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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुरुवाणी मा आचार का मर्म परम कृपालु आचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी ने अनेक आत्माओं के कल्याण के लिए, अनेक आत्माओं के लक्ष्य की प्राप्ति में सहयोग की मंगल भावना से इस धर्म बिन्दु ग्रन्थ के द्वारा जीवन के आचार का अति सुन्दर प्रकार से परिचय दिया है. यह परिचय जीवन के आन्तरिक परिवर्तन के लिए अपनी खोई हुई पवित्रता को फिर से प्राप्त करने के लिए, भविष्य में उस परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दिया है. जीवन के अन्दर व्यवहार का बहुत महत्त्व है. बिना व्यवहार के जीवन चल नहीं पाता, उस व्यवहार को कैसे सुन्दर बनाया जाए, संस्कारित किया जाए, उस व्यवहार के द्वारा स्वयं की आत्मा को प्राप्त करने वाला वंश पुरुषार्थ मेरे लिए आशीर्वाद रूप बन जाए. संसार में रहकर के भी मैं अपने लक्ष्य से पतित न बनूं. मेरा दृष्टिकोण यहीं हो. जगत को देखने की एक कला मुझे मिल जाए. इस भावना से इस धर्म सूत्र का चिन्तन हम करते हैं. सर्वप्रथम जगत को देखने की मंगल दृष्टि आनी चाहिए, जगत क्या है, उसके वास्तविक पदार्थ तक हमारी दृष्टि पहुंची नहीं. एक बार यदि जगत को भले ही आप भौतिक दृष्टि से देखें. परन्तु उस दृष्टि में उसका भावी परिणाम यदि उपस्थित हो, तो वह वर्तमान दृष्टि आपके लिए आशीर्वाद रूप बन जाएगी. जो पदार्थ आप देखते हैं, दो एक भी पदार्थ इस जगत में स्थिर रहने वाले नहीं. ये जितने भी पदार्थ हैं, जहां पदार्थ हैं, उस वस्तु का नाश है. उसका नाश तो निश्चित है. उस पदार्थ में हमेशा सतत पर्याय का परिवर्तन चालू है. परमाणुओं में सतत परिवर्तन चल रहा है, हम बाल्यावस्था में से युवावस्था में आए, वृद्धावस्था में गए, कल वृद्धावस्था भी आने वाली है. अवस्थाओं का परिवर्तन उस पदार्थ के अन्दर रहे हुए पदार्थ का परिवर्तन है. जगत में कोई वस्तु शाश्वत नहीं, सिवाय आत्मा के आत्मा के गुणों के अन्दर पर्याय का परिवर्तन तो वहां भी होता है. परन्तु पदार्थ शाश्वत है, उसका कभी नाश होने वाला नहीं. __जो वस्तु कभी नष्ट होने वाली नहीं, प्रयास हमेशा उसी के लिए होना चाहिए. जो वस्तु नष्ट होने वाली है, जिसे मैं प्राप्त करूं, कल उसका वियोग दर्द पैदा करे, वस्तु का वियोग दुख का कारण बन जाए. अतध्यान का कारण बन जाए, मानसिक पीडा उत्पन्न करने वाली बने, ऐसा क्यों करना? आज जो प्राप्त किया कल उसका वियोग दर्द पैदा करेगा. परमात्मा ने कहा-प्रयास ऐसा दो, जिसमें प्राप्ति के बाद वियोग न हो. प्राप्त करने के बाद कभी वियोग न हो. 444 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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