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गुरुवाणी:
हनुमान अपने मन में हंसने लग गये परन्तु हँसी रुकी नहीं. हंसी जब प्रगट गई और राम से कहा कि प्रभु आपने यह क्या नाटक किया. मुझे मालूम है. आप जानते हैं, यह भी मैं जानता हूं कि यह बात मेरे पेट से बाहर नहीं जायेगी, आप निश्चिंत रहिए, और मैं आपको कारण भी समझा देता हूं कि पत्थर क्यों डूबा ?
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बहुत सुन्दर बात हनुमान जी ने समझा दी. राम को संतोष हुआ और वह सो गए. हनुमान जी ने राम जी को यह समझाया था कि प्रभु, जिसको राम ने त्याग दिया, वह तो निश्चय ही डूब जाएगा, वह भला कहाँ से तैरेगा. बात का आशय यह है कि जिस पर परमात्मा की कृपा नहीं है, उसका विनाश तय है.
जो व्यक्ति परमात्मा का साथ छोड़ दे, धर्म का साथ छोड़ दे और स्वतंत्र रूप से अपने व्यक्तित्व या अस्तित्व को ले करके चलने का प्रयास करेगा वह निश्चित रूप से संसार - सागर में डूबेगा. परमात्मा ने जिसको छोड़ दिया या हमने उसका साथ छोड़ दिया तो यही दशा होगी.
कैसा राम का अपूर्व जीवन था. अशोक वाटिका में रात्रि में राम ने मन में विचार किया कि अब मुझे अयोध्या में प्रवेश नहीं करना है. मैत्री का कितना सुन्दर प्रकार, जीवन की कैसी अपूर्व प्रामाणिकता की प्रेरणा इससे मिलती है. क्योंकि धर्म का जन्म ही मैत्री से होता है और मैत्री के साथ अन्याय का परिणाम बुरा होता है.
न्यायोपात्तं हि वित्तमुभलोकहितायेति
न्याय से उपार्जित किया हुआ द्रव्य, इस लोक में और परलोक में, दोनों के लिए कल्याणकारी बनता है. यह पाप का प्रवेश द्वार बंद कर देता है जीवन में प्रामाणिकता आ जाये तो दुनिया के पाप का प्रवेश द्वार बन्द हो जायेगा. अपूर्व मैत्री भाव वहां पर प्रगट हो जाएगा क्योंकि किसी आत्मा को बेवकूफ बनाऊ, किसी की आंख में धूल डाल करके और दो पैसे कमाऊं, क्यों अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करूं भवान्तर में फिर यह बुद्धि मुझे नहीं मिलेगी. उसके अन्दर ऐसा भय होगा और पापभीरुता का उसमें गुण पैदा होगा.
रामचन्द्र जी ने मन में एक संकल्प किया. उसी समय अयोध्या में उनके प्रवेश की तैयारी चल रही थी. लोगों में बड़ा अपूर्व उत्साह था कि राम अब चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या में पधार रहे हैं. हनुमान को जगा करके राम ने कहा कि अब मेरी इच्छा अयोध्या में जाने की नहीं है, प्रवेश बन्द कर दिया जाये. मेरे मन में रात्रि में ऐसा विचार आया कि चौदह वर्ष तक मैंने नहीं, मेरे भाई ने राज्य किया और तुम जानते हो हनुमान, व्यक्ति का स्वभाव है - आत्मा का अनादिकालीन संस्कार है कि प्राप्त की हुई चीज़ को छोड़ना बड़ा मुश्किल होता है. मेरे जाने से मेरे भाई भरत के मन में दुख तो ज़रूर होगा, कि अब चौदह वर्ष का सारा साम्राज्य मुझे अपने भाई को देना है. एक लोक-लज्जा से, लोक-व्यवहार से, हमारे कुल की परम्परा से हमारे आदर्श को देखकर मेरा भाई मुझे राज्य ज़रूर देगा इसमें संशय नहीं, परन्तु उसकी आत्मा को जरा भी पीड़ा पहुंची, अगर
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धन