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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %Dगुरुवाणी गृहस्थ सामान्य धर्म प्रणम्य परमात्मानं, समुद्धत्य श्रुतार्णवात्। धर्मबिन्दुं प्रवक्ष्यामि, तोयबिन्दुमिवोदधेः ||1|| श्रीअरिहन्त परमात्मा को नमस्कार करके समुद्र में से जलबिन्दु की भांति, शास्त्र सिद्धान्तरूपी समुद्र में से 'धर्म के बिन्दु' को निकाल कर इस 'धर्मबिन्दु प्रकरण' नामक ग्रन्थ की रचना करता हूं. धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः॥ धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः // 2 // धर्म, धन की इच्छा करने वालों को धन देने वाला है, कामाभिलाषी जनों को सभी कामभोग देने वाला है तथा परंपरा से मोक्ष का साधक है. वचनाद् यदनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितम्। मैत्र्यादिभावसंयुक्तं, तद्धर्म इति कीर्त्यते // 3 // परस्पर अविरूद्ध वचन से शास्त्र में कहा हुआ मैत्री आदि भावना से मुक्त जो अनुष्ठान है, व धर्म कहलाता है. सोऽयमनुष्ठातृभेदात् द्धिविधो गृहस्थधर्मो यतिधर्मश्चेति // 1 // यह धर्म अनुष्ठान करने वालों के भेद से दो प्रकार का है गृहस्थ धर्म और यति धर्म. तत्र गृहस्थधर्मोऽपि द्विविधः- सामान्तयतो विशेषतश्चेति // 2 // उसमें गृहस्थ धर्म भी दो प्रकार का है-सामान्य और विशेष. 590 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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