________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3-गुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म तत्र सामान्यतो गृहस्थधर्मः कुलक्रमागतमनिन्द्य विभवाद्यपेक्षया न्यायतोऽनुष्ठानमिति // 3 // कुल परंपरा से आया हुआ, निन्दारहित, वैभव आदि की अपेक्षा से जो न्याययुक्त अनुष्ठान है वह गृहस्थ का सामान्य धर्म है. न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहितायेति // 4 // न्याय से उपार्जित धन ही इस लोक और परलोक के _ हित के लिये होता है. अनभिशङ्कनीयतया परिभोगाद् विधिना तीर्थगमनाचेति // 5 // जिस द्रव्य का उपभोग करने में लोगों को उपभोक्ता पर या भोग्य वस्तु पर शंका न हो, ऐसी रीति से उसका उपभोग हो और जिस द्रव्य से विधिपूर्वक तीर्थाटन आदि हो ऐसा न्यायोपार्जित धन-द्रव्य उस व्यक्ति के दोनों लोक में हितकारी है दोनों लोक में उसका हित करने वाला है. अहितायैवान्यदिति // 6 // उपरोक्त रीति से न करके उससे भिन्न रीति से करे अर्थात् अन्याय से धनोपार्जित करे तो अहित ही होता है. तदनपायित्वेऽपि मत्स्यादि गलादिवद् विपाकदारुणत्वादिति // 7 // यदि वह अन्याय से उपार्जित द्रव्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है. यदि बलवान पापानुबन्धी पुण्य होने से वह जीवनपर्यन्त बना रहा तो भी उसका परिणाम बरा है. जिस प्रकार लोहे के कांटे में मांस का टुकड़ा (गलगोरि) लगा होता है और रसना के स्वाद में मत्स्य मारा जाता है उसी प्रकार अन्याय से उपार्जित धन से दुख ही प्राप्त होता है. L CONTA 591 For Private And Personal Use Only