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=गुरुवाणी
करुणा, त्याग और परोपकार धर्म का वास्तविक स्वरूप
महान कृपालु आचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरि जी महाराज ने अपने दीर्घ काल के चिन्तन के द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया उसे परोपकार की भावना से इन सूत्रों में पिरोकर जगत् के कल्याण के लिए, अर्पित कर दिया. इस ग्रंथ के द्वारा इस प्रकार का मार्ग-दर्शन दिया कि जिससे जीवन का कोई क्षेत्र. कोई व्यवहार धर्म से रहित न हो, वह धर्म से नवपल्लवित हो. बोलना, चलना, खाना-पीना, जीवन का हर व्यवहार धर्ममय हो. धर्म शब्द का अर्थ बहत व्यापक है. कर्त्तव्य के रूप में धर्म को स्वीकार करना है. परमात्मा की प्रार्थना, उपासना, ध्यान एक अलग चीज़ है, जीवन का हरेक व्यवहार प्रामाणिक हो, आत्मा के अनुकूल हो और सारी प्रवृत्तियां आत्मा के कल्याण के लिए हों. प्रत्येक क्रिया से प्रार्थना, उपासना
और ध्यान की सुगन्ध प्रवाहित हो. ऐसी कोई प्रवृत्ति हमारे जीवन में नहीं चाहिए जिससे किसी आत्मा को कष्ट हो. अप्रीति उत्पन्न हो. मन के अन्दर अशांति पैदा हो. जिस कार्य में आत्मा साक्षी न देता हो, ऐसा कोई कार्य नहीं करना है. सम्पूर्ण जीवन धर्म-प्रधान बना लेना है, जीवन क्षणभंगुर है. न जाने कब और किस निमित्त से चला जाए. जाने से पूर्व अपने आचरण के द्वारा आत्म-शुद्धि प्राप्त कर लेनी है.
जैसे-जैसे जीवन के अन्दर धर्म सक्रिय बनेगा आपके विचार सम्पर्ण क्रियात्मक रूप ले लेंगे. आपकी वाणी, व्यवहार और विचार में एकरूपता आ जाएगी. यह जीवन एक संगीत उत्पन्न करेगा. जीवन क्या है? इसके आकार को देखिए. इसकी आकृति तानपूरे जैसी है. तानपूरे में तीन तार होते हैं. जब इन तीनों तारों को एक साथ झंकृत किया जाता है तब सुनने में बड़ा. मधुर और बड़ा प्रिय होता है.
जीवन में भी मन, वचन और कर्म, ये जीवन तानपूरे के तीन तार हैं और यदि इनमें एक रूपता आ जाए तो जीवन-व्यवहार शब्द संगीत बन कर के बाहर आता है. हमारे जीवन का शब्द भी संगीत बन जाये. हमारे विचारों की अभिव्यक्ति, एक कविता का रूप धारण कर ले. जीवन में हमारा चलना-फिरना एक प्रकार का नृत्य बन जाए. वह मानसिक प्रसन्नता को प्रकट करे और मन के अन्दर वीतराग के उस परमतत्व की प्रतिष्ठा हो जाए
और जीवन का प्रत्येक आचरण जगत के प्राणिमात्र को आहलादित कर अपनी सदभावना प्रकट करने वाला बन जाए. अस्तु, इस काल में, इसी समय वह व्यक्ति परम सुख का अनुभव करने लगता है. आचरण के द्वारा, इस जीवन में नव संस्कार को प्रतिष्ठित करना है.
ग्रन्थकार ने जीवन व्यवहार के दो मुख्य साधनों का परिचय देते हुए उस सूत्र में कहा कि द्रव्य उपार्जन कैसे करें, कौन-सा तरीका उसमें अपनाना है.
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