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गुरुवाणी
इकट्ठे कर जहां के जर, सारी दुनिया के मालिक थे।
सिकन्दर जब गया दुनिया से दोनों हाथ खाली थे। सिकन्दर जब हिन्दुस्तान आया तो उसके भी गुरु ने कहा था कि किसी जैन साधु से परिचय करना. विजय-प्राप्ति के बाद वह उस नशे में घूम रहा था और किसी नौकर को कहा कि किसी जैन साधु का परिचय करना है.
कोई ध्यानस्थ साधु गुफा में बैठे थे. सामने जाकर खड़ा हो गया. उसने सोचा मेरा सम्मान करेंगे, अभिवादन करेंगे. परन्तु वह तो ध्यानस्थ ही रहे, कोई परवाह नहीं की.
उसने तलवार निकाली कि ऐसे बद्तमीज की गर्दन उड़ा दी जाए क्योंकि बड़ी गर्मी थी, उसकी युवावस्था में होने पर. इतनी बड़ी सत्ता और विजय का उन्माद ऐसा था कि तलवार निकाली. फिर विचार आया और साधु से पूछा कि तू कौन है ? मुझे जानता नहीं कि मैं कौन हूं?
जीवन और मृत्यु में उनको कोई भय रहता ही नहीं, राग होता ही नहीं. वे मान और अपमान को समदृष्टि से देखने वाले तथा उनके लिए सोने में, धूल में कोई अन्तर नहीं. वे धूल के ही एक शुद्ध प्रकार हैं, ऐसी जैन साधुता है. विश्व के अन्दर इसकी बराबरी करने वाले दूसरे आपको कोई नहीं मिलेंगे. थोड़ी-बहुत विकृति यदि आई तो आप सब के बहुत अधिक परिचय का परिणाम है. बाकी, साधुओं की शुद्धता तो सुगन्धमयी होती है. उनकी अन्तःचेतना तो पूर्ण जागृत होती है. लोकैषणा साधु के लिए विष तुल्य है. साधु उससे बहुत दूर रहते हैं. सहज में शासन की सेवा हो गयी तो ठीक, नहीं तो मेरे पुण्य में कुछ कमी रही. वे तो अपनी साधना में ही मग्न रहते हैं.
सिकंदर उस साधु से कहता है, "तू जानता है मैं कौन हूं? मेरे हाथ में नंगी तलवार
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साधु ने उससे कहा, “मैं अच्छी तरह जानता हूं, और अच्छी तरह पहचानता हूं." “कौन तू है ?" "तू मेरे गुलाम का गुलाम है."
आप कटे हुए पर नमक डालें तो कैसी पीड़ा होती है? एक तो वह उत्तेजित था ही और उस पर ऐसे शब्द बोल दिए कि वह और ज्यादा उत्तेजित हो गया.
उसने कहा, "तू समझा मुझे, नहीं तो इस तलवार से तेरी गर्दन अलग करता हूं" साधु तो बड़ी शांति में थे. उसमें कोई अशांति नहीं थी, कोई भय नहीं था.
उन्होंने कहा “तू मुझे तलवार से क्या डराता है? मैं भी देखूगा कि तलवार से तू मुझे कैसे काटता है."
"तेरी गर्दन कट जाएगी तो तू क्या देखेगा?" साधु ने कहा "यही तो तेरी मूर्खता है. इतनी भी अक्ल खुदा ने तुझे नहीं दी. अरे,
रद
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