________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: धर्मबिन्दु रचयिता करना आवश्यक है. हरिभद्र के ज्ञान की छोर पर जैन दर्शन के तत्त्वज्ञान की तरंगें लहराने लगी. हरिभद्र ने जैनाचार्य से पूछा भगवन! धर्म का फल क्या है? वैदिक धर्म के एवं जैन धर्म फल में क्या अन्तर है? आचार्य श्री ने कहा कि सकाम वृति वाले मनुष्य को धर्म के फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति होती है और निष्काम वृति वाले को 'भव विरह याने संसार से मुक्ति अर्थात मोक्ष मिलता है. जैन धर्म इसी संसार से मुक्ति का मार्ग मोक्ष का मार्ग दिखलाता है. हरिभद्र को यह उत्तर तर्कपूर्ण एवं सत्य प्रतीत हुआ और अपनी प्रतिज्ञानुसार उन्होंने जैन वाङ्गमय एवं उसके फल स्वरूप को अंगीकार करने के लिए श्रमणत्व स्वीकार किया. वे जैन मनि बन गए. उन्होंने साध्वी याकिनि महत्तरा को अपनी धर्म माता के रूप में स्वीकार कर अपने परिचय के रूप में ज्यादातर कृतियों के अन्त में 'महत्तरा याकिनि धर्म सूनु' शब्द का उल्लेखकर अपनी धर्म माता के उपकार को अमर बना दिया. वे वेदादि 14 विद्याओं के पारंगत तो थे. वत्ति जागृत हो उठी. उनके हृदय में जैन धर्म के प्रति अनुराग बढ़ने के साथ ही जैन तत्व ज्ञान व अनेकांत दृष्टि की उत्कृष्टता बस गई. श्रमण जीवन के पवित्र आचारों का पालन करते हुए वे आचार्य पद के योग्य हुए तब उन्हें आचार्य जिनभद्रसूरि ने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया. आचार्य बन कर हरिभद्रसूरिजी ने जैन शासन की अभूतपूर्व सेवा की. उन्होंने सर्व दर्शनों के सिद्धान्त रहस्यों को अपने हृदय में आत्मसात् कर ज्ञान की निर्मल धारा प्रवाहित की, जिससे आज तक अनगिनत जिज्ञासु भव्य जन अपनी ज्ञान तृषा शान्त कर रहे हैं. कहा जाता है कि हरिभद्रसूरि के ग्रंथों के परिचय के बिना जिनागमों का हार्द नहीं समझा जा सकता. अनेकान्तवाद की समन्वयपूत दृष्टि से उन्होंने जैन श्रुतज्ञान का निधान प्रत्यक्ष कर लिया था. __ आचार्य हरिभद्रसूरिजी के संसारी भांजे हंस और परमहंस नामक दो शिष्य भी थे. दोनों ही व्याकरण, साहित्य एवं दर्शन के विद्वान बन गए थे. उस समय बौद्ध दर्शन की प्रबलता थी. राज्याश्रय के कारण बौद्ध दर्शन का प्रसार एवं प्रभाव जैन समुदाय में बड़ी शीघ्रता से हो रहा था. बौद्ध दर्शन के अभ्यास के बिना बौद्धों का खंडन करना सम्भव नहीं था. अतः हंस और परमहंस ने आचार्य हरिभद्रसूरि से आज्ञा मागी कि वे दोनों बौद्ध विद्यापीठ में जाकर अध्ययन कर सकें. निमित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य हरिभद्रसूरि ने भवितव्य को जानकर अनुमति नहीं दी, लेकिन वे दोनों नहीं माने और भवितव्यतावश बौद्ध भिक्षु का वेश धारणकर बौद्धदर्शन का अभ्यास करने निकल पड़े. विद्वान होने के कारण उन्होंने बौद्ध धर्म के मर्म पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और थोड़े समय में ही रहस्य ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लिया. वे समयानुकूल जैनदर्शन शैली से बौद्ध दर्शन का खण्डन लिख भी लेते थे. एक दिन उनमें से एक पत्र किसी बौद्ध भिक्षु के हाथ लग गया R 587 For Private And Personal Use Only