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-गुरुवाणी
के विचारों से उसको रंग देना, परमात्मा या आत्मा का अनुरागी बनाना, यह साधु पुरूषों का कार्य-क्षेत्र है. ____ मैंने पहले दिन साधु का परिचय दिया था. स्वरूप बताया था कि किस प्रकार का हो, उसकी परिभाषा किस प्रकार की हो ?
साध्नोति स्वपरहितार्थं चेति साधुः।। स्व का कल्याण करे और जगत के कल्याण की कामना करे, वह साधु है. अनेक आत्माओं के हित का चिन्तन करने वाला, उन्हें मार्ग-दर्शन देने वाला, स्वयं सावधान रहने वाला, हमारे यहाँ साधु माना गया है. अलग-अलग बहुत सारे इसके पर्यायवाची शब्द हैं. मौन पूर्वक आत्मा का चिन्तन करने वाला साधु मुनि कहा जाता है. साधना के श्रम के अन्दर रहनेवाला श्रमण भी कहा जाता है. भावों में सज्जनता और कोमलता होने से वह साधु कहलाता है. संसार से जो पूर्ण विरक्त बन गया, वह विरागी भी कहा जाता है. जिस अर्थ में आप लेना चाहें उसी अर्थ में व्याख्या की जा सकती है.
साधु को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए क्योंकि अगर साधु अपनी मर्यादा का उल्लंघन करता है तो वह दुगुना दोषी बनता है. गृहस्थ यदि मोक्ष की यात्रा में जा रहा है तो वह बैलगाड़ी में यात्रा कर रहा है. धीमे-धीमे अपनी गति से जा रहा है. साधु की यात्रा यहाँ पर कही गई है सुपर फास्ट, यदि सुपर फास्ट ट्रेन की दुर्घटना हो जाये, एक्सीडेन्ट हो जाये तो ड्राइवर के जीने की संभावना नहीं रहती. बैलगाडी की दुर्घटना में कभी कोई मरा हो, ऐसा प्रायः सुनने में नहीं आया. .
साधु इतनी तीव्र गति से अपनी साधना में, अपनी उड़ान में जा रहा है कि यदि जरा भी प्रमाद हो गया तो पतन का द्वारा खुला है. निश्चित रूप में उसकी मृत्यु होने वाली है. परन्तु गृहस्थ के लिए ऐसी संभावना कम है, क्योंकि उसकी यात्रा में वैसी गति नहीं है. वह धीमे-धीमे गति कर रहा होता है. कदाचित दुर्घटना हो भी जाये तो केवल विलम्ब हो जायेगा, परन्तु लक्ष्य के प्रति उसकी गति बनी रहेगी. यह बात दूसरी है कि लक्ष्य तक पहुंचना इस वर्तमान में संभव नहीं है.
साधु की गति में अन्तर है, अतः साधु अपनी मर्यादा में रहेगा. परन्तु यदि उसे गृहस्थों का साथ मिल जाये और वह अपनी मनोवृत्ति का पोषण करे तो उस के लिए पतन का द्वार खुला है. आज यही हो रहा है. जहां जिस चीज से साधु को अलिप्त रहना था, यदि उसमें लिप्तता आ जाये. यदि उसके अन्दर संसार की आसक्ति आ जाये. मूर्छा जाग्रत हो जाये, पर-वस्तुओं के संग्रह में यदि रुचि पैदा हो जाये, यदि वह अपने को अनुरागी बनाने में लगा रहे तो उसमें साधुता रहेगी कहां? मैं यदि आपको अपना अनुरागी बनाऊं, दकान परमात्मा की, धन्धा मैं अपना करूं तो यह धोखाधडी होगी. साध पुरुषों का उपदेश जगत में एकरूपता लाने के लिये था. पर आज हमारे अन्दर अनेकता आ गई. कितने संप्रदाय बन गये? कितने मतपंथ तैयार हो गये? हममें अगर प्रामाणिकता होती. मात्र
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