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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी: - माम देवी ने कहा-तुम्हारी आराधना और तन की आराधना से तुझे ऐसी शक्ति मिलेगी, जहां हाथ लगाओगे वह सोना बन जायेगा. मफतलाल खुश हो गया. वह प्रसन्नता. प्रसन्नता का भी अजीर्ण होता है, पेट में पचती नहीं, गया, मकान को छुआ, मकान सोने का, बर्तन-बासन सब सोने का, पलंग को हाथ लगाया वह सोने का. उसने सोचा, जरा घरवाली को बतलाऊं कि सब कुछ सोने का बन गया. घरवाली को जगाने लगा, घरवाली सोने की. घबरा गया, नौकर को आवाज दी स्वप्न में ही, मुझे प्यास लगी है, पानी को हाथ लगाया तो पानी भी सोने का, बेचारा घबरा गया, पसीना-पसीना हो गया कि मैंने यह भयंकर गलती करली. मांगते समय जरा विचार नहीं रखा. जल्दी बाजी में उससे वरदान मांग लिया, पानी भी नहीं, खाने को भी नहीं, घरवाली भी सोने की हो गई. सोने से क्या प्राण मिलता है? जीवन मिलता है? एकदम घबरा गया. श्वासोच्वास की गति तेज हो गई और एकदम जागकर उठा, देखा कि सब बराबर सलामत है. जब देखा कि यह तो स्वप्न था, तब बेचारे को सन्तोष हुआ. प्रतिज्ञा करली कि कभी तपस्या में कोई चीज नहीं मांगनी. कभी मांगना नहीं, वह तो बिना मागे मिलने वाला है, मांगने की भी जरूरत नहीं. व्रत नियम के प्रति यदि आपकी निष्ठा रही, जगत का कोई ऐसा व्रत नियम नहीं जो निष्फल जाये. धर्म साधना कभी निष्फल जाती नहीं, धर्म क्रिया कभी निष्फल नही रहती. कुछ न कुछ तो उसका परिणाम जरूर मिलता है. महाराज प्रतिदिन प्रवचन दिया करते. एक व्यक्ति ऐसा था जो रोज प्रवचन सुनता, एक दिन कहा-भले आदमी कुछ तो क्रिया करो, प्रतिक्रमण करो, सामायिक करो, परमात्मा का दर्शन करो, बिना धर्म क्रिया से शरीर किस काम का? इतना खिलाते हो, पिलाते हो, इस का रक्षण करते हो, इस नौकर से काम तो लो, नहीं तो वह कामचोर बन जायेगा. उसने कहा - महाराज. इतनी सारी मैं क्रिया करता हूँ, उसी में से फुसरत नहीं होती, पहली क्रिया बीडी पीने की, उसके बाद चाय पीता हूँ और क्या-क्या गिनाऊं. सारा दिन इसी क्रिया में जाता है, दोपहर को ताश खेलता हूँ, कितनी लम्बी क्रिया है. ___ महाराज कुछ बोले नहीं, अयोग्य आत्मा को क्या उपदेश देना, परन्तु अयोग्य में भी कुछ गुण होते हैं. चार महीने महाराज ने समझाया, उपदेश दिया, आखिर में जाते-जाते महाराज ने बुलाकर कहा-भले आदमी हो, चार महीना मजाक में गया, मैंने तुम्हारी आत्मा के हित के लिए बहुत कुछ कहा, अब तो कुछ मान लो. उसने सोचा, महाराज को बुरा नही लगना चाहिए, साधु सन्त हैं. जा रहे हैं, इनकी आत्मा को प्रसन्न करना है. उसने कहा-महाराज एक नियम मुझे दें और कोई क्रिया नहीं करता था, एक क्रिया स्वीकार कर ली. 386 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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