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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3 Dगुरुवाणी%3D "आप यह विचार क्यों नहीं करते - जब यहां आया था तब नौकरी करता था, फूटपाथ पर सोता था. होटल में खाता था. सेठ की गालियां सुनता था. धीरे-धीरे आप आगे बढ़ते गए और आपने भौतिक विकास कर लिया तथा अब पचास लाख का फ्लैट आपके पास है, तीस लाख की दुकान व पांच लाख की गाड़ी भी आपके पास हैं तथा इतने नौकर-चाकर हैं. ज्वैलरी तथा लिक्विड-मनी आपके पास है तथा बैंक बैलेंस भी. इतना सब कुछ आपके पास है, और दस लाख चला गया तो उसके लिए आप रो रहे हैं? अरे! जो है उसका आनन्द लूटो - नहीं तो आप मर जाओगे." व्यक्ति का स्वभाव है कि जो चला गया, उसकी चिन्ता में वह अपना पूरा जीवन समाप्त कर लेता है. एक महीने से वे चिन्ता कर रहे थे कि दस लाख चला गया और नुकसान हो गया परन्तु उन्होंने यह नहीं विचार किया कि जो मेरे पास एक करोड़ है उसी से आनन्दित रहूँ, हम अपनी अज्ञानदशा में इसी रोग से आक्रान्त हैं और यही दशा हमारी अशान्ति का कारण है. जरा-सी ज्ञान दृष्टि से यदि विवेकपूर्वक देखा जाए तो आनन्द का खजाना अन्दर है. कैसा भी बाहर वातावरण का निर्माण हो जाए अथवा कर्म को लेकर कैसी भी विषम समस्या पैदा हो जाए. अगर यह आत्मदृष्टि उन्मेषित हो जाए कि हर परिस्थिति में आप चित्त की शांति बनाए रखें तो कभी भी कोई समस्या आप विचलित को नहीं करेगी. आज का पूरा मानव समाज इस चिन्ता से पीड़ित है जो पूर्णतः निरर्थक है. जिसके जो पास नहीं है, वह उसको प्राप्त करने की आशा करता है. यही दुःख का मुख्य कारण है. हम यही चिन्ता करते हैं कि कुछ मिल जाए. हमारा सारा प्रयास कुछ प्राप्त करने के लिए होता है. जगत की अनित्यता का कभी आप विचार कीजिए तथा मन को समझाने का प्रयास करें तो उसका पागलपन मिट जाएगा. यह मानसिक रोग की चिकित्सा है. इसका उपाय परमात्मा ने बताया है कि अनित्य भावना का चिन्तन करना चाहिए. जैसे "अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः। नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।" परमात्मा ने मानसिक रोग की पीड़ा का अत्यन्त सुन्दर उपचार बताते हुए कहा है कि मन को समझाएँ कि प्रत्येक दृश्य वस्तु नश्वर है तथा जो हम करते हैं वह सब यहीं रह जाता है. तीन पीढ़ी के बाद नाम याद रखने वाला भी घर में कोई नहीं होगा. हमारी स्थिति इस तरह है. किस बात पर मैं अभिमान करूं और किस वस्तु का मैं आनन्द लूं? मन से जो आनन्द मिलता है, वह आनन्द स्थायी नहीं होता क्योंकि वह उधार का है. अपनी आत्मा के ही गुणों का आनन्द लें. जो पास है, उसी आनन्द से मन को सन्तोष दीजिए. 24 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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