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गुरुवाणी
परमात्मा वीतराग का यदि उपदेश दिया जाता तो आज यह खंडित स्थिति नहीं रहती. हमारा स्वरूप पूर्ण अखण्ड रूप में मिलता. परन्तु जरा सा ज्ञान प्राप्त हुआ, ज्ञान का अजीर्ण हुआ, तभी अपनी दुकान अलग चला ली..
जब जरा सी उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जैसे ही दो भक्त मिले, अपना पंथ अलग कर लिया. मेरे भी अनुयायी हैं जगत में, ऐसा सोच लिया तो हरेक व्यक्ति को अनुयायी मिल जाते हैं, मार्किट इतना बड़ा है कि ग्राहकों की कमी नहीं है, केवल जरा सा अनुराग पैदा करना पड़ता है पर ऐसा करना हमारे जीवन का सबसे बड़ा पाप होगा. अपराध होगा. साधुओं का कार्य है कि वे परमात्मा का अनुरागी बनायें. जिनेश्वर भगवन्त के राग से ही वीतराग की प्राप्ति होगी. परमात्मा का राग ही मोक्ष का कारण बनेगा. वह संसार से विरक्त कर देगा. सद्गुणों का राग होना चाहिये. परन्तु यहां इतनी संकीर्णता हमारे जीवन में आ गई है, ऐसी संकुचित वासना से हम घिर गये हैं कि अपना ही संप्रदाय चाहिये, गुणों की उपेक्षा होती है और व्यक्ति की अपेक्षा रहती है. यही व्यक्ति मुझे चाहिये, यह अपेक्षा रहती है.
उस व्यक्तिवाद को यदि मैं गुणों की उपेक्षा करके पुष्ट करूं और यह भी मानूं कि मैं तुम्हारा कल्याण करूंगा तो यह कैसे सम्भव है. क्योंकि व्यक्ति जो स्वयं अपूर्ण है, स्वयं छद्मस्थ है, तो ऐसे छद्मस्थ व्यक्ति, अपूर्ण व्यक्ति, आपको कैसे पूर्णता प्रदान कर सकते हैं? आप जरा इसे समझिये क्योंकि यह समझने का विषय है. __ हर व्यक्ति यहां पर अपना अनुरागी पैदा करता है. उसका परिणाम यह कि मुझे मानो, बस मुझे ही नमस्कार करो, मैं ही तुम्हारा कल्याण करूंगा. इस प्रकार हमने तो शब्दों के अर्थ में से भी अनर्थ पैदा कर दिया है. गीता के अन्दर श्री कृष्ण ने कई ऐसे शब्दों का प्रयोग किया, जो सापेक्ष हैं. परन्तु हम उसको समझ नहीं पाये और इसलिए उसका एकदम संकीर्ण साम्प्रदायिक अर्थ कर लिया है. यदि अध्यात्मिक दृष्टि से, महावीर के अनेकान्त पर विचार किया जाये तो पूर्ण रूप से महावीर के अनुकूल श्री कृष्ण के वाक्य आपको मिलेंगे कोई अन्तर नहीं मिलेगा. श्री कृष्ण ने गीता के अन्दर उपदेश देते हुए कहा -
“सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" हे अर्जुन! ये सारे दुनिया भर के जो धर्म हैं उन का तू परित्याग कर दे, और अपने आत्मधर्म में स्वयं को स्थिर कर. यह बडा सुन्दर उपदेश है.
"सर्वधर्मान् परित्यज्य” ये जो बाह्य धर्म हैं, आत्मा से भिन्न जो पौग्लिक धर्म हैं. जो आत्मा के लिए विकार उत्पन्न करने वाले हैं. आत्मा को दुर्गति में ले जाने वाले हैं, उन सभी धर्मों का तू परित्याग कर दे और विशुद्ध आत्मधर्म के अन्दर तू स्थिरता पैदा कर. यह इसका अर्थ है आध्यात्मिक दृष्टि से. परन्तु हमने इसको अलग अर्थ में ले लिया, दुनिया के तो सभी धर्मों का परित्याग कर दे, और मात्र मेरी शरण ग्रहण कर.
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