________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: धर्मफल देशना विधि किश्च-प्रभूतोदाराण्यपि तस्य भोगसाधनानि; अयत्नोपनतत्वात् प्रासङ्गिकत्वादभिषङ्गाभावात् कुत्सिताप्रवृत्तेः शुभानुबन्धित्वाददारासुखसाधनान्येव बन्धहेतुत्वाभावेनेति // 26 // (472) और अतिशय उदार ऐसे भोग के साधन भी बन्ध के कारण का अभाव होने से उदारता सुख का साधन होता है क्योंकि वे शुभ कर्म के अनुबन्ध से उत्पन्न होते हैं। उससे कुत्सित कर्म में प्रवृत्ति नहीं होती और उससे उसमें आसक्ति का अभाव होता है। उससे वह प्रसंगोपात्त मिलता है और उसके लिये प्रयत्न नहीं करना पडता. अशुभपरिणाम एव हि प्रधानं बन्धकारणम्, तदङ्गतया तु बाह्यमिति // 30 // (473) अशुभ परिणाम ही बंध का मुख्य कारण है उससे ही बाह्य अंतः पुर आदि कारण बंध के हेतु होते हैं. तदभावे बाह्यादल्पबन्धभावादिति // 31 // (474) अशुभ परिणाम का अभाव होने पर तो बाह्य अशुभ कार्य से अल्प बंध होता है. वचनप्रामाण्यादिति // 32 // (475) आगम के वचन प्रमाण से कहते है कि अशुभ परिणाम ही बन्ध का कारण है. बाह्योपमर्देऽप्सशिषु तथाश्रुतेरिति // 33 // (476) बाह्य हिंसा होने पर भी असंज्ञी जीवों के लिये शास्र में वैसा ही कहा है. 664 For Private And Personal Use Only