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गुरुवाणी
वाला बने, जगत की आत्माओं के साथ प्रेम का संबंध कायम कराने वाला बने. इसके द्वारा मैं सद्भावना प्राप्त करूं, ऐसी सुंदर वाणी हमारी होनी चाहिए.
वाणी का विवेक पहले होना चाहिए. परमात्मा की वाणी में कैसा सम्बोधन, भो देवानां प्रियों, हर जगह पर परमात्मा महावीर का सम्बोधन किसी आत्मा को जब सम्बोधित किया जाता है उनके शब्द कैसे है. “भो देवानां प्रियो” हे देवताओं के प्रिय, ऐसा मंगल पवित्र संबोधन परमात्मा का, यह भाव अपने अंदर आना चाहिए. हर आत्मा का मैं सम्मान करने वाला बनूं. आत्मा को परमात्मा से देखू आत्मा के साथ उसके गुणों को प्राप्त करूं. उसके दुर्गुणों की तरफ नज़र नहीं डालनी है. ___ गंदगी पड़ी हो और वहां आप की हीरे की अंगूठी से हीरा गिर गया हो. मुर्गी आएगी मुर्गा आएगा. सड़े हुए अनाज कीचड़ के कीड़े उसकी खुराक है. वह खाएगा. यदि हीरे की कणी आ जाए तो चोंच में लेकर फेंक देगा. उसे उसका मूल्य मालूम नहीं कि हजारों टन अनाज इसके द्वारा आ सकता है. मेरी जिन्दगी आसानी से निकल सकती है. सात पीढी खा जाएं, इतनी सामग्री इससे मिल सकती है. __ हमारी आदत ऐसी बन गई. हीरा जैसे मूल्यवान पवित्र शब्द जो आत्मा के अनुकूल है. उसे तो हम उपेक्षित कर देते हैं. परंतु किसी आत्मा के दुर्गुण पर जो सड़ा हुआ अनाज जैसा है, जिसके अंदर कषाय और विष के कीड़े हैं. वही खुराक आत्मा को देते हैं.
कहां किस आत्मा में क्या दुर्गुण है. जिसे हम ग्रहण करते हैं. अपनी दृष्टि से प्राप्त करते हैं. यह गंदगी गलत खुराक अंदर जा कर के फूडपायज़न पैदा करती है. आत्मा के गुणों का नाश करती है. परन्तु सद्गुणों को प्राप्त करने का, जो हीरा जैसा मूल्यवान है, हमारी दृष्टि वहां नहीं जाती. यही कारण बिना चिन्तन के, बिना खुराक के, अवर्णवाद में, पर परिवाद में, हम चले जाते हैं. किसी भी व्यक्ति के विषय में तुरंत अपनी राय दे देते हैं. वह गलत है, यह सही है. उसके सारे गुण हम ढंक देते हैं और एक दुर्गुण नज़र आता है, यह व्यक्ति बड़ा गलत है.
सैंकड़ों उसके अंदर सद्गुण हैं, वहां तो दृष्टि डालो. एक-आध दुर्गुण होंगे, उन्हें छोड़ दो. जहां तक अपूर्णता है, अपूर्णता के लक्ष्ण हैं, वे तो कायम रहने वाले हैं. कभी गुण तो आप ग्रहण करो, मदमस्त जीव के अंदर जहां तक अपूर्ण दशा है. साधना की पूर्णता नहीं मिली, वहां तक ये दुर्गुण तो कायम रहने वाले हैं... __हमारी दृष्टि की पहली साधना ऐसी होनी चाहिए. लोग पेट का उपवास तो कर लेते हैं. परन्तु वाणी का उपवास आज तक नहीं किया गया. वाणी का उपवास - मौन. मौन को साधन के क्षेत्र में प्राण माना गया है. मोणेणं, मौनपूर्वक अपनी साधना में आत्मा स्थिर रहे. सारे दिन कितना हम बोलते हैं. कल मैंने आपसे कहा था, मौन का क्या महत्त्व हैं? मेडिकल साइंस किस निष्कर्ष पर गया? एक शब्द बोलते हैं और कितनी बड़ी शारीरिक शक्ति को हम क्षय कर देते हैं. आत्मा की साधना विसर्जित हो जाती है. और यदि आप
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