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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी आ जाए, कि प्राणों की आहुति देकर, इच्छा और तृष्णा का बलिदान देकर किसी भी प्रकार से मुझे अपने गुणों का रक्षण करना है तो फिर कोई समस्या नहीं है. ऐसी भावना अपने अंदर आनी चाहिए. कैसा भी प्रसंग आ जाए, हर हालत में मुझे आत्मा के उस धर्म का रक्षण करना है. आज तक इसमें हम सफल नहीं बन पाए. सारा जीवन हमारा व्यतीत हो रहा है. भगवान की भाषा में यदि कहा जाए, सारी दुनिया में सबसे मूल्यवान जीवन मानव का है. यही आत्मा में प्रवेश करने का मुख्यद्वार है. स्वयं को पाने का यह परम साधन है. परोपकार करने में मानव जीवन एक मन्दिर जैसा है. हमारी दृष्टि अभी तक उस प्रकार की नहीं हुई. इस तथ्य को, रहस्य को, जानने का प्रयास आज तक किया नहीं. बहुत वर्षों बाद किसी घर पर किसी साधु का आगमन हुआ. जब घर गए, बड़ी दीन-दुखी आत्मा थी. बहत दिनों से मुसीबत में थी. अचानक साधु के आगमन को देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि आज मेरे द्वार पर एक सन्त का आगमन हुआ. बेचारे के पास जो रूखी-सूखी रोटी थी सन्त के पात्र में अर्पण की और कहा - "भगवन् मुझे आशीर्वाद दें, बहुत दुखी हूँ." "किस बात का दुःख है?" “जब से जन्मा हूं तब से आज तक, दुख ही दुख देखा है, सुख का छींटा भी मेरे नसीब में नहीं. बड़ी मुश्किल से एक टाइम अपना पेट भर पाता हूं. आज वर्षों की इच्छा के बाद, आप के आने से वह मेरी इच्छा पूर्ण हुई. भावना आज तृप्त बनी. भगवन् और कोई कामना नहीं. एक ऐसा आशीर्वाद दें कि मन के संतोष से बचूं. बहुत दुखी हूं. कठोर परिश्रम करता हूं. परिश्रम का परिणाम यह कि एक वक्त पेट भर पाता हूं, दो वक्त भूखा रहता हूं." महात्मा की दृष्टि गई, उसकी घरवाली चटनी बना रही थी, पत्थर पर चटनी घोंट रही थी, नमक, मिर्च डाल करके. महात्मा बड़े ज्ञानी, समझदार थे, उन्होंने उस पत्थर को देखा जिस पर चटनी पीसी जा रही थी. महात्मा ने कहा - “यह तुम्हारे यहां कब से है?" ___ “महाराज मैं जन्मा हूं. तब से इसे देख रहा हूं. मेरी मां भी इस पर चटनी पीसा करती थी, हम भी आज तक इसी पर हर रोज चटनी पीसते हैं, क्योंकि साग-दाल तो नसीब में नहीं, रूखी रोटी और चटनी खा लेते हैं." __महात्मा ने कहा - “तुम समझ नहीं पाए, यह पत्थर नहीं है, यह तो चिन्तामणि रत्न है. तुम्हारी सारी मनोकामना यह पूर्ण करने वाला देव अधिष्ठित यह रत्न है. तुम इसके आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना करो. तुम्हारी सारी मनोकामना पूर्ण कर देगा, यह चिन्तामणि रत्न है. तुम्हारे पूर्वजों को किसी पुण्य से यह चीज मिली है, तुम इसे आज तक पहचान नहीं पाए, समझ नहीं पाए." 409 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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