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गुरुवाणी:
ही कोई रसोई बनाता हो. बहुत होशियार रसोई बनाने वाला अपना घर समझकर, परिवार समझकर उसने भक्ति की.
घरवाली की चिट्ठी आई, बम्बई गए हो, दो महीने हो गए, एक पैसा नही भेजा, कहां- दीवाली मनाएं ?, क्या करें ?
वह चिट्ठी लेकर दुकान पर गया, वहां कमल जी के पास पहुंचा, "यथा नामः तथा गुण:" जैसा नाम था वैसे ही गुण, वैसा ही आकृति वेकमल जी, ये वे समझ गए. किसी कारण से आया है.
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"साहब मेरे घर से चिट्ठी आई है
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कहा
"
“ -- मै क्या करूं? तुम्हारे घर का हमसे क्या मतलब?"
" अरे साहब! कुछ पैसे के लिए आया हूँ?"
"यहां कोई पैसे की बात तो हुई नहीं, तुमने कहा था नौकरी के लिए नौकरी रख दी, खाना मिलता है, पहनने को मिलता है. रहने को मिलता है, बम्बई मे एक आदमी के खाने पर सात सौ आठ सौ का खर्च आता है. रहने का पांच सौ रुपया लगता है, कपड़ा अलग
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देता हूं, पन्द्रह सौ रुपया नहीना तो तेरा ऐसे ही हो जाता है, तुमको पैसा चाहिए तो दूसरे घर बहुत हैं वहां चले जाओ वह समझ गया नोटिस मिल गई एक टका मिलने का नहीं. " अरे साहब ! घर मे खाएंगे क्या ?"
"वह चिन्ता मैं करूं कि तुम करोगे. घर तुम्हारा या मेरा ?" एकदम साफ जबाव.
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गुरु महाराज के पास आया कोई साधु महाराज होंगे चातुर्मास में कहा कि महाराज जी. वह रोज आते हैं, आप जरा तो सद्बुद्धि दें, यह गरीब का पैसा पसीना उतार के मैंने पैसा मांगा, मुझे यह गलत जवाब मिला, आप उनको समझाने का प्रयास करिए."
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महाराज ने कहा- "कोई योग्य व्यक्ति हो, योग्य पात्र हो, तब तो मैं उसको समझाऊं. वह तो ऐसा विचित्र है कि मैंने उपदेश दिया तो मेरा ही उत्थापन कर देंगे. मुझे ही उपदेश
देंगे मेहरबानी करके अब जाने दो, और कोई संघ में कोई ऐसे व्यक्ति हों, योग्य हों,
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उनको समझाओ तो रास्ता निकलेगा."
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वह भी बड़ा होशियार कि "महाराज! वसूल करना तो मुझे भी आता है, तो भई, जैसी इच्छा तुम्हारी पर्युषण का दिन आया और पहला ही दिन था, वहां पर प्रतिक्रमण के लिए वह भी आया, प्रतिक्रमण में आकर बैठ गया, तीनों कमल, बागमल, नवल मल तीनों आकर के बैठे ही हुए थे, पहला ही दिन था पूरा संघ बैठा था, उस समय देखा कि इनका अभी फोटो उतारा जाए तो काम हो जाएगा.
महाराज के किए बेचारे नए थे, उनको कोई परिचय नही था. गांव में नए आए थे, वो रसोईया बोला भहाराज स्तुति बोलने का आदेश देना, बोलना प्रतिक्रमण में स्तुति बोली
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