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-गुरुवाणी
"न्यायसंपन्नविभवः" द्रव्य न्याय से उपार्जित किया हुआ ही चाहिए. द्रव्योपार्जन जीवन-निर्वाह के लिए तथा परिवार के भरण-पोषण के लिए चाहिए. यदि उससे अधिक प्रारब्ध से प्राप्त हो जाता है तो कहें भगवन! तू ऐसी बुद्धि दे कि उसका उपयोग मैं परोपकार के लिए कर सकं गृहस्थ जीवन और व्यवहार को चलाने के लिए विवाह एक आचार है, जिसे जीवन व्यवहार का दूसरा प्रमुख साधन माना गया है. विवाह कहां करना, कैसे करना, किस प्रकार की भावना से करना वह चिन्तन भी इस महान आचार्य ने प्रस्तुत किया ताकि जीवन में विषमता न पैदा हो. जीवन में कोई ऐसा मानसिक या अन्य प्रकार का द्वेष पैदा न हो जाए, कोई दुविधा उत्पन्न न हो, परिवार क्लेश से पीड़ित न हो, कहां और किस प्रकार से विवाह संस्कार किया जाये,
तीसरे सूत्र के द्वारा आचार्य प्रवर ने उपदिष्ट किया कि जीवन में व्यवहार का भी पालन अवश्य करना. तो शिष्ट आचार का अनुमोदन करते हुए, शिष्ट आचार का परिचय दिया कि शिष्टाचार क्या है? उत्तम पुरुषों का मान करना, माता-पिता, गुरूजनों का सम्मान करना, उनके साथ विवेकपूर्वक व्यवहार करना. उनके साथ बोलना शिष्टतापूर्वक - ये सब चीजें शिष्टाचार के अन्तर्गत आती हैं परन्तु इससे भी आगे हमारे जीवन और आचार, शिष्ट आचारों की सम्प्राप्ति हेतु सूत्र के द्वारा परिचय दियाः
"लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः" ऐसा कोई कार्य मुझे नहीं करना कि जो लोगों की इच्छा के विरुद्ध हो.
"यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नाचरणीयम्" हमारे ऋषि-मुनियों का यह चिन्तन रहा है कि चाहे आप कितने भी शुद्ध मार्ग का अनुसरण करते हों, परन्तु यदि लोकव्यवहार से वह कार्य विरुद्ध हो जाता है, लोकरुचि उस कार्य में नहीं है तो लोकरुचि का सम्मान करते हुए उस कार्य की उपेक्षा कर देनी चाहिए. समय के अनुसार कार्य में परिवर्तन आता है. आचार में भी थोड़ा-बहुत परिवर्तन आता है. किसी समय वह चीज बड़ी महत्त्वपूर्ण थी. उस समय के लोकमानस में उसका आदर था. लोगों की उस कार्य में रुचि थी और कदाचित् वर्तमान में उस कार्य में रुचि न हो तो लोकविरुद्ध होकर वह कार्य नहीं करना चाहिए. वह कई बार आत्मपीड़ा का कारण बनता है. मानसिक आघात का कारण बनता है. यदि इस प्रकार का आचरण नहीं करते हैं तो परिणाम जितना सुन्दर होना चाहिए उतना नहीं होता है.
ऐसी प्रथा हैं कि विवाह - शादी में या ऐसे किसी भी कार्य में, प्रदर्शन का अतिरेक हो जाता है और इसी अतिरेक का परिणाम साम्यवाद को आमन्त्रण देता है. लोग धर्म से विमुख होते हैं. उनमें ईर्ष्या प्रकट होती है. लोकमानस उसमें रुचि नहीं लेता. यह लोकापवाद है.
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