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-गुरुवाणी
मन एक है और इसके कार्य दो हैं: यह संसार को कस्टडी भी देता है और मोक्ष भी. यह मन संसार से मुक्त कर देता है. गुरुओं द्वारा बताई गयी मैत्री और प्रेम रूपी चाबी को सही तरफ (राइट टर्न) घुमाना पड़ता है, और हमारे अन्तःद्वार को खोल देती है. आत्मा अनन्त वैभव की मालिक बन जाती है. हमारी आदतों में बैर, कटुता, द्वेष और अहंकार जैसे भयंकर दूषित तत्त्व हैं, जो बाहर से आए हुए वैभव स्वरूप हैं. ये आत्मा के व्यावहारिक गुण हैं. स्वाभाविक नहीं.
हमने कभी ध्यान अवस्था में अपनी अन्तरात्मा के गुणों के वैभव को देखने का प्रयास ही नहीं किया. कभी हमनें अपनी मनःस्थिति पर आत्म-चिन्तन नहीं किया और अप्राप्ति के कारण असंतोष की आग में मन जलता रहा. भूतकाल सारा निष्फल गया. अनादि, अनन्त काल तक हम प्राप्ति से वंचित रहे, अप्राप्ति की वेदना से घिरे हुए रहे. अप्राप्ति का असंतोष बड़ा भयंकर होता है. उसकी वेदना आत्मा में बड़ी भयंकर होती है. बहुत से लोग कहते हैं कि प्रयास किया मगर उपलब्धि कुछ नहीं हुई. अतः सुख से वंचित रहे.
एक व्यक्ति बहुत दुःखी था. मेरे पास समय लेकर जब रात्रि में आया तो मैंने पूछा - "क्या बात है?"
"महाराज! बहुत बड़ी चिन्ता है." “किस बात की?" "मेरे लड़के ने बहुत बड़ा नुकसान कर दिया." "कितना बड़ा?" “दस लाख रुपये का नुकसान कर दिया, महाराज!"
वह बड़ा श्रद्धालु व्यक्ति था. मैंने कहा कि मेरे पास धर्म आराधना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. मैं साधु हूं, अपनी मर्यादा में रहकर मैं जो कर सकता हूं वह करने को मैं तैयार हूं. मैं आपको मार्ग-दर्शन दे सकता हूं, धर्म आराधना क्यों करना ? वह बता सकता हूँ.
"आप मुझे बताएं कि आप बम्बई आए तो आपके पास क्या था?"
"महाराज! कुछ नहीं, नौकरी करता था. मात्र डेढ सौ रुपए महीना और खाने-पीने को मिलता था."
"उसके बाद आपने क्या किया?" "किसी की भागीदारी में धन्धा किया." "उसके बाद आपने क्या किया?" "महाराज! उसके बाद? मैंने स्वतंत्र दुकान कर ली." "आज आपके पास क्या है?" "फ्लैट है, दुकान है, गाड़ी है, .....
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