________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी: धर्मबिन्दु रचयिता श्रावक की श्रुत भक्ति गुण की प्रगाढ़ता के इस प्रसंग से पता लगता है कि जैनत्व की प्राप्ति कितनी विवेक पूर्ण होती है. आचार्य श्री हरिभद्रूसरिजी ने अपने जीवनकाल में 1444 ग्रंथ निर्मित किये हैं, उनकी अन्तिम कृति 'संसार दावानल' स्तुति थी. जिसकी अन्तिम गाथा लिखते-लिखते आचार्यश्री देवलोक हुए तब उपस्थित श्रावक समुदाय ने उस अन्तिम (चौथी) स्तुति के शेष तीन चरण रचकर ग्रंथ परिपूर्ण किया. जब चौदह पूर्वमय दृष्टिवाद रूप सूर्य अस्त हो रहा था. उनके कई ग्रंथों में वह तत्त्वज्ञान मिलता है जो अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकता है. पूर्वगत ज्ञान की छाया उन ग्रंथों पर अवश्य पड़ी है यह निर्विवाद मानना होगा. अन्यथा ऐसा प्ररूपण नहीं हो सकता. जैन समाज में आचार्यश्री के वचन 'टंकशाली' माने जाते हैं. यह उनकी प्रामाणिकता का तथ्यभूत प्रमाण है. आध्यात्मिक जगत का कोई ऐसा विषय नहीं होगा जो उन्होंने बाकी छोड़ा हो. इस प्रकार आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी की जैन धर्म में अपनी विशिष्ट पहचान हैं. उनकी ग्रंथ रूपी संतति आज के भौतिक युग में इतनी ही आध्यात्मिक गजत के प्रति सतत क्रियाशील है. उनके प्रमुख ग्रंथ निम्नोक्त हैं : योगदष्टि समुच्चय, लघक्षेत्र समास, योगशतक योगविंशिका, श्रावक धर्म, योगबिन्द, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवाद प्रवेश-टिप्पण, शास्त्रवार्ता समुच्चय, द्विजवदन चपेटा, लोक तत्वनिर्णय, षडदर्शन, धर्मबिन्द, सर्वज्ञसिद्धि, षोडशक प्रकरण, धर्मबिन्दु धुर्ताख्यान, समरादित्य कथा, अष्टक प्रकरण, उपदेशपद, पचवस्तु, पंचाशक......आदि. उपर्युक्त मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं. परन्तु उनके द्वारा रचित ग्रंथों में से मात्र कुछ एक ग्रंथ ही वर्तमान काल में उपलब्ध होते हैं. अध्यात्म साधना में लीन हरिभद्राचार्य ने जीवन के संध्याकाल में अनशन की स्थिति को उल्लास से स्वीकार किया था. भावों की उच्च श्रेणी में त्रयोदश दिवस का अनशन सम्पन्न कर वे परम समाधि के साथ स्वर्गवास को प्राप्त हुए। अनशनमनघं विधाय निर्मामकवरविस्मृतहार्दभूरिबाधः। त्रिदशवन इव स्थितः समाधौ त्रिदिवमसौ सभवापदायुरन्ते // 221 // 589 For Private And Personal Use Only