय बनाना पड़ता है. जानकारी से आरोग्य नहीं मिलता, दवा की पहचान से भी आरोग्य नहीं मिलता. मात्र प्रवचन श्रवण कर लिया, आत्मा को प्राप्त करने की प्रक्रिया और उसकी जानकारी प्राप्त कर ली जाए, परन्तु यदि आचार का पथ्य न हो. उन विचारों को यदि सक्रिय रूप न दिया जाए. वे विचार कभी आत्मा को आरोग्य देने वाले नहीं बनते. वे विचार कभी मेडिसिन नहीं बनते. वे विचार कभी जीवन की साधना में सफलता देने वाले नहीं बनते.
इन सारी बातों पर विचार कर लेना है. प्रवचन इसी लिए दिया जाता है ताकि अन्तरात्मा को उसकी प्रेरणा मिले. सुषुप्त चेतना में जागृति आ जाए. हमारे सामने इस वर्तमान में, उस भविष्य को, प्रवचन के प्रकाश में, देखने योग्य बन जाएं. किस तरह मुझे चलना है, उसकी जानकारी मिल जाए. इसीलिए प्रति दिन प्रवचन आत्मा की खुराक के रूप में दिया गया है.
“ज्ञानामृतस्य भोजनम्" आत्मा का भी दिव्य भोजन है. हम रोज इसे प्राप्त करते हैं. परन्तु यदि आहार का पथ्य आ जाए, यह औषधि अमृत बन जाती है. जीवन व्यवहार में अलग-अलग प्रकार से आहार का परिचय है. जीवन व्यवहार का अलग-अलग प्रकार से परिचय दिया. जन्म के पश्चात जब व्यक्ति उपार्जन के योग्य बन जाए. माता पिता को सन्तोष और समाधि देने वाला बन जाए, उस अवस्था में द्रव्य उपार्जन किस प्रकार से करना, उसका तरीका बतलाया. उपार्जन के बाद उसका व्यय कैसे करना. दान धर्म के द्वारा उसका परिचय दिया. व्यक्ति जब युवावस्था में प्रवेश करता है. अपने आचार को सुरक्षित रखने के लिए सदाचार की प्रवृत्ति में स्थिर रहने के लिए किस प्रकार विचार करना, उसका भी इसके अन्दर परिचय दिया गया.
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-गुरुवाणी
लोकापवादः लोक इच्छा के विरुद्ध कोई ऐसा कार्य नहीं करना, जिससे अपनी शान्ति भंग हो जाए. लोक व्यवहार के अन्दर हम किसी की आलोचना के लक्ष्य बनें. किसी व्यक्ति की आलोचना श्रवण के बाद अपनी शान्ति नष्ट हो जाती है. मन में एक प्रकार से उद्वेग होता है. मन के अन्दर रही अशान्ति आपकी साधना में बाधक बनती है. इसीलिए यहां प्रथमाचार का परिचय दिया. किसी भी प्रकार से लोक व्यवहार विरुद्ध कार्य नहीं करना जो अपनी शान्ति नष्ट करने वाला हो.
"दीनानुद्धरणाग्रहः" दीन दुखी आत्माओं की सतत सेवा करनी, मंगल भावना के द्वारा उन आत्माओं का रक्षण करना, उनके उद्धार की मनोकामना रखना यह अपना सम्यक आचरण है. इस पर भी अपने गुरुजन बहुत कुछ विचार करके गए हैं. यह हमारी स्मृति में विद्यमान रहे. इसीलिए मैं आपको संक्षिप्त में फिर से समझा रहा हूं. ताकि विचार अपनी स्मृति में स्मारक बन जाएं. वे हमेशा के लिए मुझे प्रकट देने वाले बनें
__ "कृतज्ञता क्षुदाक्ष्यवम्" किए हुए उपकार का हमेशा अपने मन में कृतज्ञ भाव होना चाहिए. उपकारी आत्माओं के उपकार का हमेशा पुण्य स्मरण करना चाहिए, ताकि अपने अन्तर में भी वे भाव जागृत हों. परोपकार की भावना को जन्म देने वाले बनें. हमेशा व्यक्ति को कृतज्ञः बनना चाहिए, दाक्षिण्यता अन्दर में आनी चाहिए. दाक्षिण्यता का मतलब है कि कोमलता आनी चाहिए. हृदय संवेदनशील होना चाहिए, सेन्सेटिव होना चाहिए, किसी भी दुखी आत्मा को देख करके अपना हृदय द्रवित हो जाए, अपने हृदय की कोमलता जागृत हो जाए. मैं कैसे उस आत्मा का दुख दर्द दूर करने वाला बनूं. मेरा कौन सा सम्यक प्रयास उस आत्मा को शान्ति देने वाला बने, इस मंगल भावना को दाक्षिण्यता कहा जाता है. यह हमेशा अपने अन्दर रहनी चाहिए.
हृदय की कोमलता धर्म बीज को अंकरित करती है, प्रस्फटित करती है. भविष्य के अन्दर का जो बीज वपन किया गया वह धर्म का फल देने वाला, मोक्ष देने वाला, वासना मुक्त करने वाला बनता है.
सदाचारः प्रकृतितः सारे विषयों को सदाचार के अन्तर्गत यहां पर लिया गया है.
"सर्वत्र निन्दा संत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषु" इसी सूत्र पर अपना गत दो तीन दिन से चिन्तन चल रहा है. किसी प्रकार इस भयंकर अपराध से आत्मा का रक्षण किया जाए. नैतिक दृष्टि से यह भयंकर से भयंकर अपराध है. किसी व्यक्ति के विषय में बोलने का कोई नैतिक अधिकार आपको नहीं मिला है. किसी व्यक्ति को देखने का यह तरीका बड़ा गलत है. अपने स्वयं का ही निरीक्षण करना है.
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-गुरुवाणी
स्वयं के विषय में ही जानकारी प्राप्त करनी है. मैं स्वयं क्या कर रहा हूं वही देखना है. परन्तु व्यक्तियों की आदत बड़ी गलत हो गई. परनिन्दा का स्वाद इतना हमारे अन्दर पहुंच चुका है. गहराई में, उसे एक दम निकालना इतना सरल नहीं है, यदि अभ्यास किया जाए तो ये साध्य हैं. संभव हो सकता है. इस पाप से इस अपराध से मैं स्वयं का रक्षण करूं.
बहुत कुछ इसमें कहा गया. क्रोध, मान, माया, लोभ इन सारे पापों को जन्म देने वाला उनका जन्म स्थान है निन्दा की आदत, पर निन्दा, पर चर्चा, विकृत कथा. जिससे आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं. जिसके अन्दर आत्मा या परमात्मा की कोई चर्चा नहीं. इन विषयों के अन्दर समय नष्ट कर देना. यह समय की हत्या है. समय का घोर दुरुपयोग है. समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता. वह निरपेक्ष होता है. समय का सुन्दर से सुन्दर उपयोग कर लेना, साधक आत्माओं का लक्ष्य होता है. समय का सुन्दर उपयोग साधना के द्वारा किया जाना, यही अपने अन्दर बुद्धिमानी मानी गई है. परन्तु समय का अगर दुरुपयोग किया गया, वह अपने लिए अपराध है.
ज्ञानियों ने कहा- यदि समय का सुन्दर उपयोग नहीं किया गया तो वही वर्तमान भविष्य के अन्दर इतना भयंकर समय ला करके उपस्थित करेगा कि उससे बचना आपके लिए मुश्किल हो जाएगा. यदि कहा जाए आत्म साधना के अन्दर विचारों को केन्द्रित करने का, साधनों के अन्दर लक्ष्य को उपस्थित करने का, स्व के अन्दर स्थिरता को प्राप्त करने का तो व्यक्ति तरन्त कहेगा, क्या करें महाराज, समय नहीं है, बहुत कुछ है. समय का घोर दुरुपयोग किया जा रहा है. परन्तु परमात्मा के लिए, जिसकी कृपा से समय मिला, साधन मिला, सारी जगत की सामग्री मिली, समय नहीं है. आज का व्यक्ति इतना निर्लज्ज बन चुका है कि इस परम कृपालु परमात्मा के लिए उसके पास समय नहीं. जगत के लिए समय है. मौज, शौक करने के लिए उसके पास समय है. परनिन्दा में नष्ट करने के लिए उसके पास बहुत समय है. परन्तु स्वयं के लिए, आत्म कल्याण के लिए, स्वयं को जानने के लिए, साधना के द्वारा स्वयं का शुद्धिकरण करने के लिए उसके पास समय का अभाव है. याद रखिए, समय का दुरुपयोग किया गया तो भविष्य के अन्दर समय का दुष्काल आपको मिलेगा.
भविष्य में आनेवाला समय आपके अनुकूल नहीं होगा, आपके हमेशा प्रतिकूल होगा. इसीलिए जो कुछ मिला है उसका सदुपयोग करने का प्रयास करें. इन आधारों के द्वारा समय को किस प्रकार से उपयोग में लिया जाए. समय का लाभ कैसे उठाया जाए. समय के अन्दर साधना के द्वारा पुण्य का लाभ कैसे लिया जाए. वह रास्ता इन आचारों के द्वारा बतलाया गया है. यह विवेक अपने को अन्दर में रखना है. प्रतिक्षण हमारा समय जा रहा है. हमें मालूम नहीं. गतिमय संसार के अन्दर जीवन का हर कदम हमारी मृत्यु की तरफ बढ़ रहा है. एक-एक श्वांस में मृत्यु के समीप हम पहुंच रहे हैं. मोह निन्दा के
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-गुरुवाणी
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अन्दर, प्रमाद अवस्था के अन्दर की शून्यता और विवेक के अभाव में हम समय के मूल्य को नहीं समझ पाए.
हर व्यक्ति हाथ में घड़ी रखता है. यह आज का मॉडर्न फैशन है. आपके जीवन की दुर्दशा को देखकर आपकी घड़ी रोती है, आपने कभी इसका रुदन सुना नही. प्रतिक्षण एक प्रकार की आवाज निकलती है. आपने सुना होगा. कभी ध्यान से आप सनना. कट-कट, कट-कट हमेशा चला करती है. उस आवाज के अंदर घड़ी के जीवन का एक दर्द छिपा है. आपके जीवन को देखकर के उसका एक रुदन है. वह पुकार कर के आपको कहती है. आपके साथ रह कर पुकारती है. क्या? जीवन वृक्ष आपका प्रतिक्षण प्रति सेकेंड कट रहा है. कट-कट् शब्द की जो प्रतिध्वनि है. यदि आप गहराई में जाकर देखें, आपकी चेतना को जागृत करती है. तुम्हारा प्रतिक्षण जीवन वृक्ष कट रहा है. याद रखो, यह सारा जीवन एक दिन कट कर के समाप्त जाएगा.
हमने क्या प्राप्त किया, घड़ी की उस पुकार को हमने सुना ही नहीं. घड़ी आपको जागृत करती है. बताती है एक बजाकर. एकोअहं बहुत स्पष्ट कहती है.
एकोहमेकश्चितं नास्ति नाहं अन्यस्य कस्ययचित्। घड़ी की पुकार को आप सुनिए. आपका रह रह करके बहुत बड़ा उपकार करती है. आपको जगाती है. एक बजाकर के स्पष्ट कहती है, संसार में अकेले आए, कोई साथ नही.
“मरघट तक के लोग बराती, हंस अकेला जाता" ये बाराती आपको श्मशान तक पहुंचाने आएंगे. वहां से साथ छोड़ देंगे अन्तिम विदाई दे कर के. आपको स्वयं अकेला जाना पड़ेगा. कोई साथी नही मिलेगा. ऐसी परिस्थिति में घड़ी बार-बार आपको जगाती है. बताती है तुम अकेले आए कोई तुम्हें साथ देने वाला नही. आप जागृत बने रहें. संसार में रहने की कला प्राप्त करें.
जैन इतिहास के अंदर एक बड़ी सुन्दर कथा आती है. मिथिला के एक बहुत बड़े सम्राट् थे. नेमिराज ऋषि बहुत बड़े सम्राट् थे. कोई कमी नहीं थी. आठ-आठ रानियां थी वहां. उनकी सेवा में, किसी कारण को लेकर एक ऐसी असाध्य बीमारी उनमें आई. दाह-ज्वर! जिसे विषमज्वर कहा जाता है. शरीर एकदम गर्म हो गया. बहुत उपचार किया गया. बुखार शान्त नहीं होता. व्याकुल हो गए. एक बहुत समझदार वैद्य ने उपचार बतलाया. यदि शीतोपचार किया जाए, गोशीर्ष चन्दन का यदि विलेपन किया जाए. तो यह दाहज्वर शान्त हो सकता है. आपको समाधि मिल सकती है.
राजा की आठों रानियां सेवा में लग गईं. गोशीर्ष चन्दन मंगवा कर के उसे विलेपन के लिए घिसना शुरू कर दिया. जहां राजा सोए हुए थे, पास में ही चन्दन घिसा जा रहा था. पूरे शरीर के अन्दर विलेपन लगाना था. आठों रानियों ने चन्दन घोटना शुरू कर दिया. हाथ की चूड़ियां आवाज करने लग गईं. ध्वनि प्रकट होने लग गई. बीमार
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-गुरुवाणी =
र
व्यक्तियों की एक मानसिकता रुग्ण होती है. चिड़चिड़ापन आ जाता है. कमजोरी का यह लक्षण है. विचार शुन्यता आ जाती है. बात-बात के अंदर क्रोध आ जाता है.
कोई भी सुंदर वस्तु उस समय प्रिय नहीं लगती. ऐसी परिस्थिति में रानियों के चन्दन घोटने में जो आवाज पैदा हो रही थी, जो चूड़ियों की आवाज निकल रही थी, कवियों की कल्पना में जो एक अलग प्रकार का संगीत था, नेमि राजर्षि के जीवन के अंदर वह ध्वनि विषम बन गई. कष्ट देने वाली बन गई.
राजा ने आवाज देकर कहा "यह क्या हो रहा है? वज्रपात बन्द करो, इस आवाज को. मुझे जरा भी प्रिय नहीं लग रहा है. अशान्ति बन्द कर दो." रानियों के पास विवेक था. विवेक पूर्वक उन्होंने विचार किया. राजा की शान्ति भंग हो रही है. इसलिए हमें ये सारी चूडियां निकाल देनी चाहिए. एक-एक करके सारी चडियां निकाल दी. सौभाग्य का प्रतीक मात्र एक चूड़ी हाथ में रखी. बाकी सारी चूड़ियां निकाल दी. आवाज बन्द हो गयी. जो संघर्ष था, बन्द हो गया.
दो मिनट के बाद राजा ने आश्चर्य से पूछा – “आवाज बन्द कैसे हो गई?" बीमार व्यक्ति स्वभाव से बालक जैसा बन जाता है. पूछा - "क्या मेरे लिए चन्दन घिसना बन्द कर दिया है, जो मेरे उपचार का साधन है?"
रानियों ने कहा - "नहीं महाराज! आपकी अशान्ति के लिए हम लोगों ने सारी चूड़ियां निकाल दी, चन्दन तो घिसा जा रहा है. मात्र एक-एक चूड़ी हाथ में रखी है, जिसमें कोई घर्षण नहीं, कोई आवाज नहीं. इतना रानियों का कहना था. राजा ने उसी समय उस पर दार्शनिक दृष्टिकोण से विचार किया, तात्विक दृष्टिकोण से उस पर चिन्तन किया. एक में शान्ति और अनेक में अशान्ति.
जहां ये चूड़ियां अनेक थीं वहां संघर्ष था, क्लेश था. उसमें कर्कशता थी. परन्तु एक-एक चूड़ी हाथ में हैं, इसीलिए कोई अशान्ति का कारण नहीं, कोई संघर्ष नहीं. किसी प्रकार का क्लेश नहीं, कितनी परम शान्ति है. एकत्व भाव के अन्दर कितनी शान्ति है. वही तात्विक चिन्तन उन्होंने अपने लिए बड़े सुन्दर ढंग से किया. मन मे एक संकल्प किया, अगर इसी प्रकार मैं भी एकत्व भावना में स्थिर बन जाऊं. परिवार से, संसार से मुक्त होकर, एकत्व भाव के अन्दर एकाकी अवस्था के अन्दर आत्म चिन्तन करूं? साधना की गहराई में डूब जाऊं. कितनी शान्ति मिलेगी. परम शान्ति का मुझे अनुभव होगा. जैसे ही इस बीमारी से मैं मुक्त बन जाऊं, उसी समय जाकर के एकत्व भावना में आत्मा को स्थिर करने के लिए मैं सन्यास ग्रहण कर लूंगा. दीक्षा ले लूंगा.
यह मात्र मंगल भावना थी. भावना तो आप जानते हैं, बड़ा सर्जन का चमत्कार करती है. शुभ भावना के परमाणु रोग का प्रतिकार कर गए. भावना ही उनके लिए उपचार बन गई. वही एक प्रकार की मेडिसिन बन गई. सद्भावना के द्वारा ऐसा प्रबल पुण्योपार्जन किया कि रोग का प्रतिकार हो गया. और अपने विचार में हढ रहे. निकल गए संसार से.
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गुरुवाणी
एकमात्र चूड़ियों के निमित्त से उस आत्मा ने ऐसा वैराग्य प्राप्त कर लिया. जीवन की परम शान्ति में जीवन को स्थिर कर लिया. सारी अशान्ति चली गई. एक में आवाज नहीं, जहां एक से दो पैदा हुए, घर्षण पैदा हुआ. चूल्हे के अन्दर यदि अगर आप एक लकड़ी डालते हों, आग बहुत मुश्किल से पकड़ती है. यदि दो लकड़ी आपने वहां सजा दी, तो आग पकड़ लेगी, यदि दो चार पांच लकड़ियों को सजा दिया जाए, चूल्हे के अन्दर जमा दिया जाए. कैसी ज्वाला प्रकट होती है.
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"अयमेव संसार" संसार में भी इसी प्रकार की विचित्रता है. आप अनुभव करना, जहां तक आप अकेले थे. कैसी परम शान्ति थी. कोई अशान्ति थी ? माता-पिता की पुण्य छाया पूरा परिवार प्रेम संपादन किया था. आपका जीवन बड़ा निर्दोष था. कोई पाप, कोई वासना आकर सताती नहीं थी. परन्तु जैसे ही एक से दो हो गए विचार का घर्षण शुरू हुआ. दो से चार जैसे ही पैदा हो जाए, फिर देखिए आप घर तमाशा. फिर तो घर ज्वाला
थी,
बन जाएगा.
इसीलिए अध्यात्मिक दृष्टि से कहा गया. कदाचित ऐसे कर्म के कारण, आप संसार से मुक्त न हों, कदाचित् आपको विचारों में अशान्ति हो, संघर्ष हो, रहने की ऐसी अपूर्व कला आप प्राप्त कर लें कि रहें संसार में परन्तु मनके विचार से आप अलिप्त बन जाएं. विचार में एकत्व भावना आ जाएं. मन के विचार से सब में रहकर और सबसे अलग बन जाएं. वहां पर कोई अशान्ति प्रवेश नहीं करेगी. मन को ऐसा शक्तिमान बना लिया जाए. विचारों द्वारा ऐसा पुल लगा लिया जाए जिससे संसार की गर्मी या उत्तेजना असर ही न करे. हम कभी उस तरह का प्रयास ही नहीं करते हैं.
"
सामायिक की मंगल क्रिया इसी तत्त्व को प्राप्त करने के लिए है. ध्यान अवस्था के अन्दर उस ध्येय को प्राप्त करने के लिए हमारे पास ये उपाय बतलाए गए. हमारे पूर्वाचार्यों ने, ऋषि मुनियों ने चिन्तन के द्वारा मार्ग-दर्शन दिया है. घड़ी एक बजाकर के आपको जगाती है परन्तु जगते ही अपना मान करके चलते हैं, यह मेरा वह मेरा है किसी का, जो आप अपने साथ लेकर आए वह भी आपका नहीं. जो शरीर जन्म से मां के गर्भ से आप ले करके आए वह भी साथ छोड़ दे तो बाहर के आ जाने वाले परिवार के लोग आपके साथी बन सकेंगे? जो आंख, पांव, जीभ आपकी सारी इन्द्रियां जो आप जन्म से साथ लेकर आए, कितना खिलाया पिलाया और इनके अनुकूल रहकर आपने कितनी सेवा की वृद्धावस्था आने के बाद आंख की रोशनी बन्द हो जाती है, देखने में बड़ी मुश्किल होती है. कान के अन्दर बैटरी लूज हो जाती है. दांत सब चले जाते हैं. विश्वासघात कर जाते हैं. जो हाथ मनों वजन उठा सकता था, एक किलो उठाने को तैयार नहीं. पांव हड़ताल कर देते हैं. दो फुट भी चलना अपने हाथ में नहीं रहता. उठाकर ले जाना पड़ता है. पेट जो आपका गोदाम है. दरवाजा खुल जाता है. कोई माल पचता नही. ऐसी परिस्थिति में कभी आपने चिंतन किया है कि जो मैं जन्म से लेकर के आया, मां के गर्भ से जिनको
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- गुरुवाणी
साथ ले करके आया, वे भी अवस्था आने पर अंगूठा दिखला गए. आंख ने कहा-मुझे देखना नहीं. मैं क्या मजदूरी करूं. सब ने कह दिया. दांत ने कहा-अब तो मैं रहूंगा नही. मैं क्या मजदूरी करूं. तुम्हारी आज्ञा का मैं कोई पालन नहीं करूंगा. निष्क्रिय बन जाते हैं. पांव ने कह दिया-मुझे अब नही चलना है.
एक भी इन्द्रिय आपकी आज्ञा को मानने के लिये तैयार नही है. तो बाहर से आने वाली आपकी घरवाली हो (बच्चे हो) परिवार में कोई भी हों, साथ चलने को तैयार होंगे? शरीर भी यहां आपको छोड़कर जाना पड़ता है. क्योंकि उधार है. कर्म के द्वारा प्राप्त होता है. कभी जरा विचार तो करिये. घड़ी बडा स्पष्ट कहती है कि तुम अकेले ही हो. मालिक को अकेले ही जाना पड़ता है, कोई साथ है नहीं. मेरा शरीर भी नहीं, मेरा संसार भी नहीं, मेरा परिवार भी नहीं, कुछ भी मेरा नहीं.
आचार्य भगवन्त ने आचार पर इसलिये बल दिया. मैं क्यों किसी के लिये पाप उपार्जन करूं? क्यों अपनी जीभ गंदी करू? परनिंदा दूसरों की चर्चा करने की अपेक्षा मैं स्वयं की चर्चा क्यों नहीं करूं? अपनी आत्मा का अवलोकन क्यों नहीं करूं? स्वयं ही आत्मा का निरीक्षण क्यों नहीं करूं? अपने भूतकाल को देखने का प्रयास क्यों नहीं करूं? भूतकाल के अन्दर मैंने क्या पाप किया है जिसकी सजा मैं लेकर के आया?
कितना बड़ा संसार का सेन्ट्रल जेल मुझे मिला एक कैदी की तरह से, कर्म का गुलाम बनके मुझे जीना पड़ता है. एक-एक इन्द्रियों के अधीन मुझे रहना पड़ता है. जैसे इन्द्रियों का आदेश मिले उसके अनुसार करना पड़ता है. यह हमारी दुर्दशा है. कभी ऐसा चिन्तन, कभी ऐसा विचार आपमें आया? विचार आप को करना है.
विचार के अन्दर जागृति तो होनी ही चाहिए. जब विचार में जागृति आ जाये, विचार की मूर्छा चली जाये, तब देखिये जीवन का आनन्द अलग प्रकार का होगा. वह कभी पराधीन नहीं बनेगा. वह जीवन का सुन्दर से सुन्दर उपयोग करेगा. कोई गलत बात नहीं होगी. वह नियन्त्रण आज हमारे पास नहीं करना पड़ेगा. आप समझ करके चलें कि कैसे इस इन्द्रियों की दासता से निकलें.
आनन्द घन जी महाराज जैन योगी पुरुष थे, बहुत पहुंचे हुए महात्मा थे. अचानक भिक्षा के लिए दिन को बारह बजे निकले. उनकी आंख में आंसू आ गए. किसी गृहस्थ के द्वार पर खड़े थे और दोनों आंख से आंसू आने लग गए. साथ में दो चार गृहस्थ थे, उन्होंने देखा ये योगी हमेशा मस्त रहने वाले, चिन्त की प्रसन्नता में रहने वाले, इनको क्या हुआ. इनके रुदन का कारण क्या है?
एक भक्त ने पूछा- भगवन्, आपके नेत्र में आंसू, किस दर्द के आंसू हैं? आनन्द घन जी महाराज जन्मजात कवि थे. सतत परमात्मा की सेवा, उपासना में रहने वाले, जगत की परवाह नहीं थी. वैसे मस्त योगी पुरुष ने भक्त के प्रश्न का जवाब बड़े सुन्दर ढंग
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%3Dगुरुवाणी
से दिया और कहा. हृदय से उदगार निकला. वह शब्द क्या था? स्वयं एक कविता थी. परमात्मा के समक्ष आकाश में हाथ करके कहा
"भटकत द्वार-द्वार औरन के, कूकर आशाधारी" भगवन्! परमात्मन! मैं तेरे अनराग का उपासक! मोक्ष का यात्री बन करके आया. तेरा भक्त बन करके, तेरी उपासना करने वाला, यह आहार की वासना कैसी भयंकर, कि आनन्द घन को तेरा भजन छोड़कर के भोजन के पीछे भटकना पड़े.
धर्मलाभ, धर्म लाभ आहार के लिए. याचना के लिए, तेरा भजन छोड़कर. यह तेरा उपासक है, तेरी उपासना में रहने वाला. भगवन्, इस वासना से मुक्त कर. आहार की लालसा से सदा के लिए मुक्त कर. अनाहारी होना मुझे चाहिए. जहां तूं बैठा है वह स्थान मुझे चाहिए. भगवन! तेरा भजन छोड़कर भोजन के पीछे भटकना पड़े. घर-घर कुत्तों की तरह रोटी के लिए भटकना पड़े. भगवन्, इस दशा से मुझे मुक्त कर. यह दशा मुझे नहीं चाहिए. समझ गए.
महान योगी की कैसी अन्तर वेदना? कैसा उनके जीवन का दर्द? भिक्षा के लिए जाना था और उनकी आंख में आंसू. कुत्ते की तरह मेरी यह दुर्दशा. भगवन्, तेरा यह भक्त और यह दुर्दशा. भगवन्! इस वासना से मुक्त कर. जिस दिन यह पीड़ा आपको आ जाए. संसार में रह कर के संसार के अन्दर दर्द पैदा हो जाए. कि मुझे नहीं रहना है, एक कैदी के रूप में नहीं रहना है, विषय का गुलाम बनकर के मुझे नहीं रहना है, मैं तो स्वयं का सम्राट् बनने आया हूं. स्वयं का मालिक बन कर के यहां से जाऊंगा. सद्गति की एडवांस बुकिंग करने के लिए मैं यहां आया हूं. एक बार यह दृढ़ निश्चय हो जाए तो जीवन का उद्धार हो जाए.
भोजन करने जब आनन्द घन बैठते उस समय उनके अन्दर से उद्गार निकलता. कबहुक काया कूकरी, करत भजन में भंग.
क्या बताऊं यह शरीर क्या है? काया रूपी कुत्ती है. जब भौंकते हैं तो क्या शांति भंग होती है. भगवन्! मैं तेरा भजन करता हूं. पर यह शरीर ऐसा है, भौंकना शुरू करता है. कत्ते की तरह से अंदर से भौंकता है. टुकड़ा लाकर के डाल देता हूं पेट में तो यह भौंकना बन्द कर दे और आनन्द घन तेरा भजन करे.
क्या मंगल भावना थी. खाने का यह कैसा तरीका था. वह आहार भी साधना का एक प्रकार बन जाता. मेरा भोजन भी भजन बनना चाहिए. यह आहार भी साधना का एक प्रकार बनना चाहिए. आत्मा के आरोग्य के लिये किया हुआ आहार पोषक बनना चाहिए. आत्मा का शोषक नहीं. आत्मा का नाश करने वाला नहीं. यह अंतर चेतना को एक बार समझा देना. घडी एक बजाकर आपको टंकार करती है. पहनना फैशन है. परंतु रोती
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गुरुवाणी:
है, हम कभी उसके रुदन को सुनते नहीं उससे बार बार आपको चेताता हूं. तुम्हारा जीवन वृक्ष कट रहा है. जागृत बनो. दो बजाकर के फिर से जगाती है क्या है संसार में जड़ और चैतन्य, तुम चैतन्य हो अनन्त शक्तिमय तुम्हारी चेतना है. कहां यह जड़ की वासना में लिप्त बन गए. कहां पर के अन्दर स्व की कल्पना लेकर तुम चल रहे हो ? जड़ से तुम्हारा कोई संबंध नहीं. इस भाड़े के घर में रह करके क्यों ममत्व कर रहे हो..
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कोई व्यक्ति ऐसा बेवकूफ होगा. भाड़े के घर में रहे और उसमें मार्बल लगाए. फर्नीचर लगाए. रुपया व्यय करे उसे मालूम है कि भाड़े का घर है, कभी भी नोटिस आए और मुझे छोड़ना पड़े. परन्तु हमारी कैसी दशा सुबह से शाम तक कितना काम करते हैं. कितना पाउडर, तेल लगाते हैं. कितना क्रीम लगाते हैं. सुबह से शाम तक स्नान करके इस सुन्दर बनने का हम प्रयास करते हैं. ये सारी शक्ति, ये सारी मजदूरी, हमारे घाटे में है. नफा में कुछ नहीं.
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दो बजाती है और स्पष्ट कहती है. जड़ और चैतन्य भेद विज्ञजन समझ लेना. बाहर से तुम्हारा कोई संबंध नहीं. जगत में दो ही तत्व हैं चैतन्य या जड जड़ को प्राप्त करने का कोई प्रयोजन नहीं, ये तो बच्चों के खेल जैसा है. परन्तु खेल को खेल हम समझे नहीं. उसमें आसक्ति आ गई है मेरापन आ गया है मेरापन ही दर्द का कारण है, वही दुख का जन्म स्थान है जहां असाक्ति आएगी वहीं दर्द पैदा होगा.
मैं बम्बई में एक दिन चौपाटी के किनारे से जा रहा था शाम के समय किनारे-किनारे जा रहा था. बड़ी दूर से नजर पड़ी. बच्चे थे वे रेती के अन्दर अपना मकान बना रहे थे. बच्चों का खेल होता है, मकान बनाया. गार्डन बनाया. बड़े ढंग से बहुत सजाया उसको. जैसे मैं उनके नजदीक किनारे पर पहुंचा तो ड्राइवर गाड़ी लेकर के पास में आ गया. बच्चों को लेने के लिए कुछ समय के लिए वहां खेल रहे थे. ड्राइवर कहीं गाड़ी लेकर गया था उसी समय आया और बच्चों को आवाज दी चलो, चलने का समय हो गया, जैसे ही आवाज मिली मैने देखा, वे बच्चे एकदम उठ गए.
कोई अतिरिक्त नहीं. घंटे भर से मेहनत कर रहे होंगे. इतना सब कुछ बनाया सजाया. परन्तु तीनों बच्चे एक दम उठे. लगाई लात तुरन्त तोड़ फोड़ करके गाड़ी में जाकर बैठ गए. मैंने कहा ये बच्चे बड़े अच्छे हैं. बड़े समझदार हैं. इतनी समझदारी हमारे अन्दर आ जाए तो कल्याण हो जाए. ड्राइवर ने इतना ही कहा- चलो चलने का समय हो गया. लात मार करके सब वहां से उठे सब कुछ तोड़ दिया. जैसा मेरा था ही नहीं.
यह दशा अपने मन के अन्दर आनी चाहिए. यह जो कुछ मैंने बनाया यह मेरा ही नहीं.. उन बच्चों में जरा भी आसक्ति नहीं. हमारे जैसे साधु आए और चिल्लाएं - चलो चलने का समय हो गया नोटिस आ गया तो भी आप चले नहीं. कुदरत की नोटिस
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पाल
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गुरुवाणी
आती है. आप मौत को बदनाम न करें. मृत्यु अपने आने से पूर्व नोटिस देती है, सावधान करती है. माने कि बाल सफेद कर देती है. इस पहली वार्निंग से भी व्यक्ति सावधान नहीं होता, इसका जबाब बड़े गलत तरीके से देता है, खिजाब लगा लेता है, ताकि वह दिखे ही नहीं, मौत नजर नहीं आए. नहीं तो बार-बार मौत नजर आएगी. आने का दिन उसको दिखने लग जाएगा.
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इन्सान कितना होशियार है, खिजाव लगा लिया ताकि दिखे ही नहीं, मौत छिप जाए. आंख में से तेल घटा देता है रोशनी कम हो जाती है. चिराग के अन्दर यदि तेल कम होगा तो रोशनी कम हो जाएगी. हमारी आदत चश्मा लगाएंगे. ताकि अच्छी तरह देख सकूं. कान के अन्दर बैटरी लूज हो जाए. हियरिंग एड लगाते हैं ताकि सुनाई दे जाए. हर तरह से दांत चला जाए. नोटिस तो कई बार आती है. दांत चले जाते हैं तो आर्टिफिशियल दांत लगा आते हैं. कहीं से भी मौत नजर नहीं आनी चाहिए. आंख से नहीं, बाल से नहीं, दांत से नहीं.
वह बेचारी नोटिस दे देकर थक जाती है. आखिर तो उसे लेना ही पड़ता है. तब लास्ट वारण्ट आता है कि चल अगर इस तरह का विचार भी आ जाए तो संसार की प्रसन्नता चली जाए और आत्मा की प्रसन्नता आ जाए. अभी हमारी हालत यह है, आत्मा रोती है और मन प्रसन्न है, क्यों कि मन जड़ है, आत्मा चैतन्य है. वहां चैतन्य के अन्दर जो आनन्द हो चाहिए. आपकी दुर्दशा देख करके, मन की वासना देख करके, आत्मा रुदन करती है कि मेरी दशा क्या है. जहां मैं स्वतन्त्र होने के लिए आयी था वहां तो पराधीनता में जकड़ी गयी, भ्रम की जंजीरो से जकड़ी गयी ये मन की वासना को लेकर
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कभी आपने सोचा है. यह हमारी अन्तर दशा है. आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा का परिचय प्राप्त करें. कैसी गुलामी ? पर की आसक्ति का परिणाम कैसा है ? स्व की कैसी दुर्दशा है ? घड़ी दो बजकर बहुत स्पष्ट कहती है कि दो में से एक में आओ, या तो शुद्ध संन्यासी बनो, सन्यास ग्रहण करो या शुद्ध सदाचारी, शुद्ध गृहस्थ बनो, मुझे सन्त तो बनना ही नहीं है. यदि सदाचारी सद्गृहस्थ बन जाएं तो भी धन्यवाद वह भी हमारी तैयारी आज नहीं है कि मैं अपने जीवन में सदाचारी बनूं जीवन का नव निर्माण करूं.
जीवन का निर्माण आचार के द्वारा होना चाहिए. वह भी नही हो पाया. घड़ी तीन बजाती है, बार बार आपको जगाती है आत्मा में क्या है? बाहर के वैभव से कोई मतलब नहीं तुम्हारा. वैभव तुम्हारे अन्दर छिपा है. आत्मा के वैभव को तो देखो, ज्ञान, दर्शन, चरित्र आत्मा के अनंत गुण तो आपकी आत्मा में ही छिपा है. देख नहीं पाते मकान कितना भी सुन्दर अपना सजाया हो. यदि अन्दर अन्धकार है, क्या उसमें सुन्दरता दिखेगी? कोई चीज आपको सुन्दर नजर नहीं आएगी.
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गुरुवाणी:
अन्दर में यदि अज्ञान दशा का अंधकार हो वहां आत्मा की सुन्दरता को व्यक्ति कैसे पहचानेगा ? इसीलिए ज्ञानियों ने ज्ञान का प्रकाश दिया. उस प्रकाश में आत्मा के वैभव का पहले परिचय प्राप्त करें आज तक बाहर से प्राप्त किया गया, उपार्जन किया गया. अन्तर से आत्मा से प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं हुआ.
भिखारी था. रास्ते पर एक स्थान पर खड़ा रहता था. बड़े दयालु बड़ा सज्जन स्वभाव का था. उस भिखारी में एक बड़ी विशेषता थी, यदि दो रुपया ज्यादा आ जाए तो किसी दूसरे भिखारी को खिलाकर आता महान गुण थे उसके अन्दर.
मोहल्ले वाले उस भिखारी का भी आदर करते, जीवन के चालीस वर्ष निकल गए उस भिखारी के. एक जगह पर ही खड़ा रहता, वहीं याचना करता. लोग वहीं लाकर उसे देते. उसका सम्मान भी करते.
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एक दिन वह भिखारी मर गया. लोगों ने बड़े सम्मान पूर्वक उसके अन्तिम संस्कार किये. लोगों में एक भावना पैदा हुई कि इसके सम्मान के लिये यहां कुछ निर्माण किया जाए. उनकी स्मृति के अन्दर वह एक ऐसा दरिद्र नारायण था जो हृदय से सम्राट था, बाहर से भले ही दरिद्र हो. विचारों से बड़ा अमीर और श्रीमन्त था. उस व्यक्ति का एक सुन्दर स्मारक बनाया जाए.
स्मारक बनाने के लिए जमीन की खुदाई की खुदाई करने के बाद बड़ा आश्चर्य, उसके नीचे खोदकर देखा गया तो न जाने कितने सोने चांदी के भण्डार मिले. लोगों ने कहा- देख यहीं पर खड़ा रहकर बेचारा जीवन के चालीस वर्ष तक भीख मांगता रहा. उसे नहीं मालूम था कि चार फुट नीचे मेरे पास अपार धन था. कैसा आश्चर्य ! उस भिखारी की दशा देखकर हमें भी यही विचार आता है. व्यक्ति जीवन पर्यन्त मांगता है. परमात्मा के द्वार पर गया तो भी मांगने के लिए, गुरुजनों के पास गया तो भी मांगने के लिए.. जहां गया, जिधर गया वह सारा जीवन ही मांगकर व्यतीत करता है. कुछ मिल जाए परन्तु अन्दर खोदकर नहीं देखता, आत्मा की गहराई में सोचता नहीं कि अन्दर अपार वैभव पड़ा है. बाहर की अपेक्षा अन्दर ही सब कुछ छिपा है.
इन्दौर के बहुत बड़े श्रीमन्त थे सर हुक्मीचन्द जैन, थे. अचानक एक दिन उनके एक मित्र ने आकर कहा
अन्दर से गहराई में से वैभव में से वैभव प्राप्त करने का हमारा कोई प्रयास नहीं. हमारा प्रयास हमेशा बाहर से प्राप्त करने का रहा. तीन बजाकर घड़ी स्पष्ट कहती है. कहां जाना है? जरा विचार कर लो यह वैभव तो तुम्हारे अन्दर छिपा है बाहर से कितना ही धन उपार्जन करो, पुत्र, धनसंपत्ति ये जाते समय तुम्हें आनन्द देने वाले नहीं. रुलाकर के तुझको विदाई देने वाली चीजें हैं.
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दानेश्वर थे, खानदानी श्रीमन्त जीवन का अन्तिम समय बहुत
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-गुरुवाणी:
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सुन्दर तरीके से व्यतीत किया जाय. साधु जैसा जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया. कारोबार, पुत्र संसार के किसी प्रसंग पर कभी जाते नहीं. अपने यहां सामायिक अवस्था में और नवकार महामन्त्र के जाप में ही वे रहते. सारी प्रवृति बाहर की उन्होंने बन्द कर दी अन्तिम समय. . उनका एक मित्र पूछता है-मैं ने सुना है कि आपके पास तो अपार संपत्ति है. अपार वैभव. उस समय उन्होंने कहा कि मेरे पास मेरी डायरी है. मेरी संपत्ति का पूरा लेखा जोखा, उसके अन्दर में है. उसका विवरण उस में है.
डायरी निकाल कर अपने परम मित्र को दिखलाई. देखकर के वह कहने लग गया. आपने गलत लिखा है. इतनी थोड़ी पूंजी. वहां करोड़ों में है, आपने तो यह लाखों में बतलाया, यह गलत है.
हक्मीचन्द जैन ने कहा-तुम समझे नहीं मेरी बात. मैं सामायिक में हूँ. असत्य का मेरा त्याग है. तुमने मुझ से पूछा कि आपकी संपत्ति कितनी है. मैने सच बतला दिया, मेरी संपत्ति मेरी डायरी में लिखी हुई है. जो मैने समझ पूर्वक दीन दुखी आत्माओं की सेवा में, परोपकार में जिन मंदिर में, साधु सन्तों की भक्ति में, आज तक पुण्य कार्य में अर्पण किया, जो अन्तर भाव से दिया, वह मैने डायरी में नोट किया. अनुमोदना के लिए कि ये पुण्य अवसर परमात्मा की कृपा से मुझे मिला. मैं बारम्बार इसका अनुमोदन करू. भवान्तर में भी मुझे ये साधन मिल जाएं, इस प्रकार के उदार विचार मुझे मिल जाए, इस अनुमोदन के लिए मैंने नोट करके रखा है. ____ मैं मरूंगा तो यह संपत्ति ही मेरे साथ जाएगी. इसीलिए जो मेरी वास्तविक संपत्ति है. वही मैने तम्हे बतलाई. बाकी तम देखते हो - ये मकान, ये गाडी, ये नौकर चाकर धन वैभव, ये मेरे हैं ही नहीं. किसने कह दिया तुमको? ये सब गलत है. ये तो लड़कों से पूछो. मेरे पोतों से पूछो. मेरा कोई संबंध नहीं, मैं तो यहां से जाने वाला हूँ. दो दिन का मेहमान हूँ, दो दिन रहूँगा, चला जाऊँगा.
देखा आपने यह बात? कोई ऐसी डायरी आपने बनाई कि जो द्रव्य मैंने अर्पण कर दिया, दीन दुखी की सेवा में दे दिया. साधु सन्तों की भक्ति में दिया. परमात्मा की भक्ति में उत्तम भाव से जो अर्पण किया, वह मेरी संपत्ति है. मरने पर मेरे साथ जाएगी. जो तिजोरी में है, बैंक में है, आप भूल जाना यह आपका दिवा स्वप्न है. वह आपका है ही नहीं, आप मान कर चलते हैं. जो दिया गया उसी का अनुमोदन करना, पुण्य लाभ होगा.
कहाँ-कहाँ भटकना है? यह मृत्यु तो जंकशन हैं. स्वर्ग में जाना तो भी यहां से, तिर्यक् गति, पशुयोनि में जाना तो भी यहीं से, अगर दुर्गति नरक में जाना है, तो भी यहीं से. फिर से मनुष्य गति में आना हो, तो भी यहीं से. चारो ओर की गति में आप यहीं से जा
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गुरुवाणी:
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सकते हैं, यह मृत्यु लोक जंकशन है. कहाँ आपको जाना है, उसकी तैयारी आपको करनी । है. अगर शुभ भाव आ जाए, परिणाम में शुद्धता आ जाए, दयालु बन जाएं हृदय से, और परनिन्दा के भाव से आत्मा का रक्षण कर लें, सदाचारी आचरण का चालन करें, तो आत्मा निश्चित देवगति में जाती है.
दवाव से मुक्त होने वाली आत्मा के लिए गति ही सद्गति है. यदि सज्जन और सरल बन जाएं. हृदय में सरलता आ जाए. वैर विरोध की भावना चली जाए. तो ज्ञानियों ने कहा-सरलतम मनुष्य गति आती है. फिर यदि माया का सेवन किया. धर्म के नाम से यदि पाप किया गया. धर्म के नाम से धन बटोरना. धर्म के नाम से दुनिया भर का पाप करना. धर्म के नाम से न करने योग्य दष्कत कार्य को कर लेना. ज्ञानियों ने कहा-पश योनि में ले जाएगा..
जीवन में दुराचार को आश्रय देना, पाप में प्रसन्नता प्रकट करना, पाप को पुष्ट कर लेना, नरक ले जाने वाली वस्तु है. कहां जाना है? उसकी तैयारी हमारे अन्दर होनी चाहिए जीवन के अन्दर वही तो प्रेरणा लेनी है. प्रबंधन के द्वारा यही तो सीखना है यही जानकारी प्राप्त करनी है. विचार के अन्दर एक समझदारी आ जाए, कुशलता आ जाए, तब तो जीवन धन्य बन जाए. वह कुशलता हमारे अन्दर आती नहीं. यहां पर हमारे सूत्रकार ने निर्देश दिया है.
अवर्णवादश्च साधुषु। घड़ी ने तो चार बजाकर आपको काफी जगा दिया. बाद में आप फिर देखेंगे. घड़ी तो बारह बजे तक आपको पुकार-पुकार कर चिल्ला-चिल्ला कर फिर जगाएगी. अंतिम समय में तो कह देगी मैं बारह बजा दूं? या तो बारह व्रतधारी श्रावक बनो, नहीं तो तुम्हारे बारह तो बजने ही वाले हैं. __व्रत नियम और अनुष्ठान के द्वारा जीवन को अनुशासित बनाएं. उसके अन्दर सर्वप्रथम अनुशासन आपकी वाणी पर आना चाहिए. जो अपना विषय चल रहा है. इसी विषय के अन्तर्गत ये सब विचार किया गया. क्यों मैं अवर्णवाद बोलू? किसी की निन्दा से मुझे क्या लाभ? किसी की आलोचना करने से मुझे क्या मिलेगा? किसी आत्मा की आलोचना से मन की वासना को प्रसन्नता मिलेगी. अन्दर से आत्मा तो रुदन करेगी. लाभ में क्या लाभ? कुछ नहीं नुकसान है. सिवाय कर्म बन्धन के, प्रेम नष्ट होगा, प्रीति नष्ट हो जाएगी, सद्भावना खत्म हो जाएगी. परमात्मा की प्रसन्नता से मैं वंचित रहूंगा. मिलेगा क्या? मेरी सारी साधना पानी में गई. इतनी सुन्दर खेती की और यदि बाढ़ आ जाए, सारी खेती साफ.
सुन्दर मकान बना लें. बहुत सुन्दर अन्दर साज-सज्जा करें, यदि आग लग जाए सब साफ. यहां पर निन्दा के अन्दर शेष गुण नष्ट हो जाएंगे. इस जगत् के प्रवाह के
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-गुरुवाणी
अन्दर एक बार यदि बाढ़ आ गई, आज तक की सारी कमाई बाढ़ के अन्दर साफ हो । जाएगी. मिलेगा कुछ नहीं.
भगवान ने कहा - सावधान रहें. परनिन्दा के भाव से बचने का प्रयास करें.
अवर्णवादश्चसाधुषु. ऐसे साधु पुरुषों की निन्दा से भी स्वयं का रक्षण करें. हमारे यहां साधुता की बड़ी सुन्दर व्याख्या दी है. मात्र पेट भरने के लिए निकले हों तो ऐसी साधुता को ढोंग कहते हैं. ऐसी साधुता को स्वीकार नहीं किया गया. साधुता किस प्रकार की आना चाहिए. यहां तो शिक्षा है, ऐसे साधु पुरुषों का अनुमोदन करना, उनके गुणों से अनुराग प्राप्त करना. कभी भूल के साधुपुरुषों के अवर्णवाद बोल करके अनर्थ उपस्थित नहीं करना. वह साधुता किस प्रकार की चाहिए? व्यवहार में तो कहा जाता है बड़ी सस्ती आज की हमारी साधुता है.
साधु जीवन कठिन है, चढ़ना पेड़ खजूर,
चढ़े तो रस भरपूर है पड़े तो चकना चूर। इस साधु जीवन के अन्दर संयम श्रेणी में, उत्तरोत्तर आत्मा का विकास प्राप्त कर ले. अनुभव अमृत का रस पान करे. हमारे यहां ऐसे कई आचार्य एक जरा सी वासना को लेकर जीवन से पतित हो गये. जरा सी उत्तेजना में आकर जीवन से भ्रष्ट हो गए.
चण्ड कौशिक नाग पूर्व के अन्दर साधु था. महान चरित्रवान साधु था. अचानक एक दिन ऐसा प्रसंग आ गया. भिक्षा के लिए जा रहे थे, उनके साथ उनके शिष्य भी थे. रास्ते के अन्दर एक छोटा मेढक. प्रमादवश पांव के नीचे आया, दबकर मर गया. शिष्य ने देख लिया गुरु भगवान से निवेदन किया- भगवन्, आप भिक्षा के लिए जा रहे थे, आप के प्रमाद से, यह आप के पांव से नीचे कुचला गया. मर गया. जो आलोचन प्रायश्चित हो भगवन! आप करलें.
शिष्य ने सावधान किया, जगाया. परन्तु वासना ऐसी थी, उपेक्षा कर दी. ध्यान नहीं दिया. भिक्षा लेकर आते समय उपाश्रय में उसने जगाया, ताकि भिक्षा के साथ इसकी भी आलोचना कर लें. दोपहर के समय पडिलेहन के समय भी शिष्य ने सावधान किया. ध्यान नहीं दिया. राखी के समय शिष्य ने फिर से अपने गुरु को जगाया ताकि मेरे गुरु महाराज का यह दोष उनके लिए अनर्थकारी न बन जाए. चित्तपूर्वक इसकी शुद्धि कर लें.
प्रतिक्रमण का समय था, उपाश्रय में, धर्मद्वार में, पूर्ण अधकार था. उस अधकार के अन्दर शिष्य ने जैसे ही विनयपूर्वक कहा-भगवन्, आप के प्रमाद से इस प्रकार की यह चीज हो गई है. किसी तरह से आप आत्म शुद्धि कर लें. यह प्रतिक्रमण है, प्रायश्चित की क्रिया है. इसके अन्दर प्रभु से प्रार्थना करके आप शुद्ध हो जाएं.
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गुरु को बड़ा आवेश आ गया, क्या बार-बार मुझे तू जगाता है, मुझे क्या सिखाता है. बार-बार मुझे आकर बतला रहा है, मैं क्या बालक हूं? मैं सब जानता हूं. सब समझता हं. जरा आवेश में आ गए. आवेश में आकर शिष्य को मारने के लिए गए. सामने खडा था, आवेश में दौड़कर जाने लगे, मारने के लिये और वहीं पर मौत हो गई.
दुर्ध्यान के अन्दर जीभ पर नियन्त्रण नहीं रहा, इसका यह परिणाम मरकर के इसी योनि की प्राप्ति हुई क्योंकि चरित्रवान था, ब्रह्मचारी का महान गुण था, सदाचारी जीवन था. फिर से उन्होंने संन्यास ग्रहण किया. संन्यास लेने के बाद तपस्वी बने, तापस कहलाए. बच्चों की आदत है. बार-बार आश्रम जाते भूल कर फल तोड़ने का प्रयास करते. वही गुस्से का संस्कार, वही क्रोध का संस्कार, पूर्व से लेकर आए थे, भयंकर क्रोध आता. बच्चों को मारने दौड़ते. बच्चे तो चालाक थे, भाग जाते. मन के अन्दर एक दिन विचार कर लिया, इन बच्चों को एक दिन तो शिक्षा देनी है. ये बार-बार छटक जाते हैं, भाग जाते हैं. हमारी मसकरी करते हैं और आश्रम के फल को तोड़ते हैं. फूलों को तोड़ते हैं. उन्होंने एक बहत बडी खाई बनाई. ताकि बच्चे आए जब वे फल फलों को तोडें. मैं उनके पीछे भागूं और वे इस गढ़े में गिर जाएं. फिर पकड़े जाएं और मैं उन्हें मारूं.
संन्यास लेने के बाद क्रोध के संस्कार नहीं गए. उसका यह परिणाम नियन्त्रण नहीं रहा. रात्रि का वक्त था, बच्चे मौका देखकर आए. उधर से निकल रहे थे, इच्छा हुई कि कुछ फल तोड़ लाएं. जैसे ही उनके ध्यान में आया कोई बगीचे में घुसा है. फल तोड़ने का प्रयास कर रहा है. एकदम आवेश में आ गए. संयोग ऐसा था जो खड्डा खोदा था उसमें स्वयं ही गिर गए. बच्चे तो भग गये, वे स्वयं गिर गये. गिरे भी इस प्रकार से कि वहीं उनकी मृत्यु हो गई. मरकर के सर्प योनि में गए. यहीं मरकर के चण्ड कौशिक सर्प बनें. ऐसा विषधर नाग चण्ड कौशिक, वही क्रोध का संस्कार. दृष्टि में विष था, आप की आंख से आंख मिलाए और जहर चढ़ जाए. उसकी दृष्टि के अन्दर भी जहर था. इतना खतरनाक सर्प था.
परमात्मा महावीर का संपर्क हुआ. लोगों ने कहा कि भगवन्, उस रास्ते से आप न जाएं. बड़ा खतरनाक सर्प है. आपको कष्ट देगा. रास्ता ही बन्द हो गया. इतना विकराल वह प्रदेश बन गया. दिन के समय भी कोई पशु-पक्षी आने का साहस नहीं करते. परन्तु परमात्मा तो करुणा निधान थे अपने ज्ञान के द्वारा उन्होंने ये जान लिया कि मेरे जाने से ही इस आत्मा का कल्याण होने वाला है. यह आत्मा सदगति में जाएगी, सहन करके इस आत्मा को शान्ति देने वाला बनूं. इस मंगल भावना से प्रभु गए. गांव के लोगों ने मना किया, फिर भी गए.
जाकर के उसी के बिल के पास ध्यानस्थ रहे. करुणासर्ग अवस्था में वे ध्यानस्थ रहे. आत्म दशा की उसी अवस्था में मग्न रहे. कैसा प्रेम, कैसा वात्सल्य परमात्मा के अन्तर
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गुरुवाणी
हृदय में. चण्डकौशिक सर्प वहां पर निकला. चण्ड-शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है भयकर. इसी दिन से उस सर्प को इस नाम से पुकारा गया. क्रोध का संस्कार लेकर के आया. साधु बना था, क्रोध नहीं गया, उसका यह परिणाम कि सर्प योनि में आना पड़ा. उस सर्प ने जैसे ही वहां देखा. इसका इतना बड़ा साहस, मेरे बिल के पास आकर के खडा है, फूकार मारा, जहर का प्रयोग किया. परमात्मा निश्चल थे. जहां प्रेम की मात्रा होगी. वहां जहर की कोई प्रतिक्रिया होने वाली नहीं. जहर का परमाणु भी रूपान्तित हो जाएगा. वह भी अमृत बन जाएगा. बहुत प्रचण्ड प्रतिकार की शक्ति प्रेम के परमाणु में है. ____ ध्यानस्थ रहे, जरा भी कोई प्रतिक्रिया गलत नहीं हुई. आखिर में चण्ड कौशिक सर्प ने विचार किया. यहां मेरा यह जहर असर नहीं करता तो मैं दंश दूं. दंश देने के लिए पांव में गया और जब डंक मारा. परमात्मा के उस चरण में से जहां खून निकलना चाहिए वहां से दूध की धारा निकलने लगी. ___चण्ड कौशिक विचार में पड़ गया. बड़ा आश्चर्य है! यहां तो रक्त की जगह दूध दिखने में आ रहा है. यह कोई बड़ा विचित्र व्यक्ति है. एक बार तो विचार में डूब गया. शान्त हुआ. शान्त होने पर परमात्मा ने कहा.
"बुझ-बुझ चण्ड कौशिक बौध प्राप्त कर बौध प्राप्तकर अपनी पूर्व की स्थिति पर जरा विचार कर. इतना सा ही जगाया. परमात्मा के शब्द क्या थे मन्त्र थे. मूर्छित आत्मा जग गई, जागृतात्मा बन गई. उसकी स्मृति जब पूर्व की स्मृति बन गई. जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ. साधु अवस्था की उस चर्चा को देखा. शिष्य के प्रति अपने क्रोध को देखा, मरकर के वापस बनें, वहां बच्चों के साथ क्या व्यवहार किया, वे सारी पूर्व की स्मृति उसमें जागृत हुई. किये हुए कार्यों को जब उन्होंने अपनी नजरों से देखा. घोर पश्चाताप उसके बाद उसने अपनी स्मृति का उपयोग परमात्मा के प्रति किया, तब मालूम पड़ा, ये तो तीर्थकर की आत्मा है. मैंने भंयकर अपराध किया है. यह सजा ऐसी भयंकर होगी भवान्तर में भी. इस सजा से मैं मुक्त बनने वाला नहीं, घोर अपराधी हूं.
परमात्मा के चरणों में नतमस्तक होकर के बिल में मुंह डाल दिया प्रतिज्ञा कर ली कि कभी आज के बाद अपना मुंह बाहर नहीं निकालूंगा. ताकि लोग भय से मुक्त बन जाएं. आहार का त्याग कर दिया. अनशन करके उपवास के द्वारा मरे शरीर को विसर्जित कर दूंगा. इस देह की जरूरत नहीं. बहुत पाप इस देह के द्वारा हुआ. कितने व्यक्तियों को मैंने खत्म कर दिया, अपने जहर से. अब यह पाप मुझे नहीं करना है. तिर्यक जैसे सर्प में भी यह विचार आ गया.
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परमात्मा वहां से जब बाहर जाने लगे तब लोगों ने देखा इस योगी पुरुष का चमत्कार. अब सब जाने - आने लग गये उस रास्ते से. किसी ने दूध डाला, किसी ने दही डाली, नाग पूजा शुरू हो गई. परन्तु सर्प इतना स्थिर बन गया. शरीर का जरा भी हलचल मुझे नहीं करना. कीडी मकौड़े आने लग गये. सर्प का मांस बड़ा स्वादिष्ट कोमल होता है, चींटियों ने चटका मारना शुरू कर दिया, उनके शरीर पर दूध पडा था. नैवेद्य पडे थे. मिठाई बगैरह चढ़ाते थे लोग, उस कारण से सर्प को काटने लग गए, घायल कर दिया. सर्प के शरीर को छलनी जैसा बना दिया. आर-पार होने लग गये. __ मरते-मरते भी चण्ड कौशिक सर्प की समता कैसी. हे आत्मन्, तूने इतना बड़ा पाप किया है. यह सजा तेरे लिए बहुत कम है. मरते समय भी अगर तूने विराधना की, तेरे निमित्त से किसी आत्मा की हत्या हुई. कितना अनर्थ होगा. यह बड़ी कोमल चीटियां हैं कीड़े मकोड़े हैं, मेरे शरीर के अन्दर प्रवेश करते हैं. मेरे शरीर के आहार से आनन्द लेते हैं. तूने अगर प्रमाद से आवेश में आकर अपने शरीर को हिलाया या जरा भी हलचल किया तो तेरे शरीर के चलने से दबकर बेचारे कीड़े - मकोड़े मर जायेंगे. ___इनके अन्दर भी आत्मा का निवास हैं. मरते-मरते किसी को मारकर के मुझे नहीं जाना है. शरीर नष्ट होता है तो हो जाये. अपने शरीर को मैं जरा भी हिलाऊंगा नहीं, ऐसी प्रतिज्ञा. छलनी जैसा शरीर हो गया. कीडियां आसपास होने लग गई, परन्तु उस आत्मा की समता कैसी. परमात्मा के परिचय का कैसा पुण्य प्रभाव? एक दम समत्व में आ गया. मरकर सर्प अन्त में देव लोक में गया. ___कैसी अपूर्व घटना. परमात्मा का प्रेम और वात्सल्य देखिए. आप विचार करेंगे खून की जगह दूध कैसे आया. यह परमात्मा की समता का चमत्कार, यह प्रेम का चमत्कार, यह प्रेम की अपूर्व साधना. सर्वोत्कृष्ट साधना का प्रकार. सारे रेड-सेल्स बन गये. मां के स्तन में क्या होता है, रक्त का ही रूपान्तर होता है. स्तन में रक्त ही रहता है. बालक को स्तन पान कराती है, बालक के मुंह का स्पर्श हुआ, बालक के प्रति मां का अपूर्व वात्सल्य, फीलिंग से चैंन्जिंग आता है. रासायनिक प्रक्रिया में परिवर्तन आता है. रक्त परमाणु दूध के परमाणु बन जाते हैं. वही रक्त दूध बनकर के बालक का पोषण करता है.
एक बालक के प्रति जब मां का हृदय बात्सल्य से पूर्ण बन जाये. वहां उस स्तन में रहा हआ रक्त भी दूध बन जाये, जो आत्मा प्राणी मात्र से प्रेम और वात्सल्य रखेगा, अंशमात्र भी जहां कटुता नहीं, उनके शरीर के अन्दर रक्त कहां से मिलेगा? परमात्मा के चरणों से दूध की धारा निकली, उसका यह वैज्ञानिक कारण प्रेम और चरणों से दूध की धारा निकली, उसका वैज्ञानिक कारण प्रेम और वात्सल्य से परिपूर्ण उनकी आत्मा थी. कहीं वैर-विरोध की भावना नहीं थी. उसी परमात्मा के अनुयायी बनकर यदि हम आराधना न करें, यहां सूत्र कार ने लिखाः
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गुरुवाणी
"सर्वत्र निन्दा संत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषुः "
यदि हम इसी प्रकार धार्मिक विषयों को लेकर क्लेश पैदा करें. अशान्ति पैदा करें. सामान्य वस्तुओं को लेकर यदि राग का पोषण करें. हमारी क्या दशा होगी ? जरा आत्म निरीक्षण करना. जितने भी पर्व के प्रसंग आते हैं, प्रेरणा देने के लिए आते हैं. इन सब प्रेरणाओं के कारण हैं.
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भगवान महावीर का निर्वाण जगत के कल्याण के लिए हुआ. किस तरह से आत्मा को निर्वाण पद मिले? उसकी प्रेरणा लेनी है. परमात्मा पार्श्वनाथ प्रभु का कल्याण परसों आ रहा है. इस जगत पर महान उपकार करने वाले तीर्थकर परमात्मा. ऐसे महानतम उपकार करने वाले सिद्ध भगवन्तों का तो उपकार है. इसीलिए अरिहन्त का स्मरण पहले करते हैं. और सिद्ध का स्मरण बाद में करते हैं आपके जीवन में सबसे नजदीक का उपकार आपके पिता का होता है. इसीलिए नाम के आगे पिता का नाम रखते हैं. दादा तो उपकारी है ही. परन्तु नहीं निकटतम उपकार करने वाला कौन ? माता और पिता. इसीलिए माता और पिता का संयोजन हमारे जीवन में सबसे नजदीक का उपकार करने वाले तीर्थंकर परमात्मा हैं. उनके शासन में रहकर के मैंने धर्म प्राप्त किया. सिद्ध भगवन्तों का उपकार तो होता ही है, पार्श्वनाथ भगवान की आराधना भी अपने को निर्वाणक कल्याण में करनी है. परमात्मा ने उस दिन जगत के समस्त दुखों से अपनी आत्मा को मुक्त किया.
आराधना मात्र स्वहित स्वकल्याण के लिए रखी गयी. जगत की चर्चा के लिए नहीं. समस्याओं को पैदा करने के लिए नहीं. हमारी आत्मा का कल्याण करने वाली, भविष्य में मोक्ष देने वाली बने, इस मंगल भावना से ही आराधना करनी चाहिए. पर्व को कभी कोई विकृत न करें.
संवत्सरी पर्व महा मंगलकारी है, वह कोई क्लेश का पर्व नहीं, भगवान के सभी कल्याण चाहे जन्म का हो, दीक्षा का हो, श्रवन का हो, केवल ज्ञान का हो या निर्वाण कल्याण हो. पर्व की पवित्रता में भी आज हम आक्रमण करने लग गए. पर्व की पवित्रता भी नष्ट करने लग गए. जो पर्व एकान्त आत्म कल्याण का साधन है. उसको समस्या का पर्व बना दें छोटी मोटी बातों को लेकर हम यदि घर्षण करें) परमात्मा महावीर का वह शासन किस तरह से हमारा कल्याण करेगा.
जरा भी किसी कार्य में उतेजना नहीं आनी चाहिये वही अपना समभाव वही सुन्दर सात्विक अराधना. एकान्त आत्मा की दृष्टि से ही अपने को करना है. पर्व को विकृत नहीं करना है. लोग कई बार पूछा करते हैं, महाराज से जो पर्व को विकृत नहीं करना है यह जो पर्व का आगमन हुआ. इस समय आपके पास क्या योजना है ? मैंने कहा- आत्म कल्याण की योजना है. माला मेरे पास पड़ी हैं जाओ और गिनो. उपवास करो पचक्खाण
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-गुरुवाणी:
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देता हूं. ये पर्व कोई नाराबाजी लगाने का नहीं, फेरी लगाने का नहीं, किसी आत्मा को दुखी करने का पर्व नहीं हैं. जिससे अनेक आत्माओं को शान्ति समाधि मिले, पर्व की आराधना इस प्रकार से की जाती है.
भगवान की जीभ पर पांव लगाकर करके परमात्मा के चरणों में मस्तक नहीं रखना है. जिनेश्वर भगवन्त ने जो आदेश दिया. उसका परिपूर्ण पालन करना है. परमात्मा की आज्ञा का जरा भी अनादर मुझे नहीं करना है. परन्तु आदत से लाचार छोटे से प्रलोभन में विचारे लोगों को गुमराह हम कर देते हैं. सम्पर्क दृष्टिकोण या मार्ग दर्शन को मिलना चाहिये मिल नहीं पाता. फिर हमारे साधु पुरुषों में भी जगत का परिचय कई बार पतन का कारण बनता है. इसीलिए मैं कहूंगा यहां तो निर्देश दिया -
"अवर्णवादश्चसाधुषु" ऐसे साधु पुरुषों की भी निन्दा नहीं करनी. अवर्णवाद का परिचय का परित्याग कर देना. कभी उनके लिए गलत बोलना नहीं, परन्तु साधुओं के लिए जिन का मैं परिचय दे रहा हूं ऐसे पवित्र सन्त महात्मा जो एकान्त आत्म कल्याण की भावना से जिनकी साधना चलती है, जिनके अन्दर राजनीति न हो. कूटनीति न हो. जिनके अन्दर माया, प्रपंच न हो, ऐसे साधु महात्मा मुझे चाहिये. जहां जाकर के मैं आत्मा की शान्ति प्राप्त करूं..
मेरे जैसा साधु भी अगर राजनीतिक रूप लेले. आप को यदि प्रवचन का ही रास्ता बतलाये. संघर्ष और क्लेश का ही मार्ग - दर्शन दे. मेरी साधुता कहां रही. वो तो क्रोध, कषाय की आग में जल करके राख हो गयी. फिरतो साधपना का पैकिंग रहा माल तो गायब हो गया.
साधु कभी उतेजित नहीं होगा. कभी आवेश में नहीं आयेगा. कभी लोगों को गलत मार्गदर्शन नहीं देगा. कभी उत्तेजना नहीं देगा. और आज तो हमारी ऐसी दशा हो गई साधु सेनापति बन जाए और आप जैसे सैनिक मिल जाएं. करो फायरिंग. यही चल रहा है. साधु तो नाम मात्र को रह गया, दुर्गन्ध से हमारा जीवन भर गया, क्लेश और कटुता हमारे जीवन में आ गई. ऐसे साधु से यहां कोई मतलब नहीं, ऐसी साधुता को कभी वन्दन करते ही नहीं. यहां तो जो साधु हो, सुसाधु हों, परमात्मा जिनेश्वर की आज्ञा के अधीन रह करके जो आत्म कल्याण के लिए चलें, उन महात्माओं के लिए अपना जीवन अर्पण कर दूं. उनके रक्षण के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर दूं. यह हमारी भावना होनी चाहिए.
__ साहू सरणम् पव्वज्जामि" साधु पुरुषों को मैं पूर्णत : अपना जीवन अर्पण करता हूं. यह मंगल भावना साधु पुरुषों व हमारे अन्दर आनी चाहिए. यदि मैं परिग्रह का ही संग्रह करने वाला बन जाऊं. बाहर
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-गुरुवाणी
से त्यागी दिखू बाहर से मैंने सब छोड़ दिया परन्तु मन से अगर परिग्रह नहीं गया, उसका परिणाम क्या आएगा?
बाहर का त्याग कोई मूल्य नहीं रखता. ये पशु बहुत बड़े त्यागी हैं. न घर है न बार है. न कपड़ा है न सोना चांदी है. महान त्यागी हैं. इन बंदरों को देखिए. पशुओं को देखिए. है बेचारों के पास? ये भी गोचरी लाते हैं? घर-घर जाते हैं? नहीं मिलता तो ले लेते हैं. कुछ है इनके पास? लंगोटी भी है? कुछ भी नहीं. कितने निर्दोष हैं. कभी आत्म कल्याण होगा. मोक्ष मिल जाएगा. बाहर से त्याग करना जैन दर्शन में कोई मूल्य नहीं रखता
"मूर्छा परिग्रहः” तत्वार्थ सूत्र का यह वचन है. मन से परिग्रह और वासना से जो आत्मा मुक्त बन जाए, वह मोक्ष का अधिकारी माना गया.
रास्ते में एक महात्मा मिल गए. बड़े त्यागी थे. ऐसे उनकी त्याग की प्रशंसा चली. पूरे गांव के लोग आते, बोलने में बड़े वाक्पटु थे. थोड़ा पुण्य प्रभाव था. जटा रखते थे. वह आत्मा गांव में आए, लोगों से कहते-मैं तो एक पैसा रखता नहीं. जिनको परोपकार करना है, वह आत्मा का करे. परोपकार की प्रेरणा देता हूं. परन्तु लोग आशीर्वाद की कामना लेकर जाते.
ऐसे व्यक्ति उनको मिल जाते थे जो सुखी सम्पन्न हों. उनको कहते कभी एकान्त में आना मेरी धनी पर आना. जंगल में वहां तुमको आशीर्वाद दंगा. बेचारे लोग आशीर्वाद की कामना के लिए जाते. एकान्त में जंगल में एक धूनी जला रखी थी. वट वृक्ष के नीचे बैठते. जटा थी, शरीर पर एक लंगोटी और कुछ नहीं, बड़े त्यागी. बड़ा प्रभाव, कई लोग जाते. श्रद्धावश सोना मोहर रखते. तो वे कहते-बेटा मैं छता नहीं, ये मुझे नहीं चाहिये. वहां दूर रख दो, यह तो डाकिन है. मेरी साधुता को खा जायेगी.
आडम्बर बहुत, शब्द में बहुत सुन्दरता नजर आती. लोग उनके त्याग से प्रभावित होते. परोपकार के लिए दो चार सोना मोहर रख देते. कहते महाराज! जहां आप की इच्छा हो परोपकार में देना. हम तो गुप्तदान मानते हैं. जैसे ही वह भक्त गया. सोना मोहर लेकर अपनी जटा में. सौ डेढ सौ सोना मोहर की थैली उनकी जटा के अन्दर. बाहर से एक दम त्यागी. ___मफतलाल सेठ उसी रास्ते से जा रहे थे. अचानक लोटा लेकर के जा रहे थे. उनको मालूम पड़ गया कि यह सोना-मोहर की आवाज कैसे आई? गिनते-2 चार मोहरें गिर गयीं. यहां तो ये वणिक पुत्र थे. यह आग तो तुरन्त पहचानी जाये. कान में आवाज आते ही विचार किया. यह सोना-मोहर होनी चाहिये. देखा तो झोपड़ी थी और तो कुछ :
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- गुरुवाणी
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नहीं, एकान्त में जरा ध्यान से देखा तो मालूम पड़ा – अहो बाबा जी का नाटक चल रहा है. सोना मोहर गिन रहे हैं और उनको थैली में डाल रहे हैं.
मफतलाल यह देख रहा था कि ये रखते कहां हैं? क्योंकि वही उसकी जानकारी में आना चाहिये. बाबा जी ने कहीं नहीं रखा, गाड़ा भी नहीं, जटा के अन्दर की थैली. जो कोथली थी उसमें सोना मोहर डाल ली. जटा बांधना मालूम पड़े नहीं कि बहुत बड़ी जटा थी.
मफतलाल समझ गया कि इन को अब पूरा साधु बना दूं. यह बेचारा परिग्रह की वासना में डूब जाएगा. इसको बचा लूं. बचाने की भावना थी और मुझे भी लाभ मिल जाए. एक पंथ दो काज. मैं डूबू इसकी चिन्ता नहीं पर इनको बचा लूं. दो दिन बाद मफतलाल बाबा जी के पास गये, नमस्कार किया, मन में तो जानते थे. माया कपट तो था ही, बड़े भाव से नमस्कार किया.
कहा - बाबा जी पांच मोहर नहीं, मेरी भावना है, बरोबर सौ मोहर परोपकार में देना है. आप जैसे सत्पुरुष को घर में बुलाकर भोजन भी देना हैं. भोजन के पश्चात् आपकी इच्छा के अनुसार मुझे दान करना हैं.
बाबा ने देखा, बड़ा अच्छा भक्त मिला. यहां तो एक मोहर देने वाले भी कम हैं. यह सौ मोहर सोना खर्च करेगा. इतनी मोहर खर्च करेगा. कहा – बेटा आयेंगे. दिन निश्चित कर लिया. घर में बड़ी सुन्दर तैयारी की. बलि का जो बकरा होता है. खूब माल खिलाया जाता है. बाबा जी को घर में बुलाया. कुछ मित्रों को लेकर स्वयं भी आया, स्वागत किया. बड़े आदर से बाबा जी को ऊपर ले जाकर भोजन करवाया, चांदी की थाल में न जाने कितने मिठाई पकवान सजाये. __ भोजन करते-करते मफतलाल पहुंचा और कहा - बाबा जी और कुछ चाहिये तो फरमाइये. __नहीं बेटा, अब तो तृप्त हो गया, भोजन बड़ा सुन्दर बना. बहुत आशीर्वाद तुझे देकर जाऊंगा.
अरे बाबाजी, अभी तो बहुत बाकी है. आपकी सेवा भक्ति करना तो बहुत बाकी है. वह एक दम बाहर गया. अन्दर तिजोरी पड़ी थी, चाबी लगाई हुई थी, नाटक ऐसा किया बाबा जी के पास आकर के, सीरा डाला, पेड़ा डाला. कहा बाबाजी इसे तो लेना ही होगा.
अरे बेटा - बस कर, बहुत हो गया. और कुछ नहीं चाहिये. भोजन करके बाबाजी बैठे ही थे. मफतलाल ने आकर के तिजोरी खोली. दो तीन बार तिजोरी देखी, ऊपर नीचे देखा. बाबा जी से पूछा बाबा जी यहां आप भोजन कर रहे थे. कोई आया था.
ना बेटा कोई नहीं आया.
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-गुरुवाणी
मैंने आपको देने के लिए सोना-मोहर की थैली रखी थी. वो गई कहां? यही मैं सोच रहा हूं, और कोई आया नहीं. नाटक किया, दो बार ऊपर गया दो बार नीचे गया. आदमियों से कहा. अड़ोसी-पड़ोसी सब इकट्ठे हुए, क्या हुआ? घर में चोरी कैसे हुई. यहां तो सिवाय बाबाजी के कोई नहीं आया.
बाबा जी को जो कुछ खिलाया पिलाया, चेहरा तो उतरना शुरू हो गया. मन में चोरी थी. मन में ममत्व था. मफतलाल बहत सफाई से काम कर रहा था. अपने पड़ोसियों से कहा - यार अभी तो मैंने तिजोरी खोली. सौ सोना मोहर मैंने गिनकर के अन्दर रखा. आश्चर्य होता है, यहां इतने आदमी अन्दर? बाबा जी भोजन कर रहे थे. गई कहां कोई कुत्ता बिल्ली तो नहीं ले गया. वह गायब कैसे हुई?
एक पड़ोसी को समझा रखा था, मफतलाल ने एकान्त में बाबा जी से आकर कहा बाबा जी भूल हर इन्सान से होती है, कोई देवता थोड़े ही है, आप भी साधु सन्त हैं.
और साधु सन्तों से भी अगर कभी भूल हो जाए. महाराज! हम लोग तो गृहस्थ हैं, दयालु हैं, हम तो क्षमा कर देते हैं. महाराज कभी भूल हो जाये लोभ से. तिजोरी खुली पड़ी थी. बाबा जी. यदि भूल हो गई तो यहां कोई सुनने वाला नही. मैं अकेला हूं आपका हितैषी हूं. उसे अगर देना हो तो दे दीजिये. यहां से जाने की भी जरूरत नहीं. पिछला दरवाजा मैंने खुला रखा है. बाबा जी, फिर बिना कारण लोग आपको हैरान करें. दो शब्द कहें. मारामारी करें, उससे अच्छा है बाबा जी, विनती कर रहा हूं.
बाबा को गुस्सा आया. बेटा तेरा सत्यानाश होगा. __ साधुता हो तो मेरा नाश हो, पर जहां साधुता है ही नहीं फिर आपका श्राप क्या काम करेगा? बाबा जी, आप अपने को संभालिए, बाबा जी, साधु होकर यह काम बड़ा गलत हो गया, अभी लोगों को मालूम पड़ेगा, बाबा जी, बड़ी बुरी हालत करेंगे. मुझे दया आती है. मैं अन्दर रख देता हं थैली को, जो आपकी जटा के नीचे है. फिर यहां से आप विदा हो जाइये, मैं कह दूंगा, भाई थैली तो मिल गई. बाबा जी को जरा जल्दी थी. इसलिए निकल गये. लोगों की भीड़ में आना वे पसन्द नहीं करते. बाबा जी बाइज्जत मैं आपको विदा कर दूं. बाबा जी तो वहां से तिलमिला कर गए. साला तेरा सत्यानाश हो. खिला करके मुझे लूट लिया. मेरी जिन्दगी की कमाई गई. बड़ी सफाई से मफतलाल ने काम कर लिया.
कहने का मतलब है यदि बाहर से हम नाटक करें, साधुता का, समता का, और अन्दर यदि क्रोध कषाय बैठा हो, आत्मा के गुणों को लूटता हो. हम क्या जाकर के वहां नमस्कार करेंगे. मैं आपसे कहूं क्रोध मत करो. लोभ मत करो वह चीज यदि मेरे अन्दर विद्यमान हो आप देखकर के मेरे से क्या प्राप्त करेंगे.
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-गुरुवाणी
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साधु ही अगर गलत चीजों को उत्तेजित करे और यदि गलत मार्ग दर्शन दे तो साधुता कहां रही? आप विचार करना. यह विषय काफी लम्बा है. इन सूत्रकारों ने इसके उपरान्त बहुत सुन्दर विवेचन किया. ऐसे साधु पुरुषों के अवर्णवाद से अपनी आत्मा का रक्षण करना इनका सूचन है. कल फिर इस वस्तु पर विचार करेंगे. आज समय काफी हो गया क्योंकि ये बहुत समझने जैसा विषय है कि अपनी साधुता किस प्रकार की होनी चाहिये.
महावीर परमात्मा ने किस प्रकार का मार्ग दर्शन दिया है और हम कहां कैसी स्थिति में खड़े हैं. जरा विचार करना. भगवान पार्श्वनाथ का मोक्ष अपनी आराधना के द्वारा, चित की प्रसन्नता में पूर्ण समता के द्वारा, इस निर्वाण कल्याण की आराधना करना तो भी संसार अपना विसर्जन हो. भव संसार बढ़ाने के लिए हमारी आराधना नहीं, उसे मर्यादित या समिति या नष्ट करने के लिए हमारी साधना है. क्रोध और कषाय से इस पर्व की आराधना हमें नहीं करनी है. हमें कोई जगत के प्रलोभन से या किसी प्राप्ति की आकांक्षा से पर्व की आराधना नहीं करनी है. यहां तो त्याग की भूमिका पर इस त्याग की आराधना करनी है, उस पर्व की आराधना पर कल विचार करेंगे.
"सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम"
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अपनी सुरक्षा स्वयं ही करनी है. गैर कोई आपको बचाए – इस बात में दम नहीं है. सब संयोग-साथी हैं. स्वयं के कदमों से चलकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं. केवल इतना ख़याल रखें कि जीवन के इस यात्रा-पथ में सदविचार और सदाचार का पाथेय अपने साथ हो.
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-गुरुवाणी
तीन प्रश्नों का समाधान
परम कृपालु परमेश्वर ने सारे जगत के कल्याण के लिए, धर्म प्रवचन के द्वारा इस जगत को मार्ग-दर्शन दिया. किस प्रकार वर्तमान जीवन की उपस्थिति में मेरे सुन्दर भविष्य का निर्माण हो. वर्तमान के द्वारा भविष्य में स्वयं को पाने वाला बनूं मंगल भावना से यदि प्रवचन का पान किया जाए तो वह जरूर आत्मा के लिए उपयोगी और सफलता देने वाला बन सकता है. जीवन के अन्दर अनादि अनन्त काल से जिज्ञासा की प्यास है. हर व्यक्ति स्वयं को जानना चाहता है. हर व्यक्ति स्वयं को भी चाहता है. हर व्यक्ति जानना चाहता है कि मैं क्या हूं? कौन हूं.?
जानने की इच्छा तो हर व्यक्ति में हैं लेकिन पाने के लिए प्रयास का अभाव है. जिस दिन स्वयं को पाने के लिए प्रयत्न शुरु हो जाएगा, आज नहीं तो कल वह व्यक्ति उसको प्राप्त भी कर लेगा. सारा ही प्रवचन स्वयं को प्राप्त करने का मार्ग-दर्शन देने वाला है. जीवन के आदि-काल से आज तक का यह इतिहास है कि हमने कभी स्वयं को पाने का कोई प्रयास नहीं किया. हमारा प्रयास हमेशा बाहर से प्राप्त करने का रहा. अन्दर से कभी प्राप्त करने की जिज्ञासा, एवं प्रश्न आज तक उपस्थित नहीं हुआ.
प्रकृति का यह नियम है, यदि बाहर से आप संसार को प्राप्त करेंगे, उससे कभी आत्मा की पूर्णता मिलने वाली नहीं, बाहरी संसार से शून्य रहने वाला ही स्वयं को पा सकता है. बाहर से शून्य बन जाए तो अन्दर से सर्जन प्रारम्भ हो जाए. यदि व्यक्ति बाहर से पाने के लिए प्रयास करे, संसार को पाने के लिए यदि पुरुषार्थ करे, तो स्वयं के अन्दर में मात्र शून्य मिलेगा. फिर जिस प्रकार से हमारा परिभ्रमण चालू है. उसमें कोई पूर्ण विराम प्राप्त होने वाला नहीं. जीवन की इस गति में वह व्यक्ति कभी भी नियन्त्रण नहीं पा सकेगा.
कुछ न कुछ ऐसी शक्ति मुझे चाहिए जिससे आत्मा को गति मिले. चेतना को जागृति मिले, और आत्मा के विकास के अन्दर वे तत्व सहयोगी बनें.
इंजन आप देखते हैं, यदि डीजल न हो, तो रेल कभी चलती नहीं और इंजन निष्क्रिय पड़ा रहता है. आप की गाड़ी कितनी भी सुन्दर हो परन्तु यदि पेट्रोल नहीं हो तो उस गाड़ी में कभी भी गति नहीं आएगी.
घडी आपके पास में हो अगर सेल नहीं, अगर चाबी नहीं दी गयी, वह घड़ी कभी चलेगी नहीं. हर क्षेत्र के अन्दर उसके साथ में होना जरूरी है तब जाकर के वह लक्ष्य को बतलाने वाली बनती है, लक्ष्य तक पहुंचने वाली बनती है. जब जड़ पदार्थों को भी खुराक की जरूरत पड़ती हैं, शरीर चलाते हैं तो अनाज चाहिए, पानी चाहिए, बिना आहार के शरीर टिकता नहीं, तो फिर आत्मा के लिए भी कुछ खुराक होना जरूरी है.
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- गुरुवाणी
यह सारी धर्म साधना इस आत्मा के लिए खुराक है. इससे आत्मा को पोषण मिलता है. आत्मा अपनी गति कर सकती है. आत्मा की चेतना के अन्दर उसकी गति जागृत हो सकती है इसलिए धर्म साधना को आवश्यक माना गया. साधना के अलग-अलग बहुत सारे प्रकार बतलाए गए हैं. और इन्हीं प्रकारों को समझ करके यदि जीवन को सन्नियम बना लिया जाए तो स्वय को पाना तो कोई कठिन बात नहीं है.
व्यक्ति बहत दूरी तक जाता है, आकाश को छने का प्रयास करता है, गहों पर जाने की चर्चा करते हैं. पाताल के अन्दर जाने की बात करते हैं. सारे संसार के अन्दर हर चीज को खोजने का प्रयास करते हैं. परन्तु आज का इन्सान स्वयं को खोजने का प्रयास नहीं करता कि मैं कहां हूं? मैं स्वयं को कैसे पा सकू? उसका हमने कोई प्रयास ही नहीं किया. एक-एक जड़ पदार्थ की खोज के अन्दर न जाने कितना प्रयास हमने किया.
एक सामान्य बात आप इलैक्ट्रिक बल्ब देखते हैं, उसके अन्दर छोटा सा तार होता है. जहां प्रकाश की स्थिरता मिलती है, जहां प्रकाश को स्थिर रखा जाता है. उस एक जरा से छोटे से तार है जो धातओं का मिश्रण होता है. जो बिजली को केन्द्रित कर लेता है. और प्रकाश देता है, अपनी चमक से गर्मी से गलता नहीं, पिघलता नहीं.
एडिसन ने साढ़े तीन सौ वस्तुओं का अविष्कार किया, जार्ज एडिसन छोटी बड़ी सब मिलाकर साढे तीन सौ वस्तुओं को जन्म देने वाला, उस एडिसन ने अपनी पुस्तक में यह दो इन्च को तार के विषय में लिखा. जब-जब उसने प्रयोग किया तो वह तार पिघल जाता, गर्मी बरदाश्त नहीं कर सकता, नष्ट हो जाता, बल्ब फ्यूज हो जाता. उसने अपना प्रयास बन्द नहीं रखा. फिर से प्रयास करने का परिणामस्वरूप, उसको सफलता मिली. उस सफलता का परिणाम आज आप नजरों से देख रहे हैं. प्रकाश मिलता है, परन्तु प्रकाश को स्थिर रखने वाली धातु जिसके आविष्कार के लिए तैंतीस हजार बार प्रयोग करना पड़ा.
व्यक्ति यदि समझ ले कि क्या है, छोड़ दो. अगर टाल गया होता. प्रयोग के अन्दर अगर निष्क्रिय बन गया होता, तो आज यह चीज आप के सामने नहीं होती. संसार में एक जन सामान्य जड़ पदार्थ उसकी खोज के लिए भी हमें इतना प्रयोग करना पड़ता है. एक्सपेरिमेन्ट करना पड़ता है. तब जा करके सफलता मिलती है. तैंतीस हजार प्रयोग के बाद आपको यह सफलता मिली. आपको प्रकाश मिला. ___ मैं आप को पूछू? प्रश्न तो हर व्यक्ति करता है परन्तु मैं यह जानना चाहता हूं कि आत्मा को पाने के लिए आपने कितना प्रयास किया?. प्रयोग नहीं करना है, मात्र जानकारी प्राप्त कर लेनी है और जानकारी के अनुसार यदि हमारे व्यवहार में परिवर्तन नहीं करना है तो उस जानकारी से क्या मतलब? उस जानकारी का मूल्य ही क्या.?
प्रवचन श्रवण करके उस भमिका पर यदि हम चिन्तन करें प्रवचन की गहराई में डबकी लगाएं. वहां से प्यास ले कर के जो प्रश्न उपस्थित हो जाए, उन प्रश्नों के समाधान के
रना का समाधानका
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-गुरुवाणी:
लिए अगर हम प्रयास करें तब तो जीवन सफल बन जाएगा. चित्त को समाधि देने वाला, मन को प्रसन्न करने वाला बन जाएगा, समाधान मिल जाएगा.
जो भी जिज्ञासा है वह अन्तर की चाहिए. उन प्रश्नों के उत्तर के अन्दर हृदय की प्यास भी चाहिए. उन प्रश्नों के अन्दर स्वयं को पूर्ण बनाने का एक अन्तर्भान भी होना चाहिए कि चित के समाधान के लिए, अपनी श्रद्धा को और दृढ़ करने के लिए, इस प्रकार प्रश्न करता हूं. मेरे प्रश्न के अन्दर मात्र स्वयं की कामना है. अपनी श्रद्धा को निर्मल करने की भावना है.
शंका-कुशंका अपनी श्रद्धा को मलिन करते हैं और श्रद्धा ही धर्म की इमारत है, धर्म ही एक परम साधना है. स्वयं को पाने की बहुत बड़ी इसकी व्याख्या है. बहुत विशाल इसका क्षेत्र है.
परमात्मा महावीर की दृष्टि में इसकी व्याख्या असंख्य प्रकार की है, आत्मा को पाने के असंख्य साधन हैं, आत्मा को शुद्ध करने के असंख्य योग हैं, परमात्म-दशा को प्राप्त करने के असंख्य योग, असंख्य प्रकार से हैं, एक प्रकार अपने को स्वीकार कर लेना पड़ेगा. एक रास्ता नहीं, अनेक रास्ते प्रभु ने बताए, उस रास्ते से यदि हम चलते हैं तो हमारी गति के अन्दर विश्राम मिल जाएगा.
मेरी यह बात थी, प्रश्न से पूर्व एक भूमिका कि जितने भी प्रश्न हों, वे मन के समाधान के लिए हों. अपनी श्रद्धा को निर्मल करने के लिए हों. अपनी भावनाओं को शद्ध करने के लिए हों. उसके अन्दर अन्तर में एक जिज्ञासा हो, स्वयं को जानने की उन प्रश्नों के माध्यम से भी स्वयं को जाना जा सकता है परन्तु अधूरे व्यक्ति कभी उसे पा नहीं सकते. अधूरी जानकारी लेकर चलने वाला कभी पूर्णता की जानकारी नहीं पा सकता. ____ मैंने आपसे अभी कहा हमने इस भविष्य में कभी खोज किया ही नहीं. आज तक कभी सफल इन्वेस्टिगेशन हमने किया नहीं, कभी एकान्त में बैठ कर के स्वयं को जानने की जो प्रक्रिया बतलाई गई, वहां तक हम पहंचे नहीं. ध्यान के द्वारा चित्त-वृतियों का निरोध करके, इन्द्रियों के विकारों का दमन करके उसे जानने का हमने प्रयास किया नहीं, ___मैं कौन हूं? जीवन का एक सबसे बड़ा प्रश्न है. उस प्रश्न के लिए हमने कभी ऐसा प्रयास नहीं किया, अगर बैठे होते हैं स्वयं को खोज निकालने तो स्वयं को आप पा लेते हैं, स्वयं की अनुभूति आपके अन्दर आ जाती है, वह तभी संभव हो सकता है जब चित-वतियां शान्त हों. यह धर्म-बिन्दु ग्रन्थ इसीलिए रखा गया ताकि निर्मलता प्रदान करे, आपके चित को ऐसी स्थिरता प्राप्त कराये. आत्मा को आरोग्य लाकर के दे, उसके बाद जो भी आप जानने का प्रयास करेंगे स्वयं को दिखाने का प्रयास करेंगे, बड़ी आसानी के उसका प्रतिबिम्ब आपको नजर आयेगा.
पानी यदि गन्दा है. गन्दे जल के अन्दर यदि आप स्वयं को देखो, प्रतिबिम्ब नजर नहीं आयेगा. पानी यदि हिलता है, यदि उसमें लहरें आती हों तो भी आपका चेहरा स्पष्ट
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=गुरुवाणी
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नजर नहीं आयेगा. चित-वृतियों के अन्दर विचार में चंचलता हो, हृदय के अन्दर उद्वेग हो. आवेश हो तो वह व्यक्ति अपनी आत्म-दशा का अनभव कभी ध्यान की स्थिरता में प्राप्त नहीं कर पाएगा. वह स्थिरता आएगी नहीं.
अस्थिरता में स्थिरता की कोई संभावना नहीं. चित-वृतियों का निरोध करें, एकान्त में कभी स्वयं को खोजने का हमने प्रयास ही नहीं किया. वह प्रयास करना है.
महर्षि अरविन्द, जीवन की साधना काल के अन्दर जीवन के चालीस वर्ष तक एकान्त में रहे. एक ही रूप में, उसी ध्यानस्थ अवस्था में, चालीस वर्ष उन्होंने व्यतीत कर दिये. मैं कौन हूं? ये जानने का प्रयास चालीस वर्ष तक उन्होंने किया. हमने इसके लिए चार दिन भी नहीं निकाले. मैं कौन हूं? यह जानने का अन्तर में कभी वह जिज्ञासा या प्यास उत्पन्न नहीं हुई.
जीवन के चालीस वर्ष जो व्यक्ति अपने को खोजने में निकाले, उसका अनुभव किस प्रकार का होगा. आप जरा विचार कीजिए. कितने ही व्यक्तियों की साधना के विषय में जब जानने का प्रयास करते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है.
एक बहुत बड़े महात्मा थे. दर्शन शास्त्र के महान विद्धान थे. अद्भुत ज्ञान उनके पास में था. बड़ी जबरदस्त शक्ति उनके पास थी. जवान अवस्था थी. शादी तो कर दी गई परन्तु उसके पश्चात जब आत्म-संशोधन की गहराई में उतरे, मन में एक संकल्प किया कि मुझे यह कार्य तो करना है. सरस्वती की कृपा से जरूर मेरा एक संकल्प सफल हो जाएगा. ____ जहां तक दृढ़ संकल्प होता है. मुझे यह कार्य करना है. फिर कोई विडम्बना नहीं रहती, कोई समस्या नहीं रहती.
उसके बाद उन्होंने अपने कार्य के अन्दर प्रवृत्ति शुरू कर दी. कितने ही वर्ष निकल गऐ. आद्यशंकराचार्य का ब्रह्म-सूत्र भाष्य था, बड़ा सुन्दर दार्शनिक ग्रंथ है. उन्होंने अपने विचार उसके अन्दर प्रस्तुत किए. उस ब्रह्मसूत्र को सरल बनाने के लिए. लोग कुछ समझ सकें आत्मा के विषय में, स्वयं के विषय में, बड़े सुन्दर तरीके से उन्होंने उस वस्तु को वहां पर रखा. उस पर टीका लिखाने का प्रयास किया. वाचस्पति मिश्रके जीवन के छत्तीस वर्ष निकल गये. उस ज्ञान की उपासना में, एक क्षेत्र की साधना में, सरस्वती की साधना में ही जीवन के छत्तीस वर्ष निकल गये. ___छत्तीस वर्ष तक अपने कक्ष में बैठकर वे अपनी आराधना में लग गये. बाहर का कोई लक्ष्य ही उनके पास में नहीं था. स्वयं के अन्दर केन्द्रित थे, उसी के विचार के अन्दर ऐसे मग्न बन गये कि बाहर की दुनिया का उनको ज्ञान ही नहीं रहा.
संयोग देखिये. शादीशुदा थे. जवान स्त्री थी. परिवार सम्पन्न था, परन्तु उनका प्रयोजन मात्र कलम और दवात से था. अपना लेखन कार्य उसी प्रकार से कर रहे थे. सुबह से
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गुरुवाणी
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शाम तक वही चिन्तन चल रहा था, मैं इसके आगे क्या लिखं? वही दार्शनिक चिन्तन. उसी कर्तव्य के अन्दर स्वयं को उपस्थित रखा. छत्तीस वर्ष निकल गये.
बड़े आश्चर्य की बात है, एक दिन लिखते-लिखते, कार्य करते करते, दीपक के अन्दर से तेल समाप्त हो गया. तेल खत्म होने को आया, उनकी स्त्री ने विचार किया, भामती ने उनकी स्त्री का नाम था भामती. मन में एक विचार आया कि पतिदेव सरस्वती की साधना कर रहे हैं. शंकर आशय पर टीका लिख रहे हैं. महान कार्य लेकर के चल रहे हैं. मैं किस प्रकार इनको सहयोग दूं.
उनकी घर वाली ने कितना सुन्दर सहयोग दिया, जब नजर आया कि तेल डालना बाकी है. दीपक बुझने की तैयारी में है, लाकरके उसने तेल डाला. जैसे ही तेल डाल करके वह जाने लगी, अचानक वाचस्पति मिश्र का ध्यान भंग हुआ. उन्होंने नजर उठाकर के जब देखा, उस स्त्री से पूछा-तू कौन है? उनकी स्वयं की स्त्री थी.
छत्तीस वर्ष हो गये थे, शादी किये हुए. अपने कार्य में ऐसे मग्न बन गए, ऐसे डूब गए उस कार्य के अन्दर, बाहर क्या हो रहा है? उन्हें मालूम नहीं समय पर भोजन आता समय पर स्नान करते, समय पर अपने लेखन कार्य में बैठ जाते. सारा उनका जीवन चिन्तन में चला जाता.
छत्तीस वर्ष के बाद अपनी स्त्री को उन्होंने पहली बार देखा, और बड़े आश्चर्य से पूछा-तुम कौन हो?
बड़ी नम्रता से जबाव मिला - "आपकी अर्धांगिनी भामती हूं. आप मुझे पहचाने नहीं?"
छत्तीस वर्ष निकलने के बाद चेहरे में परिवर्तन आ गया, बाल सफेद हो गए, परन्तु उनकी साधना में इस प्रकार से वह सहयोग देने वाली बनी. मन के इतने प्रसन्न हो मण्डन मिश्र ने कहा - "यह मेरी ज्ञान की सारी जो साधना है, आज तक मैंने जीवन में जो श्रम किया है वह तुझे अर्पित है."
सारी टीका का नाम उन्होंने अपनी स्त्री के नाम कर दिया. आज तक जगत के अन्दर वह ग्रंथ प्रसिद्ध है, विश्व के बहुत उच्च विद्यालयों के अन्दर, बहुत उच्च अध्ययन में इस ग्रंथ का रखकर अध्ययन कराया जाता है. ब्रह्म सूत्र की उस पर जो टीका लिखी गई, उस टीका का नाम रखा गया-भामती.
दुनिया के हर पंडित विद्वान उसे जानते हैं.
मुझे ज्ञान के इस क्षेत्र के अन्दर इतना ही कहना था. इस गहराई में जब उन्होंने डुबकी लगायी. जीवन के छत्तीस वर्ष निकाल दिये जाने की इच्छा भी नहीं हुई. उस कार्य के अन्दर ऐसी प्रवीणता उन्होंने प्राप्त की. कि हर क्षेत्र के अन्दर जैसे मैंने आपको कहा है. जड क्षेत्र के अन्दर संशोधन में एडीसन ने जिस प्रकार का कार्य किया. साढ़े तीन सौ वस्तुओं का विस्तार करने वाला, सुबह से शाम तक बैठा रहता. प्रयोगशाला में यह भी पता नहीं लगता, मैंने खाया है या नहीं खाया.
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: गुरुवाणी
जब ऐसी धुन सवार हो जाए. मन के अन्दर जब ऐसी बेचैनी आ जाए, कभी इस प्रकार का पागल पन आ जाए, स्वयं को जानने का, स्वयं को समझने का, तो साधना कभी निष्फल नहीं रहती.
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महर्षि अरविन्द ने 40 वर्ष निकाल दिये आत्मा की खोज में, जब एकान्त स्थल पर बैठ कर उन्होंने चिन्तन किया. अब हम सारी दुनिया में भटकें मकान, दूकान, परिवार के भोज को लेकर के चलें. जीवन को चिन्ताओं से घिरा कर रखें. अन्दर क्रोध और कषाय की ज्वाला में हम तपते रहें. फिर यदि यहां आकर हम प्रश्न करें कि महाराज मैं कौन हूं? मैं क्या जबाव दूं?
ऐसे व्यक्ति आज बहुत मिलेंगे. वे अधूरे जरूर हैं परन्तु प्रदर्शन पूरे का करते हैं. हमारी आदत में गम्भीरता मिलनी चाहिए, स्वयं की जानकारी के लिए, उस गम्भीरता का अभाव मिलेगा. हर व्यक्ति जानने का इच्छुक होता है, मैं जानता हूं. यह मनोवैज्ञानिक सत्य है. हर व्यक्ति का प्रयास होता है, मैं स्वयं को समझू, परन्तु प्रयास सफल नहीं हो पाता.
जानने के लिए इच्छुक जरूर हैं, परन्तु प्रयत्न का अभाव है. उसके योग्य हम अपने जीवन का निर्माण नहीं कर पाते, इसीलिए जानकारी अधूरी रहती है, फिर भी आदत से लाचार, प्रदर्शन तो पूर्णता का करेंगे. जो व्यक्ति अपूर्ण है और यदि पूर्णता का प्रदर्शन करे, तो वो पूर्णता कैसे मिलेगी. अधूरा व्यक्ति अधूरे काम के अन्दर पूर्णता का परिचय किस प्रकार कर पायेगा ? सारी जानकारी नहीं लिया. हम प्रयास कर रहे हैं, रोज नया प्रश्न उपस्थित करते हैं, अपने स्वयं की जानकारी के लिए मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? कैसे बतलाया जाएगा.
हमारी एक बड़ी छोटी सी बात है. अधूरे व्यक्ति कई बार कितने खतरनाक बन जाते हैं, बोलने की आदत, मैंने कहा- साधना के क्षेत्र में पहली शर्त है. स्वयं को अगर जानना है, स्वयं को देखना है, मौन की भूमिका चाहिए. बिना मौन के चिन्तन आएगा नहीं, चिन्तन में गहराई नहीं मिलेगी. आज जो खोज है, पूरी नहीं होगी.
समुद्र के किनारे यदि आप घूमते हैं, थोड़ी ठण्डक मिल जाएगी, थोड़े बहुत आपको कंकड़ पत्थर मिल जाएंगे, परन्तु मोती नहीं मिल सकता. उसके लिए गहराई में जाना पड़ेगा. जीवन की गहराई में जब आत्मा डुबकी लगाए, प्रवचन के माध्यम से स्वयं को खोजने का प्रयास करे. तब आत्मा को रत्नन्त्रय का परिचय मिलता है. अपनी महानता का बोध उसको होता है.
यदि अधूरा पन लेकर के चलें. हमारे यहां बोलने की आदत बहुत ज्यादा है. बिना कारण बहुत बड़ी शक्ति क्षय करते हैं, कषाय को आमन्त्रण देते हैं, संसार का आमन्त्रण देते हैं. बिना कारण आत्मा के लिए हम दण्ड निर्धारित करते हैं, अनर्थ दण्ड जिसे कहा गया है, कोई आवश्यकता नहीं है, आप थोड़ा नियन्त्रण करें, अपने विचारों पर आपने शब्दों पर, तो ये थोड़े दिन के प्रयास से सहज ही आपको मिल सकती है.
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द घर
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-गुरुवाणी
बोलना बन्द करें, स्वयं को समझने का विशेष प्रयास करें. शारीरिक लाभ, मानसिक शान्ति आपको मिलेगी, आत्म शक्ति का उसके द्वारा विकास होगा. बहुत बड़ी शक्ति हमारी व्यय हो रही है, उसे रोक लिया जाएं. ___ बहुत पहले की बात है कि एक छोटी सी घटना है. जिस समय यहां मुगल बादशाह थे, इंग्लैण्ड के अन्दर जार्ज का राज्य चल रहा था, किसी कारण से वहां इंग्लैण्ड के राजा को किसी व्यक्ति से जानकारी मिली कि भारत के अन्दर बहुत शानदार इमारत बनाते हैं. बड़े सुन्दर बिल्डिंग बनाने वाले लोग हैं, राज महल बनाते हैं. बड़े-बड़े किले बनाते हैं, क्यों नहीं लंदन के अन्दर इसकी सुन्दरता बढ़ाने के लिए ऐसी इमारतें बनाई जाए.
राज दरबार के अन्दर वहां के राजा ने अपने लोगों से बात की. एक व्यक्ति था, किसी समय में भारत आया था, बहुत थोड़े समय के लिए कोई व्यापार का कार्य करने के लिए आया था, वह जब वापिस लौटा तो टूटी फूटी हिन्दी उसे आती थी, काम चलाऊ जिसे कहा जाए. जब दरबार के अन्दर इंगलैण्ड के राजा ने कहा, मुझे वहां जैसी इमारत बनानी है, उसकी जानकारी के लिए किसी को भारत भेजना चाहता हूं, वहां से ऐसा इन्जीनियर लेकर आए. इस देश के अन्दर, उस प्रकार के भवन निर्माण किए जाएं.
पूछा-कोई है वहां जाने के लिए तैयार? वहां की भाषा से कोई परिचित है? वह अधूरा व्यक्ति था, खड़ा हो गया. खड़ा होकर के कहा-मैं बहुत अच्छी हिन्दी जानता हूं. मैं भारत जाकर के आया हूं, बहुत बड़ी-बड़ी ऐसी सुन्दर इमारतें मैंने देखी हैं. मैं ऐसे इन्जीनियर को खोजकर के ला सकता हूं.
दो आदमियों को साथ लेकर के बजट बना दिया गया, और उसकी यात्रा का विशेष प्रबन्ध कर दिया गया. कहा जाओ. भारत भ्रमण के लिए निकलना हो जाएगा. मुफ्त का पैसा मिल जाएगा, मौज शौक कर लेंगे, अन्तर में यह वासना अधूरा व्यक्ति था. इंग्लैण्ड से चला. जैसे ही दिल्ली पहंचा. यहां मगल दरबार में अपना परिचय दिया, शाही स्वागत किया गया. मेहमान था. इंग्लैंण्ड के राजा ने भेजा था , उसने अपनी जिज्ञासा रखी कि किस कारण यहां पर आया हूं, मुझे यहां बड़ी सुन्दर इमारतें देखनी हैं. उस के बनाने वाले ऐसे सुन्दर कारीगर, मुझे अपने देश में ले जाने हैं.
यहां राज्य का सर्वोपरि केन्द्र स्थान होने से यहां तो द्विभाषिये होते हैं, यहां तो उनके सब काम बराबर हो गए. सारी परिस्थितियां बादशाह ने समझ ली, उसके लिए शाही फरमान दे दिया गया. वे जहां चाहे रह सकता है. जो इमारत देखना चाहे, नक्शा बनाना चाहे, बना सकता है. कोई कारीगर अपने देश ले जा सकता है. फरमान मिल गया.
दिल्ली से वह चला आगरा गया. जाकर के ताज महल देख आया तो कुछ नहीं था, अधूरा व्यक्ति था, उसने वहां देखकर लोगों से पूछा. जमाने में इसका कोई ऐसा महत्व नहीं था. क्योंकि नया बना था. न कोई ऐतिहासिक जानकारी हमारे पास. यहां के लोग न उस समय इतने शिक्षित पास में जाकर के जब उसने कहा. मोस्ट वन्डरफुल बिल्डिंग?
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गुरुवाणी
बड़ी सुन्दर इमारत है. वह जानना चाहता है कब बना?, किसने बनाया? इतिहास की जानकारी के लिए ज्ञान लेना चाहता था. पास से एक गंवार जा रहा था. उससे पूछा यह कब बना? किसने बनाया?
उस आदमी ने कहा-मालूम नहीं साहब. गोरे लोगों को यहां साहब कहते हैं, एक भाषा बन गई. वह मन में सोचने लग गया कि साहब नाम का कोई इन्जीनियर है. उसने यह इमारत बनाई है. उसके नोट कर लिया 'मालूम नहीं साहब' नाम का इन्जीनियर हैं, उन्होंने यहां ताजमहल बनवाया है.
वहां से चले जयपुर, अजमेर गए, किला देखा. इमारत देखी, बड़े-बड़े राज प्रासाद देखे. वहां भी उसने पूछा-वहां तो शुद्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र, अंग्रेजी तो उस जमाने में कोई जानता भी नहीं था. उसने वहां वही जिज्ञासा व्यक्त की कि किसने बनाया? लोगों ने कहा -- "मालूम नहीं साहब.” क्योंकि वही जवाब मिलेगा. ___ उसने सोचा, “मालूम नहीं साहब” कोई बहुत बडा इन्जीनियर है, वह जैसे वहां से गुजरात गया. वहां बड़े महल देखे. जहां जाए, वही प्रश्न, जवाब मिले -- “मालूम नहीं साहब.” उसने इंग्लैण्ड समाचार भेजा दूत के द्वारा-दी ग्रेस्टेस्ट इन्जीनियर "मालूम नहीं साहब.” हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा इन्जीनियर “मालूम नहीं साहब” है.
अचानक जब बड़ौदा आना हुआ, वहां गायकवाड् महाराजा का महल देखा. बड़ी सुन्दर इमारत. दरबार जाने की तैयारी में था, अंगरक्षक खड़े थे. व्यक्तित्व बडा सुन्दर था, गोल्ड मेडल लगे हुए थे, बड़े सुन्दर कपड़े थे.
दूर से उसने सोचा कि कोई बहुत बड़ा आदमी है. क्या इससे पूछा जाये? क्या वस्त्र, क्या सुन्दर गोल्ड मेडल लगे हुए थे, और कितनी शानदार इमारत है? ये नीचे कौन है? पास में से जाने वाले किसी व्यक्ति ने पूछा-हू इज देयर “मालूम नहीं साहब."
उस व्यक्ति को क्या मालम कि वह कौन है यह व्यक्ति तो इतना खश हो गया कि कितने दिनों से मैं खोज कर रहा था कि "मालूम नहीं साहब" कहां मिलेगें?
आज ये सहज से मिल गये, वह गया. वहां भाषा तो आती नहीं थी, परन्तु इतना प्रसन्न हो गया, आकर उसको छाती से लगायें उस को, आई एम वैरी ग्लैड टू सी यू. मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई तुम्हे मिल कर के इशारे से बात की कि हम मिलना चाहते हैं..
ए.डी.सी. घबराया-जान नहीं पहचान नहीं, इस तरह का व्यवहार. वह डयूटी पर था. दरबार जाने की तैयारी में था. उसने कहा ठीक है. हाथ से इशारा किया कि कल. उसको बड़ा सन्तोष हुआ कि उसका समय निश्चित हो गया. कल आकर मैं मिलंगा.
इंग्लैण्ड समाचार भेज दिया, उत्सुकता थी, बड़ी प्रसन्नता थी, बड़ा महान आदमी मिल गया, “मालूम नहीं साहब” मुझे मिल गये. बहुत बड़े इन्जीनियर हैं, उन्हें देश में लाने का प्रयत्न करूंगा, उनसे जानकारी लूंगा. उनकी आदत है (अंग्रेजों की) सुबह घूमने निकलते
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=गुरुवाणी
हैं. सुबह हजरत घूमने निकले, कम्पनी बाग की तरफ नगर के कोई बहत बडे सेठ परलोक पहुंच गये थे. गांव के जितने भी सज्जन पुरुष थे, वे अन्तिम यात्रा में आ रहे थे, मन में सोचा पूरा गांव यहां दिख रहा है, कोई महापुरुष मर गया है, नहीं तो इतने प्रतिष्ठित, महाजन, पूरे गांव के लोग न जाते.
रास्ते चलते किसी आदमी से पूछा - हू इज डेड.कौन मरा? “मालूम नहीं साहब."
वह बेचारा कपाल पर हाथ देकर रोने लगा, आज तो मुलाकात का समय दिया, कैसा अफसोस बेचारे चले गए, परलोक पहुंच गए. इंग्लैंण्ड समाचार भेज दिया “दी ग्रेटेस्ट इन्जीनियर आफ इंण्डिया” “मालूम नहीं साहब" "टू डे एक्सपायरड."
लाख दो लाख रुपया अपने दोस्त का बरबाद कर दिया, समय नष्ट कर दिया, वापिस घूम करके इंगलैड चल दिया, और रिपोर्ट दे दी कि जिस को हम लाना चाहते थे वे खत्म हो गए. अफसोस की बात है, हमारा यह दुर्भाग्य है कि हम उनको ला नहीं सके, खत्म हुई बात.
अधूरा व्यक्ति सारी दुनियां को अंधेरे में रखेगा. यह है अधूरी जानकारी का परिणाम. हमारी दशा भी “मालूम नहीं साहब" जैसी है. बात आत्मा की करें, प्रश्न मोक्ष का करें, और संसार में रहना भी उनको नहीं आता. अपने परिवार के अन्दर जहां तक प्रेम का अभाव होगा, वहां तक परमात्मा की खोज किस प्रकार पूरी होगी?
पहले तो अपने जीवन के अन्दर उस प्रेम को प्रतिष्ठित नहीं किया कि प्रेम अपने परिवार तक भी व्यापक नहीं. जहां तक प्रेम में पूर्णता नहीं मिलेगी तो परमेश्वर की खोज सफल कैसे होगी? फिर भी मैं धन्यवाद देता हूं कि थोड़ा बहुत तो आप प्रश्न करते है, यह तो प्रश्न की सारी भूमिका मैने आपको बतलाई. आज दो तीन ही प्रश्न थे, इसीलिए ज्यादा समय मैंने नहीं लिया.
किसी व्यक्ति कि जिज्ञासा थी कि हमारे यहां जैन-दर्शन के अन्दर लोग कहा करते है. कि अरिहन्त परमात्मा हमारे जीवन पर सर्वोपरि उपकार करने वाले हैं. क्योंकि सर्वज्ञ की स्थिति में सारे विश्व का जिन्होंने दर्शन किया, सारे जगत का जिनको परिचय हो गया. वह परिचय जगत का आत्माओं के परिवर्तन के लिए हो. इस दृष्टि से जगत से विक्रत होने के लिए परमात्मा दिखला देते हैं, प्रवचन उनका परिवर्तन लाने के लिए होता है. हमारे जीवन पर उनका सबसे महान उपकार होता है.
हर जिन मन्दिर के अन्दर अरिहन्त परमात्मा की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है. प्रश्न कर्ता ने मुझे लिखा-ऐसे सिद्ध भगवन्तों की मूर्ति क्यों नहीं? __मैंने आपको समझा दिया कि हमारे जीवन पर सबसे निकटतम उपकार, सबसे महानतम उपकार अरिहन्त भगवन का होता है. इसी दृष्टि से हम आनंद भाव से सर्व-प्रथम अरिहन्त प्रभु की मूर्ति की प्रतिष्ठा करते हैं, उनके गुणों का स्मरण करने के लिए, उनके उपकार
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- गुरुवाणी:
का स्मरण करने के लिए. हमारे जीवन की यह मंगलकारी साधना है. वह परम साधना का श्रेष्ठ साधन है. इसीलिए अरिहन्त की मूर्ति को हम प्रतिष्ठित करते हैं, परन्तु वे भूल जाते हैं. यहां पर बहुत सारे ऐसे मन्दिर हैं, जहां सिद्ध-भगवन्त की भी मूर्ति हमारे यहां प्रतिष्ठित है, सिद्ध की मूर्ति भी बनती है. निराकार की उपासना भी साकार के माध्यम से की जाती है. क्योंकि भावनाओं का कोई आकार नहीं होता. वहां तो निरंजन निराकार स्वरूप है. ___ आपको मैं पूछ् कि यह लाइट के अन्दर जो प्रकाश आता है, उसका कोई आकार है? प्रकाश का कोई आकार है? तो पुदगल जड़ हैं. चैतन्य नहीं हैं, परन्तु इसके अन्दर कोई आकार नहीं मिलेंगे, इसी तरह से सिद्धावस्था में रही हुई आत्मा का भी कोई आकार नहीं मिलेगा, क्योंकि आत्मा स्वयं निराकार रही हुई है. आत्मा स्वयं निरंजन है, कर्म से रहित है, आत्मा में कोई इन्द्रियां नहीं, सिद्ध भगवन्तों के अन्दर किसी प्रकार की आकृति नहीं, परन्तु अपनी परिकल्पना के द्वारा उन आत्माओं की मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित करके, साकार के माध्यम से निराकार की उपासना करते हैं.
इसीलिए कई जगह ऐसे सिद्ध भगवन्तों की मूर्ति भी आपको मिलेगी और कई जगह अरिहन्त भगवन की मूर्ति भी सिद्धावस्था की मिलेगी, जिस मूर्ति के अन्दर परिकर न हो. आसपास के अन्दर जो बनाया जाता है, उसे हम परिकर करते हैं. और जिसमें चार प्रतिमाएं अलग प्रकार की होती हैं वह अरिहन्त परमात्मा की मूर्ति कहलाती है. परन्तु जहां परिकर नहीं, आभामण्डल नहीं, पीछे किसी प्रकार की आकृति नहीं, साइड में कोई आकृति नहीं, मात्र जिन मूर्ति होती है, अरिहन्त की वह सिद्धावस्था की मूर्ति कहलाती है.
सिद्ध भगवन्तों के यहां पर परिकर रखना शिल्प के अन्दर प्रामाणिक कहा गया है परिकर रखने का एक प्रयोजन बतलाया गया, कि शिल्प शास्त्र में यदि इस प्रकार का परिकर रखा जाए मूर्ति के पास तो उस परिकर से परिवार की वृद्धि होती है, पुत्र बृद्धि होती है, काम की उन्नति होती है, हर प्रकार से परिकर रखना उन्नतिकर माना गया, यदि भूलनायक भगवान में परिकर नहीं है, मात्र सिद्ध-अवस्था का है तो शिल्प कला के अन्दर उसे दोष माना गया है.
कई कारणों से किसी जमाने के अन्दर नहीं रखा गया, अनुकूलता नहीं मिली, योग्य मार्ग-दर्शन देने वाले कोई व्यक्ति नहीं मिले, और प्रतिमा विराजित की जाए तो दोष पूर्ण नहीं माना गया, परन्तु शिल्प के अन्दर अधूरापन तो कहलाएगा. जहां कहीं भी हमारे यहां श्री-संघ होता है वहां यदि हम जिन-मंदिर की प्रतिष्ठा करते हैं, परिकर साथ में होता है जिससे संघ दिन प्रति दिन उन्नति करे, गांव की उन्नति हो, प्रजा सुखी बने, श्रीमन्त बने. यह उसके पीछे मंगल भावना रहती है.
एक बात आपको और बतलाऊं, हमारे यहां सापेक्ष दृष्टि से एक में अनेक का समावेश किया गया है. एक अरिहन्त भगवन्त की मूर्ति का दर्शन, एक सिद्ध भगवन्त का दर्शन
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%3Dगुरुवाणी
पूजन, अनन्त अरिहन्त, सिद्ध भगवन्तों का दर्शन, पूजन होता है. एक की पूजा कि उसमे अनेक आ गए. एक में अनेक का समावेश हो गया. ____ मैं आपके सामने यदि कहूं-विश्व कितना? विश्व शब्द का ही उच्चारण होगा, एक वचन क्षम है, बहुवचन में नहीं क्योंकि विश्व तो एक है, पर विश्व में देश कितने? बहुत. और देश एक तो प्रान्त कितनें? बहुत. प्रान्त एक तो जिला कितने? बहुत. जिला एक तो उसमें तहसील कितनी? बहत. तहसील एक तो गांव कितने? बहुत. गांव एक तो उसमें मोहल्ले कितने? बहुत. मोहल्ला एक तो मकान कितने? बहुत मकान एक तो उसमें कमरे कितने? बहुत. कमरा एक तो उसमें रहने वाले कितने? बहुत. रहने वाले एक तो विचार कितने? बहुत.
यह एक के अन्दर अनेक का समावेश. एक अरिहन्त के अन्दर अनेक अरिहन्त, अनन्त अरिहन्तों का समावेश हो जाता है. कोई समस्या नहीं, एक सिद्ध भगवन्त की उपासना द्वारा अनंत सिद्धों की उपासना हो जाती है. हमारे यहां कई मन्दिरों में ऐसे सामान्य सिद्ध-भगवन्तों की मूर्ति मिलेगी. मरुदेवी माता की मिलेगी, भरत महाराजा की मिलेगी, कई जगह पर आप पालीताना शत्रुजंय पर जाएं, पांचों पाण्डवों की मूर्ति मिलेगी, वे कोई तीर्थंकर नहीं थ, पर सिद्धगामी आत्मा थे, सिद्धपुरुष थे, मोक्ष में गए. आप पालिताना जाएं पांचों पाण्डवों की मूर्ति कायोत्सर्ग अवस्था में मिलेगी.
ऐसे अनेक जगह पर आपको इसका प्रमाण मिल जाएगा, मेरे ख्याल से प्रश्न कर्ता का पूरा सम्मान हो जाएगा.
एक दूसरा प्रश्न उसके अन्दर उन्होंने जिज्ञासा काल की अपेक्षा से , शास्त्रों में कई बार वर्णन आता है. परमात्मा तीर्थंकरों की अवगाहना. अवगाहना का मतबल होता है. शारीरिक उंचाई का एक माप.
प्रश्नः- आदिनाथ भगवान की अवगाहना कितनी थी? पूछा-धनुष का प्रमाण कितना?
हमारे यहां प्रमाण तीन प्रकार का होता है, आत्मागुल, प्रमाणांगुल और हस्तागुल. ये तीनों शास्त्रीय प्रमाण माने गये. ये जो धनुष का प्रमाण 500 धनुष की काया का माना गया, एक धनुष ढाई हाथ का होता है. वह ढाई हाथ का प्रमाण आत्मांगुल . स्वयं के अंगुल के प्रमाण से उसे प्रमाणांगुल माना गया. ऐसे पांच धनुष की काया उस जमाने में थी. धनुष का प्रमाण शास्त्र में इस प्रकार का आता है. ___परन्तु उन्होंने एक नया प्रश्न किया कि यह काल अवसर्पिणी उत्सर्पिणी हमारे यहां काल चक्र है, और काल चक्र के अन्दर दो विभाग किए गए हैं, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी. वर्तमान काल अवसर्पिणी का है, जो उत्तरोत्तर सब चीज घटती चली जाती है. यह इक्कीस हजार वर्ष का काल है. छ: महावीर के निर्वाण. छठा आरा आएगा, आरा का मतबल काल के छ: भाग किये गए हैं. उसके अन्दर ये पंचम काल पांचवा चक्र चल रहा है. और यह
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- -वाणा
इक्कीस हजार वर्ष महावीर के निर्माण को पूर्ण होगा. उसके बाद इक्कीस हजार वर्ष का छठा आरा आएगा, जो बड़ा खतरनाक होगा.
विश्व के अन्दर प्रलय जैसी स्थिति आएगी. सभी धर्मो का नाश होगा. उसमें सर्वप्रथम महावीर के जैन दर्शन का नाश होगा. क्योंकि कोई दर्शन कोई मान्यता, कोई श्रद्धा उस समय पर नही रहेगी. आकाश के अन्दर सूर्य इतना प्रकाश देगा कि गर्मी के कारण लोग तड़प कर मर जाएंगे, इतनी भयंकर ठण्ड पडेगी, जीवात्पत्ति की संभावना नहीं रहेगी. सारा विश्व एकदम सिकुड़ जाएगा. भयंकर बारिश होगी, ऐसे अनेक प्रकार से प्रलय के प्राकृतिक कार्य होंगे. इन्सान मात्र एक हाथ प्रमाण का रह जाएगा.
आयुष्य मात्र बीस वर्ष का होगा. छठे वर्ष के अन्दर स्त्री गर्भवती बनेगी. ऐसा वर्णन हमारे जैन शास्त्रों में आता है. परन्तु उसे अभी चालीस हजार वर्ष का फासला है. अपने लिए वर्तमान में चिन्ता का कोई कारण नहीं. धीमे-धीमे उत्तरोत्तर काल इस प्रकार का आएगा. हमारे विचार भी दरिद्र बन जाएंगे. व्यक्ति विचार से भी पीडित बन जाएगा. अपने विचारों से ही पतित बन जाएगा, दिन प्रतिदिन उत्तरोत्तर विचारों में कमी आएगी, यह अवसर्पिणी काल का लक्षण है.
अवसर्पिणी का अभिप्राय-उतरता हुआ समय. परन्तु जब उत्सर्ग का समय आएगा, उत्तरोत्तर विकास होगा फिर इस प्रकार की बरसात होगी. इस प्रकार प्रकृति अपने अनुकूल बन जाएगी कि पृथ्वी के अन्दर वृक्ष अंकुरित हो जाएंगे. धन-धान्य से पूरित बन जाएगी, लोगों के अन्दर भी प्रसन्नता आएगी, फिर से एक नया वातावरण पृथ्वी में निर्माण होगा. यह पृथ्वी का एक प्राकृतिक क्रम है. यह शाश्वत व्यवस्था है, यूनिर्वसल टूथ है, इसमें कोई असत्य नहीं क्योंकि प्रकृति अपना कार्य करती है.
परन्तु इसके अन्दर मेरे कहने का आशय उनका जो प्रश्न था कि शारिरिक उंचाई इतनी कैसी? फिर उंचाई घटती है. यह तो तीर्थंकर परमात्माओं का ऐसा अपूर्व पूज्य होता है पूज्य को लेकर नाम कर्म जिसके कारण यह प्रकृति का बंधन पड़ता है, शारीरिक उंचाई उसी प्रकृति के नाम कर्म को लेकर, वह बंधन करते हैं, निरोगी शरीर होता है. पूर्णतया शरीर की अवगाहना, उंचाई मिलती है, पूर्ण आरोग्य मिलता है, जरा भी असातावेदनीय कर्म जिसके कारण बीमारी पैदा हो, तीर्थंकरों के जीवन में होता नहीं, बहुत सामान्य प्रकार का कदाचित होता.
असातावेदनीय कर्म आदि क्षय हो जाते हैं यह तो शास्त्रीय प्रकार है, परन्तु परमात्मा के इन विचारों में आज के वैज्ञानिकों ने सत्य सिद्ध कर दिया. मैं वैज्ञानिक दृष्टि से ही आपको समझाता हूं.
रसिया के अन्दर साइबेरिया मैदान में इतने लम्बे विशाल प्राणी हैं, आप कल्पना भी नहीं कर सकते, एक मानव खोपड़ी वहां पर 22 लाख वर्ष पुरानी मिली, ऐसा वहां के पुरातत्व के विद्वानों का कहना है, साइबेरिया में से वह खोपड़ी 22 इन्च परिधि की है,
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गुरुवाणी
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पाला
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अब आप विचार कर लीजिए. इतनी बड़ी खोपड़ी होगी तो इन्सान कितनी उंचाई वाला होगा.
वैज्ञानिक बहुत खोज करके इस निष्कर्ष पर आए कि किसी जमाने के अन्दर गुरुत्वाकर्षण के कारण यह पृथ्वी बहुत फैली थी, आज जैसी नहीं थी. आज तो पृथ्वी का हिस्सा कम है. पानी ज्यादा. पृथ्वी छोटी हो गई, जो हमारे यहां माप बतलाया गया, जैन भूगोल के अन्दर, जैन गणित के अन्दर, उस प्रकार से आज की पृथ्वी नहीं रही, इसमें परिवर्तन आया.
उनका कहना है कि किसी जमाने के अन्दर इसी धरती पर बहुत उंचाई के लोग होते थे, बहुत विशाल इनका शरीर होता था. ऐसे जीवाणु मिले, ऐसे मरे हुए प्राणियों का अस्थि पिंजर मिला है जिससे आज तो यह सिद्ध होता है कि लाखों वर्ष पहले मानव बहुत विशाल काया में था. मानव जीवन की शारीरिक रचना बहुत विशाल रूप में होती थी. प्राणी भी बहुत विशाल होते थे, परन्तु संकुचित होने का कारण पृथ्वी की संकुचित होने की क्रिया.
इनका कहना है-इस गुरुत्वाकर्षण के कारण धीमे-धीमे पृथ्वी के अन्दर संकुचन की क्रिया चालू है. लाखों वर्षों से गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी के अन्दर संकुचन की क्रिया हो रही है. इसके कारण गुरुत्वाकर्षण का जो दबाव पड़ता है उससे व्यक्ति की उंचाई कम होती चली जाती है, यह आज के वैज्ञानिक का कथन है और किसी प्रकार से सत्य भी हो सकता है.
बिना प्राकृतिक वातावरण के शरीर की उंचाई-निचाई, घटना बढ़ना तो सम्भव नहीं, प्रकृति भी इस कार्य में साथ देती है. गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के अनुसार उसका जो दबाव है, संकुचन की जो क्रिया है, इस कारण से पृथ्वी भी संकुचित बनी, ऊपर से यह दबाव ऐसा आया, यहां जन्म लेने वाले प्राणी भी धीरे-धीरे छोटे होते चले गए.
यह तो बहुत स्पष्ट है, आपके सामने जब वैज्ञानिक कहते हैं तो कुछ खोजकर ही उस निष्कर्ष पर आए. परमात्मा का तो कथन है, वे जीव कर्मानुसार अपने शरीर को प्राप्त करता है. पहले किसी जमाने के अन्दर सुना करते थे, बहुत लम्बे चौड़े शरीर वाले हुआ करते थे, बड़ी हृष्ट पुष्ट काया होती थी, बड़े बलवान होते थे.
कहा जाता है, हमारे यहां सिद्धराज 13 वर्ष की उमर में तो युद्ध करने गया था. यह तो हजार वर्ष पहले की घटना है. अब तेरह वर्ष के बालक को आप यहां बुलाएं तो मुंह धोना भी नहीं आए. वह तेरह वर्ष की उम्र में युद्ध में गया. ऐसी ताकत थी.
कहां से आया? पूर्वकृत कर्म के कारण, और कुछ नहीं. अपने इस प्रश्न के साथ एक ही प्रश्न है. महाविदेह क्षेत्र कहां पर है?
हमारे यहां असंख्य द्वीप असंख्य क्षेत्र हैं. मात्र महाविदेह क्षेत्र नहीं, आज के वैज्ञानिक भी इस सत्य को मानकर चलते स्वीकारते हैं. वे तो मानते हैं कि हमारी ताकत सिर्फ उत्तरी
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-गुरुवाणी
Heal
ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक जाने की है. पचीस हजार मील की हमारी दुनिया है, आठ हजार मील का वृत्त है, पचीस हजार मील उसकी परिधि है. इस दुनिया में साढ़े तीन अरब की संख्या है. इसी में हम रहते हैं.
हमारे पास वह साधन आज तक निर्माण नहीं हो पाया, आविष्कार कर नहीं पाए कि गुरुत्वाकर्षण को चीर करके उस क्षेत्र से आगे बढ़ें, परन्तु इतना तो वे मानते हैं कि उत्तरी ध्रुव के पास कम से कम हजारों किलो मीटर तक उन्होंने खोज किया. वर्फ की दीवार है, सिवाय वर्फ के वहां कछ नहीं है. बहत प्रयास किया, वे खोज नहीं कर पाए, इस ध्रुव का आकर्षण ऐसा है, यदि आप उत्तर से निकलें तो दक्षिण में ही आएंगे. इस जगत का, इस वतन का आकर्षण ऐसा है. आप कोई भी चीज यदि सीधे फैंके तो भी तिरछी जाएगी, यह ध्रुव के आकर्षण का कारण है.
जिन लोगों ने प्रयास किया कि उत्तरी ध्रुव को पार करके आगे चला जाऊं, वे जा नहीं पाए. विमान स्वयं मुड़ जाता है. तुरन्त टर्न लेता है. किन्तु लोग, पृथ्वी जरूर है. ये वैज्ञानिक मानते हैं. बर्फ से ढकी हुई पृथ्वी है. लाखों की संख्या में द्वीप और समुद्र हैं. ऐसा आपके भौगोलिक भी मानने लगे हैं जो जैन-दर्शन मानता है. उसे ये आज अपने प्रयोग के द्वारा आपके सामने सिद्ध करके बतला रहे है कि बहुत सारे क्षेत्र हैं. ___ महाविदेह क्षेत्र भी, पूर्व दिशा में हैं, पूर्व दिशा की तरफ इंसान के अन्दर लाखों मील दूर एक विशाल क्षेत्र आया हुआ है. भारत की तरह से वहां भी लोग हैं, हमेशा की तरह से चौथा आरा जैसा, जो महावीर का समय था, जिसे हम चौथा आरा कहते थे. वही पीरियड़ वहां कायम होता है. वहां समय में काफी परिवर्तन नहीं आता, वहां काल का छ: भाग नहीं रखा. गया, ये अरब क्षेत्र की उपेक्षा से रखा गया. उस क्षेत्र में तो कायम चौथा आरा होता है.
वहा प्रतिदिन मोक्षगामी आत्मा भी होती है. सातवें नरक में जाने वाली आत्माएं भी होती हैं. पापी और पुण्यात्मा तो आपको हर जगह समान रूप से मिलेंगे. जैन भूगोल का यदि अभ्यास करें तो मालूम पड़ जाएगा. इस क्षेत्र का परिचय मिल जाएगा. उंचाई के विषय में मैंने आपके सामने बहुत स्पष्टीकरण कर दिया. एक प्रश्न और:-महाराज कई जगह लिखा है. "जीवो जीवनम्" एक जीव दूसरे जीवन का आहार होता है. उसका भोजन होता है. ऐसे समय में यदि कोई जीव अपना भक्ष्य ग्रहण करता हो, उस समय उसको बचाना या नहीं बचाना!" अगर हम बचाते हैं तो उसको भोजन से वंचित रखते हैं. ___ बड़ी सुन्दर बात है आपको बड़ा सुन्दर नज़र आएगा, परन्तु मेरा आपसे कहना है भगवन्त की आज्ञा है, अपने हृदय की कोमलता को, अपने हृदय के लक्षण के लिए उसको बचाना अपना धर्म है. वह जीव किसी भी प्रकार से भक्षण करें, उस जीव के कर्म संयोग ही ऐसे हैं, पर अपनी नज़रों से यदि हम देखते हैं कि किसी पर आक्रमण किया, यदि
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गुरुवाणी
आपने रक्षण नहीं किया, आपका परिणाम दूषित बनेगा, निष्ठुर बनेगा, भविष्य में जाकर । क्रूर बन जाएंगे.
अपनी करुणा को रखने के लिए, अनुकम्पा के रक्षण के लिए, अपनी कोमलता को बचाने के लिए, हम उसे बचाने का प्रयास करेंगे, ये आपके सामने घटना न हो क्योंकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से-जो चीज़ बार-बार देखी जाएगी, आपके अन्तर हृदय में भी वह वासना जन्म लेगी, वह सारी कोमलता, पवित्रता चली जाएगी. __ आहार करता है. नहीं करता है, वह प्राकृतिक वस्तु है, हम कहां-कहां बचाने जाएं? किस-किस का रक्षण करें? व वहां जाएं? परन्तु मेरी नजरों में जो सामने घटना घटित होती है. तो हमारा नैतिक कर्तव्य है. एक बार नहीं हजार बार हम उसे बचाने का प्रयास करेंगे. बचाना मेरा कर्तव्य है मेरा परम धर्म है. .
वह अपना भोजन कहीं न कहीं प्राप्त कर लेगा, इस दृष्टि से आप भोजन की चिन्ता न करें, मेरी आत्मा के परिणामों की क्या दशा होगी. आज रोज यहां किसी को चाक चलाते देखिए तो आपका परिणाम कैसा बनेगा? टी.वी. में सिनेमा में जो बार-बार ये हिंसक दृश्य बतलाए जाते हैं. अश्लीलता के जो दृश्य दिखलाए जाते हैं. उसका परिणाम तो आज देश भोग रहा है. नई नई तकनीक निकल रही हैं. कैसे इन्सान को मारना? कैसे उसको किडनैप करना? कैसे उसको यन्त्रणा देनी? कैसे बहानों के साथ निर्लज्ज व्यवहार करना, ये सारी हकीकत हर रोज देखते हैं, रोज पेपरों में पढ़ते हैं.
हमें यह नहीं मालूम कि एक सामान्य फिल्म या टी.वी. में देखा हआ दृश्य हमारे मानस को दूषित कर देता है. विचार को विकृत बना देता है. बालकों के संस्कार को खण्डित कर देता है, तो फिर हमारी नजरों से साक्षात इस दृश्य को हम देखें तो क्या दशा होगी? आपकी कोमलता कहां जाएगी? दया मर जाएगी.
दया को जीवित रखने के लिए परमात्मा का आदेश है, शास्त्रों का उल्लेख है-ऐसे प्रसंग पर जीव का रक्षण करें. मेरी बात समझ गये? बहुत सी बातें श्रद्धा से समझने की होती हैं. हर जगह पर तर्क नहीं किया जाता. तर्क से आगे की जो वस्तु हैं, वहां श्रद्धा रखकर के ही चला जाता है. संसार में बहुत जगह पर हम श्रद्धा रखते हैं, विश्वास रखते हैं. डाक्टर पर हमारी श्रद्धा होती हैं. वकील पर हमारी श्रद्धा होती है. उसे जाने दीजिए मां कहती है तेरे पिता जी हैं, पूर्णतया हम श्रद्धा रखकर चलते हैं. __ शंका है, कोई कुशंका है. यहां पर तीर्थंकर परमात्मा घोषित करते हों. जिस वस्तु को सत्य के रूप में सिद्ध करके सामने रखते हों, निशंक हो करके उसे स्वीकार कर लेना है. स्वीकार यह सम्यक दर्शन है. और जीवन की आधार शिला है. मोक्ष का जन्म स्थान . भी सम्यक् दर्शन है. जो उनके प्रश्न थे, मैंने संक्षिप्त में बतलाए.
प्रश्न मात्र तीन थे, इसलिए मैंने बहुत लम्बा चौड़ा इसमें समय नहीं लिया. थोड़ी सी भूमिका मैंने समझा दी. प्रश्न कैसा होना चाहिए? अधूरा न हो. पूरी जानकारी का हो. स्वयं
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गुरुवाणी:
अनुभव का हो. चिन्तन के बाद के बाद जो प्रश्न उपस्थित हुआ हो उसका समाधान प्राप्त करना सरल बन जाएगा. नहीं तो आपके आप स्वयं के प्रश्न उलझ जाएंगे. आपको उसके अन्दर से समाधान नहीं मिल पाएगा. आज इतना ही.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ”
噩
जीभ खतरनाक है. उससे सम्भलना जरा! अपने शरीर की संरचना को देखो. आँखें दो हैं, पर
उनका काम एक है: देखना. कान दो हैं, किन्तु उनका काम एक है: सुनना. नाक के छिद्र दो हैं, परन्तु उनका काम एक ही है : श्वास लेना. हाथ दो हैं, पर उनका काम एक है: वस्तु को स्थानान्तरित करना. पैर दो है, किन्तु उनका काम एक ही है: चलना. लेकिन
संयोग है कि जीभ एक है और उसके काम दो: ब्रॉडकास्टिंग (बोलना ) एण्ड फूड- सप्लाय (खाना). दोनों खतरनाक डिपार्टमेन्ट (विभाग) हैं. गलत बोलकर कर्म-बन्धन और गलत खाकर कर्म-बन्धन.
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-गुरुवाणी
आत्मा की रक्षा के लिए बलिदान
परम उपकारी, परम कृपालु, परमात्मा महावीर ने जगत के जीव मात्र के कल्याण के लिए, आराधना साधना की. उस सफलता को प्राप्त करने के लिए, अपने वर्तमान के द्वारा उस भविष्य को देखने की प्रवचन के द्वारा एक मंगल दृष्टि उन्होंने दी. जिस दिन व्यक्ति के अन्दर यह दृष्टि प्राप्त हो जाए, मानव की सारी सृष्टि बदल जाए. आज तक जगत को जानने वाला स्वयं को नही जान पाया. दुनिया का इतिहास जनाने वाले ने स्वयं का इतिहास आज तक पढ़ा नहीं. सारी दुनिया को देखने वाला आज तक स्वयं को नहीं देख पाया. मैं कौन हूँ?
आज तक हमें हमारा कोई परिचय नहीं, जो भी हमने परिचय प्राप्त किया वह औपचारिक दृष्टि से, उसमें वास्तविकता का अभाव है. यहाँ तो प्रवचन के द्वारा स्वयं का ही परिचय प्राप्त करना है. मैं कौन हूं, इस इतिहास को एक बार देखना है, वर्तमान के अन्दर उस भविष्य की दृष्टि को प्राप्त करना है, जिससे मैं अपना भविष्य देख सकं. जैसा मैं आज कार्य करूंगा, वैसा ही मेरा भावी परिणाम होगा. बच्चे स्कूल के अन्दर जो पेपर करते हैं, वही रिजल्ट बनकर के आता है.
वर्तमान में अपने जीवन के पेपर में जैसा आप कार्य करेंगे, जैसा विचार के द्वारा लिखेंगे, वही भविष्य में परिणाम बनकर के आएगा, मैंने गत रविवार को कहा-बिना प्रारब्ध के जगत में कभी कोई वस्तु प्राप्त नहीं होती परन्तु इन्सान का हमेशा प्रयास रहा, परमेश्वर को गौण करके जगत को कैसे प्राप्त किया जाए, इसी लक्ष्य को लेकर हमारा वर्तमान चल रहा है. भविष्य के लिए उस लक्ष्य को लेकर हमे कोई यात्रा आज तक प्रारम्भ नहीं की, कहां से वह स्थिति हम प्राप्त कर पाएंगे, जो मुझे पाना है, उसकी तो हम उपेक्षा कर रहे हैं, जो मुझे छोड़ना है. उसी के लिए जीवन का सारा प्रयास है. जो पाना है, उसे पाने का आज तक कोई प्रयास नही हुआ, जो मुझे छोड़ देना है, अच्छी तरह से हम जानते हैं. हमारी जानकारी में है, परन्तु जीवन का सारा ही प्रयास उसके लिए चल रहा है, कैसे मैं प्राप्त करूँ? चाहे वह गलत रास्ता हो चाहे सही रास्ता हो.
इस बात पर आप जरा विचार करना, गौर करना, यह प्रवचन के द्वारा आपको अपना इतिहास बतलाया जाता है. हम कहां थे? कैसी स्थिति में थे? अनंत काल से, हमने अपनी साधना के द्वारा जो श्रम किया, कितनी प्रसन्नता का हमने बलिदान दिया, और उसका यह वर्तमान परिणाम कि जीवन की हमने प्राप्ति की, मोक्ष का द्वार जैसा मंगल जीवन मिला, परन्तु इस जीवन के अन्दर हमको वह दृष्टि नहीं मिली, जिससे हम जीवन के भविष्य को देख सके.
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% 3Dगुरुवाणी
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- भूतकाल की साधना का मूल्यांकन कभी वर्तमान में नहीं किया, वह कितनी अपूर्व साधना थी, जिसकी हम वर्तमान में सुगन्ध प्राप्त कर रहे हैं, कभी अपनी मनोदशा का परिचय प्राप्त नहीं किया कि वर्तमान में हमारे जीवन की मनोदशा कितनी दूषित है, यह बाहर का प्रदूषण कदाचित् शरीर को नुकसान पहुंचाएगा, प्राणघातक बन जाएगा, कदाचित बीमारियों का आक्रमण होगा, परन्तु यह मन का सारा वातावरण इतना दूषित है कि यह आत्मा के लिए खतरनाक बन जाएगा. आत्मा के लिए पीड़ा का कारण बन जाएगा. ___ बाहर के प्रदूषण से इतना खतरा नहीं,मन के प्रदूषण से है. इस प्रदूषण को कैसे शुद्ध बनाया जाए. साधना का प्रकार इसलिए समझाया जाता है, कि वर्तमान साधना के द्वारा अपने अन्तर जीवन की ऐसी शुद्धि करुं कि जिससे मन का प्रदूषण चला जाए. निर्मल वातावरण आ जाए, आज नहीं तो कल भविष्य में हम स्वयं की आत्मा के दूष्य बनें. ध्यान के द्वारा उस ध्येय को प्राप्त करने वाले बने में अपने लक्ष्य तक पहुंचने वाले बने.
मेरा कार्य क्षेत्र इतना सुन्दर हो कि जिसके परिणाम स्वरूप अपनी आत्मा की प्रसन्नता मझे मिले. कभी वह प्रसन्नता नष्ट न हो जाए. चित्त की प्रसन्नता परमात्मा की भक्ति का प्राण तत्व है. गत रविवार को मैंने जो शाब्दिक प्रहार किया था, आपकी अन्तस्-चेतना को जगाने के लिए, आपको मालूम होगा कि सारा जीवन अंधश्रद्धा से घिरा है. ___ जो परमात्मा नहीं दे सकते, जगत में किसी की ताकत नहीं कि आपको लाकर दे जाए, कृष्ण की द्वारिका नहीं बच पाई और कृष्ण विद्यमान थे. महावीर को साढ़े बारह वर्ष तक परीशह स्वीकार करना पड़ा, कोई प्रतिकार नहीं था. कोई देवता ने आकर के परमात्मा का रक्षण नहीं किया. राम तद्भव मोक्षगामी आत्मा थे. 14 वर्ष का वनवास उनको भोगना पड़ा. पांडवों की क्या स्थिति हुई, इतिहास साक्षी है. महापुरुषों के जीवन में ये सारी घटनाएं घटित हुईं. कर्मों द्वारा उपार्जित जो भी उपसर्ग था भोगना पड़ा, कोई प्रतिकार किसी का चला ही नहीं. ये सारी घटनाएं जब आपके सामने विद्यमान हैं, आप सब जानते हैं और देखते हैं.
सम्पर्क श्रद्धा में आत्मा को स्थिर रखना है, आप सब जानते हैं और देखते हैं. उससे मिलेगा क्या? अपनी श्रद्धा को नष्ट करूं. अपनी पवित्रता को मलिन करूं,पैसे के लिए? यदि मैं परमेश्वर को उपेक्षित करूं. एक बार आप दृढ़ निश्चय करिए. मुझे पैसे के लिए पाप नही करना है, अपनी श्रद्धा बेचकर मुझे जगत प्राप्त नहीं करना है.
गजरात के महामंत्री सम्राट कमार पाल की मृत्यु के बाद नया राजा अजयपाल बड़ा दुराचारी, बड़े दुष्ट प्रवृत्ति का था, जहां पर वह महामंत्री के रूप में आए, उनकी तीन-तीन पीढ़ियों ने राज्य की सेवा में अर्पण किया, बडे विश्वस्त थे. वफादार थे, परन्तु परमात्मा जिनेश्वर की उपासना करने वाले, अनुभव का भण्डार, कुशाग्रबुद्धि वाले, अपनी प्रजा के लिए बहुत कुछ किया. महामंत्री का जैसे ही तिलक लगाकर राजदरबार में उनका आगमन हुआ, मालूम पडा कि उस तिलक द्वारा ये कुमार पाल का व्यक्ति है. क्योंकि कुमार पाल
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%3Dगुरुवाणी:
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र
प्रतिदिन पूजा करने वाला, तीनों समय परमात्मा का दर्शन करने वाला, बड़ी निर्मल आत्मा थी.
लोगों के हृदयपर उसका साम्राज्य था, प्रेम का साम्राज्य था, जो कभी नष्ट होता ही नहीं राम का कैसा प्रेम का साम्राज्य रहा जो आज तक विद्यमान है. लोगों के अतहृदय पर आज भी उनका राज्य है, बाहर से लाए या आए, उसका कोई मतलब नहीं, कोई मूल्य नहीं. जो हृदय में स्मृति बनाकर बना रहे, उसी का मूल्य है. आप देख लेना आहड महामंत्री राजदरबार में कैसे आए, जैसे ही वहां तिलक देखा और भडका. देखते ही उसके अन्दर उसे लगा कि यह कुमार पाल का व्यक्ति है. कदाचित् यहां मेरे राज्य में यह विद्रोह पैदा करेगा. आग की चिनगारी लेकर के आया है, मन में ऐसी भय की कल्पना थी. पहले आदेश उसने दिया कि तिलक मिटा करके आओ, उसके बाद मेरे राजदरबार में तुम आ सकते हो. उसकी बहादुरी देखिए. अस्सी वर्ष की अवस्था थी. वयोवृद्ध व्यक्ति था. पूरा प्रामाणिक अपने जीवन में था. परन्तु प्रभु शासन का अनुराग कैसे रोम-रोम में से परमात्मा की पुकार निकलती थी.
उसने कहा राजन्! मैं आपके काम में पूर्ण वफादार रहूंगा, परन्तु यह मेरा तिलक मेरी श्रद्धा का प्रतीक है. मैंने परमात्मा तीर्थंकर को अपना जीवन अर्पण कर दिया है. उनकी आज्ञा मैंने शिरोधार्य की है, यह उनका मंगल प्रतीक है. यह मैं मिटा नही सकता. राजन् । आप मुझे मिटा सकते है. मेरा तिलक नही मिट सकता.
विचार के अन्दर दृढ़ता थी. ऐसी दृढता आज हमारे अन्दर कहां. भौतिक वस्तु को प्राप्त करने के लिए इन्सान पैसे के लिए प्राण देता है. परमेश्वर के लिए अर्पण करने वाले कितने है?
1945 के अन्दर विश्व युद्ध के पूर्ण होने की तैयारी थी. यह घटना 44 की है. पैंतालीस के अन्दर तो युद्ध समाप्त हो गया. परन्तु 44 के अन्दर एक ऐसी घटना घटी, जापान की राष्ट्रीय भावना का कभी आपने इतिहास नही देखा होगा. घमासान युद्ध चल रहा था. वहां के नागरिक इतने घमासान युद्ध के अन्दर तबाह हो गए. परन्तु वहां कभी समर्पित होने के लिए तैयार नही. प्राण दे देंगे परन्तु समर्पण स्वीकार नहीं.
ऐसी परिस्थिति में जापान की इस दृढ़ता को देखकर ब्रिटिश सेना के कमाण्डरों ने निर्णय कर वहां से क्यून मेरीफो ब्रिटिश जलपोत जल सेना दुर्ग भेजा गया. साउथ एशिया के अन्दर, युद्ध क्षेत्र के अन्दर उसे भेजने का आदेश दिया गया. नंया मनोबल मित्र राष्ट्रों के सैनिको को मिल जाए इस आशय से...
इतना विश्वास था कि चर्चिल जैसे महान कुटिल नीतिज्ञ प्रधान मंत्री ने कहा कि यह ब्रिटिश जलपोत ब्रिटिश सेना का बैकबोन है. हमारी रीड़ की हड्डी है. जगत की कोई ताकत इसको डुबो नहीं सकती. नष्ट नहीं कर सकती. आखिर में जैसे ही युद्ध का जहाज हिन्द महासागर हो करके आया जापान के सैनिकों ने मिल करके मीटिंग किया, क्या किया
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गुरुवाणी:
जाए ? ऐसी भयानक परिस्थिति में यदि जहाज का प्रवेश हो गया. जापान के बन्दरगाह पर अगर जहाज घुस गया, पूरे जापान को इससे नुकसान पहुंचेगा. हमारा मनोबल टूट जाएगा. बड़े बड़े नगर को ध्वस्त कर देगा. हमारी जल सेना को खत्म कर देगा.
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इतनी बड़ी ताकत जल सेना की जापान का एक जमाना था. पूरा साम्राज्य था. समुद्र पर पूरा अधिकार उस राष्ट्र का था. मीटिंग के अन्दर यह निर्णय लिया गया कि उसको तोड़ा किस प्रकार जाए कोई ऐसी ताकत नहीं कि इस जहाज को तोड़ा जाए. इसलिए तो चर्चिल को गर्व था. यह अभेद्य दुर्ग है.
कमाण्डरों ने एक विचार किया कि एक उपाय है, अगर प्राण देने वाले व्यक्ति मिल जाएं और ज्यादा नही चार-पांच एरोप्लेन, उनके अन्दर बम लेकर के जाएं. स्टीमर को अगर लगा देता, टक्कर विस्फोट होगा और भयंकर विस्फोट होगा. इसमें यह स्टीमर निश्चित टूट जाएगा. ऐसे मुझे पच्चीस जवान चाहिए. इस देश में से जो देश कि रक्षा के लिए अपना प्राण दे सकें.
शाम का समय था, वहां के सम्राट को जब जाकर सैनिक कमाण्डर ने कहा, सम्राट ने इस बात को स्वीकार किया, रात्रि के समय घोषणा जापानी रेडियों से कि हमारे राष्ट्र के लिए मात्र पच्चीस जवान चाहिए जो अपनी जान दे सकें. प्रातः काल उनको भर्ती आफिस मे नौ बजे पहुचना है.
जापान के सम्राट का यह आदेश था. सारे जापान के अन्दर यह घोषणा की गई. प्रातः काल जैसे ही भर्ती आफिस में कमाण्डर गया, वह घबरा गया कि अब मै क्या करूं?, पच्चीस हजार जवान लाइन में खड़े थे. देखकर आंख फट गई थी उसकी, विचार में डूब गया कि धन्य हैं. आंसू आ गए, कमाण्डर के कि कैसा हमारा देश ! कैसे हमारे नागरिक ! राष्ट्र के लिए प्राण देने का सौदा चल रहा है. मात्र पच्चीस जवान प्राण देने वाले चाहिए, पच्चीस हजार लड़के खड़े हैं.
क्या किया जाए? बुलाया, समझाया. कोई मानने को तैयार ही नहीं, सब के नाम ले लेकर चिट्ठी निकाली गई जिनका नाम आएगा उनको ही लिया जाएगा. ऐसे जवान उनमें से पसन्द किए गए, बहुत जल्दी में उनको तैयार किया गया कि ऐरोप्लेन के साथ बैठकर और भयंकर बम लेकर के एक साथ एक साथ जा करके जब जहाजों ने अटैक किया और अभेद्य ब्रिटिश जलपोत डुबा दिया गया.
"
ब्रिटेन का सारा गौरव खत्म हो गया, चर्चिल उदास हो गया. विचार में डूब गया, अजब ताकत है इनकी मै यह कई बार सोचा करता हूं एक सामान्य भौतिक राष्ट्र के लिए युद्ध क्षेत्र के अन्दर इतनी प्रसन्नता से जब लोगों ने अपना प्राण दे दिया, आज उस राष्ट्र की चेतना तो देखें. युद्ध में साफ हो गया. ऐसा बरबाद कर दिया हिरोशिमा और नागासाकी पर बम डाला गया कि वह सदियों तक खड़ा न हो सके, उस राष्ट्र की चेतना उसकी
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-गुरुवाणी
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प्रामाणिकता देखिए. आज खड़ा हो गया, खडा हुआ इतना ही नही, जगत के साथ गति से चल रहा है. सब राष्ट्रों से आगे निकलने का उसका प्रयास है. ___ आज देखिए हर तरह से समृद्ध मिलेगा, बौद्धिक दृष्टि से देखिए तो बहुत समृद्ध राष्ट्र है. उनकी उन्नति का कारण देश के प्रति उनका अनुराग, और ऐसा अनुराग परमात्मा के प्रति आ जाए तो अन्तर हृदय का साम्राज्य सहज ही प्राप्त कर ले...
इतना बड़ा महामन्त्री जैसे ही वहां पर राजा का आदेश हुआ, तिलक मिटाकर आओ. अस्सी वर्ष के वयोवृद्ध महामन्त्री ने कहा, राजन! मझे मिटा सकते हैं यह तिलक नही मिट सकता. चेतावनी दी देखो, समझ जाओ, तुम्हारे पूर्वजों ने इस देश की बहुत सेवा की है, ज्यादा विचार करके आओ.
इसमे विचारना क्या है? पहले तो जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा उसके बाद, संसार को देखना है. और उसके बाद मुझे आपको सुनना है. कटे हुए पर नमक डाल दे, कैसी पीड़ा होती है.? राजा के मन में भी ऐसी पीड़ा, ऐसा दर्द पैदा हुआ. दर्द का परिणाम राजा ने आदेश दे दिया कि जिधर सैनिकों के लिए पूरी तली जा रही थी. जिधर वह रसोई बनाई जा रही थी. वहां ले जा करके मन्त्री को बतलाया गया-मन्त्री जी, राजा ने ऐसा आदेश दिया है कि उसका परिणाम आपके सम्मुख हैं. यह तेल की कड़ाही आपने देखी? बहुत बडी कड़ाही है, सैनिकों के लिए पूरी तली जा रही है.
राजा ने आदेश दिया है या तो आप तिलक मिटाएं या इसके अन्दर कूद जाए. विक्रम संवत 1230 की घटना है. महामन्त्रीश्वर ने अरिहते शरण पव्वज्जामि. अरिहंत परमात्मा का समर्पण स्वीकार किया, राजा को धन्यवाद दिया और कहा-राजन, बहुत बड़ा आपका उपकार है, ऐसी जागृत दशा में आपने मुझे मृत्यु देकर इनाम दिया. ऐसा सुन्दर इनाम दिया जिससे कि भविष्य में मैं परमात्मा को पा सकं.
क्या पता मृत्यु किस स्थिति में हो जाए.? क्या पता प्रमाद के अन्दर मृत्यु हो जाए? क्या पता मेरी मौत दुर्घटना में हो जाए? रात्रि में सोता रहूं और मेरे प्राण चले जाएं? बहुत ही सुन्दर मुझे मौका दिया. राजन्, मैं आपका उपकार कभी भूल नही सकूगा.
एक तिलक के लिए अस्सी वर्ष के महामन्त्री ने जो कहा था, करके दिखला दिया, वे भले ही भौतिक-दृष्टि से मर गए, परन्तु इतिहास के अन्दर आज भी ये व्यक्ति जीवित मिलेंगे. कैसी अपूर्व श्रद्धा होगी. अरिहन्ते शरणं पव्वज्जामि. कूद गये उसके अन्दर, प्राण दे दिया, परन्तु अपनी श्रद्धा से चल-विचल नहीं हुये.
ये हमारे पूर्वज थे, परमात्मा के प्रति ऐसी प्रामाणिकता थी. ऐसे हमारे उस जमाने के महान आचार्य, परमात्मा के प्रति और गुरुजनों के प्रति प्रामाणिकता और वफादारी थी, कहने को हम रोज कहते हैं, साहू शरणं पव्वज्जामि. यदि किसी साधु महाराज का आदेश आ जाए, देखा जाएगा. महाराज का आदेश उधार में चलता है. जगत का और परिवार का आदेश रोकड़ में चलता है
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-गुरुवाणी
___ यदि घर में पुत्र का आदेश हो, श्राविका का आदेश मिल जाए कि यह कार्य करना है, जरा भी उपेक्षा नही. कोई मंगल कार्य आ जाए, धर्म कार्य आ जाए, किसी परोपकार में दो पैसा अगर देने का प्रश्न आ जाए, महाराज. जरा विचारेंगे. मैं भी कहता हूं. ऐसे दरिद्रों से क्या लेना, जो पुण्य कार्य को उधार में रखते हों, कल करेंगे. ये मन की मानसिक दरिद्रता के लक्षण हैं. हमारे ऐसे भी पूर्वज थे. जिन्होंने ऐसे महान कार्य किये.
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि जो इस जगत के अन्दर ज्ञान के सूर्य समान थे, ऐसा साहित्य का समुद्र देने वाला एक भी महापुरुष आज तक पैदा नही हआ 2500 वर्षों में. वे सरस्वती के वरद-पुत्र थे, उनकी प्रतिभा अलौकिक थी, और शेर की सन्तान भी शेर जैसी थी. उनके शिष्य रामचन्द्र सूरि विद्वान, महान कवि और इसी सम्राट् अजयपाल ने जिन को लेकर हमारे आहड़ मन्त्री ने तिलक के लिए प्राण अर्पण कर दिया, हमारे रामचन्द्र सूरि महाराज को भी बुलाकर उसने आदेश दिया. जिसको आज्ञा से बाहर निकाला था, जो अनुशासन भंग करने वाला, प्रभु आज्ञा के प्रति द्रोही था बालचन्द्र, हेम चन्द्र सूरि का शिष्य था, परन्तु आचार्य भगवन्त की आज्ञा से बहिष्कृत कर दिया, कि यह अयोग्य और
कुपात्र है.
उनके साथ राजा का ऐसा सुन्दर संबंध था, संबंध को लेकर कुछ प्रलोभन में आकर राजा ने रामचन्द्र सूरि को बुलाया, महान गीतार्थ पुरुष थे, परम पवित्र आचरण था, गुरु आज्ञा को समर्पित थे, बुलाकर के कहा – “बालचन्द्र को आचार्य पद दिया जाए."
रामचन्द्र सूरि ने कहा – “राजन्-मैं स्वीकार नहीं कर सकता. मेरे गुरु का आदेश सर्वोपरि है. मुझ से भले ही ये दीक्षा में बड़े है. विद्वान है, सब कुछ है, पर गुरु आज्ञा का द्रोह तो मैं नहीं कर सकता."
"तुम जानते हो इसका क्या परिणाम होगा?"
“परिणाम क्या? जब दीक्षा ली, संन्यास लिया, सर से कफन साथ में लेकर आया हूं, मौत से साधु डरते नहीं.” गर्जना दी गुरु आज्ञा के प्रति वफादारी थी, जानते थे. इसका परिणाम क्या हो सकता है. आदेश दिया सम्राट अजयपाल ने. यह घटना भी 1230 की है.
उन्होंने कहा - "अगर ये आचार्य पद देने को तैयार नहीं, मेरे आदेश का अगर उल्लंघन करते हैं. इन्हें मौत की सजा दी जाए. किस प्रकार मौत दी जाए वह भी बतला दिया. गर्म-लोहे का तवा, बड़े-बड़े उसमें कील लगे हुए, आग में तपाकर लाल सुर्ख बना दिया. कोई भी चीज उसमें डाल दी जाए तो मोम की तरह पिघल जाए, इतना लाल-सुर्ख किया गया. रामचन्द्र सूरि को वहां लेकर गए.
राजा ने कहा - "आप मेरी आज्ञा मान लें, मैनें जो आदेश दिया है, उसके अनादर का परिणाम सामने देख लें, अगर मान लेते हैं, राज्य गुरु का पद आपको दिया जाएगा. बहुत बड़ा सम्मान मैं आपका करूंगा, मेरे आग्रह से आप इन्हें आचार्य पद दे दें."
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गुरुवाणी
उन्होंने कहा - "मैंने तो अपना जीवन गुरु को सर्मिपत किया है. उनकी आज्ञा का अनादर मेरे इस जीवन में होना संभव है नहीं. राजन्. जो आपको करना हो करें. मेरे अन्दर आपके प्रति कोई दुर्भावना नहीं, यह मेरे कर्म का दोष है, कोई पूर्व-कृत कम उदय में आया है उसका मैं स्वागत करता ह. मैं प्रतिकार करता नहीं, मेरा कोई क्लेश नहीं अपनी साधना के अन्दर मुझे पूर्ण विश्वास है, सदगति प्राप्त होगी, इतना तो मैं निश्चिन्त ह. आप विलम्ब क्यों करते हो.? अपनी आज्ञा का पालन प्रसन्नता से कीजिए."
"सो जाइये इसके अन्दर.” लाल सुर्ख लोहे का तवा. बड़े-बड़े कील लगे हुए. अरिहन्ते शरणं पव्वज्जामि. सदा के लिए सो गये. प्राण अर्पण कर दिया, सारा शरीर जलकर के राख बन गया. ये हमारे पूर्वज, एक परमात्मा के आदेश के लिए इतनी प्रामाणिकता, वफादारी. जीवन अर्पण कर दिया, और शासन के इतिहास में वे अमर हो गये. ऐसा है हमारा इतिहास. __ छ: महीने में राजा की मृत्यु हुई. सारे राज्य के अन्दर अराजकता फैल गई. वह दुष्ट साधु भी मरकर के व्यन्तर बना. दुष्ट प्रकृति का देव बना, क्योंकि चरित्र बल तो था, चरित्र में कोई दोष नही था, उस कारण से गति कुछ अच्छी मिली. पूर्व का द्वेष, पुरे राज्य के अन्दर भयंकर उपद्रव उसने कर दिया, उपद्रव का परिणाम एक-एक घर में लोग मरने लग गए. मौत के मुंह में जाने लग गए, भयंकर बीमारी फैल गई, लोगों में एक प्रकार का भय छा गया, उसके लिए बहुत बड़ा अनुष्ठान किया गया, और प्रार्थना की गई. तब जाकर के उसने अप्रकट रूप से लोगों को यह कहा -- "मैं तभी शान्त हो सकता हूं, मैं बाल चन्द्र हूं, मुझे आचार्य पद नही दिया गया, मेरी इस वासना के कारण, मेरी आत्मा को जो दुखः पहुंचा, उसका यह वर्तमान परिणाम सारे नगर को साफ करके रहूँगा. एक भी व्यक्ति इस नगर में जीवित नहीं रहेगा."
मेरे साथ जो व्यवहार किया गया उसका प्रतिशोध लेकर के रहूंगा. आखिर में जो परिणाम आना था, वही आया, वहां के लोगों ने बहुत सुन्दर अनुष्ठान करके प्रार्थना करके उसे शान्त करने का प्रयास किया. उसके बाद उससे पूछा कि "आपकी अन्तर्कामना क्या है? बतलाइये. इस तरह से निर्दोष व्यक्ति जब मर जाएंगे, इन निर्दोष व्यक्तियों को मारकर के आप क्या प्राप्त करगें. क्या मिलेगा आपको?" ___ उसने कहा – “अगर मेरी एक इच्छा तुम पूरी कर दो, तो मैं ये उपद्रव शान्त कर दूं."
"आपकी इच्छा क्या है?"
“चर्तुदशी के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण में, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में, प्रति चतुर्दशी के दिन मेरे गुरु की बताई हुई अपूर्ण रचना, तीर्थंकरों की स्तुति और प्रार्थना, जो स्त्रोत है, वह जो बोला जाता है चैत्य वन्दन के रूप में, प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पूर्व, अगर मेरी बताई हुई स्तुति तुम बोलो तो मैं शान्त हो जाऊ."
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-गुरुवाणी
उस समय हमारे पूज्यों ने, वहां के संघ ने निर्णय किया. नहीं तो कितने ही व्यक्तियों की मौतें हो जाती, उपद्रव से, अशान्ति से सारे संघ में विक्षोभ हो जाता, उसे शान्त करने के लिए स्वीकार किया कि चलो आज से यह हम निर्णय करते है, और पूरे संध में घोषित करते हैं तुम्हारी बताई हुई स्तुति आज से बोली जाएगी, तब से आज तक नौ सौ वर्ष हो गए, हर चतुर्दशी के दिन सनात्सया की स्तुति बोली जाती है.
“बाल चन्द्राभदंष्ट्रम्” उसी नालायक शिष्य की रचना है, कलिकाल सर्वज्ञ के शिष्य थे, किन्तु आत्मा से बहिष्कृत कर दिया गया, और परिणाम मृत्यु के बाद व्यन्तर मानों में प्रतिशोध की भावना से, संघ के अन्दर जब उपद्रव किया, उसे शान्त करने के लिए संघ ने स्वीकार किया, यह स्तुति आज तक बोली जाती है.
कहने का मतलब, उन आत्माओं की आप प्रामाणिकता देखिए, आज हमारे जीवन की दुर्दशा देखिए, प्रतिक्रमण करें, सामायिक करें, परमात्मा की प्रार्थना करें, परमात्मा के प्रति हमारा विश्वास, हमारा प्रेम और हमारा अनुराग कैसा? वे हमारे पूर्वज थे. परमेश्वर के लिए प्राण देने वाले थे. दो पैसा देना पड़े, तो दस बहाना निकाले. वहा देकर आ जाएंगे. गुप्तदान करके आ जाएंगे. सामने सीना करके देंगे.
आई. टी. ओ. शरणम् पव्वज्जामि.
इन्कम टैक्स आफिस में गए, वहां हमारी दशा देखिए, दो शब्द कड़वा भी कहे तो भी सुन लेंगे, साधु मुनिराज यदि आपके कल्याण के लिए दो शब्द बोलें तो आपसे सहन नहीं होगा. आफिस में सहन होगा, वहां की मार खाकर आ जाएंगे, जगत का अपमान सहन करके आएंगे, इन्कम टैक्स आफिस में अगर आपको चोर कहें तो भी आप आशीर्वाद मानेंगे, यदि साधु आत्म कल्याण के लिए दो शब्द कहे, हमारी गुरु भक्ति, हमारे शासन के अनुराग, आत्मकल्याण की भावना, से दो शब्द कहे, तो भी ये पचा नहीं पाते. यह हमारी दशा है.
सारे जगत के लिए हम सहन करते हैं, परन्तु आत्मा के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं. इस स्थिति में वर्तमान चल रहा है. बात करते हैं मोक्ष की. कभी हमने यह नहीं सोचा कि हमारा वर्तमान किस प्रकार का है. दुराचार से भरा हुआ, अनीति से भरा हुआ यह जीवन कैसे आपको मोक्ष देने वाला बनेगा. आहार पवित्र नहीं तो विचार की पवित्रता कैसे आएगी. द्रव्य शुद्ध नहीं तो भाव शुद्ध कैसे होगा?
आहार की अशुद्धता. आने वाले रविवार को अपने उस पर विचार करेंगे. हमारा आहार कैसा है? और उसका क्या परिणाम आता है? आपको नमूना बतलाऊंगा. आपके जीवन का दर्शन आने वाले रविवार को मिल जाएगा, यह तो मैं उससे पूर्व का परिचय दे रहा हूं कि हमारी वर्तमान में यह अवस्था है, हम धार्मिक बनने का प्रयास करते हैं, इतना सस्ता धार्मिक बनना नहीं है,
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%3Dगुरुवाणी
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- तापवाणा
पाणा
मफतलाल सेठ जैसा व्यक्ति बम्बई के अन्दर किसी उपनगर में रहता था. दो-तीन भाई थे. तथा होशियार. धार्मिक कार्य में भी आगे, बैठने को आगे जगह चाहिए. सम्मान चाहिए, जहां कहीं उपस्थिति का प्रसंग हो तो सम्मान चाहिए. उनका नाम तीन बार लेना पड़ा, उनको नशा चढ़ता. वह कहते कि हां ठीक है. माला पहनाओ और पाकेट लूटो. यह हालत थी, सम्मान मिलना चाहिए.
जगत का अपमान सहन करने वाला हमारे यहां सम्मान की इच्छा रखता है. परमात्मा के दरबार में सम्मान की अपेक्षा, यह तो ठीक है. लोग अनुमोदना के लिए कुछ भी करें परन्तु मन में तो सोचना चाहिए. हमारी क्या स्थिति है? आप विचार कर लीजिए, वहां उनका भी ऐसा ही था. व्याख्यान में आते, प्रतिक्रमण में आते, व्यवहार से आना पडता क्योंकि अग्रगण्य थे. तीनों आकर के आगे बैठा करते. त्रिपुटी थी, अब ये तीनों वहां पर आते, परन्तु उनका जीवन देखना हो तो घृणा उत्पन्न हो जाए.
इतना बड़ा शानदार बंगला बनाया, बड़े अलग तरीके से मकान को रंग करता था. पूरे बम्बई जैसे शहर से हर रोज एक व्यक्ति आकर कहता रंग करना है? कैसा करोगे? जरा नमूना दिखाओ. अब वह नमूना दिखाने के लिए रंग करने वाला बेचारा बड़ी मेहनत करता, ताकि सेठ पूरे बंगले का कोंन्ट्रेक्ट मुझे दे दें. लाभ की दृष्टि से बेचारा श्रम करता शाम को तीनों गाड़ी में आते. बाघमल जी अन्दर आकर देखते और कारीगरों से कहते क्या तुझको रंगना आता है? मकान बिगाड़ दिया. सारा पालिश बिगाड़ दिया, पालिश करना सीख कर आओ, फिर तुम्हे कान्ट्रेक्ट दिया जाएगा. शाम को विदाई कर देते, नमूने नमूने में पूरा बंगला रंगवा लिया. एक पैसा गांठ का नही लगा. ___ बड़े होशियार बडे चालाक, सारा काम इसी तरह से करवाते, फिर धार्मिक कहलाने में पहले नम्बर, बरोबर पर्युषण में आगमन हुआ. एक महीना पहले से मारवाड़ का कोई सहधर्मी भाई गया होगा. हम बात तो करते हैं, सहधर्मी, बन्धुओं की, जब प्रसंग आता है. मैंने दो रविवार तक आपको परिचय दिया, जरा हृदय में विचार आया कि मेरा यह पर्युषण सफल बन जाए. मैं किसी एक भाई को ऐसा खडा करूं, मैं किसी भाई के अन्दर अपनत्व की भावना पैदा करूं. उस आत्मा को कुछ देकर आत्म संतोष अनुभव करूं, ऐसी भावना आज तक पैदा नहीं हुई.
मेरा भाई मेरे से भी आगे बढ़े, कैसे हमारे पूर्वजों ने सहधर्मी बन्धुओं की पूजा की है. किस प्रकार की भक्ति की है? आपको कहा, बम्बई का परिचय दिया, आज के लोग किस प्रकार जीवन जी रहे हैं. यह परमेश्वर की भक्ति है. संघ की सेवा परमात्मा की सेवा है. दीन-दुखी आत्माओं की भक्ति वह जिनेश्वर भगवान की भक्ति है. अपने हृदय की करुणा का उसके द्वारा रक्षण किया जाता है. आत्मा का सुन्दर विकास किया जाता है देकर के हम स्वयं में कुछ पाते हैं. देकर के कुछ खाते में नहीं पाते हैं,
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-गुरुवाणी
आज तक मन में वह बात आई नही. दूंगा तो लुट जाएगा, जो ऐसा विचारता है वह । आज नहीं तो कल लुटने ही वाला है. हमारे धर्म बिन्दु ग्रंथ में जिसका चिन्तन चलता हैं उन्होंने कहा-कोई लक्ष्मी की पूजा करने की जरूरत नहीं. कोई देवी-देवताओं की मान्यता की जरूरत नहीं, तुम्हारी उदारता तुम्हारे अन्तराय कर्म को क्षय कर देगी. सारी दीवार टूट जाएगी रुकावट की, बिना निमन्त्रण लक्ष्मी आपके द्वार पर आए, वह उपाय बतलाया गया-दान.
दान की रुचि चली गई. दान भी देना तो प्रकट देना, प्राण चला जाए, डेड बोडी रह जाए. मैंने दिया वह गप्त दान कैसा? जिसमें सुगन्ध मिले गप्त दान मोक्ष का दान माना गया, वह देने की रुचि आज कहां रही.
सेठ मफतलाल दिल्ली से देवलोक में गए और डैपुटेशन लेकर के गए. वहां जाकर शिकायत की कि सन्त झूठ बोलते हैं. उनको कोई धन्धा नहीं, वे यही बात किया करते हैं दान दो, सुखी बनोगे. वे बार-बार कहते है कि देव लोक में कुछ भी नहीं, मनुष्य भव में ही सब कुछ हैं. मनुष्य जन्म ही मोक्ष की साधना का परम साधन है, हमारा जीवन आप जानते हैं, कैसा दुखमय बना है, सुबह से शाम तक पेट की चिन्ता से ही मुक्त नही बनते.
रोज टैन्शन. परिवार का टैन्शन, कमाई का टैन्शन, राजकीय टेन्शन, न जाने कितनी समस्याओं से भरा हुआ हमारा संसार है. सुख का तो नाम निशान भी नही रहा. स्लीपिंग टेबलेटस लेकर रात निकालते हैं. दिन को बोलने का नशा चढाकर निकालते हैं. यह हमारे जीवन की दुर्दशा है इसीलिए देव लोक में हम यह शिकायत लेकर आए हैं. साधु-सन्तों का बकना बन्द करवा दें, ये बेकार की बात करते हैं. सब तो देवलोक में देखा जाता है, मैं यह जानने आया हूं कि सुख का रास्ता क्या है? उपाय क्या है? आप इतने सुखी और हम दुखी है. इसका कारण क्या है?
इन्द्र महाराज ने कहा-आप बहुत दूर से आए हैं, भोजन आदि ग्रहण करें, उसके बाद शान्ति से आपके प्रश्न का उत्तर दूंगा, एक शिष्टाचार तो है ही भोजन का समय हो गया था. ले गए अन्दर डायनिंग टेबल लगा था. बडी सुन्दर भोजन की सामग्री रखी थी. देवताओं को वहां क्या कमी थी?, सुख के वैभव को क्या दुष्काल था? वहां भोजन के लिए सब बैठ गए, देवता भी अपने चैम्बर में गए, मफत लाल भी बैठ गए.
जैसे ही भोजन के लिए हाथ लम्बा किया, डिश में हाथ डाला गोलियां लेकर जब मुहं पर लाने लग गए, हाथ सबके स्थिर हो गए, अब गोलियां मुहं मे जाएं नहीं, हाथ वहीं का वहीं अटका रहा, अब वहां लम्बा चौड़ा भाषण चलना शुरू हुआ, मफतलाल ने कहा-ये तो बड़ा गलत किया गया, हमारा अपमान किया गया, हम इतनी दूर से आए. भोजन की थाली पर बैठा करके हमारा इस प्रकार का देवता लोक में अपमान. जाकर के दिल्ली में बड़ी सभा करेंगे, विरोध का प्रस्ताव पास करेंगे, प्रस्ताव यहां पर भेजेंगे, आन्दोलन चलाएंगे, रैली निकालेंगे, नारे लगाएंगे, घरों मे विज्ञापन देंगे, अपमान का बदला
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गुरुवाणी
हम लेकर रहेंगे.
मफतलाल बोलने में तो कम थे नहीं, कहां पैसा लगता है. बड़ा लम्बा चौड़ा भाषण वहां पर चला, आप विचार कर लीजिए, खाली तपेला होता है तो आवाज बहुत आएगा. पेट भूखा था तो भौकनें मे कोई कमी रखी नहीं समय पूरा हुआ इन्द्र महाराज ने अपने दूत को भेजा बुलाकर लाओ, दरबार में हाजिर करो.
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दूत आए और कहा- सभा का समय शुरू हो रहा है, अब चलो, वे बेचारे एक तो भूखे, इतना लम्बा चौड़ा भाषण दिया हुआ गए वहां पर सभा में बैठे तो चेहरा देखने जैसा,
इन्द्र महाराज ने कहा- आपके प्रश्न का उत्तर आपको मिल गया? क्या उत्तर मिला ? अपमान किया, भोजन की थाली में बैठाकर भूखे रहे. कम अपमान है ?
इन्द्र महाराज ने कहा- देवताओं के साथ भी ऐसा व्यवहार किया गया, उनसे पूछिए भूखे आए या खाकर आए.
देवताओं ने कहा- महाराज हम तो पेट भरकर आए, तृप्त होकर आए एकदम पूर्ण होकर आए जरा भी भूख नहीं.
मफतलाल ने कहा- आपके हाथ जब सीधे कर दिए, स्तभित हो गया, आप भोजन कैसे किए ?
अरे, तुम जानते नही ? तुम्हारे में इतनी अकल नहीं, सीख लो हाथ सीधे हमारे मुंह में नहीं गए, हमने दूसरे के मुंह मे डाला, दूसरे ने मेरे मुंह में डाला, बस इतनी सी बात थी. न हमने भाषण दिया, न ठहराव पास किया, न चकचक किया, हमने तो खिलाना शुरू किया तो खिलाने वाले मुझे भी मिल गए पेट भरकर आराम से खाए तुम किसी के मुंह में डाले नहीं तो तुम्हारे मुहं में डालेगा कौन ?
प्रकृति का नियम है गिव एन्ड टेक. आप देंगे आप को मिलेगा, अगर आप दान देते है तो कुदरत आपको देगा. उन्होंने कहा- देवताओं के सुखी होने का यही कारण है. उनकी उदारता. मनुष्यों का दुखी होने का कारण दान की उदारता का अभाव एक पैसा देना नहीं, ये तो बासी पुण्य लेकर आए तो वर्तमान में खा रहे हैं. कोई नई कमाई तो हो नही रही,
आज का दिया हुआ कल मिलेगा, इसमें हमारा विश्वास नहीं. हमारे बागमल जी भी ऐसे ही थे, संयोग से राजस्थान का कोई भाई वहां गया होगा, नौकरी के लिए गया. लोगों ने कहा- अरे भाई वहीं जाओ, वहीं हमेशा वैकेन्सी मिलेगी. महीने की 25 तारीख को आरोप लगाकर नौकर निकाल दिया जाता है, आरोप लगा देते हैं तन्खा कौन दे. रोज ऐसा ही चला.
बेचारा राजस्थान का भाई गया होगा, जाकर के कहा- मुझे नौकरी चाहिए, कहा- रह जाओ. सहधर्मी हो, अपने भाई हो. क्या आता है ? बोला- रसोई बनाना बहुत सुन्दर आता है. बेचारे ने एक महीने तक रसोई बनाकर खिलाई. इतनी स्वाद पूर्ण घर के अंदर शायद
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गुरुवाणी:
ही कोई रसोई बनाता हो. बहुत होशियार रसोई बनाने वाला अपना घर समझकर, परिवार समझकर उसने भक्ति की.
घरवाली की चिट्ठी आई, बम्बई गए हो, दो महीने हो गए, एक पैसा नही भेजा, कहां- दीवाली मनाएं ?, क्या करें ?
वह चिट्ठी लेकर दुकान पर गया, वहां कमल जी के पास पहुंचा, "यथा नामः तथा गुण:" जैसा नाम था वैसे ही गुण, वैसा ही आकृति वेकमल जी, ये वे समझ गए. किसी कारण से आया है.
"
"साहब मेरे घर से चिट्ठी आई है
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कहा
"
“ -- मै क्या करूं? तुम्हारे घर का हमसे क्या मतलब?"
" अरे साहब! कुछ पैसे के लिए आया हूँ?"
"यहां कोई पैसे की बात तो हुई नहीं, तुमने कहा था नौकरी के लिए नौकरी रख दी, खाना मिलता है, पहनने को मिलता है. रहने को मिलता है, बम्बई मे एक आदमी के खाने पर सात सौ आठ सौ का खर्च आता है. रहने का पांच सौ रुपया लगता है, कपड़ा अलग
·
देता हूं, पन्द्रह सौ रुपया नहीना तो तेरा ऐसे ही हो जाता है, तुमको पैसा चाहिए तो दूसरे घर बहुत हैं वहां चले जाओ वह समझ गया नोटिस मिल गई एक टका मिलने का नहीं. " अरे साहब ! घर मे खाएंगे क्या ?"
"वह चिन्ता मैं करूं कि तुम करोगे. घर तुम्हारा या मेरा ?" एकदम साफ जबाव.
·
गुरु महाराज के पास आया कोई साधु महाराज होंगे चातुर्मास में कहा कि महाराज जी. वह रोज आते हैं, आप जरा तो सद्बुद्धि दें, यह गरीब का पैसा पसीना उतार के मैंने पैसा मांगा, मुझे यह गलत जवाब मिला, आप उनको समझाने का प्रयास करिए."
-
महाराज ने कहा- "कोई योग्य व्यक्ति हो, योग्य पात्र हो, तब तो मैं उसको समझाऊं. वह तो ऐसा विचित्र है कि मैंने उपदेश दिया तो मेरा ही उत्थापन कर देंगे. मुझे ही उपदेश
देंगे मेहरबानी करके अब जाने दो, और कोई संघ में कोई ऐसे व्यक्ति हों, योग्य हों,
"
उनको समझाओ तो रास्ता निकलेगा."
"
वह भी बड़ा होशियार कि "महाराज! वसूल करना तो मुझे भी आता है, तो भई, जैसी इच्छा तुम्हारी पर्युषण का दिन आया और पहला ही दिन था, वहां पर प्रतिक्रमण के लिए वह भी आया, प्रतिक्रमण में आकर बैठ गया, तीनों कमल, बागमल, नवल मल तीनों आकर के बैठे ही हुए थे, पहला ही दिन था पूरा संघ बैठा था, उस समय देखा कि इनका अभी फोटो उतारा जाए तो काम हो जाएगा.
महाराज के किए बेचारे नए थे, उनको कोई परिचय नही था. गांव में नए आए थे, वो रसोईया बोला भहाराज स्तुति बोलने का आदेश देना, बोलना प्रतिक्रमण में स्तुति बोली
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- गुरुवाणी
छ
जाती है. महाराज कोई सर्वज्ञ तो थे नहीं कि मालूम पड़ जाए क्या बोलेगा? जैसे ही वहां प्रतिक्रमण प्रारम्भ हुआ, और स्तुति बोलने का समय आया.
महाराज ने कहा - "नमोअरिहंताणं" गांव वाला खड़ा था उसने कहा – “नमो अरिहंताणं प्रतिक्रमण में परमात्मा की स्तुति बोली जाती है, अब वह व्यक्ति रसोइया था, धर्म से परमात्मा का उपासक था, खड़ा हुआ और कहा
त्रिपुति बन्धु राधु दाल भात ने साग वली कुण-कुण जीने हंस नवल ने बाग
बदी-बदियों घटियों, साधु जीनो भाग. यहां पसीना छूट गया, तीनों भाइयों को, ये तो हमारी इज्जत गई. इतने भाइयों के बीच में. मुनीम को बुलाया और कहा – “इनको पैसा दो. जो मांगे वही दो, और यहां से रवाना करो.” मुनीम गया कि मेरे सेठ की इज्जत तो रखे, अरे दूसरी तीसरी स्तुति बाकी ही है.
मेहरबानी करो, बेचारा पांव में गिर गया कि इज्जत का सवाल है. मैं सेठ का मुनीम हूं, तुम मांगो वह देने को तैयार हूं. बैठाया गाड़ी में, घर पर ले गया. दिया पांच हजार एक हजार आने जाने का भाडा, और ऊपर से-कहा जो चाहिए और दिल्ली की गाड़ी में बैठा दिया कि तुम को जहां जाना हो जाओ.
क्या दशा हुई, देना तो पड़ा यह हमारी परिस्थिति है. ज्ञानियों ने कहा-हर व्यक्ति मानसिक दरिद्रता से पीड़ित है, जब तक यह उदारता का गुण नही आएगा, वहां तक हम अपने जीवन का आनंद कभी प्राप्त नही कर पाएंगे. वहां तक जीवन का यह मधुर संगीत हम सुन नही पाएंगे. यहां तो परमात्मा ने कहा, पहले ही जीवन में उदारता चाहिए. क्या हम अर्पण करते हैं? बिना अर्पण के आत्मा को तप्ति कभी मिलने वाली नहीं. वह अर्पण की भावना आज कहां है?
दो पैसा देने का सवाल आता है, दस बहाना निकाल देंगे. तुरन्त चेहरा उदास बनता है, प्रसन्नता, परन्तु अर्पण में रुदन. देना पड़े तो हमारी लाचारी, बड़ी मजबूरी बनती है, जब देने में प्रसन्नता आ जाए तो ज्ञानियों ने कहा-वह मोक्ष का जन्म स्थान बन जाए. जीवन का नव निर्माण हो जाए. ऐसी परिस्थिति का निर्माण अपने में करना है. अपने जीवन का इस प्रकार सर्जन अपने को करना है.
दो तीन रविवार से हम इसी विषय को लेकर चल रहे हैं, कल मुझे जाना है और जाने से पहले ही ये कार्य अपने को कर लेना है, नही तो मन में एक प्रकार का असन्तोष रह जाएगा, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, यह हमारा पुरूषार्थ सफल बने, वरदान बने, यह समझ करके कार्य करिये तब तो आनंद आयेगा.
मैंने गत रविवार को कहा-पैसे के लिए हम कितना बड़ा अंधविश्वास लेकर के चलते हैं, मिलता क्या है? कुछ नहीं, सिवाय कर्म बन्धन के. इच्छा और तृष्णा से सिवाय कर्म
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गुरुवाणी
बन्धन के
कुछ नही मिलता, तो जीवन के अन्दर यह उदारता अपने को प्राप्त करनी है. आने वाले रविवार के दिन, पर्युषण से पूर्व का रविवार के दिन एक ऐसे महापुरुष का गुणानुभाव करना है, जिसने इस समाज के लिए बहुत कुछ किया, और उसको हम भूल गये, आज से सौ वर्ष पहले आत्माराम जी का जब धर्म साम्राज्य था, उस समय पर चिकागों के अन्दर बर्ड रिलिजियस कांफ्रेस रखा गया. जहां कान्फ्रेंस रखा गया, उस कान्फ्रेंस के अन्दर स्वामी विवेकानन्द भी गये थे. हालांकि उस समय उनको आमन्त्रण नही मिला था, अमेरिका जाने के कारण, लोकचर्चा के कारण वहां के स्थानिक लोगों के आग्रह पर उनको समय दिया गया परन्तु बी. आर. गांधी जो बेरिस्टर थे, महुआ के थे, गुजरात के थे, बड़े माने हुए बुद्धिशाली और सज्जन श्रावक थे. जिन्होंने शत्रुन्जय तीर्थ का केस भी लिया. वहां के ठाकुर के साथ एक अन्याय का युद्ध चल रहा था, जैसे आज तो कई जगह चल रहे हैं. धर्म के नाम से अधर्म चलाना, यह आज हमारा धन्धा हो गया है. फिर साहूकारी हम बताते हैं. नाम के लिए जैन कहलाते हैं और जैनत्व का नामोनिशान नहीं होता. कई गिनने वाले मिलेंगे, खाने वाले मिलेंगे और कहलाने को जैन कहला लेंगे, जब ऐसा प्रसंग आ जाए, नेतागिरी का प्रसंग आ जाए, आगे आने का प्रसंग आ जाए, तो आगे आ जाएंगे.
बी. आर. गांधी जो बैरिटर थे, आत्माराम जीव को जब वहां आने का आमन्त्रण मिला, उन्होंने आमन्त्रण का जवाब दिया. साधु मर्यादा होने के कारण हम विदेश यात्रा नहीं कर पाएंगे, हमारी मर्यादाएं हैं, परन्तु यदि आप अनुकूल होते हों तो एक प्रतिनिधि के रूप में किसी गृहस्थ को हम भेज सकते हैं.
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उसी के लिए बी. आर. गांधी को बुलाकर आत्माराम जी ने जैन दर्शन का परिचय दिया, जैन तत्व को सिखाया, जिस तरह से जा करके परमात्मा के दर्शन की पुष्टि करली, वह सारा आत्मा राम जीव के पास उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया. अमेरिका गए, कान्फ्रेंस प्रवचन
में उनकी ऐसी धूम मची, वहां के बड़े-बड़े विद्वानों ने उनके प्रवचन को सुनें और सराहा.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम्”
噩
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=गुरुवाणी
वाणी का व्यापार
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परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने, धर्म-बिन्द, द्वारा आत्मा की अनादि कालीन यात्रा का और आत्मा को उस यात्रा में पूर्ण विराम प्राप्त होने का, दोनों प्रकार का उपाय इन सूत्रों के द्वारा बतलाया है. जीवन का संपूर्ण भूतकाल, वर्तमान की सारी परिस्थिति, किस प्रकार भविष्य में पूर्णता को उपलब्ध होना है, ये सभी उपाय इन सूत्रों के द्वारा बतला दिये गये हैं, संपूर्ण परिचय उन्होंने इस कथन के द्वारा कर दिया.
मन, वचन, कर्म के ये ऐसे साधन हैं जिनसे व्यक्ति संसार भी उपार्जन करता है और मोक्ष भी इन्हीं साधनों द्वारा प्राप्त करता है, साधन एक है और साध्य दो. मकान बनाने के लिए जिन साधनों का उपयोग किया जाता है, उन्हीं साधनों का कुआँ खोदने के लिए भी उपयोग किया जाता है. आप देखें साधन एक है जिससे राजमहल, राजप्रासाद भी व्यक्ति निर्माण करता है और कुआँ भी उसी के द्वारा खोदता है. इसी प्रकार हमारे जीवन के अन्दर ये तीन प्रकार के साधन हैं मन, वचन, और कर्म.
ये तीनों ही साधन या तो स्वर्ग का सोपान निर्माण करदें, मोक्ष में पहुँचा कर अपनी यात्रा में आपको विश्राम दे दें, या फिर अगर उपयोग सही तरीके से नही किया गया, तो ये ही साधन अनंत संसार का परिभ्रमण कराने वाले, अर्थात् कुगति के साधन हैं.
मन का उपयोग किस प्रकार होना चाहिए, मेरे अपने शब्दों के अन्दर किस प्रकार का नियन्त्रण आना चाहिए और मेरे आचरण में इस के द्वारा कैसी निर्मलता आनी चाहिए इसका परिचय इन सूत्रों के द्वारा दिया गया है. वाणी के विवेक का दर्शन आपको इनके द्वारा बतलाया गया है.
“सर्वत्र निन्दा संत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषः।" इन सूत्र का आज अन्तिम दिन है. मैंने आपसे कहा क्लेश का जन्म स्थान आपकी वाणी ही है. वाणी पर यदि अंकुश नहीं रहा, नियन्त्रण नही रहा, और यदि इसका इसी प्रकार उपयोग किया गया तो इस उपयोग का परिणाम विनाश को जन्म देने वाला बनता है. वाणी है तो जरा सी, पर इसके गलत उपयोग से जीवन ज्वाला बन जाएगा. किस प्रकार की वाणी होनी चाहिए, उन गुणों का मैने परिचय दिया.
स्तोक, मधुरम्,निपुणं, कार्यपतितं, अतुच्छं।
गर्वरहितम्, पूर्व संकलितम्,धर्म संयुक्तम् ॥ - इनमें मात्र दो पर विचार करना बाकी था. उनमें प्रथम यह कि-पूर्व संकलन करके, पहले से सोच करके मुझे अपनी वाणी का उपयोग करना है. और दूसरे यह कि जो कुछ भी मैं बोलूं वह धर्म संयुक्तम् हो. पूर्व संकलितम् और धर्म संयुक्तम् ये वाणी के दो अन्तिम
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-गुरुवाणी:
गुण हैं. भाषा को परिष्कृत करने वाले हैं. पहले यह सोचकर, विवेक पूर्वक यदि शब्द का प्रयोग किया गया, तो वह आपके लिए हितकारी होगा. उसकी कोई गलत प्रतिक्रिया नहीं होगी. सदभावना में और प्रेम संपादन करने में वह शब्द सहायक बनेगा.
धर्म संयुक्तम्. हमारी प्राय: यह आदत है कि जिस वस्तु की हमें केवल जानकारी न हो, जिसकी गहराई में हम गये न हों, मात्र सुना हुआ हो, केवल शब्दों से परिचय पाया हो, वह वस्तु यदि आपके शब्द होंगे तो वह आत्मा के लिए अनर्थकारी बनेंगे. जिनाज्ञा से विरुद्ध जो शब्द मुझे इष्ट होंगे, वे आत्मा के लिए अनर्थकारी बनेंगे. जिनाज्ञा के विरुद्ध मुझे एक शब्द का भी प्रयोग नहीं करना है, ऐसा दृढ़ संकल्प रहना चाहिए. हमें जिसकी कोई जानकारी नहीं, ज्ञान की अपूर्णता है, उसके अन्दर यदि अजीर्ण आ जाये, प्रदर्शन की भावना आ जाये, तो वह वचन धर्म से युक्त नहीं होगा, यदि भाषा धर्म से मुक्त होगी तो संसार के परिभ्रमण एवं कर्मबन्ध का कारण बन जाएगी.
ज्यादातर लोगों की आदत होती है कि स्वयं जानते नहीं फिर भी बताते हैं. अपना अर्थ अभिप्राय देना इतना सस्ता बन चुका है कि उसका कोई मूल्य ही नहीं रहा. इतने विशाल और गहन तत्व वाली वाणी को सही रूप में जाने बिना, उसकी गहराई में उतरे बिना, यदि परमात्मा के वचनों पर अपना अभिप्राय हम व्यक्त करें तो उस अभिप्राय का क्या मूल्य रहा । कुछ भी नहीं.
यहां निर्देश दिया गया कि धर्म संयुक्तम्. वह वाणी, मेरी भाषा धर्म से युक्त होनी चाहिये, आत्मा के अनूकूल होनी चाहिये, आत्मा के वर्तुल से उस भाषा का जन्म होना चाहिये, तभी उस भाषा का मूल्य होगा और वह भाषा आपके जीवन के लिए हितकारी बनेगी.
यदि भाषा का गुण अच्छी तरह से वाणी और वर्तन में, व्यवहार में आ गया तो आपका जीवन एक अलग प्रकार का होगा. परम तत्व की प्राप्ति में वह जीवन आपका सहायक बन जायेगा. मदद देने वाला बन जायेगा, और उसका यह परिणाम होगा कि व्यक्ति अपनी वाणी के द्वारा अपनी साधना को और पुष्ट करेगा. उसके अन्दर किसी प्रकार का जरा सा भी दुर्भाव नहीं रहेगा, वैर और कटुता की भावना नहीं रहेगी.
सर्वत्र निन्दा संत्यागों निन्दा का परित्याग कर देना आत्मा के आरोग्य को पाने का एक सरल साधन है.
अवर्णवादश्च साधुषु ऐसे सज्जन साधू पुरुषों के विषय में कभी गलत बोलने का प्रयास नहीं करना क्योंकि वह प्रयास कर्म बन्धन का ही मुख्य कारण माना गया है. परन्तु हमारे वर्तमान जीवन में ऐसे ही वातावरण का निर्माण हो गया है, ऐसी गलत बात उत्तेजित करती है. उत्तेजना कर्मबन्धन में डालती है, संसार के बन्धन में उत्तेजना साधु भी देता है पर यह उत्तेजना संसार से हटाकर परमात्मा से जोड़ती है. लोगों को परमात्मा की ओर उन्मुख करना साधु परूषों के जीवन की मर्यादा है. आत्मा के सामने आत्मा को उपस्थित करना, परमात्मा
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-गुरुवाणी
के विचारों से उसको रंग देना, परमात्मा या आत्मा का अनुरागी बनाना, यह साधु पुरूषों का कार्य-क्षेत्र है. ____ मैंने पहले दिन साधु का परिचय दिया था. स्वरूप बताया था कि किस प्रकार का हो, उसकी परिभाषा किस प्रकार की हो ?
साध्नोति स्वपरहितार्थं चेति साधुः।। स्व का कल्याण करे और जगत के कल्याण की कामना करे, वह साधु है. अनेक आत्माओं के हित का चिन्तन करने वाला, उन्हें मार्ग-दर्शन देने वाला, स्वयं सावधान रहने वाला, हमारे यहाँ साधु माना गया है. अलग-अलग बहुत सारे इसके पर्यायवाची शब्द हैं. मौन पूर्वक आत्मा का चिन्तन करने वाला साधु मुनि कहा जाता है. साधना के श्रम के अन्दर रहनेवाला श्रमण भी कहा जाता है. भावों में सज्जनता और कोमलता होने से वह साधु कहलाता है. संसार से जो पूर्ण विरक्त बन गया, वह विरागी भी कहा जाता है. जिस अर्थ में आप लेना चाहें उसी अर्थ में व्याख्या की जा सकती है.
साधु को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए क्योंकि अगर साधु अपनी मर्यादा का उल्लंघन करता है तो वह दुगुना दोषी बनता है. गृहस्थ यदि मोक्ष की यात्रा में जा रहा है तो वह बैलगाड़ी में यात्रा कर रहा है. धीमे-धीमे अपनी गति से जा रहा है. साधु की यात्रा यहाँ पर कही गई है सुपर फास्ट, यदि सुपर फास्ट ट्रेन की दुर्घटना हो जाये, एक्सीडेन्ट हो जाये तो ड्राइवर के जीने की संभावना नहीं रहती. बैलगाडी की दुर्घटना में कभी कोई मरा हो, ऐसा प्रायः सुनने में नहीं आया. .
साधु इतनी तीव्र गति से अपनी साधना में, अपनी उड़ान में जा रहा है कि यदि जरा भी प्रमाद हो गया तो पतन का द्वारा खुला है. निश्चित रूप में उसकी मृत्यु होने वाली है. परन्तु गृहस्थ के लिए ऐसी संभावना कम है, क्योंकि उसकी यात्रा में वैसी गति नहीं है. वह धीमे-धीमे गति कर रहा होता है. कदाचित दुर्घटना हो भी जाये तो केवल विलम्ब हो जायेगा, परन्तु लक्ष्य के प्रति उसकी गति बनी रहेगी. यह बात दूसरी है कि लक्ष्य तक पहुंचना इस वर्तमान में संभव नहीं है.
साधु की गति में अन्तर है, अतः साधु अपनी मर्यादा में रहेगा. परन्तु यदि उसे गृहस्थों का साथ मिल जाये और वह अपनी मनोवृत्ति का पोषण करे तो उस के लिए पतन का द्वार खुला है. आज यही हो रहा है. जहां जिस चीज से साधु को अलिप्त रहना था, यदि उसमें लिप्तता आ जाये. यदि उसके अन्दर संसार की आसक्ति आ जाये. मूर्छा जाग्रत हो जाये, पर-वस्तुओं के संग्रह में यदि रुचि पैदा हो जाये, यदि वह अपने को अनुरागी बनाने में लगा रहे तो उसमें साधुता रहेगी कहां? मैं यदि आपको अपना अनुरागी बनाऊं, दकान परमात्मा की, धन्धा मैं अपना करूं तो यह धोखाधडी होगी. साध पुरुषों का उपदेश जगत में एकरूपता लाने के लिये था. पर आज हमारे अन्दर अनेकता आ गई. कितने संप्रदाय बन गये? कितने मतपंथ तैयार हो गये? हममें अगर प्रामाणिकता होती. मात्र
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गुरुवाणी
परमात्मा वीतराग का यदि उपदेश दिया जाता तो आज यह खंडित स्थिति नहीं रहती. हमारा स्वरूप पूर्ण अखण्ड रूप में मिलता. परन्तु जरा सा ज्ञान प्राप्त हुआ, ज्ञान का अजीर्ण हुआ, तभी अपनी दुकान अलग चला ली..
जब जरा सी उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जैसे ही दो भक्त मिले, अपना पंथ अलग कर लिया. मेरे भी अनुयायी हैं जगत में, ऐसा सोच लिया तो हरेक व्यक्ति को अनुयायी मिल जाते हैं, मार्किट इतना बड़ा है कि ग्राहकों की कमी नहीं है, केवल जरा सा अनुराग पैदा करना पड़ता है पर ऐसा करना हमारे जीवन का सबसे बड़ा पाप होगा. अपराध होगा. साधुओं का कार्य है कि वे परमात्मा का अनुरागी बनायें. जिनेश्वर भगवन्त के राग से ही वीतराग की प्राप्ति होगी. परमात्मा का राग ही मोक्ष का कारण बनेगा. वह संसार से विरक्त कर देगा. सद्गुणों का राग होना चाहिये. परन्तु यहां इतनी संकीर्णता हमारे जीवन में आ गई है, ऐसी संकुचित वासना से हम घिर गये हैं कि अपना ही संप्रदाय चाहिये, गुणों की उपेक्षा होती है और व्यक्ति की अपेक्षा रहती है. यही व्यक्ति मुझे चाहिये, यह अपेक्षा रहती है.
उस व्यक्तिवाद को यदि मैं गुणों की उपेक्षा करके पुष्ट करूं और यह भी मानूं कि मैं तुम्हारा कल्याण करूंगा तो यह कैसे सम्भव है. क्योंकि व्यक्ति जो स्वयं अपूर्ण है, स्वयं छद्मस्थ है, तो ऐसे छद्मस्थ व्यक्ति, अपूर्ण व्यक्ति, आपको कैसे पूर्णता प्रदान कर सकते हैं? आप जरा इसे समझिये क्योंकि यह समझने का विषय है. __ हर व्यक्ति यहां पर अपना अनुरागी पैदा करता है. उसका परिणाम यह कि मुझे मानो, बस मुझे ही नमस्कार करो, मैं ही तुम्हारा कल्याण करूंगा. इस प्रकार हमने तो शब्दों के अर्थ में से भी अनर्थ पैदा कर दिया है. गीता के अन्दर श्री कृष्ण ने कई ऐसे शब्दों का प्रयोग किया, जो सापेक्ष हैं. परन्तु हम उसको समझ नहीं पाये और इसलिए उसका एकदम संकीर्ण साम्प्रदायिक अर्थ कर लिया है. यदि अध्यात्मिक दृष्टि से, महावीर के अनेकान्त पर विचार किया जाये तो पूर्ण रूप से महावीर के अनुकूल श्री कृष्ण के वाक्य आपको मिलेंगे कोई अन्तर नहीं मिलेगा. श्री कृष्ण ने गीता के अन्दर उपदेश देते हुए कहा -
“सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" हे अर्जुन! ये सारे दुनिया भर के जो धर्म हैं उन का तू परित्याग कर दे, और अपने आत्मधर्म में स्वयं को स्थिर कर. यह बडा सुन्दर उपदेश है.
"सर्वधर्मान् परित्यज्य” ये जो बाह्य धर्म हैं, आत्मा से भिन्न जो पौग्लिक धर्म हैं. जो आत्मा के लिए विकार उत्पन्न करने वाले हैं. आत्मा को दुर्गति में ले जाने वाले हैं, उन सभी धर्मों का तू परित्याग कर दे और विशुद्ध आत्मधर्म के अन्दर तू स्थिरता पैदा कर. यह इसका अर्थ है आध्यात्मिक दृष्टि से. परन्तु हमने इसको अलग अर्थ में ले लिया, दुनिया के तो सभी धर्मों का परित्याग कर दे, और मात्र मेरी शरण ग्रहण कर.
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: गुरुवाणी:
हे अर्जुन, मात्र तू मेरी शरण ग्रहण कर मैं तुझे मोक्ष दूंगा. कोई महापुरुष कभी इस प्रकार से कहेंगे? कभी उनके जीवन में अहंकार का दुर्गन्ध आपको मिलेगा ? आप समझ लीजिये, यदि मैं कहूं कि मेरे पास आओ, मेरी शरण ग्रहण करो, मैं तुम्हें सुख शान्ति दूंगा, तुम्हें सम्पन्न बनाऊंगा, अर्थ से परिपूर्ण करूंगा, ऐसा मैं कहूं तो जगत की दृष्टि में मेरे लिए उनका क्या आशय और भाव होगा.
श्री कृष्ण जैसे योगी गीता में इस प्रकार उपदेश दें, कि पुरुष
"सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज”
यहां मां में शब्द का अर्थ केवल आत्मा से है. इस शब्द का उपयोग आत्मा की अपेक्षा से किया गया है, यहां यदि दार्शनिक उलझनों में आप चले जायें और साम्प्रदायिक दृष्टि से अर्थ करें, तो उसका परिणाम क्या होगा ? अनर्थ होगा यह कि दुनिया के जो भी धर्म हैं, उनको तू छोड़ दे, मात्र मेरी शरण ग्रहण कर मैं तुझे मोक्ष दूंगा. क्या कोई महापुरुष ऐसा कभी बोलेंगे? क्या उनके शब्दों में अहम् कि दुर्गन्धि कभी मिलेगी ? कभी नहीं. हमने उन शब्दों को पकड़ लिया और उनके रहस्य अर्थ को एकदम गौण कर दिया है, अपनी दृष्टि से हमने अर्थ संकलित कर लिया. यही अनर्थ का कारण है.
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दुनिया के हरेक धर्म ग्रन्थ में आपको यह चीज मिलेगी, इसीलिये भगवान ने अपनी अनेकान्त दृष्टि दी. उनके अर्थों को समझने के लिए सापेक्ष भाव चाहिए. दोनों प्रकार का दृष्टिकोण होना चाहिये. गीता में और भी बातें बतलाई गई हैं जो बड़ी सुन्दर हैं.
" स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः "
यह महा वाक्य है श्री कृष्ण का अपूर्व चिन्तन है, इसके अन्दर जीवन का निष्कर्ष, तत्व का निचोड़, इस सूत्र के अन्दर है. परन्तु यदि सांप्रदायिक दृष्टि से अर्थ करेंगे तो अनर्थ पैदा होगा. संकीर्णता आ जायेगी. "दुनिया के सभी धर्म बड़े खतरनाक हैं. अपने धर्म के अन्दर ही मरना तुम्हारे लिए श्रेष्ठ होगा." बड़ा सीधा सा शब्द का अर्थ निकलता है. परन्तु यदि रहस्य में आप जायें तो अपूर्व रहस्य आपको जानने को मिलेगा. कितने उत्तम भाव हैं. ये कि जितने भी आत्मा से भिन्न धर्म हैं, पौद्गलिक धर्म हैं, जगत के अन्दर ये जो भी धर्म हैं, वे वासना जनित हैं. हे अर्जुन! वे सभी तुम्हारी आत्मा के लिए खतरनाक हैं, उनसे बचके रहना.
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स्वधर्मे निधनं श्रेयः. आत्म धर्म के अन्दर मृत्यु प्राप्त करना. वही मंगल है. वही श्रेय है. यह बड़ा सुन्दर इसका अर्थ है. जगत के एक-एक धर्म के अन्दर वर्तमान में ऐसी विकृति आ गई है कि हमारी उदारता चली गई. एकदम सांप्रदायिक संकीर्णता हम में आ गयी. हमारे यहां भी यही स्थिति हुई. अनेकान्त की मान्यता को लेकर चलने वाले, अनेकान्त दृष्टि द्वारा जीवन की साधना करने वाले हमारे जैसे साधु सन्तों में यदि विकार आ जाये. हमारे जैसे साधुओं में यदि यह एकान्तिक दृष्टि आ जाये, संकीर्णता आ जाये कि मुझे
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गुरुवाणी
मानो, मैं तुम्हारा कल्याण करूंगा, मैं तुम्हें मोक्ष दूंगा, मात्र मुझे नमस्कार करने से तुम्हारा कल्याण होगा तो यह हमारी संकीर्णता होगी.
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साधु जीवन तो उदारता से परिपूर्ण होता है साधु किसी संप्रदाय में बंधा नहीं रहता, वह तो अपनी व्यवस्था में अनुशासन में रहता है परन्तु उसके जीवन की उदारता ऐसी होती है कि वह सारे जगत के कल्याण को लेकर चलता है. क्या उस आत्मा के वैभव को हम ठोकर मार दें ? संकीर्णता में यदि हम आ जायें, तो उसमें वर्तमान परिणाम आपको मिलेगा. न जाने कितने मत कितने पंथ और एक ही संप्रदाय में अलग-अलग अनुयायी आपको मिलेंगे, सब की भिन्न-भिन्न मान्यता आपको मिलेगी,
जिस गुरुजन का आप पर उपकार हुआ हो, जिस गुरु ने आप पर कृपा की हो, जिसके द्वारा आपने धर्म में प्रवेश पाया हो, दिन में सी बार उस पुण्यशाली आत्मा का स्मरण करें, अपने हृदय में गुरु के रूप को स्थान देने में कोई आपति नहीं, परन्तु जब उसे सामाजिक रूप दे दिया जाये, उसे मुख्य मानकर अन्य सब को गौण कर दिया जाये तो उसका परिणाम कितना खतरनाक होगा? इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता. व्यक्तिगत अनुराग पैदा कर लें और गुणों का अनुराग आप छोड़ दें तो वह आत्मा के लिए खतरनाक बनेगा. इसलिये भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर रूप में कहा
उत्तमगुणानुराओ निवसई जस्स हिययम्मि |
जिसमें उत्तम प्रकार का गुण अनुराग आ जाये. वह व्यक्ति निश्चित रूप से अपना कल्याण कर सकता है. तीर्थंकर पद की प्राप्ति सहज में कर सकता है. गुणों के अनुराग को यह महत्व दिया गया है. यहां सम्प्रदाय विशेष को महत्व नहीं दिया गया. हमारे अन्दर दिन प्रतिदिन यह रोग बढ़ता जा रहा है. न जाने कितने गुरु हो गये. फिर उन गुरुजनों की प्रतिष्ठा, फिर उन गुरुजनों की उपासना यहां तो महावीर की वर्ष में एक बार जयन्ती आती हैं परन्तु हमारे गुरु तो एक नहीं अनेक पैदा होंगे. आप किन-किन व्यक्तियों की जयन्तियों को मनायेंगे ? तीन सौ साठ दिन भी कम पड़ेंगे.
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समय बहुत लम्बा चौड़ा है. यहां तो ऐसे गुरुजनों को भी, जिनका हमारे ऊपर महान उपकार हुआ, हम भूल गये. या फिर अन्तर में वासना आ गई, कामना आ गई कि इसकी जयन्ती मनाओ, पूजा कराओ, मूर्ति रखो, फिर उसी अन्ध मान्यता से हम घिर गये बहुत ही स्पष्ट लगने वाले अलग-अलग सम्प्रदायों में हम बंट गये. एक ही सम्प्रदाय में अलग-अलग साधुओं, अलग-अलग आचार्यों में हम बंट गये. परमात्मा का पूरा शासन आज खण्डित हो गया. इस जीवावस्था में इसका जीर्णोद्धार नहीं किया तो यह इमारत टिकनी बहुत मुश्किल है.
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मेरे जैसे एक नहीं अनेक आयेंगे, आप किस-किस से अनुराग रखेंगे, मैं इसलिए बहुत स्पष्ट कहता हूं, जहां भी जाता हूं, पहले ही सूचना देता हूं जाते समय आशीर्वाद में कहता हूं. अगर मेरा राग रखा तो निश्चित रूप में तुम्हारा पतन होगा. तुम डूब जाओगे. साधु
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गुरुवाणी
ABVE
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का नहीं, साधुता का राग रखना, तुम्हारा कल्याण होगा. कभी व्यक्तिगत राग के अन्दर, कभी व्यक्तिगत मोह के अन्दर आप मत आना. आप मेरे से धर्म प्राप्त करें धन्यवाद. आप मुझे सौ बार याद करें, मैं मना नहीं करता, परन्तु उसे ऐसा रूप दिया जाये जो सार्वजनिक हो, या जो सामाजिक रूप ले ले. व्यक्ति को आप इतना महत्व मत दें. अपने निजी रूप में आप जरूर माने कि धर्म गुरु हैं, उनसे मैंने धर्म प्राप्त किया हैं, जरूर उनका अनुराग रखें, वह आपके लिए आशीर्वाद हैं परन्तु जब उसे आप व्यापक रूप दे देंगे, उसे आप फैलायेंगे तो तीर्थंकर महावीर की वाणी की अवमानना होगी.
अनेक साधु पुरुषों की उपेक्षा हो जायेगी. मुझे ऐसे भी कई मिले, कहा कि महाराज तो बस उन्हीं को मानते हैं, नमस्कार अगर दूसरे को करें तो वह धर्म कैसा? वह शिष्टाचार भी उनके पास नहीं. मैंने उनसे कहा - बड़ी अच्छी बात है, आपका धर्म इतना कमजोर है कि अगर आप मुझे नमस्कार करें और वह धर्म चला जाए? अगर इतना डरपोक आपका धर्म है, इतना कमजोर धर्म है तो याद रखना, यह धर्म आपको कभी मोक्ष नहीं दे सकेगा.
इतना कमजोर कि मुझे नमस्कार करें और वह चला जाये, ऐसे कमजोर धर्म से मुझे कोई मतलब नहीं. मैंने कहा - यदि आपके यहां कोई इन्कम-टैक्स कमिश्नर आ जाए कोई सरकारी अफसर आ जाये और किसी ऐसी परिस्थिति में आपको आना पड़े तो क्या आप उनको नमस्कार न करेंगे? हां महाराज करेंगे. सड़े हुए आदमी को नमस्कार कर सकता है, संसारी आत्माओं को नमस्कार कर सकता है, जो एकदम भ्रष्टाचार का सागर हो, भ्रष्टाचार से भरा हुआ हो, वहां तो हम जाकर नमस्कार कर आयें, वहां गुप्तदान देकर उनकी भक्ति भी कर आयें, उनको लाने ले जाने के लिए दस बार गाड़ी भेजें पर दूसरे साधुओं को नमस्कार भी न करें.
वे आते हों तो उनके स्वागत के लिए तैयार, उनके सम्मान के लिए तैयार, वहां उनका धर्म नहीं जाता? परन्त हमारे जैसे कोई साध रास्ते में मिल जायें और उन्हें हाथ जोड़ें या नमस्कार करें तो उनका धर्म चला जाये. धिक्कार है उनकी ऐसी बुद्धि को, आज यह हमारी आदत हो गई है. यह रोग वायरस की तरह फैलता जा रहा है. बस मुझे ही मानों मैं ही तुम्हारा कल्याण करूंगा. इस भावना से, इस रोग से स्वयं को बचाने का प्रयास करें. मेरा यही कहना है. मेरी यह चीज दुकानदारी न बन जाये. मैं यहां परमात्मा का प्रामाणिक रूप से व्यापार करने वाला न बनं. प्रमाणित रूप से उस का परिचय देने वाला बनूं. अगर मुझ में विकार आ जाये, परमात्मा का नाम गौण करके मैं अपना माल सप्लाई करूं, अपने ही विचार यदि यहां प्रकट करूं और अपने ही अनुयायी बनाऊं, तो प्रथम नम्बर का मैं अपराधी बनता हूं. गुनहगार बनता हूं.
परमात्मा महावीर के शासन की उदारता देखिये, उन्होंने यहां गुणों का अनुराग रखा, व्यक्ति का नहीं. किसी संप्रदाय का नहीं, किसी आचार्य का नहीं.. ऐसे गुण जिस किसी में हों, ऐसी साधुता को मैं वन्दन करता हूं. ऐसे साधु पुरुषों को नमस्कार करता हूं, मेरे
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-कवी
पाणा
चेहरे को नहीं, मेरे कपड़ों को नहीं, वे चाहे लाल या पीला या सफेद हैं, अन्दर का खजाना देखो, अन्दर यदि साधुता है तो सौ बार नमस्कार. बाहर की पैकिंग का, पहनकर के आए कितने ही सुन्दर कपड़ों का, ज्ञानियों की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं होता. ऐसे साधु तो जगत में बहुत सारे भटकते फिरते हैं.
मफतलाल का खेत था और साधु पहुंच गये, चार पांच संन्यासी होंगे बेचारे, वहां गये, गांव में खाना मिला नहीं. संयोग से ऐसा ही समय था, निकलकर रास्ते में गये चार पांच चेले थे, मजा मिल गया, खेत आ गया, गन्ने का खेत था. उन्होंने देखा कि अपनी भूख और प्यास दोनों इससे मिटा लेंगे. अन्दर देखा कि खेत में कोई है या नहीं. ध्यान से देखा तो जाना खेत का कोई रखवाला वहां नहीं था. सोचा मौका अच्छा है. चेलों से कहा जाओ जल्दी से कुछ गन्ने तोड़ लाओ. आराम से खायेंगे. भरपूर रस मिल जायेगा. बेचारे गये अन्दर. गुरु बाहर खड़े रहे, चेले अन्दर गये. गुरु बड़े होशियार थे, नहीं तो मार्केट कैसे चले, आप जैसे ग्राहक कैसे मिलें? कंठी बांधना है, अपना रागी बनाना है. अपने को मानने वाला छोटा सा संप्रदाय बनाकर फिर कहेंगे कि मैं उनकी मान्यता में हूं.
क्या परमात्मा के शासन में या किसी आगम में ऐसी व्यवस्था है. यदि है तो मुझे बतलाइये. अगर मैं भूल करता हूं तो. शब्द का जाल ऐसा कि बेचारे भद्र लोग उस जाल में फंस जाते हैं, उन शब्दों में आ जाते हैं, फिर उसकी बातों में ऐसे रंग आते हैं कि बाकी सब छूट जाता है और वह व्यक्ति वहां मुख्य बन जाता है. संप्रदाय कभी मोक्ष देता है? कोई साधु कभी मोक्ष देता है? क्या किसी साधु की मान्यता से मोक्ष मिलता है? क्या भगवान की वाणी झूठी है?
“कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव" भगवान ने कहा कि क्रोधादि कषायों से मुक्त बनो जिससे आत्मा पूर्ण समत्व में आ जाये. वहीं मोक्ष का कारण है. यहां तो ये साधु रास्ता बतलाने वाले हैं, वे कोई मोक्ष देने का अधिकार नहीं रखते. मेरे पास कोई लाइसेन्स नहीं है जिसे मैं दे दूँ कोई जमाना था. ऐसी मान्यता लोगों में चलती थी.
क्रिश्चियनों के धर्मगुरू पोप वेटिकन नामक सिटी में रहते थे. उस समय दो तीन सौ वर्ष पहले, ऐसी मान्यता चल गई कि पोप में उनके ईश्वर का प्रतिनिधि हैं संसार कि वह चिट्ठी लिखकर दे दे तो तुमको स्वर्ग मिलेगा, यह मान्यता चली. यह ऐतिहासिक सत्य है. इग्लैंड की पार्लियामेन्ट में प्रस्ताव है पर पोप पास करे तभी वह प्रस्ताव पास होता था.
एक वक्त था, जब पोप का बोल बाला था. आज भी दुनिया में सबसे धनाढ्य वही है. तीस लाख की कुर्सी है उनके बैठने की. कहने को वह महात्मा कहलाता है. पर इससे ज्यादा वैभव उनके पास. वह चिट्ठी लिखकर दिया करता था. एक बड़ा होशियार आदमी
समिसन
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-गुरुवाणी
था, मफतलाल जैसा. उसने सोचा इसकी अक्ल ठीक ठिकाने लानी चाहिए. वह किसी कारण से रोम में गया था. वहां घूमते फिरते मालूम पड़ा कि पोप अपने यहाँ वेटिकन सिटी जाने वाला है, उसे भेंट दक्षिणा में लाखों रुपये मिलेंगे, अशर्फी और सोने की मोहरें मिलेंगी.
वह पहले पोप के पास गया. पोप एक सोना-मोहर में चिट्ठी देता था. उसने सोने की दस मोहरें पोप के सामने रखी और कहा कि मुझे स्वर्ग की चिट्ठी चाहिये. आपका आशीर्वाद चाहिये. पोप ने तुरन्त साइन किये और लिखकर दे दिया कि अब दुनिया की कोई ताकत इसे स्वर्ग जाने से नहीं रोक सकती. मेरा आशीर्वाद है और यह पोप की चिट्ठी है. ___ “मैं ईश्वर का प्रतिनिधि हूं यहाँ पर, मेरी सिफारिश कोई ठुकरा नहीं सकता, निश्चिन्त हो जाओ."
अगले दिन अपना माल खजाना लेकर पोप जा रहे थे रात के समय, अपनी बग्घी में बैठकर, रास्ते में वही आदमी अपने साथियों के साथ आया बंन्दूक लेकर और आकर उनको रोक दिया.
"उसने कहा क्या है तुम्हारे पास, कौन हो तुम?"
पोप ने कहा तुम जानते नहीं? दुनिया का सबसे बड़ा धर्माचार्य हूं मैं अपना खजाना लेकर जा रहा हूं. वैटिकन पैलेस, तुम कौन हो ?"
"मैं तुम्हें लूटने के लिए आया हूं. बेवकूफ बना करके जगत को तुमने लूटा है. क्या है तुम्हारे पास ? जो है वह मुझे दे दो. नहीं तो इसका खतरनाक परिणाम भोगना पड़ेगा."
पोप ने पहले तो कहा – “धमकी क्यों दे रहे हो ? याद रखो मेरे साथ इस गलत व्यवहार के परिणाम स्वरूप मरकर नरक में जाओगे. यू विल गो टू हैल."
उसने कहा – “इसीलिए तो एडवांस बुकिंग करवाया है. दस डालर देकर चिट्ठी ली हैं. कह दो तुम्हारी चिट्ठी गलत है. इस साइन का कोई वैल्यू नहीं." पोप क्या बोलते. सारा माल खजाना लेकर वह चला गया. कहा-इसीलिए पहले एक नहीं दस मोहर दिये, चिट्ठी पहले से ही लिखवा ली ताकि मेरे स्वर्ग में जाने में कोई गडबड़ी न रहे. तुम बोल दो मेरी चिट्ठी झूठ है. क्या बोले? स्वयं का साइन किया हुआ, सारा माल ले गया.
यहाँ भी बहुत कुछ चला है. यहाँ के धर्माचार्यों ने भी कुछ कम नहीं किया. जहाँ साधु को मर्यादा का पालन करना था, तप और त्याग से जहाँ परिपूर्ण जीवन होना चाहिये था, वहाँ हमारे जीवन की कैसी दुर्दशा हुई, उसकी साक्षी इतिहास की अनेक घटनाएँ आपकों मिलेगी. वर्तमान में भी हम देख रहे हैं. कहलाने को पूरा साधु कहलाये पर दुनिया भर के ऐशो आराम पाते हैं, मौज करते हैं. दुनिया भरके भौतिक साधन जब पास में हैं तो त्याग कहाँ रहा ?
मफतलाल के खेत के बाहर बाबा जी खड़े थे. तभी उन्होंने चार पांच चेलों को भेज दिया था, गन्ने तोड़ने के लिए. बेचारे चेले अन्दर गये और गन्नों को तोड़ने में लग गये.
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-गुरुवाणी
थोडा समय ही हुआ था कि मफतलाल अपने साथियों के साथ खेत पर लौटा. खेत बहुत बड़ा था, जैसे ही सामने से आया तो बाबा जी ने उसे देखा. सोचने लगा कि, अन्दर जो लोग गए हुए हैं, उनका इसको मालूम पड़ गया तो अनर्थ हो जायेगा.
अब बाबा जी द्विअर्थी शब्द का प्रयोग करने लग गए, बड़े होशियार, बड़े चालाक थे वे. हमारे यहाँ भी कई भक्त आपको मिलेंगे जो द्विअर्थी शब्द का प्रयोग करते हैं, ताकि परमात्मा का माल भी आपको नजर आ जाए, और खुद का माल भी सप्लाई हो जाए, चाहेंगे कि लोग उनके अनुरागी बन जायें
बाबा जी ने देखा कि अब मेरी पिटाई करेगा. यह चेहरे से भी रुद्र लग रहा है. पुण्य प्रकृति का नजर नहीं आ रहा है. मफतलाल सामने से आया. बाबा जी बाहर चौकीदारी में खड़े थे, अन्दर चेलों को सावधान करने के लिए जोर से बोले.
सन्त पकड़ लो, आ गए गेरुवाधारी, अरे भाई सन्त को पकड़ो. गेरुवा वस्त्र पहने हुए, ये वैराग्य का सन्देश देने लिए तुम्हारे सामने आये हैं, तुम सन्त को पकड़ो. सन्त का आश्रय लो. सन्त के चरणो में समर्पित हो जाओ तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा. मफतलाल को उपदेश देने लग गए, अन्दर से साधुओं को इशारा कर दिया कि घूम फिर करके मेरे को आकर पकड़ लो तो सुरक्षित हो जाओगे. अन्दर रहना ठीक नही है, खतरा है. ___ बेचारे वे तब भी आये नहीं. वे गन्ना काटने में ही मस्त रहे. गुरु जी घबराये, पसीना छूटने लगा. इनको कहां तक उपदेश देता रहूँ,
सामने मफतलाल हाथ जोडकर खड़ा था. कहा, अरे भई सन्तों का आश्रय लो, सन्तों को पकडो. तो इस भव की पीडा से बच जाओगे. चेले फिर भी निकले नहीं. नहीं निकलने का परिणाम वे जानते थे. क्या होने वाला है. बाबा जी ने आगे उपदेश लम्बा किया और कहा
लम्बे हो तो छोटे कर लो, कर लो, गुप्तधारी सन्त पकड़लो आ गए गेरुवाधारी. मन में समझ गए गन्ने लम्बे हैं, काट तो लिया पर लाने में तकलीफ है, कैसे उन्हें लाना है? उसका उपाय बतला दिया.
लम्बे हो तो छोटे कर लो गुप्तधारी.
चेलो से कह दिया लम्बे हैं तो काट कर छोटे बना लो, गठरी बांध कर के गुप्त रूप से ले आओ, मुझे पकड़ लो तो तुम बच जाओगे.
मफतलाल को कहा अरे भाई, तुम देखते नहीं संसार तो बहुत लम्बा चौड़ा है. वह छोटा होता है, उस लम्बे चौड़े संसार को अगर काट कर छोटा बना लो, पर इसके लिए इन्द्रियों को गुप्त करना पड़ेगा. गुप्तेन्द्रिय होनी चाहिए. तब संसार जो लम्बा है, वह छोटा होता है, साधु सन्तों का कहना है कि अपने संसार को छोटा बना लो, नहीं तो लम्बे संसार में कहा तक भटकोगे. अपना यह उपदेश दे रहे थे वे लगातार.
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-गुरुवाणी
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मफतलाल को भी संभाल कर रखा, और अपने चेलों का भी ध्यान रखा, एक तीर से दो शिकार कर रहे थे. फिर भी चेले बाहर नही आये. अब बाबा जी घबराये कि आज तो मुश्किल पूरी है. तब बाबा जी ने आगे बढ़कर के कहा
"चरमदास की मार पडेंगी, पूजा होसी थारी",
बाबा जी ने साफ कह दिया कि अब भी नही निकले तो चरमदास याने चमड़े की जूते से अच्छी मार पड़ेगी. जल्दी आ जाओ, मेरे पास आ जाओ तो रक्षण मिल जाएगा.
मफतलाल ने कहा जो उनके सामने ही खड़ा था, क्या सुनता है, समझता है मेरी बात ? अगर साधु सन्तों के शब्दों को नही सुना, अमल में नही लाया तो कर्म राजा चमड़े के जूते से तुम्हारी मरम्मत करेगा. इस प्रकार इधर इसको भी संभाल के रखा. अपनी बात बराबर जमा के रखी, उधर चेलों को भी सावधान किया. पर चेले, पता नहीं किस काम में लगे थे, आये ही नहीं.
बाबा जी का रक्तचाप बढ़ गया, पसीना भी छूटने लगा, सोचा कि चेलों को छोड़कर यहाँ से कैसे जाऊँ? जाता हूँ तो भी समस्या, उधर चेले विचार में पड़ गये कि आएं कैसे? गन्ना काटा हुआ है, चोरी किया हुआ है, यह चोरी का माल पास में है, अब कैसे बाबा जी के पास जाएँ ? बाबा जी बार-बार इशारा कर रहे हैं, मेरे पास आ जाओ. इधर बाबा जी से जब नही रहा गया तो उपदेश देकर उन्होंने चारों तरफ देखा. चेले कहीं दीख नही रहे थे. खोपड़ी भी नजर नही आ रही थी. बाबा जी ने साफ कह दिया फिर
“अन्दर पूजा थारी होसी, बाहर होसी मारी, सन्त पकड़ लो सन्त पकड़ लो, आये गेरुवाधारी"
अब कोई उपाय नही रहा, तब बाबा जी ने देखा एक रास्ता बच गया है, चेलों को बतला दूं , चेले भी बच जाएंगे और मैं भी निकल जाऊंगा.
मफतलाल से कहा – “सेठ संसार तो बहुत लम्बा-चौड़ा हैं, कहां तक इस संसार में खेती करते रहोगे, कहां तक यों उपार्जन करके पेट भरते रहोगे?" _ "राम नाम को रटकर चेले, टप जा परली क्यारी." राम नाम का रटन करके बैक साइड से पिछली ओर से निकल जाना. मैं भी उस तरफ आता हूं. इशारा कर दिया, रास्ता बतला दिया. मफतलाल से कहा कि संसार की क्यारी को टपने के लिए राम नाम का सहारा चाहिए, उसके सहारे संसार से पार उतर जाओगे. यह कहकर बाबा जी चलते बने.
कहने का मतलब यह है कि उपदेश देने का भी एक तरीका होता हैं. यदि इस प्रकार चालाकी की जाए और परमात्मा के विचार के साथ यदि खेला जाए तो क्या परिणाम आएगा. अपनी स्वयं की आत्मा के लिए यह कितना खतरनाक हो जाएगा. कोई व्यक्ति कभी किसी का कल्याण नही कर सकता. व्यक्तिगत अनुराग कई बार पतन का कारण बनता हैं. इसीलिए सूत्रकार ने कहा कि साधुता का राग चाहिए, साधु का नहीं. यदि उसके
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-गुरुवाणी -
प्रतिनिधियों को ही लेकर मान्यता दे देंगे तो मिलेगा क्या ? लाइसेंस देने का अधिकार तो क्लर्क के पास हैं परन्तु आप यदि क्लर्क को माला पहनाएं और फल नैवैद्य रखे तो क्या होगा ? क्लर्क की क्या ताकत कि साइन करके आपको लाइसेंस दे दे. आपको मोक्ष देने का अधिकार तो मात्र परमात्मा का हैं, उनकी आराधना का है, ये पुण्य प्रभाव हैं. हमारा काम तो कार्य में सहयोग देने का है, मोक्ष देने का नहीं,
समय बदल चुका है. साम्प्रदायिक फूट का वक्त लद गया है. कितने मत, कितने पंथ बन गए हैं. संसार के जंगल के अन्दर जरूरत क्या थी इनकी ? कोई जरूरत नहीं थी. पवित्रता एक पक्षीय बन गई है. दूसरे साधु-सन्तों के पास जाने में भी हम सोच विचार करते हैं. मेरा धर्म चला जाएगा, मेरी पवित्रता चली जाएगी, हम ऐसा सोचते हैं. जहां त्याग है, जहां वैराग्य है, जहां विचारों में पवित्रता है, जहां आचार में शुद्धता है, शुद्ध आचार का पालन हैं, वहां साधुता का गुण नजर आयेगा. हमें इस गुण से अनुराग करना चाहिए.
जहां आत्मा में गुण नजर आए, वहां मुझे वन्दन करना हैं. नमस्कार करना हैं. गुणों से मझे अनुराग चाहिए. व्यक्तिगत अनुराग के जाल में हमें नहीं पड़ना चाहिए, जिससे हमारी यह स्थिति हुई है. हम कमजोर हो गए. वह देखो, वह करो उसे मत देखो, उसे मत करो, ऐसा गुणों अवगुणों के प्रति न होकर व्यक्ति के प्रति हो गया है. साधु होकर पण्डित होकर भी यदि यह रोग न गया तो क्या किया जाए.
बहुत बड़े पण्डित, समझदार पण्डित, काशी से पढ़कर आए. दोनों ब्राहमण थे. बड़े दार्शनिक थे. दोनों में अच्छी मित्रता थी. दोनों साथ-साथ पैदल यात्रा कर रहे थे. पर दोनों के मन में एक रोग था, वे एक दूसरे की निन्दा करते थे, केवल मौका मिलना चाहिए. __ संयोग से एक गांव में आए. मफतलाल का नियम था कि रोज ब्राह्मण की पूजा करके रोटी खाता. उस दिन मफतलाल को कोई मिला नही था कि उसे ये दोनों आते नजर आए. यात्री बनकर आए थे, काशी से पढकर आए थे. जैसे ही इन ब्राह्मण पुरुषों को उसने देखा त्रन्त नत मस्तक हो गया. बोला, आज तो धन्य भाग्य, सुबह से प्रतीक्षा में था कि कोई महापुरुष आए और मेरा घर पवित्र कर जाए उतम कोटि के ब्राह्मण हैं. ब्रह्मजानाति इति ब्राह्मणः. ब्रह्म को जानने वाला, आत्मा के अनुसार आचरण करने वाला ही ब्राह्मण कहलाता है.'
मफतलाल दोनों को घर ले गया. अच्छी तरह से सम्मान पर्वक स्थान दिया भोजन के लिए उचित प्रबन्ध करके, कहा आप स्नान संध्या करिए. स्नान संध्या के बाद भोजन के लिए पधारिए, उसके बाद जो योग्य दक्षिणा होगी वह आपको दूंगा.
बाथरूम एक था. पहले एक पंडित स्नान करने गया, मफतलाल बड़ा होशियार था. उसने प्रश्न करके देखना चाहा कि उसकी पंडिताई कैसी है ? कितने कैरेट की है ?
पूछा-पण्डित जी! कहाँ से आए?
न
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गुरुवाणी
कहा
"काशी से. "
पूछा
"आप तो महा विद्वान् होंगे ?"
कहा " षट् - दर्शन का आचार्य हूँ. न्याय का आचार्य हूं. कोई ऐसा विषय नहीं जिसका मैंने अभ्यास न किया हो, जो मैने न पढ़ा हो. कोई सबजेक्ट बाकी नहीं बचा जो बेपढा रह गया हो.
पूछा
" आपके साथ जो पंडित आए हैं वे कैसे हैं?"
कहा
"बिल्कुल गधा जैसा है. अकल तो है ही नहीं. पण्डित बन गया है. है. कुछ भी नहीं आता". उसके मन में ईर्ष्या की आग थी. ऊपर से एकता की बात करने वाले और अन्दर से इस प्रकार की अनेकता और भिन्नता रखने वाले ऐसे मायावी व्यक्तियों को आप क्या कहेंगे ? वर्तमान संसार में ज्यादातर आपको ये ही नजर आएंगे बात धर्म के नाम से करते हैं जबकि उनका सारा जीवन अधर्म से ही भरा है. ऊपर से एकता की बात करते हैं पर अन्दर एकता को काटने वाली कैंची लेकर बैठे हैं. महावीर के नाम को बदनाम करने वाले, हमारे धर्म को नष्ट करने वाले, हमारी सारी पवित्रता मिटाने वाले, तथाकथित ऐसे धार्मिक नेता प्रायः आज मिलेंगे जिनका जीवन और आचरण कुछ भी शुद्ध नहीं है.
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मैं बम्बई में था. एक व्यक्ति ने आकर मुझे फोटो ग्राफ दिखलाया कहा- देखिये, हमारा अधिवेशन हुआ, बहुत बड़ा अधिवेशन था. इस अधिवेशन में राष्ट्र के कई नेता भी आए. जितनी मूर्तियॉ स्टेज पर बैठी थी, मैं सबसे परिचित था.
बम्बई में ऐसा कोई व्यक्ति नही होगा, समाज का या बाहर का जिससे प्रायः परिचय न हो. सबको जानता था. उसने बड़ी बढ़ाकर बात की एकता की चर्चा छोड़कर कहने लगा कि संवत्सरी एकता होनी चाहिए. अन्य बातों एवं विषयों में भी एकरूपता आनी चाहिए. उसकी सारी बातें मैने बड़े ध्यान से सुनी.
बोलने वाला व्यक्ति बड़ा चालाक था. वह जानना चाहता था कि महाराज मेरी बात से पूर्ण सहमत हैं या नहीं ? मुझे पूर्ण संतोष है. यों सारी बात सुनाने के बाद उसने मुझसे कहा
महाराज जी मैं चाहता हूँ कि इसमें मुझे आपका आशीर्वाद मिले. मैंने कहा- मैं साधु हॅू. लाचार हूँ. श्राप दे नही सकता. परन्तु इसमें से एक भी मूर्ति आशीर्वाद की पात्र नही है. आप जानते हैं. नहीं जानते हो तो बता दूं कि इनमें से कितने ही ऐसे मिलेंगे जिनका खाना पीना ठीक नहीं हैं. बताओ यह सच है या नहीं ?
"हां महाराज'
उससे कबूल कराया कि खाने वाले भी हैं. कितने ऐसे व्यक्ति हैं जिनका जीवन है. उससे वे व्रतधारी हैं. रात्रि भोजन त्याग है, होटल का त्याग है, दुराचार का त्याग है,
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गुरुवाणी
किसी ने पाप के मार्ग का त्याग किया है, इनको यदि आप माला पहनाएंगे तो बन्दर को शराब पिलाने जैसा है. इनको आप स्टेज पर बैठाते हैं, माला पहनाते हैं, स्वागत करते हैं, इन्हें इससे कोई प्रयोजन नहीं. आदेश देते हैं आप. वे एकरूपता लाएंगें. उन्हीं से एकरूपता कराइये. आप हमें क्यों बीच में लाते हैं ? यह हमारे समाज की दशा है.
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जिनका आचरण शुद्ध नहीं, जिनके परिवार में धर्म का नामों निशान नहीं, वे हमारे धार्मिक नेता बनकर आते हैं. हमारी समस्या के समाधान के लिए वकील बनकर आते हैं. साधुओं को उपदेश देने आते हैं. महाराज ऐसा होना चाहिए जिन्हें स्वयं के जीवन का पता नहीं, ऐसे कितने ही श्रीमन्त सड़े हुए मिलेंगे. जगत में उन्हें सम्मान मिलता है, सस्ती नेतागीरी मिल जाती है. अग्रणी, अगवाने बन जाते हैं ये. आज हमारी यह स्थिति है प्रसिद्धि प्राप्त करना, पेपरों में छपना, जैसे कि ये समाज को विश्वास दिलाते हैं कि मैंने बहुत बड़ा कार्य कर डाला.
हमारी इस स्थिति को देखकर जरा विचार तो करिए. कई बार बड़ा दुख होता है. दर्द होता है, इस बात का कि हम कहां जा रहे हैं ? हमारी क्या स्थिति है ? ऐसे व्यक्तियों को आप आग्रह करके स्थान देते हैं. उनसे तो हमारे चरित्रवान गृहस्थ अच्छे हैं. चरित्रवान व्यक्ति अच्छे हैं, सामान्य से सामान्य गरीब से गरीब ग्राहक उनसे लाख दर्जे अच्छा जीवन तो पवित्र है उनका, अगर हम सम्मान करते हैं तो वह हमारी आत्मा के लिए उपयोगी है.
मफतलाल ने घर के अन्दर उन ब्राह्मणों को जो काशी के अन्दर पढ़ कर के आज विद्वान कहलाते परिचय किया. जब ऐसे ब्राह्मणों के अन्दर भी ब्रह्म को समझने की जरा भी रुचि नहीं, तो वर्तमान समय में ऐसे सामान्य व्यक्तियों की क्या स्थिति होगी.
बाहर बैठने वाले पंडित ने कहा- अन्दर जो स्नान करने गया है. वह बिल्कुल गधा है. अपने आप को पंडित मान करके चलता है, अपने आप को बड़ा अकल वाला समझता है. गधा जैसा है.
.
मफतलाल मौन रहा क्योंकि वह समझदार और बड़ा गम्भीर था. वह पण्डित जैसे ही स्नान करके बाथरूम से बाहर आया. इसको अन्दर स्नान करने भेज दिया. उसे दोनो की परीक्षा लेनी थी, दोनों को कसौटी पर कसना था. वह पण्डित गया तब उससे कहा
"अरे साहब! आप हमारे द्वार पर आए, अहो भाग्य में यह जानना चाहता हूँ कि आप के साथ जो पण्डित आए हैं और अब अन्दर जो स्नान करने गए हैं, वे मुझे अच्छे विद्वान
नजर आए."
"काहे का विद्वान है ? बिल्कुल बैल जैसा है, ढोर जैसा है, मूर्ख है." इस तरह एक दूसरे को पहचान लिया, दोनों साथ आ रहे थे. दोनों काशी से पढकर आए थे. ज्ञान का यह परिणाम निकला. पेट भरने का ज्ञान ले आए, जीवन जीने का ज्ञान उनके पास नही था. दोनों पंडित स्नान संध्या करके भोजन के लिए जैसे ही बैठे, दोनों तरफ थाली रखी हुई थी. एक में भूसा डाल दिया था, दूसरी में घास
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nit
-गुरुवाणी
मफतलाल बडा होशियार था. सोचा कि अब तमाशा देखें. अब दोनों नहा धोकर बाहर आये. एक बजे का समय, था भूख जोर की लगी थी. जैसे ही उन्होंने थाली में इधर भूसा, उधर घास देखा तो गुस्सा चढ़ा. क्या हमको ढोर समझ रखा है ? क्या हम घास भूसा खायेंगे?
मफतलाल ने कहा - पंडित कभी झूठ नही बोलते. पंडित तो सत्यवादी होते हैं, आपने कहा ये गधे जैसे हैं. इन्होंने आप के लिए कहा ये बिल्कुल बैल जैसे हैं. अतः स्वाद के लिए मैने यही चीज रखी. क्या कहें ? मफतलाल ने कहा-पंडित जी अभी पंडिताई आई नहीं, केवल डिगरी लेकर के आए हैं. ज्ञान जब तक आचरण में नहीं उतरेगा वहां तक साधुता नहीं आएगी.
जीवन में जब ये चीजें सक्रिय बनती हैं. तब जाकर हमारा जीवन आदर्श प्रधान बनता है. उसने यहां तक स्पष्ट कहा कि इस भयंकर पाप से और रोग से अपनी आत्मा का रक्षण करना , जहां साधुता नजर आ जाए, जहां कोई गुणवान व्यक्ति नजर आ जाए, उसका हमेशा उचित सम्मान करना. पर उचित ध्यान देना.
मेरा आशय था कि यहां जो सूत्र दिया गया, इस सूत्र के बाद इसी के अनुसंधान में उस महान आचार्य ने साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए अपूर्व चिन्तन दिया. जब प्रश्न किया गया कि भगवन्! यह तो मैं तो समझ गया कि कैसे बोलना, किस प्रकार बोलना, भाषा समिति कैसी रखनी, वाणी का व्यापार कैसे करना, और जीवन की बहुत सी बातें इस सूत्र द्वारा मैंने समझने का प्रयास किया, इससे साधना के क्षेत्र में प्रवेश होने के लिए क्या कोई द्वार है कि जहां जाकर साधना से आत्म शान्ति का मैं अनुभव प्राप्त करूँ? इस पर बड़ी सुन्दर बात उन्होंने बतलाई.
“अरिषड्वर्गत्यागेन विरुद्धार्थं प्रतिपत्येन्द्रिय जयति" अपूर्व चिन्तन है इस सूत्र के अन्दर.
"अरिषड् वर्ग त्यागेन" आत्मा अपने शत्रुओ पर विजय प्राप्त करे. छह शत्रु हैं “अरिषड़ वर्ग:" ग्रुप है पूरा छह का जो उसे त्याग करदे, और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ले वह व्यक्ति परम सुखी बनता है. यह सुखी बनने का उपाय है.
भगवन्! हमारे वे छह शत्रु कौन से हैं? जो हमें नुकसान पहुंचाते हैं ? हमारी अन्तरात्मा के उन प्रबल शत्रुओं का परिचय, आचार्य भगवन्त ने सूत्र में स्पष्ट रूप से दे दिया.
कामक्रोधमदलोभमानहर्षाः गृहस्थानाम् अन्तरंगो अरिषड् वर्ग:" इसके अन्दर सबसे पहले काम को लिया. विषय, सेक्स यह अन्तरात्मा का सबसे प्रबल शत्रु है. संसार की परम्परा को एनर्जी देने वाला. इस के बाद क्रोध, उसके बाद लोभ, उसके बाद मान, उसके बाद मद, उसके बाद हर्ष, वह हर्ष भी कैसा ? जगत को प्राप्त करने का हर्ष. आत्मा प्राप्त करने में तो चित्त की प्रसन्नता होती है, परन्तु हर्ष एक अगले प्रकार
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गुरुवाणी
के विकार से परिपूर्ण होता है. जो हर्ष को प्राप्त करने, गलत वस्तुओं को प्राप्त करने के परिणाम विषय को लेकर पैदा होता है, वह आत्मा के लिए बड़ा अनर्थकारी है.
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हर्ष पाप को गुणाकार करता है उसका काम है पाप की वकालत करना, वह पाप को बचाने का प्रयास करेगा.
"
"अरिषड् वर्ग त्यागेन' आत्मा के इन शत्रुओं का मुझे त्याग करना है, पहले तो हमें इन शत्रुओं का परिचय भी नहीं कि कितने आराम से अन्दर बैठे हैं ? आप क्या बिगाड़ सकते हैं, इनका ? है ताकत क्रोध को नष्ट करने की, आप के पास कोई भी ताकत नहीं. एक दम कायर हो करके हम बड़ी लाचारी से बैठे हैं. कुछ कर नही पाते. क्या करें ? यह तो इन शत्रुओं का परिचय हुआ. क्या कभी इसके लिए आप ने कोई उपाय सोचा है ? कोई ऐसा रास्ता निकाला है, जिससे आत्मा के शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो ? मैं एक प्रश्न उपस्थित करूँ आप यहां चांदनी चौक में दूकान करके बैठे हैं, कोई बदमाश व्यक्ति आता है. यदि आप से कहे कि सेठ साहब हजार रुपया चाहिए, लाओ. आप उसके चेहरे से भाँप जाते हैं कि खतरनाक आदमी है. देने में ही कल्याण है. नहीं तो कल खतरा पैदा होगा, आपने एक हजार दे दिया. एक बार तो आप बच गए वह आप की कमजोरी देख गया दूसरी बार फिर आयेगा क्योंकि दुकान देख गया है.
आप सोचिए. ऐसी परिस्थिति में आप क्या करेंगे. आप लड़ते हैं, मुकाबला करते हैं, तो मार खाते हैं. आप दुकान छोड़ करके भाग नही सकते, और कमा कर उसे देते हैं, तो मूर्ख बनते. ऐसी परिस्थिति में आप कौन सा रास्ता निकालेंगे ? मुझे बतलाइए ? परमात्मा ने कहा युक्ति से मुक्ति मिलती है. बुद्धि लगाइये, युक्ति से काम करिए. बिना युक्ति से कुछ नही होगा.
·
अहमदाबाद में सेठ मफतलाल थे पास वाले मकान के सामने ही एक पठान रहता था. उस जमाने में, उस मुगल साम्राज्य के समय, अहमदाबाद के सूबेदार को भी बहुत बड़ा अधिकार था, प्रदेश पर सूबेदार उस प्रदेश का मालिक होता था. गवर्नर होता था. वह पठान उनका रिश्तेदार था. मफतलाल सेठ की आदत थी हमेशा मूँछ रखना. पहले तो मूँछ अपने देश में एक प्रतीक था, व्यक्ति अपनी मूँछ पर ताब देकर निकलता था, उससे उसकी मर्दानगी दीखती थी. पुरुष का जो चिन्ह था, जिस पर हमें गर्व था, वह हमने खत्म कर दिया. क्योंकि जब मर्दानगी ही रही नहीं तो फिर मूँछ रखकर ही क्या करना ? पुरुषत्व ही नहीं रहा तब साइन बोर्ड काहे का रखना. साफ कर दी. किसी कवि ने कहा है:
मूँछ मुड़ा फैशन चला,
देखो यारों इस देश में।
मर्द भी हो चले अब, हीजड़ों के वेश में ॥
हमारी यह दशा हो गई. मफतलाल तो बहुत बड़ी मूंछ रखता था और सुबह ताव
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-गुरुवाणी
देता था. अहमदाबाद में पोल है. वहां पर बैठता धारी पर, वहीं दातून-पानी करता. तो। मुहल्ले के दो चार लोग आ जाते .
तूं मुझे कायदा बतलाता है ? यह कहकर मारने को तलवार निकाली. महाजन भी कम नहीं था, उसने अपनी कलम दिखाकर कहा कि तेरी तलवार से ताकत इसमें ज्यादा है. ___ जा-जा तेरे कलम बहुत देखे हैं मैंने. पैसा तो दे दिया, भुगतान कर दिया. पुराने जमाने में जिसे तनख्वाह देनी होती, उस व्यक्ति का हलिया लिखा रहता, कि ये सैनिक हैं, कहीं कोई गलत आदमी तनख्वाह न ले जाऐ. चेहरे का कोई चिन्ह उसमें लिखा रहता. उसने वहां नोट लगा दिया, नीचे अंडरलाइन कर व्यक्ति इस नाम का है, इसके अगले दो दांत टूटे हुए हैं, निशान लगा दिया. वहाँ से वह चला गया, ट्रांसफर हो गया. सैनिक कायदा तो बड़ा जड़ होता है. ___जब दूसरा महीना हुआ तो तनख्वाह लेने गया, सामने डायरी देखी. वह भी मराठा
था, बड़ा अकड़बाज था, उसने जब चेहरा देखा कि गलत आदमी है, बोला- यह नाम किसी दूसरे का है, तुम्हारा नहीं है. तुम्हारा नाम आए, तब आना. ___ उसने कहा-यह व्यक्ति मैं ही हूँ, यह पता भी मेरे घर का ही है. अरे! सब कुछ है, पर तेरे दो दांत टे हए नहीं हैं. कायदा कहता है, यह आदमी नही हैं, मैं तुम्हारी बात नही सुनता. मैं तो कायदे की बात सुनता हूँ दो दांत टूटे हुए हों तभी तनख्वाह मिलेगी आखिर विवश हो गया. दो दांत तुड़वा कर आना पड़ा. ___ महाजन की कलम में यह ताकत होती है. पठान बहुत तगड़ा और बहुत अभिमानी था. पर यह मफतलाल भी कम नहीं था. बड़ा होशियार था. रात के समय महफिल बैठी. पूरे मोहल्ले के महाजन आए. बैठ कर बातें की. कहा कि बड़ा गजब है, मैं अपनी मूंछ पर बंट देता हूँ और इस पठान को दुख होता है. क्या किया जाए ? कल मुकाबला हो तो क्या किया जाय ?
साथियों ने कहा-सौ पचास चौकीदार रख लो, हो जाए मुकाबला. देखा जाएगा. कमाते तो रोज हो, समझना कि एक महीना नहीं कमाया तो क्या हुआ ? ग्यारह महीने की कमाई तो घर में है ही.
उसने कहा- बात ठीक है. बाहर बात होती है, समाचार पठान के पास पहुंच जाता है.
पठान ने कहा-पांच सौ चौकीदार रख लिया जाए, ताकि कभी मुकाबला हो तो इसका सब घर-बार साफ कर दिया जाए, फिर देखा जाएगा. अभिमान में पठान भी कम तो होते नहीं. मियां हम तो आन जानते हैं. पैसा आ गया तो अमीर हैं, चला गया तो फकीर हैं, मर गए तो वीर हैं, बहुत सीधा हिसाब है. उसने पांच सौ चौकीदार लगा लिए.
वन
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-गुरुवाणी
दो दिन बाद फिर वही हालत, रात को मीटिंग हई. मफतलाल ने कहा-चार पांच सौ रंगरूट रखा है उसने.
उसने पांच सौ रखा है, तुझे क्या कमी है. हजार रखो, देखा जाएगा. अभिमान में पठान भी कम तो होते नहीं. मियां हम तो आन जानते हैं. पैसा आ गया तो अमीर हैं, चला गया तो फकीर हैं, मर गए तो पीर हैं. बहत सीधा हिसाब है, उसने पांच सौ चौकीदार लगा लिए.
दो दिन बाद फिर वही हालत, रात को मीटिंग हुई मफतलाल ने कहा-एक हजार रंगरूट रखा है उसने.
उसने एक हजार रखा है, तुझे क्या कमी है. दो हजार रखो. देखा जाएगा. मुकाबला हो तो ऐसा कि पठान का नामो निशान मिट जाए. कुदरत ने बुद्धि दी है, पैसा दिया है. अच्छा तो हजार नहीं दो हजार सैनिक रख लिया जाए. पांच हजार सैनिक लाकर के रखा, उनका खाना पीना, तनखाह. इस तरह सब कुछ गिरवी रख करके कर्जदार बन गया. एक दिन में ऐसी हालत है कि दस दिन का समय निकल गया. उसके बाद एक दिन उसने आकर पूछाः __अबे, बनिये, तू कब लड़ेगा, कब तैयार होगा? मैने पूरी तैयारी की है, पांच हजार पठान रखा है. पन्द्रह दिन हो गए पर तेरे लड़ने के दिन का पता नहीं.
मफतलाल ने बड़े ठन्डे लहजे से जवाब दिया-हजूर, मेरी क्या ताकत क्या औकात आपका मुकाबला करूं?
अरे, रात को यहां रोज बात चलती है, इतना गोरखा रखा, इतना सिक्ख रखा, इतने चौकीदार रखे. तोप गोला बारूद इकटठा किया. हम तो तेरे कहे मुताबिक डबल करते चले गये.
हजूर मेरी क्या ताकत आप से लडूं? ये तो हमारे महाजनों की बाते हैं, बाते तो हमारे यहां बड़ी लम्बी चौड़ी चलती हैं, आप जानते हैं, हम रहते संसार में है, बात मोक्ष की करते हैं. ये तो बातें हैं हजूर.
अरे, पर मेरे सामने मूछों पर ताव देता है, बंट देता है? हजूर, मेरी क्या ताकत? साढ़े सात बार मेरी मूंछ नीची. मैं मूंछ ऊंची रखता ही नहीं, आपके सामने, क्या ताकत है? मेरी साढे सात बार नीची..
अरे, पर तुम्हारा तो साढ़े सात बार नीची पर मेरा तो सब गया. मकान भी गिरबी है, तुम लेना चाहो तो ले लो.
अरे हजूर, कल लूँगा. सस्ते के अन्दर आधे दाम में मकान भी ले लिया, पठान को बाहर करा दिया वहां से. त्यागी बना कर रवाना करा दिया. यह है मफतलाल की अक्ल. एक पैसा गांठ का गया नहीं और जानता था, मेरे सामने मेरा दुश्मन रहता है. कैसे इसको
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गुरुवाणी
के
निकालना है, इस पर बुद्धि से काम लिया. ऐसी बुद्धि वहां दौडाइए, तब जाके आत्मा शत्रु कर्म से जुदा होंगे. बाहर तो संसार के लिए बहुत बुद्धि लडाई, बहुत अच्छे-अच्छे वकील किए, परन्तु वहां हमारे जैसे किसी वकील को रखिए कर्म से लड़ने वाला साधु चाहिए. ऐसा उपाय बतलाने वाला चाहिए जिससे कि मेरा रक्षण हो.
यह विषय कल लेंगे, आज समय आपका काफी हो गया है. आत्मा के शत्रुओं पर विचार चल रहा है. विशुद्ध आध्यात्मिक चिन्तन है. किस प्रकार से हम अपने शत्रुओं को पराजित कर पाएं, ये षड्रिपु आत्मा के लिए कितने भयानक हैं? इनमें कैसी एकता है. हमारी सद् भवानाओं में धार्मिक दृष्टि से एकता नहीं मिलती. कल इस पर विचार करेंगे आज इतना ही रहने दें.
"सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ”
噩
मैं सभी का हूँ, सभी मेरे हैं. प्राणी मात्र का कल्याण मेरी हार्दिक भावना है. मैं किसी वर्ग, वर्ण, समाज या
जाति के लिए नहीं, अपितु सब के लिए हूँ. मैं ईसाइयों का पादरी, मुसलमानों का फकीर, हिन्दुओं का सन्यासी और जैनों का आचार्य हूँ. जो जिस रूप में चाहें, मुझे देख सकते हैं.
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-गुरुवाणी
प्रेम, मैत्री और मुक्ति
अनंत उपकारी परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्र सूरि जी महाराज ने जगत के जीव मात्र के कल्याण के लिए धर्म साधन के द्वारा जीवन का एक सुन्दर परिचय दिया, लक्ष्यों को प्राप्त करने का साधन उन्होंने इस धर्म बिन्दु ग्रंथ के द्वारा दिया है, जीवन की साधना का एक लक्ष्य तो निचित होना चाहिए, मुझे कहां जाना है? इस बात का पहले से ही पता होना चाहिए. फिर उसकी पूरी तैयारी अपने जीवन में होनी चाहिए.
आग लग जाए फिर हम कआं खोदने के लिए आएं बहत बडी मर्खता होगी जीवन के अन्तिम समय, डाक्टर ने जवाब दे दिया हो, ऐसी परिस्थिति में यदि हम धर्म करने की तैयारी करें, रक्षण तो मिलेगा, परन्तु जैसा चाहिए, वैसा सन्तोष, आत्म तृप्ति नहीं मिलेगी. पहले से उसकी तैयारी होनी चाहिए कि मुझे कहां जाना है.
"इदमपि गमिष्यति" जो मैं आखों से देख रहा हूँ, ये सारी वस्तु मुझे छोड़ करके एक दिन जाना है. यह मन्त्र यदि याद हो जाए कि मुझे जाना है, पाप कमजोर हो जाएगा. एक बार यह निश्चित कर लीजिए कि जितना मैं प्रयत्न कर रहा हूँ यह मेरा सारा ही प्रयत्न निष्फल होने वाला है, "इदमपि गमिष्यति”. मैं जो देख रहा हूँ, जिन पर वस्तुओं का मैंने संग्रह किया है. आध्यात्मिक दृष्टि के अन्दर, उसकी परिभाषाओं में, स्पष्ट निर्देश दिया गया कि कोई चीज आत्मा से सम्बन्ध रखने वाली नहीं.
वर्तमान में जो भी मैं प्रयत्न कर रहा हूँ , यह सब छोड़कर के मुझे जाना है, इतना आप याद कर लीजिए, “मुझे छोड़ करके जाना है" ये मेरे साथ जाने वाली चीज नहीं है
__ "विभवो नैव शाश्वतः" एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो मेरे साथ जा सके, मैंने अन्तर हृदय से प्रेम पूर्वक जो भी शुभ कार्य किये हैं, वही मेरे साथ जाने वाले हैं. उस कार्य के द्वारा पुण्य-कर्म का मैंने जो अनुबन्ध किया है, वही मेरे साथ नर-भाव में आने वाले हैं. बाकी संसार से मेरा कोई संबंध नहीं, सूत्रकार ने स्पष्ट कर दिया धर्म करने से पहले, धार्मिक कार्य अनुष्ठान से पहले, अपने परिणाम और आशय को आप शुद्ध बना लें. उसी भावना से आप धर्म क्रिया करें तो फलीभूत बनेगा, ताकि उस धर्म क्रिया के अन्दर भौतिक कामना न आ जाए. उस धर्म साधना के अन्दर जगत की याचना न आ जाए.
साधना जो सम्राट् बनने के लिए है, उस साधना के माध्यम से मानसिक दरिद्रता मेरे अन्दर न आ जाए. एक बार आप निश्चित कर लेंगे मुझे कुछ नहीं चाहिए, सब कुछ
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गुरुवाणी
आपको मिलने वाला है. जिस दिन आपने शर्त रखी कि मुझे यह प्राप्त हो जाए, सारी भावना कुण्ठित हो जाएगी. धर्म साधना के द्वारा आप जो प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं, सफल नहीं हो सकेगा,
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जहां जो चीज मिलने वाली ही है, उसके लिए भावना क्यों ? कामना क्यों ? अपनी आदत से हम लाचार हैं, सारी धर्म साधना को दांव पर रख कर हम संसार प्राप्त करना चाहते हैं. समृद्धि मिल जाये, दो पैसा मिल जाए, जगत में सम्मान मिल जाए, इस जगत की कामना को लेकर आज तक हमारी साधना निष्फल गई, जीवन के उस भूतकाल में अनादि अनन्त काल मेरा निष्फल गया, मिला कुछ नहीं, सिवाय कर्मबन्धन के कुछ नहीं मिला. इनाम तो गया ही, साथ सजा भी मिली.
संसार एक प्रकार की सजा है संसार स्वयं के अन्दर एक सेन्ट्रल जेल है. हम अपराधी बनकर के, कर्म के कैदी बनकर के यहां आये हैं, अतः आप ध्यान में रखकर के चलना, कोई व्यक्ति संसार में स्वतन्त्र नहीं है. कोई व्यक्ति आजाद नहीं है. बोलकर के आप आनंद लें कि मैं स्वतन्त्र हूँ, शब्दों से भले ही आप स्वतन्त्र हों, कार्य से आप स्वतन्त्र नही हैं.
हर व्यक्ति चाहता है मैं सम्राट् बन जाऊँ, भिखारी बनकर के जीवन निकालना पड़ता है. हर व्यक्ति चाहता है, मैं करोड पति बन जाऊँ, दौलतमन्द बन जाऊँ सारे जीवन प्रयत्न याचना की भूमिका पर जीवन पूरा करना पडता है. हर व्यक्ति चाहता है, में आरोग्य प्राप्त करूँ, बीमारी में जीवन पूरा हो जाता है. हर व्यक्ति इसे चाहता है उसकी मनोकामना होती है कि संसार में मैं हुकूमत करूँ, मेरा अधिकार सारे संसार में कायम रहे, गुलामी में जीवन पूरा करना पडता है, नौकरी करके जीवन बिताना पड़ता है.
कैसी लाचारी, अपनी इच्छा से आप जन्में नहीं अपनी इच्छा से आप मरने वाले भी नहीं. मरना भी आपके हाथ से नही. व्यक्ति चाहता है, मैं मर जाऊँ, मरना भी आपके हाथ में नहीं है. यह भी आपकी धारणा गलत है.
साधना में आशीर्वाद का स्वरूप है. जगत के सारे बन्धनों से आपको मुक्त कर देता है. पूरा फ्रीडम देता है, पूरी आजादी आपको देता है. कर्म की गुलामी से मिटा करके आपको आजाद बनाता है. सम्राट् बनाता है. धर्म साधना का पुण्य प्रभाव है.
धर्म करना नहीं, बिना धर्म किए ही मुझे इसका इनाम चाहिए. अनादि काल का एक संस्कार है, ह्यूमन साइकोलोजी है-:
धर्मस्य फलमिच्छान्ति / धर्म नेच्छन्ति मानवाः
जगत के व्यक्तियों के अन्दर एक स्वभाव है. धर्म करना नहीं और धर्म का फल मुझे चाहिए. बिना मजदूरी किए मुझे नफा चाहिए बिना श्रम किए मुझे विश्राम चाहिए. धर्मस्य फलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादराः
जगत में किसी व्यक्ति को पाप की सजा नहीं चाहिए कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि मैं अपराध कर्म करूं और इसकी सजा मुझे मिले. अपराध छोड़ना नहीं है, पाप बडे प्रेम
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%3Dगुरुवाणी
से करता है. पाप में बड़ी प्रसन्नता है, जगत उपार्जन के लिए हम पाप बड़ी प्रसन्नता से करते हैं. दोषी बनते हैं परन्तु कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि पाप की सजा मुझे मिले.
धर्म करना नहीं और धर्म का फल मुझे चाहिए, कदाचित धर्म करना पड़े तो रो करके करें, उदासीनता से करें, लाचारी से करें कि करना पड़ रहा है, मजबूरी है परन्तु उसमें प्रसन्नता नहीं आएगी. यदि पाप करना पड़े, पाप से उपार्जन करना पड़े तो बडी प्रसन्नता होगी. अनादि काल का संस्कार है, जो प्रसन्नता हमारे लिए है कितनी बार में तरना है किसी को मालूम नही. प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ भव रो करके भी नहीं छूट सकता. इतनी भयंकर पाप प्रवृति होती है, परन्तु जगत का एक संस्कार पाप बड़े मजे से करना है. और पुण्य रो करके करना है. इसीलिए ज्ञानियों ने कहा-जो भी साधना करें, कोई कामना है ही नहीं, कोई इच्छा तृष्णा नहीं. आज तक सारी धर्म साधना को इच्छा और तृष्णा लेकर के कुण्ठित बना दिया, मलिन बना दिया. उसी का परिणाम कई बार अज्ञानता में की हुई साधना जो भी संसार के लिए बनी. फिर से नया संसार हमने कर दिया.
जहां संसार का विसर्जन करना था, साधना के द्वारा, पर अज्ञान दशा में साधना का उपयोग गलत दिशा में करके नया संसार हमने पैदा किया. संसार स्वयं एक सजा है, यह मानकर के आप चलना, यह संसार नहीं हमारे लिए सेन्ट्रल जेल हैं हम गुनहगार बन करके आये. कोई न कोई ऐसी भूल है पूर्व के अन्दर कि परमात्मा के गुनहगार हम बनकर के आए. कर्म के कैदी बनकर के आए. जीवन में पराधीनता के सिवाय स्वाधीनता है ही नहीं.
आप जन्मे अपनी इच्छा से नहीं, कर्म की गुलामी. कहा से कहां आपको आना पड़ा पूरी स्वाधीनता में जीवन व्यतीत होता है. और व्यक्ति अपनी आजादी में आना पड़ा. पूरी स्वाधीनता में जीवन व्यतीत होता है. और व्यक्ति अपनी आजादी की बात करता जिस का पागलपन कैसा है? कोई भी कार्य इच्छा के अनुसार होता नहीं. सबसे बड़ी कर्म की गुलामी, यही पराधीनता है.
"कर्म प्रधान विश्व करि राखा", तुलसी जी का कहना है कि सारे जगत में कर्म की पराधीनता है. जैसा कर्म चाहेगा वैसा ही आपके साथ व्यवहार करेगा.
"कर्म नचावत तिमही नाचत", मदारी बन्दर को नचाता है, कर्म हमें नचाता है. वह जैसे नचाए वैसे ही नाचना पड़ता है. जो बुलाए ऐसे ही बोलना पडता हैं, कहां तक ऐसी गुलामी में हम अपना जीवन व्यतीत करें. कहां तक ऐसी परिस्थिति में रहकर हम अपने जीवन को बर्बाद करेंगे.
प्रवचन इसलिए दिया जाता है व्यक्ति सावधान हो, प्रेरणा मिले, प्रकाश मिले, प्रवचन के द्वारा, आत्मा की जागृति के अन्दर कुछ नया रास्ता मिले. दुख और दर्द से मुक्त होने का आठ उपाय उसको प्रवचन के द्वारा मिले. जगत के दर्द से मै अपनी आत्म
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-गुरुवाणी
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बना लूं. बड़ी विचित्र कर्म की स्थिति है. यह जो धर्म साधना है. तीन दिन का उपवास जो इस समय चल रहा है. कठिनाई तो आएगी, श्रम तो पड़ेगा, भूख को मारना पडेगा क्योंकि आज तक भूख ने ही हम को मारा है. यह भूख को मारने का प्रयास है, जीव जब गर्भ में होता है. सर्वप्रथम उत्पन्न होते ही आहार के परमाणुओं को प्राप्त करना है. आहार प्राप्ति कहा जाता है, उसके बाद आहार के परमाणुओं से कर्म के अन्दर अपने शरीर को उत्पन्न करता है उसके बाद इन्द्रियों को प्राप्त करता है. प्रथम उत्पति व स्थान पर जाते ही आहार उत्पन्न करता है. अनादि अनंत काल से जीव की यही स्थिति है, आहार प्राप्त करना आहार की प्राप्ति में सारे जीवन पर्यन्त गलाम बनके रहना.
आहार की वासना से मुक्त होने के लिए, अनाहारी पद मोक्ष की आराधना के लिए, यह उपवास सर्वोपरि साधना है. अनादि काल से हमारा जो आहार से अटैचमेन्ट है वह टूट जाए. आहार की वासना से मैं मुक्त बन जाऊँ, क्योंकि मैं आत्मा के साथ जुड़ा हुआ हूँ, इसलिए प्रयास करवाया जाता है, अभ्यास करवाया जाता है ताकि अनादि काल के संस्कार से हमारी आत्मा का रक्षण हो.
आत्मा का स्वभाव आहार करना नहीं है, यह तो शरीर का धर्म है. शरीर लेकर के यह बताना है. ज्ञानियों ने कहा - जहां तक वासना है. वहां तक सद्भावना नहीं आ सकती. कहने का आशय, साधना संसार की वासना से मुक्त करने का सर्व श्रेष्ठ उपाय है.
"प्रतिवन क्रियानेति" क्रियाओं के अन्दर, धर्म पुरुषार्थ के अन्दर, व्यक्ति को सतत जागृत रहना चाहिए. सारी धर्म क्रिया पूर्ण वैज्ञानिक क्रिया है. व्यक्ति अगर महीने में कम से कम दो उपवास करता है. ऐसे तो उपवास महान वर्ष तिथियों में होना चाहिए परन्तु यदि दो उपवास भी आप करते हों तो भी आपका शारिरिक, मानसिक, आरोग्य सुरक्षित रखता है. विचार में पवित्रता आती है, विकार को मारने की सबसे बड़ी दवा उपवास.
उपवास का अर्थ होता है, आत्मा के नजदीक उपस्थित रहना. उपवास दो शब्द है, “वास" का अर्थ रहना, “उप” का मतलब है नजदीक, किसके नजदीक उपस्थित रहना. आत्मा के नजदीक उपस्थित रहना, उसका नाम उपवास. ऐसी स्थिति आ जाए, उपवास में ध्यान और साधना के द्वारा व्यक्ति आहार को ही भूल जाए, ध्यान की प्रसन्नता के अन्दर इस पेट के दर्द को ही भूल जाए, वह आनन्द ध्यानावस्था में आना चाहिए, जो आनन्द आज तक आपको संसार की प्राप्ति में मिला, मकान दुकान बनने में मिला, व्यापार में मिला, पैसे में मिला वह सब अस्थायी है. ___ शरीर में कहीं दर्द हो जाए और आपको गोली दी जाए दर्द के उपशमन के लिए शान्ति के लिए, तो वह कोई स्थायी उपचार नहीं है. थोडी अवधि के लिए आपका दर्द घटा देगा. परन्तु बाद में पीड़ा तो होगी. वैसे में अगर आप आनन्द देखते हो, परिवार
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गुरुवाणी
में अगर आप शान्ति खोजते हो, दुकान मकान के अन्दर सुख अनुभव करते हो तो ज्ञानियों की दृष्टि में वह क्षण मात्र का है.
उसके बाद दर्द तो पैदा करेगा ही, जैसे ही उसका वियोग हुआ दर्द पैदा होगा. मकान चला गया, किसी कारण से बेचना पडा तो रोएंगे. दुकान चली गयी तो रोएंगे. परिवार में से कोई आदमी चला गया तो भी आंसू निकलेंगे. आया हुआ वैसा गया तो भी बडी वेदना, बड़ा दर्द, प्राप्ति के बाद उसका वियोग आप में दर्द पैदा करके जाता है, उस आनन्द से यहां कोई प्रयोजन नहीं. वहां तो जो स्वयं का आनन्द है, स्वयं की आत्मा से ही प्राप्त करना है, जो आने के बाद फिर कभी जाए नहीं. ऐसे सुख को प्राप्त करना है.
उसका उपाय बतलाया जाता है. आज तक उस क्षणिक सख के अन्दर अपनी प्रसन्नता का हमने अनुभव किया. जहां जहां जो भी साधन मिला. उन साधनों को लेकर के सख का आनन्द लिया, परन्तु ज्ञानियों ने कहा-जो आनन्द भले ही वर्तमान में आपको आनंद दे जाएं लेकिन सोचना भविष्य का है.
आज की प्रसन्नता आपने जो संसार में प्राप्त किया है उसकी जो वर्तमान प्रसन्नता है, वह भविष्य में रुदन बनता है. ऐसा काम हम क्यों करें कि भविष्य में रोना पडे. आंस निकलना पड़े. आज की प्रसन्नता यदि मेरे लिए व्यथा बन जाए, रुदन का कारण बन जाए, दुख दर्द और पीडा का कारण बन जाए, ऐसा सुख मुझे चाहिए ही नहीं.
खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुःखा महावीर परमात्मा के शब्दों में देखकर कहा जाए तो ज्ञानियों ने कहा, अन्य ज्ञानियों ने ज्ञान के प्रकाश में देखकर कहा, अपने एकान्त उपकार के लिए कहा-क्षण मात्र का सुख भले ही भौतिक दृष्टि से आपको आनंद दे जाए, परन्तु भविष्य के लिए दुख का कारण बनता है. जो वर्तमान पौलिक वासना से उत्पन होने वाले सुख हैं वही परम्परा में दुख का जन्म देने वाला स्थान है. यह आप समझ करके चलना कि वर्तमान सुख भविष्य में दुख देने वाला बनता है, ऐसा सुख मुझे नहीं चाहिए.
रविवार का दिन हो. मित्रों के साथ आप कहीं पिकनिक पर जा रहे हों, बहुत सुन्दर आपको पौद्गलिक वासना का आनंद आ रहा हो, आपकी वासना को तृप्ति मिल रही हो. मित्रों के साथ बैठ करके वहीं दुनिया भर का आनंद लूट रहे हो, परन्तु जब भोजन का समय हो और आपके अनुकूल सामग्री हो, खीर-पूरी का जीवन हो, सुन्दर से सुन्दर स्वादिष्ट भोजन बना हो, वहां पिकनिक के अन्दर दोपहर के बारह बजे यदि आप भोजन करने अपने मित्रों के साथ बैठे. खीर उतारते समय आपके गले में जरा सा दर्द हो, कठिनाई हो, पानी के द्वारा उतारना पडे, ऐसी स्थिति आ गई हो. कभी आपने अनुभव नहीं किया? आपके मन में शंका होगी क्या बात है? रुकावट किस कारण है? कोई टॉनसिल है, सर्दी है, क्या बात है, गला इतना पकड़ लिया. खाने का आनंद तो गया परन्तु वापिस ।
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-गुरुवाणी
जब आप लौट कर आएं, अपने फैमिली डॉक्टर को आप दिखलाएं कि भाई जरा देखो क्या बात है.
मेरे प्रवचन में आप चार महीना रोज नियमित श्रवण करें, एक सौ बीस दिन तक प्रवचन श्रवण करें, तो वैराग्य नहीं आएगा, डॉक्टर का एक शब्द वैराग्य देकर चला जाएगा. देखकर आप को इतना ही कहे कि “सेठ साहब! और तो सब कुछ ठीक है, ऐसी कोई बात नहीं, एक बार बम्बई टाटा होस्पीटल में आप दिखला कर आ जाएं."
एक वाक्य, क्या परिणाम आया. सारा आनन्द चला गया. जल करके राख बन जाएगा. सारी प्रसन्नता नष्ट हो जाएगी, आज तक आपने जो सुख की इमारत बनाई, वह सारी इमारत एक बार में गिरा देगा. जैसे आपकी मौत आपके सामने हो. सारी इमारत खत्म हो जाएगी. सारा आनंद हवा में उड़ जायगा. कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा. विचारों में डूब जाएंगे. नींद लेने पर भी नींद नहीं आएगी.
बम्बई गए और वहीं डाक्टर ने निदान किया और कह दिया तुम्हे कैंसर हैं. क्या जबाव है आपके पास? नोट गिनने में आनन्द आएगा. दुकान में बैठेंगे, ग्राहक देख करके आनन्द आएगा? बहुत सारी खाने की सामग्री पड़ी है. देख करके मुंह में पानी आएगा? एयरकुलर के पास आपको बैठा दिया जाएगा. पसीना बन्द होगा. सारी प्रसन्नता चली जाएगी. दुख दर्द से जीवन भर जाएगा.
यह संसार बड़ा विश्वासघाती है. यह सुख भी आपके मन का भारी भ्रम है. एक मात्र कल्पना है. देअर इज नो रिएल्टी. वहां कोई वास्तविकता है ही नहीं. सब भ्रम में ही आप जी रहे हैं. सुख कब धोखा दे जाए मालूम नहीं, डाक्टर एक शब्द आपको ऐसा दे जाएगा एकदम परिवर्तन.
जवान लड़का, कभी धर्म क्रिया में उसका चित नहीं लगा. लोग कहते हैं-नशा होता है. जवानी का नशा. यह उम्र ही ऐसी होती है. बड़ी खतरनाक उम्र होती है. गुजराती में कहा जाता है, जवानी हिन्दी में भी कहते है. गुजराती कवि ने इसका बहुत सुन्दर अर्थ निकाला. जवानी में रहवानी नहीं, जिसको आप जवानी कहते हैं. वह रहने वाली नहीं है. रहवानी नाथी वो तो जाने वाली है. बड़ी तीव्रगति से जा रही है.
युवा संन्यासी, गांव के किनारे कुएं के पास मंदिर में ध्यानस्थ बैठा था. युवक घोर ब्रह्मचारी पुरूष अठारह से बीस वर्ष की उम्र होगी. ध्यान के अंदर मन की स्थिरता रखकर के बैठा. सुबह का समय था प्रातः काल वहां से पानी भरने के लिए औरतें जाया करतीं. बड़ा प्रसिद्ध कुआं था. सारा गांव वहां से पानी भरता. पानी भरने युवा स्त्रियां वहां आती थी. वह युवा संन्यासी और कुछ नहीं करता. वह जप कर रहा था. और जहां शिव का नाम लेना चाहिए. “ओम नमः शिवायः" राम का नाम लेना चाहिए, परमेश्वर का नाम लेना चाहिए. वहां युवा संन्यासी किसी और मंत्र का जाप कर रहा था.
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-गुरुवाणी =
उस मन्त्र जाप के अन्दर बोल रहा था. लोक भाषा में ही मन्त्र जाप था. लोग भी अच्छी तरह समझ सकें, माला गिनते-गिनते वो जोरों से कहता.
“अगली भी अच्छी पिछली भी अच्छी, बिचली को जूते की मार" मन्त्र में और कुछ नहीं था.
"अगली भी अच्छी पिछली भी अच्छी, बिचली को जूते की मार" संयोग देखिए. गांव की औरतें जब पानी भरने जा रही थीं, आगे राजपूत घर की औरत थी. और उसके आगे ब्राहम्ण परिवार की औरत थी, पीछे एक वाणिक परिवार की औरत थी, तीन औरतें थीं.
तीनों मटका लेकर पानी भरने जा रही थीं. जब यह मन्त्र सुना, विचार में पड़ गईं. पागल होगा, दिमाग खराब होगा. पानी भर के जब वे लौटीं तब भी वहीं जाप चल रहा था__ “अगली भी अच्छी, पिछली भी अच्छी, बिचली को जूते की मार" राजपूतनी का खून गर्म हो गया, मैंने क्या ऐसा पाप किया है, गुनाह किया है, मैने क्या ऐसी बदतमीजी की है, मेरे? क्यों जूते की मारको. दो के बीच में चल रही थी. घर आकर अपने पति से बात की. परिवार को मालूम पड़ा, परिवार उत्तेजित हो गया. उसे और कोई नाम नहीं मिला, कृष्ण का नहीं, राम का नहीं. यह कौन सा मन्त्र है. यह कौन सा जाप है. बड़ा आवेश आ गया.
पति ने तलवार ली, राजपूतों की तो असल भाषा तलवार ही है. तलवार ली और आया कि अभी सर कलम कर देता हूं. मात्र मुंह होता है. आवेश में गया. उत्तेजित व्यक्ति के पास आंख नहीं होती. मुंह का द्वार खुला रहता है. खुले हुए द्वार से दुश्मन तो सहज में आ जाते हैं. कर्म शत्रुओं का प्रवेश बड़ा आसान होता है, क्रोधित अवस्था में.
क्रोधी व्यक्ति का द्वार खुला रहता है, प्रकाश बंद रहता है. वह देखता नहीं, वह आंख बंद है, अज्ञान का अंधकार है और इण्डिया गेट खुला रहता है, मुंह खुला रहता है, सारे शत्रु अंदर प्रवेश कर पाते है. बड़े आसानी से अपना अधिकार जमा लेते हैं.
वह आदेश में आ गया, परंतु वहां साधुओं के पास कोई डबल रोल तो था नहीं. वही जाप चल रहा था.
"अगली भी अच्छी, पिछली भी अच्छी, बिचली को जूते की मार" वह चमक गया कि यहां कोई अगला नहीं, पिछला नहीं, कोई नहीं, इस मन्त्र का रहस्य क्या है? कोई औरत यहां पर नहीं है. यह जाप यही कर रहा है. बड़े जोरों से बोल रहा है, इसके पीछे कारण क्या है? चुप रहा, जरा शान्त हुआ. मन में एक जिज्ञासा पैदा हुई कि साधु से जाकर इसका रहस्य पूछा जाए. जैसे ही वहां गया, साधु के चरणों में एक बार तो गिरा, शांत स्वभाव उसका.
व्यक्ति जब शांत होता है, उसके विचार में जब पवित्रता आती है. ज्ञानियों ने कहा-उसमें एक अपूर्व शक्ति होती है, जिसे हम लब आफ अट्रैक्शन कहते है. मैग्नेट की तरह उसके
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-गुरुवाणी
प्रेम का आकर्षण सबकी आत्माओं को. यूरोप के अन्दर एक बहुत बड़ा सन्त हुआ. एक जमाना था. उसका इतना प्रभाव यूरोप के अन्दर, वहां के चाहे कैसे भी व्यक्ति हों परन्तु उसके लिए तो वे अर्पित थे. ऐसा उनका जीवन था. ऐसा उसका मधुर सुन्दर कार्य था. जहां वह रहता था, रहने का स्थान इतना सुन्दर बनाया, परन्तु एक भी दरवाजा उसमें नहीं रखा.
सन्त ने कहा-प्रभु का दरवाजा खुला रहता है, यहां द्वार का क्या काम? कोई भी आओ, किसी भी समय आओ, प्रभु का द्वार है खुला मिलेगा. एक भी दरबाजा उसमें नहीं लगाया. कोई दीन दुखी आता और जो उसके पास साधन होता, उससे भक्ति करता. गांव के लोग उस कार्य में उसकी खुद मदद करते.
रात्रि का समय था, जेल से छूटा हआ भयंकर खूनी, उसको उस दिन छोड़ दिया गया. पोलैण्ड के अन्दर, जो वहां की सबसे बड़ी जेल है, वहां से उसको मुक्त किया गया. शाम का समय था, उसने सोचा मेरे पास पैसे तो हैं नहीं और यह ठण्डी रात है, देखता हूं कहीं आश्रय मिल जाए तो एक रात निकाल लू, तो सुबह में अपने गांव चला जाऊं. उस व्यक्ति ने दर्जनों खून कर दिए थे. डाक्टरों ने अभिप्राय दिया था, यह बड़ा खतरनाक व्यक्ति है, कभी भी यह लोगों को नुकसान पहुंचा सकता है, परन्तु कायदा है, कायदे के आगे उनको छोड़ देना पड़ा.
जिस रात वह छूटा भयंकर ठण्डी रात थी. जहां गया, उसे तिरस्कार के सिवाय स्वागत तो कहीं नहीं मिला. बड़ा सच्चा बोलने वाला था. यह उसमें बहुत बड़ा गुण था, जो हकीकत है कह देता. तो जहां गया, लोगों ने पूछा-कहां से आया?
सैन्ट्रल जेल से आया हूं आज ही छूटा हूं और खून की सजा भोग कर आया हूं. लोग पहले ही घबरा जाते, दरवाजा बन्द. कहीं आश्रय नहीं मिला. गांव के एक बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि ऐसी जगह जाओ, जहां तुमको हमेशा के लिए आश्रय मिल जाएगा, तुम्हारा जीवन निर्वाह हो जाएगा. तुम्हारा जीवन मंदिर चर्च बन जाएगा. जाओ वहां.
रात्रि को साढ़े बारह बजे वहां पहुंचा. भयंकर ठण्डी. जाते ही वह वहां देखता है तो द्वार खुला है. अन्दर गया. जो सन्त पुरुष वहां सोए थे, उनको जगाया कि स्वामी मुझे यहां रात्रि में रहना है.
इसीलिए तो मैंने यह स्थान बनाया है. दरवाजा इसीलिए मैंने नहीं रखा, आप जैसे मेहमानों के लिए, आपके स्वागत के लिए यह मकान है. आप मुझे जानते हैं? कोई व्यक्ति रात्रि में आया और आपको जगाकर मेरा परिचय दिया तो हो सकता है आप मुझे यहां से निकाल दें, मैं खूनी हूं, बहुत लम्बी सजा भोगकर के जेल से छूटा हूं. पहले ही परिचय देता हूं ताकि मेरी रात न बिगड़े. ____ मैं यहां किसी के जीवन के विषय में जानने नहीं आया, न मुझे जानने में रस है,
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: गुरुवाणी:
मैं तो ये देखता हूं, आप भी परमात्मा के अतिथि हैं. मैं तो परमात्मा के रूप में ही जगत को देखता हूं. आप निश्चित रहें, आपकी और क्या सेवा करूं? आप बतलाएं.
और तो कुछ नहीं भूखा और प्यासा हूं अगर थोड़ा सा भोजन मिल जाए तो आनंद आ जाए. जेल के अन्दर सो कर के मेरे सारे बदन में दर्द हो गया. कहीं सोने को सुन्दर तकिया या गद्दा मिल जाए तो मैं आराम से रात निकाल लूं. बड़ी सुन्दर मुझे निद्रा आएगी.
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मैं व्यवस्था करता हूं. सन्त के हृदय में ऐसी अपूर्व करुणा थी, अपने साथियों से कहाबहुत बड़े मेहमान हैं, इनके साथ ऐसा व्यवहार करो. पापियों के साथ और सुन्दर व्यवहार करो. धार्मिक व्यक्ति इतने खतरनाक दर्दी नहीं हैं. डाक्टर, जो अधिक सीरियस मरीज होता है, उसपर अधिक ध्यान केन्द्रित करता हैं. उसको बचाने की पूरी कोशिश करता है.
साधु सन्तों का स्वभाव भी ऐसा ही है. पापी पुरुषों के प्रति और अधिक करुणा होगी. जो सीरियस मरीज हैं, कर्म के रोग से बहुत पीड़ित हैं. उसके अन्दर मैं उस पापी को कैसे बचाऊं, कैसे उसे पाप से रक्षण दूं. उसकी आत्मा को आरोग्य कैसे मिले? साधु अधिक ध्यान उस तरफ देगा.
धार्मिक व्यक्ति इतने खतरनाक होते ही नहीं. उनके पास कोई ऐसा दर्द भी नहीं, सामान्य उपचार किया, कोई खतरा नहीं. परन्तु पापी के प्रति साधु की करुणा बहुत जबरदस्त होगी.
अपने साथियों से कहा- सुन्दर से सुन्दर आहार इनके लिए बनाओ. जो सामग्री थी उसमें से स्पेशल रसोई तैयार की. बहुत बड़े मेहमान हैं इसीलिए इनका स्वागत भी उसी ढंग से करना है. चांदी की प्लेट निकाली गई बैठाया, भोजन करवाया. सोने के लिए बहुत सुन्दर स्थान उनको दिया गया. मन के अनुकूल भोजन मिला था, पेट भर कर के खाया. विस्तर में गया, सोया. सन्त भी निश्चिंत होकर सो गए.
उसके मन में फिर से पाप का प्रवेश हुआ. युवावस्था थी, पाप के संस्कार थे, पूर्वकृत कर्म ही ऐसा करके आया था, संस्कार नए नहीं थे. ऐसा निमित्त मिला कि और ज्यादा संस्कार जागृत हो गए कि कैसा सुनहरा मौका है, आज कितने शुभ दिन में जेल से छूटा है, खुला द्वार मिल गया, सुन्दर स्थान मिल गया. खाने को अच्छा भोजन, सोने के लिए पलंग मिल गया, परन्तु वहां सुनहरा चान्स चांदी की तस्तरी है.
एक नहीं दर्जनों तस्तरियां यहां पड़ी हैं. कोई पूछने वाला नहीं, कोई देखने वाला नहीं. यदि मैं लेकर चला गया तो यहां कौन इन्क्वायरी करेगा. काफी दूर निकल जाऊंगा, अब तो मेरे पास पैसे की कमी नहीं रहेगी. मन की ऐसी कल्पना में नींद नहीं आ रही थी.
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रात्रि में यही सोच रहा है, और ऐसे अशुभ परमाणु उसमें आ गए, विचारों में आया कि उसके सारे विचार दूषित कर गए, उठा कि मैं जाऊं जाकर अलमारी खोलकर सारी तस्तरी अपने बैग में डाल ली. झोला भरकर के चले, हजारों डालर का माल मिल
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गुरुवाणी:
जाएगा, बिना पसीना उतारे मन में सोचता हूं, यदि यह सन्त जाग गया और मुझे यदि पकड़ लिया तो मुझे फिर से जेल की हवा खानी पड़ेगी. किसी को मालूम ही नही, क्यों नहीं इस साधु का ही खून कर दूं? कहां कौन देखने वाला है फल काटने के लिए जो चाकू रखा था, वही चाकू रसोई से उठाया, सन्त के पास आया. अन्दर की करुणा सन्त के चेहरे से बाहर निकल रही थी, प्रेम और मैत्री से परिपूर्ण वह आत्मा थी, जरा भी दुर्भावना नही. मार्गानुसारी के इतने सुन्दर गुण उसके अन्दर विकसित हो गये थे.
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वह व्यक्ति आया और जैसे ही उस परिधि में आया, यह प्रेम का प्रभाव चुम्बक जैसा है. तुरन्त हृदय पर उसका असर होता है. चाकू लेकरके मारने आया. विचार में एकदम परिवर्तन आ गया, निर्दोष चेहरा है. इस व्यक्ति ने मेरे आने पर कितना सुन्दर व्यवहार किया. मैं कैसे चाकू चलाऊं, वह चाकू लिए पीछे हट गया.
फिर एक बार साहस किया. दूसरी बार कर्म का आक्रमण हुआ कि तू हमला कर, मार डाल. होगा सो देखा जाएगा. काहे को प्यार में कायर बनता है ? ऐसा सुनहरा मौका फिर कभी मिलने वाला नहीं, फिर वह एकदम उत्तेजित हुआ, मारने के लिए आया परन्तु प्रेम का प्रतिकार कैसा, जैसे चेहरे को झांका तो सारे विचार उसके पीछे हट गए.
मैंने मैं सोचा, मैं बहुत भयंकर अपराध करने जा रहा हूं. यह परमात्मा का सबसे बड़ा अपराध होगा.
यह करुणा से भरा हुआ. मेरे ऊपर इसकी कितनी सुन्दर मैत्री, रात्रि को साढ़े बारह बजे मेरे लिए खाना बनाया. इतनी सुन्दर मेरे लिए सोने की व्यवस्था की, इसको यदि मैं मारता हूं तो मेरा मन साक्षी नहीं देता, मेरी आत्मा साक्षी नहीं देती.
वापिस चाकू अन्दर गया, दो, तीन बार उसने प्रयास किया परन्तु मार नहीं पाया. विफल हो गया. सारे दुर्विचार उसके पीछे हट गए. उसका आक्रमण सफल नहीं हो पाया. आखिर निराश होकर उसने सोचा.
यहां कौन देखने वाला है? अगर बैग भर कर में ले जाऊं, ये कहां पीछे दौड़ने वाले हैं, चिल्लाने वाले हैं. बिना मारे अगर मुझे साम्रगी मिल जाती है तो मारने की मुझे कोई जरूरत नहीं, लेकर बहुत दूर निकल गया, परन्तु गांव के किनारे चौकीदार ने ललकारा- कौन है ? कहां जाते हो ?
रुकना पड़ा, मन में डर था कहीं पीछे से गोली न चला दें, 'क्या है तुम्हारे पास ?, कहां जा रहे हो इतनी रात्रि में ?"
" क्या हैं तुम्हारे पास ?"
*आश्रम के बर्तन हैं. सच बोलना पड़ा, मजबूरी थी. रेड हैण्ड पकड़ा गया. "ये बर्तन मैं ले जा रहा हूं, चांदी के हैं."
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गुरुवाणी
तुम चोरी करके भाग रहे हो. दो चार तमाचा लगाया. हाथ में डोरी बांध करके सिपाही लेकर उसे आश्रम में पहुंचे. प्रातः काल पांच साढ़े पांच का समय होगा. सूर्योदय की तैयारी थी और हजरत को ले आए.
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सन्त से कहा, पुलिस वालों ने "आप कैसे सज्जन हैं मैंने कितनी बार कहा यह द्वार आप खुला रखते हो, ऐसे आवारा गर्दी में भटकते हुए लोग आते हैं, चोर डाकू आते हैं आपको यह नहीं मालूम कि इसने जिसको आप ने आश्रय दिया, आपके यहां जिसने रात निकाली हो, वह आपका सारा माल चोरी करके ले जा रहे थे, यह तो अच्छा समझिये कि हम मिल गए और पकड़ लिया, माल भी बरामद हो गया, यह आपका माल लेकर के आया हूं
सन्त के चेहरे में तो और अधिक करुणा थी. बडा दया पात्र व्यक्ति उसने कहा "भाई आपने गलत समझ लिया, ये हमारे मेहमान थे. ऐसी मजबूरी में ये आये थे, इनके पास एक पैसा नहीं था, हो सकता है. कल जाकर आत्म घात करने का कोई गलत कार्य करलें, पैसे के लिए न जाने कौन सा पाप कर बैठें ? क्या पता किसी का खून करके किसी को लूट कर आ जाएं? मैंने सोचा, हमारे यहां ये सब साधन ऐसे ही पड़े हैं, क्यों न इनको पूर्ण कर दिया जाए. विचार से निर्णय ले लिया कि इनको पूर्ण कर दूं. ये माल अब मेरा नहीं इन्हीं का है. इन्हीं को भेंट दिया हुआ है."
यह प्रेम की मार कैसी भयंकर होती है कि जिस के अंदर कर्म मर जाता है, मूर्च्छित हो जाता है, यह प्रेम की मार का चमत्कार है. थोड़े समय के पहले जो व्यक्ति उसे मारने आया, उस व्यक्ति की स्थिति देखिये, चरणों में गिर गया. गिरा इतना ही नहीं वह रोने लगा. उनके चरणों में गिर कर के आंसुओं से पांव धो दिए.
कहा "आप कोई देवदूत हैं. आपका यह व्यवहार आपका यह आचार, मेरे हृदय का मूल से परिवर्तन आज कर गया. अब याद रखिये, मैं आपको विश्वास देता हूं कि अपने वचन के ऊपर, आज जो चाहे मुझसे करवा सकते हैं आपके पसीने की जगह अपना खून बहाने को तैयार हूं. आपके एक शब्द में प्राण अर्पण करने को तैयार हूं. यह ईश्वर की साक्षी मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि आज के बाद मेरे जीवन में ऐसा अपराध नहीं होगा. अब आप मुझे आश्रय दें, जो चाहें मेरे से सेवा कराएं."
शैतान संत बन गया यह प्रेम का चमत्कार ऐसी अपूर्व प्रेम की साधना कि अंतर की वह वासना चली गई. महावीर के शब्दों में कहा जाए, अगर इस प्रकार हम प्रेम और मैत्री की साधना करें तो जितने भी शत्रु हमारी नजर मे हैं, वो मित्रवत् बन जाएंगे. सारी समस्याओं का समाधान मिल जाए, वासना मुक्त बन जाए.
यह उम्र ऐसी खतरनाक है, इस उम्र में यह विचार आता नहीं, तो साधु अपनी साधना के अंदर प्रेम की उपासना कर रहा था जवान साधु था और उसका यही मंत्र"अगली भी अच्छी पिछली भी अच्छी, बिचली को जूते मार"
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-गुरुवाणी
वह जवान व्यक्ति उत्तेजित हो गया, अवस्था ही ऐसी है, उत्तेजना से भरी हुई. जवानी इसी को कहा जाता है, बड़ी खतरनाक अवस्था है. उस विचार में प्रौढ़ता नहीं मिलती. विचार में परिपक्वता नहीं आती. कच्चा अनाज होता है, खाने में स्वाद नहीं आता. यह कच्ची उम्र और कच्चे विचार, जिससे आत्मा को तृप्ति और संतोष नहीं मिलता. वह एकदम उत्तेजित था, परंतु शान्त हो गया विचार के अंदर कि आ जाय तो कुछ अलग है. मेरी स्त्री ने आकर के जिस घटना का वर्णन किया वह एकदम अलग है.
जाकर संत के चरणों में गिरा, और कहा वह तो प्रेम से परिपूर्ण आत्मा थी, आशीर्वाद दिया और कहा-भाई. यहां कैसे आने का कष्ट किया.
महाराज! और तो सब ठीक, यह आपका कौन सा मंत्र है? यह मुझे जानना है, इसका रहस्य क्या है? आप मुझे बतलाइये.
उन्होंने कहा - भाई इसमें कोई रहस्य नहीं यह कोई जाद नहीं कोई ऐसी बात नहीं, यह तो जाप मेरे लिए है मैं करता हूं. मेरी अवस्था नहीं देखी? युवावस्था है. इस अवस्था के अंदर तुमने देखा, न जाने कब पाप का प्रवेश हो जाए. अन्तर-जागृति के लिए, स्वयं को सावधान रखने के लिए, मैं इस मंत्र का जाप कर रहा हूं.
"अगली भी अच्छी पिछली भी अच्छी" .
बाल्यावस्था बड़ी निर्दोष अवस्था, बड़ी सुंदर अवस्था है, ऐसी अवस्था यदि अपने अंदर आ जाए. बृद्धावस्था में व्यक्ति बहुत ज्ञानी होता है. परिपक्व होता है, अवस्था अच्छी होती है, प्रौढ़ावस्था. पचास साठ वर्ष की उम्र होती है, जीवन का अनुभव होता है, उनके पास बड़े गजब की बौद्धिक शक्ति होती है. बालक के पास उस शक्ति का अभाव होता है. वह शक्ति अभी उसमें विकसित नहीं हुई.
रंतु मैं एक शब्द कहूंगा. आप जरा विचार करना. आप के पास उम्र के हिसाब से बौद्धिक शक्ति, बौद्धिक प्रतिभा आ जाए, बड़ी व्यवहार कुशलता आ जाए, दिमाग आपके पास है, बालक के पास दिमाग का अभाव है, इसीलिए बालक कहा जाता है. बालक के पास बुद्धि नहीं है.
अपने पास दिमाग तो है. बालक जैसा पवित्र नहीं है. बालक के पास हृदय है तो बुद्धि नहीं है. जिस दिन अपना हृदय बालक जैसा बन जाए, बुद्धि परिपक्व बन जाए दोनों में सुमेल बन जाए, ज्ञानियों ने कहा-सारी-सारी साधना सुगन्धमय बन जाए. अपूर्व जागृति अपनी अन्तर चेतना में आ जाए. सारी वासना निकल जाए. बालक जैसा हृदय नहीं, प्रेम और मैत्री से भरा हुआ हृदय नहीं. ___आप घर में कुत्ते रखते हैं. आपने कभी कुत्तों को देखा? उनकी साइकोलोजिकल स्टडी की? इन्सान के अंदर कुत्ते जैसा प्रेम भी नहीं, बड़ा अपूर्व प्रेम है. उसके अंदर. आपके घर में रहने वाला कुत्ता आपकी रोटी खाता है. सुबह से शाम तक घृणा प्रकट
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-गुरुवाणी
की. कितनी जल्दी भूल जाता है निर्दोष बन जाता है. उस समय भौंकेगा. आपकी उत्तेजना से उस समय उसमें भी गर्मी आ जाएगी.
थोड़े समय बाद आप घर पर आएं, वहीं कुत्ता सब भूल कर के आपका पांव चाटने के लिए आता है. कभी आप देखना, सब भूल जाता है, निर्दोष बन जाता है. जैसे कुछ भी इसने मेरे साथ नहीं लिया, कोई पूर्व का लक्षण नहीं. अगर कुत्ते जैसा लक्षण भी आ जाए तो संवत्सरी सफल हो जाए.
हम भूलते नहीं, गांठ बांध रखते हैं. कोर्ट तक जाते हैं, वर्षों तक ये संस्कार लेकर जाते हैं. कैसे आत्म कल्याण होगा. यह निकृष्ट प्राणी कुत्ता वह भी आपके व्यवहार को भूल जाता है कि सुबह इसने मुझे डण्डा मारा, मेरा अपमान किया, सब भूल जाता है. आप भूलना सीखिए. बहुत सी बातें तो भूलने जैसी हैं. भूल गए तो आपकी साधना में चमक आ जाए. लेकिन, हम याद रखते हैं, यही सबसे बड़ी गलती है.
साध कहता है-भई मेरी अवस्था ऐसी है. मैं क्या बतलाऊं? यह बाल्यावस्था बडी निर्दोष अवस्था थी. परमात्मा के प्रतीक जैसा मेरा हृदय था. पारदर्शक मेरा हृदय था. किसी के प्रति कटुता, बैर, विरोध नहीं था. पिछली भी अच्छी.
बुढापा आ जाये, इन्द्रियां शिथिल हो जाएं, पाप का प्रवेश द्वार ही बन्द हो जाए. पाप करने की ताकत ही न रहे, निर्दोष बन जाओ, सभी व्यक्ति दया दृष्टि से देखें. बूढ़ा व्यक्ति है, इसकी इज्जत करो. इसको सहयोग दो, क्योंकि वह कोई पाप तो कर नहीं सकता. पर विवश होता है, शारिरिक लाचारी होती है. इन्द्रियां शिथिल बन जाती हैं, पाप करने में असमर्थ बन जाती हैं. वह अवस्था भी बड़ी अच्छी. जीवन का अनुभव कई बार रक्षण का काम करते हैं. “अगली भी अच्छी." ___ यह बिचली अवस्था, पच्चीस से चालीस की अवस्था बड़ी खतरनाक है. इसलिए मंत्र जाप करते समय जोर से बोलता हूं. ___ "अगली भी अच्छी, पिछली भी अच्छी, बिचली को जूते की मार” इस अवस्था को जूते की मार, ताकि इन्द्रियां सीधी रहें. और विषय का दमन होता रहे, यह विषय उत्तेजित न हो जाएं. ये तीन दिन का उपवास जूते की मार है. और कुछ नहीं, ये सारी इन्द्रियां बडी खतरनाक हैं. सब सीधी हो जाएंगी.
निर्विकारी बनने के लिए तप की आराधना है. पूर्व में उपार्जन किए हुए जो भी कर्म हैं, वे सभी कर्मों को नष्ट करने का परम साधन, निर्जरा का परम कारण तप है, इसीलिए तप को निर्जरा का साधन माना.
तपस्या निर्जरा को तत्वार्थ-सूत्र में महान उमा स्वाति ने कहा-यह तप तो निर्जरा के लिए है. जगत की प्राप्ति के लिए नहीं. उस आकांक्षा से मुझे करना नहीं. तप को कलंकित नहीं करना, निर्दोष भाव से करना.
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गुरुवाणी
ये बहुत सी चीजें हमारे जीवन में बहुत विचारणीय हैं हम कर नहीं पाते अगर संसार की इस गुलामी से मुक्त होना है, क्योंकि मन तो नहीं चाहता, मन की वासना तो तीन वक्त आहार मांगती है. मन की वासना ऐसी है सो तो कहेगी लाओ. यह मन को मारने का उपाय है इन्द्रियों पर दमन करने का एक बहुत सुंदर विकल्प है. तप की साधना.
"इच्छा निरोधस्य तपः"
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तप की व्याख्या दी परिभाषा बतलाई, इच्छाओं का विरोध करना, प्रतिकार करना तप है. वासना होगी सुन्दर से सुन्दर भोजन लूँ परन्तु आप सावधान हैं, उसका प्रतिकार करते हैं कि इन विषयों को मैं कभी पोषण देने वाला नहीं. ये संकल्प हैं तीन दिन तक चाहे जैसा भी संकट आ जाए, मुझे आहार नही चाहिए. मुझे उस वासना से है. यह हमारा दृढ संकल्प आगे चलकर हमें बहुत लाभ देने वाला है.
मुक्त बनना
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संकल्प में मनोबल चाहिए दृढ़ता चाहिए. एक बार आप मन को वार्निंग दे दिये कि नहीं मिलेंगे. फिर भूख नहीं लगेगी, प्यास नही लगेगी. युद्ध के क्षेत्र में सैनिक लड़ते हैं. न वहां खाने को मिलता है, न पीने को मिलता है. वहाँ तो सामने मौत नजर आती है. मौत नाचती है और दिखती है. कैसे लड़ रहे होंगे, चार पाँच दिन बिना पानी के बिना आहार के निकलते हैं. ऐसा भी मोर्चा होता है, फंस जाते हैं. चारो तरफ निकलने का रास्ता बन्द हो जाता है, राशन का सप्लाई नही हो पाता.
कैसे जीतते हैं. कैसे मौत का मुकाबला करते है ? ये सारी चीजें आपकी नजर में है. आप मन को समझाइए जब आपको लड़ना है लड़िये एक प्रकार से मन के साथ युद्ध है. मन बहुत तूफान करेगा, सुबह सात बजे सायरन बजेगा कि खतरा है. चाय लाओ. उबासी पर उबासी आएगी. दोपहर को पेट अन्दर से पुकारेगा फिर सायरन बजेगा खतरा है लाओ. तीन-चार टाइम खाएंगे.
युद्ध के अन्दर एक पालिसी होती है उसके अन्दर पहले क्या किया जाता है. दुश्मन सेना कि सप्लाई को पहले कट किया जाता है. लड़ाई बाद में, सप्लाई कट पहले किया जाता है. उसके लिए क्या करते हैं. पुल तोड़ेंगे, रेलवे लाइन तोडेंगे, रोड पुल को काट देंगे ताकि दुश्मन सप्लाई कर ही न सके जैसे ही सप्लाई कट हुआ दुश्मन की आधी शक्ति चली गई. आधा मुकाबला खत्म हो जाए युद्ध में विजय प्राप्त करने का यह रास्ता, पहले ही सप्लाई कट.
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हमारा तो कर्म के साथ युद्ध, अभी वास्तविक नहीं यह तो रिहर्सल किया जा रहा है तीन दिन इसलिए क्या किया जा रहा है पहले तीन दिन कट. यह मन ऐसे नही मरेगा ये विषय ऐसे नही मरेंगे, बहुत बड़ी एनर्जी है उसके पास, ये सब सप्लाई कट कर दिया जाता है, उसमें पहले ही राशन सप्लाई छंटा, ताकि मन की साधना हो जाए, यह तीन दिन का अभ्यास है, यहाँ तो तीस दिन निकालना है, कभी प्रसंग आ जाए तो सप्लाई
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- गुरुवाणी
कट कर देना है. आँख का सप्लाई कट, कान का सप्लाई कट, जीभ का सप्लाई कट, विषयों का सप्लाई कट कर दीजिए, ऐसी बम बारी करिये कि सब पुल टूट जाएं.
आत्मा स्वतन्त्र बन जाए, दुश्मन हार जाए, मर जाए. कर्म को मारने का यह उपाय है. यदि तीन दिन के अभ्यास में भी सफल नही हुए, यदि एक साम्राज्य मोर्चे पर भी हम फेल हो जाएं, और वापिस लौट कर के आ जाएं तो बड़ा शर्मिंदा बनना पड़ता है.
युद्ध के मोर्चे पर अगर सैनिक आए, सामने एक तोप छटे और बन्दक छोडकर करके आ जाए, उसके साथ मार्शल ला कैसा किया जाता है. ऐक्सन कैसा लिया जाता है. हमारी भी हालत एक दिन उपवास करवाया और मोर्चे पर लाकर खड़ा कर दिया. यह शेर बहादुर आज नहीं तो कल अपने कर्म को मारेगा, आत्मा पर विजयी बनेगा. स्वयं की आत्मा को स्वतन्त्र कराएगा.
आपको कल मोर्चे पर खड़ा किया दूसरे दिन ही यदि बन्दूक रख करके आगये कि महाजन बस, आज तो नवकारी पारणा, भगे यहाँ से हमारी क्या हालत होगी? शोभा देता है. राजपूतों की एक कविता है:
तारा की जोत में चन्द्र छिपे नहीं, सूर्य छिपे नहीं बादल छायो। रण चढ़े राजपूत छिपे नहीं, दाता छिपे नहीं, घर मांगन आयो। चंचल नारि के नैन छिपे नहीं, प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखायो। देश फिरो, परदेश फिरो,
कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो। मोर्चे पर जाने के बाद रण का जो मैदान होता है राजपूत छिपा नहीं रहता, उसका खून खौल जाता है. तलवार लेकर के युद्ध में नाचता है. मौत के साथ खेलता है.
दानेश्वरी आत्मा घर पर अगर कोई याचक आ जाए, कभी छिपा नही होगा, उसकी उदारता सहज में ही प्रकट हो जाएगी. कहना नही पड़ेगा मैं दानेश्वरी आत्मा हूँ. __चाहे कितना ही बादल आ जाए सूर्य छिपता नही, प्रकाश आ ही जाता है, प्रेम कभी छिपा नही रहता, वह स्वंय प्रकट हो जाता है. आचरण से प्रकट हो जाता है.
चाहे आप दुनिया में कहीं भटक जाओ, सर्जरी करवा के आ जाओ, नाम बदल के आ जाओ, घर का साइन बोर्ड बदल दो, कर्म छिपता नही बरोबर आएगा. चाहे कितनी भी भभूत लगा लो, बाबा बन जाओ, त्रिशूल ले लो, बम-बम भोले नाथ करो, कर्म पहुँच
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-गुरुवाणी:
HTRA
ही जाएगा. यह तो कर्म को मारने का उपाय बतलाया गया, यह तो एक सामान्य उपाय है. अभी तो पर्युषण आ रहा है. वह तो आठ दिन लड़ने का है, ऐसे प्रबल शत्रु से मुकाबला करना है जिसने अनादि काल तक हमें गुलाम बनाकर रखा, संसार की सैन्ट्रल जेल में हमको लाकर रखा. कर्म राजा का कैदी बना करके रखा.
हमारे जीवन पर उसका कैसा अधिकार कभी उसका पश्चाताप, उपाय, कभी विचार आया कि गुलामी में कहां तक रहूंगा. जरा आप विचार करिये. इस संसार का जितना भी आनंद है, क्षण में नाश हो जाएगा. खाते-पीते मौज करते यदि डाक्टर ने इतना ही कह दिया-आप को कैंसर है. उसका परिणाम सारा आनंद चला जाएगा. एक क्षण के अन्दर. जीवन में पसीना उतार कर जो पैदा किया कोई चीज. परमात्मा महावीर की भाषा में कहा जाए.
"खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुःखा" वह क्षण मात्र का आनंद, वर्तमान को प्राप्ति में संतोष, वह उसका परिणाम, भविष्य में आपके लिए सजा उपस्थित होगी. भविष्य में दुख और दर्द का कारण बनेगा.
वही जवान व्यक्ति, मैं बम्बई चौपाटी में था. वह जवान व्यक्ति कभी मंदिर नहीं गया, धर्मस्थान नहीं गया, उस जवानावस्था के अन्दर अमेरिका गया, बहत बड़ा जौहरी था. वहां जाने के बाद उसको टैम्प्रेचर हुआ. बुखार उतर नहीं रहा था. उसने निदान करवाया और कैंसर मिला.
इकलौता लडका, सम्पन्न परिवार. मेरा चतुर्मास चौपाटी में ही था, मेरे बिल्कुल पास वाली बिल्डिग में उसके रहने का था. लाल गुलाब के फूल जैसा उसका चेहरा, जवान अवस्था चौबीस, पचीस वर्ष की. डेढ वर्ष शादी को हए, एकमात्र उसकी छोटी बालिका और कोई नहीं माता-पिता पुत्र के लिए सब कुछ करने को तैयार
मेरे पास आए, जीवन में कभी नहीं आया, और ऐसी तबीयत है. उस वक्त बिना बुलाए पास आए.
कहा-महाराज इकलौता लडका है और ऐसी तबीयत है. मैं लेकर आया हूं.
मैनें कहा- मौंत से तो मैं नही बचा सकता पर मौत का सुधार जरूर कर सकता हूं. बचाना मेरे हाथ में नही है. सुधारने के लिए मेरा प्रयास है. इसकी मृत्यु इसके लिए वरदान बने, महोत्सव बने. मैंने कहा-वैसे कोई आशा तो नहीं है. मैं रोज उस बालक को बलाता, आधा घण्टा समझाता, वहां तक चलने फिरने की ताकत थी. चौमासे में एक दिन भी उसने परमात्मा की पूजा नहीं छोड़ी. घण्टा, दो घण्टा परमात्मा की भक्ति में रहता. प्रतिक्रमण कर के अष्ठम का मौका आया. तीन दिन तेला किया. चौविहार किया.
मैने उसे अपनी माला दी और कहा पार्श्वनाथ प्रभु का जाप करना, जीवन के अंतिम समय वही समाधि देगा. पार्श्वनाथ प्रभ के नाम स्मरण में वह ताकत है, वह मौत को सुधारती
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गुरुवाणी
है और मोक्ष गति देती है. चित की समाधि देने वाला परमात्मा के नाम क्रम में ऐसा चमत्मकार है जिसके द्वारा नाम लेते ही आत्मा को शान्ति और समाधि मिले.
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प्रतीक्षा करनी पड़ी. उसके आने जाने में तकलीफ पड़ने लग गई, शरीर क्षीण हो गया, शक्ति नहीं रही. दीवाली के बाद में स्वयं उसके घर जाता, मैंने देखा इसको किसी भी तरह से समाधि मिले, रोज वहां मंगली सुनाने जाता. तीन माले चढ़ता और उतरता, परन्तु किसके लिए? एक जीव के लिए, संतोष मिले, उस आत्मा को आज उसकी मृत्यु समाधिमय हो.
,
रोज जाता, रोज उसको जगा करके आता सावधान करता मैंने अपनी माला दी कि मेरी माला है, तुम गिना करना, पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति अपने सामने टेबल पर रखा. रोज सुबह से शाम तक जब भी जागृत रहना, माला और भगवान पार्श्वनाथ की तरफ दृष्टि, परिवार में नही, पुत्री में नहीं, किसी भी तरह का मोह गया नहीं, उसको स्नान करा देते, नर्स रखी थी. कपड़ा पहन लेता और वही माला. जो थोड़ा बहुत खाया
जाए, खाए.
मुझे एक दिन उसने कहा- महाराज आशीर्वाद दीजिए, आरती उतारता हूं तो एक गिलास आंसू निकलता है इतना दर्द आशीर्वाद दीजिए, जल्दी मेरी मौत आ जाए.
मैंने कहा- घबराने से काम नही चलेगा. मोर्चा तुम्हारे हाथ में है. जरा मजबूत और सावधान रहना, मौत का प्रतीकार करना है. मुकाबला करना है. मौत भी एक बार विचार में पड़ जाए कि कहां आ गई.
रवीन्द्र नाथ टैगोर के अंतिम समय जिस दिन मृत्यु होने वाली थी, उसी दिन अपने अन्तर हृदय से परमात्मा को निवेदन किया कि भगवान मेरी अंतिम प्रार्थना स्वीकार करें. यहां पर मैं तेरे द्वार पर मौत से बचने की याचना लेकर नही आया, जगत से भागकर कायर बनकर मैं तेरे द्वार पर भीख मांगने नहीं चाहे कैसा भी कर्म का आक्रमण हो जाए, मृत्यु का मुकाबला करना पड़े, भगवन्! तू सहन करने की शक्ति दे.
उनकी गीतान्जली में आप पढ़ना, उन्होनें अपनी प्रार्थना में लिखा- मेरे अंतिम समय मौत जब सामने आई वे कहते हैं अपने साथियों को भई मैनें आज तक सब कुछ तुझे लुटाया है, सब कुछ साथियों को दिया है, अब मेरे पास देने को कुछ भी नही रहा और मौत अपनी झोली लेकर के आई है. उस झोली को खाली कैसे भेजा जाए.
मैंने आज सोच लिया कि अपना जीवन उस मृत्यु की झोली में दे दूं. ताकि वह खाली हाथ वहां से न लौटे, मरने के दिन उनके ये अंतिम शब्द थे. कैसी मृत्यु सरल और सदाचारी आत्मा के जीवन में मौत भी सीधी और सरल हो जाती है.
मैंने उसको इतना सावधान किया, उसका परिणाम दूसरे दिन उसकी हालत बिगड़ गई. बैठा था सामने परमात्मा की वह मूर्ति, परर्श्वनाथ भगवान की ओर मेरी दी हुई माला
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गुरुवाणी:
उसके हाथ में माला गिन रहा था. परिवार के लोग आंसू निकालकर सामने खड़े थे, मैं भी गया मंगलाचार सुनाया, वन्दन किया पच्छखान किया. कहा- मुझे जब घर से परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं, मैं मन से साधु बन चुका हूं, आप मेरा सब कुछ त्याग करवा दीजिए. मैंने उसको पच्छखान दिया, त्याग कराया, जहां तक मुझे जरूरत न हो, वहां तक पानी का भी त्याग, वह भी पच्छखान दिया, उस पच्छखान अवस्था के अन्दर पूर्ण त्यागावस्था में जो व्यक्ति मुझे कान में कहता है मुझसे बोला नही जाता. महाराज मैं मन से साधु बन चुका हूं
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उस समय उसका नेत्र परमात्मा की तरफ माला गिन रहा है. आधी माला गिनी और प्राण गए. कैसी मौत हुई, मांगने पर भी न मिले. अच्छे-अच्छे करोड़ - पतियों को न मिले, सारा राज्य भी आप अर्पण करदें तो भी ऐसी मौत नही मिलती, कैसा पुण्यशाली 26 वर्ष की अवस्था थी और प्राण चले गए. न कभी स्त्री की तरफ और न अपने माता-पिता की तरफ देखा. मरने के बाद भी उसका हाथ ऐसे का ऐसे दृष्टि खुली हुई, भगवान की तरफ.
ये अट्ठमतप की आराधना बडी मूल्यवान आराधना है, यह मौत को सुधारने की आराधना है, यह मृत्यु को महोत्सव बनाने की अपूर्व कला इस अठ्ठमतप के अन्दर है.
पार्श्वनाथ भगवान का जाप चित्त की शान्ति और समाधि देता है ये भूखे मरने की चीज नही है, यह तो भूखा को मारने की दया है.
हमेशा के लिए मृत्यु की वेदना से आत्मा का रक्षण हो, अनादि कालीन इस आहार की वासना से मैं मुक्त बनूं इस भावना से यह आराधना कराई जाती है. अपने अन्दर भी यह सावधानी होनी चाहिए. इस सूत्रकार ने कहाः
"प्रतिक्षणं क्रियाचेति"
इसका अर्थ क्या है. क्रियाओं के अन्दर व्यक्ति को सतत जागृत रहना चाहिए. यह मेरा आचरण, मेरी धर्म क्रिया है. मैं अन्तिम समय तक अपने आचरण को छोड़ने वाला नहीं, यह तो एक प्रकार का आन्तरिक मोमेन्ट है. विचार के अन्दर का एक आंदोलन है. इसमें अगर सफलता मिल गई तो बहुत बड़ी आशा है. यहाँ यदि हम निष्फल हो गए तो आगे बढ़ना बहुत मुश्किल होगा. पर्युषण तक तो अपना हृदय इतना स्वच्छ और निर्मल बनना चाहिए.
ऐसी कोमलता और मधुरता हमारे जीवन में आनी चाहिए. हमारा मिच्छामि दुक्कड़म् हमारे लिए वरदान बन जाए.
हमारा एक मिच्छामि दुक्कडम् मोक्ष का द्वार खोलने वाला बन जाए.
अन्तर हृदय से निकला हुआ यह यन्त्र मिच्छामि दुक्कडम् जगत के बन्धन से मुझे मुक्त बनाने वाला बन जाए तब तो मैं समझें कि यह मिच्छामि दुक्कड़म् दिया. नही तो • आप नाटक करके चले जाइये.
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-गुरुवाणी
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. भगवान के घर में कोई चीज छिपी नही है. फिर अपराध होगा. फिर दोषी बनेंगे. हमारी आदत बड़ी खराब है. रिमांड पर लेते हैं न पुलिस वाले. चोर को जब मारा जाता है, पूजा उतरती है तो क्या बोलता है, कभी चोरी नहीं करूंगा. कभी भूल नही करुंगा. हमारी भी ऐसी आदत बन गई है कि जब कर्म की मार पड़े तो भगवान के पास दौड़े. भगवान कभी ऐसा नहीं करता जैसे ही वहां रिमांड में से छटे, परमात्मा की दया से बच गए, फिर भगवान को ही भूल गए. उपाश्रय भूल गए. महाराज को ही भूल गए. सब भूल गए, फिर कर्म की मार पड़े तो सीधे ही यहां, यह हमारी आदत... .. मैं कहा करता हं आप बुरा न मानना, ये सब गनहगार हैं. भल करते हैं फिर यहां आते हैं. गुनहगार की; बार बार कर्म राजा रिमांड पर लें और मार खाएं. फिर परमात्मा के द्वार पर दया की भीख मांगने के लिये आये.
आदत बदल लीजिए वैर और कटुता को छोड दीजिए. प्रेम और मैत्री से पूर्ण बन जाइये. सजा से मुक्त बन जाएंगे. यह सब इन्द्रियों का तूफान है.
सेठ मफत लाल एक तोता लेकर आया. तोता बड़ा सुन्दर था, बड़ा समझदार था, मफतलाल उसे खरीद लाए. बड़ा शौक था. कई व्यक्तियों को बड़ा शौक होता है, परन्तु वे भूल जाते है कि किसी को बन्धन में रखकर यदि मैं आनंद लूं तो यह बन्धन मेरे लिए भविष्य का बन्धन बनेगा. आदत, आपको बड़ा प्रिय लगता है, आवाज कान को बडी प्रिय लगती है. वह तोता तो ले आया.
संयोग वहाँ पर गुरु महाराज का आना जाना, साधु भगवन्त आहार के लिए. आए भिक्षा के लिए आए. महाराज ने देखा यह अच्छी चीज नहीं है, श्राविका से कहा, बच्चो से कहा, बन्धन रखना, यह श्रावक का आचार नही है, अतिचार लगता है.
साधु भगवन्तों के आने जाने से उस तोते को जातिस्मरण का ज्ञान हो गया. पूर्वकर्म का भय उसकी स्मृति में आ गया. आपने पढ़ा होगा कि हमारे कार्यकर्ता सिद्धराज ढड्डा जो स्वर्गीय गुलाब चन्द जी ढड्डा के सुपुत्र हैं. उनके जीवन की एक यातना है. छपी हुई एक घटना है. यह सत्य घटना है.
वे पालीताना शत्रजय यात्रा में गए थे. ऊपर चढते समय जो पालीताना मन्दिर आता है, किसी कारण से एक तोता घायल हो गया. जमीन पर पड़ा था. मरा नहीं था. गुलाब चन्द जी पूजा करने जा रहे थे. हाथ में उस तोते को लिए, पानी डाला, सूत्र सुनाया, उनके हाथ में ही तोता मर गया. जो क्रिया करनी थी, एक रात जा कर आए. ___ कुछ वर्ष बाद यही सिद्धराज जी जब पांच छ: वर्ष के थे, गुलाब चन्द की यात्रा करने .प्रति वर्ष जाते. उसे लेकर गये. सिद्धराज ढड्डा ने अपने मुंह से कहा-पिता जी यह जगह तो मेरी देखी हुई है. मैं तो यहां आया हूं और आपके हाथ में ही मरा हूं. वही तोता मर करके उनका पुत्र बना, वही आज के सिद्धराज ढडडा.
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जन
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गुरुवाणी
एक नवकार मंत्र सुनाने का यह प्रभाव अन्तिम समय उस आत्मा को समाधि दी. मरकर के संयोग ऐसा उन के घर में पुत्र के रूप में हुये. यह घटना बहुत वर्ष पहले ही प्रकाशित हो गई, जब वे बहुत ही छोटे और निर्दोष थे, बालक अवस्था थी. जाति स्मरण ज्ञान डूबा अपने पूर्व भाबुकों को देखा, सारी हकीकत उन्होंने बतलायी ऐसी घटनायें कई बार होती हैं. ये मतिज्ञान का ही एक प्रकार है, आज तो ज्ञानियों ने पैरासाइकोलोजी में इनकी पूरी खोज की. यह सिद्ध हो गया की आत्मा में भी एक प्रकार की शक्ति है.
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वह तोता जिसकी स्मृति जागृत हुई, साधुओं के आगमन से वासना को लेकर मैं इस स्थिति में आया. पक्षी बना एक दिन सेठ मफतलाल व्याख्यान में जा रहे थे तोते ने कहा- मेरे एक प्रश्न का जवाब लेकर आना. मनुष्य की भाषा तोता कई बार बोल लेता है.
पूछा संसार के बन्धन से आत्मा किस प्रकार मुक्त बनती है बड़ा गंभीर, तात्विक प्रश्न था. मफतलाल ने तो ऐसा सोचा ही नहीं था. वे व्याख्यान में गये. वहां व्याख्यान हुआ और जब विदाई का मौका आया. सब चेले गये तब मफतलाल ने महाराज से कहा- बन्धन से आत्मा कैसे बचती है.
महाराजा ने कहा- यह तुम्हारा प्रश्न नही हो सकता, जिस व्यक्ति में ऐसा प्रश्न आया उस व्यक्ति का जीवन नहीं होता है. तू सच बतालाओ. ज्ञानी थे. तुरन्त उसकी चोरी पकड़ ली.
उसने कहा-महात्मन्! मैंने घर में एक तोता पाल रखा है. उसने मुझसे पूछा और कहागुरु महाराज से मेरे प्रश्न का जवाब लाना कि जीवन बन्ध से मुक्त कैसे होता है.
तोते का प्रश्न है. यह कहते ही महाराज बेहोश हो गये, एक दम गिर गये. न श्वास चले न कुछ बोले. मफतलाल डर गया कि मैंने ऐसा क्या गलत काम कर दिया ? यहां कोई व्यक्ति मिलेगा तो क्या कहेगा कि महाराजा को न जाने क्या कर दिया ? बेचारे साधु महाराज बेहोश हो गये. वे मौका देख कर चुपचाप ठहर के दूसरे दरवाजे से निकल गये मौके की ताक में ही थे, बदनामी से तो बच जाएं, तो लोग क्या समझेंगे ? खड़ा रहा तो लोग कहेंगे की सेठ तुम्हारे में इतनी अक्ल नही डाक्टर बुलाना, उपचार करवाना था, कुछ तो करना था, जिससे गांठ का पैसा खर्चना पड़े. दूसरी तकलीफ..
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सबसे अच्छा उपाय पीछे के दरवाजे से निकल गये. जाकर अपने तोते से कहा कि तेरा प्रश्न कितना भयंकर है. जैसे ही मैंने महाराज से कहा, महाराज तो बेहोश हो गये. एकदम सो गये, श्वास भी नहीं शरीर का हलचल भी नही कुछ भी नहीं. अब कभी ऐसा गलत प्रश्न करना नहीं. मैं तो अब उपाश्रय जाने वाला ही नही. "न नौ मन तेल हो न राधा नाचे" काहे को जाऊं उपाश्रय क्यों मुश्किल मोल लूं. कल महाराज कोई नया प्रश्न करें. तो मेरी मुश्किल.
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-गुरुवाणी:
संयोग दो चार दिन बाद तोता ने खाना बन्द कर दिया, तोता ने पानी पीना भी बन्द कर दिया. वह बेचारा कोमल प्राणी, मच्छित हो गया. बेहोश हो गया, एकदम शरीर का हलचल सब बन्द.
सेठ ने सोचा यह मर चुका है. मैं अब इसे बाहर छोड़ कर के आ जाऊ. पिंजरा लेकर के गया, जंगल में दूर उस तोते को छोड़ दिया. नवकार सुनाकर वह वापिस मुड़ा तभी तोता उड़ गया. और झाड़पर जाकर बैठ गया, देखकर मफतलाल एकदम आश्चर्य में पड़ गया.
तोते ने कहा-मैं तो मुक्त हो गया. महाराज ने उपाय बतलाया, अब संसार के बन्धन से तुम्हें मुक्त होना है, तो मेरे जैसा उपाय कर लेना, इन्द्रियों को सुखा लेना, अपने आप मुक्त हो जाओगे.
छोटी सी बात के अन्दर जीवन का बहत बड़ा रहस्य आपको खोल करके रख दिया कि देखो कि भाषा में कितना सुन्दर संदेश भेजा. तुमसे कहा कि छोड़ आओ तो मेरे ममत्व के कारण तुम नहीं छोडते. उन्होनें एक ही उपाय बतलाया कि जिस प्रकार से मैंने किया ऐसे ही तुम भी करो, अपने आप छूट जाएगा.
जिस दिन आप इन्द्रियों को सला देंगे, आंख, कान, नाक, सो जाएं, शरीर की समस्त वासना सो जाए, उसी दिन आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त बन जाए. इन्द्रियों को सुला दीजिए अपने आप आत्मा जागृत हो जाएगी. मुक्त हो जाएगी. सारी आराधना तप की हो, जप की हो ये सब इन्द्रियों को सुलाने की हैं, इन्द्रियों को सुषुप्त दशा में लाने की मंगल क्रिया है. आत्मा की जागृति से लिए पूर्व भूमिका है. एक बार जागृत बनना है. आप निश्चित अपना कल्याण कर लेंगे. आज इतना ही रहने दें.
“सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्"
अगर कुत्ता हमें काटे और हम भी कुत्ते को काटने के लिए तत्पर बन जाएँ तो फिर हमारे और कुत्ते में क्या फर्क रहेगा! अपकारी के प्रति भी उपकार की वर्षा करना भगवान महावीर का आदर्श था. मैं समझता हूँ यही आदर्श हमें सुख-शान्ति और आनन्द दे सकता है. प्राणी-मात्र के प्रति परम मैत्री की अभिलाषा ही हमें सब दुःखों से मुक्त करेगी.
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गुरुवाणी
समाधान संवाद से, विवाद से नहीं
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परम कृपालु आचार्य श्री हरि भद्र सूरि जी महाराज ने धर्मबिन्दु ग्रन्थ के द्वारा आत्म धर्म के साथ जीवन के व्यवहार का भी धार्मिक दृष्टि कोण से परिचय दिया. जिस तरह अपने व्यवहार के द्वारा आत्म धर्म की उपासना हो, व्यवहार के माध्यम से भी मैं धर्म साधना करने वाला बनूं. मेरा सारा व्यवहार धर्म का व्यापार बन जाए. उस व्यापार से जगत को मेरे व्यवहार से, क्रिया से धर्म की प्रेरणा मिले इस प्रकार का मुझे सम्यक आचरण अपने जीवन से सक्रिय करना है.
जीवन के सम्पूर्ण व्यवहार का परिचय देकर, जो बड़े महत्व की बात उन्होंने बतलाई कि वाणी का व्यापार इस प्रकार का बनाया जाये, वाणी के व्यापार द्वारा भी व्यक्ति पुण्य लाभ को प्राप्त करने वाला बने, परन्तु उसके साथ
"प्रस्तावे मितभाषित्वम् अभिसंवादतम् तथा" जरूरत पड़ने पर अपने वार्तालाप में कोई ऐसा विषय नहीं आना चाहिए कि जिससे वह विवाद का कारण बन जाए और जीवन में संघर्ष पैदा करे. आध्यात्मिक तत्व का चिन्तन किया गया कि अपने अतशत्रुओं पर कैसे विजय प्राप्त किया जाये. वे अंतरंग जो हमारे प्रबल शत्रु हैं. उन शत्रुओं का दमन किस प्रकार से किया जाए?, उपाय और युक्ति द्वारा उस पर विचार करेंगे. सूत्रकार ने इस सूत्र का संकलन किया
“प्रस्तावे मितभाषित्वम्" जरूरत पड़ने पर जो कुछ भी वार्तालाप किया जाए, विचार विमर्श किया जाये उस विचार विमर्श से आत्मा को लक्ष्य से रखकर के उसमें विवाद न आ जाये. कोई चर्चा संघर्ष का कारण तभी होती है. जब विचार से विवाद का प्रवेश होगा तो जीवन का संघर्ष निश्चित होने वाला है. यहां संवाद चाहिए विवाद नहीं चाहिए. ___महावीर की भाषा में कहा गया मुझे संवाद चाहिए विवाद नहीं चाहिए. विवाद और संवाद में अन्तर इतना ही है, आपने देखा होगा, हिन्दी के अन्दर छत्तीस जो लिखा जाता है. वह विवाद का प्रतीक माना गया संवाद का प्रतीक आमने सामने : मुझे अपने जीवन में ३६ का आकार नहीं लेना, यहां तो ३६ का अंक बनता है. यदि अपना जीवन ६३ के अंक की तरह से बन जाये, आमने सामने उपस्थित हो जाये. संवाद का रूप ले लिया जाए तो विचार विमर्श आनन्द देने वाला, चित्त की प्रसन्नता. देने वाला बनेगा. संघर्ष का कारण कभी नहीं बनेगा.
राजनीतिक दृष्टि से आज तक जितने भी संघर्ष हुए इस विवाद के कारण हुए. हम ज्यादा तर समस्या की गहराई में नहीं जाते, समस्या के मूल कारणों पर हम विचार नहीं ,
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करते, ऊपरी स्थिति देखकर के हम संघर्ष में चले जाते हैं. अगर मति में चले जाएं तो विवाद का कोई कारण नहीं रहेगा. समस्या खोज निकालेंगे. हमारी आदत कि छोटी-छोटी बात को लेकर हम विवाद उपस्थित करेंगे, बच्चों की तरह से हमारा हठाग्रह हो जायेगा. कई बार आग्रह सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं में उलझा देता है.
सारी समस्याएं विवाद में से जन्म लेती हैं, सारे विवाद नहीं संवाद चाहिए. जो भी चचा का जाय, सवाद के रूप में की जाये. विचारों का आदान प्रदान हो जिससे कोई नयी चीज हमको मिले, विचारों के उस तत्व का मन्थन हमको मिले जो आत्मा के लिये पोषण देने वाला हो. विचार और चिन्तन यदि संवाद की भूमिका पर हैं. तब तो वह प्रसन्नता देने वाले बनेंगे, यदि विवाद की भित्ति पर हैं तो संघर्ष होगा..
कई जगह पर पढ़े लिखे शिक्षित व्यक्ति हो करके भी छोटी-छोटी बातों में पड़ जाते हैं, और संघर्ष पैदा कर लेते हैं. हिन्दुस्तान के अन्दर यहां के पढ़े लिखे शिक्षित पार्लियामेन्ट में या विधान सभा में यदि देश की कोई समस्या हो, राष्ट्रीय हो, सामाजिक हो या किसी भी प्रकार की मौलिक समस्या हो, वहां पर विचार विमर्श करें क्योंकि वह संवाद का, विचार विमर्श का स्थान है और यदि उसे विवाद का रूप दे दें और फिर नाटक, तमाशा हो तो यह स्थिति देश के लिए कितनी शर्मनाक है. यदि न्यूज में ये आ जाये तो हमारे आने वाले बच्चे का क्या संस्कार? बाहर के लोग किस प्रकार से हमारी स्थिति का तमाशा देखेंगे. राष्ट्र का गौरव कहां रहा? __ कुछ वर्ष पहले, बात बड़ी छोटी थी लेकिन विवाद क्या रूप लेता है? उसका एक नमूना बतलाऊं. नागपुर में महाराष्ट्र की विधान सभा का सत्र चल रहा था. महाराष्ट्र में गणेश जी की बड़ी मान्यता है. वहां के लोगों के अन्तर भाव में बड़ा पूज्य भाव है. गणेश जी को वहां का एक प्रतीक माना गया है. मंगल भावना का. बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं. हरेक कार्य में गणेश जी को सबसे पहले याद करते हैं. वैसे भी भारतीय परम्परा में “श्री गणेशाय नमः बोल करके ही कार्य प्रारम्भ किया जाता है.
वहां एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो गया. किसी व्यक्ति ने वहां प्रश्न किया कि भारत धर्म निरपेक्ष है. असांप्रदायिक है. ऐसी स्थिति में यदि बच्चों को पढ़ाने की पस्तक जो सचित्र आती है, उसमें ग के द्वारा गणपति का परिचय दिया गया. ग यानि गणपति. महाराष्ट्र में हर बालक गणपति से परिचित है. वहां के आराध्य देव माने गये हैं. उस व्यक्ति ने आपत्ति उठाई कि ग की जगह गणपति क्यों? उन लोगों को गणपति का नाम लेने में भी जोर लगता है.
रहेंगे हमारे देश में, आज से नहीं हजारों वर्षों से हमारे यहां पर हैं, एक हजार वर्ष तो उनका राज्य चला, हमारी सारी संस्कृति विकृत बनी. इस देश को बहुत बड़ा नुकसान सहन करना पड़ा, फिर भी उनको आपति ही नहीं. प्रसंग आता है तो वे अपनी समस्या खड़ी कर देते हैं. एक घन्टे के लिए यदि लोकसभा में प्रश्नोत्तर चला हो तो लाखों का
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खर्चा आता है वह सारा बोझ आप पर पड़ता है. इस गरीब प्रजा को ही उसका वहन करना पड़ता है.
उसने ऐसा विवाद का रूप लिया कि तीन दिन तक चर्चा चली, मात्र ग ने गणपति का रूप ले लिया. आखिर में स्पीकर ने निर्णय किया कि वोटिंग लिया जाये. उन्होंने अपनी तरफ से गधे को खड़ा किया कि ग माने गधा होना चाहिए. आप जानते हैं यह कलिकाल है. कलिकाल में गणपतिजी का संसार में विरोध हैं, गधा फिर भी मान्य है. _ विवाद को लेकर जब पेपर में चर्चा का विषय बना तो लोगों के अन्तर भाव को कितनी चोट पहुंची होगी. एक थोड़े से समुदाय को प्रसन्न करने के लिए हजारों, वर्षों से चली आ रही हमारी संस्कृति को हम नुकसान पहुचायेंगे, तो हमारे संस्कार को वह क्या असर डालेगा, मैंने एक मात्र दो नमूना बतलाया. एक सामान्य विवाद कितना भयंकर रूप ले लेता हैं. ये अच्छा हआ कि साम्प्रदायिक प्रभावना आगे नहीं बढी. कछ नियंत्रण में आ गया. नहीं तो हजारों लाखों व्यक्तियों की गर्दन चली जाती. __ छोटी-छोटी बात को लेकर के यहां तनाव खड़ा होता है. एक सामान्य बात को लेकर सांप्रदायिक युद्ध हो जाता है. न जाने कितने निर्दोष व्यक्ति अपने प्राण गंवा बैठते हैं. आचार्य भगवन्त ने निर्देश दिया कि नहीं, कोई ऐसा विषय विवाद को रूप न ले, उसके लिए सावधानी रखना.
अंग्रेज यहां राज्य करके गये. उनकी एक नीति बड़ी सुन्दर थी किसी भी व्यक्ति की धार्मिक भावना को चोट न पहुंचे तभी हमारा शासन रहेगा, इसलिए उन्होंने कभी धार्मिक कार्य में हस्तक्षेप करने का प्रयास नहीं किया. राजनीतिक दृष्टि से वे चाहे कैसे भी हों, परन्तु कभी किसी की धार्मिक भावना को ठेस लगे, ऐसा कोई कार्य नहीं करना, यह उनका एक निर्णय था इसलिये वे इतने टिक पाये.
प्रसंग ऐसे उनके समय में आये. बड़ी कुशलता के साथ उन्होंने उसको समझाया. हमारे यहां तो सरकार छोटी-छोटी बातों में भी हस्तक्षेप करेगी. उसमें हस्तक्षेप का प्रयास करेगी, चाहे यह कार्य किसी भी तरह से हो मुझे कर देना है. जरा से स्वार्थ के लिए भले ही देश का नुकसान हो जाए, हमारी परम्परा को चोट पहुंच जाए, हमारे संस्कार के ऊपर भयंकर असर डालने वाली हो तो भी अपने महत्व को सिद्ध करने के लिए कार्य की सिद्धि के लिए वह कछ भी करने को तैयार है.
एमरजेन्सी के वक्त ऐसा ही प्रसंग आया. निर्णय लिया गया कि बिहार के अन्दर जितने भी मंदिर विवाद में है, जहां समस्या है उनका राष्ट्रीयकरण कर दिया जाये. मन्दिरों का भी राष्ट्रीकरण कर दिया जाये. मैं अहमदाबाद था वहां के उप-मुख्यमन्त्री ने आकर मुझे बताया महाराज जी ऐसी बात है यह निर्णय लिया गया है. इसका पहले प्रयोग बिहार में होगा. हिन्दू और जैन दोनों के करीब 200 मंदिरों का राष्ट्रीकरण करना है. ऐसा निर्णय हमारी वर्किंग कमेटी ने लिया है. यह अब ऐक्शन में आयेगा.
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___ मैंने कहा-यह तो बहुत अनर्थ होगा. मैने कहा क्या किया जाये. साहब. और तो कुछ नहीं, यदि इन्दिरा जी को समझाया जाये तो यह प्रसंग बैठ सकता है, बाकी अभी किसी व्यक्ति में कहने का साहस तो रहा ही नहीं. आनन्द जी कल्याण जो पेढ़ी के ट्रस्टी हैं मिले, कस्तूरभाई सेठ भी उस समय मौजूद थे, विचार किया गया इसका क्या निर्णय लिया जाये. बात कुछ नहीं थी वहां पर सामान्य समस्या थी. और सरकार ने देखा कि मौका अच्छा है और यदि एक बार पहला प्रयोग कर दिया जाये तो अन्य मन्दिरों को, अन्य ट्रस्टों को लेने में आसानी हो जायेगी. प्रजा यदि दब गई तो दूसरे मन्दिरों पर भी अधिकार करो.
अहमदाबाद के उस योग्य व्यक्ति को भेजा गया, मेरा और कस्तूरभाई सेठ के पत्र का बड़ी इज्जत करती थीं इन्दिरा जी क्योंकि जीवन में काफी समय तक उनके घर रहीं. जब जवाहर लाल जी आजादी से पहले जेल में थे और उनकी मां जब स्विटरजलैन्ड में बीमार थीं इन्दिरा जी को काफी समय तक कस्तूर भाई के यहां रहना पड़ा, बड़ा अच्छा सम्मान करती थीं उनका.
हमने पत्र भेजा और तुरन्त उन्होंने फोन किया कि यह आदेश नहीं देना और यह बिल नहीं लाना. बच गये. उन्हें समझाया कि इन मामलों में यदि आप हस्तक्षेप करेंगे तो लोगों की भावना को बहुत चोट पहुंचेगी. आगे चलकर के इसकी प्रति क्रिया बड़ी गलत होगी और ये आप को ही सहन करना पड़ेगा. मन्दिरों को स्वतन्त्र रहने दीजिए, उसमें राजनीतिक प्रवेश मंदिर की पवित्रता को नष्ट करता है. ___बात कुछ नहीं होती है, परन्तु उसे विवाद का रूप दे दिया जाता है. तीर्थ स्थान यदि सरकार के अधिकार में जायें तो उसका परिणाम क्या आयेगा? अपना घर नहीं संभाल सकते तो दसरों का घर क्या संभालेंगे. जहाँ ला एण्ड आर्डर भी न हो, प्रशासन जहां पर शिथिल हो और यदि मन्दिरों की व्यवस्था भी आप उनको सौपेंगे तो क्या परिणाम आएगा?
चैरिटी कमिश्नर जब मुझे एक बार मिले, उन्होंने कहा हम मन्दिरों के लिए एक ऐसा कायदा बना रहे हैं.
मैंने कहा-आप क्यों समय नष्ट करते हैं किसी कायदे की जरूरत नहीं हजारों वर्षों तक हमारे पूर्वजों ने इन मन्दिरों का रक्षण किया है? कोई कायदा था? बिना कायदा के, व्यवस्था के, अपनी भावना से इन मन्दिरों को टिका रखा है. बड़े-2 तीर्थ स्थान हों हिन्दुओं के, जैनों के, बौद्धो के. पूर्वजों ने बहुत बड़ा आत्म बलिदान देकर के हर तरह से हमारी संस्कृति के इस प्रतीक का आज तक रक्षण किया. किसी की जरूरत नहीं पड़ी किसी कायदे की जरूरत नहीं पड़ी. आज आपको कायदा दिखता है.
यदि कायदा बना लिया जाये और सरकार के अधिकार में आ जाये तो मन्दिर का कछ वर्षों में एक ईट भी नहीं मिलेगा. बजट पास होगा, तब तक तो मन्दिर ही गिर जायेगा.
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-गुरुवाणी
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सारी पवित्रता चली जायेगी. ट्रस्टों को यदि कुछ काम कराना हो तो उनको भी पैसा देना पड़ेगा कि हमारा यह बजट पास करो, पैसा आपका, मन्दिर आपका और हकूमत उनकी. इसका परिणाम अनर्थकारी होगा.
मैंने कहा-कभी ऐसी बात मत करना, इन कायदों की कोई जरूरत नहीं एक बार यदि सरकार के अधिकार में हमारे तीर्थ आयेंगे तो परिणाम क्या आयेगा?. पहले होटल बनेगा. हमारे भाई खुद ही दीपक लेकर के अपना घर बतलाते हैं कि हमारे यहां आओ. बात कुछ नहीं संवाद से मिट सकता है परन्तु उस विवाद का रूप दिया जा रहा है. बुलाकर के हम उनको अपना घर दिखा रहे हैं कि हमारे यहां आओ. ___आज तो आश्वासन देंगे कि हम तीर्थ को कोई नुकसान नहीं पहुचायेंगे आपकी भावना को ठेस नहीं पहुंचायेंगे. शत्रुन्जय में ऐसा हुआ था, विदेश के कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति भारत सरकार के अतिथि आये. शत्रन्जय उन्हें देखने जाना था. उन्होंने शिकायत की कि हम ऊपर चढे रास्ते में हमें कोई रेस्टोरेन्ट नहीं मिला. पानी की व्यवस्था नहीं, चाय की व्यवस्था नहीं. कोई होटल नहीं. इतने बड़े सुन्दर स्थान पर कुछ तो होना चाहिए. भारत सरकार के अधिकारियों ने गुजरात सरकार को लिखा. गुजरात सरकार ने वहां भावनगर कलैक्टर को लिया, टेन्डर दे दिया जाये, होटल खोल दिया जाये,
सारी समस्या फिर मिटी. वहां के मुख्य मन्त्री को समझाया उन्होंने इसका बड़ा सुन्दर जवाब दे दिया और वह हमेशा के लिए बन्द रहा. सरकार को आप बुलाओगे तो वहां होटल निश्चित बनेगा. टूरिस्ट सेन्टर बनेगा. जहां पवित्र स्थान है वह पिकनिक प्वाइंट बनेगा. ऐशो आराम का एक साधन बन जायेगा. हर जगह पर ये चीज़ देखी है यदि आपके प्रसाद से सरकार को आने का मौका मिल गया तो आने वाले वर्षों में तीर्थ की पवित्रता आपको नहीं मिलेगी.
हर जगह पर जहां संवाद से काम चलता है, वहां हम विवाद उपस्थित करते हैं. आसानी से काम हो सकता है. आपकी कोई समस्या है तो हम मिटा सकते हैं. बहुत आसानी से मिट सकता है. कोई सांप्रदायिक दुर्भावना इसमें नहीं आयेगी.
महावीर जयन्ती का प्रसंग था पिछले बारह वर्ष से हिन्दू हो या मुसलमान यहां से किसी भी तरह का धार्मिक जलूस बन्द. मैने उन लोगों से कहा-महावीर जयन्ती आ रही है जूलुस निकालना है
साहब. यहां तो प्रतिवाद है. कोई जुलूस नहीं निकलता. मैंने कहा - क्यों?
साहब-मुसलमानों ने मस्जिद के किसी प्रसंग को लेकर एक बहुत बड़ा उपद्रव किया है. कितने ही व्यक्तियों की यहां हत्यायें हो गई लूट मार हो गया. तब से कलेक्टर ने जलस बन्द कर दिया. दोनों में से किसी को कोई प्रोसेशन नहीं निकल सकता.
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बना
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गुरुवाणी:
__मैने कलेक्टर को बताया. काफी मुसलमान भाई वहां आते हैं, प्रवचन में आते हैं. उनके हृदय में एक ऐसा सद्भाव उत्पन्न हुआ. मैंने उनको समझाया. मैंने कहा-मेरी यह भावना है, आपका सहयोग चाहिये. __ महाराज. उस बात को बारह वर्ष निकल गये. एक छोटी सी बात को लेकर ये सारा झमेला खड़ा हुआ. आपका आदेश है तो हमारे मुसलमान समाज का पूरा सहयोग मिलेगा. मैंने कलेक्टर को बुलाकर बात की. ___कलक्टर ने कहा-आपका कहना सही है. आपकी जवाबदारी पर आप निकाल सकते है. हमारी कोई जवाबदारी नहीं रहेगी. ___ मैंने कहा-मुझे आपकी एक पुलिस या उसकी बन्दूक नहीं चाहिए. मेरा यह पहला प्रोग्राम है. मैं करके देख लं. सारा विवाद का प्रसंग था. हमने उसे संवाद का रूप दिया. आपस में मिलकर बैठे. मुसलमान भाइयों ने कहा-साहब आप क्यों डरते हैं. हम लोग आपके जुलूस के साथ आयेंगे. हम से कम मुसलमान महावीर जयन्ती के जुलूस में नहीं थे. पूरा हिन्दू समाज, जैन समाज साथ में था. हमारी संख्या तो वहां सामान्य है. करीब 180 घर हैं परन्तु विचार करिये, नहीं घटने जैसी घटना वहां बन गई.
ऐसा अपूर्व प्रेम का प्रसंग लोगों ने देखा, उसके बाद से द्वार खुल गया. दोनों को समझाया कि एक दूसरे की भावना का आदर करो, यह प्रार्थना स्थल है. परमात्मा को याद करने के द्वार हैं, मन्दिर हो या मस्जिद हो. ऐसा तनाव नहीं होना चाहिये. आज तक वह परम्परा वहां कायम है, नहीं तो वो विवाद बना रहता, न जाने कब कितना संघर्ष पैदा करता, एक छोटी सी बात को इतना बड़ा रूप दे दिया गया.
पिता पत्र या परिवार में भी यही होता है, जरा सा प्रसंग होता है, उसे हम इतना बड़ा बना लेते हैं जो संघर्ष का कारण बनता है. परिवार बरबाद हो जाता है इसीलिए सूत्रधार ने कहा-विवाद नहीं संवाद चाहिए.
___ "प्रस्तावे मितभाषित्वम अविसंवादम तथा" विसंवाद नहीं, संवाद चाहिए आगे चलकर सूत्रकार ने जीवन के व्यवहार की जो बड़ी मुख्य बात है, जो हमारे प्रतिदिन की घटना है, जो क्रिया प्रतिदिन हम करते हैं, उस विषय की जानकारी दी.
प्रतिपूर्ण क्रियाचेति कुलधर्मानुपालनम् थोड़ा विश्वास रह गया था उसे आज पूर्ण कर ले सूत्रकार ने बड़ी सुन्दर बात बतलाई. जीवन व्यवहार में ठीक है, खाते हैं, पीते हैं, परिवार में रहते हैं, और सब बातों का परिचय तो सामान्य रूप से दे दिया परन्तु जीवन व्यवहार से प्रतिदिन धर्म क्रिया हम करते हैं वह भी हमारे जीवन का बड़ा सुन्दर नैतिक दृष्टि से व्यवहार है. उस व्यवहार का पालन किस प्रकार करना है.
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%3Dगुरुवाणी:
लोग कहते है-प्रार्थना करता हूं परन्तु चित में प्रसन्नता नहीं आती. बिना प्रसन्नता के की हुई प्रार्थना पूरी हुई प्रार्थना नहीं है? वह हृदय से नहीं जन्मी उसका जन्म स्वार्थ से होता है. इसलिए हमारी क्रिया कैसे सफल बने, कब जीवन में सक्रिय बने उस का सुन्दर परिणाम अनुभव में जानने को मिले, उसकी सारी प्रक्रिया उसमें जानने को मिली.
"प्रतिपूर्ण क्रियाचेति कुल धर्मानुपालनम्" क्रियाओं के अन्दर कैसा विवेक होना चाहिए, विवेक के अभाव में यदि आप क्रिया करते हैं तो स्वाद नहीं आयेगा. खीर के, तपेले में, आप चम्मच डाल दीजिये. पूरे परिवार को तो खीर पिलायेगा परन्तु यदि चम्मच से पूछे कि तुझे कुछ स्वाद मिला. सारे परिवार को तृप्त करने वाला क्या जवाब देगा, मुझे कुछ स्वाद नहीं मिला. इस तपेले में.
हमारे जीवन की साधना भी इसी प्रकार का स्वाद बन गई, मन्दिर में, खीर के तपेले में जैसा है, अपूर्व स्वाद जैसा है. परमात्मा की उपासना हम चम्मच की तरह पूरे दिन मन्दिर के स्थान में सारे दिन घूमते हैं. चम्मच की तरह हिलते रहे परन्तु उस मन्दिर से बाहर आप और पूछे, कुछ साधना से स्वाद मिला? नहीं, नहीं महाराज. यह तो ठीक है गतानुगतिक व्यवहार में मां बात करते चली आयी हम भी कर रहे हैं. इस क्रिया में आनन्द नहीं आयेगा. यह औपचारिक क्रिया बन जायेगी. आत्मा कभी स्वीकार नहीं करेगी. भले ही मनोविकार में आपको सन्तोष मिल जाये कि मैं मन्दिर गया, प्रार्थना की, दर्शन किया. इसमें कुछ नहीं मिलता.
प्रार्थना में परमात्मा को पाने की वह प्यास कहां? सबसे पहले प्यास लेकरके परमात्मा के पास जाना है. क्रियाओं में साधना के क्षेत्र में, अन्तर की प्यास चाहिये. वह प्यास उत्पन्न करनी पड़ती है. अभी तक वह दशा नहीं हुई. एक बार यदि क्रिया में रस आ जाता तो बाहर के सारे रस खत्म हो जाते. पूर्व काल के महापुरुषों का जब जीवन दर्शन देखते हैं. ध्यानावस्था में बैठते हैं तो संसार से शून्य बन जाते हैं. __ बहुत बड़ा योगी अपने ध्यान में मग्न था. चीन से कोई व्यक्ति भारतीय योग विद्या को जानने के लिए आया. बडी जिज्ञासा लेकर आया. वहां आकर के योगी को अपना परिचय दिया कि मैं चीन से आ रहा हूं, आपके पास योग के रहस्य को जानने की इच्छा से आया हूं. आप मुझे कुछ बतलायेंगे? योगी ने सर्वप्रथम उसका अन्तर परिणाम कैसा है, इसका परिचय करवाया. उस व्यक्ति ने तो अपना परिचय दार्शनिक दृष्टि से दिया कि मैं इतनी भाषाओं का जानकार हूं. इक्सरसाइज में कोई कमी नहीं रखी, ज्ञान को बहुत पुस्तकें बना दिया परन्तु उसका मतलब क्या? लाइब्रेरी के अन्दर गेट बन्द होता है. अठारह पुराण होता है सारे उपनिषद् होते हैं महाभारत, गीता. सम्पूर्ण महावीर भगवान का आगम उसमें रहता है आलमारी के अन्दर. परन्तु उसका उपयोग क्या वह ज्ञान तो जरूर है, इन्सान भी ऐसा बन जायेगा? जो कि अपने जीवन को लाइब्रेरी बना रखा है.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Cyanmandir -गुरुवाणी ___ मानव की आकृति भी आलमारी की तरह है. खड़ा रहेगा सब कुछ दिमाग में भरा है, पूरा वेद भरा है, दुनिया का ज्ञान, शास्त्र विज्ञान, सब कुछ उसकी दिमागी लाइब्रेरी में भरा है परन्तु जहां तक उसका प्रैक्टिकल कुछ नहीं है उसका लाभ क्या? तिजोरी में रुपया रखा है उसका न ब्याज मिलेगा न इन्ट्रेस्ट मिलेगा. डेड मनी है. वह तो जब व्यापार में आयेगा. सक्रिय बनेगा तब लाभ देगा. ___ ज्ञान इसी प्रकार डेड मनी जैसा है, दिमाग में है तो जानकारी में है, परन्तु जब तक आचरण में नहीं लायेंगे, व्यवहारिक दृष्टि से जब तक धर्म क्रिया को प्रयोग में नहीं लायेंगे, बिना प्रयोग में लाये उस पुण्य का नफा आपको क्या होगा? उस जानकारी का क्या मूल्य रहा? कुछ नहीं. ___मफतलाल सेठ रात्रि में सोये थे. घर में कुछ जोखिम पड़ा था, कोई चोर मौका देख करके आया. घर में घुसा, घरवाली जग गई, स्त्रियों का स्वभाव डरपोक होता है उन्होंने सेठ को जाकर कहा-देखो कौन आया है." "अरे कोई नहीं आया. कोई चूहा या बिल्ली होगी. सो जा. वह जानता था कि कोई घुस गया है." "अरे, वह तो अन्दर के कमरा का दरवाजा खोल रहा है. चूहे बिल्ली के हाथ पांव नहीं होते कि दरवाजा खोल लें. वह दरवाजा खोल रहा है." "नहीं, नहीं, तेरे भय से ऐसे विचार आ रहे हैं, चुपचाप से जा कुछ भी नहीं है." "मैं कहती हूं, वहां जागकर देखो तो सही?" "मैं सब जानता हूं मेरी जानकारी में है. दरवाजा खोलकर वह व्यक्ति अन्दर घुस गया, सेठानी से नहीं रहा गया. स्त्रियों में ममत्व होता है, कोई चीज़ चली जाये, कैसे बर्दास्त हो. भय के कारण जा नहीं रही थी. सेठ जग गया." __ मफतलाल ने कहा-मैं सब जानता हूं, वह आदमी आया है." " तिजोरी तोड़ रहा है, अब तो जाओ." "अरे, मैं सब जानता हूं. तू क्या बक बक करती है? प्रतिदिन किस लिये है? कल कम्लेन्ट करेंगे. सब कुछ लिखवायेंगे, पुलिस खोज लेगी, वह पुलिस की ड्यूटी है. माल डाल रहा है, तुम सुनते हो या नहीं?" " मैं सब जानता हं. मेरी जानकारी में है, उसको घर से निकलने तो दो आवाज करूंगा. सारे मोहल्ले वाले आयेंगे. पकड़ लेगें." "अरे, जब मोहल्ले वाले आयेंगे तब आयेंगे, अभी तो लूट रहा है. वह माल लेकर के जा रहा है, जरा पीछे तो जाओ." on 381 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - - अरे, मैं सब जानता हूं, मेरी जानकारी है. मेरे ध्यान में है सब. घर का पूरा माल लेकर के चोर चलता बना. ये जानकारी के आनंद में डूबे रहे. आखिर सेठानी को गुस्सा आया और कहा - “तुम्हारी जानकारी पर धूल पड़े. मेरा पूरा घर तो लूट गया.” “यह जानकारी किस काम की? हम यदि कहें कि क्यों. बहुत प्रवचन सुने बहुत साधु सन्त आये." "हां महाराज." "क्रोध नहीं करना." “महाराज, जानता हूं." “लोभ नहीं करना." “महाराज पूरी जानकारी में है." "असत्य का आश्रय नहीं लेना." “जी साहब. सब जानता हूं." जानकारी में तो मफतलाल भी कम नहीं थे. पूरी जानकारी थी. हमारे अन्दर भी पूरी जानकारी है, क्रोध नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, गलत कार्य नहीं करना, बहुत बड़ी सजा मिलेगी. परन्तु जानकारी जब आचरण में नहीं आये तो उस जानकारी का क्या मूल्य. जब आप क्रिया करते हो. क्रिया के मूल्य को समझ नहीं पाये ऐसी गतानुगतिक से चल रहे हो. सब करते आये, मैं भी कर लूं तो उसका परिणाम, क्रिया का आनंद नहीं आयेगा. राजस्थान के बाडमेर जिले में कोई महाराज गये. वहां के लोग जरा सरल थे. जो चाहिए वह मिल गया. पैसा मिल गया फिर परमेश्वर की क्या जरूरत? परिवार मिल गया, सखी सपन्न हो गया. फिर देखा जायेगा. पैसे की कमी नहीं थी, हरा भरा परिवार था. सुखी सम्पन्न थे. महाराज सरल में अब तो प्रतिक्रमण करेगें. धार्मिक प्रार्थना है पश्चाताप की मंगल क्रिया है. लोग तैयार हो गये. संस्कार नहीं, प्रति श्रम का परिचय नहीं, अर्थ और रहस्य की कोई जानकारी नहीं. उस क्रिया में मनको कोई स्वाद नहीं क्योंकि कभी परिचय ही नहीं किया. आपका मेरा परिचय नहीं होगा तो प्रेम कहा से आयेगा. जब क्रिया का परिचय नहीं होता तो प्रेम कहां से जागृत होगा. जब तक उसके अर्थ का मूल्य ध्यान में नहीं आयेगा, वहां तक क्रिया का अनुराग नहीं होगा. आपको मालूम है कि राम के नाम में ताकत है. अरिहंत शब्द के सम्मुख में अपूर्व शक्ति है, सात-2 सागरोपम उपार्जन किया हआ पाप, एक-एक पद से समाप्त हो जाये, एक पद का पाप करें और क्षय हो जाये. 382 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गरुवाणी - - इतनी प्रचन्ड ताकत परमात्मा के स्मरण में है. आपकी जानकारी में हो तब जाकर उसमे अनगरा आता है, उस क्रिया में प्रेम का जन्म होता है. बडी सुन्दर धर्म क्रिया बनेगी. परिचय भी न हो, अनुराग भी न हो, न कभी ऐसा प्रयास किया है. बेचारे सरलात्मा थे आ गये., महाराज, प्रतिक्रमण मे हमें कुछ आता जाता नहीं. महाराज ने कहा-जैसा मै करूं, वैसा तुम करना. ठीक है. अंधेरा तो था ही. प्रतिक्रमण के समय रात्रि पड़ गई. महाराज वयोवृद्ध थे. अकेले थे, संयोग ऐसा कि मिरगी का दौरा आया करता था, सूत्र पढ़ते महाराज को दौरा आया, महाराज गिरे, ऊपर से लोगों ने सोचा यह भी प्रतिभाव की क्रिया है वे भी गिरे. मिरगी का दौरा ऐसा होता है, व्यक्ति पराधीन होता है, जितने लोग थे वे भी हाथ पांव संकोचने लगे. जब वे एकदम स्वच्छ हो गये, प्रतिबद्धमल पूरा हुआ, महाराज ने दूसरे दिन पूछा प्रतिक्रमण में आनंद आया? हां बाप, आया तो सही, इधर उधर भी लगा, वहां भी लगा, पीछे भी लगा, बड़ी कष्टमय क्रिया है महाराज. आप करते हैं आपको धन्यवाद क्रिया तो परी हई महाराज ने विचार किया कि गलत कर गये. महाराज ने धन्यवाद दिया कि आपने एक दिन तो किया, उसके लिए धन्यवाद. __महाराज, एक बात बतलाऊं? आपने जैसा किया वैसा ही मैंने किया परन्तु एक बात अधूरी रह गई. मेरी क्रिया अधूरी रह गई. जो प्रशिक्षण देना हो दीजिए. इसे जड़ क्रिया कहेंगे, इस जड़ क्रिया से क्या स्वाद मिलेगा? क्या आनंद आयेगा? आराधना तो आनंद देने वाली चाहिए. हम जब खायें, इसमें स्वाद का आनंद आना चाहिए. खाने के बाद इसकी तृप्ति मिलनी ही चाहिए. क्रिया करते हैं तो क्रिया की प्रसन्नता आनंद जो उसका परिणाम है उसे तो आना ही चाहिए. आत्मा को पूर्ण सन्तोष और तृप्ति मिलनी ही चाहिए, वह आज तक मिला ही नही, क्योंकि हमने आज तक उसे समझने का प्रयास किया ही नहीं. एक बार शुद्ध भाव से यदि परमात्मा का दर्शन करे. एक मास स्वपर्ण का लाभ मिलता है. उत्तरोत्तर भाव की वृद्धि कर्म की निर्जरा में सहयोग देती है, यहां भावों का मूल्य है. “यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भाव शून्या" भाव से शून्य क्रिया कभी फलीभूत नहीं बनती. यहां जो लिखा है. "प्रतिपूर्ण क्रिया चेति" क्रिया में प्रतिपल सावधान रहे, पूर्ण जागरूक रहे, धर्म क्रिया का पूर्ण आनंद लेने वाला व्यक्ति बनें. वह धर्म किया गया सफल कैसे बनेगा? हमारी धर्म क्रिया प्रारम्भ होती है परमात्मा के दर्शन से, परमात्मा के मंगल स्मरण से, उसमें किस प्रकार का आनंद मिलना चाहिए, उसकी अनुभूति कैसी होनी चाहिए? आपका इकलौता लड़का हो, अमेरिका गया हो, वर्षो बाद यदि यहां आने वाला हो, आपको समाचार मिल जाये कि इस फ्लाइट से मैं आ रहा हूं. आपको बतलायें, यह सुनकर 383 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: के आपके चित में कैसा आनंद आयेगा? वर्षों से प्रतीक्षा है, इकलौता लड़ता है और विदेश से लौटकर आएगा, उसे देखंगा माता-पिता के हृदय में बड़ी प्रसन्नता होगी. उसके लिए बड़े उत्सुक रहेंगे, कैसे उसके पास जाऊं, कब वह तारीख आये? बड़ी बेचैनी रहती है. __यदि आने की तारीख आ जाये, आपको अगर लेने जाना पड़े, सुबह से कितनी जल्दी तैयार हो जायेंगे, कितनी प्रसन्नता रहेगी. भाव में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जायेगी. उसी समय घर से गाड़ी लेकर आप निकले, रास्ते में आप जा रहें हैं, घर से एयरपोर्ट तक कितनी भाव की वृद्धि होगी, उसे जरा सोच लीजिए. कब आये, कब उसे देखें, कब मुझे सन्तोष हो? इतनी उत्सुकता बनी रहेगी. वहां जाकर के आप इंतजार में खड़े रहेंगे और फ्लाइट आ जाये, देख कर मन में अपार प्रसन्नता होगी, मेरा लड़का अभी उसमें आयेगा मैं उसे देखूगा. यदि फ्लाइट उतर जाए, उसके बाद बालक उतरे चेहरा देखकर कितनी प्रसन्नता होगी, बालक आकर के चरणों में गिरे और नमस्कार करे, आपकी आंखों में प्रेम के आंसू आ जायेंगे. बोलने के लिए शब्द नहीं मिलेगा, अपार आनन्द आ जायेगा. एक भौतिक वस्तु की प्राप्ति से चित में इतना आनंद आये तो क्या परमात्मा को देखकर यह आनंद आता है? कभी ऐसी अनुभूति होती है? लड़के को देखकर के आ गया. जीवन पर सर्वोपरि जिनका उपकार है, जिनकी कृपा से ही हम संसार के दुख से मुक्त बनेंगे. उस परमात्मा के दर्शन के बाद कभी ऐसी अन परमात्मा के दर्शन के द्वारा कभी प्रेम के आंसू आये? मन से कभी धन्यवाद दिया? सुबह प्रातः काल यदि उठे और मन में एक विचार आया कि परमात्मा के दर्शन को जाऊं इस विचार से एक उपवास का लाभ. विचार को सक्रिय बनाने के लिए पांव नीचे रखा, दो उपवास का लाभ आप चलने लगे तीन उपवास का लाभ. जैसे ही वहां से चले, मन की प्रसन्नता बहती चली. मन्दिर में देवता का दर्शन किया. मंगल शिखर दिखा कि मझे भी साधना के शिखर तक पहुंचना है. यह साधना का सर्वोच्च प्रतीक है. मन में अपार प्रसन्नता कि अभी जाऊं और परमात्मा का दर्शन करूं. अपने नेत्र को तृप्त कर दूं. आप उपवास का लाभ लेंगे. जैसे ही परमात्मा के मन्दिर में चढ़ना शुरू किया, द्वार तक पहुंचा, मनकी प्रसन्नता बढ़ती चली गई तो सोलह उपवास का लाभ. जैसे ही परमात्मा के दर्शन करते ही अपार चित में प्रसन्नता आये तो मास-क्षमण का लाभ, प्रतिदिन मास प्रतिक्रमण का लाभ मिल सकता है. अन्तर से भाव का पुराकाल नहीं चाहिए, यहां सारी क्रिया का मूल्यांकन प्रेम भाव से किया गया, कोई भी धर्म किया, आप माला गिनें सामायिक करें, परमात्मा का नाम लें. प्रार्थना करें आपके अन्दर उसकी प्रशंसा कितनी है? यही उसका माप दण्ड है. दर्शन के बाद तो बहुत प्रकार की विधि बतलाई है. वह भी मैं समझाऊंगा. परन्तु पहली बार हमें यह देखना है, हम क्रिया मे कितने जागृत है? एक सामायिक की क्रिया. अपूर्व वैज्ञानिक / सूति हई 384 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी प्रक्रिया है आत्मा को पाने की, अरोग्य को प्राप्त करने की, चित की शान्ति को प्राप्त करने की, मंगल क्रिया सामायिक की क्रिया है. वैसी स्थिति मे आप सामायिक मे आ जाएं, समभाव की स्थिति को लाने का यदि आप पुरुषार्थ करें, अन्तर मुहूर्त में यदि इस प्रकार का समत्व आ जाये, जीवन धन्य हो जाये. इस मंगल क्रिया मे 48 मिनट का टाइम इसीलिए रखा है कि जीव को मोक्ष जाने के लिए यह 48 मिनट का टाइम चाहिए. इस 48 मिनट में अगर ध्यान मे एकाग्रता आ जाये, चित्त मे एकाग्रता आ जाए, अपूर्व प्रकार की प्रसन्नता आ जाये, जीव मात्रा के प्रति पूर्ण समत्व आ जाये 48 मिनट में वह हिन्दु हो, मुसलमान हो, जैन हो, किसी भी जाति में जन्मा हो मोक्ष का अधिकारी बनना है. चित में प्रसन्नता और अपूर्व समत्वका भाव, जीव मात्र के प्रति एकदम समत्व का भाव आना चाहिए, यह मोक्ष की शर्त है. राग और द्वेष एकदम क्षय होना चाहिए. संसार में शून्य बनकर के सामाजिक साधना मे प्रवेश होना चाहिए. फिर देखिए उसका अनुभव. जैसे-जैसे राग और द्वेष के परिणाम को क्षय करेंगे, सामायिक क्रिया द्वारा, यह ऐसा शस्त्र है राग द्वेष के नाश करने का. जगत में आपको ऐसा एक भी शस्त्र नही मिलेगा. किसी भी एटम बम्ब में कर्म को मारने की ताकत नहीं, इन्सान मार देगा मकान को तोड देगा, वह ताकत है मात्र ध्यान में, परमात्मा के स्मरण में, वह ताकत है कि कर्म का नाश कर डाले, संसार का ही नाश कर डाले. परन्तु वह स्थिति लाने के लिए आपको पुरुषार्थ तो करना ही पडेगा. ध्यान में अभी तक वह स्थिति नहीं आई. कई बार जाप करते-करते ध्यान करते-करते दिखता है और मन में थोडी बहत लालसा होती है कि जरा संकट है, इतनी माला जपता हूँ, जरा भगवान ध्यान दो, मेरी मनोकामना पूर्ण हो जाये. ___ मफतलाल ने अट्ठम किया. अट्ठम किया परन्तु हुआ ऐसा, मन में लालसा थी, महाराज कहा करते कि तीन उपवास में बड़ा चमत्कार है, तीन उपवास के साथ यदि परमात्मा का पुण्य स्मरण हो जाए, तब तो जीवन का दरिद्र ही चला जाए. रात का समय था जाप करके सो गया, अन्तर में वासना थी, संसार को प्राप्त करने की. माला लेकर बैठ तो गया, बैठे-बैठे उसे नींद आ रही थी, माला पूरी की और सो गया. __अन्तर की वासना थी, सुपुष्ट विचार थे, वह स्वप्न के अन्दर विचार ने आकर ले लिया, स्वप्न में क्या देखता है कि देवी प्रसन्न हो गई, आकर उसे कहती है-मांग तुझे क्या चाहिये? मफतलाल जिस वासना को लेकर सोया था, वही वासना यदि साकार बन जाये, कितना आनन्द आये, देवी के चरणो में गिरा. विचार करता है, क्या मांगन है? मांगने में भूल हो गयी. वरदान मांगा लिया जाए, हाथ लगाऊं वह सब सोना बन जाये. - 385 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी: - माम देवी ने कहा-तुम्हारी आराधना और तन की आराधना से तुझे ऐसी शक्ति मिलेगी, जहां हाथ लगाओगे वह सोना बन जायेगा. मफतलाल खुश हो गया. वह प्रसन्नता. प्रसन्नता का भी अजीर्ण होता है, पेट में पचती नहीं, गया, मकान को छुआ, मकान सोने का, बर्तन-बासन सब सोने का, पलंग को हाथ लगाया वह सोने का. उसने सोचा, जरा घरवाली को बतलाऊं कि सब कुछ सोने का बन गया. घरवाली को जगाने लगा, घरवाली सोने की. घबरा गया, नौकर को आवाज दी स्वप्न में ही, मुझे प्यास लगी है, पानी को हाथ लगाया तो पानी भी सोने का, बेचारा घबरा गया, पसीना-पसीना हो गया कि मैंने यह भयंकर गलती करली. मांगते समय जरा विचार नहीं रखा. जल्दी बाजी में उससे वरदान मांग लिया, पानी भी नहीं, खाने को भी नहीं, घरवाली भी सोने की हो गई. सोने से क्या प्राण मिलता है? जीवन मिलता है? एकदम घबरा गया. श्वासोच्वास की गति तेज हो गई और एकदम जागकर उठा, देखा कि सब बराबर सलामत है. जब देखा कि यह तो स्वप्न था, तब बेचारे को सन्तोष हुआ. प्रतिज्ञा करली कि कभी तपस्या में कोई चीज नहीं मांगनी. कभी मांगना नहीं, वह तो बिना मागे मिलने वाला है, मांगने की भी जरूरत नहीं. व्रत नियम के प्रति यदि आपकी निष्ठा रही, जगत का कोई ऐसा व्रत नियम नहीं जो निष्फल जाये. धर्म साधना कभी निष्फल जाती नहीं, धर्म क्रिया कभी निष्फल नही रहती. कुछ न कुछ तो उसका परिणाम जरूर मिलता है. महाराज प्रतिदिन प्रवचन दिया करते. एक व्यक्ति ऐसा था जो रोज प्रवचन सुनता, एक दिन कहा-भले आदमी कुछ तो क्रिया करो, प्रतिक्रमण करो, सामायिक करो, परमात्मा का दर्शन करो, बिना धर्म क्रिया से शरीर किस काम का? इतना खिलाते हो, पिलाते हो, इस का रक्षण करते हो, इस नौकर से काम तो लो, नहीं तो वह कामचोर बन जायेगा. उसने कहा - महाराज. इतनी सारी मैं क्रिया करता हूँ, उसी में से फुसरत नहीं होती, पहली क्रिया बीडी पीने की, उसके बाद चाय पीता हूँ और क्या-क्या गिनाऊं. सारा दिन इसी क्रिया में जाता है, दोपहर को ताश खेलता हूँ, कितनी लम्बी क्रिया है. ___ महाराज कुछ बोले नहीं, अयोग्य आत्मा को क्या उपदेश देना, परन्तु अयोग्य में भी कुछ गुण होते हैं. चार महीने महाराज ने समझाया, उपदेश दिया, आखिर में जाते-जाते महाराज ने बुलाकर कहा-भले आदमी हो, चार महीना मजाक में गया, मैंने तुम्हारी आत्मा के हित के लिए बहुत कुछ कहा, अब तो कुछ मान लो. उसने सोचा, महाराज को बुरा नही लगना चाहिए, साधु सन्त हैं. जा रहे हैं, इनकी आत्मा को प्रसन्न करना है. उसने कहा-महाराज एक नियम मुझे दें और कोई क्रिया नहीं करता था, एक क्रिया स्वीकार कर ली. 386 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी // महाराज ने कहा-पूरी वफादारी से काम करना. उसने कहा-जरा भी नही चूकूगा. पूरी प्रामाणिकता से इसका पालन करूंगा. बड़ी अच्छी बात है, महाराज ने नियम दे दिया. उसने प्रतिज्ञा की मेरे घर के पड़ोस में एक कुम्हार रहता है, उसके माथे पर टाल पडी है उठते ही वह कुम्हार नजर आता है, उसकी टाल नजर आती है, जब टाल देखूगा तो भोजन तब करूंगा. वहां तक नहीं यह प्रतिज्ञा जब तक वह जीवित है, और घर के पास है, वहां तक मेरा नियम है. महाराज ने प्रतिज्ञा दे दी. वह सुबह उठता और उसकी टाल देखता, टाल देखकर के आता और चाय पानी पीता. सावन भाद्रपद का महीना, पूरा आकाश बादलों से घिरा मे जगा हुआ था, वह सो गया. कुम्हार खेत में मिटटी लेने गया. सुबह के समय उठा और बाहर देखा, गया भी नहीं और कुम्हार भी नहीं. विचार में पड़ गया. घन्टा निकल गया, बिना चाय बीड़ी के बेचैन हो गया. घरवाली से पूछा-क्या बात है? वह कब आयेगा. कब लौटेगा? अरे सेठ साहब-मुझे क्या मालूम? कब लौटेगा? 12 बजे आये, शाम को भी. बरसात का मौसम है, मिट्टी लेने गया, आप तो जानते हैं, हमारा तो धन्धा यही है, एक दम विचार मे पड़ गया, तब तो उपवास हो जायेगा. उसने कहा-और क्या उपाय है? तुम उस खेत को जानती हो? जिस खेत में गया है, ___ उसने कहा-उस खेत मे गया है, आप वहां जाकर मिल सकते हो. उस जमाने में आप जानते हैं? घोड़ियां ज्यादा थी घोड़ी पर बैठा, सवार हुआ खेत में पहुंचा, पन्द्रह बीस दिन नियम को लिये हुए मन में अब यही सोचता है, मैंने तो फिजूल नियम लिया, बेकार मैं हैरान हो रहा हूँ, लिया है तो पालन तो करना पड़ेगा, नियम से वफादारी चाहिए. घोड़ी पर सवार होकर जहां कुम्हार खड्डा खोद रहा था, एकान्त स्थान था, वहां उसका पुण्य उदय और नीचे से सोने के इतने सारे सामान मिले, मुझे इतना सोना मिले, किसी समय कोई व्यक्ति इसमें गाड़ा हो या तो चोरी का माल होगा. गाड़ा हुआ. अब वह कुम्हार तो आश्चर्य मे पड़ गया. ___ मेरे तो जीवन की सारी दरिद्रता मिट गई. अब ये हजरत घोड़े पर आ रहे थे, बादलों की धूप थी. और धूप में जैसे चलते चमका और एकदम खुशी में आ गया. देखा विचारा देख लिया. इसके कान मे आया, यह वणिक पत्र है. गांव मे ढोल पीटेगा. मै पकडा जाऊंगा. माल को राजा ले जायेगा और सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा. बडा गजब हो गया और यह चिल्लाने वाला व्यक्ति गांव मे ढोल पीटे रहेगा नहीं. उसने जोर से आवाज दी जाते कहां हो? यहां आआ अपने आधा-आधा कर लेंगे. चिल्लाता काहे को है? देख लिया तो देख लिया. यहां दो के सिवाय तीसरा कोई नहीं. आप जानते हैं वणिक पुत्र के कान तेज होते हैं इशारे में समझ लिया. कोई माल मालिक है. जैसे ही वहां पर आया और देखा सोने से भरा हुआ माल का थाल, सोना भरी हुई, - 387 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी - AGAN कुम्हार कहता है- यार काहे को बेवकूफी करना है? तू आ गया है तो आधा त ले ले, आधा मैं ले लूंगा. चिल्लाता काहे को है, वह तो अपना माल बटोर कर गया. रात्रि में विचार में पड़ गया, कब जाऊ महाराज का दर्शन करना है. मैंने एक नियम लिया, एक क्रिया के अन्दर प्रमुखता मिल गयी. इसे प्रमाणित करने का इनाम इतनी अपार सम्पत्ति मिली. कमाने की भी जरूरत नहीं. एक क्रिया मे प्राणी प्रमाणित बन जाये. भविष्य में उसमें और विकास करने की भावना आ जाये तो अपना अन्तराय कर्मक्षय होता है, दुखों का नाश करता है, पाप का नाश करता है और पुनः को जन्म देने वाली क्रिया बनती है. संसार की सारी समद्धि उसके चरणों में आकर गिरती है. दरिद्रता और पाप क्रिया का यह अनुष्ठान नाश की क्रिया है. इस क्रिया में आये, प्रसाद का सेवन किया तो भविष्य मे क्रिया में योग्य साधन नहीं मिलेगा. यहां इसीलिए आचार्य भगवान ने निर्देश दिया. "प्रतिपूर्ण क्रियाचेति कुलधर्मानुपालनम्" परम्परा से अपने कुल का जो धर्म है, कुल के अन्दर जो धार्मिक अनुष्ठान, जो मर्यादायें बतलाई है, उनका पालन करना, छोड़ना नहीं. उनमें भी बड़ा रहस्य है. सामायिक में कितनी शक्ति है. चित को शान्ति देने वाली है. जब समझ लेंगे, तब इसका आनन्द आयेगा. कैसी अपूर्व क्रिया है. __जर्मनी के बहुत बड़े वैज्ञानिकों ने इसकी खोज की कि भारतीय मुनियों ने जगत को ध्यान के द्वारा एक ऐसा चित्र दिया, जिससे चित्त के अन्दर शान्ति मिलती है. शरीर में जो आरोग्य मिलता है उसका रहस्य खोज निकाला है. ध्यानावस्था मे शरीर में क्या-क्या परिवर्तन आता है? ये तो सब आत्मा राम भाई की फैक्टरी है. दोनों तरह का उत्पादन होता है, जहर भी उत्पन करता है और अमृत भी उत्पन्न करता है. जर्मनी की जेल में जब इसका प्रयोग किया गया उस प्रयोग के अन्दर एक ऐसे कैदी को जो बडा बदमाश था, कितने ही खून करके आया था. उसे उत्तेजित किया गया. नशा पिलाकर. उत्तेजना मे लाया गया उसका खुन पसीना सब लेकर के उसकी जांच की गयी, उसमे से इंजेक्शन तैयार किया पशुओं पर उसका प्रयोग किया. बन्दरों पर किया, खरगोश पर किया. ऐसे जीवित जानवरों पर प्रयोग किये, वे पशु उसका प्रतिकार नहीं किये. वे सब मर गये. बन्दर कुछ बड़े थे. मूर्छित हो गये, बीमार पड़ गये. उनमें रोग उत्पन्न हो गया. उसकी सारी प्रतिक्रिया देखकर उन्होंने निर्णय किया कि शरीर के अन्दर क्रोधित अवस्था में जहर पैदा होता है. सारे परमाणु दूषित हो जाते हैं. इसका भयंकर परिणाम इन्सान को भोगना पडता है. बीमार पड़ता जाता है. क्षणिक उत्तेजना भविष्य में रोग को उत्पन्न करने वाली बनती है. 388 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी उत्तर प्रदेश की कुछ दिन पहले समाचार पत्र में एक घटना थीं. पानी को लेकर बहनों में आपस में तकरार हुआ, इतनी बुरी तरह लड़ी लड़कर अपने-अपने घर पर आई पड़ोसी जबरदस्ती उन्हें घर पर लाये, घर पर आकर देखा. उनका छोटा बालक पालने मेरो रहा था, रोते बालक को शान्त करने के लिए क्रोधित माता ने आते ही बालक को स्तनपान कराया. स्तनपान के बाद बालक को उल्टी हुई. मूर्छित हुआ और बालक मर गया. डाक्टर बुलाये. डाक्टर ने कहा-इसको जहर दिया गया है, उल्टी मे जहर है. सारा शरीर नीला पड़ गया. मां ने कहा-ऐसी कोई बात नही हुई सिवाय स्तनपान के बालक को किसी ने कुछ भी खिलाया पिलाया नहीं. बालक हंसता था, प्रसन्न था, जब यह रोने लगा, इसे शान्त करने के लिए मैंने स्तनपान कराया. स्तनपान करने के बाद यह अवस्था हुई. डाक्टर ने कहा- आपके दूध में ही जहर है. आप कहां से आई? मै नल पर पानी भरने गई थी, वहां लड़ने लग गई, उसके बाद आवेश में मै यहां पर आई. बस इसी क्रोध के परिणाम स्वरूप आपका दूध जहर बन गया था. जहर का पान इस बालक को आपने कराया और बालक तुरन्त मर गया, यह छ: वर्ष पहले की घटना है. क्रोधित अवस्था में शरीर के अन्दर जहर उत्पन्न होता है। न्तु यही अगर रूपान्तरित बन जाये, प्रेम का तत्व उसमें आ जाये तो परिणाम अमृत उत्पन्न करेगा. संत कुमार चक्रवर्ती, स्वयं चक्रवर्ती थे- छः खन्ड के मालिक थे. बड़ी प्रचन्ड ताकत थी उनके अन्दर. पूरे संसार का परित्याग करके असार भावना से संयम किया. पूर्वकृत कर्म का दोष, शरीर के अन्दर व्यापक रोग बन गया, इतने सारे रोग अन्दर में आ गये, परन्तु साधना का बल ऐसा प्रचन्ड था. इन्द्र महाराज उनकी सेवा मे आये. साधना के पुण्य से आकर्षित होकर आये. चरणों मे गिरकर निवेदन किया भगवन्, यदि आपका आदेश हो तो आपका उपचार हम कर दें. देवता जिनके उपचार के लिये सेवा में आये. सन्त कमार चक्रवर्ती ने कहा-मेरा ध्यान मेरी आत्मा पर केन्द्रित है, शरीर पर नहीं. यह तो बीमारियों का घर है. शरीर शरीर का काम करता है मैं अपने आनन्द में मरता हूँ. साधना में मग्न हूँ, मुझे कोई शरीर की चिन्ता नहीं, आप क्या मेरा उपचार करेंगे? क्या औषधि करेंगे? हमारे पास स्वयं में वह औषधि है. सन्त कुमार ने अपने हाथ में जरा सा थूक लिया. शरीर पर लगाया, उसका विलेपन किया. कन्चन जैसी काया बन गई. इन्द्र से कहा यह तो मेरी ताकत है इसका विलेपन किया. औषधि का रूप ले लिया. यह अमृत उत्पन्न करता है. - GAR - 389 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी कल बतलाऊंगा, क्रियाओं में क्या ताकत है-अमोघ अवस्था में सामायिक प्रकार फली भूत बनता है. जिस तरह वरदान बनता है. रूलिंग अनुसार आप कर रहे हैं करिए. करते तो हैं किन्तु वह सामायिक आत्मा की तृप्त करने वाला नहीं बनता. वह अन्तर से चित्त की प्रसन्नता प्रदान करने वाला नहीं बनता. उपवास में जो स्मरण करते हैं वह कितनी बड़ी ताकत रखता है उसे बतलाऊंगा. उपवास में जो स्मरण करते हैं वो कितनी बडी ताकत रखता है तो बतलाऊगा. पूर्व की हुई आराधना कितनी सक्रिय बनती है? किस तरह अपने को लाभ देने वाला बनती है? क्रियाओं का परिचय अन्तरंग मे जाकर करेंगे. आज इतना ही रहने दे. “सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" इस जगत् में सम्पूर्णतया स्वतंत्र तो कोई भी नहीं है. जन्म से पहले नौ माह तक माँ के गर्भ की कैद रहती है, जन्म के बाद भी माँ की नज़रबन्दी में दिन गुज़रते हैं, उसके बाद पिता के अंकुश में जीवन रहता है, विवाह के बाद हवाला हस्तान्तरित होता है, पत्नी का बन्धन आता है, बुढ़ापा पुत्रों के बन्धन में कटता है. बताओ! कहाँ है स्वतंत्रता? सचमुच जगत् का हर-एक मनुष्य कैदी है. - - 390 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी क्रिया-सिद्धि परम उपकारी परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्र सरि जी ने जीवन का परिचय क्रिया के माध्यम से दिया. जहां तक व्यक्ति अपने विचारों को सक्रिय नहीं बनाएगा, वहां तक वह विचार कभी साधना के लिए सहयोगी नहीं बनेगा. विचारों में पड़ा धर्म जो मूर्च्छितावस्था में है, वह जीवन की जागृति का साधन कभी नहीं बन सकेगा. इसीलिए हरिभद्र सूरि जी महाराज ने इन सूत्रों के द्वारा "प्रतिपन्ना क्रिया चेति" इस सत्र के द्वारा उन्होंने विशेष रूप से आग्रह किया, कि अपनी जानकारी को अपने वर्तन के द्वारा, उसे सक्रिय बनाएं. दवा की जानकारी से आरोग्य नहीं मिलता, दवा लेने से आरोग्य मिलता है. मात्र जानकारी से कोई आत्म-कल्याण होने वाला नहीं. उस जानकारी के अनुसार अपना जीवन व्यवहार हम प्रारम्भ करें ताकि व्यक्ति अपने जीवन की सफलता को प्राप्त कर सके. अभी तक हम स्वयं के मूल्य को समझ नहीं पाए. जहां तक व्यक्ति स्वयं के मूल्य को नहीं समझेगा, वहाँ तक क्रियाओं के मूल्य को वह व्यक्ति कभी नहीं समझ पाएगा. ___साधना बड़ी उतम वस्तु है, साधना के मार्ग में प्रवेश होना साधना के अनुकूल अपने जीवन का प्रारम्भ करना, यह जरा कठिन है, प्रवेश कदाचित, प्रारम्भ हो जाए, परन्तु सम्यक् प्रयास पूर्वक उस परम तत्व को प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ है. फिर भी हम प्रयास करते हैं. इसीलिए उसे धन्यवाद दिया गया, उस मंगल कार्य की अनुमोदना की गई कि व्यक्ति कम से कम प्रयास तो करता है. व्यक्ति प्रमाद के अधीन आश्रित होते हैं, प्रयास भी नहीं करते, जगत की ऐसी कोई चीज नहीं जो बिना प्रयत्न के आपको मिल जाए. एक सामान्य पैसा पैदा करने के लिए मकान छोड़कर के, परिवार का मोह छोड़ करके, दस घण्टे तक हम दुकान या आफिस में बैठते है. भूख और प्यास सहन कर लेते हैं, कदाचित किसी कारणवश बाहर जाना पड़े. शरीर की अनुकूलता न हो तो भी प्रतिकूलता को स्वीकार करके हम धूप में, गर्मी में, सर्दी में, हर जगह जाते हैं. खड़ा रहना पड़े तो खडे रह जाएंगे, अपमान सहन करना पड़े तो अपमान भी सहन कर लेंगे. क्योकि पैसा मिलता है. व्यक्ति जब सामान्य पैसे के लिए भी इतना सहन कर सकता है, तो परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए, स्वयं की उस प्रसन्नता के लिए हम कैसे सहन नहीं कर सकते, बिना सहन किये साधना कभी सफल बनने वाली नहीं, परन्तु साधना के क्षेत्र में सहन करने में तकलीफ आती है, रुकावट आती है. 106 391 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी यहां पर सब प्रकार की अनुकूलता चाहिए, और वहां समस्त प्रतिकूलताओं को हम स्वीकार कर लेते हैं क्योकि संसार से, उसके प्रयत्न से, दो पैसा मुझे मिलेगा. उस प्राप्ति की कल्पना के आनंद में हम सब दुःख सहन कर लेते हैं, वह दुख भी सुख रूप बन जाता है, क्योंकि सामने प्राप्ति की आशा दिखती है. अगर इसी प्रकार व्यक्ति साधना के क्षेत्र में थोड़ा सहन करले, और अपनी दृष्टि से सामने उस आनन्द को देखने लग जाए, कि थोड़ा बहुत सहन करने पर मुझे यह सफलता मिलने वाली है. उसे उपवास का कोई दर्द नहीं लगेगा, संसार के सम्मान प्राप्त न होने का उसे कोई दुख नहीं होगा. चाहे संसार में कितना ही कष्ट आ जाए तो भी सुख का अनुभव करेगा. विचारों के द्वारा वह सुख का ही अनुभव करेगा. ये कष्ट भी मेरे उपकार के लिए आए, मेरे कर्मो का क्षय करेंगें, जो मैंने उपार्जना किया है, उस कर्म की निर्जरा होगी. कर्मों का क्षय यदि मैं समभाव से सहन कर लेता हूं तो मेरा परिणाम अति सुन्दर आएगा. ___जरा सी विचार की भूमिका चाहिए, तो फिर संसार की सारी प्रसन्नता चली जाएगी साधना के क्षेत्र में सर्वप्रथम उसकी यह शर्त है कि संसार से शून्य बन जाए. एक व्यक्ति जब योग मार्ग की साधना के लिए, भारतीय गूढ विद्याओं की जानकारी के लिए, इस देश में आया. किसी महापुरुष से जाकर निवेदन किया कि मुझे साधना का राज मार्ग बतलाइये. ताकि मैं सरलता से अपनी उपासना कर सकूँ, कुछ ऐसी विद्याओं के लिए भी मैं आपके पास आशा लेकर आया हूँ यदि आप योग्य एवं पात्र समझें तो मुझे प्रदान करें. महात्मा ने उसकी परीक्षा ली. व्यक्ति का स्वभाव है. मन बड़ा चंचल रहता है, व्यग्र रहता है. मन की मानसिक व्यवस्था के अन्दर वह स्थिर नहीं हो पाता. अपनी आत्मा को स्थिर करने का प्रयास कभी नहीं कर पाता. उसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने परीक्षा ली. वह चीन से आ रहा था, विदेश से आ रहा था, आते ही योगी पुरुष ने पहले ही प्रश्न किया - "रास्ते में तुम बहुत से देश होकर आए हो?" "हाँ." "बंगाल, बिहार भी आए होंगे?" “हाँ. सभी प्रदेश आए." "बंगाल में चावल का भाव क्या है?" बड़ा विचित्र प्रश्न था. आध्यात्मिक क्षेत्र से कोई संबंध नहीं. आते ही योगी ने यही पहला प्रश्न किया, व्यक्ति के स्वभाव से व्यक्ति का चिन्तन, व्यक्ति की मनोदशा का परिचय मिल जाता है. उसी परिचय के लिए उन्होंने एक ऐसा विचित्र प्रश्न किया - “ठीक है, आध्यात्मिक क्षेत्र में जानकारी के लिए आया, मेरे पास कुछ विद्या प्राप्ति के लिए तुम आए. परन्तु बंगाल के अन्दर चावल का क्या भाव है? तुम्हें मालूम है." ne - 392 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: “बिहार में गेहूँ का क्या भाव है?" बड़े विचित्र प्रश्न थे. ऐसे चार पांच प्रश्न किये, उस व्यक्ति ने जवाब दे दिया. वह इस रहस्य को समझ नहीं पाया. योगी ने कहा - “तुम मेरे पास ऐसी विद्या की जानकारी के लिए आए, आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए आए. अभी तक तुम्हारे मन से संसार नहीं निकला. तुम मेरे पास आये तो भी अपने संसार को लेकर के आए. संसार से मुक्त बन करके आओ, विचारों से मुक्त बनके, स्वच्छ करके मेरे पास आओ, अन्दर की प्यास लेकर के मेरे पास आओ तो तुम्हें मैं यह विद्या दूं." वापिस कर दिया कि तुम इसके लायक नहीं हो जहां तक तुम संसार को नहीं भलोगे. वहां तक साधना की प्रसन्नता पूर्ण रूप से नहीं आ पाएगी. सारे संसार को हम दिमाग में लेकर चलें. फिर साधना को बदनाम करें कि मैंने ये कार्य किये और आनंद नहीं आया. आनंद कहां से आए, आनंद की पहली शर्त है कि संसार को छोड़ करके आओ, संसार को भूल करके आओ, जहां तक हम संसार को मन से नहीं छोड़ें, मन से भूले नहीं, मन से विस्मत न करें तो आत्मा की स्मृति कहां से जागृत हो. संसार की स्मृति, सुखों की आकांक्षा भूलने का प्रयास करना है. संसार में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो भूलने जैसी हैं. उसे याद रखना अपनी आत्मा के लिए घातक है. वैर की परिभाषा में वह ज्यादा दुर्भाव पैदा करेगा. उस विचार के अन्दर कभी परिपक्वता नहीं मिलेगी, वे विचार कभी आपको सुन्दर और स्वच्छ नहीं मिलेंगे. ___जो भी हमारी मंगल क्रियाएं हैं परमात्मा का स्मरण है, सामायिक है, प्रतिक्रमण है. उन सारी क्रियाओं के अन्दर आत्म जागृति अगर आ जाए. विचार पूर्वक यदि सम्यक क्रिया बन जाए, तो वह अनुष्ठान अच्छे के लिए आशीर्वाद तुल्य बनता है.. ____ कई ऐसे महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा मिलती है. साधना के क्षेत्र में प्रवेश किया, सब भूल गये, याद नहीं रहा. उपवास करते रहे और परमात्मा के स्मरण में इतने मस्त बन गए. उन्होंने परमात्मा का अनुभव प्राप्त किया, आहार याद ही नहीं रहा. कई व्यक्ति तो साधना में ऐसी मान्यता प्राप्त कर लेते हैं. कि शरीर का भी उनको ख्याल नहीं रहता. रामकृष्ण मां की जब उपासना में बैठते, ऐसी तन्ययता उनमें आ जाती, तादात्म्य भाव उनमें आ जाता, वे सब भूल जाते, मुर्छित अवस्था में आ जाते, सारे संसार की विस्मृति वहां पर पैदा हो जाती. अपूर्व शक्ति है. आत्मा की शक्ति का आनंद है, परन्तु एक सामान्य प्रकार की साधना में भी विशेषता है कि वह ऐसी शक्ति देकर के जाती है जिसके द्वारा व्यक्ति बहुत कुछ अपना कार्य कर लेता है. बहुत कुछ परोपकार का कार्य हो जाता है. साधना ऐसी है. लोग कहते हैं बार-बार परमात्मा का स्मरण किया जाए, नाम लिया जाए. कहते हैं. राम नाम को औषधि रूप माना गया, परमात्मा का नाम, चाहे राम का ले, महावीर का ह जना 393 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी GAN लें. किसी भी ऐसे पुरूष या किसी पूर्व पुरूष का, वीतरागी उस परमदेव का स्मरण करें, स्मरण औषधि रूप माना गया है. लोग कहते हैं बार-बार नाम लेने का आशय क्या है? एक बार लिया जाए, स्मरण हो जाता है. ज्ञानियों का कथन है-अनादि काल से हमारे अन्दर जो संस्कार हैं उन संस्कारों को दूर करने के लिए, नए संस्कारों को दृढ़ करने के लिए, नाम का स्मरण बहुत अंशों में जरूरी है. आपका कपडा जब मैला हो जाता है यदि आप घर पर धोएं एक बार साबुन लगाएं, दो बार लगायें, तीन बार लगाएं. कितनी ही बार उसे मसलना पड़ेगा. पानी में उसे डुबोना पड़ता है. एक सामान्य कपड़े के लिए, आपको तीन चार बार साबुन लगाना पड़ता है. घर की थाली में यदि दाग लग जाए, उसे साफ करने के लिए उसे कितनी बार मांजना पड़ता है. स्वच्छ करना पड़ता है. तब जाकर के उसमें चमक पैदा होती है, उसका दाग निकलता है. मन के अन्दर अनादि काल से कर्म का दाग लगा हुआ है, विषयों (कषायों) का मैल चढ़ा हुआ है. तभी तो अनेक बार परमात्मा का नाम लेना पड़ता है, तब जाकर आत्मा निर्मल बनेगी, और स्वच्छ बन जाएगी. तप की भट्टी में आत्मा को डाल करके निकाला जाए तो स्वच्छता आयेगी तपश्चर्या तो परम अग्नि है. सोना को शुद्ध करने के लिए आग में तपाया जाता है. तब उसकी मलिनता निकलती है. उसी तरह से आत्मा को स्वच्छ करने के लिए तप की भट्ठी में डाला जाता है, तीन दिन को, पाँच दिन का, महीना भर का, जैसे उसकी शक्ति हो जैसी वह गर्मी सहन कर पाए. उस हाई टेम्परेचर में, तप की गर्मी में आत्मा को स्वच्छ किया जाता है, यह आत्मा को शुद्ध बनने की मंगल क्रिया है. तप को अग्नि की उपमा दी. गांव से बाहर वर्षों के कचडे का यदि ढेर लग जाए. आपने देखा-माचिस से यदि जरा सी उसमें आग लगा दें, घण्टे के अन्दर वर्षों का कचरा जल करके साफ हो जाएगा. हमारे यहां यही व्यवस्था हैं तप की इस परमाग्नि के अन्दर यदि आत्मा को डाल दिया जाए, तो वर्षों से जो कर्म उपार्जन हुआ है, दुष्कर्मो के द्वारा, वासना के द्वारा, अनेक प्रकार से कर्म जो उपार्जन किये, यदि एक क्षण भी उसमें अग्नि प्रकट हो जाए, ज्वाला बन जाए तो समस्त कर्मों का क्षय कर डाले... जहां तक विषय अन्तर में होगा, विषय के अन्तर्गत बहुत सारी चीजें आती हैं, काम और वासना भी उसके अन्तर्गत है, जगत को प्राप्त करने की मूर्छा, वह भी विषय के अन्तर्गत है. विषय में गीलापन होता है, माचिस यदि बाहर रख दें और बरसात की हवा उसे लग जाए, सीलन पैदा हो जाए फिर माचिस लगाते रहें, आग प्रकट ही नहीं होगी. आप कहें कि तीन दिन उपवास किया, लेकिन उपवास में अभी तक गर्मी प्रकट नहीं हुई तो भाव में गर्मी नहीं आई, उत्तेजना नहीं आई, उसके कई कारण हैं, आग को पकड़ने Fan - 394 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: - के लिए माचिस को सुखाना बहुत जरूरी है यदि माचिस सूख जाती है आग पकड़ेगी परन्तु अभी तक आग पकड़ नहीं पाई. हमारा प्रयास यही होता है कि आत्मा को पहले सूखा बना दिया जाए, विषय से आत्मा निर्लिप्त बन जाए, एकदम विषय का रस उसमें से सूख जाए. उस विषय को सुखाने के लिए, ममत्च को सुखाने के लिए, मंगल क्रिया की जाती है. और कोई इसका आशय नहीं. एक बार विषय से आत्मा सखा बन जाए मक्त बन जाए तो तरन्त धार्मिक वत्ति प्रज्वलित हो जाती है. तप की आग आत्मा के समस्त कर्मो का नाश करती है. बहुत दिनों से यही प्रयास चल रहा है. कैसे आपके हृदय में आग पैदा हो. कैसे सारे कर्म जलकर भस्मी भूत बन जाएं. लेकिन वह सफलता आज तक नहीं मिली. मैं बम्बई की तरफ जा रहा था. बिहार में आदिवासियों का एक मुकाम आया. रास्ता बड़ा विकट था. रास्ते में ठहरने का मुकाम भी ऐसा मिला, अन्दर गृहस्थ,, हम बाहर, उसकी चौकी पर ठहरे. चारो तरफ पहाड़ जंगल था, संयोग, पूरी रात बरसात पड़ी बाहर से छींटे आ रहे थे. और कोई वहां स्थान नहीं. किसी प्रकार रात तो निकली. सुबह भी आकाश बादलों से घिरा हुआ, छींटे चालू थे. ____ मैंने सोचा दो तीन घण्टे विश्राम लेने के बाद ही जाएंगे. सामने मैंने नज़र की तो एक आदिवासी औरत, दो तीन बच्चे नाश्ता तैयार करने के लिए चूल्हा जलाये, चूल्हे में थोड़ी लकड़ी डाली, परन्तु आग पकड़ नहीं रही थी. एक घण्टे तक उस औरत ने मेहनत की. मैं सारी घटना अपनी आंखों से देखता रहा. वह औरत चूल्हे में फूंक मारती रही, घण्टे तक प्रयास किया पर लकड़ी सब भींग गई. भीगी लकड़ी आग नहीं पकड़ रही थी. सारा प्रयास उसका निष्फल हो गया. वह औरत तंग आ गई. सारे चूल्हे को खाली करके पड़ोसी के यहां से सूखी लकड़ी लाई, उसके बाद जब आग लगाई तो आग लग गई. ____ मैं रास्ते में यही सोचता रहा एक घण्टे तक उसने मेहनत की, परन्तु आग पकड़ी नहीं, गर्मी नहीं आई, सारा प्रयास निष्फल हुआ. मैंने भी सोचा करीब एक महीना हो चुका है और हर रोज एक घण्टा फूक मारता हूं ताकि अन्दर में आग प्रज्वलित हो जाए, मेरा हर रोज यही प्रयास होता है. परन्तु अभी तक सफल नहीं हो पाया, आग पकड़ती नहीं, क्योंकि विषय से भीगी हुई आत्मा है. जहां तक ऐसे सुखाया नहीं जाएगा वहां तक आग नहीं पकड़ेगी. ___जितनी भी तपश्चर्या है, आत्मा को सुखाने की क्रिया है. विषय का रस सूख जाए, संसार का रस सूख जाए. एक बार यह रस सूख गया तो जरा सी मेरी चिंगारी शब्दों की आग को प्रज्वलित कर देगी. आत्मा निर्मल होकर बाहर आएगी. ये सारी क्रियाएं आत्मा के विषय रस को सुखाने की क्रियाएं है. ताकि अन्दर से सेक्स चला जाए, काम और वासना मर जाए, जगत को प्राप्त करने का जो रस है. वह रस खत्म हो जाए, वह रस यदि सूख जाए तो फिर आप धर्माग्नि प्रज्वलित करिये, उसी समय 395 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी अग्नि प्रकट होगी. मोक्ष कोई बहुत दूर की चीज नहीं है, आपकी मुट्ठी में है. आप प्रयास करिये, ज्ञानियों ने कहा-वह प्रयास बहुत जल्दी पूर्ण बनता है. नवें वर्ष में हम केवल बनते है. कौन कहता है?, मोक्ष नहीं, जरूर है, निश्चित है भले ही यहां से नहीं, दूसरी जगह से ट्रेन मिलती है, दिल्ली से नहीं तो बाहर से. महाविदेह क्षेत्र, जहां वर्तमान तीर्थंकर सीमधर स्वामी विचरण कर रहे है, हमारे भरत क्षेत्र से बहुत नजदीक पड़ता है. यदि अपनी अन्तश्चेतना में परमात्मा का शुद्ध भाषा से अनुराग आ जाए, वीताराग का राग प्रकट हो जाए तो वह राग हमारे जन्म कथानक में खूब परिवर्तन कर देगा. क्योंकि व्यक्ति वासना को लेकर के जन्म ग्रहण करता है. बिना वासना के जन्म मरण की कभी प्रक्रिया नहीं होगी, वासना को लेकर के ही व्यक्ति जन्म लेता है. अन्तर की आत्मा उसे खींच लेती है, दुर्भावना में दुर्गन्ध है, भावना में सुगन्ध है, दोनों विपरीत हैं. पानी तो गटर में बहता है. और पानी यमुना में भी, परन्तु दोनों पानी में अन्तर है. शब्द एक है. गटर का भी पानी कहलाता है. और यमुना में भी पानी कहलाता है. गटर का एक छींटा भी अगर लग जाए तो मन में घृणा होती है. स्वच्छ करने की भावना आएगी. धोकर के शुद्ध किया जाएगा, क्योंकि दुर्गन्ध से भरा है. विकार से भरा है, यदि यमुना में जाए तो वहां स्नान करके स्वयं को शुद्ध मानेंगे. वहां आप में भाव आएगा. ___ वासना और भावना में भी इतनी ही भिन्नता है. वासना गटर के पानी जैसी है. आत्मा को गंदी बनायेगी, आत्मा में एक प्रकार से गन्ध पैदा करेगी, परन्तु दि उसका रूपान्तर हो जाए और सद्भावना आ जाए तो वह भावना भगवान तक पहुंचा देगी. परमात्मा के प्रति एक बार अनुराग पैदा हो जाए तो उसका यह चमत्कार ही सही दिशा में आपको जन्म देगा. यहां से महा विदेह क्षेत्र में ही आपको पहुंचा देगा. वहां जन्म लेने के बाद परमात्मा में यदि प्रशस्त अनुराग रहा, पूर्व का पुण्य रहा तो आठवें वर्ष में दीक्षा और नौवें वर्ष में केवल ज्ञान. ___ कोई दूर की चीज नहीं, नौंवें वर्ष में आत्मा केवल ज्ञान प्राप्त करती है, अपनी आयु पूर्ण करके निर्वाण प्राप्त करती है, मोक्ष प्राप्त करती है. जहां से फिर कभी आवागमन होता ही नहीं. जीवन की अन्तिम मृत्यु को निर्वाण कहा जाता है, जहां से फिर कभी मरण होता ही नहीं, वह अपनी मौत को मार कर के फिर मरता है. वह स्थिति मुझे प्राप्त करनी है. तप का लक्ष्य भी यही है, कहां तक जनमें, कहाँ तक मरेंगे, इस संसार का कभी अन्त आने वाला नहीं. शंकराचार्य ने चरपर मंजरी के अन्दर परमात्मा से निवेदन करके कहा पुनरपि जननं पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननी जठरे शयनम्. - न 396 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी भगवन् ! यह बार-बार जन्म लेना, बार-बार मृत्यु-दुख सहना, बार-बार संसार की सजा लेकर आना, कर्म की मार खाना, जगत का अपमान सहन करना, मेरी यह परिस्थिति कहां तक रहेगी. अन्तर्भाव से कड़े दर्द पूर्वक परमात्मा से उन्होंने निवेदन किया. कहां तक यह जन्म-मरण की क्रिया हमारी चालू रहेगी. अपूर्व वैराग्य भाव से उन्होंने निवेदन किया. एक-एक श्लोक के अन्दर यह भाव भरा है. ___व्यक्ति अगर सुन्दर चिन्तन करें तो संसार में रहकर भी वैराग्य भाव पैदा कर ले, फिर उसे भी आनंद नहीं आएगा. संसार के अन्दर संसार की प्राप्ति में भी आनंद नही आएगा. ___ बहुत बड़ा सम्राट् हमेशा उदास रहता है. चेहरे पर अपूर्व प्रकार का वैराग्य रहता है. बहुत सारे लोग वहां आते हैं, मिलते है. कई लोगों ने ऐसा विचार किया-क्या बात है. इतना बड़ा सम्राट और इसके चेहरे पर प्रसन्नता क्यों नहीं. चेहरे में आनंद क्यों नहीं? जरा सी कुर्सी मिलती और नशा आ जाता है. जरा सी जगत की प्राप्ति हो तो आनंद आ जाता है, चेहरा प्रकट कर देता है. यह इतने बड़े साम्राज्य का मालिक! इस के चेहरे पर आनंद नहीं, प्रसन्नता नहीं, उदासीनता दिखती है. इसका रहस्य क्या है? राजा के पास गए. राजा के मित्रों ने पूछा - "आपको कोई कष्ट है? कोई अप्रिय घटना घटी? कोई पारिवारिक क्लेश है? कोई संताप है? शरीर के अन्दर आपके व्याधि है? क्या कारण है?" राजा ने कहा - “कुछ नहीं, मुझे कोई आधि-व्याधि नहीं, मैं निश्चिन्त हूं." "राजन्! फिर आपके चेहरे पर उदासी क्यों?" मफतलाल ने जब यह पूछा कि - “राजा ! आपके चेहरे पर उदासी क्यों?" राजा ने कहा - “देखो. कल मेरे यहां आना. तुम्हारे लिए बड़ी सुन्दर व्यवस्था की है. वर्षों से तुम मेरे यहां आते हो. मेरे मित्र जैसे हो, कल आकर मेरे यहां भोजन ग्रहण करना, मेरा आमन्त्रण स्वीकार कर लो. उदासीनता का कारण भी कल ही बतलाऊंगा." ___मफतलाल को राजा के यहां भोजन करने का जब आमन्त्रण मिला तो बड़ा प्रसन्न हुआ. राजा ने जब उसे बुलाया तो बड़ा आनन्दित हुआ. जैसे ही दूसरे दिन वह वहां गया. राजा ने पूरी तैयारी कर रखी थी, बहुत बड़ा बगीचा था. उस बगीचे में एक बहुत गहरा कुआँ था. कुएं के ऊपर एक ऐसा सिंहासन बनाया हुआ था, कच्चे बांस का कच्चे सूतों से बँधा हुआ, सामने एक टेबल रख दिया. कुर्सी भी ऐसी कि बैठे और कब गिर जाए, इसका कुछ पता नहीं. जैसे ही मफतलाल आया, राजा का परम मित्र था. राजा ने उसे कुर्सी पर बैठाया. बहुत सुंदर उद्यान था. गर्मी के दिन थे. राजा अपने साथ ले गया कि चलो मेरे साथ चलो. 397 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी सिपाहियों को आदेश दिया गया कि इनको इनके स्थान पर बैठा दिया जाए. कएं में न जाने कितने सांप थे. राजाज्ञा सिपाही ने कहा कि आपको यही बैठना पडेगा. मजबूरी थी, आकर कुर्सी पर बैठ गया, ऊपर नंगी तलवार लटक रही थी. कच्चे सूत से बंधी तलवार. हवा में हिल रही थी. जैसे ही कुर्सी पर बैठा तो पूरी कुर्सी लचकदार हिलती हुई. जरा भी अगर बैलेन्स घुमाए तो सीधा नीचे. __ बैठा दिया सामने टेबल पर, बड़े सुन्दर पकवान रखे थे. मफतलाल से कहा -- "करो भोजन." वह भोजन करने के लिए बैठा तो सही, ऊपर देखता है तो नंगी तलवार, हवा के झोंके लगने से हिल रही है. न जाने कब गिर जाए और मौत का कारण बन जाए. मफतलाल उदास हो गया. चिन्ता हो गई. सोचा यह आमन्त्रण मैंने कैसे स्वीकार कर लिया. यह तो मौत का आमन्त्रण है. राजा हैं. इनसे कुछ पूछ नहीं सकता. प्रश्न नहीं कर सकता. राजा का आदेश ही सर्वोपरि है. नीचे झांककर देखा तो बहुत बड़ा गहरा कुआँ है. कुएँ के, बीच में बैठा हुआ. सिपाहियों ने कहा - “भोजन करिए. राजा का आदेश है, आपको भोजन करना है. बड़ी सुन्दर सामग्री रखी है." जबरदस्ती खाने तो लगा, आदेश था. मानना पड़ा. खाना तो खा लिया, उसके बाद जब उसे कुर्सी से उतारा गया, राजा ने पूछा - "खीर कैसी लगी?" “महाराज! बड़ी सुन्दर.” मौत से बचकर आया था. "तुम्हें मालूम नहीं वह खीर तो मैंने भी खाई, उस खीर में तो चीनी डाली ही नहीं थी." "वह तो लूम है, रखा था मैंने तो उसे ही लिया. मौत के भय में चीनी डाली है या नहीं यह भी मुझे मालूम नहीं." “उसके साथ साग कितना सुन्दर था, मालूम है?" / “हां राजन, साग मैंने खाया, बड़ा अच्छा लगा, मैंने तो सब खा लिया." “अरे, उस में मिर्च-नमक ही नहीं था." “वह भी मुझे मालूम नहीं था, मैंने तो खा लिया." राजा ने कहा - "अक्ल आई. नंगी तलवार और मौत का कुआँ देखा, स्वाद भूल गए. मेरा आदेश था, इसलिए खाना खाना पडा. मजबरी थी. जो आया खा लिया. स्वाद का कोई अनुभव नहीं हुआ, अनुभव के नीचे तो मौत छुपी हुई थी.” राजा ने कहा, "मेरी उदासीता का यही कारण है, तुम्हें स्पष्ट कर दिया, समझे? मैं राज सिंहासन पर बैठता हूं तो कल्पना करता हूं, ऊपर मौत की तलवार है. न जाने कब कुदरत की तलवार आ जाए और मेरी मौत हो जाए. सतत सावधान. संसार में जो सावधान रहे, वही आदमी आगे चलकर के अपने लक्ष्य को पाता है. नीचे देखता हूं तो दुर्गति का कुआँ. अगर मैंने जरा भी यहां राज सिंहासन का दुरुपयोगपत 398 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: किया न्याय-नीति का उल्लंघन किया, मर्यादा का उल्लंघन किया, आचार से विरुद्ध यदि दुराचार का आश्रय लिया तो नीचे दुर्गति का कुआँ नजर आता है. यही कल्पना हमेशा सामने रखकर सिंहासन पर बैठता हूं, इसलिए पाप मौत की तलवार नज़र आती है और नीचे दुर्गति का कुआँ देखता हूं इसलिए पाप करने से मैं बचा. संसार की कोई भी प्रसन्नता मेरे अन्दर असर नहीं करती. संसार में मुझे किसी प्रकार का आनंद नहीं आता. यही मेरी उदासी का रहस्य है. __ आफिस में जाकर जब आप कुर्सी पर बैठें, पांच दस हजार की कुर्सी लाते हैं, बड़ी आफिस होती है. एयर कन्डीशन आफिस होती है. बैठते समय आप भी यही सोचना. ऊपर लटकती हुई मौत की तलवार कब परलोक पहुंच जाएं, न जाने कुदरत कब क्या सजा दे दे. सावधान, पाप से सावधान, विषयों से सावधान, क्रोध पापों से सावधान, संसार के समस्त भयंकर पापों से सावधान रहना. उसी में सज्जनता है, उसी में कल्याण है. ___ कुर्सी पर बैठते समय नीचे झांक लेना दुर्गति का कुआँ है. अनीति करुंगाा, अन्याय करूंगा, असत्य यदि प्रयोग करूंगा, उसकी मुझे सजा मिलेगी, मेरा जीवन बरबाद हो जाएगा. मरने के बाद उसी दुर्गति के कुंए में मुझे डूबना होगा. यह सजा मुझे मिलेगी. व्यक्ति कुर्सी पर बैठते समय ऊपर नीचे नजर डाल ले, न जाने कब मौत आ जाए, नीचे दुर्गति का कुआँ तैयार है यदि मैंने गलत कार्य किया तो उसकी सजा मुझे मिलेगी. आपके जीवन से सारी प्रसन्नता चली जाएगी. प्रसन्नता सत्कार्यों में होनी चाहिए. संसार के कार्यों में प्रसन्नता कैसी, वहां तो रोना चाहिए. कैसी मजबूरी कि न चाहते हुए भी दुखी रहना पड़ता है. आहार कैसे करना हैं उसका विवेक बतलाया गया है. यह शरीर का धर्म है. परमात्मा ने कभी नहीं कहा कि तुम भूखे मर जाओ. जहां तक तुम्हारी शक्ति है, प्रसन्नता है, प्रयास करो. आहार से मुक्त होने का, उसकी वासना से मुक्त होना, सम्यक् तप माना गया है. सम्यक् अनुष्ठान माना गया है. शरीर को कैसे आहार दिया जाए. परमात्मा महावीर ने बतलाया. शरीर के साथ कैसा व्यवहार करना. बड़ा चालाक है, विश्वाशघाती, दुर्गन्ध से भरा हुआ है. ज्ञानियों ने कहा-ज़रा भी इस से राग रखना नहीं, जैसे घर में नौकर खाते हैं, उसे खाना देते हैं. कपड़ा देते हैं, मालिक वेतन देते हैं, परन्तु काम बराबर लेते हैं. सुबह से शाम तक शरीर आपका नौकर है. सेठ आत्माराम भाई मालिक हैं. शरीर नौकर है, हाथ पांव सारी इन्द्रियों से बराबर काम लेना. खिलाते हैं तो पूरी तरह वसूल करने का. यदि आपने वसूल नहीं किया तो ये नौकर आपको नौकर बना लेंगे, समय बदल चुका है. कैसे इससे व्यवहार करना है. वह मैं आपको समझाऊं आहार तो आप भी करते हैं. परन्तु करने में आसक्ति नहीं, जो मिला ले लिया लेने के अन्दर इतना विवेक होना चाहिए. 399 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - जरा भी उसके स्वाद में प्रसन्नता नहीं. स्वाद आएगा, शरीर का धर्म है. यानी जीभ पर रखा, स्वाद आएगा परन्तु स्वाद नहीं, उसकी प्रसन्नता नहीं मिली, भाड़ा दे दिया. शरीर से काम लेना है, इस नौकर से काम लेना है. मेरी धर्म साधना में शरीर सहायक है. इसकी सहायता लेने के लिए हम इसका पोषण करते हैं, विषय के पोषण के लिए नहीं, धर्म के पोषण के लिए, परन्तु लेने का तरीका होना चाहिए, आहार किस प्रकार की भावना से दिया जाए. हमारे आगमों में एक उदाहरण आता है. कि तपस्वी आत्मा, साधु, साधक आहार कैसे करें, जीभ पर अधिकार कैसे प्राप्त करें, आहार करने का जो वर्णन दिया है. बड़ा अपूर्व है. एक था बहुत बड़ा श्रीमन्त सेठ, किसी कारण उसका जो घर का नौकर था बड़ा बदमाश था. संयोग कि एक लड़का था, इतना श्रीमन्त परिवार, परन्तु परिवार में मात्र एक लड़का था. एक सेठानी एक स्वयं घर की सेवा के लिए एक नौकर रखा. नौकर बड़ा बदमाश था, बदतमीज था. उदाहरण द्वारा समझाया है आहार कैसे किया जाए. संयोग घर में नौकर रहता, मन में उसका एक ही विचार था कब मौका मिले, कब यहां से लूट करूं. वह मौके की ताक में था. एक दिन किसी कारण से सेठ तीर्थ यात्रा पर गए. सेठानी किसी काम से पड़ोस में गई, नौकर को मौका मिला, इकलौता लड़का सोने से लदा हुआ. लाड़ प्यार से बड़ा हुआ. नौकर लड़के को मार करके उसका सारा माल लेकर गायब हो गया. यह समाचार जैसे ही मिला पड़ोसी आए, सेठ को बुलाकर लाए, राजा के पास गये. राजा ने कोतवाल को आदेश दिया-उस नौकर को पकड़ लिया जाए. पकड़कर उसे आजीवन कारावास की सजी दी गई. अन्तिम समय कुछ ऐसे प्रसंग आए. संयोग ऐसा, किसी ने राजा के कान में चुगली कर दी कि सेठ टैक्स चोरी करता है. आपके राज्य के विरुद्ध कार्य करता है, आपके दुश्मन राजा को जाकर पैसा देता है. आपके लिए षड़यन्त्र करता है, राजा के कान कच्चे थे, सेठ को भी पकड़ा गया. राजा ने विचार किया, इसको सजा कैसे दी जाए. क्या सजा देनी चाहिए. राजा ने सजा घोषित की इस सेठ को इसके नौकर के साथ एक ही बेड़ी में डाला जाए. ताकि अपने इकलौते बेटे के खुनी को हमेशा देखकर जला करे, इसका खून जला करे. प्रतिशोध की भावना इसके अन्दर में रहा करे. दुखी करने का उपाय बतलाया. इसको एक ही रस्सी में बंद रखना कठोर सजा थी... आपका ऐसा कोई पत्र हो. और इस प्रकार की दुर्घटना हो जाए उसी कैदी के साथ आपको रहना पड़े, जिसने इस प्रकार का घृणित कार्य किया हो. आपके मन में क्या आएगा. उसे देखते ही एक दम दुर्भावना आ जाए, द्वेष भर जाए. a 400 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: सेठ को उसी के नौकर के साथ एक ही बेड़ी में रखा गया, एक हाथ नौकर का और एक हाथ सेठ का. अपने लड़के के खूनी के साथ चौबीस घण्टे उसको बिताना, यह कितना बड़ा दर्द का विषय. सुबह से शाम तक उसी के साथ रहना, उसी के साथ बैठना, उसी के साथ सोना. घरवाली सेठानी खाना लेकर आती. सेठ खा लेता, बच जाए बाहर फेंक देता. या किसी जेल के सिपाही को दे देता. यह घटना रोज होती थी. नौकर ने विचार किया. सेठ माल पानी खा ले और बचा हुआ बाहर फेंक दे. हम रोज माल देखते रहें और एक टुकड़ा भी मुझे ना मिले. नौकर ने विचार में गांठ बांध ली कि मौका आने दो. सेठ तो माल पानी खाए और फेंक दे. सेठ को जंगल जाना था. उससे कहा चलो साथ. उसने कहा-सेठ माल पानी तो तुम खाओ और जंगल में तुम्हारे साथ मैं चलूं? ऐसा नहीं हो सकता, मैं तो सोता हूं. बेड़ी तो साथ-साथ में, ऐसी परिस्थिति में नौकर न चले तो सेठ की क्या दशा होगी. वहां सुबह का समय प्रातःकाल यह तो शरीर का धर्म है, बिना निवारण किए शान्ति नहीं मिलती. बहुत विनती किया. नौकर ने कहा बिल्कुल नहीं. मुझे कोई शंका नहीं, तुम को जाना है जाओ.-तू चलेगा नहीं तो मैं जाऊंगा कैसे? सेठ माल तुम उड़ाते हो और मजदूरी मुझे करने को कहते हो. यह घर नहीं जेल है. मेरी बात मानो तो मैं चलूं. ऐसी परिस्थिति में मानना पड़े या नहीं, नौकर को तो घर की रसोई खिलानी होगी, जो स्वयं के लिए आती थी. तो क्या प्रेम से खिलाया. उस खिलाने में उसको आनन्द आया. कैसे भाव से खिलाया, उसी भाव से शरीर को खिलाना है आनन्द नहीं, प्रसन्नता नहीं. मजबूरी है, सेठ आत्माराम भाई को इस नौकर के साथ एक ही बेड़ी में रखा है. एक बेड़ी में आत्मा और एक ही में शरीर, कैसा बन्धन ? आत्मा स्वतंत्र है, शरीर के बन्धन है. शरीर अगर अकड़ जाए तो आत्मा क्या करे, शरीर कहे मुझे मंदिर नहीं जाना मुझे प्रतिक्रमण नहीं करना, अंगूठा दिखाये तो क्या करना परिस्थिति कैसी कि एक ही बेड़ी में हम डाले हुए हैं. थोड़ा बहुत तो शरीर की माननी पड़ती है. तीन दिन तो आपने तप किया लेकिन चौथे दिन कहेगा मुझे खिलाओ नहीं तो साथ नहीं दूंगा. यहां से वहां चलने की ताकत नहीं है मेरे में, खिलाना पड़ेगा.. परन्तु खिलाने में, आहार में प्रसन्नता नहीं, आसक्ति नहीं. आसक्ति को खत्म करने के लिए ही तो उपवास किया जाता है. यही उपवास का लक्ष्य है. उपवास पूरा पारणे में दिखाना चाहिए. तप के समय खाना याद आता है. लेकिन खाते समय उपवास याद नहीं आता है. नहीं खाते समय कभी उपवास याद नहीं आया. परन्तु उपवास में खाना जरूर याद आया. यह अनादिकाल का संस्कार है. इस संस्कार में परिवर्तन लाने के लिए इतना कह रहा हूं. आनन्द तो साधना का, आनंद उपवास का खाने का आनन्द नहीं, भले ही आप बादाम का हलवा खाएं, कर्मबन्ध का कोई कारण नहीं क्योंकि परिणाम शुद्ध है. शरीर के रक्षण - 401 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - का भाव है ताकि इसके द्वारा इसका और सुन्दर उपयोग करूं. साधना के इस क्षेत्र में | उपयोग हो. चाहे अच्छी लगने वाली कितनी ही सुन्दर साम्रगी लाएं, आपकी थाली में रखे, आप खाइये परन्तु उसमें आनंद नहीं. आप खाएं मुझे उसमें आनंद है. शरीर का धर्म है, शरीर के निर्वाह के लिए खाना आवश्यक है. खाने का विवेक होना चाहिए. शरीर के कारण जाने कितना पाप करना पड़ा. इन इन्द्रियों और शरीर के लिए कितना भयंकर संसार उपार्जन किया. ये बड़े खतरनाक हैं. सेठ ने उस नौकर के साथ सदव्यवहार किया लेकिन उसने उसके पुत्र को खत्म कर दिया. कितना भयंकर अत्याचार किया. विश्वासघात किया. इस शरीर ने भी आत्मा के गुणों की न जाने कितनी बार हत्या की. न जाने कितना भयंकर विश्वासघात इस शरीर ने आत्मा के साथ किया. अपने विषय भोग के अन्दर इसका उपयोग किया और आत्मा देखती रही, रोती रही, लेकिन शरीर ने सुना नहीं. आज तक संसार देने वाले इस शरीर को लेकर यह संसार प्राप्त किया. इसी शरीर के द्वारा ही पाप किया. इन्द्रियों के माध्यम से पाप उपार्जन किया गया. शरीर के साथ आप ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे तो आगे चलकर क्या होगा? ___मैं पूना से आ रहा था. रास्ते में मैंने एक घटना देखी. पूना से बम्बई आ रहा था. रास्ते में लोणावाला का घाट था. घाट उतरने के बाद नीचे खापोली गांव था. वहां एक बहुत बड़ा पेपरमिल है-पिको. उसका मालिक महाराष्ट्रियन ब्राह्मण है. उसने कहा महाराज इस बार आपको मेरे मिल में ठहरना है. बहुत जबरदस्त मिल है. मैंने उसका आग्रह स्वीकार किया कहा कि आऊंगा तो ठहरूंगा. आते समय एक रात्रि के लिए मैं आया. ठहर गया. सुबह का समय था. ठण्डी का समय, उन्होंने कहा-महाराज, आप नाश्ता करके जाए. सुबह बहुत ठण्ड पड़ती है. मैंने कहा - ठीक. आपको पेपर मिल देखना हो तो दिखाऊं. मेरे मन में ऐसा विचार आया, यह सरस्वती का साधन है. परमात्मा की वाणी इस पर लिखी जाती है. परमात्मा के अक्षर शरीर का निवास होता है. यह कैसे बनता है. जरा देख लूं. कभी कोई प्रसंग आया नहीं था. मिल में मुझे ले गया. जहां उसका बहुत बड़ा वायलर था. उसने वहीं से शुरूआत की कि यह हमारा वायलर है. इसके अन्दर कागज की लुगदी तैयार होती है. ___सब कच्चे कागज लाए हैं, सारे इसमें डाल दिए जाते हैं, फिर इसे उबाला जाता है. इतनी भयंकर दुर्गन्धि कि आप खड़े नहीं रह सकते, मैंने दो मिनट वहां रह कर के देखा फिर कहा कि चलें आगे: इसे देख लिया. वहां से आगे गए, दो मिनट भी हम वहां खड़े नहीं रह पाए, आगे उसके अलग-अलग प्रोसिजेज बतलाए, फिल्टर किया हुआ कागज, सीधा बन गया फिर उसको पकाकर आग में डाला तो सीट्स तैयार होने लग गए. जब 402 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी ] मैं अंतिम दरवाजे के पास पहुंचा, तब तो कागज बन कर तैयार हो कर आ रहे थे, एकदम वाईट पेपर, देखकर के आखें प्रसन्न हो गई. वह सरस्वती का साधन बन गया. न कोई दुर्गन्ध, न किसी तरह की अरुचि पैदा हो, जैसे ही मैं फैक्टरी देख कर आया मेरे साथ जो साध थे मैंने कहा साध संसार को अलग दष्टि से देखता है उसी चीज को संसारी अपनी दृष्टि से देखता है. मैंने कहा कि यह जड़ फैक्टरी मैं देखकर के आया, मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. इस जड़ के अन्दर कितनी बड़ी विशेषता है. खराब से खराब इस फैक्टरी का खुराक है, परन्तु इसका प्रोडक्शन सुपर फाइन. हाथ में लेने से आनन्द आ जाए, चिथड़ा कागज बन करके आता है, सरस्वती का साधन बनता है. उस कागज पर परमात्मा के शरीर का निवास होता है. नाम बनता है. आत्माराम भाई की फैक्टरी देखी, जिसमें कोई हडताल नहीं, लेबर की जरूरत नही सेठ आत्माराम भाई की चलती फिरती बेड़ी, अन्दर से प्रोडेक्शन चालू रहता है, मशीन चलती रहती है. जो फेल हो जाए तो कभी रिस्टार्ट होती नहीं, मैंने कहा यह चैतन्य की फैक्टरी है, वह तो जड़ फैक्टरी परन्तु इससे मुझे वह फैक्टरी अच्छी लगी जड़ फैक्टरी. खराब से खराब खुराक और सुपर फाईन मैटिरियल, आपका रा मैटिरियल कैसा? हलवा, पुरी, रसगुल्ला, सुगन्ध से भी आनंद, देख कर भी आनंद. इस फैक्टरी को चलाने का रा-मैटिरियल कैसा? बड़ा सुन्दर! पर कभी प्रोडक्शन देखा है? घृणा से भरा हुआ, तिरस्कार से भरा हुआ. वह कहता है कि शरीर का साथ मैंने बारह घण्टे किया. कभी जा रहा था जंगल से लौटकर के आया भूख और नेक, मुझे तिरस्कृत करके क्यों जा रहे हो. मेरी तरफ मुँह फेर करके क्यों जा रहे हो? इतनी घृणा जरा विचार करो, तुम जानकार हो, मैंने शरीर का बारह घण्टा साथ किया, सुबह गर्म-गर्म हलवा था, बारह घण्टे शरीर के साथ के कारण मेरी यह दशा हई. लोग थूक करके जाते हैं, घृणा करके जाते हैं, जाने कितना तिरस्कार मेरा करते हैं. मेरे नाम से घृणा करते हैं. जरा विचार कर, शरीर के साथ बारह घण्टे के कारण मेरी यह दशा हुई, हलवा मिट करके विष्ठा बना. जिन्दगी भर जो शरीर को लेकर चलता है, उसकी क्या दशा होगी? जरा सोच लेना. शरीर के प्रति सबका यह व्यवहार. यहां तो मालिक का ध्यान रखना है, नौकर का नहीं. हमारी आदत ऐसी कि हम ज्यादातर नौकर का ही ध्यान रखते हैं. जीभ क्या माँगती है? आंख क्या देखना चाहती है. कान क्या सुनना चाहते हैं? हमेशा हमने विषयों की गुलामी करके ऐसी आदत बिगाडी कि मालिक नौकर बन गया और नौकर मालिक बन गया. कहां से आनन्द आएगा? अगर सावधान न हए तो दिवाला मनाना पडेगा. इसीलिए कहा है-आहार करते समय उसमें आसक्ति नहीं, रसेन्द्रियकी लोलुपता नहीं चाहिए, जिस 403 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - दिन रस में आनन्द आ गया, जीवन का पतन तैयार है. हमारे महानआचार्य थे, पांच पांच सौ साधुओं को ज्ञान देने वाले, मथुरा के अन्दर यह आगम में वर्णन आता है. मथुरा एक समय जैनों की महान नगरी थी. आगम की संपूर्ण वाचना हुई थी. साधुओं का बहुत बड़ा सम्मेलन आज से पन्द्रह सोलह सौ वर्ष पहले हुआ था. पटना के बाद दूसरा सम्मेलन मथुरा में हुआ. अंतिम सम्मेलन जहां आगम लिखा गया. भगवान महावीर के 980 वर्ष बाद बल्लभपुरी में हुआ. भगवान के निर्वाण के तुरन्त बाद पतन हुआ. दूसरा मथुरा और तीसरा सम्मेलन हमारा उस समय बल्लभपुरी में हुआ. निर्वाण के 980 वर्ष के बाद परमात्मा की वाणी को लिखित रूप दिया गया. अक्षर लिखे गये. वहां तक तो मौखिक धारणा ऐसी थी, आगम कण्ठस्थ रहते थे. जैसे-जैसे विस्मृति आई, साधु भूलते चले गए. काल का प्रभाव, आगम लिखित किया गया. उस समय 500 साधुओं को पढ़ाने वाले महान आचार्य मंगु ऐसी चमत्कारिक शक्ति थी उनमें, ज्ञान था विद्वता थी, चरित्र का तपोबल था, परन्तु आप जैसे सज्जन श्रावकों की बहुत भक्ति थी. कोई पूर्व कर्म का कारण आचार में शिथिल बन गए. शिष्य बड़े विवेकी थे, उन्होंने सोचा गुरु को अवर्णवाद कभी नहीं बोलना. विद्या गुरु हैं. धीमे-धीमें एक-एक साधु वहां से आज्ञा लेकर चले गए. यह इतने शिथिल बन गए इतने प्रमाद से जीवन घिर गया, संसार की वासना को लेकर श्रावक मिल गए. भक्त वर्ग मिल गए. गुरु महाराज के वचनों के प्रति विश्वास, इनका आशीर्वाद मिला, कल्याण हो जाएगा. इस भावना से बेचारे भक्त श्रावक रोज उनकी भक्ति करें. ___ आचार से इतना पतित बन गए कि मंदिर छूट गया, प्रतिक्रमण छूट गया, सारी आराधना छूट गई . खाना, पीना और पड़े रहना. एक शिष्य बड़ा विनयी था, गरु का हित चिन्तन करने वाला था, उसने देखा यदि मैं भी चला गया तो गुरु का पतन निश्चित है. आज नहीं तो कल कभी न कभी मैं अपने गुरू देव को सावधान करूंगा. पर्युषण का दिन आया तो भी वही दशा. कोई व्याख्यान, प्रवचन कोई आराधना नहीं. किसी व्यक्ति को ऐसी ताकत नहीं, दृष्टि राग ऐसा था कोई बोले नहीं. ___संवत्सरी के महा मंगलकारी दिन ऐसा प्रसंग आया कि आराधना तो मुक्त हो गई, आराधना हई नहीं, उसका परिणाम आया, आराधना से विमुख हो गए. प्रतिक्रमण का समय हुआ, प्रतिक्रमण चल रहा था, गुरु आराम कर रहे थे, महा अनाचारी थे, अपने जमाने के सबसे बड़े विद्वान आचार्य 500 शिष्यों को वाचना देने वाले महाज्ञानी. देखें, कर्म कैसे नचाता है. ___ जरा सा प्रमाद किया जीभ के आधीन हो गए, रसेन्द्रिय के गुलाम बन गए, पतित हो गए. संवत्सरी का प्रतिक्रमण तक नही किया था, शिष्य गुरु का हित चिन्तन करने वाला था. आज नहीं तो कल इनकी आत्मा को जन्म आएगा.- गया, वह आराम कर रहे 404 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी थे. जाकर क्षमावना की, चरणों में गिरा और मस्तक रखा और कहा-भगवन, मेरे अपराध को क्षमा करो. आज महामंगलकारी संवत्सरी पर्व का दिन, कई बार आपके लिए मेरे मन में दुर्भावना आई, आपने मेरे ऊपर महान उपकार किया है. यदि मैं चमड़ी उतार कर जूती बनवा कर आपको पहनाऊं तो भी मैं उपकार मुक्त नहीं बन सकता. भगवन्! मुझे दुर्गति में नहीं जाना है. यह अपराध करके मुझे दुर्गति में नहीं जाना है. आपके लिए मैंने कितनी दुर्भावना रखी है. भगवन हृदय खोलकर के पाप प्रकट कर रहा हूं. आज संवत्सरी का दिन है. आप मुझे क्षमा करें. इतना विनीत शिष्य, विवेक पूर्वक शब्द का परिणाम अन्तर्चेतना जग गई. शिष्य को गले लगा लिया. रोकर के शिष्य से कहा-तूने मुझे बचा लिया, नहीं मैं कहां चला जाता. वृद्ध हो गये थे, अवस्था का परिणाम व्यंतर (निकृष्ट योनि) में गए. हालांकि चरित्र में दूसरे दोष नहीं थे. क्रिया की शिथिलता थी, आहार की वासना थी, जिसके कारण निष्कृट योनि में गए. वही उनके शिष्य 500 जो उनके पास पढ़ते थे, उसी मथुरा नगरी में जब आगे आने लगे. जहां उनका अग्नि संस्कार किया था वहां बहुत बड़ी खाई थी. दुर्गन्ध से भरी हुई खाई थी. पूरे नगर का पानी और गदंगी वहीं जाती थी. उन्होंने जब ज्ञान से देखा कि ये मेरे शिष्य है., भव में मेरे पास ज्ञानाभ्यास करते थे. मैं तो आहार की वासना से ऐसी गंदी जगह पैदा हुआ हूं, आयुष्य कर्म का बन्धन ऐसा है, यहां से अब मैं आ नही सकता, यानि नहीं बदल सकता. इस योनि में अपमृत्यु नहीं होती, आयुष्य पूर्ण भोगना पड़ता है. आराधना साधना से वंचित रहा. कैसी सजा मुझे मिली. इन शिष्यों को मैं सावधान करूं. शिष्य सभी आ रहे थे. अपना विकाराल रूप बनाकर ढाई फुट लम्बी जीभ निकाली, उनको जीभ हिला हिला करके दिखलाया. सब साधु डर गये. मन में बैचेन हो गए, घबरा गए, साथ वहीं खड़े रहे. उनमें एक ज्ञानी पुरूष थे. उन्होंने आकर विवेक पूर्व पूछा- आप कौन है. आपके कहने का आशय क्या है? अचानक मुद्रा दिखाने की जरूरत क्या है? हम तो साधु हैं, मौत से डरने वाले गृहस्थ नहीं. जो हैं आप, सच बतला दीजिये. उन्होंने कहा मैं तुम्हारा गुरू भव का मंगुआचार्य. तुम पांच सौ साथ मेरे पास ज्ञान पढ़ते थे. याद रखो-एक रसना इन्द्रिय का गुलाम बना, उसके कारण यह दशा बनी. इस खाई में से पेट बना. एक जरा से विषय का पोषण किया, उसका यह परिणाम याद रखना, संयमी जीवन में यदि रसेन्द्रिय पर अधिकार नहीं आया, इसी आहार की वासना को लेकर अगर जीवन बरबाद किया. मेरी जैसी दशा होगी. तुम को इसीलिए जीभ दिखाई इससे सावधान रहना. बड़ी खतरनाक है. __ “अक्खान रसनी कम्मान मोहिनी, तवेप्सु अत्मम बभचेरम्” इन्द्रियों में रसेन्द्रिय पर अधिकार प्राप्त करना बहुत मुश्किल है. तपों में ब्रह्मचर्य तप अति दुष्कर है. कर्मों में मोहनीय Tan कर्म जीतना बहुत दुष्कर है. इन्द्रियों में रसेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लिए यह प्रयास / 405 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी - किया है. हमारा प्रयास निष्फल न जाए इसीलिए सावधान रहना. आहार से मेरा कोई विरोध नहीं, लेकिन आहार सात्विक हो, शरीर का पोषण करने वाला हो. उसके साथ बिना आसक्ति के भोजन हो, दीन दुखी आत्मा को देकर भोजन करे. सुपात्र दान करके भोजन करे ऐसा मंगल भोज आपकी आत्मा को निरोगी बना देगा. आत्मा का आरोग्य और मनका आरोग्य तो शरीर का आरोग्य देने वाला ही होता है. शरीर की चिन्ता नहीं अपने मन की चिन्ता करे. आहार वासना को उत्पन्न न करे.. अकबर के समय 450 वर्ष पहले चम्पा श्राविका श्री माता तुल्य थी. छः महीने का उपवास. सम्राट अकबर के मन में संशय पैदा हुआ, अपने महल में लाकर रखा, वहां पर उसकी आराधना जब देखी अकबर दंग रह गया. अकबर ने कहा-हम तो रोजा करते हैं. रोजा में भी रात को मिठाई चलती है, जिसमें भी हमारी हालत बुरी हो जाती है. इस श्राविका ने छ: महीने का उपवास किया धन्य है. बलिहारी है. श्राविका से पूछा - “यह शक्ति तुमको कहां से मिली?" "गुरु महाराज के आशीर्वाद से." "तुम्हारे गुरु कौन हैं? “वह तो अहमदाबाद हैं, विजयहीर सूरि." अहमदाबाद से आशीर्वाद भेजा और दिल्ली में तपश्चर्या हो गई. मैं ऐसे गुरु का दर्शन करना चाहता हूं. यहां से फरमान भेजा, ऐसे महान गुरु को यहां लाने के लिए पूरा शाही लमाजमा भेजा जाए. हाथी धोड़े गए, पूरे समाज के साथ वहां पर आमन्त्रण देने गया. आचार्य भगवन्त ने कहा - "हम तो साधु हैं, पैदल जाते हैं, यह सब हमारे काम नहीं आएगा. अहमदाबाद का सबा सम्राट को लिखता है. मैं दर्शन के लिए गया, और आचार्य भगवन्त का परिचय किया. यह तो खदा का पैगम्बर दिखता है, कोई अवतारी पुरूष नजर आता है." तब अकबर प्रभावित हुआ. आईने अकबरी के अन्दर अबुल फजल ने इसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है. ऐतिहासिक वर्णन है. चम्पाश्राविका का, विजयहीर सूरि जी का वर्णन आता है. सर्व प्रथम उनकी कृपा से हमारी प्रवर्तन हुआ, और सम्राट ने प्रतिबोध प्राप्त करके, ये सारे तीर्थ विजयहीर सूरि महाराज के नाम करके पटटा अर्पण किया जो आज भी अहमदाबाद म्यूजियम में मौजूद है. अकबर के हस्ताक्षर के साथ. "सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" म 406 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी क्रिया-विधि अनन्त उपकारी जिनेश्वर परमात्मा ने जगत के सर्व जीवों के कल्याण के लिए धर्म साधना के द्वारा मोक्ष-मार्ग का मंगल परिचय दिया है. अनादि अनन्तकालीन संसार के परिभ्रमण से आत्मा किस प्रकार मुक्त हो, स्वयं की प्राप्ति किस प्रकार सरल बन जाए, स्वयं की प्रसन्नता में आत्मा किस प्रकार मग्न रहे, संसार को भूल करके स्वयं की स्मृति में आत्मा कैसे जागृत बने, परमात्मा ने अपने मंगल प्रवचन के द्वारा वे उपाय बतलाए हैं. यदि प्रवचन के माध्यम से व्यक्ति प्रयास करे, जीवन का प्रयत्न यदि प्रारम्भ करे, तब तो निकट भविष्य के अन्दर अपनी पूर्णता को व्यक्ति प्राप्त कर सकता है. यदि प्रयत्न का अभाव रहा तो संसार मौजूद है जिस संसार के नाश के लिए जिन विषयों के नाश के लिए हमारा सम्यक पुरूषार्थ है. अनादि काल से यह संसार हमारा सेन्ट्रल जेल है, कर्म के कष्टों में इन्द्रियों का गुलाम बन करके मैं रहता हूं, किस तरह से मैं सबल बनूं, स्वतन्त्र बनं, अपने आनन्द के परम उपयोग और विवेक में यदि जागति आ जाए तो पूर्णता प्राप्त करना कोई कष्टमय नहीं. जरा भी असंभव नहीं. परन्तु आज तक हम विचार के अन्दर इतना विलम्ब कर दिया. समय निकल गया विचार के विलम्ब में कभी कार्य संपन्न या सफल नहीं हो सकता. जहां तक व्यक्ति विचार में विलम्ब करेगा, वहां तक संसार की स्थिति मौजूद मिलेगी. ___अलग-अलग दृष्टि कोण से प्रवचन के द्वारा आपने व्यवहार का परिचय प्राप्त किया कि मेरा व्यवहार इतना सुन्दर बन जाए, व्यवहार का हरेक क्षेत्र मेरा धर्ममय बन जाए ताकि किसी भी प्रकार से पाप का आनन्द मेरे अन्दर न हो. साधना सावर्धन रहने के लिए है. सावधानी इसीलिए रखनी है. धर्म बिन्दु ग्रंथ का मुख्य आशय यही है कि जीवन में पाप का प्रवेश द्वार बन्द होना चाहिए. सारे द्वार पुण्य के प्रवेश के लिए होने चाहिए. जिन इन्द्रियों से आज तक पाप उपार्जन किया, उन समस्त इंद्रियों द्वारा मैं पुण्य उपार्जन करने वाला बनूं. नेत्र का उपयोग यदि सुन्दर वर्गों के लिए हुआ तो इन्द्रियों का माध्यम परमात्मा की अनुमति का कारण बनेगा. कान का उपयोग यदि सही तरीके से किया गया. मैं कभी पर निन्दा श्रवण नहीं करूंगा, धर्म-कथा श्रवण करूंणा, किसी आत्मा के गुणों की प्रशंसा श्रवण करूंगा तो यह कर्णेद्रिय की सफलता होगी. पाप का प्रवेश द्वार पुण्य का प्रवेश द्वार बन जाएगा. अपनी जीभ से कभी कोई गलत आचरण नहीं करूंगा, कभी असत्य भाषण नहीं करूंगा. वैर और कटुता का कभी मेरी जीभ से वर्णन नहीं होगा. इस प्रकार अगर संकल्प कर लिया जाए. संकल्प में यदि दृढ़ता आ जाए तो जीवन धन्य बन जाए. हमारी जीभ प्रभु का प्रवेश द्वार बन जाए. 407 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी सभी इन्द्रियों पर विवेक का नियंत्रण हो जाए और हमारे अधिकार में आ जाएं, आत्मा पर अधिकार पाना बहुत सरल हो जाए, वह स्थिति आज तक आई नहीं, वह स्थिति तूने लाई नहीं है. आज तक यही प्रयास बना, कितने ही महापुरुषों ने जीवन का बलिदान देकर स्वयं को प्राप्त किया है. द्वितीय विश्व युद्ध के समय कैसे व्यक्ति थे. अपने देश के लिए, राष्ट्र के लिए, अपने स्वामी के लिए, अपने प्राणों की आहुति दे देते थे. परन्तु अपनी ईमानदारी को कलंकित नहीं करते. अगर ऐसी भावना अपने अन्दर आ जाए, चाहे प्राणान्त कष्ट आ जाए, प्राण का मूल्य मुझे चुकाना पड़े तो भी मैं अपनी ईमानदारी से जरा भी पीछे नही हटूंगा. धार्मिक कार्यों में पूरा प्रामाणिक रहूंगा. मेरे हरेक कार्य पर परमात्मा की दृष्टि है. मेरी आत्मा स्वयं उस कार्य को देखती है. मैं बिल्कुल प्रामाणिक प्रवेश पूर्वक उस कार्य के लिए जागृत रहूंगा. यदि जरूरत पड़े, प्राण विसर्जित कर दूंगा. कितने ही व्यक्तियों के जीवन-इतिहास हमारे सामने हैं, युद्ध के समय ऐसे भी प्रसंग आए हैं. बहुत बड़ी खाईं बनी हुई हैं. भयंकर आग लगी हैं. उस भव के अन्दर सेना को आदेश मिला है कि मौका बड़ा अच्छा है यदि दुश्मन पर अचानक हमला कर दिया जाए तो एक ही रात्रि में बहुत बड़ी सफलता हमको मिल जाएगी. परंतु यह पुल यहां पर है नहीं, इतनी बड़ी सेना को कैसे वहां पहुंचाया जाए. खाईं में दुश्मनों ने आग लगा दी. ऐसी स्थिति में खाई को क्रास कैसे किया जाए. कमांडर ने ऑडर दिया कि मुझे दो हजार ऐसे सैनिक चाहिए. इसी समय ताकि तत्काल वहां पहुंचा जाए और अचानक आक्रमण किया जाए तो सारा मोर्चा हमारे हाथ में आ जाएगा. __बड़ी आसानी से, बड़ी सरलता से, हम सफलता प्राप्त कर लेंगे. दो हजार सैनिक चाहिये. इस खाई के अंदर जो जलती खाई में कूद सकें. सारी रैजिमेंट तैयार हो गई. जैसे ही सेनापति ने आदेश दिया कि राष्ट्र के लिए तुमको समर्पित होना है, सैनिकों ने जरा भी आगे पीछे नही देखा, मेरी घरवाली का क्या होगा? बच्चों का क्या होगा, कोई भविष्य का स्वप्न नहीं देखा. कोई मन में मानसिक कल्पना नहीं. जितने भी सैनिक थे, सबने अपने राष्ट्र के लिए आहुति दे दी. आदेश के साथ कूदना शुरू कर दिया. पूरी की पूरी खाईं सैनिकों ने इस प्रकार भर दी कि उसके ऊपर से गाड़ी जाने लग गई. टैंक जाने लग गए. साधन सामग्री तक पहुंचने लग गई. दो ढाई हजार सैनिकों ने राष्ट्र के लिए जलती खाईं में प्राण विसर्जन कर दिया. जब इस युद्ध का इतिहास देखा जाता है. लोग इतनी प्रसन्नता से अपने प्राणों को अर्पण कर देते हैं. अगर धार्मिक क्रियाओं के अन्दर तत्व के रक्षण के लिए, प्रामाणिकता को बचाने के लिए, आत्मा के गुणों के रक्षण के लिए, हमारे अंदर इस प्रकार की भावना IANS 408 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी आ जाए, कि प्राणों की आहुति देकर, इच्छा और तृष्णा का बलिदान देकर किसी भी प्रकार से मुझे अपने गुणों का रक्षण करना है तो फिर कोई समस्या नहीं है. ऐसी भावना अपने अंदर आनी चाहिए. कैसा भी प्रसंग आ जाए, हर हालत में मुझे आत्मा के उस धर्म का रक्षण करना है. आज तक इसमें हम सफल नहीं बन पाए. सारा जीवन हमारा व्यतीत हो रहा है. भगवान की भाषा में यदि कहा जाए, सारी दुनिया में सबसे मूल्यवान जीवन मानव का है. यही आत्मा में प्रवेश करने का मुख्यद्वार है. स्वयं को पाने का यह परम साधन है. परोपकार करने में मानव जीवन एक मन्दिर जैसा है. हमारी दृष्टि अभी तक उस प्रकार की नहीं हुई. इस तथ्य को, रहस्य को, जानने का प्रयास आज तक किया नहीं. बहुत वर्षों बाद किसी घर पर किसी साधु का आगमन हुआ. जब घर गए, बड़ी दीन-दुखी आत्मा थी. बहत दिनों से मुसीबत में थी. अचानक साधु के आगमन को देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि आज मेरे द्वार पर एक सन्त का आगमन हुआ. बेचारे के पास जो रूखी-सूखी रोटी थी सन्त के पात्र में अर्पण की और कहा - "भगवन् मुझे आशीर्वाद दें, बहुत दुखी हूँ." "किस बात का दुःख है?" “जब से जन्मा हूं तब से आज तक, दुख ही दुख देखा है, सुख का छींटा भी मेरे नसीब में नहीं. बड़ी मुश्किल से एक टाइम अपना पेट भर पाता हूं. आज वर्षों की इच्छा के बाद, आप के आने से वह मेरी इच्छा पूर्ण हुई. भावना आज तृप्त बनी. भगवन् और कोई कामना नहीं. एक ऐसा आशीर्वाद दें कि मन के संतोष से बचूं. बहुत दुखी हूं. कठोर परिश्रम करता हूं. परिश्रम का परिणाम यह कि एक वक्त पेट भर पाता हूं, दो वक्त भूखा रहता हूं." महात्मा की दृष्टि गई, उसकी घरवाली चटनी बना रही थी, पत्थर पर चटनी घोंट रही थी, नमक, मिर्च डाल करके. महात्मा बड़े ज्ञानी, समझदार थे, उन्होंने उस पत्थर को देखा जिस पर चटनी पीसी जा रही थी. महात्मा ने कहा - “यह तुम्हारे यहां कब से है?" ___ “महाराज मैं जन्मा हूं. तब से इसे देख रहा हूं. मेरी मां भी इस पर चटनी पीसा करती थी, हम भी आज तक इसी पर हर रोज चटनी पीसते हैं, क्योंकि साग-दाल तो नसीब में नहीं, रूखी रोटी और चटनी खा लेते हैं." __महात्मा ने कहा - “तुम समझ नहीं पाए, यह पत्थर नहीं है, यह तो चिन्तामणि रत्न है. तुम्हारी सारी मनोकामना यह पूर्ण करने वाला देव अधिष्ठित यह रत्न है. तुम इसके आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना करो. तुम्हारी सारी मनोकामना पूर्ण कर देगा, यह चिन्तामणि रत्न है. तुम्हारे पूर्वजों को किसी पुण्य से यह चीज मिली है, तुम इसे आज तक पहचान नहीं पाए, समझ नहीं पाए." 409 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी "भगवन्, अज्ञानता में हम कुछ समझ ही नहीं पाए. हमें कोई जानकारी नहीं, कोई ज्ञान नहीं. हमने तो चटनी पीसने में ही इसका आज तक उपयोग किया." उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर के मुख से निकला यह शब्द, यह उदाहरण, उन्होंने कहा हमारा यह मानव जीवन भी इसी प्रकार का है. जिन्दगी भर चटनी पीसने में ही पूरा हो जाता है. वर्तमान मानव जीवन चिन्तामणि रत्न जैसा है. मोक्ष का फल देने वाला. सारी मनोकामना पूर्ण करने वाला, यदि इसका सम्यक प्रकार से उपयोग किया जाए, तो यह मोक्ष का फल देने वाला. पण्य का फल देने वाला है. सारे संसार की समद्धि आपके चरणों में अर्पण करने वाला है. परन्त यह सारा ही जीवन परिवार के भरण पोषण में, धनोपार्जन में अपने विषयों की तृप्ति के लिए, नमक, मिर्च, मसाला, चटनी पीसने में ही हम पूरा करते हैं, इससे आगे भी मुझे कुछ करना है. यह आज तक हमारे लक्ष्य में नहीं आया, जीवन के भविष्य को कभी वर्तमान में हमने नहीं देखा. जीवन की कोई योजना नहीं, कभी उसमें निर्माण नही किया. मकान बनाते हैं, इंजीनियर के पास जाते हैं, इंजीनियर आपको मकान का नक्शा बनाकर देता है तब आप मकान बनाते हैं, किसी भी विषय पर सलाह लेनी पड़ती है. तो हम वकील के पास जाते हैं. कानून के लिए कि हमारा रक्षण किसके अन्दर है उसके उपाय हमको बतलाओ, सलाह लेते हैं, शरीर के अन्दर कोई बीमारी आई तो डाक्टर की सलाह लेते हैं. कभी मन में गडबडी होने पर साध-सन्तों से सलाह ली है कि हमारे जीवन का मार्ग-दर्शन दीजिए, मैं बड़ी समस्या में हूं. कभी प्रयास नहीं किया, कभी जीवन का नाम बनाने का हमने सोचा तक नही, कि जीवन की कोई ऐसी सुन्दर योजना हम बनाएं कि जिससे हमको सफलता मिले. हमारे जीवन की बहुत बड़ी उलझन है. ज्ञानियों ने कहा संसारी आत्माओं के कल्याण की भावना से, अमर आत्मा में परमात्मा के प्रति आस्था भी आए सम्यक ज्ञान का गुण प्रकट हो जाए तो जीव संसार में डूबेगा नहीं बल्कि तैरेगा. वह डूबने नहीं देगा. नदी या समुद्र में यदि कोई गिर जाए तो लाइफ जैकेट दिया जाता है. टयूब दे दिया जाता है, अगर उसका आश्रय ले ले तो डूबे नहीं. सम्यक् ज्ञान संसार सागर के अन्दर लाइफ जैकेट जैसा है. यदि उसका प्रयोग कर लिया जाए, कदाचित आप में ज्ञान न हो, जीवन में सक्रियता न हो. विचारों से यदि आत्मा मूर्छित हो, यदि लाइफ जैकेट उसके पास है तो भव सागर में डूबेगा नहीं, बहने लग जाएगा. कोई न कोई आप को किनारा बताने वाला भी मिल जाएगा, आश्रय देकर किनारे पहुंचा भी देगा. लेकिन सम्यक् ज्ञान की भूमिका पहले चाहिए. जब आत्मा में श्रद्वा गुण प्रकट होता है, विकसित होता है और उसके लक्ष्य स्वरूप, राग और द्वेष क्षय होते हैं. कोई द्वेषभाव उसके अन्दर नहीं रहेगा, जगत की आत्माओं 410 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी को देखने की मैत्री दृष्टि, मंगल दृष्टि, उसको मिल जाएगी. मित्रवत् जगत को मैं देखने लगू सारा ही जगत मेरे प्रति सद्भाव प्रकट करने वाला बने, यह बड़ी विशेषता उसमें नजर आएगी. जहां तक अन्दर राग है, द्वेष का पदार्थ है, सारे पदार्थ अशुद्ध हैं, वहां तक जगत के अन्दर भौतिक सफलता भी नहीं मिलेगी, आध्यात्मिक चेतना की सफलता कैसे मिलेगी? जहां तक मन के अन्दर आप का परिणाम दूषित होगा, अतिशय द्वेष भाव होगा, वहां तक तनाव होगा, क्योंकि द्वेष के कारण तनाव आने वाला है, कदाचित् अतिशय राग क्षमता होगी, आप का लक्ष्य वहीं पर केन्द्रित होगा. यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है, आप अपने कार्य में कभी सफल नहीं होंगे. मेवाड़ के अन्दर एक बहुत सुन्दर राजकुमार की नई शादी हुई. नई शादी के बाद राजकुमार का मोह इतना कि एक दिन भी अपनी स्त्री का वियोग वह सह नहीं पाता. एक दिन का वियोग भी उनके अन्दर दर्द और बेचैनी पैदा कर देता. किसी कारण से दुश्मनों को मालूम पड़ गया कि मौका अच्छा है. राजकुमार का ध्यान राज्य की तरफ नहीं. प्रशासन के तरफ नहीं. नई महारानी की तरफ है. इस राग दशा के सन्दर मौके का फायदा उठाया जाए. चारों तरफ से न ने राज्य को घेर लिया. बड़ी सेना थी. राज्य के अन्दर सारी व्यवस्था स्वयं सरा और सन्दरी में मस्त रहने वाला, जरा भी ध्यान अपने राज्य की तरफ नहीं, प्रजा की तरफ नहीं, प्रशासन की ओर नहीं, इस राज दशा का परिणाम, महल के अन्दर शराब पीता रहा. सेनापति का आगमन हो गया. मोर्चा डाल करके यहां खड़े हैं या तो आप युद्व करें या समर्पित हो जाएं. ___ नशे के अन्दर होश नहीं रहा. राजकुमार ने कहा ठीक है, देखा जाएगा. सेना को तैयार करो मुकाबला करेंगे. आज नहीं तो कल, युद्ध तो हम जीतेंगे. आचरण में कुछ नहीं, शब्दों में आदेश दे देता है. स्वयं के जीवन में वह जागृति नहीं कि मेरा राज्य चला जाएगा. मेरा तिरस्कार करेंगे, लोग मुझे कायर कहेंगे, मेरे कुल को कलंकित करेंगे, मुझे सावधान होना चाहिए, नहीं. मोह के नशे में कछ मालम नहीं पडा और राग दशा ही परिणाम दुश्मन की सेना नगर की सीमा तक आ गई. महारानी को मालूम पड़ा की मेरे पति मोह के कारण युद्व में जाने से कतराते हैं, डरते हैं. मुझे छोड़कर जाना उन्हें पसन्द नहीं. क्या किया जाए? अगर मेरे मोह के कारण राज्य का पतन होता है. राज्य से यदि हमारे पति भ्रष्ट बनते है. नारी पूजा का तिरस्कार उनको मिलता है, ऐसा कार्य अपनी जीवित अवस्था में नहीं होने दूंगी. ___ महारानी की गर्जना से मोह निद्रा टूट गई. शब्दों ने ऐसा जोश दिया. रानी ने तिलक करके उसको विदाई दी जाते-जाते. राजकुमार घोड़े पर बैठ गया, तलवार लेकर युद्ध 411 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी % 3D क्षेत्र में जा रहा था, विदाई दी गई. महारानी ऊपर से देख रही थी. अपनी परिस्थिति का निरीक्षण कर रही है. राजकुमार जा रहा है. सामने परन्तु दृष्टि राजमहल में है बार-बार घूमकर के देख रहा है. ममत्व का बन्धन टूटा नहीं, यह महारानी ने विचार किया. यह युद्ध में मार करके आएगा कि हार करके आएगा. यह विजयी बनने के लक्षण नहीं हैं. मेरे प्रति अनुराग इनका पतन बन जाएगा. उपाय करना चाहिए इस में जोर आ जाए. महारानी ने कुछ नहीं किया अन्दर जाकर अपनी दासी को बुलाया. दासी को कहा - "तुम मुझे वचन दो. मेरे आदेश का पूरा पालन करेगी.” “दास और अनादर करूं, ऐसा सम्भव नहीं." चांदी की थाली मंगवाई. रेशमी रूमाल मंगवाया, कहा "इसके अन्दर जो चीज मैं रखू युद्ध के मैदान में जाकर अभी-अभी राजा को प्रदान करना और कहना-आपके लिए भेंट भेजी है. बोल, मुझे वचन दे, आदेश का पालन होगा?" "हां-बिल्कुल!" महारानी ने तलवार निकाली, एक ही झटके के अन्दर अपनी गर्दन उतार दी, गर्दन थाली में आकर गिरी. प्राणों की आहति दे दी. वह समझ गई मेरे बलिदान के बिना राज्य में विजय की सफलता प्राप्त करना बहुत मुश्किल है. मैं अपना बलिदान दे करके कुल की परम्परा का रक्षण करूं. मेरे पति कायर न बन जाएं. प्रजा के अन्दर तिस्कार के पात्र न बन जाएं. महारानी ने जैसे ही अपनी गर्दन उतार दी, दासी एकदम घबरा गई, मनोबल केन्द्रित करके वचन दिया है, उसका मुझे पालन करना है. पहले तो हत-प्रभ बन गई. हाथ में थाली लेकर के घोड़े पर सवार हो कर युद्ध क्षेत्र में पहुंची. दासी ने राजा के पास जाकर कहा-राजन! महारानी ने आपके लिए भेंट भेजी है. जैसे ही रानी शब्द सुना तलवार म्यान में चली गई. मोह दशा, राग दशा का लक्षण, सारा ध्यान उधर आ गया. कौन सी ऐसी चीज़ है? युद्ध के मैदान में. उधर यद्ध चल रहा है. सारे सैनिक जी जान से लड़ रहे हैं. परन्तु राजा जो उस युद्ध का कारण है, राग दशा में उसका जीव था - थाली के अन्दर क्या है? इसके अन्दर के रहस्य को जानने में था. जैसे ही वह रूमाल उठाया, रानी की गर्दन उसमें नजर आई. राजा स्तब्ध रह गया. उसका राग खत्म हो गया. अरे, जिस महारानी ने मुझे कलंक से बचाने के लिए, प्रजा के तिरस्कार से बचाने के लिए. मेरे कुल की इज्जत के रक्षण के लिए, अपने प्राणों का बलिदान कर दिया, मैं कैसा कायर? हाड़-माँस के पिंजरे के अन्दर अपना जीव अटक गया, कैसी राग दशा? चलाई तलवार, घमासान युद्ध हुआ. वीरता से लड़ने का परिणाम. युद्ध में विजय प्राप्त करके आया. दुश्मन की सेना वहां से भाग गई. सेना पति गिरफ्तार कर लिया गया. बहुत शानदार उनका नगर में प्रवेश हुआ. 412 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - - - जहां तक राग का परिणाम था, वहां तक सफलता नहीं मिली, जैसे ही राग का अन्त हो गया, वैसे ही युद्ध में सफलता मिली. भौतिक युद्ध में राग का विजय प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है. जहां तक परिवार का राग जाएगा. वहां तक सैनिक युद्ध में कभी सफल नहीं बन सकते. यही चीज यहां है. कर्मयुद्ध लड़ने के लिए अन्तर जगत के अन्दर वहां पर यदि आप राग को लेकर गये. कितनी ही सुन्दर आपकी साधना हो, साधु बनकर के मोक्ष मार्ग की आप आराधना करते हो परन्तु ज्ञानियों ने कहा-सफलता नहीं मिलेगी. दो विचारों से, जब तक राग का अभाव नहीं होगा. वे विचार आपको वीतरागता तक नहीं पहुंचाएंगे. कर्म का नाश हो, ऐसा साधन नहीं बनेगा. राग और द्वेष के परिणाम को पहले ही आपको उपेक्षित करना पड़ेगा. विसर्जित कर देना पड़ेगा. उसके बाद यदि आप अन्तर युद्ध के मैदान में जाएं, जीवन की सारी सफलता आपको मिल जाएगी. सारा जीवन हमारे लिए एक प्रकार से युद्ध का मैदान है. ___टोलस्टोय ने जीवन की परिभाषा दी 'दी लाइफ आफ दी मैन,दी फील्ड आफ बैटिल' यह सारा जीवन युद्ध का मैदान है. संघर्ष करते रहिए. संघर्ष में आज नहीं कल तो सफलता मिलेगी. आध्यात्मिक क्षेत्र के अन्दर, यदि एक बार प्रवेश हो गया. अन्तर जगत में शत्रुओं से लड़ने की कला आपको मिल गई,तो आज नहीं तो कल जरूर आपको सफलता मिलेगी. इसमें कोई शक नहीं. एक बार आपको मन में यह दृढ निश्चय तो करना ही पड़ेगा कि मुझे आखिर उस लक्ष्य को पाना है. चाहे कैसा भी संघर्ष आ जाए. देश की आजादी की खातिर जो शब्द एक बार महात्मा गांधी ने कहा था 'करो या मरो' हमारे यहां प्राचीन काल में ऋषि मुनियों ने इससे भी सुन्दर शब्द दिया. देहं पातयामि कार्यं साधयामिवा मैं अपनी साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए शरीर का भी विसर्जन करने को तैयार हूं परन्तु मैं अपनी सफलता लेकर जाऊंगा. परमात्मा के समक्ष इस ख्याल को लेकर जाये. ऐसी दृढ़ता से व्यक्ति सफलता लेकर के आता है. परन्तु यहां पर पहले से ही रोते हुए जाये तो कुछ नहीं मिलेगा. अपने देश में एक कहावत है “रोता जाये, मरों का समाचार लाये" जैसे ही आराधना का प्रश्न आया, एकदम चेहरा उतर जायेगा. क्या सफलता नहीं मिलती? संसार का मोह छोड़ना पड़ता है. उसके बाद परमात्मा का प्रेम जागृत होता है. एक बोतल में दो चीज़ नहीं आती. मन की बोतल में या तो संसार हो या मन की बोतल में परमात्मा हो या तो आप गंगा जल भरें नहीं तो गटर का पानी भरा हुआ है. - - 413 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी संसार के विषय पाप, राग, द्वेष का जल तो अन्दर भरा हुआ है. मन की बोतल में, पहले उसे खाली कर लीजिए फिर गुलाब का जल, भक्ति और भावना उसमें आएगी. एक बोतल में दो चीज नही आती. __ हाथ में लोटा लेकर के कहीं से छाछ मुफ्त में लाए, यदि कोई दूध देने वाला मिल जाए तो उसके अन्दर दूध नही आएगा. छाछ खाली ही करना पड़ेगा. लोटा एक है पदार्थ दो. क्या ग्रहण करना है? उसमें आपको विवेक चाहिए कैसे ग्रहण करना है? उसका भी विवेक होना चाहिए. __गांव के अन्दर लोग छाछ लेकर आते हैं. मुफ्त में मिलता है. छाछ का कोई मूल्य नहीं होता. यदि लोटा अपने बच्चों को पकड़ा दिया कि छाछ लेकर आओ और दूध भी, दो लोटे लेकर जाते हैं. मफ्त में छाछ ले आते हैं और पैसा देकर दध ले आते हैं. यदि आपको ऐसा प्रसंग मिले, तो आप छाछ का लोटा किस हाथ में पकडेंगे और दूध का किस हाथ में? दाहिने हाथ में पकड़ें. पैसा देकर लिया है. यह गिरना नहीं चाहिए. छाछ का लोटा बाए हाथ में. अगर गिर जाए तो चिन्ता नहीं. मुफ्त में लिया है. ज्ञानियों की भाषा में कहा गया है-यह शरीर भी लोटा है. आत्मा भी एक लोटा है. परन्तु आत्मा को गर्व है, दूध से भरी हुई आत्मा है. अति मूल्यवान तत्व इसके अन्दर है. शरीर तो छाछ से भरा हुआ है. मल मूत्र से भरा है. इसमें कुछ नहीं. दोनों लोटा सही तरीके से पकड़ना, दाहिने हाथ में आत्मा का लोटा और बांए हाथ में शरीर का लोटा. शरीर में से यदि गिर जाए, पकड़ा जाए, कोई चिन्ता की बात नहीं, दोनों एक सरीखे मूल्यवान नहीं, परन्तु आत्मा के गुण बाहर नहीं जाने चाहिए, गिरना नहीं चाहिए, छलकना नहीं चाहिए. पूर्ण सुरक्षित ही रहना चाहिए. __ यदि आत्मा की दृष्टि से आत्मा के मूल्य को समझ करके चले. तब तो जीवन में कोई प्रश्न नहीं रहता है. नहीं विचारते हैं तो जीवन सारा प्रश्नों से भरा है. विचारों के जंगल से घिरा है. उलझनों से घिरा हुआ यही जीवन है. वर्तमान का बहुत सारे विचार की भी अन्दर भरे हए हैं. इस भीड में से आशा को खोज लेना है. प्रवचन के अन्दर भगवती सूत्र चल रहा था. तत्व ज्ञान का भण्डार, सारी जैनालोजी, उसके अपूर्व तत्व ज्ञान, भगवती सूत्र से बढ़कर कोई ग्रन्थ आपको नहीं मिलेगा. जर्मनी के बहुत बड़े विद्वान जैनालोजी के डा० ब्राउन अहमदाबाद मिले. वहां के यूनिर्वसिटी के चेयरमैन हैं. जब मैंने उनसे पूछा-यहां आने के बाद जैन फिलोसफी की आपने स्टडी की, आपको क्या मिला? “महाराज, क्या बतलाऊं? भगवान महावीर के ये जो सूत्र हैं. भगवती सूत्र जैसा महान ग्रन्थ अपूर्व विज्ञान का भण्डार है. सारा साइंस भरा हुआ है." उस व्यक्ति ने अपनी प्रसन्नता प्रकट की और कहा-महाराज ये सूत्र पढ़ने के बाद ही आशीर्वाद आपसे चाहूंगा. कोई 414 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी पाप जो मेरा उदय था. आचार्य भूमि में जन्मा आज आशीर्वाद लेने आया हूं. जर्मनी जा रहा हूं. अपने देश जा रहा हूं, ऐसा आशीर्वाद दीजिए. इस भारत भूमि पर जन्मूं." ___ पढ़ने के बाद चिन्तन और मनन के बाद इतना बड़ा परिवर्तन आया, अन्तिम कामना. ऐसा कोई व्यक्ति मेरे पास मंगला चरण सुनने नहीं आया. भवान्तर में भी परमात्मा का दर्शन हो, धर्म मिले, आज तक प्रतीक्षा करता हूं, कोई आ जाए. महाराज बम्बई जा रहा हूं. काम बन जाए, आपका आशीर्वाद, आप के पाप में मैं भी भागीदार बनूं. कोई इस भावना से नहीं आता कि हालांकि हम तो देते हैं ही हैं. मंगलाचरण देने के पीछे हमारा आशय शुद्व है, यह आत्मा सद बद्धि प्राप्त करे. सन्मार्ग में चले. कदाचित बुद्धि आ जाए तो मंगलाचरण के शब्द उसकी रक्षा करें. यह दिया हुआ शब्द परमाणु उसके अन्दर अन्दोलन पैदा करे, बुरे विचारों को वहां से भगाए. साधुओं का तो यही आशीर्वाद होगा. डाक्टर के पास यदि डाक भी आता है, तो भी उसे बचाएगा. उसका लक्ष्य है उसको बचाना. वह कार्य करता है, यह नहीं सोचेगा कि इसको बचाऊंगा फिर से डाका डालेगा. वह तो सिर्फ बचाने की भावना से बचाता है.. __साधु पुरुष के पास कोई भी दुखी आत्मा आए, कोई संसार का दुख लेकर आए उसे सांत्वना देंगे. मंगलचरण सुनाएंगे, आशीर्वाद देंगे, उसकी आत्मा को दुर्विचार से मैं रोकू, मैं इस आत्मा का रक्षण करूं. प्रेम पूर्वक इसे समझाने का प्रयास करूं. हमारा तो यही प्रयास होगा, पापी आत्मा आये, चाहे पुण्यात्मा आए. हमारे यहां तो हास्पिटल है. जार्ज बर्नार्ड यूरोप के बहुत बड़े साहित्यकार थे. लन्दन में थे. कुछ वर्ष पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया. महात्मा गांधी उनसे स्वयं मिलने गए थे. वह कितने महत्वपूर्ण व्यक्ति थे कि महात्मा जी स्वयं उनके पास जाते और काफी समय देते. अपनी जीवन कथा में भी गांधी जी ने उनका उल्लेख किया. नेहरू भी उनसे मिले हैं. वह व्यक्ति बम्बई में आए. किसी मित्र के द्वारा जाकर के प्रभु का दर्शन किया और नीचे उतरे, छोटा सा बुकलेट था. जैन दर्शन के विषय में महावीर का परिचय था. महावीर के सिद्वान्तों का परिचय था. जब हाथ में लेकर गाड़ी में बैठने लगे, उन्होंने पूरा परिचय पढ़ा, परिचय के द्वारा ऐसा परिवर्तन हो गया. भारत जब छोड़ने लगे उन्होंने संकल्प लिया, आज के बाद कभी मांसाहार नही करूंगा. जब इंग्लैड गए. इस परिसर का परिवर्तन कितना बड़ा? इतने बड़े वहां के राजनीतिज्ञ व्यक्ति, बड़े साहित्यकार, उनको जब नॉबेल प्राइज मिला, संसार का माना हुआ पुरस्कार एक लाख पाउंड का होता है. उनका समझना जब हुआ , पार्टी में जब उनको बुलाया गया. सारी सांमिष भोजन सामग्री वहां पर थी पार्टी में. वहां गये वहां उन्होंने देखा. वे खड़े हो गये. कैसा परिवर्तन था. उन्होंने यह नहीं समझा ये लोग क्या समझेंगे. सभ्यता के विरुद्ध मेरा व्यवहार होगा. नहीं. जो मैंने निर्णय किया वही सही है. 415 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी महावीर का कथन वैज्ञानिक सत्य है, खड़े हो गये और कहा -- “माई डीयर फ्रेन्ड्स माई स्टोमक इज नो प्लेस फार डैड बाडी “भाइयों माफ करना! मेरा पेट इन मुर्दो का कब्रिस्तान नहीं है". मरे हुए जीवों का मांस खाऊं और पेट को कब्रिस्तान बनाऊं. चले गये वहां से. उनकी बहादुरी में नैतिक बल इतना था. कोई मित्र वहां पर गया, उन्होंने अपनी वसीयत पढ़ाई. उनकी वसीयत आज भी है. मरते-मरते क्या लिखा, “भगवान से अन्तिम प्रार्थना उस वसीयत में की. भगवान! अगर पूर्वजन्म इस दुनिया में है. तो मेरा जन्म इण्डिया में हो. खासकर जैन परिवार में विशेष रूप से इस जाति में मेरा जन्म हो. ताकि मां के गर्भ से मुझे शाकाहार का संस्कार मिले. परिचय का यह परिवर्तन, उनकी वसीयत आज भी इंग्लैंड में मौजूद है. पांच हजार मील दूर रहने वाला, पुस्तक का परिपथ और इतना बड़ा परिवर्तन. यहां तो 120 दिन से मैं हाजिर हूं, रोज अपना परिचय देकर देखू, कैसा परिचय देता हूँ, पर्युषण के बाद मालूम पड़ेगा. परमात्मा है, प्रवचन से परिवर्तन तो आना ही चाहिए. आहार की शुद्धि विचारों की शुद्धि लेकर आएगी. बहुत सारे व्यक्तियों में क्या होता हैं, प्रश्न तो कर लेते हैं परन्तु प्रश्न के अनुसार समाधान नहीं होता. मान प्राप्त करके अपने जीवन में वैसा निर्माण नहीं करते. प्रश्न तो उसके मन में भी था, परन्तु प्रश्नों का समाधान ऐसा मिला कि जार्ज बनार्ड का जीवन एक दम बदल गया. हमारे यहां भी प्रश्न करने वाले तो बहुत हैं परन्तु समाधान की प्राप्ति के बाद परिवर्तन कितना? मफतलाल भी प्रश्न करने की आदत से लाचार हैं. भगवती सूत्र का विकास चल रहा है. वहां तत्व ज्ञान का विशेष कुछ चीज नहीं पूछ लेना ताकि लोग समझ लें. कि मैं कितना जानता हूं. बहुत से लोगों में दिखाने की आदत होती है. आता जाता कुछ नहीं फिर भी दिखाना बहुत है. मारवाड़ में एक कहावत है. उसके अन्दर हाथ पांव नहीं होते, मात्र विचारों की कल्पना होती है. विचार तरंग होता है. हवाई उड़ान होती है. और बात रख देते हैं कि तुझ से ज्यादा मैं जानता हूं, शास्त्रों के विषय में हमारा कोई परिचय नहीं. उसकी गहराई में गए नहीं हम, शास्त्रों से सम्बन्ध नहीं. पर पूछने के लिए प्रश्न पूछ लेना. चाहे वह कोई हो. मन की कल्पना हो. जिसके प्रति विचार में कोई आदर नहीं है. वह प्रश्न हम लाकर रख देते हैं. मारवाड़ में एक कहावत है कब कहूं गप? बड़ी चीज बारह हाथ में तेरह हाथ का बीज. यह भी एक प्रश्न है. क्या कहा जाए तो ऐसा होना चाहिए. जिसका कोई हाथ पांव न हिले. प्रश्न में भी विचार का आकार मिलना चाहिए. उसकी सुन्दरता नजर आनी चाहिए. 416 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी मफतलाल कहीं पहुंच गए. किसी व्यक्ति ने कहा--तुम्हें मालूम है मेरे बाप दादा कैसे थे. अपने गौरव का प्रश्न, अपने-अपने दादाओं का इतिहास, बात से बात निकली. उन्होंने कहा-क्या बताऊं हमारे बाप दादा ने ऐसा राजमहल, इतना ऊंचा बनवाया कि इतना आज तक बना नहीं. यह तो ठीक है परम्परा में हम सुनते आए हैं. ऐसा ऊंचा बनवाया कि आज तक बना नहीं, अचानक किसी ने देखा. दो तीन और भी साथियों ने अपनी बात कहीं. एक व्यक्ति ने कहा.क्या बतलाऊं हमारे बाप दादाओं ने भी इतनी ऊंची हमारी हवेली बना दी. हमारा लडका गोदी का ऊपर से गिरा उसकी ऊंचाई इतनी थी, जब तक नीचे पहुंचा शादी लायक हो गया. मफतलाल रोज आते, कुछ न कुछ सात्विक प्रश्न कहीं से सुनकर. एक दिन उसने पूछा. महाराज! मुझे समझायें . आप हर रोज इन्द्रियों की बात करते हैं. इन्द्रियाँ कितनी हैं. महाराज ने कहा - "मैं समझता हूँ इन्द्रियां पांच होती हैं. और उनके वंश तेईस." "महाराज! पांच इन्द्रियों के विषय में जरा विस्तार में हमें समझाइये." महाराज ने कहा - “मात्र समझना है. या कुछ करना भी है?" "नहीं-नहीं महाराज, जानकारी लेकर कुछ करूंगा.". "इन्द्रियों के विषय में आप कुछ जानकारी लेकर आए ?" "महाराज, क्या बताएं, सारे आचार्य आए, बहुत सुना है." महाराज ने कहा - “इन्द्रियां किसे कहते हैं?" मफतलाल को नाम आए तो बतलाएं, वह तो सुनी हुई बात थी. उड़ गयी. उन्होंने कहा महाराज हाथी पांच इन्द्रियां हैं, बुद्धि दौड़ाई. बात सही थी. महाराज ने भी स्वीकार किया कि हाथी पांच इन्द्रियां होती हैं. यह तो मैं भी मानता है. परन्तु इन्द्रियों के नाम तो गिनाओ. महाराज ने कहा - "हिसाब बड़ा सरल है. चार इन्द्रियां कौन?" "चार पांव वाले जितने भी प्राणी गाय, बकरी बगैरह सब चार इन्द्रियां हैं." महाराज ने कहा - “चतुरेन्द्रिय कौन?" महाराज ने सोचा फिर पूछा जाए तो मफतलाल ने भी सोचा कि मैं जवाब भी पूरा ही दूंगा, लोगों को तो मालूम हो कि मैं कुछ हूँ. “महाराज. आकाश में उड़ने वाले सब पक्षी में इन्द्रियां हैं." महाराज ने कहा - "इन्द्रिय कौन?" "महाराज, दो इन्द्रिय तो मैं हूं. मेरे और मेरी पत्नी के सिवाय और कोई नहीं. हमारे घर में हम दो ही हैं, तीसरा कोई नहीं." महाराज ने फिर पूछा -- “एकेन्द्रिय कौन?" Mod 417 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी “महाराज, अब, आपके आगे पीछे कोई नहीं. बड़ा सीधा सा सवाल हैं. क्या प्रश्न करते हो महाराज?" __ऐसे प्रश्नों को कहां से पूरा किया जाए. परन्तु हमारे विचारवान व्यक्ति हैं. बहुत समझकर के उन्होंने प्रश्न किया. उस समाधिकरण की प्राप्ति में तुम सहायक बनो. यह हमारी प्रार्थना होती है परन्तु मेरा निषेध किस जगह है जब संसार की भौतिक कामना लेकर प्रार्थना करें. देवी देवताओं के पास जाएं, उनसे बार बार की सोचना करें. जो धर्म साधना में सहायक हो. मार्ग की क्रियाओं में सहयोग देने वाले एक तुच्छ कार्य में संसार के लिए हम यदि प्रार्थना करें. यही अपना विरोध था. ऐसी प्रार्थना हममें नहीं करनी. आप वहां ऐसी भावना लेकर जाएं. मेरी धर्म साधना में तुम सहायक हो सको. तुम धर्म साधना का पुण्य प्रभाव ऐसा है, कि संसार की सारी भौतिक साम्रगी आप को मुफ्त मिलेगी. आप कभी डिपार्टमेन्ट स्टोर में गए? बम्बई में, दिल्ली में, बहुत बडे डिपार्टमेन्ट स्टोर होते हैं. वहां आप जाकर पांच पचास हजार का सौदा करो तो आप को कुछ न कुछ उपहार दिया जाता है. तो वहां भी परमात्मा के शासन में अगर सुन्दर से सुन्दर धर्म क्रिया करें, धर्म आराधना करें तो संसार की भौतिक साम्रगी आप को उपहार स्वरूप मिलती है. फिर क्यों मांगते हो? वे तो निकट में ही मिलने वाली है. अपनी प्रार्थना को दुर्बल क्यों बनाएं? प्रार्थना तो होनी चाहिए. वाचना ऐसी करें, जिसमें पुष्टि आए. दुर्बलता न आए. देवी देवताओं की तुलना समान करे. ताकि मालिक का अविनय न हो. मैं आचार्य पद पर हूं. मेरे छोटा साधु शिष्य वहां पर बैठा है. आप आकर सीधे यही वन्दन करो. उनकी भक्ति करो. गुरु पूजन करो. और मैं वहां बैठा ध्यान करता हूं. यह विचार ठीक है. जगत के मालिक जगत के नाथ त्रिलोकी नाथ परमेश्वर जो मोक्ष देने वाले सर्वशक्ति मान आत्मा हैं, उनके दरबार में जाकर हमारे जैसे गुरुओं की देवी, देवताओं की जो मदमस्त हैं, अंपूर्ण हैं. जिनके पास देने कोई ताकत नहीं. ताकत तो परमात्मा की भक्ति में छिपी है. ऐसे समय आप जाकर के मात्र देवी देवताओं और गुरुजनों का गुणगान करो. उनकी आरती उतारो. भगवान काया अवस्था में बैठे रहें. मेरा वहां विरोध है. जो जगत का मालिक है. उसका आप अविनय करो. जो अभी जगत में मौजूद है. कर्म पूरे नष्ट नहीं हुए. मदमस्त है. न जाने कितने भव संसार उनके बाकी हैं. यह तो ज्ञानियों का विषय है. - हमारे जैन धर्म के अनुसार उनको स्थान मिला हुआ है. अब उच्चस्थान में हैं. जैसे अन्य पदमावती माता हैं. भैरव हैं. मणिभद्र हैं. कोई भी देवी देवता हों. प्रश्न करता, तो मैं कहूंगा-कहां सर्वथा विभेद है. उनको उनके रूप में उचित स्थान दिया गया है. उनका 418 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी ) पूरा सम्मान रखा गया है. हमारे यहां तो साधु साध्वी को निर्देश दिया है. अतिचार सूत्र होता है. अतिचार कौन कौन से लगे हैं. उसका प्रायश्चित्त पूर्वक मिच्छामि दुक्कडम दिया जाता है. उसी तरह से हमारे यहा पर, अतिचार सूत्र अब साधु बोलते हैं तो कहा गया देवाणंआसाणाय, देवणीणं आसाणाय। यदि कोई साधु देव-देवी की आसातना करे तो मिच्छामि दुक्क्डम् लेना पड़ता है साधु को. आप समझ लें उनका कैसा सम्मान रखा गया. कभी भूलकर भी किसी आत्मा की निन्दा तो कभी नहीं करनी चाहिए. देवी देवताओं की फिर निन्दा क्यों करें. जो निर्दोष किया गया वह किस अपेक्षा से किया गया आप समझ लें. हर मंदिर में अधिष्ठाता देव होते हैं. हर मंदिर में शासन रक्षक देव होते हैं. हर मंदिर के अन्दर मातायें होती हैं. चक्रेश्वरी माता, शासन देवी माता, बराबर उनका सम्मान करते हैं. प्रतिक्रमण में उनका कायोत्सर्ग करते हैं. कि मुझे तुम्हारी शक्ति से ऐसी सहायता मिली. "समाहिमरणं च बोहिलोअ" आरती उतारो, भक्ति करो, भैरो हों, चाहे भद्र हों या कोई भी गुरु हों, यह आसातना नहीं है. यह आसातना भयंकर होती है. मालिक को छोड़कर के नौकर की सेवा करें. आखिर आचार्य हो या देव हो, हैं तो परमात्मा के नौकर, सेवक. ये तो सरासर अविनय है. इस अविनय का परिणाम और ज्यादा दुखी बनना है. और ज्यादा कर्म बन्धन होते हैं. अविनय के द्वारा, ऐसा कार्य कभी नहीं करना. परमात्मा, परमात्मा की जगह है. सर्वोपरि भक्ति जिनेश्वर भगवान की, दूसरी कक्षा में गुरु जनों की, तीसरी कक्षा में देवी देवताओं की. यह इसका अनुक्रम है. आप करिये, कोई निषेध नहीं. दस बार जाइये उनका सम्मान करिये, परन्तु परमात्मा का अविनय करके नहीं. परमात्मा परमात्मा की जगह है, गुरु गुरु की जगह है. मंदिर में सन्मान लेने का नहीं, परमात्मा का अविनय होता है. सारी बातें समझ करके आप चलें. जिस भावना से प्रश्न किया, उसका यह जवाब है. हमारे यहां देवी देवताओं का किसी प्रकार का अविनय नहीं किया गया, उचित सम्मान के लिए यहां निर्देश दिया गया. उनकी आसातना भी नहीं करनी, शक्ति से अपनी अपेक्षा वे बड़े हैं, शक्ति सम्पन्न हैं, उनका पुण्य बल है. आप उनसे याचना करें कि मेरी धर्म साधना में सहायक बनो, मेरे अन्दर जो धर्म क्रिया में अन्तराय है, उसे नष्ट करने वाले बनो. मेरे चित को समाधि मिले, बस यही प्रार्थना करो. बाकी तो प्रभु से याचना होती है. मंगलयाचना. ___जयवीयराय सूत्र में आप क्या मांगते हैं. सभी चीज़ तो आपने परमात्मा से मांग ली बाकी क्या रहा. कभी उस सूत्र का अर्थ पढ़िये, जयवीराय सूत्र याचना सूत्र है. इष्टफल शुद्धि उसमें सब आ गया. मेरी सारी कामना भगवन्, तुम्हारी कृपा से परिपूर्ण बने. 419 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी एक प्रश्न और है. मन्त्र से कर्मों की निर्जरा होती है. बहुत सही बात है. मंत्राक्षर यदि शुद्ध भाव से बोला जाए, तो उन शब्दों का असर अपने हृदय पर, अपने विचारों पर पडता है, शब्दों का कम्पन आपके विचार को स्वच्छ करता है. आपके मन में एक सात्विक वातावरण का निर्माण करता है. आपका परिणाम, सात्विक विचार जो आए, उस समय मन्त्र स्मरण में परमात्मा के स्मरण के अन्दर जो सद्भाव पैदा हुआ, उस समय जो चित की एकाग्रता आई, वह कर्म को जला कर भस्म कर देती है. हमारे पूर्व आचार्यो ने जब कहा-नवकार मन्त्र का एक पद सात सागरों जितने भयंकर पाप का नाश कर सकता है. एक ओंकार के अन्दर वह शक्ति कि वातावरण में परिवर्तन ला सकता है. तो अपनी चित वृत्तियों में परिवर्तन कैसे नहीं आएगा. इसीलिए मन्त्र स्मरण को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान दिया गया. कर्म निर्जर में सहायक माना गया. मन के परिणाम में यदि शुद्ध भाव हो. और परोपकार की रुचि आ जाएगी, पुण्य के आश्रव का भी द्वार बनता है. निर्जरा भी करता है. एक प्रश्न और. हमारे यहां सामाजिक परम्परा में कभी बालक का जन्म हो तो हमारी एक परम्परा है, वह माता परमात्मा के मंदिर में या धर्म क्रिया में महीने भर आग नहीं देती. एक व्यवहार है. परम्परा से हमारे आचार्यों ने यह व्यवहार निचित किया है. शरीर के अन्दर शारीरिक अशुद्धि ऐसी होती है. जहां तक अशुद्धि का निवारण न हो, वहां तक परमात्मा के पूजन से उसे वंचित रखा गया ताकि वहां का वातावरण कीटाणुओं से दूषित न बनें, बाकी अन्य किसी धर्म क्रिया का निषेध नहीं, सामाजिक कार्यों में नहीं, प्रतिक्रमण में नहीं, मात्र वह सारी क्रिया मानसिक होनी चाहिए. शब्दों से उच्चारण करने की नहीं. शब्द के द्वारा यदि उच्चारण पूर्वक हम क्रिया करते हैं? साधना को लेकर के यदि उसका उपयोग करते हैं. ज्ञानादि के साधन हों, तो वह ज्ञान की आसाधना मानी गई. मन के अन्दर नवकार का स्मरण कर सकते हैं, बारह दिन परिपूर्ण हो जाए, सामाजिक प्रतिक्रमण की क्रिया कर सकते हैं. कोई निषेध नहीं. बाहर दिन में यदि किसी प्रकार का सूतक हो जाए जन्म का या मरण का तो भी मन से क्रिया करने की पूरी छुट है, मानसिक क्रिया होनी चाहिए. नवकार का जाप. परमात्मा की स्तुति क्रिया हो सकती है. परन्तु मानसिक शब्दों से नहीं. ___ निषेध तो हैं नही. प्रतिक्रमण दोनो समय कर सकते हैं. परन्तु मन से, वह मानसिक क्रिया है. इस प्रकार से भाव पूर्वक क्रिया का निषेध यहां नहीं. लेकिन द्रव्य के अन्दर परमात्मा के मंदिर में पूजनादि का निषेध किया. उसके पीछे आशय, वातावरण की शुद्धि के रक्षण के लिए शारीरिक प्रक्रिया ऐसी है, अशुद्धि के कारण ही निषेध किया गया है. और कोई दूसरा कारण नहीं. - 420 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी एक बहुत बड़ी प्रार्थना द्धि की क्रिया है. साथ एक और प्रश्न था-संवत्सरी जैसा प्रतिक्रमण आए, यह हमारी एक बहुत बड़ी प्रार्थना है, जैसे परमात्मा में प्रतिक्रमण आत्म शुद्धि की क्रिया है. साध्य की क्रिया है. जैसे मुसलमान नमाज पढ़ते हैं, हिन्दु परम्परा में सध्या की क्रिया होती है. इसी तरह से जैन परम्परा में उसे प्रतिक्रमण कहा जाता है. पाप के पीछे हटने की मंगल क्रिया. उसके अन्दर जो बोली, बोली जाती है. वह एक व्यवस्था के लिए है. हजार आदमी बैठे हैं. प्रतिक्रमण की मंगल क्रिया में किसे आदेश किया जाए. उसकी व्यवस्था कैसे कर रहे हैं. हमारे पूर्वजों ने एक परम्परा रख दी-दो पैसा की आवक होगी. किसी के पास वैसे मांगने जाए. विचार करना पड़ता है, की आवक होगी. सहज से पैसा इकटठा होता है, शुद्ध कार्य में लगता है. मंदिर आदि के कार्य में जाता है. इसी आशय से बोली बोलने की परम्परा रखी गई और कोई आशय नहीं भगवान के घर कोई भूख नहीं है कि पैसा नहीं आए तो नहीं चलेगा. एक व्यवस्था बनी रहे. आदेश किसे दिया जाए. सत्र बोलने के लिए तो कार्य करने के लिए व्यवस्था और अनुशासन को बनाए रखने के लिए परम्परा है. इस निमित्त से किसी व्यक्ति का पैसा यदि अच्छे कार्य में लगता है. अनुमोदन का विषय है. व्यक्ति निमित्त देखकर के माल लेते हैं. आप भी जाते हैं चीज देखकर दाम-भाव करके माल लेते हैं. यहां पर भी परमात्मा के मंदिरों का कार्य है. आज छतीस हजार जैन श्वेताम्बर मंदिर हैं. अहमदाबाद में उपधान का समय था. बहुत बड़ी प्रेस कांफ्रेस लगी हुई थी. उपधान क्या है. उसका वैज्ञानिक स्वरूप क्या है. आत्म शुद्धि का साधन वह किस तरह से किया जाता है? यह प्रश्न किया. एक पत्रकार ने मुझसे पूछा-ये लाखों रुपयों की माला पहनाने की बोली बोली गई. उपधान को अन्तिम क्रिया माला पहनाने की. इस बोली के पैसा का आप क्या करेंगे. जगत में आज का व्यवहार ऐसा है. बिना सोचे समझे ऐसे सीधे ही इनको समझा दूं. यह पैसा देव द्रव्य में जाएगा. यह उसको गलत रूप से लेंगे क्योंकि पत्रकार हैं. माल मसाला तो मैंने दे दिया नमक मिर्च ये मिलायेंगे तब जा करके मजा आएगा. पेपर में दिया जाए और नमक मिर्च न डालें तो आयविक कि रसोई हो जाएं, कोई भी पसंद न करे. वह तो स्वादिष्ट होना चाहिए. मैंने कहा-पैसा का राष्ट्रीय रूप में शुद्ध उपयोग में आएगा. वे विचार में पड़ गए कि-ये कौन सा राष्ट्रीय कार्य है. जिसके अन्दर इस पैसे का उपयोग किया जाएगा. ___ मैनें कहा - आबू, रणकपुर, शत्रुजय, ये सब बड़े इतिहास मंदिर हैं. ये राष्ट्र की मिलकियत हैं. राष्ट्र के आभूषण हैं. हमारे देश की परम्परा का इतिहास इससे जुड़ा हुआ है. इसको आप अलग नहीं कर सकते. राष्ट्रीय प्रेरणा के प्रतीक है. हमारे मंदिर हमारी परम्परा के, हमारा इतिहास है. भारत का इतिहास इससे जुड़ा है. यह गौरव गाथा इसके Ine 421 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - द्वारा गाई जाती है. यह ऐतिहासिक मंदिरों के रक्षण के लिए उनके जीर्णोद्धार के लिए पैसे का उपयोग किया जाता है. सरकार को यह जवाबदारी दे दी जाए तो एक वर्ष में ट्रेजरी खाली हो जाए. अरबों रुपये की सम्पति चाहिए. कहां से लायें, सरकार को यदि सुपूर्द कर दिया जाए तो बिल पास होते-होते हमारे मंदिर गिर जाएंगे. हजार वर्ष के हमारे मंदिर टिके हैं. ये हमारी सामाजिक परम्परा के हैं. वह बोली और चढ़ावे के पैसे इनके काम में लगते हैं. एक भव का जीर्णोद्धार कराया गया. 170 लाख रूपये लगे. वह भी आज से 30 साल पहले एक रणकपुर के मंदिर का रिपेरिगं हुआ. जो मंदिर एक सौ करोड़ रुपये के खर्च से बनाया गया. - हमारे पूर्वजों ने क्या भाग दिया. एक ही व्यक्ति ने बनवाया और उनके जीर्णोद्धार पर 78 लाख रुपये खर्च हुआ. अब आप विचार कर लीजिए दो चार करोड़ रुपया तो 10 वर्षों में खर्च हो गया. अगर बार-बार आपसे मांगने आएं तो आपका चेहरा कैसे उतरे. आप तो यही कहेंगे कि दूसरा घर नहीं देखा. यही घर देखा है. हर तीसरे दिन चन्दा. तुम्हारे लिए पैसा कमाता हूं. महाराज को और कुछ नहीं दिखता मेरा पोकेट नजर आता है. यहीं अगर शुरू कर दें तो तीसरे दिन एक भी व्यक्ति यहां नहीं आए. हमारे पूर्वजों को धन्यवाद दो कि ऐसी सुन्दर परम्परा रखी. इस नियमित विधि से धनवान व्यक्ति पैसा पुण्य कार्य में लगा देता है. उनको उत्साह मिलता है कि निमित्त कार्य मिलता है. इसी आशय से बोलियों की परम्परा रखी है. दूसरा कोई कारण नहीं. पैसा अच्छे कार्य में आ जाए, समाज की व्यवस्था बनी रहे. अनुशासन बना रहे, उन व्यक्तियों की भावना भी प्रतिक्रमण में सूत्र यदि साधु बोले तो साधुओं के सूत्र साधु बोलते हैं. अपना प्रतिक्रमण गृहस्थ के द्वारा हम कराते नहीं. हमारे प्रतिक्रमण की सारी क्रिया साधु की क्रिया है जिन्हें साधु ही बोलते है पूरा प्रतिक्रमण. साधु को आदेश दिया जाता है, साधु की हाजिरी में कोई गृहस्थ नहीं बोलता. गृहस्थ के जो सूत्र, सात लाख पृथ्वी कार्य, यहतो प्रतिपात, तो मेरी कौन सी दुकानदारी चलती है? किसका मिच्छामि दुक्कड़म दूं? मैने कौन सा शादी विवाह करवाया, उसे तो गृहस्थ ही लेगा, साधु कैसे बोलेंगे. पाप आप करो, मिच्छामि दुक्कड़म मैं दूं. इसी तरह प्रतिक्रमण में वंदिता सत्र श्रावक का अतिचार है, तो श्रावक के अधिकार की बात है वही श्रावक बोलते हैं बाकी तो सभी सूत्र साधु स्वयं अपने मुख से बोलते हैं.. प्रश्न कर्ता के मन का समाधान हो गया होगा. मैंने बिल्कुल स्पष्ट करके आप को कहा. एक विचारवान प्रश्न विचारवान व्यक्ति का एक प्रश्न है. धार्मिक कर्म ग्रन्थि की दृष्टि से सम्पूर्ण धौतिकर्म का जिस व्यक्ति ने नाश कर दिया हो, ऐसे तीर्थंकर परमात्मा उनको उपसर्ग कैसे आ गया. यानि परमात्मा महावीर जब सर्वाश्रय बन गए, सारे कर्म उनके क्षय हो गए. फिर कौन सा कर्म ऐसा रहा जिसके उदय में परमात्मा को गौशाला ने तेज लेश्या फेंकी. 422 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी इसका उचित समाधान तो प्रतिवर्ष आप को मिल जाता है, कल्प सूत्र के अन्दर इसका बड़ा सुन्दर आलेख है. आज तक कभी ऐसा नहीं पहले ख्याल में ही समाधान आ जाएगा.. कल्प सूत्र का पहला प्रवचन. आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं, अनादि अनंतकाल में कभी ऐसा होता नहीं, भविष्य में होने वाला नहीं, इसलिए इस कर्म को आश्चर्य के रूप में माना, एक प्रकृति के विरुद्ध कार्य हुआ, आज तक कोई इस विषय में स्पष्टीकरण कर नहीं पाया. न इसका कोई समाधान है. आचार्य के रूप में हमारे शास्त्रकारों ने इसको माना है. आप के प्रश्न का यही उत्तर कि ऐसा होता नहीं, होने वाला नहीं और हुआ भी नहीं, परन्तु हो गया एक आश्चर्य है, इस काल की चौबीसी में दस अच्छेरे हुए. अच्छेरे का मतलबःआश्चर्य, कभी ऐसा होता नहीं, यह तो प्राकृतिक व्यवस्था है. परन्तु प्रकृति के कार्यसे विरुद्ध जो कार्य हुआ, उसको आश्चर्य के रूप में माना गया, यह कल्प सूत्र आज सुनेंगे, उसमें दस इस प्रकार के आश्चर्य है, पर्युषण में सुनने को मिल जाएगा. इस प्रश्न का दूसरा उत्तर हमारे पास नहीं. हमारे पूर्वाचार्यों ने आश्चर्य के रूप में इसको माना है. __ यहां उनका एक प्रश्न है-पूर्व काल के अन्दर परमात्मा महावीर के जीव ने जब वे वसदेव थे उस समय अपने सेवक के कान में कील ठोंका, ऐसा उल्लेख आता है, भगवान के जीवन के इतिहास में. इनका प्रश्न है-राजा है, राजा को दण्ड देना यह अधिकार क्षेत्र की बात है, उन्होंने उसको वास्तविक दण्ड दिया कि उसने उनकी आज्ञा का अनादर किया, आज्ञा का अनादर करने का परिणाम वसुदेव ने शिक्षा दी. भगवान मायावी का जीव उस भव में वसुदेव था. वसुदेव के भव में उन्होंने इस प्रकार की शिक्षा दी. शिक्षा की मर्यादा होती है, मक्खी मारकर के आऊं और आप मुझे फांसी की सजा दें, तो यह क्या दण्ड कहलाएगा? उस व्यक्ति ने सामान्य रूप से कोई भूलकर दी, वह सामान्य प्रकार की भूल थी भगवान के उस जीव ने इतना ही. कहा-मै जब सो जाऊं, ये संगीत बन्द कर देना. ध्यान रहा नहीं और उसे आनंद आ गया, संगीत में मग्न बन गया, ध्यान से बात चली गई. उसकी सजा के रूप में प्राणान्त कष्ट देना, कान के अन्दर गर्म-2 शीशा पिघलाकर डालना, यह क्या न्याय है? राजा तो. न्यायवान होता है. इस प्रकार का अन्याय पूर्वक दण्ड दे दे तो सजा कर्म की मिलेगी. वह चाहे महावीर हों या कोई हो. कर्म में शर्म नहीं होती. वह निरपेक्ष होता है. वह चेहरा देखकर तो आता नहीं, कर्म तो कार्य देखकर आता है. भगवान के जीव ने यह गलत काम किया, महावीर को इस प्रकार की शिक्षा मिली, कान में कील ठोके गए. राजा अपने राज्य के संचालन में प्रजा के रक्षण के लिए यदि कोई भी शुभ कार्य करते हैं, और दुष्ट व्यक्तियों को उचित शिक्षा देते हैं, वहां तक तो कर्तव्य की परिभाषा में आ जाता है. यदि उससे अलग मर्यादा का उल्लंघन करके सजा दे, तब तो गलत होगा, तब तो हिटलर को भी माफ कर देना चाहिए. पचास यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया. गैस ना 423 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: चैम्बर में भेज करके न जाने कितने निर्दोष बच्चों को, परिवार को खत्म कर दिया. यह कोई दण्ड नही है, यह तो मर्यादा का उल्लंघन है. इस तरह की रक्षा की भावना. दुष्टों को इसलिए शिक्षा दी जाती है कि गलत कार्य आगे नहीं बढ़े, वहीं रुक जाए. अन्दर से शुद्ध होता है. व्यक्ति के प्रति द्वेष या घृणा की भावना नहीं रहती, पापियों का तिरस्कार नहीं करते. पाप के तिरस्कार के लिए, पाप से आत्माओं को प्रेरणा न मिले, इसी का प्रतिकार करने के लिए सजा दी जाती है. ताकि दूसरे व्यक्ति भूल करते समय विचार कर सकें. क्लास में बच्चे पढ़ते हैं यदि एक बच्चा तफान करता है. अध्यापक मारता है ताकि दूसरे बच्चों का रक्षण हो जाए, यह भाव क्षमा है. दूसरे व्यक्ति गलत कार्य न करें और दूसरे बच्चे इस बच्चे की सोहबत से न बिगड़ें. इस प्रकार राजा भी प्रजा के रक्षण के लिए दण्ड व्यवस्था का उपयोग करता है. परन्तु उसकी मर्यादा है. मर्यादा का उल्लघंन नहीं किया जाता. तीसरा प्रश्न है कि जैन मन्त्रों में रात्रि भोजन का निषेध किया गया है? भगवान के समय तो आज की तरह लाइट थी नहीं. दीपक का प्रकाश था. हो सकता है दीपक के प्रकार में कीट पतंग आए हों और भोजन के साथ पेट में जाएं, इस कारण निषेध किया गया है. यह निषेध एक अपेक्षा से नहीं. पहले ही दिन रात्रि भोजन पर मैंने प्रवचन दिया था. उसकी अपेक्षाओं को मैंने आपको समझाया था. एक दृष्टिकोण नहीं है. परमात्मा का उद्देश्य त्रिकाल अबाधित होता है. त्रिकाल अबाधितका मतलब भूत, भावी और वर्तमान की अपेक्षा से दिया जाता है. तीनों समय, तीनों काल प्रवचन का कायदा लागू रहता है.. भगवान ने अपना वर्तमान काल भी ज्ञान से देखा था, वे जानते थे भविष्य के अन्दर किस प्रकार भौतिक विज्ञान उन्नति करेगा. भौतिक साधन बनेगा. परमात्मा का सारा ही प्रवचन, आध्यातमिक भूमिका पर होता है. उसके अन्दर भौतिक दृष्टि नहीं होती. भौतिक परिचय भी वैराग्य के लिए दिया जाता है. वह भी आध्यात्मिक प्रेरणा के लिए दिया जाता है. भौतिक वासना से विरक्ति के लिए उनका भौतिक परिचय होता है. परमात्मा तो ज्ञान चक्षु से वर्तमान काल को भी जानते थे, आपके भविष्य को भी देखा फिर निषेध किया. निषेध के पीछे कारण है. ऐसे भी सूक्ष्म जीव जन्तु हैं. जो चरम चक्षु ग्रहण नहीं. सूर्य की रोशनी जाने के बाद, सूर्यास्त होने के बाद वे अपना ध्यान छोड़ते हैं. परिभ्रमण करते हैं. भोजन से आकर्षित होकर आहार के साथ मिलकर आपके पेट में जाते हैं. इसके अन्दर अल्ट्रा वाएलेट किरण होती है. उस किरण में वह ताकत है कि सूक्ष्म जीव जन्तु इस प्रकाश में बाहर नहीं आते. जैसे ही सूर्य की रोशनी व्यापक बन जाए 424 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी ऐसी ताकत है. कि ऐसे जीव जन्तु बाहर आने का साहस नहीं करते, उडते भी नहीं. हिंसा के कारण से. शारीरिक कारणों से, मानसिक शान्ति के लिए, कई कारणों से रात्रि भोजन का निषेध किया है. यह लाइट भी ऐसी होती है. कि आप समझते हैं जीव जन्तु नहीं आते हैं बाहर लैम्प पोस्ट में बरसात में देखिये, देर लगती है? इतने पीछे पतंगें पड़ जाते है. घर में कदाचित् बड़े जीव न आ जाएं, कई ऐसे सूक्ष्म जीव हैं, जो आपके घर में भी नजर आएंगे आप नहीं रोक पाएंगे. इसीलिए रात्रि भोजन का निषेध किया है. एक और प्रश्न-पूर्व भद्र के विषय में भी है. इस पर काफी वचन चाहिए सिद्ध करने के लिए वक्त कम है. इस विषय में जिज्ञासा प्रकट की कि इस विषय में जानने योग्य कोई ग्रन्थ है. जैन भूगोल के विषय में भी है. हमारे यहां प्रकाश है. संग्रहण सूत्र है. जो बहुत विस्तार पूर्वक जैन भूगोल द्वारा विश्व का परिपूर्ण परिचय दिया. पूरे जो ज्यों तप मण्डल का परिचय आपको मिलेगा साथ में जो जिज्ञासा है उसका भी उत्तर मिल जाएगा. प्रश्न-मुख वास्त्रिका रखने का प्रयोजन क्या है? इसे बांधना या हाथ में रखना अलग-अलग परम्पराएं हैं. अलग-अलग सम्प्रदाय के अलग-अलग दृष्टि कोण हैं. इसका आशय पूछा है, क्या है? पहले के समय में बड़े बड़े हाथ के लिखे ताड़ पत्रि ग्रंथ होते थे, बार-बार सूत्र पढ़ना पड़ता था. उसे दोनों हाथ से ही उठाना पड़ता था, मुंह का थूक उसमें न गिरे ज्ञान की अविनय या आसातना न हो जाए, ग्रन्थ नष्ट न हो जाए इसीलिए व्यवस्था थी कि मुंह पर कपड़ा बांध लेते. ताकि ग्रन्थ को थूक न लगे. सरस्वती की आसातना न हो. हमारी परम्परा में भी बांधते थे. हमारे गुरुजन भी बाधते थे. अड़तालिस मिनट बांध कर खोल देते थे. कि जीवोत्पत्ति न हो जाए. क्योकि जो थूक है. वह अड़तालिस मिनट से ज्यादा रहा तो इन्द्रिय जीव उसमें पैदा होंगे. जीव की विराधना होगी. इसीलिए सतत मुंह पर बांधने का हमारे यहां निषेध किया, हाथ में रखना ताकि बोलते समय उस आत्मा को यह विवेक रहे कि मैं साधु हूं ___ मुखवस्त्रिका सावधान करती है. बोलने से पहले बहुत सोचकर बोलना. जीव की यातना का पालना लिया जाता है. बहुत सूक्ष्म जीव होते हैं जो हलचल की क्रिया करते हैं. उनकी यातना के लिए रखा गया. ग्रंथ के अन्दर अपना थूक न गिर जाए. उसकी आसातना न हो जाए, बहुमान की दृष्टि से रखा गया. यह हमारी परम्परा है. इसके पीछे और कोई आशय नहीं, प्रतिक्रमण का विषय जब मैं समझाऊंगा, यह मुखवस्त्रिका जब प्रतिक्रमण में खोल कर प्रतिलेखन पचास बोल होते हैं, कहां किस प्रकार प्रतिलेखन करना, मैं समझाऊंगा. ला 425 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी ये तो शास्त्रों के सिद्धान्त हैं, मर्यादा मिश्रित. परमात्मा ने ज्ञान चक्षु से देखकर के कहा है. हमारे उपकार के लिए कहा है, श्रद्वा पूर्वक धर्म क्रिया करनी है. श्रद्धा आगे चलकर के फलीभूत बनती है. समय बहुत हो गया है. गत शनिवार मुझसे एक भूल हो गई, उनका मिच्छामि दुक्कडम्. धनुष का परिणाम मैंने ढाई हाथ कहा, जो चार हाथ का होता है. छदमस्थ है. क्षपोपशम में नही आया भूल हो गई. प्रमाद वश अगर कभी जिनाज्ञा से विरुद्ध कहा गया हो, इसीलिए साधु ने कहा बार-बार मिच्छामि दुक्कड़म्. कोई शब्द जिनाज्ञा विरुद्ध यदि भूल से भी बोल दिया हो, प्रमाद से बोल दिया हो, बिना जानकारी के बोल दिया हो तो, हमारा आचार है. उसके लिए-मिच्छामि दुक्कडम. मेरा आशय ऐसा नहीं था. इस प्रकार का धनुष था प्रमाण परमात्मा की अवगाहना के लिए, पांच सौ धनुष की काया देव परमात्मा की थी. इसे समझ कर सुधार लेना. "सर्वमंगलमागल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" पर्व वो है, जो जीवन को प्रकाशित करे. ऐसे पर्यों से प्रेरणा मिलती है. इसीलिए उनका आयोजन मात्र औपाचिरक नहीं होना चाहिए. जीवन की वास्तविकता को मद्दे नजर रखकर पवित्र पर्वो की इस प्रकार उपासना कीजिये कि वे अपनी भीतरी वासनाओं को नष्ट करने में सहायक बनें - 426 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्म का मर्म - - वीतराग परमात्मा की जगत के जीव मात्र के कल्याण के लिए, किसी एक के लिए नहीं, किसी संप्रदाय के लिए नहीं, किसी व्यक्ति के लिए नहीं परन्तु जगत के जीव मात्र के कल्याण के लिए मंगल देशना रही. सर्वप्रथम परमात्मा के आगत विचारों पर आप ध्यान केन्द्रित करें. परमात्मा महावीर किसी संप्रदाय के नहीं थे. न वे दिगम्बर थे, न श्वेताम्बर, न स्थानकवासी, न तेरा पंथी. परमात्मा परमात्मा थे, परिपूर्ण आत्मा थे. परमात्मा ने जो कुछ भी विचार दर्शन दिया, उस दर्शन के पीछे उनकी मंगल भावना थी, जीवमात्र का कल्याण हो, परमात्मा महावीर ने कभी ऐसा विचार तक भी नहीं किया कि मेरा कल्याण हो, मेरे सम्प्रदाय का कल्याण हो और मुझे सम्मानित करने वालों, मेरे नाम का रटन करने वालों का कल्याण हो, ऐसी विकृत भावना नहीं थी. ___ मेरी साधना जीव मात्र की शान्ति के लिए हो, मेरी साधना से जगत को प्रकाश मिले. मेरी साधना से जगत की पीड़ित आत्माओं को सुख शान्ति मिले, मोक्ष मार्ग का मंगल परिचय मिले और जगत की सभी आत्मा संसार के समस्त दुखों से मुक्त हों. इस मंगल भावना से भगवान महावीर ने देशना दी. __ परमात्मा के विचारों में न कोई सांप्रदायिकता थी, न कोई प्रान्तीयता थी, न कोई वहां व्यक्तिवाद था. वहां तो समष्टि को लेकर जीव मात्र के कल्याण की मंगल कामना थी. इसी कामना को लेकर के प्रभु ने अपने विचार दर्शन दिये, यदि उन विचारों पर चिन्तन किया जाये, विचारों की गहराई में यदि डुबकी लगा ली जाये तो याद रखिये आत्मा परमात्मा बनकर के लौटती है. परमात्मा के विचारों का सागर इतना निर्मल है कि यदि एक बार आत्मा उसमें स्नान करे तो आत्मा निर्मल बनती है, परमात्मा बनती है. परमात्मा के विचारों का चिन्तन वीतरागता की उपलब्धि आपको कराता है, हमने कभी उस तरफ ध्यान दिया ही नहीं. कभी विचार की गहराई में डुबकी लगा कर देखा ही नहीं. साधना के द्वारा कभी स्वानुभूति का अनुभव हमने किया नहीं, परमात्मा के विचार अमृत को पाकर के भी आत्मा का स्पर्श उसके साथ आज तक हुआ नहीं. वाणी तो हम श्रवण करते हैं परन्तु जब हृदय से वाणी का स्पर्श होता है, तब जाकर जीवन का रूपान्तर होता है. कैसी अपूर्व करुणा से परमात्मा के मंगल हृदय से इस वाणी का प्रकाश हुआ है? कैसा वात्सल्य और कैसी करुणा थी उनके एक-2 शब्दों के अन्दर, हमारा दुर्भाग्य परमात्मा की उस वाणी को सापेक्ष दृष्टि से, अनेकान्त दृष्टि से समझने का प्रयास नहीं किया और हम टुकड़ों में बंट गये. न 427 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी एकता में से अनेकता के रास्ते पर चले गये. बात तो हम एकता की करते हैं पर हमारे जीवन में आप झांककर देखिये तो एकता का दर्शन हमारे व्यवहार से नहीं मिलता. हर व्यक्ति अपना साइन बोर्ड लगाना पसन्द करता है. अपनी अन्तर्वासना से ग्रसित है, इसीलिए परमात्मा की वाणी को उसने विकृत रूप में जगत के समक्ष रखा. जिन आत्माओं ने परमात्मा की वाणी के साथ इस प्रकार का व्यवहार किया, जगत के वे प्रथम कोटि के अपराधी हैं. परमात्मा के वे गुनहगार हैं. सही तरीके से जो वस्तु रखनी थी, उसे विकृत रूप से रखा गया. असत्य को सत्य का रूप दिया गया, सत्य की पैकिंग के अन्दर असत्य का माल आप तक पहुँचाया गया और सांमप्रदायिक दुर्भावना उत्पन्न कर दी. परमात्मा के द्वार पर जहां जगत की सभी आत्माओं को प्रवेश मिला, वहां उस विकृति का परिणाम यह कि परमात्मा के द्वार पर प्रवेश पाने से पहले ही दीवार खड़ी कर दी गई. हर व्यक्ति को ऐसा नशा दे दिया गया, वह यही समझता है कि मैं ही पूर्ण हूँ, मेरे वचन के द्वारा ही मुझे पूर्णता मिलेगी. इस प्रकार सारे जीवन व्यवहार को हमने दूषित कर दिया. जहां अमृत देना था, वहां हमने जहर देना शुरू कर दिया. परमात्मा की वाणी का अमृतपान करने से जहां आत्मा निर्मल बनती है, वहां यह जहरीला तत्व मिलने से सांप्रदायिक दुर्भावना के कारण, उस व्यक्तिगत अनुराग के कारण, दृष्टि राग के कारण, हमारा जीवन इतना विकृत आज बन चुका है. कभी परमात्मा ने व्यक्ति को महत्व नहीं दिया. यहां तो गुणों को महत्व दिया गया है. अनेक आचार्य साध आयेंगे, अगर आप व्यक्तिगत किसी का अनुराग रखते हैं तो निश्चित आप का पतन होने वाला हैं. परमात्मा ने दृष्टि राग को जहर माना है. किसी भी एक सम्प्रदाय का दृष्टिराग, किसी व्यक्ति का दृष्टि राग, व्यक्ति को पतन की तरफ ले जाता है. __कभी भूल कर भी इस जहर को लेने का प्रयास न करें. अपनी आत्मा को निर्मल रखें. हमारे यहां तो गुणी को अभिवादित किया गया है. अभिनंदित किया गया है गणों का अनुराग पैदा करने के लिए. परमात्मा ने कहा-जहाँ संप्रभुता का दर्शन हो, जहां गुणों का दर्शन हो, वहां अपना जीवन नतमस्तक होना चाहिए. गुणों को प्राप्त करने के लिए प्रयास होना चाहिए, सम्यक् गुणों का अनुमोदन होना चाहिए. हम व्यक्तिगत राग के अन्दर दूसरों की उपेक्षा न करें. नवकार महामन्त्र विश्व का. सबसे बड़ा राष्ट्र मन्त्र है. परमात्मा महावीर का सबसे बड़ा महा उपकार इस शासन पर है. सारे जगत को उन्होंने प्रेम और मैत्री का सन्देश दिया. सर्वोपरि उपकार नवकार में है, कहीं नाम है किसी भी तीर्थंकर का? एक भी तीर्थंकर का नाम नवकार महामन्त्र में नहीं, यह विशेषता है. जैन दर्शन की यह उदारता है, जैन दर्शन की यह विशालता है. 428 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी हमारे यहां शब्दों से नहीं परन्तु आचरण से धर्म को प्रकट किया गया. व्यावहारिक बतलाया गया. जिस नवकार से हमारे हृदय की शुद्धि होने वाली है, जो नवकार हमारे लिए अमृत तुल्य माना गया. अनन्त परमेश्वरों को उस के द्वारा वन्दन किया जाता है. जिस आत्मा में अरिहंत का गुण होगा, जिस आत्मा में निर्मलता, पवित्रता होगी, जो आत्मा भविष्य में मोक्षगामी होगी, जिन आत्माओं के अन्दर आचार की सम्पन्नता होगी, जिन आत्माओं में साधुता का गुण विद्यमान होगा, उन आत्माओं को एक बार नहीं अनन्त बार से वन्दन करता हूँ, नमस्कार करता हूँ. अपने जगत के किसी भी मन्त्र में यह विशेषता देखी? कैसी अपूर्व विशेषता, किसी संप्रदाय का नाम नहीं, किसी मत पंथ का नाम नहीं, किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं. महावीर से लेकर ऋषभदेव तक किसी तीर्थंकर का नाम नहीं. अरिहन्त जिसने अन्तर शुत्रओं पर विजय प्राप्त कर लिया, जो महान विजेता बन गया, जग के उस महान विजेता, उस परम पुरुष परमात्मा को वन्दन करता हूँ अन्तर शत्रु क्रोध, मन, माया, लोभ इन कषायों पर जिसने विजय प्राप्त कर लिया उस विजेता को मै नमस्कार करता हूँ जो संसार से सर्वथा मुक्त बन गये, संपूर्ण कर्म का अवशेष भी जिनका नष्ट हो गया, सम्पूर्ण शुद्धात्मा, सिद्धात्मा उन पुरुषों को वन्दन करता हूँ, वन्दन भी किस प्रकार. भूत, भावी, वर्तमान काल की अपेक्षा से. उनके द्वारा आपने धर्म प्राप्त किया परन्तु उसको अगर आप सामाजिक रूप देंगे. इस प्रकार व्यावहारिक रूप से उनको प्रतिष्ठित करेंगे. तो गलत है. सभी साधुओं के लिए मेरा द्वार खुला है, कोई भी साधु भगवन्त आयें, मेरा अभिवादन है. यह विशाल दष्टि आनी चाहिए, अभी तक यह आई नहीं. आपका चेहरा ही साक्षी दे रहा है, वह प्रसन्नता, उदारता आज हमारे जीवन में नहीं. एकता की बड़ी बातें करते हैं परन्तु हमारे जीवन में एकता का नामो निशान नहीं, ऐसी एकता में मेरा विश्वास नहीं, यह तो एक प्रकार का नाटक है. संप्रदाय हमारे लिए उपकारक होगा. हमारे जीवन की एक व्यवस्था है, अनशासन है. हमारे पूर्व के आचार्यों ने एक व्यवस्था दी है. उसका आदर करना. सम्मान करना. उसके अपूर्व जीवन का संपूर्ण व्यवहार पालन करना. उसको विकृत मत बनाना. उसे हम विकृत कर रहे हैं, दूसरों के प्रति घृणा प्रकट कर रहे हैं, अवर्णवाद बोलते हैं, नहीं बोलने जैसा अभिप्राय दे देते हैं, वह हमारी मर्यादा के विरुद्ध है. __पहले इस उदारता को जीवन में अपनाएं. उसके बाद परमात्मा के वचन पर, परमात्मा जिनेश्वर के विचार पर, बडी गम्भीरता से सोचें परमात्मा के विचार कितने उदार हैं, इस उदारता के लिए ही मैंने आपको परिचय दिया. धर्म से सभी बहुत दूर हैं, कहने को जरूर कहेंगे बड़े धार्मिक हैं. आनन्द और कामदेव परमात्मा महावीर के परम श्रावक थे. परमोपासक थे. ऐसे दस तो परम श्रेष्ठ उपासक माने गये जो ज्ञानियों की दष्टि में मोक्षगामी थे. जिनकी श्रद्धा एकदम सुरक्षित थी, निर्मल पो 429 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %-गुरुवाणी थी. वैसे परम परिश्रावक राजगृह नगर में निवास करते थे. सम्राट् श्रेणिक ने जब सुना मेरे राजगृह नगर के अन्दर ऐसी महान आत्मा निवास करती हैं, गृहस्थ जीवन में भी उनका आदर्श साधु जैसा है, उन आत्माओं का मैं दर्शन कर कृतार्थ बनूं. मेरे नेत्र उससे निर्मल बन जायें सम्राट श्रेणिक स्वयं वहां पर गया. सामायिक में बैठे थे, सर्वज्ञ ने जो चीज दी वहां संदेह का तो स्थान ही कहां रहा. जगत का सबसे बड़ा सर्टिफिकेट. सर्वज्ञ का कथन पूर्ण सत्य होगा. जो ज्ञान से देखा वही होगा. यथार्थ होगा, उसी समय वहां जाकर के उनका अभिवादन किया उन्हें नमस्कार किया, और कहा मैं धन्य बना. मेरी नगरी पावन हुई, आप जैसे पुण्यशाली धर्मात्मा पुरुष मेरे नगर आए. ऐसी प्रजा को पाकर के मेरा जीवन तो कृतार्थ हुआ. ___ एक पुण्यशाली आत्मा के जो गुण थे, उनका अन्तर से अनुमोदन किया. सम्राट् श्रेणिक, इतने बड़े मगध देश का सम्राट, वह सम्राट जब वहां पर गया हृदय से उनका अभिवादन किया. आप जैसे व्यक्ति के लिए ऐसे राजा आ जायें, आपका अभिवादन करें तो बिना पिए ही आप को नशा चढ जाए. इतना बड़ा सम्राट् मेरा अभिवादन कर रहा है. जगत की दृष्टि में बड़ा धार्मिक हूँ, आनन्द श्रावककामदेव श्रावक पुण्यात्मा श्रावक. ये सब आगमों में वर्णित श्रावक हैं. उन महान आचार्यों ने इस गृहस्थ का जीवन चरित्र लिखा, उनका गृहस्थ जीवन कितना आदर्श होगा, आप जरा देखिए. नहीं तो त्यागियों को क्या आवश्यकता कि गृहस्थ का जीवन चरित्र लिखें लिखने का प्रयोजन आने वाले गृहस्थों को इनके जीवन से प्रेरणा मिले. उनका गृहस्थ जीवन पवित्र बने. उनका जीवन आचार से सम्पन्न बने, विचार का वैभव प्राप्त करे, इस मंगल भावना से उन त्यागियों ने आश्रम में ऐसे श्रावकों का वर्णन किया. सम्राट् श्रेणिक ने जैसे ही उनका अभिवादन किया, धन्यवाद दिया. आनन्द, कामदेव पुण्यात्मा जैसे श्रावक रो पड़े. आंसू निकल आये, चेहरा एकदम उतर गया. उदासीन बन गये. सम्राट ने कहा मैंने आपका कोई अविनय तो किया नहीं, मैंने आपके साथ कोई गलत व्यवहार किया नहीं, मैं समझ नहीं पाया, आपके आंसुओं का कारण क्या है? मैंने तो आपकी स्तुति की, आपके गुणों का अभिवादन किया. ये किस दर्द के आंसू हैं? पुण्य श्रावक आनन्द श्रावक ने कहा राजन्! यह आपकी प्रशंसा मेरे लिए पतन बन न जायें. आप ने मेरे बाह्यगुण देखे होगें, मै मन में पश्चात्ताप करता हूँ. परमात्मा जिनेश्वर की वाणी अगर कोई एक बार भी श्रवण कर ले, संसार से विरक्त हो जाये, संन्यास ग्रहण कर ले, वह कभी सेन्ट्रल जेल में रहना पसन्द नहीं करेगा. वह मुक्त वातावरण में रहने लग जायेगा. ____ “मैंने कोई ऐसा पापकर्म भूत काल में किया होगा. क्या पता कैसा चरित्र मोहनीय कर्म मै उपार्जन करके आया हूँ. मेरे ऊपर मेरा साम्राज्य नहीं, मोह राजा का साम्राज्य 430 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी है, ममत्व को लेकर के जीवन जी रहा हूँ, ऐसा ग्रेविटेशन है, मुझे ऊपर जाने ही नहीं देता. उसी वर्तल में फंसा हूँ. परमात्मा जिनेश्वर की देशना सनता हूँ फिर भी कैसा पापी हूँ, अभी तक संसार के मोह जाल में फसा हूँ, संसार नहीं छूट पाया, इस बात का कष्ट है." "आपने मुझे गलत समझ लिया रोज प्रतिदिन घर के अन्दर हिंसा करता हूँ. खाने में, बोलने में, पीने में, चलने में, अपने व्यवहार में, जहां भी आप नजर करेंगे, संसार बिना हिंसा के चलता नहीं, पूर्ण रूप से अहिंसा का पालन मेरे जीवन में नहीं हो पाता. परमात्मा ने जो राजमार्ग बतलाये अभी तक उसमें मेरा चलना प्रारम्भ नहीं हुआ. इसी बात का मेरे अन्दर कष्ट है. आप मुझे क्षमा करें मुझे धार्मिक न कहें. मेरे जैसा पापी संसार में खोजने पर भी दूसरा नहीं मिलेगा." आत्मा का कष्ट देखिए, आपका मन परमात्मा की वाणी श्रवण करने के बाद संसार से विरक्त नहीं बना. कैसा दर्द था उन आत्माओं का. हमारे हृदय में तो इस बात का पश्चात्ताप भी नहीं है, अफसोस भी नहीं है, मैंने भूल की, मुझ से अपराध हो गया, अन्तर हृदय से कम से कम दर्द भी अगर पैदा हो जाये तो भी मैं आप को धन्यवाद दूं कि आप पुण्यात्मा हैं, कम से कम पाप का दर्द तो है, पाप का पश्चात्ताप तो है. अपने जीवन में तो हम पाप की वकालत करते हैं. धर्म के नाम से लड़ने की बात करेंगे. धर्म कभी लडना सिखाता हैं? धर्म इतना कमजोर है? अपनी आदत से हम लाचार, बहुत सारे व्यक्ति कहते हैं-मैं धर्म का रक्षण करने वाला हूँ, बहुत से व्यक्तियों के शब्द इतने दुर्गन्धमय मिलेंगे-मैं धर्म का रक्षण करने वाला, समाज के शासन का रक्षण करने वाला हूँ, धर्म का आप क्या रक्षण करेंगे, अपना ही रक्षण कर लें तो भी धन्यवाद. जो आत्मा हृदय में धर्म का रक्षण करता है, हृदय में भाव पूर्वक धर्म को ग्रहण करता है: "धर्मो रक्षति रक्षितः वह आत्मा धर्म के माध्यम से, धर्म के पुण्य प्रभाव से अपने जीवन का स्वतः रक्षण प्राप्त करता है. जरा अर्थ को अच्छी तरह आप समझिये, हम आज तक उसके रहस्य को समझे नहीं, आप क्या धर्म का रक्षण करेंगे. अपनी दुकान मकान को बचा लें, तो भी बलिहारी है. धर्म क्या इतना कमजोर है कि आप पर आश्रित है. जो शाश्वत है, कभी नष्ट होने वाला नहीं जो कभी भ्रष्ट होने वाला नहीं, जिसमें कभी जगत की अपवित्रता आने वाली नहीं जो परिपूर्ण है, शाश्वत सत्य है, आप क्या उसका रक्षण करेंगे? क्या परमात्मा इतना कमजोर है? आपके रक्षण पर आश्रित है. यह लोगों को बहलाने की आदत है, मैं धर्म का रक्षण करने वाला, साम्राज्य का रक्षण करने वाला हूँ. 431 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - समाज तुम्हारा रक्षक है, समाज की कृपा से अपने जीवन का व्यक्तिगत रक्षण होता है. हमारे आचार सुरक्षित रहते हैं, समाज की दृष्टि से हमारी सुरक्षा छिपी है. समझ कर के चलिए. मैं यह आपसे कह रहा था. परमात्मा के विचारों का यदि हृदय से स्पर्श हो जाये, तब तो जीवन की उदारता प्रकट हो जाये. तब तो अपने हृदय की भावना जगत की सद्भावना के लायक बन जाये. परन्तु स्पर्श आज तक हमारे हृदय में हुआ नहीं. शब्द श्रवण किया गया, परन्तु आत्मा से, हृदय से, उसका स्पर्श आज तक नही हुआ. उसका भी कारण है. अनादि काल के संस्कार हैं, जहां गये वहीं दरिद्र नारायण बन करके गये. अपनी महानता भूलकर के गये. मै परमात्मा हूँ, यह आप के दिमाग से निकल गया. कायर बन कर के गये प्रभु के द्वार पर कमजोर बनकर के गये, दरिद्र बनकर के गये, जगत की याचना लेकर भिखारी बनकर के गये, इसी कारण आज तक आप सम्राट् नहीं बन पाये. मांगना बन्द कर दीजिए, जो मिलेगा मेरे भाग्य में होगा वही मिलेगा, हमारी अन्धश्रद्धा हमारे जीवन का सर्वनाश कर रही है, हमारे गुरुजनों को बदनाम कर रही है, हमारे देवी देवताओं को बदनाम कर रही है. परमात्मा जिनेश्वर के शासन को कलंकित कर रही है, वह कभी भीख नही मांगेगा. महावीर का उपासक महावीर बनने का प्रयास करता है. वह जगत का भिखारी नहीं, कि जहां गया, टोकरी लेकर गया कि कुछ दे दो. . अपनी आदत से हम लाचार. देवी देवताओं के पास जायें, गुरुजनों के पास जायें. जहां गए, दरिद्र बन करके गये. आशीर्वाद दे दूं, आप करोड़पति बन जायें. आप के हाथ में है? कुबेर कोई मेरा नौकर है? मै सर्वज्ञ हूं कि आप के भाग्य को जानलू या समझ लूँ. "एतत् पुण्येन लभ्यते" पूर्व कोई पुण्य कार्य किया हो तो सम्पत्ति मिलती है, नहीं तो विपरीत तो आयेगी ही. सामना आप को करना पड़ेगा परन्तु बहुत सामान्य रूप से मुझे वैसा धन, सम्पत्ति मिल जाये. यह हमारी आदत है, बहुत बार. ऐसा देखा गया, सुना गया. लोग आदत से मजबूर हैं. मफतलाल किसी साधु के पास गया होगा पूछा "महाराज! प्रारब्ध भी कोई चीज है? "हां." "मेरा प्रारब्ध कैसा चल रहा है? आप बतलायेंगे.” विशिष्ट ज्ञानी थे. ज्ञान के प्रकाश में उसके प्रारब्ध को देखकर के कहा-“अरे मफतलाल! तेरा पुण्य इतना बलवान है, इतना प्रबल पुण्य है इस समय पर, बिना कहे, बिना मांगे, तेरे घर पर लक्ष्मी का आगमन हो जाये. ऐसा अपूर्व पुण्य है." __“महाराज! पुरुषार्थ करूँ?" पुरूषार्थ तो भाग्य का निर्माण करने वाला है, मेरा आप से यही कहना था, पुरुषार्थ को कभी गौण न करें. प्रारब्ध का जन्म ही आपके पुरुषार्थन 432 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी से होता है, कल का पुरुषार्थ वर्तमान काल का प्रारब्ध है, वर्तमान का पुरुषार्थ भविष्य के प्रारब्ध का निर्माण करने वाला है. मानव स्वयमेव ही भाग्य का निर्माण करता है. परमात्मा निर्माण नहीं करते, वह आपके द्वारा ही निर्मित होता है. ____ “उन्होंने कहा-तुम्हारा पुरुषार्थ इतना सुन्दर कि जिसको लेकर वर्तमान का सुन्दर भाग्य तुम्हें मिला है. "महाराज! मैं इसकी परीक्षा कर सकता हूँ?" "करो, कोई आपत्ति नहीं. विचार में पड़ गया कि “महाराज मेरे भाग्य में आपने क्या देखा. अगर मै बैठा रहूँ, भूखा हूँ तो खाना मिल जायेगा?" "जरूर मिलेगा." "महाराज! हाथ से उठाकर खाऊँ वह भी तो पुरुषार्थ है. क्या मेरे मुंह में डालने वाला कोई मिल जायेगा?" "वह भी मिल जायेगा. इतना जोर का तुम्हारा भाग्योदय चल रहा है." मै इसकी परीक्षा करूं. दो चार दिन बाद मफतलाल सेठ निकले गांव से बहुत दूर चले गये, जंगल में चले गये. वहां एक देवी का मन्दिर था. जहां किसी त्योहार पर लोग जाया करते थे. अपनी मान्यता लेकर, ऐसे कोई जाते नही थे. भयानक जंगल दिन में कोई जाये तो भी भय लगे. मफतलाल गया कि मो मेरे भाग की मझे मेरे भाग्य की परीक्षा करनी है. भाग्य क्या है? प्रारब्ध किसे कहा जाता है? जरा उसका आज व्यावहारिक रूप से परिचय प्राप्त कर . सुबह जाकर के उस मन्दिर में ध्यानस्थ बैठ गया. एकाग्रचित होकर के बैठ गया. कसौटी समझ कर बैठा रहूँगा. और देखता हूँ, मेरा प्रारब्ध क्या कार्य करता है? सारा दिन निकल गया, संध्या का समय हुआ, भूख लगी, हताश हो गया, निर्णय में पड़ा रहा. चौबिस घन्टे तो मुझे मेरे भाग्य की परीक्षा करनी है. बैठा रहा, शाम का समय हुआ. संयोग देखिये, वहां के राजा को पुत्र का जन्म हुआ. पुत्र के जन्म के बाद राजा की एक प्रतिज्ञा थी, मन में एक विचार था, जिस दिन मेरे घर बालक का जन्म होगा. देवी के यहां सवा मन प्रसाद मैं चढाऊंगा. यह प्रसाद अतिसुन्दर होगा और उसके बाद मैं भोजन करूंगा. सर्वप्रथम में निर्णय किया हुआ था. शाम के समय पुत्र का जन्म हुआ, अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि जाओ सवा मन मिठाई लेकर के आओ, देवी के मन्दिर में यह प्रसाद चढा करके आओ. राजा का आदेश सैनिकों ने शिरोधार्य किया. मफतलाल भखे बैठे थे. इन्तजार में थे. कोई खिलाने वाला दाता मिल जाता. परन्तु अपने विचार में दृढ थे जैसे ही वहां पर प्रसाद गया, वहां धूप दीप लेकर देवी के समक्ष अर्पण कर दिया. आदमी तो चला गया, उसे नहीं मालूम था, अन्दर कोई बैठा है. - 433 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी मफतलाल अन्दर थे, जैसे ही प्रसाद चढ़ाया और उसकी खुशबू आई, मुंह में पानी छूटा. शाम तक भूखे बैठे थे, संयोग. मन में सोचा अगर उठा कर खाता हूँ तो मेरा पुरुषार्थ हो जाता है. मैं आज भाग्य की परीक्षा के लिए आया हूँ, थोड़ा इन्तजार और करूँ. कोई खिलाने वाला आता है या नहीं. बैठा रहा माल सामने था. रात्रि के ग्यारह बजे चोर चोरी करके आये थे, काफी माल बटोर करके आये थे. दीपक का प्रकाश मन्दिर के बाहर देखा. चोरों में शंका आई. क्या पता यहां कौन है? मन जरा शंकित था. परन्तु जैसे ही मन्दिर में गये, देखा कोई नहीं. सोचा किसी भक्त ने आकर के प्रकाश किया होगा. प्रकाश में देखा कि बहुत सुन्दर प्रसाद चढ़ा है, बहुत सुन्दर मिठाई रखी थी, सवा मन प्रसाद था. राजा के यहां क्या कमी, पुत्र जन्म की खुशी में रखाया गया. मन में विचार किया ऐसे जंगल में यहां मिठाई लाने वाला कौन हो सकता है? कोई षडयन्त्र हो, यह सारा जहरीला हो. यदि हम खा लें और खत्म हो जायें और सारा माल एक व्यक्ति ले जाये ऐसा कोई षड्यन्त्र तो नही है? मन में शंका थी, शंका के निवारण के लिए तो कोई मन्त्र है नहीं. एक व्यक्ति ने वहां बात की इतनी मिठाई! आज तक इस मन्दिर में कभी कोई चीज नजर नहीं आई, आज सवा मन मिठाई यहां पड़ी है, जरूर कोई षडयन्त्र होना चाहिए. भूख बहुत लगी है, खाने की इच्छा भी है परन्तु शंका है, उसका निवारण कैसे कराना है. दूसरे ने कहा-इसमें क्या विचार करते हो. बाहर कत्ता कि बिल्ली हो तो उन्हें जरा खिलाकर देख लो रात्रि में कहां कुत्ता बिल्ली मिले. एक व्यक्ति अन्दर आया देखा कि अन्दर मफतलाल बैठा है ध्यान, में. इन्तजार में थे कोई खिलाने वाला आये तो आ गया. चोर इतने प्रसन्न हुए बाहर आकर साथियों से कहा-कहाँ जाते हो? किसी कुत्ते बिल्ली की जरूरत नहीं, एक एक व्यक्ति अन्दर आया और सब कुछ उसे खिलाने लगे. खाते-खाते हैरान. उन्होंने मुंह में डालना शुरू कर दिया. __ मफतलाल कहता है-बड़े जोर का मेरा प्रारब्ध है, मिठाई भी आ गई, खिलाने वाला भी आ गया. हाथ जोड़कर कहता हूँ, भाई, माफ करो. मेरा पेट भर गया. इससे ज्यादा मुझे मत दो. उन्होंने कहा किसी से बात मत करना, माल लाया हूँ, तुझे भी देता हूँ. मिठाई भी मिली और माल भी मिला. ज्ञानियों ने इसे प्रारब्ध कहा. प्रारब्ध का निर्माण व्यक्ति करता है. भूतकाल में जैसा कार्य आपने किया उसी कार्य के अनसार वर्तमान में प्रारब्ध का निर्माण हुआ जिसे आप भाग्य कहते हैं. पुण्य का आकर्षण ऐसा होता है कि सहज में सम्पत्ति मिल सकती है. आप प्राप्त कर लेते हैं, पुण्य बल ऐसा होना चाहिए. जो हम लोगों की सद्भावना को आकर्षित करे. 434 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी: प्रेम का आकर्षण, जो सारे जगत की, प्राणि-मात्र की सदभावना में प्राप्त करने वाला बनूं, लोगों को प्रेम और विश्वास संप्रदान करने वाला बनूं, इस तरह का हमारे जीवन में प्रयत्न होना चाहिए भूतकाल से वर्तमान काल तक का परिचय दिया. किस प्रकार अपना सुन्दर उज्ज्वल भूतकाल रहा. परमात्मा ने कितने सुन्दर विचार आप के सामने रखे. परमात्मा के विचार के मंगल प्रकाश में अपनी जीवन यात्रा आरम्भ करें तो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पायेंगे. धर्म को बदनाम करने का, अपनी आत्मा को कलंकित करने का, कभी प्रयास न करें. परमात्मा ने अभी सांप्रदायिकता का परिचय धर्म के माध्यम से नहीं दिया. “धारणात् धर्म उच्यते” धर्म उसे कहा गया जो आत्मा का रक्षण करे. आत्मा को धारण करे. वह धर्म कहलाता है. दुर्विचार से आत्मा का रक्षण करे, दुर्गति में जाते हुए आत्मा का रक्षण करे, तब वह धर्म कहलाता है, आप क्या धर्म का रक्षण करेंगे? धर्म आपका रक्षण करता है, धर्म इतना कमजोर नहीं कि आप फूंक मारे और उड़ जाय. वह शाश्वत तत्व है. वह परम तत्व है. निश्चित सत्य है. उसमे कोई असत्य नहीं. सभी आत्माओं के कल्याण के लिए है. नवकार मन्त्र का परिचय इसीलिए दिया. कोई संप्रदाय नवकार में नही मिलेगा. कोई व्यक्ति का दर्शन आपको नवकार महामन्त्र में नहीं मिलेगा. कोई प्राणिवाद, कोई भाषा वाद, जगत का कोई विवाद, आपको नवकार के दर्शन में नहीं मिलेगा. वह पूर्ण रूप से निरपेक्ष है. जिस आत्मा में ये गुण मौजूद हों, उसे मैं वन्दन करता हूँ, सीधी सी बात है. महामन्त्र की बड़ी विशेषता है, जहां साधुता का दर्शन हो, जहां चरित्र संपन्न जीवन हो, जहां जिज्ञासानुसार जीवन का आचरण हो. ऐसे साधु पुरुषों को मैं भावपूर्वक वन्दन करता हूँ. समस्त साधुओं को वन्दन करता हूँ "नमो लोए सव्व साहुण” में नही लिखा कि "नमो लोए मम साहुण" अपने साधुओं को वन्दन करूं. अन्य को नहीं. शब्द की विशालता और उदारता को देखिये. महावीर का दर्शन, जगत का सबसे बड़ा दर्शन है. इतनी उदारता परमात्मा महावीर ने दी, आज तक किसी व्यक्ति के जीवन में वैसी उदारता नजर नहीं आई. वह उदारता उनके जीवन में व्यावहारिक थी. मात्र शब्दों से नहीं, उन्होंने अपने आचरण से धर्म को प्रकट किया है. मौन की भाषा में सारे जगत को उपदेश दिया है. निशब्द की भूमिका पर उनकी साधना की भूमिका का परिचय मिलता है परमात्मा का यदि स्मरण करें तो सुगन्ध मिलेगा. मन के अन्दर एक संगीत का अनुभव प्राप्त होगा. महावीर का जीवन संपूर्ण मंगलमय, सारे जगत के कल्याण की कामना लेकर चलता था. यह नहीं कहा-मेरे मानने वालों का कल्याण हो. दुसरे दुर्गति में जायं जगत के जीव मात्र का कल्याण हो, कहने वाले महावीर परमात्मा थे. उनके दर्शन के पहले 435 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी उदारता का परिचय प्राप्त करें. उनका धर्म इतना संकीर्ण नहीं है, मुझे माने, मुझे नमस्कार करे, तभी कल्याण होगा. ___ मेरी उपेक्षा करेंगे तो आप दुर्गति में जायेंगे. यह सर्टिफिकेट हमारे यहां नहीं दिया जाता. हर व्यक्ति अपने कर्म के अधीन होता है, अपने परिणाम के अनुसार, हृदय के विचारों के अनुसार, कर्म का अनुबन्ध करता है. उसके अनुसार ही संसार की सजा प्राप्त करता है. पूण्य का इनाम मिलता है. जैसे हम कार्य करेंगे. वैसा ही फल मिलेगा. धर्म को हमने साधना बना लिया, जगत की प्राप्ति का साधन बना लिया. कहां तक अंध विश्वास में हम पड़े रहेंगे. आप महावीर के उपासक हैं, हमारी संस्कृति पुकार पुकार के कहती है-तुम भिखारी नहीं सम्राट बनने के लिए आये हो. कभी परमात्मा के पास संसार की याचना या दरिद्रता लेकर न जाओ. कभी साधु पुरुषों के पास कामना, वासना, लेकर न जाओ कि आपके आशीर्वाद से भौतिक समृद्धि आये. आशीर्वाद दो और कल्याण हो जाये तो कर्मवाद को कौन मानेगा? गुरु जनों के पास मार्ग दर्शन किया जाता है, उनका आशीर्वाद इसीलिए लिया जाता है. मेरे अन्तर में सदभाव उत्पन्न हो, मेरे विचार की शुद्धि से मेरी आत्मा को मुक्त कर दे, मेरे सारे विचार मंगलमय बन जायें. मेरा संसार स्वर्गमय बने. मेरे परिवार का प्रेम प्राणी मात्र तक व्यापक बने. प्रेम की भूमिका मुझे मिल जाये. मेरी आराधना, साधना स्व से व्यापक तक बन जाये. कोई व्यक्ति कोई प्राणी बाकी न रहे. इसी में मेरा कल्याण होने वाला है. इसे संकीर्ण न बनाये. यह कोई व्यापार का साधन नहीं. धर्म स्थान कोई विजनेस सेन्टर नहीं है कि भगवान मैं तुझे इतना देता हूँ, तू मुझे इतना दे. यह अन्ध श्रद्धा है कुछ नहीं मिलेगा. मांगना बन्द कर दीजिए. बिना मांगे मिलेगा, याचना नहीं. आप सोचकर के चलिए. बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, धर्म को इतना विकृत बना दिया जाता है, इतना सस्ता बना दिया जाता है. हनुमान जी के सामने गये, दो पेड़े चढ़ाये. हनुमान जी क्या अंगठा छाप हैं? दो पेड़े में सवालाख आपको दे देंगे, तेल का भाव भी बढ़ गया है एक छंटाक तेल दे और एक क्विंटल तेल की याचना करे. वह इतने भोले नहीं वह तो सिद्ध पुरुष हैं, जैन परम्परा में हनुमान तो मोक्ष गये. कभी ऐसा विचार न करे हमारे यहां ऐसी विचार धारा लेकर बहुत सारे व्यक्ति चलते हैं. सेठ मफतलाल दिल्ली से गये थे. यहां से जब गये तो अचानक अहमदाबाद जाने का विचार आया. लोग समझते हैं कि एक डुबकी लगायें और पाप का प्रक्षालन हो जायेगा बहुत सस्ते में अगर पुण्य मिलता है, उसे छोड़ना नहीं. मुफ्त में मिलता है तो जरूर ले जाना, इतने सस्ते में पुण्य मिलता होता, स्वर्ग मिलता होता, तब तो महावीर को राज्य छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती. नानक हरिद्वार में स्नान कर रहे थे. स्नान करते-करते एक व्यक्ति आया प्यास लगी थी, साधन था नहीं, अंजुली लेकर हाथ से पीने लगा, असुविधा हुई. नानक ने कहा "मैने लोटा मांजकर के स्वच्छ किया है इससे पानी पी लो." 436 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी = 1.0 "नहीं, नहीं, मैं अपवित्र बन जाऊँगा. तुम्हारा लोटा?" उन्होंने कहा "लोटा कोई पाप नही करता, पाप तो विचारों में है. विचारों से पाप हो सकता है. इन्सान है. लोटा तो निष्पाप है, निर्दोष है, चार पांच बार इसे मांजा है, इसे दस बार गंगा में डुबकी लगा कर शुद्ध किया, जब लोटा शुद्ध नहीं बना तो जिन्दगी भर डुबकी लगाते रहो, तुम कैसे शुद्ध बन जाओगे?" क्रियाओं के पीछे रहस्य को हम जानते नही. साधु शरणम् करने लग जाते हैं, पानी तो पी लिया लेकिन तर्पण करने लग जाते हैं, पानी आकाश की तरफ करके तर्पण की क्रिया करने लग गया. बहुत सी जड़ क्रियाओं के पीछे मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हम कभी अनुसंधान नही करते. कभी उसकी गहराई में नही जाते. शास्त्रों में शब्द के शरीर को देखा लेकिन प्राणों तक पहुंचने का प्रयास नही किया. उस कथन की आत्मा का स्पर्श ही नहीं हुआ. उसका परिणाम शब्द के शरीर को पकड़ करके चलते हैं. वही सांप्रदायिक दुर्गन्ध पैदा करते हैं क्योंकि आत्मा का स्पर्श तो हुआ नहीं. कहने का आशय क्या था? वहां तक तो हम गये नहीं. तर्पण के पीछे क्या आशय, किस प्रकार की मंगल भावना है, उसे हम जाने नहीं, गतानुगतिक पीछे से चली आई मुझे भी करना. वह तर्पण करने लग गया. नानक ने पूछा “क्या कर रहे हो?" "हमारे पितर आकाश में हैं, उन्हें प्यास लगी है, मैं उन्हें पानी देकर उनकी प्यास बुझा रहा हूँ. तृप्त कर रहा हूँ “बहुत अच्छी बात." नानक भी बड़े होशियार थे, उन्होनें गंगा के किनारे नहा करके हाथ से पानी लेकर किनारे पर डालना शुरू कर दिया. उस व्यक्ति ने पूछा “यह कौन सी क्रिया है? ये कोई तर्पण की क्रिया थोड़ी है." "यहां से तुम डालते हो तो स्वर्ग में तुम्हारे पितरों की प्यास बुझा देता है तो किनारे पर डाला गंगा जल हमारे गांव के खेतों को क्यों नही जायेगा. जब तुम्हारा पानी स्वर्ग में जा सकता है तो हमारा तो गांव सौ मील ही दूर है." यह अन्ध विश्वास है. लोग क्रियाओं के रहस्य को समझ नहीं पाते. इन क्रियाओं में भाव का सम्बन्ध है. क्रियाओं का सम्बन्ध छोटा माना गया. भावों का सम्बन्ध मुख्य माना गया. भावों की उपेक्षा करके कई बार क्रियाओं के शाब्दिक उलझन में पड़ जाते है. ___ शब्द के जंगल में अगर आप चले गये, विचारों की भीड़ में घुस गये तो आत्मा को खोजना बहुत मुश्किल होगा.. 'शब्द जालम् महास्यम् चित्तभ्रमणकारणम्' ये शंकाराचार्य का कथन. शब्द के जाल में फंस जाने वाला स्वयं को निकाल नहीं पायेगा, बहुत बड़ी उलझन है. 437 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: कुंभ के मेले पर मफत लाल स्नान करने गये. बहुत पाप किया होगा. बारह वर्ष का एक साथ स्नान करके प्रक्षालन कर लूं. पापों से मुक्त हो जाएं. अहमदाबाद से भी चन्दूलाल पहुंचे कि बड़ा सस्ता है, अगर बिना पैसे पुण्य मिलता है तो कौन छोड़े. वह भी जायेगा. मफतलाल बहत होशियार थे चन्दू लाल भी किनारे बैठे थे. चन्दू लाल शरीर के स्थूल थे, स्नान कैसे करें? उलझन में थे. लोटा लेकर के स्नान कर रहे थे. मफतलाल ने कहा ऐसे कोई कुम्भ का स्नान होता है. डुबकी लगाओ पाप धुलेगा. लोटे से पाप नहीं धुलता. दोनों मे विशेष परिचय नहीं था, सहज में कह दिया. चन्दूलाल ने कहा-"क्या करूं, मुझे तैरना नहीं आता. डुबकी लगाऊं यदि डूब जाऊं तो." ... "मैं बैठा हूँ न, चिन्ता काहे को करते हो." "तुम्हारा विश्वास क्या? तुम्हारा मेरा परिचय क्या? कोई परिचय नहीं. यह तो घाट किनारे तुमने बता दिया. यह क्या गारन्टी की डुबकी लगाऊं और तुम बचा लो. इतना बड़ा परोपकार करोगे मुझे कैसे विश्वास हो." ___ मफतलाल ने कहा "उधर देखो (उत्तर प्रदेश सरकार) का बोर्ड लगा है, उस बोर्ड को पढ़ो? व्यवस्था सरकार की. अगर कोई डूबने वाले व्यक्ति को बचाये तो पांच सौ रुपये का इनाम." मफतलाल शिकार की खोज मे थे. कोई मिल जाये. आने जाने का भाडा तो वसूल हो जायेगा. __ चन्दू लाल ने कहा---"लिखा तो है, बचाने वाले को पांच सौ का इनाम. क्या पहला प्रयोग मेरे ऊपर ही करोगे?" “यार इतनी दूर से आये, अहमदाबाद से, कम से कम पूरा स्नान करके तो जाओ. डरते काहे को हो पैसा तो लगेगा, सरकार का लगेगा. गारन्टी देता हूँ, बचा लूंगा. तुमको पुण्य लाभ करना है." जरा विश्वास पैदा हुआ. चन्दूलाल ने हिम्मत की और कूद गये. घाट के किनारे पानी गहरा था. डुबकी लगाई दो तीन डुबकी लगाई, घबराये चिल्लाये “मफतलाल! बचाओ.. "जल्दी क्या है, बहुत पाप किया होगा, और डुबकी लगाओ. दो चार में तो परलोक की यात्रा हो जायेगी," "मुझे बचाओ." "जल्दी क्या है? बचा लूंगा जरा ठहरो." "तुमको पांच सौ का इनाम मिलने वाला है, मैं साक्षी दूंगा. इसने मुझे बचाया. मेहरबानी करके मुझे निकालो. मेरा दम घुट रहा है. तैरना आता नहीं.” तीन चार डुबकी लगा दिया. मफतलाल कहता है-"तुमने एक साइड का साइन बोर्ड पढा. बैकसाइड नही पढ़ी. PRIT 438 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: उसमें क्या लिखा है? सामने लिखा है-डूबते व्यक्ति को बचाये तो पांच सौ इनाम. पीछे लिखा है-मरे मुर्दे की लाश निकाले तो एक हजार इनाम." चन्दू लाल ने कहा बरोबर फंसे. अच्छा सुधार किया. उसने कहा- “मैं पन्द्रह सौ दूंगा. गंगा की कसम मुझे बचाओ.” मफतलाल ने बचा तो लिया, पन्द्रह सौ रुपये मिले गये. 'धर्म का धर्म हो गया, काम का काम हो गया.. शद्ध भावना से अगर धर्म किया जाये, जगत की याचना भी एक प्रकार का स्वार्थ है. जब स्वार्थ की भूमिका पर आप धर्म करेंगे, वह धर्म आत्मा के लिए टोनिक कैसे बनेगा. वह पुण्य को जन्म देने वाला कैसे बनेगा. किस तरह से वह धर्म साधना मेरी आत्मा को पोषण देने वाला बने. सारे धर्मो के अन्दर उसका प्राण परोपकार की भावना है. भगवान ने यही आदर्श दिया, वह आदर्श हमारे जीवन में रहा नही. किसी धार्मिक तत्त्व का विशेष परिचय नहीं रहा. न हमने कभी आत्मा के विषय में जानने का प्रयास किया. सारा समय संसार उपार्जन में गया. स्वयं को प्राप्त करने की प्यास आज तक पैदा नहीं हुई. यही कारण है कि हम भटकते रहे. मार्ग मिला नहीं, चलने का रास्ता नहीं दिखा. साधु पुरुष इसीलिए मार्ग दर्शन देते हैं, विचार का प्रकाश देते हैं. यह मोक्ष मार्ग का रास्ता है. “सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:" जीवन में सम्यक श्रद्धा, आ जाये, अन्ध श्रद्धा के अन्धकार से आप निकल जायें, सम्पर्क प्रदान की भूमिका पर यात्रा प्रारम्भ करें. साथ में ज्ञान का प्रकाश. सम्यक ज्ञान जगत को लुटने का ज्ञान नहीं, पेट भरने का ज्ञान नहीं. सम्यक् विशेषण लगाया गया, ज्ञान पर विवेक का अनुशासन रखा गया. चोरी करने वाले चोर के पास बहुत ज्ञान होता है. एटम बम का आविष्कार करने वाले को भी ज्ञान था. एटोमिक पावर उसने तभी सारे जगत के नाश के लिए दिया. महावीर ने कहा ज्ञान नहीं, सम्यक ज्ञान, ज्ञान पर विवेक का नियन्त्रण हो, जो ज्ञान सम्यक हो, आत्मा का कल्याण करने वाला, मोक्ष मार्ग का दर्शन देने वाला हो. डा. राधा कृष्णन् जैसे व्यक्ति ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा “नो एजुकेशन बट करेक्टर इज मैन्स ग्रेटेस्ट नीड एन्ड ग्रेटेस्ट सेफगार्ड," जो चरित्र का निर्माण करे वह ज्ञान चाहिए यहां जरूरत चरित्र के निर्माण की है. “सा विद्या या विमुक्तये" संसार की वासना से जो मुक्त करे वह ज्ञान चाहिए. पेट तो कुत्ता भी भर लेता है. आप परिवार का भरण पोषण कर लें, पेट भर उसमें कोई बहादुरी नहीं, वह कोई सम्यक ज्ञान नहीं, अनेक आत्माओं के लिए कल्याणकारी बनें, मार्ग दर्शन देने वाला बनें, वह सम्यक ज्ञान है, जो जीवन में आदर्श उपस्थित करे, वही सम्यक ज्ञान. यह ज्ञान आपको कालेज न 439 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - JAB यूनिवर्सिटी में नहीं मिलेगा. यह तो स्लो पोयजन है, आपको नशा चढ़ेगा, मैं एम. एम. पी. एच. डी. हूँ. यह उपाधियों का नशा लगता है. उसमें शब्द ज्ञान मिल जायेगा. भौतिक वस्तुओं का परिचय मिल जायेगा, आपको अपनी आत्मा का परिचय नहीं मिलेगा. यह परिचय तो साधु सन्तों के पास, जिनका दीर्घ काल का चिन्तन है, मनन है, उन्हीं के पास मिलेगा. इस ज्ञान बिना कभी स्व. कल्याण नहीं होगा. स्कूलों में भले ही जाये परन्तु यदि बालकों को धार्मिक ज्ञान से वंचित रखा. आत्मिक ज्ञान नहीं दिया, आपके लिये ही समस्या होगी. आज के बच्चे, कल आपके लिए समस्या पैदा करेंगे. उनके नैतिक जीवन का अगर निर्माण नही हुआ तो वे देश को पतन की तरफ ले जायेंगे. आज के बालक ही तो कल के नेता बनेंगे. यदि उनमें आचार की सम्पन्नता नही रही, परिणाम आप जानते हैं सारे राष्ट्र में आज भ्रष्टाचार व्याप्त है. जैसे हमारे पांच महाव्रत होते हैं, जैसे साधुओं के बोधों में उसी प्रकार का रूपक पंचशील है, बराबर पंच महाव्रत का ही एक रूप है, हमारे वैदिक परम्परा मे पांच प्रकार के मात्र नियम हैं, हमारे राष्ट्रीय नेताओं के भी पंच महाकर्तव्य हैं वर्तमान में. गान्धी जी का आशीर्वाद याद है? क्या आशीर्वाद दिया था? वह सत्यनिष्ठ व्यक्ति था. आशीर्वाद फली भूत हो रहा है. उन्होंने कहा-देश आजाद होने के बाद हमारे आजाद देश में कोई नंगा भूखा नहीं रहेगा. बिल्कुल सत्य कह दिया. जरा गहराई में जाकर शब्द का आप्रदान करें तो मालूम पड़ जायेगा. शब्द क्या है? आजादी के बाद इस देश के अन्दर कोई नंगा भूखा नही रहेगा. जो नंगे हैं, बदमाश हैं वे कभी भूखे नहीं रहेंगे आबाद रहेंगे, जो सज्जन हैं, वे भूखे ही मरेंगे. गान्धी जी का यह आशीर्वाद वर्तमान में फलीभूत हो रहा है. नंगे तमाशा देखते हैं, बदमाश लोगों का यही कार्य होता है, कैसे सज्जन को कष्ट पहुंचे. हमारे पांच कर्तव्य भी वही रहे-उद्घाटन, भाषण, आश्वासन, चाटन और देशाटन. केवल पांच कर्तव्य. उद्घाटन करेंगे नौ की लकड़ी नब्बे खर्च. कितना खर्च होता है, देश की व्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचता है परन्तु वह तो वैसे ही है. उद्घाटन करना यह फैशन हो गया उदघाटन हआ. तो भाषण हो गया. भाषण है तो आश्वासन देंगे, नही तो ताली बजेगी नही. आश्वासन मिल गया अपशकुन हो गये, पूजा बहुत भेली है कि नेता जी को प्रसाद चढो. चाटन पार्टी होगी. पेपर में दूसरे दिन पढ़े-देशाटन टूर पर गये थे. चपरासी घुसने भी नहीं देगा. लिखा जायेगा जनसम्पर्क में गये थे. यह आलोचना नहीं सत्य है. गांधी जी ने जो सोचा था कि हमारे देश का राम राज्य कैसा होगा. वह सारी कल्पना आज स्वप्न बन गई. साकार नहीं हुई, अगर गांधी जी होते तो इस बात से बडा कष्ट होता. उन्हीं के अनुयायी उन्हीं को भल गये. गांधी जी की हत्या से बहुत बड़ा नुकसान हुआ. उससे भी बड़ा नुकसान उनके विचारों की हत्या से हुआ. - O 440 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यह ज्ञान आपको बाहर स्कूल या यूनिवर्सिटी में नही मिलेगा. यह तो साधु सन्तों के मार्ग दर्शन से ही प्राप्त होगा. चरित्र का निर्माण करें, वह ज्ञान चाहिए. देश से अंग्रेज चले जायें परन्तु दिलो दिमाग पर अंग्रेज रहें, ऐसा कोई उपाय शिक्षा से इन्हें जरूर दिया जाये, गुलामी के संस्कार दिया जाये. ऐसा भाषा ज्ञान सिखाया जाये कि इनमें विकृति आ जाये. उसी का यह वर्तमान परिणाम है कि हमारे यहां राष्ट्रीय भावना विकसित नहीं हो रही है, क्योंकि बचपन से ही विदेशी भाषा का संस्कार दिया गया. वहां की सभ्यता का परिचय दिया गया. अपनी संस्कृति का हमें गौरव नहीं रहा. विवेकानन्द जब अमेरिका गये, उनके शब्दों में गर्जन था, चाल में कंपन था. जब किसी व्यक्ति ने पूछा-अपनी संस्कृति की आप इतनी बड़ाई करते हैं, पांव में जूता अमेरिकन और साफा सिर पर भारतीय है. पूरे अमेरिकन हो गये. क्या एतराज है? विवेकानन्द ने जवाब दिया - "तुम किसलिए चिन्ता करते हो. यह कोई समस्या नहीं, पांव मेरे नौकर हैं यदि कोई अमेरिकन हो जाये मुझे क्या आपत्ति, मालिक भारतीय रहेगा. विचार धारा भारतीय होगी. जरा गौर करिये.. किसी अंग्रेज पादरी ने उनको घर पर बुलाया. बडा सुन्दर स्वागत किया परन्तु मन में कपट था. घर पर बुलाकर उनका सम्मान किया. विदाई का समय जब आया, पादरी ने कहा-देखिये कैसा विचित्र संयोग! टेबल पर बहुत सी पुस्तकें पडी थीं, सबसे ऊपर बाइबल था. विवेकानन्द जैसे ही वहां से जाने लगे, उसने कहा-"आपकी गीता एकदम नीचे पड़ी है और हमारी बाइबल एकदम ऊपर है." पुस्तकों के ढेर लगे थे. विवेकानन्द ने हंसते हुये कहा-"आप क्यों चिन्ता करते हैं, यह तो आनन्द का विषय है, मेरी एक प्रार्थना है आप ध्यान रखना. नीचे से आप गीता मत निकालना, नहीं तो बाइबल गिर जायेगी." जैसा प्रश्न वैसा जवाब. उस व्यक्ति के व्यंग्य का इस प्रकार जवाब दिया. अपनी भाषा का अपने को गौरव होना चाहिए. अपनी संस्कृति-संस्कार का स्वाभिमान होना चाहिए. तब जाकर के राष्ट्रीय भावना विकसित होती है. उसमें सद्भाव पैदा होता है. अनेक में भी एकता का दर्शन होता है. यही तो महावीर की "थ्योरी आफ रिलेटिविटी" है. जो "सापेक्षवाद” कहा गया. महावीर का दर्शन है. अनेकता में एकता का दर्शन और एकता में अनेकता का परिचय. यह आप को आज की शिक्षा में नहीं मिलेगा. विदेशी भाषा, वही संस्कार. एक जमाना था. डेढ सौ वर्ष अग्रेजों ने राज किया और एक भी अंग्रेज ने धोती पायजामा नहीं पहना परन्तु सारे भारत को पैन्ट सूट पहनाकर चले गये. हम बदल गये, वे नहीं बदले. सारे देश की संस्कृति को विकृत बना चले गये. वे अपने संस्कार में दृढ़ रहे. 441 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी आज यह दृढतर है, यह हमारे राष्ट्र के गौरव का विषय है. हमारे पास नहीं रहा. इसलिए राष्ट्र की यह दशा है, सरकार पाने के लिए धार्मिक संस्कार लेना जरूरी है. ज्ञान ऐसा लेना चाहिए जो विषय वासना से आपको मुक्त कर दे. आपके अन्दर की हृदय की कटुता बैर-विरोध से आपको दूर कर दे. और जगत से इस आत्मा को स्वतन्त्र करे. वह ज्ञान चाहिए. अब वह ज्ञान यहां नहीं मिलेगा. किसी यूनिवर्सिटी में उसका दुष्काल है. राजस्थान के एक स्कूल में एक रात्रि में ठहरा तो रात्रि में मास्टर जी आये. जरा परिचय भी था. उन्होंने कहा महाराज कोई असुविधा हो तो हमें कहना. बडे सज्जन व्यक्ति थे. बैठे-बैठे मैंने उनसे पूछा-“कैसा चलता है आपके स्कूल के अन्दर?" उन्होंने जबाव दिया–“सरस्वती के मन्दिर में भी अंधकार है." मैने कहा-"ज्ञान के प्रकाश में अन्धकार कैसे आया. अन्धकार के आने का साहस कैसे पैदा हुआ? प्रकाश के अभाव में अन्धकार आता है, जब वहां प्रकाश मौजूद है, वहां अंधकार कैसे आया?" "महाराज, क्या बतलाएं, यही तो सत्य है जो मैंने आपसे कहा.” ___ उन्होंने बडी सुन्दर हकीकत मुझ से कही. कुछ दिन पहले हमारे यहां इन्सपैक्टर साहब आ रहे थे, निरीक्षण के लिए हमारे यहां कागज आ गया, सूचना आ गई. हमने ऐसा सुन रखा था, जरा धुनी दिमाग के हैं, क्रेक माइन्ड आदमी हैं, स्वागत सुन्दर करना, हमारे साथियों ने यह सूचना दी. ताकि स्कूल के विषय में अभिप्राय देकर जायें. उसी हिसाब से तैयारी की. बच्चों को कहा-अच्छे कपड़े पहन कर आना. माला लेकर आना. इन्सपैक्टर साहब के नाश्ते की तैयारी भी कर ली. इन्सपैक्टर आये, बिल्कुल निश्चित तारीख पर आये, समय पर आये. जैसे ही जीप से उतरे हमारा भी परिचय नहीं था, उनके स्वागत में हम तैयार थे. माला पहनाई. खुश करके उनको लाया. कक्षा में निरीक्षण के लिये गये. एक बच्चे से पूछा-“बच्चे मेरे प्रश्न का जबाव दो.” बच्चों ने बड़ा सुन्दर जबाव दिया इन्सपैक्टर खुश हुए, हंसते हुए बाहर आये. हमने सोचा स्कूल के परिणाम सुन्दर होगे, बच्चों के जबाव से भी खुश हैं, हमारे स्वागत से भी प्रसन्न हैं, जाते-जाते कुछ वरदान देकर के जायें तो ठीक है. वहां से निकल करके नई कक्षा में गये. वहां पर एक बच्चे से इन्सपैक्टर ने प्रश्न किया. वही प्रश्न किया. संयोग, बच्चे ने खड़े होकर जब जबाव दिया, इन्सपैक्टर ने कहा "तुम तो सेवेन्थ क्लास में थे. नाइन्थ मे कैसे आये?" “वह मत पूछिये." "नहीं, नहीं, मुझे पूछना है. मैंने अभी तुमको सातवीं कक्षा में देखा. तुम नौंवी कक्षा में कैसे आ गये. मेरे प्रश्न का तुमने वहां भी जवाब दिया और यहां ही तुम ही जबाव / 442 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी दे रहे हो.” साब, मैं हूं, तो सातवीं कक्षा का विद्यार्थी, नौंवी कक्षा में मेरा मित्र पढ़ता है. उसने कहा-"यार, मुझे आज किक्रेट मैच देखने जाना है. तुम मेरी कक्षा में हाजिरी दे देना. मित्र के सहयोग के लिए मैं गया था और इतने में आपका आना हुआ और क्लास के बच्चों ने मुझे पकड़ा और कहा यार, तू नौंवी में पढ़ता है, सातवीं का जवाब दे देना. आपने आते ही प्रश्न किया और मैंने जबाव दे दिया. आपने धन्यवाद दिया. मैं अपनी नौंवी कक्षा में बैठ गया." बिल्कुल साफ कह दिया. हिचक कोई नहीं. भाषण में कोई लज्जा नहीं, बड़ा गुस्सा आया, इन्सपैक्टर को. इसने मुझे बेवकूफ बनाया है. क्लास मास्टर को बुलाया, और डांटा “तुम अन्धे हो. गलत क्लास का लड़का तुम्हारे यहां आकर के हाजिरी भरके जाता है? तुम्हारे में इतनी अक्ल नहीं?" अध्यापक ने कहा-“क्षमा करिये, हमसे गलती हुई, भूल हुई जो इस क्लास के शिक्षक हैं, वह मेरे अच्छे मित्र हैं, उन्होंने कहा-मुझे आज मैच जाना है, मेरी क्लास को तुम सम्भाल लेना. वह शिक्षक मैच में गये और मै उनकी क्लास में आ गया. इतने में ही आपका आना हुआ. मै इस क्लास का टीचर नहीं हैं, क्लास टीचर तो मैच में गये." ___“मैं तुमको नौकरी से बरखास्त करता हूँ,” कुर्सी की गर्मी बोल रही थी. उस गरीब व्यक्ति के एक सामान्य भूल की इतनी सजा. इन्सपैक्टर साहब क्लास से गुस्से में निकले जाकर बैठे जीप में, शिक्षक दौड़ता हुआ गया, पांव पकड़ा, "मुझे माफ करिये. कुछ भूल हो गई, फिर कभी जीवन में वैसी भूल नहीं होगी. गरीब हूँ बहुत बड़ा परिवार है, भूखा मर जायेगा. जरा आप ध्यान दीजिए. मैने तो सोचा था वरदान देगें लेकिन आप तो अभिशाप देकर जा रहे हैं." पांव में गिरकर शिक्षक रोने लगा. बड़ी चोट लगी. इन्सपैक्टर को थोड़ी दया आई. पास में बुलाकर शिक्षक को कहा-“मिस्टर डु नोट वरी, चिन्ता क्यों करते हो, वह असली इन्सपैक्टर भी मैच में गया, मैं भी डुपली जहां सरस्वती के मन्दिर में ये अंधेर चलता हो तो विद्यार्थी में वहां से राष्ट्रीय भावना कैसे विकसित होगी? कैसे उनका जीवन परोपकार का मन्दिर बनेगा? कैसे वे आपको अन्तिम समय समाधि देने वाले बनेंगे. आप क्या उनसे अपेक्षा रखते हैं? इसीलिए कहा. “नोट एज्युकेसन बट करेक्टर, जो चरित्र का निर्माण करे वह ज्ञान चाहिए. पेट भरने के लिए कला सीख ले या जगत को ठगने की विद्या आ जाये, उससे कोई आत्म कल्याण नहीं होगा. बच्चों को धर्म संस्कार घर पर दे. अपने घर को स्कूल जैसा बनाये, बच्चों का विचार आप स्वयं बनें. तब बच्चों के जीवन का निर्माण होगा. स्कूल के भरोसे आप न रहें. सर्वमंगल मांगलयम् सर्व कारनम्; प्रधान सर्व धर्माणाम् जैनंजयति शासनम् 443 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी मा आचार का मर्म परम कृपालु आचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी ने अनेक आत्माओं के कल्याण के लिए, अनेक आत्माओं के लक्ष्य की प्राप्ति में सहयोग की मंगल भावना से इस धर्म बिन्दु ग्रन्थ के द्वारा जीवन के आचार का अति सुन्दर प्रकार से परिचय दिया है. यह परिचय जीवन के आन्तरिक परिवर्तन के लिए अपनी खोई हुई पवित्रता को फिर से प्राप्त करने के लिए, भविष्य में उस परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दिया है. जीवन के अन्दर व्यवहार का बहुत महत्त्व है. बिना व्यवहार के जीवन चल नहीं पाता, उस व्यवहार को कैसे सुन्दर बनाया जाए, संस्कारित किया जाए, उस व्यवहार के द्वारा स्वयं की आत्मा को प्राप्त करने वाला वंश पुरुषार्थ मेरे लिए आशीर्वाद रूप बन जाए. संसार में रहकर के भी मैं अपने लक्ष्य से पतित न बनूं. मेरा दृष्टिकोण यहीं हो. जगत को देखने की एक कला मुझे मिल जाए. इस भावना से इस धर्म सूत्र का चिन्तन हम करते हैं. सर्वप्रथम जगत को देखने की मंगल दृष्टि आनी चाहिए, जगत क्या है, उसके वास्तविक पदार्थ तक हमारी दृष्टि पहुंची नहीं. एक बार यदि जगत को भले ही आप भौतिक दृष्टि से देखें. परन्तु उस दृष्टि में उसका भावी परिणाम यदि उपस्थित हो, तो वह वर्तमान दृष्टि आपके लिए आशीर्वाद रूप बन जाएगी. जो पदार्थ आप देखते हैं, दो एक भी पदार्थ इस जगत में स्थिर रहने वाले नहीं. ये जितने भी पदार्थ हैं, जहां पदार्थ हैं, उस वस्तु का नाश है. उसका नाश तो निश्चित है. उस पदार्थ में हमेशा सतत पर्याय का परिवर्तन चालू है. परमाणुओं में सतत परिवर्तन चल रहा है, हम बाल्यावस्था में से युवावस्था में आए, वृद्धावस्था में गए, कल वृद्धावस्था भी आने वाली है. अवस्थाओं का परिवर्तन उस पदार्थ के अन्दर रहे हुए पदार्थ का परिवर्तन है. जगत में कोई वस्तु शाश्वत नहीं, सिवाय आत्मा के आत्मा के गुणों के अन्दर पर्याय का परिवर्तन तो वहां भी होता है. परन्तु पदार्थ शाश्वत है, उसका कभी नाश होने वाला नहीं. __जो वस्तु कभी नष्ट होने वाली नहीं, प्रयास हमेशा उसी के लिए होना चाहिए. जो वस्तु नष्ट होने वाली है, जिसे मैं प्राप्त करूं, कल उसका वियोग दर्द पैदा करे, वस्तु का वियोग दुख का कारण बन जाए. अतध्यान का कारण बन जाए, मानसिक पीडा उत्पन्न करने वाली बने, ऐसा क्यों करना? आज जो प्राप्त किया कल उसका वियोग दर्द पैदा करेगा. परमात्मा ने कहा-प्रयास ऐसा दो, जिसमें प्राप्ति के बाद वियोग न हो. प्राप्त करने के बाद कभी वियोग न हो. 444 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी वह हृदय में कभी दर्द पैदा करने में निमित्त रूप न बनें. अन्तर-आत्मा में कभी पीड़ा उत्पन्न न करें इस प्रकार की प्राप्ति करनी है. एक बार यदि इस जीवन का लक्ष्य निश्चित हो गया, कि आत्मा को ही प्राप्त करना है. यह मुख्य विषय, संसार साइड सब्जैक्ट है. जीवन व्यवहार को चलाने के लिए अनिवार्य होना आवश्यक है. यदि यहाँ तक ही दृष्टि रहे तो ठीक है. होता है यह कि संसार को मुख्य लक्ष्य बना लेते हैं. आत्मा को गौण सब्जैक्ट बना लेते हैं. भूल वहां होती हैं हिन्दुस्तान पर एक बार यूनान के बादशाह ने अचानक आक्रमण किया. सिंध के रास्ते से वे गजरात आए. गजरात सौराष्ट्र को बहत लटा, बहत सी सम्पत्ति इकटठी करके वे जाने लगे. जाते समय वे रास्ते में भटक गए और कच्छ के रण में से निकलने के लिए वे आगे बढ़े. बहुत बड़ा रेगिस्तान है. रास्ते मे जहाँ उन्होंने अपना कैम्प लगाया, बहुत बड़ा समुदाय था बहुत विशाल संख्या में आए थे गर्मी के दिन थे माल खजाना बहत था. सैनिकों ने रसोई बनाई भोजन का समय हुआ. जब पानी की खोज की तो आस-पास कोई पानी नहीं था. सारे कैम्प में उदासीनता आ गई. हमारे पास खाने का है, परन्तु पानी हमारे पास नहीं है. अपने नेता के पास गए जो उनका ग्रुप लीडर था. कमाण्डर था, उसने कहा हमारे पास सब कुछ है, सोना चाँदी का ढेर लगा है, बड़े जेवरात भी हैं, परन्तु पानी नहीं है. बहुत विकट समस्या है. उन्हें मालूम नहीं था, पानी कहां मिलेगा? मन में चिन्ता थी अगर अचानक आक्रमण हुआ तो हम मारे जाएंगे. सारी सेना भूख प्यास से तड़पने लगी. भयंकर गर्मी. काफी संख्या में सैनिक मर गए. थोड़े से बचे. वे भी भागे. किसी से प्राण नहीं मिला, सोना चाँदी से प्राण नहीं मिला. उनके पास भौतिक सामग्री की कमी नहीं थी. फिर भी बिना पानी के प्राण चला गया. मुख्य स्थान वहां पर पानी का था, वहां पर धन दौलत की कमी नहीं थी, लडने के साधन की कमी नहीं थी, सब कुछ होते हुए भी उन्हें अपना प्राण देना पड़ा. ___उस क्षेत्र में जो मूल्य पानी का था, हमारे जीवन में वही स्थान धर्म का है. आपके पास साधन हो, बंगले गाड़ी हो, सब कुछ हो. परन्तु संसार के रेगिस्तान में आत्मा को शान्ति देने वाला धर्म आपके पास न हो तो आत्मा प्यास से तड़प कर, मर कर दुर्गति में चली जाएंगी. ___ जीवन तो बिगड़ा हम मौत को भी बिगाड़ लेंगे. सारा जीवन अशान्ति में गया, परन्तु मृत्यु के समय भी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी. सेनापति ने वहां जबावदेह व्यक्ति को कहा-इसकी सजा तुमको भी दी जाएगी. तुमको इतना भी ज्ञान नहीं था कि सेना के लिए सर्व प्रथम पानी की व्यवस्था करनी चाहिए, तुमने सब इन्तजाम किया, परन्तु पानी नहीं मिला. उसका परिणाम तमको भोगना पड़ेगा. मौत की सजा तुम्हें मिलेगी. यह 445 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी तुम्हारी भूल के कारण ये सैनिक रेगिस्तान में मारे गए. सोने से पेट नहीं भरता, प्यास नहीं बुझती, भौतिक साधनों से आत्मा को तृप्ति नहीं मिलती. प्राण नहीं मिलता. जीवन में सब कुछ करें. सारी दुनियां के मालिक बन जाएं परन्तु आत्मा की शान्ति कहां से लाएंगे? शान्ति सिवाय धर्म साधना के कहीं से नहीं मिल सकती. पैसा आपके पास है. कदाचित शरीर बीमार पड़ जाए, कोई व्याधि आ जाए, उस समय आपके पास पैसा होगा, साधन या शक्ति होगी. एक नहीं दस डाक्टर आप बुला सकते हैं. पैसे से डाक्टर मिल जाएगा, नर्सिंग होम मिल जाएगा. पैसे से आप दवा मंगवा लेंगे, दवा मिल जाएगी, सब कुछ मिल जाएगा. सेवा करने वाले नौकर मिल जाएंगे. आयु कहां से लाएंगे? जीवन कहां से लाएगे? शान्ति कहां से लाएंगे? जीवन की सारी सम्पति भी यदि आप अर्पण कर दें तो भी वह मिलने वाली चीज नहीं है. कोई डाक्टर ऐसा नहीं है जो आयु प्रदान कर सके. या मानसिक शान्ति प्रदान कर सके. आश्वासन देंगे. अन्तिम समय में वे भी इशारे से समझा देगें, परमात्मा का नाम लो. सांप कितना ही बिल के बाहर चले परन्तु जब बिल आता है तो वह भी सीधा हो जाता है. व्यक्ति के पास पैसा आ जाए, पोकेट में गर्मी आ जाए, दिमाग में तेजी आ जाए. सुख संपति का नशा चढ़ जाए, पागल बन जाए, सब कुछ हो जाए. संसार में कितना ही टेढा चले परन्त जब मौत आती है तो हर व्यक्ति सीधा हो जाता है. बड़ी भारी लाचारी आ जाती है. साधना के बिना शान्ति कहीं मिलने वाली नहीं, एकाधिकार है धर्म का. धर्म की साधना करेंगे, मृत्यु के समय शान्ति का अनुभव मिलेगा. परलोक जाने पर सद्गति मिलेगी, सुन्दर गति में जाना होगा. कम से कम वर्तमान में भाग्य को न बिगाड़े, पाप का भय अन्दर में आ जाए, तो परमेश्वर की प्राप्ति सरल बन जाए. ___जहां तक पाप का भय अन्दर तक प्रवेश नहीं करेगा, तब तक उभय की प्राप्ति नहीं होगी. परमेश्वर का प्रेम और अनुराग भी नहीं मिलेगा. गर्मी में आप जाते हो, बड़ी भयंकर गर्मी हो. ऐसी भयंकर गर्मी में यदि कोई मकान मिल जाए और आप उसमें चले जाएं तो कितनी ठण्डक मिलेगी. सुख का अनुभव करके गर्मी से बच जाएं, पाप से बच जाएं. धर्म का आश्रय लेने वाले को इसी तरह संसार के ताप से रक्षण मिलता है. हर रोज अनुभव करते हैं. रास्ते में गर्मी लगी कि छाया में खडे हो जाते हैं, शान्ति मिली, विश्रान्ति मिली, मन को तृप्ति मिली. संसार एक दावानल हैं. पूरा संसार जल रहा है, हर व्यक्ति क्रोध की आग में जल रहा है, सारा संसार ताप से भरा है. इस भयंकर ताप से रक्षण देने वाला मात्र धर्म है. एक बार यदि धर्म का शरण ग्रहण कर लिया जाए तो जैसे व्यक्ति धूप से छाया में आता है. सुख शान्ति मिलती है. उसी तरह धर्म सुख शान्ति प्रदान करने वाला बनता हत 446 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी है. चित्त को विश्राम देने वाला बनता है. ऐसी विश्रान्ति के लिए धर्म का आश्रय लेना पड़ता है. स्वयं को समझाने का प्रयास करें, बाहर की हर चीज को हम जानते हैं. बाहर की जानकारी हम रखते हैं. परन्तु जब बाहर की जानकारी प्राप्त करेंगे, वही सही तरीका होगा, वही जानकारी वास्तविक ज्ञान बनेगी. संसार की जानकारी ज्ञान नहीं अपितु अज्ञान माना गया. जहां आत्मा का अहित होता है, वह ज्ञान हमेशा अज्ञान माना गया है, वह ज्ञान आत्मा के लिए शत्रु तुल्य बन जाता है. आत्मा के गुणों का नाश करके अगर जगत की प्राप्ति करते हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है. सूत्रकार ने आन्तरिक जगत का परिचय बडे सुन्दर प्रकार से दिया है. आज तक तो बाहर के व्यवहार का परिचय दिया. परन्तु सूत्रकार ने बड़ी कुशलतापूर्ण आंतरिक हृदय का परिचय इस सूत्र द्वारा दिया. “अरिषड्वर्गत्यागेन विरुद्धार्थ पतिप्रत्येन्द्रिय जय इति।" एक छोटा सा सूत्र है और बड़ा रहस्य इसमें है. जीवन की सारी समस्या इसमें रखी गई है. इसका उपाय भी बतलाया है. सूत्रकार ने बहुत विवेकपूर्वक आपके जीवन का निदान करके, बीमारी क्या है, उसका पता लगाया, बीमारी का परिचय दिया. किस प्रकार की बीमारी है, उसका उपचार भी साथ में बतलाया. किस तरह का पथ्य पालन करना, आचार के द्वारा वह भी इसमें बतलाया है. व्यक्ति हमेशा बाह्य दृष्टि से पीडित है. हमारी अज्ञान दशा कि हम तुरन्त मान लेते हैं, यह मेरा शत्रु है. परन्तु उसने कभी अन्दर झांककर के नहीं देखा कि सब से बड़ा शत्रु तो अन्दर बैठा है. ये बाहर के शत्रु तो निमित्त मात्र हैं, निमित्त को देखकर के यदि आप कारण को भूल गये कि निमित्त का कारण कौन है? मेरे कर्म हैं. अगर मेरे अन्दर कर्म नहीं होता तो निमित्त की उपस्थिति कहां से होती? ___ कोई न कोई कार्य मैंने ऐसा किया जिससे इन निमित्तों को मैंने जन्म दिया. वही कर्म मुख्य कारण है बाहर के शत्रुओं को पैदा करने का. हमारे पास दृष्टि कैसी होनी चाहिए. सिंह दृष्टि. कैसी? कवियों ने बड़ी सुन्दर कल्पना की है. उस कल्पना में जीवन की वास्तविकता है. जीवन का सत्य छिपा हुआ है. ___आप सिंह का शिकार करने जाए. यदि सिंह की दृष्टि में आप नजर आ जाएं, आपने अगर तीर चलाया या फायरिंग की, या किसी भी प्रकार के साधन से उस पर आक्रमण किया तो सिंह की आदत है, वह तीर को नहीं पकडेगा. भाले बरछे को नहीं पकडेगा. वह सीधा आप पर आक्रमण करेगा. कारण कौन रहा है? मारने वाले व्यक्ति पर ही सिंह आक्रमण करेगा. 447 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी कुत्ते की आदत, उसकी दृष्टि अलग है. आप यदि पत्थर फेंकते हैं तो वह आपको छोड़ देगा, पत्थर को काटेगा. आप यदि लकड़ी से प्रहार करते हैं, आप पर प्रहार नहीं करेगा, लकडी को काटेगा, हमारी ऐसी आदत है. कोई व्यक्ति कर्म का निमित्त बनकर के आया, आप उससे झगड़ेंगे. तू मेरे को ऐसा कहने वाला कौन? निमित्त को ले करके श्वान दृष्टि की तरह निमित्त को ही पकडेंगे. परन्तु ज्ञानी पुरुष कारण को पकडेंगे, निमित्त को छोड़ देंगे. निमित्त का जन्म कहां से हुआ. मेरे कर्म से. अन्तर शत्रुओं से? वे अन्दर ही अटैक करेंगे. अन्तर शत्रुओं को ही खतम करने का प्रयास करेंगे. बाहर के शत्रु स्वयं ही मर जाएंगे. घर में स्वीच होता है हजारों लाइट जलते हैं, किस किस को बुझाएं. मेन स्वीच बन्द करिए सभी लाइट बुझ जाएगी. मुख्य कारण तो अपने कर्म हैं, अन्तर की वासना हैं, जिसको लेकर के बाहर से समस्या पैदा हुई. बाहर की समस्या का समाधान बाहर खोजने से नहीं मिलेगा. अन्दर की गहराई से ही मिलेगा. समस्या का समाधान हम बाहर खोजते हैं. खोजना है अन्दर. इन्होंने स्पष्ट कह दिया ये सारे शत्रु अपने अन्दर में बैठे हैं. ___ हमने बाहर से राम की रामायण पढी. परन्तु अन्दर से आत्मा की रामायण पढ़ने का कभी प्रयास ही नहीं किया. आध्यात्मिक दृष्टि से अपनी आत्मा में स्वयं राम हैं. राम शब्द की जो संस्कृत से व्याख्या की है "रमतेइति रामः" क्रीडार्थ, खेल के अर्थ में इसका परिचय दिया है. आत्म दशा में मग्न रहें, आत्म दशा में क्रीडा करें. आत्म दशा के परमानन्द का अनुभव प्राप्त करें, उस राम शब्द का अर्थ, अपनी आत्मा के वर्तन में ही रहे. आत्मा स्वयं राम है, पर्यायवाची है. आप आत्मा कहें या राम कहें, समानार्थी है. आध्यात्मिक दृष्टि से स्वयं आत्मा ही राम है. आप में रमा हुआ धर्म का प्रेम और धर्म का अनुराग वही हनुमान है. राम के प्रति हनुमान का कैसा अनुराग था. जरा गहरी दृष्टि से सोचिए, यदि ऐसा अनुराग आत्मा के प्रति आ जाए तो जीवन हनुमान जैसा बन जाए. आत्मा में रमा हुआ विवेक ही लक्ष्मण है. विवेक दृष्टि-लक्ष्मण का साथ और सहयोग मिला, तब राम को बल मिला. उनके पुरुषार्थ में एक अलग प्रकार की जागृति आई. आत्मा में रमी हुई समता, शान्ति, वही सीता है. आत्मा में रमी हुई इच्छा और तृष्णा, वहीं लंका नगरी है. अन्दर जगत की वहीं लंका नगरी है. आत्मा में रमा हुआ लोभ ही रावण है. जो आपकी आत्मा में रमी समता, शान्ति, प्रेम दृष्टि रहते हैं. उसका हरण इस रावण ने कर लिया है. आप तक उसके वियोग का दर्द हमारे अन्दर पैदा नहीं हुआ. समता तो अन्दर तक उसमें रमा रावण हरण कर चुका है. असंतोष और अशान्ति की आग में से हर रोज जल रहा हूँ. बाहर से प्राप्त करने से आत्मा को शान्ति या समाधि नहीं मिलेगी. 448 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 -गुरुवाणी जैसे लाभ होगा लोभ भी बढेगा, उसको शक्ति मिलेगी. हमने कभी यह विचार नहीं किया कि अन्तर्दशा में राम का राज्य चल रहा है या रावण का. आज तक हमारी अन्तर्दशा में लोभ का ही साम्राज्य है. जैसा मन कहता है वैसा ही मुझे करना पड़ता है. जैसे वह नचाता है, वैसे ही नाचना पड़ता है. हमारी हालत मदारी के बन्दर की तरह बहुत बुरी है, लोभ नचाता है, पाप कराता है, झूठ बुलवाता है. चोरी तो कराता है. अधर्म के रास्ते में वही ले जाता है. दुराचार के रास्ते में वही ले जाता है. पाप का जन्म स्थान लोभ में ही है. काशी से एक पंडित पढकर आ रहे थे. रास्ते में सेठ मफतलाल का घर मिला. वे प्रतीक्षा में थे, कोई महापुरुष आ जाएं. ब्राहमण पुरुष आ जाएं और उनकी उचित भक्ति करके भोजन करूँ. उनका नियम था. उसी रास्ते से पंडित जी आए. बडे शुद्ध कर्मकाण्डी पंडित थे. जब पंडित जी मिले तो मफतलाल ने कहा - "आप कहां से आए?" "काशी से आ रहा हूँ." "क्या अध्ययन किया?" “षट् दर्शन का आचार्य हूँ. वेदान्त का आचार्य हूँ." "बहुत अच्छा. मेरे घर को पावन करो." आए, बैठाए. परन्तु बडे कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे. हाथ से पकाकर के खाना उनका आचार था. दोपहर का समय था. स्नान, संध्या करके सीधा सामान निकाल करके रख दिया. "भोजन की सारी सामग्री तैयार है. परन्तु आप बहुत दूर से आए हैं. बहुत थक चुके है. आपका चेहरा आपकी थकावट बतला रही है. अगर आप कृपा करें तो मैं घरवाली से कहूं, आपकी सब रसोई तैयार कर दें." “मैं भ्रष्ट बन जाऊं? दूसरों के हाथ का आहार यदि मैं करूं. तो मैं भ्रष्ट बन जाऊँगा." _"मैंने ऐसा एक संकल्प किया है कि अगर कोई ब्राह्मण पुरुष मेरे हाथ का भोजन ग्रहण करें, कुछ सोना-मोहर उनकी दक्षिणा में दूं." पंडित जी समझ गए कि यहां कुछ मिलने वाला है. पंडित जी ने कहा "अच्छा. पहले कुछ धर्म चर्चा होने दो उसके बाद सन्ध्या काल में भोजन करेंगे. मुझे भोजन की चिन्ता नहीं पहले भजन कर लें." धर्मकथा चली. मफतलाल ने प्रश्न किया - “पंडित जी. मैंने बहुत सारे पंडितों से धर्मकथा सुनी, बहत पंडितों का मैंने परिचय किया. मुझे एक वस्तु का परिचय नहीं मिला, पाप के बाप का नाम नही मिला. ये मुझे जानना है." पंडित जी ने कहा - “यह तो किसी वेद में नहीं, पुराण में नहीं मिला. गीता में नहीं. यह तो नाम मैंने भी कभी सुना या पढा नहीं." न - 449 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - "पंडित जी आप जरा विचार करना और आपके ख्याल में आए तो बतलाना, मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, अगर यह जानकारी मिल जाये." कथा वार्ता हई. पंडित जी के भोजन की तैयारी शुरू हुई. पंडित जी को तो सोना-मोहर दिख रहे थे. "उन्होंने कहा तुम गृहस्थ हो, संसारी हो, आज तक मैंने कभी यह पाप किया नहीं, दूसरों के हाथ का भोजन नहीं किया. मैं तो स्वपाकी हूँ. एक बात का ख्याल रखना, यदि किसी कारण वश में भोजन करता हूँ तो यह बात अपने तक ही रखना." “पंडित जी उसके लिए आप निश्चित रहें, मेरा पेट बहुत बड़ा है. इस कुएं में जो बात डाल दी वह कभी निकलने वाली नहीं. सारी भोजन की सामग्री तैयार हो गई. थाली में मेवा मिष्ठान रख दिया. कहा - “पंडित जी यदि आप मेरे हाथ से भोजन करें. मैं ही आपको खिलाऊं तो मुझे बडी प्रसन्नता होगी." पंडित जी ने कहा - " क्या बात करते हो? मेरे हाथ पांव को क्या लकवा मार गया है." "नहीं-नहीं, पंडित जी, मेरे भाव इतने बढ़ रहे हैं कि ऐसे सुन्दर आचार सम्पन्न ब्राह्मण की मैं सेवा भक्ति करूं. अपने हाथ से भोजन दूं." "तुम्हारे हाथ का किया हुआ भोजन मुझे भ्रष्ट कर देगा." __ “पंडित जी उसकी चिन्ता न करें, मेरा पेट कुआं है इसमें डाल दूंगा, बात कभी बाहर भी नहीं आएगी." एकएक कदम वह अपने विचार से नीचे गिरते चले गए. नहीं खाने जैसा आहार उन्होंने ग्रहण कर लिया. अपने नियम के विरुद्ध उन्होनें कार्य किया. पंडित जी ज्ञानी होकर भी भूल गए, जिस पाप को मेरी आत्मा स्वयं देख रही हो. सन्त ज्ञानी पुरुष जिस पाप को देख रहे है. मैं किससे छिपाऊंगा. __पंडित जी भोजन करने बैठे. एक लड्डू मफतलाल ने मुंह में डाल दिया, बड़े आराम से पंडित जी ने खा लिया, सामने दक्षिणा दिख रही थी. मफतलाल ने कहा - "मैं हाथ से भोजन कराऊं, तो, इक्कावन सोने की मोहर दूंगा." प्रलोभन ऐसा था, सारा पाप गोप हो गया कौन देखता है और - हां पर मफतलाल से विश्वास भी प्राप्त कर लिया कि ये बात बाहर नहीं जायेगी. __दो - चार लड्डू मफतलाल ने खिलाए, खिलाने के बाद मफतलाल ने एक तमाचा पंडित जी के गाल पर लगाया, पंडित जी काशी से पढ़ कर के आए थे, व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था, “आत्मा का ज्ञान तो मैं आप को दे रहा हूँ, मैंने आपसे प्रश्न किया था, पाप का बाप कौन? पंडित जी समझ गए यह लोभ." पंडित जी को एक तमाचे में ब्रह्म ज्ञान हो गया. मैं आचार से भ्रष्ट बना, अपने विचारों से पतित बना. नियम के विरुद्ध मैंने कार्य किया. जो पाप किया यह मेरी आत्मा के लिए कितना खतरनाक है. आज तक हमारे हृदय में लोभ का, रावण का साम्राज्य है. सीता 450 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी का हरण हो चुका है. समता हमारे अन्दर में रही नहीं. शान्ति नाम की कोई चीज हमारी आत्मा में नहीं. कहां तक उसके वियोग में रहेंगे, वियोग का तो दर्द ही पैदा नहीं हुआ. राम के अन्दर सीता के वियोग का दर्द था, तड़प थी, धर्म युद्ध था, उसके शील के रक्षण के लिए, शील को बचाने के लिए. राम को कोई लोभ नहीं था कि रावण को मार कर लंका का मालिक बन जाऊं. वहां तो लक्ष्य था सीता के शील का रक्षण करूं. सीता के सतीत्व के रक्षण के लिए अपना प्राण दे दूं. वह धर्म युद्ध एक सती के सतीत्व के रक्षण के लिए था, दर्द ऐसा था मफतलाल ने सफलता प्राप्त कर ली. हमारे जीवन में इस प्रकार का दर्द अभी तक पैदा ही नहीं हुआ. अन्तर जगत का परिचय यहां पर दिया गया है. अपने अन्तर आत्मा के शत्रु कौन हैं? आज तक बाहर से शत्रु मानकर चले, परन्तु अपनी आत्मा को ही शत्रु मानना है कि सारे कर्म तो मेरे अन्दर विद्यमान हैं. कर्म मात्र आत्मा का शत्रु है. न करने जैसा मेरे द्वारा किया जाता है, फिर नहीं भोगने जैसा मुझे ही भोगना पड़ता है.. सजा मालिक को मिलती है. रेस कोर्स में देखा है, घोड़े दौड़ते हैं, प्राण की बाजी लगा देते हैं, दौड़ने के बाद जब फल आता है उसे कौन ले जाता है. दूसरे देखने वाले. घोड़े को क्या मिलता है. घास और चना. हमारी यह हालत, मजदूरी आत्मा करे, श्रम आत्मा करे, नरक और दुर्गति में सजा आत्मा भोगे. सारे दुख दर्द को सहन करके हमने परिश्रम से संसार उपार्जन किया. मजा मौज लेती हैं, इन्द्रियां जिनका आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं. विषयों का सेवन कर मौज मजा करें सजा आत्मा को मिलेगी मेरा क्या. . सजा भोगने के लिए कोई भी भागीदार मिलेंगे, यह तो जगत का स्वभाव है. ईनाम में सब भागीदार मिलेंगे. पुण्य के उदय काल में सारी दनिया भागीदार मिलेगी. पाप में भागीदार बनने के लिए कोई तैयार नहीं. लॉटरी निकल जाये लाखों रुपया मिल जाये, परिवार में यदि किसी को आप देना चाहें तो दस मिल जायेंगे. सरकार को देना चाहे तो सरकार भी सम्मान करेगी. कोई मना नहीं करेगा. उस पुण्य उदयकाल में सब भागीदार बन जायेंगे. यदि किसी अशुभ कर्म के कारण वर्ष दो वर्ष की सजा मिल जाये कोई भागीदार मिलेगा? यदि आप सजा रिटर्न करने जाएं, सरकार से निवेदन करें, आपको अर्पण करता हूँ, कोई लेने को तैयार है? कोई नहीं. पाप स्वयं को भोगना पडा. उसमें कोई भागीदार नहीं. इन्द्रियां मजा लूटेंगी. सजा आत्मा को भोगनी पड़ेगी. ऐसा कार्य मैं क्यों करूं, जिससे आत्मा अपराधी बने. विवेक की इसीलिए आवश्यकता है और उसे लक्षमण की उपमा दी है. आत्मा, राम है, विवेक लक्ष्मण है, धर्म का अनुराग ही हनुमान है. अन्दर की समता ही सीता है. इच्छा, तृष्णा, लंका नगरी है, लोभ रावण है. उसी के समुन्दर में हम अपना जीवन चला रहे 451 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी हैं. राग का साम्राज्य ही नहीं. कहां से आनन्द मिलेगा. आत्मा को न्याय तो मिलता ही नहीं जिसका परिणाम दुख दर्द से घिरा जीवन. रोकर के जीवन पूरा करते हैं. तडप करके मर जाते हैं उस मरने का भी मूल्य नहीं. __ मृत्यु भी ऐसी होनी चाहिए जो दूसरों को प्रेरणा दे. अनेक व्यक्तियों को आपकी मौत से भी शिक्षा मिले. ऐसी मृत्यु के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किया. सूत्रकार ने सर्व प्रथम आत्मा के शत्रु का परिचय दिया. जहां अन्तर जगत के शत्रु और मित्र दोनों का परिचय दिया गया. आत्मा के गुण ही आत्मा के मित्र है. कभी उससे अलग नहीं होते. आत्मा और आत्मा के गुण कभी अलग नहीं रहते. पानी और पानी की ठण्डक कभी अलग नहीं हो सकती. आग और आग की गर्मी को आप अलग करें तो वह अलग होने वाला नहीं. इसी तरह आत्मा के गुण दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये छः लक्षण बतलाए, इनसे आत्मा युक्त है, वे कभी उससे अलग होने वाले नहीं. हम रोज देखते है, हमारे जीवन की हर रोज की घटना है, हमें सिखाती है, हमने कभी उस तरफ ध्यान नहीं दिया. क्रोध करना, काम का सेवन करना, आत्मा के लक्षण नहीं हैं, ये वैभाविक लक्षण हैं. बाहर से आये कर्म परमाणुओं का यह कार्य है, अन्तरात्मा के गुणों में दुराचार है ही नहीं, वे सदाचार से परिपूर्ण हैं. ये तो वैभाविक लक्षण है. स्वभाव दशा का लक्षण नहीं, विभाव दशा में भटकने का लक्षण है. आत्मा जब विचारों से आत्मा के वर्तुल से बाहर चली जाये, उसके बाद ये लक्षण प्रकट होते हैं. मर्यादा का उल्लंघन और उसके ये परिणाम. गर्म पानी हो रहा था, किसी कवि ने सहज में प्रश्न किया - भाई. तुम तो ठण्डे हो, तेरा स्वभाव शीतल है, तेरे अन्दर यह उष्णता कैसे आई? गर्मी कैसे आई? बौखलाहट कहां से आई? क्योंकि उबलता है तो आवाज भी करता है. और कवि को जबाव दिया पानी ने - मेरा स्वभाव बडा शीतल है. मैं स्वयं ठण्डा हूँ परन्तु यह बीच में तपेला है इसलिए मेरे अन्दर गर्मी आई. मुझे उबलना पड़ा. मेरा धर्म नहीं. यह गर्मी मेरा स्वभाव नहीं है. ये सारी उत्तेजना ये इस तपेले के निमित्त से आई. अगर ये तपेला निकल जाये तो चूल्हे को चमत्कार दिखला दूं. एक क्षण में आग बुझा दूं. ___आत्मा स्वभाव से शान्त है, शीतल है. उत्तेजना उसका लक्षण नहीं. क्रोध, विषय आत्मा के लक्षण नहीं. परन्तु आत्मा ने कहा-मैं क्या करूं? यह मन का तपेला बीच में ऐसा बैठा है. यह निमित्त इतना खतरनाक है कि जगत की उतेजना और गर्मी मेरे अन्दर आ जाती है, सारी उष्णता मेरे अन्दर आ जाती है. मन के तपेले को आत्मा से कैसे निकालना है विचार करें. सर्व प्रथम यहां आत्मा के शत्रु का परिचय दिया. आत्मा का प्रथम शत्रु काम है. 452 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी "काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, ईर्ष्या ये छ: अन्तस्थ षटरिपु हैं. छ: का ग्रुप है. ये सब मिलकर के आज तक हमें संसार में नचाते चले आ रहे हैं. मदारी के बन्दर की तरह आज तक नाचते चले आये. इशारे पर नचाता है. दुकान में देखिए हम नाचते हैं. ___ "कर्म नचावत तिमही नाचत" जैसे ये नचाये वैसे हमें नाचना पडता है. नर्तकी की तरह नाचते हैं. दुकान में नाचते हैं, मकान में नाचते हैं जरा सी प्राप्ति हुई. नाचने वाली को इनाम दीजिए और खुश होकर के नाचती है और ज्यादा प्रसन्न होगी. मन का स्वभाव ऐसा है, नर्तकी की तरह रोज नाचते हैं. नृत्य करते हैं जरा सा संसार का इनाम मिला, दो पैसा मिला, वापिस नाचते हैं दुगुनी शक्ति के साथ. यदि आप नर्तकी शब्द को औंधा कर दें तो बडा सुन्दर चमत्कार हो जायेगा. नर्तकी शब्द है उसको औंधा करिए क्या बनता है-कीर्तन, यदि परमात्मा का गुणगान और हरि कीर्तन आ जाये, आत्मा के गुणों का कीर्तन यदि शुरू हो जो, तो चमत्कार कितना सुन्दर होगा. यह कर्म आपके सामने नाचने लगेगा. जैसा आप नचाएं, वैसे कर्म नाचेगा. नर्तकी को कभी औंधा करने का प्रयास ही नहीं किया कि कीर्तन बन जाये और जीवन की आराधना में मै स्वयं का मालिक बन जाऊं. कर्म मेरा गुलाम बन कर रहे. कर्म तो रहेगा. मुझे एक व्यक्ति ने कहा - "आप कहते हैं साधु सन्त स्वतंत्र रहते हैं. आजाद होते हैं. कर्म तो आपके ऊपर भी है. हमारे जैसे संसारियों के ऊपर भी कर्म विद्यमान है. दोनों जगह कर्म की उपस्थिति हैं, फिर आप कहते हैं हम स्वतंत्र हैं, यह स्वतन्त्रता किस प्रकार की है?" मैंने कहा - “आपकी बात सही है, कर्म अन्दर है, जहां तक संसार में हूँ, वह समअवस्था है, अपूर्ण अवस्था है, वहां तक कर्म का साम्राज्य तो अन्दर रहेगा. परन्तु प्रक्रिया में अन्तर आ जायेगा." पूछा - "कैसे. मैनें कहा - "आपने रास्ते में देखा होगा पूर्ण लस गुनहगार को पकड़कर ले जाती है. अपराधियों को हथकड़ी लगाकर ले जाती है. आप मुझे बतलाइये उस समय पुलिस कहां रहती है. पीछे नजर के सामने अपराधी होता है. हथकड़ी लगा देते हैं, पीछे पकड़कर पुलिस वाले चलते हैं. पुलिस तो है.” ___ "कभी कोई मन्त्री निकलता हो, उस समय पर भी पुलिस होती है, दोनों जगह पुलिस है, वहां पर पुलिस आगे रहती है. रक्षण के लिए पहले से व्यवस्था रहती है दोनों जगह पुलिस है, मन्त्री चले तो भी पुलिस, चोर को पकड़े वहां भी पुलिस." संसारी और साधु में इतना ही अन्तर है. संसारी आत्माओं के साथ क्यों अपराधी की तरह कार्य करता है. हथकड़ी लगा कर डोरी अपने हाथ में रखता है. यह नजर से कहीं 453 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - बाहर ना चला जाये, परन्तु साधु सन्त आजाद इसलिए है कि वहां कर्म आगे चलता है उनकी खिदमत में रहता है, उनके आदेश का पालन करता है, आंख को कहा नहीं देखना. मजाल है आंख देख ले. कानों को आदेश दिया गलत शब्द नहीं सुनना, सब दरवाजे बन्द हो जायें. जुबान को कहा तुम्हें खाना नहीं. इस का त्याग, स्वाद का पोषण नहीं करना, शरीर का पोषण करना है, जीभ चुप हो जाती है, जरा भी उपद्रव नहीं करती. परन्तु आपको रास्ते में जाते हुए मन के अनुरूप वस्तु मिल जाये, जीभ कहे मुझे खिलाओ तुरन्त खाने लग जायें. रास्ते में कहीं सिनेमा का पोस्टर नजर आया और आंख ने कहा मझे दिखाओ. तरन्त देखें किसी सन्दर महफिल में गीत सना, कान ने कहा बैठ जाओ. बैठ गये. कैसी गुलामी. साधु कभी इस गुलामी में नहीं रहते. इसीलिए कर्म हमारे सामने चलता है. साधु के आदेशानुसार कार्य करता है. मौजूद जरूर है परन्तु कार्य में अन्तर मिलेगा. अन्तरात्मा में हमारा सबसे प्रबल शत्रु अनादि अनंत काल से काम है. अनादि कालीन मैथुन संज्ञा. विषयों से भरी हुई आत्मा है. और परमात्मा ने इसका बड़ा सुन्दर उपाय बतलाया. काम को काम से जीतो. मन को कभी खाली न रखो, एकान्त कभी न दो, जिससे वह विषय चिन्तन करने लग जाये. गलत विचार आने लग जाये. कहीं न कहीं सुन्दर कार्य में, प्रवृति में मन को जोड़ कर चले. अच्छे-अच्छे व्यक्तियों को चलायमान कर दिया. विश्वामित्र जैसे ऋषि वर्षों से जंगल में तप करने वाले, कन्द मूल तो क्या, सूखे पत्ते खाकर अपना निर्वाह करते थे, वहां पर भी उनको नहीं छोड़ा, जो माल खाते हों, और ऐसी जगह पर रहते हों, वहां क्यों छोड़ेगा. मन को समझाना पडेगा विषयों को कमजोर करने के लिए. घर के अन्दर सन्त तुलसी दास राम के परम भक्त में कैसा परिवर्तन आया, एक शब्द का प्रहार उनके जीवन को परिवर्तन करने वाला बन गया. कई बार एक शब्द की चोट आप को जगा देती है. शब्द का प्रहार अन्तस् चेतना को जगाने का साधन बन जाता है. कई बार ऐसी घटनाएं देखने को मिलती है. गांव का एक सबसे बड़ा बदमाश, बड़ा उपद्रवी व्यक्ति था. पूरा गांव उससे डरता था, बडा भयंकर खूखार व्यक्ति थां एक साधु कहीं से घूमते हुए वहां आये. जैसे ही उनका आना हुआ गांव के लोगों ने शिकायत की कि ऐसा बदमाश व्यक्ति है, उसे आप समझाएं. गांव के एकान्त में जाकर वह साधु बैठ गया. कहा - मौका देखकर उसे समझाऊंगा. कुछ दिन बीते. बदमाश व्यक्ति था कहीं से चोरी करके आया. श्मशान के अन्दर ही एक देवी का मन्दिर था, वहीं उसका अड्डा था. जैसे ही वहां वह व्यक्ति पहंचा, सन्त ध्यानस्थ बैठे थे. अन्दर में पूर्ण जागृत थे. व्यक्ति आया, आने के साथ समझ गये कि वही व्यक्ति है जिसके लिए गांव वालों ने कहा था. पूरा गांव जिससे डरता है. 454 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी डाक्टर बडा दयालु होता है, मरीज कैसा भी व्यवहार करे तो भी डाक्टर सहन करके उसका उपचार करता है. बालक को इन्जेक्शन देते हैं बालक रोयेगा, मां को थप्पड लगायेगा: हर तरह से बचने की कोशिश करेगा. परन्तु डाक्टर का हृदय बडा दयालु होता है, वह बालक की चेष्टा पर ध्यान नहीं देता, वह तो इन्जेक्शन लगायेगा. साधु सन्त भी बडे दयालु होते हैं. ऐसे गलत व्यक्तियों के प्रति जरा भी ध्यान नहीं देते. वह तो बोलेगा संसारी आत्मा है, साधु एक शब्द नहीं बोला. जरा गर्म कर बोला - "तू कौन है? अपना परिचय तो दे? सन्त ने कहा - एक व्यक्ति की इन्तजार में यहां बैठा हूं. किसी की प्रतीक्षा में मैं बैठा हूँ, "किसी का इन्तजार कर रहा है यहां बैठे? कौन आएगा? अगर किसी व्यक्ति की खोज करनी है तो शहर में जाओ. गांव में जाओ, मकान का पता लेकर के उसे खोजो, तब मिलेगा, यहां थोड़ी मिलने वाला है." "अरे भाई. मैं कहां जाऊं? कहां भटकं? मैंने सोचा, यहीं बैठ जाऊं मिलेगा तो सही, आज नहीं तो कल. तुम जानते हो, यह श्मशान है. निश्चित पता है, खोया व्यक्ति यहीं आयेगा. मुझे खोजने की कोई जरूरत नहीं, बिना खोजे यहां लाया जायेगा. इसीलिए उसकी प्रतीक्षा में यहा बैठा हूँ." इस एक शब्द का असर उसके हृदय पर ऐसा कर गया, चरणों में गिर गया फिर उसे समझाया, अक्ल आ गई. एक शैतान भी सन्त बन गया. शब्द का प्रहार ऐसा होता है, आपकी सुषुप्त चेतना को जागृत कर देता है. सन्त तुलसी दास परिवार में रहते थे. एक सदगृहस्थ थे. संयोग से पत्नी का जब वियोग हुआ, वे वियोग के दर्द को सहन नहीं कर पाये. भरी नदी, बाढ़ आई हुई थी. परन्तु स्त्री के वियोग ने ऐसा दर्द पैदा किया कि रात्रि में घर से निकल गए ससुराल जाने के लिए. नदी तैर कर के पहंच गये. घर के नीचे गए, एक सर्प लटक रहा था. डोरी का, भ्रम समझकर उसका आश्रय लिया. ऐसा कर के पिछले दरवाजे से ऊपर पहुंच गए. भयंकर अंधकार से भरी रात्रि, बरसात की रात अचानक घर में इस प्रकार से आना. अपनी स्त्री को जगाया, चमक कर उठी कौन है? "-तुलसी दास." "-यहां इतनी रात्रि में कैसे आये?" "-तुम्हारा प्रेम यहां खींचकर तो आया." "-नदी में तो बाढ आई हुई है?" ." मुझे कुछ नहीं दिखा. विषय की बाढ़ में जगत नजर ही नहीं आता है." "-यहां कैसे चढ़ गये?" प्रकाश लेकर देखा तो सर्प लटक रहा है. OU 455 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Cyanmandir -गुरुवाणी ". मुझे कुछ नहीं मालूम मैं तो डोरी समझ करके चढ़ गया.” सन्त तुलसी दास की स्त्री ऐसी सती थी, एक शब्द उनको कहा और तुलसी दास सन्त बन गये. सारा विषय खत्म हो गया. रात्रि के समय सन्त तुलसी दास से उनकी पत्नी ने कहा - कि तुम मेरे वियोग का दर्द सहन नहीं कर पाये, और इस भयंकर रात्रि में नदी तैर करके, सांप पकड कर के मेरे यहां आ गए. मैं कहती साप पकड कर कमर यहा आ गए. म कहती ह जरा ध्यान देना. अस्थि चर्ममय देह यह, तासों ऐसी प्रीति।। ऐसी जो रघुनाथ में, तो न होत भव भीति।। यह उनकी पत्नी का कथन था. हाड मांस खून से भरा शरीर, मल मूत्र. यह उनकी पत्नी का कथन था. कि यह मल मूत्र से भरा, गन्दगी से भरा शरीर इस पर तुमको इतना राग है, इतना प्रेम है.. अगर यह प्रेम परमात्मा से हो जाये तो भव सागर तर जाओ. उसी समय सन्त तुलसी दास वहां से लौट गये. घर बार छोड़ दिये. वैराग्य प्राप्त कर लिया. प्रेम राम का प्रेम बन गया. एक शब्द की मार ने उसकी आत्मा को जगा दिया. कब कौन सा शब्द चोट कर जाये, अपनी आस्था को जगा दे और परमात्मा का अनुराग पैदा कर दे, इसी भावना से यहां शाब्दिक प्रहार उस आचार्य ने सूत्र के द्वारा दिया. कहा कि जगत में सबसे शत्रु आत्मा का काम है. काम के रक्षण का परम मित्र क्रोध साथ में ही रहता है. प्रति क्षण जलाता है. सारी आत्मा के वैभव, सम्पत्ति को जला कर राख कर देता है. अनादिकाल से इन शत्रुओं का इस पर अधिकार है. मकान में रहा हुआ आपके भाड़े में रहने वाले किरायेदार. अगर आप निकालने का विचार करें तो आधा जीवन चला जाता है. उसे निकालने में पोकेट खाली करना पडता है. तो भी निकले या नहीं निकले. एक सामान्य किरायेदार को निकालने में भी यह दिक्कत, जिनका अनादि काल से आत्मा पर अधिकार है, वह कैसे निकल जायेगा. कुछ उपाय किया और चला जायेगा. इस भूल में मत रहना. निकालने का सतत प्रयास करना पड़ेगा. एक भव नहीं अनेक भवों की साधना समर्पित करनी पड़ेगी. तब इस गुलामी से आप छूटेंगे. काम, क्रोध दोनों आत्मा के भयंकर शत्रु हैं. कार्य करवा देते हैं. विषय में अन्धा बना व्यक्ति कितना भयंकर अनर्थ करता है. क्रोध अपनी आत्मा का कितना बड़ा नाश कर देता है. आपको जलाकर के अन्दर से राख कर देता है. कभी हमने शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तीनों दृष्टि से नुकसान करने वाले इस क्रोध के बारे में, जिसे जहर माना गया, अमृत की तरह रोज इसका सेवन करते हैं, कभी सोचा. ___ व्यक्ति सोचता है - क्रोध से मेरा रक्षण होता है, आपके जीवन की बरबादी होती है जो ताकत प्रेम में है, जिसे रसायन माना गया. टोनिक माना गया, आत्मा को पुष्ट करने का परम साधन माना गया. हम उसकी तो उपेक्षा करते हैं, प्रेम को हम कमजोरी समझते 456 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी हैं. कमजोरी नहीं, बहुत बड़ी ताकत है उसके अन्दर क्रोध करके दूसरों पर रोब डालकर / हम उसे बहादुरी मानते हैं. यह बहादुरी नहीं वह आपकी कमजोरी के लक्षण है., वह कायरता है. महावीर ने कहा - "शत्रुओं को खत्म करने का कभी प्रयास मत करो, शत्रुता बढेगी. शत्रुता को ही खत्म कर दो सारे शत्रु मिट जायेंगे, अन्दर से शत्रुता को मिटा दीजिए. बाहर के सारे शत्रु मिट जायेंगे. यदि बाहर से शत्रुओं के नाश का उपाय किया तो शत्रुता बढेगी. वैर की परम्परा बढेगी. अन्दर से शत्रुता को ही खत्म कर दीजिए ताकि बाहर के सारे शत्रु मित्रवत् बन जायें. शत्रुओं का व्यवहार मित्रों जैसा बन जायें." तुलसी दास की भाषा में यदि कहूं : क्रोध मान मद लोभ की, जब तक मन में खान. का पडित का मूरख, दोनों एक समान. यह सन्त का कथन है, चाहे कितना ही बड़ा विद्वान हो यदि अन्दर में क्रोध, मान, मद, हर्ष, माया, इनकी खान हो जाये तो पंडित और मूर्ख दोनों एक समान माने गये हैं. मफतलाल बडा होशियार था, बड़ा चालाक था. परन्तु चालाकी कहीं न कहीं तो पकड़ी जायेगी. रेलवे एक्सीडेंट के अन्दर मफतलाल ने भी बुद्धि चलाई क्यों न मुफ्त का लाभ लिया जाये. क्लेम लिखा दिया. डाक्टर के पास गया, पैसे देकर प्रमाणपत्र लिखवा लिया . मेरा हाथ काम नहीं करता. 50 हजार का क्लेम कर दिया. इस दुर्घटना में मेरे हाथ को चोट आई. चोट के कारण हाथ से कुछ काम नहीं कर सकता. बेकार बैठा हूँ 50 हजार रुपये का क्लेम. सरकारी वकील ने सारी बात सुनी. जब काल इजलास हुआ उस समय पर वकील बडे होशियार होते है. उलट पुलट कर जब बात निकाली. कहा - “मफत लाल. यह बात मै मानता हूँ, तम्हारे हाथ पर चोट आई. हकीकत है, तुम बैडेंज बांध कर आये, डाक्टर का प्रमाणपत्र लेकर आये, सब कबूल. तुम कहते हो, हाथ से काम नहीं होता. हाथ ऊंचा नहीं होता, परन्तु एक्सीडेन्ट से पहले तुम्हारा हाथ कितना ऊंचा होता था." "इतना." पकडा गया. आप कितनी भी चालाकी करें, कितनी ही बुद्धि दौड़ाएं कहीं न कहीं तो बेस मिलेगा. लूज प्वाईट मिलेगा, व्यक्ति पकड़ा जाता है. आदत से लाचार बिना लड़े, रोटी पचती नहीं, हजम होती नहीं. रोज घर में महाभारत चलता है रोज दोनों पति पत्नी में, दोनों कोर्ट में हाजिर होते. कभी पिता, पुत्र. कभी भाई-भाई आते. जज ने पूछा - “मफत लाल यह क्या कारण है? रोज तुम्हारी हाजिरी कोर्ट में होती दि 457 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी है. इस प्रकार से शायद मंदिर भी नहीं जाते. कितनी हाजिरी इस कोर्ट में होती है?" जज ने ऐसे ही आश्चर्य से पूछा - "कभी तुम एक भी हए या रोज लड़ते रहते हो." "जीवन में एक बार हम सब परिवार के लोग एक हो गये थे." "कैसे?" "घर में आग लगी थी, रात का समय था, सब एक हो गये थे." अगर इतनी भी अक्ल अपने अन्दर आ जाये कि अन्दर क्रोध की आग लगी है, उस समय यदि अपने अन्दर एकता आ जाये. उस समय यदि संगठन की भावना आ जाये. उस समय एक होकर के सब अपना-अपना कार्य करें, नहीं तो यह क्रोध तो नाश करेगा ही. अच्छे-अच्छे महापुरुषों की साधना को जला कर राख कर डाला. क्या ताकत है कि इस आग में स्वयं का रक्षण करें. __किसी भी हालत में अपनी आत्मा का मुझे रक्षण करना है. स्वामी रामतीर्थ जी अमेरिका से लौट करके आ रहे थे. बहुत बड़े गणित के प्रोफेसर थे. संन्यास ले लिया था, बड़े मस्त व्यक्ति थे. हांग कांग के अन्दर अपने एक मित्र के घर ठहरे. आज से अस्सी वर्ष पहले. ज्यादातर मकान वहां लकड़ी के होते थे. मित्र का बंगला भी लकडी का था. रात्रि में अचानक ही पड़ोस में भयंकर आग लगी. लोग सहयोग देने गये. आग बुझाने के लिए घर के सामान को बचाने के लिए. पड़ोसियों ने मिलकर के उनका सामान बचाया. सब कुछ बचाया. किसी ने पूछा - "इस मकान का मालिक कहां है?" वह तो भूल ही गए. मालिक जल कर अन्दर राख हो गया. रामतीर्थ ने डायरी में लिखा “सामान बचा लिया गया, मालिक जलकर राख हो गया” हमारी भी ऐसी आदत. क्रोध की आग में बेचारा आत्मा राम भाई तो जलता है ओर संसार बचा लिया जाता है दुकान, मकान, परिवार, ये सब बाहर की चीजें हैं, परन्तु क्रोध की आग में अन्दर का मालिक जल रहा है, कभी ध्यान गया उधर? मकान का मालिक जल जाये और सामान बचा ले, तो सामान बचाने का मूल्य क्या? ___ आत्मा यदि क्रोध, की आग में जल कर राख बन जाये, संसार को आप बचाते रहे तो बचाने का कोई मूल्य नहीं. लक्ष्य तो आत्मा को बचाने का होना चाहिए. एक-एक शत्र आत्मा के लिए खतरनाक माना गया. काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, फिर संसार को प्राप्त करने में प्रसन्नता व हर्ष. आत्मा की प्रसन्नता अलग चीज है, उसमें विकार भरा हुआ है. प्रदूषित वायु है. उसका पान करना स्वास्थ्य के लिए घातक है. शुद्ध वायुपान जो आत्मा की प्रसन्नता कहलाती है, उसे प्रसन्नता की पुष्टि का साधन माना गया. ऐसा हर्ष भी नहीं होना चाहिए जो पाप से उपार्जित किया हो. पाप से उपार्जित की प्रसन्नता आत्मा के लिए घातक है. ये छ: आत्मा के परम शत्रु हैं, इन शत्रुओं से मुझे आत्मा का रक्षण करना है. of 458 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 -गुरुवाणी आत्मा के मित्र और शत्रु का परिचय दूं. कहां आपका वास्तविक उपचार हो सकता है. कहां से रोग को मिटाया जा सकता है, उसे बतला दूं. सारी बीमारी की दवा यहां होती है. जितने भी साधु सन्त हैं, ये चिकित्सक हैं. सबसे बडे वैद्य तो तीर्थंकर परमात्मा को माना गया. जगत के सारे रोगों की दवा वे जानते हैं और उपाय बतलाते हैं. उनके आधीन रहकर के सेवा अर्पण करने वाले डाक्टर साथ हैं. परमात्मा तीर्थंकर की ताकत सहायक है. जो जगत के सबसे बड़े सर्जन हैं. जो जगत से मुक्त कर दें, वह जानकारी परमात्मा में है. उनकी आज्ञानुसार आत्मा को नीरोग करने वाले निर्ग्रन्थ साधु हैं. हमारे डाक्टर जितने भी मिलेंगे. ग्रंथि रहित निर्ग्रन्थ साधु मिलेंगे. उनके अन्दर जरा भी भौतिक प्रलोभन नहीं. सेवा के द्वारा समर्पित आरोग्य को देने वाले साधु होते हैं. हमारी जो आध्यात्मिक चिकित्सालय है, सत्संग बाजार क्रोध कैसे शान्त किया जाये, उपाय है. कोई ऐसी बीमारी नहीं कि जिसकी दवा न हो. तीर्थंकर परमात्मा ने अपने ज्ञान से सब उपचार बतलाया. आज के डाक्टर भले ही शरीर के लिए खोज करते हों, अधूरा ज्ञान होगा. बहुत सी बीमारियों की जानकारी नहीं होगी. दवा नहीं होगी. अभी उनकी खोज चालू है. तीर्थंकर भगवान ने तो सारे रोग जान लिये. पहचान लिए. उसका उपचार बतला दिया. उसे खत्म करने का रास्ता बतला दिया. काम कैसे मरे यह बीमारी. यह बीमारी कैसे चली जाये. वायरस कैसे खत्म किया जाये. क्रोध को कैसे शान्त किया जाये: ज्वर है. क्रोध को ज्वर की उपमा दी गई है. कितना भी समझाइये ये नहीं मानेगा. आपको एक सौ चार डिग्री बुखार हो, उस समय आपका कोई मित्र डिश लेकर के आये, गुलाब जामुन, रसगुल्ला, समोसा यदि किसी डिश में ला करके दे, आपको रुचिकर लगेगा? उसकी गंध भी अप्रिय लगेगी. जबरदस्ती खिलाए तो वोमिट हो जायेगी. पित्त विकृत बन जाता है. उसको ले कर के स्वाद भी विकृत बन जायेगा. खाने की रुचि खत्म हो जायेगी. उस बुखार में कितनी ही सुन्दर भोजन की सामग्री ही लाकर के दिया जाये तो, देखना भी पसन्द नहीं. उसकी खुशबू भी पसन्द नहीं. वोमिट हो जाये. हमारी यह स्थिति है. मै रोज सुन्दर से सुन्दर आत्मा का भोजन लेकर आऊं. "ज्ञानामृतं भोजनम्"। जो आत्मा का भोजन है. डिश में सजा करके लाऊं. एक घण्टे तक पसीना उतारूं. प्रवचन दं. आपके सामने आत्मा की खुराक रखं, व्रत, नियम, सदाचार सत्य यह सब आत्मा के अति सुन्दर भोजन हैं, एक बार यदि आत्मा ग्रहण करे, तृप्त बन जाये, अति स्वादपूर्ण है. परन्तु अभी तक बुखार कम नहीं हुआ, अपना डिश प्लेट वापिस लेना पड़ता है. यह बुखार जब कम होगा तब खाने की रुचि पैदा होगी. अगर विषय का ज्वर नहीं 459 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी जायेगा, क्रोध का ज्वर जहां तक शान्त नहीं होगा, वहां तक धर्म की रुचि पैदा नहीं होगी. वहां तक इस आहार में आनन्द नहीं आयेगा. प्रसन्नता नहीं आयेगी. अभी तक तो यही निदान चल रहा है कि क्रोध के ज्वर को कैसे शान्त किया जाये. यह टैम्प्रेचर कैसे डाउन हो. यदि एक बार टैम्प्रेचर चला जाये, स्वयं आपको भूख लगेगी. उपाय बतलाएंगा, आज तो समस्या बतलाई, कल उपाय बतलाउंगा. "सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" जब तब अपने पापों के प्रति रुदन प्रकट न हो, तब तक भीतरी मलिनता का प्रक्षालन नहीं होगा और जब तक चित्त की शुद्धि नहीं हो जाती, साधना का सिद्धि असम्भव है. अतः आज यह अत्यनत उपादेय है कि परमात्मा के पथ की जिज्ञासा तीव्र बने, संसार की आसक्ति कम हो और अपने पापों के प्रति भव व रुदन हो. 460 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir n EUNA गुरुवाणी: ब्रह्मचर्य का मर्म परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरि भद्र सूरि जी ने इस धर्म बिन्दु ग्रंथ के माध्यम से आत्मा की अनन्त शक्ति का परिचय दिया. आत्मा की उन मूर्च्छित शक्तियों को जागृत करने का परम साधन इन सूत्रों के द्वारा दिया. जागृति का उपाय और परिचय इन सूत्रों द्वारा दिया. जगत का व्यवहार किस प्रकार धर्ममय बनें, आचरण और धर्म की भूमिका पर अपना जीवन किस प्रकार उपस्थित हो, उसका बड़ा सुन्दर विवेचन दिया है. जगत की उत्पत्ति का कारण, जगत की प्राप्ति का कारण, कर्म को आमन्त्रण देने का निमित्त, इस सूत्र द्वारा बतलाया है. अगर व्यक्ति में जागृति का अभाव रहा, यदि आत्मा विवेक से न्य है. तो इसका परिणाम कर्म को आमन्त्रण मिलता हैं, इसके आगमन का द्वार खुलता है. मूर्छितावस्था में कर्म का प्रवेश सरल बन जाता है. इन्होंने उस द्वार को बन्द करने का साधन एवं उपचार भी बतलाया है. आज तक हमारी बाह्य दृष्टि ही रही, जगत क्या करता है? इस चर्चा में हमने जीवन पूरा कर दिया. कभी अन्तर जगत में जाकर अपने शत्रु का परिचय किया कि मेरी आत्मा के सबसे प्रबल शत्रु कौन हैं? उसका कोई परिचय प्राप्त नहीं किया. दूसरा व्यक्ति कौन है? इस परिचय के लिए काफी समय दिया, मैं कौन हूं? यह जानने का हमारे पास अवकाश नहीं है. जीवन की यह सबसे बड़ी भूल है कि हम स्वयं को पहचान नहीं पाये. एक बार यदि हमने आत्मा के मूल स्वरूप को पहचान लिया होता तो आज यह समस्या नहीं रहती. सारी गड़बड़ी यहीं से पैदा होती है. अन्तर शत्रु छः प्रकार के बतलाये. सर्वप्रथम अनादि अनन्त कालीन जो हमारी संज्ञा है, उस संज्ञा का परिचय दिया काम के द्वारा. अरिष्ड्वर्ग व्यागेनाविरुद्धार्थ प्रतिपच्येन्द्रिय जय इति इन छ: शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का उपाय इसमें बतलाया, ये अन्तरंग शत्रु हैं. हम बाहर के शत्रुओं की चिन्ता करते हैं, बाहर के शत्रुओं से मुकाबला करने का प्रयास करते हैं. कार्य को नष्ट करने के लिए जीवन पर्यन्त हम प्रयत्न करते हैं. परन्तु कारण को यदि खत्म कर दिया जाये तो कार्य स्वयं नष्ट हो जाये. उसका कारण है स्वयं का कर्म. अन्दर से ही कर्म को खत्म कर दिया जाये तो बाहर के सारे कार्य नष्ट हो जाएंगे. ये कार्य और कारण का परिचय इस महापुरुष ने दिया. सारे जगत में क्लेश का कारण यही है. काम को अनेक अर्थ में लिया गया है. किसी भी वस्तु को प्राप्ति करने की यदि अभिलाषा हो जाये और वस्तु में यदि आसक्ति आ जाये. तो वह एक प्रकार का विषय हैं, काम के अन्तर्गत है. इन शत्रुओं का एक दूसरे के साथ बड़ा निकट का सम्बन्ध है. ये एक ही परिवार के सदस्य हैं. - जयल ADAM 461 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी माख हमेशा एक दूसरे से पूरक रहे. काम की प्राप्ति न हुई तो क्रोध उपस्थित हो जायेगा. क्रोध से काम नहीं चलता तो मद आ जायेगा. उसका साथ देने वाला. यहां तक भी काम नहीं हुआ तो आगे और मित्र हैं मान. और भी आगे बढ़कर न जाने उनके परिवार में और कितने हैं? बहुत बड़ा परिवार है. उन सब की उपस्थिति हो जायेगी. सब मिलकर के आत्मा को पराजित करने का प्रयास करेंगे. सदविचार को नष्ट कर देने का, आपकी भावना को खत्म कर देने का सदैव इनका प्रयास रहेगा. बाहर का प्रलोभन ऐसा है कि वहां अन्दर का आकर्षण लुप्त हो जाता है. क्योंकि हमारी दृष्टि बाह्य है. आज तक हम बाहर ही देखते आये हैं, बाहर से ही वस्तु प्राप्त करने का प्रयास किया है. आन्तरिक वैभव का, आन्तरिक गुणों का आज तक परिचय प्राप्त नहीं किया. कभी यह नहीं सोचा कि मैं स्वयं के लिए कछ समझ. स्वयं के लिए कछ जानने का प्रयास करू. अगर यह प्रयास किया होता तो पूर्णता निश्चित मिल जाती. एक शब्द के अन्दर परिवर्तन आ गया और तुलसी दास सन्त बन गये. उपदेश देने वाला भी कोई और नहीं उनकी धर्मपत्नी. कि तुमको मेरे प्रति जितना अनुराग है यह अनुराग यदि परमात्मा के प्रति आ जाये तो तुम धन्य बन जाओ. तुम्हारा जीवन धन्य बन जाए. इस शब्द की चोट ऐसी लगी. उसी क्षण उनके अन्दर का शैतान चला गया. और सन्त प्रकट हो गया. जहां सदाचार होगा, वहां सन्त बनना तो निश्चित है. सन्त बनने के लिए शैतान से संघर्ष करना पडेगा. ये विषय और काम, क्रोध और मान सब शैतान हैं. कभी सन्त बनने नहीं देते, अन्तर द्वार को कभी खोलने नहीं देते. कभी अन्तर दृष्टि देने का ये प्रयास नहीं करते. अंधा बना करके रखते हैं. विषय के अन्दर एक प्रकार का अन्धापन आता है. जिस अंधेरे में आप बाहर देख सकते हैं. परन्तु अन्दर दृष्टि नहीं जायेगी. जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी ह्यूमन विकनेस माना गया, व्यक्ति यहां आकर निर्बल बन जाता है, सारी साधना उसकी क्षीण हो जाती है. काम का आकर्षण ही ऐसा है. भगवान महावीर के शब्दों में कहा जाय तो साधु पुरुषों ने जो मर्यादा बनाई और उस मर्यादा में रहने का निर्देश दिया. भगवान के अनुसार चरित्र का प्राण ब्रह्मचर्य है, सदाचार. “प्राणभूतं चारित्रस्य पारमार्थिक कारणम्" आत्मा को उपार्जन करने का, सबकी प्राप्ति का, सबसे बड़ा साधन जीवन में ब्रह्मचर्य की उपासना है, काम पर विजय प्राप्त करना है. साधुता वहीं पर है. जहां चरित्र चला गया वहां सुगन्ध पैदा नहीं होगी. दुर्गन्ध पैदा होगी. दुराचार दुर्गन्ध उत्पन्न करता है. सदाचार अगरबत्ती की तरह जीवन को सुगन्धमय बनाता है. ROPIC 462 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी परमात्मा का निर्देश है : "चित्तं जिजाये, नारीवा सोल किपन" किसी भी स्त्री जाति का चित्र भी नजर आ जाए तो भी सदाचारी आत्मा दृष्टि का संयम रखता है. सूर्य के सामने यदि दृष्टि चली जाए तो कैसे झुक जाते हैं. सदाचारी आत्मा को अपने संयम के रक्षण के लिए, काम के आमन्त्रण से रक्षण के लिए, दृष्टि के संयम का निर्देश दिया. तुरन्त दृष्टि नीची होनी चाहिये. कदाचित् दृष्टि में कोई आ भी जाये तो भी विकार का प्रवेश न हो. ___मां शब्द महामन्त्र है, जैसे ही आप इस शब्द का उचारण करेंगे. विषय मूर्च्छित हो जायेगा. स्वामी राम कृष्ण सदाचारी जीवन में इतने जागृत थे कि शारदा मणि उनकी धर्म पत्नी थी. व्यवहार से. परन्तु स्वयं के अन्तर में इतने जागृत थे कि पत्नी को भी मां कह कर बुलाते. बाहर के जगत का इतना ज्ञान उन्होंने प्राप्त नहीं किया - साधना के द्वारा ही उन्होनें अन्तर जगत का ज्ञान प्राप्त किया - स्वयं को जानने का ही प्रयास किया. उन्होंने कहा - जगत से मेरा क्या मतलब? उनकी स्त्री भी आती तो भी मां कहकर ही बुलाते. इतिहास में यह घटना और कहीं नहीं मिलेगी. अपनी धर्मपत्नी के प्रति भी मां की दृष्टि, तब जाकर के वह शक्ति पैदा होती है, यह बड़ी अपूर्व शक्ति है. इस शक्ति का सर्जन ब्रह्मचर्य के साधन द्वारा प्राप्त किया जाता है. सिंह की सन्तान फिर सिंह ही पैदा करती हैं. विवेकानन्द को पैदा करने वाले संन्यास जीवन देने वाले रामकृष्ण थे. इस सदाचारी जीवन की प्राप्ति उनके आदर्श से हुई, इस बात की क्रिया द्वारा ऐसी मूर्च्छित शक्तियों को जागृति किया गया. सारी दुनिया को बतला दिया कि यह क्या शक्ति है. उनकी आवाज में बोला करती, जो ताकत थी. अमेरिका में विश्वधर्म सम्मेलन में जब वे गये, कई जगह व्याख्यान के आमन्त्रण मिले. अपूर्व शक्ति तो गुरु कृपा से मिली थी. एक व्यक्ति ने प्रश्न कियाः आध्यात्मिक शक्ति का हम परिचय देखना चाहते हैं. व्यावहारिक, सैद्धान्तिक नहीं. हांलाकि साधु सन्त कभी प्रदर्शन नहीं करते. वे तो स्व दर्शन में ही रहते हैं. साधना कोई जादू नहीं कि लोगों को दिखाकर आकर्षित करे. लोगों को आकर्षित करने की कामना भी मानसिक दुराचार है. चमत्कार का प्रलोभन देना और लोगों का पथ - भ्रष्ट कर देना. साधना का लक्षण नहीं, शैतान का लक्षण है. सारे चमत्कार यहीं रह जाते हैं. आत्मा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं. चमत्कार तो चरित्र में है. चारित्र की साधना में हैं. साधु पुरूषों का शब्द ही मन्त्र होता हैं. अन्तर से निकला शब्द ही आशीर्वाद होता है. 463 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी मा सारा जगत ही उस तरफ जाता है. साध | लूटे जाते हैं, हमारे जीवन के चौकीदार तो हैं. गृहस्थ अपनी साधना का रक्षण करता है. साधु पुरुषों का रक्षण करने वाला गृहस्थ हमारे श्रावक हैं. चौकीदार स्वयं ही लूट करने लग जाये, चोरी करने लग जाए. तो मालिक की क्या दशा होगी. जहां संयम के रक्षण की व्यवस्था थी, आपके जीवन का साधुओं को चौकीदार बनाया, यदि आप ही साधु पुरुषों से गलत काम करायें या किसी प्रकार का प्रलोभन देकर के साधु पुरुषों को पथ भ्रष्ट करें. फिर साधु अपनी साधुता का कैसे लक्ष्य प्राप्त करे. किसी भी साधु के पास जगत की कोई कामना लेकर जाता ही नहीं. मर्यादा से विरुद्ध कोई कार्य करना ही नहीं. उस व्यक्ति ने जब पूछा-मुझे सैद्धान्तिक नहीं कुछ व्यावहारिक दिखाइये, प्रत्यक्ष में दिखलाइये कि सदाचार की क्या शक्ति है. वकील खड़े होकर के प्रश्न कर रहा था. विवेकानन्द ने मानसिक विचारों को केन्द्रित किया, मन के अन्दर बड़ी शक्ति है, मानसिक परमाणुओं में यदि एकाग्रता आ जाये, साधना के द्वारा यदि उसे परिष्कृत बना लिया जाये, निर्दोष कामना उसमें आ जाये. विवेकानन्द के विचार में आया, इस आत्मा को धर्म के प्रति श्रद्धा जागृत करनी है. मात्र उसकी आत्मा को सुरक्षित रखने के लिए, श्रद्धा को स्थिर करने के लिए, उन्होंने जीवन में कई बार ऐसे प्रयोग किये. विवेकानन्द खडे थे, प्रश्न कर्ता भी खड़े थे, मन में संकल्प किया, संकल्प का बल कैसा, मानसिक परमाणु में ताकत कितनी. उसकी एकाग्रता जो आप विचार करें तो कार्य हो जाये. यह मन का चमत्कार है, मन्त्र का नहीं, मन्त्र तो मन को केन्द्रित करने का आश्रय है. विवेकानन्द ने कहा तम बैठ जाओ वह नहीं बैठ सका. बहत कोशिश की बैठने नहीं पाया. उन्होंने कहा - आप बैठ जाइये, नहीं बैठ सका. उन्होंने कहा-आप कोशिश करते हैं फिर भी आप बैठ नहीं सकते, यह आध्यात्मिक शक्ति है. यह ब्रह्मचर्य का चमत्कार है. शब्द के परमाणु का आकर्षण है. मैंने मन में संकल्प किया कि आप बैठ नहीं सकते, खड़े ही रहोगे. यह मन के संकल्प की चीज है, कोई जादू नहीं. यह ब्रह्मचर्य की शक्ति है. मेरे शब्दों में वह ताकत है कि आप को चाहूं तो बैठा सकता हूं. चाहूं तो खड़ाकर सकता हूं. उस व्यक्ति ने कान पकड़कर क्षमा याचना की. एक सामान्य मानव में भी यदि इन शक्तियों का विकास हो जाये. इन शक्तियों को यदि सुरक्षित रखा जाये तो यह चीज तो बड़ी स्वाभाविक है, बड़ी सहज है. हालाकि इन चीजों से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं, यह तो मात्र उनका प्रयास था. इस आत्मा के अन्दर धर्म की आस्था स्थिर बन जाये. कभी शका का जहर इसमें न आ जाये. चरित्र में यह ताकत है इसीलिए कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि ने कहा . “प्राणभूतं रियस्स्य, प्रभुमणेक कारणम्" 464 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: E चारित्र का प्राण माना गया वह ब्रह्मचर्य चला गया तो सब चला गया. हेल्थ इस लोस्ट नथिंग इज लास्ट वेल्थ इज लोस्ट समथिंग इज लोस्ट बट करेक्टर इज लोस्ट एवरीथिंग इज लोस्ट. शरीर चला गया, कुछ नहीं गया. खा पीकर फिर से शक्ति प्राप्त कर लेंगे. कोई चिन्ता नहीं, वैल्थ इज लोस्ट कदाचित् पैसा चला गया. कर्म की चीज है फिर से प्रयास करेंगे, नुकसान जरूर हुआ. भरण पोषण की चिन्ता रहेगी. परन्तु फिर भी प्रयत्न करके प्राप्त कर लेंगे. यदि आप ने चरित्र गंदा कर दिया तो जीवन का सब कुछ गया. आप मुर्दा हैं. आपके अन्दर प्राण ही नहीं है. ___आयुष्य कर्म के परमाणुओं को भोगने के लिए ही आप जीवित हैं. इसके सिवाय वहां कुछ नहीं है. मरे शब्द होगें. उसमें कोई प्राण तत्व नहीं होगा. जीवन निष्क्रिय बन जायेगा बहुत जल्दी संसार से परलोक की यात्रा हो जायेगी. हमारे यहां उन महान पुरुषों ने जीवन के साथ इसके रक्षण के लिए मर्यादायें बतलाई सूर्यास्त के बाद हमारे यहां कोई नहीं आ सकता. चाहे सगी मां ही क्यों न हो. मर्यादा है, बड़े अगर गलती करेंगे तो छोटे तुरन्त उसका अनुकरण करेंगे. रात्रि में साथी को अपने धर्मस्थान के बाहर जाने का निषेध किया. क्योंकि संध्या का समय है. साधु धर्म क्रिया करे, उपासना करे. भटकने के लिए साधना नहीं है, मर्यादाएं ब्रह्मचर्य के रक्षण के लिए हैं. शाम के समय सभी घमने जाते हैं कैसी देशभाषा होती है मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं. वर्तमान में बहुत सोच समझकर के सदाचारी आत्माओं के रक्षण के लिए व्यवस्था हो गई. कभी ऐसा प्रसंग आ जाये, भगवान महावीर की यह वाणी है, कहां तक निर्देश दिया गया. जहां ब्रह्मचर्य होगा, वहां पर चित की समाधि बिना बुलाये आ जायेगी. अति परिचय पतन का द्वार बनता है. गर्मी के पास आप घी रखेंगे निश्चित पिघलेगा. कोई बहाना नहीं चलता. मन है कोई ऐसा एक सा जागृत में नहीं जो मन को देख सके. किस मन में कब पाप प्रवेश कर जाये. भद्र बाहु स्वामी जैसे श्रुत केवली सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के धर्म गुरु महान शक्तिशाली आचार्य पूर्व धर थे. ऐसे महान आचार्य ने आगामी साधुओं को स्पष्ट निर्देश दिया. शिष्य ने प्रश्न किया - "भगवन्, संसार बडा विचित्र है. कोई ऐसा संयोग आ जाये भोग के लिए यदि कोई कामना करे, प्रार्थना करे किसी गृहस्थ के यहां साथ भिक्षा के लिए गया हो. एकान्त स्थान हो, गलत निमित्त बन जाये. जवान साधु हो, ऐसे में कोई काम की प्रार्थना लेकर आ जाये. वहां से बचने का कोई उपाय न हो तो क्या किया जाये?" ____ इसलिए साधुओं को विशेष निर्देश दिया गया कि भिक्षा के समय आहार के समय उस समय जब गृहस्थ आहार लेते हों, पूरा परिवार घर में हो, उसी समय भिक्षा के लिए 465 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir -गुरुवाणी जाये, अन्य समय नहीं जाये क्योंकि घर में एकान्त मिलेगा, पुरुष नहीं मिलेंगे वह परिचय भविष्य में पतन उत्पन्न करेगा. आचार्यों ने विचार करके निर्देश मर्यादायें बतलाईं, भले ही वह दो बजे आहार करते हैं, परन्तु भिक्षा ग्यारह बजे लेकर आएं ताकि घर में एकान्त वातावरण नहीं मिले. साथ ही हमेशा सुरक्षित रहे. ऐसा समय ऐसी परिस्थिति में क्या करना? उपाय बतलाया. शिष्य ने प्रश्न किया. उन्होंने कहा - झूठ बोल कर भी ब्रह्मचर्य का रक्षण करो. असत्य जहर है परन्तु उस को दवा बनाता है. संखिया जैसा जहर भी बीमार को दिया जाता है. रसायन के रूप में दिया जाता है. दमा की व्याधि में पिलाया जाता है. जब जहर भी अमृत बन जाये. असत्य के द्वारा भी अपने ब्रह्मचर्य का रक्षण करे. झूठ बोले, साधु होकर के भी झूठ बोले. क्योंकि उससे भी महान तप का रक्षण करना है, असत्य का आश्रय किस प्रकार ले कि मैं अभी भिक्षा के लिए आया हूं. अभी तुरन्त धर्म स्थान जाता हूं. बाद में अनुकूल समय पर आ जाऊंगा आश्वासन दे. अपने चरित्र को बचाने के लिए स्थान छोड़ दे. गांव छोड दें. ताकि कभी ऐसा अशुभ निमित्त न मिले. दृष्टि में भी न आए और विचार में भी न आये. परन्तु आगे चलकर शिष्य ने फिर एक प्रश्न पूछा - “भगवन्! यदि झूठ बोलने से भी काम न चले तो. व्यक्ति विषय में अन्धा होता है. विषय का गुलाम होता है. ऐसी परिस्थिति आ जाये, और साधु के मन में यदि चंचलता, व्यग्रता आ जाये. काम की मनोवृति यदि प्रवेश कर जाये तो क्या किया जाये. इसे खोकर के चरित्र का, साधुत्व का, रक्षण करना, या इसे नष्ट होने के बाद प्रायश्चित्त के बाद आत्म शुद्धि करना. क्या उपाय है?" इतने महान आचार्य श्रुतकेवली, भद्रबाहु स्वामी जैनों के चारों ही संप्रदाय जिनको मानते हैं. जाति से ब्रह्मण थे. मन्त्र शास्त्र और ज्योतिष विषय के अपूर्व ज्ञाता थे. वराहमिहिर के सगे भाई थे. वराहमिहिर ज्योतिष के महान ज्ञाता वराह ज्योतिष के रचियता. वैष्णव परम्परा में महा पण्डित हुए. उन्होंने कई स्तोत्रों की रचना की. श्रुति का उद्धार करने वाले. ऐसे महान विभूति ने क्या निर्देश दिया? कल्पना करिये, साधु प्रश्न करता, “भगवन ऐसे समय में क्या किया जाये. साधता को बचा लेना एक बार यदि किसी पाप का सेवन हो जाये तो कदाचित् अतिपात द्वारा उसकी शुद्धि कर लेनी चाहिए.” भद्रबाहू स्वामी ने स्पष्ट निर्देश दे दियाः “श्रेयस्ते मरणम् भवेत्” शिष्य से कहा - ब्रह्मचर्य को नष्ट करने से मरना ही आशीर्वाद है, वही तुम्हारे चरित्र का रक्षण करने वाला है, वही मृत्यु से तुम्हें बचाएगा. कैसे उपाय हैं. वहां कोई मरने का साधन तो साथ-साथ लेकर जाता नहीं, जहर तो होता नहीं भगवन् किया क्या जाये. उपाय बतलाओ. 466 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: भिक्षा के लिए साधु जाते हैं. कापट मात्र होता है, डोरी लगी रहती है. उस डोरी लगाने का आशय समझ गये? साधु बिना पात्र के बाहर जाते ही नहीं. गृहस्थ के यहां जाये तो निर्देश है उपकरणों के साथ, पात्र के साथ. बिना पात्र के गृहस्थ के घर न जाएं. कब न जाने क्या काम आ जाये. उपकरण भी बहुत समझ कर रखे. ज्यादा ले जाये तो डण्डा, पात्र, रजोहरण साथ चाहिये. लोग कई बार पूछते हैं. महाराज डण्डा का क्या काम है? भगवान की आज्ञा है, संयम साधना का एक परम साधन है, कई कारणों से इस को रखा गया. साधनों का उपयोग यदि आप गलत करते हैं. यह आपके विवेक पर निर्भर है. पैसा आपके पास है, आप शराब पीजिये या दूध पीजिये. हाथ लूटता नही है, हाथ बचाता भी है. चाकू तो डाक्टर भी चलाता है. चाकू डाकू भी चलाता है. डण्डा इसीलिए रखा जाता है, साधु विहार करते हैं. पद यात्रा करते हैं. अचानक कहीं पानी आ गया. नदी आ गई, नदी पार करने के लिए. आत्म विराधना देखते न हो जाये. दुर्घटना का कारण न बन जाये. पहले डण्डा रखकर उससे पानी देखते फिर नदी पार करें. एक तो यह कार्य है. चढ़ाइयां आती हैं. पहाड़ आते हैं. कई जगह पर. कोई साधु बीमार है, वृद्ध है, चलना है, उनकी चढ़ाई में यह डण्डा आश्रय देता है.... ___संयम साधना का यह परम मित्र है, चढाई में मदद करेगा. उतरने में मदद करेगा. अचानक कोई बीमार पड़ गया तो चलने में सहारा देगा. बहुत तरह से संयम साधना में उपयोगी माना गया है. अचानक किसी साधु की रास्ते में दुर्घटना हुई, तो साथ के साथ चार पांच होते हैं, दो डण्डे लिए, हमारे पास कामली तैयार रहती है. उससे बांधा और डण्डा उठा लिया. __ विहार करते हैं, रास्ता भूल गये, भटक गये, जंगल में चले गये. कोई उपाय नहीं मिला तीन डण्डा मिलाया कामली ऊपर लगाई, तम्बू बन गया ठहर गये. बहुत उपयोगी है इसलिए रखना आवश्यक माना गया हैं प्रभु की आज्ञा है. मिलिटरी को निर्देश दिया जाता है, युद्ध हो न हो पर यूनिफार्म जरूरी है. प्रभु की आज्ञा है, हमारे पास सर्वोपरि वही है. उसका उपयोग करना पड़े, न करना पड़े, वह अलग चीज है. प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य करना. एक - एक चीज हमारे लिए उपयोगी रखी गई है. तरपनी रखी जाती है, जिसे लोटा कहते हैं. कोई भी तरल पदार्थ पानी दूध जो भी लेना हो उसी में लेते हैं. ताकि वह गिरे नहीं, छलके नहीं. इस दृष्टि से उसमें डोरी लगी होती है. उसे हाथ में लिया जाता है. भद्र बाह स्वामी ने आदेश दिया. अपने साधुओं को कि भविष्य में इस काल को देखते हुए, यह चीज अनिवार्य है. गृहस्थ के घर जाये तो पात्र लेकर के जाये, बिना पात्र गृहस्थ 467 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी के घर न जाये. बिना पात्र का साधु कुपात्र होता है. शोभा नहीं देता है, अगर कोई उपाय न मिले झूठ का सही रास्ता ले. तब क्या करना, तरपनी में से डोरी निकालकर परमात्मा का नाम लेकर आत्मघात कर लेना. संयम का रक्षण अवश्य करना. प्राण का मूल्य चुका करके संयम का रक्षण करना. यह हमारे आचार्य का निर्देश है, प्राण दे देना. बह्मचर्य से भ्रष्ट कभी भी नहीं होना. “श्रेयस्ते मरणम भवेत्" दशवैकालिक सूत्र में प्रायश्चित हैं. आप विचार करते इसका कितना महत्व होगा. साधु से हिंसा हो जाये, उसके लिए उपचार है. प्रायश्चित्त है कदाचित् प्रमाद से झूठ बोल गया. उसके लिए उपचार है, प्रायश्चित से शुद्धि हो जाये, कदाचित साधु ने बिना बोले कोई चीज उठा ली, चोरी हो गई तो भी उसके लिए प्रायश्चित है. सभी चीजों के लिए प्रायश्चित रखा. कदाचित् ऐसा हो तो ऐसा कर लो। __ लेकिन ब्रह्मचर्य के लिए कोई उपाय नहीं, सिवाय मौत के इसकी कोई दवा उपचार नहीं. आप समझ लेना. कि व्रत कितना मूल्यवान है. सारे व्रतों में इसे सम्राट् माना गया. इसे राजा की उपमा दी गई सब इसकी प्रजा हैं. डाक्टर के पास आप इलाज के लिए जायें, शरीर में कोई व्याधि हो. डाक्टर चिन्ता नहीं करता जरा दवा लें. बाहर से उसको कोई खतरा नजर नहीं आता है. डाक्टर निश्चित रहता है. उपचार से ये चीजें मिट जायेंगी. बाहर से कोई खतरा नजर नहीं आये, शरीर में कोई दर्द नजर न आये, डाक्टर के पास गये, एक्सरे लिया, डाक्टर का चेहरा उतर जायेगा, यह बड़ा खतरनाक रोग है. बाहर से कोई चीज नजर नहीं आती. उसका एक्सरे बोल रहा है कि हार्ट डेमेज है. शरीर के अन्दर जो स्थान हृदय का है हमारे जीवन में वही स्थान ब्रह्मचर्य का है अगर दसरे दषण हैं, वे सब सामान्य रोग हैं. कदाचित गुस्सा आ जाये. लोभ आ जाये, वस्तुओं के संग्रह करने की भावना आ जाये. और कोई उत्तम गुणों में दोष आ जाये. वे सब गौण हैं, सामान्य रोग हैं. सब चले जायेंगे, आगम-स्वारध्याय से, संत संगत से.. यह ऐसा दोष है, जैसे हार्ट अटैक आने के बाद डाक्टर कह दे कि अब कोई संभावना नहीं. इसीलिए प्रथम शत्रु सूत्रकार ने काम को बतलाया. आत्मा के छ: शत्रुओं का परिचय चल रहा है. यह दिखता नहीं. इसकी कोई वेश भूषा नहीं होती. क्रोध तो दिख जाता है. वह प्रकट शत्रु है. आपके चेहरे से हाव - भाव से. वह शत्रु तो प्रकट है. मालूम पड़ जायेगा. दूसरा व्यक्ति सावधान हो जायेगा. ___मन में छिपे काम की दूषित प्रकृति को नहीं पकड़ सकता कि मन में क्या पाप छिपा है, यह छिपा हुआ शत्रु है. छिपा हुआ शत्रु खतरनाक होता है. मेरे अन्दर अगर क्रोध आ गया तो आप मेरे से दूर रहेंगे, परन्तु वह तो ऐसा भयंकर शत्रु है. कपड़ा बदल कर आता 468 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir -गुरुवाणी है. अलग-अलग प्रपंच करके आता हैं. मन में छिप जाता है. घर का शत्रु हैं. घर के चिराग से ही घर में आग लग जाती है. प्रमादी साधु का जीवन जलकर के राख बन जाता है. नेमिनाथ भगवान के जीवन में राजमती जैसी सती, जिस समय पर निसार में साध्वी महाराज के पास दीक्षा लेने जा रही थी, नेमिनाथ भगवान मेरे सर्वस्व हैं. अगर उन्होंने यहां मेरा हाथ नहीं पकड़ा? मेरे मस्तक पर उनका हाथ पड़ेगा. तीर्थंकर परमात्मा थे पूर्ण निर्विकार आत्मा थी. पूर्ण वीतरागी आत्मा थी. जो कार्य नेमिनाथ ने किया, वही कार्य उन्होंने किया. सच्चा वास्तविक आत्मा का प्रेम तो इसे कहा जाता है. संन्यास ले लिया, दीक्षा लेकर साध्वी बन गई. सती शिरोमणि की नेमिनाथ भगवान के हाथ से दीक्षा हई. आशीर्वाद देकर उन्हें चरित्र दिया. अचानक रास्ते में गुफा के अन्दर. बरसात का समय था. बरसात पड़ रही थी. शरीर का कपड़ा भींग गया. तो पतन की दृष्टि से एकान्त देखकर के पहाड़ के अन्दर गई और वस्त्र को सुखा दिया. संयोग से ही रथनेमी पहले से ही अन्दर मौजूद थे. नेमिनाथ भगवान के छोटे भाई वे भी चरित्र लिए थे. बड़े भाई थे. संयम लेकर अपनी साधना में निमग्न थे. कोई ऐसी साधना नहीं थी. परन्तु अचानक राजमती अन्दर आई, प्रकाश में से अन्दर मालूम नहीं पड़ा कि कोई है. वस्त्र लेकर के सुखा दिया. अति सुन्दर, अति रूपवान जैसे ही रथनेमी की दृष्टि गई, विकार का प्रवेश हुआ. यह काम शत्रु तीर्थंकर जैसे महान खानदान में भी घुस गया. मन में विकार भावना आई. राजमती को कुछ मालूम नहीं. जब विकार भावप्रकट हुआ, भोग की भावना से प्रार्थना की. रथनेमि ने कहा-तुम तप करके क्या शरीर सुखा रही हो. यह सुन्दर शरीर तो उपभोग के लिए है. इसका उपभोग करें. जैसे ही उसने शब्द सुना एकदम चमक गई. वस्त्र को लेकर अपने शरीर को छुपा लिया. ___कहा - “रथनेमि! किस कुल में तुम जन्मे हो, नेमिनाथ के तुम भाई हो, ऐसे उत्तम कुल में जन्म लेकर के ऐसी प्रार्थना. ऐसी प्रार्थना तो नीच व्यक्ति भी नहीं करते. इससे तो तुम्हारा मरना ही श्रेष्ठ होगा. उत्तम कुल के सर्प भी विषवमन करके वापिस कभी पीते नहीं. जिस नेमिनाथ भगवन्त ने मुझे वोमिट कर दिया. तुम उसे चाटने आये हो. धिक्कार है. तुम्हें और तुम्हारे जीवन को. तुम मर जाओ." ___शब्द आया, मन्त्र का काम कर गया. रथनेमि लज्जा से झुक गये. घोर पश्चात्ताप हुआ. परमात्मा के पास जाकर के इसकी आलोचना की, आत्माशुद्धि की. इतने महान पुरुषों को भी ललचाये, मान कर जाये. वहां तक भी पहुच जाये और आमन्त्रण करे. फिर हमारे जैसी आत्माओं की क्या स्थिति होगी. आप सोच लीजिये. Oila 469 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - - जहां रोज ऐसे अशुभ निमित्त मिलते हों. बाहर जाइये ऐसे निमित मिलेंगे. घर में ऐसे निमित्त मिलेंगे. परिवार में रहना पड़ेगा. संसार में रहना पड़ेगा. आपने अपने बचाव का कोई उपाय किया. कैसे अशुभ भयंकर निमित्त मिलते हैं. उसमें अपना रक्षण करना. स्टीम इंजिन के अन्दर आपने देखा होगा. अगर वायलर में लीकेज हो जाये तो गाड़ी नहीं चलेगी. गाड़ी वहीं से चलती है, पूरे इंजन में शक्ति देने वाला उसका वायलर है. जो स्थान इंजन में वायलर का है, वही स्थान हमारे जीवन में ब्रह्मचर्य का है. वही पावन है जो मोक्ष मार्ग में आपकी चेतना को गति देता है. यदि वहां लीकेज रहा जरा भी आपका विकास नहीं होगा. जहां संसार में पले हैं वहीं पर रहिये. एकदम स्पष्ट निर्देश है भोग के अन्दर योग का प्रवेश होना चाहिये. अगर योग दृष्टि आ जाये. आत्मा का लक्ष्य आ जाये तो व्यक्ति भयंकर पाप से अपनी आत्मा का बचाव कर लेगा. सदाचारी आत्मा अपने जीवन में सन्तोष मान कर के चले. पूर्ण रूप से इस व्रत को पूर्ण करने की मनोकामना लेकर के चले. जिस समय सीता का हरण हो गया. राम को विह्वल देख करके हनुमान के मन को बड़ा कष्ट हुआ. हनुमान तो ब्रह्मचारी पुरुष थे. उन्होंने निर्णय किया कि राम मेरे रहते आप चिन्ता करो नहीं. मैं जहां तक जीवित हूं. वहां तक आपकी आत्मा को कष्ट पैदा हो जाये, यह मेरे लिये बड़ी लज्जा की बात हैं. आप निश्चित रहो. मां को लेकर में अभी आता हूं. सीता को लेकर के आता हूं. अपनी योग शक्ति के द्वारा समुद्र पार करके लंका में गये. हनुमान की नम्रता देखिये. सीता एकदम देख करके विचार में पड़ गई, कहो हनुमान! तुम यहां कैसे आये? इतना विशाल समुद्र कैसे पार करके आये? राम की कपा से शब्द में कैसी नम्रता, यह नहीं कि अपनी शक्ति से. "यहां कैसे आये?" "मां तुम्हें लेने के लिए आया हूं. राम का जो कष्ट है, वह चला जाये. किसी तरह से मेरा सहयोग इसे दूर करने वाला बने. आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये. मैं एक क्षण में आपको पहुंचाऊंगा.” सीता ने जवाब दिया - “हनुमान, तुम्हारा कहना ठीक है. तुम्हारी शक्ति के लिए धन्यवाद् परन्तु तुम मुझे जानते हो. किसी भी पर पुरुष का जरा भी स्पर्श मैं कभी करती नहीं. इस प्रकार मेरा जाना संभव नहीं. राम का ही हाथ पकडूंगी. दूसरे किसी पर पुरुष का स्पर्श भी मैं नहीं करूगी." उसके सतीत्व को लाखों वर्षों से दुनियां याद करती है. मुफ्त में याद नहीं करती. राम को याद करती है. राम से पहले सीता को लेकर राम का महत्व है. कैसी पवित्रता उनके आचार में होगी. ये जैन रामायण की घटना है. कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सरि ने लिखा है. 470 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: जहां जिस आर्य भूमि में ऐसे संस्कार थे: जिस आर्य भूमि में ऐसी मातायें थी. ऐसी मर्यादायें थी, आज तो मर्यादायें रही कहां. यह बहुत विचारणीय है. शहरों में जहां प्रतिक्षण अशुभ निमित्त मिलते हैं. जहां प्रतिक्षण पतन का निमित्त अपने को मिलता हैं, वहां विशेष सावधानी रखे, कि जितनी मर्यादाओं का रक्षण हो सके वहां आप बचाने का प्रयास करें. आचार्य भगवन्त ने यही निर्देश दिया है. इतिहास में एक घटना, जो प्रतिवर्ष दिवाली के चौपड़े में लिखा जाता है. महाराजा विक्रम प्रजा के हृदय में साम्राज्य करने वाले. संवत् प्रवर्तन जिन्होंने किया. संवत् प्रवर्तन करने वाले राजा ऐसे. संवत् कब प्रवर्तन किया जाता है जब पूरे देश में एक ही व्यक्ति कर्जदार नहीं होना चाहिये. इसका नियम है, जितने भी व्यक्ति राज्य में कर्जदार हैं. उन सभी के कर्ज को राज्य अपने कोष में से देकर उन्हें कर्ज मुक्त कर दे. सारी प्रजा कर्ज मुक्त बन जाये, जिसके राज्य में, उस व्यक्ति से संवत चला. संवत प्रवर्तन होता है महाराजा विक्रम के समय इस प्रकार का कार्य उन्होंने किया. एक भी व्यक्ति कर्जदार नहीं. भारत में जन्म लेते ही व्यक्ति अस्सी हजार का कर्जदार बन जाता है. जन्म से ही कर्जदार रहता है. इतना विदेशी कर्ज इस देश ने लिया है, व्यक्ति के ऊपर अस्सी हजार रुपये का कर्ज आता है आप कल्पना भी नहीं करेंगे ____ महाराजा विक्रम, उन्हीं के बड़े भाई भर्तृहरि, जो वैराग्य शतक के रचयिता हैं, जिन्होंने सन्यास लिया. अपूर्व वैराग्य था. परन्तु पिंगला उनकी धर्म पत्नी थी. संयोग कोई पूर्व कर्म का ऐसा दोष, काम ने वहां प्रवेश किया. परे परिवार के अन्दर ऐसा एक निमित्त आ गया. भर्तहरि बडे विद्वान थे. उन्होंने ऐसा राजमार्ग लिया. विक्रम होकर के वैराग्य पाकर के संन्यास ले लिया. उसका एक कारण बना. बहुत वर्षों की साधना के बाद किसी संन्यासी से ऐसा एक सुन्दर फल मिला. देवी ने लाकर के हाथ में दिया और कहा-इस फल को तुम लो और इस फल को खाओ. इसे खाने का परिणाम सदा जवानी तुम्हारे अन्दर रहेगी. बुढ़ापा तुम्हारे अन्दर कभी प्रवेश नहीं करेगा. कोई असाध्य बीमारी तुम्हारे अन्दर नहीं आयेगी. संन्यासी ने देखा मैं तो साधु हूं. मैं जवानी लेकर क्या करूं? मतलब यह शरीर का धर्म है? शरीर करे. मेरा तो आत्मा धर्म जो परमात्मा ने देखा वही होगा. परन्तु यह प्रजा का पालक राजा, बड़ा सुन्दर आचार विचार वाला है. ऐसी योग्य आत्मा को अगर मैं फल अर्पण करूं तो प्रजा का रक्षण करेगा. धर्म और संस्कृति का रक्षण करने वाला बनेगा. मैं जाकर यह फल राजा को अर्पण करूं. प्रजा पालन करने वाला राजा है. बड़ा योग्य राजा हैं, फल लेकर के आया. राज दरबार में लाकर के राजा को दिया. राजा ने सोचा कि यह फल खाकर मैं क्या करूं? अपनी धर्मपत्नी पिंगला को दे दें. अगर वह सुन्दर रहे और निरोग रहे तो मुझे बड़ा सन्तोष मिलेगा. महारानी पिंगला को दिया. पिंगला का प्रेमी एक आया करता Rela 471 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी था. पिंगला ने रात्रि के समय अपने प्रेमी को दिया. प्रेमी ने सोचा मैं खाकर क्या करूं. वह वेश्या के यहां जाया करता था. वेश्या को जाकर दे दिया. वेश्या ने विचार किया, यह फल खाकर मैं क्या करूं? और ज्यादा पाप का पोषण होगा, मैं तो पाप से छूटना चाहती हूं, मेरी मजबूरी है. वेश्या ने सोचा राजा को दे दं. वेश्या जब राजा के पास राज दरबार में आई और आकर के जब फल अर्पण किया. और कहा राजन्, फल का यह सुन्दर परिणाम है. राजा विचार में डूब गया कि यह राउण्ड देकर वापिस मेरे पास कैसे आया, सारी हकीकत मालूम पड़ी. एक वाक्य राजा ने कहा, ऐसा विरक्त भाव आ गया. ऐसा निमित्त से अपर्व वैराग्य आ गया, राज्य का परित्याग कर दिया. उन्होंने कहा ___ "सर्वं वस्तु भयावह हि जगता, वैराग्यमेवाभयम्" यह वैराग्य ऐसी वस्तु है, जहां भय का प्रवेश नहीं, मैं निर्भय रहूं और इस वैराग्य से इन सारे प्रपंचों से अपनी आत्मा का रक्षण करूंभर्तृहरि ने संन्यास ले लिया. महाराज विक्रम इसी पिंगला के कारण से, असन्तोष लेकर के वहां से विदा हो गये थे. छद्म वेश में, अन्यत्र चले गये थे. यहां ऐसी परिस्थिति आ गई भर्तृहरि ने वैराग्य ले लिया. कोई मुहूर्त नहीं देखा और कोई राज्य गददी का उत्तराधिकारी था ही नहीं. महाराजा विक्रम की खोज की जाने लगी. पिंगला के कारण, पारिवारिक क्लेश के कारण वे राज्य से पहले ही चले गये थे. कहां थे? किस रूप में थे? किसी को मालूम नहीं, वे अवधूत के रूप में देश-देश फिरते थे. अचानक लोगों ने देखा, राज्य की गद्दी खाली नहीं चाहिये. शून्य गद्दी थी. और अगर किसी प्रेतात्मा का निवास हो गया, लाकरके उस गददी पर बैठाया और वो प्रेतात्मा आई और उस व्यक्ति को खत्म कर गई. जिसको लाकर के उज्जैन में उस गद्दी पर बैठाये. रात्रि में उसका अन्त हो जाये. सुबह उसकी लाश निकले. वो प्रेतात्मा का निवास शून्यकाल में हो गया. कोई पुण्यशाली आत्मा आई नहीं. कहीं से लाकर किसी दरिद्रनारायण की बैठाया. पूण्य का अभाव होने से मारा गया. संयोग, वहां महाराजा विक्रम अवधुत संन्यासी के वेश में नदी के किनारे आये, महादेवी के मन्दिर के पास. गांव वालों ने निश्चित किया कि हाथी को एक कुम्भ कलश देकर भेजना शहर में. यह हाथी जिस पर कुम्भ का कलश डाले, उसे ही महाराजा बना देना. ऐसी भी प्रथा थी पहले. वहां से सवारी निकली. महाराजा विक्रम वहीं नदी के किनारे सोये थे. महाकाल के मन्दिर के पास. हाथी ने नदी से जल लाकर कुम्भ कलश डाला, डालते ही राज सेवकों ने आमन्त्रित किया. आप इस राज्य के अधिकारी राजा हैं. हाथी पर बैठिये, आपकी सवारी निकलेगी. आपका lau 472 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी राज्यभिषेक किया जायेगा. गांव के लोंगों ने कहा और कोई नहीं मिला? यह बाबा मिला. यह क्या राज्य चलायेगा? इसकी क्या ताकत, जीवन में कभी डण्डा नहीं चलाया. यह तलवार क्या चलायेगा. लाकरके राज्य गद्दी पर बैठा दिया. मन में जानते थे कि रात को इसकी बलि होने वाली है कि सुबह इसकी लाश मिलेगी. __ महाराज विक्रम को सब कुछ मालूम था. किसी को अपना परिचय नहीं दिया. महापुरुषों की यह विशेषता है कि अपने मुंह से, शब्दों से, अपना परिचय नहीं देते. अपने कार्य से, अपनी महानता से, अपना परिचय देते हैं. लोगों को जानकारी नहीं थी कि यह महाराज विक्रम हैं. भर्तृहरि के छोर्ट भाई, राज्य के सही अधिकारी यही हैं. उन्होंने रात्रि के समय बहुत सारी चीजें मंगवाई, मिठाई, फल मंगवाये. और अपने राजमहल में जहां सोते थे वहा रखी थी. किस तरह सारी दुर्घटना हो गयी. मैं सावधान ह. मध्यरात्रि में वह पिशाच आया. आते ही वहां देर | म वह पिशाच आया. आत हा वहा देख सुगन्धमय, मध्यरात्रि में वातावरण देख खुश हो गया. नैवेद्य और फल रखा था. देखकर के आत्म सन्तोष मिला. यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसने मेरा स्वागत किया. मझे नैवेद्य और फल अर्पण किया. बडा सन्तोष हआ. उसने कहा-तुमने मेरा स्वागत किया. मैं तुम्हारा कोई नुकसान करने वाला नहीं. कुछ दिन उसने बड़ी सुन्दर उपासना की. मध्य रात्रि में जब भी उसका आगमन होता, बड़े सुन्दर तरीके से उसका स्वागत करता. लोगों ने कहा-बाबा बड़ा चमत्कारिक है, वह तो जिन्दा निकला. आज तक जितने आये उनकी लाश ही निकली. इसलिए राज्य का संचालन तो कर लेगा. एक दिन अचानक महाराज विक्रम ने अपने सेवकों को आदेश दिया-आज एक भी चीज़ यहां नहीं रखना. जब तक मैं कहं न तब तक मध्यरात्रि का समय, बडा प्रसन्न कर दिया प्रेतात्मा को, फिर उससे प्रश्न किया "तुम्हारे पास में कुछ जानकारी है?" "तुम प्रश्न करो, मैं तुम्हें जबाब दूंगा." “मेरा आयुष्य कितना है?" | प्रेतात्मा ने कहा - "सौ वर्ष." महाराजा विक्रम ने कहा-एक के आगे दो बिन्दु लगता है. यह जरा अच्छा नहीं, या तो एक बिन्दु घटा दो या बढा दो. प्रेतात्मा ने कहा - “यह क्या मेरे हाथ की चीज़ है, एक मिनट भी मैं घटा बढ़ा नहीं सकता. मेरे अधिकार में यह चीज नहीं. मैं तुम्हारे एक बिन्दु को कैसे घटाऊ-बढ़ाऊं. तो क्या यह निश्चित है?" क 473 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी “हां यह सत्य है, सौ वर्ष तुम्हारा आयुष्य है." दूसरे दिन महाराज ने सेवकों को आदेश दिया. आज एक भी चीज नहीं लाना. एक भी फल नहीं, एक भी मिठाई नहीं, कुछ नहीं, सब स्वागत बन्द. रात्रि में प्रेतात्मा आई. उसने जब देखा वहां कोई स्वागत नहीं, धूप नहीं, दीप नहीं, कोई फल नहीं, कुछ नहीं, वैताल योनि में था. बड़े आवेश में तलवार लेकर के महाराज विक्रम के सामने आया. “तूने आज क्या किया. मेरा अपमान किया. उसका बदला मैं लूंगा." "तू क्या तेरा बाप भी नहीं ले सकता. कल तो मैंने तुझ से पूछा. सौ वर्ष से घटा नहीं सकता, बढ़ा नहीं सकता, बेकार मैं तेरे लिये फल फूल लाऊं, एक चीज तुझे नहीं मिलेगी. तू जो चाहे कर लेना.” बचन से बद्ध था. नतमस्तक होना पड़ा. हमेशा अपने आप को उसके वश में कर दिया. महान पुरुषों की यह ताकत. वैराग्य का यह निमित्त मिला, शत्रु प्रवेश के बाद परिवार में कैसा भयंकर क्लेश पैदा हआ. महाराजा विक्रम का यह प्रसंग बड़ा रोचक है, कल समझाऊंगा. इससे आगे तो बड़ी अपूर्व घटना है. "सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" प्रकृति के इस अटल नियम को सदा याद रखो कि किसी को रूलाकर आप हँस नहीं सकते. औरों को दुःखी बनाकर सुखी बनने की कल्पना मात्र भ्रम है. दूसरों को मारकर इस जगत में कोई शान्ति से जी नहीं सका है. nain 474 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी = काम पर विजय अनंत उपकारी, परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्र सूरि जी ने, सारे जगत के प्राणि मात्र के हित के लिए अनेक आत्माओं के कल्याण की भावना से इस धर्म बिन्दु ग्रंथ की रचना की. किस तरह से व्यक्ति जीवन के अन्दर विचारों का प्रकाश डाले. प्रकाश के अन्दर अपनी जीवन यात्रा का पूर्णविराम उसे उपलब्ध हो, परमात्मा तत्त्व की संपूर्ण जानकारी, परमात्मा के विचारों के द्वारा व्यक्ति प्राप्त करे. मेरा जीवन शक्तिमय बने, मेरे एक एक शब्द संगीत बनें. मेरे जीवन की क्रिया एक नृत्य बन जाए. मेरा जीवन एक धर्म महोत्सव जैसा बन जाए, परिणाम में मेरी मृत्यु भी महोत्सव जैसी ही बने. इसी मंगल भावना से उस महान आचार्य ने अपने अन्तर जीवन की गहराई में से, चिन्तन की गहराई से ये विचार जगत को दिए. सारे जगत के प्राणी मात्र के कल्याण की भावना थी. यहां आप देखेंगे इन सूत्रों में आज तक ऐसी कोई बात उन्होंने नहीं बतलाई जो किसी एक व्यक्ति के लिए, एक संप्रदाय के लिए, एक जाति के लिए हो. भगवान महावीर का संपूर्ण धर्म-शासन सबको लेकर के चलने वाला है. सबको लेकर ही चलता है. किसी भी धर्म या संप्रदाय के अन्दर यह चीज नहीं मिलेगी. हर क्रिया के अन्दर आत्माओं के कल्याण की भावना रखी गई है. __पूजा में, धर्मानुष्ठान के अन्दर, संध्या में, प्रतिक्रमण में, समाजिक कार्य में प्रार्थना की जाती है, तब आत्माओं के कल्याण के लिए जाती है. वहां कही आपके विचारों की दरिद्रता नहीं मिलेगी कि मेरा ही कल्याण हो, मेरे परिवार का ही कल्याण हो. मेरी जाति का कल्याण हो, और प्रभु मुझे मानने वाली आत्माओं का ही कल्याण हो. ऐसी किसी भी बात का एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा. "शिवमस्तु सर्वजगतः" यह मंगल सूत्र है, परमात्मा के हर कार्य में, हर विचार में, इसका दर्शन मिलेगा. प्राणी मात्र का कल्याण हो, जीवन मात्र का कल्याण हो. "सभी जीव करूं शासनरसी" परमात्मा की मंगल भावना होती है. हर आत्मा को सुखी बनाऊ, जगत की हर दुखी आत्मा हर सुख को प्राप्त करने वाली बने. मोह की अधिकारी बनी जगत की हर आत्मा परमात्मा बने. परमात्मा के दर्शन के लिए. इसी भावना से हम जाते हैं कि प्रभु तेरा दर्शन करके मैं भी वैसा बनूं. मेरे अन्दर भी प्रभूता के गुण विकसित हो जाएं. मैं अपूर्णता से पूर्णता प्राप्त करने वाला बनूं. मेरे सारे जीवन की साधना भावना तेरी कृपा से सफलता प्रदान करने वाली बने. हि 475 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी जहां तक यह भावना विकसित नहीं होगी वहां तक कोई धर्म साधना मेरे लिये आशीर्वाद रूप नही बनेगी. सर्व प्रथम विचार की उदारता चाहिए. आप पाकेट से उदारता बतलाएं या न बतलाएं, काधीन है. परन्तु विचार से तो उदार बनना ही पडेगा. उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्। ये सारे जगत के जितने भी व्यक्ति हैं. जीव मात्र मेरे परिवार के सदस्य हैं. यह उदारता सर्वप्रथम आप के अन्दर आनी चाहिए. हमारी सारी धर्म क्रिया यहां से प्रारम्भ होती है. प्रतिक्रमण या सामायिक करने के पूर्व हम क्या बोलते हैं? एकेन्द्रिय जीव से लगा कर पंचेन्द्रिय जीव का किसी से सम्बन्ध बाकी नही रहता. जो अव्यक्त दशा में है, जिनकी इन्द्रियों का विकास नहीं हुआ. किसी भी प्रकार से उन्होंने अपनी आत्मा का विकास प्राप्त नहीं किया उन आत्माओं से सम्बन्ध बनाकर के आगे बढ़ते हैं. कदाचित मेरे प्रमाद से, मेरी भूल से उनकी विराधना हई हो. मेरे द्वारा उन आत्माओं को कष्ट पहुंचा हो, मैं उसके लिए भी क्षमा याचना करता हूं. आत्म शुद्धि करके परमात्मा की भक्ति से अपने हृदय को पवित्र करके धर्म क्रिया में प्रवेश करता हूं. वहां तक तो प्रवेश ही निषेध है. सभी जीव मात्र को लेकर के चलना है. यह उदारता सर्व प्रथम अपने अन्दर आनी चाहिए. जितने आप संकीर्ण बनेंगे उतने ही आप परमात्मा से दूर हो जाएंगे परमात्मा के नजदीक पहुंचने का यही तरीका है विचारों से दूर नही विचारों के एक दम नजदीक पहुच जाना है. गर्मी का दिन हो और आप पंखे की हवा से दूर बैठे हों. घर में एयर-कुलर हो, और हैं. क्या ठण्डक मिलेगी? भयकर सर्दी पडती हो, सर्दी में हीटर लगा हो, हीटर से दूर जाकर बैठिए, गर्मी अनुभव होगी? सर्दी जाएगी नही. आप जितने हीटर के नजदीक आएंगे, उतनी चुस्ती आएगी. गर्मी अनुभव होगी. आप जितना एयर कलर के नजदीक आएंगे, उतनी ठण्डक मिलेगी. जितना परमात्मा के नजदीक पहुंचेंगे, उतनी ही चित्त को शान्ति और समाधि मिलेगी. आप जितने अपने विचारों से अपनी आत्मा के नजदीक पहुंचेंगे, उतनी ही शान्ति का अनुभव करेंगे. हम तो बहुत दूर चले गए. सदाचार के माध्यम से उन विचारों को स्वच्छ करके आत्मा को स्वच्छ कर चले गए. पर्युषण पर्व का यही संदेश है. हमारे जीवन का यह परम कल्याणकारी मित्र है. यह प्रकाश देने वाला धर्म है. इस पर्व का प्राण है जीवन का सदाचार. सदाचार की प्रवृति में सारी बात आ गई. क्षमापना की प्रवृति भी आ गई. क्रोध और कषाय से आत्मा को मुक्त करने का साधन भी बतला दिया. सदाचार शब्द के अन्तर्गत जीवन का संपूर्ण परिचय दे दिया. इस कल्याण मित्र के आगमन पर हमारे अन्तर्हदय में तैयारी होनी चाहिए. उसकी उपस्थिति में भाव पूर्वक उसका त्याग करने वाला बनूं URURI 476 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी पर्व का जो सन्देश है. अपने जीवन और व्यवहार में उतारकर के जीवन को सफल करने वाला बनूं, पर्व की उदारता है. उस उदारता को जीवन व्यवहार में उतार लू अपूर्व संदेश है पर्व का. धर्म बिन्दु ग्रंथ में भी पर्व की भूमिका के लिए जो मन्त्र बतलाया गया, साधना सिद्ध करने का आत्मा के प्रबल शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का. “अरिषड्वर्ग त्यागेन" ये आत्मा के सबसे प्रबल शत्रु हैं. पर्व की साधना को निष्फल करने वाले धर्म की इमारत को तोड देने वाले. सदभावना को लुप्त कर देने वाले, विचार के प्रकाश को बुझा देने वाले हैं. बड़े प्रबल शत्रु आत्मा को अन्दर से लूट लेते हैं. सर्व प्रथम शत्रुओं का सम्राट, हमारे दुश्मनों का राजा काम. अनादि अनन्त काल की यह वासना आत्मा में भरी है. आत्मा का प्रथम नम्बर का शत्रु है, वह सारी साधना खण्डित कर देता है. क्रोध तो प्रकट रोग और काम अप्रकट रोग है. प्रकट रोग का इलाज करना बड़ा सरल होता है. फ्रेक्चर हो जाये, घाव हो जाये, जरक हो जाये, डाक्टर के पास जायें, सारा इलाज आसानी से कर देगा. सारा रोग देख कर ठीक कर देगा. कोई रोग दिख रहा है. उसके कारण नजर आ रहे हैं परन्तु अन्दर में कोई रोग हो, सिर में हो, पेट में हो, गले में हो, जो जल्दी दिखेगा नहीं, वह बड़ा भयानक होता है. क्रोध प्रकट रोग हैं. उपचार हो जायेगा. दस आदमी बचाने वाले मिल जायेंगे. समझाने वाले मिल जायेंगे, लोक लज्जा से कदाचित् आप के अन्दर का यह जहर दिखेगा नहीं. सामने वाले व्यक्ति को जल्दी नजर नहीं आयेगा. उसका उपचार सम्भव नहीं. वह तो व्यक्ति को स्वयं ही सावधान रहना है. कि अन्तर शत्रुओं का राजा अन्दर सक्रिय बन रहा है, उसे कैसे मूर्च्छित किया जाये. सभी साधनों का कल विशेष रूप से परिचय आया. परिचय हमारे लिए पतन का कारण बनता है. परिचय के अन्दर पूर्ण विवेक होना चाहिए. दृष्टि में पवित्रता आनी चाहिये तब तो परिचय आशीर्वाद रूप बन जाये, वह देखने की कला प्रभु ने बतलाई. "मातृवत् परदारेषु" नीतिकारों ने चिन्तन दिया कि देखने का यदि कोई मौका आ जाये, कदाचित् देखना भी है तो मातृवत्. जैसे ही मां का शब्द आप मन में स्मरण करेंगे, जो ऐसा महामन्त्र है काम मूर्छित हो जायेगा. ऐसी अन्दर में भावना आनी चाहिये कि जहर भी अमृत बन जाये. एक स्मरण करते ही शब्द का प्रभाव मन की वासना को मूर्च्छित कर दे. ___महाराष्ट्र के युद्ध में अहमद नगर के किले से बहुत से सैनिकों को शिवाजी ने पकड़ लिया. बहुत से परिवार के लोगों को भी लेकर आ गये. उनके साथ एक सुन्दर नवयुवती छत्रपति शिवाजी के पास लायी गयी. 477 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: छत्रपति शिवाजी शौर्य मूर्ति थे. चरित्रवान व्यक्ति थे. क्योंकि उनके ऊपर आशीर्वाद रामदास का था. सन्तपुरुष का था. सन्त का आशीर्वाद सदाचार को जन्म देता है, सन्तों की परिधि में रहने वाला व्यक्ति, दुराचार के पाप से रक्षा पा जाता है इसलिए साधु सन्तों का समागम अनिवार्य माना गया है. नवयुवती आकर के निवेदन करने लगी कि मेरी भावना है, मैं आपके साथ निर्वाह चाहती हूं. आपके अपूर्व शौर्य से और आपकी शक्ति को देखकर के मेरे मन में यह भावना आती है, इसीलिए मैं अनुमति लेकर आपके पास आई हूं, छत्रपति शिवाजी ने जैसे ही बात सुनी, अपनी गर्दन नीची की. हाथ जोड़कर निवेदन किया - मुझे भी बड़ी खुशी होती, बड़ी प्रसन्नता होती यदि तुम्हारे जैसी खूबसूरत मेरी मां होती. शब्दों का ऐसा प्रभाव कि लड़की चरणों में गिर गई. मेरी बी गुनाह को आप क्षमा करें. अब कभी इस तरह का गलत विचार या निवेदन आपसे नहीं करूंगी. इतना बड़ा सम्राट् जिसके हाथ में इतनी बड़ी शक्ति, तलवार की ताकत जिसके पास, इतना बड़ा साम्राज्य जिसके पास, परन्तु शिवाजी पर सन्तपुरुष के आशीर्वाद के कारण जीवन में दया, सदाचार और पवित्रता थी. यह दृष्टि अगर हमारे अन्दर आ जाये, सारी सृष्टि बदल जाये. सदाचार ही धर्म का बीज है. उस ब्रह्मचर्य को ज्ञानी पुरुषों ने किस प्रकार नमस्कार किया "देव दानव गंधर्वा, यक्ष राक्षस किन्नराः" देवाऽपि तं नमस्यन्ति, दुष्करं करन्ति ये" भगवान महावीर के शब्दों में कहा गया. देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, पुरुष वे सभी उस आत्मा को भाव पूर्व वन्दन करते हैं. ये गुण हमारे अन्दर जिस दिन विकसित हो जाये, सदाचार का वृक्ष अगर निर्माण हो जाय तो मोक्ष का फल पाना बड़ा सरल बन जाये, सम्यक् प्रकार के चरित्र का पालन करना बडा सहज बन जाये, सम्यक दर्शन निर्मल हो जाये. ज्ञान के अन्दर से सारे विकार चले जायें. हितकारी ज्ञान आत्मा के लिए संसार से विरक्त करते समय परम साधन बन जाये. हमारी यही मंगल भावना होनी चाहिये. इसीलिए बहुत सारे नियन्त्रण दिये गये. आहार पर नियन्त्रण दिया गया. इस व्रत के रक्षण के लिए. आहार ऐसा नहीं होना चाहिये जो उतेजना देने वाला हो, आहार के अन्दर इस प्रकार का पोषण नहीं होना चाहिये, जिससे विषयों को पोषण मिले. शरीर में अधिक शक्ति संपादन भोजन के द्वारा दवाओं के द्वारा किया तो वह शक्ति सर्वनाश करेगी, विषय-विकार को उतेजित करेगी, सदाचार से दूर लेकर के आयेगी. वेदान्त में वेदों में एक ही वाक्य में इसका परिचय दिया. "आचारहीनान् न पुनन्ति वेदाः" 478 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी आचार से पतित, सदाचार से भ्रष्ट आत्मा, उसको वेद भी पवित्र नहीं कर सकता आप विचार करें कि अन्य दर्शनों के ऋषि मुनियों ने भी अपना अभिप्राय कैसा दिया है. सडे हुये कान वाला कुत्ता यदि दुकान पर आ जाये, कुत्ते के कान में कीड़े कुद बुदा रहे हों, भयंकर दुर्गन्ध आ रही हो, कोई उसको स्थान या आश्रय नहीं देगा. दुराचारी आत्मा के लिए जगत में इसी तरह का व्यवहार होगा, कहीं भी सम्मान का पात्र नहीं रहता. ज्ञानियों की दृष्टि में ही वह दया का पात्र बनता है. उन आत्माओं को देखकर ज्ञानी दया के आंसू निकालते हैं. करुणा उनके नेत्र से आती है कि इसकी क्या दशा होगी? एक जरा से जीवन सुख के लिए व्यक्ति अपने जीवन को अंधकार मय बनाता है. इस प्रबल शत्रु पर विजय प्राप्त करना है. आहार परिमित हो. तप का माध्यम इसीलिये दिया जाता है. तप के द्वारा विचारों का निरोध किया जाता है. विकारों का दहन किया जाता है. तप के माध्यम से सदाचार का रक्षण किया जाता है. शरीर और इन्द्रियों के बीच संतुलन कायम करने वाला तप है, जरूरत से अधिक जो भी शक्ति है, उसका सन्तुलन वह बनाकर चलता है. यह अति महत्वपूर्ण है. इन सारी साधना के अन्दर लक्ष्य वही है. सतत क्रिया में मग्न रहे, सतत स्वाध्याय में रहे, सतत अपने कार्य में व्यस्त रहे. परिणाम उसका बड़ा सुन्दर आयेगा. वह व्यक्ति धीरे-धीरे दुराचार पर विजय प्राप्त कर लेगा. काम को नष्ट कर लेगा. काम को काम से ही जीतने का प्रयास करें. सतत कार्य में मग्न रहें. जरा भी यदि दिमाग को खाली रखा और एकान्त मिल गया तो दिमाग गलत चीज को उत्पन्न करेगा. खाली दिमाग शैतान का कारखाना बनता है. निष्क्रिय व्यक्ति दुराचार का प्रोडक्शन करेगा. प्रथम शत्र का परिचय देने के बाद उसके परम मित्र क्रोध का परिचय दिया. छ: शत्र है. आत्मा के परन्तु ये छ: ऐसे मित्र हैं जो एक दूसरे के वियोग में नही रह सकते. काम के साथ क्रोध उसके रक्षण में आयेगा. कषाय आयेगा व्यक्ति करने लग जायेगा. अप्राप्ति में उसकी वेदना इतनी खतरनाक कि सोचेगा, सामने वाले व्यक्ति को खत्म कर दूं. मेरे बीच में जो भी रुकावट आए, उसका नाश कर डालूं. __ पेपरों में पढ़ा होगा, दुराचार का परिणाम कैसा आता है. क्रोध तुरन्त उसकी सहायता आता है. दोनों साथ ही रहते हैं. काम और क्रोध एक ही सिक्के के दो पहल हैं. दोनों तरफ चित्र होते हैं. उसी तरह से ये दुराचार का एक ही सिक्का है काम और क्रोध उसके दो रूप हैं एक दूसरे के पूरक, एक दुसरे के सहायक हैं, उस पर विजय कैसे प्राप्त करना उसका रास्ता ज्ञानी पुरूषों ने धर्म बिन्दु सूत्र द्वारा बतलाया.. पर्व काल में ऐसे ही कितने प्रसंग हो गये. जिन आत्माओं ने इस प्रकार विजय प्राप्त की, वे धन्यवाद के पात्र बने. जैन परम्परा है, किसी भी व्यक्ति को मंगलाचरण देते हुए | ad 479 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी उस महान पुरुष का नाम लिया जाता है, जो वर्तमान काल में काल विजेता के रूप में | माने गये हैं. ___ "मंगलम् भगवान् वीरो, मंगलम् गौतमः प्रभुः" सर्व प्रथम परमात्मा जिनेश्वर जिनके धर्म शास्त्र में धर्म की आराधना करते हैं. हमारे जीवन पर जिनका सर्वोपरि उपकार है तीर्थंकर महावीर. उसके बाद प्रमुख शिष्य, प्रथम गणधर इन्द्रमूर्ति गौतम, मंगल के रूप में उनका नाम स्मरण किया जाता है. परमात्मा का जिनेश्वर का नाम और तुरन्त गौतम का नाम उसके बाद “मंगलम् स्थूलभद्राद्याः जैन धर्मोस्तु मंगलम्" धर्म मंगल भी बाद में, यह विशेषता देखना, स्थूल भद्र महाराज का कैसा जीवन था पूर्व काल का, अंधकार मय, और कैसा सदाचार का परम प्रकाश प्राप्त किया. भगवान महावीर का नाम एक चौबीसी तक रहेगा. स्थूल भद्र महाराज का नाम चौरासी चौबीसी तक का नाम रहने वाला है. चौरासी चौबीसी किसको कहा जाता है- असंख्यातकाल चला जाता है एक चौबीसी में. ऐसी चौरासी चौबीसी तक स्थूल भद्र महाराज का नाम कायम करने वाला हैं. महावीर का भी नहीं, गौतम का भी नहीं, किसी तीर्थंकर का नहीं, कैसा आश्चर्य. ऐसा अपूर्व नाम, कर्म उस आत्मा ने उपार्जित किया, जब-जब धर्म का शासन स्थापित होगा, जब-जब धर्म का तीर्थंकर परमात्मा उपदेशना देगा. उस समय स्थूल भद्र महाराज का प्रसंग उस उपदेशना में आयेगा, इस तरह उनका नाम चौरासी चौबीसी तक चलेगा. यह ब्रह्मचर्य का प्रभाव, चौरासी चौबीसी तक उनका नाम कायम रहेगा. कैसा परिवर्तन आया. पाटलिपुत्र में जगत प्रसिद्ध वेश्या थी. बारह वर्ष तक उसके साथ रहने वाले मगध के महामन्त्री. परमात्मा महावीर का परमोपासक, स्थूलभद्र महाराज पटना के थे. शकटार महामन्त्री थे, वंश का साम्राज्य चलता था. __ महामन्त्री शकटार जाति से ब्राह्मण थे. परन्तु धर्म से परमात्मा महावीर के परम उपासक थे. ऐसी परिस्थिति में बारह वर्ष तक स्थूल भद्र कोशा वेश्या के यहां राज महल में रहे. सामान्य वेश्या नही थी, उस जमाने में करोड़ों की सम्पति उसके पास थी. अपूर्व प्रकार की नृत्यकला उसके साथ थी. अपूर्व संगीत था. उसके जीवन में पैसे की कोई कमी नही थी. और स्थूलभद्र को भी पैसे की कोई कमी नही थी. शकटार महामंत्री थे, बहुत बड़ा व्यापार साधन उनके साथ था. द्रव्य की कोई कमी नही, पुत्र से जो मंगवाया, भेजते रहे. अपार वैभव. पर आने का नामो निशान नहीं. बारह वर्ष कोशा के यहां रहे. इस काम ने कैसा अपना साम्राज्य कायम किया? ऐसे कुलीन घर में ऐसे महान श्रावक उनके यहां इसने कैसी चोरी की? कैसे लूट चलाई ? बारह वर्ष तक. मां-पिता सब का वियोग, अकेले रहे. कभी आए नहीं. प्रसंग में उनके आने का एक भी उल्लेख नहीं. 480 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: - अचानक शादी का जब आमंत्रण दिया,स्थूल भद्र महाराज ने मना कर दिया. मुझे शादी की जरूरत नही. कोशा के साथ ही रहे. परिवार ने, गृहस्थ धर्म के निर्वाह के लिए, निर्णय किया कि स्थूलभद्र के छोटे भाई श्रीयक की शादी कर दी जाए. पिता लाचार थे. पिता की आज्ञा का भी उल्लंघन कर दिया. श्रीयक की शादी की तैयारी हुई.. मन में विचार किया की यहां के राजा को क्या चीज भेंट की जाए. यह शादी का प्रसंग है. और मैं यहां का महामन्त्री हूं. पर मगध का इसने विशाल साम्राज्य का किसी तुच्छ उपहार से काम नहीं चलेगा. सोना चान्दी तो सब लेकर के आते हैं. यह तो राजा हैं क्षत्रिय पुत्र हैं, राज्य के रक्षण के लिए कोई चीज हैं, जिससे राज्य को प्रजा का रक्षण हो. धर्म और संस्कृति का रक्षण हो, राजा को भी जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग हो सके. ऐसी वस्तु मैं राजा को अर्पण करूं. बडी शुद्ध भावना थी. भावना में कोई मलिनता नहीं थी. कारखाने खोल दिये, तलवार बन रहे हैं. भाले बरछे, कटार तैयार हो रहे हैं. युद्ध के अन्दर जो जरूरी होते हैं? वे सारे साधन वहां पर तैयार करवाये. शकटार को पैसे की कमी नहीं थी. बहुत बड़ी मात्रा में शस्त्र साम्रगी का निर्माण करवाया. विचार किया कि शादी के प्रसंग पर समस्त चीजें राजा को अर्पण कर दूंगा. ताकि प्रजा के रक्षण के लिए राजा इसका उपयोग कर सके. गांव में नारद तो होते ही हैं. राजा कान के कच्चे होते हैं. दो चार नारद मिल गये. आकर के कान में डाला-राजन्, आप जिस पर इतना विश्वास करते हैं वह प्रजा को भड़का देगा. राजन्, आपका राज्य एक क्षण में चला जायेगा. राज्य का मालिक तो शकटार बनेगा. राजा ने कहा- महामन्त्री मेरे बड़े विश्वस्त हैं. ऐसा हो ही नहीं सकता. तीन-तीन पीढ़ी से उनके पूर्वजों ने प्रजा की सेवा की है. क्या बात बात करते हो? __ राजन्! बिलकुल सही कहता हूं. गांव में ऐसी हवा फैला दी. घर-घर चर्चा का विषय बन गया. राजा कितना कान का कच्चा है कितना अंधविश्वास लेकर के चलता है. यह महामन्त्री का षडयन्त्र लोगों की नजर में था, कारखाने तो लोगों की नजर में थे. साधन सामग्री तैयार हो रहे थे. महामन्त्री के अन्तर भावों को लोगों ने नहीं समझा और महामन्त्री के विरोधियों को मौका मिल गया. पूरे गांव में यह चर्चा का विषय बन गया. राजा वेश परिवर्तन करके निकला. जहां जाये वहीं यह चर्चा, अपनी नजरों से देखा तो कारखाने तैयार हो रहे. हैं. कारखाने में अस्त्र शस्त्र बन रहे हैं. राजा ने मन में गांठ बांध ली. महामन्त्री का सफाया जल्दी करना है. नहीं किया तो मेरे राज्य का भय है. घर की समस्या है, इसका प्रतीकार करना मेरे लिए मुश्किल हो जायेगा. महामन्त्री को बुला कर के राज दरबार में कहा-महामन्त्री तुम्हारे कार्य से मैं पूर्ण परिचित बन चुका हूं. तुम्हारा छल, कपट, माया प्रपंच कुछ नहीं चलने का. चौबीस घण्टे का समय ARE 481 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी / चाहिय. देता हूँ. अपने घर वालों को मिलकर के आ जाओ फिर तुम्हें सजा दी जायेगी, तुम्हारे जैसा गद्दार आदमी हमारे राज्य में नही चाहिये. शब्द क्या थे, उसके लिए तो मौत के बराबर थे. महामन्त्री मन में समझ गये, राजा के मन की शंका का निवारण अब किसी तरह होने वाला नहीं. कोई वकालत यहां चलने वाली नहीं. घर पर पूरे परिवार को बुलाकर के कहा कि अब मेरे जीवन का अंतिम समय है. ऐसे भी वृद्ध हो चुका हूं. परमात्मा जिनेश्वर के शासन में मैंने सुन्दर आराधना की है. मरने का कोई दुख नहीं, दर्द नहीं, बडे शुद्ध भाव से राज्य और प्रजा की सेवा के लिए इन शस्त्रों का निर्माण कराया. राजा को भेंट देने के लिए शादी पर लेकिन हमारे विरोधियों ने गलत प्रचार कर दिया. परमात्मा महावीर स्वामी की बदनामी न हो, यह मेरा तिलक कलंकित न हो जाये, प्रतिदिन परमात्मा की उपासना पूजा करने वाला. महामन्त्री कहता है "मेरा तिलक कंलकित न हो जाये. मेरे कुल को कलंक न लगे." ऐसा उपाय मैंने सोच रखा है. मौत तो आने वाली है. श्रावक अपने जीवन के अन्दर नितान्त वफादार होता है. अपनी चिन्ता नहीं. मैं मर जाऊं. उनकी चिन्ता नहीं है. बदनामी हो जाए कोई चिन्ता नहीं, मेरा धर्म मेरे निमित्त से बदनाम नहीं होना चाहिये. धार्मिक व्यक्तियों का यह गौरव होता है. मेरा धर्म बदनाम नहीं होना चाहिये. मन में दृढ़ निश्चय किया. श्रीयक को बुलाया. श्रीयक राजा का अंगरक्षक था. शकटार राज्य के महामन्त्री थे. श्रीयक को बुलाकार कहा बेटा तू मेरा पुत्र है. पिता की आज्ञा का पालन करना तेरा धर्म है. "हां, पिता जी." ___ "तुम मुझे वचन दो जैसा आदेश राजा दे, वैसा पालन तुम्हें करना होगा. तुम जानते हो तुम्हारी नौकरी जिस बात की है तुम राजा के अंग रक्षक हो." अपने को तुमको कलंक से बचाना है. मैंने उपाय सोच लिया है. जैसे ही मैं राजदरबार में जाऊं और झुक कर राजा को अभिवादन करने नमस्कार करूं, तलवार निकाल कर मेरी गर्दन अलग कर देना. एक मात्र यही उपाय है. सत्य की रक्षा के लिए कोई उपाय नहीं. राजा के मन की शंका को निकालने का मात्र यही उपाय है और अगर नहीं किया तो परिवार कत्ल कर दिया जाएगा. नहीं तो मेरा एक का बलिदान होगा. प्रजा के अन्दर अविश्वास फैल जायेगा. मेरा कुल, मेरी जाति, मेरा धर्म बदनाम होगा. मैं जो कह रहा हूं, सोच समझकर कह रहा हूं. तू मुझे वचन दे, मेरी आज्ञा का उल्लघंन नहीं करेगा. श्रीयक शायद समझ गये. वचन दे दिया. पिता ने कहा-मैं तो विष लेकर जाऊंगा तुझे पितृहत्या का पाप नहीं लगेगा. जैसे मैं झुककर के अभिवादन करूं मैं अंगूठी को मुंह में डाल लूंगा. अगर यह विष आपके जूते के उपर भी डाल दिया जाये तो आपके पद 482 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: पसीने से आपके अन्दर चला जायेगा और आपको खत्म कर देगा. उसका स्पर्श इतना / खतरनाक होता है. यह आदेश तुझे मानना होगा, जैसे ही राज दरबार में गये. झुककर राजा को अभिवादन किया, श्रीयक अंगरक्षक था. तलवार निकाली और गर्दन पर चलाई. गर्दन अलग कर दी. सारे दरबारी स्तब्ध रह गये पिता की हत्या, वो भी श्रीयक द्वारा. इसमें क्या रहस्य है. राजा भी विचार में पड़ गया. जो चीज कभी होने वाली नहीं. वह कैसे घटित हो गई. श्रीयक को बुलाकर कहा-तूने यह क्या किया. हजुर मेरा कर्त्तव्य था, उसका पालन किया. राजा का रक्षण करना मेरा धर्म है. मैं नहीं मानता. इसके अन्दर जरूर कुछ कारण होना चाहिए. पिता ने कहा राजन। मैं क्या करू, अंतिम समय कहा था कि राजा के दिमाग से भ्रम निकालने का यही एक उपाय है. सारी हकीकत जब सामने आई, तब मालूम पड़ा. अहो, इतना बडा अनर्थ हो गया. अब पश्चात्ताप करने से क्या निकलेगा. जो होना था सो हो गया. पिता की राजमुद्रिका लेकर के स्थूल भद्र के पास कोष वेश्या के यहां भेजा गया. कुल परम्परा से महामन्त्री का पद बड़े को दिया जाता था. स्थूल भद्र को आमन्त्रित किया गया. पिता की मृत्यु का समाचार सुन जब उसकी मोह निद्रा टूटी. जैसे 4. बारह वर्ष गुजर गये थे. युग परिवर्तन हो गया.. यहां आकर के जब परिवार से हकीकत जानी, पिता की ऐसी दर्दनाक मृत्यु हुई. एक व्यवहार को लेकर के राज दरबार में गये, राजा ने उन्हें आमान्त्रित किया और अंगूठी निकाल कर दी. ये महामन्त्री का पद मेरे आग्रह से आप स्वीकार करें. ऐसा वैराग्य उस समय स्थल भद्र महाराज को आया. इतना बड़ा राज्य का पद, अपार वैभव सुखी सम्पन्न परिवार उन्होंने कहा-ऐसा विचित्र संसार जिसके लिए हमारी तीन पीढ़ियों ने अपना खून पसीना दिया. अपने जीवन का बलिदान कर दिया. जरा सी बात को लेकर के इतना बड़ा अनर्थ कि मेरे बाप की इस प्रकार मौत हुई. अंगूठी राजा की तरफ फैंक दी कि मुझे नहीं चाहिये, तुम्हारी अंगठी अपने पास रखो. वहां से चले गये और सीधे संवृद्धि विजय महाराज के पास नतमस्तक हो गये. और कहा भगवन ऐसे दगाबाज संसार में एक क्षण भी मझे नहीं रहना. भोगों को भोगने वाला स्थल भद्र ने जब गुरु महाराज के चरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया. पिता की मौत वैराग्य का कारण बन गई. विरक्त बन गया. गुरु भगवन के पास शिक्षा दीक्षा हुई. आचार्य स्थूल भद्र महाराज ने ऐसा जीवन निर्माण किया एवं पूर्व का ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया. चातुर्मास का समय जब नजदीक आया जितने भी वहां साधु थे, महान तपस्वी साधु, चार-चार महीना उपवास करने वाले साधु. साधुओं ने चातुर्मास की आज्ञा मांगी. पहले 483 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी समय में शहरों में साधु बहुत कम रहते. चतुर्मास भी प्रायः एकान्त में करते. भिक्षा के लिए गांव में जाकर भिक्षा ले आते. शहरों में रहते नहीं. पर्युषण मात्र साधुओं के लिए होता, प्रवचन मात्र साधुओं के लिए होता, अपने आचार की जानकारी प्रतिवर्ष उसमें से प्राप्त करते, प्रेरणा प्राप्त करते. उस समय ये पर्युषण पर्व भी इस प्रकार से नहीं मनाया जाता था. यह तो हजार वर्ष से शुरू हुआ. ध्रुवसेन राजा के समय से. __जब गुजरात में ध्रुव सेन राजा ने गुरु भगवान से प्रार्थना की कि भगवन् यह उपदेश सुनने का अवसर हमें भी प्रदान करें संघ में उत्साह बनेगा, प्रजा में आनन्द आयेगा, पर्व का उल्लास बढ़ेगा. तब हमारे आचार्य भगवन्तों ने यह निर्णय लिया और संघ के समक्ष भगवान के 980 वर्ष बाद यह परम्परा चालू की तब से संघ के समक्ष यह प्रवचन दिया जाता है. इससे पहले तक तो मात्र साधुओं के लिए था. ऐसी परिस्थिति में किसी साधु ने आदेश मांगा कि भयंकर नाग रहता है, उसके बिल के पास जाकर के मैं चातुर्मास करू.. किसी ने आदेश मांगा कि कुएं के ऊपर पालपुरस्थ खड़े रहकर चातुर्मास करूगा. आप साधना तो देखिये. चार-चार महीने तक उपवास और सतत जागरण में जरा भी प्रमाद करे तो कुंआ में गिर जाये. उसके पालपर खडे रहकर चातुर्मास करूंगा. ऐसी परम साधक महान आत्माएं थीं. सर्प के बिल के पास चातुर्मास करूंगा, सतत जागृति बने रहे. मेरे प्रेम के वातावरण में आनेवाला क्रोधित सर्प भी शान्त हो जाये, सिंह गुफा का वास. जहां भयंकर सिंह विकराल सिंह रहता है. उसकी गुफा के पास चातुर्मास करूंगा. कैसी कठोर तपश्चर्या उस काल में थी. कितना गजब का मनोबल उन आत्माओं के पास था. अपनी साधुता में कितना विश्वास था, उन आत्माओं के पास. स्थूलभद्र भगवन्त ने गुरु से निवेदन किया- कि मगध में कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास करूंगा. समझ गये कितनी खतरनाक याचना थी? जहां पर पर्व काल में 12 वर्ष तक भोग भोगे, अगर उसकी एक भी स्मति इसमें आ जाये तो सारी साधना नष्ट हो जाये. इसकी स्मृति मात्र से मन में चंचलता और व्यग्रता लेकर आ जाये. परन्तु संभूतिसूरि ने आशीर्वाद दिया कि जाओ खुशी से चातुर्मास करो, मेरा आशीर्वाद है. कोशा को जब मालूम पड़ा, बडी प्रसन्नता हुई. साधु बनकर के आये. उस जमाने में संसारी और आज साधु बनकर के मेरे द्वार पर आये. बडा स्वागत किया. चातुर्मास का समय और वह भी स्थान कैसा-चित्रशाला चारों तरफ बहुत भय का वातावरण जितने भी चित्रशाला में चित्र थे वे विकार को उत्पन्न करने वाले थे. विषय को पोषण करने वाले थे. ऐसे हाव भाव मिले चित्र. उस चित्रशाला में महाराज स्थूलभद्र को स्थान दिया गया. काना 484 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी ___ कोयले के गोदाम में रहना पड़े और कपड़े पर दाग न लगे तो आश्चर्य होगा. काजल की कोठरी में रहकर के बेदाग निकलना कोई सामान्य व्यक्ति का काम नहीं. षटरस भोजन दुष्काल और फिर अधिमास आ जाये, कैसा भंयकर होता है. एक तो वर्षा ऋतु ऊपर से खाने को षटरस भोजन. फिर चित्रशाला. वहां चातुर्मास करना कसौटी कैसी? ये आग के साथ खेलना था. ऐसी परिस्थिति में स्थूलभद्र महाराज ने उसी जगह चातुर्मास किया. मन का संकल्प था. जिस जगह मैंने पाप का पोषण किया. उस निमित्त को आराधना का माध्यम बनाऊं. उसे परम श्राविका बनाऊं. कोशा ने देखा. आज नहीं तो कल यह चलायमान हो जायेंगे. बहुत प्रयत्न किया. प्रयत्न करते-करते कोशा थक गई. निराश होकर झुक करके निवेदन किया. भगवन्! अब आप जो आदेश देंगे, शिरोधार्य हैं. जीवन पर्यन्त इस पाप का त्याग कर दिया. कोशा परिचय के बाद चार महीने परम श्राविका बनी. पाप से मुक्त हो गई. साधु सन्तों के परिचय से जीवन को सुगन्धित बना लिया. चातुर्मास पूर्ण होने के बाद जब वे आये. गुरु भगवन्त विशिष्ट ज्ञानी थे. ज्ञान के द्वारा उस प्रकाश में देख लिया. वह महापुरुष जिसके एक रोम में भी विकार का प्रवेश नहीं हुआ. विचार के अंदर विकार का बिल्कुल अभाव. ऐसी पवित्रता. चार महीना ऐसी कसौटी से निकल कर के आए हैं. इतने समर्थ युग-युग प्रधान आचार्य उनके गुरू सम्भूति सूरि. महाराज का आशीर्वाद स्थूलभद्र महाराज पर था. जैसे ही स्थूल भद्र चातुर्मास करके वहां आए. गुरु महाराज स्वयं उठे, उसे लेने गए, उसका स्वागत किया, उसे धन्यवाद दिया. एक बार नहीं तीन बार कहा. दुक्कर, दुक्कर, दुक्कर. अति दुष्कर कार्य तुमने किया धन्यवाद. कोई शब्द नहीं छाती से लगा लिया. ___ गुरु का प्रेम, गुरु का आशीर्वाद और गुरु का ऐसा स्वागत एक शिष्य के प्रति. वहां जो दूसरे साधु थे चार-चार महीने का तप करने वाले सिंह गुफा में रहने वाले, सांप के बिल के पास चातुर्मास करने वाले. उनके मन में जलन पैदा हुई, ईर्ष्या हुई कि चार महीना, माल पानी उडाकर के आया. न सर्दी न गर्मी लगी न वर्षा का एक बिन्दु पानी गिरा, न कोई तप न कोई. त्याग. और गरु ने कहा-बड़ा दुष्कर कार्य तुमने किया. मन में जरा ईर्ष्या हुई. उस महान साधु को धन्यवाद देने के पीछे प्रयोजन सही थे कि ऐसी अनूकुलता में रहकर के विषय पर विजय प्राप्त करना दुश्मन के घर में रहकर के दुश्मन को परास्त करना यह कोई सामान्य काम नहीं. इतनी दुष्कर साधना स्थूलभद्र महाराज ने की, तब जाकर चौरासी तक उनका नाम कायम रहेगा. सारी आराधना के अन्दर इस आराधना को बहत महत्व दिया है. सारे व्रतों में इसको सम्राट तुल्य माना गया है. इसे दीपक की उपमा दी गई. बारह व्रत की पूजा में इसे दीपक की उपमा दी गयी है, कभी इसका आनन्द लीजिये. ह 485 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी स्वामी दयानन्द सरस्वती ब्रह्मचारी पुरुष थे, उन्हें समाप्त करने के लिये दो तीन बार खाने में जहर दिया गया, परन्तु ब्रह्मचर्य एवं सदाचार पालन करने वाली आत्मा थी, योगशक्ति के प्रभाव से जहर का असर मिटा दिया. अजमेर में एक दिन दयानन्द सरस्वती को दही में मिलाकर विष दिया गया. दुश्मनों का षड्यन्त्र था और देने वाला व्यक्ति भी उनका ही रसोइया ठाकुर जगन्नाथ था. सुबह वे दही लिया करते थे. दही लेने के बाद उन्हें मालूम पड गया. कि इसके अन्दर तीव्र जहर मिलाया है. मेरा बचना संभव नहीं. शरीर में वह ताकत नहीं कि जहर का प्रतिकार कर सकू. बिस्तर पर सोये थे. अवस्था थी. जहर का आक्रमण था मूर्छित होने की तैयारी थी. अपने रसोइये को बुलाया. बुलाकर कहा - पैसे के प्रलोभन में आकर तुमने यह पाप किया. ठीक है मैं कल जाने वाला आज चला जाऊंगा. मुझे कोई चिन्ता नहीं परन्तु मुझे तो चिन्ता है, मेरे पीछे तेरे परिवार का क्या होगा, अगर तू यहां रहा. और पुलिस को मालूम पड़ गया कि तुमने मुझे जहर दिया है. तो तझे तो फांसी पर लटाकायेंगे. तेरे परिवार की दशा क्या होगी? मेरा यह निवेदन है मेरे पास ये 10000 रुपये पड़े हैं किसी भक्त ने दिया है. ये तू ले जा, तेरे परिवार के लिए और यहां से जल्दी से जल्दी चला जा. मैं नहीं चाहता मेरी मौत के बाद इसकी सजा तेरे को मिले. साधु सन्तों का जीवन व्यवहार कैसा? उन्हें मालूम है इस व्यक्ति ने मुझे जहर दिया है. परन्तु यह सदाचार का पुण्य प्रभाव जो हमेशा सद् विचार का पोषण करता है. कभी दुर्विचार को आने नहीं देता. मरते समय भी दुर्विचार नहीं आने दिया. मन में यह विचार नहीं आया, मेरा शत्रु है, मुझे मार करके जा रहा है. दस हजार रुपया देकर उसे विदाइयां दी. तू चला जा. तुमको जाना हो चले जाओ, और परिवार के भरण पोषण में तुम्हें जितना उपयोग करना हो दस हजार से करना. सौ साल पहले दस हजार का क्या मूल्य था. आप सोच लेना. ऐसा कौन व्यक्ति है जो मारने वाले को बचाने का प्रयास करे. यह सदाचार का पुण्य प्रभाव है. ब्रह्मचारी आत्माओं के विचार में कभी दुर्विचार का प्रवेश नहीं होगा. इसीलिये साधु की अवस्था में, साधना के अन्दर इसको विशेष महत्व दिया. जितना सुन्दर इस व्यवहार का पालन कर सके तो सारी साधना को वह सक्रिय बनायेगा. सारी साधना सुगन्धमय बनेगी. इसमें बड़ी प्रचण्ड ताकत है. हमारे पूर्वजों ने निरर्थक इसका गुणगान नहीं गाया है, जहां जायें वहीं पर इसका चाहे वैदिक परम्परा हो, चाहे बौद्ध हो, चाहे जैन परम्परा हो, या अन्य किसी भी धर्म, मत, पंथ में जायें ब्रह्मचर्य का गणगान हर जगह मिलेगा. यह संगीत हर जगह सुनने को मिलेगा. Malo 486 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - हमारी भारतीय परम्परा में इसका सबसे अधिक महत्व है. अगर सदाचार गया तो सब कुछ गया, बाकी लाश है. सारी साधना प्राण शून्य है. साधना में किसी भी प्रकार की जागृति नहीं मिलेगी. एक संकल्प करना है. पर्युषण में आठ दिन पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करूगा. और इस पर्व की मैं आराधना करूंगा. ब्रह्मचर्य पूर्वक सत्यनिष्ठ व्यक्ति यदि आराधना करे, वह आराधना उसके लिए वरदान बन जाये बिना मन्त्रेण सिध्यति. कोई मन्त्र साधना को सिद्ध करने के लिए सर्व प्रथम शर्त हैं. ब्रह्मचर्य पालना उसी ब्रह्मचर्य के लिए तप कराया जाता है ताकि साधना में आत्मा निर्विकारी रहे. सतत चिन्तन के निमित्त उसे दिया जाता है ताकि दूसरे गलत विचार उसमें न आ जायें. काम के बाद दूसरा सबसे खतरनाक शत्रु है, क्रोध, उसका परिचय दिया. क्रोध पर विजय कैसे पाई जाये. ऊपर से नीचे तक सर्व व्यापी साम्राज्य है. साधक आत्माओं के अन्दर भी प्रवेश करता है. सामान्य व्यक्तियों के अन्दर भी चोट पहुंचा देता है. जीवन के हर क्षेत्र में यह आपके साथ चला जाता है और अन्दर रहा हुआ यह शत्रु कभी नहीं प्रकट होता है. आद्य शंकराचार्य काशी गये थे. महान विद्वान पुरुष थे. गंगा स्नान करके विश्वनाथ के मन्दिर जाने वाले थे प्रात: काल ब्रह्म मुहूर्त था एवं अन्धकार में कोई हरिजन रास्ते में गलियों की सफाई कर रहा था. वह झाडू उनके शरीर से स्पर्श कर गया. युवा अवस्था थी. ब्रह्मचारी थे. बडी गर्मी आई, क्रोध में बोले - "किस चण्डाल का स्पर्श मुझे हो गया. मझे फिर स्नान करने जाना होगा" आवेश में आ गये. क्रोध में आ गये. आये भूमि का संस्कार ऐसा. हरिजन ने हाथ जोड़कर के क्षमा याचना की. कहा - "मुझे भी आप क्षमा प्रदान करें. मुझे भी स्नान करने जाना पडेगा." _ शंकराचार्य ने पूछा - “तुझे किस बात का स्नान करना है?" जरा गुस्सा शान्त हुआ. याचना से. उसने कहा - "मुझे महाचाण्डाल का स्पर्श हो गया." शंकराचार्य ने पूछा - “महाचाण्डाल फिर कौन है?" "भगवन्! आपके अन्दर भरा क्रोध महा चाण्डाल है उसका स्पर्श हो गया. मेरी पवित्रता भी गई. मुझे भी गंगा स्नान करने जाना है.” उसी समय शंकराचार्य अपनी भूल स्वीकार कर ली, आज के बाद कभी क्रोध नहीं करूंगा. इतने महान पुरुष तक, इतने महान विद्वान तक, इस क्रोध की पहुंच है, वहां तक यह आक्रमण करता है. क्रोध की ज्वाला में अपनी सारी शक्ति को जलाकर राख बना देता है. यही क्रोध का परिणाम था कि महावीर को इतना कष्ट सहन करना पड़ा. पूर्व भव में ऐसे कर्म उपार्जन करके आये, जिसका परिणाम परमात्मा को भोगना पड़ा. उपसर्ग 487 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir FO -गुरुवाणी होने का कारण क्या था, जो भूल थी, उसकी सजा मिली, कर्म का व्यवहार तो सब जगह एक समान होता है. ___ ऋषि मुनियों का यह अपूर्व चिन्तन. जरा विचार में लाइये. क्रोध और कषाय का परिणाम कितना खतरनाक होता है. हृदय में जहां अमृत का उत्पादन होना चाहिये वहां से क्रोध जहर उत्पादन करता है. पर्युषण पर्व की आराधना क्रोध की सबसे बड़ी दवा है. इसका सबसे बडा उपचार है, क्षमा की मंगल भावना. यह भावना कैसे आये? किस प्रकार से इसको लाना चाहिये? जहां तक क्षमा की भावना नहीं आये, वहां तक पर्युषण आराधना निरर्थक है. कल्पसूत्र के अन्दर आता है: जो उव्व सम्मई अव्वम् तस्स अत्थी आराहना जो न उव समई अव्वम् तस्स नत्थी आराहना भगवान ने कहा जो आत्मा पयुर्षण महान पर्व में, अपने हृदय को शुद्ध करके क्षमापना करे, उपशम भाव शान्त अवस्था में रहे. उस आत्मा की आराधना पर्युषण सफल. बाकी तो नाटक है. अपने हृदय को जरा टटोलें देखें मंगल कामना करें, भगवन, मेरे हृदय में भी क्षमा की भावना आ जाये. सामान्य व्यक्तियों में भी कई बार हम इस प्रकार की भावना देखते हैं. एक मैत्री की भावना आ जाये तो सामन वाले व्यक्ति में सदभाव उत्पन्न हो जाता है, वह परमाणु प्रेम का साम्राज्य कायम करता है शंकराचार्य पूरे देश में परिभ्रमण कर रहे थे. मन में एक विचार किया कि मेरा मठ किस जगह हो. घूमते-घूमते दक्षिण में गये. वहां जाकर के किसी सन्त पुरुष के आश्रम में ठहरे उनको मालम पडा भयंकर गर्मी के अन्दर एक मेण्ढक घायल हो गया था. किसी कारण से वहां एक सर्प आया सर्प ने फल तानकर उसको छाया देनी शुरू की. शंकराचार्य ने विचार किया, कि यह मेरी आंख का कोई भ्रम तो नहीं है यह कोई जाद् तो नहीं है? इसमें क्या हकीकत है? अन्य ऋषि मुनियों से शंकराचार्य ने पूछाजो यह देख रहा हूं, यह सत्य है या असत्य है? ऋषि मुनियों ने कहा-भगवन! यह तो पूर्ण सत्य है, ऐसी घटनायें तो हमें बहुत देखने को मिलती हैं यहां पर. कारण: यहां पर श्रृंगेरी ऋषि हुए हैं. महान तपस्वी थे श्रृंगेरी ऋषि, क्षमा की मूर्ति थे. उन्हें कोई आकर गाली दे तो भी उनके अन्दर से आशीर्वाद निकलता था. महापुरुष थे. उन्हीं की यह तपो भूमि है. यहीं पर तप किया था. उनकी मृत्यु के बाद उनकी समाधि यहीं पर रखी गई. उसका प्रभाव इस से जमीन में आने वाले जीव जन्तु अपना वैरभाव भूल जाते हैं. यहां ऐसी भावना उनमें आ जाती है. जो आप आखों से देख रहे है. कन 488 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: मेंढक सर्प का भक्ष्य है. सर्प देखे तो तुरन्त खा जाये. परन्तु वह इसके रक्षण के लिए फन निकाल करके बैठा है. इसकी दयालुता देखी, यही आश्चर्य / मरे हुए सन्त के परमाणु में भी यह ताकत. उनकी समाधि पर आये हुये सर्प का भी क्रोध शान्त हो गया. शंकराचार्य ने निर्णय किया कि मेरा सर्व प्रथम मठ यहीं पर बनेगा. वह मठ आज भी मौजूद है. श्रृंगेरी मठ श्रृंगेरी ऋषि के नाम से ही उस आश्रम का निर्माण किया. उन्होंने सर्व प्रथम अपना केन्द्र बनाया. यह घटना तो हम हर रोज देखते हैं. ब्रह्मचर्य के प्रभाव से आत्मा को क्या बल मिलता है, उसका तो अनेक बार परिचय किया. ऐसी दिव्य शक्ति अन्तर से प्रकट करता है जो शब्दों से नहीं समझायी जा सकती. वह अनुभव की वस्तु है. ऐसी प्रचण्ड शक्ति का जन्म अक्रोधावस्था में आता है. क्षमा की मंगल भावना से मिलता है. ऐसे एक नही, अनेक प्रसंग मिलेंगे उस वर्तुल में चले जाएं. तिरुचनापल्ली हम गये थे. रमण महर्षि के आश्रम में बहत बडे मन्दिर की वहां प्रतिष्ठा थी. बहुत बड़ा धार्मिक केन्द्र है. जब वहां पर गया, उस जगह पर मैंने देखा जहां आश्रम है बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति रमन महर्षि के पास दर्शन के लिए आया करते. महर्षि मठ के पास बहुत से विदेशी उनके दर्शनों के लिए आते थे. वहां का वातावरण इतना सौम्य और शान्त है. बहुत विशाल आश्रम है. जब मैंने पूछा तो वहां के लोगों ने उनका जीवन प्रसंग बतलाया कि उनकी लघुता कैसी थी. उस आत्मा का प्रेमभाव कैसा? उसका एक नमूना बतलाया. ____ आश्रम में सर्व प्रथम जब रमण महर्षि आये. कई बार वहा सर्प बिच्छू निकलते उनके शरीर पर पाये जाते वे ध्यान मग्न बैठे रहते इस आश्रम में कभी किसी सर्प ने किसी को डसा नहीं, बिच्छू ने डंक मारा नहीं. कभी जंगली जानवर ने आकर के किसी जीव जन्तु को नुकसान पहुंचाया नहीं. एक आत्मा के मंगल भावना के ये परिणाम, वहां का वायुमण्डल परिवर्तित हो गया. वहां पर रात्रि में जब चोर चोरी करने आये, चोरों को जब आश्रम में कुछ नहीं मिला, सन्तों के पास क्या होगा. सन्त थे. उनके पास कुछ था नही. चोरों ने देखा कि इसने जरूर कहीं छिपा कर रखा है. इतने बड़े-2 आदमी इनके पास दर्शन करने आते हैं जरूर दान दक्षिणा देते होंगे. चोरों के मन में ऐसा एक गलत विचार था. रमण महर्षि को उन चोरों ने रात्रि को मारा हाथ पांव में बहत मारा, तो भी एक शब्द नहीं बोले. आश्रम में जब कुछ न मिला तो खाने के बर्तन पड़े थे. वे बर्तन लेकर चले गये. वहां अग्रेज कलेक्टर था, जब उसे मालूम पडा, उनका परम भक्त था. हकीकत मालूम पड़ी, पुलिस के साथ वंहा आये, गांव गांव में चोरों की खोज शुरू हो गई. एक शब्द भी रमण महर्षि ने इस विषय में नहीं कहा.. चोरों को पकड़ करके लाया गया. लाकर के रमण महर्षि से पूछा-भगवन्, आप बतलाइये, आपको कष्ट देने वाले, हाथ पांव तोड़ देने वाले, यही सब दुष्ट पुरुष हैं. इन्हें Marall 489 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी: ATM पकड़कर के लाये, सख्त से सख्त उनको क्या सजा देनी है? आपका क्या आदेश है? आपके यहां से ये बर्तन चोरी करके गये, वह मैने बरामद कर लिये हैं. यही व्यक्ति थे, यह सत्य हो गया. ये लोग निर्दोष हैं, मेरे साथ कोई गलत व्यवहार नहीं हुआ, रात्रि के अंधकार में ऐसे ही चोट लग गई. और जो होना था. हो गया परमात्मा को याद रखता हूं. बाकी सब याद मैं भूल जाता हूं. कौन आया, कौन गया. मुझे कुछ मालूम नहीं. यह शरीर धर्म हैं किसी ने चोट पहंचाई सहन कर ली. पर्वकाल में मैंने कोई पाप किया. सजा मिल गई. यह निर्दोष हैं इन्होंने मेरे साथ कोई गलत व्यवहार नहीं किया. कलेक्टर कहता है-गलत व्यवहार नहीं किया तो बर्तन इनके घर में से कैसे निकले? बर्तनों की इनको जरूरत थी. मैंने भेंट कर दिया. इन्होंने चोरी नही की. मेरा भी तम से खास आग्रह है. अगर तुम मेरे भक्त हो तो इनको छोड दो. ये निर्दोष हैं, यह मेरा आदेश है. साधु सन्त किसी को जगत के बन्धन में डालने नहीं आते. वे तो बन्धन से मुक्त कराने आते हैं. एक महान आत्मा, सदाचारी जीवन जीने वाली आत्मा, उसके व्यवहार की दृष्टि देखिये. इतना भयंकर मार मारने वाले दुष्ट पुरुष, बर्तन आश्रम से ले जाने वाले, उनको निर्दोष कहकर छुटकारा दिला दिया. पर्युषण की मंगल आराधना में महावीर के परमोपासक. हमारे यहां वर्ष भर का चौपड़ा पंचायती उसी दिन खोलेगे, नहीं करने जैसा नाटक उसी दिन करेंगे. नही बोलने जैसे शब्द उसी दिन निकालेंगे. सारी प्रदर्शनी हो जाती है इसीलिए हमारी आराधना फलती नहीं. निष्फल जाती है, उसके पीछे यही कारण है. उसके अन्दर क्षमा मंगल भूमि नहीं. पुलिस स्टेशन में सौ गाली सुनकर के आ जायेंगे, स्टेशन में सौ गाली सुनकर के आ जायेंगे, आशीर्वाद समझकर के आएंगे. परन्तु यदि कोई धर्म प्रेमी आत्मा दो शब्द आत्मा के लिए कहे. अगर कोई साधु सज्जनता से दो शब्द आपकी आत्मा के हित के लिए कहे तो चेहरा धनुष जैसा तन जायेगा. पुलिश स्टेशन में वीतराग का रूप धारण करेंगे. अप्पाणम् बोसिरामी वह गाली भी आशीर्वाद लगती है. कहां पर्युषण कल्प बने. कल्प सूत्र श्रवण करके जीवन को कल्पवक्ष जैसा बनाना है जो परम्परा में मोक्ष का फल दे. क्रोधावस्था वही खतरनाक अवस्था में है. आज समय हो चुका है कल, क्रोध के विषय में समझाऊंगा. "सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" 490 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी क्रोध पर संयम परम कृपाल जिनेश्वर परमात्मा ने जगत के जीव मात्र के कल्याण के लिए धर्म प्रवचन के द्वारा जीवन का मार्ग दर्शन दिया है. किस लक्ष्य तक पहुंचना है? उस लक्ष्य का परिचय इस प्रवचन के द्वारा दिया है. इन शब्दों के द्वारा विचार का ऐसा सुन्दर प्रकाश दिया कि जीवन की यात्रा में कहीं किसी प्रकार की दुर्गति या दुर्घटना न हो. ___परमात्मा के विचारों के प्रकाश के अन्दर, जीवन की यात्रा का पूर्ण विराम मुझे प्राप्त करना है, यह गतिमय चेतना है, इससे दुर्गति न हो जाये इसलिए सावधान हो जाना है, जीवन के अन्दर जरा सा प्रमाद अनन्त मृत्यु का जन्म स्थान बनता है. गाड़ी लेकर के सेल्फ ड्राइविंग करके आप रास्ते से जा रहे हों, जरा भी वहाँ पर प्रमाद आ जाये, परिणाम कितना अनर्थकारी होता है. यह जरा सी भूल जीवन में कई बार बड़ी खतरनाक बनती है. व्यक्ति व्यवहार के अन्दर कह देते हैं. "जरा सी भूल हो गई, प्रधानमन्त्री नीति में जरा सी भूल करे तो देश के लिए कितना खतरनाक होता है? ड्राइवर जरा सी भूल कर जाए तो मौत का कारण बनता है. रात्रि में सोए हों और जरा सी आग की चिंगारी लग जाये और आप उपेक्षा करके प्रमाद से सोए रहे तो क्या परिणाम होता है? खाने में जरा सा जहर आ जाये वह कैसा घातक बनता है? नाव में बैठ करके गंगा पार कर रहे हों, यदि नाव में जरा सा छिद्र हो जाये, उसका परिणाम क्या होता है? गाड़ी लेकर के आप जा रहे हों, गाड़ी के टायर में जरा सा पंचर हो जाये, कैसी रुकावट पैदा हो जाये? ___ आप बिल्कुल स्वस्थ हों, आराम से बैठे हों., जरा सा अटैक आ जाये, क्या स्थिति होती है ? रास्ते चलते समय पांव में कांच या कांटा लग जाये, क्या परिणाम होता है? गति रोक देता है. सारा ध्यान वहां केन्द्रित हो जाता है. कहने को कहा जाता है जरा सी चीज है, परन्तु यह जरा सी चीज कितनी खतरनाक होती है, कभी आपने सोचा है? जीवन की साधना में यदि हम जरा सी भूल कर जाएं, भूल का परिणाम क्या आयेगा? परीक्षा में यदि बालिक जरा सी भूल कर के आ जाये, क्या परिणाम आता है? पूरा वर्ष उसका पानी में जाता है. जरा से समय का भी बहुत बडा मूल्यांकन किया गया है, कि मेरा जरा भी समय व्यर्थ क्यों जाये? समय का उपयोग साधना में है. सद्विचारो में, सेवाकार्यों में मुझे करना है. जीवन के हर व्यवहार का धार्मिक दृष्टि से इस धर्म बिन्दु ग्रन्थ द्वारा उस महान आचार्य ने परिचय दिया. यह परिचय विक्रम शताब्दी सात सौ में दिया गया. इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत सात सौ के अन्दर हुई. उस समय आचार्य भगवन्त ने दीर्घ दृष्टि से इस / an 491 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी भावी काल को देखकर के हमारे सबके उपकार के लिए इस ग्रन्थ की रचना की ताकि जीवन का हर व्यवहार धर्म प्रधान बने. जीवन का हर क्षेत्र उपयोगी बने. जीवन का हरेक कार्य आत्मा को लाभदायक बनें. जरा सा प्रमाद अनन्त मृत्यु का कारण बनता है. यहां उस महान पुरुष ने आत्मजागृति के लिए कहा. जिस मकान में यदि प्रकाश होगा वहां पर चोर का प्रवेश पाना बहुत कठिन होगा. प्रकाश के अन्दर मकान, बंगला, सुरक्षित है यदि अन्धकार होगा तो अन्धकार में चारो का आना बड़ा सरल होता है. अनेक प्रकार के भय की वहां सम्भावना रहती है. मकान या बंगले में यदि चौकीदार है, कोई खतरा नहीं. निश्चिन्त होकर सो सकते हैं, परन्तु यदि दरवाजा खुला है और चौकीदार वहां नही है तो चोर का आना बड़ा सरल हो जाता है, सेठ आत्माराम भाई का यह बंगला है, जो हम लेकर के चलते हैं. यदि इसमें ज्ञान का प्रकाश नही रहा तो अज्ञान के अन्धकार में कर्म का चोर तो इसमें प्रवेश करेगा ही. यहां ज्ञान का प्रकाश इसीलिए दिया जा रहा है ताकि अन्धकार में भटकें नहीं. अपना रास्ता स्वयं प्रकाश में देख लें. इन विचारों के द्वारा जीवन की जागृति दी गई ताकि व्यक्ति विवेक का चौकीदार अपने मकान में उपस्थित रखे, दुर्विचार का प्रवेश न हो. जिस मकान में चौकीदार और प्रकाश होगा, वह मकान लूटा नही जायेगा. जहां सम्यक ज्ञान का प्रकाश होगा और विवेक का चौकीदार जिस बंगले में रहेगा, उस आत्माराम भाई के मकान में कभी लूट की सम्भावना नहीं रहेगी. ये दोनों ही आवश्यक हैं. लेकिन भगवान महावीर की भाषा में अन्तर कर्म के शत्रुओं को मान करके चलने वाला व्यक्ति सज्जन है. जो व्यक्ति बाहर से शत्रु मानता है वह शैतान है, उसके अन्दर वैर की भावना है, कटुता भरी हुई है और न जाने कब वह अनर्थ कर जाये. जो व्यक्ति अपने अन्तर में कर्म को शत्र मानकर के चले, वह व्यक्ति महान बनता है, सज्जन कहलाता है. अन्तरात्मा में अपने ही दुर्विचार को शत्रु मानकर के चले. बाहर कोई शत्र नहीं है, यह हमारी दृष्टि का विकार है, बाहर तो परिणाम है, कारण तो अन्दर छिपा है, कारण तो अपना कर्म है. बिना कारण के कोई कार्य जगत में नहीं होता. आप कारणों को खतम कर दीजिए, कार्य स्वयं नष्ट हो जायेंगे. अन्तर से शत्रुता खत्म कर दीजिए, बाहर के सारे ही शत्रु मित्र बन जायेंगे. परमात्मा ने क्षमा की मंगल भावना से कषाय पर कैसे विजय प्राप्त करना? किस प्रकार से अपने अन्तर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना? वह सारा ही रास्ता उन्होंने बतलाया है. वह टैक्नीक इन सूत्रों द्वारा बहुत कुछ समझाई भी है. आज फिर कहूं क्योंकि इस अध्याय का यह अन्तिम सूत्र है. जो विषय चल रहा है कि ये षट् रिपु आत्मा के बडे शत्रु है, उनका नाश हमें करना है. 492 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी भले ही शत्रु देखने में छोटे नजर आयें परन्तु आगे चलकर के आत्मा को भयंकर नुकसान पहुंचाने वाले हैं इसीलिए सारी चीज बतलाई कि एक छोटी सी चीज देखकर उसकी उपेक्षा मत करना क्योंकि उपेक्षा का परिणाम आगे चलकर के बडा अनर्थकारी होता है. काम, क्रोध मद, मान, लोभ, हर्ष इति षट्रिप। ये छः आत्मा के प्रबल शत्रु हैं. कल समझाया था कि काम पर कैसे विजय प्राप्त करना, चौरासी चौबीसी तक उस महापुरुष का नाम रहने वाला हैं जिन्होंने वेश्या के घर पर रहकर के चातुर्मास किया. काजल की कोठरी में रहकर के बेदाग निकले. कोयले की दलाली में भी जिनके हाथ कभी काले नहीं हुए. पाप के घर में रहकर भी जिसने पाप पर, वासना पर विजय प्राप्त की. शत्र के घर में रहकर के भी घायल नही हए. वे महापुरुष स्थूल भद्र स्वामी. पच्चीसों वर्षों में मात्र एक ऐसे पुरुष हए जिनके लिए मन में सहज ही आदर प्रकट होता है. शरीर के अन्दर निर्विकार भावना से उन्होंने अपने जीवन में साधना की. एक रोम में भी जिसके वासना नही थी, यह स्थिति प्राप्त करने के लिए उनका कैसा महान मनोबल होगा. सब प्रतिकूल संयोग थे. जरा भी अनुकूलता नही थी. ऐसी भयंकर प्रतिकूलता में रहकर भी उन्होंने अपने मन पर अधिकार जमाए रखा, जरा भी विचलित नहीं हुए. ऐसे महापुरुष के गुणानुवाद द्वारा ऐसी स्थिति हम भी प्राप्त करें कि संसार में रहकर काम, क्रोधादि शत्रुओं का कैसा भी भयंकर आक्रमण हो जाये परन्तु हम अपनी मर्यादा से जरा भी विचलित न बनें. प्राणों का मूल्य चुका करके भी इन व्रतों का रक्षण करना है. सदाचार सामान्य वस्तु नही है, आत्मा का बहुत बड़ा गुण है. इस गण को जितना विकसित किया जायेगा, उतनी ही आत्मा प्रसन्न बनेगी. वही चित्त की प्रसन्नता एक दिन आत्मा को पूर्णता प्रदान करेगी. उस स्थिति तक हमें जाना है. संसार तो ऐसे ही चलता रहेगा. कहां तक संसार को और संसार के व्यवहार को हम देखेंगे. व्यवहार तो हम लोगों ने मिलकर के निर्णय किया है. प्रकृति अपना कार्य करती है. जाने से पहले मुझे अपना कार्य पूर्ण कर लेना है. व्यक्ति को संसार के लिए फुरसत मिलती है, संसार की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है, संसार जरूरी है परन्तु मर्यादित होना चाहिए. कुछ स्वयं के लिए भी समय निकालना चाहिए. परन्तु बाकी आदत से लाचार है. संसार के लिए पूरी फुरसत, सुबह से शाम तक रोड मापने के लिए फुरसत, दुकान में मजदूरी करने के लिए समय मिलता है, भटकने के लिये समय मिलता है, इधर उधर की चर्चा करने के लिए समय मिलता है, आत्म चिन्तन के लिए दो घड़ी भी हमारे पास में नही है. जो अति आवश्यक है. यदि कहा जाये तो कहेंगे समय नहीं है. जैसे बड़े महत्वपूर्ण ber 493 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी व्यक्ति हैं. बहत बडी जवाबदारी लेकर के चलते हैं. जाने कितने महत्वपर्ण व्यक्ति है कि अपनी आत्मा के लिए दो घड़ी नही दे सकते हैं. इन्हें मालूम नहीं कि कल हमें मरना है. सारी मजदूरी हमारी यहां ही रह जायेगी, नफा में कुछ नही मिलेगा. संसार में नफा की आशा ही छोड दें. जो मुझे लेकर के जाना है उसके लिए कोई मेहनत नहीं की और जो छोड़कर जाना है जीवन पर्यन्त उसी के लिए मजदूरी करते रहे, यह मालूम है कि छोड़ करके जाना है. कैसी दशा है? ___ "मेरे पास समय नही है,” ये लोग बहाना निकालते हैं, सारे संसार के लिए उनके पास समय होता है, परमात्मा के स्मरण के लिए फुरसत नहीं, किसी ने बहुत सुन्दर बात कही "अगर परमात्मा के स्मरण के लिए स्वयं की आत्मा के लिए तुम्हारे पास समय नहीं तो जगत में तुम बहुत दया के पात्र हो.” उसने कहा. कुछ काम कर लो, कुछ काम करलो दुनिया में आकर कुछ नाम कर लो, यदि नही है तुमको फुरसत आराम से, तो मुर्दो के साथ जाकर कब्र में आराम कर लो. जगत में आये हो तो कुछ काम करो. कार्य के द्वारा तुम लोगों के हृदय में सदैव जीवित रहो. मरने के बाद भी लोग जीवित रहते हैं. हर आत्मा की स्मृति में उनका स्मरण कायम रहता है. उनके कार्य हजारों वर्षों तक लोगों को प्रेरणा देते हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो प्रमाद से घिरे हुए हैं. उन्होंने कहा मुझे कोई आपत्ति नहीं, मुर्दो के साथ जाओ कब्र में आराम करो. कोई उठाने वाला नहीं, कोई जगाने वाला नहीं, वहां जाकर कोई पूछने वाला नहीं. __ हमारा जीवन बिल्कुल निष्क्रिय बन चुका है. मूर्च्छित चेतना लेकर के चल रहे हैं. आत्म जागृति नाम की कोई चीज नही है, संसार की वासना तो ऐसी ही रही. मै रास्ते में जा रहा था. कोई बहत सम्पन्न व्यक्ति था, धनाढ्य था. अंतिम समय की तैयारी चल रही थी, लोग उन्हें रास्ते से लेकर जा रहे थे, मुझे किसी व्यक्ति ने कहा-महाराज, देखिए. बहुत बड़ा श्रीमन्त व्यक्ति था, लोग इसे ले जारहे हैं. भाग्य सम्पन्न था, बहुत सुन्दर तरीके से जीवन जीने वाला व्यक्ति था. अपार संपत्ति उसके पास थी. बहुत बडे-बडे व्यक्ति उसे अंतिम सस्कार के लिए ले जा रहे है. मेरे साथ चलने वाले व्यक्तियों को कहा-ये जहां जा रहे हैं वहां तो सभी जाने वाले हैं, पर हमारी यात्रा एक अलग प्रकार की है, साधु श्मशान से मोक्ष की तरफ जाता है. संसार की वासना से स्वयं को मुक्त करता है. हम श्मशान तो जायेंगे परन्तु हमारा प्रस्थान श्मशान की तरफ ले जाये जा रहे इस धनाढ्य की तरह नही है जिसे संसार में वापस आना है साधु श्मशान से मोक्ष जा रहा है. अन्तर इतना हैं. गुन - 494 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी जाने के तरीके में अन्तर है. एक अपनी स्थिति को प्राप्त कर रहा है, एक अपनी परिस्थिति से लाचार है. परिस्थित वश जाना है या स्वतन्त्र होकर संसार से मुक्त बनना है? यह निर्णय हमें करना है परमात्मा की आराधना, परमात्मा की भक्ति संपूर्ण कर्मो का नाश कर देती है, 1965 में जब मेरा चर्तुमास जोधपुर में था, उस समय करीब 256 बम गिरे होगें. पाकिस्तान का भयंकर आक्रमण था. एक-एक बम के विस्फोट एक एक हजार पौन्ड के थे, अगर आप कान में रूई न डालें तो कान के पर्दे फट जायें, बीस किलोमीटर दूर हम से बम गिरता था, आवाज इतनी भयंकर कि व्यक्ति थर-थर कांपने लग जायें. ___ मकान क्रेक हो गये. न जाने कितने मकान बंगले तोड डाले, मेरा चिन्तन यही था कि बम कितना निरपेक्ष है, मारते समय कभी यह नहीं सोचता कि ये हिन्दू है, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, सिख हैं, बच्चे हैं, बूढे हैं, किस धर्म के हैं? किस जाति के है? यह जहां गिरता है, सबको मारता है, किसी भी व्यक्ति का हो, किसी भी संप्रदाय का हो. गरीब हो, बूढा हो, बच्चे हों, बीमार हो, इसकी आंख नहीं होती. सबके साथ एक जैसा व्यवहार करता है. जब कभी गिरेगा तो सबको मारेगा. प्रार्थना करते-2 मेरे मन में विचार आया, परमात्मा की शक्ति भी तो बम जैसी है, बम से भी ज्यादा शक्ति है परमात्मा के स्मरण में, परमात्मा का स्मरण किया जाये तो बम तो सबको मारता है और परमात्मा का स्मरण सबको तारता है किसी भी जाति का हो, किसी भी मत का हो. बम गिरते समय जरा भी भेदभाव नही रखता. परमात्मा का स्मरण भी इतनी शक्ति रखता है. कोई भी आत्मा उसका स्मरण करे और उसका विस्फोट अन्दर में हुआ हो, हिन्दू हो, मुसलमान हो, कोई भी हो, सबको तार देता है. बम्ब में मारने की ताकत है और परमात्मा स्मरण से तारने की ताकत है, दोनों में से उसे पसन्द करना है अन्दर में जितने भी कर्म हैं, ये बम जैसे हैं. काम के द्वारा इसका विस्फोट हो सकता है, क्रोध के द्वारा इसका विस्फोट हो सकता है, माया प्रपंच द्वारा इसका विस्फोट हो सकता है, जब भी विस्फोट होगा, आत्मा के लिए घातक सर्वनाशक है. मर जाये उसकी चिन्ता नहीं, मरने पर दुर्गति होती है. अनन्तकाल की पीड़ा अन्दर में उपस्थित करता है. मौत तो एक बार क्षण मात्र के लिए दर्द देगी परन्तु मरने के बाद जो दुर्गति की पीडा है वह बडी भयंकर पीडा है. उससे बचने के लिए परमात्मा का स्मरण ही एक मात्र उपाय है. किसी व्यक्ति ने पूछा-क्रिया न करूं, तप न करूं, कोई ऐसा कार्य न करूं, तो भी परमात्मा की शक्ति उपर से उतरेगी. मैंने कहा-बेशक. आपको तैरना नही आता, आप हाथ पांव न हिलायें, हाथ पांव हिलाने की जरूरत नहीं- मैं आपको टयूब देता हूं पानी में जाइये तो डूबेंगे नहीं. हा 495 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी बस इसी लाइफ जैकेट जैसा काम परमात्मा का स्मरण है, आप कुछ मत करिये निष्क्रिय रहिए, मात्र अन्तर्भाव से उस स्मरण में सक्रिय बन जायें. इस स्मरण में यह ताकत है कि आपको संसार में डूबने नही देगा. आपको तैराएगा. लाइफ जैकेट किस को पहनाया जाता है. जिसको तैरना न आये. हाथ पांव चला सके, भयं, से मुक्त करने के लिए यह व्यवस्था दी जाती है टयूब का आश्रय दिया जाता है कि पानी में डूबे नहीं. यहां भी यही रास्ता है, आप साधु नहीं बन सकते, आप व्रत नियम नही ले सकते, जीवन की कोई ऐसी क्रिया जप, तप नहीं कर सकते तो हमारे यहां व्यवस्था है, परमात्मा के स्मरण का लाइफ जैकेट हम दे देते हैं ताकि हमारी कोई भी संसारी आत्मा जगत में डूबे नहीं, तैरती रहे. तैरना तो सीखना होगा. आप यदि आग्रह करें कि मुझे पहले तैरना सिखाओ बादं में छलांग लगाऊं तो आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ. बिना सीखे तो तैरना आता ही नहीं. जब तक कूदेंगे नहीं, वहां तक तैरना कभी नहीं आयेगा साहस तो होना ही चाहिए, बिना साहस के साधना में प्रवेश होता ही नहीं. बिना साहस के आप कूदेंगे ही नहीं तैरना कहां से आयेगा. संसार में हम तैरने के लिए आये, वह स्थिति हमें प्राप्त करनी है. इन्सान अपनी बुद्धि का उपयोग बहुत कर रहा है. बम्बई में एक मकान में गया, संयोग से बाईसवें माले तक चढ़ना पड़ा. चढ़ते-चढते मैंने सोचा कि मकान तो इन्सान बहुत ऊंचा बनाता है, अभी बम्बई में एक सौ मंजिला इमारत बन रही है, बत्तीस पैंतीस तो बहुत है, सौ मंजिल इमारत बनने का प्लान नक्की हो गया. मैंने सोचा, इन्सान जितनी ऊंची इमारत बना रहा है, उतना ही इन्सान छोटा बनता जा रहा है. इमारत की तरह अपने विचारों को ऊंचा बनाइये. अपने आदर्शों को उचाइयों पर ले जायें. ये तो जड़ हैं, अपने चैतन्य को उर्ध्वगामी बनायें. चेतना का ऊर्चीकरण करें, आदर्श की उंचाईयों पर जायें परमात्मा का दर्शन करें. आत्मा की अनुभूति होगी. साधना का स्वाद मिलेगा. एक प्रकार का दिव्य संगीत मिलेगा. हमने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया. पाली में चातुर्मास था. डाक्टर ने देखकर के कहा-आप को विश्राम की जरूरत है, आपका हार्ट एनलार्ज हो रहा है, डाक्टर ने कहा-हार्ट जब एनलार्ज होता है उसकी पोलाई बढ़ जाती है इन्सान के लिए वह मौत का पैगाम है. मौत को बुला कर लाती है, हार्ट ठीक से वर्क नही करता. जब गुरु महाराज जी ने एक शब्द कहा-डाक्टर साहब! मैं तो साधु हूं, घर से निकला हूं, कफन साथ लाया हूं, मौत की मुझे कोई परवाह नहीं जो परमात्मा ने ज्ञान से देखा है वह तिथि निश्चित है. जाने के लिए मैं तैयार हूं, परन्तु एक बात मैं आपसे कहूं? हार्ट का एनलार्ज होता है तो मौत को लेकर के आता है. ऐसा आप का कहना मौत की वार्निंग है. 496 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी डाक्टर साहब यदि हृदय विशाल बन जाये, प्राणी मात्र का समावेश हो जाये तो पाप मर जाता है, मौत मर जाती है, हार्ट एनलार्ज होता है, हार्ट जब फैलता है, पोला होता है तो डाक्टर कहता है- तुम मर जाओगे. गुरु महाराज कहते हैं यदि तुम्हारा हृदय विशाल बन जाये. "उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्" यह प्राणि मात्र मेरे परिवार के सदस्य हैं, सभी का समावेश हो जाये हृदय की विशालता पाप को मार डालती है, मौत को मार डालती है. हार्ट एनलार्ज हो जाये, उसकी कोई चिन्ता नहीं. हृदय का ईलाज करिये, पाप मर जायेगा. बहुत सहज उपाय है. हम कभी इस तरफ ध्यान नही देते हैं. आध्यात्मिक गवेषणा कभी नहीं करते. कुछ चिन्तन होगा नहीं, मैं कौन हूं? क्या हूं? मेरी स्थिति क्या है? ___ मुझे अपने जीवन का नव निर्माण किस प्रकार करना है, आत्म विकास किस प्रकार की साधना से करना है? कभी इस पर विचार या चिन्तन नहीं किया. चिन्ता की चिनगारी यदि जरा भी लगी होती तो पाप और वासना जल करके राख बन गई होती. आज तक चिन्तन की चिनगारी हमने प्रकट ही नहीं की. कभी जीवन की गहराई में हम गये नहीं. जहां जाने पर आत्मा को परमतत्व की प्राप्ति होती है. समुद्र की गहराई में उतरने के बाद ही मोती मिलते हैं. प्रवचन की गहराई में डुबकी लगायें तभी रत्न मिलते हैं, जो मोती से बहुत मूल्यवान हैं. हमने कभी डुबकी लगाई ही नहीं. फिर भी सब कुछ पाना चाहते हैं. सारा जीवन पाप और वासना में चला गया. यू डू नोट वरी, कोई चिन्ता न करें. उपाय परमात्मा ने बतलाया है, कुंआ के अन्दर पानी भरने जाये. कदाचित हाथ से अगर रस्सी सरक जाए, पूरी बाल्टी अन्दर, पूरी डोरी हाथ से अगर निकल जाये, मात्र चार अंगुल डोरी आपके हाथ में रह जाये तो पूरी बालटी बाहर आ जायेगी. आपने देखा अनुभव किया. चार अंगुल डोरी आपके हाथ में रह जाये और पूरी रस्सी बालटी कुंआ में चली जाये तो वह तुरन्त आपकी बालटी को बाहर निकाल लेगा. जीवन के अन्दर चालिस पचास वर्ष क्या पानी में गया? कोई चिन्ता नहीं. आयुष्य की डोरी चार अंगुल भी पानी में पकड में आ जाये, थोड़ा सा जीवन यदि शेष रहे और अन्तर की जागृति आ जाये तो पूरे जीवन का उद्धार हो जाता है, जीवन के परम तत्व को प्राप्त कर सकते हैं. न जाने कि कौन सा निमित्त उपयोगी बन जाये. यहां पर अन्तर शत्रु “काम" का परिचय दे रहा था. सारे दुश्मनों का सम्राट विषय वासना यदि अन्दर में आई, गुप्त रोग है, जल्दी प्रकट नहीं होता, गुप्त रोग का इलाज करना बहुत मुश्किल होता है जो मन के अन्दर ही रहता है. मन में विकार कैन्सर पैदा करता है, सारी साधना को मूर्छित कर देता है. 497 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी लोग व्यवहार से बदनाम हो जायें, परलोक के लिए भी भयंकर समस्या उपस्थित करें. कर्म की मार अलग खाएं. उसका वर्तमान भी गया और भविष्य भी बिगड़ा. एक जरा सा निमित्त मिला और महाराज भर्तृहरि, महाराज विक्रमादित्य के बड़े भाई, जिन्होंने वैराग्य प्राप्त किया. उनके हृदय से उद्गार निकला-संसार मे मैं जहां गया, सारा ही संसार भय से भर हुआ है. "वैराग्यमेवाभयम्" वैराग्य ही ऐसी वस्तु है जहां भय का प्रवेश द्वार बन्द है. बहुत बड़े महात्मा सेठ मफतलाल के घर पर आये. रात्रि का समय था, बडे साधु प्राणी थे. एक लंगोटी के सिवा कुछ भी नहीं था एक कमन्डल रखते थे. मफतलाल का घर खुला था, कोई अतिथि आये, हमारे देश की परम्परा है कोई भी अतिथि आये, उसका स्वागत करना. जिनकी कोई तिथि नहीं होती न जाने कब आ जायें, वे पुरुष अतिथि कहलाते हैं. "न तिथिर्यस्य सः अतिथि": जिनकी कोई तिथि नहीं वह अतिथि साधु आ गये बड़ी प्रतिष्ठा थी, बड़ा मान था. विद्वान थे. मफतलाल ने कहा-आज रात्रि आप हमारे यहां विश्राम करिये. बडी प्रसन्नता से रहें. मफतलाल भी वहीं पर उनके पास सो रहा था. सोते-सोते देखा कि बाबा जी हर घन्टे उठते हैं और उठकर अपना झोला टटोलते हैं. मन में विचार आया, ये तो साधु हैं, निश्चिन्त होकर के सोएं, क्या चिन्ता है? ये बार-बार बैठकर झोली टटोलते हैं, इस झोली में क्या करामात है? मफतलाल से नहीं रहा गया, कहा-बाबा जी. आप बार-बार उठते हैं, इसका क्या कारण है? कोई बीमारी है? कोई शरीर से तकलीफ है? उसका ईलाज करायें. डाक्टर बुलाऊं?. बाबा जी ने सत्य कह दिया, परम भक्त है. यहां कहने मे कोई आपति नहीं, बोले बेटा-झोली में थोडा जोखिम है. कोई दान दक्षिणा में थोडी बहुत सोने की मोहर मिले हैं. रास्ते में आ रहा था. मन में डर था कि कहीं कोई चोरी से न लूट ले, कोई बदमाश व्यक्ति न आ जाये, रात्रि पड़ गई तो यहां भी रात्रि में घन्टा भर होता है नींद खुल जाती है और हाथ चला जाता है. यह आदत पड गई. साधु सत्यनिष्ठ थे. जो था उन्होंने कह दिया. मफतलाल ने सोचा महाराज की इस बीमारी का ईलाज तो करना है. बडा होशियार व्यक्ति था, सज्जन भी था, थोड़े समय बाद ही स्वामी को निद्रा आई. वह पूरी झोली लेकर के गया और घर के बाहर कुंआ में डाल दी. दस मिन्ट बाद अचानक बाबा जी उठे, हाथ से टटोला तो झोली नहीं. 498 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी “अरे मफतलाल. झोली कहां गई?" "बाबाजी आराम से सो जाइये. भय को कुंए में डाल दिया है, निर्भय होकर सोइये. अब आपको जगाने वाली कोई चीज नहीं हैं. मैंने बीमारी का ईलाज कर दिया. बीमारी गई." साधु को सच्चा साधु बना करके ही वहां से भेजा. मफतलाल ऐसे बुरे व्यक्ति नहीं हैं. मौका आने पर अपनी उदारता भी बतलाते हैं. जब तक भय है, वहां तक सारी बीमारी है. अशान्ति वहीं से जन्म लेती है, भय के कारण भय को हम आमन्त्रण देते हैं, रोज लक्ष्मी के आगमन की प्रार्थना होती है. कोई यह प्रार्थना नही करता है जो है वो भी समर्पित हो जाये आए तो ठीक. इसका आगमन भी अशन्ति का कारण है. रहे वहां तक शान्ति. सेठ चौकीदार बन जाता हैं. जाये तो बहुत बडी अशान्ति. आये तो भी अशान्ति. खाते में जमा किए रहें वहां तक अशान्ति. आपकी नींद जाती है. सारी शान्ति नष्ट हो जाए तो जिन्दा आदमी भी मरा नजर आता है. ऐसे प्रयोजन को लेकर क्या करेंगे? आ गया, परोपकार में दीजिए. जहर भी अमृत बन जाएगा. अशांति शांति में परिवर्तित हो जायेगी. लक्ष्मी का दास नहीं लक्ष्मी के पति बनिये, लक्ष्मी का कैसे उपयोग करना उसके लिए समुचित व्यवहार होना चाहिये. आदेश लेना चाहिए, जहां सुन्दर कार्यो में इसका उपयोग किया जायेगा. ऋषि मुनियों ने कहा "दानाय लक्ष्मीः" जहां दिया जाता है, वहीं लक्ष्मी का आगमन होता है. वहीं उसका आर्कषण है. बिना दिये हमें नफा चाहिए. यह कैसे हो? “धन्ना शाली भद्रनो सिद्धि होजो, जो हर दीवाली पर लिखते हैं परन्तु ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं जिसने लिखा हो “धन्ना शाली भद्रनो सिद्धि अने त्याग होजो." जो त्याग तो समृद्धि मिले, त्याग करना नहीं और समृद्धि चाहिए. दिल्ली छोड़ना नहीं और बम्बई पहुंचना है. तप करना नहीं और वरदान चाहिए. साधना करनी नहीं और सिद्धि चाहिए. व्यापार करना नहीं और नफा चाहिए. दौलत कैसे हो इसीलिए सूत्रकारों ने कहा-अपनी इन्द्रियों का दमन करने के लिए विचार चाहिए. कई बार मन का ममत्व ऐसा होता है, मनकी वासना ऐसी होती है, काम पर विजय प्राप्त करले, क्रोध पर विजय प्राप्त कर ले, परन्तु मान पर विजय प्राप्त करना बड़ा मुश्किल होता है. काम, क्रोध, मद, लोभ, हर्ष इन शत्रुओं का परिचय दिया, आत्मा के प्रबल शत्रु लाखों करोड़ों की सम्पत्ति का त्याग करके व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण कर लिया. साधु बन गए जब गांव में गये किसी व्यक्ति ने उनका पूर्व परिचय पूछा महाराज, आपका आगमन कहां से हुआ? ना 499 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी "अरे, तुम क्या समझते हो? करोड़ों की संपतियों का मैंने त्याग कर दिया. इतना बडा उद्योग चलता था, बाजार में दुकान चलती थी, इतना बड़ा परिवार था, मैंने त्याग कर दिया और साधु बन गया." सज्जन श्रावक था, एकान्त में जाकर कहा, "भगवन्! क्षमा करना. आपका अविनय नहीं करना चाहता. आपकी साधुता के ऋण के लिए दो शब्द कहना चाहता हूं. आपने जो त्याग दिया, उसका त्याग कर दीजिए. आपका कल्याण हो जायेगा." छोटे से शब्द में कितनी बड़ी बात बतलाई कि आपने जो त्याग किया है, वह त्याग लेकर के आप चल रहे हैं, उसकी स्मृति आपकी साधना में बाधक है. जो आपने करोड़ की सम्पति का त्याग किया, उस त्याग का भी त्याग कर दीजिए. ताकि पूर्व की वासना आपको सताए नहीं. आपके शब्द में से दुर्गन्ध न निकले. संयम का सुगन्ध बाहर प्रकट हो मेरी यह कामना है. साध को सावधान कर दिया. पूर्व की स्मृति भी बड़ी खतरनाक है. वह भी अभिमान का पोषण करती है. कुल का मद, जाति का मद, वैभव का मद, न जाने कितना नशा उसके अन्दर में होता है. त्याग एक अलग वस्तु है, जहां त्याग होगा, वहा पूर्ण गम्भीरता होगी. जहां पर त्याग होगा, वहां पर पर बडी सुन्दरता नजर आयेगी. किसी भी सन्दर वस्त को बतलाने के लिए शब्द की जरूरत नहीं पडती. आंखें चाहिए जहां ज्ञान चक्षु होगा. वहां पर त्याग तप की सुन्दरता सहज में नजर आयेगी. व्यक्ति अपनी विचार दृष्टि से स्वयं समझ लेगा. बतलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, व्यक्ति न जाने कब सावधान हो जाये, काम शत्रु पर विजय प्राप्त करले. कई बार व्यक्ति भयंकर क्रोध करता है, क्रोध का परिणाम आप को समझा दिया है. अतिशय क्रोध से शारीरिक दृष्टि से कितना भयंकर नुकसान होता हैं. प्रेम और मंगल भावना बहुत बड़ा उपचार है. सारे रोग इससे खत्म हो जाते हैं. अति क्रोध करने वाले व्यक्ति तो अस्सी प्रतिशत होते हैं. अटैक आता है क्योंकि उसका ब्लड प्रेशर हमेशा हाई होगा. विचार मे उत्तेजना मिलेगी और विचार की उत्तेजना दिल और दिमाग पर असर करती है. अति क्रोध-अति विचार का तनाव धीमे धीमे पेट में अल्सर पैदा करेगा. एसिड उत्पन्न करेगा, उसका परिणाम विचार का प्रेशर, रक्तचाप करेगा. हाई प्रेशर होगा. कभी कभी हैम्ब्रेज भी हो सकता है. पैरालाइसिस का अटैक भी हो सकता है. सारे रोग वहां से पैदा होते हैं. हिन्दुस्तान नहीं विश्व में विज्ञान का सबसे बड़ा ग्रन्थ, सबसे प्राचीन ग्रन्थ, चरक संहिता भारतीय ऋषि मुनियों का चिन्तन, आरोग्य के लिए क्या चाहिए. निर्दोष वस्तु उसमें बतलाई गई. पांच हजार वर्ष पहले शारीरिक विज्ञान हिन्दुस्तान ने तैयार किया. जिसे आज हम चरक संहिता कहते हैं. विश्व भर में जितने भी बड़े वैज्ञानिक हैं, शारीरिक आरोग्य के लिए जो भी कुछ प्राप्त किया उसकी नीव चरक संहिता है 500 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी = उसी आधार से उन्होंने चिन्तन किया. उसी आधार से आगे बढे. उसमें सर्व प्रथम एक सूत्र बतलाया है. रोग की उत्पति का मूल कारण. कहां से रोग जन्म लेते हैं? "रागद्वेषैः रोगो जायते" यह बडा महत्वपूर्ण सूत्र है, आयुर्वेद का. राग और द्वेष के परिणाम से रोगों का जन्म होता है. अति क्रोध, अतिकाम, अति संसार की चीजों के प्राप्त करने की लालसा. मानसिक दरिद्रता से आत्मा जब पीडित होती है. यह वैज्ञानिक सत्य है, वह आत्मा धीमे-धीमे रोगी बनती है. अति राग रोग उत्पन्न करता है, प्राप्ति की अति लालसा अनेक प्रकार की बीमारियों को उत्पन्न करती है. या तो राग से या फिर द्वेष से कष्ट के द्वारा, वैर के द्वारा, भयंकर व्याधियों का जन्म होता है. रोगों का जन्म स्थान ही राग और द्वेष है. भगवान महावीर ने इसका सबका सुन्दर उपचार बतला दिया. क्षमा, मैत्री, प्रमोद भावना, ये सारी दवा हैं, इनका डोज लिया जाये तो सारी बीमारी चली जाये. प्रतिवर्ष पर्युषण मे एक डोज दिया जाता है. एक डोज पूरे वर्ष काम करता है. होम्योपैथी मे हाई पोटेन्सी होती है. लाख, दो लाख, पावर की दवा तीन महीने में, छ: महीने में एक डोज दिया जाता है, ज्ञानियों ने पर्यषण में संवत्सरी का ऐसा हाई पोटेन्सी मैडिशन दिया. एक बार लीजिए पूरे वर्ष तक आराम आनन्द रखेगा. वैर विरोध की सारी भावना को नष्ट कर देगी. पर्युषण पर्व के प्रभाव से हृदय में कोमलता आ जाये. बहत सारी बीमारियों को जन्म देने वाला, परिवार में अशान्ति का कारण, पारिवारिक क्लेश का कारण पिता-पुत्र में दीवार खींच देने वाला. परिवार में भेद की दीवार खड़ी कर देने वाला क्रोध परमात्मा का द्वार बन्द कर देगा. व्यापार में रुकावट आएगी. ग्राहक दूर. जीवन में सबके अप्रिय बन जायेंगे. कोई मित्र नही मिलेगा. अति क्रोधी आत्माओं का यही परिणाम होता है. मौन इसका सुन्दर से सुन्दर उपचार है. बडी सुन्दर दवा है. जब भी क्रोध आ जाये, स्थान का परित्याग कर दीजिए. तुरन्त पानी पी लीजिए. उत्तेजना बड़ी खतरनाक होती है जितना सहन करेंगे उतनी शक्तियों का विकास होगा. महावीर का यह सिद्धान्त यही आदर्श देता है. जितना सहन करोगे उतनी ही शक्ति विकसित होगी. इत्र बनाते समय गुलाब के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कितना कष्ट सहन करना पडता है. उबाला जाता है, मसला जाता है, पूरा अर्क निकाल दिया जाता है. उसकी महक कैसी? जीवन के अन्दर अपनी साधना में यदि सुगन्ध पैदा करना है तो फिर साधना में सुगन्ध पैदा करने के लिए इतनी कसौटी तो पार करनी पड़ेगी. हमारे आगम सूत्र में एक बड़ी सुन्दर बात आती है. आयु के अंतिम चरण में दीक्षा ली, सन्यास लिया, करीब साठ पैंसठ साल की अवस्था होगी. वैराग्य आया. हमारा जीवन तो वैराग्य पूर्ण है. बच्चो में भावना आ जाये परन्तु बूढो nairs - 501 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी में नहीं आयेगी. बच्चों में भावना जरूर आ जायेगी. परन्तु अवस्था का दोष अतिशय लोभ बढाता है यह अवस्था ही ऐसी होती है. पूर्वकृत संस्कार ऐसे होते हैं. बुढापे में वैराग्य आ गया, घरवालों ने सोचा कि अच्छा है. बेचारे क्या करें बोल तो सकते नहीं घर के बड़े थे. शर्म ऐसी चीज है, मर्यादा ऐसी चीज है, बहुत शानदार दीक्षा हुई. साधु समुदाय में सबके साथ रहना पड़ता है. सब प्रकार का व्यवहार पालन करना पड़ता है. यहां उचित अनुशासन और विवेक लेकर चलना पडता है, गुरुजनों के आदेश का पालन करना पड़ता है, वह हो नही पाया. गुरु भगवन्त ने एक ऐसा रास्ता निकाला. कहा-देखो तुम्हारे संयम में भी विराधना न हो, जितने भी मेरे साथ संयमी आत्मा हैं उन सबको क्लेश का निमित्त न मिले. इससे अच्छा है, तुम अकेले रहो. कोई ऐसे अशुभ निमित्त न मिले. अपनी आराधना में भी तम विकार पैदा न करो. शायद इस प्रकार के अभ्यास से जीवन में परिवर्तन आ जाये. गुरु आज्ञा थी सर्वोपरि. एकान्त में जाकर गांव से बाहर दूर बगीचे में जाकर रहने लगे. स्वभाव ऐसा विचित्र था उनको चण्डरूद्राचार्य के नाम से बुलाते. चन्ड शब्द अति क्रोधी आत्माओं के लिए प्रयोग किया जाता है. चण्ड, चण्डाल शब्द से ही बना है. चन्ड रुद्राचार्य नाम के आगे चण्ड शब्द का प्रयोग किया गया. पकृति भी बड़ी खूखार थी क्रूर थी. अति राग क्रोध का पारावार था इनके अन्दर एकान्त में रहते. जंगल मे ध्यान अवस्था में रहते, संयम की आराधना के लिए गांव में जाकर एक बार भिक्षा ले आते. गांव के अन्दर- बहुत सारे राज पुत्र थे, राज कमार थे, क्षत्रिय पत्र थे. घोडा लेकर के शाम को घूमने निकलते. एक दिन ऐसा संयोग बैठा पांच-दस युवक घोड़ा लेकर उस बगीचे में आए जहां पर चण्ड रुद्राचार्य अपनी साधना कर रहे थे, वहीं पर आए, अकेला देखकर राजकुमारों ने कहा-स्वामी जी, आप अकेले हो, इस बूढापे में एक तो पांव दबाने वाला चाहिए, एक तो चेला चाहिये, भिक्षा गोचरी लाने वाला. अकेले कैसे रहोगे? अलग-अलग प्रकार से कहना शुरू कर दिया. क्रोध की आग तो जल रही थी इन्होंने घी डालना शुरू कर दिया, क्रोधी तो थे ही. निमित्त मिला. बच्चों ने आपस में कहा-तुम दीक्षा ले लो वह कहता तुम ले लो. आपस में मसखरी शुरू की. ___महाराज से कहा-महाराज, मैं दीक्षा लूंगा. आप देंगे? मैं भी लेना चाहता हूं. यह भी लेना चाहता है, जरा ठिठोली की. यहां तो आग लगी थी तो अब ज्वाला बनी. समय तो लगता है चूल्हा जलाने में भी समय लगता है. फूंक मारना पडता है. ऐसी भंयकर ज्वाला अन्दर जली. ऐसा भयंकर क्रोध आया, संध्या का समय प्रतिक्रमण मे बैठे हुए. गर्जना करके उठे. कितने थे सब भगे. परन्तु एक पकड़ में आ गया. बेटा! दीक्षा लेगा? हमको बेवकूफ बनाता है, तेरे को दीक्षा देकर ही रहंगा. भयंकर क्रोध था. उस लड़के को पकडा. आवेश था और माथे का केश लुंचन कर दिया. क्रोध 502 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -गुरुवाणी था. उसका कपड़ा उतारा और साधु का कपड़ा उसको पहनाया. दीक्षा लेगा? बार बार मसखरी करता है? ले दीक्षा. जबरदस्ती साधु बना दिया. कमरे में ले जाकर सांकल लगा दी, अब कैसे निकलेगा? देखता हूं. मसखरी सारी हवा हो गई परन्तु क्या करिए. अन्दर रहा हुआ राज पुत्र लड़का बड़ा कुलीन, बडा खानदानी, अशुभ निमित्त भी उसके लिए कल्याणकारी बना. मन में सोचता है, मैंने एक साधु को अकारण कष्ट दिया. बिना कारण मैंने मसखरी की. अनर्थ किया इस आत्मा को कितना दुख पहचा होगा? जब मै खानदानी व्यक्ति हूं इन्होंने जब विचार पूर्वक आशीर्वाद देकर मुझे साध ही बना दिया. तब संसार में मेरा जाना उचित नहीं. मेरे खानदान में कलंक लगेगा. कैसा व्यवहार उसके अन्दर था. जवाब में साधु ही बन गया, त्याग कर दिया. अब मै संसार में नहीं जाना चाहता. अब जो उल्टी हो गई उसका क्या चाटना. जो संसार छोड़ दिया अब उसमें मुझे तो नहीं जाना. यह तो निश्चित है. संध्या का समय था. अंधकार होने को आया, गुरु भगवन्त ने प्रतिक्रमण पूर्ण किया जाकर चरणों में झुककर निवेदन किया. कितना विनय कितना बड़ा परिर्वतन आया. साधु का वेश किया वाला कपड़ा भी रक्षण करने वाला, बिना पैसे का चौकीदार है. कोई गलत जगह नही जाने देगा, वह रोक देगा. तुम कहां जा रहे हो? लोग क्या कहेंगे? लोग निन्दा का भय, यह वेश बहत बडा उपकार करता है. कोई गलत जगह नहीं जाने देगा. यदि आपके कपड़ो में मै बैठा रहूं कौन रोकने वाला है? रात में जाये, होटल में जाये, सिनेमा मे जाये कौन रोकने वाला है किसको पडी है? वह कपडा रोकता. आपकी गैर हाजिरी मे हमारा यह रक्षण करता है. मर्यादा बतलाता है, संसार मे कहां पर भय है, उस भय का दर्शन वेश देता है, वहां जाने से लोग क्या कहेंगे. बहुत बड़ा उपकार करता है यह वेश. इसीलिए चारित्र के वेश को भी हम वन्दन करते हैं. नमस्कार करते हैं यह जड़ भी चैतन्य पर उपकार करता है. साधु का वस्त्र जब उसको पहना दिया. वस्त्र का उसका प्रभाव लोग कहते हैं कपडा क्या काम करता है? सीता का हरण हो गया, रावण के पास बहुत सारी विद्यायें थीं. रावण के मित्र ने कहा तुम क्या मेहनत करते हो-राम का रूप बनाकर राम की वेशभूषा पहनो. उसके बाद तुम जाओ. सीता तुम्हारे हाथ में आ जायेगी. रावण ने कहा-तुम मुझे क्या सिखाते हो? एक दर्जन बार मैंने मेहनत की है. जब-जब राम का वस्त्र पहना, गेरूआ वस्त्र वैराग्य का प्रतीक. राम का वस्त्र धारण किया पुण्यस्मरण किया, सीता के पास जाने का मनोविकार ही मर गया. 503 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी विकार को मारने का परम साधन यह वस्त्र है. वेष भूषा का भी हमारे मन पर बडा सुन्दर असर पड़ता है. आप पूजा का वस्त्र पहन करके परमात्मा के मन्दिर में जाइये. कभी विकार आयेगा? स्नान करके शुद्ध होकर के पूजा का वस्त्र पहन कर मन्दिर जाते वक्त आपकी भावना कैसी होती है? संध्या के समय प्रतिक्रमण या सामायिक की मंगल क्रिया करने आइये. श्वेत शुद्ध वस्त्र पहनकर के आइये. आप देखिये, उस समय भावना कैसी होती है? पैन्ट शर्ट पहन करके इत्र लगाके किसी के द्वार में जाइये तब देखिये, भावना कैसी होती है? दोनों भावनाएं देखना कि कपड़ा मन पर क्यों असर डालता है? बडी सूक्ष्म प्रक्रिया होती है. ने गुरु चरणों में नमस्कार करके निवेदन किया भगवन्त, यहां से रात्रि में ही चलना अच्छा है. यदि आप रात्रि में नहीं निकलें तो परिवार वालों को मालूम पड़ेगा वे वापिस ले जायेंगे. बच्चे गांव में जाकर बात तो करेंगे. और भगवान घर वाले आपके साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो अनर्थ हो जायेगा? मुझे भी फिजूल में संसार मे ले जायेंगे. कृपा करके रात्रि में ही जाना ठीक रहेगा. महाराज भी समझ गये. बात तो सही है. शिष्य का कितना सुन्दर निवेदन, स्वयं के चरित्र के रक्षण के लिए, मेरे गुरु को परिवार वाले चोट न पहुंचायें, मुझे घर न ले जायें इसीलिए नम्र निवेदन. रात्रि में निकले. गुरु महाराज ने कहा-मैं तो अवस्था वाला हूं. पांव से चला नही जाता. मै कैस चलू. __ मेरे कन्धे पर बैठिये, मै जवान हूं, राजपुत्र हूं, घोड़े पर शिकार करने जाता था, शेर से भी मैं नहीं डरता था, भगवन् आपकी कृपा से मुझ में ताकत है. मैं आपको लेकर के चलूंगा. गुरुजी! रास्ता अंधकार से परिपूर्ण, रात्रि, कहीं वृक्ष की डाली अन्दर आये, कान में आख में, लगे. रास्ते में खडडे आयें. पांव डगमगाये गरु गिरते गिरते बच जाते. गुरु महाराज को इतना क्रोध आता, कैसा नालायक शिष्य है? अकल नहीं है? तेरे निमित्त से मुझे रात को चलना पड़ता है, कितनी विराधना करनी पड़ती है? रात्रि में साधु नहीं चले. उसे यह तो अपवाद है, आत्मरक्षण के लिए किसी आत्मा के कल्याण के लिए, जाना पडे. तेरे आने से मुझे आज कितनी अशान्ति हई, क्रोध करना पड़ा. रात्रि में विहार करना पड़ा. वृक्ष की डाली मुझे लगती है. नालायक सीधा चला नहीं. बोलने जैसे शब्द नहीं करते कैसा व्यवहार. शिष्य की समता कैसी? भगवान मुझे क्षमा करें, अंधेरे में मुझे दिखता नहीं है. बडी सावधानी से चलूंगा. क्षमा करें. गुरु शान्त करने का प्रयास करते, अवस्था थी, फिर गड्ढे में पांव गिरता एक बार आंख में डाली लगी, बड़ी पीडा हुई. उठाकर जोर से डन्डा मारा. माथा फट गया, खून 504 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - की धारा बह निकली. शिष्य की समता कैसी? एक दिन का लिया हुआ संयम, नवकार भी नही आता था. रात्रि में संयम लिया. अपूर्व समभाव मेरे गुरु महाराज को जो कष्ट हो रहा है उसका मै निमित्त बन रहा हूं. ____मैं कैसा पापी शिष्य हूं? कोई शिष्य तो गुरु महाराज को आकर शान्ति दे. मेरे निमित्त से मेरे गुरु महाराज को कष्ट हो रहा है. अशान्ति पैदा हो रही है. मै कितनां दुर्भागी हूं. मैंने कैसा पाप किया कि मेरे कारण गुरु महाराज को क्रोध पैदा करना पडे. मैं और सावधान होकर के चलूं. जरा जागृति में चलूं. जरा उपयोग पूर्वक चलूं, ताकि गुरु महाराज को जरा भी पीडा न पहुंचे. ऐसी अर्पित समता. खून की धारा बह निकली, समता के अन्दर संयम श्रेणी मे जैसा विकास हुआ, अन्तर्मन के अन्दर केवल ज्ञान, केवल दर्शन की प्राप्ति, उस आत्मा को हुई. मात्र गुरु के प्रति सद्भाव और समभाव का यह चमत्कार. महावीर को साढ़े बारह वर्ष बाद मिला, उस पुण्यशाली को साढ़े चार घण्टे बाद मिला. अनन्त शक्तिमय चेतना उसकी विकसित हो गई. ज्ञान के प्रकाश में सब कछ दीखने लगा. गुरु महाराज के मन में आया कि यह चमत्कार चौदहवें रत्न का. एक डन्डा पड़ा और सीधा हो गया. कैसा सीधा चल रहा है. मुझे अब जरा भी अडचन नहीं. उन्हें क्या मालूम कि शिष्य सर्वज्ञ बन गया. अनन्त शक्तिमान, इसकी आत्मा केवली बन चुकी है. बहुत समय तक एकदम सीधा चलने के बाद गुरु के मन में शक हुआ कि अंधेरे में इसे मालूम कैसे पड़ रहा है? मुझे जरा भी तकलीफ नहीं कोई भी वृक्ष की डाली मुझे स्पर्श नहीं कर रही है. ___कैवल्य ज्ञान से कोई भी चीज छिपी नहीं. अनन्त शक्तिमान आत्मा उस समय प्रकट होती है. अपनी पूर्णता को प्राप्त होती है. जरा भी गुरु महाराज को हिलने डुलने का नहीं. मन में शंका हुई. कोई दैविक शक्ति है या कोई ज्ञान प्रकट हुआ. ___ गुरु महाराज ने पूछा-क्या तुम्हे कोई ज्ञान उत्पन्न हुआ है? प्रतिपाती या अप्रतिपाती, आकर के चला जाए, ऐसा ज्ञान या आकर के न जाये ऐसा ज्ञान. केवल आत्मा की भी नग्रता देखिए. जब पूछा तो यही जवाब मिला-भगवन्त आप की कृपा से केवल भगवन्त ही ऐसी छद्भस्थ आत्मा के उपकार का स्मरण होता है. ये मिला किसकी कृपा से उनकी दृष्टि में यह नहीं आता कि मेरा गुरु क्रोधी शिथिलाचारी है, गुरु तो चन्डाल है. दुर्गति मे जाने वाला है, ऐसा नही सोचा. इनकी कृपा का परिणाम है. केवली आत्माओं का भी विनय देखिए. उपकारी के उपकार का कितना सुन्दर स्मरण. भगवन्त आपकी कृपा से. गुरु महाराज समझ गये, बोध हो गया. यह तो केवली बन चुका है. उसी क्षण गुरु ने एकान्त में कहा-आप यहां रुकिये. उतर गये. उतरकर के शिष्य को तीस प्रदक्षिणा दी. बहुमान पूर्वक पाप का पश्चाताप किया. भगवान. मैंने केवली की आसातना की, सर्वज्ञ 505 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी प्रस लेटा की आसातना की. मुझे क्षमा करें. मैं क्रोध की आग में जल रहा था. मेरे जै जाने वाली आत्माओं का रक्षण करें. अपने शिष्य से हाथ जोड़कर प्रार्थना की. शिष्य भी कैसा? स्वयं तो मुझको भी तार दिया. ऐसा पश्चाताप जो क्रोध की आग में दूसरों को जलाते थे. जहा आत्मा का गुण जलता था. उनका यह चमत्कार कि क्रोध पर क्रोध उत्पन्न किया. सारे कर्म जल कर के भस्म हो गये. रात्रि में गुरु भी केवली बन गये. __ “तीन्नाणं तारयाणं उत्तम आत्मा स्वयं तरे और दूसरों को तारे, क्रोध तो था. पर क्रोध पर कैसे विजय प्राप्त किया? कैसी शिक्षा मिली? कैसी सहन करने की ताकत? यदि संयोग से ऐसे गुरु हमें मिल जायें तो गुरु को रास्ते में ही पटक कर चले जाएं कि यहां कोई कपाल क्रिया कराने आया था. गाली सुनने के लिए दीक्षा ली थी. गुरु के शब्द को सहन करें, ये तो चोट है. तब आत्मा का विकास होता है. निर्माण होता है. गुरु के शब्द मेरे लिए आशीर्वाद स्वरूप है. गुरु शब्द जब मिठाई जैसे लेंगे, समझना मेरा आत्म कल्याण होगा. आज इतना ही. “सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" म भूलों के संस्कार लेकर ही हम जगत में आए हैं. हर आदमी भूलों से भरा है, परन्तु वह सचमुच महान व होनहार है जो भूलों सेकुछ-न-कुछ सीखता है और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करता है. CE AUR 506 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी आवास का विधान - परम कृपालु परमात्मा महावीर ने अपने जीवन की सारी साधना का परिचय अपने प्रवचन के द्वारा प्राणि मात्र का दिया. साधना की उपलब्धि, साधना की सहजता और साधना के सफलता की सारी प्रक्रिया परमात्मा ने अपने प्रवचन द्वारा प्रदान की है. परमात्मा के उसी प्रवचन की परम्परा से उद्धत करके उसी के अनुसार धर्म बिन्दु ग्रंथ के अन्दर उस महान आचार्य ने जीवन का परिचय धर्म के माध्यम से दिया है. __ धार्मिक कहलाना तो सबको पसन्द होता है परन्तु धार्मिक बनना बहुत मुश्किल है. शब्द बड़ा सुन्दर है, बड़ा प्रिय है. परन्तु यह बाहर से आपको कठोर नजर आएगा. धर्म का आचरण जरूर कठोर होगा, जो बहुत जल्दी रुचिकर नहीं होगा. परन्तु उसका आन्तरिक परिणाम कोमलता और करुणा को उत्पन्न करने वाला होता है. कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो इस वस्तु को स्वीकार कर सके. ज्ञानियों ने कहा - संसार में रहना पड़ता है, हमारी मजबूरी है, एक प्रकार का बन्धन है, परन्त कर्म के बंधन से भी भयंकर आपके अन्दर वासना का मानसिक बन्धन है. व्यक्ति मन के बन्धन से बंधा हुआ है. उसे बहाना मिल जाता है, रास्ता मिल जाता है कि मैं क्या करूं? जब-जब धर्म क्रिया का प्रसंग आ जाए. कोई महा मंगलकारी पर्व का प्रसंग आ जाए और आमन्त्रण मिले तो व्यक्ति बहाना निकाल लेता है. महाराज क्या करें? कर्म ही ऐसे हैं कि मेरे से व्रत नहीं होता. क्या बतलाएं? कुछ पाप कर्म हैं. बहुत भावना होती है. इच्छा होती है परन्तु लाचारी है. कुछ कर नहीं सकता. __जब-जब धर्म का आमन्त्रण मिले, धार्मिक क्रिया में प्रवेश करने का मंगल प्रसंग आ जाए तो व्यक्ति बड़ा सरल बहाना निकाल लेता है कर्म का. क्या बतलाएं? मेरे भाग्य में ऐसा है, मेरे कर्म में नहीं है. मेरी लाचारी है. पाप करते समय कभी बहाना नहीं मिलता. दकान में जाकर बैठेगा, सुबह से शाम तक मजदूरी करेगा, वहां यह नहीं सोचता, मेरे भाग्य में होगा, मिल जाएगा, वहां इतना पसीना उतारना. वहां तो बड़ा कठोर परिश्रम करेंगे. संसार के कार्य में प्रबल पुरुषार्थ, परन्तु धर्म कार्य में उदासीनता. संसार में धनोपार्जन करने के लिए पूरा श्रम ये अनादि काल से जीव का एक स्वभाव बन गया. पाप करना पड़ता है, सर्वथा इसका निषेध होना संभव नहीं, सांसारिक कार्य किस प्रकार की भूमिका पर करना, उसका इसमें परिचय दिया गया है. व्यक्ति अगर मूर्च्छित सा बना रहे, पाप की प्रवृति में हमेशा मूर्च्छित सा बना रहे, पाप प्रवृति में यदि उदासीन बन जाए, पाप क्रिया में यदि रुदन आ जाए तो पाप का पश्चात्ताप पुण्य को जन्म देने वाला बनता है. परन्तु होता नहीं है. पाप क्रिया में प्रसन्नता है. जब-जब 507 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी पुण्य क्रिया का मंगल प्रसंग आ जाए, हम उदास बन जाएंगे. मूर्च्छित बन जाएंगे. बड़ी लाचारी वहां पर हम प्रकट करेंगे. इस महान पुरुष ने शब्द के द्वारा उस चैतन्य का परिचय दिया, जिसका परिचय प्राप्त करने के लिए बहुत उंचाई पर जाना पड़ता है. साधना की ऊंचाई पर जाने वाला व्यक्ति, साधना की पूर्णता को प्राप्त करने वाला व्यक्ति, स्वयं की आत्मा के धर्म तत्व का परिचय प्राप्त करता है. उसका परिचय शब्दातीत है. शब्द के माध्यम से जिसका परिचय देना संभव नहीं. बहुत दूर की चीज है. नजर में नहीं आता है, लैंस लगाते हैं, चश्मा लगाते हैं. यदि उससे भी दूर की कोई वस्तु हो तो देखने के लिए दूरबीन लगाया जाता है. उससे भी आगे की ऊंचाई पर यदि कोई चीज देखते हैं तो टेलिस्कोप का उपयोग किया जाता है, ग्रह नक्षत्रों को देखने के लिए आकाश की चीजों को देखने के लिए. आंख से जो न दिखे, उसका मतलब यह नहीं कि उसे मानें ही नहीं, मानना तो पड़ता है. हमारे पास वह दृष्टि नहीं, दृष्टि का विकास नहीं, साधना के बिना साध्य को देख नहीं सकते. आत्मा की जो अनन्त शक्ति है, अनन्त शक्तिमय हमारी चेतना है. उसे देखने के लिए, उसके अनुभव के लिए, साधना की उच्च भूमिका चाहिए. उच्च भूमिका को प्राप्त करने के लिए उसकी प्राथमिक स्थिति का इस ग्रन्थ द्वारा परिचय दिया कि हमारी वर्तमान परिस्थिति किस तरह की होनी चाहिए. वर्तमान जीवन का किस प्रकार से साधनामय परिचय होना चाहिए. उसकी पूर्व भूमिका इसमें बतलाई है. सर्वप्रथम आपको एक तरीका बतलाया गया, उपार्जन का तरीका, द्रव्योपार्जन, व्यावहारिक प्रसंग, विवाह शादी के प्रसंग, कैसे संस्कारित होने चाहिए जिन क्रियाओं के अन्दर अपने संस्कार का परिचय दूसरे व्यक्तियों को मिले, इस प्रकार का होना चाहिए, हमारी हरेक क्रिया धर्म क्रिया होनी चाहिए. हरेक क्रिया से लोगों को प्रेरणा मिले, लोग स्वयं की जागति प्राप्त करें विरक्त होने की भावना उनमें पैदा हो. हमारी क्रिया से हमारे आचरण और व्यवहार से अनेक आत्माओं को संसार से विरक्त होने की प्रेरणा मिलनी चाहिए. संसार में जितने भी सुख भोग हैं, उनका परिणाम दुखमय देखा है,वर्तमान में पौद्गलिक आनन्द जो भी ले रहे हो उसका परिणाम रुदनमय होगा. ___ आज की प्रसन्नता कल के लिए रुदन बनेगी. आज जिस चीज का आनन्द लेते हैं, कल उसका वियोग हृदय में दर्द पैदा करेगा. परमात्मा ने ऐसे आनन्द का परिचय दिया, ऐसी प्रसन्नता का परिचय दिया, जो साधना से उपार्जित की जाती है, जिसका कभी वियोग नहीं होता. जिसके आनन्द में कभी रुदन की संभावना नहीं. उस परमात्मा की प्राप्ति का साधन इन सूत्रों द्वारा बताया गया है. भले ही व्यक्ति क्षणिक सुख के लिए कदाचित् अपने भविष्य को भूल जाए, भविष्य को देखने की दृष्टि खत्म हो जाए. भगवन्त ने कहा - खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुःखा DPM 508 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - भगवन्त के शब्द हैं, क्षण मात्र की कदाचित प्रसन्नता यदि मिल जाए परन्तु परमात्मा / की दृष्टि से उसका भविष्य दुखमय होगा. दर्द से भरा हुआ होगा. अन्धकारमय होगा. बहत बड़े सम्राट के यहां दासी रहती थी, शयन गृह के अन्दर राजा के बिस्तर लगाने आई. रोज बिस्तर लगाया करती, राजा के शयन गृह की सारी व्यवस्था वह करती. एक दिन अचानक दासी के मन में आया, इतनी सुन्दर शैया, शयन करने का इतना सुन्दर स्थान? दो घड़ी यदि इसमें सो कर देख लें तो यहां कौन देखने वाला है? राजा की शैया में दासी लेट गयी और नींद आ गई, बड़ी कोमल शैया थी, सारा वातावरण सुन्दरमय, अनुकूल था. रात्रि में जब राजा वहां पर आया और देखता है कि मेरे शयन गृह में दासी सोई हुई है. अपने नौकर को कहा -कोड़े लेकर के आओ और इसे लगाओ. इसका इतना बड़ा साहस कि वह मेरे पलंग पर यह आकर के सो गई. सिपाही के कोड़े लगाते ही वह दासी एक दम उठी, और देखा कि राजा स्वयं सामने खड़े हैं. अपनी भूल का उसे अहसास हुआ, भूल के लिए उसने क्षमा याचना की. राजा का आदेश था सिपाहियों ने कोडे लगाने शुरू कर दिये, दासी हंसने लग गई. जहां रोना था, वहां वो हंसने लगी.. राजा ने कहा - कोड़े मारना बन्द कर दो. दासी से पूछा-तुम्हारे हंसने का क्या कारण है? राजन्! और कुछ नहीं, दो घड़ी मैंने शयन किया, दो घड़ी का आनन्द लिया, आपके पलंग पर सो कर, उस पर मुझे यह सजा मिली, कोड़े खाने पडे. दो घड़ी के आनन्द का यह इनाम मिला. तो राजन जो इस पर रात दिन सोते हैं. उनको कर्म की कैसी मार पडेगी. वही सोच रही हैं. इसीलिए हंस रही हं. अपने जीवन में हम भले ही बाहर के भौतिक सुख प्राप्त कर लें, अपनी कामना की क्षणिक तृप्ति कर लें. परन्तु वह कभी तृप्ति नहीं बनती और ज्यादा अतृप्ति अन्दर से प्राप्त करती है. उसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति पाप का आश्रय लेता है. ऐसा कोई साधन मुझे नहीं चाहिए जो पाप के आगमन का साधन बने. कैसे रहना? इस बात पर विचार चल रहा था. संसार का अति सुन्दर परिचय इन सत्रों द्वारा दिया. गृहस्थ है घर-बार लेकर के रहता है. परिवार के साथ रहता है. गृहस्थ धर्म का पालन पोषण करता है, उसका संचालन करता है. तो गृहस्थ के लिए किस प्रकार का गृह निर्माण करना, उसे निर्देश दिया और सर्वप्रथम यह सूत्र बतलाया : “उत्पातसंकुलः स्थानत्यागः" गृहस्थ अपनी मानसिक शान्ति के लिए, चित्त की समाधि के लिए, ऐसे उपद्रव वाले स्थान का परित्याग कर दें, जहां रहने से उपद्रव की संभावना हो, रात दिन किसी न किसी प्रकार का भय अपने अन्दर बना रहे तो अभय की उपासना किस प्रकार करेगा? जहां पर सतत भय का प्रवेश हो, वहां पर अभय का आगमन कैसे होगा? 509 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी प्रलोभन ऐसी चीज है उस प्रलोभन के आगे सारा जीवन उस भय के अन्दर रहकर के व्यक्ति पूर्ण कर देता है. कभी न कभी वह भय मृत्यु या असमाधि का कारण बनता है. बहत वर्ष पहले फिलीपाइन्स टाप के अन्दर जहां बहत सारे ज्वालामुखी हैं, काफी बड़ी संख्या में लोग रहते हैं, रबड़ का बहुत बड़ा उद्योग है. रबड़ के बगीचे हैं. बाहर से आने वाले ज्यादातर चीन के लोग वहीं पर थे. ये लगभग 70-75 वर्ष पहले की घटी घटना है, बहुत बड़ा उद्योग था. लोग उस प्रलोभन से वहां रहते थे. अचानक एक दिन ज्वालामुखी के अन्दर गड़बड़ी पैदा हुई. ज्वालामुखी जरा सक्रिय बना. वहां के रहने वाले वैज्ञानिकों ने निर्णय कर लिया कि इस ज्वालामुखी का विस्फोट बहुत अल्प समय में होने वाला है. इस विस्फोट से भयंकर दुर्घटना होगी. उन्होंने वहां के कलेक्टर को बुला कर के समझाया. वैज्ञानिकों ने कहा :- इस ज्वालामुखी के गर्जन से ऐसा अनुमान होता है, बहुत जल्दी इसका विस्फोट होने वाला है. आप यहां के लोगों को सुरक्षित जगह पर भेज दें, नहीं तो बहुत बड़ा नुकसान होगा. कलेक्टर ने भी निरीक्षण किया, अंग्रेज कलेक्टर था. बहुत बड़े-बड़े पांच स्टीमर उसने कर रखे थे कहा कि यहां से लोगों को बहुत दूर भेज दिया जाए. सारे साधन वहां पर तैयार. लोगों को सायरन बजा करके सावधान किया गया. ऐलान किया गया. पर्चे बांटे गए. माइक से पूरे नगर में यह उद्घोष कर दिया-दो घन्टे के अन्दर यह विस्फोट होने वाला है, उससे पहले सब लोग नगर छोड़ करके चले जाओ, तुम्हारे लिए स्टीमर तैयार हैं, सुरक्षित स्थान पर ले जाएंगे. एक बार ऐलान किया, दो बार ऐलान किया परन्तु लोगों ने ध्यान ही नहीं दिया कि यह तो रोज होता रहता है, गर्जना आज से नहीं बहुत दिनों से सुन रहे हैं, धुआं तो निकलेगा ही ज्वालामुखी है, वहां पर एक बात प्रलोभन रोज की कमाई दीखती थी कि थोडी सी मजदूरी में बहुत बड़ा नफा, इसे छोड़कर कैसे जाएं, प्रलोभन ऐसी चीज होती है उसका परिणाम आज नहीं तो कल भोगना पड़ता है. __परिणाम यह आया, शाम को चार बजे ऐसी भयंकर गर्जना हुई, गर्जना के साथ ज्वालामुखी का ऐसा भयंकर विस्फोट हुआ. सारे नगर में गर्म लावा फैल गया, धुआं छा गया, ऐसी भयंकर गर्मी पैदा हुई, लोगों ने तप करके उस गर्मी में प्राण दे दिये. थोड़े समय बाद दूसरा विस्फोट हुआ रात को आठ बजे रेडियो की न्यूज में आया 75000 आदमियों में से सिर्फ तीन आदमी बचे, बाकी सब साफ. पूरे नगर का सर्वनाश हो गया एक मकान साबूत नहीं रहा, एक व्यक्ति एक पशु पक्षी जीवित नहीं रहा. तीन आदमी जेल के अन्दर कैदी थे. जिन्हें खतरनाक कैदी समझकर अन्डर ग्राउंड में रखा था, वे बच गए. बाकी सब साफ. आचार्य भगवन्तों ने कैसी कृपा दष्टि रख करके यह परिचय दिया I amil 510 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी “स्थान त्यागः इति” जहां पर भय की संभावना हो सतत मौत सामने दिखती हो, जहां पर इस प्रकार के व्यक्ति रहते हों, वैसे स्थान पर सज्जन पुरुष नहीं रहते, वैसी खतरनाक जगह का त्याग कर देना चाहिए. मिलिटरी का कैम्प हो, बारूद गोले का भण्डार हो, वहां पर यदि बंगला बनाएं तो आज नहीं तो कल कभी न कभी खतरा पैदा हो सकता है. कभी वह दुर्घटना का रूप ले सकता है. ऐसे स्थान में मकान नहीं बनाएं, जहां चारों तरफ शराबी रहते हों, जुआ खेलने का अड्डा हो, बदमाशों का आना जाना हो, कभी न कभी तो वहां भी खतरा पैदा होगा. परिवार के संस्कार तो बिगाड़ेंगे. सतत मन में भय और चिन्ता रहेगी. यदि विवाद में बीच बचाव करने जाएं तो सफाया आप का होगा. तथा उपप्लुत स्थान त्याग इति इस सूत्र का कथन यही है, इसका भावार्थ यही है, जहां भय की संभावना हो, मन की शान्ति नष्ट होने वाली हो, चित्त की समाधि को नुकसान पहुंचता हो, ऐसी किसी जगह पर अपने रहने का मकान नहीं रखना. पैट्रोल का पम्प हो, आप पास-पड़ोस में रहते हों और यदि कभी अग्नि दुर्घटना हो जाए तो अग्नि संस्कार बिना पैसे हो जाएगा. मेहनत भी न पडे. . नदी के किनारे निवास रखा, हवा खाने के लिए बंगला बनाया, कभी हवा भी हो जाएगी. न जाने कब फ्लू आ जाए, पता नहीं कब हमारे लिए मुसीबत बन जाए, न जाने कब बंगला कमजोर बन जाए, ऐसे कई कारण हैं, किसी भी ऐसी जगह पर मकान का निर्माण नहीं करना, जहां इस प्रकार के प्राकृतिक कोप की संभावना हो. बदमाशों का अड्डा हो. जहां गलत संस्कार परिवार में आने की संभावना हो. ऐसे जगह पर कभी मकान मत बनाना. मकान तो रहने के लिये गृहस्थ की आवश्यक वस्तु है, उसके लिये सूत्रकार ने दूसरे सूत्र के द्वारा निर्देश दिया "तथा-स्वयोग्यस्याश्रयणमिति” | // 17 // अपने रहने लायक़ मकान का निर्माण जरूर करें, परन्तु घर किस प्रकार का हो "तथा प्रधान साधु परिग्रह इति" | // 18 // जहां सज्जन पुरुषों का परिवार रहता हो, धार्मिक पुरुषों की जहां पर बस्ती हो, अच्छी विचार धारा के लोग जहां पर रहते हों, ऐसे मोहल्ले के अन्दर जहां कुसंस्कार का प्रवेश नहीं हो. सज्जन लोगों की बस्ती हो, परिवार में, बालकों में, आने वाली पीढ़ी के अन्दर सुन्दर संस्कार मिलें, उनको देखकर के बहुत कुछ सीखा जाए. आचार सम्पन्न लोग. ऐसे स्थान पर अपने रहने योग्य स्थान का निर्माण करें. AC 511 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी साधु शब्द का अर्थ लिया है सज्जनता से. जहां सज्जनों का निवास हो, अच्छे-अच्छे व्यक्ति रहते हों, जहां से धर्म की प्रेरणा मिलती हो, सुन्दर संस्कार मिलते हों, हमारे जीवन व्यवहार में जहां से नई प्रेरणा मिलती हो, ऐसी जगह पर अपना निवास स्थान बनाएं, तथा स्थाने गृह करणमिति // 16 // उचित और योग्य स्थान में घर का निर्माण करना. कौन सा उचित स्थान? श्मशान न हो, कोई गंदी जगह न हो, देवी-देवताओं का निवास स्थान न हो, क्योंकि परिवार है, गृहस्थ है, रूठकर के किसी न किसी प्रकार का प्रकोप हो सकता है. मैं महाराष्ट्र में था, वहां इचलकरंजी में मेरा आना हुआ. वहां एक सज्जन श्रावक श्री मन्त सांगली बैंक के डायरेक्टर, सेठ फूलचन्द भाई मेरे पास कोल्हापुर आए, मुझसे कहा महाराज इचलकरंजी आप पधारें, मेरे यहां आप जरूर पधारें, मैंने कहा - “क्यों? क्या बात है?" "हमारे घर में बड़ी अशान्ति है, कोई न कोई बीमार रहता है या नुकसान होता है. उससे भी भयंकर बात अचानक आग लगती है, मकान बन्द और आग लग जाती है. बाहर से लोग चिल्लाते हैं." सूत्र में कहा है - उचित और योग्य स्थान पर ही मकान बनाना, यह नहीं कि सस्ता मिल गया, अच्छा लगा और बना लिया. कई बार ऐसी घटनाएं भी होती हैं. मैं वहां पर गया, जाने के बाद जब मकान पर गया, मैं अन्दर से बाहर निकला और एक जगह अन्दर आग लगी, वहां रखा सारा सामान जल गया. कोई नहीं था. ऊपर पूरा खाली था. ऊपर जाकर के घूम करके मैं आया, नीचे उनको मंगलाचरण सुनाकर जैसे ही निकल रहा था, आवाज आई कि पुनः ऊपर आग लगी है. मेरे मन में शंका हुई कि यह उचित स्थान नहीं है, मैंने उनको बुलाकर कहा - "आप म्युनिस्पैलिटी में जाओ. जाकर इसका पुराना रिकार्ड देखो कि इस स्थान पर पहले यहां क्या था?" वह जब गए, पूरी खोज करवाई, अस्सी साल पहले वहां कब्रिस्तान था. धीरे-धीरे किसी कारण से वह स्थान खाली हो गया, संयोग से वह सारी जमीन खरीद ली. खरीद करके उन्होंने सोचा यहां बंगला बनाया जाए. बंगला बनाने के बाद जब रहने के लिए गए, तब यह समस्या पैदा हुई. मेरे मन की शंका सत्य निकली, मैंने कहा - अब तो कोई उपाय नहीं है. बंगला उठाकर आप यहां से ले जा तो नहीं सकते, एक उपाय बतलाता हूं, नीचे कोई आत्मा दबी हुई है, उस प्रेतात्मा का यह प्रकोप है. आप घर के अन्दर एक स्थान बना दीजिए. आला बना दीजिए. वहां रोज शाम को तेल का चिराग करिए और प्रार्थना कीजिए. मैं तुम्हारे स्थान को नुकसान पहुंचाने वाला नहीं, तुम्हारा स्थान मैंने घर में निर्माण कर दिया है, 512 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी रोज तुम्हारा स्वागत किया करूंगा, एक आला बनाकर के उस आत्मा की शान्ति के लिए चिराग शुरू कर दिया. आज तक उसके बाद कुछ नहीं हुआ. जो उपद्रव करती है, सम्मान के बाद यही आत्मा आपके लिए बहुत उपकारी बन जाएगी. इसीलिए पूर्वाचार्यों ने लिखा, बहुत योग्य स्थान के अन्दर मकान बनाना, किसी देवी देवता का स्थान न हो. कोई कब्रिस्तान न हो, किसी आत्मा को पीड़ा पहुंचे. उस आत्मा का अविनय हो, ऐसा भी नहीं करना. साधु साध्वियों को भी निर्देश है. कहीं भी जाएं, भ्रमण करें, विहार करें, परन्तु किसी भी देवी-देवता की जगह पर अशुद्धि आदि न करें, या उनका अविनय हो, ऐसा कोई कार्य न करें. हर आत्मा को सम्मान प्रिय है, क्यों उन्हें अपमानित किया जाए. बहुत वर्ष पहले जब मैं गुजरात था, ऐसी ही घटना पाकिस्तान के कराची में हुई. बहुत बड़ी बिल्डिंग किसी ने बनाई. जब वहां अमेरिकन राष्ट्रपति आए हुए थे. राष्ट्रपति के आगमन पर पूरा स्टाफ वहां पर उतरा था. क्योंकि गवर्नमेंट ने वह मकान किराये पर लिया था. उनके उतरने की सारी व्यवस्था कराची में उसी मकान के अन्दर की थी. रात्रि में चार जो बडे ऑफिसर्स थे, उनको स्वप्न आया स्वप्न में अलग-अलग प्रकार की सूचना मिली, तुम जल के मर जाओगे, तुम गिरकर मर जाओगे, किसी से कहा-तुम डूब करके मर जाओगे. विदेशी थे, ऐसी बातों पर विश्वास करने वाले नहीं थे, परन्तु फिर भी स्वप्न आया. अर्थात् घटना जीवन के अनुभव में आई. उन्होंने डायरी में नोट कर लिया. ___ काफी चर्चाएं चली. बराबर छ: महीने बाद जिनको जैसा स्वप्न आया था, वैसा ही परिणाम आया. समुद्र में तैरने गया. डूब के मर गया. एरोप्लेन क्रैश हुआ. गिर गया. जैसा स्वप्न में देखा था वैसा ही हुआ. घर के अन्दर आग लगी और जल के मर गया. चारों व्यक्तियों की इस प्रकार मौत हई. स्थान अशद्ध था, जैसा चाहिए वैसा उनका सम्मान नहीं हुआ. उसका यह परिणाम. यह बहुत सारे घरों में यह स्थिति होती है, बीमारी आती है, उपद्रव होता है, आर्थिक दृष्टि से नुकसान होता है, उसमें कई बार ऐसा भी कारण होता है कि मन की शुद्धि नहीं रहती. मन का वातावरण मकान का वातावरण अशुद्ध रहता है, मकान के अन्दर जैसी शान्ति चाहिए, वह शान्ति नहीं मिलती इसीलिए कहा - ___ "तथा स्थाने गृहकरणमिति" उचित और योग्य स्थान के अन्दर घर का निर्माण करें, शुभ मुहूर्त में मानसिक प्रसन्नता के अन्दर वह भी परमात्मा के स्मरण के द्वारा, अनुष्ठान के द्वारा, उस मकान का भूमि पूजन करें मकान कैसा बनाएं. निर्माण तो करें पर निर्माण के बाद उसके अन्दर किस तरह की योजना. "अतिप्रकटातिगप्तस्थाननुचित प्रातिवेश्यं चेति" यहां पर पूरा जैन शिल्प है, मकान के निर्माण की पूरी योजना इसके अन्दर बतलाई पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बतलाई. अति प्रकट स्थान भी नहीं चाहिए कि चारों तरफ - 513 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: हजार द्वार जैसा बनाकर बैठ जाए. हवा महल जैसी खिडकियां बनाकर रख दें, वह भी निषेध है, उसमें भी सतत मन में भय रहेगा. न जाने कब कौन व्यक्ति आ जाए और कैसी घटना घट जाए. अति गुप्त भी नहीं चाहिए कि जहां सूर्य की किरण भी न आए, शुद्ध वायुपान भी व्यक्ति न कर पाए, ऐसा गुप्त स्थान भी नहीं चाहिए. अति प्रकट स्थान भी नहीं चाहिए. रात्रि में बन्द करते समय यदि भूल से कोई दरवाजा खुला रह गया. कोई खिड़की खुली रह गई. तो जान का जोखिम होगा. मकान के योग्य जैसा शिल्प है, शिल्प के अनुसार ही मकान का निर्माण करे. आज हम उससे बिल्कुल विपरीत हो गए. आज तो हमें आंख को सुन्दर लगना चाहिए. दस आदमी आकर उसकी प्रशंसा करें, बस वह चाहिए. मन के विषय के अनुकूल मकान चाहिए. परिणाम वही आता है. मन का आकार दिमाग पर असर डालता है. रात्रि के समय यदि आप सोते हों, आपकी छाती के ऊपर से यदि गाडर जाता हो उसका प्रेशर आएगा, आपकी छाती में भार आएगा. रात्रि में भय के स्वप्न आएंगे. आप चमक जाएंगे, आगे चलकर के शारीरिक दृष्टि से नुकसान का कारण, दर्द का कारण बनेगा. एक सामान्य गाडर के नीचे यदि आप सोते हों, छाती पर अगर गाडर आता हो, उसका भी यह कारण बनता है. मकान का शिल्प अशुद्ध हो और आपने मात्र अपनी आंख को देख करके आंख को अच्छा लगे, बस मन को प्रिय हो, लोग प्रशंसा करें. इसी दृष्टि से कि आपने मकान निर्माण कराया, तो वह मकान आपके रहने के योग्य नहीं होगा. आज नहीं तो कल वह मकान आपको नुकसान करने वाला बनेगा... बहुत योग्य विशिष्ट जानकार व्यक्ति, भारतीय शिल्प के अनुसार यदि मकान का निर्माण उनसे पूछ कर कराएं तो बहुत सारी बीमारियों से बच सकते हैं. बहुत सारी बीमारियों का यही कारण हैं. पहले तो हमारे यहां ईंटों के मकान बनते, लकड़ी के मकान बनते, भारतीय जलवायु के अनुकूल था. आप उसमें रहें तो बीमारी बहुत कम आएगी. रोग का प्रतिकार मकान ही कर देगा. प्राकृतिक कोप से रक्षण करेगा. गर्मी को चूस लेगा, शरीर में उतनी मात्रा में गर्मी आएगी जो इस टेम्प्रेचर के अनुकूल है. उससे भी आगे हम बढ़ गए, पत्थर का मकान, सीमेंट और कंकर का मकान और फिर उसमें लोहा. लोहे से मिश्रित यदि वह मकान होगा, बाहर की गर्मी इतनी भयंकर होगी कि उस मकान में आप बेचैन हो जाएंगे. वह बेचैनी आगे चलकर के पीड़ा का कारण बनती है ज्यादातर मस्तिष्क का दर्द पैदा करने वाली, विचारों में अशान्ति पैदा करने वाली, विचारों को उद्वेलित करने वाली बनेगी. शारीरिक प्रकोप उत्पन्न करेगी. हमेशा ब्लड प्रेशर हाई रहेगा. ऐसे मकान रात्रि के दो बजे ठण्डा होगा. सीमेंट और लोहा ज्यादा गर्मी करेगा. उसके 514 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी द्वारा आई गर्मी शरीर में अनेक व्याधि उत्पन्न करेगी. उदर पर असर करेगा. शरीर यदि टैम्प्रेचर से अधिक गर्मी सहन करेगा तो परिणाम मंदाग्नि पैदा करेगा. लोग सुविधा देखते हैं. मकान सुन्दर चाहिए, सीमेंट काकरी का बनाना है. बहुत छोटे टाइप का मकान होता है, ज्यादा प्रेशर रहता है. बहुत ज्यादा बीमारी का कारण मकान और वेश-भूषा. आधी बीमारी तो इसके कारण आती है और आधी खाने के कारण. ये सत्य है. घर में खुली हवा मिलती नहीं, सारे दिन पंखे की हवा में रहना पड़ता है, एयर-कूलर चलाते हैं, एयर कन्डीशन मकान में रहते हैं परन्तु शरीर में से प्रतिकार शक्ति धीमे-धीमे कम हो जाएगी. शरीर जो गर्मी सर्दी बरदाश्त कर सकता है और बर्दाश्त के बाद जो शक्ति शरीर में आती है. प्रतिकार शक्ति वह सब कमजोर हो जाएगी. रात दिन एयर कण्डीशन में रहिए, पंखों की हवा में रहिए, आप बाहर की गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे. जरा भी गर्मी लगी बेचैनी पैदा होगी. जरा भी बाहर गए, सर्दी जुकाम हो जाएगा. कारण शरीर से प्रतिकार शक्ति चली जाएगी. अप्राकृतिक वस्तुओं का सेवन करने से प्रकृति विरुद्ध चली जाएगी. बीमारी अलग आएगी. ___ सुविधा के लिए घर में फ्रिज रखते हैं, जिससे कितने ही रोग बढ़ गए, फ्रिज शरीर को कितना भयंकर नुकसान पहुंचाता हैं. क्षणिक शान्ति मिल जाए, ठण्डा पानी मिल जाएगा. थोड़ी सी सुविधा मिल जाएगी परन्तु आज के वैज्ञानिकों ने बहुत बड़ी खोज की हैं, कैंसर के कारणों में से यह भी एक कारण माना जाता है. अति सूक्ष्म मात्रा में यदि अन्दर ठण्डी चीज गई तो अन्दर की चमड़ी के जो सेल्स होते हैं, वे बर्दाश्त नहीं कर पाते. अति मात्रा में ठण्डा पीना धीमे-धीमे आगे चलकर के अन्दर में एक्सेस, एक प्रकार का फोडा, एक प्रकार का घाव पैदा करेगा. वो घाव आगे चलकर कैंसर बनता है इसीलिए बहुत ज्यादा अप्राकृतिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए. मिट्टी के घड़े रखिए, पानी रखिए, प्राकृतिक हवा से जो उस घड़े को ठण्डक मिलेगी उस पानी को पीने से जो तृप्ति मिलेगी. फ्रिज का एक बोतल पी जाएं उससे वह तृप्ति नहीं मिलेगी. घड़े का एक गिलास पानी पी लें, ठण्डा पानी स्वच्छ निर्मल पानी, प्राकृतिक दृष्टि से ठण्डा किया हुआ, अपूर्व तृप्ति मिलेगी. प्यास बुझ जाएगी. फ्रिज से बोतल निकाल करके पी लें, दस मिनट बाद प्यास तैयार. तृप्ति नहीं मिलेगी क्योंकि अप्राकृतिक है. आप फल-फूल जो भी चीज फ्रिज में रखते हों, रखिए, बिगड़ेगा नहीं. बाहर की गर्मी-सर्दी उस पर असर नहीं करेगी. परन्तु बेस्वाद बन जाएगा उसमें स्वाद नहीं आएगा. जो मधुरता होनी चाहिए वह नहीं होगी. अधिक मात्रा में ठण्डी के कारण उसकी मधुरता और स्वाद में फर्क आ जाएगा. __प्राकृतिक दृष्टि से पकी हुई चीज खाइए, उसके स्वाद को देखिए, उसके बाद फ्रिज में पकाइये, रखिए, फिर सेवन करिए, स्वाद में फर्क नजर आएगा. अपने स्वास्थ्य के साथ CUN Holo 515 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी हम खेल कर रहे हैं. जितनी आधुनिक सुविधाओं का आश्रय लेते हैं, उतने ही स्वयं में गुलाम बनते जा रहे हैं. पराश्रित बनते जा रहे हैं. अप्राकृतिक वस्तुओं का अधिक मात्रा में सेवन, सुख-सुविधा के लिए नहीं बल्कि अपने शरीर पर अत्याचार कर रहे हैं. इसे मौत के नजदीक पहुंचा रहे हैं. घर के अन्दर इतने आधुनिक साधन बन गए, गैस चूल्हे पर रसोई पकाइये, क्या स्वाद आएगा? सुविधा चाहिए, धुआं नहीं चाहिए, चूल्हा फूकना न पड़े, झट से हो जाए. जो चीज आधे घण्टे में पकनी चाहिए, उसे यदि दस मिनट में पका देते हैं, इतनी अधिक मात्रा में गर्मी उसमें पैदा करेंगे, चीज के अन्दर से सत्व चला जाएगा, विटामिन जल जाएगा, कुछ भी उसके अन्दर नहीं मिलेगा. उसकी सारी मधुरता खत्म हो जाएगी. पेट भर लेंगे, स्वाद, मिल जाएगा नमक मिर्च के कारण, बाकी कोई पोषक तत्व उसमें नहीं मिलेगा. उसके परमाणु शरीर के लिए हानिकारक बनेंगे. उत्तेजना देने वाले बनेंगे. उस आहार में भी उतेजना होगी. दिमाग के अन्दर जो शान्ति और समाधि मिलनी चाहिए मन के विचारों को जो शीतलता मिलनी चाहिए, वह शीतलता उसमें से नहीं मिलेगी. उद्विग्नता पैदा होगी. मन में तनाव पैदा होगा. घर के अन्दर जिन साधनों का उपयोग करते हैं, बर्तन बासन का, कोई जमाना था शुद्ध धातु का उपयोग किया जाता. आयुर्वेदिक दृष्टि से जो धातु हमारे शरीर को पोषण देने वाला, हमारे शरीर को शक्ति देने वाला, जिसका परमाणु पेट में जाए तो शक्ति संचय करे. शक्ति में वद्धि करे. वह तो चला गया. लोहे के बर्तन आ गए. किसी जमाने में कैदियों को दिया जाता था. ___"सज्जन पुरुषों के यहां चांदी के बर्तन होते, कांसे के बर्तन होते, पीतल के बर्तन होते, उसके अन्दर जो आपने रसोई बनाई हो या उस थाली में आप भोजन करते हों वह परमाणु अन्दर जाकर पोषण देता शरीर की शक्ति में वृद्धि करता. सात्विक विचार उत्पन्न करता. चला गया जो औषधि का काम करता था. आज का साइंस कहता है. आप माने या न माने स्टील और एलोम्यूनियम विशेषकर के कैंसर का कारण माना गया है, असाध्य व्याधियों का कारण माना गया है, अशुद्ध परमाणु है. इसका परमाण शरीर के लिए घातक माना गया, उसी परमाणु में, उसी बर्तन में यदि आज रसोई पकाएं, उसी में यदि आप पानी उबालें, उसी को भोजन के उपयोग में लें तो वो शरीर के लिए बड़ा भारी नुकसान देने वाला है. लोगों को सुविधा चाहिए, मापने की झंझट नहीं, साबुन से पोछा और साफ. मात्र सुविधा के लिए शरीर पर रोज अत्याचार किया जा रहा है. रहने का मकान गलत, खाने का बर्तन गलत, पहनने का कपड़ा गलत. प्राकृतिक दृष्टि से जो व्यवस्था दी गई थी गृहस्थ जीवन के लिए सारी व्यवस्था से प्रतिकल आज व्यवस्था है. अनाज पिसा करके खाते हैं, क्या 516 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - मिलेगा उस अनाज के अन्दर? न जाने किस-किस जगह से अनाज आया हुआ, न जाने . उसमें कितने जीव जन्तु होंगे. उसी चक्की से गेहूं पीस करके आता है. सारे तत्व उसके नष्ट हो जाएंगे. चक्की से पीसा आटा लीजिए, बर्तन पकड़ नहीं सकते, इतनी गर्मी उसमें होती है. गेहूं का सारा सत्व उसमें जल जाता है. वही घर के अन्दर हाथ चक्की के द्वारा पीसा जाए तो उसका स्वाद अलग होगा. उस रसोई से अपूर्व पोषणं मिलेगा, तृप्ति मिलेगी. सुन्दर व्यायाम मिलेगा शरीर को. औरतों का यही व्यायाम था, कुएं से पानी लाती, घर में गाय भैंस होती. हिन्दू जाति में अगर इतनी जागृति आ जाए कि एक-एक गाय-भैंस रखें तो कसाई खाने में एक भी गाय भैंस नहीं जाए, यह मेरी मां है, इसके दूध से मेरा पोषण हुआ. वह मेरे लिए अमृत है. जिसने बाल्यकाल से आज तक मुझ पर उपकार किया यदि वह मां वृद्ध हो जाए, उसे कसाई के हाथ कैसे बेचूं जीवन पर्यन्त निर्वाह करूंगा. गाय का मल-मूत्र तक औषधि में काम आता है, खाद के काम आता है, मर के भी चमड़ा आपको दे जाती है, हड्डी दे जाती है. जीवन पर्यन्त सारा जीवन अर्पण करती है, घास खाकर के अमृत देती है, दूध देती है. इन्सान क्या देता है, जिए वहां तक जंजाल और उपाधि. नौ की लकड़ी और नब्बे खर्च. जैसे ही स्वार्थ निकला हम तुरन्त उसे वहां भेज देते हैं. दोष देते हैं सरकार को अन्य जातियों को, अन्य सम्प्रदाय के लोगों को और धार्मिक भावना भड़का देते हैं. एक भी हिन्दू यदि ऐसा नियम करता है, हर हिन्दू यदि नियम कर ले कि घर में गाय रखूगा. एक तो जीव दया का सबसे बड़ा पालन होगा, एक गाय कत्ल खाने के लिए नहीं मिल सकती. कसाइयों के पास जाती तो अपने द्वारा ही है, एक तरफ हम गाय के लिए आमरण अनशन करें. गाय के लिए न जाने क्या-क्या लम्बे-चौड़े भाषण दें. उसी गाय को यदि दे देते हों कसाई के हाथ और फिर जन्माष्टमी के मंगल प्रसंग पर कृष्ण के नाम की माला गिनते हों तो यह नाटक कैसा होगा? हमारे जीवन में कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि सामाजिक मर्यादा में रहकर परिस्थिति पर विचार किया जाए, ताकि समस्याओं में से समाधान प्राप्त कर सकें. थोड़ा बहत ऐसा हम विचार करें, निर्णय करें तो हम बहुत कुछ पा सकते हैं. खानपान की सारी व्यवस्था भी आज विकृत बन गई, खुला मकान शहर से बाहर रहने का जहां सतत भय में जीवन पूरा करना पड़े, जरा भी भूल प्रमाद हो तो हमारे जीवन के साथ कभी न कभी धोखा हो सकता है. आचार्य भगवन्तों ने इसीलिए अपने भावीकाल को सामने रखकर के सत्रों द्वारा जीवन व्यवहार का परिचय दिया. कहां रहें? किस प्रकार रहें? कैसी भूमि पर मकान का निर्माण करें कि जहां जीवन सुरक्षित रहे. किस प्रकार का आहार करें? किस प्रकार के आहार के द्वारा जीवन का निर्वाह करें? वो सारा परिचय इन सूत्रों द्वारा दिया गया. खानपान 517 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी KBAR हमारा विकृत बना, पहनने के लिए भी साधन बतलाया गया. कैसे आहार के साथ कैसा वस्त्र धारण करें? वह भी निर्देश दिया गया. जलवायु के अनुकूल वस्त्र निर्माण किया गया. सिला हुआ वस्त्र कैसा होना चाहिए? किस प्रकार का होना चाहिए? आप जानते हैं, यहां गर्मी कैसी है, इसी के अनुसार वस्त्र होने चाहिए. शुद्ध सात्विक और शुचिवस्त्र, जिससे गर्मी की मात्रा शरीर में कम जाए. परन्तु अधिक मात्रा में टेरिलिन टैरीकोटन के, पैट्रोलियम कैमिकल के, बनने वाले हैं, कोयला ऑक्सिजन और पानी, मिला करके इसका निर्माण होता है, जहां भी पैट्रोलियम कैमिकल्स होगा, वह बड़ा जलनशील होगा, शरीर बर्दाश्त नहीं करेगा. सविधा के लिये ये कपडे पहनने वाले व्यक्ति कि पानी से धोया और साफ स्त्री करने की जरूरत नहीं परन्तु वो भूल जाते हैं कि शरीर के आरोग्य के साथ हम खेल रहे हैं, वह कपड़ा यदि पहन करके आएंगे, सूर्य की गर्मी जब अन्दर जाएगी, क्योंकि शरीर से जो पसीना निकलना चाहिए, नहीं निकलता शरीर के अन्दर जिस प्रकार शुद्ध हवा मिलनी चाहिए, बाहर की गर्मी जिस मात्रा में खानी खहिए, उसमें रुकावट पैदा करेगी. ___ अन्दर की गर्मी बाहर जाएगी नहीं, पसीना वहीं का वहीं सूखेगा. वह फिर दाग बनेगा, खुजली बन जाए, एग्जिमा बन जाए, या चर्म रोग उत्पन्न करेगा. उसका यह परिणाम होगा कि वह अधिक मात्रा में शरीर में गई हुई गर्मी अन्दर में प्रेशर भी हाई करेगी. हाई ब्लड प्रेशर उत्पन्न करेगी. कई तरह की बीमारी इससे पैदा होगी. इसीलिए कहा शुद्ध सात्विक वस्त्र होना चाहिए. ऐसी सन्दर व्यवस्था यहां पर की गई कि गर्मी में जरा भी तकलीफ न हो. परन्तु हमने बम्बई में देखा था, वैशाख का महीना, कोई जवान आया. ऊपर से नीचे तक जैसे पार्सल पैकिंग करके लाया हो पूरा पैक. मैंने कहा - लन्दन अमेरिका नहीं, यह तो बम्बई है. तुम जानते हो यहां 40 डिग्री गर्मी पड़ती है. हयूमिडिटी 70 प्रतिशत होता हैं. तुम कितने बेचैन हो रहे हो. यह कोट वगैरा खोलो.. मैंने कहा - जो तुमने टाई वाई पहना है, यह किसी यादगार में पहना है? महाराज! वह तो मालूम नहीं.. __ मैंने कहा - बिना मालूम तुमने पहन लिया. वह तो लार्ड क्राईस्ट की यादगार में पहनते है, क्रिश्चियनिटी के अन्दर उनका रिवाज है. टाई पहनने का कि हमने लार्ड क्राईस्ट को इस प्रकार सूली पर चढ़ाकर उनकी यादगार में पहनते हैं ताकि हमेशा उनकी याद बनी रहे, तुम्हारे कौन से तीर्थंकर या अवतारी पुरुष को चढ़ाया गया. नकल में अकल तो होती नहीं, फिर हमारी आदत. देसी मूर्ति विलायती चाल. जन्मे इन्डिया में और नकल करते हैं अमेरिका की. आदत से मजबूर हैं. 518 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी - मैंने कहा - ये कपड़े हमारे अनुकूल नहीं हैं वहां के लिए अनुकूल हो सकता है जिस देश में अधिक ठण्डी पड़ती हो, वहां ये पेंट-सूट काम आएगा, परन्तु हमारे देश में इसकी जरूरत नहीं है. बहुत सारी बीमारियों का यह भी एक कारण है. खानपान बिगड़ा. रहने की जगह बिगड़ी. अपने वस्त्र परिधान की मर्यादा का हमने उल्लंघन किया. उसके ये परिणाम कि इतनी बड़ी संख्या में आज हॉस्पिटल बनने लगे. चालीस-पचास वर्ष पहले भारत में गिनती के हॉस्पीटल थे, कोई ऐसी भयंकर बीमारी नहीं थी. मोहल्ले में यदि कभी कोई डॉक्टर आ जाए तो पूरा मोहल्ला देखता कि यह कहां से आया? किसके पास आया? यमराज का प्रतिनिधि जा कहां रहा है? यदि किसी घर में गया तो पूरा मोहल्ला वहां पूछने आता, ऐसी क्या बात हुई डॉक्टर बुलाना पड़ा? बड़े शहर से लाना पड़ा? पूरे दिन श्रम करते हैं ? श्रम की चोरी करेंगे तो बीमारी आएगी ही. खाना सीख लीजिए श्रम की चोरी बन्द कर दीजिए. आज तो श्रम की चोरी, यहां से बाहर जाना है तो गाड़ी. घर गए तो लिफ्ट, आराम से एयर कण्डीशन में बैठे हैं, बीमारी नहीं आएगी तो क्या आएगी? दो तो बिना बुलाए आएगी. परिणाम वहीं आता है. उस घर में पूरा मोहल्ला जाकर पूछता है क्या हुआ? डॉक्टर बुलाना पड़ा. एक तो वह जमाना था कभी डाक्टर आ जाए तो पूरा मोहल्ला जग जाता. घर के अन्दर पूरे मोहल्ले के लोग आते सांत्वना देते. आज यह स्थिति है कि हर व्यक्ति के पास फैमिली डॉक्टर मिलेगा. हॉस्पीटल इतनी बड़ी संख्या में हम बढ़ाते जा रहे हैं. उस जमाने में मुश्किल से तीन चार हॉस्पीटल मिलते. सर्दी जकाम बखार आता तो उपवास कराके काढ़ा पिला देते, चला जाए, हमेशा के लिए. फिर आए ही नहीं, आप तो जानते हैं कोई कम्पनी यदि एक दवा निर्माण करती है तो तुरन्त उस पर खोज शुरू हो जाता है. हजारों लाखों प्राणियों को मारने के बाद आज का मैडिकल साइंस यह घोषणा कर देता है कि यह दवा बन्द कर दें, इसका साइड इफैक्ट है. लाखों व्यक्तियों की मौत के बाद उनका यह निर्णय आता है. दवा अमेरिका बनाता है और प्रयोग भारत में होता है. इस प्रलोभन में आ जाते हैं, तुरन्त हमको आरोग्य मिल जाएगा. यह नहीं सोचते कि दवाओं का प्रयोग हमारे ऊपर ही किया जा रहा है, ऐसी छोटी मोटी बहुत सी बाते हैं. सूत्रकार ने एक-एक चीज स्पष्ट कर दिया. हमारा आहार भी सात्विक होना चाहिए. किस तरह का आहार करना उसकी भी कला बतला दी. कहां रहना? घर कैसा होना चाहिए? उसकी भी विधि बतला दी. ___"लक्षणोपेत गृहवास इति" मकान भी कैसा बने जो लक्षण से युक्त हो, शिल्प के अन्दर पाषाण लक्षण बतलाया है, मकानों का निर्माण कैसे करना. मंदिरों में भी यह कला है. शिल्प कला है, हमारे यहां 519 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी जैन शिल्प में ऐसे विधान आते हैं. मंदिरों का निर्माण कैसे करना? जिन मंदिर निर्माण किस प्रकार का करना? अलग-अलग प्रकार की विशिष्ट कलाएं हैं स्थान देखकर के दिशा देखकर के उस कला का निर्माण होता था. गुरुजनों के मार्ग दर्शन से उनका निर्माण होता था. ___ मंदिर में आप जाइये, आपको परम शान्ति मिले, समाधि मिल जाए. बहुत बड़ा मैडिकल हॉल हैं. मंदिर में जाते ही परमात्मा के दर्शन के साथ मानसिक आरोग्य मिल जाए, यह व्यवस्था होती थी. धूप दीप इसीलिए मंदिर में किया जाता था ताकि सारा वातावरण शुद्ध हो जाए. शुद्ध घर के दीपक में वह ताकत है. अशुद्ध परमाणु में तुरन्त परिवर्तन करता है. ___ गाय के घी का दीपक मंदिर में, घर में, जब जलाया जाता है, वहां का पूरा वातावरण स्वच्छ कर देता है. शुद्ध परमाणुओं में परिवर्तित कर देता है. धूप मन को बड़ा प्रिय है इसीलिए दिया जाता है. मन की एकाग्रता में धूप साधन बन जाता है. चित्त को निर्मलता और पवित्रता देता है मकान में धूप देने का विधान है. वायु- मण्डल को शुद्ध करने के लिए है. क्त यदि मंदिर हो, मकान का निर्माण किया जाए तो बीमारी आ ही नहीं सकती. आज सुविधा की दृष्टि से हम मकान और मंदिर बनाने लग गए. मंदिर भी ऐसा विकृत बना दिया. सीमेंट कोंकरीट का थोड़े से, नाम मात्र दो पत्थर ला करके भगवान को विराजमान कर दिया. न दिशा का निर्देश, न उसमें कोई शिल्प, न उसमें कोई, कला. आए. भगवान को विराजमान कर दिया. बस दर्शन हो जाए, भावनापूर्ण हो जाए, परन्तु उस मन्दिर में कभी शान्ति नहीं मिलेगी. जो प्रार्थना द्वारा मानसिक सन्तोष या मानसिक तृप्ति मिलनी चाहिए, वह नहीं मिलेगी. रणकपुर में जाए, शत्रुजय में जाइये वहां के मंदिरों में संसार को, परिवार को भूल जाएंगे. मानसिक शान्ति का अनुभव होगा. वह अद्भुत शिल्प, किस प्रकार की भावना से उसका निर्माण किया गया है. उसके अन्दर उनके भाव के प्राण हैं. वे परमाणु आरोग्य का कारण बनते हैं. हजारों वर्ष से आज तक टिका है. बनाने वाले कि मकान का एक ईंट भी नहीं मिलेगा. परन्तु मंदिर आज भी हैं. रणकपुर मंदिर जब बनाया गया 444 खम्भे हैं, ताजमहल उसके सामने कुछ नहीं, अदभुत शिल्प है. कैसे उस मंदिर का निर्माण उस पुण्यशाली ने किया होगा. आज से हजार वर्ष पहले चौदह करोड़ रुपया खर्च किया. एक ही व्यक्ति ने निर्माण किया. पूरे विश्व में ऐसा शिल्प नहीं मिलेगा. जिस समय आधुनिक साधन नहीं थे, उस समय इसका निर्माण हुआ. ऐसे सुन्दर प्राकृतिक वातावरण में निर्माण किया. मंदिर में प्रवेश करते ही संसार को भूल जाएं. यह 520 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी उस मंदिर की विशेषता है. जैसे ही मंदिर में जाएं वहां का वातावरण मन पर असर डालता है. उस मंदिर के निर्माण के पीछे बहुत बड़ा इतिहास है.. मंदिर किस तरह से बनाया गया होगा. मजदूरों को कितना प्रसन्न रखा गया होगा. जाते-जाते वहां के कारीगरों ने हिन्दुस्तान का एक ही इतिहास रणकपुर का, और किसी मंदिर का यह इतिहास नहीं मिलेगा. वहां के मजदूरों ने अपने पैसे से पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर बनाया है. वह आज भी मौजूद है. बड़े सुन्दर शिल्प के साथ. आप विचार करिए उनको कितना इनाम मिला होगा. कैसी मजदूरी दी होगी, मजदूरी में यह भाव पैदा हो गया कि जब सेठ ने इतना बड़ा मंदिर बनाया तो हम भी पसीने के पैसे से भगवान का मंदिर बनाएं, पार्श्वनाथ मंदिर वहां के मजदूरों ने बनाया है. सेठ या मुनीम विचार करता है कि सेठ ने मंदिर बनाया इन मजदूरों ने भी मंदिर बनाया. मैं सेठ का मुनीम हूँ. मुझे शर्म आनी चाहिए. मैं भी एक मंदिर बनाऊं. आदिनाथ भगवान का मंदिर सेठ के मुनीम ने बनाया. उस शर्म से कि मजदूरों ने मिलकर जब मंदिर बनाया. मैं तो सेठ का मुनीम हूं. यह हमारे देश की परम्परा थी. आत्माओं को तृप्त किया जाता, प्रसन्न किया जाता, उसके बाद मंदिर निर्माण होता. हजारों वर्षों तक जो मंदिर कायम रहे. आबू का जल मंदिर बन रहा था, उस समय आचार्य भगवन्त ने कहा - समय कम हैं. प्रतिष्ठा शीघ्र होनी चाहिए. महामन्त्री वस्तुपाल, तेजपाल गुजरात के नायक महान वीर पुत्र थे, जब तक वे जीवित रहे, तब तक किसी दुश्मन की ताकत नहीं कि गुजराज की तरफ आंख उठा कर देख ले. उनकी तलवार में वह ताकत थी. ऐसे बहादुर थे. सरसठ बार युद्ध में गए, हरेक युद्ध में विजयी बन करके आए, वस्तुपाल, तेजपाल सेनापति और महामन्त्री थे. क्या ताकत थी? उनके अन्दर. जब देलवाड़ा मंदिर बन रहा था, अठारह करोड़ रुपये लगे थे. जो काम कागज पर नहीं कर सकते वह काम पत्थर पर किया गया था. वह मंदिर जब बन रहा था आचार्य महाराज ने निर्देश दिया कि अब तुम्हारे आयुष्य कम हैं, प्रतिष्ठा उससे पहले कर लेनी है. कारीगरों के पास गए. अनुपमा देवी से कहा ने कारीगरों से. कहा, “इस मंदिर का तुम जल्दी से निर्माण करो.” कारीगरों ने कहा - क्या बताएं, आबू में इतनी ठण्ड पड़ती है कि हमारे हाथ काम नहीं करते हथौड़ी नहीं चलती. अनुपमा देवी ने अपनी रसोई में जाकर आदेश दिया - “सारे कारीगरों को बादाम का सीरा हर रोज खिलाओ. रोज गर्मा गरम माल-मसाला खिलाओ. जितना खा सकें जिससे मंदिर का काम जल्दी कर सकें." रसाई में आर्डर हो गया - कारीगरों को जैसा चाहिए पकवान मिष्ठान्न ताकि उनके शरीर में गर्मी आ जाए, अनुपमा देवी. द्वारा पूछने पर कारीगरों ने कहा “माता जी! आप A IMPA 521 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी तो बहुत सेवा भक्ति करती हैं परन्तु यहां की ठण्ड ऐसी है कि हमारे हाथ कामं में नहीं चलते. हथौड़ी चलती नहीं." अनुपमा देवी ने विचार किया इससे काम नहीं चलता, गुरु महाराज का कहना है-मंदिर की प्रतिष्ठा छ: महीने में हो जानी चाहिए. क्या उपाय किया जाए. सारे कारीगरों को बुलाकर के अनुपमा देवी ने कहा - “कल से तुम्हारी मजदूरी बन्द." कारीगर विचार में पड़ गए, “यह कौन सी सजा?" "पत्थर में तुम काम करते हो, पत्थर का जो चूरा हो वह तुम गठरी बनाकर के लाओ और जो कारीगर जितना काम करेगा, जितना पत्थर का चूरा लाएगा, उसी हिसाब से तोलकर के मजदूरी में चांदी दी जाएगी. कारीगरों को तो चांदी का स्वप्न दिखने लगा. पत्थर के भार से मजदूरी में हमको चांदी मिलेगी. काम ऐसा शुरू हुआ. दो दिन बाद अनुपमा देखने के लिए गई. कारीगरों को बुला करके पूछा - “क्यों कैसा काम चल रहा है?" "माता जी! सारी ठण्डी उड़ गई, वह चांदी की गर्मी थी, इस प्रकार भावना से मंदिरों का निर्माण हुआ. जिन्होंने पसीना उतारा उनका पूरा मूल्य चुकाया गया. तब जाकर के उनका अन्दर से आशीर्वाद मिला. आज भी उस मंदिर के परमाणु पुकार-पुकार करके आत्म जागति देते हैं. आशीष देते हैं परमात्मा का मकान का निर्माण कैसे करना, वह इस विधि में बतलाई गई है. ऐसा नहीं कि कारीगरों से मजदूरी कराएं, बेचारे खून-पसीना एक करे, और फिर उनका पेट काटकर के रवाना करें. कैसा मकान बनाया जाए. बनाने वाला भी अन्तर से आशीर्वाद देकर के जाए, चित से प्रसन्नता देकर के जाए कि मुझे ईनाम मिला, मुझे मेरी मजदूरी मिली, किसी भी गरीब को भी रुलाना मत. गरीब की हाय कभी खाली नहीं जाएगी. उसका पेट भूखा रहता है, परिवार की चिन्ता रहती है, परिस्थिति से मजबूर रहता है. उस समय जलते हृदय से यदि एक भी परमाणु निकला वह एटम बम से भी खतरनाक होगा. कभी किसी की दुराशीष नहीं लेना, उनकी प्रसन्नता उनके अन्तर हृदय से आशीर्वाद लेना. मकान जब बनाया जाए, उनको सन्तोष देकर विदाई देना. हमारे यहां मंदिर की जमीन ली जाती थी, जमीन लेते समय जो वह मांगता, उससे सवाया दिया जाता. ताकि वह व्यक्ति एकदम प्रसन्न होकर के जाए. रोकर के नहीं जाए. ___ आबू का मंदिर जब बनाया, वहां के ब्राह्ममणों की जमीन थी, पूरे ब्राह्ममण समाज को बुलाकर के पूछा-हमें यहां आदिनाथ भगवान का मंदिर बनाना है तुम किस भाव से जमीन दोगे. उन्होंने देखा वस्तुपाल, तेजपाल हैं, बड़े-बड़े श्रीमन्त हैं, कमी क्या रखनी-अरे सेठ साहब, आप लोगों के पास पैसे की क्या कमी है. अगर आदिनाथ भगवान का मंदिर बनाना है तो फिर आप सोना बिछाकर जमीन लीजिए. पैसे से क्यों तोलते हैं? 522 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी E आपको अपना मकान बनाना होता तो बात अलग थी, प्रभु का मंदिर बना रहे हैं, हमारे ब्राह्मणों को सन्तोष होगा, हमारा समाज आशीष देगा वस्तुपाल ने आर्डर दिया मंदिर की जितनी जगह है, सोना मोहर बिछा करके लिया जाए. इसका कोई भाव नहीं कोई मूल्य नहीं. इतिहास है. पूरे मंदिर की जगह पर सोना मोहर बिछाया गया. बिछाकर के जमीन मंदिर के लिए ली गई. सारा सोना मोहर ब्राह्मणों को दे दिया गया. सोना बिछाकर के जब मंदिर की जमीन ली गई मंदिर में कैसा भाव और प्राण होगा वह विचार कर लें, कितने अन्दर से आशीर्वाद दिये होंगे हजार वर्ष तक मंदिर आज भी कायम है. देखें तो मालूम पड़े, जैसे आज ही बना है. मकान टूट गए, महल चले गए, वस्तुपाल, तेजपाल का नाम अमर हो गया. ऐसा कार्य किया जाए कि जिससे जीवन को जाते समय भी शान्ति मिले, यहां पर इसीलिए कहा. "लक्षणोपेतः गृहवास इति" मंदिरों के अन्दर या मकान के अन्दर जो भी निर्माण कार्य करें. वे लक्षण से और शिल्प से युक्त हों. शिल्प से शून्य मंदिर और परमात्मा का निवास जहां होगा मन को शान्ति मन को आरोग्य नहीं मिलेगा. उसी तरह, यदि बिना शिल्प का मकान बनाया तो शरीर के अन्दर कोई न कोई असाध्य रोग का कारण बनेगा. मानसिक अशान्ति, चित्त विक्षिप्त रहेगा, परिवार को सुख नहीं मिलेगा, केवल शिल्प के दोष के कारण. "निर्मितं परिक्ष्यति" मकान के अन्दर भूमि की परीक्षा निमित्त की जानकारी से करें. "तथा अनेकनिर्गमादिवर्जनमिति" मकान के अन्दर इस प्रकार की व्यवस्था रखे कि आने जाने का रास्ता परिमित हो, सीमित हो और शिल्प युक्त हो, यह नहीं कि मर्जी में आया यहां खिडकी बना दो, यहां दरवाजा बना दो. जैसा शिल्प में है. शिल्प के अनुसार यदि मकान का निर्माण करें तो बिना पैसों की दवा है, शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का आरोग्य सुरक्षित रहेगा. इसीलिए विधान दिया कि ऐसी जगह पर मकान बनाना, जहां पर देव स्थान नजदीक न हो. कभी भूल से उनकी आसातना की संभावना न रहे. ऐसी जगह पर मकान बनाया जाए, जहां भय का प्रवेश न हो. कभी किसी प्राकृतिक कोप का वातावरण, जैसे नदी है, नाला है कोई तूफानी जगह है, बदमाशों का अड्डा है. अगर वहां मकान बनाते हैं तो परिवार के संस्कार पर असर पड़ेगा. मन की शान्ति नष्ट हो जाएगी. कल कोई बड़ी आपत्ति विपत्ति भी आ सकती है. ऐसी जगह मकान कभी नहीं बनाना. ये निर्देश इन सूत्रों के द्वारा दिया गया है. "तथा विभवद्यनुरूपो वेषो विरुद्ध त्यागेनेति" NOO 523 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: अपने वैभव और संस्कृति के अनुसार वेष भूषा परिधान करना. कपड़ा कैसे पहनें, नाप किस प्रकार की चाहिए, उसमें क्या विशेषता है? यह मनौवैज्ञानिक दृष्टि से मन पर क्या असर डालता है? इस पर भी विचार करेंगे. "तथा आयोचितो व्यय इति" इससे सुख भी आएगा. आय के अनुसार व्यय करना. जितनी आय है. उसके अनुसार मर्यादा में रहकर व्यय करना, यह नहीं कि घर फूंक कर के दीवाली मनाएं. मन की अशान्ति का कारण है, वह भी मन में असन्तोष पैदा करेगा. पाप के मार्ग में ले जाएगा, गलत तरीके से उपार्जन का रास्ता फिर खोजना पड़ेगा. आज यही हो गया. गलत तरीके से उपार्जन करना पड़ता है. सामने वाले के मकान को देखकर मन में ऐसा विचार पैदा होता है, मैं भी ऐसा बनाऊं. मैं भी इस तरह से रहूं. परन्तु यह नहीं सोचता, अपनी पुण्याई के अनुसार अपनी मर्यादा में मैं रहूं. गलत रास्ता मुझे न लेना पड़े. आगे चलकर के विडम्बना पैदा करेगी. सारी बातें बहुत समझ कर के आचार्य ने लिखी हैं. आज हमारे जीवन से, व्यवहार से, ये बहुत संबंधित हैं. यह तो परमात्मा की वाणी है. स्पर्श कर जाए तो जीवन का परिवर्तन हो जाए.. उन आचार्य पुरुषों ने मार्ग-दर्शन दिया है. थोड़ा बहुत यदि अपने आचार में से व्यावहारिक बना लिया जाए, बहुत बड़ी उपलब्धि आपको हो जाएगी. होती नहीं, क्योंकि रुकावट है. मन के अन्दर मोह ऐसा बीच में बैठा है. मोह के कारण ये शब्द अन्दर जा नहीं पाते. और अन्तर हृदय से आत्मा के साथ परमात्मा की वाणी का स्पर्श नहीं हो पाता. ये मुख्य कारण हैं. मफत लाल सेठ को मालूम पड़ा-कोई बड़े सन्त आए हुए हैं. उन्हें यह भी मालूम पड़ गया, इनके पास पारस पत्थर है. रोज आने लगा, रोज नमस्कार, रोज उनकी भक्ति करे, ऐसा भक्त बन गया क्योंकि प्रलोभन कार्य कर रहा है. धोखेबाज दूकानमें कुछ प्राप्त करने का हो तो दुगना नमस्कार. मफतलाल की भक्ति ऐसी, परन्तु सन्त तो सन्त ही थे. सन्त के जीवन में तो कोई छलावा होता नहीं. वह अपने स्वभाव में स्थिर थे. एक दिन मफतलाल ने कहा-महात्मा जी. मैंने सुना है आपके पास कोई पारस पत्थर है. हां बेटा! साध तो झूठ बोलते नहीं कि है जरूर. भगवन्! कृपा करके यदि आपका पारस पत्थर मिल जाए, मैं रोज परोपकार करूं. रोज सदा व्रत चलाऊं. दीन दुखियों की रोज सेवा करूं यदि आशीर्वाद स्वरूप पारस पत्थर मिल जाए. महात्मा बड़े सरल स्वभाव के थे उनको कहां धन का कोई महत्व था. सहज में मिल गया तो रख लिया. उन्होंने कहा-बेटा. तुम ले जाओ. दे दिया.. 524 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - मफतलाल बहुत खुश हुआ. बड़े आनन्द में आ गया और नशा चढ़ गया आज तो बिना पसीना उतारे पारस पत्थर मिल गया. कई बार प्राप्ति को पचाना बड़ा मुश्किल होता है. स्वप्न तो बड़े सुन्दर आते हैं परन्तु जब प्राप्ति हो जाए तो उसे पचाने के लिए भी शक्ति चाहिए. मफतलाल को एक बार रात्रि में स्वप्न, बिस्तर में सोए-सोए मकान के अन्दर, बड़ा सुन्दर स्वप्न था. स्वप्न में क्या देखा-कोई फकीर मिल गया. बादशाहों के जमाने में जिस समय कभी अचानक आक्रमण होता, भाग जाना पड़ता. किसी व्यक्ति ने मकान को खोदकर बहुत सोना गाड़ रखा था. रात्रि का समय था, स्वप्न में मफतलाल ने देखा-वहां से कोई फकीर जा रहा है. रास्ते में यह भी घूमने निकले. फकीर के पीछे-पीछे चले. अचानक जाकर के देखा. फकीर ने कहा-बेटा मफतलाल तुम यह मकान को खरीद ले. इसमें बहुत धन दौलत गडी है. मन में समझ आया कि फकीर का शब्द झठा नहीं होना चाहिए. पैसा दिया मकान खरीद लिया. रात्रि का समय था कुदाल लेकर मकान खोदना शुरू कर दिया. ढेर सारे चरू मिल गए. सोने से भरे. हुए. चांदी के सामान से भरे हुए. उसको बड़ा सन्तोष हुआ. जो चाहिए था, मुझे मिल गया, मेरा पैसा वसूल. इतने सारे सोने के मोहर, इतने सारे चांदी के सामान. मन में इतना खुश हुआ. लेकर के जब तिजोरी में भरना शुरू किया और हण्टर मारना शुरू कर दिया. सोना मोहर भी छूट गया, वह बेहोश हो गया, खुदा ने दिया, बिना छप्पर फाड़े दिया परन्तु मेरी हालत बुरी हो गई. मार खा-खा करके प्राण बच गए बस. सब माल पुलिस वाले उठाकर ले गए. ___मफतलाल की हालत बहुत बुरी हुई. यह तो स्वप्न था, स्वप्न में एकदम घबरा के उठा, शरीर पसीना-पसीना हो गया. वह देखता है, मैं जिन्दा तो हूं, पैसा मिले या न मिले, परन्तु उसके बाद जब उठकर देखा तो पूरा बिस्तर बिगड़ा हुआ था. हण्टर की ऐसी मार लगी. इसीलिए कहता हूं पचाने के लिए पुण्याई भी चाहिए. उस शक्ति को पचाने के लिए अपनी शक्ति चाहिए. पारस पत्थर तो मिल गया, घर पर बहुत पुराना बाप दादाओं का बहुत पुराना मकान था. लोहे की एक बहुत बड़ी कोंठ थी. सोचा पहला ही प्रयोग इसमें किया जाए. पारस पत्थर उसमें डाला. घन्टा हुआ दो घन्टे हुए. काफी समय निकला, कोई परिवर्तन नहीं, सोना बना नहीं, फकीर के पास गया. जाकर कहा-महात्मन. आपने यह क्या किया? अगर नहीं देना था तो मुझे बेवकूफ तो नहीं बनाना था. मोहल्ले वाले, परिवार वाले, सबको बुलाकर लाया कि मैं बेवकूफ बना. ऐसा तो नहीं करना था. मैंने कोई जबरदस्ती तो की नहीं. व 525 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी __फकीर ने कहा-मुझे मेरे शब्द में विश्वास है. तुम्हारा प्रयोग गलत हो सकता है. चीज बिल्कुल सही है. चलो मैं देखता हूं. फंकीर आए. कहां डाला है तुमने? ___ लोहे की कोठी में, बाप दादों की कोठी है. बहुत बड़ी कोठी है. मैने देखा यह पहले सोने की बन जाए, उसके बाद दूसरे बर्तनों को सोना बनाया जाए. अरे स्टूल लगाकर झांककर देख. मेरा पत्थर कहां गिरा है. गए ऊपर, जब लाइट लेकर देखा, बहुत पुराना था. मकड़ी के जाले लगे हुए थे. कचरा भरा था. पत्थर डाला वह बीच में ही लटक रहा था. लोहे से स्पर्श ही नहीं हुआ. महात्मा ने कहा-बेवकूफ! तू अपनी अक्ल से पहचान. मेरा पत्थर कहां गिरा है. महात्मन्, भूल हुई, वह तो बीच में ही है. कहां से सोना बनेगा? पहले कोठी साफ कर इसमें जो कूड़ा भर गया उसे निकाल. मांज करके स्वच्छ बना, उसके बाद फिर प्रयोग कर फिर देख, चमत्कार दिखता है या नहीं? सारी कोठी साफ की. पूरी मेहनत से उसे मांजा गया, सारे काठ उतारे गए. उसके बाद जैसे ही पारस पत्थर डाला, उसमें परिवर्तन आया. पूरा सोने का बन गया. अति मूल्यवान हो गया. पर्युषण आ रहा है, कल्प-सूत्र के एक-एक शब्द पारस पत्थर हैं. परमात्मा की वाणी है, हृदय से स्पर्श हो जाए, यह जीवन सोने जैसा मूल्यवान परोपकारी बन जाए. जीवन परोपकार का मंदिर बन जाए. संवत्सरी के बाद मत कहना-महाराज. आपने कहा-एक नहीं ढेर सारे पारस पत्थर अन्दर डाल दिए गये कोई परिवर्तन नहीं हुआ. जैसा था, वैसा ही रहा. वही क्रोध वहीं कषाय वहीं वैमनस्यता, वही लोभदशा, वही दुनिया भर की पाप प्रवत्ति परिवर्तन कछ नहीं आया __ न जाने कितने प्रवचन सुने, कितने पारस पत्थर अन्दर चले गए लेकिन परिवर्तन नहीं आया. रोज मन की कोठी साफ कर लेना. बहुत वर्षों का कर्म का काठ चढ़ा है, जरा मांजकर के स्वच्छ करना. पर्युषण पर कोठी साफ करके आना. फिर जैसे ही प्रभु की वाणी दी जाए, और स्पर्श हो जाए तो विचार में परिवर्तन आएगा. जीवन परोपकार का मंदिर बन जाएगा. स्वर्ग जैसा मूल्यवान यह जीवन बन जाएगा. स्वयं को धन्यवाद देंगे कि श्रवण करके मैंने कुछ पाया. कल्पसूत्र का श्रवण कल्पवृक्ष जैसा मनोकामना पूर्ण करने वाला, मोक्ष का फल देने वाला है. सुनने जैसा है. एक दिन भी प्रमाद में मत निकालना. श्रवण करके साधना को पुष्ट करना. नए तरीके से सुनाऊंगा. ताकि आसानी से समझ सकें. “सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" 526 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी कर्म और फलोदय आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्र सूरि जी महाराज ने धर्म बिन्दु ग्रन्थ के द्वारा विशुद्ध आत्म तत्व का मंगल परिचय दिया. जीवन व्यवहार में रहकर व्यक्ति अपनी आत्मा को वासना से मुक्त रख सके, वह उपाय सूत्रों के चिन्तन के द्वारा दिया है. जीवन व्यवहार आवश्यक है. पूर्व कृत कर्म के अनुसार हर व्यक्ति संसार के अन्दर अलग-अलग प्रकार से अपने व्यवहार का पालन करता है. व्यवहार धर्म से शून्य न हो, कर्त्तव्य से शून्य न हो, नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करते हुए, अपने जीवन व्यवहार का पालन करना है. उन महापुरुषों ने जिस प्रकार से अपने जीवन की मर्यादा बनाई, उसी मर्यादा में रहकर के जीवन का निर्वाह करना है. आपको यह मालूम होगा चतुर्मास के मंगल पर्व पर पूर्व के अवतारी पुरुषों ने अपने जीवन की बड़ी सुन्दर मर्यादा रखी थी. चातुर्मास के अन्दर किस प्रकार की आराधना करनी पड़ी? श्री वासुदेव योगेश्वर श्री कृष्ण का, जैन चरित्रों के अन्दर कथानकों के अन्दर, बड़ा सुन्दर जीवन प्रसंग है. चतुर्मास के अन्दर विराधना की संभावना होने से अपने राजमहल से बाहर भी नहीं जाते थे. चार महीने के लिए राजमहल में ही रहते थे, मात्र प्रभु की दर्शना हो या धार्मिक मंगल कार्य हो तो ही राज महल से बाहर निकलते. हम तो परी दनिया में घम के आ जाते हैं. चतर्मास में जब आराधना करने को विशेष प्रसंग आता है, कभी हमारे अन्दर आराधना की रुचि जागृत होती है? व्यवहार ऐसा बन गया, फिर कहने को बहाना निकाल लें, काल फिर गया, समय फिर गया, समय कुछ नहीं फिरा, व्यक्ति के विचार बदल गये, बुद्धि बदल गई. मर्यादाओं से बहुत ज्यादा बाहर चले गये, विमुख बन गए, उसी का परिणाम हमारे जीवन में भयंकर अशान्ति पैदा हुई. __ व्यक्ति आठ महीना कमाता था, चातुर्मास में चार महीना अपने घर पर रहता था, बड़ी शान्ति से परिवार के साथ बडी प्रसन्नता से अपनी धर्म साधना करता, उस आत्मा को सन्तोष होता, हाय-हाय नहीं रहती, आज का जीवन व्यवहार कैसा बना है? यहां पर सारी मर्यादाओं का परिचय दिया है. इन मर्यादाओं का पालन बहुत विवेक पूर्वक दिया गया है. ताकि व्यवहार की शुद्धि से व्यक्ति अपनी शुद्धि को प्राप्त कर पाए. जहां तक व्यवहार निर्मल नही होगा, शुद्ध नहीं होगा, वहां तक व्यक्ति स्वयं के मन को भी निर्मल नही कर पायेगा. डाक्टर के पास जाएं, सबसे पहले वह पेट टटोलता है. अगर पेट में गड़बड़ी है तो बीमारी आयेगी, अगर मन के अन्दर गड़बड़ी है तो अशान्ति आएगी. डाक्टर पेट से देखते 527 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: हैं, साधु सज्जन पुरुष मन को और मन के परिणाम को देखते हैं, पेट में यदि कब्ज हो। मल का जमाव हो तो जीभ में छाले पड़ जाते हैं. पेट की खराबी जीभ बतला देती है. अगर मन में गड़बड़ी हो जाये, दुर्भावना उत्पन्न हो जाये तो फिर यह जीभ क्रोध उत्पन्न करती है, कटु शब्द बाहर आते हैं. मन विकृति का परिणाम शब्दों में कटुता आती है, पेट साफ रहेगा, कोई बीमारी नहीं आयेगी. यदि मन साफ है तो कभी अशान्ति नहीं आएगी. यह बहुत सीधा सा गणित है. मन के आरोग्य के लिए ही चिन्तन दिया गया है कि मन का आरोग्य किस प्रकार सरिक्षत रहे? व्यक्ति अपने मन को किस प्रकार स्वच्छ बनाए? हमारी दृष्टि में जो विकार हैं, उनका नाश किस प्रकार करे. आप के अन्दर यदि बीमारी हो जाये, किसी कारण से यदि शरीर का आरोग्य बिगड़ जाये, चलते रास्ते में किसी की सलाह लेंगे या डाक्टर की सलाह लेंगे. उस समय अच्छे से अच्छे डाक्टर को बतला कर उसी की सलाह लेंगे डाक्टर सलाह देता है उसके अनुसार चलते हैं. अन्य व्यक्ति से कभी सलाह नहीं लेंगे. यहां पर भी मोक्ष मार्ग की मंगल साधना में आत्मा को वासना से मुक्त करने के लिए, आत्मा को मन की बीमारी से आरोग्य देने के लिए. चलते रस्ते किसी व्यक्ति की सलाह नहीं लेंगे. यह सलाह साधु सज्जन पुरुषों से लेंगे. मन में अगर हमने ऐसा विचार कर लिया कि यह क्या है? धार्मिक कार्यों के अन्दर या धार्मिक अनुष्ठानों के अन्दर परमात्मा की उपासना में जिसका अंश मात्र भी परिचय नहीं और न कभी समय निकालकर परिचय प्राप्त करने का प्रयास किया। अपनी शिथिलता को छिपाने के लिये तर्क किया जाये कि इसमें क्या है? और इस अविश्वास के साधना करें तो उसमें प्राण नहीं आयेगा। सारी आराधना दूषित बन जायेगी. मन में विषय का जहर उत्पन्न करेगा क्योंकि सारी क्रिया और धर्मानुष्ठान श्रद्धा की भूमिका पर है. उसमें यदि शंका का जहर आ जाए तो आत्मा के लिए वह सारा अमृत अस्वीकार्य बन जायेगा. शरीर बीमार पडता है तो डाक्टर की सलाह लेंगे, इसी तरह से जब मन में अशान्ति पैदा हो जाए. धर्म के विषय के अन्दर यदि मन की स्थिरता न आए, ऐसे समय उसी परिस्थिति में साधु पुरुषों की ही हम सलाह लेंगे कि हमको उचित मार्ग दर्शन दिया जाये. मैं किस प्रकार से अपने जीवन में शान्ति और समाधि को प्राप्त कर सकं. वहीं से सुन्दर उपाय मिलेगा, शान्ति को प्राप्त करने का रास्ता बतलाया जाएगा. व्यक्ति स्वयं अशान्ति पैदा करता है. अपनी अज्ञान दशा से हम अशान्ति को उत्पन्न करते हैं और फिर अशान्ति के लिए हम झंझट रखते हैं, व्यक्ति के पास से पैसा चला जाता है, अशान्ति आती है, वहां पर कोई यह विचार था? चिन्तन नही करता कि परवस्तु से मेरा क्या सम्बन्ध ? पिंगला के एक जरा से निमित्त के कारण भर्तृहरि ने इतने बड़े राज्य का त्याग कर दिया, परन्तु मन में कभी स्वप्न में भी यह नहीं सोचा कि मैंने क्या मर्खता कर दी. इतने बड़े राज्य का त्याग एक स्त्री को लेकर मैंने कर दिया. मन में उस INDAN 528 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी पिंगला को और धन्यवाद दिया कि शुभ निमित्त मेरे घर पर आई, इस निमित्त से मेरी आत्मा को वैराग्य मिला. मैंने संन्यास ग्रहण किया. मैं परमात्मा के हृदय में निवास करने वाला बना. हमारा प्रयास होना चाहिए कि परमात्मा के हृदय में मेरा मंगल स्थान बने. नौकरी करते हैं, नौकरी करने वाला व्यक्ति हमेशा लक्ष्य रखता है कि सेठ के दिल में मेरे प्रति कितनी जगह है? मैं अपने सेठ को ऐसा खुश करूं कि उसके हृदय में मेरा निवास बन जाए. आफिसर होते हैं. नौकरी करने वाले व्यक्ति यही सोचते हैं कि यह आफिसर है, अधिकारी है, इसके दिल में कुछ मेरा घर हो जाए. इसके दिल में मेरे लिए कुछ स्थान बन जाए. संसार की भौतिक कामना को लेकर के सेठ के हृदय मे रहने की भावना होती है आफिसर या अधिकारी के मन में प्रवेश करूं, उनके दिलमें मेरे लिए थोडा बहुत स्थान हो जाये. हमारा सतत यही प्रयास होता है. परन्तु कभी यह प्रयास किया कि परमात्मा को प्रसन्न करके उनकी प्रसन्नता से परमात्मा के हृदय में मेरे लिए स्थान बन जाए. ऐसा कभी आज तक नहीं सोचा. लोगों के दिल में घुसने की बात करते हैं, परन्तु परमात्मा के हृदय में मुझे स्थान मिले, आश्रय मिले, परमात्मा के चरणों में रहने का अवकाश मिले, ऐसा उपाय कभी नहीं किया. परमात्मा के हृदय में तभी निवास मिलता है, जब व्यक्ति अपने हृदय में परमात्मा के प्रति पूर्ण स्थान प्रदान करे. जैसे ही आपके हृदय में प्रभु का निवास होगा तो वहां भी आपके लिए उचित स्थान या योग्य अवसर मिल जाएगा. जो चला गया, उसकी चिन्ता में हम सारा जीवन पूरा कर देते हैं. जो पास में है, . उसका आनन्द हम ले नही पाते, उसके आनन्द से वंचित रहते हैं. व्यक्ति के पास किसी कारण से व्यापार में नुकसान लगा, मेरे पास आया. मुझे कहने लगा 15-20 लाख रुपये का नुकसान हो गया. मेरे जीवन में ऐसी भयंकर अशान्ति है, मैं सो नही पाता, पूरा खाना नहीं खाता, सारे दिन यही विचार मेरे मन में आते रहते हैं. और मै इन विचारों से बहुत पीड़ित हूं. कोई उपाय बतलाए. मैंने उसको बड़ा सुन्दर मनोवैज्ञानिक उपाय बतलाया. आप जब बम्बई आए, नौकरी करते थे, सामान्य धन्धा आपने शुरू किया, आपने पुरूषार्थ किया, संपत्ति मिली. आज आपके पास मकान है, फ्लेट है, दुकान है, गाड़ी है, धन्धा चलता है. आपके पास आज 60-70 लाख रुपये की सम्पत्ति है. पन्द्रह लाख चला गया, उसके लिए रोकर के जीवन को पूरा कर रहे हो. आप के पास अभी बहुत सम्पत्ति है, जो है उसका आनंद लो, जो चला गया उसके पीछे जीवन क्यों बरबाद कर रहे हो. हर व्यक्ति, जो चला गया उसी के लिए विचार करता हैं, हमारे पास बहुत कुछ है, यदि ऐसा विचार एक बार भी आ जाये तो गये हए की चिन्ता से मुक्त हो जाये. प्रारब्ध 529 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी में जो है वो मिलेगा. मेरा कर्तव्य है पुरुषार्थ करना. मन से क्यों कमजोर बनूं. मन तो हमेशा सुदृढ रहना चाहिए. धर्म साधना के अन्दर पूर्ण सक्रिय रहना चाहिए. जब-जब पाप का आक्रमण हो जाए, विचारों के अन्दर पाप का प्रवेश हो जाए और उसका आक्रमण शुरू हो जाये, सदविचारों को नष्ट करने का प्रयास करें तो अपनी मौत का चिन्तन करें. जीवन का हर कदम मृत्यु की तरफ बढ़ रहा है. यह सोच करके चलिए, पाप मूर्छित हो जाएगा. वासना मर जायेगी. एक बहुत बड़ा श्रीमन्त अपना शानदार मकान बना रहा था, कोई ज्ञानी पुरुष उसी रास्ते से जा रहे थे, जाते हुए सात मंजिला मकान था और सेठ नीचे से कहता है जरा अच्छी तरह से रंग करना. मेरी सात पीढ़ी तक यह रंग कायम रहना चाहिए, ताकि तब मै तुझको मजदूरी के साथ इनाम भी दूंगा. जो साधु महाराज उस रास्ते से जा रहे थे, उसकी बात सुन कर हंसे. सेठ मन में विचार करता है, मकान मेरा, मै स्वयं रंगाता हूं. मैं अपनी बात करता हूं. उसकी प्रसन्नता का आनन्द लेता हूं. महाराज को क्यों हंसी आई? इनके हंसने के पीछे प्रयोजन क्या? मकान मेरा, मै रंगवाता हूं अपने पैसे से रंगवाता हूं. मेरी प्रसन्नता है. प्रसन्नता पर मेरा अधिकार है. ये साधु महाराज मेरी बात सुनकर क्यों हंसे. इसका प्रयोजन क्या? महाराज तो चले गए, संयोग से भिक्षा के लिए उसी घर पर उनका आना हुआ. कर्म के संयोग कैसे विचित्र होते हैं, उसी घर में उनका आना हुआ. एक बालक था, कोई सन्तान नही. अपनी सम्पत्ति थी, उनके पास. श्रीमन्त व्यक्ति की पुण्याई में कोई दुष्काल नही था. बालक सेठ की गोदी में बैठकर साधु भाव से भोजन कर रहा था. उसी समय साधु महाराज का आहार के लिए वहां आना हुआ. जैसे ही अन्दर आए, धर्म लाभ, मंगल आशीर्वाद देकर अन्दर गये. बालक बहुत छोटा था गोदी का बालक था. पेशाब हो गया, थाली में छींटे गिरे पिता का ममत्व इस थाली को दूर किए बिना इसी थाली में भोजन कर रहा था, यह देख कर साधु महाराज फिर हंसे. सेठ मन में विचार करता है, बालक मेरा है, इसने पेशाब किया और छींटे थाली में गिरे. मुझे कोई आपत्ति नहीं, बालक पर मेरा अपूर्व प्रेम है, मेरा बालक, मैं उसे भोजन खिला रहा हूं, इस सबके पीछे इनके हंसने का रहस्य क्या है? कुछ बोले नहीं. __ मुनिराज आहार लेकर चले गये. बाप मन में थोडा सोच रहा है, विचार कर रहा है कि यह रहस्य क्या है? संयोग ऐसा था, उसी दिन शाम के समय जंगल जाने के लिए साधु महाराज बाहर जा रहे थे, वहीं सेठ की दुकान थी. जैसे ही उस रास्ते से निकले कसाई लोग कुछ बकरे लेकर के जा रहे थे. बडा हृष्ट पुष्ट एक बकरा किन्हीं कारणों से टोले से निकल कर सेठ की दुकान पर चढ़ गया. बहुत प्रयास किया, धक्का देकर निकालने की कोशिश की, वह बकरा उतरा नही. कसाई ने कहा - सेठ साहब, यदि आप को इस पर दया आती हो और बचाना हो तो 530 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: हम इतने रुपये लेंगे. सेठ ने कहा - क्या मै रुपया इसीलिए कमाता हूं? हजारों बकरे रोज कटते है. मैं कहां-कहां, किस-किस को बचाऊं. मैने बचाने का ठेका ले रखा है? तुम्हारा बकरा है, तुम उतारो. बड़ी मजबूरी थी. बकरे की आंख में आंसू आ रहे थे. में-में चिल्ला रहा था. धक्का देकर के दुकान से उतार दिया. कसाई उसे लेकर के चलते बने. यह सारी घटना देखकर साधु महाराज फिर हंस गए. उनकी हंसी में कुछ रहस्य नजर आया. सेठ विचार में पड़ गया. आज दिन में तीन बार ऐसी घटना हुई. सुबह मैं कह रहा था, इस मकान को ऐसे रंगो, सात पीढ़ी तक मकान का रंग न जाए. ये मुनिराज हंसे. इनके हंसने के पीछे रहस्य क्या? हंसी तो मेरे कार्य पर मुझे आनी चाहिए, साधु तो संसार से उदासीन होते हैं, उनके हंसने का प्रयोजन क्या है? घर के अन्दर में अपने बालक को भोजन करवा रहा था वहां भी उस घटना देखकर ये साधु हंसे. इसका कारण क्या? यहां पर भी मैं देख रहा हूं, यह वर्तमान घटना. यह तो कसाइयों का धन्धा है. रोज हजारों बकरे लाते हैं और काटते हैं, मैंने कहा - किस को बचाऊ, मैने धक्का देकर जब उसे निकाला, साधु मुनिराज देखकर वापिस हंसे. उनके हंसने के पीछे रहस्य क्या है? __जैसे ही वे जंगल से लौट कर अपने स्थान पर गए. सेठ भी पहुंचा. उनसे निवेदन किया भगवन्! मै एक बहुत बड़ी जिज्ञासा लेकर आया हूं. मेरे मन में आज बहुत विचार आ रहा है. मैं आपके हंसने के प्रयोजन को समझ नही पा रहा हूं. आज दिन में तीन बार ऐसी घटना घटित हई. सबह मकान रंगते समय भी आप हंसे, घर मे आहार के लिए आये, उस समय भी आप हंसे. शाम को जंगल जाते समय भी हंसे. कृपया मुझे समझाइये रहस्य क्या है? साधु मुनिराज ने इतना ही कहा. "कर्मणां विचित्रा गतिः" कर्म की गति बड़ी विचित्र है. इसके रहस्य को जान पाना तो ज्ञानियों का विषय है. मैंने तो एक विशिष्ट ज्ञान के द्वारा तेरे जीवन के भावी काल को जब देखा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. एक ज्ञान के द्वारा मेरे अन्दर स्फुरणा हुई, ऐसे विचार आये. जिस समय मैं जा रहा था और तुम मकान रंगने के लिए आदेश दे रहे थे, कि सात पीढी तक यह रंग कायम रहना चाहिए. मैंने ज्ञान में जब देखा तो सिर्फ तेरा सात दिन का आयुष्य है. यह बात सोच कर मुझे हंसी आई, व्यक्ति अपने सात दिन को नहीं देख पाता और सात पीढ़ी का वह विचार करता है, सोचता है. यह कैसा दुर्भाग्य है? व्यक्ति भविष्य की बड़ी सुन्दर कल्पना करता है, परन्तु भावीकाल में घटने वाली भयंकर घटना अपनी मौत को भी वह नहीं देखता. वह दृष्टि उसके पास नहीं है. जैसे ही मृत्यु का नाम सुना एक दम स्थिर बन गया. चरणों में गिर गया. 531 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3-गुरुवाणी "भगवन्! कोई उपाय?" "यहां कोई उपाय काम नहीं करता. मौत के सामने कोई उपाय नहीं, कोई दवा नहीं, मौत का कभी प्रतिकार नहीं हो सकता. सावधान हो जाओ. मन से साधु बन जाओ, मन से संसार का विसर्जन कर दो. पाप का पश्चाताप करके मन का शुद्धि करण कर लो. भविष्य में इस मृत्यु के आक्रमण से बच जाओगे." “भगवन! दूसरी बार आप मेरे द्वार पर आए और हंसे उसका क्या कारण?" "जिस बालक पर तुम्हारा इतना ममत्व है, बड़ा सुन्दर अनुराग है, पुत्र के प्रति होना भी चाहिए, पिता का वात्सल्य होता है परन्तु अनुराग वासना नहीं बननी चाहिए, आत्मा से आत्मा तक ही अनुराग होना चाहिए. तुम्हारे उस अनुराग में मुझे वासना की दुर्गन्ध आई. उस बालक के प्रति तुम्हारा इस प्रकार का जो ममत्व था, वह बड़ा विकृत प्रकार का ममत्व था. तुम नहीं जानते जिस लक्ष्मी का तमने इतना पाप करके उपार्जन किया है, उस लक्ष्मी को, वही बालक दुर्व्यसन के अन्दर, जुआ के अन्दर उड़ा कर साफ कर देगा और दिवालिया बना जायेगा. तुम्हारी सारी लक्ष्मी का घोर से घोर दुरुपयोग इस बालक के द्वारा होगा. जो सम्पत्ति तुमने पाप से उपार्जित की, यदि वह सारी सम्पत्ति पाप मार्ग में जाए. उसका अनुमोदन कैसे किया जाये? कितना झूठ बोल करके, कितनी चोरी करके, कितनी आत्माओं को दुखी करके, कितनी माया प्रपंच करके, ये लक्ष्मी उपार्जित करते हैं, इस पाप द्वारा उपार्जित लक्ष्मी का यदि हम गर्व करें, अभिमान करें और फिर पाप मार्ग में ही उसका यदि हम व्यय करें, अपने शरीर के लिए, शरीर की वासना की पूर्ति के लिए, या इन्द्रियों के विकारों को तृप्त करने के लिए, कितना बड़ा अपराध होगा? ___ उसका तो सुन्दर से सुन्दर कार्य में उपयोग होना चाहिए. परोपकार के अन्दर उस लक्ष्मी का उपयोग होना चाहिए, परन्तु वह बात ध्यान में आती नही है. सूत्रकार एक बार नहीं, अनेक बार कह करके गये परन्तु हमने कभी उस तरफ ध्यान दिया ही नहीं. सेठ मफतलाल कथा में आते, रोज कथावार्ता चलती. बेचारे साधु सन्त आए थे. दयालु थे. उन्होंने मफतलाल से कहा - तुम कुछ नीति का पालन करते हो. कथा में तो ठीक है, गांव के लोग आते हैं, तुम भी आ जाते हो. एक लोक मर्यादा ऐसी है कि छोटे मोटे गांव में बड़े लोग ध्यान रखते हैं कि आए या नहीं आए, व्यवहार से भी कई बार आना पडता है. कोई हर्ज नहीं. ___ मैं एक छोटी बात कहता है, ध्यान में लेना, एक श्लोक लिखकर देता हूं. रोज इसका पाठ करना, रोज इस पर चिन्तन करना, तुम्हारे जीवन की सारी समस्याओं का निवारण इस श्लोक के द्वारा हो जाएगा. जो मैं लिख करके देता है, इसका रोज स्वाध्याय करना, चिन्तन करना और इसके अनुसार जीवन जीने का प्रयास करना, 532 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - ठीक है. उन्होंने और कुछ नही लिखा, पण्डित थे, बड़े सज्जन पुरुष थे, मफतलाल के जीवन व्यवहार को देखकर के उनके अन्दर में दया आई, एक श्लोक लिखकर दे दिया कि इसका पठन करना, चिन्तन करना. इसके अनुसार जीवन जीने का प्रयास करना और कुछ नही लिखा एक श्लोक था. शतं विहाय भोक्तव्यं, सहस्रं स्नानमाचरेत्। लक्षं विहाय दातव्यं, कोटिं त्यक्त्वा हरि भजेत् // कितनी सुन्दर बात इसमें लिख दी. मफत लाल सेठ पर दया करके सन्त पुरुष ने इतने सुन्दर जीवन निर्माण के साधन बतलाकर कहा. "शतम् विहाय भोक्तव्यं" सौ काम छोड़ करके निश्चित समय पर भोजन कर लेना चाहिए. जिससे आरोग्य सुरक्षित हो, यह नीति का वाक्य है. "सहस्रं स्नानमाचरेत" हजार काम छोड़ करके स्नान संध्या कर लेनी चाहिए. "लक्षं विहाय दातव्यम्" लाख काम छोडकर, यदि घर पर कोई याचना को आया हो, उसको सम्मान पूर्वक उचित दान देना चाहिए. "कोटिं त्यक्त्वा हरि भजेत्" एक करोड़ काम छोड़ करके परमात्मा का स्मरण, हरि का कीर्तन करना चाहिए. यह नीति का वाक्य है. सेठ तुम से कुछ भी न हो तो इतना तो करना. चरण में नमस्कार करके मफतलाल चला गया, दो चार महीने भी निकल गये. वापिस सन्त पुरुष का आगमन हुआ. सन्त ने आते ही पूछा-क्यों मफतलाल, जो श्लोक लिख करके दिया था, तुमने उस पर कुछ अमल किया? महाराज. जो अर्थ आपने लिया था वह तो सतयुग का अर्थ था, कलियुग के अनुसार उसका अर्थ अलग प्रकार का होता हैं सन्त ने कहा मफतलाल तुम सेठ से पण्डित कब बन गए? तुम्हारे में ये अक्ल कहां से आ गई कि तुम मुझे पढाने आए. महाराज जी. आप सज्जन हैं आपको मालूम नहीं दुनिया बदल गई, अपने बतलाया वह तो सतयुग का अर्थ था. "शतं विहाय भोक्तव्यम्" “सौ काम छोड़कर भोजन करना, हजार काम छोड़कर स्नान करना, लाख काम छोड़कर याचक को दान देना, करोड़ काम छोड़ कर भी प्रभु का नाम लेना. मैंने इस पर बड़ा सुन्दर चिन्तन किया. आज के अनुसार उसका अर्थ कर लिया. महाराज जी, आप भी ध्यान में रखिए जब जरूरत पडे, मेरे अर्थ का ही उपयोग करना." A RAM 533 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी "क्या?" "क्या क्या? इतना बड़ा कारोबार चलता है, टेलीफोन आते है आर्डर पर आर्डर आता है, महाराज जी." "शतं विहाय-भोक्तव्यं" "जब सौ पचास जगह का आर्डर आता है, तब हम भोजन करते हैं." "सहस्रं स्नानमाचरेत्" "हजारों का जब नफा दिखता है तब स्नान करने जाते हैं." "लक्षं विहाय दातव्यम्" “लाख की कमाई हो जाये तब थोडा बहुत दान देकर पाप को धोने का प्रयास करते हैं." ___"कोटिं त्यक्त्वा हरि भजेत्" "जब करोड़ आएगा तब हरि का नाम लूंगा. अभी तो कोई जरूरत नही पड़ी." ऐसे बुद्धि के विकार को क्या कहेंगे. व्यक्ति की आदत है, उसे अपनी मौत दिखती ही नहीं, पैसा दिखता है. संसार दिखता है परिवार दिखता है वह व्यक्ति अपनी नजर से मौत को नहीं देखता कि कल मरूंगा. कहीं किसी व्यक्ति को यदि अंतिम संस्कार के लिए ले जाते हैं, मरे हुए इन्सान के अन्दर अपनी मौत को देखिये. अपनी कल्पना करके अपने भविष्य को देखिए. इसी प्रकार मैं ले जाया जाऊंगा. पाप से बचने का यही एक उपाय है, साधु महाराज ने उनको कहा कि “सेठ साहब आपने जो पैसा पाप से उपार्जित किया, उसका भोग यह पुत्र कुकर्म में करेगा. दुराचार में करेगा. सारी सम्पत्ति साफ हो जाएगी. शेष में शून्य रहेगा. इस मकान का एक भी ईंट यहा पर रहने वाला नहीं. मैंने ज्ञान द्वारा आपके उस भविष्य को देखा." सेठ को पसीना-पसीना हो गया. अपनी मौत नजर आई कि सात दिन में मैं मरने वाला हूं. ये सारी सम्पति का सर्वनाश होने वाला है. उसके साथ वह विचार में पड़ गया कि मैं क्या करूं? मेरा पर भव कैसा होगा. मर करके मैं कैसी स्थिति में जाऊंगा? कौन सी गति में जाऊंगा. वह सारी बात भूल गया और यह याद आ गया. उसने कहा -- “महाराज शाम के समय आप जंगल जा रहे थे, उस समय भी आप हंसे, उसके पीछे प्रयोजन क्या था?" "तू समझ नही पाया, जिसे तू धक्का देकर के नीचे उतार रहा था, पूर्वभव में वे तेरे पिता थे. ये वासना को लेकर तीर्यच भव में आए. बकरा बने, अतिवासना का परिणाम. इसी रास्ते से जब कसाई ले जा रहा था, तब ममत्व के कारण पर्वजन्म की स्मति हयी जिसे 'जातिस्मरण ज्ञान' कहा जाता है. उस ज्ञान के प्रभाव से बकरे ने विचार किया, यह बालक, मेरा बच्चा मुझे बचा लेगा, यह मेरी दुकान, मेरी संपत्ति सब नजर आयी न 534 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी वह वासना को लेकर के तुम्हारी दुकान में घुसा. तूने जबरदस्ती अत्याचार पूर्वक धक्का देकर के अपने बाप को उतार दिया. पूर्व भव में वह तेरा बाप था." "मैं अभी दौड़ करके जाता हूं, सारी संपति देकर के भी मै पिता को बचाने का प्रयास करता हूं."-सेठ मफतलाल ने कहा. मुनिराज ने कहा-“अब बहुत देर हो चुकी है." जैसे ही बाप का नाम सुना, दौडता हआ गया, थोडा लेट कर के गया, कसाई के घर गया और कहा भाई तु मांगे, उतनी संपति देने को तैयार हं. त मांगे उतना सोना मोहर देने को तैयार हूं. बकरे को तू मुक्त करदे और मुझे दे दे. "सेठ साहब! समय बहुत हो गया, अब तो हन्डी में मांस पक रहा है." ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में संसार की विचित्रता को देखकर उस आत्मा में ऐसा वैराग्य उत्पन्न हुआ. घर का परित्याग कर दिया, परिवार का परित्याग कर दिया. मन एकदम स्थिर बन गया, सामने मौत नजर आ रही थी. सात दिन के अन्दर तो उसने सात भव का निर्माण कर लिया, सदगति का निर्माण कर लिया. वह तो सात दिन के बाद गया, कदाचित् हम सतर वर्ष बाद, अस्सी वर्ष बाद जाएं, हमारे पास कोई तैयारी है.? ऐसा आत्म विश्वास है? मरकर के सद्गति में ही जाऊंगा. मैंने दुर्गति का द्वार बन्द कर दिया. मेरे आचार में अब दुराचार का भी प्रवेश नहीं हो सकता. मैं आचार से बिल्कुल पूर्ण सक्रिय रहूंगा. परमात्मा को अपने हृदय मन्दिर में स्थान दिया है परमात्मा को प्रसन्न करने का मेरा हर प्रयास होगा. मै कैसे दुगर्ति में जाऊं. ___आनन्द घन जी महाराज बड़ी गर्जना पूर्वक कहते थे. ऐसी हिम्मत हमारे अन्दर आनी चाहिए. आनन्दघन ऋषि परमात्मा की भक्ति करते समय अन्तर हृदय से उदगार निकले कि मेरा संसार कभी का मर गया, जो परमात्मा को पा जाए, वीतराग परमात्मा की उपासना करने लगें जाए. वहां क्या संसार रहेगा? वहां क्या मौत रहेगी? मौत भी भाग जाएगी. __ आनन्दघन जी महाराज की हृदय से वह गर्जना निकली. परमात्मा की भक्ति के स्तुति के रूप में. ___ "अब हम अमर भये न मरेंगे" ये आनन्द घन के शब्द हैं. महान योगी पुरुष के. यह आनन्द घन अब मरने वाला नहीं, मौत को चैलेन्ज दे दिया, उनकी मौत तो कभी की मर गई. जिस दिन से प्रभु का साथ लिया, उसी दिन से मौत तो मर गई. परमात्मा का साथ लेने वाला व्यक्ति अपनी मौत को मार देता है. या कारण मिथ्या दियो तज, क्यों कर देह धरेंगे आनन्द घनजी ने उसका कारण भी स्पष्ट कर दिया, इसीलिए तो मैंने मिथ्यात्व का, असत्य का परित्याग कर दिया, अन्धकार का नाश कर दिया, अब परमात्मा वीतराग के Sal 535 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी ज्ञान का प्रकाश मिला है, अब क्या मै शरीर धारण करूंगा. मैंने इसी लिए राग और द्वेष को खतम कर दिया, मौत को आज्ञा देने वाले जो साधन थे, उनका विनाश कर दिया. अब हम अमर भये न मरेंगे अब मैं कभी मरने वाला नहीं. उस महान पुरुष की दृष्टि ही अलग थी. हमारे जीवन के अन्दर भी धर्म साधना करते समय ऐसी गर्जना आनी चाहिए कि मौत आने में भी विचार करे; धर्मात्मा पुरुष को कभी चिन्ता होती नहीं. बाहर रास्ते में चलते हुए चोर पुलिस से मुह छिपाएंगे, साहूकार कभी पुलिस से नही डरते. निर्दोष व्यक्ति हो, सदाचारी आत्मा हो, वह कभी मौत से नही डरती. ___ कर्म राजा की पुलिस मौत का वारन्ट लेकर आती है, यहां तो कदाचित् बच जाए, नाम बदल दे प्लास्टिक सर्जरी करा ले, दुकान का, मकान का, पाटिया बदल ले, परन्त कर्म की पुलिस - मौत ऐसी है, बाहर से बदलने का कोई मूल्य नहीं रहता, बरोबर एड्रेस पर आती है. कोई विलम्ब नही करती. कोई सिफारिस नही चलती. कोई वकालत को नहीं आता. जरा समझ करके चलें, हमेशा, सतत अपनी मृत्यु को सामने देख करके चलें. आनन्दघन जी महाराज इतने निस्पृह थे, गांव का एक बहुत समझदार राजा उनका परम भक्त था. नमन करके चरणों में गिरा और कहा - "भगवन्! कभी मेरे जैसे दास को याद करते हैं?" आनन्दघन जी ने क्या जवाब दिया? फक्कड महाराज थे. परवाह किसी की नहीं, जंगलों में रहते, एकान्त निवास करते. सतत परमात्मा के चिन्तन में और गुणगान में रहते. राजा ने पूछा - “भगवन्! कभी आप मुझे याद करते हैं?" आनन्दघन जी ने कहा - “तुम क्या कहते हो? कभी भगवान को भूलूं तब तुम याद आओ. यह आनन्द घन तो भगवान की भक्ति में मस्त रहने वाला है. मैं जगत को याद करने वाला नहीं. तुझे याद करने वाला? मेरा यह जीवन क्या तुझे याद करने के लिए है? भक्तों को याद करने के लिए है. ऐसा हो तो साधु जीवन का ही सर्वनाश हो जाए, और आज यही धन्धा चल रहा है." आप भी ऐसे अनुरागी मिल गए महाराज. महाराज-ठीक है. साधुता का अनुराग होना चाहिए. साधुओं के गुणों का अनुराग जरूर होना चाहिए. परन्तु जब हम व्यक्तिवाद में आ जाते हैं और व्यक्ति को जब महत्व देने लगते हैं, जिसकी महावीर के शासन में कोई व्यवस्था ही नहीं, यहां किसी व्यक्ति के नाम का भी उल्लेख नहीं और जब किसी व्यक्ति के अनुराग में आ जाएं और कहें यही मेरे गरु. दुसरे किस काम के? जरा विचार करिए. उसका परिणाम क्या आता है? संप्रदाय के अन्दर से अलग-2 कितने ही संप्रदाय निकल जाते हैं, अलग संप्रदाय बन जाते हैं, समाज का बहुत बड़ा 536 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी नुकसान होता है. हमारी आदत के ये लक्षण हैं. उपकार तो सभी करते हैं. कोई ऐसा साधु नहीं जो जाति पर उपकार न करे. आपके व्यक्तिगत जीवन में किसी ने उपकार किया हो, किसी से आपने धर्म प्राप्त किया हो, उसे सौ बार मानिए, परन्तु जब उसे सामाजिक राष्ट्रीय रूप दिया जाये, या उसे बहुत ज्यादा व्यवहारिक रूप में लाया जाए तो कितना अनर्थ पैदा होता है. कितने उप-संप्रदायों का निर्माण होगा. आनन्दघन जी महाराज इसके कट्टर विरोधी थे. यह दृष्टि रोग है. इसे जहर की उपमा दी गई. यदि आपने मेरा राग रखा तो वह जहर बनेगा और यदि साधु पुरुषों से अनुराग रखा तो अमृत बनेगा. कभी व्यक्तिगत अनुराग में मत जाइये, परमात्मा का अनुराग चाहिये. यहां तो साधुता की सुगन्ध चाहिए. साधु कोई भी आ जाए और यदि इसमें कुछ नजर आये तो गुणों का अनुराग चाहिए. जो अन्तरगणों में वृद्धि करे. वरना इसका अनर्थ होगा, यदि आप मेरा अनुराग रखते हैं मात्र मेरा नाम कि मेरे तो वश नहीं लेकिन ज्ञानी पुरुषों ने कहा है वह तिन्नाणं तारयाणं के लक्षण नहीं. न वह गुरु तार पाएंगे न आप तर पाएंगे. ये लक्षण तो डुबाणं डुबियाणं लक्षण हैं, मैं भी डूबू और फिर साथ में आपको भी डुबाऊं. व्यक्तिगत अनुराग निश्चित आत्मा का पतन करता है. कभी ऐसा अनुराग नही चाहिए. हमारे गुरु महाराज कहा करते और अंतिम चातुर्मास में तो मुझे साफ कह गए, मेरे गुणों का अनुराग, मेरा नहीं. हम सब साधुओं को यही बात बारबार कहा करते थे. ___ प. गुरू महाराज जी की समाधि कोबा (गुजरात) में बनी परन्तु मूर्ति परमगुरु गौतम स्वामी की स्थापित हुयी ताकि जगत के चारों ही संप्रदाय, जगत की हर आत्मा वहां आकर वन्दन करे. कोई संप्रदाय नहीं, कोई व्यक्ति वाद नहीं गुरु महाराज की मैंने समाधि बनाई मेरा फर्ज था. मेरा कर्तव्य था, मेरे ऊपर इतना उपकार, परन्तु मूर्ति गौतम स्वामी की, गुरुदेव की नहीं. मेरे जैसे तो कई मरेंगे, किस-किस की मूर्ति रखा करोगे? पूरा मन्दिर तो हमारी मूर्तियों से ही भर जायेगा. यहां गुरू तो मर के चौबीस हजार भी पैदा होंगे. भगवान की मूर्ति एक तरफ और हमारी मूर्ति एक तरफ आप ले आओ. यह अनर्थ है, इसीलिए मैने अपने गुरु का कहीं फोटो नहीं रखा. कहीं भी उसकी मूर्ति नही रखी. कभी उनकी जयन्ती नही मनाई. उन्होंने कहा-यदि तुमको मुझ पर व्यक्तिगत अनुराग है, मेरी मृत्यु तिथि पर अयंबिल करना, तप करना, आराधना करना, परन्तु उसे सामाजिक रूप मत देना. कैसा आदर्श था, ये आदर्श कथन में नहीं, उनके आचरण में था. रत्नप्रभ सूरि महाराज ने आप पर इतना उपकार किया फिर भी कहीं एक भी मूर्ति है किसी उपाश्रय में धर्म स्थान में? जिसने आपको पैदा किया, औसवाल जाति का निर्माण किया, साढ़े चार सौ साधुओं का बलिदान दिया, जिस व्यक्ति ने अनशन करके प्राण दे लायन OU S 537 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी E दिया. इस नई जाति का निर्माण किया, महावीर के शासन को प्राप्त कराया, शुद्ध अहिंसक बनाया, कहीं उनके उपकार में एक मूर्ति आपने रखी? हिन्दुस्तान मे खोज करके आइये कितना बड़ा उपकार इस ओसवाल जाति के निर्माण में जिनकी कृपा से हआ, कहीं रत्नप्रभ सरि जी महाराज की मूर्ति नहीं, जिन्होंने शासन पर इतना महान उपकार किया. हरिभ्रद सूरी, हेमचन्द्रसूरी, कहीं उनका गुरु मन्दिर है? जिनके ज्ञान के प्रकाश में हम अपनी यात्रा कर रहे हैं. जिसके ज्ञान के प्रकाश में हमारी मोक्ष मागे की यात्रा हो रही है. जिनके बनाए साहित्य समुद्र में से रोज हम अमृत का पान कर रहे हैं. उन महान पुरुषों की स्मृति में कहीं गुरु मन्दिर बनाया.. विजयहरि सूरि महाराज जिनकी कृपा के परिणाम स्वरूप आपको वर्तमान में इतने तीर्थ नजर आ रहे हैं. शत्रुन्जय से लगाकर सम्मेद शिखर तक, ये सारे तीर्थंकरों का रक्षण और अधिकार सम्राट अकबर को प्रतिबोधित करके उस महापुरुष ने प्राप्त किया था. कोई ऐसी जगह बतलाएं कि विजय हरि सूरी जी महाराज की स्मृति में कोई मन्दिर बनाया हो. संसार बडा विचित्र है. उसी गुरु से मतलब जो अर्थ काम दे. जो हो पैसा मिलना चाहिए, परिवार मिलना चाहिए, कोई ऐसे साधु संत नहीं कि पंच महाव्रत लेकर उसे भंग करें. महान आचार्य हुए अनेक गच्छों में हुए. परन्तु उन महान महा पुरुषों के जीवन में झांककर देखिए तप और वैराग्य मिलेगा. यदि आप जाकर के अर्थ काम की याचना करें कि भगवन! बहुत मुसीबत में हूं तो क्या उन पांच महाव्रतधारी आत्माओं से यही मांगना है? वे पंच महाव्रतधारी जो आज देवलोक हो गये हैं, ऐसे एक नहीं अनेक चरित्रधारी पुरुष देवलोक हो गए. वहां जाकर के आप उनके नाम से पूजा करे. भक्ति करें कि मुझे अर्थ काम दें. क्या वे कहेंगे कि मै साधु जीवन में था, सद्गति में आया हूं. मोक्ष की भावना से आया हूं. वाक्य आपको जहर देंगे. अर्थ काम तो जहर है. पंचव्रतधारी साधु जो मरकर के सदगति में जाए. वहां तो साधुता की याचना करे, मोक्ष की कामना लेकर के जाए. तप और त्याग की भावना लेकर के जाए. तब उनके अन्दर प्रसन्नता आए, तब वरदान मिलता है. नहीं तो क्या मिलेगा? जिन्दगी भर भटकते रहिए. पाकेट खाली करते रहिए, कछ नहीं मिलेगा. एक नशे में रहेंगे और जीवन पूरा हो जाएगा. जो मिलता है, वह प्रारब्ध से मिलता है. पंच महाव्रतधारी साधु आपको लड़का देंगे. पैसा देंगे. क्या देंगे? उनके पास है ही नहीं वे क्या देंगे? आप मेरे पास आये और कहा महाराज दस हजार का चेक दो. मैंने कहां से लाकर दूंगा. मेरे पास तो मुंहपति है. औधा है. साधुता है, व्रत नियम पच्छखान है. मेरे पास हो तो दूं. जो आशीर्वाद देता हूं, वह भी आपके आत्म कल्याण के लिए देता हूं. साधु कभी संसार की वासना के पोषण के लिए कभी आशीर्वाद नहीं देगा. उसे दोष लगेगा. 538 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -गुरुवाणी - पा आनन्दधन जी महाराज जी का जीवन ही अलग प्रकार का था. पूर्ण निस्पृही कभी उपाश्रयों में नहीं रहते. वह कभी ऐसे बन्धन में नहीं रहते. आज स्थिति बदल गई है. अगर उपाश्रय में साधु रहेंगे तो आर्डर चलेगा. महाराज ऐसे करिए. वैसे करिए. आनन्दघन जी महाराज कोई सांसारिक व्यक्ति नही हैं. महान तपस्वी और उनके पास वह ताकत लब्ध स्वर्ण सिद्धि उनके पास. जैसा उनका इतिहास कहता है. तो आनन्दघन जी महाराज उपाश्रय में कहीं प्रवचन देने गये और नगर के सेठ आये. व्याख्यान शुरू हो गया. आनन्दघन जी महाराज मेड़ता में रहे. गांव के सेठ आए. और कहा-महाराज आपने प्रवचन शुरू कर दिया. हमारे यहां प्रथा है. मेरे आए बिना प्रवचन शुरू नही होता. यह उपाश्रय मैने बनवाया है. __बात सुनते ही आनन्दघन जी का स्वाभिमान जागृत हुआ. उस दिन से उपाश्रय में कभी पांव नहीं रखा. जंगल में ही रहे. एकान्त स्थान में रहे. कभी इस बन्धन में नहीं आये. साधु अपने विचारों से स्वतन्त्र होते हैं. उनकी अपनी गर्जना थी. देवता रात्रि में आनन्दघन जी के पैर दबाने आते थे, वही चरित्र और परमात्मा की भक्ति से ओत प्रोत जीवन था. किसी गांव में आनन्दघन जी महाराज का आना हुआ. रास्ते में जा रहे थे. नाचने गाने वाले लोग होते हैं. बहुत बड़ा कुन्डाला था. आनन्दघन जी महाराज जंगल से आए और आकर जब झांका. देखा वहां बहुत सी तिलक लगाई मूर्ति भी थी. तिलक लगाने से कोई मोक्ष का सर्टिफिकेट नहीं मिलता. कुतुब मीनार जितना लम्बा लगाए तो भी कोई कल्याण होना वाला नहीं. अन्तर में शुद्धि चाहिए, यह तो भगवान की आज्ञा है. भगवन्! तेरी आज्ञा शिरोधार्य करता हूं, उसके अनुसार मुझे चलना है. मुझे तिलक को कलंकित नहीं करना. ___ मेरे निमित्त से परमात्मा के शासन को बदनाम नहीं करना है. मेरा आचार व्यवहार ऐसा हो. एक जमाना था. गांव में महाजन की दुकान होती थी कोई भाव नहीं पूछता था. महाजन अपना भावताव करने में अपमान समझते थे. उनकी जबान की कीमत होती थी. साइन नही, साइन तो चोरों का होता है. साहूकारों का नहीं. हमें हमारे पूर्वजों पर गर्व था. गांव के व्यक्ति न्याय लेने आते, कोई नहीं जाता. महाजन की दुकान पर चलो, वह जो न्याय देगा, गांव के लोग इतना आदर करते थे. आनन्दघन जी महाराज उस कुन्डाले में चले गए. जाकर के एक दो मिनट देखने लग गए. हर गांव में नादर होते हैं कानाफूसी करने वाले. शाम का समय पांव दबाने के निमित्त कुछ लोग आए. एक दो मुंह लगे थे. आनन्दघन जी के पांव दबाने लग गए. और कहा-महाराज, गांव में एक बहुत चर्चा का विषय बना है. आनन्द घन जी जानते ही थे परन्तु उत्सुकता बतलाई. 539 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी क्या-क्या बात है? आज गांव में लोग ऐसी बात कर रहे थे कि आनन्द घन जी महाराज के यहां लड़की का नाच हो रहा था उस समय वे भी खड़े नृत्य देख रहे थे. क्या बात यह सच है? आनन्दघन जी ने कहा-इसमें चिन्ता की क्या बात है. मैं गया था. मेरे जाने का आशय अलग था, याद रखिए, गुरु जो कहे वह करना, गुरु जो करे वो करने का नहीं होता. उनके करने के पीछे उनका आशय अलग होता है. गीतार्थ पुरुषों की कभी नकल नहीं होती. उनके आदेश का पालन होता है. मैं क्या करता हूं. कैसी परिस्थिति में करता हूं किस कारण करता हूं इसे जाने बिना यदि नकल करोगे तो अनर्थ हो जाएगा. दूसरे दिन प्रवचन में गांव के सारे लोग आए, आनन्दघन की महाराज वहां बैठे थे. उन्होंने कहा-मै इस गांव में आया, जब जंगल से लौट रहा था तो अचानक मेरे कान मे आवाज आई, नरक नरक. मैने सोचा मृत्युलोक में नरक की आवाज कैसे आई? क्योंकि नाचने वाली नाच रही थी, तबले बज रहे थे. तबले से यह ध्वनि निकली तमाचा पडता है तो तबले में से नरक नरक ऐसी ध्वनि प्रकट हो रही थी. मै चल कर गया जहां से आवाज आ रही थी-नरक, नरक, नरक. जाकर देखा यह मृत्युलोक का नरक है, यहीं पर वासना की पूर्ति हो रही है. नाचने वाली का नाच को देखने के लिए कैसे-कैसे व्यक्ति यहां उपस्थित हैं तिलक लगाकर पूजन करके आने वाले महानुभाव. मैं गया कि मेरे कौन कौन से साथी वहां पर हैं.? यह देखने गया. नरक नरक की आवाज आ रही है फिर भी लोग वहां पर गए, तबला अपनी आवाज से नरक नरक प्रकट कर रहा था. ___पास में ही सारंगी बजाई जा रही थी, उससे आवाज आई कुण, कुण, कुण, कुण. क्यों कि वह ऐसी आवाज प्रकट करती है. तबले ने कहा-नरक नरक. सारंगी ने आवाज निकाली कौन-कौन यानि वहां जाने वाले कौन-कौन नांचने वाली वहां नांच रही थी और गा भी रही थी कि ये जो मुझे देख रहे हैं, सब वहीं के मेहमान हैं. यह संसार का नरक है. जहां वासना की पूर्ति हो, जहां राग का पोषण हो जहां पाप को प्रवेश दिया जाये, वही तो नरक है. व्यक्ति नरक में बाद में जाता है, पहले नरक मन में पैदा करता है. विचारों से नरक को आमन्त्रण देता है. उसके बाद वह वहां पर जाता है. हमारे जीवन में हमारा संसार नरक न बन जाये इसका ध्यान रखें. इसीलिये आनन्दघन जी महाराज ने सावधान किया, उन महान पुरुषों ने इन सूत्रों द्वारा जीवन की मर्यादा बतलाई कि मर्यादा का ध्यान रखे. यम नियम जीवन की व्यवस्था है, ये आचार संहिता है. ट्रेन दौडती है, और दो-दो इन्च की पटरी. और अगर पटरी का अलग उल्लंघन कर दे, और इन्जन विचार करे कि मैं क्यों इसकी चिन्ता करूं? तो ढाई-ढाई इन्च भी गाड़ी 540 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी नहीं चलेगी. अढाई अढाई इन्च की पटरी की सीमा स्वीकार करके ही गाडी में गति आती है और दौड़कर लक्ष्य तक जाती है. जीवन गतिमय चेतना है. मोक्ष मार्ग तक इसकी यात्रा हमको पूर्ण करनी है. लक्ष्य की प्राप्ति तभी संभव होगी, जब परमात्मा की आज्ञा को हम यम नियम की सीमा द्वारा स्वीकार करें. आचार विचार द्वारा उसका पालन करें. आचार विचार दो पटरी हैं. यम, नियम पटरी जैसे हैं. उसे स्वीकार करके यदि हम चलते हैं तब तो इस चेतना में गति आयेगी. यह गति, सदगति तक पहुंचाएगी. यदि उसका उल्लघन करें तो कुछ नहीं मिलेगा. यह बन्धन नहीं व्यवस्था है. कुंआ के अन्दर पानी खींचने जाएं और यदि उसमें पाल न बंधी हो तो वह दुर्घटना का कारण बन सकती है. पांव फिसल जाए, मिट्टी गिर जाए. कुंआ में मजबूत सिमेन्ट और पत्थर की पाल बांध देते हैं ताकि कभी दुर्घटना की संभावना न रहे. इस मन के पाताल कुंआ के विचारों से न जाने कितनी बार हमारा पतन हो जाए. यम नियम द्वारा हम पाल बांध देते हैं ताकि कभी ऐसी दुर्घटना न हो कि मन के पाताल कएं में गिर जाए, जिससे आत्मा का पतन हो. यम, नियम तो पाल बांधने जैसी क्रिया है, आप घर में रहते हैं आपको मालूम है? कभी घर में बिजली का तार खुला रखा जाता है, कभी रखा है? रखने में कोई आपत्ति नहीं, करंट तो आएगा. परन्तु आप जानते हैं कि जान को खतरा है, यह कभी-कभी मौत को पुकार करके लाएगा, क्या करते हैं. वायर को कवर कर दिया जाता है.. कवर करके भी उसको पाइप में डालते हैं, कभी भूल से भी हाथ न लग जाए. मन के अन्दर भी बिजली है, इसमें पावर फल है, यह जड़ है और ये आत्मा के साथ चैतन्य बन करके सक्रिय है. मन के विचार परमाणु सक्रिय बनते है. बहुत लम्बी दौड़ है, अब बिजली की गति प्रति सैकिन्ड एक लाख छियासी हजार माइल गति करती है. परन्तु मन की उससे भी तीव्र गति है. आंख बन्द करिए बम्बई कलकता सब दिखेंगे. भूत, भावी, वर्तमान सब दिखता है. बाप मर गये, दादा मर गए, सारी घटनाएं दिखती हैं, सारा भूतकाल नजर आता है. भविष्य की कल्पनाएं नजर आती हैं, वर्तमान नजर आता है मन के अन्दर. यह गजब की शक्ति है. वह शक्ति बिजली में भी नही है. इस मन में जिस दिन एकाग्रता आ जाए, आत्मा के अनुकूल उसका प्रयोग हो जाए, एक क्षण में मोक्ष को जन्म देती है. मन की एकाग्रता में यह चमत्कार है. मन कभी खुला नहीं रखा जाता. वह बड़ा खतरनाक है. दुर्गति मे पहुंचा दे. वायर की तरह यम नियम को कबर चढा देते हैं. जिस दिन मन के वायर पर कवर चढा दिया, मन सुरक्षित हो गया. फिर कभी दुर्गति का कारण नही बनता. यम नियम की मर्यादा में रहेगा. घर में तो बिजली वायर पर कवर चढा देते हैं. पाइप में डाल देते हैं. जरा मन के वायर को भी कवर चढाइये, कभी आत्मा 541 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी को नुकसान कर जाए. सारी व्यवस्था इन सूत्रों द्वारा इसीलिए बतलाई गई. मन पर कवर चढ़ाने के लिए आचार का दर्शन, विचार का परिचय दिया. और कोई प्रयोजन नहीं था. उनको क्या मतलब आप की दुकानदारी कैसे चली, आप क्या खाए, क्या पिए, उन आचार्यों को क्या प्रयोजन था? मात्र आपके लिए दया भाव कि दुर्गति में न जाए. अपने जीवन को बरबाद न कर लें, उनको इस प्रकार का विचार दर्शन दिया गया. इस करुण भावना से उन्होंने इस ग्रन्थों की रचना की. इन सूत्रों के द्वारा जीवन का आदर्श उन्होंने बताया. कहां रहना? कैसे रहना? यहां तो आप समझ गये. उस महान पुरुष ने लिखा कैसे खाना? कहां खाना? सर्व प्रथम इसका परिचय यहां से प्रारम्भ किया. "तथा-अजीर्णे अभोजनमिति" भोजन कैसे करें यह भी बतलाया. "अजीर्णे अभोजनम् आयुर्वेद का सबसे बड़ा सिद्धान्त है. पेट में यदि अजीर्ण है और उस समय यदि भोजन करें तो जहर बनेगा. कई बीमारयों को जन्म देने वाला बनेगा, "लंघनम् पथ्यौषधम्" वहां उपवास ही उसका श्रेष्ठ उपचार है, वही सबसे बड़ी दवा है. सारी व्याधि चली जाएगी. अजीर्णावस्था में कभी भोजन नहीं करना क्योंकि आरोग्यावस्था को नुकसान पहुंचाता है. इस सबके पीछे इसका लक्ष्य है. चित्त की समाधि है. धर्म साधना का यह साधन है, यदि साधन सुरक्षित नहीं तो कभी साध्य नहीं मिलेगा. दर्जी कितना ही होशियार हो परन्तु यदि सुई और डोरा उसके पास न हो तो वह क्या कपड़ा सिलेगा? साधन के अभाव में वह अपने विचारों को कैसे आकार देगा. डाक्टर कितना ही होशियार हो, परन्तु यदि दवा नहीं तो आपका क्या उपचार करेगा? कलाकार कितना ही जानकार हो बहुत बड़ा महान चित्रकार हो, परन्तु कलर और ब्रश उसके पास नहीं तो आकार क्या देगा? चित्र का निर्माण कैसे करेगा? साधन पहले चाहिए. "शरीरमाद्यंखलु धर्मसाधनम्" धर्म की साधना के लिए शरीर परम साधन है, इस साधन को सुरक्षित रखा जाता है, अगर धर्म क्रिया करनी है, हाथ सुरक्षित है, दान का कार्य होगा. परमात्मा की भक्ति होगी. पांव सुरक्षित है, आप धर्म यात्रा पर जायेंगे. आंख सुरक्षित है तो परमात्मा का दर्शन कर पाएंगे. सन्त पुरुषों का दर्शन कर सकेंगे. कान सुरक्षित है, धर्म कथा का श्रवण कर पायेंगे. जीभ सुरक्षित है, प्रभु का नाम ले सकेंगे, ये सारे साधन धर्म क्रिया के लिए है धर्म की प्राप्ति के लिए हैं. हमारी धर्म साधना के लिए शरीर आवश्यक माना जायेगा. हमारे जीवन में यह आवश्यक तत्व है. इनका ध्यान रखकर ही चलना है जिस दिन धर्म क्रिया सुन्दर हो जाये, दिन को धन्यवाद देना. धर्म के साधन सुरक्षित रखने के लिए आरोग्य के नियम इसमें बतलाए. 542 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी काम इस प्रकार से यदि आहार विहार का संयम रखेंगे तो स्वास्थ्य सुरक्षित रहेगा. जीवन सुरक्षित रहेगा. जिसको लेकर के हम धर्म क्रिया कर सकेंगे. आरोग्य विषय पोषण के लिए नहीं, धर्म साधना का एक साधन है. ये समझ कर के आरोग्य की सुरक्षा रखनी है. __ "अरूग्ग बोहिलाभम्" आरोग्य बोधिबीज (सम्यग् दर्शन) का लाभ हो. "तथा सात्म्यतः कालभोजनमिति" इस सूत्र के द्वारा बतलाया गया कि उचित और योग्य समय पर भोजन करना. किस प्रकार का भोजन करना. ___ "तथा लौल्यत्याग इति" लोलुपता से रहित होकर के भोजन करना. मेरा भोजन भजन बने. मेरा भोजन धर्म बने, कितने व्यक्तियों के पेट की आग को बुझा करके उसके बाद अमृत भोजन करूं, धर्म भोजन करूं. मेरा भोजन भी मेरी आत्मा को तृप्त करने वाला हो. भोजन की सारी व्यवस्था का परिचय दिया. भोजन की पवित्रता होगी तो व्यवहार में निश्चित पवित्रता आएगी. ___भोजन यदि सात्विक होगा तो साधना के अनुकुल सात्विक विचार निश्चय आएंगे. भोजन का परमाणु हमारे हृदय पर असर करता है. हमारे विचार परमाणुओं को प्रभावित करता है. कल बतलाऊंगा भोजन का क्या प्रभाव पड़ता है. महान त्याग करने वाला साधु बालक की हत्या करने वाला पापी बने. यह भोजन का परिणाम कैसा? विकृत आहार पेट में गया. महान चारित्रवान साधु ब्रहमचारी पुरुष राजा के घर गया और अशुद्ध भोजन के परिणाम स्वरूप राजा की स्त्री पर राजा की पुत्री पर वासना उत्पन्न हुई और साधु जीवन सर्वनाश कर गया. __ आहार की अशुद्धि बहुत भयंकर अशुद्धि है. जैन आचार के अनुसार आहार शुद्ध सात्विक और पवित्र होना चाहिए. साधना के अनुकूल होना चाहिए कल इस विषय पर विचार करेंगे. आज इतना ही रहने दें. “सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" Rai 543 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी: Fon आहार का संयम अनन्त उपकारी परम कृपालु आचार्य श्री हरि भद्र सूरि जी महाराज ने अनेक आत्माओं के कल्याण की मंगल भावना से, इस धर्म सूत्र के द्वारा जीवन के सम्यक व्यवहार का परिचय दिया. किस प्रकार जीवन व्यवहार का सचालन किया जाय, व्यवहार के माध्यम से धर्म को कैसे प्राप्त किया जाए, उपाय और उसका मार्गदर्शन इन सूत्रों द्वारा प्राप्त करना है. ज्ञानियों की दृष्टि में इस जीवन का बहुत बड़ा मूल्यांकन किया है. परन्तु अभी तक किसी व्यक्ति ने स्वेच्छा से स्व का मूल्यांकन नही किया. जीवन कितना मूल्यवान है, भूतकाल की कितनी साधना का वह वर्तमान परिणाम है परन्तु प्राप्ति के बाद ज्ञान, ध्यान साधना के द्वारा जीवन का जो उपयोग करना था, वह हम कर नहीं पाए, सारा ही जीवन हमारा प्रमाद में व्यतीत हुआ. संसार के कार्यों के लिए व्यतीत हआ, परन्तु स्व के आत्म कल्याण की भावना से हम उसका उपयोग पूरी तरह नहीं कर पाए. एक बार हमारी दृष्टि में इसका मूल्य आना चाहिए. न जाने कितने भव भ्रमण करने के बाद मनुष्य जीवन की हमें प्राप्ति हुई. आध्यात्मिक दृष्टि से ज्ञानी पुरुषों ने कहा कोई महान पुण्योदय था, भूतकाल में जिसके कारण इस जीवन की प्राप्ति ह्यी. मनुष्य जीवन परमात्मा ने प्रवेश का मंगल द्वार माना. मानवी जीवन में साधना के द्वारा जीव मिटकर के शिव बनता है. शिव बनने के लिए सारी साधना है, आत्म कल्याण की मंगल भावनाएं और दृष्टि आज हमारे अन्दर से लुप्त होती जा रही हैं. बहुत सुन्दर उपमा द्वारा परमात्मा महावीर ने कहा - एक अन्धा व्यक्ति एक नगर में रहता था, सारा जीवन उसका खा करके व्यतीत हुआ. परन्तु जीवन का पूर्ण विराम उसे नही मिला, बहुत बड़ा नगर था, चौरासी मील के उसके परकोटे थे. प्रतिदिन भिक्षा द्वारा अपना निर्वाह कर लेता, गांव के लोग बडे दयालु थे, किसी के द्वार पर जाता, कोई मना नहीं करता. वर्षों गुजर गये, एक दिन शरीर में ऐसी व्याधि उत्पन्न हुई, सारे शरीर में चर्म रोगजिसकी खुजली को लेकर वह बड़ा बेचैन हुआ. चारो तरफ घूमता रहा. मन में बड़ी बेचैनी उत्पन्न हुई कि कहां तक मैं इस प्रकार घूमूंगा? कहां तक इस प्रकार भ्रमण करूंगा? वह थक गया. मन में एक दिन विचार आया कि मैं यहां से बाहर चला जाऊं. बाहर जाने के लिए उसने प्रयत्न किया. किसी दयालु व्यक्ति ने कहा चौरासी मील का इस नगर का परकोटा है, निकलना है तो एक बड़ा सीधा सा उपाय बतलाता हूं, दीवार पर हाथ रखकर के चलो, जहां पर द्वार आएगा वह तुम्हे सहज में पता चल जायेगा. वहां से तुम नगर से बाहर जा सकते हो. उस व्यक्ति को निकलने का रास्ता बतला दिया. वह दीवार on 544 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी पर हाथ लगाकर चलता रहा, चलता रहा, तिरासी मील को पूरा कर लिया, सात फर्लाग पूरे होने आये, शरीर में खुजली चलनी शुरू.. उसने अपना हाथ दीवार से हटाया और खुजली करने लगा. खुजलाते समय बडा आनन्द आता है, बडा मधुर लगता है, उसके बाद की पीड़ा तो खुजलाने वाला व्यक्ति ही जानता है कि कैसी होती है. वह खुजली करने में इतना मग्न बन गया कि दरवाजा निकल गया. वापिस जब हाथ रखा तो वही दीवार नजर आई. वही चौरासी मील का परकोटा, फिर से वहीं भ्रमण. भगवान ने अपनी देशना में कहा कि हमारे जीवन में भी यही आदत है. चौरासी लाख जीवयोनि से हम परिभ्रमण करते-करते जहां से मुझे बाहर निकलना था उसके पूर्व हमारी अज्ञान दशा विषय कषाय की ऐसी खुजली कि उसे खुजलाने में ही दरवाजा हाथ से निकल जाता है. फिर वही चौरासी मील का परकोटा हमारे लिए तैयार है. कहां तक इस तरह से हम परिभ्रमण करते रहेंगे? कभी अपनी दशा पर विचार करिए. कभी स्वयं का मूल्यांकन स्वयं करिए. मैं कितना मूल्यवान हूं इस जीवन की प्राप्ति में मैंने कितने भवों का बलिदान दिया. कितनी साधनाओं द्वारा मनुष्य जीवन की प्राप्ति हुई. यदि मै प्रमाद करता हूं तो इसका क्या परिणाम आएगा. वर्तमान काल के अन्दर कोई व्यक्ति भावी परिणाम को देख करके नहीं चलता. जितना मैं आज करता हूं, वही मेरे लिए कल बनेगा. आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्र सूरि जी महाराज ने बड़ी करुणा से कहा-आहार जीवन व्यवहार का एक परम साधन है, एक परम आधार है. आहार पर चिन्तन चल रहा है. धन कैसे उपार्जन करना, यह आपको बतलाया. कैसे क्या करना यह आपको बतलाया. जीवन के अन्दर सदाचार के रक्षण के लिए विवाह शादी किस प्रकार से करना, वह भी मार्ग दर्शन दिया. मकान कहां बनता है, किस प्रकार का बनाना, वह सारी रूप रेखा बतलाई. जो सत्य हो वह मुझे करना है, वह असत्य है संभव नहीं तो कम से कम असत्य को स्वीकार तो करना है. आगे चलकर के आहार कब करना और किस प्रकार करना उसका निर्देश दिया. "अजीर्णे अभोजनम्" आपका शरीर धर्म क्रिया का परम साधन है. आपका जीवन परोपकार का मंदिर है आपका वर्तमान जीवन मोक्ष को प्राप्त करने का परम साधन है. साधन सुरक्षित रहे, इसी दृष्टि कोण से आहार की मर्यादा बतलाई. बिना साधन के साध्य की प्राप्ति कभी नही होगी. शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनम् धर्म की साधना का यह परम साधन होने से, प्रभु से हम रोज यही प्रार्थना करते हैं मंगलकामना करते हैं. "आरोग्यो हि लाभम्" 545 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी: भगवन्! ऐसे आरोग्य की प्राप्ति हो, जिससे मैं अपने जीवन की बडी सुन्दर साधना कर पाऊं, धर्म मार्ग पर चल करके जीवन की पूर्णता को प्राप्त करूं. बीमारी का कारण इसके अन्दर पहले स्पष्ट कर दिया. भोजन यदि आपका खाया हुआ हो, उस समय पर यदि आहार करते हैं तो आहार विकार उत्पन्न करेगा. शरीर कभी उसे स्वीकार नहीं करेगा. पेट को कचरा पेटी न बनाएं. यह गोदाम नहीं है, यह वायलर है, इसकी सफाई का ध्यान रखें, इसकी हिफाजत रखें, इसे विश्राम देने का प्रयास करें. उपवास इसके लिए विश्राम है, शरीर को आरोग्य देने वाला है, शरीर के विकार का नाश करने वाला है. आत्म साधना के अन्दर आपके विचारों को दृढ करने वाला उपवास है. इसीलिए उसे आयुर्वेद में औषधि के रूप में स्वीकार किया है. "लंघनं पथ्यमौषधम्" लंघन को आयुर्वेद ने औषध माना है. बिना पैसे की दवाई है. उपवास हमें करना नहीं, आहार करके आरोग्य को प्राप्त करना है. इसके अन्दर मार्ग दर्शन दिया कि आहार भी इस प्रकार का हो जो औषधि का रूप हो. आहार भी मर्यादा में किया जाये आहार करने की सारी प्रक्रिया बतलाई. रोग का जन्म वहीं से होता है. जब व्यक्ति में भूख न हो और फिर यदि आहार किया जाये. __ पशुओं के अन्दर भी आहार की मर्यादा होती है. कुत्ता यदि रोटी खा ले. पेट भर जाये फिर यदि रोटी डाले तो सूंघकर के छोड़ देगा, खायेगा नहीं. एक सामान्य निकृष्ट प्राणी में भी आहार का विवेक है. वह जानता है मेरा पेट मना करता है, मुझे नहीं खाना चाहिए. परन्तु इन्सान को इतना भी विवेक नहीं रहा, घर से आप निकले हों, पूर्ण रूप से आहार करके चले हों, रस्ते में चलते हुए भी यदि कोई मित्र मिल जाए, आग्रह करें, कि आज मेरी दुकान के उद्घाटन में जरा आओ. शिष्टाचार से आप दुकान पर जाएं. वहां यदि आग्रह करे कि गर्म-गर्म समोसा, गुलाब जामुन है, थोड़ा लाभ दो. आप आहार करेंगे या नहीं? मर्यादा से विपरीत उस समय हमारा आचरण हो जायेगा. पान थूक देंगे, कुल्ला कर. पानी पीकर अल्पाहार तो देंगे. __ परान्नं अति दुर्लभम् मफतलाल जैसे भोजन कराने वाले मिल जायें, तो पूछना ही क्या? सेठ मफतलाल ने मथुरा के चौबेणी को औपचारिक आमन्त्रण दिया। दूसरे दिन चौबेजी आये, उन्होंने कहा - मेरा पेट नहीं, यह स्वर्ग का लैटर बाक्स है. यहां तो डाले जा तुझे सब वहां मिल जायेगा. बहुत सुन्दर भोजन करवाया चौबेजी का लड़का भी साथ में था. लड़का नया-नया था. लड़के को भी बहुत अच्छी तरह खिलाया गया. भोजन करने के बाद लड़का अपने बाप से कहता है - पिता जी आपने कहा - उस आदेश का मैने पूरा पालन किया. 546 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी बहुत पेट भर के मैंने भोजन किया. मेरे भोजन में कोई कमी नही रखी परन्तु अब तो पेट में जाता ही नहीं, क्या करूं? __ बेटा! मेरी बात ध्यान में रखना. आने वाले जीवन में कहीं तुझे मनुष्य जीवन मिल जाये परन्तु यह आहार मिलना बहुत दुष्कर है. यह लाभ छोड़ने जैसा नहीं जितना तू खा सकता है, खा. हमारे यहां पर भी यही आदत है. प्राणम अति दुर्लभम. मफत लाल मिले तो डबल डोज मारो. काहे को छोड़ना. पेट मना करता हो और जीभ स्वीकार करे तो ले लेना. जितनी अधिक संख्या में आज होटल बने, स्वाद पोषण की सामग्री जितनी बढ़ी, उसी अनुपात में होस्पिटल बढाये गये. फिर भी आज कहते हैं होस्पिटल कम हैं रोगी ज्यादा हैं. बीमारी का कारण क्या है? आहार का विवेक हमारे अन्दर नहीं रहा. संसार के अन्दर अस्सी प्रतिशत व्यक्ति खा कर मरते हैं, दस प्रतिशत व्यक्ति अपनी मौत से मरते हैं, पांच प्रतिशत बीमारियों से मरते हैं और दो या तीन प्रतिशत व्यक्ति दुर्घटना में मरते हैं, अकाल मृत्यु से मरते हैं परन्तु अस्सी प्रतिशत व्यक्ति खा कर मरते हैं. उन्हें खाना नहीं आता. ज्ञानियों ने कहा - पहले केवल दर्शन आना चाहिए फिर केवल ज्ञान आता है, जहां तक आहार का विवेक नहीं होगा. वहां तक वह आत्मा संयमी नहीं बन पायेगी. हमारे यहा पैतालीस आगम है, उसमें कई आगमों में मात्र आहार के विषय में लिखा है. साधू आहार किस प्रकार करें? किस तरह की उसकी मर्यादा हो? किस प्रकार की मनोवृत्ति से उसका उपयोग करें? वे सारे लक्षण उसके अन्दर बतलाये गये. गृहस्थ जीवन में भी आहार की मर्यादा बतलाई, गई परन्तु मर्यादा का पालन होता नहीं. स्वाद लेना है, रास्ते चलते व्यक्तियों को देखिये, पड़े हैं मिला. वो खा रहे हैं वह कैसी चीज है ? देखकर भी आंख के अन्दर घृणा पैदा होती है. मक्खियां फिरती हैं. मच्छर बैठे हों, दुनिया भर की गंदगी उसमें हो, हाथ गन्दे हों, सड़क की धूल उड़ती हो, उसके बाद वे व्यक्ति उसी खुमचे से बड़े स्वाद से आहार कर रहे हैं. बिना पैसे की बीमारी मोल ले रहे हैं. उन्हें नहीं मालम यह आहार मेरे पेट में कैसी बीमारी पैदा करेगा. रोग उत्पन्न करेगा. इसीलिए आज के व्यक्ति ज्यादातर होटल से होस्पिटल जाते हैं. घर से निकलेंगे होटल, उसके बाद होस्पिटल, होस्पिटल के बाद अंतिम यात्रा. आप जानते ही हैं. इन सारी बीमारियों को जन्म देने वाले हैं. होटल में आप जाइये, क्या - क्या मिलेगा? कितने प्रकार की बीमारियां वहां फैलती हैं सारी छूत की बीमारियों का कारण होटल है. कितने व्यक्ति भोजन करके जाते हैं, उनके जो वायरस किटाणु होते हैं, वह प्लेट में रहते हैं, वह इतना खतरनाक हैं जो बिना उबले पानी के खत्म नहीं होते. आपने देखा होगा वहां एक बाल्टी रहती है, सब कप प्लेट उसमें डाले जाते हैं, सबका मिश्रण हो जायेगा, सैकडों प्लेट उसमे पड़ी रहती है, पानी में डाला, निकाला, साफ किया 8 BAAR 547 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी फिर आपके सामने. वह कीटाणु चर्म या वायरस जो भी हैं आहार के साथ पेट में गये. यदि आप में प्रतिकार शक्ति नही है, स्टेमिना नहीं है, तो वह तुरन्त आप पर अटैक करेगा रोग का आक्रमण शुरू हो जायेगा. कई ऐसी छत की बीमारियां हैं जिनसे बचना बहुत मुश्किल है. शारीरिक शक्ति से यदि हम कमजोर हैं तो उसका आक्रमण जरूर होगा. इस तरह से सारी बीमारियां फैलती हैं. होटलों में आहार भी इतना अशुद्ध बनता है, रात को बनाया, दिन में बनाया, कैसे बनाया, किस प्रकार बना? वह तो आकर्षक ढंग से आता है, इसलिए कमियां नजर नहीं आती. ___मैं अहमदाबाद में था. पास ही एक होटल था. बहुत सुन्दर मिठाई बनाया करते हैं. सुबह ही गाड़ियों की लाइन लग जाया करती है. लोग वहीं से ले जाना पसन्द करते हैं. दशहरे का मौका था, जलेबी वगैरह बनाने को पूरे रात होटल चालू रहते, जो बनाने की सामग्री भी वह उपाश्रय के एकदम पीछे थी, नजर डाले सब दिखे. रात को दो बजे बर्तनों की आवाज से नींद खुली मैंने सोचा अब क्या हो रहा है? झांककर देखा तो जलेबी बना रहे थे. खुशबू आ रही थी और वे पांव से आटा मथ रहे थे. पानी शौचालय से ला रहे थे और वहां पानी नहीं था. वही पानी उसमें डाला. मैंने सोचा, यही पवित्र वस्तु सुबह लोगों के पेट में जायेगी और लोग दशहरा मनायेंगे. बचपन में मैं अपने मित्र के साथ घूमने गया, बाहर से आये हुये थे. घरवालों ने कहा - जरा घुमा कर ले आओ. मैं घुमाने के लिए ले गया, कलकत्ता तो बड़ा शहर है. उन्होंने कहा - दो बज गये हैं, भूख लग गई. कहीं नाश्ता कर लें. ____ मैं उनको नाश्ता करवाने ले गया. मेहमान बडे सज्जन और बड़े उदार थे. उन्होंने कहा- अच्छे होटल में मुझे ले जाना. मैं उन्हें अच्छे होटल में ले गया, जहां गर्म-गर्म समोसा कचौरी बनती थी. वहां ले गया. सामने बैठ गया, आर्डर दे दिया. मेरी दृष्टि वहां पड़ गई, जहां वह बनाया जा रहा था, वह कचौरी बना रहा था, बड़ी उत्सुकता से मैं देख रहा था. बनाने वाले व्यक्ति को सर्दी लगी हुई थी, अन्दर गर्मी, पसीना सारा उसी में टपक रहा था. कचौरी का मसाला जहां तैयार किया जा रहा था, उसी में उसका पसीना टपक रहा था. मैंने कहा - यह बड़े गजब की बात है. मैं वहां तक तो मौन रहा. मन में विचार पैदा हुआ कि यही कचौरी अपनी डिश में आयेगी. संयोग देखिये, उसे सर्दी तो लग रही थी, सर्दी का गर्मी का असर था. उसे बड़े जोर से छींक आई और सारा विटामिन भी उसी में गिरा. मैंने कहा-बड़ा गजब हो गया. आए हुए अतिथि से मैंने कहा - मुझे नाश्ता नहीं करना, मैं तो बाहर जा रहा हूं, क्यों क्या हुआ? Joad SA FAMIR 548 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी Kaao मैंने कहा-जो हुआ और मैंने अपनी आंखों से देखा. यह खुराक अब मेरे पेट में नहीं जाने वाली. उस समय से मैंने नियम किया कि कभी होटल की वस्तुओं का उपयोग नहीं करना. हम जरा से स्वाद के लिए अपने विवेक को भूल जाते हैं. होटल चले गये, पैसा दिया और पायजन ले आये. न जाने कब का घी, कब का तेल, कितने कीड़े मकोड़े, उस में तल दिये गये होंगे न जाने कितने दिनों का आटा होगा. उसमें टाट पड़ जाते हैं, वह सबकी सब बीमारियों का कारण बनता है. एक मात्र स्वाद के लिए हम चले जाते हैं, सुविधा की दृष्टि से चले जाते है, कौन बनाये चलो होटल. पर्यषण से पर्व संयोग से आहार का विषय आया. गहस्थ अपने जीवन निर्वाह के लिए किस प्रकार से आहार करे. आहार की मर्यादा इसमें बतलाई है. शुद्ध और सात्विक भोजन होना चाहिए, पेट भरना चाहिए, मन को तृप्ति मिलनी चाहिए. शरीर को आरोग्य मिलना चाहिए. आहार का सर्वथा निषेध नहीं किया गया. परन्तु सात्विक आहार हो. मात्र स्वाद के लिए आहार करेंगे तो शरीर का शोषण होगा. शरीर पर अत्याचार भी नहीं करना. शरीर का निर्वाह करना है, शरीर का रक्षण करना है. इसका सम्यक प्रकार से पोषण करना है. इसे सुरक्षित रखना है. जहां तक चैक नहीं पहुंचे, वहां तक कवर का मूल्य होता है. जहां तक आत्मा मोक्ष में नहीं जाये, वहां तक इस शरीर का भी मूल्य रखा जाता है. हिफाजत रखी जाती है. आप होटल का परित्याग करें, भविष्य के अन्दर इस प्रकार की कोई गलत वस्तु खायें नही. कदाचित भूख लग जाये तो फल लीजिए. कोई नुकसान नहीं, उसमें कोई दोष की संभावना भी नहीं. उसमें कीटाणुओं में रोग की सम्भावना नहीं, निर्दोष वस्तु है. सो चीज ले सकते हैं. जो होटल में खाने का बनाया हो, रात में बनाया हो, न जाने कितने दिनों से बना हो, उन वस्तुओं का त्याग कर दे. अपना आरोग्य आप प्राप्त कर लेंगे. घर पर आहार करिए, अपने मन में कदाचित् कोई रुचि करे, उसे घर पर बनाइये. कम से कम शुद्धता पर्वक बनेगा, सात्विक होगा आहार के बाद आत्मा को तृप्ति मिलेगी, मन को सन्तोष मिलेगा. बाहर खाना बन्द करिये. आज तक हमने दलाल के भरोसे आत्मा राम भाई की पेढ़ी सौंप दी. दलाल को क्या मतलब कि सेठ दिवाली मनाये या दिवाला निकाले. वह तो अपने कमीशन से मतलब रखता है. जीभ को भी अपना कमीशन चाहिए, स्वाद लिया और अन्दर पेट में, पेट में जाने के बाद कोई स्वाद मिलता है कि कचौरी खायी, समोसा खाया, पेट को क्या? जीभ से नीचे उतरने के बाद कोई स्वाद नहीं, उसने तो अपना कमीशन काटा और माल अन्दर सप्लाई. पेट बिगड़े तो बिगड़े, गोदाम में कचरा गया तो गया, जीभ को तो स्वाद मिला. दलाल पर अपना नियन्त्रण चाहिए. मालिक यदि समझदार है तो दलाल से क्या माल लेना? कितना कमीशन देना? सभी का समुचित निर्णय लेगा. इसी प्रकार यदि आत्मा 549 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - में उपयोग की जागृति हो तो विचार करेगा कि, मुझे क्या चीज़ लेना, क्या ग्रहण करना? किस प्रकार विवेक से लेना? यदि विवेक का अभाव रहा तो मुश्किल है. ज्यादातर आप हास्पिटल में रोगी को देखेंगे. किस प्रकार के रोगी हैं. वे स्वाद के लिए खाते हैं. जो चीज़ आप तलकर के खायेंगे, याद रखिये वह विकार उत्पन्न करती है. शारीरिक व्याधि को जन्म देती है. इसमें कोई स्वाद नहीं रहता. बिना स्वाद के आप चाहे भजिया खायें, पुडी खायें कचौरी खायें, मुझे आप के खाने से ईर्ष्या नहीं. आचार्य भगवन्त को भी ऐसे द्वेष नहीं. कोई तिरस्कार नहीं. उन्होंने तो सात्विक आहार का परिचय दिया कि आहार कैसा हो. दाल रोटी खा कर जीवन निकाल दे. कभी नुकसान नहीं करेगा. पूर्ण सात्विक है, आपके पेट को स्वीकार है, शरीर उसे स्वीकार कर लेता है. उसमें से रस ग्रहण करके आपको पोषण देता है परन्तु यदि आप स्वाद के लिए खायेंगे? स्वाद के. पोषण की वस्तु तली हुई चीजों से पोषण करेंगे तो वह शरीर को बहुत जबरदस्त हानि पहुंचायेगी. वह स्वीकार नहीं. बड़ी खतरनाक चीज़ है परन्तु आदत रोज तली हुई चीजों की चाहिए. यह पेट में गैस पैदा करेगा. एसिडिटी होगा, मन्दाग्नि पैदा होगी. गैस पैदा करेगा, ज्यादा मात्रा में खटास या मसाला लिया स्वाद देगा. मगर स्वाद ब्याज सहित वह सब शरीर से वसूल कर लेगा. ऐसे स्वाद पूर्ण आहार को मुझे नहीं करना. आजकल एक मोडर्न फैशन निकला है. बहुत जबरदस्त उसका प्रचार किया जा रहा है, शरीर कमजोर हो जाता है. संयोग का अभाव प्रचार किया जाता है कि तुम अंडे खाओ, शक्ति मिलेगी. प्रोटीन मिलेगा. मैं कहता हूं उससे तो रोग को आमन्त्रण मिलेगा. उसमें ऐसे जहरीले तत्व होते हैं कि आज के डाक्टरों का अभिप्राय है, विदेश के डाक्टरों का अभिप्राय है, वे सोच कर निर्णय पर आये कि उसमें ऐसे विषैले और जहर वाले तत्व हैं जो हार्ट अटैक उत्पन्न करते हैं एक बार कदाचित् उत्तेजना दे जायें. तामसिक वस्तुओं में उत्तेजना जरूर होगी. क्षणिक उत्तेजना होगी. परन्तु वह उत्तेजना खत्म होकर आपके लिए मौत लेकर आयेगी. वह हार्ट अटैक उत्पन्न करेगी, इसके अन्दर में एक खासियत है, मांसाहार करना. घर में जो भोजन बनेगा, उसमें स्वाद मिलेगा, शक्ति मिलेगी, टोनिक मिलेगा, वह बाहर होटल के भोजन में नहीं मिलेगा. आप भूल गये हमारे हाथी के अन्दर कितनी बड़ी शक्ति है. शाकाहारी हैं, पूर्ण सात्विक हैं, गजब ताकत है. हाथी के अन्दर जो शेर के अन्दर नहीं, सिह के अन्दर नहीं. सिंह मांसाहारी है, उतेजना है, क्षणिक आवेश है परन्तु इसके अन्दर शक्ति का अभाव है. शक्ति मिलेगी आपको हाथी में. वह सात्विक शक्ति है आपने देखा रेस के अन्दर घोड़े दौड़ते हैं. वह शक्ति कहां से आई? उस गति में चेतना कहां से आई? कैसी प्रचन्ड शक्ति हाथी है. घोडे में एक समान शक्ति होती है बड़ी द्रत गति होती है जरा भी थकावट 550 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी नहीं, थकावट का नामोनिशान नहीं, बड़ी शक्ति होती है. पूर्ण सात्विक है,शाकाहारी थोड़ा भी मांसाहारी नहीं. आपने देखा बिजली को मापने का माप दण्ड क्या होता है? होर्स पावर, कितना हार्सपावर है. शक्ति तो सात्विकता से ही प्राप्त करना है. तामस की शक्ति आप पैदा कर लें, कितनी उतेजना फैलेगी. जितनी अधिक मात्रा में मांसाहार का प्रयोग हुआ, जितनी अधिक वस्तुओं का गलत इस्तेमाल करने लगे, आप देखिये सारे जगत का वातावरण दूषित और कलुषित बन गया. आप के मानसिक संचार पर गलत प्रभाव पड़ा. उसी का यह परिणाम. चलते रस्ते किसी का खून कर दे. चलते रास्ते ही आपसे दुर्व्यवहार करते हैं, कितना गज़ब का साहस उनके अन्दर आ गया. ये तामसिक शक्तियों का विपरीत परिणाम है. पहले पूर्व काल के अन्दर बहुत अल्प संख्या के अन्दर वह भी गांव से दर छिप करके कदापि लोग इसका सेवन करते होंगे परन्तु खुले रूप में तो कभी नहीं. आज तो सरकार इसका व्यापार करती है. यहां प्रोत्साहन देती है, राज्य का आश्रय जिस को मिल जाये तो फैलने में देर क्या? बहुत गलत हो रहा है, टी०वी० पर, रेडियो के द्वारा, प्रचार के द्वारा, जिनकी आंधी हमारी संस्कृति के लिए घातक बन गई. आजकल एक फैशन बन गया है. युवा जाते हैं. ड्रिन्क नहीं किया, अगर नोनबेज नहीं लिया, उसे मित्र बर्तुल में बड़ी घृणा की दृष्टि से देखेंगे इससे बचने की लालसा में दूषित बनते हैं. यह रोग फिर अपने जीवन को घेर लेता है और सर्वत्र फैलता है. जहां तक सात्विक आहार पेट में नहीं जायेगा सात्विक विचार कभी पैदा नहीं होगा इसलिए गीता के अन्दर तीन प्रकार के भोजन का विभाजन किया. ___ श्री कृष्ण ने कहा-सत्व गुण वाला आहार साधक आत्माओं को लेना चाहिए, निर्देश दिया है तमोगुण का आहार साधना के अन्दर बाधक है और यदि तमोगुण का आहार लिया गया, सारी साधना को खत्म कर देगा. मूर्छित कर देगा. आपकी सारी पवित्रता को नष्ट कर देगा. गीता के अन्दर यह उल्लेख है. मुझे सात्विक गुण वाला आहार चाहिए, रजोगुण वाला आहार नहीं. हमारे यहां इसीलिए अन्डर ग्राउण्ड विजीटेवलस चाहे उसमें प्याज हो लहसुन हो, आलू हो, गाजर हो, मूली हो, ये जितने भी विजीटेवल हैं वे अधिक मात्रा में आपको स्वाद जरूर देंगे. परन्तु मानसिक विचार विकृत करेगें. उतेजनात्मक होंगे. आपकी कामुकता को जाहिर करेंगे. विषय को जागृत करेंगे और दिलो दिमाग पर उत्तेजना लेकर आयेंगे. कितने-कितने जीवों का वह पिण्ड होता है. वहां तक आलू के अन्दर, एक प्याज के अन्दर, अनन्त जीवों का पिन्ड होता है. एक सुई के नोंक में यदि आलू का भाग लेते हैं अनन्त जीवों की विराधना होती है. कम से कम विराधना करके लाभ प्राप्त करने के लिए हम इस जीवन को टिकाने का प्रयत्न करना चाहिये. 551 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी - ___ लाभालाभ की दृष्टि से बहुत चीजें खाने के लिए, पेट भरने के लिए हैं परन्तु आलू में स्वाद है, यह नहीं मालूम कितने जीवों की हत्या करने के बाद. अपनी रसना इन्द्रिय की वासना को तृप्त करता हूं. आलू, लहसुन, प्याज, गाजर, मूली ये सब अभक्ष्य वस्तु हैं, कुछ ऐसी जो हमारे यहां नहीं ली जाती. सात्विक साधना के बन्धन माने गये. अनन्त जीवों की हिंसा का कारण माना गया. शारीरिक आरोग्य की दृष्टि से घात माना गया. क्योंकि उत्तेजक है. विषय को जागृत करने वाले हैं, इसीलिए साधु-साध्वी के लिए सर्वथा निषेध है. यदि स्वाद पोषण के लिए खाना हो तो बात अलग है परन्तु भगवन्त के आज्ञा में निषेध है. हमारे यहां ही नहीं वैदिक परम्परा, उपनिषदों और पुराणों में इसका निषेध किया गया कि सात्विक आहार चाहिए और उसकी मर्यादा में जो आहार आते हैं वह खुशी से लें. कैसे आहार करना उसका भी विवेक बतलाया है. मांसाहार मानव के लिए अनुकूल आहार नहीं है. शारीरिक रचना भी उस प्रकार की नहीं, मांस को पचने में कम से कम आठ घन्टे लगते हैं. जब जाकरके वह पचता है. हाजमे को बिगाड़ता है, विकृतं बनाता है. मांसाहार करते समय माँस को कितना उबालो तो भी उसमें समुर्छिम जीवों की उत्पत्ति मानी गयी है. उस गर्मी में भी वे नहीं मरते वे उत्पन्न होते हैं उसके अन्दर ही उनका अदृश्य भाव से बार-बार जन्म मरण चलता रहता है. शाकाहार, शुद्ध वनस्पति का आहार, साढ़े तीन घन्टे से चार घन्टे में पचता है. इसीलिए सात्विक आहार करें, मांसाहार का परित्याग कर दें. अण्डा हार्ट अटैक का मुख्य कारण है. शरीर आपका बढ़ जायेगा परन्तु अन्दर से खोखला हो जायेगा. कई बार खून की कमी होती है. खून जब पानी बनता है तो शरीर में सूजन आ जाती है. फूले शरीर को कहें कि क्या मस्त पहलवान है, क्या बहादुर आ रहा है, चलेगा. वह बीमारी से पीड़ित है. इसी प्रकार ये तामसिक भोजन करके कदाचित् स्वयं को पुष्ट मान लें. थोडे समय के लिये यदि आपका शरीर हृष्ट पुष्ट बन गया, परन्त आत्मा तो बीमार हो जाएगी, सारी साधना दुर्बल बन जाएगी. ___बाहर से शरीर को लाभ मिले और आत्मा को नुकसान पहुंचे ऐसा काम हम क्यों करें. हमारे दांतों की रचना देखिए. हमारे पेट की रचना देखिये, यह सारी रचना शुद्ध, सात्विक आहार के लिए है. जो मांसाहारी पशु हैं, उनको आप देखिए, उनकी रचना को देखिए. उस रचना में बहुत बड़ा अन्तर है. जानते हुए यदि हम इसका उपयोग करें तो हमारा दुर्भाग्य है. बाहर के देशों में तो शाकाहार का आम फैशन चल रहा है. विजीटेरियन सोसायटी बन रही है. कछ वर्ष पहले लन्दन में एक साथ चालीस हजार शाकाहारी बने, सामूहिक रूप से. मांसाहार का बहिष्कार कर दिया कि ये इन्सान की खुराक नहीं हैं. हमारा पेट कोई कब्रस्तान नहीं कि रोज लाकर मर्दो को दफनाया करें कितने जीवों की हत्या करनी 552 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir -गुरुवाणी पड़ती है. उनके मरते समय उनके दर्द को देखिए. उनकी आंखों को देखिए. उन पशुओं का माँस खाकर यदि प्रसन्नता मनाएं, तो ये नहीं सोचते कि यह उसकी मौत नहीं, यह मेरी ही मौत है. संस्कृत के अन्दर माँस शब्द को यदि विपरीत करें तो "समा” मांस शब्द है यदि इसे विपरीत करें "समां" जिसे मैं खा रहा हूँ तो कल मझे खाने वाला बनेगा. यह प्रकति का नियम है. दुनिया के हरेक धर्म ग्रन्थों में यह निर्देश दिया गया. बाइबल जैसे ग्रंथ में भी लार्ड क्राइस्ट ने अपनी दयालुता का परिचय दिया. मुसलमानों के धर्म ग्रन्थों में भी खुदा ने कहा सारी प्रकृति की रचना मैंने की है. वृक्ष भी मैंने बनाए है पशु, पक्षी भी मेरी रचना है. इसे नाश करने का किसी को कोई अधिकार नहीं. परमात्मा की रचना को नष्ट करना आपका अधिकार नहीं. इसके लिए जब हज करने को मुसलमान जाते हैं तो वनस्पति के वृक्ष को भी हाथ नहीं लगाते. दातून करने के लिए दातून भी नहीं तोड़ते. यह उनका नियम होता है. दुनिया के हरेक धर्म ग्रन्थ को आप देखिए, आपको हर जगह यह उल्लेख मिलेगा. अहिंसा का जहां भी विषय आएगा, उसके अन्दर करुणा को लेकर ये निर्देश दिया गया कि पशु पक्षियों पर भी तुम दया करना. ये भी दया के पात्र हैं आपके आश्रित है. पशुओं के पास सिवाय रुदन के और कुछ नहीं है. अपने दर्द को बोलने के लिए शब्द भी नहीं, कुदरत की इतनी बड़ी सजा उनको मिली है. ___आहार की मर्यादा में यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि जिस किसी वस्तु में पदार्थ में एनीमल्स फूडस हो, तो कभी प्रयोग नहीं करना. बाहर के बिस्कुट होते हैं, मछली का आरा रहता है. टानिकों के नाम पर कई दवाओं में कोडलीवर आयल आता है. कई ऐसी दवाइयां हैं जो पशु जन्य है, उनके अंग उपांग से वह दवा निर्मित होती है. डाक्टर से पूछ करके लें, उसके विकल्प में दूसरी दवा मिलती है. ___ हम लोग भी दवा लेते हैं परन्तु पूछ लेते हैं, अगर डाक्टर ने कह दिया कि इसमें दोष की संभावना है, उसे छोड़ देते हैं. पूछते हैं इसके विकल्प की कोई दूसरी दवा है? बहत सारी दवा है बतलाएंगे कि इसकी जगह यह दवा लीजिए. यह जरूरी नहीं कि एक ही दवा काम आएगी. हमारे जीवन में हरेक क्षेत्र में आज हिंसा को आश्रय दे रहे है, वह गलत है. सौंदर्य के जितने भी साधन हैं, ये सब किस तरह से बनाए जाते हैं. कितनी हिंसा होती है. पशुओं के साथ ऐसा भयकर क्रूर व्यवहार किया जाता है. कि हम देख नहीं सकते. यदि एक बार आप देख लें तो आप का हृदय पिघल जाएगा. बिना प्रवचन के आप प्रतिज्ञा कर लेंगे कि जीवन में कभी इनका उपयोग नहीं करना. ऐसी क्ररता से उसका निर्माण किया जाता है. ali 553 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D -गुरुवाणी: हमारा सौन्दर्य तो हमारा शील है. हमारा सौन्दर्य हमारा सदाचार है. हमारी पवित्रता में जीवन का सौन्दर्य छिपा है, क्या गलत आश्रय लिया जाएगा. इसीलिए आहार की मर्यादा समझते हुए ये सारी बातें आप के शरीर के आरोग्य के लिए कही. यदि आप दो चतुदर्शी उपवास करते हों. गांधी जी जीवन पर्यन्त इस नियम का पालन करते रहे. महीने में दो बार वे हमेशा उपवास करते. उपवास भी ऐसा नहीं कि दिन को अठाई और रात को मिठाई चले या शर्बत, ठण्डाई चलती हो. सिवाय पानी के किसी वस्तु का सेवन नहीं, तब जाकर के पेट को विश्राम मिलता है. आपके शरीर को आपके आरोग्य को वह लाभ देने वाला बनता है. इसीलिए आयुर्वेद में कहा है: लंघनम् पत्थ्यौषधम् अजीर्ण में लंघन सबसे बड़ी दवा है. सारी बीमारियों की रामबाण दवा-उपवास. खाने वाले व्यक्ति ही बीमार पडेंगे. उपवास करने वाला व्यक्ति बीमार नहीं पडेगा. वह मौत के पास जल्दी नहीं जाएगा. तथा अजीर्णे अभोजनमिति जब-जब अजीर्ण अपच हो जाय तो भोजन का त्याग करें, आहार पवित्र चाहिये, सात्विक चाहिये, आहार की विकृति जीवन को कैसे दूषित करती है, इस विषय पर एक सुन्दर प्रसंग आता है: कोई महर्षि बहुत दूर जंगल में अपनी साधना कर रहे थे. वहां के राजा जंगल में निकल गये. शिकार के लिए आये थे और भटक गये. एकान्त में रहने वाले मुनि के आश्रम में पहचे. जगत के बादशाह किसी की परवाह ही नहीं. वैदिक परम्परा में वैशेषिक परम्परा के कर्ता, कणाद ऋषि हए हैं. जंगल में रहते कोई व्यक्ति रोटी दे गया तो निर्वाह कर लिया. किसी की परवाह नहीं. वहां के राजा को मालूम था कि ये चमत्कारी ऋषि हैं. इनके पास कुछ न कुछ उपलब्ध है. जंगल में रहते एक कौपीन पहने हुए, न तो शहर में आते, न किसी से परिचय करते. एकान्त परिचय परमात्मा से. जगत से परिचय करके क्या करना? इस परिचय से क्या मिलेगा? वहां का राजा एकान्त में रहने वाले कणाद ऋषि के दर्शन के लिए गया. नमस्कार करके कहा-भगवन्, मेरे योग्य कोई सेवा हो तो कहिए. आप कहें तो आपका आश्रम सुन्दर बना दूं. आप आदेश दें तो सुन्दर बगीचा लगावा दूं. सन्त ने मौन रखा. राजा समझ गया, कदाचित् ये संकोच वश स्वीकार नहीं करते हों. एक दिन गाड़ी भरके साधन, सामान ले गया. ऋषि के चरणों में निवेदन किया भगवन् / आदेश दें. ये सब सामान आपके लिये लाया हूं. ___ऋषि ने कहा-किसी भिखारी को दे दें, मुझे नहीं चाहिए. मैं सम्राट हूं, मेरे अन्दर 554 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: काकाह. कोई याचना है ही नहीं. एक दिन रात्रि के समय राजा आया. एकान्त में आकर ऋषि के चरणों में गिरा और कणाद ऋषि से कहा मुझे आशीर्वाद दीजिए. किस बात का? राज्य के अन्दर आर्थिक परिस्थिति एक समस्या बनी है. मेरे संतान नहीं है, औलाद की चिन्ता है. राज्य के पीछे क्या? मेरे पीछे क्या? कणाद ऋषि ने कहा-चल-चल यहां से उठ. ऐसे भिखारियों को मैं आशीर्वाद नहीं देता. भिखारी मैं या तू. गाड़ी भर करके मेरे लिये लाया. कपड़े ले आया, सोना मोहर ले आया, बर्तन ले आया. मैंने तुझसे कुछ मांगा. तू मेरे पास मांगने आया. ऐसे भिखारियों के लिए आशीर्वाद नहीं होता. यहां तो महान सम्राटों के साथ परिचय किया जाता है, आशीर्वाद दिया जाता है, जो आत्मा की चर्चा ले करके आए. आत्म चिन्तन लेकर के आये, जो परमात्मा बनने की बात करने आये, उनको आशीर्वाद दिया जाता है अपनी साधना में सफल बनें. मेरा आशीर्वाद लुटाने के लिए नहीं है. राजा को अक्ल आ गई. ऋषि जंगल में थे, स्वयं के सम्राट थे, राजा जब शिकार के लिये गया, रास्ता भटक गया. बड़ी गजब की प्यास लगी. मौत दिख रही थी. कणाद ऋषि के आश्रम में गया और कहा भगवन् प्राण जा रहे हैं मुझे पानी दे दें. ऋषि के यहां, एक सदाचारी महान संन्यासी आत्मा. उसे जब उस आत्मा से पानी पीने को मिला तो उसे अमृत जैसा लगा. बड़ा स्वादपूर्ण पानी पीने के बाद उसके मन में ऐसा वैराग्य लगा कि ऐसा जीवन अपने को मिल जाये तो अपना जीवन धन्य हो जाये, ये विचार राजा में पैदा हुए, आश्रम का मात्र पानी पिया और उस परमाणु ने उसके हृदय में ऐसे विचारों को जन्म दिया. राजा ने विवेक पूर्वक निवेदन किया कि भगवन, आपने मुझे प्राण दिया बहुत बड़ा उपकार किया. कभी मेरे राजमहल में पधारें, परिवार को भी आपके प्रवचन का लाभ मिले, बहुत आग्रह किया, प्रेम का आग्रह था, मुनि ने स्वीकार किया. ___ एक दिन सायं घूमते फिरते सन्यासी के मन में आया आज चलूं, राजा ने मुझे बुलाया है, आमन्त्रण दिया है, गये वहां तो षट्रस भोजन. राजमहल में गये. वहां का सारा वातावरण तो आप जानते हैं अशुद्ध. भोजन के लिए बैठा बडी सुन्दर सामग्री भोजन किया. पेट में पायजन गया. विकार उत्पन्न हुआ राजा की राज कन्या सामने बैठी थी. जवान सोलह वर्ष की. उस पर सन्यासी की दृष्टि गई. मन में पाप का प्रवेश हुआ. वर्षों की साधना एक क्षण में साफ. राजा को बड़ा विश्वास, साधु पर विश्वास नहीं तो अविश्वास कहां से आए. ये हमारे निष्काम मित्र, मुझे नया जीवन और प्राण देने वाले मुझे रास्ता बतलाने वाले ऐसी आत्मा द्वार पर प्रवेश हुआ, मेरा जीवन धन्य हो गया. सोना मोहर उन्हें दे दिया जाते समय पूछा भगवन् ! मेरे लायक कोई सेवा कार्य, राजा के घर का अनाज गया न जाने कैसा दूषित तत्व था. मन विकार से भरा था. राजकन्या परदष्टि गई. 555 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी a98 उन्होंने कहा राजन् ! और मुझे कुछ नहीं चाहिए, परोपकार की भावना से तुम्हें सूचन करता हूं. तुम्हारी राजकन्या विषकन्या है, तुम्हारे घर को बरबाद कर देगी. राज्य साफ हो जायेगा, जहां जायेगी उस परिवार का भी नाश कर डालेगी. इसे घर में रखने जैसा नहीं. राजा के कान कच्चे होते हैं. पूछा-भगवन्! इसका कोई उपाय है? तुम्हारे राज महल के पास नदी बहती है. जो सीधी आश्रम तक जाती थी. केलों के वृक्ष का एक ऐसा सुन्दर साधन बनवाओ नाव जैसा. उसपर इस राज कन्या को बैठा दो. आभूषणों से सज्जित करके इसे अन्तिम विदाई दे दो, फिर जैसा इसका भाग्य होगा, वहां पहुंच जायेगी. तुम्हारी तरफ से कन्या को नुकसान नहीं पहुंचेगा. आज रात्रि के समय चन्द्र के प्रकाश में ले जाकर के नदी में बहा देना. कन्या डूबेगी भी नहीं. बहते-बहते जहां इसका भाग्य होगा वहां पहुंच जायेगी. राजा ने कहा - भगवन! जैसा आपका आदेश होगा, वैसा ही होगा. आश्रम पहुंचकर स्वामी जी ने अपने शिष्यों से कहा आज से चन्डिका देवी की साधना करने वाला हूं. रात्रि में चन्डिका देवी अति प्रसन्न होंगी. इस नदी से आयेंगी. एक दीपक जल रहा होगा. तुम जाकर उस पेटी को ले आना. वह बन्द पेटी ला करके मेरे रूम में रख देना फिर मेरे रूम में झांककर मत देखना. रोने की चिल्लाने की आवाज आये, वह तो देवी है. देवी का प्रकोप है, देवी के अनेक प्रकार के रूप होते हैं. हो सकता है, अन्दर रुदन करे, तुम्हें आकर्षित करने के लिए. यदि झांककर देखा तो तुम साफ हो जाओगे. शिष्य ने विचार किया कि आज गुरु की साधना सिद्ध होने वाली है. जो गुरु ने कहा वह जरूर सत्य होगा. बेचारे रात्रि में नदी के किनारे पहरा देते रहे, राजा ने जैसा स्वामी ने कहा था, उसी तरह पेटी बहा दी. बेचारी राज कन्या क्या बोले. बहुत बड़ी पेटी थी. आभूषणों से सजाकर अन्दर डाल दिया. पेटी बहकर के नदी में जा रही थी, बरोबर शिष्यों ने देखा, बात तो सही है परन्तु रास्ते में लकड़ी काटने वाले व्यक्ति जंगल में ही बैठे थे. बहुत रात होने से वहीं रह गये कि सुबह गांव में जाकर लकड़ी बेच देंगे. जंगल में उसी दिन एक बहुत बड़ा रीछ पकड़ा था. डोरी से बांधकर उसे पकड़ा था. किसी मदारी को दे देंगे, कुछ रुपया मिल जायेगा लकड़ी काटने वाले जब रसोई पका करके भोजन कर रहे थे, उन्होंने देखा कि नदी में क्या बहती जा रही है. चान्दनी रात थी, अन्दर दीपक जल रहा था. जंगल में रहने वाले तो बड़े साहसी होते थे छलांग लगाकर उसे निकाल लाये. पेटी खोलकर जब देखा तो राजकन्या ने सारी बात समझाई. मुखिया ने कहा-बेटी जरा भी चिन्ता मत करना. हमारे गांव के एक व्रतधारी युवक है, कोई सन्तान नहीं है. हम तुम्हें वहां सौंप देंगे तुम निश्चिन्त रहो, मन में विचार किया ऐसे दुष्ट दुराचारी संन्यासी को शिक्षा देनी चाहिए. 556 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी स वह साधु नहीं शैतान है. कुदरत ने ऐसा सुन्दर संयोग दिया. रीछ को अन्दर डाल दिया और रस्सी खोल दी. रीछ पूरे दिन का भूखा बड़े गुस्से में आया हुआ. चेलों ने देखा गुरु महाराज का वाक्य कितना सत्य. भविष्यवाणी की थी रात्रि में देवी आयेगी. साक्षात् देवी आई. वह पेटी ले आये. लाकर रूम में रख दिया. बाहर से झोपड़ी बन्द कर दी. गुरु ने गर्जकर कहा शिष्यों, यदि मेरे आश्रम में झांककर देखा तो सर्वनाश हो जायेगा, जलकर भस्म हो जाओगे. चेलों ने कहा गुरु महाराज आप विश्वास रखिये, आपकी आज्ञा का जरा भी उल्लंघन नहीं होगा. विषयों में लिप्त संन्यासी में ऐसी विकृति आई. जैसे ही ताला खोला, आलिंगन करने गया. अन्धकार था क्या मालूम. उस अन्धकार में काला रीछ क्या नजर आये. आलिंगन करने गया, रीछ को गुस्सा आया हुआ था. बेचारा भूखे प्यासे रीछ का गर्दन पर नख लगा. भूखे रीछ ने स्वामी के शरीर को नोचना शुरू किया. स्वामीजी भय से शिष्यों को बुलाने लगे "दौड़ो मैं मर रहा हूं." शिष्यों ने सोचा जब गुरु की यह हालत है तो हमारी क्या हालत होगी? इससे अच्छा है उसके ही बलिदान से देवी तृप्त हो जायें. शिष्य तमाशा देखते रहे. गुरु के प्राण पखेरू चले गये. कवियों ने बड़ी सुन्दर कल्पना की अपने जीवन का संयम इसमें छिपाकर कहा-अशुद्ध आहार का यही परिणाम. वह विकार उत्पन्न करेगा. विकार विनाश को ले करके आयेगा. कभी ऐसा अशुद्ध आहार नहीं करना. ___ "लौल्य त्यागः" दूसरे सूत्र द्वारा बतलाया, लोलुपता का त्याग, आहार करते समय उसकी वासना नहीं होनी चाहिए. अति मात्रा में आहार करना पशुता का लक्षण माना गया है. अति मात्रा में आहार करने वाला व्यक्ति प्रायः तिर्यक गति में जाता है क्योंकि उससे विषय में उत्तेजना मिलती है. आराधना में विराधना करने वाला बनता है. मन पाप से ग्रसित बनता है, इन दूषणों में बचने के लिये आहार में संयम चाहिये. कई बार शरीर के सहयोग के अभाव में भी मन की वासना बडा नकसान करती है. आहार में लोलुपता नहीं. जैसे मिला जिस प्रकार का मिला, पेट भरना है, भर लिया. महान चिन्तन करने वाले व्यक्ति कभी आहार पर आसक्ति नहीं रखते. टालस्टाय महान साहित्यकार था, साहित्य के अन्दर डूबा रहता, लिखने में पागल बन जाता. कई बार उनकी स्त्री भोजन लाकर रख देती, उन्हें पता ही नहीं चलता. ठन्डा हो जाता, खाना खा लिया. साधु पुरुषों का आहार भी ऐसा है. फिक्र का फाका करे बोले वचन गंभीर. बिना स्वाद भोजन करे ताको नाम फकीर. भोजन में स्वाद नहीं चाहिए, शरीर का रक्षण चाहिए. मोक्ष की आराधना के लिए साधु आहार करते हैं और कोई प्रयोजन नहीं. टालस्टाय टेबल पर भोजन करने के लिए बैठा RA 557 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी था, साथ में पांच सात साथी बैठे थे. जो उनके साथी थे, उनके साथ किसी चर्चा की गहराई में उतर गये. उनकी पत्नी ने रसोई लाकर रख दी. घन्टा निकला, दो घन्टे निकले, तीन निकले, भोजन पड़ा था बातों में लग गये. ज्ञानामृतम भोजनम ज्ञान का भोजन चल रहा है, किसी विषय पर चर्चा चल रही है. उनकी स्त्री अन्दर से आई दुर्वासा ऋषि का दूसरा रूप थी. स्वभाव की क्रूर थी. आते ही बरसना शुरु कर दिया. कहा-तुम को किसने विद्वान बनाया है? महान माना है? तुम तो पहले नम्बर के मूर्ख हो. इतनी भी अक्ल नहीं रसोई तीन घन्टे से पड़ी है और ठन्डी हो गई. तो भी तुमको गप मारने से फुरसत नहीं. दस आदमियों के बीच इतना अपमान कर दिया. सभी व्यक्तियों को फटकार दिया कि क्या समझ कर तुम यहां पर आ गये. कल ये बीमार पड़ेंगे, तुम सेवा करने आओगे? सेवा तो मुझे करनी पडेगी. तीन घन्टा हो गया. रसोई ठन्डी हो गई और तुम लोग इस तरह से पागलपन की बातें करते हो, न बोलने जैसा शब्द बोल गई. टालस्टाय ने साथियों से क्षमा मांगी और कहा-यह मुझे समता का पाठ सिखाने वाली है. मेरी सबसे बड़ी अध्यापिका है. मेरे जीवन में कितने ही प्रसंग आये परन्तु मैं हमेशा बचता रहा. स्वयं को शान्त करता रहा. मेरे निमित्त से तुमको सुनना पड़ा. मुझे माफ करना. वह स्त्री अब भी बक रही थी कि रसोई ठन्डी हो गई. क्या खाओगे? क्या स्वाद मिलेगा? क्या तुम्हारे शरीर को आरोग्य देने वाला यह भोजन है? टालस्टाय ने कुछ नहीं किया, उठकर के अपनी स्त्री के माथे पर थाली रख दी. स्त्री ने कहा यह क्या पागलपन कर रहे हो? पागलपन नहीं इतना सुन्दर हीटर है? अभी सब खाना गर्म हो जायेगा. पूरा वातावरण हंसी में बदल दिया कि सारी गर्मी खाने में आ जायेगी और खाने में स्वाद आ जायेगा. क्रोध से बचने का कितना सरल उपाय निकल आया, परिवार के अन्दर कभी ऐसी अशान्ति का निमित्त आ जाये तो साईड वे निकाल लेना. ___ महाराष्ट्र में एक सन्त तुकाराम हुये. उनके घर में भी घरवाली साक्षात दुर्गा देवी थी परन्तु उसे भी निभा लेते थे. घर में गृह लक्ष्मी है, भले ही उसे दुर्गा देवी कहे, समझदार भी होती हैं. यौवनावस्था में साधु दीक्षा लेकर के गांव में पहुंचे. जब भिक्षा लेने घर पहुंचे तो धर्म लाभ कहकर घर में प्रवेश किया. घर में रहने वाली गृह लक्ष्मी, साधु को देखकर बड़ी प्रसन्न हुयी. आहार देने के बाद बोली-महाराज बहुत जल्दी आ गये.. सास ससुर बैठे आराम कर रहे थे, उठे तक नहीं वे बैठे-बैठे मन में विचार कर रहे है कि-बहू में जरा भी अक्ल नहीं. दिन का एक बज रहा है और कहती है. बहुत जल्दी आ गये. 558 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी / मुनि राज ने जवाब दिया-बहन मैंने अपना समय नहीं देखा. बिना घड़ी देखे ही आ गया. मुझे मालूम है. मुनि राज ने समझ लिया बहू बहुत जानकार है, समझदार है. मुनिराज ने प्रश्न किया-बहू तेरी कितनी उम्र है? "महाराज मेरी उम्र पांच वर्ष की है." बातें सुनकर सास ससुर विचार में पड़ गये कि अठारह वर्ष की हो गई और स्वयं को पांच वर्ष की कहती है. मुनि राज ने फिर प्रश्न किया.-"बहन तुम ताजा खाती हो या बासी?" "महाराज ताजा तो मेरे भाग्य में लिखा ही नहीं, जब से यहां आई हूं. बासी ही खाती हूं." बहू ने उत्तर दिया. सास को और ज्यादा गुस्सा आया कि दिन में तीन समय गर्म खाती है और घर को बदनाम करती है कि बासी खाती हूं मनि राज ने जाते जाते फिर प्रश्न किया "तम्हारे सास ससुर घर के बडे हैं या नहीं?" बहू ने कहा - "महाराज वे तो कभी के मर चुके हैं खत्म हो गये." सास ससुर वहां गुस्से में लाल पीले हो गये. कैसी डाकिन आई? अभी तो मैं जिन्दा हं और जिन्दे को ही मार रही है. जैसे ही मुनिराज गए, ये गर्मी में आये और सास ने धमकाया. "क्या बोलती है? बोलने में विवेक है? लाज शर्म है?" बहू कुछ नहीं बोली. बड़ी गम्भीर रही. कहा-“इन सारे प्रश्नों को जवाब आपको गुरु महाराज देंगे." ___ सास ससुर दौड़ते हुए मुनिराज के पास गये और मुनि राज से पूछा कि आपकी बातों का मैं रहस्य नहीं समझ पाया. क्या बातें थीं? मुनिराज ने कहा-अरे तुम्हारी बहू तो बड़ी समझदार है. गृहलक्ष्मी है. पूरे घर को उजाला देने वाली है. मेरे आते ही उन्होंने प्रश्न किया महाराज जल्दी आये अर्थात बाल्यावस्था में ही साधु बन गये. उसने कहा-इस छोटी उम्र में संसार देखा ही नहीं. इस छोटी उम्र में सीधे ही आ गये. ___ मैंने वही जवाब दिया जो देना था. मौत की घड़ी देखी ही नहीं. कब मौत आ जाये उससे पहले ही निकलना अच्छा है. आप किसी जगह पर कमेटी में हो, मैम्बर हों, ट्रस्टी हों, आपको ये मालूम पड़ जाये कि यहां बेईमानी से निकालेंगे. मेरे ऊपर आरोप लगेगा. आप अगर होशियार हैं तो क्या करेंगे? पहले से ही रिजाइन देकर बाईज्जत निकल जायेंगे. बेईज्जती से तो बा-इज्जत निकलना अच्छा. संसार में जितने भी आये हैं वो बेईज्जती से तो जायेंगे ही. औधा पांव करके आपको दरवाजे से निकालेंगे. जबरदस्ती निकालेंगे इससे अच्छा है हम पहले ही समझदारी का उपयोग कर घर से बाईज्जत त्यागपत्र देकर के आ गये. 559 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी मुनिराज ने कहा-हम तो बाईज्जत निकल गये. मौत की घड़ी देखी ही नहीं, मैंने आग पूछा-बहन तू ताजा खाती है या बासी. क्या सुन्दर जवाब दिया पूर्व की कमाई करके आई ह, बासी खा रही हूं. बासी पुण्य का भोग कर रही हैं. नई कमाई तो कुछ होती नहीं. दान पुन्य तो मेरे हाथ से होता नहीं क्योंकि चाबी तो सास ससुर के पास है. ____ महाराज ने इससे आगे आपने एक प्रश्न किया था कि सास ससुर जिन्दा हैं या मर गये. बह ने सत्य कह दिया कि मन्दिर जाये नहीं, दान पुन्य करें नहीं, खा पीकर जीवन पूरा करें पशु की तरह, आध्यात्मिक भाषा में उन आत्माओं को मरा हुआ माना है. जो आत्मा धर्म क्रिया से शून्य हो, परोपकार से शून्य हो, व्यवहार की सारी प्रवृत्ति से जिनका जीवन शून्य हो, वे जीवित भी मृत समान हैं, पशु तुल्य हैं. मैंने तो जो बात थी कह दी और बहू ने भी बड़ी सच्ची बात बतलाई. यह तो आपको सोंचना है, मन को टटोलकर के देख लें कि मैं जीवित हूं या मरा हुआ हूं यहां तो आहार की लोलुपता के परित्याग का आदेश दिया, पर्युषण जीवन का महामित्र है. आठ दिन जीवन के ऐसे निकले, पहली प्रतिज्ञा आठ दिन में बोलूंगा. इसका प्रयोग करके देखिए. आत्मा को बड़ी शान्ति, बड़ा सन्तोष मिलेगा. आठ दिन तक पाप नहीं करूंगा. भले ही कोई गाली दे जाये, हृदय से उसे धन्यवाद दूंगा. धर्म की कसौटी है आप मौन रखिए. कैसा भी अशुभ निमित्त आ जाये, पाप नहीं करना. महावीर का आदर्श अपने जीवन के अन्दर प्रतिष्ठित करें. आठ दिन मौन रखने का प्रयास करिए. आहार की मर्यादा चाहे कैसी भी परिस्थिति क्यों न आ जाये, आठ दिन रात्रि भोजन नहीं करूंगा, यह आध्यात्मिक सत्ता है. आये दिन झूठ नहीं बोलना, ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा, रात्रि भोजन नहीं करूंगा. एकासन करूंगा. दो टाइम आहार लूंगा परन्तु रात्रि भोजन नहीं. धर्म प्रवचन एकाग्रता से सुनंगा. महावीर के सारे प्रसंग इसमें आयेंगे. उनके पूर्व भव का सारा परिचय सुनने को मिलेगा. धर्म क्रिया द्वारा पाप का पश्चाताप करूंगा. पाप से प्रतिकार की शक्ति पैदा करूंगा. आठ दिन में करके देखिए. ऐसा नहीं कि मुंह में पान दबाया और आकर बैठ गये. मुंह की फैक्टरी चालू रहती है. कम से कम यहां आये तब तक तो हड़ताल रखिए. यह धार्मिक स्थल की मर्यादा है. आठ दिन आपका जीवन प्रेम का मंदिर बन जाये. महावीर का आदर्श आपके जीवन में दिखने लग जाये, तब तो बड़ा सन्तोष होगा. कि मुझे मेरी मजदूरी का पूरा नफा मिल गया. मेरा आठ दिन का श्रम सफल हो गया. आहार की पवित्रता पर चिन्तन चल रहा है. तीसरा सूत्र इसमें बतलाया. "तथा सात्म्यतः कालमोजनमिति" 560 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी निश्चित समय पर भोजन करना औषधी जैसा काम करता है. ऐसा निश्चित समय पर भोजन न करना जैसे आज दस बजे खाये, कल ग्यारह बजे, परसों एक बजे खाये. दुकान में बैठे हैं, ग्राहक हैं, तो चार बजे खा लिया. ऐसे में आरोग्य को नुकसान पहुंचेगा. भोजन कैसे करना यह प्रक्रिया बतलाऊँगा. बहुत सारे आदमियों को भोजन करना आता ही नहीं, भोजन पूरी तरह चबाकर के करना. बत्तीस कवल आहार पुरुषों की मर्यादा बतलाई है. बत्तीस कवल में ही तृप्ति मिलनी चाहिए. आहार के बाद ऊनोदरी होनी चाहिए. वह भी तप का ही एक प्रकार है. बहुत से आदमियों की आदत है कि आहार करने बाद और पानी पी लिया परन्तु आयुर्वेद कहता है. “भोजनान्ते विषम् वारि" वारि का अर्थ होता है जल. भोजन के अन्त में यदि पानी पीएंगे तो वह जहर का काम करेगा. आयुर्वेद मना करता है. उससे गैस ट्रबल होता है, जिससे सारी व्याधि जन्म लेती है. "भोजने मध्यमं अमृतम् भोजन के मध्य में थोड़ा सा पानी पीना चाहिए. अन्तिम में मुख शुद्धि करके एक चूंट पानी पीना चाहिए. वह अमृत की तरह होता है, भोजन को सुपाच्य बनाता है. भोजन के एक दो घन्टा बाद पेट भरके पानी पीना चाहिए. आपकी अन्तर्व्यव्स्था साफ रहेगी. प्रसन्नता रहेगी. आहार बहुत जल्दी सुपाच्य बन जायेगा. ये भोजन के नियम हैं. बहुत से आदमियों की आदत है, भोजन किया और सो गये, आयुर्वेद कहता है: “भोजनान्ते शतपदम् गच्छेत्" भोजन के बाद कम से कम सौ कदम चलना चाहिए. थोड़ा बहुत चले और उसके बाद विश्रान्ति ले. चीजें आपकी हैं और मैं बतला रहा हूं. ऐसी बहुत सी बातें हैं. भोजन करने का तरीका बतलाऊंगा जो बिना पैसे की दवा है. जरा सा प्रयोग करिए और फिर देखिए, आपको कभी दवा नहीं लेनी पड़ेगी. भोजन करने की जो व्यवस्था है. आर्यप्रणाली है. हमारी परम्परा, हमारी संस्कृति है. आप जो भोजन करने डायनिंग टेबल पर बैठते हैं, यह उचित नहीं. यह आपके स्वास्थय के लिए बिल्कुल प्रतिकूल है. हमारे यहां जमीन पर आसन लगाकर मेरूदण्ड सीधा रखकर भोजन करना स्वास्थ्य के लिये अनुकूल माना गया. भोजन करते समय मेरूदण्ड बिल्कुल सीधा हो, बड़ी प्रसन्नता से भोजन करें. कैसे भोजन करें? उसमें रुचि कैसे पैदा हो? इसके लिये कहा है कि परमात्मा के उपकार का स्मरण करके, प्रभुकीर्तन करके, भोजन करे वह धर्म भोजन बनता है. उपकारी आत्मा का स्मरण किया जाता है, देकर के भोजन करे, खिला करके खाये, वह अमत बनता है. इसी आसन में बैठे ताकि वह भोजन को बहुत जल्दी सुपाच्य करता है. डायनिंग टेबल पर बैठकर के खाना, यह पश्चिमी सभ्यता 561 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी में शारीरिक विकार का कारण है. उनकी आहार की पद्धति अलग है आहार का तरीका अलग है. हमारे यहां की पद्धति और परम्परा अलग है. ___आज समय हो चुका. कल इस विषय में बहुत सुन्दर तरीके से समझाऊंगा पर्युषण पर्व ताकि पर्युषण के आठ दिन प्रसन्नता से व्यतीत हों. आठ दिन कम से कम माता एवं बहनों से यह इच्छा रखता हूं कि लोलुपता का त्याग करें. ___ माताओं का संस्कार परिवार पर पड़ता है. आपका निर्माण माताओं के द्वारा होता है. हेम चन्द्रसूरि, विजयहीर सूरि ये सब महापुरुष कहां से पैदा हुए? माताओं के संस्कार से. हम लोगों में ये भाव कहां से आया? माताओं के कारण, मन्दिर नहीं गये तो पूछते तिलक लगा कर नहीं आये? चाय याद आई, भगवान याद नहीं आये. शर्म से मुंह नीचा किये जाता है. आज पूछने वाले हैं. कोई सुबह शाम यदि माताओं-पिताओं को नमस्कार नहीं किया तो घर में पूछने वाले होते क्यों भाई नमस्कार नहीं किया? जंगली हो, इतना कहना हमारे लिए मरण हो जाता. ___ घर में बड़ों को नमस्कार करना, अपना विनय कभी नहीं छोड़ना. यह अपनी कुलीनता अपनी खानदानी है, महाजन कौम की एक विशेषता है कि उनके अन्दर नजर आना चाहिए. ये सारे संस्कार देने वाली माताएं हैं. उनकी प्रेरणा से ये चीजें आती हैं. अगर माताएं उपेक्षा करेंगी तो बालक आगे चलकर क्या बनेंगे? हालात क्या होगी? अगर बालक में संस्कार नहीं दिया तो हालात बिगड जायेंगे. सेठ मफतलाल लखनऊ बारात में जा रहे थे, दिल्ली से जाना था. नवाबों का जमाना. मफतलाल बाल्यकाल से ही खेलने कूदने में रहे. घर के संस्कार मिले नहीं. बड़े हुए तो कमाने में रहे. घर में ऐसी समस्या हई, मफतलाल के बाल बच्चे तो थे. बडे में संस्कार का अभाव तो बच्चों में कहां से संस्कार आये? लखनऊ शादी में जाना जरूरी था. मन में सोचा बारात में जाना तो जरा नवाबी ठाठ से जाना. जरा शान शौकत से जाना. घर में पहनने को कपड़े नहीं. देखा कि कुर्ता तो है पायजामा नहीं है. पायजामा भी नया होना चाहिए. ऐसा नहीं ऊपर से पूर्णिमा और नीचे से अमावस. पायजामा पुराना फटा हुआ और ऊपर एक दम नया कुर्ता. बेचारे बड़ी मुश्किल से बाजार से कपड़ा लेकर दर्जी के पास गये. दर्जी काम में इतने व्यस्त, कहा-मफतलाल और सब हो सकता है मगर यह बात मत करो. हमारे पास इतना समय नहीं कि तुम्हारा पायजामा सीएं. बहुत आर्डर आया हुआ पड़ा है. पड़ोस में एक दर्जी मिल गया. कहा-जो मांगेगा उससे एक रुपया ज्यादा दूंगा. आज रात की गाड़ी से बारात में जाना है, घन्टे भर में पायजामा सीदे. दर्जी के यहां भी इतना काम. माप लिया और लड़कों को सीने के लिए दिया. T 562 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी - लड़का नया नया सीखा था, लड़के ने सी डाला. शाम के समय दुकान से आये मफतलाल ने कहा मेरा पायजामा? कहा-सी दिया है. तैयार था, पकड़ा दिया. बेचारे गए. घर पर नहा धोकर सोचा कि पायजामा पहनूं, पायजामा पांव से भी चार अंगुल लम्बा. मन में विचार करने लग गये, दुकान जाऊं तो दुकान बन्द और सुबह छ: बजे तो लखनऊ जाना है. और पायजामा अगर ऐसे ही पहनूं तो बड़ा बेहूदा दिखता है. उससे बूट भी जाये पांव भी ढक जाये और जमीन में बिना पैसा का झाडूं भी लग जाये इतना लम्बा. घरवाली से कहा-कम से कम तू मेरा पायजामा तो सी दे. घर में संस्कार का अभाव. घरवाली ने कहा सारे दिन मजदूरी करूं. रात को भी आराम नहीं. कैसा घर मिला हैं? चूल्हा झाडू करूं, बच्चों को तैयार करूं, रात को कहता है मेरा पायजामा फाड़ कर के सी. मेरे से नहीं होता. मफतलाल चुप रह गये. बड़ी बच्ची थी, उससे कहा-बेटी चार अंगुल फाडके मेरा पायजामा सी दे. अजी आपको मालूम नहीं? कल से मेरी परीक्षा शुरू हो रही है. मैं अपनी स्टडी करूं या आपका पायजामा सीती फिरूं? दूसरे बच्चे को उठाया उसने कहा मुझे नींद आती है. मुझे नहीं सीना है तीन चार बच्चों ने एक साथ जवाब दे दिया. संस्कार के अभाव में यही परिणाम आयेगा. मफतलाल बेचारे रूम बन्दकर के बैठ गये और सोचा सुबह छ: बजे जाना है. चार अंगुल माप करके अपने हाथ से ही काटा. धीमे-उसे सी कर के लटका दिया. मफतलाल तो सो गये, घरवाली रात के बारह बजे जागी. सोचा पति तो मेरे ही हैं, बेहज्जती तो मेरे घर की ही होगी और इतना ध्यान भी न रखना तो गलत बात है उसने पायजामा लिया, चार अंगुल फांडा, सीया और धर दिया. रात को तीन बजे बच्ची पढ़ने के लिए उठी, सोचा पिता तो मेरे हैं, शादी में जायेंगे, फजीता तो मेरे बाप का होगा. उसने भी चार अंगुल फाड़ा और सीकर रख दिया. तीनों चारों बच्चों ने सब काम कर दिया. पूरी आज्ञा का पालन किया. सुबह बेचारे मफतलाल उठे स्नान करके आये तो वह पायजामा अन्डर वीयर बन गया था. मेरा कहना कि जो आत्मा धर्म संस्कार से शून्य होगी तो यह परिणाम आयेगा. संस्कार तो माताओं की देन है कि बच्चे की दिनचर्या कैसी है? उसके मित्र कैसे हैं? ये सब कुछ ध्यान रखने की उनकी नैतिक जवाबदारी है. कल इस पर विचार करेंगे. आहार के अन्दर तो बहुत रहस्य छिपा है. पर्युषण-पर्व पर भी कल परिचय प्राप्त करेंगे. पर्युषण की आराधना कैसी करनी? वह भी समझायेंगे. "सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" 563 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: पर्युषण की साधना आचार्य भगवन्त श्री हरभद्र सूरि जी महाराज ने धर्म बिन्दु ग्रन्थ के द्वारा आत्म साधना का एक अपूर्व चिन्तन दिया है. साधना की भूमिका किस प्रकार की होनी चाहिए. किस प्रकार साधना सफल हो. उसकी भूमिका का परिचय दिया. हमेशा यदि आहार की शुद्धि रही तो साधना में सिद्धि अवश्य मिलने वाली है. आहार का विचार के साथ बड़ा निकट का सम्बन्ध है. इसी सम्बन्ध को लेकर के सूत्रों के द्वारा आहार का परिचय दिया कि सम्यक आहार होना चाहिए __ आत्मा के अन्दर अनादि अनन्त काल से आहार की एक संज्ञा रही है. जैन दृष्टि कोण से कहा गया कि जब भी कोई आत्मा शरीर छोड़ कर के जाये और उत्पत्ति स्थान पर सर्वप्रथम वह जीव आहार ग्रहण करता है. आहार प्राप्ति के द्वारा, यह अनादि अनन्त काल का संस्कार है. संस्कार को लेकर के साधना के क्षेत्र में भी आहार के माध्यम से स्वाद का पोषण किया जाये तो वह स्वाद साधना में बाधक बनेगा. व्यक्ति आहार के अन्दर स्वाद ग्रहण करने की लालसा रखता है. साधना में स्वाद बाधक है. आहार बाधक नही है. सारी साधना को दूषित करेगा. अन्दर में विकार उत्पन्न करेगा, विकारों के उपशमन के लिए आहार की पवित्रता आवश्यक है. कल भी इस पर विचार किया था, आज फिर इस पर चिन्तन करें. तथा सात्म्यतः काल-भोजनमिति हरिभद्र सूरि जी महाराज का यह अपूर्व चिन्तन शरीर के आरोग्य के लिए है. यह शरीर साधना में सहायक है. उसके रक्षण के लिए उपाय बतलाया कि हमेशा निश्चित समय पर भोजन करने की आदत डालें. आहार के अन्दर विवेक रखना. कम से कम हम दो चार ग्रास कम खाये, ऊनोदरी तप जिसे कहा गया, कोई व्यक्ति उपवास न कर सके, कोई चिन्ता नही, एकासनादि तप न कर सके तो भी कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिए. सूत्र के द्वारा यह चिन्तन दिया कि निश्चित समय पर भोजन करना, इसमे भी दो चार ग्रास कम खाने की प्रवृति रखना ताकि तप का एक संस्कार हमेशा अपनी आत्मा को मिलता रहे. अनादि अनन्त काल से हमारी यात्रा में आहार एक कारण है. आहार की वासना को लेकर जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है. उससे हमेशा सम्बन्ध विच्छेद कर लेना है. आत्मा का स्वभाव अनाहारी है, आहार करना आत्मा का धर्म नहीं, शरीर का स्वभाव है. इन्द्रियों की वासना को लेकर हम आहार करते हैं. उससे सम्बन्ध कैसे विच्छेद किया जाये? 564 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3-गुरुवाणी Bot Kdol तप के द्वारा. भगवन! यदि तप न हो तो? न हो तो ऊनोदरी के द्वारा तप का संस्कार दिया जाये. किस प्रकार का भोजन हो? सात्विक भोजन बनाने की सारी प्रक्रिया अपने यहां गलत हो गई. हमारी परम्परा में श्राविका यदि भोजनादि सामग्री बनाती है, उस के अन्दर अपूर्व भाव होता है, उसमें भाव ही अलग होता उसके अन्दर परमाणुओं का एक नया प्राण आरोपित होता है, वह भोजन यदि किया जाये तो वह भोजन शुद्ध और सात्विक होगा. पूणिया श्रावक सामायिक के अन्दर बैठा था. मन के अन्दर जरा सा संकल्प विकल्प शुरू हो गया. मन में अस्थिरता आई. वह विचार करता है, आज तक मेरी सामायिक के अन्दर मन में कभी संकल्प विकल्प नही हुआ. चित में चंचलता नही आई. आज क्या कारण है कि सामायिक मे मेरा चित अस्थिर है. बहत आत्म निरीक्षण किया. सामायिक पूर्ण होते ही अपनी श्राविका से पूछा. उसने कहा और तो किसी दोष की संभावना नही है वह पूर्ण प्रामाणिक व्यक्ति था. उसने जीवन मे अनीति अन्याय का एक नया पैसा अपने घर में नही लगाया. श्राविका ने कहा-चूल्हा जलाने के लिए आज पड़ोस से बिना पूछे छाने की आग लेकर के आई सारी रसोई उसी की बनाई. पणिया श्रावक का चिन्तन गहराई को स्पर्श कर गया. जरूर आहार के अन्दर टैक्निकल भूल हुई है, नहीं तो सामायिक के अन्दर मेरा चित्त कभी चंचल नहीं बनता. चंचलता का कारण उसे मिल गया. आप विचार करिए, यदि एक जरा सा अशुद्ध परमाणु भी अपने यहां आ जाये, वह भी अपनी साधना को दूषित कर जाये. फिर यदि अन्याय और अनीति से उपार्जन किया हुआ द्रव्य हो, असात्विक आहार हो, तामसी भोजन हो, राजसी भोजन हो, इस प्रकार का बाहर का निमित्त रोज मिलता रहे. फिर व्यक्ति कहे कि साधना तो रोज करता हूं परन्तु सफलता नही मिलती. सफलता न मिलने के पीछे ये मुख्य कारण हैं. आहार शुद्धि हमने प्राप्त नहीं की. आज तक अशुद्ध आहार का ही सेवन किया, होटलो में गये, बाहर गये. जैसा मिला वैसा खा लिया, हमने कभी उसमें विवेक नही रखा फिर हम ध्यान करें, साधना करें, महाराज मन बड़ा चंचल रहता है. रहेगा ही. साधना में स्वाद नही मिलता, कहांसे मिलेगा? पहले जीभ का स्वाद बन्द करें फिर साधना में स्वाद आयेगा. वह होता नहीं अपनी मार पड़ जाये, फिर डाक्टर दे कि इसके अन्दर आहार पथ्य बरोबर रखना. मैं दवा तो दे देता हूं, टैम्प्रेचर नोर्मल होगा. उसके बाद बड़ी तेज भूख लगेगी. उस वक्त ध्यान रखना कि रोगी कहीं गलत न खा ले और पीछे से वह गलत असर करे तो वह रोगी कहां तक बचेगा. 565 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी पथ्य पहले और दवा बाद में, आहार की शुद्धि पहले, उसके बाद साधना है. आहार उसकी भूमिका है जैसा आहार करेंगे उसका परमाणु आप के विचारों के परमाण को प्रभावित करता है, आप जरा सा नशा लेकर के आये हैं तो वह परमाणु कैसा नचाता है आपको. आपकी बुद्धि भ्रष्ट कर देगा. पागल बना देता है. एक जरा सा वह आ के चैतन्य को जब इतना बेकाबू बना दे तो जरा सा जड़ परमाणु चाहे भांग का नशा हो, चरस का नशा हो या शराब का नशा हो, आखिर तो पर द्रव्य परमाणु हैं. उसमें इतनी ताकत कि आपकी बुद्धि को विचलित कर दे, पागल बना दे तो आहार के परमाणु में ताकत नहीं? वह आपकी बुद्धि पर दिमाग पर असर नहीं डालेगा? दवा भी तो एक परमाणु है, परमाणुओं का समूह है. टेबलेटस हो, गोली हो, इंजेक्शन हो, वह परमाणु जब आपको आरोग्य दे सकता है तो विचार का शुद्ध परमाणु आरोग्य क्यों नही दे पायेगा? यह विचारणीय प्रश्न है. साधना करते हैं परन्तु साधना के अन्दर जो शुद्धि होनी चाहिए, वह हो नहीं पाई. जहां तक बाह्य शुद्धि नही होगी, वहां तक अन्तर शुद्धि कभी मिलने वाली नहीं. भगवान का आदेश है, पहले शुद्ध उसके बाद सिद्ध बन जाओगे, जहां तक शुद्ध नहीं बनें, वहां तक सिद्ध बनने की बात छोड़ दीजिए. हमारा सारा प्रयास अन्तर शुद्धि का होना चाहिए, शुद्ध बनने का होना चाहिए. पहले आप पवित्र बनेंगे. पवित्रता के बाद पात्रता स्वयं मिलेगी. पुण्य की योग्यता आयेगी, पात्रता आयेगी. ग्रहण की योग्यता आयेगी, जिस दिन पात्र बन जायेंगे. उस दिन वह प्राप्ति भी सहज में ही आयेगी. जिस दिन आत्मा साधना के माध्यम से प्राप्ति कर लेगी वह प्राप्ति अपूर्व तृप्ति देगी. तथा पूर्ण विराम प्राप्त कराएगी. यह अनन्त भवों की परम्परा, जन्म मरण का विसर्जन हो जायेगा. वहां तक जाने के लिए हमारा वर्तमान में प्रयास नही है, पर्वो के द्वारा यह प्रेरणा हमें प्राप्त करनी है. इसीलिए पर्यों के अन्दर, हरेक साधन के अन्दर व्रत का महत्व रखा ताकि आत्मा को एक नया संस्कार मिले, तप करने का संस्कार मिले, आहार की वासना से मुक्त होने का संस्कार मिले, उन महान आत्माओं को देखिये. कुमार पाल जैसे महाराज अठारह देशों के मालिक, आहार पर कैसा नियन्त्रण था. इतने विशाल साम्राज्य का मालिक, कोई कमी नहीं. अपूर्व पूर्वोदय, परन्तु साधना में सावधान कितना? साधना के क्षेत्र में सावधानी का ही मूल्य है. रास्ते में आप गाड़ी चला दो 100 मील की स्पीड से गाड़ी दौड़ती हो, कैसी सावधानी रखते हैं? ऐसी सावधानी साधना के क्षेत्र में भी चाहिए. दुर्गति का जन्म स्थान है. दुर्विचार के प्रतिकार के लिए साधना आवश्यक है. एक बार यदि अन्दर से सावधानी हो गयी, तो ये संसार स्वर्ग बन जाए, सारा संसार आपके लिए सहायक बन जाये. विचारों का रूपान्तर हो जाये. IPAT नि 566 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी सम्राट कुमार पाल चातुर्मास में नियमित एकासना करने वाले. विचार के दमन के लिए आहार पर नियन्त्रण तो मुख्य उपाय है. यदि आहार पर नियन्त्रण आ गया तो इन्द्रियों पर सहज में नियन्त्रण प्राप्त कर लेंगे. इन्द्रियों का प्रयोग आपके लिए फिर विनाश का कारण नही बनेगा, विकास में सहायक बनेगा. सारी इन्द्रियां भव इन्द्रियां आपकी साधना में सक्रिय बन जायेंगी. चार चार महीने तक एकासन करना उसमें भी पाच-पांच विगई का त्याग. कैसी अपूर्व साधना की आराधना? पांच-2 विगई का मतलब होता है दूध, दही, घी, तेल-तली हुई चीज और मधु. इन छह वस्तओं में से मात्र एक वस्त शरीर के पोषण के लिए ग्रहण करना. दध लिया तो दही नहीं, दही लिया तो दूध नहीं. कैसी अपूर्व उसकी आराधना थी? तब गणधर नागकर्म उपार्जन करके गये. इतना बड़ा सम्राट् परन्तु उसे परमात्मा के दर्शन के लिए अवकाश मिल जाता है. गुरु भक्ति के लिए समय मिल जाता है, धर्म प्रवचन के लिए समय निकाल लेता है. नियमित संभावित समायिक प्रतिक्रमण, जो हमारी क्रियाएं हैं. उनके लिए समय निकाल लेता है. उसी का परिणाम गुजरात के अन्दर आज उसे देव के रूप में लोग मानते हैं. बड़ा दयालु, बड़ा कारुणिक, उसने भी प्रजा के रुदन की कोई ऐसी नीति नहीं दी. हमेशा प्रजा की प्रसन्नता उस व्यक्ति ने प्राप्त की. न उसके राज्य में कभी दुष्काल पडा न उसके राज्य में कोई ऐसी हिंसा हुई. उसके राज्य में, उसकी व्यवस्था में, न किसी प्रकार का दुराचार आया. प्रामाणिक पूर्वक प्रजा की सेवा करके उसने राज्य किया. लोगों के अन्तर हृदय में, दिल में साम्राज्य किया है. वही प्रेम के साम्राज्य का परिणाम. आज तक वहां की प्रजा उसे भूल नहीं पाई. कितना दयालु. चातुर्मास के अन्दर उसका नियम था प्रतिज्ञा थी कि मेरी राजधानी पालण, जो गुजरात की सर्व प्रथम राजधानी है, जहां एक सौ मन्दिर आज भी मौजूद हैं, बहुत बड़ी विशाल नगरियां. चर्तुमास के अन्दर इस नगरी से बाहर नहीं जाता. पालन नगरी का उल्लंघन नहीं करना. इस द्वार से बाहर पांव नहीं रखता, यह उसकी मर्यादा थी. हम दिन प्रतिदिन अपनी मर्यादाओं को भूल रहे हैं, आज हमारी सारी व्यवस्थाएं विकृत हो गईं. भले ही हम त्यागी हों, कोई साधु हों, जीव दया का पालन करने वाले हों, परन्तु यह तो वीतराग प्रभु का कथित सत्य है इसे मिटा नही सकते. जहां चातुर्मास में साधु का विहार करना भी निषिद्ध कर दिया हो, मर्यादा बना दी गई कि चातुर्मास में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में न जाये. जब साधु उघाड़े पांव चलने वाले यत्न पूर्वक चलने वाले, सतत नियम में रहने वाले, उनके लिए भी यह प्रतिबन्ध लगा दिया. चातुर्मास में विहार न करें, अन्यत्र नही जायें, एक ही स्थान पर रहें. 567 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी __ आप गृहस्थ हैं, क्या आप के लिए कोई मर्यादा नहीं? गाड़ी लेकर के पूरी दुनिया में आप धूम आयें, सारी दुनिया का चक्कर लगा कर के आयें. श्रावक जीवन के अन्दर भी बहुत बड़ी मर्यादाए हैं, परन्तु सारी मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा है. साधु सन्तों के दर्शन के लिए बस करके वह चातुर्मास में ही आयेंगे. जहां परमात्मा ने निषिद्ध किया, उसी को स्वीकार किया जायेगा. व्यवहार इतना अशुद्ध बन गया. चातुर्मास में ही समय मिलेगा और कभी नहीं, गाड़ी लेकर आये, ट्रेन में आये, कितनी विराधना होती. वह भी साधु पुरुषों के दर्शन के लिए. इसका मतलब कि सब उनके खाते में लिखा जायेगा. व्यापार के लिए आये, स्वयं के लिए आये, वह बात अलग है जब साधु पुरुषों के दर्शन के लिए आये, उसमें फिर विराधना करें, साहूकारी बतलाएं कि मैं बड़ा धार्मिक हूं, और सर्वप्रथम परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं. अब यह व्यवहार ऐसा बन गया. कैसे इसे बन्द किया जाये. ये विचारणीय प्रश्न है. इसीलिये तीर्थ यात्रा का भी निषेध किया गया. चातुर्मास में अपने मन्दिर को ही तीर्थ मान लिया जाये, वही तीर्थ है. साधु पुरुष वहां पर हों, उन्हें तीर्थ मान कर उनका ही दर्शन करे. धर्म श्रवण करें, अपनी आराधना करें. बातें अहिंसा की करनी कि जीव दया पालूंगा. बात करने वाले तो बहुत मिलेंगे.लेकिन उनके जीवन में कुछ नहीं मिलेगा. उनको सारा आडम्बर यहीं नजर आयेगा, अपने घर में आडम्बर उनको नज़र नहीं आता. विवाह के अन्दर बड़े बड़े होटलों में पार्टी देते हुए उन्हें पाप नजर नहीं आता. हमारे स्थान में, धर्म स्थान में यदि शुद्ध भाव से भक्ति के रूप में यदि किसी का स्वागत करें, वह उनको पाप नज़र आता है, आडम्बर नज़र आता है. पीलिया हो जाता है तो सारी दुनिया की जाति पीली नजर आती है. ज्ञान का अजीर्ण अगर हो जाये, तब जाकर उनको सारी दुनिया ऐसी नज़र आती है कि मैं जो कुछ हूं, वही सत्य है. संसार में कितना ही भयंकर पाप चलता हो, उसके प्रतिकार के लिए कोई उपाय नहीं. यदि साधना में एक आध धर्म स्थान बन जाये, मन्दिर स्थान या उपाश्रय सो कहेंगे क्या जरूरत है? पैसा गांठ से निकालना पड़ता है, वह नजर में खटकता है. यदि फाईव स्टार होटल बन जाये, सिनेमा बन जाये, तो कहेंगे हमारा शहर कितना विकास कर गया. विनाश उनकी नजर से विकास नज़र आता है. वे यह नहीं सोचते. यह मेरे लिए गैस चैम्बर है. सिनेमा नहीं गैस चैम्बर है जहाँ चरित्र की हत्या होगी. नैतिक दृष्टि से जीवन का अध: पतन करेगा. होटलों में जाकर हमारी भावी सन्तान कमजोर बनेगी. अन्दर के भाव से शून्य बन जायेंगे. वह चीज़ नज़र नहीं आयेगी. बात बोलने वाले लोग बहुत मिल जायेंगे कोई प्रतिकार करने वाला न मिले. मैंने देखा जब कोई धार्मिक वस्तु हो, धार्मिक परम्परा हो, झट अपना अभिप्रायः देने का साहस नहीं करेंगे. हमारा धार्मिक अनुशासन जो हमारी व्यवस्था की प्रणाली थी, आपस में उसका 568 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी मस नाश किया. बहुत बड़ा नुकसान होगा. भावी काल में और यह अनुशासन भंग करने का परिणाम. बहुत बड़ी मर्यादा थी. कल प्रथम दिन के प्रवचन में अनुशासन और मर्यादा का परिचय आपको मिलेगा. बिजयहीर सरि महाराज के समय कैसा सुन्दर अनुशासन था. करोडों की संख्या थी. सम्राट अकबर के समय साढे तीन करोड जैन थे. गए कहा? आपकी मर्यादा भंग करने का परिणाम अनुशासन को तोड़ने का परिणाम बिखर गए. अपने विचार लेकर के और दुकानदारी चला दी. सत्य सामने नज़र आता है. सत्य का सूर्योदय सामने है परन्तु हम आंख बन्द करके अंधे बने हुए हैं. विचारों का आग्रह, विचारों का अन्धकार इतना खतरनाक होता है. सत्य को कोई स्वीकारने के लिए भी तैयार नहीं. सम्राट कुमार पाल के समय जो अनुशासन और व्यवस्था थी, अहिंसा का कितना सुन्दर व्यवस्थित पालन था, एक सामान्य औरत माथे में से जूं निकाल रही थी, उसे अगूठे से दबा कर के मार दिया. कुमार पाल के राज्य में आदेश था कि किसी भी प्रकार के जीव की हत्या नहीं होनी चाहिए. किसी ने शिकायत की. बुलाया. पूछा-कोई साक्षी? यह स्वीकार करना पड़ा. औरत ने कहा मुझसे यह अपराध हो गया. मुझसे यह भूल हो गई. मैं क्षमा चाहती हूं. ऐसे मुफ्त में क्षमा नहीं दी जाती. राज्य के आदेश का उल्लंघन है. सजा तो मिलेगी ही. कैसी सजा? आज भी पाटन के अन्दर के इतिहास कायम है. सुखी संपन्न परिवार की औरत थी. इतना रुपया तुम्हें इसके लिए दण्ड देना होगा. वह जैसे दण्ड का पैसा आया, उससे मन्दिर बनाया गया. यूका विहार. एक जूं जो मारी गई उसके दण्ड स्वरूप यूका विहार भी वह मन्दिर पालन में मौजूद है. एक जूं को मारा उसका परिणाम. यह सजा मिली. बड़ी ताकत थी, परन्तु मर्यादा भी ऐसी थी. इतना महान सम्राट और जब धर्म क्रिया के लिए अवकाश मिलता था हमारे पास जब आराधना का प्रसंग आ जाये तो न जाने कितने काम निकल आते हैं. सारा समय दुकान मकान में ही पूरा करें, आराधना कब करें यह तो सब ऊपर वाले पर है. वह दुकान भी साथ देने वाली नहीं. परिवार भी साथ जाना वाला नहीं. पैसे धन दौलत जो आपने उपार्जन किया सब छोड़कर के जाने का है. लेकर जाने के लिए आपने क्या किया? डाक्टर जब हास्पिटल में आपको डिसचार्ज कर दे. यदि परिवार वालों से कह दे कि होपलेस कन्डीशन है, घर ले जाओ. कोई दवा काम नहीं देगी. आकाश की तरफ अंगुली ऊंची करके यदि बतलाये, परमात्मा का नाम लो. आपकी सवारी जब घर पर आ जाये और परिवार के लोग जब दया दृष्टि से आपको 569 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: देखें, साधु को तब आमन्त्रण मिलता है. महाराज, पधारो, जरा मंगल पाठ दो. वहां तक सेठ साहब को फुर्सत नहीं. अन्तिम समय जब खासों खास गिना जा रहा हो, डाक्टर ने मना कर दिया हो, होस्पिटल खाली करो. तब जाकर मुझे आमन्त्रण मिलता है. कि साधु को मंगल पाठ सुनाएं जीवन में जो करना था किया नहीं, जीवन के अन्तिम समय जब जाने की तैयारी आई, आग लगने के समय कहें कुंआ खोदो. तब भी साधु तो जाते हैं, दया दृष्टि से जाते हैं, न जाने कब कोई आत्मा धर्म प्राप्त करे. अन्दर से पश्चाताप कर ले, उस आत्मा के प्रति साधु पुरुष तो जायेंगे ही. जाना उनका कर्तव्य है. परन्तु स्वयं के अन्दर सावधान रहता है, इतना बड़ा सम्राट् कुमार पाल चार-चार महीना का नियम. मुझे पालन नगरी से बाहर पांव नहीं रखना है. मौका मिल गया. सुलतान राजा का राज्य चलता था, दिल्ली में उसे यह समाचार जासूसों के द्वारा दिया गया कि यह गुजराज पर आक्रमण करने का यह मौका बड़ा अच्छा है. __ कुमार पाल कट्टर श्रावक हैं. जरा भी विचलित होने वाला नहीं. सारा राज्य चला जाये तो भी उसको कोई परवाह नहीं. धर्म में, धार्मिक क्रियाओं के अन्दर, आप जितना दृढ़ बनेंगे, अपने विचारों में उतनी ही शक्तियों का विकास होगा. आप के देवता धर्म की शक्तियों के विकास का एक साधन है. हमारे अन्दर दृढ़ता का अभाव, विचारों में दृढ़ता नहीं है. कहां से धर्म हमारे लिए आशीर्वाद बनेगा? किया तो ठीक है. मौका मिला, भाव आ गया तो कर लिया. उसमें तो उत्साह होना चाहिए. पर्व के आगमन पर कैसा उत्साह होना चाहिए? पर्युषण जैसा महान पर्व, पर्वो का सम्राट, इसके आगमन पर हमारी प्रसन्नता कैसी. मालूम हो जाये आप का चेहरा देखकर के किसी परममित्र का आगमन हो रहा है, महान खुशी का कोई प्रसंग आ रहा है. ऐसे प्रसंगों पर आप जितना अपने विचारों पर दृढ रहेंगे, याद रखिए, साधना मजबूत और गहराई में जायेगी. साधना का मापदन्ड लम्बाई, गोलाई से नहीं होता उसकी गहराई से होता है. कितना लम्बा चौड़ा आपने तप किया, उससे मुझे कुछ मतलब नहीं, आपने कितना लम्बा चौड़ा कार्य किया? उसका कोई मूल्य नहीं, उसमें, कार्य में, साधना में, आपकी गहराई कितनी है? तो जितना गहरा होगा, उतना ही मजबूत होगा. आपने गुरुद्वारों को देखा? ये बलिदान के प्रतीक हैं. गुरु गोबिन्द सिंह जी के जवान पुत्रों ने धर्म के लिए प्राण दे दिये. दाढी मूंछ भी नहीं निकली थी. अभी तो सूर्योदय हुआ और उदय के तुरन्त बाद अस्त हो गया. कैसा प्रलोभन दिया गया, इतने बड़े राज्य का प्रलोभन, दहेज में देने का, शहजादी के साथ शादी कर दूं कश्मीर का राज तुमको दे दूं. परन्तु उन दोनों जवान पुत्रों ने क्या कहा? उनका स्वाभिमान और गर्जना कैसी? बोलने वाले व्यक्ति के मुंह पर थूक दिया कि खबरदार तुमने जो बोला है. जिन्दे दीवार में चुन दिये गये तो भी उनके चेहरे के अन्दर जरा भी चिन्ता नहीं. मालूम पड़ गया कि ap 570 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir -गुरुवाणी निश्चित मुझे मरना है, उस समय कैसी प्रसन्नता, अपनी मौत का भी महोत्सव मनाया, धर्म के नाम पर दोनों पुत्रों ने अपना जीवन दे दिया. इतनी दृढता. जब गुरु गोबिन्द सिंह को मालूम पड़ा, तब उन्होंने आदेश दिया इस उपलक्ष में पूरे पंजाब में दिवाली मनाओ. सिंह के दोनों पुत्र मर गये. धर्म के नाम से अपने जीवन जो बलिदान कर दिया. बाप कैसा? शेर की सन्तान शेर होनी चाहिए. दिवाली मनाओ. मिठाई बांटो कि मेरे पुत्रों ने मेरे कुल को उज्ज्वल किया, प्राण दे दिये, इतिहास बन गया. अपने अन्दर है यह मान? दो आने में पचास बार झूठ बोलें. कहां ये मान आये. संसार की प्राप्ति में इतनी प्रसन्नता हो तो साधना के लिए वह भाव कहां से आयेगा. यह आपका दोष नहीं. यह हमारे संस्कारों का दोष है. कुमार पाल अपनी प्रतिज्ञा से बद्ध. सूर्य पुत्रों का कुलीन वंश था. मुगल शत्रुओं को मालूम पड़ गया कि बड़ा सुनहरा मौका है, आक्रमण करना चाहिए. चातुर्मास के अन्दर बडी सेना लेकर गजरात पर आक्रमण की तैयारी कर दी. मुगलसेना मौका देखकर गुजरात में घुस गयी. कुमार पाल सम्राट् को मालूम पड़ा. गुरु भगवान के पास गया. जिन्होंने प्रतिज्ञा दी थी कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि जी महाराज. इस आत्मा के उपकार को हम कभी तीन काल में भूल नहीं सकते. कैसा अपूर्व साधना बल था उनके पास. कैसी अपूर्व दैवी शक्ति थी उनके पास. शासक जब तक जिन्दा है, जहां तक महावीर का धर्म शासन है. उनके उपकार को हम कभी नहीं भूल सकते. सर्वोपरि उनका उपकार है. इस आत्मा के गुणों का आप अनुमोदन करें, जिसने साहित्य का समुद्र जैन जगत को दिया. साढ़े तीन करोड़ श्लोक बनाकर धर्म ग्रन्थ आपके सामने रखे. इतिहास दिया. महान पुरूषों का जीवन चरित्र बना करके दिया. जैन रामायण की रचना की. पाण्डव चरित्र बना करके दिया. न्याय में, दर्शन में, योग में, कोई ऐसा विषय नहीं, स्वतन्त्र व्याकरण बनाकर दिया जो दनिया में आज सबसे प्रसिद्ध व्याकरण है. व्याकरण के बाद जो पाणिनि व्याकरण से भी सरल है. राजा कुमारपाल गया गुरुचरणों में जाकर निवेदन किया-भगवान मेरी इज्जत अब आपके हाथ में है. चातुर्मास में बाहर पांव न रखने की प्रतिज्ञा ली हुयी है. दुश्मनों को मौका मिल गया. आकर गुजरात में प्रवेश कर गये. यदि इन्हीं का शासन चला तो प्रजा क्या कहेगी? तुम्हारा धर्म कायर है. धर्म की बदनामी, प्रभु शासन की बदनामी. मेरा राज्य जाये, उसकी चिन्ता नहीं. मेरा था ही नहीं तो मेरा क्या जायेगा. मन से यही सोच रहा था, यह तो सब अस्थायी है. स्थायी कुछ भी नहीं है. कभी भी ट्रान्सफर हो सकता है. भगवन यह इज्जत आपके हाथ में है. ___“कुमार पाल! बिल्कुल निश्चिंत रहो. कभी प्रभु शासन की बदनामी नहीं होगी. यह धर्म कभी कलंकित नहीं बनेगा. यह सब मैं संभाल लूंगा.” क्या अपूर्व साधना थी? उस IDE 571 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: आत्मा की. साधु उसे माना गया जो साधना करे. जगत की आत्माओं को धर्म क्रिया में सहयोगी बने, स्वयं सहनशील हो अपनी साधना का परमानन्द लेने वाला हो, तब तो वह साधु. वह साध कितने अलिप्त रहते थे. गृहस्थ के परिचय से कितने दूर रहते थे. सुबह से शाम तक यदि गृहस्थी का परिचय चलता रहे. सारे दिन ऐसी समा रहे तो साधु बेचारे लूटे जायेंगे. कोई समय उनके पास नहीं. सारा समय तो गृहस्थ लुट चुके, सुबह से शाम तक अपकी सेवा में ही रहें. आप गये और पूछे तब तो आप प्रसन्न रहें, आप आएं और मैं आपसे कहूं-आओ भाई बैठो. कैसे चल रहा है? धन्धा ठीक चल रहा है? परिवार में शान्ति है? तो महाराज बहुत अच्छे. ____ बिना पैसे का सर्टिफिकेट, महाराज बहुत अच्छे. गृहस्थ की खुशामदी करें, आने वाले का स्वागत करें, आपकी कुशलता पूछे, वो महाराज बहुत अच्छे. मौन रहे और कदाचित आप आ जायें और यदि ध्यान न दिया जाये. कैसा लगता है? मुंह बिगड़ेगा, अभिप्रायः बिगड़ेगा, महाराज को घमण्ड आ गया है.. ___कई बार परीक्षा कर लेते हैं, बहुत चक्कर मारे तो एक बार देख लेते हैं, कितने में है? कांच है तो जरा भी गर्मी बर्दास्त नहीं करेगा? ज़रा भी गर्मी लगी तो तडक जायेगा. अगर असली हीरा है तो चाहे कितनी भी गर्मी दो वह हीरा हीरा रहेगा. बहुत चक्कर मारे मेरे पीछे तो मैं तो कह देता हूं-भई, साधु हूं. कुछ नहीं है. मुखपति चाहिए तो दे दूं. और कुछ नहीं है. क्यों बेकार चक्कर खा रहे हो. जूते घिस रहे हो. कभी आंख फिरा के देख भी लूं कि कच्चा है या पक्का, चौदह कैरिट है या चौबिस करट तुरन्त मालूम पड़ जाता है. परन्तु हमें क्या? आप आये तो ठीक न आये तो ठीक साधु का द्वार खुला है, हृदय में कोई पाप नहीं. आए तो हमारे श्रावक या प्राणी सुखी रहें. यही भावना दृष्टि से कोई पाप नहीं, कोई भेद नहीं, क्यों? डरना तो पाप से है, ऐसा कोई अन्तर पाप साधु रखते नहीं, मेरे लिए सभी समान. __ हेम चन्द्र सूरि जी महाराज प्रतिदिन अपनी साधना में ज्ञान ध्यान स्वाध्याय में कोई जाति का प्रपंच नहीं, परिचय नहीं, साधुता का परिचय अल्प होता है. मेरे परिचय से यदि आपका परिवर्तन हो जाये, यह संगत यदि रंग लाये, तब तो आप को खूब धन्यवाद दूं कि मेरे परिचय से आपको आनंद हुआ, प्रसन्नता हुई, धर्म की प्राप्ति हुई, परन्तु आपके परिचय से ही यदि साधुओं का ही पतन हो जाये तो वो परिचय तो पतन बनता है. मेरा परिचय आपका परिवर्तन लाने वाला चाहिए. ऐसा नहीं कि आपका परिचय मेरा ही परिवर्तन ले आये. परिचय विवेक पूर्वक होना चाहिए. साधुओं के पास आये, जरूर आये, भावना से आये, उनकी साधना में सहायक बने, बाधक बने नहीं. अपने को इतना ही विवेक रखना है. वह अपने कार्य में है, स्वाध्याय में है, आत्म 572 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: चिन्तन में है, दर्शन करे, उनका परिचय करे, जरूर आये. परन्तु वह परिचय ऐसा नहीं होना चाहिए उनके पतन का कारण बन जाये या उनकी साधना में बाधक बन जाये. __सेन्ट की दुकान पर आप जरूर बैठें, बिना गांठ का पैसा दिये खुशबू मुफ्त में मिलती है. सेन्ट की दुकान पर कभी गये? इत्र खरीदने. यहां साधु सन्तों का परिचय, साधुओं का सन्त समागत भी, यही चीज है. बिना पैसे इनके संयम का सुगन्ध अपने का मिलता है. उनके परिचय से अपने विचारो में, हृदय में, परिवर्तन आता है. अपने भावों में जागृति आती है. कोई पैसा नहीं देना पड़ता. इस साधना में जरा भी कष्ट नहीं करना पड़ता. कलिकाल सर्वज्ञ साधना थी. उस साधना बल के द्वारा किस प्रसंग पर उसका उपयोग करना, डाक्टर जानता है कि जहर का प्रयोग कब करना है? कैसी स्थिति में करना है? साधुओं के पास विद्यायें होती हैं, आशीर्वाद पूर्वक कई तरह की चीजें उनको मिलती हैं. उसका उपयोग कब और कैसे करना, यह विवेक उनके पास होता है. यही जानकारी यदि न रहे तो वह सारी साधना नीचे ले जाने वाली बनती है, वहां कैसे इसका उपयोग करना. इसका विवेक होना चाहिए. मफत लाल सेठ एक बहुत बड़ी फैक्टरी में नौकरी करते थे. अचानक वह फैक्टरी किसी कारण बन्द हो गई. बहुत बड़े इंजीनियर आये. बड़ी चिन्ता हुई. एक समस्या बन गई. चार पांच दिन में लाखों का घाटा हो गया. विचार किया कि विदेश से कोई इंजीनियर बुलाया जाये और मिल को वापिस चालू किया जाये. इंजीनियर को बुलाना, निश्चित हो गया. __ मफतलाल बड़ा होशियार था, बड़ा चालाक था, उसने मील मालिक से कहा-सेठ साहब! यदि आप मुझे दस हजार देते हो तो दो मिनट में मिल चला दूं. उसने कहा-कैसे? व्यक्ति है, व्यक्ति को अपनी बुद्धि का उपयोग कैसे करना है, वह विवेक तो आना चाहिए. दिल्ली के अन्दर मफतलाल ने एक बहुत बड़ी दुकान की और चार भागीदार आ गये. भागीदारों ने मिल करके निश्चय किया. बहुत अच्छा अनाज का कारोबार था परन्तु चूहे रोज आकर के उनको बहुत नुकसान पहुचाते. मफतलाल ने कहा-यार इन चूहों ने तो तंग कर रखा है. माल बिगाड़ दिया. खराब कर देते हैं क्या किया जाये? उनको दूर करने का क्या उपाय है? मफतलाल ने कहा-यार इनका एक उपाय है. एक बिल्ली पाली जाये, जब से चहे कभी नहीं आयेंगे. अपने तो भागीदार हैं. चारों के साझे में बिल्ली लेनी है और बारी बारी हरेक परिवार बिल्ली का पोषण करें, महीने में चार सप्ताह हैं, भागीदार इनको सभाल लें दूध बगैरा की व्यवस्था कर दें. चारों नक्की हो गये. अपने अपने पांव चारों ने बाट लिया. लिखित हो गया. बिल्ली ले ली. 573 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी संयोग किसी कारण से मफतलाल सेठ के हिस्से में जो बिल्ली का पांव आया, उसे कुछ चोट लग गई. बरसात का मौसम था, पक गया. तीन ने कहा-ये तुम्हारे हिस्से का पांव है, इसका तुम ईलाज करवाओ. मफतलाल डाक्टर के पास गये. ईलाज बगैरा किया. बिल्ली की आदत दूध पीने के समय रसोई में आकर बैठ जाती. दूध पीकर बिल्ली ने छलांग लगाई. पैरों का सन्तुलन बिगड़ गया. पट्टी वाले पांव में वहां आग पकड़ ली. आग लगने से बिल्ली सीधी गोदामों में गई. पूरे गोदाम में आग लग गई. लाखों का नुकसान हो गया और माल जलकर भस्म हो गया. तीनों भागीदारों ने मिलकर कोर्ट में केस कर दिया मफतलाल के हिस्से में जो पांव आया था उसका इसने ध्यान नहीं रखा. उसमें जो पट्टी थी उसने आग पकड़ ली और हमारा सारा गोदाम जल गया. इतना नुकसान हुआ मुआवजा दिया जाये. कैसे जला. ___मफतलाल बड़ा होशियार था. वकील की तो जरूरत नहीं पड़ी. जज ने जब उससे पूछा-तुमको कोई सफाई देनी है? तुम जानते हो? यह सारा नुकसान तुम्हारे कारण हुआ? अगर तुमने पांव का ध्यान रखा होता, हिफाजत की होती, आज यह घटना नहीं होती. इनका माल नहीं जलता. कितना बड़ा नुकसान हुआ. मफतलाल ने जज से कहा-साब, हमने भी जिन्दगी भर बहुत से वकीलों के साथ दिन निकल जाने की डिग्री तो नहीं ली, परन्तु कानून की सलाह जरूर देता हूं. जज साब! माफ करना मुझे अपनी सफाई के लिए आपसे यही कहना है कि अगर ये तीनों भागीदार सावधान होते तो ये दुर्घटना नहीं होती. मेरे पांव ने क्या कसूर किया है ? वो पांव तो चल ही नहीं सकता था, चोट लगी थी, पट्टी बंधी थी, ये तीनों पांव गुनहगार हैं, ये उनको वहां क्यों ले गये? यह तो चल ही सकता था, इन्होंने ही उसे वहां तक पहुंचाया है. हिस्सेदारों को ध्यान देना था. हमारे पांव ने तो कोई गनाह नहीं किया है. वह तो बिना तीनों के सहयोग से वहां तक नहीं पहुंच सकता था. जज को सारा विचार बदलना पड़ा. मफतलाल कम नहीं थे, अकल का खजाना था. संयोग कई बार ऐसा भी हो जाता है, कब किस चीज़ का उपयोग करना. मील के अन्दर जब से समस्या पैदा हुई, मफतलाल ने आकर मालिक से कहा-हजूर दो मिन्ट में पूरा मिल चालू कर दूं, मुझे दस हजार रुपया दो. सेठ ने कहा बड़े-बड़े इंजीनियर यहां आकर चले गये, कोई रिजल्ट नहीं, आया तुम कहां से इंजीनियर बन गये? साहब, दिल्ली का पानी पिया है. पूरी बुद्धि बड़ी धारदार है. कभी आपने देखी नहीं. दिखा दूं? 574 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी चलाओ. एक हथौडा लेकर के गया. जहां मील का इंजन था. वहां जोर से एक हथौडा मारा मील शुरू हो गई. मफतलाल ने कहा मेरे दस हजार रुपये? क्या बात करते हो, एक हथौड़ा मारकर और दस हजार? हथौड़ा कहां मारना? सेठ साहब, उसका पैसा ले रहा हूं. हथौड़ा तो तैयार है, आप मारो न. पूरे मिल के अन्दर जहां मारो कौन मना करता है परन्तु कहां मारना उसका पैसे ले रहा हूं. आपके वायलर के अन्दर लोहे की सिल्ली आकर फस गई थी. वह मेरे ध्यान में आ गयी बड़े जोर से हथौड़ा मारा. ज्ञानी पुरुषों के पास शक्ति होती है. साधना का अपूर्व बल होता है, इसी तरह कहा इसका उपयोग करना, उस उपयोग का मूल्य हैं. पायजन का उपयोग कैसे करना कि दवा बन जाये. वह कलिकाल सर्वज्ञ को मालूम था. कुमार पाल राजा को कह दिया. निश्चिन्त होकर कर चले जाओ. आराम से सो जाओ. यह तुम्हारी चिन्ता नहीं. मेरी चिन्ता है. क्षमा करने वाले के घर पर अगर ऐसी समस्या आ जाये तो साधु उस आत्मा की रक्षा के लिए, शासन की रक्षा के लिए, उस शक्ति का सब तरह से उपयोग करेंगे. रात्रि का समय था. अपनी साधना में थे. साधना से आकर्षित करके देवों का बुलवाया. पुण्य बल इतना जबरदस्त देवता सेवक बनकर के सामने आये. आदेश दिया इस राज्य में वर्तमान में जो स्थिति है, यहां जो दुश्मन आये हैं, गुजरात पर आक्रमण करने के लिए जो पाटन पहुंच गये है, चारों तरफ से नगरी को घेर लिया, तुम उस सेना के सेनापति को लेकर कुमारपाल के महल में सुला दो. देवों ने उसे उठाया और कुमारपाल के महल में ले जाकर के सुला दिया. पलंग सहित ही कुमार पाल के महल में ट्रान्सफर हो गया. उसे मालूम नहीं वह सोया था. सुबह-सुबह ही महाराज राजमहल में गये और पूछा कुमार पाल कहा हैं? महाराज ऊपर हैं, गये. कुमार पाल को कहा कि कुमारपाल तेरी चिन्ता दूर करके आया हूं. भगवान क्या? कैसे? अपने राजमहल में जाकर के देखो, सेनापति ऊपर सो रहा है. भगवन्, यह कैसे हो गया? मैंने उसपर आक्रमण नहीं किया, उसे पकड़ने का कोई प्रयत्न हमने नहीं किया, यह कैसे हो गया? जाओ. जैसे ही वे वहां गये जाकर कुमार पाल ने देखा पलंग पर वह बड़ी आराम की नींद 575 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी Asav सो रहा है. कुमार पाल ने तलवार निकाली और उसकी चादर को तलवार से हटाया. आवाज दी. सेनापति आवाज सुनकर जागा. पहली बार आखें खोली. सोचता है यह स्वप्न है या सत्य है? मैं कहा हूं? मेरी सेना कहां? मेरा कैम्प कहां? मैं कहा आ गया?. कुमार पाल ने कहा-घबराने की जरूरत नहीं. यह मेरा राजमहल है. पाटन है. तुम मेरी गिरफ्तारी में हो. मेरे अधिकार में हो. बताओ तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करूं? तलवार पास है. सेनापति ने कहा-मैं कुरान की कसम खाता हूं कि मैं कभी गुजरात की तरफ झांककर नहीं देगा. आज के बाद कभी इधर नहीं आऊंगा. जो भूल कर दी, उसके लिए क्षमा चाहता हूं. मुझे नही मालूम था, आपकी साधना में वह शक्ति है. ___ जहां तक कुमार पाल जीवित रहे, किसी भी राज्य ने किसी भी दिन यह साहस नहीं किया कि मैं आक्रमण करूं और कुमारपाल के राज्य का कब्जा करने की सोचूं, यह धर्म साधना का पुण्य बल. निष्काम भावना से जहां साधना की जाती हो, तो मुक्ति सहज में प्राप्त हो जाती है. वहां कोई दूषित मनोवृति नहीं थी. कलिकाल सर्वज्ञ की पुण्य छाया है, उस छाया के अन्दर कुमार पाल राज्य का संचालन कर रहा था. ___ कैसी व्यवस्था थी? जब पर्युषण का मंगल पर्व आता, आठ दिन तक पोषण. इतने बड़े राज्य का मालिक, एक देश नहीं अठारह देश का मालिक, महाराष्ट्र से लगाकर पूरा मध्य प्रदेश. इधर पूरा गुजरात सौराष्ट्र उसके अधिकार में, सम्पूर्ण राजस्थान उसके अधिकार में, इतने दिन साम्राज्य का मालिक. आठ दिन का समय निकालता 3 धर्म श्रवण करता. दो समय प्रतिक्रमण विधि पूर्वक दुग्ध व्रत की आराधना करता. देखता हूं कि बल ही पर्व का आगमन होता है. अपने यहां तो अठारह दुकान भी किसी के शायद नहीं है. हमारी आराधना कैसी होती है? वह मुझे देखना है मुझे आराधना से मतलब है. यह पुण्य की पूंजी है अन्दर अगर पुण्य की पूंजी है तो बाहर पाकेट स्वयं भर जायेगा. यदि पुण्य का ही अभाव है तो बाहर सींग मारते रहिए. जिन्दगी भर कुछ मिलेगा नहीं, मांगते रहिए किसी के हाथ में कुछ देना है ही नहीं. आप गाते रहिए, चिल्लाते रहिए, छम छमिया बजाते रहिए. कुछ भी नहीं मिलेगा. मिलेगा कहां से अन्दर होना चाहिए. पुण्य उपार्जन करने का यही रास्ता है. पर्व की आराधना निष्काम भावना से परोपकार करना. ऐसे सुन्दर प्रसंग पर जीव दया का पालन करना. अपने पास दो पैसा मिला है. कुदरत ने दिया है. परोपकार के कार्य में, जीव दया में, दीन दुखी की अनुकम्पा में, कोई दुखी आता है आंसू पोछने में, उस पैसे का उपयोग करें. पैसा पाप से जन्म लेता और यदि पुण्य में डाला जाये तो वह बीज वृक्ष बन कर अनन्त गुना फल देता है. Veure 576 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी पुण्य का सदुपयोग करें, दुरुपयोग कभी न करें. पुण्य भोग के अन्दर नहीं, योग में | जाना चाहिए. अगर यह समझकर के करेंगे तो वह पर्व आपके लिए आशीर्वाद बन जायेगा. आठ दिन तक रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग. यह तो धर्म सूत्र के द्वारा ही प्रसंग चलं रहा है, आहार का परित्याग कैसे किया जाये? परित्याग की भूमिका है स्वाद पर विजय प्राप्त किया जाये. निश्चित समय पर आहार किया जाये. आहार के अन्दर से लोलुपता का त्याग हो, वासना का त्याग कर दिया जाये, आहार करने का लक्ष्य बदल दिया जाये. मोक्ष की साधना के लिए, शरीर के रक्षण के लिए, आहार किया जाये. स्वाद या विष पोषण के लिए नहीं. सात्विक परिमित आहार करे, आहार में भी ऊनोदरी करे. विगई का त्याग करें, रस का त्याग करें, द्रव्य संक्षिप्त करें. ऐसा किया हुआ आहार ही उपवास बन जाये, ऐसा आहार करने वाला व्यक्ति भी उपवासी बन जाये. श्रावण का महीना नदी में भयंकर बाढ़ आई हुई थी. दुर्वासा ऋषि महान तपस्वी थे और अपनी झोपड़ी में एकान्त बैठकर तप कर रहे थे. मथुरा का प्रसंग. वहां उनकी एक श्राविका भक्ति से रोज दुर्वासा ऋषि के दर्शन को जाती और उनके लिए आहार लेकर जाती. नित्य का नियम. वही आहार वह ग्रहण करती. निर्जीव आत्मा थी. अपने ध्यान में मस्त रही, एक वक्त आहार करती. यमुना में ऐसी बाढ़ आते समय नदी के किनारे जाकर उदासीन होकर खड़ी रही, आज मेरे गुरुदेव तपस्वी ऋषि दुर्वासा भूखे रहेंगे. मैं यह नदी पार नहीं कर सकती. न ही यहां कोई ऐसा साधन. कोई नाव जाने को तैयार नहीं. कौन जोखिम ले. मन में चिन्तित थी. क्या किया जाये? श्री कृष्ण का उधर से निकलना हुआ. जब कृष्ण ने उसके चेहरे पर उदासीनता देखी, कहा-पगली यहां आकर के क्यों खडी है? चेहरे पर उदासीनता कैसी? भगवान, क्या बतलाऊं? मेरे गुरुदेव सामने हैं. घोर तपस्वी हैं और प्रतिदिन मैं उनके लिए आहार लेकर जाती हूं. आज नदी में बाढ़ आ गई, उनको आज समय पर आहार नहीं मिलेगा, कितना कष्ट होगा? उस चिन्तन से मेरे चेहरे पर उदासीनता आई. कोई कारण नहीं. कोई साधन नहीं कि मैं नदी पार करके जा सकू महान योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने क्या कहा-जैन परम्परा में कृष्णजी के सोलह हजार रानियां थीं एक नहीं, दो नहीं, सोलह हजार, वासुदेव थे. वासुदेव का पुण्य इतना उग्र होता है. श्री कृष्ण ने क्या कहा-तू नदी के पास जा और नदी से प्रार्थना कर अगर श्री कृष्ण ब्रह्मचारी हों तो नदी जाने का मार्ग दे दे. सोलह हजार रानी और कृष्ण का कहना कि अगर श्री कृष्ण बह्मचारी हो, तो नदी मार्ग दे दे? कैसी अटपटी बात लगती है. वह गई और कृष्ण के कहे अनुसार यमुना नदी से प्रार्थना की कि श्री कृष्ण अगर त 577 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी ब्रह्मचारी हों, वह भी बाल ब्रह्मचारी हों, तो यह नदी मुझे जाने का मार्ग दे कि मैं अपने गुरुदेव को जाकर भोजन दे सकूँ, उनकी भक्ति कर सकूँ. नदी ने मार्ग दे दिया. आश्चर्य यह कि कोई मंत्र नहीं, कोई यंत्र नहीं. शब्द का चमत्कार श्री कृष्ण का शब्द ही मंत्र था. वह चाहे बाहर से अपने भोगवाले कर्म का उपभोग करे अन्तरात्मा में तो पूर्ण अलिप्त थे. कोई अनुराग नहीं, कोई भोग की अनुचित क्रिया नहीं, निर्विकारी आत्मा. कृष्ण के जीवन का यह आदर्श नदी ने मार्ग ने दिया. उनको भोग कर्म में आसक्ति नहीं थी, विरक्त आत्मा थी. भोगवाले कर्म को भोगने के लिए ही मेरा अवतार है परन्तु भोगों में डूबे हुए नहीं, उनके भोग में भी योग का प्रवेश. योग का चमत्कार की शब्द, मन्त्रदान गया. नदी ने मार्ग दे दिया. गुरुदेव के पास जाकर आहार रख दिया. दुर्वासा ऋषि बड़े प्रसन्न हुए. कहा-इस भयंकर बाढ़ के अन्दर तुम कैसे चल करके आ गई? श्री कृष्ण ने आशीर्वाद दिया और कहा कि यदि श्री कृष्ण ब्रह्मचारी हों तो यह नदी मैं आ तो गई अब जाने के लिये विचार करती हूं कि जाऊं कैसे? यहां तो कृष्ण हैं नहीं. दुर्वासा ऋषि ने पेट भर के आहार किया, कहा-बेटी जाओ जाकर नदी से प्रार्थना करो यदि दुर्वासा ऋषि कायव्रती हों तो नदी मार्ग दे दे. गई. जाकर वही शब्द दोहराया. प्रार्थना की यदि मेरे गुरुदेव दुर्वासा ऋषि सदा उपवास करते हो. तो नदी मार्ग दे दे. नदी ने मार्ग दे दिया कैसा चमत्कार क्योंकि आहार की आसक्ति नहीं, खाना खाना था खा लिया. शरीर के रक्षण के लिए लेना पड़ता था, ले लिया. कोई आहार में वासना नहीं. किसी प्रकार की आसक्ति नहीं. जब हमारे जीवन की यह स्थिति आ जायेगी. भोग में योग का प्रवेश हो जायेगा. अनासक्त भावना आ जायेगी, तब साधना एक क्षण के अन्दर सिद्ध हो जायेगी. उसके लिए पसीना उतारने की जरूरत नहीं पड़ेगी, यह निर्देश दिया तथा लौल्यत्याग इति आहार की लोलुपता का त्याग कर देना है, पर्युषण के आठ दिन कम से कम एकासना. बालक है, बुद्ध है, बीमार है, कोई कारण है, दो वक्त खाइये पर कम से कम रात का तो उपवास करें. दिन का नहीं हुआ कोई चिन्ता नहीं, रात का तो उपवास रखे. पर्व का दिन है ऐसी अभक्ष्यवस्तु का सेवन तो न करे, गृहस्थ अवस्था में रहकर के संन्यासी बन जाये, संसार में रह करके सन्यास ले ले. कैसा? आठ दिन झूठ नही बोलूंगा. व्यापार में कितना भी नुकसान हो आप देखिये नुकसान हो. आप देखिये नुकसान फिर नफा का कारण बनेगा. तीव्र पुण्य का उदय आयेगा. यह कसौटी है. 578 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी लोग कई बार कहा करते हैं महाराज, धर्म के घर धार पड़ी. मैंने कहा और कहां पड़ेगी करोड़ पति ही लूटा जायेगा, जिस के पास है वही लुटेगा. जहां जैसा है वही चोर आयेंगे, वहीं बदमाश आयेंगे. जिनके पास कुछ नहीं वे क्या आपको देंगे. वहां चोर जायेंगे क्यों? जाने का कोई मतलब नहीं. जहां धर्म है, धर्म की पूंजी. वहीं पर कर्म आएगा. धार वही पडेगी. इन्फोरमेशन जब मिल जाता है तो मालम है कहां रेड पडती है? किसी करोड़पति के यहां किसी के नौकर के यहां तो नहीं पड़ती. जो धार्मिक होगा, वहीं कर्म कसौटी करने आयेगा. परीक्षा सीता की हुई. किसी वेश्या की नहीं हई. कर्म ने परीक्षा नहीं ली. धार तो पड़नी ही चाहिए, वह अपनी कसौटी है. लोग कहते हैं महाराज धर्म के घर धार नहीं पड़ना चाहिए. अच्छी जगह है तभी उसकी कसौटी होती है. उसमें कभी नही घबराना चाहिए. ऐसी परिस्थिति जब आ जाये, उसमें अपने में स्थिरता रहनी चाहिए, दृढ़ता रहे. थोड़े-थोड़े व्रत नियम के अन्दर भी यदि आप प्रवेश करेगें तो पर्व की आराधना प्रकाश देने वाली बन जायेगी. कम से कम अपने जीवन की एक ऐसी सुन्दर व्यवस्था निर्माण करले कि मन में किसी प्रकार की चिन्ता या समस्या का कारण न रहे. ___आठ दिन संन्यास ले लिया जाये कि मैं झूठ नहीं बोलूंगा, परन्तु प्रतिज्ञा व्यवस्थित होनी चाहिए. ___ मफतलाल ने पर्युषण में प्रतिज्ञा ली. आठ दिन तक झूठ नहीं बोलूंगा. महाराज भी बड़े खुश हो गये. आशीर्वाद दिया. पर्युषण का तीसरा दिन था और घर में कोई आदमी आया. आवाज दी सेठ साहब हैं? आवाज से पहचान लिया कि पैसे मांगने आया है. बड़ा खतरनाक आदमी है. नहीं दिया तो और झंझट पैदा करेगा, अपनी श्राविका को बुलाया और कहा-जाकर कह दे सेठ घर पर नहीं हैं. __श्राविका ने कहा-चुल्लू भर पानी में डूब मरो. पर्युषण के दिन तुमने प्रतिज्ञा की कि आठ दिन झूठ नहीं बोलूंगा और अभी तो तीन दिन निकले हैं. अभी से तुम्हारी आदत बन जायेगी. ___ मफतलाल ने कहा तेरे से ज्यादा अकल खुदा ने मुझे दिया है क्या सोचती है? मैंने अपनी प्रतिज्ञा कहां तोड़ी हैं. मैं अपनी प्रतिज्ञा का पूरी तरह से पालन करता हूं. मैं कहां झूठ बोल रहा हूं? इसीलिए तो तेरे को बुला रहा हूं. प्रतिज्ञा कायम और काम का काम भी हो जाये. इसीलिए मैं नहीं बोल रहा परन्तु यह प्रतिज्ञा तो नहीं कि दूसरे से भी नहीं बुलाता वह तो छूट है ही. ऐसी प्रतिज्ञा आप मत लेना. आठ दिन झूठ नहीं बोलना, सत्य की उपासना करनी है, आठ दिनों विराधना से जीवन का रक्षण करना है, आठ दिन रात्रि भोजन त्याग कर देना है, आठ दिन मुझे क्रोध नहीं करना. कैसा भी निमित्त आ जाये, प्रसंग आ जाये, कर्म अपनी कसौटी के लिए आ जाये, प्रतिज्ञा में दृढ़ रहना है. कठोर परिस्थिति आ जाये फिर भी मैं रास्ता निकाल - 579 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी लूंगा. ऐसी मैत्री, प्रेम समता की साधना में और ज्यादा सुगन्ध आ जाये. एक दिन महाराष्ट्र के एक संत तुकाराम अपने खेत में से गन्ने का गठठर ला रहे थे. बहुत सारे खेत से होकर आये, घर पर लेकर आये थोड़े पैसे मिल जाएगा, मजदूरी करते करते. रास्ते में बच्चों को गन्ने बांटते हुए चले आये. घर पर पहुंचे तो मात्र एक गन्ना ही बाकी रहा. सारे मोहल्ले में चर्चा का विषय, क्या भोला सन्त है? खेत में इतने सारे गन्ने लेकर आया इसका हृदय कैसा? परमात्मा निवास करता है, गन्ना बांटते हए चले आये. घरवाली ने बात सुन ली. वह प्रशंसा सहन नहीं हुई. जैसे ही सन्त घर पर आये सामने घरवाली आई, दुर्गा देवी के उग्ररूप में. सन्त एक नाथ तो बड़े प्रसन्न और हाथ में एक ही गन्ना बचा, गन्ने तो बाट दिये, घरवाली ने कहाकैसे दिवालिये होकर घर पर आये. शर्म नहीं आती. गली मोहल्ले वाले क्या तुम्हारा पेट भरेंगे? ये चूल्हा चक्की क्या गांव वालों पर चलेंगे, इतने सारे गन्ने लेकर आये, बांट दिये जैसे उनके बाप का खेत हो. फिर तुमने शादी क्यों की है? शादी करने का मतलब ही क्या था? तुम्हारे परिवार का पेट कौन भरेगा? सन्त तुकाराम कुछ नहीं बोले. इतना कहा कि भरने वाला भरेगा, तू क्यों चिन्ता करती है. परमेश्वर देगा, जिसने जीवन दिया है, वही सब देगा. जिसने दिया है, तन को. वही देगा कफन को. चिन्ता क्यों करते हो, मरने के बाद भी वही चिन्ता करेगा. घरवाली को बड़ा गुस्सा आया. एक तो सब लटाकर आये. ऊपर से मुझे उपदेश देते हो. बड़ा कठोर गस्सा आया. सन्त ने गन्ना उनके हाथ में दे दिया. कि देख सारे गांव वालों को दिया, बच्चों को दिया, अब तू ले ले, तुम्हारे लिए भी लाया. एक गन्ना तो मेरे पास रहा. ____ घरवाली को ऐसा गुस्सा आ रहा था. आवेश में घर के अन्दर कुछ देखा नहीं गन्ना लिया और उन पर जोर से मारा. गन्ने के दो टुकड़े हो गये. परन्तु सन्त तो सन्त थे. हंसते रहे. कहा-भगवन तुझे धन्यवाद. घरवाली मिले तो ऐसी मिले, मुझे तोड़ने का भी कष्ट नहीं दिया. दो भाग हो गये. एक तू खा, एक मैं खाऊ. ऐसी जगह पर आप हों तो कोर्ट में जायें और उसी दिन तलाक दें. सन्त का यह स्वभाव. बालक जैसा हृदय इस तरह से जीवन निर्मल करें. कैसी भी परिस्थिति आ जाये. संसार में कितने भी उतेजना के निमित्त मिल जायें. अपनी स्थिरता तो रहनी चाहिए. उतेजना में भी स्थिरता का प्रयास रहना चाहिए. ऐसा नहीं कि हम उतेजित हो जायें. कितना मधुर परिणाम आया. घरवाली का गुस्सा उतर गया. चरणों में गिर गई, क्षमा याचना की. यह प्रेम का माध्यम था. उस आत्मा को भी पवित्रता का ऐसा सन्देश दिया. क्षमा की भावना से हमेशा के लिए क्रोध मर गया. हमारे जीवन का व्यवहार भी आठ दिन ऐसा बनाये चाहे कैसा भी अशुभ निमित्त मिल जाये. घर में मिले, दुकान में मिले, परिवार में 580 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: संसार में मिले, परन्तु प्रतिक्रिया कभी गलत नहीं होनी चाहिए. उतेजना कभी नहीं आनी चाहिए. आठ दिन क्रोध नहीं करूंगा. बिना पैसे की दवा है, आरोग्य भी मिल जायेगा. भन की शान्ति भी मिल जायेगी. साधना को भी बल मिल जायेगा. मानसिक दृढ़ता भी मिल जायेगी. साइकोलोजिकल ट्रीटमैन्ट है.. यह उपचार है. क्रोध करने से उसका परिणाम कभी अच्छा नहीं आएगा. आंशिक रूप से आपके मन को प्रसन्नता मिलेगी कि मैं उसको कैसा धमकाया? कैसा उसको डांटा? परन्तु उसका कुछ अर्थ नहीं. उसका कोई मतलब नहीं क्योंकि उसके बाद का परिणाम बड़ा गलत होगा. उसकी अन्तर आत्मा को आपने चोट पहुंचाई है किसी को अप्रसन्न करके आप कभी प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकते. किसी को चोट पहुंचा कर आप अपनी आत्मा का आरोग्य कभी प्राप्त नहीं कर सकते. प्रकृति का नियम है, उसकी आत्मा में जो आज दर्द आज हुआ, वह वह आपकी आत्मा में कल दर्द पैदा करेगा. अपनी भावना इस प्रकार की होनी चाहिए... ___ गंगा नदी पार करके जब राम कृष्ण जा रहे थे, जब गंगा के बीच में उनकी नाव आई. कुछ साथी बैठे थे. सामने कोई व्यक्ति किसी को पीट रहा था. रामकृष्ण की दृष्टि उस पर गई. दृष्टि जाते ही नाव में जोर से चिल्लाये-मुझे मत मारो, मुझे मत मारो. मुझे बड़ी चोट लग रही है. साथियों ने सोचा अचानक क्या हो गया? यहां इनको कोई मार नहीं रहा, पीट नहीं रहा, कोई दुव्यवहार नहीं, यह क्या है? सामने नज़र गई तब लोगों ने देखा. अहा, उसको मारकर के लोग भाग रहे हैं रामकृष्ण यहां मूर्छित हो गये. पानी से शीतोपचार करके उनको जगाया. बैठाया. लोगों ने कहा स्वामी जी, अचानक क्या हुआ? जैसे ही नाव किनारे लगी और जो व्यक्ति गंगा के किनारे लेटा था, बेहोश होकर पड़ा था, उसकी पीठ पर जो निशान था वही निशान रामकृष्ण की पीठ पर नजर आया. मार का उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि दूसरे को नहीं, ये मुझे मार रहा है. जो उनकी अनुभूति थी वो ही अनुभूति उनकी पीठ पर नजर आयी. अनुभव किया, इसे कहा जाता है तादात्म्य भाव. महावीर की साधना इसी प्रकार की थी, ऐसी परिष्कृत साधना करुणा और मैत्री की. दूसरे का दुख दर्द वह अनुभव करते थे. महावीर की करुणा बरसती थी, दुखी को देख करके उनके नेत्र से आंसू निकलते थे. यह स्थिति जब अपनी आ जाये, दुखी व्यक्ति को देखकर अपना हृदय जब द्रवित हो जाये, अपने नेत्र से उनके दर्द के आंसू आ जाये, तब आप को बार बार धन्यवाद देना कि मेरा जीवन सफल बना. ऐसी करुणा हमारे अन्दर आनी चाहिए. शब्दों में नहीं आचरण में आना चाहिए. शब्दों से तो बड़ा लम्बा चौड़ा उपदेश दिया जाता है. क्षमापना दिवस आयेगा, तब देख लेना, बड़ा सुन्दर नाटक होगा. सभी सप्रदाय के आयेंगे. बडे जोर-जोर से गर्जना करेंगे, मैत्री की पुकार करेंगे, महावीर का सन्देश न्देश 581 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी to आप तक पहुंचायेंगे. मैत्री भावना का आदर्श रखेंगे और अन्दर उसे आप भी जानते हो मैं भी जानता हूं. हमारी आज क्या स्थिति है? बोलने को कहेंगे महावीर की सन्तान हैं, एक बाप बेटे हैं, क्षमापना का प्रसंग आयेगा. बडे जोर से हाथ जोडकर मिच्छामि दक्कडम "कहेंगे फिर वही निन्दा, संघर्ष, कोर्ट कचहरी चालू, वहीं दीवार खड़ी कर देने का, दरवाजा बन्द कर देने का. कहां है अपनत्व की भावना? ये नाटक कितने ही वर्षों से चला आ रहा है. इस वर्ष मुझे भी आमन्त्रण मिला. मैंने कहा बरोबर मैं भी एक्टिंग करूगा. नाटक रचना मैं भी सीख लूगा. ____ मैं प्रेक्टिकल को मानता थ्योरेटिकल नहीं. और बहुत साफ मैं तो कह दूंगा-यह तो नाटक है. परन्तु ठीक है यदि किसी आत्मा को अपने शब्द से चोट लग जाये, जग जाये, अपना प्रयास करना जानते है कि रोगी मरने वाला है फिर भी अन्तिम श्वासोच्छवास तक उपचार तो करते हैं. हमारा भी यह प्रयास हो कि हमारी स्थिति बड़ी नाजुक है फिर भी हमारा उपचार तो चालू होना चाहिए कि किसी तरह से धर्म शासन को हमारे द्वारा कोई सहयोग मिल जाये. अन्तर में जो मैत्री सुषुप्त है, वह जग जाये. आत्मा का आरोग्य और स्वास्थ्य मिल जाये. यही हमारा प्रयास होगा. इस महान पर्व की आराधना को नाटक न बनाये. माया का पर्दा नहीं होना चाहिए. जो है स्पष्ट होना चाहिए. उसी में सत्य का दर्शन होगा. सत्य की अनुभूति होगी. आठ दिन इस प्रकार का आप निकालें रात्रि भोजन नहीं करूंगा. असत्य का आश्रय न लूंगा. चाहे कैसा भी आ जाये, झूठ बोलकर के काम नहीं लूंगा. ____ कुछ वर्ष पहले मेरा बम्बई चातुर्मास था, अचानक सुबह के समय में बालकेश्वर से आ रहा था, रास्ते मे गुलालवाड़ी में एक परिचित व्यक्ति मिला. बहुत बड़ा बाजार है वहा का. उधर से आ रहा था, एक आदमी दूर से नज़र आया. बहुत वर्षों का मेरा परिचित था और बड़ा अच्छा आदमी था. जैसे ही मैं उधर से आया तो बड़ा प्रसन्न था. चेहरे में न जाने कहां से आनन्द आया. मैंने उसको पास में आने का इशारा किया. काफी दिनों नहीं मिला था. चेहरे में बड़ी प्रसन्नता थी. मैंने कहा सुबह का समय और यह इतना हंस रहा है, बात क्या है? मैंने कहा-प्रसन्नता कहीं से उधार लाया या घर का है? परिचित था बेधड़क मैने पूछ लिया. उसने कहा-महाराज! आज तो सुबह का समय बड़ा फल देने वाला बना. मैंने कहा-क्या फल दे गया. (घडी दिखाई) मैंने कहा-घड़ी तो हरेक के हाथ में होती है. अरे यह घड़ी है दस हजार रूपये की. मैंने कहा-उससे मेरे को क्या? हि हना 582 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी: 87 अरे महाराज, रास्ते चलते एक आदमी आया डिलीवरी केस था. आज रविवार का दिन. उसने कहा सेठ साहब, मेरी घरवाली को आज डिलिवरी के लिए होस्पीटल भरती किया है. घर में इतना पैसा मैं लाया नहीं और आफिस भी बन्द, बैंक भी बन्द, मजबूरी है, आप किसी भी तरह आज मुझे हजार रुपये दे दो. मै कल यह घड़ी आपके यहां से ले जाऊंगा और हजार का बारह सौ दे दूंगा. मैने मना कर दिया. बेचना है तो बेच दो उधार ब्याज पर देता नहीं. उस आदमी ने कहा पचीस सौ रुपये में आप ले लीजिए. दस हजार में लाया हूं. यह इसका बिल है. महाराज आज तो कम से कम पन्द्रह हजार की कीमत होगी. यह तो विदेश से लाया है. बिल विदेश का है. भारत में तो इसकी कीमत कम से कम पन्द्रह हजार है सिर्फ पचीस सौ में दे गया. सुबह सुबह यह लाभ भी मिला. बड़ी सुन्दर घड़ी है. मैंने कहा इसको ऐसा आनंद आया है. पन्द्रह हजार की घड़ी असत्य से 2500 में लेकर आनन्द ऐसा कि वाह? मैंने सोचा कि अगर उपेदश दिया तो उपदेश भी बह जायेगा. यह अभी उपदेश लायक स्थिति में नहीं है यह दिमागी पागलपन है. मैं मौन रहा. मैंने -कहा ठीक है मैं चलता बना. पन्द्रह बीस दिन बाद फिर से मझे एक बार आना पड़ा. वह व्यक्ति वहीं व्यापार करता था. दलाली करता था. मैटल की, मन्दिर के नीचे ही मिल गया. चेहरा एकदम वीतराग भाव उदास. प्रसन्नता नहीं. उधार ली हुई थी फिर पास में बलाया. आया. मैंने कहा--कैसा चल रहा है? ठीक है. मैंने कहा-घड़ी कहां है? महाराज बात छोड़ दीजिए. मैंने कहा छोड़ क्यों दूं? वही तो मुझे जानना है. प्रसन्नता का आयुष्य कितना? महाराज क्या बतलाऊं? बडा बेवकफ बना बिल नकली था. घडी भी नकली दो दिन तो घडी सही चली. तीसरे दिन घड़ी ने कार्य शुरू किया चली ही नहीं, वाच मेकर के पास ले गया और दिखलाया कि घड़ी इस तरह की है. उसने कहा सेठ साहब! कहां मूर्ख बनके आये? ये तो हांगकांग की नकली घड़ी इसी तरह की है. यों मैं भी नहीं लूंगा. डालो कचरा पेटी में, राख के साथ डाल रहे हो. क्यों मरम्मत करवा रहे हो? कोई मूल्य नही. अच्छा बेवकूफ बना. पचास साठ मित्रों में मर्ख बना. जो मिलता है, मजाक करता है. ___ मैंने कहा-देखा असत्य से उपार्जन किया हुआ आनन्द. उसका आयुष्य कितना? अगर सत्य का देता तो जिन्दगी में कभी रोने का प्रसंग नहीं आता. सत्य का आनन्द स्थायी होता है और असत्य से उपर्जान किया हुआ आनन्द हमेशा अस्थायी होगा. "सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्। प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयति शासनम्" // nod 583 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - anali ROS VANVIN 584 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्मबिन्दु रचयिता: आचार्य हरिभद्र सूरीश्वरजी - विषयानुक्रम अध्याय विषय पृष्ठ 586 590 599 610 - Nल +0000 धर्मबिन्दु रचयिता गृहस्थ सामान्य धर्म गृहस्थ देशना विधि गृहस्थ विशेष देशना विधि यति सामान्य देशना विधि यतिधर्म देशना विधि यतिधर्म विशेष देशना विधि धर्मफल देशना विधि धर्मफल विशेष देशना विधि 624 633 647 659 667 585 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्मबिन्दु रचयिता आचार्य हरिभद्र सूरि : एक परिचय आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जैन धर्म के पूर्वकालीन एवं उत्तरकालीन इतिहास के सीमा स्तम्भ के रूप में सत्य के उपासक, 14 विद्याओं के पारंगत महान जैन दार्शनिक, 1444 ग्रंथों के रचयिता तथा वृत्तिकार के रूप में सदियों से जाने जाते रहे हैं और युगों-युगों तक उनका नाम स्मरण किया जाता रहेगा. उनका जन्म चित्रकूट निवासी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनकी माता का नाम गंगण और पिता का नाम शंकर भट्ट था. भट्ट हरिभद्र प्रखर विद्वान थे, जिसके कारण चित्तौड के राजा जितारि के यहाँ राजपुरोहित पद पर नियुक्त किये गए थे. उन्हें अपने ज्ञान का बहुत गर्व था. उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि मुझे वाद-विवाद में जो भी परास्त कर देगा, उसका शिष्य बन जाऊँगा. एक बार वे एक उपाश्रय के रास्ते से डोली में बैठकर जा रहे थे कि अचानक उनके कानों में यह गाथा पड़ी: चक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की.. एक साध्वीजी संग्रहणी की यह गाथा बार-बार दुहरा रही थी. हरिभद्र ने ध्यान पूर्वक इसका अर्थ जानने का प्रयास किया. लेकिन असफल रहने पर साध्वीजी के पास जाकर कहा कि इस स्थान पर चकचकाहट किस बात की हो रही है? बिना अर्थ के गाथा का पुनरावर्त्तन क्यों हो रहा है? हरिभद्र की वाणी में वक्रता अधिक थी किन्तु साध्वीजी ने, जो धीर, गंभीर, क्रियाशील, एवं व्यवहार निपुण थी, कोमल शब्दों में कहा कि 'नूतन लिप्तं चिकचिकायते' अर्थात् नूतन लेप किया आंगन चकचकाट कर रहा है. इस सारगर्भित उत्तर को सुनकर हरिभद्र प्रभावित हुए. उन्हें ऐसे जवाब की आशा नहीं थी. उनके मन में आया कि न तो इस गाथा का अर्थ समझ में आया और न ही प्रत्युत्तर का मर्म समझ सका. उन्होंने साग्रह विनती की कि कृपया इसका अर्थ समझाइये. अपनी पूर्व कृत प्रतिज्ञा की बात भी उन्होंने साध्वी याकिनि को बताई कि वह उनसे दीक्षा ले लेंगे. 'प्रभावक चरित्र' में भी उल्लेख है कि साध्वीजी उसका अर्थ जानती थी लेकिन अपनी मर्यादा का पालन और ज्यादा लाभ उनको प्राप्त हो सके इसलिये उन्हें अपने गुरु आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी के पास अर्थ समझने के लिए भेजा. जैनाचार्य के पास जाकर विवेकशील वाणी से उन्होंने उस गाथा का अर्थ पूछा. अब उनका गर्व खंडित हो चुका था. आचार्य जिनभद्रसूरि ने गाथा का अर्थ बताया तब हरिभद्र भट्ट का जैन धर्म के तत्वों को जानने की उत्सुकता जागी. तब जैनाचार्य ने कहा कि पूर्वोत्तर संदर्भ सहित जैन सिद्धान्त समझने के लिए मुनि जीवन को स्वीकार 586 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: धर्मबिन्दु रचयिता करना आवश्यक है. हरिभद्र के ज्ञान की छोर पर जैन दर्शन के तत्त्वज्ञान की तरंगें लहराने लगी. हरिभद्र ने जैनाचार्य से पूछा भगवन! धर्म का फल क्या है? वैदिक धर्म के एवं जैन धर्म फल में क्या अन्तर है? आचार्य श्री ने कहा कि सकाम वृति वाले मनुष्य को धर्म के फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति होती है और निष्काम वृति वाले को 'भव विरह याने संसार से मुक्ति अर्थात मोक्ष मिलता है. जैन धर्म इसी संसार से मुक्ति का मार्ग मोक्ष का मार्ग दिखलाता है. हरिभद्र को यह उत्तर तर्कपूर्ण एवं सत्य प्रतीत हुआ और अपनी प्रतिज्ञानुसार उन्होंने जैन वाङ्गमय एवं उसके फल स्वरूप को अंगीकार करने के लिए श्रमणत्व स्वीकार किया. वे जैन मनि बन गए. उन्होंने साध्वी याकिनि महत्तरा को अपनी धर्म माता के रूप में स्वीकार कर अपने परिचय के रूप में ज्यादातर कृतियों के अन्त में 'महत्तरा याकिनि धर्म सूनु' शब्द का उल्लेखकर अपनी धर्म माता के उपकार को अमर बना दिया. वे वेदादि 14 विद्याओं के पारंगत तो थे. वत्ति जागृत हो उठी. उनके हृदय में जैन धर्म के प्रति अनुराग बढ़ने के साथ ही जैन तत्व ज्ञान व अनेकांत दृष्टि की उत्कृष्टता बस गई. श्रमण जीवन के पवित्र आचारों का पालन करते हुए वे आचार्य पद के योग्य हुए तब उन्हें आचार्य जिनभद्रसूरि ने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया. आचार्य बन कर हरिभद्रसूरिजी ने जैन शासन की अभूतपूर्व सेवा की. उन्होंने सर्व दर्शनों के सिद्धान्त रहस्यों को अपने हृदय में आत्मसात् कर ज्ञान की निर्मल धारा प्रवाहित की, जिससे आज तक अनगिनत जिज्ञासु भव्य जन अपनी ज्ञान तृषा शान्त कर रहे हैं. कहा जाता है कि हरिभद्रसूरि के ग्रंथों के परिचय के बिना जिनागमों का हार्द नहीं समझा जा सकता. अनेकान्तवाद की समन्वयपूत दृष्टि से उन्होंने जैन श्रुतज्ञान का निधान प्रत्यक्ष कर लिया था. __ आचार्य हरिभद्रसूरिजी के संसारी भांजे हंस और परमहंस नामक दो शिष्य भी थे. दोनों ही व्याकरण, साहित्य एवं दर्शन के विद्वान बन गए थे. उस समय बौद्ध दर्शन की प्रबलता थी. राज्याश्रय के कारण बौद्ध दर्शन का प्रसार एवं प्रभाव जैन समुदाय में बड़ी शीघ्रता से हो रहा था. बौद्ध दर्शन के अभ्यास के बिना बौद्धों का खंडन करना सम्भव नहीं था. अतः हंस और परमहंस ने आचार्य हरिभद्रसूरि से आज्ञा मागी कि वे दोनों बौद्ध विद्यापीठ में जाकर अध्ययन कर सकें. निमित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य हरिभद्रसूरि ने भवितव्य को जानकर अनुमति नहीं दी, लेकिन वे दोनों नहीं माने और भवितव्यतावश बौद्ध भिक्षु का वेश धारणकर बौद्धदर्शन का अभ्यास करने निकल पड़े. विद्वान होने के कारण उन्होंने बौद्ध धर्म के मर्म पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और थोड़े समय में ही रहस्य ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लिया. वे समयानुकूल जैनदर्शन शैली से बौद्ध दर्शन का खण्डन लिख भी लेते थे. एक दिन उनमें से एक पत्र किसी बौद्ध भिक्षु के हाथ लग गया R 587 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी धर्मबिन्दु रचयिता और बात खुल गई कि यहाँ कोई जैन रह रहा है. बौद्ध आचार्य ने बड़ी कुशलता से भेद पा लिया और हंस व परमहंस पहचान लिए गए. अतः वे दोनो वहाँ से प्रस्थान कर गए मार्ग में यातनावश हंस का प्राणांत हो गया, किसी प्रकार परमहंस ने समीपवर्ती नगर में जाकर सूरपाल नामक राजा की शरण ली. बाद में बहुत कष्टों को सहन करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरिजी के चरणों में उपस्थित हुए और अपने अविनय के लिए क्षमा माँगकर समाधि पर्वक काल धर्म को प्राप्त हए. आचार्य हरिभद्र सरि जी को इस बात का बडा दुःख हुआ. उन्होंने बौद्धों को शास्त्रार्थ में परास्त करने की प्रतिज्ञा की. सूरपाल राजा के यहाँ बौद्ध आचार्य हरिभद्रसूरि के मध्य शास्त्रार्थ हुआ. इसके पूर्व दोनों की सम्मति से यह तय हुआ था कि जो पराजित होगा उसके पक्ष के व्यक्ति अतिशय गर्म तेल में जल कर मर जायेंगे. सरपाल राजा की सभा में कई दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा. अन्त में अपने अदभुत तर्क सामर्थ्य और असाधारण ज्ञान बल से आचार्य हरिभद्रसूरिजी विजयी हुए. इधर इसी समय हरिभद्रूसरि के गुरुवर जिनभद्रसूरि को इस घटना का पता लगा और तुरंत उन्होंने कोपाविष्ट अपने शिष्य के प्रतिबोध हेतु तीन गाथाएँ लिख भिजवाई इनमें गुणसेन और अग्निशर्मा के भवों की घटनाएं संकलित थी जिनका तात्पय था कि "वैर का अनुबंध भव-भवान्तर तक चलता रहता है अतएव क्रोध उचित है?" आचार्य हरिभद्रसूरि का क्रोध इन गाथाओं को पढ़ने से शान्त हो गया और अपने क्रोध (कषाय) के प्रायश्चित्त स्वरूप अपनी शिष्य संतति के स्थान पर उन्होंने ज्ञान संतति के विकास की ओर ध्यान केन्द्रित किया, अपने कषाय की उपशान्ति होते ही प्रायश्चित के रुप में उन्होंने 1444 ग्रंथ निर्माण करने की प्रतिज्ञा ली थी, तदनुसार ज्यादातर ग्रंथों की रचना कर डाली किन्तु अपने मनुष्य जीवन का मयादित समय जानकर शेष ग्रथों के सृजन में वे दिन-रात व्यस्त रहने लगे. ग्रन्थनिर्माण का कार्य निरन्तर जारी रहा. परन्तु श्रुतसागर को ग्रन्थस्थ करना कितना कठिन होता है, वह जानते थे. एक दिन जब आचार्य श्री चिन्तामग्न मुद्रा में कुछ सोच रहे थे तब वंदन करने आए उनके एक श्रावक लल्लिग ने परम विनय से विनती की कि हे गुरु भगवन्त आप चिन्तित क्यों हैं? आग्रहवश आचार्य श्री ने बताया कि मेरा आयुष्य जलबिन्दुवत है और मैं इतने विशाल श्रुत ज्ञान को ग्रन्थस्थ कैसे कर पाऊँगा? यह सोचकर मुझे चिन्ता हो रही है क्योंकि सूर्य प्रकाश में ही यह प्रवृत्ति होती है, जो बिल्कुल मर्यादित है. आचार्य भगवन्त की निःस्वार्थ वेदना का रहस्य पाते ही लल्लिग ने कहाः भगवन्त आप इस चिन्ता को छोड़ दीजिये, मैं सब सम्भाल लूँगा, आप अपनी श्रुतआलेखन प्रवृत्ति में मग्न हो जाईये. उसने अपने पूर्वजों द्वारा संग्रहित अनेक जात्यरत्नों को आचार्य के श्रुत कक्ष में खचित कर दिया. ताकि रात दिन एक जैसे ही रत्नों के स्वाभाविक प्रकाश में ज्ञानाराधन प्रवृत्ति निराबाध चलती रहे. 588 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी: धर्मबिन्दु रचयिता श्रावक की श्रुत भक्ति गुण की प्रगाढ़ता के इस प्रसंग से पता लगता है कि जैनत्व की प्राप्ति कितनी विवेक पूर्ण होती है. आचार्य श्री हरिभद्रूसरिजी ने अपने जीवनकाल में 1444 ग्रंथ निर्मित किये हैं, उनकी अन्तिम कृति 'संसार दावानल' स्तुति थी. जिसकी अन्तिम गाथा लिखते-लिखते आचार्यश्री देवलोक हुए तब उपस्थित श्रावक समुदाय ने उस अन्तिम (चौथी) स्तुति के शेष तीन चरण रचकर ग्रंथ परिपूर्ण किया. जब चौदह पूर्वमय दृष्टिवाद रूप सूर्य अस्त हो रहा था. उनके कई ग्रंथों में वह तत्त्वज्ञान मिलता है जो अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकता है. पूर्वगत ज्ञान की छाया उन ग्रंथों पर अवश्य पड़ी है यह निर्विवाद मानना होगा. अन्यथा ऐसा प्ररूपण नहीं हो सकता. जैन समाज में आचार्यश्री के वचन 'टंकशाली' माने जाते हैं. यह उनकी प्रामाणिकता का तथ्यभूत प्रमाण है. आध्यात्मिक जगत का कोई ऐसा विषय नहीं होगा जो उन्होंने बाकी छोड़ा हो. इस प्रकार आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी की जैन धर्म में अपनी विशिष्ट पहचान हैं. उनकी ग्रंथ रूपी संतति आज के भौतिक युग में इतनी ही आध्यात्मिक गजत के प्रति सतत क्रियाशील है. उनके प्रमुख ग्रंथ निम्नोक्त हैं : योगदष्टि समुच्चय, लघक्षेत्र समास, योगशतक योगविंशिका, श्रावक धर्म, योगबिन्द, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवाद प्रवेश-टिप्पण, शास्त्रवार्ता समुच्चय, द्विजवदन चपेटा, लोक तत्वनिर्णय, षडदर्शन, धर्मबिन्द, सर्वज्ञसिद्धि, षोडशक प्रकरण, धर्मबिन्दु धुर्ताख्यान, समरादित्य कथा, अष्टक प्रकरण, उपदेशपद, पचवस्तु, पंचाशक......आदि. उपर्युक्त मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं. परन्तु उनके द्वारा रचित ग्रंथों में से मात्र कुछ एक ग्रंथ ही वर्तमान काल में उपलब्ध होते हैं. अध्यात्म साधना में लीन हरिभद्राचार्य ने जीवन के संध्याकाल में अनशन की स्थिति को उल्लास से स्वीकार किया था. भावों की उच्च श्रेणी में त्रयोदश दिवस का अनशन सम्पन्न कर वे परम समाधि के साथ स्वर्गवास को प्राप्त हुए। अनशनमनघं विधाय निर्मामकवरविस्मृतहार्दभूरिबाधः। त्रिदशवन इव स्थितः समाधौ त्रिदिवमसौ सभवापदायुरन्ते // 221 // 589 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म प्रणम्य परमात्मानं, समुद्धत्य श्रुतार्णवात्। धर्मबिन्दुं प्रवक्ष्यामि, तोयबिन्दुमिवोदधेः ||1|| श्रीअरिहन्त परमात्मा को नमस्कार करके समुद्र में से जलबिन्दु की भांति, शास्त्र सिद्धान्तरूपी समुद्र में से 'धर्म के बिन्दु' को निकाल कर इस 'धर्मबिन्दु प्रकरण' नामक ग्रन्थ की रचना करता हूं. धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः॥ धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः // 2 // धर्म, धन की इच्छा करने वालों को धन देने वाला है, कामाभिलाषी जनों को सभी कामभोग देने वाला है तथा परंपरा से मोक्ष का साधक है. वचनाद् यदनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितम्। मैत्र्यादिभावसंयुक्तं, तद्धर्म इति कीर्त्यते // 3 // परस्पर अविरूद्ध वचन से शास्त्र में कहा हुआ मैत्री आदि भावना से मुक्त जो अनुष्ठान है, व धर्म कहलाता है. सोऽयमनुष्ठातृभेदात् द्धिविधो गृहस्थधर्मो यतिधर्मश्चेति // 1 // यह धर्म अनुष्ठान करने वालों के भेद से दो प्रकार का है गृहस्थ धर्म और यति धर्म. तत्र गृहस्थधर्मोऽपि द्विविधः- सामान्तयतो विशेषतश्चेति // 2 // उसमें गृहस्थ धर्म भी दो प्रकार का है-सामान्य और विशेष. 590 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3-गुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म तत्र सामान्यतो गृहस्थधर्मः कुलक्रमागतमनिन्द्य विभवाद्यपेक्षया न्यायतोऽनुष्ठानमिति // 3 // कुल परंपरा से आया हुआ, निन्दारहित, वैभव आदि की अपेक्षा से जो न्याययुक्त अनुष्ठान है वह गृहस्थ का सामान्य धर्म है. न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहितायेति // 4 // न्याय से उपार्जित धन ही इस लोक और परलोक के _ हित के लिये होता है. अनभिशङ्कनीयतया परिभोगाद् विधिना तीर्थगमनाचेति // 5 // जिस द्रव्य का उपभोग करने में लोगों को उपभोक्ता पर या भोग्य वस्तु पर शंका न हो, ऐसी रीति से उसका उपभोग हो और जिस द्रव्य से विधिपूर्वक तीर्थाटन आदि हो ऐसा न्यायोपार्जित धन-द्रव्य उस व्यक्ति के दोनों लोक में हितकारी है दोनों लोक में उसका हित करने वाला है. अहितायैवान्यदिति // 6 // उपरोक्त रीति से न करके उससे भिन्न रीति से करे अर्थात् अन्याय से धनोपार्जित करे तो अहित ही होता है. तदनपायित्वेऽपि मत्स्यादि गलादिवद् विपाकदारुणत्वादिति // 7 // यदि वह अन्याय से उपार्जित द्रव्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है. यदि बलवान पापानुबन्धी पुण्य होने से वह जीवनपर्यन्त बना रहा तो भी उसका परिणाम बरा है. जिस प्रकार लोहे के कांटे में मांस का टुकड़ा (गलगोरि) लगा होता है और रसना के स्वाद में मत्स्य मारा जाता है उसी प्रकार अन्याय से उपार्जित धन से दुख ही प्राप्त होता है. L CONTA 591 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir = गुरुवाणी -गुरुवाणी हा सामान्य गृहस्थ सामान्य धर्म न्याय एव ह्याप्त्युपनिषत्परेति समयविद इति // 8 // न्याय ही धन पैदा करने का अत्यन्त रहस्यभूत उपाय है ऐसा सिद्धान्तवेत्ता कहते है. ततो हि नियमतः प्रतिबन्धककर्मविगम इति // 6 // द्रव्य प्राप्ति में अन्तराय करने वाले (लाभान्तराय) कर्मो का नाश न्याय से ही होता है. सत्यस्मिन्नायत्यामर्थसिद्धिरिति ||10|| उस लाभान्तराय कर्म का नाश होने से भविष्य में धन प्राप्ति होती है. अतोऽन्यथापि प्रवृत्तौ पाक्षिकोऽर्थलाभो निःसंशयस्त्वनर्थ इति // 11 // उससे भिन्न प्रकारसे (अन्याय से) व्यवहार करने से लाभ कभी कभी होता है, अनर्थ तो अवश्य होता है. तथा-समानकुल-शीलादिभिरगोत्रजैर्वैवाह्यमन्यत्र बहुविरुद्धेभ्य इति // 12 // बहुत लोगों से जिनकी शत्रुता हो उन्हें छोड़कर समान कुल, शील वाले भिन्न गोत्री के साथ विवाह करना चाहिये. तथा-द्दष्टाद्दष्टबाधाभीतता इति // 13 // प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सब उपद्रवों से सावधान रहना चाहिये. तथा-शिष्टाचरितप्रशंसनमिति // 14 // और साधुचरित पुरुषोंकी प्रशंसा करते रहना चाहिये. K 592 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir –गुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म 4--21 तथा अरिषड्वर्गत्यागेनाविरुद्धार्थप्रतिपत्त्येन्द्रियंजय इति // 15 // छह अंतरंग (काम, क्रोध, लोभ, मान, मद एवं हर्ष) शत्रुओं को जीत कर गृहस्थ अवस्था के योग्य धर्म एवं अर्थ को अंगीकार करके इन्द्रियों को जीतना चाहिये. तथा-उपप्लुतस्थानत्याग इति // 16 // उपद्रव वाले स्थान का त्याग करना चाहिये. तथा-स्वयोग्यस्या श्रयणमिति // 17 // अपने योग्य पुरुष या स्थान का आश्रय लेना चाहिये. तथा-प्रधानसाधुपरिग्रह इति // 18 // उत्तम और सदाचारी व्यक्तियों की संगति करना चाहिये. तथा-स्थाने गृहकरणमिति // 16 // योग्य स्थान में निवास स्थान बनाना चाहिये. अतिप्रकटातिगुप्तस्थाननुचितप्रातिवेश्यं चेति // 20 // जो स्थान बहुत खुला हुआ या बहुत गुप्त हो तथा जिसके पड़ौसी खराब या अयोग्य हों, वह स्थान रहने के लिये अयोग्य है. लक्षणोपेतगृहवास इति // 21 // वास्तुशास्त्र में कथित लक्षणों वाले घर में रहना चाहिये. निमित्तपरीक्षेति // 22 // शकुन स्वप्न एवं उपश्रुति आदि निमित्तों से परीक्षा करनी चाहिये. 593 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म तथा-अनेकनिर्गमादिवर्जनमिति // 23 // जाने आने के बहुत से द्वारों से रहित घर बनाये. तथा-विभवाद्यनुरूपो वेषो विरुद्धत्यागेनेति // 24 // अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के अनुरूप वेषभूषा पहने. तथा-आयोचितो व्यय इति // 25 // आय के अनुसार व्यय करना चाहिये. तथा-प्रसिद्धदेशाचारपालनमिति // 26 // भोजन-वस्त्रादि में प्रचलित व्यवहार तथा शिष्ट जनों द्वारा अंगीकृत देशाचार का पालन करना चाहिये. तथा-गर्हितेषु गाढमप्रवृत्तिरिति // 27 // निन्दित कार्य में लेश मात्र भी प्रवृत्ति न करना चाहिये तथा-सर्वेष्ववर्णवादत्यागो विशेषतो राजादिष्विति // 28 // सब जनों की अकारण निन्दा विशेषतः राजा आदि की निन्दा का त्याग करना चाहिये. तथा-असदाचारैरसंसग इति // 26 // दुराचारी की संगति नहीं करनी चाहिये. संसर्ग:सदाचारैरिति // 30 // सदाचारी जनों की संगति करनी चाहिये. 594 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म तथा-माता-पितृपूजेति // 31 // माता पिता की पूजा करनी चाहिये. आमुष्मिकयोगकारणं तदनुज्ञया प्रवृत्तिः प्रधानाभिनवोपनयनं तद्भोगेऽप्यत्र तदनुचितादिति // 32 // माता पिता को धर्म की प्रेरणा करना, उनकी आज्ञा से प्रवृत्ति करना तथा उनके अयोग्य वस्तु को छोड़ कर प्रत्येक नयी व श्रेष्ठ वस्तु उनको भेंट करके भोग में लाना चाहिये. तथा-अनुद्वेजनीया प्रवृत्तिरिति // 33 // किसी को भी अशान्ति या उद्वेग न करने वाली प्रवृत्ति ही करना चाहिये. तथा-भर्त्तव्यभरणमिति // 34 // माता, पिता सती स्त्री एवं छोटे बच्चों सहित भरण-पोषण करने योग्य (आश्रित) जनों का भरण-पोषण करना चाहिये. तथा-तस्य यथोचितं विनियोग इति // 35 // तथा माता पिता को उनके योग्य धर्म एवं अन्य परिजनों को उनके योग्य कार्य में लगाना चाहिये. तथा-तत्प्रयोजनेषु बद्धलक्षतेति // 36 // और उस पोष्य वर्ग को जो भी काम सौंपा हो, उसकी प्रगति पर ध्यान देना चाहिये. तथा-अपायपरिरक्षोद्योग इति // 37 // अनर्थ या विनाश से पोष्य वर्ग की रक्षा का प्रयत्न करना चाहिये. 595 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म तथा-गये ज्ञानस्वगौरवरक्षे इति // 38 // उनके निन्दनीय व्यवहार को जान कर अपने गौरव की रक्षा करनी चाहिये. __ तथा-देवातिथिदीनप्रतिपत्तिरिति // 36 // देव, अतिथि व दीन जनों की सेवा करनी चाहिये. तदौचित्याबाधनमुत्तनिदर्शनेनेति // 40 // उत्तम पुरुषों के उदाहरण से देवादि की सेवा में औचित्य का उल्लंघन नहीं करना चाहिये. तथा सात्म्यतः कालभोजनभिति // 41 // और अपनी प्रकृति के अनुकूल योग्य समय पर भोजन करना चाहिये. तथा-लौल्यत्याग इति // 42 // रुचि उपरांत भोजन में लोलुपता नहीं करना चाहिये. __ तथा-अजीर्णे अभोजनमिति // 43 // यदि अर्जीर्ण हुआ तो भोजन नहीं करना चाहिये. तथा-बलापावे प्रतिक्रियेति // 44 // शरीर का बल कम होता प्रतीत हो तो उसका शीघ्र उपाय करना चाहिये. तथा-अदेशकालचर्यापरिहार इति // 45 // उपद्रव ग्रसित, मलिन आचार विचार वाले अयोग्य देश-काल का त्याग करना चाहिये. 596 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म तथा-यथोचितलोकयात्रेति // 46 // योग्यता अनुसार यथोचित लोक व्यवहार में प्रवृत्ति करना चाहिये. तथा-हीनेषु हीनक्रम इति // 47 // अपने कर्म के दोष से, जाति, विद्या आदि गुणों के आधार पर जो लोक में हीन माना जाये उस के साथ तदनुकूल व्यवहार करना चाहिये. तथा-अतिसङ्गवर्जनमिति // 48 // अति परिचय रखने से अवज्ञा या अवगणना होने लगती है अतः अधिक परिचय का त्याग करना चाहिये. तथा-वृत्तस्थज्ञानवृद्धसेवेति // 46 // सदाचारी व ज्ञानवृद्ध पुरुषों की सेवा करनी चाहिये. तथा-परस्परानुपघातेनान्योऽन्यानुबद्धत्रिवर्गप्रतिपत्तिरिति // 50 // परस्पर विरोध उत्पन्न न हो ऐसे तरीके से धर्म, अर्थ एवं काम तीनों की साधना करनी चाहिये. तथा-अन्यतरबाधासंभवे मूलाबाधेति // 51 // धर्म अर्थ एवं काम एक त्रिवर्ग है उसमें किसी भी उत्तरोत्तर पुरूषार्थ को अन्तराय होने पर पूर्व पुरूषार्थ को अन्तराय या बाधा न होने देनी चाहिये. तथा-बलाबलापेक्षणमिति // 52 // अपनी शक्ति व अशक्ति को सोच कर ही काम करना चाहिये. तथा-अनुबन्धे प्रयत्न इति // 53 // धर्म, अर्थ व काम की उत्तरोत्तर वृद्धि का प्रयत्न करना चाहिये. 597 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir -गुरुवाणी - गृहस्थ सामान्य धर्म तथा-कालोचितापेक्षेति // 54 // काल के अनुसार योग्य वस्तु को अंगीकार करना चाहिये. तथा-प्रत्यहं धर्मश्रवणमिति // 55 // प्रतिदिन धर्मश्रवण करना चाहिये. तथा-सर्वत्राभिनिवेश इति // 56 // सब कार्यो में कदाग्रह का परित्याग करना चाहिये. तथा-गुणपक्षपातितेति // 7 // गुणों के प्रति अनुराग रखना चाहिये. तथा-ऊहापोहादियोग इतीति // 58 // तर्क, वितर्क आदि बुद्धि गुणों का विकास करना चाहिये. एवं स्वधर्मसंयुक्तो, सद्गार्हस्थ्यं करोति यः / लोकद्वयेऽप्यसौ धीमान्, सुखमाप्नोत्यनिन्दितम् // 4 // जो पुरुष इस प्रकार स्वधर्मयुक्त श्रेष्ठ गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह बुद्धिमान पुरुष इस लोक में तथा परलोक में अनिन्दित सुख को पाता है. दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं, विधेय हितमात्यनः। करोत्यकाण्ड एवेह, मृत्युः सर्व न किञ्चन // 5 // सत्येतस्मिन्नसारासु, संपत्स्वविहिताग्रहः। पर्यन्तदारुणासूच्चैधर्मः कार्यो महात्मभिः // 6 // दुर्लभ मनुष्य जन्मको पा कर आत्म का हित साधन करना चाहिये क्योंकि मृत्यु अकस्मात ही आकर इस संसार में 'कुछ न था' ऐसा कर देगी। इस स्थिति को विचार कर परिणामतः कष्ट देनेवाली असार संपत्ति में मोह रखे बिना आत्मार्थी पुरुषों को उच्च प्रकार से धर्म का आचरण व सेवन करना चाहिये। 598 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3 Dगुरुवाणी गृहस्थ देशना विधि प्रायः सद्धर्मबीजानि, गृहिष्वेवंविधेष्वलम्। रोहन्ति विधिनोप्तानि, यथा बीजानि सक्षितौ // 7 // जैसे अच्छी पृथ्वी में विधिवत् बोये हुए बीज उगते हैं वैसे ही उपयुक्त लक्षण वाले गृहस्थों में विधि सहित बोये हुए सद्धर्म के बीज प्रायः उग आते है. बीजनाशो यथाऽभूमौ, प्ररोहो वेह निष्फलः। तथा सद्धर्मबीजानामपात्रेषु विदुर्बुधाः ||8|| जैसे ऊषर भूमि में पड़ा हुआ बीज अंकुर हो जाने पर भी निष्फल जाता है वैसे ही अपात्र के प्रति धर्म का बीजारोपण हो, वह भी नष्ट होता है, ऐसा पंडित कहते है. न साधयति यः सम्यगज्ञः स्वल्पं चिकीर्षितम्। अयोग्यत्वात् कथं मूढः, स महत् साधयिष्यति // 6 // जो अज्ञानी अपनी तुच्छ इच्छा को भी नहीं साध सकता, वह मूढ़ अयोग्य होने से मोक्ष प्राप्तिरूप महत् कार्य का संपादन कैसे कर सकता है? इति सद्धर्मदेशनार्ह उक्तः, इदानीं तद्विधिमनुवर्णयिष्याम इति // 1 // (56) इस प्रकार सद्धर्म की देशना का अधिकारी बता कर उसकी देशना विधि कहते है. तत्प्रकृतिदेवताधिमुक्तिज्ञानमिति ||2|| (60) देशनायोग्य व्यक्ति की प्रकृति तथा उसके इष्ट देव आदि का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये. 599 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी गृहस्थ देशना विधि तथा-साधारणगुणप्रशंसेति // 3 // (61) उपदेशक को सामान्य गुणों की प्रशंसा करनी चाहिये. तथा-सम्यक् तदधिकाख्यानमिति // 4 // (62) और सम्यक् प्रकार से उच्च गुणों का आख्यान करना चाहिये. तथा-अबोधेऽप्यनिन्देति // 5 // (63) गुण का बोध न भी हो तब भी निंदा नहीं करना चाहिये. शुश्रुषाभावकरणमिति // 6 // (64) सुनने की इच्छा का भाव श्रोता में उत्पन्न करना चाहिये. तथा-भूयोभूय उपदेश इति // 7 // (65) यदि श्रोता को शीघ्र बोध न हो तो बार बार उपदेश करते रहना चाहिये. तथा-बोधे प्रज्ञोपवर्णनमिति ||8|| (66) बोध होने पर उसकी बुद्धि की प्रशंसा करनी चाहिये. तथा तन्त्रावतार इति // 6 // (67) श्रोता को पहले शास्त्र के प्रति बहुमान उत्पन्न कराकर उसके द्वारा शास्त्र में प्रवेश कराना चाहिये. तथा-प्रयोग आक्षेपण्या इति ||10 // (68) श्रोता को मोह से तत्व की ओर आवर्जित करने वाली कथा कहनी चाहिये. 600 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी गृहस्थ देशना विधि तथा-ज्ञानाद्याचारकथनमिति ||11|| (66) और ज्ञानादि आचारों का वर्णन करना चाहिये. तथा-निरीहशक्यपालनेति ||12|| (70) ऐहिक एवं पारलौकिक फल की इच्छा का त्याग कर पांचो आचारों (ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार) का यथाशक्ति पालन करना चाहिये. तथा-अशक्ये भावप्रतिपत्तिरिति // 13 // (71) और अशक्य होने पर भी उस ओर भावना रखनी चाहिये. तथा-पालनोपायोपदेश इति // 14 // (72) ज्ञानादि आचार के पालन का उपदेश करना चाहिये. तथा-फलप्ररूपणेति // 15 // (73) आचारों के सम्यक रूप से पालन करने पर होने वाले फल की प्ररूपणा करनी चाहिये. देवर्द्धिवर्णनमिति // 16 // (74) देवऋद्धि का वर्णन करना चाहिये. तथा-सुकुलागमनोक्तिरिति // 17 // (75) देवस्थान से च्युत होकर मनुष्य योनि में आने वाला उत्तम कुल में जन्म लेता है. 601 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ देशना विधि तथा-कल्याणपरम्पराख्यानमिति // 18 // (76) और उत्तम कुल में आकर उसे कल्याण परंपरा प्राप्त होती है ऐसा कहे. तथा-असदाचारगति ||16|| (77) और असत आचार से घृणा करनी चाहिये. तथा-तत्स्वरूपकथनमिति // 20 // (78) और असदाचार के विभिन्न स्वरूपों को बताना चाहिये. तथा-स्वयं परिहार इति // 21 // (76) स्वयं (उपदेशक) को भी असदाचार का त्याग करना चाहिये. तथा-ऋजुभावासेवनमिति ||22|| (80) और कुटिलता का त्याग कर सरलभाव रखना चाहिये. तथा-अपायहेतुत्वदेशनेति // 23 // (81) असदाचार जनित और अन्य अनर्थ (दुःख) के कारणों को बताना चाहिये. नारकदुःखोपवर्णनमिति // 24 // (82) नारकी के दुःखों का वर्णन करना चाहिये. तथा-दुष्कुलजन्मप्रशस्तिरिति // 25 // (83) असदाचार और हीन आचरण करने वालों का इससे बुरे व हलके कुल में जन्म होता है, वह बताना चाहिये. AR 602 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: गृहस्थ देशना विधि ADAN दुःखपरम्परानिवेदनमिति // 26 // (84) एक दुख के कारण दूसरा दुख, दुराचार से दुख उससे फिर दुराचार, इस तरह उन को दुःख की परंपरा समझाना चाहिये. तथा-उपायतो मोहनिन्देति // 27 // (85) और उपाय से मोह का कष्टदायक फल बताकर मोह की निन्दा करनी चाहिये. तथा-सज्ज्ञानप्रशंसनमिति |28|| (86) और सद्ज्ञान की प्रशंसा करना चाहिये. तथा-पुरुषकारसत्कथेति // 26 // (87) और पुरुषार्थ (उद्योग) की प्रशंसा करनी चाहिये और बताना चाहिये कि जो पुरूषार्थ को छोड़ कर देव का अनुसरण करता है उसका दैव (भाग्य) निष्फल जाता है. तथा-वीर्यर्द्धिवर्णनमिति // 30 // (88) और वीर्य की ऋद्धि का वर्णन करना चाहिये. तथा-परिणते गम्भीरदेशनायोग इति // 31 // (86) और (उपदेश) से शुद्ध परिणाम होने पर गंभीर देशना देना चाहिये. श्रुतधर्मकथनमिति // 32 // (60) श्रुतधर्म का कथन करना चाहिये. 603 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी: गृहस्थ देशना विधि बहुत्वात् परीक्षावतार इति // 33 // (61) श्रुतधर्म बहुत है अतः उत्तम की परीक्षा में खरे उतरने वाले श्रुतधर्म का पालन करना चाहिये. कषादिप्ररूपणेति // 34 // (62) कष छेद और ताप तीनों की प्ररूपणा करना चाहिये. विधिप्रतिषेधौ कष इति // 35 // (63) विधि और निषेध यह कष की कसौटी है. तत्सम्भवपालनाचेष्टोक्तिश्छेद इति // 36 // (64) उनकी उत्पत्ति तथा पालन करने की चेष्टा को कहना छेद है. उभयनिबन्धनभाववादस्ताप इति // 37 // (65) कष व छेद के परिणामी कारण जीवादि भाव की प्ररूपणा ताप है. अमीषामन्तरदर्शनमिति // 38 // (66) इनका (कष, छेद व ताप) तीनों परीक्षाओं का परस्पर अंतर बताना चाहिये. कषच्छेदयोरयत्न इति // 36 // (67) कष व छेद इन दो कसौटियों पर खरी उतरने मात्र से ही वस्तु का आदर नहीं करना चाहिये. तद्भावेऽपि तापाभावेऽभाव इति // 40 // (68) कष, छेद के होने पर भी ताप के अभाव में उनका भी अभाव समझे. 604 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3 Dगरुवाणी गृहस्थ देशना विधि तच्छुद्धौ हि तत्साफल्यमिति ||41 // (66) तापशुद्धि होने से ही कषशुद्धि व छेदशुद्धि की सफलता है फलवन्तौ च वास्तवाविति // 42 // (100) वे दोनों फलवान हों तभी वास्तविक (सत्य) है. अन्यथा याचितकमण्डनमिति // 43 // (101) नहीं तो वे मांगे हुए आभूषणों की तरह हैं. नातत्त्ववेदिवादः सम्यग्वाद इति // 44 // (102) जो तत्ववेत्ता नहीं उसका वाद (धर्म) सम्यग्वाद नहीं. बन्धमोक्षोपपत्तितस्तच्छुद्धिरिति // 45 // (103) बन्ध और मोक्ष की सिद्धि से सम्यग्वाद की शुद्धि जानना इयं बध्यमानबन्धनभाव इति // 46 // (104) इस (बंध) मोक्ष की युक्ति का आधार बंधने वाले जीव और बन्धन पर है. कल्पनामात्रमन्यथेति // 47 // (105) अन्यथा यह युक्ति कल्पना मात्र है. बध्यमान आत्मा बन्धन वस्तुसत् कर्मेति // 48 // (106) बंधनेवाला आत्मा और बांधनेवाले विद्यमान कर्म हैं. 605 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ देशना विधि हिंसादयस्तद्योगहेतवः, तदितरे तदितरस्य // 46 // (107) हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन व परिग्रह ये पांच अव्रत तत्व में अश्रद्धा तथा क्रोध, मान, माया, लोभ-चार कषाय. यह पापबन्ध के हेतु हैं. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह आदि पांच व्रत सम्यक्त्व और चारों कषायों का त्याग मोक्ष के कारण है. प्रवाहहतोऽनादिमानिति // 50 // (108) कर्मबन्ध प्रवाह से अनादि हैं. कृतकत्वेऽप्यतीतकालवदुपपत्तिरिति // 51 // (106) बन्ध का कारण होने पर भी वह अतीतकाल की तरह ही अनादि समय से समझना चाहिये. वर्तमानताकल्पं कृतकत्वमिति // 52 // (110) वर्तमान काल की तरह बन्ध भी किया हुआ है. परिणामिन्यात्मनि हिंसादयो, भिन्नभिन्ने च देहादिति // 53 // (111) देह से कुछ भिन्न व अभिन्न ऐसे परिणामी आत्मा से हिंसादिक बंध होता है. अन्यथा तदयोग इति // 54 // (112) अन्यथा हिंसादि का उससे अयोग होता है. नित्य एवाविकारतोऽसंभवादिति // 55 // (113) नित्य अविकारी आत्मा द्वारा दोषों का होना असंभव है. OU 606 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ देशना विधि तथा-अनित्ये चापराहिंसनेनेति // 56 // (114) यदि सर्वथा अनित्य हो तो अन्य से हिंसा हो नहीं सकती. तथा-भिन्न एव देहान्न स्पृष्टवेदनमिति // 57 // (115) यदि आत्मा देह से सर्वथा भिन्न हो तो स्पर्श आदि वेदना न हो. तथा निरर्थकनुग्रह इति // 58 // (116) यदि आत्मा का देह से सम्बन्ध न हो तो देह पर किया गया भोगों का उपकार आत्मा को शांति नहीं दे सकता. अभिन्न एवामरणं वैकल्यायोगादिति // 56 // (117) देह व आत्मा सर्वथा अभिन्न हो तो मृत्यु नहीं हो सकती, शरीर वैसा ही रहता है. मरणे परलोकाभाव इति // 60 // (118) मृत्यु मानने से परलोक का अभाव सिद्ध होता है. तथा-देहकृतस्यात्मनाऽनुपभोग इति ||61|| (116) देह व आत्मा को सर्वथा भिन्न मानने से देह द्वारा उपार्जित कर्म का आत्मा द्वारा उपभोग न होना चाहिये. तथा-आत्मकृतस्य देहेनेति // 62 // (120) और आत्मा द्वारा किये हुए कर्म का उपभोग देह से नहीं हो सकता. दृष्टेष्टवाधेति // 63 // (121) द्दष्ट व इष्ट गलत सिद्ध होता है. 607 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गरुवाणी गृहस्थ देशना विधि अतोऽन्यथैतत्सिद्धिरिति तत्त्ववाद इति // 64 // (122) इससे भिन्न आत्मा को मानने से बंध व मोक्ष की सिद्धि होती है वह तत्त्ववाद है. परिणामपरीक्षेति // 65 // (123) श्रोता के परिणाम की परीक्षा करना चाहिये. शुद्धे बन्धभेदकथनमिति // 66 // (124) शुद्ध परिणाम देख कर बन्धभेद का वर्णन करना चाहिये. तथा-वरबोघिलाभप्ररूपणेति // 67 // (125) श्रेष्ठ बोधि बीज के लाभ की प्ररूपणा करनी चाहिये. तथा-भव्यत्वादितोऽसाविति // 68|| (126) उस प्रकार के भव्यत्वादिक से उस समकित की प्राप्ति होती है. ग्रन्थिभेदेनात्यन्तसंक्लेश इति // 66 // (127) ग्रन्थि (राग द्वेष) को छेद देने से अत्यन्त संक्लेश (पूर्व कठोरता) नहीं होता. न भूयस्तद्बन्धनमिति // 70 // (128) पुनः उस राग द्वेष की ग्रन्थि का बन्धन नहीं होता. तथा-असत्यपाये न दुर्गतिरिति ||71 // (126) समकित दर्शन का नाश न हो तो दुर्गति नहीं होती. 608 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी गृहस्थ देशना विधि तथा-विशुद्धे चारित्रमिति // 72 // (130) और समकित की शुद्धि से चारित्र की प्राप्ति होती है. भावनातो रागादिक्षय इति // 73 // (131) भावना से रागादिक का क्षय होता है. तद्भावेऽपवर्ग इति 74 // (132) उस रागादिक क्षय से अपवर्ग की प्राप्ति होती है. स आत्यन्तिको दुःखविगम इति // 75 // (133) पूर्णतया सब दुःखोंका नाश मोक्ष है. एवं संवेगकृद् धर्म, आख्येयो मुनिना परः। यथाबोधं हि शुश्रूषो चितेन महात्मना ||10|| इस प्रकार धर्मभावना वाला महात्मा मुनि, श्रोता को संवेग करने वाला उत्कृष्ट धर्म अपने बोध के अनुसार कहे. अबोधेऽपि फलं प्रोक्तं, श्रोतृणां मुनिसत्तमैः / कथकस्य विधानेन, नियमाच्छुद्धचेतसः // 11 // उत्तम मुनि कहते हैं कि यदि श्रोता को लाभ न हो तो भी शुद्ध चित्तवाले उपदेशक को विधिवत् उपदेश क्रिया का निःसंशय फल होता ही है. नोपकारो जगत्यस्मिँताद्दशो विद्यते क्वचित्। याद्दशी दुःखविच्छेदाद्, देहिनां धर्मदेशना ||12|| प्राणियों के दुःख का विच्छेद करने से धर्मदेशना जो उपकार करती है वैसा जगत में दूसरा उपकार नहीं. 609 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि सद्धर्मश्रवणादेवं, नरो विगतकल्मषः / ज्ञाततत्त्वोमहासत्वः, परं संवेगमागतः // 13 // सद्धर्म श्रवण से जिसका पाप चला गया है, जिसने तत्त्व पा लिया है और जो महान पराक्रम वाला है ऐसा श्रोता पुरुष उत्कृष्ट संवेग को प्राप्त हुआ है. धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा, संजातेऽच्छोऽत्र भावतः / दृढं स्वशक्तिमालोच्य, ग्रहणे संप्रवर्तते // 14 // धर्म की उपादेयता जानकर, धर्म के प्रति भावना सहित, स्वशक्ति का दृढ़ विचार करके मनुष्य उसे अंगीकार करने की प्रवृति करता है. योग्यो ह्येवंविधः प्रोक्तो, जिनैः परहितोद्यतैः / फलसाधनभावेन, नातोऽन्यः परमार्थतः // 15 // परहित में उद्यत जिनेश्वरों ने फल साधना के भाव से ऐसे ही लक्षणों से युक्त पुरुषों को योग्य कहा है। वस्तुतः अन्य पुरुष इसके योग्य नहीं है. इति सर्द्धग्रहणार्ह उक्तः, साम्प्रतं तत्प्रदानविधिमनुवर्णयिष्यामः ||1|| (134 // इस प्रकार सद्धर्म ग्रहण करने योग्य पुरुष का वर्णन किया. अब उस सद्धर्म को देने की विधि कहते हैं. धर्मग्रहणं हि सत्प्रतिपत्तिमद् विमलभावकरणमिति // 2 // (135) सत्प्रतिपत्ति से धर्म ग्रहण करना निर्मलभाव का कारण है. ह 610 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि तच प्रायो जिनवचनतो विधिनेति // 3 // (136) प्रायः वह धर्मग्रहण वीतराग के सिद्धांत के अनुसार निम्न विधि से होता है. इति प्रदानफलवत्तेति // 4 // (137) इस प्रकार धर्म का दान सफल होता है. सति सम्यग्दर्शने न्याय्यमणुव्रतादीनां ग्रहणं नान्यथेति // 5 // (138) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर अणुव्रत आदि ग्रहण योग्य होता है, बिना समकित प्राप्ति के ये व्रत निष्फल जाते है. जिनवचनश्रवणादेः कर्मक्षयोपशमादितः सम्यग्दर्शनमिति // 6 // (136) जिनवचन के श्रवणादिक से और कर्म के क्षयोपशम आदि से सम्यग्दर्शन होता है. प्रशमसंवेगनिर्देदानुकम्पाऽऽस्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तदिति // 7 // (140) प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन लक्षणों वाला सम्यग्दर्शन है. उत्तमधर्मप्रतिपत्त्यसहिष्णोस्तत्कथनपूर्वमुपस्थितस्य विधिनाऽणुवतादिदानमिति // 8 // (141) उत्तम (यति) धर्म को ग्रहण करने में असमर्थ, अपने पास धर्म ग्रहण करने के लिये आये हुए पुरुष को अणुव्रत आदि का स्वरूप समझा कर उसका विधिवत् दान करे. 611 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि KO सहिष्णोः प्रयोगेऽन्तराय इति // 6 // (142) समर्थ व्यक्ति को व्रतदान से यतिधर्म में अन्तराय होता है. अनुमतिश्चेतरत्रेति ||10 // (143) श्रावक धर्म देने से अनुमोदना दोष आता है. अकथन उभयाफल आज्ञाभङ्ग इति ||11 // (144) (ऐसे) न कहने से दोनों धर्म के फल रहित होने से आज्ञा भंग होता है. भगवद्वचनप्रामाण्यादुपस्थितदाने दोषाभाव इति // 12 // (145) भगवान के वचन के प्रमाण से श्रावक धर्म ग्रहण करने में तत्पर पुरुष को उसका दान करने में दोष नहीं है. गृहपतिपुत्रमोक्षज्ञातादिति // 13 // (146) गृहपति के पुत्र को मुक्त कराने के दृष्टांत से ज्ञात होता है. योगवन्दननिमित्तदिगाकारशुद्धिर्विधिरिति // 14 // (147) योगशुद्धि, चन्दनशुद्धि, निमित्तशुद्धि, दिकशुद्धि और आगारद्धि ये अणुव्रतादि की प्राप्ति में विधि हैं. तथा-उचितोपचारश्चेति // 15 // (148) और देवगुरु आदि की उचित सेवा करना. स्थूलप्राणातिपातादिभ्यो विरतिरणुव्रतानि पञ्चेति // 16 // (146) स्थूल हिंसा आदि पांच अव्रत से निवृत होने को पांच अणुव्रत कहते हैं. 612 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी: गृहस्थ विशेष देशना विधि तथा-दिगवतभोगोपभोगमानानर्थदण्डविरतयस्त्रीणि गुणव्रतानीति // 17 // (150) और दिग्परिणाम व्रत, मोगोपभोगका प्रमाण तथा अनर्थदंड विरमण ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं. तथा-सामायिकदेशावकासिकपौषधोपवासातिथिसंविभागश्चत्वारि शिक्षापदानीति ||18|| (151) सामायिक, देशावकासिक, पौषध और अतिथि-संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं. ततश्च एतदारोपणं दानं यथार्हे साकल्यवैकल्याभ्यामिति ||16|| (152) जिस प्रकार योग्य हो, सकलता या विकलता से धर्म योग्य प्राणीको इन व्रतों का आरोपण या व्रतदान करना चाहिये. गृहीतेश्वनतिचारपालनमिति ||20|| (153) ग्रहण करने के बाद अनतिचार पालन करना या अतिचार नहीं लगने देना चाहिये शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यद्दष्टि प्रशंसासंस्तवाः सम्यग्द्दष्टेरतिचारा इति // 21 // (154) शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दर्शन की प्रशंसा व परिचय करना ये छ सम्यग् द्दष्टि के अतिचार है. तथा-व्रतशीलेषु पञ्च पञ्चयथाक्रममिति ||22|| (155) अणुव्रत और शील व्रत के प्रत्येक के पांच-पांच अतिचार हैं. 613 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि बन्धनवधच्छविच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधा इति // 23 // (156) बन्ध, वध, चर्म या अंगछेदन, अतिभार रखना तथा अन्नपान को रोकना-ये पांच प्रथम व्रत के अतिचार हैं. मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारस्वदारमन्त्रभेदा इति // 24 // (157) इसके पांच अतिचार ये हैं (1) मिथ्या उपदेश, (2) रहस्यकथन, (3) झूठे दस्तावेज या साक्षी, (4) अमानत का दुरुपयोग और (5) स्त्री आदि के साथ हुई गुप्त बात प्रगट करना. स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्वराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा इति // 25 // (158) अदत्तादान व्रतके पांच अतिचार ये हैं-(१) स्तेन-प्रयोग-चोर को मदद करना, (2) चुराई हुई वस्तु का संग्रह, (3) शत्रु देश में प्रवेश (4) न्यूनाधिक तोल नाप रखना तथा (5) मिलावट अथवा समान दिखानेवाली हलकी व कीमती वस्तु का आपसी बदलना. परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहहीतागमनानङ्गक्रीडातीव्रकामाभिलाषा इति // 26 // (156) दूसरों के पुत्र या पुत्री का विवाह करना, दूसरे की रखेली स्त्री और वेश्या के साथ संभोग, अनंगक्रीडा तथा तीव्र काम अभिलाषा-ये पांच अतिचार हैं. क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा इति // 27 // (160) क्षेत्र-वास्तु, स्वर्ण-चांदी, धन-धान्य, दासी-दास, और आसन-शय्या; इन सबका अतिक्रमण-ये पांच अतिचार है. न 614 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % Dगरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि - उर्वार्धास्तर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानीति ||28 // (161) ऊपर, नीचे व तिरछा क्षेत्र का व्यतिक्रम (ये तीन), क्षेत्रवृद्धि और स्मृतिनाश-ये पांच अतिचार पहला गुणव्रत-दिशा परिमाण के हैं. सचित्तसंबद्धसंमिश्रामिभषवदुष्पक्वाहारा इति // 26 // (162) सचित्त, सचित्त से संबद्ध, सचित्त से मिश्रित, मदिरा, आसव आदि से संसर्गवाला, अर्ध पक्व या दुष्पक्व-ये पांच अतिचार हैं. कन्दर्पकौकुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानीति // 30 // (163) कामोद्दीपक, नेत्र की कुत्सित क्रिया, वाचालता, विचार बिना साधनों का रखना तथा उपभोग में अधिकता-ये पांच अतिचार हैं. योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानीति ||31 // (164) मन, वचन, काया के योगों की पापमार्ग में प्रवृत्ति, अनादर व स्मृतिनाश-ये पांच प्रथम शिक्षाव्रत के अतिचार हैं. आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलप्रक्षेपा इति // 32 // (165) नियमित क्षेत्र के बाहर से वस्तु मंगाना, सेवक या मनुष्य भेजना, शब्द सुनाना, रूप दिखाना, तथा कंकर आदि पुद्रगल फेंकना ये पांच अतिचार हैं. अप्रत्युपेक्षताप्रमार्जितोत्सर्गादाननिक्षेपसंस्तारोपक्रमणाऽनादरस्मृत्यनुपस्थापनानीति // 33 // (166) बिना देखे व बिना प्रमार्जित किये मल-मूत्र त्याग करना, ऐसे ही स्थान में धार्मिक उपकरण रखना या लेना, संथारा (पथारी) को बिना देखे या प्रमार्जे बिना उपभोग करना, पौषधोपवास का अनादर करना और स्मृतिनाश ये पांच अतिचार हैं. DU 615 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी3D गृहस्थ विशेष देशना विधि सचित्तनिक्षेपपिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमा इति // 34 // (167) साधु को अर्पण करने योग्य वस्तु को सचित्त पर रखना, उसे सचित्त से ढकना, अपनी वस्तु को दूसरे की बताना, मत्सरभाव तथा समय का उल्लंघन करना-ये पांच अतिचार अतिथि संविभागवत के हैं. एतद्रहिताणुव्रतादिपालनं विशेषतो गृहस्थधर्म इति // 35 // (168) इन अतिचारों रहित अणुव्रत का पालन गृहस्थ का विशेष धर्म है. क्लिष्टकर्मोदयादतिचारा इति // 36 // (166) क्लिष्ट कर्म के उदय से अतिचार लगते हैं. विहितानुष्ठानवीर्यतस्तज्जय इति // 37 // (170) अंगीकृत सम्यक्त्व के आचरण (सामर्थ्य) से अतिचार विजित होते हैं. अत एव तस्मिन् यत्न इति // 38 // (171) अतः अनुष्ठान करने के लिये यत्न करना चाहिये. सामान्यचर्याऽस्येति // 36 // (172) इस गृहस्थ की सामान्य चर्या (चेष्टा) इस प्रकार होती है. समानधार्मिकमधे वास इति // 40 // (173) समान धर्म वाले के बीच में रहना चाहिये. तथा-वात्सल्यमेतेष्विति // 41 // (174) इन साधार्मिकों पर वात्सल्यभाव रखना चाहिये. 616 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 -गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि तथा-धर्मचिन्तया स्वपनमिति // 42 // (175) और धर्मचिन्तन करते हुए सोना चाहिये. तथा-नमस्कारेणावबोध इति // 43 // (176) नमस्कार मंत्र कहते हुए जागना चाहिये. तथा-प्रयत्नकृतावश्यकस्य विधिना चैत्यादिवन्दनमिति // 44 // (177) प्रयत्न से आवश्यक क्रिया करके विधि सहित चैत्यवंदन करना चाहिये तथा-सम्यक्प्रत्याख्यानक्रियेति // 45 // (178) और सम्यक् प्रकार से पच्चक्खाण ग्रहण करना चाहिये. तथा-यथोचितं चैत्यगृहगमनमिति // 46 // (176) योग्य रीति से मंदिर में जाना चाहिये. तथा-विधिनाऽनुप्रवेश इति // 47 // (180) और विधिसहित मंदिर में प्रवेश करना चाहिये. तत्र च उचितोपचारकरणमिति // 48 // (181) वहां उचित उपचार (सेवा-भक्ति) करना चाहिये. ततो भावतः स्ववपाठ इति // 46 // (182) तब भाव से स्तोत्र पाठ या स्तवन आदि करना चाहिये. 617 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि ख ततः चैत्यसाधुवन्दनमिति // 50 // (183) तब अरिहंत बिंब व साधु का वन्दन करना चाहिये. ततः गुरुसमीपे प्रत्याख्यानाभिव्यक्तिरिति // 51 // (184) तब गुरु के सम्मुख पच्चक्खाण प्रकट (उच्चार) करना चाहिये. ततो जिनवचनश्रवणे नियोग इति // 52 // (185) फिर जिनवचन सुनने में ध्यान लगाना चाहिये. ततः सयक् तदर्थालोचनमिति // 53 // (186) तब जिनवचन के अर्थ पर सम्यक् रीति से विचार व मनन करना चाहिये. ततः आगमैकपरतेति // 54 // (187) जिन आगम को ही प्रधान मानना चाहिये. ततःश्रुतशक्यपालनमिति // 55 // (188) आगम से सुने हुए का यथाशक्ति पालन करना चाहिये. तथा-अशक्ये भावप्रतिबन्ध इति // 56 // (186) अशक्य अनुष्ठान में भावना रखनी चाहिये. तथा-तत्कतृषु प्रशंसोपचाराविति // 57 // (160) और अशक्य अनुष्ठान करने वाले की प्रशंसा व उपचार करना चाहिये. तथा-निपुणभावचिन्तनम् // 58 // (161) सूक्ष्म बुद्धि से ज्ञात होने वाले भावों का चिंतन करना चाहिये. 618 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि तथा-गुरुसमीपे प्रश्न इति // 56 // (162) और गुरु से प्रश्न करने चाहिये. तथा-निर्णयावधारणमिति // 60 // (163) गुरु के निर्णय किये हुए अर्थ की, वचन की अवधारणा करनी चाहिये. तथा-ग्लानादिकार्याभियोग इति ||61|| (164) ग्लान आदि का कार्य करने में सावधान रहना चाहिये. तथा-कृताकृतप्रत्युपेक्षेति // 62 // (165) कृत व अकृत कार्यो के प्रति सावधानी तत्परता रखनी चाहिये. ततश्च-उचितवेलयाऽऽगमनमिति // 63 // (166) वहां से उचित समय पर घर पर लौटना चाहिये. ततो धर्मप्रधानो व्यवहार इति // 64 // (167) तब धर्मपूर्वक अपना व्यवहार करना चाहिये. तथा-द्रव्ये संतोषपरतेति // 65 // (168) द्रव्य-धन, धान्य आदि में संतोषपरता या संतोष-प्रधानता-मुख्यतः संतोष रखना / धार्मिक पुरुष अपने परिणाम किये हुए के अनुसार तथा निर्वाह मात्र के लिये जो द्रव्य-धन मिले उसी में संतोष रखना चाहिये. तथा-धर्म धनबुद्धिरिति // 66 // (166) 'धर्म ही धन है' ऐसी बुद्धि रखे. 619 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि तथा-शासनोन्नतिकरणमिति // 67 // (200) जैन शासन की उन्नति करना चाहिये. विभवोचितं विधिना क्षेत्रदानमिति // 68 // (201) अपने वैभव के अनुसार विधिवत् क्षेत्र में दान करना चाहिये. सत्कारादिविधिनिःसंगता चेति // 66 // (202) सत्कार आदि सहित मोक्ष से भिन्न सब इच्छाओं का त्याग करके जो काम करे वह विधिवत् है. वीतरागधर्मसाधवः क्षेत्रमिति ||70|| (203) वीतराग धर्म से युक्त साधु योग्य क्षेत्र हैं. तथा-दुःखितेष्वनुकम्पा यथाशक्ति द्रव्यतो भावतश्चेति ||71|| (204) दुःखी पुरुषों पर द्रव्य तथा भाव से यथाशक्ति अनुकम्पा व दया रखनी चाहिये. तथा-लोकापवादभीरुतेति // 72 // (205) लोकापवाद से डरते रहना चाहिये. तथा-गुरुलाघवापेक्षणमिति // 73 // (206) सब बातों में गुरु लघु की-बड़े छोटे की अपेक्षा रखना चाहिये. बहुगुणे प्रवृत्तिरिति // 74 // (207) अधिक गुणवाले में प्रवृत्ति करनी चाहिये. 620 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि तथा-चैत्यादिपूजापुरःसरं भोजनमिति // 75 // (208) चैत्य आदि की पूजा करके भोजन करना चाहिये. तथा-तदन्वेव प्रत्याख्यानक्रियेति 76 // (206) भोजन उपरांत पच्चक्खाण करना चाहिये. तथा-शरीरस्थितौ प्रयत्न इति // 77 // (210) शरीर की स्थिति, उसकी संभाल के लिये प्रयत्न करे या शरीर रक्षा का प्रयत्न करना चाहिये. तथा-तदुत्तरकार्यचिन्तेति // 78 // (211) और (शरीर स्थिति के लिये) भविष्य के कार्यों की चिंता करनी चाहिये. तथा-कुशलभावनायां प्रबन्ध इति // 76 // (212) शुभ भावनाओं में चित्त को लगाना चाहिये. तथा-शिष्टचरितश्रवणमिति ||80 // (213) और शिष्ट पुरुषों के चरित्र का श्रवण करना चाहिये. तथा-सान्ध्यविधिपालनेति ||81 // (214) और संध्याकाल की विधि का पालन करना चाहिये. यथोचितं तत्प्रतिपत्तिरिति ||82|| (215) यथाशक्ति उस विधि को अंगीकार करना चाहिये. NA 621 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी3D गृहस्थ विशेष देशना विधि पूजापुरस्सरं चैत्यादिवन्दनमिति ||83 // (216) संध्यापूजा सहित चैत्यादि का वंदन करना चाहिये. तथा-साधुविश्रामणक्रियेति // 84 // (217) और साधु को विश्राम देने की क्रिया करनी चाहिये. तथा-योगाभ्यास इति // 85 // (218) योग का अभ्यास करना चाहिये. तथा-नमस्कारादिचिन्तनमिति // 86 // (216) नमस्कार आदि का चिंतन करना चाहिये. तथा-प्रशस्तभावक्रियेति // 87 // (220) प्रशंसनीय अंतःकरण भाव करना चाहिये. तथा-भवस्थितिप्रेक्षणमिति // 88|| (221) और संसार की स्थिति का विचार करना चाहिये. तदनु तन्नैर्गुण्यभावनेति // 86 // (222) तब उसकी निस्सारता का विचार करना चाहिये. तथा-अपवर्गालोचनमिति ||60 // (223) और मुक्ति (मोक्ष) का विचार करना चाहिये. तथा-श्रामण्यानुराग इति // 61 // (224) और साधुत्व में अनुराग रखना चाहिये. नि 622 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी गृहस्थ विशेष देशना विधि तथा यथोचितं गुणवृद्धिरिति // 62 // (225) यथोचित गुणवृद्धि करनी चाहिये. तथा-सत्त्वादिषु मैत्र्यादियोग इतीति // 63 // (226) सर्व जीवों के प्रति मैत्री आदि चार भावना रखना चाहिये. विशेषतो गृहस्थस्य, धर्म उक्तो जिनोत्तमैः। एवं सद्भावनासारः, परं चारित्रकारण् // 16 // श्री जिन भगवान ने गृहस्थ का विशेष धर्म जो उत्कृष्ट चरित्र को देने वाला है तथा जिसमें सद्भावना मुख्य है वह इस प्रकार कहा है. पदं पदेन मेधाबी, यथा रोहति पर्वतम्। सम्यक् तथैव नियमात्, धीरश्चारित्रपर्वतम्॥१७॥ जैसे बुद्धिमान क्रमशः कदम कदम से पर्वत पर बढ़ जाता है वैसे ही धीर पुरुष चारित्र पर्वत पर क्रमशः अवश्य चढ़ जाता है. स्तोकान् गुणान् समाराध्य, बहूनामपि जायते। यस्मादाराधनायोग्यः; तस्मादादाक्यं मतः // 18 // मनुष्य छोटे या थोड़े गुणों की आराधना से अधिक गुणों की आराधना के योग्य बनता है अतः पहले गृहस्थ के विशेष धर्म का पालन करना चाहिये. 623 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -वारुवाणी: यति सामान्य देशना विधि एवंविधिसमायुक्तः, सेवमानो गृहाश्रमम् / चारित्रमोहनीयेन, मुच्यते पापकर्मणा // 16 // इस प्रकार विधि से गृहस्थ धर्म को पालने वाला पुरुष चारित्र मोहनीय नामक पापकर्म में से मुक्त हो जाता है. सदाज्ञानाराधनायोगाद्, भावशुद्धेर्नियोगतः / उपायसंप्रवृत्तेश्च, सम्यक्चारित्ररागतः // 20 // प्रभु की शुद्ध आज्ञा को फलन करने से-श्रावक धर्म के पालन करने से हृदय की जो निर्मलता प्राप्त होती है और सम्यक चारित्र पर अनुराग रखने से एवं शुद्ध हेतु को अंगीकार करने की प्रवृत्ति से अवश्य ही चारित्र मोहनीय कर्म क्षय होते है. विशुद्ध सदनुष्ठानं, स्तोकमप्यर्हतां मतम् / तत्त्वेन तेन च प्रत्याख्यानं ज्ञात्वा सुबह्वपि // 21 // शुद्ध व सदनुष्ठान अल्प होने पर भी अरिहंत को मान्य है क्योंकि तत्त्व से प्रत्याख्यान का स्वरूप समझ जाने पर बहुत करने का भी विचार होता है. इति विशेषतो गृहस्थ धर्म उक्तः, सांप्रतं यति धर्मावसर इति यतिमनुवर्णयिष्याम इति // 1 // (227) इस प्रकार गृहस्थ का विशेष धर्म कहा है। अब यतिधर्म करने का अवसर है अतः यति का व यतिधर्म का वर्णन करते हैं. 624 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir -गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि गुरुवाणी यति का स्वरूप कहते हैं अर्हः अर्हसमीपे विधिप्रव्रजितो यतिरिति // 2 // (228) योग्य अधिकारी योग्य व्यक्ति से विधिवत् दीक्षा ले वह यति है. अथ प्रव्रज्याह: आर्य देशोत्पन्नः, विशिष्टजातिकुलान्वितः, क्षीणप्रायकर्ममलः, तत एव विमलबुद्धिः, दुर्लभं मानुष्यं, जन्म मरणनिमित्तं, संपदश्चपलाः, विषया दुःखहेतवः, संयोगे वियोगः, प्रतिक्षणं दारुणो विपाक: इत्यवगतसंसारनैर्गुण्यः, तत एव तद्विरक्तः, प्रतनुकषायः, अल्पहास्यादिः, कृतज्ञः, विनीतः, प्रागपि राजामात्यपौरजनबहुमतः, अद्रोहकारी, कल्याणाङ्गः, श्राद्धः, स्थिरः, समुपसंपन्नश्चेति // 3 // (226) दीक्षा लेने योग्य पुरुष के लक्षण कहते हैं-१-आर्य देश में उत्पन्न, २-विशिष्ट जाति व कुलवाला, ३-कर्म मल प्रायः क्षीण हों, ४-उससे निर्मल बुद्धिवाला, ५-मनुष्य भव दुर्लभ है, जन्म मरण का निमित्त है, संपत्ति चंचल है, विषय दुःख का कारण है, संयोग में वियोग है, मृत्यु प्रतिक्षण है, कर्म विपाक भयंकर है ऐसी संसार की असारता को जानने वाला, ६-अतः संसार से विरक्त, ७-अल्प कषायवाला, ८-थोडा हास्य आदि (नोकषायवाला), ६-कृतज्ञ, १०-विनयवान, ११-पहले भी राजा, मंत्री तथा पुरजन आदि द्वारा सम्मानित, १२-द्रोह न करने वाला, १३-कल्याणकारी अंग व मुखाकृति वाला, १४-श्रद्धावान, १५-स्थिर, १६-दीक्षा के हेतु गुरु समीप आया हुआ. -ह 625 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि गुरुपादार्हस्तु इत्थंभूत एवविधिप्रतिपन्नप्रव्रज्यः,समुपासितगुरुकुलः अस्खलितशीलः, सम्यगधीतागमः, तत एवं विमलतरबोधात् तत्त्ववेदी, उपशान्तः, प्रवचनवत्सलः, सत्त्वहितरतः, आदेयः, अनुवर्तकः, गम्भीरः, अविषादी, उपशमालब्ध्यादिसंपन्नः प्रवचनार्थवक्ता, स्वगुर्वनुज्ञातगुरुपदश्चेतीति // 4 // (230) ऐसे गुणवाला साधु गुरुपद के योग्य है-१-विधिवत् दीक्षित, २-गुरुकुल सम्यक उपासक, ३-अखंड शीलवाला, ४-आगम का सम्यक अध्ययन करने वाला, ५-उससे बोध होने से तत्त्व का ज्ञाता, ६--उपशांत, ७-संघ के हित में तत्पर, ८-प्राणी मात्र के हित में लीन, ६-जिसका वचन ग्रहणीय हो, १०-गणी जनों का अनुकरण करने वाला, ११-गभीर, १२-विषाद (शोक) न पालने वाला १३-उपशम लब्धिवाला, १४-सिद्धांत का उपदेशक, १५-अपने गुरु से गुरुपद प्राप्त. पादार्द्धगुणहीनौ मध्यमाऽवराविति // 5 // (231) पूर्वोक्त गुणों में अगर चौथाई कम हो तो मध्यम श्रेणी का मानिये और अगर आधा भाग कम हो तो जघन्य श्रेणी का मानिये. नियम एवायमिति वायुरिति // 6 // (232) दीक्षा लेने वाले तथा देने वाले में उपरोक्त सर्व गुण अवश्य होने चाहिये, यह वायु नामक आचार्य का मत है. समग्रगुणसाध्यस्य तदर्द्धभावेऽपि तत्सिध्यसंभवादिति // 7 // (233) सकल गुण से साध्य कार्य की सिद्धि आधे गुण होने पर असंभव है // 7 // नैतदेवमिति वाल्मीकिरिति // 8 // (234) वाल्मीकि के मन से ऐसा नहीं है. lain व 626 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि निर्गुणस्य कथश्चिद्गुणभावोपपत्तेरिति // 6 // (235) निर्गुण भी कुछ गुण की प्राप्ति कर सकता है. अकारणमेतदिति व्यास इति // 10 // (236) यह (उपर्युक्त) निष्कारण है ऐसा व्यास कहते हैं. गुणमात्रासिद्धौ गुणान्तरभावनियमाभावादिति // 11 // (237) गुणमात्र की अनुपस्थिति में अन्य गुणों की उत्पत्ति निश्चित ही नहीं हो सकती. नैतदेवमिति सम्राडिति // 12 // (238) यह (व्यास का कथन) ऐसा ही है यह सही नहीं ऐसा सम्राट राजर्षि का मत है. संभवादेव श्रेयस्त्व सिद्धेरिति // 13 // (236) योग्यता से ही श्रेयस्त्व (श्रेयपना) की सिद्धि होती है. यत्किशिदेतदिति नारद इति // 14 // (240) सम्राट का मत वास्तविक नहीं है ऐसा नारद कहते हैं. गुणमात्राद् गुणान्तरभावेऽप्युत्कर्षायोगादिति // 15 // (241) योग्यता मात्र से अन्य गुणों की उत्पत्ति संभव है, उत्कर्ष नहीं. सोऽप्येवमेव भवतीति वसुरिति॥१६॥ (242) गुणोत्कर्ष भी इसी प्रकार होता है यह वसु का मत है. 627 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि अयुक्त कार्षापणधनस्य तदन्यविढपनेऽपि कोटिव्यवहारारोपणमिति क्षीरकदम्बक इति // 17 // (243) कार्षापण धन में अन्य धन के जुड जाने पर भी उसे कोटिध्वज कहना अयुक्त है ऐसा क्षीरकदम्बकका मत है. न दोषो योग्यतायामिति विश्व इति॥१८॥ (244) योग्यता में दोष नहीं, ऐसा विश्व आचार्य का मत है. अन्यतरवैकल्येऽपि गुणबाहुल्यमेव सा तत्त्वत इति सुरगुरुरिति // 16 // (245) किसी गुण के अभाव में भी बहुत गुणों के विद्यमान होने से वही वस्तुतः योग्यता है ऐसा सुरगुरु-बृहस्पति का मत है. सर्वमुपपन्नमिति सिद्धसेन इति // 20 // (246) बुद्धिमान पुरुष जो भी योग्य माने वह सर्व योग्य है ऐसा सिद्धसेन का मत है. भवन्ति त्वल्पा अपि असाधारणगुणाः कल्याणोत्कर्षसाधका इति॥२१॥ (247) असाधारण गुण अल्प हों तो भी कल्याण व उत्कर्ष के साधक हैं उपस्थितस्य प्रश्नाचारकथनपरीक्षादिविधिरिति // 22 // (248) दीक्षा लेने को आये हुए पुरुष से प्रश्न, आचार कथन तथा परीक्षा आदि विधि से उसकी पात्रता जांचना चाहिये. 628 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %=गुरुवाणी -गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि तथा-गुरुजनाद्यनुज्ञेति // 23 // (246) दीक्षा ग्रहण करने वाले को माता-पितादि गुरुजनों की आज्ञा लेना चाहिये. तथा-तथोपधायोग इति॥२४॥ (250) तथा संबंधीवर्ग दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा देवें ऐसी युक्ति करना चाहिये. दुःस्वप्नादिकथनमिति // 25 // (251) दुःस्वप्न आदि कहें. तथा-विपर्ययलिङ्गसेवेति॥२६॥ (252) अपने प्रकृति के और विपरीत चिन्ह प्रदर्शित करें. दैवज्ञैस्तथा तथा निवेदनमिति॥२७॥ (253) ज्योतिषी लोगों से उस उस प्रकार कहलावे. न धर्मे मायेति // 28 // (254) धर्म की साधन करने में जो क्रिया की जाती है वह माया नहीं है. उभयहितमेतदिति // 26 // (255) यह स्व एक, पर दोनों के हित के लिये हैं. यथाशक्ति सौविहित्यापादनमिति॥३०॥ (256) यथाशक्ति माता-पितादि के निर्वाह आदि का उपाय करना चाहिये. 629 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3-गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि ग्लानौषधादिज्ञातात् त्याग इति // 31 // (257) ग्लान औषधि के दृष्टांत से त्याग करे. तथा-गुरुनिवेदनमिति // 32 // (258) दीक्षा लेने वाला गुरु से सर्व बातों का निवेदन करे गुरू को ही सर्वस्व समझे. अनुग्रहधियाऽभ्युपगम इति // 33 // (256) गुरू शिष्य पर अनुग्रह करने की बुद्धि से सम्यक्त्व आदि गुणों की वृद्धि से उसे शिष्य रूप में साधु बनाकर अंगीकार करें. तथा-निमित्तपरीक्षेति // 34 // (260) निमित्त शास्त्र से उसकी परीक्षा करे करनी चाहिये. तथा-उचितकालापेक्षणमिति // 35 // (261) दीक्षा देने के योग्य काल की अपेक्षा रखनी चाहिये. तथा-उपायतः कायपालनमिति // 36 // (262) पृथ्वीकाय आदि का रक्षण हो, इस प्रकार का निर्दोष अनुष्ठान का अभ्यास करना चाहिये. तथा-भववृद्धिकरणमिति // 37 // (263) दीक्षा का फल बताने से दीक्षा लेने के भाव की वृद्धि होती है. 630 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3-गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि - तथा-अनन्तरानुष्ठानोपदेश इति // 38 // (264) दीक्षा लेने के बाद में करने योग्य अनुष्ठान का उपदेश करना चाहिये. तथा-शक्तितस्त्यागतपसी इति // 36 // (265) शिष्य की शक्ति के अनुसार त्याग व तप कराना चाहिये. तथा-क्षेत्रादिशुद्धौ वन्दनादिशुद्धया शीलारोपणमिति // 40 // (266) और क्षेत्र आदि की शुद्धि करके वंदन आदि की शुद्धि से शील का आरोपण करना चाहिये. असङ्गतया समशत्रुमित्रता शीलमिति // 41 // (267) अनासक्ति से शत्रु व मित्र के प्रति समभाव रखना शील है. अतोऽनुष्ठानात् तद्भावसंभव इति॥४२॥ (268) इस अनुष्ठान से शील की उत्पत्ति संभव है. तथा-तपोयोगकारणं चेतिती // 43 // (266) और शिष्य के पास तपोयोग कराना चाहिये. एवं यः शुद्धयोगेन, परित्यज्य गृहाश्रमम् / संयमे रमते नित्यं, सं यतिः परिकीर्तितः // 22 // इस प्रकार शुद्ध आचार से गृहस्थाश्रम छोडकर जो नित्य संयम में विचरण करता है वह यति कहलाता है. - 631 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यति सामान्य देशना विधि एतत् तु संभवत्यस्य, सदुपायप्रवृत्तितः / अनुपायात् तु साध्यस्य, सिद्धि नेच्छन्ति पण्डिताः // 23 // सच्चे उपायों से प्रवृत्ति करने से ही यह यतित्व संभव है। साध्य कार्य की सिद्धि पंडितजन उपाय बिना नहीं इच्छते या उपाय बिना कार्य की सिद्धि संभव नहीं. यस्तु नैवविधो मोहाच्चेष्टते शास्त्रबाधया। स ताहग लिङ्गयुक्तोऽपि, न गृही न यतिर्मतः // 24 // जो उपरोक्त रीति से न चल कर मोह के कारण शास्त्रोल्लंघन करता है वह यति लिंगधारी होने पर भी उभयभ्रष्ट है. O 632 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गरुवाणी यतिधर्म देशना विधि बाहुभ्यां दुस्तरो यद्वत्, क्रूरनको महोदधिः / यतित्वं दुष्करं तद्वत्, इत्याहुस्तत्त्ववेदिनः // 25 // तत्त्ववेत्ता कहते हैं कि जिस प्रकार क्रूर मगर व मत्स्यवाले महोदधि को अपनी दोनों भुजाओं से तैरना कठिन है उसी प्रकार यह यतिधर्म दुष्कर है. अपवर्गः फलं यस्य, जन्म-मृत्यादिवर्जितः / परमानन्दरूपश्च, दुष्करं तन्न चाद्भुतम् // 26 // परम आनंदरूप जन्म मृत्यु आदि से रहित मोक्ष जिस यतिधर्म का फल है वह दुष्कर हो, उसमें क्या आश्चर्य है. भवस्वरूपविज्ञानात्, तद्विरागाच्च तत्त्वतः / अपवर्गानुरागाच्च, स्यादेतन्नान्यथा क्वचित् // 27 // संसार के स्वरूप को जानने से, उस पर वस्तुतः वैराग्य होने से तथा मोक्ष के प्रति अनुराग से यतिधर्म का पालन हो सकता है अन्यथा किसी तरह नहीं. इत्युक्तो यतिः, अधुनाऽस्य धर्ममनुवर्णयिष्यामः / यतिधर्मो द्विविधः, सापेक्षयतिधर्मो निर-पेक्षयतिधमश्चेति // 1 // (270) इस प्रकार यति का स्वरूप कहा अब यतिधर्म कहते हैं। यतिधर्म दो प्रकार का है-१-सापेक्ष यतिधर्म तथा २-निरपेक्ष यतिधर्म. 633 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि तत्र सापेक्षयतिधर्म इति // 2 // (271) उसमें सापेक्ष यतिधर्म का वर्णन पहले करते हैं. यथा-गुर्वन्तेवासितेति // 3 // (272) गुरु के पास शिष्यभाव से रहना चाहिये. तथा-तद्भक्तिबहुमानाविति // 4 // (273) और गुरु की भक्ति तथा बहुमान करना चाहिये. तथा-सदाज्ञाकरणमिति॥५॥ (274) निरंतर गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिये. तथा-विधिना प्रवृत्तिरिति // 6 // (275) और विधिवत् आचार आदि का पालन करना चाहिये. तथा-आत्मानुग्रहचिन्तनमिति // 7 // (276) गुरु द्वारा अपने पर किये उपकार का चिंतन करना चाहिये. तथा-व्रतपरिणामरक्षेति // 8 // (277) चरित्र पालन में आने वाले उपसर्गों से नहीं डरना चाहिये एवं परीषहों को सहन कर यथोचित रीति से दूर करना चाहिये एवं व्रत के परिणाम की रक्षा करनी चाहिये. - 634 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि तथा-आरम्भत्याग इति॥ (278) जिन कार्यों से छ काय में से किसी भी काय के जीव की विराधना हो उनका त्याग करना चाहिये. पृथिव्याद्यसंघट्टनमिति // 10 // (276) पृथ्वीकाय जीवों का आदि का स्पर्श नहीं करना चाहिये. तथा-त्रिधेर्याशुद्धिः // 11 // (280) तीनों दिशाओं (उपर, नीचे या तिरछा) में से आते नाते भली प्रकार से चलो कि किसी जीव की बिराधना न हो. तथा-भिक्षाभोजनमिति // 12 // (281) और भिक्षा मांगकर भोजन करना चाहिये. तथा-आघाताद्यदृष्टिरिति // 13 // (282) जहां जीव हिंसा आदि हो, साधु उसे न देखे. तथा-तत्कथाऽश्रवणमिति // 14 // (283) और ऐसे स्थानों की बात भी न सुनें // 14 // तथा-अरक्तद्विष्टतेति // 15 // (284) और राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये. तथा-ग्लानादिप्रतिपत्तिरिति // 16 // (285) और बीमार आदि की सेवा करनी चाहिये. 635 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी APER यतिधर्म देशना विधि तथा-परोद्वेगाहेतुतेति // 17 // (286) और दूसरों के उद्वेग का कारण नहीं बनना चाहिये. भावतः प्रयत्न इति // 18 // (287) भाव से प्रयत्न करे, (मन से अप्रीति का कारण टाले). तथा-अशक्ये बहिवार इति // 16 // (288) अशक्य अनुष्ठान का त्याग करे या आरंभ न करे. तथा-अस्थानाभाषणमिति // 20 // (286) न बोलने के स्थान पर (अस्थान में) बोलना नहीं चाहिये. तथा-स्खलितप्रतिपत्तिरिति // 21 // (260) और दोष (स्खलन) का प्रायश्चित करना चाहिये. तथा-पारुष्यपरित्याग इति // 22 // (261) और कठोरता का त्याग करना चाहिये. तथा-सर्वत्रापिशुनतेति // 23 // (262) सबके दोष नहीं देखना या दोषारोपण न करना चाहिये. तथा-विकथावर्जनमिति // 24 // (263) और विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा एवं राजकथा) का त्याग करना चाहिये. 636 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि तथा-उपयोगप्रधानतेति // 25 // (264) और उपयोग की प्रधानता रखनी चाहिये. तथा-निश्चितहितोक्तिरिति // 26 // (265) और निश्चित किया हुआ हित वचन बोलना चाहिये. तथा-प्रतिपन्नानुपेक्षेति // 27 // (266) अंगीकृत सदाचार की उपेक्षा न नहीं करनी चाहिये तथा-असत्प्रलापाश्रुतिरिति // 28 // (267) असत् (दुष्ट) पुरुषों के वचन नहीं सुनने चाहिये. तथा-अभिनिवेशत्याग इति // 26 // (268) सभी कार्यों में मिथ्या आग्रह का त्याग करना चाहिये. तथा-अनुचिताग्रहणमिति // 30 // (266) साधु के आचरण के प्रतिकूल वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिये. तथा-उचिते अनुज्ञापनेति // 31 // (300) और योग्य वस्तु के ग्रहण में गुरु की आज्ञा लेनी चाहिये. तथा-निमित्तोपयोग इति // 32 // (301) आहार से पूर्व शकुन आदि निमित्त का विचार करना चाहिये. 637 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि अयोग्येऽग्रहणमिति // 33 // (302) अनुचित आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये. तथा-अन्ययोग्यस्य ग्रह इति // 34 // (303) अन्य साधु या गुरु के योग्य वस्तु को भी ग्रहण कर सकता है. गुरोर्निवेदनमिति // 35 // (304) अपाश्रय से सौहाथ अधिक दूर जाने के लिये या जाकर वस्तु लाने पर पहले आने की ईर्या प्रतिक्रमण आदि आलोयणा करनी चाहिये, तत्पश्चात् गुरु से निवेदन करना चाहिये. स्वममदानमिति // 36 // (305) स्वयं लाने पर भी गुरु आज्ञा के बिना किसी को न दे. क्योंकि वह गुरु को समर्पित की हुयी है. तदाज्ञया प्रवृत्तिरिति // 37 // (306) गुरु की आज्ञा से लायी हुयी सामग्री को वितरित कर देना चाहिये. उचितत्छन्दनमिति // 38 // (307) योग्य पुरुष की निमन्त्रणा करना चाहिये. धर्मायोपभोग इति // 36 // (308) तथा सामग्री का कुछ भाग धर्म के लिये उपभोग करना चाहिये. 638 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि तथा-विविक्तवसतिसेवेति // 40 // (306) और एकांत स्थान में निवास करना चाहिये. तत्र स्त्रीकथापरिहार इति // 41 // (310) उसमें स्त्रीकथा का त्याग करना चाहिये. निषद्यानुपवेशनमिति // 42 // (311) स्री के आसन पर नहीं बैठना चाहिये. इन्द्रियाप्रयोग इति // 43 // (312) स्त्री के अवयवों की तरफ इंद्रियों का प्रयोग नहीं करना चाहिये. कुड्यान्तरदाम्पत्यवर्जनमिति // 44 // (313) यदि एक दीवार के अन्तर से दम्पत्ति रहते हों, तो वहां नहीं रहना चाहिये. पूर्वक्रीडितास्मृतिरिति // 45 // (314) स्त्री के साथ की हुई पहले की क्रीडा का स्मरण नहीं करना चाहिये. प्रणीताभोजनमिति // 46 // (315) अतिस्निग्ध भोजन का त्याग करना चाहिये. अतिमात्राभोग इति // 47 // // 316 // अतिशय आहार नहीं करना चाहिये. 639 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि श्र विभूषापरिवर्जनमिति // 48 // (317) श्रृंगार का त्याग करना चाहिये. तथा-तत्त्वाभिनिवेश इति // 46 // (318) सम्यक दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की पुष्टि करने वाली सभी क्रियाओं के प्रति मन से भाव व आदर रखना चाहिये. तथा-युक्तोपधिधारणमिति // 50 // (316) और योग्य सामग्री रखनी एवं धारण करनी चाहिये. तथा-मूर्खात्याग इति // 51 // (320) सामग्री कम होने पर उसमें ममत्व नहीं रखना चाहिये. तथा-अप्रतिबद्धविहरणमिति // 52 // (321) और प्रतिबंधभाव रहित ममत्व रहित भावना से विहार करना चाहिये. तथा-परकृतबिलवास इति॥ 54 // (322) देवेन्द्र, राजा, गृहपति, शव्यातर एवं सधार्मिक इन पांचों की अनुज्ञा से शुद्धि करके निवास करना चाहिये. मासादिकल्प इति // 55 // (323) मास आदि कल्प के अनुसार विहार करना चाहिये. एकत्रैव तक्रियेति // 56 // (324) एक ही क्षेत्र में मासकल्प आदि करना चाहिये. - P SaU 640 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3Dगुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि तत्र च सर्वत्राममत्वमिति // 57 // (325) वहां भी सब वस्तुओं में ममत्वरहित होना चाहिये. तथा-निदानपरिहार इति // 58 // (326) निष्काम प्रवृति से मोक्ष को लक्ष्य रख कर और नियाणा का त्याग करना चाहिये. विहितमिति प्रवृत्तिरिति // 56 // (327) सब क्रियायें शास्त्रोक्त हैं, अतः प्रवृत्ति करना चाहिये. तथा-विधिना स्वाध्याययोग इति // 60 // (328) और विधिवत् स्वाध्याय करना चाहिये. तथा-आवश्यकापरिहाणिरिति // 61 // (326) साधु को अपनी आवश्यक क्रियाओं का भंग नहीं करना चाहिये. तथा-यथाशक्ति तपःसेवनमिति // 62 // (330) / और शक्तिके अनुसार तप करना चाहिये. तथा-परानुग्रहक्रियेति // 63 // (331) और दूसरों पर अनुग्रह हो ऐसी क्रिया नहीं करनी चाहिये. तथा-गुणदोषनिरूपणमिति // 64 // (332) और सब क्रियाओं में गुण दोष का ध्यान रखना चाहिये. 641 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि - तथा-बहुगुणे प्रवृत्तिरिति // 65 // (333) और अधिक गुणवाली क्रिया में प्रवृत्ति करनी चाहिये. तथा-क्षान्तिर्मादवमार्जवमलोभतेति // 66 // (334) क्षमा, मृदुता, सरलता और संतोष रखना चाहिये. क्रोधाद्यनुदय इति // 67 // (335) क्रोध आदि का उदय न होने देना चाहिये. तथा-वैफल्यकरणमिति // 68 // (336) और उदय हुए क्रोध आदि को निष्फल करना चाहिये. विपाकचिन्तेति // 66 // (337) कषायों के फल का विचार करना चाहिये. तथा-धर्मोत्तरो योग इति // 70 // (338) मन, वचन व काया से ऐसा काम करे जिसका फल धर्म होना चाहिये. तथा-आत्मानुप्रेक्षेति // 71 // (336) और साधु को अपने आपकी अपने मन में उठते हुय भावों की तथा कार्यों की स्वयं आलोचना करनी चाहिये. उचितप्रतिपत्तिरिति // 72 // (340) इस प्रकार आत्मनिरीक्षण से योग्य अनुष्ठान अंगीकार करना चाहिये. - -न 642 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि तथा-प्रतिपक्षासेवनमिति // 73 // (341) और दोषों के शत्रुरूप गुणों का सेवन करना चाहिये. तथा-आज्ञाऽनुस्मृतिरिति 74 // (342) और भगवान की आज्ञा का स्मरण रखना चाहिये. तथा-समशत्रुमित्रतेति // 75 // (343) शत्रु व मित्र में समान भाव रखना चाहिये. तथा-परीषहजय इति // 76 // (344) और परीषह को जीतना चाहिये. तथा-उपसर्गातिसहनमिति // 77 // (345) और उपसर्गों को अति सहन करना चाहिये. तथा-सर्वथा भयत्याग इति // 78 // (346) और सब प्रकार से भय का त्याग करे. तथा-तुल्याश्मकाथनतेति // 76 // (347) और आसक्ति रहित होकर पत्थर व स्वर्ण को बराबर मानना चाहिये. तथा-अभिग्रहग्रहणमिति // 0 // (348) और अभिग्रह धारण करना चाहिये. तथाविधत्वपालनमिति // 1 // (346) और विधिवत् उनका पालन करना चाहिये. न 643 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि O TOP तथा-यथार्हध्यानयोग इति // 2 // (350) और उचित धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान को धारण करना चाहिये. तथा-अन्ते संलेखनेति // 3 // (351) और अंतकाल समीप आने पर संलेखना करनी चाहिये. संहननाद्यपेक्षणमिति // 54 // (352) अपने सामर्थ्य की अपेक्षा रखनी चाहिये. भावसंलेखनायां यत्न इति // 65 // (353) भाव संलेखना का प्रयत्न करना चाहिये. ततो विशुद्धं ब्रह्मचर्यमिति॥८६॥ (354) फिर विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये. विधिना देहत्याग इतीति // 7 // (355) देह त्याग करते समय, मृत्यु के उपस्थित होने पर आलोयणा करना, व्रत का उच्चार करना, सर्व जीवों से क्षमायाचना करना, प्रायश्चित करना व शुभ भावना रखनी चाहिये. निरपेक्षयतिधर्मस्त्विति // 88 // (356) निरपेक्ष यतिधर्म इस प्रकार है. Ma 644 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि Gra वचनगुरुतेति // 86 // (357) जिस प्रकार सापेक्ष यतिधर्म में गुरु की आज्ञा से ही प्रवृत्ति या निवृत्ति की जाती है उसी प्रकार निरपेक्ष यतिधर्म में शास्त्रोक्त विधि से ही प्रवृत्ति या निवृत्ति की जाती है. तथा-अल्पोपधित्वमिति ||60 // (358) उपकरण (सामग्री) कम रखनी चाहिये. तथा-निष्प्रतिकर्म शरीरतेति // 61 // (356) और प्रतीकार रहितता से शरीर धारण करना चाहिये. अपवादत्याग इति // 2 // (360) अपवाद मार्ग का त्याग करना चाहिये. तथा-ग्रामैकरात्रादिविहरणमिति // 63 // (361) और गांव या नगर में एक रात्रि आदि प्रकार से विहार करना चाहिये. तथा-नियतकालचारितेति // 64 // (362) और नियतकाल में भिक्षाटन करना चाहिये. तथा-प्राय ऊर्ध्वस्थानमिति // 65 // (363) और प्रायः कायोत्सर्ग मुद्रा में रहना चाहिये. तथा-देशनायामप्रबन्ध इति // 66 // (364) और देशना देने में बहुत भाव नहीं रखना चाहिये. 645 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म देशना विधि तथा-सदाऽप्रमत्ततेति // 67 // (365) और निरंतर प्रमाद रहित रहना चाहिये. तथा-ध्यानैकतानत्वमिति // 68 // (366) और ध्यान में एकाग्रता रखनी चाहिये. सम्यग्यतित्वमाराध्य, महात्मानो यथोदितम् / संप्राप्नुवन्ति कल्याणमिहलोके परत्र च // 28 // महात्मा लोग उपरोक्त यतिधर्म को द्रव्य व भाव से सम्यक प्रकार से आराधना करके इस लोक में तथा परलोक में कल्याण को प्राप्त होते हैं. क्षीराश्रवादिलब्ध्योघमासाद्य परमाक्षयम् / कुर्वन्ति भव्यसत्त्वानामुपकारमनुत्तमम् // 26 // वे महात्मा क्षीराश्रव आदि उत्तम तथा अक्षय लब्धि पाकर भव्य प्राणियों पर अति उत्तम उपकार करते हैं. मुच्यन्ते चाशु संसारादत्यन्तमसमञ्जसात् / जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-रोग-शोकाधुपद्रुतात् // 30 // वे महापुरुष जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, रोग, शोक आदि उपद्रवयुक्त अत्यंत अयोग्य ऐसे इस संसार से तुरंत मुक्ति प्राप्त करते है. 646 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि आशयाधुचितं ज्यायोऽनुष्ठानं सूरयो विदुः / साध्यसिद्धयङ्गमित्यस्माद् यतिधर्मो द्विधा मतः // 31 // आशय से उचित अनुष्ठान को आचार्य श्रेष्ठ कहते हैं। वह साध्य (मोक्ष) की सिद्धि का अंग है अतः यतिधर्म (सापेक्ष और निरपेक्ष) दो प्रकार का है. समग्रा यत्र सामग्री, तदपेक्षेण सिद्धयति। दवीयसाऽपि कालेन, वैकल्येतु न जातुचित् // 32 // जहां सब सामग्री होती है तो कार्य तत्काल सिद्ध होता है पर सामग्री के अभाव में तो काफी समय जाने पर भी सिद्धि हो या न भी हो. तस्माद् यो यस्य योग्यः स्यात्, तत् तेनालोच्य सर्वथा। आरब्धव्यमुपायेन, सम्यगेष सतां नयः // 33 // अतः जो जिसके योग्य हो, उसका, सापेक्ष या निरपेक्ष यतिधर्म का पूर्णतया विचार करके उपाय सहित प्रारंभ करे। यही सत्पुरुषों का न्याय मार्ग है. इत्युक्तो यतिधर्मः,इदानीमस्य विषयविभाग-मनुवर्णयिष्याम इति // 1 // (368) इस प्रकार यतिधर्म कहा है। अब इसके विषय विभागों का वर्णन करते हैं 647 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि तत्र कल्याणाशयस्य श्रुतरत्नमहोदधेः उपशमादि लब्धिमतः परहिताद्यतस्य अत्यन्तगम्भीरचेतसःप्रधानपरिणतेर्विधूतमोहस्य परमसत्त्वार्थकर्तुः सामायिकवतः विशुद्धमानाशयस्य यथोचितप्रवृत्तेः सात्मीभूतशुभ-योगस्य श्रेयान् सापेक्षयतिधर्म एवेति // 2 // (366) यतिधर्म में शुभ आशयवाला, शास्ररत्नों का समुद्र, उपशम आदि लब्धिप्राप्त, परहित में तत्पर, अत्यंत गंभीर चित्तवाला, उत्तम परिणतिवाला, मोह (मूर्खता) को नाश करनेवाला, जीवों के लिये उत्तम मोक्षरूप प्रयोजन को साधनेवाला, सामायिकवाला, जिसका आशय शुद्ध पवित्र है, उचित प्रवृत्ति करनेवाला, और शुभ योग को आत्मा के साथ जोडनेवाला जो पुरुष (या वचनप्रामाण्यादिति // 3 // (370) भगवान की आज्ञा इसका प्रमाण है. संपूर्णदशपूर्वविदो निरपेक्षधर्मप्रतिपत्ति-प्रतिषेधादिति // 4 // (371) संपूर्ण दश पूर्व जाननेवाले को निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार करने का निषेध है. परार्थसंपादनोपपत्तेरिति // 5 // (372) सापेक्ष यतिधर्म पालन करने से परोपकार होता है // 5 // तस्यैव च गुरुत्वादिति // 6 // (373) धर्म के सब अनुष्ठानों में परोपकार ही सबसे उत्तम है. सर्वथा दुःखमोक्षणादिति // 7 // (374) परोपकार करने से सब दुखों से मुक्ति होती है. 648 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि तथा-संतानप्रवृत्तेः // 8 // (375) परोपकार करने शिष्य, प्रशिष्य के प्रवाह रूप संतान की उत्पत्ति होती है. तथा-योगत्रयस्याप्युदग्रफलभावादिति // 6 // (376) और तीनों योगों का बड़ा फल मिलता है इस हेतु से. तथा-निरपेक्षधर्मोचितस्यापि तत्प्रतिपत्तिकाले पर-परार्थसिद्धौ तदन्यसंपादकाभावे प्रतिपत्तिप्रतिषेधाच्चेति // 10 // (377) और निरपेक्ष यतिधर्म के योग्य पुरुष को भी अंगीकार करते समय अन्य जीवों की उत्कष्ट सिद्धि कराने के लिये अन्य परुष का अभाव हो तो निरपेक्ष यतिधर्म का अंगीकार करने का प्रतिषेध है अतः परहित ही उत्तम मार्ग है. नवादिपूर्वधरस्य तु यथोदितगुणस्यापि साधुशिष्यनिष्पत्तौ ___ साध्यान्तराभावतः सति कायादिसामर्थ्य सद्वीर्याचारसेवनेन तथा प्रमादजयाय सम्यगुचितसमये आज्ञाप्रमाण्यतस्तथैव योगवृद्धः प्रायोपवेशनवच्छ्रेयान्निरपेक्षयतिधर्म इति // 11 // (378) पूर्वोक्त गुणों सहित नव से अधिक पूर्वधारी अच्छे शिष्य प्राप्त करके, अन्य साध्य कार्य के अभाव में, शरीर सामर्थ्य होने पर, सवीर्याचार के सेवन से, प्रमाद को जीतने के लिये योग्य समय होने पर तथा भोग की वृद्धि के लिये आज्ञा के प्रमाण से अनशन की तरह निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार करे वह अति उत्तम है. तथा-तत्कल्पस्य च परं परार्थलब्धिविकलस्येति // 12 // (376) और जो पूर्वोक्त गुणवाला हो परन्तु अन्यों पर उपकार करने की शक्ति रहित हो वह भी निरपेक्ष यतिधर्म के योग्य है. 649 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पास -गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि - उचितानुष्ठान हि प्रधानं कर्मक्षयकारणमिति // 13 // (380) योग्य अनुष्ठान कर्मक्षय करने का मुख्य माध्यम है. उदग्रविवेकभावाद् रत्नत्रयाराधनादिति // 14 // (381) उत्कट विवेक से तीन रत्नों का आराधन होता है, उससे कर्मक्षय होता है. अननुष्ठानमन्यदकामनिर्जराङ्गमुक्तविपर्ययादिति॥१५॥ (382) पूर्वोक्त से विपरीत अनुष्ठान अनुष्ठान ही नहीं, वह अकाम निर्जरा का अंग है. निर्वाणफलमत्र तत्त्वतोऽनुष्ठानमिति // 16 // (383) जिस अनुष्ठान का फल मोक्ष है वही तत्त्वतः अनुष्ठान है. न चासदभिनिवेशवत् तदिति // 17 // (384) वह अनुष्ठान मिथ्याभिनिवेशवाला नहीं होता. अनुचितप्रतिपत्ती नियमादसदभिनिवेशो-ऽन्यत्रानाभोगमात्रादिति॥१८॥ (385) अज्ञात अवस्था सिवाय अनुचित अनुष्ठान में प्रवृत्ति हो वह निश्चित दुराग्रह है. संभवति तद्वतोऽपि चारित्रमिति // 16 // (386) केवल अज्ञानता से अनुचित प्रवृत्ति करने वाले को भी चरित्र संभव है. अनभिनिवेशवाँस्तु तद्युक्तः खल्वतत्त्वे // 20 // (387) चारित्रवान पुरुष अतत्त्व में आग्रहरहित होता है. - 650 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3 Dगरुवाणी3D यतिधर्म विशेष देशना विधि स्वस्वभावतोत्कर्षादिति // 21 // (388) अपने स्वभाव से उत्कृष्टता प्राप्त होती है. मार्गानुसारित्वादिति // 22 // (386) ज्ञान, दर्शन चारित्र की मार्गानुसारिता से स्वभाव की उच्चता होती है. तथा-रुचिस्वभावत्वादिति // 23 // (360) उसमें रुचि का स्वभाव होने से मार्गानुसारिता प्राप्त होती है. श्रवणादौ प्रतिपत्तेरिति॥२४॥ (361) शास्र श्रवण से (भूल) अंगीकार करने से मार्ग में रुचि होती है. असदाचारगर्हणादिति // 25 // (362) असदाचार की निन्दा करने से सन्मार्ग में रूचि होती है. इत्युचितानुष्ठानमेव सर्वत्र श्रेय इति // 26 // (363) अतः उचित अनुष्ठान ही सब जगह श्रेयस्कर है. भावनासारत्वात् तस्येति॥२७॥ (364) भावना की प्रधानता से उचित अनुष्ठान श्रेयकारी है. इयमेवं प्रधानं निःश्रेयसाङ्गमिति // 28 // (365) भावना ही मोक्ष का प्रधान कारण है. एतत्स्थै र्याद्धि कुशलस्थैर्योपपत्तेरिति // 26 // (366) भावना की स्थिरता से सर्व कुशल आचरणों की स्थिरता होती है. 651 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि भावनानुगतस्य ज्ञानस्य तत्त्वतो ज्ञानत्वादिति // 30 // (367) भावना के अनुसार ज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है. न हि श्रुतमय्या प्रज्ञया, भावनाद्दष्टज्ञातं नामेति // 31 // (368) श्रुतमय बुद्धि से जाना हुआ ज्ञान नहीं, पर भावना से देखा व जाना हुआ ज्ञान हैं. उपरागमात्रत्वादिति // 32 // (366) क्योंकि श्रुतज्ञान केवल बाह्य ज्ञान है. द्दष्टवदपायेभ्योऽनिवृत्तेरिति // 33 // (400) द्दष्ट अनर्थ से व्यक्ति निवृत्ति नहीं पाता. एतन्मूले च हिताहितयोः प्रवृत्ति निवृत्तिरिति // 34 // (401) हित में प्रवृत्ति व अहित से निवृत्ति-इसका मूल ही भावना ज्ञान है. अत एव भावनाद्दष्टज्ञाताद् विपर्ययायोग इति // 35 // (402) इस कारण से ही भावज्ञान द्वारा देखे जाने व जानने पर विपरीत प्रवृत्ति नहीं होती. तद्वन्तो हि द्दष्टापाययोगेऽप्यद्दष्टापायेभ्यो निवर्तमाना दृश्यन्त एवान्य-रक्षादावितीति // 36 // (403) भावनाज्ञान वाले पुरुष द्दष्ट कष्टों की (मरण आदि) प्राप्ति होने पर भी अद्दष्ट (नरक) कष्टों से निवृत्ति पाकर अन्य जीवों की रक्षा में प्रवृत्त होते हैं. 652 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि इति मुमुक्षोः सर्वत्र भावनायामेव यत्नः श्रेयानिति // 37 // (404) इस प्रकार मुमुक्षु सर्वत्र भावना में ही यत्न करें यही श्रेयस्कारी है. तद्भावे निसर्गत एव सर्वथा दोषोपरतिसिद्धेरिति // 38 // (405) भावनाज्ञान द्वारा स्वभावतः उपरामसिद्धि (दोषों से निवृत्ति) होती है. वचनोपयोगपूर्वा विहितप्रवृत्तियोनिरस्या इति // 36 // (406) वचन के उपयोग सहित शास्र में कहे हुए अनुष्ठान की प्रवृत्ति भावना का कारण है. महागुणत्वाद् वचनोपयोगस्येति // 40 // (407) शास्त्रोक्त वचनोपयोग महागुणकारी है. तत्र ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पस्य भगवतो बहु-मानगर्भ स्मरणमिति // 41 // (408) वचनोपयोग द्वारा प्रवृत्ति से अचिन्त्य चिन्तामणि समान भगवान का बहुमान सहित स्मरण होता हैं. भगवतैवमुक्तमित्याराधनायोगादिति // 42 // (406) भगवान ने ऐसा कहा है इस प्रकार के आराधना योग से (स्मरण होता है). एवं च प्रायो भगवत एव चेतसि समवस्थानमिति // 43 // (410) इस प्रकार प्रायः भगवान की ही ठीक प्रकार से चित्त में स्थापना होती है. तदाज्ञाराधनाच्च तद्भक्तिरेवेति // 44 // (411) भगवान की आज्ञा की आराधना से भगवान की ही भक्ति होती है. 653 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी = यतिधर्म विशेष देशना विधि उपदेशपालनैव भगवद्भक्तिः, नान्या, कृतकृत्यत्वादिति // 45 // (412) भगवान के उपदेश का पालन करना ही भगवान की भक्ति है. उचितद्रव्यस्तवस्यापि तद्रूपत्वादिति // 46 // (413) उचित द्रव्यस्तव भी उपदेशपालनरूप है अतः वह भी भक्ति है. भावस्तवाङ्गतया विधानादिति // 47 // (414) द्रव्यस्तव भावस्तव का अंग है ऐसा कहा हुआ है // 47 // हृदि स्थिते च भगवति क्लिष्टकर्म-विगम इति // 48 // (415) भगवान हृदय में रहने से किलष्ट कर्मों का क्षय होता है. जलानलवदनयोर्विरोधादिति // 46 // (416) भगवान का स्मरण से क्लिष्ट कर्म का क्षय हो जाता है, जिस प्रकार जल द्वारा अग्नि समाप्त हो जाती है. इत्युचितानुष्ठानमेव सर्वत्र प्रधानमिति // 50 // (417) इस प्रकार उचित अनुष्ठान ही सब जगह मुख्य है. प्रायोऽतिचारासंभवादिति // 51 // (418) प्रायः उचित अनुष्ठान में अतिचार संभव नहीं है। (अतः उचित अनुष्ठान मुख्य है). यथाशक्ति प्रवृत्तेरिति // 52 // (416) यथाशक्ति प्रवृत्ति करने से अतिचार सम्भव नहीं है. 654 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि सद्भावप्रतिबन्धादिति // 53 // (420) सद्भाव में चित्त लगाने से यथाशक्ति प्रवृत्ति होती है. इतरथाऽऽर्तध्यानोपपत्तिरिति // 54 // (421) शक्ति उपरान्त करने से आर्त ध्यान का प्रसंग आता है. अकालोत्सुक्यस्य तत्त्वतस्तत्त्वादिति // 55 // (422) अकाल उत्सुकता वस्तुतः आर्तध्यान ही है. नेदं प्रवृत्तिकालसाधनमिति // 56 // (423) उत्सुकता प्रवृत्तिकाल का साधन नहीं है. इति सदोचितमिति // 57 // (424) * अतः निरंतर उचित कार्य करे. तदा तदसत्त्वादिति // 58 // (425) उस समय वह उत्सुकता असत् है. प्रभूतान्येव तु प्रवृत्तिकालसाधनानीति // 56 // (426) प्रवृत्तिकाल के बताने वाले साधन (कारण) बहुत है. निदानश्रवणादेरपि केषाञ्चत् प्रवृत्तिमात्र-दर्शनादिति // 60 // (427) निदान, श्रवण आदि से भी कईयों की प्रवृत्ति होती दिखती है. तस्यापि तथा पारम्पर्यसाधनत्वमिति // 61 // (428) __ वह प्रवृत्तिमात्र भी तथा भव वैराग्य आदि से उस परंपरा का साधन है. गन 655 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि यतिधर्माधिकारश्चायमिति प्रतिषेध इति // 62 // (426) शुद्ध यतिधर्म के अधिकार में इस प्रवृत्तिमात्र का निषेध है. न चैतत्परिणते चारित्रपरिणामेति // 63 // (430) चारित्र के परिणाम की उत्पत्ति होने से उत्सुकता नहीं होती. तस्य प्रसन्नगम्भीरत्वादिति // 64 // (431) चारित्र के परिणाम की प्रसन्नता व गम्भीरता से अनुचित अनुष्ठान नहीं होगा. हितावहत्वादिति // 65 // (432) चारित्र का परिणाम हितकारी है. चारित्रिणां तस्साधनानुष्ठानविषयस्तूपदेशः प्रतिपात्यसौ, कर्म-वैचित्र्यादिति // 66 // (433) उपदेश चारित्र परिणाम को साधनेवाला अनुष्ठान है, क्योंकि कर्म की विचित्रता से चारित्र परिणाम मिट सकते हैं अतः उपदेश आवश्यक है. तत्संरक्षणानुष्ठानविषयश्च चक्रादिप्रवृत्यवसान भ्रमाधानज्ञातादिति // 67 // (434) चारित्र की रक्षा के लिये अनुष्ठानवाला उपदेश इस प्रकार है; जैसे चक्र आदि की गति मंद होने पर दंड आदि से गति तीव्र की जाती है. माध्यस्थ्ये तद्वैफल्यमेवेति // 68 // (435) मध्यस्थता में उपदेश की निष्फलता है. Jala AMRAPE 656 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि स्वयं भ्रमणसिद्धेरिति // 66 // (436) आत्मा के अपने आप ही भ्रमण में सिद्धि है. भवयतिर्हि तथा कुशलाशयत्वादशक्तोऽसम असप्रवृत्तावितरस्यामिवेतर इति // 70 // (437) भावयति कुशल आशय वाला होने से अयोग्य प्रवृत्ति करने में असमर्थ है __ओर जो भावयति नहीं वह योग्य प्रवृत्ति करने में असमर्थ है. इति निदर्शनमात्रमिति // 71 // (438) यह समानता केवल द्दष्टांत मात्र कही है. न सर्वसाधर्म्ययोगेनेति // 72 // (436) उपरोक्त द्दष्टांत सब प्रकार से साद्दश्य योग का नहीं है. यतेस्तदप्रवृत्तिमितस्य गरीयस्त्वादिति // 73 // (440) भाव यति की अनुचित कार्य में प्रवृत्ति न होने का निमित्त मुख्य है. वस्तुतः स्वाभाविकत्वादिति // 4 // (441) वास्तव में सम्यग्दर्शन आदि आत्मा के स्वाभाविक गुण है. तथा सद्भाववृद्धेः फलोत्कर्षसाधनादिति // 75 // (442) और शुभ भाव की वृद्धि मोक्षरूप महाफल को देने वाली है. उपप्लवविगमेन तथावभासनादितीति // 76 // (443) राग-द्वेषादि उपद्रव का नाश होने से वैसा बोध होता है. 657 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी यतिधर्म विशेष देशना विधि एवंविधयतेः प्रायो, भावशुद्धेर्महात्मनः / विनिवृत्ताग्रहस्योच्चैः, मोक्षतुल्यो भवोऽपि हि॥३४॥ दुराग्रह रहित इस प्रकार भावशुद्धिवाले उचित अनुष्ठान वाले महात्मा भाव यति के लिये प्रायः यह संसार ही मोक्ष समान है. सद्दर्शनादिसंप्राप्तेः, संतोषामृतयोगतः / भावैश्वर्यप्रधानत्वात्, तदासन्नत्वतस्तथा // 35 // सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति से, संतोषरूपी अमृत को प्राप्त कर लेने से, भावरूपी ऐश्वर्य की मुख्यता से और मोक्ष की समीपता से यहां ही मोक्ष कहा है. उक्तं मासादिपर्यायवृद्धया द्वादशाभिः परम् / तेजः प्राप्तोति चारित्री, सर्वदेवेभ्य उत्तमम् // 36 // मासादिक पर्याय की वृद्धि करके बारह महीने तक चारित्र को धारण करने वाला सर्व देवताओं से उत्तम तेज उत्कृष्ट सुख को प्राप्त करता है. न 658 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्मफल देशना विधि फलप्रधान आरम्भः, इति सल्लोकनीतितः / संक्षेपादुक्तमस्येदं, व्यासतः पुनरुच्यते // 37 // सत्पुरुषों की नीति फलप्रधान कार्य आरंभ करने की है। अतः धर्म का यह फल है ऐसा संक्षेप में पहले बताया है उसे विस्तार से अब कहते हैं. प्रवृत्त्यङ्गमदः श्रेष्ठ, सत्त्वानां प्रायशश्च यत् / आदौ सर्वत्र तद् युक्तमभिधातुमिदं पुनः // 38 // सब कार्यो में प्राणियों की प्रवृत्ति होने का कारण प्रायः उसका फल है अतः उसे कहना श्रेष्ठ है अतः प्रारंभ में संक्षेप से और अब विस्तार से कहना युक्त है. विशिष्टं देवसौख्यं, यच्छिवसौख्यं च यत्परम् धर्मकल्पद्रुमस्येदं, फलमाहुर्मनीषिणः // 36 // देव सम्बन्धी महान सुख तथा मोक्षरूपी उत्कृष्ट सुख धर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल है, ऐसा बहुत बुद्विमान पुरुष कहते है. इत्युक्तो धर्मः, सांप्रतमस्य फलमनुवर्णयिष्यामः // 1 // (444) इस प्रकार गृहस्थ धर्म व यतिधर्म कहा अब उसके फल का वर्णन करते हैं. द्विविधं फलम्-अनन्तर-परम्परभेदादिति // 2 // (445) अनन्तर व परंपरा भेद से फल दो प्रकार का है. तत्रानन्तरफलमुपप्लवहास इति // 3 // (446) उसका अनन्तर फल तो रागादि उपद्रव का नाश हो जाना है. G 659 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्मफल देशना विधि CIPE - तथा-भावैश्वर्यवृद्धिरिति // 4 // (447) और भाव ऐश्वर्य की वृद्धि होना भी है. तथा-जनप्रियत्वमिति // 5 // (448) और लोकप्रिय होना है. परम्परफलं तु सुगतिजन्मोत्तमस्थान-परम्परानिर्वाणावाप्तिरिति // 6 // (446) अच्छी गति में जन्म, उत्तम स्थान की प्राप्ति तथा परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति परंपरा फल है. सुगतिर्विशिष्टदेवस्थानमिति // 7 // (450) उच्च देवलोक में जन्म होने को सुगति कहा है. तेत्रोत्तमा रूपसंपत्, सतस्थितिप्रभाव सुखद्युति-लेश्यायोगः, विशुद्धेन्द्रियावधित्वम्, प्रकृष्टानि भोगसाधनानि, दिव्यो विमाननिवहः, मनो-हराण्युद्यानानि, रम्या जलाशयाः, कान्ता अप्सरसः, अतिनिपुणाः किङ्कराः, प्रगल्भो नाटयविधिः, चतुरोदारा ___ भोगाः, सदा चित्ताह्लादः, ' अनेक-सुखहेतुत्वम्, कुशलानुबन्धः,महाकल्याणपूजाकरणम्, तीर्थङ्करसेवा, सद्धर्मश्रुतौ रतिः, सदा सुखित्व-मिति // 8 // (451) उस देवलोक में उत्तम रूप संपत्ति, सुंदर स्थिति, प्रभाव, सुख, कांति व लेश्या की प्राप्ति, निर्मल इन्द्रिय और अवधिज्ञान, उच्च भोग के साधन, दिव्य विमानों का समूह, मनोहर उद्यान, रम्य जलाशय, सुदर अप्सराएं, अतिचतर सेवक अतिरमणीय नाटकविधि, चतर उदार भोग, सदा चित्त में आनन्द, अनेकों के सुखों का कारण, सुंदर परिणामवाले कार्यो की परंपरा, महाकल्याणकों में पूजा करना, तीर्थंकर की सेवा, सद्धर्म सुनने में हर्ष और निरंतर सुख-इन सबकी प्राप्ति होना धर्म के परंपराफल हैं. 660 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी धर्मफल देशना विधि देश तथा-तच्च्युतावति विशिष्टे देशे विशिष्ट एव काले स्फीते महाकुले निष्कलङ्केऽन्वयेन उदग्रे सदाचारेण आख्यायिकापुरुषयुक्ते अनेकमनोरथापूरकमत्यन्तनिरवद्यं जन्मेति // 6 // (452) और देवलोक से च्यवन होने के बाद भी अच्छे देश में, अच्छे काल में, प्रसिद्ध महाकुल में, वंश में कलंकरहित, सदाचार से बड़ा, और जिसके बारे में कथा-वार्ता लिखी जावे ऐसे पुरुषयुक्त महाकुल में, अनेक मनोरथों को पूर्ण करनेवाला ऐसा अत्यन्त दोष रहित जन्म होता है. सुन्दरं रूपं आलयो लक्षणानां रहितमामयेन युक्त प्रज्ञया संगतकलाकलापेन||१०॥ (453) सुन्दर रूप व लक्षणों सहित, रोग रहित, बुद्धियुक्त और कलाकलाप सहित (जन्म होता है). तथा-गुणपक्षपातः, असदाचारभीरुता, कल्याणमित्रयोगः सत्कथाश्रवणं, मार्गानुगोबोधः, सर्वोचितप्राप्तिः हिताय सत्त्वसंघातस्य, परितोषकारी गुरूणां संवर्द्धनो गुणान्तरस्य निदर्शनं जनानां, अत्युदार आशयः, असाधारणविषयाः, रहिताः संक्लेशेन अपरोपतापिनः, अमङ्गुलावसानाः // 11 // (454) और मनुष्य जन्म में उसे गुण के पक्षपात, असदाचार से डर, पवित्र बुद्धि देनेवाले मित्र की प्राप्ति, अच्छी कथाओं का श्रवण, मार्ग को अनुकरण करने का बोध, सब जगह (धर्म, अर्थ व काम में) उचित वस्तु की प्राप्ति होती है। वह उचित वस्त की प्राप्ति प्राणी मात्र के हित के लिये गरुजनों को संतोष देने के लिये, दूसरे गुणों को बढानेवाली और अन्य लोगों के लिये द्दष्टांत लायक होती हैं. वह बहुत उदार आशयवाला होता है और उसे असाधारण विषयों की प्राप्ति होती है, जो क्लेशरहित, दूसरों को कष्ट न देने वाले और परिणाम से सुंदर होते हैं. 661 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्मफल देशना विधि तथा-काले धर्मप्रतिपत्तिरिति // 12 // (455) और योग्य समय पर धर्म को अंगीकार करना चाहिये. तत्र च-गुरुसहायसंपदिति // 13 // (456) उसमें भी गुरु की सहायता रूप संपत्ति मिलती है. ततश्च साधुसंयमानुष्ठानमिति // 14 // (457) उससे अच्छी तरह संयम का पालन होता है. ततोऽपि परिशुद्धाराधनेति // 15 // (458) उसके बाद परिशुद्ध आराधना करता है // 15 // तत्र च-विधिवच्छरीरत्याग इति // 16 // (456) तब विधिवत् शरीर का त्याग करता है. ततो विशिष्टतरं देवस्थानमिति // 17 // (460) फिर अधिक उत्तम देवस्थान की प्राप्ति होती है. ततः सर्वमेव शुभतरं तत्रेति // 18 // (461) और वहां अतिशय शुभ सब वस्तुएं मिलती हैं. परं गतिशरीरादिहीनमिति // 16 // (462) परंतु गति और शरीर आदि पूर्व की अपेक्षा हीन होती है. तथा-रहितमौत्सुक्यदुःखेनेति // 20 // (463) ' और उत्सुकता दुःख से रहित होता है. 662 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3-गुरुवाणी धर्मफल देशना विधि अतिविशिष्टालादादिमदिति // 21 // (464) और वह जन्म अतिशय आह्लाद से युक्त होता है. ततः तच्च्युतावपि विशिष्टदेश इत्यदि समानपूर्वेणेति // 22 // (465) वहां से च्यवन होने पर अच्छे देश आदि में जन्म पहले की तरह होता है. विशिष्टतरं तु सर्वमिति // 23 // (466) पूर्वोक्त से इस जन्म में सब विशिष्ट प्रकार का होता है. क्लिष्टकर्मविगमादिति // 24 // (467) अशुभ कर्म का नाश होने से सद्गति की प्राप्ति होती है. शुभतरोदयादिति // 25 // (468) अधिक शुभ कर्म के उदय से अशुभ कर्म स्वयमेव नष्ट हो जाते है. जीववीर्योल्लासादिति // 26 // (466) जीव के वीर्य की अधिकता से शुभ कर्मोदय होता है. परिणतिवृद्धेरिति // 27 // (470) जीव की परिणति की वृद्धि से शुभ विचारों की वृद्धि होती है. तत् तथास्वभावत्वादिति // 28 // (471) जीव को उस प्रकार का स्वभाव होने से जीव की शुभ परिणति होती है. 663 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: धर्मफल देशना विधि किश्च-प्रभूतोदाराण्यपि तस्य भोगसाधनानि; अयत्नोपनतत्वात् प्रासङ्गिकत्वादभिषङ्गाभावात् कुत्सिताप्रवृत्तेः शुभानुबन्धित्वाददारासुखसाधनान्येव बन्धहेतुत्वाभावेनेति // 26 // (472) और अतिशय उदार ऐसे भोग के साधन भी बन्ध के कारण का अभाव होने से उदारता सुख का साधन होता है क्योंकि वे शुभ कर्म के अनुबन्ध से उत्पन्न होते हैं। उससे कुत्सित कर्म में प्रवृत्ति नहीं होती और उससे उसमें आसक्ति का अभाव होता है। उससे वह प्रसंगोपात्त मिलता है और उसके लिये प्रयत्न नहीं करना पडता. अशुभपरिणाम एव हि प्रधानं बन्धकारणम्, तदङ्गतया तु बाह्यमिति // 30 // (473) अशुभ परिणाम ही बंध का मुख्य कारण है उससे ही बाह्य अंतः पुर आदि कारण बंध के हेतु होते हैं. तदभावे बाह्यादल्पबन्धभावादिति // 31 // (474) अशुभ परिणाम का अभाव होने पर तो बाह्य अशुभ कार्य से अल्प बंध होता है. वचनप्रामाण्यादिति // 32 // (475) आगम के वचन प्रमाण से कहते है कि अशुभ परिणाम ही बन्ध का कारण है. बाह्योपमर्देऽप्सशिषु तथाश्रुतेरिति // 33 // (476) बाह्य हिंसा होने पर भी असंज्ञी जीवों के लिये शास्र में वैसा ही कहा है. 664 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % -गुरुवाणी धर्मफल देशना विधि एवं परिणाम एव शुभो मोक्षकारणमपीति॥३४॥ (477) ऐसे ही शुभ परिणाम मोक्ष का कारण है. तदभावे समग्रक्रियायोगेऽपि मोक्षासिद्धेरिति॥३५॥ (478) शुभ परिणाम के अभाव में संपूर्ण क्रिया का योग होने पर भी मोक्ष __सिद्धि नहीं होती. सर्वजीवानामेवानन्तशो ग्रैवेयकोपपातश्रवणादिति // 36 // (476) सब जीवों को भी अनंत बार ग्रैवेयक में उत्पत्ति हुई है ऐसा सुनते हैं. समग्रक्रियाऽभावे तदनवाप्तेरिति // 37 // (480) समस्त क्रिया के अभाव में नवमे ग्रैवेयक की प्राप्ति नहीं होती. इत्यप्रमादसुखवृद्धया तत्काष्ठासिद्धौ निर्वाणावाप्तिरितीति॥३८॥ (481) इस प्रकार अप्रमाद सुख की वृद्धि से चारित्र धर्म की बडी सिद्धि होने पर मोक्ष प्राप्ति होती है. यत् किश्चन शुभं लोके, स्थानं तत् सर्वमेव हि। अनुबन्धगुणोपेतं, धर्मादाप्नोति मानवः // 40 // इस लोक में जो कोई शुभ स्थान कहलाते हैं वे सब उत्तरोत्तर शुभ गुण सहित मनुष्य धर्मद्वारा प्राप्त करता है. - - 665 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Dगुरुवाणी धर्मफल देशना विधि 4OE धर्मचिन्तामणिः श्रेष्ठो, धर्मः कल्याणमुत्तमम्। हित एकान्ततो धर्मो, धर्म एवामृतं परम् // 41 // और धर्म श्रेष्ठ चिंतामणि रत्न के समान है, धर्म उत्तम कल्याणकारी है, धर्म एकान्त हितकारी है और धर्म ही परम अमृत है. चतुर्दशमहारत्नसद्भोगान्तृष्वनुत्तमम् / चक्रवर्ति पदं प्रोक्तं, धर्महेलाविजृम्भितम् // 42 // चौदह महारत्नों के भोग से मनुष्यों में उत्तमोत्तम गिना जानेवाला चक्रवर्ती का पद भी धर्म की लीला का विलास मात्र है. 666 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %=गुरुवाणी धर्मफल विशेष देशना विधि किं चेह बहुनोक्तेन, तीर्थकृत्त्वं जगद्धितम् / परिशुद्धादवाप्नोति, धर्माभ्यासान्नरोत्तमः // 43 // अधिक कहने से क्या लाभ? उत्तम पुरुष अतिशुद्ध धर्म के अभ्यास के जगत के लिये हितकारी तीर्थंकर पद को प्राप्त करता है. नातः परं जगत्यस्मिन्, विद्यते स्थानमुत्तमम् / तीर्थकृत्त्वं यथा सम्यक्, स्व-परार्थप्रसाधकम् // 44 // स्व और पर के कल्याण को करने वाला जितना उत्तम यह तीर्थंकर पद है वैसा उत्तम स्थान इस जगत में दूसरा एक भी नहीं है. पञ्चस्वपि महाकल्याणेषु त्रैलोक्यशङ्करम् / तथैव स्वार्थसिद्धया, परं निर्वाणकारणम् // 45 // तीर्थकरपद पांचों महाकल्याणकों के अवसर पर तीनों लोकों का कल्याण करने वाला है और स्वार्थसाधन में मोक्ष प्राप्ति ही उत्कृष्ट कारण है. इत्युक्तप्रायं धर्मफलम्, इदानीं तच्छेषमेव उदग्रमनुवर्णयिष्याम इति // 1 // (482) इस प्रकार प्रायः धर्मफल कहा है अब बाकी रहा हुआ (धर्मफल) उत्कृष्ट फल का वर्णन करते हैं. तच्च सुखपरम्परया प्रकृष्टभावशुद्धेः सामान्य चरमजन्म तथा तीर्थकृत्त्वं चेति // 2 // (483) सुख की परंपरा से उत्कृष्ट भावकी शुद्धि होने से सामान्यतः आखिरी जन्म और तीर्थंकर पद ये धर्म के उत्कृष्ट फल हैं. [Saal 667 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी: धर्मफल विशेष देशना विधि तत्राक्लिष्टमनुत्तरं विषयसौख्यं हीनभावविगमः, उदग्रतरा संपत्, प्रभूतोपकारकरणं, आशयविशुद्धिः, धर्मप्रधानता, अवन्ध्यक्रियात्वमिति॥३॥ (484) उस चरम देह में क्लेशरहित अनुपम विषय सुख मिलता है। हीन भाव का नाश होता है अत्यंत महान संपत्ति प्राप्त होती है. बहत उपकार किया जाता है अतः कारण की शुद्धि या आशय-शुद्धि होती है. धर्म ही प्रधान विषय होता है. तथा सब क्रियायें सफल होती हैं. तथा-विशुद्धयमानाप्रतिपातिचरणावाप्तिः, तत्सात्म्यभावः, भव्यप्रमोदहेतुता, ध्यानसुखयोगः, अतिशयद्धिप्राप्तिरिति // 4 // (485) शुद्ध तथा नाश न होने वाले चारित्र की प्राप्ति होती है. चारित्र के साथ आत्मा की एकता होती है. वह भव्य जनों के लिये हर्ष का कारण होता है. ध्यान के सुख की प्राप्ति होती है और अतिशय ऋद्धि की प्राप्ति होती है. अपूर्वकरणं, क्षपक श्रेणिः, मोहसागरोत्तारः, केवलाभिव्यक्तिः, परमसुखलाभ इति // 5 // (486) उपरोक्त गणों की प्राप्ति के बाद समय आने पर अपूर्वकरण (आठवां गुणस्थान) पाता है. क्षपक श्रेणि चढता है, मोक्षरूपी सागर को तैरता है, केवलज्ञानी होता है और मोक्ष प्राप्त करता है. सदारोग्याप्तेरिति // 6 // (487) निरंतर आरोग्य रहता है भावसनिपातक्षयादिति // 7 // (488) भाव संनिपात का क्षय हो जाने से मनोविकार नष्ट हो जाते हैं. 668 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Dगुरुवाणी FAS धर्मफल विशेष देशना विधि रागद्वेषमोहादिदोषाः, तथा तथाऽऽत्मदूषणादिति || (486) उस प्रकार से आत्मा को दूषित करने से राग, द्वेष व मोह तीनों दोष हैं. अविषयेऽभिष्वङ्गकरणाद् राग इति // 6 // (460) अयोग्य विषयों में आसक्ति ही राग है. तत्रैवाग्निज्वालाकल्पामात्सर्यापादनाद द्वेष इति // 10 // (461) उसी नाशवान पदार्थ पर आसक्ति के कारण अग्निज्वाला समान मत्सर करना द्वेष है. हेयेतरभावाधिगमप्रतिबन्धविधानान्मोह इति // 11 // (462) हेय व उपादेय भाव के ज्ञान को रेकनेवाला मोह नामक दोष है. सत्स्वेतेषु न यथावस्थितं सुखं, स्वधातुवैषम्यादिति // 12 // (463) इस त्रिदोष के होने से मूल प्रकृति की विषमता से यथार्थ सुख नहीं मिल सकता. क्षीणेषु न दुखं, निमित्ताभावादिति // 13 // (464) त्रिदोष क्षय से दुःख नहीं होता, क्योंकि दुःख के निमित्त का अभाव होता है. आत्यन्तिकभावरोगविगमात् परमेश्वरताऽऽप्तेस्तत् तथास्वभावत्वात् परमसुखभावइतीति // 14 // (465) भावरोग के पूर्ण नाश से परमेश्ववर पद प्राप्त होता है और उससे स्वभावतः परम सुख मिलता है. - 669 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी धर्मफल विशेष देशना विधि देवेन्द्रहर्षजननम् // 15 // (466) (तीर्थकरत्व) देवेन्द्र को हर्ष उत्पन्न करने वाला है. तथा-पूजानुग्रहाङ्गतेति // 16 // (467) और पूजा द्वारा जगत् के उपकार का कारण है. तथा-प्रातिहार्योपयोग इति // 17 // (468) और आठ प्रातिहार्यो का उपयोग होता है. ततः परम्परार्थकरणमिति // 18 // (466) और उत्कृष्ट परार्थ करने वाला है. अविच्छेदेन भूयसां मोहान्धकारापनयन हृद्यैर्वचनभानुभिरिति // 16 // (500) यावज्जीव मनोहर वचन किरणों से प्राणियों के मोहान्धकार को नष्ट करते हैं. सूक्ष्मभावप्रतिपत्तिरिति // 20 // (501) सूक्ष्म भाव का ज्ञान होता है. तत- श्रद्धामृतास्वादनमिति // 21 // (502) और श्रद्धामृत का आस्वादन होता है. ततः सदनुष्ठानयोग इति // 22 // (503) तब अनुष्ठान का संबंध होता है. 670 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 -गुरुवाणी धर्मफल विशेष देशना विधि ततः परमापायहानिरिति // 23 // (504) तब उत्कृष्ट, अनर्थ की हानि होती है. सानुबन्धसुखभाव उत्तरोत्तरः प्रकारमप्रभूतसत्त्वो पकाराय अवन्ध्यकारणं निवृत्तेरिति // 24 // (505) उत्तरोत्तर विशेष अविच्छिन्न सुखभाव उन प्रणियों के उपकार के लिये होता है और उससे वह मोक्ष का अवन्ध्य (सफल) कारण है. इति परम्परार्थकारणमिति // 25 // (506) अतः तीर्थंकरपद उत्कृष्ट परोपकार करने वाला है. भवोपग्राहिकर्मविगम इति // 26 // (507) भवोपग्राही कर्म का नाश होता है. ततः निर्वाणगमनमिति // 27 // (508) तब निर्वाण प्राप्ति होती है. तत्र च पुनर्जन्माद्यभाव इति // 28 // (506) मोक्ष प्राप्ति पर पुनर्जन्म का अभाव होता है. बीजाभावतोऽयमिति // 26 // (510) वह बीज के अभाव से होता है. कर्मविपाकस्तदिति // 30 // (511) कर्मविपाक ही बीज है. 671 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी धर्मफल विशेष देशना विधि अकर्मा चासाविति // 31 // (512) वे जीव कर्मरहित होते हैं. तद्वत एव तद्ग्रह इति // 32 // (513) कर्मवाले को ही पुनर्जन्म आदि होते हैं. तदनादित्वेन तथाभावसिद्धेरिति // 33 // (514) कर्म के अनादिपन से उपरोक्त भाव (जन्म ग्रहण आदि) की सिद्धि होती है. सर्वविप्रमुक्तस्य तु तथास्व भावत्वान्निष्ठितार्थत्वान्न तद्ग्रहणे निमित्तमिति // 34 // (515) सर्वथा कर्ममुक्त जीव स्वभावतः ही कृतकृत्य होने से पुनः जन्म नहीं लेते क्योंकि पुनः जन्म लेने का कोई निमित्त ही नहीं होता. नाजन्मनो जरेति // 35 // (516) जिसे जन्म नहीं उसे जरा नहीं. एवं च-न मरणभयशक्तिरिति // 36 // (517) और मृत्यु का भय भी नहीं रहता. तथा-न चान्य उपद्रव इति // 37 // (518) और सिद्ध जीव को अन्य उपद्रव भी नहीं होता. विशुद्धस्वरूपलाभ इति // 38 // (516) अति शुद्ध आत्मस्वरूप प्राप्त होता है. 672 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी धर्मफल विशेष देशना विधि 1:0A तथा-आत्यान्तिकी व्याबाधानिवृतिरिति // 36 // (520) और दुःख की अत्यंत निवृत्ति होती है. सा निरूपमं सुखमिति // 40 // (521) वह दुःखनिवृत्ति अनुपम सुख है. सर्वत्राप्रवृत्तेरिति // 41 // (522) सब जगह प्रवृत्ति रहित होने से पूर्ण सुख होता है. समाप्तकार्यत्वादिति // 42 // (523) सब कार्यो की समाप्ति हो चुकी है. न चैतस्य क्वचिदौत्सुक्यमिति // 43 // (524) उनको किसी कार्य के करने में उत्सुकता नही रहती. दुःखं चैतत् स्वास्थ्यविनाशनेनेति // 44 // (525) स्वस्थता का नाश करने से उत्सुकता दुःख है. दुःखशत्तयुनेकतोऽस्वास्थ्यसिद्धेरिति // 45 // (526) दुःख के बीज रूप उत्सुकता से अस्वस्थता सिद्ध होती है. अहितप्रवृत्त्येति // 46 // (527) अहितकर प्रवृत्ति से अस्वस्थता जानी जाती है. स्वास्थ्यं तु निरुत्सुकया प्रवृत्तेरिति // 47 // (528) उत्सुकता रहित प्रवृत्ति ही स्वस्थता (शांति) है. 673 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी धर्मफल विशेष देशना विधि - परमस्वास्थ्यहेतुत्वात् परमार्थतः स्वास्थ्यमेवेति // 48 // (526) उत्कृष्ट स्वस्थता का कारण होने से उत्सुकता रहित प्रवृत्ति ही स्वस्थता है. भावसारे हि प्रवृत्त्यपप्रवृत्ती सर्वत्र प्रधानो व्यवहार इति // 46 // (530) भावसहित प्रवृत्ति निवृत्ति ही वस्तुतः प्रवृत्ति निवृत्ति है ऐसा सब जगह मुख्य व्यवहार है. प्रतीतिसिद्धश्चायं सद्योगसचेतसामिति // 50 // (531) सध्यान योगसहित सावधान मनवाले मुनियों को उपरोक्त अनुभव सिद्ध है. सुस्वास्थ्यं च परमानन्द इति // 51 // (532) अतिशय स्वस्थता ही परम आनंद है. तदन्यनिरपेक्षत्वादिति // 52 // (533) आत्मा को अन्य वस्तु की अपेक्षा. न रहने से आत्मा का आनंद है. अपेक्षाया दुःखरूपत्वादिति // 53 // (534) अपेक्षा ही दुःखरूप है (अतः निरपेक्षता सुख है). अर्थान्तरप्राप्त्या हि तन्निवृत्तिर्दुःखत्वेनानिवृत्तिरेवेति // 54 // (535) अन्य विषयों की प्राप्ति से इच्छा की निवृत्ति होने पर भी दुःखरूप होने से __ अनिवृत्ति ही है. न चास्यार्थान्तरावाप्तिरिति // 55 // (536) मोक्ष के जीव को अन्य पदार्थ की प्राप्ति नहीं रहती. ह 674 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी3D धर्मफल विशेष देशना विधि स्वस्वभावनियतो ह्यसौ विनिवृत्तेच्छाप्रपञ्च इति // 56 // (537) जिसने इच्छा समूह का नाश कर दिया है ऐसा सिद्ध जीव अपने स्वभाव में . ही रहता है. अतोऽकामत्वात् तत्स्वभावत्वान्न लोकान्तक्षेत्राप्तिराप्तिः // 57 // (538) निष्काम होने से, निष्काम स्वभाव होने से लोकांत स्थित सिद्ध क्षेत्र में जाने पर भी उसके साथ संबंध नहीं है. औत्सुक्यवृद्धिर्हि लक्षणमस्याः, हानिश्चसमयान्तरे इति // 58 // (536) एक समय में उत्सुकता की वृद्धि और दूसरे समय नाश (अन्य वस्तु प्राप्ति का) लक्षण है. न चैतत् तस्य भगवतः, आकालं तथावस्थितेरिति // 56 // (540) भगवान को यह उत्सुकता नहीं है क्योंकि यावत् काल वे उसी स्थिति में रहते हैं. कर्मक्षयाविशेषादिति // 60 // (541) कर्मक्षय में विशेषता न होने से वे उसी स्थिति में रहते है. इति निरुपमसुखसिद्धिरिति // 61 // (542) इस प्रकार सिद्ध भगवान को निरुपम सुख है ऐसा सिद्ध हुआ. सध्यानवह्निना जीवो, दग्ध्वा कर्मेन्धनं भुवि / सद्ब्रह्मादिपदैर्गीत, सं याति परमं पदम् // 46 // शुक्ल ध्यानरूप अग्नि से कर्मरूपी इंधन को जला कर 'सत् ब्रह्म आदि पदों द्वारा जीव शास्त्र में वर्णित परम पद को पाता है. 675 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी धर्मफल विशेष देशना विधि पूर्वावधवशादेव, तत्स्भावत्वतस्तथा / अनन्तवीर्ययुक्तत्वात्, समयेनानुगुण्यतः // 47 // पूर्व संस्कार वश कर्मरहित होने पर भी ऊर्ध्वगमन करता है। और उस प्रकार के स्वभाव से तथा अनंत वीर्य युक्त होने से एक समय में समश्रेणि के आय से परम पद को पाता है. स तत्र दुःखविरहादत्यन्तसुखसंगतः / तिष्ठत्ययोगो योगीन्द्रवन्धस्त्रिजगदीश्वरः // 48 // दुःख के विरह से, अत्यंत सुखसहित, योगीन्दों द्वारा वंदनीय तीन जगत के परमेश्वर अयोगी सिद्ध भगवान मोक्ष में स्थित है. 676 For Private And Personal Use Only
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