________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir -गुरुवाणी - गृहस्थ सामान्य धर्म तथा-कालोचितापेक्षेति // 54 // काल के अनुसार योग्य वस्तु को अंगीकार करना चाहिये. तथा-प्रत्यहं धर्मश्रवणमिति // 55 // प्रतिदिन धर्मश्रवण करना चाहिये. तथा-सर्वत्राभिनिवेश इति // 56 // सब कार्यो में कदाग्रह का परित्याग करना चाहिये. तथा-गुणपक्षपातितेति // 7 // गुणों के प्रति अनुराग रखना चाहिये. तथा-ऊहापोहादियोग इतीति // 58 // तर्क, वितर्क आदि बुद्धि गुणों का विकास करना चाहिये. एवं स्वधर्मसंयुक्तो, सद्गार्हस्थ्यं करोति यः / लोकद्वयेऽप्यसौ धीमान्, सुखमाप्नोत्यनिन्दितम् // 4 // जो पुरुष इस प्रकार स्वधर्मयुक्त श्रेष्ठ गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह बुद्धिमान पुरुष इस लोक में तथा परलोक में अनिन्दित सुख को पाता है. दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं, विधेय हितमात्यनः। करोत्यकाण्ड एवेह, मृत्युः सर्व न किञ्चन // 5 // सत्येतस्मिन्नसारासु, संपत्स्वविहिताग्रहः। पर्यन्तदारुणासूच्चैधर्मः कार्यो महात्मभिः // 6 // दुर्लभ मनुष्य जन्मको पा कर आत्म का हित साधन करना चाहिये क्योंकि मृत्यु अकस्मात ही आकर इस संसार में 'कुछ न था' ऐसा कर देगी। इस स्थिति को विचार कर परिणामतः कष्ट देनेवाली असार संपत्ति में मोह रखे बिना आत्मार्थी पुरुषों को उच्च प्रकार से धर्म का आचरण व सेवन करना चाहिये। 598 For Private And Personal Use Only