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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी धर्मबिन्दु रचयिता और बात खुल गई कि यहाँ कोई जैन रह रहा है. बौद्ध आचार्य ने बड़ी कुशलता से भेद पा लिया और हंस व परमहंस पहचान लिए गए. अतः वे दोनो वहाँ से प्रस्थान कर गए मार्ग में यातनावश हंस का प्राणांत हो गया, किसी प्रकार परमहंस ने समीपवर्ती नगर में जाकर सूरपाल नामक राजा की शरण ली. बाद में बहुत कष्टों को सहन करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरिजी के चरणों में उपस्थित हुए और अपने अविनय के लिए क्षमा माँगकर समाधि पर्वक काल धर्म को प्राप्त हए. आचार्य हरिभद्र सरि जी को इस बात का बडा दुःख हुआ. उन्होंने बौद्धों को शास्त्रार्थ में परास्त करने की प्रतिज्ञा की. सूरपाल राजा के यहाँ बौद्ध आचार्य हरिभद्रसूरि के मध्य शास्त्रार्थ हुआ. इसके पूर्व दोनों की सम्मति से यह तय हुआ था कि जो पराजित होगा उसके पक्ष के व्यक्ति अतिशय गर्म तेल में जल कर मर जायेंगे. सरपाल राजा की सभा में कई दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा. अन्त में अपने अदभुत तर्क सामर्थ्य और असाधारण ज्ञान बल से आचार्य हरिभद्रसूरिजी विजयी हुए. इधर इसी समय हरिभद्रूसरि के गुरुवर जिनभद्रसूरि को इस घटना का पता लगा और तुरंत उन्होंने कोपाविष्ट अपने शिष्य के प्रतिबोध हेतु तीन गाथाएँ लिख भिजवाई इनमें गुणसेन और अग्निशर्मा के भवों की घटनाएं संकलित थी जिनका तात्पय था कि "वैर का अनुबंध भव-भवान्तर तक चलता रहता है अतएव क्रोध उचित है?" आचार्य हरिभद्रसूरि का क्रोध इन गाथाओं को पढ़ने से शान्त हो गया और अपने क्रोध (कषाय) के प्रायश्चित्त स्वरूप अपनी शिष्य संतति के स्थान पर उन्होंने ज्ञान संतति के विकास की ओर ध्यान केन्द्रित किया, अपने कषाय की उपशान्ति होते ही प्रायश्चित के रुप में उन्होंने 1444 ग्रंथ निर्माण करने की प्रतिज्ञा ली थी, तदनुसार ज्यादातर ग्रंथों की रचना कर डाली किन्तु अपने मनुष्य जीवन का मयादित समय जानकर शेष ग्रथों के सृजन में वे दिन-रात व्यस्त रहने लगे. ग्रन्थनिर्माण का कार्य निरन्तर जारी रहा. परन्तु श्रुतसागर को ग्रन्थस्थ करना कितना कठिन होता है, वह जानते थे. एक दिन जब आचार्य श्री चिन्तामग्न मुद्रा में कुछ सोच रहे थे तब वंदन करने आए उनके एक श्रावक लल्लिग ने परम विनय से विनती की कि हे गुरु भगवन्त आप चिन्तित क्यों हैं? आग्रहवश आचार्य श्री ने बताया कि मेरा आयुष्य जलबिन्दुवत है और मैं इतने विशाल श्रुत ज्ञान को ग्रन्थस्थ कैसे कर पाऊँगा? यह सोचकर मुझे चिन्ता हो रही है क्योंकि सूर्य प्रकाश में ही यह प्रवृत्ति होती है, जो बिल्कुल मर्यादित है. आचार्य भगवन्त की निःस्वार्थ वेदना का रहस्य पाते ही लल्लिग ने कहाः भगवन्त आप इस चिन्ता को छोड़ दीजिये, मैं सब सम्भाल लूँगा, आप अपनी श्रुतआलेखन प्रवृत्ति में मग्न हो जाईये. उसने अपने पूर्वजों द्वारा संग्रहित अनेक जात्यरत्नों को आचार्य के श्रुत कक्ष में खचित कर दिया. ताकि रात दिन एक जैसे ही रत्नों के स्वाभाविक प्रकाश में ज्ञानाराधन प्रवृत्ति निराबाध चलती रहे. 588 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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